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हरित क्रांति क्या थी इसके किन्हीं दो सकारात्मक तथा किनही दो नकारात्मक परिणाम का उल्लेख कीजिए
Posted by Gulshan Sharma 4 years, 9 months ago
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हरित क्रांति कृषि की पैदावार में वृद्धि करना था। जिससे देश मे खाद्दन प्रदार्थ को बढ़ाना था .जिसमे संसाधनों को ऐसी जगह लगाया जहा सिंचाई सुविधा मौजूद थी और किसान बेहतर थे सकारात्मक परिणाम 1.कृषि की पैदवार में व्रद्धि हुई (खासकर गेहू की पैदावार में) 2 गिर्रामीण आय में वृद्धि नकारात्मक परिणाम 1.इसका लाभ पूरे भारत को नही हुआ 2.छोटे किसान और मजदूर को लाभ नही हुआ
Posted by Anish Kaushik 3 weeks ago
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Posted by Anish Kaushik 3 weeks ago
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Posted by Pahadi Sonu 2 weeks ago
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Posted by Anish Kaushik 3 weeks ago
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Posted by Anish Kaushik 3 weeks ago
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Posted by Ravi Star 2 weeks, 1 day ago
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Posted by Unknown Zaire 2 weeks ago
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Posted by Anish Kaushik 3 weeks ago
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Posted by Manish Kumar 1 week, 6 days ago
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Posted by Anish Kaushik 3 weeks ago
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हरित क्रांति के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव पर निबंध
हरित क्रांति क्या है
हरित क्रांति एक ऐसी क्रांति है जिसमे अधिक उपज देने वाले बीजों, रासायनिक उर्वरको व नई तकनीक के प्रयोग से कृषि उत्पादकता बधाई उसे हरित क्रांति कहते हैं। ‘हरित क्रांति’ शब्द का अर्थ है नए पौधें की किस्मों के विकास द्वारा उत्पादन को कई गुना बढ़ाने के उपाय। उच्च उत्पादन वाली धन व गेहूं की किस्में हरित क्रांति के मुख्य तत्व रहे हैं।
हरित क्रांति की अवधारणा
शब्द "हरित क्रांति' का उल्लेख कृषि विशेषज्ञों के दल द्वारा 1950 के और 1960 के दशकों के दौरान विकसित नई कृषि प्रौद्योगिकी के लिए किया गया है। इस दल में मैक्सिको में अंतर्राष्ट्रीय मक्का और गेहूँ सुधार केंद्र और फिलिपीन्स में अंतर्राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान (IRRI) के कृषि विशेषज्ञ थे। इन दो केंद्रों में विकसित प्रौद्योगिकी बाद में एशिया और लेटिन अमेरिका के अधिकांश विकासशील देशों द्वारा अपनाई गई। यद्यपि प्रारंभ में नई कृषि रणनीति मुख्यतया गेहूँ और चावल की फसलों तक सीमित थी, बाद में, अन्य फसलों के लिए भी इसका विस्तार किया गया।
ये प्रणालियाँ उन परंपरागत कृषि प्रणालियों के स्थान पर प्रारंभ की गई, जो अधिकांशतः किसानों के अपने स्वामित्व और संसाधनों पर आधारित थे (जैसे देशी बीज, खेत में बनी खाद, हाथ से सिंचाई, रहट का प्रयोग)। देशी बीजों की समस्या यह थी कि वे उत्पादकता बढ़ाने के लिए प्रयुक्त रासायनिक उर्वरक की अधिक मात्रा बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। जबकि रासायनिक उर्वरकों और सिंचाई के संयोजन में HYT बीजों ने अधिक वांछित उच्चतर उत्पादकता दी।
"हरित क्रांति" शब्द का प्रयोग सबसे पहले डॉ. विलयिम गौड (USAID के तत्कालिक प्रशासक) ने किया था। उन्होंने 1968 में एशिया और लेटिन अमेरिका के विकासशील देशों में नई कृषि प्रौद्योगिकी द्वारा प्राप्त सफलता का वर्णन करने के लिए हरित क्रांति शब्द का प्रयोग किया। यद्यपि हरित क्रांति ने समग्र कृषि उत्पादन, उत्पादकता और आय पर्याप्त रूप से बढ़ाई, खाद्य कमी अर्थव्यवस्था को खाद्य पर्याप्तता में रूपांतरित किया परंतु इसने ग्रामीण अर्थव्यवस्था में कई नकारात्मक प्रभाव भी उत्पन्न कियेजोकि निम्नलिखित है। (i) भौमजल स्तर का अवक्षय; (ii) मृदा की गुणवत्ता में हास; (iii) वर्धित निवेश लागत; (iv) वर्धित ऋण आवश्यकता, आदि।
भारत में हरित क्रांति
भारत को 1950 और 1960 के दशकों में गंभीर खाद्य कमी का सामना करना पड़ा और खाद्यान्न का आयात करना पड़ा। भारत खाद्यान्न की कमी जल्दी से जल्दी पूरा करने के लिए बेचैन था। परिणामस्वरूप फोर्ड फाउंडेशन के कृषि विशेषज्ञों के दल की सिफारिशों पर भारत ने कृषि की दृष्टि से विकसित चुनिन्दा क्षेत्रों में अधिक खाद्यान्न, विशेषकर गेहूँ और चावल अधिक पैदा करने की नई कृषि रणनीति अपनाई। 1960 के दशक में फोर्ड फाउंडेशन ने भारत सरकार की स्वीकृति से कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए बेहतर प्रौद्योगिकी आदानों से गहन कृषि क्षेत्र कार्यक्रम (IAAP) प्रारंभ किया। IAAP के आशाप्रद परिणामों तथा अधिक खाद्यान्न के लिए बढ़ती हुई आवश्यकताओं को देखते हुए सरकार ने (1964-65 के दौरान) उन चुनिन्दा 114 जिलों में गहन कृषि जिला कार्यक्रम (IADP) प्रारंभ किया जहाँ कृषि विकास की संभावना बहुत अधिक थी।ये दोनों कार्यक्रम भारत में हरित क्रांति प्राप्त करने की दिशा में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कदम सिद्ध हुए। डॉ. नार्मन बोरलॉग और डा. एम.एस. स्वामीनाथन (कृषि वैज्ञानिक) तथा सी. सुब्रह्मण्यम, तत्कालीन कृषि मंत्री, भारत में नई कृषि प्रौद्योगिकी लाने में महत्त्वपूर्ण व्यक्ति रहे हैं। नई रणनीति का मुख्य उद्देश्य किसानों को आवश्यक सेवाओं की सुलभता प्रदान कर खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना था।
इसे निम्नलिखित क्षेत्रों में प्रचुर सार्वजनिक निवेश के अधीन पर्याप्त कृषि अनुसंधान, विस्तार और विपणन, आधारभूत संरचना स्थापित कर किया गया थाः (i) पृष्ठीय और भौमजल सिंचाई; (ii) कृषि उपकरणों और उर्वरकों का विनिर्माण; (iii) कृषि मूल्य आयोग की स्थापना; (iv) निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण; और (v) किसानों को ऋण सुविधाएँ प्रदान करने के लिए सहकारी ऋण संस्थाओं की स्थापना। इसके अतिरिक्त, इस अवधि के दौरान नलकूप प्रौद्योगिकी का आविष्कार, कृषि उत्पादकता, विशेषकर पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वृद्धि करने में योगदान से और फसल स्वरूप में परिवर्तन करने में सहायक हुआ है। बहुत कम समय में गेहूँ क्रांति संपूर्ण उत्तर भारत में फैल गई है और गेहूँ के उत्पादन और उत्पादकता में भारी वृद्धि हुई। बाद में ऐसी ही क्रांति चावल की खेती में हुई। किंतु इसकी औचित्य, पारितंत्र और पर्यावरण संबंधित मुद्दों पर गंभीर आलोचना भी हुई है। इसके बावजूद हरित क्रांति ने भारतीय अर्थव्यवस्था के रूपांतरण में असाधारण योगदान किया।
हरित क्रांति की मुख्य विशेषताएँ
परंपरागत कृषि जो अधिकांशतः देशी बीजों और आंतरिक निवेश पर निर्भर होती है, के विपरीत, हरित क्रांति मुख्यतया HYT बीजों-सिंचाई-उर्वरकों के पैकेज पर आधारित थी जिसे उसके अपनाने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता होती है। ये सभी एकसाथ सही अनुपात में आवश्यक होते हैं, क्योंकि, जल का अपर्याप्त और अत्यधिक प्रयोग दोनों ही इन बीजों के लिए हानिकारक थे। इसलिए सुनिश्चित और नियंत्रित सिंचाई की उपलब्धता और रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग HYT बीजों की उत्पादकता बढ़ाने में दो महत्त्वपूर्ण कारक बन गए। अत. GR प्रौद्योगिकी उन क्षेत्रों के लिए उपयुक्त थी, जहाँ पर्याप्त सिंचाई सुविधाएँ और उपयुक्त सिंचाई के साथ थे। साथ ही जल निकासी व्यवस्था भी थी। यद्यपि एक ओर HYT बीजों को अपनी वृद्धि के लिए रासायनिक उर्वरकों की उच्च मात्रा की आवश्यकता होती है, इसके प्रतिस्वरूप उर्वरकों के प्रयोग से उत्पन्न खरपतवार के लिए खरपतवारनाशी के प्रयोग की भी आवश्यकता होती है।
HYV की मुख्य विशेषताओं में एक यह है कि उनकी परिपक्वता की अवधि बहुत कम थी जिससे किसानों को वर्ष में कई फसलें उगाने के अवसर मिले। इस प्रकार GR प्रौद्योगिकी फसल सघनता बढ़ाने में सहायक हुई। GR प्रौद्योगिकी के अधीन उत्पादकता के उच्चतर स्तर और फसल गहनता ने इसे भूमि बचत प्रौद्योगिकी बनाया। परंतु अगली फसल के लिए भूमि खाली करने के लिए किसानों को समय पर फसल कटाई और अगली फसल के लिए भूमि तैयार करने सहित विभिन्न फार्म क्रियाएँ करने की आवश्यकता होती है। इसके लिए आधुनिक फार्म मशीनों, जैसे ट्रैक्टरों, थ्रेशरों, सिंचाई पम्पों आदि का प्रयोग आवश्यक था। इस प्रकार GR प्रौद्योगिकी फार्म मशीनें, सिंचाई पम्पों आदि के विनिर्माण में अधिक निवेश आकर्षित करने तथा छोटे कस्बों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में बैकिंग और विपणन ढाँचागत सुविधाएं स्थापित करने में भी सहायक हुई।
अतः संक्षेप में, HYT बीज रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का प्रयोग, आधुनिक फार्म मशीनों का अनुप्रयोग, विस्तृत सिंचाई सुविधाएँ, अनेकधा सस्यन, उन्नत ऋण सुविधाएँ, समर्थन मूल्य नीति और उन्नत अनुसंधान और विकास तथा विस्तार तथा आधारभूत संरचना, भारत में हरित क्रांति आंदोलन की मुख्य विशेषताओं के रूप में उल्लेखनीय हैं।
हरित क्रांति का प्रभाव
भारत में GR प्रौद्योगिकी ने विशेष रूप से कृषि पर और सामान्य रूप से संपूर्ण अर्थव्यवस्था पर अद्भुत प्रभाव डाला है।
हरित क्रांति का सकारात्मक प्रभाव
- खाद्यान्नों के उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि
- रोजगार सृजन
- कृषि में सार्वजनिक/निजी निवेश का प्रवाह
- भूमि की बचत
- ग्रामीण कृषीतर अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
सकारात्मक प्रभाव के क्षेत्र में GR प्रौद्योगिकी फसलों के, विशेषकर गेहूँ और चावल के उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने तथा सस्य सघनता बढ़ाने, मोटे धान्य से श्रेष्ठ धान्य में सस्यक्रम बदलने और बाद में गन्ना और बागवानी फसलों सहित नकदी फसल बोने और खाद्य सुरक्षा की समस्या हल करने में सहायक हुआ।
(1) खाद्यान्नों के उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि
हरित क्रांति (GR) के सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण प्रभावों में एक धान्य फसलों, विशेषकर गेहूँ और चावल के उत्पादन और उत्पादकता की वृद्धि थी। धान्य उत्पादन तीन कारकों द्वारा बढ़ाया गया था : (i) खेती के अधीन निवल क्षेत्र में वृद्धि; (ii) भूमि के उसी टुकड़े पर वर्ष में दो या अधिक फसलों की उगाई; और (iii) HYV बीजों का प्रयोग। GR के परिणामस्वरूप खाद्यान्नों के उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। यह 1965-66 में 72.4 मिलियन टन से बढ़कर 1978-79 में 131.9 मिलियन टन हुआ। इससे भारत विश्व के सबसे बड़ा कृषि उत्पादकों में गिना गया।
(2) रोजगार सृजन
कृषि में रोजगार पैदा करने के संबंध में GR प्रौद्योगिकी का प्रभाव विवादास्पद रहा है। हरित क्रांति के आलोचक तर्क देते हैं कि हरित क्रांति क्षेत्रों में फार्म कार्यप्रणाली के बढ़े हुए यंत्रीकरण ने कृषि में रोज़गार घटाया है। उदाहरण के लिए, सी.एच.हनुमंथा राव ने टिप्पणी की कि "बीज-उर्वरक-सिंचाई" पैकेज के अनुसार GR प्रौद्योगिकी का कृषि में रोजगार पैदा करने पर पर्याप्त सकारात्मक प्रभाव था, परंतु फार्म मशीनों, जैसे ट्रैक्टरों के बढ़ते हुए उपयोग से रोजगार पैदा होने में कमी आई। फिर भी, ट्रैक्टर और अन्य आधुनिक मशीनों के बढ़े हुए प्रयोग ने बढ़ते हुए सस्य सघनता, फार्म उत्पादकता और बदलते हुए सस्य क्रम ने रोजगार के संपूर्ण स्तर बढ़ाए।
(3) कृषि में सार्वजनिक/निजी निवेश का प्रवाह
भारत में हरित क्रांति की सफलता के पीछे सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कारक सुनिश्चित सिंचाई की उपलब्धता है। नलकूप प्रौद्योगिकी के आविष्कार ने विशेष रूप से सिंधु गंगा बेसिन में प्रति हेक्टेयर फसल उपज बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। नई कृषि रणनीति के लिए कृषि अनुसंधान, विस्तार, बिजली, सड़कों, सिंचाई में निवेश सहित कृषि आधारभूत संरचना में सार्वजनिक निवेश आवश्यक है। भारत सरकार ने उन क्षेत्रों में कृषि में भारी सार्वजनिक निवेश किया, जहां नई रणनीति अपनाई गई थी। इस निवेश से कृषि में भी निजी निवेश की गति तेज़ करने पर अनुकूल प्रभाव हुआ। किसानों ने नलकूप, ट्रैक्टर और उसके उपकरणों बिजली और डीज़ल पम्प सेटों, भूमि समतलन, और विकास आदि में निवेश किया। भारत में मैकेनिकल और इलैक्ट्रिकल विद्युत का अंश 1971-72 में 39.4 प्रतिशत से बढ़कर 2005-06 में 86.6 प्रतिशत हो गया।
(4) भूमि की बचत
भूमि सीमित संसाधन है, इसके वैकल्पिक प्रयोग के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही है। जनसंख्या, शहरीकरण और औद्योगिकीकरण की तीव्र वृद्धि के कारण कृषीतर प्रयोजनों के लिए भूमि की मांग निरंतर बढ़ती जा रही है। कृषीतर प्रयोजनों के लिए भूमि को खाली करने पर विवाद कम हो सकता है यदि भूमि की उत्पादकता और अन्य संसाधन बढ़ाने से कृषि प्रयोजनों के लिए भूमि की आवश्यकता पूरी की जा सके। इस संदर्भ में GR प्रौद्योगिकी को भूमि बचाऊ माना गया है क्योंकि, इसने विभिन्न कृषि फसलों की प्रति हेक्टेयर उपज सार्थक रूप से बढ़ाई है। कृषि में उत्पादकता वृद्धि ने अप्रत्यक्ष रूप से वन भूमि को भी बचाया है क्योंकि GR के कारण बढ़ी हुई कृषि उत्पादिता के अभाव में आवश्यकता पूरी करने के लिए अधिक वन भूमि को कृषि भूमि में बदला जा सकता था। इस दृष्टि से कभी-कभी यह तर्क भी दिया जाता है कि पर्यावरण पर हरित क्रांति के नकारात्मक प्रभाव होते हुए भी वन भूमि बचाकर इस पर सकारात्मक प्रभाव हुआ है।
(5) ग्रामीण कृषीतर अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
हरित क्रांति ने ग्रामीण कृषीतर अर्थव्यवस्था में उल्लेखनीय सकारात्मक प्रभाव उत्पन्न किया। इसके फलस्वरूप भूमि से प्रतिलाभ में पर्याप्त वृद्धि हुई है इससे किसानों की आय में पर्याप्त वृद्धि हुई। चूंकि ग्रामीण समुदाय का बहुत बड़ा भाग कृषि श्रमिकों और किसानों का होता है, इसलिए कृषि विकास के कारण उनकी आय में वृद्धि स्थानीय रूप से उत्पादित माल और सेवाओं की मांग बढ़ाता है। इस प्रकार कृषीतर सेवाओं में रोजगार और आय में वृद्धि होती है। इसके अलावा, फार्म आदानों, फार्म औजारों और मशीनों की मरम्मत और अनुरक्षण, परिवहन और विपणन सेवाओं, कृषि संसाधनों की मांग के विस्तार से कृषीतर कार्यों में लगे ग्रामीण परिवारों में अतिरिक्त आय और रोजगार सृजित होता है।
हरित क्रांति का नकारात्मक प्रभाव
- मृदा उर्वरता में हास
- जैव विविधता की क्षति
- भौमजल संसाधनों का अवक्षय
- छोटे और सीमांत किसानों पर प्रभाव
- कृषि में अति पूँजीकरण
- असमानताओं में बढ़ोतरी
- पारिस्थितिकी और पर्यावरण पर प्रभाव
- ऊर्जा समस्याएँ
भारत में हरित क्रांति ने कई नकारात्मक प्रभाव भी उत्पन्न किए हैं। चूंकि GR प्रौद्योगिकी अपनी अंतःनिर्मित असमान सुलभता और "क्षेत्र के असंतुलित विकास' की विशेषता के साथ "सबल पर संबल" की रणनीति पर आधारित है। इसलिए इसने क्षेत्रों और फार्मों की श्रेणियों के कृषि विकास में असमानता पैदा की है। किसी भी प्रकार के फेरबदल के बिना और जल, उर्वरकों और कीटनाशक दवाओं का भारी प्रयोग कर उसी भूमि पर गेहूँ या चावल की दो या तीन भी फसलें उगाने की प्रवृत्ति भी देखी गई। इसने मृदा उर्वरता और जल की मात्रा/गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव छोड़ा। हम GR के इस प्रतिकूल पहलुओं पर अधिक विस्तार से आगे चर्चा कर रहे हैं।
(1) मृदा उर्वरता में हास
GR प्रौद्योगिकी ने मृदा उर्वरता में गुण हास उत्पन्न किया है। "प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन” (भारत सरकार, 2007) पर कार्यदल की रिपोर्ट के अनुसार 1980 के और 1990 के दशकों के दौरान मृदा कोटि निम्नीकरण के कारण अनुमानित हानि GDP के 11 से 26 प्रतिशत तक हुई। विश्वसनीय सलाह और मृदा परीक्षण सुविधाओं के अभाव के कारण अंधाधुंध और हानिकारक रासायनिकों का प्रयोग हुआ है। खेत उत्पन्न खाद और हरी खाद का प्रयोग विभिन्न कारणों से घटा है जैसे जुताई पशुओं में कमी, फली फसलों से चावल, गेहूँ, गन्ना और अन्य वाणिज्यिक फसलों में सस्यक्रम परिवर्तन, आदि। यह भी तर्क दिया जाता है कि हरित क्रांति प्रौद्योगिकी फसल विविधता को प्रोत्साहित नहीं कर सकी। इसने तो फसल संकेन्द्रण को प्रोत्साहित किया है। हाल ही में "मृदा, साहाय्य और जीवनधारिता” पर ग्रीनपीस इंडिया रिपोर्ट (2011) ने टिप्पणी की है कि "रासायनिक उर्वरकों का अंधाधुंध प्रयोग हमारी मृदा की हत्या कर रहा है और हमारी खाद्य सुरक्षा को संकट में डाल रहा है। इनसे हटने और अपनी मृदा को पारिस्थितिकीय तरीके से पारिपोषित करने का यही समय है।"
(2) जैव विविधता की क्षति
ग्रामीण आजीविका को धारणीय बनाए रखने और खाद्य सुरक्षा प्राप्त करने के लिए जैव विविधता आवश्यक है। परंतु HYT बीजों के प्रयोग ने उन देशी प्रजातियों पर आधारित कृषि कार्यप्रणाली बदल डाली जो पीढ़ियों के दौरान निर्मित हुई थी। इसके कारण बहुत से महत्त्वपूर्ण जीन कोषों की जननिक संवेदनशीलता, बिगड़ते हुए जैव विविधता और कृषि जननिक संसाधनों को क्षति हुई।
(3) भौमजल संसाधनों का अवक्षय
1990 के दशक में कूपजल प्रौद्योगिकी का विकास सिन्धु गंगा प्रदेशों में हरित क्रांति लाने वाले महत्त्वपूर्ण कारकों में से एक है। परंतु इन क्षेत्रों में नलकूपों की चिरघातांकी वृद्धि भी भौमजल संसाधनों के तीव्र हास के मुख्य कारण रही है। यद्यपि निष्पक्षता, दक्षता और निजी निवेश के आधार पर भौमजल सिंचाई को वरीयता दी जाती है, परंतु, बहुत-सी सरकारी नीतियों (जैसे क्रांति निवेश पर कृषि सरकारी सहायता, धारणीय भौमजल प्रयोग पर प्रभावशाली विनियम का अभाव आदि) ने भी अवक्षय में योगदान किया है।
(4) छोटे और सीमांत किसानों पर प्रभाव
यह तर्क दिया जाता है कि परंपरागत कृषि से एकधा सस्यन में अंतरण का छोटे किसानों पर नकारात्मक प्रभाव हुआ है। छोटे और सीमांत किसानों को मंहगा HYV बीज, उर्वरक और कीटनाशक दवाइयां खरीदनी पड़ती हैं जिनके लिए उन्हें अपेक्षाकृत अधिक ब्याज दर पर ऋण लेना पड़ता है और परिणामस्वरूप वे "ऋण के जाल" में फंस जाते हैं। इसके अलावा धनी किसानों द्वारा भौमजल के अतिदोहन से छोटे और सीमांत किसानों को पानी की उपलब्धता कठिन हो जाती है।
(5) कृषि में अति पूँजीकरण
परंपरागत कृषि प्रथा अधिकांशतः स्थानीय रूप से उपलब्ध कृषि आदानों और औजारों, जैसे फार्म में उगाए गए बीजों, काष्ठ या लोहे के हल, पशु जुताई, खेत पर उत्पन्न खाद, बैलगाड़ी और स्थानीय बढ़इयों और लौहारों द्वारा बनाए गए अन्य कृषि औजारों पर आधारित थी। इन निवेशों और औजारों को प्राप्त करने के लिए रुपयों की बहुत कम या कोई आवश्यकता नहीं होती थी क्योंकि उनमें से अधिकांश स्वयं अपने होते थे या "जजमानी' प्रथा के अधीन किसानों द्वारा दिए जाने वाले हितलाभों के बदले बढ़ई और लौहार काम देते थे। यद्यपि जजमानी प्रथा का हास हो रहा है, कृषि में उभरती हुई कार्यप्रणाली बहुत से क्षेत्रों में अधिक पूँजीकरण की ओर बढ़ रही है। नई कृषि प्रौद्योगिकी के लिए आधुनिक फार्म मशीनें, ट्रैक्टरों, पम्पसेटों आदि में भारी निवेश की आवश्यकता थी जो अधिकांश मामलों में स्वकर्षित जोतों के विभाजन के कारण अल्प प्रयुक्त रहते थे। उदाहरण के लिए, स्वकर्षित जोतों का विभाजन किसानों को अधिक ट्रैक्टर और औजार तथा सिंचाई पम्प खरीदने के लिए प्रोत्साहित करता है जिसके कारण कृषि में अति पूँजीकरण होता है। कृषि की दृष्टि से अधिक विकसित क्षेत्रों में जैसे पंजाब और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में कृषि में अति पूंजीकरण है।
(6) असमानताओं में बढ़ोतरी
GR प्रौद्योगिकी ने क्षेत्रों और फार्मों की श्रेणियों में असमानताएँ उत्पन्न की हैं। चूंकि यह "सबल पर संबल" दृष्टिकोण पर आधारित है इसलिए असमानता इसमें स्वाभाविक थी। नई प्रौद्योगिकी के लाभ कुछ ही फसलों, जैसे गेहूँ, चावल, गन्ना और कृषि की दृष्टि से विकसित कुछ क्षेत्रों तक सीमित थे, जहां सिंचाई की पर्याप्त सुविधाएँ थीं। अधिकांश फसलों और वर्षा प्रधान कृषि क्षेत्रों ने GR से पर्याप्त लाभ प्राप्त नहीं किए। यह देखा गया है कि अधिकांश देशों में, जहां नई प्रौद्योगिकी अपनाई गई थी, पहले से विकसित क्षेत्रों के किसानों ने अधिक लाभ प्राप्त किए, अधिकांशतः सबसे गरीब किसानों और अल्पतम विकसित क्षेत्रों ने नहीं।
(7) पारिस्थितिकी और पर्यावरण पर प्रभाव
जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है GR प्रौद्योगिकी के सबसे अधिक प्रतिकूल प्रभावों में उसके पारिस्थितिकी और पर्यावरण प्रभाव प्रमुख हैं। कृषि में रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक दवाओं का अत्यधिक प्रयोग भूमि की उर्वरता की कमी का मुख्य स्रोत है। इसने सामान्यतया जलीय जीवन और विशेष रूप से मत्स्य उत्पादन प्रभावित करते हुए नदी जल संसाधनों को भी प्रदूषित किया है। हाल ही के दशकों में, उत्पादकता रुद्धता भी उस मृदा और जल संसाधनों के निम्नीकरण के कारण हुई है जो विशेषकर चावल-गेहूँ और उत्तर भारत के राज्यों के गेहूँगन्ना उत्पादन से उत्पन्न हुआ है। इसलिए उर्वरकों, कीटनाशियों और खरपतवार नाशियों के अत्यधिक प्रयोग से न केवल प्राकृतिक संसाधनों का निम्नीकरण हुआ है बल्कि उत्पादकता भी अवरुद्ध हुई है।
(8) ऊर्जा समस्याएँ
हरित क्रांति से संबंधित एक अन्य समस्या जीवाश्म ईंधन ऊर्जा स्रोतों पर उसकी अधिक निर्भरता है। यह तर्क दिया जाता है कि ऊर्जा आधारित कृषि आदानों की लागत में वृद्धि के परिणामस्वरूप कृषि उत्पादों की कीमतों में भी वृद्धि होती है, इससे GR कार्यप्रणाली आर्थिक और पारिस्थितिक दृष्टि से संदेहास्पद है। देखा गया है कि कृषि में मैकेनिकल और इलैक्ट्रिकल विद्युत खपत का अंश समय के चलते बहुत बढ़ा है। डीज़ल आयात की अधिक उच्च मांग ने भारत के विदेशी मुद्रा भंडार पर भी बहुत दबाव रखा है।
प्रथम हरित क्रांति अवधि (1968-79) के लाभ अधिकांशतः कुछ ही फसलों और कृषि की दृष्टि से विकसित क्षेत्र के बड़े किसानों तक सीमित रहे। भारत का बहुत बड़ा भाग, विशेषकर पूर्वी राज्यों के वर्षा निर्भर क्षेत्र, जैसे असम, बिहार और उड़ीसा हरित क्रांति प्रौद्योगिकी से अधिकांशतः अछूता रहा। इसे ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने उन क्षेत्रों और फसलों के कृषि विकास के लिए विशिष्ट प्रयास प्रारंभ किए जो पहली हरित क्रांति के लाभ प्राप्त नहीं कर सकते थे। ये प्रयास इन बातों के इर्द-गिर्द केन्द्रित थे : (i) पूर्वी राज्य के कृषि विकास पर बल; (ii) लोगों की आजीविका सुधारने और खाद्य सुरक्षा प्राप्त करने के लिए वर्षा प्रधान और असिंचित कृषि क्षेत्रों का विकास, तथा (iii) उच्च महत्त्व की बागवानी, पुष्प कृषि, पशुधन, डेयरी उत्पादों पर फोकस के साथ कृषि उत्पादों की संविदा कृषि और अन्य नवाचारी प्रयासों के माध्यम से अनुसंधान और विकास (RCD), कृषि उत्पादों के भंडारण, विपणन और प्रसंस्करण में कृषि व्यावसायिक कंपनियों की अधिक सहभागिता।
पूर्वी क्षेत्र में GR प्रौद्योगिकी के लाभ न पहुंचने का मुख्य कारण यही था कि छोटे खेतों और जोतों के छोटे आकार के स्वामी किसानों के पास पम्प सेट खरीद कर अपने नलकूल लगाने के लिए धन का नितांत अभाव था। गांवों के विद्युतीकरण में विलंब भी नलकूपों की धीमी प्रगति का एक कारक था। इन कारणों को ध्यान में रखते हुए पूर्वी क्षेत्र में भौमजल विकास सभी क्षेत्रों की अपेक्षा सबसे कम था। परंतु बाद में अपनी उत्पादकता और विभिन्न फसलों की विविधता सुधारने के लिए पूर्वी राज्यों के किसानों को नीतिगत सहायता पर ध्यान दिया गया। इन प्रयासों से बिहार, उड़ीसा और असम में कृषि वृद्धि उल्लेखनीय रूप से बढ़ी।