अधीनस्थ पार्थक्य की नीति के जनक - adheenasth paarthaky kee neeti ke janak

विषयसूची

  • 1 भारत में सहायक संधि का जन्मदाता कौन?
  • 2 पहली सहायक सन्धि कौन सी थी?
  • 3 भारत में कितने सहायक संधि लागू किया?
  • 4 आश्रित पार्थक्य की नीति क्या है?

भारत में सहायक संधि का जन्मदाता कौन?

इसे सुनेंरोकेंसहायक संधि का जन्मदाता या सहायक संधि का जनक लॉर्ड वेलेजली को कहा जाता है। अपितु लॉर्ड वेलेजली सहायक संधि का सर्वप्रथम प्रयोग करने वाला व्यक्ति नहीं था। सहायक संधि का सर्वप्रथम प्रयोग फ्रांसीसी “डूप्ले” द्वारा किया गया था।

प्रथम सहायक क्या होता है?

इसे सुनेंरोकेंप्रथम सहायक संधि पर 1798 में हैदराबाद के निजाम ने हस्ताक्षर किया था। भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना के लिए लॉर्ड वेलेजली द्वारा गवर्नर-जनरल (1798-1805) द्वारा उपयोग की जाने वाली सहायक गठबंधन प्रणाली “गैर-हस्तक्षेप नीति” थी। हैदराबाद का निज़ाम ‘1798 ई.

पहली सहायक सन्धि कौन सी थी?

इसे सुनेंरोकेंप्रथम सहायक संधि 1765 में अवध से की गई जब कंपनी ने निश्चित धन के बदले उसकी सीमाओं की रक्षा करने का वचन दिया और अवध ने एक अंग्रेज रेजिडेंट को लखनऊ में रखना स्वीकअर किया। नोट:यदि वेलेजली की सहायक संधि की बात की जाए तो हैदराबाद होगा।

अंग्रेजों से संधि करने वाली राजस्थान की प्रथम रियासत कौन सी थी?

इसे सुनेंरोकेंराजस्थान में अधीनस्थ पार्थक्य की नीति (1818 की संधि) को स्वीकार करने वाली पहली रियासत – करौली। (9 नवम्बर, 1817) अधीनस्थ पार्थक्य संधि स्वीकार करने के समय करौली का शासक – हरबक्षपालसिंह।

भारत में कितने सहायक संधि लागू किया?

इसे सुनेंरोकेंनिज़ाम ने सन् 1798 में लार्ड वेलेजली की सहायक संधि को स्वीकार किया था। ज्ञातव्य हैं कि अवध के नबाव ने नबम्वर 1801 मे, पेशवा बाजीराव द्वितीय ने दिसम्बर 1803, मैसूर तथा तंजौर ने 1799 में, बरार के भोसलें ने दिसम्बर 1803 में तथा ग्वालियर के सिंधिया ने फरवरी 1804, वेलेजली की सहायक संधि को स्वीकार किया।

सहायक संधि से क्या तात्पर्य है?

इसे सुनेंरोकेंसहायक संधि (Subsidiary alliance) भारतीय उपमहाद्वीप में लार्ड वेलेजली (1798-1805) ने भारत में अंग्रेजी राज्य के विस्तार के लिए सहायक संधि का प्रयोग किया। यह प्रकार की संधि है जो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और भारतीय रियासतों के बीच में हुई थी। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग फ्रांसीसी गवर्नर जनरल मार्किस डुप्लेक्स ने किया था।

आश्रित पार्थक्य की नीति क्या है?

इसे सुनेंरोकेंअधीनस्थ पार्थक्य की नीति (1813 – 1857) इस नयी नीति के तहत रियासतों ने अपनी समस्त बाह्य संप्रभुता कंपनी के अधीन कर दी। हालांकि अपने आंतरिक मामलों में वे पूर्ण स्वतंत्र थीं। रियासतों के प्रति कंपनी की नीति में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह किया गया कि उत्तराधिकार के मसले पर अब उसे कंपनी की स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक था।

सहायक संधि स्वीकार करने वाला प्रथम राज्य कौन था?

इसे सुनेंरोकेंयह प्रकार की संधि है जो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और भारतीय रियासतों के बीच में हुई थी। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग फ्रांसीसी गवर्नर जनरल मार्किस डुप्लेक्स ने किया था। लार्ड वेलेजली की सहायक संधि को स्वीकार करने वाला प्रथम भारतीय शासक हैदराबाद के निज़ाम था।

ब्रिटिश प्रशासनिक नीति (British Administrative Policies)

  • वी. सुब्रह्मण्यम के अनुसार वर्तमान प्रशासनिक प्रक्रिया का सिलसिला सदियों तक विचारों का रहा, न कि संस्थाओं का। संस्थागत सिलसिला अंग्रेजों के शासनकाल की देन है। भारतीय प्रशासन के विकास में मौर्यकाल, मुगलकाल तथा ब्रिटिशकाल का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

मौर्य प्रशासन 

  • मौर्य प्रशासन, भारतीय इतिहास में दिलचस्पी का विषय है। मौर्य प्रशासन का अध्ययन पूर्व प्रक्रियाओं के परिप्रेक्ष्य में ही किया जा सकता है, अर्थात इसकी स्थिति वैदिक कबायली संरचना और सामांतवादी युग के बीच की है।
  • मौर्यकाल में भारत ने पहली बार राजनीतिक एकता प्राप्त की तथा एक विशाल साम्राज्य पर मौर्य शासकों ने शासन किया। इस विशाल साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था पर प्रकाश डालने वाले अनेक ऐतिहासिक स्रोत उपलब्ध हैं।
  • कौटिल्य का अर्थशास्त्र, मेगस्थनीज की इंडिका, अशोक के शिलालेख व अनेक यूनानी रचनाओं से मौर्य शासन प्रणाली के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।

मुगल प्रशासन 

  • मुगल प्रशासन, जिसने प्रशासन को एक नयी दिशा दी,का अध्ययन निम्न बिन्दुओं के आधार पर करते हैं केन्द्रीय प्रशासन- प्रशासन के शीर्ष पर बादशाह होता था। वह सभी प्रकार के सैनिक एवं असैनिक मामलों का प्रधान होता था।
  • बादशाह मुगल साम्राज्य के प्रशासन की धुरी था बादशाह की उपाधि धारण करता था, जिसका आशय था कि राजा अन्य किसी भी सत्ता के अधीन नहीं है। वह समस्त धार्मिक तथा धर्मोत्तर मामलों में अंतिम निर्णायक व अंतिम सत्ताधिकारी है। वह सेना, राजनीतिक, न्याय आदि का सर्वोच्च पदाधिकार है। वह सम्पूर्ण सत्ता का केन्द्र है तथा खुदा का प्रतिनिधि है।
प्रान्तीय प्रशासन-
  • मुगल सम्राट बाबर ने अपने साम्राज्य का विभाजन जागीरों में किया था तथा उसके समय किसी प्रकार की प्रान्तीय प्रशासनिक व्यवस्था विकसित नहीं हुई थी। सबसे पहले पहले एकरूप प्रान्तो का निर्माण अकबर के शासनकाल में हुआ।
  • सन् 1580 में अकबर ने अपने साम्राज्य का विभाजन 12 प्रान्तों में किया, जिसकी संख्या शाहजहां के काल तक 22 हो गयी। अकबर की प्रशासनिक नीति प्रशासनिक एक रूपता तथा रोक और संतुलन के सिद्धांतों पर आधारित थी परिणामस्वरूप प्रान्तीय प्रशासन का ही प्रतिरूप था। प्रान्तीय प्रशासन का प्रमुख सूबादार/नजीम कहलाता था, जिसकी नियुक्ति बादशाह करता था।
स्थानीय प्रशासन-
  • प्रान्तों के विभाजन सरकार में होता था। सरकार से जुड़े हुए अधिकारी थे- फौजदार, अमालगुजार, खजानदार आदि। फौजदार शांति व्यवस्था की देख-रेख करता था और अमालगुजार भू राजस्व से जुड़ा अधिकारी था।
  • खजानदार सरकार के खजाने का संरक्षक होता था। कभी-कभी एक सरकार में कई फौजदार होते थे और कभी-कभी दो सरकारों पर एक फौजदार भी होता था।
  • सरकार का विभाजन परगनों में होता था। परगनों से जड़े अधिकारी सिकदार, आमिल, पोतदार, कानूनगों आदि थे। सिकदार शांति व्यवस्था का संरक्षक होता था और भू-राजस्व संग्रह में आमिल की सहायता करता था।
  • आमिल भू राजस्व प्रशासन से जुड़ा अधिकारी था। पोतदार, खजांची को कहा जाता था तथा कानूनगो गाँव के पटवारियों का मुखिया होता था और स्वयं कृषि भूमि का पर्यवेक्षण करता था।
  • सबसे नीचे ग्राम होता था जिससे जुड़े अधिकारी मुकद्दमे और पटवारी थे। मुगलकाल में ग्राम पंचायत की व्यवस्था थी। इस विभाजन के अतिरिक्त नगरों में कानून व्यवस्था की देख-रेख के लिए कोतवाल की नियुक्ति होती थी।
  • इसी तरह प्रत्येक किले पर किलेदार कीह नियुक्त होती थी। इस प्रकार मुगल प्रशासनकेन्द्रीय प्रशासन से लेकर गाँव तक शृंखलाबद्ध था।
मनसबदारी व्यवस्था-
  • अकबर के द्वारा स्थापित की गयी मनसबदारी पद्धति मौलिक रूप से एक प्रशासनिक सामरिक उपकरण थी, जिनका उद्देश्य अमीरों एवं सेना का एक सक्षम संगठन स्थापित करता था।
  • वस्तुतः मनसबदारी पद्धति की व्याख्या केन्द्रीकृत राजनैतिक ढाँचे के परिप्रेक्ष्य में की जा सकती है। इसके साथ साम्राज्य की शक्ति को एक चैनल में बांध दिया गया और अमीर-वर्ग, सेना तथा नौकरशाही तीनों को जोड़ दिया गया।
  • मुगल साम्राज्य के सभी पंजीकृत अधिकारियों को एक मनसब प्रदान किया गया, जो जोड़े के अंक में प्रस्तुत किया जाता था। प्रथम, संबधित अधिकारी के जात रैंक का बोध होता था तथा दसरे उसके सवार रैंक का बोध कराता था।
  • जात रैंक किसी भी अधिकारी का विभन्न अधिकारियों के पदानक्रम में पद और स्थान को निर्धारित करता था। दस सरी तरफ सवार रैंक उसके सैनिक उत्तरदायित्व को रेखांकित करता था।
जागीरदारी प्रथा-
  • वस्तुतः जागीरदारी पद्धति की स्थापना के पीछे साम्राज्य का एक व्यापक उद्देश्य था, जिसके द्वारा उन राजपूत जमींदारों से भू-राजस्व संग्रह करना सम्भव हो गया, जो सैनिक दृष्टि से शक्तिशाली थे और जाति, गोत्र के आधार पर विभाजित थे।
  • अकबर मनसबदारों का वेतन नकद में देना चाहता था, किन्तु उस समय के कुलीन वर्ग को भू-संपत्ति से जबर्दस्त आकर्षण था। इसलिए जागीरदारी प्रथा के अंतर्गत कुछ अधिकारियों को जागीर में वेतन दिया जाता था। दिल्ली सल्तनत काल में इक्तादारी पद्धति प्रचलित थी और इक्ता के मालिक इक्तादार कहे जाते थे।
  • इक्तादारी पद्धति भी कृषकों से अधिशेष प्राप्त करने का एक महत्वपूर्ण जरिया था किन्तु इक्ता और जागीर में एक महत्वपूर्ण अंतर यह था कि इक्ता में भूमि का आबंटन होता था जबकि जागीर में भू-राजस्व का आबंटन होता था।
  • जागीरदारी व्यवस्था और इकतादारी व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण अंतर यह भी था कि जागीरदारों को केवल भू-राजस्व की वसूली का अधिकार दिया गया था संबंधित क्षेत्र के प्रशासन का नहीं, जागीरदार को राजकीय नियमों के अनुरूप केवल प्राधिकृत राजस्व वसूलने का अधिकार था तथा प्रशासनिक कार्यो के लिए राज्य जिम्मेदार था।
  • यदि भू-राजस्व की वसूली में किसी प्रकार का व्यवधान उपस्थित होता, तो जागीरदार उस क्षेत्र के फौजदार से सैनिक सहायता भी प्राप्त कर सकता था।
  • जागीरदारी व्यवस्था के द्वारा प्रशासनिक केन्द्रीकरण का प्रयास हुआ था और नौकरशाही को ग्रामीण समुदाय पर आरोपित कर दिया गया था।

ब्रिटिश प्रशासनिक नीति

  • भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के आगमन के साथ ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के बीज पड़े। सन् 1600 में एक व्यापारिक कम्पनी के रूप में ईस्ट इंडिया कम्पनी का भारत में आगमन हुआ, किन्तु देखते ही देखते यह कम्पनी और इसके माध्यम से ब्रिटिश संसद का भारत पर साम्राज्य स्थापित हो गया।
  • कम्पनी के शासन की शुरूआत होने और उसकी शक्तियों में वृद्धि होने के साथ-साथ ब्रिटिश संसद का भी भारतीय प्रशासन सम्बन्धी मामलों में कम्पनी के माध्यम से अप्रत्यक्ष नियंत्रण प्रारम्भ हआ, जो कि 1857 की क्रांति के बाद कम्पनी शासन की समाप्ति और भारत में प्रत्यक्ष ब्रिटिश प्रशासनिक नीति की स्थापना में परिणत हो गया।
  • ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन की स्थापना के बाद ब्रिटिश संसद ने समय समय पर विभिन्न अधिनियम पारित करके कम्पनी के शासन पर नियंत्रण करने का प्रयास किया, जिनकी संक्षिप्त चर्चा निम्नांकित रूप में की जा सकती है-
केन्द्रीय कार्यकारिणी परिषद का विकास-
  • भारतीय संवैधानिक तथा ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के विकास में सन् 1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट का विशेष महत्व है। सरकार ने कम्पनी के आर्थिक, प्रशासनिक एवं सैनिक कार्यों पर संसद के आंशिक नियंत्रण के लिए यह अधिनियम पारित किया था।
  • इस अधिनियम के द्वारा बंगाल के गवर्ननर को कम्पनी के भारतीय प्रदेशों का गर्वनर जनरल बनाया गया तथा इसकी सहायता के लिए चार सदस्यों की एक परिषद की स्थापना की गयी।
  • ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के अंतर्सगत न् 1784 में पिट्स इंडिया एक्ट के माध्यम से गवर्नर जनरल की कौंसिल में सदस्यों की संख्या चार से घटाकर तीन कर दी गयी, साथ ही मद्रास तथा बम्बई प्रेसीडेंसियों पर गवर्नर जनरल के निरीक्षण एवं नियंत्रण के अधिकार अधिक स्पष्ट कर दिए गये। इस अधिनियम का उद्देश्य कम्पनी पर ब्रिटिश क्राउन का नियंत्रण बढ़ाना था।
  • ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के अंतर्सगत 1793 के अधिनियम से गवर्नर जनरल को अपनी कौंसिल की अनुशंसा को रद्द करने का अधिकार दिया गया। 1813 के चार्टर एक्ट द्वारा भारत में ब्रिटिश कम्पनी का व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया गया, लेकिन भू-राजस्व प्रशासन एवं भारतीय प्रशासन का कार्य कम्पनी के अधीन रहने दिया गया।
  • 1833 के चार्टर अधिनियम से बंगाल का गवर्नर भारत का गवर्नर जनरल कहलाने लगा। 1858 के अधिनियम’ द्वारा भारत पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के स्थान पर ब्रिटिश संसद के शासन की स्थापना हुई।
  • ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के अंतर्गत 1861 के अधिनियम द्वारा भारतीय प्रशासन में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गये। पहली बार प्रान्तीय विधायिकाओं की स्थापना हुई। 1892 के भारतीय परिषद अधिनियम के अन्तर्गत विधायिकाओं की सदस्य संख्या और शक्ति में वृद्धि हुई तथा प्रतिनिधि संस्थाओं की सिफारिशें पर मनोनीत किया जाने लगा।
  • 1909 के मार्ले-मिन्टो सुधारों द्वारा विधायिकाओं की सदस्य संख्या में वृद्धि हुई परन्तु बहुमत सरकारी सदस्यों का ही बना रहा। अधिनियम में अप्रत्यक्ष चुनाव पद्धति को अपनाया गया अर्थात् केन्द्रीय विधान परिषद में विभिन्न प्रान्तों से सदस्य चुनकर आने थे। इस अधिनियम का सबसे बड़ा दोष पृथक निर्वाचन व्यवस्था थी।
  • ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के अंतर्गत 1919 में मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार द्वारा वायसराय की कार्यकारिणी परिषद में भारतीयों को स्थान दिया गया। केन्द्रीय स्तर पर द्वि-संदनीय व्यवस्थापिका की स्थापना हुई। अधिनियम के द्वारा केन्द्र और राज्यों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन किया गया।
  • ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के अंतर्गत 1935 के भारत सरकार अधिनियम’ का भारत के संवैधानिक इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। इस अधिनियम ने भारत में संघात्मक व्यवस्था का सूत्रपात किया। इस संघ का निर्माण ब्रिटिश भारत के प्रान्तों, देशों राज्यों और कमिश्नरी के प्रशासनिक क्षेत्र को मिलाकर किया जाना था।
  • ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के अंतर्गतसंघ स्तर पर ‘द्वैध शासन-प्रणाली’ को अपनाया गया और प्रान्तों से द्वैध
  • शासन-प्रणाली का अन्त कर दिया गया। केन्द्रीय सचिवालय का विकास- स्वतंत्र भारत में केन्द्रीय सचिवालय औपचारिक रूप से 30 जनवरी, 1948 को स्थापित हुआ, लेकिन मूल रूप से केन्द्रीय सचिवालय अन्य प्रशासनिक संस्थाओं की भाँति ब्रिटिश शासनकाल की देन है।
  • ब्रिटिश काल में इसे “इंपीरियल सेक्रेटेरिएट” कहा जाता था। ब्रिटिश साम्राज्य के समय भारत में प्रशासनिक एकता स्थापित करने में केन्द्रीय सचिवालय की विशेषभूमिका थी। 
  • वित्तीय प्रशासन का विकास- भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासक स्थापित होने के बाद प्रान्तों को वित्त के सम्बन्ध में बहुत अधिक सीमा तक स्वतंत्रता दी गयी, किन्तु 1833 के चार्टर अधिनियम के द्वारा वित्त का केन्द्रीकरण कर दिया गया।
  • अधिनियम के द्वारा यह निश्चित किया गया कि किसी प्रान्तीय सरकार को नए पद तथा नए वेतन भत्ते की स्वीकृति का अधिकार नहीं होगा, जब तक कि गवर्नर जनरल की पूर्व स्वीकृति न मिल जाए।
  • पुलिस प्रशासन का विकास- ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के अंतर्गत सर्वप्रथम कार्नवालिस ने एक संगठित पुलिस व्यवस्था की शुरुआत की। उसने थाना व्यवस्था का आधुनिकीकरण किया तथा प्रत्येक क्षेत्र में एक पुलिस थाने की स्थापना कर उसे एक दरोगा के अधीन रखा।
  • जिला स्तर पर जिला पुलिस अधीक्षक के पद का सृजन किया गया। ग्राम स्तर पर चौकीदारों को पुलिस शक्ति दी गयी। इस तरह आधुनिक पुलिस व्यवस्था की शुरुआत हुई।
  • न्याय व्यवस्था का विकास- ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के अंतर्गत न्याय व्यवस्था में सुधार की दृष्टि से वारेन हेस्टिंग्स का काल महत्वपूर्ण है। भारत में ब्रिटिश न्याय प्रणाली की स्थापना इसी काल में हुई ब्रिटिश न्याय प्रशासन भारतीय और ब्रिटिश प्रणालियों तथा संस्थाओं का सम्मिश्रण था।
  • ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के अंतर्गत कानून के शासन तथा न्याय पालिका की स्वतंत्रता इस प्रणाली की विशेषता थी। वारेन हेसिटंग्स ने सिविल तथा फौजदारी मामलों के लिए अलग-अलग अदालतें स्थापित की। उसने न्याय सुधार में मुगल व्यवस्था को ही आधार बनाया।
  • सर्वप्रथम वारेन हेस्टिंग्स ने सिविल अदालतों की शृंखला स्थापित की। सबसे नीचे मुखिया, फिर जिले में जिला दीवानी अदालत तथा सबसे ऊपर कलकत्ता की सदर दीवानी अदालत थी। इसी तरह फौजदारी अदालतों का पुनर्गठन किया गया।
  • प्रत्येक जिले में एक फौजदारी अदालत स्थापित की गयी जो काजी, मुफ्ती एवं मौलवी के अधीन होती थी। इसके ऊपर कलकत्ता की सदर दीवानी अदालत थी।कार्नवालिस ने शक्ति पृथक्करण सिद्धान्त के अन्तर्गत लगान प्रबन्ध से दीवानी प्रशासन को पृथक कर दिया।
  • 1861 मे भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम पारित हआ तथा कलकत्ता एवं मद्रास में उच्च न्यायालय की स्थापना की गयी। आगे लाहौर, पटना आदि स्थानों पर भी उच्च न्यायालय स्थापित हुए। 1935 के भारत शासन अधिनियम के आधार पर एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गयी।
  • इस न्यायालय में एक प्रधान न्यायाधीश तथा सरकार द्वारा नियुक्त अन्य न्यायाधीश होते थे। न्यायालय के क्षेत्र में प्रारम्भिक एवं अपीलीय तथा परामर्श सम्बन्धी विषय थे। प्रान्तीय न्यायालयों को दीवानी, आपराधिक, वसीयती, गैर-वसीयती और वैवाहिक क्षेत्राधिकार मौलिक एवं अपीलीय दोनों प्रकार के प्राप्त थे।

सिविल सेवा (civil services)

  • ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के अंतर्गत कम्पनी का प्रशासन तथा बाद में ब्रिटिश प्रशासन का मुख्य आधार नागरिक सेवा बनी। सिविल सेवा को ब्रिटिश साम्राज्य के ‘इस्पात का चौखट’ ((Iro frame)) नाम से जाना जाता है।
  • ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के अंतर्गत प्रारम्भ में कम्पनी के डायरेक्टर्स अपने चहेतों को भारत भेजकर कम्पनी की सेवाएँ करवाते थे। कम्पनी के इन कर्मचारियों का वेतन कम था। वे लूट करते और रिश्वत लेते साथ ही अपना निजी व्यापार भी करते थे।
  • क्लाइव ने नागरिक सेवाओं की ओर ध्यान दिया। उसने कम्पनी के कर्मचारियों को निजी व्यापार करने और तोहफे लेने पर प्रतिबन्ध लगाया और सेवा के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर करने को कहा तभी से अनुबद्ध सेवाओं शब्द का प्रचलन हुआ। वारेन हेस्टिंग्स ने द्वैध शासन समाप्त कर प्रशासन प्रत्यक्ष रूप से कम्पनी के हाथों में कर लिया। किन्तु कर्मचारियों के भ्रष्टाचार को रोक नहीं पाया।
  • भारत में नागरिक सेवा के संगठन का वास्तविक श्रेय कॉर्नवालिस को दिया जाता है। उसने कर्मचारियों में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने के लिए प्रभावशाली कदम उठाए। वह भारतीयों से घृणा करता था और प्रत्येक को भ्रष्ट मानता था। अतः उसने सिविल सेवा का यूरोपीयकरण कर दिया।
  • कॉर्नवालिस ने जिले के कलेक्टर का वेतन 1500 रुपए मासिक निश्चित किया इसके अतिरिक्त कार्य में प्रोत्साहित करने हेतु जिले के वसूले गए लगाने का 1% कमीशन भी देना स्वीकार किया।
  • सर्वप्रथम लार्ड वेलेजली ने कम्पनी के प्रशासनिक कर्मचारियों एवं अधिकारियों की नौकरी में योग्यता एवं क्षमता बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था की।
  • इसके लिए वेलेजली ने 24 नवम्बर, 1800 में कलकत्ता में फोर्टविलियम कॉलेज की स्थापना की। कॉलेज में तीन वर्ष के प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई। यहाँ भारतीय कानून, भाषाओं और इतिहास का ज्ञान भी दिया जाता था। परंतु कम्पनी के डायरेक्टर्स इस व्यवस्था के विरोधी थे क्योंकि इससे उसके अधिकारों में कटौती होती थी।
  • अतः फोर्ट विलियम कॉलेज बंद कर 1805 सी.ई. में हरफोर्ड में ईस्ट इंडिया कॉलेज की स्थापना की जो 1809 सी.ई. में लंदन में हैलीबरी में स्थानांतरित कर दिया गया।
  • 1833 सी.ई. के चार्टर एक्ट की धारा 87 में पहली बार नागरिक सेवाओं के लिए योग्यता को आधार माना गया इसके लिए किसी धर्म, स्थान, वंश, रंग और भेद को स्वीकार नहीं किया गया।
  • ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के अंतर्गत 1834 सी.ई. में लार्ड मैकाले के नेतृत्व में एक समिति नियुक्त की गई जिसमें प्रतियोगिता व्यवस्था की बात की गई।
  • चार्ल्स वुड 1853 सी.ई. में बोर्ड ऑफ कंट्रोल का अध्यक्ष बना तथा 1853 के चार्टर एक्ट में नागरिक सेवा के द्वारा खुली प्रतियोगिता के आधार पर भारतीयों के लिए भी द्वार खोल दिए गए। इसके लिए आयु 23 वर्ष की गई। प्रतियोगिता इंग्लैंड में एवं अंग्रेजी भाषा के माध्यम से होती थी।
  • 1855 सी.ई. में सिविल सेवा प्रतियोगिता परीक्षा इंग्लैंड में शुरू की गई। 1863-64 सी.ई. में सत्येन्द्रनाथ टैगोर भारतीय सिविल सेवा में सफल होने वाले पहले भारतीय थे।
  • 1859 में प्रतियोगिता परीक्षा की आयु घटाकर 22 वर्ष कर दी गई। 1866 में इसे 21 वर्ष कर दिया गया तथा 1878 में लिटन के समय इसे 19 वर्ष कर दिया गया एवं न्यूनतम 17 वर्ष कर दिया गया।
  • लिटन के समय संवैधानिक लोक सेवा (Statutary Civil Services) की स्थापना साम्राज्यवादी दाँव-पेंच का परिणाम था। इस सेवा से संबंधित नियम 1879 में बने जिसके अनुसार उच्चकुल के भारतीयों को भारत सचिव की स्वीकृति से नियुक्ति की जानी थी। इनकी संख्या प्रतिज्ञावद्ध (Convenanted) सेवाओं की संख्या का 1/6 निर्धारित की गई। इस सेवाओं को अप्रतिज्ञावद्ध के समान कहा जा सकता है।
  • ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के अंतर्गत 1891 में इस पद्धति से प्रवेश रोक दिया गया क्योंकि यह लोकप्रिय नहीं हुई। प्रवेश परीक्षा की आयु घटाए जाने तथा इंग्लैंड में ही परीक्षा केन्द्र का होना भारतीयों के विरोध का प्रमुख कारण था।
  • सुरेन्द्र नाथ बनर्जी का विरोध और भारतीयों की माँग को देखते हुए लॉर्ड डफरिन ने 1886 सी.ई. में सर चार्ल्स एचिसन की अध्यक्षता में सिविल सेवा पर एक कमीशन का गठन किया इसे एचिसन कमीशन के नाम से जाना जाता है। इस कमीशन ने कुछ अधिक संख्या में उत्तरदायी पद भारतीयों को सौंपे जाने की अनुशंसा की।
  • इसके अतिरिक्त सेवाओं को दो भागों में विभक्त किया- इंडियन सिविल सर्विस तथा स्टेट सिविल सर्विस। इस प्रकार कोवेनेन्टेड तथा अनकोवेनेन्टेड सेवाओं का स्थान इंपीरियल एवं प्रोविन्शियल सेवाओं ने ले लिया।
  • 1893 सी.ई. में हाउस ऑफ कॉमन्स ने भारत और ब्रिटेन दोनों जगहों पर सिविल सेवा परीक्षा साथ-साथ होने से संबंधित विधेयक पारित किया।
  • ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के अंतर्गत 1912 सी.ई. में सिविल सेवा पर Royal Comission बनाया गया जिसके अध्यक्ष एसलिगटन थे। इसे एसलिगटन कमीशन भी कहा जाता है। उसने भारतीयों के लिए 25% स्थान सुरक्षित रखे जाने की अनुशंसा की।
  • मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट ने इसमें कुछ इजाफा किया और 33% उच्चतर सेवा के पद भारतीयों द्वारा भरे जाने की सिफारिश की।
  • भारतीय सिविल सेवा परीक्षा का इंग्लैंड एवं भारत में (इलाहाबाद) एक साथ आयोजन 1922 से शुरू हुआ।
  • 1923 सी.ई. ली कमीशन का गठन हुआ। इसने लोक सेवा आयोग के गठन की अनुशंसा की। 1925 सी.ई. में 5 सदस्यीय लोकसेवा आयोग का गठन किया गया।
  • सिविल सेवा के संदर्भ में हुए परिवर्तन भारतीय आवश्यकताओं के अनुकूल नहीं किए जा रहे थे बल्कि ब्रिटिश साम्राज्यवादी हितों की पूर्ति हेतु किए जा रहे थे। इसलिए स्वाभाविक था कि इसमें जनकल्याण एवं उदारवादी तत्त्वों पर बल नहीं दिया गया।

न्याय प्रशासन

  • 1765 सी.ई. में कम्पनी को बंगाल की दीवानी प्राप्त हुई तो उसने राजस्व एवं न्याय दोनों शामिल थे।
  • क्लाइव इतनी जिम्मेदारी कम्पनी पर डालना नहीं चाहता था और प्रशासन की दोहरी व्यवस्था अपनाते हुए राजस्व, सैनिक शक्ति तथा वैदेशिक संबंध अपने आप रखे तथा न्याय व्यवस्था भारतीयों के जिम्मे छोड़ दी। इस कार्य के लिए बंगाल और बिहार में दो नायब दीवान नियुक्त किए गए।
वारेन हेस्टिंग्स के समय सुधार
  • ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के अंतर्गत वारेन हेस्टिंग्स ने क्लाइव के द्वैध शासन को समाप्त कर दीवानी के समस्त दायित्व कम्पनी को दे दिए और भारत में ब्रिटिश न्याय प्रणाली की स्थापना की। कानून का शासन तथा न्यायपालिका की स्वतंत्रता इस प्रणाली की विशेषताएँ थी।
  • कानून के शासन’ का अर्थ था निरंकुश शक्ति के स्थान पर नियंत्रित और निश्चित विधि की स्वतंत्रता तथा कानून के सम्मुख सभी व्यक्तियों एवं वर्गों की समानता। स्वतंत्र न्याय व्यवस्था का अर्थ था- न्याय व्यवस्था में कार्यपालिका का हस्तक्षेप न होना तथा न्यायाधीशों की सुरक्षा।
  • हेस्टिंग्स ने दीवानी तथा फौजदारी मामलों के लिए अलग-अलग न्यायालयों का प्रबन्ध किया। प्रत्येक अदालत का कार्य क्षेत्र निर्धारित कर दिया। उसने मुगल व्यवस्था पर आधारित न्याय प्रणाली को अपनाने का प्रयत्न किया। 10 रुपये तक के मामलों में प्रधान या मुखिया निर्णय ले सकता था।
  • प्रत्येक जिले में एक दीवानी अदालत स्थापित की गई जिसकी- अध्यक्षता यूरोपीय कलेक्टर करता था यहाँ 500 रुपये तक के मामलों पर निर्णय किया जाता था। दीवानी मामलों में संपत्ति, वंशानुगत अधिकार, विवाह, जाति, किराया, साझेदारी आदि से संबंधित झगड़े आते थे।
  • दीवानी अदालत के ऊपर कलकत्ता में ‘सदर दीवानी अदालत’ स्थापित की गई। रेग्यूलेटिग एक्ट 1773 के द्वारा गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद के सदस्य अदालत के सदस्य के रूप में कार्य करते रहे।
  • आगे गवर्नर जनरल ने न्यायालय की कार्यवाही में भाग लेना बंद कर दिया और उसके द्वारा नियुक्त न्यायाधीश ही इन न्यायालयों में कार्य करने हेतु अधिकृत किए गए।
  • एलिजा इम्पे को इसका न्यायाधीश नियुक्त किया गया था। इसमें काजी, मुफ़्ती, मौलवी नियुक्त किए गए इसके अंतर्गत चोरी, हत्या, जालसाजी जैसे मामले आते थे। फौजदारी मामलों में केवल इस्लामी कानून प्रभावी थे और उन्हीं के आधार पर दंडित किया जाता था।
  • हेस्टिंग्स ने पुनः मुहम्मद रजा खाँ को नायब नियुक्त किया। उसने गवर्नर जनरल के निर्देश पर फौजदारी अदालतों का गठन किया और कुल मिलाकर 23 जिला फौजदारी न्यायालय बनाए गए। जिला स्तर पर न्याय प्रणाली कलक्टर द्वारा नियंत्रित थी किन्तु वह स्वयं न्यायालय का सदस्य नहीं था।
  • ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के अंतर्गत सबसे ऊपर ‘सदर निजामत अदालत’ बनाई गई। जिसमें दारोगा-ए-अदालत प्रधान काजी, प्रधान मुफ़्ती एवं तीन मौलवी स्थापित थे। सदर निजाम अदालत कुछ समय के लिए मुर्शिदाबाद से कलकत्ता लाई गई थी जिससे कम्पनी का अधिक नियंत्रण रहे।
  • हेस्टिंग्स के काल में 1773 के रेग्युलेटिग एक्ट द्वारा कलकत्ता में सर्वोच्च न्यायालय स्थापित किया गया। इसका कार्य क्षेत्र कलकत्ता नगर के नागरिकों तक ही सीमित था।
  • इसके बाहर के मामलों की इस न्यायालय में तभी सुनवाई हो सकती थी जब दोनों पक्ष इसके लिए तैयार हो। यहाँ अंग्रेजी कानून लागू होता था जबकि सदर दीवानी एवं सदर निजामत अदालत में मुस्लिम या हिन्दू कानून लागू होता था।
  • सदर दीवानी तथा सदर निजामत न्यायालयों के कार्यक्षेत्र सुप्रीम कोर्ट से टकराता था। जिसे सुलझाने के लिए हेस्टिंग्स ने एलिजा इम्पे को सुप्रीम कोर्ट एवं सदर दीवानी अदालत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया।
कॉर्नवालिस के समय सुधार
  • ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के अंतर्गत कॉर्नवालिस के समय न्याय व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण सुधार हुए। उसने 1793 सी.ई. में ‘कॉर्नवालिस कोड’ बनाया। यह ‘शक्तियों के पृथक्करण’ के सिद्धान्त पर आधारित था इसमें कर तथा न्याय प्रशासन को अलग कर दिया गया। कलेक्टर से न्यायिक तथा फौजदारी शक्तियाँ ले ली गई तथा जिला अदालतों के लिए जिला न्यायधीशों को नियुक्त किया गया।
  • संपूर्ण सिविल न्यायालयों का श्रेणीकरण कर दिया गया। सबसे निचले स्तर पर मुंशिफ की अदालत थी जिसमें 50 रुपए तक में मामलों को निपटाया जाता था, उसके ऊपर रजिस्ट्रार अदालतें थी जिन्हें 200 रुपए तक के मामलों को सुनने का अधिकार था और इस पर यूरोपीय न्यायाधीश नियुक्त किए जाते थे। इसके ऊपर नगर/जिला अदालतें होती थी।
  • जिला अदालतों के ऊपर 4 प्राँतीय अदालतें थीं जो कलकत्ता, मुर्शिदाबाद, ढाका और पटना में अवस्थित थी। यहाँ यूरोपीय न्यायाधीश की अध्यक्षता में 1000 रुपए तक के मामले सुने जाते थे। इसके ऊपर कलकत्ता में स्थित सदर दीवानी अदालत थी जिसमें गवर्नर जनरल एवं उसके पार्षद निर्णय लेते थे। इसके अंतर्गत 5000 रुपये तक के मामले सुने जाते थे।
  • सबसे ऊपर की अदालत ‘किग-इन-काउंसिल’ थी जो ब्रिटिश सम्राट की अदालत थी। इसे प्रीवी काउंसिल भी कहा जाता है और यहाँ 5000 रुपये से अधिक के मामले की अपील की जाती थी।

दीवानी अदालत का क्रम

  • मुंशिफ → रजिस्ट्रार → जिला न्यायालय → 4 प्राँतीय अदालतें → सदर दीवानी अदालत → प्रीवी काउंसिल
  • ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के अंतर्गत कॉर्नवालिस ने फौजदारी अदालतों में विभिन्न परिवर्तन किये। जिले में अंग्रेज न्यायाधीशों के नियंत्रण में जिला फौजदारी अदालत स्थापित की गई। इसके ऊपर 4 प्राँतीय फौजदारी न्यायालय स्थापित किए गए जो मुर्शिदाबाद, कलकत्ता, ढाका और पटना में थे।
  • ये भ्रमण करने वाली अदालतों के रूप में कार्य करती थी। इन्हें भी मृत्यदण्ड देने की अनुमति थीं परन्तु उसकी पुष्टि सदर निजामत अदालत द्वारा आवश्यक थी।
  • सदर निजामत अदालत’ को कलकत्ता में स्थापित किया गया था। यह भारत में फौजदारी मुकदमों का सर्वोच्च न्यायालय था।
  • ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के अंतर्गत कॉर्नवालिस ने न्यायप्रणाली की पश्चिमी धारणाओं व विचारों को लागू किया। दीवानी मुकदमों में जाति कानून अर्थात् हिन्दुओं के लिए हिन्दू कानून तथा मुसलमानों के लिए मुस्लिम कानून लागू किया गया।
  • फौजदारी मुकदमों में केवल मुस्लिम कानून प्रयोग में लाया गया। टॉमस मुनरों ने कॉर्नवालिस के न्यायिक सुधार की आलोचना की क्योंकि वह कृत्रिम और विदेशी थे। कॉर्नवालिस को न्यायिक सुधार में बालो एवं विलियम जोंस का सहयोग मिला।
बैंटिक कालीन सुधार
  • ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के अंतर्गत बैंटिक ने न्याय प्रणाली में महत्त्वपूर्ण सुधार किए। बैंटिक की न्यायिक सुधार की अवधारणा बेंथम और मिल की इंग्लैंड में लोकप्रिय उपयोगितावादी विचारधारा से प्रभावित थी। बैंटिक ने अपील और भ्रमण की चारों अदालतें समाप्त कर दी क्योंकि इन पर कम्पनी को अधिक रकम खर्च करनी पड़ती थी।
  • बैंटिक ने दंड-विधान की कठोरता को भी कम करने का प्रयत्न किया। अपराधियों को कोड़े लगवाने की प्रथा को समाप्त कर दिया गया।
  • यह सुधार बेंथम की इस विचारधारा पर आधारित था कि अपराधी को सजा सुधारने की दी जानी चाहिए बदला लेने के लिए नहीं।
  • कम्पनी का विस्तार पश्चिम में भी हो गया था इसलिए ‘आगरा’ प्राँत बनाया गया। न्याय के लिए आगरा में ही अपीली अदालत की स्थापना की गई क्योंकि कलकत्ता जाने में समय और धन दोनों का नुकसान होता था।
  • इसी उद्देश्य से बैंटिक ने इलाहाबाद (1832) में सदर दीवानी एवं सदर निजामत अदालत स्थापित की जिससे दिल्ली और पश्चिमी प्राँत में आसानी से न्याय प्रशासन चल सके। बैंटिक के समय अदालतों में फारसी भाषा के स्थान पर प्राँतीय भाषाओं का प्रयोग किया जाने लगा।
  • न्याय के क्षेत्र में सुधार कार्यक्रम को लागू करने में बैंटिक को मैकाले का सहयोग मिला। मैकाले की अध्यक्षता में एक विधि आयोग बनाया गया। उसने विधि के संहिताकरण का कार्य किया।
  • मैकाले की सबसे अधिक सफलता उसकी नई दण्ड संहिता थी 1853 सी.ई. के चार्टर एक्ट के तहत् दूसरा विधि आयोग बना। इसके परिणामस्वरूप 1859-61 के बीच दंडविधि, सिविल कार्यविधि तथा दंड प्रक्रिया पारित की गई।

पुलिस एवं सैन्य व्यवस्था

  • कॉर्नवालिस पहला गवर्नर जनरल था जिसने भारत में अंग्रेजी ढँग की पुलिस व्यवस्था कायम की। इस नई व्यवस्था का प्रारंभ 1792 सी.ई. से हुआ।
  • उसने समूचे इलाके को 400 मील के वर्ग में बाँटा और पुलिस स्टेशन की स्थापना एक दरोगा के नेतृत्व में की गई। जिले में पुलिस अधीक्षक की नियुक्ति की गई।
  • पुलिस का मुख्य कार्य चोर-डाकुँओं से माल की सुरक्षा और ठगों का विनाश करना था। साथ ही भारतीयों के दमन के लिए भी इनका प्रयोग किया गया।
  • सिध में 1843 सी.ई. में चार्ल्स नेपियर ने पुलिस व्यवस्था को और सुदृढ़ किया। उसने पुलिस कर्मियों की संख्या में वृद्धि की। पुलिस व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण सुधार लॉर्ड कर्जन के समय किए गए। उसके समय पुलिस अधिकारियों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई।
  • फ्रेजर की अध्यक्षता में कर्जन ने 1902 सी.ई. में एक फ्रेजर कमीशन की नियुक्ति की जिसमें पुलिस सुधार से संबंधित बातें कहीं गई। कर्जन के काल में पहली बार गुप्तचर व्यवस्था (I.D.) की स्थापना की गई।

सेना

  • अंग्रेजी भारतीय सेना का निर्माण 1748 सी.ई. में आरंभ हुआ। उस समय मेजर स्ट्रिंजर लारेंस ने मद्रास में भारतीय सैनिकों की एक छोटी टुकड़ी का निर्माण किया। इसी कारण मेजर स्ट्रेजर लारेंस को अंग्रेजी-भारतीय सेना का जनक कहा गया। सेना में नस्ली भेदभाव किया जाता था।
  • एक भारतीय को इस सेना में ऊँचे से ऊँचा प्राप्त होने वाला पद सूबेदार का था। डलहौजी बंगाल के तोपखाने को कलकत्ता से हटाकर मेरठ लाया। सेना का स्थायी केन्द्र शिमला को बनाया गया।
  • 1857 के विद्रोह के बाद डलहौजी ने भारतीय तत्वों को यूरोपीय तत्वों से संतुलित करने की कोशिश की। बंगाल की सेवा में भारतीय और अंग्रेज सैनिकों का अनुपात 2 रू 1 रखा तथा मद्रास और बम्बई की सेनाओं में यह अनुपात 5 रू 2 का रखा गया। तोपखाने पर पूर्णतः यूरोपीय सैनिकों का नियंत्रण कर दिया गया।
  • सेना को आपस में विभाजित करके संतुलित बनाए रखने हेतु विभिन्न जातियों एवं क्षेत्रें के आधार पर सैनिकों की भर्ती की जाने लगी। इस तरह सिक्खों, जाटों, गोरखों, बलूचियों तथा क्षेत्र के आधार पर कुमायूं रेजिमेंट, गोरखा रेजिमेंट आदि की स्थापना की गई।
  • अवध, बिहार, संयुक्त प्राँत जैसे क्षेत्रें के सैनिकों ने 1857 विद्रोह में बढ़ चढ़कर भाग लिया था उन्हें ‘गैर-लड़ाकू’ घोषित किया गया और सेना में उनकी संख्या कम कर दी गई।
  • दूसरी तरफ सिक्ख, गोरखा और पठानों को लड़ाकू जातियां घोषित किया गया और बहुत बड़ी संख्या में उनकी भर्ती की गई क्योंकि इन्होंने 1857 के विद्रोह को दबाने में अंग्रेजों की सहायता की थी।
  • डलहौजी ने तीन नए सैनिक कमांड स्थापित किए। पंजाब में पृथक सैनिक कमान स्थापित किया गया।
  • 1857 के विद्रोह के पश्चात् ‘जनरल पील’ की अध्यक्षता में एक आयोग बनाया गया और उसकी सिफारिशों को लागू किया गया। इसी क्रम में सेना का अनुपात 65,000 यूरोपीय एवं 1,40,000 भारतीय रखा गया। 1885 में यह संख्या बढ़कर 73,000 यूरोपीय तथा 1,54,000 भारतीय निर्धारित की।
  • कर्जन के समय 1901 सी.ई. में ‘द इम्पीरियल कैडेट कोर’ की स्थापना की गई जिसके द्वारा राजवंश या प्रतिष्ठित परिवारों के भारतीयों की सैनिक शिक्षा का प्रबंध किया गया।
  • 1902 सी.ई. में कर्जन ने लॉर्ड किचनर को भारत की सेना का सेनापति बनाया जिसने सैन्य सुधार किया।
  • किचनर ने सम्पूर्ण सेना को दो भागों में बाँटा- एक उत्तरी सेना जिसकी छावनी मूरी और दक्षिणी छावनी पूना में स्थापित की गई। इसी प्रकार ब्रिटेन के किम्बरले सैनिक स्कूल के आधार पर भारतीय सैनिक अधिकारियों की शिक्षा के लिए कोटा में एक सैनिक स्कूल खोला। सैनिकों की योग्यता की जाँच के लिए ‘किचनर टेस्ट’ लागू किया गया।

स्थानीय स्वशासन

  • 1687 सी.ई. में बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के निर्देश पर पहली बार नगर निगम (Municipal Corporation) की स्थापना मद्रास में हुई।
  • प्रेसिडेंसी नगरों के बाहर स्थानीय संस्थाओं को आरंभ 1842 सी.ई. के बंगाल अधिनियम से हुआ 1850 सी.ई. में यह अधिनियम सभी ब्रिटिश प्राँतों में लागू कर दिया गया। इस अधिनियम के द्वारा नगरपालिकाओं को अप्रत्यक्ष कर लगाने का भी अधिकार दिया गया।
  • लॉर्ड मेयो द्वारा 1870 सी.ई. में वित्तीय विकेन्द्रीकरण का प्रस्ताव लाया गया। इसके तहत् सरकार ने शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई जैसे स्थानीय विषयों का विकास स्थानीय संस्थाओं तथा स्थानीय करों द्वारा किया जाना तय हुआ।
  • 1871 सी.ई. में ‘बंगाल सेस एक्ट’ (उपकर अधिनियम) द्वारा ग्रामीण क्षेत्रें में स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं का विकास हुआ।
  • बंगाल में सेस (cess) लगाने की प्रक्रिया की कड़ी आलोचना हुई क्योंकि कहा गया कि यह स्थायी बन्दोबस्त का उल्लंघन है। लॉर्ड रिपन को भारत में स्थानीय स्वायत्त शासन का जनक कहा जाता है।
  • 1852 सी.ई. का उसका प्रस्ताव स्थानीय स्वशासन के विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।
  • इसके तहत यह निश्चित किया गया कि स्थानीय स्वशासन की सभी ईकाईयों में गैर सरकारी सदस्यों का बहुमत रखा जाए और जहाँ कहीं संभव हो सदस्यों के निर्वाचन की व्यवस्था रखी जाए।
  • लॉर्ड कर्जन के समय स्वायत्त शासन की गति मंद पड़ गई क्योंकि उसने 1899 सी.ई. में कलकत्ता कॉरपोरेशन एक्ट के माध्यम से इन संस्थाओं पर सरकारी नियंत्रण बढ़ा दिया। 1919 सी.ई. के भारत शासन अधिनियम में स्थानीय शासन को एक हस्तांतरित विषय की सूची में डालकर भारत मंत्रियों के हाथों में दे दिया गया।

वित्तीय प्रशासन

  • 1858 के महारानी विक्टोरिया की घोषणा से EIC का शासन समाप्त हो गया और इंग्लैंड का सीधा शासन प्रारंभ हुआ। इस घोषणा के द्वारा भारत की वित्तीय प्रणाली में परिवर्तन लाए गए। अब भारत सचिव तथा उसकी काउंसिल का भारतीय वित्त पर सर्वोच्च नियंत्रण स्थापित हुआ।
  • ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के अंतर्गत इंडिया काउंसिल की स्वीकृति के बिना भारतीय धन खर्च नहीं किया जा सकता था। 1860 सी.ई. में कैनिग के काल में ‘बजट’ (Budget) प्रणाली की शुरूआत हुई। इसमें विभिन्न मदों के अंतर्गत राजस्व के खर्च करने की व्यवस्था थी।
  • 1860 में ही ‘आयकर’ (income tax) की शुरूआत हुई परंतु 1865 में इसे समाप्त कर दिया गया। पुनः 1869 सी.ई. में एक सामान्य आयकर की शुरूआत हुई किन्तु जल्द ही उसका भी अंत कर दिया गया।
  • 1886 सी.ई. में कृषि को छोड़कर सभी प्रकार की आमदनी पर आयकर लागू किया गया। वित्त पर 1886 सी.ई. में एक आयोग बना जिसे ‘मेर्स्टन एर्वाड’ के नाम से जाना जाता है।
  • 1893 सी.ई. में सरकार ने मुद्रा पर एक ‘हर्शेल समिति’ गठित की। जिसकी सिफारिश के अनुसार भारतीय टकसालों से जनता के लिए अत्यधिक सोने तथा चाँदी के सिक्कों को ढालना बंद कर दिया गया।
  • सर्वप्रथम मद्रास के फ्रेडरिक निकोल्सन नामक ब्रिटिश ने सहकारी संस्थाओं के लिए एक सुझाव दिया। इसी के नाम पर 1892 सी.ई. में एक निकोल्सन समिति की स्थापना की गई।
  • कर्जन के समय 1904 सी.ई. में सहकारी उधार कानून (Co-operative Credit Societies Act) पारित हुआ जिसके द्वारा सहकारी समितियों की स्थापना करके किसानों को उचित ब्याज पर रुपया कर्ज देने की व्यवस्था की गई। 1914-15 में सहकारी आंदोलन पर ‘मैक्लागन समिति’ गठित की गई।

अकाल एवं कृषि नीति

  • ब्रिटिश सरकार की भू राजस्व नीति, व्यापारिक नीति, औद्योगिक नीति, कृषि का वाणिज्यिीकरण आदि ने भारत में अकाल की स्थिति पैदा की। 1757-1857 सी.ई. के कम्पनी के 100 वर्षों के शासन में 12 बार अकाल पड़े। इस दौरान लाखों लोग मारे गए।
  • बंगाल के द्वैध शासन का एक दुष्परिणाम अकाल के रूप में भी सामने आया और अकाल के दौरान कंपनी अकाल पीडि़तों की सहायता के संदर्भ में कोई प्रयास नहीं करती थी।
  • कम्पनी शासन के दौरान पहला अकाल 1769-70 सी.ई. में पड़ा जिसमें बंगाल, बिहार और उड़ीसा की एक-तिहाई आबादी काल कवलित हो गई।
  • 1792 सी.ई. में मद्रास क्षेत्र में पुनः अकाल पड़ा। इस अवसर पर कम्पनी ने अकाल पीडि़तों के सहायतार्थ कुछ कायर् किया। 1860-61 सी.ई. में कर्नल बेसर्ड की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई, जो बार-बार अकाल पड़ने के कारणों एवं उससे निपटने के उपाय सुझाने के उद्देश्य से बनाई गई थी। परंतु यह समिति कोई निश्चित कार्य न कर सकी।
  • 1866 सी.ई. में उड़ीसा क्षेत्र में भीषण अकाल पड़ा इसमें 10 लाख लोगों की जानें गईं। इस अकाल के पश्चात् 1866 सी.ई. में जॉर्ज कैम्पबेल की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की गई। इसमें पहली बार यह स्वीकार किया गया कि राहत सेवा सरकार की जवाबदेही है।
  • अकाल को रोकने के लिए सरकार को रेलों और नहरों की स्थापना करनी चाहिए। अकाल की व्यवस्था के देखभाल का उत्तरदायित्व जिलाधीशों का है और जनता को सहायता देने का उत्तरदायित्व मात्र समाजसेवी संस्थाओं का न होकर सरकार का भी है।
  • गवर्नर जनरल वायसराय लॉर्ड लिटन के समय 1876-78 सी.ई. में मद्रास, बम्बई, हैदराबाद, पंजाब और मध्य भारत के अधिकाँश भागों में अकाल पड़ा। जिसमें लगभग 50 लाख लोग मारे गए। इसलिए लॉर्ड लिटन ने 1878 सी.ई. में रिर्चड स्ट्रेची की अध्यक्षता में एक ‘अकाल आयोग’ नियुक्त किया जो प्रथम अकाल आयोग था।
कृषि
  • कर्जन के काल में कृषि संबंधी सुधार कार्य किए गए। कर्जन ने सिचाई सुधार हेतु 1901 सी.ई. में कॉलिन स्कॉट मानक्रीफ की अध्यक्षता में एक सिचाई आयोग की नियुक्ति की। इसने सिचाई के साधनों में विकास के लिए अगले 20 वर्षों में 44 करोड़ रुपया व्यय करने की सिफारिश की।
  • कर्जन ने कमीशन की सिफारिश को स्वीकार किया और सर्वप्रथम उसने पंजाब में सिचाई के साधनों में विकास किया। पंजाब में चिनाब नहर, झेलम नहर, दोआब नहर आदि का निर्माण उसी के काल में हुआ।
  • 1900 सी.ई. में कर्जन ने ‘द पंजाब लैंड एलिनिएशन एक्ट’ बनाया। जिसमें कहा गया कि बिना सरकार की अनुमति के कोई साहूकार कर्ज के बदले में किसी भी किसान की भूमि पर अधिकार नहीं कर सकता।

ब्रिटिश परमसत्ता का विकास

  • एक राजनैतिक शक्ति पर दूसरी राजनैतिक शक्ति का कूटनीतिक नियंत्रण व प्रभुत्व इसका आधार है। भारतीय रियासतों की संख्या 562 थी और इसके अधीन लगभग 7,12,508 वर्ग मील के क्षेत्र था।
  • 1740 से पहले अंग्रेज कम्पनी एक व्यापारिक कम्पनी थी। 1740 के पश्चात् फ्राँसीसी गवर्नर जनरल डूप्ले ने भारतीय रियासतों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कर राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने का प्रयत्न किया। तब डूप्ले से प्रेरणा लेकर अंग्रेज कम्पनी ने भी भारत में अपना राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयत्न आरम्भ किया। इस प्रकार का पहला प्रयत्न 1751 सी.ई. में क्लाइव द्वारा अर्काट का घेरा डालना था।
घेरे की नीति (1765-1813)
  • इस काल में कम्पनी ने अपने राज्य के चारों ओर मध्य राज्य (Bfufer State) बनाने का प्रयत्न किया। इस नीति का
  • आधार यह था कि अपने पड़ोसी राजाओं की सीमाओं की रक्षा करों, ताकि अपनी सीमाँए सुरक्षित रहें। इस समय भय मुख्यतः अफगानों एवं मराठों से था।
  • अतः इनसे अपनी रक्षा के लिए कम्पनी ने अवध की रक्षा का भार अपने ऊपर इस शर्त के तहत लिया कि अवध का नवाब इस रक्षा के व्यय का बोझ उठाये। इस प्रकार कम्पनी ने अवध की रक्षा कर अपने बंगाल की रक्षा की। इस प्रकार कम्पनी ने अवध को एक ‘बफर राज्य’ के रूप में परिवर्तित कर दिया।
  • लार्ड वेलेजली ने भारतीय रियासतों को अपने रक्षार्थ कम्पनी पर निर्भर रहने के लिए बाध्य किया। उसने फ्राँसीसियों के प्रभाव से भारत को मुक्त करने एवं कम्पनी की सत्ता को सर्वोपरी बनाने हेतु सहायक संधि प्रणाली (subsidiary alliance) आरम्भ की। वैसे इस प्रणाली का वास्तविक जन्मदाता डूप्ले था।
अधीनस्थ पार्थक्य की नीति (1813-58 सी.ई.)
  • लार्ड हेस्टिग्स ने भारत में ब्रिटिश सर्वश्रेष्ठता के सिद्धांत का विकास किया। कम्पनी की सम्प्रभुता स्थापित करने की दृष्टि से देशी राज्यों के आपसी विरोधों को अधिक मुखर किया गया, जिससे वे कम्पनी के विरूद्ध संगठित न हो सके।
  • रेजीडेंट के माध्यम से अंग्रेजों का व्यवहार राज्यों के प्रति तानाशाहों जैसा हो गया, जिससे व्यापक प्रशासनिक अव्यवस्था का दौर शुरू हुआ। अंग्रेजों ने अव्यवस्था (कुशासन) को आधार बनाकर भी राज्यों का विलय किया।
  • 1813 के चार्टर एक्ट द्वारा कम्पनी का व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया गया अतः अब बड़े रोजगार हेतु बड़े, क्षेत्र की जरूरत थी। 1833 के चार्टर एक्ट के अनुसार कम्पनी का स्वरूप ही बदल गया।
  • कम्पनी को अब केवल राजनैतिक कार्य ही करना था। 1834 में कम्पनी के डायरेक्टरों ने यह निश्चय किया कि जहाँ कहीं और जब कभी सम्भव हो सके रियासतों का विलय होना चाहिए।
  • अंग्रेजी नीति के परिणामस्वरूप सन् 1817 से 1823 के मध्य कोटा, उदयपुर, बूँदी, किशनगढ़, बीकानेर, जयपुर, बाँसवाड़ा, डूँगरपुर, सिरोही आदि राज्यों पर ब्रिटिश संरक्षण स्थापित हो गया। इन राजपूत राज्यों पर ब्रिटिश संरक्षण स्थापित हो गया। इन राजपूत राज्यों से संधि के लिए ब्रिटिश रेजीडेंट चार्ल्स मेटकाफ को नियुक्त किया गया था। लार्ड डलहौजी के समय यह नीति अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी उसने व्यपगत सिद्धांत, कुशासन के आरोप में भारतीय राज्यों को मिलाया।
अधीनस्थ संघ की नीति (1858-1935)
  • ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के अंतर्गत 1858 में ब्रिटिश सम्राट द्वारा सीधे भारत के शासन का उत्तरदायित्व संभाल लिया गया। महारानी विक्टोरिया ने घोषणा की फ्हम भारत के स्थानीय राजाओं को यह घोषित करते हैं कि हम उन सभी संधियों तथा प्रतिज्ञा पत्रें को स्वीकार करते हैं, जो ईस्ट इंडिया कम्पनी अथवा उनकी ओर से की गई थी।
  • यह नवीन नीति स्पष्टतः उस राजभक्ति का परिणाम थी जो इन रियासतों के राजाओं ने 1857 के विद्रोह के समय प्रदर्शित की थी। इस नवीन नीति के अनुसार शासक के कुशासन के लिए दण्डित किया जाए और आवश्यकता पड़ने पर उसे गद्दी से उतार दिया जाय परन्तु राज्य का विलय नहीं किया जाय।
  • यह स्पष्ट कर दिया गया कि शासक का गद्दी पर पैतृक अधिकार नहीं था। भारतीय राजा को राज्य का प्रभुत्व नहीं वरन् उसका प्रशासन चलाने का कार्य सौंपा जाता था। इस काल में महत्त्वपूर्ण स्थानों को रेल, तार द्वारा एक-दूसरे से जोड़ दिया गया।
नरेन्द्र मण्डल (राजाओं की परिषद ) 1921
  • भारत में बढ़ती हुई राजनैतिक व्यग्रता के कारण भारत सरकार ने देशी रियासतों के साथ सौहार्द्रपूर्ण संबंध बनाने का प्रयत्न किया। अतः 1905 से रियासतों के प्रति सरकार की नीति सहयोग एवं सौहार्द्र की रही।
  • 1876 में लार्ड लिटन ने यह सुझाव दिया कि भारतीय राजाओं की एक अन्तः परिषद गठित की जाय ताकि ये लोग वायसराय के साथ सामूहिक हितों के मामलों पर विचार-विमर्श कर सके। किन्तु इंग्लैण्ड में यह सुझाव स्वीकृत न हो सका।
  • आगे चेम्सफोर्ड सुधारों में इस सुझाव को मान्यता दी गई और इस आधार पर 1921 में ‘नरेन्द्र मण्डल’ की स्थापना की गयी।
  • यह नरेन्द्र मण्डल अंग्रेजों के अनुग्रह से निर्मित्त संस्था थी। यह एक सलाहकारी और परामर्श देनेवाली संस्था थी। इसकी किसी रियासत के आंतरिक मामलों में कोई हस्तक्षेप नहीं था।
  • नरेन्द्र मण्डल ने लार्ड इरविन से रियासतों एवं ब्रिटिश सरकार के मध्य संबंधों का पूर्ण परीक्षण व परिभाषा पर बल दिया। अतः 1927 में हरकोर्ट बटलर की अध्यक्षता में बटलर कमेटी की नियुक्ति इसी उद्देश्य से की गई।
बटलर समिति की मुख्य बातें
  1. सर्वश्रेष्ठता सर्वोच्च ही रहनी चाहिए, इसे बदलती हुई परिस्थिति के अनुसार अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करना चाहिए।
  2. राजनीतिक अधिकारियों की भर्ती एवं शिक्षा का प्रबंध अलग से हो।
  3. ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों के बीच आर्थिक संबंधों की जाँच करने के लिए एक समिति की नियुक्ति की जाय।
समान संघात्मक नीति 1935-1947
  • ब्रिटिश प्रशासनिक नीति के अंतर्गत 1935 के भारत शासन अधिनियम के अनुसार भारतीय राज्यों का एक ढीला-ढाला संघ बनाने की व्यवस्था की गई। समस्त भारत के संघ की संघीय विधानसभा में देशी रियासतों को 325 में से 125 स्थान दिये गये। राज्य विधान परिषद के 260 में से 104 स्थान इन रियासतों को प्रदान किए गये।
  • यह संघ तभी अस्तित्व में आ सकता था, जब उन रियासतों की जनसंख्या भारतीय राज्यों की जनसंख्या के आधे से कम न हो। तथा शामिल होने वाले रियासतों की संख्या इतनी हो कि जिन्हें कैंसिल ऑफ स्टेट्स में 52 प्रतिनिधि भेजने का अधिकार हो। यह संघ अस्तित्व में नहीं आ सका क्योंकि पर्याप्त रियासतों ने संघ में सम्मिलित होना स्वीकार नहीं किया।

ब्रिटिश: विदेश नीति

आंग्लनेपाल संबंध (1814-1816)
  • नेपाल पहला पड़ोसी देश था जिसका अंग्रेजों से युद्ध हुआ। आंग्ल-नेपाल युद्ध 1814 में गवर्नर जनरल लार्ड हेस्टिंग्स के समय लड़ा गया। वस्तुतः 1801 में अवध के साथ की गयी सहायक संधि से अंग्रेजों को गोरखपुर जिला प्राप्त हुआ। फलतः अब अंग्रेजों एवं नेपाल सीमाएँ टकराने लगी।
  • लार्ड मिन्टो के समय (1807-13) ब्रेडशा नामक अंग्रेज प्रतिनिधि नेपाल गया जहाँ उसकी नेपालियों से अनबन हो गयी। बुटवल एवं शिवराज जिले पर नियंत्रण को लेकर कम्पनी एवं नेपालियों के बीच संघर्ष छिड़ गया। ये जिले सीमा पर थे और अधिकार कर लिया था। कुछ समय बाद अंग्रेजों ने इन जिलों पर अधिकार कर लिया था।
  • फलतः मई, 1814 में गोरखों ने बुटवल जिले की अंग्रेज पुलिस चौकी पर हमलाकर दिया। फलतः गवर्नर जनरल लार्ड हेस्टिंग्स ने अक्टूबर, 1814 में युद्ध की घोषणा कर दी।
  • लार्ड हेस्टिंग्स ने स्वयं युद्ध की योजना बनाई। पाँच तरफ से नेपालियों पर आक्रमण किये गये। लुधियाना की ओर से आक्टर लोनी, मेरठ से जनरल जिलेस्पी को, गढ़वाल से जनरल मारले, काठमाँडू की तरफ एवं पूर्णिया से मेजर लेटर को भेजा गया।
  • देहरादून के पास कलंगा दुर्ग के घेरे में जनरल जिलेस्पी मारा गया। नेपाली सेनापति अमरसिह थापा का मुकाबला ऑक्टरलोनी से हुआ। अंततः दोनों के बीच सुगौली की संधि हुई।
सुगौली की संधि (मार्च 1816)
  • सुगौली बिहार के चम्पारण जिले में स्थित है। अंग्रेजों को गढ़वाल एवं कुमायूँ के जिले तथा तराई प्रदेश का बड़ा भाग प्राप्त हुआ।
  • राजधानी काठमाण्डू में अंग्रेज रेजीडेन्ट रखा गया। सिक्किम को नेपाल से आजाद कर दिया गया। अंग्रेजों ने नेपाल को स्वतंत्र राज्य का दर्जा प्रदान किया। दोनों राज्यों की सीमाएँ निश्चित हो गईं।
आंग्लबर्मा संबंध
  • 1758 में आलोम्परा के नेतृत्व में एक शक्तिशाली बर्मा राजतंत्र की स्थापना हुई, जिसकी राजधानी आंबा थी। बर्मियों के कम्पनी राज्य की पूर्वी सीमाओं की ओर प्रसार के कारण अंग्रेज एवं बर्मा के बीच संघर्ष आवश्यक प्रतीत होने लगे।
  • 1822 में बर्मा ने असम को जीत लिया और सितम्बर 1823 में चटगाँव के निकट कम्पनी के शाहपुरी द्वीप पर कब्जा कर लिया। फलतः गवर्नर जनरल लार्ड एम्हर्स्ट ने 24 फरवरी 1824 को युद्ध की घोषणा कर दी।
प्रथम आंग्लबर्मा युद्ध (1824-26)
  • प्रथम आंग्ल-बर्मा युद्ध गवर्नर जनरल लार्ड एम्हर्स्ट के समय हुआ। बर्मी सेनापति महाबुंदेला ने अंग्रेजी सेना को चटगाँव के निकट पराजित किया किन्तु 11 मई, 1824 को अंग्रेज कमाण्डर कैम्पबेल ने रंगून पर कब्जा कर लिया और बुंदेला मारा गया।
  • कैम्पबेल ने 1825 में दक्षिणी बर्मा (निचले बर्मा) की राजधानी प्रोम पर अधिकार कर लिया और जब ब्रिटिश सेना बर्मा की राजधानी यांडूब से 6 मील दूर थी तभी बर्मियों ने संधि प्रस्ताव रखा। अतः अंग्रेजों ने संधि कर ली।
याण्डूब की संधि (24 फरवरी, 1826)
  • बर्मा ने अराकान, तेनसिरम के जिले अंग्रेजों को दिए। शाहपुरी द्वीप पर अंग्रेजों का आधिपत्य रहा। असम, कहार व जैतिया पर अंग्रेजों का अधिकार माना गया।
  • मणिपुर की स्वतंत्रता स्वीकार की गयी। एक अंग्रेज रेजीडेन्ट बर्मा की राजधानी आंवा में रहेगा। बर्मा ने एक करोड़ रुपये युद्ध हर्जाने के रूप में देना स्वीकार किया।
द्वितीय बर्मा युद्ध (1852-53)
  • द्वितीय बर्मा युद्ध गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी के समय लड़ा गया। वस्तुतः 1839 में बर्मा का शासक थारावदी हुआ, उसने यांडूब की संधि को अस्वीकार कर दिया। द्वितीय बर्मा युद्ध का मुख्य कारण व्यापारिक झगड़ा था। वस्तुतः अंग्रेज व्यापारी मनमाने तौर-तरीके अपना रहे थे, फलतः बर्मियों ने अनेक अंग्रेजों को दण्डित किया।
  • 1949 में डलहौजी गवर्नर जनरल बनकर भारत आया, वह साम्राज्यवादी था और विस्तार का कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहता था।
  • जब बर्मा के अंग्रेज व्यापारियों ने शिकायत की तो डलहौजी ने लैम्बर्ट के नेतृत्व में फ्रौक्स, प्रोसपाइन एवं तिनासिरिम नामक तीन युद्धपोत बर्मा भेजा।
  • लेम्बर्ट ने बर्मा के राजा का जहाज पकड़ लिया। अतः डलहौजी ने जनरल गाडविन के नेतृत्व में सेना भेजी। 2 अप्रैल, 1852 को गाडविन ने रंगून, पेगू और प्रेम पर कब्जा कर लिया। इस प्रकार अंग्रेजों ने लोअर बर्मा अथवा पेगू (दक्षिणी बर्मा) को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया।
तृतीय आंग्लबर्मा युद्ध (1885-86)
  • तृतीय आंग्ल-बर्मा युद्ध लार्ड डफरिन के काल में हुआ। अंग्रेज राजनीतिक प्रतिनिधि के अधिकारों, व्यापारिक एकाधिपत्य और विभिन्न-अधिकारों को लेकर बर्मा दरबार एवं अंग्रेजों में झगड़े होने लगे। साथ ही शिष्टाचार के संबंध में ‘जूते का प्रश्न’ विवाद का कारण बना।
  • इस युद्ध का आरंभ एक व्यापारिक कम्पनी ‘बम्बई-बर्मा व्यापारिक कॉरपोरेशन’ के झगड़े के कारण हुआ। इस कम्पनी ने भ्रष्टाचार किया। अतः बर्मा सरकार ने जुर्माना किया। अंततः युद्ध छिड़ गया और लार्ड डफरिन ने 1886 को सम्पूर्ण बर्मा को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित कर लिया।
  • 1935 में बर्मा को भारत से अलग कर दिया गया और 4 जनवरी, 1948 को इसे पूर्ण रूप से आजाद कर दिया गया।
आंग्ल अफगान संबंध
  • 19वीं सदी के आरंभ में पूर्व की ओर रूस की प्रगति ने अंग्रेजों को अपने भारतीय साम्राज्य की सुरक्षा के प्रति चिन्तित कर दिया। भारतीय साम्राज्य की सुरक्षा हेतु अफगानिस्तान के प्रति अंग्रेजों के बीच दो तरह की विचारधाराएँ बनी।
  1. अग्रगामी नीति (Forward School): इस नीति के अनुसार, रूस निश्चित रूप से भारत पर आक्रमण करना चाहता है। अतः भारत सरकार को आगे बढ़कर उसका मुकाबला करना चाहिए। चूँकि फारस एवं अफगानिस्तान भारत के सीमावर्ती राज्य थे अतः उनसे संधियाँ करनी चाहिए और अपनी पसन्द का शासक वहाँ बनाना चाहिए। इसके लिए यदि जरूरत हुई तो अफगानिस्तान के साथ संघर्ष भी किया जाय।
  2. महान अकर्मण्यता की नीति (School fo Msaterly Inactivity): इस नीति समर्थकों का विचार था कि रूस भारत से बहुत दूर है, अतः भारत सरकार के लिए भय का कोई कारण नहीं है। पूर्व की अोर रूस की प्रगति को रोकने के लिए यह आवश्यक है कि ब्रिटेन यूरोप में ही रूस के साथ कोई समझौता करे। अफगानिस्तान के मसले पर भारत सरकार कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी। वहाँ के प्रत्येक शासक को स्वीकार करेगी। इस नीति के पक्षधर जॉन लारेन्स (1864-69), लार्ड मेयो एवं नार्थब्रुक थे।
प्रथम आंग्लअफगान युद्ध (1838-1842)
  • प्रथम आंग्ल-अफगान युद्ध की घोषणा अक्टूबर, 1838 में गवर्नर जनरल लार्ड ऑकलैण्ड ने की। अहमदशाह अब्दाली ने अफगानिस्तान में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की थी। उसके बाद वहाँ की आन्तरिक स्थिति संघर्षपूर्ण हो गयी।
  • जमानशाह (1793-180) के बाद अब्दाली का पौत्र शाहशुजा 1800 सी.ई. में अफगानिस्तान का शासक बना। परंतु उसके भाई दोस्त मुहम्मद ने 1809 में उसे अपदस्थ कर दिया।
  • 1836 में ऑकलैण्ड भारत का गवर्नर जनरल बना। उसने कैप्टन अलेक्जेंडर बर्न्स को नाम के लिए व्यापारिक किन्तु वास्तव में राजनीतिक उद्देश्य से अफगानिस्तान भेजा। उसी अवसर पर एक रूसी प्रतिनिधि कैप्टेन विटकेविच भी अफगानिस्तान गया था। अफगान शासक दोस्त मुहम्मद ने पहले तो बर्न्स का स्वागत किया और प्रार्थना की कि अंग्रेज उसे रणजीत सिह से पेशावर वापस दिलवा दे।
  • अंग्रेजों ने दोस्त मुहम्मद की इस प्रार्थना को स्वीकार नहीं किया। फलस्वरूप दोस्त मुहम्मद ने निराश होकर रूस की तरफ हाथ बढ़ाया। अतः बर्न्स को अफगानिस्तान छोड़ना पड़ा।
  • दोस्त मुहम्मद को हटाकर शाहशुजा को अफगानिस्तान का शासक बनाने हेतु ऑकलैण्ड ने जून, 1838 में शाहशुजा एवं रणजीत सिह के साथ मिलकर एक त्रिदलीय संधि की। तत्पश्चात अक्टूबर, 1838 में युद्ध की घोषणा ऑकलैण्ड ने कर दी।
  • संधि के क्रियान्वयन हेतु ऑकलैण्ड ने जॉन कीन को सेनापति नियुक्त किया, जिसने शाहशुजा को 1840 में अफगानिस्तान का शासक बना दिया।
  • मैकनाटन को शाहशुजा का मुख्य सलाहकार एवं अंग्रेज प्रतिनिधि बनाकर भेजा गया। अलेक्जेण्डर बर्न्स को उसका सहायक नियुक्त किया गया तथा एलफिन्सटन के नेतृत्व में एक सेना तैनात की गयी। शाहशुजा अफगानों में लोकप्रिय नहीं था।
  • अतः नवम्बर, 1841 में अफगानों ने दोस्त मुहम्मद के पुत्र अकबर खाँ के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया और अलेक्जेण्डर बर्न्स को मार डाला। अतः मजबूर होकर मैकनाटन को दिसम्बर, 1841 में अकबर खाँ के साथ अपमानजनक संधि करनी पड़ी।
1842-1876 सी.ई. तक आंग्लअफगान संबंध
  • फरवरी, 1842 में ऐलनबरो भारत का गवर्नर जनरल बना। उसने एक सेना गजनी और काबुल भेजी। गजनी से सोमनाथ मंदिर के तथाकथित दरवाजे को लेकर अंग्रेजी सेना भारत वापस लौट आयी। एलनबरो ने कहा कि फ्800 वर्ष पुराने अपमान का बदला ले लिया गया है।
  • युद्ध के पश्चात दोस्त मुहम्मद अफगानिस्तान का शासक बना जिसने 1863 सी.ई. तक शासन किया। 1863 में दोस्त मुहम्मद की मृत्यु के बाद उसके 16 पुत्रें में उत्तराधिकार का संघर्ष छिड़ गया। इस समय भारत का गवर्नर जनरल जॉन लारेन्स बनकर आया। इसने अफगानिस्तान में हस्तक्षेप की नीति अपनायी और ‘कुशल अकर्मण्यता’ की नीति प्रारंभ की।
  • 1866 सी.ई. तक दोस्त मुहम्मद के पुत्र शेर अली ने सत्ता पर पूर्ण अधिकार कर लिया, तब लॉरेन्स ने उसे आर्थिक सहायता दी। इंग्लैण्ड में उदारवादी ग्लैडस्टन के स्थान पर बैंजमिन डिजरैली की अनुदार दल की सरकार बनी, जो साम्राज्यवादी नीति की पक्षधर थी।
  • अतः डिजरैली ने लार्ड लिटन को 1876 में भारत का गवर्नर जनरल बनाकर भेजा। लिटन ने अफगानिस्तान के प्रति आक्रामक नीति (अग्रगामी नीति) का पालन किया।
द्वितीय आंग्लअफगान युद्ध (1878-80)
  • द्वितीय आंग्ल-अफगान युद्ध गवर्नर जनरल लार्ड लिटन के समय हुआ। ब्रिटेन ने अफगानिस्तान के अमीर शेर अली से संधि का प्रयास किया। कितु शेर अली ने संधि से इन्कार कर दिया।
गंडमक की संधि (26 मई 1879)
  • याकूब खाँ एवं अंग्रेजों के बीच हुई। याकूब खाँ को अफगानिस्तान का शासक स्वीकार किया गया। याकूब खाँ ने एक अंग्रेज राजदूत काबुल में रखना स्वीकार किया।
  • अंग्रेजों को खुर्रम एवं मिशनी के दर्रे तथा खुर्रम, पिशीन एवं सीनी के जिले मिले। अंग्रेजों ने विदेशी आक्रमण से अमीर की रक्षा करना तथा उसे 6 लाख रुपये प्रतिवर्ष सहायता के रूप में देना स्वीकार किया। शेर अली तुर्किस्तान भाग गया और 1879 में वहीं उसकी मृत्यु हो गयी। उसके पुत्र याकूब खाँ ने अंग्रेजों से गंडमक की संधि की।
1880 के बाद आंग्लअफगान संबंध
  • गंडमक की संधि स्थायी न रह सकी। सितम्बर, 1879 में काबुल में ब्रिटिश रेजीडेंट केबेगनरी की हत्या कर दी गयी। अतः अंग्रेजों ने काबुल पर पुनः हमला कर अधिकार कर दिया और याकूब खाँ ने अंग्रेजों के पास शरण ली और गद्दी त्याग दी। 1880 सी.ई. में ग्लैडस्टन ने ब्रिटेन में उदारवादी दल की सरकार बनायी। इसने रिपन को भारत का गवर्नर-जनरल बनाकर भेजा।
  • 1884 में रूस ने ‘मर्व’ एवं 1885 में ‘पंजदेह’ नामक अफगान प्रदेश पर अधिकार कर लिया। प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी की प्रेरणा से अमीर ने भारत की सीमाओं पर हमला किया जो सफल न हो सका। 1921 में एक शाँति संधि पर अमीर एवं ब्रिटिश में संधि हुई।
आंग्लतिब्बत संबंध
  • भारत के उत्तर में हिमालय पर्वत शृँखलाओं में स्थित तिब्बत को बौद्ध धर्म का गढ़ माना जाता है। शासन प्रमुख दलाईलामा कहा जाता है। 1774 में वारेन हेस्टिंग्स ने जार्ज बोग्ले के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमण्डल तिब्बत भेजा, ताकि बंगाल व तिब्बत के मध्य व्यापारिक संबंध बन सके।
  • आंग्ल-नेपाल संबंधों के विकास क्रम में सिक्किम पर ब्रिटिश प्रभाव स्थापित हो गया था। अतः अंग्रेजी राज्य की सीमाएँ तिब्बत के पास पहुँच गयी। पामीर तक रूस का विस्तार हो गया था।
  • अतः तिब्बत पर रूसी प्रभाव न पड़े, इसके लिए लार्ड कर्जन ने 1904 में यंग हस्बैण्ड के नेतृत्व में एक दल तिब्बत की राजधानी ल्हासा भेजा।
  • यंग हस्बैण्ड ने दलाईलामा से ल्हासा की संधि की। इसके तहत तिब्बत ने 75 लाख रुपये युद्ध हर्जाने के रूप में देना स्वीकार किया। यह धन एक लाख रुपये प्रतिवर्ष की किस्तों में 75 वर्ष तक देना था। बाद में इंग्लैण्ड की गृह सरकार के हस्तक्षेप से युद्ध-क्षति की राशि घटाकर 25 लाख रुपए कर दी गयी और 1908 सी.ई. में अंग्रेजों ने चुम्बीघाटी को छोड़ दिया।

अधीनस्थ पार्थक्य की नीति किसकी थी?

अधीनस्थ पार्थक्य की नीति/Policy Of Sbordinate Isolation(1813-1858) 1813 में लाॅर्ड हेस्टिंग्ज भारत आया। उसने रिंगफेंस की नीति/ घेरे की नीति को त्याग कर भारतीय रियासतों को अंग्रेजी प्रभुत्व स्वीकार करने के लिए बाध्य कर दिया। 1813 तक कम्पनी की सत्ता स्थापित हो चुकी थी और इन्हें अब सुरक्षात्मक दृष्टि से कोई खतरा नहीं था।

अंग्रेजों से संधि करने वाला राजस्थान का पहला राज्य कौन सा था?

15 नवंबर, 1817 को करौली राज्य के शासक हरवक्षपाल सिंह ने अंग्रेजों से संधि की, यह राजस्थान का प्रथम राज्य था, जिसने अंग्रेजों से संधि की।

राजस्थान की पहली रियासत कौन सी थी?

राजस्थान की सबसे प्राचिन रियासत मेवाड़(उदयपुर) थी। मेवाड़ रियासत की स्थापना 565 ई. में गुहिल के द्वारा की गई। राजस्थान की सबसे नवीन रियासत झालावाड है।

कोटा ने सहायक संधि कब की?

Detailed Solution. 26 दिसंबर 1817 को कोटा के राजा उम्मेद सिंह - 1 ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ संधि पर हस्ताक्षर किए।

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