आदमी को प्यास लगती है कविता के सेल्समैन की संख्या कितनी है - aadamee ko pyaas lagatee hai kavita ke selsamain kee sankhya kitanee hai

कालोनी के मध्यवर्ती पार्क में
जो एक हैण्डपम्प है
भरी दोपहर वहाँ
दो जने पानी पी रहे हैं
अपनी बारी में एक जना चाँपे चलाए जा रहा है हैण्डपम्प का हत्था
दूसरा झुक कर पानी पी रहा है ओक से
छक कर पानी पी, चेहरा धो रहा है वह बार-बार
मार्च-अखीर का दिन तपने लगा है, चेहरा सँवलने लगा है,
                  कण्ठ रहने लगा है हरदम ख़ुश्क
ऊपर, अपने फ़्लैट की खुली खिड़की से देखता हूँ मैं
ये दोनों वे ही सेल्समैन हैं
थोड़ी देर पहले बजाई थी जिन्होंने मेरे घर की घण्टी
और दरवाज़ा खोलते ही मैं झुँझलाया था
भरी दोपहर बाज़ार की गोहार पर के चैन को झिंझोड़े
                  यह बेजा खलल मुझे बर्दाश्त नहीं
'दुनिया-भर में नम्बर एक' - या ऐसा ही कुछ भी बोलने से उन्हें बरजते हुए
भेड़े थे मैंने किवाड़
और अपने भारी थैले उठाए
शर्मिन्दा, वे उतरते गए थे सीढ़ियाँ

ऊपर से देखता हूँ
हैण्डपम्प पर वे पानी पी रहे हैं
उनके भारी थैले थोड़ी दूर पर रखे हैं एहतियात से, उन्हीं के ऊपर
तनिक कुम्हलाई उनकी अनिवार्य मुस्कान और मटियाया हुआ दुर्निवार उत्साह
गीले न हो जाएँ जूते-मोजे इसलिए पैरों को वे भरसक छितराए हुए हैं
गीली न हो जाए कण्ठकस टाई इसलिए उसे नीचे से उठा कर
                 गले में लपेट-सा लिया है, अँगौछे की तरह
झुक कर ओक से पानी पीते हुए
कालोनी की इमारतें दिखाई नहीं देतीं
एक पल को क़स्बे के कुएँ की जगत का भरम होता है
देख पा रहा हूँ उन्हें
वे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के उत्पाद नहीं हैं
भारतीय मनुष्यों के उत्पाद हैं
वे भारतीय मनुष्य हैं -- अपने ही भाई-बन्द
भारतीय मनुष्य -- जिनका श्रम सस्ता है
विश्व-बाज़ार की भूरी आँख
जिनकी जेब पर ही नहीं
जिगर पर भी गड़ी है ।

अ+ अ-

कविता


कालोनी के मध्यवर्ती पार्क में
जो एक हैंडपंप है
भरी दोपहर वहाँ
दो जने पानी पी रहे हैं
अपनी बारी में एक जना चाँपे चलाए जा रहा है हैंडपंप का हत्था
दूसरा झुक कर पानी पी रहा है ओक से
छक कर पानी पी, चेहरा धो रहा है वह बार-बार
मार्च-अखीर का दिन तपने लगा है, चेहरा सँवलने लगा है,
                  कंठ रहने लगा है हरदम खुश्क
ऊपर, अपने फ्लैट की खुली खिड़की से देखता हूँ मैं
ये दोनों वे ही सेल्समैन हैं
थोड़ी देर पहले बजाई थी जिन्होंने मेरे घर की घंटी
और दरवाजा खोलते ही मैं झुँझलाया था
भरी दोपहर बाजार की गोहार पर के चैन को झिंझोड़े
                  यह बेजा खलल मुझे बर्दाश्त नहीं
'दुनिया-भर में नंबर एक' - या ऐसा ही कुछ भी बोलने से उन्हें बरजते हुए
भेड़े थे मैंने किवाड़
और अपने भारी थैले उठाए
शर्मिंदा, वे उतरते गए थे सीढ़ियाँ

ऊपर से देखता हूँ
हैंडपंप पर वे पानी पी रहे हैं
उनके भारी थैले थोड़ी दूर पर रखे हैं एहतियात से, उन्हीं के ऊपर
तनिक कुम्हलाई उनकी अनिवार्य मुस्कान और मटियाया हुआ दुर्निवार उत्साह
गीले न हो जाएँ जूते-मोजे इसलिए पैरों को वे भरसक छितराए हुए हैं
गीली न हो जाए कंठकस टाई इसलिए उसे नीचे से उठा कर
                 गले में लपेट-सा लिया है, अँगौछे की तरह
झुक कर ओक से पानी पीते हुए
कालोनी की इमारतें दिखाई नहीं देतीं
एक पल को कस्बे के कुएँ की जगत का भरम होता है
देख पा रहा हूँ उन्हें
वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद नहीं हैं
भारतीय मनुष्यों के उत्पाद हैं
वे भारतीय मनुष्य हैं - अपने ही भाई-बंद
भारतीय मनुष्य - जिनका श्रम सस्ता है
विश्व-बाजार की भूरी आँख
जिनकी जेब पर ही नहीं
जिगर पर भी गड़ी है ।


     

आदमी को प्यास लगती है -- ज्ञानेन्द्रपति

ज्ञानेन्द्रपति

कालोनी के मध्यवर्ती पार्क में 
जो एक हैंडपम्प है 
भरी दोपहर वहाँ
दो जने पानी पी रहे हैं 
अपनी बारी में एक जना चाँपे चलाये जा रहा है हैंडपम्प का हत्था 
दूसरा झुक कर पानी पी रहा है ओक से 
छक कर पानी पी, चेहरा धो रहा है वह बार-बार 
मार्च-अख़ीर का दिन तपने लगा है, चेहरा सँवलाने लगा है, कण्ठ रहने लगा है हरदम ख़ुश्क
ऊपर, अपने फ्लैट की खुली खिड़की से देखता हूँ मैं 
ये दोनों वे ही सेल्समैन हैं 
थोड़ी देर पहले बजायी थी जिन्होंने मेरे घर की घंटी 
और दरवाजा खोलते ही मैं झुँझलाया था 
भरी दोपहर बाज़ार की गोहार घर के चैन को झिंझोड़े यह बेजा ख़लल मुझे बर्दाश्त नहीं 
'दुनिया-भर में नंबर एक' -- या ऐसा ही कुछ भी बोलने से उन्हें बरजते हुए 
भेड़े थे मैंने किवाड़ 
और अपने भारी थैले उठाये
शर्मिन्दा, वे उतरते गये थे सीढ़ियाँ

ऊपर से देखता हूँ 
हैंडपम्प पर वे पानी पी रहे हैं 
उनके भारी थैले थोड़ी दूर पर रखे हैं एहतियात से, उन्हीं के ऊपर 
तनिक कुम्हलायी उनकी अनिवार्य मुस्कान और मटियाया हुआ दुर्निवार उत्साह 
गीले न हो जायें जूते-मोजे इसलिए पैरों को वे भरसक छितराये हुए हैं
गीली न हो जाये कण्ठकस टाई इसलिए उसे नीचे से उठा कर गले में लपेट-सा लिया है, अँगोछे की तरह 
झुक कर ओक से पानी पीते हुए 
कालोनी की इमारतें दिखायी नहीं देतीं
एक पल को कस्बे के कुएँ की जगत का भरम होता है 
देख पा रहा हूँ उन्हें
वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद नहीं हैं 
भारतीय मनुष्यों के उत्पाद हैं 
वे भारतीय मनुष्य हैं -- अपने ही भाई-बन्द
भारतीय मनुष्य -- जिनका श्रम सस्ता है 
विश्व-बाजार की भूरी आँख 
जिनकी जेब पर ही नहीं 
जिगर पर भी गड़ी है. 

*****

('कवि ने कहा' से)

Popular posts from this blog

गिद्ध पत्रकारिता

मई 2021 के प्रथम सप्ताह में अलग-अलग व्हाट्सएप ग्रुप में एक ही मैसेज दिखा जिसका शीर्षक था, गिद्ध. इस मैसेज की शुरुआती पंक्तियाँ हैं- “ क्या आपको उस चित्र की याद है ? उस चित्र का नाम है- ‘ गिद्ध और छोटी बच्ची ’ । इस चित्र में एक गिद्ध , भूखी बच्ची की मृत्यु का इंतजार कर रहा है। एक दक्षिण अफ्रीकी फोटो पत्रकार केविन कार्टर ने इसे मार्च 1993 के अकाल में सूडान में खींचा था। उस चित्र के लिए उसे पुलित्जर पुरस्कार दिया गया था। लेकिन इतना सम्मान प्राप्त करने के बाद भी कार्टर ने 33 वर्ष की उम्र में आत्महत्या कर ली थी। ” इस व्हाट्सएप संदेश के अनुसार वह पत्रकार केविन कार्टर भी एक गिद्ध ही था जो बच्ची को बचाने की बजाय अपनी वाहवाही हेतु फोटो खींचता रहा और आगे अपने इस कृत्य से उसे इतनी आत्मग्लानि हुई कि उसने आत्महत्या कर ली. यह मैसेज मूलतः पिछले एक महीने से भारतवर्ष में मचे हाहाकार को कवर करते पत्रकारों को गिद्ध साबित करता है. इस मैसेज की कुछ और पंक्तियां हैं- “.... आज फिर , अनेक गिद्ध हाथों में कैमरा लेकर पूरे देश से अपने घर लौट रहे हैं , जो केवल जलती हुई चिताओं के और ऑक्सीजन के अभाव

गंगा-बीती

आमतौर पर हाल में प्रकाशित किसी किताब पर लिखने से बचना चाहता हूं। इसका कारण है कि ऐसी किसी कृति पर कुछ लिखने अथवा बोलने मात्र को आलोचना अथवा समीक्षा समझा जाने लगता है और मेरे अंदर आलोचना अथवा समीक्षा हेतु वांछित योग्यता व साहस का सर्वथा अभाव है। यह कार्य मुझे बेहद कठिन लगता है और इरिटेटिंग भी। इसके बरक्स किसी रचना में डूबना, उतराना बड़ा आनंद देता है। साथ ही किसी रचनाकार की पंक्तियों को अपनी सुविधा के अनुसार उद्धृत करना भी अच्छा लगता है। यद्यपि अपनी सुविधा के अनुसार किन्हीं पंक्तियों का अर्थ अथवा भाव बदलना बदतमीजी व बेशर्मी की श्रेणी में आ सकता है, जाने-अनजाने यह गुस्ताखी हो जाती है। पाठकीय स्वतंत्रता के नाम पर ऐसी गुस्ताखियों को माफी मिल सकती है। लेकिन यह माफी संभवत आलोचकों/समीक्षकों के लिए उपलब्ध नहीं होती - कहते हैं उनके अंदर संवेदनात्मक ज्ञान का एक न्यूनतम स्वीकार्य स्तर तो होना ही चाहिए। और पाठक !! वह पूर्णतः स्वतंत्र है, उसकी कोई बाध्यता नहीं, कोई न्यूनतम अहर्ता, कोई बंदिश नहीं; अनुशासन भी नहीं। इसीलिए पाठकीय स्वतंत्रता (या कि स्वच्छंदता - पूर्णतः अनुशासनहीन) की मस्ती के साथ किताब

आदमी को प्यास लगती है कविता के कवि कौन है?

ज्ञानेन्द्रपति हिन्दी के एक विलक्षण कवि-व्यक्तित्व हैं, यह तथ्य अब निर्विवाद है ।

आदमी को प्यास लगती है कविता के माध्यम से कवि ने क्या संदेश दिया है?

पराधीनता में सारी इच्छाएँ खत्म हो जाती हैं। पराधीन रहने से हमें अपनी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए भी दूसँरों पर निर्भर हो जाना पड़ता है। अतः कवि ने इस कविता के माध्यम से स्वतंत्रता के महत्त्व को दर्शाया है।

संबंधित पोस्ट

Toplist

नवीनतम लेख

टैग