जनता पर जादू चला राजे के समाज का
लोक नारियों के लिए रानियाँ आदर्श हुईं
धर्म का बढ़ावा रहा धोखे से भरा हुआ
लोहा बजा धर्म पर, सभ्यता के नाम पर
खून की नदियाँ बहीं
आँख-कान मूँदकर जनता ने डुबकियाँ ली आँ
ख खुलीं, राजे ने अपनी रखवाली की।
सन्दर्भ - प्रस्तुत पद्य महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला द्वारा रचित कविता राजे ने अपनी रखवाली की से लिया गया है।
प्रसंग - प्रस्तुत कविता में कविवर निराला ने राजतन्त्र पर व्यंग्य किया है। कवि कहते हैं कि राजा देश की रक्षा के नाम पर विभिन्न उपाय करता है पर वह व्यवस्था वस्तुतः स्वयं उसकी अपनी रक्षा के लिए होती है।
व्याख्या - इन सबका यह परिणाम हुआ कि राजा और उसके समर्थक वर्ग का जादू जनता पर चल गया हैं। वह उन्हें महान् समझने लगे हैं। उन राजा की रानियाँ भी समाज की नारियों के लिए आदर्श नारी मानी जाने लगीं। राज्याश्रय में पलने वाले धार्मिकों ने जनता को धोखा देने वाले धर्म को बढ़ावा दिया हैं।
अपने धर्म एवं सभ्यता को श्रेष्ठ बताकर उनका प्रचार किया तथा इस प्रक्रिया में संघर्ष हुआ, शस्त्र चले, खून की नदियाँ बहीं। राजाओं के आदेश पर जनता ने अपना खून बहाया और उनकी इच्छा को ईश्वर की इच्छा मानकर वह कटती-मरती रही। किन्तु जब जनता की आँख खुलीं तो उसकी समझ में आया कि राजा ने उनकी रक्षा नहीं की वरन् स्वयं की रक्षा की हैं।
विशेष -
- राजा की स्वार्थवाद पर सुन्दर व्यंग्य किया गया है।
- जनता के सच्चे कर्त्तव्य को प्रेरणादायक रूप में प्रस्तुत किया गया हैं।
- भाषा बड़ी सीधी और प्रवाहमयी है।
- शैली व्यंग्यात्मक है।
- आधुनिक शासकों की कलई खोलने का अच्छा व सफल प्रयास बन पड़ा है।
राजे ने अपनी रखवाली की
किला बनाकर रहा
बड़ी-बड़ी फौजें रखी
चापलूस कितने सामन्त आये
मतलब की लकड़ी पकड़े हुए।
कितने ब्राह्मण आये
पोथियों में जनता को बाँधे हुए
कवियों ने उसकी बहादुरी के गीत गाये
लेखकों ने लेख लिखे ऐ
तिहासिकों ने इतिहास के पन्ने भरे
नाट्य कलाकारों न कितने नाटक
रचे,
रंगमंच पर खेले।
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्य महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला द्वारा रचित कविता राजे ने अपनी रखवाली की से लिया गया है।
प्रसंग - प्रस्तुत पद्यांश में महाकवि ने राजा के स्वार्थीपन और प्रशंसकों का सहजोल्लेख करते है।
व्याख्या - कवि कहता है कि राजा ने वास्तव में जनता के नाम पर अपनी ही रक्षा की है। इसने किला बनवाकर स्वयं को सुरक्षित रखा साथ ही अपनी रक्षा के लिए बड़ी-बड़ी सेनाएँ खड़ी कीं। राजा ने अपनी चापलूसी करने वाले अनेक सामन्त रखे और वे सब राजदण्ड के नाम पर अपने स्वार्थ की लकड़ी पकड़े हुए थे।
उनके पास न जाने कितने विद्वान, ब्राह्मण आये, उनकी पोथियों में भी जनता को बंधन मे रखने की बातें लिखी थीं। ऐसे उस राजा की प्रशंसा में कवियों ने कविता लिखीं, लेखकों ने लेख लिखे, इतिहासकारों ने इतिहास में उनकी वीरता का विशुद्ध वर्णन किया।
इसी प्रकार नाटककारों ने उन राजाओं के कार्यों पर नाटकों की रचना की, उनकी वीरतापूर्ण घटनाओं को जनता के समक्ष रंगमंच पर प्रदर्शित किया। कहने का भाव यह है कि राजा ने अपने प्रबंध को हर प्रकार से सुदृढ़, प्रशंसनीय और जनप्रिय रूप में किए हैं।
विशेष -
- चापलूसों पर सीधा व्यंग्य - प्रहार है।
- भाषा अत्यन्त सरल और सपाट है।
- शैली बोधगम्य है।
- स्वभावोक्ति अलंकार है।
राजे ने अपनी रखवाली की
राजे ने अपनी रखवाली की;
क़िला बनाकर रहा;
बड़ी-बड़ी फ़ौजें रखीं।
चापलूस कितने सामंत आए।
मतलब की लकड़ी पकड़े हुए।
कितने ब्राह्मण आए
पोथियों में जनता को बाँधे हुए।
कवियों ने उसकी बहादुरी के गीत गाए,
लेखकों ने लेख लिखे,
ऐतिहासिकों ने इतिहासों के पन्ने भरे,
नाट्यकलाकारों ने कितने नाटक रचे,
रंगमंच पर खेले।
जनता पर जादू चला राजे के समाज का।
लोक-नारियों के लिए रानियाँ आदर्श हुईं।
धर्म का बढ़ावा रहा धोखे से भरा हुआ।
लोहा बजा धर्म पर, सभ्यता के नाम पर।
ख़ून की नदी बही।
आँख-कान मूँदकर जनता ने डुबकियाँ लीं।
आँख खुली-राजे ने अपनी रखवाली की।
स्रोत :
- पुस्तक : निराला संचयिता (पृष्ठ 147)
- संपादक : रमेशचंद्र शाह
- रचनाकार : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2010
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