भारत की विदेश नीति को निर्धारित करने वाले मुख्य संस्था कौन सी है? - bhaarat kee videsh neeti ko nirdhaarit karane vaale mukhy sanstha kaun see hai?

भारत की विदेश नीति का निर्माण

  • By: राजदूत (सेवानिवृत्त) देवनाथ शॉ
    Venue: पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय (एनईएचयू) , शिलांग
    Date: अक्तूबर 13, 2018

विदेश नीति को तैयार करना और उसका प्रचालन भारत में लोकप्रियता हासिल कर रहा है। यह बात आज मेरी एनईएचयू, शिलांग में उपस्थिति से स्पष्ट है, जब मैं छात्रों और संकाय सदस्यों के समक्ष इन मुद्दों का वर्णन कर रहा हूं। यह मुझ जैसे विदेश नीति वृत्तिक, जो एक पूर्व भारतीय राजनयिक भी रहा है, के लिए एक स्वागतयोग्य घटनाक्रम है क्योंकि इस विषय पर बढ़ती रुचि हमें यह विश्वास दिलाती है कि जो कुछ हम कर रहे हैं, उसकी हमारे देशवासियों के लिए प्रासंगिकता है।

यह स्थिति आज उस समय से बहुत भिन्न हो गई है, जब मैं 1984 में भारतीय विदेश सेवा में शामिल हुआ था। उस समय विदेश नीति और विदेश मामलों को एक गुप्त और विचित्र विषय माना जाता था तथा राजनयिकों को ऐसे भाग्यशाली व्यक्ति माना जाता था, जो विदेशों में अत्यंत एशो-आराम से रहते हैं, खाते-पीते हैं और राष्ट्र की ओर से कभी-कभार झूठ बोल देते हैं। साठ के दशक के प्रारंभ से लेकर अस्सी के दशक के अंत तक भारत अपने आंतरिक मामलों की अनेक चुनौतियों से ही जूझ रहा था तथा इसके पास विदेश नीति के लिए अत्यंत कम समय अथवा धैर्य था। उन दिनों हमारे घरों में ईर्ष्या अथवा स्नेह की एकमात्र 'विदेशी' वस्तु हमारे एनआरआई अथवा पीओआई भाई/बहन/चाचा अथवा चाची और उनके विदेशी सामान से भरे हुए बैग हुआ करते थे जैसे विदेशी चॉकलेट, बिस्कुट, इत्र, प्रसाधन की वस्तुएं, शराब और सिगरेट, जिनकी समतुल्य वस्तुएं उस समय भारतीय घरों में बहुत ही कम दिखाई देती थीं। जी हां, मैं उस परिदृश्य की बात कर रहा हूं जिसे आप शायद ही याद कर पाएं क्योंकि संभवत: उस समय आप बहुत छोटे रहे होंगे।

अब ऐसी स्थिति नहीं है। नब्बे के दशक में भारत के आर्थिक सुधारों और वैश्वीकरण पर दिए गए बल के फलस्वरूप हमारे दैनिक जीवन और विदेशी मामलों में वस्तुत: अत्यंत तेजी आई है।

विदेश नीति क्या है?

इससे पूर्व कि हम उन छोटी-छोटी बारीकियों पर जाएं कि विदेश नीति किस प्रकार उद्भव होती है और तैयार की जाती है तथा इसके प्रधान निर्माता और संचालक कौन होते हैं, हम यह जान लेते हैं कि 'विदेश नीति' क्या है? बहुत ही आसान बात, हम कह सकते हैं कि यह भारत की घरेलू नीति का ही एक स्वरूप है जिसका उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय मंच पर देश के हितों का संरक्षण और प्रवर्तन करना है। अब हम गरीबी में कमी लाने, अंतर्वेशी विकास और समृद्धि तथा देश में, क्षेत्र में और समूचे विश्व में शांति, सुरक्षा और सौहार्द लाने के भारत के प्रधान लक्ष्यों का वर्णन करते हैं। हमारी विदेश नीति के अवयव इन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए विदेशी राष्ट्रों के समुदाय के साथ हमारे संव्यवहार में हमारे देश द्वारा अपनाए गए रणनीतिक उद्देश्यों और उपायों को सहायता प्रदान करता है और उन्हें मजबूत बनाता है।

विदेश नीति को प्रभावित करने वाले कारक

एक दूसरा विषय जिस पर हमें कुछ और स्पष्टता की आवश्यकता है, यह है कि वे कौन से मुद्दे हैं जो भारत की विदेश नीति के निर्माण को प्रभावित करते हैं। संभवत: प्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दा भारत की भौगोलिक अवस्थिति है। जैसा कि समझदार लोग आपको बताएंगे, "आप अपने मित्रों का चयन तो कर सकते हैं, परंतु आप अपने पड़ोसियों का चयन नहीं कर सकते हैं।" अत: हमारा निकटतम पड़ोस कैसा होगा और हम किस प्रकार उसे प्रबंधित करेंगे, पड़ोस कैसा होगा और हम किस प्रकार उसे प्रबंधित करेंगे, इसका उस बात पर पर्याप्त प्रभाव पड़ेगा कि हम शेष विश्व के साथ कितने प्रभावशाली ढंग से संबंध स्थापित करते हैं।

भारत की रणनीतिक संस्कृति इसके इतिहास, विशेष रूप से उपनिवेशी युग और इसके दर्शन से जिसमें अहिंसात्मक व्यवहार पर बल दिया गया है, से निर्मित हुई है तथा ऐसी परंपराओं जैसे 'अतिथि देवो भव' (अर्थात् अतिथि ईश्वर है) ने हमारी विदेश नीति को तैयार करने की प्रक्रिया को पर्याप्त प्रभावित किया है।

भारत की वे अपेक्षाएं और लक्ष्य भी हमारे विदेशी मामलों पर प्रभाव डालते हैं जो समय के साथ परिवर्तित होते रहे हैं। उदाहरण के लिए, पहले तीन दशकों में हमें वे सभी मित्र तथा वह राजनीतिक और सामग्री संबंधी समस्त सहायता अपेक्षित थी जो भारत प्राप्त कर सकता था अत: हमारे राष्ट्र-निर्माताओं ने नीति के 'गुट निरपेक्ष' पहलुओं पर बल प्रदान किया ताकि द्वि-ध्रुवीय शीत युद्ध के युग में दोनों ही शिविरों तक अपनी पहुंच बना सकें। आज, यह परिस्थिति बदल गई है। भारत स्वयं ही वैश्विक राजनीतिक, सुरक्षा और आर्थिक स्थापत्य में विद्यमन अनेक स्तंभों से एक स्तंभ के रूप में उभर रहा है तथा इस प्रकार हमारी गुट-निरपेक्ष नी‍ति ने भी अपना गौरव खो दिया है।

वैश्विक और प्रादेशिक चुनौतियां विदेश नीति को तैयार करने का एक अन्य पहलू हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत प्रथम कुछ दशकों में, दो महाशक्तियों तथा कुछ प्राचीन उपनिवेशी शक्तियों द्वारा अधिपत्य स्थापित किए गए विश्व में भारत की नवीन अर्जित राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्वाधीनता हमारी विदेश नीति के निर्माताओं की प्रमुख चुनौतियों में से एक थी। हमारे तात्कालिक पड़ोस, विशेष रूप से पश्चिम और पूर्वी पाकिस्तान में विद्यमान राजनीतिक अस्थिरता, एशिया और अफ्रीका के हमारे विशाल पड़ोसी क्षेत्र में स्वाधीनता संग्राम और रंगभेद-विरोध आंदोलन इस नीति के मुख्य निर्धारक-तत्व थे। द्विध्रुवता, उपनिवेशवाद और नस्लवाद आज अधिक प्रचलन में नहीं है। आज की चुनौतियों से वैश्विक राजनीतिक, आर्थिक और मौद्रिक प्रणालियों में सुधार तथा उनका आधुनिकीकरण शामिल है जो क्रमश: संयुक्त राष्ट्र, विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ), आईएमएफ और विश्व बैंक का प्रतिनिधित्व करते हैं। वैश्वीकरण एक अवसर और एक चुनौती, दोनों ही प्रस्तुत करता है। भारत नब्बे के दशक के प्रारंभ से और उसके बाद अत्यधिक लाभान्वित हुआ जब से इसने प्रमुख आर्थिक सुधार संचालित किए तथा वैश्विक व्यापार और निवेश प्रणालियों को उदार बनाया। लेकिन, हमें वैश्वीकरण के नकारात्मक पहलुओं का सामना भी करना पड़ रहा है जैसे परमाणु प्रचुरोद्भवन, आतंकवाद, विश्वमारी, मानव और नशीले पदार्थों का दुर्व्यापार और साइबर अपराध तथा ऐसी चुनौतियां जो राष्ट्रीय सीमाओं का सम्मान नहीं करती है। विदेश नीति को उत्तरोत्तर रूप से भारत के राष्ट्रीय हितों तथा वैश्विक राष्ट्र समुदाय के सदस्यों के रूप में हमारे हितों और दायित्वों के बीच एक उत्कृष्ट संतुलन स्थापित करना होता है।

अंत में, किसी देश में उपलब्ध संसाधनों, मानव कौशल और निधियों, दोनों ही के संदर्भ में, का भी वैश्विक स्तर पर उस देश के कार्य-निष्पादन पर उल्लेखनीय प्रभाव पड़ता है। प्रारंभिक दशकों में, भारत में अपनी विदेश नीति की पहुंच संबंधी आकांक्षाओं के लिए बजटीय सहायता की पर्याप्त कमी थी। स्वाभाविक रूप से हमारी नीतियों तथा प्रक्रियाओं का निर्माण इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए किया करता था। आज विश्व की छठी विशालतम अर्थव्यवस्था के रूप में तथा सरकार के राजस्व संग्रहण के स्वस्थ स्थिति में होने पर उपलब्ध संसाधनों ने हमारी विदेश नीति के पद्चिह्नों को उल्लेखनीय रूप से अत्यंत सुदृढ़ बनाया है।

भारत में विदेश नीति के निर्माण में संस्थाएं और कर्ता

अब हम हमारे आज के व्याख्यान के विषय के केन्द्र पर आते हैं। भारत में विदेश नीति कौन तैयार करता है? यदि मैं आज के श्रोताओं से यह बात पूछूंगा तो इसका उत्तर होगा विदेश मंत्रालय (एमईए) अथवा प्रधान मंत्री कार्यालय (पीएमओ) अथवा स्वयं प्रधानमंत्री। इसका साधारण सा उत्तर यह है कि किसी भी एक संस्था अथवा व्यक्ति को इस क्षेत्र में विशेष अधिकार अथवा प्रभाव रखने का श्रेय नहीं दिया जा सकता है। विभिन्न अवसरों पर, इनमें से एक अथवा दूसरा इस विषय पर प्रभाव हासिल कर सकता है परंतु हम शीघ्र ही देखेंगे कि इसमें से ऐसे अनेक योगदानकर्ता हैं जो सामूहिक रूप से उस चीज को तैयार करते हैं जिसे हम भारत की विदेश नीति का सामंजस्य कहते हैं, जिसे देश के अधिकांश राजनीतिक नेतृत्व की सहमति होती है जो सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों ही में शामिल होते हैं।

तो भारत की विदेश नीति के ये कर्ता, प्रभावकर्ता और निर्माता कौन हैं?

विदेश मंत्रालय (एमईए)


यह सच है कि भारत के बाह्य अथवा विदेशी संबंधों में विदेश मंत्रालय एक प्रमुख कर्ता है। भारत सरकार के "कार्य आबंटन नियमों" पर नज़र दौड़ाने से पता चलता है कि विदेश मंत्रालय को वैश्विक मंच पर राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने और उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए अन्य राष्ट्रों के साथ भारत के विदेशी संबंधों की योजना के विषय में सोचने, उन्हें तैयार करने तथा प्रबंधित करने का कार्य सौंपा गया है। इस आधारभूत निर्देश को ध्यान में रखते हुए हम प्राय: यह सोचने की गलती कर लेते हैं कि भारत की विदेश नीति को तैयार करने का एकमात्र दायित्व विदेश मंत्रालय का है। वास्तव में, विदेश मंत्रालय भारत में विदेश नीति सचिवालय के रूप में कार्य करता है जो विभिन्न स्रोतों से अनेक नीतिगत आदान प्राप्त करता है, उसका विश्लेषण करता है तथा राजनीतिक नेतृत्व अर्थात् प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में मंत्रिमंडल को विभिन्न विकल्प प्रदान करता है और उसके उपरांत इस शीर्षस्थ स्तर पर लिए गए निर्णय को क्रियान्वित करता है।

ऐसे आदान मुख्य रूप से भारतीय राजनयिक मिशनों (दूतावासों, उच्चायुक्तों और स्थायी प्रतिनिधि कार्यालयों) द्वारा एकत्र की गई जानकारी के माध्यम से प्राप्त होते हैं। अन्य स्रोत हैं - प्रासंगिक मंत्रालय, विभाग और भारत की एजेंसियां, चिंतक और शोध केन्द्र जैसे आईडीएसए और आईडब्ल्यूसीए, व्यापार और उद्योग संघ जैसे सीआईआई, एफआईसीसीआई और एसोचम, शैक्षणिक संस्थाएं और विभिन्न विषय विशेषज्ञ। इनका प्रक्रमण और विश्लेषण करने के उपरांत विदेश मंत्रालय के विदेश मंत्री द्वारा अनुमोदित दृष्टिकोणों और विकल्पों को विचार के लिए मंत्रिमंडल/मंत्रिमंडल समिति को प्रेषित किया जाता है। विदेश मंत्रालय का नीति आयोजना और शोध प्रभाग समन्वय स्थल है। संबंधित स्थानिक अथवा कार्यात्मक प्रभाग द्वारा मंत्रिमंडल के लिए टिप्पणियां प्रस्तुत की जाती हैं।

उन मुद्दों को ध्यान में रखते हुए जो हाल के समय में महत्वपूर्ण बन गए हैं, विदेश मंत्रालय ने आतंकवाद-विरोध, साइबर राजनयिकता, ई-शासन आदि की पूर्ति के लिए विशेषीकृत प्रभाग स्थापित किए हैं। अस्सी के दशक के बाद से, विदेश मंत्रालय निवेश और प्रौद्योगिकी संवर्धन का निपटान कर रहे प्रभागों के साथ अपनी आर्थिक राजनयिक क्षमताओं में संवृद्धि कर रहा है, जो अब इसके आर्थिक राजनयिकता प्रभाग के रूप में परिवर्तित हो गया है, एक ऐसा प्रभाग जो बहुपक्षीय आर्थिक संबंधों (एमईआर) को देख रहा है तथा आसियान और बिमस्टेक के साथ हमारे संबंधों का विशेषीकृत केन्द्र है जिनके साथ आर्थिक संबंधों के सुदृढ़ीकरण के लिए विशेष रूप से ध्यान-केन्द्रित किया गया है। कुछ वर्ष पूर्व विकास भागीदारी प्रशासन (डीपीए) का सृजन किया गया था ताकि विकासशील देशों, विशेष रूप से एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका के साथ अधिमान सहायता भागीदार के रूप में भारत की भूमिका में समस्त अवयवों को एक-साथ शामिल किया जा सके। डीएंडआईएसए प्रभाग तीन से अधिक दशकों से कार्य कर रहा है जो परमाणु प्रचुरोद्भवन, नि:शस्त्रीकरण और संबंधित मुद्दों का निपटान कर रहा है जिसमें परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) और और संबंधित निकायों की सदस्यता के लिए भारत की बोली भी शामिल है। कार्यात्मक विभाग जैसे प्रशासन, स्थापना, वित्त और विधि एवं संधि भारतीय राजनयिकों को देश और विदेश में उनके कार्यों का प्रभावशाली ढंग से निर्वहन करने के लिए उपकरण ओर परिवेश उपलब्ध कराते हैं। विदेश मंत्रालय का बाह्य प्रचार प्रभाग, जिसने एनईएचयू के साथ समन्वय करते हुए आज के व्याख्यान को प्रायोजित और व्यवस्थित किया है, विशेष रूप से मीडिया से विदेश नीति आदनों का प्रभावी प्राप्तकर्ता है। यह भारत की विदेश नीति के उद्देश्यों और उपायों पर जानकारी के प्रचार-प्रसार का मुख्य स्रोत है तथा भारतीय राजनयिक पहलों की सफलता का प्रमुख कर्ता है।

विदेश मंत्रालय समस्त‍ पासपोर्ट वीजा और काउंसुलर मुद्दों के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी विभाग है। पासपोर्ट और वीजा नीतियां जिनमें गृह मंत्रालय (एमएचए) प्रमुखता से अपनी बात रखता है, भी विदेश मंत्रालय द्वारा तैयार की जाती है जो नागरिक-केन्द्रित सेवाओं का निर्वहन भी करता है जैसे पासपोर्ट जारी करना तथा भारतमें और विदेश में रहने वाले समस्त भारतीय राष्ट्रिकों के लिए, काउंसुलर सेवाओं का प्रावधान। यह विभिन्न प्रयोजनों जैसे पर्यटन, व्यापार, अध्ययन, चिकित्सा सेवाओं आदि के लिए भारत की यात्रा करने वाले विदेशी राष्ट्रिकों को वीजा का प्रधान स्रोत है। ओआईसी कार्ड मुख्यत: हमारे विदेश स्थिति राजनयिक मिशनों द्वारा भारतीय मूल के पात्र व्यक्तियों को जारी किए जाते हैं। पूर्व प्रवासी भारतीय कार्य मंत्रालय के सभी कार्य और विभाग जिनमें प्रवासियों का प्रोटेक्टोरेट भी शामिल है, अब विदेश मंत्रालय को सौंप दिए गए हैं। वस्तुत: समस्त प्रवासी भारतीयों के मुद्दे, जिसमें विदेश में रहने वाले भारतीयों की सुरक्षा ओर संरक्षा भी शामिल है, विदेश मंत्रालय के नीति निर्माण क्षेत्राधिकार के अंतर्गत आते हैं।

मंत्रिमंडल/मंत्रिमंडल समिति

सरकार में शीर्षस्थ स्तरीय निर्णय लेने वाले निकाय के रूप में, मंत्रिमंडल आवश्यक निर्देश देते हुए भारत के बाह्य संबंधों की दिशा को निर्धारित करता है। मंत्रिमंडल के सदस्य प्रधानमंत्री के सबसे विश्वसनीय सहयोगी होते हैं तथा वे प्रमुख विदेश नीति मुद्दों पर उन्हें परामर्श देते हैं और उनकी सहायता करते हैं जिसमें संकट के समय लिए जाने वाले निर्णय भी शामिल हैं। मंत्रिमंडल एमएचए, एमओडी और एमईए के साथ परामर्श करते हुए भारत की आंतरिक सुरक्षा को सुदृढ़ बनाने के लिए उपायों पर निर्णय लेता है। विदेश व्यापार निवेश मुद्दों के बारे में प्रमुख परामर्शदाता हैं - वाणिज्य और उद्योग, वित्त और विदेश मंत्रालय।

प्रासंगिक मंत्रिमंडल समितियों का मुख्य कार्य मंत्रालय के विभिन्न क्रियाकलापों की समीक्षा करना है तथा संबंधित विभागों को नीतिगत निर्देश प्रदान करना है। हालांकि कोई भी वर्तमान मंत्रिमंडल समिति (जैसे सुरक्षा संबंधी मंत्रिमंडल समिति अथवा आर्थिक मामलों संबंधी मंत्रिमंडल समिति) विशेष रूप से विदेशी मामलों का निपटान नहीं करती है, ऐसी मंत्रिमंडल समितियों द्वारा निपटाए गए मुद्दों का भारत की विदेश नीति और प्रक्रियाओं पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। विदेश मंत्रालय श्री सुषमा स्वराज आर्थिक मामलों, संसदीय कार्य, राजनीतिक मामलों और सुरक्षा संबंधी चार मंत्रिमंडल समितियों की सदस्य हैं।

प्रधानमंत्री कार्यालय

प्रधानमंत्री कार्यालय में वरिष्ठ स्तर के नौकरशाह शामिल होते हैं जो सचिवालयी सहायता प्रदान करते हैं तथा प्रधानमंत्री को परामर्श देते हैं तथा भारत में नीति निर्माण के केन्द्र के रूप में कार्य करते हैं। यह घरेलू और विदेश नीति के क्रियान्वयन में अंतर्विभागीय गतिरोधों का निपटान करने के लिए विभिन्न केन्द्रीय एजेंसियों जैसे मंत्रिमंडल, मंत्रिमंडल समितियां, मंत्रिपरिषद और अन्य हितधारकों का समन्वय करता है। प्रधानमंत्री नेहरू के शासन के दौरान, चूंकि वे प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री दोनों ही थे, प्रधानमंत्री सचिवालय (चूंकि तब इसे पीएमओ कहा जाता था) विदेश नीति के निर्णय लेने का केन्द्र बन गया था। यह प्रवृत्ति जारी रही तथा प्रत्येक पीएमओ ने समस्त नीति में केन्द्रीय भूमिका अर्जित कर ली जिसमें विदेश नीति पर निर्णय लेना भी शामिल था तथा उसने मंत्रिमंडल, मंत्रिमंडल समितियां और मंत्रिपरिषद को भी नज़रअंदाज करना आरंभ कर दिया।

वर्तमान पीएमओ में प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए), प्रधानमंत्री के अपर निजी सचिव, प्रधानमंत्री के सचिव, दो अपर सचिव, पांच संयुक्त सचिव तथा निदेशक, उप सचिव और अवर सचिव स्तर के अनेक अन्य अधिकारी शामिल हैं।

प्रधानमंत्री बिना किसी अपवाद के, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही विदेश नीति में निर्णय लेने में प्रधान व्यक्ति हैं। विदेश नीति तथा सुरक्षा के सभी महत्वपूर्ण मामलों में क्रियान्वयन से पूर्व प्रधानमंत्री का अनुमोदन प्राप्त किया जाता है। प्रधानमंत्री तक पहुंचने वाले परामर्श में एनएसए की एक महत्वपूर्ण और प्रभावशाली भूमिका होती है। सफल विदेश नीति तैयार करना तथा उसका क्रियान्वयन पीएमओ और विदेश मंत्रालय के बीच समन्वय के स्तर पर निर्भर करता है। विदेश में भारतीय राजदूतों और उच्चायुक्तों की नियुक्ति में प्रधानमंत्री का अनुमोदन महत्वपूर्ण होता है, हालांकि नियुक्त के औपचारिक पत्र राष्ट्रपति द्वारा उनकी राज्य प्रमुख की क्षमता में जारी किए जाते हैं। दूसरे शब्दों में, सभी महत्वपूर्ण विदेश नीति संबंधी मामलों में प्रधानमंत्री की अनुमति महत्वपूर्ण है।

राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद (एनएससी) : यह भारत सरकार का शीर्षस्थ निकाय है जो सरकार को राष्ट्रीय सुरक्षा, विदेश नीति और रक्षा संबंधी मामलों में परामर्श देता है। हालांकि, उन पर अंतिम निर्णय प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद द्वारा लिया जाता है, हाल के वर्षों में, राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद भारत की विदेश और सुरक्षा नीतियों को तैयार करने में एक महत्वपूर्ण हितधारक के रूप में उभरकर सामने आई है। इसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री द्वारा की जाती है तथा इसमें विदेश, रक्षा, गृह और वित्त मंत्री, एनएसए, नीति आयोग (योजना आयोग का परिवर्तित निकाय) के उपाध्यक्ष शामिल होते हैं। एनएसए राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के सचिव होते हैं।

एनएसए एक त्रि-स्तरीय संगठन है जिसमें राजनीतिक योजना समूह, राष्ट्रीय सुरक्षा परामर्श बोर्ड तथा संयुक्त आसूचना समिति भी सम्मिलित होते हैं।

रणनीतिक आयोजन ग्रुप (एसपीजी): यह नौकरशाह स्तर पर शीर्षस्थ निर्णय लेने वाला निकाय है। एसपीजी भारत की रणनीतिक नीतियां तैयार करने और उनके क्रियान्वयन के लिए उत्तरदायी है। एसपीजी की अध्यक्षता मंत्रिमंडल सचिव द्वारा की जाती है तथा इसे भारत की सैन्य नीतियों के लिए दीर्घकालिक रणनीतियां तैयार करने का कार्य भी सौंपा गया है। इसके सदस्यों में सभी महत्वपूर्ण मंत्रालयों और विभागों के सचिव शामिल होते हैं जैसे गृह, रक्षा, विदेश, रक्षा उत्पादन, राजस्व परमाणु ऊर्जा, अंतरिक्ष तथा आर एंड एडब्ल्यू और आईबी के प्रमुख, थल, नौ और वायु सेना के प्रमुख, अध्यक्ष सीबीडीटी, आरबीआई के गर्वनर, आरएमके के वैज्ञानिक सलाहकार तथा जेआईसी के अध्यक्ष। इस समूह की आवधिक बैठकें आयोजित की जाती है तथा संभावित जोखिमों को न्यून बनाने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाते हैं।

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड (एनएसएबी): इस बोर्ड में सरकार के बाहर से सदस्य शामिल होते हैं जो राष्ट्रीय सुरक्षा और विकास से संबंधित मामलों पर इसे परामर्श देते हैं। यह दीर्घकालिक विश्लेषण करता है तथा राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर संदर्श उपलब्ध्‍ा कराता है। इसके सदस्यों में शामिल होते हैं - प्रतिष्ठित वृत्तिक, शिक्षाविद्, वैज्ञानिक, प्रशासनिक विशेषज्ञ और सेवानिवृत्त नौकरशाह। इस समय इसके अध्यक्ष राजदूत (सेवानिवृत्त) पी.एस. राघवन हैं तथा इसके चार अन्य सदस्य हैं।

संयुक्त आसूचना समिति (जेआईसी) : यह समिति आईबी, आरएंड एडब्ल्यू तथा नौसेना, थल सेना और वायुसेना आसूचना निदेशालयों से आसूचना आदान प्राप्त करती है। यह उच्चतम आसूचना आकलन संगठन है जिसे अंतर-एजेंसी समन्वय आसूचना आंकड़ों के संग्रहण और विश्लेषण का कार्य सौंपा गया है। अपने अध्यक्ष की अध्यक्षता में (जो सामान्यत: मंत्रिमंडल सचिवालय के अपर सचिव होते हैं) जेआईसी में एमईए, एमओडी, एमएचए, आईबी, आरएंडएडब्ल्यू, एमआई निदेशालय, एनआईनिदेशालय, एआई निदेशालय के प्रतिनिधि शामिल होते हैं। यह कभी-कभी प्रासंगिक आसूचना एजेंसियों को सरकार से प्राप्त आदानों अथवा मांग के आधार पर कतिपय आसूचना संग्रहण कार्य संचालित करने का निदेश भी देती है। जेआईसी विदेश मामलों और रक्षा से संबंधित मामलों पर निर्णय लेने के लिए प्रधानमंत्री तथा मंत्रिपरिषद का एक महत्वपूर्ण और प्रभावी परामर्श निकाय है।

रक्षा मंत्रालय तथा वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय

सरकार/पीएमओ रक्षा नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी मामलों पर रक्षा मंत्रालय के विचार आमंत्रित करते हैं। रक्षा मंत्री सुरक्षा संबंधी मंत्रिमंडल समिति तथा राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के सदस्य होते हैं। सचिव, रक्षा विभाग, सचिव (रक्षा उत्पादन) तथा तीनों सेनाओं (थल, नौ और वायु सेना) के प्रमुख रणनीतिक आयोजना ग्रुप के सदस्य होते हैं। हाल के वर्षों में, मंत्रालय के आयोजना तथा अंतर्राष्ट्रीय सहयोग कार्यों का निपटान करने के लिए रक्षा मंत्रालय के लिए विदेश मंत्रालय से एक संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी को तैनात किया गया है।

वाणिज्य विभाग तथा विदेश मंत्रालय और वित्त मंत्रालय भारत की आर्थिक राजनयिकता के संचालन के लिए मुख्य तौर पर उत्तरदायी है। डब्ल्यूटीओ, द्विपक्षीय और बहुपक्षीय एफटीए आदि में व्यापार के मुदृदों पर नीति मुख्य रूप से वाणिज्य मंत्रालय में प्रारंभ और तैयार की जाती है। निवेश और कराधान मुद्दों का समन्वय वाणिज्य मंत्रालय, विदेश मंत्रालय, सीबीडीटी, सीमा-शुल्क आदि के परामर्श से वित्त मंत्रालय द्वारा किया जाता है।

संसद

भारत की संसद (लोक सभा और राज्य सभा) को विदेशी मामलों पर विधान बनाने की शक्ति प्राप्त है जो केन्द्रीय/संघ सरकार के अनन्य क्षेत्राधिकार के विषयों में से एक विषय है। इस प्राधिकार में अंतर्राष्ट्रीय संधियों, करारों और कन्वेंशनों के सफल क्रियान्वयन के लिए कोई भी विधान बनाना अथवा किसी विधि में संशोधन करना शामिल है। सरकार संसद के प्रति उत्तरदायी है जो नीतियों और मुद्दों पर जानकारी और स्पष्टीकरण मांग करती है। सिद्धांत रूप से, बजटीय नियंत्रण अधिरोपित करके और आवश्यक संकल्प पारित करके संसद कार्यकारिणी को सरकार की इच्छा के अनुसार कार्य करने के लिए विवश कर सकती है। तथापि, वर्तमान सरकार को संसद के अधिकांश सदस्यों का समर्थन हासिल है तथा सामान्यत: ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं होती है, जब तक कि सरकार संसद के प्रति अपना विश्वास न खो दे। इसके महत्वपूर्ण निगरानी संबंधी कार्यों में, संसद के पास विदेशी मामलों संबंधी स्थायी समिति तथा रक्षा संबंधी स्थायी समिति होती है जो विदेशी संबंधों और बाह्य सुरक्षा से संबंधित मुद्दों पर अधिकारियों से प्रश्न करती है। संसद विशेष मुद्दों की जांच करने के लिए तदर्थ समितियों का गठन भी कर सकती है।

राज्य सरकारें

हालांकि विदेशी मामले संवैधानिक उपबंधों के अनुसार पूर्णत: केन्द्र का विषय है, इसका यह अर्थ है कि राज्य सरकारों को इस बारे में नीति निर्माण करते हुए शामिल नहीं किया जाता है। हमारे पड़ोसी देशों के साथ सटे राज्यों की राय को सीमापार से संबंधित मुद्दों पर विशेष महत्व दिया जाता है। उदाहरण के लिए, बांग्लादेश के साथ गंगा जल बंटवारा संधि बंगाल सरकार के सहयोग बिना संभव न हो पाती। इसी प्रकार 1992 में बांग्लादेश के साथ सीमा संधि के बाद से ही लंबित पड़े एंक्लेवों के मुद्दे (एक-दूसरे के भूभाग से पूर्णत: घिरे भारत और बांग्लादेश के संप्रभु भूभाग) का हल हाल ही में उन राज्यों के सक्रिय सहयोग से किया जा सका जो बांग्लादेश के साथ सीमाएं साझा करते हैं जिनमें मेघालय भी शामिल है। पाकिस्तान के साथ जल और भूमि-सीमा मुद्दों में जम्मू-कश्मीर, पंजाब और गुजरात के साथ लगे राज्यों के विचारों को भी ध्यान में रखा जाता है। नेपाल के साथ हमारे संबंधों में, उत्तर प्रदेश और बिहार मुख्य वार्ताकार भागीदार हैं। तमिलनाडु का तमिल कारक के कारण श्रीलंका के प्रति भारत की नीतियों पर गैर-आनुपातिक प्रभाव हुआ करता है। अन्य राज्य, जो ऐतिहासिक दृष्टि से पूर्व में विदेशी मामलों पर प्राय: उदासीन रहे हैं, अब इस शताब्दी में अधिक सक्रिय हो गए हैं, विशेष रूप से उन मुद्दों पर जिनका उनकी जनसंख्या पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, केरल स्वाभाविक कारणों से एनआरआई और पीआईओ मुद्दों के प्रति अत्यंत सक्रिय है। व्यापार निवेश तथा राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा मुद्दे इन मामलों पर राज्यों के विचारों को सामने लाते हैं।

विदेश संबंधों में सफलता हासिल करने के लिए राज्यों के महत्व को मान्यता प्रदान करते हुए, विदेश मंत्रालय ने एक समर्पित राज्य प्रभाग की स्थापना की है जो सभी राज्यों के लिए इसके अंतरापृष्ठ के रूप में कार्य करता है। मिशन प्रमुख तथा हमारे दूतावासों और उच्चायोगों के वाणिज्यिक अधिकारियों को राज्यों की चिंताओं का पता लगाने के लिए उनके निरंतर दौरे करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।

शिक्षाविद्, चिंतक और लब्धप्रतिष्ठ व्यक्तित्व

कुछ वर्ष पहले तक, विदेश नीति पर किसी स्तर तक प्रभाव का प्रयोग करने वाले सरकार से बाहर एकमात्र उल्लेखनीय समूह हमारे विभिन्न विश्वविद्यालयों, शोध केन्द्रों और चिंतकों में निहित था। इनमें से उल्लेखनीय रूप से प्रथमत: शामिल होने वाले संगठन जेएनयू स्थित अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन विद्यालय, विदेश मंत्रालय समर्पित भारतीय विश्व मामले परिषद (आईसीडब्ल्यूए) तथा रक्षा मंत्रालय समर्पित रक्षा अध्ययन और विश्लेषण संस्थान (आईडीएसए) थे। कुछ अन्य संगठन हैं - चीनी अध्ययन संस्थान (आईसीएस), आरआईएस (विकासशील देशों के लिए शोध और सूचना प्रणाली), आईसीआरआईईआर (भारतीय अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंध अनुसंधान परिषद), नीति अनुसंधान केन्द्र (सीपीआर), प्रेक्षक अनुसंधान प्रतिष्ठान (ओआरजी) तथा विवेकानंद प्रतिष्ठान, जो सभी दिल्ली में स्थित हैं तथा मुंबई में स्थित गेटवे हाउस। दिल्ली और मुंबई सहित विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में अंतर्राष्ट्रीय संबंध अध्ययन विभाग तथा कुछ नवीन प्राइवेट उच्चतर शिक्षा संस्थान भारत की विदेश नीति के लिए आदान का सहयोग करते हैं।

ऐसे कुछ उत्कृष्ट राजनीतिज्ञ, विद्वान, सिविल सेवक और राजनयिक भी हैं जिनका मार्गदर्शन भी विशेष रूप से प्रारंभिक दशकों में भारत की विदेश नीति को तैयार करने में सहयोगी रही है, जिसे समुचित मान्यता प्रदान की जानी चाहिए। इनमें अन्य के साथ-साथ शामिल हैं - सरदार के.एम. पानिक्कर, के.पी.एस. मेनन वरिष्ठ, के.आर. नारायणन, के. सुब्रामणियम, जी. पार्थसारथी, जे.एन. दीक्षित और ब्रजेश मिश्रा। उनके सुदृढ़ दृष्टिकोण तथा परिकल्पित प्रभाव तथा उत्कृष्ट नेताओं जैसे जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, नरसिम्हा राव, आई.के. गुजराल और अटल बिहारी वाजपेयी के साथ उनके द्वारा किए गए कार्यों ने उन्हें भारत की विदेश नीति के स्थापत्य को तैयार करने के लिए महत्वपूर्ण आदान प्रदान करने का मंच प्रदान किया।

दबाव, समूह मीडिया और एनजीओ

गैर-राजनीतिक समूहों, संघों तथा संगठनों के विचार सरकारी नीतियों को तैयार करने के लिए महत्वपूर्ण स्रोत होते हैं जिनमें विदेशी और सुरक्षा मुद्दे भी शामिल होते हैं। इनमें से कुछ समूहों, जैसे मैत्री संघों की स्थापना औपचारिक रूप से की जाती है तथा उन्हें संबंधित प्राधिकारियों के पास पंजीकृत किया जाता है और उनकी नीति निर्माताओं तक पर्याप्त पहुंच होती है जबकि अन्य अनौपचारिक होते हैं लेकिन वे विभिन्न माध्यमों से अपने विचारों को ज्ञात करते हुए प्राथमिकत: प्रभाव डालते हैं, जिसमें प्रभावशाली पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखना तथा हाल ही में सोशल मीडिया का प्रयोग करना शामिल है।

भारत में स्थापित मीडिया, विशेष रूप से समाचारपत्र, जर्नल और टेलीविजन पूर्व की तुलना में आज विदेशी मामलों में निरंतर अधिक रुचि लेते जा रहे हैं। यह एक स्वस्थ परंपरा है क्योंकि सरकार उन मुद्दों पर निर्णय लेने से पूर्व धरातल पर इन विचारों को ध्यान में रखने में विवश होती है जो उसके नागरिकों को प्रत्यक्षत: अथवा अप्रत्यक्षत: प्रभावित कर सकते हैं। सोशल मीडिया की भूमिका, विशेष रूप से विदेशों में विपत्ति में फंसे भारतीयों के मुद्दों को उजागर करने तथा सरकार को कार्यवाही करने के लिए प्रेरित करने में भी आज सुपरिचित हो गई है।

एनजीओ का महत्व भी निरंतर बढ़ता जा रहा है, न केवल भारत में जनता के मध्य उनके द्वारा किए जा रहे कार्य के रूप में बल्कि नीतिगत निर्णयों को उल्लेखनीय रूप से प्रभावित करने में, जिनमें से कुछ का भारत के विदेशी संबंधों पर भी प्रभाव है। पर्यावरण, मानवाधिकार और प्रवास के मुद्दों पर कार्य कर रहे एनजीओ भारत में पर्याप्त रूप से सक्रिय हैं।

व्यापारिक संगठन

बड़े व्यापारिक घरानों, विशेष रूप से टाटा और बिरला के घरानों ने नए स्वतंत्र हुए राष्ट्र का निर्माण करने में तथा इसके राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण को तैयार करने में उदारतापूर्वक सहायता प्रदान की है। सुधारोत्तर अवधि में, व्यापार संगठन जैसे एफआईसीसीआई, सीआईएल, एसौचैम, नैसकॉम आदि को यूएस की लॉबी वाले समूहों के रूप में पहचाना जाता था जो उनके सदस्यों के हितों के अनुसार एक उपयुक्त व्यापार परिवेश का सृजन करने के लिए सरकार के साथ बातचीत किया करते थे। भारत की जीडीपी के अवयव के रूप में, विदेश व्यापार और निवेश में नब्बे के दशक के बाद से वृद्धि हुई है। स्वाभाविक रूप से इन अधिकांश संपर्कों का उद्देश्य सरकार को ऐसी नीतियों को अपनाने के लिए प्रभावित करना था, जो भारतीय निर्यातकों, आयातकों, विदेशों में एफडीआई और भारतीय निवेश के प्राप्तकर्ताओं को लाभ पहुचाएं। इसके बदले में, सरकार अपनी आर्थिक राजनयिकता का संचालन करने के लिए ऐसे व्यापारिक समूहों के पास उपलब्ध विशेषज्ञता और संसाधनों का प्रयोग करती है। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा प्रासंगिक मंत्रियों सहित वरिष्ठ नेताओं के लिए अब यह प्रथा बन गई है कि वे विदेशों के अपने राजकीय दौरों पर अपने साथ व्यापार शिष्टमंडल को भी लेकर जाएं। इसी प्रकार, भारत में विदेश मंत्रियों की यात्राओं के दौरान, जो भारतीय व्यापार जगत के साथ अपने संबंधों को सुदृढ़ करना चाहते हैं, संबंधित देश के दूतावास तथा विदेश मंत्री अथवा एमओसी व्यापार से संबंधित समारोहों का आयोजन और संचालन करने के लिए ऐसे व्यापार समूहों की प्रतिभागिता सुनिश्चित करते हैं। ऐसे क्रियाकलाप न केवल अपने देश में नीति को प्रभावित करने के लिए भारतीय व्यापार में संवृद्धि करते हैं बल्कि विदेशों में भी सरकारों को प्रभावित करते हैं। इस संबंध में एक उल्लेखनीय मामला नैसोकॉम द्वारा यूएस में उनकी सतत् लॉबी के माध्यम से वहां की भारतीय आईटी कंपनियों के लिए उपयुक्त परिवेश का सृजन करना है।

विदेशों में भारतीय मूल के व्यक्ति

किसी समय "अवांछित भारतीय" के नाम से ताने सुनने वाले इन व्यक्तियों के जीवन में नब्बे के दशक के बाद से अत्यधिक बदलाव आया है तथा अनिवासी भारतीय (एनआरआई) और भारतीय मूल के व्यक्ति (पीआईओ), जिनमें से अधिकांश आज ओसीआई कार्ड धारक हैं जिनसे उन्हें एनआरआई के समान पहुंच और सुविधाएं प्रदान कर दी गई हैं, भारतीय राजनीति में एक स्थापित कारक बन गए हैं। ये लोग संपत्ति और प्रभाव के संदर्भ में निरंतर विकास कर रहे हैं तथा भारत की राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के लिए समूचे विश्व में फैली उसकी मूल रूप से भारतीय व्यक्तियों की जनसंख्या का प्रयोग करने में भारत के प्रयास को बल प्रदान करने वाली एनआरआई और पीआईओ लॉबी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय नीतियों को सुनिश्चित करने में प्रभाव अर्जित कर रही है तथा उन्हें अपने पक्ष में ढालने में सफल रही है।

हमने ऊपर हमारे सामान्य प्रश्न के उत्तर में उक्त ग्यारह सत्ताओं को सूचीबद्ध किया है कि "भारत में विदेश नीति कौन तैयार करता है?" यदि हमें आगे यह जानना हो कि इनमें से किसी विदेश नीति के बारे में निर्णय लेने में सर्वाधिक पहुंच है, तो इसका स्वाभाविक उत्तर होगा कि प्रधानमंत्री, उसकी मंत्रिपरिषद, प्रासंगिक मंत्रालय जिसमें विदेश मंत्रालय भी शामिल है, आदि। सरकार के बाहर की संरचनाओं में से, विषय-वस्तु के आधार पर ऐसे संगठन और व्यक्ति शामिल हैं जिन पर निर्णय लेने वालों द्वारा अधिक ध्यान दिया जाता है तथा जिनकी पर्याप्त संसाधनों तक व्यापक पहुंच है जिसमें मीडिया भी शामिल है, तथा उनका विदेश नीति पर सबसे अधिक प्रभाव है।

भारत के नवीनतम इतिहास में विदेश नीति

विदेश नीति के महत्व और सार्थकता पर पूर्ववर्ती भारतीय चिंतकों के दृष्टिकोण प्राचीन लेख, अर्थशास्त्र पर आधारित थे, जो शासन और राजनयिकता की एक उत्कृष्ट कति है। अन्य के साथ-साथ बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचन्द्र बोस जैसे नेताओं ने भारत के स्वाधीनता आंदोलन विशेष रूप से एशिया, अफ्रीका और यूरोप के भागों में भारत के पारंपरिक राजनयिक भागीदारों के साथ बाह्य सहायता हासिल करने के लिए सक्रिय रुचि दर्शाई। अमेरिका से सहायता प्राप्त करने, विशेष रूप से दो विश्व युद्धों के बीच की अवधि, के लिए भी प्रयास किए गए जब ब्रिटेन की शक्ति कम हो रही थी तथा अमेरिका की ताकत बढ़ रही थी।

स्वतंत्रता से पूर्व की अवधि में, जब अविभाजित भारत में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस प्रधान राजनीतिक शक्ति थी, हमारे राष्ट्रीय स्वाधीनता के नेताओं का ध्यान मुख्य रूप से इस बात पर थी कि यूके, सोवियत संघ, यूएसए, जर्मनी और जापान जैसी महान ताकतों के साथ किस प्रकार संबंध स्थापित किए जाएं। आईएनसी के मुख्यत: हिन्दू नेतृत्व तथा मुस्लिम लीग के बीच इस मुद्दे पर अत्यंत तीखे मतभेद थे कि उप-महाद्वीप में मुस्लिमों की शिकायतों का निवारण किस प्रकार किया जाए तथा इस वृहद् इस्लामिक विश्व के साथ उनके संबंध किस प्रकार रखे जाएं। ऑटोमैन टर्की में खिलाफत आंदोलन तथा बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में मध्य-पूर्व में घटनाक्रम; भारत के बाहर ब्रिटेन के युद्ध के प्रयासों को सहायता प्रदान करने के लिए भारतीय सैन्य बलों का प्रयोग; तथा सुभाष चन्द्र बोस द्वारा आजाद हिंद फौज का गठन तथा द्वितीय विश्व युद्ध में जापानियों के साथ इसका सहयोजन भारतीय राष्ट्रवादियों के मध्य अत्यधिक वाद-विवाद और विभेदों के विषय थे। आईएनसी नेता, विशेष रूप से नेहरू ने 1947 में नई दिल्ली में एशियाई संबंध सम्मेलन के आयोजन में सक्रिय भूमिका निभाई जो इंडोनेशिया के बांडंग में 1955 में आयोजित अफ्रीकी-एशियाई संबंध सम्मेलन का प्रणेता था जो गुट-निरपेक्ष आंदोलन की प्रारंभिक अवस्था थी। इस अवधि में, भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के अधिकांश नेताओं ने विश्व के अन्य भागों में उपनिवेशवाद-विरोधी स्वाधीनता आंदोलनों को समर्थन दिया, नस्लीय भेदभाव और साम्राज्यवादी युद्धों का विरोध किया तथा हिरोशिमा में अमेरिका द्वारा परमाणु बमबारी की निंदा की।

भारत की स्वाधीनता के उपरांत, विदेश नीति को तैयार करने पर मुख्य रूप से प्रधानमंत्री नेहरू जैसे सुदृढ़ नेताओं का प्रभाव पड़ा जिन्होंने विदेश मंत्रालय का कार्यभार भी संभाला था। उन्होंने विदेश में तैनात किए जाने वाले अधिकांश भारतीय राजदूतों का स्वयं साक्षात्कार किया तथा उनकी नियुक्ति की। पंचशील अथवा 'शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के पाचं सिद्धांत' नेहरू की विदेश नीति के आधारभूत सिद्धांत थे तथा इसने बर्मा, कंबोडिया, चीन, लाओस, नेपाल, वियतनाम और यूगोस्लाविया के साथ भारतीय द्विपक्षीय संबंधों के आधार का निर्माण किया।

नेहरू के पश्चात् प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, पी.पी. नरसिम्हा राव, आई.के. गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और नरेन्द्र मोदी ने अपनी-अपनी ओर से उपाय प्रारंभ किए तथा आधुनिक भारत में विदेश नीति तैयार करने तथा उसके क्रियान्वयन के लिए अपना-अपना विशिष्ट योगदान दिया।

विदेश नीति की प्रमुख हालिया सफलताओं में हम भारत की 'लुक ईस्ट' और बाद में 'एक्ट ईस्ट' नीति, पोखरन के उपरांत राजनयिकता, यूएस के साथ सिविल परमाणु पहल, पड़ोसियों, विशेष रूप से बांग्लादेश, भूटान, नेपाल और श्रीलंका के साथ संबंधों में गुजराल सिद्धांत, भारतीय मूल के व्यक्तियों की राजनयिकता जिसे प्रधानमंत्री मोदी द्वारा पर्याप्त रूप से बल प्रदान किया गया है तथा मुख्यत: सोशल मीडिया का प्रयोग करते हुए विपत्तिग्रस्त भारतीय नागरिकों तक पहुंचने के प्रयासों का उल्लेख कर सकते हैं जो विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज की एक विशिष्ट उपलब्धि रही है।

इससे पूर्व कि मैं अपनी समाप्त करूं, यहां यह प्रासंगिक होगा कि हम निकट भविष्य में भारतीय विदेश नीति के लिए संभावित प्रमुख पहलकदमों और चुनौतियों पर भी एक नज़र डाल लें। भारत को स्वास्थ्य, ऊर्जा, कृषि और उद्योग के क्षेत्र में आधुनिक प्रौद्योगिकियों तक पहुंच की आवश्यकता होगी तथा वह नए मीडिया प्लेटफार्मों को भी अंगीकृत करेगा। हमें वैश्विक राजनीतिक, सुरक्षा और आर्थिक परिदृश्य में होने वाले विधि परिवर्तनों के साथ सामंजस्य बनाए रखने की आवश्यकता है जिसका निपटान भारत स्वयं नहीं कर सकता है तथा उसे विद्यमान अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में केवल सहयोजित होकर ही नहीं रह जाना है, बल्कि स्वयं को एक ऐसी स्थिति में लेकर आना है कि हम खेल के नियमों को बदल पाने में सक्षम बन सकें। विदेश नीति को भारत की बाजार और निवेश की आवश्यकताओं पर भी ध्यान केन्द्रित करना होगा विशेष से हमारी त्रुटिपूर्ण अवसंरचना तथा मानव विकास सूचकांक के निम्न स्तरों में सुधार लाने के संदर्भ में। आगे चलकर भारत को किसी एक देश अथवा समूह पर निर्भर हुए बिना समस्त देशों का मित्र और भागीदार बनने की आवश्यकता है।

देवियों और सज्जनों, इस बात में कोई संदेह नहीं है कि विदेश नीति को तैयार और क्रियान्वित करना, अत्यंत गतिशील और रोमांचक अनुभव है। हमें विश्वास है कि हमारे बड़ी संख्या में नागरिक, विशेष रूप से आपकी जैसी युवा पीढ़ी के लोग न केवल इस विषय के प्रति सक्रिय रुचि दर्शाएंगे बल्कि इस प्रक्रिया में भाग भी लेंगे।

मुझे धैयपूर्वक सुनने के लिए आपका धन्यवाद।

आज के व्याख्यान में अभिव्यक्त किए गए विचार आवश्यक रूप से भारत सरकार अथवा निवेश मंत्रालय के विचारों को परिलक्षित नहीं करते हैं।

आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।

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भारत की विदेश नीति का निर्धारण कौन करता है?

एक देश की विदेश नीति को निर्धारित एवं प्रभावित करने वाले कारक हैं-भू-रणनीतिक अवस्थिति,सैन्य क्षमता, आर्थिक शक्ति, एवं सरकार का स्वरूप। दूसरी तरफ विदेश नीति संबंधी निर्णय वैश्विक एवं आंतरिक प्रभावों द्वारा निर्धारित होते हैं।

भारत की विदेश नीति के मूल निर्धारक क्या हैं प्रासंगिक उदाहरणों की सहायता से विवेचना कीजिए?

भारत विश्व व्यापार व्यवस्था, जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद, बौद्धिक संपदा अधिकार, वैश्विक शासन जैसे वैश्विक आयामों के मुद्दों पर वैश्विक बहस और वैश्विक सहमति की हिमाकत करता है। आजादी के बाद कई वर्षों तक भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति का पालन किया था और गुटनिरपेक्ष आंदोलन (गुटनिरपेक्ष आंदोलन) का नेतृत्व किया था।

भारत की विदेश नीति के संस्थापक कौन हैं?

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन व विदेश नीति भारत की विदेश नीति के आधुनिक सिद्धान्तों का निर्माण भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना होने के बाद ही हुआ।

भारत की विदेश नीति का मुख्य आधार क्या है?

विश्व की लगभग 1/5 आबादी के साथ भारत को अपना स्वयं का पक्ष चुनने और अपने हितों का ध्यान रखने का अधिकार है। यह निश्चित रूप से अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का एक मूल तत्त्व है कि राष्ट्रीय हित सर्वोपरि हैं और भारत ने भी अन्य देशों की तरह विदेशी एवं राष्ट्रीय सुरक्षा नीतियों के अनुपालन में अपने हितों पर बल दिया है।

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