Show ऑपरेशन ब्लू स्टार: जब स्वर्ण मंदिर पर चढ़े भारतीय टैंक
6 जून 2018 अपडेटेड 5 जून 2022 इमेज स्रोत, Getty Images इमेज कैप्शन, मेजर जनरल कुलदीप बराड़, तत्कालीन उत्तरी कमान के प्रमुख लेफ़्टिनेंट जनरल सुंदरजीत और तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल अरुण शंकर वैद्य 31 मई 1984 की शाम. मेरठ में नाइन इंफ़ेंट्री डिवीजन के कमांडर मेजर जनरल कुलदीप बुलबुल बराड़ अपनी पत्नी के साथ दिल्ली जाने की तैयारी कर रहे थे. अगले दिन उन्हें मनीला के लिए उड़ान भरनी थी, जहाँ वो छुट्टियाँ मनाने जा रहे थे. ये तब की बात है जब पंजाब अलगाववाद की आग में झुलस रहा था. गुरुद्वारों में पंजाब को भारत से अलग किए जाने के लिए यानी एक अलग मुल्क ख़ालिस्तान बनाने की तकरीरें की जा रही थीं. ये भी कहा जा रहा था कि इसके लिए भारत के साथ सशस्त्र संघर्ष करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए. पंजाब में जारी ये गतिविधियां दिल्ली में बैठे अधिकारियों के लिए चिंता का सबब बनी हुई थीं. ऐसे में सत्ता के शीर्ष शिखर से एक ऐतिहासिक फैसला लिया गया. ये फैसला था ऑपरेशन ब्लू स्टार को अंजाम देने का. और मेजर जनरल बराड़ को इसकी ज़िम्मेदारी संभालनी थी.
जब स्वर्णमंदिर पर हुआ भिंडरावाले का कब्जामेजर जनरल कुलदीप बराड़ याद करते हैं, "शाम को मेरे पास फ़ोन आया कि अगले दिन पहली तारीख की सुबह मुझे चंडी मंदिर पहुंचना है एक मीटिंग के लिए." "पहली तारीख की शाम ही हमें मनीला निकलना था. हमारी टिकटें बुक हो चुकी थीं. हमने अपने ट्रैवलर्स चेक ले लिए थे और हम दिल्ली जा रहे थे जहाज़ पकड़ने के लिए." "मैं मेरठ से दिल्ली बाई रोड गया. वहाँ से जहाज़ पकड़ कर चंडीगढ़ और सीधे पश्चिम कमान के मुख्यालय पहुंचा." "वहाँ मुझे ख़बर मिली कि मुझे ऑपरेशन ब्लू स्टार कमांड करना है और जल्द से जल्द अमृतसर पहुंचना है क्योंकि हालात बहुत ख़राब हो गए हैं." "स्वर्ण मंदिर पर भिंडरावाले ने पूरा कब्ज़ा कर लिया है और पंजाब में कोई कानून और व्यवस्था नहीं रही है." "मुझसे कहा गया कि इसे जल्दी से जल्दी ठीक करना है वर्ना पंजाब हमारे हाथ से निकल जाएगा." "मेरी छुट्टी रद्द हो गई और मैं तुरंत हवाई जहाज़ पर बैठ कर अमृतसर पहुँचा."
इमेज स्रोत, SATPAL DANISH इमेज कैप्शन, भिंडरावाले की एक सभा में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार खुशवंत सिंह भिंडरावाले का कांग्रेस कनेक्शनभिंडरावाले को कांग्रेसियों ने ही बढ़ावा दिया. उनको बढ़ावा देने के पीछे मक़सद ये था कि अकालियों के सामने सिखों की मांग उठाने वाले किसी ऐसे शख्स को खड़ा किया जाए जो उनको मिलने वाले समर्थन में सेंध लगा सके. भिंडरावाले विवादास्पद मुद्दों पर भड़काऊ भाषण देने लगे और धीरे-धीरे उन्होंने केंद्र सरकार को भी निशाना बनाना शुरू कर दिया. पंजाब में हिंसा की घटनाएं बढ़ने लगीं. साल 1982 में भिंडरावाले चौक गुरुद्वारा छोड़ पहले स्वर्ण मंदिर में गुरु नानक निवास और उसके कुछ महीनों बाद अकाल तख़्त से अपने विचार व्यक्त करने लगे.
इमेज स्रोत, SATPAL DANISH इमेज कैप्शन, जरनैल सिंह (हाथ जोड़े हुए, बाएं में), संत हरचरण सिंह लौंगोवाल और सिख स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन के अध्यक्ष अमरीक सिंह (दाएं) खेतों के उस पार पाकिस्तान हैवरिष्ठ पत्रकार और बीबीसी के लिए काम कर चुके पत्रकार सतीश जैकब को भी कई बार भिंडरावाले से मिलने का मौका मिला. जैकब कहते हैं, "मैं जब भी वहाँ जाता था, भिंडरावाले के रक्षक दूर से कहते थे आओजी आओजी बीबीजी आ गए. कभी उन्होंने बीबीसी नहीं कहा. कहते थे तुसी अंदर जाओ." "संत जी आपका इंतज़ार कर रहे हैं. वो मुझसे बहुत आराम से मिलते थे. मुझे अब भी याद है जब मैंने मार्क टली को उनसे मिलवाया तो उन्होंने उनसे पूछा कि तुम्हारा क्या धर्म है तो उन्होंने कहा कि मैं ईसाई हूँ." "इस पर भिंडरावाले बोले तो आप जीज़स क्राइस्ट को मानते हैं. मार्क ने कहा, 'हाँ'. इस पर भिंडरावाले बोले लेकिन जीज़स क्राइस्ट की तो दाढ़ी थी. तुम्हारी दाढ़ी क्यों नही है." "मार्क बोले, 'ऐसा ही ठीक है'. इस पर भिंडरावाले का कहना था तुम्हें पता है कि बिना दाढ़ी के तुम लड़की जैसे लगते हो. मार्क ने ये बात हंस कर टाल दी."
इमेज कैप्शन, बीबीसी के लिए काम कर चुके पत्रकार मार्क टली भारत-पाकिस्तान सीमावे कहते हैं, "भिंडरावाले से एक बार मेरी अकेले में लंबी चौड़ी बात हुई. हम दोनों स्वर्ण मंदिर की छत पर बैठे हुए थे, जहाँ कोई नहीं जाता था. बंदर ही बंदर घूम रहे थे." "मैंने बातों ही बातों में उनसे पूछा कि जो कुछ आप कर रहे हैं आपको लगता है कि आप के ख़िलाफ़ कुछ एक्शन होगा. उन्होंने कहा क्या ख़ाक एक्शन होगा." "उन्होंने मुझे छत से इशारा करके दिखाया कि सामने खेत हैं. सात आठ किलोमीटर के बाद भारत-पाकिस्तान सीमा है." "हम पीछे से निकल कर सीमा पार चले जाएंगे और वहाँ से छापामार युद्ध करेंगे. मुझे ये हैरानी थी कि ये शख्स मुझे ये सब कुछ बता रहा है और मुझ पर विश्वास कर रहा है." "उसने मुझसे ये भी नहीं कहा कि तुम इसे छापोगे नहीं." 4 जून 1984 को भिंडरावाले के लोगों की पोज़ीशन का जायज़ा लेने के लिए एक अधिकारी को सादे कपड़ों में स्वर्ण मंदिर के अंदर भेजा गया. 5 जून की सुबह जनरल बराड़ ने ऑपरेशन में भाग लेने वाले सैनिकों को उनके ऑपरेशन के बारे में ब्रीफ़ किया.
इमेज स्रोत, SATPAL DANISH इमेज कैप्शन, हरचरण सिंह लौंगोवाल और जरनैल सिंह भिंडरावाले स्वर्ण मंदिर से निकलते हुए रेंगते हुए अकाल तख्त की तरफ़ बढ़नाजनरल बराड़ ने बीबीसी को बताया, "पाँच तारीख की सुबह साढ़े चार बजे मैं हर बटालियन के पास गया और उनके जवानों से करीब आधे घंटे बात की." "मैंने उनसे कहा कि स्वर्ण मंदिर के अंदर जाते हुए हमें ये नहीं सोचना है कि हम किसी पवित्र जगह पर जा कर उसे बर्बाद करने जा रहे हैं, बल्कि हमें ये सोचना चाहिए कि हम उसकी सफ़ाई करने जा रहे हैं. जितनी कैजुएलटी कम हो उतना अच्छा है." "मैंने उनसे ये भी कहा कि अगर आप में से कोई अंदर नहीं जाना चाहता तो कोई बात नहीं. मैं आपके कमाडिंग ऑफ़िसर से कहूँगा कि आपको अंदर जाने की ज़रूरत नहीं है और आपके ख़िलाफ़ कोई एक्शन नहीं लिया जाएगा." "मैं तीन बटालियंस में गया. कोई नहीं खड़ा हुआ. चौथी बटालियन में एक सिख ऑफ़िसर खड़ा हो गया. मैंने कहा कोई बात नहीं अगर आपकी फ़ीलिंग्स इतनी स्ट्रांग है तो आपको अंदर जाने की ज़रूरत नहीं." "उसने कहा आप मुझे ग़लत समझ रहे हैं. मैं हूँ सेकेंड लेफ़्टिनेंट रैना. मैं अंदर जाना चाहता हूँ और सबसे आगे जाना चाहता हूँ. ताकि मैं अकाल तख़्त में सबसे पहले पहुँच कर भिंडरावाले को पकड़ सकूँ."
इमेज स्रोत, KS Brar इमेज कैप्शन, मेजर जनरल कुलदीप बुलबुल बराड़ मेजर जनरल कुलदीप बराड़ बताते हैं कि उन्हें अंदाजा नहीं था कि अलगाववादियों के पास रॉकेट लॉन्चर थे. बराड़ ने बताया, "मैंने उनके कमांडिंग ऑफ़िसर से कहा कि इनकी प्लाटून सबसे पहले सबसे आगे अंदर जाएगी. उनकी प्लाटून सबसे पहले अंदर गई, लेकिन उनको मशीन गन के इतने फ़ायर लगे कि उनकी दोनों टांगें टूट गईं. ख़ून बह रहा था. उनका कमांडिंग ऑफ़िसर कह रहा था कि मैं इन्हें रोकने की कोशिश कर रहा हूँ लेकिन वो रुक नहीं रहे हैं. वो अकाल तख़्त की तरफ़ रेंगते हुए बढ़ रहे हैं. मैंने आदेश दिया कि उन्हें ज़बरदस्ती उठा कर एंबुलेंस में लादा जाए. बाद में उनके दोनों पैर काटे गए. उनकी बहादुरी के लिए बाद में मैंने उन्हें अशोक चक्र दिलवाया." पैराशूट रेजिमेंटऑपरेशन का नेतृत्व कर रहे जनरल सुंदरजी, जनरल दयाल और जनरल बराड़ की रणनीति थी कि इस पूरी मुहिम को रात के अंधेरे में अंजाम दिया जाए. दस बजे के आसपास सामने से हमला बोला गया. इमेज स्रोत, RAVINDER SINGH ROBIN/BBC काली वर्दी पहने पहली बटालियन और पैराशूट रेजिमेंट के कमांडोज़ को निर्देश दिया गया कि वो परिक्रमा की तरफ़ बढ़ें, दाहिने मुड़ें और जितनी जल्दी संभव हो अकाल तख़्त की ओर कदम बढ़ाएं. लेकिन जैसे ही कमांडो आगे बढ़े उन पर दोनों तरफ़ से ऑटोमैटिक हथियारों से ज़बरदस्त गोलीबारी की गई. कुछ ही कमांडो इस जवाबी हमले में बच पाए. उनकी मदद करने आए लेफ़्टिनेंट कर्नल इसरार रहीम खाँ के नेतृत्व में दसवीं बटालियन के गार्ड्स ने सीढ़ियों के दोनों तरफ मशीन गन ठिकानों को निष्क्रिय किया, लेकिन उनके ऊपर सरोवर की दूसरी ओर से ज़बरदस्त गोलीबारी होने लगी. कर्नल इसरार खाँ ने सरोवर के उस पार भवन पर गोली चलाने की अनुमति माँगी, लेकिन उसे अस्वीकार कर दिया गया. कहने का मतलब ये कि सेना को जिस विरोध का सामना करना पड़ा उसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी. इमेज स्रोत, SATPAL DANISH मजबूत क़िलाबंदीबराड़ कहते हैं, "वो तो पहले पैंतालिस मिनट में पता चल गया कि इनकी प्लानिंग, इनके हथियार और इनकी किलाबंदी इतनी मज़बूत है कि इनसे पार पाना आसान नहीं होगा. हम चाहते थे कि हमारे कमांडो अकाल तख़्त के अंदर स्टन ग्रेनेड फेंकें. स्टन ग्रेनेड की जो गैस होती है उससे आदमी मरता नहीं है. उसको सिर दर्द हो जाता है. उसकी आँखों में पानी आ जाता है. वो ठीक से देख नहीं सकता है और इस बीच हमारे जवान अंदर चले जाएं. लेकिन इन ग्रेनेडों को अंदर फेंकने का कोई रास्ता नहीं था. हर खिड़की और हर दरवाज़े पर सैंड बैग लगे हुए थे. ग्रेनेड दीवारों से टकरा कर परिक्रमा पर वापस आ रहे थे और हमारे जवानों पर उनका असर होने लगा था." सिर्फ़ उत्तरी और पश्चिमी छोर से ही सैनिकों पर फ़ायरिंग नहीं हो रही थी बल्कि अलगाववादी ज़मीन के नीचे मेन होल से निकल कर मशीन गन से फ़ायर कर अंदर ही गायब हो जा रहे थे. इमेज स्रोत, SATPAL DANISH जनरल शाहबेग सिंह ने इन लोगों को घुटने के आसपास फ़ायर करने की ट्रेनिंग दी थी क्योंकि उनका अंदाज़ा था कि भारतीय सैनिक रेंगते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ेंगे, लेकिन कमांडोज़ बाक़ायदा चल कर आगे बढ़ रहे थे. यही कारण है कि ज़्यादातर सैनिकों को पैरों में गोली लगी. जब सैनिकों का बढ़ना रुक गया तो जनरल बराड़ ने आर्मर्ड पर्सनल कैरियर के इस्तेमाल का फ़ैसला किया, लेकिन जैसे ही एपीसी अकाल तख़्त की ओर बढ़ा, उसे चीन निर्मित रॉकेट लांचर से उड़ा दिया गया. तेज़ रोशनी का फ़ायदाजनरल बुलबुल बराड़ याद करते हैं, "एपीसी में अंदर बैठे कमांडोज़ को प्रोटेक्शन मिल जाता है. हमारी कोशिश थी कि हम अपने जवानों को अकाल तख़्त के नज़दीक से नज़दीक पहुँचा सकें, लेकिन हमें पता नहीं था कि उनके पास रॉकेट लॉन्चर्स हैं. उन्होंने रॉकेट लॉन्चर फ़ायर कर एपीसी को उड़ा दिया." जिस तरह से चारों तरफ़ चल रही गोलियों से भारतीय जवान धराशायी हो रहे थे, जनरल बराड़ को मजबूर होकर टैंकों की मांग करनी पड़ी. मैंने जनरल बराड़ से पूछा कि क्या टैंकों का इस्तेमाल पहले से आपकी योजना में था? इमेज स्रोत, SATPAL DANISH बराड़ का जवाब था, "बिल्कुल नहीं. टैंकों को तब बुलाया गया जब हमने देखा कि हम अकाल तख़्त के नज़दीक तक भी नहीं पहुंच पा रहे हैं. हमें डर था कि सुबह होते ही हज़ारों लोग आ जाएंगे चारों तरफ़ से फ़ौज को घेर लेंगे. टैंकों का इस्तेमाल हम इसलिए करना चाहते थे कि उनके ज़िनॉन बल्ब या हेलोजन बल्ब बहुत शक्तिशाली बल्ब होते हैं. हम उनके ज़रिए उनकी आंखों को चौंधियाना चाहते थे ताकि वो कुछ क्षणों के लिए कुछ न देख पाएं और हम उसका फ़ायदा उठा कर उन पर हमला बोल दें." वे कहते हैं, "लेकिन ये बल्ब ज़्यादा से ज़्यादा बीस, तीस या चालीस सैकेंड रहते हैं और फिर फ़्यूज़ हो जाते हैं. बल्ब फ़्यूज़ होने के बाद हम टैंक को वापस ले गए. फिर दूसरा टैंक लाए, लेकिन जब कुछ भी सफल नहीं हो पाया और सुबह होने लगी और अकाल तख़्त में मौजूद लोगों ने हार नहीं मानी तो हुक़्म दिया गया कि टैंक के सेकेंड्री आर्मामेंट से अकाल तख़्त के ऊपर वाले हिस्से पर फ़ायर किया जाए, ताकि ऊपर से गिरने वाले पत्थरों से लोग डर जाएं और बाहर निकल आएं." इमेज स्रोत, SATPAL DANISH इसके बाद तो अकाल तख़्त के लक्ष्य को किसी और सैनिक लक्ष्य की तरह ही माना गया. बाद में जब रिटायर्ड जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा ने स्वर्ण मंदिर का दौरा किया तो उन्होंने पाया कि भारतीय टैंकों ने अकाल तख़्त पर कम से कम 80 गोले बरसाए थे. मौत की पुष्टिमैंने जनरल बराड़ से पूछा कि आपको कब अंदाज़ा हुआ कि जरनैल सिंह भिंडरावाले और जनरल शाहबेग सिंह मारे गए. बराड़ ने जवाब दिया, "करीब तीस चालीस लोगों ने दौड़ लगाई बाहर निकलने के लिए. हमें लगा कि लगता है ऐसी कुछ बात हो गई है और फिर फ़ायरिंग भी बंद हो गई. फिर हमने अपने जवानों से कहा कि अंदर जा कर तलाशी लो. तब जा कर उनकी मौत का पता चला, लेकिन अगले दिन कहानियाँ शुरू हो गईं कि वो रात को बच कर पाकिस्तान पहुँच गए. पाकिस्तानी टीवी अनाउंस कर रहा है कि भिंडरावाले उनके पास हैं और 30 जून को वो उन्हें टीवी पर दिखाएंगे." इमेज स्रोत, SATPAL DANISH वे कहते हैं, "मेरे पास सूचना और प्रसारण मंत्री एचकेएल भगत और विदेश सचिव रसगोत्रा का फ़ोन आया कि आप तो बोल रहे हैं कि वो मर चुके हैं जबकि पाकिस्तान कह रहा है कि वो ज़िंदा हैं. मैंने कहा उनकी पहचान हो गई है. उनका शव उनके परिवार को दे दिया गया है और उनके अनुयायियों ने उनके पैर छुए हैं. उनकी मौत हो गई है. अब पाकिस्तान जो चाहे वो बोलता रहे उनके बारे में." इस पूरे ऑपरेशन में भारतीय सेना के 83 सैनिक मारे गए और 248 अन्य सैनिक घायल हुए. इसके अलावा 492 अन्य लोगों की मौत की पुष्टि हुई और 1,592 लोगों को हिरासत में लिया गया. इस घटना से भारत क्या पूरे विश्व में सिख समुदाय की भावनाएं आहत हुईं. ये भारतीय सेना की सैनिक जीत ज़रूर थी, लेकिन इसे बहुत बड़ी राजनीतिक हार माना गया. इसकी टाइमिंग, रणनीति और क्रियान्वयन पर कई सवाल उठाए गए और अंतत: इंदिरा गाँधी को इसकी क़ीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी. (ये लेख बीबीसी हिंदी के पेज पर 6 जून 2018 को प्रकाशित हुआ था.) |