अजातशत्रु नाटक का प्रकाशन वर्ष कौन सा है? - ajaatashatru naatak ka prakaashan varsh kaun sa hai?

अजातशत्रु ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित हिन्दी नाटक है, जिसका प्रकाशन सन् १९२२ ई॰ में भारती भंडार, इलाहाबाद से हुआ था।[1]

परिचय[संपादित करें]

'अजातशत्रु' प्रसाद जी के नाट्य लेखन में कई दृष्टि से आगे बढ़ा हुआ कदम है। इससे पहले वे छोटे एकांकी नाटकों के अतिरिक्त 'राज्यश्री' एवं 'विशाख' जैसे नाटक भी लिख चुके थे। उनसे प्राप्त अनुभव के परिणामस्वरूप 'अजातशत्रु' भावात्मकता एवं अभिनय दोनों की दृष्टि से विशिष्ट बन पड़ा है। इस नाटक के सन्दर्भ में डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र ने लिखा है :

"'अजातशत्रु' में उच्छृंखल राजशक्ति का विरोध है।.. नाटक अपने कार्य-व्यापार और गतिविधि की दृष्टि से विशाख की तुलना में महत्त्वपूर्ण है। ३ अंकों और २७ दृश्यों में संरचित इस नाटक में संवादात्मकता, गीत और दृश्यनियोजन पहले के नाटकों से पारसी थिएटर के प्रभाव से मुक्त है।.. 'अजातशत्रु' के गीत भी भावस्थितियों और मनोवृत्तियों को रूपायित और प्रस्तुत करने की दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण है। 'अजातशत्रु' में प्रकारान्तर से औद्योगिक सभ्यता और पूंजी के बढ़ते प्रभाव के कारण मानवीय सम्बन्धों में उदारता के अभाव का संकेत किया गया है।"[2]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • जयशंकर प्रसाद

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. जयशंकर प्रसाद (विनिबंध), रमेशचन्द्र शाह, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, पुनर्मुद्रित संस्करण-२०१५, पृष्ठ-९३.
  2. प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक एवं एकांकी, संपादन एवं भूमिका- डॉ॰ सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण-२००८, पृष्ठ-xvi-xvii.

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

अजातशत्रु नाटक का प्रकाशन वर्ष क्या है?

जयशंकर प्रसाद कृत नाटक 'अजातशत्रु' का प्रकाशन 1922 ई. में हुआ था।

अजातशत्रु नाटक के लेखक कौन है?

अजातशत्रु जो जयशंकर प्रसाद का नाटक है।

अजातशत्रु का दूसरा नाम क्या था?

उसके बचपन का नाम 'कुणिक' थाअजातशत्रु ने मगध की राजगद्दी अपने पिता की हत्या करके प्राप्त की थी। यद्यपि यह एक घृणित कृत्य था, तथापि एक वीर और प्रतापी राजा के रूप में उसने ख्याति प्राप्त की थी। अपने पिता के समान ही उसने भी साम्राज्य विस्तार की नीति को अपनाया और साम्राज्य की सीमाओं को चरमोत्कर्ष तक पहुँचा दिया।

अजातशत्रु नाटक की मूल संवेदना क्या है?

अजातशत्रु का मूलाधार भी अंतर्द्वन्द्व ही है। मगध,कोशल और कौशांबी में प्रज्वलित विरोध की अग्नि इस पूरे नाटक में फैली हुई है। उत्साह और शौर्य से परिपूर्ण इस नाटक में चरित्रों का सजीव चित्रण किया गया है। इसके प्रमुख पात्र मानवीय गुणों से ओतप्रोत है।