- रानी - विक्टोरिया
- ब्रिटिश प्रधानमंत्री - पार्मस्टन
- गवर्नर जनरल - लार्ड कैनिंग
- कमांडर-इन-चीफ - अॅन्सन (करनाल में कालरा से मृत्यु) बनार्ड को बनाते
- एजेन्ट टू गवर्नर जनरल - पैट्रिक लॉरेंस
- राजपूताने की सेना का सर्वोच्च कमांडेट - पैट्रिक लारेंस
क्रांति के कारण
- अंग्रेजों अधिकारियों के द्वारा राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप।
- अंग्रेजों राजा के विरूद्ध षड्यंत्र व गुटबंदी को प्रोत्साहन देना।
- राजपुताने की जनता ब्रिटिश सर्वोपरिता के प्रतीक कम्पनी के अधिकारियों से घृणा करने लगी जबकि डूंगजी व जवाहरजी जैसे शेखावटी के डाकू उनके नायक थे।
1857 ई. की क्रांति के समय रियासतें एवं शासक
रियासत
पॉलीटिकल एजेन्ट
शासक
उदयपुर
कैप्टन शॉवर्स
स्वरूपसिंह
कोटा
मेजर बर्टन
महाराव रामसिंह II
जयपुर
ईडन
महाराजा रामसिंह
जोधपुर
मैक मॉसन
तख्तसिंह
भरतपुर
मॉरीसन
जसंवतसिंह (नाबालिग)
सिरोही
जे. डी. हॉल
शिवसिंह
करौली
मदनपालसिंह
अलवर
बन्नेसिंह
टोंक
वजीरुद्दौला
बाँसवाड़ा
लक्ष्मणसिंह
झालावाड़
पृथ्वीसिंह
1857 के विद्रोह के समय राजस्थान में छः सैनिक छावनियाँ थीं
1.
नसीराबाद (अजमेर)
बंगाल नेटिव इंफेन्ट्री
2.
नीमच (M.P.)
3.
देबली (टोंक)
कोटा कन्टिन्जेन्ट
4.
ऐरिनपुरा (पाली)
जोधपुर लीजन
5.
खैरवाड़ा (उदयपुर)
मेवाड़ भील कोर (1841 में गठन)
6.
ब्यावर (अजमेर)
मेर रेजिमेंट
- 1857 की क्रांति के समय राजस्थान की छः सैनिक छावनियों में सभी सैनिक भारतीय थे कोई यूरोपीयन सैनिक नहीं था। अतः डीसा से यूरोपीयन रेजीमेंट को बुलाया गया। खैरवाडा व ब्यावर की छावनी के सैनिकों ने क्रांति में भाग नहीं लिया। सबसे बड़ी व सबसे शक्तिशाली छावनी नसीराबाद थी।
- 28 मई 1857 को राजस्थान में नसीराबाद में विद्रोह का प्रारंभ। इस समय राजपूताना की प्रशासनिक राजानी अजमेर थी तथा अंग्रेजों का खजाना व शस्त्रागार अजमेर में था। पेंट्रिक लारेंस को मेरठ विद्रोह की सूचना मिली तब वह माडंट आबू था। लारेंस ने विद्रोहियों पर आक्रमण करने की अपेक्षा अजमेर की रक्षा को अधिक महत्व दिया क्योंकि वहाँ शस्त्रागार व सरकारी खजाना था। लेफ्टिनेंट काइनेल की देखरेख में मेर रेजीमेंट ने अजमेर नगर की रक्षा की।
- गोरों की हरमेजस्टीज इन्फेन्ट्री और 12 वी बम्बई इन्फेट्री के अजमेर पहुँचने में वहां की स्थिति सुदृढ़ हो गई।
नसीराबाद
- कमिश्नर डीक्सन ने ब्यावर से मेर रेजीमेन्ट को अजमेर बुलाया, वहीं 15 वी बंगाल इंफेंट्री के सैनिकों को अजमेर से हटाकर नसीराबाद भेज दिया जिससे सैनिकों में यह भावना उत्पन्न हो गई की मेरठ विद्रोह के बाद उन पर संदेह किया जा रहा है। अतः 15 वी बंगाल नेटिव इंफेन्ट्री द्वारा 28 मई 1857 को विद्रोह किया। इसने अजमेर पर नियंत्रण न कर दिल्ली को प्रस्थान किया 18 जून दिल्ली पहुँची। दिल्ली स्वतन्त्रता संग्राम का केंद्र था। अतः उनकी आवश्यकता दिल्ली में अधिक थी।
- क्रांतिकारियों ने अंग्रेज अधिकारी-स्पोटिस वुड़ व न्यूबरी की हत्या कर दी।
- जोधपुर महाराज तख्तसिंह ने मॉक मेसन के आदेशानुसार सेनानायक कुशलराज सिंघवी की कमान में जोधपुर की अश्वारोही सेना अजमेर के की रक्षार्थ भेजी। वहीं वाल्टर व हीथकोट ने मेवाड़ के सैनिकों की सहायता से इनका पीछा किया किंतु सफलता नहीं मिली।
नीमच - 3 जून 1857
- नेतृत्व - हीरासिंह नामक सैनिक
- ब्रिटिश अधिकारी कर्नल एबॉट द्वारा स्वामी भक्ति की शपथ लेने को कहा जिसे मुहम्मद अली बेग नामक सैनिक द्वारा चुनौती दी गई।
- नीमच छावनी के तत्कालीन सुपरिन्टेंडेंट कैप्टन लॉयड ने मेवाड के पॉलिटिकल एजेंट शाबर्स से सहायता मांगी।
- नीमच विद्रोह के बाद वहाँ से भागे अंग्रेजों ने डूँगला नामक गाँव में रूगाराम नामक किसान ने उन्हे शरण दी। शावर्स अपनी सेना के साथ वहाँ पहुंच गया तथा महाराणा स्वरूपसिंह ने अंग्रेज स्त्रियों व बालकों को जगमंदिर में आश्रय दिया।
- 6 जून 1857 को कोटा, बूंदी व मेवाड़ की सेनाओं की मदद से कैप्टन शावर्स पुनः नीमच पर अंग्रेजों का अधिकार कर लिया।
- नीमच की विद्रोही सेना शाहपुरा, देवली होते हुए आगरा की ओर अग्रसर हुई।
देवली –
यहाँ कोटा कन्टिन्जेंट ने जून 1857 में विद्रोह किया
- नेतृत्व :- मीर आलम खाँ
- नीमच के सैनिकों द्वारा देवली को आग के हवाले कर दिया तथा ब्रिटिश अधिकारियों ने जहाजपुरा (भीलवाड़ा) में शरण ली। टोंक नवाब वजीरूद्दौला अग्रेज भक्त था। टोंक सैनिकों ने नीमच के क्रांतिकारियों को आगरा जाते समय टोंक आमंत्रित किया तथा भव्य स्वागत किया। टोंक नवाब का मामा मीर आलम खाँ अंग्रेज विरोधी था तथा उसने खुलकर अंग्रेजों का विरोध किया। टोंक की सेना व जनता ने तात्या टोपे की भी सहायता की। टोंक विद्रोह में महिलाओं ने भी भाग लिया था।
एरिनपुरा
- जोधपुर लीजन द्वारा 21 अगस्त 1857 को मोती खाँ, तिलकराम तथा शीतल प्रसाद के नेतृत्व में विद्रोह किया तथा 'चलो दिल्ली मारो फिरंगी' नारे के साथ दिल्ली प्रस्थान किया। आउवा के ठाकुर कुशालसिंह चम्पावत विद्रोहियों का नेतृत्व स्वीकार करते है।
- आसोप (शिवनाथ सिंह) आलणियावास (अजित सिंह), लाम्बिया, बन्तावास, रूदावास और गुलर के जागीदरदार भी अपनी-अपनी सेना के साथ क्रांतिकारियों में आ मिलते है।
कुशालसिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारियों का अंग्रेजों से दो युद्ध होते हैं-
- बिठोडा का युद्ध- 8 सितम्बर 1857 के युद्ध में तख्तसिंह ने किलेंदार अनोड़ासिंह पंवार मारा जाता है।
- चेलावासा का युद्ध - (18 सितम्बर 1857) इसे काले-गोरे का युद्ध कहते हैं। मैक मॉसन की हत्या कर उसका सर किले पर लटका देते हैं।
- लार्ड कैनिंग ने ब्रिग्रेडियर होम्स के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेजी जिसने 24 जनवरी 1858 को आउवा पर अधिकार कर लिया। आउवा में कत्लेआम किया गया तथा सुगाली माता की भव्य मूर्ति अजमेर लाया गया। सुगाली माता के 10 सिर व 54 हाथ है वर्तमान में पाली संग्रहालय में है।
- कुशालसिंह को कोठारिया के रावत जोधसिंह ने शरण दी तथा सलुम्बर के रावत केसरीसिंह ने भी सहायता की।
- कुशालसिंह के विद्रोह की जाँच के लिए टेलर आयोग गठित किया जाता है जो इन्हें दोषमुक्त कर देता है।
कोटा में व्रिदेह (15 अक्टूबर 1857) -
- नेतृत्व :- जयदयाल (मथुरा) पूर्ववकील कोटा महाराव का मेहराब खाँ (करौली) सेना में रिसालदार।
- आगरा के निकट नियुक्त कोटा कन्टिन्जेन्ट की एक टुकड़ी विद्रोह कर देती है। इसकी सूचना कोटा पहुंचने पर कोटा राज्य की सेना तथा कोटा कन्टिन्जेन्ट के सैनिकों में हलचल उत्पन्न हो गई।
- यहाँ राजकीय सेना व आम जनता ने विद्रोह किया। शासक को नजरबन्द कर शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली तथा ब्रिटिश डॉक्टर- सेल्डर व काण्टम की एवं पॉलिटिकल एजेंट बर्टन व उसके दोनों पुत्र (फ्रेंक व आर्थर) की हत्या कर दी। बर्टन का सिर शहर में घुमाया गया और फिर तोप से उड़ा दिया। भारतीय ईसाई शैविल की भी हत्या कर दी।
- लगभग छः महिनों तक कोटा पर विप्लवकारियों का नियंत्रण बना रहा। करौली, शासक मदनपाल ने कोटा की सहायतार्थ सेना भेजी तथा कोटा का एक हिस्सा विप्लवकारियों से मुक्त कर दिया।
- मेजर जनरल P. राबर्ट्स 30 मार्च 1858 को कोटा को विप्लनकारियें से मुक्त करवा दिया।
- बूंदी के राजकवि सूर्यमल्ल मिश्रण ने कोटा में अंग्रेजी सेना द्वारा प्रतिशोध पूर्वक की गई कारवाई का हृदय विदारक विवरण प्रस्तुत किया।
- बर्टन की रक्षा में तथाकथित लापरवाही बरतने के अपराध में महाराव की तोपों की सलामी की संख्या 17 से 13 कर दी। सहायता के बदले करौली के मदनपाल को अंग्रेजों ने 17 तोपों की सलामी और C.I. की उपाधि में विभूषित किया।
धौलपुर - शासक भगवन्तसिंह
- धौलपुर एकमात्र रियासत जहाँ विद्रोह की कमान राज्य के बाहर के क्रांतिकारियों (इन्दौर व ग्वालियर) के हाथों में थी। विद्रोहियों ने 2 महिनों तक राज्य पर अधिकार बनाए रखा। पटियाला की सेना ने राज्य को विद्रोहियों से मुक्त कराया।
- नेतृत्व :- राव रामचन्द्र व हीरालाल
भरतपुर
- शासक :- नाबालिग जसवंतसिंह था अतः राज्य का शासन A. मेजर मॉरिसन के हाथों में था।
- भरतपुर की सेना तांत्या टोपे का मुकाबला करने के लिए अंग्रेज सेना की सहायतार्थ दौसा भेजी गयी। उधर भरतपुर के मेव और गुर्जर व्रिदोहियों से मिल गये। ऐसी स्थिति में मॉरिसन भरतपुर छोड़ भाग गया। गदर शांत होने के बाद मॉरिसन ने राज्य में पुनः अपना वर्चस्व स्थापित किया।
- अलवर के महाराज बन्नेसिंह ने आगरा के किले में घिरे हुए अग्रेजों की स्त्रियों व बच्चों की सहायता के लिए अपनी सेना और तोपखाना भेजा।
तांत्या टोपे :-
- पूना के पेशवा नाना साहब का सहयोगी कानपूर में विद्रोह का नेतृत्व किया। तांत्या टोपे दो बार राजस्थान आये।
- 8 अगस्त 1858 - माण्डलगढ़ (भीलवाडा) आगमन, कुआडा युद्ध कोठारी नदी के किनारे तात्याटोपे राबर्टसन के सेना में युद्ध हुआ जिसमें तांत्या पराजित हुए।
- नाथद्वारा में श्रीनाथ जी के दर्शन किये।
- तांत्या टोपे ने उस जमाने में भीलवाड़ा में एक-एक रोटी का एक एक रूपया दिया। उसके सैनिकों के सिर पर पगडियों के अभाव में महिलाओं की साड़ियाँ बंधी हुई थी।
दूसरी बार दिसम्बर 1858 में आगमन (मेवाड़, बाँसवाडा, प्रतापगढ़, टोंक)
- हम्मीरगढ़ युद्ध में (टोंक) तात्या टोपे टोंक नवाब वजीरूद्दौला को पराजित करते हैं तथा नवाब को हम्मीरगढ़ में नजरबन्द कर देते हैं। टोंक के जागीरदार नासीर मुहम्मद खां ने तांत्या टोपे का साथ दिया।
- तांत्या टोपे ने झालावाड़ के शासक पृथ्वीसिंह के महल को घेर लिया उनसे 5 लाख रू. लिये तथा झालावाड़ पर अधिकार कर लिया। पृथ्वीराज महल से भागकर मऊ में शरण ली। तांत्या टोपे ने बाँसवाड़ा पर भी अधिकार किया था।
- सलूम्बर के रावत केसरीसिंह से तात्या टोपे को आवश्यक रसद सामग्री उपलब्ध हुई।
- तात्या टोपे का अंतिम युद्ध-अंग्रेजों से 31 जनवरी 1859 को दौसा में हुआ।
- तात्या के छः सौ सैनिकों ने बीकानेर महाराज सरदार सिंह के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। सरदार सिंह ने ब्रिटिश सरकार से अनुरोध कर इन सैनिकों को क्षमा दिलवा दी।
- तात्या टोपे के सहयोगी नरवर के जागीरदार ;डण्च्ण्द्ध मानसिंह नरूका ने विश्वासघात कर तांत्या कोटा के नीकट जंगल में सोते हुए पकड कर अंग्रेजों को सांप दिया। 18 अप्रैल 1859 सिप्री (ग्वालियर) में राजद्रोह के अपराध में फांसी दी गई।
- ब्रिटिश पदाधिकारी केप्टिन शावर्स ने अपनी पुस्तक में तांत्या को फांसी देने के लिए सरकार की कटू आलोचना की है। उसका कहना है कि तात्या ब्रिटिश राज्य का नागरिक व निवासी नहीं था। उस पर देशद्रोह का अपराध
- लगाना कहाँ तक न्यायोचित कहा जा सकता है ? तथा ब्रिटिश सरकार द्वारा घोषणा के अनुसार उन सभी विप्लवकारियों को क्षमा प्रदान करने का वादा किया जिन्होंने अंग्रेजों की हत्या करने में भाग नहीं लिया था। तांत्या पर किसी भी अंग्रेज की हत्या करने का आरोप नहीं था, फिर भी उसे फांसी का दण्ड दिया गया।
- तांत्या टोपे जैसलमेर के अलावा राज्य की प्रत्येक रियासत में घूमा था। प्रतापगढ़ से तीन-चार हजार भील तात्या टोपे के साथ हो गये थे।
विविध तथ्य
- जयपुर एकमात्र रियासत, जहाँ की जनता ने भी अंग्रेजों का साथ दिया।
- अंग्रेजों का साथ देने के कारण जयपुर के रामसिंह प्प् को 'सितार हिंद' की उपाधि एवं कोटपुतली का परगना दिया।
- जयपुर में क्रांति के दौरान कोई हिसंक घटना नहीं हुई।
- क्रांति के दौरान विद्रोहियों ने राजपूतानों की छह रियासतों पर अधिकार कर लिया था- धौलपुर, भरतपुर, टोंक, कोटा, झालावाड़, बाँसवाडा।
- करौली के शासक मदनपाल के क्रांति के दमन हेतु अपनी सम्पूर्ण सेना अंग्रेजों को सौंप दी और नई सेना की भर्ती की।
- मुंशी जीवनलाल की डायरी से ज्ञात होता है कि टोंक के छः सौ मुजाहिद दिल्ली में मुगल बादशाह की सेवा में उपस्थित हुए।
- मोहम्मद मुजीब ने अपने नाटक आजमाइस में लिखा है कि 1857 के विप्लव में टोंक की स्त्रियों ने भी भाग लिया था।
- बूंदी के महाराव रामसिंह के अतिरिक्त राजस्थान के अन्य सभी नरेशों ने विप्लव को दबाने में अंग्रेजों को पूर्ण सहयोग प्रदान किया था।
- सलूम्बर के रावत केसरीसिंह के मध्यप्रदेश के विद्रोही नेताओं से सम्पर्क था तथा मध्य भारत के विद्रोही नेता राव साहब को अपने यहाँ शरण दी।
- कोठारिया के रावत जोधसिंह ने आउवा के ठाकुर कुशाल सिंह को अपने यहाँ शरण दी, जिसकी प्रशंसा समकालीन चारणों ने अपनी कविताओं में की है।
- नाथूराम खड्गावत के अनुसार बिठूर के नाना साहब ने कोठारिया में शरण ली।
- पेशवा पाँडुरंग ने पत्र द्वारा जोधसिंह को विद्रोहियों को सहायता देने का आग्रह किया था।
- जोधसिंह ने भीमजी चारण को भी कोठारिया में शरण दी थी। भीमजी गंगापुर में तैनात ब्रिटिश पदाधिकारियों की सम्पति लूटकर कोठारिया आया था।
- बीकानेर का शासक सरदार सिंह राजपूताने का एकमात्र ऐसा शासक था, जो क्रांति के दौरान-व्यक्तिगत रूप से अपनी सेना लेकर राजपुताना के बाहर पंजाब (बाडलू) तक विद्रोह के दमन के लिए गया। सहायता के बदले टिब्बी परगने के 41 गाँव उपहार में दिये।
- मेवाड़ शासक को केवल खिलअत से ही संतोष करना पड़ा। निम्बाहेड का परगना जो मेवाड़ का भाग था। गदर के दौरान अस्थायी तौर पर मेवाड़ को दिया गया किंतु गदर समाप्ति बाद पुनः टोंक के नवाब को दे दिया गया।
- टोंक के नवाब की तोपों की संख्या 15 से बढ़ाकर 17 कर दी।
- अमरचंद बांठिया (बीकानेर) 1857 की क्रांति का राजस्थान का प्रथम शहीद। झांसी को आर्थिक सहायता प्रदान की थी। 22 जून 1858 को ग्वालियर में फांसी दी।
- हेमू कालानी (सरदारशहर) 1857 की क्रांति का सबसे कम उम्र का शहीद था और टोंक में फांसी दी।
- झालावाड़ के पृथ्वीसिंह ने क्रांतिकारियों को पकड़ने में मदद देने वाले लोगों को ईनाम देने की घोषणा की। दिल्ली पर पुनः अधिकार हो जाने परG.G. को बधाई दी व खुशियाँ मनाई।
- 1857 की क्रांति के बाद राजपूताना के सिक्कों पर बादशाह के स्थान पर विक्टोरिया का चित्र अंकित किया गया।
- राजस्थान के शासकों की निष्क्रिय अवस्था का चित्रण करते हुए सूर्यमल्ल मिश्रण ने लिखा है कि "जिस वन में राजेन्द्र, गेंडे और शूकर राह भूलकर भी नहीं जाते थे उसी वन में आज गीदड बड़ी तत्परता के साथ उत्पात मचा रहे हैं।