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दशम भाग उत्कपकाल (काव्य) (सं० १६९७५-१६९५ वि० ) प्रधान संपादक डा ० नगेंद्र ... संपादक ..प्राचाय रामेश्वर शुक्ल अंचल' श्री शिवप्रसाद मिश्र “रुद्र काशिकेय ... हिंदीस हित्य का बू देशम भाग उत्कषकाल (काव्य) (सं० १६७४-१६६५४ बि०) प्रधान संपादक डा० नरेंद्र | संपादक के प्राचाय रामेश्वर शुक्ल अंचल! ; श्री शिवप्रसाद मिश्र रुदर” काशिकेय _नागरोप्रचारिणी सभा, काशी सं० श्ण्य्ट बि० के हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास ( सोलह भागों में ) संपादक मंडल माननोय श्री पं० कमलापति जो न्रिपाठो--प्रधान संपादक श्री रामधारी सिंह जी दिनकर श्री डा० नगंद्र . श्री पं० करुणापति जी त्रिपाठी श्री ढा० विजयपाल सिह जी श्री पं० सुधाकर जी पांडेय--प्रंयोजक नागरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी सूं० २०२८ बवि० प्रावकथन यह जानफर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है कि काशी नागरीप्रचारिणी समा ने हिंदी साहित्य के बृहत इतिहास के प्रकाशन की सुचितित योजना बनाई है। यह इतिहास १६ खंडों में प्रकाशित होगा। हिंदी के प्रायः रुभी सुख्य | विद्वान्‌ इस इतिहास के लिखने में सहयोग दे रहे हैं। यह हष फी बात है कि. इस #ंखला का पहला भाग, जो लगमग ८०० पृष्ठों का है, छुप गया है। : प्रस्तुत योजना कितनी गंभीर है, यह इस भाग के पढ़ने से ही पता लग जाता है | निश्चय ही इस इतिहास में व्यापक्ष और तर्वोगीण दृष्टि से साहित्यिक प्रवृत्तियों, श्राॉंदोलनों तथा प्रप्रुख कवियों ओर लेखकों का समावेश होगा श्रौर जीवन की सभी दृष्टियों से उनपर यथोचित विचार फिया जायगा । हिंदी भारतवर्ष के बहुत बड़े भूमाग की माषा है। गत एक हजार वर्ष से इस भूभाग की श्रनेक बो।लेयों में उत्तम साहित्य का निर्माण होता रहा है। इस देश के जनजीवन के निर्माण में इस साहित्य का बहुत बड़ा हाथ रहा है। संत अर भक्त कवियों के सारगभित उपदेशों से यह साहित्य परिपूण है। देश के वबतमान जीवन की समभने के लिये श्रॉर उसे अ्रभीष्ट लक्ष्य की आंर अग्रसर करने के लिये यह साहित्य बहुत उपयोगी है। इसलिये, इस साहित्य के उदय झोर विकात फा ऐतिहासिक दृष्टिकोण से विवेचन महत्वपूर्ण फाये है। कई प्रदेशों में बिखया हुआ साहित्य श्री बहुत अ्रंशों में अ्प्रकाशित है। बहुत सी सामग्री इस्तलेखों के रूप में देश के कोने कोने में बिखरी पड़। है | नागरी- प्रचारिणी सभा ने पिछले पचास वर्षों से इत सामग्री के श्रम्वेषण श्रोर संपादन का फाम किया है । बिहार, राजस्थान, मध्य अरदेश, ओर उच्चर प्रदेश की श्रन्य महत्वपूर्ण संस्थाएँ भी इस तरह के लेखों को खोज और संपादन का कार्य करने लगो है । विश्वविद्यालयों के शोधप्रमी अध्येताश्रो ने भी महत्वपूण तामग्री का संकलन और विवेचन किया दे। इस प्रकार अब इमारे पास नए [तेरे से विचार श्रोर विश्लेषण के लिये पर्याध सामग्री एकत्र है गई हे। अतः यह आवश्यक हो गया हे कि हिंदो साहत्य क॑ इतिहास का नए सिरे से अवलोकन कया जाए । इस बृहत्‌ दहिंदो साहित्य क इतिहास में लोकसाहित्य को भी स्थान दिया गया है, यह खुशा की बात है । लाकतनाषाओं में श्रनक गातो, वारगाथाओं, प्रम- गायाओं, तथा लोकारक्तियो आदि का भा मरमार ह। [विद्वाना का ध्यान इस आर भी गया है, यद्याप यह समओ अ्रभी तक श्रप्रकाशत हां इ। लोककथा ओर ल्‍्क कै 23 है. ५ लोककथानकों का साहित्य सवारण जनता के अंत रतर को अ्रनुभूतियों का प्रत्यक्ष निदर्शन है। श्रपने बृहत्‌ इतिहास की योजत में इप्त साहित्य फो भी स्थान देकर सभा ने एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है। हिंदी. भाषा तथा साहित्य के विस्तृत श्रोर संपूर्ण इतिहास का प्रकाशन एक ओर दृष्टि से भी आवश्यक तथा वांछुनीय है। हिंदी की तभी श्रव्ृत्तियों और साहित्यिक कृतियों के अ्रविकल ज्ञान के बिना हम हिंदी ओर देश की अ्रन्य प्रादे- शिक भाषा श्रों के श्रापसी संबंध फो ठीक ठीफ नहीं समझा सफते। इंडोश्रायंन वंश की जितनी भी आधुनिक भारतीय भाषाएँ हैं, फिसी न फिसी रूप में ओर किसी न किसी समय उनको उत्पत्ति का हिंदी के विफास से घनिष्ठ संबंध रहा हे उनके ययाथ निदशन के लिये यह श्रत्यंत अावश्यक है कि हिंदी के उत्पादन ओर विकास के बारे में हमारी जानकारी अधिफाधिक हो | साहित्यिक तथा ऐतिहासिक मेलजोल के लिये ही नहीं बल्कि पारस्परिक सदुभावना तथा आदान प्रदान बनाए रखने के लिये भी यह जानकारी उपयोगी होगी। क्‍ इन सब भागों के प्रफाशित होने के बाद यद्द इतिहास हिंदी के बहुत बड़े भ्रभाव फी पूर्ति करेगा ओर में समझता हुँ, यह हमारी प्रादेशिक भाषाओं के स्वांगीण अध्ययन में भी सहायक होगा। काशी नागरीप्रचारिणी सभा के इस महत्वपूण प्रयत्न के प्रति में अपनी हार्दिक शुभकामना प्रकट करता हूँ और इसकी सफलता चाहता हूँ । ; राष्ट्रपति भवन द ० नई दिल्‍ली... पक रे । | का ५ (0६५ हे दिसंबर, १९५७ हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास नागरीप्रचारिणी सभा के संतक्धित खोज विवरणों के प्रकाशन के साथ ही सन्‌ १६०१ ई० से हिंदी साहित्य के इत्द्वासलेखन के लिये प्रचुर वामग्री उपलब्ध _ होनी आरंभ हुई और उसका विस्तार होता गया।. इस क्षेत्र में धीरे घीरे श्रतुल सामग्री का भांडार उपस्थित हो गया। इन उपलब्ध सामग्रियों का उपयोग और प्रयोग समय समय पर विद्वानों ने किया और सभा के भूतपूर्व खोजनिरीक्षक स्व० मिश्रबंधुओ्रों ने मिश्रबंधु विनोद में सन्‌ १६१० ई० तक उपलब्ध इस सामग्री का व्यापक रूप से उपयोग भी फिया | यद्यपि उनके पूर्व भी गासों द तासी ( सं० १५९६ वि० ) शिवसिंह सेंगर (सं० १६३४ वि० ), डा० सर जार्ज ग्रियसन ( सं० १६४६ वि० है।॒ प्फ० ० फी ( सं० १६९७७ ) छारा क्रमश; हिंदु- स्तानी साहित्य का इतिहास, शिवसिंह सरोज, माडने वर्नोक्युलर लिटरेचर आँव हिंदुस्तान, ए हिस्ट्री ओँव द्‌ हिंदी लिटरेचर प्रकाशित हो चुके थे, तो भी ये ग्रंथ हिंदी साहित्य के इतिहास नहीं माने जा सकते क्योंकि इनकी सीमा इति- वृत्तसंग्रह की परिधि के बाहर नहीं। निश्चय ही ग्रियत का मान अधिक वेशानिक कालविभाजन के कारण ओर सिश्रबंधु विनोद की गरिमा उसके कालविभाजन तथा त्थ्यसंग्रह फी दृष्टि से है | सभा ने हिंदो साहित्य के इतिहासलेखन का गंभीर श्रायोजन हिंदी शब्द- सागर फी भूमिका के रूप में आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा किया, जिसका रिंवर्धित संशोधित रूप हिंदी साहित्य का इतिहास के रूप में सभा से सं० १९८६ में प्रकाशित हुआ । यह इतिहास श्रपने गुणधम के फारण अनुपम मान का अधिकारी है। यद्यपि अबतक हिंदी साहित्य के प्रफाशित इतिहासों फी संख्या शताधिफ तक पहुँच चुकी है तो मी शुक्ल जी का इतिहास सर्वाधिक सान्‍्य _ एवं प्रामाणिक है। अपने प्रकाशनकाल से आज तक उसकी स्थिति ज्यों फी त्यों बनी है। शक्ल जी ने अपने इतिहासलेखन में १६९९६ वि० तक खोज में उपलब्ध प्रायः सारी सामग्री का उपयोग फिया था। तब से इधर उपलब्ध होनेवाली सामग्री फा बराबर विस्तार होता गया; हिंदी फा भी प्रचार दिन पर दिन व्यापक होता गया और स्वतंत्रताप्राप्ति तथा हिंदी के राष्ट्रभाषा होने पर उसकी परिधि का और भी विस्तार हुश्रा संवत्‌ २०१० में श्रपनी हीरक जयंती के अ्रवसर पर नागरीप्रचारिणी समा ने. हिंदी शब्द्सागर श्रोर हिंदी विश्वकोश के साथ दी हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास प्रस्तुत करने फी भी योजना बनाई। सभा के तत्कालीन समापति तथा इस (६ ) योजना के प्रधान संपादक स्वर्गीय डा० श्रमरनाथ भा फी प्रेरणा से हि योजना ने मूर्त रूप ग्रहण किया। हिंदी साहित्य की व्यापक पृष्ठभूमि से लेकर उसके अद्यतन इतिहास तक का क्रमबद्ध एवं धारावाही वर्शान उपलब्ध सामग्री के आधार पर प्रस्तुत करने के लिये इस योजना का रुंघटन किया गया। पलत: यह योजना /£ लाख १६ हजार ८ सो ५४४ रुपए २४ पैसे की बनाई गई। भूतपूर्वा राष्ट्रपति देशरत्न स्व० डा० राजेंद्रप्रसाद जी ने इसमें विशेष र्चि ली और प्रस्तावना लिखना स्वीफार किया | इस मूल योजना में समय . समय पर श्रावश्यकतानुसार परिवतन परिवर्धन भी होता रहा है। प्रत्येक विभाग के अलग अलग मान्य विद्वान्‌ इसके संपादक एवं लेखक नियुक्त किए गए जिनके सहयोग से बृहत्‌ इतिहास का पहला खंड सं० २०१४ वि» में, छठा संड २०१४, में तोलहवाँ खंड २०१७ में, दूसरा और तेरहरवाँ खंड २०२२ में, चोथा खंड २०२५ में तथा चौंदहवाँ खंड २०२७ में प्रकाशित हुए । श्र यह .. 'सर्वों खंड प्रकाशित हो रहा है। श्राठवाँ खंड भी तीत्र गति से मुद्रित हो रहा है और शीघ्र ही प्रकाशित हो जायगा । शेष खंडों का कार्य भी आगे बढ़ रहा है । उनके लेखन और संपादन में विद्वान्‌ मनोयोगपूर्वक लगे हुए हैं। इस योजना पर अरब तक तीन लाख से ऊपर रुपए व्यय हो जुके हैं जिसमें से मध्यप्रदेश, राज- स्थान, अ्रजमेर, बिहार, उच्र प्रदेश और केंद्रीय सरकारों ने अन्रतक १ लाख प्र हजार रुपए के अनुदान दिए हैं। शेष डेढ़ लाख से ऊपर सभा ने इसपर व्यय किया हे थौर आगे व्यय करती जा रही है। यदि सरकार ने सहायता न की तो योजना 3 आगे संचालन कठिन होगा। देश के व्यस्त तथा निष्णात लेख को को यह काय सोंपा गया था। पर इस योजना फी गरिमा तथा विद्वानों फी अ्रतिव्यवस्तता के फारण इसमें विलंब हुआ | एक दशक बीत जाने पर भी कुछ संपादकों और लेलंकों ने रंच- मात्र कार्य नहीं किया था| किंतु ऐसी व्यवस्था कर ली गई है कि इसमें श्र और | अधिक ब्रिलंब न हो। संवत्‌ २०११ तक इसके संयोजक डा० राजबली पांडेय ये ' अर उसके पश्चात्‌ सं० २०२० तक डा० जगन्नाथप्रप्ताद शर्मा रहे । इस योजना फो गति देने तथा श्रार्थिक बचत को ध्यान में रखकर इसे फिर से सँवारा गया और इसके लिये एक संपादकमंडल गृठित किया गया जिसके प्रधान ० महामहिम डा० संपूर्णानंद जी थे | श्रव इसके सदस्य निम्नलिखित हैं : . माननीय श्री पं० कम्रलापति जी त्रिपाठी -प्रधान संपादक श्री रामधारी सिंह जी 'दिनक्र! ह श्री डा० नगुंद्र जप द श्री प॑ं० करुशापति जी त्रिपाठी .. और डा० विजयपाल सिंह जी _ औ पं० सुधाकर जी पांडेय--संयोजक इस बीच हमारे संपादक मंडल के तीन श्रेष्ठ विद्वान सदस्यो--श्री डा० संपूणानंद, श्री डा० ए० चेद्रहासन और श्री प० शिवप्रसाद मिश्र 'रुद्र! फो काल ने हमसे छीन लिया जिसका हमें हार्दिक शोक है। . इस योजना का श्रद्यतन प्रारूप निम्नलिखित है: विषय और काल द भाग संपादक हिंदी साहित्य की ऐतिहाधपिक प्रथम डा» राजबली पांडेय पीठिफका ( प्रकाशित ) हिंदी भाषा का विफास छ्वितीय डा० धीरेंद्र ब्मो ( प्रकाशित ) हिंदी साहित्य का उदय और विकास तृतीय प॑ं० करुणा पति त्रिपाठी १४०० वि० तक डा० शिवप्रसाद सिंह भक्तिफाल ( निगु ण॒ ) चतुर्थ पं० परशुराम चतुर्वेदी १४००-१७०० वि० ( प्रकाशित ) | भक्तिफाल ( सगुण ) पंचम डा० दीनदयाल गुप्त १७००-१७०० वि० डा० देवेंद्रनाथ शर्मा रीतिकाल ( रौतिबद्ध ) षष्ठ डा० नगेंद्र १७००--१९०० वि० ( प्रकाशित ) रीतिकाल ( रीतिमुक्त ) सप्तम डा० भगी रथ मिश्र १५७४००--२६०० वि० | । हिंदी साहित्य का श्रम्युत्थान अष्टम डा० विनयमोहन शर्मा ( भारतें दुकाल १६००-१६ ५० वि० ) ( यंत्रस्थ ) द हिंदी साहित्य का परिष्कार _ नवम पं० कमलापति त्रिपाठी ( द्विवेदी काल १६४०-?७५ वि० ) पं० सुधाकर पांडेय हिंदी साहित्य का उत्कर्ष : काव्य दशम डा० नगेंद्र, डा० अंचल ( १६७४५- भवि०) ( प्रकाशित ) पं० शिव्रप्रसाद मिश्र रद्र' हिंदी साहित्य का उत्कर्ष : नाटक एकादश. डा० साविन्नी सिनहा ( १६७५-९१ वि० ). डा० दशरथ श्रोक्ा डा० लक्ष्मीनारायण लाल हिंदी साहित्य का उत्कर्ष : कया साहित्य द्वाइश डा० कब्याणमल लोढा ( १६७४-६५ वि० ) .. श्री अम्ृतलाल नागर हिंदी साहित्य का उत्कर्ष : त्रयोदशश॒ डा० ल्ष्मीनारायण सुषांशु समालोचना-निब॑ध-पत्रकारिता (प्रकाशित) ( १६७५-/९४ वि०) (१० ) हिंदी साहित्य वा अधतनकाल चहुंदश डा० हरवैशलाल शर्मा सं० १६६४-२०१७ वि० ( प्रकाशित ) डा० फैलाशचंद्र भाटिया हिंदी में शास्त्र तथा विज्ञान पंचदश श्री दिनकर, रा श्री गोपालनारायण शर्मा हिंदी का लोकसाहित्य षोडश महापंडित राहुल ह ( प्रकाशित ) सांकृत्यायन इतिहासलेखन के लिये जो सामान्य सिद्धांत स्थिर किए गए वें निम्न- लिखित हैं १. हिंदी साहित्य के विभिन्‍न फालों का विभाजन युग की मुख्य सामाजिक ओर साहित्यिक प्रवृत्तियों के आधार पर किया जायगा । २. ध्यापक सर्वांगीण दृष्टि से साहित्यिक प्रवृत्तियोँ, श्रांदोलनों तथा प्रमुख कवियों और लेखकों का समावेश इतिहास में होगा ओर जीवन फी सभी दृष्टियों से उनपर यथोचित विचार फिया जायगा | ३. साहित्य के उदय श्रोर विफास, उत्क७ तथा अपकणे का वर्णान और विवेचन करते समय ऐतिहासिक इष्टिफोश का पूरा ध्यान रखा जायगा श्र्थात्‌ तिथिक्रम, एर्वापर तथा कार्य-कारणु-संबंध, पारस्परिक संपक, संघर्ष, समन्वय, प्रभाव- ग्रहण, श्रारोप, त्याग, प्रादुर्भाव, तिरोभाव, श्रंतर्माव, आदि प्रक्रियाओ्रों पर प्रा ध्यान दिया ज्ञायगा | ४. संतुलन श्र समन्वय--इसका ध्यान रखना होगा फि साहित्य के सभी पक्चों का समुचित विचार हो सके; ऐसा न हो कि फिसी पक्ष की उपेक्षा हो जाय आर किसी का अतिरंजन । साथ ही साथ साहित्य के सभी अंगों का एक दूसरे : से संबंध ओर सामंजस्य किस प्रकार से विकसित श्र स्थापित हुश्रा, इसे स्पष्ट किया जायगा | उनके पारस्परिक संघर्षा का उल्लेख ओर प्रतिपादन उसी अंश और सीमा तक किया जायगा जहाँ तक वे साहित्य के विकास में सहायफ सिद्ध : हुए होंगे । १. हिंदी साहित्य के इतिहास के निर्माण में मुख्य दृष्टिकोश साहित्य- शास्त्रीय होगा। इसके अंतगत ही विभिन्‍न साहित्यिक दृष्टियों की समीक्षा और समन्वय किया जायगा। विभिन्‍न साहित्यिक दृष्थियों निम्नलिखित की - मुख्यता होगी-- क--शुद्ध साहित्यिक दृष्टि ; अलंकार, रीति, रस, ध्य नि, व्यंजना श्रादि । ख---दाशंनिक । ग--सांस्कृतिक । है जे-ह5 हज कल: आवजल न अटल + जलन ही ५2 तब 3 कीट ० /3 तल सलक पर हक -फर तरक्की >> उल्जनपलप+>पड न जरचम 7 डचतलभदा- ०८ पाचन नाच ता धनिया: > पट चुद याद फ्सपभासशकश: : टन: पेपप ८० कवच <८स्चलथट लत सजग आरा ( है? ) घ--समाजशास्त्रीय | उ-झ--मौनववादी, श्रादि | च--विभिन्‍न राजनीतिक मतवादों ओर प्रचारात्मक प्रभावों से बचना होगा। जीवन में साहित्य के मुल स्थान का संरक्षण श्रावश्यक होगा । छु--साहित्य के विभिन्‍न फालों में उसके विभिन्‍न रूपों में परिवर्तन और विफास के झ्रधारभूत तलवों का संकलन श्रौर समीक्षण किया जायगा | ज--विभिन्‍न मर्ता की समीक्षा करते समय उपलब्ध प्रमारण्णों पंर सम्यक्‌ विचार किया जायगा | सबसे श्रधिक संतुलित और बहुमान्य सिद्धांत की ओर संकेत करते हुए भी नवीन तथ्यों और सिद्धांतों का निरूपण संभव्र होगा । झ--उपयु क्त सामान्य सिद्धांतों को दृष्टि में रखते हुए प्रत्येक भाग के संपादक श्रपने भाग की विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुत करेंगे। संपादकमंडल इतिह की व्यापक एकरूपता और आंतरिक सामंजध्य बनाए रखने का प्रयास करता रहेगा । पद्धति ६, प्रत्येक लेखक झोर कवि की सभी उपलब्ध कृतियों का पुरा संकलन किया जायगा ओर उसके आ्राधार पर ही उनके साहित्यक्षेत्र का निर्वाचन और निर्धारण होगा तथा उनके जीवन ओर छतियों के विकास भें विभिन्‍न अ्रवस्थाओं का विवेचन ओर निर्देशन किया जायगा। ७, तथ्यों के श्राधार पर सिद्धांत का निर्धारण होगा, केवल कल्पना और संमतियों पर ही फिसी कवि ग्रथवा लेखक फी आलोचना अथवा समीक्षा नहीं की जायगी । ८. प्रत्येक निष्कष के लिये प्रमाण तथा उद्धरण श्रावश्यक होंगे । ९, लेखन में वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया जायगा--संकलन, वर्गी- करणु, समीकरण ( संतुलन ), आगमन आदि । १०, भाषा ओर शैली सुबोध तथा सुरुचिपूर्ण होगी । ११९, प्रत्येक अध्याय के अ्रंत में संदमभंग्रथों की सूची आवश्यक होगी । १२. संपादकों के यहाँ से विमिन्‍न भागों की संपादित पांडुलिपियाँ आने पर प्रधान संपादक फो श्रथवा चिन्हें सभा निश्चित फरे, उन्हें दिखा दी जाया फरेंगी। भली भाँति देख परख लेने पर ही लेखन और संपादन के पुरस्कारों का भुगतान किया जाया करेगा। एतदर्थ प्रतिभाग २५०) रू० तक का व्यय ह्वोकार किया जाय । १३, सभा का आरंभ से ही यह विचार रहा द कि उदू कोई स्वतंत्र क्र ( १३२ ) भाषा नहीं है, बल्कि हिंदी फी ही एक शैली है, श्रतः इस शैली के साहित्य की यथोचित चर्चा भी ब्रज, अवधी, डिंगल फी भांति, इतिहास में श्रवश्य होनी 2९ चाहिए । द द १४, बृहत्‌ इतिहास पर लेखकों को प्रति मुद्रित पृष्ठ ६) रू० की दर से आर संपादक को प्रति मुद्रित पृष्ठ १) रू० की दर से पुरस्कार दिया जायगा । १५, किसी भाग के संपादक यदि श्रपने भाग के किसी अंश के लेखफ भी हों तो उन्हें अपने लिखें श्रंश पर केवल लेखन पुरस्कार दिया जायगा, संपादन पुरस्कार ( उतने अ्रंश का ) प_थक से न दिया जायगा। १६. बृह्दत्‌ इतिहास के लेखकों ओर सभा के बीच परस्पर अ्रनुबंध होगा जिसमें यह भी उल्लेख रहेगा कि इतिहास फी पुरस्कृत हामग्री पर सभा का स्वत्व सदा सर्वदा और सर्वत्र के लिये होगा ओर उसका उपयोग शआवश्यफता- नुसार करने के लिये सभा स्वततन्न रहेगी । क्‍ यह योजना श्रत्यंत विशाल- है तथा अति व्यस्त बहुसंस्यक निष्णात विद्वानों के सहयोग पर श्राघारित है। यह प्रसन्नता की बात है कि इन विद्वानों का योग तो सभा को प्राप्त हे ही, श्रन्यान्य विद्वान मी अपने श्रनुभव का लाभ हमें उठाने दे रहे हैं । हम अ्रपने भूतपूब संयोजकों डा० पांडेय और डा० शर्मा के भी अत्यंत आ्राभारी हैं जिन्होंने इस योजना फो गति प्रदान की। इम भारत सरकार तथा अ्न्यान्य सरकारों के भी श्रामारी हैं जिन्होंने वित्त से हमारी सहायता की | इस योजना के साथ ही सभा के संरक्षक स्व० डा० राजेंद्रप्साद और उसके भूतपूर्व सभापति स्व० पं० गोविदवल्लभ पंत की स्मृति जाग उठती है। . जीवनकाल में निष्ठापूवंक उन्होंने इस योजना को चेतना और गति दी ओर आज उनकी स्मृति प्रेरणा दे रहो है। विश्वास है आशीवोद से यह योजना शीघ्र ही पूरी हो सकेगी अबतक प्रफाशित इतिद्वात के खंडों को त्रुटियों के बावजूद भी हिंदी जगत्‌ का आदर मिला है। मुझे विश्वास है, आगे के खंडों में श्रोर भी परिष्कार और सुधार होगा तथा अपनी उपयोगिता और विशेष गुणधम के कारण वे समाहत होंगे । इस भाग के प्रधान संपादक डा० नरेंद्र का मैं विशेष रूप से श्र नुग्हीत हूँ कि ब्यस्त होते हुए भी हिंदी के हित के इस कार्य को उन्होंने गरिसा के साथ पूरा ( १३ ) कियां। इस भाग के अन्य संपादकों ओर लेखकों के प्रति भी सभा अनुग्रह्दीत है । अंत में में इस योजना में योगदान फरनेवाले ज्ञात और श्रशात अन्य सभी मित्रों एवं हितैषियों के प्रति अश्रनुण्द्दीत हूँ श्रोर विश्वास फरता हूँ, उन सबका सहयोग सभा को इसी प्रकार निरंतर प्रास होता रहेगा। सुधाकर पांडेय संयोजक हिंदी साहित्य का बृहँत्‌ इतिहास उपसमिति श्रीकृष्ण जन्माष्टमी तथा. घं० २०२८ प्रधान मंत्री नांगरीप्रचारिणी सभा, वाराणसी दशभ भाग के लेखक डा० नगंद्र डा० लक्ष्मीसागर वाष्णोय डा० सुरेशचंद्र गुप्त -डा० उमाकांत गोयल डा» निर्मला जैन डा० कुमार विमल डा० तारकनाथ बाली डा० प्रतिमा कृष्णबल डा० रामचंद्र प्रसाद डा० भारतभूषण भश्रग्रवाल डा० रत्नाकर पांडेय डा० शरणबिहारी गोस्वामी डा० मोहम्भद हसन ५ ५ आमख जे प्रस्तुत खंड तेरह लेखकों के समवेत प्रयास का फल है। वयःक्रम और साहित्यिक वरीयता की दृष्टि से इनमें मेद होना स्वाभाविक है, किंतु इसमें संदेह नहीं कि ये सभी अपने अपने विषय् के श्रधिफारी विद्वान हैं ओर इन सबने बड़ी निष्ठा एवं परिश्रम के साथ अपने दायित्व का निर्वाह किया है। साहित्य फा इतिहास इतिहास भी होता है ओर समीक्षा भी | इतिद्दास होने के नाते जहाँ उसमें प्रामाणिक सामग्री का संकलन श्रौर नियोजन स्वथा अनिवार्य हो जाता है, वहाँ साहित्यिक परिवेश के फारण उसपर समीक्षा का दायित्व भी अनिवार्यतः आरा जाता है। इमारे सहयोगी लेखकों ने इन दोनों अनुबंधों की पूर्ति का प्रयास किया है | एफ दृष्टिकोण यह है कि इतिहास जीवनपरंपरा का समग्र दर्शन है। इस दृष्टिकोण के अनुसार इतिहास की रचना के मूल में एक ही व्यक्ति फी अ्रविभक्त दृष्टि होनी चाहिए जो उसके विविध पक्षों की समंजित फर सके। दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार जीवन में इतना अधिक वेविध्य है कि कोई एक व्यक्ति उसका सम्यक्‌ विवेचन नहीं फर सकता--इसलिये इतिहासरचना एफ व्यक्ति का काय न होकर सामूहिक योजना ही हो सकती है। आज के संकुल जीवन में यह दृष्टिकोण और भी उभरफर सामने &7 रहा है और हम देख रहे हैं कि ज्ञान विज्ञान के क्षेत्रों में प्रायः समी उपलब्धियाँ व्यक्ति की एकांतसाघना का फल न होकर सामूहिक योज़ना पर ही निमर होती जा रही हैं। हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास” इसी . प्रकार का समवेत कार्यक्रम है जिसे फिसो एक आचाय शुक्ल को पारदर्शी प्रतिभा का वरदान प्राप्त न होने पर भी बतमान युग की शत शत लघुतर मेघाओं का सहयोग मिला है । हिंदी साहित्य के इतिहास में प्रस्तुत फालखंड का महत्व श्ररुंदिग्ध है। यद्यपि इसकी अ्रवधि श्रव्यंत सीमित है--एक हजार वर्ष तक प्रसरित हिंदी काव्य की विराद्‌ परंपरा में १७-१८ वर्ष फी सचा ही क्या होती है, फिर भी काव्यगुण की दृष्टि से यह श्राधुनिक हिंदी साहित्य का सुवर्णुयुग है जिसकी तुलना सगुण भक्तिफाल से, वरन्‌ उसके भी एक विशिष्ट खंड--सूर-तुलसी-युग से हो की जा सकती है। हमारा यह ग्रंथ हिंदी काव्य के इसी उत्कर्ष एवं समृद्धि के आधार तत्वों का विश्लेषण करता है । वसंत पंचमी ) सं० २०२७ नरंद्र अमन जी १2 है हिंदी काव्य का उत्करपकाल : संवत्‌ १६७४ से १६६५ बि ( सन्‌ १६१८-१८ ई० ) अध्याय क्रम विषय द पृ० सं० लेखक. 9. *"गामकरणा झोर सौमाकन १-६ डा० नर्गेद्र छायाबाद थुग, स्वच्छ॑दतावादी युग, प्रसादकाल; उत्कषकाल है. २-परिवेश 4 ह ( क ) सामाजिक राजनीतिक ७-२४ डा० लक्ष्मीसागर वाष्णुय परिस्थितियाँ ( ख ) साहित्यिक प्रतिक्रिया » रे-फेवि और कृतियाँ-एक सर्वेक्षण : २५-८० डा० सुरेशचंद्र गुप्त वर्गीकरण, प्रवृत्तिविश्लेषण, के अ्रन्य फाव्यप्रवृत्तियाँ #. “राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता ; प्रगीत, ६5१-११७ डा० उमार्फात गोयल प्रबंधकाव्य, प्रतिनिधि कवि | १3 ३-छायावाद *: | (१) पूव॑ब॒त्त ः परिभाषा और प्रवृत्तियाँ १२१-१४४ डा० न्भिला जैन (२) प्रमुख कवि; श्रन्य कवि १४४५-२४५६ डा० कुमार विमल (३) वाशंनिफक आधार २५७-श१८४० डा० तारकनाथ बाली (४) फाव्यशिल्प २८१-३२१ डा० प्रतिमा कृष्णबल .. (५४) पाश्चात्य प्रभाव ३९३-३४१ डा» रामचंद्र प्रसाद » ए-प्रेंम और मस्ती के कवि ३४५२-१८२ डा० भारतभूषण श्रग्रवाल 5 ७४-हास्य व्यंग्य काव्य शेषप३-३९८ . डा० रत्नाकर पांडेय » प८5-ब्रजभाषा काव्य. २३९६-०१ ३२ डा० शरणाबिहारी गोस्वामी 9» ६-बालकाव्य ४५४-४७२३ डा० रत्नाकर पांडेय » १०-उदू काव्यधारा ४७४५-४६ २ डा० मोहम्मद हसन ११-उपसहार : मत्यांकन < परंपरा फा विकास, नवीन दिशाएँ और आयाम, कथ्य, शिल्प और ४६३-५०७ डा० नरेंद्र भाषा फो दृष्टि से हिंदी काव्य के ._ विफास में योगदान... द श्रनुकमशिका . ४०८-४२० ँ] री प्रथम अध्याय नामकरण और सीमांकन साहित्य इतिहास के किसी काल अथवा कालखंड का नामकरण अपने आपमें एक विषम समस्या है। साहित्य के इतिहासों में सामान्यतः निम्नोक्त आधार ग्रहण कर नामकरण किया गया है; . (१) शासक के नाम पर--जेसे एलिजाबेथ युग, विक्टोरिया युग श्रादि ( २) लोकनायक के नाम पर--चंतन्य काल ( बंगला ), गांधी युग ( गुजराती ) आदि | (३ ) साहित्यिक नेता के नाम पर >-रींद्र युग, भारतेंदु युग आदि | ४ ) राष्ट्रीय; सामाजिक अथवा सांस्कृतिक घटना या आंदोलन के नाम पर-- स्‍्वातंत्योत्तर काल, युद्धोचर काल (प्रथम श्रथवा द्वितीय महायुद्ध के बाद का कालखंड), भक्तिकाल, पुनर्जागरणकाल, सुधारकाल आदि । क्‍ (५ ) साहित्यिक प्रवृति के नाम पर--रोमानी युग, रीतिकाल आदि | (६ ) ऐतिहासिक कालक्रम के श्रनुसार--अ्रादिकाल, मध्यकाल, संक्रांतिकाल, आधुनिक काल आदि। द राजा या शासक के नाम पर भी साहित्यिक इतिहास के किसी कालखंड का नामकरण तभी हुआ है जब कि उस शासकविशेष के व्यक्तित्व ने प्रत्यज्ञ अथवा श्रप्रत्यक्षु रूप से साहित्य की गतिविधि को प्रभावित किया है । उदाहरण के लिये ऐलिजाबेथ और विक्टोरिया--दोनों के राजनीतिक एवं सामाजिक व्यक्तित्व ने अपने युगजीवन को प्रभावित करते हुए साहित्य की गतिविधि पर भी . पग्रकारांतर से गहरा प्रभाव डाज्ला था। लोॉकनायक के विषय में यहो तक हैं। चैतन्य या गांधी का अपने युग के सांस्कृतिक सामाजिक जीवन पर गहरा प्रभाव: था जो साहित्य में व्यापक €ूप से मुखरित होता रहा। राष्ट्रीय महत्व की प्रत्नाओं--जैसे दोनों महायुद्ध, भारतीय स्वतंत्रता की घोषणा अथवा आंदोलन या प्रवृत्तियों के अनुसार नामकरण की सार्थकता ओर भी अधिक स्पष्ट है। उदाहरण के लिये भक्ति, पुनर्जागरण शअ्रथवा राष्ट्रीय आंदोलन का प्रमाव जितना समाज पर था उतना ही साहित्य पर भी | साहित्यिक प्रवृत्ति के विषय में तो कहना ही कक्‍्या--उसके अनुसार नामकरण की साथकता स्वतःसिद्ध ही है। बहने का अभिप्राय यह है कि प्राय; सभी प्रसंगों में नामकरण के पीछे कुछ न कुछ रे रा हिंदी साहित्य का इहत्‌ इतिहास वर्षा झवश्य रहता है अथवा रहना चाहिए। नाम की साथकता वास्तव में यह हट कि वह पदार्थ के गुण अ्रथवा लक्षण का भुख्यतया ग्योतन कर सके । इस तक के श्रनुसार इतिहास के किसी काल्खंड का उसकी प्रमुख प्रवृत्ति के श्राधार पर नाम- करण करना सर्वाधिक युक्तिसंगत है। आचार्य शुक्ल ने इसीलिये आ्रादि; मध्य तथा वर्तमान और दूसरी ओर सूर, तुलसी अथवा भूषण के नाम पर हिंदी साहित्य के कालविभाजन को श्रपर्यात एवं असंगत मानकर प्रदृत्ति को ही प्रमाण माना है: शिक्षित जनता की जिन जिन प्रवृत्तियों के श्रनुसार हमारे साहित्य के स्वरूप में जो जो परिवर्तन होते आए हैं, जिन जिन प्रभावों की प्रेरणा से काव्यधारा की भिन्‍न भिन्‍न शाखाएँ फूटती रही हैं, उन सबके सम्यक्‌ निरूपण तथा उनको दृष्टि से किए. हुए. सुसंगत कालविभाग के बिना साहित्य के इतिहास का सच्चा अ्रध्ययन कठिन दिखाई पढ़ता था" ।” आधुनिक काल में उन्होंने भारतेंदु बाबू अ्रथवा द्विवेदी जी के नाम पर प्रथम और द्वितीय चरण का वैकल्पिक नामकरण अवश्य किया है; परंतु वहाँ भी प्रवृति का आधार किसी न किसी रूप में विद्यमान है--श्रथांत्‌ भारतेंदु दरिश्च॑ंद्र और महावीरप्रसाद द्विवेदी अपने साहित्यिक व्यक्तित्व में उस कालखंड फी मुख्य प्रवृत्तियों को समाहित किए हुए हैं। उनके नाम पर युगविशेष के नामकरण की सार्थकता यही है कि वे व्यक्ति न होकर संस्था थे अथवा उस युगविशेष में उनके व्यक्तित्व की प्रबृत्तियाँ प्रतिबिबित होती थीं । सारांश यह है कि किसी कालखंड का नाम ऐसा होना चाहिए जो उसकी मूल साहित्यचेतना का द्योतत करसके | मैं समभता हूँ. फि यह एक सीधा तक है और इसके आधार पर प्रस्तत युग का नामकरण करना समीचीन होगा। आधुनिक काल के द्वितीय चरण--द्विवेदी युग--के उपरांत आनेवाले फालखंड के लिये हिंदी साहित्य के इतिहासकार्रों एंवं आलोचफों ने विभिन्न * नामों का प्रयोग फिया हे: (१) उत्कष काल, (२) प्रसाद फाल, (३) छायावादकाल, (४) स्वच्छुंदतावादी युग आदि। इनमें से पहला नाम गुणवाचकफ है। आधुनिक काल के इस तृतीय चरण का साहित्य गुण की दृष्टि से अत्यंत उत्कृष्ट है, इसमें संदेह नहीं । छायाबाद के आधारस्तंभ प्रसाद, निराला, पंत तथा महादेवी की सर्वोत्कृष्ट काव्यकृतियों का प्रफाशन इसी युग में हुआ, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुस्त कौ काव्यप्रतिमा का भी उत्कर्षफाल--- धाकेत', 'यशोधरा? ओर 'द्वापरः आदि का प्रकाशनकाल--यही है, प्रेमचंद के श्रेष्ठ .._) हिंदी साहित्य का इतिहास( संशोधित और परिवर्धित पंद्रह्वाँ पुनर्मुद्रणा, वि० सं० २०२२ 9 वक्तव्य पृ० १-२। हल हम | भागे १० | बाॉमकरण भर सीमाकन १, उपन्यास ओर प्रसाद के उत्तम नाटक इसी अवधि में रचे गए. और उधर आचार्य शुक्ल फी आलोचना का भी विकास इसी युग में हुआ। इस प्रकार आ्राधुनि फाल के काव्य, नाटक, उपन्याध तथा आलोचना साहित्य की चरम उपलब्धियों का युग यही है : कामायनी, साकेत, यशोधरा; स्कंदगुप्त, चंद्रगुत, रंगभूमि, गोदान, हिंदो साहित्य का इतिहास, जायसी ग्रथावली की भूमिका, गोस्वामी तुलसीदास ओर चिंतामणि की रचना इसी कालावधि में हुई। श्रतः इसमें संदेह नहीं कि प्रस्तुत कालखंड आधुनिक हिंदी साहित्य के उत्कर्ष का युग है । दूसरा नाम “प्रसाद काल' अपेक्षाकृत श्रधिक विवादास्पद हो सकता है। प्रसाद इस युग के शलाकापुरुष थें, इस विषय में कदाचित्‌ मतमेद श्रधिक न हो । सबंतोमुखी प्रतिभा के घनी इस कलाकार ने हिंदी के काव्य, नाटक, उपन्यास, कहानी, काव्यशास्त्र श्रादि अ्रनेक अ्रंगों फो समृद्ध किया; काव्य के सूजन एवं चिंतन में श्रात्मबादी तत्वों का समावेश किया; प्राचीन इतिहास तथा काव्य को वेभवशाली परंपरा से संबंध स्थापित करते हुए रोमानी मूल्यों की नवप्रतिष्ठा को ओर इस प्रकार एक नवीन युग का प्रवर्तन किया । ये उपलब्धियाँ निश्चय ही महान्‌ हैं और उस युग का फोई अन्य कलाकार व्यक्तिगत रूप में इतने ग्रोरव का अधिकारी नहीं है । यह तो निर्विवाद है, परंतु किसी कालखंड का नामकरण केवल गुणात्मक उपलब्धियों के आधार पर श्रविक समीचीन नहीं माना जा सकता । उसके लिये अनिवाय अनुबंध हे व्यापक प्रमाव। प्रसाद की प्रतिभा अत्यृत मोलिक थी, इस दृष्टि से केवल हिंदी में हीं नहीं भारतीय साहित्य में मी उनके प्रतिद्वंद्ी अनेक नहीं हैं, परंतु उनकी उपल्ब्धियाँ व्यक्तिगत अधिक थीं--- अत: सामूहिक प्रभाव उनका जितना पड़ना चाहिए. था, उतना नहीं पड़ा। उनकी. श्रपेज्ञा उपन्यास के ज्षित्र में प्रेमचंद का, काव्य के कछेच्र में पंत ओर निराला का और सिद्धांतर्चितन के क्षेत्र में शक्ल जी का प्रभाव कहीं श्रधिक था : . उनके अपने क्षेत्र नाठक में मी उनका प्रत्यक्ष प्रभाव कम ही पड़ा, उनको नाट्यकला के विदद्ध प्रतिभावान्‌ कलाकारों की प्रतिक्रिया ही अधिक भुखर रही.। अतः प्रसाद को इस कालखंड का शलाकापुरुष मानने पर भी इसे थ्रसाद युग? नाम से अ्भिन्‍िित करना कदाचित्‌ श्रधिक तकसंगत नहीं हे । ु 'स्वच्छुंदतावादी युग” और 'छायावाद काल*---ये दोनों नाम प्रवृत्तिमूलक हैं अर्थात्‌ आलोच्य फालखंड कौ प्रमुख प्रवृत्ति पर आधृत हैं। इन दोनों नामो के पाथक्य के पीछे स्वच्छुंदतावाद ओर छायावाद के पाथथक्य की स्वीकृति स्पष्ट है शोर वास्तव में दोनों का ऐकाल्य मान्य भी नहीं है । स्वच्छुंदतावाद की परिधि छायावाद की अपेक्षा श्रधिक व्यापक है--छायावाद निश्चय ही एक स्वच्छुंदतावादी प्रदत्ति है. परंतु उसकी अपनी विशेषता भी अत्यंत स्पष्ट है: उसका व्यक्तित्व श हि हिंदी शा हित्य॑ की दुंद्त्‌ इतिहास अ्रपेज्ञाकृत कहीं अधिक अंतर्मृंख है, उसमें छायातल अर्थात्‌ श्रतींद्रियता अपेक्षा- कृत फहीं अधिक है। स्वच्छुंदतावाद का प्रधान तत्व है रम्य ओर अद्सुत का संयोग; छायावाद में रम्य तत्व अधिक प्रमुख हो गया है और अद्भुत शतक कम से फम उसका श्रोज पक्ष- गोण रहा है। इसीलिय कुछ विद्वार्नों का मत ु हे कि श्रालोच्य फालखंड की प्रमुख काव्यप्रवृत्ति स्वच्छुंदतावाद ही है; निराला और प्रसाद, उधर कतिपय अन्य समर्थ कवियों, जेसे माखनलाल चतुर्वेदी, मगवतीचरश वर्मा, बालऋृष्णु शर्मा 'नवीन!, रामनरेश त्रिपाठी; गुरुभक्त सिह श्रोर सियारामशरण गुप्त आदि की अनेक प्रसिद्ध कृतियों का अंतर्माव इसी में संभव है। उनका आ्राक्षेप है कि 'छायावाद' नाम में इस संपूर्ण युग की मूल चेतना को अभिव्यक्त करने फी छमता नहीं है। इसके विपरीत अन्य आलोचकों का तक यह है कि प्स्वच्छुंदतावाद? नाम एक विशिष्ट देशकाल की काव्यप्रवृत्ति के लिये रूढ़ हो गया है | हिंदी में इस प्रवृत्ति के अनेक तत्वों का हिंदी के अपने देशकाल के अ्रनुरूप प्रस्फूदन तो हुआ है, किंतु उनका हिंदी की अ्रपनी भूमि और जलवायु के प्रभाव से रूपपरिवर्तन हो गया है। यह परिवर्तित रूप ही छायाबाद है जो इस युगविशेष की मुख्य प्रवृत्ति है । द क्‍ छायावाद के विषय में भी स्थिति सर्वथा स्पष्ट नहों है। वास्तव में सचना- परिमाण की दृष्टि से तो छायावाद का पक्ष काफी निर्बल है; श्रन्य प्रवृत्तियों का, विशेष रूप से राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता का रचनापरिमाण फहों श्रधिक है, ओर फाव्यगुण की दृष्टि से भी उसका उत्कर्ष कम नहीं है | फिर भी, छायावाद के पक्ष में कई प्रबल तक हैं। सब मिलाकर उसका स्तर श्रन्य प्रवृत्तियों की अपेक्षा निश्चय ही ऊँचा है; अनुभूति के परिष्कार ओर कला की समृद्धि की दृष्टि से उसका मूल्य निश्चय ही अधिक है। हिंदी काव्यपरंपरा में कथ्य और कथनमभंगिमा--- दोनों की दृष्टि से एक नया वेभवपूर्श अ्रध्याय जोड़ने का श्रेय उसे प्राप्त है। अपने युग के सूक्ष्मतर रागात्मक मुल्यों की साहित्य में प्रतिष्ठा और नवीन सौंदर्यहष्ट का उन्मेष करने का ग़ोरव भी उसे ही प्राप्त है। समसामय्रिक कविता, कथा साहित्य, नाटक एवं ललित निबंध, सभी ज्षेत्रों में उत्तका प्रभाव अंतर्व्यात है। छायावाद के विरोधी कबि भी उसके प्रभाव से अछूते नहीं रहे : 'साकेत' ओर ध्यशोधरा? जेसी कृतियों पर उसका प्रभाव इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण है-- यहाँ तक कि ब्रजमाषा की कविता में भी छायावाद के तत्वों का अंतर्पवेश होने लगा था। वास्तव में उस युग की राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना में जो परिष्कार और समृद्धि का समावेश हुआ, उसका मूल कारण छायावादी प्रभाव ही था | कहने कह अमिप्राय यह है कि छायावाद उस युगविशेष की सांस्कृतिक साहित्यिक चेतना का मूल स्वर था। कोई भी नाम स्वाग का वाचन नहीं कर सकता; मूल भर १० ] नामकरण ओर सीमांकन ४ चेतना का अ्रधिकाधिक सफल संकेत करने में ही उसकी साथकता है। अतः समग्र रूप से प्रस्तुत कालखंड का नाम छायावाद युग' ही अपक्षाकृत अधिक मान्य है | सोमांकन : श्राधुनिक युग के द्वितीय चरण अथवा द्विवेदी युग फी उत्तर सीमा सामान्यतः १६१८ ६० मानी जाती है। आचाये शुक्ल ने तृतीय उत्थान का आरभ यहों से माना हैं। साहित्य के इतिहास में किसी एक वष की सीमांत मान लेना खतरे से खाल्नी नहीं है क्योंकि साहित्य में नए झुग का सूत्रपात फिसी घटनाविशेष से नहीं होता जैसा कि राजनीतिक इतिहास में प्राय; होता रहता हैं। यदि छायाबाद को आलोच्य कालखंड की आधार्मूत प्रवृत्ति मानें तो स्वभावतः छायावाद के आरंभ से ही इसका आरंभ भी मानना उचित होगा। छायावाद के आरम के विषय में प्रायः तीन मत हैं। एक यह कि उसका सूत्रपात ह? में प्रकाशित प्रसाद जा की फॉवताओं---अथात्‌ इंदु के प्रकाशनवंष--सन््‌ १६९११ से मानना चाहिए, दूसरा यह कि ४कुटधर पॉडंय की कविताओं में उसका प्रथम श्राभास मिलता हैं और तीसरा अपेक्षाकृत अधिक मान्य मत यह है कि छायावाद का आरंभ उस समय से मानना चाहिए जब से “मरना! में प्रकाशित प्रसाद की, “पत्लव? में प्रकाशित पंत की और पहले 'अ्रनामिका? के प्रथम संस्करण ओर बाद में “परिमल? में प्रकाशित निराला की कविताएँ नियमित रूप से प्रकाश में ग्राकर एक नव्य काव्यचेतना के उदय की घोषणा कर रही थीं। मेरे विचार से यह तीसरा मत ही अधिक ग्राह्य है क्योंकि इंढु? में प्रकोशित स्चनाएँ या मुकुण्धर पांडेय की स्फुट कविताएं नवयुग का आ्राभास तो अवश्य दे रही थीं, परंतु नवयुग का प्रवर्तन फरने की छमता उनमें नहीं थी। वे वस्तुत: उस समय के श्रब॒द्ध साहित्यिक बृत्त में चर्चा का विषय ही नहीं बन पाई थीं; उसका तो छायावाद के परवर्ती शोधफों ने श्रनुसंघान किया दे । पंत जी के शब्दों में "श्री मुकुटधर पांडेय . की रचनाओं में छायावाद की सूक्ष्म भावव्यंजना तथा रंगीन कढ्पना धीरे धीरे : प्रकट होने लगी थी जो आगे चलकर प्रसाद जी के युग में युष्पित पललवित होकर, एक नूतन चमत्कार एवं चेतना का संस्कार धारण कर ह्विंदी काव्य के आंगण में नवीन युग के अरुणोदय की तरह मूर्तिमान हो उठी! ।! . यह समय लगभग बीसवीं शती के दूसरे दशक के अंत में पढ़ता है । निराला के अपने वक्तव्य के अ्रनुसार उनकी प्रसिद्ध कविता 'जूही की कली” की रचना सन्‌ १९१६ की है। परिमल! की अनेक कविताएँ. २० के आस पास लिखी गई थीं, वीणा? की कर्विताओं ओर “ग्रंथि! का रचनाफाल यही है, उघर “पल्लव? १ आधुनिक काव्यप्रेरणा के ख्ोत ( निबंध )- ले० सुमित्रानंदव पंत । ४ हिंदी साहित्य को बैइवे इतिहास की भी दो चार कविताओं की रचना इसी समय हुई थी। इसी प्रकार “भरना! के प्रथम संस्करण ( २२ ) में प्रकाशित अनेक कविताएं, यद्यपि द्विवेदी सुग की काव्यशैंली में लिखी हुई हैं फिर भी उसकी कुछ रचनाएँ निश्चय ही छायावाद के अंतर्गत आती हैं| श्रत:ः आलोच्य युग का श्रारंभ २० के आसपास--उससे कुछ पूर्व ही--माना जा सकता है और इस दृष्टि से शुक्ल जी द्वारा निर्धारित सीमा -- सन्‌ १६९१८--को यथावत्‌ स्वीकार कर लेने में कोई विशेष आपत्ति नहीं होनी चाहिए, यद्यपि शुक्ल जी के कालविभाजन में पच्चीसी फा हिसात्र भी थोड़ा बहुत रहा है, यह भी स्पष्ट ही है । . उत्तर सीमा की समस्या अधिक कठिन नहीं है। १६३४५ में दूसरे सत्याग्रह आंदोलन की विफलता के बाद भारतीय राजनीति के क्षेत्र में गांधी नीति फा तथा सामाजिक जीवन में उनके आ्रादर्शवादी जीवनमूल्यों का विरोध श्रार॑म हो गया था, और दोनों ज्षेत्रों में वामपक्नीय तत्व उभरने लगे थे | कामायनी? का प्रकाशन सन्‌ १६३५ में हुआ था । उसके बाद अनामिका? ( सन्‌ १९३८ ) में निराला की और 'युगांतः (सन्‌ १९३६) में संकलित पंत की कई एक कविताएं काव्य में एक नवीन चेतना के उन्मेष फी सूचना देने लगी थीं। सन्‌ १६३९ में पंत जी के रूपाभ! का प्रकाशन हुआ जो इस नवीन काव्यचेतना को अ्रभिव्यक्ति का पहला माध्यम बना । “ “रूपाभ! शब्द केवल नाम ही नहीं था--नवीन चेतना का प्रतीक भी था, उसमें यह व्यंजना स्पष्ट थो कि छायावादी “आ्रगभा” नवीन युग के सोंदयबोध फो व्यक्त करने में श्रसमथ हो चुकी है--नया युग केबल आभा नहीं, उसके साथ रूप? की भी माँग कर रहा है। अ्रतः छायावाद के अम्‌र्त सौंदर्य के स्थान पर मूर्त सौंदर्य काव्य का विषय बना--माव के तारल्य के स्थान पर वस्तु की दृढ़ रूपरेखा सोंद्य का प्रतिमान बनी?” । कहने का अभिप्राय यह है कि सन्‌ ३७-३८ के आसपास छायावाद का स्वर क्षीण पढ़ गया था और ऐसी कविताओं का प्रभाव और प्रचार बढ़ने लगा था जो छायाबाद की अतिशय श्रात्मलीन, श्रमूर्त सोंदर्यविद्वतियों के स्थान पर जीवनगत, वैयक्तिफ एवं सामाजिक अनुभूतियों को मुखरित कर रही थीं।ये कविताएँ आगे चलकर प्रगतिवाद” "'प्रयोगबाद'; धेयक्तिक गीतकाव्य आदि प्थक्‌ वर्गों में विभक्त हुई और छायावादयुग का अंत प्रायः पूर्ण हो गया। अतः सन्‌ ३७-३८ को ही प्रस्तुत कालखंड की उत्तर सीमा मान लेना उचित है । इस समय न केवल छायावाद का बरन्‌ जीवन के स्थायी एवं आत्मव्रादी मूल्यों से अनुप्राशित उस व्यापक काव्यचेतना का ही ऋय आरंभ हो गया था जिसका केंद्रतिदु था छायावाद |... ) प्राधुनिक हिंदी कविता की मुख्य प्रवृत्तिया १ ढि० सं०; 8९ ६३९ द्वितीय अध्याय परिवेश ( के ) राजनीतिक सामाजिक परिस्थितियाँ राष्ट्रीय दृष्टि से श्रालोच्य फाल यदि एक और पराधीन भारत के सांस्कृतिक नवोत्यान से प्रेरित तथा स्वतंत्रता की उद्दाम आफांछ्षा से उद्वेलित हो संसार फी एक महान साम्राज्यवादी शक्ति के साथ संघर्षरत होने ओर सत्य, अहिंसा, संयम, साधना, त्याग, बलिदान और श्आत्मशक्ति द्वार आत्मोपलब्धि के पुनीत प्रयास की . ओर संकेत करता तथा जनशक्ति एवं लोकतांत्रिक जीवनपद्धति को भूमिका प्रस्तुत करता है तो दूसरी ओर, वह प्रथम महायुद्ध ( अगस्त, १६१४-नवंबर, १९१८ ) की विभीषिका के फलस्वरूप संत्रस्त मानवता, रूसी राज्यक्रांति ( १६१७-१८ )» लीग ऑफ नेशंस फी स्थापना; साथ ही विफलता, आर्थिक संकट ओर संसार के कई देशों में अधिनायकत्व के विषवृक्षु के बीजारोपण एवं पृष्पित पललवित होने ओर द्वितीय महायुद्ध ( १६३६-१६४५ ) का, खिसने जापान के नागासाफी ओर हीरोशीमा के दो नगरों पर अशुबस गिराकर मानवसम्यता ओर संस्कृति पर एक भारी प्रश्नससूचक चिह्न लगा दिया; साक्षी है। इस काल में मारतीय जीवन ही नहीं, संसार के लगभग सभी देश विविध प्रकार के संशर्यों से पीड़ित रहे । राष्ट्रीय इतिहास की दृष्टि से श्रालोच्य काल “गांधी युग” ओर साहित्य फी दृष्टि से 'छायावाद युग” कौ संज्ञा से अभिन्‍ह्षत किया जाता है। आशा-निराशा-पूर्ण राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों ने आलोच्यकालीन हिंदी साहित्य को जिस रुप में प्रभावित किया उसकी प्रौढ़तम अभिव्यक्ति पसाकेतः (१६३१), 'कामायनी? (१६३५) आर “गोदान? ( १६३६ ) में उपलब्ध होती है । यह तो सवविदित है कि भारत में अंग्रेजी शासनकाल जनता फी घोर आर्थिक दुरवस्था, राजनीतिक पराधीनता ओर भारतीय संस्कृति के चौमुखी विध्व॑स का काल है । किंतु यह राष्ट्रीय नवजागरण ओर क्रियाशीलता का युग भी है । इस क्रियाशीलता का मुख्य प्रतीक इंडियन नेशनल कांग्रेस ( १८८५ ) के रूप में था। १६३४ में कांग्रेस की स्थापना हुए पूरे पचास वर्ष हो चुके थे। इन पचास वर्षों में उसका आलोच्यकालीन इतिहास संघर्ष, त्याग और बलिदान की लंबी फह्टानी है और उसके पू्ववर्ती इतिहास से एकदम भिन्न है। इस फाल में राष्ट्रीय. भारत आशा निराशा के बीच डुबता उतराता रहा। जहाँ एक द् हिंदी साहित्य का बहइत्‌ इतिहास शोर वह अपनी अलसता छोड़ गांधी ( १८६९-१६४८ ) जेसे कमठ सेनानी के सेनापतिल में युद्धबोष कर तत्कालीन संसार की सबसे बड़ी साम्राज्यवादो शक्ति को ललकार रहा था, वहाँ दूसरी ओर वह श्रपनी श्रांतरिक दुबलताओं, श्रापसी मतभेद और सरकारी भेदनीति से भी पीड़ित था। इससे राष्ट्रीय जीवन कभी कभी संगठन का अभाव ओर विश्वंखलता उत्पन्न ही जाने के फलस्वरूप हतोत्साहित होने के चिह्न भी दृष्टिगोचर होने लगते थ। किंतु जब एक बार कदम आगे बढ गया तो वह बढ़ता ही गया। अनेक प्रकार के संबटोीं और विष्न बाधाश्रों के उपस्थित होते रहने पर भी, गिरते पड़ते श्रीर लड़खडाते हुए भी, वह अदम्य साइस, उत्साह ओर अ्रबाधित गति के साथ श्रपने ल ध्ष्य की र बढ़ता ही गया । जिस सुदूरस्थित विदेशी राजसत्ता की पराधीनता का ४; खला में वह १७५४७ में' जकड़ गया था; उस शूखला को तोड़ फेकन के लिय वह अश्रत्र छटपटाने लगा और साम्राज्यवादी फोलादी पे से चूम जाने पर भी वह सुजलां सुफला शस्यश्यामलां! मातृभूमि के चरणों में अपनी आस्था श्र श्रद्धा के पुष्प चढ़ाएं बिना न रह सका | यह उसकी आंतरिक जीव॑ंतशक्ति का ज्वलंत प्रमाण था | संसार के इतिहास में अ्रभुपलब्ध गांधी जंसा सेनानी, आरत्मिक शक्ति ओर पार्थिव शक्ति का अभूतपूर्व संघर्ष ओर शताब्दियों से चले श्रा रहे भारतीय सांस्कृतिक अंधकार के स्थान पर नव अरुणोदय--ये सभी बातें आलोच्य काल में ही घटित हुईं | इसी काल में धरामराज्य” की . स्थापना का स्वष्न देखा गया | द वास्तव में जिस भारतीय सांस्कृतिक पुनसुत्यान का जन्म ईसा फी उद्नीसवीं शताब्दी में हुआ, भारतेंदु ओर द्विवेदी काल जिसके क्रमशः प्रथम और द्वितीय चरण थे, आरालोच्य काल में वह अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुका था। भारतीय _ जनचेतना के जनक लोकमान्य तिलक के निधन ( १६२० ३० ) के पश्चात्‌ राजनीतिक दृष्टि से लगभग सभी महान्‌ प्रतिभाशाली व्यक्ति गांधी जी ( १८६६- १६४८ ) के साथ थे.। सामान्य जन के अतिरिक्त महामना मालवीय, लाला लाजपतराय, राजेंद्रप्रसाद, चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य, स्वामी श्रद्धानंद, मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, सरोजिनी नायडू; खान अब्दुल गफ्फार खाँ, बल्लभभाई पटेल, विद्ल्‍लभाई पटेल, सुभाषचंद्र बोस आदि के रूप में प्रतिभाशाली एवं मेधावी बुद्धिजीवी वर्ग उनके नेतृत्व में प्राणों तक का बलिदान देने लिये प्रस्तुत हो गया था | भारत के गंभीर इतिहासविशेषज्ञ भी इरू संबंध में एकमत हैं कि ईसा की उन्नौसवीं शताब्दी मे' देश की पराधीनता के फलस्वरूप पूर्व और पश्चिम का 2 22000 की ४2:६2 7अ जी हअरत 2 कु 72:02 50 आकर अप [ भाग १० ] .. परिवेश क्‍ जो संघर्ष स्थापित हुआ, उससे भारत में जो नत्रीन चेतना उत्पन्न हुई उसके मूल में भारत का अपनी खोई हुई आत्मगरिमा खोजने का अथक प्रयास था और उसका राजनीतिक संब्रष उसी प्रयास का एक महत्वपूर्ण पक्ष था, क्योंकि बिना राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त किए वह अपना विश्वव्यापी संदेश देने में असम रहता। किंतु वह मात्र राजनीतिक जागरण नहों था। उसने तो संपूर्ण भारतीय जीवन को अपने में समेट लिया था। वह गीता!” के संदेश को व्यावहारिक रूप में परिणत करना चाह रहा था। आलोच्य काल के पूव बंगभंग आंदोलन ( १६०३-४ ), श्रीमती एनी बेसेंट द्वारा प्रवर्तित होमरूल आंदोलन ( १९१७ ) और महात्मा गांधी द्वारा संचालित चंपारन सत्याग्रह ( १९१७ ) से जनशक्ति के जन्म ओर अद्विसात्मक नीति की सफलता घोषित हो चुकी थी | तिलक के निधन के बाद जब से गांधी जी ने देश के राजनीतिक जीवन में पदापंण किया तभी से देश में सामूहिक जन- ' जागरण का अध्याय प्रारंभ होता है | संभवतः लोकमान्य तिलफ जो कार्य स्फुट रूप से कर पाए थे, वह काय गांधी जी द्वारा व्यापक, देशव्यापी ओर संगठित रूप में संपन्न हुआ | द प्रथम महायुद्ध ( १९१४-१६ १८ ) के बाद भारतीय राजनीतिक जीवन श्रभूतपूर्व संघर्ष का जीवन है| रॉलंट ऐक्ट ( १६१९ ) और जलियाँवाला बाग ( १६१९ ), खिलाफत आंदोलन ओर सत्याग्रह एवं असहबोग ( १९२१ ) बारडोली सत्याग्रह ( १६२३ ३० ), गुरू का बाग ( मंडा सत्याग्रह, नागपुर १६२४ ), साइमन कमीशन ( १९२६ ), लाहोर कांग्रेस ( १६२६ ) मेरठ षड़यंत्र केस ( १६९३० ), दाँडी कूच ( १९३० ) श्रोर नमक कानून भंग, गोलमेज परिषद्‌ ( १६३० ) गांधी इविंन समझोता ( १६३१ ); लगानबंदी श्रांदोलन ( १९३२ ) खुदाई खिदमतगार सत्याग्रह झांदोलन ( तत्कालीन उचरपश्चिम सीमांत प्रदेश, १६३४ ), सामूहिक सत्याग्रह के स्थान पर व्यक्तिगत सत्याग्रह, गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट ( १६३६) ओर कांग्रेस मंत्रिमंडलों की स्थापना तथा १६३६ में उनका पदत्याग आदि घटनाएँ आलोच्यकालीन राजनीतिक जीवन के आरोह ग्रवरोह की प्रदर्शिका हैं। ज्यों ज्यों राष्ट्रीय उत्साह की चृद्धि होती जाती थी तयोँ त्योँ सरकारी दमन मी बढ़ता जाता था| गांधी जी ने जो सत्याग्रह आंदोलन प्रारंभ किया था, वह निःस्वा्थता; सत्य, अहिंसा, उच्च आदर्शों, नेतिकता और आध्यात्मिक बल पर श्राधारित था जिसकी रूपरेखा उनकी “हिंद स्वराज! नामक पुस्तक में उपलब्ध है। उनका १६११ का श्रांदोलन ब्रिथिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध युद्ध की प्रथम घोषणा थी | उनके द्वारा जिस जनशक्ति का जन्म हुआ्ना, श्ब्न्रः १० द हिंदी साहित्य का बृहत इतिहास वह शेष आलोच्य काल में निरंतर विकसित होती गई । इससे भारत की पराधीन श्रौर मुक एवं निरीह जनता को ब्रिटिश साम्राज्यवाद की चुनोंती स्वीकार करने की धीरे धीरे श्रादत पढ़ी । अहिंसा के रूप में एक नया अस्च पाकर वह आए दिन ब्रिटिश साम्राज्यवाद को ललकारती रहती थी। राष्ट्रीय भारत की इस बढ़ती हुई शक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण १६२६ के लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में पूर्ण स्वाधीनता संबंधी प्रस्ताव था । पूर्ण स्वतंत्रतावादियों ओर ओओपनिवेशिक स्व॒राज्य- वादियों के संघर्ष में पूर्ण स्वतंत्रतावादियों को यह महत्वपूर्ण विजय थी । यहीं से छतंत्रता संग्राम के इतिहास का हविंतीय अध्याय भरा रंभ होता है, वयोंफि इसके बाद ब्रिटिश प्रश्ुत्व और ब्रिटिश साम्राज्य से पूर्ण मुक्ति प्रास करना ही राष्ट्रीय भारत का लक्ष्य बना | यह निश्चित है कि गांधी जी के नेतृत्व में देश ने अ्रहिंसाव्रत की कठोर अ्ग्निपरीक्षा देने की ठान ली थी। वें सत्य; ग्रहिंसा, संयम, साधना, सेवा, स्चनात्मक कार्यक्रम, इृदयपरिवर्तन आ्रादि के आधार पर अपना सँग्राम भारी रखना चाहते ये। मिट्टी से बने लोगों को वे देवताओं में परिणत करने की चेष्टा में संलग्न रहे। स्पष्ट है, इस कार्य में उन्हें पूर्ण सफलता मिलना असंभव था। झ्रसफलता मिलने और दूसरों को अपने बताए दुए मार्ग से विचलित होते देखकर उन्होंने श्त्मविश्लेषण ओर आत्मपरीदण किया ओर एफ सच्ञ महात्मा फी भाँति दूसरों की कमियों को भी अपने ऊपर आड़ लिया । अपने दोषों और श्रभावों एवं त्रुटियों को सावंजनिक रूप में स्वीकार करने में उन्होंने कोई संकोच न किया। सच तो यह है कि कांग्रेस के कुछ प्रमुख सदस्य प्रारंभ से ही सत्याग्रह आंदोलन से बहुत संतुष्ट नहीं थे ओर वे सरकारी संस्थाश्रों में प्रवेश कर काय करना चाहते थे। आगे चलकर कुछ कांग्रेती फार्यकर्ता अपनी सेवाओं का मूल्य आँकने लगे। साथ ही राष्ट्रीय भारत की अपनी दलगत राजनीति के कारण गांधी जी का आंदोलन दिन पर दिन कमजोर पड़ता गया। १६३८ में सुभाष- चंद्र बोस द्वारा स्थापित फॉवर्ड ब्लॉक राष्ट्रीय भारत की प्राचौर में पड़ी दरार का एक प्रमुख उदाहरण है। १६१६ की मांटेग्यू चेम्सफड सुधारयोजना से लेकर १६३४-३६ के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट तक ब्रिटिश गवर्नमेंट भी उदारदलीय नेताओं की सहायता से राष्ट्रीय नेताओं को विधान सभाओं की ओर खींच लेना चाहती थी। स्वयं कांग्रेस में अपरिवर्तनवादी ( जन आ्रांदोलन के पक्षपाती ) ओर परिवर्तनवादी ( स्वराज्य पार्टी ) दो दल बराबर रहे। ब्रिटिश गवर्नमेंठ द्वारा आयोजित विभिन्न गोलमेज परिषदें संवैधानिक सुधारों और भारत को शरोपनिवेशिक स्वराज्य तक संतुष्ट रखने के प्रयास के रूप में थीं। इन तथा ऐसे ही आपस के वाद- . विवादों झे राष्ट्रीय भारत में मतभेद उत्पन्न हो जाने के कारण उसकी शक्ति छीण [ भाग १०] परिवेश ११ हो जाया करती थी। पुरानी स्वराज्य पार्टीवाली प्रकृति फ़िर से जीवित हुई आोर १६३४-१६३५ में आनेवाले ऐक्ट की घोषणा हो जाने पर उसे और भी प्रोत्साइन प्राप्त हुआ | ऐंक्ट अत्यंत अ्रसंतोषजनक था। १६३६ में द्वितीय महा- युद्ध का विकराल ग्रह चमकने लगा | भारतीय स्वतंत्रता के लिये श्रालोच्य काल में यदि एक ओर अहिंसा पर आधारित सविनय अवज्ञा ओर सत्याग्रह आंदोलन चलते रहे, तो दूसरी ओर गांधी जी की पद्धति से भिन्‍न उन जॉबाज और सरफरोशी फी तमन्ना रखनेवाले क्रांतिकारी भावुक नवयुवकों का श्रांदोलन था जो भारतीय नवोत्यान और विद्रोह एवं विप्लववादी मावनाओं से ओतप्रोत ओर महापुरुर्षा के उदाहरणों से अ्रनु- प्राशित थे | यद्यपि इन क्रांतिकारी नवयुवर्कां की वीरता पर राष्ट्र मग्ध था; तो भी व्यापक जनआंदोलन के रूप में उनके वीरतापूर्ण कृत्यों की उपादेयता संदिग्ध थी | ग्रालोच्यकालीन राष्ट्रीय भारत निस्सदेह जीवन मरणु के निमंम संघर्ष से जूक रह्य था | उसका पथ श्रग्निपषष था। उसे जहाँ अपनी आंतरिक दुर्ब- लताओं पर विजय प्रात करनी थी, वहाँ दूसरी ओर बाह्य कारणों से उत्पन्न कठिनाइयों और विध्नबाधाश्रं फी सुरसा भा मुंह बाए रहती थी। अंग्रेजों ने प्रारंभ से ही भेदनीति ( १६०६ में मुस्लिम लॉग फी स्थापना के साथ ) ग्रहय कर रखी थी । उन्होंने न केवल राजना।तिक एवं आशिक क्षेत्र में एक वर्ग को दूसरे वर्ग से भिढ़ाने की .चेष्टा थी, वरन्‌ भारत को समाज-धर्म-व्यवस्था और भाषाश्रं से भी अनुचित लाम उठाते हुए हिंदू समाज को विभिन्‍न जातियो; . विशेषतः बहुसंख्यक अछूत जातियों और सवर्ण हृंदुओं को ओर देश के हिंदू, मुसलमान, इसाई) पारस, सिंक्‍्ख आदि बड़े बड़े जातिसग्रुदायों फो भी आपस में लड़ाने की पूरी कोशिश की और बहुत बड़ी हृद तक सफलता प्रात की । : देश में परस्पर कलह उत्पन्न करने की दृष्टि से वेया ता संवेधानिक सुधार प्रस्तुत करते समय अ्रथ, धर्म श्रोर जाति के आधार पर पृथक्‌ निवाचन आंदे विविध संवेधानिक अधिकार देकर देश और समाज को छोटो छाटी दुकड़ियों में बॉट देना चाहते ये, अ्रथवा सांप्रदायिक दंगों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साइन प्रदान कर देश के जांवन को विषाक्त बना देते थे । हि सांप्रदायिक दंगों से राष्ट्रीय क्षति तो हुई ही, साथ ही अग्रजों को दुनिया के सामने यह सिद्ध करने का भी अवसर प्राप्त हुआ कि (१) भारत एक राष्ट्र नहीं है | यहाँ अनेक धर्म एवं संस्कृतियों के अनुयायी निवास करते हैं और (२) ऐक्य के अभाव के कारण भारतवासी स्वराज्य के योग्य नहीं हैं। किंतु १२ ः हिंदी साहित्य का बृहत इतिहास सरकारी दमन और भेदनीति, मारतीय जीवन की विघदनात्मक शक्तियों का उत्तर गांधी जी ने अपने रचनात्मक कार्यक्रम द्वारा दिया। रचनात्मक कायक द्वारा वे संगठनात्मक और क्रियात्मक राजनीतिक, आथिक ओर सामाजिक शक्तियों फो जन्म देना चाहते थे । कांग्रेस के समी अधिवेशनों में रचनात्मक कायक्रमोँ पर बल दिया जाता था । चरखा, हाथ से कता खद्दर और उसका प्रचार, अस्पृश्यता निवारण, सांप्रदायिक एकता, मादक द्रव्य सेवन का त्याग, विदेशी कपड़ा तथा अन्य वस्तुओं का बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षाप्रणाली, बढ़े बढ़े कल कफारखानों के स्थान पर छोटे छोटे उपयोगी उद्योग घंघे; आमीण जीवन का आर्थिक सुधार, शैक्षणिक, सामाजिक, आरोग्य संबंधी आदि दृश्यिं से पुनस्संगठन, प्रॉढ शिक्षा, मजदूरों का संगठन, हिंदीप्रचार आदि रचनात्मक कार्यक्रम के प्रधान अंग थ। गांधी जी . इन्हें देश की ्रांतरिक शक्ति समझते थे । आर्थिक दृष्टि से आलोच्य काल कोई आशाजनक स्थिति प्रस्तुत नहीं करता | अँगरेजों की जो शोषणनीति प्रारंभ से चली श्रा रही थी वह इस काल में भी बनी रही | मारत कृषिप्रधान देश बना रहा और विदेशी शासकों ने उसकी उन्‍नति की और फोई विशेष ध्यान न दिया। देश इंगलेंड की मिर्लों और फेक्टरियों के लिये कच्चा माल भेजता रहा। भारतीय फिसान बेफारी, भुखमरी और महँगाई से पीड़ित रहता था। अँगरेजों की साम्राज्यवादी नीति से पीड़ित रहने ओर ग्रामीण शिल्प तथा उद्योग घंधों के नष्ट हो जाने के साथ साथ भारतीय महाजनों, व्यापारियों ओर जमींदारों की स्वाथंपूर्ण नीतियों के कारण किसान पर कर्ज का काफी बोझ लद॒ गया था। साम्राज्यवाद और पूंजी वाद के पाों के बीच वह पिस रहा था। किसान कर्ज में पेदा होता, कर्ज में जीता ओर कर्ज में ही मर जाता था.। जूठ, कपड़ा, लोहा एवं इश्पात आदि के कुछु कल कारखानों के खुल जाने पर भी देश का श्रोद्योगिक विकास नहीं के बराबर था। छुंगी ओर विदेशी मुद्रा-विनियम-दर के रूप में भारतीय उद्योग धंधघों को पनपने का अवसर ही न दिया जाता था। इसपर लगान, नमफ कर सैनिक ब्यय, सरकारी कमचारियों के बड़े बड़े वेतन, विदेशी माल की खपत, पैदावार के भाव में कमी, बेकारी आदि के कारण देश में एक प्रकार से लगातार आ्राथिक संकट बना रहता था | मध्यमवर्ग का ध्यान छोटी छोटी नौकरियों की ओर अधिक ओर वाणिज्य व्यवसाय तथा उद्योग घंधों की ओर कम रहता था । किसान मजदूर, बुद्धिजीवी मध्यमवर्ग, तभी लड़खड़ा रहदे थे । गांधी जी ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कोर तथा अन्य रचनात्मक कार्यक्रमों द्वारा “दरिद्रभारावण! की ओर ध्यान अवश्य दिया, किंतु बाधाओ्ों ओर सीमाओं के फारण इस दिशा कर सतपााच सतथर८2८पलर पता सकल <रयाप सर सपतवर उररा5 व ३अ+५ कफ न्‍रपभ ८5८ दाप दर जप परत ब2 ३ सवाक८उ>ा34रउक9५७3 ३०९: ९६३० मत पल सर< स्ककप पकसन+4+प २८८: पार तक मा उसथत> 5 सदरपरन्‍ाााल-वसरापानम ८८८२५ ८2५ सचकाज दापकन5 इज न न स्‍थतमालदजडररापरावापराचघसमत [ भाग १० ] परिवेश १३ में कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि न हो सकी । गांधी जी तथा उनके सहयोगी अभाव- मुक्त देश का स्वप्त देखते रहे । किंतु स्वप्न पूर्ण होने के लिये विदेशी सत्ता के बंधनों से मुक्त होना अनिवाय था। द वास्तव में जिस राध्ट्रीयता का जन्म उन्सीसबीं शताब्दी के उत्तराध में हुआ था; वह निर्बल क्रोध और श्राग्रहपूर्ण प्रार्थनाओं के स्थान पर अनेक देशभक्तों द्वारा पालित पोषित होकर सक्रिय संघर्ष की प्रेरणा से प्रेरित हो उठी थी। वह संसार की एक महान साम्राज्यवादी शक्ति के संत्र्ष में आ चुकी थी | देश के कण करण में भारतवासियों को दिव्यता के दर्शन होने लगे। 'स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और में उसे लेकर रहूँगा' अब नारा मात्र न रहकर भारतीय जीवन की यथार्थता बन गया था । किसानों, मजदूरों, नवशुवर्कों, मध्यमवर्ग श्रादि में राष्ट्र के प्रति प्रम धर्म का रूप धरण कर चुका था | गांधी जी और कांग्रेस के भ्रथक प्रयत्नों के फलस्वरूप विधठनकारी सामाजिक) धा्भिक और राजनीतिक शक्तियों पर विजय प्राप्त करने के साथ साथ देश ने अखिल भारतीय राष्ट्रीय भावना व्यक्त की। अँगरेजों की दमननीति एवं भेदनीति भी उसे कमजोर न कर सकी। सेना के स्थान पर अब अहिंसा का अ्रस्त्र धारण फर स्वयं जनता बल्लिं के लिये आठुर दो उठी थी । भारत देश भौगोलिक इकाई मात्र न रहकर “माता! के रूप में परिणत हो गया ओर चारो ओर “बंदेमातरम”, “इंकलाब जिंदाबाद! ग्रीर “मंडा ऊँचा रहे हमारा' के स्वर निनादित होने लगे। सबको पराधीन भारतभूमि स्व्गंसहश दृष्टिगोचर होने लगी। भारत के जन जन में ईश्वर का रूप शाकार हो उठा । जनसेवा ही ईश्वरमक्ति समझी जाने लगी। भारत माँ की सेवा के लिये लोग शरीर; सन और आत्मा का संस्कार करने लगे। माँ के लिये उनमें भावुकतापूर्ण और अनुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण उद्दीस हुआ । बंदिनी माता को कारावास! से 'मुक्त' फरने के लिये मोहनदास कर्मचंद ग्रांघो की जन्म उसी प्रकार हुआ माना गया जिस प्रकार कंस के कारागार में मोहन (कऋष्ण। का अवतार हुआ था | “अँगरेजी शासन” 'रावशत्व” का प्रतीक था। गांधी जी ने उसे “ शेतान का राज्य . कहा । स्वतंत्रता संग्राम का लक्ष्य असतों मा सदृंगमय, तभसों मा ज्योतिर्गमय? (बूहृदारण्यक) का आदश प्रस्तुत करता था । क्‍ किसी भी देश के सामाजिक धार्मिक जीवन का सं्ेघ अंततोगत्वा वहाँ की शिक्ञाप्रणाली और तज्जनित संस्कार्रो से रहता है। आधुनिक नवीन शिक्षा से देश लाभाग्वित तो अवश्य हुआ, किंत भारी मूल्य चुकाकर। अँगरेजी शिक्षा का मूल उद्देश्य देश का सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक(व्यापक अथ में) उत्थान करना या देश को साफ सुथरा बनाना नहीं था । देश में जो नवोत्थान- कं . हिंद साहित्य का इदव्‌ इतिहास कालीन नवीन चेतना उत्पन्न हुई वह एक तो पश्चिम के घातक प्रभाव ते बचने की दृष्टि से आत्मरक्षामूलक थी, दूसरे यह चेतना 5 अकश थी । ग्रंगरेजों का मुख्य उद्दे श्य प्रशालकीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये सरफारी कर्मचारी वैंदा करमा और एक ऐसा शिक्षित वर्ग पैदा करना था जो अपनी सांस्कृतिक भूमि से उखड़ गया हो और जो अंगरेजों की भाँति ही सोचने विचारने का अभ्यस्त हो गया हो । इस शिक्षा की जड़े जनजीवन में नहीं र्थी। हे पराधीन भारत ने राजा राममोहनराय से लेकर महात्मा गांधी तक जीवन के विविध क्षेत्रों में अनेक महापुरुषों को जन्म दिया, जिन्होंने देशोद्धार के लिये अ्रपना जीवन ही उत्सर्ग कर दिया । किंतु नवीन शिक्षा के दोषों पर विजय प्राप्त कर ही वे ऐसा कर सके थे । नवीन शिक्षा की प्रृष्ठभूमि सांस्कृतिक एवं जातीय न होने के कारण देश में सामान्यतः दूषित दृष्टिकोण उत्पन्न होना अनिवार्य था | इतीलिये गांधी जी ने राष्ट्रीय शिक्षा और श्रालोच्य फाल के लगभग अंत में बुनियादी शिक्षा पर बल दिया । किंतु नवीन शिक्षा से देश को कोई लाभ ही नहीं हुआ; यह मानना भी कठमुह्लापन होगा। देश फी एकता ओर समान विचारपद्धति, सुधारवादी मावना, मानवतावादी दृष्टिकोण, राष्ट्रीयता, लोकतंत्रात्मक विचार- पद्धति, वैज्ञानिकता, मारत से बाहर की दुनिया के साथ संपक श्रादि के पीछे नवीन शिक्षा का महत्व स्वीकार न करना वास्तविकता से संह मोड़ना हांगा । यद्यपि अँगरेबी के कारण हिंदी भाषा का सम्यक्‌ विकास अ्रवरुद्ध हो गया, तो भी स्वयं साहित्य में विविध साहित्यिक आंदोलन एवं विधाओं के जन्म शोर आधुनिकता का अ्रवतारणा की दृष्टि से नवीन शिक्षा की उपेक्षा नहीं की जा सकती । आधुनिक हिंदी साहित्य को नवीन शिक्षा से अलग काटकर देखना ही . एक प्रकार से असंभव है | हाँ, बहुसंब्यक जनता के अ्रशिक्षित रह जाने के कारश सांस्कृतिक पुनरुस्थान का संदेश घर घर न पहुँच सका और साथ ही साहित्यिक रचनाओं की अधिक खपत न होने के कारण हिंदी के साहित्यकारों को आर्थिक लाभ न हो सका | पश्चिमी साहित्य के अ्रध्ययन के फलस्वरूप व्यक्तिवादी दृष्टिकोश भी जन्मा तथा व्यक्ति और समाज में तनाव की स्थिति बने रहने के कारण साहित्यकारों का व्यक्तित्व टूटता और मग्न होता दृष्टिगोचर होने लगा । नवीन शिक्षा के फलस्वरूप उत्पन्न विविध सुधारवादी श्रांदोलन के कारण समाज ओरघर्म को बदलने की प्रबल आकांक्षा और सक्रियता रहने पर भी परंपरा और रूढ़िप्रियता का इस समय बोलबाला बना रहा | यह तो नहीं कहा जा सकता कि जातिव्यवस्था फी कट्टरता एकदम दूर हो गई थी, किंतु वह कुछ शिथिल होने लगी थी। अ्शिक्षि जनता तो अब भी जातिबंधन से पल जल अल ली अर अमल. आम कम [ भाग १० ] परिवेश ... शषू लकड़ी हुई थी | समाज जातियों उपजातिरयों में विभाजित था ओर ऊँच नीच, छुश्राछृत की भावना प्रचलित थी। अस्पृश्यता, जातिंगत विवाहसंबंध, छुश्रा- छूत आ्रादि जातिवाद की कट्टरता के द्वी विविध पक्ष थे | जातिवाद ओर प्रजातंत्र में कोई साम्य मी उपस्थित न हो सकता था । यद्रपि प्रबुद्ध वर्ग जातिव्यवस्था की श्र्थिक और मनोवैज्ञानिक व्याख्या देते हुए यह कहने लगा था कि हिंदू धर्म धर्म के संकीर्ण अर्थ में घर्म नहीं है, वह तो जीवनपद्धति है, वनखंड है, जहाँ भाँति भाँति के इच्ष और पुष्प खिलते हैं, तो भी जातिगत कद्टरता की जटिलताओं श्रोर दुरूहताओं से समान पीड़ित था | समाज में धर्म का जो भी रूप अवशिष्ट था उसका ईमानदारी के साथ पालन नहीं होता था | बोडिक जागरण हो जाने पर भी धमंभीरुता, पुनर्जन्म, संसार की छणमंगुरता, माया, दान; त्रत, तीथथस्नान; पूचा पाठ, कथा प्रवचन, उपासना, परलोक आदि में लोगों को विश्वास भा । मठों मंदिरों कौ इस समय दुर्वस्था हो गई थी और तरह तरह के मिखमंगे साथुश्रों! की संख्या में बृद्धि हुई । ढोंग और श्रा्डबरप्रियता का बोलबाला था। पूजा पाठ और धार्मिक अंधविश्वास एवं छुआदूत ने समाज की प्रगति अवरुद्ध फर रखी थी। उपासना मावविहीन होकर कर्म कांड में परिणत हो गई । ज्ञान श्रौर दर्शन से उसका कोई संबंध न रहा | इसके कारण समाज ही नहीं, धर्म पर भी संकट आ उपस्थित हुआ था। राजनीतिक दृष्टि से अँगरेन कूटनीतिज्ञों ने सवर्ण हिंदुओं ओर इरिननों तथा दलित वर्गों फो अलग अलग कर देना चाहा | श्स संबंध में श्रायसमाज और महात्मा गांधी के प्रयासों का फोई ठो8 परिणाम दंष्टिगोचर न हो पाया | हिंदू मुस्लिम सांप्रदायिक समस्या भी आर्थिक श्रसमानता के अतिरिक्त बहुत कुछ इस सामाजिक स्थिति के कारण मी थी | ञ्रर्यसमाज ने शुद्धि श्रांदोशन चलाया था; किंतु वह भी इसी कारण विफल हो गया । हिंदू धर्म में दीक्षित मुसलमानों को समाज पचा नहों पाया | औद्योगीकरण और वैज्ञानिकता के अभाव मैं इन सब बातों का बना . रहना स्वाभाविक था । हु ... युनरुत्यान की भावना ने यदि एक ओर प्राचीन गौरव की ओर ध्यान श्राकृष्ट किया तो दूसरी ओर समाज अर धर्म की तत्कालीन दयनीय अवस्था को ओर भी । इस दृष्टि से नारी की दयनीय स्थिति देशवासियों का ध्यान श्राकृष्ट किए बिना न रह सकी | भारतेंदु हरिश्चंद्र ( १८४०-१८८४ ) ने “नीलदेवी” का आदर्श हिंदी पाठकों के सामने रखा था। नारीजागरण भारतीय सांस्कृतिक पुनरुत्थान का प्रधान अंग था। गार्गी और मैत्रेयी के उदाइरण फिर देश के सामने रखे गए और कम से कम विचारक्तेत्र में स्त्रीशिक्षा, स्त्री के समानाधिफार, पर्दा निवारण, विधवा पुनर्विवाह, दह्ठेज प्रथा फी निंदा, बाल-बृद्ध-बहु-विवाह-निषेध श्द .. हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास आदि बातें स्वीकार कर ली गई थीं। किंतु व्यावहारिक दृष्टि से ये सभी बातें आलोच्य फाल के प्रारंभ में बनी रहीं। केवल कुछ उच्चवर्गीय स्त्रियाँ ही इन सुधारों को व्यावहारिक रूप में परिणत कर सकी । आलोच्य काल के लगभग श्र त में इन सुधारों को और व्यापकत्व प्राप्त हुआ | सोभाग्यवश भारतीय स्त्रियों को नवयु॥ के अधिकार प्राप्त करने के लिये वैसा श्रांदोलन नहीं छेड़ना पड़ा जेसा यूरोप में छिड़ा था| सांस्कृतिक नवोत्थान ने स्वयमेव उनका अ्रधिकार उन्हें प्रदान किया । विविध राष्ट्रीय आंदोलनों ने इस पुनीत कार्य में सहायता की । श्रसूर्य पश्या भारतीय नारी देश की पुकार सुनकर घर की चहारदीवारी से बाहर निकली ओर पुलिस फी लाठियों के प्रहर और गोलियों की बौछारों का सामना कर वीरांगना बन गई । उस समय पर्दा प्रथा, आमूषणाप्रेम, अनेक कुरीतियाँ एवं कुप्रथाएँ श्रार्दि बातें शीघ्र ही तिरोहित होने लगीं। समाज ने उनका स्वागत किया और विधवा तथा अपहृत नारियों के लिये अनेक आश्रम स्थापित कर उनका जीवन सुखी बनाया । आर्थिक दृष्टि से आलोच्यकालीन नारी पूर्णतः स्वतंत्र नहों पाई थी। परतंत्र भारत में यह सभव भी न था | यहाँ केवल इतना ही कहा जा सकता है कि यद्रपि आलोच्यकालीन नारी के व्यक्तित्व का पूणण उन्प्रक्त विकास न हो पाया था, तो भी उसका भावी मार्ग आलोकित हो उठा था | मेथिलीशरण शुप्त, 'प्रसाद), प्रेमचंद और छायावादी कवियों की रचनाएँ इसके लिये प्रमाण हैं | राजनीतिक सामाजिक पुनरुद्धार के लिये ही नहीं, साहित्य के नवनिर्माण में भी अनेक मंहिला लेखिकाओं ने अपना सक्रिय सहयेग प्रदान किया | वास्तव में नए युग की नई नारी के व्यक्तित्वगठन की जड़ आलोच्य काल में जमी ओर इसी समय भारतीय परिवार और समाज में उसे आदरपूर्श स्थान मिलने की भूमिका प्रस्तुत हुई । ऊपर की अनेक बातों का संबंध मारतीय पारिवारिक व्यवस्था से था | आलोच्यकालीन समाज में संमिलित कुट्ंबप्रथा बहुत कुछ सुरक्षित बनी अवश्य रहो, किंतु नवशिक्ञोत्पनन मनोविज्ञन और आर्थिक कठिनाइयों के कारण उसमें दरार पड़ने लगी थीं। समिलित कुट्धंत्रप्रथा ने यदि एक ओर सामाजिक और वैयक्तिक विघटन होने से रोका तो दूसरी ओर अनेक निष्प्राण पारिवारिक और सामाजिक परंपराओं को बनाए रखा | प्राचीन पर्वों, त्योहारों और रीति सस्मों की <खला संमिल्ित कुंढ्रबप्रथा के अ'त्गंत बराबर बनी रही। परिवार में विधवाओं , भगाई हुई बालाओं अथवा अ्रन्य फिसी प्रकार से भ्रष्ट थुवतियों के लिये कोई स्थान न था | ऐसी स्त्रियाँया तो आश्रमों में स्थान पाती थीं अथवा उन्हें वैश्याइति धारण कर लेनी पड़ती थी। नवोत्थान की भावना से प्रेरित होकर हि का के लेखकों के कवियों ने वेश्याओं के प्रति सहानुभूतिपूर्ण मानवताबादी दृष्टिकोश अपनाया ओर उसमें भी नारीत्व की आमभा देखी | [ भाग १० ] ... परिवेश १७ धारमिक दृष्टि से आलोच्यकालीन समाज में परंपरागत धर्म प्रचलित थे। स्थूल रूप से समाज बहुसंख्यक वेष्णवों ओर अल्पसंख्यक शैबों में बँटा हुप्आ था। वेदों, पुराणों, उपनिषदों, गीता, भागवत रामायण आदि के प्रति अरब भी आस्था बनी हुई थी श्रोर श्रवतारवाद बहुदेववाद, तीर्थमाहात्म्य ब्रत कमकांड, पंडों पुरोहितों फा आधिपत्य, मूर्तिपूजा आदि का प्रचार था। अनेक पव और त्योहार मनाए. जाते थे | फिंतु आयंसमाज आ्रंदोलन के कारण समाज में एक ऐसा वग भी जन्म धारण कर चुका था जो इन परंपरागत बातों में विश्वास नहीं करता था। वह विभिन्न वैदिक विधियों, यज्ञ आदि में विश्वास करता और श्रवतारबाद, तीर्थ, मूर्तिवूजा, विविध कर्मकांडों आदि की कड़ी आलोचना करता था। आधुनिक शिक्षा का प्रचार हो जाने के कारणु या तो कुछ लोग इन बातों में त्रिलकुल ही विश्वास नहीं करते थे और पश्चिम से आए. शान विज्ञान को हो सब कुछ समभते थे, अथवा भारतीय मनोजृत्ति बनाए रखनेवाले लोग इन बातों को वैज्ञानिक आधार प्रदान फर नवीन रूप में प्रस्तुत करना चाहते थे | धर्म के परंपरागत रूप में ही विश्वास करनेवाले सनातनघर्मी कहे जाते थे। धार्मिक दृष्टि से अब एक और समस्या उत्पन्त हो गई थी और वह थी हिंदू धर्म से इतर धर्मों फी। देश में केवल हिंदू धर्म ही नहीं था, इस्लाम, ईसाई, पारसी आदि धर्मावलंबी भी इस देश में विद्यमान थे। हिंदू धर्म के समर्थकों और इस्लाम एवं ईसाई धर्म के समथर्कों में प्रायः संघर्ष छिंढ़ जाया करता था। वेसे तो सांस्कृतिक दृष्टि से हिंदुओं ओर मुसलमानों में अंतर नहीं था, लेकिन मुसलमानों द्वारा चलाया गया तब्र॒लीग आंदोलन और आर्यंसमाज द्वारा संचालित शद्धि आंदोलन राजनीतिक और आशिक संघर्ष के फलस्वरूप जन्म धारण कर सके थे | किंतु एक तो अपनी सांस्कृतिक परंपराओं के कारण हिंदू धर्म सहिष्णुता की शिक्षा देता था, दूसरे ऐतिहासिक एवं सामाजिक परिस्थितियों के कारण उत्जन्न कुचक्रों को रोकना राष्ट्रीय हित के लिये अ्निवाय था, क्‍योंकि हिंदू मुसलमानों के आपस के ऋूगड़ों से साम्राज्यवादियों को लाभ होता | यही कारण है कि नवयुग के नेताओं ने हिंदू धर्म के बृहत्‌ अक्षय भांडार में से ऐसे ग्रंथों पर बल दिया जो सुधारवादी दृष्टि से पॉराशिकता का परिद्दार कर नवोदित राष्ट्रीयता के पोषक ओर सांप्रदायिक वेमनस्थ दूर करनेवाले सिद्ध हो सकते थे। एक पराधीन और निष्किय एवं आलसी देश फो कमंठ बनाने के लिये एसे ही ग्र्थों की आवश्यकता थी। येग्रथ उपनिषद्‌ और गीता थे। राजां राममोहनराय से लेकर महात्मा गांधी तक नवभारत के लगभग सभी निर्माताओं ने ओप॑निषदिक ज्ञान और व्यावहारिक अत पर बल दिया। १०-८३ श्दव क्‍ .. हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास वास्तव में पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने ओर उसका मुकाबला फरने के लिये पुनरुत्थानकालीन भावना के अंतर्गत प्राचीन गौरव, सुधारवादी आदोलनों और नवीन चेतना का जन्म हुआ | सुधारवादी श्रांदोलनों का ध्येय राष्ट्रवादी था। इसीलिये आयसमाज श्रांदोलन अश्रपनी ऐतिहासिक भूमिका संपूर्ण कर राष्ट्रीय आंदोलन में घुल मिल गया। गांधी, अरविंद, व्योर रमणु महर्षि आदि ने धम के नतिकता-आआध्यात्मिकता-प्रधान रूप फो मान्यता प्रदान की न कि रूढ़ियों ओर कफर्मकांडों से बोकिल रूप को। घर्ण और दर्शन के आश्रित रहने पर भी भारतीय समाज एक ऐसे नए ध्म की खोज कर रहा था जिसमें नए युग की आ्राशा आकांक्षाएँ प्रतिफलित हो सकती थीं। मध्ययुगीन पौराणिकता से वह मुक्त रहना चाहता था। सत्य की खोज, अनेफता में एकता समन्वय और सहिष्णाता द्वारा समथित हिंद धम के वास्तविक रूप के प्रति भोरव फी भावना इस काल फी विशेषता है | . दाशनिक दृष्टि से ईश्वर, सृष्टि जीव, प्रकृति आदि के संबंध में फोर नवीन चिंतन नहीं मिलता ओर जन्मजन्मांतरवाद या आवागमन, करम- सिद्धांत, स्वर्ग, नरक आदि के संबंध में शताब्दियों से चले थ्रा रहे दइृष्टिफोश फा प्राघान्य रहा | युग के अनुकूल श्रद्देत दशन पर काफी विचारदोहन हुआ । रामकृष्णु परमहंस, विवेकानंद श्रोर रामतीयथ द्वारा प्रतिपादित अद्वेत विचारपद्धति को योगी श्ररविंद ( घोष ) ओर रमण महर्षि ने सुरह्तित बनाए रखा । इन क्षेत्रों में नवीनता के लिये फोई गुंजाइश दिखाई नहीं पड़ी। प्रत्युत काल के बौफ से इन दाशनिक विचारपद्धतियों की गतिशीलता बहुत कुछ नष्ट हो चुकी थी। आलोच्यकालीन भारतीय समाज धर्म और दर्शन का वास्तविक स्वरूप भूलकर स्थान, समय और परिस्थितिसापेक्ष रूप पर मुग्ध था | इस्लाम और ईसाई धर्मों ने भी दशन क्षेत्रों में कोई सक्रियता प्रकट न की वास्तव में प्राचीन और नवीन फा उचित समन्वय न हो सकने के फारण जो सजनात्मक प्रक्रिया दृश्गोचर होनी चाहिए थी वह न हो सकी ओर विचित्र परस्पर विरोधी बातें जीवन में स्थान पाने लगीं | पाश्वात्य दर्शन के अ्रंतगंत बुद्धिवाद, रोमांटिक भावना, मानवतावाद; प्रकृतिवाद, मोतिफतावाद, विकासवाद, जीवविकास, दुंंद्वात्मक भोंतिकवाद, उपयोगितावाद आदि का अध्ययन किया गया श्र चितन मनन तथा साहित्य के छुत्र में उनका थोड़ा बहुत प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगा | हि&.# अस्तु, आलोच्य काल के सामाजिक जीवन में ( १) प्राचीन गौरव की स्मृति और तज्जनित राष्ट्राभिमान, कितु साथ ही पतन पर क्षोभ, (२ ) यूरोप के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने की चेथ्टा, ( ३ ) विभिन्‍न धर्मांवलंबियों में राजनीति और अगरेजों की भेदनीति पर श्राधारित वेमनस्य और ( ४) स्वयं अपने समाज ॥! / व ॥ (00% के | | । ही | । | . [4 ई। ह | / | || | ह | | ॒ | ह!] [भंग १० |. परिवेश ः १६ ओर धर्म में सुधार और कट रपंथियों, साथ ही यूरोप का अनुकरण करनेवालों के साथ संघषं, ये सभी प्रव्नत्तियाँ मिलती हैं। उनके पीछे सांस्कृतिक पुनस्त्थान की भावना काम कर रही थी | आलोच्य काल में राष्ट्रीय परिस्थिति के कारण बद्धिवादी एवं मानवतावादी दृष्टिकोण ओर धार्मिक सहिष्णुता की भावना और अ्रधिक बेढी । साहित्यकारों ने प्राचीन ओर नवीन जीवन से ऐतिहासिक और सामाजिक सामग्री का संचयन कर ऐसी रचनाएँ प्रस्तुत की जो समाज के स्वोगीश उत्थान में सहायक सिद्ध हो सकती थीं | गांधी जी के क्रांतिकारी विचारों ने भी समाज को आरात्ममंथन आर विचारदोहन का अवसर प्रदान किया । गाँवों में राजनीतिक चेतना तो पहुँच चुकी थी; किंतु वहाँ समाज ओर धर्म में युगानुकूल परिवर्तन उपस्थित फरने की भावना अभी पैदा नहीं हुई थी। छुघारवादी आंदोलन नगरों तक ही अधिक सीमित रहे | वेसे हिंदू धर्म की अनेक व्यास्याएँ प्रस्तुत की गईं और अनेक प्रकार के विचार विनिमय हुए। अनुपयोगी ओर निरथंक तत्वों से विहीन हिंदू धर्म को समाजसेवा ओर राष्ट्रहित के लिये उपयोगी बनाने का प्रयास किया गया क्रौर ईश्वर का अस्तित्व मंदिर, मस्जिद गिरजाधर आदि में न देखकर दीन- ते हीन की कुथ्यों में, मनुष्य की सेवा में, खेतों खलिहानों में स्वीकार किया गया | आलोच्यकालीन जीवन के विविध पक्षों का अ्रध्ययन करने से यह स्पष्ट तः ज्ञात हो जाता है कि देश में यदि एक ओर संगठनातव्मक और रचनात्मक शक्तियों का जन्म हो रहा था, तो दूसरी ओर बिखराव, आपसी मतभेद; फू८ और कलह, साप्रदायिक बेमनस्य और शिथिलता उत्पन्न करनेवाली शक्तियाँ भी अपना घृणित रूप चमकाए बिना न रहती थीं। राष्ट्रीय आ्आांदोलन ने देश की अनेक दूषित परंपराओं पर पर्दा डाल रखा था; किंतु दूषित परंपराएँ थीं अवश्य | संघर्ष के साथ साथ निराशा भी थी। सोंभाग्यवश देश का नेतृत्व समर्थ हाथों में था | महात्मा गांधी तथा उनके सहयोगियों ने नेंतिक आदशों और चारित्रिक हृढ़ता, साइस ओर निर्भीकता का पाठ पढ़ाकर दूषित परंपराओ्नों ओर अन्याय के विरुद्ध संधघर्ष करने की शक्ति फो जन्म दिया जिससे मुर्दा जैसो फोम मे जान आरा गई। भारतवासियों ने भय छोड़कर अनथकारी शांक्तेयों का सामना करना सीखा और एक व्यापक जनचेतना उत्पन्न हुई | सत्य और अहिंसा के आधार पर देश ने निःशस्त्र क्रांति को जन्म देने की चेष्टा की। सत्याग्रह वीर पैदा छुए। राष्ट्र में एकता, आत्मसंगान, अनुशासन, सहिष्णुता, सेवाभाव, त्याग आर बलिदान की भावना जन्म घारणु किए, बिना न रह सकी । आलोच्य काल बाह्य और आंतरिक दोनों प्रकार की दुर्बलताओं से जूकने का युग है। भारतवासियों के लिये स्वराज्य का प्रश्न बोंद्धिक अधिक न होकरा बुमकता २७ हिंदी लाहित्य का बू हवत्‌ इतिहास का प्रश्न अधिक था। देश एक ऐसी प्रबल संस्कृति से टक्कर ले रदह्य था जिसने प्राचीन और मध्ययुगीन श्रास्थाओं और धारणाओं को बड़े तीत्र और प्रबल वेग से भफभोर डाला था। राजनीतिक दृष्टि से परास्त होने पर भी भारतवासी सांस्कृतिक दृष्टि से परास्त न हुए थे। राजा राममोहनराय से महात्मा गांधी तक अनेक महापुरुषों ने देशवासियों को ऐसा श्रात्मिक संबल प्रदान किया जो मुलतः भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में होते हुए भी समन्ववात्मक शक्ति लिए हुए था और जिसने लड़खड़ाते हुए देश की रक्षा की। नवीन शिक्षा में दोष होते हुए भी उससे देशवासियों का बुद्धिवैभव प्रकाशित हुआ । उन्होंने विज्ञान ओर अध्यात्म के समन्वय की ओर दृष्टिपात किया ताकि जड़ विज्ञानवादी पश्चिम फो भय॑कर अग्निशिखाओं से मानवता फा च्ाणु हो सके । (ख) साहित्यिक प्रतिक्रिया चौमुखी चेतना के इस युग में साहित्य और कला का अ्रछूता बना रहना ग्रसंभव था । नवोत्थान की भावना ने जीवन और संस्कृति के इन महत्वपूर्ण पार्श्वों को मी समृद्ध किया। चित्रकला के क्षेत्र में राजा रवि वर्मा ( ट्रावन्फोर- त्रिवांकुर ) की वर्शासंकर शली के स्थान पर अवनीद्रनाथ ठाकुर द्वारा स्थापित राष्ट्रीय शैली के मूल में मारतीय सांस्कृतिक नवोत्यान की मावना निहित थी | इसी प्रकार विष्णुनारायण मातखंडे, विष्णुदिगंबर पलुस्कर, नारायशराव व्यास, फैयान खाँ, बड़े गुलाम अली, अलाउद्दीन खाँ, ऑकारनाथ ठाकुर आदि ने शास्त्रीय संगीत का पुनरुद्धार क्िया। इसके अ्रतिरिक्त अनेक प्रकार के वाद्य- यंत्रों, तर्जा ओर धुनों की दृष्टि से संगीत ने पाश्चात्य प्रभाव भी स्वीकार किया। फिल्‍मी गानों में लोकप्रिय भाव और लोफघुनें ग्रहण की गईं । साहित्य में छुंद आर भाषा का संगीतात्मकता से संबंध स्थापित करने का प्रयास फिया गया । आलोच्यकालीन साहित्यिक एवं कलात्मक नवोत्थान के मल में, जीवन के अन्य ज्षेत्रों की माँति, प्राचीन शास्त्रीयता के प्रति अभिरचि और पाश्चात्य प्रभाव के समन्वय की भावना थी। यह फकाय साधनासापेक्ष था | . हिंदी के आलोच्यकालीन साहित्यकारों में से अधिकांश निम्न मध्यवर्ग के थे ओर उन्होंने उच्च श्रेणी की आधुनिक शिक्षा भी प्राप्त न की थी। वे अनेक प्रफार की विसहश परिस्थितियों में जीवनयापन कर रहे थे। एक तो हिंदीभाषी को राजनीतिक ओर सामाजिक जीवन में उचित स्थान प्राप्त नहीं था, दूसरे हिंदी का साहित्यकार भी सभी तरह से उपेक्षित था। उसकी सारी शक्ति चारो ओर की परिस्थितियों से जूमने में ही खर्च हो जाती थी। अपने देश में हिंदी के साहित्यकार की वही स्थिति थी, जो अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में पराधीन [ साग १ 0 ] । । वरिवेश | 3$ आर निर्धन भारत की थी । फलतः हिंदीसेवियों में नाना प्रकार की प्रंथियों का उत्पस्न हो जाना स्वाभाविक था। इतने पर भी वे निष्ठापवक मातृभाषा की सेवा करते रहे | उनमें मातृभाषा के प्रति अद्टूट प्रेम था और वें उसकी सेवा के लिये बड़े से बड़ा बलिदान फरने के लिये प्रस्ठुत रहते थे। अनेक प्रफार फी सामाजिक और श्रार्थिक फठिनाइयाँ रहते हुए भी वे जीवन की ऊबड़ खाबड़ पगडंडी पर निरंतर आ्रागे बढ़ते ही गए। उनमें सेवाभाव बराजर बना रहा। हिंदी भाषा और साहित्य के प्रति उनकी आस्था और विश्वास में फोई अंतर न पड़ा । अग्निपथ से समाजजीवन ते करते हुए वे मातृभाषा, समाज भ्रौर राष्ट्र के प्रति अपना कर्तव्य मली भाँति समभते थे श्रोर मानवतावादी आदर्शों के प्रति जागरूक थे | दार्शनिक दृष्टि से आलोच्यकालीन साहित्यकारों ने यद्यपि श्रधानतः भारतीय उपनिषददों, वेदांत, वैष्णव मक्ति शोर कुछ शैवागमों और बौद्ध धर्म का समन्वय प्रस्तुत किया, तो भी उन्‍होंने देगेल के ... आध्यात्मिक सर्वात्मिवाद और आलोच्य काल के लगभग अंत में माक्स के .. दुंद्रात्मक भौंतिकवाद का प्रभाव भी स्वीकार किया | सांस्कृतिक चेतना, मॉनवर्ता- वादी मूल्य; राष्ट्रीयता, लोफतांतजिफक विचारधारा एवं सामाजिक समता; बुद्धिवाद, नारी के प्रति उदात्त दृष्टिकोश, उपयोगितावाद; भ्रदर्शवाद, विश्वबंधुत्व॒ ओर निःस्वार्थ सेवा, रह स्यवाद आदि ने अालोच्यकालीन हिंदी साहित्य का छ्ितिज व्यापक बनाया और साहित्यकारों ने अनेक प्रकार की-नैंतिक, धार्मिक, सामाजिक, भ्राथिफ और दार्शनिक समस्याएँ सुलझाने का म्यास फिया । प्रथम महायुद्ध के बाद फी राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों , रूसी राज्यक्रांति तथा महात्मा गांधी की विचारधारा और वैज्ञानिक प्रगति ने मध्ययुगीन इश्फिण ( जो दासज्- जनित जड़िमा के कारण बहुत कुछ बना हुआ था ) पर शहद: किया ओर सामान्य जन के प्रति सहानुभूति उत्पन्न कर जीवन के प्रति भावात्मक दंष्टिकोश उत्पन्न _ किया। वें धरती फो ही स्वर्ग बनाना चाहते ये । द एक संघर्षपूर्ण ओर गतिमय युग में साहित्यकारों का आविर्भाव होने के फारण साहित्यसंपदा की अनेफकस्तरीय और विविधतासंपन्न होना स्वाभाविक था। कविता की सभी प्रदृत्तियोँ में हमें गतिशीलता दृशिगोचर होती है। अपनी सीमाओं के भीतर छग्पटाते हुए. मी कवियों ने नई दिशाएँ खोजीं । उपयुक्त परिवेश फो दृष्टिपथ में रखते हुए यह स्पथतः शा हो जाता है कि आलोच्य काल हिंदी साहित्य का वेभव काल है। इस काल के कवियों ने भाषा आर माव दोनों . क्षेत्रों में फलात्मक वेभव प्रदर्शित किया और गद्यलेखककों ने संघ प्रसापेक्ष जीवंत शक्ति प्रकट की | व्यापक जागरण के युग में उनकी मानसिक और कलाचेतना संबंधी धारणाओं का निर्माण हुआ | गांधीवाद और छायाबाद रहस्यवाद दोनों ५१ क्‍ हिंदी साहिध्य का शत इतिंदासे के मल में सूक्ष्म आंतरिक शक्ति; सांध्कृतिक अध्यात्म ओर भारतीय सर्वात्मवाद है जो वेदों श्लौर उपनिषदों में सनातन सत्य के रूप में निहद्चित था। सर्वात्मवाद के अतिरिक्त, सावभौमिक अंतश्वेवना, अर्तीद्वियता, उपनिषर्दों के ब्रह्मवाद, श्राध्यात्मिक अ्रभेदता, चेतन प्रकृति और सक्ष्म अंतर्जगत्‌ की श्रभिव्यक्ति ओर पश्चिम के व्यक्तिवाद के कारण उसका रूप और अधिक पुष्ट हुआ। किंतु छायावादो रहस्यवादी काव्यप्रवृत्ति के अतिरिक्त इस समय देशमक्तिपूर्ण काव्य की भी प्रचुर मात्रा में रचना हुई, यद्यपि जगन्ताथदास (रत्नाकर! जेंसे आधुनिक थुग में रनेवाले प्राचीन कवियों का भी श्रभाव नहीं था । राष्ट्रीयता की लहर ने श्रन॑ंक कवियों फो प्रभावित किया। कुछ ने तो विविध आंदोलनों में सक्रिय भाग लिया | जो सक्रिय भाग न ले सके, उनका मन राष्ट्रीय भावनाओं से श्रांदोलित होता रह्य | मेथिलीशरण गुप्त, सनेही”; जयशंकर प्रसाद”, म।|खनलाल चतुबदी, सियारामशरण गुप्त, सुभद्राकुमारी चाहान आदि अनेफ कवि राष्ट्रीयता के रंग में . रंग गए । सांस्कृतिक पुनरुत्थान के साथ साथ राष्ट्रीय जागरण के चिह्न उनको रचनाश्रों में प्रचुर मात्रा में मिलते हैं; यहाँ तक कि धार्मिक, पोराशिफ ओर ऐतिहासिक विषय ग्रहण करते हुए भी राष्ट्रथ्मं उनका प्रतिपाद्य विषय बना | देश में उत्पनन आत्मबल ओर आत्मविश्वास उनफी रचनाओं में दृष्टिगोचर होता है। स्वयं हिंदी भाषा राष्ट्रीयदा का प्रतीक बन गई थी। उसमें भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीयता के अनुरूप मानवी दृष्टिकोश और उच्च आदर्शों की स्थापना हुई | आलोच्य काल के अंत में पददलितों के प्रति सहानुभूति, यथाथंबाद, मनुष्य की सहज स्वाभाविक प्रवूत्तियों का नग्न चित्रण, वर्गसंघर्ष, नारी की मुक्ति, मानवसापेक्ष प्रवृत्ति, श्र्॑ंकारविहीन भाषाशेली आदि का चित्रण साम्यवाद के साहित्यिक मोर्चा प्रगतिवाद! के अंतर्गत हुआ । किंतु इतना निश्चित हैकि परतंत्रता के अनुभव के साथ साथ आलोच्यकालीन काव्य में व्यक्ति के परिष्फार ओर कायशीलता की आकांक्षा है। एक ओर विवशता थी, तो दूसरी ओर नैतिक दायित्व को भावना थी। यह अंतदंद्व इस फाल से पूर्व के साहित्य में नहीं था । आलो च्यकालीन कवि की रचनाएँ इस अंतद्द्ग और ऊद्दापोह से ओतप्रोत हैं | विवेकानंद, रामइष्ण परमहंस, स्वामी रामतीथ, गांधी, रवींद्रनाथ, अरविंद, रमण महर्षि आदि . का सम्यक्‌ प्रभाव हिंदी के कवियों की बौद्धिक चेतना को संबलित फिए हुए था । एक और जड़िमा तथा अवसाद था, तो दूसरी ओर अम्युत्थान और नवजागरण की चेतना । छायावादी रहस्यवादी और राष्ट्रीय प्रवृत्ति का द्योतन करनेवाले कवि काव्य के क्षेत्र में नएं नए मूल्य स्थापित कर रहे थे और इसलिये उनका अत्यधिक महत्व है। ये नए मूल्य मानवी जीवन, प्रेम, स्त्री पुरुष-संबंध आदि की दृष्टि से ही नहीं, प्रकृतिचित्रण को दृष्टि से भी स्थापित किए गए। उनमें 3 ियअत-ि क 2 स्यत कट पीस लक मल लीक नीनल फल नन नल ली मिकका लक लड-.2५ 3 कक ल बज > नल कफ कल 5... क अर अजीज अमन. >> कल कर फल. सकल जज बी जल आय रे मुल्यगत विद्रोह की भावना प्रमुख थी। यह विद्रोह आंतरिक ही नहीं, बाह्य भी था। काव्यरूपों की दृष्टि से भी उन्होंने नवीन मांग ग्रहण किया | पर॑परागत . मूल्यगत उपलब्धियों पर आालोच्यकालीन कवियों ने सभी प्रकार से प्रश्नसचक चिह्न लगा दिया और सावभौम मानवम्‌ल्यों फी खोज की । उन्होंने अपने को देश काल की सीमित परिधि से बाहर स्थापित करने की चेष्टा की । यह कविता सामयिकता, एफदेशीयता और रूढ़िबद्धता से मुक्ति दिलाती है श्रोर उसका मूल स्वर आधु- निक है। वह “विश्वांबुनिधि? में अवगाहन? करने की प्रेरणा देता है। कवियों ने अपने ऐतिहासिक दायित्व का निर्वाह करने की चेष्टा की जो उनके परिवेश के श्रनुरूप ही था। राष्ट्रीय और सामात्िरिक एवं धार्मिक चेतना के फलस्वरूप साहित्य, सोंदर्य ओर फला के क्षेत्र में विशुद्ध श्रानंदानुभूति के अतिरिक्त उपयोगिताबादी दृष्गिकोश भी उत्पन्न हुआ ओर खड़ी बोली का सावदेशिफ स्तर पर प्रयोग होने के फारण उसमें नवीन शब्दों और अभिव्य॑ंजनाओं का समावेश छुआ | उसे अधिफाधिफ व्याकरणपंमत, परिष्कृत और परिमार्जित रूप प्रदान करने श्रोर उपयुक्त अलंकारों द्वारा उसमें लालित्य और कलात्मकता उत्पन्न करने की चेश की गई। भाषा में ध्वन्यात्मकता, लाबशिकता, सोंदर्यमब प्रतीकविधान, संगीतात्मकता, सुकुमारता, स्वानुभूति की विक्ृृति, वक्रता आदि द्वारा फमनीयता का समावेश हुआ | कथ्य भी नवीनता लिए हुए रहने लगा। विशुद्ध रसानुभूति की दृष्टि से कविताएँ कम लिखी गई । भावों में परिवर्तन के साथ साथ छुंद के बंधन भी इस काल में टूटे । अनुभूति की श्रमिव्यक्ति को ध्यान में रखते हुए छुंदों के रचनाविधान में अभूतपूर्व परिवर्तन उपस्थित हुएं। नए युग में नए. छुंदों ओर नई भाषा का जन्म धारण करना स्वाभाविक ही था। अनुभूति कौ लय श्रब छुंद का आधार बनी । जहाँ मध्ययुगीन जीवनपद्धति के प्रति विद्रोह हो रहा था वहीं छुंदबंधन फो श्रनावश्यक समझा गया और नए युग फी नई माँगों के अनुसार उसकी रचनाप्रक्रिया में महत्वपूर्ण परिबतन हुए,। यद्यपि ऐसे कवियों का अभाव नहीं था जो प्राचीन छुंदों द्वारा नवीन भार्वों को अभिव्यक्ति प्रदान कर रहे थे, तो भी परंपरा से चली आ रही मात्रागणशना में अंतर उपस्थित कर यति गति की कल्पना करनेवाले और मावों के उत्थान पतन, आबतन विवर्तन के अनुसार संकुचित प्रसरित, सरल तरल, हंस्व दीघ होने वाले मुक्त छुंद का प्रयोग करनेवाले कवियों की संख्या अनुदिन बढ़ रही थी आर आलोच्य फाल के अंत तक आते आते नवीन नियम बन गया था। सच तो यह है कि युग के अनुरूप हिंदी साहित्य का अंतर ही नहीं, बाह्य रूप भी के बदला; उसमें कलात्मकता, संगीतात्मकता, सोदय, लालित्य, कमनीयता, सुकु जला २४ .. हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास मारता आदि ऐसी अनेक विशेषताओं का जन्म हुआ जो पूर्ववर्तों काल में उप- लब्ध नहीं होतीं । परिष्करश, पुनमूंल्यांकन; क्रांतिकारी नवीनता श्रालोच्यकालीन साहित्य की विशेषताएं हैं । भारतीय सांस्कृतिक पुनरुत्थान का श्रंतिम चरण होने के कारण आलोच्य- कालीन हिंदी साहित्य में असाधारण भावनाओं, कल्पनाओं, श्राशाओं आकक्षाओ्रों और आत्मिक उत्साह के स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों रूपों का अस्तित्व मिलता है | क्ञोभ, निराशा, श्रांतरिक दुर्षबलताश्ं के रहते हुए भी गांधी जी के नवयुग के नवसंदेश ने देश में नवजीवन का संचार कर उसे सभी प्रकार के सघर्षों से जूझना सिखाया । विश्वकवि रबींद्रनाथ ठाकुर के महाव्‌ साहित्यिक व्यक्तित्व ने उसे अ्रदम्य प्रेरणा प्रदान की । भाषा, भाव, शेली, छुँंद आदि के परिष्करण और परिमार्जन के लिये जिस परिवेश और परिप्रेक्ष की आवश्यकता थी वह सुलभ हो गया | हिंदी के साहित्यकार ने जीवन और आत्मा के निगूढ़ रहस्यों फो खोजने के लिये अभियान किया; आत्ममंथनः ओर आलोडन विलोड़न किया ओर एक देदीप्यमान लक्ष्य फी ओर अडिग साहस के साथ “इंकलाब जिंदाबाद! के नारों की तुमुल ध्वनि के बीच कदम आगे बढ़ाए । उसर८रथ2 थउ5उपतसनरपनरलल कार द99७<5ल्‍आ८ आ३>5च5७२+९५5८6८३८२७००९५ ५४३१३ ३३३२५८प+पाउ ३5३० -९२०< की मन अर की वप्वेपल्‍तरपहरसलपफतापा कर 2७७७७७७७७७र७७॥७७७७॥७॥७७एए७४छएोणू॑ााााणााााााा मा अ अ सनम ल मा कल .. किक की ली ॥; तृतीय अध्याय कवि और कृतियाँ : एक सर्वक्षण आधुनिक युग में नवीन भावचेतना के प्रसार के फलस्वरूप हिंदी कबिता निरंतर उत्कष की ओर अग्रतर रही है। शआ्रालोच्य युग में भी आआरर्यसमाजी सुधारचेतना, गांधीवादी जीवनदशंन, राष्ट्रीय सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में पुनरुत्यान की भावना; पाश्चात्य जीवनपद्धति के प्रति आकर्षण के फलस्वरूप स्वच्छुंद- ताबादी रोमानी मूल्यों का प्रभावप्रसार, सामाजिक और वैयक्तिक समस्याओं के निरूपण में यथाथवादी दृष्टि को अपनाने को प्रवृति आदि ऐसी गतिवर्धक शक्तियाँ सिद्ध हुईं जिन्होंने सामाजिक जीवन फो उद्देल्रित करने के सांथ ही तत्कालीन काव्य की भी नवीन दिशासंकेत प्रदान किए.। यद्यपि द्विवेदीयुगीन काव्यप्रवृक्तियों का प्रभाव एकबारगी समाप्त नहीं हो गया तथापि सूक्ष्म सौंदर्यानुभूति, उदात्त कल्पना, लाक्षणिक अभिव्यक्ति आदि के माध्यम से प्रचलित काव्यपद्धति फो नए संदर्भ देने की चेष्टा अधिकाधिक कवियों में मुखर होने लगी। मानवतावादी उदार दृष्टि ने एक ओर उन्हें किसान, मिक्षुक आदि की समस्याओं ओर तजनित करुणु अवसाद के चित्रण की प्र रणा दी श्रोर दूसरी ओर विश्वप्रेम धार्मिक सहिष्णुता आदि से संबद्ध विचारों को पुष्ठ होने का अवसर मिला । इस युग का काव्य राजनीतिक, आयिक दासता से मुक्ति प्राप्त कर एक नई व्यवस्था की स्थापना ओर मानवता के उद्धार के लिये आकुल दिखाई देता है; इसके लिये जहाँ उसमें भारत के श्रतीत इतिहास से प्रेरणा लेकर व्यापक राष्ट्रीय भावना को व्यक्त करने का उत्साह लक्षित होता है वहाँ कहीं कहीं विद्रोहमाव को भी बीज रूप में स्थान प्राप्त हुआ है। भक्तिमाव को दृष्टि से भो जहाँ कुछ कवियों ने पूर्ववर्ती युग की सीधी सादी धार्मिक उक्तियों ओर उपदेशप्रवृत्ति की परंपरा का निर्वाह फिया वहाँ अव्यक्त के प्रति जिज्ञासा, सॉदयंबरादी दृष्टि ओर जीव न के कहणु अवसाद के सामंजस्य से एक नई काव्यप्रव्ृचि भी उदित हुईं जिसमें भक्तिकालीन रहस्थवादी कविताओं से ग्रधिक फलात्मकता थी। इन छायावादी रहस्यवादी गीतों और प्रणयवि षयक स्वच्छुंदतावादी कविताओं में प्रकृति पर चेतना के आरोप की प्रवृत्ति मुख्य रूप में व्यक्त हुई जिससे प्रकृतिकाव्य में विशिष्ट साँदर्यमावना और संवेदना का समावेश हुआ | संक्षेप में यह फह्ाा जा सकता है कि राष्ट्रीय सांस्कृतिक दृष्टि से पुनरुत्थान की प्रेरणा, वेयक्तिक चेतना, प्रणु॒य, प्रकृतिश्री का साक्षाक्तार और १०-४७ २६ द क्र हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास रहस्थानुभूति इस युग की मुख्य काव्यप्रवृत्तियाँ हैं जिनके मूल में प्रायः स्व चछ॑दता- बाद से प्रेरित कब्पनाव्मक मनोदृष्टि विद्यमान है। किंतु; स्वच्छंदतावाद को इस युग का सामान्य लक्षण मान लेना भूल होगी क्योंकि उपयुक्त प्रवृत्तियोँ के अतिरिक्त काव्य में प्राचीन परिपाटी का भी समानांतर निर्वाह होता रहा। इसीलिये इस युग में रूढ़ ओर नूतन विचारधारा, शिल्प संबंधी नवजागरूकता झोर केवल परपरा का निवाह--सभी एक साथ मिल जाते हैं। इस फाल फी काव्यकृतियोँ का समग्रतः विश्लेषण करने पर विषयवस्तु फी दृष्टि से फिसी विभाजक रेखा फो खींचना कठिन होगा क्योंकि जहाँ छायावाद फी विशिष्ट प्रवृत्तियाँ श्रीघधर पाठक, जयशंकर प्रसाद, माखनलाल चतुर्थंदी, मुकुटघर पांडेय अ्रादि की कविताओं में १९१८ ६० के पूर्व ही व्यक्त होने लगी थीं वहाँ ऐसे भी अन्क कवि थे जो या तो हिवेदी युग की प्राचीर की लॉघने में श्रसमर्थ रहे अथवा जिन्हें छायावाद फी नवीन काव्यचेतना अ्रपनी ओर आकृष्ट ही नहीं कर सकी । अतः विषयवस्तु के वर्गीकरण को मुख्य आधार न मानकर इस युग की काव्यसंपदा पर काव्यविधाओं के इतर्गत विचार करना सुविधाजनक होगा। इस दृष्टि से तत्फालीन रचनाओं का वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है : १. वर्णानात्मक प्रबंध, २, महाकाव्य,... हे खंडफाव्य, ४, काव्यनाटक ( नाख्यप्रबंध ), भू, पर्यायबंध काव्य, ६. आख्यानक निरबंधकाव्य, ७. श्राख्यानक गीति ( पद्यकथाएँ ), ८, प्रबंध मुक्तक, पथ ६. मृक्तक काव्य ; गीत, प्रगीत, पद्मात्मक मुक्तक, १०. अन्य काबव्यप्रवृत्तियाँ: अनूदित कृतियाँ, हास्यव्यंग्यात्मफ कविताएँ, रोतिबद्ध कविता, बालकाव्य, चंपूकाव्य, प्रशस्तिकाव्य, समस्यापूर्तिकाब्य । ८ & वरशनात्मक प्रबध सामान्यतः प्रबंधकाव्य के अंतर्गत महाकाव्य और खंडफाव्य की गणना की जाती है, किंतु प्रस्तुत युग में कुछ ऐसी कृतियों की भी रचना की गईं जिनमें महाकाब्य के अनुरूप प्रबंधगुण होने पर भी तदनुरूप शेली और भावव्यंजना का उत्फर्ष नहीं है। फथावस्तु फा अनावश्यक विस्तार, वर्णन विवरण पर अत्यधिक बल के कारण फाव्यतत्व का अभाव, शिह्प संबंधी सूक्ष्मताओं की उपेक्षा ग्रादि ५ [ भाग १० ] कवि और कृतियाँ पक संचेचश ५७ के फलस्वरूप इन कृतियों को महाकाव्य कहना उचित न होगा। इस वर्ग का प्रथम काव्य शहजाद सिंह 'निकुंभ' कृत “विश्वामित्र! ( १६२५ ) है जिसमें ऋषि विश्वामित्र के जीवनचरित्‌ फो तीन खंडों में चॉतीष शॉषकों के अंतर्गत विस्तार- पूवे क निरूपित किया गया है। अतीत को घटनाओं की सामयिक प्रद्त्तियो से तुलना, विवरणबहुलता, शब्दाथ देते हुए, क्लिष्ट भाषा का प्रयोग आदि इस कृति की वस्तुव्यंजना में बाधक उपादान हैँ । श्रीलाल खत्री द्वारा बाईंस भागों में लिखित “महाभारत” ( १६२५ ) मी इसी प्रकार की रचना है जिसमें कथानक को भक्तिपरफ सांस्कृतिक दृष्टि से नियोजित किया गया है। वस्तुसंघठन में प्रचारात्मक दृष्टि, उदू मयी व्यावह्यरिक भाषा; बीच बीच में गीतों का अनावश्यक समावेश आदि ऐसी प्रवृत्तियाँ हें जिनके कारण इसमें रचनासोष्ठव नहीं आ। सका। सीतलसिंह गहरवार कृत “श्री सांतारामचरितायन! (१६२५) भा इस प्रकार का ब्रजमाषाकाव्य है जिसमें रामकथा को सात कछांर्डों में प्रध्ुत करते हुए प्रत्येक कांड को सर्गों में विभाजित किया गया है। इसमें रामरूथा का किचित्‌ संक्षेपीकरण करते हुए. विशेततः सांता आर राम के चरित्रचित्रण पर बल रहा हं | यह कृति कवि के अपने क्षेत्र जिह्ार प्रदेश मे तुलसा के 'रामचारितमानस' को माँति लोकप्रिय रही है ओर भावुकता, सरसता; मालिकता, भाषालाललित्य आदि इसकी उल्लेखनीय विशेषताएँ हैँ | इसं। समय के लगभग गदाधरप्रसाद वैद्य ने आयंसमाज के सेद्धांतों के प्रचाराथ श्रां सत्यवागर! (१६२६-१६२८ इ०) की रचना तुलसीकृत 'रामचरितमानस” को शैल्ली में अ्रवर्धा भाषा म॑ दोहा, चोपाइ तथा फविच छुंदों में को, किंतु इस कृति में कवित्व का स्तर सामान्य ह | इस युग के वरशुनात्मक प्रबंधकाव्यों में संताखसिंह कृत “श्री गुद नानक प्रकाश” (पूर्वाधं; १६३२-३४) बासठ अ्ध्यायों में विभाजित बुहृदाकार अंथ हे । इसकी रचना ब्रजमाषा में .हुईं है ओर कांव ने इसके उत्तराध की रचना का भी संकल्प व्यक्त फिया है । धमप्रचार की दृष्टि से रचित होने के कारणु इसमें वरणुनात्मकता पर बल है और भावव्यंजना तथा कांवेकोशल का श्रभाव हं । रामकथा से संबद्ध इस वर्ग का एक अन्य काव्य बिहारीलाल विश्वकर्मा का श्री कोशलेंद्र कौतुक' (१६३६) है जिसकी रचना तुलसा के रामचरितमानस' के अनुकरण पर ब्रजमाषा में हुई हैं | इसमें घामिक दांष्टेकोण की प्रगुखता ६ ओर प्रसंगादुभावना में मौलिकता न होने पर भी यत्र तत्र संवादयाजना संबंधी वैशिस्य आर वस्तु- संयोजन की स्वच्छुता द्रश्व्य है | बसंतराम कृत "श्री बसंत कृष्णायन?! (१६१६) भी अजमाषा की ऐसी हो रचना दें जिसमें संपूर्ण कृष्णचारेत्‌ को (४६२ एटा मे विस्तारपूवंक निरूपित किया गया हैं। कवित्व ओर भावव्यंजना को दांष्टि स यह एक साधारण कृति है । इध शैली का अंतिम काव्य इं--रूपनारायणु पांडय २६ .. .. हिंदी साहित्य का इृह॒त्‌ इतिहास कविरत्न! द्वारा रचित श्रीकृष्ण्चरित या श्रीसक्मिणीमंगल' (रचना-- १६६७, प्रकाशन--१६४७)। इसमें क्ृष्णजन्म से लेकर रुक्मिशीपरिणय तक की कथा को अ्रदठारह खंडों में कथावाचकों जेसी शैली में प्रस्तुत किया गया है| इसकी रचना धार्मिक मनोजृत्ति से की गई है, फलतः इसमें काव्यकला का उत्कर्ष प्रकट नहीं हो सका । महाकाव्य इस युग का प्रथम महाकाव्य रामचरित उपाध्याय कृत 'रामचरित- चिंतामशि' (द्वितीय संस्करण, १६२९) है जिसमें रामकथा को समसामयिक परिवेश से प्रभावित रहते हुए पच्चीस सर्गों में निबद्ध क्रिया गया है। घटनाक्रम का व्यवस्थित संयोजन, वातावरण का सजग चित्रण, ऋतुवर्णन, आदशनिर्षारण आदि इस कृति की मुख्य विशेषताएँ हैं। इस फाल का दूसरा उल्लेखनीय महाकाव्य 'साकेतः (१६११) है जिसमें गुप्त जी ने रामकथा को बारह सर्गों में विदग्घतापूर्वक प्रस्तुत किया है | इसकी रचना काव्य में उपेक्षित उमिला के चरित्रचित्रण के निमित्त हुई थी, फलतः इसमें कथासंयोजन का आधार पूर्बवर्ती कार्यों से सबंथा भिन्‍न है। सरसता, भावव्य॑जना में मोलिकता, पात्रों के सफल मनोविश्लेषण, शिल्प संबंधी नए नए. प्रयोगों आदि फी दृष्टि से गुप्त जी फी रचनाओं में इसका अ्रन्यतम स्थान है । पुरोहित प्रतापनारायण फविरत्न का 'नल नरेश” (१९३३) भी इस युग का उल्लेखनीय महाफाव्य है जसकी रचना “सहामारत! के तत्संबद्ध कथानक के आधार पर उननीस सर्गों में की गई है। इसमें सामयिक प्रवृत्तियों को यथास्थान प्रतिफलित करते हुए सनातन सांस्कृतिक परंपराओं को आदशंवादी ढंग से निरूपित किया गया है। इसकी काव्यशैली पर 'हरिश्रोध” ओर मैथिलीशरण दोनों का प्रभाव है । यद्यपि इसमें प्रायः क्लिष्ट शब्दावली का प्रयोग हुश्रा हे तथापि भावुक दृष्टि और सरसता का अ्रभाव नहीं है । गुरुभक्तसिंह “भक्त? द्वारा मध्यकालीन इतिहास के कुछ प्रसंगों को लेकर रचित 'नूरजहाँ! (रचना १६३३, प्रकाशन १६३५) भी इस काल का श्रेष्ठ महाफाव्य है। इसमें नूरजहाँ के व्यक्तित्त ओर जीवन फो निरूपित करने के अतिरिक्त तत्कालीन वातावरण का मी जागरूक चित्रण किया गया है | श्रट्ठारह सर्गों में लिखित यह कति मावव्यंजना, मनोविश्लेषण, शैलीपरिपाक श्रादि की दृष्टि से सराहनीय है। इस युग की एक अन्य विशिष्ट रचना बालक्ृष्ण शर्मा ध्नवीन! कृत “उर्मिलाः (रचना--१६३०-३४५ प्रकाशन १६९५७) है जिसमें एक ओर द्विवेदीयुगीन नीतिवादी दृष्टि को स्थान प्राप्त डुश्रा है, दूसरी ओर वस्तुयोजना में स्वच्छुंदतावादी तल को ग्रहण किया गया है |. आत्मीयतापूर्ण वस्तुसंयोजन, लक्ष्मणु और उमिला के चरित्र की विशिष्ट अ्रभिव्यक्ति और भावव्यंजना में समर्थ चित्रभाषा | | पसेडयलररकाउकरतावाउपपतात 'रहसतचासतटपप ये बरसशक सका पा सय हजहपशगण पता एस इवा2रसपवापथरपपिददायपापत>9 5 दापतायापाच पा <द न न तरल सरजर9<स< 2 5पल्‍< [ भौंग॑ १० | कि भौर कृतियाँ : एक सर्वेचश द २६ का प्रयोग इसकी प्रमुख विशेषातए हैं। बलदेवप्रसाद मिश्र का “कोशलकिशोर? (१६३४) मी रामकथा से संबद्ध मद्दाकाव्य है जिसमें पूर्ववर्ती रचनाओं से प्रेरणा लेने के श्रतिरिक्त सामयिक चिंतनपद्धति से भी लाभ उठाया गया है। इसीलिये इसमें केवल भक्तिपरक प्रस॑गों को भावुकतामयी श्रद्धा के साथ ग्रहण करने की प्रत्त्ति ही नहीं है, अपितु घयनाओं के वेज्ञानिक ऑओंवचित्य, पात्रों के सूक्ष्म मनोमावों और रचनाशिलप के औदात्य की ओर भी ध्यान दिया गया है। धसाकेत? जैसी काव्यगरिमा न होने पर भी यह एक सराहनीय काव्यकृति है | छायावाद युग का सर्वाधिक महत्वपूर्ण काव्य जयशंकर प्रसाद कृत “कामायनी” ( १६३५ ६० ) है। इसमें चिंता, श्राशा, वासना, लज्जा आदि मनोदशाओं के चित्रण द्वारा जीवन को उसकी पूरणुता में ग्रहण किया गया है ओर मानवसुष्टि के आरंभ की ऐतिहासिक गाथा को मौलिक गति दी गई है | सूक्ष्म भावव्यंजना; इतिहास आऔर कल्पना का उत्कृष्ट सामंजस्थ, उदाच चरित्र- चित्रण ओर स्वच्छु जोवनदर्शन इस कृति फी एसो विशेषताएँ हैं जो इसे आधुनिक काल के पूव॑वर्ती महाकाव्यों से श्रेष्ठ सिद्ध फेरती हैं । इस युग का अंतिम महाकाव्य अनूप शर्मा का सिद्धाथ! ( १६३७ ) है जिसमें बुद्ध के पूरे जीवनचित्र फो हरिश्रोष' जैसी शैली में अट्ठारह सर्गों में प्रस्तुत किया था है। प्रबंधविधान की सहजता; संबद्ध घटनाक्रम फी स्वच्छ प्रस्तुति, अतुकांत पद्धति और वर्शंबूचों का प्रयोग इस कृति की सामान्य विशेषताएँ हैं। ग्रयोध्या के राजकवि रामनाथ 'जोतिसी? के श्री रामचंद्रोदय काव्य! (१६३७ ई०) में रामबनगमन तक के कथानक को सोलह कलाओं में प्रस्तुत किया गया है । धवानप्रस्थ घर ?, “विशेष ग्रहधर्म?”, विधवा आपद्ध्! आदि शीर्षकों के अ्रतर्गत नीति और भक्ति का आदशववादी प्रतिपादन इस कृति की विशेषता हे, किंतु इसमें रसात्मक स्थलों का अभाव नहीं है | केशव जैसी संवादकला, छुंद- वेविध्य ओर पादटिप्पणियों में शब्दा्थ देते हुए क्लिष्ट शर्ब्दों का प्रयोग इसकी अन्य प्रवृत्तियाँ हैं । उपर्युक्त विवेचन के आधार पर निष्कषस्वरूप यह कहना उचित होगा फि पूर्ववर्ती काल की तुलना में प्रस्तुत युग में हिंदी मद्याकाब्य का कहीं अधिक व्यवस्थित विकास हुआ और इस क्षेत्र में कवियों फो क्षमता मली माँति व्यक्त हुई । खंडकाव्य आलोच्य युग में वशुनाव्मक प्रबंधों ओर महाफाव्यों की तुलना में खंडकाव्यों की ग्रधिक परिमाण में रचना हुईं | विषय की दृष्टि से इन्हें तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है--पोराशिक, ऐतिहासिक, सामाजिक | प्रथम वर्ग के श्र तर्गंत पुराण, रामायण ओर महाभारत के विविध प्रसंगों को लेकर रचनाएं प्रस्तुत की १९ क्‍ द ... हिंदी साहित्य का बुहँव इतिहास "द्वितीय वर्म में प्राय: मध्यकालीन इतिहास के संदर्भ में प्रमुख नारीचरित्रों पर खंडकाव्य प्रस्तुत किए गए और तृतीय वर्ग में कल्पित प्रणयक्थाओं देशभक्ति प्रभुति सामयिक सामाजिक प्रवृत्तियों और घम, साहित्य श्रादि के क्षेत्र में प्रसिद्ध व्यक्तियों को काव्यर्चना का आधार बनाया गया । कप राखिक खंडकाव्य द .. पौराणिक प्रसंगों पर आधारित ख॑डकाव्यों की परंपरा में इस युग की प्रथम उपलब्ध कृति “भंग में रंग! ( १९२१ ) है जिसमें अ्रबिकादत्त त्रिपाठी ने सावित्री सत्यवान की कथा में निहित महिला आदर्श को सरल स्वच्छ भाषा में प्रस्तुत किया है। इस दिशा में उपलब्ध दूसरी रचना 'सुलोचना सती! ( रचना १६२२, प्रकाशन १६९३१ ) में विष्णु? कवि ने मेबरनादवध पर उसकी पत्नी सुलोचना की प्रतिक्रियाश्ों का मार्मिक चित्रण फिया है| “हरिश्रोधष” जी और गुम जी की रचनापद्धतियों से प्रभावित इस कृति में आठ सग हैं और इसका रचना अ्रतुकांत शैली मं हुई है। उपयुक्त दोनों कृतिय्रों में चरित्रचित्रण में श्रादशंवादी स्वर की प्रमुखता थी, किंतु इनके बाद रचित ब्रजमाषाकाव्य 'ऊषा चारित्र श्रथवा हरिहृरर संग्राम”! ( १९२७ ) में देवीप्रसाद बर्णवाल ने प्रंमाव्यानक शली का आश्रय लिया | इसमें श्रीकृष्ण के पोंत्र अनिरुद्ध के प्रति बाणासुर की पुत्रो उषा के पूर्वानुराग आदि का आल्द्या ( वीर ) छुंद में सरस वर्णन हुआ है । इस कड़ी की दूसरी कृति शिवदास गुप्त 'कुसुम' कृत थ“उषा? (१९२५) हैं जिसका कथानक अओमदूमागवतः पर आराधृत है ओर पाँच सर्गों में त्रिमाजित है। प्रसाद जी के महाराणा का महत्व! की भाँति इसकी रचना अ्रमित्राक्षर अरिल्ल छंद में हुई है इस युग के अन्य पॉराशिफ खंडकाव्यों में जगन्नाथदास “रत्नाकर? का “गंगावतरण ( १६२४-२७ ) विशेषतः उल्लेखनीय है। इसमें भगीरथ के तपस्याफल, गंगा के प्राकृतिक सोंदर्य झ्रादि का स्वच्छ ब्रजमाषा में चित्रण हुआ है और संपूर्ण कथाबृत्त फो तेरह सर्गों में मली माँति नियोजित किया गया है प्रस्तुत वर्ग का एक श्रन्य प्रसिद्ध खंडकाव्य मैथिलीशरण गुस कृत “शक्ति! ( १६२७ ) है जिसमें देव-दानव- संग्राम का व्शन किया गया है। वीर रस का ओजपूर्ण चित्रण इस कृति की अन्यतम विशेषता है । महिलाआदरश से श्रनुप्राशित रचनाओं में उदितनारायण दास कृत “सुकन्याचरित' (द्वितीय सं०, १६९३१) भी उल्लेखनीय है। इसमें व्यवन ऋषि की पत्नी सुकत्या की पतिभक्ति का दो खंडों---पूव खंड और उत्तर खंड-.. में चित्रण हुआ है ओर £गारादि सभी सुख्य रसों फो स्थान दिया गया है| इस प्रकार के चरितमूलक खंडकाव्यों में रामचंद्र शर्मा “विद्यार्थी' क्तः “परमभक्त धर व? ( १६२८ ) ओर “परमभक्त प्रहाद! ( १६२६ ) भी द्रश्व्य हैं जिनकी रचना क्रमशः छूह ओर तेरइ सर्गो में की गई है। इनमें से प्रथम कृति की रचना छुप्पय ली अल |] | हे | | हि [भाग १०]. कवि और कृतियाँ : एक सर्वेक्षण ३१ छुंद में हुई है जो इस दिशा में अभिनव प्रयोग है। इन दोनों रचनाओं में कवि की दृष्टि मुख्यतः कथावस्तु के स्वच्छु. नियोजन और चरितनायक कौ जीवनी तथा व्यक्तित्व के सरल भाषा में प्रस्तुतीकरण पर केंद्रित रही है | रामशरण गुप्त शरण? का 'पतित्रतादर्श! ( पूर्वाध १६२६, उत्तराध १६९३४ ) भी दो भागों में प्रकाशित इसी वर्ग की कृति है जिसमें दमय॑ती के चरित्र फो भारतीय संस्कृति के आदर्शों के अनुरूप चित्रित किया गया है। इसमें पूर्वाघ में दमयंती के विवाहपूर्व तक की कथा और उत्तराध में विवाइ, वियोग और पुनर्मिलन की कथा को सरस तथा मार्मिक शैली में प्रस्तुत किया गया है। क्‍ पोराशिक प्रसंगों पर आधारित उपयुक्त रचनाओं के अतिरिक्त इस युग में रामकथा के कुछ अंशों फो लेकर भी खंडकाव्यों की रचना की गई । काशीप्रसाद दुबे कृत वियोगिनी सीता! ( १६२४ ) इसी प्रकार की रचना है जिसमें वाल्मीकि आश्रम में सीतानिवास की कथा को चार सर्गों में प्रकट किया गया है। फालक्रम से इस वर्ग की दूसरी कृति श्यामनारायण पांडेय की “्ज्रेता के दो बीर! ( १९२८ ) है जिसमें लक्ष्मण और मेघनाद के युद्ध, लक्ष्मण की मूछा, राम के दुःख, लक्ष्मण के चरित्रगोरव आदि को सरल स्वच्छु भाषा में प्रस्तुत किया गया है । कुंजलाल रत्न! की ब्रजभाषाकृति “चित्रकूट” ( १६९३१ ) भी इसी वर्ग का खंडकाव्य है जिसमें चित्रकूट में रामनिवास से संबद्ध वशनात्मक कथाप्रसंग के अ्रतिरिक्त स्फुट प्रकृतिचित्रण पर भी बल रहा है। इसमें मात्रिक और वर्शिक दोनों प्रकार के छुंदों का प्रयोग है ओर छुंदवैविध्ध पर अनावश्यक रूप में अत्यधिक बल दिया गया है। शिवरत्न शुक्ल 'सिरस! का व्रजमाषा काव्य “मरत भक्ति! ( १६३२ ) भी इसी श्रेणी फी रचना है । यद्यपि यह बाईस सर्गों में विभक्त है, तथापि इसमें न तो भरत का पूर्ण जीवनचित्र प्रस्तुत किया गया है और न ही शिब्प फी दृष्टि से महाफाव्य जेसी गरिमा है, अतः इसे बृहत्‌ खंडफाव्य कहना ही उचित होगा | भावुकतापूर्ण कवित्वप्रवाह के स्थान पर इसमें बहुज्ञता और वर्शानवेविध्य पर बल दिया गया है। इसी प्रकार अ्र॒लंकारबहुलता, छुंदवेविध्य, शब्दार्थ देते हुए. क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग आदि भी ऐसी प्रब्ृत्तियाँ हैं जिनके कारण इसमें प्रबंधकोंशल बाधित हुआ है। रामकथा से संबद्ध अन्य प्रसंगों में शवरी के चरित्र को लेकर वचनेश मिश्र ने 'शवरी? (१६३६ ) शीष॑क काव्य की स्वेया छुंद में दस सर्गों में रचना फी है। इसमें राममिलन के संदर्भ में शवरी की जीवनकथा और मनोदशाओं का सरल; स्वच्छु और मधुर ब्रजभाषा में मार्मिक निरूपण किया गया है। संभवतः इसकी रचना अस्वृश्यता के प्रति सामयिक प्रतिक्रियाओं के प्रेरणास्वरूप हुई थी | गोविंददास 'विनीत! की प्रिया या प्रजा? (१६३७) भी इसी वर्ग फी, स्वना है जिसमें राम द्वारा सीतात्याग से संबद्ध हब ३२ ि हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास कथानक को दो खंडों में क्रमशः दस और सात सच्चित सर्गों में स्थान दिया गया है। इसमें सीता के आध्यात्मिक रूप के वर्शन पर अधिक बल दिया गया है, किति भरत; लक्ष्मण, मांडवी आ्रादि पात्रों का चरित्रनित्रण भी द्रष्टव्य हद | वैसे, इसकी भाषा क्लिश है ओर रचनापद्धति अ्रपरिपक्त्र | महाभारत के फथाप्रसंगों के आधार पर मी इस युग में अ्रनेक खंडकाव्यों की रचना की गई | इस दिशा में उपलब्ध प्रथम कृति कमलाप्रसाद वर्मा कृत अभिमन्यु का आत्मदान! (१६१८) है जिसमें सात संक्षिप्त सर्गों में वीररस ओर करुणरस फी सामग्री फो सरल भाषाशली में प्रस्तुत किया गया है । इस वर्ग की दूसरी कृति शिवदास गुप्त कुसुम” की 'कोचकवध! (१६९१ ) है| इसमें पाँच सर्ग हैं और कवि ने मुख्यतः वीररस को स्थान देते हुए उपदेश- वृत्ति, फरुण प्रसंगों, वातावरणचित्रण श्रादि पर भी बल दिया है। छुंदवेविध्य श्रोर सरल भाषा इस कृति की अन्य विशेषताएँ हैं। इसी शेली की एक अ्रन्य रचना जंगदीशनारायण तिवारी की (ुर्योधनवध' (१६९२६ ) है। इसकी रचना गुप्त जी यद्रथवध” ( १६१० ) से प्रभावित होकर चार सर्गों में की गई है। यह उल्लेख अ्रप्रासंगिक न होगा फि विषयसंयोजन ओर रचना- पद्धति दोनों फी दृष्टि से इस काल के अनेक अ्रन्य कवियों पर भी गुप्त जी का प्रत्यक्ष प्रभाव रहा है। खंडकाव्य के क्षेत्र में उन्हें द्विवेदी युग में ही प्रसिद्धि प्रांप्त हो चुकी थी, किंतु प्रस्तुत काल में उनकी रचनाएँ कुछ विलंब से सामने आई । महामारत के कथांशों के आधार पर उन्होंने तीन खंडकाव्यों की रचना की है--सैरंत्री (१६२७), वनवेभव (१९६७ ) वकसंहार ( १६२७ )। इनमें क्रशः कीचकवध के संदभ में द्रोपदी के चरित्र, पांडवों की वनवासकाल की अनुभूतियों और बविप्रणह में रहते समय कुंती द्वारा बकसंहार के 'उह श्य से भीम को भेजने फा चित्रण हुआ है। वस्तुयोजनो की प्रौढता के साथ हो काव्यशिल्प की दृष्टि से कवि की सजगता भी इनमें उत्तरोत्तर प्रमाणित होती गई है। उपयुक्त कृतियों की माँति “दिनकर! का 'प्रशमंग” ( १६२९ ) भी उल्लेखनीय खंडकाव्य है जिसमें महामारत युद्ध में श्रीकृष्ण द्वारा शस्त्रग्रहण के प्रसंग को तौन शीषकों के अंतर्गत प्रस्तुत किया गया हैं। इसमें पात्रों के मनोवेगों की अच्छी व्यंजना है ओर जो ओज 'दिनकर” की बाद की रचनाओं में व्यक्त हुआ उसका पूर्वामास भी विद्यमान है। इसी काल के अन्य फाव्य _'संधिसंदेश” ( रचना १६२९-३०, प्रकाशन ॥६५३ ) में दामोदरसहाय सिंह 'कविकिकर” ने श्रीकृष्ण द्वारा फोरवसभा में पांडवों का संघिसंदेश ले जाने और कौरवों द्वारा उसे स्वीकार न करने का चित्रण किया है। कृष्ण को शांतिदूत के रूप में प्रस्तुत करने के प्रसंग में इस काव्य पर महात्मा गांधी के सत्याग्रह | भाग १० ] .. कवि और कृतियाँ: एक सर्वेक्षण ३३ आंदोलन का सामयिक प्रभाव लक्षित होता है। इसकी रचना पाँच सर्गों में उद्बोधनात्मक शेली में की गई है ओर शब्दसोंष्ठव, कथाशिलप आदि का स्तर सराइनीय है। गुप्त जी के “जयद्रथवध” से प्रभावित तत्कालीन रचनाओं में रामचंद्र शुक्ल 'सरस?! के ब्रजमाषा काव्य अमिमन्युवध! ( १६३२ ) का भी उल्लेख किया जा सकता है। युद्धवशन की ओजस्विता, भाषा की प्रांजलता ओर उद्बोधना[त्मक शेली इसकी उल्लेखनीय विशेषताएं हैं। रामसहाय शर्मा 'मराल'? कृत “अज्ञातवास! ( १९३३ ) भी “जयद्रथवध” की शेली और छुंद- विधान से प्रभावित रचना है। इसमें वन में पांडवों के अज्ञातवास के समय की ेु घटनाओं का पाँच सर्गों में स्वच्छु चित्रण है | महाभारत से इतर श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व को लेकर भी इस युग में कुछ खंडफाव्यों की रचना की गई | इस दिशा में कालक्रम से प्रथम कृति श्यामलाल पाठक कृत “कंसवध” ( १६२१ ) है जिसमें सात सर्गों में संबद्ध कथा को सामान्य वर्णनात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया है। दूसरी कृति सीताराम सिंह फी 'श्रीकृष्णविलास” ( १६२४ ) है जिसमें श्रीकृष्ण की बाललीलाश्रों को रोचक कथात्मक शेली में निरूपित फिया गया है, फिंतु अ्रमिव्यंजनाशिल्‍प फी दृष्टि से इसका स्तर सामान्य ही बेनायकराब भट्ट की ब्रजभाषाकृति “श्री सुदामा- चरित्र! ( १६३६ ) भी इसी कड़ी की रचना है। इसकों भाषा सरल और प्रवाहपूर्ण है, किंतु वस्तुनिवाह को दृष्टि से इसमें नरोच्मदास के “सुदांमाचरित जैसी सरसता नहीं आ पाई ऐतिहासिक खंडकाव्य ग्र।ल्लोच्य युग में मध्ययुगीन इतिहास के विभिन्‍न प्रकरणों के आधार पर श्रनेक ऐतिहासिक खंडकाव्यों की रचना की गई | इस दिशा में प्रथम उपलब्ध कृति द्वारफाप्रसाद गुप्त 'रसिकेंद्र' कृत धआत्मापंण! ( १६१९ ) है जिसमें ओरंगजेब कालीन भारत का चित्रण करते हुए मेवाड़ के राणा राजसिंहद और प्रभावती की कथा प्रस्तुत की गई है। नारीआदश से सबद्ध इस कृति में पाँच सर्ग हैं ओर इसकी रचना दििवेदीयुगीन काव्यशिल्प की परंपरा में पीयूषवर्षक छुंद हुई है । इनका एक अन्य खंडकाव्य “सती सारंधा? (१९२४) प्रेमचंद की रानी सारंधा? शीर्षक फहानी पर आधारित है ओर इसमें छुत्रसाल के पिता चँपतराय और. माता सारंधा के वीरोत्साह का सरल माधा में चित्रण हुआ है। दूसरे उल्लेखनीय कवि दिवाकरप्रसाद शास्त्री हैं जिनका बसुमती! (१६११) शीर्षक अतु्कांत खंडफाव्य उत्तर भारत के मुसलमानों में प्रचलित एक दंतकथा - १०-५, ३४ हिंदी साहित्य का घहत इतिहास पर आधारित अर्थ ऐतिहासिक रचना है । पाँच सर्गों में लिखित इस कऋति में हा बातावरणचित्रण पर अधिक बल है ओर कहीं कहीं प्रियप्रवास! की रचना- ल्‍ पद्धति का प्रत्यक्ष अनुकरण किया गया है| इस धारा की अगली कृति गदाधरसिंह झूगुवंशी कृत 'हफीकतराय” (१६२३) है जो भाषा और वश[नसौष्टव की दृष्टि से सामान्य स्वना है | दूसरी ओर, सुरेद्रनाथ तिवारी के काव्य वीरांगना तारा! (१६१४) में नारीउद्बोधन के निमित् पाँच सर्गो' में सराइनीय क्रयायोजना की गई है । इसी प्रकार ठाकुर श्रीनाथ सिंह ने “सती पद्चिनी! (१९२५) में छह सर्गों में स्त्रीशिक्षा के निमित्त वीररसपूर्ण कथा प्रस्तुत फी है । इसमें अलाउद्दीन से रघ्षाथ जोहर का आयोजन करनेवाली सती पद्चिनी फी कथा फो उत्कृष्ट काव्यशैली में प्रस्तुत फिया गया है। ऐतिहासिक बृत्त को लेकर ख॑डकाव्यों की रचना करनेवाले कवियों में मैथिलीशरण गुप्त का अन्यतम स्थान है| उनका 'विकट भट(१६२८) मध्यकालीन राजपूती आन को चित्रित करनेवाला श्रतुकांत खंडकाव्य है जिसमें वीरदर्प फो ओ्ोजस्वी शैली में व्यक्त फिया गया है| उनकी एक श्रन्य प्रसिद्ध कृति 'िद्धराज! (१९३६) है जिसकी रचना गुजरात के इतिहास के आधार पर कल्पना के समन्वयपूर्वफ हुई है । इसमें मध्यकालीन भारतीय संस्कृति के स्वच्छु और ओजपूर्ण चित्र प्रस्तुत किए गए हैं। रसपरिपाक, चरित्रव्यंजना ओर अ्रतुकांत पद्धति के निर्वाह की दृष्टि से यह एक सफल कृति है। रामकुमार वर्मा का 'ित्तोड़ की चिता! (१६२९) भी इस काल का उल्लेनीय खंडफाब्य है। इसमें राणा साँगा की मृत्यु के बाद रानी फरणावती पर गुजरात के बहादुरशाह के आक्रमण , रानी की पराजय, जोहर आदि फा कहीं ओजपूर्ण और कहीं करुण शैली में वर्शन किया गया है । प्रस्तावना ओर उपसंहार के श्रतिरिक्त इसमें बारह सग हैं ओर रचनाशिल्‍प की दृष्टि से यह एक उत्कृष्ट कृति है। उदयशंफर भट्ट को धतक्षशला! (१६३६) भी इस युग की बहुचचित कृति है। इसमें भारत की प्राचीन नगरी तक्षशिला के इतिहास की खोजपूर्ण छानबीन करते हुए. यूनानियों के आक्रमणों, विभिन्न कालों में तक्षशिला की गरिमा, सांस्कृतिक उत्कष आदि का चित्रण किया गया है। मावव्यंजना में समर्थ शब्दावली, छंद- विधान में स्वतंत्र दृष्टि, सात सर्णों में कथानक का सुनिबंधन श्रदि इस कृति की. सहज विशेषताएँ हैं। इस काल के अन्य कवियों में शिवदयाल जायसवाल ने वीरगाथा? (१६३१) में “परमाल रासो! के कीरतिसागर युद्ध अथवा मुजरियों फी लड़ाई का चार खंडों में ब्रजमाषा से प्रभावित कन्‍नौजी बोली में ओ्रोजपूर्ण वर्णन किया है । अंबिकाद त्रिपाठी के संद्धिस खंडकाव्य 'कृष्णाकुमारी! (१६३१), उदयपुर नरेश भीमसिंह की पुत्री कृष्णाकुमारी की प्रसिद्ध ऐतिहासिक है 52 आन हलक + न 3... मिपलिकक% हि | भागे १० ] कंविं और कृतियाँ : एक सर्वेज्षण क्‍ हर फथा को सरल शैली में प्रस्तुत किया गया है। एक अन्य उल्लेखनीय रचना सुंशी अजमेरी कृत “गोकुलदास” (१६३२) है। इस संक्षित ऋदशंवादी आआख्यानकाव्य में राणा प्रताप के माई शक्तिसिंह के पोंच्र गोकुलदास से संबद्ध ऐतिहासिक वृत्त फो श्रत्यंत स्वच्छु ओर ओजस्वी भाषा में व्यक्त किया गया है। अन्य रचनाओं में रघुनंदनप्रसाद अटल?” को अरगल की रानी (१६३२) वीररस की, एक सर्ग में रचित अतिसंक्षित कृति है जिसमें यवन आक्रमणकारियों से युद्ध का ओजस्वी वर्णन हुआ है | शंभूदयाल सक्सेना ने अ्रमरलता”! (१६३३) में आठ सर्गों में कोड़मदे और सादूल की प्रसिद्ध राजस्थानी प्रेमकथा का चित्रण किया है जिसमें यथास्थान प्रेम, वीरता, करुणा आदि के प्रसंग हैं। भगवती प्रसाद सिंह “वीरंद्र' ने महारानी पद्मिनी' (१६९३४) में आठ सर्गों में गोरा बादल की वीरता, अलाउद्यीन की शासननीति, चित्तोंड़ वैमव, जोंहर आदि का भावानुकूल भाषा में छुप्पय छुद में वर्णन किया है। भाव॒ुकता, वीररस के अनुकूल श्रोजगुण ओर अनुप्रासयुक्त पदावज्ञां इस कृति की विशेषताएँ हैँ। सुधीद्रकृत “'जोहर! ( रचना १६३५४--३६, प्रकाशन १६४३) भी महारानी पद्मिनी के जोहर से संबद्ध वीरस्सात्मक रचना है। इसमें छुंद् सर्ग हैं ओर काव्यकला की दृष्टि से यह कृति इस कथानक पर आधारित अन्य पूर्ववर्ती रचनाओं से श्रेष्ठ है। इसी वर्ग की एक अन्य कृति अनिरुद्ध पाठक तथा दामोदर पाठक की संयुक्त कृति “पत्ता! (१६३६) हे । इसमें पाँच सर्गों में चिचोड़ के वीर पचा के जीवनचरित फो ओजस्वों भाषा में व्यक्त किया गया है। इस वग की अंतिम उपलब्ध कृति रामफरण द्विवेदी अज्ञात! कृत राखी! (१६३६) है । इसमें गुजरात के शासक बहादुरशाह द्वारा चित्तोड़ पर आ्राक्रमशु करने पर रानी करुणावती द्वारा हुमायूँ. के पास राखी भेजने का प्रसंग वर्शित हे। यह चार सर्गों की शोर्य॑प्रधान सामान्य रचना है जिसमें यथास्थान करुण प्रसंगों का भी समावेश दै। इस प्रकार यह स्पष्ट ह कि प्रस्तुत युग के ऐतिहासिक खंडकाब्यों में अधिकतर मध्यकालीन वीरों के पराक्रम, आन पर मर मिट्ने के संकल्प, अपने सीमित साधनों के बावजूद आक्रांता के विरुद्ध निर्मीक शो की उमंग, शत्रुसंहार के संदर्भ में गब॑ ओर गौरव की अनुभूति आदि का चित्रण हुआ हे । करुणु, भयानक, रोद्र आदि अन्य रसों की. सामभ्री इन्हीं मावदशाश्रों के अंतगगत स्फुट रूप में व्यक्त हुई है । सामाजिक खंडकाव्य प्रस्तुत युग में समाज की विभिन्‍न प्रद्ृचियों में से निम्नलिखित को लक्ष्य करके खंडकाव्यों की स्वना की गई--प्रणुय ओर विरह, देशभक्ति, व्यक्तिविशेष का चरित्रगोरव | विवेचन की सुविधा के लिये इनमें से प्रत्येक पर इसी क्रम से विचार करना उचित होगा । ३६ हिंदी साहित्य का इेंहत इतिहास (अर) प्रशयमूलक खंडकाव्य : ईए वर्ग के अधिकांश ५ कार्व्यों की रचना छायावादी भावपद्धति से प्रमावित होकर की गई फलतः इन सूक्ष्म मानसिक प्रतिक्रियाओं, प्रेम और सौंदयचित्रण में कल्पना के उपयोग) स्वच्छुदतावादी भावव्यंजना, सांकेतिक श्रमिव्यक्ति थ्रादि का सहज समावेश रहा है। ये प्रद्ृत्तियाँ पौराशिक ऐतिहासिक खंडकाव्यों में इस रूप में प्राप्य नहीं थौं। इस विषय की प्रथम रचना सुमित्रानंदन पंत की ग्रंथि! ( रचना--१६ ९०, प्रकाशन--१६२६ ) है जो प्राचीन परंपरा के अ्रनुसार सर्गों में विभक्त न होने पर भी चार खंडों में प्रस्तुत की गई भावात्मक प्रणयकथा है | यह प्रगीतात्मक प्रबंधशेली में लिखित अतुफांत रचना है जिसमें प्रेम, सौंदय और बेदना का चित्रशेली में निरूपण हुआ है । इसकी रचना नायक की आत्मकथा के रूप में हुई है, फलतः इसमें कथातत्व की अ्रपेज्ञा मनोभावों की व्यंजना पर श्रधिक बल दिया गया है। किंतु, खझलगूराय आनंद का 'शांतिप्रताप' ( १६२३ ) छायावादी प्रभाव से मुक्त खंड काव्य है। इसका कथानक कल्पित है और प्रेम की तुलना में फतंव्यपालन पर बल देने के फलस्वरूप उसमें प्रायः आदर्श का पुट विद्यमान है। तत्सम पदावली, गूढ़ रचनापद्धति; अ्रतुकांत शैली ओर खड़ीबोली से यत्र तत्र प्रभावित ब्रजमाषा फी यह कृति नौं सर्गों में लिखित है। यह उल्लेखनीय है कि प्रशय- चित्रण के संदर्भ में कुछ कवियों ने वियोगकाव्यों की मी रचना की है। जगन्नाथ मिश्र 'कमल' कृत वियोगकथा' ( १६२६ ) इसी प्रकार का फल्पित खंडकाव्य - है जिसकी रचना सात संकिस तर्गों में की गई है। विषयप्रतिपादन की दृष्टि से कवि पर 'हसिश्रौध', प्रसाद! आदि के प्रभाव को विभिन्‍न प्रसंगों में सहज ही लक्षित किया जा सकता है। खच्छुंदतावादी दृष्टिकोण से लिखित रचनाओं में रामकुमार वर्मा का “निशीथ” (१६३३ ) भी उल्लेखनीय खंडकाव्य है जिसमें मिलन और विरह की विभिन्‍न मावदशाओं को प्रणयक्रथा के माध्यम से बारइ संक्तित सर्गों में चित्रित किया गया है। रूपचित्रण, भावव्यंजना, कल्पना, प्रकृतिचित्रणु, करुण प्रसंगों का समावेश आदि विशेषताओं का इस कृति में . सहज प्रसार रहा है | नगेंद्र की 'वनबाला” ( रचना--१६३३, प्रकाशन--१६३७) भी छुद्द सर्गों में रचित इसी वर्ग की कृति है। इसमें छायावादी रचनापद्धति के अनुरूप एक कल्पित प्रेमकथा को स्थान प्राप्त हुआ है और भाववशन के लिये प्रकृतिचित्रण का विशेष रूप से आधार लिया गया है। दिवेदीयुगीन पद्धति के अनुरूप प्रणय को ठुलना में फर्तव्यपालन पर बल देना इस कृति का लक्ष्य नहीं है। इसी प्रकार शूर कवि के 'फलित स्वप्न! (१६३३ ) शीर्षक खंडकाव्य में भी एक कल्पित प्रेमकथा को प्रस्तुत किया गया है जिसमें आदर्श विशेष की अभिव्यक्ति पर वैसा बल नहों है। गोपालसिंह नेपाली का “पंछीः [ भाग १०]. कवि भर कृतियाँ : एक सर्वक्षेश! $७ ( १६३४ ) भी इस काल का प्रसिद्ध कल्पित खंडफाव्य है जिसमें वनरानो और वनराजा के नाम से एक पक्कीयुगल के प्रेम और विरह को दो खंडों में सरस आर मार्मिक शैली में आ्राख्यानबद्ध किया गया है| स्वभावत: इसमें प्रकृति के विभिन्‍न पक्षों को प्रस्तुति पर कवि का मुख्य बल रहा है श्र्थात्‌ माबव्यंज्नना के लिये प्राकृतिक पृष्ठभूमि अनिवाय रही है। किंठु. कपिलदेवनारायण सिंह सुद्द! कृत “प्रेममिलन! ( १६३६ ) इससे भिन्‍न शैली की रचना है। इसमें प्रेम, कतंव्यपालन, युद्ध आदि से संबद्ध एक कल्पित आदर्शवादी कथानफ फो पाँच सर्गों में प्रस्तुत किया गया है। फलत; इसमें भावफता और करुणा की प्रमुखता है ओर यथास्थान ओजस्वी प्रसंगों को मी स्थान प्राप्त हुआ है। इस वर्ग की भ्रंतिम रचना 'नारायशाप्रसाद ध्यूजनः कृत “पवनदृत श्रथवा विरहिणी संदेश! ( १९३८ ) है जिसमें एक ऐसी नायिका के विरह का चित्रण है जिसका पति विदेश में किसी अंग्रेज युवती से विवाह करके उसे भारत ले आया था ओर अश्रलग रहता था। इस फल्पित कथानक का उद्देश्य केवल विरह की मार्मिकता को प्रक८ करना नहीं है, अपितु कवि की प्रद्ृत्ति भारतीय ओर पाश्चात्य संस्कृतियों के दंद्चित्रण की श्रोर मी रही हैं। इसकी भाषा व्यावहारिक औोर सरल है तथा कहीं कहीं ब्रजमाषा के क्रियारूपों का प्रयोग मी हुआ है | (आ) देशसक्तिपरक खंडकाव्य : इस युग में कुछ कवियों ने सामाजिक, राजनीतिक परिवेश का चित्रण करते हुए देशप्रेम संबंधी कथानकों के आधार बर भी खंडकाव्यों की रचना की । ऐसी कृतियों में देश को श्राथिक दुरवस्था, परतंत्रता से मुक्ति की कामना, नायक फी राष्ट्रीय भावना; अ्रस्वश्यता जेसी सामाजिक समस्याओं के निवारण की श्रावश्यकता आ्रादि का प्रतिपादन फिया गया। कथानक के अ्रनुरूप समाजसेवा ओर प्रकृतिचित्रण फो भी देशसेवा का ही अ्रंग माना गया | इस प्रकार की प्रथम रचना गोकुलचंद्र शर्मा क्रृत “गांधी गॉरव” ( १९१९ ) है जिसमें गांधी जी के जन्म से लेकर उनके द्वारा तब तक की गई देशसेवा का दस सर्गों में तारतम्यपूवक चित्रण हुआ है । विषयवस्तु की स्वच्छ प्रस्तुति ओर माषा की सहजता को इसमें सबंत्र देखा ज्ञा सकता है। इसी प्रकार की उनकी एफ अन्य रचना “तपसवी तिलक” ( १९२२ ) है जिसमें लोकमान्य तिलक के जन्म से निर्वाण तक की कथा फो श्राठ सर्मों में प्रबंधसोष्ठवयुक्त शैली में प्रस्तुत फिया गया है । भांषासौरस्य, छुंदवैविध्य, संपूर्ण कृति में अंत्यानुप्रास का निर्वाइ होने पर भी उपसंदार में अश्रतुकांतपद्धति का प्रयोग आदि से यह भी लक्षित होता है कि वस्तुवर्णन के अतिरिक्त कवि ने शिल्पविधान में मी जागरूकता प्रकट की है। रामनरेश त्रिपाठी के 'पिथिकः ( १६२० ) ऑर 'स्वप्नः ( १६९२८) मी इसो श्रणी के खंडकाव्य हैं जिनमें समाजसेवा ओर राष्ट्रोत्थान के उद्देश्य से कथाकल्पना की १६ .:&:&> हिंदी साहित्य का इ६वं इतिद्ास गई है और प्रत्येक में पाँच सर्ग हैं। इनमें फाव्यवस्तु की मूल भूमि एक जैसी है इनकी रचना देशभक्ति की प्रेरणा से हुई है; इनमें देशप्रेम के संदभ में कथानायक के प्रकृतिप्रेम की विस्तृत चर्चा है ओर नायक अ्रथवा किसी श्रन्य पात्र के चरित्र के माध्यम से सामयिक समस्याओं के प्रति जागरूकता प्रकट की गई है। प्रणय, नीतिमूलफ जीवनदर्शन, देशमक्ति की ओजपूर्ण भावना, देशवासियों की निभ्रनता का करुणामलक चित्रण आदि इन कृतियों की सामान्य विशेषताएँ हैं। वस्त॒तः इस युग में समाज के निर्धन और पीड़ित वर्ग के प्रति मानववादों दृष्टि अपनाकर जिस सहानुभूतिपू्ण काव्य की रचना की गईं उसके मूल में समकालीन गांधी- वादी चिंतनपद्धति फा प्रभाव था। सियारामशरण गुप्त द्वारा चार संक्षिप्त सो में लिखित खंडकाव्य अनाथ? ( १६२१ ) इसी प्रकार को कृति ह। एक अन्य रचना आात्मोत्स्ग”! ( १६३१ ) में उन्होंने हिंदू मुस्लिम वैमनस्य के त्याग का संदेश देने के निमित्त गणेशशंकर विद्यार्थी के बलिदान की कथा प्रस्तुत की दे । इसमें राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना का सशक्त प्रतिपादन हुआ है। बुद्धिनाथ भा “रब! द्वारा हरिजनोत्थान की प्रेरणा से लिखित उद्बोधनात्मक काव्य ध्य्रछूत' ( स्वना--१६३२, प्रफाशन--१९३४ ) भी इसी प्रकार फी कृति है। इसकी रचना अ्रद्धृतों को हिंदू क्षेत्र से अलग करने की अंग्रेजों की घोषणा के विरोध में गांधी जी के श्रमरण अनशन की पृष्ठभूमि में हुई थी । इसका कथानक पूर्बार्ध और उत्तराध--इन दो खंडों में विभाजित हैं ओर इसमें एक करुणु मार्मिक कथा को सरल तथा व्यावह्यरिक भाषा मेँ प्रस्तुत किया गया है। मातादीन भगेरिया कृत “तरुण तपस्वी? ( १९३४ ) भी इसी अ्रृंणी की रचना है जिसमें एक कह्िपित कथानक के माध्यम से समाजसेवा पर बल देते हुए भाई बहिन के स्नेह का चित्रण किया गया है। पाँच सर्गों में लिखित इस काव्य में श्रधिकतर श्रतुकांत पद्धति का निर्वाह हुआ है और कहीं कहीं काव्यनाटक की शैली का भी अनुसरण है। (इ) चरितमूलक खंडकाव्य : प्रस्तुत युग में धर्म, परिवार ओर साहित्य के छ्षृंत्रों में विशिष्टता प्रकट करनेवाले कुछ व्यक्तियों फो लेकर चरितप्रधान खंड- काव्यों की भी रवना की गई। धार्मिक मनोबृत्तिवाल्ले व्यक्तियों से संबद्ध प्रथम स्वना 'धरंगीतांजलि? ( १६२२ ) में मुनि श्री न्‍्यायविजय ने जैनाचार्य श्री विजय- धम सूरि के जन्म से निर्वाणु तक के पूरे जोवनचरित फो साधारण भाषाशैली में प्रस्तुत किया है। इसमें कवि की दृष्टि श्रद्धापूवक चरित्रवर्णन के अ्रतिरिक्त जैनपर्म के प्रचार पर भी रही है और शीर्षक में 'गीतांजलि? शब्द आने पर भी इसमें गीत . नहीं हैं। दूसरी कृति “विरजानंद विजय! ( १६२४ ) में विद्याभूषण “विभु? ने ऋषि . दयानंद के शुरू विर्नानंद के जीवनचरित को अ्रद्धासंबलित आदर्श वादी दृष्टि [ भाग १० ] :.. कवि और कृतियाँ : एक सर्वेक्षण... ३९ सात सर्गों में सामान्य भाषाशैली में प्रस्तुत किया है। तीसरी कृति रामदेवसिंह “देवेंद्र! कृत 'राज्ि ज्योति! ( १६३५ ) है जिसमें राजर्षि उदयप्रतापसिंह जू देव द्वारा संसारत्याग का सात सर्गों में ब्रजमाषा में चित्रण हुआ है। भावव्यंजना के स्थान पर वर्शनविवरण की बहुलता को इसमें भी स्पष्टतः देखा जा सकता है । उपर्युक्त कृतियों के अतिरिक्त इस युग में मगवतीलाल श्रीवास्तव “पुष्प” ने अनंत का अतिथि? ( १६३५ ) शीर्षक पारिवारिक खंडकाव्य की रचना की; जिसमें उनके पिता की रुग्णुता मृत्यु, पुत्र फो शिक्षा आदि का विस्तृत चित्रण है। इसमें करुण रस फी प्रमुखता है ओर पितृमक्ति का आदर्श निरूपण है। साहित्य क्षेत्र फी विभूतियों फो लेकर इस काल में केवल निराला” ने तुलसीदास! ( १६३८ ) शीर्षक खंडकाव्य फी रचना की जो रचनापद्धति आदि की दृष्टि से अपने युग की अध्य कृतियों से भिन्न है। इससें तुलसी के जीवन से रुंबद्ध कुछ प्रस॑ंगों को कथात्मक अ्रभिव्यक्ति प्रदान की गई है। कवि ने तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक वातावरण का संकेतरूप में उल्लेख करते हुए तुलसी की भमावमूमि; प्रसुयमोह, रत्नावली के संदेश, तुलसी के अंतद्॑द्ध शरदि का ओचस्वी शैल्ली में वर्शन किया है। प्रकृतिचित्रण, सूक्ष्म भावव्यंजना रूपकतत्व का निर्वाह) भाषाशैली की गंभीरता आदि इस रचना की श्रन्य प्रवृत्तियाँ हैं। जीवनीपरक खंडकाव्यों में कवित्व फी प्रोढ़ता की दृष्टि से इसका अन्यतम स्थान है | काव्यनाटक छायावाद युग में काव्यक्षेत्र में जो शेलीविषयक उद्मावनाएँ फी गई' उनमें “काव्यनाट्क', 'नाट्यप्रबंध', अथवा “गीतिनादय” का विशेष महत्व है| र्वनापद्धति फी दृष्टि से ये तीनों एफ दूसरे से मिलते जुलते फाव्यरूप हैं। यद्यपि नायक में काव्यतत्व के समावेश की प्रवृत्ति इसके पूर्व भी विद्यमान थी, तथापि इस बर्ग की रचनाओं मे काव्य में नाट्कीय तत्वों के समावेश फी पद्धति अपनाई गई । कथानक की उपेक्षा न करने पर भी इनमें पात्रों की भूमिका मुख्य रहती है और प्रत्येक प्रसंग को पात्रविशेष के काव्यात्मक संवाद के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इस शेली की प्रथम रचना मैथिलीशरण गुप्त की 'यशोधरा? ( १९२२ ) है। इससे' सिद्धार्थ के महाभिनिष्क्मणश पर विविध पात्रों की प्रतिक्रियाओं को अंकित फिया गया है और यशोधरा के विरहवर्णान को प्रमुखता दी गई है। इसका कुछ अंश गद्यनाटक की शेली में लिखित है, अधिकांश भाग में प्रगीततत्व का निर्वाह है ओर वस्तुनियोजन में खंडफाव्य जैसी संकछ्िप्तता अपनाई गई है; श्रतः इसे किसी अन्य काब्यविधा के अंतगंत न रखकर नाट्यप्रदंध कहना ही उचित होगा । .इस वर्ग की दूसरी इति गुप्त जी की अनघ? 8 हिंदी साहिध्य का बहत्‌ इतिद्ास ( १६२५ ) है जिसकी रचना गांधी जी के सिद्ध तो से प्रभावित रहकर फी गई है । चरित्रचित्रण की विदग्घता और गीतिनादय जैसा शेलीलालित्य इस कृति की विशेषता है, किंतु इसमें भावुकता ओर रसहृध्टि का सहज प्रभाव नहीं मिलता । इस प्रकार की एक अन्य उल्लेखनीय कृति इरिक्षष्ण प्रेमी! कत 'स्वणविहान' ( १६३० ) है। इसकी रचना समकालीन समान श्रौर राष्ट्र के संदर्भ में फी गई है और कहीं कहीं स्वच्छुंद प्रेम का चित्रण होने पर भी इसमें राष्ट्रीय सांस्कृतिक दृष्टि की प्रमुखता है। उदयशंकर भट्ट द्वारा गीतिनाव्य की शेली मे' लिखित क्त्स्यगंधा) ( १६१४ ), 'विश्वामित्र' ( १६३७) और 'राधा! ( १६३६ ) इस काव्यवर्ग की विशेषतः उल्लेखनीय रचनाएं हैं जिनमें पुरुष श्र नारी के संबंधों का भावुकतापूर्वक विश्लेषण किया गया है। इनमें वाताबरणचित्रण की तलना में' पात्रविशेष की भावुक मनोदृत्ति श्रौर अंतद्वद के चित्रण को प्रमुखता हट तथा नाटकत्व के स्थान पर कवित्वगुण की अधिक व्यातति है। निराला! के 'परिमलः ( १६२६ ) मे' संकलित “पंचवटी प्रसंग! भी इसी वर्ग की लघु रचना है । इसमे सीता के प्रकृतिप्रेम, राम के दाश्शनिक विचारों, लक्ष्मण की अ्रातूमक्ति और शर्पणखा के रूपगर्व का मनोरम चित्रण हुश्रा है। छायाबादी भावविन्यास ओर शिल्पर्सौंद्य इसकी अ्रन्यतम विशेषताएँ हैं। इसको रचना पॉच खंडों में केवल तेईस पृष्ठों में हुई है। किंतु काव्यनाटक जैसा विस्तृत कलेबर न होने पर भी इसे उसी दिशा मे एक उत्तम प्रयास माना जाना चाहिए | पयोयबंध काव्य इस युग में ऐसी श्रनेक कृतियोँ की रचना की गई जिनमें फथाविशेष का निर्वाह न होकर किसी भाव अथवा विचार फो बंबपूवंक निरूपित किया गया है | ऐसी ऋृतियों को “पद्मप्रबंध!, वशुनात्मक लघु प्रबंध', 'पद्मयकथा” आदि फो संज्ञा क्‍ नहीं दी जा सकती क्योंकि इनमें कथातल्र का संधा लोप है। एक ही विषय का क्रमबद्ध वर्णन करनेवाली ऐसी रचनाओं को ध्वन्यालोककार ने “पर्यायबंध? फहा है। आालोच्य युग में इस प्रकार की प्रथम उपलब्ध कृति इंश्वरीप्रसाद शर्मा की “मातृबंदना” ( १६१६ ) है जिसमें मातृभूमि फो लक्षित करके सात खंडों में... _देशभक्तिपरक भावविचार व्यक्त किए गए हैं। इस वर्ग की दूसरी कृति माबरमल शर्मा की (तिलक गाथा? ( १६२० ) है जिसमें तिलक के कार्यकलाप और उनकी मृत्यु पर राष्ट्र की प्रतिक्रिया का सँतालीस छुंद्रों में श्रद्धामूलक विवरण प्रस्तुत किया गया है। कन्हेयालाल जेन कृत “भारत जाग्रति? ( १६२३ ) भी इसी वर्ग की रचना है। इसमें भारत के प्राचीन गोरव, कृषकदशा, शिक्षाप्रणाली आदि पर रि देखिए क्‍ हिंदी ध्वन्यालोक', संपादक : डा नगेद्र, प्रथम संरकरणा, पृ० २५० | [ भाग १० ] .. कवे और कृतियाँ ; एक सर्वेक्षण... छ१ सामयिक चिंतनक्रम को 'भारतभारती” की भाँति एक ही विचारबंध के अंतर्गत स्‍थान दिया गया है। अन्य कवियों में मुनि न्‍्यायविजय ने 'घमंगीतांजलि” ( १६२३ ई० ) में श्री विजयघरम सूरि का काव्यबद्ध जीवनचरित प्रस्तुत किया है जिसकी शेली साधारण विवरणयुक्त है। इसी प्रकार गिरिजादतत शुक्ल “गिरीश' ने स्मृति! ( १९१७ ६० ) शीर्षक काव्य में कुमार देवेंद्रप्साद जेन के स्वगंवास पर अपनी संवेदना को श्रार्यानरहित, किंतु परस्पर संबद्ध कविताओं में व्यक्त फिया दे | विद्याविभषण विश्व के प्रकृतिकाव्य 'चित्रकूटचित्रण! (१९२४) में चित्रकूट के वृक्ष, निर्मार पुष्पादि का चार खंडों में आख्यानसुक्त वर्णन भी इसी काव्यरूप का उदाहरश है। इस कृति को श्रीधर पाठक कृत 'देहरादून' की प्रभावपरंपरा में स्थान दिया जा सकता है। इम्नमें विचारतत्व की अपेन्षा भावतत्व के समावेश की प्रवृत्ति श्रधिक लक्षित होती है। जयशंकर प्रसाद कृत 'ऑसू? ( १९२४ ) भी इसी वर्ग की गीतिरचना है जिसमें किसी वियोगमृलक प्रेमकथा की पृष्ठभूमि में जीवनव्यापी वेदना का यथार्थ चित्र अंकित किया गया है। अनुभूति की आंतरिकता, कवि के व्यक्तिख का प्रतिफलन, गंभीर जीवनदर्शन और मार्मिक भावन्यंशना इस काब्य फो सहज प्रबृत्तियाँ हैं। ब्रह्मदत्त शर्मा 'शिशु? की “प्रेमवर्षा' ( १६२६ ) भी इसी प्रकार की रचना है जिसमें मन के भावुक उद्गारों को आठ खंडचित्रों में अंकित किया गया है । पर्यायबंध काव्य के अंतर्गत वश्शान-विवरणु-परक कृतियों की रचना भी की गई है। गदाधरसिंह भूगुवंशी की “भरगु बावनी” ( १६२६ ) इसी प्रकार फी कृति है जिसमें भगुवंश की उत्पत्ति ओर विस्तार का ब्रजभाषा में बावन छूंदों में विवरण प्रस्तुत किया गया है। कुछ कवियों ने भावमूलफ विचारात्मक पर्यायबंध.. कार्व्यों की रचना की है । मातादीन चतुर्वेदी कृत जमींदार और किसान! ( १६२७ ) गुप्तजी के किसान! शीर्षक काव्य की , शैली में लिखित ऐसी ही रचना है जिसमें कृषकों की सामयिक दीन दशा, जमींदारों की निष्ठुरता और दोनों के कतंब्यों का भल्ी भाँति निरूपण किया गया है। इन्हीं को एक अन्य कृति अ्रध्यापक और शिक्षा! ( १६९८ ) में भी विषय संबंधी इतिब्ृतच को १४६ छुंदों में उपदेशात्मक शैली में कौशलपूर्वक नियोजित किया गया है। इस श्रेणी फी रचनाओं में भावात्मक रागात्मक तत्वों का भी अभाव नहीं है। विश्वनाथप्रंसाद कृत 'मोती के दाने! ( १९३२) प्रसाद के आँसू?! के अनुकरण पर लिखित ऐसी ही भावुकतापूर्ण रचना है । इसी प्रकार विश्वनाथतिंह कृत दुबवलिया की याद में” ( १९३७ ) आ्राठ अध्यायों में विभक्त इसो कोटि की मार्मिक कृति है जिसमें + 3 बज २ दल का ०. हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास एक निर्जन ग्राम दुबवलिया की करुण विनाशकथा को यथाथंपूर्ण दृश्यचित्रश की शैली में प्रस्तुत किया गया है। स्पष्टतटः इसको रचना श्रीधर पाठक कृत 'ऊजड़ ग्राम? से प्रभावित होकर की गई है। चरितमूलक पर्यायबंध कार्व्यों सें गशेशप्रसाद मिश्र “इंदुः कृत संक्षिप्त अजमाषा काव्य 'प्रतापशतक?ः ( १६३५ ६०) उल्लेखनीय है जिसमें महाराणा प्रताप के वीर चरित्र को दोहों में श्रोजपूर्ण शैली में प्रस्तुत किया गया है। इस वर्ग की अंतिम उपलब्ध रचना नारायणदत्त बहुगुना कृत 'बेदना? ( १६३७ ) है जिसमें प्रसाद के अ्राँसू! के अनुकरण पर बेदना के प्रभावादि का १५० छुंदों में निरूपएण किया गया है। अ्रंत में यह उल्लेखनीय है कि आँसू? जैसे एक दो काध्यों फो छोड़कर इस वर्ग की श्रधिकांश कृतियाँ द्विवेदी युग फी संदेशपरक विवरणात्मक शेली में लिखी गई हें--यद्यष इनमें भावुकतापूर्ण रागात्मक स्थल भी स्फुट रूप में उपलब्ध हो जाते हैं। विवरणबहुलता, प्रथम रचना होने के फारण कवि की शेली में अ्रपरिपकक्‍्वता, फथासंदर्मों के अ्रभाव में कल्पना के लालित्य का अभाव आरादि ऐसी प्रवृत्तियाँ हैं जिनके कारण इस युग के पर्यायबंध कार्व्यों में प्रायः रसइृष्टि का अ्रजसर समावेश नहीं हो सका- एकाध प्रकीर्ण रसात्मक प्रसंगों की बात दूसरी हे। इस दिशा में श्राँस?, मोती के दाने” और “बेंदना” का ही अ्रपवादस्वरूप उल्लेख किया जा सकता है | आख्यानक निबंधकाव्य इस काव्यरूप को खंडकाव्य ओर पर्यायबंध काव्य के बीच फी कड़ी मोना जाना चाहिए क्योंकि ऐसी रचनाश्रों में न तो उपयुक्त प्रबंधविधान होता है ओर न ही ये सर्वथा आख्यानविदीन होती हैं। दूसरे शब्दों में, इनमें फुट कथानक के अतिरिक्त किसी विशिष्ट विषय के निर्वाह पर भी बल रहता है। इसीलिये इन्हें 'पद्चप्रबंध, 'पद्मात्मक निबंध, वस्त॒वशुनात्मक प्रबंध” आदि की संज्ञा भी दी गई है। प्रस्तुत युग में इस विधा के अंतर्गत विभिन्नविषयक ग्रंथों की रचना की गई। इस प्रकार फी प्रथम रचना रामचरित उपाध्याय कृत “देवदूत' ( १६१८ ) हैं जिसमें पूर्वांध और उत्तराध के अंतर्गत ६०-६० छुूंदों में भारत भारती! की भाँति नीतिपरक आदशवादी राष्ट्रीय दृष्टिकोश फी वाणी दी गई है। इसमें एक देवदूत के भारतवर्ष में आने और यहाँ के सामाजिक तथा प्राकृतिक वातावरण से प्रभावित होने का चित्रण है। इन्हीं फी एफ अ्रन्य रचना मुक्ति मंदिर! ( १९३४ ) में महाभारत गुद्ध के अवसर पर अज्जैन के मोह ओर श्रीकृष्ण के उपदेश का चार सो" द में चित्र णु हुआ है । सिद्धांत प्रति- पादन पर बल देने के फारण इसमें विचारात्मफता अधिक है, फथालालित्य कम । इस वर्ग फी एक झन्य रचना गिरिजादत्त शक्ल “गिरीश? कृत 'रसालवन!' | भांग १० केवि और कृतियाँ ; एक सर्वेक्षण ४३ ( १६२० ) है जिसमें एक पारिवारिक कथा के माध्यम से दो खंडों में यह प्रतिपादित किया गया है कि पुत्रवधू के प्रति सास का व्यवहार कैसा होना चाहिए. । स्त्रीशिक्षा पर बल होने पर भी कवि ने इसमें प्रकृतिचित्रण, वातावरण की चित्रात्मक व्यंजना, स्निग्ध सरल माषा आदि की ओर यथोचित ध्यान दिया है। प्रस्तुत शैली की एफ अन्य रचना रघुनंदनलाल मिश्र कृत “अभिमन्युवधः (१९ ५१) है जिसमें फवि की दृष्टि ध्मह्यमारत? के तत्संबद्ध कथानक को प्रस्वुत करने पर ही नहीं रही है, अपितु कौरव-पांडव-संघर्ष को देश की वर्तमान अवनति के लिये कारणस्वरूप मानने पर भी उतना ही बल दिया गया है। स्पष्ट है कि इस वर्ग की रचनाओं में भावात्मकता अथवा आत्मतत्व फो ही पर्याप्त न मानकर वस्तुतत्त॒ और विचारात्मकता पर भी उतना ही बल रहता है। मंगल प्रसाद गुप्त की 'ऋष्णदशन! (१६१५) ऐसी ही कृति है जिसमें क्ृष्णुजन्म से पूतनावध तक की लीलाओं को भक्ति-नीति-परक दृष्टि से दस संक्षिप्त सर्मों में प्रस्तुत किया गया है। इसी प्रकार मंगलाप्रसाद शर्मा ने “ववियोगिनी कमला? (१६२७) शीर्षक तेरद पृष्ठ के संक्षिप्त त्जभाषा काव्य में एक देशभक्त के निर्वासन श्रौर उसकी पत्नी फी विरकथा को प्रस्तुत करते समय सामयिक देशदशा के चित्रणु पर अधिक बल दिया है। चारण कवि केपरीसिंह बारहठ कृत ्व्रतापचरित्र' (रचना---१६२७ प्रकाशन--१६९३५ ) भी इसी वर्ग की कृति है जिसमें महाराणा प्रताप संबंधी ऐतिहासिक तथ्यों की रत्षा करते हुए वीर रस को प्रमुख स्थान दिया गया है । ब्रजभाषा के इस चरितकाव्य में प्रताप का पूरा जीवनचित्र प्रस्तुत किया. गया है, किंतु इसमें कथानक के तारतम्य के स्थान पर विषयबाहुल्य पर अधिक दृश्णि रही है। इसकी भाषा ओजगुणयुक्त है तथा इसमें दोहा; सोरठा, सवैया, घनाक्षरी अ्रदि विविध छुंदों का प्रयोग हुआ है। इसो प्रकार हव रेशंकर शर्मा कृत 'शिवसंकल्प” (१९९८) ऋषि दयानंद की स्मृति में लिखित संह्चित सामान्य कृति है जिसमें कथानक फो स्फुट रूप में नियोजित करते हुए विशेषतः वातावरणचित्रण तथा सिद्धांतप्रतिपादन फी प्रमुखता रही है । इस शैली फी एक अन्य रचना <देवेंद्र- मिलाप' (१९२८) में कवि छेदीलाल ने देवेंद्रप्साद नामक एक जेन धर्मावलंबी के जीवन के विविध पक्षों का चित्रण करते हुए प्रेमघम का नीतिपरक प्रतिपादन किया है। इसी प्रफार का एक सामान्य भक्तिकाव्य रामप्रसाद शर्मा उपरीन कृत ध्वाला जी माह्मत्म्य/ (१९३०) है । यह पूर्वांध श्रोर उत्तराध में विभक्त है आझोर इसमें श्री बाला जी फी मक्ति से काँसीनरेश नारायणु राव आदि का निरोग होना वर्णित है। ऋषि दयानंद के जीवन फी मुख्य घटनाश्रों और सिद्धांतों के वर्शनार्थ योगेंद्रपाल द्वारा रचित जगमगाते द्वीरे! (१६३२) भी इसी वर्ग की साधारण- स्तरीय रचना है। भक्ति ओर ज्ञान संबंधी ऐसी ही एफ अन्य कृति स्वामी मित्रसैन गा! . हिंदी सांहिध्य का देंदव इतिददा/से राममित्र कृत श्री राम राग! (१६३३) है। यह भक्तिकालीन काव्यग्रंथों की भाँति शद्ध भक्तिभाव से रचित ब्रजमाषघा काव्य हे ओर इसमे रामकथा के मुख्य प्रसंगों के के आधार पर जीवनादर्शों का निरूपण किया गया है। रामकथा से संबद्ध एक अन्य संक्तित रचना राय साँवलदास बहादुर करत रामावर (१९३३) ह जिसमें मुख्य कथाप्रसंगों श्रोर संदेशनिर्धारण को संमतुल्य महत्व दिया गया ह। कुल कवियों ने सामयिक सामाजिक स्थितिविशेष को लेकर भी इस वग के काव्यों को रचना की है | शंभूदधाल सक्सेना को 'मिखारिन! ( १६३४ ) इसी सकार क्री कृति है. जिसमें मिखारिन। याचना; भिक्षा ओर आशीष, शन चार शापषको के अंतर्गत एक भावुकतापूर्ण पद्मप्रबंध फो स्थान दिया गया हैं । इस युग के अ्रन्य निरबंधफाव्य चरितमूलक हैं लिनमें कथातत्व क्षीण 6 ओर परिवेश, क्रियाकलाप, अनुयायियों पर प्रभाव आदि का विवरण आधिफ ह। उदाहरणार्थ, यज्ञदतत त्यागी ने दयानंद ( १६३७ ) में ऋषि दयानंद को बाणी के प्रचाराथ उनके जीवनचरित फो व्यावहारिक भाषाशैली म॑ प्रस्तुत किया दे | इसी प्रकार राजाराम ओवास्तव ने “जवाहर का जोहर! ( १६३७ ) में कथापक्ष पर अधिक बल न देते हुए. जवाहरलाल नेहरू के क्रियाकलाप द्वारा उनका महत्व निरूपण किया है| इसकी रचना सुभद्राकुमारी चोहान की कविता “काँसी की रानी फी शैली में हुई है, फलतः इसके प्रत्येक छुंद में सब कहते हैं बीर जवाहर नरनाहरं मरदाना है? की टेक दी गई है । बारहठ जोगीदान की रचना त्यागमूर्ति श्री गणेशदास नी” ( १६३७ ) भी ऐसी हो ऋति है जिसमें फवि ने अपने गु८ स्वामी गणेशदास के जीवनचरित्रं, गुश्परंपरा आदि फो श्रद्धापरकफ नीतिमुलक दृष्टि से बाइस संद्ित सर्गों में प्रस्तुत किया है । . उपयुक्त कृतियों के विश्लेषण के अनंतर निष्क्षस्वरूप यह कहा जा सकता है कि आशूयानक निर्बंधकाव्यों की रचना इस युग फी विशिष्ट प्रति थी । इसके लिये ऐतिहासिक बृत्त न अपनाकर भक्ति, नीति, चरित्रगोरव, सामयिक परिवेश आ्रादि से संबद्ध पॉराशिक अथवा सामालिफ प्रसंगों का आश्रय लिया गया | कथानक को तारतम्ययुक्त ललित शैल्ली में प्रस्तुत करने की अ्रपेक्षा इन कृवियों का आग्रइ उसके माध्यम से किसी विशेष जीवनदर्शन, सिद्धांत श्रथवा लक्ष्य को प्रकट करने पर रहा है। फलतः इनमें रसपरिपाफ, वस्तुनियोजन और भाषालालित्य की ओर समुचित ध्यान न देकर प्रायः प्रचारदृष्टि अपनाई गई है| यही कारण है कि काल की सीमाओं फो लॉाघकर इनमें से कोई भी कृति स्थायी महत्व प्राप्त नहीं कर सकी | पा आरख्यानक गीति है द्विवेदी युग में प्रचलित काव्य रूपों में पद्चकथा का विशेष प्रचार था, जिसे | भंग १० | क्षाव और कृतियाँ : एक संबंध ४४ छायावाद युग में श्रा्यानक गौति का रूप प्राप्त हुआ क्योंकि आख्यान श्रथवा चरित्र के वस्तुनिष्ठ वर्शन की अपेक्षा अ्रब कवियों का ध्यान भावसंवेदना, कल्पना के संस्पश, आत्मपरक शैली और सूक्ष्म अभिव्यंजना की ओर भी जाने लगा। यद्यपि पद्यकथाओं को परंपरा सर्वथा 'नि.:शेष नहीं हुई, तथापि गीतितत्व और प्रगीत के समायोजन को इस फाल में अधिक महत्व दिया गया । कुछ कवियों ने पोराशिक, ऐतिहासिक अ्र०भवा सामाजिक आख्यानों फो लेकर केवल इसी विधा फो कविताओं के संकलन प्रस्तुत किए ओर कुछ ने अ्रन्यविषयक कविताश्रों के साथ दो चार खझाख्यानक गीतियों को भी स्थान दिया। इस वर्ग की प्रथम कृति गुलाबरत्न वाजपेयी 'शुलाब” को “चित्रकाव्यः ( र्वना--१९२१, प्रकाशन--१६२८ ) है जिसमें ऋष्ण, रंभा, दुष्यंत, भीष्म आदि पर सत्रह पोराणिक ग्राख्यानक कविताएँ संकलित हैं और द्विवेदीयुगोन परिपाी के अनुरूप प्रत्येक कविता के साथ एक एक चित्र भी दिया गया है। इस दिशा में दूसरी उल्लेखनीय रचना आदर? ( १६२४-२७ ) है जिसमें सियारामशरण गुस की तेरह आख्यानक गीतियाँ हैं | इनकी रचना सामाजिक यथार्थ की प्रष्ठभूमि में आदश्शंवेश्ति रूप में की गई है झोर ये पोराशिक अ्रथवा ऐतिहासिक संदर्भा से सवंथा मुक्त हैं। इनकी एक अन्य रचना “मृण्मयी? ( १९३६ ) में भी सामाजिक यथार्थ को मामिक रूप में चित्रित करनेवाली ग्यारह आख्वानक गीतियाँ संकलित हैं। मैथलीशरण गुप्त कृत _ गुरुकुलः ( १९२८ ) भी इसी शेली की रचना है निसमें सिक्‍्ख्ों के दस गुरुओं आर बंदा बैरागी के संबंध में शोय॑ और करुणा से ओतप्रोत श्राब्यानों को स्थान प्राप्त हुआ है । 'निराला? के “परिमल? ( १६२६ ) में संकलित “महाराज शिवाजी का पत्र! सें यद्यपि कयातत्व का प्रत्यक्ष रूप में समावेश नहीं है तथापि उसका सूक्ष्म रूप में निर्वाइ अवश्य दुआ है। यह पत्रशैली में लिखित प्रगोतात्मक प्रलंब रचना है जिसमें उदाच भावव्यंनना। उद्बोधन की प्रखरता ओर मुक्त छुंद की सहजता द्रश्व्य है । इसी काल में सुभद्राकुमारी चौंह्यान कृत मुकुल” ( १६३० ) में ऋँसी फी रानी! शीर्षक वीरगीत का प्रकाशन हुआ जो लोकगीत फी अनौपचा- रिफ शैली में रचित होने के कारण शअ्रत्यंत लोकप्रिय रहा | रामकुमार वर्मा की “रूपराशि! (१९३२ ) में संकलित शशुज्ञा” भी ऐतिहासिक आख्यानक गीति का अ्रच्छा उदाहरण है। इसमें वातावरणाचित्रण के संदर्म में मानसिक भावों की व्यंजना को उपयुक्त महत्व दिया गया है। दूसरी ओर, पुरोहित प्रताप- नारायर ने द्विवेदीयुगीन वर्शानात्मक पद्धति के अनुरूप 'काव्यकानन! (१६३२) | श्रीकृष्ण और सुदामा! तथा अतिरथी अभिमन्यु” शीषक पद्मकथाओं को स्थान दिया है । भ्राख्यानक कविताश्रों के संदर्म में लद्दर' ( १६३३ ) में संकलित 'शशेरपिंह ४६ द ... हिंदी धाह्ित् का बूँहँत इतिह।से का शस्त्रसम पंणा! श्र ध्रंल्य फी छाया! विशेषतः उल्लेखनीय हे | इनमें बटनाक्रम का वस्तुनिष्ठ शैली में वर्शान न कर पांत्रविशेष की भावात्मक॑ प्रतिक्रियाओं ओर अंतद द्व के चित्रण की शैली अपनाई गई है। ऐसी गीतिकविताश्रों के साथ ही इस युग में पद्यबद्ध कथाओं की भी रचना होती रही । काशीप्रसाद श्रीवास्तव (कुसुम” की 'मारतीय कृपाण” (१६१४ ) ग्राचीन राष्ट्रीय गौरव को व्यक्त करनेवाली वीरर्स की ऐसी ही श्रोजपूर्णा कृति है जिसमें हरदोलसिंह बु'देला, वीरमती, तारा आदि की वीरता को प्रकट करनेवाले पाँच ऐतिहासिक आख्यान संकलित हैं | ' निराला! कीं प्रसिद्ध कविता 'राम फी शक्तिपूजा” ( १९३६ ) भी प्रसिद्ध पोराशिक आख्यानक गीति है। भाषा को दृष्टि से क्लिषप्ट होने पर भी ग्रोजगुश, भावोन्मेष, उदात्त शेंली ओर लयाधार फी दृष्टि से इसे अ्रप्रतिम मानना होगा। “विजनवर्ती! ( १९६३७ ) में इलाचंद्र जोशी ने भी श्राख्यानतत्व को अपेक्षा मनोदशाओं के चित्रण पर बल देनेवाली तीन फकविताश्रों--दम्यंती, शकुंतला, महाश्वेता को स्थान दिया है जिनमें छायावादी शिल्प को आग्रह- पूर्वक ग्रहएा किया गया है। इसी प्रकार गोपालशरणा सिंह की ध्सानबी* ( १६३८ ) में भी 'शझ्रुंतला?, “त्जब्ाला? और “अनारकली? शीर्षक कविताश्रों को .. पोराशिक ऐतिहासिक कथाप्रसंगों की पृष्ठभूमि में लिखा गया है। इनमें फत्रि की .. दृष्टि वर्शानपरकता के स्थान पर भावस्थितियों के प्रकटीकरणा पर कंद्वित रही है। प्रबंधसक्तक इस युग में कुछ ऐसी रचनाएं भी सामने आई” जो मुक्तक शेली में लिखित होन पर भी प्रबंधगुरा से समन्वित हैं । सामान्यतः इन्हें /निबद्धमुक्तक' कहा जा सकता था, किंतु प्रबंधोचित कथाविस्तार को देखते हुए इन्हें धप्रबंधमुक्तक' कहना उपयुक्त होगा । इस वर्ग की प्रथम रचना रामाधीनदास कृत “रामायण दिग्विजय कवितावली' ( १९१८ ) है जिसमें तुलसी की 'कवितावबली” की भाँति संपूर्ण रामकथा को सात कांडों में प्रस्तुत फिया गया हे। इसकी स्वना बजभाषा में हुई है और कवित्वगुण की €ष्टि से यह एक सामान्य कृति है। इस प्रकार का दूसरा उल्लेखनीय काव्य (शामचरितचंद्रिका! ( १६१६ ) है जिमतमें दशरथ, फोशल्या, राम, जानकी, लक्ष्मण श्रादि रामकथा संबंधी पच्चीस पात्रों फा चरित्रवशन है। कथा के पूर्वापर क्रम का निर्वाह न होने पर भी इस कृति की पृष्ठभूमि में प्रबंधतत्व विद्यमान है, अ्रतः इसे केवल मुक्तक काव्य की श्रेणी में रखना उचित न होगा। इस शेली की विशेषतः प्रसिद्ध रचना जगननाथदास 'रत्नाकर कृत उद्धवशतकः ( १६१८-१६ ) है। यद्यपि इसमें पूर्ववर्ती काल के दस बारह कवित्तों के समावेश की संभावना भी हो सकती है, तथापि कुल मिलाकर यह आलोच्य युग की ही कृति है। भावब्यंजना की उत्कृष्टता, अनुभूति [ भाग १० ] कवि ओर कृतियाँ : एक सर्वेक्षण क्‍ ४७ की मार्मिकता, प्रबंधगुण का श्रविच्छिन्न निर्वाह, ब्रजमाषा का ललित प्रयोग अपदि इस काव्य की अ्रन्यतम विशेषताएँ हैं। श्रमृतलाल माथुर फी त्रजमाषाकृति श्रीमद्रामरसामृतः ( १७१४ ) भी इस शैली की उल्लेखनीय रचना है जिसे कवि ने “श्रम्नत सतसई!” की संज्ञा भी दी है। यह रामकथा पर आधारित एक- मात्र सतसई है जिसमें संपूर्ण कथा का सात कांडों में यथोचित निर्वाह हुआ है। मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित द्वापरः (१६३६) भी इस शेली की विशिष्ट कृति है | इसकी रचना 'श्रीमद्मागवत” के आधार पर सोलह प्रकरणों में हुई है ओर प्रत्येक प्रकरण में किसी एक पात्र के चरित्रवर्शन को प्रमुखता दी गई है। कृष्ण के जीवनचरित से इन पात्रों की संगति कुछ इस प्रकार जुड़ी हुई है कि इनके प्रबंधगुण को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रसं- गोदभावना संबंधी मॉलिकता ओर शिव्पविषयक जागरूकता फी दृष्टि से भी यह एक सराहनीय रचना है | भुकतक काव्य इस युग में महाकाव्य, खंडफाव्य श्रादि उपयुक्त काव्यरूपों के ज्षेत्र में कवियों ने जिस विपुल कृतित्व का परिचय दिया उसमें जितनी विदग्घता थी उतनी ही गतानुगतिकता भी । इसमें संदेह नहीं कि कुछ कवियों ने मावना, विचार और अ्रभिव्यंजना की दृष्टि से नए दिशासंकेत प्रस्तुत फिए. किंतु ऐसे सभी कवि पहले मुक्तककार थे, बाद में प्रबंधकाव्यों के सचयिता। श्रभिप्राय यह कि छायावाद युग में जिन नवीन काव्यप्रदृत्तियों का उदय हुआ वे पहले मुक्तक काव्य में ही व्यक्त हुई थीं। यद्यपि प्राचीन काव्यपरंपरा भी समानांतर रूप में गतिशील रही, तथापि इसमें संदेह नहीं कि कथ्य और कथनशेली में . नवीन भंगिमा के समावेश की जागरूकता निरंतर बढ़ रही थी। इस काल में देशप्रेम, भक्तिभाव, प्रकृतिसोंदय, सामाजिक परिवेश आदि फो लेकर बहुसंख्यक - कविताओं की स्वना की गई जिनमें व्यापक वेविध्य मिलता है । यह स्वाभाविक भी था क्योंकि स्फुट कविताओं की रचना किसी एक काल में नहीं हुआ करती । दिलों, महीनों और वर्षो के अंतराल से रचित कविताएँ जब किसी एक संकलन में प्रकाशित होती हैं तब उनमें गहरे ओर फीके दोनों तरह के रंग होते हैं। इस काल में मी गीत ( शोकगीति, संबोधनगीति, पत्रगीति आदि ), प्रगीत, पाख्य मुक्तक, सतसई प्रभ्वति संख्याश्रित मुक्तक, सॉनेट, रूबाई आदि काव्यरूपों की विपुल परिमाण में रचना हुई | इस दिशा में योग देनेवाले सभी कवियों का लेखा- जोखा प्रस्तुत करना संभव नहीं है, अतः: “हरिश्रोष', मैथिलीशरण, 'रत्नाकर?; प्रसाद; माखनलाल चतुर्वेदी, रामनरेश त्रिपाठी, “निराला”, पंत, सियारामशरण, _ महादेवी, 'दिनकर', उदयशंकर भट्ट, 'बच्चन', भगवतीचरण वर्मा, “अश य', के ... हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास नरेंद्र शर्मा, अचल' प्रभति मुख्य कवियों श्रौर अनेक अन्य कवियों की काव्य- प्रवत्तियों का समस्वित मूल्यांकन उचित होगा। यहाँ यह उल्लेख अ्रप्रासंगिक न होगा कि इस युग में कुछ ऐसे कवितासंग्रह भी प्रका शित हुए जिनको सभी या अधिकांश कविताएँ १६१८ ई० के पूर्व की हैं। रामचरित उपाध्याय की राष्ट्रभारतीः ६ १६२१) और राय कृष्णदास की “भावुक! (६२८ ) ओर अजरज' ( १६३६ ) इसी प्रकार की कृतियाँ हैं। स्वभावत: हमने ऐसी कबिताओं को अपने विवेचन का श्राधार नहीं बनाया है। दूसरी ओर, १६३८ ई० के बाद भी ऐसे अनेक कवितासंकलन प्रकाशित हुए. जिनमें आलोच्य युग को कविताएँ संकलित हैं। इस युग के मुक्तक काव्य को विवेचना के लिये उपलब्ध कविताओं का निम्नलिखित शीर्षकों के श्रतगंत समन्बित विश्लेषण उपयुक्त : होगा--राष्ट्रीय सांस्कृतिक दृष्टि; भक्तिमाव और रहस्थवाद, नेतिकता और पमाजचित्रण, वैयक्तिक चेतना) प्रेम और सौंदर्य, प्रकृतिचित्रण | छायावादयुग में राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना से समन्वित काव्यग्र थों तथा स्फुट कविताओं की व्यापक परिमाण में रचना को गई जो तत्कालीन सामाजिक राजनीतिक खागरूकता का अ्रनिवार्य परिणाम था। सांप्रदायिक संकौर्णता और प्रादेशिकता की स्थूल स्रीमाओं से रूपर उठकर इस युग के कविश्रों ने भारत के प्राचीन गौरव की पृष्ठभूमि में श्रखंड राष्ट्रीयता का मंत्र दिया जिससे श्नमानस में देशर्भाक्त फी तरंगें लदराने लगीं। शिवदास गुप्त 'कुसुम' की कुसुमकली! (१६२० ) ऐसी ही ऋृति है जिसमें अन्यव्षियक कविताश्रों के अ्रतिर्क्ति विशेषत; कांग्रेस, लाज्मपतराय, जलियाँवाला बाग आदि सामानिक विषयों पर देशभक्तिपरक कविताओं को स्थान प्राप्त हुआ है । इस दिशा में दूसरी उल्ले खनीय रचना गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' द्वारा त्रिशूल! उपनाम से रचित 'राष्ट्रीय मंत्र! ( १६२१ ) है जिसमें राष्ट्रीय गीत, सत्याग्रह, ग्रसहयोग, स्वतंत्रता आदि सात विषयों से संबद्ध कविताएँ संफलित हं। गोकुलचंद्र शर्मा फो 'पद्म- प्रदीष' ( १६२१ ) भी इस शेली की उल्लेखनीय कृति हैं। इसमें स्वदेशवंदना, राष्ट्रभाषा; राष्ट्रगीत श्रादि विषयों पर पुनरुत्यानमूलक जातीयता श्रयवा राष्ट्रीयतापरक कविताएँ संकलित हैं। बुद्धदेव विद्यालंकार ने “बिखरे हुए फूल” ( १६२२ ) में जातीय गौरव और गुरुकुल से संबद्ध फविताश्ों को स्थान देकर देश की सांस्कृतिक गरिमा को पुनरुत्थानवादी इृष्टिकोश से प्रस्तुत किया है। बुधचंद्र पुरी की श्री फामघेनु दशा? ( १६२३ ) भी ऐसी ही सांस्कृतिक प्रष्ठभूमि पर आधारित है। इस संदर्भ में इरिश्रोध/ की “चोखें चौपदे” श्रथवा “हरिआ्रौध इजारा? ( १६२७ ) ओर “पद्मप्रमोद! ( १६२८ ) शीर्षक रचनाओं का उल्लेख भी . प्रासंगिक न होगा। इनमें अन्यविषयक कविताओं के अ्रतिरिक्त जातीयता [ भाग १०] कवि और कृतियाँ : एक सर्वेक्षण ४6 ओर देशप्रम को व्यक्त फरनेवाली कुछ कविताएँ भी संकलित हैं जिनमें विवरणबद्धता ओर उद्बोधन दोनों का एक साथ समावेश है। मैथिलीशरण गुप्त फी 'स्वदेश संगीतः ( १६२५ ) ओर “हिंदू! (१९१७ ) भी इसी वर्ग की रचनाएं हैं जिनमें सामयिक सामाजिक राजनीतिक विषयों, जातीय गौंरव, प्राचीन और नवीन संस्कृतियों में समन्वय की कामना आदि फो आदर्शवादी शेली में अंफित किया गया है, किंतु इतिबृत्तात्मक वर्णनपद्धति के फलस्वरूप इनमें उत्कट प्रभावव्यंजकता नहीं है। इनकी तुलना में रामनरेश त्रिपाठी ने 'मानसी? ( १६२७ ) में देशभक्तिपरक कविताओं की कहीं अधिक मार्मिक शैली में रचना फी है| वियोगी हरि की “वीर सतसई” ( १६२७ ) भी इसी शैली में रचित ब्रजभाषा कृति है जिसमें प्रसिद्ध वीरों, शस्त्रों, वीरभूमियों, जातीय गौरव आदि फो प्रकट करनेवाले दोहे संकलित हैं। इनमें से अ्रधिकांश में देशभक्ति का ओजपूर्श प्रतिपादन हुआ है। छायावादी कवियों में राष्ट्रीय सांस्कृतिक दृष्टि से काव्यर्चना की ओर मुख्यतः प्रसाद ओर “निराल!? ने ध्यान दिया। प्रसाद ने 'स्कंदगुस!ः ( १९२८ ) श्रौर “चंद्रगुप्त' ( १६३१ ) के कुछ गीतों और 'लहदर' (१९३३) की “शेरसिंद का शस्त्रसमपंण' शीर्षक कविता में राष्ट्रीय मावनाओं का ओजस्वी प्रतिपादन किया है। ऐतिहासिक संदर्भों से युक्त होने के कारण इन काव्यप्रसंगों में सांस्कृतिक दृष्टि का भी सहज उन्मेष रहा है। 'परिमलः ( १६२६ ) में संकलित “निराला? की “जागो फिर एक बार! शीर्षक कविता भी इसी शैली में प्रणीत है। इसी समंय फी एक श्रन्य कृति केदारनाथ मिश्र प्रभात! कृत “ज्वाला? ( श्६२६ ) में भी श्रोजपूर्ण राष्ट्रीय गीत संकलित हैं| दूसरी ओर, बुद्धिनाथ का “केरव! ने सामयिक प्रभाववश “खादी लददरी” ( १६२६ ) शीषक ब्रजमाषा काव्य में खादी- प्रचार पर बल देते हुए उसी फो राष्ट्रीय दृष्टि के उन्मेष में सहायक माना है। इसी प्रकार वियोगी हरि की ब्रजभाषा कृति “मंदिरप्रवेश! ( १६३० ) में अछूतों के मंदिरप्रवेश की समस्या का गेय पर्दों में संक्तिप्त। किंतु मार्मिक चित्रण हुआ है। महाबली सिंह के ब्रजभाषा काव्य “गांधी गौरव” ( १६३० ) श्रोर महेशचंद्र प्रसाद द्वारा क्रमशः ब्रजमाषा ओर खड़ी बोली में लिखित “स्वदेश सतसई” ( १६३० ) ओर «“कांग्रस शतक! (१६३६ ) में भी गांधीवाद के प्रभाव को प्रत्यक्ष रूप में देखा जा सकता है | इनमें गांधी जी की महिमा, खद्दर, कांग्रेस, मातृभूमि, अ्रस्पृश्यता आदि विषयों पर देशभक्तिपूर्ण विचारों का समावेश मिलता है। स्पष्ट है फि इस वर्ग की कृतियों में युगधर्म के निर्वाह पर बल रहा है और गांधीदर्शन फो केवल बोद्धिक धरादल पर ग्रहण न करके उसके भावुकतापूर्ण बा | भू ० पड द हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास व्यावहारिक रूप की भी प्रतिष्ठा की गई है। किंत, इनमें चिंतन फी गरिमा ओर अनुभूति की रागात्मकता का वैसा स्पर्श नहीं मिलता जैसा सियारामशरण गुप्त की 'दूर्वादलः ( १६१५-२४ ), पेय ओर बापू” ( १९३७ ) शीर्षक कृतियों में प्राप्य है। गुप्त जी ने गांधी जी के सिद्धांतों के अ्रनुरूप अहिंसा, मानववाद, सांस्कृतिक जागरूकता आदि का कहीं विचारपरक झौर कहीं भावव्यंजक शोली में प्रायः प्रगीतपद्धति में निरूपण किया है । राष्ट्रीय सांस्कृतिक धारा के कवियों में सुभद्वाकुमारी चौहान का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। उन्‍होंने पमुकुल” ( १६३० ) में 'काँसी की रानी! प्रशृति विषयों पर सरल और श्रोजस्वी कविताओं की रचना की है जो तत्कालीन जन- मानस पर बहुत समय तक छाई रहीं। इस संदर्भ में माखनलाल चतुबंदी की श्रोजमलफ राष्ट्रीय कविताओं का उल्लेख भी शआवश्यक है। यद्यपि प्रस्तुत अवधि में उनका कोई भी काव्यसंकलन प्रकाशित नहीं हुआ तथापि परवर्ती प्रफाशित रचनाओऔं--हिमकिरीटिनी ( १६४२ » हिमतरंगिनी ( १९४८ ), माता (१९५१ 9 समर्पण ( १६५६ ) युगचररा ( १६५६ )--में कुल मिलाकर ऐसी शताधिक कविताओं फो स्थान प्राप्त हुआ है जिनका रचनाफाल १९१८-१६३८ ० है। उन्होंने यौवन की उमंग, स्वातंत्र्यतंघ्ष की उत्कट प्रेरणा, शीशदान आदि के चित्रण द्वारा राष्ट्रीय मनोदृति को रागात्मक शेली में व्यक्त किया है। शढ़िविद्रोहक, वीरोत्साइ ओर बलिदान फी प्रेरणा का कुछ ऐसा ही स्वरूप जगन्नाथ- प्रसाद 'मिलिंद” कृत “जीवनसंगीत” ( रचना १९२२-३६, प्रकाशन १६४० ) में व्यक्त हुआ है। अमिराम शर्मा और प्रशयेश शर्मा की संमिलित कृति 'मुक्त संगीतः ( १६३१ ) में भी मुख्य रूप से इसी शैली की देशप्रम संबंधी फविताश्रों फो स्थान प्रांस हुआ है। कुछ कवियों ने समकालीन राष्ट्रीय चेतना के स्थान पर जातीय गौरव फो प्रकट करनेवाले प्राचीन वीररसात्मक संदर्भो', शिवाजी जैसे वीरों के स्तवन, जातीय त्योहारों आदि पर उद्बोधनात्मक कविताओं फी रचना करके प्रस्तुत काव्यधारा के विकास में योगदान किया है। पुरोहित प्रतापनारायण ( काव्यकानन १९३२ ) ओर प्रशयेश शुबल ( निशीथिनी १६३३ ) फो कविताए' इसी प्रकार की हैं। इसके विपरीत केवल समकालीन संदर्भों' फो ध्यान में रखकर भी काव्यरचना की गई। गांधी जी की ग्रामोदय औ्रोर ग्रामस्वराज्य योजना के प्रभावस्वरूप दौनानाथ अ्रशंकः द्वारा लिखित “कृषिकोमुदी! ( १६३३ ) ऐसी ही रचना है जिसमें कृषकों की सामाजिक स्थिति के उन्नयन के लिये उन्हें व्यावहारिक शिक्षा दी गई है। पुरुषाथवती की 'अंतवेदना! ( १६३३ ) में भी सामयिक : राष्ट्रीय चेतना को प्रकट करनेवाली कुछ फविताए संकलित हैं जिनपर छायावादी _ र्वनाशिलप का प्रत्यक्ष प्रभाव है। प्रादीन शैली की स्वनाओं में केशवदेव शास्त्री लय पक पा ि दल | भाग १० ] कंबिं और कृतियाँ : एक संवंचण कृत 'शिवाबाजि बावनी? ( १६३४ ) उल्लेखनीय है। यह भूषण फी 'शिवा बावनी” की पद्धति पर लिखित वीररसपूर्णा काव्य है जिसमें शिवाजों के घोड़े के युद्धस्थल में जाने, उसके आतंक, ठापों आदि का ब्रजभाषा में बोवन छुंदों में वर्रन हुआ हैं। उमाशंकर वाजपेयी 'उम्ेश” के ब्रजमाषा काव्य 'ब्रजभारती? ( १९३६ ), श्रीनारायण चतुर्वेदी श्रीवरः कृत 'रत्नदीप' ( १६९३६ ), पुरोहित प्रतापनारायण कृत “मन के मोती? ( १९३६ ) आदि में भी अन्यविषयक फविताशों के साथ देशभक्तिपरक, सामाजिक अथवा ऐतिहासिक कविताएँ संकलित हैं जिनमें वातावरणा की श्रोजस्विता, त्याग, बलिदान की प्रेरणा आदि का समावेश हे। ऋंत में राष्ट्रीय काव्यधारा के विकास में योग देनेवाले दो प्रमुख कवियों-- 'नवीनः और “दिनकर” का उल्लेख अपेक्षित है। “नवीन! की “कुंकुम' (१९३६) में अन्य विषयों की कविताओं के साथ ही १९३८ के पूव का अश्रनक राष्ट्रीय कविताएं भी संकलित हैं। इनमें क्रांति की उग्र भावना अथवा विद्रोह के प्रल्य- गजन को श्रोजस्वी वाणी में व्यक्त फिया गया हे । “कवि कुछु एसा तान सुनाश्रो, जिससे, उथल पुथल मच जाए? आदि पंक्तयों की रचना इसा फाल में की गई थी | इस अवधि में “दिनकर” के भी दो काव्यसंकलन प्रकाशित हुए--रेंगुका (१६३५) ओर हुंकार ( १९३६ )। इनमें तत्कालीन राजनीतिक संवष, आ्िक विषमताश्रों, विदेशी! शासन की दमननोति आदि का चित्रण करते हुए विद्राह का श्राद्धान॑ किया गया है। कुल मेलाकर यह कहा जा सकता दें के इस युग म॑ राष्ट्रांय जागरण की पृष्ठभूंम मे वोररघात्मक काव्य को स्फुट ओर सानयोंजत दानों रूपा में व्यापक रचना हुई और कवियों ने प्राचीन सांस्क्ांतेक गोरव तथा उत्कंठ वौरत्व के श्रादशवादो चित्रण के साथ हां समकालीन देशद्शा की यथाथवादी शेलां में भा निरूपित किया । ( आ ) भक्तिसाव और रहस्यवाद्‌ 7 इस युग में आध्यात्मिक ढंग की फविताश्रों की रचना दो रूपों में की गई--कुछ कांवयों ने पूव्ववर्ती काव्य में उपलब्ध पद्धति के श्रनुरूप मांक्तभाव को भ्रद्धा-स्दुति-मूलक रूप म॑ प्रकं८ किया ओर कुछ न छायावादा रहस्यद्शन फो अपनाकर अपराक्तु अनुभूति फी सांकेतिक तथा रागात्मक अभिव्याक्त कौ प्रणाली अ्रपनाई। इन दोनो का समानांतर रूप में विकात हुआ ओर यह कहना ठौक न होगा कि कवियों ने इनमें से किसी एक के प्रति विशिष्ट श्रभिरुचि प्रकट को क्योकि जहाँ रहस्यवाद की मधुरिमा ने अनेक कवियों को आइट्ट किया वहाँ उसपर अ्रस्पष्टता का आरोप लगानेवालों को भी कमी नहीं थी। भक्तिभावमयी कविताओं की परंपरागत ढंग से रचना करनेवालों में सर्वप्रथम मुकुठ्धर पांडय का हर हिंदी साहित्य का इंहत्‌ इतिहास नाम आता है जिनकी ध्रार्थना! ( सरखती, अग्रेल १६६१९ ) ओर 'अधघोरा आँखें? ( श्री शारदा, फरवरी १६२१ ) शीर्षक कविताएँ इसी शेली में रचित हैं । बॉकेबिहारीलाल बाँके पिया? की श्री राधारमशविहास्माला! ( १६२१ ) ब्रजमाषा की इसी फोटि की रचना है जिसमें राधाक्ृष्णु की विभिन्न लीलाओं का माधुयमक्तिमुल॒क चित्रण है। मक्तिक्षेत्र में ब्रजमाषा में इनकी कुछ अन्य स्वनाएँ भी प्राप्त होती हैं--वाणीविनोद! ( १६२६ ) में ऋृष्णमक्तिपरफ दोहे हैं, कलंकर्ंमन लीला” (१६३४) में राधाकृष्ण औ्रोर राम से संबद्ध तीन लीलाओं को कलियुग के पापनाश की प्रेरणा से चित्रित किया गया है और “श्री ब्रज-माधुय-दर्पएा! (१६३७ ) में ब्रजमूमि की महिमा, रासस्थलों, मंदिरों आदि का भक्तिभावयुक्त वर्शन-विवरणु-परक चित्रण है। इन्हीं की भाँति ब्रजभाषा में भक्तिकाव्य की रचना करनेवाले एक अन्य कवि रामावतारदास 'रामायणी थे जिन्होंने 'रामसली” उपनाम से काव्यर्चना की है। इनकी तीन कृतियाँ उपलब्ध होती हैं जिनका प्रकाशन १६२४ ६० में हुआ था--श्री रामा- वतार मज्नन तरंगिणी”, 'रामसखी शतक, “अश्रात्मबोध तरंगिणी? । इनमें रसिकता- मयी रामभक्ति, नीति ओर वेदांतचर्चा फो स्थान प्राप्त हुआ है। नंदलाल माथुर कृत शिवभक्तिपरक ब्रजभाषा काब्य शंकर शतक! ( रचना--१६२४, . प्रकाशन--१९३३ ) भी इसी वर्ग की रचना है। इसी प्रकार वियोगी इरि ने अनुराग बाटिका? ( १६२६ ) में ब्रजमाषा में कृष्णभक्ति संबंधी दोहों श्रोर पदों की रचना की है। प्रोढ़ फवित्व, सरत मधुर आत्मनिवेदन और अ्रमरगीत प्रसंग इसको मुख्य प्रवृत्तियाँ हैं। ऐसी ही एक शअ्रन्य कृति छोटेलाल राय की “भजन सांगीत रामायण” ( १६३६ ) है जिसमें रामजन्म की कथा को ब्रजमाषा में व्शन विवरणात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया है। इसी प्रकार की एक साधारण कृति 'मोइन की वूती? ( १९२६ ) में साह मोइनराज ने राम, कृष्ण, गणेश श्रादि की स्तुति में काव्यरचना की है। _डपयु कत रचनाश्रों में मक्ति को धार्मिक मनोबृूत्ति के श्रर्थ में ग्रहण करने की पद्धति अपनाई गई है, फलतः इनमें आ्रात्माभिव्यक्तिमूलफ रागात्मक प्रसंगों की अपेक्षा ईश्वरीय लीलाओश्रों को मक्तिभाव से प्रकट करनेवाले स्थल श्रधिक हैं। इसी प्रकार रामनरेश त्रिपाठी ( मानसी, १६२७) और इरिश्रोध' ( पद्यप्रमोद, १६२८ ) ने भी कुछ स्फुट कविताओं में विश्वप्रपंच, ईश्वर की सवव्यापकता; भक्ति के महत्व आदि को प्रकट फिया है। दामोदरसहाय सिंह “कविकिकर! ने भी “सुधा सरोवर” ( १६२८ ) में कृष्णमक्ति और राधाक्ृष्ण फी लोलाओं का ब्रजमाषा में परंपरागत शैली में वर्णन किया है। स्वामी भोले बाबा कृत “वेदांत छंदावली! ( १९२० ) ओर “श्रुति की टेर! ( १६३१) भी इसी | भांग १ ० है कवि भ्रौर कृतियाँ एक सर्वेक्षण 3 प्रकार फी रचनाएं हैं जिनमें वेदिक विचारधारा के अनुरूप अध्यात्मतत्व को सरल माषा में प्रस्तुत किया गया है। इस दिशा में तुलसीराम शर्मा 'दिनेश' की ध्मक्त भारती! ( १९३१ ) भी उल्लेखनीय है जिसमें श्र॒व, प्रह्मद, गजेंद्र, शबरी, अंबरीष, अ्रजामिल और कुंती फी मद्दिमा को श्रद्धापूवक व्यक्त किया गया है | कुछ कवियों का ध्यान गीता फी महिमा को प्रकट करने की ओर मी गया । भगवतीलाल वर्मा “पुष्प फी कृति “ुदयहूक' (१६३१ ) में संकलित गीतास्मृति! शीषफ कविता इसका उदाहरण है। दतिया के राजकवि फाशीप्रसाद द्वारा रचित “महावीर-मोहन-माला? ( १६३२ ) भी इसी शैली की रचना हें जिसमें मुख्य रूप से इनुमान की महिमा का वर्शान करते हुए स्फुट रूप में राम, कृष्ण आदि फी स्तुति भी की गई ह। हीरासिह ध्वंद्र” को “ईश्वररहस्य ( १९३१२ ) भी ऐसो ही कृति है जिसमें दाशनिक चिंतन के स्थान पर. भावुकता श्रोर श्रद्धा का स्वर मुख्य रहा है | चंद्रभूषण त्रिपाठी “प्रमोद! की कृति आमा? ( १९३३ ) में भी भक्तिभाव और आत्मज्ञान संबंधी कुछ कविताएँ संकलित हैं। इसी प्रकार गोपोलशरण सिंह ने “ज्योतिष्मती! ( १६३८ ) में जीवन के फरुण यथाथ को भक्तिभाव में पयवसित करने का संदेश देने के निमित्त कुछ कविताओं आर पदरशेली में रचित गीतों फो स्थान दिया है | इस युग की भक्तिभावमयी काव्यधारा के उपयुक्त विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है फि द्विवेदी युग की भक्ति-नीति-मयी फाव्यपद्धति इस थशु॒ग में भी सजीव रही | फिंतठु, छायावादो काव्यपद्धति से प्रभावित कवियों ने इस ज्षेत्र में ग्रभिनव दृष्टि अपनाई | सृष्टि के प्रति जिज्ञासा, प्रकृति में ईश्वरीय चेतना की व्याप्ति, रागात्मक अनुमति, विरह की सामिकता आर संकितिक शब्दावली वे व्यावतक उपादान सिद्ध हुए जिनसे छायावादी कवियों ने रहस्यवाद की भावभूमि फो स्वर देने का उपक्रम किया । 'पल्लव” की प्मौन निमंत्रण! (१६२३) जेंसी कविताओं के माध्यम मे पंत ने; 'पराग” ( १६२४ ) की कुछ कविताओं द्वारा रूपनारयण पांडेय ने ओर “नीहार!' ( १९२४-२८ ) के गीतों के माध्यम से महादेवी ने रहस्यथानुभूति को पहली बार नए रूपरंग में मुखरित फिया। इसके लिये उन्होंने प्रकृति में विश्वात्मा के साक्षात्कार की पद्धते अपनाई और अपनी भावनाओं में सोंदर्य, प्रेम तथा कल्पना: का यथोचित आधार लिया। प्रसाद ने लहर! ( १९३३ ) में ओर “निराला” ने “परिमल! ( १६२६ ) तथा गीतिका? ( १६३६ ) में इस शेली की कुछ स्फुट कविताओं का समावेश फिया। दूसरी आ्रोर, महादेवी ने रश्मि! ( १९३२ ), “नीरजा? ( १६३४ ) ओर '्सांध्य गौता. ( १६३६६ ) में तथा रामकुमार वर्मा ने अंजलि! ( १९३० ), रूपराशि' (१६३२ ), 'चिन्रेखा! (१६३५ ) ओर “चंद्रकिरण” (१९३६ ) में म्रुख्यतः (४ हु . हिंदी साहित्य का डेँहत्‌ इतिदास प्रकृतिपरक मधुर रहस्यवाद को वाणी दी | उनके काव्य में मुख्य रूप से निम्न- लिखित प्रद्ृत्तियाँ व्यक्त हुई हैं-प्रकृति के श्रात्मसाक्षात्कार द्वारा आध्यात्मिक अनुभूति प्राप्त करने की जिज्ञासा, अध्यात्मदशन संबंधी सूक्ष्म बौद्धिफ जिज्ञासाओओं फी विभिन्‍न पंगिमाओं में अभिव्यक्ति, दाशनिक चिंतन की मनोभूमि, श्राव्मसमपंण की भावना, गीति शैली | इस काल के अन्य कवियों में मैथिलीशरण गुप्त ने “मंकार ' ( १६२९ ) में रहस्यवादी पद्धति के अ्रनेक गीतों का समावेश किया है, किंतु मर्पादाबद्ध दृष्टिकोश के कारण न तो उनमें आत्माभिव्यक्ति फी वैसी तीव्रता है और न ही छायावादी शिल्प का वेसा उत्कर्ष। किंतु, बालकृष्ण शर्मा “नवीन! की रहस्यवादी कविताओ्रों में इन प्रवृत्तियों का अभाव नहीं है। हरिक्ृष्ण "प्रेमी! की “जादूगरनी! (१९३२ ) और “अनंत के पथ पर! ( १९३२ ) भी इसी शैली की रचनाएँ हूं जिनमें मावुकता तो हैं, किंठु शैली का उतना मादव नहीं । संभवत: इस काल के उत्तरवर्ती कवियों के लिये रहस्यवादी कविताएँ बहुत कुछ मनस्तोष का साधन बन गई थीं; उनमें अतरंग साधना की अ्रपेक्षा शेलीविशेष का श्रनुकरण करने की प्रवृत्ति अधिक थी। मृत्युंजय ( प्रताप, १६३४ ) ओर गंगाप्रसाद पांडिय ( पर्शिका, ६६३७ ) द्वारा महादेवी की शैली का प्रत्यक्ष अनुकरण इसका प्रमाण है । ( ३ ) नतिकता ओर समाजचित्रण . द्विवेदी युग में काव्य में नेतिक मूल्यों के समावेश को अनिवायतः महत्व दिया जाता था, किंतु स्वच्छुंदतावादी प्रवृत्तियों के आगमन के फलस्वरूप कवियों की दृष्टि वस्तुपरक न रहकर भाव ओर कल्पना की ओर अधिफाधिफ उन्मुख होने लगी । जीवनदर्शन फो एक इतिवृत्तात्मक प्रक्रिया मात्र न मानकर उन्होंने प्रकृति ओर समाज में अ्रविच्छिन्न संबंध स्थापित करने का यत्न किया और मानववादी मूल्यों की उदात्त भावभूमि पर स्थापना की। यद्यपि इस युग में चरित्रनिर्माणु पर बल देनेवाली पिछले खेंवे की रचनापर परा भी कुछ समय तक क्षीण रूप में विद्यमान रही, तथापि शीघ्र ही उसका स्थान वैयक्तिक वेतना से ! डा० लक्ष्मीनारायण दुबे ते 'बालकृष्ण शर्मा नवीन! : व्यक्ति एवं काव्य! में पृष्ठ ४५५-४६२ पर “नवीन' जी द्वारा इस काल में लिखित २१७ कविताओं की सूची दी है जिनमें से अनेक कविताएँ परवर्तों प्रकाशित रचनाओं--कुंकुम, क्वासि, . अपलक, हम विषपायी जनम के--में संकलित हैं । द [ भाग १० ] कवि और कृतियाँ : एक सर्वेक्षण भर अनुप्राशित मानववादी कविताओं ने ले लिया। इस दृष्टि से प्रथम उपलब्ध रचना बुद्धदेव विद्यालंकार की 'बिखरे हुए फूल” ( १६२२ ) है जिसमें जीवन और जगतू को श्रायसमाजी दृष्टि से देखने का यत्न किया गया है। दयाशंकर मिश्र शंकर! कृत सदाचार सोपान! ( १६२४ ) भी इसी शेंली की आदर्शवादी रचना है जिसमें ब्रजमाषा में नीतिपरक दोहों की रचना की गई है। महाराज राघवदास कृत 'दोहावली” ( १६२५ ) में भी इसी प्रकार के विभिन्नविषयक नीतिपरक दोहे हैं। साह मोहनराज ने भी 'मोहन फी तूती? ( १९२६ ) शीर्षक ब्रजमाषाकृति में संतवंदना संबंधी स्फुट छुंदों फी रचना करके इसी परंपरा का निर्वाह फिया है। बॉकेबिहारी लाल बाँके पिया' की “विवेक मंजरी” ( १६२८ ) भी ब्रजभाषा की ऐसी ही नीतिपरक रचना है। हरिश्रौ६' ने मी 'चोखे चौंपदे! ( १६२४ ) ओर “पद्म प्रमोद” ( १६२८ ) की कुछ कविताओं में जीवननिर्माण फौी प्रेरणा देनेवाले भावों ओर विचारों का समावेश किया है, किंतु इन दोनों कृतियों की शेली में ग्रतर है। जहाँ प्रथम कृति में वस्तुवादी ढंग से विषयविश्लेषण की प्रवृत्ति मुख्य है वहाँ दसरी में लाक्षशिकता ओर व्य॑ग्यप्रवृत्ति का आश्रय भी लिया गया है । पुरोहित प्रतापनारायशा की 'काव्यकानन! ( १६३२), रामेश्वर करुणा! की करुणा सतसह! ( ब्रज्ञणलाषा १६९३४ है। दुलारेलाल भागव द्वारा ब्रजमाषा में रचित दुलारे दोहावली” ( १६३४ ), किशोरीदास वाजपेयी फी ब्रजभाषाकृति पतरंगिणी! ( १६३६ ) और मैथिलीशरणा गुप्त की “मंगल घट! तथा 'ग्रहस्थगीता” ( १६३७ ) भी इसी शैली की रचनाएँ हैं। इनमें नीतिमलक उपदेशात्मक जृक्ति, धार्मिक संकीर्णाता के नाश की आवश्यकता, सामयिक सामाजिक जागति की प्रेरणा आदि का निरूपणा किया गया है जिसके लिये भावुकता की अ्रपेज्ञा अधिकतर विचारविश्लेषण की पद्धति अपनाई गई है। इस काव्यपद्धति के समानांतर जिस दूसरी भावधारा का उदय और विफास हुआ उसके अंतर्गत केवल सामाजिक स्थितियों के विश्लेषण की प्रणाली नहीं अपनाई गई; श्रपितु भावमुलक अंतदशन का ग्राभ्रय लेकर व्यक्ति और समाज के संबंधों पर विश्वमानवता के परिप्रेक्ष्य में विचार किया गया । वेसे तो इसकी झलक प्रसाद की भरना? ( १६१८) और रामनरेश त्रिपाठी फी मानसी' ( १६९२७ ) जेसी रचनाओ्रों में ही मिलने लगी थी, कित इसका परिपाक “निराला? ( अनामिका, १६२३ ) और पंत ( गुंजन १६३२ ) की रचनाओं में हुआ । युगवेतना की अभिव्यक्ति और मानववादी दृष्टिकोण से करुणा की व्याप्ति “निराला! की अन्यतम विशेषताएं, हैं जिन्हे 'परिमल' औ्रोर 'गीतिका? की कुछ रचनाओं में भी स्थान प्राप्त हुआ ह। दूसरी ओर पंत फी फविताओं में मानव मन के सोंदर्य के उद्घाटन और लोक ५६ हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास . मानवता के प्रसार की प्रबन्न चेतना दृश्टिगत होती है। इस प्रवृत्ति का परिपाक तो 'गुंजन! में हुआ है, किंतु पूरववर्ती रचनाओं--वीणा' ओर 'पल्लव?-को भी इस दिशा में विकास की कड़ी मानना होगा। इस संदम में 'थुगांतः ( १६३६ ) का उल्लेख भी श्रावश्यक है, क्योंकि इसमें कवि भाव ओर शिल्प की कोमल चेतना के स्थान पर यथार्थ के अधिक निकट रहा है। इसे छायावाद के अश्रंत की सूचना देनेवाला काव्य माना गया है क्योंकि इसमें 'गुंजन' का जीवनदशन नए श्रायाम में व्यक्त हुआ है। इस काव्यप्रवृत्ति के विकास में योग देनेवाले अन्य कवियों में नवीन! और सियारामशरण गुप्त ( पाथेय, १९३२३ ) भी उल्लेखनीय हैं। इन्होंने सामाजिक समस्याओं के निरूपण में रागात्मक अ्रनुभूति को बथेष्ट मद्दत्तर दिया अर्थात्‌ विचारतत्व की अभिव्यक्ति में वेयक्तिक प्रभावप्रतिक्रियाश्रों के प्रति उपेक्षा नहीं बरती | दूसरी ओर, उदयशंकर मद्‌ट ( मानसी १९३५५ विसजन १९३८ ) और “अंचल? ( मधूलिका, १६३८ ) फी कविताओं में समाजचित्रण का आधार किंचित्‌ मिन्‍न रहा है। जीवन का यथाथ चित्रण, परिवेश की समस्याश्रों के प्रति जागरूकता, रूढ्िविद्रोह, समाजव्यापी वेदना की करुण अ्रमिव्यक्ति, प्रकृति और जीवन का दाशनिक विवेचन आदि इनकी कविताओं के प्रमुख विषय रहे हैं । कहना न होगा कि पंत के 'युगांत' की भाँति इनकी कविताओं में भी प्रगतिवाद का पूर्वाभास विद्यमान है।' सामाजिक स्थितियों का निरूपण करनेवाली अ्रंतिम उल्लेखनीय रचना गोपालशरण सिंह की ध्सानवी” (१९३८ ) है। इसमें नारीजीवन की विविध अवस्थाओं ओर करुण अ्रनुभूतियों को लेकर सत्रह कविताओं की रचना की गई है जिनमें नायिकांभेद जैसी रूढ़ परिपाटी के स्थान पर मनोविश्लेषणपद्धति को अपनाया गया है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि इस युग में जहाँ कुछ कवियों ने नेतिकता श्रथवा आचारदरशन के प्रतिपादन फो प्राथमिकता दी वहाँ अनेक कवि मानववाद, प्रकृति और जीवन के सामंजस्य नारी जीवन की समस्याओं के भावुकतापूर्णा निरूपएा, जीवन के यथार्थ की करुणा ग्रभिव्यक्ति आदि की ओर भी उन्मुख रहे | (६ ) बेयक्तिक चेतना क्‍ इस युग में वेयक्तिक चेतना की अभिव्यक्ति के दो पक्ष निर्धारित किए जा सकते हैं--एकफ और वे कवि हैं जिन्होंने छायावादी पद्धति के अंतर्गत आत्मामिव्यक्तिमूलक कविताओं की रचना की और दूसरी और १६३२-३३ के आसपास से ऐसी काव्यग्रवृत्ति का उदय लक्षित होता है जिसमें छायावाद के अमृत सोदयचित्रों, रोमानी कल्पना, तरल भावप्रवशणुता आदि से पर्याप्त भिन्न शैली फो अनुभूतिपरफ कविताएँ प्रस्तुत की गई' | पहले बर्ग के अंतर्गत प्रकृति [ भाग १० ] कवि और कृतियाँ : एक सर्वेक्षण पूछ प्रणय, रहस्यात्मफ अनुभूति ओर जीवन के करुण विषाद फो लेकर प्रसाद, “निराला? आदि छायावादी कवियों ने वेयक्तिक स्तर पर रागात्मक प्रतिक्रियाएँ प्रकट कीं, फिंठु मानवीकरण के मोह, कल्पना की बहुलता ओर अभिव्यक्ति की अतिसांकेतिकता के फलस्वरूप इनमें अनुभूति की प्रखरता कहीं कहीं ज्ञीण हो गई है। ये प्रवृत्तियाँ पंत, महादेव्ी ओर रामकुमार वर्मा की कविताओं में तो लक्षित होती ही हैं, निम्नलिखित कवियों ने भी प्रायः छायावादी प्रभावसूत्र के अंतर्गत व्यक्तिवादी काव्य की रचना की है--रामाज्ञा द्विवेदी “समीर ( सौरम, १६२५ ), सत्यप्रकाश ( प्रतिबिंब, १६२७ ), राय कृष्णदास ( माबुक, १६२८ 9 शांतिप्रिय द्विवेदी ( नीरब, १९१९), अज्ञय ( भग्नदूत, १९३३ ), जनादन प्रसाद कला द्विजा ( ब्रनुभूति, रचनाकाल १९२७ १६३०, प्रकाशन १६३३ ), यमुनाप्रसाद चोधरी 'नीरज! ( द्रमदल, १९३६ ) नरेंद्र ( 'वनबाला' की स्फुट कविताएँ, १६३७ ), सूर्यदेवी दोछ्ित 'उषा? ( नि्रिणी, १६३७ ) | इन्होंने सामाजिक यथाथ के स्थूल रूप के प्रति विशेष आकर्षण न रखकर अपने परिवेश के प्रति अंतरंग मावात्मफ प्रतिक्रियाश्ों फो वाणी दी। प्रकृतिचेतना, रहस्यानुभूति और प्रशयभाव इस प्रकार की मावाभिव्यक्ति में सहायक उपकरण रहे | किंतु सूक्ष्म कल्पना; रूपक, प्रतीक ओर लाक्षुशिकता के फलस्वरूप ये कविताएं प्रायः सुबोध नहीं थीं । फलस्वरूप इनके मध्य से उस कांव्यसरशि का विफास हुआ जिसके अ्र्रणी कवि “बच्चन! हैं। उन्होंने छायावादी भावों का निश्रेध न करने पर भी अमूर्त सोंदय के स्थान पर अनुभूति की प्रत्यज्षता और शैली की स्प॒ष्टता पर बल दिया। व्यंजना का विरोध न होने पर भी उनकी रचनाओं में उसका बेसा महत्व नहीं रहा। ध्यारंभिक रचनाएँ?, तेरा हार! ( १६३२ ), 'मघुशाला' (१९३१५ ), “मघुबाला! (१६३६ )+ मधुकलश!' ( १९३७ ) ओर 'निशा निमंत्रण” ( १९३७-३८ ) उनको ऐसी ही रचनाएं हैं । इनमें जीवनसंघरष, प्रणय, प्रकृति आदि के प्रति कवि की रागात्मक अतिक्रियाश्रों का प्रतिफलन है। इस प्रकार इनमें बहिमुंखी ओर अंतमु खी दोनों प्रफार के चित्र हैं और आशा तथा निराशा, वेदना तथा इंद्व दोनों का संवेदनापूरों चित्रांफन किया गया है। आत्मसाक्षात्कार की प्रक्रिया अथवा प्रकृत अनुभूति उनकी फविता की मूल शाक्ति है, कितु कहीं कहीं कल्पना की छठा भी सहज ही मोह लेती है। मगवतीचरण वर्मा की 'मधघुकण! ( १६३२) और प्रेमसंगीत' ( १६३७ ) भी इसी काल की रचनाएँ हैं। इनमें प्रेम ओर भावुकता के अतिरिक्त विचारतत्व का समावेश भी है; फलतः जीवन फी स्वस्थ अभिव्यक्ति के प्रति कबि की विशिष्ट सजगता लक्षित होती है। नरेंद्र शर्मा की 'शूल फूल” १०-८ रे हिंदी साहित्य का बृहदत्‌ इतिहास किक) ( १६३३ ), 'प्रभात फेरी! ( १६३८ ) और प्रवासी के गीता ( १६ ८) थ में भी कवि की अ्रनुभूति कल्पना ओर रागात्मकता के अलोफ में व्यक्त हुई है | इनमें प्रणय की स्वच्छुंदता ओर विरह फी मार्मिकता का स्थान मुख्य रहा है, फलतः कवि के संवेदनशील व्यक्तित्व की भाँकी प्रायः सबंत्र देखी जा सकती है । पद्मकांत मालवीय की कविताओं में भी आत्माभिव्यक्ति का स्वर प्रमुख रहा है। प्याला! (१६३३ ) श्रात्मविस्मृति था रुबाइयाते पद्म! ( १६३३ ) ओर “आत्मवेदना' ( १६१३ ) में उन्होंने श्रनुभूति की विविधतामयी सजीवता, बेदना की तीव्रता, माधुय, व्यंजनावेशिष्टय आदि फो भावुकतापूर्ण वाणी दी है। उदयशंकर मदठ की 'राका! (१६३१ ) 'मानसी! (१६३५ ) ओर (विसर्जन! ( १६३६ ) में मी वेदना। अनुभूति ग्ोर श्रात्माभिव्यक्ति का प्रसार रहा है, किंतु उन्होंने बौद्धिफ विश्लेषण की पद्धति को कुछ अधिफ अपनाया है जिससे उनकी कविताएँ उतनी सहज नहीं रहो हैं। इस घारा के विकास में योग देनेवाले श्रन्य कवियों में सियारामशरण गुप्त कृत “विषाद” ( १६९२५) में फरुण रस की पंद्रह कविताएँ संकलित हूँ जिनको रचना पत्नी की मृत्यु के बाद व्यथित मन से की गई थी। दूसरी ओर “दिनकर” का आत्माभिव्यक्तिमूलक श्रोजस्वी स्वर है जो 'रेणुका? ( १६३५ ) ओर “दंद्रगीत! ( रचना--१६३२-३९, प्रकाशन १६३६ ) में व्यक्त हुआ है। अन्य कवियों में होमवती की “उद्गार' (१६३६ ) ओर उपेंद्रनाथ पअ्श्क' की प्रात प्रदीए” ( १९४७ ) की प्राय: सभी फविताओं में जीवनव्यापी वेदना, करुणा ओर अनुभूति फी मार्मिकता व्याप्त है। मनोरंजन की “गुनगुन! ( १९३७ ) भी इसी भ्रणी की रचना है जिसमें आत्मपरिचय, मधुर अनुभूति आदि का समावेश है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि प्रत्यक्ष अनुभूति पर बल देनेवाली बेयक्तिक काव्यधारा का विकास छायावाद को श्रात्मामिव्यक्तिमूलक कविताशोों का सहज परिशाम था जिसका परवर्ती युग में ओर भी उत्कर्ष हुआ | (उ) प्रम और सोदय इस युग में प्रेममूलक कविताओं फी रचना दो रूपों में की गई---कुछ फवियों ने भारतेंदु युग तक की परंपरा के अनुरूप श्ृंगारकाव्य की रचना फी और कुछ ने स्वच्छुंदतावादी रोमानी तत्वों के अनुसार प्रेम और सौंदर्यपरक रचनाएँ प्रस्तुत की । प्रथम वर्ग कौ सभी रचनाएं ब्रजभाषा में लिखित हैं और उनमें प्रायः राधा कृष्णु-प्रेंम की पृष्ठभूमि में विभिन्‍न भावदशाओं को प्रकट किया गया : है । ब्रह्मदतत शर्मा शशिशु! की 'मिकुंजमिलन! ( १६२७ ) ऐसी ही ऋृति है जिसमें राधा-कष्ण-मिलन के प्रसंग फो भावुकतापूर्बक चित्रित किया गया है। दामोद्रसहाय सिंह 'कविकिंकरः ने भी 'सुधासरोवरः ( १६२८ ) में गर्विता, मानिनी, श्रादि | भांग १० ] क्ांव और कृतियाँ : एक स्वक्षण है नायिफाओं पर प्राचीन शैली में छुंदरवना की है। 'रुनाकर! की 'प्रकीर्ण पद्यावली? ( १६३०-३२ ) में भी रूपचित्रणा, राधा-कष्ण-प्रेम आदि से संबद्ध कुछ स्‍्फुट छुंद संकलित हैं, भले ही उनमें 'उद्धवशतक” जेसी मार्मिकता नहीं है।' इन कवियों में कहीं कहीं रीतिकाल का प्रत्यक्ष प्रभाव भी लक्षित होता है। अंबिकाप्रसाद वर्मा दिव्य' की “दिव्य दोहावली' ( १९३६) में रूपचित्रण और विरहवर्णान में बिहारी की शेली के अनुकरणा का प्रयास इसका उदाहरण है। इसी प्रकार किशोरीदास वाजपेयी ने भी तरंगिणी! (१६३६ ) में कुछ प्रेम संबंधी दोहों फी स्वना फी है। नायक नायिका के रूपवर्णन और संयोग-वियोग- जनित मनोदशाओं के चित्रण की ओर इन कवियों ने यथेष्ट ध्यान दिया है, किंतु इसके लिये इन्होंने जिस वर्शानपद्धति फो अपनाया है उसे खड़ी बोली में स्थान प्राप्त नहीं हुआ | बलदेवप्रसाद मिश्र की “दोपदान! ( १६३७ ) में संकलित 'मानमोचन' जेसी फविताओं का उल्लेख अ्रपवादस्वरूप फिया जा सकता है। प्रेम ओर सौंदर्य संबंधी कविताओं की दूसरी घारा एक ओर छायावादी कवियों द्वारा पललवित हुई और दूसरी ओर “बच्चन! प्रभ्टति वेयबक्तिक कविता के रचयिताओं ने इसके विकास में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। इस दिशा में प्रथम उल्लेखनीय रचनाएं सुमित्रानंदन पंत कृत 'पल्‍्लव” ( १९१८) ओर धभुंजन'! ( १९३२ ) हैं। इनमें प्रेम, सोंदर्य ओर वियोग की विभिन्‍न मनोदशाश्रों को व्यंजित फरनेवाली अनेक सरस फविताएँ संकलित हैं। 'पल्लव' फी “आँसू”, ध्य्रनंग” आ्रादि रचनाओं और 'गुंजन' की “भावी पत्नी के प्रति! जेसी कविताओं को उदाहरणास्वरूप प्रस्तुत किया जा सकता है। प्रम के स्वच्छेद विफास, विर्‌हइ फी मार्मिकता ओर *£ गारिक रूपचित्रों को इन कृतियों में अन्यविषयक कविताओं की तुलना में कम महत्व प्राप्त नहीं छुआ है। “निराला! की 'परिमल”! ( १६२६ ) आर “गीतिका” ( १६३६ ) में भी इस शैली के श्रनेक मधुर गत संकलित हें । रूपचित्रण, भावुकतायुक्त स्वच्छुंद प्रेम, मान मनुहार, विरहजनित आराकुलता आ्रादि को लेफर बालकृष्ण शर्मा “नवीन' ने भी अ्रनेक फविताश्रों फी रचना फी जो 'कुंकुम', 'क्वासि', अपलक', 'इम विषपायों जनम के' आदि में संकलित हैं । इस फाल के श्रन्य कवियों में सुभद्राकुमारी चोह्ान ने 'मुकुला (१६३० ) में प्रेम के सात्विक रूप फो प्रफट किया। रूप योवन के उद्याम चित्र उनके यहाँ नहीं हैं। दरिकृष्ण प्रेमी की 'ओ्राँखों में! (१९३० ) विरहविकलता को चित्रित करनेवाली मर्मस्पर्शी रचना है। छायावाद से प्रभावित रहकर प्रणुय॒काव्य ) देखिए 'रत्वाकर', दूसरा भाग, द्विंतीय सं०, पृष्ठ २०४-२३० |. हैः की रचना करनेवाले कवियों में वालकृष्ण राव भी उल्लेखनीय हैं जिन्होंने कौमुदी! (१६९३१) की अनेक कविताओं में झआात्मामिव्यक्तिमूलक प्रेमव्यंजना को स्थान दिया है। माहेश्वरीसिंह महेश” कृत 'सुहाग! ( श्६३२ ) की अधिकांश कविताओं में भी प्रमाभिव्यक्ति का प्रमुख स्थान हैं। पद्मकात मालवीय की “प्रेमपत्र' भी इसी काल की रचना है जिसमें कवि ने पत्नी की मृत्यु पर अपनी विरद्ददशा को “'मेघदूत” जंसी मामिक शैली में प्रश्तुत किया है । जयशंकर प्रसाद की लहर” ( १६३३ ) और अज्ञ य की (चिंता! (रचना १६३२-३६, प्रकाशन १९४१) भी इसी अ्रवधि की रचनाएँ हैं। जहाँ प्रसाद ने यविषयक कविताश्रों के साथ ही प्रेम, सौंदर्य श्र विरह् से संबद्ध कुछ भाव स्थितियों को मधुर अभिव्यक्ति प्रदान की वहाँ अ्रश्ञय ने (चिंता' की कविताश्रों के माध्यम से पुरुष ओर स्त्री के दृष्टिकोश से मानवीय प्रेम के उद्भव, उत्थान विकास, अंतहंद्, हास, अंतर्मथन, पुनरुत्थान श्रीर चरम संतुलन की कहानी प्रस्तुत की है ।* इस युग की अन्य कृतियों में चंद्रमूषण त्रिपाठी प्रमोद! कृत धआमा' (१६३३) में मी प्रेमदशा, रूपचित्रण आदि का भावुकतापूर्ण उल्लेख हुआ दे । इसी प्रकार प्रणयेश शुक्ल की 'निशीयिनी' ( १६३३ ) ओर 'कालिंदी' ( १६३७ ) में भी प्रेमविषयक अ्रनेक कविताएँ संकलित हैं। प्रेम और सौंदर्य के इन चित्रों को प्रायः वेयक्तिक चेतना के घरातल पर अंकित किया गया। रमाशंफर शुक्ल “हुदय' ( शेंवाल, १९३७ ), शेरजंग मृणाल” ( लोरजा,१६३७), सूयदेवी दीक्षित “उषा! ( निर्भारिणी, १६३७ ) ओर रामेश्वर शुक्ल अंचल' (मधुलिफा, १६३८) ने प्रायः इसी शेली में स्फुट कविताओं की रचना की है। इनमें से श्रीमती 'उष्णः ने प्राय प्रेम के स्वच्छु सात्विक चित्र प्रस्तुत किए हैं श्लोर अन्य कवियों ने मधुरमादक रूपचित्रों, प्रकृति पर अगारचेतना का शआ्रारोप, विरहमार्ग की निराशामयी वेदना आदि को भी अपनी कविताओं का विषय बनाया है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है फि यद्यपि प्रस्तुत युग में कुछ कवियों ने प्रेम और सौंदर्य की अभिव्यक्ति के लिये चिरपरिचित रीतिकालीन पद्धति फो स्वीफार फिया तथापि इस भावधारा का मूल स्वर छायावाद से ही प्रभावित था। फलत: _प्रकृतित्षेत्र के प्रतीकों के आश्रय द्वारा रूपवैभव की मोहक कल्पना श्रौर प्रणयानुभूति की सूक्ष्म अभिव्यक्ति फो ही विविध कवियों ने अपने अ्रपने ढंग से स्वीकार किया है। स्वभावतः इस वर्ग की कविताओं में जहाँ स्वच्छु सात्विक * देखिए “चिता', भूमिका | | भौंग॑ १० ] कवि भर कृतियाँ ; एक सर्वेक्षण ६९ मनोदृत्तियाँ व्यक्त हुई हैं वहाँ कहीं कहीं व्यक्तिगत कुंठाएँ भी अपने लिये अभिव्यक्ति का द्वार व्योलती दीख पड़ती हैं। ( ऊ ) प्रकरतिचित्रण प्रस्तुत युग में भावनिरूपण के लिये प्रकृति फो स्वतंत्र ग्रथवा प्रासंगिक रूप में वाणी देने की ओर यथेष्ट ध्यान दिया गया। कुछ कवियों की प्रवृत्ति तो केवल प्रक्ृतिकान्य फी रचना को ओर ही रही। इस दृष्टि से प्रथम उल्लेखनीय रचना गुरुभक्त सिंह 'भकत” कृत 'सररू सुमन ( १६२५ ) है। इसमें पवन, भानु, चपला, जुगनू , बसंती आदि शीरषकों के अतर्गत छायावादी रचनापद्धति के अनुरूप प्रकृति के कोमल और उग्र दानों रूपों का चित्रण हुआ हैं, किंतु विशेष अ्रभिव्यक्ति उसके मधुर रागात्मक रूप की ही हुई हैं। उनकी कुछ अन्य रचनाओ्रं--कुसुमकुंज! ( १९१६ ), ध्यंशीध्वना! ( १६३० ) और “वनश्री' ( १६३२ )-में भी प्राय: यही प्रद्गति लक्षित होती है। कालक्रम से इस दिशा में , दूसरी उपलब्ध रचना बॉकेबिहारी लाल “बाँके पिया” कृत ऋतुप्रमोद' ( १६२५ ) है। इसमें ऋ॥ वर्णान की प्रृष्ठभूमि में ब्रजमाघा ओर खड़ी बोली दोनों में कष्णु के रूप, लीलादि का चित्रण हुआ है जो मध्ययुगीन कृष्णमक्ति काव्य की परिपाटी के अनुरूप है। इसी वर्म की एक अन्य रचना सेघाव्रत कविरत्त की गिरिराज गोरव” ( १९३६ ) है जिसमें विभिन्‍न कविताओं में हिमालय, काश्मीर, शिमला, ननीताल आदि के प्राकृतिक सोंदय का निरूपणा हुआ है । इसी प्रकार बालकराम शास्त्री बालक ने 'प्रकृतिपूजा! ( १९३३ ) शीषफ कृति में प्रमात, संध्या, सरिता आदि के श्रतिरिक्त विभिन्‍न ऋतुओं का द्रतविलंबित छुंद में अतुकांत पद्धति पर आलंबनात्मक चित्रण किया है। इन कवियों फी रचनाओं में भल्ते ही गुरुभकत सिंह “भक्त! के प्रकृतिकाव्य जैसी विदग्घता न हो, किंतु इनसे युगीन प्रवृति फा बोध तो होता ही है । इस युग में छायावाद के अंतर्गत भी प्रकृतिकाव्य की प्रचुर परिमाण में रचना हुई | प्रसाद ने “लइरः में, 'निराला' ने “परिमल' में और महादेवी ने नीहार! आदि इृतियों में प्रकृति के श्रालंबनपरक चित्रण को श्रपेक्षा उसपर चेतना का आरोप करके वातावरण ओर भावस्थितियों के स्पष्टीकरण कौ संभावनाओं पर अधिक ध्यान दिय्रा। इस पद्धति का निर्वाह उन्होंने अधिकतर प्रेममलक अथवा रहस्यवादी कविताओं में किया जिनमें कल्पना को मनोरमता ओर शिल्पमाघधुरी के फलस्वरूप विशिष्ट मावसंवेदना लक्षित होती है। “निराला' की 'संध्यासुंदरी', 'बादलराग”, “जुही की कली?! आदि मानवीकरणा शैली की कविताएँ इस दृष्टि से सर्वप्रसिद्ध हैं। किंठु इन कवियों की तुलना में सुमित्रानंदुन पंत ने 'पल्लव”, वीणा? ओर '“गुंजन' में प्रकृतिविषयक कविताश्रों को ६३ . हिंदी साहित्य का हुंहत इतिहास अधिक स्थान दिया है। इनमें क्रमशः संकलित “परिवर्तन, “प्रथम रश्मि? और पतौकाविहार? उनकी प्रसिद्ध प्रकृतिपरक कविताएँ हैं जिनमें प्रकृति को आलंबनहष्टि, कल्पनात्मक पुनश्सर्जन, श्रमर्त शैल्ली आदि में सूक्ष्म अभिव्यक्ति प्राप्त हुई दे । प्रकृति की विविध दृश्यावलियों फो भावुफकता श्र कल्पना की संनिधि में प्रस्तुत करने की यह पद्धति कुछ अन्य कवियों में भी लक्षित होती है। गुलाबरत्न वाजपेयी की 'लतिका? ( १६२९ ), शांतिप्रिय द्विवेदी की 'नौरव”! ( १६२६ ), उदयशंकर भट्ट की 'राकाः ( १६३१ ), नरेंद्र शर्मा की 'शुलफूल” ( १६३३ ) आर प्रमातफेरी! ( १६३८ ), तारा पांडे की 'सीकर' ( १६३४ ) आर “शुक पिफ! ( १६३७ ) और बालकृष्णु राव की “आभास” ( १६३५ ) इस दिशा में भुख्य उल्लेखनीय रचनाएँ हैं जिनमें अन्यविषयक कविताश्रों के श्रतिरिक्त चाँदनी शत; पावसघन, बसंत, प्रसून, चकोर आदि के विषय में अनेक स्फुट कविताएं भी समाविष्ट हैं। इन सभी पर छायावाद का प्रत्यक्ष प्रभाव रहा है श्रर्थात्‌ कल्पना, भावुकता आदि के समस्वयपूवक प्रकृतिश्री की व्यंजना इनकी विशिष्ट प्रद्गत्ति थी। इसी प्रकार गोपालसिंद नेपाली ने भी भ्उमंग! (१९३४ ) ओर रागिनी! ( १६३५ ) की अनेक कविताओं में प्रकृति के श्रालंबनप्रधान सॉदर्यचित्र अंकित किए हैं। इलाचंद्र जोशी की “विजननवती” (१६३७ ), आरसीप्र साद सिद्द की 'कलापी? ( १६३६४ ) श्रोर गिरिजाशंकर मिश्र “गिरीश” की ध्मंदार! ( १६३८ ) मी इसी शैली की कृतियाँ हैं जिनमें मावुकता और रागात्मक फब्पना से युक्त : सुक्ष्म प्रकृतिचित्रण की पद्धति अपनाई गई है। दूवरे शब्दों में, इनमें छायावादी रचनाशिल्‍प के अनुरूप प्रकृतिश्री का स्वच्छ ओर संवेदनामलक चित्रण हुआ है | किंतु, व्यंजनाविशिष्ट प्रकृतिचित्रों के श्रतिरिक्त इनमें कहीं कहाँ हिवेदीयुगीन परिपाटी के अनुरूप वर्शान-विवरणु-बहुल फविताओं को भी स्थान प्राप्त हुआ है। इन कवियों के श्रतिरिक्त प्रणयेश शुक्ल, मनोरंजन श्रादि अनेक अन्य कवियों ने भी प्रकृतिचित्रण की ओर आनुषंगिक रूप में ध्यान दिया है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आ्राधुनिक काल में प्रकृतिकाब्य को प्रथम बार व्यापक परिपक्ष्य में प्रस्तुत करने का श्रेय इसी युग फो प्राप्त है। अन्य काव्यप्र वृत्तियाँ छायावाद युग में विभिन्‍न काव्यरूपों के क्रमविकास के उपर्युक्त विश्लेषण के अनंतर मी कुछ ऐसी काव्यप्रशत्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं जिनका पृथक्‌ उल्लेख उचित होगा। अधिकांश छवियों द्वारा ग्रहण न की जाने के फलस्वरूप इन्हें” पल्य नहीं माना जा सकता; तथापि ये स्कुट रूप में ध्यान श्रवश्य आकष्ट फरती हैं । इनपर निम्नलिखित शीषकों के अ्रंतगंत विचार किया जा सकता है--अनूदित [ भाग १० ] कवि और कृतियाँ : एक सर्वेज्षण ६३ अतियाँ, हास्यव्यंग्यात्मक कविताएँ, रीतिबद्ध कविता, बालकाव्य, चंपूकाव्य, प्रशस्तिपरक फाव्य, समस्यापूर्ति काव्य | अनूदित कृतियाँ इस युग में काव्यानुबाद की ओर व्यापक ध्यान दिया गया और यथावत्‌ रूपांतरण, समश्लोकी अनुवाद तथा स्वतंत्र भावानुवाद के रूप में विभिन्‍न पद्धतियाँ श्रपनाई गई! । सामान्यतः संस्कृत और अंग्रेजी की कृतियों के अनुवाद पर बल दिया गया, किंतु कुछ कवियों ने बँगला, फारसी आदि अ्रन्य भाषाओं की कृतियों को अनूदित करने की ओर भी ययेष्ट ध्यान दिया। विवेचन की सुधिधा के लिये विभिन्‍न भाषाओं की कृतियों का इथक एथक विश्लेषण उचित होगा । ( क ) संस्कृत से अनूदित काव्य : इस काल में संस्कृत काब्यों के अनुवाद की दो दिशाएँ निर्धारित की जा सकती हैं--धार्मिक नेतिक काव्य, ललित फाव्य | प्रथम वर्ग के अंतर्गत जो इृतियाँ प्रस्तुत की गई' उन्हें अनुवाद कला और लालित्य की दृष्टि से उत्कृष्ट भले ही न कहा जाए, तत्कालीन प्रव्गत्ति की बोधक तो वे हैं ही । रघुनंदनप्रसाद शुक्ल द्वारा 'श्रीभगवद्गीता! (१६२२ ) में गीता का धर्म- प्रचाराथ सामान्य भाषाशैली में अनुवाद इसका उदाहरण है। इस प्रकार की दूसरी उपलब्ध रचना (शिवलीलामृत” ( १६२५ ) है जिसे वासुदेव हरलाल व्यास ने शेवोपासना के प्रचारार्थ दोहा चौपाई छुंदर में प्रवाहपूर्ण ब्रजमाषा में अनूदित किया | सथुराप्रसाद “मथुरेश' द्वारा श्रीमद्भागवतः में वर्शित कृष्णुजनन्म फी कथा का “श्यामायन, प्रथम खंड” ( १६२६ ) में ब्रजमाषा में अविकल अनुवाद भी इसी श्रेणी की रचना है। इसी प्रसंग को गोविंद कवि ने “ श्रीमद्भागवत' के दशमस्कंध के पूर्वाध के आधार पर 'श्रीकृष्ण॒जन्मा ( १६२६ ) शीर्षक से खड़ी बोली में अ्रनूदित किया। इस वर्ग को एक अन्य रचना ध्मूल रामायण! ( १६३४ ) है जिसे राधारमण शर्मा ने पचास छुंदों में किंचित्‌ स्वतंत्रता पूर्वक अनूदित किया है। इस घारा के अन्य अनुवादकों में मोहनलाल मिश्र ने “मोहन गीता” ( १६६६ ) में गीता का अवधी में तुलसी जैसी दोहा-चौंपाई- पद्धति में अनुवाद किया है ओर सबंसाधारण में गीताप्रचार के उद्देश्य से भाषा की सरलता पर बल दिया है। इसी प्रकार देवीदत शुक्ल कृत दुर्गा सप्तशती' ( १६३८ ) आख्यानक निर्बंधकाव्य की शेंली में अनूदित कृति है जिसमें मक्ति- भाव की प्रमुखता है। उपयु क्त धार्मिक काव्यकृतियों के संदर्भ में नीतिमूलक आदरशवादी कृतियों के अनुवाद की चर्चा अ्रप्रासंगिक न होगी। इस दिशा में दोनानाथ अशंक' को दो रचनाएँ उपलब्ध होती हैँं--.'मणिरत्नमाला' ( १६३३) . और ्चारुचर्या! ( १६३३ )। ये क्रमश; शंकराचार्य कृत प्रश्नोत्तरीः और ६४ हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास क्ञेमेंद्र कृत ध्वारुचर्या' की छायातुवाद हैं और इनमें मेथिलीशरण गुप्त की रचना- शैली का अनुकरण करते हुए विभिन्‍न चरित्रपरिष्कारक उपदेशों को सरल भाधा में व्यक्त किया गया है। संस्कृत ते अनूदित स्वनाओं का दूसरा वर्ग ललित काव्य से संत्रद्ध हे इस दिशा में प्रथम रचना रामगश सिंह द्वारा अनूदित “भोजप्रबंध' है जिसके पर्बा्ध का १६२२ ई० में और संपूर्ण कृति का १६३० ई० में प्रकाशन हुआ था | अनुवादशिल्प की दृष्टि से यह एक सरल स्वच्छु रचना है जिसमें मूल कृति के कुछ छुंदों को »/गारिक और असामथ्रिक मानकर छोड़ दिया गया है। इस प्रफार द्विवेदीयुगीन आदर्शवादी परंपरा के प्रभाव को श्रालोच्य युग की श्रनूदित कृतियों में भी परिव्याप्त देखा जा सकता है। इसी शेली की एक श्रन्य रचना 'पदरत्नप्रभा ( १६२३ ) में गिरिधर शर्मा नवरत्न ने पंडितराज जगन्नाथ झत “भामिनीविलास! के अन्योक्तिविलास' प्रकरण की शिक्षाप्रद श्रन्योक्तियों का सरस अ्रतुवाद किया है। कालिदास की कृतियों के अनुवाद की ओर भी इस युग में यथेष्ट ध्यान दिया गया | केशवप्रसाद मिश्र द्वारा अनूदित 'मेघदूत! ( १६२३ ) भाषा की स्वच्छता की दृष्टि से उल्लेखनीय रचना है। किंतु, भाषा की व्यावह्रिकता और स्वच्छुंद प्रवाह की ओर सभी कवियों का ध्यान समान रूप में नहीं गया--कुछ अ्रनुवादकों थी प्रवृत्ति संस्कृत पदावली के श्रनुसरण पर क्लिष्ट भाषा के प्रयोग की ओर ही रही | गिरिषर शर्मा “नवरत्न' द्वारा (हिंदी मात्र” ( १६२८ ) में 'शिशुपालत्रध' के प्रथम और द्वितीय सर्गों का भाषांतर इसका उदाहरण है। शिवदत त्रिपाठी द्वारा मयूर कवि के सूयशतक' ( १६३२ ) का “छाबानुगामी समश्लोकी भाषा- नुवादः भी क्लिष्ट पदावली से युक्त है। &गारिक रचनाओं के अश्रनुवाद की दृष्टि ते इस काल में लालजी मिश्र ने पंडितराज जगन्नाथ फृत भामिनीविलास” को 'लालविलास' ( १६१२ ) शी प्रक्क से अनूदित किया, फिंवु भाषालालित्य की दृष्टि से यह एक सामान्य रचना है। कालिदास की रचनाओं के अ्रनुवाद की. दिशा में हृषीकेश चतुर्वेदी ने 'समश्लोफी मेघदूतः ( १९३३ ) की ब्रजभाषा में और रामप्रताद सारस्वत ने रघुबंश' ( १६१५ ) की खड़ा बोली में रचना की | क्लिष्ट पदावली और शिथिल छुंदविधान के कारण इन दोनों में ही अनुवादकों फो सफलता प्राप्त नहों हो सकी । इस वर्ग कौ अंतिम कृति “गंगालहरी' ( १६३८ ) है जो पंडितराज जगन्नाथ की उक्त कृति का अ्रक्षववद मिश्र द्वारा किया गया सरल ब्रजभाषा अनुवाद हे । द द . (ख)अंग्रजी से अनूदित काव्य : इस युग में अंग्रेजी की कुछ काव्य - कृतियों के मी अनुवाद प्रस्तुत किए गए.। फालक्रम से इस दिशा में प्रथम कृति रामचंद्र शुक्ल कृत बुद्धचरित! ( १६२२ ) है जो एडविन आनंब्ड के प्रसिद्ध |] है हा ल्‍६« अप ः 8. मे 20 कि [ भाग १० ] कवि और कृतियाँ : एक सर्वेक्षण ६५ महाकाव्य प्लाइट आफ एशिया! का स्वतंत्र अनुवाद है। भक्तिपरक दृष्टिकोण, फाव्य फी सरसता के लिये यत्र तत्र परिवर्तन परिव्धन और सरस स्वच्छ ब्रजभाषा इसकी उल्लेखनीय विशेषताएँ हैं। इसके उपरांत नगेंद्र ने गोल्डस्मिथ के _ “द ट्रेवेलर” का 'भ्रांत पथिक' ( १९३२ ) शीर्षक से अनुवाद किया जिसमें श्रीधर पाठक के “श्रांत पथिक' के प्रत्यक्ष प्रभाव से मुक्त रहकर भाषानुवाद पद्धति श्रपनाई गई। दूसरी ओर, श्रीधर पाठक के 'एकांतवासी योगी” के अ्रनुकरण पर गिरिधर शर्मा “नवरत्ना' ने गोल्डस्मिथ के (हर्मिंटा! का योगी” ( १९३५ ) शीष॑क से अनुवाद किया । किंतु अनुवादकला की दृष्टि से उनका प्रयास सामान्य फोटि का है। इस दिशा में एक अ्रन्य उल्लेखनीय रचना मिल्थयन कृत 'फोमस! का रामनारायणश मिश्र द्वारा 'कामुकः ( १६३८ ) शीषक से किया गया अनुवाद है। इसमें काव्यनाटफ की शेली अपनाई गई है और मुख्यतः खड़ी बोली का प्रयोग फरते हुए कुछ प्रसंगों को ब्रजभाषा में भी अनूदित किया गया है। ( ग॒ ) बंगला से अनूदित काव्य : बंगला के काव्यानुवाद की दिशा में इस काल्न में विशेषतः मेथिलीशरण गुप्त ने योग दिया। इस दिशा में उनकी प्रथम कृति “पल्लासी फा युद्ध/ ( १९२० ) नवीनचंद्र सेन के काव्य 'पलाशिर युद्ध! का यथावत्‌ रूपांतरण है जिसमें मावसौरस्थ और भाषा के स्वच्छ व्यावहारिक प्रयोग दोनों की ओर ध्यान दिया गया है। इसके उपरांत उन्होंने माइकेल मधघुयूदन दच कृत ध्वीरांगना' का “वीरांगना! ( १६२७ ) शौषक से भावानुवाद : किया जिसमें कुछ पोराशिक अ्रथत्रा ऐतिहासिक व्यक्तियों द्वारा लिखित ग्यारह पत्रों फो कल्पना के माध्यम से काव्यश ली में प्रस्तुत किया गया है। इस दिशा में उनकी विशिष्ट उपलब्धि माइकेल मधुसूदन दत्त की कृति 'मेघनादवघ काव्य” का व्ेघनादवध” ( १६२७ ) शीषक से फिया गया अनुवाद है। इसमें मूल कृति की सरलता और ओज की रक्षा में उन्हे प्रशंशनीय सफलता प्राप्त हुई है। यह कहना चित होगा फि बँगला काव्य के अनुवाद की ओर परवर्ती कवियों का ध्यान अकृष्ट फरने का श्रेय उन्हीं की है। उ नके अतिरिक्त इस दिशा में योग देनेवाले : दूसरे कवि गिरिधर शर्मा नवरत्न हैं। उनकी ध्गीतांजल” ( १६२४ ) खींद्र फी गीतांजलि” का प्रथम हिंदी अनुवाद है जिसमें १०३ कविताओं फो गेय पदों में अनूदित फिया गया हैं । द (घ) अन्य साषाओं की कृतियों के अनुवाद : इस काल के कुछ कवियों का ध्यान रूसी, फ्रांसीसी ओर फारसी कृतियों के अनुवाद की ओर भी गया, किंतु प्रायः उन्होंने इनके रूपांतरणु के लिये अंग्रेजी अनुवार्दोी फा ही आधार लिया। रघुनंदनप्रसाद शुक्ल का 'स्वतंत्रता पर वीर बलिदान (१६२३ ) | १०-५९ ६६ के हिंदी साहित्य का इृहत इतिहास शीषक खंडकाव्य इसी प्रकार की #ति है जिसकी रचना फिसी रूसी फष्टानी के आधार पर बोलचाल फी सरल भाषा में फो गई है। इसी प्रकार विद्यामूषण 'विभु' ने फिरदोसी के फारसी ग्रथ शाहनामा! के अंग्र जी अ्नुवादों के आधार पर उसके एक खंड फो 'सुहराब ओर रुस्तम” ( १६२३ ) शीर्षक से आठ सर्गों भें प्रस्तुत किया है। ओजस्वी और फरुणामूलक प्रसंगों का यथावत्‌ रूपांतरण और प्रसाद गुण का निर्वाह इस खंडकाव्य फी मुख्य विशेषताएँ हैं। इसी काल में हरिशरण श्रीवास्तव “मराल' ने फ्रेंच फवि पाल रिचवार्ड की कृति के अंग्रेजी श्रनुवाद 'ठु इंडिया, दि मेसेज आफ दि हिमालयाज” का अहिमगिरि संदेश! (१९२५ ) शीषक से छायानुवाद किया। इसमें अ्रनुवादक ने श्रीधर पाठफ फी अनुवादपद्धति का अनुसरण करने फी चेष्टा की है, किंतु उनकी शेली में वैसा प्रवाह नहीं थ्रा सका है। फारसी के प्रसिद्ध कवि उमर खथ्याम की झरुबाइयों ने भी इस युग के कवियों का ध्यान आकर्षित किया। इस दिशा में प्रथम कृति मेथिलीशरण गुप्त की 'र॒बाइयात उमर खब्याम! ( रचना १६२१-२६, प्रकाशन १६३१) है जिसमें उन्होंने राय कृष्ण दास से मूल फारसी रुबाइयों के भाव सुनकर तदनुसार छुंदरचना फी है। इस प्रकार इसमें अनुवाद की अ्रपेक्षा भाषांतर की प्रवृत्ति मुख्य है। रुबाइयों के चयन में भी उन्होंने श्रपनी काव्यप्रवृत्तियों के श्रनुरूप प्रेमविलास संबंधी रचनाओं की अपेक्षा नेतिक आध्यात्मिक तत्वों पर बल देनेवाली रुबाइयों को महत्व दिया है। सुमित्रानंदन पंत की “मघुज्वाल' ( रचना १६२६, प्रकाशन १९४६ ) भी इस दिशा में उल्लेखनीय कृति है। इसमें प्रेम श्रोर सॉंद्य संबंधी १५१ संछ्िस गीतिमुक्तक हैं। पंत जी ने उदू' के कवि अ्रसगर साहब से मूल फारसी रुबाइयों के भाव सुनकर उनके आधार पर इन्हे श्रपनी शेली में प्रस्तुत किया है; भ्रतः इस कृति को अनुवाद की अ्रपेक्षा मौलि- फतायुक्त रूपांतरण फहना अधिक उचित होगा | इन कवियों के अ्रतिरिक्त खेयाम की रुबाइयों को अनूदित करनेवाले अ्रन्य सभी कवियों ने फिट्जेराल्ड के अंग्रेजी अनुवाद का आधार लिया है। केशवप्रसाद पाठक की “रुबाश्यात उमर खय्याम? ( १९२२ ) इसी प्रकार की रचना है जिसमें प्रत्येक प्रष्ठ पर फिट्जेराल्ड फा अनुवाद उद्धत फरते हुए उसका हिंदी रूपांतर दिया गया है। इसमें पचहचर रुबाइयाँ हैं श्रोर भाषा कौ स्वच्छुता तथा मधघुरता की दृष्टि से यह एफ सफल अनुवाद है। इस क्रम में सर्वाधिक प्रसिद्धिप्रा्त रचना “बच्चन? कृत “खैयाम की मधुशाला! ( रचना १६३३, प्रकाशन १९३५ ) है | इसमें भी फिट्जेराल्ड के श्रंग्रेजी अश्रनुवाद के अनुसार खेयाम की पचहत्तर रुवाइथों को भावानुवादपद्धति से #रस अभिव्यक्ति प्रदान की गईं है श्रोर प्रत्येक रुबाई के साथ अंग्रेजी _हपात्र को स्दृष्टत किया गया है। इसी प्रकार रघुवंशलाल गुप्त ने “उमर [ भाग १० | कवि भोर कृतियाँ : एक सर्वे्चर्ण ६९७ खेयाम की रुबाइयाँ? ( १६३८ ) में खेयाम की बहत्तर रुबाइयों फो फिद्जेराल्ड के अंग्र जी अनुवाद के आधार पर अभिव्यक्ति दी हैे। उन्होंने स्वतंत्र भावानुवाद की पद्धति श्रपनाकर अपनी शिव्प संबंधी अभिरुचि को प्राथमिकता दी है ओर कहीं कहीं फारसी की मूल रुबाइयों का भी अवलोकन किया हैं। इनके अतिरिक्त गिरिधघर शर्मा नवरत्न, बलदेवप्रसाद मिश्र और गयाप्रवाद गुप्त ने भी १९११-३३ फी श्रवधि में उमर खेबाम की रुबाइयों के अनुवाद में रुचि ली थी । व/स्तव में इस युग में खैयाम के काव्य के श्रनुवाद में ही सर्वाधिक रुचि ली गई। तथापि यह उल्लेखनीय है कि उदू कवि इकबाल वर्मा सेहर! ने शेख सादोी कृत 'करांमा' का (हिंदों करांमा' ( १६२७ ) शाषेक से श्रनुवाद किया जिसमें भक्ति ओर नांति संबंधी चरित्रसंस्कारक भावों को सरत्न उदूंमया भाषा में प्रस्तुत किया गया है तथा मावों के स्पष्टीकरण के लिये कहां कहीं पादटिप्पणियों में व्याख्या भी दी गई हैँ। अंत में सवॉशेन द्ाष्टपात करन पर इसम॑ सदेह नहीं रह जाता कि मौलिक रचनाओं की माँते काव्यानुवाद का पद्धति भा इस काल का एक सशक्त विफासोन्युखी प्रद्ृत्ति था | द हास्य व्यंग्यात्मक कविताएँ भारतँदु युग में भारतेंदु ओर प्रतापनारायण मिश्र ने तथा द्वदा युभ में बालमुकुंद गुत न द्वास्यव्यग्यात्मक कविता का जा ख्ोत प्रवाहत किया था उसका धारा छायावाद युग मे भी विकावशाल रहा । इस युग के प्रधुख्ध व्यग्यकार ई-- इश्वरीप्रसाद शमा; दरिआ्राघ, “उम्र, हांरंशंकर शमा, बढब बनारतसा, बधड़क बनारसा और कांतानाथ पाडेव “चोच' । कठु) अनक अन्य कावयो का यागदान भा ध्यान आकृष्ट करता है | इंश्वरोप्रसाद शमा का “चना चबना? ( १९२४ ) इस <ंदंशा मं उपलब्ध प्रथम उल्लेखनीय कृति हैँ जिसमें राजनांत, समाज, गृहस्था, सांइत्य आंद : से संबद्ध सामयिक प्रद्वांतियो का लेकर पँतालांस कावेताओ का रचना को गइ इ । कवि की प्रतिपादन शेंली शिष्ट ओर सुरुचपूण ६ द्वास्यरस क नास पर भौडापन उसमें नहीं है। इस संकलन का आंधकाश कावेताएँ खड़ा बाला म रांचत ह, किंतु 'कलियुगी करणु', 'धरस्वतोपूजा', 'लंठाशरोमांण! आईददे कुछ कांवेताओं को रचना ब्रजमाषा में को गई है । शर्मा जी के समसामयिक व्यंग्थकारों म॑ हारओघ कृत 'चोखें चोपदे” ( १६२४ ) शिक्षात्मक व्यंग्य काव्य का अच्छा उदाहरण इ। इस काल में पांडेय बेचन शर्मा उग्र” का नाम भी उल्लेखनाय हैं| “आज?, “भूत', 'मतवाला' आदि पत्रपत्रिकाओं में उनकी अनंक हास्यव्यंग्वात्मक कविताएँ प्रकाशित हुईं थीं जिनमें सामयिक साम्राजिक कुप्रथाओं क॑ प्रांते सशक्त व्यंग्य मिलता है। इसके साथ ही उन्हाने कुछ पेरोडियों ( विडंबन काव्य ) का भी रचना की थी | इस अ्रवधि में हरिशंकर शर्मा का कोई स्वतंत्र कविता(ंग्रह ढ् द हिंदी सादित्य का बह इतिहास क्‍ तो प्रकाशित नहीं हुआ, तथापि (चिड़ियाघर' ओर “पिंजरापोल” शीर्षक गद्म- रचनाओं में संदमंवश उनकी कुछ श्रेष्ठ हास्य व्यंग्यात्मक कविताश्रों को स्थान प्राप्त हुआ्रा है | इनमें तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक ओर साहित्यिक परिस्थितियों को लेकर सजीव व्यंग्य किए गए हैं। बेढब बनारसी के व्यंग्य-विनोद-लेखन का आस्म भी इसी काल में हुआ ओर समसामयिक पत्रिकाओं में उनकी श्रनेक कविताएँ प्रकाशित हुई | उनकी व्यंग्योक्तियों में अकबर इलाहाबादी के व्यंग्यकाव्य के समान प्रखरता मिलती है। विषयवैविध्य के साथ ही भाषा की व्यावहारिकता आर शब्दावली की समृद्धि उनकी उल्लेखनीय प्रवृत्तियाँ हैं | आलोच्य युग के हास्य व्यंग्यकारों ने रचनाशैली की विविधता की ओर भी समुचित ध्यान दिया है। 'प्रेम' कवि कृत “भालूराम द्यालूराम संवाद? ( १९२९ ) संलाप शेली में रचित है । इसमें शास्त्रार्थ और धार्मिक वितंडावाद के प्रति श्राख्यान शेली में शिक्षात्मक व्यंग्य प्रस्तुत किया गया है। इसकी रचना सनातन धर्म और श्रायंसमाज की विदारधारा के तत्कालीन संघर्ष के प्रति प्रतिक्रियास्वरूप की गई थी। इस वर्ग फी एक अन्य कृति ध्परिहासप्रमोद” ( १६३० ) में शिवरत्न शुक्ल ने खड़ीबोली, ब्रजभाषा ओर बैसवाड़ी बोली में शिक्षात्मक परिहास प्रस्तुत किया है। इसमें कविता ओर गद्य दोनों की स्फुट रचनाएँ हैं और अधिकतर समकालीन सामाजिक आचार विचार पर विदेशी प्रभाव को लेकर व्यंग्य किए गए हैं। इन्हीं की भाँति कांतानाथ पांडेय “चोंच'! ने भी खड़ी बोली, अजमाषा और बेसवाड़ी बोली की कविताओं को “चोंच चालीसा' ( १९३२ ) में संकलित किया है। इसमें सामाजिक कुरीतियों और विदेशी अंधानुकरण पर तीक्ष्ण व्यंग्य दि श्रोर कहीं कही अंग्रेजी शब्दों के विशिष्ट प्रयोग द्वारा हास्य सामग्री प्रस्तुत की गई है। 'महाकवि साँढ़? श्रोर पानी पाँडे! ( १६३७ ) भी इनकी इसी शेली की #तियाँ है जिनमें कविताओं के श्रतिरिक्त कुछ कहानियाँ भी संकलित हैं। इनमें कबीर, नरेत्तमदास आदि की रचनाओं पर कुछ पैरोडियाँ भी प्रस्तुत कर गई हैं। इसी प्रकार को एक श्रन्य॒व्य॑ग्यात्मक कृति 'चठशाला? ( १६३७ ) है जिसकी रचना किसी ने पोल प्रकाशक! के छुदूम नाम से फी थी। इसमें “बच्चन” की 'मधुशाला' और “मधुबाला? के विरोध में छियासठ शिक्षात्मक व्यंग्यकविताएं संकलित हैं जिनमें व्यंग्य की अपेक्षा चरित्रनिर्माण पर श्रधिक बल दिया गया है | ज्वालाराम नागर “विलक्षण” फी छायापथः भी इसी वर्ग की ऋृति है---इसमें छायावादी रचनापद्धति के प्रति तीक्ष्णु व्यंग्य किए गए हैं । ... अपयुक्त हास्य-व्यंग्य-स्चनाओं के अतिरिक्त कुछ स्फुट काव्यसंकलनों में भी इस प्रकार को कविताओं को स्थान प्राप्त हुआ है। पुरोहित प्रतापनारायणु कृत “काव्यकाननः ( १६३२ ) में संफलित “'कविकल्पन? ऐसी ही उत्तम कविता है | भाग १० | कवि ओर कृतियाँ : एक सर्वेत्तण & 8 जिसमें उपमान संयोजन में कवियों को श्रनोखी उड़ान पर व्यंग्य फिया गया है। कृष्णानंद पाठक की “प्रप॑ंच प्रकाश! ( १६३३ ) भी इसी वर्ग की रचना है जिसमें उपदेशात्मकता की प्रमुखता होने पर भी कहीं कहीं व्यंग्य प्रवृत्ति लक्षित होती है। इसी प्रकार बलभद्र दीक्षित “पढ़ीस' ने जिला सीतापुर की देहाती अ्रबधी बोली में लिखित “चकल्लस” ( १९३३ ) की सामाजिक कविताओं में प्रायः हास्यव्य॑ग्य का पुठ रखा है। किश्ोरीदास वाजपेयी की ब्रजभाषा रचना “तरंगिणी' ( १६३६ ) में भी सामयिक सामाजिक प्रवृत्तियों के प्रति तीक्ष्णु व्यंग्य करनेवाले कुछ दोहे संकलित हैं। पेरोडियों की दृष्टि से मनोरंजन कृत गुनगुनः ( १६३७ ) के कुछ अंश द्रष्टव्य हैं। इसमें “जयद्रथ वध?, 'भारत भारती” आदि के कुछ छुंदों पर सफल पैरोडियों कफी रचना की गई है । कूल मिलाकर यह कहना उचित होगा कि व्यंग्यकाव्य रचना इस युग फी मुख्य प्रद्तचि न होने पर मी अनेक कवियों द्वारा गहीत अवश्य थी। इसके साथ ही तत्कालीन पत्रपत्रिकाओं में ऐसी श्रनेक कविताए प्रकाशित हुई जिनके रचयिता बाद में प्रतिष्ठित व्यंग्यकार सिद्ध हुएं। उदाहरणार्थ 'मदारीः ओर कुछ अन्य पत्रिकाश्रों में भेया जी बनारसी ( मोहनलाल गुप्त ) की अनेक तिलमिला देनेवाली ब्यंग्य कविताएँ सुलभ हैं | इस युग के एक अन्य उदीयमान कवि बेघड़क बनारसी हैं जिनकी हास्य-व्यंग्य-कला का विफास तथा परिष्कार विशेषतः परवर्ती काल में हुआ । रीतिबद्ध कविता प्रस्तुत युग में रीतिकालीन आचार्यों की भाँति रीतिबद्ध ग्र'थरचना स्पष्ट तः अ्रसामयिक प्रवृत्ति है, तथापि इरिश्रोष कृत *रसफलस” ( १६३१ ) इस शैली की महत्वपूर्ण कृति है। उन्होंने आरंभ में विषय से संबद्ध विस्तृत भूमिका देकर काव्यखंड के अंतर्गत नखशिख, नायिफामेद, रस आदि का विस्तृत विवेचन _ किया है श्रोर गद्य में लक्षण देते हुए त्रजमाषा काव्य में स्वरचित उदाहरण दिए हैं। उनके लक्षण संक्षिम हैं, किंतु उदाइरण एकाधिक और सुसंबद्ध हैं तथा सरस होने के साथ ही कवि के शास्त्रीय ज्ञान के श्रच्छे परिचायक हैं। न्ायिकामेद के अंतर्गत उन्होंने परंपरानिर्वाह के अ्रतिरिक्त परिवारप्रेमिका, जातिप्रेमिका, देशप्रेमिका, जन्मभूमिप्रेमिका, लोकसेविका आदि कुछ नए मेदों का भी निरूपण किया है जो उनकी उल्लेखनीय मौलिकता है। इसी प्रफार हास्यरस के आतर्गंत आलंबन उद्दीपनादि का पर॑पराबद्ध चित्रण न फर सामयिक प्रवृत्तियों से प्रेस्त होकर सच्चे साधु", “नामी नेता”, 'साहब बहादुर! आदि हास्य-व्यंग्य-परफ कविताओं की रचना की गई है। दूसरे शब्दों में रसविवेचन से उन्होंने आल्लंबन सामग्री की विविधता ओर परंपराभिन्न प्रयोगों पर निरंतर बल रखा है | ३8 द .. हिंदी साहित्य का बृहत्‌ ईतिहासे बाक्षकाव्य छायावाद युग में बच्चों और किशोरों के लिये सरस, मनोरंजफ तथा शिक्षाप्रद काव्य की रचना फी ओर मी ययथेष्ट ध्यान दिया गया। इस संदर्भ में 'शिशु', बालसखा', 'खिलोना?, “बालक?, 'बान२', 'बालविनोद! श्रादि पत्रिकाश्रों का योगदान अ्रविस्मरणीय है। इस युग में बालफाव्य की रचना करनेवाले कवियों में हरिश्रोध ( बालविलास १६२५, बालविभव १९२८ ), रामनरेश त्रिपाठी, गिरिजादत शुक्ल “गिरीश”, सोहनलाल द्विवेदी, 8भद्राकुमारी चौहान) श्रीनाथ घिंह, व्यथित हृदय, श्यामनारायण पांडेय, आरसीप्रसाद धिंह श्रादि उल्लेखनीय हूँ । इन कवियों ने ऐतिहासिक पोराशिफक श्राख्यानों, लोक- कथाओं, परीकथाओं आदि पर आधारित सरल श्राख्यानक बालफविताश्रों के अतिरिक्त बालक के व्यक्तित्वविकास फी दृष्टि से प्रकृति, नीति भक्ति: देशप्रम आदि से संबद्ध अनेकानेक स्फुट कविताओं की रचना की । इस अश्रवधि को सभी बालो पयोगी काव्यकृतियों का उल्लेख विषय का विस्तार मात्र होगा, श्रतः कुछ प्रमुख कृतियों का उल्लेख पर्यास होगा। इस दृष्टि से शिवदुलारे त्रिपाठी कृत “नूतन छात्रशिज्ञा'! (१६१८ ) में विशेषतः नीतिपरफ कविताएं हैं, रूप- नारायण पांडेय कृत ध्वालशिक्षा' ( १६१६ ) में भी विभिन्न छंदों में शिक्षाप्रद नेतिक विषयों पर कविताएँ हूँ तथा रामलोचन शर्मा 'कंटक?ः कृत “मोदक? ( १६२६ ई० ) और चंद्रबंधु कृत 'बालसुधार' (१६३५ ई० ) भी नीतिपरक कृविताशों के रोचक संकलन हैं। नोति की भाँति कुछ कवियों ने भक्तिपरक विषयों पर बालकविताओ्ं की रचना की ओर भी ध्यान दिया--कामताप्रसाद वर्मा कृत 'बाल-विनय-माला! (द्वितीय 6०, १९३२ ) ऐसी ही उल्लेखनीय इृति है। कुछ कवियों ने पशुपक्धियों को लेकर भी स्फुट सरल कविताओं फी रचना की जिनका मूल उद्देश्य मनोरंजन और शिक्षादान था। भूपनारायण दीक्षित कृत 'खिलवाड़” ( १९२६९ ) ऐसी ही कृति है। वेसे, किसी एक विषय को प्रमुखता देनेवाली फविताञ्ं की दुलना में इस युग में विविधविषयक बालफविताओो के संकलन अधिक प्रकाश में श्राए । गणेशराम मिश्र $त “खेल के ताने' (१६३ १), सोहनलाल द्विवेदी करत मोदक' (१६३२) और रामेश्वर 'करण' कू “बाल गोपाल! (१६३६) शेसी ही रचनाएँ हैं जिनमें ऋतुवर्णन; राष्ट्रीय जागरण, नतिक मानदंडों आदि का सरल व्यावहारिक भाषा में प्रेरणाप्रद वर्णन हुआ है। कुछ कवियों की प्रवृत्ति पद्ययद्ध कथाओं के लेखन की ओर भी रही। देवीदच शुक्ल कृत 'बाल-कविता-माला ( १६१९ ) ओर 'बाल-फकथा-मंजरी' १६२१) सुदशनान्राय कृत बुन्नूं मुन्नू! (१६३२ » लक्ष्मीदत्त चहुबंदी कृत “मेंसातिह” ( १६३३ ) और देवीदयाल चतुर्वेदी कृत “बिजली ना > सदाजामनल्मबमम०-थकके कदम व ८ पक [ भाग १० ] फवि और कृतियाँ : एक सर्नेक्षण ७१ (१६३७ ) ऐसी ही कृतियाँ है जिनमें पुराण, इतिहास आदि के प्रसिद्ध पार्चो, वीरांगनाओ्ों आदि की जीवनकथा को सरल संवादयुक्त अभिव्यक्ति प्रदान की गईं है। इस युग के अन्य बालकान्य रचयिताओं में रामनरेश त्रिपाठी ने राष्ट्रीय चेतना और लोकजीवन का चित्रण करनेवाली अनेक कविताओं फी रचना की जो तत्कालीन बालपत्रिकाओं में सुलभ हैं। विद्याभूषण “विश्वु), स्वर्ण सहोदर, ज्योतिप्रसाद मिश्र “निर्मल! आदि की कविताएँ भी पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं जिनमें अ्रनुभूति की विविधता, पारिवारिक स्नेह, द्वास्यरस, अद्भुत तत्व आदि का समावेश है। खेल खिलोनों से संबद्ध कविताओं की रचना की ओर भी उपयुक्त ध्यान दिया गया। इसी प्रकार समूहगीतों फी रचना भी एक उल्लेखनीय प्रवृत्ति है। संक्षेप में यह फकद्दा जा सकता है फि €स युग में रोचक, सरल ओर कफोतृहलवधंक बालसाहित्य की रचना की और व्यवस्थित रूप में ध्यान दिया गया । चंपूकाव्य इस युग में अनूप शर्मा ने 'फेरि मिलिबो! (१६३८) शीर्षक चंपूकाव्य की रचना की जिसमें ब्रजमाषा गद्य और पतद्च का खच्छु प्रयोग हुआ है। प्रस्तुत श्वृंगारकाव्य में कुरुक्षेत्र में द्वारकावासी कृष्ण और रुक्मिणी के राधा से मिलन का भावात्मफ शेली में ललित वर्णन हुआ है। आधुनिक कृष्णकाव्य में इस कृति को भावना ओर शिल्प दोनों की दृष्टि से समादर प्रास है। इसके अ्रतिरिक्त ग्रालोच्य युग में इस काव्यावधा के %तगत श्रन्य फिसी फाव की दृति उपलब्ध नहीं है। द प्रशस्तिकाव्य क्‍ द इस अवधि में राजप्रशस्ति श्रोर कविप्रशस्ति कौ ओर भी सामान्य रूप में ध्यान दिया गया | यद्यपि इस समय राजाभश्रित कवियों की रीतिफाल जैसी परंपरा नहीं थी, तथापि उसफा स्ंथा लोप नहीं दुआ था। किसी रियासत के श्रधौश्वर को अपनी रचना समर्पित करने फी परंपरा इस खयुग में प्रत्यक्षतटः विद्यमान थी, किंतु किसी ऐसे व्यक्ति को लक्षित कर राजस्तुतिपरक काव्य की रचना की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया । इस दिशा में दतिया के राजकवि काशीप्रसाद की संक्षित ब्रजभाषा कृति 'गोविंदप्रकाश” (१६३२ ) ही उपलब्ध है जिसमें दतिया नरेश श्री गोविंदसिंह द्वारा शेर के शिफार का संक्षप में वर्शन कर उनफा गुणगान फिया गया है। कविप्रशस्ति को लेकर इस प्रकार का कोई स्वतंत्र काव्य प्रकाशित नहीं हुआ, फिंतु काव्यसंकलनों में ऐसी स्फुट कविताएँ प्रायः स्थान पाती रहीं। वियोगी हरि को वीर सतसई” (१६२७ ) में “वीर कवि” शीषक के अंतगत शोयवर्णन करनेवाले कवियों की प्रशस्ति इसका उदाहरण है। चक्र ७२ क्‍ हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास 'कविकिंकर! की '्सुधासरोवरः (१९२१८ ) में भी तुलसी और बिहारी पर प्रशस्तिपरक कविताओं फा समावेश है। गुलाबरत्न वाजपेयी ने भी “लतिका”? ( १६२६ ) में पूर्ववर्ती कवियों की स्घृति में कुछ कविताओं को स्थान दिया है। इसी प्रकार पुरोहित प्रतापनारायण ने 'काव्यकानन! ( १६३२ ) में वाल्मीकि फी महिमा को वाणी दी है। स्पष्ट है कि यह इस थुश की प्रतिनिधि काव्यप्रवृत्ति नहीं है; किंतु इसकी उपेक्षा नहीं फी जा सकती । समस्यापूर्ति काव्य _ द्विवेदी युग की भाँति इस युग में भी समस्यापूर्ति काव्य की परंपरा प्रचलित रही | फविसंमेलनों में समस्यापूर्ति का आयोजन समारोहपूर्वक होता था श्र कभी कभी ऐसे अवसरों पर पठित कविताश्रों के संकलन भी प्रकाशित किए जाते थे। इस दिशा में सर्वप्रथम उपलब्ध कृति गोपालदत्त पंत द्वारा संपादित “कविता कुसुम” ( १६२६ ) है जिसमें नागरीप्रचारिणी सभा; बुलंदशहर द्वारा तुलसीदिबस पर आयोजित संमेलन में पठित समस्यापूर्तियाँ संग्रहीत . हैं। इस अवसर पर धबरसो घनश्याम इसी बन में', जय जानफीजीवन हरे! “आदि विषयों पर समस्यापूर्तियाँ की गईं। दूसरी उपलब्ध कृति अवधबिद्दारी माथुर द्वारा संपादित 'कविकेलि? ( १९२७ ) है जिसमें ग्वालियर में १६२७ ई० में आयोजित कविसंमेलन में पठित समस्यापूर्तियाँ संकलित हैं। इसमें समस्यापूरण के लिये निम्नलिखित विषयों का निर्धारण किया गया था--“राय रामचंद्र श्राए हैं', “चित्रसारी में”, 'प्रेम के पुजारी हैं', 'लूट ले गई?। इसी प्रकार की एक कृति द्वाकेश कविमंडल, फॉकरोली कौ श्रोर से १९३१ ई० में श्रायोजित बारह श्रधिवेशनों में पठित समश्यापूर्तियों का संकलन 'कविता कुसुमाकर” ( १९३२ ) है। इसमें समस्यापूर्ति के लिये संस्कृत के बीस और हिंदी के पच्चीस विषयों फो ग्रहण किया गया है। आयंकुमार सभा, लखनऊ द्वारा १६३२ में आयोजित कविप्मेलन में पठित समस्यापूर्तियों और स्वतंत्र कविताओं का संकलन 'कविता निकुंज' ( १६३३ ) भी इसी श्रेणी फी रचना है। इसमें समस्यापूरण के लिये निर्धारित विषय थे : 'हमारे हैं”, “बरसाने में! ओर “फल हैं?। उपर्युक्त समस्या- पूर्ति संग्रहों में कवित्व के स्तर फी दृष्टि से 'कविता कुसुमाफर' ही सराहनीय है। इन संग्रहों में प्रायः स्थानीय कवियों फी रचनाएँ संफलित हैं जिनमें से फालांतर में किसी को भी काव्यक्षेत्र में महत्व प्राप्त नहीं हो पाया। वस्तुतः प्रतिष्ठित कवि इस श्रोर आकर्षित नहीं होते थे--इसीलिये 'कविता निकुज! में जहाँ सामान्य कवियों की समस्यापूर्तियाँ हैं वहाँ निराला”, सुमित्रानंदन पंत और “अंचल? द्वारा पठित स्वतंत्र कविताएं, भी संकलित हैं। इससे यह निष्कर्ष प्राप्त ' करना श्रसंगत न होगा कि प्राय; समस्यापूरण को मनोविनोद और चमत्कारप्रदर्शन के रूप में ही [ भाग १० ] कवि और कृतियाँ : एक सर्वेक्षण ७रे ग्रहण किया जाता था। एक अ्रन्य उल्लेखनीय प्रवृत्ति यह है कि समस्यापूर्ति काव्य की रचना ब्रजमाषा और खड़ी बोली दोनों में की गईं। इस प्रकार के आयोजन जनता की काव्याभिरुचि का संवर्धन करने ओर नए कवियों को प्रोत्साहन देने की दृष्टि से महत्वपूर्ण थे | किंतु, इस अ्रवधि में काव्यक्षेत्र में जिन स्वच्छंदता- वादी प्रबृत्तियों की प्रतिष्ठ हुई थी, उनका समस्थापूर्ति संग्रहों में विषय और शेली . किसी भी दृष्टि से प्रभाव लक्षित नहीं होता । - मूल्यांकन इस युग के काव्यरूपों और काव्यशेलियों के विश्लेषण से इसमें संदेह नहीं रह जाता कि छायावाद की नवीन भावचेंतना ओर शिव्पमाधुय के संपफ में आकर भी श्रनेक कवि द्विवेदीयुगीन रचनापरंपरा के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सके । यह प्रभाव विशेषतः आख्यानकाव्यों में व्यक्त हुआ जहाँ अधिकांश कवि हरिश्रोध' ओर मेथिलीशरण द्वारा प्रस्तुत किए गए. मानदंडों में हो काव्यकला की आदर्श परिणुति मानते रहे । मुक्तक काव्य के क्षेत्र में भी द्विवेदीयुगीन शैली का व्यापक प्रभाव लक्षित होता है। गौरीशंकर द्विवेदी, दामोदरसह्ााय सिंह, “कविकिकर?, भगवतीलाल वर्मा (पुष्प), पुरोहित प्रतापनारायण, गौरीशंकर का, रसराज नागर आदि कवियों का उल्लेख इस दृष्टि से अप्रासंगिक न होगा। इन कवियों ने भक्तिभाव, सामाजिक चेतना की नीतिमूलक प्रांतपक्ति, जातीयतापरक राष्ट्रीय भावना आदि को प्रायः द्विवेदीयुगीन रचनाशिवप के अंतर्गत प्रस्तुत किया है। सामान्यतः इन्हें छायावादी फाव्य की अव्यक्त वेदना, स्वप्नकल्पना, दुरूह शेली आंदि ग्राह्म नहीं थीं। यदि ये दो चार कविताश्रों में इस पद्धति के संस्पर्श से न भी बच सके हों तो भी इनकी कविता का मूल स्वर पिछुले खेवें की कविता के अनुकूल दी रहा है। किंतु, इनकी गणना इस युग के प्रतिनिधि कवियों में नहीं की जा सकती | कारण स्पष्ट है--बदलते हुए साहित्यिक परिवेश ओर मौलिकता की साधना के प्रति ये फवि जागरूक नहीं थे। दूसरी ओर, प्रसाद आदि प्रमुख छायावादी कवियों की काव्यप्रवृत्तियों ने भी अनेक कवियों का ध्यान आक्ृष्ट फिया | ऐसे कवियों ने कल्पना की प्रबलता, प्रकृति का मानवीकरण, वेयक्तिक चेतना फी रागात्मक अ्रभिव्यक्ति, वर्शनात्मकता की अपेक्षा भावव्यंजना पर बल, भाषा की सांकेतिकता आदि छायावादी प्रव्ृत्तियों को आग्रह के साथ स्वीकार किया । इस प्रभाव को फहीं सोंदयमूलक भावव्यंजना के ज्षेत्र में ग्रहण किया गया आर फहीं इसकी अभिव्यक्ति केवल शिल्पसंयोजना तक ही सीमित रही। प्राचीन ओर नवीन काव्यप्रवृक्तियोँ के इस सहविकास के कुछ परिणाम अनिवार्यतः सामने आए | उदाहरणार्थ, केवल पोराशिक ऐतिहासिक विषयों की ओर प्रवृत्त न १७-१० ७४ .. हिंदी साहित्य का बद्दत्‌ इतिहास रहकर कविगण युगीन समस्याओ्रों की ओर भी उन्मुख हुए जिससे मानववादी दृष्टि, सामाजिक चेतना और सौंदर्यभावना को एक ही मनोभूमि में देखना संभव हुआ | प्रधंधकाव्य और गीतिकाव्य का समनुरूप विकास भी इसी प्रभाव का सूचफ है । खड़ी बोली के वेगपूर्ण प्रवाह में व्रजमाषा की धारा का लुप्त न होना ओर प्रचलित छुंदों के अतिरिक्त रबाई, सॉनेट, मुक्त छुंद आदि का विकास भी इसी का परिणाम है। इसी प्रकार संस्कृत काव्य की तुलना में पाश्च' तय झृतियों के श्रनुवाद की ओर आअधिकाधिक उन्मुख होना भी इसी प्रभावग्रक्रिया की देन है। सूक्ष्म विश्लेषण करने पर समानांतर विकास की सूचक ऐसी ही कुछ अन्य काव्यप्रद्नत्तियों फो निर्धारित करना भी कठिन न होगा | ही उत्कषका लीन कविता : प्रवृत्तिविश्लेषण उत्कर्षकाल में जहाँ हरिश्रोध, रतनाकर, मेथिलीशरण प्रम्नति कवियों ने मुख्य रूप से परंपरागत काव्यपद्धति का निर्वाह किया वहाँ छायावाद के प्रभाव- प्रसार के अंतर्गत अनेक कवि नवीन काव्यप्रवृत्तियों की ओर भी उन्मुख हुए । प्राचीन और नवीन परिपाटी की काव्यधाराओं के समानांतर विकास और उनके प्रवृत्तिगत अंतर के निर्धारण में कल्पना, वेयक्तिकता, काव्य फी माध्यम भाषा, बिंबविधान की सूक्ष्मता। प्रबंधत्व से प्रगीत की ओर विशिष्ट प्रदत्त आदि अनेक तत्वों की मुख्य भूमिका रही। वेसे, इस युग की उल्लेखनीय काव्यप्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं--राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता, छायायादी काव्यधारा, प्रेमानुभूति संबंधी कविताएं, हाध्यव्य॑ग्यात्मक रचनाएँ, ब्रजभाषाकाव्य, बालकाव्य, उदू' काव्यधारा | उत्कषकालीन कवियों की प्रवृत्तिगत उपलब्धियों अनुपलब्धियों के मूल्यांकन के लिये क्रमशः इन्हीं को संदर्भस्वरूप ग्रहण करना होगा । राष्ट्रीय सांस्कृतिक ऋविता प्रस्तुत युग में राष्ट्रीय संस्कृतिक मूल्यों की अभिव्यक्ति की ओर व्यापक्त ध्यान दिया गया | द्विवेदी युग में व्मारत भारती” जेसी कृतियों में अतीत के गोरवगान, मातृमूमि महिसा, राष्ट्रध्वज वंदना आदि के रूप में राजनीतिक परिवेश का जेसा अभिधामूलफ इतिबूत्तात्मक चित्रण प्रचलित था उसे यद्यपि कुछ कवियों ने इस कालखंड में भी तदूबत्‌ ग्रहण किया, तथापि इस युग का बेशिष्ख्य देशभक्ति की गरिमापूर्ण व्यंजना, मध्ययुगीन इतिहास के अनुरूप ओज की अभिव्यक्ति, विश्वमानवता की कल्पना ओर शीशबलिदान की प्रेरणा में निहित है । . इस संदर्भ में कवियों के सात्विक देशप्रम और संवेदनशील मनोदृत्ति की अ्रमिव्यक्ति मुक्तक कविताओं, नाटकगत गौतों और आख्यानकाव्यों में समान रूप में हुईं है। .._ इसी प्रकार रामक ष्णु प्ररमहंस, विवेकानंद, ऋरविंद, गांधी और रवींद्र से प्रेरणा | भागे १७ ] ..केंबिं और कृतियाँ : एक संबद्ध... छा लेकर अ्रनेक कवियों ने देश के सांस्कृतिक पुनरुत्थान की काव्यात्मक अभिव्यक्ति में भी रुचि ली | इस दृष्टि से ये कवि मानवकरुणा ओर लोकमंगल की गरिमामयी अभिव्यक्ति की ओर प्रदत्त हुए और इन्होंने सूक्ष्म अनुभूति, कल्पना आदि के आाधारपूव क द्विवेदीयुगीन जीवनमुल्यों का परिष्कार किया । इसीलिये इनको रचनाओं में रूढियों से मुक्त होने फी आकांक्षा, सांप्रदायिक एकता, अस्पृश्यता निवारण, ग्रामशिल्प के महत्व की स्वीकृति, आत्मविश्वास की अ्रनुभूति आदि फो सहज ही लक्षित किया जा सकता है। नारीजागरण की प्रृष्ठमूमि में पुराणुप्रथित नारियों के प्रति नमन, इतिहासप्रसिद्ध वीरांगनाओं का चित्रण श्रोर नारीजीवन की विषमंताओं का विश्लेषण मी इन कब्नियों को प्रिय रह है। किंतु उच्च आद्शों" पर बल देते हुए भी इनका लक्ष्य केवल सामूहिक जनजांग्रति के लिये वातावरण प्रस्तुत करना नहीं था। फलस्वरूप तत्काल्लीन सामाजिक परिवेश का चित्रण करते समय इन्होंने एक ओर भविष्य के स्वशिम चित्रों की कब्पमा की दे ओर दूसरी ओर वेयक्तिक मल्यों को भी ध्यान में रखा हे । छायावादी काव्यघारा छावावाद प्रस्तुत काल्लखंड की अन्यतम कराव्यप्रवृत्ति है जिसके अंतर्गत सृक्ष्मतरल कल्पना, नवीन सोंदर्यराग, रहस्यवादी साथना, बहुरंगी शिल्पयोंजना आदि का अपूर्व समावेश है। पूर्ववर्ती कविता की ठुलना में इस काव्यथारा में विषयवेविष्य ओर मोलिकता पर अधिक बल रहा» परिशुमस्वरूप अ्रधिकांश कवियों के काव्य में अनुभूति की व्यापकता ओर ग्रखरता विद्यमान हे। किंतु छायावादी कविता में अचज्चुमूति' का अ्रर्थ वस्तुपरकता नहीं है. अपितु उसमें भावषता, वेयक्तिकता) संवेदनशीलता+ः मल्यनिष्ठता आदि का अ्रँत:प्रसार है | इस धारा के कवियों ने विषय का इतिद्वत्तात्मक निरूपणु न कर भावविश्लेषण में उन्मुक्त कल्पना को महत्व दिया। इसी प्रकार सोदय के स्थूल चित्र अंकित करने के स्थान पर इन्होंने मनोविज्ञान के संदर्भ में अंतमुखी सोंदर्य का चित्रण किया | श्रर्थाव्‌ मांसल सोंदय की आलंकारिफ अभिव्यक्ति के साथ इन्होंने मानव- आत्मा के सोंदयचित्रण की ओर भी ध्यान दिया। इन चित्रों में जहाँ पंत जैसे कवि फोमलता और माधुरय॑ के प्रति उन्मुख रहें वह निराला के सॉदयचित्रों में आज की दीपसि मी विद्यमान है। सोंदर्य की रागात्मक अभिव्यक्ति के क्षेत्र में ये कवि प्रकृति के आलंबनात्मक चित्रण की ओर विशेषतः उन्म्रुख रहें | प्रकृति का मानवीफरण, विभिन्न प्रकृतितत्वों के प्रति रागद॒शि और इस दिशा में उदात्त सोंदर्यकल्पना इसी का परिशाम है। यद्यपि कुछ कवियों ने प्रकृति के सरल चित्र भी प्रस्तुत किए, तथापि मूत प्रकृतिरूपों की अमूर्त भावों से तुलना अथवा अमूर्त भावों के स्पष्टीकरण के लिये प्रकृतिक्षेत्र से मूर्त उपमानों का विधान अनेक हे .. हिंदी साहिश्य का बृहत्‌ इतिहांस कवियों को प्रिय रहा । फलस्वरूप इन्होंने चिरपरिचित नेंसर्गिक दृश्यों फो भी नवीन भूमिका प्रदान करने में सफलता प्राप्त की | प्रकृतिक्षेत्र में अव्यक्त ब्रह्म को : सूक्ष्म अंतर्व्यास्ति का चित्रण भी अनेक कवियों ने फिया हे। वास्तव में भारत की चिरपरिचित दाशनिक प्रभावपरंपरा में सववाद, रहस्यसाधना, शेवागम के आरनंद्र- वाद आदि का प्रतिपादन छायावाद की सामान्य विशेषता है। इस संदर्भ में साधक की विरहानुभूति अथवा वेदना का चित्रण भी इस युग फी उल्लेखनीय प्रवृत्ति है जिसकी अभिव्यक्ति विशेषतः महादेवी के काव्य में हुई। दूसरी ओर, निराला; पंत प्रभ्भति कवियों ने अंग्र जी को रोमांटिक काव्यघारा से भोी प्रत्यक्ष . रूप में प्रभाव अहण फिया। पाश्चात्य प्रभाव के फलस्वरूप इन कवियों ने वेयक्तिफ मृल्यों की अभिव्यक्ति, अंतमु खी प्रवृत्ति, सूक्ष्म रागात्मक सोंदर्यदृष्टि, अतोंद्रियता, अनुभूतिपरिष्फार; अभिव्यक्ति की नवीन भंग्रिमाश्रों आदि को रुचि- पूर्वक अपनाया । कीद्स, शेली आदि अंग्रेजी कवियों की स्वच्छंदतावादी कविताओं के प्रभावस्वरूप इन्होंने भावयोजना में रम्य और अद्भुत तत्वों के संयोग अथवा लालित्य और ओज के समनुरूप विधान की ओर भी ध्यान दिया। इस प्रकार छायावादी कवि एक ओर भारतीय काव्यदृष्टि के अनुरूप रस और ध्वनि के प्रति श्रास्थावान्‌ रहे ओर दूसरी ओर उनपर पश्चिम की रोमानी फाव्य- प्रवृत्तियों फा दीबर काल तक प्रभाव रहा । भावविन्यास संबंधी विविधता और समृद्धि के साथ प्रस्तुत युग का कविकृतित्व काव्यरूप और काव्यशिल्प की दृष्टि से भी श्रपूर्व है । इस युग का कवि घटनाक्रम की विवरणात्मक प्रस्तुति तक ही सीमित नहीं रहा, अ्रपितु पूबवर्तियों की तुलना में उसने मानवचेतना की अभिव्यक्ति ओर भाषापरिष्कार की ओर फहीं अ्रधिक ध्यान दिया । 'कामायनी” और “तुलसीदास” इस दृष्टि से इस युग की सर्वोत्तम उपलब्धियाँ हैं। इसी प्रकार मुक्तक कविताओं में भी नवीन विषयों के संयोजन ओर शेलीपरिष्कार पर बल दिया गया। वेसे,' इस युग की उल्लेखनीय उपलब्धि प्रगीतकाव्य है जिसमें कल्पना की रम्यता, वेयक्तिकता, भावात्मक तरलता, संगीतात्मफता ओर शोकगीति, पत्रगीति प्रथ्नति रचनाप्रकारों फी विविधता फो सहज ही लक्षित किया जा सकता है। भाषापरिष्कार की दृष्टि से भी यह पूर्ण उत्कर्ष का युग था। छायावादी कवियों ने सक्ष्म संश्लिष्ट चित्रयोजना रंगवभव, फोमल विराद शब्दचित्रों में भावानुसार कल्पना अथवा आवेश के _ समाहार, विशेषण, समास, संधि शआ्रादि के प्रयोग द्वारा नवीन अथव्यंजना, वक्ता लॉचशिकता, प्रतीकविधान, ध्वन्यात्मफता आदि के द्वारा काव्यभाषा के रूप में खड़ी बोली का अद्युत विफास परिष्कार किया। इसी प्रकार अलंफार फो बाह्य शोभा का साधन मात्र न मानकर अनेक कवियों ने भावसमृद्धि में उसकी महत्वपूरणों न | भोग १० | .. कवि झौर कृतियाँ : एक सर्चेत्॑ण ७७ भूमिका मानी । सोंदर्यद्ष्टि की मिन्‍नता के अनु रूप अलंकारों की विविधता, नवीन उपमानों की साथकता; वक्रोक्तिजनित भंगिमा आदि के प्रति प्रसाद आदि कवियों में निश्चय ही जागरूक कविदृष्टि मिलती है। छुंदसंयोजन के क्षेत्र में भी इस युग में श्रनेक मोलिक प्रवृत्तियाँ लक्षित होती हैं। सामान्यतः कवियों ने वर्ण, मात्रा, यति श्रादि के परंपरागत नियमों का निर्वाह करने पर भी उन्हें श्रपरिवतनीय नहीं माना। उदाहरणशस्वरूप विभिन्‍न छुं्दा के शास्त्रोक्त नियमों के परस्पर समंजन द्वारा नवीन छुंदों की रचना और उदू, अंग्रेजी तथा बेंगला छुंदों से प्रभाव ग्रहण फर नवीन छुंदों को स॒ष्टि अ्रथवा उनका यथावत् प्रयोग पंत, निराला प्रभति कवियों फी विशिष्ट प्रवृत्तियाँ हैं। मुक्त छुंद, अर कांत पद्धति, लोकगीतों की शेली के अनुवर्तन आदि से भी कुछ कवियाँ के छुंदविधान में वे शिष्य्य फा समावेश हुआ है। इसी प्रकार फोमल ओर विराट भावचित्रों के अनुरूप नादसौंदय में विविधता लाकर मी कवियों ने छुंदविधान फोशल का परिचय दिया है। भर मानुभूति संबंधी कविताएं प्रस्तत युग में प्रेम ओर सोंदर्य संबंधी कविताओं को रचना तीन वर्गों में हुई--एक ओर कुछ कवियों ने रूपचित्रण, प्र मव्यंजना, संयोग-वियोग-जनित मनोदशादि फी अभिव्यक्ति के लिये रीतिकालीन <ंगारफाव्य फी परंपरा में दोहों श्रोर कवित्तों की रचना की, दूसरी ओर छायावादी कवियों ने “पल्‍्लव?; “धपरिमल', 'लद्दर' आदि कतियों में सोंदर्य ओर प्रेम के सरस चित्र अंकित किए ओर तीसरी ओर बच्चन, भगवतीचरण वर्मा, अंचल, नरेंद्र शर्मा आदि कवियों ने नवप्रवर्तित वेयक्तिक काव्यघारा के अंतर्गत प्रेमानु भूति संबंधी कविताओं फी स्वतंत्र रूप में रचना फी । इन तीनों में अनुभूति और अ्रभिव्यक्ति की दृष्टि से पर्याप्त श्रंतर है--जहाँ ब्रजभाषाकवियों ने आलंबनादि की चेष्टाओं का परंपरागत पद्धति से स्फुट चित्रण फिया वहाँ छायावादी कवियों ने प्रेममाव की व्यंजना के . लिये भाषाशेली की सकेतिकता को महत्व दिया। इस संदर्भ में निराला और पंत पर अंग्र जी फी रोमानी काव्यघारा का भी प्रभाव रहा और प्राय: उन्होंने प्रकृति पर शंगारचेतना के आरोपपूर्वक अपने मार्वों फो प्रच्छुन्न रूप में व्यक्त किया | किंतु, प्रेमानु मूति को विशिष्ट स्वर प्रदान करने पर भी छायावादी कवियों ने उसे एकमात्र अथवा प्रमुख काव्यप्रवृत्ति के रूप में ग्रहण नहीं किया | उनकी तुलना में बेयक्तिफ काव्यधारा के कवि इस ओर अधिक उन्मुख रहे उनकी प्रेमकविता श्रों में उमर खेयाम फी रुबाइयों, प्रेम और मस्ती के राग से आप्लावित उदू' काव्यधारा और छायावादी प्रेमवब्यंजना का संमिलित प्रभाव व्यक्त हुआ । अंत में प्रेमानुभूति संबंधी उपयुक्त तीनों काव्यसरणियों के संबंध में यह कथन ७८ । । द ह्विदी साहित्य का बूहत इतिहास उचित होगा कि इस युग में न वो रीतिकाल जैसी स्थूल भोगवादी दृष्टि अपनाई गई और न ही द्विउेदीयुगीन नैतिकता के अंकुश को स्वीकार किया गया, श्रपितु कवियों की दृश्टि प्रायः प्रेमतत्व के रागात्मक उन्‍नयन पर केंद्रित रही । हास्यव्यंग्यात्मक रचनाएँ .. उत्कषकालीन काव्यप्रवृत्तियों में हास्यव्यग्य का गोण स्थान रहा, तथापि कुछ कवियों ने केवल इसी शैला के कवितासंकलन प्रध्तुत किए आर कुछ अन्य ने विविधविष्यक कवितासंग्रहों में व्यंग्य कविताओं को भी स्थान दिया। इस हि ॥ 8" | ले विश्लेषक हैं | कुछ काबया ने तत्कालौन साहिलिक राजनीतिक वातावरण के प्रति प्रतिक्रियास्वरूप स्कुठ व्यंग्यरचनाए भी प्रस्तुत की हैँ, किंतु एंसी कविताओं की संख्या अधिक नहीं है। सामान्यतः इस युग के व्यग्यकारों की हाट शिक्षात्मक व्यंग्यकविताओं की ओर रही है जिनमें विवरणुबद्धता श्रोर श्रमिव्यंजता की स्थूल॒ता की प्रमुखता है, किंतु कुछ कविताओं ओर परिवृत्तियाँ मे समग्र रूप सें ग्रथवा श्रंशतः व्यंग्य का तीखापन भी विद्यमान हैं । इस काव्यधारा की एक अन्य प्रद्नत्ति माध्यम भाषा की विविधता है। वेसे तो कवियों ने अधिकतर खड़ी बोली में कविताएँ लिखी हैं जिनमें प्रतिक्रियाविशेष पर बल देने के ढिये यत्र तत्र जी शब्दों और काव्यपंक्तियों का भी प्रयोग हुआ है, फिंत कुछ कबियों ने ब्रजमाषा, अ्रवधी ओर बेसवाड़ी में भी व्यंग्यकाव्य को रचना को है जें। मापागत वशिष्य्य के कारण अत्यंत मामिक बन पड़ा है । अजसाषा काव्य आलोच्य युग में खड़ी बोली की तुलना में ब्रजधाषा की मंथर विकासयाना भी सहज ही ध्यान आ्राकृष्ट कर लेती हैं। यद्यपि फाव्यभाषा के रूप में प्रजमापा ओर खड़ी बोली में ते किसी एक की प्रतिष्ठा का द्विवेदीयुगीन ढूंद्व श्रत्न प्रायः सम प्त हो गया था ओर ब्रजमाषा की पुनर्स्थापना विगत की बात हो गई थी, तथापि ब्रजभाषा के प्रति अ्रनुराग और श्रद्धा रखनेवाले कवियों और सहृदयों की कमी नहीं थी। वेसे मी, इस युग के ब्रजमाषाकवियों में हरिओ्लोध, रत्नाकर सनेद्दी वियोगी हरि श्रनूप शर्मा, दुलारेलाल भार्गव, रामेश्वर “करण” आदि के कतित्य को केवल परंपरावादी नही' कहा जा सफता--इन्होंने मावव्यंजना आर र शिल्प दोनों की दृष्टि से करिचित्‌ नवीनताओं के समावेश पर दृष्टि रखी है। इनकी .. फाव्यइतियाँ केवल पोराशिक ओर ऐतिहासिक बृत्तनिरूपण तक सीमित नहीं हैं, [ भाग १० ] कवि और कृतियाँ : एक सवक्षण ७६ अपितु इन्होंने समकालीन सामाजिक जागृति, राष्ट्रीय उद्बोधन, विश्वमानवता, मानवीकरणपरक प्रकृतिचित्रणु आदि की ओर भी यथेष्ट व्यान दिया है । वास्तव में उत्कर्ष काल के ब्रजभाषा कवियों ने मक्तिकाल और रीतिकाल के प्रभाववश जहाँ भक्ति-नीति-काव्य, रीतिकाव्य, श्गारकाव्य; प्रशस्तिकाव्य, सम्स्यापूर्ति काव्य आदि की रचना की वहाँ खड़ी बोली की सम्रकालीन काव्यप्रवृत्तियों को भी उदारतापूवक ग्रहण किया--यह दूसरी बात है कि इस शेली की कविताएँ परिमाश में कम है काव्यरूपों को विविधता और ब्रजभाषा के भाषा संबंधी प्रतिमानों के निवाह की खोर भी इन कवियों का उपयुक्त ध्यान रहा बातकाउय प्रस्तुत युग में बालफाव्य की ओर भी यथेष्ट ध्यान दिया गया। इस संदर्भ में जहाँ गिरीश, श्रीनाथ सिंह, व्यथित हृदय आदि ने मुख्य रूप से बालकों ओर किशोरों के लिये ही साहित्यस्चना की वहाँ हरिओ्लोष, रामनरेश त्रिपाठी, सोहनलाल दिवेदी प्रद्वति कवि अन्य फाव्यप्रदृच्चियों के साथ इस ओर भी उन्मुख हुए। बालकविताओं की रचना दो रूपों में हुई-- एक तो पोराशिक ऐतिहासिक अारुयानों और पशु-पक्षी-जगत्‌ से संबद्ध फल्पित कथाओं फो सरल शेली में प्रस्तुत फिया गया ओर दूरूरे।; बालजगत्‌ से संबद्ध विभिन्‍न विषर्यों पर आख्यानमुक्त संज्ञित कविताएँ लिखी गईं। विषयवेविध्य के अनुरूप इनमें रचनाहृष्टि की विविधता को भी सहज ही लक्षित किया जा सकता है। वैसे, इनमें दो बातों पर अधिक बल रहा है-- मनोर॑जन ओर जीवनोपयोगी शिक्षा | मनोर॑जनप्रधान कविताओं में हस्यरस, प्रकृतिसोंदय) पशुपक्षियों से संबद्ध फल्पनाओं, खेल खिलोनों से संबद्ध भावनाओं आदि फो स्थान प्राप्त हुआ है और शिक्षात्मक कविताओं में भक्तिमाव, बेतिक मर्यादाओं, पारिवारिक संबंधों अधि के समुचित प्रस्फुटन पर बल रहा है। कुल मिलाकर यह कहना उचित होगा कि इस युग में बालकविताओं का उचित दिशा में विकास हुआ जिसे परवर्ती समृद्ध बालकाव्य के लिये अंकुरस्वरूप माना जा सकता है | उदू काव्यधारा छायावादयुगीन कविता की पृष्ठभूमि में तत्कालीन डदू कविता की प्रबूचियों का मूल्यांकन भी उपयोगी होगा । उस समय के उदू कवियों में इकबाल का स्थान सदवंप्रमुख है। उन्होंने तत्कालीन सामाजिक राजनीतिक विषयों को लेकर स्फुट काव्यरचना करने पर भी विशेषत: या तो देशप्रेम की कविताएँ लिखीं अथवा भगवत्पमेम की मस्ती को प्रकट क्रनेवाली कविताओं की रचना की जिनमें अंतमुखी प्रबवृचि ओर दशनशास्त्र में कवि को अभिरूचि के स्पष्ट संकेत कि हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास विद्यमान हैं । श्रन्य कवियों में अख्तर शीरानी ओर जोश मलीह्वाबादी उस युग के प्रसिद्ध रोमानी कवि हैं । इन्होंने देश के श्रतीत गौरव, नीतिशिक्षण श्रादि को प्रकट करनेवाली समसामयिक प्रभावयुक्त कविताओं की रचना करने पर भी अधिकतर प्रेम और सौंदर्य के वेयक्तिकता से संपुष्ट मादक चित्र अंकित किए हैं | इस संदर्भ में प्रकृतिसाँदर्य के कल्पनात्मक चित्रांकन की ओर भी इनकी प्रवृत्ति रही है | हसरत की फविताओं में भी प्रेम श्लोर सोंदर्य फा रागात्मक अंतर्भाव है जिसे फहीं कल्पना की मादकता और श्रन्यत्र वेदना की मामिकता द्वारा प्रवाहपूर्ण ग्रभिव्यक्ति दी गई है। वेयक्तिक भावधारा का अंतर्विकास इस काल के अनेक ग्रन्य कवियों में भी लक्षित होता है। उदाहरणशुस्वरूप फिराक गोरखपुरोी की कविताओं में यह विशेषत: आत्मिक प्रेम श्रथवा श्राध्यात्मिक संवेदना के रूप में मुखरित है, तो शाद श्रजीमाबादी की कविताओं में इसकी श्रभिव्यक्ति निराशाबाद के रूप में हुई है। इस युग के अन्य कवियों में सागर निजामी, दानिश ओर रविश सिद्दीकी उल्लेखनीय हैं जिन्होंने उपयुक्त प्रवृत्तियों फो समन्वित रूप में ग्रहण किया है, किंतु दानिश की फविताश्रों में समसामयिफता और सिद्दयीफी की कविताओं में सांस्कृतिक मूल्यों की श्रभिव्यक्ति पर अधिफ बल रहा दै। यह कथन अनुचित न होगा कि यद्यपि कथ्य और शिल्प फी दृष्टि से हिंदी की छायावादी काव्यधारा और तत्कालीन उदू कविता के स्वरूप में तात्विक अंतर था, तथापि इनमें आदान प्रदान की संभावनाएँ भी साकार रूप लेती रही थीं उपयुक्त प्रव्ृत्तिविश्लेषण के उपरांत इसमें संदेह नहीं रह जाता कि उत्कर्षकालीन कविता के विविध स्रोत थे और भाव तथा भाषा की दृष्टि से अनेक समान अ्रसमान प्रवृत्तियाँ विद्यमान थीं, किंतु इनका समन्वय फरने पर सहृदय के मन पर प्रस्तुत युग के काव्योत्कर्ष का श्रमिट प्रभावचित्र अंकित होता है। राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता आलोच्य काल की प्रमुख काव्यघारा है। इन कविताओं फा मूलाधार है देशभक्ति | देशभक्ति अथवा राष्ट्रीयता मानव की तीत्रतम भावनाओं में से एक है। मौगोलिक तथा सांस्कृतिक एकता एवं आर्थिक तथा राजनीतिफ आफांज्षाओं की समानता किसी जनससुदाय को राष्ट्ररूप प्रदान करती हैं। सामूहिक जीवन, सामूहिक विकास तथा सामूहिक आत्मसंमान की भावना ही राष्ट्रीयता है। अपने राष्ट्र के प्रति व्यक्ति का तीव्रानुराग स्वाभाबिक है। एफानुभूति तथा सामूहिक चेतनाजन्य इस मावना की तीत्रता और सघनता को विद्वानों ने एक स्वर से स्वीकार किया है। अ्रतएव सभी कालों और समी देशों में देशभक्तिपूर्ण कविताएँ लिखी जाती रही हैं । हमारे देश में राष्ट्रीयता का स्वरूप सदा एक सा नहीं रहा है। वीरगाथा- कालीन राष्ट्रीय भावना अत्यंत संफुचित थी। उस समय छूोटे छोटे मांडल्िफ राज्यों फो ही राष्ट्र मानकर उनके प्रति अनुराग प्रकट किया गया है तथा चारखों द्वारा अपने अ्रपने आश्रयदाताओं की अ्म्यर्थना हुई है। जहाँ कहीं राष्ट्रीयता प्रादेशिकता से ऊपर उठी वहाँ भी उसका सांप्रदायिक अथवा धामिफ रूप ही सामने आया । वह हिंदुत्व से आगे नहीं बढ़ सकी । महाराज प्रथ्वीराज चोहान की अभ्यर्थना “हिंदवांन रांन? रूप में ही की गई है, यथा-- ( १ ) गद्दी तेग चहुवान हिंदुर्वांन रानं | (२) चढ़े राज द्ग्गह ज़िपति, सुमंत राज प्रथिराज, अति अनंद आनंद हैं, हिंदवान सिरताज | व्यकाल के अ्रंत तक राष्ट्रीयता का यही संफीण स्वरूप बना रहा। भूषण ने भी शिवाजी की सराहना हिंदूपति के रूप में ही की है (क) तुरकान मलिन कुमुदिनी करी है हिंदुवान नलिनी खिलायो विविध विधान सों | (ख) कामिनी कंत सों जामिनी चंद सों दामिनि पावस मेघ घटा सो । . कीरति दान सो सूरति ज्ञान सों प्रीति बड़ी सनमान मदद सों ॥ भूषन! भूषन सों तरनी नलिनी नव पूषनदेव प्रभा सों। जाहिर चारिहु ओर जहानु लसे हिंदुवोन खुमान सिवा सौं ॥ १०-११ . द२ क्‍ हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास इस प्रकार रीतिकाल तक संपूर्ण भारतवर्ष को एक भोगोलिक इकाई मानकर राध्ट्रीयता का उन्मेष नहीं हुआ | वस्तुतः सन्‌ १८५४७ के स्वतन्नता संग्राम में ही पहली बार असंकीर् राष्ट्रीयता के दर्शन दुए। मारतेंदु तथा द्विवेदीयुगीन साहित्य में रा'ट्रीयता का यह श्रसंकी्ण रूप ही मिलता है। यद्यपि इन फाल- खंडों फी जनजागरण ओर सांस्कृतिक पुनरथान की भावना भी मूलतः आये ( हिंदू ) जागरण और पुनरुत्थान की धआवना ही है, तथापि उसमें मध्यकालीन सांप्रदायिकता नहीं है। फिर भी आज की उदार और मानवतावादी राष्ट्रीय भावना की प्रतिष्ठा उत्तष काल के आरंभ में ही हो सकी। १९२० में भारत फा राजनीतिक नेतृत्व गांधी जी के हाथ में आने पर राष्ट्रीयता का पुनः संस्कार हुआ | उनके प्रभाव से राष्ट्रीय मावना में सांस्कृतिक मुल्यों तथा नैतिक आदर्शों का समावेश हुआ | इस प्रकार आलोच्य काल के श्रम में ही राष्ट्रीयता का सच्चा मानववादी रूप सामने श्राया । मुख्य प्रवृत्तियाँ देशभक्ति अथवा राष्ट्रीय भावना एफ तीत्र झर शक्तिशाली भावना होने पर भी सवंथा मौलिक मनोदबृति नहीं हे। आचार्य नगेंद्र ने एक स्थान पर लिखा है--'देशभक्ति में राग श्रौर उत्साह फा मिश्रण है। उत्साह उसके राष्ट्रीय स्वरूप का आधार है ओर राग उसके मानवीय संस्कृतिक रूप का ।--यह उत्साह श्रोर राग ही पराधीनता की लौह शंखला एवं अनिश्कारी दमन के विरुद्ध संघर्ष की भावना, अतीत के गौरवगान, देश की वर्तमान दु्दशा के परिहार के उपक्रम, स्वर्शिम भविष्य की कल्पना, मातृभूमि की वंदना आदि रूपों में श्रभिव्यक्त हुआ । *.. ए संघष की भावना गांधी जी के युगचेतना फो ञआराच्छादित करनेवाले व्यक्तित्व और चिंतन के प्रभावस्वरूप आलोच्य फाल में सभी विषमताओं और विसहशताशञं का मूल फारण विदेशियों के विगहणीय शासन को माना गया अ्रतः उसका उन्मूलन श्र्थात्‌' स्वराज्यप्राप्ति राष्ट्रीया फा ध्येय बना। अपने जन्मसिद्ध श्रधिकार--स्वराज्य--- का अपहरण, स्वयं अपने ही घर में बंदी बनकर निरीह और निरुपाय जीवन- बापन; प्रगतिविरोधी श्र अ्रपमानजनक विदेशी शासन श्रसह्मय हो गया। * झ्राघुनिक हिंदी कविता की मुख्य अवृत्तियाँ, पृष्ठ २३ |..." [भाग (०].. राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता ८३ है मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्राकुमारी चोंहान, नवीन; माखनलाल चतुर्वेदी आदि कवियों को इस विषेले वातावरण में घुट्न का अनुभव हुआ । स्वाधीनता के लिये इनकी आत्मा तड़प उठी। इन्होंने मारतीयों को दासता का बोध कराया ओर पराधीनता के अ्रसहायय चित्र उपस्थत किए । इस प्रकार इन कवियों की छ्षुब्ब वाणी ने देश के बृहत्‌ जनसमुदाय फो विदेशी शासन की पाषाणी कारा से मुक्ति पाने के लिये उत्साहित किया । विदेशी शासन के अन्याय, अत्याचारों ओर दमन का प्रभावी चित्रण ओर प्रबल विरोध इन कवियों ने किया है। मैथिलीशरण गुप्त और सुभद्राकुमारी चोंहान ने स्पष्टटः पराधीन भारत माता को सीता के बंदिनी रूप में चित्रित किया ६ द भारत लक्ष्मी पड़ी राक्ष्सों के बंधन में, सिंधु पार वह बिलख रही है व्याकुल मन में | ( साकेत, पष्ठ २६७ ) हो असहाय भट्कते फिरते बनवासी से आज सखी ! सीता लक्ष्मी इरी किसी ने गई हमारी लाज सखी। ( मुकुल, पृष्ठ ६१-) माखनलाल चतुवँदी स्वच्छुंद विद्यरिंणी कोकिल से कारावास के अपने श्रवरुद्ध जीवन की तुलना करते हैं तुझे मिली हरियाली डाली, मुझे नसीत्र कोठरों काली। तेश नम भर में संचार, मेरा दस फुट का संसार | तेरे गीत फहावें वाह, रोना भी है मुझे गुनाह । देख विषमता तेरी मेरी बजा रही तिसपर रणमेरी ! ( कैदी श्रोर फोकिला, हिमकिरीटिनी, प० १६ ) .... कैसा तीखा और प्रभावोत्पादक वैषम्य है|! ओर यह वैयक्तिक न होकर स्वाधीन ओर पराधीन जातियों की स्थिति का वषम्य है | ... निराला वीयप्रसू मारतमाता के लाडले राजकुत्ररों फो 'कालथक्र! में दबे देखकर विफल हें | ड ६४ द हिंदी साहित्य का बुदत्‌ इतिदास पशु नहीं, वीर, तुम, समरश्ूर, कूर नहीं, कालचक्र में हो दबे, ग्राज॒ तुम राजकुँवर | --समर सरताज ! ( परिमल, पृष्ठ २०४ ) अगली ही पंक्तियों में कवि 'कालचक्र”' की इस गति फो उलठने--- पराधीनता के विरोध--का परामर्श देता है पर क्‍या है . सब माया है-माया है; ' मुक्त हो सदा ही तुम, बाधाविहीन बंध छुंद ज्यों | द ( परिमल, पृष्ठ २०४ ) रामनरेश त्रिपाठी के अनुसार देश को स्ंतोमुखी दुर्गति का मात्र कारण है पराधीनता--- समझ लिया तत्काल, पथिक ने कारण इस दुर्गति का। है सिद्धांत प्रजा की उन्नति के प्रतिकूल हृपति का॥ ( पथिक, पृष्ठ ७६ ) द अपने को 'सुसम्य' ओर 'सुस॑स्कृतः फहनेवाले अंग्रेजों की अमानवीय नीति पर दिनकर करारा व्यंग्य करते हैं ; सिर धुन घुन सभ्यता सुंदरी रोती है बेबस निज रथ में, हाय | दनुज॒ किस ओर मुझे ले खींच रहे शोशित के पथ में ९ . + कर. नी दलित हुए निरबल सबलों से .. मिटे राष्ट्र उजडे दरिद्र जन ग्रह | सभ्यता आज कर रही श्रसहायों फा शोशित शोषण । शोषण ओर दमन की इस अतिशयता को सहन करने में असमर्थ देश का यौवन दिनकर के ख्रों में उबल पड़ा है: .. रस्सों से कसे जवान पापप्रतिकार न जब कर पाते हैं, | भाग १० ] रं्रीय साँस्कृतिक कविता... ध्ध पोरुष फो बेड़ी डाल पाप का अभय रास जब होता है + न +- न असि की नोकों से मुकुट जीत अपने सिर उसे सजाती हूँ; ईश्वर का आसन छीन; कूद में आप खड़ी हो जाती हूँ; थरथर करते कानून, न्याय, इंगित पर जिन्हें नचाती हूँ; भयभीत पातकी धर्मों से अपने पग में घुलवाती हूँ। सिर भुका घमंडी सरकारें करतीं मेरा अर्चन पूजन। रन मन भन. भन. भान मनन भझनन। ( हुंकार, पृष्ठ ७३, ७५ ) पद पद पर बंधन, अवरोध, अपमान, श्रत्याचार ओर दमन के परिणास- स्वरूप देश का अधिक संवेदनशील वर्ग तो बोखला उठता है। पराकाष्ठा को पहुंची हुई बोखलाहट ही नवीन और दिनकर के स्वरों में फूट पड़ी हैं । जागरण का संदेश तथा कतंव्यपालन का आदृश : बिक] द संवत्‌ १९६६ में प्रकाशित 'भारतभारती” में गुप्त जी ने लिखा था-- (जग जायें तेरी नोक से सोए हुए हैं माव जो |! उत्कषेकालीन कवियों ने भी शताब्दियों से सुषुप्त भारतवासियों की मोहनिद्रा से जगाने का प्रयत्न किया। विदेशी शासककृत अन्याय, अत्याचार, दमन और आतंक की अवस्थिति में भी इस युग का कवि हृताश नहीं हुआ, न ही उसने देशवासियों को हतोत्साह होने दिया। नित नए लागू किए जानेवाले काले फानून तथा जलियानवाले बाग के इत्याकांड जेसी लोमइर्षक घटनाएँ भारतीयों को लक्ष्यश्रष्ट नहीं कर सकी । : तत्कालीन कवियों ने उस आतंकपूणं स्थिति में जनता को विचलित न होने दिया। यद्यपि उनकी लेखनी पर भी नियंत्रणु थो ( ह कलम बँधी स्वच्छुंदु नहीं ), फिर भी उन्होंने जनजागरण के गीत गाए, सोए हुओं को जगाया तथा उद्यासीनता त्याग कर्तव्यपालन के लिये प्रेरित किया। यह कार्य कहीं प्रत्यक्ष आदेश और उपदेश के रूप में हुआ तो कहीं आदर्श रूप में किसी प्रसंग के प्रस्तुतीकरण द्वारा ; माखनलाल चतुववेदी मजबूत फलेजों को लेकर इस न्याय दुर्ग पर चढ़ो। चलो; माता के प्राण पुकार रहे, संगठन फरो, बस चढ़ो, चलो। ( टिमिकिरीटिनी, पृष्ठ ८१) हे पे .. हिंदी साहित्य कां बूंहत्‌ इतिहासे सोहनलाल दिवेदी तैयार रहो मेरे बीरो, फिर ठोली सजनेवाली है। तैयार रहो मेरे शूरो, रणमेरी बजनेवाली है। इस बार, बढो समरांगश में, लेकर वह मिटने फी ज्वाला, सागरतट से आ ख्वतंत्रता, पहना दे, तुमकी जयमाला। ( भेरवी, पृष्ठ १२७ ) रामनरेश त्रिपाठी : दुखदायी शासन से अ्रपनी सारी शक्ति हटा लो। निज सुख दुख का अपने ऊपर सारा मार सँमभालो | अपना शासन आप करो ठुम यही शांति है, सुख हे । पराधीनता से बढ़ जग मे नहीं दूसरा दुख है। >< 5 »< >< जब तक जीवन है शरीर में तब तक घर न हारो । ( पथिक, पृष्ठ ५० ) नवीन 5 जब जग विचलित होता दीखे, जब सब छोड़ें संग अ्रहो, जब दुनियादारों की होवे धीमी हृदयउमंग अ्रहो, जब कि पड़े जय जय्र को ध्यनि का कुछ कुछ फीका रंग अहो, तब तुम, श्ररे युवक, मत डोली, पथ पर डटे अ्रभंग रहो, निरुत्साह की, तिरस्कार को यदि तुमको भावना मिले, तो उसको, हैं अटल हिमाचल, सह जाओ तुम बिना हिले । ( हम विषपायी जनम के, पृष्ठ ४१९ ) दिनकर ; द घधरकर चरण विजित श*र्गों पर झंडा वही उड़ाते हैं अपनी ही उंगली पर जो खंजर की जंग छुड़ाते हैं। पड़ी समय से होड़, खींच मत तलवों से फाँटे रुफकर, ' फूक फूक चलती न जवानी चोटों से बचकर, भ्रुककर, नींद कहाँ उनकी आँखों में जो धुन के मतवाले हैं गति की तूृषा ओर बढ़ती पड़ते पद में जब छाले है। ( हुंकार, ४० २७ ) इस प्रकार के ओर मी अनेक उदाहरण अ्रनायास हो प्रस्तुत किए जा सकते . हैं। मेथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, सुभद्राक्मारी चौहान, माखनलाल (सांग १०] राष्ट्रीय सॉसस्‍्कृतिक कविता ८७ चतुर्वेदी, सोहनलाल द्विवेदी, निराला, दिनकर प्रभ्ति कवियों ने जनसमूह में एक नवचेतना का संचार किया तथा स्वकर्तव्य के प्रति सचेत किया। कष्टसहन और बलिदान की भावना राष्ट्रीय कविता में विदेशी सचा के विरोध की भावना प्रमुख रही है। कवियों ने देशवासियों को दमनचक्र के विरुद्ध संघर्ष के लिये उकसाया है। किंतु : थह विरोध और संघर्ष सर्वथा अहिसात्मक है। तत्कालीन स्वतंत्रता आंदोलन गांधी जी के नेतृत्व में प्रवर्तित हुआ था ओर वे सत्य और अरहिसा के विख्यात पुजारी ये। अ्रतः उत्कर्षकालीन राष्ट्रीय काव्य त्याग श्रीर बलिदान कौ भावनाओं से आ्रापूर्ण है। वस्तुत: इस थुग की वीश्मावना मध्ययुगीन बीरभावना के सर्वथा विपरीत है| शत्र॒वध के शौय के स्थान पर इस युग की कविता में सत्य और अहिंसा का, न्‍्यायसंमत कर्म ओर शीशदान की महिमा का गान छुश्ना है। सुभद्राकुमारो चौहान भारतमाता के वीर सुपुनत्रों की पाप से असहयोग ओर बलिदान फा संदेश देती हैं : क्‍ विजयिनी माँ के वीर सुपुत्र पाप से श्रसहयोग लें ठान। गुँजा डालें स्वराज्य फी तान ओर सब हो जावें बलिदान || जरा ये लेखनियाँ उठ पड़ें मातृभू फो गौरब से में । फरोड़ों क्रांतिकारिणी मूर्ति पलों में निर्मयता से गढ़ें। ग्रोर सब हो जावें बलिदान । ( मुकुल, पृष्ठ १०६ ) बालकृष्ण शर्मा “नवीन! स्वातंत्यसंग्राम के सेनिकों फो चेतावनी देते हैं कि विजय सदा से त्याग और बलिदान माँगती रही है। जो जीवन की संपूर्ण आशाएँ ओर आफांज्ञाएँ, यहाँ तक फि योवन भी समर्पित करने फो प्रस्तुत है वही शताब्दियों फी दासता के बंधनों फो काटने में समर्थ हो सकता है है बलिवेदी, सखें, प्रज्वलित माँग रही ई'धन चण क्षण, आओ युवक, लगा दो तो तुम अपने योवन का ई'बन, भस्मसात्‌ हो जाने दो ये प्रबल उमंगें जीवन की अरे सुलगने दो बलिवेदी, चढ़ने दो बलि यॉवन की। ( हम विषपायी जनस के, पृष्ठ ७१६ ) माखनलाल चतुवेदी तो शूली फो 'इंसा को शोभा” मानते हैं तू सेवक है, सेवाब्रत « है, तेश जरा कुसूर नहीं, 'झूली--वह ईसा की शोभा? वह विजयी दिन दूर नहीं द ( हिमकिरीटिनी, एुंष्ठ &३ ) रक घ्प हिंदी साहिश्य का बृहत्‌ इतिहास कष्ट ओर दमन का भी वे स्वागत ही करते हैं तिरस्कार नहीं | जो जयध्वनि ओर पृष्पह्वार के लिये ही लालायित रहते हैं वे स्वाधीनताप्राप्ति में क्या सहायता करेंगे ? इसके विपरीत जो व्यक्ति फूलमालाश्रों के स्थान पर अधिक कष्टसहन की अभ्यथना करता है, वही सच्चा सेनानी है। ( माता; पृष्ठ ११९ ) | दिनकर, सियारामशरण गुप्त तथा वियोगी हरि ने भी इसी प्रफार के भाव व्यक्त किए हैं ; द अपनी गदन रेत रेत असि की तीखी धारसें पर राजहंस बलिदान चढ़ाते माँ की हुकारों पर। ( हुकार, पृष्ठ ४६ ) किस अ्रविनीत अनय के भगु से पाकर पदगहार, पाया तुमने अपने उर पर मशिचिह्ालंकार ? किस निदय के क्रूर पाश में बँध स्वेच्छा के साथ, अरियह में भी महावीर, तुम रहे समुन्तत माथ ९ ( पाथेय, पृष्ठ १२३ ) चाहो जो स्वाधीनता, सुनौ मंत्र मन लाय | बलिवेदी पे निज करनि, निज सिर देहु चढ़ाय || ( वीर सतसई , पृष्ठ १२) इस प्रकार इन कवियों ने फष्टसइन और बलिदान के प्रति आस्था प्रकट की है | उत्कर्षकालीन राष्ट्रीय कविता में बड़े मनोयोग से शीशदान के माहात्म्य का बखान हुआ है। प्रह्यर करने की नहीं, प्रहार सहने फी शक्ति की संस्तुति हुई है। ओर यह निश्चय ही गांधीवाद का प्रभाव था । क्रांति का स्व॒र द गांधी के सिद्धांतों से अत्यधिक प्रभावित होने पर भी तत्कालीन कवियों की विचारधारा फा उनसे एकांत साम्य नहीं था। कवि भी एक स्वतंत्र विचारफ होता है। और किन्हीं भी दो विचारकों के चिंतन में वेषम्थ का सवंथा श्रभाव अ्र॒स॑भव ही है, श्रतएव गांधी जी के अनुरूप बलिदान, निश्शस्त्र श्रसहयोग आदि की बात करते करते कहीं कहीं इनके काव्य में क्रांति और शस्त्रप्रयोग आदि का भी उल्लेख हुआ है, यथा-- ह मेथिलीशरण गुप्त 5 ढक कह के . राज्य के नहीं; धर्म के अर्थ, . डठेंगे, तब ये शस्त्र समर्थ। की हल ( वनवेभव, पृष्ठ १८) [ भाग १० ] .... राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता... ८६ नवीन 5 कवि, कुछु ऐसी तान सुनावों जिससे उथल पुथल मच जाए, एक हिलोर इधर से आए एक हिलोर उधर से आए, प्राणों के लाले पड़ जाएं, त्राहि जाहि स्वर नभ में छाए, नाश और सत्यानाश छा घुश्ाँवार जग में छा जाए, बरसे श्राग, जलद जल जाए; अस्मतात्‌ भूधर हो जाए, पाप पुएय सद्‌ सद्‌ भार्गों की धूल उड़ उठे दाएँ बाएँ, नभ का वक्षस्थल फद जाए; तारे टृक ट्क हो जाए, कवि, कुछु ऐसी तान सुनावों जिससे उथल पुथल्ल मच जाए, ! हम विषपायी जनम के, ४० ४२६ ) दिनकर ६ मेरे मस्तक के छुत्र सुफुठ वसु कालसर्पिणी के शत फन; मुझ चिर कुमारिका के लला८ट में नित्य नवीन रघिर चंदन, आजा करती हूँ चिता धूम का हुग में अंघ तिमिर अंजन, संह्ारतपट का चीर पहन नाचा करती में छूम छुनन, रन भझान भन भझन भान मनन भानन। किंतु यह राष्ट्रीय कविता का प्रमुख स्वर नहीं है। प्रमुखता तो त्याग, फष्टसहन, बलिदान की भावना की ही है । अतीत का गौरवगान कोई भी देश श्रथवा जाति अपने श्रतीत का विस्मरश कर उन्नति नहीं कर सकती । अपना अ्रतीत प्रेरणा और प्रोत्साहन का अक्षय खोत हुआ करता है। और फिर भारत का प्राचीन काल तो शअ्र॒त्यंत गौरवमय ओर महिमामंडित रहा है | वह सब देशों फा सिर्मौर और अभिनंद्य था। शुत्त जी ने घोषणा की थी -- संपूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है ! उसका कि जो ऋषिभूमि है, वह फोन ? भारतवर्ष है। क्‍ दा ... (भारत मारती, एंष्ठ ४ ) निश्चय ही भारतवर्ष का अतीतकालीन आध्यात्मिक; नंतिक और भौतिक उत्फर्ष अद्भुत और अभूतपूर्व था। आज इस देश की चाददे जो दशा हो गई है फिंतु उसका प्राचीन अत्यंत उज्वल ओर समृद्ध था। भारतीयों ने ज्ञान विज्ञान, धर्म दर्शन, साहित्य, नीति मर्यादा, सत्य अहिंसा; करुणा ओदाय, बल १०-१२ ध् ९० .... हिंदी साहित्य का ब्ृह्वत्‌ इतिहास विक्रम, कला कौशल श्रादि सभी क्षेत्रों में श्राश्वयंजनक प्रगति की थी। देश विदेश के अनेक मनीषियों ने उसकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। ऐसे भव्य अतीत का स्मरण और गुशगान नितांत आवश्यक ओर हितकर है। गांधी ने सत्य और अहिसा के प्राचीन सिद्धांत को ही श्रपनी राजनीति का आधार बनाया । दयानंद ओर विवेशनंद ने अपनी सिद्ध वाणी द्वारा प्राचीन के प्रति गोरबभावना जगाई | शताब्दियों से पराजित और परतंत्र भारतीयों ने अपने श्रालोकमय समृद्ध श्रतीत की ओर देखा तथा गर्व और गोरव का शनुशव फिया। पराघधीनता निगड़ित भारतीयों के मन से हीन भावना का निराकश्ण कर गौरवभावणा की प्रतिष्ठा करने में उन कवियों का बहुत बड़ा हाथ है जिन्होंने श्रपनी सशक्त लेखनी से गौरवमंडित अतीत की भाँफियाँ प्रस्तुत कीं। इन कवियों में मेथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी, नवीन, निराला, सियारामशरण गुप्त, सोहनलाल द्विवेदी, उदयशंकर भट्ट शोर दिनकर चिरस्मरशीय रहेंगे । गुत्त जी के श्रनुसार यह देश भूलोफक का गौरव तथा पुणय लीलास्थली है | ज्ञान का प्रथम स्फुरण तथा सम्यता का विकास यहीं पर हुआ था। बेर्दों के अलोकिक ज्ञान ने जगतीतल को ऊध्वंगमन की प्रेरणा दी ; करके जगती का आद्वान गाया अनुपम वैदिक गान देकर सबको प्रथम प्रकाश किया सभ्यता का सुबिकाश | ( हिंदू, पृ० ६४ ) आज सम्य ओर उन्नत कहद्दे ज्ञानेवाले देशों ने सर्वप्रथम भारत से ही दीक्षा ग्रहण की थी। समस्त भूमंडल पर श्रार्यों फा डंका बजता था। प्रसाद जी ने अरी वरुणा फी शांत फकछार! कविता में यहाँ की परिषदों में होनेवाले गंभीर दाशनिक चिंतन का निरूपण फिया है। मानवजीवन में हृदय अर मस्तिष्क के सापेक्षिक महत्व के निर्धारण में ये परिषद प्रयत्नशील थीं ; तुम्हारे कुंजों में तत्लीन, दशनों के होते थे बाद देवताओं के प्रादुभाव, स्वर्ग के स्वप्नों के संबाद। स्निग्ध तर की छाया में बेठ, परिषदें करती थीं सुविचार--- . भाग कितना लेगा मस्तिष्क: हृदय का कितना है अधिकार ? द द ( लहर, १० १२ ) यहाँ धम फी उज्वल धारा प्रवाहित थी जो निरंतर “संसार के पापों फा नाश करने में तत्पर थी। उदयशंकर भट्ट के शब्दों में -- क्‍ [ सौंग १० ] राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता द ९१ शुद्ध ज्ञान की तरंग्रिणी सी शुद्र ध्म धारा अमिराम सभी जगत के कूठ तर्थये को छिनन्‍न मिन्‍मन करती अविरमस। हा ( तक्कनशिला, ४० १-२ ) यह देश तत्वज्ञानी और क्रांतदर्शो ऋषियों का देश रहा डै। जैमिनी, पतंजलि, गौतम; कशणाद जैसे नूतन दाशंनिक पद्धतियों के उद्मावक मनीषियों ने यहीं जन्म लिया था। राम तथा कृष्ण से दिव्य शुशुत्पन्‍न महामानवों की लीज्ञा- भूमि भी भारतवर्ष ही थी। मीष्म, अर्ञंन ओर मीम जैसे हृढ़त्रत नरपुंगव यहीं अवतरित हुए ये। ऐसे भहान्‌ पूवजों के पुण्यक्षत्यों फो स्मरण कर कोई भी देशवासी हौनता से ग्रस्त कैसे रह सकता है ? “खंडहर के प्रति! कांवेता में निराला उन्हों को स्मरण करते हैं : ध्यार्त भारत | जनक हूँ में जैमिनि-पतंजलि-व्यास ऋषियों का; मेरी ही गोद पर शैशव विनोद कर तेरा डे बढ़ाया मान राम-कष्ण -भीमाहजु न -मीष्म-नरदेवों ने द ( अनामिका, १० ३० ) इस अश्रवतरण में उल्लिखित जैमिनि, पतंजलि ओर व्यास अपने आध्यात्मिक उत्कर्ष के लिये प्रसिद्ध हैं तो राम और #ष्णु लोकसंग्रही महामानव के रूप में । भीष्म, भ्रजु न और भीम की प्रसिद्धि का कारण उत्कग शौय है। प्राचीन मारत का नैतिक उत्कर्ष मी दर्शनीय है। वस्तुतः नेतिक मूल्यों के श्रभाव में किसी मी दिशा में की गई प्रगति व्यर्थ दै। मयादापुरुषोच्तम राम का व्यक्तित्व तो मानो नेतिक गुणों का समाहार दी है-- विजये ! तूने तो देखा वह विजयी श्रीराम सखी | धरंभीर सातल्विक निश्छुलमन वह करुणा का धाम सखी ! द ( मुकुल, १० ६० ) हरिश्चंद्र की सत्यप्रियता, प्रहाद की अडिगता तथा गीता की निष्काम कर्मप्ररणा प्राचीन मारत की नीतिनिष्ठा की ही द्योतक हैं| “बापू” में सियारामशरण गुप्त लिखते हँ-- प्राप्त इसे दूर के अतल से सत्य इरिश्चंद्र को शअ्रव्लता, ९५ मे ः हिंदी साहित्य का बृंहव इतिहोँस लब्ध इसे ताराग्रह मंडल से श्री प्रहाद की अनंत भक्ति समुज्वलता, क्रुद्ध कुरुक्षेत्र के समर में साधा है अकाम ज्ञानकर्म योग इसने पुशयदल पांचजन्य स्वर में जीवन का पाया है श्रमरयोग इसने ( बापू , एष्ठ ४७ ) राजा ओर प्रजा में प्रेमपूर्ण संबंध था। प्रजा राजा में श्रनुरक्त थी तो राजा भी सदैव उसके हितसाधम में तत्पर था--- थी अनुरत प्रजा राजा में शृपति प्रजा साधन में था साथक अ्रद्वेतवाद अविफकल गति से जीवन में क्‍ ( तब्शिज्ञा, ४४ ३३ ) नृपगश! न्यायमूर्ति थे। विजातीय भी उनसे न्याय पाते थे--- जैन फिर भी ये आय इतर विजाति भी, नाते से प्रजा के, न्याय पाते उस राजा से | ( सिद्धराज; पृष्ठ १११) ओर स्वयं प्रजा के सदस्यों में पारस्परिक स्नेह, सदूभाव ओर सहयोग की भावना थी। एक की वृद्धि देखकर दूसरा प्रसन्‍न ही होता था न फि ईर्ष्यादग्ध-- एक तझ के विविध सुमनों से खिले, पोरजन रहते परस्पर हैं मिले। ( साकेत, पृष्ठ २२ ) अतीतकालौन शोय पराक्रम के भी अ्रनेक चित्र तत्कालीन काव्य में उपलब्ध हैं; मे सुभद्राकुमारी चोहान हे क्‍ ... कह दे अ्रतीत श्रब मौन त्याग, लंके, तुझमें क्‍यों लगी श्राग ? ऐ, कुरुक्षेत्र | अब जाग, जाग, बतला अश्रपने अनुभव अनंत, वीरों का कैसा हो वसंत १ हल्दोघाटी के. शिलाखंड ऐ छुगे | सिंहगढ़ के प्रचंड, राणा नाना का कर घमंड; (झोगे १०9]... रोष्रीय सॉरेकृतिक कविता हे दो जगा आज स्मृतियाँ ज्वलंत, वीरों का कैसा हो वसंत ? ( मुकुल, ४० १२७ ) दिनकर : तुके याद है चढ़े पदों पर कितने जयपछुमनों के हार १ कितनी बार समुद्रगुप्त ने घधोई है तुझमें तलवार १ विज्ञयी चंद्रगुप्त के पद पर सेल्यूकस फी वह मनुहार, तुझे याद है देवि | मगध का वह विराट उज्वल शुंगार १ ( रेणुफा, पृष्ठ २५ ) जयशंकर प्रसाद : द । कद्देगी शतद्गरु शत संगरों को साब्षिणी सिक्‍ख थे सजीव स्वत्व॒ रक्षा में प्रजुद्ध) थे। जीना जानते थे । ( लहर, एृष्ठ ५३ ) रामकुमार वर्मा : कभी ये राजपूत अति न्यून; किंतु था प्रिय स्वदेश अमिमान, नारियों ने भी ली श्रसि तान, चढ़ाएं रण में आत्मप्रसून । ( चिचोड़ की चिता, पृष्ठ ९ ) कलाशिल्‍्प की भी उस युग में पर्यात्ष उन्नति हुई थी। साकेत नगरी की भव्यता देखते ही बनती हैः... देख लो+ साकेत नगरी हद यही, स्वर्ग से मिलने गगन में जा रही। केतुपट अंचल सदहृश हैं उड़ रहे; फनकफफलशों पर अमरहग जुड़ रहे। सोहइती हैं विविध शालाएँ बड़ी, छुत उठाए भित्तियाँ चित्रित खड़ीं। ९४. ... हिंदी खाहित्य का बृहैव्‌ इतिहास ही क्र रहे नृपसोध गगनस्पश हैं शिल्पकोशल के परम आदर्श हैं। ( साक्रेत, पृष्ठ ११-१४ ) वतमान दुदंशा भारतवर्ष का अतीत जहाँ श्रत्यंत उज्वल ओर समृद्ध था वहाँ वर्तमान सवथा गौरवहीन तथा दुःखग्रस्त हे। देशदुदशा के मुख्यतः: दो रूप हैं--एक राजनीतिक दुर्दशा, दूसरी सामाजिक दुर्दशा । राजनीतिक दु्द शा श्रर्थात्‌ पराधीनता श्रोर तज्जन्य क्लेशों पर पहले लिखा जा चुका है। यहाँ सामाजिक दुर्दशा पर विचार किया जाएगा | तत्कालीन समाज में फेली हुई अनेक विषमताशो फी ओर भी उत्कर्षषालीन कवि को दृष्टि गई। मेंथिलीशरण गुप्त, नवीन, निराला, सियारामशरणा गुप्त, दिनकर प्रभ्टति कविपुगवों ने श्रशिक्षा अ्रथवा कुशिन्षा, विधवा के क्लेश, रुढ़िवादिता, अ्रस्पृश्यता, नेतिक पतन, अन्याय और सांप्रदायि- कता आदि के हृदयद्रावक चित्र उपस्थित किए, यथा-- मेथिलीशरण गुप्त रूढि बिना जड़ की वह बेल चूस रही जीवनरस खेल करो कर सको यदि तुम त्राण जाये न निगमागम के प्राण | ( हिंदू , एृष्ठ ३०१-२ ) वियोगी हरि अपनावत अ्रजहूं न जे अपनेहि अ्रंग श्रछृत क्‍यों करि ह्वे हैं छूत वें फरि फारी करतूत | ( वीर सतसई; पृष्ठ ७८ ) निराला ; वह दइष्ट देव के मंदिर की पूजा सी, वह दीपशिखा सी शांत, भाव में लीन, वह क्रर काल तांडव की स्पृतिरिखा सी वह टूटे तर की छुटी लता सी दीन--. दुखित भारत की ही विधवा है। ( परिमल, पृष्ठ १२६३) [ भाग १० ] राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता ९५ दिनफर : ऋणशोधन के लिये दूध थी बेच बेच धन जोड़ेंगे, बूंद बूंद बेचेंगे, अपने लिये नहीं कुछ छोड़ेंगे। शिशु मचलेंगे दूध देख, जननी उनको बहलाएगी, मैं फाडेँ गी हृदय, लाज से आँख नहीं रो पावेगी । इतने पर भी धनपतियों की उनपर होगी मार, तब मैं बरडूँगी बन बेबलस के आँसू सुकुमार । फटेगा भू का हृदय कठोर, चलो कवि वनफूलों की ओर | ( हुंकार, पृष्ठ ३७ ) इन कविताओं में राष्ट्रीयता के एक प्रमुख अंग--सभाजसुधार---को अभिव्यक्ति मिली है। सामाजिक वेषम्य और अ्रन्याय के निराफरण के बिना राजनीतिक स्वाधीनता भी साथंक और स्थायी नहीं हो सकती | स्वर्णिम सविष्य की कामना _ प्रायः सभी राष्ट्रीय कवियों ने अपनी कविताओं में स्वर्शिम भविष्य को कामना की है। वर्तमान का दुदशाग्रस्त चित्रण फरके ही ये मोन नहीं हो गए वरन्‌ इन्होंने सुंदर ओर सुखद भविष्य का निर्माण भी किया है। अतीत गौरब झौर वर्तमान अ्रगौरव का बखान यदि भविष्य के लिये स्वस्थ प्रेरणा न दै तो वाग्विलास मात्र ही हैं। वस्तुतः इन कवियों ने वर्तमान के निराशापूर्ण झौर अंधकारमय चित्रण फी क्तिपूर्ति भविष्य की आशापू् श्रोर आलोफमय कल्पना द्वारा फी है | एफ में यदि ध्वंस फा उत्साह है तो दूसरे में निर्माण फा। कवियों ने कल्पना फी कि वह कितना सुंदर और सुख-शांति-पूर्ण समय होगा जब पराधीनता के बंधन कट जाएँगे । देश के जल, थल और आकाश सब पर अपना अधिकार होगा । शासक अपने होंगे, नियम और कानून भी अश्रपने बनाए हुए होंगे-- होगा सब श्रोर बस अपना ही श्रपना ।! निराला का दृढ़ विश्वास है कि पराधीन मन फो क्षुब्ध करनेवाले विचारों का नाश अवश्य॑ंमावी है तथा भारत फिर मद्दिमामंडित होगा, फिर से उसका भाल आलोकित हो उठेगा-- ज्लिलने विचार आज मारते तरंग हैं साम्राज्यवादियों की मोगवासनाओं में नष्ट द्ोंगे चिरकाल के लिये। ९६ हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास आएगी भाल पर भारत की गई ज्योति, हिंदुस्तान मुक्त होगा घोर अपमान से दासता के पाश फठ जाएंगे | ( परिमल, एृष्ठ २१२) सुभद्राकुमारी चौहान प्यारे देश की खतंत्रता से प्रमुदित हैं। स्वातत्यन्ञाभ के फारण आशारूपी शुष्क लताएँ हरी भरी हो गई हैं -- द था स्वतंत्र प्यारे स्वदेश आ की की २ . स्वागत फरती हूँ तेरा । द तुझे देखकर आज हो रहा दूना प्रमुदित मन मेरा ५ २५ द है आशा की सूखी लतिकाएँ 'तुकको पा, फिर लहराई, अत्याचारी को कृतियों को निर्भमता से दरसाई'॥ ( मकुल, एष्ठ ११६ ) गुप्त जी के अनुसार पराधीनता पाश से मुक्त हो जाने प्र भारतवर्ष फिर से आयमूमि' बन जाएगा। एक बार फिर यह देश संस्क्ृतियों का संगमस्थल बनेगा तथा संपूर्ण विश्व के लिबे तीथ्थ॑तुल्य अ्रद्धास्पद पद का अश्रधिकारी बनेगा--- द श्रायभूमि अंत में रहेगी कार्यमूमि दी, ग्राकर मिल्लेंगी यहीं संस्कृतियाँ सबकी गंगा एक विश्वतीथ भारत ही भूमि का | ( सिद्धराज, पृष्ठ १३६ ) पंत द्वारा फल्पित आ्ादश समाज का स्वप्न भी श्रवलोफनीय है--- रूढ़ि रीतियाँ जहाँ नहीं श्राराधित, श्रेणिवर्ग में मानव नहीं विभालित | धन बल से हो जहाँ न जन-श्रम-शोषणा, पूरित भवजीवन के निखिल प्रयोजन ! कल ( युगवाणी, पृष्ठ ६ ) मात्भमि वंदना जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादप गरीयसी। जननी और जन्‍्मभूमि के प्रति अतिशय अनुराग जीवन का सहज रात्य है। [साग १] .. राष्ट्रीय साँस्कृतिक कविता 8७ जिस भौगोलिक इकाई में हम जन्म पाते हैं, जिसका अन्न, जल ओर वायु सेवन कर हमारा पोषण होता है, जिसके रजकण में खेल खेल्लनकर हम बड़े होते हैं उस मातृभूमि के प्रति श्रद्धापूर्ण ममत्व स्वाभाविक ही है। आचार्य शुक्ल ने 'लोभ और प्रीति! निबंध में लिखा है--“यदि फिसी को अपने देश से प्रेम है तो उसे आपने देश के मनुष्य, पशु, पक्षी, लता, गुल्म, पेड़, पे, वन, पव॑त, नदी, निम्रर सबसे प्रेम होगा; सबफो वह चाहमरी दृष्टि से देखेंगा, सबकी सुध फरके वह विदेश में आँसू बहाएगा ।” फिर भारतवर्ष फी भौगोलिक विराब्ता, प्राकृतिक सुषमा, ग्रमृतमय जल, पवित्र अन्न श्रोर खशिम घूलिकश तो देवताओं को भी लालायित करते रहे हैं। अतः यह कोई श्राश्चर्य की बात नहीं है यदि गुप्त जी इस दिव्य भूमि के रजकश फो सबके माये का &गार मानते सन, कृष्ण, जिन, बुद्ध आदि के रखते हैं आ्रद्श अपार | रज भी है इस पुणयभूमि की सबके माथे का श्वूगार ॥ ( स्वदेश संगीत; पृष्ठ छ८ ) कितनी सघन रागात्मफता है मातृभूमि के प्रति | प्रसाद जी के अनेक गीतों में मातुभूमि के प्रति उनके हृदय का घनीमूत प्रेम ओर भ्रद्धापूर्ण ममत्व प्रकट हुआ है, यथा-- अरुण यह मधघुमय देश हमारा। जहाँ पहुँच अनजान चितिज को मिलता एक सहारा | £ / >< हेमकुंभ ले उषा सबेरे भरती हुलफाती सुख भेरे । मदिर ऊँ धते रहते जब जगकर रजनी भर तारा ॥ ( चंद्रगुप्त, पृष्ठ ८8 ) श्रौर निराला ने तो भारतभमि को देवीरूप में ही प्रतिष्ठित कर दिया है-- भारति; जय विजय करे; फनक - शस्य-कमल धरे । लंका पदतल शतदल, गजितोर्भि. सागरजल धोता सुचि चरण भुवाल स्तव कर बहु अ्रथ भरे | ०. २५ >< मुकुट शुत्र हिमतुषार, प्राण प्रणव ऑंकार, १०-१६ रा | ८ ... हिंदी साहिष्य का बृहत्‌ इतिहास घ्वनित दिशाएँ उदार, शतमुख शतरव मुखरे | ( गीतिका; प्रृष्ठ ६८ ) मातृभूमि ही नहीं, उसके अ्रंगमृत गंगा, हिमालय, आ्रादि का वर्शन भी राष्ट्रीय सांस्कृतिक फविता में बड़े मनोयोग से हुआ है। साकेत में जनकसुता के माध्यम से कवि की अ्रपनी आत्मा ही गंगा का स्तवन करती है--- जय गंगे, आ्रानंद तरंगे कलरवे, श्रमलअ्रंचले, पुण्यजले, दिवसंभवें | सरस रहे यह भरतभूमि तुमसे सदा, हम सबकी तुम एक चलाचल संपदा | ( साकेत, प्रृष्ठ १०३ ) दिनकर 'जननी? के हिमकिरीट हिमालय के प्रति असीम ममत्व प्रकट रते हैं-- साकार, दिव्य, गौरव विराट पोर्ष के पुंजीभूत ज्वाल मेरी जननी के हिमकिरीट | मेरे भारत के दिव्य भाल | मेरे नगपति! मेरे विशाल ! ( रेणुका, पृष्ठ ४ ) मातृभूमि के प्रति यह रागात्मकता ही तो उसकी भौगोलिक सौमाओं की रक्षा के लिये देशवासियों फो संनद्ध करती है। मानववादी दृष्टि आलोच्य फाल की राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता सर्वथा अ्रसंकीर्ण तथा श्रत्य॑त हक है | ४ पराधीनतापाश से स्वदेशमुक्ति इसका मुख्य लक्ष्य होने पर भी यह वमनस्यपूर्ण तथा अंतरराष्ट्रीयता विरोधी नहीं है। श्रधिकांश राष्ट्रीय कवियों ने भारत के कल्याण को विश्वकल्याण के रूप में देखा है तथा भारतवासियों की प्रगति की कल्पना मानव मात्र फी प्रगति के रूप में की है। नवीन, मांखनलाल चतुर्वेंदी, सियारामशरण गुप्त तथा पंत आदि में यह स्वर अधिक स्पष्ट और मुखर है--- नवीन;........र<---<-<<< देश विदेश संकुचित जन का; है अनुचित संकुचित विचार, है मनीषियों का . स्वदेश वह, जहाँ सत्य शिव का बिस्तार। [ भाग १० ] ह राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता ६६ हैं जग के नागरिक सभी हम, सब जग भर यह अपना है सीमित देश - विदेश - कल्पना मिथ्या प्रम का सपना है। देश फाल का अतिक्रमण कर बनना है इमको विजयो, फिर क्‍यों खींचें हम अपनी यह सीमारेखा नई नई! ( ऊर्मिला, इष्ठ २१८ ) पंत; क्‍ क्यों न एक हों मानव मानव सभी पररुपर मानवता निर्माण करें जग में लोकोत्तर ? जीवन का प्रासाद उठे भू पर गोरवमय, मानव का साम्राज्य बने।-मानव हित निश्चय ! जीवन की छुण॒व,लि रह सके जहाँ सुरक्षित रक्त मांस की इच्छाएं जन की हों पूरित ! मनुज प्रेम से जहाँ रह सकें; मानव ईश्वर ! आर कोन सा स्वर्ग चाहिए. तुझे घरा पर ? ( आधुनिक कवि पंत, ४०5 ७४६ ) सियारामशरण गुप्त ; क्‍ द निगल रही है इस जगती फों लोहयंजिणी.. द्ानवता; पढ़ी धूल में है बेचारी, आज विश्व की मानवता। दान अ्रमयता का दे तूने उसे उठाया नीचे से फिर से ऋलक उठी है उसमें जागृत जीवन की नवता। 2) मा ः ( पायेय, एृष्ठ १०७ ) काव्यरूप की दृष्टि से राष्ट्रीय भावना मुख्यतः दो रूपों--प्रबँध कीर्टिंय श्रौर प्रगीव-में प्रकट हुई है। इसपर भी पृथक प्थक्‌ विचार कर लैंना अनुपयु नहोगा। द जे प्रबंध काव्य साकेत : द क्‍ | है जा] ५, गे है र्बो व उत्कर्षकाल में लिखें गए प्रबंध काव्यों में राष्ट्रीय सांह्कृतिक दृष्टि से ] 0. द द न मेला स्थान साक्केत का है। यद्यपि साकेत की स्वना का मुख्य उद्दे श्य उपेक्षिता डे १०० हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास का उद्धार रहा है, फिर भी गुप्त जी ने अपनी हृदूगत राष्ट्रीय भावना फो व्यक्त करने के अनेक अवसर निकाल लिए हैं। वस्तुतः साकेतकार ने तो राम रावश- युद्ध को ही दो संस्कृतियों के युद्ध के रूप में उपस्थित किया है तथा सीता को बंदिनी भारतमाता के रूप में चित्रित किया है--- . भारत लक्ष्मी पड़ी राक्षसों के बंधन में, सिंधु पार वह बिलख रही है व्याकुल मन में । साकेत की ऐतिहासिक पोराशिक कथा के द्वारा गुप्त जी ने बड़े मनोयोग से भ्रतीत का गौरवगान किया है। साकेत में गुप्त जी ने भारत के समृद्ध श्रतीत को ग्रयोध्या के माध्यम से प्रस्तुत किया है -- है अयोध्या अवनि फी अ्रमरावती, इंद्र हैं दशरथ विदित बीखती, वेजयंत विशाल उनके धाम हैं, झोर नंदन वन बने आराम हैं। पोरजनों का पारस्परिक स्नेह सदूभाव भी उल्लेखनीय है-- एक तझ के विविध सुमनों से खिले, पोरजन रहते परस्पर हैं. मिले। यथास्थान स्पष्ट त: देश के प्रति अ्रनुराग की व्यंजना भी फी है। वनगमन के अवसर पर राम जन्मभूमि को संबोधन कर निम्नलिखित उद्गार प्रकट फरते हैं--.. जन्ममूमि, ले प्रणुति ओर प्रस्थान दे, हमको गौरव, गयव॑ तथा निज मान दे | तेरे कीर्तिस्तंस, सौंध, मंदिर यथा-- रहें हमारे शीर्ष समुन्नत सर्वथा | । देश फी प्रकृति के अनेक मनोरम चित्र भी दृदूगत राष्ट्रीय भावना के ही द्योतक हैं। उदाहरणार्थ हिमालय, गंगा आदि के चित्र प्रस्तुत किए जा सफते हे हैं। किंतु गुप्त जी की राष्ट्रीयता संकुचित राष्ट्रीयता नहीं है । साकेत के राम केवल भारतवर्ष को ही नहीं, समस्त भूतल को ही स्वर्ग बनाना चाहते हर भव में नव वेभव, प्राप्त कराने शआाया, >< .. %< >< इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया | ऊरमिता श्री बालकृष्णु शर्मा नवीन? विरचित “ऊर्मिला? का उद्द श्य भी लक्ष्मशु- [ भाग १० ] . श्रेय रारइहठिक वच्ता १०१ पत्नी ऊर्मिला के उज्चल चरित्र का प्रस्तुतीवरण रहा है फिर भी यथासरयान राष्ट्रीय सांस्कृतिक भावना फो वाणी मिली है। सीता तथा ऊर्मिला के शो शव- कालीन वार्ताज्ञाप में भी कवि राष्ट्रीय गोरवसंपन्न कथाओं का समावेश फर देता है। सौता ऊर्मिला को कथा सुनाती हैं कि एक अनाय॑ राजा ने गांधार फी राजकुमारी को प्राप्त करने के लिये गांधार प्रदेश पर आक्रमण कर दिया। गांघार के राजा तथा राजकुमार बंदी हो जाते हैं । तब राजकुमारी राष्ट्ररक्षा के लिये तत्पर है-- श्रायों' को बेटी हूँ, माँ, में इस खल को समफ्ेंगी । हूँ गांधार देश की बाला, देखूंगी इस शठ को, ठोकर मार चूर्ण कर दूँगी इसके फच्चें घ८ फको। यह कृतष्न निज दर्पमृत्तिका का कच्चा घट लाकर-- ग्रायोँ की भेदिनोशिला से ठकराता है आकर ? विश्व देख ले श्राज कि फिसकोी आयंसुता फहते हैं, यह भी देखे विश्व कि किसको अग्निहुता कहते हैं इस प्रकार फवि ने आय लल्लना का एक ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया जो फायरों में भी उत्साह का संचार फरने में समथ है। गंधारप्रदेश पर अ्रनायों के आक्रमणु को नवीन जी ने मारत पर ही विदेशियों के श्राक्रमण और आधिपत्य के रूप में देखा है ।. अतएव इस दुर्गति से माँ को मुक्ति दिलाने के व्याज से मारत को ही अंग्रेजी शासन से मुक्ति दिलाने की प्रेरणा देते हैं स्वर्गादपि गरीयसी प्यारी, जन्मभूमि का पल्ला-- खींचा है दुर्शे ने, बोला है स्वदेश पर हल्ला, फोन दृदय है जो फि न उबले निज समाज की क्षति में ? कौन आँख है देख सके जो माँ फो इस दुर्गति में ९ ऊर्मिला में भारत के महिमामंडित श्रतीत का भी गोरवगान है, यथा--- पर चलने के पूर्व यहाँ से कर ले तू वँदन ,अ्रमिराम-- इस सरयू सरिता का, जिसकी बालू में खेले हैं राम, रघु ने जहाँ तपस्या फरके ग्रायध्म पाला जी भर के; जहाँ दिलीप सुधन्वा विचरे राजदंड शुभ कर में धरके श्राय सम्यता के प्रफाश का एक अंश जिन कूलों से--- फेला वहीं चढ़ा दे अंजलि तू आँखों के फूलों से। ० | हिंदी साहित्य का बेहत्‌ इतिहास नवीन जी के अनुसार राष्ट्रीयता अंतरराष्ट्रीयता की श्रविरोधी ही होनी चाहिए| एक स्थान पर उन्होंने राम से कहलाया है-- राष्ट्रषम केसे हो सकता जनगण का ऐकांतिक धम ? पत्चतमथन सदा राष्ट्र का, हो सकता है निपठ अधम । कामायनी : क्‍ उत्कर्षफालीन महाकाव्यों में कामायनी का अन्यतम स्थान है। कामायनी में आदि मानव द्वारा नूतन मानवी सृष्टि के विकास और हृदय की शाश्वत मनोवृत्तियों का विश्लेषण हुआ है। यद्॒पि प्रस्तुत काव्य में राष्ट्रीयता का प्रतिपादन नहीं हुआ है, फिर भी समसामयिक भावना से प्रसाद जी सर्वथा श्रछूते नहीं रहे | श्रद्धा के द्वारा उन्होंने जागरण एवं फर्तंव्यपालन का संदेश दिया है। बह ड़ में स्फूर्ति उत्पन्न करनेवाली, मनु फो कर्म की प्रेरणा देनेवाली तथा “तप नहीं केवल जीवन सत्य” का उपदेश देकर कर्तव्य की ओर अ्रग्रतर फरनेवाली है। कर्तव्यपालन के अतिरिक्त प्रसाद जी ने लोकमंगल एवं विश्वप्रेम का संदेश दिया है। वस्तुतः प्रसाद अ्रंतरराष्ट्रीयता की अविरोधी अ्रसंकीर्णा राष्ट्रीयता के ही पोषक हैं। अ्रतण्व 'विजयिनी मानवता हो जाय! की घोष णा फरते हैं। नूरजहाँ : गुरुभक्तसिंह भक्त! के 'न्रजहाँ” में इतिहासप्रसिद्ध मुगल साम्राज्ञी नुरजहाँ की जीवनगाथा आलिखित है। जहाँगीर ओर नूरजहाँ के माध्यम से श्रतीत फी भलफ मिल जाती है। देश की प्राकृतिक शोभा तथा सुखी ग्राम्य जीवन के चित्र सुंदर बन पड़े हैं। दो एक स्थलों सर प्रत्यक्षतः राष्ट्रीयतापूर्ण उदुगार प्रकट हुए हैं । जहाँ हमारा जन्म हुआ है वहीं हमारा स्वगंस्थान । ( नूरजहाँ, पृष्ठ ५ ). इस भू को मिद्दी पानी से यह काया है बनी हुई, दुख धुल के कितने आँधू से पावन रज है सनी हुई | द | ( नूरजहाँ, ए० ५ ) रामवरितचितामणि, रामचंद्रोद्य काव्य तथा सिद्धार्थ : इन तीनों महाकाव्यों के कथानक परंपरागत, ऐतिहासिक पौराशिक हैं। अतएव श्रतीत का गोरवगान हुआ है। किंतु किसी नूतन दृष्टि के श्रभाव द [ भाग १ ० ] राष्ट्रीय सॉस्कृतिक कविता १०३ में परंपरागत आख्यानों का पुनराख्यान सात्र है। अतीत गौरव के अतिरिक्त मातृभूमि फी वंदना एवं प्रशंसा तथा प्रकृतिचित्रश के रूप में ही इनमें यतकिचित्‌ राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति हुई है. यथा-- ( क ) सुभग सुंदर मारत धन्य है, न धरणी इसके सम अन्य है। जगतताप विनाशन के लिये, प्रभु यहीं अवतीर्ण हुए सदा । ( सिद्धाथ ) (ख ) राज करते थे अवधपुरी में अमरपति से सुखी। . एक नर भी स्वप्न में भी था नहीं फोई दुखी। ( रामचरितचिंतामणि ) उत्फर्षकाल में उपयु क्त बृहत्‌ प्रबंध काव्यों ( महाफाव्यों ) के साथ ही अनेक राष्ट्रीय भावनासंपन्‍न खंडकाव्यों का भी निर्माण हुआ । आगे उनमें से प्रमुख रचनाओं पर एथक प्थक्‌ विचार किया जाएगा । सिद्धराज : मथिलीशरण गुप्त विरचित “सिद्धराज” का फकथानक मध्यफालीन इतिहास से गहीत है। इसमें महाराजा जयसिंह के अनुपम शौर्य, पराक्रम, मातृभक्ति तथा ओऔदार्य की प्रस्तुति के द्वारा अ्रतीत का गौरवगान हुआ है। आदश राजा जयसिंह के गुणों के अतिरिक्त मालव के निवासियों की देशभक्ति फा बखान हुआ है। मालवनिवासी राष्ट्र के संमान की रक्षा के निमिच फोई भी बलिदान करने फो उद्यत हैं तथा राष्ट्र के लिये उत्सग करनेवालों की मुक्तकंठ से प्रशंसा फरते हैं-- फिंतु धन्य हैं वे नरनारी धन्य, जिनके पुत्र, पति, भाई ओर बंधु बढ़े बढ़के वीर गति पावे रख मान मातृमूमि का ( सिद्धराज ) वीरवर जगद्देव अपनी सेना के युद्ध में पराजित हो जाने पर भी अपनी जन्मभमि की श्रेष्ठता ओर स्वतंत्रता फौ घोषणा फरते है अब भी स्वतंत्र हे अवंती निज शक्ति से मेरी यह जन्ममूमि जननी जगत में, मेरे प्राथ रहते रहेगी महारानी ही किकरी न होगी फिसी नरपाल की। पंचतत्व॒ मेरी पुणयभूमि के हैं मुभमें फहला रहे हैं यही मुझसे पुकार के-- हम परतंत्र नहीं सवंथा ख्तंत्र हैं। ( सिद्धराज ) न टन १०छ ...... हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास पथिक तथा स्वप्न : उत्फर्षकालीन खंडकाव्यकारों में स्वर्गीय रामनरेश त्रिपाठी को बहुत ख्याति मिली | इनके 'पथिक? की सुधी आलोचकों ओर सहृदय पार्ठ्फों ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। इनका स्वप्न! भी अत्यंत लोकप्रिय काव्य है। “पथिक'ः और ध्वप्ना--दोनों ही काव्यों में काल्पनिक फथा के माध्यम से देश की समसामयिक्त सामाजिक राजनीतिक दुदशा तथा उससे ज्राण पाने के लिये जनता को उद्बुद्ध किया गया है। “पथिकः एक ऐसे व्यक्ति फी कथा है जो जनजीवन के वेषम्यों को देखकर खिन्‍न हो उठता है और राजतंत्र को उत्तका मूल कारण निर्धारित कर राष्ट्रसेवा में जुट जाता है, प्रजा फो अपने अधिकारों का बोध कराता है तथा राष्ट्रसेवा के मार्ग पर चल्लता हुआ ही सपरिवार अ्रपनी बलि दे देता है | इस प्रकार 'पथिक्! में लेखक ने राजतंत्र को ही सब बुराइयों की जड़ बताया तथा श्रात्म- बलिदान की प्रेरणा दी। स्वप्न? में बंत नामक एक ऐसे युवक फा अंतद्वद्व है जो एक ओर विलासिता तथा दूसरी ओर देशदुर्द शा के बोध से उत्पन्न राष्ट्रसेवा- रूप कर्तव्य में से किसको अपनाएं, इस बात का निश्चय करने में असमर्थ है। ग्रंततः अपनी पत्ती सुमना की सत्ग्ररणा से बसंत राष्ट्रसेवा का चयन करता है और युद्धक्षेत्र में नाकर शत्रु को पराजित करता है। फलस्वरूप प्रशंसा और देशवासियों के आदर का पात्र बनता है। सुमना की प्रेरणा बसंत के लिये ही नहीं वस्तुतः संपूर्ण देशवासियों के लिये है | 'पथिक' और “स्वप्न! से देशभक्तिपूर्ण कुछ स्थल उद्धृत हैं : (श्र) एक घड़ी की परवशता भी कोटि नरक के सम है। पल भर की भी स्वत॑त्रता सो स्वर्गों' से उत्तम है। जब तक जग में मान तुम्हारा तब तक जीवन धारो | जब तक जीवन है शरीर में तब तक धम न ह्वारो। ( पथिक ) (आ) यह प्रत्येक देशवासी का सल्कर्तव्य अटल है। करे देशसेवा में अपंण उसमें जितना बल है। किंतु न बदले में जनता से मान सुभीता चाहे। स्वाथंभाव को छोड़ उसे है उचित स्वधर्म निबाहे। ( पथिक ) (इ) वे न जानते थे मूतल पर क्‍ जीवित रहना पराधीन बन, न्याय और ख्वातंत््य जगत में... उनके थे दो ही जीवनघन । [ भाग १० ] . राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता |. १०४ सुन वह्रप को घोषणा शत्रु फी .... प्रबल शक्ति का पाकर परिचय) किया उन्होंने शीघ्र शत्रु को उच्चित दंड देने का निश्वय|। . (स्वप्न ) (ई) राष्ट्रम पालन को सबसे . श्रेष्ठ मान जग से विराग कर, खोल दिया था जन्मभूमि कौ क्‍ ह सेवा का पथ देह त्याग कर | ( स्वष्न ) तुलसीदास : निरालाकृत पुलसीदास! एक श्रोष्ठ अंतर्मंवी खंडकाव्य है। रत्नावली द्वारा की गई तुलसीदास फी भत्संना विषयक प्रसिद्ध जनश्रुति का आधार ग्रहण कर निराला ने एक अभिनव काव्यसूष्टि फी है | (ुलसीदास” के फथानक को तीन भागी में विभाजित फिया जा सफता है। प्रथम भाग में भारत के सांस्कृतिक हास के चित्रण तथा ऐसे समय में--“युवक्कों में प्रमुख रत्नवेतन, समधीत शास्त्र काव्यालोचन'--ठुलसीदास के जीवन में पदार्पण का उल्लेख है। दूसरे भाग में मित्रों सहित तुलसीदास के चित्रकूट भ्रमण का वृत्तांत है। तीसरे भाग में तुलसी फी अनुपस्थिति में रत्नावली फा नेहर ज्ञाना, उनका श्वसुरालय पहुँचना तथा रत्नावलीकृत मत्सना और तज्जन्य वैराग्य . वशित है। 'ठुलसीदास' में युगीन समस्याओं और सांस्कृतिक पराभव की भी प्रस्तुति हुई है-- द भारत के नम का प्रभापूये शीतलच्छाय सांस्कृतिक सूर्य द _अस्तमित आज रे--तमस्तुर्य दि मंडल | (तुलसीदास) ##०३, विदेशी संस्कृति में श्रनुरक्ति के माध्यम से आधुनिक युंग की फेशनपरस्ती झोर पाश्वात्य भक्ति का ही चित्रण हुआ है-- क्‍ सोचता कहाँ रे, किधर कूल बहता तरंग फा प्रमुद फूल १ यों इस प्रवाह में देश मून खो बहता; 'छुल छुल छल! कहता यद्यपि जल्ष वह मंत्रमुग्ध सुनता 'कल कल?; निष्किय; शोमाप्रिय कूलोपल ज्यों रहता । (तुलसीदास) १०-२४ | ह १०६ क्‍ | ' हिंदी पाहित्य का घुहुतू इतिहास उससे शप्रमावित रहकर ही प्रगति श्रौर उत्थान संभव है। तुलसीदास! का कवि यही संदेश देना चाहता है। आ्मोत्सग : द सियारामशरण कृत ध्यात्मोत्सग! में प्रसिद् देशभक्त गशेशशंकर विद्यार्थी के आत्मबलिदान की घटना फो श्राबद्ध किया गया है। १६३१ ई० में होनेवाले कानपुर के हिंदू मुस्लिम दंगे को रोकने के प्रयास में विद्यार्थी जो फा बलिदान हुआ था। आत्मोत्सर्ग” में सांप्रदायिक विद्वष के अ्रतिरिक्त तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक स्थिति का भी अच्छा चित्रण हुआ है। प्रस्तुत काब्य में सियारामशरण धमनिरपेक्त राष्ट्रीयता का प्रतिपादन करते हँ--- अब मत भाँगो, श्रपने हाथों अरे. बहुत तुमने भोगा; हिंदू मुसलमान दोनों का यह संयुक्त राष्ट्र होगाए। ( आत्मोत्सर्ग ) प्रगीत उत्कर्ष काल में राष्ट्रीय सास्कृतिफ भावना फी श्रभिव्यक्ति के लिये प्रगीत . भी मुख्य विधा रही है। इस फालखंड की कविता में श्रपने देश की श्रेष्ठता फा प्रतिपादन, पूर्वजों फा गोरवगान तथा प्राचीनों फी उदात्त वीरता का बखान अनेक प्रगीतों में बड़ी श्रद्धा, मक्ति और तनन्‍्मयता से हुआ है। कितने विश्वास के साथ प्रसाद आत्मगोरव का वर्णन करते ईं-- हिमालय के श्राँगन में उसे प्रथम फिरणों का दे' उपहार ) उषा ने हँस अमिनंदन किया और पहनाया हीरकहार। जगे हम, लगे जगाने विश्व लोक में फेला फिर आलोफ। व्योम-तम-पुज हुआ तब नष्ट अखिल संसति हो डठी अशोक । द ( स्कंदरुप्त, पृष्ठ १४४ ) यहाँ व्यक्तित्व के अभाव फी शंका हो सकती है--कितु ये पंक्तियाँ फवि के द्वदयरस से सिक्त हैं, उसकी अपनी दृष्टि से दृष्ट हैं श्लोर अ्रपने श्रनुराग से सराबोर हैं। बलियाँवाले वाग के दुदोत कांड से द्रवित कवयिन्नी सुभद्राकुमारी चौहान की हृदुगत करुणा उमड़ पड़ी है-- द फीमल बालक मरे यहाँ गोली खा खाफर | कलियाँ उनके लिये गिराना थोड़ी लाकर || [ भाग १० ] . शष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता | १७७ आशाओं से भरे हृदय भी छिल्न हुए हैं।. क्‍ हा अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं। ॥॒ रा ( मुकुल; पृष्ठ ८१ ) “पुष्प की अभिलाषा! कविता में माखनलाल चतुर्वेदी का घनीमूत देशप्रेम ही प्रकट हुआ हैं--- चाह नहीं, में सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊं, चाह नहीं; प्रमी माला में बिंध प्यारी को ललचाऊ , चाह नहीं सम्रार्लों के शव पर हे हरि डाल्ला जाऊँ, चाह नहीं देवों के सिर पर चर्द भाग्य पर इठलाऊँ, मुझे तोड़ लेना वनमाली | उस पथ में देना तुम फेंक । मातृभूमि पर शीश बढ़ाने जिस पथ जायें वीर अनेक | ह ( युगवरण, पृष्ठ ३१ ) जीवन में ओर कोई आकांछा नहीं, बड़े से बड़ा आकर्षण ओर प्रलोभन त्याग केवल मातृभूमि के वीर सिपाहियों के चरशस्पश की अभिलाषा है। देशप्रेम का कैसा सात्विक और सघन स्वरूप हे । अतीत के सुख सुहाग, समृद्धि और ऐश्वय से दीन हीन वर्तमान की तुलना कर द्निकर की श्रात्मा चीक्वार कर उठी है-- तूने सुख सुद्दाग देखा है; उदय ओर फिर अस्त, सखी ! देख आज निज्ञ युवराज्ञों फो भिनद्दाटन में व्यस्त सखी | एक एक फर गिरे मुकुट, विकसित वन भस्मीमूत हुआ, तेरे संमुख महासिंधु सूखा सेकत उद्भूत हुआ | द ( रेणुका, पृष्ठ २६ ) नवीन के ख्वरों में तो देश का छुब्घ यौवत पराधीनतापाश को काटने के लिये तत्पर हो गया है-- झ्रो भिखमंगे, अरे. पराणित, श्रो मजलूम, अरे चिरदोहित, तू. अ्रखंड भंडार शक्ति का, जाग अरे निद्वा संमोहित 2८ द हे ः हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास प्राणोँ को तड़पानेबाली हुँंकारों से जल थल भर दे, आमनाचार के अ्ंबारों में श्रपना ज्वलित फलीता धर दे। क्‍ ( हम विषपायी जनम के, पृष्ठ ७६५ ) कवि की हृदूगत क्लोभज्वाला के स्फुलिंग ही उपयुक्त श्रवतरणा में प्रकट हुए हैं। मेथिलीशरण गुप्त देश की धूलि फो परम पावन, “माथे का ऋ गार? मानते हैं-. राम, कृष्ण, घिन, बुद्ध श्रादि के रखते हैं आदर्श शअश्रपार। _रज भी है इस पुएय मूमि की सबके माथे का शआ्वगार ।॥* मैं सम फ्रता हूँ, यह रागात्मकता की पराकाष्ठा है। प्रसाद, निराला; पंत, माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्राकुमारी चौदह्दान तथा सियारामशरण गुप्त इस युग के प्रमुख राष्ट्रीय प्रगीतफार हैं। इनके प्रसिद्ध राष्ट्रीय प्रमीर्तों की प्रथम पैक्तियाँ नीचे दी जाती हैं: कर प्रसाद --- _अरझुश यह मधुमय देश हमारा | हिमाद्रि तंग शग सै हा... हिमालय के श्रागन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार | देश की दु्दंशा निशारोगे | निराला-- जागो फिर एक बार। क्या यह वही देश है ? भारति जय विजय करे । नर जीवन के स्वार्थ सकल बलि हों तेरे चरणों पर माँ । पंत-- ही ज्योति देश, जय भारत देश | भारत माता ग्रामवासिनी | माखनलाल चतुर्वेदी-- ः चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों प्ें गूँथा जाऊँ। जो कष्टों से घत्राऊँ तो मुझमें कायर में भेद कहाँ! प्रिय न्याय तुम्हारा कैसा, अन्याय तुम्हारा कैसा ? * स्वदेश संगीत, प्रथम संस्करण, पृष्ठ ७द । [ भाग १० ] राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता १०९ सुमद्राकुमारी चौहान-- वीरों का कैसा हो वसंत | बुदेले हरबोलों के मुह हमने सुनी कहानी थी।.. आा स्वतंत्र प्यारे स्वदेश आरा स्वागत करती हूँ तेरा। सियाराम शएण गुप्त - क्‍ प्राथंना है श्राज जन जन की | की देश श्ररे मेरे देश, तेरी उच्चता में हह॒ है नगेश। प्रतिनिधि कवि राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता के विकास में प्रसाद, पंत, निराला का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। किंतु उनका परिचय छायावाद के प्रतिनिधि फवियों के रूप में श्रन्यत्र दिया गया है। यहाँ इस घारा के अन्य महलपूर्ण कवियों का परिचय ही दिया जाएगा | द सियारामशरण गुप्त चिरगाँव, जिला झाँसी के वैश्य परिवार में सन्‌ १८६४ ई० में इनका जन्म हुआ था। ये राष्ट्रकवि मेथिलीशरण गुप्त के अनुज यें। यौवन के आरंभ से हों ये भयंकर श्वास रोग से पीड़ित रद्दे | कई संतानों तथा पत्नी के असामयिक निधन ने इनके जीवन को करुणा और व्यथा से मर दिया था। सियारामशरण की स्कूली शिक्षा प्राइमरी से आगे नहीं हो सकी । संस्कृत, बंगला तथा अंग्र जी का अम्यास इन्होंने घर पर ही किया था। इनका तपःपूत व्यक्तित्व सादगी, सरलता; नम्नता और आत्मीयता की प्रतिमूर्ति था। ये सदेव खादी का व्यवहार करते थें। सियारामशरण गुप्त की प्रथम रचना सन्‌ १६१० में “इ ढुः में प्रकाशित हुई। फिर इनकी अनेक रचनाएँ सरस्वती? में प्रकाशित हुई । सर्वप्रथम पुस्तक 'मौर्यविजय” सन्‌, १६१४ में छपी । इनका काव्य अनुभूति ऋौर आस्था फा काव्य है। युद्ध और संघर्ष के इस युग में भी ये प्रेम, करुणा, सद्भाव आर शांति का ही संदेश देते हैं। गांधी और विनोबा भावे से ये बहुत प्रभावित हैं। अन्यान्य कवियों ने जहाँ गांधीवाद के बाह्य पक्ष फो अपने काव्य का विषय बनाया है वहाँ _सियारामशरण ने उसके अंतर्दर्शन को अहण किया दै। अतएव इनके काव्य में अ्रंदोलनों की हलचल न मिलफर करुणा , मेत्री, सत्य और अर्िसा को सात्विकता का प्रसार है। अपने देश पर इनफो सदा गर्व रहा है। उसके भौतिक तथा आत्मिक उत्कर्ष के चित्रण के निमिच ही इन्होंने श्रतीत पर दृष्टिपात किया है। 'मौर्यविजय' में चंद्रगुप्त की विजय का वर्णुन है तो “नकुल' में युधिष्ठिर के आंतरिक ११० हिंदी साहित्य का ब्रृहत्‌ इतिहाश सौंदर्य का उद्घाटन हुआ है। किंतु इनकी यह राष्ट्रीय भावना संकुचित एवं अनुदार नहीं है। ये मानव मात्र के अ्रभय श्रौर कल्याण की कामना ही करते हैं प्रार्थना है आज जन जन को, जन की न होके यह जनता फी जग हो। निखिल सुवन की पीड़ित मनुष्यता जहाँ मी अनय हो। ५८ »< ५८ जय हो सदैव प्रभो, मारत की जय हो । द ( जयहिंद ) सियारामशरण की काव्यकृतियों के नाम इस प्रकार हैं--“शोयंविज्वय', ग्रनाथ!, दूर्वादल3 “विषाद' आदर" ओआत्मोत्सग!, पाथेय' “म्मयी”, बापू, 'उन्मुक्तः, 'दैनिकी', 'नकुल?, 'नोश्राखली', 'जयहिंद” तथा “गोपिका! । सियारामशरण बहुमुखी साहित्यकार हैं। कविता के अतिरिक्त इन्होंने उपन्यास, कहानियाँ तथा निबंध भी लिखे हैं । गोद, अंतिम आफांज्ा' तथा “नारी” इनके तीन उपन्यास हैं। कविता के समान ही इनके उपन्यास भी गांधी दर्शन से प्रभावित हैं। झूठ सच! सियारामशरण के संस्मरणात्मक, भावात्मक तथा विचारात्मक उच्च कोटि के निबंधों का संग्रह है। इसमें कवि प्रोढ़ गद्यलेखक के रूप में हमारे सामने आंते है । इनकी कहानियाँ 'मानुषी! में संग्रहीत हैं। फविता आर उपन्यासों के समान ही कहानियों में भी गांधी दशन की विद्वति मिलती है । इन्होंने 'पुराणपर्? नामक एक नायक की रचना भी की है । “गीतासंवाद! के नाम से इन्होंने गीता का समश्लोकी श्रनुवाद किया है। इनकी भाषा प्रसाद-गुण-संपन्‍न तथा संस्कृत के सरल एवं सुपाच्य शब्दों से _ युक्त है। अधिकांशतः इन्होंने. मुक्त छुंदर का प्रयोग किया है जिसपर इनका अदभुत ग्रधिकार है। २६ मार्च, सन्‌ १९६३ को इनका निधन हुआ । माखनलाल चतुवंदी .. माखनलाल चतुर्वेदी आधुनिककालीन राष्ट्रीय भावनासंपन्‍न काव्य के शीर्षस्थ कवि हैं। इनका जन्म मध्यप्रदेश के होशंगाबाद छिले के बाचई ग्राम में ४ अप्रेल, सन्‌ १८८६ को हुआ । इनके पिता श्री नंदलाल चतुर्वेदी इसी ग्राम में एक अध्यापक थे। फलतः इनकी प्रारंभिक शिक्षा ,दीक्षा बाबई में ही हुई । मिडिल को परीक्षा के लिये इन्हे! जबलपुर भेजा गया। उन्हीं दिनों इनका [ भाग १० ] राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता | १११ परिचय वहाँ के कुछ तरुण क्रांतिकारियों से हुआ | कांग्रेस के कलकता अधिवेशन के अवसर पर चतुर्वेदी जी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के संपर्क में आए और इन्होंने कांग्रेस में भाग लेना प्रारंभ कर दिया | चतुर्वेदी परिवार पर राधावलल्‍्लभ संप्रदाय का बहुत प्रभाव था अतः वेष्णव पदों का गायन इस परिवार में एक परंपरा बन गई थी। बचपन में माखनलाल चतुर्वेदी फो इनकी बच्चा ने कई वेष्णुव पद फंठस्थ फराए थे जिसके फलस्वरूप इनके मन में वेष्णुव संस्कारों की सुदृढ़ नींव जम गई | ये संस्कार आगे चलफर इनके कृतित्व को किसी न किसी रूप में प्रभावित फरते रहे हैं । युवावस्था में ही इनपर सैयद अली 'मीर!, स्वामी रामतीर्थ एवं पं० माधवराव सप्रे--इन तीन महाएृरुषों का प्रभाव पड़ा। फलस्वरूप इनके व्यक्तित्व फा निर्माण काव्य, आध्यात्मिकता एवं देशभक्ति--इन तीन उपकरणों के संयोग से हुआ | पं० माधवराव सप्रे को तो चतुबंदी जी जीवन भर अपने राजनीतिक गुरु के रूप में स्वीकार करते रहे द सन्‌ १६१३ में इन्होंने 'प्रभा' नामक पतन्निका का प्रकाशन प्रारंभ किया । सन्‌ १६१५ में इन्हें कुछु कारणों से प्रभा' का प्रकाशन स्थगित कर देना पड़ा तब गशणेशशंकर विद्यार्थी ने इन्हें प्रताप” के संपादन के लिये कानपुर बुला लिया | इस पत्र में श्री चतुर्वेदी एक भारतीय आत्मा? के नाम से अपनी कविताएं प्रकाशित कराते रहे । विद्यार्थी जी के संपक में आने पर इनकी राष्ट्रोय भावनाओं को एक सुनिश्चित आकार प्राप्त होता चला गया | सन्‌ १६२० में पं० माधवराव सप्रे के संचालन में जबलपुर से प्रकाशित होनेवाले पत्र 'क्रमंवीरा का इन्होंने संपादनभार सँमाला। सप्रे जी के देहांत के पश्चात्‌ इन्होंने इसी पत्र फो खंडवा से प्रकाशित किया श्रौर तभी से फकर्मवीर! इनकी आत्माभिव्यक्ति फा प्रश्ुख साधन बन गया | वेसे तो चतुवँदी जी का जीवन एक अ्रध्यापक के रूप में आरंम हुआ था फिंतु पत्रफारिता के साथ साथ राजनीति में माग लेते हुए ही इनके जीवन का अधिकांश भाग व्यतीत इुआ। ये सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता थे । इनका राजनीतिक जीवन यद्यपि क्रांतिकारी दल के एक सदस्य के रूप में प्रारंभ हुआ था; तथापिं गांधी थी के प्रभाव से इन्होंने शनें: शनें: अहिंसर के महत्व को समझा और उसे सिद्धांत तथा घ्यवहार में ग्रहण किया । अपने राजनीतिक ज्ञीवन में ये सन्‌ १६२०, '१२३ और ३० में कई बार जेल भी गए। जेल में रहते हुए इन्होंने अपनी कई महत्वपूर्ण रचनाओं का निर्माण भी किया । चतुर्वेदी जी की कविता का मल स्वर राष्ट्रीय भावना है। इनके अ्रपने ला कंडानवाता इसपर थकान 35.38 2 हे व हा १७७७७ एए// 0 7 ब हद कलन / 5 हे ११२ जी हिंदी साहित्य का वृहत्‌ इतिहास मतानुसार वास्तविक साहित्य वही होता है; जिसके दर्पण में राष्ट्र काँक उठता है। वस्तुतः इनकी राष्ट्रीयता को संक्तेप में 'बलिदानवादी राष्ट्रीयता” कहा जा सकता है। 'पुष्ष की अभिलाषा' नामक कविता में पुष्प को यह आकांछा कि उसे मातृभूमि पर शीश चढ़ाने के लिये जानेवाले पसिपाहियों के पथ पर फेक दिया जाए, कवि की श्रपनी अमिलाषा ही है। राष्ट्रीय कविताओं के अतिरिक्त चत॒वँंदी जी के प्रारंभिक फाव्य सें मध्य- युगीन भक्तों का घा स्वर भी सुनाई पड़ता है। इनकी ऐसी रहस्यमयी कविताओं में निर्मुण सगुश भावना का मिश्रण है ओर कहीं कहीं गीतांजलि का प्रभाव भी स्पष्ट है। इनके काव्य का एक अन्य मुख्य विषय प्रेम है। प्रेम के अ्रमर गायक के रूप में चतुर्वेदी जी की अपनी एक नवीन दिशा है। इनका प्रेम त्यागमूलक है जिसका श्रधार है उत्सर्ग | क्‍ क्‍ चतुर्वेदी जी के प्रमुख कविताएंग्रह हैं--हिमकिरीटिनी, हिमतरंगिनी, माता; _युगचरण, समर्पण, वेणु लो गू जे घरा आदि | चतुवँदी जी कवि के शअ्रतिरिक्त नाटकफार, निर्वंधकार एवं कह्ानीकार के रूप में भी प्रसिद्ध हैं। “क्ृष्णाजुंन युद्ध! इनका प्रसिद्ध नाटक है। साहित्यदेवता और अमीर इरादे : गरीब इरादे इनके निर्बंधसंग्रह तथा कला फा अनुवाद फहानीसंग्रह हैं। सन्‌ १६४४ में इन्हें हिंदी साहित्य संमेलन के हरिद्वर अधिवेशन का सभापति निर्वाचित किया गया । इसी वर्ष इन्हे” “देव पुरस्कार! प्रदान किया गया। सन्‌ १९४७ में इन्हे “साहित्यवाचस्पति” की उपाधि देकर संमोनित फिया गया। इनके काव्यसंकलल “हिमतरंगिनी” पर साहित्य अकादसी ने पाँच सहस्त रुपए का पुरस्कार दिया | सन्‌ १९४६ में सागर विश्वविद्यालय ने इनकी साहित्यिक सेवाश्रों का संमान करते हुए इन्हे डी० लिट॒० की आनरेरी डिग्री प्रदान फी | २६ जनवरी, १९६३ को भारत सरकार ने इन्हें! “पद्मभूषण” फो उपाधि से संमानित किया | द ३० जनवरी, सन्‌ १६६८ फो इनका निधन हुआ । बालकृष्ण श्ो नवीन ८ दिसंबर, सन्‌ १८६७ फो ग्वालियर राज्य के भयाना नामक गाँव में इनका जन्म हुआ । पिता श्री जमुनादास वैष्णव भक्त किंतु दरिद्र ब्राह्मण ये । ११ वर्ष तक बालक “नवीन! की शिक्षा का कोई प्रबंध न हो सका। ११ वर्ष की अ्रवस्था में ये शाजापुर के स्कूल में भरती हुए। वहाँ से मिडिल पास कर उज्जैन . चले गए. और वहाँ माधव विद्यालय में दाखिल हो गए। सन्‌ १६१६ में कांग्रेस अधिवेशन देखने के लिये ये लखनऊ गए। वहाँ संयोगवश माखनलाल [ भाग १० ) राष्ट्रीय सॉश्क्ृतिक कविता ११३ चतुर्वेदी, में थिलीशरण गुप्त एवं गणेशशंकर विद्यार्थी से इनफी भेंठ हुईं। यह भेंट इनके जीवन में बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हुई। सन्‌ १६१७ में हाई स्कूल परीक्षा पास करने के पश्चात्‌ ये फॉलिज शिक्षा के लिये कानपुर चले गए. । वहाँ विद्यार्थी जी ने इन्हे! फॉलिज में दाखिल कराया तथा निर्वाह के लिये एक स्यूशन का प्रबंध भी करा दिया। सन्‌ १९२० में जब कि ये बी० ए० अंतिम वर्ष के छात्र थे इन्होंने गांधी जी के आह्वान पर फॉलिज छोड़ दिया । १९२१ में सत्याग्रह आंदोलन में माग लेने पर इन्हे” पहली बार डेढ़ वर्ष की सजा हुई। उसके बाद तो कई बार इन्होंने जेल यात्रा फी | सब मिलाकर ये छह बार जेल गए और लगभग नौ वर्ष कारावास की सजा भोगी । १६२१ से लेकर अंत तक नवीन जी राजनीति में सक्रिय भाग लेते रहे । ये उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ राजनीतिफ तथा कानपुर क्षेत्र के अग्रणी नेता थे | स्वतंत्रताप्राप्ति पर १६४७ में ये संविधान परिषद्‌ के सदस्य मनोनीत हुए । १९४२ से १६९५७ तक ये लोकसभा के तथा ५७ से मृत्यु पर्यत राज्यसभा के सदस्य रहे। १६५४ में नियुक्त राष्ट्रभाषा आयोग के भी ये वरिंष्ठ सदस्य थे | ..._ नवीन जी लंबे, तगड़े तथा सुदर शरीरसंपत्ति के स्वामी थे। श्री भवानी- प्रसाद मिश्र इस विषय में लिखते हें--छह फुट लंबा व्यायाम से सधाया तपाया बलिष्ठ शरीर, विशाल वक्ष॒स्थल, इृषस्फघ, दीधंबाहु, कुछ लाली लिए हुए चिह्ठा रंग, उन्‍नत भाल, नुफीली नासिका, घड़ी और पेनी आँखें, खिंचे हुए होंठ और तेजयुक्त प्रभावशाली मुखमंडल । नवीन डी फो कई बार तो देखते ही बनता था। पौरुषेय सोंदर्य के वे मानो आदर्श थे ।* ये स्वभाव से अत्यंत उदार, पर-दुःख-कातर, निरमिमान तथा निश्छुल व्यक्ति थे। मित्रों और निस्सहाय लोगों के लिये ये सब कुछ न्यौछावर करने के लिये सदैव तत्पर थे। इनकी मस्ती और फक्‍्कड़पन भी अद्भुत था। जो कुछ देर के लिये भी इनके संपर्क में ग्राया वह आजीवन इन्हे भुला नहीं सका--ऐसा आकर्षण था इस 'फकोर बादशाह?” का । ञ नवीन जी का लेखनकाय सन्‌ १९१६-१७ से ही आर॑भ हो गया था| १६१८ में इनकी प्रथम कहानी “संत” सरस्वती में छपी थी। इनफी कविताएँ प्रताप” और प्रभा? में बराबर छपती रहीं। १९३० तक “नवीन” जी कवि रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे। किंतु प्रकाशन फी श्रोर से ये उदासीन. रहे ओर इनकी . * श्राज के लोकप्रिय हिंदी कवि : बालकृष्णु शर्मा नवीन”, परिचय, पृष्ठ ५ । १०-१४ द ११४ हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास रचनाएँ यत्र तन्न बिखरी पड़ी रहीं। इनका पहला कवितासंग्रह “कुकुम” १६३९ में प्रकाशित हुआ | 'ऊर्शिला' काव्य १६३४ में पूर्ण हो गया था--किंतु प्रकाशित हुआ १६४७ में | 'कुंकुम” और “ऊर्मिला' के अ्रतिरिकत नवीनकृत अपलक्त' (रश्मिरेखा?, 'क्वासिः, 'विनोबास्तवन! तथा 'हम विषपायी जनम के! काव्य और प्रकाशित हुए हैं। _ नवीन जी फी कविता का मूल स्वर है प्रेम ओर राष्ट्रीयता । जे के दोनों पत्चों--संयोग और वियोग--का सुष्ठु चित्रण इनके काव्य में अनेक स्थलों पर हुआ है। द्विवेंदीकालीन नेतिकता के अंकुश की अवद्ेलना कर नवीन जी ने लिखा था-- कूजे दो कूजे में बुकनेवाली मेरी प्यास नहीं, बार बार, ला ला फहने फा समय नहीं श्रभ्यास नहीं | इनकी प्रेमभावपूर्ण कविताएँ श्रपनी निश्छुल हार्दिकता तथा आवेंग के कारण सदृदयों के द्ृदय फो छू लेने में समर्थ हैं। राष्ट्रीय] भी नवीन जी का स्वानुभत विषय था | पराधीनता के विरुद्ध संघर्ष कौ भावना, श्रतीत का गौरवशान वर्तमान दुरवस्था फा छ्ोभपूर्ण चित्रण, स्वर्शिम भविष्य फी फल्पना इनके काव्य में अनेक स्थलों पर उपलब्ध है। हृदयसंप्रेरित होने के कारण नवीन की राष्ट्रीय कविताओं में पाठकों के हृदय में प्राण फूंक देने की क्मता है। कभी-कभी तो ये विप्लव और क्रांति का नारा लगाने लगते हैं-- “कवि कुछ एसी तान सुनाओ जिससे उथल पुथल मच जाए” आदि | द कवि के अतिरिक्त नवीन जी प्रसिद्ध पत्रकार भी थे। कानपुर पहुँचने पर ये आरंभ से ही गणेशशंकर विद्यार्थी के प्रसिद्ध पत्र 'प्रताप' के काम में सहायता करते थे। १६३१ में विद्यार्थी जी के देहावसान के उपरांत इन्होंने प्रताप! का . संपादन भी किया । कुछु समय तक ५प्रभा? के संपादक भी रहे। इन पत्रों कौ संपादकीय टिप्पणियाँ ओर ओजस्वी लेख नवीन जी के शक्तिशाली गद्यकार रूप के परिचायक हैं। साहित्यिक और सामाजिक सेवाओं के कारण १६६० में इन्हे 'पद्मभूषण” की उपाधि प्रदान की गई । लंबी बीमारी के पश्चात्‌ २९ अ्रप्रेल, १६६० फो इनका देहांत हो गया । सुभद्राकुमारी चौहान क्‍ आधुनिकफालीन हिंदी लेखिकाओं में सुभद्रा जी फो श्रन्यतम स्थान प्राप्त है। पद्य ओर गद्य-दोनों हो क्षेत्रों में इनका कृतित्व महत्वपूर्ण है। इनका जन्म सन्‌ १६०४ में प्रयाग के निहालपुर गाँव में ( जो अभ्रवः उसका एक मुहल्ला बन [ भाग १० | राष्ट्रीय सॉस्क्ृतिक कविता द शर्ट गया है ) के एक क्षत्रिय परिवार में नागपंचमी के दिन हुआ था। प्रयाग के ही क्रास्थवेट गल्स कालेज में इन्होंने शिक्षा ग्रहण की । १५ वर्ष की आयु में इनका विवाह अ्रध्ययनाप्रय एवं देशभक्त ठाकुर लक्ष्मणसिंह चौहान से हो गया । विवाह के बाद कुछ समय तक तो इनके अध्ययन का क्रम चलता रहा फिंतु सन्‌ १६२१ के लगभग देश में राष्ट्रीय श्रसहयोग आंदोलन के जोर पकड़ने पर इन्होंने श्रपनी पढ़ाई छोड़ दी ओर देश के राजनीतिक कार्यों में अधिक सक्रिय भाग लेने लगीं। इसी चक्कर में इन्हें! कई बार जेल भी जाना पड़ा। राजनीति की और इतना भुकाव होते हुए भी साहित्यरचना की ओर से ये विमुख नहीं हुई'--जेल में बेठकर भी इन्होंने कई कहानियाँ ओर कविताएँ लिखीं ओर इस प्रकार देश और साहित्य दोनों के प्रति अपने दायित्व को एक साथ निभाती रहीं। सन्‌ १६४८ में १४ फरवरी फो वसंत पंचमी के दिन एक मुर्गी के बच्चे की प्राणरक्षा के प्रयत्न में हुई कार दुघंगना में ये अकालमृत्यु को प्रात हुईं । द श्रीमती चोह्ान ने यद्यपि कुछु सामाजिक निबंध मी लिखे हैं किंतु कविता झोर कहानी--इन दो क्षेत्रों में ही इनकी रचनाएँ अधिक हैँ । आरंभ में ये केवल कविताएँ ही लिखा फरती थीं जो “त्रिधारा” ओर 'घुकुल' में संकलित हैं किंतु . सन्‌ १९३० में मुकुल'” के प्रकाशन के बाद इनका भुकाव कहानी लेखन को ओर अधिक हो गया ओर इनके तीन कहानी संग्रह--“बिखरे मोती”, “उन्मादिनी' और 'सीघचे सादे चित्र! क्रमशः सन्‌ १६३२; १६९३४ और १६४७ में प्रकाशित हुए । “मुकुल' श्रोर 'बिखरे मोती! पर इन्हें श्रलण अलग सेकसरिया पुरस्कार भी मिले। व्य और कफहानी--दोनों ही प्रकार की रचनाश्रों में राष्ट्रपेम, देशभक्ति, समाजसैवा और परिवारस्नेह का ही स्वर प्रधान है। इनको अधिकांश कहानियों . में सामाजिक और पारिवारक समस्याञ्रों को उठाकर उनके विविध पक्षों का बड़ी गंभीरता से विवेचन प्रस्तुत किया गया है। उनका कलापक्ष भो पयात्र समृद्ध हे । ग्रपनी कविताओं में इन्होंने सामाजिक समस्याञ्रों का स्पश नहीं किया; उनमें इनके राष्ट्र प्रेम और व्यॉक्तगत पारिवारिक जीवन फी ही काँकी अधिक दिखाई देती है। इनफी राष्ट्रीय कविताओं में “असहयोग”, सेनानी का स्वागत”, 4विदा?, 'जलियाँवाला बाग “'वीरों का कैसा हो वसंत”, 'ऋाँसी की रानीः, ५मातृमंदिर? और ध्स्वदेश के प्रति! आदि कविताएं विशेष उल्लेखनीय हैं। इन कविताओं से हमें भारत की अतीत संस्कृति और तत्कालीन राजनीतिक स्थिति के स्पष्ट संकेत मिलते हैं। देशप्रेम की भावनाओं को उद्दीस करने की इनमें अ्रदूभुत ऋमता थी, विशेषतः 'मकाँसी की रानी? कविता तो अपनी इस विशेषता के कारण इतनी लोक- प्रिय हो गई थी कि आ्राबालबुदू-सभी उसे पूर्ण रूप से फंठस्थ करने के लिये झातुर रहते थे । उसकी ुंदेले इरबोलों के मुंह इसने सुनी कहानी थी; खूब ११६ हिंदी साहित्य का बृंहत्‌ इतिहास लड़ी मर्दानी; वह तो भाँसीवाली रानी थी “यह पंक्ति तो साहित्यिक वर्ग ही नहीं वरन्‌ साधारण जनता का भी कंठहौर बन गई थी। व्यक्तिगत अनुभवों पर ही आधारित होने के कारण इन कविताओं की सजीवता ओर मार्मिकता भी दर्शनीय है। इनकी दूसरी प्रकार की कविताएँ वे हैं जिनकी रचना इन्होंने अपने गाहस्थिक जीवन से प्रेरणा लेकर की दै। उनमें से कुछ तो पतिरूप प्रियतम को संबोधित करते हुए लिखी गई हैं और कुछ अपनी संतान के प्रति। इनमें से प्रथम कोटि की कविताओं में ध्वलते समय”, 'समर्पण', “'डकरा दो या प्यार करो', स्मृतियाँ' और ४प्रियतम से! श्रादि को परिगणशना की जाएगी | इन्नमें सुभद्रा जी की प्रेमानुमतियों का सरल सहज किंतु मादकतापूर्ण मनोरम रूप दिखाइ देता है जिनसे इनके भावुक द्वृदय का परिचय मिलता है। दूसरी फोटि की रचनाश्रों में क_्षेय नया बचपन!, बालिका का परिचय' और “इसका रोना” आदि उल्लेख्य हैं। इन कविताओं की “पाया मैंने बचपन फिर से; बचपन बेटी बन श्राया आर “तुम कहते हो मुझको इसका रोना नहीं सुहाता हैं, मैं कहती हूँ. इस रोने से अनुपम सुख छा जाता है ।--श्रादि पंक्तियाँ कवयित्री के सहज वात्सल्यमय हृदय की सजांव अभिव्यक्ति में सर्वथा सक्षम हैं। इनके अतिरिक्त 'राखी' ओर 'राखां की चुनोती' कविताओं म बहन भाई क ननेश्छुल पवित्र स्नेहसंबध को दर्शाया गया है। “फूल के प्रति, मुरकाया फूल', और 'शिशिर समीर' आदि इन्होंने कुछ प्रक्वते- परक कविताएँ भी लिखी ह किंतु इनमें ये अधिक तफल नहीं हैं क्योंकि इनका मन प्रकृति की अ्रपेक्षा नीवन की अन्य अनुमूतियों में अधिक रमता था। ठुलना- त्मक हाष्ट से देखने पर ज्ञात हंंगा कि अपन राष्ट्रप्रेमी व्यक्तित्व के फारण इन्हें राष्ट्रीय कांविताओं में ही सवोधिक सफलता मिली है--उन्हें! सहज हो हिंदी साहइत्य की अमल्य निधि माना जा सकता है | द .... विषय के उपरांत शैली की दृष्टि से देखने पर ज्ञात होगा कि फवयित्री ने जीवन के सरल साधारण पह्ों की सइज अनुभूतियों फो वैसा ही सरल और सहज भाषा में व्यक्त किया है। उनमें प्रयत्नसाध्य कृत्रिमता कहीं नहीं हे--इसीलिये सजावता, मार्मिकता और प्रभावक्षमता बहुत है। अपनी हृदयगत मावुकता के कारण इनकी कविताओं में भावमयी रंगीन मनोरम कल्पनाओ का भी अभाव नहीं जिन्दे' इनको भाषा की चित्रात्मक शक्ति के सहारे बहुत सजीव ढंग से मूत रूप प्रात्त हुआ है। इनको 'ठुकरा दो या प्यार करो” कविता भाव और कला के सौंदय क॑ समन्वित रूप का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। निष्कर्षतः इन्हे श्रेष्ठ फोदि की फवयित्रीं मानना ही उचित हागा। गुरुमक्तसिंद भक्ता. कक पृथ्वों राज चौहान के वंशन ठाकुर कालिकाप्रसाद सिंह के यहाँ इानक [ भाग १० | राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता ११७ जन्म ७ श्रगस्त, सन्‌ १८९३ फो हुआ । इन्होंने बी० ए०, एल-एल० बी० तफ विधिवत्‌ शिक्षा पाई। अ्रनेक रियासतों के दीवान पद पर कार्य किया तथा आजमगढ़ नगरपालिका के कार्याधिफारी रहे। अ्रब अवकाश ग्रहण कर चुके हैं । काव्यानुराग इन्होंने भ्रपने पिता से रिक्थरूप में प्राप्त किया है। “नूरजहाँ' तथा 'विक्रमादित्यः भक्त जी की अक्षय कीति का गश्ाधार हैं। ये दोनों काव्यग्रंथ महाकाव्य स्वीकार किए जाते हैं। भक्त जी ने इनके निर्माण में व्यापक अध्ययन, गंभीर मनन, शोध श्रोर कविप्रतिमा फा परिचय दिया है । वस्तुतः इन प्रबंधों में तत्कालीन इतिहास पुनर्जीवित हो उठा है। भक्त जी जीवन भर राजकीय सेवा में रद्दे। अ्रतः राष्ट्रीय संग्राम में सक्रिय भाग न ले सके । किंतु नूरजहाँ? तथा “विक्रमादित्य' में मारत के स्वर्शिम अतीत के भव्य चित्र अंफित कर इन्होंने अपनी हृदयस्थ राष्ट्रीय भावना का परिचय दिया है। प्राचीन तथा मुगलकालीन भारत के चित्र इन्होंने एक सी तन्मयता से प्रस्तुत किए हैं । उपयु कत प्रबंध काव्यों के अतिरिक्त इनकी स्फुट कविताओं के चार संग्रह . और प्रकाशित हुए हैं--“सरस सुमन, 'कुसुमकुंज' “वंशीध्वनि! तथा “वनश्री' | इन कविताओं में ग्रामीण शोभा, ग्राम्य जीवन, लता पुष्प, पशु पत्ती आदि का बड़ी आत्मीयता और मनोयोगपूर्वक चित्रण हुआ्रा है। भक्त जी की भाषा में अ्रपूर्व लालित्य और प्रवाह है। मुहावरों के सुदर प्रयोग ने उसे ओर भी चारुत्व प्रदान किया है । कि पंचम अध्याय छायावांद ( १) पूर्ववत्त ः परिभाषा और प्रवृत्तियाँ ( २ ) प्रमुख कवि; अन्य कवि ( ३ ) दार्शनिक आधार (४ ) काव्यशिव्प ९ ४ 9 पाश्चात्य प्रभाव पूबबृत्त : परिभाषा और प्रवृत्तियाँ छायावाद हिंदी की उस स्वच्छुंद काव्यधारा का उत्तरविकास है जिसका उदय बीसवीं सदी के आरंभ में हुआ था । किंतु तत्कालीन विवादों के कारण छायावाद का पूर्वत्वच कुछ उल्लक गया है। आचाय शुक्ल का यह कथन निर्विवाद है कि रोतिफाल की रूढ़ियों को तोड़कर 'स्वच्छुंदता का आभास पहले पहल पं० भीधर पाठक ने ही दिया” और 'सब बातों का विचार करने पर पं० भीधर पाठक ही सच्चे स्वच्छुंदतावाद ( रोमांटिसिज्म ) के प्रवर्तक ठहरते हैं।! किंतु इस स्वच्छुंदता- बाद के स्वाभाविक विफास फी जो रूपरेखा आचार्य शुक्ल ने प्रस्तुत की है, वह परवर्ती विचारक्रम में मान्य न हो सकी । आचाय शुक्ल के अनुसार भ्रीपर पाठक के बाद .'सच्ची और स्वाभाविक स्वच्छुंदता का मार्ग हमारे काव्यक्षेत्र के .. बीच चल न पाया! क्योंकि एक श्रोर उसी समय पिछले संस्कृतफाव्य के संस्कार्रो .. के साथ पं० महावीरप्रसाद हविवेदी हिंदी साहिलक्षेत्र में आए--जिससे इति- .. वृत्तात्मक ( मेंटर ऑफ फेक्ठ ) पतद्चों फा खड़ी बोली में ढेर लगने लगा, और . दूसरी ओर, 'रबींद्र बाबू की गीतांबलि की धूम उठ जाने के कारण नवीनता प्रदर्शन के इच्छुक नए कवियों में से कुछ लोग तो बंग भाषा की रहस्य 'त्मक कविताओं की रूपरेखा लाने में लगे; कुछ लोग पाश्चात्य काव्यपद्धति को “विश्वसाहित्य” का लक्षण समझ उसके अनुकरण में तत्पर दुए।! इन बाघाश्रों .. के कारण इने गिने नए कवि ही स्वच्छुंदता के स्वाभाविक पथ पर चले” जिनमें .. प्रसाद, पंत, निराला; महादेवी श्रादि प्रमुख छायावादी कवियों की गणना करने के स्थान पर आचाय॑ शुक्ल ने रामनरेश त्रिपाठी; मुकुट्धर पंडिय, माखनलाल चतुर्वेदी, सियारामशरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन!, सुभद्राकुमारी चौहान, - गुरुभक्तसिंह 'भकक्‍त' उदयशंकर भट्ट प्रद्मति कवियों को मान्यता दी और इस प्रकार की सच्ची नेंसर्गिक स्वच्छुदता के लिये स्वच्छुंदतावाद संज्ञा प्रदान की | इस प्रकार *रोमांटिसिज्म” के लिये हिंदी में भस्वच्छुंदतावाद” शब्द श्रा छाने के बाद छायावादी काव्य को आरंभिक स्वच्छैद काव्यधारों से ही नहीं, बल्कि उसकी परवर्ती परंपरा से भी विच्छिन्न करके देखने फी परिपाटी खल पड़ी। संयोग से इसी बीच हिंदी फो रहस्यथात्मक कविताओं की चर्चा के प्रसंग में अंग्रेजी के _मिस्टिप्िज्म” शब्द का उल्लेख किया गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि आरंभ १०-१६ ११२ हिंदी साहित्य का शृहत्‌ इतिहास के बहुत दिनों तक छायावादी कविताओं के लिये रहस्यवाद' संज्ञा का भी प्रयोग होता रहा | किंतु जैसा कि आचारय शुबल की स्वच्छृदवा वादी कवियों की आलो- घना से स्पष्ट है; उनके सच्चे स्वच्छुंदतावाद में ओर बातें के झलावा रहस्थपूर्णु संकेत' का भी समावेश है, इसलिये केवल रावीद्िक प्रभाव के अनुमान के कारण छायावाद स्वच्छुंदतावादी काव्यपरंपरा से बाइर नहीं माना जा सकता। तात्ता- लिफ विवादों का फोलाइल शांत हो जाने के बाद अब यह तडय भली भाँति स्पष्ठ होकर सामने श्रा गया है कि छायावाद हिंदी की श्रपनी रोमांटिक अथवा स्वच्छुंद काव्यधारा की ही विकसित अवस्था है, जिसका प्रथम चरण श्रीघर पाठक) रामनरेश त्रिपाठी, मुकु्चर पडिय प्रभ्नति कवियों को रचना थ्ों में प्रकट इआ झौर दूसरे चरण में काव्य को प्रौष्ठतम उत्कर्ष तक पहुँचाने का श्रेय प्रसाद, निराला, पंत और महदादेवी वर्मा जैसे कृती कवियों को है। छायावाद का प्रवर्तन किस कवि फी किस रचना से माना लाय यह विवाद जा भी निःशेष नहीं हुआ है । सुमित्रानंदन पंत ने अपने ग्रथ “छायावाद : पुनमू ल्यांकन' में विस्तारपूर्वंक इस प्रश्न पर प्रकाश डाला है। प्रसाद फो छायावाद का प्रवर्तक मानने के पक्ष में “मावना की दृष्टि से आदर” व्यक्त करते हुए भी 'तथ्यविश्लेषण फी दृष्टि से! उन्होंने इस मान्यता फो उचित नहीं ठहराया। जो तध्यविंवरण उन्होंने प्रस्तुत किया उसका सार यही दै कि छायावादी, प्रवृत्ति से युक्त प्रसाद जी फी फविताएं। भरना! के दूसरे संस्करण में पहली बार १६२७ में ही प्रकट हुई । १६१६ में प्रकाशित 'भरना के प्रथम संस्करण की २४ कविताओं में 'कौई ऐसी विशिष्टता नहीं थी जिसपर ध्यान जाता । उनके फाननकुसुम, प्रेम्पथिक : आ्रादि काव्य सन्‌ १९२३ के बाद ही प्रकाश में आए, ओर विशेषतः काननकुसुम में द्विविदीयुग के ढरें फी ही रचनाएं थीं। पंत जी का दावा है कि "मेरी प्रायः सभी “पल्लव' में प्रकाशित प्रमुख रचनाएँ दो वर्ष पूर्व से अर्थात्‌ सन्‌ 'र३ के मध्य से सरखती में प्रफाशित होने लगी थीं।” इसके अतिरिक्त उनकी पहली लंबी रचना स्वप्न! सन्‌ २० की सरस्वती में प्रफाशित हो चुकी थी। वीणा नामक प्रगीत संकलन सन्‌ १८-१६ में और ग्रंथि सन्‌ १९ में लिखी जा चुकी थी। सहाँ तक लिखे खाने का प्रश्न है, निराला जी का कहना था कि “जूद्दी की फली'! तो उन्होंने सन !१६ में ही लिख डाली थी। यद्यपि जुह्दी की फलली! का कथ्य रीतिकालीन सा है तथापि अप्रस्तुतविधान, चित्रमयी भाषा और लाचरिफ वैचिज््य एवं छुंदमुक्ति आदि सभी दृष्टियों से यह कविता हिंदी काव्य में एक स्पष्ट मोढ़ की सूचक है। पंत जी ने अपने साक्ष्य में आबाय शुक्ल का निम्न उडरण प्रस्तुत किया है। 'भरना' के विषय में आचार्य शुक्ल ने कट्दा था: 'ऋरना' के हितीय संस्करण में छायावाद कही जानेवाली विशेषताएँ स्पष्ट रूप में [ भाग १० ] पृचदुत : परिभाषा और प्रशूरियाँ १३३ दिखाई पड़ीं। इससे पहले “पल्लव”? बड़ी धूमधाम से निकल चुका था, बिसमें रहस्य भावना तो कहीं कहीं, पर श्रप्रक्तुत विधान; चित्रमयी भाषा और लाकशिक वेचित्य आदि विशेषताएँ अत्यंत प्रचुर परिमाण में सर्वत्र दिखाई पडी थीं। यदि “मरना? से पहले की प्रकाशित कविताओं में छायावाद के शोध का प्रश्न है ता सन्‌ ?२२ में प्रकाशित श्रनामिका? की उपेक्षा कैसे की जा सकती है आ्रोर यदि कविवचन को प्रभाण माना जाए तो “वीणा” और «ग्रैथि! से पहले “जूही की फली' लिखी जा चुफी थी। इसके श्रतिरेकत भी एक ओर पंत की फुटकर रचनाएं सरस्वती” में प्रकाशित है रही थीं तो दूसशे ओर निराला का फुटकर काव्य 'मतवाला' और “समन्वय” आदि पत्रिकाशों में। शायद सरस्वती” में स्थान पा जाने के कारण पंत जी ने उस समय के विद्वतूतसमाज का ध्यान अ्रधिक आकर्षित किया और इसीलिये वह मी सच हो है कि छायावाद की कह आलोचनाओों फा भार सबसे अधिक उन्हीं के सुकुमार व्यक्तित्व को भेंलना पडा | आ्राचाय शुक्ल को उनका काव्य इसलिये श्रधिक रास आया कि ये श्रमिव्यजना- के ठेढ़े मेढ़े रास्ते छोडकर शुद्ध स्वाभाविक मांग पर चलनेवाली कविता को लोक- मानस के अ्रधिक निकट मानते थे। श्रन्य कवियों की रहस्यमावना में जहाँ उन्हे सांप्रदाविकता को गंध श्राने लगी थी, वहाँ पंत जी फी रहस्यमावना उन्हें स्वाभावक प्रतीत होती थी, और इस दृष्टि से उन्हें वे शुद्ध स्वच्छुंदतावाद के सबसे निकट जान पड़ते थे : “'पब्लव” के भीतर “उच्छुवास', “आंख, “परिवर्तन! ओर्‌ बादल” आदि रचनाएं देखने से पता चलता है कि यदि 'छायावाद! के नाम से एक 'वादः न चल गया होता तो पंत जी स्वच्छुंदता के शुद्ध स्वाभाविक मार्ग पर ही चलते | उन्हें प्रकृति की श्रोर सीबे आकर्षित होनेबाला, उसके खुले और चिरंतन रूपों के बीच खुलनेवाला हृदय प्राप्त था |! ... पललव में संकलित रहस्यमूलक रचनाओं 'सवप्न! और प्मौन निमंत्रण? की चर्चा करते हुए. श्राचाय शुक्ल ने कहा था कि ध्पंत जी की रहत्यभावना स्वाभाविक है, सांप्रदायिक नहीं । ऐसी रहस्यमावना इस रहस्यमय घजगत्‌ के नाना रूपों को देख प्रत्येक सहृदय व्यक्ति के मन में कभी कभी उठा करती है । व्यक्त जगत्‌ के नाना रूपों और व्यापारों के भीतर किसी अ्रज्ञात चेतन सचा का अ्रनुभव सा करता हुआ कवि इसे केवल्ल श्रतृप्त जिश्वासा के #ूप्‌ में प्रकट करता हे | यदि प्रकृति की और शआ्राकर्षित होनेवाला, उसके खुले और चिरंतन रुपों के बीच खुलनेवाला हृदय छावावादों द्वो सकता हैं तो इस काव्यधारा क प्रवर्तन का श्रेय श्रीधर पाठक को हैं ओर यदि श्रसांप्रदायिक रहस्यमावना को इृष्टि से देखा ज्ञाय तो रबींद्रनाथ को 'ग्रीतांजलि'! को सबसे पहली प्रतिध्वनि २१२४ हु क्‍ हिंदी झाहित्य का बृहत्‌ इतिहास हिंदी कविता में मुकुट्धर पांडेय के काव्य में सुनाई पड़ती है। वस्तुतः छायावाद न केवल रहस्यभावना है और न केवल प्रकृतिप्रेम । वह इससे अधिक एक विशेष सौंदर्यदश्टि का उन्मेष है। रहस्योन्मुखता, प्रकृतिप्रेम आदि उसकी भ्रभिव्यक्ति को विविध सरणियाँ हैं। इस समग्र दृष्टि का उन्मेष प्रसाद को आरंभिक रचनाओं में ही मिलने लगा था। 'कामायनी”' 'प्रेमपथिकः की ही चरम परिणति है । छायावाद का प्रवर्तन किस कवि की किस कविता से हुआ, ठीक उस बिंदु का निर्देश करना कठिन है। वस्तुत: कविवर सुमित्रानंदन पंत ने छायावाद के झारंभ के विषय में जो बात विनयवश कही है वही इस समस्या के मूल में सत्य है: 'मेरे विचार से छायावाद की प्र रणा छायावाद के ग्रम्मंख कवियों फी उस युग की चेतना से स्वतंत्र रूप से मिली है। ऐसा नहीं हुआ कि किसी एक कवि ने पहले उस धारा का प्रवर्तन किया हो ओर दूसरों ने उसका अनुगमन कर इसके विफास में सहायता दी है ।” यह बात इसलिये और भी सही है कि किन्‍हीं सामान्य मिलनबिंदुओशों के रहते भी छायावाद के कवियों में विभिन्नता और बेविष्य भी कम नहीं हैँ | 'तारसतक” के कवियों के समान ही यदि उन्होंने योजना- बद्ध रूप में घोषणा की होती तो यह फहदना कठिन नहीं था कि उनमें श्रसमानता बहुत है । परिभाषा छायावादी काव्य को एक सामान्य परिभाषा में बाँधना जोखिम का फाम है क्योंकि छायावाद व्यक्तिकेंद्रित काव्य था और उसके प्रत्येक कवि के व्यक्ति- वैशिष्य्य और निजी विलक्षणुता पर विशेष बल दिया गया था। यह काय चाहे जितना खतरे का हो, फिर भी समस्त छायावादी कवियों में प्राप्त सामान्यता को रेखांकित करना आवश्यक है क्योंकि कुछ तो ऐसा था ही जो बीसखबीं शताब्दी के दूसरे दशक के अ्रंत में हिंदी फाव्य में घटित हुआ । भले ही “छायावाद शब्द से उस घटना का पूरा बोध न होता हो--श्सलिये हम उस शब्द के बिना ही काम चलाना चाहे किंतु यह शब्द ज्ञिस घटना .का बोधक है उसकी परिभाषा के दायित्व से नहीं बचा जा सकता | क्‍ एक समय ऐसी ही कठिनाई अ्रँग्रेजी की रोमांटिक फाव्यधारा के संदर्भ में भी महसूस को गई थी। “अ्रॉक्‍्सफर्ड हिस्ट्री श्रॉफ इंगलिश लिय्रेचरः का रोमांटिफ काल संबंधी खंड इसका प्रमाण है जिसमें यह स्पष्ट स्वीकार किया गया है कि अंग्रेजी के रोमांटिक कवियों के बीच सामान्यताश्रों का निर्देश करना श्रसंभव है। फिर भी आलोचक इस स्थिति से संतुष्ट नहीं हैं और युग की सामान्य [भाग १० | | पूर्वत्गुत : परिभाषा और अबूसियाँ १२४, प्रदृत्तियों के निरूपण के लिये प्रयत्नशील हैं। रोमांटिक कवि शेली का यह कथन उनके लिये आदर्श है : “किसी विशेष कालखंड के सभी लेखकों के बीच अनिवायंतः एक समानता होती है जो उनकी अपनी हृच्छाशक्ति पर निर्भर नहीं रहती । वे उस सामान्य प्रभाव की अधीनता से बच नहीं सकते जो उनकी सामयिक परिस्थितियों के अ्संख्य संपुंजनों से उत्पन्न होता है; यद्यपि एक सीमा तक प्रत्येक कवि स्वयं उस प्रभाव का विधाता होता है जिससे उसकी सचा परिव्याप्त रहती है।! लगभग इसी प्रकार की बात हिंदी में कवि सुमित्रानंदन पंत ने भी कही कि चारों दिशाओं से स्वतंत्र रूप से नई कफाव्यचेतना फी धघाराएँ बहकर छायावाद के युगचरितमानस में संचित हुईं । छायावाद की परिभाषाएँ दो इृष्टियोँ से की गई हैं: व्युत्पन्तिपरक आर प्रवृत्तिपरक । 'छायावाद! शब्द की व्युतिपरक व्याख्या का एक निश्चित इतिहास है । आरभ में 'छायावाद! की खिल्ली उड़ाने के लिये यह नाम तथाकथित सीमाओं के बाचकरूप में दिया गया। बाद में उपहास फो चुनोंती के रूप में स्वीकार करते हुए विद्वानों ने इस शब्द की अत्यंत गंभीर व्युत्पत्तिमुलक व्याख्या प्रस्तुत कर इसे छायावादी काव्यप्रवृत्ति से जोड दिया। इस प्रकार आरंभ में जो शब्द उपहास- परक था वही लक्षणबोधक हो गया सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित कुछ काटू नों ओर लेखों में 'छायावाद” शब्द का प्रयोग इस काव्य की अस्पष्टता, धुमिल्कता आदि के लिये किया गया । बाद में रामचंद्र शुक्ल ने इस शब्द का संबंध पुराने ईसाई संतों के छायामास _ ( फांताज्माता ) से जोडुकर इसे ऐव्हासिक व्युत्पत्ति का आधार प्रदान कर दिया। उनका कहना था कि (पुराने ईसाई संतों के छायाभास तथा यूरोपीय काव्यक्षेत्र में प्रवर्तित आध्यात्मिक प्रतीकवाद के अनुफरणु पर रची जाने के कारण बंगाल में ऐसी कविताएँ 'छायावाद' कही जाने लगी थीं ।? आचाय शुक्त्र ने एक शोर तो छायावाद को सध्ययुगीन रहस्यभावना का. नूतन संस्करण कहा : “कबीरदास किस प्रकार हमारे यहाँ के ज्ञानवाद्‌ और सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद को लेकर चले यह हम पहले दिखा आए हैं । उसी भावात्मक रहस्यपर॑परा का यह नूतन भावभंगी ओर लाक्षशिकता के साथ आविर्भाव है!! ओर दूसरी और छायावाद को वेदांत के प्रतिबिंबवाद का नया नामकरण माना; 'जो 'छायावाद! नाम प्रचलित है वह वेदांत के पुराने “धप्रतिबिंबवाद! का हैं। यह 'प्रतिबिंबवाद' सूफियों के यहाँ से होता हुआ योरप में १२६ क्‍ हिंदी घाहित्य का छृह्दत इविहास गया जहाँ कुछ दिनों पीछे 'प्रतीकवाद! से संश्लिष्ट होकर घौरे धीरे बंग साहित्य के एक कोने में आ निकला और नवीनता की धारणा उत्पन्न करने के लिये. 'छायावाद! कहा जाने लगा | यह काव्यगत 'रहस्यवाद! के लिये ग्रहीत दाशंनिक सिद्धांत का द्रोतक शब्द है । ग्राचारय शुक्ल श्रपने युग के प्रतिनिधि श्रालोचक थे। उनकी आशंसा समकालीन फब्रियों के लिये प्रमाणपत्र थी ओर श्रालोचना चुनौती। उनकी स्थापनाश्रों की उपेक्षा सहज संभव न थी। शुकल्ष जी ने यद्रपि 'छायाबाद! शब्द फा संबंध वेदांत के प्रविज्िंबवाद से जोडते हुए उसे दाशंमिकता प्रदान फी तथापि “छायावाद' को रहस्योन्गुखी प्रद्गत्ति को इस काव्यधारा को स्वकीय निधि न क्टकर परागत प्रवृति माना । संभवतः इसी कारण जयशंकर प्रसाद ने संस्कृत काव्यशास्त्र फी समृद्ध सरशियों से हूत शब्द का समर्थन जुटाया श्रीर यह सिद्ध किया कि इस शब्द का प्रयोग भ्रभिव्यंजना की विशिश मंगिमा और अथंगरिमा के लिये वक्रोक्ति, घनि श्रादि दिद्धांतों में पंहले भी होता रहा है। समसामयिक काब्य के संदर्भ सें हूस शब्द का प्रयोग नवीत रूप सें परंपरा का पुनराविष्कार मात्र है। प्रसाद जी ने व्युत्पत्यर्थ से संगति बेठाते हुए काव्यप्रवृत्ति का निरूपण फरने के लिये “छायावाद? शब्द फा आ्रोचित्य ही सिद्ध नहीं फिया बल्कि उपहास के रूप में पूवप्रयुक्त शब्द को परंपरा से घोड़कर उसे शास्त्रसंभत होने का गौरव भी प्रदान किया । साथ ही आचार्य शुक्ल की भाँति उसे दाशंनिक अ्वधारणाओं का बाचक न मानकर काव्यशास्त्रीय अ्वधारणाशओं से जोड़ दिया; जो संभवत उनकी समझ में अधिक प्रासंगिक था | द बयशंकर प्रसाद के अ्रनुसार प्राचीन काव्यशास्त्र में छाया शब्द का प्रयोग अनुभूति श्रोर अभिव्यक्ति की जिस विशेष भंगिमा के लिये किया गया, कुंतक ने उसे 'वक्रता की उद्भासिनी' कहा और 'ध्वनिकार ने इसका प्रयोग ध्वनि के भीतर सुंदरता से किया । यह आंतर ग्रय॑वेचिश्य काब्य में उसी प्रकार वर्तमान रहता है जिस प्रकार मोती के भीतर आब या पानी । मोती के बीच इस लावशय को; प्राचौनों के साश्य पर, प्रसाद थी ने 'छाया की जैसी तरलता” कहा । हिंदी में भी जब बाह्य उपाधि से इृब्कर आंतर हेतु की ओर कविफर्म प्रेरित हुआ! तो उसने अ्रभिव्यंश्रना की नई मंगिमाओं की गझ्रपेक्षा की। कवि प्रसाद के अ्रनुसार “इस छाया और फांति में सर्जन के लिये कुंतक शब्द और श्रर्थ की स्वाभाविक वक्रता फो श्रावश्यक मानते थे। “यह रम्यच्छायांतरस्पर्शी बक्रता _बर्ण से लेकर प्रबंध तक में होती है।” और ध्वनि के रूप में यह प्रबंध और वाक्य से लेकर पद और वर्ण तक दीघ्र होती यी |. [ भांग १० ] परव॑वृत्त : परिभाषा और अदृत्तियाँ १२७ इस संबंध में प्रसाद जी का निष्कर्ष है; छाया भारतीय दृष्टि से अ्रनुभूति आर अभिव्यक्ति की भंगिमा पर अधिक निर्भर करती है। ध्वन्यात्मकता, लाकइशि- कता) सौंदयस य प्रतीफविधान तथा उपचारवक्रता के साथ स्वानुभूति की विबृति के कक की विशेषताएँ हैं। अपने भीतर से मोती के पानी की तरइ आंतर स्पश करके भावसमर्पण करनेवाली अभिव्यक्ति छाया कांतिमयी होती है।! वह काव्य लो केबल बाह्य सौंदर्य का वर्णन न करके एक विशेष भंगिमा और बक्रता से ५ | आंतर सौंदर्य का उद्घाटन करे वही झ्ंतरस्पर्शी रम्यच्छाया का अभिव्यंज्क काव्य छायावाद है | किंतु सुभिन्नानंदन पंत ने छायावाद का पुनमूल्यांकन करते हुए न केवल इस नाम को आ्ञामक बताया बल्कि प्रसाद की उपयु क्त व्याख्या फो भी बुद्धिविलास ही माना । उनके शर्बदों में वास्तव में, प्रारंभ में डी उस संचरण के लिये एफ श्रुटिपूर्ण तथा भ्रामक नाम स्वीकार कर पीछे उसके समथन के प्रायः सभी मुल्यवान प्रयत्न उसके सारमूत तत्व को और भी. उलभाते रहे और उतके पास पहुँचने के . बदल्ले उससे और भो दूर होते रहे ।” ऐसी स्थिति में पंत जी इसके अतिरिक्त और कह भी क्‍या सफते थे फि प्रसाद जी ने, उस नाम के लिये अपनी स्वीकृति देकर उसकी अ्रपने ढंग से व्याख्या भी कर दी। इस प्रफार भीतर से मोती के पानी की . तरह आंतरस्पर्श करके मावसमपेण करनेवाली कांतिमयी छाया ही फाव्यवस्तु तथा कलाबोध बनकर नवीन युग के रहस्यवाद) स्वच्छुंदतावाद, अथवा शप्रभिव्यंजनावाद के रूप में विश्ों का आशीर्वाद तथा दयादाद्धिश्यभरा संरक्षण पाने लगी ।! पंत जी छायावाद फो “इतिहास के पएष्ठों पर बलपू्वफ अंकित” शब्द मानते हैं भ्रतः इस प्रफार फौ व्युत्पक्तिपरक व्यास्याएँ उनके घिये बोद्धिक अतिचार के अतिरिक्त क्‍या हो सफती हैं ९ 'छायावाद की दूसरे प्रकार की परिभाषाए प्राय: विषयवस्तु+ विचारसरणी अथवा अ्रभिव्यंजनाशैली से संबद्ध एक या अधिक ग्रवृत्तियों फो दृष्टि में रखते हुए प्रस्तुत की गई हैं। ऐसी परिभाषाएँ या तो पहक्षब्शिष पर अधिफ बल देने के कारण घकांगी हो गई हैं अथवा स्वोग समेटने के फेर में परिभाषा के स्थान पर विस्तृत व्याश्या चन गई है । छायावाद की पहली सुसंबद्ध व्याख्या आचार्य रामचंद्र शुक्ल की है। . 'छायावाद' शब्द का प्रयोग दो अ्र्थों में ग्रइण करते हुए उन्होंने फोव्यवस्तु कौ इृष्ट से उसका एक अर्थ रहस्यवाद लिया जिसका संबंध “काव्यवस्थु से होता है अर्थात्‌ लह्टाँ फवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को श्रालंबन बनाकर अ्रत्यंत चित्रमयौ भाषा में प्रेम की अ्रनेफ प्रकार से व्यंत्रना करता है 7 श्रर्थात्‌ छायावाद अनंत और श्श्ट . हिंदी साहित्य का बहत इतिहास अज्ञात प्रियतम के प्रति चित्रमयी प्रेमव्यंजना है। छायावाद में 'मिस्टिसिज्म! या रहस्यात्मकता द्रॉढने की प्रवृत्ति आचाये शुक्ल से पहले से प्रचलित थी । प॑ं० मुकुथ्घर पांडेय १६२७ में श्री शारदा में प्रकाशित अपनी छुग्यावाद विषयक लेखमाला में बंगला साहित्य में प्रचलित रहघ्यवादी रंग की रचनाओ्रों ओर हिंदी छायावाद के बीच तारतम्य निरूपित कर चुके थे । बाद में छायावाद के संदर्भ में रहस्यवाद के प्रश्न को लेकर यद्रपि सबसे अधिक आलोचना आचाय॑ शुक्ल की ही हुई तथापि इसकी जिम्मेदारी अकेले झाचाय पर न थी। पं० मुंकुट्घर पॉडिय 'छायावाद' की 'घधमंभावुकता श्र आध्यात्मिकता” की निश्रोत स्थापना पहले ही कर चुके ये ; यहाँ छायावादिता से आत्मिकता तथा धममभावुकता का मेल होता है। यथाथ में उसके जीवन के ये दो सुख्य अवलंब हैं। अतएव छावावाद के कवि इन दोनों च्ेन्रों की सीमा से बहुत कम बाहर निकल सकते हैं। वे प्रायः 'झलोनित्यः शाश्वतोडय पुराणी” तथा 'बृहच्च तद्दिव्यमचिन्त्यरूपम! के गूढ़ातिगृढ़ रहस्य में ही मग्न रहते हैं! तथा हिंदी में ध्श्राध्यात्मिक साहित्य” का एकदम अभाव न होने पर भी वह कदाचित्‌ पर्याप्त नहीं | छायावाद से उसकी श्रभिवृद्धि अवश्यंभावी है!। उनके अनुसार छायावादी कविता ध्मनबुद्धि के परे एक अज्ञात प्रदेश में ले जाती है।! इसके अतिरिक्त भी पं० मुकुटघर पांडेय ने स्थान स्थान पर छायावाद की विलक्षण श्रभिव्यंजना, भाषा के असामान्य प्रयोग, श्रस्पष्टता आदि गुणों का संकेत किया है। .. जयशंकर प्रसाद ने भी छायाबाद की विचारपद्धति को रृध्यवाद ही माना आर उसकी व्याख्या शक्ति के रहस्ववाद के रूप में कर दी | शुक्ल जी जिसे मध्य- युगीन संतों के सांप्रदायिक रहस्यवाद का झ्ाधुनिक संस्करण मानते थे, प्रसाद ने उसे सोंदयलहरी में वर्शित शक्ति के रहस्यबाद से जोड़ दिया, 'विश्वस्ु दरी प्रकृति में चेतनता का आरोप छंस्‍्क्ृत वाह मय में प्रचुरता से उपलब्ध होता है। यह प्रकृति अथवा शक्ति का रहस्ववाद सोंदयलहरी के 'शरीर त्व॑ शम्मो' का अनु करण मात्र है। वर्तमान हिंदी में इस अद्वेत रहस्यवाद की सौंदरयंमयी व्यंजना होने लगी है, वह साहित्य में रहस्यवाद का स्वाभाविक विफास है। इसमें अपरोक्त श्रनुभूति, समरसता तथा प्राकृतिक सौंदर्य के द्वारा अहं! का 'इृदम्‌? से समन्वय करने का सु दर प्रयत्न है (? स्व्रभावतः यह व्याख्या प्रसाद की अ्रपनी रचनाओं के. दर्शन फी व्याख्या है, जिसके प्रति उन्हे आरंभ से ही विशेष मोह था | छायावाद में झ्राध्यात्मिकता खोजने की प्रवृत्ति एफ बार आरंभ हुई तो कुछ दूर तक चलती चली गई। नंददुलारे वाजपेयी ने कहा, मानव अथवा प्रकृति के सूक्ष्म किंतु व्यक्त सौंदय में आध्यात्मिक छाया का भान मेरे विचार से छायावाद फी एक सर्वमान्य व्याख्या हो सकती है। शुक्ल जी की व्याख्या में जो [ भाग १० ] पू्वेद्ृत : परिभाषा और श्रवृच्तियाँ १२४ अनंत और अज्ञात आलंबन था; वाजपेयी जी फी परिभाषा में वह व्यक्त और परिसीमित हो गया । उन्होंने न केवल छायावाद के व्यक्त सौंदय में आध्या- व्मिकता के भान को मध्ययुगीन धमप्रेरित रहस्यवाद से भिन्न माना, बल्कि छायाधाद को विशिष्ट सौंदयदृष्टि मानते हुए. उसे रहस्यवाद से अलग करके देखने का आग्रह किया । प्रसाद जी ने भी इसे “रहस्यवाद की सोंदर्यमयी व्यंजनाः कहा था किंतु नंददुलारे वाजपेयी ने छायावाद ओर रहस्यवाद की सोंदर्यद्ष्टि में भेद करते हुए कहा : “इस प्रफार प्रसाद जी ने व्यष्टि सोंदयंदृष्टि ( छायावाद ) और समष्ति सोंदयदृष्टि ( रहस्यवाद ) में कोई स्पष्ट अंतर नहीं किया | किंतु मैं इस झंतर का विशेष रूप से आग्रह फरता हूँ क्योंकि इसने दो विशेष प्थक्‌ प्रथक्‌ काव्यशेलियों की सृष्टि की है। व्यष्टि सॉदयब्रीध एक सार्वजनीन अनुभूति है । यह खहण दी दृदयस्पर्शी है, यह सक्रिय ओर स्वावलंबिनी काव्यचेतना फी जन्मदात्री है। इसे में प्राकृतिक अध्यात्म फह सकता हूँ। समष्टि सॉदयबोध उच्चतर अनुभूति है। फिर भी यह प्रत्येक क्षण रूढ़ होने की संभावना रखती है। इसमें इंद्वियानुभूति की सहज प्रगति या विफास के लिये स्थान नहीं है। यह फदम कदम पर धरम के . कठघरे में बंद होने फी अभिरुचि रखती दै | वाजपेयी जी छायावाद में रहस्थवाद का प्रयोग अत्यंत व्यापक अथ में - स्वीकार करते थे। “हिंदी साहित्य : बीसवीं शताब्दी! में आचाय॑ रामचंद्र शुक्ल पर लिखें गए निबंधों में उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि अंग्रेजी की रोमांटिक कविता _ में रहस्यवादी प्रद्गत्ति अत्यंत उदार श्रथ और व्यापक रूप में देखी जाती थी। वहाँ प्रकृतिप्रेम, उसमें आ्रध्यात्मिक सचा के भान श्रादि को रहस्यच्नत्ति के अंतर्गत ही . मान लिया गया था। उन कवियों के लिये सत्य ओर सोंदय अभिन्‍न हो गए थे |. यह रहस्यवृत्ति सांप्रदायिक या धार्मिक न थी। वाजपेयी जी ने छायावाद कौ आध्यात्मिकता को एफ नवीन व्याख्या करते हुए उसे मध्यकालीन भक्तिकाव्य से मिन्‍न बताया : “उसकी मुख्य प्रेरणा धार्मिक न होकर मानवीय ओर सांस्कृतिक है । “भारतीय परंपरागत आध्यात्मिक दर्शन की नवप्रतिष्ठा फा वर्तमान अनिश्चित परिस्थितियों में यह एक सक्रिय प्रयत्न है |*' 'आधुनिक परिवर्तनशील सघमाजबव्यवस्था श्रौर विचारजगत्‌ में छायावाद भारतीय आध्यात्मिकता की, नवीन परिस्थिति के अनुरूप स्थापना करता है ।! कायावाद ने न केवल एक नई सांस्कृतिक आध्या- त्मिकता दी बल्कि वह मध्ययुगीन घर्मसाधना से अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व की घोषणा इसलिये भी कर सका कि “वह किसी क्रमागत सांप्रदायिकता या साधनापरिपाटी का _ अनुगमन नहीं करता !” छायावाद की आध्यात्मिकता का निजीपन यही है कि १०-१७ | १३० द .... हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास वह न किनन्‍्हीं सीमानिर्देशों से अआबड रहती है श्रोर न ही भावना के ज्षेत्र में किडनी प्रकार का प्रतिबंध स्वीकार करती है । शुक्ल जी ने छायावाद में सांप्रदायिक रहतध्यवाद की बात कहषर बाद के आलोचकों को इस शब्दमात्र के प्रति इतना आशंकित कर दिया क वे छायावाद में प्राकृतिक रहस्यभावना को स्वीकार करके भी रहस्यवाद से उस्तका भेदनिरूपणा करते रहे । रहस्यानुभूति आध्यात्मिक होते हुए भी लौफिक हो सकती है। अतः: छायावाद रहस्योन्पुख होते हुए भी इसी लौकिक जीवनघरातल की आअ्राध्यात्मिक अनुभूति है--यह न कहकर छायावाद ओर रहस्यबाद के बीच भेद करके चलने की प्रवृत्ति ही अधिक लोकप्रिय हुई । छायावाद के मर्मोी आलोचक शांतिप्रिय द्विवेदी ने दोनों में अंतर करते हुए कहा 'छायावाद में यदि एक जीवन के साथ दूसरे जीवन की अ्रभिव्यक्ति है अथवा आत्मा का आत्मा के साथ संनिवेश है तो रहस्यवाद में आत्मा फा परमात्मा के साथ । एक में लोकिक अ्रभिव्यक्ति है; तो दूसरे में अ्ल्लोकिक |? बाद में आलोचकों फो रहस्थवाद शब्द के निषेध की आवश्यकता ही... इसलिये प्रतोत हुई क्योंकि शुक्ल जी ने इसे घमंसंवलित मध्ययुगीन अर्थ में प्रयुक्त किया था | शांतिप्रिय द्विवेदी ने शब्द ती स्वीकार किया पर एक संशोधन के साथ ; वर्तमान युग में भावना द्वारा जिस रहस्यवाद की सृष्टि हो रही है, वह भी एक निगूढ़, निविकार परम चेतन को और लक्ष्य तो रखती है, किंतु यह धममलक नहीं, कला (सौंदय ) मलफ है । वह 'रहस्यवाद की अनुमति जिसकी उपलब्धि योगी को साधना द्वारा ओर कवि को भावना द्वारा होती हैं , छायावाद की जिस अलोकिकता का खंडन नंददुलारे वाजपेयी ओर शांतिप्रिय द्विवेदी ने किया उसकी प्रतिष्ठा कवित्वमय शेली में महादेवी वर्मा १६९३६ में कर चुकी थीं। महादेवी की व्याख्या से अ्रल्लोकिक अंश को निकालकर शेष उपयु क्त विद्वार्नों ने शब्दभेद से स्वीकार कर लिया | महादेवी ने रहस्यानुभूति की व्याख्या इस प्रकार फो थी : (जब प्रकृति की अनेकरूपता में, परिवर्तनशाल विभिन्‍नता में कवि ने ऐसे तारतम्य की खोजने का प्रयास किया जिसका एक छोर असीम चेतन ओर दूसरा उसके असीम हृदय में त्माया हुआ था तब प्रकृति का एक अंश एक अलोकिफ व्यक्तित्व फो लेकर जाग उठा ।**'इती से इस अनेकरूपता के फारण पर एक मधुरतम व्यक्तित्व का आरोपण क़र उसके निकट आत्मनिवेदन कर देना इस फोव्य का दूसरा सोपान बना जिसे रहस्यमय रूप के फारण ही _ रहस्यवाद नाम दिया गया | छायावाद की भीतसृष्टि में बसे नए रहस्यवाद! को महादेवी ने इस प्रकार [ भाग १० ] पू्वेवृतत : परिभाषा और प्रवृत्तियाँ १३१ समझाया, “उसने परा विद्या से अपार्थिवता ली) वेदांत के अद्वेत की छाया मात्र ग्रहशु की, लॉफिक प्रेम से तीव्रता उधार ली और इन सबको कबीर के सांकेतिक दांपत्य भावसूत्र में बॉधकर एक निराले स्नेहसंबंध की सृष्टि कर डाली जो मनुष्य के हृदय को आलंबन दे सफा, पार्थिव प्रेम के ऊपर उठा सका तथा मस्तिष्क को हृदयमय और हृदय को मस्तिष्कमय बना सका /? स्पष्ट ही महादेवी की यह व्याख्या अधिक से अधिक उनकी अश्रपनी कविताओं तक ही सीमित है। साथ ही इन गीतों में निहित अपार्थितता ओर अलॉफिकता भी प्रश्नातीत नहीं है। इसीलिये परवर्ती आलोचकों में यह रहस्यवादिता सदा संदेह की दृष्टि से देखी गई । ः डा० नगेंद्र ने कहा कि छायावाद की रहस्योक्तियाँ एफ प्रकार की जिज्ञासाएं हैं, जो छावावाद के उत्तराघ में आध्यात्मिक दर्शन के द्वारा और भी पुष्ट हो गई हैं । परंठ वे धार्मिक साधना पर आश्रित नहीं हैं। उनका आधार कहीँ भावना, कहीं दर्शचितन ओर आरंभ में कहीं कहीं मन की छलना भी है |! द अजय ने छायावाद की इस प्रवृत्ति को 'भावों फो आध्यात्मिकता के आवरण में व्यक्त करने की प्रेरणा” कहा ओर स्वयं सुमित्रानंदन पंत ने रहस्यवाद के प्रश्न मात्र को छायावाद के संदर्म में अनुचित माना--' मेरें विचार में उस युग को पुष्कल बहुमुखी काव्यसृष्टि को सामने रखते हुए छायावाद पर रहस्यवादी : दृष्टि से विचार करना मात्र अतिरजना है और युग की मुख्य काव्यप्रबूत्ति पर एक गलत मानदंड का प्रयोग करना है। मध्ययुगीन संतों की तरह छायावादी कवि आपत्मग्रह्म और आत्मपरिष्कार की खोज में न जाकर विश्वात्मा तथा विश्वजीवन की खोज को ओर शअ्रग्नसर हुए ॥? .. पंत जी का यह फहना एकदम सही है कि छायाबाद बहुध्षुख्ी काव्यसूष्टि हे और उसका केंद्रीय भाव रहस्यवाद नहीं है। परंतु रहस्योन्मुखी बृत्ति छायावाद फी विशेषताओं में से एक महलपूर्ण अव्वचि श्रवश्य है । द द छायावाद की दूसरी महत्वपूर्ण ओर सर्वाधिक प्रचलित परिभाषा में उसे स्थूल के विरुद्ध सूक्ष्म का विद्रोह कहा गया है। इस परिभाषा को सूत्रबद्ध कर सर्वसुलम बनाने का श्रेय डा० नगेंद्र को हैं। अपनी पहली आलोचनात्मक पुस्तक 'सुमित्रानंदन पंत” ( १६३६ ) में उन्होंने कहा था स्थल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह ही छायावाद फा आधार है। स्थूल शब्द बड़ा व्यापक हैं, इसको परिधि में सभी प्रकार के बाह्य रूपरंग; रूढ़ि आदि संनिहित हैं और इसके प्रति विद्रोह का ञ्र्थ है उपयोगितावाद के प्रति भावुकता का विद्रोइ$ नेतिक रूढ़ियों के प्रति १३२ हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास मानसिक स्वातंत्य का विद्रोह «ओर काव्य में बंधरनों के प्रति स्वच्छुंद कल्पना का विद्रोह ।' बाद में आधुनिक हिंदी काव्य की प्रवृत्तियाँ ( १९६४१ ) में संकलित 'छायाबाद” शीषक निबंध में यह परिभाषा किचित्‌ संशोधन के साथ इस रूप में सामने झ्राई “जिन परिस्थितियों ने हमारे दर्शन और कर्म फो अ्रह्िता फी ओर प्रेरित किया, उन्हीं ने भाव ( सौंदर्य ) बृति को छायावाद की ओर । उसके मूल में स्पूल से विमुख होकर सूक्ष्म के प्रति ध्राग्रह था ।' स्पष्टतः दूसरे वक्तव्य सें (विद्रोह! आग्रह” हो गया जिसे गांधीवादी अहिंसा का प्रभाव समझा जा सकता है । द्विवेदी युग फी कविता को स्थूल रूप का काव्य कहकर, उसके विरुद्ध छायावाद फो सूक्ष्म चेतना के काव्य के रूप में खड़ा करके दशन की दृष्टि से उसे गांधीवाद से जोड़कर देखने की प्रवृत्ति पं० शांतिप्रिय द्विवेदी में भी दिखाई पड़ी थी। उनके अनुसार छायावाद का अभ्युदयकाल सन्‌ ?३० के राष्ट्रीय झ्रांदोलन का समय है। ऐसे समय नवीन हिंदी फविता ( छायावाद ) में राष्ट्रीय भावों के बजाय अद्श्य सूक्ष्म भावनाओं का दशशन मिलना विरोधामास सा लगता है। किंतु छायावाद में जो एक पुरातन दाशंनिकता द्वे वह सन्न्‌ ?२० के राष्ट्रीय आंदोलन के पार्थिव प्रयत्नों में भी एक भक्तिकालीन दाशंनिक चेतना थी--गांधीवाद के रूप में । ऐसे समय में जब्र कि गांधीवाद की भाँति छायावाद भी एक सूक्ष्म चेतना लेकर चला था, द्विवेदी युग का साहित्य वस्तुजगत्‌ फो लेकर ही प्रकद हुआ था, फलतः राष्ट्रीय आंदोलन के स्थूल रूप का रेखांकन उसके लिये स्वाभाविक था । .. स्थूल को प्रतिक्रिया में सूक्ष्म के विद्रोह की बात महादेवी वर्मा ने भी अपने छायाबाद संबंधी लेख में सविस्तार फह्टी है : 'स्थूल सोंदर्य को निर्जीव आवृत्तियाँ से थक्के हुए ओर कविता की परंपरागत नियमशंखलाओं से ऊबे हुए व्यक्तियों को फिर उन्हीं रेखाओं में बँधे स्थूल का न तो यथा चित्रण इचिकर हुआ ओर. न उसका रुढ़िंगत श्रादश भाया। उन्हें नवीन नवीन रूपरेखाओं में सक्ष्म . सोंदर्यानुभूति की श्रावश्यकता थी, जो छायाबाद में पूर्ण हुई ।! महादेवी जी इस संबंध में अत्यंत सतक रहीं कि सूक्ष्म का अर्थ यथाथंविरोधी या अवास्तविक न क्ञगाया ज्ञाए | श्रतः जब “सूक्ष्म के संबंध का फोलाइल सूक्ष्म से भी परिमाणा में अधिक हो गया? तो उन्हें स्थल विषयक अपने दृष्टिकोण फो स्पष्ट करने की आवश्यकता ग्रतीत हुई : “छायावाद की सौंदर्यटश्टि स्थूल के आधार पर नहीं है यह कइना स्थूल की परिभाषा फो संफोर्ण कर देना है।*““उसने जीवन के इति- बृचात्मक यथाथ चित्र नहीं दिए, क्योंकि वह स्थूल से उत्पन्न सूक्ष्म सौंदर्यसत्ता की [ भाग १० ] पुवंवृच् : परिभाषा ओर अवूचियाँ १३३ प्रतिक्रिया थी अप्रत्यक्ष सक्ष्म के प्रति उपेक्षित यथाथ की नहीं, जो आज की वस्तु है / महादेवी को इस स्पष्टीफरण की अनिवार्यता इसलिये महसस हुई कि इस परिभाषा में आए 'स्थूल” और 'सुक्ष्म शब्द निश्चिताथक नहीं हैं। ये शब्द न केवल व्याख्यासापेक्ष हैं ओर इनकी एफ से अधिक व्याख्याएं संभव हैं बल्कि प्रायः ये परस्पर विरोधी रूप में ग्रहण किए. जाते है, जबकि महादेवी के अनुसार स्थूल और सुक्ष्म परस्पर पूरक हैं, इसलिये जीवन की समष्टि में सूक्ष्म से इतना भयभीत होने की आवश्यकता रहीं है, क्योंकि वह तो स्थुल से बाहर कहीं अस्तित्व ही नहीं रखता। अपने व्यक्त सत्य के काथ मनुष्य जो दे झोर अपने अ्रव्यक्त सत्य के साथ वह जो कुछ होने की भावना कर सफता है, वही उसका स्थूल और सृक्ष्म है ओर यदि इनका ठीक संतुलन हो सके तो हमें एक परिपूर्ण मानव हां मिलेगा |! अधिक प्रचलित शब्दावली में स्थूल यथार्थ है और सूक्ष्म आदर्श । इस प्रकार स्थूल की ठुलना में सूक्ष्म के आग्रह से आरंभ करके महादेवी अ्रंततः दोनों के . बीच विवेकसंसत संतुलन की बात करने लगीं | जब छायावाद को स्थूल् के प्रति विद्रोह कहा गया तो स्वभावतः स्थूल शब्द से प्रायः वास्तविकता, यथार्थ, या मांसलता का अर्थ ग्रहण किया गया . और इसीलिये प्रगतिवादी आलोचक डा० रामविलास शर्मा ने एक ओर निराला की प्रसिद्ध फविता पनयनों के डोरे लाल शुलाल भरे खेली होली' श्रोदि फी मांसलता को यूक्ष्मता के विरुद्ध प्रस्तुत किया ओर दूसरी ओर कहा कि छायावाद स्‍्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह नहीं रह्य वरन्‌ थोथी नेतिकता, रुढ़िवाद और सामंती साम्राज्यवादी बंधनों के प्रति विद्रोह रहा हैं | अ्थांत्‌ वे छायाबवाद फो अमांसल, श्रतींद्रिय, श्रवास्तविक और यथार्थविरोधी काव्य न मानकर सामंती .. मूल्यों के विरुद्ध विद्रोह का, स्वातंत््य का काव्य मानते ये । द हि सुमित्रानंदन पंत ने भी इस परिभाषा में तथ्य के एक अंश” को निहित स्वीकार, करके भी छायावाद को अधिक से अधिक स्थूल का सूक्ष्म में रूपांतर कहा । 'पर इससे भी छायावाद के श्र का पूर्णतः: समाधान नहीं होता। वास्तव में छायावाद स्थूल के प्रति विद्रोह न कर, न उसका संस्कार या रूपांतर ही कर नए मुल्य की प्रतिष्ठा करने का प्रयत्न करता है ।? छायावाद की मूल दृष्टि विद्रोही न होकर स्थापनाधर्मी थी और इस प्रकार उसमें केवल निषेध न होकर विधान भी था। वह कोरी प्रतिक्रिया न होकर स्वतःस्फूते क्रिया थी। “इस प्रकार स्थूल के प्रति सूक्ष्म के विद्रोह से अधिक आग्रह छायावाद्‌ में नवीन जीवनसोंदय॑ के मूल्य तथा भावसंपदू की स्थापना के ही प्रति रहा हें, बसे भी पिछली और ११४ क्‍ हिंदी प्ताहित्य का बृहत्‌ इतिहास नई वास्तविकता के लिये स्थूल और सूक्ष्म का उपयोग अथव्यंजकता की दृष्टि से संगत नहीं प्रतीत होता | छायावाद फो शैली की एक पद्धति मात्र मानने का पहला आभास सुकविर्किकर आचाय महाबीरप्रसाद द्विवेदी के म३, १६२७ की “सरस्वती” मे प्रकाशित “अजकल के हिंदी कवि और कविता” शीषफ निबंध में मिलता है। छायावाद की कविताओं में उन्हें मिस्टिसिज्म श्रर्थात्‌ आध्यात्मिक रहस्य नहीं दिखाई पड़ा | 'जहाँ तक छायावाद का संबंध है, उसके बारे में उन्होंने यह कहा कि 'छायावाद से लोगों का क्या मतलब है, कुछु समझ में नहीं आता । शायद उनका मतलब है कि किसी कविता के भावों फी छाया यदि कहीं अन्यत्र जाकर पड़े तो उसे छायावादी कविता कहनी चाहिए ।! इस प्रकार 'अन्योक्तिपद्धति! को ही उन्होंने छायावाद स्वीकार किया | इस मान्यता से शुक्ल जी जैसे उद्भद आचार्य भी प्रभावित हुए बिना न रह सके | छायावाद फो काब्यशेलीविशेष मानते हुए उन्होंने जहाँ “प्रतीक” पद्धति या चित्रभाषा शैंली' को छाय्रावाद की विशेषता स्वीकार किया वहीं श्राचार्य द्विवेदी के स्वर में स्वर मिलाकर यह भी कहा कि “अतः अम्योक्तिपद्धति का ऑलंबन भी छायावाद का एक विशेष लक्षण हुआ |” शुक्ल जी के विचार में काव्य का प्रधान लक्ष्य काव्यशेली की ओर था; वस्तुविधान की ओर नहीं ॥ विषयवस्तु के धरातल पर रहस्यवाद से संबंध न रखनेवाली कविताएँ भी छायावाद ही कही जाने लगीं। क्योंकि छायावाद शब्द का प्रयोग रहस्यवाद तक ही न रहकर काव्यशेली के संबंध में भी प्रतीकवाद के अर्थ में होने लयथा। श्रथात्‌ छायावाद का अनिवार्य लक्षण रहस्यवाद न'रहकर प्रतीकवाद ही हुआ। छायावाद का सामान्य अर्थ डुश्रा प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करनेवाली छाया के रूप में अश्रप्रस्तुत का कथन । आज यह स्थापना पूर्णतः श्रमान्य धविद्ध हो चुकी है। अतः इस- प्रश्न को लेकर विशेष विवाद उठाने की गश्रावश्यकता नहीं रही | बीच बीच में दबे स्वर्रो में यह तो कहा गया कि छायावाद में श्रधिक ध्यान उसके बाह्मपक्ष की ओर रहा, 'छायावादी कवि सुंदर शब्दसंचय द्वारा अपनी रचना में आफर्षण, सजावट एवं संगीत उत्पन्न करना चाहता है, अ्रनुभूति को व्यक्त करना उसका सुख्य ध्येय नहीं है! ( डा० देवराज ), परंतु इस मान्यता को समर्थन नहीं मिल सका कि _छायावाद केवल काव्य की शैली मात्र है। इसलिये सुमित्रानंदन पंत ने जहाँ छाया- वाद की अ्रन्य प्रचलित परिभाषाओं पर विस्तार से विचार किया है, वहाँ इस प्रसंग को इतना ही कहकर चलता कर दिया कि छायावाद फो लाक्षणिक प्रयोगों, : अमत उपमानों था अप्रस्तुत विधानों का मात्र चित्रभाषामयी शेली मानना सी शे [भाग १०] प्वबृत्त : परिभाषा और प्रवुत्तियाँ श्र. केवल उसके बाह्य कप पर दृष्टिपात करना अथवा उसके कलाबोध की प्रक्रिया के बारे में निशय देकर ही संतोष कर लेना है।* प्रवृत्तियाँ .. छायावाद की कतिपय प्रचलित परिभाषाओं की समीक्षा से स्पष्ट है कि प्रत्येक परिभाषा यथासंभव एक न एक पक्ष को आल्लोकित करते हुए मी समग्र छायावादी काव्य को घेरने में असमर्थ है। यह इस बात का प्रमाण है कि छायावाद प्रस्तुत परिभाषाश्रों से फहीं अधिक व्यापक काव्यप्रवृत्ति है। ऐसी स्थिति में आवश्यकता एक और परिभाषा जोड़ने की नहों, बल्कि छायावादी काव्य की विशेषताश्रों एवं प्रवृत्तियों के क्रमबद्ध विवरश की है | क्‍ ... विचारक्रम में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि छायावाद काव्यशेली- विशेष नहीं, बल्कि कुछु अधिक है। शुक्लोत्तर आलोचक एक अरसे से इस कुछ! फो परिभाषित फरने का प्रयास करते आा रहे हैं। नंददुलारे वाजपेयी ने 'हिंदी साहित्य : बीसवीं शताब्दी' में कहा कि “इस छायावाद को इम पंडित रामचंद्र शुक्ल के कथनानुसार केवल अभिव्यक्ति फी एक लाइशिक प्रणाली . विशेष नहीं मान सकेंगे । इसमें एक नूतन सांस्कृतिक भावना का उद्गम हैं और एक स्वतंत्र दर्शन की नियोजना है ।” इससे एक श्रम का निरसन तो हुआ किंतु यथोचित व्याख्या के अभाव में प्नूतन सांस्कृतिक मावना” तथा ध्खतंत्र दशन की नियोजना” जैसे शब्द छायावाद की केंद्रीय चेतना को स्पष्ट करने में असमर्थ रहे । डा० देवराज ने भी 'छायावाद का पतन' में शुक्ल जी की 'सांस्कृतिक दृष्टि फौी परिसीमा' की ओर संकेत करते हुए. कटद्दा कि “वे यह नहीं देख सके कि छायावाद . शअ्रपनी सब कमियों के बावजूद श्राघुनिक मनोबृत्ति का प्रतीक है। किंतु यहाँ भी अआधुनिक मनोबृत्तिः व्याख्यासापेक्ष है। यह विचारसरणी कुछ ओर आगे बढ़ी जब 'छायावाद : पुनमू ल्यांकन! में श्री सुमित्रानंदन पंत ने यह कहा कि 'छायावाद केवल अभिव्यंजनापरक ही नहीं नवीन मूल्यपरक फाव्य है ।! पंत जी ने इस पुश्तक में इस बात पर बार बार बल दिया है कि छायावाद “मल्यक्रेंद्रिक” काव्य है। उन्होंने यथाशक्ति अपने ढंग से उन मूल्यों का निर्देश भी किया है किंतु छायावाद के केंद्रीय मल्य का निर्धारण वहाँ मी नहीं हो सका | स्वावंत्र्य : इस दृष्टि से छायावाद के प्रथम आलोचक श्री मुकुटधर पांडिय का “कविस्वातंत््य' शीर्षक निबंध संभवत: सबसे अधिक संकेतपूर्ण है । “कविस्वातत्य” से संकेत ग्रहण करके यह कहा जा सकता है कि व्यापक अ्रर्थ में 'स्वातंत्र्य' ही छायावाद का केंद्रीय मुल्य है जिससे छायावादी काव्य के जीवन ओर फाब्यसंबंधी १३६ हिंदी साहित्य का बृहत इतिहास सभी मुल्य निस्खत होते हैं। इसकी पुष्टि तत्कालीन राष्ट्रीय संदर्म से भी होती है। पंत जी भी शब्दभेद से यही बात कहते हैं जब वे 'छायावाद पुनमूल्यांकन' में मध्ययुगीन धार्मिक मुक्तिसाधना से आधुनिक मुक्तिभावना फो अ्र॒लगाते हुए लिखते हैं कि छुमावादी कवियों के सामने श्रात्ममुक्ति की धारणा तुच्छु होकर भावम॒क्ति, मानवमक्ति, विश्वमक्ति तथा लोकम॒क्ति की संभावना अनेक मल्यों, विचारों तथा भाषनाओं में रूप धरकर, उनकी वाणी द्वारा स्वप्नमत होने का प्रयत्न कर रही थी ।” इस प्रकार छायावादी फाव्य अपने ऐतिहासिक संदर्भ ओर राष्ट्रीय परिवेश के अनुरूप बहुमुखी स्वातंत््य अ्रथवा मुक्ति की श्राषांत्ा को अभिव्यक्ति था। निराला के प्रसिद्ध गीत वीशा वादिनि वरदे! का 'ऐिय स्वतंत्र रव” श्र 'बादल राग” शीर्षक कविता» खला में विप्लवी “निर्बंध बादल” का प्रतीक इसी मुक्तिकामना के जीवंत उदाहरण हैं । वेयक्तिकता : खतंत्रता की पहली श्रमिव्यक्ति व्यक्ति फी मानसिक और सामाजिक स्वतंत्रता में होती है। छायावाद को व्यक्तिवाद की कविता कहकर उसके आलोचकों ने इसो तथ्य की ओर संकेत किया है फिंतु जैसा फि 'छायावाद : पुनम्‌ ल्यांफन! में पंत जी ने कह्टा है, 'छायावादी फाव्य व्यक्तिनिष्ठ न होकर मल्यनिष्ठ रहा है, उसमें व्यक्ति मूल्य का प्रतिनिधि रहा है।” क्‍योंकि 'बोघ की दृष्टि से छायावादी कबि का व्यक्ति नए मूल्य का प्रतीक, नए मूल्य का अंश था ।! छायावादी कवि का व्यक्ति जिस नए मूल्य फा प्रतीक था वह मध्ययुगीन सामंती रूढियों से मुक्त होकर व्यक्तित्व के स्वतंत्र विकास का प्रयास था। संयुक्त परिवार, जाति ओर धर्म की नींव पर मध्ययुग में समाज फी जो व्यवस्था खड़ी थी वह संवेदनशील व्यक्ति के लिये अत्यधिक अवरोधक सिद्ध हुंई। ऐसे वातावरण में अ्रपनी वैयक्तिफता फो माँग स्वतंत्रता का ही एक रूप माना जायगा | छायावाद इसी अ्रथ में विद्रोह का काव्य है कि उसमें व्यक्ति अपने रूद्धिबद्ध समाज से मुक्ति चाहता है। छायावादी प्रगीतों में इतने व्यापक स्तर पर जो हें! शे्री का प्रयोग हुआ है वह केवल शेली नहीं, वरन्‌ व्यक्वित्व के आग्रह का प्रतिफलन है। आत्मकथा” इसी प्रवृत्ति का दूसरा आयाम है। यह आकस्मिक नहीं है कि छायावादी कवियों में से भ्रधिकांश ने किसी न किसी रूप में आत्मकथात्मक फविताएँ लिखी हैं। श्रात्मसंयम के प्रतीक प्रसाद जी की “आत्मकथा” शीषक कविता तो विख्यात है ही, निराला ने भी. धसरोजस्मृति! तथा वनबेला' में अपने जीवन के मार्मिक प्रसंगों का चित्रण करके उसी वेयक्तिकता का आग्रह व्यक्त किया है | छायावादी कविता का झतिप्रिय प्रतीक 'निमुरः व्यक्ति की उद्दाम मुक्तिकामना फी ओर संकेत करता है तो “पथिक' का प्रतीक घर छोड़कर वन वन भटकनेवाले [ साग १० | पूर्ववृत्त : परिभाषा और प्रबृत्तियाँ ... १३७ व्यक्ति की व्याकुल बेचेन मनस्थिति को सूचित करता है। वैयक्तिकता के आग्रह के साथ ही छायावादी कविता में व्यक्ति के श्रात्मप्रसार की आकांक्षा भी व्यक्त हुई है जिसको कलक 'कामायनी' के मनु के इस आत्मकथन में लक्षित की जा सकती है; “वन गुहाकुंज, मस्श्ंंचल में हूँ खोज रहा अपना विकास |? आत्मोपलब्धि के लिये अबाध गति मरझत सहश' संचरणु करनेवाला मनु छायावाद के गत्वर. व्यक्तिख॒वाले आधुनिक व्यक्तिमानव का ही एफ प्रतिरूप है | विषयिनिष्ठता : वेयक्तिकता के कारश छायावादी काव्य में विषय के स्थान पर विषयी की प्रधानता हुई । छायावाद को द्विवेदीयुगीन इतिब्चात्मकता की प्रतिक्रिया कहने फा यही अर्थ है कि उसमें वस्तुनिष्ठता के स्थान पर ब्यक्तिनिष्ठता तथा विषय- _ निष्ठता की जगह विषयिनिष्ठता का आग्रह था | छायावाद को स्थूल के विरुद्ध सूक्ष्म का विद्रोह फहने का भी एक श्रभिप्राय यही है। इसी विषयिनिष्ठता के फारण छायावाद की “छाया' के विरोध में 'प्रकाशवाद' के नाम से एक विनोदपूर्ण बाद प्रस्तुत किया गया था। छायावाद में विषयिनिष्ठता फी प्रमुखता को लक्ष्य करके ही धपुष्फरिणी' की भूमिका में श्री सच्चिदानंद वात्स्यायन ने कहा कि “विषयीप्रधान दृष्टि ही छायावादी काव्य की प्राशशक्ति है ।? इसकी व्याख्या फरते हुए आगे उन्होंने कहा कि छायावादी कवि की व्याकुलता नाना रूपों में प्रकट ई। किंतु उनमें सामान्य बात यह थी कि विषयी फी प्रधानता थी, सभी रुपों की मूल प्रेरणा वेयक्तिकता को अभिव्यक्ति थी। वह वयक्तिकता चाहे कल्पना की हो, चाहे चिंतना फी, चाहे अनुभूति की ओर चाहे स्वयं आध्यात्मिक व्याकुलता की हो ।! इस विषयिनिष्ठता का स्पष्ट प्रतिफलन छायावाद के प्रकृतिचित्रण में .. देखा जा सकता है, जिसमें जड प्रकृति पर चेतनता के आरोप की ही नहाँ, बल्कि मानवीकरण की व्यापक प्रवृत्ति परिलतज्षित होती हे। छायावादी काव्य में प्रत्येक वस्त फा चित्रण गहरे भावसंवलित रूप में हुआ है, यहाँ तक तक कि मनु, भ्रद्धा, इडा जैसे पौराणिक व्यक्तिचरित्र भी मनोविकारों के रूप में चित्रित किए. गए हैं। अनुभूति को प्रतिष्ठा विषयी की प्रधानता के फारण छायावाद में श्रनुभूति के महत्व की प्रतिष्ठा हुई। प्रसाद जी ने कविता की परिभाषा ही “आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति? के रूप में की ओर छायावाद फी अन्य विशेषताओं के बीच ध्स्वानुभूति की विबवृति? १०-१८: श्ड्ध .. हिंदोँ साहित्य का बृहत्‌ इतिहास पर विशेष बल दिया। महादेवी जी जब गीत को “व्यक्तिगत सीमा में तीब् सुख दुःखात्मक श्रनुभूति के शब्दरूप” में परिभाषित करती हैं तो एक तरह से कविता में अनुभूति के महत्व को ही रेखांकित करती हैँ। इसके अतिरिक्त पंत जी का 'श्राह से उपजा होगा गान' तो प्रसिद्ध है ही | यहाँ तक कि छाया? की झ्रनेक उपमाश्रों में से एक उपमा ध्भावुकता' मी है। हिंदी कविता को छायावाद की यह महत्वपूर्ण देन है कि उसने फविता में कोरे वस्तुवशुन के स्थान पर अनुभूति का महत्व प्रतिष्ठित किया; यह दूसरी बात है कि इस प्रयास में छायावाद कमी कभी भावोच्छवास और कोरी मावुकता की रसव्जिनी सीमा तक चला गया | कल्पनाशीलत [: द वेयक्ति कता का एक पहलू अनुभूति है तो दूसरा कब्पनाशीलता है और यह निर्विवाद है कि छायावाद में कल्पना की उद्ान अभूतपूर्व थी। निराला ने कविता को “कल्पना के कानन की रानी” कहा और प्रसाद ने कल्पना! की प्रशंसा में पूरी एक कविता की रचना की जिसमें कल्पना को 'मनुज-जीवन-प्रान! कहा गया है। पंत जी ने “पत्लव” की कविताओं को “कल्पना के ये पल्‍लव बाल” कहा झोर काव्य सें कल्पना फो यहाँ तक महत्व दिया कि कोई भी गंभीर, व्यापक तथा महत्वपूर्ण अनुभूति काल्पनिक होती है।” ( छायावाद : पुनमूल्यांकन ) जैसा कि प्रायः आलोचकों ने परिलक्षित फिया है, छायावाद में कल्पना फी अंतद ष्टिदायिनी ओर सृश्टिविधायिनी, दोनों शक्तियों का प्रचुर उपयोग हुआ। छायावादो कवि के लिये कल्पना उसकी मानसिक स्वतंत्रता का प्रतीक थी, . कल्पना के पंखों के सहारे ही वह अपने आसपास के संकीण वातावरण से निकल- फर मुक्त आकाश में विचरण करने की ह्ञमता प्राप्त करता था ओर उसी के सहारे मनोवांछित स्वप्नलोक का निर्माण भी कर लेता था। कल्पना के अतिरेक के कारण ही कुछ आलोचकों ने छाबावाद को 'वायबी' कहा और कुछ ने “वास्तविकता पर बलात्कार! अतः इतना तो निश्चित है कि कब्पनाशक्ति ने छायावाद के स्वच्छुंद्तावाद नाम को साथंक किया । बेदना की विवृति: वेयक्तिक स्वतंत्रता की अनिवाय परिणुति वेदना में होती है, इसलिये छायावाई में 'उच्छेवासा और ८आँसः की अधिकता आश्चर्यजनक नहीं है। आँसू? शौष॑क कविता पंत ने ही नहीं, प्रसाद ने भी लिखी और महादेवी का. तो सारा ही काव्य जेसे आँसुओं से गीला है। पंत फी दृष्टि में यदि “उमड़कर . आँखों से चुपचाप, बह्दी होगी कविता अनजान! तो प्रसाद में भी घनीभूत पीड़ा [ भाग १० ] पूर्ववृत्त : परिभाषा और प्रवृत्तियाँ ११६ दुर्दिन में आँसू बनकर चुपचाप बरपने आई? और महादेवी तो स्पष्ट स्वीकार करती हैं कि वेंदना में जन्म करुणा में मिला आवास |” और तो और, विद्रोही निराला भी नितांत वेदनाशून्य नहीं । दुःख हो जीवन की कथा रही |” यह अत्मस्वीकृृति निराला की ही है। ऐसी स्थिति में यदि छायावाद के आंलो- चर्कों ने वेदनावाद का आरोप लगाया तो कुछ अनुचित नहों | पंत जी ने छायावाद ; पुनमूल्यांकन”ः में इसका अत्यंत युक्तिसंगत स्पष्टीकरण किया है: “धबहुत सारी वेदना की अ्रनुभूति उस युग के भावप्रवश मन में इसलिये भी थी कि वह उन *टखला फी कड़ियो के प्रति जाग्रत था जो समस्त देश तथा समान की चेतना को अपने दुर्निवार, निमंम, न्र॒शंस लौह बंधनों में जकड़े हुए थीं ओर जिन्हें तोड़ने के लिये प्रबुद्ध सामूहिक कर्म तथा संयुक्त सामाजिक संघर्ष करना आवश्यक तथा अ्रनिवायं था। नए युग के माव-सुक्ति-काम्मी मन के उड़ान भरने- वाले, पिजरबद्ध व्यक्ति अ्रसमर्थपंख उन जीवनशून्य ठंढे सींकचों के संपक के कठोर आधात से लहूलुद्दाव होकर कराइती हुई वेंदना के ख्रों में गा उठे थे । वेदना को छायाबादा कवियों ने पीड़ा के श्रावारेक्त श्रनुभूति, संवेदना तथा बोध के अश्रथ में मी प्रयुक्त किया है-- जैसे 'ेदना के ही सुरीक्षे हाथ से बना यह विश्व! . श्त्यादि | किंतु छायावादी काव्यघारा के क्रमिक' विकास को देखते हुए. कहा जा दा सकता है कि वेदना की जो प्रधानता आरभिक श्रवस्था में थी वह उत्तरकाल में . क्रमशः कम होती गई । प्रसाद ने यदि दुःखबाद का स्वथा निषेध करके अंततः ग्रानंदवाद की प्रतिष्ठा की तो पंत 'गुंजन' में सुख दुःख के बीच संतुलन खोजते पाए गए.। यामा के अंतिम य/म तक जाते जाते महादेवी की 'नीरजा' के आँसू सूख चले ओर निराला की राम की शक्तिपूजा? का श्रंत 'होगी जय होगी जय हे पुरुषोचम नवीन' से हुआ्रा श्र मानभूति प .. 7 आचार्य शुक्ल ने छायावाद फी प्रवृत्ति को अधिकतर प्रेम- गीतात्मक' कहा है और यह तथ्य है कि छायावाद में न्नीवन के श्रन्य क्रियाव्यापारों एवं समस्याओं को समाविष्ट करते हुए भी प्रेम फो सर्वोपरि स्थान दिया गया । हद्विवेदीयुगीन शुद्धतावादी काव्य को देखते हुए निस्संदेह यह प्रेमाधिक्य विशेष रूप से ध्यान आकृष्ट करता है, किंतु संपूर्ण काव्यपरंपरा के क्रम में छायावाद की यह प्रवृत्ति अतिरंजित नहीं कद्दी जा सकती, क्योंकि कविता में प्रंस को प्रायः सर्वत्र और सदैव प्रधानता प्रा्त हुई है। किंतु छायावाद के संदर्म में प्र मानुभूति ! अधिकता से कहीं महत्वपूर्ण प्रेम के प्रति छायावादोी कवियों का दृश्टकोण है। आलोचकों ने एक स्वर से स्वीकार किया है कि छायावाद का प्रेम प्रायः श्रशरीरी है और उसमें रीतिकालीन मोगवादी दृष्टि के स्थान पर मानसिक्त रागात्मकता की प्रतिष्ठा की गई है। वेसे रीतिकाल्लोन शंगारिकता के विरुद्ध द्विवेंदीयुगीन काव्य पा | १४० ... हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास में भी प्रतिक्रिया हुई थी किंतु नेतिक शुद्धतावादी दृष्टि के कारण द्विवेदीयु गीन काव्य जहाँ श्ृृंगार के सवंथा बहिष्कार फो सीमा तक चला गया, छायाबाद ने वैसा कट्टर शुद्धतवादी दृष्टिकोश नहीं अपनाया। छायाबाद ने शुद्धतावाद के स्थान पर आदरश्शाशद का आश्रय लेकर प्रेम का उन्नयन किया, इस प्रफार छायावाद की रागात्मकता में मध्ययु गीन विलासचेष्टा को जगह आधुनिक पावनता है। प्रेम को उसके मध्ययुगीन अनुषंगों से मुक्त करना छायावाद की स्वातंत््य भावना का ही अंग है। छायवावादी कवियों ने वयक्तिक प्रेम की अनेक मनो दशाओं के सूक्ष्म चित्रण के अतिरिक्त प्रेम नामक भाव को उदात्त रूप देकर उसे स्वतंत्र रूप से काव्य का विषय बना दिया और इस प्रकार छायावाद में प्रेम एक गंभीर जीवनदर्शन के रूप में प्रकट हुआ । सोंद्यंबोध पंत जी के अनुसार छायवावाद में नए मबय ने अपनी सबसे ग्रधिक सशक्त अ्रभिव्यक्ति सॉदयबोध में पाई इसलिये सोदर्यबोध उस युग के काव्य की सबसे मोलिक तथा प्रमुख देन रही |? छायावादी कवियों की दृष्टि निर्विवाद रूप से साँद्यवादी थी। यही नहीं कि छायावादी कवियों की दृष्टि गखिल विश्व के साँदयचयन की ओर थी, बल्कि जीवनम फो भी वे सुंदर बनाने के अभिलाषी थे। कलावाद के जिस प्रभाव को चर्चा छायाबाद के संदर्भ में प्राय: गई है, वह ओर किसी रूप में होन हो, सांदयवाद के रूप में अवश्य प्रतिफलित हुई है। सत्यं, शिव्रं, सुंदर में से छायावाद की दृष्टि छुंदर पर दी विशेष जमी, यहाँ तक कि वहाँ सत्यं और शिव भी सुंदर के रूप में ही गहीत हुए | इस पथ पर अग्रसर होते हुए छायावादी कत्रि क्रमशः प्रकृतिसोंदर्य से चलकर मानवशोंदय तक पहुँचे । पंत के शहदों में 'सुंदर है विहग सुमन सु दर, मानव तुम सबसे सुंदरतम ।? किंतु सोंदय के विषय में भी छायावाही दृष्टि विशिष्ट थी। यहाँ एक और सोंदर्य कनक किरण के अंतराल में लुक छिपकर चल्नता! दिखाई पड़ता है तो दूसरी ओर वह चेतना का उज्वल वरदान' है। इस प्रकार छायावाद की सॉदयदृश्टि में जहाँ एक ओऔओर स्वप्नलोक का सा कुहासा है वहाँ दूसरी ओर चेतना की उज्वलता | छायावादी कवियों ने सौंदय फीो उदाचता, भव्यता, दिव्यता आदि गुणों से मंडित करके उसे काव्य में एक नए मुल्य के रूप में प्रतिष्ठित किया | प्रकृति की ओर प्रत्यावतन : द क्‍ हिंदी काव्यपरंपरा में प्रकृति को जो स्थान छायावाद में मिला, वह अभूतपूर्व है। भक्त कवियों को अपने भगवान से अ्रवकाश न था तो रीतिकालीन कवि भी रुह्ेव्स्थल से आगे न जा सका। आधुनिक युग में भारतेंदु तथा उनके मंडल के कवियों का [ भाग १० ] पूववृत्त : परिभाषा और प्रवृत्तियाँ १४९ मन आचाय शुक्ल के शब्दों में प्रकृति की शअ्रपेक्ञा 'दस तरह के लोगों में उठने बेठने में श्रधिक रमता था। आरंभिक स्च्छुंदतावादी कवि निस्स॑देह प्रकृति की ओर आक्ृष्ट हुए. किंठु अनुभूति की यथोचित गहराई और कल्पना को श्रपेक्षित क्षमता के अभाव में वहाँ भी प्रकृति के चित्र साधारशता के स्तर से उचे न उठ सके । छायावादी कवियों ने जेसे उषा; संध्या, राज्ि और चाँदनी को भी नई अ्रंतदृष्टि से देखा, इसीलिये पंत फी “प्रथम रश्मि निराला की (संध्या सुंदरी', प्रसाद की मदर माधव यामिनी! ओर पंत की “चाँदनी' हिंदी में छायावाद से पहले दुर्लभ है । प्रकृति के चिरपरिचित दृश्यों में नवीन सौंदर्य का उद्घाटन करने के अतिरिक्त छायावादी कवियों ने वन्य प्रकृति के कुछ स॒दुर दृश्यों की ओर भी दृष्टि दोड़ाई | पंत के पर्वतीय चित्र ओर प्रसाद की “कामायनी! में चित्रित प्रह्नयकालीन समुद्र के विराद्‌ दृश्यचित्र हिंदी काव्य की अमुल्य निधियाँ हैं| प्रकृति के खंडचित्रों के अ्रतिरिक्त छायावाद ने संभवतः पहली बार एक विराद सचा के रूप सें प्रकृति की अवधारणा की और प्राकृतिक वस्व॒ओं के स्थान पर समग्र प्रकृति को काव्य का विषय बनाया। इसके अतिरिक्त छावाबाद में प्राचीन सांस्कृतिक श्रनुष॑गों से युक्त तामरस, शिरीष, शेफाली, यूथिका आदि फूल्लों के भावचित्रों के द्वारा प्रकृतिचित्रण को ए्‌$ सस्कृतिक श्राबाम देने का भी प्रयास फिया गया। छायावादी कवियों के प्रकृतिप्रेम को लक्ष्य कर कभी कभी उनपर पलायनवाद का भी आरोप लगाया गया। किंतु उस प्रकृतिप्रेम के मूल में सभ्यता से उत्पन्न सामाजिक रूढ़ियों से मुक्ति और नेंसगिक जीवन की आाकांच्षा ही अधिक थी, पलायन कम | “ले चल मुझे घ्ुुलावा देकर मेरे नाविक धीरे धीरे! जैसी कविताएँ जगन्मात्र से पलायन नहीं बल्कि “कोलाहल को अवनी” से त्राण पाने फी अमिलाषा है। कुल मिलाकर हिंदी का छायावाद अन्य रोमांटिक आंदोलनों के समान प्रकृति फी आदिम गोद में लौगने की ओर उन्मुख नहीं बल्फि मानव जीवन को प्रकृति के सोंदय से मंडित करने की मानवीय आकांक्षा है। राष्ट्रीय भावना छायावादी कवियों पर बहुत दिनों तक यह आरोप लगाया जाता रहा कि जिस समय देश अपनी स्वाधीनता के संग्राम में संलग्न था, ये कवि राष्ट्रीय प्रश्नों से विरत होकर छितिज के पार ताक रॉक करतेर हें। किंतु प्रसाद की “हिमालय के आँगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार! तथा 'हिमादि ठुंग शंग से प्रचुद्ध शुद्ध भारती प्रद्धति गोत, निराला के भारति जय विजय करे!, 'महाराजा शिवाजी के नाम पत्र' तथा “जागो फिर एक बार? जेसे आ्रोजस्वी जागरणुगीत इस आरोप फा स्वयं निरसन कर देते हैं। वस्तुतः स्वातंत्य जब छायावाद का केंद्रीय मूल्य था तो उसकी अ्रमिव्यक्ति वेयक्तिक खतंत्रता से १७२ हिंदी साहित्य का बृहत' इतिहास बढ़कर राष्ट्रीय स्वतंत्रता के रूप में स्वमावतः हुईं किंतु छायावाद की राष्ट्रीय भावना केवल राष्ट्रगीतों तक ही सीमित न थी बल्कि छायावाद की सक्ष्म सांकेतिक प्रकृति के अनुरूप अन्य कविताओं में भी व्यक्त हुई । उदाहरण के लिये निराला के तुलसीदास” में देश को परावीनता छे मुक्त फरने का संकध्प है ओर 'राम की शक्तिपूज? के पोराशिक प्रतीक मी देश के उद्धार के लिये नेतिक शक्ति की साधना व्यजित करते हैं । लोकप्रंगल्ल एवं मानव करुणा छायावादी कवियों को स्वातंत््यमावना समाज फी विषमताशओञ्रों के विरुद्ध लोकमंगल ओर मानवकरुणा के रूप में भी व्यक्त हुई। सामान्यतः यह भावना न्यूनाधिक सभी छायावादी कवियों में पाई जाती है किंतु उसकी सर्वाधिक प्रमुखता निराला के काब्य में ही मिल पाई है| निराला की करुणामयी दृष्टि भभिक्षुक' श्रोर विधवा! पर ही नहीं गई, वल्कि बादल राग” में उन्होंने “्जीणबाहु शीणशुशरीर अधोर कृषक के क्षुब्ध तोष! का भी वाणी दी तथा शेषश्वास, मल्लभाष प्रह्यर पाते दलित मानव समुदाय” के अधिकारों को भी प्रस्तत किया । इस प्रकार छायावादी काव्य में, स्वल्प ही सही, किंतु मानवकरुणा आर लोकमंगल से युक्त सामाजिक चेतना भी परिलक्षित होती है । विश्वमानववाबाद राष्ट्रीय स्वाधीनता के जंग्राम से संबद्ध होते हुए भी छायावाद श्रंघ राष्ट्रवाद का शिकार नहीं हुआ, बल्कि रवींद्रनाथ ठाकुर के विश्वमानवतावाद से प्रेरणा प्राप्त करके फाव्य में विश्वदृष्टि को अश्रभिव्यक्त करता रहा। पंत जी ने छायावाद ६ पुनम्‌ ल्थांकन! में बार बार इस बात पर बल दिया है कि छायावाद विश्वदृष्टि से अनुप्राशित था ओर यही उसकी आधुनिकता थी। प्रसाद की “कामायनो' अखिल मानवभार्वों का सत्य विश्व के हृदयपटल पर अंछित करने फी कामना रखती है श्रोर निराला ने ध्सम्राद्‌ अष्टम एडवर्ड के प्रति? कविता लिखकर यह प्रमाणित कर दिया कि छायावादी कवि की दृष्टि देश, वर्ण, धर्म आदि फी समस्त दीवारों को तोड़कर मानवीय संबंधों के नाते किसी भी व्यक्ति के प्रति सहानुभति रखने को प्रस्तुत हैं--निराला के लिये तो 'मानव मानव से नहीं भिन्‍न निश्चय, हो श्वेत, कृष्ण अथवा वह नहीं क्लिन्न ... भेद कर पंफ मिकलता कमल जो मानव का वह निष्कलंक | मध्ययुगीन फाव्य से छायावाद इसी अर्थ में व्यापक और विराद दै कि उसमें शाधुनिक युग फो विश्वदृष्टि है। [ भाग १० ] पूर्व॑वृत्त * परिभाषा और प्रवृत्तियाँ १४३ सांस्कृतिक गरिमा प्राचीन रूढ़ियों के विरुद्ध विद्रोह करते हुए भी छायावाद ने सम- फालीन पु]नर्जागरण भावना के अनुरूप अपनी सांस्कृतिक परंपरा के पुनरुत्थान फी ओर भी ध्यान दिया। किंतु छायावाद की सांस्कृतिक चेतना, पूर्ववर्ती द्विविदों युग से अधिक परिमाजित एवं सक्ष्म थी। निराला की “यमुना के प्रतिग, 'ठुलसीदास”, 'राम की शक्तिपूजा? तथा प्रसाद की “कामायनी” से स्पष्ट है कि पोराशिक एवं ऐतिहासिक कथानकों को ग्रहण करते हुए भी छायांवादी कवियों ने पूववर्ती कवियों की स्थूल दृष्टि का परित्याग कर अधिक भावमूलक सृष्टि की । कालिदास का "मेघदूतः द्विवेंशी युग के कवियों ने पढ़ा किंठु जेसा कि श्री स० ही० वात्स्थायन ने लिखा है : 'छायावादी कवि ने कहानी मानो पढ़ी ही नहीं, कालिदास नामक ऐंट्रजालिक द्वारा सशरीर आँखों के सामने ला खड़ी की गई प्रकृति फी अनिर्वचशीब सर्ति को वह अपलक्क देखता रह गया। यहाँ भी नए परिचय फा प्रश्न नहीं था, नई दृष्टि का ही प्रश्न था। इसीलिये कालिदास के पुनराविष्कार' की बात कद्दी गई !” इस प्रकार छायावाद की स्वातंत्र्य भावना ने . परंपरा फी रूढ़ियों से अपने आपको मक्त कर नए सिरे से परंपरा का पुनराविष्कार किया और फिर शआ्रघुनिक संदर्भ में उसका पुनः सजन किया जिससे छायावाद के आधुनिक बोध को एक नया सांस्कृतिक आयाम मिल गया । _ आषाव्यंजना:.. * छायावाद के जिस अभिव्यंजनाकोशल को उसकी सबसे बड़ी देन के झोर उपलब्धि माना जाता हैं वह बस्तुतः छायावाद के केंद्रीय. मूल्य - स्वार्तंब्य का प्रथम साधन है। छायावाद के संमगुख पहला प्रश्न अपने काव्य के अनुकूल भाषा का, नई संवेदना के नए सुहावरे का था। इस समस्या का उसने धेयं और साहस के साथ सामना किया!। द्विवेदी युग में खड़ी बोलीं के परिमार्जन आर परिंष्कार का काय सपन्‍न हो चुका था ओर वह काव्यरचना के उपयुक्त हो चली थी, किंतु उसमें निद्वित काव्यात्मक संभावनाओं फो पहचानकर संस्कार देने का कार्य शेष था और कहना न होगा कि छायावादी कवियों के हाथों यह काय संपन्न हुआ, साथ ही काव्यभाषा में व्यंजकता की वृद्धि हुई। मुकुटघर डिय ने छायावाद की विशेषताशों का बखान करते हुए लिखा था कि उसका एक मोटा लक्ष्य यह है कि उसमें शब्द और अ्रथ फा सामंजस्य बहुत कम रहता है। कहीं कहीं तो इन दोनों का परस्पर कुछ भी संबंध नहों रहता | लिखा कुछ ओर ही गया हैं, पर मतलब कुछ ओर ही निकलता है। उसमें ऐसा कुछ जादू भरा है--अतएव यदि यह कहा जाय कि ऐसी रचनाओं में शब्द अपने स्वाभाविक मुल्य को खोकर सांकेतिक चिह्न मात्र १४४ हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास छल... हुआ करते हैं तो कोई अत्यक्ति न होगी। तात्पय यह कि छायावाद के शब्द प्रतीक होते हैं और वे जाद का रा असर पेंदा करते हैं। इसके लिये कवि शब्द को प्रचलित अर्थ से अलग करके नए अर्थ से युक्त फरता है। यह तथ्य हे कि जो शब्द काव्य में पहले कभी साथ काथ न देखे गए थे वे छायावाद में पहली बार नियोजित हुए--ओर इस प्रकार नियोजित हुए कि उनसे एक नया अथ घ्वनित होने लगा। इसी को दूसरे शब्दों में शब्द ओर श्रर्थ फो नए संबंधों में आबद्ध होना कहते हैं। उदाहरण के लिये 'तुतल्ला उपक्रम, प्तुमुल॒ तम', 'नील मंकारः, पमूलछित श्रातप'। शास्त्रीय भाषा में जिसे विशेषशविपयय अलंकार के रूप में ऋति सरलीकृत ढंग से समझाया जाता है वह रचनाप्रक्रिया की दृष्टि से वस्तुतः भाषागत सजनांत्मक स्वतंत्रता फा सूचक है ओर फहटना न होगा कि छायावादी कवियों ने इस दिशा में अभृतपू्व साहस का परिचय दिया। इस दृष्टि से पंत जी का यह फथन सवंथा संगत है कि शब्दों से नए अर्थ, श्रथों से नई चेतना, चेतना से नया कलाबोध ओर कलाबोध से नई सॉदयर्मगिमा हृदय को स्पश कर नए रस का संचार करने लगी ।? इसके अतिरिक्त छायावाद ने भाषा की अमभिव्यंजनाक्षमता बढ़ाने के लिये बिंबविधान का श्राश्रय लिया जिसे शक्ल जी ने प्लाज्नणिक मतिमत्ता? तथा पंत जी ने चित्रमाषा' के नाम से अ्रभिह्ठित किया है। बिंबरचना में छायावादी कवियों का सबसे बड़ा साधन सृष्टिविधायिनी कब्पना थी छुंदरचना के क्षेत्र में छायावाद ने द्विवेदीयुगीन अनेक विकल्पों के बीच से खड़ीबोली हिंदी की प्रकृति के अनुरूप प्रगीतों के लिये कतिपय छुंदों को परेनिष्ठित रूप दिया तथा कविता में संगीतमयता की चूद्धि की। इसके अतिरिक्त छायावाद को हिंदी में मुक्त छुंद के प्रवतन का भी श्रेय है जिसके पुरस्कर्ता मुख्य रूप से निराला हैं । कुल मिलाकर घुमित्रानंदन पंत के शब्दों में 'उस युग का नवीन काव्य- संचरण जो कि एक नए जीवनमल्य की खोज में था वह अ्रपने प्रथम उत्थान में हमें अपनी आदक्ष न्मुखी अ्रभिव्यंजना शली के अंतर्गत उदाक्त कल्पनाबेमव मौलिक सौंदर्यबोध, अंतमु खी प्रतीक-बिंब-विधान, वस्वुज॒य्त्‌ फा भावोन्युखी सूक्ष्मीकरण तथा मावसंवेदनों का वस्तृून्मुखी स्थूलीकरण, प्रकृतिचित्रणः तथा लाक्षशिक प्रयोगों द्वारा शब्दशक्ति की संप्रेषणीयता संबंधी स्मृति तथा नवीन छुंदों की उन्मुक्त स्वर-लय-मंकृति श्रादि अ्रनेक रमणीय रसात्मक तत्वों की लेकर अभूतपूव काव्यऐश्वर्य के साथ अवतरित हुआ 7 द अकदपाााा शुकफमाल्कुत १8 अध्याय रे प्रमुख कवि ; अन्य कवि उन्नीसत्रीं शताब्दी के उत्तराध से ही खु॑दतावादी प्रवृत्तियाँ हिंदी कविता में प्रच्छुन्न रूप से समाविष्ट होने लगी थीं, जिन्होंने १६९१४ ई० के आसपास प्रकट होकर एक व्यापक पैमाने पर छायावादी काव्यांदोलन का स्वरूप धारण कर लिया | इस फाव्यांदोलन में इतनी त्वरा, सांस्कृतिक सार्थकफता और कलात्मक शोभा थी कि पाँच वर्षो के बाद ही, अर्थात्‌ १६२० ई० के आते आते छायावाद हिंदी साहित्य के इतिहास का एक स्वीकृत समाहत अंश बन गया। और, अब छायावाद युग, जो लगभग १६ १८-१९ ई० से १९३७-१८ ई० तक फेला रहा; हिंदी साहित्ये- तिहास में भक्तियुग के बाद दूसरा गोरवपूर्ण स्थान रखता है। विश्लेषण फी . हृष्टि से १९१६ इं० से १६९१८ ३० के बीच छायावाद युग का उत्थान प्रारंभ हुआ और १६२७-२५ ६० के. आसपास वह अपने उत्कर्षबिंदु पर पहुँच गया । .... पहले आलोचफ छायावाद को केवल अ्मिव्यंजनापरक फाव्य समभते थे, किंतु अरब इसे पूर्वाग्रहह्दीन आलोचक अभिव्यंजनापरक होने के साथ ही “नवीन मूल्यपरक काव्य” समभते हैं ओर छायावाद के प्रमुख कवियों का आज हिंदी काव्य के हतिहास में श्रप्रतिम महत्व है । असाद्‌ ._ प्रसाद ( जन्म काल ; ३० जनवरी, १८९० ई० और मृत्युकाल ; १४ नवंबर, १९३७ ई० ) कवि होने के साथ ही एक गंभीर विचारक और विद्वान थे। प्रसाद की काव्यरचना का प्रारंभ उस प्रोढ़ि का पूर्वाभास नहीं देता जो 'कामायनी' में मिलती है। इन्होंने 'कलाघर” उपनाम से ब्रजभाषा में काव्यरचना प्रारंभ की थी, फिर खड़ी बोली में अत्यंत विवरणात्मक कविताएँ लिखी थीं ओर तब उस लक्षणाश्रित मस॒ण शैली को अजित किया था; जिसमें कामायनी एवं प्रौढ़िकाल की अन्य फविताएँ लिखी गई” | इस प्रकार छायावादी कवियों के बीच प्रसाद ने काव्यविकास को जो दूरी तय की, वह प्रशंसनीय है। छायावाद के न्‍्य प्रमुख कवियों को, शायद इतनी बड़ी दूरी तय करने की आवश्यकता नहीं पड़ी । द प्रसाद जी का रचनाफाल लगभग छुब्बीस वर्षों का रहा। इस अवधि १०-१६ १७६ द हिंदी साहिध्य का बृंहत इतिहास (१९०६ ई० से ६६३५ ई० तक ) का अ्रभिक अंश हिवेदी युग में पड़ता है आर इसका शेषांश छायावाद युग में । इसलिये प्रसाद की प्रारंभिक स्वनाओं और प्रौड़िप्रकर्ष पर पहुँची हुई रचनाओं में क्रमशः द्विवेदीयुगीन प्रवृत्तियाँ ओर छायावादी पग्रद्ृत्तियाँ प्रखर मुखर हैं। याँ प्रसाद जी की काव्यसाधना का अधिकांश छायावादी प्रदत्ति से ओतप्रोत है। इतना हो नहीं, करना के प्रथम संस्करण के प्रकाशकीय निवेदन में यह दावा किया गया है कि जिप्त शेली की कविता को हिंदी साहित्य में आज दिन 'छायावादः का नाम मिल रहा है, उसका प्रारंभ प्रस्तुत संग्रह द्वारा ही छुआ था ।* प्रसाद के काव्यविकास् फो समझने के लिये इनको काव्यकृतियों का विवरण काल्नक्रम की दृष्टि से इस प्रकार प्रस्तुत किया ज्ञा सकता है---उघंशी ( १३६०६ ६० ), वनमिलन ( १६०६ ६० ), प्रेमरौज्य ( १६०९ ई० ); अयोध्या का उद्धार ( १६१० ३६० ); शोकोच्छ वास (१६१० ई० ), बश्र वाइन (१६११ ६०) काननकुसुम' (१६१३ ई० ), प्रेपपथिक. (१६१३ ६०), फशालय ( १६१३ ई० ), मद्दाराणा का महत्व ( १६१४ ई० ), भरना (१९१८०६० ), दुसरा संस्करण (१६२७ ई० ); आँसू (१९२५ ई० ) लइर ( १६३३ ई० ) झौर फामायनी ( १४६४१ ६० )। द 'चित्राधारः की गद्य -पद्य-मबी रचनाएँ श्र 'काननकुसुम” में संकलित १ लगभग तीन बार संशोधित परिवर्तित होने के बाद 'काननकुसुर्मा वर्तमान रूप में प्रकाशित हुआ है। 'काननकुसुम' के प्रथम संस्करण में प्रकाशनकाल का. उल्लेख नहीं हैं । इसके तृतीय संस्करण ( १६२६ ई० ) के विवरण से यह पता चलता है कि इसका प्रथम संस्करण १६१३ ई० में हुआ था भौर इसमें १६१३ ई० तक रचित प्रसाद की ब्रज तथा खड़ी बोली को सभी कविताएँ संगृहीत थीं। तीसरे संस्करण में “काननकुसुम' के अ्रंतर्गत केवल खड़ी बोली की कविताएँ रखी गई हैं शोर न्रजभाषा में रचित कविताएं अलग से “चित्राधार? में संकलित कर दी गई हैं। इस प्रकार 'कानतकुसुम” का वर्तमान रूप प्रसाद की ग्रारंभिक खड़ी बोली काव्यरचना की भाँकी प्रस्तुत करता है। २ ्रेमपथिक' खड़ी बोली में प्रकाशित होने से लगभग श्राठ वर्ष पहले ब्रजभाषा में लिखा गया था । पे ३8 ३ आओ . धचित्राघार! में दो चंपु, तीन भ्राख्यानक काव्य , दो नाट्य, दो कथाएं, तीन प्रबंध धपराग” के श्र तर्गत बाईस कव्रिताएं श्ौर | 'मकर॑दविदु” के ग्रतर्गंत तेईस कवित्त, तीन सवैया तथा चौदह पद संमिलित हैं। कुल मिलाकर “चित्राघारः में वर्रना- _त्मक और भावात्मक दो प्रकार की रचनाए' संकलित हैं। इस प्रसंग भे' यह भी [भाग १०] प्रमुख कवि : अन्य कवि १४७ कविताएं पुरानेपन से पांडु ओर परंपरा की अविरल छाप से मत्लिन हैं। इनकी अ्ररंभिक कविताओं की मंथर ओर छायावाद्दी कलासोष्ठव से रहित भाषाशली का नमूना इन पंक्तियों में देखा जा सकता है-- वह सघन कुंज, सुखपुंख श्रमर की आली।; कुछ ओर दृश्य है, सुषमा नई निराली | बैठी है बसन सल्लौन पहन इक बाला; पुरइन पत्रों के बीच फमल फी माला। प्रसाद की काव्यकला में छायावादी उत्कर्ष का प्रारंभ ऋरना की कविताओं से हुआ । सच पूछा जाय तो “'फरना” में इनके काव्यप्रवाह को दिशा ही बदल गई। अतः यह कहा जा सकता है कि करना! इनका वह पहला 'काव्यसंग्रह है, खिसमें हम छायावादी कविताशली का “प्रारंभिक परिचय! पा सकते हैं। इस संग्रह में छायावादी मस्रण भाषाशेली की पूर्थ कूलक प्रस्तुत करनेवाली अनेक पंक्तियाँ मिलती हैं| जैसे-- कामना के नूपुर की झऋनकार',' .. धधरा पर भ्ुकी प्रार्थना सदश!',३ आशा का परिहास" “स्मृति का उपहास, . '“विह्॒ल सी दीन वेदना”” धुल्लाल सी अभिल्ाषाशों को धूल इत्यादि | लक्ष्य करने योग्य हैं कि 'पराम' के अझद्र्गत संकलित सभी कविताएँ ब्रजमाषा में लिखी हुई हूं श्नौर मुख्यतः प्रकृति श्रथवा भक्ति से संबद्ध हैं। चविताधारः में -संगृहीत 'पराग” और 'मकरंद! शीर्षक ख॑ड इसे प्रमाणित करते हैं कि प्रारंभ में . प्रसाद जी की मुक्तक रचनाझ्रों की श्र गहरी प्रवृत्ति थी । भरता! का प्रथम संकरण १६१८ ई७० में हुआ थभा। तब इसमें कुल पचीस कविताएँ थी | इसका प्रिवर्थित संस्करण १६२७ ई० मे प्रकाशित हुआ्ना । इस संस्करण में प्रथम संस्करण की तोन कविताएं निकाल दी गई” श्ौर 'काननकुसुम' की बारह कविताएं तथा १६१८ ई० से १६२७ ई० तक की श्रवधि में लिखित इकक्‍्कीस कविताएं इसमे जोड़ दी गई'। इस प्रकार “करना” प्रसाद के काव्य- विकास की एक महत्वपूर्ण मार्गशिला है । भरना, सातरवाँ संस्करणा, पूछ १७ | उपरिवत्‌, १० २८ । द उपरिवत्‌, पृ० ३३ । उपरिवत्‌, पृ० ३३ । उपरिवत्‌, पूृ० ७० । न 2 . ही... ## ६ १४८ . हिंदी साहित्य का श्द्वत्‌ इतिहास इतना ही नहीं, भरना? की अनेक पंक्तियाँ छायावादी काव्यशेली, भाव एव भाषा की दृष्टि से मनोहारी हैं। उदाहरणार्थ। “विषाद' शीषेक कविता की ये पंक्तियाँ छायावादी वेदनावाद का द्वार उन्समुक्त करती-सी प्रतीत होती है --- द फिसी हृदय का यह विषाद है, छेड़ी मत यह छसुख का कण हे। उत्तेजक फर मत दोडाओ, करुणा का विश्रांत. चरण है।* इसी तरह कवि ने “हृदय का सौंदर्य” शीर्षक कविता में अंतर्जगत्‌ ( छायावादी काव्यसिद्धांत और छायावादी जीवनदर्शन की मूल मान्यता से संबद्ध अंतर्णगत्‌ ) के अंतरग सौंदर्य की मानसिकता फा बखान इन शब्दों में किया है-- द बनो लो अपना हृदय प्रशांत, तनिक तब देखो वह सौंदये; चैद्रिका से उज्ज्वल आलोक, मल्लिका सा मोहन मदुद्दास। अरुण हो सकल विश्व अनुराग, करुणु हो निदय मानव वित्त, उठे मधु लहरी मानस में कूल पर मलयज का हो वास | यों “फरना” में भी ब्रजमादा का बचा खुचा संस्कार यदा फ॒दा प्रकण हो गया है । जैछे, 'चुप रहे जीवन धन मुसक्याय ।”* क्‍ प्रसाद के फाव्यविकास में 'फरना? के अलावा ५चित्राघार', “कानन कुसुम, 'मह्ाराणा का महत्व), 'प्रेमपथिकः,* आँसू', 'लहर' ओर “कामायनी! का अपनी ) उपरिवत, पृ० ३१। मरना, प्रसाद, सातवाँ संस्करण, पृ० ६६ ॥। उपरिवत्‌, पू ० ७८ | “प्रेमपथिक' प्रसाद जी का पहला प्रेमकाव्य है। जंसा कि पहले कहा.जा चुका है, प्रकाशव से लगभग आठ वर्ष पुर्व “प्र मपथिकः ब्रजभाषा में रचा गया था। बाद में इसे ही परिष्कृत और परिवर्धित कर तुकांतविहीन छ॑दपद्धति में! खड़ी बोली हिंदी का आधुनिक रूप दे दिया गया। कल्पनाविधान के प्रबंधात्मक विनियोग, आपनिषदिक चिताधारा के प्रभाव और शैवागमों के आलोक में किएं गए _ खितन मनन की अभिव्यक्ति के कारण 'प्रेम्पथिक' कामायनीः जैसी किसो न कण म0 [ भाग १० |] . भ्रग्मुख कवि : अन्य कवि १४६ : अपनी जगह पर उल्लेख्नीय महत्व है। आस? का प्रथम प्रफाशन १६२४ ई० में हुआ था। इस संस्करण में आँस” के अंतर्गत कुल ११६ छुंद थे। परिवर्धित संस्करण में लगभग ६४ छुंद जोड़ दिए गए । इस परिवर्धन का फल यह हुआ कि पहले आँसू” विरह और स्मृतिदंश का एक करुण काव्य भर था, किंतु, अब वह अंतर्जगत्‌ फी रोमांचपूर्ण रहस्यानुभूतियों से मी रंजित हो गया। ऐतिहासिक महत्व की दृष्टि से “श्रॉस? छायावादी वेदनाप्रवाइ की पहली तु ग तरंग है। किंतु सुमित्रानंदन पंत की धारणा 'आ्राँस' के अनुकूल नहीं है। इनकी दृष्टि में 'आ्रॉँस' छायावाद युग फो एफ निर्बल सृष्टि है। इन्होंने “आज की कविता श्रौर में” शीर्षक निबंध में लिखा है, “प्रसाद जी की फामायनी छायावाद के प्रथम चरण फी सर्वोत्कृष्ट प्रतिनधि सचना है, उनका आँसू छायावादो युग को एक निबेल सूष्टि ।! इस प्रकार कई आलोचर्को के अनुसार प्रसाद की काव्यक्षतियों में भरना! (द्वितीय संस्करण ) छायावादी काव्यशैली का अ्रपेक्षाइत श्रघिक प्रतिनिधि संकलन है । तदनंतर 'लह्दरः में प्रसाद फी गीतिफला फा समथ विकास लक्षित होता है। इसकी विषयसूची में क्रम” के अ्रतर्गंत २६ गीतियाँ निर्दिष्ट हैँ तथा “और कविताएँ के अंतर्गत चार वर्णनात्मक कविताएँ हैं। कुल मिलाकर ये स्फुट कविताएँ तत्कालीन संदर्भ में “हिंदी की आधुनिक कविताशेली! का सफल प्रतिनिधित्व फरती हैं। इस संग्रह में, आचाय शुक्ल के अनुसार, 'लहर से फवि का अ्रमिप्राय उस आनंद की लहर से है, जो मनुष्य के मानस में उठा करती है श्रौर उसके जीवन को सरस करती है।” प्रसाद की अंतिम और सर्वोत्कृष्ट फाव्यकृति 'कामायनी” इनके प्रोढ़िप्रकर्ष की योतफ है। 'चित्राधार' और “फाननकुसुम” से प्रारंभ कर “कामायनी” तक उत्कृष्ट महाकाव्यात्मक कृति की श्रवतारणा को पृर्वाशित करता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि प्रसाद जी किशोरकाल से ही शव साहित्य की ओर श्राकृष्ट थे, वर्योंकि इनका परिवार शिव का उपासक था । इनके कुटुंबियों का कहना है कि इनका जन्म शिव की कृपा से ही हुआ था । इनके माता पिता ने पुत्रजन्म के लिये शिव से प्रार्थना की थी। चुकि वंदूयनाथवाम (कारखंड) के शिव की झ्राराधना के फलस्वरूप इनका जन्म हुआ झौर इनका नामकरण संस्कार वैद्यनाथधाम (फ्रारखंड) में ही हुआ, इसलिये इनका पहला नाम “मारखंडी? था | किशोरकाल तक प्रसाद “फारखंडो' कहकर ही थपुकारे जाते थे । १ हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचंद्र शुक्ल, द्वितीय संस्करण, पृ० ६७२ ॥ १५० ... हिंदी साहित्य का छूद्टव इतिहास पहुँचना काव्यविफास को एक ऐसी यात्रा है जो सुखद होने के साथ ही अमसाध्य श्रोर प्रतिमासापेज्ञ है। “कामायनी' का अधिकरण बहिनंगत्‌ न होकर अंतर्जंगत्‌ है---कवि का अंतर्जंगत्‌ व्यक्ति का अंतर्जगतू और मानव जाति का अ्रंत्जगतू। इस प्रकार प्रसाद ने 'कामायनी' को अपने चिंतन, मनन और फल्पनाबिधान से गूढ़ार्थ! बना दिया है, जब कि “'कामायनी' का परंपरास्वीकृत साहित्यिक श्रथ॑ बहुत ही सामान्य है--कामकला या प्रेमकला । किंतु, प्रसाद की फला ने कई प्रकार कै प्रतीकरांदर्मों की अवतारणा कर “कामायनी”' फो साथंकता के विभिन्‍न आयामों से समृद्ध कर दिया है। सचमुच, प्रसाद ने शैवागर्मों में बर्शित आानंदवाद, समरसता ओर प्रत्यमिज्ञा की शेव घारणाओ्रं फो श्रपने युग के संदर्भ में पिरोकर ऐसी 'कामायनी' रच दी, जो मानवता की शाश्वत मंगलाशा को मूर्तिमान्‌ करनेवाली भअ्रग्नेसर कृति बन गई। इसलिये 'कामायनी”? अ्रनेक दृश्यों से एक विवादास्पद कृति होकर भी श्राधुनिक हिंदी कविता की सबसे महान्‌ उपलब्धि है | इसकी श्रनन्वय विशेषता यह है कि इसकी संपूर्ण कथावस्तु त्थतः मानव्चेतना के _ भीवर घढित होती है; उसका आधिभमौतिक या ऐहिक आधार छिलका भर है। इसलिये अपनी श्रविरत्ष श्रांतरिकता के कारण “कामायनी” संपूर्ण मानवता के विकास की अ्ंतरंग गाथा बन गईं हैं ओर सतत विफासशील मानवचेतना का भावात्मक महा हे भी | यह दूसरी बात है कि कथावस्तु के अंतगु ख विकास के फारण “कामायनी'” में कार्यव्यापार फा श्रमाव है। किंतु, कार्यव्यापार फा यह श्रभाव तो 'कामायनी' की ग्रंतःप्रकृति में ही निहित है। भला जिस महाकाव्य क॑ प्रायः सभी सर्गों | चिंता, आशा, श्रद्धा, कास,' वासना, लक्जा, कर्म, ईर्ष्या, इंड़ा) स्वष्त, संघ, निरवेद, दर्शन, रहस्थ और श्रानंद )| का नामकरण मानव मन की प्रमुख प्रदृत्तियों के श्राघार पर किया गया हो, उसमें बहिबंगत्‌ से संबद्ध कितनी घटनाश्रों ओर क्रियाव्यापारों फा संनिवेश फिया जा सकता है ? * काम के तीन प्रधान रूप हैं --श्राध्यात्मिक, सर्जनात्मक और वासनात्मक। सर्जनात्मक काम को शैवागर्मों में कामकला' कहा गया है। इसी 'कामकला! को प्रसाद ने श्रेमकला” कहा है । द * कामायनी' के सर्गों के नामकरण में भी प्रसाद ते काफी मीनसेख भ्रौर विचार विमर्श के बाद अ्रंतिम निर्णय लिया था। पहले कवि ते काम सर्म का नाम _ यज्ञ, इडा सर्ग का नाम इला, संघर्ष सर्ग का नाम युद्ध भौर निर्वेद सर्ग का नाम स्वीकृति रखा था। निश्चय ही बाद में दिए गए सर्गशीर्षक श्रपेक्षाकृत भ्रधिक सार्थक हैं।... हम के ( भाग १० ] . प्रखुख कवि: अन्य कवि द १४१ 'कामायनीः प्रसाद की फाव्यलाधना का शिखर दे आर इनके श्रम तथा प्रौढ़ि प्रकर्ष का सूचक है। इसफी रचना के पीछे साधना का सादर ओर चिंतन की व्युत्पन्नता है। इसकी रचना में प्रसाद ने पूरे सात वर्ष लगाए थयें। प्राप्त सचनाओं के अनुसार 'कामायनी का चजिंतए सर्ग १६२८ ई० के अक्टूबर महीने में प्सुधाः में छुपा था और पूरी 'कामायनी' १६३५४ ४० में छपी | इस प्रकार सात वर्षों के निरंतर चिंतन ओर लेखन के बाद कामायनी' पूरी हुईं। इस बौच कामना! या 'एक धूँ ८! जैसी रचनाएं आई, तो मात्र इस प्रयास में कि 'कामायनी' की विषयवस्तु तथा शिल्पविधि और मी मेज सके--छंगढ़ ओर शिह्पित हो सके । इस प्रकार “कामायनों अभ्यास श्र ध्युत्पन्नता के साथ रची गई एक प्रातिभ काव्यकृति है । 'क्ामायनी' के संबंध में लोकायतनकार पंत ने मी विचारणीय बातें कही हैं। एक ओर इन्होंने 'कोमायनी” के दशशनपछ, तांजिक तिकोश और मन को शैबादह्वेत साघना पर विचार करते हुए लिखा है कि मानव मन की प्रबृत्तियों का . संघर्ष, उत्थान, पतन तथा उन्नयन ही कामायनी का दर्शनपीठ है। तफेबुद्धि .. इड़ा तथा अद्धा का समन्वय ही उसका निः्रेयसभरा संदेश है? किंतु, वूसरी . ओर “कामायनी' के व्यक्तिवादी आरोहणम्‌लफ चीषनदर्शन झौर “कामायनी' . में न्यस्त आनंदवाद फी उच्च एकांत व्यक्तिमुखी भूमि! के प्रति इनका आ्षेप यह है कि ““इढ़ा श्रद्धा का सामंजस्थ पर्याप्त नहीं है। अदा की सहायता से उमरस स्थिति प्राप्त कर लेने पर भी मनु लोकजीवन की ओर नहीं लौट आए । ग्राने पर भी शायद वहाँ कुछ नहीं कर सकते। छंसार की समस्याश्रों का यह निदान तो चिरपुरातन, पिश्पेषित निदान है ।***** यहीं पर फामायनों कला- प्रयोगों में आधुनिक होने पर भी 7“ वास्तव में जीवन के नवीन यथार्थ तथा चेंतन्य को अभिव्यक्ति नहीं दे सकी ।!' आशय यह है कि “कामायनी? में चेतना की गति केवल आरोहपूर्ण है, अतः वैयक्तिक कल्याण या वैयक्तिक मोक्ष की निर्देशिका है। इसीलिये पंत ने 'लोकायतन' में चेतना की गति को अवेह आर समदिक्‌ संचरण से अन्वित कर लोकमंगल और सामूहिक मोद्ध का आह्वान किया है। इन्होंने ध्यूव॑स्मृति! के प्रारंभिक निवेदन में लिखा है-- कैसे कह दूँ इढ़ालुब्ध युग मनु से श्रद्धा संग वह करे मेर-नग-रोहरा, आत्मबोध की निष्किय समरस स्थिति को लन भूषथ पर करना सक्रिय विचरण! ! आज सर्पमुख से मशि छीन; अ्रधोमुख अवचेतन पथ करो; चेतने ज्योतित, कक न / १५२ हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास चित्रकू: से नौचे धराकुहर में उतर, अचेतन तिमिर जहाँ चिरनिद्वित ! शायद, प्रसाद और पंत के जीवनदर्शन के उपरिनिर्दिष्ट अंतर का द्वी यह प्रभाव है कि 'फकामायनी' का आरोहप्रधान काव्य जहाँ हिमगिरि के उत्तुग शिखर से प्रारंभ होता है, वहाँ सामहिक मोक्ष के आकांक्ी 'लोकायतन! को कथा डउग्जगुद्दाः से प्रारंम होती है-- उटजगुहा में फोन वहाँ अंतःस्मित । स्वगंशिखा सी भेद रही परवततम । 'क्रामायनी? के प्रति अपनी प्रतिक्रिया फो स्पष्टतर करते हुए पंत ने 'लोकायतन” के मधुस्पश! शीर्षक खंड में लिखा है -- आओ, श्रद्धा संग बेठे' युग मनु प्रसाद, पथ सहचर, यह प्रेम गोत्रजा जो अ्रब चलती शिखरों मे भू पर ! समरस जड़ चेतन के तट प्लावित करती जीवनगति लोगा लाया मानव को, यह सखे, त्रिपुर की परिणति |! उपयुक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि प्रसाद की श्रद्धा, जिसे कई विचारों ने “विदेह चित्तवृत्ति! के रूप में स्वीकार किया है; शिखरों पर चलनेवाली थी, जब फि पंत की श्रद्धा भू पर चलनेवाली है। अ्रतः यह अ्रधिक लोकसंप्क्त, वस्तु निष्ठ ओर मिट्टी की सोंधो गंघ से युक्त है। दूसरी ओर प्रसाद का 'मनु' जहाँ व्यक्तिमुक्ति में सीमित रहकर शिखरों के स्वर्शोंदय को स्वयं ही भोगता रह जाता है, ९ लोकायतन' की रचना से पूर्व पंत ने वाणी” शीर्षक कविता में भी 'कामायनी! के ऊध्वंप्रुख आरोहणमू लक दर्शन का खंडन किया था। वाणी” शीर्षक कविता में उक्त आशय को व्यक्त करनेवाली पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-- अ्रतल हरित पावक जल सागर, भरो चेतना रस की गागर श्रद्धा की स्वरशिम लपटों को द दहने दो, दहने दो ! [ भाग १० ] प्रमुख कवि + अन्य कवि... १५३ शिखरों के उस स्वर्णोदय को लोकमंगल के जिये भू पर नहीं ला सकता है, वहाँ पंत के 'लोकायतन! का अभीष्सित मानव कैलाशकंट की चरमसिद्धि फो जन- जीवन में ले आना चाहता है। निष्कर्ष रूप में फह्ा जा सकता है कि 'कामायनी! में 'आत्मबल' की प्रतिष्ठा है ओर लोकायतन” में 'लोकबल” की | इसलिये क्रामायनी! में जहाँ मन:संगठन फो रेखांकित फिया गया है, वहाँ 'लोकायतन' में लोफकसंगठन ओर मनःसंगठन, दोनों के संतुलित विकास फो महत्व दिया गया है । इसका फल यह हुआ है कि प्रसाद “कामायनी” में वैयक्तिक मोक्ष की उपलब्धि पर ही रुक गए हैं, जब कि पंत ने 'लोकायतन' में सामहिक मोक्ष की परिकल्पना की है और केवल कैलासशिखर ( ऊध्वंलोक ) फो ही आनंद का अधिफरण न मानकर प्रत्यज्ञ जगत्‌ या लोकजीवन फो मी ऐहिकासुष्मिक सुख का आगार माना है। इस तरह कामायनीकार ओर लोकायतनकार के दृष्टिकोश में ध्यातव्य अ्रंतर है। लोकायतनकार ने आनंद या मोक्ष की उपलब्धि के लिये वैराग्य के रुद्रदाह फो नहों, प्रीतिशिखा” की स्थापना फी आवश्यक माना है। इसी प्रीतिशिखा की स्थापना को पंत ने 'पो फन्‍ने के पहिले' में प्रेमा का संचरणश! फहा है। उपयुक्त विश्लेषण से 'कामायनीः और 'लोकायतन! के जीवनदर्शन का अरलंष्य अंतर प्रकट है। द " द _ दार्शनिक विश्लेषण की दृष्टि से 'कामायनी” का आधारभूत दर्शन त्रिफूदर्शन है, जिसे घडधशास्त्र भी कहा जाता है। इस दशशन को त्रिकृदर्शन कहने के कई कारण हैं। पहला कारण यह है कि इस दशन ने ६२ आगर्मो को मान्यता देते हुए भी कुल तीन आगर्मो--सिद्ध, नामक और मालिनी--फो ही प्रमुखता दी है। दूसरा कारण यह है कि- दाशनिक प्रणाली में तीन प्रकार की ज्यी को स्वीकार किया गया है--पर, अपर ओर परापर | तदनंतर, इस दाशंनिक प्रणाली में ज्ञान के तीन पक्कों का विश्लेषण किया गया है, जिनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं--अमेद, भेदामेद ओर भेद। इस तरह सवंत्र तीन या त्रयी की प्रधानता के कारण उक्त दर्शन को त्रिकदर्शन कहा जाता है। त्रिक- दर्शन में अ्रनुत्तर, इच्छा और उन्मेष को प्रमुख शक्तियों के रूप में स्वीकार किया. यह न ऊर्ध्वमुख शिखरारोहरा, निस्तल निश्चेततन. मनमंथन, घरागर्त तम में निज पदतल गहने दो, गहने दो |! ( वाणी, द्वितीय संस्करणा, पृष्ठ ३२ ) २०-२० द १५७ द हिंदी राहित्य का बुंहत्‌ इतिहास ३२ जनक 5 शुावगउद्। । के न - णू गया है। अनुत्तर, इच्छा और उन्मेष को पडघ्शास्त्र था जिक्दशन में ऋमशः थे (5 न्ल्‍जिकफे नो पा 0 चित, इच्छा श्रोर ज्ञान भी बहा जाठटा है। असाद ने 'छामायनी! में प्रायः पिछले तीन नामों को ही स्वीकार किया है, किक; कहा केंही शाक्तपच्क , च्िति, ४:२५ थे श्र हि | गा न हु सा खणटय कम र श््ु प्रा ज्रानंद, इच्छा, शञान और क्विया ) के विवरशकम ज॑ इन्हास चित! की जगह पर हर है. | जैसे-..- 'मन! का प्रयोग कर दि ज्ञान दर कुछ, क्रिया भिन्‍म हे इच्छा क्‍यों एस हां शने की एफ दूसरे से न मिल सके यह विडंबना है जीवन को।* त्रिकदर्शन में, जो शेव दर्शान का एक विशिष्ट प्रकार है, ज्ञान! को मल! कहा गया है, जो जीवों का बंध देतु' है। इस पमल” के कई प्रफार माने गए हैं। जैसे--आशुव मल; कार्म मल्त ओर मायीय मल। जीवात्मा इन्हीं तीन प्रकार के मलों से आच्छुन्न रहती है। इन मर्ली में आणुव मल सबसे बड़ा बंधहेतु माना गया है। आशव मल स्वातंश्य शक्ति के अनुचित अ्रभ्युद्य से पैदा होता है और यही मल्ष कार्म मल के आविमाव का फारण बनता है। पफामायरी' का मन वहों आशणुव मल? से ग्रस्त हो गया है, जहाँ उसमें में की भावना ने वेयक्तिक श्रहता भाव पेदा कर दिया ह-- मैं हूँ, यह बरदान सद्ृश क्‍यों लगा. गूँजने कानी में। में मी कहने लगा, में रहूँ? शाश्वत नभ के गार्गी में। इसी मैं? की भावना ने 'कामायनी! के मनु को अज्ञान से तत्काल आचछुन्न कर दिया है। आशव मल?! के बाद 'कामंमल! पैदा होता है, जो ठगिनी माया के संदर्भ में श्रांत कर्म करने की प्रेरणा देता हैं। फाम मल से आचछुन्त होकर ही कर्म सग में मनु सोचते हैं-- कर्मयश से जोंवन के सपनों का स्वर्ग मिल्लेगा। इसी विपिन में मानस को आशा का कुसुम खिलेगा ॥* ? क्ामायनी, प्रसाद, भ्रष्टम संस्करण, पृष्ठ २७२ । २ कामायनी, भ्रष्ठम संस्करण, झाशा सर्ग, पृष्ठ २७ । ३ कामायनी, अष्टम संस्करण, पृष्ठ ११३ । [ भाग १० | प्रशुख कचि : अन्य कवि १५४ इसी काम मल के साथ जन्नर कम संस्कार संयुक्त हो जाता है, तब 'मायीय मल” उत्पन्न होता है। संपूर्श 'ध्वप्त! सर्ग इ सका प्रमाण है | काश्मीरी शंवदशन के श्रनुसार मुक्ति या मोक्ष के चार मार्ग हैं--अनुपाय, शांभव, शाक्त और शआ्राणव | शाक्त और वे को क्रमश। शानोपाय और क्रियोपाय भी कहते हैं। इसी तरह अनुपाय ओर शांभव को अमिनवगुप्त ने क्रमश: श्रानंदोपाय और इच्छोपाय कहा है । इस तरह हम आशाबोपाय को क्रियोपाय, शाक्तोपाय को शानोपाब, शांभव मसागे को इच्छोपाव और अनुपाय मार्ग फो आनंदोषाय कह सकते ह। इन्हीं मार्गों या उपायों के द्वरा मनुष्य सोक्ष प्राप्त करता है। “कामायत्ी' में इमें इन सभी मार्गों या उशयो--क्रिया, ज्ञान, इच्छा श्रोर आनंद का एकत्र समख्यय मिलता हैं। 'कामायनी' की उक्त दाशभिक ब्याब्या के विपरीत कई आलोचकों, जैसे मक्तिबोध ने उसकी वर्गह्घपमुखछक सामाजिक व्याख्या की है ओर मनु को मानव के आद्य अनुभवों का रहीं, उस वर्ग का प्टाइप चरित्र माना है, जिसकी शासनसत्ता, ऐश्वय छिन गया हो !! नश्दय हो एऐे बोष एक अतिवादी दृष्टिफोश है। बस्तनिष्ठ य दि्शि 2 से इतना भर फहना ठीक हे कि कामायनी में इच्छा और ज्ञान को सहत्य दिया गया है। किंतु, 'कामायनी में (क्रिया? या “कर्म! को डचित प्रतिष्ठा नहों मिल सकी है या कि फामायनों? कमे- प्रतिष्ठा से रहित जीवनदशन का व्याख्यान करती है सरी बात यह हे कि छायावादी अमिव्यंजनाकाशल एवं दाशानक शब्दाबला का व्यूहरचना के कारण 'कामायनी? का श्रमिप्राय अथवा विंवक्ला किंचित्‌ दुर्बांध हो गई है। संभवतः प्रसाद ने स्वयं भी इस दुर्वोदता को महसूस किया था ओर इन्होंन 'इरावती' के प्रणयन के द्वारा कामायनी' के जोवनदशम, विशेषकर शआनंदवाद की पुनर्व्याख्या का प्रयास प्रारंभ किया था, जो काल की क्रूरता के कारण अपूर्ण ही रह गया। किंतु, इन दो सीमाओं के कारण जो आलोचक “कामायत्री? में किसो निर्दिष्ट, सुनिश्चित प्रभाव का अभाव पाते है वा कामायनी को प्रतिक्रियाबादी फाव्य घोषित करते हैं, वे नितांत आंत & + इसी तरह 'कामायनी' के विषय में यह धारणा भी एकांगी प्रतीत होतो है कि 'कामावनां! ने सन वैज्ञानिक है, न मानवीय चिति की विकासगाया है ओर न रूपकात्मक, बल्कि इसको कथा ऐतिहासिक रूप में ही ग्राह्म है। इस घारणा का स्वोकार कर लेने पर काम्तायनी की कथातरस्तु का उत्पाद्य लावश्य ही दष्टिपव शत ओआमाल दो जाबगा। कामायनी! की कथा को केवल ऐतिहालिक रूप में ग्रह करना इत/लेये मां अनुचित हू कि इसकी कथावस्त इतिहासाश्रय कथा को इृड्धि से न पराक्रवा इतिदाव' है और न 'धुराकलल्‍प इतिहास हो। फिर कामायनी' के तीन अमभ्रुख पात्र ( सनु, श्रद्धा और इड़ा ) तथा १ ६ . हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहांस दो गोण पात्र ( झाकुलि ओर किलात ) की३ सुस्पष्ट या >्खलाबदध ऐतिहासिक चरित्र नहीं रखते। इतना ही नहीं, प्रबंधत्व को दृष्टि से कामायनी! का कथानक भी शिथिल है। अ्रतः 'कामायनी' की कथावस्तु को मुख्यतः ऐतिहासिक रुप भें स्वीकार करना या यह कहता कि कामायनी! का रचनाविधान प्रतीकात्मक से श्रधिफ ऐतिहासिक है, युक्तियुकत प्रतीत नहीं होता। 'कामायनी” के कथा- नायक मनु ऐतिहासिक मनु! हैं, घूत्त बात हा अत्यंत विवादास्पद है। भारतीय वाढ मय में मनु के तीन रूप मिलते हैं -बदि राशणिक ओर ऐतिहासिक । प्रसाद ने भी 'कामायनी? के आमुख में इसे स्वीकार किया है--- धगरार्य साहित्य में मानवों के आ्रादिपुरुष मनु का इतिहास वेर्दा से लेकर पुराणों और इतिहासों तक में बिखरा हुआ मिलता है | कित, मेरी दृष्टि में कामायनी का मनु इन तीनों रूपों से विलक्षण है । 'कामावनी' के मनु की सार्थकता इतनी ही है कि वह मानवों का आदिपुरुष' है। मनु के अन्य पक्ष नितांत विवादास्पद हैं। पहला टंटा तो नाम ओर संझ्या का है। मनु के कई नाम मिलते हैं-- स्वायंभुव मनु, प्रजापति मनु, वेवस्वत मनु, भानु मनु) प्राचेतस मनु, स्वारोचिष मनु, चाकुष मनु ओर सोवरण मनु । साथारणुतः यह माजा जाता है कि कुल मिलाफर सात मनु हुए हैं। इसलिये यह प्रश्न खड़ा होता है कि इन सात मनुओों में कामायनी' के मनु कौन हैं १ “कामायनी' के मनु आदि स्वारयंस्रुव मनु हैँ या वह वेवस्वत मनु, जो कल्प के चतुदंश श्रंश अर्थात्‌ म्ब॑तर में हुए ? मत्य्य' की कथा से संश्लिष्ट रहने के कारण 'कामायनी' के सनु 'विवस्वत मनु? ही प्रतीत होते हैं। कारण, वेवस्वतर मनु के साथ मत्स्यावतार को कथा कई जगह मिलती है। मदहामारत के 'वनपर्व* में भी ऐसी ही कथा आई है। प्रसाद ने * भत्स्यपुराण' में चौदह मनुश्नों के नाम मिलते हैं। भारतीय वाह मय में.मनु का उल्लेख अनेकत्र मिलता है। ज॑ैसे--ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण, मनुस्मृति, मार्कडेयपुराण, विष्णुपुराण, श्र/्नपुराण, वायुपु राण, कर्मपुराण, ब्रह्मवेवर्त, पद्मपुराण, मत्स्यपुराण, स्कदपुरारा इत्याद। इलोपाख्यान मी प्राय: सभी पुराणों में मिलता है । * पहामत्स्य का एक चपेटा', कामायनी, पृष्ठ १७; द्रष्टव्य : द फ्लड लीजेंड इन संस्कृत लिटेचर”, लेखक, डा« सूर्यकांत शास्त्री, १६९६५१॥ ३ वेवस्वत का श्रर्थ है विवस्वान श्र्थात्‌ सूर्य का पुत्र | वेवस्वत मनु का दूसरा नाम सत्यव्रत' भी मिलता है। द्रष्टव्य : पौराणिक श्रभधान', लेखक, . श्री सुवीरचंद्र सरकार, कलकत्ता, प्रथम संस्करण, १६५८, पृष्ठ ३२७ । ४ श्रृष्याय संख्या १८७ । [ भाग १० ] प्रमुख कवि : अन्य कवि १५७ भी 'कामायनी! के झआामुख में वेवस्वत मनु को एक ऐतिहासिक पुरुष के रूप में स्वीकार किया है। किंतु, 'कामायनी” में मनु का चरित्र जिध्त तरह चित्रित हुआ है, उसमें कोई ऐतिहासिकता नहीं कलकती है। उससे केवल इतना ही प्रतीत होता है कि “मनु भारतीय इतिहास के आदिपुरुष हैं! । तब यह अंतर्विरोध खड़ा होता है कि वेवस्वत मनु आदिपुरुष कैसे होंगे ? आदिपुरुष तो स्वायंभुव मनु ही हो सकते हैं। इस तरह प्रसाद ने ऋग्वेद के श्रद्धासूक्त, शतपथ ब्राह्मण, श्रीमदूभागवत, छांदोग्य उपनिषद्‌ श्रादि के आधार पर 'कामायनी' फीजो कथासृष्टि की है, उससे मनु के चरित्र फा ऐतिहासिक रंग प्रकट नहीं होता | उससे मनु “आदिपुरुष' के प्रतीक भर सिद्ध होते हैं । इसी तरह श्रद्धा ( 'फेथ फिलासफी? फी संकेतिका ) का भी फोई ऐतिहासिक स्वरूप नहीं है। श्रद्धा को काम की पुत्री के श्रल्ावा सूर्य की पुत्री भी कहा गया है। इस रूप में श्रद्धा के कई नाम हैं--कामायनी, वेवस्वती, साविन्नी तथा प्रसवित्री ॥* यही हाल प्रसाद फी इड़ा ( 'रीजन फिलासफी” की संकेतिका श्रोर मेघसंवाहिनी नाड़ी की प्रतीक ) का भी है। योगसाधनात्मक श्रथसंदर्भ के श्रलावा इड़ा का प्रयोग दाशनिक, पौराशिक ओर प्रतीकात्मक्र अथंसंदर्मों' में मी होता रहा है। फिंतु , शड़ा के चरित्र का फोई ऐतिहासिक स्वरूप नहीं है। अतः किस आधार पर 'क्वरामायनी' को मनुष्य का अथवा मनुष्यता का इतिहास कहा जा सकता है ? अग्रधिक से श्रधिक, कामायनी' फो मनुष्य की चेतना के काव्यात्मक इतिहास के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। ह इस प्रकार उपयुक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि 'कामायनी' फी फथावस्तु फो मुख्यतः: ऐतिहासिक रूप में स्वीकार करना युक्तियुक्त नहीं है। शायद, इसी फारण प्रसाद ने श्रामुख में 'कामायनी' की कथासूष्टि के बेदिक पौराणिक आधार आर विशेषकर ऐतिहासिफ पक्ष की चर्चा करते हुए अंत में 'कामायनी' फी कफथावस्तगत और पात्रगत सांकेतिकता तथा रूपाकात्मकता का उल्लेख किया है-- यह आख्यान इतना प्राचीन है कि इतिहास में रूपक का भी श्रदूभुत मिश्रण हो गया है। इसीलिये मनु, श्रद्धा श्लोर इड़ा इत्यादि अपना ऐतिहासिक अ्रस्तित्व रखते द्ुए,, सांकेतिक अथ की भी अभिव्यक्ति करे तो मुझे कोई आपत्ति नहीं । मनु अर्थात्‌ मन के दोनों पक्ष, हृदय और मस्तिष्क का संबंध क्रमशः श्रद्धा और इंडा से भी सरलता से लग जाता है।” इस प्रकार “कामायनी” में घटनाश्रित इतिहास की झलक हूँढने के बजाय कामायनी? को प्रसाद के ही शब्दों में * शांतिपवं, २६४८ । हा :१५८ हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास मानवता का डविकासरूपका या धमनुष्यवा का मनोवज्ञानिक ( काव्यनिबद्ध ! ) इतिहास” स्वीक्षर करना अधिक युक्तिसंगत है। अतः कामायनी! का अभिव्यक्ति: पक्ष ही नहीं, इसका इतिदवृत भी बहुल्लांशतः अतीकात्मक है | कामायनी' की कथावस्त के मुख्य अंश इं--मनु, प्रलय, हिमाल्यय, अद्धा, यश, आकुलि, किलात, सारः देश, इड्डा, मानसरोवर, कैल्लाश, त्रिपुर एवं शिवदर्शन। सच पूछा जाय तो इन सबमें »ड्धा ही प्रधान हैं, क्योंकि श्रद्धा दी 'कामायनी' दर्शन की मुख्य प्रवक्‍ता है। शायद, इसीलिये प्रसाद ने 'कामायनी' के श्रंत में मनु को ओर में रखकर श्रद्धा को सामने कर दिया है और श्रद्धा के ही चरित्र को उभार दिया हैं। वस्त॒त३ 'कामायनी' को कथा का अंतिम नेतृत्व श्रद्धा के हाथ में है। श्रद्धा की ही सहायता से मनु को 'चिदृदशन' होता है। मनु ओर इड्ा का चरित्र तो श्रद्धा की प्रुखता से आच्छुन्न है। यहाँ यह लक्ष्य करने योग्य है कि मनु पहले पहदृत्तिमार्गमी ओर बाद में आध्यात्मिक स्तर के आनंदवादा बने हैं; "वध! गे तक सनु का गद्ृक्तिसार्गों रूप ही अश्रीकेत हुआ है। मनु के अ्रध्यात्मिक उत्कष की भूमिका मिबंद” सर्ग के अंत से प्रारंम हादी है। निर्वेद का पंवसान स्वमावद; आध्यात्मिक प्रशांति में होता है। ( शायद, इसीलिये शांतरत 'कामायनी' का अंगी रत हैं।) मनु के आध्यात्मिक अस्थान को ही शॉष पर पहुँचाने के क्रम में 'कामायनी' का रहस्यमय सं अत्यंत दाशनिक बन गया है। रोमांटिक, दाशनिक आर सक्ष्म काब्यप्रज्ननसि के कारण प्रसाद की कविताओं में ध्यानाकपक्क प्रतीक मिलता हैं। प्रसाद ने निराला की गीतिका' में दो शब्द लिखते समय प्रतीक के संब्ध में अपनी धारणा व्यक्त की है। इनके अनुसार प्रतीकों का संबंध कवि की उस रहस्वानुभूति से है, जो युग के अनुकूल अपने लिये विभिन्‍न आधार चुना करती हैं। प्रतीक्षों के संबंध में इनकी दूहरीं मान्यता यह है कि कन्नाजगत्‌ में सॉदयबोप को मूत॑ बनाने तथा संवेदनों को आकार देने के लिये प्रतीकों की सशि होती है। अ्रथाव प्रतोकों के द्वारा कवि काव्यनिबद्ध भावों को मूर्तता और वस्तुमचाः प्रदान करता है। इस मान्यता फो उपत्यित करते हुए इन्हांने लिखा ३-ध्सोंद्यबोव बिना रूप के हो ही नहीं सकता | सोंदर्य की अनुभूति के साथ ही ताथ हम अपने संवेदन को आकार देने के लिये; उनका प्रतांक बनाने # लिये बाध्य हैं ।” प्रतीकृविधान के बंध में इनकी तीसरी मान्यता अतिशय दाशनिक आग्रह कै कारण कुछ उलकी १ काव्य और कला तथा भ्रन्य तिबंध, प्रसाद, चतुर्थ संस्करण, पृष्ठ ३५ । ( भाग १० ] प्रमुख कवि ; अन्य कवि' १५९ हुई है। इन्होंने प्रतीकविधान के दीन प्रकारों का निरूपण करते हुए लिखा है स्व की कल्नन करने का उपयोग, आत्म अनुभूति की व्यंत्ना में प्रतिभा के द्वारा तीन प्रकार से किया गया है - अनुकूल, प्रतिकूल शोर अदभत। ये दीन प्रकार 7तीकविधान काव्यजगत में दिखलाई पड़ते हैं। अनुकूल श्रर्थात्‌ ऐसा हो | यह आत्मा के विज्ञात अंश का गुशनफल्न है। प्रतिकूल, अर्थात्‌ ऐसा नहीं | यह आत्मा के अ्रविज्ञात अंश की सद्दा का ज्ञान न होने के कारण हृदय के समीप नहीं । अ्रदूभुत आत्मा का ऋविजिश्ञास्य रूप, जिसे हम पूरी तरह समझ नहीं सके हैं कि वह अनुकूल है या प्रतिकूल । इन तीन प्रकार के प्रतीकविधानों में आदर्श- बाद, यथातथ्यवाद ओर व्यक्तिवाद इत्यादि साहित्यिक वादों के मूल संनिद्वित हैं| प्रकट है कि प्रतोकविधान के ये निर्धारित प्रकार दाशनिकता के आग्रह से इस तरह आक्रांत है कि अ्रस्पष्ट रह गए हैं। कित, प्रधाद की कविताओं में प्रतीक- विधान का रंग बहुत ही निखरा हुआ है। इन्होंने अपनी कविताओं में दाशनिक प्रतिपादन के धंदर्मों में प्रतिकामक भावप्रकाशन की शंली का अधिक प्रयोग किया है | सामान्यतः इनके प्रतीकों में 'मनोद्शा की व्यंजकता' पर्याप्त मात्रा में रहती है और इनके अधिकांश प्रतीकस्वरूप उपसान प्रकृति के विशाल क्षेत्र से गहीत हैं। इन्होंने भाव ओर शिल्पगत चाढता के विधान के लिये 'कामायनी' में भी अनेक स्थलों पर प्रकृतिक्षेत्र से गहीत प्रतीकृस्वरूप उपमानों का प्रयोग किया है। जैसे, निम्नांकित पंक्तियों में योवन के लिये प्वसंत' ओर वयःसंधि के लिये 'रजनी' के 'पिछले प्रहर' फी योजना की गई है-- मधुमय वसंत जीवनवन के बह अंतरिक्ष को लहरें में कब आए थे तुम चुपके से द रजनी के पिछले पहलयों में।* किंतु इन प्रतीकस्वरूप उपष्मानों के अलावा 'कामायनी' में कई विशद्ध प्रतीक प्रयुक्त हुए हैं, क्योंकि संपूर्ण धकामायनी' की कथा में प्रस्तुतार्थ के साथ ही किसी सैद्धांतिक अग्रस्तुतार्थ की अंतर्घाता विद्यमान है| इस प्रसंग में 'कासायनी' के पात्रों का प्रतीकमय सांकेतिक व्यक्तित्व विशेष ध्यातव्य है। एक ओर मनु मनोमय फोश में स्थित जीव का प्रतीक है, तो दूसरी ओर काम ओर लज्जा जैसे अशरीरी पात्र हैं, जिनकी सांकेतिकता असंदि्व है। इसी तरह श्रद्धा हृदय का ' काव्य और कला तथा अरब्य निबंध, प्रसाद, चतुथ संस्करणा, पृष्ठ ७३ | * कामायनी, प्रसाद; सप्तम संस्करता, एंप्ठ ६३ | १६० हिंदी साहित्य का बृदत्‌ इतिहास प्रतीक है-- हृदय की अनकृति बाह्य उदार! ओर इड़ा बुद्धि का प्रतीक है, जिसकी प्रतीकात्मकता इससे ध्वनित होती है--जबिखरी श्रलक ज्यों तकजाल |! तदनंतर श्रद्धाऔर मनु का पुत्र “नव सानव' का प्रतीक है ओर अरसुरपुरोहित किलात, आ्रकुलि आउुरी इत्तियों के प्रतीक हैं। इनके अ्रतिरिक्त देव, श्रद्धा का पशु, वृषभ तथा सोमलता निश्चितरूपेण प्रतीकात्मक हैं ओर गहरा सांकेतिक अर्थ रखते हैं । देवगणश इंद्वियों के प्रतीक हैं, वृषम धरम का प्रतीक है ओर सोमंलता में भोग फी सांकेतिक प्रतीकात्म कता है --- था सोमलता से आवबृत वृष घवल धर्म का प्रतिनिधि, घंटा बजता तालों में उसकी थी मंथर गतिविधि। खधथवा तब वृषभ सोमवाही भी अ्रपनी घंदाध्वनि करता, बढ़ चला इड़ा के पीछे मानव भी था डग भरता। इसी तरह 'फामायनी' में वर्शित जलप्लावन उस मानवचेतना के अ्रन्नमय फोश में ही निमग्न होने या डूब जाने फा प्रतीक है, जो निरंतर विषयवासना में रमे रहने से विजञानमय कोश ओर आनंदमय फोश की ओर उन्मुख होने में असमर्थ है। इसके बाद त्रिल्ञोक ( मावलोक, कमंलोक तथा ज्ञानलोक की तत्संबंधित ) तीन प्रधान वृत्तियों--भाववृत्ति, कमबत्ति, ओर ज्ञानवृत्ति के प्रतीक हैं | श्रंत में, मान- सरोवर समरसता को अवस्था का प्रतीक है। यह मानसरोवर कैलासशिखर पर, जो आनंदमय फोश का प्रतीक है, अ्रवस्थित है। कथायष्टि में गुंफित इन प्रमुख प्रतीकों के अलावा 'कामायनी!” में कई प्रतीक प्रसंगानुसार प्रयुक्त हुए हैं। जेसे रहस्य सर में प्रयुक्त जिफोण, शंग ओर डमरू इस दृष्टि से विचारणीय हैं-- शक्ति तरंग प्रलय पावक का उस त्रिफोश सें निखर उठा सा, श्ृांग ओर डमरू निनाद बस सफल विश्व में बिखर उठा सा। * कामायनी, प्रसाद, अश्टम संस्करणा, पृष्ठ २७ रे । पर ााजे बुर 2०-२५ ५+-बघ+ प८म०-नानीरे.. सिय+8०-वरप्थआबआहू4८ ०५८ 5५५०५२५८५८०- ५० ८०थ कक अं लअनन असर 3२2५७२++4++७+++_ 3०२5%_+२२ह+जबडज तरस ५काकांकहका4ा च्ड्ड चना कबफक लक कक 5 थे > [ भाग १० ] प्रमख कवि : अन्य कवि. १६१ 'कामायनी' की प्रतीकात्मक शब्दावली लगभग शैवदर्शन से ली गई है। जैसे, ज्योतिषिड के लिये 'गोलक', सामरस्यपूर्ण स्थिति के लिये “भूमा', अहम्‌ के लिये 'कारणजलधि, आधारभूत! शिवतत्व के लिये “अधिफार' ओर पाशबद्ध जीव के लिये 'अणु' का प्रतीकवत्‌ प्रयोग शेबदर्शन की शब्दावली के प्रभाव का स्पष्ट सूचक है | इसी प्रकार प्रसाद की अनेक कविताएँ प्रकृतिजगत्‌ से ग्रहीत उन प्रतीर्कों से भरी पड़ी है, जिन्हें प्रतीकस्वरूप उपसमान कहना श्रधथिक युक्तिसंगत होगा । ऐसे उपमानों को योजना में इन्होंने प्रकृति के उपकरणों को ही व्यंजनागम बनाकर प्रतीर्कां की तरह प्रयुक्त कर दिया है। जेसे- मंभा भाकोर गजन था बिजली थी, नौरद माला पाकर इस शुन्य हृदय को सबने आरा डेरा डाला |! .. यहाँ तीव्र भावों की उमड़घुमड़ के लिये “क्रफा भकोर गज॑न! का, दद .. की तीत्र उठान के लिये “बिजली? का, उदासी के आलम के लिये 'नीरदमाला! का ओर सने आकाश के लिये शशून्य हृदय! का प्रतीकस्वरूप श्रप्रस्तुतविधान किया गया है | इसी प्रकार निम्नलिखित पंक्तियों के प्रतीकस्वरूप उपमान भी प्रकृति- जगत्‌ से लिए गएं हैं, बिनमें लक्षफ पदों का पर्याप्त प्रयोग किया गया है-- उठ उठ री लघु लघु लोल लहर | करणा फी नव अ्रँगराई सी मलयानिल की परछाई' सी, इस सखे तठ पर छिटक छहर। . तू भूल नरी पंकज वन में, जीवन के इस सूखेपन में है थझो प्यार पुलक से भरी ढुल्लक | द ः ० आ चूम पुलिन के विरस अ्रधर | क्‍ * आँसु, प्रसाद, सनवम संस्करण, पृष्ठ १५ । लहर, प्रसाद, पंचम संस्करण, पृष्ठ ६।. हु १ 6 कफ १ . द के बॉ १६२ हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास यहाँ लहर, तट और पंफजवन प्रतीक प्रयुक्त हैं। सरस और कोमल मावनाओं के लिये लहर को, शुष्क जीवन के लिये सखे तथ या पुलिन को और आपात- रमणीय प्रलोमनों या बाधाओं के लिये पंकजबन को प्रतीकस्वरूप उपसान बनाकर योजित किया गया है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि लाक्षशिकता की ओर विशेष रुभान रहने के कारण प्रसाद की काव्यमाषा में संबूतिवक्रता के आच्छे उदाहरण मिलते हैं। किंठु , इस संबतित्रक्रता को कई विचारकों ने एक प्रकार का आकांक्षा: दोष माना है । यदि संबृतिवक्रता आकांक्षादोष' हे, तो ध्य्ाँसू! ओर 'कामायनी' में इसकी कमी नहीं है, क्योंकि इन दोनों कृतियों में अनेक स्थलों पर संज्ञा का प्रयोग किए. बिना स्वनाम का प्रयोग कर दिया गया है। ह प्रसाद जी में सहज दार्शनिकता थी। भारतीय संस्कृति और इतिहास का भी इन्होंने गहन अध्ययन किया था। इसलिये इनको ऋृतियों में हक सांस्कृतिक सौरभ मिलता है, जिसे ्रमवश कुछ आलोचकों ने प्राचीनता का व्यामोह मान लिया है। 'शेरसिंह का शस्त्रसमपंण', 'हिम्ाद्रि ठुंग श्ंग से? अथवा पअरी वरुणा की शांत कछारः जैसी कविताओं में प्रसाद का जो राष्ट्रीय अनुराग मिल्नता हैं, उसका बहुत बढ़ा श्रेय मारतीय संस्कृति और इतिहास के प्रात इनके प्रेम को है | प्रातिम कवित्व, गहन विद्वता और सहज दाशनिकता के कारण ही प्रसाद से उस “'कासायना? की रचना संभव हो सकी, जो छायायाद युग की ही नहीं, संपूर्ण 'खड़ीबोली काव्य को स्वोत्किष्ट कृति हैं । निराज्षा ( जन्मकाल 5: बसंतरपंचमी, १८९७ ई० ओर मृत्युकाल ; १४ अक्टूबर, १९६२ ६३० ) छायावादी कफर्तिियों के बीच निराला में ज्ञानात्मक संवेदन की सामथ्य सबसे अधिक थी । इसलिये निराज्ञा को कई परवर्ती कविताएँ, जिनमें इन्होंने सरल भाषा के माध्यम से गंभीर तत्व अभिव्यक्त करने कौ चंष्टा की है, डब्ल्यू० एच० श्रॉडन के “ररेब्रल बस? के समान लगती हैं। विशुद्ध छायावादी रचनाफाल में भी इनकी कविताएँ बुद्धितत्व की दृष्टि से परिपुष्ट रही हैं। पंत ने उचित दी लिखा है कि पनिराला की बुद्धिपक्ष से प्रेरित रचनाएँ मेरी दृष्टि में उनकी सर्वश्रष्ट रचनाएँ हैं। उनकी भावना मी अ्रधिकांशतः उनकी बुद्धिरश्मि से विद्ध ही देखने को मिलती है।' द मिराला फी काव्यकृतियों का प्रकानकाल १६२३ ई० से लगभग १६८ _ छायावाद : पुनमूल्यांकत, पंत, प्रथम संस्कररा, पृष्ठ ६५। | भाग १० ] प्रमुख कवि : अन्य कवि द १६३ ई० तक फेला हुआ है । इस धुद्द्ध रचनाकाल में निराला की जो काव्यकृतियाँ प्रकाश में आई हैं, वे कालक्रमानुसार इस प्रकार हैं « अनामिका ( प्राचीन १६२३ ई०, नवीन श६ ३७६० ), परिमल ( १६३० ई० ), गीतिका ( १९३६ ई० ), तुलसीदास ( १६३८ ई० ), कुकुरमुत्ता ( १६४२ ई० ) अशखिमा ( १९४३ ई० ), बेला (१६४३६० ), अपरा (१६७६ ई० ), नए पते ( २६४६ ई० ); अचना ( १६५० ई० ), आराधना (१६४३ ई०) और गीतगुंज ( १६५८ ६० )। किंतु, ये सभी कृतियाँ छायावादी परिवृत् में नहीं आती हैं। अनामिका, परिमल, गौतिका शोर तुलसीदास ही (पआञर्थात्‌ १९१८६ ६० तक फी रचनाएँ ) छायावादी काव्यकाल की रचनाएँ हैं, जिनमें “श्नामिका ( नवीन १६३७ ई० ) इनकी सर्वोत्कृष्ठ कविता पुस्तक है । यों श्रशिमा, बेला, अर्चना और आराधना में भी कुछ ऐसी ऋविताए हैं, जिनमें छाबावादी भावबोध मिलता दे | ऐसा प्रतीत होता है कि विशुद्ध छायावादी रचनाकाल के बाद निरात्ञा में चो प्रगतिवादो विषयांतर. या दिशांतर आया अथवा उनपर छायावादोचर काव्य- प्रवृत्तियों का जो प्रभाव पड़ा ( जिसमें निराला जी को कभी कभी “फूटी खँजड़ी फ्री लगातार फटाफट मिलती थी ४ वह १६५० ई० तक आते आते लगभग समाप्त हो गया । १६५० ३० से लेकर जीवन के अंतिम ज्षुणों तक निराला कौ फाव्यचेतना में भक्ति का स्वर ही प्रधान रहा, जो छायावादी फाव्यबोध फी आरस्तिकता के सवथा अनुकूल है| जीवन की सांध्य वेला में रचित 'अर्चना' और आराधना! की कविताएं भक्तिम्रावना से ही ओतप्रोत हैं। यों १६३८ ई० ( तुलसीदास” के र्वनाकाल ) के बाद मी निरात्रा छायावाद का उम्र पक्षपोषण करते थे। 'मंजीर” की भूमिका से यह बात सिद्ध होती है। इस भूमिका से यह ज्ञात होता हे कि १६४१ ई० तक निराला जी छायावादी काव्यसिद्धांद के पश्चथर थे ओर विरोधियों द्वारा लगाए गए आरोपों का वारण कर छायावोद की रक्षा करना चाइते थे। निराला ने आधुनिक हिंदी साहित्य में अनेक वादों” के अरकांड तांडव' के संदर्भ में छायावाद की चर्चा फरते हुए. उक्त भभिफा में लिखा है, बहुतों फा खयाल है, कुल छायावादी मफान उड़ गए। में ऐसे प्रत्यक्षदर्शियों फो पहले मी देख चुका हैँ, इस समय भी देखता हूं। पहले तो यह कहता हूँ, जो छायावादी थे, उनके मकान थे ही नहीं फलत: तूफान से कायावादोीं ही उड़े हैं। उन्हें पहले भी छायावाद का ज्ञान नहीं था, इस समय भी उड़ते फिरनेवालीौ हालत में बेहोशी के फारण १ गिरिजाकुमार माथुर का काव्यसंग्रह, इंडियन प्रेस, प्रयाग, १६७१। १६४ .... हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास नहीं |! इसी संदर्भ में निराला ने छायावाद की प्रशंसा में यहाँ तक कहा है फि 'शब्द, भाव, विचार ओर कला काजो निखार तात्विक सत्याश्रयता के कारण छायावाद साहित्य में आया है, वह जीवन की कोन सी परिभाषा प्राप्त करता है यह अनुभव ओर मनन का विषय है |? इस मंतब्य से यह प्रतीत है कि १९१८ ईं० के बाद भो निराला सिद्धांतत। छायावांद के रकछक और पेशकार थे. किंत व्यवहारतः १६३४८ ३० के बाद की इनकी कविताएँ काव्यवस्तु, भाववोध और शली की दृष्टि से छायावादी राजमार्ग पर चलती हुईं नहीं प्रतीत होती हैं| भत्ता, छायावादी भावबोध गुलाब फो छोड़कर कुकुरमुता के पक्ष में कैसे जा सकता है ? 'छायावादी! निराला का प्रतिनिधि काव्यसंग्रह अनामिका' है| 'शनामिका! इनके उस जीवनकाल की रचना है, जिसमें इनका चित पूर्णतः अंतःकेंद्रितः था और इनका कविव्यक्तित्व विज्ेप अथवा आंतरिक विखंडन से ग्रस्त नहीं हुआ था। जिस तरह पंत की कविताओं के बीच उच्छुवास”? ने निराला को बहुत प्रभावित किया था, उसी तरह निराला की कृतियों के बीच अनामिका”? ने पंत को बहुत प्रभावित किया था। “अनामिका? से अभिभूत होकर पंत ने निराला पर एक फविता लिखी थी- जिसका शीर्षक है भअनामिका के कवि निराला के प्रति ।' पंत द्वाया निराला का अरनामिका? के कवि के रूप में ही स्मरण किया जाना अ्नामिका? के महत्व का प्रमाण है। यों कहनेवाले कहते हैं कि अनामिका! में मोलिफता का अभाव है, कारण, “अनामिका? में वे ही कविताएँ अच्छी बन पड़ी हैं, जो बँगला कलम की कविताएँ हैं| कुछ विचच्षणु फविआलोचकफ तो यहाँ तक कहते हैं कि 'अमामिका' ही क्या; संपूर्ण निरालाकाव्य में केवल बेँगलाफलम की रचनाएँ अच्छी बन पड़ी हैं ओर परवर्ती निराला! में जैसे जैसे बँगला का प्रभाव घटता गया, वैसे वैसे निराला कूढ्षा फरकट या अंडबंड ( ट्रोश ) श्रधिक लिखते गए | निश्चय ही, यह घारणा संतुलित नहीं है। तव्स्थ विश्लेषण से यही निष्पः होता है कि 'अनामिका” छायावादी निराला का प्रतिनिधि काव्यसंग्रह है। हाँ इतनी बात सच है कि पुरानी धअनामिका! ( १६२३ ३० में प्रकाशित ) को यह प्रतिनिधि स्थान नहीं दिया जा सकता। यह स्थान नई या अभिनव #अ्रनामिका! को ही मिल सकता है; जिसमें राम की शक्तिपूजा? पहली बार आई । पुरानी झौर नई ध्यनामिका' के गुश श्रोर परिमाण में ज्ञो अंतर है; उसके प्रति निराला सस्‍्वयँ सचेत थे । १६३७ ई० में लिखित 'श्रनामिका! के दृतीय संस्करण के प्राक्कथन से यह बात एकदम स्पष्ट हो जाती है । निराला की पहली कविता जूही की कली! १६१६ ई० में रची गईं थी | फिर छुह सात वर्षा के श्रंतराल के बाद इनकी 'अनामिका? १६२३ ई० में प्रकाशित हुई । निराला के आरंभिक काव्यविकास में साप्ताहिक “मतवाला” फा महत्वपूर्ण [ भाग १० ] द हे प्रसुख कवि : अन्य कवि १६५ योग है। १९२३-१९२४ ई० से निराला की कविताएँ 'मतवाला? में लगभग नियमित रूप से छुपने लगी थीं। मतवाला' के बिना निराला के आरंभिक काव्यविकास का लेखाजोखा नहीं फिया जा सकता | कहने के लिये 'मतवाला” का संपादन महादेवप्रसाद सेठ करते थे, किंतु, उसका वास्तविक संपादनफार्य निराला ही करते थे। इसलिये “मतवाला? निराला की फाव्यरचि और स्वभाव का पूर्ण प्रतनिधि था। 'मतवाला? के मुखपुष्ठ पर ये दो पंक्तियाँ अंकित रहा करती थीं-- . अमिय गरल शशिशीकर रबिकर, राग विराग भरा प्याल्ला पीते हैं जो साधक उनका प्यारा है यह मतवाला। इतना ही नहीं; इस पत्र के नाम के अ्रनुरूप इसके दाम की भी घोषणा व्यंग्य- विनोद की शेली में इस प्रकार की गई थी--एक प्याले का एक आना नगद, वाषिक बोतल तीन रुपए पेशगी ।? इसी तरह निराला के स्वभाबानुकूल 'मतवाला' में 'मतवाला फी बहक' शीधषंक एक विशेष स्तंभ था, जिसके नीचे ये पंक्तियाँ लिखी रहती थीं-- इंतहाए नशा में आता है होश । होशियारी इंतहाएं नशा है॥ “मतवाला' की ये सारी व्यंग्य-विनोद-पूर्ण विशेषताएँ निराला के निरालेपन का ही परिणाम थीं | निराला के बिना 'मतबालाः और “मतवाल्ा' के बिना निराला. की स्मृति ही अपूर्ण लगती है। अनामिका' के प्राक्कथन में निराला ने निःघंफोच लिखा है कि मेरा उपनाम निराला “मतवाला' के ही अनुप्रास पर आया था।ः सचमुच, निराला के व्यक्तित्वविकास में दो पत्रों का उल्लेखनीय योग है। ये दो पत्र हैं-'मतवाला” ओर 'समन्वय”* | धसतवाला? के माध्यम से निराला की काव्यप्रतिभमा फा विकास हुआ ओर “समन्वय! के माध्यम से इनके दाशंनिक व्यक्तित्व का । १६२३-१६२४ ६० में ही, जबकि निराला की कविताएँ 'मतवाला में ९ १६२३ ई० में निराला महादेव बाबू के आग्रह पर 'मतवाला' के संपादक- मंडल में संभिलित हुए थे और १६२६ ई० तक वहाँ कार्य करते रहें। फिर . दो तीन वर्षों के बाद वे 'सुधा! (लखनऊ) में चले गए । * १६२१-२२ ई० के आसपास निराला ने समन्वय का संपादन किया, जो रामकृष्ण मिशन, कलकत्ता से प्रकाशित होता था | १६६ क्‍ हिंदी साहित्य का बृहत इतिहास घड़ल्ले से छुपने लगी थीं, निराला ने प्रायः वें समी कविताएँ लिख ली थीं, जो १६२९ इंस्वी में संकलित होकर 'परिमल” के नाम से प्रकाशित हुईं | निराला की काव्यसजंना का उन्‍नत घरातल १९३६-३८ इस्वी तक ही बना रह सका | इसके बाद इनके चित की 'अंतःकेंद्रितः दशा लगभग समाप्त हो गई ओर इनकी रचना मनोदशा के बिखराव से विश्वंखल हो गड्ं । फल्ल यह हुआ कि इनकी रचनाओं में प्रघशीयता का वेग ही उज्कित हो गया | जैसा कि पहले कहा जा चुका है, “अऋनामिफा', 'एरिमल?, 'गीतिका' ओर 'तुलसीदास' निराला फो ऐसी कृतियाँ हैं, जिनकी रचना छायावादो काव्यकाल में हुई हैं | छायावादी रचनाकाल के अंतर्गत आनेवाले निराला के संपूर्ण काव्य का तात्विक प्रतिनिधित्व इनको तीन सचनाएं करती हैं - तुलसीदास”, 'राम की शक्तिपूजा' तथा सरोबस्‍्मृति । निराला की ये तीन रचनाएँ क्रमश: भक्ति, शक्ति तथा व्यथा के तत्वों का फाव्यात्मक रूपायन हैं। वस्तुतः मक्ति, शक्ति तथा व्यथा के इन्हीं तीन विशद आयामों से निराला का वह त्रिकोशात्मक व्यक्तित्व निर्मित हुआ था, जिसमें समयानुसार अद्वैतवाद, शक्तिवाद और अहंवाद की तरंगें उठा करती थीं । इस प्रसंग में यह भी स्मरणीय है कि मुख्यतः अद्वेतवादी होने के कारण निराला की प्रायः सभी उत्कृष्ट फविताओं में दाशंभिक संबोधनों की प्रचुरता है | छायावादी कवियों के बीच निराला को सबसे गअधिफ विरोध ओर खरप्रखर ग्रालोचना का सामना करना पड़ा था। निराला का यह विरोध केवल साहित्यिक धरातल पर ही नहीं था, बल्कि जीवन के व्यावहारिक धरातल पर भी प्रखर बनकर आया था | इसी ट्विविष विरोध के कारण निराला को जीवन के कठोर यथाथ का सामना अधिक करना पड़ा | इसलिये अन्य छायावादियों की अपेक्षा ये धसाइकास्थेनिक' (59८880०77८) कम थे। सचमुच, निरंतर विरोध ओर संघर्ष के कारण इनके पास वह कोरी मनोदशा नहीं थी, जिसमें 'यथाथबोघ का अभाव! रहता है | निराला को अपने साहित्यिक ज॑वन में इसलिये भी चतुदिक विरोध का * शायद, इसी कारणा पंत ने लिखा है कि 'निराला का व्यक्तित्व योगशभ्रष्ट कवि का व्यक्तित्व था ।-छायावाद : पुनमूल्यांकन, पंत, प्रथम संस्करण, टष्ट ७० * धग्रतामिका! में संग्रहीत निराला की श्रात्मकथात्मक कविताएँ इसे प्रमाणित करती हैं । रा ०० रही | भाग १० ] प्रसुख कवि : अन्य कवि. १६७ सामना फरना पड़ा कि इन्होंने छायावाद के श्रग्मणी कवि के रूप में अनेक परपरा- भंजक कविताएँ लिखीं | फह्दा जाता है किसी भी साहित्य के प्रत्येक नए 'वाद' के प्रवतंक फवि को ऐसी परंपराभ॑जक कविताएं लिखनो पड़ती हैं, फारणं, हर नया “बादः अपने पूर्ववर्ती 'बाद' से शक्ति ग्रहण करके भी उसकी राखसे पैदा होता है। इसीलिये दीगेल ने साहित्यक्षेत्र में उठनेवाले नए “वादों को तुलना इजिप्ट की कथाओं में प्राप्त 'फिनिक्स” नामक पक्षी के साथ की है। हेरोदोतस द्वारा उल्लिखित मिख के पोराशिक शअ्राख्यानों में यह कथा मिलती है कि जब फोई फिनिक्स पक्षों सर्जनचेतना से विहल होता है, तब उसके तन में ग्राग लग जाती है, वह जलकर भस्म हो जाता है. और तब उसकी अवशिष्ट राख से ही नया फिनिक्स पद्ची पैदा होता है | इसी तरह साहित्य में भी जब नई सजन- प्रेरणा जगती है, तब पुराने ध्वार्दों' के तन में आग लग जाती है ओर उसकी राख से ही नया ध्वादः बनता है। फलस्वरूप नए “वाद? के प्रवर्तक काँवेयों को प्रचुर विरोध का सामना करना पड़ता है। निराला इसी साधारण सत्य के एक ग्रसाधारणु उदाहरण रहे है | 'अ्रनामिका' में संग्होत पमन्र के प्रति! शीषक कविता में व्यक्त व्यंग्य और श्राक्रोश इस दृष्टि से ध्यातव्य हैं। सचमच, ऐसी दहृढ़ता और आक्रामक ब्यंग्य के द्वारा निराला ने अपने की छायावादविरोधी परातनप्रिय प्रचंड आलोचकों के बीच विरकर भी छायावाद का अजेयः अभिमन्यु सिद्ध किया था। इतने विरोधों का सामना निराला इसलिये स्फीतवचू होकर कर सके फि इनमें आत्मविश्वास बहुत था। अपने वेयक्तिक जीवन की प्रच्छन्‍न रूप से प्रति- बिंबित करते हुए 'वन-वेला' शीर्षक कविता में इन्होंने यही बतलाया है कि प्रतिमा वनवेलां की तरह उपेक्षित स्थानों में पैदा होती है और एकांत में पत्ती है। जनरबव के बीच विज्ञापन चाइनेवाले लोग प्रतिभाशाली नहीं होते, वे प्रतिभा की आँखों की किरकिरी होते हैं। लेकिन तत्कालीन साहित्यिक समाज की ऐसो विडंबना थी कि प्रतिमा के धनी होकर भी निराला उपेक्षित थे, जबकि अ्रनेक द्वितीय तृतीय कोटि के कवि मस्तूल पर थे | निराला ने तत्कालीन साहित्यिक समाज फीो इस असंतुलित न्‍्यायभावना पर व्यंग्य करते हुए “हिंदी के सुमनों के प्रति पत्र' शीर्षक कविता में लिखा है-- में जीणु-साज-बहु-छिंद्र आज, तुम सुदल सुरंग सुबास सुमन में हूँ केवल पदतल-आसन, तुम सहज विराजे महाराज | ईष्या कुछ नहीं मुझे, यद्यपि में ही बसंत का अग्रदूत, १६ हिंदी साहिध्य का बृंहत्‌ इतिहास ब्राह्यएणुसमाज में ज्यों अ्रछूत मैं रहा आज यदि पाश्वच्छुवि ।' इस फविता के व्यंग्यपरक, किंतु आत्मनिष्ठा से भरे हुए भावनिवेदन का साम्य रवींद्रनाथ ठाकुर की इन दो कविताओं के साथ है--निंदुकेर प्रति निवेदन और “श्रीमान दामू वसु एवं चामू वसु संपादक समीपेषु” |” अंतिम कविता, संभवतः “बंगवासी? पत्रिका में संपादक को लक्ष्य कर लिखी गई थी । निराला का जीवनसंघर्ष, साहित्यिक ओर पारिवारिक धरातल पर, बहुत हृदयविदारक था । 'सरोजस्मृति! शीर्षक कविता में अपने जीवनसंघर्ष फो संकेतित करते हुए इन्होंने लिखा है-- एक साथ जब शत घात घूर्श आते थे मुझ पर ठुले तुर्ण, देखता रहा में खड़ा अ्पल वह शरत्षेप, वह रणकोशल | इसी तरह इन्होंने अन्यत्र भी जीवनसंघर्ष के कद नेरतय को व्यक्त करनेवाली ऐसी पंक्तियाँ लिखी ईं-- मुसीबत में कटे हैं दिन मुसीबत में कटी रातें, चली हैं चाँद सूरज से निरंतर राहु को घाते । अथवा चोट खाकर राह चलते होश के भी होश छूठे। हाथ जो पाथेय थें। ठग ठाकुरों ने रात लूटे, छूंठ. सकता जा रहा है आरा रहा है काल देखो। १ झनामिका, निराला; द्वितीय संस्करण, पृष्ठ ११४ | ९ झानसी, रवींद्रनाथ ठाकुर, १८६० ई० । - ३ कड़ि ओ कोमल, रवबींद्रताथ ठाकुर, १८८६ ई०। ४ उर्दू के प्रसिद्ध शायर नादिर ने भी अपनी बेटी की मृत्यु पर एक शेर लिखा है, जो 'अमीरूल्लोगात' में संगृहीत हैं-- अ्रब आया याद ए आरामजाँ इस नामुरादी में | कफत देना तुम्हें भूले थे इम भश्रसबाबेशादी में । 8 4 [ भाग १० ] क्‍ प्रमुख कवि ; अ्रन्य कवि १६९ उपयुद्धृत पंक्तियों से यह स्पष्ट है कि निराला फो जीवन भर अ्रविरल संघर्ष करना पड़ा और इन्हें नाना प्रकार के दुःख लगातार भेलने पड़े। 'सरोल- _ स्मृति! के अंत में इन्होंने ठीक ही लिखा है--दुःख ही जीवन की कथा रही । जिस तरह “उत्तररामचरित! में राम ने स्वर्य स्वीकार किया है कि दुःख का अनुभव _ करने के लिये ही उन्हें चेतना मिली है--५दुःख संवेदनायेव रामे चेतन्यमाहितम', उसी तरह निराला ने भी, मानो, स्वीकार फिया है फि केवल दुःख भोगने के लिये इन्हें जीवन मिला था| किंतु; जीवनसंघर्ष की इस चोट और पराजय को इन्होंने हिंदी का स्नेहो पहार समझकर सगरव स्वीकार किया है-.. सोचा है नत हो बार बार-- यह हिंदी का स्नेहोपहार, यह नहीं हार मेरी, भास्वर यह रत्नहार-- लोफोचर वर [”! निराला फी कुछ फविताओं, विशेषकर अशिमा” की रचनाओ्रों फो पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि निराला १९४०-४२ ई० के आसपास अपने जीवन में पराजयबोध अधिक महसूस करने लगे थे। “अशिमा? में संग्रहीत १९४० ६० फी एक फविता इस प्रकार है, जिसमें कवि का तीत्र पराजयबोध व्यक्त हुआ है-- | में अकेला; देखता हूँ, आ रही मेरे दिवस की सांध्य वेला। पके आधे बाल मेरे, हुए निष्प्रम गाल मेरे, चाल मेरी मंद होती आ रही हट रहा मेला । जानता हूँ, नदी भरने, - जो मुझे थे पार करने, फर चुका हूँ, हँस रहा यह देख, फोई नहीं मेला ।* . * अनामिका, द्वितीय संस्करण, सरोजस्मृति, पृष्ठ ११६ | . * झणिमा, निराला, १६४७३, पृष्ठ २० | १०-२२ १७० हिंदी साहित्य का ब्रहव इतिहास इसी तरह घनतम पराजयबोध को व्यक्त करनेवाली एक और कविता अशिमा? में संग्रहीत है, जो १६४२ ई० में रवी गई है। इस कविता की प्रारंभिक पंक्तियाँ हैं-- स्नेह निर्मर बह गया है। रेत ज्यों तन रह गया है। आम फी यह डाल जो सूखी दिखी, फह रही है--'अब यहाँ पिक या शिखी नहीं आते, पैक्ति में वह हूँ लिखी नहीं जिसका श्रथे----- जीवन दह गया है।” किंतु, इस श्रावतंक पराजयत्रोध के बावजूद 'राम की शक्तिपूजा' के राम की तरह कवि का एक श्रोर मन रहा?, जो इतने संघर्षा ओर असफलताओं के बीच न थका, न दीन बना। संघर्ष और पराजय के हल्लाइल फो शंकर की. तरह पीकर कवि ने अ्रंत में यह घोषणा कर दी-- मरणु को जिसने बरा है उसी ने जीवन भरा है। प्रा भी उसकी. उसी के अंक सत्य ग्शोधरा है। साहित्यिक धरातल पर निराला का इसलिये पुरणोर विरोध हुआ फि मे पुरानी लीक के अनुगंता कवि नहीं थे। फलस्वरूप, सभी प्रुरातनपंथी श्राल्ीचक इनके प्रत्येक फाव्योक्चार पर एकलव्य का शरह्वेप करनां चाहते ये । संभवत नवीनता या मोलिकता के मात्राधिक्य ने ही निराला के साहित्यिक संघष को तीव्रतर फर दिया । जब छायावादी काव्यांदोलन प्रारंभ हुआ, तब कई दिशाओं * ग्रस्मिमा, निराला, १६४३, पृष्ठ ५५ । * उपरिवत, पृष्ठ प्८। * छायावादी काव्यांदोलन का विरोध कई दिशाओं से बहुत दिनों तक होता रहा | उदाहरण के लिये, “उच्छु खल' नामक एक सघुपत्रिका की १४३८-३६ ईस्थी की फाइल मेँ छायावाद के चतुर्दिक विरोध की बानगी देखो जा सकती है। प्रचरज है कि प्राचार्य महावीरप्रसाद हदिवेदी ही 'सुकवि किकर” के नाम से छायावाद के विरोध में नहीं उतरे, बल्कि भ्राचायं शुक्ल तक आलो- न्ञक की बुर्सी से ज्ीचे उत्तर कविता के माध्यम से जी छा्रावाद का )] .. असुख कवि ; अन्य कवि... हल टैर उस गोल में शामिल्र कवियों फा विरोध छुआ । फिंतु, सबसे अ्रधिक निराला का | | ज्रेका ही निकाली गई थी | इसका पहला अंक संवत्‌ १६६६ फी वसंत ( > पवसर पर निकला था और इसके मुखपृष्ठ पर यह घोषणा फी गई थी कि दे छायावाद-प्रतिवाद-परिषद्‌, फाशी का मासिक मुखपत्र है | इस पत्र के ः सात अंकों से यही पता चलता है कि इसके प्रत्येक अंक के मुखपृष्ठ .._ काशक का नाम ( छायावाद-प्रतिवाद-परिषद्‌, काशी ) दिया रहता था . नहीं । छायावाद-प्रतिबाद-परिषद्‌ वाले छायावाद फो हिंदी साहित्य थी में पनाला' कहते थे। उक्त पत्रिका के प्रथम श्रंक में ही इसके श्रनाम ॥ यह मत व्यक्त किया थां कि छायावादी कविता 'किकविता' है, छायावादी है वि हैं ओर छायावाद के प्रशंसक समालोचफ “किंसमालोचक' हैं। इसी | श्री १०८ श्री छायागुरु जी महाराज ( एक छुत्मनाम ) द्वारा संकलित . यावादमंत्रानुष्ठानम” दिया गया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि चौथे ; दकियानूस लोग फिस तरह छायावाद का मखॉल उड़ाते थे। इसी _ वेरोध करने लगे | आचाय शुक्ल ने 'पाषंड परिच्छेद” शीर्षक एक कविता #“ लखी, जिसमें इन्होंने छायावाद की रहस्यात्मक प्रवृत्तियों पर घनघोर व्यंग्य किया और तत्कालीन पाठकों को बतलाया कि वे छायावादी कवियों से बचें अन्यथा ये छायावादी कवि ढोर डंगर की तरह काव्य की फसल चर जाएँगे--- बाद कर देंगे | इस आशय को व्यक्त करते हुए शुक्ल जी ने उक्त कविता में लखा है--- हाँक दो, न घूम घुम खेती काव्य की चरे | शुक्ल जी की इस कविता का उत्तर पंडित मातादीन शुक्ल ने 'पाष॑ड प्रतिषेध' 'शीषक कविता में दिया था और छायावाद की रहस्यात्मक प्रवृत्ति के 4विरोधियाँ को अ्ररूप के प्रांगण में प्रसन्‍त पर्यटल करने का परामर्श दियाथा। अ्रथ छायावाद मंत्रानुष्ठातम्‌' इस प्रकार है -- |... 35 अ्रस्य श्री छायावाद महामंत्रस्य निरालापंती ऋषी, रबड़कुचेझ्ादीनि तानाविधानि छंदांसि, श्री महाजड़ता देवता, आह'”*बीज॑ भगवती महादेवी क्ति: प्रचार: कीलक मम भावुक कविपद प्राप्तये प्रगतिशीलतासिद्धयर्थजपे विनियोग; || | उ3त्‌ १६६६ विक्रम में छायावाद के विरोध में “छायावादः नाम फी एक १७३ | भी यही शु' नामक >->०.....चना कौ की खिल्ली ही विरोध $ अंतगत गी बभूव ।! नराला जी वीगई है। का दूसरा (वश्यकता ह हिंदी में पुराकवीनां हे पुरुष के ) वा ३-७४, न्‍ हु . [नाग १० | है प्रमुख कवि : झन्य कवि... २७२ अधिक किया गया था। उक्त पत्रिका के पाँच छह अंकों के विश्लेषण से भी यही तथ्य लिद्ध होता है। 'छायाबाद' पत्रिका के प्रथम अ्रंक में ही “दुरबीक्षण” नामक स्तंम के अंतर्गत निराला के तुलसीदास! की ध्वंसात्मक आलोचना फी गई है और प्रसंगानुसार छायावादी कविता के पारलौफिफ रहस्यवाद फी खिलली उड़ाई गईं है। पुनः “छायावाद! पत्रिका के दूसरे अंक में निराला फो ही विरोध का विशेष लक्ष्य बनाया गया है। इससे पूर्वोक्त दूर्वीदण स्तंभ के अ्रतगत व्रनामिफा' की समीद्धा इस शीर्षक से की गई दै--“ ग्रनामिकाइनथवती बभूव ।' पहले समीक्षफ ने “अनामिका' के नामकरण पर आज्षिप किया है; “निराला जी चाहे जो सोचें पर हमारे यहाँ तो झ्रनामिफा एक अ्रपवित्र उँगली मानी गईं दे । इसीलिये देवपितृ कार्यों में इसमें पवित्री पहनी जाती है।” समीक्षक का दूसरा व्यंग्य निराला की माषाशैली पर ह--'निरालः जी विभक्तियों की आवश्यकता बहुत कम समभते हैं । जैसे लिपियों में मुड़िया या सर्राफी है, उसी तरह हिंदी में आपकी अपनी भाषा ।' इन दो सस्ते आज्लेपों के बाद समीक्धक ने ' पुराकवीनां _३--पराहिकाष्ठा दुःखालुभूतेः सौल्येपि । छायावादीपन में सुख में भी दुःख के अनुभव की पराकाष्ठा रहती हैं । इ--मनोवाक्कार्ययोषिद्भाव: । तन, वाणी और मत से जनावापन का अनुभव करना छायावादित्व है । ४--बुद्धिरुप्णकरणं लेख कौशलम्‌ । बह लेखनकौशल, जिसके पढ़ने से पाठकों को बुद्धि रण हो जाय। ४---.पर्रलग कृत्रिम प्रेम पिपासा नतादो रचना | अपने लिंग से श्रत्य लिंग के ( पुरुष को स्‍त्री के और स्त्री को पुरुष के ) बनावटी प्रेम में बकबकाना छायावाद है । ६--बुद्वेः परतः प्रदर्शन कवित्वे नाम दाशनिकत्वम्‌ । झक्ल के बाहर की बात को दिखलाना छीयावाद में दा्शनिकता है । ७--मुख विनिर्गतम्‌जुकुटिल वाक्य कविता । मुँह से टेढ़ा सीधा जो निकले, वह कविता है । _ छायावाद पत्रिका, चैत्र वेशाख संवत्‌ १६६७ विक्रम, संख्या ३-४, पृष्ठ १२ । ; वछायावादः पत्रिका, अंक २) एऐष्ठ ३४ । छायावाद' पत्रिका, अंक २; पृष्ठ ३४ )। 2 १७४ हिंदी साहित्य का बूंहत्‌ इतिहास गणशनाग्रसंगे**'सार्थवती बभूव” की पेरोडी बनाकर निराला की सर्वश्रेष्ठ कृति अ्रनामिका” पर ऐसा नासमझक प्रहार फिया है--- किंपुस्तिकानां. गणना. प्रसंगे फनिष्ठिकाधिष्ठित पुस्तिकेयम | हा | हंत | तन्सयूनकृतेरमावात्‌--- अनामिफाइनथवती बभूव । स्पष्ट है कि समीक्षक का उद्द श्य गुण-दोष-विवेचन नशै, जान बूककर श्रालोच्य कवि का केवल विरोध करना है। यों, भाषा के संबंध में निराला ही नहीं; सभी छायावादी कवियों फी भाषा फी छीछालेदर करना उस समय खूब प्रचलित था। कारण) छायावादी काव्यमाषा परंपरागत इचिसंस्कार ( ट्रेडिशन आव टेस्ट ) से भिन्‍न एक नई प्रेषणीयता लेकर आई थी; जो पुराने स्वाद के प्र मी पाठकों के गले के नीचे सहजतापूर्वक नहीं उतर पाती थी। इतना ही नहीं, छायावादी फाव्यभाषा परंपरा से भिन्‍तन एक नए ढंग के 'पदवाक्य विवेक' को अपेद्या करती थी। इसीलिये छायावादी कवियों, विशेषकर निराला की फाव्यभाषा पर अधिकतर आलोचक सुँकलाया करते थे और यह कहफर अपना हाथ ऊपर रखना चाइते थे कि छायावादी भाषाशेली महाभाष्यकार पतंजलि द्वारा उदाह्मत 'दश दाडिमानि घडपूपा' की तरह साथक शर्ब्दों की परस्पर आकांक्षाहीन, अतः निर्थंक योजना है । छायावादी काव्यमाषा को (शब्दों का डंबराडंबर! फहनेवाले एक आलोचफ ? अनतामिका' शब्द का प्रयोग प्रसाद ने एक विशेष संदर्भ में इस प्रकार किया है--- 'पेरी अनामिका' संगिनि [--आश्राँसू, पृष्ठ ६९ | * १६२८ ई० के ग्रासपास छायावाद या बकवाद' श्रीर्षक निबंध मैं पंडित नरदेव दी शास्त्री वेदतीयथ ने लिखा था--धयहू छायावाद क्‍या है? परस्पर निरपेत्ष श्राकांज्ञाविरहित एक शब्दों का डबराष्बर | महाभाष्यकार पतंजलि ने एक संंदर हृष्टांत दिया है । वह यह हैं---दश दाडिमानि षड्पृपा: कुंडमजाजित पपलपिडा:---दस अ्रनार, छह पुए, एक कूंड़ा, एक श्रजाचम श्र मांस के गोले'---ये समस्त शब्द स्घतंत्र रूप से साथंक होने पर भी वाक्य में परस्पर श्राकांज्षञाविरहित होने के कारण इनकी एकवाक्यता नहीं की जा सकती---इसकिये कोरे बकवाद या प्रलाप की कोटि में श्रथवा उन्मत्तप्रक्लापित की कोटि में डाला जा सकता है। वर्चमान छायावाद “दश दाडिमानि [ भाग १० ] द प्रमुख कवि : अन्य कवि १७४ हर हर अस्पष्टता ओर घुँघलेपन को लक्ष्य करते हुए इस श्लोक का सहारा लया यद््‌गहीतमविज्ञातं निगदेनेव शब्दूयते । ग्रनग्नविव शुष्कैधो न तज्ज्वलति कई्डिचित्‌ | : स्पष्ट है कि छायावादी काव्यभाषा पद्धतिकाध्य' की भाषा से भिन्‍न थी और उसमें शब्दन्यास की परंपरास्वीकृत भंगिमा बदल दी गई थी । इसीलिये उसपर अस्पष्टता फा आरोप बेघढ़क लगाया जा रहा था |! छायादादी निकाय में निराला शब्दन्यास की पारंपरिक भंगिमा फो तोड़ने में सबसे आगे थे। इसी कारण तत्कालीन श्राज्लोचकों ने इनकी फविता फो प्रहेलिका या अन्य शब्द्चमत्कार्रों की तरह अधम फोटि का काव्य माना ओर शास्त्रीय धरातल पर यह आज्षेप किया कि निराज्षा की अमर्बादित विवज्ञा ने वक्ा ओर ओता अथवा बोद्धा के पारस्परिक संबंध फो विजझिछुन्न कर दिया है | इस प्रकार उस समय के आझालोचक निशला की भाषा में प्रेषणीयता फा सावंत्िक श्रभाव पाते थे | इसे हम इस फोडि के तरकाशीन आलोचफों का इश्दोष कह सकते हं। वस्तुतः निराला की कविताओं में प्रास शब्दविन्यास की नई भंगिमा फवि की मौलिकता का परिणाम थी, झिसे अ्रब लगभग सर्वसंमत छूप में स्वीकार किया चला रहा है | यों, उस सम्रग भी मुकुट्बर प्रडेय जेसे आलोचक थे, किन्होंने छायावादी कवियों के भाषा-छुंदुगत तथाकथित बेलीक प्रयोगों में समथ मौलिकता की मॉकी या पूर्वभाल्लक देखी थी। मुकुट्धर पडिय ने हिंदी में छायावाद' _ निबंधमाला के अ्रंत्गत “काव्यस्वातंत्रय/ की चर्चा करते हुए लिखा था, सम्यता साहित्य में रीतिग्रथों का पहाद् खड़ा कर देती है, बिससे मोलिफता का घडपूपा! इस शब्द समुदाय के सहश साथंक होने पर भी सवंथा निरर्थक सिद्ध हो रहा है |--मतवाला, ११ भगस्त, १९५८, पृ० ६-१० । | २ प्रसाद जी ने उचित ही कहा था कि छायावाद की तथाकथित श्रस्पष्टता का . कारण अतिक्रांतप्रसिद्ध व्यवहारसरणि” (कुंतक द्वारा प्रयुक्त) है। इस प्रकार प्रसाद ने छायावादी कविता की अस्पष्टता के कारणों पर गंभीरतापुर्वक बिचार किया था और उस समय प्रचलित इस सतही धारणा का खंडन किया था कि जो कुछ प्रस्पष्ट, छायामात्र हो, वास्तविकता का स्पर्श न हो, वही छायावाद है ।--काव्य झौर कला तथा श्न्य निबंध, चतुर्थ संस्करण, पृष्ठ १९२७-२८ । १७६ द द हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास द्वार रुक जाता है। मौलिकता का अभाव उस व्यक्तित्व का बाधक है, जो कवि के लिये अत्यंत आवश्यक है। बिना व्यक्तित्व दिखलाए। कविप्रतिपत्ति किसी को नहीं मिल सकती | वह व्यक्तित्व चाहे भाव में हो, भाषा में हो, छुंद में हो या प्रकाशनरीति में हो, पर कविता में हो जरूर | जिसकी कविता में व्यक्तित्व नहीं, उसे कवि नहीं, अनुकर ण॒कारी कहना चाहिए |” किंतु उस समय मुकुण्धर पांडेय जैसे पूर्वाग्रहमुक्त और मौलिकता के पारखी श्रालोचक बहुत कम थे, जो निराला की कविता या समग्र छायावादी कविता फी बारीकियों और नवीनताश्ों को सहानभूति- पूवक समझने की चेष्टा कर पाते। फिर भी समथकों की न्‍्यून संख्या और विरो- प्रियों की बड़ी जमात निराला के आत्मविश्वास को नहीं हिला सकी । ये पूरी निष्ठा के साथ श्रपनी काव्यसाधना में संलग्न रहे श्रोर रबींद्रनाथ ठाकुर की इन पंक्तियों को मानो चरितार्थ करते रहे--- अगपनार बले चलिते इृद्बे श्रापनार पथ फरे। साहित्यिक संघर्ष की दशा से गुजरने के बाद. निराला को कविजीवन के उए राध में श्रच्छी ख्याति मिली। तब, देश में कौन कह्दे, विदेशों में भी निराला की चर्चा होने लगी। १९५७ ई० के 'लंदन टाइम्त' के इंडियन लिटरेचर सप्लि- मेंट' ओर 'सोवियत लियरेचर' में प्रकाशित रूसी लेखक केलीरोब के लेख से ही पता चल्लता है कि निराला ने अपने फविजीवन की अ्रवसानबेला में ग्ंतर- राष्ट्रीय ख्याति श्रजित कर ली थी। रूसी भारतविद्याविद्‌ एवगेनी चेलीशेव ने भी श्राधुनिक हिंदी काव्य पर लिखित अपने निबंध में निराला फी विशेष सराहना की है । इसमें संदेह नहीं कि निराला ने छायावादी कविता के श्ोजपक्ष का प्रतिनिधित्व और नेतृत्व फिया। छायावादी काव्यधारा में जो थोड़ी बहुत शक्ति! की झलक थी, निराला उसके मूर्तिमान्‌ प्रतीक थें। इसलिये यह कहना उचित है कि निराला ने ही छायावादी कविता की स्त्रेण मधुरता में शोज का संचार किया | संभवतः निराला के बिना 'छायावाद' हिंदी साहित्य फा कन्याराशि काव्य बनफ्र ही रह जाता। दूसरी बात यह है कि छायावादी कविता को जीवन की निफकथ्ता देने में निराला का ही सर्वाधिक योग रहा। निराला फी इस विशेष भूमिका ने छायावबादी कविता पर कल्पनाविहार और स्वप्निलता के आरोप का बहुत दूर तक ! श्रीशारदा, वष १, खंड १, श्रावरा शुक्ल प्रतिपदा, १ ९७७, १६ जुलाई, १६२०, संख्या ५, पु० २७५। शममंकांननमडघसलटल: “कर: एप टए कल $748 78 :2. आंत कं पईक घ2हरपरछलपस कपल ! >] भाग है० _ “अमुंख कवि : अन्य कवि १७७ परिहार किया | तीसरी बात यह है कि निराला ने मुक्त छुद और मुक्त गीत के सजन के द्वारा हिंदी. रोमांटिक काव्यश सत्र और छायावादी छुंोविधान को एक नई दिशा दी | निराला द्वारा प्रवर्तित मुक्‍्तछुंद का संबंध वरशबृच से है ओर यह अंत्यानुप्रासहीन होता है; जैसे, 'जुही की कल्ली! । इसे गाया नहीं जा सकता। दूसरी ओर '्मुक्तगीत” का संबंध मात्रावत्त से है ओर यह असमान लड़ियों में भी अंत्यानुप्रासयुक्त रहता है। इसलिये इसे गाया जा सकता है । जैसे, ध्वादल राग? शीषक रचना | ऐसा प्रतीत होता है कि निराला को मुक्तछुंद या स्वच्छुंद छुंदों फी रचना की प्र रणा बंगला छुंदों, विशेषकर रवींद्र के अकरमात्रिक संगीत के प्रसार एवं शब्द-चयन-बोध से मिली है । निराला का मक्‍तछुंद, जिसमें फविच छुंद के सहश नाद-बृत्त-संपदा रहती है, हिंदी के तथाकथित भिन्‍न तुककांत या अंग्र जी के “लैंक वस? से स्वंथा भिन्‍न है; क्योंकि भिन्‍ने तुकांत में तुक फी भिन्‍नता तो रहती है, परंतु उसमें गण, मात्रा अथवा वर्ण का फोई न फोई बंधन अवश्य रहता है। किंतु, आदर्श मुक्तछुंद में गण, सात्रा अथवा वर्ण का कोई बंधन नहीं रहता है। इस तरह निराला ने नियमराहित्य” को ही छुंदों कौ वास्तविक म॒क्ति के रूप में स्वीकार फिया है ओर हिंदी में प्रचलित भिन्नत॒कांत छुँद्ों फो स्वच्छुंद छुंद या मुक्तछुंद से सर्वथा भिन्न माना है। इनकी दृष्टि में मुक्तछुंद वही है, जो छुंदों की भूमि में रहफर भी मक्‍त हो | निराला के इस म॒ुक्‍्तछुंद या अमिन्राक्षर छुंद पर तत्कालीन पुरानी रुचि के आलोचकों ने भीषण आक्ररश किया था, जिसका उत्तर निराला ने निबंधों के अतिरिक्त अपनी व्यंग्य कविताओं में भी दिया है। जैसे, 'मित्र के प्रति! शीषक व्यंग्य कविता में इन्होंने मित्रों ( पुराने आलोचकों ) से प्राचीन काव्यसलर और नवीन काव्यसर ( छायावादी काव्य ) फी तुलना करते हुए उन्हीं मित्रों फी बात को दुहरा कर कहा है-- सत्य. बंघु, सत्य; वहाँ नहीं अर बर ; नहीं वहाँ भेक, वहाँ नहीं ठर टर। मतलब यह कि पराने आलोचकों के अ्रनुसार छायावादो कविता के सर में केवल २ प्राचीन काव्य का सर | १०-४२ ३ 2 न ह भर नामिका, निराला, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ १२-१३ । या श्छ्ण .... हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास अर बर्र और भेकों की टर्र टर्र है। यहाँ अर्र बर ओर टर टर्र से छुंदरंग तथा अमित्राक्षरों से उत्पन्न तथाफथित 'हार्श साउंड्स” या श्रुतिदुष्ट दोष की ओर संकेत है। पुरातनप्रिय आ्ालोचर्कों फो मुक्त छंदरीति और अभिन्राक्षुर पद्धति से , बनाई गई शब्दशब्या उसी प्रकार भ्रष्ट और अपाक्तेय लगती थी, जैसे कोई नेकलेस को पाँव में ओर एऐक्लेट को गले में पहन ले। किंतु; इन आज्षेपों का सदय भाव से उचर देते हुए निराला ने छायावादी काव्यवेमव ओर स्वच्छुंद छुंद- सोष्ठव का प्रकारांतर संकेत किया है तथा अपने मिन्नों (|) पर गहरा व्यंग्य किया है -- बही जी सुवास मंद मधुर - भार - भरण - छुंद मिली नहीं तुम्हें, बंद रहे, बंधु। द्वार ? कुहरित भी पंचम स्वर, रहे बंद कर्ण कुहर, मन पर प्राचीन मुहर, हृदय पर शिला |! और, तब निराला ने अ्रमिन्राक्षर छुंदों के वेशिष्टय को व्यंग्यात्मक ढंग से बतलाते हुए. लिखा है-- सोचो तो कया थी वह भावना पवित्र, बंधा जहाँ मेद भूल मित्र से अमित्र | सच पूछिए तो म॒क्तछंद ओर अ्रमित्राह्षर छुंदों को लेकर निराला ने हिंदी साहित्य में एक प्रकार से पहलकदमी की है। फारण, विगत पाँच छह दशकों से मुक्तछुंद द्वी संपू विश्वसाहित्य की कविता में सर्वाधिक प्रचलित छुंदपद्धति है । इस प्रसंग में यह ध्यातव्य है कि मुक्तछुंद की आदर्श स्थिति निष्प्राण पद्मतंत्र ( वस मेकैनिज्म ) से मुक्तिमात्र नहीं है। आदर्श मुक्तछुंद की काव्यरचना रूढ़ पद्मतंत्र से मुक्त रहने के साथ ही स्वच्छुंद, अपर॑परित श्र्थात्‌ नवीन विषयवस्तु के 5, [ भाग १० ] प्रमुख कवि : अन्य कवि. १७६ पर निर्भर रहती है। इस प्रकार छुंदोविधानगत मुक्तता ओर विषयगत स्वच्छुंदता का समन्वय वास्तविक मुक्तछुंद की पहली अनिवायंता है। द निराला ने '्रगब्म प्रेम” शीर्षक कविता में भी अपने छंदसिद्धांत को अ्रभिव्यक्त किया है। इन्होंने कविताकामिनी को संबोधित करते हुए. कहा है-- अधविकच इस हृदयकमल में आ तू प्रिये छोड़कर बंधनमय छुंदों की छोटी राह ! गजगामिनि ! वह पथ तेरा संकीरणों, कंटफाकीण | किंतु छुंदबंधन के उल्लंघन से यह न समझना चाहिए कि निराला काव्यसंगीत के प्रति उदासीन ये | इनकी अश्रनेक कविताओं और भूमिका से यह सिद्ध होता है कि ये पूर्णतः: संगीतसचेत कवि थे | तमी तो इन्होंने अचंना' की 'स्वीयोक्ति? में ब्रजभाषा की तुलना में खड़ी बोली के बदले हुए नवीन संगीत को चर्चा को है आर खड़ी बोली के पाठ का गले से सफलतापूबक न उतर सकने का कारण खड़ी बोली के विशिष्ट संगीत फो माना है। इसो समृद्ध संगीतचेतना के कारण निराला की कई कविताओं में नादप्रधान शब्दसंगीत और व्यंजनाशित मावतंगीत का सुदर संयोग मिलता है। जसे-- मोन रही हार |! प्रिय पथ पर चलती सब कहते शुंगार ! फकशणु फणु कर कंकणु, प्रिय किए किए. खा कफिकिणी, रणुन रणन नूपुर, उर लाज) लॉट | रंकिणी; ओर मुखर पायल स्वर करें बार बार, प्रिय पथ पर चलती, सब कहते श्ंगार । इस कविता में नादप्रघान शब्द्ंगीत ओर व्यंजनाश्रित मावसंगीत का सुंदर समायोजन है| निराला के इस गीत में न्यस्त मुखर शब्दघ॑गीत की तुलना चंद्रक के इस श्लोक (जिसे छेमेंद्र ने 'कविक्ंठामरण? में निर्गुण काव्य के नमूने की तरह उद्धृत किया है ) के साथ की जा सकती है-- स्तनों सुपीनी कठिनों ठिनीं ठिनी कटिविंशाला रमसा भसा भसा। मुखं च चंद्रप्रतिम॑ तिम॑ ति्म अहो सुरूपा तरणी रुणी रुणी ॥ * झ्नामिका, निराला; द्वितीय संस्करण, पृष्ठ ३७ । £ द० ड़ हिंदी साहित्य का बहत्‌ इतिहास किंतु, अर्थसंदोह की दृष्टि से निराला की उद्धृत पंक्तियाँ चंद्रक के इस निगुण श्लोक से उत्ह्ृष्ट हैं, क्योंकि निराला फा 'कश कण*'““*““किण किए! चंद्रक के “ठिनों ठिनों' भसा भसा'तिमं॑ तिमं“'€रुणी रुणी! की तरह एकदम निरथंक नहीं है। शब्दमुखर रहने पर भी निराला के काव्यसंगीत की साथकता का कारण यह है कि इन्हें संगीतज्ञान के साथ ही कविता और संगीत के पार्थक्य का भी ज्ञान था। रींद्र-कविता-कानन” में इन्होंने लिखा है कि शब्दशिब्पी संगोतशिल्पियों की नकल न करें तो बहुत श्रच्छा हो | कविता भावात्मक शब्दों की ध्वनि है, अतएब उसकी अ्र्थव्यंजना के लिये भावपूर्वक साधारणतया पढ़ना भी ठीक है, किसी अच्छी कविता को रागिनी में भरकर स्वर में माँजने की चेश फरके उसके सोंदर्य फो बिगाड़ देना अच्छी बात नहीं |! जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है, निराला ने छायावादी कविता के तालाश्रित नवीन संगीत की सृष्टि के लिये अग्रेसर कार्य किया | तत्वतः मुक्तछु॑द इसी नवीन संगोत का वाहक बनकर श्राया | मुक्तछंद के निपुण फोशल की दृष्टि से निराला की कृतियों के बीच 'परिमल? ( १६३० ई० ) का अत्यधिक महत्व है। 'परिमल? की भूमिका में ही इन्होंने मुक्तछंद के पक्ष में यह दाशनिक तक दिया है- मनुष्यों को मुक्ति की तरह कविता की भी सुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कर्मा के बंधन से छुटकारा पाना है ओर कविता को मुक्ति छुंदों के शासन से अलग ध्ख हो जाना?!। इस मान्यता की संपुष्टि में इन्होंने कहा है कि “्मुक्तकाव्य कमी साहित्य के लिये अ्रनर्थकारी नहीं होता, प्रत्युत उससे साहित्य में एक प्रकार की स्वाघीन चेतना फैलती है, ज्ञो साहित्य के कल्याण की हो मूल होती है ।” इतना ही नहीं, इनकी दृष्टि में स्वच्छुंद छुंद प्राचोन काल स हां चला आ रहा है। इसलिये इसका विरोध दृष्टि को संकीणता का परिचायक है । गायत्री मंत्र ओर वेद की कई ऋचाओं में हम छुंद की स्वच्छुंदता पाते है, जहाँ गणात्मक पद्धति या हस्व-दीघ- क्रम का फोई सचेष्ट निर्वाह नहीं मिलता है। परवर्ती फाल्ल की बढ़ती छुँदप्रियता ओर बंधनों के अमोध स्वीकरण का कारण बतलाते हुए निराला ने लिखा हे कि जनरूचि में ज्यों ज्यों चित्रप्रयता बढ़ती गई है; साहित्य में स्वच्छुंदता फी जगह * रवींद्रकविता कानन; निराला, ह्वितीय परिवर्वित संस्करण, वाराणाप्ती, पृष्ठ १४० |... 'रवींद्रकविता-कानन” की रचना निराला ने १९१६-१७ ई० के आसपास प्रारंग कर दी थी। हालाँकि इसका प्रकाशन कई साल बाद हुआ । १६१६ ई०» में हीं इनका हिंदी बँगला का तुलनात्मक व्याकरण सरस्वती में प्रकाशित हुआ था । द पलफंडररकंगराव्णमउवानधपलबदाप ::एसपपापमल्यपाएवरता 42 एपप + पादप ाधयकइकप प5- 7-5 रू पु | भाग १० | अंसुख कवि : अन्य कवि. _ १८१ नियंत्रण तथा अनुशासन प्रबल होता गया है।' इस प्रकार निरालोप्ने इृद्धिगत चित्रप्रियता को छुंद्विधान का कारण माना है। 5 वस्तुत; निराला छायावाद युग की नवीन संगीतचेतना के प्रतिनिधि प्रयोक्‍ हैं। बात यह हैं कि ये केवल साधारण संगीतचेतना एवं तज्जनित प्रयोगम॑गिमा से ही अ्रवगत नहीं थे, बह्कि इन्हें ध्वनि ओर संगीत के दर्शन का ज्ञान था। तभी तो इन्होंने नादबहावाद को संकंतित करते हुए लिखा है-- स्वर के सुमेद्द से भर झार कर आए हैं शब्दों के शीकर कलरव के ग्ोत सरल शत श॒त बहते हैं जिस नंद में श्रविर्त नाद फो उसी वीणा से हत होकर, मंझत हो जीवन वर। ( बेला ) गीतिका” की भूमिका में भी निराला ने संगीत से संबद्ध जो वक्तव्य दिया है और उसमें जिस अधिकार के ताथ अपनी रचनाओ्रों को उदाह्ृत करते हुए धंमार, रूपक, रपताल, चोताल, तीन ताल, दादरा इत्यादि तालों की विवेचना की हैं; वह इनकी स्वच्छुंद ओर शास्त्रीय संगीद्चेतना हा समर्थ द्योतक है। इसी समथ संगीत- चेतना के फारणु निराला खड़ीबोली के शब्द्संगीत की विशिष्टता से परिचित और उसकी रक्षा के लिये सचेष्ट थे। ब्रज़माषा के संदर्भ में खड़ीबोली के शब्दसंगीत की चर्चा करते हुए इन्होंने पअ्चना? की भूमिका में लिखा है, “बजमभाषासंगीत में 'णा' और 'ना' के मिन्न उच्चारण नहीं । खड़ीबोली में इसकी भी विपुलता है। “व अरशशंव की तरणी तरुणा' पद्म के 'णा को “न! उच्चरित फरने पर खड्टीबोली फा . सिंगार बिगड़ जायगा, मगर बजमाषा का संगीतमय रूप खड़ा हो जायगा। चूँकि खड़ीबोली देश भर को साहित्यिक भाषा बन चुको है, इसलिये ब्रजमाषानुकूलता की पूर्वी उच्चारशपद्धति ही ग्राह्म नहीं ।” कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि क्‍ हक . निराला ने क्षेमेंद्र की इस उक्ति--गौतेनात्माघधिवासनम? को अपनी गीतिरचनाओ्रों के द्वारा शत-प्रति-शत चरिताथ किया है । 8.0 राम की शक्तिपूजा' शक्ति एवं पौंझ्ष के वेतालिक निराला की सर्वोत्किष्ठ कविता है। सचपघुच, ऐसी कविता की रचना, भाषा और मनीषा के दुल्लभ संयोग से ही तंभत्र हो पाती है। आधुनिक हिंदो साहित्य में शक्ति से संबद्ध काव्य को कोई तगड़ी परंपरा नहीं रही हैं। इस संदर्भ में बालमुकुंद गुप्त की 'दुर्गास्तुति” और 'शारदीय पूजा", मैथिलीशरण गुप्त की “शक्ति', कुँवर हिम्मतर्सिषह्ठ रचित स्र्ी >> हा लिन ननननीलन नल नत+ ५................... १६१ हे ः हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास नं महिषासुरकृध्' रामानंद तिवारी की 'पाव॑ती” ओर कवि अनूपकृत “शर्वानी' के होलाम गिनाए जा सकते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि हिंदी में शाक्‍्त साहित्य कप परिमाण बहुत बड़ा नहीं है ओर जो है, उसका अधिकांश लोकसाहित्य के “ अंतर्गत है । शक्तिकाव्य की विपुलता बँगला साहित्य में मिलती है। बँगला साहित्य में शाक्तगीतों फो 'श्रागमनी”ः भी कहा जाता है, जो “विजयागीत' के नाम से भी गाए जाते हैं। रजनीकांत सेन के आगमनी” गीत और रामप्रसाद कवि के शाक्तगीत बँगला-शक्ति-साहित्य में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं ।* आधुनिक हिंदी साहित्य में जो अल्पपरिधि शक्तिकाव्य मिलता है, उससें निराला की 'राम की शक्तिपूजा” सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।यों, निराला की आवाहन?< शीर्षक फविता मी शक्ति से संबद्ध काव्य के अंतर्गत आती है, फितु इसमें 'राम की शक्तिपूजाः जैसा श्रोदात्य या फाव्यकला का प्रकृष नहीं है आवाहन! शीष॑क कविता निश्चय ही 'राम की शक्तिपूजा' के शक्तिदर्शन की पूव॑संकेतक कविता है और इसपर स्वामी विवेकानंद की 'नाचुक ताहाते श्यामा' शीषक कविता तथा श्री रामकृष्ण परमहंस द्वारा निर्दिष्ट ध्मातृभाव से साधना" का ९ इंडियन प्रेस, प्रेयाग से प्रकाशित | १ नयापुर, कीटा, राजस्थान से प्रकाशित | * द्रष्टव्य : बंगाली रेलिजस लिरिक्स! (शाक्त), द हेरिटेज आव इंडिया सीरीज, संपादक ई० जे० थोम्सन और ए० एम० स्पेंसर | ४ परिमल, निराला, प्रथमावृत्ति, पु० १२४। ५ द्रष्टव्य : श्री रामकृष्ण वचनामसृत, श्री महेंद्रवाथ गुप्त, अ्नुवादक, पंडित सुर्य- कांत त्रिपाठी निराला, राम#ंष्ण आ्ाश्रम, धंतोली, नागपुर--१, चतुर्थ संस्क- रण, 'मातृभाव से साधना” शीर्षक श्रध्याय | निराला ने (पंचवटी प्रसंग” के द्वितीय खंड में भी मातृभाव से शक्ति की आराधना का संकेत लक्ष्मण के माध्यम से उपस्थित किया है--- क्‍ क्‍ माता की चरणरेणु मेरी परम शक्ति है-- सारे ब्रह्मांड के जो गुल में विराजती हैं आदिशक्ति रूपी, शक्ति से जिनकी शक्तिशालियों में सत्ता है, माता हूँ मेरी वे। “परिमल, निराला, प्रथम संस्करण, गंगा पुस्तकमाला, लखनऊ, पु० २२१-२२२ | कि क्‍ है भाग १० ] ... प्रमुख कवि : अन्य कवि रैपरे . ग्रकारांतर प्रभाव है। इस कविता में निराला ने जिस 'श्यामा! का ग्रावाहन “किया है- हु है कर-मेखला मुंड-मालाओं से बन मन अभिरामा-- मल द एक बार बस और नाच तू श्यामा ! भेरवी भेरी तेरी मंफा तभी बजाएगी मझुृत्यु लड़ाएगी जब तु भसे पंजा; लेगी खंग ओर तू खप्पर; उसमें रुधिर भर्रूँगा माँ कक फ छ्छक छ कफ न] (कक एक बार बस और नाच तू श्यामा । वह तंत्रकारों की 'शक्ति! के अ्रभ्यर्थित रूप से साम्य रखती है--- शरार््ढां महामीमा घोरदंड्रां वरप्रदाम। हास्ययुक्तां त्रिनेत्राब्व फपालकतृफाकराम || मुक्तकेशीं लोलजिह्नां पिंती रुधिर मुखम्‌। चतुर्व्बाहुयुतां. देवीं वरामबकरां स्मरेत्‌ ॥ आवाहनः और राम की शक्तिपूजा'- दोनों पर बैँगला साहित्य का प्रभाव है | अटठारहवीं शताब्दी के बाद ब्गला साहित्य में शक्तिकाव्य का प्रभूत विकास हुआ है| अ्रत: निराला ऐसे कवि के लिये, जो बंगाल और बँगला के निकट संपक में रहे, बँगला शबक्तिकाव्य से प्रभावित ट्वोना सवथा स्वाभाविक है। 'राम फी शक्ति- पूजा! की कथायश्टि पर इत्तिवास रामायण के रामेर दुर्गोत्सव! शीर्षक अंश का गहरा प्रभाव है। यह दूसरी बात है कि निराला ने अपनी प्रतिभा, पांडित्व ओर कल्पनाशक्ति की मीनाकारी द्वारा उक्त प्रभाव फो मौलिकता का अभाव” नहीं बनने दिया है।* १ परिमल, प्रथमावृत्ति, पृ० १२७ । - श्री दासगुप्त ने “राम की शक्तिपूजा पर क्त्तिवास के प्रभाव को बतलाते हुए लिखा है---$त्तिवास ह॒इतेई विषयवस्तू ग्रहण करिलेक कवि इहार मध्ये, नवीन सरसतार सृष्टि करियाछेत /--भारतेर शक्तिसाधना झो शाक्त साहित्य; शशिभ्रूषण दासगुप्त; साहित्य संसद, आचार्य प्रफुल्लचंद्र रोड, कलकत्ता, प्रथम संस्करण, पृष्ठ १७४। १८४ .. हिंदी खाहित्य का इद्दत्‌ इतिहास हि | निश्चला ने राम फी शक्तिपूजा? में सीता के “ृध्वीतनया कुमारिका! पक कर स्वीकार किया है । इसे ही हम सौता का “्मूमिजा! रूप फह सकते हैं ।' रा ने 'प्ृथ्बीतनया' ( भूमिजा ) सीता को संकल्पत्रल ओर शक्तिताघना की > प्रेरणा का प्रतीक माना है। तभी तो सीता के स्मरण के बाद राम में शक्ति कामना का उदय होता है । शक्तिसाहित्य में इस तथ्य का पॉनःपुन्य कीत॑न किया गया है कि नारी ही शक्ति का मूल संस्थान है ओर शक्ति का एकमात्र रूप नारीरूप है। 'शक्तिसंग्मतंत्र! के ध्ताराखंड” में भी नारी को शक्ति का मूर्तिमान्‌ रूप माना गया है। इतहझा ही नहीं, पोरारणिक साहित्य* में शक्ति को * भारतीय साहित्य में सीता के अनेक रूप मिलते हैं--जनकात्मजा, रावणा- त्मजा, पद्मजा, रक्तजा, अग्विजा, दशरथात्मजा, इत्यादि । पौराणिक साहित्य में शक्ति का प्रचुर उल्लेख मिलता है। फर्कुहार का मत है कि दुर्गा का प्राचीनतम रूप महाभारत में उपलब्ध है। पौराशिक साहित्य, विशेषकर हरिवंशपुराण के श्रध्ययन से यह पता चलता है कि पौराणिक युग में शक्ति के दो रूप मान्य थे। शक्ति का प्रथम रूप कृष्ण की भगिनी एकानंशा और योगमाया में मिलता है तथा शक्ति का द्वितीय रूप शिव की सहचरी भवानी में | श्रीमद्भागवत में भी योगमाया को “'नारायणी शक्ति' के रूप में स्वीकार किया गया है श्ौर इंस शक्ति को दुर्गा? ध्चंडिका! इत्यादि विशेषणों द्वारा विभृषित किया गया है, कितु, इतना स्पष्ट है कि श्रीमद्‌- भागवत में योगमाया के साथ शिव की सहचरी के स्वरूप का समन्वय नहीं हुआ हैं--- दुर्गेति भद्रकालीति विजया वैष्णवीति च। कुमुदा, चंडिका, कृष्णा माधवी कन्यकेति च। माया नारायणी शानी शारदेत्यंबिकेति च। क्‍ इस प्रकार हरिवंशपुराण में ही दुर्गा अथवा शक्ति के समन्वित व्यक्तित्व का आदिरूप मिलता है। श्रत: यह कहा जा सकता है कि हरिवंशकाल में शक्ति का स्वरूप निश्चितप्राय हो गया था। तदनंतर, देवीभागवत, कालिका*« पुराण तथा मा्कडेयपुराण में शक्ति की- व्यापकता का निरंतर विकास मिलता है। सचमुच, हरिवंश का श्रार्यास्तव शक्ति के पौराशिक स्वरूप- विकास का प्रस्थान प्रस्तुत करता है। हरिवंशपुराणा में देवी के कई विशेषण बहुत ही रोचक और सार्थक हैं, जैसे--नारीणां पार्वती च त्वा पौराणीमषयो विद: ॥! यहाँ संभवत्त: देवी का पार्वती नाम इनके पर्वतनिवास की सूचना देता है तथा 'पौराणी' विशेषण देवी के इस स्वरूप की प्राचीनता की सु चना देता है। पलक हि [भाग १०] प्रमुख कवि : अन्य कवि श्यप्‌ जगत योनि के रूप में स्वीकार किया गया है। अतः सीतारूपिणी नारी के स्मरण से शक्तिकामना का उदय ओर सीता को पुनः प्राप्त करने के लिये शक्ति की साधना सहज स्वाभाविक है। इस प्रफार राम फी शक्तिपूजा” में सीता केवल प्रिया ही नहीं हैं। इसमें कवि ने शअ्रन्योक्ति या प्रतीकपद्धति पर सीता के स्मरण के माध्यम से शक्तिसिद्धि का पूर्वाभाव प्रस्तुत किया है । अतः 'राम की शक्ति- पूजा? में सीता की स्मृति मात्र छगार के उद्ब्ोध से नहीं आई हे, बल्कि वह शक्तिसाधना के पूर्वाभास का प्रतीक बनकर आई है। श्रर्थात्‌ जानकी की स्मृति शक्ति के अवतरण की पूर्वपीठिका प्रस्तुत करती हे । तभी तो सीता की याद आते ही इतोत्साह, श्रांत ओर कलांत राम में धनुर्भग के समय का पोरुष लोट आता हे; विश्वविजय की मावना बल्नवती हो उठती है और उन्हें अपने मंत्रपूत बाणों में नया विश्वास बन जाता हे-- सिहरा तन, क्षण भर भूला मन, लहरा समस्त, हरधनुरभंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त, फूथी स्मिति सीता-ध्यान-लीन राम के अधर, फिर विश्व-विजय-मावना हृदय में आई भर, वे आए याद दिव्य शर अ्रगशित मंत्रपूत; फड़का पर नम को उड़े सकल ज्यों देवदूत |! इस तरह सीता के स्मरण मात्र से तरस्त राम के शंकाकल हृदय में एक नई शक्ति का उदय हो जाता है। फहनेवाले कह सकते हैं कि यहाँ शगार से ही ओज की प्राप्ति हो गई है| सचमुच; जिसका »& गार मर जाता हे, उसकी तलवार सो जाती है। तरुण हृदय में छुलकनेवाला आदिरस श्वगार ही भुजाओं में बल ओर व्यक्तित्व में विक्रम भर देता है। (राम की शक्तिपूजा? में सीमा, श्यामा। पावंती, शेषशयन इत्यादि के संदर्भविशिष्ठ प्रयोगों से निराला के प्रगाढ़ पांडित्य और अध्ययन का पता चलता है| उदाहरणाथ निराला ने राम की निराशा के विवरण के प्रहंग में दुर्गा के लिये धभीमा मूर्ति? का प्रयोग किया है-- फिर देखी भीमा मूर्ति आज रश देखी जो आच्छादित किए. हुए संमुख समग्र नम को | ) श्रतामिका, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ १५१। १०-१४ लि श््् हिंदी साहित्य का बृइ्टत्‌ इतिहास फलों के बीच उठनेवले विकल्प ओर परवान छूनेवाली री लकी बार 5 का न, ध््ःु डे “वन /2५ कु तक हर भ 5 हे। कानंबाली जहराशा का प्रताक्क बनकर झाहई हू। इंच "५ तक, पीर ७ ऋ-, क 87 बा का पक्ष को ध्यान में रखकर निशा ने यहां । (४ । | था हद ५ ३ ५० ५ हुआ कप ] ह हम हु कान. | हो. *ैैैै$खःरःर्क्राः तु िि कर का एबीग नहीं कवा है। शक्त क्ाडेत्व में दुगा के लिये (ने बे हि आप ० ३ 5 दर मिलता है। दुया को छह ऋांगमूता देवियों झाझों गई . फ पर कर, 2१७ ह # पा कब +े लक एक हूँ । ये छह दवेवां हं--नंदा। रक्ततातका, शाकमा, दि ५ ३ यू जे पं का नए 5 ष्ट | के 88042 है है कप पड रे | | ३ भी है| पी र्डः | था | हक ०8] हनन 7१३ | हा है |] का द् आर । टी * अप घ) हक प्रमाण हा जुब्तु"/ मय न्टा आर है आन आाइआ हि. हि कक कण बुक पर. दतए हक त्‌ 58 | "कण न्प्न बट 3 जया ऋथुव का भथदेकरता के कारशा! ऋत्थत बकरे है--- के का | क्र कक + लक 3 अल खमपाक हल + आह बकूमम! न # दी ला ऋयत: आह २९ कार ह १ह आताआ हा का शा दल ा माप लॉलंदशा सा दंादशन सारण | रा 5 फ् लक ४. छा ० ०नननन्‍न न वपलएं गा पथ ५ .न्प० ॥॥ विशालल। चना सीर दततुपानपथ।वदा | कप (४ ४. कप 3० न भू 524 29 अन्न 4१ कम णां न्‍ दे शायद, नीलवण होने के कारण ही निराला ने ध्मीस;मूर्ति! से नीझबशु/मय नभ को पूर्णतः आच्छादित ( “आच्छादित किए हुए संमुख समग्र नभ को? ) चित्रित किया है | 4१५, ५० ह ही तु बंती हा ४7.0... इसी तरह राम की शक्ठिपूजा? में अंकित पावती का रूप निराला के पांडित्य ओर सावयत्र कऋल्पनाबविधान का अन्यतम प्रमाण है। महामाव में लौन राम की मंगलद्ृष्टि में मूर्त हुई पावती का चित्रण करते हुए निराला ने लिखा है-- श | पावती कब्पना हैं इसको, मकरदर्जिदु; गरजता चरणाग्रांत एर सिंह वह, नहीं सिंधु; द यहाँ 'मकरंदर्दिंदुः बहुत ही साभमिप्राय प्रयोग है। पार्वती गुल्म, तृण आदि को अकरंदः, अथःत पुृष्परस हैं| कवि ने एक और पावती के चरणाप्रांत पर सिंधु का गनन दिखलाया है ओर दूमरी ओर मस्तक पर चंद्रमा धारण करनेवाले शिव का आकाश में ध्यान किया है| मस्तक पर सुरसरि, दिव्य माल पर चंद्रमा, कूंठ में विष ओर वच्तस्थल पर मोदधर धारण करनेवाले शंकर के अंक में पाबती श्र्थात्‌ रसपूर्ण सधुरिमा ठुशोमित हो रही हैं। जिस प्रकार बिंदु ओर नाद अर्थात्‌ नारी ओर पुरुष के संयोग के श्रभाव में सृष्टि नहीं हो सकती, उसी प्रकार शिव श्रौर पावती के बिना सृष्टि नहीं चल सकती | निराला ने अपनी कब्पनाशक्ति से पाती की ध्यानमूर्ति को गढ़ते हुए आगे कहा है--- द द द दशदिक समस्त हैं हस्त, और देखो ऊपर, अंबर में हुए दिगंबर अचित शशिशेखर | | षचट: 505 2 ह हु 0 २००२७५०६ एन. ाआाक 2 की " ।॒ ्ापओ, 5 हे कर : ५ की 4 | प्ब्क नल के 2 न आओ 3 हु अर 2. [ भाग १० ] .. प्रमुख कवि : अन्य कवि १६७ यहाँ कब्रि ने पावती को दशमुजा न कहकर 'दशदिक समस्त हैं हस्तः कहा है ओर दूसरी ओर शित्र को दिखंवरा कहा है| यह ध्यातव्य है कि 'दशदिक समस्त हैं हृस्त' और दिगंबर'--दोनों में दिक की पत्रानता है| शिव्र को 'दिगंबर' अथवा दिग्वस्त्र! कहते हैं आर पावती की दिगंवरी या दिग्बस्त्रा । यहाँ शित्र पाव॑ती के 4 में कवि ने तुल्य>प कल्पनाविधान से फास लिया है। इसीलिये उपरि- निदिए पंक्तियों में शिव जैसे विराद ओर असाधारण प्रिष्तम के लिये पाती जेती विराट प्रियतमा को चित्रित किया गया है। पार्वती के रूप की विश्नट कब्पना का आंचित्य यह है कि शिव विराट हैं, इसलिये उनकी थिवा पत्रदी भो विराद हैं।शिव इतने विराट हैं कि उनके विशाल मस्तक पर चंद्रमा विलक की तरह लगता है श्रर्थात्‌ शिव का शरीर अनंत व्योम को सीमाहःन पश्चिष जैता विस्तृत हि है रैँ ) ााा धन | हि 38 हि अन्‍्न्मतबूं ८2 रि् ५] 0 8| दिल । मंद । /णां आओ | है| र व्््ज मद! आकर दशादुकू समस्त हू हृस्त। इस तरह यहाँ निराला ने प रूप में शक्ति की कब्पना की है, जिसपर कक कक 23 तृश्रि (४ अतीव तेजस: कूर्ट ज्वल्लंतमिव पत्र तम्‌ | 5 अपासलज . स्वालाडइय दिगंतर ददशुस्त॑ सुरास्तत्र ज्ादाब्वात्र द्गृतरम है क की बज ९5 था ८०027 % मु अतुल त्तन्र तचज: सब्र दवशर* जम । कै 4. पक <् हा, एकस्थं तंदभून्नार व्यातलाहइुजय त्वषा ॥! हे कुल मिलाकर, निराला ने देवी की परंपरःप्रसिद्ध मर्यबरता ओर विकर लता को पक विराट कांव्यात्मक कब्पना में परिवातत कर उविया है 5 यद्दे कैंदा जा सकता हद कि निराला ने शक्ति को जो मोलिक कल्पना की है, उसकी पृष'्ठभाम में 7 ५ क कक. "४०३ स्वामी विवेकानंद के अबास्तात्र!ं ओर इन्हों के द्वारा छाली पर अगरेजी में व्रत कविता तथा “न्रीरामकृ णशवचनामृत' के धर प्रभाव की हलकी अनुर्गूज है । निराज: की ( मकरंदरतिंदु ) के मिश्रण में हं। बात यह दे कि शाक्तपूजा का सिद्धांत “कैलिस्थे- फ १, दुर्गासप्तशती, द्वितीय अध्याय, श्लोक संख्या १२-९३ जे २. पर॑परा से यह भी प्रसिद्ध है ।क देवी ही आद्या अव्याइता परमा प्रकृति हैं। साथ साथ, देवो ही स्वाहा और स्वघा! श्दद ् हिंदी साहित्य का बंहत्‌ इतिहास निक्‍स! के द्वारा परमसत्ता की प्राम्ति का साधन है। कैलिस्थेनिक्स! का आशय है शक्ति और सौंदय की समवेत उपासना । ६दुर्गासप्तशती” में भी दुर्गा को शक्ति ओर सौंदर्य, दोनों की अधिष्ठात्री देवी के रूप में चित्रित किया गया है। दुर्गा शक्तिमती ही नहीं, सुंदरी मी हैं। वे 'स्मेर्सुखी? हैं। उनके सोंदर्यवर्शन में कहा गया है--“ईषत्‌ सहासममलं परिपूर्ण चंद्रबिवानुकारि कनकोत्तम कांति कांतम्‌ |? आधुनिक युग में रामकृष्णु परमहंच ओर विवेकानंद के अतिरिक्त श्री अरविंद ने भी अपनी व्याख्या के अनुसार शक्ति की उपासना पर बल दिया है। श्री अरविंद ने 'शक्ति! पर वेते विचार व्यक्त किए हैं, जो निराला के शक्तिसंबंधी विचारों से पथुल साम्थ रखते हैं। जिस तरह निराला ने देश के अम्युत्थान के लिये शक्ति की उपासना को आवश्यक घोषित फिया, उसी तःह अरविंद ने भी भारत को शक्ति का स्वरूप बनाना चाहा। इसी कारण अरविंद भारत देश को “मारतशक्ति? कहा करते थे। शक्तिपूजा की ओर निराला का भुकाव “समन्वय? पत्रिका से संबंध स्थापित होने के समय से ही था । निराला ने. “समन्वय! में विविध विषय के अंतर्गत 'शक्तिपूजा' पर एक डेढ़ पृष्ठ की प्रभावपुर् टिप्पणी लिखी थी | लगता है, इस टिप्पणी में भी व्यक्त भावों का संस्कार 'राम की शक्तिपूजाः लिखते समय निराला के मन में रहा होगा | इस टिप्पणी की ये पंक्तियाँ ध्यातव्य हें--'संसार में शक्ति की पूजा करनेवाला ही अपना अस्तित्व कायम रख सकता है | जिस जाति या देश में शक्ति की पजा नहीं होती, वह इस भूमंडल पर कुछ ही दिनों का मेहमान होता है।”* कई आलाचकों का अनुमान है कि 'राम की शक्तिपूजा? की कथावस्तु पर “देवीमागवत? का प्रभाव है। किंतु, तुलनात्मक विश्लेषण करने पर यह घारणा ग्राह्म नहीं मालूम पड़ती है। “देवीमागवत' में मारद ने राम को नवरात्रत्नत अर्थात्‌ देवी मगवती की उपासना फरने की सलाह दी है। ६देबीभागवतः सें कमलपुष्प चढ़ानेवाली बात नहीं है। केवल नारद द्वारा निर्दिष्ट विधि के अनुसार नवरात्रपूजन में देवी मगवता की उपासना का उल्लेख है। आशय यह है कि निराला को 'राम की शक्तिपूजा! के कथान्यास में मर्म को छूनेवाली जो नाटकीयता है, वह 'देवीमभागवतः में नहीं है। 'राम की शक्तिपूजा' के कथान्यास पर कृत्तिवास रामायण के “लंकाकांड' मे वर्णित “ओीरामेर दुर्गोत्सब! का गहरा प्रभाव है। कुछ ! दुर्गासप्तशती, चतुर्थ श्रध्याय |. क्‍ * समल्वय, वर्ष ४, श्रंक १०, सौर कार्तिक, संबंत्‌ १६४५२ | [ भाग १० प्रमुख कवि : अन्य कवि श्८ह्‌ ही ऐसे स्थल हैं, जहाँ निराला ने अ्रपनी प्रतिमा से कथायष्टि पर थोड़ी मीनाकारी की है। जैसे, कृत्तिवास रामायण में ब्रह्मा ने ( 'देवीमागवत में नारद ने ) रास को शक्ति की पूजा करने का उपदेश दिया है, किंतु, निराला ने राम फो यह उपदेश जांबवान से दिलवाया है-- बोले विश्वस्त कंठ से जांबवान--रघुवर, है पुरुषसिह, तुम भी यह शक्ति करो धारण, आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर। इसी तरह निराला ने जहाँ कमल की कमी को पूरा करने का उपाय बतलाते हुए. राम से माता के कथन फा उल्लेख कराया है-- यह हे उपाय” कह उठे राम ज्यों मंद्रित घन कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन।॥ दो नील कमल हूँ शेष अ्रभी, यह पुरश्चरण पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन |? वहाँ कृतिवास ने माता के कथन के बदले 'स्बंजनः कथन की बात कहो हें-- भाविते भाविते राम करिलेन मने। नील फमलाक्ष मोरे बल्ले सबंजने। यूगल नयन मोर फूलल नीलोत्पल। संकल्प फरिब पूर्ण बूमिये सकत्न। एक चक्षु दिब आमि देवी चरणे। कमल लोचन मोरे बले सब्वंजने । एक चक्षु दिब आमि संकब्प पूरने ॥ ? श्रीपुष्पदंत विरचित 'शिवमहिम्न: स्तोत्र” में भी हरि ( जिल्‍्होंने बाद में राम के रूप में श्रवतार लिया ) के द्वारा शिव के 'सहख्न सरोज उपायन' में एक कमल के घट जाने पर नेत्र ही अगपित कर देने की कथा मिलती है--- हरिस्ते साहख॑ कमल बलिमाधाय प्मो--- यदेकोने. तस्मितु निजमुदहरस्तेत्रकमलम्‌ | गतो अभक्ट्युद्रेक: परिणतिमसों चक्रवपुषा। त्रयाणां रक्षाये त्रिपुरहर जार्गात जगताम ॥ --शिवमहिस्नः स्तोत्र; पदसंख्या १६ । डक + ५ हिंदी लाहित्य का बृहत्‌ इतिहास इस प्रकार कृत्तिवास रामायण के 'अ्रीरामेर दुर्गोस्सव” ओर “राम की शक्तिपूजा' में कथायश्टि की जो भिन्‍नदाएँ हैं, वे नामसात्र का हैं। प्रधान बार्ता में सत्र समानता हैं । निराला ने एक सो आठ इंदोवर' का उल्लेख किया ई, कृतिवास रामायण में 'शताष्ट कमल! को चर्चा हैं। निराला ने “देवीदह' का बणन किया है, कृत्तिवास ने मी इसी दह का उल्लेख किया है। कृतिवास रामायण में राम ने देवी दुर्गा का स्तव॒न इस प्रकार किया है-- महिपमदिनी महामाया महोदरी। शिवन्दिदिनी श्यामा शब्बानी शंकरी | आर, निराला के राम ने भी शक्ति के समक्ष कुछु इसी तरह की प्रार्थना की है-- मातः दशभुजा, विश्वज्य| वि, ने हू. आश्रित हो जिड्ध शांक्रेत से है खल महिषासुर मादत। अतः (राम की शक्रितिपूजा के कथाविन्यास पर “देवीटागवत' का नहीं, कृत्तिवास रामायण का प्रभाव हैं। इतनी बात अवश्य है जि कृत्तितास रामायण के दुर्गोश्तव में शञक्तपूजा का इतना जालत आर शास्त्रीय बगान नहीं है! जितना राम की क्तिपूछा' में। साथ ही राम की शक्तिपूजा में नाभों ओर चरित्रों का लो पांडिस्यपूर्ण प्रतीकात्मक गुंफन किया गया हैं; वह इृत्तिवास रामायण के 'अ्ररामेर दुर्गोत्तव में नहीं मिलेता। उदाइरणु के लिये निराला को इस पंक्ति--“लख् शकाकुल ही गए अतुलबंत शेबशयन में अतुलबल शेषशयन' की प्रतीक्षात्मक ग्रथवचा विचारशाॉय ह। शेषनाग काल की अन॑ठता का प्रतीक है और उस शेषनग पर जिश्णु का शयन इसे व्यंत्षित करता है कि विष्णु काल्ाधीश हैं ओर आादिअंत-होीन साध्ट के एकमात्र स्वामी हँ। निराला के हनूमान ने राम में विष्णु के इही कालाधीश रूप--अ्रादि-अंत-हीन रूप--को देखा है ओर अपने भाव को इन शर््दों में व्यक्त किया है--युग अश्रस्ति नास्ति के एक रूप रीअं यह #ो लक्ष्य करने योग्य है कि लह॒श शेषनाग, अश्रतः काल के प्रतीक हैँ झोर राम के अनुज है । तक्ष्मण ऐसे अ्रनुगंता अनुज के रहने से भी यह व्यंजित होता है कि काल राम का अनुगत है, शाम के अबीन है। अर्थात्‌ राम कालाधीश हैं। इसी तरह निराला के हनमान चला भक्ति. दास्य भाव, विवेक ओर शौय के संमिश्र प्रतीक ईं। अ्रतः निराला के प्रतीक को इम बंकुल्ल प्रतीक ( कंप्लेक्प * कृत्तिवास ने केवल यह लिख दिया है कि राम ने तंत्र मंत्र के अनुसार दुर्गा की पूजा की--(तंत्रमंत्र मतते पूजा करे रघुनाथ! । [ भाग १०] प्रमुख कवि ; भ्रश्य कवि १६१ सिंचल ) कह सकते हैं। इस प्रकार की संकुज्ञ प्रतीकयोजना कृत्तिवास द्वारा वर्शित दर्गोत्सव में नहीं है | (राम की शक्तिपूजा! में व्यक्त शक्षतिदर्शन पर स्वामी रामकृष्ण प्रसहंस श्रोर उनके अनुयायियों के मत का प्रभूत प्रभाव है। शक्तिदशन के प्रसंग में वामी शमकझुष्णु के सतानयायियों के बीच स्वामी सारहानंद' के विलारों का निराला पर सबसे झ घिक गहरा प्रभाव है. जितक समथन ब्यदंध्रर्ज्ञ' के समपंणा, खतुरी चमार में संग्रतित 'स्वाशी सारदानद थी महाराज 37 तथा छमनवय * में प्रकाशित पशीमतस्रामी सारदानंद जी से वाताल।वाआा शीषक लेखों के द्वा याप्त मात्रा में होता है। किंतु, इस उल्लेख का यह हे ही से बाहर शक्तितल की उपासना की हछोइ परंपरा नहीं था नेछझ भी अभाजित नहीं थे। शक्तयूजा, विशेषकर मातृमाव क्तिपूजा भारत की नित्री संपत्ति है। मारत में जगत्‌ की कारणमूत शक्ति को भा या जद दंबा? कहकर संबोधित किया गया है। सारांश यह है कि निशला के शक्ति दर्शन पर रासकृष्ण परमहंस तथा उनके अनुयागियों बे जडक हक 2 हि के प्रभाव के साथ हो शक्तितृजा की व्यापक मारतोीय परंपरा के आलोक में भी विचार होना चाहिए | छायात्रादी कवियों के बीच निराला ओर प्रसाद में पारंपरिक दाशनिक रुचि की प्रधानता रही है। निराला में शाक्त ओर प्रसाद में शैव दृष्टिकोण के प्रति पूर्वाग्रह रहा है। राम को शक्तिपूजा! ओर कामायनी? से ही इस तथ्य की पर्यात हंपु ष्ट हो जाती है। यह भी एक विचित्र संयोग था कि जिस समय छावावादी शिविर के ओजपक्ष के प्रतिरिधि निराला ने राम की शक्तिपूजा' की रचना फी, लगभग उसी समय छायावादी चतुष्ट्य के सर्वाधिक दाशनिक कवि प्रसाद ने 'कामायनी” के रहस्य सर्ग! को पूरा किया। एक ने शाक्त दृष्टि से तांत्रिक प्रतीकों का फाव्यात्मक अंकतन किया ओर दूसरे ने शव दृष्टि से तांत्रिक प्रतीकों का प्रबंधात्मक निबंधन किया | ः शाम को शक्तिपूजा! की तरह निराला की काव्यक्षतियों में तुलसीदास? का भी एक विशिष्ट स्थान है । निराला के मन में राम, हनूमान &ोर ६लसीवास के प्रति बहुत श्रद्धानक्ति थी। “राम की शक्तिपूजा' के भ्रलावा 'ठुलसोदात” और 'पंचवरटी प्रसंग' सें निराला को यही श्रद्धाभक्ति अभिव्वक्त हुई है। 'राम की . *? भारते शक्तिएजा, स्वामी सारदानंद, उदबोधन कार्यालय, कलकत्ता | + समचय, वर्ष ६, संवत्‌ १६८७ । श६२ द द हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास शक्तिपूजा', तुलसीदास” और “पंचवर्टी प्रसंग' को एफ साथ पढ़ने पर इन कविताओं का काव्यसौंदर्य पूरी महिमा के साथ हृदयंगम हो पाता है, क्योंकि इन तीनों कविताओं का संबंध निशला की रामभावना, हनुमद्भक्ति और गोस्वामी तुलसीदास के प्रभाव के साथ है। तुलसीदास' का प्रकाशन १६३८ ई० में हुआ, जिस समय छायावाद अपने उत्कर्ष पर पहुँच चुका था। इसलिये प्रबंधात्मक शिव्पविधान में रचित रहने पर _ भी 'तुलसीदास” का भाववोध, दशनबोध ओर सौंदर्यविधान छायावादी काव्यशैली के नितांत अनुकूल है। उदाहरणाथं, सोंद्यबरोध ओर प्रकृतिचित्रण॒ श्ले खंबद्ध दो छुंद प्रस्तुत हैं+- प्रेययी के अलक नील, व्योम; दृगपल;, कलंक; मुख मंजु सोम; निःसत प्रकाश जो; तरुण क्षोभ प्रिय तन पर; पुलकित प्रतिपल मानसचकोर देखता भूल दिकू उसी ओर; कुल इच्छाओं का वही छोर जीवन भरा | अथवा. मग में पिफ कुृहरित डाल डाल, हैं हरित विटप सब सुमनमाल, हिलती लतिकाएँ ताल ताल पर सस्मित; पड़ता उनपर ज्योतिःप्रपात,' हैं चमक रहे सब कनफ गात: बहती मधु धीर समीर ज्ञात, आलिंगित (* हि छायावादी काव्यशेली के अतिरिक्त “तुलसीदास! का मनस्तत्वप्रधान होना भी छायावादी फाव्यवस्तु का लक्षक है। छायावाद ने एक नए प्रकार के मनस्तत्वप्रधान प्रबंधकाव्यों फा श्रीगशश किया, जिसके अंतर्गत “कामायनी” और “तुलसीदास” उल्लेखनीय हैं। इन दोनों प्रबंधकाव्यों में कथातत्व नहीं, मनस्तत्व १ तुलसीदास, चतुर्थ संस्करणा, पृष्ठ ३४ । * “ज्योतिःप्रषात' शब्द का प्रयोग “राम की शक्तिपुजा” में भी हुआ है--ज्योति:- प्रपात स्वर्गीय ज्ञात छवि प्रथम स्वीय” | ३ तुलसीदास, चतुर्थ संस्करणा, पृष्ठ ७८५ | दा अर कमल ६७००७४०४७००- लग ल रत 5 5 शक हे 3 / अर 5 33340: जम मशमरीकीलीन दल कप हट न हा ३ धर पट आम *। किम 33 जज का हिल मम परतत नमी ७4505 कद) (३70० 2० २ क न5प«5.. 4 लक सास रात5 न बन सर व अर फरप लय करा भत कलह. 7:टरप.- इन <० [ भाग १० ] द प्रसुख कवि : अन्य कवि 3, की प्रधानता है। सच पूछा जाय तो मनघ्तत्वप्रधान प्रबंधकाव्य छायावाद फा एक नूतन प्रवर्तन है। मनस्तत्वप्रधान प्रबंधकाव्य होने के फारण “तुलसीदास! में अंकित सारी घटनाएँ ओर बातें ठुलसी के मन में घटित होती हैं। इसमें न्यस्त संपूर्ण कथा का अधिकरण सन ही है। इसलिये यह काव्य कल्पना-चिंतन- प्रधान है और प्रायः क्रिया-व्यापार-शुन्य | कथानायक ने मन ही मन सभी भावों को गुन लिया है-- क्या हुआ कहाँ, कुछ नहीं सुना, कवि ने निज मन भाव में गुमा, साधना जगी केवल अधुना प्राणों फी ।* तुलसीदास” का प्रारंम भारतीय संस्कृति की संध्या से होता है-- भारत के नभ का प्रमापूय शीतलच्छाय सांस्कृतिक सूर्य अस्तमितद आज रे-- तमस्तूय दिल मंडल । ओर, इसका अंत भारतीय संस्कृति के पुनर्जागरण की ऋकांक्मा के नवीन आअरुणोदय में होता है-- संकुचित खोलती श्वेत पल बदली, कमला तिरती सुखजल, प्राची दिगंतठर में पुष्कल रविरेखा। इसलिये इस काव्यक्षति में हुलसीदास का चित्रण भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण . के सारस्त नेता के रूप में किया गया है । ....._ तुलनात्मक दृष्टि से यद्द कहा जा सकता है कि अनेक कलाल & बारीफियों . के रहने पर भी तुलसीदास” 'कामायनी' की तरह प्रथम फोटि का प्रबंधकाव्य नहीं है। कारण, इस अल्पकाय प्रबंधकाव्य में ध्वर्णाश्रमवादीः तुलसीदास को लोकनायक के रूप में उपस्थित किया गया है और इसमें भारतीय संस्कृति के पराभव फो दिखलाने के लिये ऐसे क्षण फो चुना गया है; थो जातीय दृष्टि से उपयक्त होने पर मी धर्मनिरपेक्ञ सामासिक संस्कृति की दृष्टि से अब विशेष महत्व १ तुलसीदास, चतुर्थ संस्करण, पृष्ठ ६० । १०-२५ जा] है 3५. श्श्ड हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास नहीं रखता है। अतः ऐतिहा, कथाकलन, युगबोध, प्रबंधकोशल ओर शाश्वत सस्कृतिक सार्थकता की दृष्टि से 'तुलसीदास' मध्यम कोटि फा काव्य है | |॥ पंत पंत ( जन्मकाल : २० मई, १६०० ई० ) ने 'मेरा र्चनाकाल? तथा मैं ओर मेरी कला? शीर्षक निबंधों में अपने कविजीवन की प्रारंभिक अवस्था का वर्शन किया है। इन्होंने पंद्रह सोलह साल की उम्र से, अर्थात्‌ १९१५-१६ ईस्वी से, जब कि ये श्राठवीं कल्षा में पढ़ते थे, नियमित छूप से लिखना प्रारंभ कर दिया था । इनकी ये प्रारंभिक रचनाएँ उस समय अब्मोड़ा से निकलनेवाली हस्तलिखित पत्रिकाओं--जैसे, “अल्मोड़ा अखबार' नामफ साप्ताहिक, रानीखेत से प्रकाशित 'हिमालय' नामक मासिक, मेरठ से प्रकाशित होनेवाली 'ललिता' और प्रयाग से प्रकाशित होनेवाली. ध्मर्यादा! नाम की मासिक पत्रिका में संकलित हैं । इनकी प्रारंभिक काव्यचेतना को उद्बुद करनेवाली पत्रिकाओं में “सरस्वती, धेंकटेश्वर समाचार! और 'सुधाकर”' के नाम उल्लेखनीय हैं । की प्रारंभिक प्रेशशा इन्हें प्रकृति से मिली | सचसुच, इनकी प्रारंभिक रचनाएँ प्रकृति की ही लीलाभूमि में लिखी गई हैँ। इस प्रसंग में '(मोशंस रिफलेक्टेड इन ट्रेविवलिटी' की इष्चि से यह ध्यातव्य है कि इनके सर्वोत्कृष्ट प्रकृति-काव्य-संग्रह २ इसी साल सरस्वती” सासिक पत्रिका का भी जन्म हुआ ।॥ * हस्तलिखित पत्रिका, श्री श्यामाचरण दत्त, पंत वथा इलाचंद्र जोशी द्वारा संपादित | इस 'सुधाकर! के मई, १६१७ के ग्रंक में पंत की एक छोटी सी कविता 'शोकारित भौर ध्श्रुजल” मिलती है, जिसपर गुप्त जी की छंदयोजना झौर हरिश्रौध की शब्दयोजना का स्पष्ट प्रभाव है । ३ धजब मैंने लिखना प्रारंभ किया था, तब मेरे चारो ओर केवल प्राकृतिक . परिस्थितियों तथा प्राकृतिक सौंदयय॑ का वातावरण ही एक ऐसी सजीव वस्तु थी, जिससे मुझे प्रेरणा मिलती थी।? पंत ने इसी तथ्य को “मैंने कविता लिखना कंसे प्रारंस किया! शीर्षक लेख में इस प्रकार श्रभिव्यक्त किया है, 'नैसगिक सौंदर्य की प्रेरणा ही मेरी दृष्टि में वह मूल शक्ति थी जिसने मेरे एकांतप्रिय सन को काव्यसजन की शोर उन्मुख किया। और श्राज भी मेरे शब्दों के कुंजों से प्राकृतिक सौंदर्य का मर्मर फूट पड़ता है ।--कला और संस्कृति, किताब महल, इलाहाबाद, १९६५, १० ७६ । भलहाइएापबुनायकिात ना वन नस सपा दि मल 2 ८र पे "४.70 77- “काका ७ 5 हु 2७७७७७७४७४७७७७७७ ७७०५ ० 77:32 अनेक मन ननिनन कक कक मिललदक ० कन 4,025: 5 मटर किला बल कह डाक सेडडरयर अककएसककसपाक धपन पा धदलादत पल 5 5 सचिव ल हट दपथदमाखणवशमाकक पपएपाधयवाद पवन साकावता था दातउाधाउध दास धया ताप काठ की 35. 32 आबब गऱ०॥| अग्युख कांव : अन्य के १६५४ “'पल्‍्लव'” को अधिकांश कविताएँ अल्मोड़े के प्राकृतिक परिवेश से दूर प्रयाग के नागरिक वातावरण में लिखी गई थीं । द उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर पत की पहली कविता का शीषक “गिरजे ३ ंटा? था, जिसको इन्होंने अपने किशोर उत्साह में मेथिलीशरण शप्त के पास भेजा था | गुप्त जी ने इस कविता की भूरि मूरि प्रशंसा की थी । यह कविता पंत जी ने अ्रल्मोडे में अपने घर के पास के गिरजे के घंटे की ध्वनि से प्रेरणा पाकर लिखी थी | बाद में इसी कविता को परिवतित कर केवल घंटा” शीषक दे दिया गया जो “आधुनिक कवि, भाग दो” में प्रकाशित है। इसी तरह 'कागज का फूल! और तंबाकू का घुआँ? मी इनकी प्रारंभिक फबिताएं हैं।* इनके दो प्रारंभिक कवितासंग्रह--*कलरव” तथा नीरव तार', जो बीणा' काल से भी पहले लिखे गए थे, हिंदू बोडिंग हाउस में रहते समय १६१० इई७ में चारपाई में आग लग जाने के कारण जलकर राख हो गए | पंत की छायावादी फाव्यकाल को रचनाएँ प्रकाशनक्रम फी दृष्टि से इस प्रकार हैं -उच्छुवास (१६२० इं० ) अंथि ( १६२० ईं०), वीणा ( ६६२७ ३० ), पतलव ( १६२८ ई० ) ओर गुंजन ( १६३९१ ६० )। “वीणा” में इनकी १६१८ और १६१६ ई० की रचनाएँ सकलित ई। ध्यंथि' भी, जिसे एक गीतिपूर्श खंडकाब्य फह्या जा सकता है, १६२० ई० तक लिखी जा सुकी : गुप्त जी की प्रशंसा से प्रोत्साहित होकर पंत ने यह कविता ( गिरजे का घंटा ) सरस्वती' में प्रकाशवार्थ भेजी थी, जिसे हाशिए पर गुप्त जी की प्रशंसा रहने के बावजुद्‌ 'सरस्वती” के संपादक ने भ्रस्वीक्ष कर दिया था। यह बात १६१६ ईंस्वी की है। इस प्रसंग में यह ज्ञातव्य है कि १६१६ ई० में पंत की कविता पहली बार “सरस्वती!” में छपी, जिसका शीर्षक “स्वप्न! था | पंत की स्वप्न! शीर्षक कविता जिस समय 'सरस्वती' में छपी, उस समय उसका संपादन श्री देवीप्रसाद शुक्ल करते थे । * “साठ वर्ष : एक रेखांकन' में पंत जी ने बतलाया है कि 'कविता का प्रयोग: सर्वप्रथम मैंने पत्र लिखने के रूप में किया था | भ्रपती बहन से अपने छुंदबद्ध पत्रों की प्रशंसा सुनकर मैं बहुत प्रोत्साहित होता था। कोसानी में मैंने अपने भाई के अ्रनुकरण में कुछ ढीलेढाले रेखता छंद भी लिखे थे | एक का विषय वागेश्वर का मेला था, जहाँ मैं श्रपती दादी के साथ गया था द्सरी कविता वर्क थों के धनलोभी स्वभाव पर थी? --साठ वर्ष एक रखांकन, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, पृ ० १८। १९६ .. हिंदी साहित्य का बुह्वत्‌ दवांतद्यास थी। तदनंतर, 'पत्लब? में 'सन्‌ १६१८ से १९२५ तक की प्रत्येक वर्ष की दो दो); तीन तीन कृतियाँ रख दी गई थीं, यद्यपि संख्या में तीन चौंथाई ओर आकार में इससे कहीं अधिक फविताएँ १९२० के पश्चात्‌ की थीं।” इसी प्रकार 'गुजन! में कवि ने १११५ ई० से १९३२ ६० तक की रचनाएँ रखी..हैं;यशह्रपि इसमें १६२५ ई० के बाद की रचनाओं की संख्या अधिक है। पंत की स्फुट कविताओं के प्रकाशन का अबिरल क्रम १६२० ई० से प्रारंभ हुआ । १६२० ३० में ही 'उच्छु वास” और ध्यंथि! का प्रकाशन हुआ तथा इसी वर्ष इनकी स्वप्न! शीर्षक कविता पहली बार 'सरस्वती? में प्रकाशित हुई। फिर दो ढाई वर्षो के अंतराल के बाद १९२३ ई० से इनकी फविताएँ सरस्वती? में घड़ल्ले से छुपने लगीं। कहना तो यह ठीक होगा कि “पल्लव” की प्रायः सभी प्रमुख कविताएं पहले सरस्वती” में छुप गई'। पँत के कई काब्य- संग्र्शो का प्रकाशन मई मास में इनके जन्मदिवस पर या जन्सदिवस के आसपास हुआ है।? काव्यविकास की दृष्टि से यह लक्ष्य करने योग्य है कि पंत की छाया- वादोचर कृतियों में, विशेषकर जिनमें साधारणीकृत अध्यात्म की खोज है, कलापक्ष क्रमश: गोंण होता गया है। कलाततल्व का यह हास क्‍यों हुआ--इस प्रश्न का उत्तर स्वयं पंत ने दिया है। इनके श्रनुसार जब कला सुदर फी अपेक्षा शिव की और अधिक झुक जाती है, तब कलाकृति में रूपसज्जा घट जाती है। मानो, शिव से आलिंगित होकर फलला भी निरावरणु श्रोर दिगंबर बन जाती है।* पंत के संपूर्ण काव्यविकास के विश्लेषण से यह तथ्य सामने आता है कि पंत ने प्रारंभ में प्रकृतिकाव्य ओर बाद में विचारकाव्य लिखा है।" “वीणा! से * पलल्‍लविनी, तृतीय संस्करण, बच्चनलिखित 'एक हृष्टिकोण” से उद्धृत पृ० १६ । * “उच्छू वास! के प्रकाशन का १९२० ई० से १९२३ ई० के बीच के छायावादी काव्यांदोलन के लिये उल्लेखनीय महत्व है | * उदाहरणाथ, 'पल्लवें” २६ मई को छपा था श्लौर 'छायावाद :; पुनमुल्यकत! २० मई को | ४ छायावाद : पुनभ ल्यांकन, पंत, लोकभारती, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण ... पृ० १०१-१०१२ | ५ पंत का प्रकृतिकाव्य सुख्यत: कलासाधना का काव्य है। इसलिये उपयुक्त तथ्य को इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि पलल्‍लवकाल तक पंत ने . कलापक्षु की साधना की है और बाद की कतियों में विचारपक्ु की | पंत आप 2 थ० लंड मम पर नदी मिकपनीट मम मिमी मनन 33535: न डर लसन नस्न्‍ थे नर्स सकल | भाग ६० | ... अ्रसुखे कांदे $ अन्य कांवे क्‍ ... रुएुछ लेकर “गुंननः तक की रचनाएँ मुख्यतः प्रकृतिकाव्य के अंतर्गत आती हैं। इस रचनाकाल में फवि ने सोंदर्य को केवल बोध ओर संवेदन के घरातल पर अ्रभिव्यक्त किया है। इस संदर्भ में यह ध्यातव्य है कि 'उत्तरा' ओर उसके बाद की रचनाओं में कवि ने सोंदय को मूल्य के रूप में अहणु कर अश्रधिमानस के स्तर पर अनुभूत ओर अभिव्यक्त किया है ।! पंत का वास्तविक कवित्व इनके प्रारंभिक प्रकृतिकाव्य में ही सुरक्षित है। इनका विचारकाव्य या चेतनाकाव्य किंचित्‌ बोमिल हो गया है। इन्होंने मानवदृत्तियों को निम्न चिंदुल ओर उच्च त्रिदल के नाम से दो प्रकारों में बाँद दिया है। निम्न जिंदल के अंतर्गत चेतन, उपचेंतन और अचेतन आते हैं तथा उच्च त्रिदल के अंतर्गत्‌ सत्‌ू, चित्‌ और आनंद। ये फ्रायड की विचारधारा फो इसलिये अपूर्ण मानते हैं कि उसने मनुष्य के केवल निम्न त्रिदल का विश्लेषण किया है। उच्च त्रिदल के प्रति इसी आसक्ति ने इनके विचारफाञ्य को दुरूह और बोमिलन बना दिया है। श्री अरविंद के संपक्क में आने के पहले ही उपनिषदों के प्रभाव ने इन्हें उच्च च्रिदल्न की भर प्रेरित फर दिया था। गुंजनकाल से ही पंत के काव्यविकास में उपनिषदों के ग्रमाव को स्पष्ट रेखा मिलती है। शुजन' की प्रसिद्ध कविता जग के उवर आँगन में बरसों ज्योतिमंय जीवन” उपनिषदों में व्यक्त ज्योतिवाद से प्रभावित है। उपनिषदों के प्रभाव का उल्लेख करते हुए इन्होंने “पुस्तकें, जिनसे मेंने सीखा! 'शीषक निर्ब॑ध में लिखा है, “जग के उवर आँगन में बरसो ज्योतिमय जीवन” का श्रत्य॑त प्रकाशपरा . वेभव मेरे अंतर में उपनिषदों ने ही बरसाया है। उपनिषदों का अध्ययन मेरे लिये शाश्वत प्रकाश के असीम सिंधु में अवगाइन के समान रहा है। वे जैसे अनिर्वंचनीय अलोकिफ अ्रनुभूतियों के वातायन हैं, जिनसे हृदय फो विश्वक्तितिज के उस पार अमरत्व की अ्प्॒व काँकियाँ मिलती हैं। अपने सत्यद्रश ऋषियों के साथ चेतना के उच्चतम सोपानों में विचरण करने से अंतःकरण एक अवशनीय झाह्ाद से ओ्रोतप्रोत हो गया*****'उपनिषदों में भी ईशोपनिषद्‌ ने नाविक के ने मेरी मान्यताएं”! शीर्षक बिबंध में स्वयं ही लिखा है, 'पतललवकाल तक मेरी लेखनी कलापक्षु की साधना करती रही है। पल्‍लव की भूमिका में मेरे कलासंबंधी विचार व्यक्त हुए हैं, कितु, उसके बाद की मेरी रचनाश्रों में इस युग के मान्यताओ्रों संबंधी संघर्ष को ही वाणी मिली है? |--शिल्प और दर्शन, प्रथम संस्करण, पृ० २७१ | क्‍ ९ दृष्ठव्य ; 'मेरी कविता का पिछला दशक! शीर्षक निबंध (शिल्प और दर्शन! प्रथम संस्करण, पृष्ठ १६२ । द द "शहद हिंदी साहित्य का बुह्दत्‌ इतिहाँस तीर की तरह मेरे मन के अंधकार को भेदने में सबसे अधिक सहायता दी है। “ ईशावास्यप्रिंद सर्व यत्किव जगत्यां जगत्‌” के मनन मात्र से ही जीवन के प्रति दृष्टिफोण बदल जाता है और हृदय में जिशासा जग उठती है कि किस प्रकार इस क्षणमंगुर संसार के दर्पएु में उस शाश्वत के मुख का विब देखा जा सकता है | ईशोपनिषद्‌ के विद्या ओर अबिद्या के समनन्‍्वयात्मक दृष्टिकोण ने भी मेरे मन को अ्रत्यंत बल तथा शांति प्रदान की |?* पंत का कविव्यक्तित्व निरंतर विफासशील रहा है, जिसे कवि ने स्वयं ही महदूस किया है। जो न लिख सका' शीर्षक निबंध में इन्होंने अपने कविव्यक्तित्व फो “विकासप्रिय व्यक्तित्व” कहा है। मुख्य बात यह है कि ये कल्पना से वस्तु की शोर आए. हैं, यद्यपि इनकी दृष्टि में वस्कुबोध भी एक अधिदाशंमनिक स्तर पर कल्पना ही है। पव तप्रदेश के एकांत एकाग्र वातावरण ने इन्हे किशोरकाल में एकदम कल्पनाप्रधान बना दिया था। किंतु, बाद में जोवन, जगत्‌ ओर बाह्य परिवेश के आ्राधात संघात ने इन्हें क्रमशः वस्तून्मुखी बना दिया। “मेरी लेखन- प्रक्रिया' शीर्षक विचारपूर्ण निबंध में इन्होंने श्रपने फाव्यविकास की रेखाश्नों को निर्दि.|्ट करते हुए लिखा है कि पाठकों को 'मेरी प्रारंभिक रचनाओं में--पल्लव- गु जन-काल तक--कल्पना का ही प्राधान्य मिल्लता है। किंतु, गुजन ज्योत्सना के बाद मेरा कल्पनाप्रधान दृष्टिकोण धीरे धीरे वस्तुन्पुखी बनकर जीवनयथार्थ की ओर आकर्षित होता रहा | यह संभवतः मेरे स्वभाव की परिशुति या विशेषता रही हो। मैं आ्रात्मनिष्ठ कभी नहीं रहा श्रोर कफल्पनानिष्ठता से बस्तुनिष्ठता में उतर जाना एंक सहज स्वाभाविक प्रक्रिया है। क्‍योंकि जिसे हम जीवनयथाथ या वस्तुबोध कहते हैं, वह भी श्रधिदशन फी दृष्टि से एक कल्पना ही ह---कालसापेक्ष, दिशा अधिष्ठित कल्पना । जैसे जैसे मेरे भीतर लीवनम्‌ल्य का विकास होता गया, - मेरी भावानुगामिनी कल्पना वस्तून्पुखी अथवा यथार्थोन्य्रुखी होती गई । कुछ लोगों फो बाह्यदृष्टि से इसमें एक विसंगति लगती है, किंतु , में इसकी अ्ंतःसंगति से भली भाँति परिचित हूँ ओर यह मेरे लिये एक सहज स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में ही संभव हो सका है।”' उपयुक्त मंतव्य से स्पष्ट है कि पंत जी फल्पना के सत्य को अनुभूति के सत्य से घनिष्ठ रूप में संबद्ध मानते हैं। इतना ही नहीं, इनके लिये कल्पना का सत्य अनुभूति या अनुभव के सत्य से अधिक महत्वपूर्ण है। ९ शिल्प और दर्शन, पंत, प्रथम संस्करण, पृ० १६६-१८७ । * कला और संस्कृति, पंत, किताब महल, इलाहाबाद, १९६५, पृ० १२३-१२४। जा सडक... आताण ; कक िकाबमगा जल [ भाग १०॥। प्रमुख कवि : अन्य कवि १९६ पंत के काव्यविकास के संबंध में यह कहा जा सकता है कि 'परिवर्तन' जैसी अंगुलिगणय कविताओं को छोड़कर इन्होंने प्रारंभ में कल्पना और भावना से परिचालित होकर प्राकृतिक सौंदर्य से उपेत कविताएँ लिखी हैं। तब सौंदर्य इनकी कविताओं में बोध के स्तर पर चित्रित हुआ था, मूल्य के स्तर पर नहीं । मूल्य के स्तर पर सोंदय को अभिव्यक्त करने के लिये इन्द्दे! इस युग के ऐतिहासिक तथा मनोवैज्ञानिक यथाथ पर गंभीर चिंतन मनन करना पड़ा। इस क्रम में इन्हे यह महसूस हुआ कि आज के अधिकांश कवि लेखक यथार्थ के नाम पर जो कुछ लिख रहे हैं, उसमें इस संक्रांतियुग के हासोन्मुखी विघटन के तत्व घुल मिल गए हैं, जिसके फलस्वरूप यथार्थ के नाम पर हासोन्मुख विघटित यथार्थ फा ही चित्रण होता रहा है। पंत जी को ऐतिहासिक यथार्थब्रोध पर निर्भर युगसत्य का ऐसा चित्रश एकांगी प्रतीत हुआ्आा, क्योंकि इसमें केवल समदिक्‌ वास्तविकता का ही समावेश संभव था । अ्रतः इन्होंने इस पकांगी यथार्थ फो अपर्णा मानकर उस नवीन स्वागीण यथाथ को चित्रित करना चाहा, जिसकी रध्वंगति बाह्य यथार्थ को अंतश्चेतन्य के प्रकाश से मंडित कर सके | इस तरह इन्होंने अपने छायावादोचर काव्य में, जिसे स्वशुकाव्य! या ब्चेतनाकाव्य' कहा जाता है, बाह्य ऐतिहासिक वास्तविकता को भीतरी छायाम देने का प्रयास फिया है। अतः यह कहना ठोक होगा कि पंत का संपूर्ण काव्यविकास अंतर्क्षवन को गुशात्मक उन्नयन देने कौ ओर तथा सोदर्यबोध फो अंतमू रुय बनाने बी ओर अग्रसर है। वस्तु, यथार्थ और समदिक्‌ जीवनमूल्यों की जैसी मी व्यास्या पंत जी अपनी सुविधा के अनुसार करे, इनके काव्य में कल्पना फा अविरल प्राथमिक महत्व है। इन्होंने सिद्धांततः स्वीकार किया है ओर यह स्वीकृति सोंदर्यशास्त्रीय मान्यता के अनुरूप ही है कि “कल्पना ही वास्तव में वह अनुभूतिग्राहिणी तथा रूपविधायिनी शक्ति है, जो काव्य का ग्राण है। वस्तु के रूप में प्रच्छुन्न फवित्व का उद्घाटन उसी की सहायता से संभव है |” इतना ही नहीं, पंत का स्पष्ट कथन है कि “कोई भी गंभीर व्यापक तथा महत्वपूर्ण अनुभूति काल्पनिक होती है।”* इस प्रकार पंत जी फाल्पनिक अनुभूति ( आइडिएटेड एक्सपीरिएंस ) को अधिक महत्व देते हैं और भोगी हुई श्रनु भूतियों या यथार्थालुभूतियों फो कम | संभवत: इसी फारण ये अपनी काव्यकल्पना के साथ ही छायावादी कल्पना की यह विशेषता मानते हैं कि इसमें “नई वास्तविकता के स्वप्नदर्शी नए आयाम” थे । ! छायावाद : पुनम्‌ ल्यांकन, पंत, लोकभारती, इलाहाबाद, प्रंथम संस्करण » पृ० ६२८। गज 2 द * उपरिवत्‌ | ३०० हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास एक छायावादी कवि के रूप में पंत का यह विशेष योगदान रहा है कि नहोंने छायावाद को 'रोमांटिसिज्म' तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे मानवीय संबोधि” से संपृक्त कर दिया । संभवतः इसी कारण आगे चलकर अपने आपको थुगकवि!? या युगपिक” कहने में पंत ने किसी आत्ममोह या अन्याय की भलफ नहीं देखी । सचमुच, पंत का काव्य विभिन्‍न युगप्रद्डतियों तथा आया र्मों में वितरित” है। विशुद्ध छायावादी रचनाकाल में भी माव-पक्त-गत कई संक्रांतियाँ इनकी फविताशओ्रों में मिलती हैँ । उदाहरणाथ, विशुद्ध छायावादी रचनाकाल के ही अंतर्गत परिवर्तन! शीर्षक कविता की रचना के बाद फाव्यचेतना में महत्वपूर्ण परिवर्तन छहुश्रा । कवि के इस परिवर्तित काव्यबोध की अ्रभिव्यक्ति ५पल्लव' की ही अंतिम कविता “छायाकाल!? में हुईं है। इसमें कवि ने अपने किशोर मन से बिदा लेते हुए कहा है--- स्वस्ति, जीवन के छायाकाल, मूक मानस के मुखर मराल, स्वस्ति, मेरे फवि बाल ! दिव्य हो भोला बालापन; नव्य जीवन, पर, परिवततन। स्वस्ति, मरे अनंग नूतन, पुरातन मदनदहन ! किंतु, छायावादी ओर नव्य गगुशवादी पंत के संपूर्ण काव्यविकास फो ध्यान में रखते हुए यह निश्नोत बात कह्दी जा सफती है कि 'पललव” ओर 'गुंजन' फी सूक्ष्म कलारुचि पंत की छायावादोत्तर कविताश्रों में नहीं मिलती है। माना कि पव्लवकालं की फविताओं में छलात्मक रूपमोह? अधिक मिलता है, तथापि यह सच है कि छायावादी पंत के प्रकृतिफाव्य का प्रक५े 'पललव!? में ही सुरक्षित है। “पल्लविनी! फी भूमिका में बच्चन का यह मंतव्य समीचीन है कि «प्रथम चरण में पंत जी की _ कहपना ने जिस भावप्रदेश में विचरण किया है, उसकी तुलना यदि पव॑त से करें, तो 'पललव' फो उसकी सबसे ऊँची चोटी'''मानना होगा [* ? द्ृष्ठव्य £ 'आत्मिका' शीषक कविता | “#शिल्प श्रौर दर्शन! की भूमिका । ३ द्रष्ठव्य ; पहल विनी, राजकमल प्रकाशन, चतुर्थ संस्करण, बच्चन लिखित ५एक हृष्टिकोण?, पृष्ठ ८ । अध्धशाई: [भाग १०] प्रमुख कवि : अन्य कवि २०१ पंत को छायावादी काव्यकृतियों के बीच ४ ल्लव? को सर्वश्रेष्ठ मानने में यह विग्रतिपत्ति की जा सकती है कि 'पल्लव” के प्रकाशनफाल या 'पतलव' में संकलित कविताओं के रचनाकाल में पंत के मन में छायावाद अथवा छायावादी काव्यांदोलन जैसी फोई चीज नहीं थी | 'पल्लव” की विस्तृत भूमिका में, जिसे अरब हम छायावाद का घोषणापत्र कहते हैं, 'छायावाद! शब्द नहीं आया है; यद्यपि यह भूमिका १६२६ ई० में लिखी गई थी | पंत ने स्वयं भी 'पत्लव” को छायावादी काव्यांदीलन की अग्नेसर कृति न मानकर इसे द्विवेदीयुगीन कविता का कलात्मक विकास माना है। इन्होंने लिखा है, “-***'पल्‍लवकाल तक फी अपनी कविता फो में द्विवेदीयुग की कविता का विस्तार नहीं तो विकास मानता आया हूँ! किंतु, यह आवश्यक नहीं है कि कवि की मान्यता हो तटस्थ और वस्तुनिष्ठ आलोचनात्मक विश्लेषण का भी निष्कर्ष हो | यह अवश्य है कि पंत की कृतियों में लायावाद! शब्द का पहली बार प्रयोग 'बीणा” की भूमिका में हुआ है, जो १६२७ ३० में लिखी गई थी। पंत ने यह भूमिका आचारय॑ महावीरप्रसाद द्विवेदी द्वारा छायावाद पर किए. गए उस आज्चेप के प्रत्युच्चर में लिखी थी, जो छुकवि किंकर! के नाम से सरस्वती” में प्रकाशित हुआ था। पंत के प्रत्युचर में इतना तल्ख विद्रोह्ट था कि उसे उस समय “वीणा? की भूमिका के रूप में प्रकाशित करना प्रकाशक के लिये संभव न हो सका | अरब वीणा! की वह अप्रकाशित भूमिका गद्यरथ' में संकलित है। किंतु, वीणा” की इस तिक्त श्रोर 'ताम्रनयन! भूमिका को तुल्नना में “पल्लव” की भूमिका का ऐतिहासिक महत्व, छायावादी काव्यांदोलन के विकास की दृष्टि से, अधिक है। यों, “पल्लव” की भूमिका भी ( विशेषकर इसका, पूर्वार्ध ) रत्नाकर जी के उर भाषण के ग्रत्युत्तर में लिखी गईं थी, जो भाषण उन्होंने हिंदी साहित्य संमेलन के वाषिकोत्सव के अवसर पर सभापति के पद से दिया था । : मगर धोणा” की भूमिका की तरह एक अत्युत्र होने पर भी “पल्लव? की पूमिका की महल तात्कालिकता से ऊपर उठा हुआ है। छायावादी कविता परंपरा से जिस ध्रस्थान' को लेकर चली, उसका शंखनाद “पल्लवः की भूमिका में ध्वनित प्रतिध्वनित है। अतः वादविशेष का नाम्ना निर्देश किए. बिना मी तद्गत प्रबृत्तियों का अग्नचारी स्तवन करने के कारण “्पल्लव” की भूमिका छायावाद के घोषणापत्र शिखर के तुल्य है। कै समान ही है तथा पंत की छायावादी फाव्यकृतियों के बीच 'पत्लव” सर्वोच्च ९ साठ वर्ष: एक रेखांकन, पंत, राजकमल भकाशन, दिल्‍ली, १९६० पृष्ठ ३३-३४ | ः द १०-२६ हँ हर ीः पर २०२ हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास 'पल्लव' की कविताओं के माध्यम से पंत ने खड़ीबोली में अपने 'प्रार्णों का संगीत” भर दिया ओर खड़ीबोली की काव्यमाषा के व्यंजनाविकास में अद्भुत योग दिया | पल्‍लवफाल से ही पंत काब्यसंगीत के प्रति पर्याप्त सचेष्ट रहे! । 'पहलव' से 'गुजन” तक इनकी छायावादी संगीतचेतना फा निरंतर विफाव मिल्लता है। इन्होंने अपनी विशुद्ध छायावादी रचनाश्रों में ( “उच्छुवास! से धगुजन' तक ) वर्णों की कोमलता और संवादी स्वरों के समायोजन पर विशेष ध्यान दिया है। इन्होंने कटु संयुक्ताक्षरों ओर रूह्षाछ्रों का बहुत कम प्रयोग किया है। अपने काव्यसंगीत के विकास की चर्चा करते हुए इन्होंने स्वीकार किया है कि धयुजन' के भाषासंगीत में जो सुधरता; मधुरता ओर श्लक्ष्णता है, वह 'पल्‍्लव” में अनुपस्थित है, गुजन' के संगीत में एकता! है, जबकि “पल्लव?” के खबरों में 'बहुलता! । इसी तथ्य को स्वीकार करते हुए इन्होंने यह मंतब्य व्यक्त किया है कि 'पतलव से गुंजन तक मेरी भाषा में एक प्रकार के अलंफार रहे हैं ओर वे अलंकार भाषासंगीत को प्रेरणा देनेवाले तथा भावसोंदय की पुष्टि करनेवाले हैं ।/* पंत ने छायावादी काव्यसंगीत फी संपन्‍नता के लिये मात्रिक छूुंदों फो ही उपयुक्त माना है। काव्यसंगीत के प्रति इनकी यही धारणा 'पल्लव? से गुंजन! तक स्थिर रही है। गुंघनोचर कविताओं में इनकी धारणा किंचित्‌ परिवर्तित हो गई है, जिसका युक्तियुक्त प्रतिपादन “उत्तरा! की प्रस्तावना में मिलता है। _* काव्यसंगीत के प्रति पँत के सुचितित दृष्टिकोण का सर्वोत्तम निदर्शन “पल्लव” की भूमिका में मिलता है, जिसमें पंत ने काव्यसंगीत के संबंध में निम्नलिखित मान्यताएं उपस्थित की हैं द द . संस्कृत का संगीत जिस तरह हिल्लोलाकार मालोपमा में प्रवाहित होता है, उस तरह हिंदी का नहीं । वह लोल लहरों का चंचल कलरव, बाल भांंकारों का छेकानुप्रास है “हिंदी का संगीत स्वरों की रिमश्मिम में बरसता, छनता, छनकता, बुदबुदों में उबलता, छोटे छोटे उत्सों के कलरव में उछलता किलकता हुआ बहता है । ख, “हिंदी का संगीत केवल मात्रिक छंदों में ही अपने स्वाभाविक विकास तथा स्वास्थ्य की संपूणता प्राप्त कर सकता है, उन्हीं के द्वारा उसमें सौँदय ... की रक्षा की जा सकती है।*“ हिंदी का संगीत ही ऐसा है कि उसके सुकुमार पदक्षेप के लिये वरणवृत्त पुराने फैशन के चाँदी के कड़ों की तरह बड़े भारी हो जाते हैं।! * आधुतिक कवि २, प्रयाग, संवत्‌ २०११, पृष्ठ १५-१६। है | | ६000 ३ उप फवरवाजश परत कारेतसउसाइकउ८परसम | भाग १० ] प्रमुख कंचि ४ अन्य कवि क्‍ . &6०३ गुंजनोत्तर कविताओं में, जो कथ्य ओर कथनमंगिमा दोनों ही दृष्टियों से छायावादी परिंवृत्त के बाहर पड़ती हैं, कवि ने काव्यसंगीत को प्रच्छुन्न सूक्ष्मता देने के लिये नम्न ( हस्व ) अंत्यानुप्रासों का विशेष प्रयोग किया है और दीघ अंत्यानुप्रार्सों को यथासंभव कम स्थान दिया है ! इन शेल्पिक सुक्ष्मताओं के कारण पंत को आधुनिक हिंदी कविता का एक उल्लेखनीय फाव्यशिल्पी कहा जा सफता है | पंत की काउ्यकृृतियों के बीच 'गुंजन” एक ऐसौ रचना है, जो इनके प्रकृति- काव्य के विकास की “इति' और विचारकाव्य का “अ्रथ' प्रस्तुत करती है | इसलिये पंत की विशुद्ध छायावादी साँदयंचेतना 'गुंजन' और विशेषतः गशुंजनपुव॑ँ कविताओं में ही मिलता है। *गुंबन'! को कविताएँ एक प्रकार की “आध्यात्मिक व्यथा! या 'मेटाफिजिकल एंग्विश” की दशा में लिखी गई हैं। “गुंजन” की एक प्रमुख कविता है-- तप रे मधुर मसंघुर मन |! विश्ववेदना में तप प्रतिपल, जगजीवन की ज्वाला में गल, बन अकलुष, उज्वल ओं' फोमल, तप रे. विधुर विधुर मन ! इन पंक्तियों में फवि की आ्राध्यात्मिक व्यया का, जो एक आनंदस्पशजनित व्यथा है, पता चलता है। फिर भी “गुंजन? में बाह्य जगत्‌ अर्थात्‌ प्रकृतिजगत्‌ ही प्रधान है। पंत ने में ओर मेरी रचना गुंजन! शीष॑क निबंध में इसे स्वीकार किया है कि ““““जनब्र मेंने गुजन की रचनाएँ लिखीं, मुझे बाह्य जगत्‌ इतना २ छुदोविधानगत क्रांति को समान रूप में स्वीकार करने पर भी पंत झौर निराला के काव्यसंगीत में उल्लेखनीय अ्रंतर है। स्वयं निराला के श्रनुसार उनका वर्शासंगीत जयदेव के भिन्न वरश-सौंदय-गर्भित संगीत से मिलता जुलता है, जबकि पंत का वर्णासंगीत कालिदास के वर्णासंगीत से साम्य रखता है। निराला का कहता है कि भिन्‍न वर्णासोंदय वाला संगीत ही ( भ्र्थात्‌ उनका संगीत ही ) खड़ी बोली की प्रकृति के भ्रधिक समीप है। निराला ने मेरे गीत और कला' शीर्षक लेख में पंत के काव्यसंगीत को वर्णविचार की हृष्टि से 'श-ण-ब-लः स्कूल का काव्यसंगीत कहा है, क्‍योंकि पंत के वर्णासौंदर्य का मुख्य श्रावार 'श-णा-व और ल' हैं। प्रबंबाप्रतिमा, निराला, भारती भंडार, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण, पु० २७४ । २०४ .... हिंदी साहित्य का बेहते इतिहास लुभाता रहा कि मुझे जैसे अपनी सुधि ही नहीं रही । बाह्य जगत्‌ से मेरा अ्रमिप्राय प्रकृति के जगत से है ॥!” पंत ने काव्य के मनोनीत तत्वों में 'सॉदयचेतना' को प्राथमिक महत्व दिया है। इनका फहना है कि कवि या कलाकार सबसे पहले सोॉंदय का खट्टा है क्‍योंकि उसे जगत्‌ और जीवन की कुरूपता को सौंदय में परिवर्तित करनों पड़ता है। इन्होंने सोंदयंचेतना का संबंध कवि के अनुभूतिसमृद्ध अंतर्जगत्‌ से माना है, जिसका एफ छोर “जगजीवन की अंतरतम स्वरसंगति? अर्थात्‌ शिवतत्व से संबद्ध है और दूसरा छोर स्वप्नों के स्वर्णिम प्रवाह श्रर्थात्‌ कल्पना से रसान्वित है । काव्यविकास के विश्लेषण की दृष्टि से यह कह्ा जा सफता है कि इन्होंने गुंजनोचर रचनाओं में, विशेषकर 'उत्तराः और उसकी परवर्ती स्वनाओं में, सोंदयबोध को अधिदर्शन ( भेटाफिजिक्स ) को दृष्टि से अंतमन का संगठन” माना है। फिंतु, वीणा, पल्‍लव ओर गुजन की रचनाओं में, जो इनकी प्रतिनिधि छायावादी रचनाएं हैं, इनकी सोंदर्यच्ेतना उन्नत मानसिक घरातल पर उपस्थित नहीं हो सकी है। कारण, इनकी प्रथम उत्थान की रचनाओं में सौंदर्य के दैद्िक संस्कारों . की छाप अ्रनेकत्र मिलती है। “अनंग के प्रति! या “भावी पत्नी के प्रति! लिखी गईं कविता की पंक्तियाँ इस तथ्य को उदाहनत करती हैं--. बजा दीघ साँसों की भेरी सजा सटे कुच फकलशाफार पलक पॉँवड़े बिछा, खड़े कर रोश्रों में पुलकित प्रतिहार; बाल युवतियाँ तान कान तक चल चघितवन के बंदनवार, देव | तुम्हारा स्वागत करती... खोल सतत उत्सुक ध्गद्वार । ( अ्रन॑ंग ) अथवा ग्रे वह प्रथम मिल्लनन अज्ञात । विकंपित मृदु, उर, पुलकित गात, सशंकित ज्योत्ना सी चुपचाप, 'जड़ित पद, नमित पत्चक दृगपात; १ शिल्प श्रोर द '॥! प्रथम संस्करण, पृ० १३० | ० यम का # ; ढ ः |! |, हे | जन: य--मापत् सारा अयतपत2 १३३२9 ५+ सन कतअ सन भभरपशरचप नर चरज ७ २०५२४५:-- भय 2 रच रच का +ज २ 5च आप चा पर आआ ८०२३-५० शाम रच लउअध्य पल यू २० पअनररथ रत . [भांग १० |)... प्रमुख कवि : अन्य कवि... $० पास जब थ्रा न सफोगी, प्राण ! मघुरता सें सी भरी अजान; लाज फो छुईमुई सी म्लान प्रिये, प्रार्णो की प्राण |. ( भावी पत्नी के प्रति ) इतना ही नहीं, पंत का संपूण प्रकृतिकाव्य मुख्यतः चाक्षप सौंदर्य पर निर्भर है। इन्होंने “आधुनिक कवि' की भूमिका में इसे स्वीकार किया है कि प्रकृति के साहचय ने ही इन्हें सोंदय, स्वप्न ओर कल्पनाणीवी बनाया है |! जेसा कि पहले कहा जा चुका है, पंत के कविज्नीवन का प्रारंभ एक प्रातिम प्रकृतिकवि के रूप में हुआ था, किंतु, उसकी परिश॒ति एक संक्रमणशील विचारक कवि के रूप में हो गई। इनके किशोरकाल की भ्ल्पचर्चित उपन्यास रचना “हार” से भी इनके प्रकृतिप्रेम और रूमानी स्वभाव फा ही पता चलता है। इसलिये इनको आरभिक रचनाश्रों में इनका विचारक रूप प्रकट नहीं हो सका है। जब छायावादी ज्वार भाटा बन गई और इनका विचारक रूप उभरकर सामने आा गया; तब इन्होंने छायावादी सौंदर्यवोध का विश्लेषणात्मक मूल्यांकन भी प्रस्तुत किया। इन्होंने श्राधुनिक' सोंदयबोध को दो प्रफारों में बाँठा है-- (१) यंत्रयुग का मध्यवर्गीय सॉंदर्यवोध और (२) यंत्रयुण का जनवादी सौंदर्यवोध । इनकी घारणा है कि मध्यवर्गीय सोंदर्यवोध रवींद्रनाथ ठाकुर के काव्यों में अपने उत्कर्ष पर है ओर इसी सोंदर्यबोध का प्रभाव छायावादी कविता पर पड़ा है।* छायावादी कविता के सॉदयंबोध की विवेचना फरते हुए पंत ने लिखा है कि छायावादी * आधुनिक कवि, भाग २, षष्ठ संस्करण, पृ० ८ | पंत सध्यकालीन सौंदयंबोध, मध्यकालीन जीवनमल्य श्रौर दार्शनिक मध्यकालीनतावाद के विरोधी हैं । भारतीय श्रध्यात्म के प्रकाश को रवींद्रताथ ठाकुर ने पश्चिम के यंत्रयुग के सौंदर्य से मंडित कर उसे पूर्व तथा पश्चिम दोनों के लिये समान रूप से आक- षंक बना दिया था। इस प्रकार नवीन युग की श्रात्मा के प्रनुकुल स्व॒रभंकृति प्रस्तुत कर कवींद्र रवींद्र ने एक नवीन सौंदर्यवोध का भरोखा भी कल्पना- .. शील युवक साहित्यकारों के हृदय में खोल दिया था। इन्हीं श्राध्यात्मिक, तथा सौंदयंबोध संबंधी भावनाओ्रों से हिंदी में छायावादी युग के कवि भी प्रभावित हुए थे ।--पंत, रश्मिबंध, राजकमल प्रकाशन, दिल्‍ली, १६४८, पृष्ठ ११। १०६ . हिंदी साहिस्य का बृहत इतिहास सौंदर्यवोध 'पूजीवादी युग की विकसित परिस्थितियों की वास्तविकता पर आधारित था? । इन्होंने इस छायावादी ( नवीन ) सौंदयबोध फो, जो रूपबोध शोर भाववोध दोनों का प्रतिनिधित्व करता है, छायावादी युग को सर्वोपरि देन के रूप में स्वीकार किया है। इसलिये हिंदी कविता को अन्य घारणाओं के प्रेमकाव्य में हम जहाँ रागमुलकता की प्रधानता पाते हैं, वहाँ छायावादी प्रेमकाव्य में सौंद्यंभावना की प्रधानता मिलती है। पंत ने चिंतन और सर्जन के घरातल पर सोंदर्य के चार तात्विक रुपों को स्वीकार किया है--नेसर्गिक सोंदर्य, सामाजिक सौंदर्य, मानसिक सोंदय झ्ौर श्राध्यात्मिक सौंदर्य | प्रायः यह देखा जाता है कि नैसर्गिक सॉदय अर्थात्‌ प्राकृतिक सौंदर्य फा विफास भावनात्मक सोंदय के #प में होता है। इसलिये वीणाकाल में जहाँ प्राकृतिक सौंदर्य कौ प्रधानता है, वहाँ “पत्लव” में भावना के सौंदर्य की। नेसर्गिक सोंदर्य पंत को बहुत प्रिय है, क्योंकि इनके लिये प्रकृतिसोंदर्य के अनेक सद्य:स्फुट उपकरणों फी मंजूषा है। आशय यह है कि पंत फी सोंदयचेतना के विकास में प्रकृति का उल्लेखनीय योग है ! इन्होंने वीणा” से लेकर 'गुंजनः तक की रचनाओं में प्रकृतिसौंदर्य के साथ प्रायः नारीरूप का मिश्रण कर दिया है। इन्होंने अपने छायावादी काव्यकाल को ध्यान में रखते हुए स्पष्ट लिखा है, 'प्रकृृति फो मेंने अपने से श्रलग, सर्जीव सत्ता रखनेवाली नारी के रूप में देखा है ।” अतः इनफी श्रनेक पंक्तियाँ इस धारणा फो चरिताथ करती हैं। जैसे --- उस फेली हरियाली में कफॉन अकेली खेल रही, माँ, वह अपनी वयवाली में। श्रथवा खेंच ऐंचीला अर सुरचाप, 8५ ५ गा नि शंल की सुधि यों बारंबार'** हिला हरियाली का सुदुकूल . भुला भरनों का ऋलमल हार; जलदपट से दिखला मुखचंद्र , पलक पल पत्ल चपला के मार; १ झाधुनिक कवि, भाग २, पंत, पष्ठ संस्करण, पृष्ठ |. । |! हे ! ः , । ॥ । | कु । ' [/ ॥/ ्। । ॥! | | ९ ः | *.॥ |; | हि [ भाग १० ) प्रदुख कवि ; अन्य कवि २०७ भग्न उर पर भूधर सा हाय | सुमुखि | घर देती है साकार। इस प्रकार प्रारंभिक कृतियों में पंत की सौंदर्यचेतना प्रधानतः प्रकृतिकेंद्रित है। फलस्वरूप, “वीणा! और “पल्लव* मुख्यतः प्रकृतिकाव्य ही हैं। कवि ने भी इसे स्वीकार किया है कि वीणा? और 'पल्लव? की स्वनाओं में उतकी सोंद्यलिप्सा की पूर्ति प्रकृति के द्वारा ही होती थी |. जी द इस संदम में यहाँ तक कट्टा जा सकता है कि पंत फो कवि बनाने का भेय प्रकृति को ही है | पंत ने स्त्रयं लिखा है, 'मेरे किशोरप्राण मूक कवि फो बाइर लाने का सर्वाधिक श्रेय मेरी जन्मभूमि के उस नैसर्मिक सौंदर्य को है, जिसकी गोद में पलफर मैं बढ़ा हुआ हूँ ।*''प्रकृति की रमणीय वीथिका से होकर ही में काव्य के भावविशद सौंदर्यप्रासाद में प्रवेश पा सका !” इसी तरह पंत ने अनेकत्र प्रकृतिसोंदर्य और काव्यप्रेरणा के संबंध में अपने भावुक उद्गार व्यक्त किए हैं | सचमुच, प्रकृतिसोंदर्य ही पंत की अनेक विस्मयभरी 3 दूभावनाओं के मूल में है । वोणाफाल (सन्‌ १६१५-२०) से ही प्रकृति इनकी कविताओं का आधारभूत कथ्य रही है। इसलिये वीणा” में प्रकृति की छोगी मोटी व्तुर्शा” को ही “कल्पना की तूली से रँंगकर' प्रस्तुत किया गया है। यह प्रक्ृंतिप्रेम “पत्लव' में अपना पार्यातक विकास पा गया है। यद्यपि 'पल्लव” की अ्रधिकांश रचनाएँ प्रयाग ऐसे शद्टर में लिखी गई” और छायावादी अ्रभिव्यंजना की सीमाएँ “पल्‍्लव” की सीमाएँ बनी रह गई” तथापि 'प्रकृतिसौंदय॑ और प्रकृतिप्रोम की अमभिव्यंजना 'पल्लवः में अधिक प्रांजल तथा परिपक्व रूप में हुई है।” “वीणा? और 'पब्लव? के प्रकृति- बोध का तुलनात्मक श्रध्ययन करते हुए पंत ने उचित ही लिखा है, 'वीणाकाल का प्राकृतिक सौंदये का प्रेम 'प्लव” की रचनाओ्रों में मावनाओं के सोंदय की माँग बन गया है और प्राकृतिक रहस्य की भावना ज्ञान की जिज्ञासा में परिणत * वीणा और पलल्‍लव, विशेषत:, मेरे प्राकृतिक साहचयकाल की रचनाएं हैं। वब प्रकृति की महत्ता पर मुझे विश्वास था और उसके व्यापारों में मुझे पूर्णाता का आभास मिलता था। वह मैरी सौदर्यलिप्सा की पृूत्ति करती थी, जिसके सिवा, उस समय मुझे कोई वस्तु प्रिय नहीं थी | “आधुनिक कवि, भाग २, पंत, षष्ठ संस्करण, पृष्ठ १०| पंत की उत्कृष्ट प्रकृतिकविताओं में “सोने का गान, निर्भर गाना, “मघुकरी', “निर्भारीः, “विश्ववेणुः और “वीचिविलासः शीर्षक कविताएँ विशेष महत्व रखती हैं| हर र्फ २०८ .... हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास हो गई है। वीणा की रचनाओं में जो स्वाभाविफता मिलती है, वह पल्लव में फलासंस्कार तथा श्रभिव्यक्ति के मान में बदल गई है।! प्रकृतिसोंदय के एक मधुर गायक के रूप में भी पंत ने छायावादी कविता का प्रतिनिधित्व किया है; क्‍योंकि छायावादी सॉंदयचेतना के मुख्य आधार ईं प्रकृति और नारी | प्रकृतिसौंद्य अथवा नारीसोंदय॑ का अंकन छायावादी कवियों को बहुत प्रिय रहा है। इन दोनों में भी प्रकृति छायावादी सोंदर्यदष्टि का सहजतम आलंबन है। पंत की फविताओं में प्राकृतिक उपादानों की प्रचुर नूतनता इसे पूर्णतः प्रमाणित करती दै। पंत ने प्रकृतिसौंदर्य को तीन माध्यमों से उपस्थित किया है-- चित्रधर्मी निसगंवर्शना द्वारा अंकित प्रकृतिसौंदर्य, भावधर्मी निसर्ग- बुना द्वारा अंकित प्रकृतिसौदये और संगीतधर्मी निसर्गंवर्शुना द्वारा अ्रंकित प्रकृतिसौंदय । किंतु, प्रकृतिसोंदय॑ और नारीसौंदय के प्रति एफ तादात्म्य इष्लि रखने के कारण पंत फी फविताओं में प्रायः प्रकृतिसौंदय पर नारी के रूप और क्रियाव्यापारों का आरोप मिलता है। श्रतः इनकी ऐसी कविताओं में मानवी- करण के सहारे प्रकृतिसोंदर्य का ऐसा मूर्त चित्रण मिलता है, जिसके साथ साँदय के प्रति शिशुसुलभ विस्मय और जिज्ञासा फी अपूर्व अभिव्यक्ति हुई है। जैसे, छाया” शीर्षक फविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ इस घारणा फो : पूर्णतः) चरिताथ करती ईँ-- कोन, फोन तुम परहितवसना, म्लानमना। भूपतिता सी, वातहता विच्छिन्न लता सी, रतिश्रांता ब्रजवनिता सी? फिस रहस्यमय अश्रभिनय फी तुम सजनि | यवनिका हो सुकुमार, इस शअश्रमेद्य पठ के भीतर है फिछः विचित्रता का संसार। इस सोंदय के प्रति अविरल शिश्वुशुलमभ निज्ञासा और विस्मय के साथ प्रकृति पर मानवीफरण के द्वारा नारी के रूपव्यापार का आरोप पंत के सौंदयंविधान की एक विशिष्ट प्रबृत्ति है | यों, छायावाद युग के अन्य प्रमुख कवियों की रचनाओं में भी इस ओर विशेष रुकान मिलता है। किंतु, यह प्रद्नृत्ति पंत की कविताश्रों में १ पललव, द्वितीयावृत्ति, पृष्ठ ७० | 6 डे ] हि | । ] । - ः । मर [ भाग १० ] प्रमुख कावि : श्रन्य कवि २०९ सबसे अधिक मिलती है। जैसे, 'नौकाविह्ारः शीर्षक कविता फी इन पंक्तियों न केवल प्रकृतिसोंद्य के साथ नारीरूप का मिश्रण कर दिया गया है, बल्कि ल्‍ प्रकृतिसोंदय के लिये प्रयुक्त सभी उपमानों को नारी की कोमलता में संधक्त कर दिया गया है-- जिनके लघु दीपों फो चंचल, अंचल की ओट किए अ्रविरल फरतीं लहरे' लुक छिप. पल पल | सामने शुक्र की छवि भलमल;, पैसरती परी सी जल में कल रूपहरे क्चों में हो ओरल । लहरों के घू घट से कुक कुक दशमी का शशि निज तियक मुख दिखलाता, मुग्धा सा रुफ रुफ | इतना ही नहीं, पँत ने अनेक स्थलों पर यहाँ तक लिख दिया है कि नारीरूप हो प्रकृतिसोंदर्य का मूल आस्पद है। अर्थात्‌, नारी का रूपलावश्य ही विच्छरित होकर प्रकृतिसाँदय के रूप में चतुदिफ्‌ फेल गया है। उदाहरणाथ, पंत ने भावी पत्नी के प्रति? शीर्षक कविता में लिखा है-- खोल सौरभ फा मृदु कचजाल सेघता होगा अनिल समोद, सीखते होंगे उड़ खगब्नाल तुम्हीं से कलरव, केलि विनोद, चूम लघु पद चंचलता, प्राण ! है फूटते होंगे नव-जल-खोत, मुकुल बनती होगी मुस्कान; प्रिये, प्राणी की प्राण | हि इसी भाव फो कवि ने “मधु स्मिति? शीर्षक कविता में शब्दभेद से व्यक्त किया है। उसे ऐसा लगता है कि उसकी प्रिया फी मुसकान ही प्रकृतिसौंदर्य॑के रूप में ल्‍ प्रसार पा गई है। तब वह विस्मयविमग्ध होकर अपनी प्रिया से पूछने ल्‍ लगता है--.... द ल्‍ कक _मुसकुरा दी थी क्‍या तुम, प्राण ! क्‍ ल्‍ मुसकुरा दी थी आज विहान ! ््ि ् : आज ग्रह वन उपवन के पास द लोटता राशि राशि हिमहास, १०-२७ 280 बडे +. ट ग २१० ... हिंदी साहित्य का इंहत्‌ इतिहास खिल उठी आँगन में अ्रवदात कुंद कलियों की कोमल प्रात | मुसकुरा दी थी; बोली, प्राण | मुसकुरा दी थी तुम अ्रनजान ९ इसी तरह “मघुवन' शीर्षक कविता में भी पंत ने प्रकृतिसोंद्य के दर्शन नारीरूप के गवाक्ष से किए. हैं। कवि को यह विश्वास हो गया है कि उसकी प्रिया की छुविमयी छुटा ही प्रकृतिसोंदर्य के रूप में फेल गई है--- आज मुकुलित कुसुमित सब ओर तुम्हारी छवि की छुटा श्रपार, फिर रहे उन्मद मधु प्रिय भौर नयन, पलकों के पंख पसार ! तुम्हारी मंजुल . मूर्ति निहार लग गई मधु केवन में ज्वाल। उपयु क्त उद्घरणों से पंत की कविताओं में प्रास्त प्रकृतिसोंदर्य पर नारी-रूप- व्यापारों के आरोप का पुर्णंत: स्पष्टीकरण हो जाता है। पंत की कविताओं में प्रकृतिसोंद्य ओर नारीरूप के इस तादात्म्य या मिश्रण! का एक दूसरा पहलू भी है, जिसे हम उपर्युक्त पद्धति का विलोम कह सकते हैं। यह दूसरा पहलू है--- नारीरूप पर प्रकृतिसोंदय का आ्रारोप। छायावादी कविता फी यह एक प्रमुख विशेषता है कि इसमें जहाँ सोंदयविधान के लिये मानवीकरण का मंडान बाँधा गया है, वहाँ प्रकृतिसाँदय पर नारीरूप और नारीसुलभ क्रियाव्यापारों फा श्रारोप कर दिया गया है; फितु , जहाँ नारी को मांसल सोंदर्य की स्थूल जड़ता से मुक्त करने का प्रयास किया गया है, वहाँ नारीरूप पर प्रकृतिसोंदर्य का आरोप कर दिया गया है ताकि नारी प्रकृति की रहस्यमयी शक्ति और भास्वर सौंदय से मंडित हो सके | दूसरी ओर, पंत ने जहाँ जहाँ प्रकृति के विराट रूप में कोई अ्मोध आकषण पाया है, वहाँ नारी का लावश्य इनकी नजरों के सामने उपस्थित हो गया है। 'स्नेह! श्रथवा भादों की भरन! शीषक कविताएँ इस दृष्टि से विशेष महत्वएश हैं। यद्यपि इनके प्रारंभिक काव्य में नारी के तन की प्रधानता यंत्र तत्न मिलती है, तथापि बाद की रचनाओं में इन्होंने निश्चय ही नारी के सांस्कृतिक मन फो महत्व दिया है। इसलिये इन्होंने अपनी बाद की कविताश्रों में सांस्कृतिक 2 ु [के रे क्‍ ५ ! पल्लेडिनी, पंत, तृतीय संस्करणा, पृष्ठ १५०। अदा सदा: 24८ समर“ /. | |! हा । की । | ] जब । | है हि | [| की | असर ंकालओ तक [ भांग १० ] प्रमुख कवि : अन्य कवि. है १११ शोभा सुषमा में लीन आ्राभादेही नारी फो विशेष महत्व दिया है तथा एक दाशनिक की तरह “देहमोह” और 'देहद्रोह” का प्रश्न उठाया है। .. कुल मिलाकर पंत की सोंदर्यचेतना ने विकास की एक लंबी डगर तय की है। इनकी प्रारंभिक कविताओं में किशोर प्रवृत्ति के कारण मांसल सौंदय की चाचुष अंगिता मिलती है। इन्होंने अपने सांदर्यवोध की विकासप्रक्रिया फो संकेतित करते हुए. लिखा है कि 'जब तक रूप का विश्व मेरे द्वृदय को श्राकर्षित करता रहा, जो कि एक किशोर प्रबृत्ति है, भेरी रचनाओं में एंट्रिक चित्रर्णा फी कमी नहीं रही । प्राकृतिक अनुराग की भावना क्रमशः सोंदय॑प्रधान से भावप्रधान ओर भावप्रधान से ज्ञानप्रधान होती गईं ।' इनकी गुजनोचर कविताओं में सौंदर्य की मांसल निविड़ता घटती गई तथा सोपान आरोहण के सदश इनकी ऊध्व॑मुखी 'सोंदरयकल्पना क्रमश: आत्मकल्याण और विश्वकस्थाण की भावना को अभिव्यक्त करने के लिये! मांगलिक उपादान बन गईं। इन्होंने स्वयं ही लिखा है, «ज्योत्त्ना तक मेरे साँदययंबोध की भावना मेरे एऐंद्रिक हृदय को प्रभावित करती रही है, में तव तक भावना ही से जगत्‌ फा परिचय प्राप्त करता रह्य, उसके बाद मैं बुद्धि से भी संसार को सममने की चेष्टा फरने लगा हूँ?! ऊकिंठ, इनकी सॉंदर्यचेतना के विकास ने इस स्तर पर पहुँचकर अंतिम रूप नहीं ग्रहण किया है, क्योंकि इनकी सोंदयचेतना का प्रकर्ष 'स्वर्शुकिरण”ः ओर उसके परवर्ती संग्रहों को उन रचनाओं में मिलता है, जिन्हें इन्होंने “नवीन सगुण' से उत्यित 'चेतनाकाव्यः कहा है। यहाँ पहुँचकर इनकी सॉंदयचेतना सूक्ष्मता, आध्यात्मिकता और अधिदर्शन (मेटाफिजिक्स) की संगमभूमि पर पूर्णुत: अधिष्टित हो गई है। पंत की प्रतिनिधि छायावादी कविताएँ फल्पना की श्रनुगूँज से मरी हुई हैं । इन्होंने यहाँ तक स्वीकार किया है कि कल्पना का सत्य सबसे बढ़ा सत्य होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि श्रात्मनिष्ठता ओर अंत्जगत्‌ से चालित होकर इन्होंने छायावादी कल्पना फो बहिजगत्‌ के कृत्रिम बंधनों ओर श्रधीक्षणों से मुक्त माना है। संभवत: इसीलिये इन्होंने छायावादी कवियों की कल्पना को 'मुक्त कल्पना? की आख्या दी है। इनके श्रनुसार मुक्त कल्पना? तर्क॑सिद्ध' सत्य, रूढ दृष्टि और _ बस्तुनिष्ठ यथातथ्य से दूर रहती है तथा उसमें भिन्‍नवर्णी बिंबों फी योजना के द्वारा प्रस्तुत होनेवाले सॉदय की बहुविध छुटाओं का आलिंपन फोशल रहता है। पल्लव! में संग्रहीत इनको “नक्षत्र” शीषंक कविता की अ्रनेफ पंक्तियाँ छायावादी मुक्त कल्पना को उदाह्मत करती हैँ- ९ झ्ाधुनिक कवि, भाग २, पंत, छठा संस्करण, पृष्ठ १५। ११३ 77“... हिंदी साहित्य का बूंहत्‌ इतिहास अग्निशस्य ! रवि के चिह्नत पग | म्लान दिवस के छिंनन वितान ! #द्क की क्छा कक दिवससोत से दलित उपलदल ! स्वप्ननीड़, तमज्योति घवल | इस मुक्त कल्पना फो पंत ने “ऊर्णुनाभ कल्पना', 'सर्जनशील फल्पना',अंतमुखी कल्पना), 'प्रगल्म कल्पना? इत्यादि कई नामों से अमिहित किया है। कल्पना फा यह रूप इनकी गुजनफाल तक फी उन रचनाओं में प्रचुरता के साथ मिलता है, जिनमें सूक्ष्ता और भावात्मकता फी ओर फवि का विशेष आग्रह है। इन्होंने खवयं भी लिखा है कि “गुजन' तक की भाषा कल्पना के सूक्ष्म सोंदय से गुंजित” है | इस प्रसंग में यह लक्ष्य करने योग्य है कि जिस प्रकार इनकी प्रारमिक ( विशेषकर पल्‍लवकालीन ) सौंदर्यचेतना नारी? से संपृक्त है, उसी प्रकार इनकी प्रारंभिक कल्पना? के मूल में भी 'नारी' श्रवस्थित है। उदाहरणाथ, 'उच्छुवास* की बालिका” शीर्षक फविता ( पहले “पल्लव” की सावन! शीर्षक कविता में प्रकाशित ) में किशोर कवि ने नारी को कल्पना को कत्पलता के रूप में स्वीकार फिया है-- १ पलल्‍लव, इंडियन प्रंस, इलाहाबाद, १६३१, पृष्ठ 5८५ । * श्ाघुनिक कवि, भाग २, षष्ठ संस्करण, पृष्ठ १२। ३ “मतवाला' (३ मई, १६२४, प्रृष्ठ ६५६ ) में प्रकाशित निराला के एक लेख से ऐसा लगता है कि निराला पँत की इस कविता ( 'उच्छवास' ) से बेतरह प्रभावित थे। पंत की इस पंक्ति--'निरालापन था आभूषन!--पर निराला लट्टू थे। मानो, पंत ने इन्हीं के निरालिपन को “आशभूूषनः कहा हो [ उक्त लेख में निराला ने पंत को खड़ीबोली का पहला 'स्वाभाविक कवि” और हिंदी का “गौरवकुसुम” कहा है | पंत की संगीतचेतना की प्रशंसा करते. हुए इन्होंने लिखा है, 'पंत जी में कविजनोचित सभी ग्रुण हैं। भाप हारमोनियम, क्लैरिओनेट श्रादि भी बजाते हैं और गाते भी हैं बड़ा ही सुंदर । जिस समय आप सस्वर कविता पढ़ने लगते हैं, उस समय आपकी सरस शब्दावली और कमनीय कंठ श्रोताश्रों के चित्त पर कविता की मूर्ति ग्रंक्तित कर देते हैं!” लेख के अ्र॑त में निराला ने यहाँ तक लिख दिया है, 'खड़ीबोली में प्रथम सफल कविता आप ही कर सके हैं ।--मतत्राला, रे मई, १६२४, पृष्ठ ६६० । क्‍ ्ि | ४ |] रा ही |; !' हक ५४ हा ४ | ् प्रमुख कवि : अन्य कवि ।क्‍ कह उसे कल्पनाओ्रों की फल कफल्पलता अपनाया, बहु नवल भावनाओं फा उसमें पराग था पाया। छायावादी कवियों के बीच पंत की कविताओं में “फेंसी! का विनियोग सबसे अधिफ हुआ है । विशेषकर, इनकी प्रारंभिक कविताओं, जैसे वीणाकाल्लीन रचनाओं में “फंसी? की प्रचुरता है | “वीणा? का बालकवि कभी तुहिनबिंदु बनना घाहता है, फमी तरल तरंग और कभी कुमुदकला-- ल्‍ तुहिनबिंदु. बनकर सुंदर कुमुदकिरण से सहज उतर ७ ७ के आओ है ह। । है कुमृदकला बन फलहासिनि, | अमृतप्रकाशिनि, नभवासिनि, तेरी आ्राभा को पाकर माँ | जग फा तिमिर त्रास हर दूँ-- द नौरव रजनी में निर्भय। ध्वीणा? में इस प्रफार फौ अतिकल्पना से ग्रस्त और मी कविताएँ मिलती हैं| जैसे, कृषि विहगबाला से कहता है-- क्‍ है स्वर्शनीड़ मेरी भी जगठपवन में, मेँ खग सा फिरता नीरव भावगगन में, उड़ मृदुल कक्पनापंखों में, निन्ञन में, हक चुगता हूँ: दाने बिखरे तून में, कन में |' ल्‍ पंत के प्रौढ़िकाल की कुछ रचनाओं में भी अतिकल्पना की अविरल झ्राफाशगंगा ल्‍ मिलती है। पंत फी दृष्टि में श्रतिकल्पना कल्पना का वष्ट रूप है, लो किसी प्रकार के वस्तुसंपृक्त आधार से एकदम ह्दीन रहता है। श्रतः: इनके शब्दों में इम क्‍ . अतिकल्पना? को कल्पना का अ्रनिवंचनीय इंद्रजाल फट्ट सकते हैं। इस “अनिर्वंचनीय इ द्रजाल' का नमूना “बादल” शीषक कविता फी इन पंक्तियों में । । । * वीणा, पंत, इंडियन प्रेस, १६४२, पृष्ठ ४८ । २३१४ हिंदी साहित्य का झूंहत्‌ इतिहास " नग्न गगन की शाखाओं में फेला मकड़ी का सा जाल अझंबर के उड़ते पतंग को उलमका लेते इम तत्काल । है पंत फी कई कविताओं में अतिकल्पना के साथ वर्शुबोध का सुष्ठु मिश्रण मिलता है। उदाहरणाथ “पब्लव” में संगहीत “भादों फी भरन” के प्रथम खंड फी इन पंक्तियों फी देखा जा सकता है--- द घधकती है जलरदों से ज्वाल, बन गया नीलम व्योम प्रवाल; गाज सोने का संच्याकाल; जल रहा ज्ञतुगह सा विकराल । तदनंतर पंत ने कल्पना के पाश्व॑ में प्रदोलित होनेवाली श्रतिकल्पना का भी प्रयोग किया है। ऐसी अ्तिकल्पना के एक रूप को हम सावयव श्रतिकस्पना कह सकते हैं | सावयव श्रतिकल्पना में 'फेंसी' से आनीत अ्रप्रस्तुतों ओर बंकिम उक्तियों का एक अविरल क्रम रहता है। पंत को सावयव अतिकद्पना बहुत ही प्रिय है। अशथि' में नायिका के रूपवर्णन के प्रसंग में इन्होंने इसका सुंदर प्रयोग किया है--- देख रति ने मोतियों की लूट यह; मृठुल गालों पर सुम्रुखि के लाज से लाख सी दो लरिंत लगवा, बंद फर अधर-विद्र म-द्वार अपने फोष के ।' पंत के फल्पनाविधान में जहाँ प्रकृति के निरीक्षित सौंदर्य का पुठ रहता है, वहाँ इनकी कविता में एक विशेष प्रकार का लावश्य मिलता है। इस प्रकार फी कल्पना का सुंदर उदाहरण “'वीचिविज्ञास” शौष॑क कविता में मिलता है-- अंगमंगि में व्योम मरोर, भोंहों में तारों के भौंर नचा, नाचती हो भरपूर, तुम किरणों की बना हिंडोर, ₹ ग्रंथि, पंत, तृतीय संस्करण, पृ० १४। 2 ,एएएणा शा 3 कलम नल कु ! हे | रे ईं ॥ । | ; । 'ज॒8सवजतकनद दाद बदतसरासजावावचहातच जार बल मम कफ आम ७एएएएएणाश जम नकद नवीकनीली 2७७७४४७््ण 3 अब [साग १०]. प्रमुख कवि : अत्य कवि २११ निज अधरों पर फोमल क्रूर शशि से दौपित प्रशयकपूर दी का चुंबन कर चूर ।* यहाँ वीचियों पर तारों की छाया का भोंरना; लहरों का किरणों के साथ नाचना और लहरों पर चाँदनी फा छिटकना प्राकृतिक सोंद्य का निरीक्षित या यथार्थ पक्ष है, जिसपर उपयुक्त पंक्तियों में कल्पना की सहायता से नई मीनाफारी कर दो गई है । इसी तरह की एक कविता प्रथम रश्मि का आना रंगिणि, तूने कैसे पहचाना? “वीणा” में संकलित है, जिसकी रचना कवि ने बनारस में रहते समय की थी । कल्पना प्रणवता और बारीक सौंदर्यचेतना के कारण पंत की रुचि गत्वर बिंबों की ओर अधिक है। गत्वर बिबविधान के द्वारा गतियुक्त वस्तुओं; स्थितियों अथवा दृश्यों का अंकन प्रस्तुत किया जाता है। स्थिर वस्तुश्रों, स्थितियों श्रथवा दृश्यों के अंकन फी अ्रपेद्षा यह कार्य फठिन होता है, क्योंकि इसमें कवि फो श्रप्रस्तुतों की ऐसी योजना फरनी पड़ती है कि संकेतों से ही गति के गोचर प्रत्यक्षीफरण का आभास मिल सके | पंत ने गत्वर बिंबविधान के दोनों रूपों-- संस्मृत ओर तात्कालिक का आकर्षक प्रयोग फिया है। तात्कालिक गत्वर बिंब- विधान में सद्यःप्रत्यज्ञ दृश्य, स्थिति अ्रथवा वस्तुविशेष का गतियुक्त अ्रंफन प्रस्तुत किया जाता है। इसमें देशकालगत सामीप्य के कारण आलंबन के प्रति आश्रय का भावावेग अपेक्षाकृत अधिफ तीत्र होता है। पंत की “अआमयुवती' शीषक कविता की निम्नलिखित पंक्तियों को हम ऐसे बिंबविधान के अंतर्गत उदाह्मत कर सफते हैं--- सरकाती प८ खिसकाती लट,-- शरमाती ऋूट वह नमित दृष्टि से देख उरोजों के युग घट उपरिनिर्दिष्ट संस्मृत और तात्कालिक गत्वर बिंबों के अलवा पंत ने मूलतः स्थावर दृश्यों श्रथवा वस्तुओं में भी गति की योजना प्रस्तुत की है। जैसे, इन्होंने अपनी भाषा के प्रसिद्ध शचित्रराग” का सहारा लेते हुए. स्थिर पर्वत का गतिशील चित्र इस प्रकार उपस्थित किया है-- १ पहलविनी, पंत, तृतीय संरकरणा, पृ० १०१॥ कि कै टिकट तल श््दः हिंदी साहित्य का बृहदत इतिहास . उड़ गया श्रचानक, लो भूधर फड़का श्रपार पारद के पर। रशेष रह गए हैं निर्भर है टूट पढ़ा भू पर अंबर।! यहाँ उड़ने! का क्रियासौष्ठव जोड़कर स्थावर पव॑त को गतिशील बना दिया गया है। इसी तरह पंत की कविताओं में गतिबोधक ब्रिबों के श्रनेक उदाहरण मिलते हैं। जेते, 'नोफाविहार? शीर्षक कविता में इन्होंने नाव की मृदु मंथर गति को चित्रित करते बुए इस कलात्मक गत्वर बिंब को प्रस्तुत किया है-- मृदु मंद मंद, मंथर मंथर, लघु तरणि, इंसिनी सी सुंदर द तिर रही खोल पार्लों के पर | किंतु, इनके अधिकांश गत्वर बिंब क्रियासौष्ठव से युक्त हैं, जो स्ंथा स्वाभाविक है; क्योंकि एक विशिष्ट क्रिया अथवा विभिन्‍न प्रकार की साधारण क्रियांश्रों के योग से फाव्यनिबद्ध वस्तु, दृश्य या स्थिति में गतिशीलता की अवतारणा सहज हो जाती है। अतः इनकी (प्रथम रश्मि! शीर्षक कविता में विभिन्‍न प्रफार की क्रियाओं के योग से द्टी क प्रद्धतं गतिबोधक बिंब को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है-- निराफार तम मानों सहसा ज्योतिपुंज में हो साकार, बदल गयो द्रुत नगतूजाल में घधरकर नामरूप नाना; सिहर उठे पुलकित हो द्रमदल सुत्त समीरण हुआ अ्धीर, मभलका हास कुसुमअधरों पर हिज्ञ मोती का सा दाना; खुले पलक, फेली सुवर्ण छवि, खिली सुरभि, डोले मधुबाल |" इसी तरइ पंत ने आँसू” शीर्षक कविता में क्रियासौष्ठव के सहारे बल खाती हुई लहरों का गतिबोधफ बिंब प्रस्तुत किया है--- ला ) पललविनी, पंत, तृतीय संस्करण; पुृ० ६६। + वीणा, पंत, १६७२, पृष्ठ ५४। अलवर ाशसंकेसा सदा सपाउक ९ २ध२ 2९ उपर पक दिस ९-२ < ०5-5८ घ्धा८ 3०८८ डा८८पतइथ८ २० हद ३ 22533” रो मर मिल रस लक [ भाग १० ] . अम्ुख कवि ; अन्य कवि .. २१७ क्‍ नवोढ़ा बाल लहर अचानक उपकूलों के प्रसू्नों के ढिग रुककर सरकती है सत्वर |! उपयुक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि पंत की कविताओं में क्रियासोष्ठव और गति ( वेग ) पर श्राश्रित अश्रनेक आवर्धक बिंब हैं, कितु, इनकी रचनाओं में बेग के क्‍ साथ उद्भेद से संबद्ध विब, शायद अपनी परुषता के कारण, कम मिलते हें। बात यह है कि वेगोद्मेदक बिंबों में गति और ध्वनि ( उद्भेद ) का विरूप मिश्रण रहा करता है। अतः वेगोद्भेदक बिंबों की रुक्ष प्रकृति कोमलप्राण पंत को श्रनुकूल नहीं पड़ी है। फिर भी पंत ने 'परिवर्तन” शीषंफ कविता में तीन वेगोद्मेदक बिंबों हि को सृष्टि की है, जो इस प्रकार हैं-- क--श्रहे वासुफि सहखफन ! लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे चिह्ृ निरंतर छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्तःस्थल पर शत शत फेनोच्छवसित, स्फीत फूत्कार भयंकर क्‍ घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अबर | ख--अ्रये, एक रोमांच तुम्हारा दिगूभूकंपन, द द गिर गिर पड़ते भीत पक्षिपोतों से उडुगन, आलोड़ित अंबुधि फेनोन्नत, कर शत शत फन पुग्ध भुजंगम सा, इंग्रित पर करता नर्त॑न | ः ० दिरक्पिजर में बद्ध गजाधिप सा विनतानन बे वाताहत हो गगन द आतं करता गुरु गर्जन | द ग--ब्रजा लोहे के दंत कठोर क्‍ ये कँ * नचाती हिंसा जिह्नला लोल: सकुटि के वक्र मरोर फहुकता अंघ रोष फन खोल । कोमल ओर संवेदनशील कविस्वभाव के कारण पंत की रुचि अधिकतर सहसंवेद- ल्‍ हू] ॥] यु | ४ ।. ७ आह“ ५ ५-१५ » है. न हे 4 हिमाल: १०-०८ -श्श्द हिंढी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास नात्मक मिश्र बिंबों की ओर है। सहसंवेदनात्मक मिश्र बिंब में शारीरिक और मानसिक--अनेक प्रकार के संवेगों, संवेदनों या अनुभूतियों का मिश्रण रहता है। जैसे, पंत ने गंंजन' में लिखा है--- दूर, उन खेतों के उस पार, जहाँ तक गईं नील मंकार छिपा छायावन में सुकुमार। ब्ग की परियों का संसार। यहाँ नीलिमा के साथ मँकार या भंकार के साथ नीलिमा का पसंग्रथन इंद्विय- संक्रांति पर निर्भर रहने के कारण मिश्र बिंत्र का रोचक उदाहरण प्रस्तुत करता है। इसी तरह एक तारा शीर्षक कविता में भी मिश्र बिंब का सुष्ठु प्रयोग पा हुआ है-- क्‍ गुंजित श्रलि सा निर्जन अपार, मधुमय लगता घन अंधकार इलका एकाफी व्यथामार ! क्‍ यहाँ धवन अंधकार? चाश्षुष प्रत्यक्ष से संबद्ध है, किंठु; उसके उपमान “अलि? का द विशेषण “गुंजित' श्रावण प्रत्यक्ष से संबद्ध है। इस प्रकार यहाँ चाक्षुप और गे भावण--दो प्रकार के बोधों का मिश्रण प्रस्तुत किया गया है। पंत ने पल्लवकाल जा में ही यह अनुभव फर लिया था कि खड़ीबोली फो समृद्ध बनाने के लिये उसे के रूपबोध, रसबोध ओर गंघबोध से भरता होगा ।* जिस तरह संपूर्ण रवींद्रकाव्य के वेचारिफ पक्ष फो समझने के लिये ये चार अप्रस्तत--'खेया घाट,” मुक्त वातायन”, बाँका पथ? ( जिशजेग वे ) ओर एक तारा---मूलाधार का काम करते हैं, उसी तरह छायावादी पंत के वेचारिक पक्ष को समभने के लिये ये चार अ्प्रस्तुत मूलाघार का काम करते हैं-- नोकाविहर, एक तारा; चाँदनी और भ्रमर ।' ? ८हम खड़ीबोली से श्रपरिचित हैं, उसमें हमने अपने प्राणों का संगीत भभी नहीं भरा | उसके शब्द हमारे हृदय के मधु से सिक्त होकर भ्रभी सरस नहीं हुए, वे केवल नाममात्र हैं; उत्में हमें रूप-रस-गंध भरवा होगा !--पंत, पल्‍लव, १६३ ९१, पृष्ठ ८ । २ पंत के परवर्ती काव्यविकास में भी कुछ अप्रस्तुत मुलाघार का काम करते हैं | से--आरोहरा, श्रवरोहण ( शक्तिपात ), समदिक संचरण शऔर शिखर । | हिमालय सौवर्या, रजतशिखर इत्यादि | यहाँ यह ध्यातव्य है कि शिखर” ऐसे 'वटिकल सिबल का कविमन श्र पाठकों के हृदय पर एक है ल्ररा समानुभूतिक प्रभाव ( इंपेथिक इंप्र शन ) पड़ता है। सौवर्णो, असल दपवापलल सूरत ८ कार वसा पाप बहन पि है टकााकालाडनक्एसलापफ2 रे कर [ भोग १० ] द . प्रमुख कवि 5 अन्य कवि २१९ महादेवी महादेवी वर्मा ( जन्मकाल : २४ मार्च, १६९०७ ई० ) का जन्मस्थान फरुखाबाद है। इनकी प्रारंभिक शिक्षा घर में और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा क्रास्थवेट गल्स कॉलेज, प्रयाग में हुई | इन्होंने १६९३३ ई० में प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम० ए्‌० की उपाधि ली | छायावादी चतुष्टय में अ्रन्य किसी कवि ने इतनी उच्च विश्वविद्यालयीय शिक्ञा नहीं प्राप्त की थी। परीक्षाफल की दृष्टि से भी महादेवी वर्मा का छात्रजीबन प्रथम फोटि का. था--पुरस्कारों ओर पदकों से भरा हुआ ये पहले ब्रजमाषा में कविता किया करती थीं। इनके नाना ब्रजभाषा में अच्छी कविताएँ लिख लेते थे । संभवत: इस कारण भी ये प्रास्भ में बजमाषा की समस्‍्यापूर्ति और पदों की रचनाएँ किया करती थीं। इन्होंने खड़ीबो ली में जो पहली कविता लिखी, उसका शीर्षक हैं दिया?! | “दिया? शीर्षक कविता की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-- द द धूलि के जिन लघु करणों में है न आभा प्राशु, तू हमारी ही तरइ उनसे हुआ वपुमान | आग कर देती जिसे पल में जलाकर क्षार, है बनो उस तूल से वर्ती नई सुकुमार | तेल में मी हे न आमा का कहीं आभास, मिल गए सच तब दिया तूने असीम प्रकाश | धूलि से निर्मित हुआ है यह शरीर ललाम, आर जीवनवर्ति भी प्रश्नु से मिली अ्रमिराम। प्रंभ का ही तेल भर जो हम बने निःशोक, तो नया फंले जगत के तिमिर में आलोक । यह एक अपूर्व संयोग है कि इनकी पहली कविता सें वर्शित दिया ( दीपक )ही ४हिमालय” या हिसादि' के रूप में पंत करा यह 'शिखर? प्रतीक बहुत ही : अ्रभविष्णु बनकर उपस्थित हुआ है| पंत का हिमालय अनुराग “शिखर” की ही प्रतीकोपासना है । रूस में हिमालय से संबद्ध पंत की कविताओं का एक अलग संग्रह तैयार किया गया है, जिसका नाम है 'सुमित्रानंदन पंत का हिमालय ग्रंथ ।” इस पुस्तक को निकोलाई रोएरिक के हिमालय संबंधी चित्रों से और भी नयनाभिराम बना दिया गया है। ०७० 233 4 ड़ हि हम >है> ०, किया थां-- १३१० हिंदी साहित्य का बुदत्‌ इतिहास इनकी प्रोढ़तम फाव्यकृति “दीपशिखा” का श्राधारबिब बन गया । अतः इस (दिया! शीर्षक कविता फो हम 'दीपशिखा? का सुदूर पू्वॉभास कह सकते हैं । े दिया? शीर्षक कविता की रचना के पहले भी इन्होंने सड़ीब्ोली में कविता फरने का बाल प्रयास किया था। किंतु, खड़ीबोली को ण्क दो का के बाद उस कविता में फिर ब्रजमाषा आ जाती थी। जेसे, इनकी एक कविता की प्रारंभिक पंक्ति खड़ीबोली में इस प्रकार है--'आश्रों प्यारे तारे ओआआश्रो, मेरे गन में बिछ जाओ |? किंतु, इसके बाद की शेष पंक्तियाँ ब्रजभाषा फो समस्या- पूर्ति शैली में इस प्रकार हैं-- | ग्रागम है दिन नायक को; अरुनाई भरी नम फो गलियान में, सीरी सुमंद बतास बही, मुस्कान नई बगरी कलियान ने । संख़ धुनी विरुदावलियाँ अ्रव गुंजित हैं खग ओ अलियान सर वारन के ह्वित फंजकली मुकुताइल जोरि रही अखियान में ।* इसके श्रतिरिक्त महादेवी अपने बालप्रयास में कभी कमी ब्रजमाषा की किसी अश्रच्छी काव्यपंक्ति फो खड्ीबोली में रूपांतरित भी कर देती थीं। जेसे इन्होंने मेष बिना जलबृष्टि मई है! का खड़ीबोली में रूपांतरण इस प्रकार हाथी न अ्रपनी रूँड में यदि नीर भर लाता अरहो तो किस तरह बादल बिना बलवबृष्टि हो सकती कहो ९ इस तरह महादेवी ने प्रारंभ में ब्रजमाषा के पद, कविच सबए की समस्यापूर्ति आदि लिखने के बाद पूणुत: खड़ीबोली की काव्यरचना में प्रवेश किया। माध्यमिक कच्चाओं में पढ़ते समय इन्होंने सों छुंदों का एक करुण खंडकाव्य भी लिख था । उस समय इन्होंने अबला' और “विधवा! शीषक जैसी कई विवरणात्मक कविताएँ लिखी थीं, जो चाँद, आय महिला! एवं महिला जगत” इत्यादि में प्रकाशित हुई थीं। इन फविताशओ्रों से ही इस बात की पूर्वफलक मिलती है कि 'पुरुषनिरपेक्ष नारीव्यक्तित्व” फो स्थापित करना महादेवी के श्रागामी जीवनक्रम का एक लक्ष्य था। इन्होंने कालेज जीवन में एक फाव्यरूपक फी रचना की थी; जिसमें वसंत, फूल, श्रमर, तितली, वाथु इत्यादि हो पात्र बनाया गया था। इसी तरह इन्होंने “भारतीय नारी! नामक एक नाटक भी लिखा था । कितु, थ्रागे खलकर इन्होंने... । . * द्रव्य : महादेवी संस्मरणा ग्रथ, संपादक, सुमित्रालंदन पंत, लोकभारती प्रकाशन, इताहाबाद, १६६७; ४० १३ । द ष् 2७७७७ आल नकल ब [ भांग १० ] प्रेमख कवि : अन्य कवि. २२६ इन विधाओं में कोई विशिष्ट रचना नहीं फी। इनकी प्रारंभिक रचनाओं को प्रफाश में लाने फा सर्वाधिक श्रेय चाँद! को है। उस समय श्री रामकृष्ण मुकुंद लघाटे चाँद” फा संपादन करते थे। “चाँद के प्रथम वर्ष में ही महादेवी फी कई कविताएं प्रकाशित हुई थीं, जिनमें कुछ के शीर्षक इस प्रकार ह--“ंद्रोद्य', चाँद', मारतमाता', “थघन्यवाद', 'श्रबला', विधवा “वसंतोपहार', होली? इत्यादि । द महादेवी को मोलिक साहित्यसजन के साथ ही संपादनफकाय और रचना- त्मक कार्यों में गहरी रुचि है। इन्होंने कई पत्रों--जैंस, ध्वाँद', महिला? और साहित्यकार! का सफल संपादन किया है। इनके रचनात्मक कार्य फा एक उज्वल उदाहरण रसूलाबाद, प्रयाग में साहित्यकार संसद्‌ की स्थापना है। वथित्री होने के साय ही महादेवी अच्छी चित्रकरत्री हैं। इन्होंने चित्रकला में दक्षता का अजन आमभ्यातिक दंग से नहीं किया है। ये तो एक प्रातिम चित्रकर्त्नी हैं| इन्होंने चित्रकला की शिक्षा विधिवत्‌ नहीं प्रात्त की है। कहने भर के लिये न्होने बचपन में ही सदाशिव राव नाम के एक मराठी सज्जन से चित्रकला की प्रारंभिक शिक्षा पाई। बाद में इनकी चित्रकला पर शंभूनाथ मिश्र, वर्दा उकील श्रॉर कनु देसाई का आंशिक प्रभाव पड़ा । किंतु, यह प्रभाव भी प्रोढ़िकाल में समाप्त हो गया | कारण, प्रोढ़िकाल में इन्होंने श्रपनी मौलिकता का विकास किया; जिसका अ्नन्वय निदशन 'यामा? आर 'दोपशिखा!? के चित्रों में मिलता है। इनका आगामी काव्यक्षग्रह भी, जिसका नाम पअ्रमा? हैं, ऐसे ही स्वरचित मौलिक चित्रों से मंडित है। श्रवतक आलोचकों ने महादेवी को कलाइशष्टि का समुचित विश्लेषण नहीं किय्रा है, जिसके कारण इनको कविताओं में काव्येतर कलाओं, .. विशेषकर चित्रकला के आंतरिक तम्तायोजन से निष्पन्न लाबश्य का उद्धाटन नहीं .. हो सका है। बात यह है कि इनकी कविताओं को चित्रकला का पृष्ठिका से .._ सार्द्रता मिली है। अतः इनकी कविताओं के रसास्वादन के लिये इनको चित्रफला .. का सहारा लेना वांहनीय हैं। इन्हें स्वयं भी इसका बोध हैं कि इनकी कविताओं की पूरी रमणीयता चित्रात्मक पृष्ठभूमि के बिना अच्छी तरह स्फुरित नहीं हो पाती है। इसलिये इनकी प्रातिम कल्लासाथना के वैशिष्टय फो अच्छी तरह समभने के लिये इनकी चित्रकला पर भी वसा विस्तृत कार्य होनी चाहिए, जैसा अ्रँगरेजी साहित्य में विलियम ब्लेक पर किया गया है। महादेवा की चित्रफला का सीधा प्रभाव इनको कविताओं में न्यस्त बिंग्विधान पर पड़ा है। .. ग्रतः कविताओं के मंडनाशलल्‍प के मूल्यांकन फी दृष्टि से भी इनकी चित्रकला पर विस्तृत कार्य अ्रपेक्षित है । साहित्यसजन के छ्ेत्र में कविता के अलावा महादेवी ने प्रथम कोटि का श्श्र .... हिंदी साहित्य का बुंदत्‌ इतिहास लिलत गद्य लिखा है, किंतु, ऐसा ललित गद्य नहीं, जो अपनी लोच लचक में यथार्थ की लू फो जज्ब न कर सके। ऐसा प्रतीत होता है कि समाजसेवा और लोकमंगल की कामना ने आस्था और अमांसल रागतल की आराधिका महादेवी को कविव्यक्तित्व से प्थक्‌ एक सामाजिक व्यक्तित्व दिया है, जिसको अरंशिक अ्रभिव्यक्ति इनके गद्य साहित्य में हुई है। कविता के क्षेत्र में इन्होंने अवश्य ही छायावादी छत के अंतर्गत रहस्थात्मक प्रवत्तियों का सर्वाधिक प्रति- निधित्व किया है और कोमल कंठ में पिकपंचस बसानेवाली विरहविहंगिनी का पद प्राप्त कर लिया है; किंतु; व्यावहारिक जोवन में ये खुरदरे यथा्ों से लड़ने- वाली हैं और दृढ्व्ती हैं । महादेवी की काव्यकृतियाँ संख्या या परिमाण फी दृष्टि से प्रचुर नहीं हैँ । प्रकाशित कविताओं के आधार पर इनका प्रमुख रचनाकाल सीहारः और धदोपशिखा' के बीच १६२४ ई० से १६४२ ई० तक फैला हुआ है । १६४२ ई० के बाद इनकी बहुत कम कविताएँ प्रकाश में आई हैं। डा० नगेंद्र ने उचित ही लिखा है कि “सन्‌ १६५० के बाद महदादेवी जी की प्रख्या ने एक प्रकार से उपराम ले लिया |” १६४२ ई० के बाद रचित इनकी कविताओं का एक संकलन “प्रमा* के नाम से प्रकाशित होनेवाला है। “नौहार! से लेकर “दीपशिखा? तक में प्रकाशित इनके गीतों की कुल संख्या लगभग दो सो छत्तीस है। इतना कम लिखकर इतना श्रधिक महत्व अर्जित कर लेना इस बात का द्योतक है कि आज के अतिलेखन के युग में भी गुण परिमाण पे सर्वथा पराजित नहीं हुआ हे । मदहादेवी के प्रथम काव्यश्षेग्रह 'नीहार' का प्रकाशन १६३० ई० में हुआ, लिसमें १६२४ ई० से १६२८ ई० तक की श्रवधि में रचित इनफी सेंतालीस कविताएँ संग्रहीत हैं । इस संग्रह को प्रत्येक कविता सशीर्षक है । शीर्ष्कों के रहने से कविता का वेंद्रीय श्र्थ अपेक्षाकृत बोधगम्य हो जाता है। 'नीहार? में संकलित कविताओं के शीषक इस प्रकार हैं--विसर्जन, मिलन, अतिथि से; मिटने का खेल) संसार, अधिकार, फौन , भेरा राज्य, चाह, सुऩापन, संदेह, निर्वाण, समाधि के दौप से, क्रभिमान, उस पार, मेरी साध, स्वप्न, आना, निश्चय, अनुरोध तंब, मु्ो या फूल, कहाँ ५ उत्तर, फिर एक बार, उनका प्यार, आँसू) मेरा एकांत, उनसे, मेरा जीवन, सूना संदेश, प्रतीक्षा, विस्मृतिं, अ्रनंत को श्र, स्मारक, मोल, दीप, वरदान, स्मृति, याद, नीरव भाषण, अनोखी भूल, आँसू की माला; फूल; खोज, जो तुम आ जाते एकबार और परिचय । इन शीर्षकों से 'नीहाए के कथ्य का + महादेवी-संस्मरणा-प्रंथ, संपादक, पंत, प्रथम संस्करण, एष्ठ ४८ । 53,42७ 2७४८ ४ आज है ३ 82 3020 धर) ७०.3. | ः रा ता . !' [ भाग १० ] प्रशुख कवि : अन्य कवि २२३ स्पष्ट संकेत मिलता है। 'नीहारः की भूमिका इरिश्रोध जी ने बहुत ही सहृदयता ओर सहानुभूति के साथ लिखी थी। इस भूमिका के आरंभिक अंश से यह आभास मिलता है कि नीहार' के प्रकाशनकाल तक यानी १६३० ई० तक पुरानी पीढ़ी के सहानुभूतिशौल कवियों, आलोचर्कों ओर विचारकों फी दृष्टि में भी छायावाद का स्वरूप स्पष्ट नहीं हो पका था। कुछ लोग छायावाद फो हृदयवाद कहते थे, तो कुछ लोग उसे रहस्यवाद का सप्तीपी मानते थे। कइने का आशय यह है फि अपनी प्रथम कृति के साथ महादेवी का अवतरणु छायावादी कविता के मध्याहकाल में नहीं हुआ, उसके पूर्वाह्न में ही हुआ। अतः आज छायावाद का जो स्वीकृत समाहत स्वरूप है, उसके अभिनिय॑ंतन में, त्रयी के बाद उदित होने पर भी, महादेवी का महत्वपूर्ण योग है । “'नीहार' की कविताओं में विस्मय ओर जिज्ञासा की प्रचुरता है, जो छाया- वादो काव्यचेतना के सवंधा अनुकूल है। विस्मय और जिज्ञासा के साथ ही 'नीहार! में उस व्यथाकथा या वेदनावादी धारा फी भी पूर्वकलक है, जिसे अ्रव श्श्रुगीले गीत गानेवाली महादेवी के भावपक्ष की सर्वोपरि विशेषता के रूप में स्वीकार किया जाता है। जैसे, प्नीहार' फी “निश्चय” शीर्षक कविता में कवयित्री ने पीड़ा ऐसी अमूर्त श्रनुभूति को म॒रतता प्रदान करते हुए लिखा है--- पीड़ा भेरे मानस से भीगे पट सी लिपयी है। अतः 'नीहार' आधुनिक फाव्य में आध्यात्मिक अभियान का प्रथम चरण! हो या न हो, मगर इतनी बात निश्चित है कि उसमें 'कुतूहलमिश्रित वेदना” फा वह प्लावन है, जिसने महादेवी के संपूर्ण काव्यसजन फो आच्छुन्न कर रखा है। कवयित्री ने उचित ही लिखा है कि “नीहार के रचनाकाल में मेरी अश्रनुभतियों में वैसी ही कुतृ.इलमिश्रित वेदना उमड़ आती थी, जेसी बालक के मन में दूर दिखाई देनेवाली अप्राप्प सुनइली उषा ओर स्पश से दूर सजल मेघ के प्रथम दर्शन से उत्पन्न हो जाती है |? किंतु, प्रारंभिक रचनाओं का संग्रह होने के कारण _ ध्नीहार'! में कविता के फलापक्ष का वह शिल्पित कॉशल नहीं मित्रता है, जो महादेवी के प्रौंड काल की रचनाओं में उपलब्ध है । हादेवी के दूसरे काव्यसंग्रह 'रश्मि! का प्रकाशन १९३९ ई० में हुआ, कविता को छोड़कर सभी कविताएँ सशीषक हैं। तीसरी कविता के शीषक्‌- के स्थान पर केवल एक प्रश्नवाचक चिह्न दिया हुआ है। शेष चौंतीस” कविताओं के षिफ इस प्रकार है- रश्मि; संधि, गौत, दु:ख, तृप्ति, जीबनदीप, कौन है? ग नि हर क्र ह के _- संगठन से युक्त सुदृढ़ स्थापत्य मिलता है। अ्रमिनियंतित स्थापत्य के कारण इन "तो, की वर्णुनाभंगी, शीर्षकहीन रहने पर भी, मर्मस्पर्शी और नुकीली है। २२४ , हिंदी साहित्य का बहत इतिहास जीवन, आह्वान, वे दिन, आशा, मेरा पता, गीत, पहिचान, श्रल्नि से उपालंम; ' निभ्चत मिलन, दुविधा; में ओर तू, उनसे, रहस्य, स्मृति, उलझन, प्रश्न, विनिमय, देखो, पपीहे के प्रति, अंत, मृत्यु से, जत्र, क्रम, समाधि से, क्‍यों ओर कमी । इन शीर्षकों से स्पष्ट है कि इस संग्रह का कथ्य छायावादी भावषोध ओर विषयवस्तु के सवंधा उपयुक्त है। काव्यविकास की दृष्टि से 'रश्मिः में प्रौढ़ि की किरणशें फूटती दीख पड़ती हैं | इपमें प्रथम बार कबयित्री के णीवनदशंन की दुःखबादी भूमिका _पूर्णत: उभरकर सामने आई है | इसलिये इसमें काव्यकला के निखार के साथ प्रौढ्न दाशनिकता मिलती है। इसके दशनपक्ष पर बौद्ध दर्शन का स्पष्ट प्रभाव लक्षित होता है, जिसकी ओर कवयित्री ने भूमिका में निर्देश किया है ओर बुद्ध के प्रति अपने भभक्तिमय अनुराग” फो स्वीकार किया है। इस संग्रह की दाश निक अथवा आध्यात्मिक अनुमूतिप्रधान कविताओं में 'दुःख”, रहस्य! और “विनिमय शीर्षक कविताएँ उल्लेखनीय हैं । महादेवी की तीसरी काव्यकृति ध्नीरजा! है, जिसका प्रकाशन १६३५ ई० में हुआ । इसमें कुल अ्ठावन गीत हैं, जो १६२९१ ई० से १९३३ ई० की अवधि में लिखे गए हैं। 'नीरजा? पर महादेवों फो पाँच सी रूपए का सेक्सरिया पुरस्कार मिला था| इस संग्रह की पहली कविता से ही कवयित्री की श्राध्यात्मिक भावदशा और अश्रश्न॒ुसक्त उपासनाभाव का परिचय मिल जाता दै। “नीरजा!” में प्रतीकवत्‌ वर्शित नीरज की सात्विफ विशेषताओं का संकेत करते सुए कबयित्री ने लिखा है-- इसमें उपजा यह नीरज सित, फोमल फोमल लज्जित मौलित, सोरभ सी लेकर मधुर पीर ! इसमें न पंक का चिह्न शेष, इसमें न ठह्दरता सलिललेश, .. इसको न जगाती मधुपभीर | इस संग्रह की एक ध्यातव्य विशेषता यह है कि इसकी सभी कविताएँ शीर्षकहीन हैं। शीषफहदीन रहने से इन कविताओं में छायावादी अस्पष्टता फा रंग गहरा हो गया है तथा इनकी केंद्रीय सार्थकता पाठकों को पकड़ में आने की दृष्टि से और ञ भी पिच्छिल हो गई है। किंतु, नीरजा' के गीतों में पहले की अपेक्षा आंगिफ दूसरी बोर, यह है कि 'नीरजा? के फलागीतों में लोकगीत की लय का संस्कार सुरक्षित है। सह देवी लोकगीतों फो फल्लागीतों का अग्रज कहकर लोकगीतों को हि | कु ५. कक घापपलयालफ्रसानइमणाउल्लालउचाजफाउसंपससरजरभतपउ पाकर १२-पहर5०+ सर [ भाग १० ] प्रमुख कवि : अ्रन्य कवि २२५४ प्रभूत प्रतिष्ठा देती रही हैं। श्रतः इनके गीतों में लोकगीतों की लय का प्रभाव आकस्मिक नहीं है। लोफगीत की लय में तरंगित इनफा एक प्रसिद्ध गीत इस प्रकार है-- मुखर पिक होले होले बोल ! हटीले होंले होले बोल । जाग लुटा देंगी मधु कलियाँ मधुप कहेंगे ओर चौक गिरेंगे पीले पल्‍ललव अंब चलेंगे बोर सु्मीरण मत्त उठेगा डोल हटठीले होले होले बोल !* कुल मिलाकर "नीरजा! अनुभूति की समृद्धि ओर अभिव्यक्ति की कलात्मकता-- दोनों ही दृष्टियों से मनोरम है। श्रत: 'नीरजाः महादेवी की काव्यसाधना ही नहीं, संपूर्ण हिंदी गीतिकाव्य के प्रकष का अन्यतम निदर्शन है। इस संग्रह में कई ऐसी महत्वपूर्ण कविताएँ हैं, जिनके बिना महादेवी के काव्य का उच्चित विश्लेषण मूल्यांकन संभव नहीं हे । उदाहरण के लिये “विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात', “बीन भी हूँ में तुम्हारी रागिनी भी हूँ? तथा “मधुर मधुर मेरे दीपक ल !? ऐसी ही महत्वपर्ण कविताएं हैं। महादेवी का चोथा फाव्यसंग्रह “सांध्यगीतः १६३६ ई० में प्रकाशित दुआ; जिसमें १६३४-३६ ई० की अवधि में रचे गए पेंतालीस गीत संगहौत हैं। इस संग्रह कफी भूमिका ( श्रपनी बात ) महादेवी के काव्यप्तिद्धांत ओर कलाचेतना के विकास फो समझने की दृष्टि से काफो महत्वपूर्ण है। कवयित्री ने इसमें पहली बार अपने गीतिसिद्धांत, प्रकृतितोत्त श्रोर चित्रकला संबंधी स्थापनाओं को इतने विशिष्ट, प्रखर तथा युक्तियुकत ढंग से प्रतिपादित किया है। इस संग्रह की कवि- ताश्रों में श्रनुभूति की तन्मयता और मी अ्रद्टूठ हो गई है। आगे चलकर कवयित्री ने 'संघिनी' की भूमिका में अनुभूति, स्वानुभूति और काव्यानुभूति फी विवेचना फरते हुए लिखा है, “जीवन अनुभूतियों फी संसति है। मानव का श्रपने परिवेश से संपर्क फिसी न फिसी सुखात्मक या दुःखात्मक अनुभूति फो लन्म देता है और इन संवेदनों पर बुद्धि की क्रिया प्रतिक्रिया मल्यात्मक चिंतन के संस्कार बनाती चलती है। विकास फी दृष्टि से संवेदन चिंतन के अ्रप्रज् रदे हैं क्योंकि बुद्धि की क्रियाशीलता से पहले ही मनुष्य की रागात्मिका बृत्ति सक्रिय हो १ त्तीर॒जा, प्रथम संस्करण, पृष्ठ २६ | हि १०-२६ द ा २२६ द हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास जाती है |” कवयित्री फी यह मान्यता ध्थांध्यगीत' के संदर्भ में मी शत-प्रति-शत सही है। सचमुच, 'सांध्यगीत' 'जीवनानुभूतियों की संखति! है और रागात्मिका वृत्ति की घनीमूत सक्रियता का दीप्तिमान उदाइरश भोौ। इसमें कल्पना को विधायिका वृत्ति के सहारे मानसी संयोजन! के द्वारा संवेदर्नों का कल्लात्मक संप्रेषणु किया गया है। इस संप्रषश में मोर की इलकी कुहेलिका सी झौनी रहस्थात्मकता भी है। महादेवी तो सांध्यगीत” या अपनी अन्य कविताओं को ही नहीं, संपुर्ण काव्यसजन फो “रहस्यमय” मानती हैं। इनका कहना है कि 'मानव के जितने सर्जन है, फविता उनमें सबसे अधिक रहस्यमय सर्जन है, जिससें उसके अंतःकरणु का संगठन करनेवाले सभी अभ्रवयव मन, चित, बद्धि और अलंकार एफ साथ सामंजस्यपुर्ण स्थिति में फार्य करते हैं ।” छुंद और लय की एकान्विति से युक्त 'सांध्यगीतः के गीतों में दीपक और बादल आ्रधारबिंब फी तरह प्रयुक्त हुए हैं। महादेवी के लिये दीपक एक ओर असंग साधना की झ्रकप लौ का प्रतीक है और दूसरी श्रोर लोकमंगल की भावना का भी | स्वयं जलफर दुसरों को प्रकाश देनेवाला दीपक आत्मोत्सग और लोक- मंगल की मावना का सर्वोत्तम प्रतीक है। दीपक ने फवयित्री फो शेशवकाल से ही आ्आाकर्षित और प्रभावित किया है। यह तथ्य इससे भी प्रमाणित होता है कि काव्यसर्जन के तुतले उपक्रम में रचित इनकी खड़ीबोली की पहली पूर्श रचना दौपक पर ही है | पूर्व पृष्ठों में इस “दिया! शीर्षक कविता की पंक्तिशाँ उद्धृत की जा चुकी हैं। दूसरी बात यह है फि संंध्यगीत में पहले की कृतियों की अपेक्षा प्रकृतिचित्रणा को अ्रधिफ स्थान मिला है। विशेषकर संध्या के वर्शान में ऐसे अनेक प्रकृतिचित्र योजित हुए. हैं, जिनमें मादक रहस्यसंकेत भरे पड़े है । तीसरी . बात यह है कि सांध्यगीव! के बिबविधान में चित्रात्मकता अधिक हे। अ्रतः वर्गापरिशान या रंगयोजना फी दृष्टि से सांध्यगीत? के बिंबों में संगामेशौ और सगक की प्रचुरता है। कवयित्री द्वारा प्रंकित संध्या', ध्वर्षा “अरुणा', 'निशीथिनी” तथा “'मृदु महान! शीषक चित्रों के समावेश ने इस संग्रह की कला- त्मक गरिमा फो और भी समृद्ध कर दिया है । महादेवी की पाँचर्वी फाव्यकृति 'याम! है, जो इनकी इतः:पुर्व॑ संग्रहरुूप में प्रकाशित कविताओं का बृहत्‌ संकलनग्रथ है। श्रर्थात्‌ यामा' में, जो १६४० ई० में प्रकाशित हुई, 'नीहार', रश्मि, 'नीरजा? ओर 'सांध्यगीत! नामक चार काव्य- र संधिनी, महादेवी, लोकभा रती प्रकाशन, इलाहाबाद, १६६६५, ९० ११ | + उपरिवत्‌, पु ० ७। १७७७७७७७७७७७७४७७७४४७४७ ७४४७6 0202 न मनन नमन नमक कक ली निनीदि मिशन मिनिनिशिशिलिमभिकिय [ भाग १० ] प्रमख फवि : अन्य कवि ११७ संग्रहों की समी कविताएँ संकलित हैं। इस प्रकार यामा' में संग्रहीत कुल गीतों की संख्या एक सो पचासी है, जो १९२४ ई० से १६३६ ई० के बीच लिखें गए हैं। श्रतः ध्यामा? कबग्रित्री फी बारह वर्षो की काव्यसाधना का पूर्ण प्रतिनिधित्व करती है। ध्यामा' पर ही फवयित्री फो बारह सौ रुपए, का मंगलाप्रसाद पारि- तोषक मिला था। ध्यामा! की सबसे बड़ी विशेषता, कलाचेंतना की दृष्टि से, यह है कि इसमें फवयित्री के कई स्वरचित चित्र संकलित हैं। ध्यामा' के कुल चित्रों की संख्या नो है, जिनका विवरण इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है-- १. तूफान ( उद्देलित नीलाभ सागर, मेधमेदुर अंतर, मक्का तरी, पतवार ओर नाविक )) २. अरुणा ( आलोकवसना मुक्तकेशी उषासुदरी, बालारुण, दिव के ग्रधोभाग में तिमिर का पल्लायन ओर छिंव्पुद हतप्रम नक्तत्र ) 2, यात्रा का अंत ( शिथिलचरण पलितवय पथिक, गठरी, लाठी, सुदूरविस्तृत पथरेखा, गंतब्य द्वार, अभिनंदनतत्पर विराद की मानुष आकृति और ज्योतिमय दीपक), ७. निशी- थिनी ( नीलाम गगन, निर्बंधकु तला रजनी, तारों के गजरे, श्रध॑चंद्रमा, उजले काले बादल, अलिशु जित श्रर्थात्‌ रात्रि के कारण संपुटित कमलफोश और मलयानिल का वसन ); ५. दीपक ( दीपाधार, दीपकली, तिमिर की पृष्ठभूमि आर ज्योति, दीपदान करनेवाली पीतवर्णी सुकेशिनी आराधिका तथा प्रसाधनपुष्प), ६. वर्षा ( वर्षासु दरी, सद्मज््नाता नारीवेश, तरलाबयित अंचल, कजरारे बादल, आलोक तिमिर की रंगामेजी, धघूमायित धूपदान; श्याम गगन और विरल बकपंक्ति) ७. संध्या ( नारीवेश, घुँधघला ओर अरुण सांध्यगगन, श्यामल तिमिर में घुलता सा आलोकवलय, छिठपुण तारे; पिंग अ्ररण और अमित श्वेत बादल तथा किरणों का शरनिकर ), 5. मिलन ( नरनारी, अ्रंजलिपुष्प, श्राकाश, बादल; _ विहगयुग्म और तारे ) तथा ९६. म्दु महान्‌ ( नील गगन में उठे हुए तुषारधवल गिरिशंग, उन्पुक्त दिशा, विचारमग्न आराषिका, सशुणालविश ओर लघु विराद का छायामेल )। इन चित्रों में प्रायः सभी चित्र रम्य एवं दृश्य प्रकृति से संबंधित हैं। इनमें भी तूफान! श्ररुणा', “निशीथिनी”, वर्षा', “संध्या! ओर 'सिलन! शीर्षक चित्र उपकरण, चित्रण तथा विवक्षा की दृष्टि से खांटी प्रकृतिचित्र हैं। इन _ चित्रों से यह सिद्ध होता है कि प्रकृति महादेवी के लिये अध्ययनलब्ब अथवा अवफाश के क्षणों का बौद्धिक विलास नहीं, बल्कि एक “निरीक्षित यथाय! हे, जिसके साथ इनका अव्यवहिंत, प्रत्यक्ष और सद्यः संबंध है। इतना ह्वी नहीं, वे अपने प्रकृतिचित्रण के प्रति इस मात्रा में सावचत हूँ कि इन्हें अपने काव्य और चित्र में अंकित प्रकृति को मेदक विशिष्टता का अभिज्ञान है। इनके काव्य के अंतर्गत चित्रित प्रकृति में आंतरिक एकाग्रता प्रवान है आर इनके चित्रों में प्रकृति का बाह्य वातावरणु | इन्होंने अपने काव्य और चित्र में अंकित प्रकृति के अश्र॑ंतर को निर्दिष्द करते हुए लिखा है, प्रकृति का शांत रूप जैवे मेरे द्वदय को एक | र्र्द्ध | .. हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास चंचल लय से मर देता है, उसका रीौंद्र रूप बेसे ही आत्मा को अशांत स्थिरता देता है। अ्रध्यिर रौद्रता की प्रतिक्रिया ही संभवतः मेरी एकाग्रता फा कारण रहती है। मेरे अंतमुखी गीतों में तो यह एकाग्रता भी व्यक्त हो सकती है; परंतु चित्र में उनका बाह्य वातावरण भी चित्रित हो सका है। मेरे निकट आँधी, तूफान, बादल, समुद्र आदि कुछ ऐसे विषय हैं, जिनपर चित्र बनाना श्रनायास श्रोर बना लेने पर आनंद स्थायी होता है।” इसी कारण महादेवी के चित्रों में कहीं कहीं वॉन गौ के प्रकृतिचित्रों का उदाच एवं भास्तर रूप मिलता है। इस निकट) किंतु, महाध॑साम्थ को हम महादेवी के 'मृदु महान! एवं बॉन गो के ८ साइप्रसेस शीर्षक चित्रों में देख सकते हैं । महादेवी फी छुटी काव्यक्ृति “दीपशिखा! है; जिसका प्रकाशन १६४२ ई० में हुआ | इसमें इक्यावन गीत संण्हीत हैं, जो १६३६ ६० से १९४२ ई० के ' बीच रचे गए हैं। इस संग्रह की यह एक ध्यातव्य विशेषता हैं कि इसकी प्रत्यक कविता की पृष्ठभूमि में कवयित्री ने स्वरचित तदूभावव्यंजक चित्र दे दिया है। अ्रतः इस संग्रह में शब्दों और रंगरेखाश्रों फा अद्भुत सामंजस्य मिलता है। सचमुच, चित्रप्ृष्ठिफा के कारण एक औश्रोर कविता नयनाभिराम बन गई है ओर दूसरी ओर उसकी श्रर्थव्यंजना में सहज प्रसादन आ गया है। “यामा? की तुलना में “दोौपशिखा?” के चित्रों की यह एक विशेषता है कि इनपर मूर्तिकला का प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है। महादेवी ने अपने चित्रों पर मूर्तिकला के प्रमाव फो स्वीकार करते हुए. लिखा है, “कुछ अजंता के चित्रों पर विशेष अनुराग के फारण ओर कुछ मूर्तिकला के श्राफषंण से चित्रों में यत्र तन्न मूर्ति की छाया आ्रा गई है। यह गुण है या दोष, यह तो मैं नहीं बता सफती पर चित्र-मूति-संमिश्रण ने मेरे गीत को भार से नहीं दबा डाला है, ऐसा मेरा विश्वास है।” मूतिकला का यह प्रमाव “दोपशिखा” के चित्रों में विशेषकर मिलता हैं। इस दृष्टि से 'दीपशिखा” के इन गीतों की पृष्ठभूमि में अंकित चित्र विशेष ध्यातव्य हैं-.. आओ चिर नीरव | मैं सरित विकल?”; 'सब बुके दीपक जला लू”, “हुए शूल श्रक्षत मुझे धूलि चंदन”, (तरल मोती से नयन भरे, “जब यह दीप थके तब आना', तू घूल मराही आया”, “जो न प्रिय पहचान पाती, “'म्प चलीं पलकें तुम्हारी पर कथा है शेष”, “अश्रलि, कहाँ संदेश भेजू”, “कोई यह आँसू आज माँग ले जाता', 'निमिष से मेरे विरह के कल्प बीते', 'सब आँखों के आँसू उजले सबके सपनों में सत्य पल”, 'गूंजती क्यों प्राणवंशी”, लघु छृदय तुम्हारा अमर छुंदः *ब ऐसा प्रमुख कवि : ऋन्य कवि क्‍ ३२६ झौर “पुजारी ! दीप कहीं सोता है।? इन चित्रों से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि महादेवी के चित्रों पर अजंता फी चित्रकला का प्रकट प्रभाव है। उक्त चित्रों में भौंह, आँख तथा नाखून के प्रलंब रूप अजंता के प्रभाव की घोषणा करते हैं । दूसरी बात यह है कि इन चित्रों को कला पद्धति पूर्णतः भारतीय है। आधुनिक अ्रथवा समकालीन प्रमाबों की दृष्टि से, अधिफ से. अधिक यही कहा जा सकता है कि महद्दादेवी के चित्रों पर ई० वी० हैवेल, अवर्नीद्ननाथ ठाऊुर श्रोर लेडी हेसिघम के विचारों तथा कृतियों का प्रकारांतर प्रभाव है। इसलिये इनके चित्रों में यूनानी और रोमी माडलों की अनुकृति का पूर्ण बहिष्कार मिलता हैं । क्‍ [ भांग १० | कि “दीपशिखा' फी कविताओं में रागात्मक अनुभूति, आराधना आर साधना- तीनों का सुंदर सामंजस्य है । इसमें संगद्दीत कविताएँ कवयित्री फी इस मूल मान्यता को चरितार्थ करती $ कि 'सत्य काव्य का साध्य ओर सोंदर्य साधन है ।”' इसमें विराद कल्पना से श्रायोजित उदात बिबों का अनेकत्र विधान हुआ है, जेंसे -- ः परिघिहीन रंगों भरा व्योममंदिर, चरणुपीठ भू का व्यथासिक्त मृढु उर; ध्वनित सिंधु में है रजतशंख का स्तन | ब्रथवा द चितवन तनश्याम॒ रंग, इंद्रधनुष भकुटिमंग, विद्युत फा अंगराग, ि .... दीपित मझदु अंग अंग * # #7 उड़ता नम में अछोर तेरा नव नील चौर | क्‍ अविरत गायक विहंग लासनिरत किरण संग, द पग पग पर उठते बज, चापौं में जलतरंग . “८दीपशिखा' के उपरांत अर्थात्‌ १६४२ ई० के बाद महादेवी का कोई... नया काव्यसंकलन प्रकाश में नहीं आया है। १६४२६० के बादकी इनको ९ दीपशिखा, भूमिका ( चिंतन के कुछ ऋण ), चतुर्थ संस्करणा, पृष्ठ १ | २ दीपशिखा, चतुर्थ संस्करण, एष्ठ ७८ | ल्‍ ३ दीपशिखा, चतुर्थ संस्करण, पृष्ठ १०२ । २१० हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास फविताओं का सचित्र संकलन “प्रभा) के नाम से प्रकाशित होनेवाला है। इनके उनचालीस काव्यानुवादों का एक संकलन १९६० ई० में प्रकाशित हुआ है, जिसका नाम “सप्तपर्णा? है। उपरिनिवेदित मोलिक काव्यसंग्रहं के अतिरिक्त इनकी स्वसंपादित दो चयनिकाएँ भी विस्तृत भूमिकाओं के साथ प्रकाशित हुईं हैं। पहली चयनिका “आधुनिक कवि' के नाम से १६४० ६० में प्रकाशित हुई, जिसमें कवयित्री की एक सो चार कविताएँ संकलित हैं। दूसरी चयनिका “संधिनी” के नाम से १६६५ ६० में प्रकाशित हुईं है, बिसके अंतर्गत कबयित्री के पैंसठ गीत संकलित हैं। १६६७ ई० में गंगाप्रसाद पांडेय ने 'महादेवी के श्रेष्ठ गीत! शीर्षक एक संकलन भी संपादित किया है, जिसमें सड़सठ गीत संकलित हैं । किंतु, इस संकल्न में फोई उल्लेखनीय नवीनता नहीं मिलती है । _ भावपक्ष की दृष्टि से महादेवी की काव्यसाधना का प्रकर्ष उन्हीं कविताओं में मिलता है, जिनमें वेदना, फरणा या दुःखबाद फो श्रमिव्यक्ति मिली है। ऐसा प्रतीत होता है. कि महाकरुणा फी देशना के प्रभाव ने महादेवी फो करुणा का अभिनव वाहक बना दिया ओर दुश्खवादी धारणाओ्ं ने इन्हें “धनीरभरी दुख की बदली” का रूप दे दिया। इनके दुःखवाद की यह एक ध्यातव्य विशेषता है कि उसमें एफ श्रोर प्राचीन काल से आती हुईं भारतीय नारियों की वह दु:खप्नियता समाहित है, जिसका संकेत महाभारत में द्रौपदी की इस उक्ति से मिलता है--सुखं सुखनेह न जातु लम्य॑ दुःखेन साध्वी लभते सुखानि/'; दूसरी ओर उसमें बोद्ध दर्शन के आय॑ सत्य' की ऋल्यक मिलती है ओर तीसरी झोर उसमें वर्तमान युग की वह व्यथाकथा मिलती है, जिसने रावींद्रिक वेदनावाद फो छायावाद से कुछु वष पहले जन्म दे दिया था । यह वर्तमान युगधारा फा ही कमाल हैं, जिसने रवोंद्र के काव्य में व्यक्ति की वेदना को समग्र सृष्टि में व्याप्त कर दिया--- कट जागे बूके सूखे दूखे कंत जे व्यथा। केमने बूकाये कब ना जानि कथा | आमार वेदना आजि त्रिभूने ऊठे बाज्नि काँपे नदी वनराजि वेदना भरे ॥ महादेवी ने भी अपने जीवन को व्यशिगित बेदना में आज के युग फी समश्गित क्‍ वेदना को पूर्तिमान्‌ करने की चेश को है। इनके काव्य में ज्ञा अंतश्चेतना को पीड़ा ( साइकिक पेन ) श्रथवा वेदना मिलती है, उसपर कई दृश्टियों से विचार _ किया जा सकता है। मुख्य बात यह है कि वेदना ही इनके काव्य की . भावसीमा दै। वेंदनानु भूति को तीजता ने ही इनको कविताओं में उतर अ्राध्यात्मिक हा | 7णाशापापसंपयकसलकसपपकनकनाफसरर पपफापलादनसनसतत»कातक+- पद पहप+ ०१००० «- [ झाग १० ] क्‍ प्रमख कवि : अन्य कवि १3१ रजना की प्रचुरता मर दी है, जिसमें रोमांटिक अवसाद ( रोमांटिक मेलांकली ) ओर रहस्यवादी पीड़ा ( मिस्टिक पेन ) विद्यमान हैं। कवयित्री की धनीभूत वेदना फा आसन्‍्न कारण विरहइ-अविरल विरह है। मानो, विरद्द द्वी इनका श्राराष्य है और ये स्वयं उस विरह की आकुलता हैं। इसलिये इनकी वेदनानुभूति बेकली से भरी हुई है-- आकुलता ही आज हो गई तन्मय राधा । विरह बना आराध्य छेत क्‍या कैसी बाधा ? ः [का इनकी वेदना मात्र अनुभूति ही नहीं, ध्यनुभूतियों की स्मणीय कल्पना! भी है। इसलिये इनकी वेदनानुभूति में कल्पना का वह मे धुर्य है; जिसमें नारी भावनाओं का हृदयलावशय भरा रहता है। जैसे-- कौन आया थान जाने स्वप्न में मुझफो जगाने याद में उन अँगुलियों के हैं मुझे पर युग बिताने ! महादेवी के काव्य में उपरिविवेचित वेदना की परिशति फरुणा के रूप में हुई है। फरुणा ही इनकी वेदना का चरम रूप है ओर इनके दुःखबाद का मेरुद्ड मी। इनके काव्य में फरुणा की प्रधानता के कई कारण हैं। पहला कारण छायावादी कविता की सामान्य बेदनावादी धारा है। वेदनावाद के दो प्रमुख पक्ष ँ--दुःख और आँसू । दुःख वेंदना का अनुभूतिपक्ष है ओर आँसू उसका ऊहत्मक परिणाम । यों, आँसू भी अंतर्दशाव्यंजक होने पर अनुभूतिप्रवण हो सकता है। महादेवरी फी कविताओं में अश्‌ की प्रचुरता है| सवंदा जलपरी सी दो पुरनम आँखें और सर्वत्र अश्ुगीले गीत] अतः इन आँसुश्नों ने ही महादेवी . को छायावादी बेदना की सम्राशी का पद दिया हे । _महादेवी के फाव्य में फरुणा की प्रधानता का दूसरा कारण कछणा का परंपरा- स्वीकृत महत्व और फरुण रस की सुखात्मकता है| करुणरस की शुलात्मकता दुःखांत नाटकों के प्रचलन, उसके काव्यशास्त्रीय महत्व आर रेनसिद्धांत से ही प्रमाणित है। अ्रतः प्राब्य और पाश्चात्य साहित्य में करुणा का परंपरास्वीकृत महत्व हैं | कवयित्री के मंतव्या से हो यह सिद्ध होता है कि इनकी कझुणा पर पाश्चात्य साहित्य का फोई प्रभाव नहीं है झोर न इनकी करुणा फा संबंध उस पराजय अथवा निराशावाद से है, जिनसे दावानल की हुतगति से भारत श्रौर किक, भारत के बाहर भी बीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में एक लंबे ज्षितिज की न २१३२ ः हिंदी साहित्य का जहत इतिहास घेरकर कुहरम्लान कर दिया था। इस प्रकार महादेवी फी फरुणा पर छायावाद की सामान्य वेदनावादी धारा के अतिरिक्त भारतीय साहित्य की परंपराश्त्रीकृत करुणा का प्रभाव है। मारतीय साहित्य की इस पर॑परास्वीकृत फरुणा के अंतर्गत ही बोद्धदर्शन की फरूणा और दुःखवाद का रेखांकित महत्व है। बोददशन के कफमपक्ष का मल और बोधिप्राप्ति की उत्तदशा करुणा हे। यह बोधिचित्त फा अनिवाय गुण है। बोधिसत्व की प्रासि के बाद बुद्धहदय में करुणा का संचार होता है। इस प्रकार बौद्धदरर्शन फरुणा को एक प्रकार का शीलविफास मानता है | महादेवी को बौद्धदर्शन की इस फरुणा ने बहुत आ्राकृष्ट किया है। कवयित्री ने 'यामा' के “सांध्यगीत? वाले खंड में जो 'मृदु महान? शीर्षक चित्र बनाया है, उससें सृणालविश और हस्तमुद्रा से करुणा की देशना फो ही संकेतित किया गया है । इस चित्र की पीठ पर ये पंक्तियाँ अंफित हैं-- मेरे जीवन का आज मूक तेरी छाया से हो मिलाप, तन तेरी साधकता छू ले मन ले फरुणा फी थाह नाप । इसी प्रकार फवयित्री ने *दीपशिखा” की चित्रमय कविता में अपने फो फरुणा का वाहक घोषित किया है-- क्‍ में गतिविह्नल पाथेय रहे तेरा दगजल आवास मिले भू का अ्रंचल में करुणा की वाहक श्रभिनव ! द करुणा की तरह महादेतरी का दुःखवाद भी बोॉद्ध दशन के दुःखवाद से प्रभावित है। यह -दुःखवाद बुद्ध के धर्मचक्रप्रवत॑न का मूलाधार है। इस प्रतंग में यह ध्यातंव्य है फि महादेवी बौद्धदर्शन के दुःखबाद से अंशतः ( पूर्णात: नहीं ) प्रभावित हैं। कारण, महादेवी फीो रचनाओं में बोद्ध दुःखवाद के श्रना- त्मवाद का कोई प्रभाव नहीं मिलता है, क्योंकि इन्हें आ्रात्मवाद प्रिय है। दूसरी बात यह है फि इस दुःखवाद के निर्वाणसिद्धांत से इन्होंने कोई सीधा प्रभाव नहीं ग्रहएु किया है। महादेवी फी रचनाओं में बौद्धवशन के दुःखबाद का उपरिनिर्दिष्ट आंशिक प्रभाव विविध रूपों में व्यक्त हुआ है । इस दुःखपूर्णा जगत्‌ एवं जीवन की चऋ्णिकता ने कवयित्री के संवेदनशील हृदय को अनंत वेदना और करुणा से परिप्लावित कर दिया है। किंतु, संवेदनशीलता फी अ्रधिकता के कारण ये दुःख के प्रति श्रूव दृष्टि अ्रजित नहीं कर सकी हैं। दुःख इनके समक्ष कभी आराध्य के र ला ह आओ व्ब्ली। हा जज हे _ा द [ सांय १० ] समागम का सुंदर साधन बनकर आता है ओर फभी दुःख ही इनका आराध्य बन जाता है। कहीं कहीं इन्होंने रुख दुःख फो एक ही आगभ सत्य के दो पहलुओं प्रमुख कवि : अन्य कवि रेरे३े के रूप में स्वीकार किया है। अतः दुःख इनके लिये प्रिय बन जाता है और उस दुःख का एकांत पथ इन्हें आनंदप्रद प्रतीत होने लगता है, जेसे-- पंथ होने दो अपरिचित, प्राण रहने दो अ्रकेला। बाँध इस प्रकार कवयित्री में दुःख के प्रति इतनी आसक्ति बढ़ जाती है कि ये आराध्य 98 6 5 द4 9 ७ 4 6 #% ७ 9 कक अत कक इक दुखबत्रती निर्माण उन्मद वह अमरता नापते पद देंगे अंकसंसृति से तिमिर में स्वर्ण बेला। फो ही दुःख का प्रतिरूप मान लेती हैं-- दुःखवाद से संबंधित महादेवी की कविताओं में नीरभरी दुख की बदली” अत्यंत तुम हुख बन इस पथ से आना ) शूलों में नित मदु पाठल सा खिलने देना मेरा जीवन; क्या हार बनेगा वह जिसने सीखा न छुदय फो बविधवाना। महत्वपूर्ण है। इसकी अंतिम पंक्तियाँ ओर मी सार्भिक हैं-- विस्तृत नभ का कोई कोना मेरा न कभी अपना होना परिचय इतना, इतिहास यही उमड़ी कल्ल थी, मिट आज चली ! विस्तृत नम के किसी कोने की अपना बना लेना मोह या आसक्ति है। बोंद्ध दर्शन ने जीवन के समग्र दुःखों फा कारण इस आसक्ति को ही माना है। आसक्ति बलिप्ठ होकर ऐसी एषशा बन जती है, जो इस जीवन के बाद भी फलीभूत होना चाहती है। फलस्वरूप, जीव फो उसकी पूर्ति के लिये विभिन्‍न योनियों में मठकना पड़ता है। महादेवी के दुःखवाद की दूसरी विशेषता यह है कि इन्हें.ने दुःख को आनंद की तरह स्थायी या सत्‌ सहृश मान लिया है; जब कि बौद्ध दर्शन दुःख को एक प्रकार फी ऐसी फर्मजन्य विकृति मानता हैं, जिसका निरोध या शमन संभव है। कितु, महादेवी के अ्रनुधार, संपूर्ण म।नवज़ाति का दुःख या 'मुलगत विषाद? १०-३० । ५; श (कु !॥ /! ॥| 0] |! ] !' हा नर हक २४६४ (७ उह . हिंदी साहित्य का बहत इतिहास एक ही है, साथ साथ अनंत और अक्षय भी । इस तरह महादेवी दुःख अश्रथवा विषाद फो भी आनंद फी तरह चिरस्थायी मानती हैं। अतः आचाय नंददुलारे वाजपेयी का यह आक्षिष उचित है कि “महादेगी ने सुख ओर दुःख के स्वरूप की श्रस्पष्ट ही रख छोड़ा है| उन्होंने दुःख के आध्यात्मिक स्वरूप और सुख के भोतिक स्वरूप फो सामने रखकर विचार किया है। किंतु, इसके विपरीत सुख फा एक आध्यात्मिक और दुःख का एक मोलिक स्वरूप भी है; जिसकी ओर उनकी दृष्टि नहीं गई ।! द महादेवी के काव्य में प्राप्त प्रचुर दुःखानुरक्ति पर श्रंतश्वेतना फी पीड़ा की दृष्टि से भी विचार किया जा सकता है। कारण, महादेवी की फविताओं में स्वप्न- संयोग की अधिकता है। 'अश्रु मेरे माँगने जब नींद में वह पास आया! जैसे अनेक स्वप्नसंयोग के चित्र महादेवी की कविताओं में मिलते हैं। स्वप्नसंयोग की अ्रधिकता से कई आ्लोचकों की यह स्थापना समर्थित होती है कि महादेवी के काव्य में मुल॒त: कुंठित और दमित वासनाओं की उन्सेषपूर्ण अभिव्यक्ति है। निष्कर्ष जैसा भी निकाला जाय, यह निर्विवाद हे कि महादेवी की फविताओं में . सपर्नों की प्रचुरता हे । जब कभी इनका 'प्रियः मन॒हार से द्रवित होता है, वह सपनों में श्रा जाता है --- बिछाती थी सपनों के जाल तुम्हारी वह करुशा को फोर। अत: “नीहार' से दोीपशिखा” तक स्वप्नमिलन या स्वप्नसंकेत की भरमार मिलती _ है। केवल रश्मि! कुछ अंशों में इसका अपवाद है। स्वप्नसंकेतों की भरमार के कारण मनोविश्लेषण के श्राधार पर यह फंहा जा सकता हे फि महादेवी ने प्राक्वेतन को अचेतन की अ्रपेज्ञा बहुत अधिक बलवान बना लिया है। इसलिये इनमें दमित वासना की कुंठाएँ अधिफ हैं। प्राक्वेतन के सबल अधीक्षण के कारण इनके सपने भी छुद्मवेशो बन गए हैं। वे आध्यात्मिक संकेतों का कनटोप पहनकर उपस्थित होते हैं। फ्रायड का कहना हे कि प्राक्वेतन के भय से वासनाएं केवल दमित ही नहीं होतीं, बल्कि वे रचनाएँ जत्र स्वप्न में उद्दरिक्त शोती हैं तब भो उन्हें प्राक्वतन के अधीक्षणु का भय बना रहता है। इसलिये वे वासनाएँ सपनों में मी शीघ्र पकड़ में नहीं आती। वें तो अ्रचेतन से निकलते समय अधीक्षण के मय से छुझवेश धारण कर लेती हैं। यही कारण है कि सपनों की व्याख्या सरल नहीं होती । अतः महादेवी के सपने भी खुली पुस्तक के पन्‍ने नहीं हैं। फलस्वरूप, महादेवी फो कृतियों का अध्ययन और आस्वादन करते समय यह महसूस होता है कि इनकी कविताओं पर उस मनोवैज्ञानिक अध्ययन की गुंजाइश [ भाग १० ] प्रमुख कवि : अन्य कवि श्रे५ है, जिसे आधार मानकर डब्ल्यू० पी० विठकट ने ब्लेक का अथवा एलाफ़ी मान शाप ने शेक्सपीयर की कुछ कृतियों--'किंग लीयर', “टेंपेस्ट” और ैम्लेट” का विवेचन प्रस्तुत किया है। कम से कम, महादेवी के काव्यनिबद्ध सपनों का इस दृष्टि से बहुत ही रोचक अध्ययन किया जा सकता है, क्योंकि महादेवी के सपने एक प्रकार के पिहित प्रतीक हैं, जो विचारबोधक हैं, कृत्रिम स्वप्नचारिता के वाहक नहीं | इनके काव्यनिषिद्ध सपने प्राय: स्वप्नसंयोग! हैं, जिनमें मावनिवेदन का एक विशेष सौष्ठव है। जब काव्य का आलंबन अलौकिक या लोकोचर होता हे अथवा लौकिक होकर भी एफाधिफ कारणों से छद्मावरण में गोप्य रहता है, तब स्वप्नसंयोग ही कवि, भावक या भक्त फो संयोगसुख दिया करता है। इसीलिये भारतीय भक्ति-रस-शास्त्र में भी स्वप्नसंयोग की बहुत चर्चा मिलती हैं, हालाँकि भारतीय मक्तिशास्त्र में स्वप्नसयोग फो गौंण संमोग के अंतर्गत स्वीकार किया गया है । श्रीमद्‌ रूप गोस्वामी ने इस स्वप्नसंयोग के मात्रामेद ओर स्थिति- भेद से चार प्रकार माने हैँ--संक्षित स्वप्नसंयोग, संकीण स्वप्नसंयोग, संपन्न स्वप्नसंयोग ओर समृद्धिमान स्वप्नसंयोग । “उज्ज्वलनीलमणिए में स्वप्नसंयोग को है विस्तृत व्याख्या मिलती है। आशय यह हे कि महादेवी के काव्यनिबद्ध सपनों पर कई दृष्टियों से अच्छा विचार किया जा सफता है।. .. सामान्यतः महादेवी का काव्य उपकरणों की दृष्टि से वेविध्यहीन माना जाता हैं| भमावभूमि की एकरसता के कारण इनके विनियोजित उपकरण मिलते 2 7] जुलते से हैं। साधारण पाठक सीमित उपकरणों की इस पुनरावइत्ि ओर उनके क्‍ विनियोग की एकरस योजना से, शायद, मुँकला सकते हैं। उदाइहरणाथ; 'सांध्यगीतः और 'दीपशिखा” की पृष्ठभूमि एकदम एकरस तथा घारांकित हें। धसांध्यगीत' में संध्या तथा दीपशिखा में राज्ि के ही कुछ आयासों को अंकित किया गया हे। फलस्वरूप, काव्यनिबद्ध चित्रों का वातावरण ही एक सा नहीं ल्‍ मिलता, बल्कि दीपक ओर बादल जैसे दो चार उपकरण बार बार चित्रफलक पर आकर सहूदय चित्त में एकरसता पेंदा कर देते हैं। उपकरण) फी यह एकरूपता ल्‍ इनकी चित्रकला की रंगयोजना पर भी हावी हे । इनको अनेक क्ृतियों में केवल | दो तीन रंगों से ही चित्रवृष्ठिका के मंडनशिल्प का काम लिया गया है, जो क्‍ निश्चितरूपेण भावांकन फी दृष्टि से अ्रमसाध्य हुआ करता है। इन्होंने अपने ल्‍ चित्रों में रंगों के इस ईहक्तया निःस्त्र प्रयोग की चर्चा करते हुए लिखा है रंगों की दृष्टि से में बहुत थोड़े ओर विशेषत: नीले सफेद से ही काम चला लेती द हूँ । जहाँ कई फो मिलाना आवश्यक होता है, वहाँ ऐसे मिलना अच्छा... लगता है कि किसी की स्वतंत्र सत्ता न रह सके। दीपशिखा के चित्र तो एक ही रंग में बने थे, अ्रतः उनके भावांकन में आयास भी भ्रधिक हुआ ओर बम | |. 4; २३६ हिंदी साहित्य का बृदत्‌ इतिहास इस अभावयुग में उनके मूल हूपों की संतोषजनक प्रतिकृृति देना भी असंभव हो गया ।* इसी प्रकार महादेवी के चित्रों में प्राय: रमशीमूर्तियों के साथ दीपक, कमल ग्रथवा फाँटे अंकित मिलते हैं। ये तीनों क्रमशः: आत्मा, भावना ओर पीड़ा ०७ के प्रतीक हैं। अपने गीतों में भी महादेवी ने इसी प्रतीकार्थ को स्पष्ट फिया है। जैसे-- दीप मेरे जल अकंपित घुल अचंचल |! अथवा ले मिलेगा उर''''** बेदनाजल स्वप्नशतदल अथवा फिर तुमने क्‍यों शुल बिछाए ? महादेवी की चित्रफला का सीधा प्रभाव इनकी कविताओं में न्यस्त बिंब- विधान पर पड़ा है। यह एक नंदतिफ तथ्य है कि कल्पना जब चित्राप्मक होती _ है, तब उसमें बिंबों की मूतंता का सहज आधान हो जाता है। महादेवी ने अपनी चित्रप्रियता के कारण बिंबों के विधान में विधायक कल्पना का प्रचुर प्रयोग किया. है। इसीलिये विधायक कल्पना से योजित इनके बिंव सूक्ष्म भावछुवियों के गोचर विधान में काफी सफल उतरे हैँ । यह विदित है फि अ्रनुभवगम्य सूक्ष्म भावों फो चाक्षुष बिंबविधान के सहारे गोचर प्रत्यक्षीकरणु के स्तर पर ला देना कविकव्पना की मूतविधायिनी शक्ति का सर्वोत्तम निकष है। इस निकष पर महादेवी का बिंब- विधान इसलिये खरा उतरता है कि इनकी कल्पनाशक्ति में ही स्वाभाविक चित्र- प्ररोचन हैं । कहने का आशय यह नहों है कि चित्रप्रियता के कारण इनका बिंबविधान एकदम निर्दोष हे | चित्रप्रियता या चित्राप्ररोचन का दूसरा पक्ष यह है कि चित्रात्मक प्लवन ( पिक्टो रियल लीप ) की अधिकता रहने से एक ही छोटी कविता में विन्यस्त इनके ब्रिंब श्वृंखलित न होकर विलग विलग बृचाकृति हो गए हैं। फलस्वरूप, विश्वेंखलित बिंबों को ग्रहरा करने के लिये पाठकों को भी एफ चित्रवत्त से दूसरे चित्रवृत्त तक पहुँचने के निमित्त अपनी आ्राहिका शक्ति फो दीपशिखा, पृष्ठ ६१ । ह द छ् ५५७४७४७४७७४७ ७७०७ आंकडा ७ जज ्च्य 53 व व 8 >> को काब दी पैक 4 5 2 40 न पक कप 9 गे पे 58 मेज अर 222 50202 3 ० 3 0 ८ मन मद कर आर /५ ४०८८ छ 540 7: व ४४ 0273 “57 कलम कर 2८ ह 3 0४ तक के 23 का पक 8 328: केश: 32 आन कप कद कक 7५ कर 44% की ५2% 20:02 22 22232 4०5 कट: के हढ 7 पक लीक कली भ कर कल 5) ० जप ली क- ली. क्रल फल कीत डक जल." ०.75 :++ कि नीच ५०।सबननरक कली. चलन ल+ 2 हे कीट मन कह» सगे लीक 3.. 2 थी पी नल की अल उस बी जज 0 तर ७ शप + बम के कक ० मे और मर २५४ की अली हक कीच र [ भाग १० ) प्रंभुख कवि : अन्य कवि _ श्झ७.... उछालना पड़ता है । इसलिये मह्दादेवी फी कविताओं फी फेंद्रगत साथफता सर्वसंवेद्य न होकर दीक्षित पाठकों की वस्तु बन जाती है। उपरिनिर्दिष्ट चित्रति यता के कारए' महादेवी के बिंबविधान का दूसरा दोष यह है कि उसमें संयोजवसूत्रता का अभाव मिलता हैं, जबकि बिंबविधान के पारखी आलोचर्कों ने बिंबों के संग्रथनसामर्थ्य पर बहुत बल दिया है । सचमुच, महादेवी के बिंबविधान में संयोजनस्‌त्रता का अनेकत्र अभाव हे। इसलिये इनके अधिकांश बिंब लपेटवाँ शैली ( इंगरलेस्ड स्टाइल ) में एक दूसरे से संबद्ध रहते हैं अथवा इनके त्िंब कांथा शेली के होते हैं, जिनकी जमीन फटी चिटी साड़ियों जैसी होती है और उसपर भावचित्र पैबंदों फी तरह चिपके रहते हैं। यदि हम कप्तीदाफारी की भाषा का प्रयोग करें तो हम कह सफते हैं कि महादेवी के बिंब- विधान में यत्र तत्र सलमा सितारे जैसी नयनामिराम मिलमिली मिलती है, किंठ, ग्रधिफतर इनकी बिंबसज्जा में छाया के कार्मों का पथुल प्रयोग मिलता है; जिफके कारण इनके बिंबविन्यास में दोया दो से ग्रधिफ बिंबों के बोच की मध्यस्थ > खला फो गुप्त ( श्रोपेक ) रखकर शअ्रागे आपनेवाले बिंबों फो चिपथ्वाँ ढंग ( एप्लिक प्रॉसेस ) से संलग्न फर दिया ज्ञाता हैं। चित्रफला की सर्जनात्मक चेतना से समन्वित रहने के कारण मह्दादेवी के क्‍ काव्य में सबल रंगपरिज्ञान मिलता है। विशेषकर इनके चाक्षुष बिंबविधान में. इस रंगपरिज्ञान का कलात्मक उपयोग छुआ हे। उदाहरणार्थ, संध्या ओर प्रभात के दो चित्र नीचे दिए जाते हँ-- द ( संध्या ) प््् गुलालों से रवि का पथ लीप जला पश्चिम में पहला दोप विहँसती संध्या भरी सुहाग... हे हमगोँ से रूप्ता स्वप्नपराग | हा ( प्रभात ) स्मित ले प्रभात आता नित 4] दीपक दे संध्या जाती । दिन ढठलता सोना बरसा गा निशि मोती दे मुस्कातो । के इनमें गुलाल, सुद्दाग, स्वर्ण, मोती इत्यादि के समायोजन में रंगबोधमयी सप्राणातों मिल्ञती हे । कुछ अन्य उदाहरण भी देखे जा सकते ह--- श्बै८ -.... हिंदी साहित्य का बृहव इतिहास : सीपी से, नोलम से चुतिमय कुछ पिंग अरुणा कुछ सित श्यामल, कुछ सुखर्च॑ंचल, कुछ दुखमंथर फेले तम से कुछ तूल विरल मड़राते शत शत अ्रत्ञि बादल | अथवा स्वर्शाकुकुम में बसाकर हे रैगी नव मेध चूनर बिछुल मत घुल जायगी इन लदरियों में लील रो ! चाँदनी की सित सुधा भर बाँठता इनसे सुधाकर मत कली की प्यालियों में लाल मदिरा घोल री! मत अरुण घू घट लोल री | क्‍ स्पष्ट है कि इन पंक्तियों का कल्लातोंष्ठव बहुलांशत: इनकी रंगीन चटक पर निर्भर हें। ऐसा रंगपरिज्ञान काव्यकला, विशेषकर ब्िंबंविधान के लिये बहुत महत्वपूर्ण हैं। रंगबोध की बारीकी से बिंबों में चाक्षुष आकर्षण और अभिव्यक्ति में व्यंजक वक्रता आ जाती हैं। इतना ही नहीं, रंगयोजना से कवि फी आंतरिक मनोबृत्ति का पता चलता हे। इसलिये वाद्स, थियोडोर डंटन, शुक्ल जी आदि ने श्रालोचना में रंगबोध के विश्लेषण को महत्व दिया हें । फाव्य में रंग के प्रयोग का प्रकृति से ऋजु संबंध हैं। फल्लस्वरूप, र॑ंगविशेष कवि के संपूर्ण व्यक्तित्व और आंतरिक प्रकृति का वाचक बन जाता हैं। पंत के लिये . इरा रंग, प्रसाद के लिये लाल रंग, निराला के लिये नीला रंग और महादेवी के ० लिये श्वेत रंग इनके व्यक्तित्व के ही बाचक है। हरित रंग से जीवनीशक्ति की, लाल से अनुराग की, नील से विराट शांति की और श्वेत से सात्विक स्वच्छुता फी अभिव्यक्ति होती है । महादेवी के काव्य में श्वेत रंग फो योजना ओर श्वेत रंगवाले श्रप्रस्तुतों फी प्रचुरता है, जिससे प्रयोकता की सात्विक प्रवृत्ति द्रोतित होती हे । महादेवी की कविताओं में ओस, चाँदनी, नीहार इत्यादि का प्रचुर प्रयोग श्वेतप्रियता फा ही फल हे। इनके काव्यसंतार में नखचरणां] को ज्योति मी श्वेत ह. और कलियों के प्याल्े घोनेवाली चाँदनी भी श्वेत हैं -- 32208 00 22200 ०8402 005 ८2258 कक [ भाग १७० ... प्रमुख कवि : अन्य कवि... २३६ . ४३; । मधुर चाँदनी धो जाती हे खाली कफल्ियों के प्याले इतना ही नहीं, इनको शात्मप्रसाधघन या अभिविन्यसन के लिये भी श्वेत रंग ही अत्यंत प्रिय है | ये सबंत्र श्वेत वसन घारण करना चाहती हैं, जैसे-. जाने फिस जीवन की सुघधि ले लहराती आती मधु बयार। पाटल के सुरभित रंगों से रंग दे हिस सा उज्वल दुकूल गुँथ दे रसना में अलिगुजन से पूरित भरते बकुलफूल । यहाँ स्मृति उल्लास और ग्रियतम के अमिनंदन की तैयारी में क्षणोत्सविक वस्त्र ( वस्त्र चार प्रकार के होते हँ--नित्यनिविसनिक, निमज्जनिक, क्षणोत्सविक और राजद्वारिक ) का वर्णुन है, जो प्रायः बेलबूटेदार और चाकचिक्य से भरा होता है। किंतु, कवयित्री को श्वेतिमा और सादगी से इतना स्नेह है कि वह मिलन« त्योहार के समय भी पाटल जैसे श्वेत पुष्प के समान उजला वस्त्र घारण करना चाहती हे। निश्चय ही यह श्वेतप्रियता कवयित्री की आंतरिक सात्विक वृत्ति फी परिचायिका हे | इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय हे कि महादेबवी की कविताओं में स्थूल सौंदर्य के प्रति विकर्षण का भाव अन्य छायावादी कवियों की अपेक्षा अत्यधिक कप ; हं। इसके दो कारण हैं। एक यह कि इनकी अनुभूति आत्मनिष्ठ और प्रवृत्ति अंतमु ख है । साथ ही, नारी होने के कारण आलंबन के प्रति इनके सौंदर्यानु- प्रांणित भावात्मक संवेग का मर्यादित होना स्वथा स्वाभाविक हे। दूधरे, इनके कीठ्य का वातावरण पूणुतः विरह से भरा हुआ हे। विरहकाव्य, विशेषकर जिसको आम्यंतर चेतना का घरातल अल्पाधिक उन्‍्नीत रहता है, संस्मरणात्मक ओर सुधिविछुल हुआ फरता है । तेदनंतर, आलंबन के मनसा प्रत्यक्ष ओर चक्षुषा अप्रत्यक्ष रहने के कारण आश्रय की सस्ती दुर्बलताएँ दमित हो जाती हैं । फलतः ऐसी शअ्रवस्था में भावुक के मनोलोक में सात्विक रखात्मकता बगती » ४ ०+ल 08,५५५ »लन्नल्करनलर, न ८ ८ €ः श र कप न्‍ "बल्लभ महादेवी की सौंदर्यानुभूति सर्वाधिक सूक्ष्म हे और परिणामस्वरूप पृ हो जाने एक “निरामिष रोमांस” मिलता है। क्‍ हास? बन जाने ई, काव्यरच ना श्रों मी थे कवियों अर्थात्‌ “यों के बीच मिलिंद, छायावाद के अन्य कवि--गौण कवि गोण छायावादी कवियों की काव्यकला की चर्चा करने के पहले इसे स्पष्ट कर लेना आवश्यक है कि 'गौण कवि? कहने से हमारा तात्पर्य क्‍या है। गोण कवि उन कवियों को कहा जाता है, जो युगविशेष या प्रवृत्तिविशेष के पद्चधर होकर भी अपने खेमे के कवियों के बीच प्रथम पंक्ति के अधिकारी नहीं हो पाते अथवा मोलिक उद्भावना करने के बदले अपने गोल के शलाकापुरुषों का श्रनुफरण अनुगमन करते रह जाते हैं। गौण कवि उन कवियों को भी कहा जाता है, जो वय फी दृष्टि से कनिष्ठ होने के कारण अ्रथवा अ्रन्यानेक कारणों से युगविशेष, वादविशेष या प्रवृत्तिवशेष के भाटा बन जाने पर भी उसमें संमिलित हो जाते हैं। अर्थात्‌, इस प्रकार के गौण फवि ड्ूबती नाव पर भी सवार हो जाते हैं ओर अस्तंगत वादविशेष के द्वायरे में कुछ दिनों तक रहकर आगे नई राह बना लेते हैं अथवा ऋतुपंछी या युगचारण की तरह किसी सशक्त नए. काव्यांदोलन के स्वर में स्वर मिलाने लग जाते हैं। तीतरे प्रकार के गौण कवि वे होते हैं, जो अपनी राह नहीं बदलते और पूरी आस्था के साथ उसी प्रबृत्तिधारा में आद्यत बहते रह जाते हैं। चौथे प्रकार के गौण कवि अपनी रचनाओं के स्वव्प परमाण के कारण गौंण रह जाते हैं। छायावाद के गौंण कवियों के बीच मोहनलाल महतो “वियोगी', लक्ष्मीनारायण मिश्र, जनादन का 'द्विजः और उदयशंफर भट्ट प्रथम प्रकार के गोण कवि हैं, जो छायावादी काव्यांदोलन के उन्मेषकाल से ही विश्युद्ध छायावादी कविताएँ रचने के बावजूद न बहुचर्चित हो सके और न छायावाद के अग्रणी कवि के रूप में स्वीकृत हो सके | गौंण कवियों के उपरिनिरददिष्ट दूसरे प्रकार के अंतर्गत नवीन, नरेंद्र शर्मा, नेपाली, भगवतीचरण वर्मा, आरसी प्रसाद सिंह इत्यादि आते हैं, जिन्होंने प्रारंम में छायावादी रचनाएँ तो कौ, किंतु, बाद में प्रगतिवांदी धारा के साथ हो गए. । दो प्रवृत्तियों, वादों या काव्यधाराओं के संधिस्थल पर प्रायः इस प्रकार के गौण कवि श्राविभूत हुआ करते हैं। तीसरे प्रकार के गौण छायावादी कवियों के बीच रामकुमार वर्मा ओर जानकीबल्लभ शास्त्री के नाम उल्लेखनीय हैं, क्योंकि इन्होंने छायावाद के श्रस्तंगत हो जाने पर भी श्रपनी राह नहीं बदली हैं और ये कवि छायावाद के “इतिहास? बन जाने पर भी अब तक उसी काव्यप्रवृत्ति में मूलतः रमे हुए हैं। तदनंतर, काव्यरचनाओं७ के स्वल्प परिमाण के कारण गौंण कहे जानेवाले छायावादी कवियों अर्थात्‌ उपरिनिवेदित सूत्र के अनुसार चौथे प्रकार के गौण कवियों के ब्रीच मिलिंद, १ ५-३ १ " हि १४२ हिंदी साहित्य का बृद्दत्‌ इतिहास रामनाथ 'शुमन!, गुज्नाबरत्न वाजपेयी गुलाब” सुकुय्धर पंडेय, इलाजंद्र जोशी, वंशीधर विद्यालंफार, जगन्नाथ मिश्र गोड़ 'कमत्न!, प्रफुल्लचंद ओका मुक्त', सत्यत्रत शर्मा सुजन, आनंदोप्रधाद श्रीवास्तव, जगमोहन विकसित, कलक्टर सिंह केसरी इत्यादि के नाम गिनाए जा सकते हैं | छायावाद के गौण कवियों का एक पाँचवाँ प्रकार भी निर्धारित किया जा सकता है, जिसके अंतर्गत छायावाद के पृवज कवियों को रखा जा सकता है। पूर्वपुरुष कवि वादविशेष के अ्वतरित होने के पहले अपनी ऋृतियों के द्वारा उसकी विशिष्ट प्रवृत्तियों का पूर्वाभास श्रथवा पूवभलक प्रस्तुत करते हैं। यह कार्य जाने अ्रनजा ने ही पूवज कवियों के द्वारा सिद्ध हो जाता है। ग्रँगरेजी कविता के इतिहास में मी रोमांटिसिज्म! के “प्रिकर्र पंए.ट्स” मिलते हैं। छायावाद के ऐसे पू्वज कवियों के बीच रामनरेश त्रिपाठी, माखनलाल चतुर्वेदी, सियारामशरणु ! गुलाबरत्न वाजपेयी “गुलाब” की कविताप्नों का संकलच 'लतिका! के नाम से प्रकाशित हुआ था। इन्होंने कुरुक्षेत्र नामक महाकाव्य की भी रचना प्रारंभ की थी, जिसकी भाषा बहुत ही प्रांजल थी | इन्होंने इस काव्य के प्रथम सर्ग का नाम रखा था 'घत!। इनके कुरुक्षेत्र” का प्रारंभिक भ्रंश १६२८ की भाधुरी” के बुछ्ध प्रंकों में प्रकाशित हुआ था शौर उसने तत्कालीन युवा कवियों तथा सह॒ृदयों को काफी प्रभावित किया था | किंतु, इनका संपूर्ा कुरत्षेत्र' पाठकों के समज्षु नहीं श्रा सका । + पँत ने श्राधुनिक काव्यप्रेरणा के स्रोत” शीष॑क निबंध में मुकुटधर पडिय के विषय में लिखा है, “री मुकुटधर पांडेय की रचनाप्नरों में छायावाद की सुक्षम भावव्यंजना तथा रंगीन कल्पता धीरे धीरे प्रकट होने लगी थी, जो प्रागे चलकर प्रसाद जी के युग में पुष्पित पल्लवित होकर, एक नृतन चमत्कार एवं चेतना का संस्कार धारण कर, हिंदी काव्य के प्रांगण में नवीन युग के प्रस्णोदय की तरह बू्तिमान हो उठी [--शिल्प झौर दर्शन, पंत, प्रथम संस्करण, पृष्ठ १६७ । पंत जी मुकुटधर पांडेय की रचनाभोों के साथ 'सरस्वती! के माध्यम से परिचित हुए। पांडेय जी की कविताश्रों में पंत को नतवीनता तथा मौलिकता का श्राभास! मिलता था। श्राचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी मुकुटधर पांडेय की गणना छायावाद के सुत्रधारों में की थी | मुकुटधर पांडेय का पहला काव्यसंकलन 'पूजाफूल' के नाम से १६१६ ई० में प्रकाशित हा था; जिसमें छायावादी कविता के सहश ही प्रगीतात्मकता, स्वानु- भूतिमूलकता और अनाख्यान की प्रचुरता है। [ भाग १० ॥| छायावाद के अन्य कवि -भौण कवि २४३ गुप्त, नवीन आदि का नामोब्लेख किया जा सकता है। रामनरेश त्रिपाठी ने विशद प्रकृतिचित्रण ओर भावुक प्रणयनिवेदन से युक्त स्वप्न तथा 'पथिक! ऐसे खंडकाव्यों फी रचना कर न केवल छायावादी काव्यवस्तु का पूर्वामास प्रस्तुत किया, बल्कि आगे आनेवाली छायावादी सौंदर्यभावना को भी हिलकोर दिया। इसी तरह बालकृष्ण शर्मा के अपलक! और 'क्वासि? में खो दार्शनिक भावषोध परिव्याप्त है, उसमें छायावादी सुरभि अस्फुट रूप में सिमटी हुई है। यही बात सियाराम शरण गुत्त की आर्द्रा' और “पाथेयः के साथ मी है। इन काव्यसंग्रहों की भाषा में निश्चय ही छायावादी माषाशेलोी की मख्ण प्रांजलता नहीं है, किंतु इनका सावबोध छायावादी मावभंगिमा की पूर्व ऋलक प्रस्तुत करता है ।' इन गोण कवियों फो छायावादी काव्यांदोलन या छायावादी कविला के इतिहास में उचित महत्व नहीं दिया गया है, जो अनुचित है। यह आलोचकों ओर साहित्येतिहासकारों के असंतुलित या पक्षपातपूर्ण इश्टिफोश का सूचक है कि छायावादी फकाव्यांदोलन या छायावादी कविता की चर्चा केवल चार प्रप्नुख कवियों तक सीमित कर दी जाती है। यह कुछ वैसा ही हे; जेसा कि दस बीस राजे- महाराजे या राजवंशों के वृचांत फी किसी देश का इतिहास कह दिया जाता है। ग्रत: जिस प्रकार सामान्य इतिहासलेखन में इन दिनों सतहो इतिहास ( सर्फेस हिस्ट्री ) की जगह पर ऐसे गहन इतिहास ( डेप्प हिस्ट्रो ) को महत्व दिया जा _ रहा हैं; जिसमें शिखरस्थ व्यक्तियों के जीवन से संबद्ध घटनाओं को नहीं, पूरे लोकजीवन को दृष्णिगत रखा जाता है; उसी प्रकार साहित्येतिहास में भी अरब प्रमुख कवियों के साथ गौण कवियों को उचित महत्व देना अ्रनिवार्य हो गया है अन्यथा साहित्येतिहास अ्रपूर्ण रह जायगा। इसलिये न्याय्य, प्रामाशिक ओर गहन साहित्येतिहास प्रस्तुत करने के लिये गाँण फवियों की और गवेषकों का ध्यान झाकृष्ट होना आवश्यक हे। झाचाय नलिनविलोचन शर्मा ने हिंदी के गोण कवियों के इतिहास की चर्चा करते हुए उचित ही लिखा है कि 'महान्‌ लेखकों से अधिफ महत्व उन गौणों का है, जिनछे विश्तार निर्मित होता है। हिंदी साहित्य के इतिहासों में इन महान्‌ गौणों की उपेक्या हुई हे और इसका कारण यह है कि ९ यहा इपे स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि उपर्युक्त कवियों में कई कावियोँ का स्थान यद्यपि छायावाद के संदर्भ में गौण है, तथापि हिंदी काव्येतिहास के व्यापक संदर्म में उनका स्थान महत्वपुर्ण है। अतः उन कवियों के प्रसंग में गौण' शब्द अन्य का वाचक है, अमहत्वपूर्णा या कप महत्वपूर्ण का नहीं । १४४ .. हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास शोध ने अपने वास्तविक कर्तव्य का पालन नहीं किया है। यह उन पथचिकह्नों तक ही सीमित रहा है, जो वस्तुत: आलोचना के विषय हैं |” संभवत: शुरू से ही छायावाद के आलोचक गौंण छायावादी कबियों के विवेचन की आवश्यकता महसूस फरते रहे हैं, फिंठु, उदार और व्यवस्थित ऐतिहासिक दृष्टिफोण के श्रभाव में लघुत्नयी अथवा बृहत्रयी फी चर्चा से ही संतोषलाभ करते रहे हैं। वास्तविकता यह है कि छायावादी फविचतुष्टय ( प्रसाद, निराला, पंत ओर महादेवी ) के साथ रामकुमार वर्मा, भगवती चरण वर्मा इत्यादि जैसे कुछ नामों फो जोड़ देने से ही छायावादो काव्यांदोल्नन का इनिहास पूरा नहीं हो सकता श्रोर न उसके अ्रनव्प विस्तार को ही अंकित किया जा सकता है । पंत जी का यह मंतव्य बहुत ही समीचीन है कि “छायावादी काव्य को फविचतुष्य्य तक सीमित कर देना मुझे विचार की दृष्टि से संगत नहीं प्रतीत होता । अ्रभिव्यंजना शली, भावसंपदा, सोंदर्यवोध तथा फाव्यवस्तु ग्रादि की दृष्टि से उस युग के आगे पीछे अन्य भी श्रनेक समृद्ध कवि हुए हैं, जो छायावाद के उद्भव तथा विकास में सहायक हुए हैं। उनमें से माखनलाल जी, मृकुटधर पॉडिय, रामनरेश त्रिपाठी, नवीन जी, सियारामशरण जी, मोहनलाल महतो, उदयशंकर भट्ट, इलाचंद्र जोशी, डा० रामकुमार वर्मा, जानकीवब्लभ शास्त्री आ्रादि अनेक लब्धप्रतिष्ठ कवियों के नाम गिनाए जा सफते हैं| बालक्ृष्णु शर्मा नवीन के काव्यसंफलनों में छायावादी भावबोध के अनुरूप अ्रंतजंगत्‌ का रोमांच मिलता है। जैसे, अपलक' में संकलित 'शआज हुलसे प्राण! शीर्षक कविता, जो १६३६ ई० में रची गई है, इस रोमांच को उदाह्वत करती है। 'श्रपलक' की अ्रपेत्षा 'क्वासि' में छायावादी रहस्यवादी प्रवृत्तियाँ श्रधिफ हैं, क्योंकि इसमें श्रमांसल टोह ओर शआ्राध्यात्मिक टेर की श्रधिकता है। विशेषकर १६४० ६० के पहले रची गई फविताएँ छायावादी प्रद्मति से और भी भरी पड़ी हैं। कथ्य के साथ ही फाव्यकला की दृष्टि से 'क्वासि' फी फविताएँ छायावादी अभिव्यंजनाशेली के निकट हैं। जैसे, 'फिर गूँजे नव स्वर, प्रिय शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं---.... बूदें टप टप टिपिर टिपिर टपकीं दल बादल से, धाराएं घिर घहरीं नम के वक्षुस्थल से-+- ? साहित्य का इतिहासदर्शन, तलिनविलोचन शर्मा, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्‌, पटना, १६६०, पू० ६१६ ॥।॥ छायावाद : पुनम्‌ ल्यांकन, सुमित्रानंदन पंत, प्रथम संस्करण, पृष्ठ १०७ । क्‍ [ भाग १० ] छुयावाद के झन्य कवि--गौण कवि ४ सिहर उठा मलयानिल, हम सिहरे बेकल से, कॉपा मन, उसड़ा हिय, नयन भरे भर भर, प्रिय, फिर गूँ जे नव स्वर, प्रिय ।! कथ्य की दृष्टि से भी (क्वासि! में रहस्यात्मकः रचनाओं झोर आध्यात्मिक ग्रनुभतिययोँ का अ्रभाव नहीं है। किंत, वे रहस्यात्मक रचनाएँ और शआ्रध्यात्मिक ग्नभतियाँ भी छायावादी भावबोध के परित्रत में ही श्राती हैं--उदाहरणाथ, ४इकतारा' शीषक फविता की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं--- मेरी वीणा में एक तार, गायक तू भी यह छुवि निह्ार । एकाकी स्वर का झदु निक्‍यणु-- होता हद स्वनित यहाँ प्रतिक्षण, गाऊ' केसे शंकरामरण ९ दरसाऊँ केसे स्वसलबण ? हैं सात स्वरों का कठिन भार, मेरी वीणा में एक तार।' इतना ही नहीं, भावबोध की दृष्टि से (क्वासि' में छायावादी वेदनावाद के छींटे भी मिलते हैं। जैसे, 'मनुहार' शीष॑क कविता में नवीन ने लिखा है-- मेरी वेदना सहेली है, बच पन से वह संग खेली हे ।रे गोण छायावादी कवियों के पहले खेवे में मोइनलाल महतो 'वियोगी” का विशिष्ट स्थान है। वियोगी जी फी दो कवितापुस्तकें--'निर्माल्य/ और 'एफतारा? इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। (निर्माल्य” का प्रफाशन सुदर साहित्यमाला के अंतगत्‌ हिंदी पुस्तक मंडार लहेरियासराय से संवत्‌ १९८२ विक्रम में हुआ था। वियोगी की कविताश्रों में आवेग ( पैशन ) और दशन ( फिलासफी ) फा मधुर सामंजत्य है । छायावादी कविता में कल्पना फो जो सर्वोपरि महत्व दिया गया, उसे इन्होंने भी अंगीकार किया है। इन्होंने इस आशय की श्रनेक पंक्तियाँ “एकतारा' और ५निर्माल्य? में लिखी हैं। जैसे-- कर प्रवेश कल्पनालोक में कविताउत्स प्रवाहित कर [४ * क्वासि, राजऊुमल प्रकाशन, दिल्‍ली, १९५२, पृष्ठ ४५ । * उपरिवत्‌, पृष्ठ ७३ ॥ ३ उपरिवत्‌, प्रृष्ठ ७६ | ४ एकतारा, वियोगी, प्रथम संस्करण, एृ५ठ ५६ | ९ |; आई री । । ः 5. ६ | पं. | २४६ द हिंदी साहित्य का बृहतू इतिहास . ग्रथवा सुखद कल्पना की वीणा ले गाता फिर अ्रनंत संगीत ।* वियोगी जी की कविताश्रों में छायावाद के श्राध्यात्मिक पक्ष फी, थो सामान्यतः कझायावाद का एक प्रच्छन्‍न पक्त है, सशक्त अ्रभिव्यक्ति हुई है। 'निर्माल्य! के निवेदन से ही फवि फी आ्रास्तिक आ्राध्यात्मिकता फा पता चलता है--- में तो हूँ नीरव बीणा मुझपर है वादक फा अधिकार मुझे बजाता है वह जब आा शझपनी श्व्छा कै अलुसार-..?>> होती हैँ तब व्यक्त राग रागिनियाँ मन हरनेवाली | इनकी फाबध्यसाधना पर रींद्रनाथ ठाकुर का गहरा प्रभाव है। यह फहा जा सकता है कि छायावाद के प्रमुख कवियों में निराला पर और गौण कवियों के बीच वियोगी पर रवींद्रनाथ ठाकुर फी काव्यधारा फा गहनतम प्रभाव है। शायद श्वींद्र के प्रभाव ने ही वियोगी का ध्यान छायावाद की ओर आकृष्ट किया था। 'निर्माल्य! में संग्रहीत “विसर्जन” शीर्षक कविता और उनके नीचे दी गई पादटिप्पणी से भी इस प्रभाव की मुखरता व्यक्त होती है। “निर्माल्य' की अधिकांश कविताओं में छायावादी लाक्षशिकता और फशथ्य की सूक्ष्मता का अभाव है। किंतु, “'निर्माल्य” की कुछु कविताओं में श्रवश्य ही छायावाद फी कल्पनाप्रियता या अनंत का श्राह्मान है। बैसे-- अग्रभी तरी फो खोल पहुँच जाता हूँ पल भर में उस पार | मैं श्रनंत में कर दूंगा, अपना विलीन व्यक्तित्व श्रपार |* “निर्माल्य' के बाद वियोगी जी के दूसरे काव्यसंग्रह 'एकतारा' फा प्रकाशन हिंदी पुस्तक मंडार, लह्ेरियासराय से श्रावण शुक्ला सत्मी, १६८४ को हुआ । यह कवितासंकलन छावावादी काव्यको राल की दृष्टि से निर्माल्य' को तुलना में * तिर्माल्य, प्रथम संस्करण, पृष्ठ २० | ..._* उपरिवत्‌, पृष्ठ ६७ | [ भाग १० ] छायावाद के अन्य कवि--गौण कवि २४७ झधिक परिष्कृत और ग्रांजल रचना है। इसमें कवि ने छायावाद की मुख्य भावभूमि का स्पश करते हुए लिखा है-- वेदना को छुंदों में बाँध मिठाया था जो अंतर्दाष्टः पुनः स्मृति से दूँ उसको जगा लगा चेतनावर्ति की छोर; द छोड़ दू' कविताओं के दीप अतल जल में अनंत फी ओर | इन पंक्तियाँ में प्रयुक्त 'वेदना', अंतर्दाह! और अनंत की ओर” छायावादी भाव- धारा के ह्वी आकाशदीप हैं| इस छंग्रइ का नामकरण भी छायावाद की केंद्रीय साथकता फो दृष्टिगत रखते हुए किया गया है। छायावादी कविता की बैयक्ति- कता; एकाकीपन, रहस्यपरक आध्यात्मिकता ओर मखुश संगीतात्मकता को ब्यक्त करने के लिये “एकतारा? से अ्रच्छा प्रतीक और क्या हो सकता है ? इस “एकतारा! से छायावाद की कल्पनाञित सूक्ष्मनुभूति और संतों की साधनात्मक सुक्ष्मानुभूति के बीच की प्रच्छनन खला उभरफर सामने आ गई है इस संदर्भ में लक्ष्मीनारायणु मिश्र और इनके अंतर्णंगत' का उब्लेख आवश्यक है। यह दूसरी बात है कि “अ्ंतर्जगत्‌' के बाद मिभ्र णी फी फोई अन्य कवितापुस्तक प्रकाश में नहीं आई झोर इनका ध्यान मुख्यतः नाव्यरघना की ओर केंद्रित हो गया। अ्रंतजंगत्‌ः की रचना इन्होंने १९३१-२२ ६० में फी, लिस समय इनको अवस्था १८-३६ वर्ष की थी। इनकी कविता में कब्पना के प्रति अकूत श्राकषंण मिलता है । जैसे-- मनस्तत्व का निपुण पारखी तन्मयता का नेमी-- अमर कल्पना का खा # कर ककको रहता मेरे मन में ।! _बद्यपि लक्ष्मीनारायण मिश्र ने “अंतर्ज॑र त्‌! के बाद कोई अन्य छायावादी कृति प्रस्तुत नहीं की और वे 'पद्धतिकाब्य” के पक्षघर बन गए, तथापि इनके “अंतर्जगत्‌” ने छायावाद के प्रादुर्मावकाल में “आँसू? की तरह ही श्रात्मनिष्ठता और कैशोर ! झंतजगत्‌, प्रथम संस्करण, पृष्ठ १६ | । श्ड८ हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास विषाद के उद्गरेक को बल दिया। लक्ष्मीनारायण मिश्र फा यह दावा हे कि ्अंतर्जगत्‌” के तीन वर्ष बाद आँसू! प्रकाशित हुआ और उसपर “अंतर्जंगत्‌” का स्पष्ट प्रभाव है । यह गर्बोक्ति कई फारणों से समीचीन प्रतीत नहीं होती, फिंठु, यह सच है कि अंतर्गत” छायावादी काव्यदृष्टि की एक मूल मान्यता से संबद्ध है। अंततोगत्वा, संपूर्ण छायावादी कविता श्रपने र्वयिताओ्रं के श्रंतजंगत्‌ का ही स्वच्छ प्रतिबिंब है | सच पूछिए तो छायावादी कवियों का अंतर्जंगत्‌ एक प्रकार का आत्मकल्पित (रागलोक' है । छायावाद के गौण कवियों में जनादन कला 'द्विजा का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है | द्विज जी (जन्मकाल ; १६०४ ई०) मूलतः वेदना; स्मृति और अनुभूति के कवि थे। यह सवंविदित है कि छायावादी कविता की मानसिक विभूतियों में वेदना, स्मृति और अनुभूति फी ही प्रचुरता है। इस तरह ह्विज जी विजशुद्ध छायावादी प्रवृत्ति के प्रतिनिधि फवि सिद्ध होते हैं। इनके प्रथम फाव्यसंग्रह बअनुभूति' का प्रकाशन १६९३३ ई० में वाणीमंदिर, छपरा (बविद्र ) से हुआ था। अनुभूति” में कवि की आकुल व्यथाकथा है ओर आम्यंतरिक व्यथा” फी मार्मिक अभिव्यक्ति ही उक्त काव्यसंग्रह का आधारभूत तत्व है। 'ध्वाह्यव्यथा' न होकर आआमभ्यंतरिक व्यया इसलिये कि शआराभ्यंतरिक व्यथा में उपलब्धि की आकांच्षा नहीं रहती, उत्सग के भाव भरे रहते हैं ।! इसी आभ्यंतरिक व्यथा को द्विज ने 'वेदना? की आस्था दी है ओर यह फामना की है-- श्रमर वेदना ही हो मेरे . सफल सुखों का मीठा सार | इस तरह वेदना को 'जीवन फो एकांत साधना” बना लेने की दृष्टि से छायावादी कवियों के बीच, द्विज और महादेवी में काफी समानता है। महादेवी वर्मा के 'आँसू से पुरनम गीत” बरबस द्विज द्वारा लिखे गए 'तरल पीड़ा के गीले गीत की याद दिला देते हैं। वस्तुतः द्विज की कविताएँ “प्रेमपीड़ा की मीठी चोट' आर 'निगूढ़ वेदना के अ्रमर क्रदंन' से भरी पड़ी हैं। मावनात्मक धरातल पर हिज द्वारा की गई यह “अ्रभाव की पूजा! छायाबादी कविता की सालिक विभूति है । क्‍ ... अभिव्यक्तिकला की दृष्टि से द्विज ने भाव और शब्द की सुकुमारता? का ध्यान रखा है। इसमें संदेह नहीं कि इनके पास “हृदय विप॑ची के सोए तारों में आकुल स्वर भरने! की सधी हुई कला है। शब्दशय्या को दृष्टि से इनक्री 'प्रेम के देवता से! शीषक कजिता को ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हें-- | [ भाग १० ] छायावाद के अन्य कवि--गौण कवि २४६ . मेरे तिमिर भरे अंतर में एक बार प्रिय | दढार प्यार के नव प्रकाश की धार |" इनकी कविताओं से स्पष्ट है कि इनके पास बहुत ही सूक्ष्म रूमानी अ्ंतहष्टि थी । तभी तो ये 'गीली पलकों में बंद लजीली आँखों का अनुरोध” भी समझ लेते थे ओर 'भग्न उसास! को भी भूलना नहीं चाहते थे ।* इन्हें तो वेदना के आँगन में ज्ञीट पोट्कर अ्रपने पागल प्यार को पालना! प्रिय था। फारणु, इन्हें /विषाद के राज्य में बंदी बनकर तड़पनेवाले सुख' से ही सदैव भेंट हुई थी । इन्हें विशुद्ध' छायावादियों की तरह यह स्वीकार था कि प्यार दुलार को जीवित रहने के लिये पीड़ा के आलिंगना फी आवश्यकता होती है। “पीड़ा के आलिंगन' के बिना 'अंतर की प्यास” निरंतर बढ़ती जाती हे और 'लालसा के करुणु विल्ास” से जीवन मलिन हो जाता है। द्विज की दूसरी कवितापुस्तक “अंत्व॑नि' छायावादी मध्य तथा शिब्प फी दृष्टि से और महत्वपूर्ण है। इसमें संग्रहीत सभी कविताएँ, छायावादी काव्य- शिल्प के अनुरूप, शीष॑कह्दीन हैँ । द्विज जी ने “अंतध्वनि! का आमुख? विद्बतापूण ढंग से लिखा है, जिसमें इन्होंने सृक्मेक्षिकापूर्ण सहृदयता के साथ छायावादी फाव्यदृष्टि की ललित व्याख्या की है। इस 'आमसुख' में इन्होंने आ्रात्माभिव्यंजन- मूलक काव्य? के प्रति अपनी आस्था को दुहदराया है ओर अपने फो 'साहित्यसाधना के छेत्र में व्यक्तिवाद की प्रधानता का समर्थक” घोषित क्रिया है। यह “आमुख? निश्नोत रूप में इन्हें छायावादी काव्यसिद्धांत का सुलक्का हुआ प्रवक्ता सिद्ध करता है। एक प्रतिनिधि छायावादी फवि की तरह इनका आग्रह हैं कि “कला का प्रादुर्भाव अंतस्तल की निगूढ़ वेदना से ही होता है? और 'कला के मल में श्रतृत् आकांक्षा' तथा वेदना की सहखमुखी घारा रहती है। श्रर्थात्‌ वेदना इनके जीवन ओर कफाव्यानुमूति का सारसव॑स्व? है। इन्होंने एक संवेदनशील कवि के रूप में जीवन श्र काव्य फो 'वबेंदना की परिधि! में देखा है। इन्होंने छायावाद कफी मुख्य मावभूमि वेदनावादी अंतर्घारा का कितना सुंदर संकेत इन पंक्तियों में किया है--- * अनुभूति, द्विज, द्वितीय संस्करण; पृष्ठ ७६ । * उपरिवत्‌, पृष्ठ ५२। १०-३२ भी हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास २३५० है विरह प्रशय का मधुर मोल वह अमर बना पी ली जिसने पीड़ा आँसू में घोल घोल | छायावाद के गौण कवियों के बीच द्विज जी ने व्यथाबिद्ध प्यासी चाहों' की छुग्पटाहट का जैसा स्निग्घ वर्गान किया है, वह अन्य गौश कवियों की रचनाओं में दुर्लभ है। एसलिये इन्हें स्वानुभूतिमूलक करुणा का मार्मिक कवि' माना जा सकता है। डा० लक्ष्मीनारायश सुधांशु की धारणा है कि द्विज की वेदना' जीवन फी शुद्ध वेदना नहीं, बढ्कि उस्सें जीवन के विलास का ञ्राकषंण है | द्विज जी फी फविताओं के अ्रध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि ये मूलतः व्यक्तिवाद की प्रधानता के समथक थे। अ्रतः इन्हें वेयक्तिक अनुभूतियों के साधारणीकरण की झनिवायंता अनावश्यक महसूस होती रही। श्रत्यंत भावुक व्यक्तिवादी स्वभाव ने ही वेदना या पीड़ा को इनका “मूल काव्यद्रव्य' बना दिया। छायावादी फाव्यधारा के फिसी दुसरे गौण कवि ने जीवन के विषादतत्व फो कविता का विषय बनाकर फरुणा का ऐसा मादक स्वरसंधान नहीं किया है। छायावाद के इन गौंण फवियों के बीच रामकुमार वर्मा ( जन्मफाल ! १९०४ ई० ) फा इतित्व गुण और परिमाण दोनों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। ट्विबेंदीयुगीन संस्कार से निकलकर छायाबादी भमावबोध तक इन्होंने जो काव्ययात्रां की है, उसका पता वीर हम्मीर, कुलललना, चिचौड़ की चिता; अभिशाप, अंजलि, रूपराशि, निशीय, चित्ररेखा, चंद्रकिरण, संकेत, आकाशगंगा, एकलव्य इत्यादि जैसी कृतियों के क्रमिक अनुशीलन से चलता है। इनकी छायावादी कविताओं में सर्वात्मवादी चेतना के फारण मानवीकरणा प्रेरित कल्पना की प्रचुरता है। जेसे, निम्नलिखित कविता में इन्होंने रजनी का जो मनभोहक और इष्टिरंजफ रूप उपस्थित किया है, वह मानवीकरणप्ररित कल्पना से ही निष्पन्न है-- इस सोते संसार बीच ' जगकर सज्मकर रजनी बाले | द फषहाँ बेचने ले घाती हो, ये गणरे तारॉवाले १ ! भ्रंतध्वनि, द्विज, प्रथम संस्करण, पृष्ठ ३८ | कि क्‍ जव्न वे तत्व अर वास्य के स्ड्टांत, सुधांशु, दृतीय गंर्व॒ रण, पृष्ठ २९५।.. [ आंग १० मोल करेगा फोन; सो रही हैं उत्सुक आँखें सारी | मत कुम्हलाने दो, सूनेपन में अपनी निधियाँ न्‍्यारी।' रचनात्मक घरातल पर ही नहीं, काव्यसिद्धांत की दृष्टि से भी रामकुमार वर्मा की कल्पना संबंधों मान्यताएँ महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इन्होंने अपने छायावादी कविश्वीवन में पंत के सदश कल्पना को विशेष महत्व दिया है, जिसको स्पष्ट स्वीकृति रूपराशि! की भूमिका में मिलती है। यह दूसरी बात है कि इन्होंने अपनी प्रोढ़ रचनाओं में अपने कल्पनाधिद्धांत को संशोधित कर लिया है और कल्पना! की तुलना में अनुभूति! को अधिक महत्व दिया है। इस दृष्टि से इनकी निकट्ता महादेवी वर्मा के साथ स्थापित की जा सकती है, क्‍योंकि महादेवी ने भी - कल्पना को अत्यधिक प्रश्नय देना छायावाद के परामव का एक कारण माना है। ग्रतः यह कहना समीचीन होगा कि अ्रपने प्रोढिकाल में रामकुमार वर्मा ने फल्पना के अतिरेक फो फाव्य का दूषणु मानते हुए अनुभूति को कल्पना से श्रधिक गोरव दिया है। इन्होंने (वित्ररेखा' के “परिचय में स्पष्ट लिखा है--'मैं पहले कल्पना का उपासक था। मेरी रूपराशि? तो अधिकतर कल्पना से ही निर्मित है। पर अब अनुभूति मुझे कल्पना से अधिक रुचिकर है|? इनकी भूमिकाश्रों और साहित्यशाक्न से संबद्ध निबंधों में कल्पना पर सात्विक विचार करने का अच्छा प्रयास मिलता है। प्रारंभिक कविजीवन में कल्पना के प्रति इनके श्रमोघ आग्रइ का सर्वोत्तम उदाइरणु रूपराशि! नामक कवितासंग्रह के प्राक्कथन में मिलता है। इसमें इन्होंने लिखा है, “कविता में कल्पना मुझे सबसे अच्छी मालूम होती है। वही एक सूत्र है, जिसको पकड़कर कवि इस संसार से उस . स्थान पर चढ़ जाता है, जहाँ उसकी इच्छित भावनाओं द्वारा एक स्वणपंसार निर्मित रहता है।'*'“*'कवि में निर्माण करने की शक्ति कल्पना द्वारा ही आती है ।” “रूपराशि' के प्राक्फथन में फवि ने अपने को 'कल्पना फा उपासक!' कहा है । सचमुच, रूपराशि! की अनेक पंक्तियाँ कल्पना की निबिड़ उपासना का द्योतन फरती हैँ-- में तुमसे मिल सकूँ यथा उर से सुकुमार दुकूल, समयलता में खिले मिलन के दिन का उत्जुक फूल । * झ्राधुनिक कवि, रामकुमार वर्मो, प्रयाग, संवत्‌ १६६९८, पृष्ठ ९६ । / चित्ररेखा, चाँद प्रेत, इलाहाबाद, अवबन संस्करण; पृष्ठ १ । « रूपराशि, रामकुमार वर्मा, बनारत, १६३३॥ पृष्ठ १। न्ध 90७२ द हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास अथवा इंद्रधनूष सा वस्त्र कर रहा था सज्जित सब अंग, जिनमें श्रननिपुण चोर सहश था आधा छिपा अ्रनंग । कुल मिलाकर रामकुमार वर्मा की कविताओं में छाग्रावादी किशोरभावना के कोमलतम अंश ओर रहस्यकल्पना की प्रचुर अ्रभिव्यक्ति हुई है। कविताओं के ग्रलावा इनकी अ्रन्य सजनात्मक विधाओं में छायावादी मल्यबोध ने ही मुलाघार का कार्य किया है। पंत जी ने तो इनके 'एकलव्य' को भी 'छायावादी श्रमिव्यंगना का एक श्रेष्ठटम महाकाव्य' माना है। छायागादी काव्यांदोलन के दौर में रामनाथ 'सुमनः ने भी अच्छी कविताएँ लिखी थीं। यदि सुमन ( जन्मकाल ; १६०४ ६० ) फी काव्यसजंना परिमाण में विपुल होती, तो निश्चय ही इनकी गणना महत्वपूर्ण छायावादी कवियों में होती । विपंच्चा।/! के नाम से इनकी कवितापुस्तक हिंदी पुस्तक मंडार, लहेरियासराय से प्रकाशित हुई थी, जिसमें प्रम एवं आत्मनिष्ठ दर्शन से संबद्ध . इनके ललित गीत संगहीत हैँ। ध॑विपंची” में, निस्संदेह, छायावादी काव्यकला का श्रच्छा निदर्शन मिलता है । लगता है, कवि ने मूक वदना? की 'विप॑ची! पर 'डँगली फी अंतिम चोट” लगाई है | छायावाद के फुटकल गोण कवियों में गोपाल सिंह नेपाली ( जन्मकाल : १९०२१ ६० ) फी भी गणना की जा सकती है। नेपाली की कविताओं में शक्ति, प्रवाह, सादर्यवोध तथा चारुच्चित्रण? की प्रचुरता है। “'पंछी” और ५“रागिनी' इनके प्रतिनिधि काव्यसंग्रह हैं। प्रकृतिप्रेम और प्रकृतिसोंदर्य के प्रति रोमानी दृष्टिफोश इनकी कविताओश्रों का रसप्राणु है। चिंतन श्रोर दर्शन का प्रवेश इनकी कविताओं में कम है। वस्तुतः ये कल्पना, शआ्रावेंग ओर जोश के कवि हैं। यहाँ यह लक्ष्य करने योग्य है कि इनकी श्रभिव्यक्तिशेली पर छायावादी रौनक नहीं के बराबर है । कारण, इन्हें 'सरल भाषा! और “सरल साहचर्य” से प्यार है, जो छायावादी अभिव्यक्तिकोशल के अनुरूप नहों माना जा सकता । फलस्वरूप, इनकी ऐसी कविताएँ भी, जिनका कथ्य प्रकृतिसोंदर्य है; विवरणात्मक ही हैं ओर छायावादी लाक्षशिकता से लगभग रहित हैं ।' इस प्रसंग में केदारनाथ मिश्र 'प्रभातः ( जन्मकाल ; १९०७ ई० ) की ) उदाहरणार्थ : 'रागिनी' नामक काव्यसंकलन में संग्रहीत “मालव की डगर पर शीषंक कविता |. पि [ भाग १० ] छायावाद के अन्य कवि - गौण कवि रेप फाव्यकृतियों का उल्लेख अत्यावश्यक है। »नल्‍प परिमाण में काव्यरचना कर लेने पर भी इनकी गणना छायावाद के गोंण कवियों में ही होती रही हे। राष्ट्रीयता; क्रांति या एवंविध श्रस्थायी भावलहरियों से यदा कदा प्रभावित होते रहने के बावजूद ये मुख्यतः छायावादी कवि हैं!। “चिर॒स्पर्श! ( १९६१ ई० ), ओर “कलापिनी' से लेकर 'सेतुबंध! ( १६६६ ई० ) तथा 'शुभ्रा” ( १९६७ ई० ) तक इनकी कविताओं में छायावादी रंग ढंग व्यास है। वेद, उपनिषद्‌ और पुराणों के प्रभाव ने इन्हें. श्रत्याघुनिक प्रद्नत्तियों से कुछ दूर रखा है। फलस्वरूप, छायावादी फाव्यबोध इनकी सर्जनरुचि की अंतिम सीमा है। इनकी सर्वोत्कृष्ट कृति ऋतंवरा? है, जो 'काम्रायनी' के ढंग की एक प्रबंधात्मक रचना है। परंतु वे सभी कृतियाँ हमारे आलोच्यकाल की परिधि से बाहर पड़ती हैं श्रतः इनका विवेचन यहाँ संगत न होगा । छावाबाद के उत्कर्षफाल में काव्यरचना प्रारंभ फरनेवाल्ल कवियों के बीच आरसीप्रसाद सिंह ( जन्मफाल ; १९११ ) का नाम भी उल्लेखनीय है। आरसी ने तत्समप्रधान प्रांजल भाषा में प्रकृति, प्रेम ओर सोंदर्य से संबद्ध श्रच्छी कविताएँ लिखी हैं, जिनका सर्वोच्म रूप 'फलापी” में मिलता है। इनकी श्रनेक फविताओं की शब्दशय्था ओर छुंदर्मगी पंत से मिलती जुलती है | उदाहरण के लिये; इनकी ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं ** प्रयसी मेरी जो श्रज्ञात-- विमल ज्योत्स्ना सी, मरूदु मु गात; कल्पना सी श्रवदात | कफोंपुदी वन में खिलफर रात, आप ही मुरका जाती प्रात ! ब्रथवा क्‍ आज रे प्राची का मंघु हास, वीचियों का उल्लास १ हगों में छवि का छायाभास ; ज्योतिचुंबितव आकाश ! १ द्रष्ठव्य : 'मतवाला', ८ दिसंबर, १६२८, पृष्ठ ६१०, 'छायायाद और बिहार के छायावादी कवि! शीर्षक निबंध, लेखक देवकीनंदन श्रीवास्तव गौर । यह निबंब 'मतवाला” में छपने से पहले पठया के 'नवसाहित्य समाज” द्वारा भ्रायोजित गोष्ठो में पढ़ा गया था । ५७० 5 नरक रन नल नरक नि नर लनकन गत जप लग पति 3 न पति पि गलती किलर न २५७ हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास भर रहा भव में भूतिहुलास; प्राण | रज रज में सुख का श्वास | अथवा द आज, छाया मधुमास ;"** आज रे छाया नव मधुमास ; चतुर्दिकू हु हुलास | प्रवाहित मधुउत्सव का उत्सडई प्रंमपरिमल सा हास | मुक्त वातायन पथ से मुग्ध उमड़ती म॒दु मुगपद की वास !* इसी तरह 'कलापी' की 'ओअ्रप्रस्तुता' शीर्षक कविता छायावादी भावभूमि ओर अमिव्यक्तिभंगिमा फी दृष्ठि से हृदयावर्जक है। 'अप्रस्तुता” शीर्षक कविता फी प्रारंभिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-- अाज्न, बाँधी नहीं कबरी, सखि; न गूँथा हार | ओर सुमनों से फिया तुमने नहीं शूंगार | अश्रुछुलछुल लोचनों में, क्यों न जाने, एक वेदना सी वस्तु कोई कर रही अभिषेक | आज केसे कर सफोगी प्राशधन को प्यार ? हाय; बाँधी नहीं फबरी, सखि, न यू था हार । इन पंक्तियों से स्पष्ट हें कि आरसी ने छायावाद के तृतीय उत्थान का सफल प्रतिनिधित्व किया है ओर इनकी कविताओं में यदा कदा पंत की मसूण भाषाशेली तथा रहस्यपरक प्रकृतिचित्र्णों का प्रकट प्रभाव है। डा० नगेंद्र ( चन्‍्मकाल ; १६९१४ ई० ) का कविख्वीवन भी छायावादी उत्थानकाल्ष में प्रारंभ हुआ था। उस समय छायावादी कफाव्यकला अपने प्रकर्ष पर पहुँच चकी थी। डा० नगेंद्र के प्रथम काव्यसंग्रह 'वनबाला' का प्रकाशन १६३७ ई० में हुआ। इस काव्यसंग्रह में इनके छात्रजीवन फी गीतिकविताएं संकलित हैं, जिनमें छायावादी भावषोध ओर छायावादी श्रभिव्यक्तिमंगिमा फी प्रधानता है। इनके दूसरे काव्यसंग्रह 'छुंदमयी' में भी रोमानी भावबोध के साथ छायावादी स्वर सुरक्षित है। * कलापी, आरसी, ग्र थमाला कार्यालय, पटना, १६३८, पृष्ठ ५७ | * उपरिवत्‌, पृष्ठ ६७ | द [ भाग १० ] छायावाद के अन्य कवि--गौण कवि श्भूपू छायावादी कविता के तृतीय उत्थान्‌ के सर्वोत्तम गीतकार, विद्वान्‌ और संगीतज्ञ कवि जानकोवल्लभ शास्त्री ( जन्मकाल; १६१६ ई०) काल ओर प्रवृति की दृष्टि से छायावाद के गोण कवियों की ही परंपरा में आते हैं। इन्होंने बड़े ही तनुक तारों पर अपनी प्राशविपची का मादक स्वरसंगीत प्रस्तुत किया है। इनमें अ्पने रूमान भरे आध्यात्मिक गौर्तों, #ंगारगीतों या प्रकृतिगीर्तों को शास्त्रीय संगीत में बाँधकर रचने की प्रवृत्ति है। इनकी काव्यप्रतिभा का विकास बाद में चलकर हुआ । इन कवियों के अतिरिक्त छायावाद के गौण कवियों की श्रेणी में उन्हें भी गिना जा सकता है, जो कुछु समय के लिये छायावाद फी परिधि पर घूमते मँँडराते रहे और फिर फिसी दूसरी धारा में बह गए । ऐसे परिधि पर के कवियों में भगवती- चरण वर्मा ओर नरेंद्र शर्मा छायावाद से मुड़कर सिर्फ प्रगतिवाद तक आए, मगर बालकृष्णु राव तो मुड़ते मुड़ते नह कविता तक चले आए, | भगवतीचरण वर्मा ( शनन्‍्मकाल : १६०३ ६० ) यद्यपि मुख्यतः कथाकार हैं, तथापि इनफी सना का आरंम कविता से हुआ ओर “मधुकण” इनका प्रथम तथा आलोच्य कालखंड का प्रसिद्ध काव्यसंग्रह है। इन्होंने १९१६-१७ ई० से ही कविता लिखना प्रारंभ किया था । यह काल विशुद्ध छायावादी काव्यकाल में पड़ता है | दूसरी बात यह है कि इन्हे काव्यलेखन की प्रेरणा अपने हिंदी अध्यापक भी जगमोहन विफसित से मिली, जिनकी गशना उन दिनों हिंदी के अच्छे फवियों में होती थी” और अब जिनका नामोल्लेख गोण छायावादी कवियों के ब्रीच आदरपूर्वक किया ज्ञा सकता है। मगवतीचरण वर्मा कौ आरंभिक काव्य- रुचि के निर्माण में सरस्वती” और “प्रताप! का महत्वपूर्ण योग रहा है। इनकौ पहली कविता १९१८ ई० में “प्रताप” में प्रकाशित हुई थी । इनकी कई कविताओं में छायावादी भाववोध की प्रतिनिधि अभिव्यक्ति हुईं है। छायावादी भावदबोध में . कल्पना और वेदना फी थो प्रमुखता है, उसकी स्पष्ट स्वीकृति 'मधुकश' की अनेक कविताओं में मिलती है । काव्यबोध के क्रमिक विकास कौ दृष्टि से बालकृष्ण राव ( लन्‍्मकाल १११३ ई० ) का काव्यविकास भी कम ध्यानाकर्षक नहीं है | ये पहले ब्रजभाषा काव्यप्रेमी थे और कविता में यति-गति-शुद्धि तथा छंदोबद्धता का बहुत ध्यान रखते थे । किंतु, युगीन प्रवृत्तियों के ग्रहणु की दृष्टि से लोचदार और प्रभावसहिष्यु फविव्यक्तिव के कारण सिर्फ चार वर्षों के बाद आमास? की कविताशरों में इनका छायावादविरोधी स्वर लुप्त ही नहीं हुआ, बल्कि ये छायावादी निकाय के अनुवर्ती कवि बन गए ओर इन्हें इसका श्रभिमान हो गया कि ये तारों का संगीत सुनने आर तम की ज्योति देखने! में समर्थ हैं। अ्रतः अ्राभास' की कविताओं में ये 222 पलक 3 २७६ हिंदी साहित्य का बृहत इतिहास छायावादी भावमंगिमा और मंडनशिल्प फौ ओर पूर्णतः मुड़ गए हैं। इस संग्रह की कविताओं के इंद्रधनुषी और कल्पनाविल शीषेक ही ( एकांत, मुक्ति, आभास, वेदना, विकलता, उच्छवास, इत्यादि ) जो प्रयोग के पौनःपुन्य से वैशिष्य्य अर्जित कर छायावादी काव्यधारा के सुपरिचित शब्द बन गए थे, संकेतित करते हैं कि अरब कवि 'कोमुदी' की भावदशा के विपरीत “जीवन के उस पार? ओर श्रलोौफिक रूपराशि! फी अनुभूति में ही मुख्यतः: रम गया है तथा छायावाद का व्यावर्तक गुश-- कैशोर भावुकता में लिप्त सबचेतनावाद--उसकी कवितावलल्‍्लरी के लिये मार्लच बन गया है। इसी तरह 'आ्रामास' में छायावादी कवियों के प्रिय अलंकार 'विशेषण विपयंय' का भी प्रचुर प्रयोग मिलता है। जैघे-विकल शांति, जागृत सुप्त, श्रांति, शीतल्तर ज्वाला इत्यादि। इतना ही नहीं; “अआ्रामास” की कुछ कविताओं में कवि रोमानी रहस्यथानुमूति तक पहुँच गया है, जहा उसने अपने अधरों पर अनंत के मृदु अ्रघरों के सुखद स्पर्श पाने तक की बात कही है। इसी प्रफार 'आ्राभास' शीषंक कविता में, जिसके श्राधार पर संग्रह का नामकरण किया गया है, कवि ने केवल “कण कण में श्रसीम का अनुमान” ही नहीं किया है; बल्कि 'नीखता का गान! भी सुन लिया है। अतः यह फहा जा सकता है कि आभास! तक आते आते राव छायावादी गिरोह के हमछुखन बन गए ओर ५सिद्धइस्ता कल्पना के फवि हो गए। ग्राभास! की कुछु कविताएँ भावपक्ष ग्रोर फलापच्ष की दृष्टि से छायावादी अनुशासन में इस प्रकार बँघी हुई हैं कि उनपर पंत और महादेवी की कविताओं का स्पष्ट प्रभाव मिलता है। एफ कविता तो ऐसी है, जिसका शीर्षक हू ब हू पंत की प्रसिद्ध कविता का शीर्षक “भावी पत्नी के प्रति? है छायावादी काव्यबोध की परिधि पर के अन्य कवियों में नरेंद्र शर्मा ( जन्मकाल : १६१३ ) का भी नाम उल्लेखनीय है। नरेंद्र शर्मा ने अपने प्रारंभिक फविजीवन में ही छायावादी प्रवृत्ति की कविताएँ लिखी हैं। बाद में इनकी कविताओं में प्रगतिशीलता झ्लौर सामाजिक वस्तुपक्ष के तत्व आ गए । छायावाद) फविताएं' इनकी “शुलफूल' और कुछ एक 'प्रवासी के गीत” में संग्रहीत हैं। छायावादो तासीर नरेंद्र शर्मा के तथाकथित प्रगतिवादी काध्यकाल में भी मिल जाती हैं। शायद, इसीलिये नरेंद्र शर्मा १६९४३ ई० तक अपने को मन की दुबलंताओं का कवि! मानते रहे | .. डपयु क्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि यद्यपि उपरिविवेचित कवियों को छाया- वाद के गोण फवियों की श्रेणी में स्थान दिया गया है, तथापि हिंदी काव्येतिदास के व्यापक संदर्भ सें इनका स्थान मद्दत्वपूर्ण है। श्रतः इन कवियों के प्रसंग में 'गोण! शब्द 'अ्न्यः का दाचक है, अमहत्वपूर्ण या कम महत्वपूर्ण का नहीं | हु दाशनिक आधार भारतीय संस्कृति का सबते महत्वपूर्ण तत्व है उसकी परंपरा का श्रद्टूट विफास। श्रनेक राजनीतिक और सांस्कृतिक आदि घटनाओं तथा दुर्घटनाओं से गुजरते हुए भारतीय चेतना ने न तो पुरातन परंपरा फो मुल्लाया ओर न ही आगे बढ़ने से हिचकियाई। आज का साहित्यिक, दाशनिक आदि विवेचन भी जब ऐतिहासिक क्रम से प्रस्तुत किया जाता है तो उसका आरंभ वेदों से फिया जाता है। कुछ लोगों को यह बात एक पुराशपंथी की सनक भी प्रतीत हो सफती है। मगर ऐसे लोग वही हैं जिनके व्यक्तित्व फा विकास अधूरा होता है, जो विदेशी इतिहास के तो पंडित बनने का दावा करते हैं, लेकिन जो अपनी परंपरा से ..... अनभिज्ञ होते हैं। ऐसे ही लोग हैं जो भारतीयता या मारतीय परंपरा के नाम .. से चिद्षते हैं ओर उसकी उपेक्षा और निषेध फरते हैं। जरूरत पड़ने पर वे लोग भी भारतीयता और भारतीय परंपरा फी दुह्दाई देते दिखाई देते हैं। जाहिर है फि ऐसे व्यक्ति अँगरेजों की गुलामी के भाव से आक्रांत हैं जिसने यह दिखाने की जोरदार कोशिश की कि भारतीय परंपरा ओर संस्कृति जाहिल और विक्ृत मन की उपज हैं | ...._ भारतीय जीवन के सांस्कृतिक पहलू पर ईसाई पादरियों के जो तीजत्र और .. व्यापक आरंभिक आक्रमण थे, उन्होंने यहाँ के मनीषियों को नए सिरे से सोचने . के लिये मजबूर किया। नए सिरे से सोचने की इस प्रक्रिया में अंग्रेज शासन की .. द्वारा दी गईं पश्चिमी शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। लेफिन अ्ंग्र जी ..._शिक्ञाग्राप्त इन विचारकों ने संतुलन को नष्ट नहीं होने दिया ओर प्राचीन . भारतीय परंपरा फो नए सिरे से पश्चिमी चेतना के समकक्ष रखकर देखने फी . है .. फोशिश की | पाश्चात्य शिक्षा में दीक्षित इन व्यक्तियों के साथ साथ भारतीय ... परंपरा में पले हुए विचारकों ने भी भारतीय परंपरा फो नए सिरे से प्रस्तुत करने . झा प्रयास किया। राजा राममोहन राय ( सन्‌ १७७२-१८३३ ), स्वामी विवेकानंद ( १८६३-१६०२ ), गोपालकृष्ण- गोखले ( १५६६-१९१५ ), बाल गंगाधघधर तिलक ( जन्म १८७६ ), महात्मा गांधी (१६६६-१९६४८ ) आदि विचारक तो पहले वग के हैं जिन्होंने पाश्चात्य शिक्षा के आधार पर भारतीय १०-हे हे ४०४४ ४४४६७४७४४४४ ७35 आंगन के श्श्ट द हिंदी साहित्य का घहत इतिद्दास पर परा के पुनम्‌ ल्यांकन और पुनरुत्थान का प्रयास किया और स्वामी दयानंद सरस्वती ( १८२४-१८८३ ) तथा स्वामी रामकृष्ण परमहंस ( १८६३४-१८८६ ) आदि मनीषी और भक्त दूसरे वर्ग के अंतर्गत आते हैं जिनफा मूलाघार भारतीय परंपरा के विविध तत्व रहे हैं। सन्‌ १८८४ में इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना हुई थी और सन्‌ १८८७ में इंडियन नेशनल सोशल' रिफाम कांफ्रेंस फी नींव डाली गई थी । इसके अलावा थियोसोफिकल सोसायटी ओर सबं'द्स आफ इंडिया सोसायटी जैसी संस्थाएँ भी प्रचार और सुधार का काम फर रही थीं। इन सब व्यक्तियों ओर संस्थाओं की गतिविधियों का अ्रसर उन्नीसवीं शी के अंत और बीसवीं शताब्दी के आरंभ तक आते श्राते काफी सशक्त ओर व्यापक रूप में दिखाई देने लगा था | उस व्यापक प्रयास के दो पहलू थे--एक प्राचीन भारतीय परंपरा के मल्यवान तत्वों फी शोध और उनकी पुनः प्रतिष्ठा और दूसरा, भारतीय परंपरा के संदर्भ में नवीन पाश्चात्य मल्यवान तत्वों फी स्वीकृति | इससे भारतीय पुनर्जागरण का व्यापक आरंभ हुआ जो श्राज तक दिखाई दे रहा है। मगर यह पुनर्जागरण सामयिक चेतना के अनुरूप था तथा नए जीवंत पश्चिमां मुर्ल्यों फी स्वीकृति की भावना से युक्त था | क्‍ इस पुनर्जागरणवादी-संशोधनवादी-विकासवादी चेतना फा प्रभाव अनिवाय . रूप से साहित्य पर भी पड़ा । हिंदी साहित्य में भारतेंदुयुग से ही इस चेतना का रूप विकसित होने लगा था। छायावाद तक श्राते श्राते इसका स्वर ओर भी प्रबल तथा स्पष्ट हो गया । द जहाँ तक दर्शन फा सवाल है, विभिन्‍न विचारकों ने अपनी रचि तथा उद्द श्य के अ्रनुसार विविध दाशनिक संप्रदायों या दाशनिक तत्वों फो नई व्याख्या के साथ हमारे सामने रखा । दशन के क्षेत्र में दो प्रधान स्वर ये वेदांत के आत्म- बाद और गीता के कर्मयोग के । इसके श्रतिरिक्त कुछ मनीषियों ने भारतीय दर्शन को विफासवादी दृष्टि से देखने का प्रयास किया जिसका परिशाम अरविंद का आध्यात्मिक विकासवाद का दशन है। आध्यात्मिक विफास का स्वर स्वामी विवेकानंद में भी दिखाई देता है द 'उस श्रसीम शक्ति के प्रकाशन फा अथ है उससे परिचित होना। धीरे धीरे यह विराट देव जाग रहा है, अपनी शक्ति से श्रवगत होता ना रहा है; और प्रच॒ुद्ध होता जा रहा है। जेसे जेसे उसकी चेतना उद्बुद्ध होती जाती है, उसके बंधन द्वूटते जा रहे हैं, उसकी #ंखलाएं पाश पाश होती जा रही हैं और वह दिन य आएगा जब यह देव अपनी असीम शक्ति श्रोर अ्रवाध फौशल का ज्ञान [ भाग १० | दार्शनिक आधार. २५६ प्राप्त कर, अपने पाँव पर तनकर खड़ा हो जाएगा। आइए हम सब मिलकर उस दिव्य जागरण फो शीघ्र पूरा होने में सहायता दे ।! ( स्वामी विवेकानंद, प्रेक्टिकल वेदांत, पृ० ८४५ अनु० लेखक ) श्री अरविंद ने उपनिषद्‌ दर्शन ओर चेतन विकासवाद का सामंजस्य किया है। भरी श्ररविंद ने 'इस देव” से मिलते जुलते गुणोंवाले नास्टिक व्यक्ति की भावना की है। पंत के नवमानव पर इन दोनों की छाया है।? जयशंकर प्रसाद पर काश्मीर शैव दर्शन का प्रभाव है । इस दर्शन में भी मूल शक्ति के विकास ओर संकोच की प्रक्रियाओं के आधार पर सृष्टि की व्याख्या का प्रयास है। इसके अतिरिक्त एफ धन्य प्रमुख प्रभाव है बोद्ध दर्शन की करुणा का जिसका प्रभाव महादेवी ओर कहीं कहीं प्रसाद की रचनाओं में दिखाई देता है।... .. दशन की दृष्टि से छायावादी काव्य उस पुनर्जागरशवादी-संशोधनवादी- विकासवादी चेतना की व्यंजना करता है जो उसके युगजीवन में व्यास थी। इस स्थिति की सामान्य ओर व्यापक व्याख्या के उपरांत छायावादी काव्य में व्याप्त विविध दाशंनिक श्रवधारणाओं का संकलन ओर समालोचन किया जाएगा। भारतीय इतिहास में सबसे पहला शक्तिशाली पुनरृत््यान शंकराचार्य के श्रह्गेतवाद में दिखाई देता है जिसमें वेदविरोधी बोद्ध धर्म का खंडन कर वैदिक या श्रास्तिक धारा फो नया जीवन प्रदान किंया गया है। शंकराचार्य के सिद्धांत पर धवेदविरोधी” बौद्ध दर्शन का कितना प्रभाव था, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि शकर के विरोधियों ने उन्हें प्रच्छन्‍न बोंड तक कह डाला । आधुनिक युग में विद्वानों ने यह भी दिखाने की कोशिश की कि बोद्ध दर्शन पर भी उपनिषदों फा काफी असर है। कहने फा अभिप्राय यह है कि श्रास्तिक और . नास्तिक घारा में उतना तीव्र विरोध नहीं है जितना कि आम तौर पर समझा श्राचाय शंकर का अद्वेतवाद एक युगांतरकारी सिद्धाँत साबित हुआ जिसने ..... विविध महत्वपूर्ण दाशंनिक धार्मिक प्रयारतों की एक शंखला को विकसित किया | - आचाय रामानुज, आचाय वस्लभ, श्रोीर आचाय निबाक श्रादि इस ंखला की . कड़ियाँ हैं। उन दिद्धांतों में पररुपर चाहे जितना भी विरोध हो, यह बात बुनि- यादी महत्व की है कि सभी ने उपनिषददों, ब्ह्मसूत्र और गीता को अपने सर्तों का ९ ता[ूरकनाथ बाली & सुमित्रानंदन पृंत, पू० ७३ | ५3. 9:334 42204 2220 20 4८ अर न ७ अमल 0#_5४०++ अपन करत 29% न पे कद जे कप 5 5 मद ककीशफ के भल ॥ 87 पक अपन रपले लक क ५ कि ज टिक कई ५३ शक अब 5 कम दे? इक 82५97 कद २: ३५ कक का 52 अप लिन एफ परत १२४० कपिल कक 29 2 2ल 7 | पे 7 कत९ ४ ५३ १६ ५0५22: 7७54 २४352: 26,७५४ कं ४3, 2 "३8 * २६० ... हिंदी "साहित्य का बृहत्‌ इतिहास अधार बनाया | इस प्रकार ये समी मत उसी पहली पुनरुत्थानवादोी धारा के अंतर्गत आते हैं जिसका आरंभ आचाय शंकर से होता है। प्रत्येक मत ने संशोधन, पुनव्याख्या और विकास से युक्त पुनरुत्थान का प्रयास किया | साहित्य ने इस पुनरुत्थानवादी-संशोधनब्ादी-विकासवादी चेतना को किस प्रकार प्रतिबिंबित और परिपुष्ट किया है, यद्द प्रत्यक्ष ही है। विद्रोही फबीरदास : अद्वेत से प्रमावित हैं, सूफी जायसी भी अ्रद्वेत के ब्रह्म के प्रभाव से अछूते ही हैं, और सूरदास तो वल्लमभ संप्रदाय में दीक्षित ही थे। लेकिन तत्कालीन चेतना का व्यापक ओर मार्मिक प्रतिनिधित्व “नाना पुराण निगमागमसम्मत' मानसकार गोस्वामी तुलसीदास में ही दिखाई देता है जिन्होंने श्रपने 'मानस' में लोफमानस फो ही मुखर करने फा प्रयास किया है। रामचरितमानस कहाँ तक “निगमागम- सम्मत' है और फह्ाँ तक ५पुराणसंमत' है, यह मली भाँति विदित है। लेकिन इससे एक बात स्पष्ट होती है; ओर वह है भारतीय जीवनदृष्टि का लोच जो उसकी समाहार और विफास की शक्ति का खोत है| वेदांत के ब्रह्म के समान ही भारतीय जीवनदृष्टि निरंतर विकासशील रही है जिसमें हर नए. आयाम और हर नए संदर्भ को उसके स्वभाव के अनुकूल समझने, परखने और स्वीफारने का प्रयास किया जाता रहा है। इसी परिप्रेक्ष्य में छायावादी काव्य की दाशंनिक चेतना फो समभने का प्रयास होना चाहिए । . मुस्लिम शासनकाल में काव्य दरबारी होता चला गया और उसमें प्रण॒य * के भावों को मुखर किया जाने लगा | इस काल में भारतीय जीवन आञात्मरक्षा की भावना से प्रेरित होकर आत्मविश्वासी से अंधविश्वासी होता चला गया। इस अंधविश्वास ने और उसपर आधारित रुढ़ियों ने भारतीय संस्कृति फो अटूट बनाए रखने में कितना ब्यापक योग दिया है, इसपर यहाँ विचार फरने का अवसर नहीं है। लेकिन जब अंग्रेजी शासनफाल में तत्कालीन विषमता की सजगता ने पुनरु त्थान, संशोधन ओर विकास को प्रेरित किया तो इस वातावरण से प्रभावित होकर काथ्य ने भी इसी पुनीत कार्य में अपना योग दिया। छायावादी व्य फी दाशनिक चेतना उसी पुनरुत्थान की धारा का ही विकास है जिसका झारंभ शंकराच।य के श्रद्वेतवाद से हुआ था | द यहाँ यह सवाल किया जा सफता है कि क्‍या छायावादी दर्शन ने रीति- फालीन भावना की उपेक्षा की १ स्पष्ट है, ऐसा नहीं हुआ । छायावादी>काव्य ने... . दशन के स्तर पर रीतिफालीन भावना और भक्तिफालीमन दाशनिकता के समन्वय का प्रयास किया है | इसपर आगे विस्तार से विचार किया जाएगा | क्‍ छायावादी फाव्य के दाशनिक आधार पर विचार करने से पहले एक और _ बुनियादी बात पर विचार करना आवश्यक है | [ भाग १० ] दाशनिक आधार २६१ छायावादी काव्य फा दशन अपने युग की सामाजिक भावना का प्रतिनिधित्व करता है जो केवल तत्कालीन भारतीय ऐतिहासिक परिस्थिति की नहीं वरन्‌ तत्कालीन मानवजाति की ऐतिहासिक परिस्थिति की एक सहज और अनिवाये माँग थी | छायावादी काव्य में दर्शन का जो पुनरुत्थान हुआ, वह उस युग की सामाजिक माँगों फो नजरअंदाज फरके नहीं बल्कि उनको ध्यान में रखते हुए उन्हें पूरा फरने के उद्द श्य से हुआझ। उदाहरण के लिये यह वह युग था जबकि ब्यक्ति की बजाए सामाजिक महत्ता के प्रति जागरूकता बढ़ रही थी और साहित्यिक दृष्टि पर भी इसका व्यापक श्रसर पड़ रहा था। छायावादी काब्य के दर्शन में सामाजिक महता की स्वीकृति छववाद के रूप में हुई जिसमें सृष्टि को सत्य ओर सुंदर माना गया। और इसी संदर्भ में कर्म के महत्व को--निष्काम कर्म के महत्व फो--स्वीकृति मिली ओर इस प्रकार प्रवृत्ति मार्ग की प्रतिष्ठा की गई और “काम मंगल से मंडित श्रेय! माना गया | इस काम फो जो “मंगल से मंडित भय: है, . रीतिफालीन प्रणव (वासना १) ओर भक्तिकालीन दाशंनिकता के ध्मन्वय के रूप में देखा ना सकता है क्योंकि 'कामायनी' के अंत में 'प्र मज्योति” फी विमलतवा में ही ... सब पहचाने से लगते! हैं। इसी भाव का एक रूप फरुणा या विश्वप्रे म है---इसी- लिये महादेवी 'करुणा फी श्रभिनव वाहक” बनकर 'कन कन! में ध्श्रासू के मिस! .... क्षिसी का प्यार ढाल रही हैं। उस युग की सामाजिक भावना के . मल्य ये सृष्टि की .. सत्यता, कम पर आस्था, व्यक्ति (प्रणव ) का अतिक्रम कर समाज ( करुणा ) की स्वीकृति, निद्नत्ति और त्याग के स्थान पर प्रबुत्ति, आसक्ति और भोग की प्रतिष्ठा, विकासवाद पर विश्वास, मौतिकता ( जड़ ) और आत्मिकृता ( चेतन ) के सामरस्य की स्थापना और मानवजाति की मूलभूत एकता और समानता . पर आस्था | प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी फी दाशंनिक दृष्टियोँ में अंतर के बावजूद इन सबकी दाशनिक इृशियों में इन सभी मूल्यों फी स्वीकृति दिखाई देती है| इसी सामान्य घरातल पर छायावादी काव्य फी दाशंनिक चेतना 5 है ... का विवेचन वांछुनीय है। द ..... मूल सत्य : नए आयाम : साँदय और प्रेस महाभाव बैसे तो प्रत्येक दार्शनिक सिद्धांत एक पूर्ण इकाई के रूप में होता है। हु ४ उसे खंड खंड फरके देखना केवल एक व्यावह्यारिक प्रक्रिया है, फोई तात्विक स्थिति .. नहीं | केवल्ल व्यावहारिक सुविधा के लिये उप्तके पहलुओं पर अलग अलग विचार किया जाता हँ। उदाहरण के लिये किधों भी दशन के मूल सत्य-- यहाँ ब्रह्म के अध्ययन में आ्रात्मा, सुध्टि, माया, साधन ओर साध्य सभी का अध्ययन समाविष्ट हो जाता दै। यूध्टि तथा जीवन के संबंध में जो भी धारणाएँ ञ्न श्६रै ._ 5... हिंदी साहित्य का बुहत्‌ इतिहास होंगी वे मूल सत्य की भावना के अ्रनुरूप होंगी। इसोलिये पहले मूल सत्य का झध्ययन. आवश्यक हो जाता है। द द द्विवेदीयुग की इतिबृचात्मक कविता की प्रतिक्रिया में और तत्कालीन बाह्य दमन श्रोर आंतरिक संत्रास --जों छायावादी कवियों की व्यक्तिगत निराशाओं ब्रोर सामाजिक नेतिक रूढ़ियों से उत्पन्न हुआ था--ने छायावादी कवि को अंतमुख होने को विवश किया। यह अ्रैतमु खी प्रबूत्ति पहले तो भाव पर-- खौकिंक प्रणय, सुख दुःख आदि पर स्थित हुई लेकिन वहाँ भी यह अतृत्त रही और अंत में इसे श्रात्मतत्व या महाचिति में आवास मिला। इस प्रकार यह अझंतमु खी प्रवृत्ति लोकिकः प्रणय के आह्वाद और नेराश्य से होती हुई, विश्व- वेदना--फकरुणा--की अ्रनुभूति में परिणत हुईं। विश्ववेदना की अ्रनुभूति ने करुणा या महाफरुणा का उन्मेष किया जिसके साथ ही स्ववाद फी भावना का उन्मेष सहज रूप से हुआ | यह सवंवाद किसी विशिष्ट दर्शन का सववाद न होकर प्रायः उपनिषद्‌ के ब्रह्म का सवंवाद है। प्रसाद अपवाद हैं क्‍योंकि उन्होंने कश्मौर शेवदर्शन के स्वाद फो स्वीकार फिया। लेकिन उसकी प्रतिष्ठा फामायनी में ही मिलती है। उससे पूर्व तो उनका सवंवाद उपनिषद्‌ फा सर्ववाद ही रहा । आस! का अरंभ असफल प्रणय की निराशा से होता है। बह निराशा आअकमंणयता ओर आत्मघात की शऔ्रोर भी प्रदत्त करती है और जौवन फी व्यापक बेंदना फी. अनुभूति का साक्षात्कार कराती हुईं महाकरुणा अथवा प्रेम महाभाव में भी परिणत हो सकती है। “श्रासूः की भावभूमि का विकास दूसरी रीति से ही हुआ है; जहाँ कवि अनुभूति के उस स्तर पर पहुँच जाता है जहाँ वह संसार के सारे दु:खों फो अ्रंगीकार कर सृष्टि को सुखमय बनाना चाहता है--- चुन चुन ले रे कन कन से जगती फी सब्गग व्यथाएँ रह जाएँगो फहने को जन - रंजन - करी कथाएँ. न. +- + जीवन घागर से पावन बड़वानल फोी ज्वाला दी यह. सारा कलुष जलाकर तुम जलोी अनलबाला सी . ...... “आँसू” पृष्ठ भ८। दना'की सबंवादी भूमिका दे'जो छायावादी मानवतावाद का आधार | | || | [भाग १०]. दार्शनिक आधार द द २६४ बनती है। यह प्रेम महाभाव इंद्रों का सामरस्य करने में समथ है ओर इसीलिये इस स्थिति को पाकर ही सृष्टि मंगलमय हो सकती है- दंढों के परिणय की है सुरभिमयी जयमाला किरण के केसर रज से भव मर दो मेरी ज्वाला। “वही; पृष्ठ ६२ । वा रा न जिसके आगे पुलफित हो लीवन है सिसकी भरता हाँ मृत्यु द्ृत्य करती है मुसकयाती खड़ी अमरता। वह मेरे प्रेम विषसते खागो भेरे मधुवन में फिर मधुर भावनाओं का फलरव हो इस जीवन में। “वही, पृष्ठ ६४ | पंत की परिवर्तन कविता की भावभूमि का विकास भी लगभग “आँसू” की की भावभूमिका के विक्रास के समान ही होता है। आरंभिक निराशा और ... विनाश के साक्षात्कार से उत्पन्न संत्रास को ब्रहद्मवाद में ही आश्रय मिलता है। यह ब्रह्मवाद सर्ववाद के रूप में तो व्यक्त हुआ हो है, साथ हो इसी संदर्भ ... में सोंदय और प्रेंम महाभाव फा कलात्मक वर्शन भी मिलता है-- पक ही तो अश्लीम उक्लास विश्व में पाता विविधाभास; तरल जलनिधि में हरित विल्लास, _ शांत पअंबर में नील विकास; वही उर उर में प्रेमोच्छु वास फाव्य में रस, कुसुमों में वास; अचल तारक पलकों में ह्ास, अर लोल लहरों में लाख | आह -प ढलव, आधुनिक फक्रि-- कि २६४ हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास इन पंक्तियाँ में प्रेम महाभाव का विशद्‌ व्शन मिलता है--- दीप के बचे विकास । अनिल सा लोक लोक में, हब में ओर शोक में, फहाँ जहीं है स्नेह ? साँस सा सच्रके उर में । “वही, ए८्ठ ७ । निराला ने भी मल सत्य के इसी प्रेम महाभाव का सजीव वशुन किया है--.... राम--छोटे से घर फी लघु सीमा में बँचे हैं कुद्र भाव द यह सच है प्रिये प्रेम का पयोधि तो उमड़ता है सदा ही निःसीम भू पर। प्रेम की महोमिमाला तोड़ देती छ्ुद्र ठाद जिसमें संसारियों के सारे क्षुद्र मनोवेग तृण सम बह जाते हैं। हाथ मलते भोगी घड़कते हैं कलेजे ञ्ञषन फायरों के सुन सुन प्रेम सिंधु का स्स्व-त्याग-घन गर्जन | द --परिमल, प्रृष्ठ २३४-३६ । उपनिषदों में सब्चिदानंद ब्रह्म की स्थापना हुई है। छायादादी कवियों ने ब्रह्म के सज्चिदानंद रूप फो तो स्वीकार किया है लेकिन उसके दो गुशों पर विशेष बल दिया है। ये गुण हैं सोंदर्य और प्रेम । सृष्टि के सौंदर्य में ब्रह्म के दशन या ब्रह्म के व्यक्त रूप सृष्टि के सौंदर्य की यह दाशनिक स्वीकृति छायावादी काव्य का महत्वपूर्ण तत्व है जो सृष्टि की सत्यता और रमशीयत्ा फो ठोस आधार . पर प्रतिष्ठित करता है श्रोर इसी परिप्रेक्ष्य में प्रवृत्ति सार्ग की प्रतिष्ठा करता है। दी माँग का परिणाम _ धुत करने का प्रयास ब्राध्यात्मिक भावना की | जाता है। 'कामायनी! प्रबृत्ति माग को यह प्रतिष्ठा तत्कालीन युगश्नीवन की बुनि यां था जिसको ऑपनिषदिक दर्शन के पुनरत्थान के स्तर पर [ भाग १०] ... दाशनिक आधार २६५ प्रतिफलित हुईं सब आँखें उस प्रमज्योति विमल्ला से, सब पहचाने से लगते अपनी ही एक कला से। समरस थे जड़ या चेतन सुदर साकार बना था, चेतनता एक विल्लसती ऋ्रानंद अ्रखंड घना था। “-फकामायनी, पृष्ठ २९४७ | यहाँ मूल सत्य के सामरध्य के वर्णुन के साथ साथ प्रेमज्योति का भी महत्वपूर्ण स्थान है जो उस 'समरस जड़ चेतनः, साकार सुंदर', 'चेंतनता? और अखंड आनंद” के दर्शन फराती है। मूल सत्य से संपक्त इस प्रेममाव का एक आधार तो व्यक्तिगत प्रशय का उदात्तीकरण है और दूसरा आधार है सवंवाद। महादेवी की इन पंक्तियों में सत्य, सोंदय, प्रेम ओर आनंद की संपृत्त स्थिति फा स्पष्ट वर्शन हुआ है-- सत्य काव्य का साध्य और सौंदर्य साधन है। एफ अपनी एकता में असीम रहता है ओर दूसरा अपनी अनेकता में अनंत | इसी से साधन के परिचय- स्निग्ध खंड रूप से साध्य की विस्मयभरी अखंड स्थिति तक पहुँचने का क्रम आनंद फी लहर पर लहर उठाता हुआ चलता है।? द +-दीपशिखा, भूमिका, पृ० ५। .. मल सत्य के सौंदय॑ पक्ष पर सभी छायावादी कवियों ने बल दिया है । क्‍ प्रसाद जी मी कविता को आत्मा की 'संकल्पात्मक अनुभति' मानते हईं। ओर .. -“संकब्पात्मक अनुभूति आत्मा के मनन की वह असाधारणा अवस्था है जिसमें वह . श्रेय सत्य फो उनके मूल चादुत्व में सहसा ग्रहण कर लेता है ।” यहाँ मी काव्य के संदर्भ में सत्य के सौँदय पक्ष पर बल दिया गया है। यह उपनिषद्‌ के सववाद के . अनुरूप ही है। प्राचीन दाशनि्ों ने मल सत्य के सत्‌, चित, आनंद आदि गुणों पर विशेष बल व्या है | लेकिन छायावादी फवि उसी मूल सत्य को : स्वीकार करते हुए, उसके सौंदर्य श्रौर आनंद पर विशेष बल्ल देते हैं। और इस श्रानंद को श्रधिक विशिष्ट रूप में--प्रेम महामाव के रूप में प्रस्तुत करते हैं। सृष्टि का समस्त सौंदर्य उसी मूल सत्य के तेज का ही श्रंश है। इस बात को स्पष्ट करते हुए भगवान्‌ कृष्ण ने गीता में कहा है-- १०-२४ बस पाक कफाएकरंकउल ना तारसत्वारक उनका चददपरयाअडासचात्क काला गपकाप पकरा 4 एप स 5; वर ककाक98 पा प2- < उप "राख सरकार नसनतत सनम ७०» <++++- 7०&+-+-ज>++--+<ू+ -..... ग के हाई ..._ हिंदी साहित्य का बृद्दत्‌ इतिहास यद्यद्विभूतिमत्सत्व॑,श्रीमद्वजितमेव वा । तचदेवावगच्छु तब मम तेजोडशंसंभवम |. ++१०।४१ सभी छायावादी कवि सत्कायवाद को स्वीकार करते हैं जिसके अनुसार यह भाना जाता है कि कार्य की सत्ता कारण में ही विद्यमान रहती है ओर कफारय फारण का ही व्यक्त रूप है। इसलिये सृष्टि ब्रह्म से अलग या भिन्‍न नहीं है। वह तो ब्रह्म का ही रूप है। इसीलिये तो समस्त सृष्टि का सौंदय॑ उसी ब्रह्म के सौंदर्य के रूप में दिखाई देता है तथा इसी सोंदर्य के परिचय से ओर इसी सौंदय में अनुरक्ति द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति संभव होती दहैे। सृष्टि के उदय का काव्यात्मफ वन करते हुए सभी छायावादी कवियों ने सागर ओर लदरों का उदाहरण दिया है. असाद्‌ | नित्य समरसता का अ्रधिकार, उमड़ता कारण जलधि समान; व्यथा सी नीली लहरों बीच बिखरते सुख मणिगण दू तिमान | “-फामायनी, एछ ५१४। 5. +.. न+ न निराता स्थित में आनंद में चिरफाल जाल मुक्त | ज्ञानांबुधि वीचिरहित । इच्छा हुई सृष्टि की, प्रथम तरंग वह आनंद सिंधु में, प्रथम कंपन में संपूर्ण बीज सृष्टि के पूर्णता से खुला मैं पण्ण सश्शिक्ति ले, त्रिगुणात्मक रे रूप विफसित किया मन फो बुद्धि, चित्त श्रहकार पंचभूत रूप-रस-गंध-रस्पर्श शब्दज ससार यह, वीचियाँ हीं अ्रगिनित शुचि सच्चिदानंद की । .. 5परिमल, जागरण, एष्ट २६२! 5 ३ 0 बा 0 । । हू ' |] ] ' | | | ॥] | ् । | । ६. | | | | "| । । । !ढ ॥ हु । | | | 0 || कि |" | [ भागे १० ] दाशनिक आधार १६७ पंत नित्य का यह अनित्य न्तन विवर्तन जग, जग व्यावतंन, श्रचिर में चिर का अ्रन्वेषण विश्व का तत्वपूर्ण दर्शन । ग्रतल से एक श्रकूल उमंग, स॒ष्टि फी उठती तरल तरंग, उमड़ शत शत बुदबुद्‌ संसार बूड़ जाते निस्थार । --पल्लव, परिवर्तन, रश्मिबंध, पृष्ठ ५० | नः न न महा देवी सिंधु फो क्या परिचय दें देव बिगड़ते बनते वीचिविलास १ क्षुद्र हैं मेरे बुदूबुद्‌ प्राण तुम्हीं में सृष्टि तुम्हीं में नाश ! न कक | छा कु जन्म ही जितको हुआ वियोग तुम्हारा ही तो हूँ उच्छुवास; चुरा लाया जो विश्व समीर वही पीड़ा की पहली साँस । --रश्मि; यामा, पृष्ठ ६६ । ... ब्रक्ष और सृष्टि दोनों छो सत्य मान लेने पर जीवनसाधना के मार्ग का स्वरूप भी स्पष्ट हो जाता है। जीवन की सबसे महत्वपूर्ण समस्या है दुःख की, .. डद्गेंग फी | इस समस्या फो विविध प्रसंगों में विविध अ्र्था द्वारा व्यक्त किया ..._ जाता है। इन श्रर्थों में संवेदन भी है और तथ्य मी । उदाहरण के लिये निराशा) . ... पतन; मोह, अम, नश्वरता, मुत्यु, त्रास, विघटन; कुठा, जिजीविधा आदि को ... लिया जा सकता है। गत्येक संवेदनशोल व्यक्ति किसी न किसी अ्रवध्था में और : किसी न किसी स्तर पर जीवन और उत्कर्ष की आकांछा में और झत्यु तथा पतन के त्रास में बँघा हुआ जीता है। यही जीवन कफाइदइ है जा व्यक्ति श्रॉर समाज को संशिलष्ट इकाई को प्ररित भी करता है ओर त्रस्‍्त भी, मुक्त मो करता है ओर अवरुद्ध भो, आश्वध्षत भी करता है और आतंकित भी। जोन एक सहज अनिवाय दूंढ से अस्त प्रतीत होता है। और यह कक .... हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास दद इतना रमणीय और इतना भीषण है कि फोई भी धर्म या दर्शन इसफी उपेक्षा नहीं कर सकता | दरअसल सभी धर्म ओर दर्शन इसी दंद्व में ही उत्पन्न होते हैं ओर उसकी स्वीकृति तथा प्रतिकार में समाप्त हो जाते है। इस दृद्द को आराध्यात्मिक घरातल पर भी समझने और सुलकाने का प्रयास होता रहा है और भोतिक घरातल पर भी। लेफिन इसका यह अ्रथ नहीं समभाना चाहिए कि इन दोनों घरातलों पर स्वीकृत द्ूंद्ध दो प्रकार का है। अपने मूल रूप में यह एक ही विषम स्थिति है जिसे अलग अलग दृष्टियों ने ग्रलग अलग स्तरों पर स्वीकार किया है। यह दृद्व ही जीवन का और जगत्‌ का सनातन तत्व है जो जीवन का समकालीन होने से अनंत भी हे। सभी छायावादो वियों ने इस दद्व श्रथवा विषमता फा अश्रनुभव किया है ओर उसके मल में स्थित सामरघ्य पर बल देने फा प्रयास किया है। यदि एक बार सामरस्य फो इस द्वद्व का मल मान लिया जाए तो फिर उसे इस द्वद्ट का अंत मानने में फोई बाघा नहीं रह जाती । उस दद् फा अंत ही जीवन का पुरुषाथ ओर लक्ष्य है जिसे मोक्ष, निर्वाण, समाजवाद आदि नाम दिए जाते हैं। मुक्ति का यह बोध केवल चेतना के धरातल पर ही नहीं होता वरन्‌ पदाथ के धरातल पर ही होता है। मुक्ति केवल मनोजगत्‌ के हंद्व से ही नहीं होती वरन्‌ भौतिक जगत्‌ के संघर्ष से भी होती है। मुक्ति छा अर्थ है द्ंद् का परिहार जो दोनों--चिति तथा मौतिकता--के स्तरों पर होता आध्यात्मिक दशनों में यह दर द्व दो रूपों में मिलता है। एक ओर तो व्यक्ति ( आत्मा ) ओर मुल सत्य (ब्रह्मा) के संबंध की समस्या है और इस स्तर पर आत्मा ओर ब्रह्म के दद्व के परिहार की आवश्यकता होती है । दूसरी ओर जीवन में सुख और दुःख का द्वद्व है | दंद्व के ये दोनों रूप मलत: एक ही दंद्व फी दो अ्भिव्यक्तियाँ हें। शसीलिये सभी आध्यात्मिक दर्शनों में दोनों का समाहार एक ही उत्तर से हो जाता है। सभी छायावादी कवियों ने सवंवाद की भूमिका में द्वद्व के इन दोनों रूपों के समाहार का प्रयास किया है सभी छायावादी फवियों के काब्य और चिंतन में द्ंद्ध के इन दोनों रूपों फा चित्रण देखा जा सकता है। एक ओर तो उनके व्यक्तिगत जीवन की निराशा... ओर कुंठा हैं जिसका जन्म प्रणय फी असफलता या भौतिक श्रभावों की यंत्रणा से होता है। इन व्यक्तिगत कुठाओं या मंत्रणाश्रों के लिये किसी अंश तक समा भी उत्तरदायी है। दूसरी ओर सामाजिक जीवन फा द्वद्व है जिसमें राजनीतिक पराधीनता और श्राथिक विषमता प्रधान कारणों के रूप में स्वीकार किए जा सफते हैं । ' साद और महादेवी ने द ८ के इन दोनों रूपों फो आध्यात्मिक स्तर पर [ भांग १० ] दाशनिक झाधांर शै६ ६ ही सुलमाने का प्रयास किया है। महादेवी की अ्रन॒ुभूति का क्षेत्र बहुत सीमित है, वे रहस्यवादी अनुभूति की परिधि से बाहर नहीं निकल पातीं, और यह प्रयास करती हैं कि सभी समस्याओं फा समाधान इस रहस्थवादी परिधि के भीतर ही दाढ़ निकाला जाए। निगुश निराफार ब्रह्म उनकी भावना का आलंबन है। और यह सृष्टि उसी ब्रह्म क्षी ही श्रभिव्यक्ति है। इसलिये महादेवी के मन में अ्रपने प्रिय के व्यक्त रूप सृष्टि के प्रति भी प्रेम की भावना है जिसे प्रेम महाभाव कहा गया है। महादेवी पर प्रायः यह आक्षेप लगाया जाता है कि वे एफांत साधना में इतनी डबी रहती हैं कि सृष्टि की व्यापकता की ओर से विमुख हो गई हैं। लेकिन महा देवी इन पंक्तियों में इस श्राक्षेप का उत्तर देती सी प्रतीव होती हैं--- जाने क्‍यों फहता है फोई में तम की उलभन में खोई धूममयी वीथी वीथी में लुक छिपकर विद्यूत्‌ सी रोई मैं कण कश में ढाल रही श्रलि आँसू के मिस प्यार किसी का। --महादेवी, दीपशिखा, पृष्ठ १२२। इसी प्रकार प्रसाद में भी भोतिक द्वढ्ू की स्वीकृति एक सीमा तक ही हो पाई है। यद्यपि फामायनी श्रारभ में मनु को कम का उपदेश देती है तथापि जब कर्म का विफास सारस्वत प्रदेश फी नई यंत्रप्रधान सम्यता के रूप में होता है तो कवि का दश न इंद्व के उस व्यक्त व्यापक रूप फो नकारने का प्रयास फरता है। श्रद्धा मनु को उस सम्यता के परिणामों से मुक्ति दिलाकर कैलाश के सामरस्य तक ले जाती है; मगर उस संमभ्यता के दढ, जो व्यक्त और व्यापक भौतिक दर द्व है, फा .._ समाघान नहीं हो पाता। कैलाश पर पहुँचकर इड़ा श्रोर मानव को भी सामरस्य . के दर्शन होते हैं और इस दर्शन से प्रेरित होकर वे उक्त भौतिक सभ्यता के द्व ढ का समाहार फर सफते हैं, ऐसा कहना या मानना कामायनी काव्य और उसके ..._ दर्शन कौ सीमा से बाहर जाना होगा जो अपने आपमें एक व्यथ की बात होगी । पंत और निराला ने मोतिक दव 6 के परिहार का अधिक मुक्त प्रयत्न करने का प्रयास क्रिया है | लेकिन आध्यात्मिक पूवग्रह् उनमें भी बराबर बने रहते हैं । कारण यह है कि उनका चिंतन अपने आरंभिक फाल में ही उपनिषंद्‌ फा गंभीर प्रभाव ... अहण कर चुका था दंद्व का समाधान होता है सामरस्य में । इस सामरस्य के भी दो रूप. हैं | पहले रूप में आत्मा ओर ब्रह्म के संबंध की प्रतिष्ठा होती है । यहाँ यह प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया जाता है कि आत्मा ओर ब्रह्म में द त नहीं है। दोनों नित्य संबद्ध हैं। ब्रह्म मूल शक्ति या मह्यचिति है ओर उसी से श्रात्मा का जन्म हुआ है | १७० हिंदी साहित्य का बहत्‌ इतिहास दूसरी ओर जीवन के प्रत्यक्ष द॑ं/ के समाहार का प्रयास किया जाता है। इसके अ्रंतगंत सुख दुःख आदि के विविध द्वद्दों के बीच समत्व बुद्धि की प्रतिष्ठा की जाती है | प्रसाद ने सृष्टि को महाचिति फी लीला माना है ओर इस लीला में सभी फा अनुरक्त होना स्वाभाविक ही है। बह्य श्रोर आत्मा का हं त इसी लीला का जा प्रतीत होता है, मगर यह द्ोत तात्विक नहीं है, केवल व्यावहारिक हा ६ --< | । कर रही लीलामय आनंद, महाचिति सजग हुई सी व्यक्त; विश्व फा उनन्‍्मीलन श्रमिराम इसी में सब होते अनुरक्त । --प्रसाद, कामायनी, पृष्ठ ५३ । व्यक्ति को सुख ओर दुःख दोनों से ग्रमासकक्‍्त रहकर दोनों में सामरस्य की प्रतिष्ठा करनी चाहिए । ओर यह सुख दुःख तो विकास फा सत्य है; यदि जीवन में दुःख से दूर रहने फी ओर सुख फो पाने की इच्छा न हो तो फिर व्यक्ति परिश्रम ही क्यों करेगा-- हो उदासीन दोनों से सुख दुख से मेल कराए ममता की हानि उठाकर दो रूठे हुए मनाएं । द -“असाद, आँसू, पृष्ठ ५० । >< »< >< विषमता को पीड़ा से व्यस्त हो रह्या स्पंदित विश्व महान; यही दुख सुख विफास का सत्य यही भूमा का मधुमय दान। -“प्रसाद, फामायनी, पृष्ठ ५४ | वंषम्य से दुःख तब उत्पन्न होता है जब जीवन में सामरख्य का अमाव होता है, जब मन फी विविध वृत्तियाँ एक दूसरे से असंबद्ध ओर परंपराविरुद्ध रहती हैं। इसलिये इस प्रत्यक्ष विषमता के मूल में स्थित सामरस्य के दर्शन के लिये जिस साधना की अपेक्षा है उसमें सभी मानसिक बृत्तियों और शक्तियों का सामरस्य होना अनिवाय है। जब तक यह सामरस्य नहीं होगा तब तक जीवन को खंडित प्रतीति होगी और क्रेवल अधफलता श्रौर निराशा की प्रात्ति होगी--..... हक न मु है कि च्ब गे ; ४ केक तर है | भाग १० ] दाशनिक आधार... २७१ शान दूर कुछ क्रिया भिन्‍न है इच्छा क्यों पूरो है मन की) एक दूसरे से न मिल सके यह विडंबना है जीवन की। है “प्रसाद, कामायनी, पृष्ठ २७२ । 5 मल निराला ने तुम और में? कविता में ब्रह्म और आत्मा के संबंध सी की अभिव्यक्ति कौ है। कुछ लोगों को इस कविता में रहस्यवाद नजर आता है मगर रहस्यवादी भावना और इस कविता की मावना में बुनियादी अंतर है, जिस- पर बाद में विचार किया जाएगा। इस कविता के विविध बिंबों से तीन बातें स्पष्ट हैं। प्रथम, आत्मा का जन्म ब्रह्म से हुआ है इसलिये ब्रह्म प्रधान है और आत्मा गोण | द्वितीय, यह धारणा विशिष्टाह्न तवाद के निकट पड़ती है जिसमें आत्मा ब्रह्म का विशेषण मानी जाती है। तृतीय, यहाँ शंकराचाय का श्रद्दे तवाद नहों है। तुम मृदु मानस के भाव ओर में मनोरंजनी भाषा; तुम नंदनवन-घन-विटप और में सुख-शीतल-तल-शाखा, तुम प्राण ओर में काया, तुम शुद्ध संच्चिदानंद ब्रह्म में मनोमोहिनी माया। द्य न न तुम नभ हो, में नीलिमा तुम शरत्काल के बाल इंदू . में हूँ निशीयथ मधुरिमा। द .. -निराला-अपरा, तुम ओर मैं, ए० ५८-५६ । ड़ महादेवी ने भी ब्रह्म ओर आत्मा के संबंध के बारे में इसी प्रकार के .. उद्गार व्यक्त किए हैं-- तम अ्रसीम विस्तार ज्योति के में तारक सुकुमार, तेरी रेखा रूप हीनता द है जिसमें साकार | । । >> २ द | २७२ . हिंदी साहित्य का बदल इतिहास तुम हो विधु के बिंब और में द मुग्धा रश्मि अश्रजान जिसे खींच लाते अस्थिर कर फोतूहल के बाण। -यामा, रश्मि, पृष्ठ १०४, १०६ । इन उद्धरणों से स्पष्ट हे कि इन कवियों ने शंकराचार्य के अद्वोतवाद को स्वीकार नहीं फिया जिसमें आत्मा ब्रह्म ही है। कारण स्पष्ट है । अ्रद्वेत के इस तत्व फो स्वीफार फरने पर सृष्टि की सत्यता फो बनाए रखना असंभव था श्रोर फिर न तो भक्ति या रहस्यवादी भावना की अ्रभिव्यक्ति फा अ्रवकाश रहता और न ही प्रवृत्ति माग की स्वीकृति संभव होती । निराला में कहीं फहीं श्रद्व त की प्रतिष्ठा भी मिलती है लेकिन निराला फी समग्र चेतना अ्रद्व त की अपेक्षा विशिश्ाद्वेत के अधिक निकट पड़ती है। प्रेम की स्वीकृति के लिये श्रद्ग त की अ्रस्वीकृति अ्रनिवाय॑ है। इसलिये इन पंक्तियों में अद्व त की अभिव्यक्ति के उपरांत कवि प्र॑म के महत्व का वर्णन भी उसी मनोयोग से करता ह-- राम--भक्ति भोग-कर्म ज्ञान एक ही हैं यद्यपि अधिकारियों के निकट भिन्न दौखते हैं । एफ ही है, दूसरा नहीं है कुछ हंत भाव ही है भ्रम । तो भी प्रिये, अ्रम के ही भीतर से अ्रम के पार जाना हे | मुनियों ने मनुष्यों के मन की गति सोच ली थी पहले ही । इसीलिये द त मावभावुकों में भक्ति की भावना भरी-- प्रेम के पिपासुओं को _ सेवाजन्य प्र म फा जो अ्रति ही पवित्र है, हुआ . उपदेश दिया । “निराला, परिमल, पंचवर्टी प्रसंग, प० २३।॥ पंत ने पहले तो उपनिषद्‌ के संवाद को ही स्वीकार किया था--'एफ ही तो अ्रसीम उल्लास: जगत में पाता विविधाभास श्रादि 'परिवर्तन”ः कविता की (भाग १०] दाशनिक आधार ॥ क्‍ २७३ क्‍ पंक्तियों में प्रायः वैसे ही बिंबों का प्रयोग किया है जो कि निराला या महादेवी के उद्धरणों में आए. हैं--- द एक छवि के असंख्य उडगन, एक ही सब में स्पंदन: एक छुवि के विभात में लीन एक विधि के रे नित्य अधीन ! --पंत, रश्मिबंध, पलल्‍्लव, पृष्ठ ५० ! ब्रह्म अनंत अरूप ज्योति है ओर आत्मा उस ज्योति फा विशिष्ट . रूप तारक है। महादेवी और पंत दोनों के बिंब एक से ही हैं। परत्र्ती काव्य में पंत ने ब्रक्ष और आत्मा के नित्य संबंध फो स्वीकार किया है लेकिन यह स्वीकृति आध्यात्मिक विफासवाद के अंतर पर हुई है। यह सृष्टि एक ही मूल चित शक्ति फा विफास हैं और पदाय आत्मा (मन और अति मन ) सब उसी परम चिति के द्वी विशिष्ट रूप हैं। एक प्रकार के अद्देत की स्थिति यहाँ भी दिखाई देती है मगर यह मी शांकर अद्वेत से भिन्‍न है। परम पद की प्राप्ति के लिये जीवन में समत्व बुद्धि का होना आवश्यक है| इसका अर्थ यह है कि अब तक व्यक्ति के मन में दुःख से विरक्ति का और सुख में अनुरक्ति का भाव है, तब तक वह सीमाओं में घिरा रहता है ओर चेतना . का यह संकोच उसकी उन्नति को रोक देता है। इसलिये यह आवश्यक है कि व्यक्ति सुख और दुःख में सामरस्थ का दर्शन फरे। ढूंढ के इस रूप का समाहार करने के लिये छायात्रादियों के दशन में दो बातें विचारणीय हैं। पहली तो यह कि इन सभी कवियों ने यह माना है कि सुख ओर दुःख .. दोनों का खोत एक ही पराशक्ति है जिससे आत्मा अभिन्‍न रूपसे संशकक्‍्त ... है। इसलिये इस तत्वज्ञान को प्राप्त कर दोनों फो समान भाव से देखा जा सकता .... है । दूसरी बात यह है कि ऐसी स्थिति में व्यक्ति या तो दोनों को ही त्याग सकता ... है ( निजत्ति मार्ग ) अ्रथवा वह दोनों को ही स्वीकार कर सकता है ( ग्रवृत्ति . मार्ग )। छायावादी कवियों ने पहला मार्ग नहीं अपनाया। वें निद्ृत्तिवादी . नहीं हैं। इसीलिये शांकर अ्रद्वेंत उनके समग्र जीवनदर्शन के अनुकूल नहीं है। वे सब प्रव्नत्तिमार्गी हैं, सब में कर्म पर आस्था है द प्रसाद, निराला; पंत और महादेवी सभी ने सुख दुःख आदि का सोत उसी मल शक्ति को माना है जिससे आत्मा और सृष्टि का जन्म हुआ है। प्रसाद १००१५, १७४ ... हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास (नित्य समरसता का अधिकार” वाले उद्धरण से यह स्पष्ट ही है। व्यथा की नीली लहरें ओर द्तिमान मशियाँ सभी सागर को चंचलता में ही व्यक्त होते हैं। निराला ने जीवन के उन इंद्वों का वर्शन इन पंक्तियों में किया है-- यही तो है जग का कंपन- अ्रचलता में सुस्पंदित प्राण- अहँक़ृति में मकृति - जीवन- सरत अविरासम पतन-उत्थान- दया-भय-हर्ष-क्रोध-अभिमान _ दुःख-सुख-तृष्णा-ज्ञानाज्ञान । क्‍ --निराज्षा, अपरा, स्मृति, ए० ६९ । ह सा जीवन फी विजय सब पराजय, चिर श्रतीत झाशा, सुख सब भय सब में ठुम; तुममें सब तन्मय --निराला-परिमल- पारस, पृष्ठ ७१ । महादेवी ने भी इसी मूल सत्य के आधार पर समत्व का वर्णन किया है-- द नाश भी हूँ में अनंत विकास का क्रम भी, त्याग का दिन भी चरम आसक्ति का तम भी तार भी, श्राघात भी, मंफार की गति भी, पात्र भी, सधुं भी, मधुप भी, मधुर विस्मति भी अधर भी हूँ श्रौर स्मित की चाँदनी भी हूँ। द . “-यामा,; नीरजा, पृ० १७३ | झौर साधना के क्रम में सुख और दुःख, दोनों ही समीप आ गए हैं-..'छाँह में उसकी गए झा शूल फूल समीप ( दीपशिखा ) अथवा “क्सलिये अलि फूल सोदर शूल आज बखानती री ( दीपशिखा )।. पंत ने भी सववाद की भूमिका में ही सुख और दुःख एवं जीवन तथा मृत्यु के दंढ् के समाहार का प्रयास किया है एक हो लोल लहर के छोर उभय सुख दुख, निशि भोरः इन्हीं से पूर्ण त्रिगुण संसार, सूजन ही है, संहार। .. म्‌दती नयन मृत्यु की रात . खोलती नव जीवन की प्रात, | संग १० || दाशनिक आधोर ... ३७४ शिशिर की सब प्रलय कर वात बीज बोती अज्ञात । --पंत, रश्मिबंध, पल्‍लव, परिवर्तन, पृ० ५० | इस सामरस्य या द्वद् के समाहार की, गीता के स्थितप्रश्ञ के समत्वभाव से तुलना की जा सकती है--- यांगस्थ: कुरझ कर्माशि संग त्यक्वा घनंजय | सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा समत्व॑ं योग उच्यते ॥ नी छा ना न दुःखेष्वनुद्विग्नमना: सुखंघुविगतस्पृह: । वीतरागभयक्रोध: स्थितधीमु निरुच्यते ॥ “गीता, २४८, ५६ | उपयु क्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि छायावादी काव्य के दशन में सृष्टि की सत्यता आधारित है मुल सत्य पर; सामरस्थ या समत्व आधारित है सृष्टि की सत्यता पर और प्रवृत्तिमार्ग श्राधारित है सामर॒स्य या समत्व पर। स्थूल सृष्टि . के सोंदय के सत्य पर आधारित प्रवृत्तिमागं छायावादी काब्य के दर्शन का मूल . और प्रधान स्वर है। यह स्वर पुनरुत्थान फी व्यापक साधना पर आधारित है। .._ मगर साथ ही यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि यह स्वर तत्कालीन परिस्थितियां और आफांक्षाओं को तृप्त करने का प्रयास करता है। विज्ञान पर आधारित एफ नई सम्यता के प्रयास से भारतीय जीवन में भी नए परिवर्तन दिखाई दे रहे थे । विज्ञान ने स्थल सृष्टि को समभने का प्रयास ही नहीं किया वरन्‌ नए प्राप्त ज्ञान के .. आधार पर प्रकृति की शक्तियाँ का उपयोग भी किया जिससे जीवन अधिक समृद्ध, सुखद झोर सृहणीय बन गया | स्थल सृष्टि के प्रति बहती हुई झञासक्ति के फारण .. व्यक्ति सासान्य॑तः विरक्ति या निवंद पर ग्राघारित दर्शन फी और उन्सुख नहीं हो ...॑. सकता था। इसलिये तत्कालीन सामाजिक चेतना के विकास की अवस्था में ... ॑/ प्रवृत्ति के स्वर का प्रधान रूप से प्रभावशाली होना स्वाभाविक ही था। विज्ञान ने ज्ञान के ज्षेत्र को भी व्यापक रूप से विस्तृत किया। प्रेस के हे | क्‍ * - आंविष्फार के कारण शान कुछ इने गिने व्यक्तियों की संपत्ति नहीं रह गया था | .... इसलिये आधुनिक युग के मनीषियों के लिये ज्ञान का अनंत कोत्र खुला पढ़ा है। . ज्ञान के इस व्यापक विस्तार के कारण वादों और संप्रदायों की शक्ति का क्षीण .. होना स्वामाविक ही था| एक व्यक्ति आसानी से अनेक वादों और संप्रदायों का ज्ञान प्रास कर सकता है ओर इसलिये वह अनेक वादों और संग्रदायों से सहज ओर अनिवाय €प से प्रभाव अहण करता है| यह क्रिया इतनी स्वाभाविक और श््द... हिंदी साहिस्य का बृहत्‌ इतिहास अनिवार्य है कि जो सामाजिक व्यवस्थाएँ किसी एक वाद पर आधारित हैं ओर उसी एक वाद पर आधारित रहना चाहती हैं वहाँ दृदता से यह प्रयास किया जाता है फि ज्ञान के प्रचार ओर प्रसार के साधनों पर पूरा पूरा नियंत्रण किया जाए ताकि वहाँ के व्यक्ति को केवल एक वाद फा ही ज्ञान प्राप्त हो। भारत में इस प्रकार का निय॑त्रण न फभी रहा है ओर न ही कभी रह सकता है । यही फारण है कि दाशनिकों ओर मतवादियों के अतिरिक्त जो चिंतक या कलाकार हुए हैं नहोंने एकाधिफ मतों से प्रभाव ग्रहण किया है। यह बात हमें कबीर ओर तुलसी में दिखाई देती है ओर आधुनिक कवियों तथा कलाकारों में भी। इसमें संदेह नहीं कि हिंदी में ऐसे कवि ओर कलाकार भी हुए हैं जो विशिष्ट दर्शन या मत में ही सीमित होकर रह गए हैं। मगर श्रधिकतर सर्जक इन हृढ़ सीमाहां के बघन से मुक्त हैं। छाप्रावादी कवियों में प्रसाद के अतिरिक्त श्रन्य किसी भी कवि फो किसो विशिष्ट वाद से नहीं बाँधा जा सकता। प्रसाद की कामायनी में काश्मीर शेंव दशन का आधार है मगर यहाँ भी प्रसाद ने उन सब तत्वों फो स्वीकार किया है जो उस दर्शन के भीतर स्वीकार किए. जा सकते थे। यहाँ तक कि परमाणुश्रों ओर विद्य त्कशों का भी उल्लेख है। निराला, पंत और महादेवी इन तीनों को किसो एक विशिष्ट दर्शन से नहीं बाँधा जा सकता। कहीं फहों अहद्वोत का प्रभाव दिखाई देता है मगर वह प्रभाव ही है, कोई मताग्रह नहीं है | छायावादी काव्य किसी विशिष्ट दार्शनिक वाद की अपेक्षा उपनिषद्‌ के दर्शन के अधिक समीप है जिसमें कुछ सामान्य सर््यों की स्वीकृति है ओर किसी वादविशेष के बंधन भी नहीं हैं। साथ ही गीता के कर्मयोग फा प्रभाव भी स्पष्ट है| छायावादो काव्य के दाशनिक श्राधार के बारे में ये सामान्य बातें. कही जा सकती हैं-- ( १) सब्चिदानंद ब्रह्म मूल सत्य है जिससे समस्त सृष्टि का उदय हुआ है। छायावादी कवियों ने इब मल सत्य के दो नए पत्चों--सौंदर्य और प्रेम महाभाव---पर विशेष बल्ल दिया है | ( २ ) आत्मा और जगत्‌ का जन्म उस मूल सत्य से हुआ है | आत्मा और जगत्‌ दोनों ही अव्यक्त रूप से ब्रह्ष में विद्यमान रहते हैं इसलिये वे दोनों ब्रह्म की अभिव्यक्तियाँ मात्र हें--जैसे लहरें सागर की श्रमिव्यक्तियाँ हैं। इस प्रकार सभी छायावादी कवियों को सत्कायंवाद पर विश्वास है। (३ ) आत्मा ओर ब्रह्म के संबंध को कहीं कहीं ग्रहदैत पर आधारित माना गया है। लेकिन प्रायः आत्मा फो ब्रह्म का विशिष्ट सौमित रूप और विशेषण माना गया है। [ भाग १० ] दाशनिक आधार ... ३७७ (४ ) मन ओर सृष्टि का दद्व प्रातिमासिक है | मुलतः सर्वत्र सामरस्य या समत्व की व्याप्ति है। इसका अनुभव तभी होता है जब व्यक्ति श्रज्ञान या मोह से मुक्त होता है। अ्रज्ञान व्यक्ति को मल सत्य से विमुख कर उसे उससे दूर ले जाता है। अ्ज्ञान चेतन फी अनंत शक्ति को संकुचित कर देता है । ( ५ ) सभी छायावादी कवियों ने प्रवृत्चिमार्ग को स्वीकार किया है। जीवन का सुख “मंगल से मंडित श्रेय” है । ( ६ ) साधना सामरस्य श्रथवा समत्व की भावना पर प्रतिष्ठित है जो भोग से होती हुई निवेद की ओर अग्रसर होती है । इस साधना में प्रेम महामाव या करुणा का विशेष महत्व है | ( ७ ) महादेवी के अतिरिक्त अन्य तीनों कवियों में मोक्ष की या परम पद की कल्पना विद्यमान है । सिवाय प्रसाद के किसी अन्य कवि ने इस परम पद की सुनिश्चित व्यंजना नहीं की । उपयुक्त समानताओं के अतिरिक्त छायावादी कवियों के दशन में कुछ अंतर मी है। सबसे पहली बात तो यह है कि प्रसाद के सिवाय किसी भी कवि ने फिसी विशिष्ट दशन का सांगोपांग निरूपण नहीं किया है। फामायनी ही एक ऐसा ग्रंथ है जिसे निश्चित रूप से काश्मीर शेवदशन पर आधारित माना जा सकता है। शेष फवियों ने उपयुक्त सभी तत्वों पर सामान्य रूप से विचार किया है-- किसी एक निश्चित दर्शन के संदर्भ में उनकी व्यापक प्रतिष्ठा फा प्रयास उन्मुक्त कविचेतना को काम्य नहीं प्रतीत हुआ । पंत के परवर्ती काब्य में आध्यात्मिक विकासवाद का जो स्वर सुनाई देता है वह भी उपनिषर्दों के दर्शन की उस नई व्याख्या का प्रभाव है जो अरविंद के दर्शन में प्राप्त होती है। उपनिषद्‌ के श्रनुसार सृष्टि ब्रह्म की अ्रभिव्यक्ति है। ब्रह्म फा विकास ही. इस अनेक नामरूपात्मक जगत्‌ के रूप में दिखाई देता है। इसलिये आज तक संसार में जितने “नए? आविष्कार बा विकास हुए हैं वे सब उसी मूल शक्ति के उन्‍्मीलन का परिणाम हैं। वह मल शक्ति एफ बार ही पूर्ण रूप से व्यक्त नहीं हो जाती । इस व्यक्ति में समय के क्रम को स्वीकार कर लेने पर हम उस आध्यात्मिक विफासवाद पर पहुँच जाते हैं जो पंत जी की परवर्ती रचनाओं का प्रतिपाद्व है आर कालक्रम में दोनेवाले इन “नए” रूपों ओर व्यापारों फो स्वीकार कर लेने के उपरांत सहज ही ब्यक्ति भविष्य के उन रूपों और व्यापारों फी व्यवस्था फी भावना कर सकता है जो वर्तमान जीवन के सभी संफोर्चों ओर द्वद्वों से मुक्त होगी । पंत का नूतन काव्य इसी संदर्भ में समझा जा सकता है। २७६ .... हिंदी साहित्य का बृंहत्‌ इतिंहास . निराला और महादेवी प्रधान रूप से मुक्‍्तककार हैं। इसलिये उनकी रचनाओं में दर्शन की श्रभिव्यक्ति सूक्ष्म संकेतों के रूप में या बिंबों के माध्यम से हुई है। एक सीमित काव्यरूप की स्वीकृति के फारण उनमें दर्शन के विविध पक्षों के व्यापक और मुर्त चित्रण का कोई अश्रवकाश नहीं था। लेकिन फिर भी दर्शन फो व्यक्त करनेवाले संकेतों और बिंबों के श्राघार पर उनकी दार्शनिक चेतना की रूपरेखा प्रस्तुत की जा सकती है। इसकी सामान्य विशेषताओं की चर्चा की जा चुफी है। साधना के रूप में इन कवियों में विनय ओर भक्ति के उद्गार भी मिलते हैं| प्रार्थना फा स्वर नियला की कविताओं में सबसे अधिफ मुखर है --- तरशि तार दो अपर पार फो | खे खेकर थके हाथ कोई भी नहीं साथ श्रमसीकर भरा माथ बीच धार ओऔओओ ! हा + + पड़ी भेंवर बीच नाव भूले हैं सभी दाँव रुफता है नहीं राव सलिलसार ओ ! “>अपरा, गीत, पृष्ठ १७५४-७६ । उधर पंत भी कहते हैं 'जग के उबर श्रॉँगन में बरसो ज्योतिमंय जीवन ॥! महादेवी फी साधना भी पूजा या अर्चना से भिन्‍न नहीं है--'क्या पूजा क्‍या अ्चन रे ।! प्रसाद की दार्शनिक चेतना इतनी प्रबुद्ध ओर गंभीर थी फि उन्होंने कम ओर निष्ठा से युक्त साधना को ही विशेष महत्व दिया है। लेफिन श्रन्य कवियों में विनय, प्राथना ओर भक्ति फा स्वर एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है | . इसमें भी मध्यकालीन भारतीय साधनापद्धति का विकास या पुनरुत्थान देखा जा सकता है। यदि गोस्वामी तुलसीदास भक्त होने से पहले भी कविता करते तो स्पष्ट है कि उनकी कविता प्रणय के गीत होती। प्रश॒य में निराश होने पर ही उन्होंने मक्तिकाव्य फी रचना फी | इ प्रकार यदि वे आरंभ से ही कवि होते तो उनके काव्य का विकास भी छायावादी काव्य के विकास से मिलता जुलता होता। प्रसाद शोर निराला के काव्य में रहस्‍्यताधना का भी काफी प्रभाव [ भाग १० ) दाशनिक आधार २छहै दिखाई देता है। कामायनी में श्रद्धा द्वारा त्रिपुर का वर्शन, उनका संमिलन, अनहद नाद फी अभिव्यक्ति नर्तित नटेश के दशन ञ्रादि सभी तत्व रहस्यसाधना के श्रंतगंत आते हैं । उधर निराला की अनेक रचनाओं में योग और ध्यान आदि का गंभीर रूप से चित्रण हुआ है। 'राम की शक्तिपूजा' का प्रधान फाय ही राम की योगसाधना और सिद्धि की प्राप्ति है। आज के युग में कोई भी व्यक्ति इन वर्णानों ओर प्रसंगों फी बुद्धिसंगत व्याख्या प्रस्तुत नहीं कर सकता । लेकिन यह परंपरा का सत्य है ओर इसी नाते ये वर्शान हमें अजीब या अ्विश्वसनीय नहीं लगते । यदि ये अविश्वसनीय होते तो ये प्रसंग नीरत और प्रभावहीन होते । . सगर उनकी प्रमावशक्ति अमोघ है ओर फिसी न किसी अंश में वे आधुनिकता के संदर्म से संपृक्त हैं। इसीलिये इन प्रसंगों के वर्शन से रचना की शक्ति सें गहराई ओर व्यापकता आई है। ये काव्य के माध्यम से व्यक्त पर॑परा के सत्य या अतीत के जीवित अंश हैं । अंत में छायावादी काव्य फी एक महत्वपूरो प्रवृत्ति रहस्यवाद पर विचार करना अनिवाय प्रतीत होता है। रहस्यवाद के संबंध में प्रायः अ्रांति वहाँ उत्पन्न होती है जहाँ दार्शनिक कविता को भी रहस्यवाद के अंतर्गत ले लिया जाता है। उदाहरण के लिये निराला फी फबिता 'तम और मैं? या पंत की फविता “एक तारा! के अंतिम छुंद में रहस्यवादी प्रवृत्ति देखी दिखाई जाती है। मगर यह स्पष्ट दे कि इन दोनों कविताओं के मूल में दाशनिक अवधारणाएं विद्यमान हैं। दोनों में ही ब्रह्द और आत्मा या ब्रह्म ओर सृष्टि के संबंध के दार्शनिक स्वरूप का काव्यात्मक चित्रात्मक वशन हुआ है। इसलिये किसी दाशनिक सत्य को व्यक्त करनेवाले बिंबों या रचनाओं में रहस्यवाद नहीं साना जा सकता। वे कविताएँ .. दार्शनिक कविताएँ कहलाएँगी । द भक्तिफाल के अनेक कवियों ने भी दार्शनिक कविताएँ लिखी हैं। कबीर की वे साखियाँ और पद जहाँ वेदांत के विविध पक्षों फा स्पष्ट या प्रतोकात्मक चित्रण हुआ है, दार्शनिक रचनाएं हो कहलाएँगो। इसी प्रकार विनयपत्रिका का यह पद “केशव, कहि न लाय का कहिए' या 'रामचरितमानस' के वे अंश जिनमें ब्रह्म आत्मा; जगत, माया श्रादि का काव्यात्मक वशुन है, दार्शनिक रचनाओं या प्रसंगों के अंतगत गिनी जाएँगे | अब सवाल यह पैदा होता है कि किस आधार पर दार्शनिक और रहस्थ- बादी कविता का अंतर स्पष्ट किया जा सकता है ९ उत्तर स्पष्ट हे। इमारे विचार से केवल वें रचनाएँ ही रहस्यवादी रचनादं हैं जहाँ निर्गुण निराकार ब्रक्ष के प्रति आत्मा के प्रणुय का--संयोग या २८०७ हिंदी साहित्य का बृह्त्‌ इतिहास विमोग का निवेदन हो । रहस्यवाद का मूल तत्व नि्गुश के प्रति प्रणयभाव ही है। जहाँ यह तत्व विद्यमान है उस रचना को रहस्थवादी कहा जा सकता है | जहाँ यह तत्व विद्यमान नहीं है, उन रचनाओं फो रहस्यवादी नहीं कहा जा सकता । जहाँ ब्रह्म के संबंध में जिज्ञासा फी व्यंजना की जाती है, अ्रथवा जहाँ प्रकृति के भीतर किसी विराट चिन्मय मूल शक्ति के दशन किए जाते हैं, वे रचनाएँ रहस्यवाद में तब तक नहीं मानी जा सकतीं जब तक कि निराकार मूल तत्व के प्रति प्रणय को ब्यंजना न हो | इस दृष्टि से विचार फरने पर केवल महादेवी ही रहस्यवादी कवयित्री सिद्ध होती हैं। प्रसाद फो भी मूलतः एक दाशनिफ कवि मानना चाहिए । और इससे यह निष्कर्ण भी निफकत्षता है कि 'कामायनी” रहस्यवादी फाव्य नहीं है बरन एक दार्शनिक काव्य है। 'कामायनी' के मुल में काश्मीर शवदर्शन के सिद्धांत स्थित हैं और विविध प्रसंगों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसी दर्शन के विविध पक्षों का बणान हुआ है। “फामायनी” में कहीं भी कोई ऐसा प्रसंग नहीं है जहाँ निराकार के प्रति प्रणुय की व्यंजना की गई हो । और, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, बिना प्रणय की व्यंजना के किसी रचना को रहस्यवादी मानने से श्रांतियाँ ही पैदा होती हैं। यदि कोई “कामायनी' को रहस्यवादी फाव्य मानना चाहेगा तो फिर यह भी अनिवाय होगा कि वह काश्मीर शैवदर्शन को--जिसपर “फामायनी! - आधारित है -भी रहस्थवाद के अंतर्गत स्वीकार करे। ओर यदि काश्मीर शैव- दर्शन रहस्यवादी दर्शन है तब तो उपनिषद्‌ और वेदांत को भी रहस्थवांद के अंतगगत मानना होगा। ऐसी स्थिति में यह मानना पड़ेगा कि वे तथ्य या सत्य जो मात्र तक पर आधारित न होकर सहजानुभति या दैवी अ्रंतप्ररणा पर आधारित हैं, वे सब रहस्यवादी दर्शन माने जाने चाहिए। प्रसाद जी ने इसी श्रथ में रहस्यवाद ' क्षा प्रयोग किया है | 'आ्रात्मा की संकल्पात्मक अनुभूति! देवी ज्ञान या सहजानुभूति ही है। ओर इस श्रथ में सूफियों फी रचनाओं फो रहस्यवादी मानना संभव नहीं होगा | े काव्य शिल्प हिंदी साहित्य के इतिहास में छाय्रावादी काव्य का युग केवल कथ्य एवं संप्रेष्य वस्तु की समृद्ध भावनिधि के कारण ही नहीं, प्रत्युत अभिव्यंजनाशिल्‍प के अद्भुत नवोत्कष के आधार पर भी नितांत ओचित्यपूबंक “उन्कर्ष काल” का अमभिधान प्राप्त करने का अ्रधिफारी है । शिल्प की दृष्टि से हिंदी के रीतिफालीन फाव्य कौ समृद्धि भी अ्रतक्य॑ हैं, किंतु रीतिकाव्य की अतिशय आलंकारिफ प्रबृत्ति अनुमूतिशून्य होकर अ्रतिवाद की सीमा तक पहुँच जाने के फारण उसकी सबसे बड़ी परिसीमा बन गई थी; दूसरी ओर द्विवेदी युगीन काव्य इस दोष से बचने के प्रयास में श्रीहीन नीरसता के दूसरे अतित्रादी श्र्‌व के निकट आ पहुँचा था। इन दोनों अतिवादी सीमांतों के मध्य काव्य के दोनों पक्षों, अनुभूति और अ्रभिव्यक्ति, में संतुलन ओर सामंजस्य स्थापित करने का उपक्रम छायाव।दौ कवियों ने किया । द्विवेदी युग ओर छायावादी युग खड़ीबोली हिंदी काव्य फो उत्कर्ष- शिखर पर पहुँचानेवाले दो महत्वपूर्ण सोपान हैं। द्विवेदी युग ने खड़ीबोली में व्याफरणगत परिष्कार एवं संस्कार उत्पन्न फर इसे सुस्थिर ओर प्रांजल रूपाधार प्रदान किया, किंतु छायाबाद को सिद्धि उसकी आंतरिक शक्तियों का विकास कर उसके अलंकरण एवं श्रीसमृद्धि में है। ब्रजभाषा की प्रतिद्वद्विता में खड़ीबोली फी काव्यत्षेत्र में गौरवपूर्ण प्रतिष्ठा इस वर्ग के कवियों की अपू्व : प्रतिभा का प्रतिफल है। हिंदी आलोचनाज्षेत्र में छायावाद की अ्रमिव्यंजनाशेली के अर्थ में 'काव्यशिल्प! शब्दावली का प्रचल्नन हो इसके कवियों की काव्य की बाह्य रूपसज्जा के प्रति जागरूकता का प्रबल प्रमाण है। मानसपटल पर उमभरे म्यादुमुत कल्पनाचित्रों एवं मावचित्रों को संवेदनशील, समृद्ध एवं सशक्त शब्द- विन्यास द्वारा निर्मित काव्यजिबों में रूपायित करने में हो खड़ीबोली को इस समृद्धिसंपन्‍न काव्यघारा का वेंशिष्य्य निहित है | छायावादी कवि अभिव्यंजना को सॉौंदर्यानुभूतिप्रसत मानसब्बिय्रों का व्यक्त रूप मानते हैं। कथ्य ओर कथनप्रणाली में अमेद स्थापित करते हुए छायावाद के प्रवर्तक जयशंकर प्रसाद ने काव्य की वस्तु ओर रूपाकार फो समरूप माना हे काव्य में शुद्ध आत्मानुभति की प्रधानता है वा फोशलमय आ कारों या प्रयोगों १०-३६ १८२ ह्दी साहित्य व्‌! बृहत्‌ इतिहास की १ काब्य में आत्मा फी मौलिक अ्रनुभूति की प्रेरणा है वही सौंद्यमयी और _संकब्पात्मक होने के कारण अपनी श्रेय स्थिति में रमणीय श्ञाकार में प्रकट होती है। वह आकार वर्णात्मक रचनाविन्यास में कोशलपूर्ण होने के कारण प्रेय भी होता है ।! अनुभूति और श्रमिव्यक्ति में बिं्र-प्रतिचिंब-भाव-हूप समरूपता रहती है, इस तथ्य की ओर सँकेत उनके इस कथन में मिलता है : “अपने मीतर से मोती के पानी की तरह आंतर स्पर्श करके भावसमपंण फरनेवाली अभिव्यक्ति की छाया फांतिमयी होती है।” यह सत्य है कि कवि की अभिव्यंजना के विविध उपकर णों का वेशिष्य्य मुलतः उसकी अनुभूति की प्रकृति के ही आश्चित है। देश- विदेश के आलोचनाशास्त्र में काव्य के अ्रभिव्यंजनाशिल्‍प के स्वरूपविधायक निभ्नोक्त उपकरण प्रायः स्थिर हो चुके हैं -- १, काव्यरूप २. भाषा ( के ) स्वरूपनिर्णा यक तत्व : (१ ) शब्दरभांडार ( २ ) व्याकरणुगत संस्कार (ख ) अलंकरण के प्रसाधन * । ( १ ) शब्दालंकार ( २ ) शब्दशक्तियाँ ( ३ ) प्रतीकयोजना (४ ) चित्रात्मक योजनाएँ ३. अभिव्यंजना के विविध प्रसापन :. ( क ) श्रप्रस्तुत योजना ( ख ) बिंबविधान (ग) वक्र एवं वेचित्र्यपूर्ण भंगिमाएँ, ४, छंदयोजना | छायावाद के काव्यरूप : छायावाद का जन्म एक नवीन युगव्यापी चेतना के उद्बोध का पश्शणिम था। काव्यरूप की दिशा में इस वर्ग के कवियों की नवचेतना का प्रसार दो १ जयशंकर प्रसाद : काव्य श्रौर कला तथा श्रन्य निबंध!) पृ० 9४-४५ । . * उपरिवत्‌ पु० १२६। मकर पहन द द भांग १० ] कार्व्यशिदर्प॑ २८३ रूर्पों में हुआ--एफ तो इन्होंने परंपराप्रचलित शात्जनिबद्ध फाब्यरूपों का नव- रूपांतरण किया: दूसरे, पाश्चात्य साहित्य और साहित्यकारों की विचारधारा से प्रेरित होकर इन्होंने समस्त परंपराजन्य रूढ़िबंधर्नों का तिरस्कार कर अपने संप्रेष्य भावों तथा विचारों के अनुकूल विविध नूतन काव्यविधाश्रों फी सृष्टि की | छायावादी क़ाव्य छौ रचना यद्यपि विविध काव्यरूपों में हुईं, तथापि यह फाव्य अपने समग्र रूप में अनिब्रद्ध काव्य की कोटि में आ्राता है, प्रगोत इसकी प्रमुख विधा है। प्रगीत फी.सीमित परिधि में ही छायावाद के कवियों ने एक तो संग्रोधघनगीति, चतुदंशपदी श्रादि विभिन्‍न प्रगीतरूपों फी रचना द्वारा तथा दूसरे, प्रगीततत्व को आधार मानकर भारतीय एव॑ पाश्चात्य साहित्य में उपलब्ध विविध प्रबंध एंवं नाख्यरूपों के श्रमेकविध संमिश्रणु से विभिन्‍न नवीन फाव्यविधाओं की सृष्टि द्वारा पर्यात्त वेविध्य का समावेश किया | ( क ) छायावाद के अनिबद्ध काव्य मुक्तक : छायावाद का अ्रनिबद्ध काव्य प्रमुखतः प्रगीतरूप में ही लिखा गया; इस काव्य का प्रमुख रचनाबंध मुक्तक ऋथवा प्रबंध न होकर प्रंगीत ही है। नवयुग की प्रबुद्ध चेतना तथा अंग्र जी ओर बंगला साहित्य फी प्रेश्णा से ये कवि काव्य के परंपराप्रचलित मुक्तकरूप को श्रपेक्षा प्रगोतर्वचना को ओर ही विशेष प्रवृत्त हुए, तथापि यह सत्य है कि छायावाद के माखनलाल चतुर्वेदी, मुकुट्धर पॉडेय, प्रसाद तथा निराला आदि अनेक प्रछुख कवियों ने काव्यरचना फा समारंभ मुक्तकों से ही किया । प्रसाद के धचित्राधार', “कानन कुसुम”, मरना तथा निराला के "“परिमल!' में संकलित छायावादी मुक्तक प्रमुखतः दो शेलियों में रचित हैं। घनानंद श्रादि रीतिमुक्त कवियों ओर भारतेंदु के त्जभाषा में रचित मुक्तकों की परंपरागत चमत्कृतिप्रधान दोहा एवं कविच-सवेया शली तथा नवीन शेली । नवीन शेली में रचित मुक्तर्का में से कुछु तो द्विवेदीयुगीन फाव्य की इतिदृचात्मक शैली में लिखे गए हैं ओर अधिकांश मुक्तक ऐसे हैं जिनमें छायावाद के समृद्ध काव्यशिल्प, सुक्ष्म एवं नतन सौंदयंदष्टि तथा रोमानी कल्पना के उन्मेष के अंकुर प्रस्फुटित होने लगे थे। मल दृश्फोण के भावगत हो जाने के कारण ये मुक्तक विशुद्ध मुक्तक न होकर प्रगीतात्मकता की ओर उन्मुख हैं, अतः इन्हें प्रगीतोन्मुख मुक्तक की संज्ञा देना अधिफ समीचीन होगा | छायावादी काव्य में उपलब्ध ये मुक्तक इस वर्ग के कवियों के प्रारंभिक प्रयास मात्र हैं। मुक्तकशिल्प के अलंकरणु, चमत्कृति, वचनविदग्धघता आदि अधिकांश अनिवाय तत्वों से युक्त होने पर भी इनमें छायावाद के प्रगीतशिरप के 'शद४ ..... हिंदी साहिस्य का बूंहत्‌ इतिहास विकासचिह् संनिद्धित हैं। इसी शिल्प का चरम विकास प्रगीतशिल्प में हुआ, भ्रतः ये दो परस्पर मिन्‍न शेल्पिक विधाओं के द्योतक न होकर छायावाद की एक ही मुल शेंली के विभिन्‍न विफाससोपानों के व्यंजक हैं । क्‍ प्रगोत : छायावाद मूलतः प्रगीतकाव्य है। वस्तुत: हिंदो में प्रगीत के विशुद्ध एवं समृद्ध रूप का विफास इसी काव्य में हुआ। इस काव्य की मूल प्रेरणा भी प्रगीत के ही अ्रनुकूल थी। छायावाद के प्रगीर्तों का स्वरूप विशेषतः पाश्चात्य साहित्य में उपलब्ध श्राधुनिक प्रमीतों से ही प्रमावत है। इनमें संगीता- त्मकता, व्यक्तितत्व; भावप्रवशवा, भावान्त्रति, सहज अंतर्प्रेरणा, भावानुरूप तरल प्रवाहमयी शेंली तथा संक्षित रूपाकार आदि प्रगीत फाब्य के समस्त अनिवाय्य तत्वों का सम्यक्‌ समावेश है; यह बात ओर दे कि इस वर्ग के कवियों ने प्रगीत के इन तत्वों के परंपरागत रूप फो अपनी विशिष्ट प्रकृति के अनुरूप रूपांतरित कर लिया है। उदाहरणार्थे; .. राग! को कविता का प्राशतत्व स्वीकार करने के फारण छायावाद के अधिकांश प्रगीर्तों का संगीत शब्द का तरल आंतरिक संगीत हो है। ये प्रगीत प्रायः शास्त्रीय रागरागिनियों के स्वर श्रॉर ताल फो कार में बंधकर नहीं चलते । इसके अतिरिक्त .छायावादी कवियों ने विश्ुद्ध प्रगीत को प्रत्वक्ष एवं निश्छुल आत्माभि- व्यंजन को प्रणाली के स्थान पर प्रच्छन्न एवं परोक्ष अभिव्यक्ति प्रणाली को ही अझपनाया है। इसी प्रकार ६नफा संयत माबावेश मी सूर, मीरा आदि भक्त कवियों फी भाँति निर्वाध नहीं है। छायाबादी कवि का चिंतन फकब्पनामोह प्रकृतिगत संयम और संस्कार भावावेग की छ्लीण॒ुता के लिये उच्चरदायी है। इस काव्य में . आवेश की प्रचंड ज्वाला ( निराला और एक सीमा तक प्रसाद को छोड़कर ) नहीं मित्रती । ये कवि तो सिद्धांत रूप में मी संयत भावावेग को ही गीतिकाव्य का सहज तत्व मानते हैं ।' लेफिन फिर भी इस फाव्य की रागात्मकता अ्रसंदिग्ध हैजो प्रगीत के श्रनेक चित्रों को परस्पर एक भावसूत्र में गुंफित करने में सहायफ ' हुंई है। महादेवी के कुछ प्रगीतों में अवश्य चिंतन की सघनता ओर हार्दिक अनुभूति फी क्षीणता ने उनके अनेक चित्रों फो परस्पर अन्वित नहीं होने दिया है, किंतु 'पल्लव” और 'गुजनः के 'मौन निमंत्रण', “नौकाविहार', “परिवर्तन! आदि भावपूर्ण प्रगीत, “चंद्रगुत” और “स्कंदगुप्तर नाटकों के भावविभोर करनेवाले प्रण॒यगीत तथा 'अनामिका), 'नीरजा' और “दीपशिखा” के प्रगीत इस हृष्टि से अ्रत्यंत + महादेवी का विवेचनात्मक गद्य ६ ( गीतिकाव्य ), पृ० १७१। । रा । की || | [ भाग १० | काव्यशिल्प ५८५ समृद्ध हैं |. समग्रतः छायावाद के प्रगीत सहज अ्रंतःस्फूत विशुद्ध प्रगीत न होकर अधिफकांशतः कलागीत ही हैं, जिनमें मावनाओं का सहज अंतःस्फुण चिंतन, कल्पना और कला--तीरनों से बाधित है। प्रगीत की प्रक्नत के अनुरूप तरल; गेय और प्रवाइमयी शैली, संक्षितता तथा भाव, विचार और भाषा का पूर्ण सामंजस्य इनमें यथोचित रूप में विद्यमान है। सामान्यतः: छायावादी प्रगीतों में संस्कृत मुक्तफक्राव्य फी भावामिव्यंजन की संक्षिप्त प्रणाली तथा पश्चिम फी वैर्याक्तक अनुभूति का श्रपूव समन्वय है । प्रगीत के विभिन्‍न भेदप्रभेदों की दृष्टि से छायावाद सें परिमाण की दृष्टि से सर्वाधिक रचना संबोधनगीतियों फी हुई क्योंकि एक ओर तो इस प्रगीत विधा ने छायावाद की प्रमुख प्रचृत्ति--झात्माभिव्यंजन के लिये सहज माध्यम प्रस्तुत फिया झोर दूसरी ओर इन फल्पनाप्रवण कवियों फो इसमें कल्पनाविलास के लिये अपरिमित क्षेत्र सुलम हो गया। छायावाद की संबोधनगीतियाँ पाश्चात्य साहित्य में उपलब्ध वर्ड सवर्थ, बॉलरिज, फकीठ्स, शेली श्रादि अंग्र ज के स्वच्छुंदतावादी कवियों की आधुनिक व्यवस्थित संबोधनश्गीतियों के अधिक निकट हैं। पंत और महादेवी को प्रायः सभी संबोधनगी तियों में एक सुनिश्चित हूय को व्यवस्थित योजना मिलती है। निराला को संबोधन्गीतियों की छुंदव्यवस्था अन्य सभी छायावादी कवियों से मिन्‍न है; उनमें केबल समग्र रूप से ही वेविध्य लक्षित नहीं होता, अ्रपितु एक ही संबोधनगीति के एक अनुच्छेद की विभिन्‍न पंक्तियों में भी वैषम्य स्वथा स्पष्ट है। ये गीतियाँ भाव और कल्पना से उत्तरोत्तर चिंतन और विचारात्मकता की ओर विकसित शोती गई हैं। इनके संबोध्य विषंय प्राय: प्रकृति के उपकरण ही हैं जिनके प्रति इन कवियों का फोतृहल ओर जिज्ञासा व्यक्त ...._ छायावादी काव्य में निराला की 'सरोजस्मृति', माखनलाल चतुर्वेदी ओर सुमित्रानंदन पंत की लोकमान्य तिलक तथा महादेवी की रवींद्रनाथ ठाकुर की मृत्यु पर रचित कविताएँ शोकगीति की फोटि में आती हैं। किंठु एक दो जिस पृष्ठभूमि में छायावाद का जन्म और पल्‍लवन हुआ उसमें कवियों के मनस्तत्व में ऐकांतिक औ्रोर व्यक्तिनिष्ठ अतिनिबिड दुःख फो उसकी तीज्ता में अनुभूत करने की प्रवृत्ति के बीज नहीं थे ओर दूसरे ऐतिहासिक कारणों से विकास के प्रारंभिक चरणों में ही इस काव्य के राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना से संबद्ध हो जाने के फारण भविष्य की उज्वल कल्पना और शआशाओं के स्वस्थ स्वर उभरने लगे थे, फलतः शोफ फा नितांत वेयक्तिक स्वर इस काव्य में विलुप्तप्राय हो गया। यही काग्ण है कि मुलतः 'एलिजिश्राक' छंद विशेष से संबद्ध, किंतु वतमान रूप में केवल अंंत्येष्टि . गीत अथवा मत्युजन्य शोकोद्गार को व्यक्त करनेवाली विश्युद्ध शोकगौति (एलेजी) २८६ द हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास संपूर्ण छायावादी काव्य में केवल 'सरोजस्मृति” ही है। इसमें भी शोफगीति के लिये अपेक्षित संज्ञिप आकार, संयत भावावेगपूर्ण शैली, काबशिकता तथा सहज एवं निश्छुल अभिव्यक्ति श्रादि लक्षण तो हैं, किंतु अंग्रेजी को शोकगीतियों के समान इसकी परिणति दार्शनिक चिंतन में नहीं हुईं है । चतुदंशपदी ( सॉनेट ) : छायावादी कवियों ने अपने पूर्ववर्ती हिंदी कवियों की ही माँति सॉनेट-रचना में प्रायः चोदह पंक्तियों का प्रतिबंध ही स्वीकार किया है; श्रंग्र जी सानेट के खंडविभाजन तथा लय॒ए.॑ अंत्यक्रम-व्यवस्था श्ादि की अधिकरांशत: उपेक्षा ही कर दी है। यद्यपि छायावाद में अ्रंप्रेजी सॉनेट के विभिन्‍न रूपों में से शेक्सपीरियन सॉनेट” का तीन चतुष्पदियों तथा एक युग्मक के रूप में खंडाविभाजन अधिक लोकप्रिय हुआ, तथापि इन कवियों ने अ्रपनी चत॒दर्श- पदियों में प्राय: चतुष्पदियों और युग्मक का क्रमविपयय कर दिया है। इन चतुदंशपदियों में भाव की अपेक्षा चिंतन एवं फल्पनातत्व अ्रधिक प्रबुद्ध है। आद्यंत एक ही कब्पनाप्रेरित मुल माव अथवा विचार से अनुप्राणित होने के फारण ये परध्पर गुंफित विभिन्न बिंब एवं चित्रों से सुसज्जित हैं। आत्मतत्व तथा स्व॒र- व्यंजन-मेत्री पर आधृत आंतरिक संगीत और अंत्यानुप्रासपुष्ट संगीतात्मक लय आदि गीतिततों से युक्त होने के कारण इन चठुदशपदियों की प्रगीतात्मकता असंदिग्ध है। इस काव्य में चतुदशपदी की रचना केवल स्फुट रूप में ही हुई है निबद्व या अंखलाबद्ध चतुदशपदियाँ इसमें नहीं मिलती | संक्षेप में, छायावादी कवियों को अंत्यक्रम एवं लयसंयोजना-संबंधी अनेकानेक सफल एवं मौलिक प्रयोगों द्वारा इस क्षेत्र में अद्भुत सिद्धि प्राप्त कर लेने पर मी 'सॉनेट्कार! की संज्ञा. नहीं दी जा सकती, क्योंकि मात्र प्रगीतरचना फी एक विशिष्ट शैली के रूप में ग्रहीत 'चतुदशपदी” इस काव्य फी सर्वप्रमुख प्रगीतविधा नहीं है; छायावाद के प्रारभिक चरण में लोकप्रिय इस शेंली के प्रति इन फवियों के श्राकर्षण फा क्रमिक हास इस तथ्य का प्रमाण है । गीत ( साँग ).: अ्रंग्र जी से सांग फी रचनापद्धति से संप्रेरित होकर छायावादी कवियों ने मी परंपरागत पदशैली, बँगला गीतों की शेली तथा उदू की गजल, कोंमी नगर्मों और उदू .जज्म की रूपसंगठना, शब्दयोजना एवं लयनिपात आदि को दृष्टि में रखकर शास्त्रीय संगीत में निबद्ध गीतों फी रचना की | गीत के विभिन्‍न प्रभेदों की दृष्टि से छायावाद के अधिकांश गीतों का सायास अलंकृत एवं समृद्ध शिल्प लोकगीतों के सहज, श्रनगढ़ ओर पग्राम्य शिल्प से नितांत भिन्‍न है। अ्तएव इनके कल्पना एवं शिव्पवैभव को लक्ष्य करते हुए इन्हें परिष्कृत लोकगीत कहना भी उचित नहीं है। यद्यपि निराला, महादेवी ओर माखनलाल चतुर्वेदी के अनेक गीतों पर कजली, फाग जैसे [ साग १०) काथ्यशिक्षप २८७ लोकगीतों फी मूल भावना, शब्दरचना, लय तथा शैंली का प्रभाव अत्यंत स्पष्ट है, तथापि उनके छुंदविधान, शब्दसंयोजन, वाक्यर्भगिमा आदि शिल्पोपकरणों की समृद्धि एवं रमणीय कढपना के उन्मेष फो देखते हुए उन्हें लोफगीतों की शैली में रचित कलागीत मानना ही तकसंमत है। प्रसाद, पंत, निराल) महादेवी और रामकुमार वर्मा इस काव्य के प्रमुख गीतकार हैं। 'फरना)। 'लददर', “गीतिका', धगीतगुंज', 'पल्लव”, ध्गुंजन “नीरजा?, व्सांध्य गीतः और 'दीपशिखाः आदि छायावाद के उत्कृष्ट कलगगीर्तो के प्रमुख संग्रह हैं। इनके अनेक गीतों में शास्त्रीय स्वरसंगीत का कुशल विधान हुआ है । कलागीतीं की रचना में सर्वाधिक सिद्धि निराला और महादेवी ने प्राप्त की ई। इन्होंने संगीतशास्त्र और छुंदशास्त्र पर आधारित वर्णमेत्री, लय, नाद, ताल तथा स्वरमैत्री की शत शत नवीन संयोजनाएँ प्रस्तुत की हैं। मूल प्रेरणा की दृष्टि से छायावाद के ये फलागीत अंग्र जी के रोमांटिक कवियों के सांग के अत्यंत निकट होते हुए भी संगीतात्मक स्वरविधान, लयसंयोजन, छुंदयोजना तथा स्वरवूयंजन पर आश्रित 5९ैत्री. आदि की दृष्टि से सवथा भारतीय हैं और इन #वियों की नूतन एवं मौलिक सृष्टि हैं। सब मिलाकर बाह्य संगीत के कुशल विधान द्वारा गीतरचना में पूर्ण सफलता प्राप्त करने पर भी छायावादी कवियाँ फी प्रवृत्ति सहज भावगत संगीत से अ्रनुप्राशित प्रभीत की ओर ही अ्रधिक रही है। अतः ये कवि मुल्तः गीतकार न होकर प्रगीतकार ही थे । पत्रगीति ( एपिसिल ) : अंग्रेजी काब्य फी प्रगीतरचना फी पत्रात्मक शैली के प्रति छायावादी कवियों ने विशेष अ्रमिरुचि प्रदर्शित नहीं की । संपूर्ण छायावादी काव्य में केवल दो पत्रगीतियाँ लिखी गई--नियला का “महाराज . शिवाजी का पतन्र' तथा हिंदी के सुमनों के प्रति पत्र'। इनमें से महाराज शिवाजी का पत्र केवल निराला अथवा छायावाद की दो नहीं, प्रत्युत संपूर्ण हिंदी काव्य की सर्वश्रेष्ठ पत्रगीति है। निराला का शिवाजी के व्यक्तित्व से पूर्ण तादात्म्य हो जाने के कारण शिवानी की ओर से लिखी जाने पर भी इसंफी शेंली तट्स्थ एवं वस्तुमुखी न होकर कवि के आ्रात्मतत्व से मुखरित है। व्यंग्यवक्रता तथा ताकिकता इसकी शेत्ली की विशिष्टता है | वार्तालाप की प्रश्नोत्तरशेली ने इसकी शेंली में सुदीघ कथोपकथन के समान सहजता एवं सजीवता उत्पन्न कर दी है। “हिंदी के सुमरनों के प्रति पत्र' में वे पत्रगीति के विशुद्ध रूप की रक्षा नहीं कर सके हैं। संबोध्य एक व्यक्ति के स्थान पर व्यक्तिसम्‌ह होने के कारण पत्रगीति के आवश्यक तत्व ऋत्मीयता का इसमें समावेश नहीं हो सका है। कितु फिर भी, छायावाद की एकमात्र पत्रगीति ही उसकी गोरवबूदिध में पूर्णतः सफल हुई है, इसमें सं देह नहीं । २८८ द हिंदी साहित्य का बृंहत्‌ इतिहास निबद्ध गीत ( गीतब॑ध ) ; ( आँसू) काव्यविधा छी दृष्टि से प्रसाद का आँसू! कवि का सवथा मौलिफ एवं नूतन प्रयास है। पूर्वापर-प्रसंग से निरपेक्ष छुंदों में रचित होने के फारण इसमें मुक्तक', मलभूत तत्व की दृष्टि से “प्रगीत', किंठु मल्ल प्रभाव की अ्रन्विति एवं भावों के क्रमिक विकास की सुसंबद्ध योजना के कारण “प्रबंध! का श्रम हो सकता है। इन परस्पर भिन्‍न काव्यरूपों के विभिन्‍न तत्वों के मिश्रण ने इसे एक विशिष्ठ.. 9 . रूपाकार प्रदान कर दिया है। प्रगीत काव्य के मूल एवं अनिवार्य तल्वों सेसंयुक्त....#. |] होने के फारण आँसू” फो आत्मा मुक्तक की श्रपेक्षा प्रगीत की है, कित साथ ही । उसमें वर्शित भावों की क्रमबद्ध योजना एवं श्रन्वित प्रभाव के कारण निबद्धता भी है । निष्कर्ष रूप में आँसू! अपने संपूर्ण रूप में विशुद्ध प्रगीत न होते हुए भी प्रबंध की अ्रपेज्ञा प्रगीत के हो अधिक निकट है--क्योंकि एक तो, इसकी पृष्ठभूमि में "यूरसागर! तथा तुलसी फी “कवितावली”, “रामाज्ञा प्रश्न', बरवे रामायण! आदि रामकथा-कार्व्यों की भाँति कथा का प्रत्यक्ष आधार विद्यमान नहीं है ( प्रबंधसूत्र के अत्यंत क्षीण होने पर भी केवल मुल भाव की अन्विति के आधार पर उसे प्रबंधकाव्य! की फोटि में स्थान देना उचित न होगा 9 दूसरे किप्ती कृति के काव्यरूप का निर्णायक्न उसका रूपाफकार न होकर श्रात्मा है, अतएव समग्रतः आँसू? को केवल प्रगीत न कहकर “निन्रद्ध गीतः कहना अधिक समीचीन होगा | इस प्रकार दो सर्दथा विपरीत विधाओं के मिश्रण का यह प्रयास सबंधथा अभूतपूर्व न होता हुआ भी मौलिक, नूतन एवं कलात्मक अ्रवश्य है--इसमें विवाद के लिये अवकाश नहीं है। बच्चन की “'मधुशाला? आदि परवर्ती कृतियों के रूपाकार पर भी इसका किंचित्‌ प्रभाव दृष्टिगत होता है। ( ख ) छायावाद के निबदूध अथवा प्रबंध काव्य छायावादी कवि, जैता कि कहा जा चुका है, मूलतः प्रगीतकार थे, अतः वे प्रबंधबस्वना में भी जीवन के व्यापक चित्रण की श्रपेक्षा श्रात्माभिव्यंजन फो ब्यापक आधारफलक प्रदान करने की प्रेरणा से ही प्रद्ृत हुए । इसी कारण प्रबंध के. अंतर्गत उन्होंने न केवल विभिन्‍न काव्यविधाओं के तत्वों के मिभ्रणु की पद्धति ही . अपनाई, अपितु बाह्य घटनाविधान के प्रति आग्रह, बहिम्ुंख वस्तुपरक दृष्टिको आदि प्रबंध के अन्य तत्वों फा भी अ्रतिक्रमणु किया । रूपविधा की दृष्टि से छाया- बाद के प्रबंधकाव्य ( १ ) लघु आख्यानक प्रबंध, ( २) नास्यकाव्य, (३ ) खंड- फाब्य, ओर ( ४ ) महाकाव्य-- इन चार उपवर्गा में विभक्त किए, जा सफते हैं । छायावाद में रूघु आख्यानक प्रबंध भी चार रूपों में उपलब्ध हैं-- [ भाग १० ] काव्यशिल्प ः | र्‌८ ९्‌ ( के ) लघु पद्मत्रदूध कथा, ( ख ) फथाकाव्य, ( ग ) आख्यानक गीति, तथा (घ ) लघु वीरकाव्य | प्रसाद के चित्राघार! तथा 'काननकुसुम? में संकलित “अयोध्या का उद्धार, वनमिलन', प्रेमराज्य', “चित्रकूट”, भरत”, (शिल्पर्सोदय?, “कुरुक्षेत्र” तथा “वीर बालक! शीष्क फथात्मक कविताएँ लघु पद्यबद्ध कथाक्ाव्य की फोटि में आती हैं जिनसें द्विवेदी युग की इतिद्त्तात्मक प्रवृत्ति की प्रेरणा से फतिपय पोराशिक तथा ऐतिहासिक प्रसंगों को पद्मबद्ध किया गया है | प्रसाद के 'प्रेमपथिफः में मी इन लघु पद्यवद्ध कथाओं की समाख्यानशेली का ही विकसित रूप दृष्टिगत होता है। इस काव्य में फथा का विकास अधिकतर रुंवार्दा के द्वारा ही हुआ है। इसके श्रतिरिक्त स्वप्न द्वारा कथाविकास की नूतन शिल्पविधि के प्रयोग से भी शेली में नाय्यतत्व का तो थोड़ा बहुत समावेश अवश्य हुआ है, किंतु अंतःसंघर्ष की तौत्रता, सक्रियता, घनत्व तथा कथाविकात में अप्रतिहत वेग आदि गुण यथोचित मात्रा में समाविष्ट नहीं हो सके हैं। सब मिलाकर आकार की अपेक्षाकृत विषुलता, समाख्यान-शेली में नास्यगुण का संनिवेश तथा गीतितत्व फा अभाव शञ्रादि विशेषताओं फो लक्ष्य करते हुए. प्र मपथिक' को “लघु पद्मबदूघ कथा” अ्रथवा श्राख्यानगीति' की अ्रपेक्षा कथाकाव्य' की संज्ञा प्रदान करना ही अधिक समीचीन होगा। परंतु उप्युक्त सभी कृतियाँ आलोच्य फाल से पहले को रचनाएं हैं, अ्रत: यहाँ उनका विवेचन संगत नहीं होगा । द पंत की “प्रंथि', “उच्छ वास” और “आँसू! तथा प्रसाद फी ध्पेशोला की प्रतिध्चनि! आदि गीतियाँ आख्यान और गीतितत्व के संमिश्रण के कारण आख्यानगीतियों की कोटि में आती हैं। प्रगीततत्व का प्राचुय और आखूयान- तत्व की क्षीणता इनके समग्र रूपाकार फो अंग्रजी 'बैलेड' के परंपरागत रूप से . विशिष्टता प्रदान करती है। छायावाद की इन आख्यानगीतियों की प्रमुख शैली छायावादी काव्य की रम्यादूसुत उपकरणों से अलंकृत प्रगीतात्मक शैली ही है जिसमें कहीं कहीं ग्राख्यानतत्व के निर्वाह के लिये वर्णनात्मकता का आश्रय मी लिया गया है। कवियों का अंतमुख दृश्फोण, शेली की गीतिमयता तथा भावतत्व का प्राधान्य इनके प्रबंधत्व में बाधक हुआ है। संवादशेंली द्वारा .नाट्कीयता के समावेश में भी ये आख्यानक गीतवियाँ सफल नहीं हुई हैं। संक्षेप में, इन आख्यानगीतियों में छायावादी प्रबंधशिल्प के उस विशिष्ट रूप के विफासांकुरों फा प्रस्फुटन है--आख्यानतत्व की परिक्षीणता तथा गीतित॒त्व का अतिरंजन जिसका अनिवाय एवं सहज अंग है | द द १०३७ द २९७ द हिंढी साहित्य का शहत्‌ इतिहास आख्यानगीति का ही एक विशिष्ट रूप प्रसाद के प्रगीतसंग्रह 'लहर? में संकलित अशोक की चिंता, 'शेरसिंह का शस्त्रसमर्पण” तथा 'प्रलय की छाया! शीघेक आत्मसंलाप शैल्ली में रचित आख्यानगीतियों में उपलब्ध होता है। शेली की दृष्टि से इनका बहुत कुछ साम्य अ्रंग्रेजी के ब्राउनिंग और टेनीसन के 'ड्रेसेटिक मोनॉलॉग” से है। स्वगतकथनात्मक अथवा आत्मसं॑लाप शैली में आख्यान की सांकेतिक अभिव्यक्ति होने पर भी इन आख्यानगीतियों का मुल स्वर गीतिमय है, साथ ही इनमें नाव्यतत्व का भी कुशल एवं फलापूर्ण संनिवेश हुआ है। 'प्रलय फी छाया! इस स्वगतकथनात्मक नाग्फीय शेली की चरम सिद्धि' फी प्रतीक है। इसमें नाट्फीय अंतः:संघर्ष, चरम घटना, निगति और नाठफीय वेषस्य की अद्भुत सृष्टि हुई है। अलंफकरणकला एवं शिल्प फी दृष्टि से “अशोक की चिंता? की सिद्धि रोमानी कल्पनारंजित विभिन्‍न तरल-मधुर वर्णों के माध्यम से चित्रात्मक व्यंजना, 'शेरसिंह के शस्त्रसमर्पण” की फारुशिक व्यंजना से सजल ओजोद्दीत लाज्षणिक श्रमिव्यक्ति तथा प्रलय फी छाया” फी सिद्धि अ्रदूभुत रूप से सम्उद्ध संश्लिष्ट बिंबविधान में निहित है। ये गीतियाँ छायावाद के प्रवर्तक प्रखाद की मुक्त छुंदरचना में भी अपूर्वा सिद्धि फी द्योतक हैं। मुक्त छुँद की स्वच्छुंदता में भी संगीतात्मक लयमाधघुये की धुरक्षा करनेवाली इन आख्यानगीतियों का गौरव छायावाद के प्रबंधशिल्प फी विफासरेखा के निदशन में न होकर उसके चरस विकास एवं समृद्धि में है छायावाद के लघु आख्यानक प्रबंधों में निराला की “रास की शक्तिपूजा? मह्वाकाब्य फी उदात्त शैली में रचित एक लघु आफार की काव्यकृति है। रूपविधा की दृष्टि से महाकाव्योचित उदात्त एवं प्राणबंत शैली में राम के जीवन के केवल एप ही महान्‌ प्रकरण फो काव्यबद्ध करनेवाली इस काव्यरचना का बहुत कुछ साम्य पाश्चात्य साहित्य में उपलब्ध मथ्यू आनंल्ड के “सोहराब रुस्तम” आदि लच्य वीरकाव्यों' ( दीरोइक पोएम्स ) से है। स्पष्ट ही है कि इस काव्य की प्रसुख शैली महाकाव्य की उदात्त शैली ही है--नाट्कीय घनत्व, आकस्मिकता, वषस्य, सक्रियता, श्रप्रतिहत वेग, फोतूइल, चरम घटना, नाटफीय दृश्यविधान अशदि नास्यगुण उसी श्रौदात्य की सृष्टिहेतु साधक रूप में समाविष्ट हुए हैं। घटनाओं का विराट और विशद्‌ फलकाधार उसे अनुकूल वातावरण प्रदान फरला है । अ्रमिव्यंजनाफोशल की दृष्टि से इस कविता की चरम सिद्धि विराद चिओं के ओजस्वथी अंफकन में है। समग्र रूप में, अंग्रेजी के महाकाव्यात्मक आख्यानक काव्यों अ्रथवा लघु वीरकफाव्यों से पर्यात साम्यः होते हुए भी राम की 'शक्तिपूजा? निराला की मौलिक एवं नूतन प्रातिम सृष्टि तथा छायावादी फलणिता की एक श्रत्यंत महत्वपूर्ण उपलब्धि है। 28: [ भांग १० ] काव्यशिल्प क्‍ ३ ९ १ नाव्यकाव्य यां काॉव्यरूपक फाव्य, गीति और नास्यतत्वों के मिश्रण के विभिन्‍न अनुपातों को लक्ष्य फर छायावाद के नाव्यकाब्यों को दो रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है-- नाटकीय कविता तथा गीतिनास्य | अंग्र जी के ब्राउनिंग आदि कवियों की नाख्यकविताओं की प्रेरणा से प्रसाद ने नाव्यशेली में महाराणा का महत्वः तथा निराला ने “प॑ंचवर्ीप्रसंगः की रचना की | इनमें सम्रृद्ध काव्यतत्व के प्राचुर्य ने नास्यतत्व को आच्छादित फर लिया है। महाराणा का महत्व' का प्रकाशन सन्‌ १६१७ में हुआ था, फिर भी प्रस्तुत विवा की प्रारंभिक कृति होने के कारण इसकी उपेक्षा नहीं फी जा सकती | इसमे नाय्यशेली का उत्कर्ष “पंचवटीप्रतंग!” का अपेक्षा अधिक इष्टिगत होता है। यद्यपि दोनों ही कविताओं में कयाप्रस्तुति की नाथ्कीय शेंली का प्रयोग हुआ है; तथापि 'महाराणा का महत्व” की घटनाओं की सी दृश्यात्मकता 'पंचवरी- प्रसंग' मे' उपलब्ध नहीं हं | किंतु “पंचव्ोप्रसंग में प्रयुक्त सामासिक शब्दावलो नाटकीय सघनता की सृष्टि में सहायक हुई हो ओर गौतितत्व भी इस कविता में ग्रपेक्षाइत अश्रधिक मुखर है । समग्र रूप मे” नाख्यतत्व इनके कवित्व का संवधक एवं साधक तत्व मात्र हें, वह इनकी अभिनेय एवं दृश्य रूप प्रदान करने में समर्थ नहीं है | प्रत्यक्ष दृश्यावधान तथा रगनिद्श का अ्रमाव इनके दृश्य की अपेक्षा पाठ्य रूप में रांचत होने का लबसे प्रबल प्रमाण है| शअ्रत३ निष्कर्षतः इनकी शेली गीतिनाद्य की शेली न होकर नाद्यतत्व मिश्रित काव्यमयो शेली हे । इन नाठकोय कविताओं द्वारा छायावादी कवियों ने छायावाद फे काव्यरूपों फे क्षेत्रविस्तार फे साथ ही हिंदी में एक नवीन काव्यरूप की उद्भावना भी को। अँग्रजी के शेली, कीट्स, बायरन आदि रोमांटिक कवियो' की प्रेरणा से प्रसाद ने 'करुणालय! की रचना द्वारा हिंदी म॑ गोति और नाव्यतत्वी' के मिश्रशु से नमित विधा गीतिनाव्य का छूतज्पात किया। पाँच दृश्यों में विभक्त होने पर भी 'कर्णालय' में नाव्कोय सक्रियता, अ्ंतद्वद्द की सघनता, अगप्रतिहत वेग, नाठकोय फॉतूइल ओर कथा की नाटकीय परिशणति आदि गुणों का प्रायः श्रमाव होने फे कारण नाख्यतत्व अत्य॑त छ्ांणु हैँ । इसके अतिरिक्त इसमें गीतिनाव्थ की _भावमयता तो है, किंतु गीतितत्व अत्यंत क्षीण हैं । अंतःसंघ् ओर समृद्ध बिंच एव प्रताफ योजनाओं से छुप्तज्जित समृद्ध श्रांभव्यंजनाशिल्‍प के श्रमाव तथा नाग्यतत्व को परिक्षोणता श्रादि अपना सम्रत्त परिसामाओ्रो क॑ साथ समग्रतः 'करुणालय' क गांतिनाव्य हो हं ऑर हिंशा का सर्वश्रथम्त गातिनाख्य हाने क॑ कारण इसका ऐतिहातिक महत्व श्रश्षुरुणु हं । इसांलिये छायावादकाल के पूर्व को रचना होने पर भी यहाँ उसका उल्लेख आवश्यक हें । | १९२ हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास आधुनिक युग में खड़बोली के कवियों की प्रबंधरचना की ओर विशेष प्रवृत्ति ने प्रबयथ के विविध नवीन एवं पुरातन रूपों के साथ ही खंडकाव्य को परंपरा को भी पुनर्जोत्रित किया | लेकिन उसके परंपरागत एवं प्रचलित रूप को ग्रहणु न कर नवचेतना के संस्पर्श से उसका नवरूपांतर किया। निराला का तुलसीदास! इसी प्रकार का खंडक.व्य है जो बाह्य रूपाकार की दृष्टि से परंपरागत बाह्याथनिरूपक खंडकाब्यों से स्पष्टतः: मिन्‍न होता हुआ भी इस विधा के समस्त मलतत्वों के समुचित एवं कुशल संनिवेश के कारण समग्रत: एक खंडकाब्य ही । एक ओर तो सांस्कृतिक पुनरुत्थान जेसा महान्‌ उद्द श्य, घटनाओं का व्यापक ग्रोजस्वी एवं विराट आकार तथा शिल्प की अ्रदभुत समृद्धि निराला के विराट... भावनाप्रवुत इस काव्य का साधारण लंबी कविता को एकांगिता से व्यावतन करती है ओर दूसरी ओर शेलीशिल्प तथा कल्ला में महाकाव्योचित आंदात्य का समावेश होते हुए भी संपूर्ण जावन की समग्र व्यापफता एवं आकार की विशदता फा झभाव इसे महाकाव्य की परिधि में नहीं आने देता । वस्तुत: तुलसी की श्रात्म- चेतना के विकास का सूक्ष्म अंतविश्लेषण प्रस्तुत फरनेवाला यह फाव्य उस महान कवि के जीवन को सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं महत्‌ घटना का संपूर्ण चित्र उपस्थित करने क फारण एफ संक्षित श्राकार का खंडकाव्य हो है। 'तुलसीदास' के संज्षित्त आकार में ही विभिन्‍न घटनाश्रों के संश्लिष्ट विधान के अश्रतिरिक्त उनके क्रमिक ._ विकास में नाट्कौोय सक्रियता, आकस्मिकता, तनाव ओर सघनता तथा आरंभ, विकास, चरम सोम, निगति, परिसमाप्ति आदि विभिन्‍न नादयस्थितियों का भी कुशल संयोजन हुआ हैँ। प्रासंगिक घटनाओं के अ्रभाव में मल घण्नाप्रसंगों का _ फेंद्रीोकरण भी कथानक में घनत्व को सृष्टि में सहायक हुआ है। घटनाओं क सूक्ष्म श्रमुत रूप को ग्रहण कर सीमित आकार में ही महद्याकाव्योचित प्रबंध एवं नावट्यफाशल की सिद्धि इस काव्य की अनुपम उपलब्धि हे | संक्षेप में, शास्त्रोय दृष्टि से खंडकाव्य को परिधि में परिगशित होने पर भी तुलसीदास” राम की शक्तिपूजा? की भाँति निराला को संक्षित आकार में महाकाव्योचित गरिमा एवं मव्यता की सिद्धि करानेवाली समर्थ कला का अत्यंत सबल प्रतीक है। छायावाद के प्रबंधांशलप की समृद्धि में इसका योगदान वर्शुनातीत है। छायावाद जैसे समृद्ध काव्य में महाकाव्यकार की विराद एवं महान प्रतिमा का उन्मेष केवल प्रसाद में हुआआ। 'कामायनी? आधुनिक युग का सर्वथा नवीन ओर अभूतपूर्व प्रयोग होती हुईं भी महाकाव्य के समस्त महत्तत्वों से समन्वित है। 'कामायनी? की रचना श्राद्यंत रूपकात्मक शेली में हुईं है। कवि के अंतमु ख॒ दृष्टिकोण, स्थूल भौतिक कथा की अपेक्षा विचारतत्व का प्राधान्य तथा ग्रगीतात्मक संस्पर्शों के कारण इसका साम्य बाह्यार्थनिरूपक महाकाव्यों ([ भांग १० ] द काव्यशित्प ३९३ फी अपेक्षा मिल्टन के 'पैराडाइज लॉस्ट”, टेनीसन के “इडिस्स ऑफ द किंग, हार्डी के '*द डाइनेस्ट्स' तथा ब्राउनिंग के 'द रिंग ऐड द बुडा” आदि ऋंग्र जी के आधुनिक अलंकृत अथवा साहित्यिक महाकाव्यों से है। 'कामायनी? में परंपरागत महाकाव्यों के सहश बड्जीवन की व्यापकता, अनंत विस्तार, वेविष्य ओर घनत्व फा अभाव इसके कथानक में गरिमा ओर ओंदात्य का निषेध नहीं करता । इसको घटनाएं ध्वंसात्मक एवं रचनात्मक दोनों दृष्यियों से महान्‌ हैं। प्रलय एवं युद्ध जैसे विराट प्रसंगों में अग्रतिहत वेग, त्वरा; मह्यप्राणता, दुदम ओोज तथा सघनता का अत्यंत कुशल संनिवेश हुआ हें। 'कामायनी? की शैली रूपकात्मक तथा प्रगीतात्मक तत्वाँ से निमित ह। इसमें भावप्रवणुता, भावो« च्छु वास, भावावेंग आदि के रूप में प्रगांत के प्राश॒तत्व का प्रांतेष्ठा हुई है, साथ ही इसमें प्रत्यक्ष गोतों को भी योजना हुई ई जो गीतिकाव्य को विशेष विभूति हैं । इस काव्य फी शैली में जावन क मघुर - विधट, कोमल तथा भव्य-- दोनों विरोधी पक्षों ओर मन की सूक्ष्म से सूक्म तथा उदाच से उदात्त मनःस्थितिर्यों को चित्रित करने की अद्भुत क्षमता है। शेत्री का अलंकरण एवं समृद्धि मी उसे ऋसाधारणु रूप प्रदान करता है। संक्तप में, परंपरा के प्रति प्रसाद का अंध श्रद्धा न होने के कारण 'कामायनो” में भारतीय तथा पाश्चात्य लक्षणों का शतश: निर्वाह खोजना व्यथ हूँ, तथापि महाकाव्यों के समस्त महच्त्वों क् सम्यक्‌ समावेश के कारण यह इति निस्संदेह इस गोरव की अ्रधिकारिणी है । निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि छायावाद के उक्त काव्यरूपों का प्राशुतत्व प्रगीत हं-- इसके समस्त काव्यरूपों का अ्भिव्यंजनाशिल्‍प प्रगीततत्व से हा अनुप्राशुत है। कावग्यप्र्तिमा का प्रोढ़ि क साथ साथ इसका प्रगीतात्मकता से प्रबंधात्मकता की ओर क्रमिक विकास हुआ ओर इसके प्रबंधशिल्‍्प को समृद्ध फा उच्चतम शिखर “कामायनी? है। छायावाद का फाव्यभूमि प्रगीत जेंसे आऑनिबद्ध . काव्यरूप से आरंभ होकर विभिन्न लघु॒प्रबंध एवं नाट्यरूपों तक प्रसुत होता हुई काव्य के भव्यतम रूप महाकाव्य तक वस्‍्तुत हो गई । प्रग्मीतकाव्य की सामाबद्ध परिधि में काव्यरूपगत इस वैविध्य का उपलब्धि छायावादी काव्यांशल्प के अपूर्व उत्कष का प्रमाण हैं । छायाबाद को भाषा काव्यभाषा के रूप में खड़ांचाली हिंदी का उत्कर्ष छायावाद की महत्वपूर्ण उपलब्धि है। द्विवेदी युग खड़ीबाली क॑ रूपनिर्वारण का युग था, उसे व्याकरण- संमत परिमार्जित एवं परिष्कृत रूप देने में हो उसको [संद्धष ई । प्रेमचंद ने खड़ीबोली को जनजीवन फो सजोवता प्रदान को, किंतु इस ज्षेत्र में कवि के २९४ ... हिंदी खाहित्य का बुंदत्‌ इतिददास विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए, विज्वुद्‌ध सोंदर्यनिष्ठ रसहृष्टि से खड़ीबोली के फाव्यमाषा के रूप में संस्कार का श्रेय छायावादी कवियों फो हो है । प्रसाद को छोड़कर छायावाद के शेष समी कवियों ने निरपवाद रूप से खड़ीबोली में काव्यरवना की, अतः छायावाद की फाव्यमाषा विशुद्ध साहित्यिक खड़ीबोली है। यह युग ब्रजभाषा ओर खड़ीबोली के मध्य प्रतिद्वंद्विताजन्य आंदोलन का युग था। इसीलिये प्रसाद फी ब्रजमाषा भी रीतिकालीन काव्य को भाषा की श्रपेज्ञा उनकी अ्रपनों भाषा की प्रकृति के अनुकूल है। ब्रजमाषा के शब्दशिल्पी कवि संस्कृत के तत्सम शब्दों को प्रायः ब्रजमाषा की प्रकृति के अनुरूप दालकर ही प्रयोग में लाते थे, किंतु प्रसाद की ब्रजमाषा की रचनाए संस्कृत शब्दों के तत्सम रूप में प्रयोग के कारण उनकी विशिष्ट भाषा के स्वरूपनि्धारण में विशेष रूप से सहायक हैं, उदाहरणार्थ : ' ऐराबत करि कुंध अरुण - सिंदूर - विभूषित । सम लखात ग्राचा में तरशणि-विश्व अरुणांचित ॥” संस्कृत के तत्सम शब्दों, दीध समासों तथा स्वर की संधि पर आश्रित यह विशाल शब्दयोजना ब्रजमाषा के पदलालित्य एवं मसुणता के अनुकूल नहीं है। वस्तुतः यह भाषा छायावाद कौ काव्यभाषा के स्वरूपनिर्माण में भूमिका फा कार्य करती है। शरनें: शने: खड़ीबोली के निरंतर वर्धमान प्रभाव ने प्रसाद फो भी ब्रजभाषा के मोह से मुक्त कर दिया । ब्रजमाषा के शब्दवयन, पदविन्यास, अ्रभिव्यंजना की मंगरिमाशं और छुंदयोजना आदि सभी के रुढ़िग्रस्त एवं चमत्कृतिशुन्य हो जाने के कारण भारतेंदुयुग के उत्तराध से हो खड़ीबोली में काव्यरचना के ज्ञाणु प्रयास आरंभ हो गए थे द्विवेदी युग में उनके प्रसार के साथ ही भाषारूपों में परिष्कार, परिमार्जन एवं स्थिरता की ठिद्धि हुईं, हरिश्रोध आदि कवियों ने खड़ीबोली के शब्दमांडार फो व्यापक बनाने का प्रयास किया, किंतु उनकी तत्समबहुल भाषा में खड़ांबोली फा निसग रूप लुप्त हो गया । गुप्त जी फी भाषा में रसाद्र ता ओर रमणीयता का संचार अवश्य हुआ, किंतु उसमें मा कहीं कहीं लोकजीवन से संबद्ध ग्राम्य शब्दावली माषा की गरिमा एवं समृद्ध में बाधक हुई है। छायावाद में काव्यमाषा की समृद्धि का मूल रहस्य इस वग के कवियों द्वारा शब्दों के नूतन विन्यासक्रम में निहित है । शमी मकर कु .. जयशंकर पसाद, 'चित्राधार' ( बश्रूवाहत ), १० ३५ । [ भाण १० ] काव्यशिर्प ः श्र ( के ) काव्यसाषा का स्वरूप : शब्द्संयोजन : भाषा में श्रुतिमाधुय, लालित्य एवं मस॒ण॒ता की सृष्टि तथा शब्दभांडार की समृद्धि के लिये छायावादी कवियों ने अनेक प्रकार को शब्दयोजनाओं का आ्राश्रय लिया जिनमें से प्रमुख हैं: पूर्वविद्यमान संस्कृत के तत्सम, तदूभव, देशज और विदेशी शब्दों का नवीन संदर्म में नूतन विन्यास एवं संयोजन तथा नवशब्दों का निर्माण | छायावाद की काव्यभाषा का शब्दकोश परिमाण फी दृष्टि से सर्वाधिक संस्कृत के तत्सम शब्दों से निर्मित है। पुनरुत्थानकाल में बैंगला, गुजराती, मराठी आदि अन्य मारतीय भाषाओं की भाँति हिंदी में भी संस्कृत -के तत्सम शब्दों के पुनसत्थान एवं नवसंस्कार का फाय प्रारंभ हुआ। हिंदी से पूर्व बैंगला में रवींद्रनाथ तथा माइकेल मधुसूदन दत्त जेंसे सिद्घ कवियों ने फालिदास आदि सौंदर्यलष्या कवियों के तत्सम शब्दों को नूतन भावसंस्पश से जीवंत रूप प्रदान किया, हिंदी में भी आचाय द्विवेदी और हरिश्रोध अदि ने इस ओर ध्यान दिया, किंतु छायावादी कवियों के पदविन्यास के मूल में बंगला के रवींद्रनाथ आदि की पदावली का संस्कार अ्रधिक है। इन्होंने संस्कृत के तत्सम शब्दों को पुनर्जीवित कर उनमें नवीन अर्थशक्ति का संचार प्रमुखत: चार रीतियों से किया--( १ ) तत्सम शब्दों के नवीन विन्याशप्तक्रम तथा नतन भंगिमा द्वारा छायावाद के कवियों ने उनमें अदभुत चमत्कार तथा नवीन अर्थव्यंजकता उत्पन्न कर दी, उदाहरणाथ ; चौंकी निद्वित रजनी अ्रलसित श्यामल पुलकित कंपित कर में . दमक उठे विद्यू त्‌ के कंकण ॥ ' द्विवेदीयुग फी कविता में जहाँ इस प्रकार के तत्सम शब्द किसी बिंब अथवा .. रमशीय वातावरण फी सृष्टि में स्ंथा अ्रसमथ हैं, वहाँ छायावादी कविता में प्रयुक्त इन शब्दों का वशिष्ट्य ही एक संमोहक वातावरण श्रथवा बिंबसूष्टि द्वारा चित्तचमत्क्ृति में निहित है । छायावादी कवियों ने संस्कृत के तत्सम शब्दों में नवीन संजीवन शक्ति का संचार ( २) उनको सामासिक रूप तथा ( ३ ) स्वससंधि के आधार पर विशाला- कार प्रदान करके भी किया है। निराला इस विद्या में विशेष सिद्धइस्त हैं, उनकी कविता से एक उदाहरण प्रस्तुत है--- * महादेवी वर्मा, 'यामा' ( नीरजा ), १० १०२ । २९६ ... हिंदी साहित्य का बदत्‌ इतिहास ग्राज फा, तीद्ष्ण-शर-विधृत-क्षिप्रकर, वेग, प्रखर, शतशेलसंवरणशील, नीलनमगर्जित-स्वर ****** आदि द शब्दों का यह सामासिक प्रयोग युद्ध के सघन वातावरण तथा क्रिया- ब्यापारों की विद्यत्तसम त्वरा की मर्त एवं सचित्र व्यंजना में अद्भुत रूप से सक्षम है। इसी प्रकार 'ग्रीवालिंगन”, “्तमसाकार” तथा ध्वपलानंदित'* जैसे शब्द धआ फी संधि द्वारा क्रमशः ग्रालिंगन की प्रक्रिया, मेधाउछुन्न आकाश की विफरालता तथा बिजली की कौंघ से चमकते हुए गगन की पूर्ण व्य॑ंजना करते हैं । क्‍ (४) अप्रचलित प्राचीन एवं आषे शब्दावली का प्रयोग छोयावादी कवियों में, विशेषतः प्रसाद के फाव्य में मिलता है। प्राचीन मारतीय संस्कृति के प्रति उत्तट मोह ही उनके काव्य में ध्य्रवभ्रथ स्नान!, 'पुरोडाश”, “वैखानस', “तिमिंगल' जैसे प्राचीन आर शब्दों के प्रयोग के लिये उत्तरदायी है। निराला ने भी यत्र तत्र 'पुरश्चरण' जेसे सांध्कृतिक शब्दों का प्रयोग किया है। संस्कृत के इन व्यंजनागमित तत्सम शब्दों के बाहुल्य ने छायावाद की काव्यमाषा को वेमव एवं समृद्धि के साथ ही जीवन के मधुर और विराट दोनों विरोधी पत्षों एवं भावों की समान फोशल से सशक्त अभिव्यंजना की सामथ्यं तथा असाधारणता प्रदान की । बा संस्कृत के तत्सम शब्दों के अतिरिक्त छायावाद' की भाषा में नकना (कण 'नखता ( नक्षत्र ), लाज! (लज्जा ), 'साँक! (संध्या), ध्छुरः (स्वर ) सूना? ( शुन्य ), सूखा! ( शुष्क ) जैसे तदूभव, “दोनान”, 'ठिठोली”, “हुलास! कोर, ठोर', '"हहर', बोर?, 'मरोरः, 'पाहने! आदि प्रादेशिक भाषाओं के देशज तथा ८दाग?, 'नशा', “मतवाली', “बेताब”, 'ऐयाश?, याद, ध्नादाना जालिम! जेसे उद भाषा के विदेशी शब्दरूपों का भी मिश्रण है। छायावाद के निराला फो छोड़कर अधिकांश कवियों की प्रवृत्ति तद्भब तथा देशज शब्दों की श्रोर पेन्ञाइत अ्रधिक रही है, किंतु निराला के काव्य में आस्तीन!, 'गुलसिता', ध्याँ? सद्ृश विदेशी शब्दों का मिश्रण अपेक्ञाकृत श्रधिक है । _* सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला? अभ्रनामिका? ( राम की शक्ति पुजा ), १० १४७-। सुमित्रानंदन पंत, 'पललव”, (अ्नंग), १० ७१--'सारस के मदु ग्रीवार्सिंगन । ३२ उपरिवत्‌, मौन निमंत्रण”, १० ४७७-गरजता है जब तमसाकार । सूयकां त त्रिपाठी “निराला',वतुलसीदास”, छं० सं० ७५, पृ० ४८-चपल्ञानद्त बहु सघन गगन” | [साग १०] . काव्यशिल्प क्‍ २९७ प्रचलित शब्दों में नवीन अर्थगर्मिता उत्पन्न करने के साथ ही छायाबादी कवियों ने अनेक विधियों से अनेकानेक नवीन शब्द गढ़कर अ्रपने शब्दशिल्पी होने का प्रमाण प्रस्तुत किया। इस प्रकार की नृतन शब्दयोजना के अंतर्गत सर्वाधिक संख्या प्रचलित तत्सम एवं तदूभव शब्दों में प्रत्यय के योग से निर्मित 'फेनिल!, 'रंगिणि!, स्वष्निलः; स्वर्णिम!) 'स्वरित', 'धघूमिलः, 'कलियाई! आदि शब्दरूपों की है। इसके श्रतिरिक्त अंग्रेजी के ( विशेषतः रोमांटिक कविता में प्रयुक्त ) शब्दों की श्रर्थच्छाया को ग्रहण करते हुए उनके रूपांतरणु की प्रविधि--- उदाहरणार्थ पंत के बहुचचित “अ्रजान! ( इनोसेंट ), स्वर्णिम! ( गोल्डन ) 'सुनहला स्वप्न! ( गोल्डन ड्रीम ), 'ंद्विल! ( ड्राउजी ) श्रादि शब्द इसी प्रफार के हैं तथा स्वरसंधि के आधार पर “मदिराभा', “कल्मषोत्सार', 'स्वप्नोत्पल?, 'शब्दोच्छुल', 'मदिरालस! जेसे नृतन शब्दनिर्माण की रीति के आश्रय से भी इन कवियों ने अ्रपने शब्द्रभांडार फो विस्तृत बनाया । इस काव्य में कुछ शब्दों का नवीन अ्रथ में ग्रसाधारण एवं विलक्षण प्रयोग भी मिलता है, उदाहरणाथ बेगुनः, आराक्रीड़', मायाशया, भावितः आदि शब्द क्रमशः गुणहीन ( बे! अर्थात्‌ बिना--उदू फा शब्द हैं और 'गुन' संस्कृत “गुण” का तद॒पव रूप ), क्रीड़ांगण, मायाभिभूत और द्रवित के अथ में प्रयुकत हुए हैं।... संक्षेप में, छायावादी कवियों ने संस्कृत के तत्सम, तदूभव, देशन और विदेशी शब्दरूपों के अ्रतिरिक्त अनेक नवीन शर््दों का निर्माण कर काव्यमाषा को व्यापकता एवं समृद्धि प्रदान की जिससे भाषा में अथव्यंजकता की सृष्टि स्वतः हो गई। शब्दचयन तथा पदविन्यास॒ में इन कवियों फी दृष्टि मूलतः: रुमणीयता ए4ं लालित्य पर ही केंद्रित रही है जिसका साधक तत्व है--श्रसाधारणता या वेचित््य अर्थात्‌ लोक में प्रचलित शब्दावली से भिन्‍न शब्दों का सुंदर विन्यास। यद्यपि छायावाद के प्रत्येक कवि ने शब्दचयन एवं पदविन्यास अपनी विशिष्ट रुचि के अनुकूल फिया है, तथापि समग्र रूप से छायावादी काव्य के शब्दसंयोजन पर _ एक ओर अंग्र जी के वड सवर्थ, कॉलरिज, शेली, कीटद्स, बायरन, टेनिसन आदि रोमांटिफ कवियों के शब्दबयन एवं ध्वनिब्रोध तथा दूसरी ओर बँगला के रवींद्रनाथ की शब्दयोजना का न्यूनाधिफ मात्रा में प्रभाव स्पष्ट ही है। प्रत्येक छायावादी कवि फो कुछ विशिष्ट शब्दों से मोह भी रहा है। छायावादी कवियों की दृष्टि में भाषाप्रयोग का निर्णायक तत्व व्याफरशिक नियम न होकर शब्दों का मुलवर्ती भाव अथवा राग है। उन्होंने इस क्षेत्र में फवि के विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए व्याकरण के मान्य एवं स्वीकृत नियर्मो में स्वेच्छानुकूल परिवर्तन करने का अदूमुत साहस. १०-रै८ र्श्८ क्‍ .... हिंदी साहित्य का बहत्‌ इतिहास किया । पंत के काव्य में पप्रमात!, अनिल! आदि शब्दों; निराला के फाव्य में 'स्वप्न', 'गात'! तथा प्रसाद के काव्य में बीज”, “नशा! आदि पुलिंग शर्ब्दों फा स्त्रीलिंग में प्रयोग इसी स्वच्छुंद प्रवृत्ति का ग्रोतफ है। व्याकरण की दृष्टि से लिंगदोष के श्रंतगंत आ जानेवाले इस प्रकार के प्रयोगों का ओचित्य कुंतक ने 'लिग बेचित्र्यवक्रता”' द्वारा सिद्ध कर दिया है। व्याकरशशास्त्रीय नियमों से श्रसंतुष्ट . होकर शब्द और अर्थ, राग और शब्द में सामंजस्य स्थापित करने के उद्द श्य से ही इन कवियों ने व्याकरशिक नियमों का उल्लंघन किया। इसी प्रकार पंत के 'मसरुताकाश”, “प्रि आह्याद” “ज्योतिमयी” तथा निशल्ञा के काव्य में उपज्नब्ध गनिश्चलग्मण', 'तमजिज्जीवन', प्रभापूय्य”, 'तमस्तूय” श्रादि शब्द भी संधि समास- . र्ना की दृष्टि से व्याकरणुसंमत नहीं हैं। ध्मरंदा ( मकरंद ), “अ्रफाम' ( निष्काम ), 'निवल”' (निर्बल ) और “अरसंग! ( निस्संग ) आदि शब्द भी व्याफरण की दृष्टि से अशुद्ध हैं। किंतु छायावादी कवियों ने शब्दों के प्रकृत- विशुद्ध रूप में मनोवांछित परिवतन उन्हें फोमलतर रूप प्रदान करने के लिये ही किया है--यही कारण है कि व्याक्ररणसंमत न होते हुए भी इन शब्दप्रयोर्गों के द्वारा फाव्यपच्ष की हानि नहीं हुई है । समग्रतः छायावादी कवियों द्वारा स्वेच्छापूवक किया गया व्याकरशिक नियर्मों फा यह उल्लंघन एक ओर तो कवि को प्राप्त विशेषाधिकार के फारणश अआ्ाक्षेपमुक्त है और दूसरी ओर उनका कवित्व में घातक न होकर साधक होनाभी . उनकी आ्रौचित्य विषयक सभी शंकाओं फा समाधान कर देता है । ( ख ) सौष्ठव अलंकरण : रूपसज्जा भाषाविफास की दृष्टि से यदि द्विवेदी युग भाषा के स्वरूपनिर्माण का युग था; तो छायावादी युग निश्चय ही उसके अलंकरण, रूपसज्जा एवं समृद्धि का युग कहा जा सकता है। भाषा के दो प्रमुख उपकरण हैं-- नाद और अ्रथ तथा काव्य में नाद या संगीत उत्पन्न करनेवाले तत्व हैं---ध्वनि, लय और गति इन तीनों के साधक हँ--शब्द । छायावाद के अनुभूतिप्रवशणु फवियों फो विभिन्‍न : प्रकार को वरशमैत्रियों द्वारा काव्य में संगीतमाधुरी उत्पन्न करने में अद्भुत सफलता मिली है। इन्होंने अ्रनुप्राचगत वरशमैत्री तथा पाश्चात्य कवियों से प्रेरणा प्राप्त ? देखिए --डॉ० नगेंद्र : “भारतीय काव्यशास्त्र की भूमिका! (भाग २), .( आ्राचार्य कुंतक तथा वक्रोक्तिसिद्धांत--वक्रोक्ति के भेद ), पृ० २५४ । शर्त अल | भाग १० | कांव्यशिल्प द २९९ कर अ्थध्वननकारी सस्वर शब्दों का प्रयोग करते हुए. पाश्चात्य अलंकार ध्वनि- चित्र! ( ऑनोमेटोपिया ) के आश्रय से शत शत वशमैत्रियों की संयोजना द्वारा अपने काव्य को नादसोंदर्य से समृद्ध किया । छावावाद के इन संवेदनशील कवियों ने ध्वनिबोध को ही शब्दों के अर्थ का निशोयक तत्व माना । पंत ने भाषा को संसार का नादमय चित्र और ध्वनिमय स्वरूप! कहा |! इन सभी कवियों में निराला फा नादसोंदर्य का सहज बोध अप्रतिम है। उनके श्रनुसार ध्वन्यात्मक सोंदर्य से ही वर्शुयोजना में चमत्कार फी सृष्टि होती है वर्ण चमत्कार एक एक शब्द बँधा ध्वनिमय साकार ।* यही कारण है कि निराला के काव्य में शब्दसंगीत पर आधृत इस प्रकार की ध्वन्यात्मक वरणुपंगतियों के उदाइरण अ्रपरिमित हैं : नुपुरों में भी रुन कत रुन कुन रुन झुन नहीं सिफ एक अव्यक्त शब्द सा “चुप चुप चुप है गु ज रहा सब फहीं--- पदविन्यास में घ्वन्यात्मक नादचमत्फार के प्रति इस तीत्र आग्रह के फारण ही निराला की भाषा का रूप अनेफ स्थलों पर अत्यंत असाधारण हो जाता है ओर इन्हीं विचित्र ध्वन्यात्मक प्रयोगों से उनकी भाषा लोक- प्रचलित भाषाप्र योगों से बहुत दूर पढ़ जाती है। निराला के अतिरिक्त छायावाद के शेष कवियों ने इस प्रकार के श्रनुकरणात्मक शब्दों में ध्वनि को मूुर्त करने की श्रपेक्षा ऐसे सस्वर शब्दों का प्रयोग अधिक किया है जो नादसोंदय उत्पन्न करने के साथ-साथ अथव्यंजना में भी समथ हैं। प्रसाद, महादेवी, रामकुमार वर्मा . आदि ने अथव्यंजक सस्वर शब्दों के प्रचुर प्रयोग द्वारा ही. नाद्सोंदर्य की सूट की है: द क्‍ इस सूखे तथ पर छिटक छुहर की द उक्त उद्धरण में 'छिंटक छुहर! शब्द “ब्वनिचित्र' अलंकार के अंतर्गत आने- वाले अनुरणुनात्मक शब्द न होकर ऐपे शब्द हैं जो मानससंसर्ग के कारण ध्वनि .* सुमित्रानंदन पंत, 'पललव” ( प्रवेश ), १० १६ । * सयकांत त्रिपाठी 'निराला',गीतिका', गीत सं० ८७, १० ६२ । १ सयकांत त्रिपांठी (निराला', परिमल', ( संध्या सुंदरी ) पृ० ११३। ४ जयशंकर प्रसाद, लहर, १० ६ 20७ + पर है १०७ द . हिंदी साहित्य का बृंहव्‌ इतिहास मात्र से ही विशिष्ट श्रथ की व्यंजना फरते हैं, अर्थात्‌ इनकी अर्थव्यंजक शक्ति को विघ्तारसीमा केग्ल शब्दध्वनि तक ही नहीं है । कुंतक कौ वर्शवक्रता” के अंतर्गत आनेवाली अ्रनुप्रासगत वर्णावृत्तियाँ भी छायावादी काव्य में नादसोंदय उत्पन्न करनेवाले विशिष्ट प्रसाधन हैं । छेकानु- प्रास, वृत्यनुप्रास और श्रत्यनुप्रास के आश्रय से छायावादी कवियों ने व्यंजनों कर आवृत्ति से उत्पन्न मीलित मंकार द्वारा काव्य को संगीतात्मक साधुय एवं समृद्धि दान की, उदाहरण कं+णु क्वणित रशित नूपुर थे प्रसाद के काव्य में जहाँ पथक्‌ प्थक असमस्त पर्दों में प्रथुक्त वर्णों की श्रावृत्तियाँ मिलती हैं वहाँ निराला में संधि-समास-युक्त पदों में व्यंजनसंगीत की भंकार उत्पन्न फरने फी चेष्टा अधिक है: राघव-लाघब--रावशु-वारण--गत सुग्म प्रहर” इस पंक्ति के शब्दों में अंतिम व्यंजनों की आ्राइत्ति से नियोजित अंत्यानुप्रास से संपूर्ण पदयोजना में एक विशेष अनुक्रम तथा संतुलन आ्रा गया है । समग्रत: छायावादी कवियों ने काव्य में शब्दसंगीत की सृष्टि के लिये अनुप्रासगत व्यंजनमत्री की अ्रपेन्षा शब्दों के ध्वनिबोध के श्राधार पर ध्वन्यास्मक शब्दों फा संयोजन अनुपात में अधिक किया है। इस प्रकार विशिष्ट वशंगुंफन के आश्रय से ध्वन्यथव्यंजना द्वारा छायावादो कवियों ने अपने काव्य सें वर्णविन्यास वक्रता का अत्यंत कुशल संनिवेश किया । छायावादी कवियों ने शब्दसंगीत के ध्वन्यात्मक पक्ष के साधक के रूप में जहाँ अ्नुप्रासगत व्यंजनमत्री तथा ध्वनिचित्र अ्र॒लंकार का विधान किया वहाँ काव्य में लय एवं गतिसंचार के लिये लाटानुप्रास, पुनरक्तिप्रकाश तथा वीप्सागत पदावृत्तियाँ ही उन्हें अधिक उपयोगी प्रतीत हुई'। इनमें से भी मावनाओं, विचारों ओर फल्पनाओं में वेग तथा छुंद में संगीतात्मक लय एवं गति उत्पन्न करने के लिये इन कवियों ने अधिकतर पुनरक्ति का ही आश्रय लिया है उदाहरणार्थ * जयशंकर प्रसाद, कामायनी” ( चिता सर्ग ) पृ० १६। _सुयकांत त्रिपाठों “निराला', “अनामिका', (राम की शक्ति पूजा ); पृ० २४८ । [ भाग १० ] द काब्यशिल्प द रै०१ मुंक कुक » तन तन, फिर मूस मूम हँस हँस, भकोर, ला 5 न ढम कर मुहुसंहुर, तन गंध विमल बोली बेला--..! क्‍ उपयुक्त पंक्तियों में निराला ध्वन्यथव्यंजना, अनुप्रासगत व्यंजनभंकार तथा पुनरक्ति तीनों के आश्रय से चित्र की गत्यात्मकता को अद्भुत सफलता के साथ शब्दों में साकार कर देते हैं । अ्भिव्यंजना के चमत्कारपूर्ण प्रयोगों तथा उक्तिवैचित्रयथ से पराडः मुख न होने पर भी छायावादी कवियों ने अ्रल्ंकारों फो वाणी के अभिन्न अंग के रूप में ग्रहण फिया, इसी फारण श्लेष, यमक जैसे चमत्कारमलक अलंकारों के प्रति इनकी विशेष रुचि नहीं रहो, किंतु फिर भी, उनका निर्देश करना अप्रासंगिक न होगा खुलते रहते बहुवर्ण 'झुमन' अन्याय जिधर है उधर शक्ति रे उक्त उदाहरणों में सुमन! तथा “शक्ति” शब्द क्रमश: घुष्प ओर सुदर मन तथा दुर्गा देवी और सामर्थ्य--इन दो विभिन्‍न श्रर्थों में प्रयुक्त होने के कारण श्लिष्ट हैँ । अथंव्यजना अथंव्यंजना में चमत्कार उत्पन्न फरने के लिये छायावादी कवियों ने लक्षशाव्यंजना, सांकेतिक एवं प्रतीफात्मक प्रयोगों तथा चित्रात्मक व्यंजना आदि अनेक प्रकार की चमत्कारपू्ण वचनमंग्रिमाओं का आश्रय लिया | त्क्तुणाव्य जना छायावाद में अभिबा पर आश्रित स्थल एवं प्रत्यक्ष भावाभिव्यंजना फा प्रायः अमाव है। अनुभूति, चिंतन और कल्पना फी असाधारण सजगता ने छायावाद की भाषा को लक्षुणा-व्यंजना-प्रधान भाषा का रूप दे दिया है। स्वयं प्रसाद ने इस तथ्य को स्वीकार करते हुए. कहा है कि “इसी श्रथंचमत्कार का माहात्म्य है कि कवि फी वाणी में श्रमिधा से विलक्षण अर्थ साहित्य में मान्य ) सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला?, अनामिका?, ( वन बेला ), पृ० 5५८ |. * जयशंकर प्रसाद, 'कामायनी', काम सर्ग, पृ० श८ | * सूर्यकांत त्रिपाठी निराला”, “अरनामिका?, (राम की शक्ति पूजा), १० १५७। १०२ 0 दे हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास .. हुए।” ख्मावत: छायावाद के कवियों ने ग्रथवैचित्र॒य फी सृष्टि के लिये लश्ृणा . और ब्य॑जना के आअित घर्म के स्थान पर धर्मी का प्रयोग) मानवीकरणश ओर विशेषण विपयंय अ्र॒लंकार तथा संकेतिक प्रतीकात्मक व्यंजना आदि अनेक प्रफार की वचनभंगिमाओं द्वारा भाषा के अथश्राया्मों को विस्तार एवं व्यापकता प्रदान करने की चेषश्ा की, उदाहरणाथ सैकड़ों ही ब्रश्चिफों का डंक लगा एक साथ प्रलय की छाया? की यह पंक्ति; श्राजीवन दास खुसरू द्वारा सुलतान के वध का समाचार सुनकर गुजर प्रदेश की महारानी कमला को कैसी अ्रसहद्य पीढ़ाकर अनुभूति हुई, इसकी लांक्षशिक रूप में श्रत्यंत समर्थ व्यंजना करती है; यह 'प्रयोजनवती उपादान लक्षणा' का अप्रतिम उदाहरण है, क्योंकि यहाँ वाच्याथ को खींचकफर ही लक्ष्क्षथ ग्रहण फिया गया है। इसी प्रकार-. हृदयकुसुम की खिलीं अ्रचानक मधु से वे भीगी पाँखें॥ . यहाँ ृदयकुसुम' में हृदय पर कुछुम का आरोप होने से 'गौणी सारोपा लब्बणा' है। इस वर्ग के कवियों में व्यंजना के आश्रय से की गई सांक्ेतिक अभिव्यक्ति श्रनुपात की दृष्टि से सर्वाधिक निराला के काव्य में मिलती है। इन्होंने लक्षणा के आश्रित चित्रात्मक व्यंजना की अपेक्षा अ्रंतःस्फुरित भावों को यथावत्‌ शब्दबद्ध हि करने की आकुलता में व्यंत्रना के ग्राभ्य से अधेस्फुट रूप में ही व्यक्त करने का प्रयत्न किया है । उनकी कविता से एक उदाहरण प्रस्तुत है-- “खिले नव पुष्प जग प्रथम सुगंध के, प्रथम बसंत में गुन्छ गुच्छ । हर्गों को रँग गई प्रथम प्रणु॒यरश्मि, चूरं हो विच्छुरित . विश्वऐश्वय को स्फुरित करती रही . बहु रंग भाव भर. _) जयशंकर प्रसाद, “काव्य श्रोर कला तथा श्रन्य निबंध, ( यथार्थवाद और छायावाद ); ४० १२२ । * जयशंकर प्रसाद, 'लहर', ( प्रलय की छाया ), ४० ७६ | * जयशुकर प्रसाद, कामायनी” ( श्राशा सर्ग ), ए० ३६। [ भाग १० ] ._ क्ाव्यशित्प ३०३ शिशिर ज्यों पत्र पर कनकप्रभात के, किरणुसंपात से |! उपयुक्त पंक्तियों में तारुणय के मुग्धा भाव की गौणी साध्यवसाना लक्षणा? ( “प्रथम वसंतःर--नवयौवन का प्रतीक है तथा 'प्रथम सुगंध के ( पुष्प ) गुच्छु गुच्छ--यौवनपुलप मधुर, मदिर एवं उल्लासपूर्ण भावनाश्रों के व्यंजक हैं) तथा 'सारोपा लक्षणा! ( प्रशयरश्यि में प्रणया पर रश्मि का आरोप ) के आशय से अत्यंत सांकेतिक अ्रभिव्यक्ति की गई है। सांकेतिकता--प्रतीकात्मकता सूक्ष्म एवं वैचित्रयपर्ण अ्भिव्यंत्ना के प्रति विशेष मोह होने के कारण छायावादी कवियों ने व्यंजनाशित अप्रस्तुत कथन की सांकेतिक प्रणाली---«प्रती क- विधान! को शअ्रत्यंत आग्रहपूवक अपनाया। प्रसाद ने छायावादी कविता फी विशेषताओं के अंतर्गत 'प्रतीकात्मकता? को मी परिगशित किया है।' कल्पना, अनुभूति एवं विचार की संभिलित प्रक्रिया से समुद्भूत छायावादी काव्य का कलात्मक सांदर्य अ्रसंदिग्ध है, श्रतः उसके प्रतीक भी मूलतः कलात्मक प्रतीक ही हँ---कबीर, जायसी तथा पश्चिम के रहस्यवादी कवियों के रहस्यात्मक श्रथवा अ्राध्यात्मिक प्रतीकों से भिन्‍न उनमें रहस्य तथा अध्यात्म तत्व की अपेक्षा फलागत मुर्तीकरण फी प्रवृत्ति प्रधान है। सूक्ष्म एवं श्रमत विषय को मूर्तिमंत फरने की प्रदत्ति के फारण इस काव्य में ऐसे स्थूल एवं मूर्त प्रतीकों का ही आधिक्य है जिनका आधार साहश्य; साधम्य अ्रथव्रा बिंब है। वस्तुत: छायावादी कवियों द्वारा प्रयुक्त प्रारंभिक अप्रस्तुत एवं बिंब ही प्रयोग की निरंतर पुनराद्ृत्ति से रूढ़ होकर प्रतीकरूप में पयवसित हो गए. हैं, उदाइरणाय्: द तरल मोती ले नयन भरे। ता रन ्छु तारे मरकत नोल तरी से, सूखे पुलिनों सी वरुणी से फेनिल फूल मरे |* नीलम की नावः और ८मरकत नील तरी'--छायावादी काव्य के ऐसे १ सयकांत त्रिपाठी निराला), अनामिका”, [ प्रेयसी” ), पृ० १। २ जयशंकर प्रसाद, काव्य और कला तथा अन्य निबंध”, ( यथाथंवाद श्रौर छायावाद” ), पृ० १२६ । २३ महादेवी वर्मा, 'दीपशिखा”, गीत सं० १०; पृ० ८5५ | ३०४ .. ... हिंदी साहित्य का बृहद॒त्‌ इतिहास याहश्यमलफ श्रप्रस्तुत हैं जो अनेक बार प्रयुक्त होने के फारण रूढ़ होकर प्रतीकात्मक बन गए हैं, अश्रओं के लिये “तरल मोती” और "“फेनिल फूल ग्रादि अप्रस्तुत मी साध्यवसान रूप में प्रयुक्त हुए हैँ । अश्र्‌ के ये प्रतीक पयवसायी उपमान महादेवी के काव्य की मलवर्ती वेढना के व्यंजक बन गए. हैं, श्रतः ये केबल साइश्य प्रतिपादन तक ही सीमित न रहकर संदमसापेक्षु व्यापक श्रथव्यंजना फी शक्ति प्राप्त कर प्रतीकात्मक गुणसंपन्‍न हो गर हैं । छायावाद की भाषा की श्रीसमृद्धि एवं प्र्थंगर्मिता का सर्वाधिक भ्रय वस्तुत: बिंबम लक प्रतीर्कों फो है, श्र्थात्‌ ब्चिन बिंबों की शक्ति केवल वशर्य के मरतं, इंद्रियवोध्य चित्रात्मफ विधान तक ही परिमित न होफर उससे भिन्न किसी सूक्ष्म श्रमत प्रतीयमान अ्रथ की सांकेतिक व्यंजनों में निहित है। उदाहरण रूप में देखिए द श्रॉखूें के साँचे में आफर र्मणीय रूप बन ढलता सा, नयनों की नीलम फी घाटी जिस रसघन से छा जाती हो, >»< द ५.०: 2८ हिल्लोल मरा हो ऋतुपति फा गोधूली फी सी ममता हो, जागरण प्रात सा हँसता हो जिसमें मध्याह निखरता हो ।* विभिन्‍न ऐंद्रिय संवेदनों के संस्पशों' से सौंदर्य की अमृत चेतना को संवेद बनानेवाले ये अप्रस्तुत बिबों के समान ही दृश्यचित्र मन में उभारते हुए सूक्ष्म एवं श्रमृत विषय को अनुभूति का विषय बनाते हैं, अतः ये प्रतीक बिंबाश्रित या बिंबम लक हैं | इनके अतिरिक्त छायावाद में अनेक ऐसे प्रतीकों का प्रचुर विधान हुआ है जिनके मूल में विरोध एवं लक्षणा-व्यंजना का चमत्कार प्रधान है। छायावादी काव्यशिल्प से प्रत्यक्ष संबंध इसी प्रकार के साहश्यमूलक, साधम्य॑- मूलक, बिंबाश्रित, विरोधमूलक, लक्षणा एवं व्यंजनागर्भित स्थूल एवं मूर्त प्रेतीकों का है। इस काव्य कीं भाषा को समृद्धि तथा मन के सूक्ष्म तरल संवेदनों की * जयशंकर प्रसाद, 'कामायनी! ) णेज्जा सर्ग, पृ० ८२। [ भाग १० ] ... काव्यशिल्प ३०४५ विभिन्‍न अथच्छायाओं की शअ्रभिव्यक्तिसामथ्य॑ प्रदान करने का श्रेय बहुत कुछ इन्हीं प्रतीकों फी है। छायावाद के कवियों में प्रसाद, पंत श्रोर निराला की तुलना में महादेवी के काव्य का प्रतीकवैविध्य श्रत्यंत॑ सीमित है, फिंठु उन सीमित प्रतीकों के ही संयोजन में वेविध्य उत्पन्न कर उन्होंने इसकी क्षतिपूर्ति कर ली है| व्यंजना के अश्रतिचार के कारण निराला की प्रतीकात्मक श्रभिव्यंजना जितनी अधंस्फुट है उसां अनुपात में अरथंगूढ़ भी है । चित्रात्मक व्यंजनों चित्रात्मकता भी छायावाद के अभिव्यंजनाशिवप का एक विशिष्ट गुण इस वर्ग के कवियों ने भावों को अ्रमूतंता एवं सूक्ष्मता को चित्रमय रूप प्रदान कर उन्हें मानसपटल पर मूर्तिमंत करने की अपूर्व शक्ति अजिंत फर ली थी | यद्यपि यह चित्रमयता बिंबविधान का भी अंतरंग एवं मुल तत्व है, तथापि छायावादी कविर्यों ने अंग्र जी की रोमांटिक कविता की प्रेरणा से बिबों से मिन्‍न एक शब्दचित्र, सचित्र विशेषण और पर्यायवाची शब्दों के साभिप्राय प्रयोग आदि कुछ ऐसे विशिष्ट चमत्फारपूर्ण साधनों का भी आश्रय लिया है जो उनकी भाषा के श्रमिन्‍न अंग बन गए हैं। पंत में एक ही शब्द द्वारा वश्य की चित्रात्मक व्यंजना करने में सच्चम सचित्र विशेषणों के प्रति विशेष मोह दृष्टिगत होता है। उनकी "नक्षत्र, 'बादल! अ्रादि कविताएँ तो ऐसे शब्दचित्रों की श्रखला सी जान पड़ती हैं। नक्षत्र के लिये प्रयुक्त--'निद्रा के रहस्यकानन?, 'विश्वसुकवि के सजग नयन'” तथा बादल के लिये सागर के धवल हास?, 'अनिल फेन?), 'शशि के यान' - आदि विशेषणों की चित्रव्यंजकता अनुपम एवं अपरिमेय है। ये विशेषण अनेक प्रकार के स्मृति एवं मानसचित्रों ( ऐसोसिएशंस ) को जगात हैं । .... इसी प्रकार पर्यायवाची शब्दों की परस्पर भिन्‍न सूक्ष्म अ्र्थच्छायाओं फो ग्रहण करने में भी इन फवियों ने अपने असाधारण अथविवेक का परिचय दिया | पंत ने 'पल्लव? फो भूमिका में विभिन्‍न पर्यायवाची शब्दों के श्रदूभुत अर्थच्छायागत अंतर का विशद्‌ विश्लेषण करते हुए अपने शब्दों के अदभुत अंतर्बोष को प्रकाशित किया है। उनके इस अथंविवेक का श्राघार शब्दधोश न होकर उन विशिष्ट शब्दों की ध्वनि श्रथवा नाद फा मानसपंसग है : रजनी के रंजक उपकरण चिखर गए, घूघठ खोल उषा ने कॉका और फिर | अरुण अपांगें से देखा, कुछ इँस पढ़ी, * जयशंकर प्रसाद, “मरना”, ( पावस प्रभात! ), एृ० ८ । १३०१५. ३०६ | ..._ हिंदी साहित्य का बृदहदत्‌ इतिहास यहाँ 'रंजकः में सुंदर आभरणों की जगमगाहटठ, चमक दमक तथा छ्रणंग' में अरशिम चितवन की बंकिमता एवं कठाक्ष की अथध्वनि अ्रत्यंत मुखर है | संक्षेप में, छायावादी कवियों में महादेवी के काव्यचित्र तरल-कोमल गीतिमय चित्र हैं, पंत के चित्रों का वशिष्ट्य उनके बारीक जड़ाव कढ़ाव” में निहित है तथा प्रसाद ओर निराला के चित्रो' का आधारफलक इन दोनों से भिन्‍न, विराट और व्यापक है। निराला के चित्र प्रायः रेखाचित्र होने के कारण अस्पष्ट, धूमिल तथा सांकेतिक हैं, गत्यात्मकता में उनका अ्रदृभुत वेशिष्य्य निहित है चुबनचकित . चतुर्देक्‌ चंचल हेर, फेर मुख, कर बहु सुख छुल; कभी हास, फिर त्रास, साँस बल उर सरिता उमगी ।* इस प्रकार छायावादी कवियों ने बिंब एप अलंकारयोजना से मिन्‍न कुछ स्वतंत्र भाषागत उपकरणों के आश्रय से अनेक सूक्ष्म-अमतं, _ त्रल-फोमल संवेदनों की चित्रात्मक व्यंजना द्वारा उनको श्रनुभूतिगम्य बनाने फी छमता प्रदान कर अपनी अ्रपूव सूक्ष्म अंतह ष्टि का परिचय दिया । का निष्कर्षत: छायावादी काव्य का गौरव खड़ीबोली के स्वरूपनिर्माण में न. होकर उसके अलंकरण, समृद्धि तथा उससें अ्रथंव्यंजकता की अ्रपूर्व शक्ति उत्पन्न . करने में निहित है। व्याकरणबद्ध शास्त्रीय दृष्टि के अमाव में मी अ्रभिनव सौंदर्य॑- दृष्टि के आलोक में एक ओर तो छुदय के राग के विविध तरल-फोमल मोहक रंगों में अलंकरण एवं रूपसज्जा तथा दूसरी ओर शअ्रथंगोरव की सृष्टि द्वारा छायावादी कवियों ने खड़ीबरेली फो काव्यमाषा के पद पर अधिनिष्ठित करने का महदनुष्लान किया | पु अभिव्यंजना के विविध प्रसाधन... अभिव्य॑जना में वैचित््य उत्पन्न करनेवाले प्रमुख प्रसाधन हैं : (१ ) अप्रस्तुतविधान अथवा अ्र॒लंकारयोजना .. (२) बिंबविधान .. (३ ) उक्तिबक्रता ! डॉ० नरेंद्र, वक्तव्य से उद्धृत । _+ सर्यकांत त्रिपाठी (निराला/, 'गीतिका', गीत सं० २८, पृ० ३१ | | [ भाग १० ] द काव्यशिल्प ३०७ ये सभी प्रसाधन निस्संदेह कल्पना के आश्रित हैं। अँग्र जी की रोमांटिक कविता की भाँति छायावादी फाव्य का कल्पनातिरेक एक सहज स्वीकृत तथ्य है जिसके लिये इस वर्ग के कवियों की अ्रंतमुख प्रवृत्ति उत्तरदायी है। स्वभावत; इन कवियों ने अपनी श्रमिव्यंजना में वेचितह्य एवं सौंदर्य की सृष्टि के लिये निर्दिष्ट समस्त फल्पनाश्रित प्रसाधनों फी समुचित योजना फी है । ( १ ) अप्रस्तुतविधान या अलंकरणा छायावादी कवियों ने प्रस्तुत के समग्र स्वरूप को संवेध बनाने के लिये तथा अ्मिव्यंजना फी रूपसज्जा एवं अ्र॒ल॑करण के लिये यद्रपि श्रन्य युग के कवियों की भाँति ही साम्य का पर्याप्त आश्रय लिया; तथापि उनकी अग्रस्तुत- योजना रीतिफकालीन ओर द्विवेदीयुगीन अ्रप्रस्तुतवोजना से श्रपनी बिंबविधायिनी शक्ति तथा रोमानी कब्पनाप्रयूत सूक्ष्म, अमूर्त एवं वायवी अ्रप्रस्तु्तों के संयोजन के कारण विशिष्ट है। इसी कारण इस काव्य में बिंब-प्रतिबिंब-रूप साहश्य तथा वस्तु प्रति-तस्तु रूप घमं के श्आश्रित साधम्य को श्रपेत्षा अ्राम्य॑तर प्रभावसाम्य के प्रति विशेष आग्रह परिलक्चित होता है, उदाहरशार्थ : यह सागर का मृगछाना, नाप शून्य का फोना कोना; पढ़ भू का संकेत धूलि में मोती बन आता है रूप का अंबर फंलाता ह।* महादेवी की इन पंक्तियों में मे्घों के रूपायन की प्रक्रिया के काव्यमय विश्लेषण द्वारा प्राकृतिक वेभवप्रसार के सम आम्यंतर प्रभाव को मूर्तिमंत करने का प्रयास है। ः ... साम्य के अतिरिक्त छायावादी कवियों ने अभिव्य॑ंजना में वेचित्ष्य की. सृष्टि के लिये मूर्त-अमूर्त अप्रस्तुतपोजना तथा मानवीकरण, विशेषशुविपयय जेसे नवीन पाश्वात्य अलंकार आदि फी अने कविध अभिनव अ्रभिव्य॑जनाप्रणालियों का ग्राश्रय लिया । इन कवियों ने अमृत भावना को स्पब्ट रूपाकार प्रदान कर उसे मूर्तिमंत करने के लिये तथा मूर्त को अनुभूति को अमृत उपमानों के _ आ्राश्रय से तीव्रतर एवं संवेद्य बनाने के लिये विविध प्रकार के रम्यादुयुत मत- अमूर्त अ्रप्रस्तुतों का संयोजन किया | उदाहरण के सिये--- १ सहादेवी वर्मा; “दोपशिखा', गौत सं० ४७; पृ० १४९ | ४०८ ..... हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास कल्पना से फकीमल.... ऋजु कुटिल प्रसारकामी केशगुच्छ ।' यहाँ केशों ( मूर्त वस्तु ) के समग्र प्रभाव ( उनकी कोमलता, ऋणजु टिलता तथा प्रसार पाने की प्रद्ृत्ति ) को फल्पना जैसे अमूत विषय के समकक्ष रखकर संवेद्य बनाया गया है | पाश्चात्य काव्य में नियोजित 'मानवीकरण! तथा “विशेषण विपयय! अलंकारों ने छययावादी कवियों को विशेष रूप से आकर्षित किया | विशेष्श-विपयंय का एफ उदाइरण देखिए ; जग के निद्वित स्वप्त सेजनि [* पंत के काव्य में कुतक की दृष्टि से (विशेषशवक्रता' के अ्रंतगंत आनेवाले विशेषणों के इन वचित्र्यपूर्ण प्रयोगों का अत्यधिक प्राचुय है। इसी प्रकार बिंचसृष्टि के साधक रूप में छायावादों कवियों ने प्रकृति तथा अमूर्त-प्ररूप मावनाओं के 'मानवीफरण? द्वारा मी अभिव्यंजना में बैचित््य फी सृष्टि की । अत इस काव्य में 'मानवीकरणुः अलंकार के भी अ्नेफकानेक उदाहरण उपलब्ध हैं, यथा : द वह लाजमरो कलियाँ अनंत परिमल घूँघट दँक रहा दंत फेंप-कप चुप चुप-कर रही बात, इस प्रकार छायावादी कवियों ने विविध प्रकार फी अप्रस्तुतयोजनाओं द्वारा अ्रभिव्यंजना में श्रथंसंवेदन की शक्ति द्वारा श्रथगॉरव की सूष्टि तथा मर्तिमत्ता, वेचित्र्य एवं समृद्धि का समावेश किया । ( २ ) बिबविधान छायावादी काव्य का अभिव्यंजनाशिल्‍प मुलतः बिंबाश्रित है, ग्रभिव्यंजना* शिवढ्वप के श्रप्रस्तुतवोजना, लाक्षृणिक एवं अभिव्यंजनागर्भित भाषाप्रयोग तथा प्रतीफादि श्रन्य सभी उपकरण] बिबों के उपधर्मी एवं अंगरूप में ही उसफी समद्धि में योग देते हैं । छायावाद के काव्यबिंब अधिफांशत: सूक्ष्मसंवेदनात्मक ब्रिंब ही हैं। स्थूल शानेंद्रियों की श्रपेन्ञा उनका संवेदन मूल रूप में सुद्मेंद्रिय मन के प्रति ) सुयंकांत त्रिपाठी निराला”, 'परिमल', ( जागो फिर एक बार ) पृ० १७२। * सुमित्रानंदन पंत, 'पललव?, ( स्वप्न ), पृ० ४८। १ जयशंकर प्रसाद, (लहर', पृ० २५। 35333 लक पल ८2222 को. कक ८५ 2; हुल- [ भाग १० |. _ कांग्यशिल्प॑ ६० है है। अ्रन्य शानेंद्रियों के बोध से प्रत्यक्षत: संबद्ध होते हुए मी वे श्रंतत: मानस संवेदनों फो ही जगाते हैं, उदाहरणाथ आर उस मुख पर वह मुसकयान ! रक्‍त फिसलय पर ले विश्राम, अ्ररण की एक किरण अ्रम्लान अधिक अलसाई हो अमिराम श्रद्धा के रक्तिम अधरों पर खेलती हुई उज्वल मुस्कान के संपूर्ण प्रभाव- संवेदन फो स्पष्ट फर कल्पना में साकार करने के लिये प्रसाद ने इन पैक्तियों में उद्प्रेक्षा के ग्राभ्य से एक संश्लिष्ट त्रिंब का कुशल विधान किया है। प्रत्यक्षतः चक्षुरिंद्रिय से संबद्ध होते हुए भी यह बिंब अंत में मन फा विषय बन जाता है। छायावाद के चाक्षुष बिंच वश्य के रूप, रेखा, वर्ण, आकार आदि के साथ ही उसकी गति एवं समग्र प्रभाव को भी मास्वर कर कल्पना में साकार कर देते हैं । ..._ छायावादी कवियों में पंत और निराला के काव्य में शब्दों के ध्वन्यात्मक सौंदर्य पर आश्रित आ्रावशिक ब्िंबों का भी अत्यंत कुशल संयोजन हुआ है, उदाहरणार्थ देखिए : द्रम समीर फंपित थर-थर-थर भरती धाराएँ भर-मर-फर जगती के प्रार्णों में समर शर बँध गए. कसके ।* इन पंक्तियों में प्रयुक्त थर-थर-थर!ः तथा 'मर-भर-भर! शब्दों में. धससमीरकंपित द्रुम” तथा भरती हुई घाराश्रों के श्रावशिक बिंब अंकित हैं । इस मुस्क्यान के, पद्मराग उद्गम से बहता सुगंध की सुधा का सोता मंद मंद ।२ इस उद्धरण में विभिन्‍न एंडट्रिय बोधों से संबद्ध बिंबों फो पृथक फरना दुःसाध्य-सा जान पड़ता है। सुवासित मुख की मंदमधुर मुस्कान के समग्र प्रभाव को बहता सुगंध की सुधा का सोता मंद मंद”! कहकर स्पष्ट किया गया है। साथ ही “पश्मराग , उद्गम! द्वारा माशिक के संमान * जयशंकर प्रसाद, 'कामायनी', श्रद्धा सगे, पृ० ७३ | * सुर्यकाँत त्रिपाठी “निराला', अपरा?, ( “आ्राए घन पावस के-.? ), पृ० ६४ | * जयशंकर प्रसाद, 'लहर', ( 'प्रलय की छाया? ), पृ० ७७ । 7 ३१७ जो हिंदी साहित्य का बृहव्‌ इतिहास अ्ररशिम अधरसंपुट का भी स्पष्ट बिंब अंकित हो जाता है जो शेष बिंच फो पूर्णता प्रदान फरता है। इस प्रकार के बिंब काव्य में स्वतंत्र रूप से जीवित नहीं रहते, अपितु एफ संपूर्ण बिंव की सृष्टि में परस्पर एक दूसरे के पूरक बनकर वरय विषय के समग्र प्रभाव को उभारकर एफ साथ संवेद्य बना देते हैं। छायावादी कवियों फी सफलता का रहस्य वस्तुतः इसी प्रकार की संश्लिष्ट बिंबरचना निहित है द छायावादी कवियों के काव्यबियों में पर्याप्त वविध्य भी है, प्रत्येक कवि ने अपने रुचिवैचित््य के अ्रनुरूप ही विविध प्रकार के बिबों का विधान फिया है। पंत ्रोर निराला के काव्यबिबों में प्रसाद ओर महादेवी फी अ्रपेक्षा एऐंद्रिय संत्पर्शो का आधिक्य है। कुशल चित्रकार होने के कारण महादेवी के बिंब चित्रात्मक गुणविशिष्ट एवं चाक्षुष्‌ अधिक हैं, निराला के बिंब यदि विशट श्रोर दिगंतब्यापी हैं तो पंत लघु एवं मसणु बिंबों फो रचना में सिद्धहस्त हैं “सामने स्थित जो यह भूधर शोभित शत-हरित-गुल्म तूृण से श्यामल सु दर, पाव॑ती कल्पना हैं इसकी, मकरंदविंदु, गरजता चरणाप्रांत पर सिंह, वह; नहीं सिंधु, दशदिक समस्त हैं हस्त, श्रोर देखो ऊपर, अंबर में हुए दिगंबर श्रचित शशि शेखर, लख महाभाव मंगल पद तल धँँस रहा गर्व -- मानत्र के मन का असुर मंद, हो रहा खर्व ॥* | निराला के इस दिगंतव्यापी विराट बिंव की तुलना में पंत के निम्न पंक्तियों में संयोजित बिंब की लघु मसणता द्रश्व्य है : मृदु मंद मंद, मंथर मंथर, लघु तरणि हंसिनी सी सुंदर, तिर रही, खोल पालों के पर [* इस प्रकार छायावादी काव्य के जिबविधान में जीवंतता, भावोदबोधन फी . शक्ति और समृद्धि के साथ-साथ पर्याप्त वेविध्य भी है। इस काव्य की शेल्पिक रूपसज्जा का श्रेय अन्य प्रकार की श्रलंकरणुसामग्री फो न होकर संशिलष्ट ' बिंबविधान फो प्राप्त है। . * सुयकांत त्रिपाठी “निराला”, अनामिका', ( 'राम की शक्ति पूजा! ), ० १६०-६१। आल 7 लक, सुमित्रानंदन पंत : “गु जन?, ( 'नौका विहार ), ए० १०२ | [ भाग १० ] काव्यशिव्प द र११ ( ३ ) वक्रताए प्रसाद ने अपने धयथाथवाद ओर छायावाद' शीर्षक निद्ंध में छायावाद फा स्वरूपविश्लेषण करते समय इसके आधारभूत “छाया” शब्द का संबंध वक्रोक्ति! से स्थापित किया है।! थागे चल्नकर उन्होंने “उपचारवक्रता' फो छायावाए की आधारभूत विशेषताओं में स्थान दिया है।' अतः स्पष्ट है कि वक्रता छायावाद के अमिव्यंजनाशिल्‍प का एक अभिन्न तत्व है। इस फाब्य कौ अमभिव्यंजना द्विवेंदीयुगीन कविता की ऋजुसरल शैली से भिन्‍न वक्रतापूर्ण है; कथन की प्रत्यक्ष शेली को अपेक्षा इस वर्ग के कवियों को उक्ति की वक्र भंगिमा ही सदैव रुचिकर प्रतीत हुई वक्रोक्ति के विभिन्‍न भेदोपभेदों में से छायावाद की प्रकृति के सर्वाधिक अनुकूल वक्रताएँ--उपचारवक्रता, पर्याववक्रता एवं विशेषशुवक्रता हैं। उपचार बक्रता? का एक उदाहरण प्रस्तुत है : पुलफित स्वप्नों फी रोमावलि; कर में हो स्मृतियों फी अ्रंजलि, मलयानिल का चल दुकूल अ्रलि, घिर छाया सी श्याम विश्व को झा अभिसार बनी सकुचती आरा वसंत रजनी | इन पंक्तियों में रजनी ( अ्रचेतन पदार्थ ) पर चेतन मानव के धर्मों ( स्वप्न, स्मृति, अमिसार, संकोच ) का आरोप किया गया है, अ्रत३ प्रमुखत: मानवीकरण तथा “पुलक्रित स्वप्नों में विशेषशविपयय अलंकार के रूप में ही . यहाँ “उपचारवक्रता' का समावेश हुआ है--'पुलकित स्वप्नों? में विशेषण के वेचित्र्यपूर्ण प्रयोग के कारण 'विशेषशवक्रता' भी है जो 'उपचारवक्रता' के संवर्धक अंग के रूप में ही सनिविष्ट है । शब्दों की अंतरात्मा का सहज ज्ञान होने के कारण छायावादी कवियों ने शब्दों के विशिष्ट प्यायों के सामिप्राय विदग्धतापूर्ण प्रयोर्गों द्वारा भी अपने काव्य में ग्रथणभत्व का समावेश किया, उदाहरणाथ : १ जयशंकर प्रसाद, काव्य श्र कला तथा श्रस्य निबंध', पृ० ११५२-२३ | * उपरिवत्‌, ० १२५६। द ३ महादेवी वर्मा, 'नीर॒जा', गीत सं० २--धीरे धीरे उतर ज्ितिज से? | ३१२ द हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास 'स्मरहर को वरेगी। बसन वासंती लेगी ।' इस गीत में पावटी का रूपक बाँधा गया है--शिव के लिये मरहर! शब्द का प्रयोग वक्रतापूर्ण है--स्मर श्रर्थात्‌ कामदेव को भी पराजित करनेवाले शिव का वरण फरेगी | इसी शब्द के वक्रतापूण विदग्घ प्रयोग पर संपूण अ्रनुच्छेद फा सौंदर्य निर्मर है । इस प्रकार छायावादी काध्य की स्व॑प्रमुख बक्रता 'उपचारवक्रता! है; (पर्याय! एवं 'विशेषणवक्रता अंगरूप में उसी को संबृद्धि करती हैं। इन वजक्रताश्रों के द्वारा छायावाद के इन प्रतिभासंपन्‍न कवियों ने खड़ीबोली के काव्य को अ्रथ॑- व्यंजना की अपूर्व शक्ति, अ्र्थगर्भत्व एवं समृद्धि प्रदान कर हिंदी साहित्य में उसे विशेष गौरव का अधिकारी बनाया | छुंदयो जना छायावाद युग ने खड़ीबोली काव्य को भाव श्रोर भाषा के साथ ही छुंद के बंधनों से भी मुक्तिलाम कराया किंतु छुंदशास्त्र के रूढ़िबंधनों का तिरस्कार परते हुए भी इस वर्ग के कवियों ने कविता श्रोर छुंद के अ्रंतरंग संबंध की प्रबल पुष्टि की | यही फारण है कि छुंदरचना के मात्रा, गण, गति-यति-विषव्रक बाह्य एवं स्थूल नियमों की अ्रपेक्षा इन्होंने संगीतात्मक लय को उसके मूलाधार के रूप में ग्रहण किया । शास्त्रीय छंद छायावादी कवियों ने पिंगलझ्ास्त्र में व्शित शास्त्रीय छुंदों में सर्वाधिक प्रयोग रोला, रूपमाला; #ंगार, सखी, पीयूजवर्ष, चौंपाई, पद्धरि आदि सममात्रिक छुंदों का किया है। लेकिन उनकी गतियति एवं लय आदि में स्वेच्छानुसार भावानुकूल परिवतन कर लेने के कारण ये छुंद इस काव्य की छुँदविषपक रूढ़िबद्धता के परिचायक नहीं हें। परिणाम की दृष्टि से प्रसाद के काव्य में इस प्रकार के परंपरागत छुंदप्रयोगाँ फो संख्या सबसे अधिक है। उनके काव्य से रूपमाला छेद का एक उदाहरण प्रस्तुत है १ सूयकांत तिपाठी 'निराला?, 'गीतिका?, गीत सं० १७) पृ० १४ । [ भाग १० ] ... काथ्यशित्प द .. १३ क्‍ द . 8। मधु बरसती विधु किरन हैं फाँपती सुकुमार | 5। पवन में है पुलक मंथर, चल रहा मधुभार |! २४ मात्राओं के इस रूपमाला छुंद की दीसरी, दसवीं ओर सतन्नइवीं मात्राएँ लघु हैं और चरणशांत में गुरु-लघु (5।) फा विघान है, किंतु प्रथम चरण में नियमानुकूल १४ मात्राओं पर यति की योजना नहीं हुई है, अंत्यानु प्रास युग्मक है । १६ मात्राश्रों के #ंगार छुंद का प्रयोग छायावादी कवियों में सर्वाधिक पंत ने किया है। उनकी कविता से इस छुंद का एफ युग्मक अंत्यानुप्रासयुक्त उदाहरण देखिए : क्‍ ६ । डर आज गह-वन-उपवन के पास $।] | लोटता राशि राशि हिमहास प्रत्येक चरणु का आरंभ एक त्रिकल तथा अंत गुरु-लघु ($।) से हुआ है। छायावाद के प्रायः सभी कवियों के काव्य में यद्यपि इन शास्त्रीय छुंदों का फिंचित्‌ परिवतेन के साथ समधिक मात्रा में विधान हुआ है, तथापि ये छुंद छायावाद फो छांदस योबनाश्रों का प्रतिनिधित्व नहीं करते नवीन छुंंद्योजनाए छायावादी काव्य फा वेशिष्ट्य वस्तुतः विभिन्‍न प्रकार की नूतन छुँद- योजनाओं में ही निहित है | इस वर्ग के कवियों ने हिंदी भाषा की प्रकृति के अनुकूल परंपरागत शास्त्रीय छुंदों का लयाधार ग्रहण फरते हुए तथा स्वतंत्र रूप से भी विभिन्‍न विधियों से भाव तथा विचारानुरूप मात्रिक छुंदों फी ग्रसंब्य संयोजनाएँ प्रस्तुत की । ..पासंपरिक छंदों का नवरूपांतरण प्राचीन शास्त्रीय छुंदों का नवरूपांतरण छायावादी कवियों ने प्रमुखतः चार रीतियों से किया -एकाधिक शास्त्रीय छुंदों के मिश्रण द्वारा, सममात्रिक २ जयशंकर प्रसाद, “'कामायनी?, ( वासना सर्ग ), पृ० ७५। * सुमित्रानंद पंत, ुंजन”, पृ० ४६। १०० ४०९ घररपशातासलकलपसतपरपरबसखा ३१४ क्‍ ..... हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास छुंदों में ग्रध॑सम प्रयोग; ठुफांत छंदों के अ्रत॒कांत प्रयोग तथा प्राचीन छुर्दों को प्रचलित लय एवं अंत्यक्रम के आधार पर छुंदों के नूतन क्रमायोजन द्वारा । इन कवियों ने एकाधिक शास्त्रसंमत छुंदों के चारणों को सम-विषम-क्रम से मिलाफर भावानुरूप नवीन छुंदयोजनाएं प्रस्तुत कीं। इस काव्य में गोपी तथा शृंगार छुँदों के चरणों का विभिन्‍न प्रकार से संमिश्रण हुआ है। निराला के काव्य से एक उदाहरण देखिए : ० बा ।६ 5| के हमें जाना है जग फे पार। -- १६ मात्राएं : ख््गार छेद ।६ कु डाहाँ नयनों से नयन मिले, .. -- १४ मात्राएँ : गोपी छ॑द ड् 8 ३ स्योतिफे रूप पहल खिले,.. “२५ +, * » 5 $| । सदा हो बहती नव-सर-घार॒. “९९ » अश्थ्गार ॥ [5 5| कक. वहीं जाना, इस जग फे पार ।' 8 आह अत इस मिश्रित छुंद के प्रथम, चतुथ और पंचम चरण ंगार छुंद तथा... द्वितीय श्रोर तृतीय चरण गोपी छुंद के हैं। इसके पश्चात्‌ निराला के इस गीत .. में गोपी और #ंगार छुंद के चरणों के मिश्रण फा क्रम परिवर्तित हो गया है, .. लेफिन फिर भी इसके छुंदविधान फा वेशिष्ट्य इस बात में निहित है कि छुंदचरणों का मिश्रण विषमाधार पर होते हुए भी इसमें लयगत वेषम्य श्रथवा विस्व॒रता . उत्पन्न नहीं हुई। श्रंगार के अंतिम लघु को हटा देने से गोपी छुंद बनता है, दोनों ही छुंदों के आरभ में एक त्रिकल आता है; अतएव दोनों छुंदों की लय परस्पर मीलित होती जाती है। मा . इनके अतिरिक्त पदूधरि और पादाकुलक, चौपाई और ताटंक, रूपमाला - के और उमिंला, पद्धरि और चौपाई तथा चौपाई और सरसी आदि विभिन्‍न. द है _ छदों के चरणों के अनेफ प्रकार से परस्पर मिश्रश द्वारा इन कवियों ने अनेक [ साग १० | .... काव्यशिल्प .. .... हैश५ छायावादी फाव्य में तादैक, वीर, रूपमाला और सार आदि सममात्रिक छंदों के अ्धंसम प्रयोग द्वारा नूतन छुंदरचना की पद्धति भी प्रचलित रही | प्रसाद की “'फामायनी!” में इस प्रफार के अनेक छुंदप्रयोग उपलब्ध हैं । द लय एवं अंत्यक्रम फो छुंदरचना फे स्थायी आ्राधार फे रूप में ग्रहण करते हुए. प्रचलित छुंदों के नूतन क्रमायोजन द्वारा भी इस काव्य में अनेकानेफ नवीन छुंदों फा विधान हुआ । छायावादी कवियों में निराला को छुंदरचना फी आंतरिक सुक्ष्मताओं फा अद्भुत सहज ज्ञान था। उन्होंने 'गीतिका?, “गीतगुंज” श्रादि के गीतों में असंख्य प्रकार की नूतन छुंद्संयोजनाए प्रस्तुत कीं । एक उदाहरण देखिए :. नयनों के डोरे लाल गुलाल भरे खेली होली । -- २८ मात्राएँ--क न न 8 यु बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली; “-- रे८ माताएं -- के उठी सँमाल बाल, मुख लट, पट, दीप बुझा हँस बोली -- रे८ मात्राए -- फ रही यह एक ठिठोली । -- १३ मात्राएँ -- क इस गीत में सार छुंद के चरण की छुंदक के रूप में योजना की गई है--- आगामी मध्यवर्ती चरण भी सार छुंद के हैं। अंतिम चरण सार छुंद के उचराधे श्रर्थात्‌ १२ मात्राओं के आरंभ में एक मात्रा के योग से _ निर्मित हे--इस प्रफार अ्रन्य चरणों के लयनिपात का छुंदक के लयनिपात से साम्य स्थापित हो गया है। इस छुंद का वेशिष्य्य समस्त चरणों के समान अंत्यक्रम में निहित है। द अभिनव छंदरचना छायावाद ऐसी छांदस्‌ योजनाओं में मौ समद्ध है जो मात्राक्रम, अंत्यक्रम, यति, गति, चरणसंख्या आदि सभी दृष्टियों से इन कवियों की मौलिफ सृष्टि हैं तथा जिनके निश्चित मात्राक्रम एवं अंत्यक्रम आ्रादि में इनकी विशेष भावस्थितियाँ । .. स्वतः मूचिमंत हो गई हैं, इसीलिये इस प्रकार को छुंदयो जनाओं में आयास की .._ मात्रा बहुत फम है, उदाहरणार्थ : १ सूर्यकांत त्रिपाठो “निराला, गीतिका ', गीत सं० ४१, १० ४४। ३१३ जा हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास बाँसों का भ्ुरमुठ कक १० मात्राएँ संध्या का क्रुटपुट क्‌ १० 3$$ हैं चहक रहीं चिड़ियाँ ख्‌ १२ ,, टी-वी-गी-ठुद-्डद्‌ [| >+क १० मात्राएं इसके प्रथम, द्वितीय तथा चतुर्थ चरण १०-१० मात्राओं के हैं, इनफा अंत्यक्रम भी समान है। तृतीय चरण मात्राक्रम तथा अंत्यक्रम दोनों में भिन्‍नता उत्पन्न करता है । .. निराला ने अपनी दोनों शक्तिसंपन्‍न कृतियों --'राम की शक्तिपूजा! तथा 'तुलसीदास' में दो अभिनव छुंदों की योजना की है। “राम की शक्तिपूजा' का छुंद २४ मात्राओ्ं फा सममात्रिक छुंद है जिसके चरण प्रायः युग्मक अंत्यानु- प्रास से परस्पर गुंफित हैं : क्‍ रवि हुआ अ्रस्त : ज्योति के पत्र में लिखा अमर रह गया राम - रावशु का अपराजेय समर छुंदयोजना की दृष्टि से मावानुरूप गति, यति एवं लयविधान इस कविता की विशिष्टता है। कहीं कहीं भाव की श्रखंडता को अक्षुरण रखने के लिये यूरी पंक्ति में यति फी योजना नहीं हुई ओर कहीं प्रभाव की ज्गणिकता के कारण एक ही पंक्ति में अनेक बार यतिविधान हुआ है; यत्र तत्र॒ मध्यवर्ती तुक का संयोजन भावप्रवाह में वेग उत्पन्न करने के लक्ष्य से हुश्रा है, जेसे-- करता में योज्ञित बार बार शुर - निकर निशितरर*े क्‍ “तुलसीदास” में निराला ने १६ और २२ मात्राश्रों के दो छुंदों के योग से एफ नूतन छुंद फी सृष्टि फी है। छुदद चरणों के इस छुंद के तृतीय और षष्ठ चरण २२ मात्राओं के हैं तथा शेष उरशु १६ मात्राओं से निर्मित हैं। प्रथम और द्वितीय, चतुर्थ ओर पंचम तथा तृतीय और षष्ठ चरण समान अंत्यक्रम से नियोजित हैं । तृतीय चरणांत की यति एक मावखंड की समाप्ति फी सूचक है; द्वितीय भावखंड १६ मात्राश्रों के छंद के पुनरावतन से प्रारंभ होकर अंतिम चरण तक चलता है। निश्चित मात्राश्रों एवं अंत्यानुप्रातस तथा गति-यति की सीमा के भीतर रहकर भी * सुमित्रानंदन पंत, युगांत', प्‌ ० १६ । सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला, अवामिक्ा! ('राम को शक्त पूजा), ए० १४८। | २ उपरिवत्‌, पएू० १४८ | [भाग १०]. . काब्यशिल्प॑ . 5» * ११७१ भावप्रवाह की श्रखंडता की सुरक्षा निराला द्वारा आविष्कृत इस नूतन छुं द फी अपूर्व सिद्धि है । अंग्रेजो ओर बँगला काव्य के छुंदविधान से प्रभावित होकर छायावादी कवियों ने जो अ्रभिनव छुंदयोजनाएँ कीं उनमें प्रमुख “अतु्कांत छुंद!ः और मुक्त छुंद! हैं । अतुकांत छुंद्‌ क्‍ अंग्रेजी के ब्लेक वस! और बँगला के अमित्राक्षर छुंद से प्रेरणा प्राप्त कर छायावादी कवियों में प्रसाद ने 'महाराणा का महत्व?,प्रेमपथिक' और “मरना! की _ कुछ कविताओं तथा पंत ने अंथि! की रचना अंत्यानुप्रासमुक्त श्रतुकांत छुंद में की, फिंतु इन्होंने अंग्रेजी काव्य में प्रयुक्त लघु-गुरु की पंचाबृत्ति से युक्त “आयंबिफक पेंटामीयर' अथवा इरिश्रोध आदि हिंदी के द्विवेद्दीयुगीन कवियों की माँति संस्कृत के भिन्‍न-तुफांत वशाब्त्तों की हिंदी के अवतरणा के स्थान पर प्लवंगम, पीयूषवर्ष र ताथ्क आदि मात्रिक छुंदो का अंतमुक्त प्रयोग किया | छुंद्बंधनों से हिंदी कविता की सुक्ति की साधना के लिये फाव्यजगत्‌ में जो प्रयत्न हुए. उनका समारंभ अतुकांत छुंदरचना से हुआ | युगीन प्रभाव के कारण यद्यपि छायावादी कवियों ने भी इस छुंद फो साग्रह अपनाकर इसको प्रकृति के अनुकूल पदांतरप्रवाही वाक्‍्यों ओर अंतयंति आदि के यथानियम प्रयोग के ग्रनेक प्रयत्न किए, तथापि वे उसके द्वारा काव्य में अँग्र जी के शेक्सपियर, मिल्टन आदि कवियों जैसा निर्बाध प्रवाह ओर प्रभाव उत्पन्न फरने में द्विवेदीयुगीन कवियों फी भाँति हो असमथ रहे | वर्णब्यों के समान ही अतुर्कांत छुंदरवचना फो हिंदी की प्रकृति के अनुकूल न पाकर ये कवि भी इससे हटकर मुक्तछूद की रचना में प्रव्रच हो गए । मुक्त छुद्‌ ग्रेजी की रोमांटिक कविता ओर बँगला काव्य के निकट संपक से प्रेरणा प्राप्त कर छायावादी कवियों में प्रसाद ने “लद्दर' में संकलित 'शेरसिंह का शस्त्र- समर्पण, 'पेशोला की प्रतिध्वनि! ओर 'प्रलय की छाया? शीर्षक कविताओं में तथा निराला ने विशेष रूप से मुक्त छुंद” में काव्यरचना की । पाश्चात्य साहित्य में गुस्टाव काहन की भाँति हिंदी में सेद्धांतिक एवं व्यावहारिक दोनों क्षेत्रों में मुक्त छंद फो प्रतिष्ठित करने का श्रेय निराला फो है। उन्होंने 'परिमल? की भूमिका में मुक्त छंद फी स्वरूपव्याख्या फरते हुए. स्पष्ट . किया है कि मुक्त छंद मात्रा, गण) गति, यति, तुक और गुरु-लघु आदि के समस्त छुंदशास्त्रीय बंधनों से मुक्त रहता हुआ भी प्रत्येक पंक्ति के रूपगत आंतरिक श॥६ द 8 हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास ऐक्य पर बल देने के कारण संगीतात्मक लय को सुरक्षित रखता है--यही लयात्मक प्रवाह उसे अन्य सभी रूपों में स्वच्छुं3 रखता हुआ्आा भी छंद की संज्ञा प्रदान करता है : 'मुक्त छुंद तो वह है, जो छुंद की भूमि में रहकर भी मुक्त है | + + मुक्त छुंद का समर्थक उसका प्रवाह ही है। वही उसे छंद सिद्ध करता है, श्रोर उसका नियमराहित्य उसकी मुक्ति |” इसके अतिरिक्त “जागरण” शीषक मुक्त छुंद में ही रचित एक कविता में उन्होंने मुक्त छंद के स्वरूप को प्रकाशित फरते हुए कहा है ; मुक्त छुंद सहज प्रफाशन वह मन का-- निज भावों का प्रकट अकृत्रिम चित्र ।* निराला ने कवित्त की लय फो मुक्त छुंद फा प्रमुख आधार माना है-- प्रसाद फी मुक्त छुंद में रचित कविताओं का लयाघार भी वर्शिक है, वर्णों का क्रम, सामान्यतः ७-८ वर्णों के लयखंडों में विभाजित है :-- थके हुए, दिन के / निराशा भरे जीवन को / ७-९० १६ वर्ण संध्या है आज भी तो | धूसर छितिज में | / ७+-७८७ १४ वर्ण ओर उस दिन तो; / द ७ वा निर्जन जलधिवेला रागमयी संध्या से १५ वर्ण सीखती थी सौरभ से / मरी रँगरलियाँ (१ / ८-७८ १४ वर्ण इस प्रकार के कवित्त के लयाधार पर रचित मुक्त छुंदों में वर्णुक्रम को आधार रूप में स्वीकार करते हुए भी छुंद का प्रवाह अबाधित ही रहता है, वर्णो को भावानुरूप विभिन्‍न लयों में ढाल लिया गया है । इसके अतिरिक्त मात्रिक लयाधार पर निर्मित मुक्त छुंद फा विधान भी छायावादी काव्य में हुआ है, उदाइरणाथ्थ : यौवन के / तीर पर / था आया / जब | ६, ५, ६, २ मात्राएँ खोत / सोंदय का, / * द ३, ७ मात्राएँ .. सूयकाँत त्रिपाठो “निराला, '"परिमल?, ( भूमिका ) पृ० १६ ।. .._ उपरित्‌, ( जागरण ); पृ० २३६। ..._* जयशंकर प्रसाद, “लहर ( प्रलय की छाया ), पृ० ५६ । ... +* सूयकांत त्रिपादी “निराला! अनामिका' ( रेखा ), पृ० ६६ । ॒ । ; | || । । | | जनरल ला मल अप कक 28 7378-37 7532४ «७-८७ [ भाग १० ] काव्यशिल्प .. क्‍ ३१६ इस मुक्त छंद की रचना प्रमुखतः सप्तक ओर षष्ठक में अन्य मात्राओओं को जोड़कर फी गई है। यह अंत्यानुप्रास और अ्ंतरनुप्रास दोनों से मुक्त है। छायावाद में मुक्त छुंद का सर्वाधिक व्यापक प्रयोग निराला के काव्य में उपलब्ध होता है। मुक्त छुदरचना में यद्यपि प्रसाद फी भी पर्याप्त सफलता मिली है, वथापि भावों के उत्थान-पतन फी छंदलय के आरोहावरोह में यथानुरूप प्रतिच्छायित करने के फारण अंत्यानुप्रासविहदीन अंत्मुक्त छद की रचना में जो सहज सिद्ध निराला को प्राप्त हुई, वह छायावाद में ही नहीं, हिंदी की अन्य काव्यघाराशरों में मी किसी कवि को सुलभ न हो सकी । निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि छायावादी कवियों ने छंद के क्षेत्र में भी युगांतर प्रस्तुत किया। इन्होंने संगीतात्मक लय फो सुरक्षित रखते हुए छंदशास्त्रीय रुढ़िबंधनों से मुक्त अ्रनेकानेक नवीन मावानुवतिनी छांदस्‌ संयोजनाओं द्वारा खड़ीबोली काव्य की विफाससंमावनाओं का मार्ग प्रशस्त किया । सल्याकृत छायावाद ने लगभग पच्चीस वर्षों की जीवनावधि में जो उत्कर्ष श्रोर सिद्ध प्राप्त की, वह अद्वितीय है। लेकिन विषय ओर शिल्प दोनों की यह अनुपम समृद्धि अ्रसमय में ही काल फा ग्रास बन गई--यह भी इतिहासप्रसिद्ध है। छायावाद के इस अकालपतन के लिये कल्पनातिरेक, सांकेतिक एवं प्रतीका- त्मक व्यंजना तथा सुक्ष्मताप्रेम आदि इस काव्य की कुछ ऐसी प्रवृत्तियाँ उत्तरदायी हैं जो प्रारंभ में श्रोसंव्धक होती हुई मी कालांतर में श्रपनी अतिवादिता के कारण चित्रमोह, कल्पनामोह, अस्पष्टता एवं दुरूहता -आदि दोषों में पर्यंवसित हो गई । इन सभी शिस्पसंबंधी प्रमुख दोषों का जन्म छायावादी कवियों के कल्पनामोह से हुआ और वही इस काव्य के अधंस्फुट कब्पनाचित्रों तथा .. अभिव्यक्ति की श्रतौंद्विय वायवीयता के लिये भी उत्तरदायी है।. खड़ीबोली का स्वरूपनिर्माण भले ही द्विवेदीयुग फी महत्वपूर्ण उपलब्धि हो, लेफिन कवित्व फी दृष्टि से उसको रसहीनता एवं शिव्पगत असिदिध को २०-२५ वर्ष की सीमित अवधि में ही सिद्धि एवं समदिध में बदल देने का श्रेय छायावाद को ही है। छायावाद के समृद्ध फाव्यशिल्प का हिंदी की परवर्ती काव्यधाराओं पर भी व्यापक प्रभाव पदड़ा। छायावाद के परवर्ती कवियों-- नरेंद्र शर्मा, दिनकर, भगवतीचरण वर्मा, बच्चन आदि का काव्यशिल्प तो छायावाद के शिल्प से प्रत्यक्षुत; प्रभावित है । इस दृष्टि से नरेंद्र शर्मा की प्रस्तुत पंक्तियाँ विशेष रूप से द्रष्टव्य हैं ३१० ध 'हिंडी साहित्य का बृह्त्‌ इतिहास आपुलक गात में मलयवात, में चिर मिलनातुर जन्मजात, तुम लज्जाधीर शरीर प्राण द थर थर कंपित ज्यों स्वर्शंपात, फेंपती छायावत्‌ रात काँपते तम-प्रकाश आलिंगन भर ।* इस कविता के छुंद का लयनिपात, शब्दयोजना, वचनमंग्रिमा आदि . समस्त शेल्पिक उपकरण छायावादी शिल्प के ही अंतरंग तत्व हैं, मूलवर्ती भावना में भी रोमानी तत्व का संस्पर्श विद्यमान है । वर्तमान नई कविता का मुल स्वर यद्यपि छायावाद के आस्थावादी स्वर से सर्वथा मिन्‍न है--उसकी बौद्धिक निबिड्ता, श्रनाध्या, सोंदयविहीन अ्रदुभुत तत्व तथा सघन मर्तता आदि प्रमुख प्रवृत्तियाँ उसे छायावाद से बहुत दूर ले जाती हैं तथापि नई कविता को छायावाद से प्रमुखतः फल्पनातिरेक ओर अदूभुत तत्व उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ है। उसका रोमानी तत्व भी कहीं कहीं इसमें अ्रनायाप्त ही अ्रभिव्यक्ति पा जाता है, उदाहरणाथ : £ न ला में मात्र एक सुरंध हँ-- ग्राधी रात महकनेवाले इन रजनीगंधा के फूलों की प्रगाढ़, मधुर गंध-- द ग्राकारही न, वर्शुहीन, रूपहीन' इन पंक्तियों में रोमानी तत्व के साथ व्यंजित ध्ग्ाकारहीन, वर्णहीन, रूपहीन! की कल्पना निस्संदेह छायावाद की ही रूपविषयक अमांसल एवं अतीरद्रिय कल्पना है। द । नई कविता की नूतन शब्दनिर्माण, प्राचीन प्रतीकों एवं उपमानों में नवीन अर्था का अनुसंधान कर उनके पुनरासख्यान एवं नवरूवांतरण तथा नूतन प्रतीकों एवं बित्रों की सृष्टि श्रादि शिल्पसंबंधी प्रवृत्तियों के विकास में छायावादी काव्य- ... शिल्प की प्रेरणा ओर योगदान तर्कातीत है। इस प्रफार यह कविता अपने मल रूप में छायावाद के नवोन्मेष का ही प्रसार है। १ नरंद्र शर्मा, 'कविभारती”, पृ० ५६१। * घर्मवीर भारतो कनुप्रिया', प_ृ० ३० । के जलन ननधनवत-30 फनी पवार नानप सात ९ ८ 4+कतता एन कलधयत बन कलतएनन हल दाचकात ४ रा ॥! पु ' ॥ ॥ 0 5555-32 लक 3 5-5235:3 छान ध _[ भाग १० ] काव्यशिल्प ... देर१ संपूर्ण हिंदी साहित्य में छायावादी काव्य के शिव्पवेमव का प्रतिद्वंद्वी केवल भक्तिकाव्य और एक सीमा तक अ्रल्॑कृत रीतिकाव्य ही हो खकता है। लेकिन कलात्मक दृष्टि से छायावाद का शिव्पवेभव भक्तिकाव्य के शिव्प की अपेक्षा अधिक नूतन आमा से प्रदीप्त एवं समदध तथा रीतिकाव्य की अ्रपेज्षा अधिक अंतःस्फूत, जीवंत एवं सप्राण है। इस प्रकार कल्पनाधिक्यजन्य शब्दमोह, चित्रमोह, बिंबमीह, अस्पष्टता एवँ दुरूहता आदि समस्त न्यूनताओ्नों के साथ छायात्राद का समृद्ध काव्यशिरूप भावानुरूप कोमल, मसण एवं गीतात्मक शब्द-विन्यास-क्रम, नूतन एवं रम्यादभुत अप्रस्तुत-योजना, समृद्ध बिंब्र एवं प्रतीकृविधा न, लक्षणु-व्यंजना-वैमव तथा नूतन छुंदयोजनाओं के कारण अपने युग की ही चरमोपलब्धि का प्रतिमान नहीं है अपितु वह उसी के बल पर अ्नागत भविष्य के गर्भ में निहित काव्यधाराशों का भी दिशानिदेशक एवं प्रेरणाखोत बना रहेगा, इसमें संदेह नहीं। आधुनिक काव्यशिल्प के विफास में इसका योगदान भावात्मक और अमावात्मक दोनों दृष्टियों से माना जा सकता है--एक ओर जहाँ अपने फल्पना एज शिल्पवेभव से छायाबाद ने आधुनिक काव्यशिल्प को अनुपम उत्कर्ष प्रदान किया, वहाँ दूसरी ओर उसकी परिसीमाएँ भावी काव्य के लिये प्रेरणा।लोत बन गई | १०-४१ ः | | | । | ॥ श्र 0, | पी 33-०5 53300 75 आ 8 पाश्चात्य प्रभाव छायावाद पर पाश्चात्य प्रभाव फा सम्यफ्‌ वस्तुपरक एवं वेशानिक आकलन कई कारणों से श्रसुकर तथा कृच्छ साध्य हो गया है । फतिपय विद्वानों ने इसकी अभिव्यक्तिप्रणाली पर केवल प्राचोन मारतीय साहित्यशास्त्र का प्रभाव देखा है ओर इसे “एतदशप्रसूत” लिंद्ध करने के लिये “वक्रोक्ति! त्तथा “ध्वनि! की. प्राचीनता की ओर इगित करते हुए घोषणा फी है कि छायावाद के लाक्षशिक प्रयोगों, अमूर्त उपमानों या अ्रप्रस्तुत विधानों की चित्रभमाषामयी शेंली हमारे यहाँ . की प्राचीन वस्तु है | प्रसाद जी ने कहा है कि 'हिंदी ने आरंम के छायावाद में अपनी भारतीय साहित्यिकता का ही श्रनुसरण किया है|” उनके लिये छायावाद अभिव्यक्ति का ही एक ढंग दे, नवीन शेली” और “नया वाक्यविन्यास” है जो (सूक्ष्म ग्राम्यंतर भावों के व्यवहार में प्रचलित पदयोजना की असफलता के फारण प्रयुक्त होने लगा था। छायावादी काव्य फो नवीन मूल्यपरक काब्य न मानकर रहस्यवाद तथा शेली के अर्थ में स्वीकार करते हुए आचार्य शुक्ल ने इसकी भाववस्तु को शुद्ध विदेशी अ्रनुकरण कहा है श्रौर इसमें ४विलायती श्रभिव्यंजनाबाद फे आदेश पर रची हुई बंगला कविताओं की नकल? देखी है। उनके विपरीत कुछ समीक्षक श्रव इस बात पर जोर देने लगे हैं कि छायावाद न तो विदेशों भावों का विज मण है श्रोर न अनोखे अनोखें उपनामों के लांगूल से विभूषित ... कवियों फा “ओडंबरजाल”, बेतुकी पद्यावली? या “गोरखघंधा? ही। यह तो शुद्ध रूप से अपने जीवन फे नए मूल्यों फी फलात्मक अभिव्यक्ति है और इसका उद्धव अपने देश, साहित्य तथा युग की आंतरिक प्रेरणशाओं फे कारण हुआ है। इसके पीछे उस सांस्कृतिक नवोस्म्रेष की संपुष्ट वेचारिक भूमिका है जिसका संचालन . ब्रह्मसमाणज, प्रार्थनासमाज, आर्यसमाज; थियोसॉफिकल सोसायटी, रामकृष्ण प्रमहंस, विवेकानंद, अरविंद प्रद्मति ने किया था । कुछ आलोचकों ने छायावादी फविता के कलापक्ष ओर सामान्य भावपक्ष पर अँगरेजी रोमांटिफ कविता फा .. _श्रांशिक प्रभाव” देखा है ओर कुछ ने इस मान्यता को ख्रीकृति दी है कि छाया- ९ जयशंकर “प्रसाद', काव्य और कला तथ[. अन्य निबंध ( इलाहाबाद, सें० १९९६ ), पृ० १४८। ३२४ |. ०० हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहस युग में पहली बार साहित्य में पाश्चात्य साहित्य का व्यापक प्रभाव तथा नकोन विधाएं मूर्त रूप में पुष्पित पल्लवित दिखाई पड़ती हैं ।/ द छायावाद के प्रति इन परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों से कई निष्कर्ष उपस्थित होते हैं। सर्वप्रथम यह स्पष्ट हो जाता है कि कतिपय समीक्षकों की अंतश्चेतना में प्रभावित होना अपनी वेबक्तिकता और विशिष्टता से वंचित होने का पर्याय बन गया है ओर इसी कारण वे पाश्चात्य विचारधाराशओं से छायावाद के प्रभावित होने की बात से छ्षुब्ध हो उठते हैं| शातव्य है कि प्रसावित होना न तो अ्रनुकरण . करना है और न अपनी हीनता काद्रोतन करना ही। प्रभावित होनेवाला साहित्य और संस्कृतियाँ जीव॑त होती हैं श्रोर उनमें विकास छी अ्रपरिमित समावनाएँ वर्तमान होती हैं । अ्रत: पंत जी फा यह फथन कि 'ह्विंदी का हिंदी के ही भीतर से विकास हो, वह्द बाहरी प्रभाव आत्मसात्‌ न करे, यह स्वस्थ हृष्टि नहों है! सर्दथा समीचीन है श्र यह द्योतित करता है. कि छायावाद मारतेतर प्रभावों पे ञ्छूता नहीं है। दूसरी बात जो पूर्बोक्त दृष्टिकोशी से प्रकट ह ती है, यह हे कि प्रभावों के अनुसंधान, विबव्ृति ओर विश्लेषण में श्रसंतुलित हो जाने की सहज प्रवृत्ति मिलती है ओर सर्मीक्षुक या तो प्रभावों का ग्रातिशय्य दिखलाते हैं या उनका नितांत अमाव। आधुनिक युग में जब विचारों का श्आायात निर्यात फल्पनातीत त्वग से हो रहा है ओर जब विश्व के सभी देश किसी न किसी रूप से _ अ्रभ्योन्याअित तथा अंतःश्षं१ क्त हो रहे हैं तब यह फहना कि छायावाद पश्चिम से बिलकुल प्रभावित नहीं हुआ, तथ्यानुमोदित नहीं दीखता। वस्वुतः बिस युग में. छायाबाद कार्श अम्युदय हुआ्ला उस संपू युग को भावभूमि पर परश्चिम थे वेशानिक शोधों तथा अँग्रेजी माषासाहित्य का परोक्ष ही नहीं, प्रत्यक्ष प्रभाव भी अंकित है, यहाँ तक कि तद्युगीन साहित्य में पल्लायन; नेराश्य ओर नियतिवाद की जो भावनाएँ दृष्टिगत होती हैं, वे मी उस युग फो परिस्थितियों में व्यक्त हैं और उन परिस्थितियों पर पश्चिम का प्रभाव असंदिग्ध है। द .... परंतु साथ ही जहाँ हमें यह स्वीकार फरना चाहिए कि साहित्यकारों की चेतना पर युगसत्य का प्रभाव पड़ता है, वहाँ हमें इस मान्यता फो भी स्वीकृति देनी होगी कि सभी सजक साहित्यकार्रों पर प्रभाव फो मात्रा समान नहीं हुआ करती । कुछ साहित्यकार प्रभावग्रहण में उदार और अतिसंवेदनशील होते हैं 6 कि 2 गी न ब' | ु ५ (५ | ; ओर किसी किसी को चेतना प्रभावनीयता की दृष्टि से काप्ठकुड्याश्मसंनिम हुआ ..._ सुमित्रानंदन पंत, कला ओर संस्कृति ( इलाहाबाद, १६६५ 9 ९० १५। .._ सुमित्रानंदन पंत, छायाबाद, पुन्मूल्यांकन (इलाहाबाद, १६६५), ३० रेहै | भाग १० ] .. पाश्चात्य प्रभाव ३२५ करती है। कभी कभी निज के संस्कार इतने प्रबल होते हैं कि वे साहित्यकार फो बाह्य प्रभावों से स्वंथा मुक्त रखते हैं । इसी प्रकार अपनी हो परंपराओं ओर संस्कृति की स्वोगीण वरिष्ठता एवं गरिमा में इतनी गहरी आस्था होती है कि कुछ लेखक बाह्य प्रभावों सं श्रपने फो यथाशक्ति बचाने फा ही यत्न करते हैं। छाया- वादी कवियों और पश्चिम के रोमांटिक कवियों में जो वस्तुगत तथा रूपगत समान- ताएं मिलती हैं उनके आधार पर यह फहना कि छायाव्राद पर उन्‍नीसवीं शी के _ पाश्चात्य (रोमांटिशिज्म? का प्रभात्र है, युक्तियुक्त नहीं दीखता | भावसाम्य अथवा विषयसाम्य से ही प्रभाव का द्योतन नहीं होता । जीवन की तरह साहित्य की भी भिन्‍न भिन्‍न थाराएँ स्वतंत्र रूप से सतिशील हो सकती हैं आर जीवन की भाँति साहित्य के ्षित्र में मी संयोग बड़े महत्व का होता है। हो सकता है कि छायावाद ओर पाश्चात्य रोमांटिसिज्म की समानताएँ संयोगजन्य हाँ | संभवतः छायावाद ओर रोमांटिसिज्म इस कारण समान दौोखते हों कि दोनों की एष्ठभूमि में जो शक्तियाँ क्रियाशील थीं वे बहुत कुछु समान हों । विध्मवमिश्रित कौतूहल; सौंदय फी बभुज्ञा, प्रकृतिप्रेम, सुक्ष्म स्वानुमूतिमयां रहस्थात्मक अभिव्यक्ति, जीवन को परलता के प्रति सहज स्वाभाविक दृष्टिकोण, ख्वच्छुंदता और आदशवादिता दोनो आंदोलरनों में दृष्टिगत होती है। दोनों यथार्थ से कल्पना, स्थून्र से सूक्ष्म, रूप से अ्ररूप, व्यक्त से अव्यक्त एवं सत्य से स्वप्न की ओर प्रवृत्त होते हैं ओर दोनों में कल्पना, अनुभूति ओर चिंतन का लवश-नीर-संयोग उपलब्ध होता है। स्थूल का वायवीकरणु केवल छायावादी दृष्टि की ही प्रधान विशेषता नहीं, अँग्र जी की रोमानी कविता की भी प्रधान विशेषता हैं ओर आचाय नगेद्र के शब्दों में कहा जा सकता है कि रोमानी फाव्य की तरइ छायावाद व्यक्षित की दमित और कुंठित .. फामभावना से उत्पन्न होनेवाली व्यक्तिपरक कविता का नाम है। दोनों नीति- .. मूलक शुष्कता एवं इतिद्ृत्तात्मक शास्त्रवादिता का विरोध करते हैं, दोनों “जड़तावादी साहित्य के रेगिस्तान में शाहलल' बसाते हैँ, दोनों अपने श्रपने देश के ऑंद्योगीकरण के प्रति विज्ञोभ की भावना से प्रेरित हैं, दोनों के आदश तदूयुगीन राजनीतिक घटनाओं से प्रभावित और अ्रनुप्राणित हैं। इस कारण दोनों में पर्याप्त साम्य है ओर ऐसा भासित होता है कि जब्र जब इन दोनों के जन्म .. की परिस्थितियाँ उत्पन्न होंगी तब तब भविष्य में मी छायावादी ओर रोमानी साहित्य का अवतरण होता रहेगा । इसमें संदेह नहीं कि इतिहास की पुनरावृत्ति होती है ओर जहाँ कहीं वे शक्तियाँ क्रियाशील होती हैं बिन्होंने मारत में छायावाद तथा शंग्लंड में रोमांणिक नवजागरणु फो जन्म दिया था, वहाँ वहाँ छायावाद श्र रोमांटिपिज्म का उन्मेष होता है । यद्यपि छावावादी निकाय के साहित्यकारों ने द्विवेदी युग फी शुष्क, ६२६ ...:£&ः5 हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास उपदेशपरायश और इतिव॒त्तात्मक शैली से शुब्ध हो अपनी भाषा और वरणय॑ विषय में श्रामूल परिवर्तन करने का संकल्प किया था, फिर भी उनका छायावाद प्रतिक्रिया मात्र नहीं है। वे नवयुग के परिवर्तित परिवेश झोर भावसंपदा के प्रति जागरूक थे । वे जानते थे कि नई परिस्थितियों में नवीन कथ्य के लिये प्राचीन परिपाटीबद्ध शिल्प और प्राचीन वाद--चाहे उनका संबंध मध्ययुगीन संतों और साधकों के रहस्यवाद से हो या पश्चिम के स्वच्छुंदतावाद ओर प्रतीकवाद से--समीचीन नहीं हो सकते | वे अपने युग फी विशिष्ठता के प्रति सचेत थे श्रोर इसी विशिष्टता को अक्षुश्ण रखने के ल्लये उन्होंने जिस साहित्य फो सजना की वह छायावाद के नाम स अ्भिहित हुआ । निस्संदेह इस वाद के प्रवतन के मूल में राष्ट्रीय ओर सांस्कृतिक प्र रणाएँ ही क्रियाशील थीं, परंतु जिन फारणों स कथ्य में नवीनता आई और युग फो उसका वेशिश्य मिला उनमें पश्चिम का भी न्यूनाधिक योगदान स्म्ंव्य हें। छायावादी हिंदी कवियों ओर गद्यकारों फी चतना उतनी ही संश्ल्िष्य हैं जितनी उच्च फोंटि के मौलिक साहित्यफारों फी चेतना हुआ करती हैं और वह युगसत्य से उतनी ही प्रभावित है जितना पश्चिम के रोमांटिक फवि और गद्यकार अपने युग की जीवनपरिस्थितियों से प्रभावित थे । इन सबफोी तथाकथित पलायनवादता भी युगसत्य के प्रति प्रबल्ल जागरूकता से उद्‌बुद्ध हुईं है। उस न० युगसत्य के निर्माण और छायावादयुगीन राष्ट्रीय नवजागरण को बल प्रदान करने में पश्चिम का भी कहीं परोक्ष, कहीं प्रत्यक्ष. योगदान रहा है । द कटद्दा जा सकता है कि हिंदी साहित्य में नई सांध्कृतिक चेतना का सूत्रपात भारतेंदुयुग में हुआ है ओर “पाश्वात्य जीवनपद्धति तथा शासनप्रणाली का भारतीय जीवनचेतना में अविराम प्रभाव पड़ते रहने के कारण धीरे धीरे परवर्ती साहित्य में यह दृष्टि विकसित होती रही है |! छायावाद इसी चेतना फी, इसी नई मानवता की अभिव्यक्ति का प्रयास है जिसका अवतरण “भारत-यूरोप-धंपक से हुआ था और जो अंग्रेजी थिक्षा के फारण स्वाधीनता, उदारता, वैज्ञानिकता ओर बुद्धिवाद विषयक यूरोपोय विचारधाराश्रों को हज उत्तराबिकारिणी हां गई. थी ।” यह नया मानव नतो पूर्ण भारतीय था और न 'विलायती 20 । चीजों का रब्बा' । भारोपीय तत्वचितन एवं फाव्यपरंपरा के मानवतावादी तत्वों से निर्मित, इश्स चेतनात्मा में एक और तो “उपनिषद्‌ की जिज्ञासा, वुद्ध फी करुणा और क्‍ 9 कला भ्ीर संस्कृति, प० २९ | द 2288 3 08700 283, ? काठ्य की भाम्िका ( पटना, १९४८ ), परू० ३८ । [ साग १० ] पाश्चात्य प्रभाव. ३५७ दुःखवाद की भावना, सेगाँव के संत की विश्वमेत्री की भावना तथा तिलक की नेतिकता” मिलती है ओर दूसरी ओर 'रबींद्र और हीगेल के सौंदर्यवाद, डार्बिन के विकासवाद; रूसो फे जनतंत्रानुमोदित व्यक्तिस्वात॑त्य और समानता फी भावना तथा अंगरेजी रोमांटिफ काव्यधारा की कल्पना की उड़ान के एक साथ दर्शन होते हैं ।/” नवजागरण के आदि नेताओं में स्वामी दयानंद एक श्रोर अपनी संस्क्ृत और सम्यता को ग्रहण करने की घलाह देते थे और दूसरी ओर वर्तमान युग के प्रवाहों से परिचित होने के कारण होनहार विद्याथियों को विविध प्रकार के उद्योगधंधों फी शिक्षा प्राप्त करने के लिये इंग्लेंड ओर जर्मनी भेजना चाइते थे | इसी प्रकार राष्ट्रीयवा की भावना ज्ञाग्नत करने, हिंदुओं के परंपरागत संस्कारों की पुष्टि फने और अपनी अद्सुत तकशक्ति से यह दिखलाने में एनी बेसेंट किसी से पीछे न थीं कि हिंदू धर्म विज्ञान के प्रतिकूल नहीं है। इंग्लैंड की इस विदुषी महिला ने शिक्षित समाज में धर्माभिमान और स्वाभिमान चाग्रत किया था, बेज्ञानिक इष्टिकोश से हिंदू धर्म के मिन्‍न मिन्‍न पद्ों का विवेचन किया था तथा भारतीय संस्कृति फो सुंदर और स्वस्थ सिद्ध करके ग्राक्न बनाया था। स्वामी विवेकानंद के प्रयत्नों के फलस्वरूप पश्चिमी देश भी भारतीय संस्कृति का आदर करने लगे थे ओर दुराग्रही यूरोपीय पादरियों की अनर्गल बातें बंद हो गई थीं। स्वामी जी ने अमरीका और यूरोप के जातीय अरहंकर एवं अमर्यादित अ्थपरायणुता की निंदा की और बतलाया कि धार्मिकता के बिना मानवजीवन निस्खार है, प्रत्येक व्यक्ति में देवत्व है जिसके विकास फो आवश्यकता है। बंगाल में नवजागरण का चिरज्वलंत रूप ब्रह्मसमाज था जिसमें ईसाई भक्ति और हिंदू वेदांत दोनों का तडित्‌-तोयद-संयोग मिलता है । इस समाज के अनुयायियों में भक्ति का गहरा पुठ था, रहस्यथवाद की प्रेरणा थी आर वे यूरोपीय संस्कारों फो हिंदुत्व में श्रात्मतात्‌ करना चाहते थे। इन सारी शिक्षाओ्ं के फलस्वरूप लोगों हा ने भारत के गौरवमय अतीत का साक्षात्कार किया था; परतु जहाँ भी उनकी. हृष्टि जाती; वे समकालीन पश्चिमी सम्यता के गौरवचिह् देखते ओऔ< उनके मन में प्रतिस्पर्धा की भावना उनन्‍मीलित हो उठती। उन्‍नीखवीं शर्ती के देशभक्तों ने अतीत के रजकर्णों द्वारा जिस नए भारत के निर्माण की कल्पना की थी, वह नवभारत नहीं बनता था। इसकी जगह उसका निर्माण समफालीन पश्चिम से निरंतर प्राप्त होनेवाली प्रेरणा के आधार पर हो रहा था। जुलाई, १६१५ में “हमारे सामाजिक हास के कुछु कारणों का विचार? करते हुए माधवराव सप्रे ने “सरस्वती! में लिखा था कि 'पश्चिमी सम्यता को आश्चर्यजनक बातों से! हमारा मन उन दिनों इतना मुग्ध हो गया था कि हम पश्चिम की “अ्रेधी नकल? करने लग गए ये--पश्चिमी देशों की प्रायः सभी बाते हमें प्रशंसनीय ओर अनुकरणीय!' श्र्द द आ हिंदी साहित्य का बहत इतिहास मालम होने लगी थीं ।* उसी वर्ष सितंबर में प्रकाशित “सरस्वती” मे! आधुनिक शिक्षा और बुड्धिस्वातंत्यः पर विचार करते हुए उन्‍होंने कहा कि 'देशी शिक्षा और देशी भाषा को उत्तेजन देना संकुचित दृष्टि का लक्षुरा' माना जाने लगा था ऑर पश्चिमी शिक्षा दीक्षा के रूप में” लोग आत्ममाव? फो कम कर डालनेवाले तथा अपने समाज का हास करनेवाले काय करने लगे थे। इस शिक्षा के प्रभाव के कारणा मारतवासियों फो अपना हिंदुस्तानीपन निंद्, तिरस्करणीय और त्याज्य मालूम होने लगा था।' आधुनिक हिंदी कविता? की “श्रधोगति? के कारणों का विश्लेषण करते हुए. कामताप्रसाद गुरु ने सरस्वती! के जून, १६१६ वाले अ्रंक में पाश्चात्य प्रभाव की ओर ही इगीत किया था श्र फह्ा था कि जिस प्रकार विद्यार्थी किसी भाषा का नया शब्द, वाक्यांश, अथवा वाक्य सीखकर अ्रपनी बोलचाल में येन केन प्रकारेश/ उसका प्रयोग कर देते हैं उसी प्रकार हमारे . हिंदीभाषी भाई उर्दू भ्रथवा अँगरेजी भाषा बोलने में अपनी विद्वतता ओर बढ़ाई समभते हैं| लोग 'स्वधर्में निधन श्रेय: परधर्मों भयावह फा उपदेश भूल रहे थे। राष्ट्रनि्माण में योगदान करने की बात तो दुर रही, वे रात दिन पश्चिमी सम्यता की प्रशंसा के ही गीत गाने लग गए थे ४ यह सत्य है कि सीधे तौर पर यूरोपीय विचारों से तत्कालीन भारत का एफ बहुत छोटा सा समुदाय ही प्रभावित हुआ था, फिर भी इत समुदाय का प्रभाव उन लोगों की अपंक्षा अधिक था जो भारतवर्ष की दाशंनिक प्रष्ठभूमि से चिपके थे ओर जिसे वे पश्चिमी पृष्ठभूमि से श्रपेज्ञाकृत अधिक उन्नत समभते थे | श्रतः पश्चिम का सर्वाधिक प्रभाव श्रोर आधात जनजीवन के उस पहलू पर हुआ्रा जो प्रत्यक्षुत: पूव फी अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ था। नए वेज्ञानिक आविष्कारों की अवहेलना नहीं फी जा सकती थी । ये आविष्कार “परोक्ष रूप से पुराने तरीकों को ढक्ेलकर ऊपर श्रा गए श्रोर हिंदुस्तान के दिमाग में संघर्ष पैदा हुआ | इस संघर्ष और राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं आशिक प्रगति के घात प्रतिघात की चिनगारी से जो प्रकाश फेला वह नवयुग का प्रकाश थां। श्सके चाकचिक्य में प्राचीन मल्य मान्यताएं और * सरस्वती, जुलाई १९१५, ए० ३५ । * सरस्वती, सितंबर १६१५, प१० १७१ ॥ सरस्वती, जून १६१६, पू० ३०१-३५२ | द्रष्टव्य--माधवराव सप्रे लिखित (पूर्वी श्रीर पश्चिमी सम्यताओ्रों में विभिन्‍तता तथा स्वदेशी साहित्य का महत्व”, सरस्वती, फरवरी १९१८। _ जवाहरलाल नेहरू, हिंदुस्तान को कहानी ( १६९४७ ), ए० ३८७ | [भाग १०] पाश्चात्य प्रभाव .. ३२६ परंपरागत संस्कार ठहर न पाए, परंतु उनकी जगह नवीन मूल्यों को भी प्रतिष्ठा नहीं हुई । छायावादी युग में विश्वत्रिद्यालयों में सहशिक्षा प्रारंभ हो चुकी थी और निखिल छबि फी छुजि' नारी के प्रति पारंपरीण मनोदृष्टि में परिवर्तन होने लगा था। इस कारण श्रत वह भोगविज्ञास तथा अधिकार की वस्तु न रहकर कल्पना के शीशमहल फी परी' हो गई। रीतिकाल में जहाँ उसका मापदंड रीतिशासत्र था; छायावाद के युग में उसका मापदंड मनोविज्ञान और फामशास्त्र बन गया | वस्तुत: भारतेंदुयुग से ही हिंदी साहित्य पर पश्चिम फा अत्यधिक प्रभाव दृष्टिगत होने लगता है। हमारे साहित्यकार जानते थे कि “भाषा का विकास और उन्‍नति नवीन मावों ओर विषयों के संनिवेश से ही होती है ।” नवीन उपयोगी छुंदों की तलाश करते करते वे बँगला, मराठी और फारसी तक ही नहीं पहुँचे, बल्कि उन्होंने अ्ँगरेजी श्रादि भाषाओ्रों के भी छंदों के उपयोग की पुरजोर सिफारिश की ।* उनके लिये अ्रँगरेजी साहित्य ऐश्वयंवान था, अ्रँगरेजी भाषा संवधनशील थी ओर इसके बोलनेवाले लोग मारतवासिरयोँ के शासक थे। अँगरेजी शिक्षा में स्वाभाविक आकर्षण था, उसमें अ्रध्यात्म अत्यल्प, पर ऐहिक तत्व सर्वाधिक ये । उसमें बहिर, पर अधिक बल था, अ्रंतर_की प्रायः उपेक्षा थी। इसके अतिरिक्त नई शिक्षा आधुनिक थी, देशी शिक्षा पुरातन एवं रूढ। जहाँ ज्ञानविज्ञान पर आश्रित नई शिक्षा ने अ्रलीबाबा के ध्खुल समसम' की तरह पश्चिम को धन ऐश्वयं से परिपूर्ण कर दिया था हीं दूसरी ओर गतानुगतिक ओर संकीणता पर आ्राश्नित देशी शिक्षा भारतवासियों को दिन-प्रति-दिन जजर तथा दरिद्र बनाती जा रही थी। .. जिस स्वर्ग की ओर इनकी आँखें ठकटठकी लगाए रहतीं उससे इनके नित्यपूजित _ देवगण स्वर्णरजत की वर्षा नहों करते और न अपने बुभ्ुक्षित पिपासित भक्तों के लिये शीतल मधुर स्वातिसुख बरसाते। उलदे दुर्मिक्ष, दारिद्रय, अज्ञान श्रौर .. अंधविश्वास ने इनके जीवन को नानाविध संकर्ठों से आक्रांत कर रखा था। नई . शिक्षा विज्ञान पर आश्चत थी, उसमें नया जाज्वल्यमान शानालोफ था ओर उसमें . पार्थिव सुख की आह्यादजनक संभावनाएँ थीं। उच्चाकांक्षी नवयुवकों के लिये . उसमें नौंकरी थी तो इसमें-देशी शिक्षा में- बेकारी । अश्रँगरेजी भाषा से ही हिंदी सयोदा, नवंबर १९१०, १० २५। ६ द्रष्टव्य--श्रीधर पाठक लिखित खड़ी बोली की कविता! | ) ९ उपरिवत, ए० २६ | १०-४२ , >>सय आयात रू डकउ तक उप +ाचहसइतज5ा धपपजपतबसरतदहरस परर+नआसरथक डे >> थे ४2227 322552:2 ४ इइ० द हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास भी सर्वाधिक उपकृत हो सकती थी। देशी भाषाओं में अभी वह ओदाय ओर बल न था जिससे वे हिंदी के पोषण संवधन में योग्दान कर सक्क । श्रत यह स्वाभाविक है फि हिंदी साहित्य पर पाश्चात्य भाषाओं में सवाधिक प्रभाव झँगरेली भाषासाहित्य फा ही पड़े । छायावाद पर अगरेजी साहित्य फे प्रभाव का आ्रायात कभी तो सीधे अँगरेजी साहित्य से होता है ओर फभी बैंगला साहित्य के माध्यम से। यहाँ यह भी स्मरणीय है कि छायाबाद का पश्चिम से प्रभावित होना कोई चमत्कार नहीं है श्रोर न हिंदी साहित्य के विकास से इस घटना फी कोई प्रथकू सत्ता ही है। यह प्रभाव ऊपर से जोड़ी गई चकती या पैबंद नहीं है ओर न अ्रस्वाभाविक ह्वी। यह तो हिंदी भाषासाहित्य के स्वाभाविक विफास की ही एक अ्रविच्छिन्न कड़ी है आर इसकी परंपरा हिंदी साहित्य के विकास की उस सतत परंपरा की ही उपशाखा है जिसके निर्माण में मिन्‍न भिन्‍न देशी विदेशी प्रभावों का प्रभूत योगदान है। विश्व का कोई भी साहित्य श्र न्‍्य साहित्यों से स्वथा प्रथक्‌ रहकर विकसित नहीं हो सकता। वह जिस चेतना फी अ्रभिव्यक्ति होता है वह आप ही भिन्‍न भिन्‍न प्रभावों को आत्मसात्‌ किए होती है। श्रतः साहित्य फी शअ्रभिवृद्धि प्रभावों के सम्यफ आत्मसात्करण पर भी निर्भर होती है। छायावाद पर पाश्चास्य प्रभाव हिंदी साहिस्य की इसो समीकरण शक्ति का परिचायफ है। - पश्चिम की जिस साहित्यधारा से छायावाद प्रमावित हुआ वह प्रधानतः उन्‍नीसवीं शती फे रोमांटिफ नवजागरण को ही प्राणवती धारा थी। पश्चिम में नई फविता फा प्रचलन बढ़ चला था; सन्‌ १९१२से ही इंगलैंड में हम, एजरा पाउंड, रिचर्ड आल्डिंटन, हिल्‍डा डूलिटल प्रश्नति ने बिंववादी कविताघारा .. का सूत्रपात फर दिया था। यद्यपि सन्‌ १६२० में पाउंड लिखित “मॉबले का तथा सन्‌ १६२२ में इलियट विरचित «द वेस्टलेंड” का प्रफाशन हो चुका था, फिर भी छायावाद के कवि पाश्चात्य रोमांटिकों से ही अधिक प्रभावित हुए। यूरोप की नई कविता उन्‍नीसवीं शती की रोमांटिक फाव्यधारा के विरुद्ध प्रतिक्रिया थी, परंतु हिंदी फी छायायुगीन कविता इसी काव्यधारा से प्रमावित हुईं। इसके कई कारण हैं : (१) विदेशी मतवाद हमें तब तक ग्राह्म नहीं होते जब तक उनके लिये उपयुक्त भूमिका नहीं बन जाती । श्रपनी अंतरराष्ट्रीय दौड़ में साहित्यिक . बाद कभो तेज, फभी धीरे धीरे चलते हैं। एक देश में उत्पन्न होकर वे दूसरे देशों पर कभी तो तत्काल छा जाते हैं श्रोर कमी विलंब से। इटली में यूरोपीय ४ _ नवज्ञागरण का आरंम चौदहवीं शी में ही हो चुका था, पर श्गलैंड में उसके... प्रभाव का प्रसार पंद्रहवीं झती में हुआ । (२) उन्‍नसवीं शती का पाश्चात्य रोमांटिसिज्म भारतीय सर्वात्मवाद से प्रभावित था । इसेलिये छायाबादी कवियों ने [ भाग १० ] पाश्चात्य प्रभाव॑ क्‍ .. ३३१ वर्ड स्वथं, शेढी, कीट्स, बायरन आदि के काव्य को मनोनुकूल पाया | (३) वर्तमान शती के चौथे दशक तक हमारे विश्वविद्यालयों में रोमांटिक और विक्योरियाकालीन कवियों का ही सर्वाधिक अध्ययन अ्रध्यापन होता था। उनके पाख्यक्रम में अधिक से अधिफ जाजियन कवियों फी ही रचनाएँ प्रविष्ट ओर लोकप्रिय थीं। जब नए. मतवादों में श्रभी स्थाय्रित्व का श्रभाव था ओर हे जब उन्‍नीसवीं शती की रोमानी भावगत परंपराएँ बलबती थीं, छायावादी कवियों का अगरेजी फाव्य विषयक अ्रध्ययन उन्नीसवीं शती तक तो रहा ही होगा। (9७) उन्तींसवीं शती तक का अँगरेजी साहित्य नवशास्त्रवादी युग की «“परिपाटीबद्ध रप़तज्ञता, परिपाटोबद्ध शिल्प, परिपाटोबद्ध दृष्टि! के प्रति विद्रोह था। छायावादी कवियों को भी द्विवेदीकालीन परिपाटीबद्धता से विद्रोह करने की आवश्यकता थी | ( ५ ) इंगलंड में वैज्ञानिक आविष्कारों तथा दिन दिन होनेवाले श्रोद्योगिक विक्रास के फलस्वरूप रोमांटिसिज्म का उदय हुआ था। भारतवंष का भी ग्रोद्योगीकरण हो रहा था और वेज्ञानिक साधनों के आविष्फार तथा उपयोग से नागरिक सभ्यता विकसित हो रही थी। (६ ) श्रठारहवीं शती के नव्यशास्त्रवाद में पुरातन अ्भिजात मुल्यों का अत्यधिक स्वीकरण हुआ था, इसलिये स्वच्छुंदता- वाद में नव्यता पर बल दिया गया था ओर नवनवोन्मेषक्षम कविप्रतिभा को काव्य का श्रजल उद्गमलीत माना गया था। छायावादिया में मी नवीनता क प्रति ऐसा ही प्रबल, व्यापक राग दष्टिगत होता है। ( ७ ) उन्‍नीसवीं श॒ती के रोमांटिक कवि प्रकृति के अनन्य प्रेमी थे । छायावादी कवि भी सामाजिक ढाँचे फे बासी सौंदर्य' से उब चुके थे। (५) अपनी अतिशय फोमलमृदु संवेदनशीलता ओर ५ ५ ८ ८ कप न अनुपलब्ध आदशों के फारण रोमांटिक कवि सदव क्षुब्ध, श्रतृत एवं वेदनाकुल रहते थे। छायायुगीन साहित्यकार भी श्रपनी अंतमु खी एकांतप्रियता और . - शुन्यता को वाशी देना चाहते थे। युद्धोच्तकालीन सामाजिक एवं आशिक . _ परिस्थितियों ने एक अवसादमय वातावरण का निर्माण कर दिया था। (९) .. रोमांटिक गीत अपने रचविताओ्ं के आत्मनिवेदन मात्र थे। उनकी उद्दाम .. वेयक्तिकता नव्यशास्त्रवादी कवियों की निर्वेबक्तिकता के प्रति विद्रोह थी। . .छायावाद ने मी भक्तिकालीन तथा रीतिकालीन फवियों कौ रूढ़िगत तव्स्थता के प्रति विद्रोह किया था और '्स्वानुभूतिमयी लाक्षशिक श्रमिव्यक्ति! को अपना आदर्श बनाया था। ( १० ) रोमांटिक कवियों में मानवता के लिये संदेश था। .._ भारत के छायायुग में इसकी राजनीतिक भूमिका पर गांधी जो का श्रवतरण हो .... चुका था और उनके आदर्शों में हिंदवाद के स्थान पर विश्वमानवताबाद फो प्रभय मिला था। ( ११ ) नव्यशास्त्रवाद ने बुद्धि और तकंणा को काव्य का हेतु माना था, इसलिये रोमांटिकों ने कल्पना को दिव्य श्रीर ईश्वरीय माना । छायावाद 32 82000 02 > $ 23 2808 न के ३१२ द .....€ हैंदी साहित्य का बृदत्‌ इतिद्ास ने द्विवेदीकालीन स्थूलता, रुचता ओर इतिइृत्तकथन के प्रति विद्रोह किया था; इसलिये उसने “कल्पना की सुकुमार तूलिका से मादक सोंदर्यप्रतिमा का सजन फिया!ः और सूक्ष्म भावव्येजक शैली की स्थापना की। (१२) रोमांटिक कवियों ने नव्यशास्त्रवादी छुंदों--विशेषतः 'कप्लेटों'--की उपेक्षा की थी अोर उनफी जगह नए नए छुंद रे थे। छायावादी कवि भी नूतन छुंदविधान ग्रोर मुक्तछुंदता के समथंफक और प्रयोकता थे। ( १३ ) रोमांटिक साहित्य में जीवन के परिवर्तित मूल्यों के प्रति आस्था थी श्रौर रूढ़, जजर एवं गतानुगतिफ मानों के प्रति अनास्था | .छायोवादी कवियों में भी शास्त्रीय रूढ़ियों के प्रति अनास्था थो। छायावाद का पश्चिम से प्रभावित होना कुछ खाहित्यफार्स को भले ही अप्रिय लगे, पर इस संप्रदाय के कवियों ने श्राप ही इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश डाला है | पंत जी ने स्व्रीकार किया है कि छायावाद का सोंदर्यवादी प्रभाव पश्चिम से और रहस्यवादी प्रभाव कवींद्र रवींद्र से आया है। स्वयं रवींद्र की प्रतिभा प्राणुवती एवं सर्वातिशायिनी तो थी ही, वह भारतीय झौपनिषदिक चेतना के साथ पाश्चात्य ज;बनसोंदय्य के सांस्कृतिक समन्वय से बनी थी। जिन दिनों छायावाद का श्रभ्युदय हुआ, उन दिनों देश में व्यास वातावरण से अँगरेजी कवियों के 'मशीनयुग के सोंद्यबोध तथा स्च्छुंदता का स्वर्शिम गंधपराग लिपया था ।॥रै साथ हो पंत जी यह भी स्वीकार करते है कि प्रसाद जी पर भारतीय दाशनिफ चेतना, बौद्धयुग फे फारुएय और विशेषतः शवागम के सामरस्य का ही सर्वाधिक प्रभाव था, न कि उन नए मूल्यों का जिनके रसचैतन्य में उनकी फकविहृष्टि निमग्न न हो सकी थी | पंत जी किशोरावस्था से ही रवींद्रनाथ के प्रभाव में आ चुके थे। जिन दिनों उनका बँगला का ज्ञान नहीं के बराबर था; उन दिनों वे अपने माई के सहपाठी मि० मुखर्जी से कवि ठाकुर की स्वनाओं का लययुक्त पाठ सुनते थे। अतः आश्चय नहीं कि “वीणा” की कुछ रचनाओं में रवींद्रनाथ के भावलोक की अस्पष्ट छाया हो और “मम जीवन को प्रमुदित प्रात सु दरि नव आलोकित फरः पर रवींद्रनाथ के अंतर मम विकसित फर अंतरतर हे” की छाप मिलती हो ४. आरंभ में पंत जी को कलाशिल्‍्प संबंधी प्र रणा मुख्यतः श्रँगरेजी कवियों से और पक रे न सर न दिशा मय 205 मर । हे .. रामयंतन सिंह “अमर, आधुनिक हिंदी कविता में चित्रविधान (दिल्ली, उच्दप),पृण०्च। क्‍ हर ४ ८४ वाद : पुनम्‌ ल्यांकन, ४० ३२ ।. * सुमित्रानंदन पंत, साठ वर्ष एक रेखांकन ( दिल्ली, १९६० ), पृ० २८ । [ भांग १० ] द पाश्चात्य प्रभोर्व ३३३ भावना संबंधी उन्मेष रवींद्रनाथ और शेली से मिला। कॉलेज छोड़ने के बाद उन्होंने उपनिषद्‌, गीता, रामायण आदि का ही अ्रध्ययन नहीं किया, इन ग्रथों के साथ रस्किन, ठालस्टाय, फारलाइल, थोरो, इमसंन आदि की रचनाओं का भी गंभीर, ध्यानपूर्वक पारायण किया । जब वे अब्सोड़ा में थे; तभी उन्होंने मात तथा फ्रायड फो पढ़ने का विशेष श्रवसर पाया और उन्हें अपने भाई तथा श्री पी० सी० जोशी से माक्स के आ्रथिफ पक्ष को समझने में भी सहायता मिली। सन्‌ १६३६ से १६४० तक्क विश्वसाहित्य, आधुनिक काव्य तथा पूव पश्चिम की प्राचीन नवीन विचारधाराओं में जो भी संग्रहणीय था, उसे उन्होंने आत्मसात्‌ किया और बतलाया कि 'पाश्चात्य दर्शन के अध्ययन से--जिससे तफ- बुद्धि फी ऋ्षमता तथा विश्लेषण करने की शक्ति मिली हे-मुझे अपने देश के सामंजस्यवादी दृष्टिकोण को समझने में सहायता मिली |” आरभ से ही पंत जी के 'पललव बाल' अपने 'विस्मित चितवन' से इस देश को ही नहीं, संपूर्ण विश्व फो देखते हैं। उनका फवि इस तथ्य को हृदर्यगम कर चुका है कि पुराना जीणं पतकड़' “नवजात बसंत के लिये बीज तथा खाद्य स्वरूप बन जाता है? तथा नवीन युग की नवीन आकफांक्षाओों फी वीणा से "नए गीत, नए छुंद, नए राग, नई रागिनियाँ, नई फल्पनाएँ तथा भावना< फूटने लगती हैं ।* इस नवीनता के प्रसार में अंगरेजी ही सुयोग्य माध्यम होगी, इसमें संदेह नहीं, इधलिये पंत जी को यह देखकर ह७ होता है कि “अब हिंदी युनिवर्सियी फी चिरवंचित उच्चतम कक्षाओं में भी प्रवेश पा गई, वहाँ उसे अपनी बहन अँगरेजी के साथ वार्तालाप तथा हेल मेल बढ़ाने का अवसर तो मिल्लेगा ही, उनमें घनिष्ठता स्थापित हो जायगी ।?* इसी प्रकार निराला जो भी नवीनता का समर्थन करते हैं .. और चाहते हैं कि हिंदी अपने चारों ओर बने परकोटे से घिरन जाए और न ... इससे अन्य देशों तथा अन्य जातियों की भावशक्ति रोक रखी जाय | ब्यापक .. .. साहित्य के युग में हिंदो का भाग्य तमी चमकेगा जत्र ब्रजभाषा के प्रेमी अपने ही . घर फो संसार की हद समझना छोड़ देंगे। निराला जो के मतानुसार व्यापक साहित्य किसी खास संप्रदाय का साहित्य नहीं होता । शेक्सपियर फी नायिकाश्रों _* सुमित्रानंदन पंत, साठ वष एक रेखांकन ( दिल्‍ली, १६६० ) १० ३४७ उपरिवत्‌, ४० ५६९। ९ पललव ( दिल्‍ली, १६६७ ); भूमिका, ६० २७। ४ उप्रिवत्‌ पृ० ५०। +8३६+२१६२८५-२ न कप ८ आ 49755 ५7490 34” | लि को परे ३३४ . हिंदी साहिस्य का बृहत्‌ इतिहास के परिव्छेद एकदेशीय हो सकते हैं, पर उनकी आत्मा, प्यार और भाव सार्वभोस हैं ।' साहित्य श्रनेक भावों और चित्रों फो पाकर ही जीवित रह सकता है, इसलिये 'हमारे काव्यसाहित्य की दृष्टि बहुत व्यापक होनी चाहिए तभी उसका कल्याणा हो सकता है ।* और इसी कारण पश्चिम से प्रभाव ग्रहरा करना कोई अपराध नहीं है--पश्चम तो आप ही हमारा ऋणी है। वर्ड स्व » रोली, फीय्स, बायरन, देनिसन थ्रादि कवियों की रचनाएँ भारतीय एवं प्राच्यज्ञान से श्ोतप्रोत हैं। 'पर हमारे साहित्य में क्या हो रहा है--यह मारतीय है, यह श्रभारतीय, असंस्कृत ॥ नस नस में शरारत भरी, हजार वर्ष से सल्लाम ठोंकते ठोंफते नाक में दम हो गया ओर. अ्रमी संस्कृति लिए फिरते हैं।” इसी अ्नुदारता फा परित्याग करते हुए निराला जो ने अँगरेजी संगीत, शेक्सपियर, मारक्सवाद, वर्ड स्वर) शेली, कीट्स आदि से प्रभाव सवीकार किया, उन्होंने श्रेंगरेजा के संत्रोधन गीतों की तरह वसंत समीर” बेसे गीत रे, शेली के ऐडोनेइस” तथा टेनिसन के 'इन मेमोरियम” जेसे शोकगीतों के अनुकूल शोकगीर्तों की रचना की; वर्ड स्वर्थ की तरह प्रकृति का मानबीकरण किया, शेली श्रोौर बायरन की तरह धबादल', “देवी तुम्हें क्या दूँ? जैसी विद्रोह्दात्मक फविताएं रचीं। डॉ० रामकुमार . वर्मा ने भी हिंदी साहित्य का श्रालोचनात्मक इतिहास” के निवेदन में यह . स्वीकार किया कि भमैने साहित्य फो संस्कृति आदर्श सुंरक्षित रखते हुए पश्चिम की आलोचनाशेली को ग्रहण करने का प्रयत्न किया है।!* उनके अनुसार रहस्यात्मक झविताओं के दो प्रमुख आधार हैं: प्रथम आधार श्रौपनिषदिफ विचारधारा का है ओर दूसरा पाश्चात्य मावधारा का जिसके अंतर्गत अँगरेजी के . थुगांतरकालीन कवि शेली; कीट्स, बायरन और वड स्वयं की रचनाएँ तथा विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर को काव्यपुस्तके' आती हैं। पल्लवकाल में सुमित्रा- _नंदन पंत उन्‍्नीसवीं शो के इन्हीं अँगरेजी कवियों से विशेष रूप से प्रभावित ये, . क्योंकि इन कवियों ने उन्हें मशीनयुग का सौंदयवोध और मध्यवर्गीय संस्कृति का _ जीवनस्वप्न दिया था।* महादेवी वर्मा और इलाचंद्र जोशी भी छायाबाद को इन कवियों से प्रमावित मानते हैं।.. . * ज्याबुक ( इलाहाबाद, १६६२), पृ० ४७। .. * उपरिवत्‌, पृ० ६०। न ... * उपरिवत्‌, ए० ६१। ...* हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास (प्रयाग, १६४८५), ४० २। .._ आधुनिक कवि २, ( प्रयाग, सं० २००३ ); ए० १रूह३। [ भाग १० ] पाश्चात्य प्रभाव द इरेप अब प्रश्न उठता है कि यदि छायायुगीन हिंदी साहित्य पाश्चात्य रोमांटिक साहित्य से प्रभावित है तो इस प्रभाव का स्वरूप क्‍या है। निश्चय ही यह प्रभाव वेसा ही स्वाभाविक है जैसा दो संस्कृतियों के सांनिध्य के फारण परस्पर संक्रमित हुआ करता है। प्रमाव ग्रहण करनेवाले हिंदी कवि अपने दी देश ओर युग की परिवर्तित चेतना से श्ननुप्राशित हुए थे, न फि उन्होंने अनुकरण की लालसा से रोमांटिक काव्य का अध्ययन किया था। प्रकृति को आलंबन रूप में चित्रित करने का कारण यह न था कि वड स्वथं, शेली श्ॉर कीट्स ने प्रकृति को सहृदय शोर व्यक्तित्व पूर्ण माना था; उन्होंने प्रकृति में श्रालंबनत्व का आरोप किया था जिससे उसके साथ उनके हृदय को एकात्मकता स्थापित हो, उन्होंने प्राकृतिक रूपों और व्यापारों पर स्त्रीसोंदर्य का समारोप फिया था जिससे उसकी सौंदर्यभावना में तीव्रता आए और माघुय की सृष्टि हो । उन्होंने उस काव्यधारा का विरोध फिया था जो प्रकृति का स्वतंत्र ओर प्रकृत चित्रणा न कर आलंकारिक वर्णानों से ही संतुष्ट हो रही थी । इसलिये उन्होंने स्वच्छुंद काव्य की सृष्ठि की. काव्य. की परंपरा और बंधन को, रूढियो' और मान्यताओ्रो' को तोड़ने में संकोच न किया | उनका अवसाद या नेराश्य भी वर्ड स्वथं, शेली और कीट्स के अवसाद और . नेराश्य का अनुकरण नहीं है, वह स्वानुभूतिजन्य एवं वैयक्तिक है--उसमें उनके ही जीवन फा अ्रैतर्नाद मुखरित है। जिस संक्रांतिकाल में छायावाद का उदय हुआ था; उसके संपूर्ण वातावरण में कठोरता कोर कठ्ता व्याप्त थी। क्ृषिप्रधान आशिक व्यवस्था का पुरातन प्रासाद दह रहा था और उसकी नींव पर पूजीवादी अर्थव्यवस्था फी इमारत खड़ी की जा रही थी । हिंदू दर्शन तथा बौद्ध दर्शन ने जगत्‌ को दुःखमय बतलाया था। यदि छायावादयुग के कवि दूसरों को अनुभूतियों ; को वाणी देने और केवल अनुकरण करने में ही अपनी सजनात्मक ऊर्जा का .. अपव्यय करते तो उनकी कविताओं में वह आजब ओर मर्म॑स्पशिता न होती .... जिससे वे ओतप्रोत हैं। 'दीपशिखा” की भूमिका ( चिंतन के कुछ ऋण” ) में .. महादेवी जी फौी ये पंक्तियाँ घ्यातव्य हैं “साधारणतः गीत वेयक्तिक अनुभूति पर इतना आश्रित है कि कथागीत . और नीतिपद तक अपनी संवेदनीयता के लिये व्यक्ति की भावभूमि की अपेक्षा ... रखते हैं। अलोकिक आत्मविषाद हो या लॉकिक स्नेहनिवेदन, तात्कालिक . उल्लास विषाद हो या शाश्वत छुख दुःखों फा अ्रमिव्यंजन, प्रकृति का सोंदयदर्शन हो या उस सोंदय में चेतन्‍्य का अभिनंदन, सबमें योग्यता के लिये हृदय अपनी वाणग में संसारकथा फहता चलता है |”? क्‍ द दूसरों की अनुभूति और व्यथा फो अपनी अ्रनु भूति और व्यथा में रूपांतरित किए. बिना गीतकार उच्चकोटि के गोर्तों को रचना नहीं कर सकता | चाहे तो वह श्३३ द हिंदी साहित्य का छहत्‌ इतिहास युग के अवसाद के साथ तादात्म्य कर ले या आत्मानुभूत बंदना को हो वाणी दे। पराए भावों को अपहृत कर पराए स्वर और शैली में उच्च फोटि के गीतों फो संसष्टि नहीं हो सकती | छायावाद को रोमांटितिज्म का अनुकरणा कहनेत्ाले समीक्षकों को यह बात स्मरण रखनी चाहिए। सच तो यह है कि छायावादियों की अंतश्चेतना में पाश्चात्य साहित्य का जो भी प्रभाव रहा हो, वह उनकी रचनाओं में प्राय: घुल मिलकर श्रदश्य सा हो गया है। यदि निराला जी की 'भाषा में एफ ओर मिल्टन की शब्दावली फी भास्वरता” और “कीदस के मधुर शब्दसंगीत फी भी मीठी ध्वनि” है तो इसका यह अर्थ नहीं कि नियला जी मिल्टन आर फीटस से प्रभावित थे। वस्तुतः इन सारे छायावादी कवियों पर पाश्चात्य प्रभाव देखने का एक बहुत बड़ा कारण यह है कि ये कवि मूलतः उसी श्रथ में 'रोमांटिक' हैं जिस शअ्रथ में ब्लेक, व स्रथं, शेली, हागो, बायरन, पुश्किन प्रशति रोमांटिक थे। इस फारण यदि इनकी सवनाओरों में पाश्चात्य प्रभाव का लेश भी न होता तो भी ये रोमांटिक कवियों के समान प्रकृति का वैसा ही शब्दमूत वर्णन करते जैसा रोमांटिक रचनाओं में सत्र मिलता रहा है, ये उतना ही स्वच्छुंद होते जितना विश्व फा कोई भी रोमांटिक कवि होता है, ये उतना ही भावाकुल और श्रात्मनिष्ठ दीखते जितना शेली दीखता है। हिंदी के छायावादी कवि कम से कम अरंगरेजी के रोमांटिक कवियों से परिचित तो थे ही । इसलिये इनफी चेतना में- कम से कम पंत जी के “उपचेतन' में--उनकी पंक्तियाँ अंकित थीं ही, इसलिये कहीं कहीं इन कवियों का पाश्चात्य रोमांटिकों से प्रभावित होना असंभव प्रतीत नहीं होता । इस मान्यता का एक ओर आधार, जिसकी श्रोर पहले संकेत किया जा चुका है, यह है कि भारतीय नवोत्थान के मूल में पूर्वा और पश्चिम का सांस्कृतिक संपक था जिसे अ्रगरेज शासकों ने स्थापित फिया था श्रोर जिसे स्वामी विवेकानंद, राजा राममोहन राय प्रझति ने हृढ़तर बनाने फी सफल चेष्टा फी थी . स्मरण रखना होगा कि छायावाद फो अपने ही देश, काल ओर साहित्य ने मिलकर रोमांटिक बनाया था। ओर चूँकि उसके साहित्यकार रोमांटिक ये, उन्होंने उसी प्रकार के साहित्य को सर्जना की जिउ प्रकार के साहित्य का प्रणयन विश्व के अन्य रोमांटिक कलाफार करते रहे हैं। यहाँ सब्रसे महत्वपूर्ण श्ौर उल्लेखनीय तथ्य यह है कि उन्‍नीसवीं शती का पाश्चात्य रोमांटिक साहित्य आप . ही पोरस्त्य वाढ मय से यत्किंचित्‌ प्रभावित था ।* सर विलियम जोन्स के माध्यम से. : उदाहरणार्थ--शेली रचित #हिम ठु इटेलेक्चुअल ब्यूटी! और टठेनिसन रचित .. लाक्सले हॉल हे | भाग १० ] . पाश्चात्य प्रभाव .. ३३७ पौरस्त्य साहित्यिक निधियों का -निर्यात शुरू हो गया था और शेली, सदे, गेठे; टेनिसन प्रद्नति भारतीय विचारधारा से प्रभावित हो चुके थे | अत: छायावादियों को उन्‍नीसर्वी शी का श्रंगरेजी साहित्य--अ्रगरेजी साहित्य ही, क्योंकि वे संपूरा पाश्चात्य साहित्य से पूर्णातया परिचित न थे -अपनी रुचियों और मनोदत्तियों के अनुकूल लगा था। उनकी साहित्यिक मान्यताओं के अ्रनुशीलन से यह प्रमाशित होता है कि वे उन्हीं श्रवधारशाश्रों को लेकर चले थे जो रोमांटिक कवियों में पाई जाती हैं। रोमांटिक कवि आलोचफक के लिये प्रतिभा पर बल देना स्वाभाविक होता है; निराला जी भी कवि के लिये प्रतिमा की श्रनिवायंता घोषित करते हैं। रोमांटिक कवि आलोचक काव्य को आत्मामिव्यक्ति और हृदूगत आवेगों फा सहज उच्छुलन मानता है, निराला जी कवियों द्वारा प्रस्तुत आत्म- परिचय को उतना ही स्वाभाविक उद्गार कहते हैं जितना कबियों द्वारा किया गया प्रकृतिवर्शन स्वाभाविक होता है। रोमांटिक आलोचना पूव निर्धारित मानदंडों से काव्यकृति का समीक्षण नहीं करती, प्रत्युत कवि के रनोमावों का, रोमांटिक भाषाशेली में, विश्लेषण करती हुई गद्यकाव्य रचती है, निराला जी की समीक्षा यही फरती है। 'रवींद्र - कविता - काननः का कविसमीक्षफ पेयर, कार्लाइल, सेंटुसबरी और ह्यू वाफर की शेली में सतर्क दुरूह समीक्षा नहीं, स्निग्व सर्जना करती है ओर आलोचना न लिखकर गद्यकाव्य की सूष्टि करती है। ये सभी .. पाश्चात्य लेखक समालोचऊ में आलोच्य कृति के प्रति प्रचल ऑत्सुक्य का उद्रेफ अत्यंत वांछित समझते हैं। निराला जी की भावयित्रो प्रतिमा कार्लाइल फी ४टिउटानिक! प्रतिमा के समकक्ष है और रबींद्र-कविता-कानन' के भावोदूगार पेटर तथा स्विनबर्न की प्रभावाभिव्यजक समीक्षाओ्रं की याद दिलाते हैं। यदि हम निराला जी द्वारा स्थापित प्रभाव संबंधी तथ्यों का सम्पक्‌ परीक्षण करें तो यह मान लेने फो बाध्य होना पड़ेगा कि वे उन देशों की सम्यता-संँस्‍्क्ृति को वेदांतिक भावों से अनुप्राशित मानते हैं जिनसे अगरेज प्रमावित हुए हैं। अ्रतः .. रहघ्यवाद और छायावाद पश्चिम से प्रभावित होकर भो मूलतः भारतीय परंपराश्रों में ही अ्रंतःप्रतिष्ठित हैं। प्रमावों का संक्रमण चक्र क्रम से हुआ है। भारत ही ' वेदांतिक भावों का उद्गम स्थान है। यहाँ से वेदांतिक भावधारा मिस, फारस, ग्रीस और रोम पहुँची श्रौर 'सुकृत या विक्ृृत रूप से उनके साहित्य में ठहर! गई। इन देशों के साहित्य ने शँगरेजी साहित्य को प्रमावित किया है, जिससे होकर वेदांतिक . चिंतन पुनः उस मूमि को लौट आए हैं जहाँ उनका आविर्भाव हुआ था । चूँकि निराला जी छायावाद के मूधन्य कलाकार हैं, उनके अनेकशः . काव्यतिद्धांत इस संप्रदाय के अन्य साहित्यकारों द्वारा भी प्रतिपादित हुए हैं। १०-४३ ३३८ द हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास पौरस्त्य एवं पाश्चात्य रोमांटिक विचारधारा के अनुसार कवि एक अत्यंत कोमल प्राणी होता है जो दूसरों के साथ सहानुभूति करते करते इतना फीमल हो जाता है के किसी भी चित्र की छाप उसके ृृदय में ज्यों की त्यों पड़ जा ती है। इसके लिये उसे कोई विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता। वर्ड स्वर्थ, शेली और कौद्स फी कितनी ही पंक्तियाँ इस कथन फा सशक्त सम र्थन फरती हैं। 'लिरिकल बेलड्स' के द्वितीय संस्करण की मूमिका में वर्ड स्वथ ने भी कवि फो एक सुकोमल तथा अरस्व॑त संबेदनशील प्राणी कद्दा है: “श्र मैन*” एनडाउड विद मोर लाइव्ली संसिबिलिटी, मोर इनथुजिऐजम ऐंड टेंडर्नेस**' दहैन आर सपोज्ड ठु थि फॉमन शअ्रमंग गैनकाइंडः। निराला जी के अनुसार कविता भावात्मक शब्दों की ध्वनि है। टॉमस हार्डी की इस पंक्ति में यही भाव व्यजित है : 'पोयट्री इन इमोशन पुट इनढ भेज़ए | एडगर ऐलन पो ने यह फट्टकर अश्रनावश्यक संज्षितता फी गहणा फी है कि 'अनूड्य, ब्रेविटी डिजेनरेट्स इंडु मिश्रर एपिग्रमैटिज्म' । निराला जी भी यह नहीं मानते कि कविता तभी सुंदर होती है जब उसमें शब्द थोड़े हों खझोर भाव अधिक । उनके लिये इस तथ्य फा फोई आधार नहीं कि 'सौंदय तिंदु में ही हुआ करता है। ्रबंधप्रतिमा? में उन्होंने उपदेश को कवि की फमज्नोरी कद्दा है। जोन हैमिल्टन रेनक्ड्स के नाम लिखे गए एफ पत्र में कौट्स ने भी यही बात कही हैः 'वी देट पोयटी देट दैल अर पेलपेबूल डिजाइन अपान अस”। माधुरी के झगस्त, १६१३ वाले अंक में निराला जी ने उद्घोषणा फी ह कि कवि के 'ुदयनिर्गत कविता रूपी उद्गार में इतनी शक्ति होती है कि उसका प्रवाह जनता फो अपनी गतिफी ओर खींच लेता है।” शेली के 'अभ्र डिफेंस आब्‌ पोणएट्री' शीर्षक निबंध में इन पंक्तियों का भावार्थ वतमान है। इसी प्रकार बडे स्वर्थ का यह फथन फि 'पोयट्री इज दि श्मेज आव्‌ मैन ऐंड नेचर' रींद्र- फविता-फानन! की इन पंक्तियों में प्रतिध्वनित हुआ है; “*'***“-जढ़ और चेतन; सबकी प्रकृति कवि फो अपना स्वरूप दिखा देती ह। वे दर्पण हैं ओर प्रकृति का प्रत्येक विषय उनपर पड़नेवाला सच्चा बिंब ।” ध्यातव्य है कि निराला जी के उपर्युक्त कथन पाश्चात्य कवियों ओर आलोचफों को मान्यताओं के अनुरूप होकर भी अपना विशिष्ट महत्व रखते हैं। उनमें अधिकांश समचितन पर आधृत प्रतीत होते हैं और कहीं भी श्रेंगरेजी फाव्यसमीक्षा से अपहृत होने का द्योतन नहीं करते । वस्तुतः हमारी यह निश्चित धारणा है कि निराला जी के साहित्यिक सिद्धांतों एवं पाश्चात्य मान्यताओं में जो साम्य दीखता है वह नितांत तलोपरिक है। साथ हो यह भी निर्विवाद हे कि उनके व्च॑स्वी पांडित्य में मिलकर जो _ अन्यदेशीय तत्व एकोभूत ही गए थे उनमें कुछ का उत्स ह्विट्मन तथा लारेंस फी कृतियाँं में भी पाया जाता हे | वे दोनों कवि ग्रालीचक मुलत: स्वच्छुंदतावा दो शोर निराला जी फी तरह ही “'कवित्व के पुर्षणव के प्रस्तोता थे। हिग्मन ने 'लौव्ज [( भार १० | पाश्चात्य प्रभवि ४३६९ आव ग्रास! को भूमिका में मुक्त काव्य का बेसा ही स्तवन किया है जैता “परिमल” में निराला जी ने | पंत जी को विचारधारा स्वच्छुंद एवं व्यक्तिवादी काव्यसिद्धांतोँ तथा प्रतिमानों से प्रभावित है और ये एक ऐसे विशिष्ट काव्य फा समर्थन करते है जिसके मूलाधार प्रकृतिवाद और “हृदयवाद' है और जिसमें अ्रध्यात्मतत्व तथा रहस्य का भी समाहार ओर प्रतिपादन छुआ है। उन्होंने वर्ड स्व्थ के प्रकृति- सिद्धांतों को ही आत्मसात्‌ नहीं किया है, बल्कि प्राच्य अ्रध्यात्मवाद, महात्मा बुद्ध के मध्यम मार्ग तथा खोंद्र की बंधनमुक्ति से भी प्रभाव ग्रहण करते हुए दीगेल के साँदयवाद तथा बरगंसाँ के जीव-चेतन्य-बाद फो अपने दर्शनचितन का अनुपेक्षणीय अंग बनाया है। उनका खयाल है कि प्राच्य प्रतीच्य का संयोग मानवता के कल्याण के लिये नितांत आवश्यक है | प्रकृति एवं पुरुष के प्रतिनिधि पश्चिम तथा पूर्व, यूरोप तथा भारत, एक दूसरे से प्रथफक्‌ रहकर अपूर्या है। जहाँ भारतीय अश्रध्यात्म पाश्चात्य सम्यता फो लक्ष्य ओर दृष्टि दे सकता है. वहाँ पाश्चात्य सभ्यता हमारे अध्यात्म को प्राशवत्ता, संगठन तथा वेज्ञानिक साधन आदि देकर इसे जीवनमूर्त कर सकने में समर्थ है। इस कारण अपनी समीक्षाओं ओर प्रगीतों में पंत जी प्राच्य प्रतीच्य प्रभावों फा समन्वय घटित करते हैं। वें धर्म और विज्ञान में किसी प्रकार का अंतर्विरोध नहीं देखते। इसलिये उनका घम! पश्चिम के विज्ञान फा स्वागत करता है। वे विज्ञान के उन विश्वव्यापी चमत्कारों से श्रवगत है जिन्होंने देश काल फो हस्तामलफवत्‌ कर दिखाया है और प्रकृति के विभिन्‍न रहस्यों फो उद्घाटित कर मानवज्ञान के आयाम का आशातीत विस्तार किया है। यह पाश्चात्य विज्ञान फी ही महत्वपूर्ण देन है जिसके फलस्वरूप मानवता ऐकदेशीयता तथा एकजातीयता फे नागपाश से मुक्त होकर विश्वव्यापी नव्यनिर्माणु फे पथ पर अग्रसर हो सकी है। मनोविज्ञान क्षे क्षेत्र में प्रतिषदित पाश्चात्य स्थापनाओं के आलोक में ही आज का मानव “अपनी अंतश्वेतना के खुक्ष्म रुपहले सोपानों तथा स्वर्ण-रश्मि-मंडित शिखरों पर मी नवीन साइस, नवीन आस्था तथा विश्वास के साथ अश्रांत आरोहण का प्रयास कर रहा है |” पंत जी के विचार शेंली के विचारों से प्रमावित मले ही न हों, परंतु वे _ विचार पाश्चात्य कवि के काव्यप्रयोजनादि से संबद्ध विचारों से मिलते जुलते हैं। शेली की आशावादिता अमीथियस अनबाउंड' ओर “वेस्ट विंड' सरीखी कविताश्रों ९ कला और संस्कृति, पृ० ६ । ३४० द .. हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास में शब्दमर्त हुई है। यदि पंत जी के अनुसार साहित्यकार शांति, विश्वष्न म और मानवमूल्यों का संरक्षफ है तो शेल्ी के अनुसार कवि नियमों का प्रतिष्ठापक ना+र समाज फा जन्मदाता, जीवनकलाओं का शआविष्कर्ता तथा अ्रहृश्य जगत्‌ की शक्तियों के आंशिक बोध फो सत्य और सुंदर के विशेष सांविध्य में ले जानेवाला गुरु भी होता है। पंत जी के प्रज्भतिप्रेम की उत्कटता बर्ड खथ की याद दिलाती है | पंत जी वर्ड स्वथ की भाँति नेसर्गिक सौंदर्य की प्रेरणा से फाव्यसूजन की ओर उन्मुख हुए हैं। छायावाद सामाजिक ढाँचे के बासी सॉद्य से ऊबकर पाश्चात्य सवच्छुंदतावाद की तरद्द प्रकृति की ओर मुढ़ा ह शार प्रकृति से ही नव्य-सोदिय- वे भव लेकर कला फो सोरसमंडित तथा मावनाजगत फो सद्य:पस्फु ठेत कर सका है। वर्ड स्वर्थ और पंत, दोनों ही एकांतप्रिय, भावुक कवि ६, दोनों का बचपन प्रकृति के आँगन में खेलते कूदते बीता है। ( मेरा जन्म प्रकृति की गोद में हुआ । उसी के झ्राँगन में में खेला कूदा ओर बड़ा हुआ | --पंत ) बड़ स्व की तरह पंत जी फूलों के अनन्य प्र भी हैं। वड स्वथ की 'डफोधडिल्सः शीपक कविता देखिए और आम्या' की इन पंक्तियों पर विचार फोजिए-- रंग रंग के खिले फ्लाक्स, वसवीना, छुपे डियाथस, नत हग ऐटिहिनम, तितज्ञी सो पेंजी, पापी सालस, हँसमुख फेंडीटफ्ट, रेशमी चद्कीले नेशटरशम, खिली स्वोट पी, - एवंडस, फिल्ल बास्केट श्री ब्लू बंट्म | आधुनिक कवि के परयाज्ञोचन में उन्होंने कहा है कि कविज्ञीवन से पहले भी मुफ़े याद है; में घंटों एकांत में बैठा, प्राकृतिक दृश्यों फो एफटक देखा करता था; ओर कोई श्ज्ञात आकषंण मेरे मीतर, एक श्रव्यक्त सौंदर्य फा जाल बुनकर मेरी चेतना फो तन्मय कर देता था। प्राकृतिक हृश्यों के श्रव- लोकन से वड स्वथ की चेतना भी इसी प्रकार तन्‍्मय हो जाती थी, उसमें एक ऐसा अदभुत श्रफथ भाव ( “लेसेड मूड” ) भर श्राता था जिसमें ४०४ द बडन श्रॉव द मिसथरी आॉव ऑल दिस अनहटे लिजिबल वर्ड इञ्न लाइटेड मटर प जब पंत जी ने यह लिखा था कि 'जब कभी में आँख मूँदकर लेटता था, तो वह दृश्यपट, चुपचाप, मेरी आँखों के सामने घूमा करता था. उस समय उनके मन में 'डेफोडिल्स! की अंतिम पंक्तियाँ, निश्चय ही, वर्तमान रही होंगी। उन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि “प्रकृति का उग्र रूप मुझे कम रुचता हें!। यह भी वड स्वय को प्रकृतिविषयक अभिश्चि के समरूप है। फेडरर अससनन पाप इतना सतत 5 पलक 6-2 सहरेलत परत वरपरतआ कान 3 ल+ 4 भप रतन सत उप ला ब ( ट्य्नि ऐबि २१७९८, बे ८-+४ ० ) हे |; | पल [ भाग १० ] चाश्चात्य प्रभाव ६४२ पंत जी ने पाश्चात्य मनोविज्ञान ओर दर्शन का भी अ्रध्ययन किया है जो उनके द्वारा इतस्तत: प्रयुक्त मनोवैज्ञानिक एवं दाशनिक तथ्यों ओर शब्दों से द्योतित होता है। “उत्तरा' ओर “आधुनिक कवि! की मूमिकाएँ तथा “ऊध्य चेतना? जेसे निबंध उनके पाश्चात्य इतिहासदर्शन के गंभीर अध्ययन का द्योतन करते हैं। उन्होंने बार बार इस देश की महान्‌ विभूतियों श्रोर हिमालयतुल्य उनके मनः- शिखर की प्रशंसा कौ हैं और अपने तरुण बुद्धिजोवियों फो सचत करते हुए कहा है कि उन्हें श्रन्य दशनों के साथ अपने देश के दर्शन का भी सांगोपांग तुन्ननात्मक अध्ययन फरना चाहिए । छोटी छोटी बातों के लिये पाश्चात्य विचारकों का मुँह जोइना अशोमन है, परंतु साथ ही, पंत जी के मतानुसार, यह भी आवश्यक है कि हम किपलिंग के पदचिह्ञों पर न चल$र धीरे धीरे विश्वक्रांति की बहुमुखी गुरुता से परिचित होकर विश्व सांस्कृतिक संगठन अ्रथवा विश्व सांस्कृतिक दढ्र/र की श्रोर अ्रग्नतर है? | “चिदंबरा? के चरणुचिह्' में उन्होंने कहा है: 'मेरों प्रेरणा के सोत निस्संदेह मेरे ही मीतर रहे हूँ, जिन्हे युग की वास्तविकता ने खींचकर समृद्ध बनाया है। मेने श्रपने अंतर के प्रकाश में दवी बाह्य प्रभावों को गहरा तथा आत्मसातू किया है! | स्पष्ट है कि “अंतर के प्रकाश” में बाह्य प्रभावों को अहृएु तथा श्रात्मसात्‌ करनेवाला कवि हिंदी फा शेलीं और लारेस हैं । स्वच्छंद्तातादां कवियों का तरह ही उसने भी कल्पना के पंखों से सॉदयश्षितिजों का स्पश किया हैं। ( नव्यशास्त्र- वादी फवि उछुल कूद सकते हैं, परतु उन्हे पीछे लॉग आना पड़ता हे, वे खाँदय- क्षितिजों को स्पश करने का प्रयत्न नहों करते। )' महादेवी वर्मा को रोमॉटक मान्‍्यताञों की शअ्रभिव्याक्त जिस शैली में हुई है वह आप हूं अ्रत्यंत व्याक्तानष्ठ एवं रखदांस हें। जिस निबंध म॑ “ज्षितिज', छूवपना?, स्वप्न, “अनुभूति, रागात्मिका बूत्ति?, 'सूक्षम', “असाम', 'आकाश', भावना” जैसे शब्द न हो, उठ, एंसा लगता हु, हम महादेवी का निबंध नहों कह सकते। इनम॑ भी “अ्रनुभ[त” ओर “€प्ना जेस शब्दों का विशेष महत्व हू । उनको 'छायावादी”? समालाचना कला है, विद्यञान नहीं ओर वह कलाओ का तरह “सत्य का ज्ञान के सिकताविस्तार म नहों खोजता, अनुभू[त की सरिता के तट से एफ विशेष विंदु पर ग्रह करती है । महादेवां जी यह भी स्वीकार करेंगा के एसा श्रालीचना म 'गांखत के श्रकां सम बंदधा नाप जाल के लय स्थान नहीं!” रहता । वह श्रात्ोाचक का श्रनुभात से उसा प्रकार खटट दाता ह जिस प्रकार * हा में जंप, बट ही आलवेज रेटवुस बैक, हो नेवर फ्ताइज अ्रवे इनटु द सकंमुएबिएंट गस +- टा० ई० ह्यस; स्पेक्थुलेशंत ( १६६० ), ४२ १२० ६४ क्‍ ही साहित्य का बृहत्‌ इतिहास कविता; इसलिये महादेवी का कल्लाकार समीक्षक जीवन फा ऐसा संगी जान पड़ता है, जो अ्रपनी समालोचनाओं में हृदय की कथा कहता है। वह अपने हृदय में उत्यित भावोदगारों के स्फुलिंगआलोक में तत्काल नई परिमाषाएँ झौर नए निष्कृष उपस्थित फरता है। “यामा? में अपनी बात! कहने के क्रम में उन्होंने एक स्थल पर लिखा है कि 'पहले बाहर खिलनेवाले फूल को देखकर मेरे रोम रोम में ऐसा पुलक दोंड़ जाता था मानो वह मेरे ही दृदय में खिला हो, परंतु उसके अपने से भिन्‍न प्रत्यक्ष अ्रनुभव में एफ अव्यक्त बेदना भी थी, फिर यह सुख-दुःख-मिश्रित अनुभूति ही चिंतन का विषय बनने लगी औ्रौर अंत में अब मेरे मन ने, न जाने कैसे, उस बाहर मीतर में एक सामंजस्य सा हू ढ़ लिया है जिसने सुख दुःख को इस प्रकार बुन दिया कि एक के प्रत्यक्ष श्रनुभव के साथ दूसरे का अप्रत्यज्ञ आभास मिलता रहता है। यहाँ यह कहना न्यायदंगत नहीं जेचता कि इन पंक्तियों को लिखते समय लेखिका के मन में वर्ड ्वथ का एफ ऐसा ही कथन वर्तमान रहा होगा, परंतु इसमें संदेह नहीं कि इनमें वर्ड सत्रथ को निम्नलिखित पंक्तियों का ह्वी भाव प्रतिध्चनित है। वर्ड स्वथ ने कहा हे--'कमी कभी में यह सोचने में श्रसमर्थ था कि बाह्य पदार्थों का मुझसे बाहर भी कोई अस्तित्व है ओर मैंने उन सभी चीजों के साथ संपक स्थापित कर लिया था बिन्‍्हें में देखता था, मानों वे मुझसे प्थकू न होकर मेरी श्रमूत शआ्रात्मा में ही संयोजित हों ।! हबंट रीड ने इन पंक्तियों से यह निष्कर्षित किया है कि बड स्वर्थ चाह्य जगत्‌ ओर अपने आपमें कोई मिन्‍नता नहीं देखता था। इस मनोवृुत्ति से उसे घोर संघर्ष करना पड़ा था और इस कारण उसे वास्तविक जगत्‌ को श्रपने लिये उतना ही यथार्थ बनाना पड़ा जितना वह बना सकता था [' हबंठ रीड ने वर्ड सं के सिद्धांतों के संबंध में फट्टा है कि ये उसको संवेदनाओं पर ही आध्रत ये। स्वयं वड॑स्वर्थ ने (लिरिकल बेलड्स' को भूमिका में कहा है कि फवि “श्र पने राग ओर अ्रपने संकल्प में ही प्रफुल्लित रहता है, श्रपने अंतस्‌ में विद्यमान जीवन के प्राणतत्व में वह श्रन्यों की श्रपेज्ञा श्रधिक रस लेता है ओर सृष्टि के क्रियाकलाप में जहाँ वेसे ही संकल्प एवं राग दृष्टिगोचर होते हैं, उनका विचार कर वह इर्षित होता है--जहाँ वे नहीं होते वहाँ स्वभाववश . बह उनकी सृष्टि करने के लिये बाध्य होता है ।” महादेवी जी के साहित्यिक सिद्धांत भी उनकी श्रनुथूतियों से ह्दी नित्खत हुए हैं और उनकी संवेदनाओं पर ही आश्रित हं। उनको कविता में बुद्धि द्वी 'दुदय से अ्रनुशासितः नहीं होती, बल्कि _! इंर्ट रोड, बड़े स्वथे ( लंदन, १६४८ ) पृ० १२७ । [ भाग १० ] पाश्चात्य प्रभाव क्‍ ३४३ उनकी समीक्षा भी हृद्गत आवेगों से उद्भूत होती है। उनके अनुसार “जीवन की गहराई की अनुभूति के कुछ कण होते है, वष नहीं? ।' तत्वत: इस प्रकार की धारणा रोमांटिक है श्रोर क्षशिक अनुभूतियों पर रचे गए प्रगीतों का मूलाधार होती है। शेली ओर पो फी रचनाओं में भी इस धारणा फी विशद अ्रभिव्यक्ति हुईं है। शेली ने कहा है कि विचारों और भावों की क्षणिक उदमावना होती है--कभी वे फिसी स्थान अ्रथवा व्यक्ति से संपृक्त होते हैं, कमी अपने ही मन से संबद्ध । वे अनायास आते हैं ओर सहसा विलीन हो जाते हैं ।” प्रेरणावाले रोमांटिक सिद्धांत का यह घुर मूल है जिसे आभिजात्यवादी समीक्षुक स्वीकार नहीं करता। अटठारहवीं शर्ती में इंगलेंड में नव्यशास्त्रवादियों ने लंबी लंबी कविताएँ लिखी थीं ओर प्रेरणावाले सिद्धांत का निराकरण किया था, परंतु रोमांटिक युग में पो ने 'पैराडाइज लास्ट” जैसी लंबी फविताश्ं फो छोटी छोटी कविता का सुश्ृंखल रूप कहा ओर लघुकाव्य एवं प्रगीतों के ही अस्तित्व फो स्वीकार किया। काव्य द्वारा प्राप्त होनेवाली करुणानुभूति के विषय में महादेवी जी ने फहा है कि “काँटा चुभाकर काँटे फा ज्ञान तो संसार दे ही देगा; परंतु कलाकार बिना काँठा चुभने की पीड़ा दिए हुए ही उसकी कसक की तीज मधुर अनुभूति दूसरे तक पहुँचाने में समथ है?! ।' 'काँटा), 'पीड़ा', 'कसक', तीत्र मधुर अनुभूति” आदि छायावादी काव्य एवं फाव्यालोचन के लिये अनुपेक्षणीय हैं। इसी प्रकार वर्ड स्वर, कीट्स शेली, बायरन की कविताओं में करुशरस का जैसा परिपाक हुआ है, वेसा फिसी अन्य फाव्योद्भूत रस का नहीं। इन कवियों को मनोदृत्ति का प्रतिफलन फौटस को इन पंक्तियाँ में होता है ह है प्लेजर इज फट अर विजिटेट, बट पेन क्लिंग्स क्रुएली ठु अ्रस | (एंडिमियन, १५ ६०६) ध्यासा! को अपनी बात' में महादेवी जी ने यह स्वीकार किया है कि वेदना उन्हें अत्यंत मघुर लगती है ओर “केवल दुःख ही गिनते रहना! उन्हें बहुत प्रिय है। उनके मतानुसार जब्च कवि फा वेदांतज्ञान अ्नुभूतियों से रूप, कल्पना से रंग आर भावजगत्‌ से साँद्य पाकर साकार होता है; तमी उसके सत्य में जीवन का स्पंदन मिलता है, बुद्धि की तकश्ंखला नहीं?। जान फौध्स के इस कथन में _ कि 'एक्सिश्रम्ज इन फिलासफी आर नाट एक्सिअम्ज अंठिल दे आर प्रूवड अ्रपॉन * साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध ( इलाहाबाद, १९६६ ), पृ० ३८। * उरपरिकत, पृ० ७१। कक अटल अमन ३४४ .... हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास आवर पल्सेज', अ्रनुभृति का ही कीर्तिगान है। शेली ने प्रमीथियस अ्रन्बाउंड' की भमिका में उपदेशात्मक रचनाओं के प्रति अपनी छूणा ज्ञापित की है। ० सी० ब्रेडले और आर० डब्ब्यू० एमर्सन जैसे समीक्षकों ने भी यह स्वीकार किया है फि कवि का लक्ष्य किसी को आदेश था उपदेश देना नहीं है। गेटे ने भी कहा दे कि कलाकृतियों का प्रमाव मैतिक हो सकता है, फिठु उनसे नेतिकता की माँग करना कविकर्म फो नष्ट करना है। काव्य के महत्व का निदर्शन करते हुए शेली ने कविता को, धामान्य श्रर्थ में, कक्पना की श्रभिव्याक्त कहा है ओर बतलाया है कि इसका उद्भव मानव के साथ हो सहज रूप में हुआ है। महादेवी जी ने भी यह उद्घोषित किया है कि कविता मनुष्य के द्वृदय के समान ही पुरातन और मानवज्ञान की श्रन्य शाखा थ्रों की अग्रजा रही है। वे दर्शन और कवि की स्थिति में कोई विरोध नहीं मानती, कोई भी फलाकार दर्शन ही क्या, धर्म, नीति आदि का विशेषज्ञ होने के फारण ही फलासजन के उपयुक्त या अनुपयुक्त नहीं ठहरता ।' क्लाइव सैन्सम ने भी यह स्वीकार किया है कि कल्पना और तर या बुद्धि में फोई तात्विक विरोध नहीं है, फिंतु कल्पना का आरंभ वहाँ होता है जहाँ से तर्फ निष्किय हो जाता है। सेन्सम ने यह्द भी कहा दै कि तरफ का कविता में होना श्रनिवाय है; परंतु यह तक वर्ड स्वर्ष का 'डिवाइन रीजन! हो--ऐसा दिव्य तर्फ हो जिसमें तरलता रहे, जो ठंढा न हो और जो कल्पना फा अनुसरण करने के लिये सदेव तत्पर रहे ।! महादेवी की एफ पंक्ति इस अंतिम वाक्यांश का हू-ब-ह्‌ रूपांतर है: 'भेरा प्रत्यक्ष ज्ञान मेरी कल्पना के पीछे सदा ही हाथ बाँधकर चलता रहा है! (यामा', ० ७) । यह भी स्मरणीय दै कि बचपन का गुशगान, विगत दिनों की याद और शेशव के निर्दोष जीवन के प्रति अ्रगाध प्रेम रोमांटिक चित्तदृत्ति से उद्भूत माने गए हैं। अठारहवीं शती के कवियों के विपरीत ब्लेक ओर वर्ड स्वर्थ की कितनी ही कविताएँ निर्दोष शैशव के गीत हैं तथा इनमें बुद्धजनित ज्ञान फो निर्दोष बाल्यावस्था का शत्रु कहा गया है। इनके भावों की प्रतिध्वनि कवयित्री कै इन शब्दों में सुनाई पड़ती है : 'साधारणतः किशोर अवस्था में स्नेह के कोमल श्रौर जीवन के आ्रांदर्श सुंदर द्वी रहते हैं--उनमें न वासना की उत्कठ गंध स्वाभाविक द्द . और न विक्ृत मनोइत्तियाँ की पंकिलता' (दीपशिखा?, प० १६-२०) | ध्यातब्य . है कि ब्लेक, वर्ड स्वर, फोलरिज और बायरन ने बाल्यावस्था तथा कौमार्य को बृद्धावस्था से श्रेष्ठटर घोषित किया था ओर जहाँ बुढ़ापे की विकृृत मनोदृत्तियों में 5 कल्ाइव सैन्सम, द्‌ वल्डे आँव्‌ पोयट्री (लंदर, १९५९), ४० ४४ । [ भाग १० ) पाश्चास्य प्रभाव ३४४ पंफिलता पाई थी, वहीं किशोरावस्था के स्नेहस्वप्न में फोमलता के दर्शन किए थे। महादेवी बी फी संप्रेषण संबंधी मान्यताओं से, जो 'यामा! और 'सप्तपर्णा' की धग्रपनी बात” में मिलती हैं, दालस्टाय के प्रभाव का या धमचिंतन से उत्पन्न संयोग का आ्राभास मिलता है| हम जानते हैं कि हमारे अवचेतन में, जहाँ जीवन की भिन्‍न भिन्‍न स्मृतियाँ एकत्र होती हैं ओर संस्कारगत प्रेम तथा घृणा फा वास होता हैं, श्रधीत ग्रंथों के ऐसे भाव, बिंब, वाक्यखंड या शब्द आदि भी गडे होते हैं जिनके अ्रस्तित्व का हमें बोध तक नहीं रहता । परंतु प्रेरणा के क्षणों में जब कवि अपनी अनुभतियों से आविष्ट (पजेस्ड”) होकर उन्हें श्रपनी वाणी देने लगता है तब वे भाव, बिंब ओर शब्द प्रकय होने लगते हैं। ये भाव, बिच और शब्द फवि फी अपनी संपदा न होकर भी उसकी अ्रपनी निधि बन जाते हैं, प्रभाव प्रभाव न रहकर कवि की नवनवोन्मेष्च्षमा प्रतिभा का ही एक #&नरिवाय अंग बन जाता है। कहीं कहीं छायावादी कवियों पर भी पराए भादों का ऐसा ही प्रभाव दृष्ग्त होता है| रामकुमार वर्मा की यह पंक्ति-- आ।श्रो, चुंबन सौ छोटी है यह जीवन की रात! ( चित्ररेखा; १ ) शेक्सपियर श्रौर शेली के युगपत्‌ प्रभाव से उत्पन्न हुई जान पड़ती है। शेक्स- पियर की इस पंक्ति से--- वर लिएल लाइफ इन राउंडेड विद अर सलीप |” . जीवन की रात का बिंब निफला है श्रोर शेली रचित प्रमीथियल ऋन्‍्बाउंड को / इन पैक्तियों से-- “लाइफ आँव लाइफ | दाइ लिप्स एन्किडल्‌ विद देशर लव द ब्रंथ त्रिट विन देम, एंड दाइ स्माइलल्‍स ब्रिफोर दे डिंवडल... |! जीवन और चुंबन फी क्षणिकता का भाव ग़हीत हुआ है। चित्ररेंखा की पहली फविता को ही ये पंक्तियाँ--- धयह ज्योत्स्ना तो देखो, नभ की बरसी हुई उमंग, आत्मा सी बनकर छूती है मेरे व्याकुल अंग ।? १०-४४ १४६ द हिंदी साहित्य का घू हत्‌ इतिहास 'मर्चेट ऑँव वेनिस” ( अंक ५, दृश्य १) की 'हाउ स्वीट द मूनलाइट स्लीप्स अपान दिस गैंक' आदि की याद दिलाती हैं। इस संग्रह की दूसरी कविता आज केतकी फूली? बड स्वर्थ की प्रसिद्ध कविता 'डेफोडिल्स' से प्रभावित जान पड़ती है। तीसरी कविता की ये पंक्तियाँ-- यह तुम्हारा हवस आया | इन फटे से बादलों में कोन सा मधुमास झाया जो ब्िंव प्रस्तुत करती हैं उससे मिलते जुलते बिंब के लिये निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टन्य ईैं-- 'फ्रॉम वन लोनली क्ल्लाउड द मून रेंस आरउय हर बीम्स, एंड हेवन्‌ू श्ज श्रोवर्पलीड |! इसी प्रकार “एक रागिनी चातकस्वर में सिहर सिहर गाती है!-वर्ड स्व रचित ८द रीपए' की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करती है श्रोर इन पंक्तियों से-- यह निभेर मेरे ही समान . किस व्याकुल की है अश्रुधार ।' जो ( चित्ररेखा, ५ ) शेक्सपियर का स्मरण हो श्राता है- 'माइ माइंड इज ट्रबल्ड, लाइक श्र फाउंटेन स्टड! हे ( ट्रॉयलस ऐंड क्रेसिड, अंक ३) दृश्य ३ ) वस्तुत: अंगरेजी में ऐसी अग्रनेक कविताएं हैं जिनमें निमर फो श्रश्रुधार कहा गया है। किसी श्रज्ञात कवि ने कहा है- क्‍ 'वीप यू नो मोर, सैड फाउंटेस; हा: नीड यू फ्लो सो फास्ठ १? व्याकुश! और “निर्भर! का विनियोग शेक्सपियर रचित द टेमिंग अब ८ श्र ( भ्रंक ५, दृश्य २, १४३ ) में इस प्रकार हुआ है---.अ वुमन मूब्ड इज लाइक . अर फाउ टेन ट्ूबल्ड ( वह स्त्री जिसका हृदय विचलित हो चुका है, व्याकुल निर्मर के समान होती है ) | रामकुमार थी की यह उपमा--- ः . एक उज्ज्वल तीर सा रविरश्मि का उत्लास आया! द मय मे .. (चित्ररेखा) ३) शेली की (ठ श्र स्काईलाक! शीषफ कविता में भी वर्तमान है $ ... 'कीन ऐज आर द ऐरोज .. ... आँव दैठ सिल्वर सिफ़िआरः [ भाग २० ] पाश्यात्य प्रभाव ३४७ ओर इस पंक्ति में भी “श्र शाफ्ट झ्रॉव लाइट श्रपान इट्स विंग्ज डिसेंडेडः । उन्‍नीसवीं शी के अँगरेज रोमांटिक कवियों के प्रभाव के फलस्वरूप भी महादेवी जी तथा अ्रन्य छायावादी कवियों ने पुराने रूढ़िमक्त रूपविन्यास को त्याग कर आधुनिक सोंदर्यभावना के अनुरूप नए नए छुंदर्बंधों और अलंकारों का प्रयोग किया है। रोमांटिक कवियों की तरह हिंदी के इन 'मुक्‍्तः कवियों ने भी शास्त्रीय छुंदों को जगह नवीन अभिव्यक्तिमंगरिमा को प्रश्रय॒ दिया है, भावस्वच्छुंदता की आवश्यकता से प्रेरित होकर तथा बंधनमय छुंदों की छोटी राह? छोड़कर स्वच्छ द एवं मुक्त छुंदों की सृष्टि की है, चरणों का नवीन क्रमायोजन प्रस्तुत किया है और ऐसे पदांतरप्रवाही प्रयोगों की प्रतिष्ठा की है जिममें कवि के मनोभाव एक चरण से प्रवाहित होते हुए आनेवाले चरणों में समाप्त होते हैं । हिंदी के मुक्त छुंदों में चरणों की असमानता तथा उनका अतुकांत प्रयोग शअ्रैँगरेजी के “लैंफ वर्स से प्रमावित है और कहा जाता है कि परंपरित दोहा सोरठा जैपे अधंसम छुंदों से भिन्‍न नए छायावादी अ्रधेसम छुंदों पर, या सम छुंदों को अधंसम बनाकर लिखने की प्रवृत्ति पर भी, अ्ँगरेजी काव्य का प्रभाव पड़ा है। रोमांदिक कवियों की तरह हिंदी के छायावादी कवि भी अपने घुक्‍त भावों को पूव्रनिश्चित रूढ़ ढाँचे में कसने का प्रयास नहीं करते | उनके लिये न तो परपरागत छुंदों के पू निर्धारित ढाँचे ही मान्य हैं श्रोर न इन ढांचों की रक्षा के लिये श्रपने भार्वों की बलि चढ़ाया जाना ही स्वीकार्य है। इस कारण वे हिंदी में नए नए छुदों की प्रतिष्ठा ही नहीं करते, . बल्कि प्राचीन काव्यपरं पराओं से भिन्‍म विशुद्ध श्ञाम्यंतरिक प्रगीतकाव्य, संबोध- गीति ( 'श्रोड' ) ओर चतुदंशपदी ( “सॉनेट” ) की रचना करते हैं। इन नए काव्यरूपों और छुंदबंधों फी सृष्टि में केवल अगरेजी साहित्य फा ही नहीं, अ्रपितु बँगला साहित्य का मी योगदान स्मतंव्य है। बंगला में मुक्तक वर्शिक छुंद के अनेक भेदों का प्रयोग हो रहा था ओर नवीनचंद्र सेन, गिरीशचंद्र घोष, रबींद्रनाथ ठाकर प्रम्मति की रचनाओं में प्यार छुंद पर आदत स्वच्छंद छंदों के नानाविध प्रयोग हो चुके थे । निराला जी के स्वच्छुंद छु्दों पर बंगला के “पयार! का प्रभाव ग्रसंदिग्ध है। अँगरेजी पद्धति पर बनाए गए कुछ शब्दों का प्रयोग मी छायावादी काव्य में मिलता है। 'ड्रीमी स्माइल' से स््रष्निल मुस्‍्काना, गोब्डेन टच से 'सुनहला स्पश?, 'साइलेंट साई? से 'नीरव उच्छु वास, 'स्लीपिंग वेब्ज! से 'सुप् तरंग” 'ड्राइ लव? से “घुर्खे अनुराग, 'मेल्टिंग आइज! से “पिबलती आआँखें?, गोल्डेन सार्निग” से “'कनक प्रभात” आदि बनाए गए हैं। ऐसे ही असंख्य विशेषण : विपर्यय सारे रोमांठिक और छायावादी काब्य में परिव्याप्त हँ-- . (क) साँसों के चचल समीर में जीवनदीप जलाऊँ । द “आधुनिक कवि, रे, ४० ७ | कर न किन लय नकल. कप मन अनिल लक कट एफ हि 2 2रक कम पॉप तर + पा 32000 अर के आए पदक २: २ फट हक धन्य फिर अं हट ७8 2 पक 3 0४ कट रच 37 दयरतपरलपावारकरकासरलसपसका पसरर तत्पर _तरक पल वक्‍त धन कवि न्‍ कट लनन समा घल इन चर तल + सह पलर ला का चरन्‍लप भार पहला पारा सच सर « ८ दल पडता एप सट्टा एल तट "रोल: हब 850 कट को दी 20 हे 3 > है 5 224 हक, ट घ्लएलाबटकाटाारलपरकरनूसथ चला एड सच पटपए पिलद पतानिशायतक्दासन्‍ 359 वन नशीधहण अकक --फा- अका:कधपापपयप ८ आशा; <5८टर वध उस < पद <<+< 3५५3२ र<८<3५प>5८पअ>तप ना ज का रप श्एद ..... हिंदी साहित्य का बूहत्‌ इतिद्दास ( ख ) साथ ले सहचर सरस बसंत; चक्रमणु करता मधुर दिगंत'''' "7 * “लहर, ४० २०। (ग) चल चरणों का व्यांकुल पनघट कहाँ ग्राज वह ब्ंदाधाम १ हि परिमल; पृू० २० | ( घ ) वेदी की निमम प्रसन्‍्तता''''**" द “कामायनी, ४० ११६। हिंदी में जहाँ जहाँ रोमांटिक काव्य का प्रभाव गया है, वहाँ वहाँ ऐसे रूपकालंफारों की भरमार देखने फो मिलती है। अपने सर्वात्मवादी दर्शन तथा व्यक्तिवादी कव्पनातिरेक के फारण रोमांटिक कवियों को तरह छायावादी कवि भी मानवीकरण में बड़े ही निपुण होते हँ-- ( क ) मौन में सोता है संगीत-- लजीले मेरे छोटे दोप | “यामा, ४० *३। ( ख ) जगती की मंगलमयी उषा बन कृरणा उस दिन आइ थी ““खहर, १० ३१। ( ग ) निस्तव्ध मीनार, मोन हैं मकबरे :-- भय में आशा को जहाँ मिलते थे समाचार . टपक पड़ता था जहाँ श्रॉसुओं में सच्चा प्यार | ्ज् | “--अनामिका; पृ० ६रे। पाश्चात्य अलंकारों में ध्वन्यथ ब्यंजना ( श्रॉनोमेगोपीआ ) भी बड़ी ड्वी लोकप्रिय रही है और इससे उद्भूत नादमय चित्रों से रोमांटिफ काव्य भरा पढ़ा है। . छायावादी कवियों ने भी इसका सफल प्रयोग किया है : .... ( क ) कण कण कर कंकर, प्रिय किए किए रव किकिंणी रणन रणन नृपुर, उर लाज ... लौट र॑किणी “-गीतिका, गीत सं० ६। [ भाग १० ] ..पाश्चात्य प्रभाव द ३७९ ( ख ) घसता दलदल हँसता है नद खल खल बहता कहता कुलकुल कलफल कलकल -परिमल + बादल राग, पृ० १४० । सुमित्रानंदन पंत, इलाचंद्र जोशी, रामकुमार वर्मा, प्रभ्नति ने रोमांटिक फाब्य के अनुशीलन में विशेष अ्रभिरुचि का प्रदर्शन फिया है | निराला जी ने शेली रचित “अलास्टर! नामक कविता के प्रत्येक पृष्ठ के हाशिए को अ्रर्थ से रंग दिया था ओर रामकुमार वर्मा ने पालग्रेंव द्वारा संपादित “गोल्डेन ट्रेजरी! फा कई बार मनोयोगपूर्वक अध्ययन किया था| “गोल्डेन ट्रेजरी' पालग्रेव और टेनिसन की रोमाटिफ अ्भिरुचि की परिचायिका है और जिस प्रकार पालग्रेव के प्रिय कवियों में ब्लेक, वर स्वयं, शेली, बायरन और कीट्स शीर्षस्थ थे, उसी प्रकार रामकुमार वर्मा के लिये भी, विशेषतः 'रूपराशि! के रचनाकाल में, बायरन और कीद्स का स्थान बड़े महत्व का था | प्रसादजी की पलायनवादी प्रद्गति, जो 'ले चल मुझे भुलावा दे कर, मेरे नाविक धीरे धीरे' में रूपायित हुई है, फीट्स के उस 'ओड? को याद दिलाती है जिसमें कवि श्रपनी कविता के श्रददश्य प॑ंखों पर चढ़कर बुलबुल के लोक में उड़ जाने की आकांक्षा प्रकट करता है। पलायनवादिता को सर्वसम रोमांटिक प्रवृति के कारण ही यहाँ भावसाम्य है; परंतु ऐसा जान पड़ता है कि पंत जी पर रोमांटिक कवियों का प्रभाव अ्रवश्य पड़ा है। वे श्रपने 'मधुप कुमारी” से गीत सौखने फो आतुर हैं। वड स्वथं में ऐसी ही आतुरता की अभिव्यक्ति हुईं है जिसका एक ज्वलंत प्रमाण उसकी लूसी की शिक्षा दीक्षा है जो प्रकृति की पावन गोद में प्रकृति से ही, हुई थी । शेली ने भी 'र्काईलाकः” से प्राथना करते हुए कहा था-- टीच मी हाफ द ग्लेडनेस देट दाइ ब्रेन मस्य नो, सच ह्ार्मोनियस मैडनेस फ्राम दाइ लिप्स बुड फ्लो ।! इसी प्रकार निराला जी का “निबंध?, स्वच्छुंद” बादल शेली के उच्छे॑ खल पश्चिमी प्रमंभन की याद दिलाता है ओर जत्र पंत जी कहते हैं-- कलकंठिनि ! निज फलरव में भर अपने कवि के गीत मनोहर फैला आओ बन छन घर घर? -पल्लविनो, पु० ८९ | सन पड बी अनड कडि कल कट कपल उज क पक. ए५ ७... 80 22 के 5 मम लत चिपदन- अप द यम मिट हलक मीट जे शक ाकाहम रस पमससममन्‍्य- रकम <ू-रत सका समरकल्‍कताचाउल्‍ कण न लर जता >5 मद जप युभ मन 7 न कक >>... ध हे सं क। व ० मह 22020222 ४0 सके: हो ओषटा १ ले. मजे ४ पक 2. इक मं५ आहुआऊइ 27: तह 23. ७७७४७४७४७७४७७७७४७७४७४७ए७ 3 अब मी पद नि ननदििशिकल शनि ६3६१ हु ४ बम ३४० कर .. हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास तब इस बात का स्मरण हो श्राता है कि शेली ने भी पश्चिमी प्रभंजन से कुछ इसी प्रकार की प्राथना फी थी । कभी कभी दूर के मिलते जुलते एकाघ भाव को देखकर यह स्थापित करने का प्रयास किया जाता है कि छायावाद निकाय के कवि पाश्चात्य रोमांटिक कवियों से प्रभावित थे। उदाहरणाथ, प्रताठ की इन पंक्तियों पर 'तुम कनक फिरण के अ्रंतराल में क्‍ लुक छिपकर चलते हो क्यों ९? बायरन के 'डान जूअन? के प्रथम सर्ग ( छुंद संख्या '*२ ) का प्रभाव देखा जाता है जो स्वंथा निराधार है। इसी प्रकार जहाँ भी बचपन फी दिव्य निरीहता फा बर्शुन पढने फो मिल्ञता है, पाठक उसपर वड स्वथ रचित इमॉगव्लियी शओ्रोड” का प्रभाव देखने लगते हैं । ... प्रधाद जी की रचनाओं के श्रनुशीलन से ऐँसा शात होता है कि चूँकि वे भारतीय दर्शन एवं साहित्यशास्त्र के श्रमशील श्रध्येता ही नहीं, इनके आदश के प्रति आस्थावान्‌ भी थे उन्होंने किसी भी वाद का अ्रंघाघुंध अनुसरण नहीं फिया झ्रोर न अपने निज्नी दृष्यिकोण को तिलांजलि ही दी । यहाँ जो तथ्य प्रभाव- निरूपण के कार्य को ओर भी कठिन बना देता है, वह प्रसाद जी का यह कथन है. कि शान ओर सॉंदयबोध विश्वव्यापी वस्तुएँ हैं, इनके केंद्र देश, काल श्रोर परिस्थितियों से तथा प्रधानतः संस्कृति के कारण भिन्‍न भिन्‍न श्रस्तित्व रखते है ।! बस्तुतः 'खगोलवर्ती ज्योतिफेद्रों की तरह आ्रालोक के लिये इनका परस्पर संबंध हो सकता है! | इसलिये भारतीय काव्यशास्त्र की श्रनेक मान्यताएँ पाश्चात्य साहित्य- कारों फी रचनाओं में रूपायित मान्यताश्रों के सदश जान पढ़ती है और इन साहित्यकारों के विचार हमारे काव्यशास्त्रीय चिंतन में प्रतिबिंबित दिखलाई पढ़ते हैं। प्रसाद जी ने 'काव्य ओर कला तथा अन्य निबंध' का शझारभ इस स्व/कृति के साथ किया है कि पाश्चात्य प्रभाव के कारण आधुनिक समीक्षकों का दृष्यिफोश परिवर्तित दिखल्लाई पड़ता है। उनकी श्रालोचनाओं का क्षेत्र-उस क्षेत्र से पकुछ मिन्‍न! है क्षिसमें प्राचीन भारतीय साहित्य के श्रालोचकों फी विचारधारा काम करती थी । उनके द्ृदय पर पाश्वात्य विवेचनशेली का व्यापक प्रभुत्व क्रियात्मफ रूप ._ में दिखाई देने लगा है।? प्रसाद जी के मतानुसार हमारी विचारधारा अव्यवस्थित हो उठी है। इसका मुख्य कारण यह है कि हमारे कतिपय समीक्षक अपनी रचनाश्रों में प्रतिक्रिया के रूप में भारतीयता फी भी दुह्ाई देते हैं | इस प्रकार उनमें मिश्रित विचारों का समावेश होता है और समालोचना 'अव्यवस्था के. दलदल' में जा पड़ती हे। प्रसाद जी ने-आधुनिक हिंदी समीक्षा पर इीगेल के प्रभाव का उदाइरण उपस्थित करते हुए कट्दा. है कि हीगेल से प्रभा- [ भाग १० ] पाश्चात्य प्रभाव रेभ१ वित हमारे आलोचक सर्वप्रथम काव्य का वर्गीकरण ही प्रस्तुत नहीं करते; उसे फला के अंतर्गत भी मानने लगे हैं। भारतवर्ष में फाव्य की गणना विद्याओं की गईं है ओर फलाओं का वर्गीकरण उपविद्या में हुआ है। भारतीय एवं पाश्चात्य दृष्टिफोणों में यही तात्विक अंतर है। इसी प्रकार ज्ञान के वर्गीकरण में भी पूर्व एवं पश्चिम का सांस्कृतिक वैमत्य स्पष्ट है। परंतु अ्रपज की सर्माक्षा पश्चिम से इतनी प्रभावित है कि उसका आरंभ कला से होता है और इम हांगेल के मतानुसार मृर्त और अम्‌र्त विभागों के द्वारा कलाओं में लघुत्व और महत्व छी प्रतिष्ठा करते हैं | प्रसाद जी यह स्वीकार नहीँ फरते कि वतंमान हिंदी कवियों ने अ्रचेत्ों या जड़ों में चेतनता आरोपित करना अँगरेजी के कवियों से सीखा है। हमारे अनेक समीक्षुक; जिनकी अधिकांश भावनाएँ विचारों की संकीणंता और अपनी स्वरूपविस्मृति से उत्पन्न होती है, श्रगरेजी में गाड इज लव? लिखा पाकर हिंदी साहित्य में पाए जाने- वाले ईश्वर के प्रेमरूप के वर्णन फो अनुवाद या अनुफरण घोषित कर बैठते हैं। वे नहीं जानते कि जिसे ये पाश्चात्य साहित्य की देन समभते हैं वह प्रसिद्ध बेदांतग्रथ “पंचदशी” के इस कथन पर आधारित है कि धअ्रयमात्मा परानंद!ः प्रप्रेमास्पद यत: । आनंदवर्धन ने इजारों वर्ष पहले लिखा था ; भावानचेतनानपि चेतनवच्चेतनानचेतनवत्‌, व्यवह् रयति यथेष्ट सुकवि: काव्ये स्वतंत्रतया । स्पष्ट है कि प्रताद जी का लक्ष्य भारतीय समीक्ता को पाश्चात्य प्रभाव से मुक्त करना है,न कि स्वयं पाश्चात्य भाषा, साहित्य और समीक्षा से प्रभावित होना। उनकी काव्यपरिभाषा, उनका रहस्यवाद; उनका काव्यशास्त्रीय चितन स्वच्छुंदतावादी परंपरा के अनुकुल है, परंठु उनका मॉलिक दशनचिंतन भारतीय है और मारतीय परंपराओं से प्रभावित भी | यहाँ तक फि जो स्थल पाश्चात्य विचारसरशियों से प्रमाव्रित भी लगते हैं वे सूक्ष्म परीक्षण और अध्ययन .. के अनंतर भारतीय तर्ततों से ही संपोषित तथा अनुप्राशित प्रकठ होते हैं। यदि प्रसाद जी पर पश्चिम फा प्रभाव देखना हो तो उनकी कऋृतिर्यों में इतस्तत: पाई जानेवाली मनोवेज्ञानिक स्थापनाश्नों पर ही देखा जा सकता : है, अन्यत्र नहीं। हि 5 हे कप पे धर 2 झ घ्क उप वरापतर८5८क रा हर यरपसासपण5उपताइसरर५< पक आज का मी नम नल सकल आजा जज 7 जज जलन मल आफ अल. मल हम नी उस: कम पष्ठ अध्याय प्रेम ओर मस्ती के कवि रामचंद्र शुक्ल ने जिसे आधुनिक फाल के तृतीय उत्थान फी संज्ञा दी है उसमें छायावाद के समानांतर एक और काव्यधारा प्रवाहित मिलती है जो यद्यपि छायावाद फी ही भाँति हिंदी स्वच्छुंदतावाद का ही प्रकाश है तथापि वह अपने रंग, प्रभाव ओर उपलब्धि में छायावाद से स्पष्ट रूप में भिन्‍न है । इस धारा को विद्वान्‌ आलोच्ों ने कमी छायावाद के ही अंतगगत विवेचित कर दिया है तो कभी उसे 'पल्लायनवाद' हृदयवाद” या 'हालाबाद' की संक्ञाओं से अश्रभि्ित किया है। पर ये नाम उस काव्यघारा की छुछ प्रद्ृक्तियों का संकेत मले ही कर सकें, उसे पूरी तौर से परिभाषित नहीं फरते। श्रतः श्रन्य फिसी स्पष्ट संज्ञा के अभाव में हम इस धारा फो 'मस्ती और योवन की कविता? ही कह सफते हैं । द इसमें तो फोई संदेह नहों कि इस धारा फी सामाजिक पष्ठभूमि वह्दी थी जो छायावादी काव्य की थी ओर इसके प्रमुख कवि उसी काल में विशेष सक्रिय थे जिसमें छायावादी कवि अपने उत्कष पर पहुंचे थे। इसलिये इन के धाराओं का काव्यगत भेद किसी परिस्थितिगत भेद से परिभाषित नहीं किया «जा सकता । हमारे विचार से उस भेद का मूल ल्ोत बाह्य परिवेश में न होकर उस परिवेश के प्रति कविगण की प्रतिक्रियाओं में है। दूसरे शब्दों में, उस भेद का जन्म कवियों के . व्यक्तित्व के भेद सें हुआ है। हिंदी के आलोचक काव्य के विवेचन में प्रायः व्यक्तित्व की विशेषताओं को अनदेखा करते रहे हैं, ओर सामाजिक परिस्थितियों .. की समानता पर बल देते रहे हैं। इस प्रकार के दृष्टिफोश से जो क्षति होती है ... उसका एक छोटा सा उदाहरण हमारे इन कवियों के महत्व फा विस्मरण भी है जो छायावाद के साथ साथ चलते हुए भी अपनी एक निराली ही लीक पकड़े रहे । फलस्वरूप इन दोनों समानांतर धाराओं में कुछ तत्व यदि समान रूप से प्रकट हुए, हैं, तो कुछ अन्य तत्व उन्हें एफ दूसरे से अलग फरते हैं और उनकी पहचान बन जाते हैं । छायावाद में जड़ता और रुढ़िवादिता के प्रति विद्रोह की जो भावना गूढ़ दाशनिफता से प्रारंभ होकर पीड़ा के आग्रह की परिशति तक पहुँची है वह हमारे इन मस्ती के कवियों में अधिक स्थूल ओर साकार रीति से प्रकट हुई है । इनमें से १०-४४, न न अमल न झप४ हिंदी साहित्य का बह्त इतिहास प्रायः सभी कवि प्रत्यक्ष जीवन में कमंठ देशभक्त और समाजसेवी रहे हैं और उनमें से अधिकांश राष्ट्रीय मुक्ति के संग्राम में भाग लेने के कारण नाना ग्रकार के कष्ट, श्रभाव और राजदंड एवं कारावास भी भोगते रहे हैं। उनकी इस चर्या ने उनकी कविता फो सामाजिक जीवन का स्थूल सामीप्य भी दिया है ओर उनकी : भाषा फो बोलचाल के प्रति ग्रहदशाशील भी बनाया है। माखनलाल चतुर्वेदी से लेकर नरेंद्र शर्मा तक की कृतियों में प्रवाहित फाव्य फी धारा ओर कुछ नहीं तो अपनी भाषा की विशेषताश्रों के ही फारण पहचानी जा सफती है। इनकी भाषा में छायावाद की वायवीयता एर्ब अ्लंफरणलालित्य का श्रभाव है, वह अधिफ सहज और नुफीली है, यहाँ तफ कि माखनलाल और नवीन में तो वह ऊबड़ खाबढ़ भी मिलती है। पर उसके इस रूप के ही कारण उसमें सर्वत्र सम- फालीन जीवन की घड़फनें श्रधिक आसानी से बज उठती हैं।सच तो यह है कि इन फवियों की रचनाओं का एक बड़ा अंश तो नितांत सामयिफ ही है और आज उसे काव्य से भी श्रधिक तत्कालीन परिवेश के श्रालेख के रूप में ही ग्रहण किया ञज्ञा सफता है | छायावाद के कवियों ने काव्य के स्थायित्र की खोज में लगे रहने के फारण इस तात्कालिकता फो सीधे रूप में फभी कभार ही व्यक्त किया होगा | और वह भी सन्‌ १६३६ के बाद ही, जम समस्त हिंदी साहित्य में सामा- ज्षिक उद्देश्य का श्राग्रह बढ़ा बलवान हो उठा था। यह ठीक है फि मस्ती के इन कवियों ने यदि एक श्रोर कुछ ऐसी रच- नाएं फी हैं जिन्हें विद्वान्‌ 6हज ही छायावाद के अंतर्गत संमिलित फर लेते ई तो... दूसरी श्रोर उन्होंने ऐसी मी रचनाएँ की हैं जो उस विशुद्ध राद्रीय काव्यघारा के... अंतर्गत समेटी जा सफती हैं जिसका सर्वोच्च प्रकाश मेथिलीशरण गुप्त में मिलता... है। यह प्रवृत्ति विशेष रूप से माखनलाल चतुर्वेदी और नवीन में दिखाई देती है। शायद यही कारण हो कि ये दो कवि जीवन में भी मेथिलीशरण गुप्त के निकट रहे | पर उनका श्रधिफांश सजन न छायाबाद का श्रंग है, न राष्ट्रीय काव्यघारा का | उसमें हमें यथार्थ जीवन की विषमताओं के प्रति सचेत मानस की बेचैन प्रति- क्रियाएं मिलती हैं जो राष्ट्रीयता फी सरल स्थिति से बढ़कर वर्गीय विषमताओं की सीमाएँ छूने लगती हैं ओर उन विषमताश्रों से मुक्ति की कामना में ध्यंस श्रौर द विनाश का भी आह्वान कर उठती हैं। ध्वंस की यह प्रवृत्ति स्यूनाधिक रूप में हम इन सभी कवियों में पाते हैं। यद्यपि प्रकट रूप में यह प्रवृत्ति उन गांधीवादी सिद्धांतों के विरुद्ध प्रतीत होती है जो श्रहिंसा और ह्ृदयपरिवर्तन पर टिके हैं... तथापि अपने आंतरिक रूप में यह गांधी जी के सत्याग्रह संग्राम को ही पुष्ट करती _ है। जिस प्रकार युद्ध के विरुद्ध होते हुए भी गांधी जी अपने श्रमियान में युद्ध. को शब्दावलीं का प्रयोग करते थे-सिना?, 'कूच', 'संग्राम' शब्द बराबर सुने जाते. [ भाग १० ] प्रेस और मस्ती के कवि ३५४ रहे, उसी प्रकार 'जल्ल उठ; जज्न उठ, श्ररी धक उठ मदहानाश सी मेरी आग ( भमगवतीच रण वर्मा ) या कवि; कुछ ऐसी तान सुनाझशों बलिससे उथल पुथल मच जाए! ( नवीन ) आदि मावनाएँ श्राक्रामक नहीं हैं, वे केवल भारतीय युवा मानस की बेचेनी की ही अतिरंजित अभिव्यक्तियाँ हैं। स्वतंत्रतासंग्राम के उस दोर में भारतीय मानस विदेशी की शुलामी से, उसके अन्याय अत्याचार से, उसके शोषश उत्पीड़न से इतना विकल्न और बेचेन हो उठा था कि उसकी यंत्रणा से छुटकारा पाने के लिये वह विषमताश्रों को ही नहीं, उनके आधार इस समाज ओर विश्व को भी नष्ट करने की सोच बेठा था। श्र यद्यपि उसका श्राक्रोश प्रमुख रूप से विदेशी शासक सता के ही प्रति था; तथापि अपने समाज में उपस्थित जड़ता) श्वविद्या, देनय ओर अश्रमाव भी उसके इस क्रोध फो भड़काने में सहायक होते थे । कभी वह विधवा के दुर्भाग्य को लक्ष्य करता था, कभी किसानों मजदूर्रों से सहानुभूति प्रकूट कर्ता था, तो कमी घनकुबेरों पर बरसता था। उसकी बेचेनी के मूल में अपने वतमान के प्रति यही अ्रसंतोष काम कर रहा था। यही फारणु है कि उसकी वाणी में ओज का प्राबल्य था; उसकी मंग्रिमा में अमर्ष फा पुट था और उसको भाषा में परुषता थी। छायावाद की कोमलकांत पदावली उसके भावों फो वहन करने में शसमथ थी | छायावाद का यदि प्रमुख लगाव था सोंदर्य से तो इस वर्ग के कवि का प्रमुख लगाव था--परिवर्तन से, क्रांति से । यद्यपि क्रांति का यह भाव अ्रमी प्रौढ् श्रोर वास्तव रूप ग्रहणु न कर पाया था और इसलिये उसमें निम॑मता के स्थान पर उच्छ वास ओर अतिरेक का ही प्रकाश है । योवन और प्रेम के प्रति इन कवियों के इृष्टिकोशु को इसी पृष्ठभूमि में समझा जां सकता है। छायावाद में भी प्रेम की अत्यंत मार्मिक और प्रभावी अभिव्यक्ति मिलती ह पर मस्ती ज्ौर बोवन के इन कवियों की प्रेमाभिव्यक्ति उसकी . सी फोमल, निम्त ओर बूक्ष्म नहीं है। इनका प्रेम अधिक मुखर, स्थूल और . कोलाइलपूर्ण है। एक ओर यदि इनके कर्मजीवन की व्यस्तता का प्रतिफलन है .. तो दूसरी ओर यह सामाजिक रूढ़ियोँ, बाधाओं से टकराने को उद्यत उद्दंडता फा .. भी। अपनी चर्या के प्रारंभ में ही नवीन ने प्रेम की अभिव्यक्ति के माध्यम से .. इन सामाजिक रूढ़ियों को चुनौती दी थी। उन्होंने एक कविता में स्पष्ट कहा था--यों भुज भर के हिये लगाना है क्‍या कोई पाप! .. या अ्रधखिलले हगों का चुंबन है क्या पाप कलाप! । गझथवा, एक अन्य कविता सें उन्‍होंने क्टा-- संयम १ मेरी प्राण, जरा तो आज असंयम में बहने दो |! उसी प्रकार मगवतीचरण वर्मा ने भी ताल ठोकी थी--. हाँ, प्यार किया है, प्यार किया है मेंने वरदान समझे अभिशाप लिया ह मेंने ३१६ ५ * हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास और आगे चलकर बच्चन ने भी रूढ़ियों को चुनौती देते हुए कहा-- 'मैं छिपाना जानता हो जग मुझे साधू समझता !? या वृद्ध जग को क्यों अखरती है क्षणिक मेरी जवानी १? . इसमें संदेह नहीं कि हमारे इन कवियों फी रचनाश्रों में प्रेम को नाना अनुभूतियाँ अपने पूरे वैविध्य में व्यक्त हुई हैं. ओर प्रत्येक कवि का अपना निजी व्यक्तित्व उनमें पूरे मिजीपन से प्रकट हुआ है, पर इस बात में वें सब समान हैं कि उनका प्रेम घोषित रूप में लोकिक प्रणव है, बह समाज की परिपाटी या मर्यादाओं फी परवाह नहीं करता और वह सर्वत्र एक पो्ुषपूर्ण कामना के रूप में प्रकट हुआ है, उसका प्रमुख स्वर आत्मनिवेदन का नहीं अ्रपितु श्रात्माधिकार का है। प्रेम के प्रति कवि का यह दृश्टिकोश ही उस द्वेत श्रथवा ढूंढ का मूल है जो इन कवियों को छायावादी अद्वेत से मिन्‍न करता है, ओर अंत में उन्हें सस्ती था फककड़पन अपनाने फी अथवा निराशा ओर मत्यु का वरण करने की श्रोर ले जाता है| छायात्राद की चरम परिणति है एक श्रनंत श्रलोकिक सत्ता के प्रति एकात समर्पण जो महादेवी वर्मा के शब्दों में यह रूप ले उठता है--- तुमकी पोड़ा में द्वँढ़ा तुममें ढूँढेँगी पोड़ा। इन हृदयवादी कवियों को चरम परिणुति है बच्चन के इन शब्दों में -- आश्रो, सो जाएं, मर जाए ! अपने उन्मेष के फाल में यह द्ंद इन कवियों फो असाधारण संघर्ष और ललकार की शक्ित देता है, अपने अ्रंतिम दिनों में यही ढंद उन्हें तोड़ देता है, दयनीय बना देता है। द दुद्व की इन दो चरम स्थितियों के बीच, श्रर्थात्‌ ध्वंस और आत्महत्या के. बीच की अवस्था में इंद्र की तीत्र श्रनुभूति से छुटकारा पाने के लिये ही ये कवि मस्ती का; नशे का, मादकता फा सहारा लेते हैँ। यद्यपि हालावाद के प्रवर्तन का... . श्रेय बच्चन को दिया जाता है, ओर इसमें संदेह नहीं कि मधु का संदेश देनेवालों में वे श्रग्मणी हैं, तथापि मादकता की यह प्रवृत्ति प्रायः सभी कवियों में मिलती है, यहाँ तक कि तत्कालीन राष्ट्रीयशाबादी फवि और छायावादी फवि भी इससे अछूते न रद सके। प्रत्येक कवि के दृष्टिकोण में थोड़ा बहुत भेद तो अनि- . वाय ही माना जायगा, पर ऐसा कोई कवि नहीं है जिसने मधु, हाला या माद- क॒ता पर ध्यान न दिया हो। अवश्य ही तत्कालीन वातावरण में ऐसी कोई .. सामान्य प्रवृत्ति रही होगी जिसने हिंदी के कवि फो इस ओर उन्पुख किया। वैसे . .. तो भारतेंदु ने भी मोज में आकर लिखा था-- ॥॒ भागे १० प्रेम और मस्ती के कवि ु २५७ पी प्रेम पियाला भर भरकर फुछु इस मै का भी देख मजा । पर उनकी कविता का यह प्रमुख स्वर नहीं है, उनके व्यक्तित्व में वह द्वंद् ही है जो इसे प्रतीक से अधिक फोई साथकता देता | भारतेंदु फा यह प्रयोग केवल उनके उदू-काव्य-परंपरा से परिचय का ही प्रमाण है ओर यद्यपि इमारे ये कवि भी उदू-काव्य-पर परा से भली प्रकार परिचित थे, ओर छायावादी कवियों से मिन्न किंतु भारतेंदु के समान ही; उद्‌ं शब्दों, मुहावरों और व्यंजनायुक्तियों को ग्रहण करने से परहेज नहीं करते थे, ( यथा : प्रेमी के लिये “यारः का प्रयोग, शअ्रथवा बच्चन का गीत ध्सुरा पी, मधुपी, कर मधुपान, रहो बुलबुल डालों पर बोल”) तथापि मादकता ओर हाला की ओर उनका ऐसा गहरा भुफाव इस परंपरा- परिचय से परिभाषित करना समीचान नहीं जान पड़ता। साहित्य का उत्स उसकी परंपरा में न होकर उसकी तात्कालिक परिस्थितियों में ही विशेष रूप से होता है, विशेषत: ऐसे उथल पुथल के काल में कवियों की साथक अभिव्यक्ति का बीज वतमान को विशेषताश्रों में ही हँढ़ा जाना चाहिए | क्‍ यदि हम इन कवियों के अ्रलग अलग कृतित्व पर दृष्टिपात करें तो हमें यह भी ज्ञात होता है कि यह फक्कड़पन या मतवालापन क्रमशः बढ़ा है। माखन- लाल चतुर्वेदी में यदाकदा ही कुछ छींटे मिलते हैं, नवीन अपनी कुछु ही कवि- ताशों में उसका भरपूर प्रकाश करते हैं। ( 'कूजे, दो कूज में मिठ्नेवाली मेरी प्यास नहीं? ), भगवतीचरण वर्मा उनसे भी आगे बढ़कर दीवानापन अपना लेते हैं ( दम दीवानों की क्या हस्ती, हैं आज यहाँ कल वहाँ चले! ) ओर अंत में बच्चन इस भावना को पराकाष्ठा तक पहुँचा देते हैं (“ वह मादकता ही क्‍या जिसमें बाकी रह जाए. जग का भय! )। अतएव, यह निष्कर्ष स्वाभाविक है कि ज्यों ज्यों राष्ट्रीय आंदोलन अपने प्रारंभिक उत्साह को पार कर असफलता और अगति के दलदल में फैंसता गया त्यों त्यों हमारे ये फवि मादकता' की ओर बढ़ते गए | ध्यान देने की बात यह है कि “मधुशाला? का प्रकाशन सन्‌ १६३५ के आस पास हुआ था जब ब्रिटिश सरकार यह मानने लग गई थी कि उसने कांग्रेस के आंदोलन फो तहस नहस कर दिया है| ओर सन्‌ १६३६ में जब जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रस ने नया समाजवादी रंग पकड़ा तब हिंदी काव्य से मादकता” का वह स्वर अचानक तिरोहित हो गया। बच्चन ओर नरेंद्र शर्मा का अ्रंतर इसी तथ्य से रेखांकित [कया जा सकता है | वस्तुत: मादकता? की शरण में जाना इन कवियों के फमजोर व्यक्तिवाद का प्रतिफलन है। भारत फी आराथिक सामाजिक परिस्थितियों ने, पाश्चात्य शिक्षाप्रणाली ओर राष्ट्रीय गोरब की मावना ने हमारे यहाँ व्यक्तिवाद को जन्म तो दे दिया था; पर पराधीन राष्ट्र का यह व्यक्तिवाद अ्रपनी प्रकृति से ही औए६७ .. हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिदास फ्मजोर और निराश व्यक्तिवाद था | बँगला में रवींद्रनाथ और हिंदी में छाया- वादी कवि किसी हृद तक इस कमजोरी से त्राण पा गए क्योंकि उन्होंने भारतीय श्रद्वेत दर्शन को एक नया रूप देकर उसे अपने जीवन का आधार बना लिया । पर हमारे ये कवि किसी ऐसे समग्र संपूर्ण दर्शन की टेक नहीं पा सके । फमसंकुल जीबन में प्रति पग प्राचीन और नवीन की टकराइट में लिपयते वें निरंतर शंका आर संशय के वाताबरण में जीते रहे । यहो कारण है फि फभी तो वे उत्साह में भरकर अ्रपना सब कुछ उत्सर्ग करके धबलिदानी? बनने की सोचते और फभी निराशा के अ्रंधकार में घिरकर समाज से श्रलग हो जाने फी श्रथवा 'मादकता' को पूरक से संसार को ही उड़ा देने की सोचते हैं| इसका एक कारण यह भी हुआ कि इन कवियों का फोई समग्र व्यवितत्व न बन सका; वह बहुविध श्रौर बहुभुंखी रहा जिसके कारण उनका इतित्व भी श्रसमान श्रोर अनिश्चित बना। ये स्वछुंदता- वादी भी हैं, राष्ट्रीयतावादी भी, विद्रोही भी हैं श्रोर फक्कड़ भी, समाजसेवी भी हैं श्रीर व्यक्तगत फामनाओं से ग्रस्त भी। एफ वाक्य में वे अपने समय के मध्यवर्ग के बड़े ईमानदार प्रतिनिधि है । मध्यवर्गीय जीवन में जिस प्रकार अनेक उतार चढ़ाव आते रहे और वह कभी एक दिशा में और कभी दूसरी दिशा में ग्योलता रहा; यही हालत हमारे इन कवियों को रही। नवीन ने स्वयं फह्ा-- “हम संक्रांति काल के प्राणी, बदा नहीं सुखभोग |! भगवतीचरण वर्मा ने इसको और मी दो टूक ढंग से पेश किया-- मेरे चरणों में गति, पलर्को में है श्रतीत फा अंधकार | में अपनी ही कमजोरी से टकरा जाता हूँ बार बार ॥ छायावाद ने अपने विशिष्ट ढंग से व्यष्टि श्रोर समष्टि की खाई को पाटकर अपने लिये एक मार्ग निकाल लिया था, हमारे ये कवि उस खाई के ठहरे पानी में ही लगातार हाथ पैर मारते ह गए |. छु विद्वात्‌ आलोचक इन कवियों की मस्ती और फकक्‍कड़पन का सारा श्रेय उमर खंयाम को रुबाइयों को देते हैं। इसमें संदेह नहीं कि हिंदी के कविर्यों पर इन रुचाइयो का उल्लेखनीय प्रभाव पड़ा है, श्रोर यदि फवि फी परिस्थितियों ओर फवि का व्यक्तित्व मिन्‍न होता तो यह प्रभाव इतना गहरा कदापि न होता । उमर खेयाम को रुबाइयों का श्रनुवाद यदि बच्चन ने प्रस्तुत किया था तो उनके . भी पहले एक अनुवाद मैथिलीशरण गुप्त भी फर चुके थे । किंतु गुप्त के काव्य पर . हम उमर खेयाम का कोई स्थायी प्रभाव नहीं खोज सकते। यह ठीक है कि. .. उमर खेयाम की रुबाइयाँ अंग्रेजी के स्वच्छुंदतावादी दौर में फिटजेरल्ड के [ भाग १० ] द क्‍ प्रम और मस्ती के कवि द .. इ५६ अनुवाद के माध्यम से अचानक फ्वियों का ध्यान आकर्षित करने में समर्थ हुई थी। किंतु यह ध्यान देने की बात है कि फिटजेरल्ड ने अपने अ्रनुवाद में काफी स्वतंत्रता से काम लिया था; ओर उमर खेयाम को अपने समय के अ्रनुकूल बनाकर पेश किया था। मूल में उमर खेयाम वेसा सरस कवि नहीं है जैसा अ्रग्र जी श्रनु वाद में वह प्रकट होता है। स्वभावतः ही अ्ँग्रंजी कवि ने उसकी एकांत तन्मयता श्रौर समाज से विमुखता को श्रपने काम फी चीज माना। ओर जब पाश्चात्य शिक्षाप्रणाली ने हिंदी कवि फो इस अंग्रेजी साहित्य से परिचित कराया तो हिंदी फवि भी उसकी ओर आकर्षित हुआ, और कुछ ही वर्षा में फिट्जेरल्ड के कई हिंदी अनुवाद प्रकाशित हुए। छाथावादी कवियों की रचनाओं में हाला, प्याला के प्रतीक इसी का परिशाम हैं, यद्यपि हमारे विचार में वे रवीद्रनाथ के माध्यम से हो हिंदी में आए हैं। अ्रस्तु, छायावादी कवियों में भी मदिरा और मधुशाला का उल्लेख मिल्ल जाता है--यथा प्रसाद--- “साशिक मदिरा से भर दी किसने नीलम फी प्याली १? अथवा महादेवी वर्मा-- तेरी ही मधु माशिक हाला तेरा अ्रधरविचुंबित प्याला तेरी ही मादक मधुशाला फिर क्यों पूछूँ, मेरे साकी, देते हो मधुमय विषमय क्या ! पर छायावाद में हाला-प्याला-साकी और मधुशाल्ञा के ये उल्लेख श्रमि हक है ही युक्तियाँ हैं; उनका मर्म कुछ ओर ही है। इनका ग्रहण प्रभाव का ही फल है| ० छायावादी कवियों से भिन्‍न इमारे इन कवियों ने फक्फड़पन श्रोर मस्ती को काव्याथ के स्तर पर व्यंजित किया है, वह उनके मर्म का ही अंग है । और इसका कारण वही इंद्व हैं जो उनके चित्त को निरंतर मथता रहता है| उमर खेयाम के. काव्य में ऐसा फोई दढूंद्व नहीं है, वह फिथ्जेरह्ड के अ्रनवाद में नितांत भाग्यवादी अथवा क्षणवादी श्रभिव्यक्ति है। यह जीवन नश्वर है, निस्सार है ... इसमें जितने पल्ल हैं उन्हें रो धोकर जिताने से कोई लाम नहीं, अतः आश्रो इन्हें . प्रेम और योवन की मदिरा से आनंदपूण बना दे-- फिटजेरल्ड के काव्य की यही ठेक है। हमारे इन कवियों ने श्रपनी 'मभादकता? को ऐसा फोई एकांत दर्शन नहीं बनाया है। आर की बांत छोड़ भी दे तो बच्चन तक ने स्पष्ट लिखा है-- मुस्करा श्रापत्तियों--कठिनाइयों को दूर टाला, संकर्ों में घय॑ घरकर खब अपने की सेमाला | 43024 24050 + बकरे सजीध आज 353० फलाप+ 2 कर: ८+ न ेक ५7 कै तन कल मकर 8 अप 93... आह ही. 705 मम जहक बह. 7: (मे गिस किभ ८० अल." को अली. पक... , 7. कम और खत हरकत न अल 2 जि ट 4 आपका >384:7%5 08: अकट कट लीड अर कर अवा अ+८ आल पी व पनजत सकी ५० अमल के. पक कम. ३६१ । हिंदीं साहित्य का बृहत्‌ इतिहास यह रचमा समय की कसौटी पर खरी उतर चुकी है और एक प्रकार से हिंदी फाव्य में माखनलाल के हस्ताक्षर का पद पा चुकी है। पर इसमें उनका एक हो, और वह भी प्रारंभिक रूप ही, समा सका है। साधारणुतः माखनलाल का काव्य ऐसा अमिधात्मक नहीं है। उनमें विलछश वाग्वैदग्ध्य है, और उनकी शब्दावली श्रनोखे ओर बहुस्तरीय प्रयोगों के कारण नए स्पंदन से पूर्ण है। उनकी दूसरी विष्यात रचना कैदी और फोषिला' में उसकी कुछ झलक मिल जाती है। यह बात महत्व से खाली नहीं है कि उस कंविता में राष्ट्रीय भाव की वह सरलता भी नहीं है जो “अमिलापा' में है। यहाँ कैदी फा मन उस द्वढ्व का अनुभव करने लग गया है जो आगे के कवियों में उजागर हुआ | यदि एक शोर कवि श्रपनी देशसेवा पर दृढ है--- क्या ) --देख न सकती जंजीरों का गहना। हथकड़ियाँ क्यों १ यह ब्रिटिश राज का गहना ॥ फोल्हू का चर्रकच्‌ १-- जीवन को तान॥ मिद्दी पर लिखे अँगुलियों ने क्‍या गान? हूँ. मोट खींचता लगा पेठ पर जुदझा। खाली फरता हूँ ब्रिविश अश्रकह़ का कूआ॥ द तो दूसरी ओर अंघेरी आधी रात में अचानक फोयल की कूक उसे कुछ बिचलित और उद्विग्न भी कर उठती है और वह कुछ दयनीय स्वर में अपनी स्थिति फी तुलना कर उठता है-- तुफ़े मिली हरियाली डाली। मुझे नसीव फकोठरी काली ॥ तेरा नभ- भर में संचार। मेरा दस फुट का संसार ॥ तेरे गीत कहाबें वाह। .. रोना भी है मुझे गुनाइए ... तथापि अभी मध्यत्र्गीय मन कुंठित नहीं हुआ है और अ्रंत में वह कोकिल . के ख्र से क्रांति की प्रेरणा लेना चाहता है। परये पंक्तियाँ हमें उसद्वदव का ... आभास दे ही देती हैं जो कवि के मन में है ओर जो उसकी बलिदानभावना को ... कुछ अ्रतिशवोक्ति और कुछ गर्व का रूप दे देता है : .... द्वार बलि का खोल चल, भूडोल फर दें। ... एक हिमगिरि एक सिर का मोल कर दें ॥ .._ मसल कर, अपने इरादों सी जठाकर। दो हथेली हैं कि पृथ्वी गोल कर देँ॥ [भाग १०] प्रेम और मस्ती के कवि क्‍ . शे६३ है? या है नसों में छ्ुद्र पानी! जाँच कर, तू सीस दे देकर जवानी ! वस्तुतः माखनलाल का वाशवेदग्ध्य, उनकी वचनवक्रता, उनका विचित्र शब्दबयन, उनकी देश एवं प्रणव दोनों के सामने बलिदानी मंगिमा उनके भीतर के इसो दवद्व फो छिपाने समेठने के साधन हैं। अपनी प्रारंभिक चर्या में उन्होंने वेष्णाव परंपरा के अभाव से भक्तिपरक रचनाएँ कों, फिर देशभक्तिपरक कविताएँ रचीं। उन दोनों में उदकी भगिमा सरल ओर अभिधात्मक है। अपने प्रोढ़ वर्षों में वें सवंदा लक्षणा का प्रयोग करते रहे ओर उसी काल की रचनाएँ उनकी प्रतिनिधि रचनाएँ हैं। [वेिषयवस्तु और छुंदचयन आदि की दृष्टि से उनमें इतना वंविध्य है कि पाठक सहसा चमत्कृत हो जाता है। राष्ट्रीय महत्व की घटनाओं के कथन, राष्ट्रीय पुरुषों के स्मरण अभिनंदन से लगाकर लोकिक प्रेम की मुखर अभिव्यक्तित दक उनका विस्तार है। कहीं उनकी रचनाओं में छायावाद के पूव स्वर इतने उभर आते हैं कि आलोचक उन्हें छायावाद का प्रवर्तक मान बेठते हैं, तो कहीं सामाजिक विषमताओं पर ऐसा भीषण प्रहार मिलता है कि वे प्रगतिवादियों के पूर्वज प्रवीत होते हैं। इस प्रकार . उनका फोव्य एक पंचमेल रूप घारण कर लेता है; और उनकी किठी भी वर्ग के खाँचे में बेठाना श्रत॑ंभव हो जाता हैं। पर उनकों अ्रधिकांश रचनाओं में अ्रनुभव का ताप और अभिव्यक्ति की वक्रता पाई जाती है और ये दो तत्व ही उनके प्रधान गुण ठहरते हैं । और इन दोनों तत्वों को वे अपनी उन रचनाओं में सर्वाधिक व्यक्त करते हैं जो योवन की चर्चा से संबद्ध है ओर जिसमें प्रणय या बलिदान का अतिरेक है। इस अ्रतिरेक में वे कमी कभी कबीर के से फक्कड़पन पर पहुँच लाते हं-- मत बोलो बेरस की बातें, रस उसका जिसकी तरुणाई रस उसका जिसने सिर सोपा, झागी लगा भभूत रमाई अ्रथवा द . फेंक तराजू ये बलि पंथी, सिर के केसे सौदे सह बहुत किए मीठे मुह तुमने, श्रब॒ उठ आज दाँत कर खट्ट क्‍ वस्तु तः अपने समस्त इतित्व में माखनलाल ने राष्ट्र और प्रणय दोनों फो . एक ही तराजू पर तोला है, दोनों को उन्होंने मरणत्योहार की संज्ञा दी है, जिस- पर वे अ्रपनी तरुणाई बार बार चढ़ाते हैं। उनकी प्रखरता ओर उत्कटता सद्दैव युवकों को आकर्षित करती रही और एक पूरे युग तक वे सचम्रुव “एक मारतीय आाश्मा' बने रहे । ३६४ द 2 ह है ः हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास प० बालकृष्ण शर्मा नवीन ( १८६७-१६६० ) .. प्ाखनलाल चतुर्वेदी से ८ वर्ष बाद जनमे और उनसे ८ वर्ष पूर्व ही महाप्रयाण कर जानेवाले कवि “नवीन! ग्रनेक ऊपरी बातों में अपने अ्रग्नज के समान थे | दोनों का ही जन्म मध्यप्रदेश में इुश्रा, दोनों फी ही तरुणाई व्यावहा- रिक राजनीतिक संघर्ष में गुजरी, दोनों ने ही अपने काव्य में अ्रनेक शैलियों ओ्ोर वादों फो प्रतिध्वनित किया । पर समानताएँ जितनी ऊपरी हैं, उतनी भीतरी नहीं । “नवीन! पर छायावाद का प्रभाव कम है, वे मस्ती ओर फकक्‍्कड़पन पर अधिक बल देते हैं। उनकी कविता श्रात्मानुभव पर अधिक निर्भर है, कल्पना को बे सीमित रूप में ही साथ लेते हैं। यही कारण दे कि उनकी बहुत सी रचनाएँ डायरी का ता रूप ले बैठती हैं और उनकी साथकता ग्रनेक बार उनके अ्रंतरंग बृत्त तक ही सीमित रह जाती है। अग्रज शोर श्रनुज के इस अंतर को उनके उपनामो के अंतर से मी रेखांकित किया जा सकता है। एक भारतीय आत्मा में राष्ट्रीयगा की जो गौरवबभंकार है उससे “नवीन! की नवीनता में कोटि ओर रुतर दोनों का भेद है। इसीलिये कमी कभी छायावादकालीन मस्ती और जवानी को इस कविता को माखनलाल-नवीन-स्कूल की कविता भी कह दिया जाता है । इन दो कवियों फी बाह्य समानता का एक कारण उनका भीतिक सामीष्य हो सकता है । स्कूली शिक्षा समाप्त करते न करते ही 'नवीन' फांग्रेस अधिवेशन फा दृश्ण देखने लखनऊ गए थे जहाँ उन्हें एक साथ माखननाज् चठुवें दी, मैथिली- शरण गुप्त और गणेशशंकर विद्यार्थी से परिचय पाने का सौभाग्य मिला | इसी मिलन के परिणामस्वरूप वे माखनलाल के भक्त बने, ओर कानपुर में गशेश- शंबर विद्यार्थो के आश्रय में रहकर पहले विद्याजन और फिर राजनीतिक कार्य में जुटे | इस प्रफार वे माखनलाल से भिन्‍न, सचमुच ही अनिकेत” बन गए ओर राजनीतिक सरणर्मियों में डूबे रहने पर भी उनका भावुक मसध्यवर्गीय मन यथा रथ के अभाव और कष्टों के प्रति श्रधिक बेयक्तिक ओर तीत्र प्रतिक्रियाए' करता रहा । यही कारण है कि नवीन के काव्य में उद्वोधन का स्वर यदा कदा ही मिलता है, यद्यपि वह माखनलाल को अत्यंत प्रिय है। माखनलाल अपने काव्य में प्रायः | सर्वदा मानो एक मंच पर चढ़े रहते हैं. श्रौर अपनी निजी प्रतिक्रियाओं को आदर्श _ . और गौरव की छुलनी में छानकर ही प्रस्तुत करते हैं। पर नवीन अपने प्रदेश और परिवार से कठफर समाज में एकाकी अनुभव करते हैं ओर अपने मन की भावनाओं फो बड़े खरेपन से; प्रायः ताल ठोककर, प्रस्तुत करते हैं। उन्हें जब क्रोध आता दै तो वे सारी सृष्टि को चुनोती देते हैं-- . सावधान, मेरी वीणा में चिनगारियाँ झ्रान बैठी हैं. [ भाग १० ] ... प्रेम और मस्ती कै कवि... २६५ झ्रोर जब्र सत्याग्रह आंदोलन फी निष्फलता पर उनका मन हताशा से भर जाता है तो वे धपराजय गान' गाने में भी नहीं भिकफते-- अाज खड्ग को घार कुठिता आर खाली वूृणीर हुआ। इस प्रफार नवीन का फाव्य उनके निजी जीवन के उतार चढ़ार्वों फा; उनके निजी भावों अ्भावों का आलेख बन जाता हें। उनके कोब्य के सम्यक्‌ अध्ययन से यह सहज ही बताया जा सकता है कि उनकी फोन सी कविता उनके जीवन के किस चरण में लिखी गई होगी । उनके काव्य की यह विशेषता आगे चलकर बच्चन के काव्य में भी प्रकट हुई । अपने निजी घात प्रतिधातों फो फविता का रूप देने का यह आ्राग्रह नवीन के काव्य में एक नवीनता तो भर ही देता है, उसमें ओर भी कई विशेषताश्रों का समावेश कर देता है | शैशव में उन्हें भी वेष्णुव संस्कार प्राप्त हुए थे ओर वे कभी कभी विगलित भक्ति की भी रचनाएँ कर उठते हैं, पर अधिकांशतः उनका काव्य लॉकिक जीवन का ही काव्य है। उनकी निज्ञी सामाजिक स्थिति का अन्श्विय ओर संशय उनके काव्य में मी फूट उठता है ओर “श्रनि- केतन? एवं 'एकाकी' मन की प्रेम ओर सख्य की खोज उनकी कविता में प्रणय की उत्कट अ्रभिव्यक्ति को जन्म देती है। ऐसा व्यक्ति सामाजिक मर्यादाश्रों ओर लीकों की भला क्या चिता कर सकता है आर यहीं कारण है फि नवीन अपने काव्य में उनके विरोध का झंडा उठाते हैं। वे मात्र राजनीतिक भी नहीं हैं, वे समाञ्न में आमूलचूल परिवतन चाहते हैं ओर रक्त प्रणय का ही अधिकार नहीं माँगते, नर फो जूठे पत चाठते देखकर दुनिया भर में आग लगाने फी भी .. सोच उठते हैं। उधर उनका भूखा मन ब्रजमाषा के अ्रपने अभ्यास के कारण सरस पद्रचना भी करता है, और विषमताओं के संसार में संशयग्रस्त होकर कभी कभी मलभूत प्रश्न भी कर उठता है 'क्वासि १'। मृत्यु संत्ंधी कविताएँ उनके व्यक्तित्व के इसी पक्षु का निरूपण हैं | वस्तुत:ः नवीन अपने काव्यसजन में अ्रपने बहुविध और जटिल व्यक्तित्व को संपूर्णृतः प्रकाशित फरने के प्रयत्न में ही नाना शेलियों और वादों की शरण लेते हैं जिसमें एक ओर यदि ब्रजभाषा के दोषों की रचना है, तो दूसरी ओर “उ3र्मिला? जैसा महाकाव्य है और प्रायः छायावाद शैली के प्रगीत हैं। पर नवीन के काव्य का सच्चा उत्कर्ष उन्हीं रचनाश्रों में प्रतिफलित हुआ है जो या तो उनके उद्बेल्रित मानस की हुंकार से निर्मित हैं (“विप्लव गायन', “सिरजन फी ललकारें मेरी) या फिर उनकी आंतरिक कामनाश्रों को प्रतिबिबित करती हैं। इन फामनाओं में प्रण॒यफांक्षा भी हे, सुरक्षा की इच्छा भी है, और वैभव १६३ क्‍ ....... हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास विलास के प्रति लल॒क भी--यद्यपि यह ललक तियंक्‌ रूप में ही प्रकट हो सकी है। वस्तुत: नवीन लगातार अपने मन से जूकते रहते हैं--वह मन जो ऊपर से राज- _नीतिक संघर्ष में जुटा है पर मीतर ही मीतर निजी सुख सुविधा का आकांक्षी है। उनके मन का यह दंद्र ही उनके व्यक्तित्व का वेशिष्य्य है. और उनका श्रधिकांश उत्कृष्ट काव्य इसी द्वढ्व के तनाव का प्रतिफलन है। इसका एक स्थूल प्रमाण यह भो है कि उनकी अ्रधिकांश रचनाएँ या तो जेल में रची गई हैं या फिर रेल में--और ये दोनों ही तनाव की स्थितियाँ हैं। इस रूप में नवीन अपने पूबरज माखन लाल से नितांत भिन्‍न सिद्ध होते हैं | श्राज का समीक्षक अत्यंत प्रीतिकर श्राविष्कार . करता है कि नवीन के काव्य में उस साधारण मध्यवर्गीय मन को भावनाएं हैं जो देववश अ्रसाधारण॒त्व के मँवर में उलभ गया है। वह कछ्शिक शभ्ावेश में ताल ठोककर यह कहने की कोशिश तो जरूर करता है हम श्रनिकेतन, हम श्रनिकेतन हम तो रमते राम हमारा क्‍या घर कया दर; केसा वेतन ? पर यह यक्ति मात्र एक ब्राह्म मगिमा या ऊपरी मुद्रा ही सिद्ध होती है क्योंकि दूसरे ही क्षण वह श्रत्यंत आ्राग्रह से गा उठता हे >र सुकुमार पधार खिलो ठुक तो इस दीन गरीबिन के अ्रगना हँस दो; कस दो रस की रसरी; खनका दो अ्रजी कर के केंगना तुम भूल गए कल से इलको चुनरी गहरे रेंग में रंगना कर में कर थाम लिए चल दो रंग में रंग के श्रपने सँग--ना ? द आर सामाजिक कर्तव्य एवं व्यक्तिगत कामना की इसी टक्राहट में जब उनका मन क्षुत विज्षत श्रोर दिग्म्रमित होता है तमी कण भर के लिये उनके काव्य में बह भाव प्रकट होता है जो, बच्चन के शब्दों में, उन्हें हालावाद का प्रवर्तक _ करार देता है | ऐसी रचनाएँ अधिक नहीं हैँ, पर उनकी कविता 'साकी? श्रत्यंत प्रसिद्ध ही नहीं, अत्यंत सफल है जो श्रपने प्रवाह में पाठक के मन फो भी बहा ले जातो है ओर संयम के बंधन तोड़ने की उनकी कफांच्ा से उसको सहानुभूति हं)ने लगती है| एक अ्र॒श द्रश्व्य है... हो जाने दे गक नशे में, मत पड़ने दे फर्क नशे में ज्ञान ध्यान पूजा पोथी के फट जाने दे वर्क नशे में ऐसी पिला कि विश्व हो उठे एक बार तो मतवाला साफी श्रब कैसा विलंब भर भर ला तन्मयता--हाला .. पर इसी कविता का अंतिम बंद उनकी भावना फा असली भेद खोल देता है। मदिरा के प्रति उनकी इध उत्कद और अ्रधीर याचना फा उद्देश्य यही [ भाग १० ] प्रेम ओर मस्ती के कवि हे ३६७ है कि “डूबे जग सारा फा सारा?। अर्थात्‌ उनकी यह याचना किसी दुःख के भूलने ग्रथवा गम गलत करने के लिये नहीं है, वे अपनी निभ्वत कामनाओं से, समाज की मर्यादाओं से और सांसारिक संघर्ष की भीषणुता से घबराकर ही ऐसी याचना करते हैं | श्रोर ये रचनाएँ उनके सच्चे मन की रचनाएँ हैं, इसका एक भाष्णगत प्रमाण भी हमें मिल जाता है। इनमें उनकी शब्दावली अ्रचानक ग्रामीण मुहावरों ओर उ्द पदों को ग्रहण कर उठती है। उनके शुद्ध भाषाप्रयोगों से इन प्रयासों में अधिक सहजता और प्रभविष्णुता पाई जाती है। अपने कम संकुल जीवन में नवीन अपनी रचनाओं को सही समय पर सही ढंग से प्रकाशित कराने का ऋवकाश न पा सके । यही कारण है कि उनके काव्य का अभी तक कोई सम्यक अध्ययन संभव नहीं हो सका है। वबेसे भी, राष्ट्रीय अ्रजादी के उपरांत अपेक्षया सुखी सुविधामयी स्थिति पाकर उनके काव्य का रंग भी समाप्त हो गया क्योंकि जिस तनाव में वे रचना करने के शादी थे वह समाप्त हो तुका था। फिर भी अपने ऋतिम वर्षों में अपने निजी जीवन को विषमता के कारण एक बार उनके काव्य में नए स्फुणश का अवसर आया था । इस फाल की उनकी सर्वोत्कृष्ठ कविता “यह अहदिश्चालिगित जीवन” एक ऐसे करुण परिताप से पूर्ण है जो नवीन के लिये भी नया है । भगवतीचरण वसों ( १६०३-- ) नवीन के अंतरंग मित्रों में होते हुएं मी मगवतीचरणशा वर्मा अपने काव्य में नवीन से भिन्न हैं। इसका प्रमुख कारण यही प्रतीत होता है कि वर्मा ने राजनीतिक कम की ओर फमी ध्यान नहीं दिया, उनका संघर्ष सदा निजी और व्यक्तिगत ही रहा । अत्यंत विषम परिस्थितियों में जन्म पाकर, शेशव में ही पिता की असामयिक मृत्यु के कारण प्राय: अनाथ के रूप में पल बढ़कर उन्होंने सबसे पहले समाज में अपना सही स्थान बनाने पर बल दिया और प्राय: इसी प्रयत्न में उनका सारा जीवन बीता | फलस्वरूप उनके दृष्टिकोश में एक ऐसा राजनीतिक तत्व आ समाया जो उन्हें माखनलाल और नवीन से अलग फरता है। और यही कारण है फि उन्होंने राष्ट्रीय भावना की रच्ना प्रायः नहीं फी। इस रूप में वे ठेठ मस्ती और जवानी के कवि है | पर वर्मा पर उनकी सामाजिक राजनीतिक परिस्थिति का प्रभाव न पढ़ा हो ऐसा नहीं है। वे उनसे चाहे जितना कतराना चाहते रहे हाँ, पर परिध्थितियाँ न्हें मुक्त करने को तेयार नथी'। इस कारण वर्मा के काव्य में--भाव और अभिव्यक्ति दोनों के स्तर पर ऐसी उक्तियाँ मिल जाती है' जो उन्हें छायाबादी कवियों के अत्यंत निकय ले श्राती है! । एक उदाहरण लें-. शहद .. हिंदी साहित्य का बहत्‌ इतिहास पल भर परिचित वन उपवन परिचित है जग का प्रति कन फिर पल में वही अ्रपरिचित हम तुम सुख सुषमा जीवन है क्‍या रहस्य बनने में ? है कोन सत्य. मिन्‍ने में ? मेरे प्रकाश दिखला दो भेरा खोया अ्रपनापन ! यह जनके पहले कवितासंग्रह मधुकश” का एफ अंश है जिसका प्रकाशन १६३२ में हुआ था। प्रताप! में वर्मा की कविताएं १६१७ के श्रास पाससे ही प्रकाशित होने लग गई थीं, गशेशशंकर विद्यार्थी, नवीन और प्रेमचंद जैसे राष्ट्रकर्मियों फा उन्हे' सांनिध्य प्राप्त हो चुका था, फिर भी उनका प्रारंभिक काव्य _छायाबाद की ही छ्ीण प्रतिध्वनि प्रतीत होता है। इसका एक कारण यदि _ उनका श्रपने निजी सुख दुःख से उलझाव है तो दूसरा कारण अंग्न जी शिक्षा का प्रभाव है। प्रयाग विश्वविद्यालय में बी० ए०, एल-एल० बी० तक फी शिक्षा प्राप्त करनेवाले वर्मा अपने समय के हिंदी साहित्यकारों में सर्वाधिक सुशिक्षित व्यक्ति कहे जा सकते हैं। इस शिक्षा ने उनकी फामनाओ और सपनों पर श्राधुनिफ वैर्यक्तकता का गहरा रंग चढ़ाया तो उनके मन में एकाकीपन का वह भाव भी भरा जो लगातार उन्हें में! का प्रयोग करने पर विवश करता रहा | यद्यपि वर्मा की एक श्रत्यंत प्रसिद्ध रचना है-- हम दीवानों फी क्‍या हस्ती हैं श्राज यहाँ कल वहाँ चले पर इसमें प्रयुक्त 'इम' अ्रनजाने रूप में नवीन के प्रभाव फा ही परिणाम है, बह उनका प्रतिनिधि प्रयोग नहीं है। प्रा4य+ उसी समय की उनकी रचना है जिसमें यह 'में” उजागर हुश्रा है-- .. मैं एकाकी-है मार्ग श्रगम . हैं अंतहीन चलते जाना . नभ में व्यापकता का सँदेश क्िति में सीमा से टकराना उजले दिन काली रातों में द लय हो जाते हैं हास रुदन घुँधली बनकर इन आँखों ने केवल सूनापन पहचाना [ भाग १० ] .... प्रेम और मस्ती के कवि ३६६ है उस जीवन का बोध असइ में निबंलता से चूर प्रिये ! उर शंकित है, पम डगमग है तुम मुझसे कितनी दूर प्रिये ! “मैं” की यह श्रभिव्यक्ति अन्य कवियों से भिन्न प्रकार की है क्योंकि यह इकाई अपने सामाजिक परिवेश से नि:संग दिखाई देती है। यह इस बात की भी द्योतक है कि नवीन के मन का दद्न यदि सामाजिक और व्यक्तिगत साथनों के बीच के तनाव में निहित था तो वर्मा का द्वद्व में! और “बाक्षी दुनिया' के बीच के तनाव में निहित है। सन्‌ १९४० में मेरठ साहित्य परिषद्‌ सें वर्मा ने जिस निबंध का पाठ किया था उसका शीर्षक इसतीलिये मैं और मेरा युग था, और यही कारण है कि हिंदी साहित्य में वर्मा अहंवादी लेखक कहलाते रहे हैं। वस्तुतः वर्मा अपने समय की सामाजिक हलचल को कर्मा अथवा योद्धा की भाँति जुकारूए रूप में नहीं देखते, वरन्‌ उसे अपने सपनों के लिये एक विषम बाघा के रूप में; अपने से अलग एक अवांछित आरोपश के रूप में देखते हैं । यही दृष्टिकोण उनमें देन्य आर विवशता का बोध उत्पन्न करता है ओर उस हलचल को नियति . के समकद्ष मानने पर बाध्य करता हे। आपने सच्चे काव्य में वर्मा विद्रोही अथवा फमवीर के रूप में नहीं आते, वरन्‌ सामाजिक गति के दबाव से चूर असहाय व्यक्ति के रूप में ही प्रकट होते हैँं। दृध्व्य मरे पेरों में गति; पलकों में है अतीत का अंधकार मैं अपनी ही कमजोरी से ठकरा जाता हूँ बार बार उनकी सबसे बड़ी कामना यही है कि काश, उनके समय की १रिस्थितियाँ कुछ ... भिन्न, कुछ सरल होतीं ताकि वे अपने सपने सच कर सकते | पर उनसे जूमने का वे .. विचार नहीं फरते; वे जानते हैं कि ऐसा संघप उन्हें बिलकुल ही उखाड़ देगा; इसीलिये वे उन्हें नियति का पर्याय मानकर अपनी निर्वलता कबूल कर लेते हैं। यही नहीं, वे ऐसी आत्मदया भी प्रकट कर उठते हैं जो आधुनिक समीक्षुक को ० विव्रत फर देती है-- द मैं एक दया का पात्र श्ररे में नहीं रंच स्वाघीन प्रिचे। हो ग्या विवशता की गति में ... बँधकर हूँ में गतिह्दीन प्रिये। अपनी हीनता का यह भाव वर्मा में इतना बद्धमूल है कि वें अपने लॉकफिफक प्रणुयभाव में उसे समाविष्ठ कर देते हैं । १०-४७ रा द .... हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास कल सहसा यह संदेश मिला सूने से युग के बाद मुझे कछ रोकर कुछ मोहित होकर तुम कर लेती हो याद मुझे ! जिस विध ने था संयोग रचा उसने ही रचा वियोग प्रिये तुमको हंसने का भोग मिला मुझभफी रोने का रोग प्रिये] सुख की तन्‍्मयता मिली तुम्हें पीड़ा का मिला प्रमाद सुमें फिर एक फसक बनफर श्रव क्‍यों तुम कर लेती ही याद मुझे | रोमांटिक प्रणय के कवि होते हुए भी वर्मा में निबिड़ समरपण की अनुपस्थिति का कारण यही विवश हीन भाव है। जिसे वें पाप पुणय की समस्या का नाम देते हैं वह वस्तुत;ः योगभोग फी समस्या है। उनका प्रारंभिक भावनास्य (तारा! और उनका प्रसिद्ध उपन्यास “'चित्रल्लेखा” इसे सिद्ध करता है । खौर भोगयोग की यह टकराहटठ ही उनके मन में कभी “जग की नश्वरताः का ज्ञान देती है ओर फरम्ी ऐसे फक्‍्कड़पन की ओर ले जातो है जब वे अपने सारे परिवेश से निवृत्त हो जाना चाहते हैं। उन्हें लगने लगता हे कि सांसारिक जीवन में रहकर ज्ञान प्राप्त करना, कर्म करना; अथवा प्रेम में पड़ना, सब निस्सार है, सबको त्यागकर फकीर बन जाना ह्वी उस तनाव फो समाप्त कर सक्षता है जो उनके मन की मथता रहता है। नवीन से भी कहीं अधिक उत्कृष्ट रूप में वर्मा अपने आपको इस संसार सें “एकाकीः ही नहीं, “पराया! और “बिराना! अनुभव करते हैं। “सैंसा गाड़ी', 'राजा साहब का वायुयान', 'ट्राम' श्रादि कविताओं में वे जिस सामाजिक चिंता और व्य॑ंग्यशक्ति का परिचय देते हैं उस्में भी 'बिरानेपन! की यह निस्‍्संगता ओर फक्कड़पन उपस्थित मिलता है। वस्तुतः वर्मा का समस्त काव्य सामाजिक कर्म से उपराम होने का तक बन जाता है। अपने ताजे वक्तब्यों में भी वे यही पुराना स्वर अलापते मिलते हैं--- . चंहल पहल फी इस नगरी में इम तो निपट बिराने हैं . हम इतने अज्ञानी, निज को हम ही स्वयं अजाने हैं इसौलिंये हम तुमसे कहते दोत्त, हमारा नाम न पूछो [ भागं १० ] प्रेम और मस्ती के कवि ३७२ हम तो रमते राम सदा के दोस्त, हमारा गाम न पूछो एक यंत्र सा जो कि नियति के 'हार्थोीं से संचालित होता कुछ. ऐसा अस्तित्व हमारा दोस्त, हमारा काम न॒ पूछो यहाँ सफलता या श्रसफलता, ये तो सिफ बहाने हैं केवल इतना सत्य कि निज को इस ही स्वयं अजाने हैं सामाजिक संघर्ष को अ्विचल नियति के रूप में देखना और उसमें योगदान के बजाय उससे विरत होकर, उसको अ्रनदेखी कर अपनी असहायता का रुदन करना, अ्रथवा उस सबसे अपने आपको अलग कर अबूक ओर पराया बन ज्ञाना ही वर्मा के काव्य का प्रमुख रूप है। इसमें संदेह नहीं कि क्षशिक उमंग में बहफर वे श्रत्यंत फोमल प्रशायभावों को मी प्रकट करते हैं ओर क्षशिक आवेश में संसार को ललकारने की भी सोचते हैं, पर उनकी स्थायों मुद्रा पराएपन ओर बेबसी फी ही है; ओर क्‍योंकि इस मुद्रा के पीछे एक अत्यंत भावुक मन फी . उत्कठ कामनाओ्रं का संसार स्पंदित है अतः यह मुद्रा कभी भी बहुत विश्वसनीय नहीं हो पाती । हरिवंशराय बच्चन!” ( १६०७ )- भोग और योग का ऐसा दढंद् बच्चन में नहीं है। उनके मन में पाप पुणय की भी वेसी उथल पुथल नहीं है। यद्यपि बच्चन को अपने प्रारंभिक जीवन में प्रायः वेसे ही कष्ट उठाने पड़े ओर विषसताओं से वेसे ही दो चार होना पड़ा जैसे वर्मा को, तथापि बच्चन में उठ आत्मदया या विवशती फा जन्म नहीं हुआ जो वर्मा को निरंतर तंग करता रहा । इसका एक फारण तो है बच्चन की आ्रार्यसमाजी पृष्ठभूमि, जिसके सुधारक रूप ने, ओछा ही सही, पर प्रगति का एक मार्ग दिखाया था। दूसरा कारण है असद्योग आंदोलन में बच्चन का भाग लेना, जिसके कारण उन्हें कुछ दिनों कारावास भी भोगना पड़ा | फलस्वरूप बच्चन के व्यक्तित्व में एक बलिष्ठता का समावेश हुआ ओर प्रायः वर्मा के समान परिस्थितियों में भी उनकी प्रतिक्रिया भिन्न हुई। बच्चन को प्रारंभिक रचनाश्रों में एक उत्कृष्ट ओर लंबी कविता है “'पगध्वनि! जिसका ठाठ बहुत कुछ छायावादी है। पर उसके अंतिम बंद में बच्चन स्पष्ट कर देते हैं कि वह केवल एक रूपक है उर के ही मधुर अ्रभाव, चरण बन स्मृतिपट पर फरते नतन ३७२ . हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास गुंजित होता रहता मधुत्रन में ही उन चरणों में नूपुर नूपुर ध्वनि मेरी ही वाणी इप बंद से हम श्रमायास ही बच्चन के काव्य का वास्तविक रहस्य समझ जाते हैं, उनकी कविता 'मधुर अ्रभाव' फो ही वाणी है। आगे चलकर उन्होंने फिर एक बार इस बात पर बल दिया कि-- मैंने पीढ्ा फो रूप दिया जग समझा मेने कविता की इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अ्रपने पूर्ववर्तियों की अपेक्षा कहीं अधिक बल झ्ोर विश्वास के साथ बच्चन अपने क्षभार्यों ओर अपनी पीड़ा को अपने काव्य में व्यक्त कर सके । दा यावादी प्रभाव के कारण संगम असंयम घो जो उलगान ओर असमंजतता उनके पूवर्तियों को घेरे रही, बच्चन ने उसका कोई बंधन स्रीकार नहीं किया। अपने श्राक्मपरिचय में उन्होंने यह स्वीकार किया कि उनपर जगज्ञीवन का भार हं पर उन्होंने यह भी बताया कि बे प्यार सें डब हैं कर जग का परवाह नहों करते--- में जगजीवन का भार लिए फिरता हूँ फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ कर दिया किसी ने मंकृत जिनको छूकर मैं साँसों के दो तार लिए फिरता हूँ ग्रोर जगजीवन के भार के बावजूद इस प्यार को महत्व देने के कारण ही बच्चन को यह बल मिलता है किवे अपना एक निजी संसार निर्मित कर सकें ओर उसे अपने साँसों के बल्ल पर जीवित रख सकें। नवीन ओर वर्मा दोनों ने तंसार से अपने पराएपन को बात कही, पर वह आवेशगत होने के फारणश ग्रधविश्वसनीय हो रही--बच्चन अपनी एऐकांतिकता अधिक संयत, अतएव प्रबल्ल रूप में व्यक्त करते हैं -- मैं ओर, और जग औओर--फहाँ का नाता में मिटा मिटा कितने जग रोज बनाता जग जिस पृथ्वी पर भोगा करता वेभव मै प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता ! द अपने निञ्जी संसार के प्रति यह मोह ही बच्चन फो अंत में मधु की सृष्टि की ओर ले गया जिप्के फल्लस्वरूप हिंदी में एक पूरे युग तक बच्चन और उनकी मधुशाला की धूम रही और बच्चन हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि के. रूप में प्रतिष्ठित हुए । | श्ग्पु [ भाग १० ] . प्रेम और मस्ती के कवि क्‍ ३७३ बच्चन का यह निजी संसार योवन की भावना; प्रणव की आकांक्षा ओर वेयक्तिक स्वप्नों फा संसार है जिसे वे मधुशाला और मदिराल्य के प्रतीकों से व्यक्त करते हैं| बच्चन अपने समय इस भोले भ्रम के शिफार रह चुके हैं कि वे मदिरा का प्रचार करते हैँ । पर धीरे घीरे यह स्पष्ट हो गया कि जिस मदिरा की वे बात करते हैं वह एक भावना है-यौवन, प्रणव ओर लालसा उसके अंग हैं । तन्‍्मयता या बेहाशी मदिरा फा सबसे बड़ा गुण है ओर अ्रपने योवन के संसार से वे जगजीवन के भार को निष्कासित करने के लिये ही मधु फा प्रतीक अ्रपनाते हैं। उन्होंने कहा-- भावुकता अंगूर लता से सोच कल्पना की हातला ओर इस प्रकार स्पष्ट किया कि भावातिरेक ही वह मधु है जितका वे गान फरते हैं । इसमें संदेह नहीं कि बच्चन की इस मघधुचर्या में खेयाम की कविता का बहुत बड़ा हाथ है | उमर खेयाम की रुबाइयों का हिंदी अनुवाद तो पहले भी कई फत्रि कर चुके थे, पर जिस साम।जिक, राजनीतिक ओर व्यक्तिगत परिवेश में बच्चन ने उत्का अनुवाद प्रस्तुत किया वह तात्कालिक रूप से ऐसी निराशा में डूबा था कि मधु उससे बचने का अत्यंत सफल उपाय सिद्ध हुआ | यही कारण है कि अनुवाद के तुरंत बाद बच्चन ने 'मधुशाला', 'मधुबाल” ओर 'मधुकलश' नामक तीन कवितःसंग्रह प्रकाशित किए और समस्त विषमताश्रों फा उत्तर जीवन, रूप ओर भावना के मधु से दिया। इसी के मिस उन्होंने कट्टर रूढ़िं- पंथियों, धमंद्रंषियों और प्रमतिविरोधी शक्तियों की भत्सना को और स्वप्नदर्शी एवं साकांक्ष यावन की ऐसी अप्रतिहत प्रतिमा प्रतिष्ठित को कि बच्चन के साथ योवन का अनुषंग चिरसथायी हो गया। आज भी हिंदी के पाठक बच्चन को योवन फा ही कवि लेखते है श्रोर जब वे वृद्धावस्था की सी भावना प्रकट करते हैं तो साधारण पाठक को कहीं गहरे में ठेस पहुँचती है । प्रचलित प्रवाइ के बावजूद बच्चन द्वारा प्रतिपादित यौवन रुग्ण अथवा अकमंणय योवन नही है। वह अपने सपनों को साकार फरने के जिये जूफने को उत्सुक है-- चह तीर पर केसे रुकूँ मेँ आज लहरों में निमंत्रण न रे हि _ इ७४ हिंदी साहिल्‍्य का बृंहत्‌ इतिहास आ्राज अपने स्वप्न फो में सच बनाना चाहता हूँ दूर की इस कब्पना के पास जाना चाहता हूँ चाहता हूँ तैर जाना सामने अंबुधि पड़ा जो कुछ विभा उस पार की इस पार लाना चाहता हूँ इस स्वर में कमंठता तो है ही, इसकी लोकिफता भी द्रष्व्य है जो छायावाद के अलोकिक श्राग्रह के प्रतिलोम में है। यही फारण है कि बच्चन को यह श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने छायावाद के प्रभाव में वायबीय हो जानेवाली हिंदी कविता को भूमि पर उतारा । बच्चन अ्रपना इसी कविता में आगे यह दावा करते हैं कि हों युवक डूबे भले ही; किंतु डुबा है न यौवन! ओर ऊर्ध्यबाहु होकर घोषणा फरते हैं -- नाव नाविक फेर ले जा अ्रब॒ नहीं कुछु फाम इसका आज लहरों से उलमने फोी फड़कती हैं भुष्नाएँ यह नाविक और कुछ नहीं, प्रसाद का ही नाविक है जो भुज्ञावा देकर धीरे घीरे उस पार ले जा रहा था । श्रपनी इसी बल्लिष्ठता के कारण बच्चन इस काल में अपने निंदकों और आलोचकों से जूकने में भी कसर नहीं रखते थे | वे ललकार कर कहते थे कि-- वृद्ध जग फो क्‍यों अखरती है क्षशिक मेरी जवानी श्रोर कि द द मैं छिपाना जानता तो जग मुझे साधू समझता ! इस यक्ति में छायावादी कवियों की श्रोर हो संकेत हे जो अश्रपनी युवा लालसाशञ्रों को गुप्त ओर श्रस्पष्ट रूप में ही व्यक्त होने देते थे । इस प्रकार अपने हालाकाल में बच्चन एक ऐसे मधुसंसार का निर्माण करने में सफल हुए जो तात्कालिक दहन और वैषम्य के बीच एक सुरक्षित द्वीप के समान सिद्ध हुआ जिसमें कवि अपने मनोभावों को चरितार्थ कर सकता। 'मधुशाला' में बच्चन कुछ अप्रोढ़ रूप में प्रकट हुए हैं. बिसके फारण उसमें [ भाग १० ] ... प्रेम और मस्ती के कवि ३७५ उच्छु वास की मात्रा अधिक है। पर उस फच्चें रूप में भी एक लुभावनी शक्ति निहित हैं जो पाठक को और विशेषतः श्रोता को इस तरस्त जगत से दूर कर उनके मधुसंसार में ले जाने में समर्थ होती हैं। 'मधुशाला' की र॑गीनी और प्रगीता- त्मकता यद्यपि गहरी नहीं है, अनुप्रास की श्रनभिनत आवृत्ति उसे अंत में एक युक्ति का ही रूप दे देती हैं, तथापि उसमें कवि का आग्रह इतना सच्चा हे कि वह प्रभावित किए बिना नहीं रहती । उसकी तुलना में 'मधुबाला! और 'मधुकलश!' ग्रधिक प्रौढ़ कृतियाँ हैं। इसीलिये उनमें कोरी मादकता नहीं हे, तर्क ओर व्यंग्य का भी अच्छा समावेश है। *्मधुबाला! की 'इस पार उस पार! शीर्षक प्रसिद्ध कविता मस्ती और योवन का अभिनंदन तो हे ही, वह उस पार की के इस पार के महत्व का भी गायन हैं । इसी संग्रह में बच्चन यह स्पष्ट करते तेश मेरा संबंध यही तू मधुमय, ओ में तृषित हृदय | श्रपनी प्यास को तृप्त फरने में समी बाधाओं ओर मर्यादाओं फो चूर चूर करने का आह्वान बच्चन फा प्रतिपाद्य है। 'मधुफलश' इसी भाव का विस्तार हैं, यद्यपि उसमें ध्मेघ” शीषफ कविता सिद्ध करती है कि बच्चन का मधघुसंसार अरब . विनष्ट हो रहा है, वह फितना ह्वी मादक रहा हो; पर स्थायी नहीं है। नरेंद्र शमा ( १९१३ )- बच्चन के अनुवर्ती होकर भी नरेंद्र शर्मा के काव्य का पहला चरण बच्चन फा ही सहचर रहा, ओर इसलिये यद्यपि उनकी अधिकाश रचनाएँ छायावादोचर प्रगतिवादी दोर में पड़ती हैं, तथापि उनका पू्व- रूप मस्ती ओर योवन की काव्यधारा की परिणति का ही रूप है । एक प्रकार से नरेंद्र शर्मा का काव्य दो विभिन्‍न युगों की संधि पर प्रतिष्ठित है, और यह उनके काव्य के सामथ्यं का ही प्रमाण है कि उनके बाद जो कवि हुए उनपर नरेंद्र शमा फा उल्लेखनीय प्रभाव रहा । शमशेरबहादुर सिंह, प्रभाकर माचवे; _भारतभूषण अग्रवाल आदि प्रयोगवादी कवियों ने उनके इस प्रभाव को सहज स्वीकारा है| प्रयाग विश्वविद्यालय में शअ्रपनी शिक्षा दीक्षा पूरी करके नरेंद्र शर्मा ने सक्रिय राजनीति में रुचि लेना शुरू किया और उनकी जीवन- चर्या ने कई विचित्र मोड़ लिए । ये घय्नाएँ चर्चित युग से बाद फी होने के कारण यहाँ विचारणीय नहीं हैं। नरेंद्र का प्रारंभिक काव्य उनके शैक्षिक जीवन के ही समय रचा गया था और हम यहाँ उसी पर दृष्टिपात करेंगे । माखनलाल से लेकर बच्चन तक के सभी कवियों में--न्यू नाधिक रूप से-- 2३५... + सइ+०८परचपपफरइ- फ पलपल पे ललीमटप बंद 4२ पक जब 4-+सासस पलक कट अर का ड्ह्ड <-खरपासारालाापहउडतावाउत०सरल्दसकभसरपच तर सफतततनसबक्‍्टररय प्ल्पएललवरपलसयरथपपअ सता ३७६ ..... हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास अपने जनों का नेतृत्व करने की सी एक भंगिमा, द्रश की सी एक मुद्रा पाई जाती है जो उनके काव्य को बहुधा उद्बोधनात्मक बना देती है और उनके काव्य में स्फीति शौर उच्छुवास का पुृथ जोड़ देती है। पर नरेंद्र म॑ युवावस्था तक आते आ्राते देश की सामाजिक राजनीतिक परिस्थितियों में नेहरू की तक्रियता के कारण एक नया उत्साह और आशाबाद झा समाया था जिसके का रशा नरेंद्र शर्मा इस भंगिमा से अछूते रह सके। फलस्वरूप, नरेंद्र फा काव्पव्यक्तित्व अधिक सहज और फोमल हो सका | वे मध्यवर्गीय मन की व्यक्तिगत फामनाश्रों श्लोर आफांक्षाओं फो न तो विद्रोह फा सा रूप देते हैं ओर न उनसे छुटकारा पाने के लिये बेचैन होते ही मिलते हैं। इस सहन स्वीकार के कारण नरेंद्र में प्रगीतात्मकता का आधिक्य मिलता है और वे अपने युवा नयनों से इस जीवन झोर जगत्‌ के सोंदर्य की, निजी सपर्नों श्रोर आशा निराशाओ्रों की उनकी अ्रपनी विशेषताओं में देख सके हैं | नरेंद्र शर्मा पहले फवि हैं जिनकी रचना में हमारे साधारण जीवन के देनिक फायंकलाप भी महत्वपूर्ण स्थान पा जाते हैं। यही . फारण है कि उनकी रचनाओं में कच्चे सपनों की ताजगी और रंगीनी तो है, यौवन के सौंदर्य और प्रणय की लगन का ममस्पर्शी चित्र तो है; पर उस प्रकार की छद्म अथवा आयातित मस्ती अथवा मादकता नहीं हैं जो उनके पूवबर्लियों में मिलती है | ओर इसी कारण नरेंद्र प्राकृतिक दृश्या की छीटी छोटी सुंटरताश्रों को भी शब्द देने में सफल हो जाते हैं। उनके प्रथम दो काब्यवंग्रह 'कर्णफूल! ओर 'शूलफूल यद्यपि श्रशक्त रचनाश्रों से रहित नहीं थे, तथापि उनमें एक प्रोतिकर सादगी ओर ताजापन था जो युवा मन की रंगीनी की उसके प्रकृत रूप में ग्रहण कर सका था | बाद में नरेंद्र ने इन संग्रहों की श्रेयस्करी रचनश्रों के साथ कुछु नई कविताएँ जोड़कर “्प्रमातफेरी! ( १९६८ ) नामक संग्रह प्रकाशित कराया । अगले दो वर्षा में उनके दो और संग्रह प्रकांशव हुए. 'प्रबासी के गीतः और 'पतह्चाशवन? । तीनों ही संग्रहों में वे गुण भरपूर हैं जो नरेंद्र को अपने अ्रल्ड़ और युवा मन को सहज रूपसे अ्रमिव्यक्त फरने में सहायक होते हूँ। इन संग्रहों में . हमें पहली ब:र लौंकिक प्रणयलीला के मनोरम और बेमिकक चित्र मिलत हैं प्रणय का निवेदन, संयोग का माधुब, विरह को व्यथा। इन रचनाओं में यौवन का स्वरूप मांसल भी है क्रोर व्यथ की दाशनिकता से भी मुक्त है। कुछु अंश : द्रष्टव्य हैँ किक गुन गुन प्रिय के गुणगण गाने बन गया मधघुपमन कंणुफ . तुम हुबली पतली दीपक की लौ सी सुंदर... [भाग १० ] . प्रेम और मस्ती के कवि ३७७ मैं तुम्हें समेटे हूँ अपनी सो सौ बाहों में, मेरी ज्योति प्रखर ५८ अर जरः आज न सोने दूँगी बालम आज अ्रभी से सो जाओगे ञ्र्भी नहीं सोए हैं तारे उत्सुक हैं सब सुमन सेज के एक तुम्हीं हो अधिक निंदारे फूलों के तन से कस लूँगी अलि से रन निंदारे बालम वियोग के दुःख की श्रभिव्यक्ति करते हुए. नरेंद्र फा लंबा गीत “आज के बिछडे न जाने फब मिलेंगे”! तो अपने समय में अत्यंत लोफप्रिय हो गया था | द द इस सहजता के कारण नरेंद्र की भाषा बेघधक ओर मार्मिक होते हुए भी बोलचाल की भाषा से बहुत दूर नहीं है। साथ ही उसमें वह ऊबड़खाबड़पन भी नहीं हे जो माखनलाल अथवा नवीन ने प्रदर्शित किया था। नरेंद्र की शब्दावली फोमल ओर संयत है, वहन लड़खड़ाती है, न उफनती है। इसी प्रकार वे श्रपने उपमान, प्रतीक ओर बिंब भी अपने परिवेश से ओर अपने आस पास के जगत्‌ से ले लेते हैं ओर उनमें एक नई व्यंजकता का योग करने में सफल होते हैं । दुःख और कष्ट की अभिव्यक्ति भी वें किसी गहन ता के रूप में नहीं, वरन्‌ कोमल अवसाद के ही रूप में प्रस्तुत फरते हैं--- अब तो तुम्हें ओर भी मेरी याद न आती होगी ५ ५ ५ फिर एछिर रात ओर दिन गआ ते फिर फिर आता साँफ सबेरा मैंने भी चाहा, फिर आए बिछुड़ा जीवनसाथी मेरा पर मेरे जीवन का साथी छूट गया सो छूट गया। ऐसा ही कोमल, सहज स्पश उनके प्रकृतिचित्रों में हैं : ह ५ 0-- ८ ह ३७८ ..... हिंदी साहित्य का दृहत्‌ इतिहास पकी जामुन के रंग की पाग बाँघकर थ्राया सो शअ्राषाढ़ू ५८ हि »< शांत है पर्वत समीरणा, मौन है यह चीड़ फा वन भी बालकोँ फी बात सी आई गई सी हो गई है वात )८ ५ >< मैंने देखा में जिधघधर चला मेरे संग सेंग चल्ल दिया चाँद संक्षेप में हम कह सकते हैं कि नरेंद्र में भावों की गहराई तो है पर उसमें ग्ावेश का वेग नहीं है । निराशा अथवा दुःख में भी वें पागल नहीं होते, अथवा विस्मृति नहीं खोजते, वरन्‌ अपने मन को प्रयोध देकर धीरज देने लगते हैं। अपने नहीं गुरों के कारण नरेंद्र अपने समसामयिक युवकवर्ग का बढ़ा सच्चा प्रतिनिधित्व कर सके हैं। शोर यही फारणा है कि सत्‌ १६४० के श्रास पास ही वे अपने समय फी प्रवृत्तियों और तनावों में पड़कर काव्य के उस पथ पर पहुँच जाते हैं जो कर्म ओर संघर्ष की ओर जाता है। वें पहचान जाते हैं कि व्यक्तिवाद फा जो स्वरूप उनके मन में है वह अकेले रहकर सार्थकता नहीं पा सकता श्रौर इसलिये वें बृहत्तर सामूहिक जीवन की ओर आकर्षित हो जाते हैं। श्रोर इस प्रकार वे इस धारा के अंतिम प्रमुख कवि सिद्ध होते हैं। कुछ अन्य कवि ऊपर जिन कवियों की चर्चा फी गई है, उनके अश्रतिरिक्त कुछ और भो कवि है जिन्होंने इस काव्यधारा में उल्लेखनीय योगदान फिया है, यद्यपि नाना. कारणावश उनकी काव्यचर्चा उपलब्धि के शिखर तक पहुँचने में अ्रसमथ रही | वस्वुतः प्रत्येक काव्यवारा में ऐसे अनेक कवियों का स्वभावतः: सहयोग होता है जो समकालीन परिस्थितियों के प्रति समान प्रदिक्रिया करते हुए उस धारा को आगे बढ़ाने में सहायक तो होते हैं पर जिनका निज्ञी वैशिष्य्य इतना प्रबल नहीं हो पाता कि वे धारा में दूर से ही चमफ सकें। मस्ती ओर जवानी के इन कवियों में उल्लेखनीय हैं : गोपालसिंह नेपाली (१९०२), हृदयनारायण 'हृदयेश” (१६०५) हरिकृष्ण प्रेमी ( १६०८ ), पद्मकांत मालवीय ( १६०८ ) और रामेश्वर शक्ल अंचल” ( १६१५ )। इस प्रकार अपने आविर्भावक्रम से भी ये पूरे छायावाद युग _ में बिखरे हैं | वस्त॒ुत: अंचल तो नरेंद्र शर्मा की ही भाँति श्रगले युग में भी साथफ फाव्यसजेन में रत रहे । _ गोपालतिंह नेपाली ने यद्यपि अपेक्षया कुछ देर से ही काव्यस्वना आरंभ [ भाग १० ] .. प्रेम और मस्ती के कवि ३७६ की, उनका प्रथम काव्यसंग्रह “उमंग” १६३४ में ही प्रकाशित हुआ, तथापि भाषागत . रंगीनी और चित्रात्मकता के फकारणु; भावगत मत्ती और सचाई के कारण एवं अ्रपनी सुमघुर शैली के कारण वे अपने समय के श्रत्यंत लोकप्रिय कवि रह्दे और उनक्के गीन पहले कविसम्मेलनों में और फिर चलचित्रों में श्रोताओं को मग्घ करते रहे। वस्तुतः लोफप्रियता ही एक प्रकार से उन्हे काव्यपथ पर ऊँचे चढने से रोकती रही क्योंकि वें अपनी रचना फो तत्कालीन श्रपढ जनता के स्तर तक रखने को बाध्य रहे । उनकी रचनाओं में यौवन की उमंग और मादकता का स्वच्छुंदवादी रूप तो मिलता ही है; उनमें प्राकृतिक सुषमा के भी श्रत्यंत॑ रमणीय चित्र मिलते हैं। उनके गीतों में सरल प्रतीकों ओर लाक्षशिक प्रयोगों द्वारा प्रणयप्रधंगों का सरस वणुन हुआ्रा है हृदयेश' फी फाव्यचर्चा दीघ फाल में फेली हुई है, पर उनके काव्य को कभी एकांत वेंशिष्य्य उपलब्ध न हो सका | वे उदं के भी अ्रधीत विद्वान्‌ हैं और संस्कृत के भी । यही नहीं, उन्होंने अपने युग में प्रचलित प्राय: समी काव्यशेलियों में रचना की है, पर यह वेविध्य उनके अपने व्यक्तित्व की निजता स्थापित करने में सहायक न हो सफा। उदू के छुंदों का भी उन्होंने यथेष्ट प्रयोग किया पर उनकी रचनाओं में उदू फी बेघकता का प्राय: अ्रमाव रहा | उनकी उल्लेखनीय रचनाएं वे ही हैं जिनमें जीवन की करुणा फो प्रगीत रूप मिला है। उन्होंने कुछु रचनाओं में हालावादी भावना भी प्रकग की है हरिकृष्ण प्रेमी हिंदी साहित्य में प्राय: नाव्कफार के रूप में ही प्रसिद्ध हैं यद्यपि उन्होंने अपनी चर्या का प्रारंभ फाव्यरचना से हो किया था। राष्ट्रमक्त परिवार में जन्म पाकर उन्होंने देशभक्ति की मावना भी श्रहण की और कुछ दिनों माखनलाल चतुर्वेदी के साथ संपादनकार्य भी किया । फलस्व॒रूप उनके काव्य में लौकिक प्रणशय की कसक और यौवन को मादकता का सहज ही . समावेश हो गया। पर वे अपनी फाव्यरचनाओं में किसी एक ही प्रवृत्ति में बैंघकर न रह सके और कई दिशाओं में प्रथम करते रहे। उनके काब्यसंग्रहों में आँखों में! ( १६३० ) का विशिष्ट स्थान है जिसमें उनके उपनाम के दी अ्रनुरूप प्रेम की वेदना फो मार्मिक श्रमिव्यक्ति मिली है। उनकी कविता में ब्यथा का अतिरेक है और आत्मसमर्पण की विकल्ता। प्रमी वस्तुतः प्रणयनिवेदन के दी कवि हैं। उनकी शैली ओर शब्दयोजना छायावाद के ही आसपास मँडराती रहती है, यद्यपि छायावाद फी सूक्ष्मता ओर तियंक बेधकता का उसमें श्रभाव है । फिर भी उसमें साइस ओर संकल्प की कलक अवश्य मिलती है। यथा पत्थर के टुकड़े में मी तो . मिलता प्रियतम का श्राभास ई८ं० द ... हिंदी साहित्य का जृहत्‌ इंतिहास उठा दृदय पर रख लेता हूँ करता रहे जगत्‌ उपहास पश्चकांत मालवीय का संबंध ऐसे परिवार से रहा है जिसे राष्ट्रीय गोरव का वरदान मिला है। परंत मालवीय की प्रधुख उपलब्धि पत्रकारिता के हो ज्षेत्र में हुई श्रोर अ्रभ्युदय” का संपादन कर उन्होंने अपने समय के राजनीतिक श्रांदोलन में श्रत्यंत महत्वपूर्ण योगदान किया । काव्य के क्षेत्र में भी उन्होंने महत्वपूर्ण कार्य किया जब अपने समय के नराश्यपूण वातावरण में उन्होंने उमर खेयाम के हालावाद से प्र रणा पाकर स्वयं भी उसी प्रकार की रचनाएं प्रस्तुत कों। सरल, उदृमिश्रित शैली में मन के मावों की स्वच्छंद अभिव्यक्ति हमें उनके संग्रह प्याला? में उपलब्ध होती है। तथापि काव्यसजन में पद्मकांत कुछ अन्यमनस्क ही रहे और हालावाद के प्रवर्तकों में होकर भी श्रपने काव्य फो फिसी विशिष्ट स्तर पर न पहुंचा सके । क्‍ चर्चित काव्यधारा के अंतिम चरण में प्रकट होकर भी अ्रंचल ने एफ ऐसे वेग श्रोर बल का प्रमाण दिया जो उनका विशिष्ट अ्रवदान बना । उनकी रचनाओं में योवन की उद्दयामता और प्रणय की उत्कठ वासना को बढ़ी ही मांसल ओर आग्रहपूर्ण अभिव्यक्ति मिली है। पर इन गुणों के ही फारण अ्रंचल कौ रचनाओं में एक प्रकार की सस्‍्फीति ओर पुनराबृरति भी मिलती है श्रौर उनको एक कविता से दूसरी को मिन्‍न करना कठिन हो जाता है। अ्रंचल मुख्यतः प्रेम के नहीं, तृष्णा के कवि हैं; उनकी भमंगिमा निवेदन अथवा समपंण की नहीं, आग्रह की होती है। उनमें एक प्रकार की श्राक्रामकता है जो उनके काव्य में फोमल भावों की अभिव्यक्ति को भी ओजपूर्ण कर देती है। यही कारण है कि वे नरेंद्र शर्मा के समवर्ती होकर मी उनसे इतने भिन्‍न हैं। उनके मनोगगन में मानों सदा लालसा का अंघड़ चक्कर लगाता रहता है जो उन्हें अ्रस्थिर ओर अधीर किए, रहता है। उनकी शब्दयोजना मी उसी प्रकार आआरवेशमयी होती है। कोमल करुश भाव अ्रथवां सांकेतिकता के उनकी रचनाओं में कभी कभी ही दर्शन ते हैं। फिर भी इसमें संदेह नहीं कि तृषाकुल मन के मंथन्न फो रूप देने में वे काफी सफल हुए हैं । विवेच्य काल के छोर पर प्रकाशित अंचल के दोनों फाव्यसंग्रह--मधूलिका ( १६३८ ) और अपराजिता” ( १६३६ )--में उनकी रचना फी ये विशेष ताएँ सहज ही पहचानी जा सकतो हैं। योवन की तृष्णा, योवन का उन्माद और वासना की प्रखरता यदि इन संग्रहों की कविता श्रों फो प्यार देती है तो लंबे ल॑ बे छुंदों का प्रयोग, शब्दों का घटाटोप और बाह्य क्रियाकलाप एवं दैहक रूप पर उनका बलाघात यह उिद्ध करता है कि ये कविताएँ प्रेम की कविताएँ न होकर, टनिड22शकप रा चाप ७३०८ पचभपककपका८ 2 सफर १ 7चा८ ८ पछ "५7 ५---- ऐे [ भांग १० ] ..प्रौस और मस्ती कै कवि... ३५९ मन के अंघड़ फी कविताएं हैं। कहीं फहीं तो अंचल फा स्वर इतना श्रतिरंजित्त हो जाता है कि उनकी रचनाओश्रों में प्रणय की अनुभूति की अपेक्षा अतृप्त प्रय फो ललक ही प्रकट होती है। प्र यसी को देखते ही कवि कह बैठता है-- एक पल के ही दरस से जग उठी तृष्णा अधघर में ( 'मधूलिका” ) यह अभिव्यक्ति अपने भौतिक खुलेपन में यदि आग्रहशील है तो वासना के उन्माद का प्रकाश होने के फारण क्षणिक ओर एकांगी है। वस्तुत: अंचल ग्रपने काव्य में सर्वत्र इसी भंगिमा का सहारा लेते हैं तथा मस्ती और मदिरा को चर्चा फरते समय भी अ्रतृष्ति ओर श्रभाव फो नहीं भूल पाते। “अ्रपराजिता? की एक कविता में वे अचानक अपना स्वर बदलकर कुछ अंतमु ख हो जाते हैं और तब उनके मन फा सच्चा भाव स्पष्ट हो जाता है फोन शून्यता दूर करेंजो अंतर में घिरती श्राती इतना प्यार भरा घर घर में फितु तृषित भेरी छाती जब घर का सूना सा आलम द्वाल हिए का क्‍या कहिए बिना पिए तूफान उमड़ता, पीकर प्रिये कहाँ रहिए ! यहाँ अंचल का वह शाब्दिक समारोह सहसा तिरोहित होता सा जान पड़ता है। अ्रन्यत्र वे अपनी प्र यसी के रुपवर्शान और हाव-भाव-चित्रण में जिस प्रकार धरती आ्रासमान एफ फर देते हैं श्रोर अपनी आकांक्षा फी वेदी पर अ्रपना सारा फाव्यसंसार चढ़ाते दिखाई पड़ते हैं वह कितनी बड़ी आत्मवंचना है, यह इस फविता से स्पष्ट हो जाता है । ... एक प्रकार से अंचल इस प्रवृत्ति फी परिणति के भी बड़े सटीक उदाइरण हैं। सामाजिक यथार्थ से जूझने श्रोर वेयक्तिफ आकांक्षाश्रों फो सिद्ध करने के लिये कवियों का जो दल इस पथ पर आ निकला था उसे धौरे धीरे यह पता चल गया कि वह एक निजी संकीणाुता में घिरता जा रहा है और बाहरी यथाथ के आगे नितांत अवश एवं श्रसहाय होता जा रहा है ! कुछ दिनों तक तो उसने मस्ती अ्रथवा ऐफांतिकता की मुद्रा अपनाकर अपने श्रापको भुलावे में डालने फी चेष्टा की पर शीघ्र ही वह जान गया कि उसकी निजी एवं वेयक्तिक आआाकांक्षाओं की पूर्ति के लिये भी सामाजिक क्रांति आवश्यक है। यही फारण है कि जब १६१८-४० के आस पास हिंदी में ध्रगतिशोल प्रद्त्ति का दोर चला तो अ्रंचल, नरेंद्र शर्मा भर शिवमंगल सिंह 'सुमन” जैसे प्रणय और योवन के कवि तुरंत दी उस नए पथ पर चल पड़े एवं पीड़ितों श्रोर थोषितों के प्रति सहानुभूति प्रकद (३८२ .. हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहांस उनके ऋव्य में यह आ्राफस्मिक मोड़ उनके । प्रगतिबाद ने जिस काव्यप्रबृति को में नहीं अपितु चचित करने में बड़े उत्साह से जुट गए । मन की रंगीनी की कलई खोल देता है पलायनवाद का नाम दिया था वह छायावादी कवियों प्रबृत्ति के कवियों में ही प्रकय हुई थी । कद कल है 22 तन अशिजय लक 4400 7 पक अम के 2० अब पड 78 कट व दक सप्तम अध्याय हास्य-व्यग्य-काव्य भारतीय आचार्यों' द्व!रा निर्धारित नौ रसों में हास्यरस प्रमुख रस के रूप में प्रतिष्ठित है। विदेशी विद्वानों ने मनोविशान का आश्रय लेकर हास्यरस के पाँच भेद किए हैं--विनोद ( हा,मर ) व्यंग्य ( सैटायर ), व्याजोक्ति ( आयरनी ), चमत्कारिक विनोदवचन ( विट ) प्रहसन ( फार्स )। आचाय॑ रामचंद्र शुक्ल नें हास्थ को मन का आवेग मात्र माना है--“हास्य'ः भाव के आश्रयगत होने पर ओता या दर्शकों फो भी रसरूप में हास्थ की अनुभूति होती है। हास्य के अ्रंतगंत व्यंग्य, ताना, हाजिरणवाबी, प्रहेलिका, श्रतिशयोक्ति, कैरीकेचर, श्लेष आदि सभी पीजे आरती हैं जिनमें सबसे महत्वपूर्ण व्यंग्य है | सन्‌ १६१८-१९३८ कौ अ्रवधि में पत्रपत्रिकाश्नों तथा काव्यकृतियोँ में . प्रकाशित हास्य-साहित्य-पर दृष्टिपात करने से लगता है कि हिंदी का हास्यसाहित्य उतनी खंतोषप्रद गति से विकसित नहीं हुआ खितनी तीत्र गति से साहित्य की अन्य विधाओं में साहित्यकारों ने सजन के नए आयाम खोले हैं। फिर भी, इतना निश्चित है फि तत्काल्नीन हिंदी कवियों को विशुद्ध हास्यरस की ओर भी रचनात्मक प्रदृत्ति हुई है और भारतीय जीवन की अनेक समस्याश्रों की ब्यंग्या- नुभूति उनकी रचनाओं में विविध शैलियों में व्यक्त हुईं है। सामान्यतः इस युग के दास्थ-व्यंग्य-कवियों के तीन चार वर्ग फिए. जा सकते हैं। पहला वर्ग तो ऐसे कवियों का है जिन्होंने मुख्य रूप से हास्यव्यंग्य की फविताएँ लिखी हैं। इनमें प्रमुख हैं---इंश्वरीप्रसाद शर्मा, इरिशंकर शर्मा, पांडेय बेचन शर्मा 'उम्र!, बेढ़ब .] बनारसी, अन्नपू्णानंद, कांतानाथ पांडेय 'चोंच?, बेघड़क बनारसी, शिवप्रसाद मिश्र हे 'रुद्र! आदि | दूसरे वर्ग में वे कवि आते हैं जिनका काव्यक्षेत्र विस्तृत है और जिन्होंने उसी के अ्रंतगंत प्रसंगत; हास्य-व्यंग्य-काव्य फी रचना की है--उदाहरणश के लिये हरिश्रोध, भगवानदीन, श्रीनाथ सिंह श्रादि के नाम लिए. जा सफते हैं। इसी वबग में कुछ ऐसे कवियों की भी गणना की जा सकती है जिनका कार्यक्षेत्र भिन्‍न रहा है, परंतु मौज मस्ती के छर्णों में लिन्‍्होंने हास्यव्यंग्य के द्वारा अपना और ५ 234 दूसरों का मनोविनोद किया है--जैसे जगन्नाथ प्रसाद चतुवँदी, ओऔनाथ सिंह . आदि । इनके अतिरिक्त और भी बहुत से प्रब्यात और अल्पर्यात कवि हैं जिनकी पर अनेक प्रकाशित रचनाएं नागरीप्रचारिणी खभा के संग्रहालय में विद्यमान हैं, परंतु जिन्‍फा साहित्यिक कृतित्व विशेष उब्लेखनीय नहीं है । >ससासासकाखास पक <कल्‍कथल सका ८रपसदसतपकसव5 ४८55९ ५८ सबका पलक < चर _रररतरासतथलदुरल्‍र पलपल सच सस्ता तर सन्‍ लक अ्रालर-केडकसनकेन वि उा केसर ितएउन्‍ेंडलहं बस स्लिनलर इन बरपसाउा्रपकतधररपाततसकालपरेमशरपरेतकहसपसताअ्तपतकनपसलसकसवल भउप॒रपसर नि भरत कवर ८ साल त5$सत+पसपस-4लहत्तामअरररअप-पसाउनदसयराचर बयसल्जत्तसलपव न वि आल 23 न बल जप श्र द हिंदी साहित्य का बृहत इतिहास _कालक्रम की दृष्टि से हास्यव्यंग्य के कबियों में पहला नाम आता दै भी इंश्चरी प्रसाद शर्मा का । वे इस युग के प्रतिष्ठित व्यंग्यकार थे। उनकी श्रधिकांश कविताएं सुप्रसिद्ध पत्रिका ध्मतवाला” में 'विनोदव्यंग्ग!ः शीषक के अ्रंतगंत प्रकाशित हुईं थीं श्रोर उनमें जनचेतना तथा जिंदादिली का समावेश था। उन्होंने हिंदी हास्य-व्यंग्य-कविता में पहली बार मनचले अ्रनियंत्रित भारतीय युवर्फों ओर भारत की भोली भाली जनता के ठकेदार नेताओं पर फरारा व्यंग्य फिया | उन्हेंने भ्मंग्रंथों फो भी; जिनके हाथ में समाज की नकेल थी, अपनी विनोदभरी कविता का विषय बनाया । वास्तव में उनकी फविताएं हास्यव्यंग्य के साथ ही नए विचारों की स्पष्ट भलक देती हैं। शर्मा जी को लोग मनोरंजनमूर्ति कहा करते थे। उनकी रचनाएँ 'मतवाला) 'मौजी”', 'गोलमाल', “भूत”, 'मनोर॑जन' और हिंदू पंच! नामक हास्यरस की पत्रिकाओं में बराबर प्रकाशित हुआ फरती थीं-“मनोरंजन! के तो वे संपादक ही थे। उनकी हास्यरसात्मक फविताओं के संफलन “चना चबेना! (१९६१ वि० ) फो शिवपूजन सहाय ने सरस साहित्य माला प्रफाशन; आरा से प्रकाशित फिया था । शर्मा जी के भ्रचानक निधन के फारणा उनकी दूसरी हास्य-ध्यंग्य-कृति 'कचालू रसीला? का प्रकाशन नहीं हो सफा। “चना चबेना? में कुल ४७ कविताएँ ह जिन्हें लेखक ने “कविताएँ” कहा है। ये फविताएँ रंगीली रसीली, चटकीली, नुफीली, मड़फीली श्रोर जोशीली हैं श्रर इनमें फड़वापन, कसेलापन; खारापन, गँवारपन सब कुछु इतनी सइजता के साथ अ्र॑कित छुश्रा है कि शर्मा जी के व्यंग्य फो हिंदी में श्रपने ढंग का अ्रनूठा कहा जा सकता है। इन कविताओं के विषय ओर आल्लंबन जो लोग बने हैं, उनपर हँसी, प्रीति और विनोद के साथ ही करुणा तथा सहानुभूति भी उत्पन्न होती है । विनोद के बहाने कवि ने खरी खरी दो टूक बातें कही हैं। पिता-पुत्र-संवाद, श्राजफल के दंपति, आजकल की ग्हस्थी, कलयुगी संत, महंत रामायण, चौपट फा नगाड़ा, दाढ़ी चोटी-संमेलन, लौडर अवतार, रिलीफ कमेटी, सुधरी हुईं स्त्रियाँ, नई रोशनी स्वराजी, श्रात्मप्रशंसा आदि कविताओं में युग की मनोदशा की खिल्ली उड़ाई गई है जो समाज फो कतंव्यनिष्ठ बनानेवाली है। विविध सामाजिक व्यंग्य, जो “ना चबेना में हैं, उन्हें देखकर फहा जा सकता है कि जिन आ्रालोचकों ने यह मान लिया हकि इस युग में हास्यव्यंग्य की धारा छ्ीण हो गई थी, वे _ अम॑ में हैं। कर ...... चना चबेना' में भावानुभूति के साथ ही भाषा फा तीखापन भी द्रष्टब्य है। हास्य के लिये विवेक का प्रयोग आ्रावश्यक है। जितनी ही तीज चेतनासंपन्‍्न _ बुद्धि होगी, व्यंग्य उतना ही पैना होगा । उदाहरणस्वरूप तत्कालीन संपादकों के प्रति शर्मा जी का निम्नलिखित व्यंग्य देखिए ; द [भांग १० ] .... द्वास्य-ब्यंग्य-काब्य डेप हिंदी में संपादक बनना काम बंड़ी आसानी का। चलती नाव यहाँ बालू पर काम नहीं है पानी का। बिना फिय्करी या हल्दी के रंग यहाँ चोखा आाता। -: बुद्ध, भी साहिलक्षेत्र में अपनी घाक जमा जाता। इसीलिये भरमार हुई है ग्रथों औ अ्रखबारों की। गुजर हुई संपादक दल में फोरे लंठ लबारों की ॥* पंडित हरिशंकर शर्मा इस युग के एक अन्य सफल ह्वास्य व्यंग्यकार हैं। उन्होंने अपनी कविताओं सें हिंदुओं की अक्ंर्यता और शोचनीय अवस्था पर तीखे व्यंग्य किए हैं। 'चिढड़ियाघर' और ५पेंजरापोल” शीर्षक गद्यकृतियों में उनकी ऊऋुछ हास्यब्यंग्यात्मक फविताएँ ओर विडंबनकाव्य संकलित है। उनके व्यंग्यचित्रण में वविध्य है--समाजसुधार के नाम पर स्वार्थ सिद्ध करनेवाले नेताओं दूसरों की रचनाओं को अपने नाम से छुपवानेवाले कवियों, देशभक्ति के नाम पर कांग्रस की जाली सदस्यता आदि विषयों को आधार बनाकर उन्होंने अ्रसामाजिफ तत्वों का व्यंग्यात्मक उपहास फिया है। 'फोरा गायक कवि! शीषक कविता में शर्मा जी ने ऐसे कवियों की खिलली उड़ाई है जो तुकबंदी ओर गलेबाजी के सहारे फविताकामिनी के नायक बन बैठते है छुंदों की छाती पर प्रद्दार, रस फहाँ, बरसती विषफुहार कैसी ध्वनि केसे अलंकार, केवल स्वर बना सहायक है तू कवि या फोरा गायक है। पद हैं दो तीन सुनाने फो खुश फरने धाफ जमाने फो . भ्रन पाने कीर्ति फमाने फो सूकी विधि क्‍या सुखदायक है. तू कवि या फोरा गायक है। कवि ने आधुनिक युग की शिक्षाव्यवस्था, स्वाथप्रेरित व्यापारवृत्ति लीडरी 3 धर्मक्षेत्र के पाखंड, भ्रष्टाचार, चोरबाजारी . आदि पर व्यंग्य करते हुए सामाजिक पे ! च्वता चबेना; पृ० १००। हास परिहास, संपादक : बेढ़ब बनारसी तथा सुधाकर पांडेय, पृष्ठ १४० | १०-४९ द द इद ६ द .. हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास चेतना जागत करने में अप्रत्यक्ष रीति से पर्यात्त योग दिया है। उनकी हास्यव्यंग्य कविताओं में निश्चित रूप से पेनापन मिलता है। पांडेय बेचन शर्मा उम्र भी इस युग के प्रसिद्ध व्यंग्यकार हैं। १९२१- १६२४ ई० तक “आज? में 'ऊटपटाँग' शीर्षक से व्यंग्यविनोद का कीौलस लिखने के साथ ही उन्होंने “मठवाला?, भूत! आदि पत्रिकाओं में मी अनेक व्यंग्यकविताएं लिखीं जो इस युग के ह्वास्यसाहित्य को अ्रठ॒ुल निधि हैं। समसामयिक सामाजिक विडंबनाओं के प्रति व्यंग्य इनफी उल्लेखनीय काव्यप्रवृत्ति है--रचनात्मक ब्यंग्य की बैसी तीज प्रेरणा न छायावाद में मिलती है और न रदस्यवाद में । श्रपने युग के जिन पात्रों श्रौर प्रबूत्तियों फो कवि ने व्यंग्य का आलंचनन बनाया है, वें फम _ रोचक नहीं हैं। यद्याप इस युग में कवियों में पैरोडी लिखने की दोढ् सी दिखाई पड़ती है, फिर भी उग्म की पैरोडियों में समाज फी यथार्थ दशों का जैसा सत्य और प्रखर स्वरूप श्रंफित हुश्रा है वह अ्रन्य कवियों में दुर्लभ है। उदाहरणार्थ . तुलसी के वर्षावर्णुन फी यह अनुकृति देखिए : .... घन घमंड नम गरजत घोरा। श्रसहयोग फो मांनहुँ सोरा ॥ दामिनि दमक रही धन मा हीं। माडरेट मति जिमि थिर नाहीं ॥ बरपहिं जलद भूमि नियराएं । जिमि नव पुलिस रुपैया पाए ॥ बुंद. अधात संहह्ि गिरि कैसे | हैली वचन सहत हम जैते ॥! उम्र अपनी कविताओं की अनो खी शैली के लिये विख्यात हैं । उन्होंने समाज की कलुष वासना और यांत्रिक मानवता पर प्रहार करनेवाली मार्मिक व्य॑ग्योक्तियों की रचना फो है। छंद की दृष्टि से नई पुरानी विभिन्‍न छांद्सिक प्रवच्ियों का प्रयोग भी उनकी सहज प्रवृत्ति है । ...._ बेढब बनारसी फारसी और उर्दू फी ह्वास्यपद्धति पर कविता करनेवाले व्यंग्यकार के रूप में प्रसिद्ध हैं । उन्होंने उद्‌' के विविध छुंदों का प्रयोग किया और अ्रपनी अधिकांश कविताएं गजल ओर शेर की शैली में लिखीं। उन्हें श्रग़ जी का भी अच्छा ज्ञान था, इसलिये उनकी कविताओं में ग्रँग्रेंजी हास्यव्यंग्य की बारीकी भी मिलती है। उनके व्यग्यकात्य में जो सजीवता भौर चुस्ती मिलती है उसे लच्चित कर रामनरेश त्रिपाठी ने उनकी ठुलना अकबर इलाहाबादी से की. है। उनके अनुसार, 'बेढब जी ने अकबर के मार्ग को सूज़ा: नहीं जाने दिया और कहीं कहीं तो व्यंग्य कपने में वे अकबर से आगे बढ़ गए, हैं। बेढब जी की मान्यता थी कि व्य॑ंग्योक्तियों से केबल मन में गुदगुदी पैदा नहीं होती, अ्रपितु जप आज ( दैनिक ) ७ अगस्त १६२३, पृष्ठ २, फालम ४ |. -: भांग १० ] । हास्य-व्यंग्य-कार्ब्य क्‍ क्‍ र८८७ उनसे संसार में बड़े बड़े छुधार और उपकार हुए हैं। वे व्यंग्य फो हास्य की आत्मा मानते थे । १९२० से १६६७ ईं० तक वे युग की परिवर्तित परिस्थितियों में निरंतर अ्रपनी कविता द्वारा विनोद की व्यापक सामग्री देते रद्दे । उनको कविता प्रों में प्रत्युत्पन्नमतित्व के साथ हो भावों का सटीक सार्थक प्रयोग मिलता है जिससे बरबस श्रोठों पर स्मिति फेल जाती है। एक उदाहरण द्रश्व्य है लेके डिगरी यह समभते थे कि होंगे डिपटी अब तो यह भी नहीं है चांस कि दरबाँ होंगे लाट ने हाथ मिलाया है जो मौलाना से रश्क पंडित को है अरब वह भी मुसलमाँ होंगे बाद मरने के मेरे कब्र पर आल बोना हश्न तक यह भेरे ब्रेकफास्ट के सामाँ होंगे उम्र सारी तो कटी घिसते कन्नम ए बेटब गारखिरी वक्‍त में क्‍या खाफ पहलवाँ होंगे ।! बेढब जी ने श्रपनी फविताश्रों में युग, समाज, घम सभी पर व्यंग्य किए हैं । उनमें जनता की चित्तवृत्तियों की सच्ची परख करने की क्षमता और मनोवेशानिक दृष्टि फी गहराई है। भाषा को संस्कृतनिष्ठ न रखकर उन्होंने अंग्रेजी के प्रचलित . शब्दों; उर्दू के लफ्जों, मुहावरों आदि का धड़त्लेसे प्रयोग किया है। वास्तव में डनकी कविताश्रों में श्रनुभव की गहराई, निर्मीकता, व्यंग्य की व्यावह्रिकता, वक्रोक्तिमयी चुस्त शब्दावली और उपमाओं का सुंदर प्रयोग मिलता है। बेढब जी की कविताशओ्रों में युवावस्था फी श्रल्हड़ता की मस्ती शुरू से अंत तक बिखरी पड़ी है। वे हास्यरस के सिद्ध कवि हैं। उन्होंने कवित्त, स्वंया, दोहा तथा उदू . के बहर तक में ब्यंग्यकाव्य की सफल रचना की है | ; बेढब जी के समसामयिक कवियों में अन्नपूर्णा नंद विशेषतः उल्लेखनीय हैं- : उन्होंने विलवासी मिश्र और महाकवि चब्चा के नाम से कविताएँ की हैं। उनकी कविताओं का कोई संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ है, परंतु. उनकी गद्यरचनाओं में स्थान स्थान पर हास्यकविता के भी अच्छे उदाहरण मिलते हैं। उनकी कविताएँ समाजसुधार की आराकांत्षा से प्रेरित हैं---इस संदम में उन्होंने पश्चिमी सम्यता के प्रभाव, बनावटी फेशनपरस्ती, हाफिम हुक्क्रामों के सामने दुम दबाने की मनोकृत्ति आदि पर तीखे व्यंग्य किए हैं। उनकी फविताओं में प्रकट होनेवाला हास्य मन को नीरतता औ्रौर एकाग्रचित्तता से मुक्ति दिलानेवाला है, इसीलिये आचार्य ९ जागरण, ११ फरवरी १६३२, अनोखी उक्तियाँ” शीर्षक कविता । हा ... हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास रामचंद्र शुक्ल ने उनके हास्य को सुरुचिपूर्ण कहा है ।! विशेषता यह कि उनकी भाषा उच्छू, खल न होकर समयोचित और व्यावहारिक है। उदाहरणस्वरूप देश- दुदशा के संबंध में यह कुंडलिया देखिए : क्‍ जी जाने जैसी जरे उर अंतर यह आग। भारत सी या भूमि को कैसो भयो अभाग ॥ कैसों भयो अमाग काग भोगें इंद्रासन। हंसन ठिकरा चुनें धुर्नें सिर कोर्पे च्रासन॥ बल बिक्रम व्यापार बद्धि वैभव सब छीजा । सार भए. हम झ्राज रहे हम जिनके जीजा ॥* श्रन्तपूर्णानंद जी की कविताओं की अ्रपनी शेली है। उन्होंने समाज- सुधारकों, साहित्यकारों, राजा महाराजाओं आदि के श्रहंकार और पाखंडी मनोदृत्ति का व्यंग्यमुलक चित्रण किया है। वर्तमान दूषित शिक्षाप्रणाली के प्रांति भी उन्होंने गहरा असंतोष प्रकट किया है। उनके काव्य में विशुद्ध द्वास्य का सर्जन हुआ है श्रौर उनकी व्यंग्योक्तियाँ मी रोमांचक और मनोरजक हैं । ... शिवरत्न शुक्ल झंत “परिहासप्रमोद” ( १६३० ई० ) भी इस युग की हास्य रस की उल्लेखनीय कृति है। शुक्ल जी धार्मिक मनोदृत्ति के कवि थ्ें--आर्यों द्वारा प्रतिपादित सामाजिक धार्मिक विधानों से विमुख होकर प शेचमी सभ्यता की ओर श्रनवरत गति से बढ़ते चलना उन्हें अनुचित लगता था । इस संबंध में श्रपनी प्रतिक्रि- याओं फो उन्होंने दास परिहास तथा व्यंग्य के माध्यम से प्रकट किया है। 'परिहास- . प्रमोद! की कविताएँ तत्कालीन प्रमुख पत्रिकाओं-- आलोक, मनोरमा, सुधा, माधुरी आदि--में 'बल्नई? नाम से प्रकाशित हुई थीं। पद्म के बीच में कहीं कहीं छोटे छोटे गद्यंड भी हैं। इस संग्रह को कविताओं में पितरों का पत्र, नए लेखक श्रोर नए कवि, मेम मेहरिया, शौकीन रईस, आधुनिक शिक्षित महिला, कोंसिल के उम्मीदवार, बनारसी ठाट; ब्राह्मण, सिखंडी सरदार, संपादक, परदा) विघवाविलास . श्रादि उल्लेखनीय हैं । इनमें विनोदात्मक शेली, हास्यमनोविज्ञान, नवीनता और _तीक्ष्णता है। कवि ने दोहा, सवेया; छप्पय, फवित्त आदि प्राचीन छुंदों से लेकर अ्रति श्राधुनिक श्रतुक्ांत छुंदुप्रद्डति का प्रयोग इन कविताओं में किया है । कवि .. की भाषा विशुद्ध खड़ी बोली नहीं कह्दी ज्ञा सकती-म्बहिका ( मुझे ), हयकी ..._ (वही ), इमका (हमें ) थल मा ( थल में ) आदि प्रयोग इस बात को सिद्ध ..* देखिए 'हिंदी साहित्य का इतिहास', पृष्ठ ७७७। [भांग १०]. हस्य-व्यंग्य-कार्व्य॑ के श्दई करते हैं कि उनकी भाषा अ्रवधी भाषा के संस्कार से निर्मित है। कहीं कहीं सुथना, लेटरबकस, मेंटेनेंस;, सफाचट शञ्रादि शब्दों के प्रयोग द्वारा भाषागत व्यावह्ारिकता फो महत्व दिया गया द्ै। समसामयिक नवोन विषयों पर कवितालेखन की और भी उनको स्वाभाविक प्रवत्ति रही है। तत्कालीन असहयोग आंदोलन के प्रवाह में जो लोग नेतृत्व के उद्दं श्य से भ्रशचार फेला रहे थे, उनपर व्यंग्य करते हुए. कवि ने कहा है कुरता घोती खद्दर केर, सोह डुपट्टा गल विच फेर गांधी टोपी सीस सुहाय, पणग में चद्दी चिपटी जाय ॥ सभा समाजन जय बुलवाय, नेता भयो सुमेस बनाय । कीन्हा योग छोड़ि सब काम, असहयोग योगी भा नाम ॥ बड़ा मान भा चारों ओर, हाथन लेबे सबही दोर। सेवा देश कि कीन्हा नाहि, सेवा लीन्ही जह जहेँ जाहि। कल्पवास फौन्हा बहु जेल, तहाँ बढ़ावहु बड़ेन सों मेल । छूटि बंदिगृह आयो धाम, जानो फीन्हा चारों श्लाम ॥ फरि के हल्ला नेतन साथ, बनि बेठे हम सबके नाथ ।* कांतानाथ पांडेय चोंच' ने पाश्चात्य सुधारवाद से प्रभावित समाज के पाखंड पर घड़ी पानी डालने ओर नक्‍कालों के दल फो पानी पानी कर बेपानी कर देने के उद्द श्य से व्यंग्यपू्ण कविताएँ लिखी हैं। उनकी कविताओं के अ्रनेक संग्रह प्रकाशित हुए हैँ जिनमें पानी पाँडे, छेड़छाड़, चोंच चालीसा, चुनाघाटी आदि का प्रफाशन विवेच्य युग में हुआ है । चोंच जी आधुनिक युग फी विभीषिकाओं पर स्वाभाविक व्यंग्य करने में अपना सानो नहीं रखते । उनकी भाषा भावों कौ बशवतिनी होकर चंलती है। हास्यभाव फो व्यंजना फी दृष्टि से चोंच कवि विशेष स्थान के अधिकारी हैं। सामान्य व्यक्तियोँ के लिये जो बातें नगण्य होती हैं, कवि ने उन्हीं को श्राधार बनाकर हास्यविनोद की लड़ियाँ जोड़ी हैं। उनके प्रत्येक विनोदात्मक पद के पीछे ऐसा चुटीला व्यंग मिलता है जिसमें तत्कालीन मारत के विविध वर्गों की पातित अ्रवस्था पर व्यंग्य किया गया है। कवि चोंच स्पष्टवादी हें--- प्रचलित कुरीतियों का उपहात कर जनमन को जाणत करने में शताब्दियों पूव जो सफलता अंग्र जी लेखक एडीसन को मिली थी, हिंदी द्वास्य-व्य॑ंग्य साहित्य में वही स्थान चोंच का है। उनकी व्यंग्योक्तियाँ अद्भुत सुझबूक फी परिचायक हैं। समाज में नेतिक दृष्टि से जो गंदगी फेली हुई थी उठे दूर करने में चोंच ९ परिहासप्रमोद, पृष्ठ ६८-६६ । 5 .... हिंदी साहित्य का बृहते इतिददांस की कविताओं ने सराइनीय योगदान फिया है। प्रचलित कुरीतियों पर टिप्पणी के रूप में उनके काव्य में मनोहर और ललित भाषा में मनोविनोद की भरपूर सामग्री विद्यमान है। उन्होंने कब्रीर, नरोचमदास, तुलसीदास, निराला आदि की कवितापद्धति के श्राधार पर सुंदर पैरोडियों की भी रचना की है। कबीर, रहीम और तुलसी की कविताओं पर आधारित कुछ पैरोडियाँ यहाँ उद्धृत की जा रही हैं : द कै. यह तन विष की बेलरी, नारि अ्रमृत की खानि। . पिता तजै पत्नी मिलें, तो भी सस्ता जानि ॥! .. आज फरे सो काल कर, काल करे सो परसों। क्यों होता बेहाल है, जीना तो है बरतसों॥* ज्यों रहीम गति दीप फी, है लीडर गतितूल । लेक्चर देत भलो लगे, चंदा माँगतः सूल॥* श्रावत ही न खड़े हुए, मँगवायी नहिं चाय। तुलसी तहाँ न जाइये, हो राजा या राब॥ मेरी सब बाधा हरौों, सुखदायिनि सरकार। जाफी कृपा अपार ते, डिपटी होत चमार ॥" विस्तृत शब्दभंडार प्रस्तुत कवि के प्रत्युत्पन्नमतित्व का द्योतक है। उनके . ब्यँग्य में तीज्र आक्रोश नहीं, बल्कि पीीहासात्मक तीत्रता है। आचाये रामचंद्र शुक्ल की मान्यता है कि चोंच में रूपात्मक विश्व के श्रनुशीलन की श्रद्भुत : ज्मता, दृष्टि की स्वच्छता और सदा जागती रहनेवाली प्रतिभा है जो कुछ कर दिखाने के लिये हरदम तैयार रहती है । संस्कृत साहित्य के सम्यक््‌ ग्रध्यवन; हिंदी फाब्बपरंपरा के पूर्ण परिचय ओ्रोर अँग्र जी की उच्च शिक्षा के प्रभाव से उनकी दृष्टि विस्तृत, भावना पुष्ट ओर भाषा परिष्कृत है । छेड़े जाने पर उनकी कल्पना चट पंख फड़फड़ाकर उड़ पड़ती है ओर चोंच चलाने लगती है। : एक उदाहरण देखिए क्‍ हक नलंबेहें नछोटे हैं, न दुबले हैं न मोटे हैं। .+... नपागल हैंन स्याने हँँन अच्छे हें न खोदे हैं ॥ #।» « , * पानी पाँड़े, कांतानाथ पांडेय “चोंच', पृष्ठ ८८ | .... ३, 5 उपखित्‌ पृष्ट २०८, १०९ । . _ चोंच चालीसा, पृष्ठ २४ । क्‍ [ भाग १० |] ... हास्य-व्यंस्य-काब्य ३३१ उन्हें जेसा सुझा दो जब, वही वे मान जाते हैं। जलनाबे “चोंच”ः सच पूछो तो बेपेंदी के लोटे हैं।? श्री ब्वालाराम नागर विलक्षण' ने छायावादी काव्यपद्धति पर व्यंग्य के उद्द श्य से 'छायापथ' की रचना की। उन दिनों छायावाद के नाम पर ऐसी बहुत सी रचनाएँ लिखी जा रही थीं जो श्रीहदीन थीं। विलक्षण जी ने छायावाद को मनचले लड़कों का प्रमाद ओर मनचलावाद कहा है ओर यह मत व्यक्त किया है कि प्रमाद द्वारा उन्‍नतिशील साहित्य का संहार किया जा रहा है। छायावाद के आरंभकाल में लोगों की यह धारणा थी कि वह स्थायी नहीं हो सकेगा-- इसी विचार का ब्य॑ग्यात्मक निरूपण प्रस्तुत संग्रह में हुआ है। कवि ने व्यंग्यपूवंक सिद्ध किया है कि मैथिलीशरण जैसे महाकवि भी काब्यक्षेत्र की सीमा तोड़कर, अपनी टूटी इतूतंत्री के ढीले तार म्कारते हुए अ्रनंत की ओर लड़खड़ाते हुए भागने लगे | 'नीहार' की भूमिका लिखते हुए इरिश्रोध की बृद्धा लेखनी भी अनंत फी सूनी सड़क पर जा निकली | इसी से विवश होकर विलक्षण जी ने शुन्यवादी कवियों की सर्द आहों पर व्यंग्य किए हैं। उन्होंने छायावादी कवियों के भावों और शेली दोनों पर व्यंग्य करते हुए लगभग एक सो चतुश्पदियों की रचना की है जिनमें व्यंग्य की तीत्रता के लिये ऊद शब्दावली का भी प्रयोग फिया गया है। कुछ उदाहरण द्रष्ट्व्य हैं जिस जगह अश्व स्वेदों फी, बहती रहती बेतरनी। डगमग करती हो उसमें, छाया की जरजर तरणी ॥ खुद लिखें न समझे खुद ही; समझक्ताते खाएँ चक्कर । इस तरह बनाए जाते हों, लोग जहाँ घनचवकर | हो दुरुपयोग लिंगों का, अ्रश्ञान सरस छुंदों का। हो शिथिल प्रयास जहाँ पर, भावुकता के बंदों फा॥ छाई हो जहाँ अ्रविद्या, पर प्रज्ञावाद बढ़ा हो। आधाररहित रचना में, प्रतिभा का गव॑ कड़ा हो॥* विवेच्य युग के एक अन्य कवि चतुभ्रुंज चतुरेश झृत 'हँसी का फब्बरारा! में ४४ कविताएँ हैं जिनमें व्यंग्य की तीव्रता और स्पष्ट कथन को प्रवृत्ति मिलती है | इसकी रचना बोलचाल की भाषा में हुई है-- अ्रट्पटे शब्द सुसंगठित होफर, * पानी पाँड़े, पृष्ठ ६६ । द *'छायापथ, पृष्ठ ५०, ६७, ६६; १०६। 2 थम न ललित कक म फीट कई आप ३१६२ ..... हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास नई नई विषयवस्तु को छेत्र बनाकर व्यंग्य फा जादू उत्पन्त करते हैं। कविने इन फविताओं में प्राकृतिक दृश्यों, सामाजिक धार्मिक परिस्थितियों ्रादि पर व्यंग्य का रंग चढ़ाया है। इन कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है फि फविने हँसी का वातावरण तैयार करने के लिये चुने हुए शब्दों, यक्तियों ओर मुहावरों का प्रयोग अ्रत्यंत स्वाभाविक रूप में किया है। लचर शब्दों के प्रयोग द्वारा श्रपने भावों के पैनेपन पर उन्होंने कहीं भी जंग नहीं लगने दिया। 'सनडे” शौष्फ कविता का यह अ्रंश देखिए ...._ है रात शनीचर होने फो, श्रव खूब मिलेगा सोने को। है खुशी आ्राज ही से ऐसी, मानो जाते हों गोने को ॥* काशीनाथ उपाध्याय अमर बेधड़क बनारसी' फा इस युग फौ हास्य-व्यंग्य-काव्यधारा में स्थायी महत्व है। “तरंग” के संपादक के रूप में तो इनकी ख्याति है ही-हिंदी के अनेक हास्य-व्यंग्य-पत्र उनकी ह्वास्यकविताश्रों से भरे पड़े हैं। उन्होंने सामयिक सामाजिक राजनीतिक विषयों पर सफल ब्यंग्यकविताओं फी रचना की हे। उनकी कविताओं में परिष्कृत विवेक फा सामयिक प्रयोग मिलता है| शेर, रुबाई, गजल श्रादि की रचना के साथ ही उन्होंने शब्दसामथ्य श्रौर शैलीगत स्वराभाविकता का मी उपयुक्त परिचय दिया है। भावव्यंजना के लिये कहीं कहीं उन्होंने अंग्रेजी शब्दों फा भी स्ीफ प्रयोग किया है | पृ श्रोर पश्चिम के विभेद के संबंध में यह व्यंग्य देखिए ; . उसकी हर बात को कानून समभता हूँ मैं, अ्रपने अखबार का मजमून समझता हूँ मैं। रंग ढंग और बदरंग भी सममभता हूँ में, उनके चेहरे पर कुछ नून समभता हूँ मैं। “इमेजिनेशन! को बेलून समभता हूँ मैं, .. उनके रोने को भी इक ट्यून समभता हूँ मैं । जब से चला है रेजर इस दुनिया में, हर घर को '्सैलून! समभता हूँ में। उनके पसीने को भी खून समभता हूँ मैं आँखों को उनके अफलातून समझता हूँ में । यही तो फ़क॑ पूरब ओ्रोर पच्छिम में है-- अपने जामे को भी पतलून समभता हूँ में । * हँसी का फव्वारा, पृष्ठ ३ | द कु मदारी, ३० नवंबर १६३७, 'तूफाने जराफत' शीर्षक कविता, पृष्ठ १५। [ भाग १० ] क्‍ _हास्य-व्यंग्य-काव्य क्‍ श९३ बंधड़क की आरंभिक कविताओं में व्यंग्य उतना पैना नहीं थां; पर आगे चलकर उनको कविताओं में प्रोढ़ व्यंग्य के दशन होने लगे। उनकी उपमाओं ओर व्यंग्योक्तियों में निरंतर परिष्कार मिलता है। यद्यपि उन्होंने नारी की फोमलता ओर प्रेम फो ग्राधार बनाकर अनेक हँसाइयाँ लिखी हैं, तथापि जहाँ पर उन्होंने आत्मानुभूतिप्रेरित व्यंग्य फो अ्रपनी कविता के कलेवर में बाँधने का यत्न किया है वहाँ कविता में स्वाभाविक परिहास प्रफट हुआ है भेया जी बनारसी इस युग के दूसरे महत्वपूर्ण कवि हैं, जिनकी हास्यरस की अधिकांश रचनाएँ मोहनलाल गुप्त के नाम से प्रकाशित हुई हैं। भेयाजी फी कविताएं तिलमिलाहट उत्पन्न कफरनेवाली हैं। उन्होंने अपनी हास्यब्यंग्य कविताओं की प्रेरणा समाज से ली है--जो कुछ देखा, सुना और पढ़ा उधके आधार पर श्रज्ित भावसंपदा को चुटकियों फी चोट ओर हास्यव्यंग्य के नश्तर लगाकर व्यक्त किया है। उनकी फविताओं में साहित्यिक ओर राजनीतिक घोखाधड़ी, बेईमानी, आ्राडंबर ओर समाज के रिसते फोड़ों के प्रति तीक्ष्णु व्यंग्य मिलता है। विवेच्य युग की पत्रपत्रिकाओं में भेया जी की अनेक कविताएँ बिखरी पड़ी हैं। छायाबादी भावपद्धति के प्रति व्य॑ग्यस्वरूप लिखित प्रियतम तुम इस पथ से आाना' शीषफ कविता उनको प्रसिद्ध रचना है जिसमें उन्होंने मधुर व्यंग्य फरते हुए कहा है कि हे प्रियतम, जब आधी रात की बेला में आकाश में चाँद अ्रकेला हो तब तुम बँगले में चुपके से आकर मुझे गीत सुना जाना; जब कोहरा ओर बादल फेले हों तब तुम बादलों के भीतर छिपकर गीत सुनाना। उन्हीं के शब्दों में-- जब॒ फोयल कूफ सुनाती हो, रो रो तुमको तड़पाती हो । तब टूटी बीन लिए प्रियतम, तुम मेरे पास चले आना। है प्रणय यहाँ अनुराग यहाँ, फलों का सुंदर बाग यहाँ। में बस चिड़िया बन नाचूँ, ठुम बनकर पक्की आ जाना | प्रियतम तुम इस पथ से आना [* बेघड़क फी भाँति भैया जी ने भी विवेच्य युग में फविताओं की रचना श्रभी गआ्ररंभ ही की थी। वस्वुतः उनके हास्यव्यंग्य काव्य का परिपाक प्रोढावस्था फी रचनाओं में ही दिखाई पड़ता है । ९ मदारी, २५ मई १६३७, एष्ठ ४। १०-५० ३६९७ न्‍ हिंदी साहित्य का बृध्त्‌ इतिहास काशी के जीवन, वहाँ की भाषा और वहाँ के समाज को विविध मौलिक रीति नीतियों का बनारसी बोली में व्य॑ंग्यात्कक प्रतिपादन शिवप्रसाद सिश्र इद्रः की कविताओं में मिलता है। बनारस की जीवनधांरा में हास्य उत्पन्न करने की अद्भुत छ्मता है। “रुद्रर की हास्य कविताएँ 'खुदा फी राह पर” पत्र के 'बनारसी जैठक' स्तंभ में ओर अनेक अन्य पत्रों में शुरु बनारसी' के नाम से प्रकाशित हुई हैं। 'रद्र” के जीवन में बनाग्सी संस्कृति जन्मजात तत्व के रूप में घुली मिली है। फाशी के सजीव वातावरण फो उन्होंने अपने काव्य को पृष्ठभूमि में समेटने का संदर यतन किया है। उनकी कविताओं में विषयों की विविधता है, प्रभाववादी वर्गनशैली फी सहजता है श्रोर इसके साथ ही व्यंग्य फा सजीव समावेश है | ऊपर जिन कवियों फी चर्चा की गई है, वे प्रमुख रूप से हिंदी-हास्य- व्यंग्य-काव्य के सजक व्यक्तित्व के रूप में अपनी प्रतिष्ठा श्रौर रचनात्मक क्षमता का अक्षुणण परिचय देनेवाले कवि हैं। इनके अतिरिक्त भी कुछ एसे महत्वपूर्ण कवि हास्य रस फी रचना करते दिखाई देते हैं जिनकी चचों न करना अन्याय होगा | उदाहरणार्थ पंडित अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिओओब” विभिन्न पत्रिकाओं में फिसी न किसी रूप में श्रपनी हँसी दिव्लगी का सामाजिक चिटठा चौपदों में प्रकट करते हुए दिखाई देते हैं। उनके व्यंग्यात्मफ चौंपदों में विनोद और _ चमत्कार के साथ गंभीरता भी दिखाई देती है। उदाहरण के लिये उनके तीन चौपदे नीचे उधृत किए जा रहे हैं मेल को हम लगा रहे हैं लात, फूठ के पाँव हम रहे हैं चूम । गज तक हम सके न कंघा डाल, कोन कहता दै सिर गया है घूम । किमलिये वे चलें न देढ़ी चाल; क्‍यों न फुफकार से उठे दिल काँप | क्यों न उगले मला जहर दिन रात, क्या करें आस्तीन के हैं साँप । आँख को खोल जाति दुख लें देख, हो न उनसे सकी कभी यह चुक | जो चले पाँव दूसरों का चूम, जो जिए. चाटकर पराया थूक। लाला भगवानदीन की कुछ व्यंग्यकविताएँं भी इस युग की पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थीं। लाला ही रीतिकाल के मर्मश थे ओर उनकी कविताएँ ब्रजभाषा की श्रेष्ठ पद्धति में पगी हुई हैं। उन्होंने प्र॑चीन संस्कृति की गरिमा में आस्था प्रकट करते हुए समकालीन समाज्ञ की दूषित प्रबृत्तियों में सुधार करने के लिये बिह्दारी के दोहों की पैरोडी करते हुए सुंदर उद्भावनाएँ की हैं, जो पुरअञ्रसर चोट करनेवाली हैं सीस मुकुट, कटि काछिनी, कर मुरली, उर माल | तब दिखाय जब मुफत का उड़े चकाचक माल || [ भाग १० | .. हास्य-ध्यंग्य-काब्यं ३६५ मोहनि मूरति श्याम की अति अद्भुत गति जोय । तब सोहाय जब आपने पल्ले पैसा होय ॥ संगति दोष लगे सबे कहे जु साँचे बैन। ए.० बी० लिखते बनि चले मैया जंटिलमैन |! बालसखा! के संपादक श्रोनांथ सिंह ने भी इस युग में अनेक हास्य व्यंग्यमयी कविताएँ लिखी थीं | उन्होंने कबीर और (गरघर की रचनापद्धति को अपनाकर अपने समय की सामाजिक प्रवृत्चियों पर गहरे व्यंग्य किए हैं। नीचें उनकी कुछ ऐसी व्यंग्यात्मक पंक्तियाँ उध्चत की जा रही हैं, जिनसे उनकी मार्मिक व्यंग्यर्शाक्त पर प्रकाश पड़ता है : साई मेरे श्वान फो कनत्रों न दीजै त्रास। पलक दूरि नहिं फोजिए, सदा राखिए पास ॥ सदा राखिए पास त्रास कबहूँ नहिं दीजे। ञ्रास दई तो ध्यान जरा इसपर करि लीजै || कह गिरधर कविराय और पति करिहों जाईं। दे के तुम्हें तलाक सुनों हे हमरे साई ॥' : पंडित जगन्नाथप्रसाद चतुबदी भी इस युग के हास्यरस के प्रतिद्ध कवि थे--उन्हें हास्यरसावतार कहा जाता था | इन्होंने समाज के पा्खंडी, सिद्धांतविही न, पापाचारी लोगों पर तीखे व्यंग्य किए है । उनकी कविताएँ संख्या में अ्रधिक नहीं हैं ओर पत्रपत्रिफाओों तक ही सीमित हैं । सुप्रसिद्ध उपन्यासकार भगवतोप्रसाद वाजपेयी द्वारा लिखित कुछ पैरोडियाँ मी इस युग में प्रकाशित हुई हैं। उन्होंने रत्नाकर जी की शेली एवं भावों का अनुकरण कर व्यंग्य शेली में सफल कविचरचना की है। एक उदाइरण देखिए; द द ५ 02 के मद भरे अ्रैंगन सों, तरल तरंगन सो, - कंचन सों कुचन में बेठि अठिलाबवै है। . कबों म्ंग फानन के कजरारे नेनन सो, सैनन सों हँसि हँसि स्नेह सरवाबे हैं। कबों अलबेली वह नवल सहेलिन सा, . प्रम के प्रसंगन की चरवा चलाबों हैं। क्‍ किन * सतवाला, अप्रल १६२६, एष्ठ ११। $ उपरिवत्‌ । शहद हिंदी साहित्य का बृंहत्‌ इतिहास प्रियतम की अवाई की खबर सुनाई जब , हक + ७ हिरदे में मोहन की ठरंही बजाव हैं। उक्त विवरण के आधार पर यह निर्विवाद रूप से स्वयंसिद्ध है कि जो लोग यह श्रारोप लगाते हैं कि हिंदी साहित्य में हास्यकाव्य फी कमी है; वे वास्तव सें हिंदी हाख्यकाव्य की विस्तृत परंपरा से एकदम अपरिचित हैं। यह ठीक हे कि भारतीय चिंतनधारा हाय के प्रतिकूल पड़ती है, लेफिन यह कहना श्रनुचित है कि जीवन के आदर्शोन्मुख चित्र उपस्थित करने की घुन में कवियों ने हास्यभावना की उपेक्षा की है। पाश्चात्य देशों में जीवन की सामयिक आवश्यकताश्रों ओर भौतिकता पर विशेष बल दिया गया है--इसी कारण वहाँ व्यावहारिक जीवन की असंगतियों को आधार बनाकर हाध्यव्यंग्य का विपुल फाव्य लिखा गया। हिंदी में अधिकांश हास्यकाध्य पत्रपत्रिफाओं के माध्यम से प्रकाश में आया है । हिंदी साहित्य में हास्य की कमी की ओर अनेक साहित्यकारों फी दृष्टि गई और उन्होंने अनेक उपनामों से हास्य व्यंग्यात्मक कविताओं फी रचना फौ । हस्यकवियों के लिये यह गवं, गोरव ओर स्वाभिमान फी बात है कि उन्होंने स्वयं अपने मार्ग का निर्माण किया और अ्रपना रास्ता चुना | उन्होंने सामयिक प्रशत्तियों पर व्यंग्य फर सामाजिक पृष्ठभूमि फो जनचेतना की जाणति का श्राधार बनाया। इस फाल के कवियों ने भारतेंदु युग के कवियों से जो परंपरा प्राप्त की थी उसे ओर भी प्रौढ़, विस्तृत श्रोर विषयवस्तु फी दृष्टि से वैविध्यपूर्ण बनाने का यत्न किया। उन्होंने जनता के बॉद्धिक घरातल को हास्य की बारीकियों को समझने के लिये तत्पर ओर विकसित फिया। यही कारण है कि इस युग के हास्यकाव्य में समाज के विभिन्‍न अंगों पर परिदह्यस मिलता है। बहुत सी ऐसी व्यंग्यात्मक रचनाएँ हैं जो हमारी सामाजिक रूढ़ियों को ध्वस्त करती है. और प्राचीन के स्थान पर नवीन फो ग्रहण करने की शक्ति देती हैं । इस युग में विडबन ( पैरोडियाँ ) कविताएँ भी कम नहीं की गई । कवियों में तुलसीदास से लेकर बच्चन तक सभी फी सुप्रसिद्ध रचनाश्रों को आधार बनाकर पैरोडी लिखने की होड़ सी दिखाई पड़ती है। इस काव्य में चमत्कारिकता का बाहुल्‍य है। श्लेष आदि का इन कवियों ने साथक प्रयोग कर परिस्थितियों के साथ हास्य के बदलते हुए प्रतीकों को ग्रहण किया है। हिंदी में नानसेंस पोषट्रो कम लिखी गई है। इस प्रकार की कविता में न किसी पर व्यंग्य किया लाता है .. और न फबती कप्ती जाती है। एडवर्ड लियर जेंसे कवियों की ऐसी रचनाश्रों में १ मतवाला, अप्रैल १६२६, पृष्ठ २१)... [ भाग १० ] ... हँस्थ-ब्य॑ग्य-कीई ३६९७ पानी की भाँति निर्मल हँसी का उद्घाटन हुआ है। इस युग में श्रवधी, भोजपुरी आदि बोलियों के माध्यम से हास्य की श्रीवृद्धि करने में भी कुछ कवि तत्पर रहे । अँग्रेजी में चार अथवा पाँच पंक्तियों में तुकांत कविता 'लिमरिका होती है। इस युग में हिंदी में लिमरिक पद्धति पर तो कविताएँ नहीं े लिखी गई, हाँ व्यंग्य; ताना, फबती, बौछार श्रादि का प्रयोग श्रवश्य किया गया है। संपूर्ण विश्व में सन्‌ १६१७-१८ से १६३७-श्८: तक का फाल एक विशेष महत्व रखता है । यह युग प्रथम विश्वयुद्ध के प्रभावों और दूसरे के पूव॑संकेतों से व्याप्त रहा । जहाँ तक मारतवर्ष का प्रश्न है, राजनीतिक, आशिक, सामाजिक, सांप्रदायिक सभी प्रकार की भीषण विभीषिकाएँ पिछड़े हुए, अशिक्षित, फे शनपरस्त ओर अभावग्रस्त जनसमाज में व्याप्त थीं। हिंदी हस्यकवियों को नित्य नवीन आलंबन प्रात्त हो रहे थे। सन १६२० में महात्मा गांघी के नेतृत्व में सत्याग्रह आंदोलन ने भारतीयों को यह बोध कराया कि विदेशी हुकूमत फो विनष्ट करके ही हमारा जन्म सिद्ध अधिकार -स्वतंत्रता का सुख--हमें प्राप्त होगा । स्वतंत्रता का यह नवीन भाव कवियों की चेतना में जाग्रति और ओज फी लहर उत्पन्न करनेवाला सिद्ध हुआ । गोलमेज कांफ्रेस, साइमन कमीशन, प्रांतों में कांग्रेसी सरकारों कौ स्थापना--आदि ऐसी घटनाएं हुई' जिनसे जगचेतना में एक विशेष स्फूर्ति उत्पन्न हो गई। इन परिस्थितियों के बीच हिंदी हास्यकवियों फो विविध पात्र, धार्मिक सामाजिक रूढ़ियों और असंगतियों से भरी प्रभूत सामग्री उपलब्ध हुई। हिंदी के श्रनेक आलोचकों शोर हाख्यरस पर शोध करनेवाले विद्वानों ने इस युग के हाश्यव्यंग्य काव्य को भारतेंदु युग के काव्य से होन, घटिया और फूहड़ कहा है। परंतु इनकी यह मान्यता संगत नहीं है। 'मौजो' और “मतवाला' के प्रकाशन के साथ ही इस क्षेत्र में ऐसे अश्रनेक प्रतिमाशाली कवि आए जिन्होंने : बौद्धिक पाठकों की परितृप्ति के लिये सूक्ष्मतर हास्य की सृष्टि की। खड़ीबोली के परिष्कार के साथ उसकी व्यजनाशक्ति: तीत्रतर होती गई और ह्ास्यकवि उसका सम्यक्‌ उपयोग कर नित्यप्रति के व्यावह्यरिक जीवन के अ्रनुरूप तीखा ब्यंग्यकाब्य लिखने लगे। वेसे यह ठीक है कि इस युग में कुछ समसामयिक और अस्थायी महत्व की रचनाएं भी हुई हैं जिन्हें हम सामान्य फोटि और सामयिक्त महत्व फा कह सकते हैं। पहले अ्रँग्र ज हमारे व्यंग्य के पात्र होते थे, परंतु अब अपनी सरकार पर भी व्यंग्य किया जाता है। इसलिये कविता के परिवर्तित आलंबनों के बीच निश्चित रूप से ऐसी. रचनाएं हुईं हैं जो-युगीन घटनाओं के संदर्भ में ही समझती जा सकती हैं। वेसे, विवेज्य युग में राजनातिक घुणा ओर प्रच्छुम्न ईष्या से प्रेरित हास्य की काव्यवध्तु में अ्रनेक्त प्रकार के दोष आर छिद्र हैं। झिर भो, विवेच्य थुग का हास्यकाव्य विविधता से भरा हुआ दे। एक ओर यदि चूट्ष्म शोर रैहैदे.. .... हिंदी साहित्य का बहत्‌ इतिहास तरल मानसिक स्मिति का बोध होता है तो दूसरी ओर शब्दों के चमत्क्ृत प्रयोग द्वारा उक्तिचमत्कार एवं वाग्वेदस्ध्य की सृष्टि कर बौद्धिक हास्य का संचार हुआ है। उधर व्यंग्यकवि अ्रसामाजिक आल्ंबन की भत्सना करता हुआ कुरीतियों ओर कुप्रथाओं पर प्रहार करता है। इन कवियों ने नेताश्रों के चरित्र, साहित्यिक घटनाओं और जीवन की विसंगतियों पर अपनी ब्यंग्यभरी भाषा में तीतता के सांथ आ्राधात फिया है। इन कविताओं में विरोधाभास, व्याजनिंदा, अ्रसंगति आदि अ्नेफ अलंकारों का प्रयोग फिया गया है | स्पेंसर ने कहा था कि हास्य फी स्वाभाविक उत्पत्ति उस समय होती है . जब हमारी चेतना बड़ी चीज से छोटी चीज फी ओर शआ्राकर्षित होती है, जिसे हम आधोमुख शसंगति कहते हैं। निश्चित रूप से उस समय फा कवि सामाजिक चेतना की अ्रधोमुखी श्रसंगतियों से हास्य फी सृष्टि फर रहा था। वस्ठुतः हास्य और व्यंग्य के कवि सामाजिक चेतना के सच्चे वाहक होते हैँ। उनकी देन की हम उपेक्षा नहीं कर सकते । अध्यम अध्याय ब्रजभाषा काव्य ब्रजभाषा ओर खड़ीबोली का विवाद ( व ) पूवपीठिकां: आ्राधुनिक युग अपनी जिन शक्तियों और नूतनताओं को लेकर अवतरित हुआ, उसकी अ्रभिव्यक्ति प्रधानतः गद्य में हुई ! ऐतिहासिफ विकासक्रम में जिस भाषा ने लोकब्यवह्ार ओर ग्राम बोलचाल की भाषा का रूप ग्रहण किया, वह मुख्यतः खड़ीबोली ही थी । भारतेंदु युग से पूष ही खड़ीबोली ने गद्य के क्षेत्र में अधिकार जमा लिया था। भारतेंदु युग में काव्यक्षेत्र में भी उसने अपना अ्रधिकार माँगा । गयय के क्षेत्र में ब्रजभाषा से उसका फोई संघर्ष नहीं था परंतु काव्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा चिरकाल से प्रतिष्ठित थी; जनता के संस्कारों में, दवृदर्यों में बसी हुईं थी, श्रतः उसके स्थान पर खड़ीबोली के अधिकार की माँग की प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी। सजग युगद्रश भारतेंदु बाबू इहरिश्च॑द्र ने स्वयं खड़ीबोली में रचना फरने का उद्योग किया परंतु उनकी दृष्टि में यह फाव्योपयोगी भाषा सिद्ध नहीं हुईं | ब्रजभाषा के माघुय के संग्रुख खड़ीबोली उन्हें लुभा नहीं सकी | किंतु खढ़ीबोली युगभाषा का रूप ग्रहण करने आई थी, इसलिये भारतेंदु युग में ही श्रीधर पाठक, चौधरी बदरीनारायण 'प्रेमघन”, पं० अंबिकादत ब्यास एवं पं० प्रतापनारायण मिश्र आदि ने ब्रजभाषा के साथ ही खड़ीबोली में भी काव्यर्वना की और उससें पर्याप्त सफलता प्राप्त की। यह परिवर्तन क्रमिक तो था परंतु जब खड़ीबोली के समथकों, विशेषकर बाबू अयोध्याप्रसाद खन्नी ने खड़ीबोली के पक्ष में आंदोलन ही छेड़ दिया तो ब्रजमाषा के समथकों ने भी उसका पूरा पूरा विरोध किया | पक्ष ओर विपक्ष का निर्माण हुआ ओर अनेक तकी के साथ फाव्यमाषा के स्थान के लिये खड़ीबोली और ब्रजमाषा के पक्ष की साथकता सिद्ध की जाने लगी । भारतेंदु युग में यह विवाद आरंभिक होने पर भी तीत्र था, परंतु इतना श्रवश्य था कि रचना फी दृश् ते प्रमुखता और गौरव ब्रजमाषा को ही प्राप्त रह्टा | परंतु इस बीच खड़ीबोली कविता का लड़खड़ाता पद्य भी उठने क बाट जोह रहा था ओर अपनी भावी संभावनाओं की सूचना दे रहा था।. अ्राचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने खड़ीबोली फविता के द्वितीय चरण फा नेतृत्व किया । उनके मार्गदशन में एक विशाल कविमंडल निर्मित हुआ, जिसने खड़ीबोली के माध्यम से काव्यर्चना की। इस समय काव्यभाषा के ३०० ...._[हैंदी साहित्य का चहत इतिहास स्थान के लिये ब्रजमाषा और खड़ीबोली फा वादविवाद अत्यधिक उग्र था: राय देवीप्रसाद पूर्ण, अयोध्या सिंह उपाध्याय * हरिओ्रोध , लाला भगवानदीन प॑० कृष्णबिहारी मिश्र एवं अन्य बहुत से विद्वानों ने फाव्यमाषा के स्वरूप के विषय में गणावगर्णों की चर्चा करते हुए श्रपना श्रपना मत व्यक्त किया। परंतु इस विधाद के कटु अंशों एवं आग्रहों को एक ओर रख देने के पश्चात्‌ यह स्पष्ट हो चला था कि नवयग के हरंघर्ष को वहन फरने के लिये खड़ीबोली हो उपयुक्त थी, ब्रजमाषा फा माधुय, उसकी संगीतात्मकता और भावसिद्धि उत्कृष्ट होते हुए भी तत्कालीन परिवेश की अभिव्यक्ति में समर्थ नहीं थी। यहाँ तक फिजो कवि ब्रजभाषा एवं खड़ीबोली दोनों भाषाओं में रचना करने में सिद्धहस्त थे, वे ब्रजभाषा में पुराने ढंग की ओर खड़ीबोली में नवीन विषयों को कविता करते थे। दिविेदी युग में स्वतंत्र रूप से खड़ीबोली में लिखनेवाले समथ कवियों का बाहुल्‍य हो चला था, उनकी रचनाओं ने खड़ीबोली की साख जमा दी थी, इसलिये यद्यपि इस युग में ब्रजमाषा में भी पर्यात्त रचना होती रही और उसमें नए, विषयों को दालने की भी चेष्टा की गई परंतु अपने युगबल के फारण खड़ीबोली ही आगे बढ़ती गई | हे ( झा ) आलोच्यकाल में भाषाविवाद्‌ : हमारे विबेच्य काल ( १६७५- १९६५ वि० ) की पूर्वसंध्या में ह्वी यद्रपि ब्रजमाधा और खड़ीबोली का विवाद प्राय: निर्णीत हो चुका था और खड़ीबोली युगाधार सिद्ध हो चुकी थी, फिर भी ब्रजभाषा के अनन्य समर्थक श्रब भी ब्रजमाषा का गौरवगान गा रहे थे | इस युग में ब्रजमाषा के पक्नुघरों में प्रियरसन महोदय का नाम महत्वपूर्ण है। उन्होंने बहुत समय पूर्व काव्यमाषा के रूप में ब्रजभाषा फा पक्ष लिया था | इस युग में भी उनकी वही धारणा अ्रपरिवर्तित रही ( लिग्विस्टिक सर्वे ग्राफ इंडिया, खंड १, भाग १५ १९२७ )। वे द्रजभाषा को ही काव्य की विशेष भाषा मानते थे। श्री वियोगी हरि, पं० पद्मसिंह शर्मा, प॑० हृष्श॒बिहारी मिश्र, पं० किशोरीदास वाजपेयी, पं० जगन्नाथप्रसाह चतुर्वेदी, दुलारेलाल भागव, उमराव सिंह पांडे आ्रादि विद्वान भी ब्रजभाषा के प्रशंसक ओर हामी थे। उधर ब्रजभाषा के उग्र॑ विरोधियों में श्री _गोवर्धनलाल एम० ए०, कालिफाप्रसाद दीक्षित 'कुसुमाकर', जगन्ताथप्रत्ाद मिश्र एंवं रामनरेश त्रिपाठी आ्रादि थे। वस्तुतः इन सबके विरोध में आक्रोश का वह स्वर श्र॒संयत था, जहाँ ऐसे लेखक ब्रजभाषा का. विरोध करने के लिये उसके समस्त अतीत को ही गहिंत मान बैठे थे। इस विवाद में अ्रत्य॑त संयत मत व्यक्त करनेवाले विचारकों फो भी कमी नहीं थी | जगननाथदास 'रत्नाकर!ः ब्जमाषा के समथक थे, वे खड़ीबोली के प्रयोग के प्रति क्ुब्ध भी थे-- जात खड़ीबोली पे फोउ भयौ दिवानों कीउ तुर्कांत बिन पद्य लिखन में है अरुफानौ' ( समालोचनादर्श ) 5 [ भाग १०] क्‍ ब्जमाषा काव्य... छ०ीै. परंतु उन्होंने यह भी स्वीकार फर लिया था कि खड़ीबोली ही भविष्य की कविता की भाषा दै--'भविष्य में इस कविता का ही सौभाग्योदय होनेवाला है| जगन्नियंता जगदीश्वर ने हमारे भविष्य जीवन के लिये जो पथ निर्धारित कर दिया है, उसी पर हमको चलना पड़ेगा ओर उसी में हमारा कब्याण भी है ।? ( हिंदी साहित्य संमेलन, २०वाँ अधिवेशन कायविवरण, सन्‌ १९३१ )। ..... इसी प्रकार कविवर मेथिलीशरण गुप्त ने इस विवाद में युगपरिवर्तन की सूचना देते हुए ब्रजमाषा को प्रकारांतर से नवयुग के अनुकूल नहीं माना या-- बजत नाहि अ्रब ओर चैन की बंशी घर घर। भय विषाद सों भरों हियों काँपत है थर थर || वह पराग को पुंज, मदन-ध्वज-पठ न उड़त है। धुआँधार यह देख कोन फो जीव जुड़त है॥ 5. नै न न जो तेरी यह बहिन खड़ी है तेरे आगें। दे याकों आसीस और का अब हम माँगें॥ ब्रजभाषा के गौरव की रचा करते हुए गुप्त जी ने खड़ी बोली के संवर्धन के लिये उससे आशीर्वाद माँगा है। पं० अयोध्यासिह उपाध्याय 'हरिऔध? ब्रजमाषा की गरिमा को सिद्ध करने के लिये जहाँ “विभूतिमयी ब्रजमाषा? में उसफा ग्रनथक गुणगान किया है, वहाँ संदमंत्तवस्त्र' में उन्होंने यह भी मान लिया है कि 'खड़ीबोली के पतद्मों में कवितागत कितनी ही चुटियाँ क्‍यों न हों, कित वह इसलिये आ्रादरणीय है कि उसने देश और ज्ञाति के रोग फो पहिचाना है ओर उसकी चिकित्सा में लग्न है ।! प्रसिद्ध छायावादी कवियों में श्री जयशंकर प्रसाद ने तो अपना कविकर्म ब्रजमभाषा के माध्यम से ही आरंभ किया था। वें विवाद में कभी नहीं पड़े परंतु खड़ीबोली के उन्नयन के लिये वे आजीवन यत्न करते रहे। “निराला” जी युगफवि थे; उनकी अनाविल दृष्टि में त्रजमाषा के वभव का पूरा पूरा संमान था परंतु वे नवयुग .फो भाषा खड़ीबोली को ही मानते थे। उनकी दृष्टि में इस विषय पर विवाद की आवश्यकता हो नहीं थी। इसके बंदम में उन्होंने लिखा था--हिंदी साहित्य की पृथ्वी पर अब व्रजमाधा का प्रलयपयोधि नहीं है, वह जलराशि बहुत दूर हट गई, राष्ट्रमाषा के नाम से उससे जुदा एक एक दूसरी भाषा ने आँख खोल दी, पर 'घृतवानसि वेदम' के भक्तों की नजर में श्रभी यहाँ वही सागर उमड़ रहा है, नहीं मालूम बेवक्त की शहनाई का और क्‍या अथ है! ( चाबुक, ए० ८५ ) | छायावादी कवियों में पं० रुमित्रानंदन पंत ब्रजमाषा १०-४१ का रा हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास काव्य के सबसे फठोर समालोचक रहे हैं। उन्होंने ब्रजभाषासाहित्य के संबंध सें पल्‍लव की भूमिका में लिखा--“उस ब्रज की उवशी के दाहिने हाथ में श्रम्मुत फा पात्र और बाएँ में विष से परिपूर्ण कठोरा है; जो उस युग के नंतिक पतन से भरा छलछला रहा है। ओह, उस पुरानी गुदक़ी में असंख्य छिंद्र, अ्रपार संकीर्णताएँ हैं।' पंत जी फा भी विश्वास था कि “नवयुग के लिये नववाणी” ही उपयोगी है। ब्रजभाषासाहित्य को प्रशंसा काते हुए भी उस समय के समालोचक इस तथ्य फो स्वीकार कर चुके थे कि 'रीतिकाल ब्रजमाषा की कविता का कलायुग था, छायावाद फाल खड़ीबोली की कविता का कल्लायुग! ( शांतिप्रिय द्विवेदी )। वास्तव में छायावाद युग में ब्रजभाषा ओर खडीबोली फा विवाद ब्रजभाषा की पुनः स्थापना फा विवाद था भी नह्ीं। खड़ीबोली कविता के प्रति उस समय का विरोध छायावादी कविता की अस्पष्ट शैली, एवं उसके स्वच्छुदताबादी प्रयोगों के प्रति था। उस समय एफ वर्ग को ऐसा प्रतीत होता था कि अ्रब हिंदी कविता में मनमानी घरजानी? की स्थिति आ गई है, काव्य की व्यवस्था, जो ब्रजमाषा में थी, अब नष्ट हो रही है। उन्हें यह भी भय था कि कहीं नवीन साहित्य के कारण हमारा प्राचीन काव्यमांडार नष्ट न हो जाय। छायावाद युग में खड़ीबोली का विरोध वस्तुतः उसकी शेली और विषयवस्तु के प्रति विरोध था और इसी प्रकार उस युग में ब्रजमाषा का विरोध रीतिकाल को अश्रश्लीलता ( १) आदि तथाकथित त्रुटियों के कारण था। जिनको दृष्टि संतुलित थी वे खड़ीबोली के महत्व को स्वीकार करते हुए भी ब्रजमाषा के गोरव के प्रति सश्नद्ध थे और उसकी . कज्ञमताश्रों का भी पूरा पूरा लाभ उठाना चाहते ये । विवेच्य काल की सामग्री ओर नामकरण : छायावाद युग खड़ीबोली कविता का उत्कर्षकाल हैं। परतु क्‍या यही नाम उस युग की ब्जमाषा की कविता की समीक्षा के आधार पर भी दिया जा सकता है ? ब्रजभाषासाहित्य की चर्चा आते ही इमारे समज् श्रादिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल पहले आते हैं। आधुनिक काल बाद में | ब्जसाहित्य के समग्र परिप्रेक्ष्य में ब्रजभाषा का उत्कषकाल .. हम भावपक्ष की दृष्टि से भक्तिकाल को श्रीर फलापक्ष की दृष्टि से रीतिकाल फो . मान सफते हईं। इन तीनों कालों फी साथ रखकर देखने से श्राघुनिक फाल का . परंपरागत ब्रजमाषासाहित्य उस प्राचीन फाल की अनुगूज ही प्रतीत होता है। . आधुनिक काल के समंथंतम फंवि 'मारतेदु' अथवा रत्नाकर! अपने उत्कृष्ट काव्य- व्यक्तित्व के साथ ही मोलिकता की दृष्टि से सूर और तुलसी के समकक्ष नहीं हो सकते। हाँ, इस युग में नवयुग को चेतना से संपन्न ज्ञो काव्य लिखा गया, उसका अवश्य अपना अलग व्यक्तित्व है। परंतु भारतेंदु युग से आरंम होनेबाला ब्रजभाषा फा यह ययथार्थपरक लजीवनसंधर्ष का काव्य जब खड़ीबोली के अपने [भाग १०] ब्रेजभाषा काव्य. ४०३ समत्रर्ती ओ र क्रमश: विफसित काव्य की तुलना में परखा जाता है तो वह उससे पिछुड् जाता है। हमारे देश में यह एक अनोखी घटना हठात्‌ घटित हुई कि हमारा प्राचीन श्रद्धा, विश्वास, धरम आर परंपरा से संपन्‍न जीवन जब्र पाश्चात्य संपक से सहता आधातित हुआ तो उसझे प्रमाव से यहाँ, एकदम, एक नए भोतिकवादी संवप्मव जीवन का आविर्माव डुआ। इस हठात्‌ परिवर्तन का व्रञमाधा की कविता, जिसके समक्ष कभी भी ऐसा संघर्ष नहीं आया था, आत्मवात्‌ करने का प्रयत्न करने लगी। अन्य देशों में जहाँ परिवर्तन क्रमिक विफास के रूप में घटित होता है, वहाँ उनकी प्रचलित भाषाएँ ही नए परिवर्तन को इसलेये आत्मसात्‌ फर लेती हैं कि उनमें पहले से ही उस परिवर्तन के श्रनुकूल बीज ओर नई भावधारा को वहन करने की शक्ति उत्पन्न होती रहती है परंतु जहाँ परिवर्तन एक आधात के साथ अबवतरित होता है, वहाँ प्राचीन व्यवस्थाएँ प्रायः छिन्‍न भिन्‍न हो जाती हैं। यही फारणु है कि ब्रजभाषा, जिसके पास इस जीवनसंघष को सइने के लिये गद्य का प्रायः अभाव था, पिछुड़ गई और उसी समाज में ब्रजभाषा की हो पूरक एक अन्य समानांतर प्रवाहित माषा खड़ीबोली, . उस रिक्‍त स्थान की पूर्ति के लिये समज्ष आ गई । आधुनिक कविता के आरंम में नवजीवन के चित्रणु के लिये ब्रजमाषा ओर खड़ीबोला दोनों की स्थिति समान थी। ब्रजमाषा का परिष्कृत, कलात्मक रूप, जो उसकी विशेषता थी, नवीन परिस्थितियों के चित्रण के लिये अ्नुपयुक्त हो गया था जत्र कि खड़ीबोली, जो उस समय नितांत शक्तिहीन माषा थी, क्रमशः अपने पेरों पर खड़ी हो गई। उस समय का परिवेश द्रजमाषा का परिवेश नहीं था, खड़ीबोली का परिवेश था | हाँ तो, ब्रजमाषा का नवफाव्य खड़ीबोली को तुल्लना में स्वाभाविक रूप से _ पिछुड़ता _रहा। परंतु ब्जमाषा के प्रति निछावान्‌ फवियों ने छायावादो युग में मी कमी हार नहीं मानी। यह बड़े गौरव की बात है कि . निर्णायक युद्ध में पराजित हो जाने के पश्चात्‌ भी ब्रजमाषा के कवि अपनी संपूर्ण आस्थाओं के साथ ब्रजमाषा में उष्कृष्ट काव्यरचना फरते रहे और मले ही _ अपने प्रयत्नों से वे युग का प्रवाह बदलने में समर्थ न हुए हों, परंतु उनके प्रयस्नों से छायावादी युग में भी उनका रचा गया ब्रजमाषा काव्य एक उच्ुग स्मारक: स्तंभ की भाँति खड़ा हुआ है। श्री जगन्‍ना थदांस 'रत्नाकर!ः जैसे कवियों कौ यह निष्ठा सराहनीय ही कही जाएगी । १ द द आ्राधुनिक काल के; ब्रजमाषा साहित्य की दृष्टि से, सामान्यतया तीन भाग किए जाते हैं। इन्हें पूर्व भारतेंदु युग, मारतेंदु युग और उत्तर भारतेंदु युग नाम दिया जाता है। (श्राधुनिक व्रजमाषा काव्य, ड7० जगदीश वाजपेयी) । इनमें पूर्व भारतेंदु युग में वाल, दीनदयाल गिरि, अयोध्याप्रसाद वाजपेयी औध', राजा ४०४ ः ... हिंदी साहित्य का बुंहत इतिहास लक्ष्मणरिंद तथा गोविंद गिल्लाभाई की गणना की गई है। ये सभी फवि समय की दृष्टि से आधुनिक काल की सीमा में अवश्य आते हैं पर जहाँ तक इनके काव्य में आधुनिकता का प्रश्न है, वह नहीं के बराबर है। विषय कौ दृष्टि से प्राक भारतेंदु यग रीतिकाल का ही विस्तार है। भारतेंदु इरिश्चंद्र ही आधुनिक ब्रजमाषाकाव्य के सुदृढ स्तंम हैं। वे प्रथम उत्थानकाल के प्रमुख कवि हैँ। वही उस य॒ग में आधुनिकता के खट्टा कलाकार हैं। श्रत: त्रजभाषा की दृष्टि से भी उनके काल फो भारतेदु युग कहना साथक है| भारतेंदु के पश्चात्‌ खड़ीबोली की दृष्टि से जिसे द्विवेदी युग कहा जाता है वह आधुनिक हिंदी फविता का द्वितीय उत्थानकाल है | इस युग में ब्रज॒भाषा के प्रसिद्ध कवियों में राय देवीप्रसाद पूर्ण, पं० नाथू'।म शंकर शर्मा, प० गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेहीग, लाला भगवानदीन, पं० रूपनारायणश पांडेय पं० श्रयोध्यासिंह उपाध्याय “हरिश्रॉघ! तथा पं० सत्यनारा- यण “कविरत्न' थे | इनमें “कविरत्न' के अ्रतिरिक्त अन्य सभी फवि ब्रजभाषा फो _ छोड़कर ग्रथवा ब्रजमाषा के साथ ही खड़ीबोली के फवि बन गए । इन सभी को साहित्य को देंन ब्रजमाषा के स्थान पर खड़ोत्रोली के माध्यम से हो अ्रधिक रही । . सत्यनारायण कविरत्न इनमें सबसे छोटे थे परंतु तुलनात्मक रूप से उनका काव्य नई दृष्टि का काव्य था। भाषाप्रयाग की दृष्टि से इनका महत्वपूर्ण स्थान है। खेंद है कि इनका स्त्रगंत्रात अल्पायु में उत्ती वर्ष में हुआ, जिसे हम छायावाद युग की श्रारंभिकर सीमा (स० १८७५) मानते हैं। यदि इन्हें इस फाल का कविनायक . न भी माना जाय तो उन्‍नायक कवि तो माना हो जा सकता है । .. हमारे विवेच्य काल के ब्रज॒माषा के सवप्रमख कवि जगनन्‍नाथदास (रत्नाकर! हैं। यद्यपि वे सत्यनारायण 'कविरत्न! से आयु में बड़े थे श्रॉर उनकी अनेक कृतियाँ द्विवेदी युग में ही प्रकाश में श्रा चुको थीं, फिर भी उनके महत्वपूर्ण मौलिक ग्रथों का लेखन प्रकाशन सन्‌ १६२० के बाद ही हुआ। सन्‌ १६२७ से लेकर १६३० तक उनके प्रसिद्ध काव्यग्रंथ गंगावतरण, उद्धवशतक, गंगालइरी, शंगारलहरी विष्णुलहरी, रत्नाष्टक, वीराष्ट एवं उनके प्रसिद्ध प्रकी ॑ पद्यावली के श्रधिकांश छुंद रचे गए । तात्पर्य यह है कि छायाबाद युग में एत्नाकर! ही ब्रजभाषा काव्य के प्रेकक एवं सुदृढ़ स्तंभ रहे । "रत्नाकर' में काव्यरचना फी श्रपार शक्ति थी, जिधके बल पर वे भक्तिकाल को आत्मा और रोतिफाल की कल्ात्मकता फो श्राधुनिक युग में अवतरित कर सके। परंतु उन्होंने युग फी समस्याञ्रों को अपने काव्य में आमभिव्यक्ति नहीं दो। यदि वे ऐसा करते तो ब्रजमाषा कवियों की नई पीढ़ी के वे बहुत बढ़े प्रेरणशाखोत होते, त्रजमाषा को वे नवीन आयाम देते ओर . संभवत: ब्रज्माघा फाव्य को अगले बहुत समय तक के लिये रचनामाध्यम के रूप में प्रतिष्ठित कर जाते । उनका काव्य परंपरावादी काव्य है, परंतु वह भी इतना उत्कृष्ट है कि यदि छायावाद युग को ब्रजमाघा की इृष्टि से 'रत्नाकर काल! [ भांग १० ]..._+० श्रजभाषा काव्य ४०५ कहा जाय तो उचित होगा, क्योंकि इस युग में ब्रजमाषाकवियों का उनसे बड़ा दूसरा कोई प्रतिनिधि नहीं हो सकता | आचाय शुक्ल ने इस तृतीय उत्थान के प्रमुख कवियों में रत्नाकर, स्वयं रुमचंद्र शुक्ल, वियोगी हरि, दुलारेलाल भार्गव, रामनाथ “जोतिसी”, केसरीसिंहद बारहट, गयाप्रताद शुक्ल “सनेही', राय कृष्णुदास तथा उमाशंकर वाजपेयी उमेश' का उल्लेख किया है। इन कवियों को क्रमशः प्रसिद्ध कृतियाँ हैं, 'उद्धवशतका, बुद्धचरित', 'बीर सतसई”, «दुलारे दोहावली', ध्रामचंद्रोदय काव्य!,प्रताप चरित्र”, फुटकर कविताएँ, बजरज”ः तथा “्त्रज्मारषी!। और भी बहुत से कवियों ने धंवत्‌ १९७५ से १६६९५ तक के इन दो दशकों में ब्रजमाषा में काव्यरचना की है। शुक्ल जी के ही अनुसार--“यद्यपि खड़ीबोली का चलन हो जाने से अ्रब ब्रजभाषा को रचनाएँ बहुत कम प्रकाशित होती हैं पर अभी देश में न जाने कितने कवि नगरों श्र ग्रामों में बराबर ब्रजवाणी की रतघारा बहाते चल रहे हैं। जब कहीं किसी स्थान पर कविसंमेलन होता है तब न जाने कितने अज्ञात कवि आकर अपनी रचनाओं से लोगों को तृप्त कर जाते हें?” | (हिंदी साहित्य का इतिहास) शुक्ल जी की ये पक्तियाँ छायावाद युग में मी साहित्यिक जनता की ब्रजमाषा फी रसमयी कविता को पसंद करने तथा व्यापक रूप में असंख्य कवियों द्वारा ब्रजभाषा में रचना करने फो साज्ञी हैं परंतु इस युग में ब्रजमाधा कवियों के हाथ में साहित्यप्रकाशन का मुख्य रंगमंच नहीं था, इसलिये युग के प्रति तुलनात्मक रूप मेंन तो वे उतने प्रतिबद्ध रह सके, न उनके मंडलों के गठन ही हो सके | सनेही' जी. आदि के समस्यापूर्ति के मंडल भले ही चल रहे थे परंतु जो एकसुतता भारतेंदु युग में भारतेंदु के माध्यम से ब्रजकवियों फो प्राप्त हो सकी, अ्रब उसका श्रभाव था । द छायावाद काल में ब्रजमाष्रा कविता की दो प्रमुख घाराएँ थीं। एक धारा: थी प्राचीन शेली में काव्यरचना फी; जिसके लिये ब्रजमाषा सदा ही याद की जाती है। भक्ति ओर श्रगार ही वे पुरातन विषय हैं, जिनपर थुग युग से न जाने कितने ब्रजकवि अथक रूप में लिखते चले आए हैं। “रत्नाकर' ने ब्रजमाषा की इस प्राचीन परंपरा को नवीन शक्ति के साथ उमारफर प्रस्तुत किया है । 'रामचंद्रोदय काव्य,” “रसइलस” ( दहरिश्रोष ) तथा बजरज' भी भक्ति और रीति की रचनाएँ हैं। “वीर सतसई”' आधुनिक युग का दृष्टिकोण लिए हुए वीर काव्य है | बुद्भबचरित' एडविन श्रानल्ड कृत 'लाइट आफ एशिया? का ब्रजमाषा- पद्य में श्रनुवाद है, जो विषय की दृष्टि से, साथ ही, अंँग्र जी से सीधा अनुवाद होने के कारण ब्रजमाषा में बिलकुल नई चीज है। “ब्रजमारती!” में कवि उमेश ने . एक ओर परंपरागत ब्रजसस्‍्वनाएँ ध#जोयी हैं तो दूसरी ओर उनमें छायावादयुगीन ५०६ ... हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास गौतभावना भी विद्यमान है। इसी य॒ग में श्रनूप शर्मा का चंपूकाव्य 'फेरि मिलिबो' लिखा गया; अछूतोद्धार की समस्‍या पर आ्राधारित वचनेश की “शबरी!” प्रकाशित हुई। रामेश्वर 'कदशणा की 'करुण सतसई” भारत की वर्गविषमता से उत्पन्न करुण चीत्कार को प्रस्तुत करती है ओर क्रिश|रीदास वाजपेयी की 'तरंगिणी! आधुनिक परिपाश्व फो मुक्तकों के माध्यम से चित्रित करती दे। केवल दो दश्मर्को में प्रकाशित ब्रजमाषा की यह महत्वपूर्ण ओर विविध-विषय-विभूषित सामग्री यह सद्ध नहीं होने देतो हि छायावादकाल ब्रजमाषा फीो दृष्टि से हीन अथवा पिछुंडा हुआ युग था| जेसा कहा जा चुका है कि ब्रजमाषा का स्थान गोंण हो जाने के फारण इस युग की बहुत सी सामग्री अभी तक अ्रप्रकाशित और अ्संकलित भी है, फिर भी उपलब्ध सामग्री के ग्राधार पर समस्यापूर्ति से लेकर छायावादी और प्रगतिबादी रचनाएँ तक इसमें उपलब्ध होती हैं। इस प्रवृत्तिसंकुलता के पीछे, ब्रजभाषा फो नवयुग के प्रति प्रतिबद्ध बनाने की प्रेरणा ही प्रधान है श्रोर यही प्रतिबद्धता ब्रजमाषा के इन ग्रंथों में नवप्रयोगों के रूप में प्रतिफलित हुई है। प्राचीन परंपरा के लेखक भी विशुद्ध रूप से मात्र प्राचीन ही नहीं हैं, उनमें भी प्राचीन वस्तु को नवोनता के साथ प्रस्तुत करने का चाव है। “रत्नाकर' और “हरिआ्रोध' दोनों के काव्य इसके प्रमाण हैं। 'करुण सतसई” आदि में विषय को दृष्टि से सर्वथा नवीनता है तो 'ब्रजमारतीः विषय और शेली दोनों ही दृष्यियों से नव- . प्रयोगों को श्रपने कलेबर में सँजोए है। श्रतः इस तृतीय उत्थानकाल को ब्रजभाषा को दृष्टि से 'नवप्रयोगकालः कहना अधिक उचित प्रतीत होता है। मात्र प्रयोगकाल' कहने से ब्रजमाषा ने विगत इतिहास में जो अनेक प्रयोग किए हैं, उनसे पाथक्य न हो सकेगा, इसलिये नवयुग फी प्रतिबद्धता में इस फाल को नवप्रयोगकाल' कहना ही साथंफक होगा। यहाँ एक प्रश्न यह भी है कि प्रयोग की कहां न कहीं परिणति अवश्य होती है। क्‍या परवर्ती ब्रजभाषाकाव्य में ऐसा हुआ है ? इसका उत्तर यह है कि अप्तफल होनेवाले प्रयोग भी प्रयोग तो होते हो हैं। छायावाद युग के कवि लेखक भी क्रमशः ब्जमाषाक्षेत्र से निकलकर खड़ी- ब्रोली के क्षेत्र में आ गए अतः: ब्रजमाषा को उनकी विकसित योग्यता का लाभ नहीं हो सका । 'रत्नाकरा को छोड़कर शेष सभी की यही फथा रही है, फिर मी; परवर्तीकाल में ब्जमाषाकाव्य आगे बढ़ा है ओर उसमें “नवप्रयोगकाल' के बीज विकसित हुए हैं, अद्यतन काल के ब्रजमाषा साहित्य के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है। इधर ब्रजमाषा को कविता के अनेक नए प्रयोगों के साथ, उसमें नई शैली के नाटक, उपन्यास, कहानियाँ श्रादि भी लिखे गए हैं। ... अजपभाषा के इस “नवप्रयोगकाल' का संबंध हिंदी के प्रयोगवादी साहित्य से बिलकुल नहीं है; यह भी स्पष्ट है। यह ठीक है कि ऐसी श्रनेक कविताए [भाग १०] .. श्जभाषा काव्य ः ४०७ ब्रजभाषा में भी लिखी गईं हैं परंतु उनकी संख्या सीमित है और वे स्वभावत: परवर्ती काल को हैं। 'नवप्रयोगकाल? तो ब्रजमाषा के विविध प्रयोर्गों की प्रवृत्ति को ही सूचित करनेवाला नामकरण है। प्रेरक परिस्थितियाँ : ब्रजत्षेत्र की प्रादेशिक भाषा होते हुए भी आरंभ से ही ब्रजभाषा का प्रयोग सावदेशिक साहित्यिक भाषा के रूप में हुआ है। आधुनिक युग में भी इसका ज्ेत्र पंजाब गुजरात से लेकर संपूर्ण हिंदी प्रदेश रह्दा है। विचित्र बात यह है कि ब्रजप्रदेश के निवासी श्रीधर पाठक ने ही सबसे पहले ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली में सफल फाव्यरचना की और ब्रजभाषा के समथकों में अधिकांश लोग पूर्वी प्रदेश के थे। छायावाद युग में मी ब्रजभाषा प्रादेशिक भाषा मात्र न थौ ग्रपितु उसके रचयिता व्यापक क्षेत्र में विद्यमान थे। कहने का तात्यय यह है कि ज्षिस प्रकार खड़ौबोली के कवि ओर लेखक देश में उत्पन्न विभिन्‍न परिस्थितियों से प्रभावित और प्रेरित हो रहे थे, वे ही परिस्थितियाँ ब्रजभाषा _ के कवियों को प्राप्त थीं। यह बात भी नहीं थी कि ब्रजभाषा के कवि, केवल वे पुराणपंथी लोग ही थे, जिनका आधुनिक शिक्षा से संपर्क ही नहीं था, बरन्‌ ब्रजभाषा के प्रायः सभी कवि उच्च शिक्षासंपनन्‍न विद्वज्जन थे। अंग्रेजी का भी उनका उत्तम अ्रध्ययन था। जगन्‍नाथदास 'रत्नाकर!, रामचंद्र शुक्ल, 'हरिश्रोध!, अनूप शर्मा, रामेश्वर “करण! सभी ऐसे ही विद्वान्‌ थे। ये सभी अपने युग के सामाजिफ सांस्कृतिक घातप्रतिषातों के प्रति मी सजग थे, यद्यपि 'एस्नाकर! जैसे वरिष्ठ कवि के काव्य में, जो अंग्रेजी एवं फारसी के श्रेष्ठ विद्वान थे, इन सामाजिक प्रतिधातों की प्रत्यक्ष छाया नहीं के बराबर है। अन्य कवियों में सामाजिक राजनीतिक चेंतना प्रखर रूप में अ्रभिव्यक्त हुईं है, इसमें संदेह नहीं . आलोच्य फाल के अंतगत ब्रजमाषा में परंपरावादी तथा स्वच्छुंदतावादी . दोनों प्रकार का फाव्य, लिखा गया। अब इन दोनों घाराश्रों के काव्य पर विचार किया जाएगा | परंपरावादी कांव्य : _ रीतियग परंपरावादी काव्यरचना का थुग माना जाता है। लक्षण ग्र'्थों की रचना, शंगार फी प्रवृति, अलंफरण की विशेष दृष्टि, मुक्तक काब्य की प्रधानता, उद्दीपन रूप में प्रकृतिचित्रण, &गार के परिवेश में मक्तिफाब्य की रचना, ये सभी परंपरावादी काव्य की विशेषताए' रही हैं और जैसा कहा जा र्०८ द ... हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास $ चुका है, आधुनिक काल के श्रारंभिक कवि-ग्वाल, ह्विजदेव, गोविंद गिल्लाभाई श्रादि रीतिकालीन परंपरा के ही कवि थे। भारतेंदुयुग में कवियों का व्यक्तित्व द्विधा हु आ, वे अ्रपने श्रतीत से जुडे रहने के लिये भक्ति ओर शंगार की पुरानी परिपाटी की रचनाएं भी करते थे ओर साथ ही सामाजिक जागरण के गान गाते थे। द्विवेदी युग में द्रजमाषा के कवि प्रायः बज्ञभाषा में पुराने ढंग की और खद्दीबोली में नए. ढंग को कविताएं" करते थे। यही क्रम बहुत कुछ छायावादो यग में भी बना रहा परंतु इन दोनों परवर्ती कालों में ब्रजमाषा में नवप्रयोग भीहुए। आलोच्य काल फा परंपरावादी फाव्य भी महत्वपूर्ण है। वह गुणात्मक दृष्टि से स्वच्छुंदतावादी ब्रजफाव्य से अ्रधिक प्रोढ़ एवं उच्च कोटिका है। फारण स्पष्ट है फि ऐसी व्यवस्था फो ब्रजभाषा को श्रतीत साहित्यसमृद्धि की परंपरा प्राप्त थी । इस फाल फा परपरावादी काव्य दो प्रकार का ६--एक तो विशुद्ध रूप से लक्बशण ग्रथों की परंपरा का साहित्य जिसमें :रसफ्लस” ( हरिश्रोध ), काव्यकह्पद्रुम ( कन्हैयालाल पोद्दार) तथा नास्यनिशय ( डा० रमाशंकर इकल 'रसाल? ) जैसे ग्रथों की गएना होती है। यद्यपि ये ग्रथ विषय फी दृष्टि से रीत्युक्त हैं तथापि. हरिआ्रौध के उदाहरण, एवं कन्हैयालाल पोदह्ार और डा० रसाल के अंथों में विवेचन की नवद्ृष्टि विद्यमान है | फाव्यरूप की दृष्टि से सतसई ओर शतक- परंपरा का भी प्रचलन इस युग में रहा | वियोगी हरि की “वीर सतसई”, गोध्वामी मदनमोहन फी “राष्ट्र सततई?, अध्यापक रामेश्वर 'करुणः की 'करुणु सतसई” और वीबक्स की 'फलक सतसई” इस काल की सतसइंपरंपरा फी श्रष्ठटटम रचनाएं हैं । परंतु जैसा हमें ज्ञात है, इन सतसइयों की विषयवस्तु सवथा नूतन है, उसमें परंपरा- भक्ति बिलकुल नहीं है। शतकों की परंपरा का प्रतिनिधित्व जगन्नाथदास रव्नाकरः का 'उद्धवशशतक' करता है। विषय की दृष्टि से श्रमरगीत की भी अ्रपनी एक परंपरा है, जिसे इस काल में रत्नाकर' ने सर्वाधिक दीपि प्रदान को है। अन्य कवियों में डा० रमाशंकर शुक्ल 'रसाल?, डा० रामप्रसाद त्रिपाठी एवं अमृतलाल चतुर्वेदी की तद्विषयक रचनाएँ आती हैं। यह तो परंपरागत काव्यरूपों फो बात हुई; इसके अत्तिरिक्त व्यापक रूप . में कवित्त सवयों एवं अन्य प्राचीन छंदों में जो भक्तित और *गार फी सामग्री बिखरी हुई है, उसमें भी परंपरा का बहुत बढ़ा अंश है। रत्नाफर, इरिश्रॉप एव अन्य प्रायः सभी कवियों का इस प्रकार का काव्य प्रचुर मात्रा में है। यह अवश्य है कि इस समय का यह परंपरावादी काव्य भी अश्रपनी चेतना में कहीं:न कहीं एफ नवीन दृष्टि लिए हुए है। [भाग १०]... ब्रजभाषा काव्य... ४०६ स्च्छंदवावाद हब भारतीय साहित्य में स्रच्छंदतावाद का अवतरण योरोपीय रोमांटिक साहित्य के प्रभाव से, बँगला भाषाताहित्य के माध्यम द्वारा हुआ। प्राचीन परंपराश्नों के स्थान पर जब कवि निज की भावनाओं और अनुभूतियों के आधार पर स्वच्छेद साग का निर्माण करता है तब एक नवीन काव्यघारा, जिसमें विधय और शिल्प दोनों की दृष्टियों से कवि स्वच्छ॑ंदता बरतता है, प्रवाहित होती है। स्वच्छंदतावादी काव्य में प्रकृति का प्रम्मुख स्थोन होता है ओर जीवन को एक विशिष्ट भावदष्टि से देखता हुआ स्वच्छ॑दतावादी कवि शब्द, छंद एवं अलंकारों की भी पूर्वपरंपरा से मुक्त एक नई राह निकालता है। स्वच्छुदतावाद का डंदय हिंदी में भारतेंदुयुग में ही हो चुका था। भारतेंदुयुग में ठाकुर जगमोहनसिंह, श्रीधर पाठक आदि फवि स्वच्छुंदतावाद के प्रवतक फद्दे जाते हैं श्रोर ये समी कवि ब्रजमभाषा के ही कवि थे | श्रन्य गुणों के श्रतिरिक्त इनके . काव्य में प्रकृतिवर्शन की दृष्टि स्वच्छुंद ओर नवीन है। श्रीधर पाठक तो विषय एवं शैली दोनों हो दृष्टियों से बहुत आगे हैं। स्वच्छ॑ंदतावादी फाव्यघारा का विष खड़ीबोली फी छायावादी काव्यधारा में तो हुआ ही, ब्रजमाषा में भी यह काव्यधारा अपने एकांगी रूप में प्रवाहित होती रही । एकांगी रूप में इसलिये कि छायावादी युग में भी रत्नाफर जैसे कवि प्रकृतिवर्णुन में अत्यंत उदार होते हुए मूलतः परंपरावादी बने रहे । शआआलोच्यकाल के ब्रजमाषाकंवि, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, रूपनारायण पांडेय, हरिश्रौष आदि सभी एक ओर काव्यविषय फी दृष्टि से भी स्वच्छंदतावादी हैं, दूधरी ओर अभिव्यक्ति फी दृष्टि से भी उनमें नवीनता है । इस युग के प्रायः सभी समथथ कवियों ने प्रकृति के 'सुंदरतम चित्र प्रस्तुत किए, हैं। - . ब्रजमाषाकाव्य में प्रकृतिवर्णन रीतिकाल में भी पर्याप्त मात्रा में हुआ है परंतु उसकी दृष्टि प्राय: उद्दीपनविभाव के वर्शन तक ही सीमित थी जबकि छायावादी युग में प्रकृति विशेषकर आलंबनरूप में, अपने निजी व्यक्तित्व के. साथ चित्रित हुई है।. हास्य काव्य - द छायावादी युग में ब्रजमाषा में विषयविस्तार होने के कारण ओर जीवन की _निफकटता के आग्रह से दवास्य का भी अच्छा परिपाक हुआ है। छायावादोचर फाल में मी हिंदी के प्रमुख हास्यफवियों ने ब्रजमाषा को विशेष रूप से अपनाया है, यह संयोग की ही बात हू हीं है, इससे पून्वर्ती फाल में हवास्यरस की परंपरा १०-५२ द कक नस ज2 2 ताक सपप कलस पका बकिकमेंपइकन पक वत पसन्द ता. + कुलिस (2३ ८ पकडप-कपसथायपमकनल>भवावधपकनकन्‍्स»क्‍्स95न»&षल_्तनाननप लय थग दिल ताप हे ..... हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास ही इसका कारण है। हास्यरस के कवियों में किशोरीदास वाजपेयी देहाती व चनेश मिश्र, हृषीकेश चतुर्वेदी, रामदयाल, गोपालप्रसाद व्यास अ।दि के नाम उहलेखनीय हैं। झमभिव्यंजनाको शल | श हिंदीकविता के इस तृतीय उत्थानकाल का कवि जिस प्रकार ग्रपने वश्ये “ विषय में परंपरावादी और नवप्रयोगवादी रहा है, उसी प्रकार अपने अ्रभिव्यंजना शिल्प में उसने दोनों पक्कों पर पूर्ण अधिकार प्रदर्शित किया है | रीतिफाल ब्रजभाषाकविता के परिष्कार का काल था । क्‍या भाषा, क्‍या छंद और क्या अमभिव्यंजना शैली, सभी दृश्यों से यह कार्ल ब्रजकविता के उत्कष का काल था। वस्तुतः प्राचीन शैली में अब ओर निखार या परिष्कार की . अधिक गुंजाइश नहीं थी, फिर भी ऋाधुनिक युग के, श्रौर विशेषकर छायावादी युग में द्रजमाषा के अनेक कवियों ने परंपरावादों काव्यधारा फोी शिल्प फो दृष्टि से भी आगे बढाया है। सबसे प्रमुख बात भाषा की है। रीतिकाल में माषा का परिष्कार अंत में ऐसी स्थिति में पहुँच गया था, जहाँ कवि का सामान्य कविता में व्यक्तित्व ही विल्ीन हो जाता है। विवेच्य युग में उसी पुरानी काव्यपरपरा को अ्रपनी व्यक्तिगत विशेषताओं के साथ श्रयोध्यासिंह उपाध्याय हरिश्रीधष', नवनीत चतठबंदी, .. जगन्माथदास रत्नाकर, वियोगी हरि, गोविंद चतुर्वेदी, रामलला एबं अन्य सहसशः . कवियों ने न केवल जीवित रखा है, अपितु उसे आगे बढ़ाया है । अकेले . रत्नाकर! की फ्विता की भाषा की समता भावगांभी्) प्रवाहशीलता और . व्याफरण की शुद्धि की दृष्टि से रीतिकाल के कुछ ही कवि कर सकते हैं। उनका चित्रविधान, अनुभावविधान, अलंकारयोजना श्रादि सभी अत्यंत उत्कृष्ट हैं। विषय के अनुसार माषा भी परिवर्तित होती है। आधुनिक भावराशि को . अभिव्यक्त करने के लिये ब्रजमाषा में सबसे बड़ा परिवर्तन हुआ हैं उसका बोल- चाल को भाषा के निकट आना । व्यावहारिक शब्दों का प्रयोग, प्रवाहइशील वाक्य- गठन और सुबोधता इस काल की ब्रजभाषा फी ऐकांतिक विशेषता है। श्रपनी व्यावहारिकता के कारण युगजीवन में प्रचलित श्रन्य प्रदेशों एवं माषाओ्रं के शब्द भी आवश्यकतानुसार इस युग की द्रजमाषा में स्वीकृत किए गए हैं। उद' फारसी के शब्द तो बहुत पहले से ही ब्रजमाषा में खपते आ रहे थे, इधर अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग भी स्वभावतः होने लगा। एक अन्यौक्ति में 'फुय्बाल” का कैसा ..._स्वामाविक्ष प्रयोग हुआ है-- कब [ भाग ३१७० ] .... त्रजभाषा कार्य हे ७११ रहो फुय्बाल तू बथा न नीच हजात | ठोकर देब काज ही; उदर भरथों बुब जात ॥ ( किशोरीदास वाजपेयी ) ब्रजमाषा की यह सरलता उसे लोकप्रिय बनाने में बड़ी सहायक रही है क्योंकि इस स्तर पर आकर उसका स्वरूप सुबोध हो जाता है। द्वजमाषा न जाननेवाला मी इस छुंद फो सहज ही समझ लेगा--- एकन के नित स्वान हू+ दूध जलेबी खाहिं। अन्न बिना सुत एक के, हा रोटी! रिरिघ्राहि ॥ € रामेश्वर करण ) परंतु नवप्रयोगों की भाषा का एक तीसरा रूप उन रचनाओ्रों में सामने आता है, जिन्हें हम नई शेली पर निर्मित छायावादी रचना कह सकते हैं। इनका शिव्प खड़ीबोली के छायावादी काव्य जैसा ही है, उदाहरण के लिये--- वह नील सिखर ते उतरी-- अनुरागमयी निम्ति बाला, स्वागत को श्रवनि खड़ी ले, सुठि साँक सुमन की माला । सुम साँवल तन पे सोहत, : तारकजुत मदु तिमिरांचल, मंजुल ग्रीवा पे बिथुरे, घुंधरारे कारे कुतल | 5 क्‍ ४3९35 ( उमाशंकर वाजपेयी 'उमेश”? ) इस प्रकार इम देखते हैं कि इस फाल में ब्रजभाषा अपनी विगत समस्त शैलियों की आवृत्ति करते हुए आधुनिक जीवन की निकट्ता श्रोर सहवर्ती साहित्य की समता में भी अपनी शक्ति का पूरा पूरा प्रदर्शन कर सकी है। प्राधुनिक युग की ब्रजमाषा ने अपनी अ्रथव्यंजकुता को बढ़ाने के लिये लक्षणा ओर व्यंजना का भी खुलकर प्रयोग किया है। स्वच्छंदतावादी काव्य में इस प्रकार के अमिनव प्रयोग बहुत हुए हैं। उघर मुहावरे ओर लोकोक्तियों से भी भाषा को पुष्टठ करने की चेष्टा की गई है। इस काल की व्जमाषा ने गमीर फाव्यसर्जन फी योग्यता के साथ ही विविध काव्यविषयों को वहन करने के लिये अ्रपनी श्रनेक- . रूपता सफलता के साथ प्रदर्शित की है ।. छंदयोजना यही बात छुंदप्रयोग के संबंब में हे | मक्तिकाल के समान ही पदशैली का ५ १4 द क्‍ . हिंदी साहित्य का बृद्दत्‌ इतिहास प्रयोग आधुनिक ब्रजमाषाकाव्य में भारतेंदु थुग में तो हुआ ही, विवेच्यकाल में “वियोगी हरि? जैसे कवियों ने भी पदशेली का सफलतापूवक प्रयोग किया है। कविचों में तो 'रत्नाकर' बेजोड़ ही हैं, यों कवित्त श्रौर सव्यों की रचना श्रन्य सभी ब्रजभाषा कवियों ने की ही है। दोहा भी ब्रजमाषा फा पुराना छेद है । इस युग में हरिश्रोध, वियोगी हरि; दुल्लारेलाल, किशोरोौदास वाजपेयी, रामेश्वर “करण! जगनसिंह सेंगर आदि सभी ने इस छुंद में ग्रपना कमाल दिखाया है । इन दोहों में सरल भावव्यंजना हुई है ओर प्राचीन सरस विषयों के साथ नवथुग फो चित्रित करने की अपूर्व क्षमता मी इनमें प्रदर्शित हुई है। भ्रन्य छंदों में चोपाई, बरवै, वीर, श्ररिबल, रोला, छुप्पय, कुडलियां श्रादि का प्रयोग भी आवश्यकतानुसार हुआ है। प्रबंधकाव्यों में कहों एक ही छंद ( जैते समालोचनादर्श, हरिश्चंद्र, कलकाशी व गंगावतरण में रोला छंद का प्रयोग ) और कहीं रामचेद्रिफा के समान विविध छंदों का प्रयोग भी किया गया है। रामनाथ जोतिसी का 'राम- चंद्रोदय काव्य! छंदों की दृष्टि से श्रप्रतिम रचना है । पुराने छंरों में परंपरावादी एवं नवीन दोनों हो विषयों फी रचना इस काल में की गई है, साथ ही नए छेंदों का प्रयोग भी ब्रजमाषा में व्यापकता से हुआ है | ब्रजमाषा में इस युग में बहुत से गीत लिखे गए, जिनमें अनेक छंदों का संमिश्रणु किया गया है। अतुकांत ओर मुक्त छंदों का प्रयोग भी, विशेषकर उमा- शंकर वाजपेयी 'उमेश' तथा रामाज्ञा 'धमीर'! की रचनाओं में मिलता है । लोकगीतों की शंत्ञी पर हुई ब्रजकाव्य रचना का तो लेखा जोखा ही श्रलग फरना पड़ेगा, क्योंकि रतिया, लावनी, बहरतबील आदि के श्रखाड़े ब्रज के दंदावन मथुरा; हाथरस एवं अन्य केंद्रों में आज भी विद्यमान हैं। इन लोकगीतों में भी ... ब्रजमाषा का अपू् साहित्य भरा पड़ा है । काव्यरूप ब्रजमाषा फी मुख्य प्रकृति मुक्त क छुंदरवना की रहो है परंतु आरंभ से ही उसमें प्रबंधकाव्पों की भी रचना होती रही है। भक्तिकाल ओर रीतिफाल दोनों ही में मुक्तक छुंदों--पदशली तथा फवित्त सबेया और दोहा--को प्रधानता होने पर भी केशवदास की रामचंद्रिका एवं देव, पद्माकर के ग्रथों का आदर रहा है। आधुनिक काल के आरंभ में भी हमें यही प्रदूत्ति मिलती है, भारतेंदु की मुक्तक रचना के परिपाश्ब में महाराज रघुराज सिंह का रामस्वयंवर मधघुसूदनदास का रामाश्वमेघ, स्वयं भारतेंदु के पिता का लिखा जरासंधवध आदि सफल प्रबंधकाव्य ( महाकाव्य १ ) भी दिखाई देते हैं। आलोच्यकाल में ब्रजभाषा ने दोनों फाव्य- . रूपों को अपनाया है | इसयुग में महाकाव्यों में 'रामचंद्रोदय काव्य” ( रामनाथ जोतिसी ) ओर “बुद्धचरित'ः ( रामचंद्र शुक्ल ) की रचना हुई। खंडकाव्यों में [ भांग १० | ञ ब्रेजमाषा कार्व्य.... जे ४१३ “गंगावतरण' (रत्नाफर), 'शबरी? (वचनेश मिश्र), द्रौपदीदुकूल' (नाथूराम माहौर) आदि उल्लेखनीय हैं। रत्नाकर का “उद्धवशतफ! प्रबंधात्मक मुक्‍्तक काव्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। डा० जगदीश वाजपेयी ने इस युग के प्रबंध और मुक्तक काव्य के बीच की, आधुनिक काल में रचित छुह् विधाएँ और मानी हई--- वण- नात्मक काव्य, निबंध काव्य या पद्चप्रबंध, आख्यानक काव्य या काव्यकथा, विवर- शात्मक काव्य, संबद्ध सुक्‍तक काव्य तथा कॉतुक काव्य | इसी प्रकार गीतिकाब्य की मुक्तक से स्वतत्र मानने को आवश्यकता स्वीकार करते हुए उन्होंने इसके शोकगीति, जागरणगीति या राष्ट्रगीति, व्यंग्यगीति, संबोबगीति, वीरगी[त जेसे विभाग किए हैं परंतु ये सभी काव्यरूप ब्रजभाषा में नियमित और निश्चित रूप के नहीं रहे हैं। इसमें तंदेह नहों कि प्रगीत स्वनाएँ एवं मुक्तक और उनके सख्याश: संकलन भी इस काल में सफलतापूबक प्रणीत हुए हैं। शअ्रष्टक, दशक पचोतो, शतक एवं सतसश्या की भी इस युग में रचना हुई । अनूप शर्मा का चंपूकाब्य, जिसका प्रकाशन १६३८ ई० में हुआ, इस युग गी महत्वपूर्ण कृति मानी गई हैं। इसमें ब्रजभाषा फे गद्य ओर पद्म दोनों फा सफल प्रयोग मिलता है । द काव्यरूपों की दृष्टि से इस काल का ब्रजमाषाकाव्य नवप्रयोगशील . रहा है ओर उसने गुणात्मक दृष्ठि से अपनो सोमाओं का पर्यास विस्तार किया है क्‍ ... आधुनिक हिंदी कविता के तृतीय उत्थान की अवधि ( सं० १९७१-१६६५) में वयोवृद्ध साहित्यकार गोविंद गिल्लाभाई ( म० सं० १६८०३ ), चॉधरी बदरी- नारायण प्रेमघबन ( मु० सं० १६७६ ), नवनीत चतुर्वेदी ( म० सं० १६७६ ) श्रीधर पाठक ( मु० सं० १६८३ ), राधाचरणु गोध्वामी (म्ृ० सं० १९८२ ), . नाथूराम शंकर शर्मा (म्र० स॑० १६०९ ) आदि सभी, कुछु कम या अधिक समय तक जीवित रहे । ये सभी कवि जीती जागती संस्था थे, जिनके प्रभाव में अनेक कविगण काव्यर्चना करते थे और ये स्वयं श्रविश्रांत रूप से कुछ न कुछ लिखते रहते थे। राय देवीप्रसाद पूर्ण ( मु० सं० १६७२ ) तथा सत्यनारायण क्विर॒त्न! ( मु० सं० १६७५ ) इस युग के आरंभ की दहलीज पर चढ़ने से पूर्व ही स्वगंवासी हो गए। ब्रजकोकिल सत्यनारायण “कविरत्न!, जो मृत्यु के समय केवल ३८ वंधे के थे, उनसे ब्रजभारती को बहुत आशाएँ थीं। उनका अ्रसमय निधन ब्रजसा हित्य का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा। भारतेंदुयुग की संध्या से अब तक निरतर फाव्यरबना करनेवाले ऐसे भी अनेक कवि इस काल में विद्यमान थे, जिन्होंने इस “नवपग्रशोगकाल” की ब्रजमाषा को अपनी उत्तम रचनाएँ भेंट कीं। अयोध्यानाथ जी अवधेश, पं० अंयोध्यासिंद 8१४ .... हिंदी साहित्य का बुहत्‌ इतिहास उपाध्याय हृश्औौध', बाबू जगस्नाथदास रत्नाकर, लाला भगवानदौन “दीन, फन्हैयालाल पोद्दार, सैयद अमीर अली पमीर' वचनेश मिश्र, पं० रामचंद्र शक्ल आदि कवि अपनी ब्रजभाषा रचनाश्रों द्वारा पूत्रप्रतिष्ठित हो चुके थे परंतु इनकी इस काल को भी महत्वपूर्ण देन थी । बहुत से नए कवियों ने मी इस युग में ब्रजभाषा की नए रंग में ढालने का प्रयत्न किया | . झागे हम इस काल के कुछ प्रमुख कवियों के जीवन श्रीर झतित्व का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं । अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिआ्लध' : ( जन्म सं० १९२२, मु० सं० २००३) . हरिक्रौध जी का जन्म आजमगढ़ जिले के अ्रंत्गंत निजामाबाद में सं० १६२२ में हुआ था। इनके पिता श्री भोलासिह थे। निजामाबाद में सिखों २००३ तक जांवित रहे | .. अयोध्यासिद उपाध्याय हरिश्रोधष” खड़ीबोली के उन उन्‍्नायकों में से थे, लिन्होंने उसे काब्यथाष[ के पद्‌ पर प्रतिष्ठित किया है। खड़ीबोली के प्रथम महाकाव्य के लेखक--प्रथम महाकवि भी वे ही हैं, परतु हरिश्रोध जी व्रजभाषा- फाव्य के भी उतने ही बड़े कवि श्रौर समथक थे, जितने खड़ीबोली के | उनके कविजीवन का आरंम ब्रजभाषा ते हुआ परंतु खड़ीबोली के कवि हाने पर भी ... उन्होंने कभी अजमाषा को नहीं छोड़ा । 'रठकज्लस” उनकी बृद्धावस्था में प्रकाशित रचना है। राष्ट्रीयता और सुधाखादो यग में 'रसकलस” का प्रकाशन लोणगों को असंगत लगा ओर हरिश्रोध! जो को इसके कारण अनेक आत्तेपों का सामना करना पड़ा। कुछ लोगों ने इसे 'इरिश्रोध का बुढ़मस' भी कहा | रीतिशास्त्र की परपरा में होते &ए भी हरिश्रोध की “*रसकलस” रचना सुधारवादी दृष्टिकोण से लिखी गई रचना हैं । हरिश्रोध जी ने 'रसकलस' के विशेष वक्तव्य में लिखा है-- “समय को देखना चाहिए, और सामयिकता को अभ्रपनी कृति में स्थान देना चाहिए--आज तक जितने रसग्रंथ बने हूँ, उनमें आऋगार रस फाहो अन्यथा विध्तार हैं; और रसों का वर्शुन नाम मात्र है।+ + + 'रसकलस' में इन सब बातों का आदश उपस्थित किया गया ह ++ +इंस अंथ में देशप्रमिका, जातिप्रमिक्ता और समाजप्रेमिका आ्रादि नाम देकर कुछ नायिकाओं की मी कल्पना की गई है जो बिलकुल नई है परंत समाज ओर साहित्य के लिये बड़ी उपयोगी है। इस समय देश में ज्ञित सुधारों की आवश्यकता हैं; जिन सिद्धांतों का प्रचार वांछनीय है) उन सबो पर प्रकाश डाला गया है, ओर उनके सुंदर साधन भी उसमें बतलाए गए हं?। उपाध्याय जी के इस वक्तव्य में जहाँ उनकी कृति की मूल प्रेरणा स्पष्ट [साग १०] : ब्रजभाषा काव्य... ४१ होती है वहाँ उस यू ग की प्रवृत्ति भी स्पष्ट हो जाती है। प्राचीन पश्पाटी के ढाँचों में भी नवप्रयोग द्वारा नए रंग भरना, यही 'रसकलस'” की साथकता है। श्रृंगार रस ही, वह भी अश्लील रूप में, कविसवंस्व नहीं हे अपित अन्य रस भी कक झोर साहित्य में उपयोगी हैं, हरिश्रीध जी ने इसपर विशेष बल दिया है। “एसफलस' में भी स्थायीभावों, ततीसों संचारियों, आलंबनविभाव के अंतर्गत नायिकामेद और उसका नवीन दृष्टि से वर्गीकरण, नखशिख, नायकमेद, उद्दीपन- _ विभाव के अंतर्गत सखा, सखी, दूती, षटऋतु वशुन; अनुभाव और तत्पश्चात्‌ विस्तार से रखसनिरूपण किया गया है। इस ग्रथ के अवलोकन से स्पष्ट है कि हरिश्रोध जी में एक ओर परंपरा फो शास्त्रीय रूप में ग्रहण करने, की कितनी क्षमता है ओर साथ ही उसे युग के अनुसार परिष्कृत करने की भसी। इस रचना से हरिश्रोध जी के कवि ओर आचार्य दोनों ही रूप अतिशयता से निखरे हैं। इस ग्रथ की २१३ प्ृष्ठी की विस्तृत भूमिका भीग्रथ के विषयग्रहण की दृष्टि से अत्यंत उपादेय है। हरिश्रोध जी ने ब्रजभाषा को समय के अनुकूल साँचें में ढाला है। .. रसकलस को भाषा शुद्ध ब्रजमाषा है परंतु अप्रचलित ब्रजश्चब्दों के स्थान पर ... सरल और तत्सम संस्कृत शर्ब्दों के प्रयोग से उन्होंने भाषा की संगीतात्मकता और . सुबोधता फो बढ़ाया है। एक विद्वान ने हरिष्नौध के संबंध में लिखा है-- 'हर्श्रोध जी प्रयोगवादी कवि थे। नवीन शैली, नवीन भाषा, नवीन विचारों के संबंध में वे निरंतर प्रयोग करते रहे । ब्रजमाषा में भी उन्होंने नवीन प्रयोग किए ।? (दरिश्रोध और उनका साहित्य) | 'रसकलप के अ्रधिकांश स्थल अ्रभिव्यंजना और . शिल्प की दृष्टि से प्रॉढ़ हैं| अजमाषा साहित्य में इस ग्रंथ का अपना महत्वपर्ण स्थान है। इतग्रथ के कुछ छ॑द प्रस्तुत हैं नायिका ( देशप्रेमिका ) द ... पग ते गहति पग पग पे पुनीत पथ ... अमर निकर काज कर ते करति है। गाइ गाइ शुनगन _ सुगुननिकेतन के, मंजु बर लहे बर॒ बिरद्‌ बरति है। हरिश्रोध! सानस में भूरि कमतीय भाव, ह भारत की बंदनीय भूति को भरति है।. सुरघुनिधार फो परसि उधरति बाल, द धरती की धूरि ले ले सिर पै घरति है?! ध््६.... ..... हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास, होरी वर्णन : द बोलि बोलि बेस बारी, ब्रज की बधूटिन कों, . लूट सी फरी है वा श्रबीर बारे थाल की । मारि पिचकारी ताकि कलित कपोलन में, लाल लाल मंडली बनाई ग्वालबाल फकी। “हरिश्रोध४ चक्षित बनति बहु चोकति सी चोरति सी चाल काह मंजुल मराल की। गोरे गोरे गाल बारी एरी वह गोरी बाल, लाल पै चली है मूठ भरिकै गुलाल की। श्री जगन्ताथदांस रत्ताकर ( जन्म सं० १६२३-म्र० सं० १६८६ वि० ) १--जीवन १ बाबू जगन्नाथदास 'रत्नाकर? के पूर्वज सफीदों, पानीपत से दिल्‍ली आफर रहने लग गए थे और बाद में लखनऊ श्रा गए। इनका परिवार शाही दरबारों से संबंधित रह इसलियें धन और प्रतिष्ठा सदा इनके साथ रही । “रत्नाकए के प्रपितामह सेठ तुलाराम जी काशी चल्ले आएं। इसी वंश में भाद्रपद शुक्ल “चमी, सं० १६९२३ वि० को बाब जगन्नाथदास जी का जन्म हुआ । इनके पिता बाबू पुरुषोत्तमदास अग्रवाल बड़े शौफीन और साहित्यानुरागी सज्जन थे | . भारतेंदु इरिश्च॑द्र और उनकी मित्रमंडली फी बैठक इनके यहाँ प्राय: होती थी । बालक रत्वलाकरं पर भी इस साहित्यिफ वातावरण का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था । 'र्नाकरः जी की शिक्षा का आरंभ उदूं ओर फारसी के अध्ययन से हुआ । बाद में इन्होंने हिंदी और पग्नेजी भी पढ़ी । १८६१ ई० में इन्होंने फारसी, अंग्र जी श्रोर दर्शन विषय लेकर क्वींस कालेज से बी० ए्‌.० पास किया । आगे ये फारसी में एम० ए्‌* तथा एल-एल० बी० की शिक्षा भी प्राप्त करना चाहते थे परंतु कुछ पारिवारिफ कारणों से इन्हें फालेज छोड़ना पड़ा | ..... 'र्नाकर' जी ने सन्‌ १६०० में श्रवागढ़ रियासत में खजाने के निरीक्षक की नोकरी फी परंतु वह कार्य इनफी प्रकृति के श्रनुकूल नहीं था इसलिये ये शीघ्र ही बनारस लोद आए । सन्‌ १६०९ में ये अयोध्या के महाराज प्रतापनारायश सिंह देव के निजी सचिव नियुक्त हुएं। सन्‌ १९०६ में राजासाहब फी मृत्यु हो गई। बाद में महारानी ने इन्हें अपना विश्वासपात्र समककर अ्रपना प्राइवेट सेक्र री बनाया । उस समय उत्तराधिकार के ग्रनेक झगड़े रियासत में उठ खड़े हुए थे। बड़ी कठिनाई से सन्‌ १६२० तक ये उन सब पर विजय प्रात्त कर सके [ भाग १० ] _ ब्जभाषा काव्य... ४१७ 'रत्नाकर' ज्ञी का व्यक्तित्व प्रमावशाली था। उनका भारी भरकम शरीर, फांतिमान मुखमंडल ओर भव्य पोशाक उन्हें सत्रसे अलग कर देती थी । अंग्र जी पढ़े लिखें होने के च्राद भी ये भारतीय वेशभूषा--कुर्ता, धोती, दोपल्ली ठोपी और चादर ही धारण करते थे, बाद में श्रयोध्या जाने पर; अचकन; कुर्ता, चूड़ीदार पायजामा ओर गोल टोपी ही इनका पहनावा था। आँखों में सुमा ओर वस्त्रों में इत्न लगाने का उन्हें शौक था। हुक्‍्का पीना और पान चबाना उन्हें प्रिय था | घोड़े की सवारी का भी शौक था । बंबई में रहकर मोटर चलाना भी सीखा था | कबूतर पालना और संगीत सीखना भी इन्हें प्रिय था। वसर्तुतः उनका रहन सहन रीतिकालीन सामंततों जैसा था, परंतु इस सबके परे उनका साधनामय जीवन था; जिसका प्रभाव उनके निकट के लोगों पर और भी तीत्रता से पड़ता था। रत्नाफर जी सौंदयप्रेमी थे। देशदर्शन के लिये इन्होंने अनेक यात्राएँ कीं। गर्मियों में शिमला, नेनीताल, हरिद्वार यां काश्मीर जाया करते थे । द रत्नाकर जी प्राचीन मूर्तियों एवं चित्रों का भी संग्रह करते थे। प्राचीन शिलालेखों ओर ग्रयलिपियों फो पढ़ने में भी इनकी रुचि थी | २--साहित्य 5 साहित्यिक संस्कार मिलने के फारण ये बचपन से ही तुकबंदी करने लग गए थे। इनको एक रचना पर प्रसन्न होकर भारतेंदु ने आगे चलकर श्रेष्ठ कवि होने की भविष्यवाणी की थी। साहित्य में 'रत्नाकर' का प्रवेश समस्यापूर्ति के माध्यम से हुआ । आचाय शमचंद्र शुकत्न ने इनका साहित्यप्रवेश काल १८८६ . ई० माना है। एक ही वष् में ये साहित्यिकों के बीच प्रतिष्ठित हो गए । सन्‌ १८६४ में इन्होंने 'साहित्यरत्नाकर! शीर्षक लेख अपने पत्र “साहित्य सुधा- निधि? में प्रकाशित कराया। सन्‌ १८५६४ में इनके 'हिंडोला' नामक काव्य, ग्लेक्जेंडर पोप को कृति 'ऐन एस्से ऋान क्रिथिसिज्म” का ब्रजभाषा पद्मानुवाद 'समालोचनादश” तथा समस्यापूर्ति संग्रह” भाग १ प्रकाशित हुए। नागरी प्रचारिणी सभा फी स्थापना में इन्होंने तन मन से योग दिया। सन्‌ १८६६ में इन्होंने 'हरिश्चंद्र' नामक प्रबंधकाव्य प्रकाशित कराया। सत्र्‌ १९०२ तक इन्होंने . 'कलफाशी' नामक वरणुनात्मक काव्य के अधिफौश भाग फी रचना कर डाली थी। इस बीच इनके अनेक शोधपूण लेख भी प्रकाशित | प्राचीन अ्रर्थों के संपादन का महत्वपूर्ण कार्य भी रत्नाफर जी ने इसी काल में फिया । इनके इस काल में १०-४३ संपादित ग्रथों के नाम इस प्रफार हँ--- ४१८ द क्‍ हिंदी साहित्य का छत इतिहास सुधासार--प्राचीन कवियों के श्ूगारिक छंँंदों का संग्रह (सत्र १८८७ ई०)» दुलइ कवि कृत 'कविवुल पंठाभरण! (सन्‌ १८८९ ई०), ब्रह्मद कवि कृत दीप- प्रकाश/ (१८८९ ई०) सुंदर कृत सुंदर डंगाराँ तथा दपशंभ कुत “'नखशिख! (सं० १८६४३ ई०), चंद्रशेखर वाजपेयी कृत 'नशशिख” (१८९४), चंद्रशेखर वाजपेयी का ही 'हम्मीर इठः (१८५६३ ई०), और 'रसाविनोद! (१८९४ ई०), लखनऊ में उर्दू शायर 'कलफक' फी रचना वासोझ्ते फलक! ( १८६४ ई० ), कपाराम कृत . (हिततरंगिणी ( १८६४ ई० ), केशव कृत 'नखशिख! (१८९६६ ई० ), घनानंद की कृति 'पुजानसागर! (१८६७ ई०) | . . रत्नाकर की साहित्यसाधना के दो पृथक भाग हैं; इनका पहला साधनायुग है सन १८८९ से १९०२ तक | इसके बाद वे श्रयोध्या महाराज के यहाँ चले गए श्रौर सन्‌ १९२० तक प्रायः कोई रचना न कर सके | सन्‌ १६२० से १६३२ पर्यत इनके जीवन का उत्तराध रचनाफाल है, जो हमारे आ्आलोच्य फाल के _ अंत्गत है। वस्ट्ठ: रतनावर जी की सभी अष्ठ कृतियोां का प्रएयन इन्हीं वर्षों में हुआ । । द ... इस काल में लिखे उनके मौलिक ग्रंथों के नाम हें--गंगावतरण (१६२७ ई०), 'उद्धवशतक ( १६२६ ई६ई० ), »गारलहरी, गंगालहरी, विष्णुलहरी; रत्नाष्टक, वीराष्टक तथा प्रकीर्ण पद्मावली । द . “बिहारी रत्नाकर! का प्रकाशन और सूरसागर के संपादन का अधिकांश कार्य भी इसी फाल में हुआ। इस बीच उन्होंने अ्रनेक ऐतिहासिक, साहित्दिक, लेख तथा अनेक भाषण भी प्रस्तुत किए । द सन्‌ १९३२ ३० में, हरिद्वार में; 'रत्नाकर' जी का स्वर्गवास हो गया । गंगावतरणु--गंगावतरण' काब्य फो रचना रत्नाकर जी ने अयोध्या की महारानी फी प्रेरणा से की। इस काव्य में प्रसिद्ध पोराशिक कथा फो काब्यरूप : दिया गयो है | कथा का मुल आधार वाल्मीकि रामायण है, परंतु इसके श्रतिरिक्त . ओऔमदुरभागवत, देवी भागवत एवं विष्णुपुराण अश्रदि से भी उन्होंने इस प्रसंग को घटनाओ्रों को चुना है। इस काव्य में कुल १३ सर्ग हैं। इसके चोथे सर्ग फी कथा विशेष रूप से श्रीमदूमागवत वर्णन से मेल खाती है। रत्नाकर जी _कृष्णमक्‍त थे श्रत: उन्होंने गंगा फो गोलोकस्थ राधाकृष्ण के प्रेम का द्रवित सुधारस बताया है। शेष कथापुराश प्रसिद्ध है, जिसे कवि ने विभिन्‍न श्रध्यायों में विभाजित कर एक सुसंगठित काव्याधार निर्मित किया है| . “गंगावतरण! में मानव प्रकृति का स्वाभाविक चित्रण हुआ है।भाव और अनुभावों को सुष्ठ योजना से अनुभूति का सहज प्रस्फुट्न होता है। राधाकृष्ण का एक सुदर रूपचित्र देखिए-. दोउ दोउनि को निरखि हरषि आनंद रस चाखत। दोठ दोउन की सुरुचि मूक भसावनि सों राखत। दोठ दोठउन की प्रमा पाइ इकरंग हरियाने। इक सन, इक रुचि, एक प्रान, इक रस सरसाने | मुखनि मंद मुसकानि कृपा उमगानि बतावति। चखनि चपत्नता चाद ढरनि-अश्रातुरी जनावति। जो ब्रह्मांड-निकायथ माहिं. सुखमा सुघराई। द्वों दल ताके परम बीज के सुभ सुखदाई। राधाकृष्ण फा दार्शनिक महत्व, उनकी युगलकांति का सुंदर संमिलन और - परस्पर अकथ प्रेममाव की उमंग श्रपनी गतिशीलता के साथ इन पंक्तियों में चित्रित है। गंगावतरण' की प्रमुख विशेषता है उसका उन्मुक्त प्रकृतिचित्रण। रत्नाकर प्रकृतिप्रेमी थे; उन्होंने बड़े बड़े पव॑त प्रांतों में नदियों का जो उद्गम और प्रवाह देखा «था, मानों उस सबको उन्होंने अपनो कल्पना से ओर विराट बनाकर _ गंगावतरण में साकार बना दिया है। इस काव्य में उनकी प्रकृतिचेतना स्वर्ग और प्रथवी दोनों को आत्मसात्‌ किए हुएं है। कहीं उसके वेगमय प्रवाह का गतिशील वर्शुन है। विस्तार, ओज, कांति- सभी गुणों का इन दृश्यों में सजीव ग्रफन हुआ हैं। ब्रह्म के कमंडल से निकलने में गंगा के मन की उमंग उसकी गति में साकार हो गई-- निकि कमंडल ते उमड़ि, नभमंडल खंडति। .. थाई धार अपार वेग सो वायु विहंडति। .. भयौ घोर श्रति शब्द घमक सों त्रिधुवन तरजे | . महा मेघ मिलि मनहु एक संगहि सब गरजे। यहाँ से आरंभ होनेवाले वर्णन में गंगा का श्रोज चित्रित है। भावानुकूल शब्दरचना रत्नाकर फी विशेषता है। श्रर्थ के अनुकूल उनके शब्द पहले से ही बोलते ओर वातावरण बनाते हैं। तभी तो गांग प्रवाह की विविधता के वशुन में हो फवि रससंचार करने की अपूव छऋुमता प्राप्त कर सका है। गंगावतरणु की भाषा प्रसाद गुणयुक्त है और साथ ही ओजपूर्ण है। भाष। अलंकृत है। परंतु अलंकार भावानुगामी है । ब्रजमाषा कौ आनुप्रासिकता का पूरा पूरा लाम उन्होंने उठाया है। यह काव्य रोला छुंद में लिखा गया है। ग्रंथारंम तीन छुप्पयों से हुआ है, उर्गातों में उल्लाला और ग्रथ कौ समाप्ति एक दोद्दे से हुई है। अककेए- + ८ उकताआ वे पक सके 2525 डेप ३३३८: पक २ सड ३१० द द . हिंदी साहित्य का छूंहत इतिहास गंगावतरण प्रकृति वर्णन की दृष्टि से हिंदी की अनुपम कृति है। उद्धवशतक--उद्धवशतक रत्नाकर जी की प्रौढ़तम कृति है। उनके फाव्य भ्रमरगीत परंपरा का आरंम सूरदास जी ने जिस काव्योत्कर्ष के साथ किया था उसी का एक दूसरा सशक्त और उत्कृष्ट छोर रत्नाकर जी का उद्धवशतक है | उद्धवशतक एक फाल जयी रचना है | इसी कृति ने रत्नाकर जी फी खड़ीबोली के इस युग में मी एक शीषस्थानीय कवि सिद्ध किया है । ' उद्धवशतक की कथा अ्रमरगीत की परंपरागत कथा है परंतु कवि ने इसमें आवश्यकतानुतार मोलिफ परिवततत भी किए हैं। आरंभ में ही रस्माफर जी ने प्रसंग की अवतारणा के लिये यमुना में स्नान करते हुए कृष्णु को एक मुरकाए कमलपुष्प के माध्यम से राधा का स्मरण कराया है। इधमें नाटकीयता तो है ही मानवीय भावना की सुदृह्ठ पृष्ठभूमि भी है। ब्रज के प्रति कृष्णप्रेम की विहलता का कवि ने विस्तार से वर्णन किया है ओर इस प्रकार रत्नाकर ने तुल्यानुराग फौ सिद्धि से अरब तक मेंवरभीतों की प्रेमपरंपरा का परिमाजन ही फिया है। इस कोव्य में उद्धध गोपियों को उपदेश देने नहीं अपितु “शक बार गोकुल गली की धूर धारने? के लिये जाते हैं। उद्धव अभी ब्रज के सिवाने में पहुँचे ही थे कि उनका _ श्रह्मज्ञान”' खिसकने गा | रत्नाकर का विश्वास था कि चबरसाने! में ऐसी फोई .... बयार' बहती है जो ज्ञानी फो भी 'पुलक' से 'पसीज' डालती है। उद्धवशतक विरहकाव्य है। पहले कृष्ण का विरह और फिर गोपी विरह । दोनों के साक्षी उद्धव | उद्धव कहने फो ब्रह्मश्ानी थे, पर गोपीप्र म फो देखकर सकबके से, हिराने से हो गए.। पर परा से इस प्रशंग में निगु णु निराकार का खंडन ओर सगुण साकार की प्रतिष्ठा होती आ्राई है। नंददास ने अपने दाशनिक ज्ञान का भी इस प्रसंग में लहारा लिया था परंतु रत्नाकर विशुद्ध रूप से व्यवहारवाद के आधार पर निगुश का खंडन करा देते हैं। “कर बिनु” कैसे इमारा “दूध दुद्देगा” ओर साथ ही वाग्वैदग्ध्य से, व्यंग से हवा में उड़ जाता है उद्धव का पक्ष, और गोपियों का क्ृष्णुप्रेम विजयी हो जाता है। परंत दाशंनिक या समझ की विजय फाव्य के किस काम की । गोपियों को विज्वय उनके प्रेम की, करुणा की, विहलता को, त्याग की, तपस्या की और क्षमायाचना फी विजय है-- ऊधो यहे सूधों सो संदेश फहि दीजो एक द जानति अनेक ना विवेक ब्रजबारी हैं। . कहे रत्नाकर अ्रसीम रावरी तो छमा, .,.. उम्तता कहाँ लौं अपराध की हमारी है। .. दीजे और ताजन सबे जो मन मावे पर; दरस-रस-बंचित बिंचारी है। [ भागे १० ] ..... श्रेजभाषो काब्य द ४रै१ भली हैं बुरी हैं श्रो सलज्ज निरलज्ज हू हैं जो कहो सों हैं पर परिचारिका तिहारी हैं। उद्धवशतक की भावव्यंजना निगूढ़ ओर उत्कृष्ट है। शास्त्रीय दृष्टि से विप्रलं॑भ की सभी दशाओं को ह्ॉढ़ना तो इसमें सामान्य बात है, इस काव्य की एक एक पंक्ति' में प्रकट होनेवाली गोपियों की विरह की हूक, पाठक के हृदय में लुक के समान लगती है। अनुभूति फी विदग्घता इसी को कहते हैं। अनुभावों की योजना तो इसमें अनुपम है, ऐसी शायद ही कहीं मिले । अनुभावों की लड़ी फी छड़ी भावों फीो गतिशील चित्र के रूप में अभिव्यक्त करने में समथ है। कवि कहकर नहीं; संकेत से फहने में अधिक विश्वास रखता है। अभिव्य॑ंजना की उत्कृष्टता उद्धशशतक की अ्रन्यतम विशेषता है। बहुतों का विचार है फि उद्धशशतक भाव की दृष्टि से उतना अनुपम नहीं है, जितना इसफी अभिव्यंजना ने इसे उत्कृष्ट बना दिया है। प्रोढ ओर परिनिष्ठित भाषा; अलंफारों फा स्वच्छु, संतुलित यथावश्यक प्रयोग और निर्वाह रससिद्धि में सर्वत्र सहायक है। भाषा में मुहावरे ओर लोकोक्ति; उसमें प्रसाद और माघुयगु्णों की सहज व्यंजकता है। उद्धवशतक मक्तक होते हुए प्रबंधात्मक रचना है, यह भी . इसकी प्रभांवसिद्धि का बड़ा कारण है। निस्संदेह उद्धवशतक इस युग की एक उत्कृष्ट कृति है । रामनाथ जोतिसी : ( जन्म सं० १६३१). १--जीवन : श्रपने ग्रथ 'रामचंद्रोदय काव्य! के श्रत में कवि ने स्रय॑ अपना परिचय .. पद्चबद्ध रूप में इस प्रकार दिया है--रायबरेली के निकट, बछुरावापुर है श्रोर उतके है हीं कान्यकुब्जों के सुकुलों में विद्वान्‌ विंध्यात्रसाद के यहाँ, - निकट है मेरवपुर ग्राम । माता कल्याणी देवी ने सं० १६३१ वि० फी मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी को “विद्या- भूषण” रामनाथ जोतिसी को जन्म दिया ओर उन्होंने अवधपुरी' में पचास वर्ष की श्रायु में यह ग्रंथ पूर्ण फिया : रायत्ररेली प्रांत निक्र> बछुरावा कौ पुर (विद्यामूषण” रामनाथ कवि, पुर भैरबपुर कान्यकुब्जकुल सुकुल, तात बिध्याप्रसाद बुध .. फल्यानी पतिदेव, जननि जनि मार्ग चोंथि सुध | . महिगुन नवेंदु बेक्रम जनमि, जन्मदिवस बय जहा सर । भो अ्रवधपुरी में जोतिसी', रचित राम-जस पूर्न तर । धजोतिसी' जी फी द्वी रचना के अनुसार रायबरेली में रघुबीर बक्स राजा के डरै३े ... हिंदी साहित्य का बूंहत्‌ इतिहास यहाँ प्रवानाध्यापक रघुनंदन मा शास्त्री थे, जिनकी कृपा से जोतिसी जी ने विशान, _ व्याकरण, न्याय, नीति, ज्योतिष एवं काव्य पढ़ा। वे बारह वर्ष तक चंदापुर के राजा के साथ रहे । उसके बाद श्रयोध्या में राजा प्रतापनारायण, जिनकी पत्नी का नाम जगदंबा था शोर पुत्र का नाम जादंबिह्ानारायण था, के यहाँ राजज्योतिषी राजकतरि शोर पुस्तकाध्यक्ष पद पर नियुक्त हुए। अरब अयोध्या में इनका निव है और सियाराम के चरणों की भक्ति करते हैं । रामनरेश त्रिपाठी ने लिखा है कि “ज्योतिषी जी उन कवियों में से हैं जो स्वांत:छुखाय काव्यरचना फरते हैं और लोकफप्रसिद्धि से थोड़ा दूर ही. रहना पसंद करते हैं । २-राम चंद्रोद्य काव्य जो|तेसी' जी ब्रज॒माषा के पिद्धहृस्त कवि थे | उनके इस ग्रथ रामचंद्रोदय काव्य का प्रकाशन पहले अवब प्रिंटिंग प्रेस, लखनऊ से सन्‌ १६३४ में हुआ था परंतु पुस्तक यें; ही पड़ी रही । 'देव पुरस्कार! के निर्णायकों ने जब सं० १९९३ ( सन्‌ १९३७ ) में ब्रज्ममात्रा के सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार, देवपुरस्फार! से इसे पुरस्कृत किया तो यह ग्रथ विद्वानों को दृष्टि में आया। तभी रामपाल-साहित्य-निकेत, कुर्रो सुदौली, रायबरेली से सन्‌ १९३७ सें इस ग्रथ का नया संस्करण हुआ । समीक्षकों द्वारा इस ग्रथ की बढ़ी प्रशंसा की गई । रामनरेश त्रिपाठौ ने इतको भूमिका में लिखा हे--ओरामचंद्रोदय काव्य वतंमान अजमाषा का एक उत्डृष्ट एवं श्रदूभुत काव्य है। इस ग्रथ को प्रत्येक पक्ति में, एक रसवबिद्ध कृवि का हुदय निवास करता हे--इसके प्रत्येक छंद में एक नया रस है; इसकी प्रत्येक पंक्ति में एक नया भीवन है ओर इसके प्रत्येक शब्द में किसी हृदयसंपन्‍न कवि को आत्मा का एक मधुर संदेश है-मैं बिना संकोच के कह सकता हूँ. कि आधुनिक ब्रजमाघा का यह सवश्रेष्ठ काव्यग्रथ है।? त्रिपाठी जी का यह मत अनेक अंशों में उचित ही है। शक्ल जी ने भी इस _ ग्रथ की प्रशंसा की है। डा० रामप्रसाद त्रिपाठी ने इसे पढ़कर लिखा था-- ( इसे पढ़कर ) वह आनंद श्रा जाता है जो तुलसी, केशव और भूषण के काव्यों में मिलता है | डा० रामकुमार वर्मा को मी यही संमति थी; “उसमें मुझे वैसा ही पांडित्य और काव्योत्कर्ष मिला, जैता महाकवि केशव की रामचंद्रिका में मिलता है ।? ये सभी मत इस .ग्रथ को प्रशंसा फी दृष्टि से सटोक ओर समुचित हैं। सरल ओर साहित्यिक ब्रजमाषा में लिखा यह प्रौढ़ ब्रजमाषाकाव्य विषय एवे श्रमिव्यक्ति दोनों द्टी दृश्यों से प्राचोन कवियों की परंपरा में रखने योग्य है । .. ग्र'थ की विषयवस्तु रामचरित्र से ही संबंधित है परंतु इस काव्य में मूलतः - राम के जन्म से लेकर उनके विवाह के पश्चात्‌ अ्रयोध्या-निवासकाल तक का ही ् & [भाग २०] ...... ब्रजभाषा काब्य ः द द ४२६ वर्णन है। कवि ने लिखा है फि श्रयोध्या में रामवहल्‍लभ्शरण जी के फथास्थल पर एक दिन वे रामविवाह पर व्याख्यान कर रहे थे, उस समय उन्होंने सियाराम फी _ शोभा पर एफ फवित्त भी सुनाया । तभी उन्हें यह वाणी सुनने को मिली कि यदि ऐसी ही कविता में पूरा ग्रथ लिखा जाय, तो कितना अच्छा हो। श्रयोध्या का निवास, उसके इतिहास का प्रसंग, अयोध्या के शजा के यहाँ बृत्ति आदि सभी फारणों से उन्होंने इस ग्रंथ की रचना की। उन्होंने राम के चरित्र फो अयोध्याप्रसंग तक संभवत; इसौलिये सीमित रखा; क्योंकि अ्रयोध्या का गौंरव- वर्णन ही उनका विशेष उद्द श्य था | ग्रथरचना सोलह कलाओं में हुई है। प्रथम कला में मंगलाचरण, लेखनी - उत्कर्ष, ग्रथारंभकारण, अवतारकारण, काव्यादश आदि का वर्णन है। दूधरी फला में सुयवंश्वशन, दशरथ के चारों पुश्नों का जन्म विश्वामित्र का आगमन झ्ोर रामलक्ष्मणु को ले जाने का वर्णन है। सातवीं कला तक सीता और राम का विवाह और उसके बाद विदा ओर अ्रयोध्या में उनके स्वागत का वर्शान फिया गया है। आठवीं कला में श्रीराम ओर सीता जी की अ्रष्ट्या- मचा, नवीं में षटऋतुवर्शन, दसवीं में ग्रामबधघूटियोँ को सीटा जी का उपदेश, ग्यारहवीं कला में वरशब्यवस्था, बारहवीं में श्राभअम व्यवस्था, तेरहवीं में राजनीतिवशन, चोदहवीं में साधारण नीति, पंद्रइवीं में वेदांत- वेद्य-विद्या और सोलहवीं कला में स्ठुति, विषयसूच्ी, ग्रथपरिचय, बविपरिचय आर त्रिदेववंदना के साथ ग्रथ की समाप्ति हुई है (रामचंद्रोदय काव्य? में रीतिकाव्य की संपूर्ण चतना विद्यमान है। रामस्तोत्र के साथ इधर उधर के वशुनों ओर उपदेश श्रादि की गुंजाइश कवि ने सवत्र निकाल ली है। ग्र'थ का उत्तराध तो उपदेशों से ही संबंधित हैं, परंतु इन सबसमें कवि ने पर परा के साथ श्रपने युग में सुधार की भावना को मी बराबर प्रश्नय दिया हैं। दूसरी कला में ही, जहाँ कवि अयोध्या का वर्शन करता है, वहाँ वह अपनी आँखों देखी अयोध्या फा वर्शन कैसे न करे, अत: प्रसंग से इटकर उसने “बीसवीं शताब्दी फी अ्रयोध्या' का लंबा चौड़ा वर्शन, वर्तमान परिस्थितियों के प्रति क्षोभ व्यक्त करने के लिये किया है दो०«>-दिव्य भूमि सुरपुर-सरिस त्रिभवन प्रगठ प्रताप। अब तेहि अवध- प्रबंधनगति, उलठि गई सब आझाप ॥ छं०--क्त्रन के भे खेत, देवमंदिर बेस्थालय । जज्ञ धर्म तजि बेंद बन्ने नव ग्रंथ स्वाथंमय । त्यागि जोतिसी कम तोरिं, बरनाखम टठाटी। _ दिव्यभूमि गइ कपट कीस, विधवा मल पाठी। 33232 33222 सा मा न 'ककर- कद पाक कासकन_इक स्का ददापञ तप चक्र घन हजरत उटनप पर ४२४ हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास हा खिलस-धम-धपित अवध, चहूँ दिसि परे मसान हैं। श्रव हयाँ बिरक्त भोगीन के, घिर, चढ़ि काटत कान हैं। कवि की दृष्टि की सामयिकता सीता जी ओर ग्राम बधूटियों के प्रसंग में भी देखने फो मिलती है। भगवान्‌ राम के एकपत्नीतरत का वणतव भी कवि की सुधारभावना पर आधारित है, परंतु कुछ ऊह्यत्मक हो गया है-- श्रान तियान पै डारधों न डीठि, कबौ फरि पीठि न प्रेम उछाहयों। चित्र की बाम ललाम लख्यों न, कहूँ रन में गद्दि सक्ति उमाझयों। जोतिसी” देव बधटिन सौं निज्र कारज् को चित चेति न, चाह्यों । देख्यों न स्वप्न में आन तिया नित एक प्रियात्रत राम निबाह्यों । पुरानी परंपरा के प्रसंग में ग्र थिबंधन करनेवाली नाइन फी दशा का वर्णुन भी उद्धरणीय है। इसमें भाणा फी प्रसाद-गुए-संपन्‍नता आर भावाभिव्यक्ति की सफाई भी साथ ही लक्षणीय है-- भपटि अ्रटा पे जात आ्रावत न लावे बेर प्रेम मदमाती भई नाईन कफिसोरी है। घर घर द्वार द्वार अंगना निहोरे सबे, . एरी सुनो मेरी एक बात रसबोरी है। जोतिसी' जगी ती मरी भीर दृप आँगन में देवद्विज नृपति विलोकति न चोरी है। जो री काह्िह काहू तें न जोरी प्रीति रीति आली, तासों बरजोरी आज गाँठि हम जोशी है। छुंद्रयोग की बहुलता फो दृष्टि से भी यह रचना महत्वपूर्ण है। श्राघुनिक ब्रजभाषा काव्य में यह ग्रथ अपने विशिष्ट स्थान का अधिकारी है| _पं० गयाप्रसाद शुक्ल 'सन्तेही' ( जन्म सं० १६४० वि० ) पं० गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही? का जन्म श्रावणु शक्ल त्रयोदशी, सं० १९४० वि० में उन्‍नाव जिले के हृड़द्या नामक ग्राम में हुआ। यह गाँव बेसवाड़ा क्षेत्र के अंतगंत है। सनेह्दी जी के पिता पं० अवशेरीलाल शुक्ल बड़े साहसी ओर देशभक्त व्यक्ति थे। १८४७ ६० के स्वात॑त्र्य संग्राम में उन्होंने भी जमकर भाग .. लिया और ब्रिटिश सरकार के कोपभाजन बने । देशभक्ति और वीरभाव की यह .. परंपरा सनेह्दी जी को अपने पिता से ही प्रास हुई । सनेही जी आरंभ से ही मेधावी छात्र रहे। काव्यर्चना का शौक इन्हें बचपन से ह्वी था। सगवर के ठाकुर रामपाल सिंह के सार्निध्य में इन्होंने बड़ी [ भाग १० ] की ब्रजभाषा काब्य... . डर सुंदर ब्रजरचनाए लिखीं। परंतु काव्यशाध्त्र का सम्यफ अ्रनुशीलन इन्होंने हृडंहा .. निवासी लाला गिरधांयेलाल जी के चरणों में बेठफर किया | लाला जी रीतिशास्त्र के बड़े पंडित और ब्रजमाषा के सिद॒हस्त कवि थे । सनेही जी ने अपनी जीविका के लिये शिक्षक की बृच्ि अपनाई थी। सन्‌ १६०२ में वे शिक्षण पद्धति का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिये दो वष लखनऊ आफर रहे। यहाँ उनफी प्रतिमा का और भी विफास हुआ तथा वे ब्रजमाषा, खड़ीबीली एवं उदूं के कवियों के संपक में आए। सनेही जी इन तीनों भाषाओं में फाव्यरचना करते थे परंतु रससिद्ध कविता की हृष्टि से वें प्रमुखतः ब्रजमांषा के ही कवि शे। उनकी प्रसिद्धि होने पर पं० महावीरप्रसाद द्विवेदी ने उन्हें खड़ीबोली काव्यर्चना को ओर प्रेरित किया ओर इस क्षोत्र में भी सनेही जी का अ्रद्धितीय स्थान रहा परंतु ब्रजमाषा से भी वे आजीवन लिखते रहे । शिक्षा विभाग में! नोकरी करने के कारण उन्होंने अपनी राष्ट्रीय कविताएँ 'त्रिशल” उपनाम से लिखीं। सनेद्दी जी के काव्यव्यक्तित्व के दो भिन्‍न रूप हैं, 'सनेह्ठी! नाम से वे परंपरागत और रससिद्ध कविताएँ करते थे और "त्रिशल? मसे वे समाजसुधार ओर स्वाधीनताप्रम की रचनाएं लिखते ये। पतरंगी? और “अलमभस्त” ये दोनों मी सनेही जी के उपनाम हैं। द . सनेही जी का भारतीय स्वा्ंत््य छंग्रास में भी महत्वपूण भाग रहा है। असहयोग आंदोलन के समय उन्होंने टाउन स्कूल की हेडमास्टरी से त्यागपत्र दे दिया और कानपुर को अपना कमन्षेत्र बनाकर स्वाधोनता के कार्यों में अपने को खपा दिया । .. सनेही जी की आरंभिक रचनाएँ “रसिक रहस्य', साहित्य सरोवर (इसिकंमित्र” आदि पत्रों में प्रकाशित होती थीं। बाद में वे 'सरस्वती' में मी लिखने लगे। “प्रताप' में उनकी क्रांतिकारी रचनाएँ प्रकाशित होती थीं । दैनिक * वर्तमान' के वे संस्थापकों में से थे। गोरखपुर से निकलनेवाले “कवि! का संपादन उन्होंने वर्षों' क्रिया। सन्‌ १६२८ में उन्होंने फविताप्रधान पत्र सुकवि” निकाला, जिसका संपादन-संचालन सनेही जी निरंतर १२ वर्षो' तक करते रहे। इस पत्र में पुराने ओर नए--दोनों श्र णियों के कवियों की रचनाए प्रकाशित होती थीं। समस्यापूर्ति इसका एक स्थायी स्तंभ था, जिसके कारण कविता का प्रचार प्रसार तो हुआ ही, न जाने कितने सहृदर्यों को सनेही जी ने रचनाकार मी बना दिया। सनेही जी ने अपने जीवन में असंख्य कवियों को काव्याभ्यास फराफर सत्काव्यरचना में प्रदत्त किया। आज के अनेक प्रसिद्ध कवि अपने को १०-५४ ४२६ द . हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास सनेही जी का शिष्य कहने में गौरव का अनुभव करते हैं। उन्होंने कविसंभेलर्नों की परंपरा का भी विकास किया और जीवन में शतश:ः कविसंमेलनों का सभापतित्व भी किया सनेह्दी जी का रस्वनाकाल ओर रचना का विषयक्षेत्र अ्रत्यंत विस्तृत है। उनका साहित्य अनेक पत्रपत्रिकाओं में बिखरे रूप में प्रकाशित है । उनकी प्रकाशित रचनाओं में प्र मपच्चीसी, कुसुमांजलि, कृषकक्रंदन, त्रिशुलतरंग, राष्ट्रोय मंत्र, संजीवनी, राष्ट्रीय वाणी, कलामे त्रिशुल तथा फरुणाकादंबिनी है। स्पष्ट है कि सनेही जी के प्रकाशित साहित्व में बरजमाषाकाव्य का अंश नगरशय है। जैस। कहा जा चुफा है कि सनेही जी का रससिद्ध व्यक्तित्व उनके ब्रजभाषा काव्य में ही प्रगट हुआ है। अतः उनकी ब्रजस्वनाशञ्रों के स्वतंत्र संग्रह के संपादन प्रकाशन फो नितांत आवश्यकता है ।* ॒ सनेही जी का त्रजभांषा काव्य जिन दिनों सनेही जी ने काव्यस्चयना का आरंभ किया था; उन दिनों ब्रजभाषा ही काव्य की समाहत भाषा थी। सनेही जी की काव्यशिक्षा भी हजभाषा काव्यपरंपरा के अ्रंत्गत हुई और वे शीघ्र ही ब्रजमाषा के सुकवि के रूप में प्रतिष्ठित हो गए । यह सत्य है कि अपने विफासकाल में उन्होंने भी खड़ीबोली को अपनाया और उनका समस्त आधुनिक कृतिल खड़ीबोली में ही प्रकाशित हुआ, फिर भी सनेहदी जी ने सदा ही ज्जमाषा काव्यपरपरा को सुदृढ़ किया, उसमें स्वयं स्चनाएं करते रहे ओर उसका प्रभाव बनाए रहे। इस संबंध में आचार्य ... पुं० रामचंद्र शुल्क ने भी लिखा है--“पं० गयाप्रसाद शुक्ल सनेही! के प्रभाव से कानपुर में ब्रजभाषाकाव्य के मधुरखोत अब भी बराबर वेसे हो चल रहे हैं, जैसे भ्पूर्ण! जी फी समय में चलते थे । सनेही जी का ब्रजमाषाकाव्य स्फुट रूप में रसिकरहस्य/ “रसिकमिनत्र', काव्यसुधा', सुधासरोवर,” आदि अनेक पत्रपत्रिकाओं के अंकों में भरा पड़ा है। उनकी प्रथम कृति “प्र मपच्चीसी' का प्रकाशन सन्‌ (६६०५४ के आस पास हुआ था । ! प्रसत्तता की बात है कि पंडित गयाप्रसाद शुक्ल “सनेही” के संमान में कातपुर नगर महापालिका की शोर से सन्‌ १६६४ ई० में आचार्य सनेही ... अभिनंदन ग्रंथ! भेंट किया गया | सनेही जी के जीवन और क्ृतित्व से संबंधित महत्वपूर्ण सामग्री का संकलन इस ग्रंथ में हुआ है परतु श्रभी उनकी रचनाओं के प्रकाशन की आवश्यकता ज्यों की त्यों बनी हुई है| [ भोग १० ] अजमाषा काव्य. ४२७ इसमें » गार रस के ब्रजभाषा में लिखें पच्चीस छंदों का संकलन किया गया था। प्र मपवन्‍्चीसी' का एक छंद यहाँ प्रस्तुत है--- जेहि चाह सों चाह्यो तुम्हें प्रथमे अबई तेहि चाह सों चाइनों है। तुम चाहों न चाहों लला हमफों कछु दीबो न याफकों उराहनों है । दुख दीजे कि कीजै दया दिल में .. हर रंग तिद्ाारों सराहनों है। मन भावे करों मनभावन सो हमें नेह की नातों निभावनों है । समय के साथ सनेही जी का ब्रजभाषाकाव्य भाव और कला दोनों ही दृष्टियों से समृद्धतर होता गया । उन्होंने राधाकृष्णु के साध्यम से प्रेमव्यंजना फो अपने -ब्रजमाषाकाब्य में सर्वप्रमुख स्थान दिया है। इस प्रेमवर्णुन में वे भक्तिकाल के कवियों की अ्रपेकज्ञा रीतिकाल के कवियों से अधिक प्रभावित हैं। इतना अवश्य हैं कि उनमें रीतिकाल के अ्रधिकांश कवियों के समान द्ृदयानुभूति का अभाव और केवल फलात्मकता ही नहीं है; अपितु इनकी रचनाएँ प्रसाद गुण लिए हुए अनुमूतियों का विशद वर्णन ही हैं। उद्धव और गोपी संवाद जेसे प्रसिद्ध कथापरंपरा के एक छंद में गोपियाँ अपने प्रिय कृष्ण के प्रति कैसा सार्मिक उपालंभ देती हैं-- ! वह सूचे सुमारग ही पे चलें; इम प्रंम फी गैंल लई सो लई। उर सीतल आपनों राखें सदा, इस तापन सों हैं तई सो तई। इन चोंचंदह् इन का परी है, हम सों भई भूल भई सो भई। अपनी कुलकानि संमारे रहें, इमरी कुलकानि गई सो गई। प्रेम के विषय में श्रीकृष्ण को निस्तंगता की आधार बनाऋर सनेहो जो ने विरहियी गोपियों की स्थिति को किस प्रफार . आमने सामने रखकर इस छंद में प्रस्तुत किया है, यह देखते ही बनता है। वध्त॒तः प्र मी के हृदय फो पल भर के लिये भी चेन नहीं मिलता । ब्रजमाषा में इस प्र म की पीर का प्रतीक चातक है, जिसके हृदय की डोर निरंतर शअ्रपने प्रियतम से लगी रहती है; चाहे उसे बारहों मास प्यासा ही रहना पड़े-- नव नेह फो नेम निबाहत चातक, कानन ही में मवासोौ रहे। र० “पी कहाँ” 'पी कहाँ' की ही लगें, मरो नीर रहे पे उपासों रहे । 8२१८ हिंदी खाहिस्य का बहवत इतिहास तजि पूरबी पौन न संगी फीऊक) कैंट देत हिए. कौं दिलासों रहे । लगी डोर सदैव पिया सों रहे) चढ्ढे बारह मास पियासों रहै। सरल और सहज अभिव्यक्ति होते हुए भी ब्रजभाषाफवियों फी अश्रल॑कार- प्रियता की रीति सनेही जी ने भी निवाहदी है। उक्त चंद में 'पियासों? में यमक ग्लंफार फितना स्वाभाविक ढंग से आ बैठा दे । प्रेम का जगत मार्नों श्रँखों का ही जगत है-बड़ी बड़ी श्राँखों फो देखने के लिये तरसनेवाली आँखें आँसुओं की धार बहाती हं मानों प्रियतम को हार पटनाने के लिये मोतियों फी लड़ियाँ पिरो रही हैं, परंतु रोना भी खुलकर कहाँ हो पाता है क्योंकि शुरुनन की कड़ी आँखों का उनपर वण है। फिर ये रस में गड़ी बड़ी बड़ी आँखें तो वियोगिन के छुदय फो घड़ीधघड़ी सालती ही रहती हैं-- हार पिन्हाइबे को उनके है पिरोवती मोतिन की लड़ी आँखें । दाबि हियौ रहि जैत्र परे लखि के गुरु लोगन की कड़ी आँखें । हाय, कबै फिर स/मुहें हूँ हैं, 'सनेही” सरोज की पंखड़ी आँखें । सालें घड़ी घड़ी, जी में गड़ी, रख में उमड़ी, वे बड़ी बड़ी आँखें । . राधाह्ृष्ण के प्रेम से संबंधित प्रायः सभी क्षेत्रों में सनेह्दी की ब्रजकविता का विचरण हुआ है। इसके माध्यम से रस के समस्त पद्ष आर उनकी' दशाओं पर प्रमूत संख्या में छंदरचना सनेही जी ने की है। नाविकामेद पर भी उन्होंने प्रसंगवश बहुत कुछ लिखा है। पडऋतु वर्णव से संबंधित छंदों की मी ब्रजकविता में कमी नहीं है। वर्षा के उल्लास को वैसी ही वीप्सा--अनुप्रासमयी पेक्तियों में कवि ने इस प्रकार चित्रित किया है-- ; घूम घनस्थाम स्थामा दामिनी लगाएं अंक, सरस जात्‌ सर सागर भरे भरे । हरे भरे. फूले फरे. तरु पंछी भूले फिरे, - द प्रमर 'सनेही! कलिकान पै अरे अरे । द नदन विनंदक बिलोकि अवनी की छंवि, - ४ 'डंद्बधू इंद आतुरी सो उतरे हरे। हरे हरे द्वार में हरिननेनी देरि देरि, ह हि कम हरखि हिये में हरि बिहरे हरे हरे। ... सनेही जी के काव्य में कलात्मकता मी कम नहीं है। समसस्‍्यापूर्ति के _ निमिच लिखी गई रचनाओं में चमत्कार का प्रदर्शन स्वमावतः अधिक होता है परंतु सनेह्टी जी का यह पांडित्य केवल शब्दों में न होफर उनकी फव्पनाशीलता 00 [साय ०] अजभाषा काव्य... ४२६ में है, परिणामतः उनके छंद अनुभूति को ही विशेष रूप से जाग्रत फरने में समथ होते हैं | 'एक ते ह्वँ गई, द्वे तसवीरें' इस समध्या की पूर्ति सनेह्दी जी ने अ्रनेक प्रकार से की है | इनमें से एक छंद उधृत है--- मानिक मोल मे दीन्हों उन्हे, ओ दई अपने जियरें में जगीर । निज चित्र बसाय हिये मे सनेही, गए उपजाय वियोग की पीर | अब ओर थों लेके कहा फरिहे. अ्रब लॉ जो भई सो भई तकसीर | अरी का गति ह्वँहै चितेरिनी जो, कहूँ एक ते हा गई" द्व॑ तसवीर | सच भी है, सनेही प्रियतम का एफ चित्र ही वियोग की असहय पीर उत्पन्न कर रहा हैं, कहीं उसकी दो तसवीर हो गइई' तो प्रियतमा फो केसी दशा होगी, कोन कह सकता हैं १ प्रियतम की पाती बाँचनेवाली वियोगिनी बाला फा सहज उद्दयौत्त उल्लास आर उसकी सुदर अनुभाव योजना इस छ॑द में देखिए--- संफित हिये सो पिय अंकित संदेसों बाँच्यों . आईं हाथ थाती सी सनेही प्रेम पन की । नीलम अधर लाल ह॒वैके दमकन लागे खिंच गई मधुरेखा मधुर हँंसन को। स्यामधघन सुरति सुरस बरसन लागे, वार आआँस मोती आस-पूरी अंखियन को। माथ सों छुवाती सियराती लाय लाय छाती, पाती आगमन को बुक्ाती आग मन की । श्रृंगार रस के अतिरिक्त शांत, वीर, फरुणु, हास्य एवं अ्रन्य रसों से संबंधित ब्रजकविता की रचना भी सनेही जी ने की है। उनकी भाषा विशुद्ध ब्रजमाषा नहों कही जा सकती क्योंकि उसमें अवधी, बेसवाड़ी, बुदेलखंडी प्रयोगों के साथ अरबी फारसी के शब्द भी पर्याप्त मात्रा में थ्रा जाते हैं, यही नहीं खड़ी बोली _ का पुठ मी जझ्लँ तहाँ उनकी भाषा में मिलता है। परंतु इन सब प्रयोगों से उनकी . ब्रजमाषा सरल श्रोर प्रसादशुण युक्त भी बन जाती है, यह सनेही जी की विशेषता ... है। उनकी कथनमंगिमाएँ सहज और विविध हैं, उनका अलंकारविधान स्वाभाविक . है ओर छंदयोजना में वे प्रायः रीतिकाल के अनुवर्ती हैं । विवेच्य युग में 'सनेहोः जी ब्रज के बाहर रहकर मी ब्जमाषा के एक बडे स्तंभ रहे हैं | पूं० गामचंद्र शुक्ल । ( जन्म सं० १९४९-मू० सं० १६९७ विं० ) १०-जीवन ; सरयूपारीण ब्राह्मणों के वंश में शुक्‍्ल्ों का गये गोन्नीय परिवार गोरखपुर के ४३० .. हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिदांश भेड़ी नामक गाँव का निवासी था। शुक्ल जी के पिता पं० चंद्रबली शुक्ल अ्रपनी माँ के साथ बस्ती के अगोना गाँव में आ गए थे। यहीं श्राचाय रामचंद्र शुक्ल का जन्म आशिवन पूर्णिमा, सं० १६७१ बि० ( ,८८७ ई० ) फो हुआ । शुक्ल जी के पिता पहले राठ में सुपरवायजर फानूनगो हुए, बाद में मिर्जापुर आ गए । यहीं ग्राचार्य शुक्ल का बाल्यफाल व्यतीत हुआ । उदू श्रेंगरेजी शिक्षा के साथ उनका भ्रध्ययन आरंभ हुआ | परंतु उनकी विमाता के कारण उनका अ्रध्ययन आगे न चल सका | ये कुछ दिन बड़े कष्ट में-रहे परंतु कुछु समय पश्चात्‌ इनके पिता का स्वभाव बदला ओर वे धार्मिकर प्रद्नति के व्यक्ति बन गए। उनकी साहित्यिक रुचि भी विकसित हुईं | इसका शुक्ल जी को बड़ा लाम हुआ । आचार्य शुक्ल जी की स्कूली शिक्षा का निर्वाह अनेक कारणों से नहीं हो सका परंतु उनका व्यक्तिगत अध्ययन बहुत गंभीर श्लोर व्यापक था। आरंभ में - कुछ समय इन्होंने सरकारी नौकरी की परतु बाद में उसे छोड़कर ये मिर्जापुर के मिशन स्कूल में ड्राइंग के अध्यापक हो गए। सन्‌ १६०६-१० ई* में ये “हिंदी शब्दसागर” में फा्य करने के लिये काशी आ गए। कुछ दिनों नागरीप्रचारिणी सभा की पत्निका का सपादन भी उन्होंने किया। बाद में ये हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी के अ्रध्यापक के रूप में नियुक्त हुए | बीच में एक वर्ष के लिये अ्रलवर राज्य की नोकरी पर भी गए, परंतु वापस आ गर। सन्‌ १६३७ में ये हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अ्रध्यक्ष बने । सन्‌ १९४० ३०» में हृदयगति बंद हो जाने से इनका देहावसान हो गया । २--साहित्य : यद्यपि साहिल में शुक्ल जी का प्रमुख स्थान उनके आलोचफ ओर निब॑ध- कार रूप का है, फिर मी मुलतः वे कविद्धदूय थे। बचपन से दी वे कविता करने लग गए थे ओर उनकी आारभिक रचनाएँ प्रायः ब्रजभाषा में ही लिखी गई हैं । शक्ल जी की ब्रजमाषा की दृष्टि से सर्वोत्तृष्ट स्वना बुद्धचरित' है, श्रतः यहाँ उशी फा उल्लेख किया जा रहा हे। ” बुद्धचरित बुद्धचरित एडविन आनाल्‍ड फो कृति 'लाइट श्राव एशिया” का ब्रजभाषा पद्म में अनुवाद है । शुक्ल जी फो ब्रजकवित्व की मूधन्यता के लिये ५बुद्धचरितः एक बहत बड़ा प्रमाण है। अपने इस ग्रंथ के विषय में स्वयं आचार्य शुक्ल ने (हिंदी साहित्य के इतिहास” में लिखा हे--(सर्गबद्ध प्रबंध काब्यों में हमारा -बुद्धचरित' संवत्‌ १६७६ में प्रकाशित हुआ्ला जिपमें भगवान्‌ बु छू का लोफपावन [ साग १० ] . अजभाषा काब्य.. क्‍ ४३१ चरित्र उसी परंपरागत काव्यभाषा में वर्शित है, जिसमें रामकृष्ण की लीला का अब भी घर घर गान होता है|” स्पष्ट है कि शक्ल जी इस अनुवादग्रथ को _ ब्रजमाषा का एक श्रेष्ठ प्रबंधकाव्य मानते ये ओर सत्य भी यही है कि अनुवाद ग्रथ होते हुए भी यह काव्य ब्रजमाषा की एक महत्वपूर्ण स्व॒तंत्र रचना के समान ही महत्वपूर्ण है। अनुवाद की दृष्टि से भी यह मूल का शब्दानुवाद मात्र नहीं है बुद्धचरित! के वक्तव्य में शुक्ल जी ने स्वयं लिखा है कि उन्होंने मल के भावों को स्पष्ट करने का पूर्ण प्रयत्न करते हुए इसका ढंग ऐसा रखा है कि एक ख्वतंत्र हिंदी काव्य के रूप में इसका ग्रहण हो । आवश्यकतानुसार उन्होंने इसमें फेरफार या वृद्धि भी की है ..... बुद्धाचरित! की कथा आठ सर्गों में विभाजित है। भगवान्‌ बुद्ध के जन्म से लेकर उनके निर्वाणु तक की संपूर्ण गथा का व्शुन इन सर्गों में हुआ है। बुद्ध के जीवन की कथा भारतीयों के लिये चिरपरिचित है इसलिये इस ब्रजकाब्य की प्रसाद-गुण-संपन्‍नता स्वभावतः बहुत बढ़ गई है। घटनाओं ओर चरित्रों को नियोजना तो शुक्ल जी ने मल कवि के श्रनुसार ही रखी है परंतु अनुवाद में हृश्यविधान, भावभगिमाओं, श्रादि को सचित्र करने के लिये शवल जी ने अपनी प्रतिभा का पूरा पूरा उपयोग किया है। महाभिनिष्त्मण की रात्रि में अस्तव्यस्त दशा में सोती हुई नारियों फा एफ <र्शान प्रघ्तुत है सोवर्ती संभार बिनु सोभा परखाय गात आधे खुले गोरे सुकुमार मद श्रोपघर | चीकने चिकुर कहूँ बँधे हैं कुसुमदाम; कारे सट्कारे फहूँ लहरत लंक पर | सोंबें थकि हास और बिलास सों पसारि पाँय, . जैसे पलकंठ रसगीत गाय दिन भर। पंख बीच नाए. सिर आपनो लखात तो लो जो लो न प्रभात आय खोलन कहत स्वर | . शुक्ल जी अपने युग के श्रन्य कवियों के समान ही प्रकृतिचित्रण के. कक भी श्रेष्ठ कबि हैं। अपनी स्फुट कविताओं में उनका प्रकृतिदेभव तो निखरा ही है, 'बुद्धचरित' में भी उन्होंने प्रकृति की मनोहारी छुठा का सर्वत्र मावपूर्श वर्शुन किया है। प्रकृति की पृष्ठभूमि में मनोरम दृश्यों का अंफकन भी इस काव्य में सबंत्र हुआ है। चैत्र पूर्शिमा की रात्रि में कपिलवस्तु के प्रासाद की भव्य शोभा का श्रेफन देखिए-- “छिटकी बिमल विखाम बन पै, जामिनी मदुता भरी। बासित सुगंध प्रसून परिमल सोँ, नछुत्रन सों बरी ॥ ७३२ ः क्‍ हिंदी साहित्य का बृद्दत इतिहास ऊंचे उठे हिमबान फी हिमरासि' सो मनभावनी। संचरित सैल सुबायु सीतल, मंद मंद सुहावनी॥ चमकाय संंगन चंद चढ़ि अ्रब श्रमल अंबर पथ गल्यौ। भकलकाय निद्धित भूमि, रोहिनि के हिलोरन को रह्यो ॥ रसधाम के बॉके मुंडेरन ये रही द्युति छाय है। जहँ इलत डोलत नाहिं फोऊ कतहुँ परत लखाय है ॥ बुद्धाचरित' की माषघा को शुक्ल णी ने इस फाल के लिये आदर्श भाषा माना है। रीतिकाल की बोझिल और अलंकृत भाषा के स्थान पर चलती ब्रजमाषा ही इस काव्य में प्रयुक्त हुई है। उन्होंने लिखा है--“उसे ( ब्रजमाषाकाव्य फो ) यदि इस काल में भी चलना है तो वर्तमान भावों को ग्रहण करने के साथ भाषा का भी कुछ परिष्कार करना पड़ेगा। उसे चलती . ब्रजमाषा के मेल में लाना होगा । श्रप्रचलित संस्कृत शब्दों को श्रब बिगड़े ूपों में रखने की आवश्यकता नहों । बुद्धचरित! काव्य में भाषा के संबंध्र में हमने इसी पद्धति का अनुसरण किया था और कोई बाधा नहीं दिखाई दी?। बस्तुत: बुद्धच्रितः जहाँ एक ओर ब्रजमाषा में शरनुदाद, दिषय और भावदृष्टि :+ गे हा है, वहाँ उसकी भाषा शोर अभिव्यंजना शली में भी नवीन दृष्टि नाथूराम माहौर : ( जन्म सं० १६४२-- ) नाथुराम माहौर भाँसी के निवासी थे, जहाँ इनका जन्म सं० १६४२ वि० में हुआ था । माहोर जी ब्रजभाषा के एक अच्छे कवि और उत्साही प्रचारक रहे हैं। इनकी प्रकाशित रचनाओं में 'बीरबध!, वीरचाला, 'अश्ुपाला आदि हैँ ओर “रसप्रवाह”, 'पटऋतुदर्शन', “छुज्साल गुणावली” 'सूरसुधा?, “द्रौपदीदुकूल' आदि अ्रप्रकाशित हैं। इनके छुद बड़े ही मार्मिक और प्रवाहपूर्ण हैं।एक छुंद प्रस्तुत है हक द .. मधु भावनों ६ मधुरासि दुहू, कवि को बरने गुन माधुरी के। दुदँ फोमल कांति पदावल्ी हैं, लख पंकज लाजे बिभावरी के ॥ सनमोहक हैं दुषमरा में दुहूँ. निरखे उपमान बराबरी के । ब्रज-नागूर के सन माहि रमें, पद वंदों दुहूँ ब्रजनागरी के ॥ राय कष्णुदांस जी (जन्म सं० १६४६--) राय कृष्णदास जी के पिता भारतँंदु जी के फुफेरे भाई थे | यह परिवार द ... आरंभ से हो साहित्यक वातावरण से श्रोतप्रोत था | राय कृष्णदास जो को 5 /क [ भाग १० ] द . ब्जभाषा काव्य... ४३३ ब्रजभाषा में फाव्यरचना की प्रेरणा अपने पिता से ही मिली। याँ, इनका अध्ययन पुरातत्व के ज्ेत्र में अधिक है। भारतीय मूर्तिकला ओर चित्रकला पर इन्होंने उच्च फोटि के ग्रथ लिखें हैं। 'प्रसाद! जी इनके बाल्यकाल के मित्र थे | श्रारंभ में प्रसाद जी ने भी ब्रजभाषा में पद्यरचना की थी, उन्हीं के साथ राय कृष्णदास जी के काव्यप्रयत्त विकसित हुए। बाद में 'रत्नाकर' जी की देख रेख में इन्होंने श्रपनी काव्यशिक्षा फो पूर्ण क्रिया । यद्यपि ये ब्रजभाषा को निर्दिष्ट भावत्षेत्र की भाषा मानते हैं, तथापि इन्होंने अनेक स्थलों पर उस सीमा से बाहर जाने का प्रयत्न किया है और उसमें वह सफल भी हुए. हैं। राय कृष्णदास जी फी कुछ चुनी हुई रचनाओं का एक संग्रह छाजरज” नाम से सं० १९९३ वि* में प्रकाशित हुआ | इस रचना में कवि, सबेया, दोहा, पद एवं कुछ नवीन छंद भी हैं। इन कविताओं में जहाँ तहाँ इन्होंने अपने “नेही! उपनाम की छाप भी दी है। कृष्ण फी बाँसुरी के प्रभाव का वर्शन इनके एक छुंद में देखिए--- बाजी बन माहि कहूँ, गेह गेह गूजि उठी, पूरि उठी प्राननि में; नेही मन लह॒कि उठे। _ गोपी, गोप, गाय, ग्वाल, सुनि के गुपाल बेन, गरक गए. हैं सबै, गेल गेल गहफि उठे। चातकफ, मयूर, हंस, सारत, परेवा, पिक, पाइ पाई आपने मनोरथ चहकि उठे। डोलि गजराज उठे, झूमि नागंराज उठे, नाचि नटराज उठे, बौरि कै बहकि उठे | इनके दोहों में भी भक्ति और शंगार की अपूर्व रचनाएँ हैं। इन्हें पढ़कर बिहारी फी बरबस याद आ जाती है। एक दो दोहे प्रह्तुत हैं--- : बाके गोरे बदन पै, यों तिल्' फबत श्रपार। इंदीवर फूलौ सनो, रूप तड़ाग मँक्कार। चंचल पे लज्जा भरे, वाके चख अभिराम । कुंठ फठारी फो करत, फंठिन फरेजे कलाम | धजरज' के पदों में भक्तिमावना को स्थान मिला है। इनमें कवि की भगवान के प्रति प्रणति और उनके विरह की पीड़ा की अभिव्यक्ति हुई है। एक पद है-- प्रीति फो यह अनुपम उपहार। बदनामी, चबाव, चहुँ चौचंद अर व्यंगनि बोछार | १०-४४ ४३४ .... हिंदी साहित्य का इहत्‌ इतिहास विरह श्रगिन, तपिबौ। निंत ज्यों सन मन प्रेमाधार । चुप रहिबो; निज दरद न कहियौं, सब सहिबो मनमार |. .._ “अजरज? से 'मुस्काई कलो' शीर्षक ब्रजभाषा के एक गीत का कुछ अंश - यहाँ उनके नवीन दिशा में किए गए प्रथत्नों है उदाहरशा स्वरूप प्रस्तुत किया जा रहा है। वस्तुतः यह छायावादी प्रद्धत्ति को रचना है, जिसमें मुरझाई कली एक प्रतीक भर है-- _ क्‍ ... रूप, राग अ्ररु गंध नाहि. फछु याको बिफस्यो । श्रबहीं तो दिन माहिं दिव्य औषधि की नाई । सब याही में रहो संपुटित प्रगदयो नाहीं। द क्यों मुस्काइ गई अबही दवा | नव कलिका यह । लै के याकी सुरभि पवन नहिं बगरन पायो। छुक्‍्यौ मधुष हू नाहिं कबहुं याके मरंद सां। कबहुँ न कीकिल याहि श्रापनी तान सुनायो। क्यों मुस्काइ गई अबहीं हा | नव फलिका यह । निज गल कौ फोउठ हार याहि बनवन नहिं पायो। नहिं याके ढिंग फबहुँ फाहु की मन अरुफानों । मत्त भयौ नहिं फोठ मधुर याके सोरभत। क्यों मुरक्ताइ गई अबह्दीं हा | नव फलिफा यह। अरे काल चांडाल | कछुक ते दया न कीन्‍्हों। याहि विकसि मन भावन कहूँ प्रगठन तों देखो । या नेहिन की साध बछुक तौ प्रगठन देती | क्यों असमय मुरफाइ दई हा | नव कलिका यह ॥| क्‍ प्रस्तुत गीत एक प्रयोग मात्र है। इसमें म॒ तो ब्रजमाषा में पूर्वप्राप्त भावों की प्रौढ़ता ही परिल्क्षित होती है ओर न भाषा ही ठिकाने को बन पड़ी है । संभव है, आगे यदि इस क्षेत्र में बतन होता रहता तो ब्रज्ञमाषा को नए फाव्य- .. उंस्कार मिल जाते परंतु तब तक उसका स्थान इस क्षेत्र में खड़ी बोली को मिल गया । 5 ही द _पं० जगदंबाप्रसाद मिश्र (हिलेघी' ( जन्स सं० १६३४२-मुत्यु सं० २०१३ ) .... रुनेही जी के प्रमुख काव्यशिष्यों में हितैषी जी का स्थान सर्वोपरि है। अपने गुरु के समान वे भी बजभाषा, खड़ीबोली और उठ में सहजता से रचना _कस्ते ये | उनकी खड़ीबोली और उदूं की रचनाश्रों में उनकी क्रांतिकारिता की .. तस्वीर निखरकर सामने श्राती है, क्योंकि ऐसी अनेक रचनाएँ उनके जीवनफाल .. हितैषी जी कविसंमेलन [सांग १० |. श्रजभाषा काब्य | हि क्‍ ४३४ में ही देशभक्तों की वाणी का झगार बन गई थीं। हितेषी जी की ब्रजमाषा को रचनाओं में एक ओर उनकी अपत्री संश्कृति के प्रति अ्गाध' निष्ठा प्रकट हुई है तो दूसरी ओर उसमें समाजसुधार और देशभक्ति की समयोचित वीर भावना भी फूट पड़ी है हितैषी जी का जन्म उन्‍नाव जिले के गंज मुरादाबाद नामक ग्राम में मार्ग- शीर्ष शुक्ल एकादशी, शनिवार, सं+ १६५१ को हुआ | उनके प्रपितामह पं० मेघनाथ शास्त्री लखनऊ में नवाब वाजिदअग्ली शाह के राजज्योतिषी थे। पं० मेघनाथ शास्त्री और उनके भाई पं० रमानाथ शास्त्री, इन दोनों का बलिदान भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करते हुए हुआ। बाद में इनका परिवार फानपुर आ बसा । हितैषी जी फी आरंभिक शिक्षा उर्दू में हुई; तत्पश्चात्‌ कानपुर आने पर उन्होंने हिंदी, श्रंग्रेजी, संस्कृत, फारती आदि भाषाओं का अध्ययन किया। हितेषी जी अपने परिवार के बलिदान की मावना पर बंडा अमिमान रखते थे ओर कहा करवे थे--« चंदन को किनने सुगंध ले सींच्यों, कबे सिंहन सिखायों गजकुंभन बिदारिबो | .. १६ वर्ष की आयु में ही ये 'मातृवेदी” नामक क्रांतिकारी संख्या के सदस्य बन गए । ये महामना मदनमोहन मालवीय जी के शक्तिसिद्धांत में विश्वास रखते थे इसलिये प्रायः उग्र आंदोलन ही इन्हें पसंद थे। सन्‌ १६१७, १६२१ ओर १६२१३ आदि वर्षो में विभिन्न श्रांदोलनों में ये जेल गए । ब्रिटिश सरक्षार ने विद्रोह के अपराध में इनकी सारी चल श्रचल संपत्ति को नीलाम कर दिया | सन्‌ १६१३ से सन्‌ १६३६ तक हितेषी जी निरंतर देशसेवा में आगे रहे । हिंदी : को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिये भी इन्होंने अनेक आंदोलन .. किए । ये देशप्रेम के रंग में रंगे थे, इसलिये वौरों का स्तवन इन्हें श्रत्यंत प्रिय था। एक बार दूंदावन में हिंदी साहित्य संमेलन का अधिवेशन हुश्रा। जब में कविता पढ़ने खड़े हुए तो उन्हें वृ'दावन निवासी राजा महेंद्रप्रताप का स्मरण आया, जो उन दिनों स्वतंत्रता का संघर्ष विदेशों में रहकर चला रहे थे। हितैषो जी ने अपनी फविताश्रों का मंगलाचरणु इस छुंद से किया-- द द पूज्य जो कोटिन तीरथ सो हरि दासता, मुक्ति दिवावन हारी । ४३३ द ..... हिंदी साहित्य का बद्दव्‌ इतिहास में तेहि भूमि फी धूरि घरों सिर, क्‍ खेल्यों जहाँ खुलि प्रेम खिलारी । सो कहाँ देहु बताय हितैषी दया करि हे ब्रज के नर नारी । हाँ हुन्‍्यों मातृ के मंदिर में र्ां, कोऊ महेंद्रप्रताप पुजारी | हितैषी जी का ब्रजकाव्य केवल प्राचीन विषयों फो घिसी पिणी भाषा में दुहरराने तक ही सीमित नहीं है। उनमें जीवन फी ऊष्मा थी इसलिये वह भगवान्‌ कृष्ण से भी ह्ासपरिहास फरने में नहीं चुकते थे। उनफा लिखा एक व्यंग है-- द रोके गँवारन ग्वारन पे, अर दासी के पुत्र के ज्ञान पै रीके । जो सदना। रदास, कबीर से बेतुके की तुक तान पे रीके। रीक्नन बारे पे खीमत प्रान, | जो दीन, 'हितैबी' श्रजञान पे रीमे | रीके जो आँधरे के गुन गान पै) त्रौ रसिया रसखान पे रीके। आ्रभिजात्य लोगों के दासतापूर्ण जीवन के आदर्शों पर यह फितना बड़ा व्यंग है | इस परंपरा में हितैषी जी ने तत्कालीन राजनीतिक घटनाश्रों और व्यक्तियों पर भी बड़े करारे व्यंग किए. हैं। गोरी नोकरशाही के तो वे घोर शत्र ही थे। वे देश की दुदंशा फा कारण अंग्रेजी नोकरशाही को ही मानते थे ओर भगवान्‌ से प्राथना करते थे कि वे आकर गरीब किसानों फी रक्षा करें--- गाड़े देत जिंदा जमीदार हैं जमीन ही में, - द ब्याज पर ब्याज बेरी ब्योहर बढ़ाए जात। मूँसे लेत मुसी, घृस ले ले रक्त चूसे लेत, क्‍ चूकत न चपरासी नयई दबाए जात। . पिए लेत प्रान पटवारी बटमारी करि, द द बाफी अस्थि पंजर पुलिस ले पचाए जात । दौरौ दोरौ, दीनबंधु श्रौसर यही है द्वाय, कुटिल कुसासन किसानन फो खाए, चात। [ भाग १० ] ब्रज॑भाषां काव्य है ४३७ हितैषी जी फो ब्रजभाषा कविता ओजपूर्ण है। उसमें परंपरा के साथ युग की भी श्रभिव्यक्ति हुई है। उनकी भाषा सरल, सुहावरेदार ओर प्रायः वर्णुनात्म क है परंतु जहाँ उन्होंने पुरानी परिपाटी पर लिखा है, वहाँ भाषा में प्रौढ़ता ओर कलात्मकता के दर्शन होते हैं। उनको ब्रज्मभाषा की अ्रन्योक्तियाँ विशेष प्रतिद्व हैं । हितैषी जी ने सबेया, कवित्त, दोहे आदि ब्रजभाषा में प्रचलित सभी छूंदों में काव्यरचना फी है परंतु सनेही स्कूल में सवेया लिखने में उनकी टक्कर का कोई दूसरा न था। इपके लिये उन्हें प्सवेया सम्राट” की उपाधि भी दी गई थी सं० २०१३ वि० में फाल्गुन शुक्ल एकादशी सोमवार के दिन हितषी जी का निधन हुश्रा । दुलारेलाल सार्गव ( जन्म स॑० १६४२ वि०- ) दुलारेलाल भागव का जन्म लखनऊ में सं० १६५२ वि० ( सन्‌ १८९५ ई० ) में हुआ । इनकी शिक्षा का आरंभ उदूं से हुआ ओर बाद में इन्होंने हिंदी फा अध्ययन किया । इनकी स्कूली शिक्षा इंग्रमीडिएट तक ही हो सफो। फिर ये नवलकिशोर प्रेस में काम करने लगे । माधुरी! ओर “सुधा” संपादक के रूप में इनकी विशेष ख्याति हुई। ब्रजमाषा के कवि के रूप में इनकी *दुलारे दोहावली' नाम की एक ही प्रसिद्ध रचना है। इसपर इन्हें 'देव पुरस्कार भी प्राप्त हुआ । इस रचना के पक्षधरों ने इसे बिहारी फी सतसई के समान उत्कृष्ट बताया है, जबकि अ्रन्य आलोचक इसे केवल एक साधारण कृति ही मानते हैं । दुलार दोहावली .. ढुलारे दोह्ायवली में कुल २०८ दोहे हैं। आरंभिक श्राठ दोहे स्तुतिपरक हैं जिनमें गरोश, राधा कृष्ण, विष्णु, सरस्वती आदि की परंपरागत रूप में वंदना की. गई है, शेष २०० दोहे शंगार एवं अन्य रसों से संबंधित हँ। यों श्वृंगार रस इसमें कम ही है। ..॑._ दोहावली की प्रेरणा ब्रजमभाषा के प्राचीन कवियों की रचनाओ्रों में संनिहित है। (बिहारी सतस॥” हो मानों इसका आदर्श रहा है। श्रन्य भक्ति एवं रोति- . छवियों की भावछाया भी इनके दोहों पर विद्यमान है । इन दोहों में जहाँ तहाँ केवल वर्णुनात्मकता ही उभर आता है परंतु अधिकांशत: कवि का ध्यान काव्य के कलात्मक उभार पर रहा है। वेसे मी दोहा जैघे छाटं छुंद में किसी एक विषय की संपूण्ठ अभिव्यंजना किसों कुशल कलाकार कवि क हा वश का बात हें । इसमे संदेह नहीं कि दुलारेलाल जो अपने प्रयत्न में प्राय; सफल रहें हं | परंतु इनकी सफलता द्भवुदय का सरल अ्रमिव्य॑जना में उतना नहीं है, जितनो उक्ति« ४३८ क्‍ .... हिंदी साहित्य का बूंहत्‌ इतिहास वि है। दार्शनिक विषयों की गंभीरता भी इसी प्रकार कथनवक्रता में खो गई है। किर भी, दुलारे दोहावली आधुनिक ब्रजभाषा साहित्य को एक महत्वपूण रचना हैं ओर अनेक स्थलों में इसमें मुक्तक काव्यकार फी प्रतिभा सहज ही प्रदर्शित होता है दोहावली में प्राचीन एवं नवीन दोनों ही प्रकार के विषयों फो ग्रहण किया गया है। संसार की असारता संबंधी ये दोहे परंपरा के प्रतीक हैं--- विषय बात मन पोत में, भव नद देति बहाइ । पकर नाम पतवार हृढ, तो लगिहै तट आइ । बसि ऊंचे कुल यों सुमन, मन इतरेएऐ, नाहिं। यह बिकास दिन हैक को, मिलिहै मारो माहिं । आर, कुछु उदाहहण समसामयिक विषयों से संबंधित भी अध्ठुत हैं -- हिंदू जबन प्रयाग में, गंग जम्रुन सम धाय। मिले, छिपी स्वापघीनता। सुरसति सी दरसाय ॥ हरिजन ते चाहों भजन तो हरिभजन फिजूल । जन द्वारा ही फरत हैं राजन मिलन कबुल | सती सिरोमनि बा? ठुही गांधी-जीवन-सार । तव अंगिनि श्रनु अ्रनु बन्यों सती सुगुन आगार ॥ दोहावली फी भाषा में कृत्रिम आलंकारिकता अधिक है परंतु उसमें सामयिक शब्दावली का यथोचित संनिवेश हुआ है | वियोगी हरि : (जन्म सं० १६५३--) हरिहरप्रसाद द्विवेदी 'वियोगी हरि! का- जन्म सं० १६५३ में छुतर पुर राज्य के एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ । इनके पिता की झत्यु बाल्यकाल में ही हो गई इसलिये पालन पोषण इनके नाना के यहाँ हुआ । छुतरपुर से इन्होंने हाई स्कूल पांव फिया। दशनशास्त्र में आरंभ से ही रुचि होने के कारण ये क्रमशः क्रष्णभक्ति की ओर आकृष्ट हुए। छुतरपुर की महारानी कमलाकुमारी युगलप्रिया! के सांनिध्य में इनका यह भक्ति का रंग और गहरा हुआ । क्‍ सन्‌ १९३४ तक इन्होंने अनेक साहित्यिक ग्रथों का लेखन एवं संपादन . किया ओ्रोर साथ ही सामाजिक राजनीतिक विषयों पर भी अनेक पुस्तकें लिखों : परंतु उसके बाद ये गांधी जी की प्र रणा से प्रधानतः हरिजनसेवा का कार्य फर हु | रहे हे | [ भाग १० ] प्रजभाषा काव्य... ४३ ६ वियोगी इरि जी की कुछ प्रमुख मोलिक एवं संपादित रचनाओं के नाम इस प्रकार हैं- साहित्यविहवर ( १९१२ ई० ); छुद्मयोंगिनी नाटिका (१९२२ ई०) _ब्रजमाधुरी सार ( १६२३ ई० ), कंविफीतन ( १९१३ ई० ), सूरदास की विनय- पत्रिका की टीका (१६२४ ई० ), वीर सतसई (१६२७ ई० ) विश्वघर्स ( १९३० ६० ); छुत्रसाल ग्रथावली ( १६२६ ई० ), प्रबुद्धयामुन (१६२६ ई०), अनुरागवाटिका, वीर इरदोल, प्रेमशतक, प्रेमपथिक, प्रेमांजलि, प्रेमपरिषद्‌, वीरवाणी; शुरुपुष्पांजलि, संतवाणी, संतसुधासार, बद्धवाणी, श्रद्धाकश, जपुजी संत्नितत सु रसागर, संतकाव्यधारा, दादू; शुकदेव खंडकाव्य, त्तरंगिणी आदि | वियोगी हरि के ब्रजकाव्य को मुल वाणी भक्ति और देशप्र म की द्विविध घारा है और इन दोनों फा एक केंद्र दे सांस्कृतिक चेतना। इन्होंने श्रीकृष्ण श्र उनके भक्तों के विषय में सुंदर छुंदों फी रचना की है। इनकी भक्ति में सहजता है; कृत्रिमता नहों और इस दृष्टि से ये श्रलंकारकवि न होकर भावकवि हैं। इनकी भाषा ब्रजमाषा है परंतु विभिन्‍न रचनाओं में भाषा के भिन्‍न भिन्‍न रूप देखने को मिलते हैं । बुंदेलखंड का प्रभाव इनकी भाषा पर स्पष्ट हैं, साथ ही उसमें कलात्मक एकरूपता फा भी श्रभाव है। फिर भी विषय के अ्रनुकूल माघुय, ओज एवं प्रसाद गुणों का परिपाफ इनकी रचनाओं में सबन्न है। इनकी पदावली में भाषामादव आर भावप्रवाह उत्कृष्ट कोटि फा है; उदाहरणार्थ यह पद प्रस्तुत दै-- माधव आज फहों फिन साँची । क्यों हम नीचन तें हरि रूठे ऊँचन में मति रची ॥ यंत्रित बज्र कपाठनि गढ़ ए हृढ मंदिर तुम पाए । बलिहारी रणछोड़नाथ जू | भल्ले भाजि इत आए ॥ हम सब के अ्रघ देखि दुरे हों किधों मंदिरन माँहीं । के कछु डरत उच्च बंसिन को, छुग्गत न हमरी छाहीं || पै इतहू नहिं कुसल तुम्हारी, कल न लेन हम देह । जो पे हिये प्र म कछु छ्व है; तुम्हें खेंचि प्रभ्न॒ लहें॥ . बीर सतसई .... “वीर सतसई” वियोगी हरि जी की राष्ट्रप्रेम संबंधी उत्कृष्ट कृति है। इसमें थीर रस से परिपूर्ण दोहों का सुदर संग्रह सुसंपादित रूप में हुआ है । इसी ग्रंथ पर उन्हें सन्‌ १६३८ में मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था | धवीर सतसई!? के प्रकाशन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ब्रजभाषा में आधुनिक विषयों फो भी गंभीरता एवं कुशलता से प्रस्तुत किया जा सकता है। च्् ७ अल 3 3 डेस्क कक लक बह ः न्‍् मय पाक पस्ा2-पइबकिटन- मलिक 5 डि अेलललिए 722 कप: इसपर 2:52 पे जल कक किससे न्‍रर कक डक शी ५ ४४७ :.... हिंदी साहित्य का छृहत्‌ इतिहास श्रागारप्रधान अजमाषा में वीरभावना की अभिव्यक्ति एक नए प्रयोग की सूचना थी | यद्यपि इससे पूर्व मी ब्जमाषा में वीर रस की अ्रवतारणा हुई थी परंतु वियोगी हरि ने केवल कुछ शब्दों को दबाकर बोल देने मात्र से युद्धधशुन तक ही वीर रस फो सीमित नहीं होने दिया है। वीर रस का स्थायौमाव “उत्साह! है आर भारतीय नवचेंतना में इस उत्साह के जितने भी रूप संभव हैं, उन सबको होंने अपनी इस रचना में समेठ लिया है। वे कृष्णभक्त हैं, वीर सतसइ के आरभ में भी वे कृष्ण की वंदना करते हैं, परंतु यहाँ कृष्ण गोपीफांत न होकर वीर वेश में अवतरित हैं। भारतीय संस्कारों को जीवन देनेवाले समस्त पौराशिक एवं ऐतिहासिक वीरों की गौरवगाथा का गान उन्होंने किया है ओर इस प्रकार समस्त इतिहास के वीरपक्ष का मंथन कर उसे साफार कर दिया है। श्न वीरों में दानवीर, दयावीर, धमवीर और युद्धवीर सभी हैं। केवल प्राचीनों का गोन ही . नहीं, वियोगी इरि जी ने देश की वर्तमान दुदशा का भी मारमिक चित्रण किया है श्रौर तब देश के नवयुवर्को एणं समाज के सभी वर्गों का देशोद्धार के लिये आह्वान किया दै। वस्तुतः वीर सतस्ई” मारतमभारती के समान ही राष्ट्रगौरव न की एक महत्वपूर्ण फड़ी है। 'बीर सत्सई” के कुछ महत्वपूर्ण छंद उद्घृत किए जा रहे हैं-- श्रो प्रताप मेवाड़ के, यह केैसो तुबव फाम १ खात खलन तुब॒ खडग पै, होत काल फो नाम ॥ चली चमाचम कोप सों, चकर्चोंधिनि तरवार। पटी लोथ पे लोथ त्यों, बही रक्त नद घार ॥ जय भाँसी गढ़ लच्छुमी, राजत त्रिबिध अ्रनूप । गति चपला, दुति चेद्रिका, समर चंडिका रूप ॥ नहिं बिचदुयों सतपंथ तें, सहि असत्य दुख दवद्ग। कलि में गांधीरूप हो, पुनि प्रक्‍्यों इसिचिंद ॥ झूमत है जहाँ मत्त ह्वों, सहज सूर दिन रन। लटफि लजीले छेल तहँ, मठकि नचावत नेन ॥ . कर जाति स्वाधीन जो, साँचों सोइ सपूत। यों तो, कहु, केते नहीं, कायर कूर कपुत ॥ बालकृष्णु शर्मा "नवीन! ( जन्म सं० १६४५४ वि०-स्तू० सं० २०१७ ) द राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता के प्रतिनिधि कवियों के अंतर्गत श्री बालकृष्ण शर्मा . नवीन! का परिचय दिया जा चुका है। वे व्रज़भाषा में भी बडी सुष्ठु रचना करते थे क्योंकि यह उनकी मातृभाषा थी, खड़ीबोली के प्रसिद्ध कवि तो वे थे ही। ब्रजमाषा में उनकी स्फुट रचनाएं तो हैं ही, उनके प्राय: सभी खड़ीबोली के [भाग १०]... अजसाषा काव्य ० आफ 2 ७१. ग्रथों में भी तजभाषा की रचनाएं मिलती हैं। 'ऊर्मिज्ञा! का हृदय इसका पाँचवाँ सर्ग है; यह पूरा का पूरा अजमाषा सें लिखा गया है। इसमें ७०४ दोहे हैं। नवीन जी हिंदी के प्रमुख स्वच्छुंदतावादी कवि हैं ओर ऐसा कवि “विरह- गान! के लिये ब्रजभाषा को उपयुक्त मानता है, यह उसकी ब्रजभाषा की फोमल प्रकृति की पहिचान फा ही प्रतीक है। यदि नवीन जी के ब्रजकवित्व की समीक्षा... 'ऊर्मिला! के इन्हीं दोहों को लेकर की जाय, तब भी ब्रजवाणी को उतकी महत्वपूर्ण देन मानी जायगी। वस्तुतः 'ऊर्मिला? के पंचम सर्ग का एक एक दोहा ऊर्मिला के आँसुओं से भीगा ओर उसकी पीड़ा की विद्युत्‌ से दग्ध है। इनमें ऋतुओं की पृष्ठभूमि में विरहिणी की पीड़ा को अधिकाधिक उम्रारकर रख दिया गया है। उसके विरह में करुणा फी मात्रा अ्रत्यधिक है। यहाँ केवल कुछ दोहे उद्धृत करना ही शत्यलम्‌ होगा--- प्यार कहानी हृदय में; अरुकानी अकुलाय। बाणी अ्रठ्की ऊफंठ में, है मेरे रसराय। वे स्वप्निल रतियाँ, मधुर, वे बतियाँ चुपचाप। हो विलीन हिय में, बनी आज विछोह विलाप | ... साजन; संस्मृति नेह की, खथ्कि खठफि रहि जाय | . अटठकि अठकि आँसू भरें, भरे हृदय निरुपाय | रसक्रीड़ा, ब्रीड़ा सलज, पीड़ा बनी गभीर | रति संस्मृति निशिता अनी, बनी हिये की पीर । मुरि जनि देखंहु तुम इतें, हे सुकुमार कुमार । ' आररकि जाइंगे दहग। इहाँ बिछे साँध के तार। .. दुसह बिथा के जमि गए; विकट भार मंखार | . नित संकल्प विकल्‍प के, ठाढ़े भए. पहार | किशोरीदास वाजपेयी कर द किशोरीदास वाजपेयी का जन्म रामनगर ( कानपुर ) में हुआ। हिंदो . व्याकरण के केत्र में उनका अद्वितीय स्थान है। वाजपेयी जी मारतीय संस्कृति के .. अनन्य उपासक और प्राचीन मापदंडों के समर्थक हैं। ब्ज्॒भाषा और खड़ीबोली .. के विवाद में- वे अंत तक काब्यभाषा के लिये ब्रजमाषा का पक्ष अहण करते रहे हैं | .. सन्‌ १६३७ में सुधा? में उन्होंने लिखा था 'मैं उन कवि महोदर्यों से पूछता हूं, कृपा फर उन भावों का नाम निर्देश कर दे, जिनका श्रमिव्यंजन ब्जमाषा में नहीं . हो सफता | + + + यदि सफलतापूव क इस भाषा सें उने भावों का अभिव्यंजन ही जाय, तत्र तो ठीक अन्यथा फिर ब्रजभाषा झांशिक गूंगी सिद्ध हो जायगी १०-+ ६ | पा ५ * | ! सा है | 5 | 8 पु ४४२ जम हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास, वाजपेयी जी के इन शब्दों में ब्रजभाषा के वर्तमान के प्रति अडिंग विश्वास और आ्राग्रह कलकता है। इसी विश्वास के बल पर उन्होंने व्रजभाषा में काव्य लिखा । तरंगिणी' उनकी प्रसिद्ध कृति है। इसका प्रकाशन सं० १६६३ वि० मे हुश्ा इसमें दोहा नामक छुंद में तवीन विषयों पर नवप्रतिभा से काव्यसूजन की इच्छा साकार हुईं है। सामान्य से सामान्य ओर नए से नए विषय पर कवि की निगाह ज्ञप्ती है और सहज आलंकारिता के माध्यम से उसने उस विषय फो निखार दिया है। इन रचनाओं में सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक सभी प्रकार की कुरीतियों पर करारा व्यंग भी किया गया है। नवयुग की नवशक्ति का भी इन्हें पूरा पूरा ज्ञान है। “बहुमत” के विषय में ये लिखते हैं --- छुन में गज को खर करे, खर को गज सुख मौन | .. सो है “बहुमत” श्रमित बल, ब्रह्म बापुरी कौन! उन दिनों कृष्णुदत पालीवाल जी राजनीतिक रंगर्मच पर उभरकर आा रहे थे। सर्दी से भरा 'नेनीताल” उनकी सरणर्भमियों से गर्म हो उठता था, तभी तो कवि उनकी बिजली जेसी शक्ति को भाँप कर कहता है --- देखी तोमें गजब की, बिजुरी पालीवाल। होत गरम श्रति छुन्क में, जासों नंनीताल | रामशंकर शुक्ल रसाल' ( जन्म सं० १६५५ वि*--) ... डा» 'रसाल' का जन्म मऊ, जिला बाँदा में सं& १६५५ में हुआ। पहले ये प्रयाग विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक थे । बाद में गोरखपुर विश्व- विद्य॑लय में हिंदी विभाग के अ्रध्यक्ष हुए। प्राचीन अलंकारशास्त्र के 'रखाल! जी बड़े पंडित माने जाते हैं और अलंकार पीयूष! नामक ग्रंथ उनकी अल॑कार- शास्त्र की प्रतिमा का प्रमाण है। ब्रजभाषा में भी उन्होंने पर्यात रचनाएँ की है | उनकी रचना 'उद्धव-गोपी-संवाद! रत्नाकर के 'उद्धवशतक” के बाद की अ्रमरगीतपरंपरा में एक महत्वपूर्ण कृति है। मात्रा का व्याक्रणवंसत और शद्ध' परिमा्जित रूप इनकी कृतियों में मिलता है-- करत फलोल लोल' जीवनतरंगिनी की उम्गी उमंगनि तरंगनि की माल में। दे दे चाव चारौ यों बिमोह्यौो कै न चारो चल्यौ क्‍ बहुत बिचारी तऊ ऐजी परयो जाल में । बेधि बेधि ब॑ंसी सों 'रसाल! जिन्हें बंसीधर ... निज शुन खैंबि गए गेरि नेह ताह्न में। _- ऊधो दुखी दीनन फो उन मन मीनन कौ, आाए फाँसिबे को तुम ब्रेगुंन के जाल में ॥| [ भाग १० ] ब्रजमाषा काव्य... .. इंथ३ _'रसाल? जौ के काव्य में जैता हृदयपक्ष है, उतना ही बौद्धिक पक्ष भी प्रबल है| उनके विचारों में प्रौढ़ता ओर तर्कशीलता है जिसे दशन का आधार प्रात है। “उद्धव-गोपी संवाद! सें उपयुक्त प्रसंग मिलने के कारण इस तफशीलता फी पूर्ण अभिव्यक्ति हुई है। योपियाँ अपने तर्कशस्त्रों से उद्धव की ज्ञानयुक्तियों को सहज ही काठ काटकर फेंक देती हैं। वें श्रीकृष्ण के प्रति एकनिष्ठ हैं श्रतः अपनी प्रेमज्योति पर गौग्व प्रदर्शित करते हुए उद्धव की रिक्तपात्रता पर सहज ही व्यंग फरती हैं--.... . एक लव लाए, त्थों जगाए बस ज्योति एक; एके श्रान तेजोहड५ और लहते नहीं । राख जो सनेह नेह फरत उजेरों ताको, रीती नेह पात्र ले कदापि . रहते नहीं। जगत महातम को दठारि सु महा तम सों, दोष हू महातमा तमा फो गहते नहीं । दीपति है. दीपति इमारी हो 'रसाल! हम प्रेम के प्रदीप बात तीखी सहते नहीं। गोपियों का श्रडिंग प्रेम 'तीखी बात” सहने का अभ्यासी नहीं है, परंतु इतक्षका यह अर्थ नहीं है कि वे अपने प्रेम की परीक्षा को कसोंटी पर चढ़ाने में भय मानती हैं; वे तो कहती दे कि कृष्ण कपोंटी को लाकर वे उनके खरे खोटे प्रेम की परीक्षा करें-- गीजें तो अजातरूप बाद जो पे इहाँ, जातरूप प्रेम को परेखिबों बिचारों है। बिषय बियोगानल शआ्आँच में तपाइ हम, याकों तों सनारी रीति नीति को निखारो है। सारि मुखबात, जारि ब्रत जोति हू 'रसाल' द तामें ताइ ताइ बूथा देखिबों तिहारों है। देखो कृष्ण फठिन कसोटी लाइ ऊंधों, कसि, खोटो खरी प्रेमहेम जो है सो हमारो है। “'रसाल” जी ब्रजभाषा के प्रौढ़ रचनाकार हैं। ब्रजप्राषा की प्राचीन परिपाटी के अनुसार यमक, श्लेष, रूपक आदि अल्लंकार तो उन्हें सहज सिद्ध दी हैं, अ्रन्य स्थानों पर वे अनेक अप्रयक्त अलंकारों का भी सहज प्रयोग फरने में सिद्धहस्त हैं । पल .. हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास द ब्रजभाषा में उन्होंने अनेक समसामयिक विषयों पर भी अनेक रचनाएँ : लिखी हैं, जिनमें भाषा श्रपेज्ञाकृत सरल और प्रवादगुणयुक्त है। क्‍ अनूप शर्मा ; ( जन्म सं० १६४७ वि०-- ). श्रनूप शर्मा का जन्म सीतापुर जिला के नवीनगर में सन्‌ १९०० ई० में हुआ । इनके पिता का नाम प॑० बदरीप्रसाद त्रिपाठी था। शिक्षा की दृष्टि से शर्मा जी एम० ए०, एल० टी० हैं और सीतापुर हाई सकल के प्रधानाध्यापक रहे हैं। बाद में ये आकाशवाणी; लखनऊ के पंचायतघर फायक्रम में फाय करते रहे । द ग्रनूप शर्मा को सीतापुर में ब्रजभाषा के कवियों का परंपरागत वातावरण प्राप्त हुआ इसलिये ब्रजभाषा में वे सहज भाव से रचना करते रहे। युग फो माँग के अनुसार वे खढड़ीबोली के भी कवि बने श्रोर उन्होंने खड़ीबोली फो 'सिद्धाथ! ( १६३७ ) एवं ध्वर्धभान! जेसी प्रबंधकृतियाँ प्रदान की हैं। 'सुमनांजलि' (सुनाल' तथा 'सिद्धशिल्ा? इनकी अन्य रचनाएं हैं। अनूप शर्मा फी ब्रजमाषा की अत्यधिक चर्चित ओर महत्वपूर्ण कृति 'फेरि मिलिबो? है, जिसका प्रकाशन .. सन्‌ १६३८ में हुआ। हक हे फेरि मित्िषो ... यह कृति चंपूकाव्य के रूप में लिखी गई है। इसमें पद्म ओर गद्य दोनों ही ब्रजमाषा में हैं। कथा ७५ प्रसंगों या धार्मो में विभाजित है। फेरि मिलिबो' का कथानक श्रीमद्भागवतपुराण के एक प्रसंग पर आधारित है . और बह है कुरुक्षेत्र में राधाकृष्ण का पुनर्मिलन। इस संक्तिस कथा को कवि ने : ग्रपनी कल्पना से पत्लवित किया दे। नारद से ब्रज का संदेश पाकर रुक्मिणी ने . क्ृष्णु की प्रेयसी राधा से मिलने फो इच्छा व्यक्त की । द्वारका से कृष्ण, रुक्मिणी आदि और उधर ब्रज से नारद के साथ समस्त गोप गोपियाँ कुरुच्षेत्रस्नान के लिये चले । कुरुक्षेत्र में राधा श्रोर कृष्ण फा, साथ ही कृष्ण फी पत्नी रुक्मिणी . ओर प्रेम की साकार मूर्ति राधा का यह मिलन अ्रपूर्व ही था। अनूप शर्मा ने ... समस्त काव्य में वातावरण की सघनता फो बनाए रखा है ओर प्रेमवृत्ति के सूक्ष्म ' चित्रण पर बराबर ध्यान रखा है। कृष्ण के चरित्र को इसमें महिमामंडित किया .. गाया है परंतु राधा की असमोध्व चरित्रसृष्टि में इनका कविफोशल विशेष साथक . हुआ है। राधा और गोपियों के दशनों के लिये कृष्ण के द्वदय में मी कितनी... तड़प विधमान है... . कब राधा मुखचंद निरखि बनिहों चकोर मैं। ह्ष्टों गोपी हे देखि फब्ो' आनंदविभोर मैं। [सांग १०] बजभाषा काव्य... ... छ४ऐ अनूप शर्मा ने इस काव्य में रसों की व्यंजना में अनूठापन दिखाया है जो उनकी कवि अनुभूति का ही प्रमाण है । &गार रस के वर्शान में कवि कितना निष्कलुष झोर स्वाभाविक रह सका है, यह दर्शनीय है। 'फेरि मिलिबों' की भाषा में सहजता ओर माघुय है, कृत्रिमता का उसमें नाम भी नहीं है। विशेषकर ब्रजमाषा गद्य की दृष्टि से तो 'फेरि मिलिबों' का ऐतिहासिक महत्व है। उन्होंने गद्य के क्षेत्र में किसी प्राचीन आदश को स्वीकार ने कर, आधुनिक ब्रजजीवन के संपक से व्यावहारिक गद्य का गअहरण किया है और _ फिर भी उसे साहित्यिक बनाए रखा है। पद्च भाग में रोला, राधिका और दोहा छुंदों का प्रयोग कर कवि ने कथाप्रवाह को वांछित गति प्रदान की ह। ब्रज॒माषा के इस नवयुग में ध्वंपूकाव्य' एक नवप्रयोग है, इसलिये नवप्रयोग काल की सिद्धि में यह रचना एक बड़ा आधार है । उमाशंकर वाजपेयी “उमेश' ( जन्म सं० (६६४ वि०-छ्ू० सं० २०१४ वि० ) उमेशजो ब्रजञमाषा शरीर खड़ीबोली दोनों के ही संमथ कवि थे। वजमारती? में उनका ब्रजमाषा को दृष्टि से युगांतरकारी रूप प्रकट हुआ है। .. इनके जीवन के संबंध में इन्हीं के एक अन्य खड़ीबोली के काब्यग्रथ प्वसंत और .. पतमड़' की भूमिका में दुलारेलाल मार्गव ने लिखा है--'इनका जन्म माघ कृष्ण “२, संवत्‌ १६६४ को लखनऊ में हुआ था | इनके पिता का नाम अंबाराम वाजपेयी . था। वे प्राचीन आर्य संस्कृति पर चलनेवाले आदर्श पुर्ष थे। अपने पिता जी के आदर्श पर उमेश जी अपना जीवनयापन करते थे; उनमें प्राचीन संस्क्षति के साथ श्राघुनिक सभ्यता का भी समावेश था।? उमेश जी बंत्रई, बरेली आदि स्थानों पर आजीविका के लिये गए । वे. बरेली में वेस्ट इंडिया मैच फेक्टरी में लेबर आफिसर नियुक्त थे। हृंदयगति रुक जाने से २ जून, १९४७ फो उनकी मृत्यु हो गईं । ब्रज़भारती आचाय रामचंद्र शुक्ल ने मी इस रचना की नई सजधज! का उल्लेख किया है । उन्होंने लिखा है--'इधर की उमाशंकर वाजपेयी उमेश” जी की “ब्रजमारती? में ब्रजमाषा बिलकुल नई सजघज के साथ दिखाई पड़ी हैं |! ( हिंदी साहित्य का. इतिहास ) | इस पुस्तक के दो खंड हैं। प्रथम खंड में ही कवि की वे प्रयोगशील स्वनाए हैं जो त्रजमाषा फो तत्कालीन खड़ीबोली छायावादी काव्य के बराबर खड़ा करने का प्रयास करती हैं। इसमें ब्रजभाषा के स्वाभाविक रूप ओर ब्रजमारती का प्रकाशन. सें० १६६३ वि० में हुआ्आ। यह रचना . आधुनिक ब्रजभाषाकाव्य फी दृष्टि से एक अगला मील का पत्थर है ओर नवप्रयोगकाल फी प्रयोगदष्टि को साथक फरनेवाली सबसे महत्वपूर्ण कृति। 23333 3 मय न मा मन या मन 3+अंइुइाअत वन | 5 इस -जजसडप डी । हे शी | १ रु ; | ० ४४६ .... हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास गुणों की रक्षा करते हुए उसमें मावव्यंजना को बिलकुल नवीन धरातल पर उतारा गया है। 'कुछुमवती' रचना का एक अंश देखिए-- रजनीगंधा रोमरंध्र - में भर रहो, सुरभि सनी सत सत सुधि की बल लालसा। नलिनपात के श्रौस कनन को देखि के। जानें क्‍यों श्रांखिन तें आँसू ढरि रहे। आ्ोर इस छायावादी रंग के साथ ही उसमें 'प्रगमतिवादी” माग फो सुचित करनेवाली ऐसी रचनाएं भी हैं, जो किन्हीं अ्ंशों में निराला फी स्मृति करा देती हैं-- वह फोन निवल अति सिथिल गात . कपित पंग डगमग चलयो जात ! मुख पे बहु दुख की खची रेख, सतसत ज्ञुग की साँसनि अनेक ।--आदि भावों की दृष्टि से सद्य .नृतनता ओर प्रकृति की कोमल और भावमयी अ्रमिव्यंजना .. के लिये ब्रजमाषा का प्रयोग काव्य में एक नया ही रंग मर देता है। इसमें आतुफांत छोंदों घा प्रयोग भी फवि ने सफलता से किया है ।' : द्वितीय खंड की ए्वनाएं भी केवल छुंद की दृष्टि से पुरानी हैं, अन्यथा . उनमें भी विषय की नवीन दृष्टि विद्यमान है। अग्निश्राह्मयान!', “तर्जनीः और वीर वक्ष' जैसी कविताओं में ओज का अ्रपार पारावार लददराता है। वीर वक्त की _ ये पंक्तियाँ-- आचक ही खमकि खमंडल प्रफ॑पि जैहै, गमकि गनीमन के सीस गिरि जेहे गाज । . लुत्थन के जुत्यन हैं भूमि ढकि जेहे तिमि कलि के ललाट को तड़कि द्वूटि जैहै ताज] हो हे सब नष्ट भ्रष्ट काज देसद्रोहिन के, जुद्ध अस्त्र सस्त्र फों घरचोई रहि जैहे साज । चारों ओर प्रलय प्रचंड मचि जैहै एक; तेरी जदि स्थान ते कृपान कि जैहै आज | ब्रजभारती” की अनेक रचनाओं में लक्षणा और व्यंजना का अ्रपूर्व श्रघिकार देखा जाता है। वातावरण को चित्रित करने की भी उसमें सजग प्रतिमा है। ..._ ब्जभारती! आधुनिक ब्जकाव्य की एक मार्गदशिका और स्वथा सफल . रखना है, यह तथ्य है, अतिशयोक्ति नहीं । [ भाग १० द ] कह ... ब्रजसाषा क्ड्य हक ह हे ... ९७४७ पं० सेवकद्र त्रिपाठी ( जन्म सं+ १९६६ वि०--) पं० रामसेवक जी त्रिपाठी सेंवकेंद्र' का जन्म तालबेहटवाले श्री रामचरणु जी त्रिपाठी के यहाँ फातिक शुक्‍ज्ञा षष्ठी, सं० १६६६ वि० को भाँसी में हुश्रा । इनकी नियमित शिक्षा हाई स्कूल तक हुईं, तदनंतर स्वाध्याय से इन्होंने संस्कृत, फारसी, बँगला आदि भाषाश्रों में विशद योग्यता प्राप्त की सेवकेंद्र जी को बचपन से ही कविता करने में आनंद आता था। इनकी बिक. _ सर्वप्रथम रचना सन्‌ १९२१ में “विद्यार्थी! में प्रकाशित हुई। उसके अ्रनंतर माधुरी), 'सुधा', विद्याल भारत, 'सुकवि' ब्रजभारती” आदि पत्रिकाओं सें इनकी कविताएँ निकलती रहीं | सेवकेंद्र जी की अद्यावधि प्रकाशित रचनाओं में तजवतिका' आर 'छुत्रसाल्ल बावनी” ही प्रमुख हैं और ये दोनों ही ब्रजभाषरा की रचनाएं हैं| आज भी वे अ्रनवरत ब्रजभाषा-काव्य-साधना में रत हैं और वर्तमान काल में ब्रजमाषा के अग्रणी कवियों में प्रमुख हैं । ब्रजभाषा के प्रति उनका अमित अनुराग है। वे उसे 'लाखों फी अभिलाषाओं की भाषा! मानते हैं--- माय जसोमति-पालना-पालित, लुलन को मन राखन भाषा । ग्वालन गोठ की, गोपिन झट की, जाव की चोट को माखन भाषा । प्रेम पगी पुर की उर की; भरी लाखन ही अभिलाखन भाषा । माखन चाखन के मुख सौं निसरी, मिसरी मिली मारून भाषा | . शसेवकेंद्र! का रचनात्तेत्र विस्तृत है। मक्ति, शूगार और वीरर्णन से लेकर प्रकृति, राजनीति, मनोभाव, महापुरुषप्रशस्ति आदि विभिन्‍न विषयों पर उनका समान अधिकार है। मूलतः वें एक ओर मक्तित की मघुरिमा और दूवरी ओर वीर भाव के कवि हैं। ब्रजभूमि के प्रति उनकी भक्तित और बुदेलखंड में उनका निवास इसके कारण हैं| क्‍ द सेवकेंद्र फा काव्य प्राचीन कवियों के समान शब्दसोंकय और श्रथंगोरव लिए. हुए होता है। उनकी भाषा टकसाली ब्रजभाषा है, जिसमें जहाँ तहाँ बुंदेल्ंडी प्रयोग स्वाभाविकता लिए हुए हैं। उक्तिवेचित्ब और फलात्मकता उनके काव्य में सर्वत्र दर्शनीय है। भावगांभीय और कल्पनाचारता की दृष्टि उनकी मीरा! नामक रचना अद्वितीय है। श्रीकृष्ण के वियोग में मौरा की ग्रंतर्बाह्म दशा का वशुन कवि ने इस प्रकार किया हैं ः आईं बसंत बनी जग फों, जग तेँ पतम्तार सी भाँवरी इ वे गई। मंद न नेंकु प्रकास परयों, जऊ बूड़त चंद फी छाँवरी इवैं गई। धबावरी है? कहि लोग उठे, जऊ प्रेम की प्रामित माँवरी ह वै गईं | साँवरे के रँग में रंग फे, वह मीरई मंजुल साँवरी इजेगई। इंडप... .... हिंदी साहित्य का बृदत्‌ इतिहास क्‍ मीरा! प्रिय के विरद में आँखों से निरंतर श्रांसू इलकाती है, कारण स्पष्ट है कि. वह 'श्यामता” के श्राँकुर! को कुम्हलाने देना नहीं चाहती-- कढ़ि जाय न मुरति फंद फँसी, यहि ते पलकै' पला मींचति है । जति बूईे भरे उरवारिधि में, वह बारहिं बार उलीचति है । मन भोरों भुराय न और कहूँ, यहि ते मव भीर ते खींचति है। श्रैकुरा कुम्हलाय न स्यामता कौ, आँखियन फी धार सौं सींचति है । मीरा ने विष का प्याला पीना चाहा.। उस समय चारों ओर उल्लास का कैसा' दृश्य उपस्थित हुआ | मीरा की प्रसन्नता का तो ठिकाना ही नहीं था, 'प्ाले में उसके नेत्र नाँचते हुए, प्रतिशिबित हो रदे थे और उन नथनों में वह भी नाँच रहा था, जिसके लिये मौरा इस विष के प्याले का पान कर रही थी-- नाँचें लग्यो पीय प्यालों, कर में उमंग संग, .._ न्ाचन लग्यौं है. विषय श्रधर अँगारी आज । _ मनाँचन लगी है मौरा लगन मगन मन, ५ नाँचन लग्यो है मोद मन के मकारी आज । नाचन लगे हैं संभु विरद बखान करे, 2 . स्वागत कौ नाँचें सुर गशनबिहदारी आज। ....... लोच भरे लोचन हू नाँचे लगैं प्याले माँह्ि, हे लोचन में सोच मैरचौ नाँचे गिरधारी आज। झेवर्फेंद्र मनोमावों के गंभीर पारखी हैं। उनकी कल्पना कला को स्जीवता देती है। ध्यमुना और बेतवा? इन दोनों का वर्णन वे दोनों के महत्व के अलुसार करते हैं । . “ऋतुवर्शन! में भी उनकी लेखनी ने अनुपम रस बरसाया है और इसक्षेत्र में वे _ परंपरा से काफी आगे आए हैं। “अकृति/ को परी मानकर उसके भव्य रूप का _ वर्शन कवि ने निम्नलिखित छुंदर में किया है-- द 62 जाके अच्छु पच्छ स्वच्छु सो हैं पच्छ पच्छिन में, ; . बोलनि मधुर पिक ताननि भरी की है।. .... मुंदित महावर उषा को पदकंजन के का . चूनरीन ऐसी फाहू किन्‍नरी नरी की है। बहति दया की धार खोत सरितान छुद्।..... .. _'. आस चातकी की नीर प्यास सफरी कीहे। .... पुण्य परमेस्वर की प्रकृति परा की कृति, ही 2 जा टक2 .. आक्ृति अनूप यह प्रकृति परी की है । .. सेवकेंद्र जो के काव्य फा दूंसरा पक्ष ओजगुण संपन्न है जहाँ वीर रस का सागर [ भाग १०] .... ब्जभाषा काव्य... ४४९ ठाठें मारता है और सेवकेंद्र की माधुयंगुण थुक्त ब्रजमाषा बजनिर्घोष बन जाती है। (वीर छत्नप्ताल” के संबंध में तो उन्होंने विस्तार से काव्यरचना फी ही है उनके अतिरिक्त महाराजा वीरसिंह देव, मद्वाराजा पहाडुसिंह, रानी विजयकुविरि: वीरांगना भलकारी, महारानी लक्ष्मीबाई आदि रणवीरों एवं वीरांगनाओं को भी उन्होंने अमर कर दिया है। रानी विजयकुवारि महाराज छत्रसाल के पुत्र जगतराज को पत्नी थीं, उनका समरांगणु का एक चित्र प्रस्तुत है देखि विषय बूढ़ी कर बालिका फरालिका सी * भव बेरिन: के बूंद विष घृट८ घृंणिबि लगेव आज ग़जगामिनी बिराज मंजराज चल्नी पे दिग्गज चिंबाड़े सत्र-सीस फूटिबे लगे। चंद्रमुख भानु सो प्रचंड भयों दीपिमान बंगस के भाग्य के सितारे हूटिबं लगे। रानी जगतेस की रिसानी रणचंडिफा के... .. पानीदार हृगंन अंगारे छूटिबे लगे। पेवकेंद्र जी को वीर भाव विरासत में मिला है क्योंकि उनकी भूमि सदा से बीरों की भूमि रही है। “छुत्नताल” विषयक अनूठी रचनाएँ फर वे भूषण कवि की परंपरा में अपना अनुपम स्थान ग्रहण कर लेते हैं। किसी विषय पर किसी एक रससिद्ध कवि के कविता कर लेने पर किसी अन्य कवि को उस क्षेत्र में कलम ' * चल्लाना ओर उतनी ही सफल्लता प्राप्त करना कठिन होता है परंतु सेवकेंद्र जी ने निस्पदेह भूषशुप्रशस्ति में पर्याप्त सफलता प्राप्त की है। छुत्रसाल की कलम- .._ क्षपाण का यह लेख देखिए-- न .. ओधि ओंधि आधी खोपरीन फी बनाई दोत द . रुधिर सिपाही लाल लाल लखि लीन्हीं है। मद अरि गद मसि सोखनी सकास धारि .. चित्रित विचित्र पत्र भूमि चित चीन्‍न्हीं है। सेवफेद्र”' उठिके विचाल चलि चोखी भाँति . करनी अनोखी ये नवीनी एक कीन्‍न्ही है। छुतसाल बीरता की, घीरता गँमीरता की कलमकृपान ते सुकीर्ति लिख दौीन्‍हीं है। विवेच्य काल में ब्रजभाषा के अ्रन्य श्रनेक प्रसिद्ध कवि भी काव्यरचना फर हे थे, जिनका परिचय ऊपर नहीं दिया जा सका है। इनमें से कुछ तो ऐसे थे जो हिवेदीयुग में प्रसिद्ध हो चुके थे | वल्लमसखा ( सं० १६१७-१६ ६२ वि० ), १०-४७ छपूण ...._ हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास महाराजकुमार र॑गनारायण पाल 'रंगपाल' (सं० १६२९ १-१६३३ वि०), अयोध्या- नाथ अवधेश ( सं० १६२२-१६८२ ), लाला भगवानदीन दीन! (सं० १६२३- १९८७ ), ब्रजेश जी महापात्र ( जन्म सं० ६२८) सेठ कन्हैयालाल पोद्यार ( सं० १६२८-२०१३ ), ठा० बैजनाथसिंह किंकर (जन्म सं० १६२८), श्री बलराम- प्रसाद मिश्र द्विजेश ( जन्म सं० १९२६ ), सैयद मीर अली मोर! ( स॑० १६३०- १६६३ ), लाला फिशनलाल जी “कष्णुकवि! ( सं० १६२१-१६६० ) आदि महानुभाव बहुत पहले से ब्रजभाषा में स्वना फर रहे थे आर इस समय भी उनकी लेखनी बराबर चल रही थी। वे ल्वय॑ श्रन्य नवोदित कवियों के काव्यप्रेरक एवं बजभाष्य-काव्य-प्रचार-प्रसार के केंद्र थें। श्रन्य त्जकवि, जो इस थशुग में अ्रपने यौवन काल में थे, श्रथवा अब भी जमकर लिख रहे यें, उनमें श्री वचनेश मिश्र (सं० १६३२-२०१६ ) फा नाम महत्वपूर्ण है। इनका प्राचीन काव्यशास्त्र का विशद अध्ययन था, इसलिये इन्हें अभिनव पिंगलाचार्य' की उपाधि से विभूषित किया गया था। यद्यपि ये खड़ीबोली में भी लिखते थे तथापि इनकी कविकी तिं इनके उजमाषा फाव्य पर ही श्राधारित दे । ब्रजभाषा में राष्ट्रीय गोरव के विभिन्‍न पत्तों पर इन्होंने अपनी कलम उठाई थी तथा मक्तक आर प्रबंध दोनों ही प्रफार के काव्य लिखें। “शबरी' मिश्र जी का प्रसिद्ध प्रबंधकाव्य है, जो प्रसिद्ध राममक्त 'तारी शबरी के जीवन पर आधारित है। कवि ने इसके कथासूत्रों का संकलन . ब्राचीन खोतों से करते हुए. भी इसे नया रूप देने की चेष्टा की है। 'शबरी” की ब्जमाषा जीवंत परंतु परिष्कृत ब्रजभाषा है। 'शबरी” की मनोदशा का एक सुंदर चित्र प्रस्तुत है-- हे द हाइ हाइ आइके पराइ गयो प्यारा कहाँ, भागी तजि गेह नहिं देह की सुरति है। खोजे खिरक घरीक फल धारे नाईहिं कुंज - बन - कूलन - फछारनि अभ्रमति हे । बूक्े तस्वेलिन श्ररके मगवंदिव सो .. जित फौ डुलति पात, तितही कौं गति है। हेरति मुरारी, चौंकि हेरति खरकि सुनि .... छाँह सो सुमति करि रोवति हँसति हे । .._ शॉजा रामसिंह जी सीतामऊ नरेश ( जन्म सं० १९६६ ) भी इस युग में ..क्राव्यस्वना फर रहे थे। इनफी कविताएँ “मोहनविनोद! नामक संग्रह में . प्रकाशित ईं । हिंदुत्व के प्रसिद्ध लेखक रामदास गोौड भी ब्रजभाषां के सुकवि . थे। इनके दोद्दे बहुत मँजे हुए और भावपरक हैं । | ह ... शामाधीन ( जन्म सं० १६७१ वि० ) ने श्रपनी १७ वर्ष की आयु में ही [ सांग १०] ब्रजमाषा काव्य... . डर 'सुदरकांड” की कथा कवित्त सबैयों में लिख डाली थी। अपनी प्रतिभा के बल पर ये रीवाँ के राजफवि बने । श्रोरछा के राजा ने इन्हें 'अन्योक्त याचायंं की उपाधि दी थी । इनके प्रकाशित ग्रंथों को संख्या आठ है। इनकी कविता में माधुय ओर चमत्कार दोनों ही हैं। पुरुषोत्तमदास सियाँ? ( जन्म सं० १९४२ ) का जन्म मथुरा में हुआ था। प्राचीन ब्रजकाव्य फी इनको बडी श्रच्छा परख थी आर सहसों छुंद कंठस्थ थे । उत्तम” उपनाम से ये स्वयं भी बड़ी उत्तम रचना करते थे। डा० रामप्रसाद त्रिपाठी (जन्म सं० १६९४६ वि० ) का जन्म मुजफ्फरनगर में हुआ था। ये अनेक भाषाओ्रों के विद्वान्‌ हैं। व्रजभाषा में ये « बडी सरस काव्यरचना करते रहे हैं। श्यामसेबक ( जन्म सं० १६४८ ) मऊगंज (रीवाँ ) के निवासी हैं। आरंम से ही ये ब्रजमाषा में पद्चरचना करते थे। “प्रेम फोजदारी', ८ज्ञानमंजरी?, 'कीतिमुक्तावली', ध्यहस्थोपदेश”, ८प्रेम- प्रवाह” आदि इनके प्रसिद्ध ग्रथ हैं। इनकी भाषा बोलचाल के बहुत निकट है। ब्रडनंदन जी 'फविरत्न! ( जन्म सं० १९४७६ ) रायबरेली जिल्ला के अंतर्गत भावामऊ के निवासी हैं । बीस वर्ष की आ्रायु से ही ये ब्रजभाषा में काव्यरचना फरने लगे थे। सहज काव्यगुण के कारण उनके अनेक छुंद लोकप्रिय हैं। उदाहरण प्रस्तुत है -- एक मनमोहन मोहि के कूबरी पे, निज प्रेमिन सों मुख मोरिए ना । जेहि प्रेमपियूष पियाएडु ताहि, बियोग के बारिधि बोरिए ना। नित नेह कौ नातों बढ़ाइ कियों तर, सो तिनका इव तोरिपू ना । ब्रजजीवन फेरि बसों त्रज में, बिसवास में यों बिस घोरिए ना पं० काशीपति त्रिपाठी अ्मीहरिं ( जन्म सं० १३५० ) का जन्म काशी में हुआ | काशी विद्यापीठ में पहले ये अध्यापक ओर बाद में “रजिस्ट्रार! बने । ब्रजभाषा में कवित्त सवैया लिखने में इनकी विशेष रुचि रही। इनका अ्रधिकांश काव्य भक्ति ओर रीतिकाव्य की परंपरा में लिखा गया है। नवोबर्श 'फलक ( जन्म सं० १९७० ) दतिया के निवासी ओर ब्रज एवं ब्रजेश्वरी के बड़े भक्त थे | इनके फाव्य में इनकी सरस हार्दिकता सर्वत्र परिलक्षित है। इनकी प्रसिद्ध रचना 'फ्लक सतसई” है, जिसमें ७०० दोहे हैं। रामगोपात्न जी 'गे।पाल' श्री वल्त म- सखा जी के पुत्र थे। अपने पिता की भाँति ये भी कुशल चित्रकार ओर संगीतज्ञ थे। इनकी ब्रजभाषा रचनाएँ पुराने ढंग फो हैं। बाबू अंबिकाप्रसाद वर्मा दिव्य! की रचना (दिव्य दोहावली' सं० १९३३ वि*» में प्रकाशित हुई है। इनके दोहे ब्रजभाषा के पुराने कवियों से ठक्‍्कर लेते हें। इनकी रचनाएँ सरस ओर कलापूरण हैं। इनके दो दोदे प्रस्तुत हँ-- डरे .. हिंदी साहित्य का इुददत्‌ इतिहास लखि बिरहिन के प्रान सखि, मीचहु नाहिं दिखात। फिरि फिरि आवत लेन, मे मुओ समुझि किरि जात ॥ निंत प्रति पावस ही रहत, बरसत आठों याम। ये नेना घनस्यथाम बिन आप भए घन स्यास |। रामेश्वर करुण! ( जन्म सं० १९५८ ) का जन्म कंदमपुरा, इटावा में हुआ था। गाँव के जमींदार के आचरण से इनके हृदय में बचपन से ही विद्रोह भड़क उठा था। इनके काव्य में भी एक तीव्र आक्रोश है जो कल्पित न होकर व्यक्ति- जीवन के अ्रनुभव से उत्पन्न हुआ है। इनकी रचना 'करुणु सतसई” ब्रजभाषा की एक अनुपम रचना है। सन्‌ १६३० में इस कृति का प्रकाशन हुआ । समाज के * प्रति करुणा की भावना इसमें स्थान स्थान पर है। कवि अपनी कति के परिचय में फह्दता है -- सुपद सुगतिन दोहरे, नहिं नावक के तीर। करन कराहइन के फढ़े, कछु संताप गंभीर । कवि ने युग फी समस्याओं के मूल में रोटी फो ही महत्व दिया है-- सों बातन की बात इक, बादि कर फो तूल । ह्वे इक रोटी प्रस्न ही, सब प्रस्यनन फो मूल । _ करण ने व्यंग फा सहारा लेकर समाज के अपराधियों फो बिद्ध मी खूब किया है। सतसई की भाषा बोलचाल के निकट है, इसलिये उसमें व्याकरण की शुद्धता ओर _ भाषापरिसाजन दूँढ़ना श्रपेक्षित नहीं है। यह भाषा अपने कथ्य को कितनी शक्त्ति से अभिव्यक्त करती है, यही उसकी योग्यता है। .._ शामाज्ञा हिवेदी 'समीर' ( जन्म सं० १६५९ बि० ) का जन्म अम लिया; जिला फेजाबाद, में हुआ । ये अ्ंग्र जी श्रौर हिंदी दोनों भाषाओं के विद्वान्‌ हैं । . ब्रणमाषा के ये श्रेष्ठ कवि हैं। 'सोरभ' नास का इनका ग्रंथ सन्‌ १९२५ में लिखा गया। यह अंथ प्रयोग की दृष्टि से अभिनव है। मैनपुरी के उमरावसिंह पांडे ( जन्म सं० १९४९ ) भी ब्रजभाषा में उत्तम रचना करते रहे हैं। रीवाँ के राजकवि अंबिकाप्रसाद सट॒ट अंबिकेश' ( जन्म सं० १६६० ) कविमातंड की उपाधि से -विभूषित हैं। इनका “ज्योति! नाम का एक फवितासंग्रह प्रकाशित हो चुका है। _ रचनाएँ अच्छे स्तर की है। पं० रूपनारायणं पांडेय ( जन्म सं० १९६०) भाघुरी' के संपादक के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। ब्जमभाषा में इन्होंने 'शिवशतफ और *श्रीकृषष्णमहिमा' नामक अथ लिखे हैं। इन्होंने 'गीतगोविंद” की टीका भी हे. क्‍ फी देै। जगन सिंह सेंगर ( जन्म सं० १६६० ) का जन्म राजनगर, जिला | भोग १० ] ४ करे ५.लक ब्रजमभाषा कार्य हा द ४भू रे अलीगढ़ में हुआ । मुरली' ओर “मराँफी! इनकी दो प्रसिद्ध रचनाएँ पहले प्रकाशित हुई थीं । इधर इन्होंने भकेसान सतसई” मी प्रकाशित कराई है। रामचंद्र शुक्ल सरस' ( जन्म ० १६६० ) 'रसाल' जी के लघु प्राता हैं। इन्होंने अनेक फुट्कर छुंद श्र एक खंडकाव्य 'अभिमन्युवध' ब्रजमाषा में लिखा है। चौधरी लच्ष्मोन्राययण सिंह 'ईश' काशी के रहनेवाले थे। नागरोप्रचारिणी समा; काशी ने इनका ध्लंफादहन'! नाम का एक काव्य प्रकाशित किया है । राजेशदयालु श्रीवास्तव की ब्रजभाषा की रचनाएँ बड़ी सुंदर ओर सरस हैं। श्याम रसमयी?, 'राजेश सतसई?”, भोरांगचरित्रः तथा राजेश दोहावली' इनको प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। सूरजशरणु शमो (जन्म सं० १६६१ ) कानपुर निवासी गणशुशप्रसाद जी के सुपुत्र इनकी दो रचनाएं 'पीय पाँय” तथा 'रूमाल शतक बहुत सुंदर बन पड़ी हैं। शर्मा जी की मृत्यु चौंबीस वष की - अल्पायु में ही हो गईं। गोरखपुर निवासी रामतलाज़ श्रीवास्तव सुकविमंडल के प्रसिद्ध कवि हैँ | ब्रजमाषा में इनकी 'राधारमनविनोद” नामक एक सुद॒र रचना प्रकाशित है। रामलला ( जन्म सं० १६६४ ) मथुरा निवासी हैं। वें ब्रजसंस्कृति में पले ओर पे हैं। इनकी रचनाएँ उच्च फोटि की होती हैं। गोविंद चतुर्वेदी प्रसिद्ध कवि नवनीत चतुबँदो के घुपुत्र हैं। ब्रजमाष्रा की परंपरा- _ गत रचनाओं में ये घिद्धइस्त हैं। श्यामनारायणु मिश्र श्याम! तथा प्रशयेश शुक्ल कानपुर निवास्ती ओर ब्रजमाषा के सुकवि हैं। उजियारंज्ञांल ज्ञत्नितिश' इयावा जिले के भरथना गाँव के निवासी हैं, इन्होंने श्रनेक नवीन विषयों पर भी ब्रजमाषा में अच्छी रचनाएं, की हैं। दशानन दिग्विजय इनका एक खंडकाव्य है। गलोच्य फाल के और भी अनेक ब्रजमाषा के कवि हैं, जिनका उल्लेख ... यहाँ विस्तारभय के कारण नहीं किया जा सफा हैँ। वस्तुत। इस काल में . ब्रजमाषा-काव्य-पर परा मंद तो पढ़ी परंतु उसका आंतरिक वेग अवश्य बना रहा है ओर यह परंपरा आज भी जीवित है, यह फम सौभाग्य की बात नहीं है। नवम अध्याय बालकांव्य भारतवर्ष में बालसाहित्य का प्रारंम और विकास विशेषतः आधुनिक सभ्यता की देन है। शिक्वाप्रसार के साथ साथ पाउ्य पुस्तकों के लिये शिशुमनोविज्ञान के अनुरूप बालकाव्यादि की रचना की आवश्यकता का बालसाहित्यकार निरंतर अ्रनुभव फरते रहे हैं। इसके पूर्व बालसाहित्य का कोई ऋलग साहित्यिक रूप श्रथवा रचनाशैली नहीं मिलती, व॑से, प्राचीन काल में “हितोपदेश”, “कथा- _ सरित्सागरः आदि की रचना बच्चों को शिक्षा देने के निमित्त ही हुई थी । ऐसी रचनाएं अन्य भारतीय भाषाओं में भी मिलती हैं। दूसरी फोटि का बाल- काव्य प्राचीन काव्यों में उन विशेष स्थलों पर मिलता है जहाँ पर नायकनायि- फाओ्रों के शिशुजीवन के चित्र आए हैं अथवा वात्सल्य भाव का उब्लेख हुआ है। शिशुओं की मानस्कि गतिविधियों ओर चेष्टाओ्रों का जितना स्वस्थ चित्रण, कृष्ण के शिशुजीवन फो आधार बनाकर; सूरदास ने किया है, बेसा वात्सव्यपूर्ण काव्य विश्वसाहित्य में विरल दै। कितु, सूर के पद बालूफों के लिये नहीं, भक्तों के लिये रचित हैं। वस्तुतः बाल्साहित्य का शिक्षाशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण आधुनिक युग की देन है। पाश्चात्य संपक्क के फलस्वरूप बीसवीं शताब्दी में ज्यों ज्यों भारतीय चेतना विकसित होती गई स्यों त्यों बालकाव्य की उन्नीसब्रीं शताब्दी में प्रारंभ की गई पृष्ठभूमि का भी विकास होता गया। द बालसाहित्य का लक्ष्य बच्चों को सहज ढंग से आनंद देना है न कि उन्हे मूल रूप से शिक्षा देना, सुधारना या शांत रखना । वस्तुतः: बालसाहित्य का लक्ष्य बच्चों के मार्नंशिक स्तर तक उतरकर उन्हें रोचक ढंग से नई घानफारियाँ देना है। यदि बच्चें में बल्याणभावता ओर सोंद्यपरख की दृष्टि ( ऐस्थेटिक सेंस ) गत करनी हो तो उसकी समस्त आकांक्षाओं ओर जिज्ञासाओं फा, स्कूली शिक्षा के साथ ही, विफास आवश्यक है। शिशु मन की चंचल बजिज्ञासाश्रों फो नवीन अनुभवों ओर शिवसंकल्पों से प्रेरित करने का मुख्य साधन बाल- साहित्य ही है । फविता स्मृति में शीघ्र सरक्षित हो जाती है--बालकों की स्मरश शक्ति तीव्र होती है, फलत: वे फविताओं फो शीघ्र ही कंठस्थ कर लेते हूँ । यही कारण है कि हिंदी में बालसाहित्य का प्रारंभ प्रायः कविताओं द्वारा हुआ। ४प्र्ष क्‍ .... हिंदी साहित्य का बहत्‌ इत्तिहास उन्नीसवीं शताब्दी में ईसाई मिशनरियों ने धरमंप्रचाराथ अश्रजेक बालोपयोगी रचनाएँ प्रकाशित कराई थीं श्लौर शिवप्रसाद 'सितारेहिंद' प्रभ्ति लेखकों ने पाख्य पुस्तकों के माध्यम से बालसाहित्य को गति दी थी, किंतु ये सभी प्रयत्न गद्य में हुए । भारतेंदु हरिश्चंद्र ने बालकाव्य की रचना की ओर यत्किचित्‌ ध्यान ग्रवश्य दिया, फिंठतु कुल मिलाकर इस युग के बालसाहित्य में बालकों की मनोभावनाश्रों को परिष्कृत करने ओर उन्हे” सामाजिक परिवतरनों से परिचित कराने पर हो »धिफ बल रहा जिससे बाल पाठकों को कल्पनाएं कुंठित होने से नहीं बच सकीं । द्विवेदी युग में साहित्य की श्रन्य विधाश्ों के साथ ही बालफाव्य की स्वस्थ परंपरा भी प्रतिष्ठित हुई श्रोर अन्य विषयों की पत्रपत्रिकाओं की माँति बालकों से संबद्ध पत्रिफाओों का प्रकाशन भी आरंभ हुआ। परिणामस्वरूप _ बालफाव्य फी रचना की ओर साहित्यकार श्रधिफाधिक प्रेरित हुए । 'बालप्रमाकरः ( १६०६ ), 'बालहितैषी”, विद्यार्थी ( १६१४ ), 'बालमनोर॑ंजन”! ( १९१४) . शिक्षु! (१६१६ ) आदि पत्रिकाओं का प्रकाशन इस युग फी उपलब्धि है | इनमें बालषों में भक्ति, सदाचार के आदर्श औ्रोर राष्ट्रीया फी भावना जाशत फरने .. के लिये अनेक कविताएं प्रकाशित हो गई। इनमें किशोरीलाल गोस्वामी गधर पाठक, भगवानदीन; इरिश्रोध, रामनरेश त्रिपाठी, सोहनलाल द्विवेदी, . श्रीनाथ-सिह, गिरिजादत श्वल 'गिरीश” आदि शअ्रनेक प्रतिष्ठित साहित्यकारों ... की बालफविताएँ प्रकाशित हुई जिनमें से अधिकांश ब्रजभाषा सें रचित हैं। ये कविताएँ अ्रधिफतर बालकाव्य के लक्ष्य से दर लगती हैं, तथापि शिशुसुलभ . भावनाओं को तदनुरूप शेंली में प्रसयुत फरने में श्रीधर पाठक फो निश्चय ही . सफलता प्राप्त हुईं है। पाश्चात्य साहित्य में प्रचलित स्वच्छंदतावादी बालकाव्य प्रवृत्तियोँ को हिंदी में प्रारंभ करने का श्रेय उन्हीं फो देना होगा । _ बालकाव्य का' उचित विश्लेषण पत्रपत्रिकाश्रों के अ्रध्ययन के श्राधार पर ही संभव है क्योंकि अधिकांश कवि उन्हीं के माध्यम से प्रकाश में आए. हैं। अतः प्रमुख बालोपयोगी पत्रिकाओं पर विचार करना उपयुक्त हो होगा।. १९१६ से १६३६-३७ ६० ठक प्रकाशित होनेवाली बालपत्रिका शिशु में .. प्राथना, पुजारी; आदश, चिड़िया, सवेरा, वर्षाऋतु, इ'द्रधनुष, स्वदेशसेवा श्रादि _ शीर्षकों के अंतर्गत प्रायः सभी मुख्य कवियाँ फी कविताएँ प्रकाशित हुईं । इसके . संपादक सुदर्शनाचाय में बब्चों फी रुचि के अ्रनरूप सहज प्रेरणाप्रद कविताश्रों को _ . पहचानने की मनोवेज्ञानिक क्षमता थी। १६१७ ई० से अ्रब तक प्रकाशित ._. होनेवाली 'बालसखा' भी इछी वग की पत्रिका है जिसे बदरीनाथ भटठ, छोहनलाल ..._ द्विवेदी; देवीदच शुक्ल, लक्लीप्रशाद पांडेय आदि संपादित करते रहे हैं। .. बालसखखाः के उ , शेय थें--बे' को नाना प्रफार का ज्ञान प्रदान करना; उनमें [साग १०]... बाल्काब्य... ्छ अध्ययन की अभिरचि जगाना, उनके मन में उच्च भावों को भरना, दुर्गुणों फो निकालना तथा उनका मनेरंजन करना | पूर्वोल्तिखित बालकविताकारों के अतिरिक्त 'बालसखा' में मंथिलीशरण गुप्त, बल्भद्रप्रसाद गुप्त रसिकः, पदुमलाल पुन्तालाल बख्शी, देवीप्रसाद गुप्त 'कुसमाकर', व्यथित हृदय; देवीदप्त शुक्ल, लक्ष्मीनिधि चत॒र्बदो, शंभदयाल सक्सेना, सुदशन, भगवती प्रसाद वाजपेयी आदि अनेक कवियों की विविध विषयक रचनाएं, प्रकाशित हुईं है। इनमें अनेक सरस आख्यानक बालकफविताएं भी प्रकाशित हुईं । कालक्रम से प्रस्तुत युग की एक अन्य उल्लेखनीय बालपत्रिका खिलोना' ( १९९७ ) है जिसमें वयस्कता से बचकर बालवों के उपयोग के निमित्त यथा नाम तथा गुश” कविताएं प्रकाशित होती थीं । जिन कवियों फी चर्चा पहले की गई है उनमें से अधिकांश ने 'बिलोना? को अपनी कविताओं के प्रकाशन का माध्यम बनाया। इतके लिये कविताएँ लिखनेवाले अन्य कवियों में श्यामनारायण पांडेय उल्लेखनीय हैं। इसमें बालकों के व्यक्तित्व फी विकसित करनेवाले विभिन्‍न काव्यस्वरों को स्थान प्राप्त हुथ्रा है। :_प्रस्वुत युग फी चौथी प्रमुख पत्रिका बाल्कां (१६२७ ) है जिसका संपादन रामवृत्ष बेनी पुरी ओर रामलोचनशरण ने किया । इस पत्रिका ने बच्चों के लिये इ'ग्लेंड ओर अमेरिका से प्रकाशित बुक ऑफ नॉलेज' फो आधार बनाऋर . उपयोगी काव्यसामग्री का प्रकाशन किया । बंगल्ला, मराठी, उदू' ओर अंग्रेजी की प्रमुख बालोपयोगी पत्रिकाओं से प्रेरणा लेने के कारण भी इस पत्रिका की में समित्रानंदन पंत, गोपालसिंह नेपाली, आरसीप्रसाद सिह, गुरुभक्त सिंह “भक्त? राजेंद्रसिंह गोडढ़, हंसकुमार तिवारी श्रादि अ्रनेक प्रतिष्ठित साहित्यह्नारों की कविताएँ प्रकाशित हुई' । इसकी कविताएं विषयवेविध्य कौ दृष्टि से भो ध्यान आकृष्ट करती हैं । कुछ शीषक हँ- आम्रवृक्ष ऑर लता, आलस्य, दीपावली की हड्टी जगदीशविवय, बालपन, चेतावनी, इच्छा, घंटा, चंदा मामा; मेरी फुलवारी एक था अधघेला; होली का पव, अनुरोध, अभिमान, अद्सुत घोड़ा, शरद ऋतु, गकतैेवा, हमारी घड़ी, परछाई आदि। निश्चय ही बालक! का प्रकाशन हिंदी-बाल-साहित्य को विकसित करने की दिशा में उच्च. भविना से प्रेरित प्रयत्न था। भाषा, भाव, वाच्यार्थ, व्यंग्याथ आदि सभी दृष्टियों से इसे एक नवीन उपलब्धि कह्य जा सकता है। १६३१ ई० में रामनरेश त्रिपाठी के संचालन में धानर' का प्रकाशन प्रारंभ हुआ, जिसके संपादक सुरेशसिह थे। इसमें लोक- . कथाओं, पौराणिक तथा ऐतिहासिक कहानियों ओर परीकथाओं को आधार बनाकर _ रोचक, विनोदपूर्ण ओर जिशज्ञासावर्धक कविताएं प्रकाशित की गई' । इसमें पहली १०-४८८ शभूछ... .. हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास . बार बालकों के खेलगीतों का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। सुरेशसिह के संपादन में प्रकाशित होनेवाली पत्रिका 'कुमार! ( १६३२ ) की विशेषताएं हैँ-- रंगीन मुद्रण, व्यंग्य-चित्र-प्रकाशन तथा सामग्रीसंचयन की नवीनता । यह बच्चों ओर किशोरों दोनों के मानसिक स्तर फो ध्यान में रखकर प्रकाशित की जाती थी। “विद्यार्थी! शीर्षक किशोरोपयोगी पत्रिका में भी प्रतिष्ठित कवियों के साथ अ्रनेक नवीन कवियों की बालोपयोगी कविताएं प्रकाशित हुईं । इसमें अधिकतर कविता के माध्यम से सामाजिक जीवन का शिक्षात्मफ परिदर्शन कराया गया है। बालविनोद' ( १६३४ ) भी इस काल की प्रप्रुख पत्रिका है। इसकी कविताएं" कसरत और खेलकूद से लेकर बेजश्ञानिफ विचित्रता, मनोविज्ञान श्रादि से संबंधित हैं । इसमें संदेह नहीं हि हिंदी-बाल-फाव्य फा विकास विशेषतः पत्रपत्रिकाओं के माध्यम से हुआ | प्रारंभ में जीवन के विविध अ्रंगों, प्रकृति की निर्मल छुटा, ऋतुश्नों के "परिवर्तन, राष्ट्रीयता, वीरगाथाश्रों आदि फो काव्यविषय बनाकर कविताए की गई । यदि ये पत्रपत्रिकाए' प्रकाशित न होतीं तो हिंदी-बाल-काव्य फी गति अवरुद्ध रहती, उसकी पयस्विनी शुष्क हो जाती और वह जीवन को प्रेरित करने के 'गरिमामय दायित्व से च्युत हो जाती । _ । विवेच्य युग में बालकाव्य के प्रमुख कवियों की रचनात्मक उपलब्धियों का सर्वेक्षण भी आ्रावश्यक है। इनमें हरिश्लोध का विशिष्ट स्थान है। उन्होंने अपनी कविताओं को एक ओर उपदेशात्मक रखा और दूसरी ओर स्थिति के वर्णन मात्र से संतोष कर लिया है। उनकी कविताओं में बौद्धिकता के स्थान पर संवेदनशीलता है श्रोर भाषा पर भी उनका पूर्ण अधिफार लक्षित होता है। . उन्होंने बालविकास (१६२५ ), बालविभव ( १६२५ ), ग्रामगीत ( १६२८ ), फूल पत्ते, खेल तमाशा, चंद खिलोना; दूध बताशा आदि बालोपयोगी ऋृतियों की रचना की । उनकी कविताश्रों में विधयविविधता के साथ ही सादगी है। एक उदाहरण द्रष्व्य है | बही नदियों में है रसधार, रेत करता है सोना दान। उसे मोती देती है सीप) स्नवाला है हिंदुस्तान | क्यों नहीं पूजे पाँव समुद्र, . क्यों नहीं पूजे उसे बहान। सभी देशों का है सिरमोर, हद . हमारा न्‍ प्यारा द हिंदुस्तान अं [ भाग १० ] धालकाबय........ ४१९ हरिश्रोध के बालकाव्य बालविभव” की भूमिका लिखते हुए श्री शिवनंदन - सहाय ने कहा था, 'बालविमव” बालकों फः ही धन नहीं है, इसे प्रोढ़ों का भी धन कह सकते हैं | इसके छुंद देखने में छोटे हैं पर गुण में बड़े हैं ।”' हरिश्रोष जी के बालकाव्य में विषयवेचित्र्य है--अनुकूल उपमाओं द्वारा उन्होंने विषयबस्तु में सहज छुटा की श्रभिवृद्धि की है। उन्होंने प्रक्ति और जगत्‌ संबंधी सूक्ष्म अ्रनु- भूतियों को बालकों के मानसिक स्तर तक उतरकर चित्रित किया है | प्रस्तुत युग के फिसी भी अन्य प्रतिष्ठित कवि ने इस ओर इतना ध्यान नहीं दिया है--प्रायः अप्रब्यात और सीमित दायरे के कवि ही बालकाब्य फी रचना किया फरते थे। हरिश्रोध ने बालकाव्य को उच्च आसन पर आसीन करते हुए श्रेष्ठ, महत्वपूर्ण कवियों को इस क्षेत्र में काय करने के लिये मार्गदर्शन दिया। उनकी अपनी उपलब्धियाँ भी अ्रतुल्य हैं--वे बालमनोविज्ञान के पारखी हैं श्रोर भाषा पर भी उनका सहज अधिफार है। बालकाव्यकार की दृष्टि से उन्हें परंपरा से फोई विशेष संबल और पृष्ठभूमि नहीं मिली थी, इसलिये उन्हें नई परंपरा का सूत्रपात- कर्ता मानना होगा। उनकी कफाव्यरचना के पीछे उदार शिक्षक की दृष्टि है--- उन्होंने उपदेशात्मकता से बचकर बालोचित मनोविज्ञान और भावुकता को महत्व दिया हट | इस वर्ग की काव्यधारा के दुसरे महत्वपूर्ण कवि रामनरंश त्रिपाठी हैं। बालमनोविज्ञान फो ध्यान में रखते हुए उन्होंने प्रचुर मात्रा में श्रष्द बालकतिताएँ लिखीं | 'बानर' पत्रिका के माध्यम से उन्होंने इस ज्षेत्र में अपनो उमंग आर उत्साह का श्रच्छा परिचय दिया। अन्य पत्रपत्रिकाओों में मी उनकी अनेक बालकविताएँ प्रकाशित हुई' | उनके निम्नलिखित बाल-फविता-पंग्रह उपलब्ध _ होते हैं--हंसू की हिम्मत, कविताविनोद ( दो खंड ), बानर संगीत, मोहनमाला आदि | कथात्मक फविताओं ओर खेलगीतों के श्रतिरिकत उन्होंने दृश्यचित्रश अ्रादि विविध पद्मशैलियों में फाव्यरचना फी है। उन्होंने हरिश्रोध द्वारा प्रवर्तित बाल-काव्य-परंपरा का भली भाँति विफास किया | हरिश्रीध की कविताश्रों में जिन संभावनाओं का संकेत है, त्रिपाठी जी ने उन्हें समुचित श्रमिव्यक्ति दी है। वे बालकों के लिये परिपूर्ण धरातल उपस्थित करनेवाले कवि थे। विषयनिर्वांचन श्रौर भावों की दृष्टि से ही नहीं, उन्होंने छंदों को दृष्टि से भी विविधता का परिचय दिया। जैसे--दो शब्दों के छुंद, तीन शब्दों के छंद आदि । बालक बालिकाश्रों के समुइगीत ( ऐक्शन सांग ) लिखने में उनकी तुलना अ्रन्य किसी कवि से नहीं _* देखिए, 'बालविभव', भूमिका, शिवनंदन सहाय, पृष्ठ रे | आफ >> 3७.३ ७ 3-० 2 अर पाप जह रय३ लक हज हद समराशभाउ्तानक कल शत मदर शव संग सेल उपवास ेंबपका बरस पलक ललउ जल सकल लक ब आज से डे >मकज:54 हक की जक हु 2908 तप ५.2 डर 3: दो पज 3 चदे :77 27:77 बट ४९: इद ८ अत पपपा अप 5 खिल 25% के अप कल 4 रत मद कप 8 कम मा मी आम 3 828६3302222233209:30033522:24.:-3:0: 29360: 223 पहचफ्दर हा . एहै७.. ... ट्विंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास की जा सकती | बच्चों के लिये शद्ध हृस्यरप्तात्मक कविताएँ लिखने की पहल भी उन्होंने ही की । पद्म में कहानी कहने की सहज ओर रोचक शेली के विकास का श्रय भी उन्हीं फो देना होगा। चरित्रनिर्माण संबंधी कविताओं फो रचना के साथ ही उन्होंने देश के गॉरव का दिग्दशन कराते हुए बालकों में राष्ट्रीय चेतना को. जाग्रत करने का सफल प्रयत्न किया । प्रकृतिशोमा को लेकर भी उन्होंने अ्रनेक श्रेष्ठ कविताओं की रचना की | उदाहरण के लिये फूलों के संबंध में लिखित कुछ काव्यपंक्तियाँ देखिए | आश्रो बादल इन फूर्लों के सुंदर मुंह घुलवा दो; ग्राग्यो पत्रन इन्हे शले में, थोड़ी देर झुल्ला दो। किरणों तुम गुदगुदी लगाओ, भोरे लोरी गाश्रो । नाचो और तितलियाँ आओ्रो इनपर बलि बक्षि जाश्री ॥ क्‍ तिपाठी जी के उपरांत बालकाव्य के क्षेत्र में श्री सोहनल्ाल द्विवेदी का .. ताम उल्लेखनीय है। देशसेवा ओर राष्ट्रयेम की भावना से ओतप्रीत कविताएं .. लिखने के कारण वे विशेष लोकप्रिय हुए । उनकी कविताश्रों में श्रोजस्व्रिता है । वे (शिशु! तथा ध्यालसखा' के संपादक भी रह खुके हैं। बच्चों के लिये उन्होंने जो काव्यपुस्तकें लिखीं उनमें 'शिशुमारती', ध्बालभारती', “बाँसुरी', “बिगुल', भोदक! ( १६८६ वि० 9 “दूध बताशा', हँतो हँताओ' श्रादि विशेष प्रसिद्ध हैं । एक श्रोर उन्होंने गांधी, नेहरू आदि महापुरुषों के व्यक्तित्व का काव्याकश्न किया, दूसरी श्रोर खादी, चरखा, अहिंसा आदि के विषय में बालकविताएंँ लिखीं और तीसरी ओर विविध पशु पत्चियों तथा जोरों के संबंध में बच्चों फी वार्मावक संवेदना को जगाने का सफल प्रयत्न किया । बालकों फी मनोदशा के अनुरूप उन्होंने कुछ नीतिवादी कविताओं फी भी रचना फी है। ऋतसोंदर्य . और ऋतुखेलों के संबंध में भी उन्होंने अ्रनेक फविताएँ लिखी हैं। बच्चों के मानसिक स्तर के उपयुक्त सहज सरल भाषा के प्रयोग में भी वे सिद्धदस्त हैं। _ उद्दाहरणार्थ आया बसंत? शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियाँ देखिए : का ड्डः [संग १०]... _बात्वकोव्य द द ७६३ आाय। बसंत शोभा अनंत द छाई पग पग न्यःरी न्यारी सरसों फूली बोरे झूलीं द कोयल बोली प्यारी प्यारी बह रही हवा क्या खूब अद्दा लहराती है क्यारी क्‍्यारी खेले कूदे आँखें मूँदे रे आओ्रो हिलमिल पारी पारी ।* का ... इस फाल के एक श्रन्य बाल-कविता-लेखक ५विद्याभूषण विश्लुः भूगोल के विद्वान थे, फिर भी उन्होंने प्रभूत मात्रा में बालकाव्य का सूजन किषा है। बच्चों की अनुकरण प्रवृत्ति को लेकर उन्होंने अनेक उत्कृष्ट बालगीतों की रचता की जिनके संबंध में पं० श्रीनारायण चतुवंदी ने कह्य था कि हिंदी में विभु जी के _ गीत ही ऐसे हैं जो अं: जी के बालगीतों के समज्ष रखे जा सकते हैं। छोटे छोटे . बच्चों के लिये उन्होंने सग्ल तुकबंदियाँ की जिनमें शब्द्ंगीत का सहारा लिया गया है। उन्होंने नर्सरी के विद्याथियों के लिये भी अनेक संक्षित्त तथा बालो- पयोगी कविताएँ लिखीं। “चार साथी, “पंख शंख, 'लाल बुभक्कड़', बबुआ', .. धशोबरगणेश!, 'शेखचित्ली', 'खलो भेया), 'लाल खिलोना: “फूलबंगियाः में” आदि उनकी प्रसिद्ध कवितापुस्तकें हैं। अपने गीतों में उन्होंने इस बात का विशेष ध्यान रखा है कि बालक किसी भी स्थिति को अनुकृति द्वारा सवथा उसी... रूप में व्यक्त कर देते हैं। फलस्वरूप बच्चों की अनुकरण वृत्ति को लेकर भी उन्होंने अनेक गांतों की रचना फी है। उनके समकालीन बालह्नकाव्यकारों में स्वर्ण सहोदर भी उल्लेखनीय हैं। उनकी कविताएँ बालकों की सभी प्रमुख | पत्रिफाश्रों में छुल्लस ््‌ | उनको काव्यपुस्तकों में धगन संगन, भगिनती के गीत, धलाल फाग', “ललकार”ः;, बाल खिलौना), “वीर बाह्चक', ध्यादल', वीर इफोकतराय', 'वीर शतमन्यु', “बच्चों के गीतः (चार भाग ) आदि प्रमुख हैं । उन्होंने बच्चों के लिये खेलगीतों की रचना के साथ ही उनकी प्रत्येक्ष मनोदत्ति ! मोदक, पृष्ठ १। क्‍ का .. हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिंद्ास का प्रकृति से तारतम्य स्थापित किया है। बच्चों के नट्खट्पन को मौ उन्होंने सहज भाव से ऋंकित किया है। “'बीर शतमन्यु' में उन्होंने शतमन्य की कथा का वीररससात्मक शेली में सरल, रोचक ओर प्रभावी ढंग से वन किया है। यद्यपि उनके गीत बाहर प को स!माजिक परिस्थितियों श्रीर बालमनोविज्ञान के अनभव से परे नहीं कद्दे जा सकते, फिर भी उनसें कहीं कहीं प्रौढ्ोचित गंभीरता के दर्शन होते हैं। वास्तव में उनके कुछु गीतों को किशोरोपयोगी कहना उचित होगा। बाल-काव्य-सूजन के क्षेत्र में इस युग में श्रनेक कवियों ने योगदान किया । सभी कवियों के कृतित्व में यह भावना कार्य करती दिखाई देती है कि बच्चों फी मानसिक जिज्ञासा फा विकांस किया जाय, और यह तभी संभव है जब उनके मनोवैज्ञानिक स्तर तक उतरकर उन्हें स्मरण रहने योग्य कविताएँ लिखी जायें । “'बालसखा” के संपादक कामताग्रसाद शुरु की फविताश्रों में यह गुण विद्यमान है--उन्होंने बच्चों के लिये श्रनेक अभिनययोग्य कविताएँ लिखी हैँ। उनकी कविताओं के प्रमुख संग्रह 'पद्म पुष्पावली' ओर 'सुद्शन! हैं। उनके बालगीतों से एक उदाहरण यहाँ दिया जा रहा है शिष्य एफ गुरु के हैं हम सब एक साथ पढ़नेवाले एक फोज के वीर सिपाही एक साथ बढ़नेवाले धनी नि्धनी ऊँच नीच फा इहममें कोई भेद नहीं एक साथ हम सदा रहे तो हो सकता कुछ खेद नहीं . हर सहपाठों के दुख को इस अ्रपना ही दुख मानेंगे हर सहपाठी को अपने से ज्यादा ही प्रिय मानेंगे श्रगर एक पर पढ़ी मुसीबत मिलकर हम दे देंगे जान | हट सदा एक स्वर से सब भाई गाए गे स्वदेश का गान | द विवेच्य यग के अन्य कवियों में गिरिजादत शुक्ल (गिरीश” ने बालसाहित्य के उत्थान के लिये अ्रथक श्रम किया। यद्यपि उनको कविताओं में मनोविज्ञान का उतना संस्पर्श नहीं है जितना बच्चों की कविताओं के लिये आवश्यक होता है, तथापि विविध विषयक होने के नाते वे उल्लेखनीय हैं---ऐसी फतिताएँ विशेषतः पठनीय हैं जो राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत हैँ। इस युग में बालकाव्य के रचयिताओं में श्रीनाथसिंह भी परिगणित किए जाते हैं। उनकी ख्याति विशेषतः पत्रफार के रूप में है--शिशु', 'बालसख7, 'बालबोध”! आदि के संपादक के रूप. में वे प्रसिद्ध हैं। उनकी कविताएँ “गुब्बाराः, खेलघर”, “दोनों “भाई”, “बाल ... भारती, धलेपा चंपा? आदि. संग्रहों में संग्रहीत हैं। हास्य विनोद की सामग्री से ... संपन्न बहुत सी व्यंग्यप्रधान कविताएँ भी उन्होंने लिखी हैं। गांधीवादी विचार- त्‌ बनाओं से ओतप्रोत उनकी अन्य कविताएँ भी महत्व- [ स्राग १० ] हे द बालकाब्य... बी ४६ पूर्ण हैं। उनमें बालमनोविजशञान को परखने की अद्भुत क्षमता थी। उनके ना लिखे कुछ अच्छे उद्बोधन गीत भी मिलते हैं । प्रकृति का आश्रय लेकर निराशा | को दूर करने के संदम में 'क्या बेठे हो? कविता की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य है क्‍ अंधकार में कहता जुगन, राह नहीं हूँ मैं मिज भूला - जरे जरे में जीवन है, कलियाँ ने है डाला झूला । क्या बठे हो घर में भाई, चलो प्रकृति फी छठा निह्ारे उगते खेत उमड़ती नदियाँ, घिरते घन की घटा निहारें। अन्य कवियों में ज्योतिप्रसाद मिश्र 'निमंल! की बालकविताए । “'बालमनोरंजन' में संफलित हैं। उनकी कविताशओं में प्रकृतिवशुन, बालकों में । उत्साह भरने की झोजस्विता और भावनाओं की निखारने की शक्ति है। उनके गीतों में न केवल बालकों के अनुरूप भावाँ का सामंजस्य है, अपितु उन्होंने तदनुरूप सहज भाषा का भी प्रयोग किया है। उन्होंने कथात्मक कविताओं की क्‍ भी प्रचुरता से रचना की है। बालकों के चित्तसंस्कार के निमित भी उन्हेंने क्ाव्यरचना की है। एक उदाहरण देखिए : जो विद्या के पढ़ने में चित को लगाते बुरी भावनाएं न जो मन में लाते जो अज्ञानता फी हृदय से भगाते जो सतमार्ग पर नित्य गाते हैं जाते जो माता पिता के हुक्म हद बजाते जगत में ब्ही श्रष्ठ बालक कहाते। ... इस युगज्के अन्य प्रमुख कवियों में रामजी लाल शर्मा ने बच्चों के लिये . पचासों पुस्तकों फी रचना की और नेतिक, घार्मिक तथा पोराशिक दृष्टि का आधार लेकर बालसाहित्य फो समृद्ध किया। उनफी कविताओं में श्रादर्श की | : प्रचुरता दिखाई पडठी है-उन्होंने बच्चों के चरित्रनिर्माण पर बन्न देनेवाली ४ बहुत सी सरल कविताए' लिखी हैं । मन्तन ढद्रिवंदी गजपुरी छारा विनोद द | उपनाम से लिखित कविताएँ मी प्रायः उपदेश, श्राद्श और मक्तिभावना से अनुप्राणित है । लाला भगवानदीन इृत 'वीर बालक! में भी धार्मिक प्रवृत्तियों का सुंदर समन्वय मिलता है। उन्होंने बालिकाओं के लिये उपयोगी बिक अपककटी ८: 5दलानर ८ सन नल पर ८ पट पर 5५55 0३: डा कपपा ३२९ सरधारचधप5ड३८ पद पफरलाप पड ३३ <कवहपदापह परम चचा८ ताक दपटान्‍टतच पलक उपर ९ बालसखा, वर्ष २२, संख्या 5। द क्‍ ््श २ बाल मनोर'जन, ज्योतिप्रसाद मिश्र 'निर्मल', पृष्ठ १३॥ के _... हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास गाह्स्थ्य गीत भी लिखें हैं। उनकी बालफविताए ब्रजभाषा में लिखित हैं। मैथिलीशरण गुप्त ने भी बच्चों के लिए बहुत से गीत लिखे हैं जिनसें तुकबंदी की प्रमुखता फिर भी राष्ट्रीय भावधारा से युक्त बालकविताओों फी रचना उनकी उल्लेखनीय विशेषता है। उनकी भारत मारती' के झ्नेक पद भी बच्चों में लोकप्रिय हुए। विवेच्य युग के कवियों में मुरारोलाल शप्ता बालबंधु का नाम भी आदर के साथ लिया जाता है। भारतीय बालक! ओर 'सेवा? नामक बालोपयोगी पत्रिकाओं के संपादन के .साथ ही उन्होंने बच्चों के लिये अनेक _ कवितापुस।कों की भी रचना की जिनमें 'साहसी बच्चेट, 'गोदी भरे लाल? ज्ञानगंगाः, होनद्वार बिरवे!, 'फोफिला?, संगीतसुधा! आदि प्रमुख हैं। उनके गीतों की भाषा सहज, सरस और झआाकर्षक है । इस युग के बालबवियों में द्वारिकाप्रसाद चतुबदी का उल्लेख भी आवश्यक है। उन्होंने बच्चों के लिये प्रभूत मात्रा में लोकप्रिय साहित्य की रचना -फी। उनकी कविताएं बालकों को राष्ट्रीयता, आत्मतम्भान और जातीय गोरव का परिचय देती हैं। प्रसिद्ध कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान के कवितासंग्रहों-'कोयल? तथा समा का खेल! में भी यही प्रवृत्तियाँ सिलती हैं। उनकी कविताओं में 'फकाँसी की रानी फी समाधि पर” विशेष प्रसिद्ध है, जिसका एक अंश द्रश्व्य है यह समाधि यह लघु समाधि है झाँसी फी रानी की । ग्रेतिम लीलासस्‍्थही यही है, लक्ष्मी मर्दानी की। बढ़ जाता है मान वीर का, रण में बलि होने से। मूल्यती होती सोने की, भस्म यथा सोने से। रानी से भी अधिक हमें श्रव, यह समाधि है प्यारी। .. यहाँ निहित है स्वतंत्रता छी; आशा फी चिनगारी॥ क्‍ बलभद्रप्रस;द गुप्त 'रठिक' भी बच्चों के अनेक पत्रों के संपादक रहे। उन्होंने 'साहसी अ्_व', वीर बालक अ्रभिमन्यु', 'सत्याग्रही प्रह्मद” श्रादि चगित्र- प्रधान बालकाव्यों को रचना कफी। “चंचल' शीर्षक बारलमातिक के संपादक विश्वप्रयाश कुसुम” की बाल-कविता-पुस्तकों में “चंद्र खिलौना! और फूल मारो! प्रसिद्ध हैं । ..... सन्‌ १६१७ मे ११३७ के मध्य बाल काव्य फो सैकड़ों पुस्तकें प्रकाशित हुईं । . विस्तारमय के फारण उन सबका परिचयात्मक विश्लेषण संभव नहीं दे। कुल . मिलाकर कविगण इस दिशा में सचेष्ट दिखाई पड़ते हैं कि बच्चों की मानसिक गतिविधियों की सच्ची परख की जाए और उनके मन में राष्ट्रीयता के भाव भरने . का यत्व किया जाए्ए। कविगण प्रकृति, पशु पक्षियों और अन्य अनेक वस्तुओं को : प्रतीक बनाकर बच्चों को नवीन. ज्ञान से परिचित कराने में प्रयत्नशील दिखाई तक. [भाग १०]... बालकब्य...... ४६१ देते हैं। गणेशराम मिश्र कृत खेल के ताने' ( १६३१६० ) में इसी प्रकार की पाँच कविताएँ संकलित हैं। रूपनारायण पांडेय कृत 'बालशिज्ञाः (१६१६ ई०) में संस्कृत के नीतिविधयक उत्तमोत्तम श्लोक अनुदित हैं, फिंतु इसका रचनास्तर प्रायः किशोरोपयोगी है। रामलोचन शर्मा 'कंटक! कृत भोदक' (१६८५१ वि०) भी नीतिप्रधान रचना है जिसमें आठ कफाव्यात्मक फहानियाँ संकलित हैं। गिरिजाकुमार घोष का लड़कियों का खेल' ( १६८३ वि० ) शीर्षक गीतिनास्य ग्रह ( ऐक्शन सांग ) भी कन्याओं को सुशिक्षित करने के उद्द श्य से रचित है। इस संग्रह में दस गीतिनाव्य हैं। कुछ पंक्तियाँ उद्धृत की जा रही है; मूला ( दो कन्याएँ गाती हैं ) . श्यामा--मिम क्रिस भिम क्रिम पानी बरसे यह पानी फित जावे री? . रामा -- आधा पानी नदिया जावे खाधा भूमि संबावे री । श्यामा-भिम किम किम फिम पानी बरसे नदिया से मिल जावे री | बजरतन सूरजरतन मोहता द्वारा लिखित 'बालंगीति! ( १६८५ वि० ) . में पाँच कविताएँ हैं जिनमें बच्चों फो सरल भाषा में नीतिविषयकफ उपदेश दिए गए हैं। शिवदुल्ारे त्रिपाठी को नूतन छात्रशिक्षा! (१६१५ ई० ) भी इसी वर्ग की रचना है। इसमें मांसमक्षणं, जुआ, चिड़ियातराजी आदि अवगुशों से बचने का उपदेश दिया गया है ओर ब्रह्मचर्य को अपनाने का निर्देश देकर बालकों के अ्रित्रनिर्माण का यत्न किया गया है। देवीदत्त शुक्ल के फवितासंग्रह . धबाल-कविता-माला? ( १६२६ ई० ) में भी ऐसी ही तीव कविताएँ संकलित है। ... सुदेशनाचाय की फथात्मक कविताओं के संफलन चचुन्नूमुन्नू! (१६३१५ई०) . में भी सरल और रोचक भाषा में उपदेशप्रधान कविताएँ संकलित है।. १९३२ ई० में क्ामताप्रसाद वप्तो कृत 'बाल-विनय-माला! को द्वितीय संस्करण प्रकाशित हुआ | इसमें ईश्वरवियोग की वेंदना से संबद्ध पाँच गीत संगणहीत है । उदाहरशुस्वरूप घनश्याम के प्रति यह विनयभाव देखिए ६ साँवरे घनश्याम तुम तो प्रंम के अवतार हो : संकर्टो में फैंस रहा हूं, तुम हो खेबनहार हो। ! लड़कियों का खेल, ४० २। १०-५९ ४६६ क्‍ ... हिंदी साहित्य का झइत्‌ इतिहास झापका दर्शन मुझे इस छुंवि से बारंबार हो, हाथ में मुरली, मुकुट सिर पर, गले में द्वार हो।' द ... विद्याभास्कर शुक्ल कृत 'कनेटी पड़ाका? (१६३३ ३०) में भी दस कथात्मक कविताएँ हैं जिनकी रचना चरित्र-निर्माण-विषयक रोचक कथाओं के आधार पर सरल भाषा में फी गई है। रामेश्वर करुण की 'बालगोपाल?! ( १६३६ ६० ) भी इस काल की उल्लेखनीय कृति है। इसमें बालकों को व्यावह्यरिक जीवन के उपदेश दिए गए हैं और भाषा की सरलता का विशेष ध्यान रखा गया है-- यहाँ तक कि इसमें संयुक्ताक्षरों का प्रयोग कहीं भी नहीं हुआ है। यथा : ( श्र) हम है' भारत भू के लाल चमफाएँंगे उसका भाल सदा घलेंगे ऐसी चाल जिससे होगा देश निह्यल ।' ( था ) हिंदी है हम सबकी माता लगा इसी से अपना नाता इसे पढ़ेगे. अपनी जान सदा करेंगे इसका मान ... देवी दयाल चतुचेदी 'मरत' की ऋति “बिजली” ( १६१७ ई० ) में दो वीर भारतीय नारियों--रानी दुर्गावती तथा कमला--की बालोपयोगी काव्यजीवनियाँ दी गई है । इसमें हिंदू नारी को पवित्रता और महत्व फा यशोगान किया गया . है। यद्यपि इसकी भाष| बालकों के स्वभावानुरूप न होकर कुछ फठिन हो गई है, तथापि इसमें भारतीय नारी के उज्ज्वल चरित्र को सफल अभिव्यक्ति हुई है। कथात्मक कविताओं का एक संकलन कवि किंकर झंत 'रसाल! (१६८५४ ई० ) है जिसमें पाँच बालोपयोगी कविताएं संकलित हैं । कवि के शब्दों में ये कविताएँ .. “घुर रोचक और ज्ञानवधंक हैं। एक अन्य फवि भूपनारायण दीक्षित विरचित मखिलवाड़' ( १६८६६ वि० ) में तेईइस कविताएँ संग्रहीत हैं जिनकी रचना अत्यंत . सहज सरल भाषा में हुई है। इसकी कविताएँ बच्चों को आराफषित करनेवाले : पशुपक्षियों को आधार बनाकर लिखी गई हैं। लक्ष्मींदत्त चतुरबंदी कृत 'मिचोनी? और 'मैँसासिह! (१६६० वि० ) भी सरल और प्रवाहपूर्ण शैली में लिखित कवितासंकलन हैं । “मिचोनी? में बालशिक्षा के निमित कविताएँ लिखी गई हैं ओर “मैंतासिंह? में छोटे छोटे बालकों के पढ़ने योग्य छह पद्चबद्ध .. * बाल-विनयन्माला, पृ० ११५) .. <बातगोपाल, इ० १५... . ०० 7 ही यक १७त [ भाग १० | .. घालकाब्य 0 दे हानियाँ संकलित हैं| चतुवंदी जी ने प्रशिक्षात्मकफ शेली ओर बोलचाल की भाषा का सफलता के साथ प्रयोग किया है। चंद्रबंधु के कवितासंग्रह “बालसुधार ( १९९२ वि० ) में भी रोचक विषयों का चुनाव किया गया है और कवि की प्रंतिपादन शेली सरल स्वच्छु रही है। ब्ृजविहारीलाल के कवितासंकलन _ बालबोध? पर प्रकाशनकाल अंकित नहीं है, किठु अनुमानतः यह संग्रह विवेच्य काल से दी संबद्ध है। इसमें बाल-शिक्षा-संबंधी फविताओं को स्थान प्राप्त हुआ है। कवि ने बच्चों के चालचलन, धर्म कर्म, शिश्षचार, कतंव्यपरिज्ञान आदि को सरल फव्रिताओं में माध्यम से भली भाँति प्रकट किया है। बाल स्काउटों के लिये इस कृति का विशेष महत्व है। साम्रप्रोत शमों विशारद फी 'बालचर विनोद” भी इसो प्रकार को रचना हैं। इसमें “स्काउट श्रतिज्ञा), 'रकाउट धर्म इशविनय', वंदना' आदि कविताएँ संग्रहीत हैं | इनका अंग्र जो अनुवाद भी इसी ग्रह में दिया गया है बगल-साहित्य-संबंधी उपलब्ध काव्यपुस्तकों के इस संक्षिप्त सर्वेक्षण से हिंदी बालकाव्य की परंपरा ओर रचनाशेली का उपयुक्त परिचय मिल जाता है । यहाँ कुछ ऐसे कवियों की चर्चा उचित हागी जो हिंदी के सुपरिचित प्रतिष्ठित कवि हैं ओर जिन्होंने बाल-काब्य-साहित्य के श्रभाव की पूर्ति की दिशा में भी महत्वपूर योग दिया था। बालकों के मानतिक धरातल तक्कष उतरफकर उन्होंने तत्कालीन प्रमुख बाल पत्रिकाओं में अ्रनेक मनोहारं! फविताएं प्रकाशित कराई थीं। इनमें से कुछु का विवरण निम्नलिखित है कवि कविता . पत्रिका वर्ष अंक १, जनादन का द्विज आकांछा .. बालक भू... ७ २, सुमित्रानंदन पंत. . घंटा... बानर शू . * कविता इस प्रकार है: । द उस आसमान की चुप्पी पर घंटा है एक टंगा सुदर जो घड़ी घड़ी मन के भोतर कुछ कहता रहता है बजकर प्रियों के बच्चों से सुंदर फानों के भीतर उसके स्वर घोंसला बनाते उतर उतर फैला कोमल ध्वनियों के प्र . भरते वे मन में मधुर रोर, जागो रे जागो कामचोर ' . डूबे प्रकाश में दिशा घोर, अब हुआ भोर श्रब हुआ भोर आई सोने की नई प्रात, कुछ तया काम हो नई बात तुम रहो स्वच्छ मन स्वच्छ गात, निद्रा छोड़ो रे नई रात | लो पलक क._ उप पलट पका सार कर _पपपवफ८७५ कक पकलकाहापका5नाककप्रकापसबरपा तप टिपाग प वगपहटए पर उपबका 3 पक": ४६८ .... हिंदी साहित्य का बुदंत्‌ इतिहांसे ३. मगवती प्रसाद वाजपेयी मसालेदार बालसखा. २२ २ द रा दह्देबड़ा क्‍ द ४, रामकुमार वर्मा देश के काम शिशु पर .._५. मोहनलाल महतो सोने का संसार विद्यार्थी संवत्‌ (६८७ १ वियोगी द हे ह ६. रामधारी सिह दिनकर” दूब' बालक ९ ६ ७, लोचनप्रसाद पांडिय श्रादर्श॒ शिशु १३ ४३ ८ गोपालसिंह 'नेपाली' देशदशन'.. बालक ६, हंसकुमार तिवारी दुर्देयदि... बालक घर १०, मोहनलाल गुप्त कैसा खूब बालसखा ,. २२ ६ हब .... छुकाया ११. शंभूदयाल सक्सेना . बचपन बालसखा. २१ १ * इस कविता का कूछ भ्रृंश इस प्रकार है ; तू नन्‍हीं नन्‍्हीं हरी दूब | अरब सुबह हुई दुनिया जागी, भ्रैँधियारी लिए रात भागी सूरण निकला किरणों श्राई, तू ताज पहनकर मसकाई।, शबनम को लेकर खड़ी दूब; किरणों में श्रब सुनहरी दूब खोदा खुरपी ले खोज खोज, चर गए जानवर रोज रोज सूरज ने तुके जला डाला, गरमी ने नुभे सुखा डाला लेकित तो भी क्‍या मरी दूब, वर्षा बरसी फिर हरी दूब । * इस कविता का यह म्रंश द्रष्टव्य है ; कंठ खुला तरुणों ने गाया हिंदी में मृदु मंजुल गान .. लहर उठी गंगा यमुना में गुंज उठा यह हिंदुस्तान | . खेलेंगे हम बृदावन में भूहोंगे सागर के तीर ... - सुदरवत्‌ के कोमल तृण में खड़ा करेंगे एक कुटीर । दीप घछहोंगे ताज़महल में कब्रों से तोड़ेंगे फूल . लालकिले की श्रारियों पर जायँगे हम टोपी भूल । भा बढठेंगे बुद्धगयया में सोचेंगे कुछ अपनी बात शांतिनिकेतन सारताथ में ज्गे रहेंगे सारी रात। मोती या जामामस्जिद में जाकर सीस ऊ्ुकाएंगे . गंगा; नहा गले शंकर के बँघेंगे पीपल के पात। [सांग १०]... बाल्लक॒ाब्यब..ररररः 8६९ ॥ १२, देवीप्रसाद गत... दादा का बालसखा . १६ के 'क्रुमुमाकर! द तक का के 7 ४ द १३. मैथिलीशरण गुप्त... राहुल बालसखा. १७ १०, लब्लीप्रसाद पांडे बानर जी बालसखा .. १६ प १५. पदुमलाल पुस्नालाल बस्शी आफत . बालखखा. १६ ११ १६, देवीदत शुक्त शीज्ञा की बालसखा. १४ ४ द क्‍ हरानी द द क्‍ १७, व्यथित हृदय डाकिया. बालसखा श्र ड १८. लल्लितकुमारसिंह 'नटदरा विनती बालक श १० १९, श्यामनारायणु पडिय गाय बालक... ४... १० २०. विनयमोहन शर्मा प्रश्न विद्यार्थी १६३२ ६० जनवरी २१, मुंशीराम शर्मा भ्रद्धांबलि विद्यार्थी १९३२६० जनत्ररी २२. गुरुभक्त सिंह भक्त नीलकंठ. विद्यार्थी १९३१६ई० जनवरी २३. राजेंद्रसिंह रौड़ हमारी घड़ी बानर.... ३ ४-६ . २७, गंगाप्रसाद पंडिय आँखों में. बानर हे १० . २४, श्रीघर पाठक कभी मत बालसखा. १६९२८ जुलाई २६, जहूरबख्श . मेंहतर का. बालसखा १६२८५ जुलाई द बालक .. उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि हिंदी के प्रायः सभी प्रतिष्ठित कवि और साहित्यकार, जो किसी भी क्षेत्र भे महत्वपूर्ण योगदान दे रहे थे, बालकाब्य की रचना की श्रोर अ्रग्रतर दिखाई देते हैं.। पत्र पत्रिकाओं, में प्रकाशित रचनाओं के आधार पर अपग्रख्यात कवियों की. रचनाओं का वर्गीकरण किया ज्ञाए तो सेकड्ों कवि सामने आ सकते हैं, किंतु. वह विषय का विस्तार मात्र होगा | | क्‍ बच्चे निर्मल प्रकृतिवाले ओर जिज्ञासु होते है। उनकी सानसिक परि- स्थितियों, कल्पना; अनुमान ओर बुद्धिविकास का स्तर अ्रलग अ्रत्नग आयु के अनुसार अलग अलग होता है। बालकाव्य बच्चों फी श्रायु को ध्यान में रखकर . लिखा जाता है। बच्चों की जिज्ञासा, वस्तुस्थिति को समझने की. चेश, सामाजिक जीवन फी आकांध्षा आदि को ध्यान में रखकर उनके मानसिक स्तर के अनुरूप: सरल, सरस ओर बोधगम्ब भाषा में जिन कवियों ने अपनी रचनाएं लिखों उनका बच्चों के कोसल और निशछुल मन पर विशेष प्रभ्नाव पड़ा | वेसे, फोन सा _ से |; !, ह[ | | | *जू का हे ' + | ।; पा ई ४४. 2 ६ श ॥; मु | ' म | । ॥ ! ः . ४७० . हिंदी साहित्य का बृहंत्‌ इतिहांस भाव फब बालक के हृदय में रसानुभूति फी सष्टि कर सकृता है, यह समझ पाना बालमनोविज्ञान से परिचित लोगों के लिये भी कठिन है । ... बजे हंतमुख होते है', इसलिये हास्यरस की रचनाएँ उन्हें प्रिय लगती हैं। वात्सल्यभाव के वे जीवित प्रतीक होते हैं, अ्रतः वात्सल्य-रस-प्रवान रचनाएँ उनके लिये उपयोगी होती हैं। विवेच्य काल ख्वतंत्रता प्राप्ति के संघर्षों का युग है। इसलिये बच्चों के मन में वोरत्व जाग्रत करने के लिये अनेक कवियों ने देश की गोरव गाथाओं से संबद्ध कथानकों के आधार पर वीररसात्मक बालफाव्य का भी सूजन किया है। बच्चों को जिज्ञासा अश्रदूमुत बातों से विशेत्य॒ संतुष्ट होती है, इसलिये प्रस्तुत युग में बच्चों के लिये अद्भुत रस की रचनाएँ भी लिखी गई । . विष्रयवध्तु की दृष्टि से यदि तत्कालीन बालकाब्य का विवेचन किया जाय तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि बच्चे अपने अपरिपक्व श्ञांन ऑर सीमित जानकारी के फारण अपने स्तर के अनुरूप रचनाओं में ही अधिक रुचि लेते हैं। पुस्तकें, खान पान की वस्तुए, घर के प्रयोग में श्रानेवाले, विविध उपकरण, माँ, बाप, भाई, बहन आ्रादि फी ृ५्ठभमि में जो बालकाव्य इस युग में लिखा गया वह बर्च्चा के हृदय पर स्थायी प्रभाव डालनेवाला है। जीव जंतुओ्रों और पशु पक्षियों से संबंधित विषयों . पर लिखें गए बालगीतों से भी, जिनके प्रतीक बच्चों को कब्पना में प्रत्यक्ष प्रद्शित हो सकते हैं, बच्चों की कोतृहलतृष्ति होती है। पशु पत्तियों से बच्चे . उनकी बोली और स्वभाव की अनुकृति का यत्न करते हैं। पेड़ पौधों, पुष्षों और फलों पर श्राघारित गीत उन्हे प्रक्ृति के स्वच्छुद स्वरूप का बोध - फराते हैं। इसी प्रकार भ्राकाश, सूये; चंद्र, नक्षत्रमंडल, प्रथ्वी, नदी, पव॑त, समुद्र आदि विषयों से संबद्ध गीत हिंदी में बहुल संख्या में लिखे गए। बहुत से गीत इतने सुदर और कल्पनाप्रेरित हैं कि उनसे बच्चों को जिज्ञासा का समाधान तो होता ही है, वे उन्हें . क्ृंठस्थ करने के लिये भी तत्पर होते हैं । बच्चे बचपन में खिलोनों में जीवित प्राशियों जेसा जीवन देखते है। खिलोंनों में उन्हे” सम्यता, संसक्ृति, रीति रस्म, विविध रंगों ओर पोशाकों की भलफ मिलती है | इसलिये खलों से संत्रद्ध श्रोर खिलोनों पर श्राधारित बालगीत भी बच्चों में लोकप्रिय होते हैं। प्रत्येक ऋतु और उस ऋतु की प्राकृतिक सुषमा का भी बच्चों के मन पर फम असर नहीं पढ़ता । इनसे संबद्ध गीत बालकों को मनोभावनाओरं के लिये रोचक होते हैं ओर उनके मन पर पड़नेवाले प्रभाव को तीत्र करते हैं। बच्चों में चंचलता और अमभिनयत्रियता स्वाभाविक है। देखा जाता दे कि ऐसे बालगीत जिन्हे” बालक खेल के मध्य अभिनय फरते हुए पमुह सहित गा सकें, उन्हें बहुत हीं प्लिंय लगते हैँ । इस प्रकार दे गीतों से उनकी [ भाग १ द ] ४ बालकाब्य |. द ४७१ मनोभावनाएं परिष्वृत होती हैं शोर उन्में अच्छे भावव्यवहार वा विकास होता है। बच्चों के लिये लिख्ति प्रयाशगीत भी उन्‍हें स्फूर्ति प्रदान करने के साधन हैं। इसी प्रकार समहगान गाते समय बच्चों के मन में जो आत्मशक्ति जागृत होती है उससे वे.भविष्य में समाज के सभ्य नागरिफ बनते हैं। इन गीतों से उनके स्वरों के आरोह अवरोह में भी संतुलन आता है। हिंदी में ।कसी एक शैली में सम ह- गीतों की रचना नहीं की २६, ऋपितु विष्य और भावों के अनरूप विविध शैलियों को $ पनाया ग्या | इस यग में राष्ट्रीयता से #तप्रोतं ब्लकाव्य भी पर्याप्त मात्रा में लिखा गया। कवियों ने बच्चों में देश प्रेम, स्वाभिमान तथा एकता का संदेश भरने के लिये जिन राष्ट्रीय बालगतों फी रचन्। फी वे गीत अपनी सरलता ऋोर स्वाभाविकता के कारण बर््चों की भावना और उनके मानसिक स्तर फो विशेष रूप से प्रेरित करने में सहायक सिद्ध हुए। कवियों ने विशेषतः भारत माता, भारतव, स्वदेश, गांधी, चरखा, जेल, सत्याग्रह, अ्रहिसा आदि विषयों को प्रतीक बनाकर राष्ट्रीय बालकाव्य फा रूजन किया । बालगीतों फी रचना का प्रमुख उद्द श्य बालकों का मनोरंजन है | बालगीत बच्चों की शिक्षा के भी सबसे अच्छे साधन कट्टे जा सबते हैं। इस युग के कवियों ने छोटे बच्चों के लिये अत्यंत सुदर लोरियाँ की रचमा की। लोरियाँ छोटे बच्चों फो सुलाने अर ज्गाने के लिये गीत के रूप में लिखी जाती हैं। शिशुओं फो फोमल भावना और स्वच्छुद कल्पना का संगीत भरा संसार देती हैं। . हिंदी कवियों ने मातृममता से प्रेरित होकर अ्रगशित लोरियों की रचना की है। इस युग में लिखे गए बालगीत बोद्धिक क्लिप्ठता से परे तथा बच्चों के १ल्‍पना- .. चज्वितिज के अनुरूप हैं। उप्त समय जो फब्पनाप्रधान बालगीत लिखें गए उनमें ... परंपरागत कब्पनाओं का आश्रय लेने के कारण कहीं कहीं एकरसता और पुनरा- वृत्ति भी लक्षित होती है। फिर भी, इन कब्पनागीतों से बच्चों फो सामयिक परिवर्तन का ज्ञान तो हो ही जाता है। बच्चों के मन में बहुत सी वासनाए' कुंटित रह जाती हैं। सच्चा बालकाव्य लिखनेवाला कवि अपने गीतों द्वारा शिशुश्रों के मनोरंजन के साथ ही उन्हें कुंठित भावनाओं से मुक्त करता है। वह उनके भीतर ऐसी क्षमता जाग्रत करता है जिससे वे प्रत्यक्ष जगत्‌ से ऊँचे उठकर अपनी मनोमावनाओं का परिष्कार कर और दृढ़ साहस से अपनी बुद्धि का विकास कर, जिज्ञासाओं फी परितृस्ति का साहस कर सके | कुछु ऐसी कविताएँ भी इस युग में मिलती हैं जो बच्चों के स्वस्थ मनोरंजन के साथ साथ उन्हें सतु असत्‌ फो पहचानने की दृष्टि देती हैं । कुछ ऐसे भी कवि इस युग में दिखाई पढ़ते हैं जो अपनी उपदेशात्मकता, नीतिप्रवशुता ४ 5पलापडउ-बनाड २०२ ५....><.......... छः .. हिंदी साहित्य का बृदत्‌ इतिंहां स और आदर्शवादी शिक्षा को ही कविक्ष्म का ध्येय समभते हैं। परंतु उनका कविरूप प्राय: अप्रत्यक्ष हो जाता है ओर सुधारक का रूप प्रबल होकर बच्चों को मनोरंजन की सामग्री देने में श्रसमथ दिखाई देता है। इस युग में कुछ ऐसे कवि हुए हैं जो बच्चों के हृदय में विश्व का वियुल ज्ञानमंडार भर देना चाहते हैं। ऐ: कवि प्रायः बालकों के हृदय की रागात्मक बृत्ति ओर उनकी फोमल जिज्ञासु कल्पना से अ्रनश्ज्ञ होवर रचनाएं लिखते हैं। गीतों का ध्येय यदि मनोरंजन की प्रधानता से च्युत हो गया; तो वे बालकों का ज्ञानवर्धन करने की अपेक्षा उनके. लिये एक बोमभिल पहेली हो जाते हैं। »छ बाल्गीत बच्चों फी इस बात की प्र रणा देते हं कि वे सत्कम की श्रोर प्रवूत्त होकर अच्छे मनुष्य बनने की दिशा में अग्रवर हों। ऐसे गीत राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित, प्रकृतिवर्णशण से ओऔतप्रोत - तथा. कल्पनाप्रधान विषयवस्तु पर अआ्राधारित हो सकते हैं। शैली की दृष्टि से ऐसे गीत समृहगाव, प्राथना, लोरी, प्रयाशगीत झआदि के रूप में लिखे गए- हैं। जिन गोर्तों में बच्चें को नव स्देश देने को शक्ति नहीं होती वे बाल काव्य के गुणों से &छूते होते हैं, चाहे उनकी रचना बड़ेसे बड़े कवि ने क्यो नकीहो। + द सन्‌ १६१८-१६ ३७ के बीच में लिखा गया बालकाब्य निश्चित रूप से हिंदी कवियों की इस मानसिक विवशता का द्योतक है कि उन्हें अंग्र जी, गुजराती श्रोौर बैंगला की भाँति गौरवास्पदः बालकाव्य फी परंपरा नहीं मिली थी। इस . युग के कवियां फो इस ज्ेत्र में स्वयं पथनिर्माश करना पड़ा %ोर इस प्रकार . उन्होंने भविष्य के लिये उपयक्त पृष्ठभूमि प्रस्तुत की । इन कवियों में कुछ तो ऐसे हैं (जनके कृतित्व की प्रतिष्ठा काव्य या साहित्य के अन्य क्षेत्रों में हो चुकी थी, कुछ ऐसे हैं जी अनुभवी अध्यापक तो थे कितु जिनमें प्राण: काव्यरचना को उतनी प्रतिभा नहीं थी और अनेक कवि ऐसे हैं जो समुचित प्रोत्साहन के श्रभाव अ्रथवा अन्य किसी कारण से बहुत आ्रागे नहीं बढ़ सके । फ्रि भी, इस युग के बालकाव्य की उपलब्धियाँ कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण हैं। इस काल में पहली बार यह खनुभव किया गया कि पाव्यपुस्तकों के श्रांतरिक्त बच्चों को उनके मानसिक स्तर के अनुरूप पठस्थ होने योग्य कविताए मिलनी चाहिए,। इस काय को एशण फरने में हिंदी के रूवातिलब्ध कविगश संनद्ध हुए और थार्थिक लाभ की परवाह न फरते हुए प्रकाशकों ने सैकड़ों पुस्तकें तथा दर्जनों पत्रिकाए प्रकाशित को | इन्हीं पुस्तकों और पत्रिकाओं के माध्यम से हिंदी का बालकाव्य प्रचुर मात्रा में, और मनोविज्ञान तथा काव्यगुशों से संयक्त होकर, प्रकाश में आया । यद्यपि साज सज्जा, अलंकरण और चित्रों की दृष्टि से इस युग का बालसाहित्य सामान्य कोटि का है, फिर भी इतना निश्चित है कि जिस ४ [ति इसे युग में ख्ड़ीबोली कविता का निर्माण ([ भाग १०९]... बालकाब्य....._ ..._ ४७३ किया गया तथा काव्य्षेत्र में छायावाद की प्रतिष्ठा की गई उसी भाँति बालकाव्य को भी हर तरह से संपन्‍न किया गया। केवल उसकी आवश्यकता का ही अनुभव नहीं किया गया, अपितु विविध शेलियों का निर्माण कर बाल-काव्य- रचयिताओं ने जो योगदान किया वह हिंदी साहित्य में ऐतिहासिक महत्व रखता है शोर उसपर गव किया जा सकता है । द १०-६९ उस रकर-नपबाए 2 उसा८ उापसालाालाहडा ता पाप चतापत- ताला "कार प+८<-फापमदराडा उतर दापप लापता ताप दा ::उख बकरा पड पथ: गिल अभा मी ही अमल मल दल कक कल 2 पर जप कक कल, कि व अक % ५ के. 5 58 ड़ ३ अर > है: 2 नि सी क खज जरअर रत कट कक 7 पे 52 कत्ल फ 44... पक ५ तो मीक 5 पी कक घप लक रलत हक. हज 7.6 लि पर हक 2, 7 मद ज५3 मह+ 02007 82070 जल. +क जद 2 च्व हम ४ के लक अध औ पीट कमल कलर है कन्प आफ ग दशम अध्याय उद्‌ -काव्य-धारा सन्‌ १६१४ में हाली ओर शिबली दोनों का देहावसान हुआ। इसके बाद सर सैयद आंदोलन की आ्रावाज मंद पड़ गई, और साहित्य में नई प्रवृत्तियाँ उभरने लगीं, जिनमें से दो विशेषतः उल्लेखनीय हैं--एफ राष्ट्र विषयक और चिंतनप्रधान कविता की प्रद्ृत्ति थी; जिसमें निञ्रत्व की तुलना में बाह्य पक्ष की अधिक प्रबलता थी। दूसरी रोमानी प्रद्धत्ति थी जो. निजत्व पर केँद्रेत थी, जिसे सोंदर्य से गहरा लगाव था और प्रेम की मस्ती और लगन से गहरा संबंध | इस फाव्यगाथा का आरंभ श्रकबर श्रौर चकबस्त से होता है जो कि पहली प्रद्॒ति के महत्वपूर्ण प्रतिनिधि माने जा सकते हैं। इनके श्रतिरिक्त अन्य प्रसिद्ध कवि थे. ..._ जफर अ्रली खाँ झ्लर मौलाना मोहम्मद अ्रली | दूसरी प्रवृत्ति के कवियों में . अग्रणी थे आरज, सरूर ओर रवाँ। द इस दोर में शिक्षित वर्ग की प्रवृत्ति राजनीतिक समस्याओ्रों और सामयथिक हे "विषयों को और बढ रही थी। नेतिक एवं उपदेशात्मक विषयों का आरंभ काव्य में हाली के समय से हो गया था। फिर राजनीतिक विषयों ओर उपदेशात्मक प्रचार का रिवात्र शिबली के प्रभावस्वरूप स्वंसाधारण में व्याप्त हो गया और जफर अली खाँ तथा मुहम्मद अली तक पहुँचते द पहुंचते यह लहर इतनी बढ़ गई कि इसपर सोह श्यता पूरी तरह छा गई, जिससे काव्यसोष्ठवः और रागात्मक तत्व न्यून से न्‍्यूनतर होते गए--काव्य सदाचरण, ... शजनीति और रशा्टीय सुधारवाद का दास बन गया । ऐसी प्रवृति के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी। इस प्रतिक्रिया के दो रूप थे। एक मोहम्मद इकबाल के काव्य में प्रक८ हुआ ओर दूसरा रोमानी कविता में | इकबाल ने अपने पहले युग में राजनीतिक और सामयिक विषयों फो . शिबली; अफबर ओर जफरअ्रली खाँ की तरह अपनी नज्मों में अपनाया है। इनमें 'जंग-ए-यरमोक का एक वाकश्रा?, “जरीफाना रंग-ए-फलाम! और “फातम्ता बिंत श्रब्दुल्लाः आदि नज्में भी मौजूद हैं, लेकिभ बोद्धिक विकास फी दूसरी . मंजिल में इनकी कोशिश सामयिक्र विषयों पर संतोष करने से अधिक यह होती है कि सैद्धांतिक आदेशों के स्थान पर दाशनिक्रता पैदा की नाए। वह जफ्रअली खाँ फी तरह सामयिक विषयों में तात्कालिक रुजनीति क। प्रवेश नहीं 3206 न 2 ० 6 06० 50220 कक कर करत पर काम कक किम पक कक लक मिल के न्‍ कपल + पल लि शस 00त+० पर कर पता जनक मे रुक पक 5क कक, 5 अप >हहे॥8 ०८: उप # 67 कक दि तय 5 ४७६ हिंदी साहित्य का बंहत्‌ इतिहास चाहते। वह जीव और जगत्‌ का संबंध देखने की चेश्ा करते हैं। सामयिक काव्य के लिये राजनीति आवश्यक है और इकबाल फो उसका दाशनिक पक्त प्रिय है। इकबाल ने काव्य में पत्रकारिता तत्व के स्थान पर दाशनिकता और उपदेशाल्मकता के स्थान पर दृष्टिफोश की महत्ता फो स्थान देकर इसे साहित्यिक सोंदर्य और फाव्यचमत्कार से सुसज्जित कर दिया। दूसरी प्रतिक्रिया रोमानी साहित्यकारों फी थी; जिन्होंने साहित्य में एकरसता, उपदेशात्मकता श्रोर उपादेयता के निर्जीव अनुरोधों फो श्रस्वीकार किया, और कविता को 'आास्मानी दोशीजा?ः (दिव्य अ्रप्सरा ) बताया, या भावनाओं के श्रल्लोकिक स्पंदन से अ्भिषिक्त किया, जिसका उद्ं श्य सामाजिक उपादेयता से अधिक प्रभाव की नूतनता पैदा करना था । इन शायरों ने पश्चिम के रोमानी साहित्यकारों से भावना के अतिरेक, ओर उसकी ऊष्मा को महत्व देना सीखा, और अरब तथा ईरान के क्लासिफी साहित्य के प्रभावस्वरूप फोमलता और सूक्ष्मता के साँचेि निर्मित किए। इनका फाव्यजगत्‌ शिष्ट विनोद और रंगीन स्वप्नों का एक सुदर संसार बन गया, जिसमें राजनीतिक हितों और सुधार संबंधी उपायों की शुष्क समस्याओं के स्थान पर हुस्न ओर इश्क, शराब और . साकी, सोंदर्यानुभूति और सोंदर्यप्रियता के दीप जगमग कर रहे हैं । इकबाल ने आधुनिक उदू शायरी फो सबसे अधिक प्रभावित किया है। . यों तो इकबाल फी आरंभिक नज्में परंपरागत शेली से बहुत अधिक अ्रलग नजर नहीं आ्राती, लैकिन आगे चलकर इकबाल ने जिध दाशंनिक चिंतन को अपनाया जसने उदू काव्य को एक नई दिशा दी । का . इकबाल सन्‌ १८७५ में स्यालकोट में पेदा हुए । वें कश्मीरी बआह्यणों के वंश से संबंध रखते थे। मदरसा में आरंभिक श्ररवी व फारसी फी शिक्षा उन्होंने अपने युग के प्रसिद्ध विद्यान्‌ मौलवी सैयद भ्रमीर हसन से प्राप्त की। बाद में लाहोर के गवर्नमेंट कॉलिज में दाखिल हुए; जहाँ इनकी झचि प्रोन ऑरनल्ड की छुत्रच्छाया में दर्शन की श्रोर हो गई। यहीं उनकी काव्यरचना का आरंम हुआ। शुरू में वे मिर्जा दाग से डाक द्वारा अपनी रचनाओं का संशोधन कराते रहे लेकिन दोनों की प्रकृति में इतना वैषम्य था कि यह क्रम अधिक देर तक नहीं चला; फिर भी दाग के प्रभाव से इकबाल की रचना में भाषाप्रवाह और काव्य- सामथ्यं का जोहर अवश्य प्रकट हो गया। . सन्‌ १६०१ में सर अब्दुल कादर ने अपनी ऐतिहासिक पत्रिका 'मगजन! . निकाली | पहली बार इकबाल कवि के रूप में 'मगजन' ही के द्वारा सामने आए। इसके बाद इन्होंने हिमायत-ए-इसलाम के वार्षिक उत्सवों में श्रपनडी नमों [साग ०]... ददूँलकाब्य-घोरा...... ४७७ के द्वारा ख्याति प्राप्त की । ये नज्में जातीय ओर राष्ट्रीय समस्याओं पर लिखी गई थीं जिनमें हली ओर शिबली की परंपराओं से बहुत बड़ी मिन्‍नता नजर नहीं आती थी । “नाला-ए-यतीम?, “अत्र-ए-गोहर बार” और “फरियाद-ए-उम्मतः में नज्म रचना का प्रचलित रंग जाहिर होता था | इस युग की नज्मों में देशभक्ति जातीयता, प्राकृतिक दृश्यों का चित्रण ओर श्राचारविषयक समस्याश्रों के प्रति विशेष अ्भिरुनि प्रकट होती थी | इस युग की नज्में एक भव्य विकास का श्रीगशेश कही जा सकती हैं। इनमें कहीं देशप्रेम का जोश ऐ--मुल्क ओर कोम के सुधार की लगन है, कहीं प्रतिष्ठित साहित्यकारों के प्रति श्रद्धा अ्र्पित की गई है। इनमें दाग, गालिब ओर आआारनल्ड के मरतिये ( शोकगीत ) भी हैं, भारटीय बच्चों का तराना भी है। 'सारे जहाँ से श्रच्छा हिंदोस्ताँ हमारा! की आवाज भी है और “नया शिवाला? भी | इस युग में उन्हें प्रेम ओर मृत्यु, बुद्धि ओर हृदय और ५्तस्वीर-ए.दर्द” की समस्याएं भी अ्रपनी ओर श्राकृष्ट करती हैं। लेकिन इनमें इकबाल केवल हृदय की तीत्र अनुभूतियाँ और वर्शनकोशल ही प्रस्तुत कर सके हैं। अमी वह दाशंनिक चिंतन ओर दृष्टिकोण फी तीजत्रता उनकी नज्मों में प्रकट नहीं हुई, जो इनके काव्य की आत्मा है। इस युग के काज्य का उत्कृष्ट नमूना “नया शिवाला? आर “तस्वोर-ए-दद” के कुछ भागों से दिया जा सकता है-- सच कह्द दूँ ऐ बरइमन गर तू बुरा न माने; तेरे सनमकदों के बुद ही गए पुराने । अपनों से बैर रखना तूने बुर्तों से सीखा; जंग-श्रो-जदल सिखाया वाइज को भी खुदा ने । तंग आऊ+ मेंने आखिर दैर-ओ-हरम को छोड़ा, वाइज का वश्रज छोड़ा, छोड़े तेरे फसाने । .. पत्थर की मुरतों में समझा हेतू खुदा है; ... खाक-ए-व तन का मृभकी हर जर्रो देवता है। ( नया शिवाला ) वतन की फिक्र कर नादाँ मुसीबत आनेवाली हे तेरी बरबादियों के मशवरे हैं आसमार्नों में। जरा देख उसको जो कुछ हो रहा है होनेवाला है घरा क्‍या है भला अहृद-ए-कुहन की दास्तानों में। न समभझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिंदोस्ताँ वालो तुम्दारो दास्‍्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में । ४७च द ह हिंदी साहित्य का बहंत्‌ इतिहास यही आईने-ए-कुदरत है यही असलब-ए-फितरत है। जो है राह-ए-श्रमल में गामजन महबूब-ए-फितरत है । ( तस्‍्वीर-ए-दद ) इकबाल की शायरी में चिंतन श्रौर दशन के तत्व यूरोप की यात्रा के बाद निखरना शरू होते हैं। इनकी कला ओर व्यक्तित्व के क्रमिक विकास पर बहस करने का यह अवसर नहीं है। लेकिन यह समझ लेना चाहिए कि इकबाल थी यूरोप यात्रा ने बहुत से पुराने आदश धूमिल कर दिए । पाश्चात्य अनुकरण के बहुत से जादू तोड़ दिए, और पूर्वोच सभ्यता का एक ऐसा बिंब प्रस्तुत किया जो केवल श्रद्धा ओर परंपरावादिता से पोषित नहीं था, बल्कि दशन के चिरस्थायी तत्वों से प्राहुभू त था । यूरोप का जीवन श्रौर वहाँ के दर्शन ने इकबाल के सामने यह प्रश्न उपस्थित किया कि क्या सानव की बौद्धिक ओर रागात्मक समस्याश्रों का समाघान इस व्यवस्था में संमव है । भारत में सर सैयद से लेकर इकबाल के आरंभिक युग _ तक झ्रोद्योगिक उन्नति के वरदान; देशप्रेम, जातिप्रेम को जीवन का श्रष्ठतम . लक्ष्य समझता जा रहा था, लेकिन यूरोप में इकबाल ने श्रपनी नजरों से यह तमाशा देखा कि शआ्रीद्योगिक उन्‍नति मानव की श्राध्यात्मिक संतुष्टि में सहायक . सिद्ध होने और उसके व्यक्तित्व के विफास में मदद देने के स्थान पर उसके लिये ए. आत्मिक क्लेश की सामग्री एकत्रित फर रही है, जिस आदश को पूर्वीय देश एक मंजिल समझकर अ्रपना रहे थे, वह स्वयं पश्चिम के लिये घातक बना छुआ है। यह वह युग था जब यूरोप में श्रोद्योगिक उन्नति अपने योवन पर थी । कुटीर उद्योर्गा श्रोर देहातों को समाप्ति हो रही थी, नए नए कारखाने स्थापित हो रहे थे, जिनके चारों श्रोर पुराने गरोब दस्तकारों के खानदान अ्रपनी दस्तकारी - से वंचित होकर ओर पुराने किसान अपनी जमीनों को छोड्कर, आबाद होने लगे. थे, ओर धरे धीर ओदोगिक नगरों ने एसे वर्गों को जन्म दिया था, जिनके पास न सामूहिक जीवन के लिये अवकाश था, न पुराने मूल्यों के प्रति मोह । फी कभी इन कारखानों में पैदावार क अधिक हो जाने ओर लोगों की क्रयर्शाक्त कम हो जाने से सकट को स्थिति पैदा हो जाती थी और अपने माल की खपत के लिय हकूमत का या तो समापवती दर्शों से युद्ध करना पड़ता था ओर या एशिया और अफ्रोका के सुदूरवती भद्दाद्वीपों में उपॉनवेश स्थापित करने पड़ते थे । इकबाल ने पाश्चात्य चिंतकों को इस स्थिति से अत्यधिक छक्षुब्ध पाया। .. स्िंगर की पुस्तक “पश्चिम का पतन! ( डिक्लाइन आफ वेस्ट ) को बड़ा चर्चा . थी। हीगल ओर माक्स, नी* श्रौर ब्रगसाँ जैसे दाशनिक बुद्धि को चरम [ भाग १० ] .. झदू-काव्य-चारा के .. ४७९ मापदंड मानने से इनकार कर रहे थे ओर जिस विचारपद्धति के फलस्वरूप भोतिक जीवन की सुख सुविधा और ओंद्योगिक प्रगति को अन्‍्योन्याश्रित समझा जा रहा था, अ्रब उसका जादू टूट रहा था । इफ्बाल के लिये यह अनुभव बहुत ही शिक्षाप्रद था। भारत, बल्कि एशिया के सभी देश जिस्त उन्नति और निर्माण के स्वप्न देख रहे थे उसका चित्र उनके सामने था। राष्ट्रप्रेम, जातीयता और स्वतंत्रता का क्या यही अरथ है कि एक जाति दूसरी जाति के खून की प्यासी हो _ जाए. १ क्या जाति और देश की कल्पनाएँ यही हैं कि मानवता वर्ण और वंश, भूगोल और इतिहास के विभिन्‍न क्ल्चों में बैं. जाए और एक फो दूसरे के विरुद्ध युद्ध के लिये उकसाया जाए. ? द इकबाल के देशप्रेम ने इसका उत्तर नकारात्मक दिया। इफबाल के . सामने जातिप्रेम की इतनी सीमित कल्पना न थी जिसको वह कभी फासिज्स की शवल में, कभी उपनिवेशवाद के रूप में ओर कभी दासता ओर श्रत्याचार के रूप में देखते । यहीं से उनकी लय ध्सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा? से अलग हो जाती है और वह मानवता के मविष्य के बारे में सोचना शुरू करते हैं। यदि पश्चिम फी श्रोद्योगिक उन्नति मानव फो सुख सुविधा नहीं दे सकती तो फिर इसकी मंजिल क्या हो रुकती है? इसके उत्तर में दूसरा जीवनदशन सामने आता है जिसे एशिया ने शताब्दियों से श्रपना रखा है। इस दृष्टिकोश के . आधार पर मानव की उन्नति भौतिक रुखसुविधाओं के स्थान पर आत्मपविन्रता _ से हो सकती है, ओर उसके लिये भोतिक उन्‍नति की दौड़ धृष अनावश्यक है। वस्तुतः मन फो इन क्षुद्र मायाजालों में फँसाना जगत्‌ के वास्तविक ज्ञान से वंचित _ हो जाना है। इफबाल दर्शनशास्त्र के एक छात्र के रूप में विशेष रूप से ध्तसब्बुफः का अध्ययन कर रद्दे थे। उन्होंने वेदांत के हिंदू तसब्बुफ और' इंब्न-ए-अरबी से प्रभावित इस्लामी तसव्बुफ में आध्यात्मिक एकस्वस्ता की खोज करके दोनों फी आलोचना को; और उन्हें ( अहंता ) का प्रबल समर्थन किया । इनके यहाँ यह जगत्‌ न दृष्टिभ्रम है और न माया है तथा यह जीवन महान्‌ शआ्रावरणु भी नहीं है, बल्कि 'अ्रहंता' ही वस्तुतः जग्त्‌ का बेंद्र और जीवन की स्वीकृति है। 'अहंता' की कल्पना इकबाल के निकट बहुत व्यापक और गंभीर है । द तसब्बुफ ने प्रायः हर रूप में इच्छात्याग पर बल दिया है। बुद्धमत ओर वेदांत से लेकर इस्लामी तसव्बुफ के कुछ संप्रदायों तक दर एक ने 'अहंता” के परित्याग का यही मार्ग बताया है कि मानव अपनी इच्छाओं पर इस प्रकार विजय प्राप्त कर ले कि उसकी ( भगवान्‌ ) इच्छा पर पूर्णतः निर्मर हो जाए, ओर भाग्य से सका फोई विरोध न रहे | इसके विपरीत इक बाल ने इच्छा” फो ही जीवन का है अस्वीकार किया। उन्होंने खुदी? 3+५७५००२७+मजमक पवन 58 दे .. हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास मूल तत्व माना | जीवित मानव की सबसे पहली निशानी उनके विचार में यही है कि वह इच्छाएँ और अमिलाषाएँ रखता है शोर उसके दुःख दर्द कम करने का मार्ग यह नहीं कि इच्छाओं का त्याग करके मानव श्रात्मसमपंण कर दे और झजशानजन्य अ्रस्तित्व पर संतोष फर बेठे बल्कि मानव जीवन फा रहस्य निरंतर स्चेष्ट रहने श्रोंर एक मंजिल से दूसरी कहीं अ्रच्छी मंजिल की ओर श्रग्नसर होने में है। इसमें श्रकमंश्यता और गतिरोध फी खोज मृत्यु है । क्‍ द लेकिन यहाँ यह प्रश्न उठता है कि जब एक व्यक्ति अ्रपनी सारी इच्छाओं की पशुता का प्रयास करेगा तो निश्चय ही उसकी इच्छाएँ दूसरे व्यक्तियों से ओर एफ जाति को सामूहिक इच्छाएं दूसरी जाति को इच्छाओं से ठकराएँगी झोर इनसे एक विश्वव्यापी फलह खड़ा हो जाएगा । इस कठिनाई का समाधान इकबाल ने 'अहंता” को दो प्रकारों से विभक्त करके प्रस्तुत किया । एक अहंता? वह है जो दिसी दिव्य शक्ति के अधीन नहीं है; जो केवल श्रपने स्वत्व पर आश्रित है श्रौग जो समाज या समष्टि से मेल नहीं खाती | यह इसकी ध्वंसात्मफ स्थिति है श्रोर उसका विकृत रूप है। दूसरे प्रकार की “अहंता” वह हो सकती है जो समाज और मानवता से समभाव रखती हो। और जिसकी पूर्णाता केवल निजी लाभ श्रथवा व्यक्तिगत उपलब्धियों के लिये ही न हो, बढ्कि वह सामहिक सचा को श्र छतर मंजिलों की ओर गतिशील कर सके । इस प्रफार “इबलीस' फो उन्होंने अरसम्य एवं ध्वंसात्मक 'अ्रहन॑ंता? का प्रतीक माना । वह क्रियाशील भी है और गतिमान्‌ भी; लेकिन उसकी “अइंता! ईश्वर के प्रत आत्मसमपंण नहीं करती, ओर सामूहिक ता से सामंजस्य नहीं कर सकती | इसके विपरीत समाज या समष्टि के, साथ सामंजस्य के द्वारा अहंता? . के ऐसे रूप का विकास होता है जो सभ्य और संस्कृत है और जो विश्वकस्याण का उद्द श्य भी पूरा करता है । इस प्रकार इकबाल ने सम ज से गहरे लगाव को अहंता' की पूणुता का रहस्य माना है _फर्द कायम रब्त-ए-मिब्लत से है तन्हा कुछ नहीं । मौज है दरिया में ओर बेरून-ए-दरया कुछ नहीं ॥ 7 है यकीं मुहकम श्रमल पैहम मुहब्बत फातह-ए-आलम । जिहाद-ए-जिदगानी में ये हैं मर्दों फी शमशीरे || - | | ५८ “20 आल हा खुदी क्‍या है राज-ए-दरून-ए हयात ... खुदी क्‍या है बेदारी-ए-काश्रनात | [ भाग धन : डदू काव्य-धारा ८१ खुदी जलवा बदमस्त-ओ-खल्वत पसंद, समंदर है इक बूँद पानी में बंद ॥ > " ५< ग्रजल इसके पीछे अ्रबद सामने, न हद इसके पीछे न हृद सामने || ः पूर्वीय देशों की निष्प्राण अभिरचि और पश्चिम की निर्जीव और अंधी . कार्यक्षमता--इन दोनों से क्षुब्थ होकर इफबाल इन दोनों का एक समन्वित रूप प्रस्तुत करने की चेष्टा करते हैं श्ोर इस चेष्टा में इस्लाम का नया दृष्टिकोण सामने लाते हैं। इकबाल फी दृष्टि में इस्लाम एक मजहब या मौलवी फी आस्था नहीं . है, बल्कि वह इसमें एक विशिष्ट व्यवस्था की खोज करते हैं और उसको “अ्रजम' वालों के प्रभाव से विमुक्त करके एक विश्वव्यापी दर्शन के रूप में ग्रहण करते हैं । इस मार्ग में उन्होंने बहुत से दाशनिकों से प्रकाश ग्रहण किया है। इनकी फारसी रचनाओं “असरार-ए -खुदी', 'रम्‌ ज-ए-बेखुदी', और 'पयाम-ए-मशरिकः में इन सब्र दाशनिकों के चिंतन के स्पष्ट संकेत कवित्वपूर्ण शेली में प्रस्तुत हैं। वह नीत्शे से बहुत कुछ ग्रहण करते हैं। उसकी तरह वह भी भावना और प्रेम को बुद्धि ओर तक से कहीं अधिक सशक्त और उज्वल समभते हैं । बरगसाँ की भाँति वह भी भगवद्येम" की मस्ती में विश्वास रखते हैं। हदीगल के संघर्ष- सिद्धांत से उन्होंने बहुत कुछ सीखा है। माकक्‍्स के विचारों से एक ओर उन्होंने सरमायादारी की विषमताओं को किसी सीमा तक समझता है, दूसरी ओर पतन की विभीषिकाओं फो जाना है। लेकिन इन सब में जिनके साथ वह सबपे अधिक संत्रद्ध हैं वह हैं मोलाना रूम | कुरान मजीद ओर मुसलिम सिद्धांतों की व्याख्या में वह बहुत कुछ मौलाना रूम को पथप्रदर्शक स्वीकार करते हैं | इकबाल ने एघणा ओर क्रियाशीलता को अहम! का रहस्य बताया है, और क्रियाशीलता तथा निर्माण, अहम! में निरंतर विफलता और स्थायों संघष को वह भावना के अधीन अधिक, और बंद्धि तथा तक की सहायता से न्यूनतर समभते हैं| वह प्रेम को 'फकीर-ए-हरम” ( फाबे का फकौर ) और अ्रमीर-ए-जनूद ( सेनाओं का सरदार ) के रूप में वर्शित करते हैं, ओर इसमें निर्मीक होकर भड़कती आग में कूद पड़ने फो वह बुद्धि के 'तमाशाए लबे बाम' से फहीं अ्रधिक प्रिय समझते ई । इस तरह रोमानो चिंतर्कों को भाँति उन्हें वेयक्तिकता फी कल्पना भी अभीष्ठ है, ओर वह मानवीय समाज के विकास फी कल्पना “'मद-ए-कामिलः ( पूर्ण पुरुष ) के रूप में करते हैं, जो न केवल श्रह॑ंभाव रखता हो, बल्कि उसका १०-५६ ६ अर बज क्‍ हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास ग्रहम सामृहिफ स्वर को पूरे रूप से अपने व्यक्तित्व में समाविष्ट कर सकता हो। इसलिये उनकी सबसे अधिक प्रिय निशानी 'शाहीं? पक्की है; जो फर्म और गति का प्रतीक है, जो प्वतों की चोटियों पर बसेरा करता है, जो उड़ान में श्राह्मद फा नुमव करता है और निरंतर संघर्ष का अमिलाोी है द इकबाल को उद्ूं रचनाओं में महत्वपूर्ण नज्में हें-- 'खिजर-ए-राष्ट'; _ 'ुलूअ-ए-इस्लाम', साकीनामा', “मस्जिद-ए-कुरतबा,. “जौफ-श्रों-शौक!, गैजेत्नील-श्ो-इबलीस' ओर “इबलीस की मजलिस शुरा!। इनकी पूरी रचनाओं सें एक दाशंनिक ऐक्य ओर एफ दृष्टिकोण मिलता है। यह दृष्टिकोण फा काव्य है जो सूध्टि का हजारों दिशाओं से अ्रध्ययन करता है श्र इर विभाग का एक विशेष दृष्टि से सवंक्षण करता है। इसमें सिद्धांतों का प्रकाश है, लेफिन उपदेशा- त्मकता का सतहीपन बहुत क्रम हैं। यह फाव्य सामयिक रूप से भावनाओं को भड़फाने का श्र।चरण करने पर तैयार करने या विशेष स्थितियों में विशेष प्रभाव उत्पन्न करने के लिये नहीं रचा गया है। इसका उद्द श्य चेतना फा परिष्फार श्रोर व्यक्तित्व का विक्रास है। इकबत्राल के दाशनिक चिंतन पर विभिन्‍न तालिकों द्वारा आज्तेप फिए गए हैं। निस्संदेह उसे हर प्रकार के विरोधात्मक विचारों से रहित नहीं माना जा सकता | मुस्लिम लीग के इलाहाबाद अधिवेशन की अ्रध्यक्षता करते हुए उन्होंने इस्लामी जगत्‌ की एकता की जो कल्पना प्रस्तुत की थी और पाकिस्तान! शब्द का प्रयोग किया था, उसके आधार पर उनपर सांप्रदायिकता का दोष भी लगाया गया। कुछ लोगों ने इनके “पूर्ण पुरुष” की कल्पना के झ्राधार पर इनपर 'फासिज्म” का दोष भी लगाया। लेकिन वाघ्तविकता यह है कि इकबाल का संदेश केवल मुसलमानों के लिये नहीं | इनका इस्लाम परंपरागत ः सिद्धांतों पर श्राघारित भी नहीं है। इकबाल वस्तुत: मानव मात्र के आर्थिक, सामाजिक ओर सांस्कृतिक हितीं की जो सुव्यवस्था प्रस्तुत करना चाहते ये वह _ उन्हें इस्लाम को एक विशेष कल्पना में दिखाई दी, और क्योंकि यह विचारधारा विश्वव्यापी और सर्ग्राह्म है, इसलिये इसे सांप्रदायिक कहना उतना ही गलत है जितना कि मिल्टन के पेराडा ,ज लॉस्ट” को ईसाई मत का, तुलसीदास के रामचरितमानस? को हिंदू धरम का काव्य कहना | .. वस्तुत: इकबाल दाशनिफ की अ्रपेक्षा फवि अधिक हैं। अ्रब से पहले डदू काव्य को किसी ने इतने अधिक सार्वभौम, सारगर्भित और गंभीर दर्शन का माध्यम नहीं बनाया था| सुधारवादी नज्में लिखनेवाले और सोह श्य काव्य- रचयिता प्रचार के जोश ओर विचारों के प्रवाह में प्रायः काव्य के सौंदययंविधायक [ भांग १० ] उदू -कांब्य-घारा 9८ रे तत्वों और साहित्यिक विधि विधानों की उपेक्षा कर बेंठे ये। लेकिन इकबाल अपनी गंभीर दाशनिकता के साथ साथ काव्यगत सौंदर्य को भी पूरी तरह निमाने में सफल हुए हैं। इनके काव्य में न केवल दाशंतिक चिंतन मिलता है, बल्कि यह चिंतन सुदरतम काव्यविधानों में ढालकर प्रस्तुत किया गया है। उनकी एक अन्य विशेषता यह है कि पुराने प्रतीकों फो उन्होंने बिल्कुल नए. श्रर्थों में इस्तेमाल किया है । इकबाल के काव्य सें अ्रहं, बुद्धि व प्रेझ; चिंतन व दृश्कोण, प्रेमो- न्‍्माद व तर्क की सारी पुरानी परिमाषाएं मिल्ती हैं, लेकिन इनके दाशंनिक चिंतन ने उन्हें नए अर्थां में ग्रहण किया है । इसके श्रतिरिक्त छब्दों की संगीतात्मकता, पद्चबंघ की चुस्ती, बाह्य दृश्यों के अंकन, ओर आ्रांतरिक प्रभावों के चित्रण के अनुपम नमने उन्होंने प्रस्तुत किए हैं। दर्शन की गंभीर समस्याओं का साहित्य फी सूक्ष्म कोमलता ओर काव्यसोडव के साथ इतना मनोरम समन्वय डदू काव्य के इतिहास में अभूतपूव है। ु इस युग में दूसरी महत्वपूर्ण आवाज रोमानी साहित्यकारों की थी। इन्होंने काव्य में उपादेयता और उपदेशात्मक एँवं नेतिक और राजनीतिक प्रचार के आग्रह के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में साहित्यिक बारीकियों के प्रयोग पर बल दिया और काव्य फो व्यक्तिभावना की प्रबललता तथा यथावत्‌ प्रत्यंकन तक सीमित रखा। कुछ साहित्यिकों फी वेयक्तिकता इतनी अधिक विशद और प्रबल थी कि वह जीवन फी विभिन्‍न सीमाओं से टकराई ओर सुव्यवस्था के दर पक्ष फो अपनी एघणा के अनुसार ढालने फी आवाज ऊँची फरने लगी | परिणामत: इस युग के रोमानी कवियों के प्रेम में सुंदरता की अपेक्ता उससे उत्पन्न मादकता की मात्रा अधिक है। क्रांति की कल्पना इनकी आंतरिक एषणा की ही द्योतक है ओर इनके लिये स्वतंत्रता राजनीतिक मुक्ति फी नहीं, वरन्‌ दमन श्रोर दासता से विमुक्ति की पर्याय है, जहाँ वह अपने स्वप्नों को सरलता से साकार कर सके | रोमानियत के उत्फर्ष काल में एक तो हाली की नेतिकवता, और उनके परवर्ती काव्य की उपादेयता की प्रतिक्रिया शामिल थी ओर दूसरे इसमें थगोर फा प्रभाव भो था। इसके साथ साथ पाश्चात्य साहित्य से संबंध अब अपेक्षाकृत निकट होता जा रहा था| पाश्चात्य काव्य का अर्थ अब विक्टोरिया युग का नीतिफाव्य नहीं रह गया था; अरब तो वहाँ के सोंदर्यप्रमी और रोमानी कवियों ने हमारी काव्यचेतना को प्रभावित करना शुरू कर दिया था। फिर अब॒॑-उल-कलाम आजाद और इफबाल फी समुज्ज्वल वेयक्तिता ने उदू कवियों फो भी वेयक्तिकता ओर अ्रतीत के बेमव की ओर आराइृष्ट फिया । भावनाओं की मशालें जगमगा चर हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास उठीं श्रौर इश्क ने 'तमाशा-ए-लब्र-ए.बाम” से उतरकर बेखतर “आतिश-ए- नमरूद' में कूद १ड़ने को श्रधिक श्रयस्कर समझता । | रोमानी कवियों में सबसे महत्वपूर्ण नाम श्रस्तर शीरानी का है। अख्तर की श्रारंभिक नज्मों में औरत, उसका सोंदय और उसका प्र म॒ सृष्टि फा सार तत्व है। श्रस्तर ने पहली बार स्पष्ट रूप में ओर निर्भीक होकर प्रेम किया है ओर श्रपनी प्रेयती का नाम लेकर श्राहें भरी हैं। लेला, सिलमा, रेहाना और उजरा के नाम फाल्पनिक सही, पर उनके हाव भाव हमारी श्रपनी पृथ्वी और समाज की जीती जागती औरत के से हैं, जो बेचेन दोती हैं ओर बेचेन करती हैं, जो कहीं देद्दात के प्राकृतिक अल्डड़पन के साथ, कहीं सजे हुए 'पाईन बाग! में “सुनहरे पानी में चाँदी से पाँव लटकाए?, ओर कहीं चाँदनी रातों में फल्पना के लोक में दिखाई देती है। श्रर्तर शीरानी का प्रेम रुग्ण प्रमी का नहीं, वरन्‌ एक सामान्य मानव का प्रेम है। यह ओर बात है कि भावनाओं की डत्कटता के कारण इन्होंने इसे जीवन का एक रूप समभने के स्थान पर इसे जीवन फा सार तत्व ही घोषित कर दिया है । अख्तर ने सूक्ष्मता से परे रहकर मादकता को जिस उत्कटता से श्रपनाया है उससे यह विचार उत्पन्न होता है कि उन्हें सौंदर्य से अ्रधिक प्रम अ्रभीष्ट है। वह किसी विशेष प्रेयली के हाव भाव का शिकार होने को श्रपेज्ञा मादकता के प्रति श्रधिक आकृष्ट हैं ओर इस मादकता के लिये “जज्बा-ए-रोमान”ः और लैल् घिलमा; शीरीं श्रोर उजरा केवल शीषक मात्र हैं रोमानी कवियों में सामाजिक स्वर और तूफान; तथा चमकती और कड़फती बिजलियों से भरा तत्व जोश मलीहाबादी ने शामिल फिया। जोश सन्‌ १८९६ में पैदा हुए । श्रवध की सेना के भूतपूव रिसालदार फकीर मुहम्मद खाँ धोया? इनके दादा थे। इन्हें अपने पठान होने ओर योद्धा वंश से संबंधित होने का सदेव गर्व रहा है। अरबी ओर फारसो की कुछ शिक्षा प्राप्त करने के बाद होने अ्रंग्र जी पढ़ना शुरू किया | बाद में हेदराबाद में 'दार-उल-तजमा” से संबद्ध रहे। उन्होंने सन्‌ १६१६ में “कलीम” नामक पत्रिका निकाली; जिसके द्वारा अपने युग फी साहित्यिक अ्रभिरच के विकास में महत्वपूण भाग लिया। इस युग के बाद से उनफी नज्मों में राजनीतिक स्वतंत्रता की चेतना अधिक होती गई . आर उनके क्रांतिपूर्ण काव्य ने भारत के स्वातंत्र्य संग्राम में बड़ा काम किया | जोश का फाव्य सच्ची रोमानी भावना से शुरू होता हे । इन्हें उत्कट भावना और श्रोजस्विता में रुचि है। उन्हें मद्धम रंगों के स्थान पर शोखी से प्यार है। रोभानी साहित्यिकों की भाँति उन्हें अतीत की स्मृति के प्रति असीम श्रद्धा है। इन्होंने जिस वस्तु को चाहा है, भावना की पूरी उत्कटता और व्यक्तित्व है [ भाग १० ] उदू -काब्य-धाँरा ४८४. की पूरी शक्ति के साथ चहा है। इनके फाव्य में बिछुड़े हुए क्षणों की मनोरंजकता भी मिलेगी । भारत और इस्लाम की अ्रतीतकालीन प्रतिष्ठा श्रीर मव्यता भी 'मिलेगी। प्राकृतिक दृश्यों से संबंधित प्रमगीत भी मिलेंगे। प्रातःकाल ओर अन्य प्राकृतिक दृश्यों के जितने ममस्पर्शी चित्र जोश में मिलते हैं, उदू के किसी दूसरे कवि में फठिनता से मिलेंगे | प्रकृति, इनके विचार से, केवल स्त्रगिक दृश्य ही नहीं हे बल्कि एक शिक्षालय भी है, जो कभी ईश्वर्रय सच्ता के प्रमाण प्रस्तुत करती हैं तो कमी मानव की व्यथित चेतना का रहस्य खोलती है । जोश फा काव्य योवन की मादकता का काव्य है, ओर इनका राजनीतिक काव्य भी इसका एक भाग है। वह भावना के उत्तेजित रूप में विश्वास करते हैं । वह इस तढ्षप, इस भावनात्मक श्रनुभुति को बोद्धिकता का साधन समभते हैं। उनके & गारिक काव्य में यह उच जना परंपरागत नेंतिक श्रोर सामाजिक बंधर्नों से विद्रोह का रूप धारण फरती है, जो हमें 'जामनवालियाँ?, मेहतरानी', क्रोहिस्ताने दकन की ओरत?, 'जंगल की शाइजादी? आदि नफ्ज्मों में जाति पाँति; सामाजिक व्यवस्था श्रोर बंधनों से मुक्त होकर मिलता है। वह भावना को पूरी तरह खुल खेलने फी आ्राजादी देना चाहते हैं, ओर इसलिये उनके काव्य में आअहाद का जैसा भरपूर और रूपसोंदर्य का जैसा मोहक चित्रण मिलता है वह अपना उदाहरण आप है : जुल्फों को हटा के कुनमनाया कोई, फर्श-ए-मखमल पै रसमखाया फोई । जैसे बुंदन पै मोज-ए-अक्स-ए-महताब, यो चोंक के सुबह मुस्कराया कोई ॥| इनकी नज्मों-- अश्$ अव्वलीन', “जवानी', अँगीठी', 'ऐ नरगसे जानाँ; यह नजर किसके लिये है?, “यह कौन उठा है शरमाता” में रूपसोंद्य और अ्ाह्यद का भरपूर रंग पूरे निखार के साथ मिलता हैं। रोमान के माध्यम से जोश सामाजिक क्रांति और राजवीतिक स्वतंत्रता तक पहुँचते हैं। जब वेयक्तिक इच्छाएँ और रोमानी अ्रमिलाधाएँ भौतिक ग्रधिकारों से यकराती हैं तो उन्हें सामाजिक परिवतन अत्यंत श्रावश्यक् प्रतीत होता है, ओर वह सारी व्यवस्था फो नए! सिरे से सानव की भावनात्मक श्रवश्यकताओं के श्रनुसार ढालना जरूरी समभते हैं, ओर उनका प्रह्मर नीति, धर्म ओर परंपरा को घिसी पिटी परिकल्पनाश्रों से लेकर दासता व अत्याचार तक सभी पर होता हे | राजनीतिक क्रांति की आ्राग को जोश ने जिस सुदरता के साथ श्रपनी रचनाओं में समाविष्ठ किया है, उसने हमारे यहाँ क्रांति काव्य! को नवीन युग की एक प्रमुख प्रदत्ति बना दिया है। इसमें संदेह नहीं कि इनको क्रांतिविषयक डक: < ९२०३५ < चर. “कारक सर ह३८२२३३०५६९० ७ सह उस32५ वात रथ ९८०३८ अप ८5 पडता पा ४८६ द हिदी साहित्य का बृहव्‌ इतिहास कट ॥ रोमानी ओर भावनात्मक है, इनके संमुख भी इस युग के बहुत से राजनीतिक नेताओं की तरह स्वतंत्रता के बाद के भारत फी कोई सुनिश्चित एवं स्पष्ट फल्पना नहों थी, लेकिन राजनीतिक क्रांति की अ्भिलाषा इनके यहाँ पूरे सोंदर्य श्रीर उत्साह के साथ मीजूद है। इनके काब्य में उपदेशात्मकता की भलकियाँ भी कहीं कहीं मिलती हैं, लेकिन भावना की उत्कटता और “इब्रानी काव्य! के से जोश ने इनके “क्रांति काव्य! को शअ्रत्यंत प्रभाशशाली बना दिया है। इनकी आ्रावाज में अहं ओर शक्ति है, जिसने नई पीढ़ी में स्वाभिमान, साहस ग्रोर क्रियाशीलता की भावनाएं जगा दीं। हफीज पर इकबाल का प्रभाव पहले तो 'जिदगी?, आजाद वादी! और 3 गा रत ५ छा प मुहम्मद अली' जैठी नज्मों में प्रकट हुआ, जिनमें एक दाशंनिक शेली ग्रहण फरने की चेश की गई है ओर बाद में 'शाहइनामा इस्लाम? की बृहद्‌ रचना के रूप में | शाहनामा! को हफीज का महत्वपू्णु काव्य माना जा सकता है। उन्होंने मुघलमानों के उत्क्र५ के इतिहास को 'रसूल अल्लाह” के यग से नज्म के साँचे में प्रस्तुत किया है। यद्यपि इसमें संतुलन और प्रसादगुण सवंत्र नहीं मिलता फिर भी, इसके कुछ भाग विवरणात्मक काव्य के उत्कृष्ट नमुने कहे जा सकते हैं । इस युग में सागर निजामी, एहसान दानिश और रविश सिद्दौकी ने ्राधुनिक उदू' काव्य में एक नई प्रवृत्ति को जन्म दिया । सागर की नज्में जातोय भावना और राजनीतिक स्वतंत्रता फो लगन से भरपूर हैं। उन्होंने संगीतात्मक छुंदों फो श्रपनाया ओर संगीत की नई व्यवस्था के साथ प्रतीकप्रयोग और चित्रण को अ्रपना उद श्य बनाया । इनको नज्मों में नई उपमाश्रों और प्रसंग- चित्रण का पूरा उपयोग है। विशेष रूप से 'ताजमइल शबे माह में, और बाँबी के बासी' में उन्होंने संगीत को विषय के साथ एकरस कर दिया है | एहसान दानिश ने मजदूर, किसान ओर गरीबों फी समस्याश्रों फो श्रपनी नज्मों का विषय बनाया है। इनके काव्य में सहानुभूति का तत्व अधिक है ओर द्रवशशीलता कम । मजदूरों के विष्य में इनका एक भावनात्मक दृष्टिकोण है जिससे उन्होंने जीवन के विभिन्‍न पक्षों पर दृष्टिपात किया है। जोश की (हुस्न अग्ोर मजदरी' ओर 'किसान! जैसी नज्मों का प्रभाव स्पष्ट रूप से एहसान ने स्वीकार किया है। इनफी रचना का विवरणात्मक पक्ष सजीव है। लेकिन भावना में सहानुभूति का रंग अधिक होने ओर कल्पना फी कमी के फारण इनके काव्य का प्रभाव चिरस्थायी नहीं रहता | रविश की आत्मा नितांत पूर्वीय है। उन्होंने अपनी नज्मों में पूर्वीय संस्कृति फी महा के गीत गाए हैं। प्राकृतिक दृश्यों की रमणीयता और विशेष रूप से कृश्मीर का सौंदर्य इनका प्रिय विषय है। यही नहीं, इनकी [ भाग १० | . डदृ-काब्य-घारा ४दध७ आदि युग फी फल्पना ओर सोंदय एवं प्रेम की भाषना भी पुरातन सुव्यवस्था से प्रभावित है। 'एतराफ!, अभी न जा! तथा दूसरो नज्मों में वह अफ्लातून की रूपसोंदर्य विषयक घारणा के बहुत निकट दिखाई देते हैं, जिसमें प्रेम केवल निरंतर परेशानी का नाम है, ओर रूपसौंदर्य केवल भक्ति के लिये है। प्रेम का उद्द श्य विरह और स्थायी पीड़ा है, ओर इसे सफल बनाने की चेष्ठा पाप । रविश की इन छोटे छुंदोवाली नज्मों में रूपचित्रणु के प्रयोग भी मिलते हैं और प्रतीर्को के अच्छे नमूने भी , लेकिन सामूहिक रूप से रविश प्रकृतिप्रेम और सौंदयप्रेम की इस विचारधारा के प्रतिनिधि हैं, जो रोमान के साथ उदू काव्य में शुरू हुआ था। नज्म के साथ साथ गजल में भी नए खरों का रस औझौर नए लहजे फा प्रभाव पैदा हुआ । यों तो गजल में सुघारवादी आंदोलन इससे बहुत पहले शुरू हो चुका था, लेकिन नवीन चेतना फो प्राप्त करने में गजल काफी समय बाद सफल हुईं । यह नूतन आकषण पुरी तरह से हसरत मोहानी, अ्रसगर गोंडवी, फानी बदायवीं और यग।ना की गजलों में प्रकट हुआ है--यद्यपि इससे पूर्व शाद की गजलें अश्लीलता और सतहीपन फो दूर करके कवित्व के नए, प्रतिमानों की तलाश शुरू कर चुकी थीं । शाद अजीमाबादी की रचना में न तो परंपरागत निराशावाद की भलकियाँ हैं और न तसव्व॒ुफ फी पुरानी तर्ज है। उन्होंने गजल में प्रफुल्लता, उत्फट बाँकपन और सहन प्रसन्‍न शैली के निर्वाह की फोशिश की है। इनके काव्प में नतो रुग्ण श्राॉतरिकता है और न रुग्णु ब्रिलासिता। हाँ, आह्ाद इनफा धर्म है, और इसकी सहायता से वह अपने वश्य विषय में एक तजावट, ग्रौर अपने अ्रनुभवों में उज्वलता एवं ताजगी बनाए रहते हैं। कुछ शेर लीजिए द अगर मरते हुए लब पर न तेरा नाम श्राएगा . तो में मरने से दरगुजरा मेरे किस काम आएगा | शबे हिजरां की सख्ती हो तो हो लेकिन यह क्या कम है कि लब् पर रात भर रह रह के तेरा नाम आएगा | कहाँ से लाऊ सब्र-ए-हइजरत ए-इ्य्यूब ऐ साकी खुम आएगा, सुराही आएगी तब जाम आएगा। »< >< »< दढोंगे अगर मुल्कों मुल्कों मिलने के नहीं, नायाब हैं हम। ताबीर है ज्ञिसकी हसरत-ओो-गम, ऐ. हम-नफसो | वह ख्वाब हैं हम | मुर्गान-ए-बफस से फूलों ने ऐ शाद यह कहला भेजा हे | आा जाओओ जो तुमफो आना है ऐसे में भी शादाब हैं हम ॥ ५८ >< ५८ ध्घद . हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास यह बज्म-ए-सें हैं याँ कोताहदत्ती में है महरूमी जो बढ़कर खुद उठा ले ह्वाथ में मीना उसी का है। ५८ . »< खामोशी से मुसीबत और भी संगीन होती है तड़प ऐ दिल तड़पने से जरा तस्कीन होती है ॥ हसरत की गजल रचना; फिराक के फथनानुसार, “नरम और रखे हुए कवित्व और आश्चर्यजनक प्रौदता का समन्वय है!। हसरत के व्यक्तित्व में नूटनता थी | वह एक ही समय' में सूफी, राजनीतिक नेता और कवि सभी कुछ थे | व्यवस्थित और अभिजात फाव्यरचि की सहायता से वह इन सब्न प्षों फो गजल के क्षेत्र में पूरे मनोयोग श्रोर मादकता के साथ प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने सदा अपने काव्य फा ध्येय यही रखा है कि प्रेमाख्यानों के वर्शन में कृनिमता से काम न लिया जाय औ्रौर भावनाओं का यथावत्‌ प्रतिनिधित्व हो, चाहे वे भावनाएं उत्तम कोटि की हों या श्रधम कोटि की | “हसरत ने अपने जीवन में प्रेम, धम और राज- नीति की सीमाश्रों फो कई स्थलों पर मिला लिया था।! लेकिन इन तीनों भाव- नाश्नों फो वह गजल ही की शेैंली में ओर संकेतात्मकता के साथ प्रस्तुत करते हैं । हसरत के काव्य में असीम प्रेममावना है शऔ्रौर इनका प्रेम स्वास्थ्यप्रद और वास्तविक है। इसमें न दाग के फाव्य की सी विल्लासिता है और न मीर के 'नंगे पाँव कफोठे पर श्राने ओर “आँचल को दाँतों में दबाने! का भी । वह प्रेम में दाग के कथनानुसार ऐसे लुत्फ भी उठाते हैं ओर ऐसी वेदना श्रौर गम मी कि जी जानता है। हसरत ने कई उत्तादों से प्रभाव ग्रहण फिया। मीर से सादगी और आंतरिकता ग्रहण फी। मोमिन की परिकल्पना ओर विषयनिष्ठत्त को ग्रहण किया | जुरश्नत और इंशा की अ्रश्लीलता फो छोड़कर उनके प्रेम से इन्होंने इसी घरातल के वश्य विषय और सॉंदर्यानुभूति ग्रहण फी। मुसहफी व नसीम देहलवी से कवित्व की सँमली हुई, भव्य शैली प्रात्त की--और इन सबको मिलाकर अपने काव्यमवन का निर्माण किया | इनका कर्माल यही है फि इन्होंने गजल के इस परंपरागत रंग में साज सज्जा ओर वेयक्तिक चेतना पैदा कर उसे बीसबीं शताब्दी के साधारण जन की भावनाओं को प्रकट करने का माध्यम बना दिया । हसरत के काव्य में जहाँ प्रेम की पुष्ट तथा स्वस्थ कल्पना थी; वहाँ फानी की गजल एफ विशिष्ट काव्यकोशल की गद्योतक थी। मीर के उपरांत इतनी गहरी वेदना ओर निराशा फानी के श्रतिरिक्त और किसी कवि के यहाँ नहीं मिलती । [ भाग १० ] ..... उर्दू-काच्य-घारा क्‍ ४८६ फानी का गम मीर फी भाँति कवि की प्रकृति का एक अ्रंग होने की श्रपेद्धा उसकी चिंता ओर चेतना का अंश बन गया है। कानी की निराशावादिता केवल भावना और अनुभूति की देन नहीं है, वह जीवन फो एक स्थायी दर्द समभते हैं ओर इसे उनका दृष्टिकोण ही समभना चाहिए । फानी ने गजल को केवल अनुभूतियों के संप्रघण का माध्यम ही नहीं बनाया, बल्कि उसे अपने जीवनविषयक चिंतनदर्शन का आधार भी माना है। फानी की निराशाबादिता केवल सूफियाना नहीं है, वह वेयक्तिक अनुभव की प्रबलता से ओतप्रोत है। फानी ने गजल का प्रयोग इसके पूरे क्‍लासिकी निखार के साथ किया है। और साथ ही इसकी अव्यवस्था फो श्रपने दार्शनिक चिंतन द्वारा दूर फरने का सफल प्रयास किया है। यह श्रोर बात है कि इनका ज्ीवन- दर्शन वेदना ओर निराशावाद की गहरी बदलियों में घिर गया है फानी ही वह इक दीवाना था जो मोत से पहले मर जाए द क्या होश की फाफिर दुनिया में इस मोत के काबिल कोई नहीं । हुक हज कक 36 ... 9» लज्जत-ए-फना इहर्गिजन गुफ्तनी नहीं यानी दिल ठहर गया फानी मात की दुआ करके। २५ 5 ५ हर नफस उम्र-ए-गुजश्ता फी है मय्यत फानी जिंदगी नाम है मर मर के जिए जाने का। ५ ५ ५ अदा से आड़ में खंजर फौ मुँह छुपाए हुए मेरी कजा को वो लाए दुल्हन बनाए हुए। ८ द हे 2 कर 8 गत असगर गोंडवी ने भी गजल फो एफ दाशंनिफक रूप दिणा। लेकिन अ्रसगर का दर्शन मुस्लिम तसव्व॒ुफ के अतिरिक्त कुछ न था। श्रसार ने इस्लामी सूकियों की श्रेष्ठ श्क्लाओं का प्रतित्रिंब अपने काव्य में प्रस्तुत किया है। वह सारे जगत्‌ फो परमात्मा के प्रतिबिंब के अतिरिक्त और कुछ नहीं समभते । भ्रह इनके यहाँ केवल पर्दा है और अ्रस्तित्व केवल आवरण, जो प्रेम को सौंदय से अलग फरता है। श्रसगर की दृष्टि में सौंदर्य सृष्टि के प्रत्येक पदाथ में विभिन्न रंग ढंग से दीपित है और इस भावना और प्रेंम की पराकाष्ठा यह है कि ब्रह्म, जीव ओर जगत्‌ एक हो जाएं ; १०-६२ ४६० हिंदी साहिस्‍्य का बृद्दत्‌ इतिहास ७ परतव-ए-मेहर में जौक-ए - रम - ओ - बेदारी है, बिध्तर-ए-गुल पे है हर कतरा-ए-शभ्रनम मदहोश । ताकत कहाँ मुशाहिदा - ए - बेहिज्ञाब की, मुभकी तो फूँक देगी तजलल्‍ली नकाब की। हुस्न के फितने उठे मेरे मजाक-ए-शौक से, जिससे मैं बेचेंत हूँ वह खुद भेरी आवाज है। बार-ए-श्रलम उठाया रंग - ए - निशात देखा; आए. नहीं हैं यू" ही अ्रंदाज बेहिसी के । जिगर मुरादाबादी पहले दाग और इसके बाद अ्रसगर गोंडवी के शागिद हुए। लेकिन इनका व्यक्तित्व न दाग' के सतहीपन पर संतोष कर सका और न असगर फी सफियाना शायरी पर। जिगर ने दाग से मस्ती, प्रवाह और सादगी तो अवश्य ग्रहण की, लेकिन इसमें इन्होंने श्रपनी व्यक्तिगत मस्ती और श्रपने प्रिय के प्रति संमानभाव की अ्रभिवृद्धि कर दी, श्रोर यहाँ वह असगर की दाशंनिक गंभीरता, कब्पना प्रियता, बारीफी शोर साज सज्जां से बहुत कुछ प्राप्त फरते हैं। नई पोद फो जि।र की गजल की मस्ती ओर उनके व्यक्तित्व फी गरिमा ने जितना प्रमावित किया है उतना किसी दूसरे गजलरचयिता ने नहीं किया । जिगर फी रचना में श्रनुभूति की प्रचुता और भावना की मस्ती मिलती है। वह चिंतन और दाशंनिफता से अपने काव्य फो बोमिल नहीं होने देते । जिगर का काव्य प्रेम ओर मुहब्बत का काव्य है, और उनका प्रेम प्रभाव और कुतूइल का संमिश्रण है। यद्यपि दार्शनिक व्यवस्था और चिंतनतत्व उनकी विशेषताएं नहीं हैं, लेकिन फिर भी कुतूइल ओर प्रभाव को उच्चतर एवं सोम्य स्तर पर प्रतिष्ठित करना इनके काव्यशिल्प की एफ विशेषता है, और इसे वह कवित्व की पूरी अनुभूति और क्लासिकी गजल की सारी साज सज्जा के साथ निमाते हैं। कुछ शेर देखिए : तस्वीर उमीर्दों की आईना मलालों फा इन्साँ जिसे कहते हैं महशर है खयालों का। 9८ ... ६ >८ >< ऐ चारा खाज हालत-ए-दर्द-ए-निहाँ न पूछ . इक्ष राज है जो कह नहीं सकते जबाँ से हम | २५ ह 4 शी है? | फहाँ का इश्क कि खुद हुस्न को खबर न हुई _रहए-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तिहाँ गुजरे। २५ [भांग ०] उद्‌*काव्य-घा रा क्‍ द ४६१ ऐ मुहत्सिबव न फेंक मेरे मोहत्तिब न फेक जालिम शराब है अरे जालिम शराब है। है हर ह ५ किघर से बर्क चमकती है देखें ऐ जाहिद मेँ अपना जाम उठाता हूँ तू किताब उठा । यातत यगाना चंगेजी की गजल एक मानसिक भव्यता और श्रपार उत्साह की द्योतक है। वह भाषा और वर्णन के आधार पर लखनऊ स्कूल की कफाव्य- पद्धति से घनिष्ठ संबंध रखते हैं । लेकिन बश्य विषय में उन्होंने गजल में एक विशेष फड़क और रंग ढंग स्थापित करने को कोशिश की है। यगाना फी गजल में मिराशा और बेदना पाप है । हाँ; शक्ति, सामथ्य और ताजगी उनका धर्म है। यगाना के व्यक्तित्व में वेदना और द्रवणशीलता के स्थान पर उत्साह श्रौर श्रोज है। हर स्थान पर वह इस उत्साह ओर बाँकपन का निर्वाह संतुलन के साथ फर सकते तो इनकी गजल उस युग की एक महत्वपूर्ण उद्भावना होती, फिर भी उस्तादाना फारीगरी और मुहावरों तथा लोकोक्तियों पर अधिकार, यह सब यगाना का एफ महत्वपूर्ण योगदान है । फ द सीमाब अ्रकबराबादी फी गजलों में भी कुशल कवियों का रंग ढंग मिलता है। उन्होंने गजलों में मस्ती के स्थान पर बाह्य विवरण फो काव्य का . रूप देने पर अधिक बल दिया है। उनके लोकज्ञान और श्रनुभवों में नवीनता है। उनका काव्यजगत्‌ श्आांतरिक बेदना और द्रवशशीलता तथा प्रेम तक सीमित नहीं, बल्कि इसमें सावंभौमता ओर विस्तृति पाई जाती है। सीमाब की कविताश्रं में मी नैतिक, राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं का प्रतिबिंब मिलता है। हमारे आधुनिक गजल रचयिताओं में फिराक गोरखपुरी का स्थान काफी ऊँचा है। फिराक ने गजल की रचना इन सब कवियों के अंत में शुरू को, लेकि: फिराक की गजल में वेदना कौ श्लोकिक चूतन कल्पनाएँ मिलती हैं। किराक के. यहाँ प्रेम जीवन के सामान्य इर्तों तथा घटनाओं से अनजान होकर गुजरने का नाम नहीं | वह श्रफ्लातूनी प्रेम को स्वीकार नहीं करते, बल्कि जीवन विकृतियों में 'मस्ती ओर सौंदर्यविषयक गुणों ' की खोज करते हैं) झोर यह प्रेम केवल शारीरिक क्रिया नहीं, उचम के.टि को आर्मिक और आंतरिक क्रिया भी है, जो मानव फो पाशवबृत्त से दूर रख सम्य त्॒न्‍॒ना सिखाता है। इसलिये प्र॑म फी बेदना मानव के विकास के लिये उत्तरदायी है। फिराक की गजल ऐसी ही ग्रे मपीड़ा की द्योतक है। उनका प्रंस और तौंदर्य इमारे संसार और हमारे युग के हैं। इसलि ये उनमें सामाजिक समस्याओं के दूसरे प्रतिबिंब भी मिलते हैं । किराक ने गजल में हिंदू पुराण के मिथकों श्रोर छू६२ .. हिंदी लाहित्य का बैदत्‌ इतिंदहासे उनके सौंदर्य को प्रस्तुत किया है! अंग्रेजी फाव्य की प्रकृति के अनुकरण में इन्होंने इसी धरातल के सौंदर्य में तथा इसी धरती की दलदल और धूल में सितारों की चमक और आ्राकाशगंगा की उज्बलता को देखा है । उदाहरणाथ- किया है कारगह-ए-जिंदगी में रख जिस तिम्त, तेरे खयाल से ठकरा के रह गया हूँ मैं। )< )< . >८ सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना मी नहीं , लेकिन इस तर्फ-ए मुहब्बत का भरोसा भी नहीं। ५८ 2८ )< मुद्)ं गुजरीं तेरी याद भी आई न॒ हमें झौर हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं। »< > >< हजार बार जमाना इधर से शणुजरा है नई नई सी है कुछ तेरी रहगुजर फिर भी। >५ 2५ >५ जिंदगी क्‍या है आज इसे ऐ दोस्त सोच लें. और .. उदास हो जाए। >< न्‍ 8 ' २५. पिछले चालीस पैंवालीस वर्षों के उदू साहित्य में अर्त्यत महत्वपूर्ण व सन्‌ १९३६ था, जब लखनऊ में अंजमने तरक्कीपसंद मुसन्नफीन! ( प्रगतिशील लेखकसंघ ) की नींव पड़ी | प्र मचंद ने ्पने श्रुध्यक्षीय माषण में साहित्य में न केवल सामाजिक चेतना पर जोर दिया, बल्कि इसे राजनीतिफ और सामाजिक हलचल में एक सक्रिय सहकारी की तरह प्रयोग फरने का आह्वान किया। साहित्य का प्रयोग भूख, परतंत्रता, योन संबंध तथा अन्य आवश्यक सामाजिक समस्याओं की श्रनुभूति करने और उनका समाधान दूढ़ने की कोशिश में किया जाने लगा। यहाँ एक रंगीन दौर समाप्त हो जाता है ओर हिंदी कविता फी तरह उदू' कविता भी एफ नया मोड़ लेती है। कर 'जुलहउठअट आवक अमोजल: कतकहलर५ी ऋरकानपाानतालंनधाहि एकादश अध्याय उपसंहार $ मूल्यांकन प्रस्तुत कालखंड फी श्रवि श्रत्यंत सीमित है-एफ इजार वर्ष तक प्रसरित हिंदी काव्य की विराट परंपरा में १७-१५ वर्ष की सता ही क्‍या होती है? फिर भी काव्यगुण की दृष्टि से, इसमें संदेह नहीं कि यह आधुनिक हिंदी साहित्य फा सुवर्णायुग है जिसकी तुलना सगुण-भक्ति-काल से; वरन्‌ उसके भी एक विशिष्ट खंड--अफबर-जहाँ गीर-युग से ही फी जा सकती है। इस उत्क एवं क्षमृद्धि के आधारतत्वों फा विश्लेषण फरना फठिन नहीं है। व्यक्तिगत उपलब्धि थी दृष्टि से यहाँ एक श्रोर वर्तमान युग की सर्वश्रष्ठ काव्यप्रतिमाओं का समारोह मिलता है ओर दूसरी श्रोर अ्रमर काव्यकृतियों का रम्य छायापथ । प्रवृत्तितत उपलब्धि फी दृष्टि से आधुनिक हिंदी काव्य की एक प्रमुख प्रवृत्ति-- राष्ट्रीय सांस्कृतिक फाव्यधारा का परिपाक और दूसरी उत्कृष्ट काव्यप्रद्॒त्ति-- छायावाद--का आाविर्माव एवं विकास भी इसी थुग में हुआ जिससे हिंदो कविता को नए ज्षितिज और नूतन आयाम प्राप्त हुए १. व्यक्तिगव उपलब्धि ( क ) वतंमान युग की सर्वश्रेष्ठ कविप्रतिभाओं का समारोह ... इस श्रवधि के प्रमुख फवि ही वास्तव में वर्तमान युग के प्रवश्न ष्ठ हिंदी कवि हैं जिनका स्थान हिंदी की संपूर्ण काव्यपर परा में भी इतना ही महत्वपूर्ण है। मेथिलीशरण गुप्त श्रोर प्रसाद की कविप्रतिमा की पूर्ण परिणति इसी युग में हुई । निराला, पंत तथा महादेवी की फाव्यसाथना की भव्यतम उपलब्धियों का यही युग है--और उधर माखनलाल चतुर्वेदी, नवीन, सिवारामशरण गुप्त, मगवती- चरण वर्मा आ्रादि अग्रणी कवियों फी काव्यकला का विफास भी इसी कालावधि में हुआ । आधुनिक युग में, हिंदी में ही नहीं अ्रन्य भारतीय भाषाओं में भी; कविप्रतिमाओश्रों का ऐसा समारोह दुलभ है--गुण की, अर्थात्‌ मौलिकता और समृद्धि की दृष्टि परे भी ओर वेविध्य एवं वेचितश्य फी दृष्टि से भी। मैथिलीशरणा गुप्त और प्रसाद एक युग के दो कवि; परिवेश एक, किंतु प्रकृति सवंथा भिन्‍न : एक को प्रतिभा समदिक और दूसरे की प्रतिभा ऊर्ध्व गहन विकास को ओर प्रव्नत्त रही । निराला और पंत की फाव्यसाधना समानांतर चलती रही--दोनों में ही 9६४ हिंदी साहित्य का बुंदत्‌ इतिहांस हिंदी काव्य का चरम उत्कर्ष मिलता है, परंतु अंतर उतना ही श्रधिक है जितना मधु ऋतु के समीर और वर्षा के प्रभंजन में । माखनलाल चतुर्वेदी श्रोर नवीन दोनों का जीवनधर्म एक था- देशभक्ति ओर प्रेम की वेदी पर बलिदान होना, परंतु उनकी कविप्रकृति अत्यंत भिन्‍न थी। माखनलाल चतुवंदी की प्रतिभा में रम्यादुभुत तत्वों के साथ प्रयोग करने की विचित्र क्षमता थी जिसके कारण छायावाद और प्रयोगवाद दोनों के बच में उनका समान रूप से आदर हुआ; परंतु नवीन जी की कविता में शुद्ध श्रावेग का ज्वार था। सियारामशरण गुस' की स्थिति सभी से प्थक थी, मानों समुद्र में प्रतिष्ठापित प्रंममंदिर हो। बाहर तूफान ओर आलोड्न, भीतर सत्‌ और ऋत की प्रतिमा के सामने जलता हुआ घृत का दीपक |--ओर इनके साथ ही काव्यसर्जना में लीन थे भगवतीचरण वर्मा : हाला ओर हलाहल का एक साथ पान करनेवाले, मस्ती--श्रह औ्रौर प्रणय के कवि | इस नूतन वृत्त से बाहर थे हरिश्रोध और रत्नाकर जो ब्रजभाषा फी समृद्ध काव्यपरंपरा के अंतिम समथ प्रतिनिधि कवि थे | ( ख ) अ्रमर काव्यक्ृृतियों का श्रदूधत छायापथ इस युग को हिंदी काव्य के श्रनेक फालजयी ग्र'थों के निर्माण का श्रेय प्रात्त है- मेरा विचार है कि पूववर्ती किसी भी एक युग में, भक्तिफाल में या _ रीतिकाल में, जिप्रका विस्तार इससे कम से कम दस गुना था, इतनी श्रधिक अमर कृतियों की रचना नहीं हुई। मथिलीशरण गुप्त के 'साकेत', 'यशोधरा, द्वापर! 'दिवोदास”' आदि की रचना इसी श्रवधि में. हुई; प्रसाद फी 'कामायनी' आँसू? . और 'लहर; निराला कृत 'परिमल”, “गीतिका”, अनामिकाः और “तुलसीदास! पंत के 'पल्लव' गुंजनः और 'यगांत'; महादेवी फी “नीरजा” और “सांध्यगीत', माखनलाल चतुर्वेदी तथा नवीन की सवश्र ष्ठ राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविताएँ; सियारामशरश गुप्त की अनेक स्फुट रचनाएं तथा ध्यापू', 'मधुकण” में संकलित भगवतीचरण वमो की श्रेष्ठ काव्यकृतियाँ इसी समय प्रकाशित हुई --श्रोर उधर रत्नाकर के “उद्धवशतक' तथा हरिश्रोध के 'रसफलश” फा रचनाकाल भी यही है। ये सभी चित्रविचित्र कृतियाँ फाल के फलक पर सदा के लिये अंकित रहेंगी ओर हिंदी काव्य का इतिहासकार इनके आधार पर परवर्ती काव्य का मुल्यांकन करेगा। यदि चयनिकाए तैयार की जाए तो उत्तम कृतियाँ का ऐसा रम्य छायापय पूर्ववर्ती और परवर्ती युग्गों में दृष्टिगत नहीं होता । २, प्रवृत्तगित उपलब्धि (कक) परंपरा का विफास : द द्विवेदी युग के काव्य में वर्तमान भारतीय जीवन फी जिस सर्वाधिक गी फ-चेतना का आविर्भाव हुआ था, उसके विकास [ भाग १० ] डपप्ृहार । मुरल्यांकन ... ४६४ आर परिष्कार का श्रय इसी युग के कवियों को है । हिवेदी युग के काव्य में राष्ट्रीय भावना प्राय: प्रत्यक्ष ओर सुखर है ओर नेतिक चेतना में विधि निषेध फा प्राधान्य है। वहाँ पराधीन भारत के प्राणों के आक्रोश की अ्रमिव्यक्ति ऋजु सरल है, उसमें अ्रभिधा का सीधा प्रयोग है श्रोर कर्ंव्याकतव्य की सीमारेखांएं अत्यंत स्पष्ट हैं--उसमें कथन की प्रवृत्ति अधिक है, व्यंनना कम है, मुखरता अधिफ है, गरिमा फम है। छायावाद यंग में इस चेतना में एफ ओर गहराई व शक्ति फा समावेश हुआ, ओर दूसरी ओर परिष्कार एवं समृद्धि का। भारत मारती” की राष्ट्र भावना 'साकेत' में कहीं अधिक उज्वल और समृद्ध हो गई--माखनलाल चतुर्वेदी, प्रसाद श्ौर निराला ने रम्यादभुत तत्वों फा सदर नियोजन कर उसे एक नंया रोमानी रूप प्रदान किया और सियारामशरण के फांव्य में वह एकांत सात्विक एवं तपःपूत बन गई । अतीत गौरव के प्रति पहले जहाँ एक प्रकार का सामंतीय गर्व॑मात्र था, वहाँ अरब ऐतिहासिक अध्ययन के आधार पर अ्रनेक प्रकार की सुवर्स कल्पनाएँ जाग्रत हो गई”। कवियों की दृष्टि राजपूती साइसिकता की संकीर्ण परिधि को पारकर गुप्त और मोय काल के भारत की उदाच शोर्य॑- भावना का अनुसंधान करने लगी । गांधी द्वारा प्रतिपादित सत्य और अहिसा के दशन ने एफ श्रोर उसमें वैष्णव भावना फी सात्विकता और मानव करुणा का संचार किया तो दूसरी ओर उसे आत्मा के अपूर्व ओज से मंडित फर दिया। इस प्रफार अपने पूववर्ती युग के रिक्थ का संवर्धन कर इस युग के कवियों ने परंपरा का विकास किया | ( ख ) नवीन दिशाएँ ओर आया छायावाद का आविभ्भाव इस युग फी ही नहीं; हिंदी साहित्यके इतिहास फी अत्यंत महत्वपूण घटना है। फाव्यगत रूढियों से मुक्ति का यह अपव झभियान था | छायावाद पर निश्चय ही अंगरेजी के स्वच्छदतावादी काव्य का... प्रभाव था, परतु क्रमशः उसमें भारतीय काब्यचेतना के रमणीय तत्वों का समावेश हो ग्या था। रम्य २ हदूभुत क जो सुंदर संयोग स्वच्छुंदतावाद का आधार- तत्व है, वह प्राचीन भारतीय काव्य में पूर्ण वंभव के साथ विद्यमान था। फालिदास की कविता में ऐसे श्रनेक गुणों का उत्कर्ष सहज सुलभ था जो स्वच्छुंदतावादी फाण्य के प्राशुतत्व हैं। इधर मध्ययुग के मर्मी कवियों की रचनाओ्रों में रहस्य भावना का अपूर्व ऐश्वर्य विद्यमान था। रींद्रनाथ इन दोनों के समन्वय का मार्ग प्रशस्त कर चुके थे | अतः द्विवेदी युग के समाप्त होते होते हिंदी कविता में एक ऐसी समृद्ध प्रवृत्ति का आविर्भाव हुआ जिसने हिंदी कविता के विकास की नवीन दिशाएँ ओर नए आयाम उद्वाटित फिएं। आरंभ में, जैसा कि प्रत्येक आंदोलन में होता है, हायावाद में परंपरा के विरुद्ध क्रांति का स्वर॒अ्रधिक ४६६ क्‍ हिंदी साहित्य का बहत्‌ इतिहास मुखर था, फिंतु जैसे जेसे वह सुस्थिर होता गया; भारतीय फाव्यपरंपरा फा देभव उसे आकृष्ट करने लगा और उसके कवियों में नृतनता के साथ उत्कर्ष तथा समृद्धि की स्पृद् भी बलवती होने लगी | छायावाद के प्रमुख कवियों ने अ्रपनी प्रबुद्ध सौंदर्यभावना और सच्ची काव्यप्रतिभा के बल पर अविलंब ही यह अ्रनुभव कर लिया कि सुजन में नव्यस्फूर्ति लाने के लिये नूतन प्रयोग अ्रवश्यक हैं, परंतु प्रयोग मात्र का श्र्थ सूजन नहीं है । श्रत।ः जल्‍दी ही उनके काव्य में स्थैय आा गया और वे प्रयोग न कर उत्तम फाव्य का सजन फरने लगे । नई दिशाएँ आर नए ज्ितिज तो खुल ही गए; साथ ही उनमें ऐश्वर्य का समावेश भी हो गया जिसमें मारतीय फाव्यपरंपरा की समृद्धि अंतर्भुक्त थी । ३. कथ्य का संशोधन फथ्य के संशोधन ओर शिल्प की समृद्धि दोनों की द्वी दृष्टि से इस युग का गौरव अध्षुर्ण है। इसमें काव्य के फथ्य की परिधि का विस्तार और उसके गुण का परिष्कार हुआ । द ( क ) सोंदर्य की नवीन चेतना का उन्मेष रीति युग में सौंदर्य प्रायः मघुर का पर्याय बनकर रह गया था और श्रृंगार फी परिधि अ्रत्यंत सीमित हो गई थी । भक्तिफाल में इष्ट के जिस श्रलौकिफ सौंदर्य की मौलिक कल्पना प्रतिभावान्‌ निर्शृश और सगुण कवियों ने फी थी, वह सामान्य कवियों के काव्य में रूढ्बिद्ध ३ गई थी । निशु ण॒ कवि रहस्थात्मक प्रतीकों का और सगुश कवि श्रलौफिक उपकरणों फा सवैथा रूढ़ प्रयोग फरने लग गए थे जिसमें दिव्य सोंदय के उन्मेष की अ्रपेज्ञा अलंकार का चमत्कार अधिक रहता था | द्विवेदी युग के काव्य का वह अंग ओर भी दुबल था--उससमें सोंदर्य के प्रत्यक्ष गोचर रूप का फा कथन होता था, जैसा कि उस समय के लोकप्रिय चित्रफार रवि वर्मा के चित्रों में सीधी रेखाओं और स्पष्ट रंगों के द्वारा अंकित रहता था। रोमानी सोॉंदर्यचेतना के प्रभाव से नए काव्य में मधुर फे साथ अद्भुत का संयोग छुआ--जिसके फलस्वरूप झूंगार फे आ्रालंबन एक रहस्यमय आलोक से मंडित हो उठे और शअ्रनुराग में विस्मय के तत्व का समावेश हो गया-- चित की द्वुति में दीसि का मिश्रण हो जाने से * गार के पर॑पराभुक्त स्थायी भाव के _ स्वरूप में संशोधन हो गया। अरब सौंदर्य की कल्पना मानों शरीर के अंगों के चक्षुगोचर 'रूप' से आगे बढ़कर मनःगोचर 'लावशय”ः तक पहुँच गई थी। इस सूक्ष्मतर सौंदर्यव्यंजना फो प्राचीन मर्मजञों ने 'छाया? भी कहा है : द मुक्ताफलेषु छायायास्तरलत्वमिवान्तरा । प्रतिभाति यदंगेषु तल्‍लावर्यमिहोब्यते ॥ प की जैसी तरलता शेती है, बैंसी ही कांति की तरलता श्रंग में [ भाग १० ] .. छझपसंहार मुल्यांकन.. .. ४६७ लावशय कही जाती दै। प्रसाद ने इसी छाया के आधार पर छायावादी काव्य के प्राशतत्व की व्याख्या करते हुए छायावाद नाम की सारथकता सिद्ध की है। इसी प्रकार अ्रदूभुत के संयोग से “वीर” के विराद_ रूप 'उदात्ता की फल्पना छायावादी सौंदर्य चेतना की एक अ्रन्य प्रमुख विशेषता है। वास्तव में हिंदी काव्य के इतिहास में 'लावशय' अपर “उदात' फी जैसी रमणीय अभिव्यक्ति छायावाद में मिलती है, बेसी अन्यत्र दु्लभ है। द द मानव जगत में गोचर सौंदय से सूक्ष्मतर, मन और चेतना के सोंदर्य फी विवृति छायावाद की विशेषता है। छायावादी कवि नारी में श्रंगों की मांधलता के प्रति अ्राकृष्ट न होकर उसके मन और आत्मा के सौंदय पर मुग्ध होता है; वह रूप के माध्यम से अ्भिव्यक्त उसके हृदय के माधुर्य को अनाइत करता है। सोंदर्य की यह मावरंजित फल्पना, जिसकी घनानंद जैठे कवि में एक भलक मर मिलती है, इसी युग में आफर पूर्णतः विफसित हुई। उधर प्रकृति के क्षेत्र में भी छायावाद के कवि ने इसी अंतःसौंदर्य की प्रतिष्ठा की | प्रकृति उद्दोपनन रहकर अपलंबन के रूप में उपस्थित हुई और कवियों ने उसके भीतर चेतना की अ्ंतःसचा फा अनुसंघान कर उसके साथ एक नवीन रागात्मक संबंध स्थापित किया । इस युग में . प्रकृति का चित्रण बिंब और मिथक €प में अधिक हुआ है--ओर इसका मुख्य .. कारण यही है कि अब प्रकृति के चेतन सौंदर्य के प्रति आग्रह बढ़ता था रहा था |. . शैतिकाल फा कवि भी सच्ची क्राव्यसजना के छणों में कमी कभी प्रकृति के साथ रागात्मक संबंध अनुभव करता था-सेनापति आर पद्म/कर जैसे कवियों की प्रकृति- चेतना सर्वथा रूढ़ और आलंकारिक नहीं थी; किंत॒ वह संबंध स्थल ओर एंट्रिय था। छायावाद के कवि ने प्रकृति को अपनी अंतर्मुत अनुभूतियों का माध्यम . बनाकर उसके साथ जिस तादात्म्य का अनुभव किया वह ऐँद्विय मानसिक न होकर रागात्मक एवं कल्पनात्मक था। इस प्रकार आलोच्य थुग में साँदर्य की परिधि का विस्तार हुआ । गोचर से अगोचर को ओर) प्रत्यक्ष से परोक्त की ओर, चेतन से... अंतश्चेतन की ओर । परश्चात्य साहित्य पर इस समय अवचेतत मनोविज्ञान का _ गहरा प्रभाव पड़ रहा था, परंतु भारतीय भाषाओं तक उसकी व्याप्ति प्रायः नहीं हुई थी । हिंदी के कवि इस युग में प्राय: भारतीय चिंतन के लिये परिचित अत्श्चेतन की बहुविध प्रदृत्तियों का ही निरूपण करते है--न फ्रॉयड के अवचेतन का और न अरविंद के अतिचतन का, फिर भी इसमें संदेह नहीं कि चेतन की अपेक्षा अंतश्वेतन के प्रति बढ़ते हुए आग्रह के मुल में इन दोनों की अप्रत्यक्ष प्रेरणा थी । अंतश्वेतन की प्रव चर्याँ स्वभावतः ग्रत्यंत सूक्ष्म तरल होती हैं, उनके प्रति आग्रह बढ़ने का परिणाम यह हुआ कि एक तो काव्य में संचारी भावों का १०-६३ हा ३१८ | हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास प्राधान्य होने लगा और दूसरे नाना प्रकार के सूकरम तरल भावसंवेदन काव्य के कोष की श्रीवृद्धि फरने लगे : अब स्थायी भाव के उपचय या परिपाक की श्रपेक्षा नहीं रही, सात्विक भाव, अनुभाव अ्रथवा संचारी के स्पश मात्र से रस की सिद्धि हो सकती थी। मराठी आलोचकों ने इन सुक्षमम भावसंवेदर्नों फो भावगंध कहा है । (ख ) काव्यसंवेदना का परिष्कार इस फाव्य की एक अन्य अपूर्व उपलब्धि है फाव्यसंवेदना का परिष्कार । भावना की जैसी परिष्कृति और कल्पना की जैसी नफासत छायावाद के माघुये- परक गीतों में मिलती है, वेसी हिंदी काव्य में अन्यत्र दुर्लभ है। हिंदी में विद्यापति, सूर और बिहारी की फाव्यतंवेद-॥ फ्री परिष्कृति प्रतिद्ध है, परंतु उनकी ग्रपनी श्रपनी सीमाए' हैं : विद्यापति की &£गारसंवेदना प्रायः मुखर हो जाती है, सूर में गोपकाव्य के तत्व प्रबल हैं और बिहारी में रीतिफाव्य फीौ श्रतिशय ऐँद्रियता उनकी नागरभावना को कभी फभी विकृृत कर देती है। इस दृष्टि से भारत का एक ही कवि है जिसकी परिष्कृत काव्यमावना अनगढ़ तत्वों और ग्राम्य प्रभावों से प्राय: मुक्त रहती है ओर वह है कालिदास। यह ठीफ है कि पंत ओर महादेवी फी कविता में उतनी ऊष्मा नहीं है, परंतु नफासत की दृष्टि से पंत के सोंदर्य बोध का जवाब नहीं है। वास्तव में यह भावनाओं के उन्नयन का युग था | उत्तर मध्यकाल की रागात्मक विकृतियों के विरुद्ध नेतिक प्रतिक्रिया तो पुनर्नागरण काल सें ही आरंभ हो गईं थी; पर॑तु उसका संस्कार बाद में हुआ। उन्‍नयन की इस प्रक्रिया में नथ्य श्रात्मवःदी दर्शन फा विशेष योगदान था। धम के क्षेत्र में रामकृष्णु परमहंस तथा विवेकानंद और काव्य एवं दर्शन के क्षेत्र में खींद्रगाथ और श्री श्ररविंद का नव्य आत्मवाद देशभर के प्रबुद्ध चितकों को प्रभावित कर रहा था। यह आत्मवाद निश्चय ही प्रवृत्तिमूलक था और इसपर श्रौपनिषदिक आनंदवाद का गद्दरा प्रभाव था। इसके परिणामस्वरूप काव्य में मनोवेगों के उन्नयन की प्रवृत्ति का विफास हुआ-- राग के मृरमय तत्वों के परिमार्जज तथा चिन्मय तत्वों फे पोषण फी स्पहा बढ़ने लगी। उधर गांधी ने श्आत्मवाद फे निवृत्तिमलफक रूप का नव्य व्याख्यान किया- एक ओर सत्य तथा आत्मा के और दूसरी ओर प्रेम तथा अहिंसा के ऐकात्य द्वारा गांधी ने भोग की अपेनज्षा त्याग और तप फी महत्वप्रतिष्ठा फी । इस प्रकार इन प्रवृति-निवृणि-मलक प्रभावों के फलस्वरूप जीवन में एक ऐसी अतीद्रिय चेतना का प्रादुर्माव हुआ जो प्रज्ञा और कव्पना की विभूतियों से मंडित थी। इस अनभति में जीवन के मधुर तिक्त रसों का अ्रप्रत्यक्षु आस्वाद तो नहीं था, परंतु एक अत्यंत सुक्म फोमल गंब थी जो संस्कारी व्यक्ति की [ भांग १० ] उपसंहार : मूल्यांकन ४६६ चेतना फो अ्रभिषिक्त कर देती थो। छायावादी कविता के कथ्य में इसके गहरे संस्कार विद्यमान हैं। इन कवियों ने नेक पद्धतियों से अपने संवेद्य विषय का उन्नयन किया है। इसके लिये प्रायः स्थल के स्थान पर कभी सक्ष्म तत्वों फा नियोजन और फभी सात्विक उपकरणों का प्रयोग किया गया है। प्रेम की व्यंजना में यहाँ भोग की अपेक्षा त्याग बलिदान की भावना का और संयोग की अ्रपेज्ञा विरह की अ्रनुभूति का मल्य कहीं अ्रध्कि है। प्रेम की अ्रमिव्यक्ति . के लिये गोचर उपकरणों का-प्रंत्यक्ष फामप्रतीकों का -प्रयोग न कर प्रकृति के प्रतीकों को माध्यम बनाया गया है। छायावादी काव्य में प्रणय के श्रालंबन के भौतिक श्रस्तित्व का निराकरण श्रथवा अपेक्षा और उसके भावनात्मक श्रस्तित्व की स्वीकृषति प्रमुख है। राग-द्व ष.मलफ व्यक्तिसंसर्गों से मुक्त, श्रहंकार से निलिप्त भाव का वह रूप जो अपनी परिष्कृति में सॉदयचेंतना या रख में परिशणत हो जाता है, इस कविता में सहज सुलभ है | (ग) आंत्तरिक जीवनमुल्यों की प्रतिष्ठा छायावाद निश्चय ही एक आदशशंवादी काव्यप्रव॒ुत्ति है। परंतु उसमें श्राद्श के बाह्य एवं स्थूल रूपों के स्थान पर आंतरिक रूपों की प्रतिष्ठा है। . वह आदर्श विवेक एवं तफ द्वारा पोषित योगक्षेम श्रथवा कल्याणभावना फा प्रतीक मात्र नहीं है। इसमें व्यवह्रलोक से परे एक कल्पनारसणीय ज॑वन की भव्य फोमल भावनाएं निहित हैं। छायावादी काव्य मानवचेतना के उत्फर्ष से ग्रनुप्राशित है. किंत विकास का यह पथ समदिफ न होकर उर्ध्वाधर ही अधिक है श्र्थात्‌ इस काव्य को प्रेरित करनेवाल्ले जीवनादश बहितुख न होकर प्राय: अंतमुंख दी हैं जिनके मूल में सुधारयुग की नैतिक बुद्धि की अ्रपेकज्षा पश्चिम के ._ स्वच्छुंदतावादी श्रांदोलन से प्रभावित सांस्कृतिक पुनर्जागरण की चेतना अधिक है। . इस प्रकार आलोच्य युग में जीवनमूल्यों फा संशोधन हुआआ। राष्ट्रीय सामाजिक चेतना फा परिष्कार एवं विस्तार हुआ और नेतिक मूल्यों के स्थान पर सूक्ष्मतर सांस्कृतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा हुईं । चिंतन फी पद्धति में वक्रता का समावेश हो जाने से श्रभ्युदय एवं निःश्रेयस्‌ की ऋजु सरल धारणाओं में परिवर्तन हुआ और आदर्शों फी परिभाषाएँ परंपरारूढ न रहकर अधिक परिमाजित एवं सूक्ष्म तरल बन गई: कल्याण की कामना प्रीति की मावना से रससिक्त हो गई और श्रेय में प्रेथ की सुगंध भर गई । ४. काव्यशिल्प की समृद्धि फाव्यशिल्प फी समृद्धि फी दृष्टि से इस युग का महत्व और भी श्रधिक है । सिद्धांत रूप में कथ्य ओर शिल्प के पार्थकय की चर्चा सर्वथा संगत रही है, परंतु बू०० .. हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास व्यवहार में इसके बिना फाम नहीं चल सकता | सौंदर्य की अनुभूति अ्रखंड है, परंतु उसका विवेचन विश्लेषण करने के लिये तो खंडविचार करना ही पड़ेगा । अपने अखंड रूप में तो तौंदर्यानुभूति अनिवर्चनीय है--अविवेच्य है, खंड- धारणाओं के द्वारा ही वह विवेच्य हो सकती है। अ्रतः आचित्य इसमें है फि शिल्प फो जड़ प्रक्रिया न मानकर कथ्य की झनिवाय श्रभिव्यक्ति के रूप में ही स्वीकार किया जाए--तत्व रूप में श्रविभाज्य होने पर भी व्यवहार में, विवेचन के लिये, जिसकी पृथक कल्पना को जा सकती है ग्रलंकृतिरलंकार्यमपोद्धत्य विवेच्यते | तदुपायतया तत््वं सालंकारस्य काव्यता ॥ कुतक-व० जी० १६। श्रल्लंकार अर्थात्‌ शिल्प ओर अलंफाय श्रर्थात्‌ फथ्य फो अ्रलग श्रलग कर उनकी विवेचना फाव्य की व्युत्पकत्ति--फाव्यसोंदय फो ग्रहण करने फी क्षमता का उपाय होने से ही की जाती है। वास्तव में तो सालंकार शब्दार्थ श्रर्थात्‌ फध्य ओर शिल्प दोनों फी समष्टि का नाम ही फाव्य है। श्र्थात्‌ अ्रल्ंकार -शिल्प ओर . ऋलंकार्य > कथ्य फा एथक विवेचन; वत्वनत: उचित नहीं है, फिर भी काव्य सौंदर्य फो ग्रहण फरने के लिये यह प्रक्रिया आवश्यक होती है | ( के) चित्रबंध और बिंबयोजना : यों तो कविता ओर चित्र का चिरंतन संबंध है, परतु प्राचीन हिंदी कविता में चित्रात्मकता का उतना विकास नहीं हो सका जितना संस्कृत अथवा अ्ँगरेजी कविता में हुआ है। इसके अ्रनेक कारण हैं जिनमें से प्रमुख यह है कि हिंदी कवियों की रूढ़िबद्ध रतकब्पना में बाह्य प्रकृति -का प्रायः उद्दीपन रूप ही ग्रहण हुआ - यहाँ तक कि मानव फा रूप--नारी का अलंकारव भव भी उद्दीपन की स्थिति से आगे नहीं बढ़ सका । इसीलिये आचाय शुक्ल प्राचीन हिंदी कविता में संश्लिष्ट चित्रयोजना के अ्रमाव की बारंबार शिकायत करते हैं। नखशिख की अलंकारजड़ित वर्शानप्रणाली ने सूक्ष्म चित्रांकन की प्रवृति को और भी कुंठित कर दिया श्रौर रीतिकवि शरीर के अ्रंगों के प्राय: स्थिर चित्र ही आँकते रहे--उनमें दीपित लावश्य को शब्दों में बाँधने का प्रयत्न उन्होंने कम ही फिया। हिवेदी युग में हिंदी फविता के इस अ्रभाव फी चर्चा जोर से हुई श्रोर फविता की चित्रशशक्ति का संवर्शन करने के योजनाबद्ध प्रयास किए गए--चित्रों को आधार बनाकर कवि रचना करते थे और पत्रिकाए उन्हें आमने सामने छापती थीं। परंतु बात बन नहीं रही थी और ये चित्र श्र॒त्यंत स्थूल तथा अभिषात्मक होकर रइ जाते थे। छायावाद युग में हिंदी कविता फी चित्रात्मकता फा अभूतपूर्व विकास हुआ। प्राकृतिक दृश्यों ओर मानव रूप के अत्यंत सूक्ष्म तरल, रंगोज्वल चित्र अंकित किए. गए. और अ्रमर्त फल्पनाओं को शब्दमूर्त करने की शत शत शिल्पविधियों का आविष्कार किया । [ भाग १० ] उपसंद्वार : मूल्यांकन १०९ गया। श्रकेले पंत का ही काव्य शब्द, स्पश, रस, रूप और गंध के शत चित्रों का भव्य संग्रहालय है। इन चित्रों में काव्यसामग्री का अपूर्व ऐश्वर्थ ओर प्रयोगकोशल का अद्भुत चमत्कार लक्षित होता है । पंत की चित्रशकला में प्राय; मशिक्रुट्टिम-शैली का प्रयोग किया गया है: कवि मानों रंग बिरंगे अर्थों' से दोपित शब्दमशियों को बड़ी बारीकी से जड़कर चित्र रचना करते हैं। उनकी कला रत्नाकर फी कला है। इससे श्रत्यंत भिन्‍न है निराला की चित्रणुकला | उनकी कल्पना ऊर्मियों से खेलने अथवा फूलों पर किरणों से चित्र आऑँकने फी अपेक्षा अकाश के विध्तार में छाया प्रकाश के खेल खेलने या इंद्रधनुष के विर! चित्र अ्रंकित करने में अधिक रमती है। निराला के मधुर चित्रों में भी महादेवी के चित्रों के समान रंगों फा तरल फोमल मिश्रण या पंत को कला का जड़ाव कढ़ाव नहीं है--उनमें भी छाया प्रकाश के द्वारा गहराई को चित्रित करने का ही प्रयास अधिक है, अतः निराला के काव्य में प्रायः रेखाचित्र या सांकेतिक चित्र ही मिलते हैं जिनमें वतंमान युग की अमृत कल्ला का भी आभास रहता है। निराला रंगों फो मिलाकर या मणशियों फो जड़कर चित्र तैयार नहीं करते; प्रेरणा के एक स्पर्श से ही चित्र उमर आता है। इसीलिये उनझे चित्र प्रायः गत्यात्मक हैं। माखनलाल चतुवँदी चित्रभाषा में बोलते ओर लिखते थे। उनके चित्रों में छायावाद के रंग और परवर्ती प्रयोगवादी कविता के अमूर्त संकेतों का समन्वय है। उधर प्रसाद के चित्रों में मो ओर गुप्त काल की समृद्धि है--उनके चित्रों में निराला के चित्रों फी अपेक्षा श्रधिक श्रलंक्ति और पंत के चित्रों की श्रपेत्षा अधिक वित्तार है--हस प्रकार छायावाद के कवियों की फलासाधना के फलस्वरूप हिंदी कविता सच्चे श्रथ में 'वशुमय चित्र! का पर्याय बन गईं। इसका प्रभाव छायावादी बृत्त से बाहर के कवियों पर भी पड़ा : मैथिलोशरण गुप्त, सियाराम- शरण गुप्त, नवौन आदि कवियों--यहाँ तक कि ब्जभाषा के आचार रत्नाकर के परवर्ती काव्य में उपलब्ध चित्रबंध पहले की अपेक्षा कहीं अ्रधिक परिष्कृत एवं संलिषट हैं और उनके फाव्यशिल्प की संरचना पहले से श्रधिक सूक्ष्म जटिल हो गई है फाव्यचित्रों फा उत्फष स्वभावतः बिंबविधान को समृद्धि फी श्रपेक्षा फरता है ओर इसमें संदेह नहीं कि इस युग के कवियों की बिंबरचना श्रत्यंत वैविध्यपूर्ण एवं कल्पना रमणीय है। बिंब के समस्त प्रकारमेद इस युग के काव्य में प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। सामान्यतः काव्य में चाक्षुष बिंबों का ही प्राधान्य रहता है-- क्योंकि ऐंद्रिय बिंचों में सबसे सहज ग्राह्म रूप यही है, परंतु फाव्यशिल्प का जैसे जैसे उत्कर्ष होता है बसे वेसे अ्रन्य सूक्ष्मतर भेदों की संख्या बढ़ती जाती है।- छायावाद की कविता में चाक्षुष रूपबिंबों का अपार बंभव तो १०२ तप. हिंदी साहित्य का बृदहत्‌ इतिहास है ही. शब्द, स्पर्श, रस और गंध के सूक्ष्मतर बित्रों की शोभा भी क्रम नहीं है। भक्तिकाव्य में बिंदों का प्राचुर्य है-सूर और ठलसी जैसे कवियों की बिंब- योजना में चारुत्व के साथ वैविध्य भी है। रीतिकाव्य में चारुत्व है, परंतु वैविध्य नहीं है। छायावाद में काव्यानुभूति के परिष्कार के साथ बित्रयोजना भी परिष्कृत एवं समृद्ध हुई और चारुल में वेविध्य तथा वेचित्रव्त का भी योग हो गया। छायाबाद के कवियों का प्राकृतिक वेमव पर पूर्ण अधिकार है- छायावाद का फाव्यफलक प्रकृति के असंख्य सूक्ष्मतरल, रंगभास्वर, विराद्‌ और दिव्य बिंबों से जगमग है। प्रकृति के समस्त रम्य उपकरण -- श्राफा श, चैद्र, सूय, तारागण, ग्रतप, चाँदनी, इंद्रघनुष्र, श्रसंड्य फूल, पक्षी, वृक्ष और लताए, पव॑त, नदी, निर्भर और सागर, सोना चाँदी, मणि, माणिक्य अपने अपने रूप रंगों का वैभव लिए फविफल्एनः के संकेतों के साथ नाचते हैं। सूक्ष्म श्रनुभूति ओर ललित कल्पना के संयोग से इन कवियों ने एक ओर तो एऐंद्रिय बिंबों के आधारपरिवर्तन द्वारा श्रत्यंत सुक्ष्म जटिल मिश्र बिंबों की रचना की और दूसरी ओर अ्रपनी प्रबुद्ध मूर्तिविधायिनी कल्पना द्वारा संश्लिष्ट बिं्रों श्रथवा बृहतर मिथक बिंब्रों का प्रचुर संख्या में निर्माण किया है। पूववर्ती काव्य के ढ़ और वस्तुपरफ बिन्नों के . स्थान पर स्वच्छुं६ बिंबों फा श्राफर्षण बढ़ा श्रोर हिंदी फविता में सूछ्म जटिल तथा श्रावेशविह्नल श्रनुभूतियों को गोचर रूप देने की शक्ति का विफास हुआ्रा । ( ख ) अलंशहार : श्रलंकार के क्षेत्र में भी नवीन दृष्टि का उन्मेष हुआ। अलंकार ओर अ्रलंकार्य का स्थूल भेद मिट गया ओर तत्व के मर्मी कवि ने श्रनुभव फिया कि ''श्रलंकार फंवल वाणी फी सजाव८ के लिये नहीं, वे भाव फी अ्रमिव्यक्ति के विशेष द्वार हैं। वे वाणी के हवस श्रश्र्‌, स्वप्न पुलक, हवाव भाव हैं! ।” अर्थात्‌ इस युग के कवियों ने अलंकार को अ्रभिव्यक्ति का अभिन्‍न अंग मानते हुए काव्य के साथ उसके अंतरंग संबंध को श्रत्यंत निश्नोत रूप में स्वीकार किया । परिणाम यह हुआ कि हिंदी कविता के क्षेत्र में माबाभिव्यक्ति की नृतन मंगिमाश्रों का आविष्कार हुआ । प्राचीन कवि के लिये श्रलंकार एक प्रथक्‌ उपकरण था जिसका प्रयोग वह सचेष्ट होकर करता था क्योंकि वह जानता था कि यह फविफम का अंग है। नए कवि ने भी ऐसा किया है--उदाहरण के लिये पंत ने आरंभ में 'पदलव', अ्रंथि! में और प्रसाद ने 'आँधू! में साहश्यमुलक रूपक श्रादि तथा विरोधमूलक फतिपय अ्रलंकारों का सचेष्ट उपयोग किया है, परंतु धीरे धीरे यह : प्रब्ृत्ति समाप्त हो गई है। छोायावाद का कवि बाद में चलकर जित काव्यमाषा * पलल्‍लव की भूमिका |... [भाग १०) द इपसंहार : मल्यांकन थू ०३ का उपयोग करता है उसका स्वरूप ही श्रहंकृत है: कवि अलंकार का श्रभ्िव्यजना के साथ योग नहीं करता--छ लंकार अ्भिव्यजना में #तऊक्त २हृता है। प्रसाद, निराला, माखनलाल, पंत, महादेवी, सियारामशरण आदि की पद्चशली ही नहीं गद्यरली भी अ्रनिदाय रूप से अलंकृत है। नवीन सौंदय्धष्टि के उन्मेष के फलस्वरूप शब्द अ्रथ के नए. चमत्कृत प्रयोग होने लगे ओर ललित पफल्पना द्वारा निर्मित अभिकवपों! के स्थान पर अनुभूतिप्रेरित ध्बिवक्रताओं की सृष्टि होने लगी । प्रकृति के रमशीय रूपों मानव जीवन फे रागात्मक क्षेत्रों, प्राचीन संस्कृति और साहित्य फे समद्ध कोर्षों से अलंकरण सामग्री का मुक्त भाव से संचयन किया गया | लक्षणा की चित्रमयी संभावनाओं का पूर्ण उपयोग हुआ और शब्द अ्रथ की नव नव व्यंजनाओं का उद्घाटन किया गया। बुत्क द्वारा प्रकाशित शब्द और अथ की विभिन्‍न वक्रताशं के जितने प्रचुर उदाहरण छायावाद और उसके रंग में रँगी हुई इस युग फी कविता में सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं उतने _अन्यत्न नहों। अ्रक्षस्साम्य पर आधृत अ्रनु प्रास आदि के स्थूल रूपों के स्थान पर यहाँ वर्शा-विन्यास-वक्रता के सूक्ष्मतर प्रयोग मिलते हैं और फिर पर्यायवक्रता विशेषणवक्रता, फारक, लिंग, क्रिया आदि के वक्रप्रयोग का ऐसा अक्षय कोष : अन्यत्र कहाँ मिलेगा १ पाश्चात्य रोमानी काव्य के प्रभावस्वरूप मानवीकरणा, विशेषशुविपयय, अ्रन्योक्तिरूपक, कल्पकथा आरादि श्रलंकारों का समावेश हो जाने से हिंदी की अ्रभिव्यंजनाशक्त का नए रूपों में विकास हुआ | इस प्रकार अलंफारखाधनों की समुद्धि भी इस युग फो एक विशेषता है। उसमें वेचित्रय श्रोर वैविध्य का समावेश हुआ, उसके क्षेत्र फा विस्तार भी हुआ; परंतु इस वेविध्य ओर विस्तार पर चार्त्व--अथ'त्‌ कवि १ी सुरुचि का अनुशासन- सदा बना रहा। यहाँ रमणीय रूपों का ही ग्रहणु किया गया, वंचिह््य और नवीनता के लिये ऐसे उपमानों और उपकरणों का अ्रंतर्भाव नहीं किया गया जो सहृदय के संस्कारों फें साथ मेल न खाते हों। परवर्ती हिंदी कविता से छायावाद का यही मोलिफ दृष्य्भिद है। भाषा : खड़ी बोली फा काव्योचित परिष्कार वास्तव में इसी युग में हुआ | आधुनिक जीवन की अभिव्यक्ति का प्रभावी माध्यम बनाने फे लिये जिस भाषा का विकास तीन चार दशकों से किया जा रहा था, उसे काव्यभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने फा श्रय इसी युग फे--वस्तुतः छायावाद के कवियों को है। दिवेदी युग में ब्रजमाषा फी रीतिबद्ध &गारसज्जा से खिनन्‍न होकर ४० मद्दावीरप्रसाद द्विवेदी १ डिजाइन | 7०७ हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास श्रोर उनके अनुयायी कवि आलोचक काव्यमाषा और व्यवहार की भाषा का भेद मिटाने का असफल प्रयत्न करते रहे--वे राग की भाषा और व्यवहार की भाषा के सहज अंतर फो भूलकर पद्च की भाषा को गद्य के निकट लाने के लिये जिस प्रकार के कृत्रिम प्रयोग कर रहे थे, उनसे काव्यमाधा की समस्या इल नहीं हो रही थी ओर उस युग के सच्चे कवियों के संस्कार ब्रजमाषा का आऑँचल नहीं छोड़ पाते थे । छायाबाद के कवियों ने रवींद्रनाथ, अंगरेजी के रोमानी कवियों ओर फालिदास से प्रेरणा ग्रहण कर, अपने युग की स्वीकृत भाणा की श्रांतरिक शक्तियों का विकास करते हुए एक नवीन काव्यभाषा का निर्माण किया जो रीतिभाषा से अधिक समथ और रीतिमुक्त भाषा से अधिफ समृद्ध थी। रीतिकवियों का ज्ञितना आग्रह मसूणता ओर कांति के प्रति था उतना वक्रता और वैदसग्ध्य श्रर्थात्‌ भाषा की लाज्लगिक श्रौर व्यंजनात्मक शक्ति के विफास के प्रति नहीं था। घनानंद आ्रादि रीतिमुक्त कवियों ने वक्रता और बैदग्ध्य का--भाषा की लाक्षणिक और व्यंजनात्मक शक्तियों का--विफास किया किंतु रीतिभाषा की मस॒णता और कांति की रक्षा वे नहीं कर सके। छायाबाद के कवियों ने भाषा के इन दोनों गुणों का युगपत्‌ विकास किया --खड़ी बोली के खुरदरे उपकरणों को इस खूबी के साथ चिकना किया और चमकाया कि उनके भीतर के रंग बाहर फूट उठे । जिस भाषा में फेवल इतिबृत्त- कथन फी शक्ति थो उसमें अरब मर्म की व्यंजना ओर कव्पना का अनुरंजन फरने की सहज क्षमता आ गई । काव्यरचना के लिये जिस बिंबभाषा और प्रतीक- भाषा की अपेक्षा होती है उसका तिर्माण वस्तुतः इसी थुग में हुआ । संस्कृत के रत्नकोष के सुक्त उपयोग द्वारा शब्दभांडार समृद्ध हुआ, अ्रंगरेजी की लाक्षशिक भंगिमाश्रों के आधार पर अनेक फाव्यमय शब्दों का निर्माण हुआ ओर कलाममंज्ञ कवियों ने उनके अंतःसंगीत का मरपूर उपयोग कर एक ऐसी चित्रभाषा का विकास किया जो कालिदास फे बाद फेवल रवींद्रनाथ फे काव्य में ही उपलब्ध हो सकी थी। काव्यप्रयोगों से श्रसंपक्त उस नई अनगढ़ भाषा की एक ओर अनुभूति के सुक्ष्मतम स्पंदनों तथा दशन के गृढ़तम रहस्यों, दूसरी ओर जीवन व जगत्‌ फे विराट रूपों को अभिव्यक्त करने की क्षमता प्राप्त हुई और हिंदी कविता को एक अत्यंत प्रोढ़ एवं समद्ध माध्यम उपलब्ध हो गया जिपम्ें भावी विकास की संपूर्ण संभावनाएं थीं । द .. भाषा का यह संस्कारसाधन छायावाद तक ही सीमित नहीं रहा। छायावाद के वृत्त से बाहर कवियों का एक प्रमुख वर्ग जो खड़ी बोली के व्यवहार गुण को--मुहावरे और अ्रथवेत्ता फो ही प्रमाण मानता था और साम्रान्य प्रयोग की मंगिमाओं तथा शब्दावली की परिधि के भीतर ही फाव्यभाषा के विकास सें विश्वास करता था; उसने भी इसका पूरा पूरा लाभ उठाया। मेथिलीशरण गुप्त [ भाग १० ] डपसंहार : मुल्यांकन ह पू०्प फो मध्यवर्ती रचनाओ--'साकेत”, 'यशोधरा” और “द्वापरः की भाषा इसका प्रमाण है। इस भाषा ने खड़ी बोली के व्यावहारिक रूप फो साग्रह स्वीकार करते हुए उसकी गद्यवत्ता का त्याग करदिया और इसके प्रयोक्ताओं ने रीतिमाषा ( डिक्शन ) का विरोध करते हुए भी समृद्ध काव्यभाषा की संरचना के लिये अत्यंत मनोयोगपूवंक साधना की | सिद्धांत में यह कवि बर्ग छायावाद और उसके काव्यशिल्प का विरोधी था; परंतु व्यवहार में उसके प्रमाव फो अग्रत्यक्ष रूप से ग्रहण करता चला जा रहा था । इस प्रकार विफासशील हिंदी कविता के लिये एक समृद्ध माध्यम का निर्माण फरने में इस युग ने श्रत्यंत महत्वपूर्ण योगदान किया । ( घ ) रूपबंध ओर छंद्विधात : फथ्य की नवीन भंगिमाओं की सम्यफू अभिव्यक्ति के लिये इस युग के शिल्पी कवियों ने नए काव्यबूपों का श्रायात एवं आविष्कार किया । इस युग के काव्य में आत्मतत्व का प्राघान्य होने के कारण प्रगीत के अनेक रूपों का विकास हुआ। मारतीय काव्यपरंपरा में स्फुट काव्य के प्रयः दो रूपों का प्रचलन था--म्र॒ुक्तक और पद । मुक्तक पूर्वापर संबंध से मुक्त, अपने में पूर्ण, रचना का नाम है जो किसी एक अनुभव फो शब्दबद्ध फर कृतकार्य हो ज्ञाती है : इसका रूप प्रायः स्थिर और चित्रात्मक होता है। पद या गोत गेय रचना है जिसमें हुदय की कोमल भावनाएं संगीत से द्रवित होती रहती हैं ; इसका रूप तरल एवं गत्यात्मक होता है। इन दोनों के संयोग से आगे चलकर गेय मुक्तक फा विफास हुआ जिसमें छंदोवद्ध भाव चित्र रागतत्व की ऊष्मा के कारण संगीतमय हो गया। हाल की गाथाओं और गोवर्धन की आर्याश्रों में गेय तत्व सहज ही विद्यमान है। छायावाद थुग में पाश्चात्य प्रभाव से लिरिक की समानार्थक एक नवीन काव्यविधा प्रगीत का आविर्भाव हुआ जिसमें जीवन ओर जगत के फल्पना रमणीय विषयों के प्रति भावुक मन फी रागात्मक प्रतिक्रियाओं की बिंबात्मक श्रमिव्यक्ति के लिये अ्रपेक्ञाकुत अधिक श्रवकाश था | पाश्चात्य काव्यशास्त्र तथा काव्य में प्रगोत के श्रनेक रूपों का विवेचन एबं प्रयोग है। ये रूप भेद कथ्य और छुंदबंध दोनों पर आध्वत हैं। संबोध गति ( श्रोड ) प्रायः चिंतन प्रधान रचना होती है, शोकगीति ( ऐलिजी ) फा संबंध इष्ट के नाश से है, चतुर्दशपदी ( सॉनेट ) का अपना एक विशेष छुंदबंध होता है ओर इसकी रचना प्रायः प्रेम या नीति श्रादि विषयों फो लेकर की जाती है--इनके अतिरिक्त प्रगीत के अनेक स्वतंत्र रूप भी हैँ जिनसे कथ्य के अश्रनुरूप छुंदविधान छोर पदयोजना रहती- है। उधर पाश्चात्य काव्य की एक प्रतिद्ध विधा है वीरगीत ( बैलेंड )) जिसमें लोकजीवन फी किसी शोयंगाथा का गेय शोली में वर्णन होता है। श्राब्यानकाव्य के अंतर्गत मद्ाकाव्य, वीर काव्य, कथा काव्य, द १०-६४ द क्‍ कब +>कअब - ः रारलसालदायक आप पर के प् कट ् के से स्‍् उंसलकसकासप सतत 3 सिकिय८-८ सकसाञरतसत जयथ पर करार दान फ पर परत पह परत बू०्द | हिंदी सादित्य का बृददत्‌ हृतिहास प्रतीक काव्य, काव्य रूपक आदि अनेक भेद सामने आये जो परंपरागत भारतीय महाकाव्य और खंडकाव्य से शिल्प की दृष्टि से बहुत कुछ भिन्‍न थे । हिंदी के शिल्पी कवियों ने अपनी काव्य परंपरा और भाषा को प्रकृति के श्रनुसार उनके बब नव रूपों का निर्माण किया | छायावादी काव्य फी प्रवृत्ति मूलतः अंत्मुखी थी जिसमें प्रगीत तत्व का प्राधान्य था; श्रत: इस युग में कथा की अंतमु खी प्रवृत्तियों पर झआाख्यान काव्य की कुछ ऐसी रूपविधाओं का आविर्भाव हुश्रा जिनमें कथा फा विकास बाह्य जगत में न होकर प्राय: मानवचेतना के भीतर होता दै--जिनमें ऐहिक जीवन की कथा न होकर प्रायः मानव मन की कथा का वर्णन रहता है। उपन्यास और नाटक के वर्धमान प्रभाव से बड़े प्रबंधकाव्यों में ओपान्यासिफ एवं “ज्ञाटठकीय शिव्पविधियों का और छोटे कथाकार्व्यों में कहानी फी तकनीक फा मुक्त प्रयोग होने लगा था जिसके फलस्वरूप इछ क्षेत्र में श्रनेक नवीन उद्मावनाएँ हुई और हिंदी के काव्यशिल्प को नये श्रायाम प्रास इुए | इन सभी रूपबंधों का वहन करने के लिये छुंदयोजना के क्षेत्र में भी झनेक प्रयोग किए गए। पंत ने मात्रिक छ॑दों फी श्रनेकविध संयोबनाश्रों से नये नये छुंदबंधों फी रचना फी--भावनाओं के स्वरूप झ्ौर उनके संफोच विस्तार के श्रनुरूप छुंद की लय चंचल एवं स्फीत होने लगी ओर खड़ी बोली को कविता बल्षमाषा की सांगीतिक परंपरा से मिन्‍न एफ नये संगीत में मुखरित हो उठी । कुछ कवियों ने संस्कृत के वर्णद्तों का सफल प्रयोग किया शोर मंदाक्रांता एवं शिखरिणी . जैसे छुंदों की तरंगित लय ने हिंदी के छुंदविधान की समृद्धि में विशेष रूप से “ बोगदान किया । निराला का नाद्सोंद्य का सहज ज्ञान ओर भी अधिक संपन्न था। उन्होंने हिंदी के मात्रिक छंंदों की स्वर मैत्री तथा वरशिक छुंदों को व्यंजन मैत्री की शत शत नवीन संयोजनाए प्रस्तुत कीं, गति तथा यति में परिवततन कर प्रचलित छुंद लय में भाबानुकूल संशोषन किये और एकाधिफ छुंदों के योग से नये छुंदों का विधान किया। निराला का विशेष अवदान हद मुक्तछंद । हिंदी के प्रतिनिधि छंद 'कंवित' के अ्राधार पर उन्होंने मुक्तछुंद का आविष्कार कर भाषा की प्रकृति के अनुसार स्वच्छुंद विचार प्रवाह एवं मुक्त भावधारा के अनुकूल अनेक रूपों में उसका विकास किया और उधर संलापोचित वाम्मिता का समावेश कर उसे अपने युग की राष्ट्रीय चेतना की श्रभिव्यक्ति का समथ माध्यम बना दिया। मैथिलीशग्ण गुप्त ने बंगला के पयार छंद को हिंदी के वशुसंगीत में दालकर फथाप्रवाह का वहन करने के लिये एफ नये माध्यम का निर्माण फिया आर सियारामशरण गुप्त ने उसके लयविधान के अंतर्गत नए नए अभिकल्प रखकर पद्म और गद्य की लय के झृत्रिम भेद को दृढ़ करने का सफल प्रयत्न किया । उधर महदादेवी ने परिष्कृत शब्दसंगीत और लोकगीती के लयविधान रा [सांग १० ] उपपंहार ; मूल्यांकन... १०७ के संयोग से 'कन्नागीत” की रचना फी जिपके द्वारा संस्कृत मन की तरत्न फोमल भावनाओं को उचित अ्रभमिव्यक्ति मिल सकी | ब.द में चलकर यही गीत वेयक्तिक कविता का सहज माध्यम बना। द इस प्रकार यह युग निश्चय ही हिंदी काव्य की चरम समृद्धि और परिष्कृति का युग है। परवर्ती कवियों श्रोर उनके समरथक लेखकों ने अपने अस्तित्व की घोषणा फरने के उद्दश्य से साहित्यिक एवं राजनीतिक मंचों से इसकी गरिमा का अवमुल्यन करने के लिये अनेक प्रकार की व्यूइ रचनाएँ कीं जो ग्राज भी बराबर चल रही हैं, परंतु इसका गोरब भारत के नहीं विश्व के साहित्यिक इतिहास में श्रक्षुणण रहेगा। किसी भी युग का कल्ला ममंश जब हिंदी काव्य फी उपलब्धियों का आकलन करने ब्रेठेगा तो यह कालखंड निश्चय ही उसे सबसे अ्रधिक आ्राकृष्ट फरेगा । हिंदी साहित्य का साग १० < उत्कष काल : कांध्य लेखकानुक्रम णिका टिं०-डैश द्वारा संयोजित पृष्ठांकों पर विशेष विवरण उपलब्ध हैं । (अंचल', रामेश्वर शुक्ल ५६३ ६०, ७१, अरविंद १८८, २७७, २५८, ४६७, ७७, २७८, रे८०) २८१ ४६९८ ग्रंबाराम वाजपेयी ४४१ अंबिफादल त्रिपाठी ३०, ३४ श्रृंबिकादत्त ब्यास ३६६ ब्रंबिकाप्रसाद भद्द; “अंबिकेश” ४२ अबिकाप्रसाद वर्मा दिव्य! ५६, ४५१ अफबर इलाहाबादी ६८५ ३५३, ४७५ ग्रक्षयव॒ट मिश्र ६४ श्रख्तर शीरानी ६०; ५५७ अशेय, स० ही ० वात्स्यायन ४७, ५७, ६०, १३१, १३७, १७३ अनिरुद्ध पाठक ३४५ अ्रनूप शर्मा २९, ७१, ७५, १८२ ४०६ ४०७) ४१३, ७०४-४४१५ अन्तपूर्शानेंद ३८३, ३८७, ३८८ अबुल कलाम श्राजाद ४८३ अब्दुल फादर, सर ४७६ अभिराम शर्मा ४० अप्तृतलाल चतुर्बंदी ४०८ तग्रमुतलाल माथुर ३७७ अयोध्यानाथ अवधेश ७१३, ४५० अयोध्याप्रसाद खत्री ३६६ श्रयोध्याप्रसाद वाजपेयी “झौध! ४० हे असगर गोंडवी ६६, ४८५७, ४८६, ७६० [हित्‌ इतिहास अलग राय “आनंद! ३६ ग्रलाउद्दीन खाँ २० अलेक्जेंडर पोप ७१७ श्रवधविहारी माथुर ७२ अवनींद्रनाथ ठाकुर २०, १२६ धग्रश्का, उपेद्रनाथ ५८ आनंदीप्रसाद श्रीवास्तव २४२ आरजू ४७७५ आर० डब्ल्यू० एमसन ३४४ आरसीप्रयशाद सिंह ६९, ७०, २४१, २०२३, ४४०७ आनंलल्‍्ड ६४, ४७७६, ४७७ इंशा ४८८ इकबाल ७९, ४७४५-८३ इफबाल वर्मा सेहर ६७ इसमसन ३६१३ इलाचंद्र जोशी ७६, ६२, २४२, २४४ ३३४७, २४६ इलियड ३३० ई० वी० हैवल १२६ 7१७० हिंदी साहिल्‍्य का बृहत्‌ इतिद्दांस ईएरीउपाद शर्मा ४०, ६७, ३८३४. कामताप्रसाद वर्मा ७०३ ४६५ १८४ कारलाइल ३१३५ ३३७ उम्र, पांडेय बेचन शर्मा ६७, श्य३5 कालरिज २८५; २९७, २३४७४ ३८६ कालिकाग्रसाद दीक्षित 'कुसुमाकर” ४०० उजियारेलाल 'ललितेश” ४५४३ कालिदास ६७, १४२, ४९८, ४०७४ उदयशकर भद्द ३४१ ४०, ४७, ५६, काशीपति त्रिपाठी ४५१ प८, ६९, ९०, १२१, २४१, २४४ काशाप्रसाद दुबे ३१ उदितनारायण दास ३० फाशीप्रसाद राय कवि ५३ उमर खेयाम ६६, ७७, ३५०८, २५६, काशीप्रसाद श्रीवास्तव ४७३ ३७३, ३८० किपलिंग ३४१ उमराव सिंह पांडे ४००, ४५२ किशो रोदास वाजयेयी ५५५ ५९, ६६९, उमाशंकर वाजपेयी उमेश ५१, ४०५५ ४००, ४०६, ४१०, ४११, ४१२, ४११, ४१२, ४४४, ४४५ ४४२ एजरा पाउंड ३३० एडगर एल्लेन पो ३३८, ३४३१ एडवर्ड लियर ३६६ किशोरीलाल गोस्वामी ४५६ कीट्स ७६, २८०५, २६१, २६७, ३३९१५ ३३४) ३३०, ३३८, २४१, रै४है एडीसन ३८९ . एनी बेसेंट ३२७ . कुंजलाल रत्न ३१ . एला फ्रीमान शाप २३५ कु तक ३००, ३०५८, ५० ४ ए० सी० ब्रेडले ३४४ कृत्तिवात १८३, १८८९, १६० ' एइसान दानिश ८०) ४८६ कृष्णुद पालीवाल ४८२ ऑकारनाथ ठाकुर १० कैपाराम ४१८ फनु देसाई २२१ द कृष्णुविहारी मिश्र ४०० कन्हैयालाल जैन ४० कृष्णानंद पाठक ६६ फन्‍हैयालाल पोद्दार ४ब्ट, ४१४; ४६०. दरनाथ मिश्र प्रभात! ४९, २४२ कपिलदेव नारायण सुददृद' ३७ .. $ केशव ४१२, ४१८४, ४२२ कबीर १२५, १३१, २६०, २७६, २७९; केशवदेव शास्त्री ५० ३०२, ३९० : ॥ कैशवप्रसाद पाठक ६६ फमलाप्रताद वर्मा ३२. / केशवप्रसाद मिश्र ६४ फलक ४१८ क्‍ द केसरीसिंह बारहट ४३, ४०५ कलक्टरसिंह 'केसरी' २४५... क्लाइव सैन्सम १७४ कवि किंकर दे० 'दामोदरतया (तिंद!ः.: छेमेंद्र ६४, १७६ कांतानाथ पांडेय चोंच!ः ६७, ६८, गंगाप्रसाद पांडेय १७, २३०, ४६६ ३८३, ३८६ हे . गशेशप्रसाद मिश्र “इंदु' ४२ फामताप्रसाद गुर ४६१५ /.. _गशेशरास सिश्र ७०, ४६४ लेखकानुक्रमणिका गशुेशशंकर विद्यार्थी ११७ ३६७, २६८ गदाधरप्रसाद वेद्य २७ गदाघर सिंह झगुवंशी ३७, ४१ गयाप्रसाद 'शुत्त! ६७ गयाप्रस।द शुक्ल 'सनेहीं ४५, ७८५ ४०७, ७०५, ४२४; ४२६ । गांधी जी १०, १६,२४४, १ १३, २५७॥ ४6८ गालिब ४७७ गिरिजाकुमार घोष ४६५ गिरिज्नादत्त शुक्ल गिरीश” ४१, ४२, ७०, ४४६, ४६९२ गिरिजाशंफर मिश्र गिरीश” ६२ गिरिधर शर्मा नवरत्न! ६७, ६१, ६७ गिरिधारी लाल, लाला ४२५४ गिरी शर्च॑द्र घोष ३४७ गुर बनारसी-देखें-शिवप्रसाद मिश्र रुद्र! काशिकेय गुरु भक्त सिंह “भक्त! २८, ६१; १०२५ ११६, ११७) ११५१, ४५७) ४६४ गुल्लाबरत्न वाजपेयी 8५, ६२३ ४७४२; २७०२ गेढे ३३७, २७७... गोकुलचंद्र शर्मा ३७, ४८५ गोपाल कृष्ण गोखले २४७ गोपालदत्त पंत ७२ गोपालप्रसाद व्याप्त ४१० गोपालशरण सिह ४६, ५३, ५६ गोल्डस्मिथ ६५ गोवधन ५०५ द गोवर्धनलाल एम० ए्‌० ४०० ५; गोविंद कवि ६३ गोविंद गिल्लाभाई ४०४, ४०८, ४१३ गोविंद चधुवंदी ४१०, ४५३ ९ १ २ थु १ रे 7 ५११ यु गोविंददास 'विनीत” ३१ गौरीशंकर भा ७३ खाल ४०३, ४०८ घतानंद ८३, ४१८, ५०४ चंद्रबंधु ७०, ७६७ चंद्रभूषण त्रिपाठी प्रमोद! ५३, ६» चंद्रशेखर बाजपेशी ४१६ चकब्स्त ४७४ चतुभु ज चतुरेश ३६१ चौहान, श्रीमती ११५ छेदीलाल ४३ छोटेलाल राय ५१ जगदंबाप्रसाद मिश्र हितेषी' . ४३७ जगदीश वाजपेयी ४१३ जगन सिंह सेंगर ४१२, 5५२ जगदीशनारायण तिवारी ३२ जगन्नाथ पंडितराज ६४ जगन्‍नाथप्रवाद चतुर्वेदी ३८३, ४०० जगनन्‍नाथप्रसाद 'मिलिद' ५० जगनन्‍नाथप्रसाद मिश्र ४०० द जगन्नाथ मिश्र गौड़ 'कमल! ३६, २४२ लगमोीहन विकसित! २४२ जगमीहन सिंह, ठाकुर ४०६ जताद नप्रसाद कला '(ह्वि! ५७, २४१, २४०, २४९, २५०, २६९७ जफर अली ४७४ जहुरबंख्श ४६६ जानकीवल्लम शास्त्री २७१, २४४५ शस्ण्प्‌ जान देमिल्टन रेनल्ड्स ३३८ ४३४, २६५, पर जायसी ३०३ जिगर मुरादाबादी ४६० जुरश्रत धन - जोश मलीहाबादी ८०, ४८४, ४८५, ४८५६ ज्यों तिप्रसाद मिश्र “निमल! ७१, ४६३ ज्वालाधम नागर (विज्लक्षण! इट, ३२९१ टामस ह्वार्डी १३८ टालस्टाय ३३३, २४७५ टेनिसन २६०, १६३, २६७, ३३४, २२७, ३७९ ठाकुर रामपाल सिंह ७२४ डब्ल्यू० पी० विटकट २३४ डार्विन ३२७ तारा पांडे ६२ तुलवीदास, गोस्वामी ३६०, २७६५ २७८, ३६०, ३१६५, ४७०२) ४२२, ४८२, ५०१२ तुलसीराम शर्मा दिनेश” ४३ है है दय!नंद सरस्वती २५८, ३२७ दयाशंकर मिश्र शंकर?! ५५ दाग, मिर्जा ७७६, ४७७, ४८८, ४६० दामोदर पाठक ३१५ दामोदरसहाय सिंह कवि किंकर! ३२, ५२ ४८५) ७२, ७३, ४४५९ दिनकर, रामधारी सिंह ३२, ४७, ५१) पू८, ८, पमा५ि। प८, ८५९६, ६३; ६५, ६८, १०७, ३१९, ४६८ दिवाकरप्रसाद शास्त्री ३३ दीनदयाल गिरि ४०३ क्‍ दीनानाथ 'अशंका ४०, ६३ / हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास दुलारेलाल भार्गव ५४, एल, ४०० ७०५, ४१६९, ४२८, ४४७५ दूलह कवि ४१८ देव ७१२ देवराज, डा० १३४७, १३५ देवीदव शक्ल ६३, ७०, ४४६६५ ४७५७, ७६१) ४६४६ देवीदयाल चतुर्वेदी 'मस्तः ७० ७६६ देवीप्रसाद गुप्त 'कुसुमा कर! ४४७, ४६९ देवीप्रसाद पूर्ण', राय ५००, ४०४, १३ देवीप्रसाद व्शवाल ३० देहाती ४१० द्वाकाप्रसाद गुप्त (रसिकेंद्र” ३३ द्वारिका प्रसाद चतु॒बंदी ४७६७ ह्विंजदेव ४०फ नंददास ४२० नंददुलारे वाजपेयी ३४८, १२६, १३०५ श्य्ण नंदलाल माथुर ५२ नगंद्र, ड7० ३६, ५७, ६४, १३१, २५४, ३९५ नरेंद्र शर्मा ५७, ६२, ७७, २४७१, २५४, २५६, २१६) १४४, २४७, ३ ५४८ ३७८, र२े८०, ३५१ नरोत्तमदास ३६० नवनीत चतुबंदी ४१०, ४१३, ४४३ नवाब वानिद अली शाह ४३५ नवीनचंद्र सेन ६४, ३४७ नवीन, बालकृष्णु शमा २८, ५१, ५६ न“ै६५, #रे;, ५५; ८पछ, ८५९) ८ १००, १०२, १०७; ११२, ११३, ११०७, १२१; २७१, २४३, २४७ .. २५४, ३४५, २१७, ३४८, २६०, लेखकानुक्रमणिका २६४--३६७, ३६८, ३६९, ३७७, ४४०---४४१, ४९३, ४६४) ५० नवीबक्‍्स “कलफ्‌! ४०८ ४५१ नसीम देहलवी ४७८८ नाथूराम माहोर ४१३, ४३२ नाथूराम शर्मा शंकर! ४०७, ४१३ नारायशुदत्त बहुगुना ४२ नारायश[प्रताद वृजन ३७ नारायणराव व्यास २० निंबाफ, आचार्य २५६ निराला, सूर्यकांत त्रिपाठी ३९, ७०, ४४, ४९, ४७, ४९, ५३, ५४ 9७ ४६, ६९) ७२, ७५, ७७ ९१, ६४ ६४, ६७, १०५, १२१, १२३२, १२६९, १३८, १३१६, १४१, १४२३, १४३, १६२--१६४, २४४, २६१, २६९४, २९६, २६६९, २७१; २७२, २७३, २७४, २७६, २७८, २७६, २८०३े, २८०४, २८५, श्८६, २०५७, २६०, २६१, २६२, २९५, २६६, २६८; २६९६९, ३०१, ३०५, ३०६, ३०६९, ३१० २३१७ ११७, १८॥ ३१९, रेशे३े, ३२७ ३२३६, २३७, ३३८ ३२३९, ३४७, २४९, ३६०, ४०१, ४६३, ४९४७ ०६९२, १, ५०३, ४०६ नीच्शे 2७५८५) ४८१ वपशंभु ७१८ १०८ नेपाली, गोपालतिंह ३२६, ६२, २७१ २५२, २७८---२३७६, ४५७, ४६८ पंत, सुमित्रानंदन १६, ४७, ५३, ५४, ३६, ४७, ५९, ६९१, ६६, ७२, ७५, ७७, ६६९, ६६, १०८८, ११५१, १२२९, १२४, १२७, १३१, १३३) ११४, १०-६५ +१३ १३४, १३६, १३८, १३६, १४०, 9९, १४२, १४४, १५१, १५२, . १है9, १९७--२१८, २४४, २६१, ६१, २६७, २६९, २७२, २७३, २३७४, २७५, २७६, २७७, २७८, २९०८५) रे८७, ६८६, २६७, २६५, २०४, ३०६, ३०८, ३०६, ३१०, २१२२, ३१२, २३४; २३६, ३३६, २३४०, २४१, ३४९६, ४०१, ४०२५ ४३२७) ४६७, ४६३, ७९६४, ४९८, ४०९१, ५०२, ५० हे पदुमलाल पुन्तालाल बख्शी ४५७, धद६ प्चकांत मालवीय ५5, ६०, . रेघ० पद्मसिंह शर्मा ४०० प्माका ४१२, ४६३, ४६७ पालग्रेव ३४६ पी० सी० जोशी ३३३ पुरुषाथवतती ५० पुरुषोत्तम प्रग्रवाल ४१६ पुरुषोत्तम दास ध्सैयाँ! ४५१ पुरोहित प्रतापनारायण २८५, ४५, ५०, ४.१, ४, ९८, ७२; ७३ पुश्किन ३३६ पेटर ३३७ ३७८, _ पो दें 'एडगर एलन पो!? ३७३ - पोलप्रंकाशक ६८ प्रणयेश शर्मा ५७० प्रशुयेश शुक्ल ५०, ६०, ६२, ४५३ प्रतापनारायणश मिश्र ६७७. ३६९ प्रतापनारायण, राजा 9२२ प्रफल्लचंद्र श्रोका भ्मुक्त' २८२ पूरे हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास बदरीप्रताद तिपाठी ४४४ ब्गंसाँ २३९, ४७८, ४८४ प्रभाकर माचवें ३७४ प्रसाद, जयशंकर १५ २६, २६) ४१, ४४, ४७, ४६, ५३२, ४५) $७, ९०) ६१, ६०, ६३, ६७५ $ ०२.१०८ १२१, ११५२, १२४, १२६, *२७) १२८, १३१६, १रे८, १४१, १४२, १४३, १४७४-१६२९, १६१, २४४, २५६९, २६१, २६२, २६६, ९८८, २६९, ६७०; २७१, २७३, २७६, २७७, २७८; २५०, २८२३५; २८४, २८७, २८९, २६०५ २९१, २३४ २६६, १९८+ २९९, ३००; ०२; ३०३, ३०५, ३०६, ४३०६, ३१०५ ३११, ३१२, ६११५४, २१७, ३२२१, ३३२, ३४९, २५०५ ३४१; २*, ४०१, ४३२, ४६३२५ ४६४, ४३१७, १०१, (५०२, ५०२३ बल देवप्रवाद मिश्र २६, ५९, ६७ बलभद्र दीक्षित 'पढ़ीस” ६६ बलभद्र प्रसाद गुप्त रासक ४५४७, ४६९४ बलराम प्रसाद मिश्र द्विजेंश ४४० बपघ्ंताास २७ बॉकेतिहारी लाल, बाँक़े पिया! ५२, ५४३६९ बायरन २९१, २६७) रेरे१, ररे४, ३३६, ३१४७३, ३७४, ३२४९ ३१० बारहट जोगीदान ४७७... बालकराम शास्त्री ६१ बालकृष्णु राव ६०, ६३, २२२ बाल गंगांधर तिलक २४७ बालमुकुद गुप्त ६७, १८१ बिहारी ४९८ बिहारीलाल विश्वकर्मा २७ बुद्धदेव विद्यालंकार ४८) *७५ बद्विनाथ भका “कैरव” ३८५ ४६ बुधचंद्र पुरो ४८ प्रेमकवि ६४८ प्रेमचंद २६३, ३६८, ४६२ फकीर मुहम्मद खाँ गोया ४८४ फानी ६८७, ४८८; ४८८६ फिव्जेराल्ड ६६, १४८, ३५६ बृजरतन सुरजरतन मोहइता ४६४ फिरदौसी ६६ बृजविहारी लाल ४६७ फिराक गोरखपुरी ८०, रैंप, ४६९ बेठब बनारसी ६७, ६८) शे८रे॥ २८५९, फ्याज खा २० ३८७ फ्रायड २३४ रेर३, ४६७. |; ; बेघढ़फ बनारसी ६७, ६६, रे८३) रै६२, बच्चन, हरिवंश राय ५७, ५६, ६६॥ ... रेधइ ७७) १०९ । + बैज्ननाथ सिंह किंकर ४३० २८८, ३१९, ३५७, ३५८, २३५६+ २६०, ३६९, रे 9 १ ) डर ७५ है। ३ €्‌ द्‌ बड़े गुलाम अली २० । ब्रजनंदन जी 'कविरत्न! ४४१ , ब्रजेश जी महापात्र ४५० : ब्रह्मदत्त कवि ४१८ बदरीनाथ भट्ट ७१६ | ब्रह्ददच शर्मा शिशु” ४१, ५८ बदरीनारायणश चॉघरी “प्रेमघन' ३६६, ब्राउनिंग २९७०५ २६१+ २६२ ४१३ ४ ह ब्लेक २२४; २ ३९, ३७४, ३४६ लेखकानुक्रम णिका भगवती वरण वर्मा ४७, ४७, ७७; २५१, २४४, २५५, ३१६, ३५५, २५७, ३श८०, ३३७, ३७१, ४९३; ६४ द भगवती प्रसाद वाजपेयी ३६४, ४४७, 9६९८ भगवती प्रधाद सिंह वीरेंद्र ३४ भगवतीलाल वर्मा पुष्प ३९, ५३, ७३ भगवानदीन, लाला ३८३, १६४, ४००, ४०४, ४१७, ४५०, ४५४६ भवानी प्रसाद मिश्र ११३ भारतमूषण अग्रवाल ३७५ भारतेंदु इरिश्चंद्र १५, ६७, १४०, २८३, २४६, ३४७, २६६९, ४०२, ४०४, ४०५) ४१२९, ४१६, ४१७, ४४६ भूपनारायण दोछ्ित ७०, ४६६ भूषेशु ४२२, ४४६ भैया जी बनारसी १६; ३९३, ४६८ मंगलाप्रसाद गुप्त ४१ मंगलाप्रसाद शर्मा ४३ मथुराप्रसाद “मथुरेश” ६३ मदनमोहन स्वामी ४०८ मदनमोहन मालवीय ४३५ मधुत्दन दाख ४१२ सनोर॑जन ४६८, ६१, ६६९ मनन्‍नन द्विवेदी “गजपुरी' ४७६३ मयूर कवि ६४ महाकवि चबड्चा ३८७ महादेवी ४७, ५३; ५७, ६१, ७६, . १२१, १३०; १३९१, १३२, १३२३, / १३८, १३६, २१६-२३६, २४४, २४८) २५१, २६९१, २६५; २६७५ २६८, २९९, २७१, ३९७३, २७४, २७६, २७७, २७८, २९८०; २८४, धू१५ २८४, २८०६, २८६७, २६६, ३०४, / के ३४५, २१६९६, २०७, ३१०, है ३४, _ह३५, २४१, ३४३, ३:६४, २७५५ ४७, २५६, ३५६, ४६३५ ४६४, ४ह८, ५०१, ६०३, १०६ महाबली सिंह ४8 महाराज रघुराज सिंह ४१२ महावीर उसाद द्विवेदी, आचाये १२१, १२४, २०१, २६४, रे६६, ४२५७ ५०३ क्‍ महेद्रत्नता प, राजा ७३५ महेशचद्र प्रसाद ४६ माइकेल मधुतृदन दच ६४, २६५४ माखनलाल चतुबं दी २६; ४७, १० ८३; ८५५, ८५७, €व्ए, १०७, १०८, ११०; १११, ११२, ११३, ११२१, २४२, २४७; २५३५ २०६७५) २८६५५ ३५४, ३५७) ३६१, २६९२४ ३९४) ३६६, ३६७, ३१७४५, २७७, २७६, ४६३, ४९४, ४६५, ४०९, ० हे मातादीन चतुवेदी ४१ द मातादीन भगेरिया ४१ .. साधवराव यप्र १११ ३२७ माक्स ३३, ४७०५ ४८ . माहेश्वरी सिंह मद्देश ६० 88 ् मिल्टन २४१ ६*। २१६३, ३२१७, रेबे६, ऐपरे : मीर ४८८, ४८६ मीरा २८९, ४४८ म॒शी अजमेरी ३५ म शीराम़ शमा ७६९९ मुकुट्धर पांडंय ५५ २६; ४१, १२१, १५४, १२८, १२४, १७३, ९४२) २४४, रे८ रे "उत-पेलक पक लकमारेकसस न पर संबन्‍रोड सास लटक जन पा>ाउ चल कसर कर अपन्‍ काल पलेलहाड: फेस बन सरहिलेक रेप नया उतर सर कक से करता उनसे न चलता पल ियापदालिलस वास सरसकला ११६ रू मक्तिश्रेध १५४१५ मनि न्‍्यायविजय रेप, १. #६ मरारीलाल शर्मा 'बालबंघु? ४६७ मसहफी ४८८ है मृत्यु जब ५४ मेघनाथ शास्त्री ४३५ मेघव्रत “कविरत्ना ६१ सैथिलीशरण गुप्त २८, ३०, ४२५ रे३ ३४, ३६, ०७१, ४७) & ४५० 4४; धूप, एै४, ६९४$ ५५९१ ७३, ७४, «८३, ८४५५ ठप्य+। 5६) ९०) ६४, ६६, ९७) १००५ १०३६) ६०८, ११५३, १८१ ३५७, रैरप, रै९१ ३६४५ ३९१, ४०१, ४७१५७, ४६४) ४६६९५ ४६३, ४९४, ४०१) ५०४, प०६ क्‍ सैथ्यू आरनाल्ड २६० मोमिन ४८८ मोहनराय, साह ४२, ५५ मोहपलाल महतो “वियोगी/! २४१५ २४४, २७६, ४ढै८ मोहनलाल मिश्र &रे मोलाना मोहम्मद अली ४७४ मौलाना रूम ४८१ यजश्ञदच त्यागी ४४ | यमुनादत चौधरी नीरज” ५७ । यास यगाना चेंगेजी ४५७, ४६०६ योगेंद्रपाल ४३ । रंगनारायणु पाल 'रंगपाल, ४५० रघुनंदन भा शास्त्री ४2४५२ | रखुनंदनप्रसाद “अटल” ३५; ६१, ६५ रुनंदनलाल मिश्र ४३ [| खुवंशलाल गुप्त ६६ 4 हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास रघुवीरवख्श, राजा ४२१ रहञ्ननीकांत १८२ जगनन्‍ताथदास 'रत्ताकर!' ३०, ४६, ४७, ५९, ७४, ७८, ३६४५५ ४००, ४०२; ४०२३, ७०४, ४००५; ४०८, ४०७, ४०८, ; ०९, ७१०, ४१२ ४१३, ४१४, ४७१६-४२१, ४३3३२, ५४९४, भ० रमानाथ शास्त्री ४२५ रमाशुंकर शुक्ल 'रसाल' ४०८, ४४२- ४४४० रमाशंकर शुक्ल 'हृदय ६० रवाँ ४७४ रवि वर्मा; राजा २०, ४९६ र२विश सिद्दीकी ८०, ४८६, ४८७ सींद्रनाथ ठाकुर २७, ६५, १२१, १२३, ६७२, (ए८, १७७, २३०, २७६, २८०५) २६४५ २६७; २२७, ३२१२, ३३३, रे२४, ३३६, ३४७; ३५८, ३५६९६, डरे, ४९४५ पे६८७ ५०४ रसराज नागर ७३ राघवदास, सदहाराज ४५४ राजकवि काशोप्रसाद ७१ राजाराम श्रीवास्तव ४४ राजेंद्र तिह गाँड़ ७४७) ४६९ राजेशद्या ल श्रीवास्तव ४५३ राधाच रण गोस्वामी ४१३ राघारमण शर्मा ६३ 5 रामकरण हिवेदी पअज्ञात' ३५ रामकमार व्मोी ३४, ३६, ४“*, “३, ॥ प्‌ू७, ६३५ २४१) २४४७५ २४०, .. २५६, २५२, २८७, २६६, ३३४, ॥ ३४७, ३४६) रे ४६७ ४२२, ४९८ लेखकानुक्र मणिकां रामकृष्ण मुकुंद लघाटे २११ रामकृष्णु परसहंस १०२, ६८८५ १९१, २५४८, ४९६ ८८ रामगोपाल जी 'गोपाल? ४५१ रामचंद्र शर्मा विद्यार्थी ३० रामचंद्र शुक्ल, आ्राचार्य ६४७, ६२१, १२२, १२३, १२५, १९२६, १२७, १२८, १३०, ९३४, १३५४, १२९, १४१, ४७, ३११९, २३५३, ईइ८३, रे८ष८छ, ३२६०, ४०४५, ४०७, ४०९, ४१२, ४१४, ४१७, ०0२६, ४७६६९-" (३ रे प७० रामचंद्र शुक्ल “सरस” ३३, ४४३ रामचरण तिपाठी ७४७ _रामचरित उपाध्याय २८, ४२, ४८ रामजी लाल शर्मा ४६२ रामदयाल ४१७० रामदास गोंडू ४४० रामदेव सिह “देवेंद्र! ३६ रामनरेश त्रिपाठी ३७, ४७, ४७९, ५२, ७९५ ७६, ८४, ८5१६, २१५) २४२-२४४७, ३८६, रामनाथ 'जोतिसी! २९, ४०४, ४१२; ४९२१, 9२४ रामनाथ पसुमन' २४२, २५२. रामनारायणा मिश्र ६५ रामप्रसाद कवि १८२ ॥ राम उसाद त्रिपाटी ७०5) ४२२, ४४१८ रामप्रसाद शर्मा 'उपरीन' ४३ | रामप्रसाद सारस्वत ६४ । रामप्रीति शर्मा ७६७ राममोहन राय, राजा २५७; ३३६ ४२२५०४४६५-४४७५-४ ४५९ - न१७ | ४७९१०, ४५३ लि श्रीवास्तव ४४३ क्ीचन शरण ४५७ रामलोचन शर्मा 'कुंटक' ७०, ४६५ रामवल्लभ शरण ४२३ रामविलास शर्मा, डा० १३३ रामबृत्ष बेनी पुरी ४५७ राम ह आओ शरणु ३१ रामसद्दाय शर्मा ८मराल' ३३ रामसिंह, राजा ४५० रामाज्ञा द्विवेदी समीर! ५७, ४१२, रामाधीन ४५० समाधीन दास ७६ रामानंद तिवारी १८२ 'रामसखी * रामावतार दास रामायणी श्र द रामेश्वर फरुण ५५, ७०, पट ४०७, ४००, ४७९१, ४१२, ४५२, ४६६ की राय कृष्णुदास ७५, ५७, ६६ ४ ४ै२२००३४ रिचेर्ड श्रालिंगटन ३३० रूप गोस्वामी २३४५ रूप रायणु पांडेय २७, ४३, ४०४) ४०६, ७४२ ४६४५ ४०४, 33.30% : ५६० - २++-अकिम ७०३ ० सिंह ४०४ लक्ष्मशु सिंह चॉह्ान, ठाकुर ११५ हक च चतुवबंदी ७०५ ७६६ लक्ष्मीनारायणु मिश्र १७१, २४७, २७८ लक्ष्मीनोरायण सिंह 'ईश”, चोधरी ४५३ २६० हैं“ ०2% 2020 0 20 के 2305 हक ४ 2 प््श्ष्ध लक्ष्मी नारायण सुधांश २४० लक्ष्मीनिधि चतुर्वेदी ४३७, ०४६ ललितकुमार सिंह 'नठवर! ७६ लल्लीप्रसाद पांडेय ४५६, ७६६ लारंस ३३८ । लालजी मिश्र ६४ लाला किशनलाल जी “कृष्ण कवि &.. ५2 4, - "६. ४५० !ं लाला भगवानदीन ४६३ 6. ४ लेडी हेरिघिम ९२९ छू. ह लोकमान्य बाल गंगाघर तिलक १११ लोचनप्रसाद पांडेय ७६८ श बंशीधर विद्यालंकार २०२ क्‍ बचनेश मिश्र ३१, ७१०७ ४१२, ४१३५ 8४० . बड़ उबर्थ २०५, २६७, ३३५, २३९, रेशै८ २३४२, २०७२, ३१०७७, २४५, २४९, । वल्लमसखा ४४६ वासुदेव हरलाल व्यात ६३ विद्यापति ४६८ विद्यामास्कर शुक्ल ४६६ | विद्याभूषण 'विभु' ३५) ७१, ६६५७ ४६१ क्‍ |" विनयमो हन शर्मा ४६६ विनायकराव भट्ट ३३ वियोगी इरि ४६, ५२, ७१, ७८६ ८८, ६४७, ४००५ ४०५, ४०८५,४१० . ४१२, ४३८-४४० बिलवासी मिश्र ३८५७ ३३१५ ई३४,५ ३३९, ३७०, द्विदी साहित्य का बृहत्‌ इतिद्दास विवेकानंद, स्वामी १८२, २२७, २१९, ४९८८ विश्वनाथ प्रसाद ७१ विश्वनाथ घिद्द ४१ विश्वप्रकाश “कुसुम” ४६४ विष्णु कवि ३० विष्णु दिगंबर पलुस्कर २० विष्णु नारायण मातखंडें २० व्यथित हृदय ७०, ४५७, ७५६६९ शंक्राचाय ६३, २५९, २६०, २७२ शंभुदबाल सक्‍सना २५॥ ४७, ४७१७५ धद्८ शंमुनाथ मिश्र २२१ शमशेरबहादुर सिंह ३७५ शांतिप्रिय द्विवेदी 3, १३२ ८५, २०७, ६ र्‌ | १ रे ०३ शाहजाद सिंह “निकुर्मा २७ शिबली ४७५; ४७७ शिबदत्त त्रिपाठी ६४ शिवदयाल जायसवाल दरे४ शिवदास गुप्त “कुसुम? -_कक०, ३२९, ४८ शिवदुलारे त्रिपाठी ७०, ४६५४. शिवनदन सहाय ४५६ शिवपूजन सहाय दे८४़ शिवप्रसाद मिश्र 'रुद्र काशिक्रेय! रे८रे, रे रिवपबाद सितारेहिंद ४५६ शिवमंगल सिंह “घुमन! ३८१ ईशिवरत्त शुक्ल (सिरस! ३१३ 5६, रेठ८ शुर कवि ३६ कसपीयर २३५) ३१७, रेझेरै, रैरे0 . ३४५५ ३४६ सा “मुणाल! ६० ल्ले खकानुक्र प्रणिका शेली ७६, १२५, २८४, २६१, २६७) ३३१ है, ३२४, २३१५ २२८, ३२३७, ३२२८, ३३६, ३४०, २४२, ३७०४, ३४४, २४६९६, २५०५ श्यामनारायश पांडेय ३१, ७०, ४४५७, |. ४६६ श्यामनारायण मिश्र श्याम! ४५३ श्यामसेवक ४३१ श्यामल्ाल परूठक २३३ श्रीधर पाठक २६, ४१, ६४, १२१, ३६९, ४०७) ४०६, ४१३, ४५९; “ सरजंशरगण शर्मा ४४३ 2६६ श्रीनाथ विंह ३९, ७०, ईैणरे, ३२९०५, ४४६, ४६२ श्रीनारायण चतुवेदी ५१, ४६१ श्रीलाल खन्नी २७ संतोख सिंह २७ सत्यनारायण] 'क्विरत्न! ४०४, ७१३ सत्यप्रफाश ५७ स॒यत्रत शर्मी 'सुमन! २४२ सदाशिव राव २२१ ह सदे ३३७ « सर विलियम जोन्त ३३६ सर सैयद ४७८ सरूर ४७५ साँवलदास बहादुर ४४ सागर निजापम्ती 5०, ४८६ सियाराम शरणु गुप्त ३७; ४१. 3७, पू०, +#६५३ ४८, ८घघ, ६१, है ८ ६६, १८६, १०९, ११०, १२३ ३०९ 9 ०३ सीतल पिंह गहरवार २७ > 25276 :% 2 री डर कु है. $ 27... कल ५8. हे 29203 66: ४१६ सीमाव श्रकबराबादी ४९१ सुभद्राकुमारी चोंहान ४५, ५०, ५९, / ७०, परे, ८७, ९९, ९६, १०६९, १०६, ११४, १२१, ०६४ सुभाषचंद्र बोस १० आुरेंद्रनाथ जतिवारी ३० रेश'सिंह ४१७, ४५८ जग २८७, ४०२. ४५५, #सय देवी दीक्षित (उषो! ५७५ ६० 'सेंट्सबरी ३३७ सेवकेंद्र त्रिपाठी ४४७-४४६ सैयद अमीर हसन ४७६ सेयद्‌ अली 'मीर! १११, २१७ ४५७० ४०४७ ८ हम मित्रसैन राममित्र ४३-४४ रामतीथ १११ स्वामी शारदानंद १६१ स्वनन्नन ३२३७ रि् $ अयोध्यासिद उपाध्याय ४७; ऐट, ५२) ५५५७ ६७, ७०१ ७३) है ) ्डू ५५७७७७४७७७७७७७७७७७७७७७७७०७७७४७७७४७४४७७७७४७७७४-७७७७४४७ ७७०४० के कक कह ०३332 ४2.3 अल कक नम अप. अल ३ अनबन असम न अकाल अर 32००, 2 अमल >पकस आर मनन कल कमल नमक बी कर 22. औन्क न 385 प ३ पम5र55 5 पर लव ५६० 2५६, ४६५४ हरिक्षष्ण प्रेमी! ७०, ५४) ५९६, (२७८, ३७६ । हरिशंकर शर्मा ७३) $७) रेफर, हे८३ , हरिशरश श्रीवःस्तव 'मराल' ६६, हं८ रीड ३४२ ः हसरत ८०, ४८७, ४८५८ हाफिज ४८६ हाडी २९३ हाल २०४ लक... हाट" %०- अजा । हिंदी साहित्य का बृहत्‌ इतिहास हाली ४७१, ४७७, ४८३ हिम्मत सिंह; कुंवर १८१ हिल्‍्डा डूलिटल ३३० होगेल ३९७, ३३६, २५०, २४१, 0७५५ ४८८२९ द्वीरा सिंह “चंद्र” ५३ हृदयनारायण 'हृदयेश” ३७८, ३७६९ हृषोकेश चतुर्वेदी ६७, ४१० होमवती ५८ ह्मगो ३३६ हा,म ३३० हावाफर ३१७ हिंग्मन ३३८

कनुप्रिया को सिर्फ कौन सा शब्द सुनाई पडता है?

उत्तर : कनुप्रिया के लिए वे अर्थहीन शब्द जो गली-गली सुनाई देते हैं – कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व।

कानुप्रिया अर्थात राधा किसकी सखी है *?

(३) कविता की केंद्रीय कल्पना : इस कविता में राधा और कृष्ण के तन्मयता के क्षणों के परिप्रेक्ष्य में कृष्ण को महाभारत युद्ध के महानायक के रूप में तौला गया है। राधा कृष्ण के वर्तमान रूप से चकित है। वह उनके नायकत्व रूप से अपरिचित है। उसे तो कृष्ण अपनी तन्मयता के क्षणों में केवल प्रणय की बातें करते दिखाई देते हैं।

कनु को कौन ले गया?

मेरा कोई नहीं है ! ' और सच-सच बताऊँ तुझे कनु साँवरे ! यह मैं आज तक नहीं समझ पायी!

कनुप्रिया में कितने भाग हैं * चार तीन एक दो?

धर्मवीर भारती की कनुप्रिया - तुम मेरे कौन हो

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