रैयतवाड़ी तथा महालवाड़ी व्यवस्था का संक्षिप्त वर्णन कीजिए - raiyatavaadee tatha mahaalavaadee vyavastha ka sankshipt varnan keejie

रैयतवाड़ी व्यवस्था 

सन्  1820 मे टामस मुनरों मद्रास का गवर्नर बना। उसने प्रचलित स्थानीय राजस्व प्रणाली कर अध्ययन का मालाबार, कन्नड, कोयम्बटूर, मदुरै तथा डिण्डीगल मे जो राजस्व प्रणाली अपनायी उसे रेयतवाड़ी प्रथा का नाम दिया गया। इसमे कृषक ही भूमि का स्वामी होता था तथा बिना किसी जमींदार या बिचौलिये के सरकार को सीधे कर देता था। वह अपनी जमीन का पंजीबध्द स्वामी होता था। 1792 से 1820 तक सरकार खेत की अनुमानित आय का लगभग आधा भाग कर के रूप मे देती थी। 1820 मे सर्वेक्षण कराने के बाद मुनरो ने कुल उपज के तीसरे भाग को लगान मानकर रेयतवाड़ी प्रथा प्रचलित की, परन्तु यह लगान भी बहुत अधिक था तथा धन के रूप मे वसूला जाने के कारण वास्तविक अथवा मंडी के प्रचलित भावों का इस पर कोई प्रभाव नही था अतः किसान बड़ी मुसीबत मे पड़ जाते थे।

मद्रास की रेयतवाड़ी प्रथा लगभग 30 वर्षों तक चली तथा इससे कृषकों को अनेक कठिनाइयाँ व आर्थिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ा, वे कर समय पर चुकाने के लिए सूदखोर साहूकार-चिट्ठियों के पंजो मे फँस गये तथा अंग्रेजों के कड़े कर संग्रहण नियमों एवं उनके द्वारा दी जाने वाली यातनाओं का उन्हें शिकार होना पड़ा। ये शारीरिक दण्ड इतने अमानवीय थे कि ब्रिटिश संसद मे इन पर आवाज उठी। 1855, 61 मे इस पर सर्वेक्षण हुए किन्तु मद्रास प्रांत के कृषकों की वास्तविक स्थिति तो 1877-78 के भीषण अकाल मे ही सामने आयी। 

रैयतवाड़ी प्रणाली के लाभ या गुण 

इस प्रणाली की सर्वप्रमुख विशेषता सीधे कृषकों से कर वसूल किया जाना था। इस प्रकार कृषकों की भूमि का स्वामी मान लिया गया। जब कृषक कर देता था वह भूमि का स्वामी था। अतः कृषक अच्छी उपज करने लिये अधिक श्रम करने के लिये बाध्य हुआ। लम्बी अवधि के लिये कर निर्धारित कर दिये जाने से भी कृषक लाभान्वित हुए।

रैयतवाड़ी भू राजस्व व्यवस्था या प्रणाली के दोष या हानि

कुल उपज का 33 प्रतिशत कर भी कृषकों के लिए बहुत बड़ा भार बन गया। अतः उनकी आर्थिक अवस्था मे कोई सुधार नही हुआ। व्यवस्था मे गांव के प्रमुख लोग हस्तक्षेप कर मध्यस्थता का कार्य करने लगे। यह वर्ग भी जमींदारों की तरह गरीब कृषकों का शोषण करने लगा। भारत मे कृषकों के अशिक्षित होने के कारण गांव के बड़े लोगों ने इस व्यवस्था से लाभ उठाना शुरू कर दिया। अतः यह प्रणाली असफल हो गई। इस प्रणाली से सरकार तथा रैयत अर्थात् हल जोतने वालों के मध्य गलतफहमी एवं संघर्ष व्याप्त हो गया।

आपको यह जरूर पढ़ना चाहिए;मराठों के पतन के कारण

आपको यह जरूर पढ़ना चाहिए;डलहौजी के प्रशासनिक सुधार

आपको यह जरूर पढ़ना चाहिए;1857 की क्रांति के कारण और स्वरूप

आपको यह जरूर पढ़ना चाहिए;ब्रह्म समाज के सिद्धांत एवं उपलब्धियां

आपको यह जरूर पढ़ना चाहिए;राजा राममोहन राय का मूल्यांकन

आपको यह जरूर पढ़ना चाहिए;लार्ड विलियम बैंटिक के सुधार

आपको यह जरूर पढ़ना चाहिए;स्थायी बन्दोबस्त के लाभ या गुण दोष

आपको यह जरूर पढ़ना चाहिए;महालवाड़ी व्यवस्था के लाभ या गुण एवं दोष

आपको यह जरूर पढ़ना चाहिए;रैयतवाड़ी व्यवस्था के गुण एवं दोष

रैयतवाड़ी एवं महालवाड़ी व्यवस्था

रैयतवाड़ी व्यवस्था 

यह व्यवस्था 1792 र्इ. में मद्रास पे्रसीडेन्सी के बारामहल जिले में सर्वप्रथम लागू की गर्इ। थॉमस मुनरो 1820 र्इ. से 1827 र्इ. के बीच मद्रास का गवर्नर रहा। रैयतवाड़ी व्यवस्था के प्रारंभिक प्रयोग के बाद कैप्टन मुनरो ने इसे 1820 र्इ. में संपूर्ण मद्रास में लागू कर दिया। इसके तहत कंपनी तथा रैयतों (किसानो) के बीच सीधा समझातै ा या संबध्ं ा था। राजस्व के निधार्र ण तथा लगान वसूली में किसी जमींदार या बिचौलिये की भूमिका नहीं होती थी। कैप्टन रीड तथा थॉमस मुनरो द्वारा प्रत्येक पंजीकृत किसान को भूमि का स्वामी माना गया। वह राजस्व सीधे कंपनी को देगा और उसे अपनी भूमि के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता था लेकिन कर न देने की स्थिति में उसे भूमि देनी पड़ती थी। इस व्यवस्था के सैद्धांतिक पक्ष के तहत खेत की उपज का अनुमान कर उसका आधा राजस्व के रूप में जमा करना पड़ता था।

रैयतवाड़ी व्यवस्था 30 वषांर् े तक चली। इन वर्षों में 1820 र्इ. के बाद यह व्यवस्था उन क्षेत्रों में लागू की गर्इ जहाँ कोर्इ भू-सर्वे नहीं हुआ था। (सर्वे से तात्पर्य जमीन, उपज, लागत का आकलन) रैयत को इच्छानुसार खेत न देकर कंपनी के पदाधिकारी उन्हें अन्य खेत में काम करवाने लग।े भूिम कर भी बढ़ा दिया जिससे कृषक वर्ग अपनी भूमि साहूकार के पास रखकर ऋण ले लेते थे और ऋणग्रस्तता के जाल में फँस जाते थे। यदि कृषक वर्ग कर नहीं दे पाते थे तो उनसे भूि म छीन ली जाती थी तथा राजस्व वसूली करने के लिए कंपनी के अधिकारी रैयतों पर अत्याचार करते थे। मद्रास यातना आयोग ने 1854 र्इ. में इन अत्याचारों का विवरण दिया था। इसके पश्चात् भूमि का सर्वे पुन: प्रारंभ किया गया तथा करों में भी कमी लार्इ गयी।

रैयतवाड़ी व्यवस्था का प्रभाव

यह व्यवस्था कृषकों के लिए हानिकारक सिद्ध हुर्इ। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ा। कृषक गरीब तथा भूमिहीन हुये तथा ऋणग्रस्तता में फँसकर रह गये। एक सर्वे के अनुसार मद्रास में कंपनी ने पाया कि 1855 र्इ. में रैयतवाड़ी व्यवस्था के अंतर्गत एक करोड़ पैंतालीस लाख एकड़ जमीन जोती गर्इ और एक करोड़ अस्सी लाख एकड़ जमीन परती रह गयी। इस प्रकार इस व्यवस्था से कृषि पर बुरा प्रभाव पड़ा।

बंबर्इ में रैयतवाड़ी

1819-27 र्इ. तक एलफिंस्टन बंबर्इ का गवर्नर था। 1819 र्इ. में उसने पश्े ावा के राज्य को अपने अधीन कर लिया। इसके बाद एलफिंस्टन (जो कि मुनरो का शिष्य था) ने रैयतवाड़ी व्यवस्था को बंबर्इ में लागू किया।

इस समय पिंगल नामक अधिकारी ने 1824-28 र्इ. तक भूमि का सर्वे कर उसका वर्गीकरण किया तथा राज्य का हिस्सा उपज का 55 प्रतिशत निश्चित किया। सर्वेक्षण दोषपूर्ण होने के कारण उपज का आंकलन ठीक नहीं बैठा। भूमि कर निश्चित कर दिया तो बहुत से किसानों ने भूमि जोतना बंद कर दिया और काफी क्षेत्र बंजर हो गया। 1835 र्इ. में लैफ्टिनेटं विनगेट भूि म सर्वे के अधीक्षक नियुक्त हुये। उन्होंने 1847 र्इ. में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस रिपाटेर् के प्रस्तुकर्त्ताओं में गाल्े डस्मिथ, कैप्टन डेविडसन तथा कैप्टन विनगेट स्वयं शामिल थे। इनके अनुसार भूमि की कर-व्यवस्था के उपजाऊपन के आधार पर निश्चित की गर्इ।

यह व्यवस्था 30 वषोर्  तक बनी रही। इसके पश्चात् 1868 र्इ. में भूि मक का पुन: सर्वेक्षण किया गया। 1861-65 र्इ. में अमेरिका का गृहयुद्ध हुआ जिसके कारण कपास की कीमत में बढ़ोत्तरी हुर्इं इस वृद्धि के कारण सर्वेक्षण अधिकारियों को भूि म कर 66 प्रतिशत से 100 प्रतिशत तक बढ़ाने का मौका मिल गया और कृषकों को इसके विरोध में न्यायालय जाने की अनुमति नहीं थी जिसके कारण किसानों में ऋणग्रस्तता आयी। बाद में अधिकारियों तथा साहूकारों के शोशण ने उन्हें उग्र बना दिया, जिसके परिणामस्वरूप कृषकों ने 1875 र्इ. में दक्कन विद्रोह कर दिया था। उपरोक्त का विश्लेषण करने पर बंबर्इ रैयतवाड़ी पद्धति के दोष सामने आते हैं – भू-राजस्व की अधिकता तथा उसकी अनियमितता।

महालवाड़ी व्यवस्था

उत्तर पद्रेश और मध्य प्रांत के कुछ भागों में लॉर्ड वेलेजली द्वारा लागू व्यवस्था को महालवाड़ी व्यवस्था कहा जाता है। महल का शाब्दिक अर्थ है – गाँव के प्रतिनिधि अर्थात् जमींदार या जिनके पास अधिक भूि म होती थी अर्थात् जमींदारों के साथ सामूि हक रूप से लागू की गर्इ व्यवस्था। गाँवों को एक महल माना जाता था। इसमें राजस्व जमा करने का काम मुकद्दम प्रधान, किसी बड़े रैयत को दिया जा सकता था। ये सरकार को राजस्व एकत्रित कर संपूर्ण भूमि (गाँव) का कर देते थे।

समय के साथ-साथ इसका राजस्व कर बढ़ा दिया जाता था। जैसे कि 1803-04 र्इ. में इन प्रांतों से 188 लाख रू. एकत्रित किये गये। आगे चलकर यही राजस्व कर 1817-18 र्इ. में बढ़ाकर 297 लाख रू. कर दिया गया।

लॉर्ड बेटिक के काल में भूमि की माप पुन: करवाकर भूमि कर उत्पाद का 1/3 से 1/2 भाग कर दिया गया। यह बन्दोबस्त 30 वषोर् ं के लिए कर दिया गया। इससे कंपनी की आय में तो वृद्धि हुर्इ लेकिन जमींदार तथा कृषक इस व्यवस्था से शाेि “ात हो गय।े क्योंकि सरकार द्वारा जमींदारों की जमीनें तो पहले ही छीन ली गर्इ थी। अंग्रेजों द्वारा माँगे गये निश्चित राजस्व को जमा न कर पाने के कारण अंग्रेज उनकी संपत्ति को बेच देते थे।

परिणाम या प्रभाव

इसके परिणाम से ग्रामीण जमींदार बर्बाद हो गये। एक पदाधिकारी द्वारा दिये गये विवरण से हम इनकी स्थिति का आकंलन कर सकते थे –

‘‘जमा भू-राजस्व की दर काफी ऊँची है। ऐसे में मालगुजार राजस्वदाता अपनी स्थिति सुधारने की उम्मीद छोड़ चुके हैं। और कर भाग को सहने में वे सक्ष नहीं है। वे बुरी तरह ऋण के बोझ तले दबे हुये हैं और बाकी के परिणामस्वरूप अंतत: 1830 के और 1840 के दशकों में उत्तर भारत में गरीबी, अकाल और मंदी के समय तबाही आयी। जिसका विस्फोट 1857 र्इ. के विद्रोह के रूप में हुआ।’’ 1857 र्इ्र. की क्रांति का तात्कालिक कारण चर्बी वाले कारतूस थे। इससे सैनिक अत्यंत क्रोधित हुये और उन्होंने क्रांति कर दी। ब्रिटिश सरकार की ऊपर वर्णित भू-राजस्व नीतियों के कारण कृषक, जमींदार एवं आम लोग स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश नीति का परिणाम 1857 र्इ. की क्रांति के रूप में भुगतना पड़ा।

.

Click here to join our FB Page and FB Group for Latest update and preparation tips and queries

//www.facebook.com/tetsuccesskey/

//www.facebook.com/groups/tetsuccesskey/

रैयतवाड़ी और महालवाड़ी व्यवस्था क्या है?

रैयतवाड़ी व्यवस्था- रैयतवाड़ी व्यवस्था के तहत लगभग 51 प्रतिशत भूमि आई। इसमें रैयतों या किसानों को भूमि का मालिकाना हक प्रदान किया गया। अब किसान स्वयं कंपनी को भू-राजस्व देने के लिये उत्तरदायी थे। इस व्यवस्था में भू-राजस्व का निर्धारण उपज के आधार पर नहीं बल्कि भूमि की क्षेत्रफल के आधार पर किया गया।

स्थाई बंदोबस्त और महालवाड़ी व्यवस्था में आप क्या प्रमुख अंतर पाते हैं?

अधिकारियों ने बहुत ज़्यादा राजस्व तय कर दिया था। किसान राजस्व चुका नहीं पा रहे थे। रैयत गाँवों से भाग रहे थे।

Toplist

नवीनतम लेख

टैग