भारतीय संविधान की एक अहम विशेषता यह है कि इसमें कठोरता और लचीलापन दोनों का अच्छा समावेश है। इसका अर्थ यह हुआ कि संविधान में परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं के अनुसार इसे परिवर्तित करने की व्यवस्था दी गई है। संशोधन की यह प्रक्रिया ब्रिटेन के समान आवश्यकता से अधिक आसान अथवा अमेरिका के समान अत्यधिक कठिन नहीं है। संशोधन की प्रक्रिया के
आवश्यकता से अधिक आसान होने से इसके दुरूपयोग की संभावनाएं बढ़ जाती हैं और अत्यधिक कठिन होने से त्रुटियों को सुधारना भी कठिन हो जाता है | इस लेख में हम आपको यह बताने का प्रयास करेंगे कि भारतीय संविधान के संशोधन की क्या प्रक्रियाएं हैं और 42 वां संशोधन इतना महत्त्व क्यों रखता है | राजनीती
विज्ञान के अन्य उपयोगी हिंदी लेख: संविधान के भाग -20 के अनुच्छेद-368 में भारत की संसद को संविधान में संशोधन की शक्ति प्रदान की गई है। इस अनुच्छेद में प्रावधान है कि संसद अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए संविधान के
किसी भी उपबंध का परिवर्धन, परिवर्तन या निरसन कर सकती है। इस अनुच्छेद में संशोधन की निम्नांकित प्रक्रियाओं का वर्णन किया गया है :-
हिंदी माध्यम में यूपीएससी से जुड़े मार्गदर्शन के लिए अवश्य देखें हमारा हिंदी पेज आईएएस हिंदी |संविधान संशोधन की प्रक्रिया
- संविधान के संशोधन का आरंभ संसद के 2 में से किसी 1 सदन में (अर्थात लोक सभा या राज्य सभा) संशोधन विधेयक पेश कर किया जा सकता है , न कि किसी राज्य विधान मण्डल (अर्थात विधान सभा या विधान परिषद) में ।
- संशोधन विधेयक को किसी मंत्री या किसी भी सांसद द्वारा पेश किया जा सकता है और इसके लिए राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति आवश्यक नहीं है।
- विधेयक को दोनों सदनों में विशेष बहुमत (दो-तिहाई अथवा 66%) से पारित कराना अनिवार्य है।
- प्रत्येक सदन में विधेयक को अलग-अलग पारित कराना अनिवार्य है। दोनों सदनों के बीच असहमति होने पर दोनों सदनों की संयुक्त बैठक (joint sitting) का प्रावधान संविधान के संशोधन के सन्दर्भ में नहीं है।
- यदि विधेयक संविधान की संघीय व्यवस्था के संशोधन के मुद्दे पर हो तो इसे न्यूनतम 50% राज्यों के धानमंडलों से भी सामान्य बहुमत (50%) से पारित कराना अनिवार्य है ।
- संसद के दोनों सदनों से पारित होने के बाद , एवं जहां आवश्यक हो, राज्य विधानमंडलों की संस्तुति के बाद, इस संशोधन विधेयक को राष्ट्रपति के पास सहमति के लिए भेजा जाता है।
- संशोधन विधेयक के मामले में भारत के राष्ट्रपति न तो अपने वीटो पॉवर का प्रयोग कर सकते हैं और न ही इसे संसद के पास पुनर्विचार के लिए भेज सकते हैं। अर्थात , राष्ट्रपति के लिए स्वीकृति देना बाध्यकारी है |
संशोधनों के प्रकार
संविधान में कुल 3 प्रकार के संशोधनों की व्याख्या की गई है :-
1) संसद के विशेष बहुमत द्वारा:-संविधान के ज्यादातर उपबंधों का संशोधन संसद के विशेष बहुमत द्वारा किया जाता है अर्थात् प्रत्येक सदन के कुल सदस्यों का बहुमत और प्रत्येक सदन के उपस्थित और मतदान के सदस्यों के दो-तिहाई का बहुमत (66%) । इस तरह से संशोधन व्यवस्था में शामिल हैं— (i) मूल अधिकार (ii) राज्य की नीति के निदेशक तत्व, और; (iii) वे सभी उपबंध, जो अन्य 2 श्रेणियों से संबद्ध नहीं हैं।
2) संसद तथा आधे राज्यों द्वारा साधारण बहुमत के माध्यम से संस्तुति द्वारा : इसके तहत ऐसे उपबंधों का संशोधन किया जाता है जो संविधान के संघीय ढाँचे से सम्बन्ध रखते हैं | निम्नलिखित उपबंधों को इसके तहत संशोधित किया जा सकता है:-
- राष्ट्रपति का निर्वाचन एवं इसकी प्रक्रिया
- केंद्र एवं राज्य कार्यकारिणी की शक्तियों का विस्तार
- उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय
- केंद्र एवं राज्य के बीच विधायी शक्तियों का विभाजन
- सातवीं अनुसूची से संबद्ध कोई विषय जिसमे कानून निर्माण प्रक्रिया के लिए विषयों का 3 सूचियों में वर्गीकरण किया गया है -संघ सूचि, राज्य सूचि एवं समवर्ती सूचि
- संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व
- संविधान का संसोधन करने की संसद की शक्ति और इसके लिए प्रक्रिया (अनुच्छेद 368 ) |
3) संसद के साधारण बहुमत द्वारा : उल्लेखनीय है कि प्रथम 2 प्रकार के संशोधन अनुच्छेद 368 के तहत आते हैं ,जबकि तीसरे प्रकार का संशोधन अन्य अनुच्छेदों के अंतर्गत आता है | संविधान के अनेक उपबंध संसद के दोनों सदनों के साधारण बहुमत से संशोधित किए जा सकते हैं। इन व्यवस्थाओं के उदहारण हैं:
- नए राज्यों का गठन
- नए राज्यों के क्षेत्र, सीमाओं या नामों का परिवर्तन
- राज्य विधानपरिषद का निर्माण या उसे भंग करना
- दूसरी अनुसूची– राष्ट्रपति, राज्यपाल, लोकसभा अध्यक्ष,न्यायाधीश आदि के लिए परिलब्धियां, विशेषाधिकार आदि
- संसद में गणपूर्ति
- संसद सदस्यों के वेतन एवं भत्ते में परिवर्तन
- संसद में प्रक्रिया नियम
- संसद, इसके सदस्यों और इसकी समितियों को विशेषाधिकार
- संसद में अंग्रेजी भाषा का प्रयोग
- उच्चतम न्यायालयों में अवर न्यायाधीशों की संख्या में परिवर्तन
- उच्चतम न्यायालय के न्यायक्षेत्र को ज्यादा महत्व प्रदान करना
- राजभाषा का प्रयोग
- नागरिकता की प्राप्ति एवं समाप्ति
- संसद एवं राज्य विधानमंडल के लिए निर्वाचन
- निर्वाचन क्षेत्रों का पुनर्निर्धारण
- केंद्रशासित प्रदेश
- पांचवीं अनुसूची- अनुसूचित क्षेत्रों एवं अनुसूचित जनजातियों का प्रशासन
- छठी अनुसूची-जनजातीय क्षेत्रों का प्रशासन
42 वें संविधान संशोधन के प्रावधान
आज तक भारतीय संविधान में जितने भी संशोधन हुए हैं उनमें 42 वें संशोधन ,1976 का अहम राजनैतिक स्थान है | इस संशोधन के प्रावधान इतने व्यापक व महत्वपूर्ण थे कि इसे अपने आप में एक लघु संविधान (Mini Constitution) के नाम से जाना जाता है | इस संशोधन अधिनियम ने स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशों को लागू करने की आधारशिला रखी | इस संशोधन अधिनियम के मुख्य प्रावधान निम्नवत हैं :-
- 42 वें संशोधन अधिनियम के तहत संविधान की प्रस्तावना में 3 नए शब्द जोड़ गए –समाजवादी, धर्म निरपेक्ष एवं अखंडता
- इस संशोधन में नागरिकों के लिए एक नए भाग 4-क के अनुच्छेद 51-क के अंतर्गत 10 मूल कर्तव्यों को जोड़ा गया | 2002 में 86वें संविधान संशोधन द्वारा इसमें 11वां कर्तव्य भी जोड़ा गया | ये मूल कर्तव्य हैं : 1.संविधान का पालन करना और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज एवं राष्ट्र गान का आदर करना। 2.स्वतंत्रता के लिये हमारे राष्ट्रीय संघर्ष को प्रेरित करने वाले महान आदर्शों का पालन करना। 3.भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को बनाए रखना और उसकी रक्षा करना। 4.देश की रक्षा करना और आह्वान किये जाने पर राष्ट्र की सेवा करना। 5.भारत के लोगों में समरसता और समान भातृत्व की भावना का निर्माण करना जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग आधारित सभी प्रकार के भेदभाव से परे हो तथा ऐसी प्रथाओं का त्याग करना जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हैं। 6.हमारी सामासिक संस्कृति की समृद्ध विरासत को महत्त्व देना और संरक्षित करना। 7.प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा एवं संवर्धन करना और प्राणिमात्र के लिए दया की भावना रखना। 8. वैज्ञानिक दृष्टिकोण,मानवतवाद, तथा ज्ञानार्जन एवं सुधार की भावना का विकास करना। 9.सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा करना एवं हिंसा से दूर रहना। 10.व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधि के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढने के लिये प्रयास करना ताकि राष्ट्र उपलब्धि की नई ऊँचाइयाँ हासिल करे। 11. 6 से 14 वर्ष तक के आयु के अपने बच्चों को शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराना।
- राष्ट्रपति को कैबिनेट की सलाह मानने के लिए बाध्य कर दिया गया
- प्रशासनिक अधिकरणों एवं अन्य मामलों पर अधिकरणों की व्यवस्था (भाग 14- क जोड़ा गया)
- 1971 की जनगणना के आधार पर 2001 तक लोकसभा सीटों एवं राज्य विधानसभा सीटों को निश्चित किया गया
- सांविधानिक संशोधन को न्यायिक जांच से बाहर किया गया
- न्यायिक समीक्षा एवं रिट न्यायक्षेत्र में उच्चतम एवं उच्च न्यायालयों की शक्ति में कटौती की गई
- लोकसभा एवं विधानसभा के कार्यकाल में 5 से 6 वर्ष की बढ़ोतरी की गई (44 संशोधन द्वारा निरस्त)
- राज्य के नीति निदेशक तत्वों के कार्यान्वयन हेतु बनाई गई विधियों को न्यायालय द्वारा इस आधार पर अवैध घोषित नहीं किया जा सकता कि ये कुछ मूल अधिकारों का उल्लंघन हैं
- संसद को राष्ट्र विरोधी कार्यकलापों के संबंध में कार्यवाही करने के लिए विधियां बनाने की शक्ति प्रदान की गयी और ऐसी विधियां मूल अधिकारों पर अभिभावी होंगी
- 42वें संशोधन अधिनियम 1976 में निदेशक तत्व की मूल सूची में निम्नलिखित 4 तत्व और जोड़े गए हैं :-
- बच्चों के स्वस्थ विकास के लिए अवसरों को सुरक्षित करना (अनुच्छेद 39)
- समान न्याय को बढ़ावा देने के लिए और गरीबों को निःशुल्क कानूनी सहायता प्रदान करना (अनुच्छेद 39A)
- उद्योगों के प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी को सुरक्षित करने के लिए कदम उठाना (अनुच्छेद 43A)
- रक्षा और पर्यावरण को बेहतर बनाने और जंगलों और एवं वन्य जीवन की रक्षा (अनुच्छेद 48A)
- भारत के किसी एक भाग में राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा
- राज्य में राष्ट्रपति शासन के कार्यकाल में एक बार में छह माह से एक साल तक बढ़ोतरी
- केंद्र को किसी राज्य में कानून एवं व्यवस्था बनाए रखने के लिए सैन्य बल भेजने की शक्ति
- निम्नलिखित 5 विषयों का राज्य सूची से समवर्ती सूची में स्थानांतरण किया गया :
- शिक्षा,
- वन,
- वन्य जीवों एवं पक्षियों का संरक्षण,
- नाप-तौल और
- न्याय प्रशासन एवं उच्चतम और उच्चन्यायालय के अलावा सभी
- न्यायालयों का गठन और संगठन
- संसद और विधानमंडल में कोरम की आवश्यकता को समाप्त कर दिया गया
- संसद को यह निर्णय लेने की शक्ति प्रदान की गई कि समय-समय पर अपने सदस्यों एवं समितियों के अधिकार एवं विशेषाधिकारों का निर्धारण कर सके
- अखिल भारतीय विधिक सेवा के निर्माण की व्यवस्था की गई
- प्रस्तावित दण्ड के मामले में सिविल सेवक को दूसरे चरण पर जांच के उपरांत प्रतिवेदन के अधिकार को समाप्त कर अनुशासनात्मक कार्यवाही को छोटा किया गया
- 42वें संशोधन अधिनियम में राज्य के नीति निदेशक तत्वों को कुछ मूल अधिकारों पर प्रभावी बनाया गया। ये मूल अधिकार संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार),अनुच्छेद 19(स्वतंत्रता का अधिकार ) एवं अनुच्छेद 31(न्यायिक समीक्षा) में समाहित हैं | हालांकि इस में विस्तार को उच्चतम न्यायालय द्वारा मिनर्वा मिल्स मामले ,1980 में असंवैधानिक एवं अवैध घोषित किया गया। इसका तात्पर्य है कि निदेशक तत्व को एक बार फिर मूल अधिकारों के अधीनस्थ बताया गया। लेकिन अनुच्छेद 14 एवं अनुच्छेद 19 द्वारा स्थापित मूल अधिकारों को अनुच्छेद 39 (ख) और (ग) में बताए गए निदेशक तत्व के अधीनस्थ माना गया। इसका अर्थ यह हुआ की राज्य के नीति निदेशक तत्वों को प्रभावी बनाने के लिए राज्य मूल अधिकारों से समझौता कर सकता है |
(नोट : 42 वें संशोधन अधिनियम के कई प्रावधानों को 1978 में जनता पार्टी की सरकार ने 44 वें संशोधन अधिनयम द्वारा निरस्त कर दिया)
केशवानंद भारती वाद क्या है ?
भारत में संविधान संशोधन की प्रक्रिया ने शुरू से ही विवादों को जन्म दिया है | सरकारों पर ये आरोप लगते रहे हैं कि उन्होंने विधि प्रक्रिया से बाहर जा कर अपने हित में कानून में हस्तक्षेप किया है | इसी पृष्ठभूमि में उच्चतम न्यायालय ने 1973 के केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार वाद में चर्चित मूल संवैधानिक ढाँचे की व्यवस्था दी | इस केस में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यद्यपि संसद संविधान के किसी भी हिस्से को संशोधित करने के लिए स्वतंत्र है , हालांकि संविधान की उन व्यवस्थाओं को संशोधित नहीं किया जा सकता, जो संविधान के मूल ढांचे से संबंधित हों। हालाँकि न्यायालय ने “मूल ढाँचे” की कोई स्पष्ट परिभाषा नही दी ,तथापि विभिन्न फैसलों के आधार पर निम्नलिखित की ‘मूल संरचना’ अथवा इसके तत्वों अवयवों/ घटकों के रूप में पहचान की जा सकती है:
- संविधान की सर्वोच्चता
- भारतीय राजनीति की सार्वभौम, लोकतांत्रिक तथा गणराज्यात्मक प्रकृति
- संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र
- विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के बीच शक्ति का विभाजन
- संविधान का संघीय स्वरूप
- राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता
- कल्याणकारी राज्य (सामाजिक-आर्थिक न्याय)
- न्यायिक समीक्षा
- वैयक्तिक स्वतंत्रता एवं गरिमा
- संसदीय प्रणाली
- कानून का शासन
- मौलिक अधिकारों तथा नीति-निदेशक सिद्धांतों के बीच सौहार्द और संतुलन
- समत्व का सिद्धांत
- स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता
- संविधान संशोधन की संसद की सीमित शक्ति
- न्याय तक प्रभावकारी पहुँच
- मौलिक अधिकारों के आधारभूत सिद्धांत (या सार तत्व)
- अनुच्छेद 32, 136, 141 तथा 1420 के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय को प्राप्त शक्तियाँ
- अनुच्छेद 226 तथा 2277 के अंतर्गत उच्च न्यायालयों की शक्ति इत्यदि |
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