सामाजिक परिवर्तन का सांस्कृतिक सिद्धांत क्या है? - saamaajik parivartan ka saanskrtik siddhaant kya hai?

सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख सिद्धान्तों का वर्णन कीजिये


सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख सिद्धान्तों का वर्णन कीजिये 

समाज में सामाजिक परिवर्तन किन कारणों से तथा किन नियमों के अंतर्गत होता है, उसकी गति एवं दिशा क्या होती है,इन प्रश्नों को लेकर प्राचीन समय से ही विद्वान अपने अपने मत व्यक्त करते रहे हैं। प्रारंभ में दार्शनिकों ने सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांत प्रस्तुत किए बाद में समाज शास्त्रियों ने भी अपना योगदान दिया।
सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या कुछ विद्वानों ने सिद्धांतों के प्रतिपादन द्वारा की है। उनका विश्वास है कि समाज में परिवर्तन इन्हीं नियमों एवं सिद्धांतों के अनुसार होते हैं।
16 वीं सदी में जीन बोडिंग ने विश्व की विभिन्न सभ्यताओं के ऐतिहासिक अध्ययन के आधार पर यह मत व्यक्त किया कि समाज में परिवर्तन सक्रिय रूप में घटित होते हैं।यद्यपि उनकी यह बात उस समय पूर्णतया स्वीकार नहीं की गई किंतु बाद में कुछ विद्वानों ने परिवर्तन के चक्रीय सिद्धांतों को जन्म दिया।
18 वीं सदी में फ्रांस में यह मत प्रचलित हुआ कि विचार और चिंतन समाज में परिवर्तन उत्पन्न करते हैं। 19 वीं सदी में काम्टे ,हीगल एवं कार्ल मेनहीम जैसे विचार को उन्हें सामाजिक परिवर्तन में विचारों की भूमिका को बहुत महत्व दिया। सामाजिक परिवर्तन के संदर्भ में उन विद्वानों ने भी सिद्धांत प्रस्तुत किए जो समाज के उद्विकास एवं प्रगति को समझने में रुचि रखते थे।
काम्टे ,स्पेन्सर, एवं हॉबहाउस आदि विद्वानों ने कहा कि सामाजिक परिवर्तन एक सीधी रेखा में कुछ निश्चित स्तरों से होकर गुजरता है और प्रत्येक समाज को इन स्तरों से गुजरना होता है।ये स्तर कौन से होंगे इस बारे में उन्हें मत भिन्नता है। यह मत बाद में आने वाले समाज वैज्ञानिकों जैसे मॉर्गन ,टायलर,हेनरीमेन ,वेस्टरमार्क,हेडन एवं लेविब्रुहल आदि ने भी स्वीकार किया और इस आधार पर परिवार, विवाह, धर्म, कला, तर्क, एवं संस्कृति में परिवर्तन की उद्विकास यह प्रवृत्ति का उल्लेख किया। उस समय यह धारणा बनी कि परिवर्तन सदैव सरलता से जटिलता, समानता से असमानता तथा बुराई से अच्छाई की ओर होता है।
परिवर्तन की उद्विकास है व्याख्या के विपरीत कुछ विद्वानों ने परिवर्तन की चक्रीय प्रकृति का उल्लेख किया। स्पेंग्लर, टॉयनबी,पेरेटो एवं सोरोकिन ने कहा कि प्रत्येक समाज में परिवर्तन का एक चक्र चलता है और हम
जहां से प्रारंभ होते हैं घूम फिर कर पुनः वही पहुंच जाते हैं। सामाजिक परिवर्तन को स्पष्ट करने के लिए जितने भी सिद्धांत अब तक प्रस्तुत किए गए हैं, हम उन्हें प्रमुख
रूप से दो भागों में बांट सकते हैं - चक्रीय सिद्धांत एवं रेखीय तथा निर्धारण वादी सिद्धांत हम यहां इन दोनों ही प्रकार के सिद्धांतों की विवेचना करेंगे

सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धांत

चक्रीय सिद्धांतकारों का मत है कि समाज में परिवर्तन का एक चक्र चलता है हम जहां से प्रारंभ होते हैं घूम

फिर कर पुनः वही पहुंच जाते हैं। इस प्रकार के विचारों की प्रेरणा विद्वानों को संभवतः प्रकृति से मिली होगी। प्रकृति में हम देखते हैं कि ऋतु का एक चक्र चलता है और सर्दी गर्मी एवं वर्षा की ऋतुएं एक के बाद एक पुनः पुनः आती है इसी प्रकार से रात के बाद दिन एवं दिन के बाद रात का चक्र भी चलता रहता है प्राणी भी जन्म

और मृत्यु के दौर से गुजरते हैं। हम जन्म लेते, हैं युवा होते हैं, वृद्ध होते हैं, और मर जाते हैं,। मर कर फिर जन्म लेते हैं, और पुनः वही क्रम दोहराते हैं|,परिवर्तन के इस चक्र को कई विद्वानों ने समाज पर भी लागू किया है। और कहा कि परिवार, समाज और सभ्यताएं उत्थान और पतन के चक्र से गुजरते है।इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने विश्व की अनेक सभ्यताओं का उल्लेख किया और कहा कि इतिहास इस बात का

साक्षी है कि जो सभ्यताएं आज फल फूल रही है और प्रगति के उच्च शिखर पर है, वे कभी आदि और पिछड़ी अवस्था में थी और आज जो सभ्यताएं नष्ट प्रायः दिखाई दे रही है| भूतकाल में वे विश्व की श्रेष्ठ सभ्यताएं

रह चुकी है। इस प्रकार चक्रीय सिद्धांत कार सामाजिक परिवर्तन को जीवन चक्र के रूप में देखते हैं। चक्रीय सिद्धांत कारों में स्पेंग्लर,टॉयनबी,पैरोटो,एवं सोरोकिन प्रमुख हैं | हम यहां उनके सिद्धांतों का उल्लेख करेंगे।

स्पेंग्लर का सिद्धांत - सामाजिक परिवर्तन के बारे में जर्मन विद्वान ओसवाल्ड स्पेंग्लर ने 1918 में अपनी
पुस्तक The Decline of the west में अपना चक्रीय सिद्धांत प्रस्तुत किया।इस पुस्तक में उन्होंने सामाजिक परिवर्तन के उद्विकास के सिद्धांतों की आलोचना की और कहा कि परिवर्तन कभी भी एक सीधी रेखा में नहीं होता है स्पेंग्लर का मत है कि सामाजिक परिवर्तन का एक चक्र चलता है, हम जहां से प्रारंभ होते हैं घूम फिर कर पुनः वही पहुंच जाते हैं जैसे मनुष्य जन्म लेता है, युवा होता है, बृद्ध होता है और मर जाता है तथा फिर जन्म लेता है यही चक्र मानव समाज एवं सभ्यताओं में भी पाया जाता है।
मानव की सभ्यता एवं संस्कृति उत्थान और पतन, निर्माण और विनाश के चक्र से गुजरती है। वे भी मानव शरीर की तरह जन्म, विकास और मृत्यु को प्राप्त होती है। अपनी इस बात को सिद्ध करने के लिए आपने विश्व की आठ सभ्यताओं ( अरब, मिस्र,मेजियान, माया,रूसी, एवं पश्चिमी संस्कृतियों आदि ) का उल्लेख किया और उनके उत्थान एवं पतन को दर्शाया। स्पेंग्लर ने पश्चिमी सभ्यता के बारे में कहा कि वह अपने विकास की चरम सीमा पर पहुंच गई है। उद्योग एवं विज्ञान के क्षेत्र में उसने अभूतपूर्व प्रगति की है किंतु अब वो धीरे धीरे क्षीणता एवं स्थिरता की स्थिति में पहुंच रही है, अतः इसका विनाश अवश्य संभव है।उन्होंने जर्मन संस्कृति के बारे में भी ऐसे ही विचार प्रकट किए और कहा कि यह भी अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई है और अब इसका पतन निकट है।

स्पेंग्लर की भविष्यवाणी उस समय सत्य प्रतीत हुई जब द्वितीय विश्व युद्ध के समय जर्मनी का पतन हुआ। स्पेंग्लर ने कहा कि युद्ध एवं शहरों का निर्माण सभ्यता के पतन के सूचक हैं।उनका मत है कि भविष्य में पश्चिमी समाजों का आज जो दबदबा है समाप्त हो जाएगा और उनकी संपन्नता एवं शक्ति नष्ट हो जाएगी। आपने कहा कि दूसरी और एशिया के देश जो अब तक पिछड़े हुए थे कमजोर एवं सुस्त थे, अपनी आर्थिक एवं सैनिक शक्ति के कारण प्रगति एवं निर्माण के पथ पर बढ़ेंगे। अब वे पश्चिमी समाजों के लिए एक चुनौती बन जाएंगे।इस प्रकार पश्चिमी एवं एशिया के समाजों के उदाहरण द्वारा स्पेंग्लर ने सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय प्रवृत्ति को स्पष्ट किया है।

समालोचना - स्पेंग्लर के इस सिद्धांत ने बहुत समय तक लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया किंतु इसे
पूरी तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता स्पेंग्लर ने संस्कृति एवं सभ्यता की तुलना सावयव से कि जिसे आज कोई स्वीकार नहीं करता।आपने ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर अपने पक्ष की पुष्टि की तथा काल्पनिक आधार पर युद्ध से पश्चिमी समाज के विनाश की घोषणा की।
स्पेंग्लर मैं यह भी नहीं बताया कि किस सभ्यता समाजवाद संस्कृति का अंतिम बिंदु कौन सा है। जिसके बाद पतन प्रारंभ हो जाता है। आपका यह कहना भी कि पश्चिमी समाज विकास के चरम स्वरुप को प्राप्त कर चुका है, त्रुटिपूर्ण है क्योंकि आज भी उसके विकास का कार्य जारी है | स्पेंग्लर के सिद्धांत को हम पूर्णतः है वैज्ञानिक नहीं
मान सकते। उनके सिद्धांत से उनका निराशा बाद प्रकट होता है।

टॉयनबी का सिद्धान्त - अर्नाल्ड जे. टॉयनबी एक अंग्रेज इतिहासकार थे उन्होंने विश्व की 21 सभ्यताओं
का अध्ययन किया तथा अपनी पुस्तक A study of History में सामाजिक परिवर्तन का अपना
सिद्धांत प्रस्तुत किया।विभिन्न सभ्यताओं का अध्ययन करके आपने सभ्यताओं के विकास का एक सामान्य
प्रतिमान ढूंढा और सिद्धांत का निर्माण किया टॉयनबी के सिद्धांत को चुनौती एवं प्रतिउत्तर का सिद्धांत भी कहते हैं। वे कहते हैं कि प्रत्येक सभ्यता को प्रारंभ में प्रकृति एवं मानव द्वारा चुनौती दी जाती है इस चुनौती का
सामना करने के लिए व्यक्ति को अनुकूलन की आवश्यकता होती है, व्यक्ति इस चुनौती के प्रत्युत्तर
में भी सभ्यता व संस्कृति का निर्माण करता है। इसके बाद भौगोलिक चुनौतियों के स्थान पर सामाजिक
चुनौतियां दी जाती है। ये चुनौतियां समाज की भीतरी समस्याओं के रूप में अथवा बाहरी समाजों द्वारा
दी जाती है जो समाज इन चुनौतियों का सामना सफलतापूर्वक कर लेता है, वह जीवित रहता है और
जो ऐसा नहीं कर सकता, वह नष्ट हो जाता है। इस प्रकार एक समाज निर्माण एवं विनाश तथा
संगठन एवं विघटन के दौर से गुजरता है। सिंधु व नील नदी की घाटियों में ऐसा ही हुआ। प्राकृतिक पर्यावरण ने वहां के लोगों को चुनौती दी जिसका प्रत्युत्तर उन्होंने निर्माण के द्वारा दिया। सिन्धु व मिस्र की सभ्यताएं भी इसी प्रकार विकसित हुई। गंगा व बोल्गा नदी ने भी ऐसी ही चुनौती दी किंतु
प्रत्युत्तर वहां के लोगों ने नहीं दिया। अतः वहां सभ्यताएं नहीं पनपी।

समालोचना -
टॉयनबी का सिद्धांत वैज्ञानिकता से दूर एक दार्शनिक सिद्धांत प्रतीत होता है। किन्तु टॉयनबी
स्पेंग्लर की तुलना में अधिक आशावादी हैं। उन्होंने परिवर्तन के समाजशास्त्रीय व्याख्या करने का प्रयास किया।

पेरेटो का सिद्धान्त - विलफ्रेड पेरेटो ने सामाजिक परिवर्तन का चक्रीय सिद्धांत जिसे अभिजात वर्ग के
परिभ्रमण का सिद्धांत कहते हैं। का प्रतिपादन अपनी पुस्तक Mind And Society में किया ।उन्होंने सामाजिक परिवर्तन को वर्ग व्यवस्था में होने वाले चक्रीय परिवर्तनों के आधार पर समझाया है। उनका मत है कि प्रत्येक समाज में हमें दो वर्ग दिखाई देते हैं। उच्च या अभिजात वर्ग तथा निम्न वर्ग। यह दोनों वर्ग स्थिर नहीं है वरन् इसमें परिवर्तन का चक्रीय क्रम पाया जाता है। निम्न वर्ग के व्यक्ति अपने गुणों एवं कुशलता में वृद्धि करके अभिजात वर्ग में सम्मिलित हो जाते हैं। अभिजात वर्ग के लोगों की कुशलता एवं योग्यता में धीरे-धीरे ह्रास होने लगता है और वे अपने गुणों को खो देते हैं तथा भ्रष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार वे निम्न वर्ग की ओर बढ़ते हैं। उच्च या अभिजात वर्ग में उनके रिक्त स्थान को भरने के लिए निम्न वर्ग में जो व्यक्ति बुद्धिमान, चरित्रवान, कुशल, योग्य एवं साहसी होते हैं। ऊपर की ओर जाते हैं | इस प्रकार उच्च वर्ग से निम्न वर्ग में तथा निम्न वर्ग से उच्च वर्ग में जाने की प्रक्रिया चलती रहती है। इस चक्रीय गति के कारण सामाजिक संरचना में भी परिवर्तन आ सकता है। चूंकि यह परिवर्तन एक चक्रीय गति में होता है, इसलिए इसे सामाजिक परिवर्तन का चक्रीय सिद्धांत तथा अभिजात परिभ्रमण का सिद्धांत कहते हैं। पेरेटो ने सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धांत का उल्लेख राजनीतिक,आर्थिक एवं आदर्शात्मक तीनों क्षेत्र में किया है |

राजनैतिक क्षेत्र में हमें दो  प्रकार के व्यक्ति दिखाई देते हैं - शेर तथा लोमड़ियां। शेर लोगों का आदर्शवादी
लक्ष्यों में दृढ़ विश्वास होता है जिन्हें प्राप्त करने के लिए वे शक्ति का सहारा लेते हैं और शेर वे लोग हैं जो सत्ता में होते हैं। चूंकि शेर लोग शक्ति का प्रयोग करते हैं अतः समाज में भयंकर प्रतिक्रिया हो सकती है, अतः वे
कूटनीति का सहारा लेते हैं और शेर से अपने को लोमड़ियों में बदल देते हैं तथा लोमड़ियों की तरह
चालाकी से शासन चलाते हैं एवं सत्ता में बने रहते हैं किंतु निम्न वर्ग में भी कुछ लोमड़ियां होती हैं जो सत्ता
को हथियाने की फिराक में होती है।
एक समय ऐसा आता है कि उच्च वर्ग की लोमड़ियों से सत्ता निम्न वर्ग की लोमड़ियों के हाथ आ जाती है। ऐसी स्थिति में सत्ता परिवर्तन के कारण राजनैतिक व्यवस्था एवं संगठन में भी परिवर्तन आता है। पेरेटो का मत है कि सभी समाजों में शासन के लिए तर्क के स्थान पर शक्ति का प्रयोग अधिक होता है। शासन करने वाले लोगों में जब बल का प्रयोग करने की इच्छा व शक्ति कमजोर हो जाती है तब वे शक्ति के स्थान पर लोमड़ियों की तरह चालाकी से काम लेते हैं। लोमड़ियां उनसे अधिक चतुर होती हैं। अतः वे उच्च वर्ग के लोमड़ियों से सत्ता छीन लेती है अतः जब शासक बदलते हैं एवं सत्ता परिवर्तित होती है तो समाज में परिवर्तन आता है।

आर्थिक क्षेत्र में भी पेरेटो ने दो वर्गों - सट्टेबाज तथा निश्चित आय वर्ग का उल्लेख किया है। पहले वर्ग के लोगों की आय अनिश्चित होती है - कभी कम तो कभी ज्यादा। इस वर्ग के लोग अपनी बुद्धि के द्वारा धन कमाते हैं। इसके विपरीत, दूसरे वर्ग की आय निश्चित होती है। प्रथम वर्ग के लोग आविष्कारक, उद्योगपति, एवं कुशल व्यवसाई होते हैं। किंतु इस वर्ग के लोग अपने हितों की रक्षा के लिए शक्ति एवं चालाकी का प्रयोग करते हैं,भ्रष्ट तरीके
अपनाते हैं। इस कारण उनका पतन हो जाता है और उनका स्थान दूसरे वर्ग के लोग ले लेते हैं जो
ईमानदार होते हैं। इस वर्ग परिवर्तन के साथ साथ समाज की अर्थव्यवस्था में भी परिवर्तन आता है।
आदर्शात्मक क्षेत्र में भी दो प्रकार के व्यक्ति पाए जाते हैं - विश्वासवादी एवं अविश्वासी । कभी समाज में विश्वास वादियों का प्रभुत्व होता है, किंतु जब वे रूढ़िवादी हो जाते हैं तो उनका पतन हो जाता है और उनका स्थान दूसरे वर्ग के लोग ले लेते हैं।

समालोचना - पेरेटो ने अपने चक्रीय सिद्धांत को व्यवस्थित एवं बुद्धिमता पूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है
फिर भी आप उन कारणों को स्पष्ट करने में असमर्थ रहे हैं जो वर्गों की स्थिति को परिवर्तित करते हैं।

सोरोकिन का सांस्कृतिक गतिशीलता का सिद्धांत - सोरोकिन ने अपनी पुस्तक Social And Cultural Dynamics में सामाजिक परिवर्तन का सांस्कृतिक गतिशीलता का सिद्धांत प्रस्तुत किया।उन्होंने मार्क्स,पेरेटो एवं वेबलिन के परिवर्तन संबंधी सिद्धांतों की आलोचना की उनका मत है कि सामाजिक
परिवर्तन उतार-चढ़ाव के रूप में घड़ी के पेंडुलम की भांति एक स्थित से दूसरी स्थिति के बीच होता रहता है। उन्होंने प्रमुख रूप से दो संस्कृतियों - भावात्मक एवं चेतनात्मक - का उल्लेख किया। प्रत्येक समाज संस्कृति की इन दो धुरियों के बीच घूमता रहता है अर्थात चेतनात्मक से भावात्मक की ओर तथा भावात्मक से चेतनात्मक की ओर आता जाता रहता है। एक स्थिति से दूसरी स्थिति में जाने के दौरान मध्य में एक स्थिति ऐसी भी होती है जिसमें चेतनात्मक एवं भावात्मक संस्कृति का मिश्रण होता है। इसे सोरोकिन आदर्शात्मक संस्कृत कहते हैं। विभिन्न संस्कृतियों के दौरान से गुजरने पर समाज में भी परिवर्तन आता है

इन तीन प्रकार की संस्कृतियों की विशेषताओं का हम यहां संक्षेप में उल्लेख करेंगे

चेतनात्मक संस्कृति - चेतनात्मक संस्कृति को हम भौतिक संस्कृति भी कहते हैं। इस संस्कृति का संबंध
मानव चेतना अथवा इंद्रियों से होता है अर्थात इसका ज्ञान हम देखकर, सूंघकर एवं छूकर कर सकते हैं।
ऐसी संस्कृति में एंद्रिक आविष्कारों, व इच्छाओं की पूर्ति पर अधिक जोर दिया जाता है।इस संस्कृति में वैज्ञानिक अविष्कारों , प्रौद्योगिकी, भौतिक वस्तुओं एवं विलास की वस्तुओं का अधिक महत्व होता है। इसमें धर्म, नैतिकता, प्रथा, परंपरा एवं ईश्वर आदि को अधिक महत्व नहीं दिया जाता है।व्यक्ति एवं सामूहिक पक्ष भी चेतनात्मक संस्कृति के रंग में रंगे होते हैं। पश्चिमी समाज चेतनात्मक संस्कृति का उदाहरण है।

भावात्मक संस्कृति - यह चेतनात्मक संस्कृति के बिल्कुल विपरीत होती है। इसका संबंध भावना, ईश्वर,
धर्म, आत्मा व नैतिकता से होता है। यह संस्कृति अध्यात्मवादी संस्कृति कही जा सकती है। इसमें इन्द्रिय सुख के स्थान पर आध्यात्मिक उन्नति, मोछ एवं ईश्वर प्राप्ति को अधिक महत्व दिया जाता है। सभी वस्तुओं को ईश्वर कृपा का फल माना जाता है। विचार, आदर्श, कला, साहित्य,दर्शन एवं कानून सभी में धर्म एवं ईश्वर की प्रमुखता पाई जाती है। प्रथा और परंपरा पर अधिक बल दिया जाता है। इस संस्कृति में प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान पिछड़ जाता है।

आदर्शात्मक संस्कृति - यह संस्कृति चेतनात्मक एवं भावात्मक दोनों का मिश्रण होती है, अतः इसमें दोनों
विशेषताएं पाई जाती हैं। इसमें धर्म एवं विज्ञान, भौतिक एवं आध्यात्मिक सुख दोनों का संतुलित रूप पाया
जाता है। सोरोकिन इस प्रकार की संस्कृति को ही उत्तम मानते हैं। इसलिए इसे वे आदर्शात्मक संस्कृति कहते हैं।
सोरोकिन का मत है कि विश्व की सभी संस्कृतियां चेतनात्मक से भावात्मक के झूले में झूलती रहती है। प्रत्येक संस्कृति अपनी चरम सीमा पर पहुंच कर पुनः दूसरे प्रकार की संस्कृति की ओर लौट जाती है। चेतनात्मक एवं भावात्मक संस्कृतियां परिवर्तन की केवल सीमाएं हैं, समाज में अधिकांश समय तो आदर्शवादी संस्कृति ही प्रचलित रहती है। संस्कृति में यह परिवर्तन क्यों होता है ? इसका कारण सोरोकिन ने प्राकृतिक नियम एवं संस्कृति के आंतरिक कारण माने हैं। क्योंकि परिवर्तन प्रकृति का नियम है, अतः संस्कृति भी इसी नियम के कारण परिवर्तित होती है। इसके अतिरिक्त, संस्कृति की आंतरिक परिस्थितियां भी उसमें परिवर्तन के लिए उत्तरदाई है। सोरोकिन ने कहा कि बीसवीं सदी की पश्चिमी सभ्यता चेतनात्मक संस्कृति की चरम सीमा पर पहुंच गई है।अब वह पुनः भावात्मक संस्कृति की ओर लौट जाएगी चूंकि संस्कृति का समाज से घनिष्ठ संबंध है, अतः जब संस्कृति में परिवर्तन होता है तो समाज में भी परिवर्तन आता है।

समालोचना - सोरोकिन ने अपने सिद्धांत को वैज्ञानिक बनाने का प्रयत्न किया है, फिर भी उसमें कई
कमियां हैं जैसे संस्कृति को एक अवस्था से दूसरी अवस्था तक पहुंचने में इतना लंबा समय लग जाता है
कि इस आधार पर सामाजिक परिवर्तन की प्रकृति को प्रकट करना मुश्किल है,। ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर इस बात को सिद्ध करना संभव नहीं कि सभी समाज एक प्रकार की संस्कृति से दूसरे प्रकार की संस्कृति के बीच परिवर्तन के दौर से गुजरते हैं । सोरोकिन सांस्कृतिक परिवर्तन के कारकों को भी स्पष्ट करने में असमर्थ रहे हैं।यह कह देना कि परिवर्तन प्राकृतिक कारणों से होते हैं, एक वैज्ञानिक के लिए पर्याप्त नहीं है।


सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्त -

सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्तकार उद्विकास वादियों से प्रभावित थे। वे इस्मत को नहीं मानते
कि परिवर्तन चक्रीय गति से होता है वरन उनका मत है कि परिवर्तन सदैव एक सीधी रेखा में नीचे से ऊपर
की ओर विभिन्न चरणों में होता है। रेखीय सिद्धांत कारों में काम्टे ,स्पेंसर, हॉबहाउस ,मार्क्स तथा वेबलिन
आदि प्रमुख हैं। काम्टे समाज के उद्विकास यूरोप को तीन स्तरों ( धार्मिक से वैज्ञानिक तक ) स्पेन्सर चार स्तरों ( शिकारी से औद्योगिक तक) तथा मार्क्स पांच स्तरों ( आदिम साम्यवादी से आधुनिक साम्यवादी तक) के रूप में मानते हैं। मार्क्स एवं वेबलिन सामाजिक परिवर्तन के रेखीय क्रम को तो प्रस्तुत करते ही हैं किंतु ये दोनों ही आर्थिक एवं प्रौद्योगिकी कारकों को अधिक महत्व देते हैं अतः इनके सिद्धांतों को निर्धारण वादी सिद्धांत भी कहते हैं। हम यहां रेखीय एवं निर्धारण वादी सिद्धांतों का उल्लेख करेंगे

काम्टे का सिद्धान्त - काम्टे ने सामाजिक परिवर्तन का संबंध मानव के बौद्धिक विकास से जोड़ा है। उन्होंने बौद्धिक विकास एवं सामाजिक परिवर्तन के तीन स्तर माने हैं :-

1. धार्मिक स्तर,

2. तात्विक स्तर,

3. वैज्ञानिक स्तर

धार्मिक स्तर समाज की प्राथमिक अवस्था थी जिसमें मानव प्रत्येक घटना को ईश्वर एवं धर्म के संदर्भ में समझने का प्रयत्न करता था। विश्व की सभी क्रियाओं का आधार धर्म और ईश्वर को ही माना गया। उस समय अलग-अलग स्थानों पर धर्म के विभिन्न रूप जैसे बहुदेववाद, एकदेववाद, अथवा प्रकृति पूजा प्रचलित थे। सामाजिक विकास का द्वितीय स्तर तात्विक स्तर है जिसमें मानव घटनाओं की व्याख्या उनके गुणों के आधार पर करता था। इस अवस्था में मानव का अलौकिक शक्ति में विश्वास कम हुआ और प्राणियों में विद्यमान अमूर्त शक्ति को ही समस्त घटनाओं के लिए उत्तरदाई माना गया। सामाजिक विकास का तीसरा स्तर वैज्ञानिक स्तर है जो कि वर्तमान में विद्यमान है। वैज्ञानिक स्तर में मानव सांसारिक घटनाओं की व्याख्या धर्म , ईश्वर, एवं अलौकिक शक्ति के आधार पर नहीं करता वरन वैज्ञानिक नियमों एवं तर्क के आधार पर करता है। यह कार्य और कारण के सा संबंधों को ज्ञात कर नियमों एवं सिद्धांतों का प्रतिपादन करता है। मानव घटनाओं का अवलोकन कर उनकी तार्किक एवं वैज्ञानिक व्याख्या करके सत्य तक पहुंचने का प्रयास करता है। इस प्रकार चिंतन के विकास के साथ-साथ सामाजिक संरचना संगठन एवं व्यवस्थाओं का भी विकास एवं परिवर्तन हुआ है।

समालोचना - निसंदेह समाज में होने वाले परिवर्तनों की एक योजनाबद्ध एवं क्रमबद्ध व्याख्या काम्टे का सराहनीय प्रयास है, किंतु उनके इस सिद्धांत को पूरी तरह सही नहीं माना जा सकता। उन्होंने मानव चिंतन और सामाजिक विकास के जिन तीन स्तरों का उल्लेख किया है,उन स्तरों से विश्व के सभी समाज गुजरे ही,यह आवश्यक नही है। यह स्तर किसी समाज में पहले व किसी में बाद में अथवा दो स्तर साथ साथ भी चल सकते हैं। काम्टे के इस समरेखीय विकास के विचार से स्पेंसर, दुर्खीम एवं अन्य उद्विकास भी प्रभावित हुए जिन्होंने समाज, संस्कृति और इसके विभिन्न पक्षों का उद्विकासीय क्रम प्रस्तुत किया।

स्पेन्सर का सिद्धान्त :- स्पेन्सर ने सामाजिक परिवर्तनों को प्राकृतिक प्रवरण के आधार पर प्रकट किया है | स्पेन्सर डार्विन के उद्विकास से प्रभावित थे | डार्विन ने जीवों के उद्विकास सिद्धान्त प्रतिपादित किया जिसे स्पेन्सर ने समाज पर भी लागू किया | डार्विन का मत था की जीवो में अस्तित्व के लिए संघर्ष पाया जाता है | इस संघर्ष में वे ही प्राणी बचे रहते है जो शक्तिशाली होते है और प्रकृति से अनुकूलन कर लेते है , कमजोर संघर्ष में समाप्त हो जाते है | चूँकि प्रकृति भी ऐसे जीवो का वरण करती है जो योग्य एवं सक्षम होते है ,अतः इस सिद्धान्त को प्राकृतिक प्रवरण का सिद्धान्त कहते है | चूँकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ,अतः उसके प्रवरण अथवा जन्म और मृत्यु दर पर सामाजिक कारको जैसे प्रथाओं ,मूल्यों एवं आदर्शो का भी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है | इस प्रकरण में श्रेष्ठ मनुष्य ही बचे रहते हैं जो समाज का निर्माण करते और उसमें परिवर्तन लाते हैं।
प्रत्येक नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में अधिक उन्नत होती है और समाज को आगे की ओर बढ़ाती है। इस प्रकार समाज क्रमशः आगे बढ़ता और परिवर्तित होता जाता है। इस प्रकार स्पेंसर सामाजिक परिवर्तन के लिए अप्राकृतिक एवं सामाजिक प्रवरण को आधार मानते हैं।
स्पेन्सर के के अतिरिक्त जैविक कारकों को सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदाई मरने वालों में गोबिन्यू व लपोज आदि भी प्रमुख हैं। इन विद्वानों की मान्यता है कि समाज का निर्माण और प्रगति उन लोगों द्वारा संभव है जो प्रजातीय दृष्टि से श्रेष्ठ होते हैं। जब किसी समाज में प्रजातीय दृष्टि से हीन व्यक्ति होते हो तो वह समाज पतन की ओर जाता है और जब उस में शारीरिक व मानसिक दृष्टि से श्रेष्ठ व्यक्ति होते हैं तो वह समाज प्रगति करता है।
स्पेन्सर व जीव वादियों के सिद्धांतों की अनेक विद्वानों ने यह कहा कर आलोचना की कि मानव समाज पर प्राकृतिक प्रवरण को लागू नहीं किया जा सकता तथा इन्होंने परिवर्तनों के अन्य सिद्धांतों की अवहेलना की है।

कार्ल मार्क्स का सिद्धान्त :- कार्ल मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन को प्रौद्योगिक एवं आर्थिक कारकों से जनित माना है। अतः आप के सिद्धांत को आर्थिक निर्धारण वाद अथवा सामाजिक परिवर्तन का प्रौद्योगिक सिद्धांत कहा जाता है। मार्क्स का सिद्धांत वर्तमान समय में सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं क्रांतिकारी सिद्धांत माना जाता है। उन्होंने इतिहास की भौतिक व्याख्या की और कहा कि मानव इतिहास में अब तक जो परिवर्तन हुए हैं, वे उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन के कारण ही हुए हैं उनका मत है कि जनसंख्या, भौगोलिक परिस्थितियों एवं अन्य कारणों का मानव के जीवन पर प्रभाव तो पड़ता है, किंतु वे परिवर्तन के निर्णायक कारक नहीं है। निर्णायक कारक तो आर्थिक कारक अर्थात उत्पादन प्रणाली ही है।

मार्क्स ने अपने सिद्धांत को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि मनुष्यों को जीवित रहने के लिए कुछ भौतिक मूल्यों जैसे रोटी कपड़ा और निवास आदि की आवश्यकता होती है।इन मूल्यों या आवश्यकताओं को जुटाने के लिए मानव को उत्पादन करना होता है। उत्पादन करने के लिए उत्पादन के साधनों की आवश्यकता होती है। जिन साधनों के द्वारा व्यक्ति उत्पादन करता है, उन्हें प्रौद्योगिकी कहते हैं। प्रौद्योगिकी में छोटे-छोटे औजार तथा बड़ी-बड़ी मशीनें सम्मिलित हैं। प्रौद्योगिकी में जब परिवर्तन आता है तो उत्पादन प्रणाली में भी परिवर्तन आता है। मार्क्स का मत है कि मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किसी ना किसी उत्पादन प्रणाली को अपनाता है। उत्पादन प्रणाली दो पक्षों से मिलकर बनी होती है। एक उत्पादन के उपकरण या प्रौद्योगिकी, श्रमिक, उत्पादन का अनुभव एवं श्रम कौशल और दूसरा उत्पादन के सम्बन्ध। किसी भी वस्तु के उत्पादन के लिए हमें औजार, श्रम, अनुभव एवं कुशलता की आवश्यकता होती है। साथ ही जो लोग उत्पादन के कार्य में लगे होते हैं। उनके बीच कुछ आर्थिक संबंध भी पैदा हो जाते हैं, जैसे किसान कृषि क्षेत्र में उत्पादन करने के दौरान मजदूरों, सुनार, लोहार, एवं उसके द्वारा उत्पादित वस्तु के खरीदारों से सम्बन्ध बनाता है। जब उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन आता है तो समाज में भी परिवर्तन आता है। उत्पादन प्रणाली की यह विशेषता है कि वह किसी भी अवस्था में स्थिर नहीं रहती, सदैव बदलती रहती हैं। उत्पादन प्रणाली समाज का मूल है और उसी पर समाज की सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक संरचनाएं, विश्वास, कला, साहित्य, प्रथाएं विज्ञान एवं दर्शन टिके हुए हैं। जिस प्रकार की उत्पादन प्रणाली होती है समाज की ऊपरी संरचना अर्थात धर्म, प्रथाएं, राजनीति, साहित्य, कला, विज्ञान एवं संस्कृति भी उसी प्रकार की बन जाती है। जब उत्पादन प्रणाली बदलती है तो समाज की ऊपरी संरचना में भी परिवर्तन आता है और समाज की संस्थाएं बदलती है तथा सामाजिक परिवर्तन घटित होता है। मार्क्स का कहना है कि जब हाथ की चक्की से उत्पादन किया जाता था तो एक विशेष प्रकार का समाज था और आज जब बिजली की चक्की है तो दूसरे प्रकार का समाज है जो पहले प्रकार के समाज से भिन्न है। इसी प्रकार कृषि का कार्य जब हल एवं बैलों की सहायता से तथा उत्पादन का कार्य कुटीर उद्योगों में छोटे-छोटे हजारों से किया जाता था तो एक विशेष प्रकार का समाज, संस्कृति, धर्म एवं राजनीति थी और आज जबकि कृषि में ट्रैक्टर एवं वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग तथा बड़ी-बड़ी मशीनों एवं कारखानों द्वारा औद्योगिक उत्पादन हो रहा है तो एक भिन्न प्रकार का समाज पाया जाता है। इन दोनों अवस्थाओं की राजनीति, धर्म, संस्कृति, कला, साहित्य, दर्शन, प्रथा, नैतिकता एवं लोकाचारों मैं बहुत अंतर है।अतः स्पष्ट है कि उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन होने पर ही समाज में परिवर्तन आता है। उत्पादन में लगे लोगों के पारस्परिक संबंधों में भी परिवर्तन आ जाता है। आज के युग में पूंजीपति व श्रमिकों में जो संबंध पाए जाते हैं। वे कृषि युग के भूमि स्वामियों एवं मजदूरों के संबंधों से इसीलिए भिन्न है।

मार्क्स का मत है कि उत्पादन के संबंधों के संपूर्ण योग से ही समाज की आर्थिक संरचना का निर्माण होता है। उदाहरण के लिए कृषि युग में जमीदारों, कृषको एवं कृषि श्रमिकों के बीच पाए जाने वाले संबंधों से एक विशेष प्रकार की आर्थिक संरचना का निर्माण हुआ। जिसे हम कृषि अर्थव्यवस्था कहते हैं। वर्तमान समय में पूंजीपतियों, कारखाने के स्वामियों एवं श्रमिकों के संबंधों से मिलकर बनने वाली आर्थिक संरचना कृषि युग की आर्थिक संरचना से भिन्न है, इसे हम औद्योगिक आर्थिक संरचना या औद्योगिक अर्थव्यवस्था कहते हैं। संक्षेप में मार्क्स के अनुसार उत्पादन प्रणाली के परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदाई है। जब उत्पादन के उपकरणों ( प्रौद्योगिकी ), उत्पादन के कौशल, ज्ञान, उत्पादन के संबंध आदि जो कि आर्थिक संरचना का निर्माण करते हैं, में परिवर्तन आता है तो संपूर्ण सामाजिक सांस्कृतिक अधि संरचना से भी परिवर्तन आता है जिसे हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं।

मार्क्स का मत है कि इतिहास के प्रत्येक युग में दो वर्ग रहे हैं। मानव समाज का इतिहास इन दो वर्गों के संघर्ष का ही इतिहास है। आपने समाज के विकास को पांच युगों में बांटा और प्रत्येक युग में पाए जाने वाले दो वर्गों का उल्लेख किया। एक वह वर्ग जिसका उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व रहा है और दूसरा वह जो श्रम के द्वारा जीवन यापन करता है। इन दोनों वर्गों में अपने-अपने हितों को लेकर संघर्ष होता रहा है। प्रत्येक वर्ग संघर्ष का अंत नए समाज एवं नए वर्गों के उदय के रूप में हुआ है। वर्तमान में भी पूंजीपति और श्रमिक दो वर्ग हैं जो अपने अपने हितों को लेकर संघर्षरत हैं। मार्क्स कहते हैं कि वर्गों की संरचना एवं प्रकृति ही समाज व्यवस्था का निर्धारण करती है। एक युग के वर्ग संघर्ष के परिणाम स्वरूप नए वर्गों का जन्म होता है जो नई समाज व्यवस्था को जन्म देता है। इस प्रकार वर्ग संघर्ष एवं उसके परिणाम स्वरूप नए वर्गों के जन्म के कारण ही समाज में परिवर्तन होते हैं। इस तरह मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन में वर्ग संघर्ष की भूमिका को महत्वपूर्ण माना है।

समालोचना - मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन के लिए केवल एक ही कारक - आर्थिक कारक ( उत्पादन प्रणाली ) को उत्तरदाई मानकर परिवर्तन के अन्य कारकों की अवहेलना की है। सामाजिक, धार्मिक, भौगोलिक एवं जनसंख्यात्मक कारकों का भी सामाजिक परिवर्तन में महत्वपूर्ण हाथ होता है और स्वयं आर्थिक कारक भी अन्य कारकों से प्रभावित होते हैं।
मार्क्स कहते हैं कि सामाजिक परिवर्तन प्रौद्योगिकी, आर्थिक संबंध एवं आर्थिक संरचना में परिवर्तन के कारण आते हैं किंतु वे यह स्पष्ट करने में असमर्थ रहे हैं की प्रौद्योगिकी आदि मेव परिवर्तन क्यों होता है या उसे परिवर्तित करने वाले कौन से कारक हैं ?
मार्क्स द्वारा प्रयुक्त शब्दों जैसे आर्थिक कारक, उत्पादन की शक्तियां तथा सम्बन्ध, आर्थिक आधार, प्रौद्योगिकी आदि की स्पष्टत: व्याख्या नहीं की गई है। कुछ विद्वान इसमें केवल आर्थिक प्रविधियां को ही सम्मिलित करते हैं जबकि ऐंजिल एवं सैलिगमैन आदि मेव उत्पादन से संबंधित सभी दशाओं को आर्थिक कारकों के अंतर्गत सम्मिलित किया।
मार्क्स ने वर्ग संघर्ष पर अधिक जोर दिया है किंतु समाज की नीव संघर्ष पर नहीं वरन् सहयोग पर आधारित है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांत को वैज्ञानिक आधार प्रदान करने का पूरा प्रयास किया है फिर भी आपने आर्थिक कारकों पर आवश्यकता से अधिक बल दिया है। मानव केवल अपनी आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करने वाला पुतला मात्र ही नहीं है। सोरोकिन कहते हैं कि मार्क्स एवं एंजिल्स ने सामाजिक विज्ञान को प्रगतिशील बनाने के स्थान पर इसके विकास में अनेक बाधाएं उत्पन्न की है। " मैक्स वेबर ने मार्क्स के सिद्धांत की आलोचना की है। वे आर्थिक कारकों के स्थान पर धर्म को सामाजिक परिवर्तन का आधार मानते हैं। मैकाइवर एवं पेज का मत है कि मार्क्स के सिद्धांत की सच्ची शक्ति केवल इस बात में है कि आपने संसार को पूंजीवादी सभ्यता के गंभीर आंतरिक दोषों से परिचित कराया है। अपने दोषों के बावजूद भी मार्क्स के सिद्धांत की उपयोगिता को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

थार्सटीन वेबलिन का सिद्धान्त - वेबलिन भी सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रौद्योगिक दशाओं को उत्तरदाई मानते हैं। उनका मत है कि प्रौद्योगिक दशाएं प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदाई है। इसलिए उनके सिद्धांत को प्रौद्योगिक निर्णयवाद कहां जाता है। वेबलिन ने मानवीय विशेषताओं को दो भागों में विभाजित किया है - स्थिर विशेषताएं - जिनका संबंध मानव की मूल प्रवृत्तियो और प्रेरणाओं से है जिनमें बहुत कम परिवर्तन होता है।

परिवर्तनशील विशेषताएं जैसे आदतें, विचार एवं मनोवृत्तियां आदि। सामाजिक परिवर्तन का संबंध मानव की इन दूसरी विशेषताओं से है, विशेष रूप से मानव की विचार करने की आदतों से । वेबलिन ने अपने सिद्धांत को इस प्रकार प्रस्तुत किया है :-

मनुष्य अपनी आदतों द्वारा नियंत्रित होता है और वह उनका दास है। यह आदतें किस प्रकार की होंगी, यह मानव के भौतिक पर्यावरण पर निर्भर है, भौतिक पर्यावरण में भी विशेषकर प्रौद्योगिकी पर। जब भौतिक पर्यावरण अर्थात प्रौद्योगिकी में परिवर्तन आता है तो मानव की आदतें भी बदलती हैं। मानव की आदतों का निर्माण कैसे होता है? इसका उत्तर देते हुए वेबलिन कहते हैं कि मानव जिस प्रकार के कार्य तथा प्रविधि द्वारा अपना जीवन यापन करता है उसी प्रकार की उसकी आदतें एवं मनोवृत्तियां होती हैं। जीवन यापन के लिए मनुष्य जिस प्रकार की प्रविधि को अपनाता है अपनी आदतों को भी वह उसके अनुकूल ढालता है। ये आदतें व्यक्ति को एक निश्चित प्रकार का जीवन व्यतीत करने को बाध्य करती हैं और उसके द्वारा किया जाने वाला कार्य उसके विचारों को प्रभावित करता है। मानव जिस प्रकार का कार्य करता है, वैसा ही सोचता भी है। उदाहरण के लिए, सैनिक, कृषक, डॉक्टर, इंजीनियर, आदि जिस प्रकार का कार्य करते हैं उनके विचार एवं आदतें भी वैसी ही हो जाती हैं। मनुष्य जीवन यापन के लिए कौन सा कार्य करेगा, यह उसके भौतिक पर्यावरण पर निर्भर है। भौतिक पर्यावरण मानव के कार्यों को एवं कार्य मानव के विचारों एवं आदतों को निश्चित करता है। उदाहरण के लिए, कृषि युग में मानव जीवन यापन के लिए एक विशेष प्रौद्योगिकी को काम में लाता था, उसी के अनुसार उसका भौतिक पर्यावरण भी बना हुआ था। कृषि कार्य के आधार पर ही मानव की आदतें एवं मनोवृत्तियां बनी हुई थी। किंतु जब मशीनों का आविष्कार हुआ तो मानव का भौतिक पर्यावरण बदला, प्रौद्योगिकी बदली, काम की प्रवृत्ति बदली और उसके साथ-साथ मानव की आदतों एवं मनोवृत्तियों में भी परिवर्तन आया।

आदतें ही धीरे-धीरे स्थापित एवं सुदृढ़ होकर संस्थाओं का रूप ग्रहण करती हैं। संस्थाएं ही सामाजिक ढांचे का निर्माण करती हैं। अतः जब आदतों में परिवर्तन होता है तो सामाजिक संस्थाओं एवं ढांचे में भी परिवर्तन आता है जिसे हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। संक्षेप में , वेबलिन के विचारों को हम इस प्रकार प्रकट कर सकते हैं - मानव अपनी आदतों द्वारा नियंत्रित होता है, आदतों का निर्माण भौतिक पर्यावरण एवं प्रौद्योगिकी के अनुसार होता है, आदतें ही सामाजिक संस्थाओं का निर्माण करती है एवं सामाजिक संस्थाएं सामाजिक ढांचे का। आता है जब प्रौद्योगिकी एवं भौतिक पर्यावरण में परिवर्तन होता है तो मानव की आदतों , संस्थाओं एवं सामाजिक ढांचे में भी परिवर्तन आता है। सामाजिक संरचना में परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन है। इस प्रकार वेबलिन सामाजिक परिवर्तन को नवीन प्रविधियों एवं प्रौद्योगिकीय कारको से जनित मानते हैं। इसलिए ही उन्हें प्रौद्योगिक निश्चयवादी कहा जाता है। वेबलिन भौतिक पर्यावरण में परिवर्तन को एक स्वाभाविक घटना मानते हैं।

समालोचना - वेबलिन के सिद्धांत में भी लगभग वही कमियां है जो मार्क्स के सिद्धांत में है क्योंकि उन्होंने भी मार्क्स की तरह प्रौद्योगिकी को ही सामाजिक परिवर्तन का कारक माना है।
वेबलिन ने मानव को अपनी आदतों द्वारा नियंत्रित प्राणी माना है, लेकिन यह सही नहीं है। मानव आदत के बजाय अपने विवेक से अधिक नियंत्रित होता है।
प्रौद्योगिक परिवर्तन से ही सामाजिक परिवर्तन आता है, यह कहना उचित नहीं है क्योंकि कभी-कभी भौतिक पर्यावरण बिल्कुल नहीं बदलता फिर भी नैतिक, धार्मिक एवं अन्य कारकों के कारण समाज में परिवर्तन आ जाता है।
वेबलिन का सिद्धांत भी उसी प्रकार से एकपक्षीय है जिस प्रकार से अन्य कारकवादियों या निर्धारणवादियों के सिद्धांत। सामाजिक परिवर्तन किसी एक ही कारक का प्रतिफल ना होकर कई कारकों का परिणाम है। यह एक जटिल प्रक्रिया है जिसे वेबलिन ने आप ही सरल रूप में प्रस्तुत किया है

सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक सिद्धांत क्या हैं

सामाजिक परिवर्तन के तीन मुख्य सिद्धांत हैं: विकासवादी, प्रकार्यवादी और संघर्ष

सामाजिक परिवर्तन क्या है इसके सिद्धांत को समझाइए?

सामाजिक परिवर्तन, समाज के आधारभूत परिवर्तनों पर प्रकाश डालने वाला एक विस्तृत एवं कठिन विषय है। इस प्रक्रिया में समाज की संरचना एवं कार्यप्रणाली का एक नया जन्म होता है। इसके अन्तर्गत मूलतः प्रस्थिति, वर्ग, स्तर तथा व्यवहार के अनेकानेक प्रतिमान बनते एवं बिगड़ते हैं। समाज गतिशील है और समय के साथ परिवर्तन अवश्यंभावी है।

सामाजिक परिवर्तन के दो प्रमुख सिद्धांत कौन कौन से हैं?

Materialism) उद्विकास से जुड़े हुए सिद्धान्त वस्तुतः प्राणिशास्त्रीय परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन से जोड़ने वाले हैं और ऐतिहासिक भौतिकवाद से जुड़े हुए सिद्धान्त मौलिक रूप से वे हैं, जिन्हें कार्ल मार्क्स ने रखा है। मार्क्स के बाद मार्क्सवादी सिद्धान्तवेत्ताओं ने ऐतिहासिक भौतिकवाद को उसके विभिन्न स्वरूपों में रखा है।

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