जीवन की यात्रा और दुःख की रात में कौन सा अलंकार है? - jeevan kee yaatra aur duhkh kee raat mein kaun sa alankaar hai?

दुख है जीवन-तरु के मूल में कौनसा अलंकार है?

दुख है जीवन-तरु के मूल में कौनसा अलंकार है? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिये।

दुख है जीवन-तरु के मूल में रूपक अलंकार है। इस काव्य पंक्ति में कवि का यह कहना है कि जीवन रूपी वृक्ष के मूल दुख को कहा गया है। जीवन वृक्ष में दुख मूल के समान है।इसमे जीवन पर तरु का तथा दुख पर मूल का आरोप किया गया है। इसलिए यहाँ रुपक अलंकार है।

दूसरे शब्दों में कहें तो जीवन में दुख का तथा तरु में जड़ का संबद्ध ऐसे वर्णित किया गया कि दोनों में कोई भेद नहीं रह गया है इसी को उपमेय पर उपमान का आरोप कहते हैं।

इस उदाहरण में जहां जहां पर उपमेय और उपमान आए हैं, वो हमने विद्यार्थियों की सहायता के लिए नीचे लिख दिये हैं:-

उपमेय –उपमान

तरु – मूल

जहां किन्हीं दो व्यक्ति या वस्तुओं में इतनी समानता हो कि दोनों में अंतर करना मुश्किल हो जाए वहां रूपक अलंकार होता है।

अथवा जहां उपमेय उपमान का रूप धारण कर ले वहां रूपक अलंकार होता है। रूपक अलंकार अर्थालंकार का एक प्रकार है।

दुख है जीवन-तरु के मूल में रूपक अलंकार से संबन्धित प्रश्न परीक्षा में कई प्रकार से पूछे जाते हैं। जैसे कि – यहाँ पर कौन सा अलंकार है? दी गई पंक्तियों में कौन सा अलंकार है? दिया गया पद्यान्श कौन से अलंकार का उदाहरण है? पद्यांश की पंक्ति में कौन-कौन सा अलंकार है, आदि।

दुख है जीवन-तरु के मूल पंक्तियों में रूपक अलंकार के अलावा और कौन सा अलंकार उपस्थित है?

Important Alankar in Hindi अलंकार के उदाहरण एवं हिन्दी अलंकार पर प्रश्न जो परीक्षा में पूछे जा सकते हैं।

विषयसूची

  • 1 कामायनी को अपनी कौन सी भूल बार बार हृदय में चुभती प्रतीत हो रही है?
  • 2 जीवन की यात्रा और दुःख की रात में कौन सा अलंकार है?
  • 3 कामायनी में श्राद्ध किसका प्रतीक है?
  • 4 जीवन मरु में कौन सा अलंकार है?
  • 5 कौन तुम संसृति जलनिधि तीर तरंगों से फेंकी मणि एक कर रहे निर्जन का चुपचाप प्रभा की धारा से अभिषेक?`?

कामायनी को अपनी कौन सी भूल बार बार हृदय में चुभती प्रतीत हो रही है?

इसे सुनेंरोकेंउत्तर- कामायनी अत्यन्त दुबली हो गयी थी। रात्रि में गहन अँधेरा छाया था। इस कारण इड़ा को वह धुंधली छाया-सी मालूम पड़ रही थी। प्रश्न 3.

जीवन की यात्रा और दुःख की रात में कौन सा अलंकार है?

इसे सुनेंरोकेंउक्त पंक्ति में उपमा अलंकार है।

अरे बता दो मुझे दया कर कहाँ प्रवासी है मेरा?

इसे सुनेंरोकेंकहाँ प्रवासी है मेरा? डाल रही हूँ मैं फेरा। भला मनाती किसको मैं! कोई आकर कह दे रे!”

कामायनी का प्रकाशन कब हुआ?

इसे सुनेंरोकेंयह आधुनिक छायावादी युग का सर्वोत्तम और प्रतिनिधि हिंदी महाकाव्य है। ‘प्रसाद’ जी की यह अंतिम काव्य रचना 1936 ई. में प्रकाशित हुई, परंतु इसका प्रणयन प्राय: 7-8 वर्ष पूर्व ही प्रारंभ हो गया था।

कामायनी में श्राद्ध किसका प्रतीक है?

इसे सुनेंरोकेंजिसमें प्रसाद जी ने अपने समय के सामाजिक परिवेश‚ जीवन मूल्यों‚ सामयिकता का विश्लेषित सम्मिश्रण कर इसे एक अमर ग्रन्थ बना दिया। यही कारण है कि इसके पात्र – मनु‚ श्रद्धा और इड़ा – मानव‚ प्रेम व बुद्धि के प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के माधयम से कामायनी अमर हो गई।

जीवन मरु में कौन सा अलंकार है?

इसे सुनेंरोकेंउत्तर: प्रस्तुत पद्यांश में उपमा, उत्प्रेक्ष एवं अनुप्रास अलंकार हैं।

स्वर्ण मुकुट आ गये चरण तल में कौन सा अलंकार है?

इसे सुनेंरोकेंउपर्युक्त काव्य पंक्तियों में ‘उत्प्रेक्षा अलंकार’ होगा। जहां रूप गुण आदि समान प्रतीत होने के कारण उपमेय में उपमान की संभावना या कल्पना की जाए और उसे व्यक्त करने के लिए मनु , मानो , जानो , जनु ,ज्यों आदि वाचक शब्दों का प्रयोग किया जाए , वहां उत्प्रेक्षा अलंकार माना जाता है। ‘मनु ससि सेखर को अकस, किए सेखर सतचन्दा।

कौन हो तुम संसृति जलनिधि तीर तरंगों से फेंकी मणि एक कर रहे निर्जन का चुपचाप प्रभा की धारा से अभिषेक?

इसे सुनेंरोकेंसंसृति-जलनिधि तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक, कर रहे निर्जन का चुपचाप प्रभा की धारा से अभिषेक? मधुर विश्रांत और एकांत–जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन और चंचल मन का आलस्य!’

कौन तुम संसृति जलनिधि तीर तरंगों से फेंकी मणि एक कर रहे निर्जन का चुपचाप प्रभा की धारा से अभिषेक?`?

इसे सुनेंरोकेंसंसृति-जलनिधि तीर तरंगों से फेकी मणि एक, कर रहे निर्जन का चुपचाप प्रभा की धारा से अभिषेक? मधुर विश्रान्त और एकान्त- जगत का सुलझा हुआ रहस्य एक करुणामय सुन्दर मौन और चंचल मन का आलस्य !” सुना यह मनु ने मधु गुंजार मधुकरी का-सा जब सानन्द किये मुख नीचा कमल समान प्रथम कवि का ज्यो सुन्दर छन्द।

up board class 9th hindi | जयशंकर प्रसाद

                                      जीवन-परिचय एवं कृतियाँ

प्रश्न जयशंकर प्रसाद का जीवन-परिचय देते हुए उनकी कृतियों पर प्रकाश डालिए।

उत्तर―जीवन-परिचय―जयशंकर प्रसाद का जन्म 30 जनवरी, सन् 1889 ई० में काशी के

समृद्ध सुँघनी साहू नामक वैश्य परिवार में हुआ था। इनके पिता देवीप्रसाद तम्बाकू के प्रसिद्ध व्यापारी थे।

बचपन में ही पिता की मृत्यु हो जाने के कारण आठवीं कक्षा के बाद इनकी स्कूली शिक्षा न चल सकी।

तत्पश्चात् इन्होंने घर पर ही हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू व फारसी की अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली।

संस्कृत-साहित्य के प्रति इनका गहरा अनुराग था। इन्होंने वेद, उपनिषद्, इतिहास और दर्शन का गम्भीर

अध्ययन किया। कवियों का सत्संग मिल जाने के कारण कविता की ओर बाल्यकाल से ही इनकी रुचि हो

गयी थी। पहले ये ब्रज भाषा में कविता लिखते थे, किन्तु बाद में खड़ी बोली में कविता लिखकर उसका गौरव

बढ़ाया। ये बहुमुखी प्रतिभा के धनी और शिव के उपासक थे। इनका जीवन बहुत सरल था। सभा-सम्मेलनों

की भीड़ से ये दूर ही रहा करते थे। इनकी ‘कामायनी’ नामक कृति पर इनको ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ ने

‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ प्रदान किया। इनका जीवन बड़ा ही संघर्षपूर्ण रहा। परिवारजनों की मृत्यु,

अर्थ-संकट, पत्नी-वियोग आदि संघर्षों को झेलते हुए भी यह प्रतिभासम्पन्न कवि सरस्वती के मन्दिर में

अपने सुगन्धमय रचना-सुमन अर्पित करता रहा। अन्त में क्षय रोग से पीड़ित होकर सन् 1937 ई० में यह

महाविभूति पंचतत्त्व में विलीन हो गयी।

रचनाएँ (कृतियाँ)―प्रसाद जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। इन्होंने काव्य, नाटक, कहानी,

उपन्यास तथा निबन्ध सभी प्रकार की साहित्यिक रचनाएँ कीं, किन्तु ये मूलत: कवि हैं। प्रसाद जी की प्रमुख

काव्य-कृतियाँ निम्नलिखित हैं―

(1) कामायनी―‘कामायनी’ महाकाव्य हिन्दी-साहित्य की ही नहीं, अपितु विश्व-साहित्य की

अमूल्य निधि है।

(2) आँसू―यह प्रसाद जी का विशुद्ध विरह काव्य है।

(3) झरना―यह प्रेम, सौन्दर्य तथा प्रकृति का सुन्दर चित्रण करने वाला छायावादी कविताओं का

संग्रह है।

(4) लहर―इसमें अनेक भावों और मानसिक स्थितियों के मार्मिक चित्र हैं। यह मुक्तक रचना है।

इसके अतिरिक्त प्रसाद जी ने ‘चित्राधार’, ‘करुणालय’, ‘कानन-कुसुम’, ‘प्रेम-पथिक’, ‘महाराणा

का महत्त्व’, उर्वशी’, ‘वन-मिलन’, ‘प्रेम-राज्य’, अयोध्या का उद्धार’, ‘शोकोच्छ्वास’ आदि काव्यों की

भी रचना की।

नाटककार के रूप में प्रसाद जी ने चन्द्रगुप्त’, ‘स्कन्दगुप्त’, ‘ध्रुव-स्वामिनी’, ‘जनमेजय का नागयज्ञ’,

‘कामना’, ‘एक चूंट’, ‘विशाख’, ‘राज्यश्री’, ‘कल्याणी’, ‘अजातशत्रु’, ‘प्रायश्चित्त’ नाटकों की रचना की है।

कंकाल’, ‘तितली’ और ‘इरावती’ (अपूर्ण) इनके द्वारा रचित उपन्यास हैं। प्रतिध्वनि’, ‘छाया’,

‘आकाशदीप’, ‘आँधी’, “इंद्रजाल’ आदि इनकी कहानियों के प्रसिद्ध संग्रह है।

साहित्य में स्थान―वस्तुत: हिन्दी में नवीन युग का द्वार प्रसाद जी ने ही खोला है। कविता को

सौन्दर्य, माधुर्य एवं रमणीयता से मण्डित कर नवयुग का सूत्रपात करने वाले प्रसाद जी का हिन्दी साहित्य में

अति सम्मानित एवं मूर्धन्य स्थान है।

                   पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या (पठनीय अंश सहित)

● पुनर्मिलन

(1) चौंक उठी अपने विचार से

                      कुछ दूरागत ध्वनि सुनती,

इस निस्तब्ध निशा में कोई

                      चली आ रही है कहती―

“अरे बता दो मुझे दया कर

                        कहाँ प्रवासी है मेरा?

उसी बावले से मिलने को

                        डाल रही हूँ मैं फेरा।

रूठ गया था अपनेपन से

                        अपना सकी न उसको मैं,

वह तो मेरा अपना ही था

                         भला मनाती किसको मैं!

यही भूल अब शूल सदृश हो

                         साल रही उर में मेरे,

कैसे पाऊँगी उसको मैं

                          कोई आकर कह दे रे!”

[दूरागत = दूर से आयी। निस्तब्ध = सुनसान, शान्त। प्रवासी = परदेश गया हुआ। फेरा = चक्कर।

अपनेपन से = अपनत्व से, अत्यधिक स्नेह से। शूल = काँटा। साल रही = दुःख पहुँचा रही। उर = हृदया]

सन्दर्भ―प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘काव्य-खण्ड’ में ‘पुनर्मिलन’ कविता

शीर्षक के अन्तर्गत संकलित तथा श्री जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘कामायनी’ महाकाव्य के ‘निर्वेद’ सर्ग

से अवतरित हैं।

[संकेत―इस शीर्षक के अन्तर्गत आने वाली सभी व्याख्याओं के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग―इन पंक्तियों में रानी इड़ा के चौंकने तथा मनु को खोजती हुई श्रद्धा की दीन दशा का चित्रण

किया गया है। मनु अपनी पत्नी श्रद्धा से रूठकर चले गये हैं। उनकी पत्नी श्रद्धा किस प्रकार उनके विरह में

व्याकुल है, उसी के विषय में कवि इड़ा के माध्यम से बता रहे हैं―

व्याख्या―जयशंकर प्रसाद जी कहते हैं कि सारस्वत नगर की रानी इड़ा अपने विचारों में खोयी हुई

थी। सहसा कुछ दूर से आती हुई आवाज को सुनकर वह चौंक उठी। उसने सुना कि दूर से इस शान्त रात्रि में

कोई महिला यह कहती हुई चली आ रही है-अरे! कोई दया करके मुझे यह बता दो कि मेरा वह परदेशी

प्रियतम कहाँ है ? मैं अपने उसी बावले प्रियतम की खोज में भटकती फिर रही हूँ।

श्रद्धा आगे कहती है कि “मेरा प्रियतम मनु मुझसे रूठ क्या गया है, मानो अपने आपसे ही रूठ गया है।

उसमें और मुझमें कोई अन्तर तो है नहीं; यह सोचकर ही मैं रूठे हुए प्रियतम को मना भी नहीं सकी थी। भला-

कोई स्वयं को मनाता थोड़े ही है। उसे न मनाकर मैंने बहुत बड़ी भूल की। यही भूल अब काँटे की तरह मेरे हृदय

को दुःख पहुँचा रही है। मैं अब उसे कैसे प्राप्त कर सकूँगी, कोई तो आकर मुझे बता दे।

काव्यगत सौन्दर्य―(1) यहाँ पर श्रद्धा का मनु के प्रति अगाध प्रेम व्यक्त हुआ है। (2) ‘बावले’

शब्द में अपनापन और स्नेह झलकता है। (3) सम्बन्धों एवं रिश्तों के बीच में उत्पन्न होने वाले भ्रमों तथा

उसके व्यावहारिक कारणों को कवि ने एक साथ अभिव्यक्ति दी है जो उनकी काव्यात्मक प्रतिभा की

परिचायक है। (4) भाषा―शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली। ‘फेरा डालना’ मुहावरे का सुन्दर प्रयोग हुआ

है।

(5) रस―शृंगार। (6) शब्द-शक्ति―व्यंजना। (7) गुण―प्रसाद। (8) छन्द―एक प्रकार का मात्रिक छन्द,

जिसके प्रथम चरण में 16 तथा द्वितीय चरण में 14 मात्राएँ होती हैं। (9) अलंकार―उपमा तथा अनुप्रास।

(10) भावसाम्य―विरह-विदग्धता के ऐसे ही भाव एक कवि ने निम्नलिखित रूप में व्यक्त किये हैं-

                         विकल विदग्ध विश्व तन तापित, मलयानिल बन आओ।

                                  प्रिय ! अब और न बहकाओ।

(2) इड़ा उठी, दिख पड़ा राज-पथ

                             धुंधली-सी छाया चलती,

वाणी में थी करुण वेदना

                              वह पुकार जैसी जलती।

शिथिल शरीर वसन विशृंखल

                              कबरी अधिक अधीर खुली,

छिन्न-पत्र मकरन्द लुटी-सी

                              ज्यों मुरझायी हुई कली।

नव कोमल अवलम्ब साथ में

                              वय किशोर उँगली पकड़े,

चला आ रहा मौन धैर्य-सा

                              अपनी माता को जकड़े।

थके हुए थे दुःखी बटोही

                              वे दोनों ही माँ-बेटे,

खोज रहे थे भूले मनु को

                              जो घायल होकर लेटे।

[राज-पथ = राजमार्ग। करुण = दुःखभरी। वेदना = पीड़ा। शिथिल = थका हुआ, ढीला। वसन =

वस्त्र। विशृंखल = अस्त-व्यस्त। कबरी = चोटी, वेणा। अधीर = हवा में हिलती हुई। छिन्न-पत्र =

छिन्न-भिन्न (टूटे) पत्तों वाली। मकरन्द = पराग, पुष्प-रस। अवलम्ब = सहारा। वय = उम्र। बटोही =

पथिका]

प्रसंग―श्रद्धा ने स्वप्न में अपने पति मनु को घायल और मरणासन्न अवस्था में देखा। वह पुत्र को

साथ लेकर मनु को खोजने निकल पड़ती है और खोजते-खोजते सारस्वत नगर की रानी इड़ा के पास

पहुँचती है।

व्याख्या―इड़ा ने जब उठकर देखा तो उसे राजपथ पर एक धुंधली-सी छाया आती दिखाई दी।

उसके स्वर में करुण वेदना थी और उसकी पुकार दुःख की आग में जलती हुई-सी प्रतीत हो रही थी।

श्रद्धा का शरीर निरन्तर चलने के कारण थक गया था। उसके वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गये थे। उसकी

चोटी खुल गयी थी, जो उसकी अधीरता को प्रकट कर रही थी। वह उस मुरझायी कली के समान दिखाई दे

रही थी जिसकी पंखुड़ियाँ टूटकर बिखर गयी हों तथा जिसका पराग लुट गया हो। तात्पर्य यह है कि श्रद्धा की

अस्त-व्यस्तता उसकी मानसिक परेशानी को प्रकट कर रही थी कि उसे अपने शरीर तक की सुध नहीं थी।

इड़ा कहती है कि उस स्त्री के साथ एक किशोर आयु का कोमल और सुन्दर बालक था। अपनी माँ

की अँगुली पकड़कर चलने वाला वह बालक शान्त और धैर्य की मूर्ति के समान था। वह अपनी माँ

का एकमात्र आधार था और अपनी माँ को कसकर पकड़े हुए धीरे-धीरे चल रहा था।

वे दोनों ही पथिक, जो माँ-बेटे थे, अत्यन्त थके हुए और दुःखी लग रहे थे और उस भूले हुए मनु की

खोज कर रहे थे जो घायल होकर इड़ा के महल में लेटे हुए थे।

काव्यगत सौन्दर्य―(1) प्रस्तुत पंक्तियों में मनु की खोज में श्रद्धा की अस्त-व्यस्त दशा का चित्रण

हुआ है। (2) मनु के पुत्र मानव को माँ श्रद्धा का एकमात्र सहारा बताया गया है; क्योंकि पति के बिछुड़ने पर

पुत्र ही स्त्री का अवलम्ब माना जाता है। (3) भाषा―साहित्यिक खड़ी बोली। (4) शैली―भावात्मक और

चित्रात्मक। (5) रस―विप्रलम्भ शृंगार एवं करुणा (6) शब्द-शक्ति―अभिधा तथा व्यंजना। (7) गुण―

प्रसाद। (8) छन्द―एक प्रकार का मात्रिक छन्द, जिसके प्रथम चरण में 16 तथा द्वितीय चरण में 14 मात्राएँ

होती हैं। (9) अलंकार―‘छिन्न-पत्र मकरन्द लुटी-सी ज्यों मुरझायी हुई कली’, ‘चला आ रहा मौन

धैर्य-सा’ में उपमा तथा ‘शिथिल शरीर वसन विशृंखल’ में अनुप्रास।

(3) इड़ा आज कुछ द्रवित हो रही

                          दुःखियों को देखा उसने,

पहुँची पास और फिर पूछा

                         ‘तुमको बिसराया किसने?

इस रजनी में कहाँ भटकती

                          जाओगी तुम बोलो तो,

बैठो आज अधिक चंचल हूँ

                           व्यथा-गाँठ निज खोलो तो।

जीवन की लम्बी यात्रा में

                           खोये भी हैं मिल जाते,

जीवन है तो कभी मिलन है

                           कट जातीं दुःख की रातें।”

[द्रवित = पसीजना। बिसराया = भुलाया। रजनी = रात्रि। व्यथा = पीड़ा। गाँठ खोलना = सब कुछ कह

देना। दुःख की रातें = दुःख के भयंकर क्षणा]

प्रसंग―प्रस्तुत पंक्तियों में इड़ा, पति-वियोग से दुःखी श्रद्धा को धीरज बँधाती हुई उसे अपने पास

रुक जाने का आग्रह करती है।

व्याख्या―माँ-बेटे के दुःख को देखकर इड़ा का हृदय करुणा से भर गया। उनके पास पहुँचकर इड़ा

ने कहा कि तुमको किसने भुला दिया है ?

तुम इस अंधेरी रात में भटकती हुई कहाँ जाओगी? तुम मेरे निकट आकर बैठ जाओ। तुम्हारी अस्त-

व्यस्त दशा को देखकर मेरा हृदय व्यथित हो गया है। तुम अपने हृदय में जो पीड़ा छिपाये घूम रही हो, उसको

मुझे बताओ। हो सकता है मैं तुम्हारा कष्ट दूर करने में तुम्हारी कुछ सहायता कर सकूँ। तुम्हारे कष्टों को सुनने

के लिए मेरा हृदय व्यग्र हो उठा है।

इड़ा उसे धैर्य प्रदान करती हुई आगे कहती है कि जीवन की यात्रा बहुत लम्बी है। इस जीवनरूपी यात्रा

में कुछ साथी हमसे बिछुड़कर भटक जाते हैं, लेकिन प्रयास करने पर वे मिल भी जाते हैं। जीवन में बिछुड़ने

और मिलने का क्रम चलता ही रहता है। यदि जीवन है तो मिलन भी अवश्य होगा; अत: किसी के बिछुड़ने

से तुम्हें चिन्तित नहीं होना चाहिए। धीरे-धीरे दुःख स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं।

काव्यगत सौन्दर्य―(1) इन पंक्तियों में जीवन के शाश्वत सत्य पर प्रकाश डाला गया है कि सुख-

दुःख तो आते-जाते रहते हैं। (2) श्रद्धा के प्रति इड़ा की सहानुभूति में मानवीय संवेदना है। किसी दुःखी

व्यक्ति के साथ बैठकर पीड़ा बाँटने की स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति को अभिव्यक्ति दी गयी है।

(3) भाषा―साहित्यिक खड़ी बोली। (4) शैली―भावात्मक और प्रबन्ध। (5) रस―करुण और शान्त।

(6) शब्द-शक्ति-व्यंजना। (7) गुण–प्रसाद! (8) छन्द-एक प्रकार का मात्रिक छन्द, जिसके प्रथम

चरण में 16 तथा द्वितीय चरण में 14 मात्राएँ होती हैं। (9) अलंकार-जीवन की यात्रा’ और ‘दुःख की रातें’

में रूपक। (10) भाव-साम्य―ऐसे ही भाव अन्यत्र भी व्यक्त हुए हैं जिसमें सुख-दुःख की शाश्वत गति

का निरूपण किया गया है―

मिलन-वियोग नियति-क्रम जानो,

                                जीवन यों चलता रहता।

कौन बचा है काल बली से,

                                कौन नहीं दुःख-सुख सहता॥

(4)  श्रद्धा रुकी कुमार श्रान्त था

                                मिलता है विश्राम यहीं,

चली इड़ा के साथ जहाँ पर

                               वह्नि-शिखा प्रज्वलित रही।

सहसा धधकी वेदी-ज्वाला

                               मंडप आलोकित करती,

कामायनी देख पायी कुछ

                              पहुँची उस तक डग भरती।

और वही मनु! घायल सचमुच

                                तो क्या सच्चा स्वप्न रहा?

“आह प्राण प्रिय! क्या यह? तुम यों?”

                               घुला हृदय, बन नीर बहा।

इड़ा चकित, श्रद्धा आ बैठी

                               वह थी मनु को सहलाती,

अनुलेपन-सा मधुर स्पर्श था

                                व्यथा भला क्यों रह जाती?

[श्रान्त = थका हुआ। वह्नि-शिखा = आग की लपटें। प्रज्वलित = जलती हुई। वेदी-ज्वाला = यज्ञवेदी

की अग्नि। मण्डप = चंदोवा। आलोकित = प्रकाशित। कामायनी = श्रद्धा का एक नाम। नीर =

पानी। सहलाती = कोमलता के साथ शरीर पर हाथ फिराती हुई। अनुलेपन = मरहम। ]

प्रसंग―प्रस्तुत पंक्तियों में मूर्छित मनु को देखकर श्रद्धा के हृदय में उत्पन्न भावों की सुन्दर

अभिव्यक्ति हुई है।

व्याख्या―इड़ा की सहानुभूतिपूर्ण बातों को सुनकर श्रद्धा वहीं रुक गयी। उसका बेटा भी बहुत थक

गया था और उसे वहाँ आश्रय भी मिल रहा था। श्रद्धा तब इड़ा के साथ उस स्थान की ओर चल दी, जहाँ पर

आग की लपटें उठ रही थीं।

सहसा यज्ञवेदी की अग्नि घधक उठी, जिससे मण्डप में प्रकाश फैल गया। श्रद्धा ने वहाँ कुछ देखा

और कदम बढ़ाती हुई वहाँ तक जा पहुंची।

उसने वहाँ मनु को घायल अवस्था में देखा। श्रद्धा सोचने लगी कि निश्चित ही मेरा स्वप्न सच्चा

निकला। वह चीख उठी―“आह प्राणप्रिय! यह क्या हो गया ? तुम इस दशा में क्यों हो?” आशय यह है

कि तुम इस प्रकार घायल होकर कैसे पड़े हुए हो। ऐसा कहते हुए उसका मन भर आया और उसके नेत्रों से

आँसू बहने लगे।

यह देखकर इड़ा चकित रह गयी। श्रद्धा अपने पति मनु के पास बैठकर उनके शरीर पर हाथ फेरने

लगी। उसका वह स्पर्श मरहम के समान कोमल एवं कष्ट हरने वाला था; तब मनु के हृदय में पीड़ा भला

कैसे शेष रह जाती?

काव्यगत सौन्दर्य―(1) यहाँ कवि ने श्रद्धा और मनु के मिलन का मार्मिक और हृदयस्पर्शी

चित्रण किया है। (2) प्रिया का प्रेमल स्पर्श बड़े-से-बड़े दुःख को दूर कर देता है, इस मनोवैज्ञानिक तथ्य का

निरूपण किया गया है। (3) भाषा―साहित्यिक खड़ी बोली। (4) शैली―भावात्मक एवं चित्रात्मक।

(5) रस―शृंगार। (6) छन्द―एक प्रकार का मात्रिक छन्द, जिसके प्रथम चरण में 16 तथा द्वितीय चरण में

14 मात्राएँ होती हैं। (7) अलंकार―‘अनुलेपन-सा मधुर स्पर्श था’ में उपमा, ‘वह्नि-शिखा’ तथा ‘घुला

हृदय बन नीर बहा’ में रूपक। (8) गुण―माधुर्य। (9) शब्द-शक्ति―व्यंजना।

(10) भाव-स्पष्टीकरण― हृदय का पिघलकर पानी के रूप में बहना एक गहरी मानवीय संवेदना को

व्यक्त करता है। ऐसे ही भाव निम्नलिखित दोहे में भी व्यक्त हुए हैं―

मिलत द्रवत हिय बहि चलत, अँखियन नीर पनार।

ताप-दाप बहि जात है, तन-मन निरमल सार॥

(5)  उस मूञ्छित नीरवता में कुछ

                           हलके से स्पन्दन आये,

आँखें खुली चार कोनों में

                            चार बिन्दु आकर छाये।

उधर कुमार देखता ऊँचे

                           मन्दिर, मण्डप, वेदी को,

यह सब क्या है नया मनोहर

                           कैसे यह लगते जी को?

[नीरवता = सूनापन, सन्नाटा। स्पन्दन = कम्पन। चार बिन्दु = आँसू की चार बूंदें। मन्दिर = देवताओं का

आवास। बेदी = यज्ञवेदी। मनोहर = सुन्दर। जी को = हृदय को।]

प्रसंग―इन पद्य-पंक्तियों में प्रसाद जी ने श्रद्धा और मनु के मिलन का मार्मिक चित्रण किया है।

व्याख्या―श्रद्धा अपने पति मनु को घायल और मूर्छित देखकर ‘प्राणप्रिय’ कहकर उनके पास बैठ

गयी और उनको सहलाने लगी। श्रद्धा का सुखद एवं मधुर स्पर्श पाकर शब्दहीन, चुपचाप मूर्च्छित पड़े मनु

के शरीर में हल्की-सी कम्पन उत्पन्न हो गयी। मनु ने आँखें खोलीं और वे दोनों एक-दूसरे को प्रेम-

पूर्वक देखते रहे, तब दोनों की आँखों से पश्चात्ताप के आँसू बहने लगे।

उधर श्रद्धा-मनु का पुत्र मानव यज्ञभूमि के ऊँचे मन्दिर, यज्ञ-मण्डप और यज्ञ की वेदी को देख रहा

था, वह सोचने लगा कि यह सब कितना मोहक, सुन्दर और नवीन है, जो मेरे मन को आकर्षित कर रहा है।

काव्यगत सौन्दर्य―(1) यहाँ कवि ने पतिपरायणा स्त्री के सहज प्रेम और सेवाभाव का चित्रण

किया है। (2) श्रद्धा और मनु के विकास का बड़ा ही भावाकुल एवं मर्मस्पर्शी वर्णन किया गया है।

(3) भाषा―साहित्यिक खड़ी बोली। (4) शैली―भावात्मक और चित्रात्मक। (5) रस―शृंगार।

(6) गुण―माधुर्य। (7) छन्द―एक प्रकार का मात्रिक छन्द, जिसके प्रथम चरण में 16 तथा द्वितीय चरण

में 14 मात्राएँ होती हैं। (8) अलंकार―अनुप्रास और ‘मूछित नीरवता’ में मानवीकरण।

(9) शब्द-शक्ति―लक्षणा एवं व्यंजना। (10) भाव-साम्य―ऐसे ही भाव कवि बिहारी ने निम्नलिखित

पंक्तियों में व्यक्त किये हैं―

दोनों के दोनों नयन, मिल खिलत बहुभात।

अस्त्र सुधारस सींचितन, अमित हरस उपजात ॥

(6)  माँ ने कहा-‘अरे आ तू भी

                          देख पिता हैं पड़े हुए’

‘पिता! आ गया लो’ यह कहते

                          उसके रोएँ खड़े हुए।

माँ जल दे, कुछ प्यासे होंगे

                          क्या बैठी कर रही यहाँ?’

मुखर हो गया सूना मंडप

                          यह सजीवता रही कहाँ?

आत्मीयता घुली उस घर में

                           छोटा-सा परिवार बना,

छाया एक मधुर स्वर उस पर

                           श्रद्धा का संगीत बना।

[रोएँ खड़े हुए = रोमांच हो गया। मुखर = ध्वनित, शब्दायमान। सजीवता = प्राणवत्ता। आत्मीयता =

अपनापन। संगीत बना = संगीतमय हो जाना।]

प्रसंग―इन पंक्तियों में श्रद्धा अपने पुत्र को मनु से मिलवाती है और सबके मिलने पर छोटे-से

परिवार में आत्मीयता का भाव भर जाता है।

व्याख्या―मनु के होश में आने पर श्रद्धा ने अपने पुत्र से कहा कि तू भी आकर अपने पिता के दर्शन

कर ले। ये भूमि पर लेटे हुए हैं। माँ का कथन सुनते ही उसने पिता के पास आकर कहा-

“पिताजी! देखो मैं आपके पास आ गया।” पिता से बात कर पुत्र को अति प्रसन्नता हुई और दोनों ही

रोमांचित हो गये।

पुत्र अपनी माँ (श्रद्धा) से बोला कि माताजी आप यहाँ बैठी क्या कर रही हैं ? पिताजी प्यासे होंगे,

इन्हें जल लाकर दीजिए। बालक की मधुर ध्वनि से मण्डप में ऐसी सजीवता छा गयी, जो पहले नहीं थी।

इस प्रकार उस घर में पुन: अपनेपन का भाव भर गया। श्रद्धा, मनु और कुमार के मिलन से वहाँ एक

छोटा-सा परिवार बन गया। उस परिवार में श्रद्धा का मधुर स्वर संगीत बनकर छा गया। आशय यह है कि

अब उनके मध्य आनन्द ही आनन्द का भाव विद्यमान रह गया था।

काव्यगत सौन्दर्य―(1) प्रस्तुत पंक्तियों में श्रद्धा, कुमार और बिछड़े हुए मनु के मिलन का

मर्मस्पर्शी चित्रण हुआ है। (2) भाषा―शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली। (3) शैली―भावात्मक, चित्रात्मक

और संलापा (4) रस―शृंगार तथा वात्सल्या (5) गुण―माधुर्य। (6) छन्द―एक प्रकार का मात्रिक छन्द,

जिसके प्रथम चरण में 16 तथा द्वितीय चरण में 14 मात्राएँ होती हैं। (7) अलंकार―अनुप्रास एवं

मानवीकरण। (8) शब्द-शक्ति―लक्षणा एवं व्यंजना।

                 काव्य-सौन्दर्य एवं व्याकरण-बोध सम्बन्धी प्रश्न

प्रश्न 1 निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकारों को पहचानकर उनका नाम लिखिए―

(क) यही भूल अब शूल सदृश हो, साल रही उर में मेरे।

(ख) छिन्न पत्र मकरन्द लुटी-सी, ज्यों मुरझाई हुई कली।

(ग) अनुलेपन-सा मधुर स्पर्श था, व्यथा भला क्यों रह जाती।

उत्तर― (क) उपमा, (ख) उपमा और रूपक, (ग) उपमा।

प्रश्न 2 निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त रस का नाम बताइए―

(क) शिथिल शरीर वसन विश्रृंखल, कबरी अधिक अधीर खुली।

(ख) इड़ा आज कुछ द्रवित हो रही, दुःखियों को देखा उसने।

(ग) ‘आह प्राण प्रिय ! क्या यह ? तुम यों?”

                घुला हृदय बन नीर बहा।

उत्तर― (क) श्रृंगार रस, (ख) करुण रस, (ग) करुण रस।

प्रश्न 3 निम्नलिखित वाक्यांशों के सम्मुख पाठ से छाँटकर उन शब्दों को लिखिए, जिनके अर्थ को ये

वाक्यांश प्रकट करते हैं―

उत्तर― (क) प्रियजनों से दूर विदेश में रहने वाला          प्रवासी

(ख) फूलों का रस                                                  मकरन्द

(ग) मन को हरने वाला                                            मनोहर

(घ) अधिक बोलने वाला                                          मुखर

प्रश्न 4 निम्नलिखित शब्दों का सन्धि-विच्छेद कीजिए―

विद्यालय, परोपकार, गणेश

उत्तर―विद्यालय―विद्या + आलय।

        परोपकार―पर + उपकार।

             गणेश―गण + ईश।

प्रश्न 5 निम्नलिखित शब्दों के दो-दो पर्यायवाची शब्द लिखिए―

भारती, पथ, शृंग, सिन्धु

उत्तर―भारती―वाणी,वाक्-शक्ति।

पथ―मार्ग, रास्ता।

शृंग―शिखर, कँगूरा।

सिन्धु―जलधि, जलनिधि।

प्रश्न 6 निम्नलिखित शब्दों के विलोम शब्द लिखिए―

आर्द्र, स्वतन्त्रता, अमर्त्य, पुण्य, कीर्ति, सपूत, निस्तब्ध, प्रवासी, कोमल, अनुराग

उत्तर― शब्द                 विलोम

           आर्द्र                 शुष्क

           स्वतन्त्रता          परतन्त्रता

           अमर्त्य              मर्त्य

           पुण्य                पाप

          कीर्ति                अपकीर्ति

          सपूत                कपूत

         निस्तब्ध             सचेष्ट

         प्रवासी               निवासी

         कोमल               कठोर

         अनुराग              विराग

जीवन की यात्रा और दुख की रातों में कौन सा अलंकार है?

दुख है जीवन-तरु के मूल में रूपक अलंकार है। इस काव्य पंक्ति में कवि का यह कहना है कि जीवन रूपी वृक्ष के मूल दुख को कहा गया है। जीवन वृक्ष में दुख मूल के समान है।

दुख है जीवन तरु के मूल में कौन सा अलंकार है?

इस वाक्य में रूपक अलंकार है।

बहुत बड़ी तस्वीर में कौन सा अलंकार है?

'बड़ा बड़ा' में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।

आँसू से गिरते में कौन सा अलंकार है?

Answer: रूपक अलंकार ....।।।।।।।

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