बस्तर दशहरा में विजयदशमी के दिन होने वाले कार्यक्रम का क्या नाम है? - bastar dashahara mein vijayadashamee ke din hone vaale kaaryakram ka kya naam hai?

बस्तर दशहरा छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर अंचल में आयोजित होने वाले पारंपरिक पर्वों में से सर्वश्रेष्ठ पर्व है। बस्तर दशहरा पर्व का सम्बन्ध महाकाव्य रामायण के रावण वध से नहीं है, अपितु इसका संबंध सीधे महिषासुर मर्दिनी माँ दुर्गा से जुड़ा है। पौराणिक वर्णन के अनुसार अश्विन शुक्ल दशमी को माँ दुर्गा ने अत्याचारी महिषासुर को शिरोच्छेदन किया था। यह पर्व निरंतर 75 दिनो तक चलता है। पर्व की शुरुआत हरेली अमावस्या से होती है। बस्तर दशहरा में राज्य के दूसरे जिलो के देवी-देवताओं को भी आमंत्रित किया जाता है।

नोट : 2020 का बस्तर दशहरा 105 दिनो का है।

भगवान जगन्नाथ के प्रति आस्था के इस महापर्व में आदिवासी जनता भगवान को सलामी देने के लिये जिस उपकरण का उपयोग करती है उसे तुपकी कहते है।
गोंचा महापर्व में आकर्षण का सबसे बड़ा केन्द्र तुपकी होती है। विगत छः सौ साल से तुपकी से सलामी देने की परंपरा बस्तर में प्रचलित है।तुपकी बांस से बनी एक खिलौना बंदुक है।

बीसहा पैसा :

यह आयोजन के लिए प्रशासन की तरफ से एक सहयोग राशि होती थी। रियासती शासन सर्वप्रथम आयोजन हेतु आवश्यक सामग्री जुटाने के लिए एडमिनिस्ट्रेटर "बीसहा पैसा" मंजूर कर दिया करता था। यह राशि विशेषकर दशहरा आयोजन के लिए खरीदी गई सामग्री के निमित्त भुगतान की राशि हुआ करती थी। बिसहा राशि राज्य शासन द्वारा तहसील को और तहसील कार्यालय द्वारा यह राशि परगनिया, मांझी को हस्तांतरित कर दी जाती थी। सारे परगनिया -मांझी अपने सहयोगियों को साथ लेकर जनसंपर्क करते थे और सामग्री जुटाते थे।  बीसहा पैसा मिलना लोगो के लिए हर्ष का विषय होता है। बिसहा पैसा के रूप में प्राप्त उस अल्प भुगतान में ही प्रसन्नाता पूर्वक दशहरा हेतु अपना कीमती सामग्री दे दिया करतेे है।  

इतिहास

बस्तर के चौथे काकतिया / चालुक्य नरेश पुरुषोत्तम देव ने एक बार श्री जगन्नाथपुरी तक पैदल तीर्थयात्रा कर मंदिर में स्वर्ण मुद्राएँ तथा स्वर्ण भूषण आदि सामग्री भेंट में अर्पित की थी। यहाँ पुजारी ने राजा पुरुषोत्तम देव को रथपति की उपाधि से विभूषित किया।

गोंचा की सुरुवात:

जब राजा पुरुषोत्तम देव पुरी धाम से बस्तर लौटे तब उन्होंने धूम-धाम से दशहरा उत्सव मनाने की परंपरा का शुभारम्भ किया और तभी से गोंचा और दशहरा पर्वों में रथ चलाने की प्रथा चल पड़ी।

जब भगवान् जगग्न्नाथ नगर भ्रमण पर निकलते है तो गोंचा पर्व होता है। इस दौरान भगवान् को सलामी देने के लिए यहाँ बांस की बनी एक "बन्दुक" जिसे तुपकी कहते है। इस पर्व का सबसे पहला रस्म  है चंदन जात्रा।

चंदन जात्रा :-

गोंचा पर्व की शुरुवात में चन्दन जात्रा से होती है। इसमे भगवान 15 दिनों के लिए अनसर काल में होते है तथा अस्वस्थ होते है, इस दौरान भगवान का दर्शन करना वर्जित होता है। पूरे अनसर काल में भगवान के स्वस्थ लाभ के लिए 360 घर ब्राम्हण आरणक्य समाज द्वारा औषधि युक्त भोग अर्पण किया जाता है। और भगवान् द्वारा लिया गया भोजन को प्रसाद के रूप में भक्तो की प्रदान किया जाता है।

अनसर खत्म होने के बाद गोंचा पर्व का अगला विधान शुरू होता है।

गोंचा पर्व के आयोजनों में है :

  • अनसर काल
  • नत्रोत्सव
  • गोंचा रथ यात्रा
  • हेरा पंचमी
  • बहुडा गोंचा
  • देश शयनी एकादशी

काछनदेवी और दशहरा

1725 ई. में काछनगुड़ी क्षेत्र में माहरा समुदाय के लोग रहते थे। तब तात्कालिक नरेश दलपत से कबीले के मुखिया ने जंगली पशुओं से अभयदान मांगा। राजा इस इलाके में पहुंचे और लोगों को राहत दी। नरेश यहां की आबोहवा से प्रभावित होकर बस्तर की बजाए जगतुगुड़ा को राजधानी बनाया। राजा ने कबीले की ईष्टदेवी काछनदेवी से अश्विन अमावस्या पर आशीर्वाद व अनुमति लेकर दशहरा उत्सव प्रारंभ किया। तब से यह प्रथा चली आ रही है।

अमनिया ( Amaniya ) : रथयात्रा पर प्रति वर्ष अरण्यक ब्राह्मण समाज द्वारा सात दिवसीय भंडारा का आयोजन शहर में किया जाता है। इसे 'अमनिया' कहा जाता है। वर्ष 1723 में जगदलपुर को राजधानी बनाने के बाद शहर में स्थाई तौर पर 296 वर्षों से अमनिया आयोजित किया जा रहा है। ब्राह्मणों के द्वारा मावली माता मंदिर परिसर में भोग प्रसाद तैयार कर अमनिया की शुरुआत की जाती है।

गोंचा के अवसर पर भगवान जगन्नाथ को भोग प्रसाद अर्पित करने हेतु अमनिया संस्कार वर्षों से जारी है। 'अमनिया' का अर्थ साफ-सुथरा, शुद्ध (जो किसी का जूठा न हो) होता है। सब्जियों को पकाने के लिए तैयार करने में 'काटने' जैसे शब्द का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। तैयार होने के बाद भगवान को इसी 'अमनिया' का ही भोग लगाता है। 

तैयारी

पाट जात्रा : पर्व की शुरुआत हरेली अमावस्या को माचकोट जंगल से लाई गई लकड़ी (ठुरलू खोटला) पर पाटजात्रा रस्म के साथ होती है। इसके लिए परंपरानुसार बिलोरी जंगल से साल लकड़ी का गोला लाया जाता है। काष्ठ पूजा के बाद इसमें सात मांगुर मछलियों की बलि और लाई-चना अर्पित कियाजाता है। इस साल लकड़ी से ही रथ बनाने में प्रयुक्त औजारों का बेंठ आदि बनाया जाता है। पाटजात्रा रस्म के बाद बिरिंगपाल गांव के ग्रामीण सीरासार भवन में सरई पेड़ की टहनी को स्थापित कर डेरीगड़ाई रस्म पूरी करने के साथ विशाल रथ निर्माण प्रक्रिया शुरु की जाती है।

काछिनगादी: 
काछिनगादी ( काछिन देवी को गद्दी ) पूजा बस्तर दशहरा का प्रथम चरण है। काछिनगादी बेल कांटों से तैयार झूला होता है। पितृमोक्ष अमावस्या के दिने काछनगादी पूजा विधान होती है। काछिनगादी में मिरगान जाति की बालिका को काछनदेवी की सवारी आती है जो काछिनगादी पर बैठकर रथ परिचालन व पर्व की अनुमति देती है।

जोगी बिठाई:
दशहरा निर्विघ्न संपन्न कराने ने लिए किया है। जिस दिन बस्तर दशहरा अपना नवरात्रि कार्यक्रम आरम्भ करता है। उसी दिन सिरासार प्राचीन टाउन हॉल में जोगी बिठाई की प्रथा पूरी की जाती है। जोगी बिठाने के लिए सिरासार के मध्य भाग में एक आदमी की समायत के लायक एक गड्ढा बना है। जिसके अंदर हलबा जाति का एक व्यक्ति लगातार ९ दिन योगासन में बैठा रहता है।

जोगी बिठाई के दूसरे दिन से रथ चलना शुरू हो जाता है। रथ प्रतिदिन शाम ( अश्विन शुक्ल २ से लेकर लगातार अश्विन शुक्ल ७ तक ) एक निश्चित मार्ग को परिक्रम करता हाँ और राजमहलों के सिंहद्वार के सामने खड़ा हो जाता है। पहले-पहले १२ पहियों वाला एक रथ होता था  परंतु असुविधा के कारण रथ को आठ और चार पहियों वाले दो रथों में विभाजित कर दिया गया। अश्विन शुक्ल ७ को समापन परिक्रमा के दूसरे दिन दुर्गाष्टमी मनाई जाती है। दुर्गाष्टमी के अंतर्गत निशाजात्रा का कार्यक्रम होता है। निशाजात्रा का जलूस नगर के इतवारी बाज़ार से लगे पूजा मंडप तक पहुँचता है।

9 वे दिन जोगी उठाई मावली परघाव की किया जाता है।
मावली पर घाव  : अर्थ है देवी की स्थापना। मावली देवी को दंतेश्वरी का ही एक रूप मानते हैं। इस कार्यक्रम के तहत दंतेवाड़ा से श्रद्धापूर्वक दंतेश्वरी की डोली में लाई गई मावली मूर्ति का स्वागत किया जाता है। नए कपड़े में चंदन का लेप देकर एक मूर्ति बनाई जाती है और उस मूर्ति को पुष्पाच्छादित कर दिया जाता है।

विजयादशमी के दिन भीतर रैनी तथा एकादशी के दिन बाहिर रैनी के कार्यक्रम होते हैं। दोनों दिन आठ पहियों वाला विशाल रथ चलता है।

निशाजात्रा :
निशाजात्रा रस्म में दर्जनों बकरों की बलि आधी रात को दी जाती है। इसमें पुजारी, भक्तों के साथ राजपरिवार सदस्य मौजुद होते है। इस रस्म में देवी-देवताओं को चढ़ाने वाले १६ कांवड़ ( कांवर ) भोग प्रसाद को तोकापाल के राजपुरोहित तैयार करते हैं। जिसे दंतेश्वरी मंदिर के समीप से जात्रा स्थल तक कावड़ में पहुंचाया जाता है।

अंतिम पड़ाव:

इस पर्व के अंतिम पड़ाव में मुरिया दरबार लगता है। जहां मांझी-मुखिया और ग्रामीणों की समस्याओ का निराकरण किया जाता है। मुरिया दरबार में पहले समस्याओं का निराकरण राजपरिवार करता था अब यह जिम्मेदारी प्रशासनिक अधिकारी निभाते हैं।इसी के साथ गाँव-गाँव से आए देवी देवताओं की विदाई हो जाती है। दंतेवाड़ा के दंतेश्वरी माई की डोली व छत्र को दूसरे दिन नजराने व सम्मान के साथ विदा किया जाता है। इस कार्यक्रम को ओहाड़ी कहते हैं। 


बस्तर दशहरा में विजयदशमी के दिन होने वाले कार्यक्रम का नाम क्या है?

राजकुमारी रैला देवी का वही श्राद्धकर्म बस्तर के दशहरा पर्व में रैला-पूजा के नाम से जाना जाता है।

बस्तर दशहरा में मवाली माई के बिदाई सम्मान में अंतिम कार्यक्रम को क्या कहा जाता है?

इसी के साथ गाँव-गाँव से आए देवी देवताओं की विदाई हो जाती है। दंतेवाड़ा के दंतेश्वरी माई की डोली व छत्र को दूसरे दिन नजराने व सम्मान के साथ विदा किया जाता है। इस कार्यक्रम को ओहाड़ी कहते हैं।

बस्तर दशहरा के अंतिम कार्यक्रम को क्या कहा जाता है?

बस्तर दशहरा का माहोल समाप्त होने के पश्चात कुटुम्ब जात्रा पुजा विधान का आयोजन किया जाता हैं। इसके तहत दशहरे में विभिन्न प्रांतो से आए सभी देवी देवताओं को विदा किया जाता हैं। कुटुम्ब जात्रा से तात्पर्य देवी देवताओं के पूरे परिवार का एक साथ पूजा-अर्चना करना हैं।

बस्तर दशहरा कैसे मनाया जाता है?

इस पर्व में काछनगादी की पूजा का विशेष प्रावधान है. रथ निर्माण के बाद पितृमोक्ष अमावस्या के दिन ही काछनगादी पूजा संपन्न की जाती है. इस विधान में मिरगान जाति की बालिका को काछनदेवी की सवारी कराई जाती है. यह बालिका बेल के कांटों से तैयार झूले पर बैठकर दशहरा पर्व मनाने की अनुमति देती है.

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