भिक्षुक ' कविता छायावादी कवि सूर्य कांत त्रिपाठी ' निराला ' द्वारा उद्धृत है। निराला जी अपनी कविता जीवन से जुड़ी वस्तुओं का समावेशन करते हैं।
प्रसंग
भिक्षुक कविता में निराला जी एक बिखार ओर उसके दो बच्चों की अवस्था का वर्णन किया है। वो खाने के लिए भीख मगते है। कुछ ना मिलने पर वो सड़क पर पड़ी झूठी पलेट को चाटते है। जिसके लिए वो कुत्तों से भी छीना झपटी करते है। उनकी दयनीय स्तिथि को देख कर कवि उनके प्रति सहानुभूति जताता है।
व्याख्या
कवि कहते है, जब बिखारी भीख मांगते है तो उन्हें देख कर बहुत बुरा लगता है। मानो कलेजे के टुकड़े टुकड़े हो गए हो। वह लाठी के सहारे चलते है। भुखमरी के कारण उनका पीठ और पेट एक हो गया है। भोजन के लिए वह दर दर भटकते है। उनके पास एक फटी पुराना थैला है। जिसे सामने रख कर वह भीख मांगते है। उनकी यह स्तिथि देख कर कवि का हृदय बहुत दुखी हो जाता है। कवि कहते है सड़क पर चलते चलते उसके दो बच्चे भी उसके साथ चलते है। वह अपने बाएं हाथ से अपने पेट को पकड़े हुए है और दाएं हाथ से भीख मांग रहे है। भूख से उनके होंठ सुख गए है और वह अपने आंसू पीआईआई रहे है। ऐसा लगता है मानो उन्हें देख के किसी को उन पर दया नहीं आ रही। कवि उनकी स्तिथि देख कर द्रवित हो जाए है। आगे कवि बताते है भूख से व्याकुल वह भिखारी ओर उसके बच्चे जब सड़क किनारे झूठी पलेट को देखते है तो वह खुद को रोक नहीं पाते और कुत्तों से छीन कर वह उस झूठे भोजन को ग्रहण कर लेते है। दरितो को यह दयनीय दशा देख कर कवि के में में उनके लिए सहानुभूति जागृत हो जाती है।
'तोड़ती पत्थर' संभवत: 1935 में लिखी गई थी। तब तक प्रगतिवादी आंदोलन परवान नहीं चढ़ा था। फिर भी इस कविता की प्रगतिवादी व्याख्याएँ अधिक हुईं। यह बात नजरअंदाज कर दी गई कि इस तरह के शब्दचित्र निराला पहले भी गढ़ चुके थे जैसे- 'भिक्षुक'। इस कविता का रचानाकाल 1923 है। लेकिन कविता के मूल में पराधीन भारत के चित्र साफ-साफ नज़र आते हैं-
वह आता-
दो टूक कलेजे को करता, पछताता
पथ पर आता।
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को- भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता-
दो टूक कलेजे के करता, पछताता
पथ पर आता।
साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए,
बाएँ से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाए।
भूख से सूखे ओठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते ?
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए !
ठहरो ! अहो मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूँगा
अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम
तुम्हारे दुख मैं अपने हृदय में खींच लूँगा।
प्रस्तुत कविता में कवि ने एक भिक्षुक का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है। कवि जब उस भिक्षुक को देखते हैं तो उसकी दयनीय दशा को देखकर उनका ह्रदय द्रवित हो उठता है। भिक्षुक इतना कमजोर है कि उसका पेट और पीठ मिलकर एक हो गए हैं। लाठी के सहारे वह चलता है। मुठ्ठी भर दानों को पाने के लिए वह फटी-पुरानी झोली फैलाता है। उसके साथ दो बच्चे भी हैं जो एक हाथ से भूख से पेट को मल रहे हैं और दूसरे हाथ से भीख माँग रहे थे। उनके ओंठ भी भूख से सूख गए हैं। सड़क पर पड़ी जूठी पत्तलों से वे भूख मिटाने का प्रयास करते हैं पर वहाँ भी उनका दुर्भाग्य उनका साथ नहीं छोड़ता। वे पत्तलों पर कुत्ते झपट पड़ते हैं। यहाँ पर कवि ने भिक्षुक को अभिमन्यु की तरह संघर्ष करने की प्रेरणा दी है।
भावार्थ/ व्याख्या
वह आता-
दो टूक कलेजे को करता,पछताता
पथ पर आता।
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को- भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता-
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।
भावार्थ- कवि निराला वर्णन करते हैं कि जब भिक्षुक आता दिखाई देता है, तो उसकी दयनीय दशा देखकर हृदय के टुकड़े होने लगते है। वह स्वयं अपनी भी करुणाजनक स्थिति से सभी को हार्दिक वेदना से भर देता है। कारण यह है कि वह इतना दुर्बल और कमजोर है कि उसका पेट और पीठ मिलकर अर्थात् एकदम पिचककर कर एक ही प्रतीत होते है। वह अपने कष्टमय जीवन को लेकर पछताता रहता है और अपनी लाठी टेक-टेक कर चल रहा है।
वह एक मुट्ठी दाने को प्राप्त करके अपनी भूख मिटाना चाहता है और इसके लिए लोगों के सामने अपनी फटी हुई पुरानी झोली को फैलाता रहता है। उसकी उस स्थिति को देखकर संवेदनशील व्यक्ति के हृदय के दो टुकड़े होने लगते है। उस गरीब की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है, इस कारण दुख का अनुभव करते हुए वह अपने जीवन पर पछताता है और नित्य ही मार्ग पर आता-जाता दिखाई देता है।
साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए,
बाएँ से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाए।
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए!
ठहरो! अहो मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूँगा
अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम
तुम्हारे दुख मैं अपने हृदय में खींच लूँगा।
भावार्थ- कवि वर्णन करता है कि उस भिखारी के साथ दो बच्चे भी है, जो सदा ही भिक्षा पाने के लिए हाथ फैलाये रहते है। वे बाएँ हाथ से अपने पेट को मलते हुए अर्थात् पेट की भूख से उत्पन्न वेदना को सहलाते हुए चलते है तथा दायाँ हाथ दाताओं की दया-वृष्टि अर्थात् भिक्षा प्राप्त करने के लिए सामने फैलाये रहते हैं।
भिक्षुक जब भूख से व्याकुल हो जाता है और प्यास से उसके होंठ सूखने लगते है, तब उसकी स्थिति बङी दयनीय बन जाती है। ऐसी स्थिति में कोई भी व्यक्ति दाता बनकर उसकी सहायता नहीं करता है। उसे लोगों से भी कुछ नहीं मिलता है। इस कारण भूख और प्यास से व्याकुल भिक्षुक केवल अपने आँसुओं को पीकर रह जाता है, अर्थात् निराश होकर अपने दर्द को दबाकर चुप रह जाता है। कवि कहता है कि कभी-कभी भिक्षुक सड़क पर खङे रहकर जूठी पत्तलें चाटते हुए भी दिखाई देते हैं, किन्तु उन पत्तलों को झपट लेने के लिए कुत्ते भी अड़े रहते है। उस स्थिति को देखकर कवि करुणा और संवेदना से विगलित हो जाता है। इसलिए वह कहता है कि मैं अपने हृदय का सारा अमृत निकालकर इसके सूखे होठों को सरस कर दूँगा और जीवन-शक्ति देकर इसकी भूख शान्त कर दूँगा। कवि कहते हैं कि व्यक्ति यदि संघर्ष करे, तो दृढ़ सकंल्प करके वह जीवन के कष्टों को मिटाकर अपने लिए नया पथ बना सकता है, वह अभिमन्यु की भाँति अकेले ही सारी बाधाओं को झेल सकता है। अन्त में कवि भावुक होकर कहता है कि वह ऐसे भिक्षुकों के दुःखों को खींचकर अपने हृदय में रखना चाहता है और अपने हृदय की सारी संवेदनाओं को देकर बदले में उसे सुखी और तृप्त देखना चाहता है।