जॉन डीवी की शिक्षा योजना में 8 से 12 वर्ष की आयु को कौन सा काल कहा गया है? - jon deevee kee shiksha yojana mein 8 se 12 varsh kee aayu ko kaun sa kaal kaha gaya hai?

जॉन डीवी का जन्म 1859 में संयुक्त राज्य अमेरिका में बर्लिंगटन(वर्मोन्ट) में हुआ था। विद्यालयी शिक्षा बर्लिंगटन के सरकारी विद्यालयों मेंहुआ। इसके उपरांत उन्होंने वर्मोन्ट विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। जॉनहापकिन्स विश्वविद्यालय से उन्हें पी-एच0डी0 की उपाधि मिली। इसकेउपरांत उन्होंने मिनीसोटा विश्वविद्यालय (1888-89), मिशीगन विश्वविद्यालय(1889-94), शिकागो विश्वविद्यालय (1894-1904) में दर्शनशास्त्र पढ़ाया।1904 में वे कोलम्बिया में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर नियुक्त हुए और तीस वर्षोंतक वे इस पद पर रहें।

जीवन के प्रथम बीस वर्षों में वर्मोन्ट में जॉन डीवी ने ग्रामीण सादगीको ग्रहण किया जो प्रसिद्धि के उपरांत भी उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बनारहा। अगले बीस वर्षों में उन्होंने मध्य पश्चिम अमेरिका का अनुभव प्राप्तकिया। वह अमेरिका की शक्तियों एवं सीमाओं से परिचित हुए। जब उन्होंनेदर्शन लिखना प्रारम्भ किया तो वे किसी एक प्रान्त के न होकर सम्पूर्णअमेरिका के थे।

शिकागो के ‘स्कूल ऑफ एडुकेशन’ में उनके कार्यों ने लोगो का ध्यानअपनी ओर आकर्षित किया। इन्हीं वर्षों में उन्होंने अपने कार्यों में प्रयोगवादीझुकाव दिखाया जो 1952 में उनकी मृत्यु के समय तक बना रहा। उनकामस्तिष्क अंत तक शिक्षा में किसी भी नये प्रयोग के लिए खुला रहा। ‘स्कूल्सऑफ टूमॉरो’ में उनकी रूचि अंत तक बनी रही।

डीवी की महानतम रचना डेमोक्रेसी एण्ड एडुकेशन (1916) है जिसमेंउन्होंने अपने दर्शन के विभिन्न पक्षों को एक केन्द्र बिन्दु तक पहुँचाया तथाउन सबका एकमात्र उद्देश्य उन्होंने ‘बेहतर पीढ़ी का निर्माण करना’ रखा है।प्रत्येक प्रगतिशील अध्यापक ने उनका बौद्धिक नेतृत्व स्वीकार किया। अमेरिकाका शायद ही कोर्इ विद्यालय हो जो डीवी के विचारो से प्रभावित न हुआ हो।उनका कार्यक्षेत्र वस्तुत: सम्पूर्ण विश्व था। 1919 में उन्होंने जापान का दौराकिया तथा अगले दो वर्ष (मर्इ 1919 से जुलार्इ 1921) चीन में बिताये- जहाँवे अध्यापकों एवं छात्रों को शिक्षा में सुधार हेतु लगातार सम्बोधित करते रहे।उन्होंने तुर्की की सरकार को राष्ट्रीय विद्यालयों के पुनर्गठन हेतु महत्वपूर्णसुझाव दिया। इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व में प्रगतिशील शिक्षा आन्दोलन कोचलाने में डीवी की भूमिका महत्वपूर्ण रही।

जॉन डीवी की शिक्षा-संम्बधी रचनायें

जॉन डीवी ने बड़ी संख्या में पुस्तकों, शोध पत्रों एवं निबन्धों कीरचना की। उनके अनेक कार्य दर्शन से सम्बन्धित है -

  1. 1899 - दि स्कूल एण्ड सोसाइटी
  2. 1902 - दि चाइल्ड एण्ड दि क्यूरीकुलम
  3. 1910 - हाउ वी थिन्क
  4. 1913 - इन्ट्रेस्ट एण्ड एर्फट इन एडुकेशन
  5. 1915 - स्कूल्स ऑफ टूमॉरो
  6. 1916 - डेमोक्रेसी एण्ड एडुकेशन
  7. 1922 - ह्यूमन नेचर एण्ड कन्डक्ट
  8. 1925 - इक्सपीरियन्स एण्ड नेचर
  9. 1929 - दि क्वेस्ट फॉर सर्टेन्टि: स्टडी ऑफ रिलेशन ऑफनॉलेज एण्ड एक्शन
  10. 1929 - सोर्सेज ऑफ साइन्स एडुकेशन

डीवी की इन रचनाओं का पूरे विश्व की शिक्षा पर व्यापक प्रभावपड़ा।

डीवी का दर्शन

डीवी ने दर्शन के विभिन्न पक्षों पर दूरगामी प्रभाव वाले कार्य किए हैं।अत: कुछ ही बिन्दुओं की चर्चा डीवी के कार्यों के साथा न्याय नहीं है। फिरभी सुविधा की दृष्टि से हम महत्वपूर्ण बिन्दुओं की चर्चा करसकते हैं-

1. विमर्शात्मक या विवेचनात्मक जाँच

जॉन डीवी ने समस्याओं को समझने एवं उनके समाधान हेतु विमर्शात्मकया विवेचनात्मक जाँच पर सर्वाधिक जोर दिया। समस्या का समाधान कैसेकिया जाय या किसी समस्या में क्या निहित है? या आलोचनात्मक अन्वेषणक्या है? मानव-संर्दभों में बुद्धि का प्रयोग कैसे किया जाये? अपने इन प्रश्नोंका उत्तर डीवी ने अपनी पुस्तकों ‘हाउ टू थिंक’ और ‘लॉजिक: दि थ्योरी ऑफइन्क्वायरी’ में दिया। उन्होंने विमर्शात्मक चिन्तन के सोपानबताये -

  1. समस्या का आभास: इस चरण में कुछ गलत होने की अनुभूतिहोती है। हमारे किसी विचार पर प्रश्न चिन्ह लगता अनुभव होताहै या इस पर कार्य करने से द्वन्द्व या भ्रम की स्थिति का आभासहोता है।
  2. द्वितीय सोपान में समस्या का स्पष्टीकरण होता है। विश्लेषण औरनिरीक्षण के द्वारा हम पर्याप्त तथ्य संग्रहित करते हैं जिससेसमस्या को समझा जा सकता है और परिभाषित किया जा सकताहै।
  3. समस्या को स्पष्ट करने के बाद समाधान हेतु परिकल्पनाओं कानिर्माण किया जाता है।
  4. चतुर्थ चरण में निगनात्मक विवेचना द्वारा विभिन्न परिकल्पनाओं केनिहितार्थ को समझने का प्रयास करते हैं और उस परिकल्पना तकपहुँचते हैं जो सबसे उपयुक्त हो तथा जिसका वास्तव में परीक्षणकिया जाये।
  5. पाँचवा पद जाँच का है जब परिकल्पना के स्वीकार किए जाने कीसंभावना का निरीक्षण या प्रयोग द्वारा निर्धारण होता है। अबपरिस्थिति या असमंजस की जगह- समाधान या स्पष्टता मिलजाती है।

2. अनुभव

डीवी के विचारों के केन्द्र में अनुभव है जो कि बार-बार उसके लेखनमें दिखता है। उसने अपने कार्यों इक्सपिअरेन्स एण्ड नेचर, आर्ट इज इक्सपिअरेन्सया इक्सपिअरेन्स एण्ड एडुकेशन जैसे अपने कार्यों में अनुभव पर अत्यधिकजोर दिया। उनके लिए मानव का ब्रह्माण्ड से सम्बन्ध या व्यवहार का हर पक्षअनुभव है। प्रकृति एवं वस्तुओं की अन्तर्क्रिया को महसूस करना अनुभव है।

रूढ़िवादी दृष्टिकोण अनुभव को ज्ञान से सम्बन्धित मानता है पर डीवीइसे जीवित प्राणी एवं उसके सामाजिक एवं प्राकृतिक वातावरण के मध्य कीअन्तर्क्रिया मानते हैं। रूढ़िवादी इसे आत्मनिष्ठ, आन्तरिक तत्व मानते हैं जोवस्तुनिष्ठ वास्तविकता से भिन्न है। पर डीवी ने वस्तुनिष्ठ विश्व को महत्वदिया है जो मानव की क्रिया एवं पीड़ा में प्रवेश करता है और मानव के द्वारावह परिवर्तित भी किया जा सकता है। डीवी दिए हुए तथ्य या परिस्थिति मेंपरिवर्तन का पक्षधर है ताकि मानव के उद्देश्य पूरे हो सकें। डीवी अनुभव कोभविष्य से जोड़ता है। अगर हम परिवर्तन चाहते हैं तो हमें भविष्य की ओरउन्मुख होना होगा अत: अनुस्मरण की जगह प्राज्ञान या पूर्वाभास पर जोरदेना चाहिए। अत: डीवी ने अनुमान पर जोर दिया है।

3. ज्ञान

डीवी परम्परागत ज्ञानशास्त्र, जिसमें जानने वाले को संसार से बाहरमानकर सम्भावनायें, विस्तार तथा ज्ञान की वैद्यता के बारे में पूछा जाता है, कोअस्वीकार करता है। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि जाननेवाला तथ्यों के सहीविवरण देता है या नहीं वरन् महत्वपूर्ण यह है कि वह अनुभवों के एक समूहका अन्य परिस्थितियों में कैसे प्रयोग करता है।

डीवी की दृष्टि में ज्ञान को समस्यागत या अनिश्चित परिस्थितियोंतथा चिन्तनशील अन्वेषण के संदर्भ में रखा जाना चाहिए। तथ्यों का संकलनसे ज्ञान अधिक है। ज्ञान हमेशा अनुमान सिद्ध होता है तथा समस्या यह होतीहै कि किसी तरह अनुमान की प्रक्रिया को विश्वसनीय या सही निष्कर्ष प्राप्तकरने हेतु निर्देशित किया जाये। इसमें नियंत्रित निरीक्षण, परीक्षण तथा प्रयोगकिये जाते हैं। यह अन्वेषण की उपज है। डीवी ने बेकन के विचार ‘ज्ञानशक्ति है’ को माना और उसके अनुसार इसकी जाँच सामाजिक प्रगति कामूल्यांकन कर किया जा सकता है।

4. दर्शन

‘दि नीड फॅार ए रिकवरी ऑफ फिलासफी’ में डीवी दर्शन को दर्शनकी समस्याओं के अध्ययन का शास्त्र के रूप में उपयोग करने की जगहमानव की समस्याओं के अध्ययन की विधि बनाने पर जोर देता है। डीवी केअनुसार मानव की समस्यायें लगभग सभी परम्परागत समस्याओं एवं अनेकउभरती समस्याओं को समाहित करता है।

‘रिकंसट्रक्सन ऑफ फिलासफी’ में डीवी दर्शन के सामाजिक कार्योंपर बल देता है। दर्शन का कार्य सामाजिक एवं नैतिक प्रश्नो पर मानव कीसमझ बढ़ाना है, नैतिक शक्तियों का विकास करना है तथा मानव कीआकांक्षाओं को पूरा करने में योगदान कर अधिक व्यवस्थित मानसिकप्रसन्नता प्राप्त करना है।

डीवी की दृष्टि में दर्शन मानव संस्कृति की उपज है। साथ ही वह एकसाधन है मानव संस्कृति की आलोचना और विश्लेषण कर उसे एक दिशाऔर रूप देने का। ‘इक्सपीरियन्स एण्ड नेचर’ में वह दर्शन को ‘आलोचना कीआलोचना’ कहता है- यह आलोचना के एक सिद्धान्त का रूप ले लेती है-मूल्यों एवं विश्वासों के मूल्यांकन का अनेक माध्यम प्रदान करती है। हमआलोचना करते हैं कि ताकि बेहतर मूल्यों का विकास कर सकें। दर्शन कीसभी शाखायें इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अपनी विशिष्ट भूमिका निभातीहैं।

जीव विज्ञानी दृष्टिकोण - डीवी ने आनुवंशिक (जेनेटिक) दृष्टिकोण पर बलदिया। दूसरा, उनका मानना था कि जाँच का एक जीव विज्ञानी साँचा यामैट्रिक्स होता है। डार्विन और जेम्स के अध्ययन से डीवी को यह स्पष्ट हुआकि जीवित प्राणियों का पर्यावरण से अनुकूलन या समायोजन अत्यन्त महत्वपूर्णहै तथा बुद्धि व्यवहार का विशेष प्रकार है। यह भविष्य की आवश्यकताओं कोपूरा करने हेतु उपयुक्त साधन से सम्बन्धित है। मस्तिष्क पर्यावरण (वातावरण)को नियन्त्रित करने का साधन जीवन प्रक्रिया के उद्देश्यों के संदर्भ में है।डार्विन का दर्शन पर प्रभाव को दर्शाते हुए डीवी कहते है कि दर्शन वस्तुत:समाधान के लिए उपायों को प्रक्षेपित (प्रोजेक्ट) करना है।

5. प्रयोगवाद

यह डीवी के प्रक्षेपित जाँच से सम्बन्धित है- जिसके लिए परिकल्पना,प्रयोग तथा भविष्यवाणी केन्द्रीय है। प्रयोग कार्य की योजना है जो परिणामको निर्धारित करती है। बुद्धि को परिणाम में शामिल करने की यह एकविधि है। सामाजिक योजना या शिक्षा में भी डीवी प्रयोग की जरूरत बतातेहैं।

6. उपकरणवाद (इन्स्ट्रुमेन्टलिज्म)

विचार बाह्य वस्तु की प्रतिकृति नहीं है वरन् उपकरण या साधन है।यह किसी जीव के व्यवहार को सुगम बनाने का साधन है। तात्विक याअन्तरस्थ एवं कारक (इन्स्ट्रमेन्टलिज्म) का अन्तर करना नैतिक या तात्विकअच्छाइयों को दिन प्रतिदिन के जीवन से और दूर करना है।

7. सापेक्षवाद

डीवी का सापेक्षवाद निरपेक्षवाद के विपरीत है तथा यह एक संदर्भ,परिस्थिति एवं सम्बंध के महत्व पर जोर देता है किसी वस्तु या तथ्य को संदर्भसे हटाकर देखना उसे उसके मूल्य या अर्थ से अलग कर देना है। निरपेक्ष याअसीम को उन्होंने कोर्द स्थान नहीं दिया है तथा अबाधित सामान्यीकरणगलत दिशा में ले जा सकता है। एक विशेष परिस्थिति में एक आर्थिक नीतिया योजना अच्छी हो सकती है- जो इसे वांछनीय बनाता है पर दूसरीपरिस्थिति में हो सकता है वह अवांछनीय हो जाय। एक चाकू पेन्सिल कोछीलने हेतु अच्छा हो सकता है पर रस्सी काटने के लिए बुरा हो सकता है।लेकिन उसे बिना प्रतिबन्ध अच्छा या बुरा कहना अनुचित होगा।

8. सुधारवाद

डीवी ‘रिकंसट्रक्सन इन फिलासफी’ में कहते हैं कि पूर्ण अच्छा या बुराकी जगह जोर वर्तमान परिस्थिति में सुधार या प्रगति पर होना चाहिए।

9. मानवतावाद

डीवी के दर्शन में अलौकिकता एवं धार्मिक रूढ़िवादिता का कोर्इ स्थाननहीं है। ए कॉमन फेथ में डीवी कहते है कि सभ्यता में सर्वाधिक मूल्यवानचीजें निरन्तर चला आ रहा मानव समुदाय है जिसकी हम एक कड़ी हैं तथाहमारा यह कर्तव्य है कि हम अपने मूल्यों की परम्परा को सुरक्षित रखें,हस्तान्तरित करें, सुधार करें और इसको विस्तृत भी करें ताकि हमारे उपरांतजो पीढ़ी आती है वह इसे अधिक उदारता तथा विश्वास भाव से अपना सके।हमारा सामूहिक विश्वास इसी उत्तरदायित्व पर आधारित है।

डीवी का मानवतावाद उसके प्रजातांत्रिक दृष्टिकोण से भी स्पष्ट होताहै। जीवन जीने के तरीके के रूप में प्रजातंत्र मानव स्वभाव की सम्भावनाओंपर आधारित है। डीवी ने विमर्श, आग्रह, परामर्श सम्मेलन एवं शिक्षा कोमतभेद समाप्त करने का साधन माना जो कि प्रजातंत्र और मानवतावाद दोनोंके लिए समाचीन है। उसने शक्ति और दंड के आधार पर किसी मत कोथोपने का हर संभव विरोध किया।

10. राजनीतिक दर्शन

डीवी के अनुसार सर्वाधिक ‘विकास’ महत्वपूर्ण है। सर्वांग उत्तम उद्देश्यनहीं है। ‘‘संपूर्णता अंतिम लक्ष्य नहीं है, बल्कि संपूर्णता की ओर अग्रसरसमझदारी और बेहतरी जीवन का लक्ष्य है।’’ अच्छा होने का यह अर्थ नहींहै कि आज्ञाकारी और हानि न पँहुचाने वाला हो; बिना योग्यता के अच्छार्इविकलांग है। बुद्धि नहीं हो तो संसार की कोर्इ शक्ति हमें नहीं बचा सकतीहै। अज्ञानता सुखद नहीं है, यह मूढ़ता तथा दासता है; केवल बुद्धि ही हमेंअपने भाग्य के निर्माण में कर्ता बना सकता है। हमारा जोर विचारों पर होनाचाहिए न कि भावनाओं पर।

डीवी ने प्रजातांत्रिक पद्धति को स्वीकार किया, यद्यपि वह इसकीकमियों से अवगत थे। राजनीतिक व्यवस्था का उद्देश्य व्यक्ति को अधिकतमविकास में सहायता पँहुचाना है। यह तभी संभव है जब व्यक्ति अपनी योग्यताके अनुसार, अपने समूह की नीति को निश्चित करने तथा भविष्य को निर्धारितकरने में भूमिका निभाये। अभिजात तंत्र तथा राजतंत्र अधिक कार्यकुशल है परसाथ ही अधिक खतरनाक भी है। डीवी को राज्य पर संदेह था। वह एकसामूहिक व्यवस्था पर विश्वास करता था जिसमें जितना अधिक संभव होकार्य स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा की जानी चाहिए। उन्होंने संस्थाओं, दलों, श्रमसंगठनों आदि की बहुलता में व्यक्तिवाद का समन्वय किया।

डीवी की दृष्टि में राजनीतिक पुनर्संरचना तभी संभव है जब हमसामाजिक समस्याओं के समाधान में भी प्रयोगवादी विधि तथा मनोवश्त्ति काप्रयोग करे जो कि प्राकृतिक विज्ञानों में बहुत हद तक सफल रहा है।हमलोग अभी भी राजनीतिक दर्शन के आध्यात्मिक स्तर पर ही हैं।

हमलोग सामाजिक बीमारियों को बड़े-बड़े विचारों, शानदार सामान्यीकरणोंजैसे व्यक्तिवाद या समाजवाद, प्रजातंत्र या अधिनायकवाद या सामन्तवादआदि से समाप्त नहीं कर सकते। हमलोग को प्रत्येक समस्या को विशिष्टपरिकल्पना से समाधान करने का प्रयास करना चाहिए न कि शाश्वतसिद्धान्तों से। सिद्धान्त जाल है जबकि उपयोगी प्रगतिशील जीवन को त्रुटिएवं सुधार पर निर्भर करना चाहिए।

डीवी का शिक्षा दर्शन

विमर्शक अन्वेषण या खोज डीवी के सम्पूर्ण विचार क्षेत्र का महत्वपूर्णपक्ष है। डीवी के अनुसार शिक्षा समस्या समाधान की प्रक्रिया है। हम कर केसीखते हैं। वास्तविक जीवन परिस्थितियों में क्रिया या प्रतिक्रिया करने काअवसर प्राप्त है। खोज शिक्षा में केन्द्रीय स्थान रखता है। केवल तथ्यों कासंग्रह नहीं वरन् समस्या समाधान में बुद्धि का प्रयोग सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।शिक्षा को प्रायोगिक होना चाहिए न कि केवल आशुभाषण या व्याख्यान।

डीवी के अनुसार शिक्षा में पुनर्रचनात्मक उद्देश्य उतना ही महत्वपूर्ण हैजितना अनुभव में कहीं भी। डीवी ने डेमोक्रेसी एण्ड एजुकेशन में कहा है‘‘शिक्षा लगातार अनुभव की पहचान तथा पुनर्रचना है।’’ वर्तमान अनुभव इसतरह से निर्देशित हो कि भावी अनुभव अधिक महत्वपूर्ण एवं उपयोगी हो।शिक्षा में यदि भूतकाल के मूल्य एवं ज्ञान दिए जाते हैं तो इस तरह से दिएजाने चाहिए कि वे विस्तृत, गहरे तथा बेहतर हो सके। शिक्षा में आलोचना,न कि निष्क्रिय स्वीकृति आवश्यक है। डीवी ने शिक्षा एवं विकास को समानमाना है। अध्यापक के रूप में हम बच्चे के साथ वहाँ से शुरू करते है जहाँवह अभी है, उसकी रूचि एवं ज्ञान में विस्तार कर हम उसे समुदाय एवंसमाज में योग्य व्यक्ति बनाते है। वह अपने विकास के लिए उत्तरदायित्व केसाथ कार्य करना सीखता है तथा समाज के सभी सदस्यों के विकास मेंसहयोग प्रदान करता है। शिक्षा किसी और चीज का साधन नहीं होनाचाहिए। यह केवल भविष्य की तैयारी नहीं होनी चाहिए। विकास की प्रक्रियाआनन्दप्रद तथा आंतरिक रूप से सुखद होनी चाहिए, ताकि शिक्षा के लिएमानव को अभिप्रेरित करें। डीवी का शिक्षा दर्शन शिक्षा की सामाजिक प्रकृतिपर जोर देता है, प्रजातंत्र से इसका घनिष्ठ एवं बहुआयामी सम्बन्ध है।

स्पेन्सर की मांग ‘शिक्षा में अधिक विज्ञान और कम साहित्य’ से आगेबढ़कर डीवी ने कहा विज्ञान किताब पढ़कर नहीं सीखना चाहिए वरन्उपयोगी व्यवसाय/कार्य करते हुए आना चाहिए।’ डीवी के मन में उदारशिक्षा के प्रति बहुत सम्मान नहीं था इसका उपयोग एक स्वतंत्र व्यक्ति कीसंस्कृति का द्योतक है- एक आदमी जिसने कभी काम नहीं किया हो इसतरह की शिक्षा एक अभिजात्य तंत्र में सुविधा प्राप्त सम्पन्न वर्ग के लिए तोउपयोगी है पर औद्योगिक एवं प्रजातांत्रिक जीवन के लिए नहीं। डीवी केअनुसार अब हमें वह शिक्षा चाहिए जो व्यवसाय/पेशे से मिलती है न किकिताबों से। विद्वत संस्कृति अहंकार को बढ़ाता है पर व्यवसाय/कार्य में साथमें मिलकर काम करने से प्रजातांत्रिक मूल्यों का विकास होता है। एकऔद्योगिक समाज में विद्यालय एक लघु कार्यशाला और एक लघु समुदायहोना चाहिए- जो कार्य या व्यवहार तथा प्रयास एवं भूल (भूल एवं सुधार)द्वारा सिखाये। कला एवं अनुशासन जो कि सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्थाके लिए आवश्यक है, की शिक्षा दी जानी चाहिए। विद्यालय केवल मानसिकवृद्धि का साधन प्रदान कर सकता है, शेष चीजें हमारे द्वारा अनुभव को ग्रहणएवं व्याख्या करने पर निर्भर करता है। वास्तविक शिक्षा विद्यालय छोड़ने परप्रारम्भ होती है- तथा कोर्इ कारण नहीं है कि ये मृत्यु के पूर्व रूक जाये।



शिक्षा का उद्देश्य

डीवी शिक्षा के पूर्व निर्धारित उद्देश्य के पक्ष में नहीं हैं। पर उनके कार्योंमें शिक्षा के उद्देश्य स्पष्टत: दिखते हैं-

बच्चे का विकास- शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है बच्चे की शक्ति एवं क्षमता काविकास। प्रत्येक बच्चे की अपनी विशेष क्षमता होती है अत: एक ही प्रकार केविकास का सिद्धान्त लागू करना व्यर्थ है क्योंकि एक बच्चे का विकास दूसरेसे अलग होता है। बच्चे की क्षमता के अनुरूप अध्यापक को विकास को दिशादेनी चाहिए। डीवी शिक्षा के उद्देश्य को अनुत्तरित रखना चाहते हैं। अगरशिक्षा के लिए एक निश्चित उद्देश्य तय किया जाता है तो यह अत्यधिकहानिप्रद हो सकता है। बिना आंतरिक क्षमताओं को ध्यान दिये अध्यापकविवश होगा एक विशेष दिशा में छात्रों को ले जाने के लिए। सामान्यत: शिक्षाका उद्देश्य ऐसे वातावरण का निर्माण करना है जिसमें बच्चे को क्रियाशीलहोने का अवसर मिलता है। साथ ही दूसरा महत्वपूर्ण उद्देश्य है मानव जातिकी सामाजिक जागरूकता को बढ़ाना प्रयोजनवादी दृष्टिकोण से शिक्षा बच्चेमें सामाजिक क्षमता का विकास करता है। मानव एक सामाजिक प्राणी हैजिसका विकास समाज के मध्य ही होना चाहिए, समाज के बाहर उसकाविकास नहीं हो सकता है अत: शिक्षा को सामाजिक क्षमता एवं कौशल काविकास करना चाहिए।

प्रजातांत्रिक व्यक्ति एवं समाज का सृजन- प्रयोजनवादी शिक्षा का लक्ष्यहै व्यक्ति में प्रजातांत्रिक मूल्य एवं आदर्श को भरना, प्रजातांत्रिक समाज कीरचना करना जिसमें व्यक्ति-व्यक्ति में भिन्नता न हो। प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्रहो तथा एक दूसरे का सहयोग करने को तत्पर रहे। प्रत्येक व्यक्ति को अपनीइच्छा पूरी करने तथा क्षमता का विकास करने का अवसर मिले। व्यक्तियों केमध्य समानता होनी चाहिए। डीवी के अनुसार व्यक्ति एवं समूह के मध्य हितोंमें कोर्इ अंतर नहीं होता है अत: शिक्षा का उद्देश्य है प्रजातांत्रिक समाज केव्यक्तियों के मध्य सहयोग एवं सद्भव को बढ़ाना। अत: नैतिक शिक्षा औरविकास आवश्यक है। नैतिकता का विकास विद्यार्थियों द्वारा विद्यालय कीविभिन्न गतिविधियों में भाग लेने से होता है जिससे उनमें जिम्मेदारी उठानेकी भावना का विकास हो सके। इससे बच्चे का चरित्र विकसित होता है तथासामाजिक कुशलता बढ़ती है। अवसर की समानता विद्यार्थियों को अपनीरूचि एवं रूझान के अनुरूप विकास का अवसर देता है।

भावी जीवन की तैयारी- प्रयोजनवादी शिक्षा वस्तुत: इस अर्थ में उपयोगीहै कि यह व्यक्ति को भावी जीवन हेतु तैयार करता है ताकि वह अपनीआवश्यकताओं को पूरा कर आत्मसंतोष प्राप्त कर सके। भावी जीवन कीशिक्षा व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन हेतु तैयारी करती है। डीवी परम्परागतशिक्षा पद्धति के विरोध में है। अत: उन्होंने प्रगतिशील शिक्षा की योजनाबनायी तथा प्रगतिशील स्कूल की स्थापना की- ताकि बच्चे के व्यक्तित्व एवंप्रजातांत्रिक मूल्यों का विकास हो सके।

पाठ्यचर्चा

डीवी के अनुसार शिक्षा प्रक्रिया के दो पक्ष हैं- मनोवैज्ञानिक एवंसामाजिक।

  1. मनोवैज्ञानिक पक्ष- बच्चे की रूचि एवं क्षमता के अनुसार पाठ्यचर्या एवंशिक्षण विधि निर्धारित किए जाने चाहिए। बच्चे की रूचि को जानने केउपरांत शिक्षा दी जानी चाहिए। तथा इनका उपयोग विभिन्न स्तरों परशिक्षा की पाठ्यचर्चा के निर्धारण में किया जाना चाहिए।
  2. सामाजिक पक्ष- शिक्षा की शुरूआत व्यक्ति द्वारा जाति की सामूहिकचेतना में भाग लेने से होती है। अत: विद्यालय का ऐसा वातावरण होनाचाहिए कि बच्चा समूह की सामाजिक चेतना में भाग ले सके। यह उसकेव्यवहार में सुधार लाता है और व्यक्तित्व तथा क्षमता में विकास करउसकी सामाजिक कुशलता बढ़ाता है।

पाठ्यचर्चा के सिद्धान्त- डीवी ने पाठ्यचर्चा की संरचना के लिए चारसिद्धान्तों का प्रतिपादन किया:

  1. उपयोगिता- पाठ्यक्रम को उपयोगिता पर आधारित होनी चाहिए-अर्थात् पाठ्यचर्चा बच्चे के विकास के विभिन्न सोपानों में उसकीरूचि एवं रूझान पर आधारित होना चाहिए। बच्चों में चार प्रमुखरूचि देखी जा सकती हैं- बात करने की इच्छा तथा विचारों काआदान-प्रदान, खोज, रचना तथा कलात्मक अभिव्यक्ति। पाठ्यचर्चाइन चार तत्वों द्वारा निर्धारित होने चाहिए तथा पढ़ना, लिखना,गिनना, मानवीय कौशल, संगीत एवं अन्य कलाओं का अध्यापनकरना चाहिए। सारे विषयों को एक साथ नहीं वरन् जब मानसिकविकास के विशेष स्तर पर इसकी आवश्यकता एवं इच्छा जाहिरहो तब पढ़ाया जाना चाहिए।
  2. नमनीयता- अनम्य या पूर्वनिर्धारित की जगह पाठ्यचर्चा लचीलीहोनी चाहिए। ताकि बच्चे की रूचि या रूझान में परिवर्तन कोसमायोजित किया जा सके।
  3. प्रायोगिक कार्य- पाठ्यचर्चा को बच्चे के तत्कालिक अनुभवों सेजुड़ा होना चाहिए। समस्या के रूप में विभिन्न तरह कीगतिविधियों को उपस्थित कर इनके अनुभव को बढ़ाया जा सकताहै और मजबूत किया जा सकता है। इस प्रकार अनुभवों के प्रकारको बढ़ाया जा सकता है। यथासंभव विषयों का अध्यापन बच्चे केअनुभव पर आधारित होना चाहिए।
  4. सामीप्य- जहाँ तक संभव हो पाठ्यचर्चा में उन्हीं विषयों को रखाजाये जो बच्चे के तत्कालीन विकास की स्थिति में उसके जीवनकी प्रक्रिया से जुड़ा है। इससे उसको दिए जा रहे ज्ञान में ऐक्यहो सकेगा। जिससे इतिहास, भूगोल, गणित, भाषा में समन्वयस्थापित हो सके। डीवी वर्तमान में ज्ञान को विभिन्न विषयों मेंबाँटकर पढ़ाये जाने की विधि के कटु आलोचक थे क्योंकि उनकीदृष्टि में ऐसा विभाजन अप्राकृतिक है। जहाँ तक संभव हो पाठ्यचर्चाके सभी विषय सम्बन्धित या एकीकश्त हो।

शिक्षण-विधि

आधुनिक शिक्षण विधि के विकास में जॉन डीवी की भूमिका महत्वपूर्णहै। उन्होंने अपनी शिक्षण विधि में निम्न पक्षों पर जोर दिया।

  1. कर के सीखना- डीवी ने अपनी दो पुस्तकों हाउ वी थिन्क एवंइन्ट्रेस्ट एण्ड एर्फोटस इन एजुकेशन में अनेक नवीन एवं उपयोगीशिक्षण विधियों का प्रतिपादन किया है। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्णहै अगर बच्चा स्वयं कर के कोर्इ विषय सीखता है तो वह सीखनाअधिक प्रभावशाली होता है। अध्यापक को यह नहीं चाहिए किजीवन भर जितनी सूचनाओं को उसने संग्रहित किया है वह छात्रके मस्तिष्क में जबरन डाले। वरन् अध्यापक ऐसी परिस्थिति कानिर्माण करे कि छात्र स्वयं प्राकृतिक क्षमता एवं गुणों का विकासकरने में समर्थ हो। छात्रों को तथ्यों की जानकारी तब दी जायजब वह उन तथ्यों से सम्बन्धित कार्य कर रहे हों। साथ ही बच्चेको वास्तविक समस्याओं एवं कठिनाइयों से जूझने का अवसरमिलना चाहिए ताकि वह उन समस्याओं/कठिनाइयों को सुलझानेका प्रयास करे। समस्या समाधान एक अच्छी पद्धति है जो किबच्चे के अनुभव में वृद्धि करता है।
  2. एकीकरण- बच्चे के जीवन, उसकी क्रियाओं एवं पढ़े जाने वालेविषयों (विषय वस्तु) में ऐक्य हो। सभी विषयों को उसकी क्रियाओंके इर्द-गिर्द- जिससे कि बच्चे अभ्यस्त हैं पढ़ाया जाना चाहिए।महात्मा गाँधी के सिद्धान्तों में इसकी झलक दिखती है।
  3. बाल केन्द्रित पद्धति- बच्चे की रूचि के अनुसार शिक्षा दी जानीचाहिए। डीवी रूचि एवं प्रयास को शिक्षा में सर्वोच्च मानते हैं।शिक्षक को छात्र की रूचि क्रियाकलापों की योजना बनाने के पूर्व,अवश्य समझनी चाहिए। अगर बच्चों को स्वयं कार्यक्रम बनाने काअवसर दिया जाय तो वह रूचि के अनुसार बनायेंगे। बेहतर यहहोगा कि उसे कोर्इ भय या दबाव के अन्दर कार्य करना न पड़ेताकि वह स्वतंत्रता पूर्वक कार्यक्रम बना सके। अगर यह हो जायेतो विद्यालय के सारे क्रियाकलाप स्वेच्छा से लिए गए क्रियाकलापहोंगे। यद्यपि यह सिद्धान्त शिक्षा-मनोविज्ञान के अनुरूप है पर इसकी कमीयह है कि बच्चे बहुत से विषयों के ज्ञान से वंचित रह जायेंगे तथा जो भी ज्ञानमिलेगा वह अनियोजित होगा।
  4. योजना पद्धति- डीवी के विचारों के आधार पर बाद में योजनापद्धति का विकास हुआ जिससे छात्रों में उत्साह, आत्मविश्वास,आत्मनिर्भरता, सहयोग तथा सामाजिक भाव का विकास का होताहै।

शिक्षक का दायित्व

विद्यालय में ऐसे वातावरण का निर्माण करे जिससे बच्चे का सामाजिकव्यक्तित्व विकसित हो सके ताकि वह एक उत्तरदायी, प्रजातांत्रिक नागरिकबन सके। डीवी अध्यापक को इतना महत्वपूर्ण मानता है कि वह अध्यापक कोपृथ्वी पर र्इश्वर का प्रतिनिधि कहता है।

प्रजातांत्रिक निदेशक- शिक्षक का व्यक्तित्व एवं कार्य प्रजातांत्रिक सिद्धान्तोंएवं शिक्षा मनोविज्ञान पर आधारित होना चाहिए। विद्यालय में समानता एवंस्वतंत्रता का महत्व समझाने हेतु अध्यापक को, अपने को विद्यार्थियों से श्रेष्ठनहीं मानना चाहिए। उसे अपने विचारों, रूचियों एवं प्रकृतियों को विद्यार्थियोंपर नहीं लादना चाहिए। उसे बच्चों की रूचियों एवं व्यक्तित्व की विशेषताओंको देखते हुए पाठ्यचर्चा का निर्धारण करना चाहिए। अत: अध्यापक कोलगातार बच्चों की भिन्नता का ध्यान रखना चाहिए। अध्यापक बच्चों को ऐसेकार्यों मे लगाए जो उसे सोचने और निदान ढ़ूँढ़ने के लिए प्रेरित करे।

अनुशासन

  1. समाजीकरण द्वारा अनुशासन- अगर बच्चें ऊपर वर्णित योजनाके अनुसार कार्य करे तो विद्यालय में अनुशासन बनी रहती है।कठिनार्इ तब होती है जब बाह्य शक्तियों द्वारा बच्चों को अपनीप्राकृतिक इच्छाओं को प्रकट करने से रोका जाय। डीवी केअनुसार अनुशासन बच्चे के अपने व्यक्तित्व और उसके सामाजिकपर्यावरण पर निर्भर करता है। वास्तविक अनुशासन सामाजिकनियंत्रण का रूप लेती है- जब बच्चा विद्यालय के सामूहिकक्रियाकलापों में भाग लेता है। अत: विद्यालय का वातावरण ऐसाहो कि बच्चे को पारस्परिक सद्भाव एवं सहयोग के साथ जीने कोप्रेरित करे। बच्चे में अनुशासन एवं नियमबद्धता का विकास इससेहो सकता है कि वे समूह में एक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कार्यकरे।
  2. विद्यालय कार्यक्रम के द्वारा आत्मअनुशासन- विद्यालय केकार्यक्रम बच्चों के चरित्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।अत: बच्चों को ऐसा सामाजिक वातावरण दिया जाना चाहिएजिससे उसमें आत्मअनुशासन की भावना का विकास हो सकेताकि वास्तव में वह एक सामाजिक प्राणी बन सके। शांत वातावरणअच्छे और शीघ्र कार्य के लिए आवश्यक है, पर शांति एक साधनहै, साध्य नहीं। बच्चे आपस में झगड़े नहीं पर इसके लिए बच्चोंको डाँटना या दंडित करना उचित नहीं है वरन् दायित्व कीभावना का विकास कर उसमें अनुशासन का विकास हो सके।इसके लिए अध्यापक को स्वयं उत्तरदायित्व पूर्ण व्यवहार करनाहोगा।
  3. सामाजिक कार्यों में सहभागिता- सामाजिक कार्यों में सहभागिताशैक्षिक प्रशिक्षण का एक अनिवार्य हिस्सा है। विद्यालय स्वयं एकलघु समाज है। अगर बच्चा विद्यालय के सामाजिक कार्यों में भागलेता है तो भविष्य में वह सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों मेंभाग लेने के लिए प्रशिक्षित हो जायेगा। इस तरह से एक प्रौढ़ केरूप में वह एक अनुशासित जीवन जीने का अभ्यस्त हो जायेगा।

समालोचना

यद्यपि डीवी के विचारों को शिक्षा जगत में उत्साह के साथ स्वीकारकिया गया परन्तु साथ ही साथ उसकी आलोचना भी की गर्इ। आलोचना केनिम्नलिखित आधार थे-

  1. सत्य को स्थायी न मानने में कठिनार्इ- डीवी सत्य को समयएवं स्थान के सापेक्ष परिवर्तनशील मानते हैं। डीवी के अनुसारकोर्इ भी दर्शन सर्वदा सही या सत्य नहीं हो सकता। कुछ विशेषस्थितियों में ही इसकी उपयोगिता होती है। उपयोगिता ही सत्यकी अंतिम कसौटी है। अत: आदर्शवादियों ने डीवी की आलोचनाकी।
  2. भौतिकवादी आग्रह- आदर्शवादी दर्शन के विरोध में विकसितहोने के कारण आदर्शवदियों आध्यात्मिक आग्रह के विपरीत इनमेंभौतिकता के प्रति आग्रह है।
  3. शिक्षा के किसी भी उद्देश्य की कमी- शिक्षा के द्वारा प्रजातांत्रिकआदर्श की प्राप्ति का उद्देश्य डीवी के शिक्षा सिद्धान्त में अन्तर्निहितहै पर वह शिक्षा का कोर्इ स्पष्ट उद्देश्य नहीं बताता है। उसके लिएशिक्षा स्वयं जीवन है तथा इसके लिए कोर्इ उद्देश्य निर्धारित करनासंभव नहीं है। अधिकांश विद्वान इससे असहमत है। उनके मत मेंशिक्षा का विकास तभी हो सकता है जब उसका कुछ निश्चितलक्ष्य एवं उद्देश्य हो। बच्चे को विद्यालय भेजने का कुछ निश्चितउद्देश्य होता है। यद्यपि विद्यालय कर्इ अर्थों मे समाज के मध्यइसका एक अलग अस्तित्व है।
  4. व्यक्तिगत भिन्नता पर अत्यधिक जोर- आधुनिक दृष्टिकोणबच्चे की भिन्नता को शिक्षा देने में अत्यधिक महत्वपूर्ण मानता है।बच्चे को उसकी रूचि एवं झुकाव के अनुसार शिक्षा देनी चाहिए।पाठ्यक्रम तथा विधियाँ इसे ध्यान में रखकर तय की जाये।सिद्धान्तत: यह बात बिल्कुल सही प्रतीत होती है पर वास्तविकस्थिति में इसे लागू करने पर कर्इ कठिनार्इयाँ सामने आती है। यहलगभग असंभव है कि हर बच्चे के लिए अलग-अगल शिक्षायोजना बनार्इ जाये। किसी विषय में किसी बच्चे की रूचि बिल्कुलनहीं हो सकती है, फिर भी अध्यापक को पढ़ाना पड़ता है।

डीवी का आधुनिक शिक्षा पर प्रभाव

डीवी के विचारों का आधुनिक शिक्षा पर व्यापक प्रभाव है। आधुनिकशिक्षा पर डीवी के प्रभाव को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है -

  1. शिक्षा के उद्देश्य पर प्रभाव- प्रजातांत्रिक मूल्यों का विकासआधुनिक शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है। सामाजिक गुणों काविकास भी डीवी के कारण शिक्षा में महत्वपूर्ण माना जाने लगा।
  2. शिक्षण विधि पर प्रभाव- आधुनिक शिक्षण विधि पर डीवी केविचारों का व्यापक प्रभाव पड़ा। शिक्षा बच्चे के अनुभव परआधारित होनी चाहिए। बच्चे की क्षमता, रूचि एवं रूझान केअनुसार शिक्षण विधि बदलनी चाहिए। इन विचारों ने आधुनिकशिक्षण विधि को प्रभावित किया। ‘एक्टीविटी स्कूल’ इसी कापरिणाम है।प्रोजेक्ट विधि भी डीवी के विचारों का ही फल है। दूसरे विद्यालयों मेंभी बच्चे के मनोविज्ञान पर ध्यान दिया जाने लगा। साथ ही बच्चों मेंसामाजिक चेतना के विकास का भी प्रयास किया जाता है।
  3. पाठ्यचर्चा पर प्रभाव- डीवी क अनुसार मानव श्रम को पाठ्यचर्चामें स्थान दिया जाना चाहिए। यह शिक्षा का एक महत्वपूर्ण पक्षबन गया। विभिन्न तरह के खेलों, वस्तुओं, विभिन्न उपकरणों केउपयोग पर आज अधिक जोर दिया जाता है। पढ़ाये जाने हेतुविषयों के चलन में भी बच्चे की रूचि एवं क्षमता पर अधिक ध्यानदिया जाता है।
  4. अनुशासन पर प्रभाव- आज बच्चों को विद्यालय में अधिक सेअधिक जिम्मेदारियाँ सौपी जाती हैं ताकि उनमें आत्म नियंत्रणऔर प्रजातांत्रिक नागरिकता के गुणों का विकास हो सके। जिम्मेदारीबच्चे को सही ढ़ंग से सोचने एवं कार्य करने की प्रवृत्ति को बढ़ाताहै।
  5. सार्वजनीन शिक्षा- डीवी के आदर्शों एवं विचारों ने सार्वजनिकएवं अनिवार्य शिक्षा की माँग को बल प्रदान किया। हर व्यक्ति कोशिक्षा के द्वारा अपने व्यक्तित्व के विकास का अवसर मिलनाचाहिए। इस सिद्धान्त को सर्वत्र मान्यता मिल गयी। वर्तमानवैज्ञानिक एवं सामाजिक रूझान की जड़ें डीवी के विचारों मेंं है।उन्होंने शिक्षा को सामाजिक आवश्यकता बताया। यह जीने कीतैयारी नहीं स्वयं जीवन है। यह व्यक्ति एवं समाज दोनों काविकास करता है। इससे व्यक्ति का समग्र विकास होता है।

John DV ne shiksha ke kya uddeshya bataya Apne anubhav ke Aadhar per bataen ki kya vidyalay mein deshon ko prapt karne ki Disha mein karya hota hai ya nahin

alag alag samay per darshani ko Mano vaigyanik samajshastriya aur shabdon mein shiksha ka jo 8 bataya hai ab tak aap shiksha ko jis Tarah samajhte rahe hain use is prakar bhi Tarah hai udaharan ke sath spasht Karen p

जॉन डीवी द्वारा प्रतिपादित प्रयोजनवादी शिक्षा का अर्थ उदाहरणों के साथ स्पष्ट करें ।

Jon dv ne shiksa kai kya udeshye bataiye hai aapne anubhavo ke aadhar par bataye ki kya school mai in udeshyo ko parapt karne ki disha mai karye hota Hai ya nhi

जॉि डीवी िे क्रिक्षा के क्या उद्देश्बताएों हैं? अपिे अिुिव ों के आधार पर बताएों क्रक
क्या क्रवद्यालय ों में इि उद्देश् ों क प्राप्त करिे की क्रदिा में कायश ह ता है या िहीों?

जॉन डीवी का पूरा नाम क्या है?

जान डुई (John Dewey ; 1859-1952) संयुक्त राज्य अमेरिका के शिक्षाशास्त्री, दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक थे।

जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा क्या है?

जॉन डीवी(john dewey) मानते थे कि शिक्षा सामाजिक प्रक्रिया है वे शिक्षा को ना तो साध्य और ना ही मनुष्य जीवन की तैयारी का साधन ही मानते थे। यह तो स्वयं जीवन है। इनका मानना था कि मनुष्य कुछ जन्मजात शक्तियां लेकर पैदा होता है सामाजिक चेतना में भाग लेने से उनकी इन शक्तियों का विकास होता है।

जॉन दव के अनुसार मूल सत्य क्या है?

उनके अनुसार, “सत्य एक उपकरण है जिसका उपयोग मनुष्य द्वारा अपनी समस्याओं का समाधान करने के लिए किया जाता है”, जब समस्याएँ बदलती हैं, सत्य बदलता है तथा शाश्वत सत्य नहीं हो सकता है। डिवी के अनुसार, परिवर्तन शिक्षा का मौलिक सिद्धान्त है। सत्य व्यक्ति के अनुसार परिवर्तित होता है।

जॉन डीवी का जन्म कब और कहां हुआ था?

जॉन डीवी का जन्म 1859 में संयुक्त राज्य अमेरिका में बर्लिंगटन (वर्मोन्ट) में हुआ था। विद्यालयी शिक्षा बर्लिंगटन के सरकारी विद्यालयों में हुआ। इसके उपरांत उन्होंने वर्मोन्ट विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। जॉन हापकिन्स विश्वविद्यालय से उन्हें पी-एच0डी0 की उपाधि मिली।

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