आपकी पाठ्यपुस्तक में संकलित व्यंग्यकार का नाम लिखिये। - aapakee paathyapustak mein sankalit vyangyakaar ka naam likhiye.

होशंगाबाद। मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिला देश के सुप्रसिद्ध साहित्यकारों की जन्मभूमि रही है। यहां माखनदादा, भवानी प्रसाद मिश्र और ( Harishankar Parsai:) की जन्मभूमि व कर्मभूमि के नाम जानी जाती है। कल यानि 10 अगस्त को व्यंगकार Harishankar Parsai जी की पुण्यतिथि भी है। इनका जन्म होशंगाबाद के जमानी गांव में हुआ था।

 इन्होनें उठाई ब्रिटिश शासन के खिलाफ आवाज
जिले के साहित्यकारों के साहित्य की देश में एक अलग पहचान है। भारतीय आत्मा के नाम से प्रसिद्ध जिले के व्यंगकार हरिशंकर परसाई, माखनलाल चतुर्वेदी और कवि पंडित भवानी प्रसाद मिश्र ऐसे हिंदी साहित्यकार जिन्होंने कविता, लेख के माध्यम से ब्रिटिश शासन के खिलाफ अपनी आवाज को बुलंद किया था।

 इन्होनें दिलाया विद्या का दर्जा
Harishankar Parsai हिंदी के पहले रचनाकार थे। इनका जन्म का जन्म 22 अगस्त, 1924 को हुआ। वहीं मृत्यू 10 अगस्त, 1995) में हुआ। हरिशंकर परसाई हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और व्यंगकार थे। उनका जन्म जमानी, होशंगाबाद, मध्य प्रदेश में हुआ था। वे हिंदी के पहले रचनाकार हैं जिन्होंने व्यंग्य को विधा का दर्जा दिलाया और उसे हल्के-फुल्के मनोरंजन की परंपरागत परिधि से उबारकर समाज के व्यापक प्रश्नों से जोड़ा। उनकी व्यंग्य रचनाएँ हमारे मन में गुदगुदी ही पैदा नहीं करतीं बल्कि हमें उन सामाजिक वास्तविकताओं के आमने-सामने खड़ा करती है, जिनसे किसी भी व्यक्ति का अलग रह पाना लगभग असंभव है। लगातार खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को उन्होंने बहुत ही निकटता से पकड़ा है। सामाजिक पाखंड और रूढि़वादी जीवन-मूल्यों के अलावा जीवन पर्यन्त विस्ल्लीयो पर भी अपनी अलग कोटिवार पहचान है। उड़ाते हुए उन्होंने सदैव विवेक और विज्ञान-सम्मत दृष्टि को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा-शैली में खास किस्म का अपनापा है, जिससे पाठक यह महसूस करता है कि लेखक उसके सामने ही बैठा है।ठिठुरता हुआ गणतंत्र की रचना Harishankar Parsai ने किया जो एक व्यंग है

 
नागपुर से की शिक्षा प्राप्त
गाँव से प्राम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे नागपुर चले आये थे। 'नागपुर विश्वविद्यालय' से उन्होंने एम. ए. हिंदी की परीक्षा पास की। कुछ दिनों तक उन्होंने अध्यापन कार्य भी किया। इसके बाद उन्होंने स्वतंत्र लेखन प्रारंभ कर दिया। उन्होंने जबलपुर से साहित्यिक पत्रिका 'वसुधा' का प्रकाशन भी किया, परन्तु घाटा होने के कारण इसे बंद करना पड़ा। हरिशंकर परसाई जी ने खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को बहुत ही निकटता से पकड़ा है। उनकी भाषा-शैली में ख़ास किस्म का अपनापन है, जिससे पाठक यह महसूस करता है कि लेखक उसके सामने ही बैठा है।

 
18 वर्ष की उम्र में की नौकरी
मात्र अठारह वर्ष की उम्र में हरिशंकर परसाई ने 'जंगल विभाग' में नौकरी की। वे खण्डवा में छह माह तक बतौर अध्यापक भी नियुक्त हुए थे। उन्होंन ए दो वर्ष (1941-1943 में) जबलपुर में 'स्पेस ट्रेनिंग कॉलिज' में शिक्षण कार्य का अध्ययन किया। 1943 से हरिशंकर जी वहीं 'मॉडल हाई स्कूल' में अध्यापक हो गये। किंतु वर्ष 1952 में हरिशंकर परसाई को यह सरकारी नौकरी छोड़ी। उन्होंने वर्ष 1953 से 1957 तक प्राइवेट स्कूलों में नौकरी की। 1957 में उन्होंने नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र लेखन की शुरूआत की।

 पहली रचना रही ये
हरिशंकर परसाई जी की पहली रचना "स्वर्ग से नरक जहां तक" है, जो कि मई 1948 में प्रहरी में प्रकाशित हुई थी, जिसमें उन्होंने धार्मिक पाखंड और अंधविश्वास के ख़िलाफ़ पहली बार जमकर लिखा था। धार्मिक खोखला पाखंड उनके लेखन का पहला प्रिय विषय था। वैसे हरिशंकर परसाई कार्लमाक्र्स से अधिक प्रभावित थे। परसाई जी की प्रमुख रचनाओं में "सदाचार का ताबीज" प्रसिद्ध रचनाओं में से एक थी जिसमें रिश्वत लेने देने के मनोविज्ञान को उन्होंने प्रमुखता के साथ उकेरा है।

 सम्मान और पुरस्कार
साहित्य अकादमी पुरस्कार - 'विकलांग श्रद्धा का दौर' के लिए
शिक्षा सम्मान - मध्य प्रदेश शासन द्वारा
डी.लिट् की मानद उपाधि - 'जबलपुर विश्वविद्यालय' द्वारा
शरद जोशी सम्मान

                
                                                                                 
                            हिंदी के मूर्धन्य व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई जी को पढ़ते हुए पाठक महसूस करता है कि इंसान का विवेक और वैज्ञानिक चेतना बहुत महत्वपूर्ण चीज़ें हैं जिसका इस्तेमाल कर चाहिए। वे रूढ़िवादी नज़रिये को सिरे से ख़ारिज करते थे। और ये सब वे इतने अपनेपन के साथ बयां करते थे कि पाठक के साथ बहुत नज़दीकी रिश्ता क़ायम हो जाता है। परसाई जी ने 10 अगस्त, 1995 को इस दुनिया को अलविदा कहा।

हरिशंकर परसाई 22 अगस्त 1924 को मध्य प्रदेश में होशंगाबाद के जमानी में पैदा हुए। उनके कई व्यंग्य, निबंध संग्रह, उपन्यास, संस्मरण प्रकाशित हुए। इन व्यंग्य में पगडंडियों का जमाना, सदाचार का तावीज, वैष्णव की फिसलन, विकलांग श्रद्धा का दौर, प्रेमचंद के फटे जूते, ऐसा भी सोचा जाता है, तुलसीदास चंदन घिसैं चंद नाम हैं। परसाई जी साहित्यिक पत्रिका 'वसुधा' के संस्थापक और संपादक थे।

हरिशंकर परसाई हिंदी की वो मशहूर हस्ती हैं जिन्होंने अपनी लेखनी के दम पर व्यंग्य को एक विधा के तौर पर मान्यता दिलाई। उन्होंने अपने व्यंग लेखन से लोगों को गुदगुदाया और समाज के गंभीर सवालों को भी बहुत सहजता से उठाया। व्यंग्य लेखन से हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाने और उनके बहुमूल्य योगदान के लिए उन्हें 1982 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 

पेश है हरिशंकर परसाई जी का एक दिलचस्प व्यंग्य : 'वो जो आदमी है न' 

निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं। निंदा खून साफ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है। निंदा से मांसपेशियाँ पुष्ट होती हैं। निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है। संतों को परनिंदा की मनाही होती है, इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं। ‘मौसम कौन कुटिल खल कामी’- यह संत की विनय और आत्मग्लानि नहीं है, टॉनिक है। संत बड़ा कांइयाँ होता है। हम समझते हैं, वह आत्मस्वीकृति कर रहा है, पर वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है।

स्वास्थ्य विज्ञान की एक मूल स्थापना तो मैंने कर दी। अब डॉक्टरों का कुल इतना काम बचा कि वे शोध करें कि किस तरह की निंदा में कौन से और कितने विटामिन होते हैं, कितना प्रोटीन होता है। मेरा अंदाज है, स्त्री संबंधी निंदा में प्रोटीन बड़ी मात्रा में होता है और शराब संबंधी निंदा में विटामिन बहुत होते हैं।

मेरे सामने जो स्वस्थ सज्जन बैठे थे, वे कह रहे थे - आपको मालूम है, वह आदमी शराब पीता है? 

मैंने ध्यान नहीं दिया। उन्होंने फिर कहा - वह शराब पीता है।

निंदा में अगर उत्साह न दिखाओ तो करने वालों को जूता-सा लगता है। वे तीन बार बात कह चुके और मैं चुप रहा, तीन जूते उन्हें लग गए। अब मुझे दया आ गई। उनका चेहरा उतर गया था।

मैंने कहा - पीने दो।

वे चकित हुए। बोले - पीने दो, आप कहते हैं पीने दो?

मैंने कहा - हाँ, हम लोग न उसके बाप हैं, न शुभचिंतक। उसके पीने से अपना कोई नुकसान भी नहीं है।

उन्हें संतोष नहीं हुआ। वे उस बात को फिर-फिर रेतते रहे। 

तब मैंने लगातार उनसे कुछ सवाल कर डाले - आप चावल ज्यादा खाते हैं या रोटी? किस करवट सोते हैं? जूते में पहले दाहिना पाँव डालते हैं या बायाँ? स्त्री के साथ रोज संभोग करते हैं या कुछ अंतर देकर?

अब वे ‘हीं-हीं’ पर उतर आए। कहने लगे - ये तो प्राइवेट बातें हैं, इनसे क्या मतलब।

मैंने कहा - वह क्या खाता-पीता है, यह उसकी प्राइवेट बात है। मगर इससे आपको जरूर मतलब है। किसी दिन आप उसके रसोईघर में घुसकर पता लगा लेंगे कि कौन-सी दाल बनी है और सड़क पर खड़े होकर चिल्लाएँगे - वह बड़ा दुराचारी है। वह उड़द की दाल खाता है।

तनाव आ गया। मैं पोलाइट हो गया - छोड़ो यार, इस बात को। वेद में सोमरस की स्तुति में 60-62 मंत्र हैं। सोमरस को पिता और ईश्वर तक कहा गया है। कहते हैं - तुमने मुझे अमर बना दिया। यहाँ तक कहा है कि अब मैं पृथ्वी को अपनी हथेलियों में लेकर मसल सकता हूँ। (ऋषि को ज्यादा चढ़ गई होगी) चेतन को दबाकर राहत पाने या चेतना का विस्तार करने के लिए सब जातियों के ऋषि किसी मादक द्रव्य का उपयोग करते थे।

"वे देश को पश्चिमी सभ्यता के सलाद संग खाते थे, ये जनतंत्र के अचार संग खाते हैं" 

चेतना का विस्तार। हाँ, कई की चेतना का विस्तार देख चुका हूँ। एक संपन्न सज्जन की चेतना का इतना विस्तार हो जाता है कि वे रिक्शेवाले को रास्ते में पान खिलाते हैं, सिगरेट पिलाते हैं, और फिर दुगने पैसे देते हैं। पीने के बाद वे ‘प्रोलेतारियत’ हो जाते हैं। कभी-कभी रिक्शेवाले को बिठाकर खुद रिक्शा चलाने लगते हैं। वे यों भी भले आदमी हैं।

पर कुछ मैंने ऐसे देखे हैं, जो होश में मानवीय हो ही नहीं सकते। मानवीयता उन पर रम के ‘किक’ की तरह चढ़ती-उतरती है। इन्हें मानवीयता के ‘फिट’ आते हैं - मिरगी की तरह। सुना है मिरगी जूता सुँघाने से उतर जाती है। इसका उल्टा भी होता है। किसी-किसी को जूता सुँघाने से मानवीयता का फिट भी आ जाता है। यह नुस्खा भी आजमाया हुआ है।

एक और चेतना का विस्तार मैंने देखा था। एक शाम रामविलास शर्मा के घर हम लोग बैठे थे (आगरा वाले रामविलास शर्मा नहीं। वे तो दुग्धपान करते हैं और प्रात: समय की वायु को ‘सेवन करता सुजान’ होते हैं)। यह रोडवेज के अपने कवि रामविलास शर्मा हैं। उनके एक सहयोगी की चेतना का विस्तार कुल डेढ़ पेग में हो गया और वे अंग्रेजी बोलने लगे।

कबीर ने कहा है - ‘मन मस्त हुआ तब क्यों बोले’। यह क्यों नहीं कहा कि मन मस्त हुआ तब अंग्रेजी बोले। नीचे होटल से खाना उन्हीं को खाना था।

हमने कहा - अब इन्हें मत भेजो। ये अंग्रेजी बोलने लगे। पर उनकी चेतना का विस्तार जरा ज्यादा ही हो गया था। कहने कहने लगे - नो सर, नो सर, आई शैल ब्रिंग ब्यूटीफुल मुर्गा। ‘अंग्रेजी’ भाषा का कमाल देखिए। थोड़ी ही पढ़ी है, मगर खाने की चीज को खूबसूरत कह रहे हैं। जो भी खूबसूरत दिखा, उसे खा गए। यह भाषा रूप में भी स्वाद देखती है। रूप देखकर उल्लास नहीं होता, जीभ में पानी आने लगता है। 

ऐसी भाषा साम्राज्यवाद के बड़े काम की होती है। कहा - इंडिया इज ए ब्यूटीफुल कंट्री। और छुरी-काँटे से इंडिया को खाने लगे। जब आधा खा चुके, तब देशी खानेवालों ने कहा, अगर इंडिया इतना खूबसूरत है, तो बाकी हमें खा लेने दो। तुमने ‘इंडिया’ खा लिया।

बाकी बचा ‘भारत’ हमें खाने दो। अंग्रेज ने कहा - अच्छा, हमें दस्त लगने लगे हैं। हम तो जाते हैं। तुम खाते रहना। यह बातचीत 1947 में हुई थी। हम लोगों ने कहा - अहिंसक क्रांति हो गई। बाहरवालों ने कहा - यह ट्रांसफर ऑफ पॉवर है - सत्ता का हस्तांतरण। मगर सच पूछो तो यह ‘ट्रांसफर ऑफ डिश’ हुआ - थाली उनके सामने से इनके सामने आ गई।

वे देश को पश्चिमी सभ्यता के सलाद के साथ खाते थे। ये जनतंत्र के अचार के साथ खाते हैं।

फिर राजनीति आ गई। छोड़िए। बात शराब की हो रही थी। इस संबंध में जो शिक्षाप्रद बातें ऊपर कहीं हैं, उन पर कोई अमल करेगा, तो अपनी ‘रिस्क’ पर। नुकसान की जिम्मेदारी कंपनी की नहीं होगी। मगर बात शराब की भी नहीं, उस पवित्र आदमी की हो रही थी, जो मेरे सामने बैठा किसी के दुराचार पर चिंतित था।

मैं चिंतित नहीं था, इसलिए वह नाराज और दुखी था।

मुझे शामिल किए बिना वह मानेगा नहीं। वह शराब से स्त्री पर आ गया - और वह जो है न, अमुक स्त्री से उसके अनैतिक संबंध हैं।

मैंने कहा - हाँ, यह बड़ी खराब बात है।

उसका चेहरा अब खिल गया। बोला - है न?

मैंने कहा - हाँ खराब बात यह है कि उस स्त्री से अपना संबंध नहीं है।

वह मुझसे बिल्कुल निराश हो गया। सोचता होगा, कैसा पत्थर आदमी है यह कि इतने ऊँचे दर्जे के ‘स्कैंडल’ में भी दिलचस्पी नहीं ले रहा। वह उठ गया। और मैं सोचता रहा कि लोग समझते हैं कि हम खिड़की हवा और रोशनी के लिए बनवाते हैं, मगर वास्तव में खिड़की अंदर झाँकने के लिए होती है।

कितने लोग हैं जो ‘चरित्रहीन’ होने की इच्छा मन में पाले रहते हैं, मगर हो नहीं सकते और निरे ‘चरित्रवान’ होकर मर जाते हैं। आत्मा को परलोक में भी चैन नहीं मिलता होगा और वह पृथ्वी पर लोगों के घरों में झाँककर देखती होगी कि किसका संबंध किससे चल रहा है।

किसी स्त्री और पुरुष के संबंध में जो बात अखरती है, वह अनैतिकता नहीं है, बल्कि यह है कि हाय उसकी जगह हम नहीं हुए। ऐसे लोग मुझे चुंगी के दरोगा मालूम होते हैं। हर आते-जाते ठेले को रोककर झाँककर पूछते हैं - तेरे भीतर क्या छिपा है? 

"...आपकी बेटी हमें ‘चरित्रहीन’ होने का चांस नहीं दे रही है"

एक स्त्री के पिता के पास हितकारी लोग जाकर सलाह देते हैं - उस आदमी को घर में मत आने दिया करिए। वह चरित्रहीन है।

वे बेचारे वास्तव में शिकायत करते हैं कि पिताजी, आपकी बेटी हमें ‘चरित्रहीन’ होने का चांस नहीं दे रही है। उसे डाँटिए न कि हमें भी थोड़ा चरित्रहीन हो लेने दे।

जिस आदमी की स्त्री-संबंधी कलंक कथा वह कह रहा था, वह भला आदमी है - ईमानदार, सच्चा, दयालु, त्यागी। वह धोखा नहीं करता, कालाबाजारी नहीं करता, किसी को ठगता नहीं है, घूस नहीं खाता, किसी का बुरा नहीं करता।

एक स्त्री से उसकी मित्रता है। इससे वह आदमी बुरा और अनैतिक हो गया।

बड़ा सरल हिसाब है अपने यहाँ आदमी के बारे में निर्णय लेने का। कभी सवाल उठा होगा समाज के नीतिवानों के बीच के नैतिक-अनैतिक, अच्छे-बुरे आदमी का निर्णय कैसे किया जाए। वे परेशान होंगे।

बहुत सी बातों पर आदमी के बारे में विचार करना पड़ता है, तब निर्णय होता है। तब उन्होंने कहा होगा - ज्यादा झंझट में मत पड़ो। मामला सरल कर लो। सारी नैतिकता को समेटकर टाँगों के बीच में रख लो।

व्यंग्य साभार - हिंदी समय

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प्रसिद्ध व्यंग्यकार कौन है?

हिन्दी व्यंग्य को प्रतिष्ठा दिलाने प्रमुख व्यंग्यकारों में शरद जोशी भी एक हैं. शरद जोशी की मौत 60 साल की उम्र में 5 सितंबर 1991 को हुई. खुशवन्त सिंह का जन्म 2 फरवरी 1915 को हुआ. खुशवंत सिंह ने व्यंग्य को नए तरीके से पेश किया.

व्यंग्य कितने प्रकार के होते हैं?

व्यंग्य में सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक विसंगतियों की आलोचना की जाती है।

व्यंग्य रचना क्या होता है?

आज साहित्य में व्यंग्य विधा को स्वतंत्र विधा मान लिया गया है। समाज की विसंगतियों, भ्रष्टाचार, सामाजिक शोषण अथवा राजनीति के गिरते स्तर की घटनाओं पर अप्रत्यक्ष रूप से तंज या व्यंग्य किया जाता है। साधारण तथा लघु कथा की तरह संक्षेप में घटनाओं पर व्यंग्य होता है, जो हास्य नहीं कभी-कभी आक्रोश भी पैदा करता है।

व्यंग्य किसे कहते हैं और इसकी विशेषता क्या होती है?

Answer: व्यंग्य मूल रूप से एक लेखन तकनीक है जिसका उपयोग लेखकों द्वारा किसी व्यक्ति या किसी समाज में प्रचलित कुछ भ्रष्टाचार या बुरे व्यवहार के बारे में उल्लेख करने या इंगित करने के लिए किया जाता है। और व्यंग्य की विशेषता यह है कि यह सब कठोर शब्दों के प्रयोग के बिना विनम्र और हल्के तरीके से किया जाता है।