त्योहार मनाने से क्या लाभ होता है? - tyohaar manaane se kya laabh hota hai?

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ओणम केरल का महत्वपूर्ण त्योहार है लेकिन इसकी धूम अन्य राज्यों में भी रहती है. यह वार्षिक त्योहार 15 अगस्त को शुरू हुआ था और 27 अगस्त को खत्म होगा. इस बार केरल में विनाशकारी बाढ़ के चलते ओणम के त्योहार की चमक थोड़ी फीकी पड़ गई है.

इस त्योहार की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस दिन लोग मंदिरों आदि में पूजा-अर्चना नहीं करते, घर में ही पूजा करते हैं.

इस पर्व के संदर्भ में कहा जाता है कि केरल में महाबली नाम का एक असुर राजा था जिसके आदर में लोग ओणम का पर्व मनाते हैं. लोग इसे फसल और उपज के लिए भी मनाते हैं. ओणम दस दिन के लिए मनाया जाता है. इस दौरान सर्प नौका दौड़ के साथ कथकली नृत्य और गाना भी होता है.

श्रावण के महीने में ऐसे तो भारत के हर भाग में हरियाली चारों ओर दिखाई पड़ती है किन्तु केरल में इस महीने में मौसम बहुत ही सुहावना हो जाता है. फसल पकने की खुशी में लोगों के मन में एक नई उमंग, नई आशा और नया विश्वास जागृत होता है. इसी प्रसन्नता में श्रावण देवता और फूलों की देवी का पूजन हर घर में होता है.

केरल में ओणम का त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है. जिस तरह दशहरे में दस दिन पहले रामलीलाओं का आयोजन होता है उसी तरह ओणम से दस दिन पहले घरों को फूलों से सजाने का कार्यक्रम चलता है. ओणम हर साल श्रावण शुक्ल की त्रयोदशी को मनाया जाता है.

घर में बनाया जाता है फूल गृह

केरल में ओणम के त्योहार से दस दिन पूर्व इसकी तैयारियां शुरू हो जाती हैं. हर घर में एक फूल-गृह बनाया जाता है और कमरे को साफ करके इसमें गोलाकार रुप में फूल सजाए जाते हैं. इस त्योहार के पहले आठ दिन फूलों की सजावट का कार्यक्रम चलता है. नौवें दिन हर घर में भगवान विष्णु की मूर्ति बनाई जाती है. उनकी पूजा की जाती है तथा परिवार की महिलाएं इसके इर्द-गिर्द नाचती हुई तालियां बजाती हैं. रात को गणेशजी और श्रावण देवता की मूर्ति बनाई जाती है. बच्चे वामन अवतार के पूजन के गीत गाते हैं. मूर्तियों के सामने मंगलदीप जलाए जाते हैं. पूजा-अर्चना के बाद मूर्ति विसर्जन किया जाता है.

ओणम के दौरान बनते हैं लजीज व्यंजन

भोजन को कदली के पत्तों में परोसा जाता है. इसके अलावा 'पचड़ी–पचड़ी काल्लम, ओल्लम, दाव, घी, सांभर' भी बनाया जाता है. पापड़ और केले के चिप्स बनाए जाते हैं. दूध की खीर का तो विशेष भोजन महत्व है. दरअसल ये सभी पाक व्यंजन 'निम्बूदरी' ब्राह्मणों की पाक–कला की श्रेष्ठता को दर्शाते हैं तथा उनकी संस्कृति के विस्तार में अहम भूमिका निभाते हैं. कहते हैं कि केरल में अठारह प्रकार के दुग्ध पकवान बनते हैं. इनमें कई प्रकार की दालें जैसे मूंग व चना के आटे का प्रयोग भी विभिन्न व्यंजनों में किया जाता है.

प्राचीन परम्पराएं-

1. केरल में मनाए जाने वाला यह त्योहार हस्त नक्षत्र से शुरू होकर श्रवण नक्षत्र तक चलता है. दस दिवसीय इस त्योहार पर लोग घर के आंगन में महाबलि की मिट्टी की बनी त्रिकोणात्मक मूर्ति पर अलग-अलग फूलों से चित्र बनाते हैं. प्रथम दिन फूलों से जितने गोलाकार वृत बनाई जाती हैं दसवें दिन तक उसके दसवें गुने तक गोलाकार में फूलों के वृत रचे जाते हैं. ऐसी मान्यता है कि तिरुवोणम के तीसरे दिन महाबलि पाताल लोक लौट जाते हैं. जितनी भी कलाकृतियां बनाई जाती हैं, वे महाबलि के चले के बाद ही हटाई जाती हैं. यह त्योहार केरलवासियों के साथ पुरानी परम्परा के रूप में जुड़ा है. ओणम वास्तविक रूप में फ़सल काटने का त्योहार है जिसकी व्यापक मान्यता है.

2. कहा जाता है कि जब परशुरामजी ने सारी पृथ्वी को क्षत्रियों से जीत कर ब्राह्मणों को दान कर दी थी. तब उनके पास रहने के लिए कोई भी स्थान नहीं रहा, तब उन्होंने सह्याद्री पर्वत की गुफ़ा में बैठ कर जल देवता वरुण की तपस्या की. वरुण देवता ने तपस्या से खुश होकर परशुराम जी को दर्शन दिए और कहा कि तुम अपना फरसा समुद्र में फेंको. जहां तक तुम्हारा फरसा समुद्र में जाकर गिरेगा, वहीं तक समुद्र का जल सूखकर पृथ्वी बन जाएगी. वह सब पृथ्वी तुम्हारी ही होगी और उसका नाम परशु क्षेत्र होगा. परशुराम जी ने वैसा ही किया और जो भूमि उनको समुद्र में मिली, उसी को वर्तमान को 'केरल या मलयालम' कहते हैं. परशुराम जी ने समुद्र से भूमि प्राप्त करके वहां पर एक विष्णु भगवान का मन्दिर बनवाया था. वही मन्दिर अब भी 'तिरूक्ककर अप्पण' के नाम से प्रसिद्ध है. जिस दिन परशुराम जी ने मन्दिर में मूर्ति स्थापित की थी, उस दिन श्रावण शुक्ल की त्रियोदशी थी. इसलिए उस दिन 'ओणम' का त्योहार मनाया जाता है.

इस पर्व की लोकप्रियता काफी ज्यादा है. यही कारण है कि केरल सरकार ओणम को एक पर्यटक त्योहार के रुप में मनाती है. इस दौरान केरल की सांस्कृतिक धरोहर देखते ही बनती है. ओणम के अवसर पर समूचा केरल नावस्पर्धा, नृत्य, संगीत, महाभोज आदि कार्यक्रमों से जीवंत हो उठता है. यह त्योहार केरलवासियों के जीवन के सौंन्दर्य को सहर्ष अंगीकार करने का प्रतीक है. यह त्योहार भारत के सबसे रंगा-रंग त्योहारों में से एक है.

तन-मन से जब पूरी गन्दगी, गाद निकल जाए और कण्ठ में अजपा जाप का आरम्भ होने लगे। नाभि में नाद गुंजायमान होने लगे यही आत्मा का उत्सव है। जिस दिन भी ऐसा होने लगता है, तो आत्मा- परमात्मा से मिलकर परमहन्स हो जाती है। सन्सार के सारे उत्सव सृष्टि को चलायमान रखने वाली शक्तियों के लिए मनाए जाते हैं। अमृतम् मासिक पत्रिका

मन को कैसे खुश रखें?..

डिप्रेशन नाशक ये ब्लॉग 13 हजार शब्दमणियों से पिरोया गया है। पित्तदोष के उपाय और पूजादि के तरीके समझक जीवन बदल सकते हो।

इसमें उ शब्द का 1300 बार उपयोग किया गया है। पढ़कर आनंदित होकर उत्साह से भर जाएंगे और ज्ञान संवर्धन भी होगा। हे भोलेनाथ! शौक से तोड़ो दिल मेरा,

मैं क्यों चिन्ता करुं।

तुम ही रहते हो शिव इसमें,

अपना ही शिवालय बर्बाद करोगे।।


उत्सव उमंग और उत्साह की उन्नति का उपाय है…! ऊँ के ऊंकार नाद से उत्पन्न उत्सव हो या उपासना ऊपर वाले (ईश्वर) के प्रति उन्मुख होने की प्रक्रिया है।

उत्सव के दिनों में व्यक्ति उदासी उत्कंठा, उष्णता(गर्मी) उन्माद, उत्तेजना का त्याग कर उत्तरार्ध (पिछला समय) भूलकर उत्पात्, ऊधमबाजी में उत्साहसे ईश्वर के उद्घोष में तल्लीन हो जाता हैं।

उत्तरोत्तर वृद्धि तथा उत्तम ऊधौ (भक्त)बनाने के उद्देश्य को लेकर ही उत्सवों का उद्भव हुआ। विश्व में अधिकांश उत्सव सूर्य के उत्तरायण के बाद ही होते हैं क्योंकि दक्षिणायन सूर्य में ऊर्जा का भारी क्षरण होता है। इसी समय उदान वायु जो प्राणवायु का एक भेद है। उदान वायु का स्थान कंठ है जिससे डकार और छींक आती है।

दक्षिणायन सूर्य में ही सर्वाधिक उदररोग पनपते हैं,उदर रोग उन्नति और उल्लास में भी बाधक हैं। असंख्य उदररोग, पेट के विकारों से मुक्ति के लिए अमृतम् फार्मास्युटिकल्स द्वारा जड़ी बूटियों से निर्मित जिओ माल्ट पूरे परिवार के लिये संसार की सर्वश्रेष्ठ औषधि है।

उत्तरायण सूर्य में तीर्थ यात्रा का महत्व है, तो दक्षिणायन सूर्य में उत्सवों का। उत्तरायण देवताओं का दिन कहलाता है इसलिये उत्तराचंल, उत्तर भारत, उत्तर काशी, उखीमठ, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश के तीर्थ जैसे- कालपी तथा उन्नाव का प्रख्यात सूर्य मन्दिर, काशी के विश्वनाथ, मथुरा वृन्दावन के श्री कृष्ण-राधा, तथा उधमपुर के नजदीक मणिसर झोल जहाँ अधिक में भरा भरकर लम्बी उम्र वाले कछुओं का झुण्ड है।

प्राचीन मार्तण्ड सूर्य मंदिर तथा गवाह बाबा नाम से सिद्ध अद्भुत नाग मन्दिर भी है जो लकड़ियों से निर्मित है। इसके आसपास क्षेत्रों में अनेक साधक शिव उपासना से महादेव को साधने में लगे है।

यहाँ के अनेक तीर्थ उजड़ भी चुके हैं।

कभी जम्मू कशमीर अंक में विस्तार से जानकारी देंगें। उदयपुर के पास का कुम्भलगढ़ में स्वयंभू शिवमन्दिरों की श्रृंखला एकलिंगनाथ, श्रीनाथद्वारा आदि अनेक धार्मिक सिद्ध स्थानों की यात्रा उत्तरायण में करने से उच्चतम भक्ति प्राप्त होती है।

शिवालय में शिवलिंग की जलहरी भी उत्तर दिशा की तरफ होती है। उत्तर का जीवन में भी विशेष महत्व होता है। प्रश्नों के सही उत्तर उच्च सफलता दिलाते हैं। स्वयं के प्रश्नों के उत्तर देने वाला व्यक्ति साधक बन उपकार (कल्याण) करने लगता है। गलत उत्तर उपहास का कारण बनता है।

शिव की उपासना में उतावला उपासक उदासीनता और जन्म-जन्म के उतरन से मुक्त हो, उस्ताद (गुरु) बन जाता है। शिव भक्ति उत्पन्न होने के कारण भगवान दतात्रेय ने गुरु (शिव) के आदेश का पालनकर उदम्बुर (गूलर)वृक्ष के समीप घनघोर तपस्या से उत्कृष्ट सिद्धि प्राप्त कर उर्ध्वगमन किया। अखाड़ों की धारा…तेरह अखाड़ों में से एक उदासीन अखाड़ा के उपासक (साधू) उदयातिथि में एक उद्यन पूजा जिसमें असंख्य दीप जलाये जाते हैं इसे परमात्मा को प्रकाशित करने की प्रक्रिया कहते हैं समय-समय पर करते हैं।

उदासीन साधू सिर्फ अपने गुरु मन्त्र की शक्ति प्राप्ती तथा अध्यात्म उन्नति के अलावा सब मोह माया छोड़ उदासीन रहते है। लेकिन अब सभी अखाड़ों में उत्तराधिकार को लेकर विवाद है। सभी जगह उदारता, उत्तम पुरुष, उत्तम स्त्रियों, उत्कांति उपासकों, उपकारी उसूल वाले प्राणियों का अब दिनों दिन भारी अभाव होता जा रहा है। हर कोई अपनों-गेरों की नजरों में उतरकर, धन के लिये उड़ान भर रहा है, उड़न छू हो रहा है। अब उपलब्धि, उपार्जन उन्नति महत्व की वस्तु बन गई है, उद्देश्य कोई भी हो। सत्य, सही-सीख पर उखड़ना (क्रोधित होना) एक आम बात है। अंधकार, अहंकार और अज्ञानता इन तीनों बहनों ने लोगों को प्रेमियों की तरह इतना फांस लिया है कि लोग इससे ऊपर उठने पर भयभीत होते है। ऐसे लोगों को प्रकाश में ले जाने या प्रकाशित करने का उपाय ऊपरवाला ही बता सकता है। वैसे दीप जलाना सर्वश्रेष्ठ उपाय है। उन्नति में बाधक उन्माद…उन्माद में उलझा व्यक्ति उल्लू हो जाता है। दुनिया का ध्यान उपाधि, उलझाव, उलझन उपेक्षा, उफान, ऊबाल (क्रोध) उम्मीदवार, उलटफेर, उपहास, उल्लू बनाने, उस्तरा चलाने, उपार्जन, गन्दे उपन्यास, उपद्रव, ऊधम, ऊट पटांग बाते, उपवात (आघात, धोखा) अपने, अपने उपक्रम (उदयोग) चलाने और उपग्रह छोड़ने पर ही सबसे ज्यादा है। इस कारण सारा संसार उन्माद की और उन्मुख हो रहा है। उन्माद के कारण हर काम से मन उखड़ जाता है.. उन्माद एक ऐसा रोग है जिसमें मन और बुद्धि का कार्यक्रम बिगड़ जाता है। पागलपन, विक्षिप्तता, चित्तवभ्रम, भय, भ्रान्ति एवं नकारात्मक ऊर्जा का संचार से शरीर हीन, मन मस्तिष्क शून्य हो जाता हैं। उन्माद रोग से शरीर को स्वस्थ्य रखने वाले 33 संचारी भाव में से एक जिसमें वियोगादि के कारण चित्त ठिकाने नहीं रहता, व्यक्ति सदा भयभीत रहता है। उन्माद रोग में कोई उपकरण काम नहीं करता सिवाय शिव की महाशक्ति उपासना मंत्र नमः शिवाय च नमः शिवाय मन्त्र के। इस महामन्त्र के जाप और नित्य प्रतिदिन राहुकी तेल का दीप शिवालय या घर के देवालय में जलाकर मन्त्र जाप एवं राहु काल में नियमित चन्दन केशर अथवा अमृतम् तेल शिवलिंग पर अर्पित कर उन्माद से मुक्ति पा सकते हैं। इन्सान की बनाई मूर्तियों (मन्दिरों) में अपना समय मत खराब करो । दुनियां में असंख्य स्वंभू शिवालय है जैसे दक्षिण का तिरूअन्नामलय अग्नि तत्व शिवालय और आसपास करीब 40 अन्य स्वंभू शिवालयों के दर्शन दीपदान से अनन्त उर्जा मिलकर सारे कष्ट, क्लेश, कालसर्प, पितृदोष मिट जाते हैं। खुश रहने का अभ्यास करो। यदि संभव हो तो ईश्वर द्वारा निर्मित मूर्ति अर्थात् चलता फिरता प्राणी को प्रसन्न रखो किसी की आत्मा या दिल न दुखाओ। यही सबसे बड़ी पूजा-प्रार्थना है, मंदिरो का जीर्णोद्वार है। शिव को साधे सब सधैं…. शिवालय के समक्ष उपासक की उपस्थिति प्रत्येक माह की मास शिवरात्रि का उपवास, सूखे वन तथा तन-मन को उपवन बनाकर जीवन को उम्दा बना सकती है। उमा-महेश्वर उमेश (शिव, महादेव, श्रीगणेश और कार्तिकेय) जैसे देवों में ही सर्व कल्याण, उत्थान करने की क्षमता है आध्यात्म के उपभोक्ता मत बनो, भय, भ्रम, भ्रान्ति भटकाव बन्द करो, उस पार ऊंकार (महाकाल) पहुँचायेगा। बार-बार मत भटको विश्व में वास केवल विश्वनाथ का ही है यही विश्वास बनाये रखो। महामृत्युजंय मन्त्र में ऊर्वारुक शब्द आया है। ऊर्वा कहते हैं तरबूज को। अर्थात मस्तिष्क को तर करने वाला फल। तरबूज महाशान्ति दायक होने के कारण तरबूज जैसे फल को मन्त्रों में समाहित किया गया। यह फलों का महाभाग्य है। उबासी (जंभाई) अर्थात आलस्य फैलाने वाले नकारात्मक ऊर्जा से भरे लोगों से दर रहो ये लोग सदा उल्टा सोचते हुए उल्टी करते रहते हैं। शिवसाधना से मन की सफाई नियमित करना चाहिये। हर विकल्प की काट या हथियार संकल्प है। उपनिषद वाक्य है- !!शिवः संकल्प मस्तु!! अर्थात-कठोर संकल्प में ही शिव का वास है। उर्वरा शक्ति से भरा व्यक्ति उपजाऊ भूमि से भी ज्यादा उपयोगी होता है। उपमेय बनो। उपमा बन जाओं! ऊँट के मुँह में जीरा जैसी उपासना महत्वहीन है। उपजाऊ भूमि और अधिक उपज (कमाने) वाला व्यक्ति ही सबका, समाज का, संसार का, सहयोगियों, सहपाठियों, सत्संगियों, साधुओं का शिव (कल्याण) करता है। आप में क्षमता है, आप सल्तनत उलट सकते हो। इस लेख को उपन्यास की तरह मत पढ़ों। ये प्रेरणा वाक्य है। यह ब्रम्ह उवाच है। आज से ही,अभी से और इसी क्षण से जब तक हमारे पास कोई उम्दा उत्थान, उन्नति हेतु काम नहीं है तब तक किसी शिवालय की साफ-सफाई का नियम बना लो, पहाड़ों, पर्वतों पर स्थित मन्दिरों की देखभाल करो संभव हो तो नित्य कर्पूर जलाओं। अमृतम् तेल का दीप जलाओ। यह एक अद्भुत अवधूत का बताया हुआ आध्यात्मिक योग है। सुख सम्पन्नता दायक- राहु की rahukey तेल… अमृतम राहु की तेल एक अदभुत ग्रहनक्षत्र शांति हेतु कष्ट नाशक तेल है इसमें बादाम तेल, केशर इत्र, तिल, तिल तेल, घोड़े की नाल का लोहा, वंग, त्रिवंग, चन्दनादि तेल और जैतुन का समिश्रण है। राहु की तेल प्रत्येक शनिवार शरीर पर लगाया जा सकता है। इसमें मिला बादाम शरीर के वात रोगों, पूर्व जन्म के पापों से मन मस्तिष्क में भारी पन दूर कर मन शान्त करता है। बादाम तेल शिवलिंग पर अर्पित करने से बुद्धि का विकास होता है। बादाम शनि राहु-केतु के प्रकोप तथा कालसर्प पितृदोष को शान्त करता है।

परिवार के सभी सदस्य प्रत्येक शनिवार को पूरे शरीर में अमृतम तेल लगाकर ही स्नान करें, तो परम उमंग प्राप्ति का अनुभव करेंगे। राहु की तेल में मिलाई गई बहुमूल्य केशर तथा कुमकुम इत्र गुरु ग्रह तथा सदगुरु (शिव) की कृपा धारक है।

राहु की तेल में चन्दनादि तेल मन की चंचलता मिटाता है। उन्माद रोग नाशक है।

सूर्य-चन्द्र ये दोनों सर्वाधिक शक्तिशाली ग्रह है। सृष्टि के आदि से अन्त तक सत्य (शिव) शिवम् (सूर्य) और सुन्दरम् ( चन्द्रमा) ये तीनों कभी नष्ट नहीं होते।

शेष का समय-समय जन्म पतन होता रहता है। ये तीनों ऊपरवाले सदैव उन्नति उपकार करने वाले महा उदारवादी, उद्देश्य, उन्मुख उत्थान कारक ऊर्जा या शक्ति है। उपनयन (जनेऊ)संस्कार इन्हें प्रसन्न करने की प्राचीन परम्परा है।

नक्षत्रों के नियम…सत्ताइस नक्षत्रों में तीसरा कृतिका, उत्तराफाल्गुनी एवं हस्त नक्षत्र जो बारहवा-तेरहवा है तथा उत्तराषाढ़ा नक्षत्र, जो नक्षत्रक्रम में इक्कीसवा है! इन नक्षत्रों के स्वामी अधिपति सूर्य ही है तथा उत्तराभाद्रपद नक्षत्र जो कि छब्बीसवा है इसके अधिपति स्वामी शनि (शिव) है।

कृतिका नक्षत्र की मेष-वृषभ राशि है। उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र सिंह एवं कन्याराशि में, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र धनु और मकर राशि तथा उत्तराभाद्रपद नक्षत्र मीन राशि में आते हैं। इन नक्षत्रों में जन्मे जातक जीवन में अथाह सम्पत्ति के स्वामी बनकर मनचाही उन्नति कर सकते हैं बशर्ते ये अधिक से अधिक शिव उपासना करें।

प्रत्येक उत्सव के दौरान राहु की तेल के दीपक जलाएं । सदगुरू की शरण ओर चरण में रहना सीखो…सदगुरु और योग्य ब्राह्मणों तथा बड़े बुजुर्गो की सेवा कर आशीर्वाद लेवें।

गाय को गंगाजल या सादे जल से स्नान कराकर गाय के कान में !!नमः शिवाय च नमः शिवाय!! मन्त्र बारह बार सुनाये।

रोटी में घी हल्दी लगाकर गुढ़ सहित 27 दिन तक नियमित खिलावें। माथे पर लगाकर हल्दी का तिलक लगावें।

दीप ज्योति का जलजला…महाभारत काल में अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा, विराट की कन्या तथा पारीक्षित की माता थी।

उत्तरा का जन्म उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में हुआ था इन्होने भगवान शिव की में घनघोर तपस्या के फलस्वरूप अभिमन्यु जैसा वीर पुत्र पाया! उत्तरा जीवन भर कार्तिकमास में, प्रतिदिन 1008 से बढ़ते क्रम में शिवालय में प्रात: शाम दीप प्रज्वलित करती रही।

विराटेश्वर का विराट शिवालय शहडोल में है… विराटेश्वर का यह महाभारत कालीन शिवालय शहडोल म.प्र. के नजदीक स्थित है। विस्तार से बाद में किसी अंक में एक लेख दिया जायेगा। इसमें म.प्र. 36 गढ़ के प्राचीन, स्वयंभू शिवालयों का विस्तृत वर्णन होगा।

उत्सव से उल्लास और उन्नति होती है…उत्सव कोई भी हो यह उल्लास का क्षण है। पितरों के ऋण से उऋण होने का एक अद्भुत उपाय है और दीपावली जैसे उत्सव के लिए प्रत्येक सनातन धर्मी उत्सुक रहता है।

उर्मिला की उदासी…उर्मिला लक्ष्मण की पत्नी सती रूप में पूजित है! इस कारण इन्हें पितृ-मातृका भी कहा गया है! इस महत्वपूर्ण बात से कथा के कलाकारों ने भक्तों का उच्चाटन कर दिया।

शेषनाग अवतार लक्ष्मण की पत्नी, उर्मिला का त्याग ग्रन्थों में उत्कीर्ण ही रह गया। मंदोदरी आदि ऐसे अनेको पितृ है, जो हमारे स्मरण में भी नहीं हैं। हमारे दिमाग से उखड़ चुके हैं।

पितरों के प्रयास…शिवावतार अमावसु नामक पितृ के नाम पर अमावस्या तिथि का नामकरण हुआ। महर्षि मरीचि के पुत्र अग्निष्वात इनकी पुत्री अच्छोदा ने पितरों को धरती पर लाने हेतु पूरे कार्तिक मास में दक्षिण भारत के तिरुअन्नामलय के अरुणाचलेश्वरा स्वयंभू अग्नितत्व शिवालय इतने दीपदान किये कि सम्पूर्ण सृष्टि प्रकाशमयी हो गई। देवी अग्निष्वात पृथ्वी लोक की प्रथम यह पितृ-मातृका थी, जिसने सशरीर पितृलोक जाकर अमावसु पितृ को धरती पर लाकर भोजन कराया तथा वरदान मांगा कि प्रत्येक अमावस्या को जो भी शिवालय या घर के मन्दिर में दीपदान करेगा पितृगण उसके घर में प्रतिदिन वायु रूप में भोजन ग्रहण कर परिवार को स्नेहिल आत्मीय आशीर्वाद देते रहेंगे।

पितरों पितृमातृकाओं की शान्ति मुक्ति हेतु दीपदान की खोज अच्छोदा नामक पितृमातृका ने ही की थी। उस दिन दीपावली की अमावस्या थी। तन्त्रालोक एवं पितरों की परलोक यात्रा नामक ग्रन्थ में विस्तार से वर्णन है।

उन्नति का उपाय…विकारों, द्वेष-दुर्भावना, जलन, कुढ़न से ऊपर उठे कि आत्मा में उत्सव का आरम्भ हुआ।

अपने को उठाना, उन्नति पाना, उद्देश्य की पूर्ति उत्सव ही है। किसी के उजाड़ जीवन को उमंग एवं उत्साह से भरने तथा विशेष उन्नति, रोग-राग शोक दुःख से मुक्ति, सुख-समृद्धि के लिए सभी त्योहारों, जन्मदिन, वैवाहिक वर्षगांठ एवं दीपावली पूजन में एक थाली भोजन पितृ देवों तथा सप्तऋषियों हेतु, एक थाली पितृमातृकाओं और एक थाली मातृ मातृकाओं, लोक मातृकाओं, नक्षत्र मातृकाओं, सप्तघृत मातृकाओं, षोडष मातृकाओं एवं सप्तविश्व मातृकाओं सहित इन सब मातृकाओं के लिए एक ही थाली इनमें श्वेत मिष्ठान, खीर, मालपुआ, पंचमेवा,, , मूंग की दाल के मगोड़े आदि सजाकर महादेव तथा महालक्ष्मी का आव्हान कर उनके समक्ष अर्पित कर एक डीप जलाएं और बहुजन को पशुओं को खिलाएं।

ऊपर उठने, उन्नति हेतु उत्सवों के दौरान करें ये उपाय…रात्रि बारह बजे से दो बजे के बीच एक सहित भोजन कहीं चौराहे पर या पीपल, बरगद व नीचे नया दीप जलाकर छोड़े। दूसरी थाली छत पर जलाकर छोड़े। मातृकाओं वाली तीसरी थाली - मन्दिर में ही छोड़े। घर की थाली का भोजन प्रात: ग खिलावें सभी थालियों के साथ मिट्टी के पात्र में भरकर कुशा डालकर अवश्य रखें। पितरों को जल, श्वेत पुष्प, मख्खन और श्वेत मिष्ठान विशेष पसन्द होता है और सभी मातृकाओं को दीपज्योति। हमारी हमारे जीवन को सदैव प्रकाशित करने का प्रयास कमाँ का त्याग और समर्पण अमूल्य है। इससे कोई भ उऋण नहीं हो सकता। घर में माँ या महिलाएं ही की वृद्धि और रक्षा करती हैं। अन्त में अपने पापों की क्षमा मागें। भगवाँ सूर्य से अपने परिवार सहित सभी के पितृ एवं मातृमातृकाओं की आत्मा की परम शान्ति, मुक्ति की प्राय ताकि पितरों को सूर्य लोक- शिवलोक में स्थान मिल सके। पितृगण, पितृ मातृकायें, मातृ मातृकाएं परम भाग्यशाली होकर पुन: हमारे परिवार में जन्म लेवें अथवा मुक्ति मार्ग को प्राप्त हो। मातृकाओं की ममता…-सम्पत्ति, यश कीर्ति धन-दौलत, भू-भूमि देने वाली केवल मातृकाऐ ही होती है इनकी उपासना से उन्नति एवं मन-मस्तिष्क को परमशान्ति मिलती है। जबकि पितृगण केवल सन्तति सन्तान देकर वंशवृद्धि करते है। शिव की सन्धानशाला सूर्य…एक प्राचीन ग्रन्थ सूर्य शक्ति कल्प में मातृकाओं की प्रसन्नता हेतु यह एक दुर्लभ रहस्यमयी मन्त्र/स्त्रोत हिन्दी सहित दिया जा रहा है! सर्वप्रथम ग्रहाधिपति सदाशिव भगवान सूर्य सहित सोमादि ग्रहोंसे शान्तिकी प्रार्थना करना चाहिए। शांतर्यतम् सर्वलोकानांततः शान्तिकमाचरेत्। सिन्दूरासनरक्ताभः रक्तपद्माभलोचनः ।।१।। सहस्त्रकिरणो देवः सप्ताश्वरथवाहनः गभस्तिमाली भगवान् सर्वदेवनमस्कृतः।।२।। करोतु मे महाशान्तिं ग्रहपीडानिवारिणीम्।।३।। अर्थात- सभी लोकों में स्थित ग्रह उपग्रह (राहु-केतु), पितों, सर्व मातृकाओं एवं देवीदेवताओं के आत्माओं की शान्ति के लिए हम सभी शान्ति का आचरण करे। हे भगवान सूर्य! सिन्दूरके समान रक्त आसन वाले, लाल कमल के समान नेत्रों वालों, हजारों (अर्थातअगणित) किरणों वाले, सात अश्वोंके रथ पर चलने वाले, किरणोंके स्वामी तथा जिनको सभी देवता नमस्कार करते हैं, वे भगवान् सूर्य हमारे परिवार के सभी ग्रहों की पीडा को दूर करने वाली महाशान्ति प्रदान करें। किसी भी उत्सव के समय या दीपावली की रात्रि में उपवास रखकर पति-पत्नी, पूरा परिवार सात दीप राहु की तेल के जलाकर उपरोक्त श्लोक सात-सात बार बोलते हुए भगवान शिव एवं महालक्ष्मी, श्रीगणेश को सुनावे, तो जीवन में उन्नति के मार्ग मिलने लगते हैं! अग्रलिखित स्त्रोत के नियमित पाठ से जीवन में सब शुभ-शुभ होने लगता है। फिर, पीड़ित जातक को किसी ज्योतिषाचार्य तान्त्रिक के पास जाने की जरुरत नहीं पड़ती बल्कि उल्टा होने लगता है। आप में इतनी सिद्धि आ जायेगी। आप जो चाहेंगे, वही सत्य होगा। समृद्धि आसपास होगी इसके शुभ-लाभ स्वयं करके देखे फिर औरों को भी प्रेरित कर, सदा अहंकार रहित रहें। यह उपयोग एक अवघूत द्वारा बताया गया अदभुत उपाय है। सर्व प्रथम दो दीपक देशी घी के जलाकर सूर्य को प्रणाम, ध्यान कर प्रार्थना करें मन्त्र इस प्रकार है। अब महाकाल से सर्व कष्टकाल काटने की प्रार्थना करें शशिकुन्देदु संकाशो विश्रुताभरणेरिहा।

चतुर्भुजो महातेजाः पुष्पार्धकृतशेखरः।।२।।

चतुर्मुखो भस्मधरः श्मशान निलयः सदा।

गोत्रारिर्विश्व-निलयस्तथा चक्रतुदूषणः ।।३।।

वरोवरेण्यो वरदो देवदेवो महेश्वरः

आदित्यदेहसम्भूतः स मे शान्तिं करोतु वै।।४।।

हे भोलेनाथ! आप चन्द्रमा एवं कुन्दपुरूष के समान उज्जबल वर्ण वाले हैं, नाग आदि विशिष्ट आभरणों से अलंकृत होकर, महातेजस्वी. महातपस्वी, मस्तक पर अर्थचन्द्र धारण करने वाले, समस्त विश्व में व्याप्त, श्मशान में रहने वाले, दक्ष यज्ञ विध्वंस करने वाले, वरणीय, आदित्य (सूर्य) की देह से सम्भूत, महाबरदानी, देवोंके भी देव महादेव, भस्म धारण करने वाले महेश्वर हमें परमसुख शान्ति प्रदान करें। मात मातृकाओं को मनाएं…अब सर्व प्रथम सात विश्व मातृकाओं की शान्तिके लिए प्रार्थना करें। पद्मरागप्रभा देवी चतुर्वदनपङ्कजा।

अक्षमालार्पितकरा कमण्डलुधराशुभा।।५।।

ब्रह्माणी सौम्यवदना आदित्याराधने रता।

शान्तिं करोतु सुप्रीता आशीर्वादपराखग॥६॥

अर्थात- लाल कमलके समान आभावाली, कमल जैसे चार मुखों वाली, एक हाथमें अक्ष माला एवं एक हाथ में कमण्डल धारण करने वाली, सदा से कल्याण में कारक, कल्याणकारिणी, सौम्यमुखों वाली, आदित्यकी आराधना करने वाली, सदा प्रसन्न रहने व रखने वाली, आशीर्वाद देने में तत्पर हे माँ मातृका ब्रह्माणी हमें परम सुख शान्ति समृद्धि प्रदान करे महाश्वेतेति विख्याता आदित्यदयिता सदा। हिमकुन्देन्दुसदृशा महावृषभवाहिनी।।

त्रिशूलहस्ताभरणा विश्रुताभरणा सती।

चतुर्भुजा चतुर्वक्त्रा त्रिनेत्रापापनाशिनी।।

वृषध्वजार्चनरता रुद्राणीशान्तिदा भवेत्।।७।। .

अर्थात-महाश्वेता के नामसे विख्यात, उदयकाल से ही आदित्यका ध्यान करने वाली, हिमश्वेतकुन्द और चन्द्रमा समान वर्ण वाली, महावृषभ पर बैठकर हाथमें त्रिशूल धारण करने वाली, आश्चर्यजनक आभरणों को धारण करने वाली, चार भुजाओं-चारमुखों और तीन नेत्रों वाली, पापियों व पापों का नाश करने में तत्पर. वृषध्वज भगवान शिव की अर्चना तपस्या में तल्लीन, हे माँ महामातृका माता रुद्राणी! हमें शान्ति प्रदान करें। मयूरवाहना देवी सिन्देरारुण-विग्रहा।

शक्तिहस्ता महाकाया सर्वालंकारभूषिता।।

सूर्यभक्ता महावीया सूर्याचनाता सदा।

कौमारी वरदा देवी शान्तिमाशु करोतु मे ।।८।।

भावार्थ- हे माँ! मयूर वाहन पर सवार, सिन्दूरके समान शरीर वाली, हाथमें (एक हथियार) धारण कर, वाली, सभी अलंकारों से मुशोभित, भगवान सूर्गकी अनन्य भक्त, महापराक्रम महाशक्तिशाली, नियमित सूर्यकी अर्चना करने वाली, वरदात्री देवी माँ कौमारी। हमारे मन-मस्तिाक को परम शान्ति प्रदान करें। गदाचक्रधराश्यामापीताम्बरधराखगा।

चतुर्भुजा हि सा देवी वैष्णवी सुरपूजिता ।।९।। सूर्यार्चनपरा नित्यं सूर्यैकगतमानसा।

शान्तिं करोतु मे नित्यं सर्वासुरविमर्दिनी ।।१०।।

अर्थात- हे महामातृका! गदा और चक्र धारणी, श्याम वर्ण शरीर वाली, पीताम्बर धारण कर (खग) आकाशमें भी गमन करने वाली, सभी असुरों सहित हमारी असुरी वृत्तियों, विकारों का मर्दन करने वाली, देवताओं द्वारा पूजिता है वैष्णवी देवी ! मुझे बल विश्वास, वजनदारी एवं परम शान्ति प्रदान करें। ऐरावतगजारूढा वज्रहस्ता महाबला।

सर्वत्रलोचना देवी वर्णतः कर्बुरारुणा।।१।।

सिद्धगन्धर्व-नमिता सर्वालंकार-भूषिता।

इन्द्राणी मे सदा देवी शान्तिमाशुकरोतु वै।।१२।।

अर्थात- हे गुरुमातृका! ऐरावत हाथी पर बैठने वाली. महाबलवती, हाथमें वज्र धारण कर, शरीर में एक सहस्र नेत्रों वाली, चित्र-विचित्र लाल रंग वाली, सिद्ध-गन्धर्व जिसे प्रणाम करते हैं, सभी अलङ्कार से विभूषिता, हमारी पाँचों कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों को शक्ति, सामर्थ्य देकर हे इन्द्राणी देवी हमें सदा परम शान्ति तथा सम्पत्ति प्रदान करे। वराहघोणा विकटा वराहवर-वाहिनी।

श्यामावदाता या देवी शङ्खचक्रगदाधरा॥१३॥ तेजयन्तीति निमिशान् पूजयन्ती सदारविम्

वराही वरदा देवी मम शान्तिं करोतु वै।।१४।। ,

अर्थात-वराहके समान नाक वाली, श्रेष्ठ वराह पर आरूद, विकटा, शख-चक्र गदा धारण कर, स्वच्छ श्याम रंग वाली तेजस्विनी प्रतिक्षण प्रतिपल भगवान् सूर्यको आराधना करने वाली, सर्व वरदात्री हे देवी वाराही! हमें महा शान्ति प्रदान कर सभी मनोकामना पूर्ण करें। अर्धकोशा कटीक्षामा निर्मांसा स्नायुबन्धना।

करालवदना घोरा खड्गघटोद्गता सती।।१५।। कपालमालिनी क्रूरा खट्वाङ्गवर-धारिणी।

आरक्ता पिङ्गनयना गजचर्मावगुण्ठिता।।१६।। गोश्रुताभरणा देवी प्रेतस्थाननिवासिनी

शिवारूपेण घोरेण शिवरूप-भंयकरी।।१७।।

चामुण्डा चण्डरूपेण सदा शान्तिं करोतु मे।।१८।।

अर्थात-अधखिले फूलके समान, पतली कटि (कमर) वाली, मांस रहित कङ्काल स्वरूपिणी हे माँ कंकाली!, कठोर शरीर वाली, भयानक तलवार और घण्टा धारण कर, मुण्डमाला धारिणी, क्रूरा, खट्वाङ्ग तथा परमुद्रा धारिणी, रक्त शरीर वाली, पीले नेत्रों वाली, गजचर्म-धारिणी, पन्ना के प्रसिद्ध हीरोंका गहना धारण करने वाली, प्रेतों के स्थानमें निवास करने वाली, घोर शिवारूपा धारिणी, भंयकर शिवरूप स्वरूपणी, हाथमें चण्ड-मुण्डके मुण्डों को लिए, चण्डरूप से हे चामुण्डा देवी! सदा ही हमें मन की शान्ति प्रदान करें। हमें कालस्वरूप कालसर्प दोष से मुक्त करें। माँ कंकाली - मातेश्वरी का सिद्ध स्वयंभू प्राचीन मन्दिर शहडोल म.प्र. से 12-15 किमी. दूर कंकाल एवं नग्न अवस्था स्वरूप में स्थित है। कभी दर्शन करें। विशेष- इमे सप्त-मातरः कथयन्ते।

अग्रे मातृपितृ-मातृणांशान्त्यर्थं प्रार्थना कर्तव्या।

अर्थात- ये सात माताएँ विश्व माताएँ कही जाती है। आगे मातृ-पक्ष व पितृ पक्षकी माताओं की शान्ति के लिए प्रार्थना करनी चाहिए।

चाण्डमुण्डकरा देवी मुण्डदेहगता सती।

कपालमालिनी क्रूरा खट्वाङ्गवरधारिणी।।१९।। आकाशमातरो देव्यस्तथान्या लोकमातरः।

भूतानां मातरःसर्वास्तथान्याः पितृमातरः।।२०।।वृद्धिश्राद्धेषु पूज्यन्ते यास्तु देव्यो मनीषिभिः।

मात्रे प्रमात्रे तन्मात्रे इति मातृमुखास्तथा।।२१।।

पितामही तु तन्माता वृद्धा या च पितामही।

इत्येतास्तु पितामह्यः शान्तिं मे पितृमातरः।।२२।।

अर्थात-सम्पूर्ण चराचर जगत में विचरण कर रहीं हमारी और समस्त प्राणियों, जीवों की आकाश-मातृकाएँ, देवियाँ तथा अन्य लोक-मातृकाएँ, भूत (जो हो चुकी हैं) माँ मातृकाएँ तथा अन्य सभी पितृ-मातृकाएँ, वृद्धि या श्राद्धों में पूजी जाने वाली पितृ- मातृकाएँ, माता प्रमाता, वृद्ध प्रमाता-ये मातृ-मातृकाएं शान्त चित्त से हमें हमारे परिवार तथा बच्चों को शान्ति प्रदान करें। हे सर्व महान मातृकाओं हमारे तथा अखण्ड सृष्टि के सभ पितरों को मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर हमें सुख-सम्पत्ति सम्मान-समृद्धि का आशीर्वाद फलित करो। हे महामाता म मातृकाओं हमें सर्व पाप-शाप, दु:ख दारिद्र दुर्भाग्य से मुत्त से करो। सर्वा मातृमहादेव्यः सायुधा व्यग्रपाणयः।

जगद्व्याप्य प्रतिष्ठन्त्यो बलिकामा महोदयाः।।२३।। ₹शातिं कुर्वन्तु ता नित्यमादित्यराधने रताः।

शान्तेनचेतसा शान्त्यः शान्तये मम शान्तिदा।।२४।। सर्वावयवमुख्येन गात्रेण च सुमध्यमा। पीतश्यामातिसौम्येन स्निग्धवर्णेण शोभना ।।२५।। ललाटतिलकोपेता चन्द्ररेखार्धधारिणी।

चित्राम्बरधरा देवी सर्वाभरणभूषिता।।२६।। स्त्रीमयरूपाणांशोभा गुणसुसम्पदाम्।

भावनामात्रसंतुष्टा उमा देवी वरप्रदा।।२७।।

साक्षादागत्य रूपेण शान्तेनामिततेजसा।

शान्तिं करोतु मे प्रीता आदित्याराधने रता।।२८।।

अर्थात-ये सभी हमारे पितरों, पूर्वजों की सभी अखण्ड मातृकाएँ अपने हाथों में आयुध धारण करती है और संसारको काश से व्याप्त करके प्रतिष्ठित रहती हैं तथा भगवान् सूर्यकी राधना में रत सदैव वंश की वृद्धि-समृद्धि हेतु तत्पर रहती सुन्दर अङ्ग-प्रत्यङ्ग वाली तथा सुन्दर कटि-प्रदेश नी, पीत एवं श्याम वर्ण, स्निग्ध- आभावाली, तिलक एवं ण्ड से सुशोभित ललाट वाली, अर्धचन्द्ररेखा धारण करने , सभी आभरणों में विभूषित, चित्र-विचित्र वस्त्र धारी, स्त्री-स्वरूपोंमें गुण और सम्पत्ति के कारण सर्वश्रेष्ठ शालिनी, आदित्यकी आराधना तथा सेवा-पूजा में तत्पर, न भावना मात्रसे सन्तुष्ट होने वाली, वरदायिनी हे भगवती देवी! अपने अमित तेजस्वी एवं शान्तरूपसे प्रत्यक्ष प्रकट प्रसन्नतासे हमें हमारे परिवार सहित समस्त संसार के न्यों को परम महासुख शान्ति प्रदान करें। हे माँ ! हम सदैव भाव से आपका स्मरण करते रहे ऐसा आशीष देवें मेरे -भावना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः धनदायक, समृद्धिकारक यह दुर्लभ स्त्रोत, महामन्त्र सूर्य नवग्रहादि, पितरो, मातृ-मातृकाओं सहित सर्व मातृकाओं की जा एवं कालसर्प दोष शान्ति दायक है। भगवान शिव इसे सुनकर भारी प्रसन्न होते हैं। आदिशक्ति, महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती भू श्रीदेवी ने भगवान श्री कृष्ण की तपस्या से प्रसन्न होकर दान किया था। सूर्य शांति कल्प के इस स्तोत्र का पाठ भगवान श्री कृष्ण, श्री श्री कार्तिकेय, श्री ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, प्रेत, पिशाच आदि नी कर रहे हैं। सिद्धि-समृद्धि, शान्ति, सफलता, सादगी, सरलता, यश-कीर्ति ऐश्वर्य और प्रसिद्धि के लिए एक बार में 12 महीने लगातार करें। आ अब चलें अन्त से अनन्त की ओर…लेख के अन्त में- हम सभी अन्धकार , अहंकार, अज्ञानता की ओर नहीं अपितु आशा, आस्तिकता, आनन्द और आर्शीवाद की ओर चले, क्योकिं दीप-ज्योति हो या सूर्य का प्रकाश अथवा सत्य के समग्रता की अनन्त सत्ता से साक्षात्कार ही काल पर विजय है। संसार में जिसने काल (समय) को समझ लिया, संभाल लिया हर पल- हर क्षण का इस्तेमाल कर समय (काल) को सुधार लिया तो उसके जीवन में अंधेरा रह ही नहीं पायेगा। काल (समय) की साधना करने वालों के साथ ही सदाशिव महाकाल चारों और से रक्षा करता है। वेद वाक्य भी यही कहते है अन्धकार से प्रकाश की ओर चलो। मतलब यही है कि अन्धकार अर्थात खराब समय (काल)को काटकर जिसने विजय पाली वही महाकाल को पा सकता हैं- पाठशाला में पढ़ा यह प्राचीन सिद्ध सूर्य मन्त्र मुझे सदैव स्मरण रहता है। ॐ असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्येर्तिगमय

मृत्योर्मा अमृतम्गमय ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।

ध्यानार्थ- ये सब पूजा-पाठ, मन्त्र-श्लोक यह उन लोगों के लिए विशेष चमत्कारी है, जो सब जगह से टूट लुट चुके हों जिनका स्वयं और ईश्वर से विश्वास उठ चुका हो। कम से कम एक वर्ष तक सम्पूर्ण संकल्प शक्ति के साथ निरन्तर पाठ और प्रार्थना करें। दो-दीप अवश्य जलावें। यह अनूठी अद्भुत, दुर्लभ जानकारी है। भूलकर भी हल्के में न लेवें। अति परिश्रम के पश्चात सदगुरु की कृपा से उनके ही द्वारा भटके, पीड़ित, परेशान, सीधे, सहज, सरल लोगों के शुभ लाभ हेतु इसे प्रकाशित किया जा रहा है। अत: किसी भी प्रकार से भ्रमित न होकर यह उपाय नियम से करें।

प्रेरक- शिवकल्यानेश्वर शिवालय, फ़ालका बाजार, ग्वालियर मप्र

उत्सव का अर्थ होता है पर्व या त्यौहार.

भारतीय संस्कृति में पर्वों का विशेष स्थान है। यहाँ तक कि इसे त्यौहारों की संस्कृति कहना गलत नहीं होगा। साल भर कोई न कोई पर्व या उत्सव चलता ही रहता है। हर ॠतु में, हर महीने में कम से कम एक प्रमुख त्यौहार अवश्य मनाया जाता है। कुछ उत्सव किसी अंचल में मनाए जाते हैं तो कुछ भारत भर में भले ही नाम अलग-अलग हों।

त्योहार से क्या लाभ होता है?

त्यौहारों के समय घर-परिवार, समाज के लोगों से मिलने-जुलने का अवसर (Opportunity) तो मिलता ही है, इनके द्वारा आपसी मतभेद (Misunderstanding or Differences in Thought) दूर करके एकता और भाईचारा कायम करने में भी आसानी रहती है । इससे राष्ट्रीय चेतना (National Consciousness) जगती है और देश मजबूत बनता है ।

त्योहारों से हमें क्या सीख मिलती है?

त्यौहार हमें प्रेम के साथ-साथ त्याग की भावना भी सिखाते हैं। बिना त्याग की भावना के त्यौहारों का आनंद अधूरा है। कोई भी त्यौहार तभी सार्थक है, जब उसे सभी मिलजुलकर मनाए।

त्योहार का क्या महत्व है?

सभी त्यौहार और पर्व बड़ी श्रद्धा विश्वास के साथ मनाये जाते हैं, जिनमें किसी न किसी उद्देश्य की भावना अवश्य छिपी रहीत है। चाहे पापों का प्रायश्चित हो, धार्मिक सामाजिक स्नेह, बन्धन की कामना, सुखी जीवन व सौभाग्य की कामना, सुखी जीवन व सौभाग्य की कामना हो, सम्पूर्ण अकांक्षायें इन पर्वों में विद्यमान हैं

त्योहार मनाने का मुख्य उद्देश्य क्या है?

त्योहारों का मुख्य उद्देश्य है जीवन में उमंग एवं उत्साह जगाना । जब मनुष्य प्राय: एक ही प्रकार का कार्य करते करते ऊबने लगता है तो उसकी कार्यक्षमता में कमी आने लगती है ।

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