ह्वेनसांग के समय नालंदा विश्वविद्यालय का कुलपति कौन था? - hvenasaang ke samay naalanda vishvavidyaalay ka kulapati kaun tha?

नालंदा विश्व विद्यालय प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केन्द्र था. बौद्ध धर्म के इस शिक्षा-केन्द्र में बौद्ध-धर्म के साथ अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे. वर्तमान बिहार राज्य में पटना से 80 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व और राजगीर से सिर्फ 14 किलोमीटर उत्तर में इस महान बौद्ध विश्वविद्यालय के भग्नावशेष पाए गए है. अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा खोजे गए यह अवशेष इसके वैभव का अंदाज़ अपने आप करा देते हैं. चीनी घुमक्कड़ और लेखक हुएनत्सांग सातवीं शताब्दी में भारत के इतिहास को पढ़ने के लिए आये थे, उनके यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है. इनके अनुसार यहाँ 10000 छात्रों को पढ़ाने के लिए 2000 शिक्षक थे. ह्वेनसांग ने यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक वर्ष शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था. कहा जाता है की प्रसिद्ध ‘बौद्ध सारिपुत्र’ का जन्म भी यहीं पर हुआ था.

विश्व प्रसिद्द विश्वविद्यालय नालंदा नाम का अर्थ भी इतना ही रोचक और महान है. (Meaning of Nalanda)

प्रसिद्द नालंदा का अर्थ संस्कृत के अनुसार “नालम् ददाति इति नालन्दा”… का अर्थ कमल का फूल है. कमल के फूल के डंठल को ज्ञान का प्रतीक माना जाता है. “दा”का अर्थ देना है. अतः जहाँ ज्ञान देने का अंत न हो उसे नालंदा कहा गया है. यह विश्व का प्रथम पूर्णतः आवासीय विश्वविद्यालय था.  इसमें विद्यार्थियों की संख्या करीब 10000 थी और अध्यापकों की संख्या 2000 थी. इस विश्वविद्यालय में ना केवल भारत के विभिन्न प्रान्त से परन्तु जापान, कोरिया, चीन, फ़्रांस, तिब्बत, तुर्की, इंडोनेशिया, और अन्य यूरोप के देशो से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे. नालंदा के विशिष्ट शिक्षाप्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे.  इस विश्वविद्यालय को 9 वीं शताब्दी से 12 वीं शताब्दी तक अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त थी.

नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना किसने और कब की थी? (Who established Nalanda University and when?)

यूनेस्को द्वारा घोषित विश्व धरोहर स्थल नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना और संरक्षण गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम ने की थी. इस विश्वविद्यालय को गुप्त शाशको के उत्तराधिकारियों का पूरा सहयोग मिलने से इसकी बहुत प्रगति हुई. गुप्तवंश के पतन के बाद भी आने वाले सभी शासको ने इसकी समृद्धि में अपना योगदान जारी रखा था. इसे महान सम्राट हर्षवर्द्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण और अनुदान मिलता रहा. स्थानीय शासकों तथा भारत के विभिन्न जनपद (Link) के राजाओ और अनेक विदेशी शासकों से भी समय समय पर अनुदान मिलता रहा था. नालंदा का केम्पस विशाल क्षेत्र में अत्यंत सुनियोजित ढंग से बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना था. इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से किले की तरह घिरा हुआ था. जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था. उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक भव्य बौद्ध स्तूप और मंदिर थे. मंदिरों में बुद्ध भगवान की सुन्दर मूर्तियाँ स्थापित थीं. केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके उपरांत 300 अन्य कमरे थे. इनमें व्याख्यान हुआ करते थे. अभी तक खुदाई में तेरह मठ मिले हैं. वैसे इससे भी अधिक मठों के होने ही प्रबल संभावना है. मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे. कमरे में सोने के लिए पत्थर की चौकी होती थी. उजाला करने हेतु दीपक, और पुस्तक रखने के लिए आलमारी बनी हुई थी. प्रत्येक मठ के आँगन में एक कुआँ बनाया गया था, ताकि सभी विद्यार्थी को नहाने-धोने और पिने के लिए पानी की कमी ना रहे. आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के उपरांत इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें भी थी.

नालंदा में कुलपति या आचार्य कौन बन सकते थे? (Vice-Chancellor & Principal of Nalanda)

समस्त विश्वविद्यालय का प्रबंध कुलपति या आचार्य करते थे जो भिक्षुओं द्वारा चयनित होते थे. कुलपति का चयन दो परामर्शदात्री समितियों के परामर्श से किया जाता था. प्रथम समिति शिक्षा तथा पाठ्यक्रम संबंधी कार्य देखती थी और द्वितीय समिति सारे विश्वविद्यालय की आर्थिक व्यवस्था तथा प्रशासन की देख-भाल करती थी. विश्वविद्यालय को दान में मिले दो सौ गाँवों से प्राप्त उपज और आय की देख-भाल यही समिति करती थी.यह उस दौर था जब करप्शन जैसे शब्द किसी भी डिक्शनरी में था ही नहीं. इसी आय से सहस्त्रों विद्यार्थियों के भोजन, कपड़े और आवास का प्रबंध होता था. इस विश्वविद्यालय में तीन श्रेणियों के आचार्य होते थे. जो अपनी योग्यतानुसार प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी में आते थे. नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र, धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और स्थिरमति प्रमुख थे. 7 वीं सदी में ह्वेनसांग के समय इस विश्व विद्यालय के प्रमुख शीलभद्र थे जो एक महान विचारक, आचार्य, शिक्षक और विद्वान थे.

नालंदा के प्रवेश के नियम और अध्यापन पद्धति (Nalanda’s CAT & teaching method)

प्रवेश परीक्षा अत्यंत कठिन होती थी और उसके कारण प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकते थे. आज की तरह डोनेशन नाम का कोई शब्द ही  नहीं था. उन्हें तीन कठिन परीक्षा स्तरों को उत्तीर्ण करना होता था. यह विश्व का प्रथम ऐसा दृष्टांत है. शुद्ध आचरण और संघ के नियमों का पालन करना आवश्यक ही नहीं परन्तु अत्यंत अनिवार्य था. इस विश्वविद्यालय में आचार्य छात्रों को मौखिक व्याख्यान द्वारा शिक्षा देते थे. इसके अतिरिक्त पुस्तकों से भी पाठ पढ़ाये जाते थे. शास्त्रार्थ होता रहता था. दिन के हर प्रहर में अध्ययन तथा शंका समाधान चलता रहता था.

नालंदा का धार्मिक अध्ययन क्षेत्र और पुस्तकालय (Nalanda Religious Study & Library)

यहाँ महायान के प्रवर्तक नागार्जुन, वसुबन्धु, असंग तथा धर्मकीर्ति की रचनाओं का सविस्तार अध्ययन होता था. वेद, वेदांत और सांख्य भी पढ़ाये जाते थे. व्याकरण, दर्शन, शल्यविद्या, ज्योतिष, योगशास्त्र तथा चिकित्साशास्त्र भी पाठ्यक्रम के अन्तर्गत थे. नालंदा की खुदाई में मिली अनेक काँसे की मूर्तियो के आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि कदाचित् धातु की मूर्तियाँ बनाने के विज्ञान का भी अध्ययन होता था. यहाँ खगोलशास्त्र अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था. नालंदा में सहस्रों विद्यार्थियों और आचार्यों के अध्ययन के लिए, नौ तल का एक विराट पुस्तकालय था जिसमें करीब 3 लाख से भी अधिक पुस्तकों का अनुपम संग्रह था. इस पुस्तकालय में सभी विषयों से संबंधित पुस्तकें थी. यह ‘रत्नरंजक’ ‘रत्नोदधि’ ‘रत्नसागर’ नामक तीन विशाल भवनों में विभाजित था. ‘रत्नोदधि’ पुस्तकालय में अनेक अप्राप्य हस्तलिखित पुस्तकें संग्रहीत थी. इनमें से अनेक पुस्तकों की प्रतिलिपियाँ चीनी यात्री अपने साथ ले गये थे.

नालंदा का छात्रावास और छात्र संघ (Nalanda Hostel and Student Union)

यहां छात्रों के रहने के लिए 300 कक्ष होने का जिक्र मिलता है. लेकिन यह बात 10000 विद्यार्थी के होने की संगत नहीं बैठ रही है. हो सकता है 3000 कक्ष हो. जिनमें विद्यार्थी की योग्यता और उनके शिक्षा के विषय के आधार पर अकेले या एक से अधिक छात्रों के रहने की व्यवस्था थी. एक या दो से तीन भिक्षु छात्र एक कमरे में रहते थे. कमरे छात्रों को प्रत्येक वर्ष उनकी अग्रिमता के आधार पर दिये जाते थे. इसका प्रबंधन स्वयं छात्रों द्वारा छात्र संघ के माध्यम से किया जाता था. यहां छात्रों का अपना संघ था. वे स्वयं इसकी व्यवस्था तथा चुनाव करते थे. यह संघ छात्र संबंधित विभिन्न मामलों जैसे छात्रावासों का व्यवस्थापन विगेरे करता था.

नालंदा का आर्थिक आधार (Economic base of Nalanda)

छात्रों को किसी प्रकार की आर्थिक चिंता न थी. उनके लिए शिक्षा, भोजन, वस्त्र औषधि और उपचार सभी निःशुल्क थे. शाशन व्यवस्था की ओर से विश्वविद्यालय को दो सौ गाँव दान में मिले थे, जिनसे प्राप्त आय और अनाज से उसका निभाव खर्च चलता था.

नालंदा का विनाश कैसे हुवा  (How was Nalanda destroyed)

13 वीं सदी तक इस विश्वविद्यालय का पूर्णतः विनाश हो गया. मुस्लिम इतिहासकार मिनहाज़ और तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के पुस्तकों से पता चलता है की इस विश्वविद्यालय को तुर्कों और अफगानों के आक्रमणों से बड़ी क्षति पहुँची थी. तारानाथ के अनुसार तीर्थिकों और भिक्षुओं के आपसी झगड़ों से भी इस विश्वविद्यालय की गरिमा को भारी नुकसान पहुँचा था. इसपर पहला आघात आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने इसे जला कर पूर्णतः नष्ट कर दिया था.

प्रसिद्ध चीनी विद्वान यात्री ह्वेन त्सांग और इत्सिंग ने अपनी यात्रा डायरी के संस्मरणों में नालंदा के विषय में काफी कुछ लिखा है. ह्वेनत्सांग ने लिखा है की सहस्रों छात्र नालंदा में अध्ययन करते थे और इसी कारण नालंदा प्रख्यात हो गया था. दिन भर अध्ययन में बीत जाता था. विदेशी छात्र भी अपनी शंकाओं का समाधान करते थे. इत्सिंग ने लिखा है कि विश्वविद्यालय के विख्यात विद्वानों के नाम विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर श्वेत अक्षरों में लिखे जाते थे.

प्राचीन अवशेषों का परिसर, नालंदा (Ancient Relic Complex, Nalanda)

इस विश्वविद्यालय के अवशेष चौदह हेक्टेयर क्षेत्र में मिले हैं. खुदाई में मिली सभी इमारतों का निर्माण लाल पत्थर से किया गया था. यह परिसर दक्षिण से उत्तर की ओर बना हुआ है. मठ या विहार इस परिसर के पूर्व दिशा में व चैत्य (मंदिर) पश्चिम दिशा में बने थे. इस परिसर की सबसे मुख्य इमारत विहार-1 थी. वर्तमान में भी यहां दो मंजिला इमारत शेष बची हुई है. यह इमारत परिसर के मुख्य आंगन के समीप बनी हुई है. संभवत: यहां पर ही शिक्षक अपने छात्रों को संबोधित किया करते थे. इस विहार में एक छोटा सा प्रार्थनाखंड भी अभी सुरक्षित अवस्था में बचा हुआ है. इस प्रार्थनाखंड में भगवान बुद्ध की भग्न प्रतिमा भी है. यहां स्थित मंदिर नं. 3 इस परिसर का सबसे बड़ा मंदिर है. इस मंदिर से समूचे क्षेत्र का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है. यह मंदिर कई छोटे-बड़े स्तूपों से घिरा हुआ है. इन सभी स्तूपों में भगवान बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं में मूर्तियां बनी हुई है. विश्वविद्यालय परिसर के विपरीत दिशा में एक छोटा सा पुरातात्विक संग्रहालय बना हुआ है. इस संग्रहालय में खुदाई से प्राप्त अवशेषों को रखा गया है. इसमें भगवान बुद्ध की विभिन्न प्रकार की मूर्तियों का अच्छा संग्रह है. इनके साथ ही बुद्ध की टेराकोटा मूर्तियां और प्रथम शताब्दी के दो मर्तबान भी इस संग्रहालय में रखा हुआ है. इसके अलावा इस संग्रहालय में तांबे की प्लेट, पत्थर पर खुदे अभिलेख, सिक्के, बर्तन और 12 वीं सदी के चावल के जले हुए दाने रखे हुए हैं.

नालंदा विश्वविद्यालय का पतन कैसे और कब हुआ

इतिहास के अनुसार नालंदा विश्वविद्यालय को आक्रमणकारियों ने तीन बार नष्ट किया था, इसमें से दो बार इसको पुनर्निर्मित किया गया था. पहला पुनर्निर्माण स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारीयों ने करवाया था. दूसरा पुनर्निर्माण बौद्ध राजा हर्षवर्धन ने करवाया था. तीसरा और सबसे विनाशकारी हमला 1193 में मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी ने प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय को जला कर नष्ट कर दिया था. ऐसा माना जाता है धार्मिक ग्रंथों के जलने के कारण भारत में एक बड़े धर्म के रूप में उभरते हुए बौद्ध धर्म को सैकड़ों वर्षों तक का झटका लगा था और तब से लेकर अब तक यह पूर्ण रूप से इन घटनाओं से उभर नहीं सका है. कहते है की यह आग इतनी विकराल थी की नालंदा के 9 मजले पुस्तकालय की पुष्तकों के जलने के धुंए तीन महीने तक निकलते रहे थे.

बख्तियार खिलजी ने नालंदा को आखिर जला कर नष्ट क्यों किया?

उस समय बख्तियार खिलजी ने उत्तर भारत में बौद्धों द्वारा शासित कुछ क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया था और एक बार वह काफी बीमार पड़ा. उसने अपने हकीमों से काफी इलाज करवाया मगर वह ठीक नहीं हो सका और मृत्यु की कगार पर आ गया था. तब किसी ने उसको सलाह दी की वह नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र को दिखाए और इलाज करवाए. परन्तु खिलजी इसके लिए तैयार नहीं था. उसे अपने हकीमों पर ज्यादा भरोसा था. वह यह मानने को तैयार नहीं था की भारतीय वैद्य उसके हकीमों से ज्यादा ज्ञान रखते हैं या ज्यादा काबिल हो सकते हैं. लेकिन अपनी जान बचाने के लिए उसको नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र को बुलवाना पड़ा. फिर बख्तियार खिलजी ने वैद्यराज के सामने एक अजीब सी शर्त रखी और कहां की में उनके द्वारा दी गई किसी भी प्रकार की दवा नहीं खाऊंगा. बिना दवा के वो उसको ठीक करें. वैद्यराज ने सोच कर उसकी शर्त मान ली और कुछ दिनों के बाद वो खिलजी के पास एक कुरान लेकर पहुंचे और कहा कि इस कुरान की पृष्ठ संख्या.. इतने से इतने तक पढ़ लीजिये ठीक हो जायेंगे.

बख्तियार खिलजी ने वैद्यराज के बताए अनुसार कुरान को पढ़ा और बिलकुल ठीक हो गया. ऐसा कहा जाता हैं कि राहुल श्रीभद्र ने कुरान के निश्चित पन्नों पर एक दवा का लेप लगा दिया था, वह थूक के साथ उन पन्नों को पलट पलट कर पढ़ता गया और ठीक होता गया. खिलजी इस तथ्य से परेशान रहने लगा की एक भारतीय विद्वान और शिक्षक को उनके हकीमों से ज्यादा ज्ञान था. फिर उसने देश से ज्ञान, बौद्ध धर्म और आयुर्वेद की जड़ों को नष्ट करने का फैसला किया. परिणाम स्वरूप खिलजी ने नालंदा की महान पुस्तकालय में आग लगा दी और लगभग 9 मिलियन पांडुलिपियों को जला दिया.

ऐसा कहा जाता है कि नालंदा विश्वविद्यालय में इतनी किताबें थीं कि वह खिलजी की लगाई हुई आग में तीन महीने तक जलती रहीं. इसके बाद खिलजी के आदेश पर आक्रमणकारियों ने नालंदा के हजारों निर्दोष विद्यार्थीओ, धार्मिक विद्वानों और भिक्षुओं की भी हत्या कर दी.

तबाकत-ए-नासिरी के अनुसार नालंदा विश्वविद्यालय का विनाश कैसे हुआ था

फारसी इतिहासकार ‘मिनहाजुद्दीन सिराज’ दिल्ली का मुख्य क़ाज़ी था. इनके द्वारा रचित पुस्तक तबाकत-ए-नासिरी के अनुसार खिलजी और उसकी सेना नें हजारों भिक्षुओं और विद्वानों को जला कर मार दिया क्योंकि वह नहीं चाहता था कि बौद्ध धर्म का विस्तार हो. वह इस्लाम धर्म का प्रचार प्रसार करना चाहता था. नालंदा की लाइब्रेरी में उसने आग लगवा दी, सारी पांडुलिपियों को जला दिया और कई महीनों तक आग जलती रही.

नालंदा के बारे में क्या आप यह जानते हैं (Do you know this about Nalanda)

विश्वविद्यालय से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य

करीब ढाई हजार साल पहले पूरी दुनिया शिक्षा का “श” भी नहीं जानती थी तब हमारे हिंदुस्तानकी संस्कृति में इतना बड़ा विश्व विद्यालय था. नालंदा विश्वविद्यालय को तक्षशिला के बाद दूसरा सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय माना जाता है. क्या आप जानते हैं कि ये 800 साल तक अस्तित्व में रही. चीन के विद्वान् ह्वेनसांग और इत्सिंग ने इसे दुनिया का बड़ा विश्वविद्यालय बताया था. नालंदा में ऐसी कई मुद्राएं मिली हैं जिससे ज्ञात होता है कि इसकी स्थापना पांचवी शताब्दी में गुप्त वंश के शासक कुमारगुप्त ने की थी. इस विश्वविद्यालय को बनाने का उद्देश्य ध्यान, आध्यात्म, और शिक्षा था. ऐसा कहा जाता है की गौतम बुद्ध खुद कई बार यहां आए और रुके भी थे. इस विश्वविद्यालय में हषवर्धन, धर्मपाल, वसुबन्धु, धर्मकीर्ति, आर्यवेद, नागार्जुन आदि कई अन्य विद्वानों ने पढ़ाई की थी. उस समय यहां लिटरेचर, एस्ट्रोलॉजी, साइकोलॉजी, लॉ, एस्ट्रोनॉमी, साइंस, वारफेयर, हिस्ट्री, मैथ्स, आर्किटेक्टर, भाषा विज्ञानं, इकोनॉमिक, मेडिसिन जैसे कई विषय पढ़ाएं जाते थे. सबसे ख़ास बात इस विश्वविद्यालय की यह थी कि कोई भी फैसला सबकी सहमती से लिया जाता था यानी अध्यापकों के साथ छात्र भी अपनी राए देते थे. यानी यहां पर लोकतांत्रिक प्रणाली थी. नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेष 1.5 लाख वर्ग फीट में से मिले हैं. ऐसा माना जाता है कि ये इस विश्वविद्यालय का सिर्फ 10% ही हिस्सा है. अर्थात ऐसा कहना गलत नहीं होगा की नालंदा विश्वविद्यालय दुनिया का दूसरा सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय है जिसे इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी ने नष्ट कर दिया था. बिहार के प्रमुख तीर्थ स्थान राजगीर से 13 किमी की दूरी पर एक गांव के पास प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहर स्थित है. आज से लगभग ढाई हजार साल पहले एशिया में तीन विश्वविद्यालय थे जिसमे तक्षशिला, विक्रमशिला, और नालंदा शामिल थी. पाकिस्तान बनने पर तक्षशिला विश्वविद्यालय पाकिस्तान में चला गया तथा विक्रमशिला और नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहर खुदाई करने पर बिहार में मिले है. विक्रमशिला बिहार के भागलपुर जिलें में है. और नालंदा विश्वविद्यालय नालंदा जिले में है. यह खंडहर काफी प्रसिद्ध है. देश विदेश से पर्यटक और इतिहास में रूची रखने वाले टूरिस्ट यहां आते रहते है. आज के समय यह बिहार राज्य का प्रमुख आकर्षण का केंद्र है. प्राचीन काल में नालंदा में बौद्ध विश्वविद्यालय था, और एशिया में सबसे बड़ा पोस्ट ग्रेज्युएट शिक्षा का केन्द्र था. पांचवीं शताब्दी के आरम्भ से 800 वर्ष तक यहां बौद्ध धर्म दर्शन तथा अन्य विषयों की शिक्षा दी जाती थी. और विद्या की ज्योति फैलाई जाती थी. भगवान बुद्ध के दो प्रमुख शिष्यों सरिपुत्र और मार्दगलापन का जन्म नालंदा में ही हुआ था. सरिपुत्र का देहांत नालंदा में उसी कमरे में हुआ था, जिसमें वह पैदा हुआ था उनकी मृत्यु का कमरा बहुत पवित्र माना जाने लगा और बौद्धों के लिए तीर्थ स्थान बन गया.

नालंदा विश्वविद्यालय स्थापत्यकला (Nalanda University Architecture)

नालंदा विश्वविद्यालय सात मील लंबी और तीन मील चौडी भूमि पर फैला हुआ था. परन्तु केवल एक वर्ग मील मे ही इसकी खुदाई का काम हुआ, जिसमें विशवविद्यालय के दो भाग मिले. एक भाग मे हॉस्टल कम कॉलेज था जो एक लाइन में है. और दूसरे भाग में एक लाइन में भगवान बुद्ध के मंदिर मिले, ग्यारह बौद्ध विहार एक लाइन में मिले है. अब इन्हें 11 ब्लॉक कहते है. इनकी दो मंजिलें नीचे दबी हुई है. और हम तीसरी मंजिल देखते है. तल पर पहली मंजिल गुप्त काल की है. सातवीं शताब्दी में पहली मंजिल को ढ़ककर दूसरी मंजिल हर्षवर्धन ने बनवाई थी. और दूसरी मंजिल को ढ़ककर देवपाल ने तीसरी मंजिल बनवाई थी. प्रत्येक ब्लॉक में एक लेक्चर हॉल है, जहाँ आचार्य पढ़ाते थे. एक ब्लैक बोर्ड था, लेक्चर हॉल मे ही एक कुंआ पाया गया है. लेक्चर हॉल के चारों तरफ कमरें थे. जिनमें विद्यार्थी और आचार्य रहते थे. यह कॉलेज आवासीय था. कमरो तथा लेक्चर हॉल के बीच में चारों तरफ बरामदा था. एक तरफ बाथरूम था जिसमें लेक्चर हॉल के कुएँ से पानी जाता था. कपडे धोने के लिए चबूतरा था. रोशनदान भी थे. ब्लॉकों को समझने के लिए ASI ने यहाँ एक नक्शा बना दिया है.

यहां भगवान बुद्ध के शिष्य सारिपुत्र की समाधि मिली है. सारिपुत्र की मृत्यु यही पर हुई थी. यहां पर उनका स्तूपा बना है, यह नालंदा का सबसे ऊंचा मुख्य स्तूपा है. भगवान बुद्ध के दूसरे शिष्य मोर्दगलापन की मृत्यु सांची मध्यप्रदेश में हुई थी. इसलिए उसका स्तूपा सांची में बना है. दोनों स्तूपा सम्राट अशोक ने बनवाएं थे. विश्वविद्यालय मे सारिपुत्र का स्तूपा करीब ढाई हजार साल पुराना माना जाता है. सातवीं शताब्दी में राजा हर्षवर्धन ने कुमारगुप्त के बने हुए स्तूपा के ऊपर ही स्तूपा बनवाया और उसके ऊपर नौवीं शताब्दी में बंगाल के राजा देवपाल ने स्तूपा बनवाया, उसके काल की सीढियां भी मिली है. इन तीनों के नीचे सम्राट अशोक का बनाया हुआ स्तूपा है. यदि उसे खोदा जाए तो ऊपर की तीनों स्तूपा गीर जायेंगे, इसलिए खुदाई रोक दी गई थी. जो भी सम्राट स्तूपा बनवाता था वह नीचे वाले को ढ़क देता था. इसलिए सब स्तूपा नीचे दबते चले गए.

नालंदा कैसे पहुंचे (How to reach Nalanda)

नालंदा आने के लिए अगर आप हवाई यात्रा करके आना चाहे तो 86 किलोमीटर दूर पर स्थित पटना का सबसे नजदीकी एयरपोर्ट जयप्रकाश नारायण एयरपोर्ट है.

और अगर रेलवे मार्ग से आना चाहे तो नालंदा में भी रेलवे स्टेशन है, परन्तु राजगीर स्टेशन ज्यादा उपयुक्त है. सड़क मार्ग से आने के लिए नालंदा स्टेट हाइवे द्वारा कई नजदीकी शहरों से अच्छी तरह से कनेक्टेड है.

नालंदा को जलाने वाले आक्रांता बख्तियार खिलजी की मौत कैसे हुई थी?

इस पुरे लेख को पढ़ने से भी ज्यादा मज़ा तो आपको वह जानने में आएगा की विश्वप्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय को जलाने वाले आक्रांता बख्तियार खिलजी की मौत कैसे हुई थी???

आइये हम बताते है….

ईसवीसन 1206 में कामरूप में एक धर्म और देशप्रेम की जोशीली आवाज उठी थी…

बख्तियार खिलज़ी तू ज्ञान के मंदिर नालंदा को जलाकर कामरूप (असम) की धरती पर आया है… अगर तू और तेरा एक भी सिपाही ब्रह्मपुत्र को पार कर सका तो मां कामाख्या देवी की सौगंध मैं जीते-जी अग्नि समाधि ले लूंगा… यह आवाज़ थी असम के हिन्दू राजा पृथु की. उसके बाद 27 मार्च 1206 को असम की धरती पर एक ऐसी लड़ाई लड़ी गई जो मानव इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखी गई. क्रूर बख्तियार खिलज़ी अफ़गानी था और मुहम्मद गोरी और कुतुबुद्दीन एबक का रिश्तेदार था. उसके बाद पैदा हुवे अलाउद्दीन खिलज़ी भी उसी का रिश्तेदार था. बख्तियार खिलजी 12 हज़ार की फ़ौज लेकर असम के रास्ते से होते हुवे तिब्बत जाना चाहता था. क्योंकि, तिब्बत उस समय… चीन, मोंगोलिआ, भारत, अरब और पूर्व के देशों के बीच व्यापार का एक महत्वपूर्ण केंद्र था. इसी लिए वह तिब्बत पर कब्जा जमाना चाहता था… लेकिन, उसका रास्ता रोके खड़े थे असम के राजा पृथु…

नालंदा विश्वविद्यालय को जलाकर हजारों बौद्ध, जैन और हिन्दू विद्वानों का कत्ल कर के बख्तियार खिलज़ी बिहार और बंगाल के कई राजाओं को जीतते हुए असम की ओर आगे बढ़ रहा था. राजा पृथु ने खिलज़ी को किसी भी सूरत में ब्रह्मपुत्र नदी पार कर तिब्बत की और नहीं जाने देने की सौगन्ध खाई थी. वर्तमान गुवाहाटी के पास दोनों सेनाओ के बीच भयंकर युद्ध हुआ. उन्होने उनके आदिवासी यौद्धाओं को जहर बुने तीरों, खुकरी, बरछी और घातक तलवारों से खिलज़ी की सेना को बुरी तरह से तहस-नहस कर दिया. 12 हज़ार में से जिन्दा बचे थे सिर्फ 100 सैनिक. विपरीत स्थिति से डर कर खिलज़ी अपने बचे हुवे सैनिकों के साथ जंगल और पहाड़ों की ओर भागने लगा. लेकिन, असम के लोग जन्मजात यौद्धा थे. उन्होने, भगोड़े खिलजी को तीरों से बींध डाला. अंत में खिलज़ी ज़मीन पर घुटनों के बल बैठकर क्षमा याचना करने लगा. शरणागत धर्म प्रति वफादार हिन्दू राजाओं हमेशा जो भूल करते आये थे वही भूल आज राजा पृथु भी करने जा रहे थे. राजा पृथु ने खिलज़ी को जिन्दा छोड़ दिया और उसे घोड़े पर लाद कर कहा की “तू वापस अफ़ग़ान लौट जा. और, रास्ते में जो भी मिले उसे कहना कि तूने नालंदा को जलाया था फ़िर तुझे राजा पृथु मिल गया… बस इतना ही कहना लोगों से…. आज भी गुवाहाटी के पास वो शिलालेख मौजूद है जिस पर इस लड़ाई के बारे में लिखा है. खिलज़ी रास्ते भर बेइज्जत होता हुआ वापस अफ़ग़ान पंहुचा तो उसकी यह दास्ताँ सुनकर उसके ही भतीजे अली मर्दान ने उसका सर काट दिया. कितनी दुखद बात है की धर्मांध बख्तियार खिलज़ी के नाम पर बिहार में एक रेलवे जंक्शन और एक कसबा है. जबकि, महान राजा पृथु के नाम के शिलालेख को भी ढूंढना पड़ता है.

नालंदा को देखने का टाइम और टिकट (Time and ticket to visit Nalanda)

आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया की इस प्रॉपर्टी नालंदा को देखने के लिए इंडियन और SAARC देश के विज़िटर्स के लिए सिर्फ 15/- Rs. की टिकिट लेनी होती है. और फॉरेनर टूरिस्टों के लिए 200/- Rs. की टिकिट लेनी होती है. 15 वर्ष से काम आयु वाले बच्चे की एंट्री फ्री ऑफ़ कोस्ट है. वीडियो केमेरा के लिए 25/- Rs. की टिकिट अलग से लेनी होती है. नालंदा साईट की विज़िट के लिए टाइम, सुबह 9:00 से साम 5:00 का है. (ओक्टुबर से फरवरी तक साम बंद होने का टाइम 4:30 होता है.)

विश्वगुरु नालंदा का यह ब्लॉग पढ़ने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद, आशा करता हूँ की आपको इस ब्लॉग से बहुत कुछ प्राचीन विद्या प्रणाली की एक्यूरेट जानकारी मिली होगी. अगर आपको पसंद आया है तो इसे अपने सभी दोस्तों के साथ शेयर जरूर करे. इस ब्लॉग में कोई चूक नजर आये तो कमेंट करके हमें बताइये, हम इसे जरूर करेक्ट करेंगे. आपका मूलयवान सुझाव हमेशा आवकार्य है. धन्यवाद!

प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति कौन थे?

सुनैना सिंह नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति.

प्राचीन काल में नालंदा महाविहार के कुलपति कौन थे?

नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र, धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और स्थिरमति प्रमुख थे। ७ वीं सदी में ह्वेनसांग के समय इस विश्व विद्यालय के प्रमुख शीलभद्र थे जो एक महान आचार्य, शिक्षक और विद्वान थे

ह्वेनसांग के अनुसार नालंदा के संस्थापक कौन थे?

सही उत्तर कुमारगुप्त है। कुमारगुप्त ने 5वीं शताब्दी ईस्वी में नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की।

नालंदा का राजा कौन था?

6. नालंदा की स्थापना 5वीं शताब्दी में गुप्त वंश के शासक सम्राट कुमारगुप्त ने की थी। इसे महान सम्राट हर्षवर्द्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण मिला।

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