सृजनात्मक लेखन के कितने प्रमुख क्षेत्र है? - srjanaatmak lekhan ke kitane pramukh kshetr hai?

सृजनात्मक लेखन (क्रिएटिव राइटिंग) का उद्देश्य सूचित करना मात्र ही नहीं, अपितु रहस्यों व रसों को उद्घाटित करना होता है। इसे कुछ लोग एक आध्यात्मिक प्रक्रिया मानते हैं। रचनात्मक लेखक कभी तटस्थ रूप से दुनिया की ठोस चीजों के बारे में बात करता है तो कभी भावविह्वल होकर वह प्रेम, पवित्रता, पलायन, ईश्वर, नश्वरता आदि विषयों के बारे में अपने उद्गार व्यक्त करता है। अन्यथा लेखन में वह अपनी अपूर्व कल्पना का इस्तेमाल करता है। वह जीवन के विभिन्न पहलुओें में संबंध बनाता है और सामाजिक स्थितियों और घटनाओं के विषय में लिखता है। इस प्रकार वह अपने लेखन में अपने हृदय के निकट के विषयों को प्रकाशित करता है, उन्हें ऊँचा उठाता है और लेखन के माध्यम से समाज में परिवर्तन लाने का प्रयास करता है।

सृजनात्मकता सभी कलाओं की प्राथमिक प्रेरणा है। इसे परिभाषित करना वैसे ही काल्पनिक एवं कठिन है जैसे कि प्यार और घृणा जैसे विषयों को परिभाषित करना। सृजनात्मकता एक आदर्श वैचारिकता है जो एक कलाकार के मस्तिष्क की कल्पनापूर्ण स्वाभाविक प्रवृति है तथा कलाकार से संबंधित उसके अतीत और वर्तमान के परिवेश से प्रभावित है।

प्रभावशाली सृजनात्मक लेखन निम्नलिखित कार्य करता हैः

(१) पाठकों का ध्यान आकर्षित करता है,(२) पाठकों में रूचि व इच्छा जागृत करता है।

सृजनात्मक लेखन अर्थात् नूतन निर्माण की संकल्पना, प्रतिभा एवं शक्ति से निर्मित पदार्थ (लेख)। सृजनात्मकता को ही कॉलरिज कल्पना कहता है। कल्पना अर्थात्- नव-सृजन की वह जीवनी शक्ति जो कलाकारों, कवियों, वैज्ञानिकों और दार्शनिकों में होती है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • वर्णनात्मक लेखन

सृजनात्मकता सर्जनात्मकता अथवा रचनात्मकता किसी वस्तु, विचार, कला, साहित्य से संबद्ध किसी समस्या का समाधान निकालने आदि के क्षेत्र में कुछ नया रचने, आविष्कृत करने या पुनर्सृजित करने की प्रक्रिया है। यह एक मानसिक संक्रिया है जो भौतिक परिवर्तनों को जन्म देती है। सृजनात्मकता के संदर्भ में वैयक्तिक क्षमता और प्रशिक्षण का आनुपातिक संबन्ध है। काव्यशास्त्र में सृजनात्मकता प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास के सहसंबंधों की परिणति के रूप में व्यवहृत किया जाता है।

मार्क्सवाद में सृजनात्मकता[संपादित करें]

सृजनात्मकता मानवीय क्रियाकलाप की वह प्रक्रिया है जिसमे गुणगत रूप से नूतन भौतिक तथा आत्मिक मूल्यों का निर्माण किया जाता है। प्रकृति प्रदत्त भौतिक सामग्री में से तथा वस्तुगत जगत की नियमसंगतियों के संज्ञान के आधार पर समाज की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले नये यथार्थ का निर्माण करने की मानव क्षमता ही सृजनात्मकता है, जिसकी उत्पत्ति श्रम की प्रक्रिया में हुई हो। सृजनात्मकता निर्माणशील क्रियाकलाप के स्वरूप से निर्धारित होते हैं। मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत के अनुसार सृजन की प्रक्रिया में कल्पना समेत मनुष्य की समस्त आत्मिक शक्तियां और साथ ही वह दक्षता भाग लेती है जो प्रशिक्षण तथा अभ्यास से हासिल होती है तथा सृजनशील चिंतन को मूर्त रूप देने के लिए आवश्यक होती है। सृजनात्मकता की संभावनाएं सामाजिक संबंधों पर निर्भर करती हैं। साम्यवाद निजी सम्पत्ति पर आधारित समाज के लिए अभिलाक्षणिक श्रम तथा मानव-क्षमताओं के परकीयकरण को दूर करता है। वह सभी किस्मों और प्रत्येक व्यक्ति की सृजनात्मक क्षमताओं के विकास के लिए आवश्यक पूर्वापेक्षाओं का निर्माण करता है।[1]

प्रत्ययवाद में सृजनात्मकता[संपादित करें]

प्रत्ययवादी सृजनात्मकता को दैवीय धुन (प्लेटो), चेतन तथा अचेतन का संश्लेषण (शेलिंग), रहस्यवादी अंतःप्रज्ञा (बर्गसाँ) तथा सहजवृत्तियों की अभिव्यक्ति (फ्रायड) मानते हैं।[2]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • सामाजिक संदर्भ में सृजनात्मकता (देशबन्धु)

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. दर्शनकोश, प्रगति प्रकाशन, मास्को, १९८0, पृष्ठ-७३२, ISBN:५-0१000९0७-२
  2. दर्शनकोश, प्रगति प्रकाशन, मास्को, १९८0, पृष्ठ-७३२, ISBN:५-0१000९0७-२

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • Definition of Creativity
  • ENTREPRENEURIAL CREATIVITY AND INNOVATION
  • सृजनात्मकता एक तरह की बेचैनी होती है - देवानंद

सृजनात्मकता का सामान्य अर्थ है सृजन अथवा रचना करने की योग्यता। मनोविज्ञान में सृजनात्मकता से तात्पर्य मनुष्य के उस गुण, योग्यता अथवा शक्ति से होता है जिसके द्वारा वह कुछ नया सृजन करता है। जेम्स ड्रेवर के अनुसार-’’सृजनात्मकता नवीन रचना अथवा उत्पादन में अनिवार्य रूप से पाई जाती है।’’ क्रो व क्रो के अनुसार-’’सृजनात्मकता मौलिक परिणामों को अभिव्यक्त करने की मानसिक प्रक्रिया है।’’

कोल एवं ब्रूस के अनुसार-’’सृजनात्मकता एक मौलिक उत्पाद के रूप में मानव मन की ग्रहण करने, अभिव्यक्त करने और गुणांकन करने की योग्यता एवं क्रिया है।’’ ई0 पी0 टॉरेन्स (1965) के अनुसार-’’सृजनषील चिन्तन अन्तरालों, त्रुटियों, अप्राप्त तथा अलभ्य तत्वों को समझने, उनके सम्बन्ध में परिकल्पनाएं बनाने और अनुमान लगाने, परिकल्पनाओं का परीक्षण करने, परिणामों को अन्य तक पहुचानें तथा परिकल्पनाओं का पुनर्परीक्षण करके सुधार करने की प्रक्रिया है।’’

उपर्युक्त परिभाशाओं से स्पश्ट होता है कि-

  1. सृजनात्मकता नवीन रचना करना है।
  2. सृजनात्मकता मौलिक परिणामों को प्रदर्षित करना है।
  3. सृजनात्मकता किसी समस्या के समाधान हेतु परिकल्पनाओं का निर्माण एवं पुनर्परीक्षण करके सुधार करने की योग्यता है।
  4. सृजनात्मकता मानव की स्वतंत्र अभिव्यक्ति में विद्यमान रहती है।

सृजनात्मकता की प्रकृति एवं विशेषताएं

  1. सृजनात्मकता सार्वभौमिक होती है। प्रत्येक व्यक्ति में सृजनात्मकता का गुण कुछ न कुछ अवश्य विद्यमान रहता है।
  2. सृजनात्मकता का गुण ईश्वर द्वारा प्रदत्त होता है परन्तु शिक्षा एवं उचित वातावरण के द्वारा सृजनात्मक योग्यता का विकास किया जा सकता है।
  3. सृजनात्मकता एक बाध्य प्रक्रिया नहीं है, इसमें व्यक्ति को इच्छित कार्य प्रणाली को चुनने की पूर्ण रूप से स्वतंत्रता होती है।
  4. सृजनात्मकता अभिव्यक्ति का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक होता है।

सृजनात्मकता की प्रक्रिया

सृजनात्मकता की प्रक्रिया में कुछ विशिष्ट सोपान होते हैं। इन सापानों का वर्णन मन द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘इन्ट्रोडक्षन टू साइकोलॉजी’ में विस्तार पूर्वक वर्णित है। सृजनात्मकता की प्रक्रिया के सोपान निम्न हैं- 1-तैयारी, 2-इनक्यूबेषन, 3-प्रेरणा, 4-पुनरावृत्ति

तैयारी

सृजनात्मकता की प्रक्रिया में तैयारी प्रथम सोपान होता है जिसमें समस्या पर गंभीरता के साथ कार्य किया जाता है। सर्वप्रथम समस्या का विष्लेशण किया जाता है और उसके समाधान के लिए एक रूपरेखा का निर्माण किया जाता है। आवष्यक तथ्यो तथा सामग्री को एकत्रित कर, उनका विष्लेशण किया जाता है। यदि प्रदत्त सामग्री सहायक सिद्ध नहीं हो पाती है तो किसी अन्य विधि को अपना कर प्रदत्त सामग्री एकत्रित की जा सकती है।

इनक्यूबेषन

सृजनात्मकता की प्रक्रिया में इनक्यूबेषन द्वितीय सोपान होता है जिसमें वाहृय क्रिया बन्द हो जाती है। इस अवस्था में व्यक्ति विश्राम कर सकता है। इस प्रकार सृजनात्मकता की प्रक्रिया में आने वाली बाधाएं शान्त हो जाती हैं एवं जिससे व्यक्ति का अचेतन मन समस्या समाधान की ओर कार्य करने लगता है और इसी अवस्था में समस्या के समाधान के लिए दिषा प्राप्त हो जाती है।

प्रेरणा

सृजनात्मकता की प्रक्रिया में प्रेरणा तृतीय सोपान होता है जिसमें व्यक्ति सहज बोध या इल्यूमिनेषन की ओर बढ़ता है। इस अवस्था में व्यक्ति समस्या के समाधान का अनुभव करता है। व्यक्ति को अंतदृश्टि द्वारा समाधान की झलक दिखाई दे जाती है। कभी-कभी व्यक्ति स्वप्न में भी समस्या के समाधान का रास्ता खोज लेता है।

पुनरावृत्ति

सृजनात्मकता की प्रक्रिया में पुनरावृत्ति चतुर्थ सोपान होता है इसे जाँच-पड़ताल भी कहते हैं जिसमें व्यक्ति सहज बोध या इल्यूमिनेषन से प्राप्त समाधान की जाँच-पड़ताल की जाती है। इस सोपान यह देखन का प्रयास किया जाता है कि व्यक्ति की अंतदृश्टि द्वारा प्राप्त समाधान ठीक है या नहीं। यदि समाधान ठीक नहीं होते हैं तो समस्या के समाधान के लिए नये प्रयास किये जाते हैं। इस प्रकार परीक्षण के परिणामों की दृष्टि में पुनरावृत्ति की जाती है।

सृजनात्मकता के तत्व

सृजनात्मकता के निम्न तत्व होते हैं- 1-धाराप्रवाहिता 2-लचीलापन 3-मौलिकता 4-विस्तारण

धाराप्रवाहिता

धाराप्रवाहिता से तात्पर्य अनेक तरह के विचारो की खुली अभिव्यक्ति से है। जा े व्यक्ति किसी भी विशय पर अपने विचारो की खुली अभिव्यक्ति को पूर्ण रूप से प्रकट करता है वह उतना ही सृजनात्मक कहलाता है। धाराप्रवाहिता का सम्बन्ध शब्द, साहचर्य स्थापित करने तथा शब्दों कीे अभिव्यक्ति करने से सम्बन्धित होता है।

लचीलापन

लचीलापन से तात्पर्य समस्या के समाधान के लिए विभिन्न प्रकार के तरीकों को अपनाये जाने से है। जो व्यक्ति किसी भी समस्या के समाधान हेतु अनेक नये-नये रास्ते अपनाता है वह उतना ही सृजनात्मक कहलाता है। लचीलेपन से यह ज्ञात होता है कि व्यक्ति समस्या को कितने तरीकों से समाधान कर सकता है।

मौलिकता

मौलिकता से तात्पर्य समस्या के समाधान के लिए व्यक्ति द्वारा दी गई अनुक्रियाओं के अनोखेपन से है। जो व्यक्ति किसी भी विशय पर अपने विचारों की खुली अभिव्यक्ति को पूर्ण रूप स े नये ढंग से करता है उसमें मौलिकता का गुण अधिक होता है। वह उतना ही सृजनात्मक कहलाता है। जब व्यक्ति समस्या के समाधान के रूप में एक बिल्कुल ही नई अनुक्रिया करता है तो ऐसा माना जाता है कि उसमें मौलिकता का गुण विद्यमान है।

विस्तारण

विचारो को बढ़ा-चढा़ कर विस्तार करने की क्षमता को विस्तारण कहा जाता है। जो व्यक्ति किसी भी विशय पर अपने विचारो की खुली अभिव्यक्ति को पूर्ण रूप से बढ़ा-चढ़ाकर एवं विस्तार के साथ प्रकट करता है उसमें विस्तारण का गुण अधिक होता है। वह उतना ही सृजनात्मक कहलाता है। इसमें व्यक्ति बड़े विचारों को एक साथ संगठित कर उसका अर्थपूर्ण ढंग से विस्तार करता है तथा पुन: नये विचारों को जन्म देता है।

सृजनात्मकता के सिद्धांत

सृजनात्मकता को समझने के लिए मनोवैज्ञानिको ने कई सिद्धान्तो को प्रतिपादित किये जो निम्न हैं-

वंषानुक्रम का सिद्धांत

इस सिद्धान्त के अनुसार सृजनात्मकता का गुण व्यक्ति में जन्मजात होता है, यह शक्ति व्यक्ति को अपने माता-पिता के द्वारा प्राप्त होती है। इस सिद्धान्त के मानने वालों का मत है कि वंषानुक्रम के कारण भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में सृजनात्मक शक्ति अलग-अलग प्रकार की और अलग-अलग होती है।

पर्यावरणीय सिद्धांत

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन मनोवैज्ञानिक एराटी ने किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार सृजनात्मकता केवल जन्मजात नहीं होती बल्कि इसे अनुकूल पर्यावरण द्वारा मनुष्य में अन्य गुणों की तरह विकसित किया जा सकता है। इस सिद्धान्त के अन्य गुणों की तरह विकसित किया जा सकता है। इस सिद्धान्त के मानने वालो का स्पष्टीकरण है कि खुले, स्वतंत्र और अनुकूल पर्यावरण में भिन्न-भिन्न विचार अभिव्यक्त होते हैं और भिन्न-भिन्न क्रियाएं सम्पादित होती हैं जो नवसृजन को जन्म देती हैं। इसके विपरीत बन्द समाज में इस शक्ति का विकास नहीं होता।

सृजनात्मकता स्तर का सिद्धांत

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन मनोवैज्ञानिक टेलर ने किया है। उन्होने सृजनात्मकता की व्याख्या 5 उत्तरोत्तर के रूप में की है। उनके अनुसार कोई व्यक्ति उस मात्रा में ही सृजनषील होता है जिस स्तर तक उसमें पहंचने की क्षमता होती है। ये 5 स्तर निम्न हैं-

  • क-अभिव्यक्ति की सृजनात्मकता यह वह स्तर है जिस पर कोई व्यक्ति अपने विचार अबाध गति से प्रकट करता है इन विचारों का सम्बन्ध मौलिकता से हो, यह आवश्यक नहीं होता । टेलर के अनुसार यह सबसे नीचे स्तर की सृजनषीलता होती है।
  • ख-उत्पादन सृजनात्मकता इस स्तर पर व्यक्ति कोई नयी वस्तु को उत्पादित करता है। यह उत्पादन किसी भी रूप में हो सकता है। यह दूसरे स्तर की सृजनषीलता होती है।
  • ग-नव परिवर्तित सृजनात्मकता इस स्तर व्यक्ति किसी विचार या अनुभव के आधार पर नये रूप को प्रदर्षित करता है।
  • घ-खोजपूर्ण सृजनात्मकता इस स्तर व्यक्ति किसी अमूर्त चिन्तन के आधार पर किसी नये सिद्धान्त को प्रकट करता है।
  • ड़-उच्चतम स्तर की सृजनात्मकता इस स्तर पर पहुंचने वाले व्यक्ति विभिन्न क्षेत्रों में उच्चतम स्तर की सृजनात्मकता को प्रकट करता है।

अर्धगोलाकार सिद्धांत

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन मनोवैज्ञानिक क्लार्क और किटनों ने किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार सृजनषीलता मनुश्य के मस्तिश्क के दाहिने अर्द्धगोले से प्रस्फुटित होती है एवं तर्क शक्ति मनुष्य के मस्तिष्क के बाएँ अर्द्धगोले से प्रस्फुटित होती है । इस सिद्धान्त के अनुसार सृजनात्मक कार्य व्यक्ति के मस्तिश्क के दोनों ओर के अर्द्धगोलो के बीच अन्त:क्रिया के फलस्वरूप होते हैं।

मनोविष्लेषणात्मक सिद्धांत

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन मनोवैज्ञानिक फ्रॉयड ने किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार सृजनषीलता मनुश्य के अचेतन मन में संि चत अतृप्त इच्छाओं की अभिव्यक्ति के कारण आती है। अतृप्त इच्छाओ को शोधन करने से वे सृजनात्मक कार्य की ओर अग्रसर होते है।

सृजनात्मक व्यक्ति की विशेषताएं

  1. सृजनात्मक व्यक्ति की स्मरण शक्ति अत्यन्त तीव्र होती है।
  2. सृजनात्मक व्यक्ति विचारों एवं अपने द्वारा किये गये कार्यों में मौलिकता को प्रदर्शित करते है।
  3. सृजनात्मक व्यक्ति अन्य व्यक्तियों की तरह जीवन न जी कर, एक नये ढंग से जीवन को जीने की कोषिष करते हैं।
  4. सृजनात्मक व्यक्ति की प्रवृत्ति अधिक जिज्ञासापूर्ण होती है।
  5. सृजनात्मक व्यक्ति का समायोजन अच्छा होता है।
  6. सृजनात्मक व्यक्ति में ध्यान एवं एकाग्रता गुण अधिक विद्यमान रहता है।
  7. सृजनात्मक व्यक्ति प्राय: आषावान एवं दूर की सोच रखने वाले होते हैं।
  8. सृजनात्मक व्यक्ति किसी भी निर्णय को लेने में संकोच नहीं करते एवं आत्मविश्वास के साथ निश्कर्श पर पहुंच जाते हैं।
  9. सृजनात्मक व्यक्ति में विचार अभिव्यक्ति का गुण अत्यधिक विद्यमान रहता है।
  10. सृजनात्मक व्यक्ति का व्यवहार अत्यधिक लचीला होता है। परिस्थितियों के अनुसार जल्दी ही परिवर्तित हो जाता है।
  11. सृजनात्मक व्यक्ति में कल्पनाषक्ति तीव्र होती है।
  12. सृजनात्मक व्यक्ति में किसी भी विशय पर अपने विचारों की अभिव्यक्ति एवं उस अभिव्यक्ति पर विस्तारण का गुण अधिक होता है।
  13. सृजनात्मक व्यक्ति किसी भी समस्या का समाधान नये तरीके से करना चाहता है।
  14. सृजनात्मक व्यक्ति अपने व्यवहार एवं सृजनात्मक उत्पादन में आनन्द एवं हर्श का अनुभव करता है।
  15. सृजनात्मक व्यक्ति अपने उत्तरदायित्व के प्रति अधिक सतर्क रहते हैं।

सृजनात्मकता को विकसित करने के उपाय

  1. व्यक्ति को उत्तर देने की स्वतंत्रता दी जाये।
  2. व्यक्ति में मौलिकता एवं लचीलेपन के गुणों को विकसित करने का प्रयास किया जाये।
  3. व्यक्ति को स्वयं की अभिव्यक्ति के लिए अवसर प्रदान किये जाये।
  4. व्यक्ति के डर एवं झिझक को दूर करने का प्रयास किया जाये।
  5. व्यक्ति को उचित वातावरण दिया जाये।
  6. व्यक्ति में अच्छी आदतों का विकास किया जाये।
  7. व्यक्ति के लिए सृजनात्मकता को विकसित करने वाले उपकरणों की व्यवस्था की जानी चाहिए।
  8. व्यक्ति मे सृजनात्मकता को विकसित करने के लिए विशेष प्रकार की तकनीकी का प्रयोग करना चाहिए। जैसे:- मस्तिश्क विप्लव, किसी वस्तु के असाधारण प्रयोग, षिक्षण प्रतिमानों का प्रयोग, खेल विधि आदि।
  9. व्यक्ति के लिए सृजनात्मकता को विकसित करने के लिए पाठ्यक्रम में सृजनात्मक विशय वस्तुओं का समावेश किया जाना चाहिए।

सृजनात्मक लेखन के विविध क्षेत्र कौन कौन से हैं?

सृजनात्मक लेखन की विविध विधाओं (कविता, कहानी, यात्रावृत्त, रिपोर्ताज, साक्षात्कार, दृश्य - साहित्य, पत्रकारिता) से परिचित कराना ।

सृजनात्मकता के कितने प्रमुख तत्व होते है?

क्रो व क्रो – “ सृजनात्मकता मौलिक परिणामों को अभिव्यक्त करने का मानासिक प्रक्रिया है। “ गिलफोर्ड के अनुसार – “ सृजनात्मकता बालकों में प्रायः सामान्य गुण होते हैं, उनमें न केवल मौलिकता का गुण होता है, वरन उनमें लचीलापन, प्रवाहमयता , प्रेरण, एवं संयमता की योग्यता भी पाई जाती है।

सृजनात्मक कितने प्रकार के होते हैं?

सृजनात्मकता के प्रकार.
शाब्दिक सृजनात्मकता.
अशाब्दिक सृजनात्मकता.

सृजनात्मकता के कितने चरण है?

सृजनात्मकता चिन्तन की अवस्थाएं - कोर्इ भी व्यक्ति किसी भी समस्या का समाधान कर रहा हो या सृजनात्मकता चिन्तन कर रहा हो उसे मुख्य रूप से चार अवस्थाओं से गुजरना होता है।

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