संपूर्ण बाल्यावस्था में बालक के संवेग में क्या देखने को मिलता है? - sampoorn baalyaavastha mein baalak ke sanveg mein kya dekhane ko milata hai?

Stage of development B.Ed 1st year और CTET का बहुत महत्यपूर्ण टॉपिक है। जिसमें  शैशवावस्था , बाल्यावस्था और किशोरावस्था मुख्य रूप से पढ़ना है।

अपने वृद्धि और विकास के दौरान बालक कई अवस्थाओं से गुजरता है। वृद्धि और विकास के विभिन्न पढ़ावों के फलस्वरुप गर्भ में आने के समय से लेकर अपनी मृत्यु तक व्यक्ति कुछ विशिष्ट परिवर्तन महसूस करता है और इस परिवर्तन के आधार पर उसे विभिन्न नामों से पुकारा जाता है। यह विभिन्न स्तर है शिशु , बालक , किशोर, प्रौढ़ और  वृद्ध। यह विभिन्न स्तर उसकी वृद्धि और विकास के विशेष अवस्थाओं की पहचान है। मानव वृद्धि और विकास की इन सभी अवस्थाओं का एक निश्चित कालखंड होता है और एक निश्चित प्रकार के व्यवहार व्यक्तित्व गुणों और विकास दरों का प्रदर्शन इन सभी अवस्थाओं में देखने को मिलता है। इन सभी अवस्थाओं को संबंधित जीवन अवधि के साथ अच्छी प्रकार से निम्न रूप में दिखाया जा सकता है

शैशवावस्था में विकास की अवस्थाएं / Infancy stage of Development

::- शैशवावस्था एक बालक का बहुत ही निर्णयक कॉल होता है यह जन्म से 5 वर्ष तक मानी जाती है। पहले 3 वर्षों को पूर्व शैशवावस्था और 3 से 5 वर्ष की आयु तक उत्तर शैशवावस्था कहते हैं। न्यू मैन के अनुसार 5 वर्षों तक की अवस्था शरीर तथा मस्तिष्क के लिए बड़ी ग्रहण सील होती है। सब अवस्थाओं में शैशवावस्था सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। उनका कहना है कि यह अवस्था ही वह आधार है जिस पर बालक के भावी जीवन का निर्माण किया जा सकता है। इस अवस्था में उनका जितना ही अधिक निरीक्षण और निर्देशन किया जाता है उतना ही अधिक उत्तम उसका विकास और जीवन होता है।

शैशवावस्था की प्रमुख विशेषताएं

:- शैशवावस्था में शारीरिक विकास बहुत तेजी से होता है। बच्चे का भार और लंबाई में वृद्धि बहुत तेजी से होती है। यह अवस्था प्रथम 3 वर्ष तक रहती है और इसके बाद विकास की गति धीमी पड़ जाती है। उसकी इंद्रियों , कर्म इंद्रियों , आंतरिक अंगों , मांसपेशियों आदि का क्रमिक विकास होता है। शेष अवस्था में बालक के शारीरिक ही नहीं अपितु मानसिक क्रियाएं जैसे ध्यान , स्मृति , कल्पना , संवेदना और प्रत्यक्षीकरण आदि के विकास में पर्याप्त तेजी आ जाती है। 3 वर्ष की आयु तक शिशु के लगभग सभी मानसिक शक्तियां कार्य करने लगती है। शारीरिक एवं मानसिक तेजी के कारण इस अवस्था में शिशु के सीखने की प्रक्रिया बहुत तेज हो जाती है और वह अनेक आवश्यक बातों को सीख लेता है।

जन्म के बाद शिशु कुछ समय तक बहुत असहाय स्थिति में रहता है। उसे भोजन और अन्य शारीरिक आवश्यकताओं के अलावा प्रेम और सहानुभूति पाने के लिए भी दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। वह मुख्यत: अपने माता पिता पर निर्भर रहता है इस अवस्था में शिशु में आत्म प्रेम की भावना बहुत अधिक होती है। वह अपने माता पिता भाई बहन आदि का प्रेम प्राप्त करना चाहता है। वह यह भी चाहता है कि उसके अलावा वह प्रेम किसी और को ना मिले अन्यथा उसे ईर्ष्या होती है। शैशवावस्था में शिशु को अच्छी और बुरी उचित और अनुचित बातों का ज्ञान नहीं होता है। वह उन कार्यों को करना चाहता है जिसमें उसको आनंद आता है भले ही वह ठीक ना हो। यदि उसको किसी बात पर क्रोध आ जाता है तो वह उसको अपनी बानी यह क्रिया द्वारा व्यक्त करता है। यदि उसे भूख लगती है तो उसे जो भी वस्तु मिलती है उसको अपने मुंह में रख लेना चाहता है। सामाजिक भावना के विकास के आधार पर 2 से 5 वर्ष तक के बच्चों को अपनी आयु के वर्ग के बच्चों के साथ खेलना बहुत अच्छा लगता है। वह अपनी वस्तु है अपने दोस्तों के साथ बांटने में सहज ही तैयार हो जाता है। इस अवस्था में ही बालकों में रुचि और अभिरुचि का भाव पूर्ण रूप से व्यक्त हो जाता है लेकिन वह इसका कारण बताने में असमर्थ होता है। धीरे-धीरे वाह अधिक निश्चित रूप धारण कर लेती है और रुचि एवं अभिरुचि के रूप में प्रकट होने लगती है। शिशु में जन्म के समय उत्तेजना के अलावा और कोई संवेग नहीं होता लेकिन अब 2 वर्ष की आयु तक बालक के लगभग सभी संभव का विकास हो जाता है। इस अवस्था में शिशुओं के प्रमुख रूप में जो संवेग देखे जाते हैं वह है भय क्रोध प्रेम और पीड़ा। शिशु अवस्था में बच्चों में दोहराने की प्रकृति बहुत अधिक होती है ऐसा करने से उन्हें विशेष प्रकार का सुख प्राप्त होता है

शैशवावस्था में बच्चे बहुत ही जिज्ञासु प्रकृति के होते हैं। वह अपने खिलौनों का विभिन्न प्रकार से प्रयोग करता है। वह उसको फर्श पर फेंक सकता है। वह उसके भागो को अलग अलग कर सकता है। वह हमेशा उसके साथ प्रयत्नशील रहता है और अपनी जिज्ञासा को संतुष्ट  करने की कोशिश करता है। वह अपने प्रश्नों में क्यों और कैसे जैसे शब्दों का हमेशा इस्तेमाल करता है। इस अवस्था में बच्चे अधिकतर अनुकरण कर कर ही सीखते हैं। शिशुओं में अकेले और फिर दूसरों के साथ खेलने की प्रकृति होती है। एक बहुत ही छोटा शिशु पहले अकेले खेलता है फिर धीरे-धीरे दूसरे बच्चों के साथ खेलने की अवस्था से गुजरता है धीरे-धीरे वह अपनी आयु के बालकों के साथ खेलने में बहुत आनंद का अनुभव करता है।

शैशवावस्था में शिक्षा

:- शैशवावस्था सीखने का आदर्श काल है। शैशवावस्था में सीखने की सीमा और तीव्रता विकास की किसी और अवस्था की तुलना में बहुत अधिक होती है इसलिए शिशु को अपने विकास के लिए शांत स्वस्थ और सुरक्षित वातावरण अपने घर और विद्यालय में प्रदान किया जाना चाहिए। एक शिशु को अपनी आवश्यकताओं के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। इस निर्भरता को माता-पिता और शिक्षकों को प्रेम शिष्टता और सहानुभूति का व्यवहार दिखाकर पूरा करना चाहिए। शैशवावस्था में शिशु अपने आसपास की वस्तुओं में अपनी जिज्ञासा सहज ही व्यक्त करने लगता है। जिज्ञासा को उसके माता-पिता और शिक्षकों द्वारा उचित रूप से संतुष्ट करने का प्रयत्न करना चाहिए।

शैशवावस्था में एक शिशु कल्पना के जगत में रहता है और उसी को अपना वास्तविक संसार मानता है इसलिए इस समय उसे इस तरह के शिक्षा देनी चाहिए कि वह वास्तविकता के निकट रहे। इस अवस्था में शिशु को स्वतंत्रता प्रदान कर आत्मनिर्भर बनने का अवसर दिया जाना चाहिए। इससे उसे स्वयं सीखने काम करने और विकास करने की प्रेरणा मिलती है। इस अवस्था मैं भी शिशुओं में अनेक गुण निहित होते हैं। इन दोनों के पहचान के लिए उन्हें आवश्यक अवसर प्रदान किए जाने चाहिए। उसे ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए जिससे उसके अंदर विद्वान गुणों को बाहर लाया जा सके और उसका विकास किया जा सके। शैशवावस्था में शिशु का सामाजिक विकास जी बहुत आवश्यक है। उसे अपनी उम्र के बच्चों के साथ और बड़ों के साथ मिलने जुड़ना और खेलने कूदने का मौका दिया जाना चाहिए। शिशु को अपने आप को प्रदर्शित करने का और अपने गुणों के सामने लाने का मौका देना चाहिए। इस हेतु विद्यालय में कई प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जा सकता है जिसमें बच्चों को अपने आपको स्वयं प्रदर्शित करने का मौका मिले।

शैशवावस्था  में बच्चों के मानसिक क्रियाएं बहुत तेज होती है। पता उसे ऐसा अवसर दिए जाने चाहिए जिसमें उसे सोचने विचारने कि अधिक से अधिक मौके मिले। शिशु के माता-पिता और शिक्षकों को शैशवावस्था एक ऐसा अवसर है जब उसमें अच्छी आदतों का विकास किया जा सकता है। शैशवावस्था में बच्चों को कहानियां और काल्पनिक पात्र बहुत ज्यादा प्रभावित करते हैं और इस उम्र के बच्चों में शिक्षा और सचित्र पुस्तकों का विशिष्ट स्थान होता है। इनका प्रयोग कर बच्चों में सत्य बोलने बड़ों का आदर करना समय पर अपना काम पूरा करने जैसे कई अच्छी आदतों का निर्माण करना चाहिए।

शैशवावस्था में भी बच्चों में कार्य करकर रखने की आदत विकसित करनी चाहिए जिससे जो शिक्षा उन्हें प्राप्त हुई है वह स्थाई हो। शैशवावस्था में कहा जाता है कि बच्चों का कार्य खेल है इसलिए इस उम्र में शिशु को खेल द्वारा शिक्षा दी जानी चाहिए। इस उम्र में बच्चों के विभिन्न आयामों का अलग-अलग विकास करने की आवश्यकता है। इसके लिए विद्यालय में विशेष क्रियाएं की जानी चाहिए। शारीरिक विकास के लिए अलग क्रियाएं इसी तरह ज्ञानात्मक विकास के लिए अलग क्रियाएं और सामाजिक विकास के लिए अलग-अलग क्रियाएं जिससे उसका सर्वांगीण विकास हो सके। शीश शिक्षा सच्चे अर्थों में तभी प्रभावित होगी जब उसे प्रयोग करने के तरीके उत्तम हो। इसके लिए शिशु को स्वतंत्र एवं मुक्त वातावरण प्रदान करना आवश्यक है। शिशुओं को जो प्रिय हो उन्हें जिसमें आनंद आए उन्हें जो रुचिकर लगे उन्हीं तरीकों को अपनाएं और उसी के अनुसार गतिविधियां कराएं।

बाल्यावस्था में विकास की अवस्थाएं / Childhood Stage of Development

:- बाल्यावस्था मानव जीवन का महत्वपूर्ण समय है जिसमें उसके सभी आयामों  का संपूर्ण विकास होता है। शैशवावस्था के बाद बाल्यावस्था का आरंभ होता है। हालांकि इनके बीच में एक विशेष उम्र की सीमा नहीं है। अलग-अलग बालकों में यह अलग-अलग समय पर शुरू होता है। बाल्यावस्था में बालक के व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इस अवस्था में सीखी गई आज तो व्यवहार पैदा की गई रुचियां और इच्छाएं समानता स्थाई होती है विभिन्न दर्शनिक द्वारा यह सत्यापित किया गया है कि दृष्टि से जीवन चक्र में बाल्यावस्था से अधिक कोई महत्वपूर्ण अवस्था नहीं है।

इस अवस्था में बालकों को शिक्षा देने वाले शिक्षकों को उनके आधारभूत आवश्यकताओं का उनकी परेशानियों का और इस उम्र की परिस्थितियों का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। इस ज्ञान से एक शिक्षक बालकों के व्यवहार को परिवर्तित और सुव्यवस्थित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। संक्षिप्त रूप में बाल्यावस्था के विषय में कहा जाए तो यह अवस्था अनेकों परिवर्तन का काल है। उदाहरण के लिए 6 वर्ष की उम्र में बालक का स्वभाव बहुत ही उत्तेजित करने वाला होता है। वह हर बात के लिए ना कहना शुरू कर देता है। 8 वर्ष की उम्र में वह अपनी उम्र कहने बालकों से सामाजिक संबंध बनाने की बहुत ही भावनात्मक कोशिश करता है। 9 से 12 वर्ष की उम्र में उसका विद्यालय की तरफ से मोह भंग हो जाता है। वह कोई भी नियमित कार्य करने में रुचि नहीं लेता है। उसके स्थान पर वह कोई महान या रोमांचकारी कार्य करना चाहता है।

बाल्यावस्था की मुख्य विशेषताएं

यूं तो बाल्यावस्था को 6 से 12 वर्ष की उम्र तक माना जाता है। लेकिन इस दायरे में बाल्यावस्था को चिंता पाना बहुत ही मुश्किल है। भिन्न-भिन्न बालकों के लिए यह दायरा भिन्न हो सकता है। 6 से 7 वर्ष की उम्र के बाद बालकों के शारीरिक और मानसिक विकास में स्थिरता आ जाती है। रोस के अनुसार शारीरिक और मानसिक दृढ़ता बाल्यावस्था की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है यह अस्थिरता उसे शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनाती है। इस उम्र तक वह सामान्य सोचने समझने की शक्ति पाकर अपने आप को बड़ों जैसा दिखाने की कोशिश करता है। इस उम्र में बालक के शारीरिक विकास और उसके सामान्य व्यवहार का सहसंबंध इतना महत्वपूर्ण होता है कि यदि हम समझना चाहे की भिन्न-भिन्न बालकों में क्या क्या समानताएं हैं क्या क्या  भिन्नताएं है, आयु वृद्धि के साथ व्यक्ति में क्या क्या परिवर्तन होते हैं, तो हमें बालकों के शारीरिक विकास का अध्ययन करना होगा।

बाल्यावस्था मे बालक की मानसिक योग्यताएं भी निरंतर बढ़ती रहती है। उसमें संवेदना और प्रत्यक्षीकरण की शक्तियां भी बढ़ती है। उसमें अपने पूर्व अनुभवों को स्मरण रखने की योग्यता उत्पन्न हो जाती है जिससे वह विभिन्न बातों के बारे में तर्क और विचार करने की क्षमता प्रदर्शित करता है वह अब एक ही विषय पर अधिक समय तक ध्यान भी केंद्रित कर सकता है। उसकी जिज्ञासा भी बहुत अधिक बल पकड़ लेती है। वह शैशवावस्था जैसे सवाल नहीं पूछता। उसके सवाल अधिकतर तर्कपूर्ण और विचारों से ओतप्रोत होते हैं।

इस अवस्था में बालक अपनी काल्पनिक जगत जो क अपने शैशवावस्था में बनाई थी से निकलकर वास्तविक जगत में प्रवेश करता है। वह वास्तविकता के जगत की हर एक इकाई में प्रवेश कर उसके बारे में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करना चाहता है। इस उम्र के बालक नए-नए कार्य करना चाहते हैं वह नए नए कार्य कर अपनी क्षमता साबित करना चाहते हैं। उनको नियमित कार छोड़कर रचनात्मक कार्य करने में अधिक आनंद आता है। इस उम्र के लड़के घर से बाहर निकल कर नए प्रयोग करना चाहते हैं। वही लड़कियां घर में ही कोई न कोई नया कार्य करना चाहती है जो उन्हें रोमांचित करें जैसे सिलाई करना खाना पकाना इत्यादि। इस उम्र के बच्चे अपना एक समूह विकसित कर लेते हैं और उस समूह के प्रति बहुत ही वफादार रहते हैं। वे इस समूह के सदस्यों के साथ अधिक से अधिक समय व्यतीत करना चाहते हैं।

बाल्यावस्था में बालक प्राय: अनिवार्य रूप से किसी न किसी समूह का सदस्य जाता है जो अच्छे खेल खेलने और ऐसे कार्य करने के लिए नियमित रूप से एकत्र होता है जिसके बारे में बड़ी-बड़ी आयु के लोग को कुछ भी नहीं बताया जाता है। इससे उनमें सामाजिक गुणों जैसे सहयोग सद्भावना सहनशीलता आदि का विकास होता है। या अवस्था में कदम रखते ही बालकों में नैतिक गुणों का विकास होने लगता है। उनमें अच्छे बुरे का ज्ञान एवं न्याय पूर्ण व्यवहार ईमानदारी और सामाजिक मूल्यों की भावना का अच्छा ज्ञान हो जाता है।

शैशवावस्था के विपरीत इस अवस्था में बालकों के व्यक्तित्व बहुमुखी हो जाता है। यह इसलिए होता है क्योंकि वह बाहर के कार्यों में रुचि लेने लगता है और अन्य व्यक्तियों वस्तुओं और कार्यों के विषय में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करना चाहता है। इस अवस्था में अधिकतर बालक अपने संवेग पर उचित समय पर नियंत्रण करना एवं अच्छी और बुरी भावनाओं के बीच अंतर रखना सीख जाता है। इस उम्र के बच्चे में विभिन्न नाम चीजें इकट्ठा करने की आदत बहुत अधिक पाई जाती है। बालक विशेष रूप से अनोखे पत्थर कांच के टुकड़े मशीन के भाग आदि वस्तुओं का संचय करता है। वही बालिकाएं गुड़िया अलग-अलग प्रकार के कपड़े के टुकड़े खिलौने आदि का संचय करती है। बच्चे में बिना किसी उद्देश्य के भ्रमण करने की प्रवृत्ति अधिक पाई जाती है। यह इसलिए भी हो सकता है क्योंकि वह नई नई चीज खोजना चाहते हैं। कई बार इसके लिए वह स्कूल से भागने का जोखिम भी उठा लेते हैं।

बाल्यावस्था में बच्चों में काम प्रवृत्ति कमी दिखाई देती है। वह अपना ज्यादातर समय खेलने कूदने अपने मित्रों से मिलने और नए नए कार्य करने में व्यतीत करते हैं। काल और व्रूस के अनुसार 6 से 12 वर्ष की अवधि की एक अपूर्व विशेषता है मानसिक रुचियों स्पष्ट परिवर्तन। इस आयु वर्ग के बालकों के रुचिओं में निरंतर परिवर्तन आता रहता है। वे अस्थाई रूप से कोई भी रुचि रखने की जगह वातावरण में परिवर्तन के साथ साथ नईं रुचियां  अपनाते हैं।

बाल्यावस्था में शिक्षा

:- बाल्यावस्था शैक्षिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। ब्लेयर और जोंस के अनुसार बाल्यावस्था वह समय है जब व्यक्ति के आधारभूत दृष्टिकोणों मूल्यों और आदर्शों का बहुत सीमा तक निर्माण होता है। अता माता-पिता शिक्षक और समाज का यह उत्तर दायित्व बनता है क्यों वह इस उम्र के बच्चे के विकास के लिए उचित माहौल बनाएं। इस अवस्था में बालकों की भाषा मैं बहुत तेजी से विकसित होती है अतः इस बात पर ध्यान रखकर बालकों को भाषा का अधिक से अधिक ज्ञान दिया जाना चाहिए। विशेषकर द्वितीय भाषा का ज्ञान इस उम्र में देने से वह अधिक फलप्रद होगा। इस अवस्था में बालकों का मस्तिष्क बहुत तीव्र होता है। अतः उन्हें सभी विषयों पर ध्यान दिया जाना चाहिए। विद्यालय में अधिक से अधिक विषयों का अध्ययन सार्थक रूप से कराया जाना चाहिए जिससे वह उन विषयों के बारे में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त कर सके।

इस उम्र के बच्चे नियमित कार्यक्रम से बहुत ज्यादा ऊब जाते हैं इसलिए उनको ऐसा पाठ्यक्रम दिया जाना चाहिए जो रोचक और भिन्न हो। इन बालक की रुचियां निरंतर बदलती रहती है अतः पाठ विषय और शिक्षण विधि में भी निरंतर बदलाव आना चाहिए। ऐसा ना करने पर उनके शिक्षण की तरफ आकर्षण कम हो जाता है और वह अन्य नकारात्मक चीजों की तरफ मुड़ जाते हैं। बालक में जिज्ञासा की प्रवृत्ति होती है अतः उसे दी जाने वाली शिक्षा का स्वरूप ऐसा होना चाहिए जिससे उसके जिज्ञासा शांत हो। इस उम्र के बच्चे अधिकतर समूह में रहना चाहते हैं उन्हें मिलना जुलना और एक साथ कार्य करना बहुत अच्छा लगता है। अतः विद्यालय में उन्हें साथ में काम करने और साथ में खेलने की विभिन्न योजनाओं द्वारा अवसर दिया जाना चाहिए

बाल्यावस्था के बालक बहुत ही रचनात्मक होते हैं। उन्हें अपनी रचनात्मकता को बाहर लाने का विद्यालय में उचित अवसर दिया जाना चाहिए। बालक की विभिन्न मानसिक रोगियों को संतुष्टि देने के लिए उसके अंदर छुपी हुई शक्तियों का अधिकतम विकास किया जाना चाहिए। इस कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए विद्यालय में अधिक से अधिक पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का संचालन किया जाना चाहिए। इस उम्र के बालक नई नई जगह खोजने और उसके बारे में अधिक जानने के लिए बहुत उत्सुक होते हैं इसलिए विद्यालय में पर्यटन और स्कोटिंग अधिक कार्यक्रमों के द्वारा शैक्षणिक भ्रमण का भी अवसर प्रदान किया जाना चाहिए।

बालकों में संचय करने की तीव्र इच्छा होती है। माता-पिता और शिक्षकों को उन्हें शिक्षाप्रद वस्तुओं का संचय करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। बालकों में संवेगो का बहुत ही उग्र प्रदर्शन करने की प्रवृत्ति होती है। इस उम्र में उचित आयोजनाे द्वारा उन्हें उचित दिशा प्रदान करने का विद्यालय व माता-पिताओं को विशेष ध्यान रखना चाहिए। इस उम्र में बालकों में स्वभाविक क्रियाशीलता और खेल प्रवृत्ति पाई जाती है। विद्यालय में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए। इससे बालकों में सामाजिक गुणों का विकास होता है। विद्यालय में अनिवार्य रूप से ऐसी क्रियाएं का आयोजन होना चाहिए जिसमें बच्चे अनुशासन आत्म नियंत्रण सहानुभूति प्रतिस्पर्धा सहयोग आदि सामाजिक गुणों का अधिकतम विकास कर सके।

जीन पियाजे ने अपने अध्ययनों  के आधार पर बताया है कि लगभग 8 बरस का बालक अपने नैतिक मूल्य का निर्माण और समाज के नैतिक नियमों में विश्वास करने लगता है। उन्हें इन मूल्यों का उचित निर्माण और नियमों में दृढ़ विश्वास रखने के लिए नियमित रूप से नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए। इसके लिए विद्यालय में विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया जा सकता है। साथ ही सरल कहानियों द्वारा नैतिक शिक्षा दी जा सकती है। इस उम्र के बच्चे कठोर अनुशासन पसंद नहीं करते हैं। वह शारीरिक दंड बल प्रयोग और डांट डपट से गिरना करते हैं नहीं वह उपदेश सुनना चाहते हैं। उन्हें धमकियों की भी कोई चिंता नहीं होती है। विद्यालय में शिक्षा प्रेम और सहानुभूति पर आधारित होना चाहिए।

ब्लयेर, जोंस और सिंपसन के अनुसार शैक्षिक दृष्टिकोण से जीवन चक्र में बाल्यावस्था से अधिक महत्वपूर्ण और कोई अवस्था नहीं है। जो अध्यापक इस अवस्था में बालकों को शिक्षा देते हैं उन्हें बालकों का उनके आधारभूत आवश्यकताओं का उनके समस्याओं का और उनके परिस्थितियों का पूर्व ज्ञान होना चाहिए जो उनके व्यवहार को रूपांतरित कर सही दिशा प्रदान करता है।

किशोरावस्था में विकास की अवस्थाएं / Adolescence Stage of Development

किशोरावस्था शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के शब्द एडोलेसियर से हुई है जिसका अर्थ है वृद्धि होना। इस अर्थ में किशोरावस्था की अत्यधिक विधि और विकास की अवस्था को जाना और समझा जा सकता है। इस अवस्था में बालक और बालिकाओं में आश्चर्यजनक वृद्धि और परिवर्तन देखा जा सकता है। किशोरावस्था की शुरुआत यहां अंत कब होता है इस विषय पर कई मतभेद हैं। तकनीकी तौर पर जब किसी बालक या बालिका में यौन संबंधी परिपक्वता अर्थात संतान उत्पन्न करने की क्षमता आ जाए उसे किशोर कहा जा सकता है। दूसरी ओर जब होगा शारीरिक मानसिक सामाजिक और संवेगात्मक ग्रुप में परिपक्व होकर अपने समाज तथा समुदाय में एक वस्क व्यक्ति की तरह व्यवहार करने लग जाए तो यह उसके किशोरावस्था का अंत माना जा सकता है। शैशवावस्था की तरह किशोरावस्था में भी व्यक्ति के सभी पहलुओं का अत्यधिक गति से वृद्धि और विकास होता है। किशोर भी एक शिशु की तरह भावुक संवेदनशील उत्तेजित अशांत और चंचल रहते हैं और इसके परिणाम स्वरूप उसमें कई नए परिवर्तन दिखाई देते हैं इस तरह मानव जीवन के विकास की प्रक्रिया में किशोरावस्था का महत्वपूर्ण स्थान है। यह एक सतत प्रक्रिया है और इसे बाल्यावस्था तथा प्रौढ़ावस्था के मध्य का काल माना जाता है।

जशील्ड के अनुसार किशोरावस्था हुआ समय है जिसमें विचारशील व्यक्ति बाल्यावस्था से परिपक्वता की ओर पर्दापन करता है। हल्के शब्दों में किशोरावस्था बड़े संघर्ष तनाव तूफान तथा विरोध की अवस्था है क्योंकि वह शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार से चमत्कारी परिवर्तन महसूस कर रहा होता है। इस तरह या बाल्यावस्था का अंत और प्रौढ़ावस्था कारण के बीच का काल है। सामान्यता बालकों की किशोरावस्था लगभग 13 वर्ष की आयु और बालिकाओं की लगभग 12 वर्ष की आयु से आरंभ हो जाती है।

किशोरावस्था की मुख्य विशेषताएं

किशोरावस्था में क्रांतिकारी शारीरिक मानसिक सामाजिक और संवेगात्मक परिवर्तन होते हैं। इस अवस्था में कई बार परिवर्तन एकदम होते हैं और उनका पूर्व अवस्थाओं से कोई संबंध नहीं होता है। कई बार यह परिवर्तन निरंतर और कई बार क्रमश: होते हैं। किशोरावस्था एक ऐसा समय है जिसमें किशोर अपने को व्यस्त समझता है और व्यस्त उसे बालक समझते हैं

बिग और हंट के अनुसार किशोरावस्था की विशेषताओं को सर्वोत्तम रूप से व्यक्त करने वाला एक शब्द है परिवर्तन l यह परिवर्तन बच्चे के सभी आयामों को छूता है। किशोरावस्था को शारीरिक विकास का सर्वश्रेष्ठ काल माना जाता है। इस समय किशोर के शरीर में कई परिवर्तन होते हैं जैसे बाहर और लंबाई का तेजी से बढ़ना मांसपेशियों और शरीर ढांचे में दृढ़ता आना किशोरों में दाढ़ी और मूंछ का दिखाई देना और किशोरियों में प्रथम मासिक स्राव आना।

इस अवस्था में किशोर के मस्तिष्क का लगभग सभी दिशाओं में विकास होता है उसमें कल्पना और दिवास्पनो की बहुलता बुद्धि का विकास सोचने समझने उत्तर करने की शक्ति में वृद्धि विरोधी मानसिक दशाएं जैसे विशेष मानसिक गुण स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। इस उम्र में किशोर कुछ चुने हुए विशिष्ट मित्र बनाता है जिसके साथ हुआ अपनी समस्याओं के बारे में खुलकर बात करता है। किशोर संवेगात्मक रूप से बहुत ही प्रबल होते हैं। यह विभिन्न अवसरों में विभिन्न तरीकों से व्यवहार करते हैं। कभी-कभी वह से अधिक क्रियाशील होते हैं और कभी-कभी बिल्कुल ही आलसी और क्रिया हीन होते हैं।

किशोरावस्था में बालक अस्थिर और असंयोजित रहता है। उनमें अपने वातावरण से  समायोजन भी नहीं देखा जा सकता। इस उम्र के बालकों में शारीरिक और मानसिक स्वतंत्रता बहुत जोर पकड़ती है। वह किसी का आदेश को मानना नहीं चाहता उनमें एक विद्रोह की भावना उत्पन्न होती है। वह सभी प्रकार के चीजों के लिए अपना खुद का दृष्टिकोण बना  लेते हैं। किशोरावस्था में काम इंद्रियों की परिपक्वता और काम शक्ति का विकास सबसे महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है। इस अवस्था के पूर्व काल में बालकों और बालिकाओं में असमान लिंग के प्रति आकर्षण होता है। इस अवस्था में अपनी विपरीत लिंग के प्रति प्रबल रुचि उत्पन्न होती है। उनमें लिंगी है संभोग का आनंद लेने की बड़ी तीव्र इच्छा होती है। एक किशोर इस समय तक एक समूह का बहुत ही वफादार सदस्य बन जाता है। इस समूह को अपने परिवार और विद्यालय से भी अधिक महत्वपूर्ण समझता है यदि उसके समूह के दृष्टिकोण से कोई भी भिन्नता प्रकट करें तो वह गलत होने पर भी अपने समूह का हीं साथ देता है। समूह उनकी भाषा नैतिक मूल्य वस्त्र पहनने की आदतो और भोजन की वीडियो को भी प्रभावित करता है।

किशोरों की रुचियों में 15 वर्ष की आयु तक निरंतर परिवर्तन आता रहता है। उसके बाद उनके रुचियों में स्थिरता आ जाती है। किशोरावस्था में समाज सेवा के अति तीव्र भावना होती है। उनका उदास हिट दे मानव जाति के प्रेम से ओतप्रोत होता है और वह आदर्श समाज का निर्माण करने में सहायता देने के लिए तैयार रहते हैं। किशोरावस्था की शुरुआत में बालकों को धर्म और ईश्वर में आस्था नहीं होता है। उनके मन में धर्म और ईश्वर के प्रति कई सारे सवाल होते हैं जिसके उत्तर उन्हें कहीं सही ढंग से नहीं मिल पाते लेकिन जैसे-जैसे वा कठिन दौर से गुजरते हैं और चुनौतियों का सामना करते हैं वह धीरे-धीरे ईश्वर को मानने लगते हैं।

किशोरावस्था से पूर्व बालक अच्छे बुरे नैतिक अनैतिक और सत्य अशोक जैसे नैतिक बातों के बारे में कई प्रश्न पूछते हैं। किशोर होने पर वह स्वयं इन बातों पर विचार करते हुए अपने जीवन मूल्यों का निर्माण करता है। ऐसे सिद्धांतों का निर्माण करना चाहता है जिनकी सहायता से वह अपने आप को एक विशेष व्यक्ति के रूप में भिन्न रूप से प्रकट कर सके। किशोरों में महत्वपूर्ण व्यक्ति बनने और बड़ों के समान एक निश्चित स्थिति प्राप्त करने के अत्याधिक अभिलाषा होती है।

किशोरावस्था में बालक बहुत ही भावुक होता है। वह अपने जीवन मूल्य नए अनुभव समाज में फैले सही गलत की अलग-अलग विचारधाराओं के कारण आंदोलन करने की स्थिति में आ जाता है। कई बार उसका यह संघर्ष उसके अंदर अपराध प्रवृति का विकास भी कर देता है। किशोरों में अपने भविष्य को संभालने के प्रति भी बहुत चिंता होती है। यह वह उम्र है जब वह अपने चारों ओर के विषय में जानकारी प्राप्त कर लेता है। वह अपना व्यवसाय चुनने के लिए विषय में भी चिंतित होता है और उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कार्य करने लगता है। किशोरों में व्यवहार संबंधी अनेक समस्याओं तथा व्यवहार पर प्रवृतियां पाई जाती है।

किशोरावस्था एक ऐसा पड़ा है जहां बच्चा आज तो संतोष प्राप्त करना चाहता है। अतः शिक्षकों एवं अभिभावकों को किशोरों की समस्या का सतर्कत से अध्ययन कर उनको उचित दिशा प्रदान करने का प्रयत्न करना चाहिए।

किशोरावस्था में शिक्षा

जैसा कि पहले कहा जा चुका है जीवन का सबसे कठिन काल किशोरावस्था है। यहां एक किशोर बड़े संघर्ष तनाव तूफान और विरोध की अवस्था महसूस करता है क्योंकि उसे शारीरिक और मानसिक तौर पर बहुत बदलाव महसूस होते हैं। इस समय बालक की शक्तियां को पहचान कर उन शक्तियों को व्यवस्थित धारा प्रदान की जाए तो सफलता प्राप्त की जा सकती है। किशोरावस्था में शरीर में अनेक बदलाव आते हैं। विद्यालयों में किशोरों को इस शारीरिक बदलाव के विषय में ध्यान देना चाहिए एवं उनके शरीर को सबल और सुडौल बनाए रखने के लिए आवश्यक क्रियाएं जैसे विभिन्न प्रकार के शारीरिक व्यायाम खेलकूद स्वास्थ्य शिक्षा आदि प्रदान किए जाने चाहिए। किशोरों में इस समय कहीं मानसिक बदलाव भी आते हैं। विद्यालय में शिक्षा उनकी रुचियों, रुझानों , दृष्टिकोण और योग्यताओं के अनुरूप होना चाहिए।

किशोरों की मानसिक शक्तियों का इस्तेमाल करने के लिए इस समय भ्रमण, वाद विवाद, कविता लेखन, साहित्य गोष्ठी, आदि पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाएं भी विद्यालय में आयोजित की जानी चाहिए। किशोरों में संवेगो का तीव्र ज्वर उत्पन्न होता है। इस संवेगो को उचित दिशा प्रदान करने के लिए विद्यालय में उनका मार्गदर्शन किया जाना चाहिए तथा कला साहित्य संगीत सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि का आयोजन किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त किशोर अधिकतम निराशा के संवेद को जल्द ही महसूस करते हैं और अपराध करने की प्रवृत्ति अपना लेते हैं। विद्यालय में ऐसी क्रियाओं का समावेश किया जाना चाहिए जिससे उनको अपनी उपयोगिता का अनुभव हो और निराशा कम करने के लिए निर्देश तथा परामर्श की व्यवस्था हो।

विद्यालयों में किशोरों के समूह का संगठन इस तरह किया जाना चाहिए जिससे वह उत्तम समाजिक व्यवहार ऑफ संबंधों के पाठ सीख सके। इसके लिए विभिन्न सामूहिक क्रियाएं एवं सामूहिक खेलों का आयोजन उपयोगी सिद्ध होगा। किशोरों की व्यक्तिगत विभिन्नता और आवश्यकताओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए विद्यालय में विभिन्न पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जानी चाहिए जिससे वह अपने रुचि और योजनओं का उच्च स्तर स्तर पर प्राप्त कर सके।

किशोरावस्था एक ऐसी उम्र है जहां व्यक्ति को अपने भविष्य के विषय में निर्णय लेना पड़ता है। विद्यालयों में व्यवसायिक शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था होनी चाहिए जिससे उन्हें विभिन्न व्यवसायों के विषय में प्रारंभिक ज्ञान मिले और अपनी क्षमताओं के अनुसार उसका चयन कर सके। विद्यालयों में उचित नैतिक शिक्षा देने की व्यवस्था होनी चाहिए। किशोरावस्था में व्यक्ति अपने जीवन मूल्यों का स्थायीकरण करता है। आत: विद्यालयों में बच्चों को उचित मार्गदर्शन एवं परामर्श देने की व्यवस्था होनी चाहिए जिससे वह अपने विरोधी विचारों में निरंतर द्वंद से बाहर आ सके और एक निष्कर्ष तक पहुंच सके। कोठारी कमीशन ने हमारे माध्यमिक विद्यालय में नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा की सिफारिश की है जिससे किशोर उचित और अनुचित में अंतर करना सीख कर अपने व्यवहार को समाज के नैतिक मूल्यों के अनुकूल बना सके।

किशोर अपनी काम प्रवृत्ति से बहुत अधिक संघर्ष करते रहते हैं। विद्यालयों में यौन शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए जिससे उन्हें इस विषय में संपूर्ण एवं सुव्यवस्थित ज्ञान प्राप्त हो और वह गलत रास्ते पर ना निकल जाए। किशोरों में स्वयं – परीक्षण निरीक्षण विचार और तर्क करने की प्रवृत्ति होती है। अतः उसे शिक्षा देने के लिए परंपरागत विधियों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। किशोरों की शिक्षा के लिए नवीन शिक्षा विधियों का प्रयोग करना चाहिए जो व्यवहारिक होने के साथ-साथ उनके दैनिक जीवन की बातों से प्रत्यक्ष संबंध स्थापित कर सके।

किशोरावस्था कैसे बसता है जहां किशोर अपने आपको व्यस्त मानता है इसलिए विद्यालय में किशोरों के साथ बालकों जैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। किशोरों में समाज में अपनी उचित स्थिति प्राप्त करने की प्रबल इच्छा होती है इसलिए पाठ्यक्रम में उन्होंने विभिन्न कार्यों का उत्तरदायित्व प्रदान करने जैसे विषय वस्तु का समायोजन होना चाहिए। इस उद्देश के पूर्ति के लिए सामाजिक क्रियाएं छात्र स्वशासन और युवक गोष्ठियों का संगठन किया जाना चाहिए।

बालकों के भावी भाग्य और उत्कृष्ट जीवन के निर्माण में इस अवस्था की गरिमा से अपना ध्यान को एक क्षण के लिए भी विचलित ना करके अध्यापकों और अभिभावकों को उनकी शिक्षा का सुनियोजित संचालन करना चाहिए क्योंकि इस अवस्था में बालक का झुकाव जिस और जाता है वह उसी और जीवन में आगे बढ़ता है।

वैलेंटाइन ने अपनी इस वाक्यों से किशोर अवस्था में शिक्षा के महत्व को बहुत शक्तिशाली रूप से व्यक्त किया है मनोवैज्ञानिकों द्वारा बहुत समय तक उपदेश दिए जाने के बाद अंत में यह बात व्यापक रूप से स्वीकार की जाने लगी है कि शैक्षिक दृष्टिकोण से किशोरावस्था का अधिक महत्व।

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संपूर्ण वाले अवस्था में बालक के संवेग में क्या देखने को मिलता है?

बालक में सर्वप्रथम भय, क्रोध एवं प्रेम के संवेग प्रकट होते हैं जिन्हें उसकी मुस्कुराहट में, चिल्लाहट में, और हंसी में देखा जा सकता है। प्रारंभ में बालक अपने संवेगों को लाक्षणिक रूप में अभिव्यक्त करता है। जैसे बालक खिलखिलाता है, हँसता है, फड़कता है, जमीन पर लोटता है और कई बार आकुलता का भी अनुभव करता है।

पूर्व बाल्यावस्था में बालक के संवेग में क्या देखने को मिलता है?

पर यह भी समझना जरूरी है, कि क्या विकास का कोई एक आयाम है या अनेक । यानि, किन-किन बातों का विकास होता है जैसे शरीर, संवेग, संज्ञान, नैतिक सोच आदि । दरअसल, विकास के विभिन्न पहलू होते हैं जो बालक के विकास को प्रभावित करते हैं।

बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास कैसे होता है?

बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास बालक के संवेग अधिक निश्चित और कम शक्तिशाली हो जाते हैं। वे बालक को शैशवावस्था के समान उत्तेजित नहीं कर पाते हैं; उदाहरणार्थ, 6 वर्ष की आयु में बालक का अपने भय और क्रोध पर नियंत्रण हो जाता है। बालक के संवेगों में शिष्टता आ जाती है और उसमें उनका दमन करने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है।

बालक के जीवन में संवेग का क्या महत्व है?

बच्चे के जीवन में संवेगों का विशेष स्थान है। संवेग बच्चे को प्रसन्न बनाते हैं तथा कियाशील करते हैं, उन्हे उत्साहित करते हैं। जिन बच्चों का सामाजिक समायोजन उचित नहीं होता वे हमेशा दुखी रहते हैं तथा हीनता ग्रंथि से ग्रस्त रहते है। फलस्वरूप उनमें सांवेगिक तनाव रहता है।

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