भक्ति, नीति एवं श्रृंगार के दोहे - bhakti, neeti evan shrrngaar ke dohe

बिहारी के नाम से विख्यात महाकवि बिहारीलाल रीति काल के प्रसिद्द कवि थे जो अपनी रचना सतसई (buy now) के लिए जाने जाते हैं। सन 1600 के आसपास ग्वालियर में जन्मे बिहारी जी के बारे में अधिक जानने के लिए यहाँ जाएं।

आइये आज AchhiKhabar.Com पर हम महाकवि बिहारी के 20 प्रसिद्द दोहों का अर्थ सहित संकलन देखते हैं:

1. दृग उरझत, टूटत कुटुम, जुरत चतुर-चित्त प्रीति।
परिति गांठि दुरजन-हियै, दई नई यह रीति।।

भाव:- प्रेम की रीति अनूठी है। इसमें उलझते तो नयन हैं,पर परिवार टूट जाते हैं, प्रेम की यह रीति नई है इससे चतुर प्रेमियों के चित्त तो जुड़ जाते हैं पर दुष्टों के हृदय में गांठ पड़ जाती है।

2. लिखन बैठि जाकी सबी गहि गहि गरब गरूर।
भए न केते जगत के, चतुर चितेरे कूर।।

भाव:- नायिका के अतिशय सौंदर्य का वर्णन करते हुए बिहारी कहते हैं कि नायिका के सौंदर्य का चित्रांकन करने को गर्वीले ओर अभिमानी चित्रकार आए पर उन सबका गर्व चूर-चूर हो गया। कोई भी उसके सौंदर्य का वास्तविक चित्रण नहीं कर पाया क्योंकि क्षण-प्रतिक्षण उसका सौंदर्य बढ़ता ही जा रहा था।

3. गिरि तैं ऊंचे रसिक-मन बूढे जहां हजारु।
बहे सदा पसु नरनु कौ प्रेम-पयोधि पगारु।।

भाव:- पर्वत से भी ऊंची रसिकता वाले प्रेमी जन प्रेम के सागर में हज़ार बार डूबने के बाद भी उसकी थाह नहीं ढूंढ पाए,वहीं नर -पशुओं को अर्थात अरसिक प्रवृत्ति के लोगों को वो प्रेम का सागर छोटी खाई के समान प्रतीत होता है।

4.स्वारथु सुकृतु न, श्रमु वृथा,देखि विहंग विचारि।
बाज पराये पानि परि तू पछिनु न मारि।।

भाव:- हिन्दू राजा जयशाह, शाहजहाँ की ओर से हिन्दू राजाओं से युद्ध किया करते थे, यह बात बिहारी कवि को अच्छी नही लगी तो उन्होंने कहा,-हे बाज़ ! दूसरे व्यक्ति के अहम की तुष्टि के लिए तुम अपने पक्षियों अर्थात हिंदू राजाओं को मत मारो। विचार करो क्योंकि इससे न तो तुम्हारा कोई स्वार्थ सिद्ध होता है, न यह शुभ कार्य है, तुम तो अपना श्रम ही व्यर्थ कर देते हो।

भाव:- सोने में धतूरे से सौ गुनी मादकता अधिक है। धतूरे को तो खाने के बाद व्यक्ति पगला जाता है, सोने को तो पाते ही व्यक्ति पागल अर्थात अभिमानी हो जाता है।

6. अंग-अंग नग जगमगत,दीपसिखा सी देह।
दिया बढ़ाए हू रहै, बड़ौ उज्यारौ गेह।।

भाव:- नायिका का प्रत्येक अंग रत्न की भाँति जगमगा रहा है,उसका तन दीपक की शिखा की भाँति झिलमिलाता है अतः दिया बुझा देने पर भी घर मे उजाला बना रहता है।

7. कब कौ टेरतु दीन रट, होत न स्याम सहाइ।
तुमहूँ लागी जगत-गुरु, जग नाइक, जग बाइ।।

भाव:- है प्रभु ! मैं कितने समय से दीन होकर आपको पुकार रहा हूँ और आप मेरी सहायता नहीं करते। हे जगत के गुरु, जगत के स्वामी ऐसा प्रतीत होता है मानो आप को भी संसार की हवा लग गयी है अर्थात आप भी संसार की भांति स्वार्थी हो गए हो।

Bihari Satsai in Hindi

8.या अनुरागी चित्त की,गति समुझे नहिं कोई।
ज्यौं-ज्यौं बूड़े स्याम रंग,त्यौं-त्यौ उज्जलु होइ।।

भाव:- इस प्रेमी मन की गति को कोई नहीं समझ सकता। जैसे-जैसे यह कृष्ण के रंग में रंगता जाता है,वैसे-वैसे उज्ज्वल होता जाता है अर्थात कृष्ण के प्रेम में रमने के बाद अधिक निर्मल हो जाते हैं।

9.जसु अपजसु देखत नहीं देखत सांवल गात।
कहा करौं, लालच-भरे चपल नैन चलि जात।।

भाव:- नायिका अपनी विवशता प्रकट करती हुई कहती है कि मेरे नेत्र यश-अपयश की चिंता किये बिना मात्र साँवले-सलोने कृष्ण को ही निहारते रहते हैं। मैं विवश हो जाती हूँ कि क्या करूं क्योंकि कृष्ण के दर्शनों के लालच से भरे मेरे चंचल नयन बार -बार उनकी ओर चल देते हैं।

10. मेरी भाव-बाधा हरौ,राधा नागरि सोइ।
जां तन की झांई परै, स्यामु हरित-दुति होइ।।

भाव:- कवि बिहारी अपने ग्रंथ के सफल समापन के लिए राधा जी की स्तुति करते हुए कहते हैं कि मेरी सांसारिक बाधाएँ वही चतुर राधा दूर करेंगी जिनके शरीर की छाया पड़ते ही साँवले कृष्ण हरे रंग के प्रकाश वाले हो जाते हैं। अर्थात–मेरे दुखों का हरण वही चतुर राधा करेंगी जिनकी झलक दिखने मात्र से साँवले कृष्ण हरे अर्थात प्रसन्न जो जाते हैं।

11. कीनैं हुँ कोटिक जतन अब कहि काढ़े कौनु।
भो मन मोहन-रूपु मिलि पानी मैं कौ लौनु।।

भाव:- जिस प्रकार पानी मे नमक मिल जाता है,उसी प्रकार मेरे हृदय में कृष्ण का रूप समा गया है। अब कोई कितना ही यत्न कर ले, पर जैसे पानी से मनक को अलग करना असंभव है वैसे ही मेरे हृदय से कृष्ण का प्रेम मिटाना असम्भव है।

12. तो पर वारौं उरबसी,सुनि राधिके सुजान।
तू मोहन के उर बसीं, ह्वै उरबसी समान।।

भाव:- राधा को यूँ प्रतीत हो रहा है कि श्रीकृष्ण किसी अन्य स्त्री के प्रेम में बंध गए हैं। राधा की सखी उन्हें समझाते हुए कहती है -हे राधिका अच्छे से जान लो,कृष्ण तुम पर उर्वशी अप्सरा को भी न्योछावर कर देंगे क्योंकि तुम कृष्ण के हृदय में उरबसी आभूषण के समान बसी हुई हो।

13.कहत,नटत, रीझत,खीझत, मिलत, खिलत, लजियात।
भरे भौन में करत है,नैननु ही सब बात।

भाव:- गुरुजनों की उपस्थिति के कारण कक्ष में नायक-नायिका मुख से वार्तालाप करने में असमर्थ हैं। आंखों के संकेतों के द्वारा नायक नायिका को काम-क्रीड़ा हेतु प्रार्थना करता है,नायिका मना कर देती है,नायक उसकी ना को हाँ समझ कर रीझ जाता है। नायिका उसे खुश देखकर खीझ उठती है। अंत मे दोनों में समझौता हो जाता है। नायक पुनः प्रसन्न हो जाता है। नायक की प्रसन्नता को देखकर नायिका लजा जाती है। इस प्रकार गुरुजनों से भरे भवन में नायक-नायिका नेत्रों से परस्पर बातचीत करते हैं।

14.पत्रा ही तिथि पाइये,वा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पुनयौई रहै, आनन-ओप-उजास।।

भाव:- नायिका की सुंदरता का वर्णन करते हुए बिहारी कहते हैं कि नायिका के घर के चारों ओर पंचांग से ही तिथि ज्ञात की जा सकती है क्योंकि नायिका के मुख की सुंदरता का प्रकाश वहाँ सदा फैला रहता है जिससे वहां सदा पूर्णिमा का स आभास होता है।

भक्ति, नीति एवं श्रृंगार के दोहे - bhakti, neeti evan shrrngaar ke dohe

15.कोऊ कोरिक संग्रहौ, कोऊ लाख हज़ार।
मो संपति जदुपति सदा,विपत्ति-बिदारनहार।।

भाव:- भक्त श्रीकृष्ण को संबोधित करते हुए कहते हैं कि कोई व्यक्ति करोड़ एकत्र करे या लाख-हज़ार, मेरी दृष्टि में धन का कोई महत्त्व नहीं है। मेरी संपत्ति तो मात्र यादवेन्द्र श्रीकृष्ण हैं जो सदैव मेरी विपत्तियों को नष्ट कर देते हैं।

16.कहा कहूँ बाकी दसा,हरि प्राननु के ईस।
विरह-ज्वाल जरिबो लखै,मरिबौ भई असीस।।

भाव:- नायिका की सखी नायक से कहती है- हे नायिका के प्राणेश्वर ! नायिका की दशा के विषय में तुम्हें क्या बताऊँ,विरह-अग्नि में जलता देखती हूँ तो अनुभव करती हूँ कि इस विरह पीड़ा से तो मर जाना उसके लिए आशीष होगा।

17.जपमाला,छापें,तिलक सरै न एकौकामु।
मन कांचे नाचै वृथा,सांचे राचै रामु।।

भाव:- आडंबरों की व्यर्थता सिद्ध करते हुए बिहारी कहते हैं कि नाम जपने की माला से या माथे पर तिलक लगाने से एक भी काम सिद्ध नहीं हो सकता। यदि मन कच्चा है तो वह व्यर्थ ही सांसारिक विषयों में नाचता रहेगा। सच्चा मन ही राम में रम सकता है।

18.घरु-घरु डोलत दीन ह्वै,जनु-जनु जाचतु जाइ।
दियें लोभ-चसमा चखनु लघु पुनि बड़ौ लखाई।।

भाव:- लोभी व्यक्ति के व्यवहार का वर्णन करते हुए बिहारी कहते हैं कि लोभी ब्यक्ति दीन-हीन बनकर घर-घर घूमता है और प्रत्येक व्यक्ति से याचना करता रहता है। लोभ का चश्मा आंखों पर लगा लेने के कारण उसे निम्न व्यक्ति भी बड़ा दिखने लगता है अर्थात लालची व्यक्ति विवेकहीन होकर योग्य-अयोग्य व्यक्ति को भी नहीं पहचान पाता।

19. मोहन-मूरति स्याम की अति अद्भुत गति जोई।
बसतु सु चित्त अन्तर, तऊ प्रतिबिम्बितु जग होइ।।

भाव:- कृष्ण की मनमोहक मूर्ति की गति अनुपम है। कृष्ण की छवि बसी तो हृदय में है और उसका प्रतिबिम्ब सम्पूर्ण संसार मे पड़ रहा है।

20. मैं समुझयौ निरधार,यह जगु काँचो कांच सौ।
एकै रूपु अपर, प्रतिबिम्बित लखियतु जहाँ।।

भाव:- बिहारी कवि कहते हैं कि इस सत्य को मैंने जान लिया है कि यह संसार निराधार है। यह काँच के समान कच्चा है अर्थात मिथ्या है। कृष्ण का सौन्दर्य अपार है जो सम्पूर्ण संसार मे प्रतिबिम्बित हो रहा है।

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नीरू’शिवम’

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I am grateful to Neeru’Shivam’ Ji for sharing this great collection of “Bihari Ke Dohe” with AKC.

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Note: The collection of Bihari ke Dohe from Satsai may be used by students of class 7, 8, 9 and 10.

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