धीरे-धीरे सब कुछ बदल रहा है।
इस वाक्य में 'बदल रहा है' क्रिया है। यह क्रिया कैसे हो रही है - धीरे-धीरे। अतः यहाँ धीरे-धीरे क्रिया-विशेषण है। जो शब्द क्रिया कि विशेषता बताते हैं, क्रिया-विशेषण कहलाते हैं। जहाँ वाक्य में हमें पता चलता है क्रिया कैसे, कब, कितनी और कहाँ हो रही है, वहाँ वह शब्द क्रिया-विशेषण कहलाता है।
नीचे दिए गए वाक्यों में से क्रिया-विशेषण और विशेषण शब्द छाँटकर अलग लिखिए-
वाक्य क्रिया-विशेषण विशेषण
(1) कल रातसे निरंतर बारिश हो रही है।
(2) पेड़ पर लगे पके आम देखकर बच्चों के मुँह में पानी आ गया।
(3) रसोईघर से आती पुलाव की हलकी खुशबू से
मुझे ज़ोरों की भूख लग आई।
(4) उतना ही खाओ जितनी भूख है।
(5) विलासिता की वस्तुओं से आजकल बाज़ार भरा पड़ा है।
क्रिया-विशेषण विशेषण
1. निरंतर कल रात
2. मुँह में पानी
पके आम
3. भूख हलकी खुशबू
4. भूख
उतना, जितना
5. आजकल बाज़ार
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आशय स्पष्ट
कीजिए-
जाने-अनजाने आज के माहौल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं।
आज का समाज उपभोक्तावादी समाज हैं जो विज्ञापन का से प्रभावित हो रहा हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभाव अत्यंत कठिन तथा सूक्ष्म हैं। इसके प्रभाव में आकर हमारा चरित्र बदलता जा रहा है। हम उत्पादों का उपभोग करते-करते न केवल उनके गुलाम होते जा रहे हैं बल्कि अपने जीवन का लक्ष्य को भी उपभोग करना मान बैठे हैं। सही बोला जाय तो - हम उत्पादों का उपभोग नहीं कर रहे हैं, बल्कि उत्पाद हमारे जीवन का भोग कर रहे हैं।
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लेखक के अनुसार जीवन में 'सुख' से क्या अभिप्राय है?
लेखक के अनुसार, जीवन में 'सुख' का अभिप्राय केवल उपभोग-सुख नहीं है। परन्तु आजकल लोग केवल उपभोग के साधनों को भोगने को ही 'सुख' कहने लगे है। विभिन्न प्रकार के मानसिक, शारीरिक तथा सूक्ष्म आराम भी 'सुख' कहलाते हैं।
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गाँधी जी ने उपभोक्ता संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती क्यों कहा है?
उपभोक्ता संस्कृति से हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का ह्रास हो रहा है। गाँधी जी सामाजिक मर्यादाओं और नैतिकता के पक्षधर थें। गाँधी जी चाहते थे कि लोग सदाचारी, संयमी और नैतिक बनें, ताकि लोगों में परस्पर प्रेम, भाईचारा और अन्य सामाजिक सरोकार बढ़े। लेकिन उपभोक्तावादी संस्कृति इन सबके विपरीत चलती है। वह भोग को बढ़ावा देती है जिसके कारण नैतिकता तथा मर्यादा का ह्रास होता है। गाँधी जी चाहते थें कि हम भारतीय अपनी बुनियाद और अपनी संस्कृति पर कायम रहें। उपभोक्ता संस्कृति से हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का ह्रास हो रहा है। उपभोक्ता संस्कृति से प्रभावित होकर मनुष्य स्वार्थ-केन्द्रित होता जा रहा है। भविष्य के लिए यह एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि यह बदलाव हमें सामाजिक पतन की ओर अग्रसर कर रहा है
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पाठ के आधार पर आज के उपभोक्तावादी युग में पनप रही 'दिखावे की संस्कृति' पर विचार व्यक्त कीजिए।
यह बात बिल्कुल सच है की आज दिखावे की संस्कृति पनप रही है। जो दिखता है वो ही बिकता है। आज लोग अपने को
आधुनिक से अत्याधुनिक और कुछ हटकर दिखाने के चक्कर में क़ीमती से क़ीमती सौंदर्य-प्रसाधन, म्युज़िक-सिस्टम, मोबाईल फोन, घड़ी और कपड़े खरीदते हैं। समाज में आजकल इन चीज़ों से लोगों की हैसियत आँकी जाती है। यहाँ तक कि लोग मरने के बाद अपनी कब्र के लिए लाखों रूपए खर्च करने लगे हैं ताकि वे दुनिया में अपनी हैसियत के लिए पहचाने जा सकें। 'दिखावे की संस्कृति' के बहुत से दुष्परिणाम अब सामने आ रहे हैं। इसने समाज के विभिन्न लोगो के बीच दूरियाँ बढ़ा दी है।
इससे हमारा चरित्र स्वत: बदलता जा रहा है। हमारी अपनी
सांस्कृतिक पहचान, परम्पराएँ, आस्थाएँ घटती जा रही है। मन में अशांति एवं आक्रोश बढ़ रहे हैं। नैतिक मर्यादाएँ घट रही हैं। व्यक्तिवाद, स्वार्थ, भोगवाद आदि कुप्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं। हमारे सामाजिक सम्बन्ध संकुचित होने लगा है।
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आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे दैनिक जीवन को किस प्रकार प्रभावित कर रही है?
आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे दैनिक जीवन को पूरी तरह प्रभावित कर रही है। आजकल उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रचार-प्रसार के कारण हमारी अपनी सांस्कृतिक पहचान, परम्पराएँ, आस्थाएँ घटती जा रही है। सामाजिक दृष्टिकोण से यह एक बड़ा खतरा है। मन में अशांति एवं आक्रोश बढ़ रहे हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण हम धीरे-धीरे उपभोगों के दास बनते जा रहे हैं। सारी मर्यादाएँ और नैतिकताएँ समाप्त होती जा रही हैं तथा मनुष्य स्वार्थ-केन्द्रित होता जा रहा है। विकास का लक्ष्य हमसे दूर होता जा रहा है। हम लक्ष्यहीन हो रहें हैं।आज हर तंत्र पर विज्ञापन हावी है, परिणामत: हम वही खाते-पीते और पहनते-ओढ़ते हैं जो आज के विज्ञापन हमें कहते हैं।
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