कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना किसने और कब की? - kamyunist paartee kee sthaapana kisane aur kab kee?

  • जीएस राममोहन
  • संपादक, बीबीसी तेलुगू सेवा

25 अक्टूबर 2020

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भारत में ही नहीं यूरोप या किसी अन्य महाद्वीप में आज कम्युनिस्ट आंदोलन बहुत मजबूत नहीं रह गया है. लेकिन इस दौरान इस विचारधारा की राजनीति भारत में अपने 100 साल पूरे कर लिए हैं.

अब तक के इस सफ़र के पांच सबसे अहम पड़ाव और भारतीय राजनीति में उनके मायनों पर एक नज़र:

1. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की ताशकंद में स्थापना-कांग्रेस के साथ रिश्ते

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की शुरुआत 17 अक्टूबर, 1920 को ताशकंद (तब सोवियत संघ का हिस्सा था, अब उज्बेकिस्तान का हिस्सा है) में हुई थी.

पार्टी की स्थापना सोवियत संघ में बोल्शेविक क्रांति की सफलता और दुनिया भर के देशों के बीच आपसी राजनीतिक और आर्थिक संबंध बनाने के ज़ोर वाले दौर में हुई थी.

पार्टी की स्थापना में मानवेंद्र नाथ रॉय ने अहम भूमिका निभाई थी.

एमएन रॉय, उनकी पार्टनर इवलिन ट्रेंट राय, अबानी मुखर्जी, रोजा फिटिंगॉफ, मोहम्मद अली, मोहम्मद शफ़ीक़, एमपीबीटी आचार्य ने सोवियत संघ के ताशकंद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के गठन की घोषणा की थी.

इनमें एमएन रॉय अमरीकी कम्युनिस्ट थे जबकि अबानी मुखर्जी की पार्टनर रोजा फिटिंगॉफ रूसी कम्युनिस्ट थीं.

मोहम्मद अली और मोहम्मद शफ़ीक़ तुर्की में ख़िलाफ़त शासन को लागू करने के लिए भारत में चल रहे ख़िलाफ़त आंदोलन के पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए रूस में थे.

ये वो समय था जब गाँधी भी ख़िलाफ़त आंदोलन का समर्थन कर रहे थे. उस वक्त में ख़िलाफ़त आंदोलन के कई कार्यकर्ता भारत की यात्रा कर रहे थे. कुछ तो पैदल ही सिल्क रूट के रास्ते भारत आ रहे थे.

ये लोग तुर्की में ब्रिटिश उपनिवेश का विरोध कर रहे थे. यह दौर एक तरह से भूमंडलीय दौर था क्योंकि ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी सरकार का विरोध करते हुए भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को समर्थन देने का फ़ैसला लिया था.

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फर्जी एनकाउंटर में मारे गए थे आदिवासी

उस भूमंडलीय दौर का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि एमएन रॉय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना करने से पहले मैक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी (सोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी) की स्थापना कर चुके थे.

देश भर में ब्रिटिश उपनिवेश के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे विभिन्न समूह इस पार्टी की तरफ़ आकर्षित हुए. महत्वपूर्ण यह है कि अमरीका से चल रही गदर पार्टी के सदस्यों पर इसका काफी असर देखने को मिला.

इसी वक्त में ख़िलाफ़त आंदोलन में हिस्सा ले रहे युवा बड़ी संख्या में कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गए. इन सबके अलावा एमएन रॉय देश भर में विभिन्न समूहों को पार्टी से जोड़ने के काम में लग गए. हालाँकि पार्टी के कोई ठोस कार्यकारी योजना नहीं थीं.

कम्युनिस्टों ने उस वक्त भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नीतियों के साथ काम करने, उनका आंतरिक हिस्सा होने और दिलचस्पी लेने वाले लोगों को साथ लेने का काम किया.

उन्होंने मुख्य तौर पर शहरी इलाक़े के अद्यौगिक क्षेत्रों में काम किया. मद्रास के कम्युनिस्ट नेता सिंगारावेल चेट्टियार उस वक्त सुर्खियों में आ गए थे जब उन्होंने 1922 में गया में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सम्मेलन के दौरान संपूर्ण स्वराज की घोषणा की थी.

पाबंदियाँ और षड्यंत्र के मामले

आज जब हम पाबंदियों और षडयंत्रों की बात करते हैं तो हमें इंदिरा गांधी के आपातकाल की याद आती है. लेकिन ब्रिटिश शासन के दौरान कम्युनिस्टों पर लगा प्रतिबंध इसकी तुलना में बेहद भयावह था.

कम्युनिस्टों पर षड्यंत्र करने के मामले अंग्रेजों के जमाने में लगे थे.

पेशावर, कानपुर और मेरठ षड्यंत्र मामले इनमें प्रमुख थे. पूरे शीर्ष नेतृत्व को कानपुर षड्यमंत्र मामले में फँसाया गया था. हर कोई यह समझ गया था कि ब्रिटिश सरकार एमएन रॉय और हर भारतीय कम्युनिस्ट के बीच होने वाले पत्राचार पर नजर रख रही थी.

इन पत्राचारों पर नज़र रखने के साथ ही षड्यंत्र के मामलों की शुरुआत हुई थी. एक तरह से हम कह सकते हैं कि ब्रिटिश शासन के बाद भारतीय सरकारों को ना केवल ब्रिटिश क़ानून बल्कि उनके नज़र रखने के तरीके विरासत में मिले थे.

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क्सल प्रभावित गढ़चिरौली की एक आशा वर्कर की क्या है नई सरकार से उम्मीद

कानपुर में बैठक और पार्टी का गठन

कानपुर वोल्शेविक षड्यंत्र मामले में जेल से बाहर आने के बाद नेताओं की दिसंबर, 1925 में कानपुर में बैठक हुई.

इस बैठक में तय किया गया कि ताशकंद में बनी पार्टी संचालन में आने वाली मुश्किलों को दूर करने के लिए कम्युनिस्टों को अखिल भारतीय स्तर पर एकजुट करने की ज़रूरत है. इसलिए एक बार फिर से कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के गठन की घोषणा की गई.

इस बैठक के आयोजन में सत्यभक्त की अहम भूमिका रही थी. उन्होंने अपील की थी कि पार्टी का नाम इंडियन कम्युनिस्ट पार्टी रखा जाए लेकिन पार्टी के दूसरे नेताओं ने कवेंशन ऑफ़ इंटरनेशनल कम्युनिस्ट मूवमेंट का हवाला देते हुए कहा कि देश का नाम अंत में रखा जाएगा.

सिंगारावेल चेट्टियार को पार्टी का अध्यक्ष और सच्चिदानंद विष्णु घाटे को सचिव चुना गया. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के गठन के साल को लेकर विभिन्न मतों वाले लोगों में मतभेद है.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और विभिन्न मार्क्सवादी-लेनिनवादी दल ताशकंद में बनी पार्टी को भारत की पहली कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में मान्यता देते हैं, लेकिन मौजूदा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) 1925 में बनी पार्टी को भारत की पहली कम्युनिस्ट पार्टी मानते हैं.

यह मतभेद की स्थिति आज तक बनी हुई है.

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भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के शुरुआती नेताओं में पी. सुंदरैया

श्रमिकों और किसानों की पार्टी

पार्टी के संचालन के लिए विभिन्न जगहों पर कम्युनिस्टों ने श्रमिकों और किसानों को जोड़ना शुरू किया. सरकार ने कार्रवाई शुरू की और लोगों को गिरफ़्तार किया. इसी दौर में भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी साम्यवाद के प्रभाव में आए.

चिट्गांव में स्थानीय कम्युनिस्टों के संघर्ष को इतिहास में जगह मिली. नयी पीढ़ी के नेताओं में पुछलपल्ली सुंदरैया (हैदर ख़ान के शिष्य), चंद्र राजेश्वर राव, ईएमएस नंबुदिरापाद, एके गोपालन, बीटी रणदीवे जैसों ने उभरना शुरू किया.

मेरठ षड्यंत्र मामले में रिहा होने के बाद नेताओं ने कलकत्ता में 1934 में बैठक की और देश भर में आंदोलन को बढ़ाने के लिए संगठन को मज़बूत करने पर बल दिया. ब्रिटिश सरकार ने इन सबको देखते हुए 1934 में पार्टी पर पाबंदी लगा दी.

इसी साल जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का सोशलिस्ट विंग के तौर पर गठन हुआ. लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि देश के दक्षिण हिस्से में कम्युनिस्टों का नियंत्रण था.

इन लोगों ने कांग्रेस की पार्टी के साथ समाजवादी आंदोलन को बढ़ाने की रणनीति चुनी. वो कांग्रेस के साथ काम करने के अलावा कांग्रेस पार्टी के भीतर भी अपनी विचारधार को बढ़ाने की रणनीति को अपनाते थे. लेकिन जयप्रकाश नारायण और उनके साथी कम्युनिस्टों के प्रति अच्छी राय नहीं रखते थे और उन्होंने रामगढ़ में 1940 में आयोजित कांग्रेस बैठक में कम्युनिस्टों को बाहर का दरवाजा दिखा दिया.

समाजवादियों की अपनी यात्रा में आज तक एक दूसरे प्रति आपसी अविश्वास की झलक मिलती है. यही बात कांग्रेसा के लिए भी कही जा सकती है.

कम्युनिस्टों के साथ कांग्रेस के रिश्तों को मापने के लिए कोई इस उदाहरण को देख सकता है- ऑल इंडिया स्टुडेंट्स फेडरेशन (एआईएसएफ) का गठन 1936 में पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा किया गया था.

हालाँकि आने वाले वर्षों में उनके संबंधों में खटास आ गई थी. इसी दौर में न केवल छात्र संगठन की स्थापना हुई बल्कि महिला यूनियन, रैडिकल यूथ यूनियन और अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ का गठन भी हुआ.

1943 में ही इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) का गठन किया गया. इस नाट्य समूह से मुल्कराज आनंद, कैफी आज़मी, पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी, ऋत्वक घटक, उत्पल दत्त, सलिल चौधरी जैसी साहित्यिक और सांस्कृतिक हस्तिया जुड़ी हुई थीं. इन सबका सिनेमा के शुरुआती दौर में बहुत प्रभाव था.

वहीं दूसरी ओर, सुंदरैया, चंद्रा राजेश्वरा राव और नंबूदरीपाद जैसे नेताओं के नेतृत्व में सामाजिक आर्थिक आंदोलन को आगे बढ़ाया गया. सुंदरैया और नंबूदरीपाद पर गांधी का असर था और यह उनकी जीवनशैली और कामकाजी शैली से भी जाहिर होता है.

2. भारत छोड़ो आंदोलन और वो ऐतिहासिक ग़लती

कांग्रेस ने महात्मा गाँधी के नेतृत्व में 1943 में भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया था. लेकिन उस वक्त कम्युनिस्टों की सोच अलग थी. यह एक ग़लत फ़ैसला था और यह तबसे उन्हें सताता रहा है.

उन्होंने अपने आधिकारिक दस्तावेज़ों में यह स्वीकार किया है कि उस वक्त लिया गया फ़ैसला सही नहीं था. यह दूसरे विश्व युद्ध का समय था. तब नाज़ी सेनाएं सोवियत संघ को निशाना बना रही थीं. इसका असर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पर भी साफ़ था जो उस वक्त सोवियत संघ के गहरे प्रभाव में थी.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने विश्व युद्ध को 'जनता का युद्ध' कहा. इस युद्ध में जर्मनी, इटली और जापान की सेनाएं एक तरफ थीं तो दूसरी तरफ सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्रांस और अमरीका की सेनाएं थीं. यानी ब्रिटेन सोवियत संघ का सहयोगी था.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी विश्लेषणों के बाद इस नतीजे पर पहुंची कि ब्रिटेन के ख़िलाफ़ भारत छोड़ो आंदोलन चलाने से नाजी सेनाओं को हराने के लिए मित्र राष्ट्र की सेनाओं की कोशिशों को धक्का लगेगा.

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वजूद तलाशता लेफ़्ट

ब्रिटिश सरकार से यह अनुरोध किया गया था कि नाज़ी सेनाओं से संघर्ष के लिए एक राष्ट्रीय सरकार का गठन किया जाना चाहिए.

वहीं महात्मा गाँधी का विचार था कि ब्रिटिशों को उनके घुटने पर लाने के लिए यह सबसे उपयुक्त समय है. हालाँकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने सोवियत संघ का पक्ष लिया और भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया था.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने उस वक्त इसकी वजह बताते हुए कहा था कि जापान की सेना बर्मा तक पहुंच गई थी और इस आंदोलन के चलते जापानी सेनाओं को रोकने में मुश्किल होगी. लेकिन भारत के लोगों पर इस तर्क का अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा.

पार्टी के नेता भी इस बात पर सहमत होते हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कांग्रेस के साथ कई तरीकों से काम करने के बाद स्वतंत्रता संघर्ष की सबसे अहम लड़ाई भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध करना पार्टी की ऐतिहासिक भूल थी.

1942 में ही ब्रिटेन ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पर लगाई पाबंदी को हटा लिया था. इसके बाद पार्टी (जिसे आज कांग्रेस कहा जाता है) की पहली राष्ट्रीय बैठक का आयोजन तत्कालीन बंबई में 1943 में किया गया.

जाहिर है कि पार्टी अपनी स्थापना के 23 साल तक अपनी पहली बैठक का आयोजन नहीं कर सकी थी. स्थितियां ही ऐसी थीं, पार्टी और पार्टी के लिए काम करने वाले समूहों पर कई तरह की पाबंदियां लगी हुई थीं.

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तेलंगाना के सशस्त्र संघर्ष का प्रतीकात्मक चित्रण

3. पार्टी में विभाजन और आंदोलन का शहरों से ग्रामीण इलाक़ों में पहुंचना

भारत को 1947 में आज़ादी मिली. नेहरू खुद को समाजवादी भी मानते थे और यह कहा जाता था कि उन्होंने एक तरह की समाजवादी सरकार चलाई.

1949 में चीन में माओ के नेतृत्व में क्रांति हुई और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन ने सोवियत संघ की जगह लेनी शुरू कर दी. इसके अलावा किसानों के तीन आंदलोनों ने लोगों को चीन की साम्यवादी नीति की तरफ आकर्षित किया.

स्वतंत्रता के चलते भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में उलझन की स्थिति बनी थी तो चीन की क्रांति ने कार्यक्रमों और रास्तों को लेकर कई सवाल और संदेह उत्पन्न किए.

आज़ादी मिलने के शुरुआती दिनों में सबसे बड़ी दुविधा यही थी कि कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में हासिल की गई स्वतंत्रता को कैसे समझा जाए. इसके साथ नेहरू सरकार को समझने की दुविधा भी थी.

आज़ादी के शुरुआती दिनों में कम्युनिस्टों ने प्रस्ताव पास करते हुए कहा था कि जो हासिल किया गया है वह केवल सत्ता का हस्तांतरण था कि ना कि स्वतंत्रता.

सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को कांग्रेस सरकार के ख़िलाफ़ लड़ाई न करने की सलाह देते हुए कहा कि यह राष्ट्रीय 'बुर्जुआ वर्ग' (अभिजात्य) के हाथ में ही नेतृत्व है.

इस कारण भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में दो विचारधारा और खेमा बन गया है. सोवियत संघ की साम्यवादी नीति के मुताबिक पार्टी के अंदर एक समूह का तर्क यह था कि नेहरू स्वतंत्र भी हैं और स्वघोषित समाजवादी भी हैं.ऐसे में वामपंथियों को कांग्रेस के साथ काम करना चाहिए और उन्हें अपने पक्ष में करना चाहिए.

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गीता माओवादी दस्ते के लिए काम कर चुकी हैं, लेकिन अब उन्होंने नई शुरुआत की है.

वहीं दूसरा समूह इससे असहमत था और उसका मानना था कि भारत को पूरी आज़ादी नहीं मिली है और सरकार साम्राज्यवादियों की एक कठपुतली है और इसलिए चीन की नीतियों का अनुपालन करते हुए संघर्ष करना चाहिए.

तेलंगाना में सशस्त्र किसानों के संघर्ष, तेभागा किसान आंदोलन और पुन्नपा-वलयार किसान आंदोलनों का नेतृत्व कम्युनिस्टों ने किया था और इन आंदोलनों में जिस तरह से ग्रामीण किसानों से हिस्सा लिया, इससे पार्टी का बड़ा तबका चीन की नीतियों की तरफ आकर्षित हो गया.

यहाँ यह भी ध्यान देना होगा कि तेलंगाना सशस्त्र किसान संघर्ष के दौरान क़रीब 3,000 गांवों को निजाम के अधिकार से मुक्त कराया गया था और उसका संचालन कम्युनिस्ट गांवों की तरह किया गया जहां चीन की नीतियों की वकालत की गई.

उन लोगों का अनुमान था कि अगर इसी तरह का आंदोलन, इतनी ही ताक़त से पूरे देश भर में चलाया जाए तो भारत में क्रांति होगी. इस तरह का विचार रखने वाले लोगों को जल्दी ही यह महसूस हो गया कि निजाम की सेना से लड़ना एक बात है और देश की सेना से लड़ना एकदम दूसरी बात.

इस समय तक अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट संस्था ने अपना नाम बदल कर कॉमइंटरनेशनल से बदलकर कॉमनीइंफोर्म रख लिया और यह भी चीन की नीतियों की वकालत कर रहा था. इसलिए नेतृत्व में भी बदलाव दिखा.

चीन की नीतियों की वकालत करने वाले लोगों को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में तरजीह मिलने लगी. 1951 में चंद्र राजेश्वर राव ने बीटी रणदीवे की जगह पार्टी प्रमुख की जगह ली.

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केरल के पहले वामपंथी मुख्यमंत्री ईएमएस नंबूदरीपाद

तब तक तेलंगाना का सशस्त्र आंदोलन थम गया था. पार्टी के नेताओं में सशस्त्र आंदोलन को जारी रखने या बंद करने के लिए लंबी और व्यापक चर्चा हुई. पार्टी के चार नेताओं का समूह मास्को गया और इस मामले में स्टालिन से सलाह ली गई.

इस समूह में एम. बासवापुनैया, अजॉय घोष, एस.ए. डांगे और चंद्र राजेश्वर राव शामिल थे. सोवियत संघ से लौटने के बाद सशस्त्र आंदोलन की समाप्ति की घोषणा की गई और इससे 1952 के आम चुनाव में भागीदारी का रास्ता साफ़ हुआ.

हालांकि इस दौरान चीन की नीतियों को अपनाने की घोषणा करने में कोई बाधा नहीं थी यहां तक यह भी कहा जा सकता था कि चीन में पार्टी का चेयरमैन ही भारत में पार्टी का चेयरमैन है लेकिन तत्कालीन परस्थितियों को देखते हुए और दमन की आशंका जताते हुए पिछले अनुभवों के आधार पर दो धाराओं का प्रस्ताव रखा गया.

संरक्षित गुरिल्ला संघर्ष को रणनीतिक रूप में प्रस्तावित किया गया और संसदीय मार्ग को राजनीतिक सिद्धांत के तौर पर. इसी दौरान मदुरै में आयोजित पार्टी कांग्रेस में सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार के ख़िलाफ़ मज़बूती से लड़ने का फ़ैसला किया गया क्योंकि चीन की नीतियों वाला धड़ा प्रभुत्व में था.

दोनों धाराओं में किसे अपनाया जाए इसको लेकर असहमति के चलते पार्टी को नुकसान उठाना पड़ रहा था. जो भी प्रभुत्व रख रहा था पार्टी उसकी नीतियों को अपना रही थी.

1952 के आम चुनाव के दौरान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मुख्य विपक्षी दल बनकर उभरी. पार्टी के अधिकांश नेताओं को भरोसा था कि 1955 में हुए आंध्र प्रदेश के चुनाव में पार्टी को जीत मिलेगी लेकिन पार्टी के ख़िलाफ़ लोगों को डराने वाले और मिथ्या प्रचार अभियान और दूसरे मुद्दों के चलते वास्तविकता उम्मीदों से अलग साबित हुईं.

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लेकिन 1957 में केरल के चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी जीत हासिल करने में कामयाब रही. ईएमएस नंबूदरीपाद के नेतृत्व में सरकार बनी- यह वैश्विक स्तर पर दुर्लभ उदाहरण था जब कहीं कम्युनिस्टों की जनता द्वारा चुनी हुई सरकार बन रही थी.

इससे इस भरोसे को बल मिला कि कम्युनिस्ट चुनाव के ज़रिए भी सरकार में आ सकते हैं, यह भरोसा पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में भी सच साबित हुआ.

चीन की नीतियां हमारी नीतियां होगीं, वाले नारे के साथ केरल का रास्ता भी हमारा रास्ता होगा जोड़ा गया. यह भी हुआ कि चुनावी राजनीति ने सशस्त्र राजनीति की जगह ले ली. इस बीच में भूमि सुधार, मजदूरी में सुधार आदि लागू किया गया और इसने धार्मिक ताकतों को आक्रोशित किया.

इससे तनाव की स्थिति उत्पन्न हुई और इंदिरा गांधी ने राज्य का दौरा किया और केरल में राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुशंसा की. नेहरू सरकार ने उस सुझाव को मान लिया.

इस समय तक दुनिया के देशों ने सोवियत संघ और चीन के साम्यवादी दृष्टिकोणों में अपना अपना रास्ता चुन लिया था. 1962 में भारत और चीन के बीच युद्ध ने एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कई नेताओं को युद्ध में चीन का समर्थन करने के आरोप में जेल में डाल दिया गया.

पार्टी में दो धड़ों के बीच संघर्ष तेज़ हो गया. 1963 में आंध्र प्रदेश के तेनाली में बचे हुए नेता एकत्रित हुए और नीतियों को पार्टी में स्वीकार नहीं होने पर नई पार्टी बनाने पर काम शुरू किया.

पार्टी के सातवें कांग्रेस की बैठक दो जगहों पर आयोजित हुई. चीन की नीतियों का समर्थन करने वाले धड़े ने तत्कालीन कलकत्ता में बैठक बुलाई जबकि सोवियत संघ के धड़े ने तत्कालीन बंबई में. बंबई में जिस पार्टी का गठन हुआ उसका नाम भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी रहा और कलकत्ता में बनी पार्टी का नाम मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी रखा गया.

कुल मिलाकर जो पार्टी शहरी सर्वहारा संघर्ष के प्रति शुरू की गई थी उसने ग्रामीण कृषि संघर्षों की तरफ अपना ध्यान फोकस कर लिया था, इसे चीनी साम्यवाद की राह पर चलना माना जा सकता था.

4. उग्र वामपंथ- ग्रामीण इलाक़ों से जंगल की ओर

पार्टी में शुरुआती विभाजन के बाद यह अल्ट्रा लेफ्ट और मार्क्सवादी लेनिनवादी पार्टियों का दौर था. इस दौर में पार्टी का ध्यान ग्रामीण इलाकों से जंगल की ओर केंद्रित होता गया.

पार्टी में पहली टूट होने और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के गठन होने में समय लगा था. लेकिन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से मार्क्सवादी-लेनिनवादी समूह को अलग होने में ज़्यादा वक्त नहीं लगा और उन लोगों ने कई पार्टियां बनाईं.

शुरुआत में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों ने चीन की नीतियों को अपनाया और कहा कि संसदीय संघर्ष से अतिरिक्त संघर्ष का रास्ता अपनाना होगा और इसके बाद पार्टी ने फिर से केरल वाले रास्ते को अपना लिया.

इसके चलते मार्क्सवादी पार्टी के कई लोगों को लगा कि यह क्रांति का रास्ता नहीं है, इसके ज़रिए समाज के उत्पीड़ित वर्ग को न्याय नहीं मिल सकता है और चीन की क्रांति की तरह सशस्त्र क्रांति ही एकमात्र रास्ता है.

1960 का दशक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उथलपुथल का साल रहा था. कई देश के युवा आंदोलन और संघर्ष का रास्ता चुन रहे थे.

एंग्री यंग मैन की छवि का दौर था. इसी दौर में चे ग्वेरा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विद्रोही युवा के आइकॉन के रूप में उभरे थे. देश भर में ग़रीबी और बेरोज़गारी की दौर था. अमरीका पर वियतनाम की जीत से भी कईयों का मनोबल बढ़ा था.

नक्सलबाड़ी आंदोलन

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के दार्जिलिंग ब्रांच में चारू मजूमदार नेता थे, उन्होंने कुछ दस्तावेज़ तैयार किए. उन्हें तराई के दस्तावेजों के तौर पर जाना जाता है. उन्होंने लोगों से अपील की वे नकली स्वतंत्रता को त्याग करके चीन की नीतियों को अपनाएं.

इसी समय में सिलीगुड़ी के नज़दीक के एक गांव नक्सलबाड़ी में अशांति उत्पन्न हो गई जब स्थानीय जमींदार के लठैतों ने बिमाल किसान नाम के किसान पर हमला कर दिया. आदिवासी किसानों ने जमींदारों के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन किए और जमींदारों की ज़मीन पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया.

चारू मजूमदार के निर्देशन और जंगल संथाल और कानू सान्याल के नेतृत्व में देश में कम्युनिस्ट आंदोलन एक नए दौर में पहुंचा. चाइना डेली मार्निग स्टार अखबार ने इसे भारत के 'स्प्रिंग थंडर' (वसंत का वज्रनाद) के तौर पर चित्रित किया और अनुमान जताया कि यह जल्दी ही देश भर में फैल जाएगा.

मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के सभी असंतुष्ट एक साथ एकत्रित हुए और मिलकर अखिल भारतीय कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनरी कॉर्डिनेशन कमेटी (एआईसीसीसीआर) का गठन 1968 में किया गया.

इनका मुख्य सिद्धांत चुनावी रास्ते का विरोध और सशस्त्र संघर्ष करके क्रांति हासिल करने पर था. कानू सान्याल और चारू मजूमदार को मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी से निष्कासित कर दिया गया.

इन दोनों ने अन्य असंतुष्टों के साथ पश्चिम बंगाल के बर्धवान में एक बैठक आयोजित की. इस बैठक में शामिल हुए अन्य असंतुष्टों को भी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से निष्कासित कर दिया गया. एआईसीसीसीआर की आंध्रा कमेटी सशस्त्र क्रांति की तैयारी कर रही थी तबी श्रीकाकुलम समिति ने दो प्रस्ताव पास करके कहा कि सशस्त्र संघर्ष में देरी नहीं की जा सकती.

इन लोगों ने सावरा और जातापु आदिवासियों को श्रीकाकुलम में जमींदारों के ख़िलाफ़ संघर्ष के लिए तैयार किया. इसने देश भर के शिक्षित मध्य वर्ग युवाओं को जोड़ा. इसी दौरान बिहार में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के रैडिकल तत्वों ने बिहार के मुसहहरी में सशस्त्र आंदोलन शुरू कर दिया.

इसके बाद उत्तर प्रदेश, पंजाब और पश्चिम बंगाल में फसल और जमीन पर कब्जे के लिए आंदोलन भड़क उठे. केरल में अजिता जैसे लोगों ने पुलिस स्टेशन पर छापे मारकर सभी को चौंका दिया.

इन सब ताक़तों ने मिलकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) का गठन 1969 में किया. इसके बाद जिस भी पार्टी ने सशस्त्र संघर्ष की बात की, वो अपने पार्टी के नाम के पीछे सीपीआई (एम-एल) जोड़ने लगा.

मूल मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी कई धड़े में टूटी. इनमें महत्वपूर्ण रहे दलों में सीपीआई (एम-एल) पीपल्स वार मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और दंडकारण्य क्षेत्र में सक्रिय है. जबकि माओस्टि कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) पहले बिहार और बाद में पश्चिम बंगाल में स्वतंत्र रूप से काम कर रही है. इसके अलावा विनोद मिश्र के नेतृत्व में सीपीआई (एम-एल) (लिबरेशन), सत्यानारायण सिंह और चंद्र पुला रेड्डी के नेतृत्व में एक अन्य एम-एल पार्टी भी सक्रिय थी.

इनमें पीपल्स वार और एमसीसी को छोड़कर सभी दल चुनाव में हिस्सा लेते हैं. 2004 में एमसीसी और पीपल्स वार एकसाथ आए और इनका विलय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मओवादी) में हो गया. यह आज देश का सबसे बड़ा गुरिल्ला नक्सली दल है. लेकिन आज के समय में सभी नक्सली दल संकट के दौर से गुजर रहे हैं.

1980 के दशक के बाद से मिडिल क्लास का समर्थन इन दलों के लिए कम हुआ है. इसके बाद 90 के दशक के सामाजिक और संबंध और समीकरणों ने इसे और भी कमजोर किया है. नक्सली रास्ते के भविष्य को लेकर कई बहसें उन लोगों के बीच भी हो रही हैं.

5. क्या साम्यवाद खुद को निष्प्रभावी होने से बचा पाएगा?

1952 और 1957 के आम चुनावों में देश की मुख्य विपक्षी कम्युनिस्टों की मौजूदा स्थिति क्या है?

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के लोकसभा में दो सीटें हैं जबकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की दो सीटें हैं और रिव्योल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी की एक सीट है.

आलोचकों का मत है कि भारत जब ग्रामीण इलाकों से शहरी इलाकों की तरफ बढ़ रहा है वहीं कम्युनिस्ट इसके विपरीत दिशा में चलते हुए शहरी इलाकों से ग्रामीण इलाकों के रास्ते जंगलों की तरफ बढ़ रहा हैं.

वामपंथी पार्टियां अपने मजबूत गढ़ पश्चिम बंगाल में सत्ता गंवा चुकी है और अब कहा जा रहा है कि पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के कैडर वैचारिक स्तर पर अपने विरोधी भारतीय जनता पार्टी की ओर शिफ्ट कर रहे हैं. जिन वामपंथी पार्टियों ने संसदीय लड़ाई के बदले सशस्त्र लड़ाई का रास्ता चुना वे भी संकट के दौर से गुजर रहे हैं.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के नेता कोबाड गांधी ने कुछ साल पहले इकानामिक एंड पॉलिटिकल वीकली (इपीडब्ल्यू) पत्रिका में लिखा था कि उन लोगों को आत्मचिंतन करना होगा कि उनकी पकड़ जंगल के छोटे से हिस्से तक क्यों सीमित हो गई है, क्यों वे मैदानी इलाकों में नहीं बढ़ पा रहे हैं और क्योंकि वे युवा पीढ़ी तक पहुंचने में नाकाम हो रहे हैं.

कम्युनिस्ट पार्टियों की प्रासंगिकता, उनकी ताक़त और कमजोरियों को देखते हुए दो मुद्दे उभर कर सामने आते हैं-

1. कम्युनिस्ट ताकतें पूंजीवादी ताकतों का मुकाबला उस तरह से करने में सक्षम नहीं हैं जैसा कि सामंती ताकतों के खिलाफ इन लोगों ने किया था. वैचारिक तौर पर साम्यवाद हमेशा पूंजीवाद को हराने की बात करता आया हो लेकिन पूंजीवादी ताकतों से निपटने में कम्युनिस्ट सक्षम नहीं हुए हैं.

यही वजह है कि वे समाज के सबसे पिछड़े इलाके में बहुत सताए गए लोगों को एकजुट कर सकते हैं, उन्हें संगठित कर सकते हैं.लेकिन अगर हालात बदलते हैं और लोगों की स्थिति बेहतर हो जाती है चाहे वह सरकार के दखल के चलते हो या फिर सामाजिक प्रगति के चलते हो तो साम्यवाद उन इलाकों में अपनी पकड़ खो रहा है.

इसके लिए कहीं व्यापाक संदर्भ में मूलभूत सिद्धांतों में बदलाव लाने की जरूरत है. वैश्विक स्तर पर पूंजीवादी व्यवस्था ने अपने प्रारूप में बदलाव किया है लेकिन साम्यवाद में ऐसा बदलाव देखने को नहीं मिला है.

भारतीय कम्युनिस्टों ने कभी जाति पर ध्यान केंद्रित नहीं किया, कह सकते हैं कि उसके यर्थाथ को भी नहीं समझा. जबकि यह उन्हें करना चाहिए था क्योंकि जाति भारतीय समाज की एक सच्चाई है. उन्होंने चीन और रूस में अपनाए तरीकों और समझ को अपनाया लेकिन भारतीय समाज के जाति समीकरणों की परवाह नहीं की.

इन लोगों ने भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका को भी नहीं समझा. आंबेडकर एस.ए. डांगे के समय में सामाजिक संघर्ष का नेतृत्व कर रहे थे लेकिन डांगे ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया. आधारभूत ढ़ांचे और जनाधार के दम पर जाति के सवाल को कमतर करके आंका गया. इन सबका नतीजा क्या निकला यह हमलोग आज देख रहे हैं.

2. समय के साथ जब जाति सामाजिक पूंजी के तौर पर तब्दील होने लगा और राजनीतिक तौर पर एकजुट होने की वजह बनने लगा तब वामपंथियों के लिए किनारे खड़े होकर देखने के सिवाए कोई विकल्प नहीं बचा. कम्युनिस्ट ना तो जाति व्यवस्था के उन्मूलन के लिए कोई मजबूत कार्यक्रम बना पाए और ना ही मौजूद जातिगत समीकरणों के लिए उपयुक्त रणनीति ही विकसित कर सके.

हालाँकि प्रत्येक कम्युनिस्ट पार्टी यही दावा कर रही है कि वह अपनी इन कमजोरियों से उबर जाएगी. बीबीसी तेलुगू से बात करते हुए मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सीताराम येचुरी ने कहा कि संसद में मौजूद वामपंथी दलों के सदस्यों की संख्या से वामपंथी दलों की ताक़त का अंदाजा नहीं लगाना चाहिए.

उन्होंने कहा कि सेक्युलरिज्म की रक्षा में, प्रत्येक क्षेत्र में दबदबा रखने वालों के ख़िलाफ़ संघर्ष में और समाज में प्रगतिशील चेतना विकसित करने में वामपंथी दलों की अहम भूमिका रही है.

कुछ स्वतंत्र शोधकर्ताओं के मुताबिक भी मजदूरों, किसानों और श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा में वामपंथी दलों की अहम भूमिका रही है. कम्युनिस्ट पार्टियों और नक्सली पार्टियों ने कई प्रगतिशील क़ानूनों बनवाने में दवाब समूहों का काम किया है.

विभिन्न इतिहासकारों के पिछड़े इलाकों में किए गए शोधों से यह जाहिर होता है कि अत्यंत पिछड़े और काफ़ी भेदभाव और असमानता वाले इलाकों में लोगों को एकजुट करने और कुछ हद तक अधिकार हासिल करने में पार्टी को कायमाबी मिली है.

शोध अध्ययनों के मुताबिक लोगों को जो अधिकार मिले हैं उसमें बंधुआ मजदूरी से मुक्ति और भूमि सुधार जैसे क़दम शामिल हैं.

भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के सौ साल में कई तरह के विश्लेषण हुए हैं. यह भी वास्तविकता है कि कम्यूनिस्ट पार्टियां आज ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ी हैं. संसदीय राजनीति में भरोसा रखने वाली और गैर संसदीय राजनीति में भरोसा रखने वाली- सभी तरह के वामपंथी दलों को उम्मीद है कि संघर्ष लंबा है लेकिन भविष्य में ताक़त हासिल होगी.

लेकिन सवाल यह है कि जिस रफ्तार से समाज में बदलाव हो रहा है उस रफ्तार में ये पार्टियां खुद में बदलाव ला रही हैं, खुद को प्रासंगिक रख पा रही हैं? साम्यवाद की ओर से हमेशा कहा जाता रहा है कि सरकारें बेअसर होती जा रही हैं लेकिन क्या साम्यवाद खुद को निष्प्रभावी होने से बचाने में सक्षम होगा?

भारत में कम्युनिस्ट पार्टी कब बनी?

7 नवंबर 1964भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) / स्थापना की तारीख और जगहnull

कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थान कौन थे?

इसके शुरुआती नेताओं में मानवेन्द्र नाथ राय, अबनी मुखर्जी, मोहम्मद अली और शफ़ीक सिद्दीकी आदि प्रमुख थे। शुरुआती दौर में पार्टी की जड़ें मज़बूत करने की कोशिश में एम. एन. राय ने देश के दूसरे हिस्सों में सक्रिय कम्युनिस्ट समूहों से सम्पर्क किया।

कम्युनिस्ट पार्टी का दूसरा नाम क्या है?

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) या भाकपा माओवादी भारत का प्रमुख भूमिगत नक्सली संगठन है। इसकी स्थापना दो खूंखार नक्सली संगठनों के आपसी विलय के बाद हुई.

कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारा क्या है?

साम्यवाद, सामाजिक-राजनीतिक दर्शन के अंतर्गत एक ऐसी विचारधारा के रूप में वर्णित है, जिसमें संरचनात्मक स्तर पर एक समतामूलक वर्गविहीन समाज की स्थापना की जाएगी। ऐतिहासिक और आर्थिक वर्चस्व के निजी प्रतिमान ध्वस्त कर उत्पादन के साधनों पर समूचे समाज का स्वामित्व होगा। अधिकार में आत्मार्पित सामुदायिक सामंजस्य स्थापित होगा।

कम्युनिस्ट का मतलब क्या होता है?

कम्युनिस्ट का हिंदी अर्थ साम्यवादी। साम्यवाद का समर्थक; साम्यवाद का अनुयायी। मार्क्सवादी।

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