बकरी का पूरा नाम क्या है? - bakaree ka poora naam kya hai?

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Authored by

Priyanka Pandey

| नवभारतटाइम्स.कॉम | Updated: May 3, 2022, 10:00 PM

इस्लामिक कैलेंडर के आखिरी महीने की दस तारीख को बकरीद का त्योहार मनाया जाता है। इस बार बकरीद 21 जुलाई यानी आज मनाया जा रहा है। आइए जानते हैं कि बकरीद पर कुर्बानी क्‍यों दी जाती है? आखिर पूरा गोश्‍त क्‍यों नहीं रख सकते? शैतान पर पत्‍थर मारने की वजह क्‍या है? साथ ही ईद और बकरीद में अंतर क्‍या है? कुर्बानी की कहानी एक तरह से कुर्बानी का जज्बा होता है। दरअसल इस त्योहार की पृष्ठिभूमि ही कुर्बानी है। अगर हजरत इब्राहिम अल्लाह की इच्छा को पूरी करने के लिए उनकी राह में अपने बेटे को कुर्बान करने को तैयार नहीं हो जाते तो शायद यह त्योहार मनाने की परंपरा ही शुरू नहीं होती। हजरत इब्राहिम अल्लाह को समर्पित वह शख्स थे, जो उनकी इच्छा को पूरी करने के लिए कोई भी बलिदान देने को तैयार रहा करते थे। कहा जाता है कि एक बार अल्लाह ने उनकी परीक्षा लेनी चाही और उसी के अनुरूप हजरत इब्राहिम को हुक्म हुआ कि वह अपनी सबसे प्यारी चीज को अल्लाह की राह में कुर्बान कर दें। हजरत इब्राहिम ने अल्लाह की राह में अपने बेटे को कुरबान करने का फैसला किया। कुर्बानी के वक्त बेटे का प्यार हावी न हो जाए इस वजह से उन्होंने अपनी आंखों में पट्टी बांध ली। अल्लाह का नाम लेते हुए उसके गले पर छूरी चला दी। जब उन्होंने अपनी आंख खोली तो देखा उनका बेटा बगल में जिंदा खड़ा है और उसकी जगह दुम्बा (बकरे जैसी शक्ल का जानवर) कटा हुआ लेटा है। इसी वजह से अल्लाह की राह में कुरबानी की शुरूआत हुई। यह पढ़ें: काबा के पूरब में काला पत्थर का रहस्य, इसलिए चूमते हैं हाजी पूरा गोश्त नहीं रख सकते बकरीद के मौके पर जिस जानवर की कुर्बानी होती है, उसके पूरे गोश्त को अकेले परिवार के लिए नहीं रखा जा सकता। कुल गोश्त के तीन हिस्से करने होते हैं। एक हिस्सा गरीबों को बांटा जाना जरूरी होता है। दूसरे हिस्सा रिश्तेदारों और परिचितों में बांटा जाना होता है और तीसरा हिस्सा ही घर में रखा जाना होता है। कुर्बानी वाले जानवर का स्वस्थ होना बहुत जरूरी है। अगर वह बीमार है तो उसकी कुर्बानी जायज नहीं। मान्यता है कि जानवर के शरीर पर जितने बाल होते हैं, उनकी संख्या के बराबर नेकियां कुर्बानी करने वाले के हिस्से में लिखी जाती हैं।

  • कुर्बानी की कहानी

    एक तरह से कुर्बानी का जज्बा होता है। दरअसल इस त्योहार की पृष्ठिभूमि ही कुर्बानी है। अगर हजरत इब्राहिम अल्लाह की इच्छा को पूरी करने के लिए उनकी राह में अपने बेटे को कुर्बान करने को तैयार नहीं हो जाते तो शायद यह त्योहार मनाने की परंपरा ही शुरू नहीं होती। हजरत इब्राहिम अल्लाह को समर्पित वह शख्स थे, जो उनकी इच्छा को पूरी करने के लिए कोई भी बलिदान देने को तैयार रहा करते थे। कहा जाता है कि एक बार अल्लाह ने उनकी परीक्षा लेनी चाही और उसी के अनुरूप हजरत इब्राहिम को हुक्म हुआ कि वह अपनी सबसे प्यारी चीज को अल्लाह की राह में कुर्बान कर दें। हजरत इब्राहिम ने अल्लाह की राह में अपने बेटे को कुरबान करने का फैसला किया। कुर्बानी के वक्त बेटे का प्यार हावी न हो जाए इस वजह से उन्होंने अपनी आंखों में पट्टी बांध ली। अल्लाह का नाम लेते हुए उसके गले पर छूरी चला दी। जब उन्होंने अपनी आंख खोली तो देखा उनका बेटा बगल में जिंदा खड़ा है और उसकी जगह दुम्बा (बकरे जैसी शक्ल का जानवर) कटा हुआ लेटा है। इसी वजह से अल्लाह की राह में कुरबानी की शुरूआत हुई।

    यह पढ़ें: काबा के पूरब में काला पत्थर का रहस्य, इसलिए चूमते हैं हाजी

  • पूरा गोश्त नहीं रख सकते

    बकरीद के मौके पर जिस जानवर की कुर्बानी होती है, उसके पूरे गोश्त को अकेले परिवार के लिए नहीं रखा जा सकता। कुल गोश्त के तीन हिस्से करने होते हैं। एक हिस्सा गरीबों को बांटा जाना जरूरी होता है। दूसरे हिस्सा रिश्तेदारों और परिचितों में बांटा जाना होता है और तीसरा हिस्सा ही घर में रखा जाना होता है। कुर्बानी वाले जानवर का स्वस्थ होना बहुत जरूरी है। अगर वह बीमार है तो उसकी कुर्बानी जायज नहीं। मान्यता है कि जानवर के शरीर पर जितने बाल होते हैं, उनकी संख्या के बराबर नेकियां कुर्बानी करने वाले के हिस्से में लिखी जाती हैं।

  • शैतान पर पत्थर मारने की वजह

    हज यात्रा के अंतिम दिन कुर्बानी देने के बाद रमीजमारात पहुंच कर शैतान को पत्थर मारने की जो परंपरा है, वह हजरत इब्राहिम से ही जुड़ी है। कहते हैं कि जब हजरत इब्राहिम अपने बेटे को अल्लाह की राह में कुर्बानी देने के लिए चले तो शैतान ने उन्हें बहुत बरगलाने की कोशिश की थी। इसी वजह से हजयात्री शैतान के प्रतीकों को वहां पत्थर की कंकडियां मारते हैं।यह पढ़ें: Bakrid 2019: इन बेहतरीन वॉलपेपर्स के साथ अपनों को दें बकरीद की मुबारकबाद

  • ईद और बकरीद में फर्क

    ईद का जो त्योहार होता है, वह रमजान महीने के खत्म होने पर आता है। रमजान को इस्लाम का सबसे पवित्र महीना माना जाता है। इसमें मुसलमानों को 30 रोजे रखने होते हैं और फिर चांद देखकर ईद मनायी जाती है। ईद एक तरह से 30 रोजे मुकम्मल होने की खुशी में मनाया जाने वाला त्यौहार होता है। इस मौके पर सेवेइयां बनती हैं, लेकिन बकरीद पर गोश्त से ही बनने वाले खाने परोसे जाते हैं।

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