सामाजिक सांस्कृतिक सन्दर्भ से तात्पर्य है कि मानव अकेला रहकर नहीं सीख सकता । भाषा समाज और संस्कृति से जोड़ती है और वहीं इसे ज्ञान प्राप्ति होती है । इसका तात्पर्य है कि जब भाषा सीखी जाती है तब उस सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश को भी ध्यान में रखना चाहिए जिसमें वह सीखी जा रही है । और ज्ञान को भी उसी से जोड़ना चाहिए । उदाहरण के लिए , अधिगमका जब विज्ञापनों को देखते हैं तो वह विज्ञापन तभी प्रभावी बनोस डा संस्कृति से सम्बन्धित क्रिया को उचित भाषा के प्रयोग के द्वारा प्रस्तुत किया जाये । एक कक्षा में सामाजिक सांस्कृतिक सन्दर्भ से सम्बन्धित क्रियाएं की जा सकती है । जैसे कहानियाँ , अखबार या पत्रिकाको खबरों का विश्लेषण करना , खिचडी भाषा या आलंकारिक भाषा का भी विश्लेषण करना।
सामाजिक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य मनोविज्ञान के क्षेत्र में उपयोग किया जाने वाला एक ऐसा सिद्धान है । जिसमें मानव के आस - पास की परिस्थितियों की व्याख्या और उनका व्यवहार किस प्रकार परिस्थितियों को सामाजिक और सांस्कृतिक कारकों से प्रभावित होता है यह बताया जाता है ।
केथरीन सेण्डरसन (2010 ) के अनुसार , सामाजिक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में माता के सामाजिक सांस्कृतिक सम्मक , जाति , लिंग और राष्ट्रीयता का मानव के व्यवहार और मानसिक प्रक्रियाओं के गठन का पर प्रभावी की व्याख्या है। यार सिद्धांत मानव जीवन के एक विस्तृत पक्ष को दर्शाता है । हमारे आध्यात्मिक, मानसिक, शारीरिक, संवेगात्मक और मनोवज्ञानिक सारे पक्ष सामाजिक, सांस्कतिक सिद्धांत से प्रभावित होते ही है।
सामाजिक सांस्कृतिक सिद्धानमार सामाजिक अंत:- क्रिया और सांस्कृतिक संस्थान जैसे - विद्यालय , कक्षाएं , आदि एक बालक के जीवन संज्ञानात्मक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है । इस सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक सांस्कृतिक सन्दर्भ भाषा अधिगम को वर्तमान संज्ञानात्मक और मनोसामाजिक संकल्पना के परे हैं।सिद्धांत बतलाता है कि भाषा अधिगम एक सतत प्रक्रिया है जो आस-पास के वातावरण से प्रेरित होकर निरन्तर चलती रहती है ।
ऐसा माना जाता है कि हमारे शैक्षिक अनुभवों को सांस्कृतिक और भाषायी तौर पर त्रिविध कक्षाओं में समृद्ध किया जा सकता है । क्योंकि हम ऐसे व्यक्तियों से सीखते हैं जिनके अनुभव एवं विश्वास हमसे अलग होते हैं । हम अलग - अलग पृष्ठभूमि से आये व्यक्तियों का सम्मान करना और उनसे सम्प्रेषण करना सीखते है । हम अपने मन से रूढ़िवादी सोच , भेदभाव और पक्षपात की सारी भावनाएँ निकाल कर सोचते हैं क्योंकि जैसे - जैसे हम इस वातावरण में विकसित होते हैं हम व्यक्ति के रूप में ज्ञान के प्रबन्धक और परिवर्तन के प्रतिनिधि बनते हैं । हम एक बहुलवादी समाज के अच्छे नागरिक बनते हैं ।
जब विभिन्न पृष्ठभूमि से बालक विद्यालय में पढ़ने आते हैं तो उनके अनुभव भिन्न - भिन्न होते हैं और विद्यालय में उनकी शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति सन्तोषजनक हो पाना कठिन हो जाता है । छात्रों का गिरता निष्पादन यह दर्शाता है कि बालकों को एक ऐसे शिक्षण प्रतिमान द्वारा शिक्षा दी जा रही है जिसमें विद्यालय आधारित शिक्षण किया जा रहा है जो कोई निश्चित परिणाम नहीं दे पा रहा है । बालकों का ऐसी संकल्पनाओं के आधार पर मूल्यांकन किया जा रहा है जो बालक के विद्यालय में और उसके बाहर के ज्ञान - की उपेक्षा कर रही है ।
अध्येता में भिन्नता के कारण ( Reasons for Difference in leareen )
सामाजिक कारण
प्रत्येक
व्यक्ति समाज में रहता है । अतः समाज के विभिन्न घटक से सामाजिक समूह , सामाजिक संस्थान , परिवार , पास - पड़ोस , आदि का प्रभाव उसके अधिगम पर पड़ता है ।
1 . माता - पिता - जन्म के बाद बालक को सबसे पहली सामाजिक अन्त : क्रिया माता - पिता के साथ । होती है । अत : माता - पिता एवं परिवार के लोग भी सोच , विचारधारा , शिक्षा , संस्कार , आदि उसके विकास को प्रभावित करते हैं ।
2 . विद्यालय - जिस प्रकार का विद्यालय का सामाजिक परिवेश होता है वह बालक के सांगीण विकास को प्रभावित करता है क्योंकि विद्यालय बालक के हर प्रकार के विकास के लिए प्रतिबद्ध है ।
3 . समुदाय और समाज - बालक जिस समुदाय से सम्बन्धित होता है उसी की विचारधाराएं और दृष्टिकोण अपनाता है । उसी के अनुसार उसका व्यवहार निर्देशित होता है । वहीं राति - रिवाज , तीज - त्योहार और नैतिक मूल्य उसके जीवन को दिशा देते हैं ।
4 . प्यर समह एवं मित्र मण्डली - आयेता को सीखने के लिए प्रेरित करने में यर समूह का बढ़ा । हाथ होता है । जैसे बालक के मित्र होते हैं उनसे प्रतियोगिता या प्रतिस्पर्धा की भावना यदि बालक में आ जाती है तो बालक का अधिगम तीव्र गति से होता है ।
5 . सूचना एवं मनोरंजन के साधन - बालक के अधिगम में मनोरंजन के साधन बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । वर्तमान समय में इनका महत्त्व भी बहुत बढ़ गया है क्योंकि हर बालक इनका प्रयोग करता है । इन साधनों से अधिगम में आसानी भी बहुत हो जाती है । जिन बालकों को ये आसानी से उपलब्ध है वे जल्दी सीखते हैं बाकी वंचित रह जाते हैं ।
सांस्कृतिक भिन्नता के कारण हमारा देश एक सांस्कृतिक रूप से भिन्नता लिये हुए दश है । कई संस्कृतियों ने यहाँ जन्म लिया और विकसित हुई और पनप रही है । इसलिए हर संस्कृति को समावेशित करती हुई शिक्षा दी जानी ।
अध्येता पर मातृभाषा और निर्देश के माध्यम की भाषा का प्रभाव:-
वर्तमान के मशीनी युग में भी भाषा का इतना महत्त्व है कि इसे मानव के विकास का सबसे गा पहल माना जाने लगा है । यद्यपि भाषा एक मानव द्वारा निर्मित कला है फिर भी यह वैज्ञानिकों के लिए बनी हुई है । बालक का विकास सामाजिक परिवेश में ही होता है । हर समाज की एक भाषायी परम्परा होती जो बालक के विकास को दिशा प्रदान करती है । मानव अपनी सभी आवश्यकताओं के लिए भावों और विचारों की अभिव्यक्ति के लिए , ज्ञान प्राप्ति के लिए अपने हर प्रकार के विकास के लिए भाषा पर आश्रित होता है । यहाँ तक के समस्त मानवीय गुणों के विकास में भी उसका बड़ा योगदान रहता है ।
मातभाषा का शाब्दिक अर्थ - माता से सीखी हुई भाषा है । या माता - पिता परिवार के अनुकरण द्वारा सीखी हुई भाषा को भी मातृभाषा सामान्यत : मान लेते हैं । परन्तु ज्यादातर यह भाषा समाज में प्रचलित एवं स्वीकृत भाषा से थोड़ी भिन्न होती है । इसलिए जब बालक विद्यालय या समाज में घर से बाहर निकलता है । तो उसे अपनी घर में बोली जाने वाली भाषा का कुछ भिन्न रूप मिलता है । इसलिए समाज से स्वीकृत मानक भाषा को ही मातृभाषा कहा जाता है । जैसे बालक अवधी या बन्देलखण्डी भाषा का प्रयोग घर में करते हैं। परन्तु जब विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करेंगे तो उन्हें मातृभाषा हिन्दी ही लिखनी होगी । सामान्यतः परिवार में दैनिक जीवन के विभिन्न क्रियाकलापों में अनौपचारिक रूप से प्रयुक्त बोली / भाषा को ही वह मातृभाषा क रूप में सीखता है । चूँकि बालक इन्हीं बोलियों को सर्वप्रथम सीखते हैं , स्वचिन्तन करत है । इसकी स्व भाषा है ।
" माता - पिता या परिवार के सदस्यों का अनुकरण करके सीखी और सहजको मातृभाषा कहलाती है । यह समाज स्वीकृत मानक भाषा होती है । " रायबर्न के अनुसार , " मातृभाषा एक साथ एक उपकरण , आनन्द , प्रसन्नता एवं ज्ञान का रुचियों एवं अनुभूतियों का निर्देशक और विधाता द्वारा मनुष्य को दी हुई उस सर्वोत्तम शक्ति के प्रयोग - साधन है , जिसके आधार पर हम उसके निकट पहुँच जाते हैं । " " It is at once a tool , a source of joy and happiness and knowledge a director of taste and feeling and means of using the highest power the God has given us when we come close to him . " - Ryburn मातृभाषा बालक के जीवन में विशेष महत्त्व रखती है । वह उसकी समस्त आवश्यकताओं की पर्ति का । प्रमुख आधार है । इसी सामाजिक परिवेश में वह सम्प्रेषण और विचारों का आदान - प्रदान करने का एकमात्र आधार है । मातृभाषा का मानव के सर्वांगीण विकास पर बहुत प्रभाव पड़ता है । बालक के विकसित होते हुए जीवन के हर पहलू का मातृभाषा आधार बनती है । मातृभाषा के माध्यम से ही बालक अपने आस - पास के वातावरण की समझ , विचार - विमर्श और । चिन्तन कर पाने में समर्थ हो पाता है । भाषा बालक के मस्तिष्क में प्रत्यय निर्माण और अनेक नई संकल्पनाआ । के निर्माण में सहायता करती है । मातृभाषा का महत्त्व इस बात से ही स्पष्ट होता है कि बालक जिस वातावरणभाषा के सामाजिक , सांस्कृतिक एवं राजनीतिक सन्दर्थ में रहता है . जहाँ से शिक्षा मिलती है . समाजमा विकसित हामी सामना ताज से ससका परिचय भाषा ही होता है । ऐसे का मनुष्य माताजी अपनी मातृभाषा के अलावा कोई और भाषा नहीं जानते परना बरसी भाषा के सहारे अपने दिन - प्रतिदिन का और अपना जीवनयापन कर लेते है ।
मातृभाषा का बालक के विकास पर प्रभाव:-
1 . शारीकि विकास - जब बालक शिशु रूप में होता है तब माता से प्यार से कहानियाँ मना - सुनाकर पौष्टिक भोजन कराती है और मोती लोरी सुनाकर नौद दिलाती है ताकि बालक का उचित शारीरिक विकास हो सके ।
2 . मानसिक विकास - चालक माता - पिता और परिवार के साथ रहता है और उन्हीं के द्वारा बोली गा . भाषा से प्राथमिक चिन्तन को सार्थकता का विकास करता है । जिस बातावरण वह राता है उसा । महोने वाली बाताओं को सुनकर , समझकर , उसमें भाग लेकर परिवार के व्यक्तियों के साथ एक - वितक करके वह भाषा के विकास के साथ मानसिक विकार भी करता है ।
3 . सामाजिक विकास - एक बालक जिस सामाजिक परिवेश में रहता है उसी के साथ अन्तक्रिया करता है । उनसे बात करने के लिए उसे मातृभाषा का प्रयोग करना होता है । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । वह बिना अपने परिवार , साथियों और आस - पास के अन्य लोगों से वार्ता किये नहीं रह सकता । बालक को भी सभी से सामाजिक सम्बन्ध बनाने और मित्रता करने के लिए मात्री भाषा का इस्तेमाल करना पड़ता है।
4.भावात्मक विकास - भाषा भावों को अभिव्यक्ति का प्रमुख साधन है । बालक संवेगों को बहुत तीव्रता होती है । और चालक संवेगों पर नियन्त्रण नहीं रख पाते । उनको अभिव्यकित बालक को मानसिक और भावात्मक रूप से स्वस्थ रखती है । मातृभाषा हो एकमात्र ऐसा साधन है जिसके द्वार । नाबालक अपने संवेग , भाब आदि की अभिव्यक्ति कर सकता । इस तरह मातृभाषा भावात्मक विकास में सहयोग देती है ।
5. नैतिक विकास - बालक बचपन में माँ , दादा - दादी , नाना - नानी , आदि से कहानियाँ सुन - सुनकर ही बड़े होते हैं । एक परिवार हो उन्हें नैतिक शिक्षा देता है । यह मातृभाषा का ही योगदान है कि पालक का नैतिक विकास अच्छा हो । इसमें अध्यापक एवं पड़ोसियों का भी योगदान होता है । इन सबकी बाते सुनकर बालक का चरित्र विकसित होता है ।
6 . सांस्कृतिक विकास - बालक जिस संस्कृति में रहता है उसी के रोति - रिवाज , धर्म - परम्पराएं आदि को जानता है और उसी सांस्कृतिक वातावरण से सोखता है । बालक मातृभाषा के द्वारा ही अपनी रीति - रिवाज , परम्पराएं , आदि जानता है । इसलिए मातृभाषा सांस्कृतिक विकास में सहायक होती है ।
7 . कल्पना शक्ति का विकास - मातृभाषा अभिव्यक्ति का साधन है । बालक जो भी कल्पनाएँ । करता है वह उनकी अभिव्यक्ति के लिए भाषा की सहायता लेता है । अच्छी अभिव्यक्ति वह मातृभाषा में ही कर पाता है ।
8. तर्क शक्ति एवं चिन्तन शक्ति का उपयोग - बालक मातृभाषा के उपयोग से तर्क करने की क्षमता का विकास बाल्यपन में ही सीख जाता है । मानसिक विकास में भी मातृभाषा का योगदान होता है जो बालक की चिन्तन की क्षमता का विकास करती है ।