द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चिमी एशिया पर क्या प्रभाव पड़ा? - dviteey vishv yuddh ke pashchimee eshiya par kya prabhaav pada?

विषयसूची

  • 1 प्रथम विश्व युद्ध के दौरान फ्रांस का पश्चिमी एशिया पर क्या प्रभाव पड़ा?
  • 2 प्रथम विश्व युद्ध से भारतीय आर्थिक व्यवस्था पर कौन कौन से असर पड़े?
  • 3 द्वितीय विश्वयुद्ध का पश्चिमी एशिया पर क्या प्रभाव पड़ा?
  • 4 प्रथम विश्वयुद्ध का रूस की अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ा?
  • 5 प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारत में औद्योगिक उत्पादन क्यों बढ़ा कोई तीन कारण बताइए 3?
  • 6 प्रथम विश्व युद्ध को आधुनिक औद्योगिक युद्ध क्यों कहा गया था?

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान फ्रांस का पश्चिमी एशिया पर क्या प्रभाव पड़ा?

इसे सुनेंरोकेंउन्हें तुरंत तथाकथित ‘पश्चिमी मोर्चे’ की उन खंदकों में उतार दिया गया, जिन्हें भारी क्षति के कारण अंग्रेज सैनिकों ने ख़ाली कर दिया था. दिसंबर 1915 आते-आते उन्हें और उनके बाद आए भारतीय सैनिकों को फ्रांस और बेल्जियम में स्थित एक से एक भयंकर मोर्चों पर भारी हथियारों से लैस जर्मन सैनिकों से लोहा लेना पड़ा.

प्रथम विश्व युद्ध से भारतीय आर्थिक व्यवस्था पर कौन कौन से असर पड़े?

इसे सुनेंरोकेंयुद्ध के दौरान कारखानों और मजदूरों की संख्या में तीव्रता से बढ़ोतरी हुई. 1914 ई. में जहाँ कारखानों में कार्यरत मजदूरों की संख्या 9,50,973 थी, वहीं 1918 ई. में उनकी संख्या 11,22,922 हो गई.

प्रथम विश्व युद्ध के समय भारत का औद्योगिक उत्पादन क्यों बड़ा था?

इसे सुनेंरोकें(क ) प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटेन ऐसे उलझ गया की उसका ध्यान अपने बचाओ में लग गया। वः भारत में अपने माल का निर्यात न कर स्का जिसके कारण भरत में अपने माल का निर्यात न कर सका जिसके कारण भरत के उद्योगों को पनपने का सुअवसर प्राप्त हो गया।

द्वितीय विश्वयुद्ध का पश्चिमी एशिया पर क्या प्रभाव पड़ा?

इसे सुनेंरोकेंपरिणाम यह हुआ कि संयुक्त राष्ट्र के शांति स्थापक दस्ते इजरायल एवं मिस्र की सीमाओं पर नियंत्रण रखने के लिए पहुँच गए तथा इजरायल को पीछे हटना पड़ा। यह ब्रिटेन एवं फ्राँस के द्वारा 20वीं सदी में झेली गई सर्वाधिक अपमानजनक स्थिति थी। इसके बाद ब्रिटेन का न केवल अपयश फैला बल्कि विश्व शक्ति के रूप में उसका अंत भी हो गया।

प्रथम विश्वयुद्ध का रूस की अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ा?

इसे सुनेंरोकेंरूस में निरंकुश जार के शासन के अंत होने की प्रक्रिया शुरू हो गई। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद रूस एक नई महाशक्ति के रूप में उभरना शुरू हुआ और विश्व दो गुटों में बढ़ता चला गया। साम्यवादी रूस के नेतृत्व वाला गुट और पूंजीवादी अमेरिका के नेतृत्व गुट।

प्रथम विश्व युद्ध भारत में कौन सी नई आर्थिक स्थिति पैदा कर दी थी 3?

इसे सुनेंरोकेंप्रथम विश्व युद्ध ने भारत में एक अलग स्थिति पैदा कर दी। इससे रक्षा व्यय में भारी वृद्धि हुई जिसे युद्ध ऋणों द्वारा वित्तपोषित किया गया था और करों में वृद्धि करके सीमा शुल्क बढ़ाया गया था और आयकर पेश किया गया था। 1913-18 के बीच कीमतें दोगुनी हो गईं। इससे आम लोगों को झटका लगा।

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारत में औद्योगिक उत्पादन क्यों बढ़ा कोई तीन कारण बताइए 3?

इसे सुनेंरोकेंभारतीय बाज़ारों को रातोंरात एक विशाल देशी बाज़ार मिल गया। (ii) युद्ध लंबा खींचा तो भारतीय कारखानों में भी फ़ौज के लिए जूट की बोरियाँ, फौजियों के लिए वर्दी के कपड़े, टेंट और चमड़े के जूते, घोड़े व खज्जर की जीन तथा बहुत सारे अन्य समान बनने लगे। (iii) नए कारखाने लगाए गए। पुराने कारखाने कई पालियों में चलने लगे।

प्रथम विश्व युद्ध को आधुनिक औद्योगिक युद्ध क्यों कहा गया था?

इसे सुनेंरोकेंपहले विश्व युद्ध के दौरान एक नई स्थिति पैदा हो गई थी। (क) ब्रिटिश कारखाने सेना की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए युद्ध सामग्री का उत्पादन करने लगे थे। इसलिए भारत में मैनचेस्टर के माल का आयात कम हो गया और भारतीय उद्योगों को रातों-रात एक विशाल देशी बाज़ार मिल गया।

द्वितीय विश्व युद्ध

1 सितंबर, 1939 को जर्मनी द्वारा पोलैंड पर आक्रमण के साथ ही घटनाओं का वह सिलसिला शुरू हुआ, जिसने द्वितीय विश्व युद्ध को व्यापक आधार प्रदान किया। द्वितीय विश्व युद्ध वर्साय-संधि की कठोरता, विश्वव्यापी आर्थिक मंदी, तानाशाही राजनीति, इंग्लैंड की तुष्टिकरण की नीति, शस्त्रीकरण, शक्ति-संतुलन की गड़बड़ी जैसे कुछ मूलभूत कारणों का समन्वित परिणाम था।

प्रथम विश्व युद्ध के बाद गंभीर आर्थिक समस्याओं एवं विषाक्त राजनीतिक परिदृश्य के रूप में उभरती चुनौतियों का सामना करने में अंतर्राष्ट्रीय संगठन 'राष्ट्र संघ' सफल नहीं हो सका। संदेह एवं शक्ति-संतुलन की राजनीति में कोई भी देश एक-दूसरे के ऊपर विश्वास करने को किसी भी हालत में तैयार नहीं था। संयोग से यूरोपीय राजनीति में इटली एवं जर्मनी में क्रमशः मुसोलिनी एवं हिटलर जैसे तानाशाहों के अधीन सत्ता स्थापित हुई। द्वितीय विश्व युद्ध के बारे में एक धारणा जो प्रचलित है वह यह कि द्वितीय विश्व युद्ध एक प्रतिशोधात्मक युद्ध था। इसमें कोई दो राय नहीं कि 1919 ई. के पश्चात् विभिन्न यूरोपीय देशों में अधिनायक तंत्र अस्तित्व में आया, जो इस बात की पुष्टि करता है कि ये देश अपने अपमान का बदला लेने के लिये तैयार थे। इन सभी कारणों के समन्वित परिणाम से द्वितीय विश्व युद्ध अवश्यम्भावी हो गया।

द्वितीय विश्व युद्ध के कारण

यह कहना बिल्कुल जायज है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बीज 1919 ई. के पेरिस शांति समझौते में अंतर्निहित थे। इस सम्मेलन में जर्मनी के साथ अपमानजनक, कठोर एवं आरोपित वर्साय की संधि की गई थी और यह बात तो निश्चित ही थी कि जर्मनी इन कठोर शर्तों को लंबे समय तक व्यवहार में नहीं ला सकता था। शस्त्रों की होड़, उग्र राष्ट्रवादी भावनाएँ एवं राष्ट्रसंघ की कमजोरी जैसे कुछ ऐसे निर्णायक कारक भी थे, जिन्होंने परिस्थिति को द्वितीय विश्व युद्ध में परिवर्तित कर दिया।

द्वितीय विश्व युद्ध के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-

  • वर्साय संधि की त्रुटियाँ
  • तुष्टीकरण की नीति
  • राष्ट्रसंघ की विफलता
  • वैश्विक आर्थिक मंदी
  • तात्कालिक कारण

वर्साय संधि की त्रुटियाँ

वर्साय की संधि में ही द्वितीय विश्व युद्ध के बीज निहित थे। पेरिस शांति संधि के समय यह बात खुलकर सामने आई कि वर्साय संधि द्वारा एक ऐसे विष वृक्ष का बीजारोपण किया जा रहा है जो जल्द ही भयंकर विनाशलीला को दस्तक देगा एवं इसका फल समस्त मानव जगत को भुगतना पड़ेगा।

जर्मनी के साथ की गई वर्साय की संधि में वुडरो विल्सन के आदर्शवादी सिद्धांतों की सर्वथा उपेक्षा की गई थी। पराजित जर्मनी के समक्ष आरोपित, अपमानित एवं कठोर संधि को स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई दूसरा विकल्प नहीं था। इस स्थिति में जर्मनी के लिये यही बुद्धिमानी थी कि वह वर्साय संधि के इस कड़वे घूँट को पी जाए।

संधि ने जर्मनी को सैन्य एवं आर्थिक दृष्टिकोण से पंगु बना दिया। जर्मनी से अल्सास-लॉरेन के क्षेत्र एवं श्लेसविग के छोटे राज्य छीन लिये गए थे, पोलैंड गलियारा निर्मित कर जर्मनी का विच्छेद कर दिया गया था, उसे अपने सभी उपनिवेशों से हाथ धोना पड़ा, सार क्षेत्र की प्रसिद्ध खानों से 15 वर्षों के लिये वंचित कर दिया गया था। इसके अतिरिक्त जर्मनी को आर्थिक साधनों से वंचित कर उस पर क्षतिपूर्ति की भारी रकम थोप दी गई एवं उसे वसूलने के लिये कठोर साधन अपनाए गए।

फ्राँस द्वारा जर्मनी के प्रसिद्ध 'रूर क्षेत्र' पर अधिकार कर लिया गया। इस रूर क्षेत्र में जर्मन जनता के साथ घोर अत्याचार किया गया। यद्यपि जर्मनी भीषण आर्थिक संकट से घिरा हुआ था, फिर भी क्षतिपूर्ति के मामलों में उस पर कोई दया नहीं दिखाई गई। जर्मनी पर निरस्त्रीकरण जैसी कठोर शर्ते लाद दी गईं तथा मित्रराष्ट्रों ने जर्मनी को यह आश्वासन दिया कि वे अपने आयुध भंडार में कमी करेंगे, हालाँकि इस दिशा में उनका प्रयास नगण्य रहा। इस तरह जर्मनी को हर दृष्टि से अपमानित करने का प्रयास किया गया। अत: यह आशा नहीं की जा सकती थी कि वह चुप रहकर इन अपमानों को सहन करता रहेगा।

मित्रराष्ट्र भी इस बात को भलीभाँति समझते थे कि जैसे ही जर्मनी को मौका मिलेगा वह इस अपमान को धोने का प्रयास अवश्य करेगा। इसी संबंध में प्रसिद्ध फ्रांसीसी सेनापति मार्शल फाँच ने 1919 ई. में ही यह कहा था कि, "वर्साय की संधि शांति की संधि नहीं, वरन् यह महज़ युद्धविराम की संधि मात्र है।" इसी परिप्रेक्ष्य में जर्मनी में हिटलर जैसा योग्य नेता सामने आया और उसने जर्मनी को वर्साय संधि के अपमान से छुटकारा दिलाने का भरसक प्रयास किया। अंतत: इसी प्रयास की परिणति द्वितीय विश्व युद्ध के रूप में हुई।

तुष्टीकरण की नीति

सत्ता अधिग्रहण (1933 ई.) करने के बाद हिटलर ने उग्र विदेश नीति का अवलंबन किया तथा वर्साय संधि की एक-एक शर्तों को तोड़ना शुरू किया। जर्मनी में सैनिक सेवा अनिवार्य कर दी गई एवं भारी मात्रा में अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण कार्य शुरू हुआ। यह वर्साय की संधि का खुला उल्लंघन था। परंतु, हिटलर के इस कारनामे पर कोई भी देश रोक लगाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया और देखते-ही-देखते हिटलर ने वर्साय की संधि की एक-एक शर्तों को तोड़कर साम्राज्यवादी नीति का अवलंबन किया। इसके विपरीत मित्र राष्ट्रों खासकर ब्रिटेन और फ्रांस ने तुष्टीकरण की नीति का पालन किया।

वर्साय की संधि के द्वारा राइन क्षेत्र का असैन्यकरण कर दिया गया था, परंतु हिटलर ने बगैर इसकी परवाह किये 1935 ई. में इस क्षेत्र में सेना भेजकर उस पर अधिकार कर लिया एवं किलेबंदी का कार्य शुरू कर दिया। ब्रिटेन तथा फ्राँस जैसी शक्तियाँ उसका विरोध नहीं कर सकी और हिटलर का हौसला बढ़ता गया एवं 1938 ई. में ऑस्ट्रिया का जर्मनी में विलय कर एक महान साम्राज्य की नींव डाली गई।

हिटलर ने चेकोस्लोवाकिया के सुडेटनलैंड का प्रश्न उठाया, जहाँ बहुसंख्यक आबादी जर्मन थी। हिटलर ने सुडेटनलैंड के प्रश्न को जोर-शोर से अंतर्राष्ट्रीय पटल पर उठाया तथा इस घटना ने यूरोपीय देशों में युद्ध जैसे गंभीर संकट की स्थिति पैदा कर दी। परंतु, हिटलर ने बड़ी ही कुशलतापूर्वक सुडेटनलैंड सहित लगभग संपूर्ण चेकोस्लोवाकिया को हस्तगत कर लिया और ब्रिटेन एवं फ्राँस ने मूकदर्शक की भूमिका निभाया।

1931 ई. में जापान ने अपनी साम्राज्यवादी लिप्सा के तहत मंचूरिया पर अधिकार कर लिया। उक्त प्रश्न राष्ट्रसंघ के पास पहुँचने के बावजूद जापान के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की गई। इस तरह इटली द्वारा अबिसीनिया पर किये गए आक्रमण एवं अधिकार के विरोध में राष्ट्रसंघ में शिकायत दर्ज की गई परंतु इसका भी कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आया।

ब्रिटेन एवं फ्राँस जैसी शक्तियाँ राष्ट्रसंघ में प्रभावी भूमिका निभातीं तो यह संभव था कि अंतर्राष्ट्रीय अराजकता का वातावरण तैयार नहीं होता। इस तरह ये बात खुलकर सामने आ गई कि ब्रिटेन एवं फ्राँस ने सामूहिक सुरक्षा के सिद्धांत का खुलकर मजाक उड़ाया। अगर हम इस तथ्य पर विचार करें कि ब्रिटेन एवं फ्राँस ने तटस्थ अथवा तुष्टीकरण की नीति क्यों अपनाई? उक्त प्रश्नों का जवाब होगा कि 'इस तुष्टीकरण का सबल आधार यह था कि हिटलर एवं मुसोलिनी की कुछ शिकायतें दूर कर दी जाएँ तो वे संतुष्ट हो जाएंगे एवं सभी समस्याओं का शांतिपूर्वक समाधान संभव हो सकेगा।

ब्रिटेन एवं फ्राँस जैसी शक्तियों की यह सोच एक महान भूल थी कि हिटलर एवं मुसोलिनी की तृष्णा तथा अभिलाषाओं को शांत किया जा सकता है। वास्तव में ब्रिटेन एवं फ्रांस के नीति-निर्धारक सोवियत साम्यवाद के विरुद्ध हिटलर एवं मुसोलिनी के आक्रामक उद्देश्यों को मोड़ना चाहते थे। ये देश सोवियत साम्यवादी देश से भयभीत थे और यह इच्छा रखते थे कि साम्यवाद एवं फासिस्टवाद एक-दूसरे से लड़कर एक-दूसरे को बर्बाद कर दें। परंतु हिटलर एवं मुसोलिनी जैसे फासिस्ट शक्तियों का गुस्सा सोवियत संघ के विरुद्ध न उतरकर ब्रिटेन एवं फ्राँस समर्थित राष्ट्रों पर ही उतरा, विशेषकर जब हिटलर ने पोलैंड के विरुद्ध सैन्य कार्यवाही कर द्वितीय विश्व युद्ध को आरंभ किया।

राष्ट्रसंघ की विफलता

राष्ट्रसंघ की स्थापना, प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् युद्धों की रोकथाम एवं परस्पर झगड़ों को शांतिपूर्ण ढंग से निपटाकर विश्व शांति बनाए रखने के उद्देश्य से की गई थी। परंतु, यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि राष्ट्रसंघ अपने इस उद्देश्य को पूरा करने में विफल रहा। यह संगठन शीघ्र ही महाशक्तियों के हाथ की कठपुतली बनकर रह गया, जो उसे अपने स्वार्थ साधने हेतु उपयोग में लाते थे।

इस संगठन में अनेक दुर्बलताएँ थीं- सर्वाधिक शक्तिशाली देश संयुक्त राज्य अमेरिका राष्ट्रसंघ का सदस्य नहीं था। राष्ट्रसंघ के पास अपनी निजी सेना नहीं थी जिसके बल पर वह अपने निर्णयों को मनवा सके। इसका परिणाम यह हुआ कि सभी देशों ने उसकी अवहेलना शुरू की।

जापान, जर्मनी एवं इटली जैसे देश राष्ट्रसंघ से अपना संबंध-विच्छेद कर मनमानी करने लगे तथा राष्ट्रसंघ इस स्थिति में कुछ नहीं कर सका। इस तरह हम कह सकते हैं कि राष्ट्रसंघ की इस दुर्बल स्थिति ने द्वितीय विश्व युद्ध का मार्ग प्रशस्त किया।

राष्ट्रसंघ निरस्त्रीकरण के मुद्दों पर भी विफल रहा। हालाँकि इसके लिये प्रयास तो हुए थे परंतु परस्पर मतभेदों के कारण इस दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हो पाई। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि शस्त्रास्त्रों की होड़ मच गई। संपूर्ण यूरोपीय देशों का राजनीतिक वातावरण इसकी होड़ में शामिल हो गया। फ्राँस, जर्मनी से निरंतर भयभीत रहने लगा और इसी को ध्यान में रखकर उसने अपनी सैन्य शक्ति में वृद्धि के लिये बढ़-चढ़कर प्रयास किया।

फ्राँस ने अपनी सीमा पर 'मैगिनों लाइन' का निर्माण किया और बंकरों के निर्माण की गतिविधियाँ तीव्र कीं। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप जर्मनी ने भी 'मैगिनो लाइन' के समानांतर किलों की श्रृंखला निर्मित की जिसे 'सीजफ्रेड लाइन' कहा गया। यह 'सीजफ्रेड लाइन' जर्मनी की पश्चिमी सीमा को मजबूत बनाने के उद्देश्य से की गई थी एवं यहाँ से वह फ्राँस पर आक्रमण करने में समर्थ होता। अत: विभिन्न देशों की इस सैन्य तैयारियों के कारण युद्ध का छिड़ना महज़ समय की बात रह गई थी।

वैश्विक आर्थिक मंदी

प्रथम विश्व युद्ध के समय राष्ट्रीयता की भावना से प्रभावित सारे देश स्वदेशी उत्पादन एवं उपभोग पर अधिक बल देने लगे। आपसी तनाव और आत्मविश्वास के कारण आयातों पर प्रतिबंध लगाया गया परिणामस्वरूप वैश्विक स्तर पर निर्यात में कमी आई और व्यापारिक असंतुलन पैदा हो गया। अमेरिका ने यूरोप की आर्थिक दशा में सुधार हेतु बड़ी मात्रा में ऋण दिया जिससे संपूर्ण यूरोप की अर्थव्यवस्था अमेरिकी ऋणों पर निर्भर हो गई। इसी समय 1925 के आसपास अमेरिका में सट्टेबाजी की प्रवृत्ति में वृद्धि देखी गई जिससे यूरोपीय देशों से धन अमेरिका वापस जाने लगा। यूरोपीय देशों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा फिर 1929 में अमेरिकी स्टॉक एक्सचेंज यानी शेयर बाज़ार में गिरावट आ गई जिसने तमाम देशों में आर्थिक संकट की स्थिति उत्पन्न कर दी। यही घटना इतिहास में 1929 की वैश्विक आर्थिक मंदी के नाम से जानी जाती है।

इस मंदी का दुष्परिणाम लोकतांत्रिक देशों पर पड़ा, क्योंकि बेकारी, असंतोष, असुरक्षा एवं अस्थिरता की समस्याओं को लोकतांत्रिक सरकारें सुलझा नहीं पाई। इसने अधिनायकवादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया और जर्मनी में हिटलर तथा इटली में मुसोलिनी के उद्भव का मार्ग प्रशस्त हुआ।

आर्थिक मंदी ने ही स्पेन, पुर्तगाल में भी तानाशाही सरकारें स्थापित की जिसने बेरोजगारी, असंतोष तथा असुरक्षा को दूर करने के नाम पर अस्त्र-शस्त्र के निर्माण तथा सैन्यवाद पर बल दिया।

इसी शस्त्रीकरण सैन्यवाद, उग्र राष्ट्रवाद ने अंतर्राष्ट्रीय तनावों और संघर्ष को बढ़ाया जिसका सम्मिलित प्रभाव द्वितीय विश्वयुद्ध के रूप में सामने आया।

तात्कालिक कारण

1938 ई. में हिटलर की आक्रामकता के फलस्वरूप यूरोप का वातावरण अत्यंत ही तनावपूर्ण हो गया था। वास्तव में चेकोस्लोवाकिया के पतन के बाद यह समय की बात ही रह गई थी कि अब अगली बारी पोलैंड की है। ध्यातव्य है कि वर्साय की संधि के तहत निर्मित 'पोलिश गलियारा' द्वारा जर्मनी को विभाजित कर दिया गया था एवं डांजिंग बंदरगाह का अंतर्राष्ट्रीयकरण कर उसे राष्ट्रसंघ के संरक्षण में रखा गया था। जर्मन बहुल इस क्षेत्र की प्राप्ति हेतु हिटलर द्वारा यह मांग रखी गई कि ये क्षेत्र पुनः जर्मनी को दे दिये जाएँ। उसकी इस मांग के फलस्वरूप अंतर्राष्ट्रीय संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई। इस स्थिति में ब्रिटेन एवं फ्राँस को अपनी तुष्टीकरण की नीति की असफलता का अहसास हुआ।

हालाँकि जर्मनी एवं पोलैंड के मध्य विवाद को सुलझाने का प्रयास किया गया लेकिन अंततः 1 सितंबर, 1939 को जर्मनी ने पोलैंड पर आक्रमण कर द्वितीय विश्व युद्ध का आगाज किया। 3 सितंबर को ब्रिटेन तथा फ्राँस द्वारा जर्मनी के विरुद्ध युद्ध में शामिल होने की घोषणा के साथ ही सभी महान शक्तियाँ युद्ध में संलग्न हो गईं।

द्वितीय विश्व युद्ध की महत्त्वपूर्ण घटनाएँ

पोलैंड पर आक्रमण

जर्मनी एवं रूस के मध्य पोलैंड को आपस में बाँट लेने संबंधी समझौतों के फलस्वरूप 1 सितंबर, 1939 को जर्मन सेना ने द्रुतगति से पोलैंड पर आक्रमण कर दिया एवं 27 सितंबर तक पोलैंड ने जर्मनी के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। अब जर्मनी एवं रूस ने इसे आपस में बाँट लिया।

रूसी प्रसार

अपनी सुरक्षा हेतु रूस तीन बाल्टिक राज्यों यथा-इस्टोनिया, लाटविया एवं लिथुआनिया पर प्रभाव स्थापित करना चाहता था। इस संबंध में सितंबर-अक्टूबर (1939) में इन बाल्टिक देशों एवं सोवियत संघ के बीच पारस्परिक सहयोग की संधि हुई। इस संधि के फलस्वरूप सोवियत संघ को इन तीनों राष्ट्रों में सेना रखने की अनुमति मिल गई। इसके बदले में सोवियत संघ ने इन राष्ट्रों की प्रादेशिक अखंडता को बनाए रखने का पूर्ण आश्वासन दिया। परंतु फिनलैंड के साथ रूस का संघर्ष हो गया। रूस अपनी सुरक्षा हेतु फिनलैंड पर भी नियंत्रण स्थापित करना आवश्यक समझता था। रूस की सैन्य कार्रवाई के फलस्वरूप फिनलैंड को आत्मसमर्पण करना पड़ा। इसके पश्चात् होने वाली संधि के अनुसार, रूस को अपनी सुरक्षा से संबंधित सारी सुविधाएँ प्राप्त हो गईं।

नॉर्वे एवं डेनमार्क पर जर्मनी का आक्रमण

जर्मनी मूलतः ब्रिटेन एवं फ्राँस पर आक्रमण करने के लिये नॉर्वे एवं डेनमार्क के प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करना आवश्यक समझता था। समस्या यह थी कि अभी तक परंपरागत रूप से ये देश तटस्थ रहे थे। हिटलर ने अपनी सूझ-बूझ का परिचय देते हुए अप्रैल 1940 में नॉर्वे एवं डेनमार्क पर आक्रमण कर दिया। अंतत: नॉर्वे एवं डेनमार्क में नाजी सरकार सत्तासीन हुई।

हॉलैंड, बेल्जियम एवं लक्ज़मबर्ग पर जर्मन आक्रमण

ये तीनों देश तटस्थ थे। परंतु हिटलर ने इन तीनों देशों पर फ्राँस एवं ब्रिटेन को सहायता पहुँचाने का आरोप लगाया। इन्हीं आरोपों के आधार पर हिटलर ने अत्यंत ही द्रुतगति से इन पर आक्रमण कर इन्हें विजित कर लिया।

फ्राँस का पतन

जून 1940 में जर्मनी एवं इटली ने फ्राँस पर आक्रमण कर दिया। फलतः फ्रांसीसी सत्ता ने इन दोनों के संयुक्त आक्रमण के दबाव में आत्मसमर्पण कर दिया। इसकी परिणति यह हुई कि नाजी सेना को स्विट्जरलैंड के उत्तर-पश्चिम फ्रांस के संपूर्ण भू-भाग पर नियंत्रण स्थापित करने का अधिकार मिला। इतना ही नहीं फ्रांसीसी सेनाओं का निरस्त्रीकरण कर दिया गया। इस आक्रमण से इटली को भी लाभ हुआ तथा फ्रांस के कुछ भू-भाग इसे प्राप्त हो गए। जर्मनी की इस फ्रांसीसी विजय के फलस्वरूप ब्रिटेन में खलबली मच गई। इस स्थिति में ब्रिटिश सरकार ने जनरल दी गॉल के नेतृत्व में गठित फ्रांसीसी सरकार को शीघ्र ही मान्यता दे दी और अब इसी नवगठित फ्रांसीसी सरकार ने फ्रांस के प्रतिनिधि के रूप में धुरी राष्ट्रों का सामना किया।

ब्रिटेन पर जर्मनी का आक्रमण

फ्रांस के आत्मसमर्पण के पश्चात् स्वाभाविक रूप से ब्रिटेन की कठिनाइयाँ बढ़ गईं। इसका कारण एक तो यह था कि संपूर्ण फ्रांसीसी युद्ध सामग्री जर्मनी के हाथों में आ गई थी एवं इस युद्ध सामग्री का प्रयोग ब्रिटेन के विरुद्ध होने की संभावना बढ़ गई थी। साथ ही, अमेरिका भी यूरोपीय तटस्थ देशों पर जर्मनी के आक्रमण से सशंकित हो गया था। अत: इस भय की स्थिति में अमेरिका ने ब्रिटेन को सहायता देनी शुरू कर दी। एक और महत्त्वपूर्ण बात जो सामने आई वह यह थी कि जर्मनी से पराजित होकर यूरोपीय देशों की सरकारें ब्रिटेन में जाकर जर्मनी के विरुद्ध अपने देशवासियों को भड़काती रहती थीं। यही कारण था कि हिटलर ब्रिटेन के इन कृत्यों से रुष्ट था। अंतत: हिटलर ने ब्रिटेन पर आक्रमण कर दिया, (जुलाई 1940) परंतु प्रबल ब्रिटिश प्रतिरोध के कारण ही हिटलर ने केवल पूर्वी यूरोप पर अधिकार करने की यथेष्ट कोशिश की।

नई यूरोपीय व्यवस्था

सोवियत संघ पर हिटलर के आसन्न आक्रमण की योजना की एक कड़ी के रूप में इटली एवं जापान के साथ एक त्रिदलीय समझौता संपन्न हुआ। इस समझौते की मूल बातें ये थीं कि इन तीनों देशों ने अपने-अपने क्षेत्रों में एक-दूसरे का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। यही व्यवस्था यूरोप की नई व्यवस्था के नाम से प्रसिद्ध है। कालांतर में इस व्यवस्था को बुल्गारिया, रूमानिया एवं यूगोस्लाविया को भी मानने हेतु बाध्य किया। अंततः हिटलर ने यूनान को विजित कर जर्मन साम्राज्य में शामिल कर लिया।

पश्चिमी एशिया में युद्ध

प्राकृतिक संसाधन विशेष रूप से पेट्रोलियम पदार्थों से संपन्न पश्चिमी एशियाई क्षेत्र दोनों गुटों यथा मित्रराष्ट्र एवं धुरीराष्ट्र दोनों के लिये महत्त्वपूर्ण थे। जर्मनी एवं इटली ये दोनों देश तेल की आवश्यकता हेतु मूल रूप से इस क्षेत्र की ओर आकर्षित हुए थे जबकि ब्रिटेन हेतु स्वेज नहर का महत्त्व जीवन रेखा के समान था। संयोगवश जर्मनी ने इराक में ब्रिटिश समर्थक सरकार को पदच्युत कर जर्मन समर्थक सरकार स्थापित की। इसकी प्रतिक्रिया के रूप में ब्रिटिश सरकार ने सैन्य कार्रवाई कर इराक में पुनः ब्रिटिश समर्थक सरकार कायम की। इस घटना के पश्चात् ब्रिटेन ने पश्चिमी एशिया के विस्तृत भू-भाग के अंतर्गत फिलिस्तीन, ट्रांसजॉर्डन, इराक, सीरिया तथा लेबनान पर प्रभुत्व कायम कर लिया।

रूस-जर्मनी संबंध

यद्यपि अगस्त 1939 को हुई मास्को संधि के तहत रूस एवं जर्मनी एक-दूसरे के नज़दीक आए, परंतु रूस इस स्थिति से वाकिफ था कि जर्मनी का मूल उद्देश्य साम्यवादी सोवियत संघ को समूल नष्ट करना है, परंतु दाँव-पेंच के बीच 1941 ई. में सोवियत संघ एवं जापान के मध्य एक अनाक्रमण संधि हुई। संशय की इस स्थिति में जर्मनी ने रूस पर आक्रमण कर दिया। जर्मनी एवं रूस के मध्य होने वाले इस युद्ध को हिटलर ने 'धर्मयुद्ध' की संज्ञा दी। इस युद्ध में इटली, रूमानिया, चेकोस्लोवाकिया आदि देश रूस के विरुद्ध शामिल हो गए परंतु सोवियत रूस ने दृढ़तापूर्वक जर्मन आक्रमण का सामना किया। सोवियत रूस को इस गंभीर संकट से निजात दिलाने हेतु ब्रिटेन एवं अमेरिका तैयार हुए तथा रूस की सहायता हेतु ब्लाडीवोस्टक एवं फ्रांस के रास्ते का उपयोग करने की बात तय हुई। इस समय फ्राँस पर जर्मन प्रभाव कायम था। अतः इस स्थिति में ब्रिटेन एवं रूसी सेना ने मिलकर फ्राँस पर आक्रमण किया और अंतत: उस पर अधिकार कर लिया। जर्मनी की सेना भी मास्को तक पहुँच गई परंतु रूसियों के आत्मविश्वास, ज़बरदस्त ठंड का वातावरण एवं अमेरिकी सहायता के परिणामस्वरूप जर्मन सेना पीछे हटने को बाध्य हो गई।

पूर्वी एशियाई क्षेत्र में युद्ध

इस क्षेत्र में युद्ध जापान एवं अमेरिका से संबंधित था। जापान द्वारा पूर्वी प्रशांत महासागरीय क्षेत्र में स्थित पर्ल हॉर्बर (अमेरिकी नौ-सैनिक अड्डा) पर आक्रमण कर दिये जाने के परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में युद्ध का आगाज हुआ। जापानी हमले के परिणामस्वरूप पर्ल हार्बर क्षेत्र के अनेक युद्धपोत नष्ट कर दिये गए। जापानी सेना अत्यंत ही तीव्र गति से सिंगापुर, हॉन्गकॉन्ग, मलाया, बर्मा आदि पर अधिकार करते हुए बंगाल की खाड़ी तक पहुँच गई। जापानियों की इन प्रारंभिक उपलब्धियों की प्रतिक्रियास्वरूप अमेरिकी सेना ने भी कोरल समुद्री युद्ध एवं मिडवे द्वीप के युद्ध में जापानियों को पराजित किया।

स्टालिनग्राड का युद्ध

स्टालिनग्राड पर अधिकार स्थापित करने के उद्देश्य से हिटलर ने 1942 ई. में इस क्षेत्र पर आक्रमण किया, परंतु सोवियत प्रतिरोध के कारण उसे आत्मसमर्पण करना पड़ा और जर्मन सैनिकों को भारी तबाही का सामना करना पड़ा। इतना ही नहीं, स्टालिनग्राड के युद्ध में सोवियत संघ की इस सफलता के फलस्वरूप सोवियत संघ ने बाल्टिक क्षेत्र को नाजी आधिपत्य से मुक्त करते हुए बर्लिन पर कब्जा कर लिया। इस दु:खद स्थिति में हिटलर ने बर्लिन के एक बंकर में आत्महत्या कर ली।

पश्चिमी मोर्चा

यह विचार मूल रूप से स्टालिन का था। जब रूस पर जर्मनी का आक्रमण हुआ तो एक नए मोर्चे के रूप में पश्चिमी मोर्चा खोलने की आवश्यकता अनिवार्य हो गई। पूर्वी मोर्चे पर मित्रराष्ट्रों को जर्मनी की तरफ से जबरदस्त दबाव पड़ रहा था। इस पश्चिमी मोर्चे ने मित्रराष्ट्रों को मज़बूत आधार प्रदान किया, क्योंकि इस मोर्च के कारण जर्मनी को पश्चिमी मोर्चे पर भी मित्रराष्ट्रों का सामना करना पड़ा। पूर्वी एवं पश्चिमी दोनों मोर्चों से बर्लिन पर आक्रमण किया गया। फलतः 2 मई, 1945 को जर्मनी को आत्मसमर्पण करना पड़ा। इधर जापान पर भी मित्रराष्ट्रों का दबाव बढ़ने लगा। 6 अगस्त एवं 9 अगस्त, 1945 को जापान के दो शहरों क्रमशः हिरोशिमा एवं नागासाकी पर अमेरिका द्वारा परमाणु बम गिराए गए। इस घटना के फलस्वरूप जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया।

अंततः हम कह सकते हैं कि हिटलर एवं मुसोलिनी की आक्रामकता, जापान की साम्राज्यवादी प्रवृत्ति आदि के परिणामस्वरूप द्वितीय विश्व युद्ध का प्रारंभ 1 सितंबर, 1939 को हुआ, जिसकी समाप्ति 2 सितंबर, 1945 को जापान के आत्मसमर्पण के साथ हुई। यह एक भयंकर युद्ध था, जिसमें पहली बार परमाणु बम का उपयोग किया गया।

द्वितीय विश्व युद्ध : परिणाम/प्रभाव

द्वितीय विश्व युद्ध मानव सभ्यता के इतिहास में निर्णायक मोड़ है जिसने विश्व की राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक व सैन्य व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन किये। द्वितीय विश्व युद्ध के परिणाम इतने गहन व दीर्घायु थे कि विश्व व्यवस्था में आज भी उस समय की परिस्थितियों, घटनाक्रम और उसके निर्णयों का गहन प्रभाव दिखाई देता है।

इस विश्व युद्ध ने वैश्विक राजनीति को हमेशा के लिये बदलकर रख दिया। प्रमुख परिणाम इस प्रकार थे-

  • यूरोप का वर्चस्व समाप्त
  • दो महाशक्तियों का उदय
  • शीतयुद्ध
  • गुटनिरपेक्षता का उदय
  • साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद की समाप्ति तथा तृतीय विश्व का उद्भव 
  • संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना
  • आतंक के संतुलन की स्थापना
  • भारत, चीन और इज़राइल पर प्रभाव
  • आर्थिक प्रभाव
  • वैज्ञानिक प्रगति पर प्रभा
  • सांस्कृतिक प्रभाव

यूरोप का वर्चस्व समाप्त

यूरोप जो कि इस युद्ध के आरंभ तक विश्व राजनीति का केंद्र बना हुआ था वह अब परदे के पीछे चला गया और इस रंगमंच के नायक के रूप में अमेरिका का उभार हुआ। विश्व युद्ध ने यूरोप के पूर्व कर्ता-धर्ताओं का पतन कर दिया था, क्योंकि इंग्लैंड की जर्जर अर्थव्यवस्था व सैनिक शक्ति में ह्रास से उपनिवेश स्वतंत्र होने लगे, वहीं इटली और जर्मनी के पराजित होने से उनका पराभव तय था। यूरोप की इस शक्तिहीनता व विश्व राजनीति में शक्तिशून्यता के विकल्प के रूप में अमेरिका का उभार हुआ।

दो महाशक्तियों का उदय

विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका ने परिस्थितियों व संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग करते हुए युद्ध में न्यूनतम क्षति तथा अधिकतम लाभ अर्जित किया। अमेरिका ने युद्ध के दौरान मित्र देशों को कर्ज, रक्षा सामग्री की आपूर्ति की तथा स्वयं जब तक संभव था युद्ध से पृथक् रहकर अपनी आर्थिक व सैनिक शक्ति बढ़ाई। इसी क्रम में वह परमाणु शक्ति संपन्न बन गया। दूसरी तरफ सोवियत संघ ने योजनागत विकास पद्धति से अपना तीव्र औद्योगिक विकास किया, विज्ञान व प्रौद्योगिकी में बढ़त हासिल करते हुए उसने भी परमाणु शक्ति प्राप्त कर ली। इस प्रकार विश्व मंच पर दो महाशक्तियों का उदय हुआ।

शीतयुद्ध

युद्ध पश्चात् उभरी दोनों शक्तियों (अमेरिका एवं सोवियत संघ) में वैचारिक द्वंद्व (पूंजीवाद बनाम साम्यवाद) विद्यमान था। साथ, ही युद्ध के दौरान मित्रराष्ट्रों ने रूस की मांग पर जर्मनी पर दूसरी तरफ से आक्रमण नहीं किया था जिससे यह वैचारिक द्वंद्व अविश्वास की दरार से और अधिक कट्टरता युक्त हो गया।

इन दोनों नेतृत्वकर्ताओं के साथ इनके समर्थक जुड़ने लगे और संपूर्ण यूरोप दो गुटों में बँट गया। पश्चिमी यूरोप अमेरिका के साथ, जबकि पूर्वी यूरोप सोवियत संघ के नेतृत्व में संगठित हुआ। इसी क्रम में जर्मनी का पश्चिमी व पूर्वी जर्मनी में विभाजन हो गया।

इस तरह गुटों में विभाजित यूरोप तनाव को बढ़ा रहा था और सशंकित राष्ट्रों ने सुरक्षा के आश्वासन के लिये सैन्य गुटों में संगठित होना प्रारंभ कर दिया। फलतः नाटो, बगदाद पैक्ट, सीटो और सेंटो तथा वारसा पैक्ट नामक सुरक्षा संगठन क्रमशः अमेरिका और सोवियत संघ के नेतृत्व में अस्तित्व में आए। इस प्रकार की गतिविधियों ने दोनों गुटों के मध्य तनाव को बढ़ाया, शस्त्रों की प्रतिस्पर्धा तेज़ की, विरोधी राजनीतिक षड्यंत्र व दुष्प्रचार किया; हालाँकि सशस्त्र संघर्ष नहीं हुआ। इन गतिविधियों को समग्र रूप से 'शीत युद्ध' कहा गया।

गुटनिरपेक्षता का उदय

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् स्वतंत्र होने वाले राष्ट्रों पर अपनी संप्रभुता, सुरक्षा और विकास को बनाए रखने की चुनौती थी तो साथ ही किसी-न-किसी गुट में सम्मिलित होने का दबाव भी था। इन्हीं परिस्थितियों में भारत, मिस्र, यूगोस्लोवाकिया के नेतृत्व में राष्ट्र एकत्रित हुए और किसी भी गुट के सदस्य बनने का विरोध किया। इन नवस्वतंत्र राष्ट्रों ने शीतयुद्ध की खींचतान से स्वयं को पृथक् रखते हुए गुटनिरपेक्षता की आवाज बुलंद की। गुटनिरपेक्षता का ध्येय उपनिवेशवाद का विरोध तथा किसी गुट का सदस्य नहीं बनना था।

साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद की समाप्ति तथा तृतीय विश्व का उद्भव ।

युद्ध में उलझकर साम्राज्यवादी शक्तियाँ अपनी ताकत एवं उपनिवेशों पर अपनी पकड़ खो बैठी जिससे उपनिवेशों में स्वतंत्रता आंदोलन ज़ोर पकड़ने लगे। प्रमुख साम्राज्यवादी ताकतों ब्रिटेन, फ्राँस, हॉलैंड आदि साम्राज्यवादी देशों के दक्षिण एशियाई, दक्षिणी-पूर्वी एशियाई, अफ्रीकी उपनिवेश एक-एक करके स्वतंत्र होते गए। साम्राज्यवादी ताकतें इनको रोकने में असमर्थ रहीं क्योंकि एक तो वे अपनी आर्थिक-सैनिक शक्ति खो चुकी थीं, दूसरा इन देशों (मातृ देशों) में सत्ता परिवर्तनों के कारण व यहाँ की जनता द्वारा उपनिवेशों के शोषण की आलोचना के कारण वह इन पर नियंत्रण करने की इच्छा शक्ति भी गँवा चुकी थीं।

इन उपनिवेशों में स्वतंत्रता आंदोलनों को प्रज्वलित करने में रूजवेल्ट के अटलांटिक चार्टर की घोषणाओं का अत्यधिक महत्त्व है। इस प्रकार नए राष्ट्रों का यह उत्थान यूरोप के पराभव व एशिया के उत्कर्ष को भी प्रतिबिंबित करता है क्योंकि नवस्वतंत्र राष्ट्रों में तथा गुटनिरपेक्षता में अधिकांश राष्ट्र एशिया से ही सम्मिलित थे।

संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना

युद्ध के दौरान ही विश्व राजनीतिज्ञों को भविष्य में इससे भी भयंकर युद्ध की अनुभूति होने लगी जिसके निराकरण के प्रयासों में 1945 में सेनफ्रांसिस्को में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की गई जिसका उद्देश्य राष्ट्र संघ की विफलताओं से आगे बढ़कर विश्व में शांति और मानवाधिकारों के साथ-साथ व्यक्ति के सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक विकास के प्रयास करना था।

आतंक के संतुलन की स्थापना

विश्व युद्ध के दौरान परमाणु बम के विकास और इस्तेमाल ने पारंपरिक शक्तियों की परिभाषा को बदल कर रख दिया क्योंकि किसी भी परमाणु शक्ति के विरुद्ध कोई भी राष्ट्र शक्ति आधिक्य का दावा नहीं कर सकता है। इन शक्तियों के मध्य संघर्ष का अर्थ होता कि दोनों शक्तियों का संपूर्ण विनाश। इस घटनाक्रम ने हालाँकि शांति स्थापना में सहयोग दिया, किंतु यह आतंक की तलवार गर्दन पर रखे होने से उत्पन्न निस्तब्धता थी न कि स्वाभाविक शांति।

भारत, चीन और इज़राइल पर प्रभाव

भारत में विश्व युद्ध के दौरान भारतीयों को युद्ध में शामिल किये जाने के विरोध में कॉन्ग्रेस शासित राज्यों की सरकारों ने इस्तीफा दे दिया और व्यक्तिगत सत्याग्रह प्रारंभ हुआ जो भारत छोड़ो आंदोलन में परिणत होकर अंतिम रूप से भारत की स्वतंत्रता के रूप में प्रकट हुई। इसी दौरान जापानी सेना द्वारा बंदी बनाए गए भारतीय सैनिकों की सहायता से बोस ने आज़ाद हिंद फौज का निर्माण कर अंग्रेजों के लिये समस्या उत्पन्न की।

चीन में जापानी आत्मसमर्पण के पश्चात् उन्हीं के साजो-सामान से चीनी साम्यवादियों ने राष्ट्रवादियों को फारमोसा द्वीप पर खदेड़कर चीन में साम्यवादी सरकार स्थापित की।

युद्ध के दौरान 1940 ई. में फिलीस्तीन में ही इजराइल का निर्माण हुआ जिसे अमेरिका व ब्रिटेन का समर्थन प्राप्त था। यहीं से पश्चिम एशिया में तनाव व युद्ध (अरब बनाम इज़राइल) प्रारंभ हो गए।

आर्थिक प्रभाव

विश्व युद्ध के दौरान हुए व्यापक आर्थिक नुकसान से उबारने के लिये तथा नष्ट हो चुकी शक्तियों के पुनर्निर्माण की आवश्यकता को पूरा करने के लिये ब्रेटनवुड्स सम्मेलन में वर्ल्ड बैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाओं की नींव रखी गई। ये संस्थाएँ सस्ते तथा दीर्घकालीन ऋण उपलब्ध कराती हैं और उपनिवेशों में सामाजिक-आर्थिक विकास की परियोजनाओं को बढ़ावा देकर शांति व विकास का समर्थन करती हैं। आईएमएफ जैसी संस्था विश्व व्यापार में भुगतान संतुलन को समर्थन तथा दृढ़ता देने के उद्देश्य से प्रेरित थी जिससे कि संरक्षणवादी गतिविधियों पर अंकुश लगे और विनिमय बढ़े। विश्व युद्ध के पश्चात् इन संस्थाओं की स्थापना ने व्यापारिक शक्ति या फिर औद्योगिक शक्ति बनने की प्रतिस्पर्धा के स्थान पर सेवा क्षेत्र के विकास की राह प्रशस्त की और अर्थव्यवस्था प्रमुखतया विज्ञान व प्रौद्योगिकी के साथ संलग्न हो गई। यद्यपि ब्रेटनवुड्स संस्थाओं पर आर्थिक उपनिवेशवाद या अमेरिकीकरण का आक्षेप लगाया जाता है किंतु फिर भी ध्वंस अर्थव्यवस्था के पुनः सृजन में इनका अविस्मरणीय योगदान है।

वैज्ञानिक प्रगति पर प्रभाव

विश्व युद्ध में सामरिक व घरेलू आवश्यकताओं के बढ़ जाने से वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास तीव्र हुआ। इन आविष्कारों ने संपूर्ण रक्षा, उद्योग व चिकित्सा जगत की अवधारणाओं को बदल कर रख दिया। इस दौरान प्लास्टिक, रेयॉन, हल्की व मज़बूत मिश्र धातु, संचार उपकरण, जीवन रक्षक औषधियों आदि का विकास हआ। राडार, जेट विमान, रेडियो, टेलीविज़न जैसे साधनों पर बड़े पैमाने पर पूंजी का निवेश किया जाने लगा। मित्र तथा धुरी राष्ट्रों को इस बात का एहसास हो चुका था कि वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास ही राष्ट्रों की सफलता या असफलता का परिणाम तय करेगा।

सांस्कृतिक प्रभाव

एक के बाद एक और विश्व युद्ध, वह भी 20 वर्ष के लघु अंतराल पर। इन घटनाओं ने मानवीय चेतना को झकझोर कर रख दिया। निराशा, हताशा और विश्वव्यापी कुंठा से यूरोप में अस्तित्ववादी दर्शन को लोकप्रियता मिली। धार्मिक-सामाजिक जीवन में नैतिक मान्यताएँ शिथिल होने लगी जिससे क्षणभंगुरता, लघुमानववाद, उच्छृखलता को बढ़ावा मिला। इससे अमेरिका व यूरोप में 'बीट कल्चर' तथा 'हिप्पीकल्चर' को लोकप्रियता मिली जो कि स्वार्थमूलक सुखवादियों के या चार्वाक दर्शन के नज़दीक थे और जीवन को क्षणभंगुर मानते हुए अत्यधिक भोग पर बल देते थे। इस समय के साहित्य व चित्रकला (पिकासो) में महानगरीय जीवन के संत्रास, अलगाव व्यक्तित्व विखंडन की स्पष्ट अभिव्यक्ति मिलती है।

द्वितीय विश्व युद्ध के सांस्कृतिक प्रभाव

द्वितीय विश्व युद्ध ने जिस सांस्कृतिक ज्वार को उभारा उसके दूरगामी सामाजिक एवं राजनीतिक परिणाम हुए। महायुद्ध के बाद के वर्ष निराशा, हताशा एवं विश्व व्यापी कुण्ठा का युग था। किर्केगार्ड जैसे दार्शनिक का अस्तित्ववादी चिंतन यूरोप तथा अमेरिका में लोकप्रिय बना।

ब्रह्मांड में मनुष्य के अस्तित्व की नगण्यता और अर्थहीनता की अनुभूति ने धार्मिक व नैतिक मूल्यों में तेजी से ह्रास किया और सामाजिक उच्छश्रृखंला को बढ़ावा दिया। उसने जहां एक ओर पश्चिमी पूंजीवादी समाज में बीटनकों और बाद में हिप्पियों को प्रतिष्ठा दिलवाई, तो दूसरी ओर साहित्य और कला के क्षेत्र में अमूर्तनों, स्वतः सुखाय तथा निरंकुश उद्गारों की अभिव्यक्ति वाली कलाकृतियों के सृजन को प्रोत्साहन दिया। पोप आर्ट, रॉक म्यूजिक आदि इसी के उदाहरण हैं।

कलाओं में पिकासो की प्रसिद्ध कलाकृति 'गोयरनिका' एवं 'लोरका' की कविताएं स्पेनी गृहयुद्ध से प्रेरित थी। कामू का उपन्यास प्लेग, भी इसी कोटि में आता है। युद्ध की विभीषिका महानगरीय संत्रास, अलगाव आदि की अनुभूति जो आधुनिक साहित्य कला जगत का अभिन्न अंग बन चुकी है द्वितीय विश्वयुद्ध की देन है।

परमाणु युग की शुरूआत

इस युद्ध का अंत अमेरिका द्वारा हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराने से हुआ। किंतु वास्तव में इस घटना ने मानव जीवन को भय और आशंकाओं से युक्त कर दिया। अमेरिका के बाद शीघ्र ही USSR ने शीघ्र ही यह क्षमता हासिल कर ली, जिससे समाज आतंकित होने लगा। अन्य देशों ने भी इस क्षमता को हासिल करने का प्रयास किया जिससे विश्व को यह सोचना पड़ा कि इन परमाणु हथियारों से भयमुक्ति कैसे दिलाई जाये और इसी CTBT जैसी महत्वपूर्ण संधियां की गई। इसका अप्रत्यक्ष लाभ यह भी देखा गया कि लोग युद्ध से बचने लगे। इसलिये कुछ विद्वान 'शक्ति संतुलन' के युग की समाप्ति और आतंक संतुलन' के युग की शुरूआत बताते हैं। 

इसके अतिरिक्त युद्ध में अन्य वैज्ञानिक उपकरणों ने भी निर्णायक भूमिका निभाई थी, जिसमें सबसे प्रमुख लड़ाकू विमान सिद्ध हुए थे। अतः इसी के बाद रडार, मिसाइलों का प्रयोग भी शुरू हो गया। अर्थात् अब विज्ञान व तकनीक के विकास ने युद्ध का स्वरूप ही बदल दिया और इसी समय से यह चर्चा शुरू हुई कि 'विज्ञान अभिशाप हैं या वरदान।' वास्तव में मनुष्य ने परमाणु बम बनाकर अतिमानवीय शक्ति तो हासिल कर ली, परंतु उसकी बुद्धि अतिमानव तक उन्नत नहीं हुई और इसीलिये यह संकट की स्थिति बन गई।

द्वितीय विश्व युद्ध का विज्ञान पर प्रभाव

  • द्वितीय विश्व के दौरान सामरिक प्राथमिकताओं ने वैज्ञानिक व तकनीकी शोध को तीव्रतर बनाया। रडार, जेटविमान, रेडियो, टेलीविजन जैसे साधनों पर बड़े पैमाने पर पूँजी निवेश किया गया। यह बात परमाणु विज्ञान में भी लागू होती हैं। मित्र और धुरी राष्ट्रों को इस बात का अच्छी तरह से आभास था कि, जो खेमा वैज्ञानिक एवं तकनीकी आविष्कारों के दौर में पिछड़ेगा वही पराजित होगा। इतना ही नहीं युद्ध मोर्चे की व्यापक जरूरतों के लिए औद्योगिक उत्पादन की वैज्ञानिक प्रणालियां खोजी गयी।
  • युद्धकालीन प्रचार, तंगी एवं राशनिंग वाली अर्थव्यवस्था ने युद्धोत्तर काल में वैज्ञानिक व तकनीकी विकास को अन्य समस्त आर्थिक क्रियाकलापों के साथ कंद्रित और नियोजित करना सहज बनाया।
  • युद्ध के दबाव में रबड़, खनिज, आदि कच्चे मालों को थोड़े या अधिक समय के लिए अनुपलब्ध बनाकर कृत्रिम विकल्पों का आविष्कार किया गया। प्लास्टिक, रेयान, हल्की मिश्र धातु, चमत्कारिक औषधियां आदि बहुत बड़ी सीमा तक द्वितीय विश्व युद्ध की देन है।
  • सामरिक जरूरतों के अनुसार जर्मनी के वैज्ञानिक के V-2 प्रक्षेपास्त्रों का आविष्कार किया। ये इन रॉकेटों के पूर्वज थे जो आज हमें अंतरिक्ष में विजय दिला रहे हैं।

परीक्षोपयोगी महत्त्वपूर्ण तथ्य

  • द्वितीय विश्व युद्ध का आरंभ पोलैंड पर जर्मनी द्वारा आक्रमण के साथ 1 सितंबर, 1939 को तथा अंत जापान के आत्मसमर्पण के साथ 2 सितंबर, 1945 को हुआ।
  • 'वर्साय की संधि' प्रत्यक्ष रूप से द्वितीय विश्व युद्ध के लिये ज़िम्मेदार मानी जाती है।
  • ब्रिटेन एवं फ्राँस का मानना था कि यदि हिटलर एवं मुसोलिनी की कुछ शिकायतें दूर कर दी जाएँ तो वह संतुष्ट हो जाएंगे और सभी समस्याओं का समाधान शांतिपूर्वक ढंग से हो सकेगा। इसलिये फ्राँस तथा ब्रिटेन ने तुष्टीकरण की नीति अपनाई।
  • राष्ट्रसंघ की स्थापना प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् परस्पर झगड़ों को शांतिपूर्ण ढंग से निपटाने तथा युद्धों की रोकथाम के उद्देश्य से की गई थी, परंतु यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि राष्ट्रसंघ की दुर्बल स्थिति ने द्वितीय विश्व युद्ध का मार्ग प्रशस्त किया।
  • द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् अमेरिका तथा रूस ने अपनी आर्थिक तथा सैनिक शक्तियों में बढ़त हासिल की तथा दो महाशक्तियों के रूप में इनका उदय हुआ।
  • द्वितीय विश्व युद्ध का महत्त्वपूर्ण परिणाम पश्चिम एशिया में इज़राइल का निर्माण था।
  • द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जिन हिंदुस्तानी सिपाहियों को जापानी सेना द्वारा बंदी बनाया गया था उन्हीं की सहायता से सुभाष चंद्र बोस ने आज़ाद हिंद फौज का निर्माण किया।
  • विश्व युद्ध के दौरान हुए आर्थिक नुकसान से उबरने के लिये तथा नष्ट हो चुकी शक्तियों के पुनर्निर्माण की आवश्यकता को पूरा करने के लिये विश्व बैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाओं की नींव रखी गई।
  • द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् नवस्वतंत्र राष्ट्र शीतयुद्ध की खींचातानी से अलग हुए तथा गुटनिरपेक्षता का उदय हुआ। गुटनिरपेक्षता का उद्देश्य उपनिवेशवाद का विरोध तथा किसी गुट का सदस्य नहीं बनना था
  • द्वितीय विश्वयुद्ध में पहली बार परमाणु बम का उपयोग किया गया। यह बम अमेरिका द्वारा जापान के दो प्रमुख शहरों हिरोशिमा तथा नागासाकी पर गिराया गया। इस घटना के कारण ही जापान ने युद्ध में आत्मसमर्पण किया।
  • मानवाधिकारों और विश्व में शांति के साथ-साथ व्यक्ति के सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक एवं विकास के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना 1945 में की गई।

FAQ : 

Q : द्वितीय विश्व युद्ध कब प्रारंभ हुआ?

Ans : 1 सितंबर, 1939

Q : द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत किन देशों ने शुरू की थी?

Ans : द्वितीय विश्व युद्ध का आरंभ पोलैंड पर जर्मनी द्वारा आक्रमण के साथ हुआ।

Q : द्वितीय विश्व युद्ध कब समाप्त हुआ?

Ans : 2 सितंबर, 1945

Q : द्वितीय विश्व युद्ध का महत्त्वपूर्ण परिणाम क्या हुआ?

Ans : द्वितीय विश्व युद्ध का महत्त्वपूर्ण परिणाम पश्चिम एशिया में इज़राइल का निर्माण था।

द्वितीय विश्व युद्ध का पश्चिमी एशिया पर क्या प्रभाव पड़ा?

युद्ध के दौरान, अरब राष्ट्रवाद बढ़ गया था, और जैसे ही फिलिस्तीन में ब्रिटिश जनादेश की स्थापना हुई, गंभीर गड़बड़ी हुई। हालाँकि, जब फिलिस्तीनियों की राष्ट्रवादी आकांक्षाओं को दबा दिया गया था, तब पश्चिम से यहूदियों का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ था।

द्वितीय विश्व युद्ध के प्रभाव क्या थे?

किन्तु द्वितीय विश्व युद्ध ने यूरोपियन राष्ट्रों की अर्थव्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया। युद्ध की समाप्ति के बाद इटली, जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन आदि राष्ट्र द्वितीय श्रेणी की शक्तियां (Second rate power) बन कर रह गयीं। विश्व का नेतृत्व यूरोप के हाथ से निकल कर संयुक्त राज्य अमरीका और सोवियत संघ के हाथों में आ गया।

द्वितीय विश्व युद्ध का यूरोपीय शक्ति पर क्या प्रभाव पड़ा?

यूरोप की अधिकांश राजनीतिक शक्तियाँ जैसे- जर्मनी, इटली, स्पेन आदि अधिनायकवादी और साम्राज्यवादी सरकारों में स्थानांतरित हो गईं। एशिया का संसाधन संपन्न देश जापान, एशिया और प्रशांत क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के लिये इन क्षेत्रों पर आक्रमण करने लगा।

द्वितीय विश्व युद्ध का भारत पर क्या प्रभाव पड़ा?

जब यह विश्वयुद्ध अपने चरम पर था तब 25 लाख से अधिक भारतीय सैनिक पूरे विश्व में अक्षीय-राष्ट्रों की सेनाओं से लड़ रहे थे। ८७ हजार से अधिक भारतीय सैनिक युद्ध में मारे गए थे। युद्ध की समाप्ति पर, भारत दुनिया की चौथी सबसे बड़ी औद्योगिक शक्ति के रूप में उभरा था।

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