केतु ग्रह का स्वामी कौन है? - ketu grah ka svaamee kaun hai?

वैदिक ज्योतिष में केतु ग्रह बहुत ही महत्व रखता है। केतु (Ketu) को ज्योतिष में छाया ग्रह माना जाता है। इस लेख में हम राहु ग्रह के ज्योतिषीय महत्व के साथ ही इसके पौराणिक मान्यता के बारे में जानेंगे। लेख में केतु यंत्र, मंत्र, जड़, रत्न के बारे में भी बताया जाएगा। जो आपके लिए काफी लाभदायक साबित होगा। तो आइये जानते हैं केतु ग्रह के बारे में -

केतु ग्रह

केतु ग्रह का देखा जाए तो खगोलीय दृष्टि के कोई अस्तित्व नहीं हैं। वैदिक ज्योतिष में ही इस ग्रह की उपस्थिति को बतलाया गया है। वो भी एक छाया ग्रह ग्रह के रुप में जो स्थिति व अपने साथ बैठे ग्रह के अनुरूप फल देता है। केतु कुंडली में किस भाव में बैठा है। यह इसके परिणाम पर काफी प्रभाव डालता है। कुछ भाव ऐसे भी हैं जिनमें केतु का होना शुभ परिणाम तो कुछ में नकारात्मक परिणाम देता है। इसलिए ज्योतिष में इसका महत्व और भी बढ़ जाता है।


वैदिक ज्योतिष में केतु ग्रह का महत्व

केतु ग्रह को वैदिक ज्योतिष में एक अशुभ ग्रह माना जाता है, लेकिन ऐसा नहीं है कि केतु हमेशा जातक को बुरे ही फल देता है। ज्योतिषियों की माने तो केतु ग्रह से जातक को शुभ फल भी प्राप्त होते हैं। वैदिक ज्योतिष में केतु को आध्यात्म, वैराग्य, मोक्ष तथा तांत्रिक विद्या कारक माना गया है। ज्योतिष में केतु (Ketu) को किसी भी राशि का स्वामित्व प्राप्त नहीं है। लेकिन धनु केतु की उच्च राशि है, जबकि मिथनु में यह नीच भाव में होता है।


केतु इन नक्षत्रों का है स्वामी

वैदिक ज्योतिष में मान्य 27 नक्षत्रों में से केतु अश्विनी, मघा और मूल नक्षत्र का स्वामी है। यह एक अशुभ ग्रह है। वैदिक शास्त्रों के अनुसार केतु ग्रह स्वरभानु राक्षस का धड़ है। जबकि इसके सिर के भाग को राहु कहते हैं। ज्योतिष की माने तो राहु और केतु दोनों किसी जातक की जन्म कुण्डली में काल सर्प दोष का निर्माण करने का कारक होते हैं, तो वहीं दिशाओं में केतु (Ketu) का प्रभाव वायव्य कोण में माना गया है। 


केतु ग्रह का मानव जीवन पर प्रभाव

सबसे पहले बात करते हैं शरीर संरचना व गुण – अवगुण की। जातक में केतु (Ketu) अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करता है। केतु के कारण ही जातक का स्वभाव कठोर होता है। जातक त्वरीत आक्रोशित हो जाता है। ज्योतिष शास्त्र में केतु ग्रह का कोई निश्चित राशि नहीं बताया गया है। इसलिए केतु जिस भी राशि में विराजता है वह उसी के अनुसार जातक को परिणाम देता है। इसलिए ज्योतिष के मुताबिक जातक की कुंडली में केतु का प्रथम भाव अथवा लग्न में विराजना व उसका परिणाम उस भाव स्थित राशि प्रभावित करती है। हालाँकि कुछ ज्योतिषियों का मानना है कि लग्न का केतु जातक को स्वाभाव से साधू बनाता है व आध्यात्म की ओर ले जाता है। जातक सांसारिक सुखों से दूर हो जाता है।


कुंडली में राहु ग्रह का प्रबल होना

यदि किसी जातक की कुंडली में केतु तीसरे, पांचवें, छठवें, नवें एवं दसवें भाव में विराजमान हो तो जातक को इसके शुभ परिणाम प्राप्त होते हैं। अगर जातक की कुंडली में केतु गुरु ग्रह के साथ युति बनाता है तो जातक इसके प्रभाव से राजा के सामान जीवनयापन करने में सक्षम बनता है। यदि यही युति मंगल के साथ केतु की हो तो जातक को यह साहस प्रदान करती है।


कुंडली में राहु ग्रह का कमजोर होना

कुंडली में केतु (Ketu) के कमजोर होने पर जातक को कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इसमें जातक आवेश व गुस्से वाला हो जाता है। जातक का कार्य आसानी से सिद्ध नहीं हो पाता, उसे छोटे से छोटे कार्यों को भी पूरा करने के लिए जरूरत से ज्यादा परिश्रम करना पड़ता है। जातक के सामने अचानक से कोई न कोई बाधा आ जाती है। कुंडली में राहु-केतु की स्थिति कालसर्प दोष निर्माण करती है, जो वैदिक ज्योतिष में घातक दोष माना जाता है।

 केतु की महादशा की अवधि 7 वर्ष और अंतर्दशा की अवधि  1 साल से लेकर सवा साल के बीच में होती हैं। यदि केतु लग्न कुंडली में शुभ स्थान पर बैठा हो तो ऐसा केतु व्यक्ति को धनी प्रगतिशील एवं सुखी बनाता है किंतु यदि केतु पीड़ित हो एवं अशुभ भाव में बैठा हो तो व्यक्ति को धीमी गति के व्यापार में लगाता है , व्यापार में हानि उठाता है तथा हर प्रकार से दुखी व दरिद्र बनाता है। बहुत अधिक परिश्रम करने के बाद भी व्यक्ति को समुचित लाभ प्राप्त नहीं हो पाता तथा जीवन अत्यंत संघर्ष में गुजरता है, हर कार्य में विफलता हाथ लगती है | कार्य बहुत ही धीमी गति से होते है कार्य में अनावश्यक विलंब होता है। व्यक्ति बिना सोचे समझे ऐसे कार्य हाथ में लेता है जिसका कोई तार्किक आधार नहीं होता।

मानव मन सदा कथाओं में रूचि रखता है तथा हम उनके बार – बार कथन और उनके नये अर्थ विस्तार से सदा ही आत्मिक संतोष प्राप्त करते हैं। यही कारण है कि हम ज्योतिष में ग्रहों के जन्म और प्रभाव के विषय में विभिन्न कथाएं पाते हैं। यह कथाएं अपने विस्तार और स्वरूप में एक दूसरे से भिन्न होते हुए भी उनका अंतर्निहित सत्य वास्तव में सदा स्थाई और अटल रहता है। यों भी कथाएं तो दो किनारों को जोड़ने वाले पुल के समान हैं जो न केवल संवाद को एक पूर्णता प्रदान करती है अपितु उनके अर्थ प्रदान कर उनमें निहित सत्य से भी हमारा साक्षात्कार कराती हैं।

राहु से केतु के जन्म के विषय में एक प्रसिद्ध कथा कुछ इस प्रकार है। राहु एक शक्तिवान असुर था जो कि रूप बदलने की कला में निपुण था। समुद्र मंथन में जब देवताओं और दैत्यों ने सहयोग किया तो उससे प्राप्त होने वाले चैदह अमूल्य रत्नों को उन्होंने अपने बीच बराबर-बराबर बांट लिया। किन्तु अमृत को कोई भी दूसरों के साथ बांटने को राजी नहीं हुआ और वहां युद्ध की सी स्थिति बन गई। तब भगवान विष्णु ने एक अति सुन्दर स़्त्री मोहिनी का रूप लिया और दोनों देवताओं और असुरों को अपनी-अपनी पंक्ति में बैठने को कहा जिससे वह दोनों को बराबर – बराबर अमृत बांट दे। मोहिनी एक हाथ में अमृत से भरा पात्र तथा दूसरे में मदिरा से भरा पात्र ले नृत्य व गान करते हुए दोनों को पिलाने लगी। वह ध्यान पूर्वक देवताओं को अमृत तथा दैत्यों को मदिरा पिला रही थी। उसके इस कार्य पर राहु के अतिरिक्त किसी का भी ध्यान नहीं गया, तब अमृत की इच्छा से राहु देवता का रूप बना सूर्य और चन्द्र के मध्य जा बैठा। तब मोहिनी रूप में भगवान विष्णु ने उसे देवता मान अमृत दिया तो वह उसे तुरन्त ही पी गया। सूर्य तथा चन्द्रमा द्वारा ध्यान दिये जाने पर वह कुछ अलग लगा।

उन्होंने विष्णु जी को बताया। विष्णु जी को पता लगते ही उन्होंने अपने चक्र से उसके दो टुकडे़ कर दिये, किन्तु अमृतपान के कारण दोनों भाग जीवित रहे और इस प्रकार गर्दन से सिर का भाग राहु और कन्धों से नीचे का भाग केतु कहलाया। जबकि राहु के स्वभाव और प्रभाव को समझने के लिए हमने एक अन्य कथा का सहारा लिया था परन्तु केतु का स्वभाव और चरित्र उपरोक्त केतु कथा के आधार पर समझने का प्रयास करेंगे। जब राहु को विष्णु भगवान ने गर्दन से दो भागों में काट दिया तो ऊपर का भाग राहु तथा नीचे का केतु कहलाने लगा। नेत्र, मुख, नाक, जिह्वा और मस्तिष्क आदि के अभाव में शरीर के निचले भाग के स्वभाव को समझना बहुत ही कठिन है। सामान्यतः तो इस अवस्था में वह एक शव से अधिक कुछ भी नहीं रहता किन्तु केतु के विषय में यह सत्य नहीं है। इस सत्य के विपरीत केतु तो पूर्णतः जीवंत, संवेदित, ऊर्जापूर्ण, शक्तिशाली तथा क्रियाशील है। वास्तव में केतु में ही अमृत के प्रभाव को जाना जा सकता है।

यदि हम केवल शारीरिक प्रकृति, स्वभाव और चरित्र को ही केतु का असली स्वभाव मानें तो हम उसके विषय में अधिक नहीं जान पायेंगे। केतु का शारीरिक रूप तो यह दिखाता है कि व्यक्ति इस संसार में फंसा हुआ है तथा अनेक योजनाओं और संभावनाओं के रहते भी उनको कार्य रूप देने का कोई मार्ग नहीं खोज पाता। मस्तिष्क, नेत्र आदि के न रहते, वह अपनी बुद्धि, चेतना तथा पूर्णताओं का सही रूप में प्रयोग नहीं कर सकता। अतः केतु अपनी समस्याओं के उत्तर के लिए इधर – उधर घुमक्कड़ की तरह घूमता रहता है। इस प्रयास में वह अपनी पूर्ण शक्ति से अपने लक्ष्यों को खोजता है तथा परिणामों से न घबराकर, शक्ति भर प्रयास करता है किन्तु पूर्ण प्रयास के बाद दिशाहीनता के चलते वह अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता। ऐसे में एक समय ऐसा आता है जब वह इस निरन्तर पराजय से एक जख्मी योद्धा की तरह हार मानकर जीवन समर में एक ओर बैठ जाता है, कुछ समय बाद अपनी समस्त भागदौड़ को त्यागकर अपने आप में ही प्रश्नों के उत्तर खोजने लगता है। एक ही प्रत्यक्ष शारीरिक दोष सही राह पाने के रास्ते को सैकड़ों परेशानियों से भर देता है। यह हमें केतु के विषय में स्पष्ट दिखाई देता है।

केतु एक ऐसी जीवन्त शक्ति का द्योतक है जो जीवन से भरपूर होते हुए भी अपनी अभिव्यक्ति के लिए मार्ग को नहीं जानता। इसी प्रयास में वह एक सिरे से शुरू करता है मगर असफल होने पर इधर-उधर कूदता-फांदता है और इसी प्रयास में हारकर अपने को घायल, त्रस्त, विफल, कुंठित, दुखी, एकाकी तथा परम हताश पाता है कि क्या करे, क्या न करे। इन्हीं निराशाजनक परिस्थितियों में भी अपनी जीवटता को वह पुनः चला, साहसपूर्वक नए प्रयास में लग जाता है। किन्तु ज्ञान, दिशा और समझ के अभाव में पराजय व हताशा का खेल चलता ही रहता है। अमरत्व का प्रभाव ही इतना चमत्कारी है कि न तो इसे शांत बैठने देता है न ही अपनी परिस्थिति के कारण वह लक्ष्य प्राप्त ही कर पाता है और स्वयं ही इसका हल वह नहीं जानता। इसी भागदौड़ में एक समय ऐसा भी आता है कि जब सभी प्रयासों को निरर्थक जान, वह उत्तरों को अपने ही भीतर खोजने लगता है। यहां से केतु की असली प्रकृति हमारे सामने आती है जो कि जीवन की सभी समस्याओं और उलझनों से पार पाने में समर्थ है। मुंह के अभाव में केतु के पास अंतज्र्ञान और स्पर्श दोनों की अनुभूति के अतिरिक्त अन्य कोई भी ज्ञान का माध्यम नहीं है।

एक समय आता है कि केतु अपने ही भीतर समस्याओं के उत्तर खोजने लगता है। जिस क्षण यह खोज की दिशा बदलकर अन्तर्मुखी होती है, आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख होती है तब केतु अपना ही मार्गदर्शक हो जाता है। ऐसा नहीं है कि जीवन की समस्याओं के हल किसी स्थान पर रखे हुए हैं जो जाकर वहां से उठा लायें और जीवन आनन्दमय हो गया। वह उत्तर जो जीवन में सही मायनों में अर्थवान होते हैं, वह तो अन्तःज्ञान से ही प्राप्त हो सकते हैं। यह अन्तःबोध अचानक ही उद्घाटित होता है किन्तु इसके लिए एक निरन्तर प्रयास की आवश्यकता होती है। केतु की प्रकृति में यह अकस्मात् और चमत्कृत भाव बार – बार देखने में आता है। यदि कोई परम चेतना को जानना चाहता है अथवा उसका भाग होना चाहता है तो उसका अन्तिम निर्णय तो परम चेतना के पास ही रहता है। व्यक्ति कुछ भी इच्छा कर सकता है, यदि वह वास्तव में उसके योग्य नहीं है तो उसका अधिकार भी परमशान्ति में ही निहित है। शायद इसी कारण जिज्ञासु तो जन्मों – जन्मों तक सत्य की खोज में लगा रहता है किन्तु एक दिन अचानक ही आकाश से वर्षा होती है और सिद्धार्थ गौतम पूर्ण प्रज्ञा को प्राप्त कर तथागत बुद्ध हो जाता है। परम लक्ष्य को पाने के मार्ग में बार-बार गिरकर उठना पड़ता है।

केतु हमें यही संदेश देता है कि अपने आध्यात्मिक पक्ष से परिचित होने के लिए बार – बार असफल होना नितांत आवश्यक है। केतु यह आभास दिलाता है कि स्वयं कठिनाइयों से गुजरकर सूली पर चढ़कर ही ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है। चुनौतियों से टकराकर आत्म बलिदान का गुण उसे पूर्ण सत्य तक ले जाता है। पूर्ण सत्य को जानने का सबसे सहज और उत्तम मार्ग यहां – वहां खोजते रहने में नहीं, अपने भीतर झांककर अंतःज्ञान से उसे पाने में ही है।

केतु के देवता कौन है?

शनि के देवता भैरवजी हैं, राहु की सरस्वतीजी और केतु के देवता भगवान गणेशजी है।

केतु की उच्च राशि कौन सी है?

हालांकि केतु को किसी विशेष राशि का स्वामित्व प्राप्त नहीं है। लेकिन वृश्चिक या धनु में केतु उच्च राशि का माना गया है और वृषभ में नीच।

केतु किसका प्रतीक है?

केतु विष्णु के मत्स्य अवतार से संबंधित है। केतु भावना भौतिकीकरण के शोधन के आध्यात्मिक प्रक्रिया का प्रतीक है और हानिकर और लाभदायक, दोनों ही ओर माना जाता है, क्योंकि ये जहां एक ओर दुःख एवं हानि देता है, वहीं दूसरी ओर एक व्यक्ति को देवता तक बना सकता है।

केतु का कौन सा नंबर है?

सात अंक का स्वामी केतु है. कई विद्वान इसे नेपच्यून (वरुण) ग्रह का अंक भी मानते हैं. 7 अंक वाले व्यक्ति मौलिकता, स्वतंत्र विचार-शक्ति तथा असामान्य व्यक्तित्व के होते हैं.

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