अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर शीत युद्ध का निम्न में से कौन सा प्रभाव दिखाई देता है? - antararaashtreey raajaneeti par sheet yuddh ka nimn mein se kaun sa prabhaav dikhaee deta hai?

इन्हें भी देखें: भारत-चीन सम्बन्ध

अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर शीत युद्ध का निम्न में से कौन सा प्रभाव दिखाई देता है? - antararaashtreey raajaneeti par sheet yuddh ka nimn mein se kaun sa prabhaav dikhaee deta hai?

नाटो तथा वार्सा संधि के देश

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के काल में संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस के बीच उत्पन्न तनाव की स्थिति को शीत युद्ध के नाम से जाना जाता है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन और सोवियत संघ (रूस )ने कन्धे से कन्धा मिलाकर धूरी राष्ट्रों- जर्मनी, इटली और जापान के विरूद्ध संघर्ष किया था। किन्तु युद्ध समाप्त होते ही, एक ओर ब्रिटेन तथा संयुक्त राज्य अमेरिका तथा दूसरी ओर सोवियत संघ में तीव्र मतभेद और असहयोग की भावना उत्पन्न होने लगी । बहुत जल्द ही इन मतभेदों ने तनाव की भयंकर स्थिति उत्पन्न कर दी।

रूस के नेतृत्व में साम्यवादी और अमेरिका के नेतृत्व में पूँजीवादी देश दो खेमों में बँट गये। इन दोनों पक्षों में आपसी टकराहट आमने सामने कभी नहीं हुई, पर ये दोनों गुट इस प्रकार का वातावरण बनाते रहे कि युद्ध का खतरा सदा सामने दिखाई पड़ता रहता था। बर्लिन संकट, कोरिया युद्ध, सोवियत रूस द्वारा आणविक परीक्षण, सैनिक संगठन, हिन्द चीन की समस्या, यू-2 विमान काण्ड, क्यूबा मिसाइल संकट कुछ ऐसी परिस्थितियाँ थीं जिन्होंने शीतयुद्ध की अग्नि को प्रज्वलित किया। सन् १९९१ में सोवियत रूस के विघटन से उसकी शक्ति कम हो गयी और शीतयुद्ध की समाप्ति हो गयी।

शीतयुद्ध का अर्थ[संपादित करें]

जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है कि यह अस्त्र-शस्त्रों का युद्ध न होकर धमकियों तक ही सीमित युद्ध है। इस युद्ध में कोई वास्तविक युद्ध नहीं लड़ा गया। यह केवल परोक्ष युद्ध तक ही सीमित रहा। इस युद्ध में दोनों महाशक्तियों ने अपने वैचारिक मतभेद ही प्रमुख रखे। यह एक प्रकार का कूटनीतिक युद्ध था जो महाशक्तियों के संकीर्ण स्वार्थ सिद्धियों के प्रयासों पर ही आधारित रहा।[1]

शीत युद्ध एक प्रकार का वाक युद्ध / जो कागज के गोलों, पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो तथा प्रचार साधनों तक ही लड़ा गया। इस युद्ध में न तो कोई गोली चली और न कोई घायल हुआ। इसमें दोनों महाशक्तियों ने अपना सर्वस्व कायम रखने के लिए विश्व के अधिकांश हिस्सों में परोक्ष युद्ध लड़े। युद्ध को शस्त्रायुद्ध में बदलने से रोकने के सभी उपायों का भी प्रयोग किया गया, यह केवल कूटनीतिक उपायों द्वारा लड़ा जाने वाला युद्ध था जिसमें दोनों महाशक्तियां एक दूसरे को नीचा दिखाने के सभी उपायों का सहारा लेती रही। इस युद्ध का उद्देश्य अपने-अपने गुटों में मित्र राष्ट्रों को शामिल करके अपनी स्थिति मजबूत बनाना था ताकि भविष्य में प्रत्येक अपने अपने विरोधी गुट की चालों को आसानी से काट सके। यह युद्ध द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका और सोवियत संघ के मध्य पैदा हुआ अविश्वास व शंका की अन्तिम परिणति था।

के.पी.एस. मैनन के अनुसार - शीत युद्ध दो विरोधी विचारधाराओं - पूंजीवाद और साम्यवाद (Capitalism and Communism), दो व्यवस्थाओं - बुर्जुआ लोकतन्त्र तथा सर्वहारा तानाशाही (Bourgeoise Democracy and Proletarian Dictatorship), दो गुटों - नाटो और वार्सा समझौता, दो राज्यों - अमेरिका और सोवियत संघ तथा दो नेताओं - जॉन फॉस्टर इल्लास तथा स्टालिन के बीच युद्ध था जिसका प्रभाव पूरे विश्व पर पड़ा।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि शीतयुद्ध दो महाशक्तियों के मध्य एक वाक युद्ध था जो कूटनीतिक उपायों पर आधारित था। यह दोनों महाशक्तियों के मध्य द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उत्पन्न तनाव की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति था। यह वैचारिक युद्ध होने के कारण वास्तविक युद्ध से भी अधिक भयानक था।[2]

शीतयुद्ध की उत्पत्ति[संपादित करें]

अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर शीत युद्ध का निम्न में से कौन सा प्रभाव दिखाई देता है? - antararaashtreey raajaneeti par sheet yuddh ka nimn mein se kaun sa prabhaav dikhaee deta hai?

बर्लिन संकट (१९६१) के समय संयुक्त राज्य अमेरिका एवं सोवियत रूस के टैंक आमने सामने

शीतयुद्ध के लक्षण द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ही प्रकट होने लगे थे, जब दोनों महाशक्तियां अपने-अपने संकीर्ण स्वार्थों को ही ध्यान में रखकर युद्ध लड़ रही थी और परस्पर सहयोग की भावना का दिखावा कर रही थी। जो सहयोग की भावना युद्ध के दौरान दिखाई दे रही थी, वह युद्ध के बाद समाप्त होने लगी थी और शीतयुद्ध के लक्षण स्पष्ट तौर पर उभरने लग गए थे, दोनों गुटों में ही एक दूसरे की शिकायत करने की भावना बलवती हो गई थी। इन शिकायतों के कुछ सुदृढ़ आधार थे। ये पारस्परिक मतभेद ही शीतयुद्ध के प्रमुख कारण थे, शीतयुद्ध की उत्पत्ति के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

  1. पूंजीवादी और साम्यवादी विचारधारा का प्रसार
  2. सोवियत संघ द्वारा याल्टा समझौते का पालन न किया जाना
  3. सोवियत संघ और अमेरिका के वैचारिक मतभेद
  4. सोवियत संघ का एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरना
  5. ईरान में सोवियत हस्तक्षेप
  6. टर्की में सोवियत हस्तक्षेप
  7. यूनान में साम्यवादी प्रसार
  8. द्वितीय मोर्चे सम्बन्धी विवाद
  9. तुष्टिकरण की नीति
  10. सोवियत संघ द्वारा बाल्कान समझौते की उपेक्षा
  11. अमेरिका का परमाणु कार्यक्रम
  12. परस्पर विरोधी प्रचार
  13. लैंड-लीज समझौते का समापन
  14. फासीवादी ताकतों को अमेरिकी सहयोग
  15. बर्लिन विवाद
  16. सोवियत संघ द्वारा वीटो पावर का बार-बार प्रयोग किया जाना
  17. संकीर्ण राष्ट्रवाद पर आधारित संकीर्ण राष्ट्रीय हित

शीत युद्ध का विकास[संपादित करें]

शीत युद्ध का विकास धीरे-धीरे हुआ। इसके लक्षण 1917 में ही प्रकट होने लगे थे जो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद स्पष्ट तौर पर उभरकर विश्व रंगमंच पर सामने आए। इसको बढ़ावा देने में दोनों शक्तियों के बीच व्याप्त परस्पर भय और अविश्वास की भावना ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। दोनों महाशक्तियों द्वारा एक दूसरे के विरुद्ध चली गई चालों ने इस शीतयुद्ध को सबल आधार प्रदान किया और अन्त में दोनों महाशक्तियां खुलकर एक दूसरे की आलोचना करने लगी और समस्त विश्व में भय व अशान्ति का वातावरण तैयार कर दिया, इसके बढ़ावा देने में दोनों महाशक्तियां बराबर की भागीदार रही। इसके विकास क्रम को निम्नलिखित चरणों में समझा जा सकता है-

  1. शीत युद्ध के विकास का प्रथम चरण (1946 से 1953)
  2. शीत युद्ध के विस्तार का दूसरा चरण (1953 से 1963)
  3. शीत युद्ध के विकास का तीसरा चरण - 1963 से 1979 तक (दितान्त अथवा तनाव शैथिल्य का काल)
  4. शीत युद्ध के विकास का अन्तिम काल - 1980 से 1989 तक (नया शीत युद्ध)

शीत युद्ध के विकास का प्रथम चरण[संपादित करें]

इस समय के दौरान शीतयुद्ध का असली रूप उभरा। अमेरिका व सोवियत संघ के मतभेद खुलकर सामने आए। इस काल में शीत युद्ध को बढ़ावा देने वाली प्रमुख घटनाएं निम्नलिखित हैं-

  • (१) 1946 में चर्चिल ने सोवियत संघ के साम्यवाद की आलोचना की। उसने अमेरिका के फुल्टन नामक स्थान पर आंग्ल-अमरीकी गठबन्धन को मजबूत बनाने की आवश्यकता पर जोर दिया। इसमें सोवियत संघ विरोधी भावना स्पष्ट तौर पर उभरकर सामने आई। अमेरिकन सीनेट ने भी सोवियत संघ की विदेश नीति को आक्रामक व विस्तावादी बनाया गया। इससे शीत युद्ध को बढ़ावा मिला।
  • (२) मार्च 1947 में ट्रूमैन सिद्धान्त द्वारा साम्यवादी प्रसार रोकने की बात कही गई। इस सिद्धान्त के अनुसार विश्व के किसी भी भाग में अमेरिका हस्तक्षेप को उचित ठहराया गया। यूनान, टर्की में अमेरिका द्वारा हस्तक्षेप करके सोवियत संघ के प्रभाव को कम करने की बात स्वीकार की गई। अमेरिका ने आर्थिक सहायता के नाम पर हस्तक्षेप करने की चाल चलकर शीतयुद्ध को भड़काया और विश्व शांति को भंग कर दिया।
  • (३) 23 अप्रैल 1947 को अमेरिका द्वारा प्रतिपादित मार्शल योजना ने भी सोवियत संघ के मन में अविश्वास व वैमनस्य की भावना को बढ़ावा दिया। इस योजना के अुनसार पश्चिमी यूरोपीय देशों को 12 अरब डालर की आर्थिक सहायता देने का कार्यक्रम स्वीकार किया गया। इसका प्रमुख उद्देश्य पश्चिमी यूरोपीय देशों में साम्यवाद के प्रसार को रोकना था। इस योजना का लाभ उठाने वाले देशें पर यह शर्त लगाई गई कि वे अपनी शासन व्यवस्था से साम्यवादियों को दूर रखेंगे। इससे सोवियत संघ के मन में पश्चिमी राष्ट्रों के प्रति घृणा का भाव पैदा हो गया और शीत युद्ध को बढ़ावा मिला।
  • (४) सोवियत संघ ने 1948 में बर्लिन की नाकेबन्दी करके शीत युद्ध को और अधिक भड़का दिया। अमेरिका ने इसका सख्त विरोध करके उसके इरादों को नाकाम कर दिया और वह भी वहां अपना सैनिक वर्चस्व बढ़ाने की तैयारी में जुट गया। इस प्रतिस्पर्धा से शीत युद्ध का माहौल विकसित हुआ।
  • (५) जर्मनी के विभाजन ने भी दोनों महाशक्तियों में विरोध की प्रवृति को जन्म दिया। जर्मनी का बंटवारा इसलिए हुआ था कि दोनों शक्तियां अपने-अपने क्षेत्रों में अपना प्रभाव बढ़ा सकें। लेकिन अमेरिका की मार्शल योजना तथा सोवियत संघ की ‘कोमिकान’ की नीति ने यूरोप को सोवियत संघ तथा अमेरिका के मध्य शीत युद्ध को बढ़ावा दिया।
  • (६) 1949 में अमेरिका ने अपने मित्र राष्ट्रों के सहयोग से नाटो जैसे सैनिक संघ का निर्माण किया। इसका उद्देश्य उत्तरी अटलांटिक क्षेत्र में शान्ति बनाए रखने के लिए किसी भी बाहरी खतरे से कारगर ढंग से निपटना था। इस सन्धि में सोवियत संघ को सीधी चेतावनी दी गई कि यदि उसने किसी भी सन्धि में शामिल देश पर आक्रमण किया तो उसके भयंकर परिणाम होंगे। इससे अमेरिका और सोवियत संघ के बीच मतभेद और अधिक गहरे होते गए।
  • (७) अक्टूबर 1949 में चीन में साम्यवादी शासन की स्थापना होने से अमेरिका का विरोध अधिक प्रखर हो गया। उसने संयुक्त राष्ट्र संघ में साम्यवादी चीन की सदस्यता को चुनौती दी। इससे सोवियत संघ और अमेरिका में शीत युद्ध का वातावरण और अधिक सबल होने लग गया।
  • (८) 1950 में कोरिया संकट ने भी अमेरिका और सोवियत संघ में शीत युद्ध में वृद्धि की। इस युद्ध में उत्तरी कोरिया को सोवियत संघ तथा दक्षिणी कोरियों को अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी राष्ट्रों का समर्थन व सहयोग प्राप्त था, दोनों महाशक्तियों ने परस्पर विरोधी व्यवहार का प्रदर्शन करके शीतयुद्ध को वातावरण में और अधिक गर्मी पैदा कर दी। कोरिया युद्ध का तो हल हो गया लेकिन दोनों महाशक्तियों में आपसी टकराहट की स्थिति कायम रही।
  • (९) 1951 में जब कोरिया युद्ध चल ही रहा था, उसी समय अमेरिका ने अपने मित्र राष्ट्रों के साथ मिलकर जापान से शान्ति सन्धि की और सन्धि को कार्यरूप देने के लिए सान फ्रांसिस्को नगर में एक सम्मेलन आयोजित करने का निर्णय किया। सोवियत संघ ने इसका कड़ा विरोध किया। अमेरिका ने इसी वर्ष जापान के साथ एक प्रतिरक्षा सन्धि करके विरोध की खाई को और अधिक गहरा कर दिया। अमेरिका की इन कार्यवाहियों ने सोवियत संघ के मन में द्वेष की भावना को बढ़ावा दिया इन सन्धियों को सोवियत संघ ने साम्यवाद के विस्तार में सबसे बड़ी बाधा माना और उसकी निन्दा की।

शीत युद्ध के विस्तार का दूसरा चरण[संपादित करें]

इस समय में दोनों महाशक्तियों के व्यवहार में कुछ बदलाव आने की सम्भावना दिखाई देने लगी। इस युग में दोनों देशों के नेतृत्व में परिवर्तन हुआ। सोवियत संघ में स्तालिन की मृत्यु के बाद खुश्चेव ने शासन सम्भाला और अमेरिका में राष्ट्रपति आइजन हावर ने शासन की बागडोर अपने हाथ में ली। सोवियत संघ की तरफ से दोनों देशों के मध्य मधुर सम्बन्ध स्थापित करने के प्रयास अवश्य हुए लेकिन उनका कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला और अमेरिका तथा सोवियत संघ में शीत युद्ध का तनाव जारी रहा। इस दौरान कुछ घटनाएं घटी जिन्होंने शीत युद्ध को बढ़ावा दिया।

  • (१) 1953 में सोवियत संघ ने प्रथम आणविक परीक्षण किया, इससे अमेरिका के मन में सोवियत संघ के इरादों के प्रति शक पैदा हो गया।
  • (२) 1953 में चर्चिल ने अमेरिका से कहा कि दक्षिण पूर्वी एशिया के लिए नाटो जैसे संघ का निर्माण किया जाए। उसके सुझाव को मानकर अमेरिका ने कम्बोडिया, वियतनाम और लाओस में साम्यवादी प्रसार रोकने के उद्देश्य से 8 सितम्बर 1954 को सीटो (SEATO) का निर्माण किया। उधर सोवियत संघ ने वार्सा पैक्ट की तैयारी कर ली। वार्सा संगठन के निर्माण का उद्देश्य पूंजीवादी ताकतों के आक्रमणों को रोकना था। इस तरह परस्पर विरोधी गुटों की स्थापना द्वारा शीत युद्ध को और अधिक भड़काया गया।
  • (३) हिन्द चीन की समस्या ने भी दोनों महाशक्तियों के मध्य मतभेदों को और अधिक गहरा कर दिया। 1954 में हिन्द-चीन में गृह युद्ध आरम्भ हो गया। यह क्षेत्र फ्रांस का उपनिवेश था। सोवियत संघ ने होचिन मिन की सेनाओं की मदद की और अमेरिका ने फ्रांसीसी सेनाओं का समर्थन किया। हिन्द-चीन की समस्या को सुलझाने के लिए जेनेवा समझौता हुआ लेकिन कुछ समय बाद ही वियतनाम में गृह-युद्ध शुरू हो गया। सोवियत संघ ने अमेरिका की इस युद्ध में भूमिका की निन्दा की। उसने अमेरिका के वियतनाम में अनुचित हस्तक्षेप के विरुद्ध आवाज उठाई। इस तरह वियतनाम युद्ध अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध का प्रमुख कारण बन गया।
  • (४) 1956 में हंगरी में सोवियत संघ के हस्तक्षेप ने भी शीत युद्ध को और अधिक भड़काया।
  • (५) 1956 में ही स्वेज नहर संकट ने दोनों महाशक्तियों के बीच तनाव में वृद्धि की। सोवियत संघ ने इस संकट में मिस्र का साथ दिया। स्वेज नहर संकट का तो समाधान हो गया लेकिन दोनों महाशक्तियों में तनाव ज्यों का त्यों बना रहा।
  • (६) जून 1957 में आईज़नहावर सिद्धान्त के अंतर्गत अमेरिका की कांग्रेस ने राष्ट्रपति को साम्यवाद के खतरों का सामना करने के लिए सशस्त्र सेनाओं का प्रयोग करने का अधिकार प्रदान करके पश्चिमी एशिया को शीत युद्ध का अखाड़ा बना दिया।
  • (७) शीतयुद्ध के तनाव को कम करने के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति आइजन हॉवर ने सोवियत संघ की यात्रा करने का निर्णय किया। लेकिन यात्रा से एक दिन पूर्व ही 1 मई 1960 को अमेरिका का जासूसी विमान यू-2 सोवियत सीमा में जासूसी करते हुए पकड़ा गया। विमान चालक ने यह स्वीकार किया कि उसे सोवियत संघ में सैनिक ठिकानों की जासूसी करने के लिए भेजा गया है। इसे सोवियत संघ ने गंभीरता से लिया और अमेरिका से अपनी गलती स्वीकार करने को कहा। लेकिन अमेरिका ने अपनी गलती न मानकर शीत युद्ध को और अधिक बढ़ावा दिया।
  • (८) 16 मई 1960 में पेरिस सम्मेलन में सोवियत राष्ट्रपति ख्रुश्चेव ने यू-2 की घटना को दोहराया और कहा कि भविष्य में अमेरिकी राष्ट्रपति को सोवियत संघ न आने की चेतावनी भी थी। सम्मेलन के दूसरे सत्र का भी सोवियत संघ ने बहिष्कार करके अपनी नाराजगी जाहिर कर दी। इस तरह अमेरिका और सोवियत संघ में तनाव पहले जैसा ही बना रहा।
  • (९) जून 1961 में ख्रुश्चेव द्वारा पूर्वी जर्मनी के साथ एक पृथक संधि पर हस्ताक्षर करने की धमकी ने भी शीतयुद्ध को बढ़ावा दिया।
  • (१०) अगस्त 1961 में बर्लिन शहर में सोवियत संघ ने पश्चिमी शक्तियों के क्षेत्र को अलग करने के लिए दीवार बनानी शुरू कर दी। इसका अमेरिका ने कड़ा विरोध किया। दोनों ने अपनी अपनी सेनाएं युद्ध के लिए एकत्रित करनी आरम्भ कर दी। लेकिन बड़ी मुश्किल से शीतयुद्ध गर्म युद्ध में परिवर्तित होते होते रह गया। लेकिन दोनों के बीच तनाव बरकरार रहा।
  • (११) 1962 में क्यूबा में सोवियत संघ ने अपने सैनिक अड्डे की स्थापना कर दी। इसका अमेरिका के राष्ट्रपति कनैडी ने कड़ा विरोध किया। इस अड्डे की स्थापना को सीधे तौर पर अमेरिका को कमजोर करने वाली कार्यवाही कहा जा सकता है। अमेरिका ने क्यूबा की नाकेबन्दी की घोषणा कर दी ताकि क्यूबा में सोवियत सैनिक सहायता न पहुंच सके। विवाद को ज्यादा बढ़ता देख सोवियत संघ ने अपने कदम पीछे हटा लिए और भयंकर विवाद को सुलझा लिया। लेकिन दोनों महाशक्तियों के मन का मैल नहीं साफ हुआ और शीतयुद्ध का वातावरण पहले जैसा ही रहा।

इस प्रकार इस युग में शीत युद्ध को बढ़ावा देने वाली कार्यवाहियां दोनों तरफ से हुई। लेकिन दोनों महाशक्तियों ने शीत युद्ध के तनाव को कम करने की दिशा में भी कुछ प्रयास किए। ख्रुश्चेव ने दोनों देशों के मध्य सम्बन्ध मधुर बनाने और तनाव कम करने के लिए 15 सितम्बर से 28 सितम्बर 1959 तक अमेरिका की यात्रा की। 5 सितम्बर 1963 को अमेरिका, सोवियत संघ और ब्रिटेन के बीच ‘मास्को आंशिक परीक्षण निषेध सन्धि’ (Moscow Partial Test Ban Treaty) हुई। इससे शीत युद्ध को समाप्त करने का सकारात्मक कदम कहा गया। गुटनिरपेक्ष आन्दोलन ने भी इस दौरान शीत युद्ध को कम करने का प्रयास किया लेकिन इन सभी प्रयासों के परिणाम नकारात्मक ही रहे और दोनों महाशक्तियों में तनाव बना रहा।

शीत युद्ध के विकास का तीसरा चरण[संपादित करें]

1962 में क्यूबा संकट के बाद शीत युद्ध के वातावरण में कुछ नरमी आई और दोनों गुटों के मध्य व्याप्त तनाव की भावना सौहार्दपूर्ण व मित्रता की भावना में बदलने के आसार दिखाई देने लग गए। इससे दोनों देशों के मध्य मधुर सम्बन्धों की शुरुआत होने के लक्षण प्रकट होने लगे। इस नरमी या तनाव में कमी को 'दितान्त' (Détente) या 'तनावशैथिल्य' की संज्ञा दी जाती है।

दितान्त ने शीतयुद्ध से उत्पन्न पुराने अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों का परिदृश्य बदलने लगा और विश्व में शांतिपूर्ण वातावरण का जन्म हुआ। इससे संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका में भी वृद्धि हुई और परमाणु युद्ध के आतंक से छुटकारा मिला।

शीत युद्ध के विकास का अन्तिम काल[संपादित करें]

1970 के दशक का दितान्त अफगानिस्तान संकट के जन्म लेते ही नए प्रकार के शीत युद्ध में बदल गया। इस संकट को 'दितान्त की अन्तिम शवयात्रा' कहा जाता है। इससे दितान्त की समाप्ति हो गई और दोनों शक्तियों में लगभग एक दशक तक रहने वाला तनाव शैथिल्य के दिन लग गए और पुराने तनाव फिर से बढ़ने लगे। इसकी उत्पत्ति के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैंः

  • (१) सोवियत संघ की शक्ति में वृद्धि ने अमेरिका के खिलाफ अपनी पुरानी दुश्मनी आरम्भ कर दी।
  • (२) रीगन ने राष्ट्रपति बनते ही शस्त्र उद्योग को बढ़ावा दिया और मित्र राष्ट्रों का शस्त्रीकरण करने पर बल दिया।
  • (३) अमेरिका तथा सोवियत संघ में अन्तरिक्ष अनुसंधान की होड़ लग गई।
  • (४) अफगानिस्तान में सोवियत संघ ने हस्तक्षेप किया, इससे शीत युद्ध में वृद्धि हुई। अमेरिका और सोवियत संघ में पारस्परिक प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई।
  • (५) सोवियत संघ ने दक्षिण पूर्वी एशिया में अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू कर दिया।
  • (६) 23 मार्च 1983 को अमेरिकी राष्ट्रपति रीगन ने ‘स्टार वार्स परियोजना’ (अन्तरिक्ष युद्ध) को मंजूरी दी। इससे नए अस्त्र-शस्त्रों की होड़ लग गई।
  • (७) हिंद महासागर में सोवियत संघ ने अपनी शक्ति बढ़ानी शुरू कर दी।
  • (८) सोवियत संघ ने खाड़ी क्षेत्र तथा पश्चिमी एशिया में भी अपना प्रभुत्व बढ़ाने का प्रयास किया।
  • (९) सोवियत संघ ने क्यूबा में अपनी ब्रिगेड तैनात कर दी।
  • (१०) निकारागुआ में अमेरिका ने अपना प्रभुत्व बढ़ाना शुरू कर दिया।

इन सभी कारणों से नए शीत का जन्म हुआ और दितान्त का अन्त हो गया। इससे अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों में नई खटास पैदा हुई अमेरिका ने खाड़ी सिद्धान्त के द्वारा विश्व शान्ति के लिए खतरा पैदा कर दिया। इस नए शीत युद्ध ने विश्व को तृतीय विश्व युद्ध के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया। इससे दितान्त की हानि हुई और निशस्त्रीकरण को गहरा धक्का लगा। इससे तनाव के केन्द्र अफगानिस्तान, कम्पूचिया, निकारागुआ आदि देश हो गए। यह युद्ध विचारधारा विरोधी न होकर सोवियत संघ विरोधी था। इसके अभिकर्ता अमेरिका और सोवियत संघ न होकर ब्रिटेन, फ्रांस व चीन भी थे। इस युद्ध ने सम्पूर्ण विश्व का वातावरण ही दूषित कर दिया। इसने बहुध्रुवीकरण को जन्म दिया और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में नई चुनौतियों को पेश किया।

अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर शीत-युद्ध का प्रभाव[संपादित करें]

शीतयुद्ध ने 1946 से 1989 तक विभिन्न चरणों से गुजरते हुए अलग-अलग रूप में विश्व राजनीति को प्रभावित किया। इसने अमेरिका तथा सोवियत संघ के मध्य तनाव पैदा करने के साथ-साथ अन्य प्रभाव भी डाले। इसके अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों पर निम्नलिखित प्रभाव पड़े-

  • (१) इससे विश्व का दो गुटों - सोवियत गुट तथा अमेरिकन गुट, में विभाजन हो गया। विश्व की प्रत्येक समस्या को गुटीय स्वार्थों पर ही परखा जाने लगा।
  • (२) इससे यूरोप का विभाजन हो गया।
  • (३) इसने विश्व में आतंक और भय में वृद्धि की। इससे अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों में तनाव, प्रतिस्पर्धा और अविश्वास की भावना का जन्म हुआ। गर्म युद्ध का वातावरण तैयार हो गया। शीतयुद्ध कभी भी वास्तविक युद्ध में बदल सकता था।
  • (४) इससे आणविक युद्ध की सम्भावना में वृद्धि हुई और परमाणु शस्त्रों के विनाश के बारे में सोचा जाने लगा। इस सम्भावना ने विश्व में आणविक शस्त्रों की होड़ को बढ़ावा दिया।
  • (५) इससे नाटो, सीटो, सेण्टो तथा वारसा पैक्ट जैसे सैनिक संगठनों का जन्म हुआ, जिससे निशस्त्रीकरण के प्रयासों को गहरा धक्का लगा और इससे निरंतर तनाव की स्थिति बनी रही।
  • (६) इसने संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका में कमी कर दी। अब अंतरराष्ट्रीय समस्याओं पर संयुक्त राष्ट्र संघ दोनों महाशक्तियों के निर्णयों पर ही निर्भर हो गया। संयुक्त राष्ट्र संघ समस्याओं के समाधान का मंच न होकर अंतरराष्ट्रीय संघर्षों का अखाड़ा बन गया जिसमें दोनो महाशक्तियां अपने-अपने दांव चलने लगी।
  • (७) इससे शस्त्रीकरण को बढ़ावा मिला और विश्वशान्ति के लिए भयंकर खतरा उत्पन्न हो गया। दोनो महाशक्तियां अपनी-अपनी सैनिक शक्ति में वृद्धि करने के लिए पैसा पानी की तरह बहाने लगी जिससे वहां का आर्थिक विकास का मार्ग अवरुद्ध हो गया।
  • (८) इसने सुरक्षा परिषद को पंगु बना दिया। जिस सुरक्षा परिषद के ऊपर विश्व शान्ति का भार था, वह अब दो महाशक्तियों के संघर्ष का अखाड़ा बन गई। परस्पर विरोधी व्यवहार के कारण अपनी वीटो शक्ति का उन्होंने बार बार प्रयोग किया।
  • (९) इससे जनकल्याण की योजनाओं को गहरा आघात पहुंचा। दोनो महाशक्तियां शक्ति की राजनीति (Power Politics) में विश्वास रखने के कारण तीसरी दुनिया के देशों में व्याप्त समस्याओं के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैया अपनाती रही।
  • (१०) इसने शक्ति संतुलन के स्थान पर 'आतंक के संतुलन' को जन्म दिया।
  • (११) इसने गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को सबल आधार प्रदान किया।
  • (१२) विश्व में नव उपनिवेशवाद का जन्म हुआ।
  • (१३) विश्व राजनीति में परोक्ष युद्धों की भरमार हो गई।
  • (१४) इससे राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलनों का विकास हुआ।
  • (१५) अंतरराष्ट्रीय राजनीति में प्रचार तथा कूटनीति के महत्व को समझा जाने लगा।

इस तरह कहा जा सकता है कि शीतयुद्ध ने अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों पर व्यापक प्रभाव डाले। इसने समस्त विश्व का दो गुटों में विभाजन करके विश्व में संघर्ष की प्रवृति को बढ़ावा दिया। इसने शक्ति संतुलन के स्थान पर आतंक का संतुलन कायम किया। लेकिन नकारात्मक प्रभावों के साथ-साथ इसके कुछ सकारात्मक प्रभाव भी पड़े। इससे तकनीकी और प्राविधिक विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ। इससे यथार्थवादी राजनीति का आविर्भाव हुआ और विश्व राजनीति में नए राज्यों की भूमिका को भी महत्वपूर्ण माना जाने लगा।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. इवांस, गैरेथ (2018-03-27). "रूस का झगड़ा: क्या शीत युद्ध का प्रेत लौट आया है?". BBC News हिंदी. मूल से 10 जुलाई 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-06-13.
  2. "क्या है कोल्ड वॉर, US-चीन तनाव को लेकर हो रही जिसकी चर्चा, सालों बंटी रही दुनिया". aajtak.intoday.in. अभिगमन तिथि 2020-06-13.

शीत युद्ध का अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ा?

यह विभाजन सबसे पहले यूरोप में हुआ। पश्चिमी यूरोप के अधिकतर देशों ने अमरीका का पक्ष लिया जबकि पूर्वी यूरोप सोवियत खेमे में शामिल हो गया इसीलिए ये खेमे पश्चिमी और पूर्वी गठबंधन भी कहलाते हैं । शीतयुद्ध के दौरान यूरोप दो प्रतिद्वंद्वी गठबंधनों में बँट गया था।

शीत युद्ध से अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर क्या प्रभाव पड़ता है?

शीत युद्ध के लिए अनेक तत्व एवं कारक उत्तरदायी थे, परंतु अन्य तत्वों की अपेक्ष तीन मूल तत्व संघर्ष के लिए अधिक उत्तरदायी थे। जर्मनी की पराजय ने शून्य की स्थिति (Vacuum) को जन्म दिया। परमाणु अस्त्रों का अविष्कार और प्रयोग हुआ; तथा अमेरिका तथा सोवियत संघ के मध्य वैचारिक मतभेद अंतर्राष्ट्रीय सम्बंधों के मूल आकर्षण बन गए।