भारत में बेरोजगारी की समस्या क्यों है? - bhaarat mein berojagaaree kee samasya kyon hai?

बेरोजगारी से तात्पर्य उस स्थिति से है जब प्रचलित मजदूरी की दर पर कार्य करने के इच्छुक लोग किसी भी प्रकार के रोजगार से वंचित रह जाते हैं। बेरोजगारी एक विश्वव्यापी समस्या है जो वर्तमान में न केवल अविकसित बल्कि विकसित राष्ट्रों की भी प्रमुख समस्या है। बेरोजगारी का प्रमुख कारण सामान्यतः जनसंख्या वृद्धि, अशिक्षा व पूंजी की कमी है जो वर्तमान के सभी युवा वर्गों में एक बहुत बड़ा निराशा का कारण बनी हुई है।

Table of Contents

  • बेरोजगारी के प्रमुख कारण (Causes of Unemployment in hindi)
    • जनसंख्या वृद्धि (जनसंख्या विस्फोट)
    • दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली
    • तीव्र उदारीकरण
    • निर्धनता
    • कृषि क्षेत्र का पिछड़ापन
    • मशीनीकरण
    • तृतीयक क्षेत्रों की धीमी गति
    • नए रोजगारों की अपर्याप्तता

बेरोजगारी के प्रमुख कारण (Causes of Unemployment in hindi)

जनसंख्या वृद्धि (जनसंख्या विस्फोट)

वर्तमान में बेरोजगारी का प्रमुख कारण जनसंख्या वृद्धि है जिसे जनसंख्या विस्फोट के नाम से भी जाना जाता है। भारत में जनसंख्या वृद्धि के कारण बेरोजगारी को बहुत बढ़ावा मिला है वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश के लगभग 11% जनसंख्या बेरोजगार है जिन्हे रोजगार की आवश्यकता है। अतः यह कहा जा सकता है की जनसंख्या की अत्यधिक वृद्धि रोजगार के अवसरों की वृद्धि से कम है जिसके कारण बेरोजगारी उत्पन्न हो रही है।

दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली

किसी भी देश की शिक्षा प्रणाली उस देश की सभी स्थितियों जैसे – सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पर अपना प्रभाव डालती है। बेरोजगारी की समस्या का एक प्रमुख कारण दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली है। दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली से आशय शिक्षा के अभाव यानी अशिक्षा से है जो किसी भी देश के युवाओं के लिए आवश्यक होती है। भारत की शिक्षा प्रणाली में केवल साधारण एवं साहित्यिक शिक्षा ही दी जाती है तथा जिनमें प्रायोगिक विषयवस्तु का अभाव पाया जाता है, एक अच्छी शिक्षा से वंचित रह जाने के कारण व्यक्ति एक अच्छा रोजगार हासिल नहीं कर पाता है। यही कारण है की भारत में बेरोजगारी जैसी समस्याएं उत्पन्न हो रहीं है।

तीव्र उदारीकरण

उदारीकरण भी बेरोजगारी का एक प्रमुख कारण रहा है इसके अंतर्गत नए-नए व बड़े-बड़े उद्योग धंधों की स्थापना की गई है। वर्ष 1991 में नई आर्थिक नीतियों को अपनाने के पश्चात भारतीय अर्थव्यवस्था में कई परिवर्तन हुए हैं। जिसके चलते उद्योग धंधों के कारण विदेशी मुद्रा भंडारों को तो बढ़ावा मिला है परन्तु इससे छोटे उद्योग धंधों को चलाने वाले मजदूरों को बेरोजगारी से संबंधित बहुत सी परेशानियों का सामना करना पड़ा है।

निर्धनता

निर्धनता किसी भी व्यक्ति के बेरोजगार होना एक प्रमुख कारण है। भारत में निर्धनता के कारण लोगों को उचित संसाधन उपलब्ध नहीं हो पाते है। इसके अलावा निर्धन व्यक्ति एक अच्छी शिक्षा से भी वंचित रह जाता है जिससे वह एक अच्छा रोजगार प्राप्त नहीं कर पाता है और बेरोजगार रह जाता है।

कृषि क्षेत्र का पिछड़ापन

भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसकी संपूर्ण जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। वर्तमान में जनसंख्या विस्फोट के कारण कृषि क्षेत्र काफी पिछड़ गया है क्योंकि कृषि के कार्यों की प्रकृति पछड़ी हुई है। कृषि की विधियों में तकनीकों के अभाव, संस्थागत सुधार जैसे – भूमि सुधार, चकबन्दी, भूमिधारिता की सीमा आदि के कारण बेरोजगारी बढ़ी है। इसके अलावा काश्तकारी सुधार, राजनीतिक एवं प्रशासनिक अदक्षता एवं किसानों के व्यवहार में असहयोग की भावना का होना भी बेरोजगारी का प्रमुख कारण है। कृषि के अच्छे अवसर प्राप्त न होने के कारण ग्रामीण इलाकों की बहुत सारी जनसंख्या का नगरों की ओर पलायन करने से नगरों में बेरोजगारी की समस्या को देखा गया है।

मशीनीकरण

मशीनीकरण से आशय कार्यों को पूरा करने के लिए मशीनों के उपयोग से है। पहले रोजगार के आधे से ज्यादा कार्य लोगों द्वारा पूरे किए जाते और बेरोजगार जैसी समस्या कम ही थी परन्तु वर्तमान में लगभग सभी कार्य मशीनों द्वारा ही किए जाते है अतः मशीनीकरण से कई लोगों का रोजगार छिन जाने के कारण देश में बेरोजगारी की समस्या में वृद्धि होने लगी है।

तृतीयक क्षेत्रों की धीमी गति

तृतीयक क्षेत्रों के अंतर्गत वाणिज्य, यातायात, व्यापार आदि क्षेत्रों को सम्मिलित किया जाता है। अर्थात भारत में इन सभी तृतीयक क्षेत्रों का विस्तार सीमित होने के कारण यहाँ नए और उत्तम श्रम का अभाव रहता है। जिसके प्रमुख कारण यह है की इंजीनियरों, प्रौद्योगिक रूप में प्रशिक्षित व्यक्तियों, डॉक्टरों और अन्य सभी तकनीशियनों में बेरोजगारी उत्पन्न हो गई है।

नए रोजगारों की अपर्याप्तता

कई तकनीकी समस्याओं के कारण और बढ़ती जनसंख्या के कारण रोजगार के अवसर नहीं बढ़ पा रहे है। अतः जनसंख्या को पर्याप्त रूप से रोजगार उपलब्ध न होने का प्रमुख कारण रोजगार के अवसरों में वृद्धि न होना है।

इन सभी प्रमुख कारणों के अलावा क्षेत्रीय असमानताएं, दोषपूर्ण सामाजिक प्रणालियाँ और फुटकर के कारण भी किसी भी देश में व्याप्त बेरोजगारी की समस्या का प्रमुख कारण है। अतः बेरोजगारी आधुनिक समय की एक बहुत ही गंभीर और बड़ी समस्या है जिसके निवारण के लिए कृषि निर्माण, जनसंख्या नियंत्रण, शिक्षा प्रणाली में सुधार, तृतीयक क्षेत्रों के विकास, लघु एवं कुटीर उद्योगों का विस्तार, विभिन्न तकनीकों को बनाना आदि में सुधार करना आवश्यक है।

भारत दुनिया की सफल अर्थव्यवस्थाओं में से एक रहा है जिसने आर्थिक सुधार की अवधि के बाद आर्थिक विकास में (जीडीपी के संदर्भ में) एक प्रभावशाली बढ़त हासिल किया है। हालांकि, भारत के सामने सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण चुनौतियों में से एक, बेरोजगारी में निरंतर वृद्धि हो रही है। बेरोजगारी दर के, दहाई अंक को छूने के कारण यह माना जाता है कि आर्थिक विकास, भारत में लोगों के लिए पर्याप्त रोजगार का अवसर मुहैया कराने में सफल नहीं हुआ। जबकि तेज़ी से बढती भारत की जीडीपी, जिसे अर्थव्यवस्था के लिए एक वरदान के रूप में देखा गया, से एक बेहतर रोजगार सृजन की उम्मीद की गई थी।

वर्तमान स्थिति, अर्थव्यवस्था के औपचारिक क्षेत्र में रोजगार की संख्या में धीमी वृद्धि और अनौपचारिक क्षेत्र में श्रम बल की भागीदारी की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि से और भी जटिल हो गयी है। आधिकारिक अनुमानों के अनुसार लगभग 92% श्रम बल अनौपचारिक क्षेत्र का हिस्सा है जहाँ श्रमिकों की नौकरी की स्थिति अनिश्चितता लिए हुए है।

आर्थिक नीतियां आम तौर पर रोजगार सृजन को एक गौड़ लक्ष्य के रूप में देखती हैं, वहीं मुख्य लक्ष्य के रूप में आय सृजन, आर्थिक विकास आदि पर ध्यान दिया जाता है। बेरोजगारी की समस्या को देखते हुए आज रोजगार सृजन के लिएएक अलग नीति निर्देशित करने की आवश्यकता है।  यद्यपि राजकोषीय और मौद्रिक नीतियां, रोजगार को दीर्घकालिक लक्ष्य मानती हैं, लेकिन एक अलग से बनी राष्ट्रीय रोजगार नीति रोजगार को लेकर अधिक केंद्रित होगी साथ ही इससे सम्बद्ध कार्यपालिका को भी रोजगार से संबंधित विशिष्ट लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद मिलेगी।

किसी भी देश का राष्ट्रीय रोजगार नीति एक विजन डॉक्यूमेंट होता है जो वहां के रोजगार लक्ष्यों की मांग और आपूर्ति दोनों पहलुओं से जुड़ा होता है। यह नीति दस्तावेज आपूर्ति पक्ष  पर संचालन के साथ-साथ अर्थव्यवस्था में श्रम की मांग को बढ़ाने की दिशा में काम करता है (आईएलओ, 2015)।

मांग-पक्ष उपायों का उद्देश्य व्यापक आर्थिक नीति, क्षेत्र विशिष्ट नीति, मौद्रिक नीति और राजकोषीय नीति के माध्यम से नौकरियों का सृजन करना होता है, जो आर्थिक विकास के सुधार की दिशा में काम करते हैं जिससे  अर्थव्यवस्था के भीतर श्रम की मांग बढ़ती है। दूसरी ओर आपूर्ति पक्ष उपायों का उद्देश्य कौशल, व्यावसायिक प्रशिक्षण, शिक्षा आदि की दिशा में काम करके श्रम आपूर्ति में सुधार करना होता है। ऐसी नीतियां श्रम बल की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए श्रम की मांग और आपूर्ति के बीच के असंतुलन को कम करने के लिए निर्देशित होती हैं। इस प्रकार, यह माना जाता है कि राष्ट्रीय रोजगार नीति (NEP) में मांग और आपूर्ति दोनों पक्षों को शामिल किया जाना चाहिए जो गुणवत्तापूर्ण रोजगार सृजन (ILO 2009,ILO 2012, ILO 2014) की दिशा में काम करें।

भाग 2 : स्थितिपरक विश्लेषण

भारत में श्रम बाजार और रोजगार की स्थिति

जनसंख्या की रुपरेखा और उसकी गतिशीलता

भारतजनसंख्या की दृष्टि से एक बहुत बड़ा राष्ट्र है। वर्तमान में इसकी जनसंख्या लगभग 1.34 बिलियन है। यहाँ जनसंख्या वृद्धि की दर लगभग 1.2% है। अगर भारत इसी दर के साथ जनसँख्या में वृद्धि करता रहा तो2030 तक 1.53 बिलियन की आबादी के साथ यह दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन जाएगा। भारत में कुल जनसंख्या का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा 25 वर्ष से कम आयु के लोगों का और लगभग 15 प्रतिशत हिस्सा55 वर्ष से अधिक आयु के लोगों का है (ब्लूम, 2011; UNDESA, 2017; चंद्रमौली, 2011)।

 

जनसांख्यिकीय विभाजन

भारतीय जनसंख्या का एक महत्वपूर्ण पहलू जनसांख्यिकीय लाभांश है जिसके बारे में हाल के वर्षों में व्यापक रूप से चर्चा हुई है। जनसांख्यिकीय लाभांश किसी भी देश के जनसांख्यिकीय विकास में वह चरण होता है, जहां कामकाजी उम्र की जनसँख्या वृद्धि दर कुल जनसंख्या वृद्धि दर से अधिक होती है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के अनुसार, “जनसांख्यिकीय लाभांश, आर्थिक विकास की क्षमता का सूचक होता है जो जनसंख्या की आयु संरचना में बदलाव के परिणामस्वरूप पैदा होता है।मुख्यतः यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब कुल जनसँख्या में कामकाजी उम्र की आबादी (15 से 64) का हिस्सा, गैर-कामकाजी उम्र की आबादी (14 और उससे कम, और 65 और उससे अधिक) से बड़ा होता है । इसप्रकारआने वाले वर्षों में भारत की जनसँख्या का सबसे बड़ा वर्ग कामकाजी आयु वर्ग का होगा जबकि आश्रितों (ग़ैर कामकाजी) की संख्या बहुत कम हो जाएगी । यह भारत के लिए अधिक आय, अधिक बचतऔर अधिक विकास की स्थिति पैदा करने का एक महत्वपूर्ण अवसर साबित हो सकता है। परिणामस्वरूप, आने वाले कुछ वर्षों में निर्भरता अनुपात कम होता जाएगा और काम करने योग्य उम्र की आबादी में वृद्धि होगी। दिये गए आँकड़ें से यह स्पष्ट है कि कैसे लगभग 2040 तक भारत की जनसँख्या घटेगीऔर इसके बाद यह फिर से बढ़ेगी। यह भारत के लिए उच्च विकास और समृद्धि हासिल करने का सबसे बड़ा अवसर है। हालाँकि, इस जनसांख्यिकीय लाभांश का लाभ तभी प्राप्त होगा जब भारत इस अतिरिक्त श्रम शक्ति को लाभकारी रोजगार प्रदान करने में सक्षम होगा। यह केवल तभी संभव है जब कामकाजी आबादी में सभी को लाभकारी नौकरियां मिलती हैं, जिससे अंततः अधिक आय और समृद्धि पैदा होगी (यूएनडीईएसए, 2017; रेजी, 2019; ब्लूम, 2011; सिंह, 2016) (चित्र 1)।

 

चित्र: 1. भारत का गिरता निर्भरता अनुपात और जनसांख्यिकीय लाभांश

स्रोत: विश्व बैंक; भगत और यूनिसा 2006

भारत में रोजगार- बेरोजगारी की सामान्य की स्थिति

भारत की बेरोजगारी दर 2019 में 5.27% की तुलना में 2020 में 7.11% हो गई। यह वैश्विक औसत बेरोजगारी दर,2019 में 5.37% की तुलना में2020 में 6.47% की दर, से भी ज्यादा है । बेरोजगारी दर बस हमें यह बताता है कि काम करने के इच्छुक और सक्रिय रूप से नौकरी की तलाश करने वाले लोगों की संख्या, श्रम शक्ति के प्रतिशत में कितनी है । दूसरी ओर श्रम बल को 15 वर्ष से ऊपर के सभी लोगों,जो या तो कार्यरत हैं या सक्रिय रूप से नौकरी की तलाश में हैं,के रूप में परिभाषित किया जाता है (CEDA, 2020)। विश्व बैंक के अनुसार वर्ष 2020 में भारत में कुल श्रम बल लगभग 471,689,092 है। इस प्रकार, हमारे यहाँ श्रम बल का एक बड़ा हिस्सा बेरोजगार है।

 

श्रम बल भागीदारी दर

भारत में श्रम बल भागीदारी दर (15 वर्ष से अधिक की जनसंख्या के लिए श्रम बल का अनुपातआयु) 2017-18 में 49.80% के मुकाबले वर्ष 2019-20 में42.7% गया(MOSPI, 2020)।भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था में भीषण बेरोज़गारी के साथ श्रम बल की भागीदारी दर में गिरावट एक चिंता का विषय है।विशेष रूप से हमारे यहाँ का वर्कफोर्स महिलाओं की भागीदारी की चिंताजनक स्थिति से जूझ रहा है। विश्व बैंक (2020) के अनुसार, देश में महिला श्रम बल भागीदारी दर 1990 के 30.27% से गिरकर 2019 में 20.8% हो गया है (FLFPR)। महिलाओं के बीच गिरती श्रम शक्ति भागीदारी को युवा महिलाओं के बढ़ते शैक्षिक नामांकन ; रोजगार के अवसरों की कमी; घरेलू आय में भागीदारी का प्रभाव आदि के माध्यम से समझा जा सकता है। (मानव विकास संस्थान, 2014)।

 

क्षेत्रवार रोजगार योग्यता

2020 में, भारत में 41.49 प्रतिशत कार्यबल कृषि में कार्यरत था, जबकि 26.18 प्रतिशत उद्योग में और 32.33 प्रतिशत सेवा क्षेत्र में कार्यरत थे। कुल रोजगार में अपने घटते योगदान के बावजूद, कृषि क्षेत्र आज भी देश का सबसे बड़ा नियोक्ता बना हुआ है। यद्यपि अधिकांश भारतीय कार्यबल अभी भी कृषि क्षेत्र में कार्यरत है फिर भी देश की जीडीपी में सबसे बड़ी भूमिका सेवा क्षेत्र की है है। वास्तव में, आर्थिक क्षेत्रों में सकल घरेलू उत्पाद के वितरण को देखते हुए, कृषिकेवल 15 प्रतिशत योगदान के साथ सबसे पीछे है। (एमओएसपीआई, 2020)।

रोज़गार की प्रकृति

2017-18 में किए गए पेरिओडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे (PLFS) के अनुसार, अनौपचारिक काम में लगे श्रमिक (वे व्यक्ति जो किसी और के खेत या गैर-कृषि उद्यम पर काम करते हैं और बदले में दैनिक या आवधिक कार्य अनुबंध, (MOSPI) के अनुसार मजदूरी प्राप्त करते हैं) कुल श्रमिकों का लगभग 24.16 प्रतिशतहै। स्व-नियोजित लोग (अपने स्वयं के खेत या गैर-कृषि उद्यम संचालित करने वाले) कुल श्रमिकों का 52.04 प्रतिशतथे। स्व-रोजगार के इतने बड़े अनुपात का तात्पर्य है कि बहुत से लोगों को केवल इसलिए नियोजित के रूप में गिना जा रहा है क्योंकि वे किसी तरह अपना गुजारा करने की कोशिश कर रहे हैं। ये स्व-नियोजित लोग आमतौर पर अधिकांश सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों के तहत उजागर होते हैं और कोविड -19 महामारी जैसे किसी भी संकट के समय में सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। कुल औपचारिक और अनौपचारिक श्रमिकों में से केवल 23 प्रतिशतही नियमित वेतन श्रेणी के अंतर्गत आते हैं, जिन्हें मासिक आधार पर एक निश्चित वेतन की गारंटी दी जाती है और वे राज्य के सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों के अंतर्गत आते हैं। इन आंकड़ों से पता चलता है कि आम तौर पर कुल आबादी का लगभग 75 प्रतिशत राज्य के किसी भी सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम से जुड़ नहीं पाता है और कम आय तथा रोजगार सुरक्षा की कमी के कारण गंभीर समस्याओं का सामना करने के लिए मजबूरहोताहै।

 

भारत में युवा बेरोजगारी

भारत की राष्ट्रीय युवा नीति के अनुसार “15 से 35 वर्ष के आयु वर्ग का व्यक्ति” युवा वर्गकी श्रेणी में शामिल है। 2011 की जनगणना के अनुसार,कुल जनसंख्या का 20 प्रतिशत और कुल युवा जनसंख्या का 44.2 प्रतिशत युवा गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहा है।

युवा लोगों (15-24 वर्ष की आयु) के बीच कार्य भागीदारी दर (Work Participation Rate, WPR) कुल WPRसे अधिक है, लेकिन यह सभी वयस्कों और वरिष्ठों के WPR से कम है। यह पैटर्न पिछले दो दशकों में ग्रामीण और शहरी तथा पुरुष और महिला दोनों क्षेत्रों में देखा गया है। पिछले दो दशकों के दौरान युवाओं के बीच WPR, 1983 के55.5 प्रतिशत से घटकर 2004-2005 में 46.0 प्रतिशत रह गया है। WPR में यह गिरावट पुरुष युवाओं में सर्वाधिकहै- जो सामान्य रूप से शहरी युवाओं में 11.4 प्रतिशत और ग्रामीण पुरुष युवाओं में 12.4 प्रतिशत के रूप में है। महिला युवाओं के WPR में गिरावट अपेक्षाकृत बहुत कम है। ग्रामीण युवाओं केWPR में गिरावट उनके शहरी समकक्षों की तुलना में अधिक है (सिन्हा, 201; महेंद्रव और एम. वेंकटनारायण, 2011)।

युवाओं की इस भीषण बेरोजगारी के कारणों को उनकी विपणन योग्य शिक्षा और कौशल की कमी से भी जोड़ा जाता है। 2004-2005 में भारत में युवा श्रम बल की बेरोजगारी दर 8 प्रतिशत थी जो कि बेरोज़गारी की बढ़ती हुई ट्रेंड को दर्शाता है। निरक्षरों की तुलना में साक्षरों में बेरोजगारी दर अधिक है। शिक्षा के स्तर के संदर्भ में, युवा स्नातकों में बेरोजगारी दर 2004-2005 में 35.5 प्रतिशत थी। शिक्षा के निचले स्तर से उच्च स्तर की ओर बेरोजगारी की दर घटती जा रही है। कुल मिलाकरभारतीय युवा वर्ग का एक बड़ा हिस्सा या तो बेरोजगार हैं, याअर्द्ध रोजगार हैं,या असुरक्षित कार्य व्यवस्था के तहत अस्वीकार्य रूप से कामके ज्यादा घंटे के साथ नौकरी करने को मजबूर है (महेंद्रव एंड एम. वेंकटनारायण, 2011; मित्रा और वेरिक, 2013)

युवा आबादी की साक्षरता दर 1983 की 56.4 प्रतिशत से बढ़कर 2007-2008 में 80.3 प्रतिशत हो गयी; इसी अवधि के दौरान शैक्षणिक संस्थानों में भाग लेने वाले युवाओं की संख्या17.4 प्रतिशत से बढ़कर 32.8 प्रतिशत हो गयी जबकिरोजगार योग्यता के संबंध में, 2007-2008 में केवल 4.9 प्रतिशत युवा श्रमिकों के पास माध्यमिक स्तर की शिक्षा थी (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण, 2011)।

 

शिक्षा और कौशल

2011 कीजनसंख्या जनगणना के अनुसार, भारत में साक्षरता दर 74.04% है, जिसमें पुरुष साक्षरता दर 82.14% और महिला साक्षरता दर 65.46% है।  ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों के अकुशल और अर्धकुशल श्रमिकों के लिए रोजगार के अवसरों की कमी, उनकी कम साक्षरता की वजह से उनके हालात को और भी खराब बना देती है।

 

भारत में ग्रामीण और शहरी बेरोजगारी

अक्टूबर 2020 में ग्रामीण बेरोजगारी दर 6.9% और शहरी बेरोजगारी दर 7.15% थी । शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी आमतौर पर ग्रामीण बेरोजगारी से अधिक होताहै।  यह कृषि क्षेत्र में कार्यबल में कमी और रोजगार एवं आय के वैकल्पिक स्रोतों के लिए शहरी क्षेत्रों में प्रवास के कारण है।  यह आम तौर पर सीमित नौकरियों के लिए शहरी क्षेत्रों में कुशल और अकुशल दोनों तरह के श्रमिकों की आपूर्ति में वृद्धि की वजह से होता है, जिससे अततःबेरोजगारी बढ़ती है।  ग्रामीण बेरोजगारी को कम करने के लिए केंद्र और राज्य सरकार की कई नीतियां हैं, लेकिन शहरी बेरोजगारी को कम करने के लिए अभी तक कोई विशिष्ट नीति लक्षित नहीं हुईहैं।  श्रम आपूर्ति में वृद्धि, सरकारी नीतियों की कमी और नई नौकरियों के अपर्याप्त सृजन के परिणामस्वरूप शहरी बेरोजगारी अधिक है जिसकी वजह से वास्तविक शहरी मजदूरी दर घट रही है (सीएमआईई, 2020)।

 

भारत में महिला और पुरुष बेरोजगारी

हालांकि भारत में कुल बेरोजगारी दर 7% के करीब है, लेकिन महिलाओं में बेरोजगारी की दर 18% है ।  साथ ही, देश में महिलाओं की श्रम बल भागीदारी दर (LFPR), जो पहले से ही दुनिया में सबसे कम है, में अभी भी गिरावट जारी है। भारत में महिला साक्षरता एक महत्वपूर्ण कारक है जो महिलाओं में बेरोजगारी की दर को निर्धारित करती है।  भारत में पुरुष साक्षरता दर, जो 80% है, के मुकाबले महिला साक्षरता दर सिर्फ 65.46% है। भारत में महिलाओं कीनिम्न साक्षरता स्तर केकई संस्थागत और सामाजिक कारक हैं:जागरूकता की कमी, समान शैक्षिक अवसरों की कमी, कम उम्र में विवाह, सामाजिक प्रतिबंध, घर पर ही लैंगिक असमानता आदि। महिलाओं में निम्न शिक्षा का स्तर अकुशल या अर्ध कुशल नौकरियों के लिए उनके अवसरों को सीमित करता है, जहां उन्हें या तो कम भुगतान किया जाता है या उन्हें अवैतनिक छोड़ दिया जाता है (बसोल, 2019) ।

 

क्षेत्रवार रोजगार और श्रम बाजार के रुझान

 

महत्वपूर्ण मुद्दे और चुनौतियां

भारत के विभिन्न क्षेत्रों का सकल घरेलू उत्पाद में योगदान और इसी तरह इनका रोजगार में योगदान के बीच सही संतुलन नहीं है । विकसित देशों के ऐतिहासिक अनुभव के विपरीत, जहां सकल घरेलू उत्पाद में कृषि की हिस्सेदारी में गिरावट के साथ-साथ कृषि पर निर्भर कार्यबल की हिस्सेदारी में भी गिरावट आई थी, भारत में, सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा पिछले दो दशकों में लगभग आधा हो गया है, लेकिन इसमें कार्यरत कार्यबल में बहुत कम गिरावट आयी है।  2009-10 में कृषि और संबद्ध गतिविधियों का सकल घरेलू उत्पाद में 14.6% का योगदान रहा लेकिन 51.76% कार्यबल शामिल था।  पिछले दो दशकों में सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी शायद ही बढ़ी हो;  इसी लिए रोजगार में इसके हिस्से में मामूली वृद्धि हीहुई है। इसका अर्थ यह हुआ कि अन्य देशों के विकास के अनुभवों में देखा गया व्यावसायिक परिवर्तन भारत में नहीं हुआ तथा यहाँ विकास के अनुभव में विनिर्माण को दरकिनार कर दिया गयाहै। जहां तक ​​सेवाओं का संबंध है, हालांकि इस क्षेत्र को अक्सर अंतिम उपाय का नियोक्ता माना जाता है, सेवा क्षेत्र का रोजगार में योगदान, इसके सकल घरेलू उत्पाद में योगदान के मुकाबले बहुत पीछे है। इससे पता चलता है कि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी में गिरावट के अनुरूप सेवा क्षेत्र की हिस्सेदारी में वृद्धि तो हुई है, लेकिन नौकरियों में तदनुसार वृद्धि नहीं हुई है।  आज भी कार्यबल का एक बड़ा हिस्सा, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, कृषि पर निर्भर करता है । हालांकि शहरी क्षेत्रों में,सेवा क्षेत्र में कार्यबल का सबसे बड़ा प्रतिशत कार्यरत है, लेकिन अधिकांश नौकरियां कम मजदूरी और नगण्य श्रम सुरक्षा के साथ अनौपचारिक नौकरियों की श्रेणी में शामिल हैं।  NSS के 66वें चरण के रोजगार डेटा से पता चलता है कि 2004 और 2009 के बीच केवल 20 लाख नौकरियां पैदा हुईं, जबकि अर्थव्यवस्था में सालाना 8.43% की दर से वृद्धिदर दर्ज की गई (अग्रवाल, 2012;  मेहरोत्रा ​​​​और परिदा, 2019;  घोष और चंद्रशेखर 2007)।

किसी भी अर्थव्यवस्था को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है।  पहला वर्गीकरण प्राथमिक, माध्यमिक और तृतीयक क्षेत्र काहैजबकि दूसरा वर्गीकरण कृषि व इससे संबद्ध क्षेत्र, उद्योग क्षेत्र और सेवा क्षेत्र काहै।  भले ही दो वर्गीकरण समानार्थक रूप से उपयोग किए जाते हैं जबकिइन दो वर्गीकरण के बीच एकमात्र बड़ा अंतर यह है कि खनन और उत्खनन को उद्योग क्षेत्र का हिस्सा माना जाता है, लेकिन इसे द्वितीयक क्षेत्र का हिस्सा नहीं माना जाता है।  पहले वर्गीकरण में इसे प्राथमिक क्षेत्र का भाग माना जाता है।  विनिर्माण क्षेत्र को द्वितीयक क्षेत्र या उद्योग क्षेत्र का हिस्सा माना जाता है।

 

चित्र : 2. भारत में विभिन्न वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद में श्रेणीगत योगदान।

 

स्रोत: बसु और दास 2015

स्रोत: अब्राहम 2017

 

कृषि क्षेत्र

 

परिचय

कृषि क्षेत्र सबसे बड़े क्षेत्रों में से एक है जो भारतीय आबादी के एक बड़े हिस्से को किसानों,कृषि श्रमिकोंआदि के रूप में समायोजित करता है। हाल के वर्षों में भारत ने कृषि क्षेत्र के मुकाबले विनिर्माण क्षेत्र और सेवा क्षेत्र में अपने उत्पादन का विस्तार करने की कोशिश की है, और जब से भारत ने आर्थिक सुधार किए हैं तब से विनिर्माण क्षेत्र और सेवा क्षेत्र का योगदान भी बढ़ रहा हैं।  इसके परिणामस्वरूप उत्पादन कृषि क्षेत्र से विनिर्माण क्षेत्र और सेवा क्षेत्र में स्थानांतरित हो गया है।  हालांकि, कृषि गतिविधियों में शामिल लोगों की मात्रा उस दर से कम नहीं हुई है जिस दर से सकल घरेलू उत्पाद में इसका योगदान कम हुआ है ।  इसने भारतीय कृषि में छिपी बेरोजगारी या संरचनात्मक अल्प-रोजगार की स्थिति को जन्म दिया है, जहां अधिक से अधिक श्रमिक कम मात्रा के उत्पादन करते हैं।  इसके कई नकारात्मक परिणाम हैं जिनमें निम्न आय, किसानों का हाशिए पर होना, उत्पादकता की कमी आदि शामिल हैं। रोजगार में कृषि क्षेत्र का योगदान 1999-2000 में 59.9% से घटकर 2017-18 में 44.59% हो गया है।  हालाँकि, यह अभी भी भारत में रोजगार में सबसे बड़ा योगदानकर्ता है।  इसके अलावा, राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान 1983-84 में 34% से घटकर 2018-19 में 16% हो गया है।  सेवा और औद्योगिक क्षेत्रों के बढ़ते महत्व के कारण इस क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश की कमी ने कृषि में श्रमिकों को हतोत्साहित किया है और उन्हें या तो ग्रामीण क्षेत्रों में या शहरी क्षेत्रों में गैर-कृषि कार्य करने के लिए या फिर  कृषि क्षेत्र में ही कम वेतन वाले श्रमिकों के रूप में काम करने के लिए मजबूर किया है । ग्रामीण विकास में राज्य द्वारा निवेश की कमी और संस्थागत वित्त तक पहुंच न होने के अलावा, नियमित सूखे और बाढ़ भी कृषि क्षेत्र के रोजगार में गिरावट की वजह रही है ।  पिछले साढ़े तीन दशकों के दौरान ग्रामीण मज़दूरों, विशेष रूप से ग्रामीण खेतिहर मज़दूरों की व्यावसायिक पसंद कृषि आधारित गतिविधियों से हटकर गैर-कृषि गतिविधियों में बढ़ने के कारण एक संरचनात्मक बदलाव आया है। ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि आधारित रोजगार की तुलना में, 1984 से 2018 तक गैर-कृषि रोजगार 19% से बढ़कर 42% हो गया। इस वृद्धि के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि रोजगार में भी गिरावट आई है।  कृषि क्षेत्र के विकास में अपर्याप्त सार्वजनिक निवेश, संस्थागत ऋण तक अपर्याप्त पहुंच, अनुचित सिंचाई सुविधाएं, सरकार की खराब कृषि-संबंधी विपणन नीतियां, आधी-अधूरी भूमि सुधार नीति, और कृषि से कम रिटर्न, खाद्य फसलों की खेती पर अधिक निर्भरता, आदि  भारत में रोजगार की दिशा में कृषि क्षेत्र द्वारा कम योगदान के लिए जिम्मेदार प्रमुख कारक हैं।  इसके अलावा, 1991 से भारत के अत्यधिक आर्थिक उदारीकरण और कम कृषि आयात शुल्क जैसे बाहरी कारकों ने भीग्रामीण कृषि क्षेत्र की घटती रोजगार हिस्सेदारी में महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है। बाहरी और आंतरिक कारकों के अलावा, प्राकृतिक आपदा जैसे बार-बार सूखा, बाढ़ और चक्रवात भी कृषि क्षेत्र की घटती रोजगार हिस्सेदारी के लिए जिम्मेदार हैं। इन प्राकृतिक आपदाओं से व्यापक कृषि हानि होती है, जो ग्रामीण श्रमिकों को खेती करने से हतोत्साहित करती है और उन्हें ग्रामीण क्षेत्रों के भीतर या बाहर अन्य गैर-कृषि गतिविधियों को खोजने के लिए प्रोत्साहित करती है, जिससे ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में इन गैर-कृषि गतिविधियों पर दबाव बढ़ जाता है।  बाढ़ की तबाही भारत के कृषि क्षेत्र के लिए आज भी एक बड़ा खतरा बना हहुआ है।  केंद्रीय जल आयोग के एक शोध के अनुसार, 1980 से 2017 तक, बाढ़ की वजह से होने वाले कृषि नुकसान के कारण भारत को लगभग हर साल औसतन 2,785 करोड़ रुपये का नुकसान होता है । बाढ़ का कृषि रोजगार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, साथ ही गरीबी, असमानता और किसान की परेशानी बढती है ।  (साहा एट अल, 2016; आईएलओ 2016; द्विवेदी,  2011; अर्जुन 2013; माथुर एट अल, 2006)।

‘प्राकृतिक आपदाएं और ग्रामीण श्रम बाजार: एक लिंग विश्लेषण’, चौधरी (2020), के अध्ययन के अनुसार, बाढ़ के कारण ग्रामीण कृषि क्षेत्र में नौकरी की संभावनाएं कम हो जाती हैं जिससे सर्वेक्षण से पता चलता है कि पुरुष श्रमिकों की तुलना में महिला श्रमिकों को नौकरी के अवसरों में अधिक गिरावट का सामना करना पड़ता है।

 

विनिर्माण क्षेत्र

 

परिचय

विनिर्माण क्षेत्र किसी भी अर्थव्यवस्था की विकास दर को प्रभावित करने वाले सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में से एक है।  दुनिया के आर्थिक इतिहास से पता चलता है कि विनिर्माण क्षेत्र ने वास्तव में कई विकसित देशों की विकास कहानियों और विकास पथों में एक प्रमुख भूमिका निभाई है।  भारत में औद्योगिक विनिर्माण प्रमुख विकास क्षेत्रों में से एक बन गया है, भले ही भारत ने प्रमुख विकसित देशों के समान विकास पथ का अनुसरण नहीं किया है, जहां अर्थव्यवस्था कृषि क्षेत्र से उद्योग क्षेत्र और फिर सेवा क्षेत्र में जाती है, लेकिन कई कारणों की वजह से भारत में कृषि अर्थव्यवस्था सीधे सेवा प्रधान अर्थव्यवस्था में स्थानांतरित हो गई है। विनिर्माण क्षेत्र में विविध प्रकार के उद्योग शामिल हैं, जिनमें से कुछ श्रम प्रधान और अन्य पूंजी प्रधान हैं।  श्रम प्रधान विनिर्माण उद्योगों में वे उद्योग शामिल हैं जो पूंजी की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक श्रम का उपयोग करते हैं जैसे कपड़ा और परिधान उद्योग, चमड़ा उद्योग, लकड़ी और फर्नीचर उद्योग, तंबाकू उद्योग और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग आदि। ऑटोमोबाइल विनिर्माण, धातु और रासायनिक उद्योग, तेल और पेट्रोलियम उद्योग पूंजी गहन विनिर्माण उद्योगों के कुछ उदाहरण हैं, जिसमें श्रम की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक पूंजी का निवेश होता है।

जबकि विनिर्माण क्षेत्र का कुल उत्पादन मूल्य 1990 में 53.27 बिलियन डॉलर से बढ़कर 2019 में 394.53 बिलियन डॉलर हो गया साथ ही कुल सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण क्षेत्र का प्रतिशत हिस्सा 1990 में 16.60% से घटकर 2019 में 13.72% हो गया है। सकल मूल्य में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी में पिछले पंद्रह वर्षों में 9.5% बढ़ी है जो कि 2020 से चल रही महामारी के कारण गिरकर 5% हो गई है। भले ही विनिर्माण क्षेत्र का पूर्ण कुल उत्पादन मूल्य लगभग हर साल बढ़ रहा है लेकिनजीडीपी में इसका हिस्सा हमेशा 13% से 18% के बीच हीरहा है। इसका मतलब विनिर्माण क्षेत्र की तुलना में सेवा क्षेत्र तेज गति से बढ़ रहा है और सकल घरेलू उत्पाद के अधिकांश हिस्से पर कब्जा कर रहा है।  सेवा क्षेत्र अपेक्षाकृत अधिक मूल्यवान है और विकास, निवेश, रोजगार, उत्पादकता और व्यापार की शर्तों के मामले में भी उच्च दर दर्ज कर रहा है।  भारत विनिर्माण क्षेत्र में अधिक निवेश, रोजगार और विकास को आकर्षित करने में अपनी श्रम गहन क्षमता का लाभ नहीं उठापा रहा है। (कालीराजन और भिड़े 2004; आईबीईएफ, 2020)

 

आंकड़ा: 3. भारतीय विनिर्माण क्षेत्र, 1990-2015 में उत्पादन में वृद्धि बनाम सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सेदारी(चित्र 3)

स्रोत: विश्व बैंक 2020

विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार

1999-00 के दौरान, विनिर्माण क्षेत्र में भारत के कुल कार्यबल का 11.9% हिस्साकार्यरत था।  विनिर्माण क्षेत्र आज भारत के कुल सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 15.13% कायोगदान देता है, हालांकि, औद्योगिक क्षेत्र जिसमें विनिर्माण क्षेत्र, खनन और उत्खनन, निर्माण और बिजली, गैस और पानी की आपूर्ति शामिल है, कुल सकल घरेलू उत्पाद में 27.5% कायोगदान देता है। यदि विनिर्माण क्षेत्र, विनिर्माण मूल्य श्रृंखलाओं के साथ प्रमुख क्षेत्रों में विशेषज्ञता प्राप्त करता है तो भारत में विनिर्माण क्षेत्र द्वारा आर्थिक विकास और रोजगार सृजन की अगुवाई करने की बहुत संभावनाएं हैं ।  सेवा क्षेत्र के विपरीत, जहां रोजगार की उपलब्धता किसी व्यक्ति के कौशल पर निर्भर है, विनिर्माण क्षेत्र में अकुशल श्रम शक्ति की ख़पत करने की क्षमता होती है । असल में कृषि श्रमिकों का गैर-कृषि क्षेत्रों में प्रवास भारतीय विनिर्माण क्षेत्र की रोजगार क्षमता पर अतिरिक्त दबाव डालता है (चक्रवर्ती और चट्टोपाध्याय, भारतीय सांख्यिकी जर्नल, 2014) (चित्र 4)।

 

 

स्रोत:  MOSPI, 2019

 

निर्माण क्षेत्र में रोजगार की हिस्सेदारी 2000 में 4.5% से बढ़कर 2017-18 में 11.67% की वृद्धि दर्ज की,जोउद्योग क्षेत्र में रोजगार की हिस्सेदारी में वृद्धि का प्रमुख कारण है। निर्माण क्षेत्र अपनी विशाल रोजगार सृजन क्षमता के लिए जाना जाता है, फिर भी अधिकांश श्रम जो निर्माण क्षेत्र में कार्यरत है वह आकस्मिक या संविदात्मक श्रम है, जिन्हें न तो सरकार द्वारा किसी भी सामाजिक सुरक्षा लाभ मिलता है और न ही उनके पास कोई रोज़गार सुरक्षा है। जैसे-जैसे सरकारों ने बुनियादी ढांचा परियोजनाओं, आवास योजनाओं और परिवहन योजनाओं जैसे सड़क आदि को वित्त पोषित किया, निर्माण क्षेत्र के रोजगार में तेजी से वृद्धि देखी गई है । साथ ही, निर्माण क्षेत्र कृषि से उन अधिशेष मजदूरों के लिए पहला गंतव्य बना जो पहले ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत थे, क्योंकि इसके लिए उच्च शैक्षिक योग्यता या तकनीकी कौशल की आवश्यकता नहीं होती है। भले ही भारत एक श्रम बाहुल अर्थव्यवस्था है, लेकिन भारत मुख्य रूप से विनिर्माण क्षेत्र में अपनी तेजी से बढ़ती श्रम शक्ति को रोजगार प्रदान करने की अपनी क्षमता का लाभ नहीं उठा पा रहा है (चित्र 5 देखें)।

 

चित्र : 5, निर्माण और विनिर्माण द्वारा रोजगार की प्रतिशत हिस्सेदारी

 

विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार की प्रकृति – एक दोहरी प्रवृत्ति

विनिर्माण क्षेत्र को दो उप-भागों में विभाजित किया गया है : संगठित विनिर्माण और असंगठित विनिर्माण, जिसका आधारनियोजित श्रमिकों की संख्या और बिजली के उपयोग पर निर्भर है। संगठित/पंजीकृत फर्में वे हैं जो 1948 के कारखाना अधिनियम की धारा 2m (i) और 2m (ii) के अंतर्गत आती हैं अर्थात वे फर्में जो बिजली का उपयोग करती हैं लेकिन दस से अधिक श्रमिकों को काम पर रखती हैं जबकि जो बिजली का उपयोग नहीं करती हैं लेकिन बीस या अधिक श्रमिकों को काम पर रखती हैं।  वे सभी फर्में जो इस श्रेणी में नहीं आती हैं उन्हें असंगठित विनिर्माण क्षेत्र माना जाता है।  असंगठित क्षेत्र को आगे तीन उप श्रेणियों में विभाजित किया गया है, स्वयं के खाते के उद्यम, जो बिना किसी नियमित आधार पर काम पर रखे गए श्रमिकों के बिना चलाए जाते हैं, गैर-निर्देशिका प्रतिष्ठान, जो छह से कम श्रमिकों को रोजगार देते हैं, निर्देशिका प्रतिष्ठान जो 6 या अधिक श्रमिकों को रोजगार देते हैं (घरेलू और काम पर रखे गए श्रमिकों को एक साथ लिया गया है)।  गैर-निर्देशिका और निर्देशिका प्रतिष्ठान एक साथ मिलकरप्रतिष्ठान कहलाते हैं।

एक क्षेत्र जो विनिर्माण क्षेत्र में उल्लेखनीय है, वह है सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम क्षेत्र, जो उत्पादन और रोजगार में बड़ा योगदान देता है।  1 करोड़ रुपये तक के निवेश और 5 करोड़ रुपये से कम के कारोबार वाली विनिर्माण इकाइयों को सूक्ष्म इकाइयाँ कहा जाता है, जिनका निवेश 1 करोड़ से 10 करोड़ रुपये के बीच और कारोबार 50 करोड़ रुपये से कम का होता है उन्हें लघु उद्यम कहा जाता है और वे उद्यम जिनका निवेश 10 करोड़ रुपये तक और कारोबार 100 करोड़ रुपये से कम का होता है उन्हें मध्यम उद्यम कहा जाता है। MSME न केवल रोजगार प्रदान करते हैं और सकल घरेलू उत्पाद में योगदान देते हैं बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में औद्योगीकरण की प्रक्रिया में भी योगदान करते हैं।  वे भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 8%, कुल विनिर्माण उत्पादन का 45% और देश के कुल निर्यात का 40% योगदान करते हैं।  2019-20 में विनिर्माण गतिविधि में शामिल MSMEकी अनुमानित संख्या 114.14 लाख थी, जिससे लगभग 186.56 लाख व्यक्तियों को रोजगार मिला है। MSME के पास कृषि क्षेत्रों से पलायन करने वाले श्रम की ख़पत करने की काफी क्षमता होतीहै, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में MSME के लिए आवश्यक तकनीकी कौशल और शैक्षिक योग्यता नगण्य तो नहीं लेकिन बहुत कम होताहै।  हालांकि, MSMEको संचालन में कई समस्याओं का सामना भीकरना पड़ता है जैसे तकनीकी सहायता की कमी, वित्तीय सहायता की कमी, अपर्याप्त बुनियादी ढांचे, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतिद्वंद्वीयों से भारी प्रतिस्पर्धा, अपर्याप्त संस्थागत ऋण स्रोत, अपर्याप्त जानकारी आदि। (बराल, 2013; सतीश और राजामोहन,  2019)

 

डेटा से पता चलता है कि भारतीय विनिर्माण क्षेत्र में दो प्रमुखरुझान हैं:

  • संगठित क्षेत्र में रोजगार में वृद्धि

संगठित क्षेत्र में रोजगार बढ़ रहा है।  यह 2000-01 में 17.72% से बढ़कर 2015-16 में 27.82% हो गया है।  यह एक सकारात्मक वृद्धि है, क्योंकि संगठित क्षेत्र में श्रमिकों की उत्पादकता असंगठित क्षेत्र की तुलना में कहीं अधिक होगी।

  • श्रम का संविदाकरण

संगठित क्षेत्र में अनौपचारिक श्रमिकों की हिस्सेदारी भी बढ़ रही है। इसका मतलब है कि भले ही संगठित क्षेत्र में रोजगार वृद्धि की प्रवृत्ति देखी जा रही है, लेकिन अधिकांश श्रमिकों को अनुबंधों के माध्यम से संविदा पर नियोजित किया जा रहा है जिन्हें किसी भी तरह की सामाजिक सुरक्षा का लाभ नहीं दिया जाता हैं।

 

चित्र : 6 संगठित और असंगठित विनिर्माण में रोजगार

 

चित्र : 7

हालांकि संगठित क्षेत्र ने कुल कार्यबल के केवल 17.72% को ही रोज़गार दिया, लेकिन इसने 2000-01 में विनिर्माण क्षेत्र में कुल सकल मूल्य का 74.44% योगदान दिया।  2015-16 तक, संगठित विनिर्माण क्षेत्र में नियोजित श्रमिकों के प्रतिशत में 10% की वृद्धि हुई है, जो 27.81 प्रतिशत है, लेकिन कुल विनिर्माण सकल मूल्य वर्धित में इसके योगदान ने केवल 6% की वृद्धि के साथ 80.41 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की है।  असंगठित क्षेत्र ने 2000-01 और 2015-16 में क्रमशः 82.28% और 72.19% विनिर्माण श्रमिकों को रोज़गार दिया, लेकिन 2000-01 और 2015-16 में कुल विनिर्माण सकल मूल्य वर्धित में क्रमशः 25.56% और 19.59% योगदान दिया।

संगठित क्षेत्र और असंगठित क्षेत्र द्वारा योगदान किए गए रोजगार और कुल सकल मूल्य वर्धित के बीच यह भारी अंतर संगठित और असंगठित श्रमिकों के उत्पादकता स्तरों में अंतर के कारण है।  2000-01 में, संगठित क्षेत्र में प्रति श्रमिक सकल मूल्य वर्धित 2,26,462.9 था जबकि एक असंगठित श्रमिक का केवल 16,233 था।  2015-16 तक, संगठित क्षेत्र में प्रति श्रमिक सकल मूल्य वर्धित 3.64 गुना बढ़कर 8,25,730.2 हो गया है जबकि एक असंगठित क्षेत्र में प्रति श्रमिक सकल मूल्य वर्धित 4.58 गुना बढ़कर 74,379 हो गया है।  फिर भी संगठित क्षेत्र में प्रति श्रमिक सकल मूल्य वर्धित एक असंगठित श्रमिक की तुलना में 11.16 गुना अधिक है।  (चक्रवर्ती और चट्टोपाध्याय, भारतीय सांख्यिकी जर्नल, 2014)

 

चित्र : 8

 

भारतीय विनिर्माण क्षेत्र में चुनौतियां

विनिर्माण क्षेत्र में समग्र रूप से सकल मूल्य वर्धित (GVA) में वृद्धि के बावजूद, यह तेजी से बढ़ते कार्यबल के लिए  रोजगार सृजित करने में लड़खड़ा गया है। 2014-15 में विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार की वृद्धि 4.5% प्रति वर्ष रही, जबकि विनिर्माण क्षेत्र द्वारा सकल मूल्य वर्धित की वृद्धि दर 9.5% थी। कृषि गतिविधियों से पलायन करने वाले अकुशल श्रमिकों के लिए रोजगार सृजित करने की विशाल क्षमता वाला विनिर्माण क्षेत्र निम्नलिखित कारणों से रोजगार सृजन करने में विफल रहा:

 

  1. पूंजी आधारित उद्योग

भारत एक श्रमबाहुल्य अर्थव्यवस्था है, जिसमें 501 मिलियन श्रमिकों कि श्रम शक्ति निहित है। इतनी बड़ी श्रमशक्ति को  श्रम आधारित वस्तुओं के उत्पादन में लगाया जाए तो तुलनात्मक रूप से लाभ प्राप्त हो सकता है। भारतीय उद्योगों के लिए अर्थव्यवस्था में अधिशेष श्रम को उपयोग करने के लिए उत्पादन में श्रम आधारित तकनीकों का उपयोग करना आवश्यक है जो पूंजी की तुलना में अधिक श्रम का उपयोग करेगी।हालाँकि, पिछले पंद्रह वर्षों में विकसित हुए उद्योगों पर एक नज़र डालें, तो आपको पता चलेगा कि वे आवश्यक रूप से श्रम की तुलना में अधिक पूंजी का उपयोग कर रहे हैं यानी उद्योगों में पूंजी-श्रम अनुपात बढ़ रहा है। भारतीय उद्योगों में पूंजी-श्रम अनुपात की प्रवृत्ति वृद्धि दर 2000-2014 में 5.2% थी। यह आश्चर्य की बात है कि कपड़ा और परिधान (7.7), चमड़े और चमड़े के उत्पादों (3.4) जैसे श्रम प्रधान उद्योगों में भी पूंजी-श्रम अनुपात बढ़ रहा है। (आईबीईएफ, 2020)

 

चित्र : 9 

TimePeriod                                                   Fixed Capital to worker ratio

 

2001-05                                                           3.4

 

2006-10                                                           5

 

2011-15                                                           7.5

 

2016-18                                                           7.7

 

 

TimePeriod                                                   Fixed Capital to worker ratio

 

2001-05                                                           7.3

 

2006-10                                                           10.9

 

2011-15                                                           20.5

 

2016-18                                                           26.5

 

 

 

TimePeriod                                                   Fixed Capital to worker ratio

 

2001-05                                                           1.7

 

2006-10                                                           2.3

 

2011-15                                                           2.9

 

2016-18         3.4

 

Source: Annual Survey of Industries

 

श्रम के खिलाफ पूंजी के इस बढ़ते उपयोग को कई कारकों द्वारा सुगम बनाया गया है:इसका पहला संभावित कारण उत्पादकता में सुधार है जिसकी गारंटी पूंजी देता है। फर्मों की उत्पादकता में सुधार सुनिश्चित करने के लिए, आमतौर पर फर्मों में समय के साथ पूंजी- श्रम अनुपात उच्च होता है। साथ ही श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी, पूंजी आधारित उत्पादन के तरीकों में अधिक लाभ आदि के संबंध में कड़े कानूनों ने पूंजी आधारित उद्योगों को बढ़ावा दिया है।(आईबीईएफ, 2020)

दूसरे, 1991 के आर्थिक सुधारों ने भारतीय निर्माताओं को सस्ती कीमतों पर पूंजी और मध्यस्थ वस्तुओं का आयात करने में सक्षम बनाया है। संगठित विनिर्माण क्षेत्र में श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी योजना और अन्य सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों द्वारा गारंटीकृत एक स्थिर मजदूरी दर और पूंजी के गिरते किराये की कीमत ने उद्योगों को उत्पादन की पूंजी आधारित तकनीक को अपनाने के लिए प्रेरित किया है।(गोल्डर, 2009)।

तीसरा, भारत सरकार की पहल जैसे कि राष्ट्रीय विनिर्माण नीति, मेक इन इंडिया आदि का उद्देश्य भारत को ऑटोमोबाइल, विमानन, जैव-प्रौद्योगिकी, रक्षा निर्माण, इलेक्ट्रॉनिक्स, सूचना प्रौद्योगिकी, स्वास्थ्य आदि जैसे उद्योगों में वैश्विक लीडर बनाना है। जो तकनीकी रूप से कुशल श्रमिकों का उपयोग करते हैं जिन्हें उच्चतर माध्यमिक से ऊपर शैक्षिक योग्यता की आवश्यकता होती है। इससे मौजूदा श्रम शक्ति और कृषि क्षेत्रों से पलायन करने वाले श्रमिकों के पुन: कौशल (रीस्किलिंग) और अपस्किलिंग की आवश्यकता बढ़ जाती है, जो भारत में महत्वपूर्ण चुनौतियों में से एक है। (ग्रीन, 2014; श्रीवास्तव, 2019)

चौथा, विनिर्माण क्षेत्र से अधिकांश निर्यात इंजीनियरिंग निर्यात, पेट्रोलियम उत्पाद, रत्न व आभूषण, फार्मास्यूटिकल्स, रासायनिक उत्पाद द्वारा किया जाता है (चित्र 10)। इनमें से अधिकांश उद्योग कम श्रम को अवशोषित करते हैं तथा खाद्य और खाद्य उत्पादन उद्योग, चमड़ा और चमड़ा उत्पादन उद्योग, वस्त्र और वस्त्र उत्पादन उद्योग आदि की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक पूंजी आधारित होते हैं। आम तौर पर फर्म उन उद्योगों में निवेश करते हैं जहां तुलनात्मक रूप से लाभ होता है और इसलिए कई फर्म ने पूंजी आधारित उद्योगों में रुचि दिखाई है जो उच्च रिटर्न की गारंटी देते हैं। (गोल्डर, 2009)।

चित्र: 10 चुनिंदा उद्योगों का निर्यात प्रदर्शन (मिलियन अमेरिकी डॉलर)

स्रोत: www.ibef.org

  1. रोजगार की संरचना में बदलाव

भारतीय विनिर्माण क्षेत्र ने पिछले 15 वर्षों में रोजगार संरचना में बदलाव देखा है। उद्योगों में संविदा कर्मियों (कॉन्ट्रैक्चुअल वर्कर्स) की संख्या में तीव्र गति से वृद्धि हुई है। भारतीय उद्योगों में संविदा कर्मियों की हिस्सेदारी 2000-01 में 15.58% से बढ़कर 2014-15 में 27.51 हो गई, जबकि इसी अवधि में डायरेक्ट इंप्लॉयड (सीधे कार्यरत) श्रमिकों की हिस्सेदारी 61.26 प्रतिशत से गिरकर 50.41 प्रतिशत हो गई।2017-18 में संविदा कर्मियों  का कुल श्रमिकों से अनुपात 0.36 था। “संविदा कर्मी वे सभी व्यक्ति होतेहैं जो सीधे नियोक्ता (एंप्लॉयर) द्वारा नहीं बल्कि तीसरी एजेंसी, यानी ठेकेदार के माध्यम से नियोजित (एम्प्लॉएड) होते हैं। इन श्रमिकों को मुख्य नियोक्ता (एंप्लॉयर) की जानकारी में या उसके बिना नियोजित किया जा सकता है।”श्रमिक संघों, न्यूनतम मजदूरी योजनाओं, बारगेनिंग की शक्ति में वृद्धि आदि द्वारा स्थायी श्रमिकों को बेहतर रिटर्न मिलता है। यही वजह है कि विनिर्माण फर्म संविदा कर्मियोंकी ओर जाने के लिए आकर्षित हुए है, जो न तो यूनियन बनाते हैं और न ही न्यूनतम मजदूरी की मांग करते हैं क्योंकि वे सरकार के ऐसे किसी भी सुरक्षा उपाय के दायरे में नहीं आते हैं।

 

  1. बिजली की आपूर्ति

विनिर्माण एक ऊर्जा- आधारित उद्योग है जहां बिजली इसके काम करने की प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। विश्व बैंक के अनुसार, विनिर्माण उद्योगों के लिए बिजली की आपूर्ति सबसे महत्वपूर्ण बाधाओं में से एक है। बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता के मामले में, भारत 2017-18 विश्व आर्थिक मंच की रिपोर्ट के अनुसार कुल 137 देशों में से 80वें स्थान पर है।

 

  1. वित्तीय बाधाएं

विनिर्माण क्षेत्र में फर्मों के लिए ऋण या ऋण के रूप में वित्त प्राप्त करना एक और बड़ी बाधा है। विशेष रूप से, सूक्ष्म और लघु उद्यमों को गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ता है क्योंकि बैंक उन्हें ऋण देने में अधिक अनिच्छुक होते हैं जो भारत में विनिर्माण क्षेत्र के विकास की संभावनाओं को प्रभावित करता है।

 

  1. कौशल और शिक्षा का निम्न स्तर

भारत में औपचारिक रूप से कुशल श्रमिकों का प्रतिशत बहुत कम है, जो कुल कार्यबल का केवल 4.69% है, जबकि चीन में 24%, अमेरिका में 52%, यूके में 68%, जर्मनी में 75%, जापान में 80% और दक्षिण कोरिया में 96% कुशल श्रमिक हैं। आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS) 2017-18 के अनुसार, भारत में लगभग 93% आबादी को कोई व्यावसायिक या तकनीकी प्रशिक्षण नहीं मिलता है।

  1. लॉजिस्टिक की लागत

आर्थर डी. लिटिल इंडिया और CII की एक संयुक्त रिपोर्ट के अनुसार, भारत में आपूर्ति श्रृंखला और लॉजिस्टिक की लागत देश के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 14% है, जिसका मूल्य 400 अरब डॉलर है जोकि वैश्विक औसत की तुलना में 8 प्रतिशत है। 2018 विश्व बैंक लॉजिस्टिक्स इंडेक्स के अनुसार, भारत  44वें स्थान पर, संयुक्त राज्य अमेरिका 14 वें स्थान पर, चीन 26 वें स्थान पर है। उच्च लॉजिस्टिक लागत का एक मुख्य कारण रोडवेज पर अधिक निर्भरता का बढ़ना तथा रेलवे और समुद्री मार्ग पर निर्भरता का कम होना है।  खराब इन्फ्रास्ट्रक्चर भी लॉजिस्टिक की लागत में बढ़ोत्तरी का कारण है।

 

  1. अनुसंधान एवं विकास पर कम खर्च

वर्तमान में भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.7% अनुसंधान और विकास पर खर्च करता है। यह अन्य  देशों जैसे चीन – 2.1%, अमेरिका – 2.8%, दक्षिण कोरिया – 4.2%, इज़राइल – 4.3% की तुलना में बहुत कम है । प्रौद्योगिकी और उत्पादन प्रक्रियाओं में अत्याधुनिक नवाचारों के लिए  R&D पर खर्च करना आवश्यक है, जो उच्च विकास दर के लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद करता है।

 

  1. पक्षपाती व्यापार पैटर्न

भारत एक श्रम बाहुल देश है इसके बावजूद भारतीय विनिर्माण  पूंजी पर आधारित उद्योग के प्रति पक्षपाती है। यह व्यापार के हेक्शर-ओहलिन सिद्धांत के विपरीत है, जिसमें कहा गया है कि एक श्रम-बाहुल अर्थव्यवस्था श्रम पर आधारित वस्तुओं का निर्यात करेगी। इसके विपरीत भारतीय अर्थव्यवस्था में श्रम के स्थान पर पूंजी का उपयोग होता है, इसलिए श्रमिकों के लिए रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं।

 

सेवा क्षेत्र

 

परिचय

पिछले तीन दशकों में वैश्विक और भारतीय दोनों अर्थव्यवस्थाओं में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि में सेवा क्षेत्र का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भारत में 90 के दशक में शुरू हुए आर्थिक सुधारों ने राज्य समर्थित उच्च शिक्षा के द्वारा उपलब्ध स्किल्ड मैनपॉवर का उपयोग करके सेवा क्षेत्र की क्षमता को उजागर किया। भारत उन कुछ बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, जिन्होंने रैखिक विकास मॉडल का पालन नहीं किया है। भारत एक मजबूत विनिर्माण आधार के बिना अपनी मुख्य कृषि आधारित अर्थव्यवस्था से सेवाओं पर आधरित विकास की अर्थव्यवस्था में कूद गया है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद में सेवा क्षेत्र की हिस्सेदारी कि तुलना में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी कम है। यहाँ औद्योगिक क्षेत्र में विकास की गति में धीमापन है। अतः भारत की विकासगाथा सेवाओं से प्रेरित है, जिसका सकल घरेलू उत्पाद में 55 प्रतिशत हिस्सा है।

भारत में सेवा क्षेत्र में वृद्धि कई कारणों से हुई है जैसे: आपूर्ति साइड पर, सेवाओं के हिस्से को बढ़ाने के लिए “स्प्लिंटरिंग” नामक पद्धति को अपनाया गया है जिसमें  व्यवस्थित उत्पादन करने के लिए एक अधिक सेवा इनपुट आधारित विधि को बढ़ाया गया है। स्प्लिंटरिंग द्वारा विशेषज्ञों की ठेकेदारों द्वारा किसी विशेष कार्य के लिए आउटसोर्सिंग की जातीहै जो पहले फर्मों द्वारा स्वयं किया जाता था। यह बताया जाता है कि “स्प्लिंटरिंग”  से सेवा क्षेत्र द्वारा सकल घरेलू उत्पाद के हिस्से में वृद्धि होगी, उस स्थिति में भी जब सकल घरेलू उत्पाद स्वयं नहीं बढ़ रहा हो। कई आउटसोर्सिंग कंपनियों के विकास ने भारत में “स्प्लिंटरिंग” को बढ़ावा दिया है, जिससे सेवा क्षेत्र में तेजी आई है।मांग साइड पर, सेवा क्षेत्र के उत्पादन के हिस्से में वृद्धि सेवाओं की अंतिम मांग में तेजी से वृद्धि द्वारा उत्पन्न हो सकती है। यह उच्च आय वाले घरेलू उपभोक्ताओं की मांग बढ़ने या विदेशी उपभोक्ताओं द्वारा देश के सेवा निर्यात की बढ़ती मांग के साथ हो सकता है। तकनीकी विकास से सेवा क्षेत्र की गतिविधि को भी प्रेरित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए आईटी क्षेत्र के मामले में इसके प्रासंगिक होने की संभावना है। उदारीकरण एक महत्वपूर्ण कारक है जिसने सेवा क्षेत्र में विकास को प्रेरित किया है।सेवा क्षेत्र के विकास के लिए अनुकूल नीतिगत सुधारों में प्रमुख है: विनियमन, निजीकरण और विशेष रूप से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए अर्थव्यवस्था को खोलना आदि। इन सुधारों ने भारत में बहुराष्ट्रीय संगठनों को अपनी इकाइयां स्थापित करने के लिए आकर्षित किया है। भारत में उपलब्ध अंग्रेजी बोलने वाला श्रम विदेशों की तुलना में अपेक्षाकृत सस्ता हैं। इसने अपरोक्ष रूप से सेवा क्षेत्र में विकास को बढ़ावा दिया है (मुखर्जी 2013; लता और शनमुगम 2014)।

 

रोजगार के रुझान और चुनौतियां

हालांकि, भारत में सेवा क्षेत्र को विकास के प्रवेश द्वार के रूप में देखने में कई समस्याएं हैं। सेवा क्षेत्र लगभग 23% श्रम शक्ति को रोजगार देता है। सेवाओं के पक्ष में सकल घरेलू उत्पाद का क्षेत्रीय बदलाव भारत में रोजगार के पैटर्न में सहवर्ती परिवर्तनों से मेल नहीं खा रहा है। साथ ही भारत में सेवा क्षेत्र की विशेषता है कि इसमें तेजी से उच्च उत्पादन और कम रोजगार पैदा हो रहा है। (अग्रवाल 2012)

हाल के दिनों में देखा गया है कि सेवा क्षेत्र के केंद्र में विकास संचार, व्यापार सेवा, वित्तीय सेवा आदि रही है। संचार सेवाओं में वृद्धि, जिसका समग्र सकल मूल्य वर्धित में एक छोटा सा योगदान है, हाल के वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि में एक महत्वपूर्ण योगदानकर्ता रहा है।  उदारीकरण के बाद, आईटी सेवाओं और संचार सेवाओं में तेजी से विकास हुआ है साथ ही  व्यावसायिक सेवाओं में बैंकिंग क्षेत्र, होटल और रेस्तरां, और उसके बाद सामुदायिक सेवाओं में तेजी से विकास देखा गया है। भारत में सेवाओं में टेक-ऑफ का सबसे प्रसिद्ध आयाम सॉफ्टवेयर और सूचना प्रौद्योगिकी आधारित सेवाओं में रहा है, जिसमें कॉल सेंटर, सॉफ्टवेयर डिजाइन और बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग शामिल हैं।(गॉर्डन और गुप्ता 2004)। हालांकि, इन क्षेत्रों को उच्च मूल्य और कम रोजगार पैदा करने वाले क्षेत्रों के रूप में देखा जाता है।आम तौर पर सेवाओं में रोजगार सृजन के हिस्से में वृद्धि सेवाओं में उत्पादन के हिस्से में वृद्धि की तुलना में तेजी से बढ़ती है। इसके विपरीत, पिछले कुछ वर्षों में भारत में सेवा क्षेत्र में रोजगार में वृद्धि जीडीपी के हिस्से में सुधार के बावजूद सपाट रही है। इस तथ्य से स्पष्ट है कि भारतीय सेवा क्षेत्र में उत्पादकता बढ़ रही है। सॉफ्टवेयर सेवाएं, दूरसंचार और बैंकिंग सबसे अधिक उत्पादक सेवाओं में से कुछ हैं, और वे भारत के सेवा क्षेत्र के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि के प्रमुख चालक भी हैं। हालांकि इन क्षेत्रों कि विशेषता कम रोजगार और कौशल गहनता भी है। सेवा क्षेत्र की रोजगार क्षमता बढ़ाने के लिए, नीतियों को उन क्षेत्रों में विकास को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो मानव श्रम के अधिक व्यक्तिगत प्रयासों का उपयोग करते हैं और कौशल आधारित सेवाओं की आवश्यकताओं के अनुसार शहरी आबादी को शिक्षित और कुशल बनाने पर ध्यान केंद्रित करते हैं।(पटनायक और नायक 2011 ; वू 2007)

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

10 M : बेरोज़गारी के समाधान की रणनीतियाँ

 

यह रिपोर्ट रोजगार सृजन की दिशा में एक समग्र दृष्टिकोण अपनाती है जिसमें भारतकेविशिष्ट क्षेत्रों के मुद्दों को समझने और दुनिया भर की रणनीतियों और नीतिगत सुझावों परध्यान केंद्रित किया गया है।इस नीति का उद्देश्य भारत में श्रम की मांग और आपूर्ति का मिलान करना तथाअर्थव्यवस्था की संरचना को कम प्रदूषणकारी और अधिक संसाधन-कुशल आर्थिक गतिविधियों मेंबदलना है। यदि संबंधित चुनौतियों का अच्छी तरह से प्रबंधन किया जाता है, तो हरित विकास की दिशा में नया अवसर पैदा हो सकता है। इसनीति का उद्देश्य अच्छी तरह से डिज़ाइन किए गए नीतिगत उपकरणों के माध्यम से औरलागत प्रभावी तरीके से पर्यावरणीय उद्देश्यों को प्राप्त करना है,जिससे अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले किसी भी अनावश्यक बोझ से बच सकते हैं, और संभावित रूप से आर्थिक विकास को गति देने के साथ-साथ रोजगार पैदा कर सकते हैं।

 

इस दस्तावेज़ ने भारत में रोजगार सृजन के लिए 10 M के ज़रिये दस महत्वपूर्ण क्षेत्रों की पहचान की है, जो निम्नलिखत हैं :

 

  1. मिनी कृषि प्रौद्योगिकी(Mini Agrotechnology)

 

  1. भारत विश्व में अनेक कृषि/खाद्य पदार्थों का प्रमुख उत्पादक है जिसमेंकुल उत्पादन का केवल एक छोटा प्रतिशत संसाधित किया जाता है। “कृषि और खाद्य प्रसंस्करण” के लिए प्रौद्योगिकी, निवेश, बुनियादी ढांचे और कौशल की आवश्यकता होती है। यही वजह है कि अधिकांश खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों में बड़ेउद्यमियों और कृषि व्यवसायिक कंपनियों का वर्चस्व है। ग्रामीण क्षेत्रों में उपलब्ध कच्चे माल और श्रम बहुलताका दोहन करने के लिए सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों में भी इन उद्योगों कोविकसित करना चाहिए।
  2. “कृषि और खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों” के लिए लघु प्रौद्योगिकी ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार सृजन के साथ-साथ किसानों की आय बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि और खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों के बारे में जागरूकता का अभाव है और किसान आमतौर पर अपनी कच्ची उपज कम कीमतों पर बेचते हैं। इसलिए, सरकार को उन फर्मों और ग्रामीण उद्यमियों को प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए जो ग्रामीण श्रमबाहुलपरिस्थितियों के अनुकूल हैं।
  3. हाल के वर्षों में भारत में उन युवा उद्यमियों/कृषि उद्यमियों की संख्या में वृद्धि देखी गई है जो कृषि और सम्बंधित गतिविधियों को कुशल और आकर्षक बनाने के लिए नवीन तकनीकों और व्यवसाय मॉडल का उपयोग कर रहे हैं। इन स्टार्टअप विचारों को कृषि उत्पादों के लिए बेहतर मूल्य प्राप्त करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में उपलब्ध स्थानीय उपज / कच्चे माल के अनुसार प्रसंस्करण उद्योगों की ओर निर्देशित किया जा सकता है।

4.ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि/खाद्य प्रसंस्करण उद्योग स्थापित करने से किसानों को कई व्यावसायिक फसलों और गतिविधियों जैसे डेयरी फार्मिंग, फलों और सब्जियों की खेती, मोटे अनाजों का उत्पादन आदि के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इससे किसानों को अधिक लाभ कमाने तथाकृषि के अवसरों में विविधता लाने में मदद मिलेगी। दूसरी ओर इससे उद्यमियों को परिवहन और भंडारण लागत पर कम खर्च करना पड़ेगा, इसमेंआगे की प्रक्रिया के लिए ताजा उपज की उपलब्धता का भी लाभ मिलेगा।

  1. सरकार को ग्रामीण मिनी प्रौद्योगिकियों के अनुसंधान और विकास में निवेश करने की आवश्यकता है जो भारत में कृषि क्षेत्र के विकास में आधारभूत भूमिका का निर्माण करेगा। इसके आगे के विकास के लिए सरकार को वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान करने की आवश्यकता भी पड़ेगी।
  2. कृषि और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में मिनी प्रौद्योगिकी के विकास के लिए एक अलग निकाय स्थापित करने की आवश्यकता है जिसमें तीन महत्वपूर्ण हितधारक, सरकारी एजेंसियां, अनुसंधान संस्थान और किसान संघ शामिल होंगे। यह निकाय किसानों और उद्यमियों को कच्चे माल के उत्पादन, प्रसंस्करण तकनीकों और उपकरणों में सुधार और बाजार की स्थितियों के आधार पर उत्पादों के विपणन के संबंध में सहायता करेगा। इस प्रकार ग्रामीण आधारित खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के प्रचार और आधुनिकीकरण से भारतीय कृषि में विविधता लाने में भीमदद मिलेगी जिससे ग्रामीण आय, उत्पाद की गुणवत्ता और रोजगार क्षमता में वृद्धि होगी।

 

2.मिनिमम मौद्रिक सहायता और भूमि तक पहुंच

(Minimum Monetary support & Access to Land)

 

मौद्रिक समर्थन (मोनेटरी सपोर्ट)

  1. किसी भी कृषि गतिविधि को शुरू करने के लिए ऋण और अग्रिम भुगतानजैसी वित्तीय सेवाओं तक पहुंच अत्यंत महत्वपूर्ण है। इन जरूरतों को पूरा करने के लिए वित्तीय सेवा प्रदाताओं (FSP) की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और जिन्हें आज बढ़ावा देने की आवश्यकता है। FSP में औपचारिक बैंकिंग प्रणालियाँ (वाणिज्यिक और विकास बैंक), अर्ध औपचारिक बैंकिंग प्रणालियाँ (बचत और ऋण सहकारी संगठन) और अनौपचारिक बैंकिंग प्रणालियाँ जो आधिकारिक तौर पर राष्ट्रीय स्तर पर पंजीकृत नहीं हैं (जैसे स्वयं सहायता समूह) शामिल हैं। इस प्रकार, FSP के इन तीन उपक्रमों को अधिक वित्तीय स्वायत्तता देने की ज़रूरत है जो कृषि गतिविधियों को शुरू करने के लिए ग्रामीण आबादी को आसानी से ऋण और अग्रिम भुगतान प्रदान करे।
  2. युवा लोग आम तौर पर अपनी समग्र जनसंख्या जनसांख्यिकी की तुलना में समग्र औपचारिक FSP ग्राहकों का एक छोटा अनुपात बनाते हैं। युवा आबादी को ऋण की उपलब्धता की कमी के अलावा, अधिकांश FSP ऋण गारंटी मांगते हैं, जो आमतौर पर युवाओं के पास नहीं होता है जिससे कई क्षेत्रों में उनकी क्षमताएंसीमित हो जाति हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में व्यावसायिक विचारों वाले युवाओं को ऋण सुविधाओं में प्राथमिकता देने से कई क्षेत्रों में वेअपना खुद का व्यवसाय शुरू करने में सक्षम होंगे।
  3. सरकार कोवित्तीय संस्थानों जैसे अन्य हितधारकों के साथ मिलकरकृषि और खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों में निवेश को बढ़ावा देने के लिए “सार्वजनिक-निजी निवेश कोष” स्थापित करना चाहिए। इस तरह के सहयोग कृषि व्यवसाय शुरू करने में रुचि रखने वाले लोगों की मदद करेंगे। इससेन केवल व्यक्तियों द्वारा, बल्कि विभिन्न श्रेणियों की सहकारी समितियों द्वारा भी लाभ उठाया जा सकता है। इस योजना द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाएं, पुनर्भुगतान लचीलेपन के साथ ऋण प्रदान करना, पट्टे की आवश्यकताओं के लिए भूमि खरीदना आदि हो सकती हैं।
  4. केंद्र और राज्य स्तर पर सरकारों को क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को प्राथमिकता देकर ग्रामीण क्षेत्रों के महिलाओं और युवाओं को ऋण और अग्रिम भुगतान प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहितकरना चाहिए। चूंकि, ये अक्सर ऋण के औपचारिक स्रोतों से, ऋण प्राप्त नहीं करते हैं परिणामस्वरूप जमींदारों और बिचौलियों के चंगुल में फंसकर ब्याज की भारी दरें चुकाने को मजबूर हो जाते हैं।
  5. हालांकि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक कई सरकारी योजनाओं जैसे, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना, स्टार्टअप इंडिया योजना आदि के तहत कम ब्याज दरों पर ऋण प्रदान करते हैं। मुद्रा लोन,जिसे सरकार द्वारा वर्ष 2015 में घोषित किया गया था। इस योजना के तहत बैंकों, एमएफआई और एनबीएफसी जैसे अंतिम मील के फाइनेंसरों को पुनर्वित्त सहायता प्रदान की जाती है जो छोटे उद्यमियों को 10 लाख तक का ऋण दे सकते हैं। इन कार्यक्रमों में कई कमियां हैं जैसे, बढ़ते खराब ऋण, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में धोखाधड़ी का बढ़ता स्तर, एनपीए की वृद्धि की उच्च दर आदि। इसलिए सरकार को अब एक केंद्रित और लक्षित ऋण योजना शुरू करने की आवश्यकता है जैसे, “उद्यमी ऋण परियोजनाएं”। जिसमें ऋण देने से पहले विभिन्न कारकों जैसे,ऋण का उद्देश्य औरउद्यमी की योजना आदि पर विचार किया जाएगा। बैंकों द्वारा किसी भी धोखाधड़ी से बचने के लिए सरकार को इन बैंकों के सभी लेनदेन पर बारीकी से नजर रखने के लिए एक निगरानी प्राधिकरण की शुरुआत करने की भी आवश्यकता है।
  6. केंद्र सरकार द्वारा राज्यों को ग्रामीण क्षेत्रों में गरीब लोगों का एक”राज्यव्यापी डेटाबेस” बनाने का प्रस्ताव देना चाहिए जो गरीबों की पहचान करने में मदद करेगा तथाजो इस शर्त पर कम ब्याज दरों पर ऋण देने की प्रक्रिया को आसान बनाएगाजिसमें वे कुछ आजीविका गतिविधि कर सकें। भारत में कृषि क्षेत्र के डेटाबेस का अभाव योजना/नीति निर्माण में प्रभावशीलता और निगरानी की कमी के कारणों में से एक है।
  7. भूमि तक पहुंच (Access to Land): भूमि तक पहुंच एक अन्य महत्वपूर्ण कारक है जो किसानों, विशेषकर कृषि में युवाओं की उत्पादक क्षमता को सीमित करता है। भारत एक ऐसा देश है जहां अधिकांश भूमि विरासत के माध्यम से अधिग्रहित की जाती है।सरकार को एक ऐसा कार्यक्रम बनाना चाहिए जिसका उद्देश्य वृद्ध किसानों को अपनी भूमि, युवा किसानों और किसान संगठनों को दीर्घकालिक और अल्पकालिक आधार पर पट्टे पर देने के लिए प्रोत्साहित करना होगा, जो युवाओं के लिए भूमि तक पहुंच सुनिश्चित करेगा। सरकार को ऐसे प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराने की जरूरत है जो एक फार्मलैंड डेटाबेस को बनाए रख सकता है जो कृषि भूमि की बिक्री और खरीद के बारे में जानकारी प्रदान करता है और विशेष रूप से पुराने किसानों और युवाओं के बीच इन भूमि की बिक्री और पट्टे को आसान बनाता है। डेटाबेस का प्रबंधन स्थानीय स्तर पर किसान संगठनों द्वारा किया जाएगा। इस तरह के कार्यक्रमों का उपयोग युवा किसानों को विपणन और प्रबंधन में प्रशिक्षित करने और कम ब्याज दरों पर ऋण के माध्यम से अपने कृषि उपकरण और सुविधाओं को बेहतर बनाने में मदद करने के लिए भी किया जा सकता है। यह युवाओं को खेत के आकार को बढ़ाने और उत्पादन लागत को कम करने में सक्षम बनाएगा।
  8. सरकार उन निजी फर्मों और भूस्वामियों के बीच अल्पकालिक भूमि पट्टों को प्रोत्साहित कर सकती है जो 12 महीने की अवधि के लिए अपनी जमीन पर खेती नहीं करना चाहते या नहीं करते हैं। ये निजी फर्म, स्थानीय अधिकारियों के साथ मिलकर जमींदारों को युवाओं और कृषि के लिए उनकी जमीन की ज़रूरत पूरा करने के लिए प्रोत्साहित करेगी।फर्म और जमींदारों के बीच का अनुबंध केवल एक पट्टा अनुबंध होगा जिसमें भूमि के स्वामित्व का कोई हस्तांतरण शामिल नहीं होगा। जमींदार के परिवारों के छोटे बच्चों को अपने माता-पिता या रिश्तेदारों की भूमि का अच्छा उपयोग करने के लिए भीप्रोत्साहित किया जाएगा। एक बार पट्टे, भुगतान, भुगतान के तरीके आदि के संबंध में समझौते की सभी शर्तें पूरी हो जाने के बाद, फर्म समुदाय में नोटिस बोर्ड के माध्यम से युवा समूहों को भूमि आबंटित कर दी। विभिन्नकृषि गतिविधियों के लिए युवा समूहों को कृषि मशीनों को पट्टे पर देना फर्म इन युवा समूहों को बाजारों से जोड़ेगी और उत्पाद की बिक्री से भुगतान की वसूली करेगी। व्यक्तियों के बजाय समूहों के साथ काम करना इस पहल की सफलता की कुंजी है। यह व्यवस्था शामिल सभी पक्षों के लाभ के लिए काम करेगी। जिसमेंयुवाओं को न सिर्फ एक अच्छी आय प्राप्त होगी बल्किजमींदारों को उनकी भूमि से नकद/उत्पाद भी प्राप्त होगा, जो अन्यथा यों ही पड़ा रहता। “युगांडा में युवाओं के लिए अल्पकालिक भूमि पट्टों” जैसी पहलों ने इस मॉडल के माध्यम से बड़ी सफलता हासिल की है।

 

  1. माइंडसेट(मानसिकता) और कौशल प्रशिक्षण

(Mindset and Skill Training)

 

  1. मानसिकता और कौशल प्रशिक्षण राष्ट्र के विकास का एक अभिन्न अंग होता है। ग्रामीण भारत में सामाजिक और आर्थिक दोनों तरह के कई प्रतिबंधदेखने को मिलते हैं। रोजगार के अवसर उपलब्ध होने के बावजूद, सामाजिक प्रतिबंध कुछ समूहों को आर्थिक गतिविधियों में भाग लेने की अनुमति नहीं देते हैं। विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों आदि को कार्यस्थल में प्रवेश करने कोलेकर आज भी भेदभाव का सामना करना पड़ता है। इसलिए सरकार को समकालीन भारत में प्रचलित ऐसी भेदभावपूर्ण प्रथाओं को खत्म करने के लिए मानसिकता प्रशिक्षण प्रदान करनाचाहिए।
  2. कौशल प्रशिक्षण के अलावाभारत मेंविशिष्ट समूहों, विशेष रूप से महिलाओं के लिए शिक्षा और रोजगार के लिए इन्हें आज भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, । इसलिए, महिलाओं के लिए शिक्षा और रोजगार के महत्व को बताने के लिएमानसिकता प्रशिक्षण और परामर्श सत्र का आयोजन करना होगा।
  3. आज के समय में कृषि पाठ्यचर्या या तो गायब हो गई है या फिर पुरानीऔर अपर्याप्त सिद्ध हो चुकी है, क्योंकि आजकृषि को एक कम सार्थक विषय के रूप में देखा जाता है जो ग्रामीण युवाओं की आकांक्षाओं को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। सामान्यतःग्रामीण क्षेत्रों में, माता-पिता से बच्चों को कृषि का ज्ञान मिलता है, जबकि आज ज़रूरत इस बात की है कि ऐसी सलाह अनौपचारिक आधार के बजाय अधिक औपचारिक, समन्वित और प्रभावी तरीके से प्रदान की जाए।
  4. कृषि क्षेत्र के विकास के लिए उच्च शिक्षा बहुत आवश्यक है। ऐसे कईसारेविश्वविद्यालयों का निर्माण करना होगा जो कृषि अनुसंधान पर ध्यान केंद्रित और कृषक समुदाय के साथ संबंध स्थापित करते हैं। यह कदमकृषि क्षेत्र के विकास के लिए फायदेमंद साबित होगा। साथ ही, ज्ञान को व्यापक बनाने, अनुसंधान और विकास को बढ़ाने और स्थानीय समस्या-समाधान को बढ़ाने के लिए विश्वविद्यालयों को कृषक समुदायों से जोड़ना बहुतआवश्यक है।
  5. शैक्षिक संस्थानों को श्रम बाजार के अवसरों से जोड़ना और नियोक्ताओं के साथ मजबूत साझेदारी बनाना भी बहुतमहत्वपूर्ण है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि कृषि पेशेवरों के कौशल श्रम बाजार की जरूरतों के अनुकूल हैं।इस काम को अलग से”श्रम प्रेषण संगठनों” की स्थापना के माध्यम से किया जा सकता है, जो भर्ती करने वालों और बेरोजगारों के बीच मध्यस्थ के रूप में कार्य करे और बेहतर मजदूरी, कार्य स्थल पर बेहतर उपचार और बेहतर प्रशिक्षण के मुद्दे पर काम करे।
  6. व्यावसायिक प्रशिक्षण और कौशल विकास प्रशिक्षण कार्यक्रमों को स्थानीय और विदेशी श्रम बाजारों की जरूरतों के साथ जोड़कर यथासंभव विकेन्द्रीकृत किया जाना चाहिए। साथ ही, श्रमिकों के कौशल और व्यक्तित्व के विकास के लिए कार्यस्थल के भीतर और बाहर विषय-वस्तु-विशिष्ट अल्पकालिक प्रशिक्षण आयोजित करने चाहिए।
  7. अशिक्षित और स्कूल छोड़ने वाले लोगों को रोजगार के साथ-साथ उनके अन्दर उद्यमशीलता को बढ़ावा देने के लिए उन्हें आवश्यक व्यावसायिक और उद्यमशीलता प्रशिक्षण देने की ज़रूरत है ताकिइन्हेंरियायती दरों पर ऋण प्रदान करके अकुशल या अर्ध-कुशल स्वरोजगार के अवसरों की ओर निर्देशित किया जा सके। समाज के वे वर्ग जिनके पास औपचारिक शिक्षा नहीं है, उन्हें गाँव में विशिष्ट स्थानों जैसे खाद्य प्रसंस्करण उद्योग, गाँव में मध्यम स्तर के उद्योग आदि में काम करने के लिए हीअल्पकालिक पाठ्यक्रमों के एक भाग के रूप में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।
  8. श्रम बाजार मेंबदलती प्रौद्योगिकी और मांग की प्रकृति के अनुसार व्यावसायिक व कौशल विकास प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रभावी बनाया जाना चाहिए।इसके लिए केंद्र तथा राज्य स्तर पर विभिन्न मंत्रालयों द्वाराविपणन योग्य कौशल के संबंध में बहुमूल्य जानकारी प्रदान करने के लिए,भर्ती करने वालों को प्रशिक्षण केंद्रों से जोड़ने की आवश्यकता है।
  9. कौशल विकास और व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों की प्रभावशीलता में सुधार के लिए, प्रशिक्षण में क्षेत्रीय प्रतिष्ठानों के प्रतिनिधियों और श्रमिकों की सक्रिय भागीदारी ज़रूरी है, जिसमेंआवश्यकता के आकलन, पाठ्यचर्या विकास और प्रशिक्षण के संचालन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
  10. कौशल विकास और व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों का विस्तार निजी-सार्वजनिक भागीदारी के माध्यम से किया जाए तो बेहतर होगा।
  11. छात्रों में हरित नौकरियों के महत्व को विकसित करने के लिए स्कूली पाठ्यक्रम में हरित पाठ्यक्रम की शुरूआत होनी चाहिए। सभी उद्योगों में नौकरियों को हरित करने के लिए कौशल विकसित करने पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। इसके लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थानों और विश्वविद्यालयों को कौशल और प्रशिक्षण कार्यक्रम से जोड़ना अनिवार्य है।
  12. औपचारिक शिक्षा की कमी या संस्थानों की अनुपस्थिति के कारण अधिकांश भारतीय किसानों को मौजूदा बाजार स्थितियों के बारे में जानकारी नहीं है। किसान के बाजार ज्ञान को बढ़ाने के लिए सरकारें, सामुदायिक समूह या अन्य गैर सरकारी संगठन की मदद से “कृषि व्यावसायिक विद्यालय” स्थापित कर सकते हैं जिसका उद्देश्य व्यावहारिक दृष्टिकोण के माध्यम से उद्यमशीलता और प्रबंधन कौशल में किसान क्षमता का निर्माण करना होगा। कृषि व्यावसायिक विद्यालयोंको छोटे और सीमांत फार्म धारकों को बाजार की आवश्यकताओं के अनुसार उत्पादन करने और उनकी उपज को लाभदायक बनाने में मदद करने के लिए डिज़ाइन किया जाए। किसानों को छोटे समूहों में काम करने के लिए मौसमी प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करने के लिए फैसिलिटेटर/प्रशिक्षकों की नियुक्ति की जानी चाहिए।
  13. शिक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में विकास की चुनौतियों पर काबू पाने की कुंजी है। शिक्षा और प्रासंगिक जानकारियाँ ग्रामीण युवाओं को बाजारों और वित्त के साथ-साथ हरित नौकरियों और भूमि तक पहुंच को निश्चित करती है। जबकि औपचारिक शिक्षा युवाओं को मजबूत संख्यात्मकता, प्रबंधकीय और व्यावसायिक कौशल प्रदान करती है।व्यावसायिक प्रशिक्षण और विस्तार सेवाओं के रूप में अनौपचारिक शिक्षा युवाओं को कृषि से संबंधित अधिक ज्ञान प्रदान कर सकती है। ग्रामीण युवाओं को कृषि में संलग्न करने के लिए औरकौशल प्रदान करने के लिए सरकार द्वारा विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू करने की आवश्यकता है, जोउन्हें पर्यावरण के अनुकूल उत्पादन विधियों को अपनाने में मदद करें, और उन्हें ज्ञान प्रदान करने के साथ-साथ उनकी उपज बेचने के लिए बाजारों से जुड़ने के तरीकों परभी काम करें।
  14. व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम और विस्तार सेवाएं (सरकारी, निजी और गैर सरकारी संगठन) जो ग्रामीण युवाओं को आवश्यक कौशल प्रदान करती हैं, अक्सर सरकार से नियमित आर्थिक सहयोगकी कमी से जूझते रहते हैं।स्कूल छोड़ने वालों के लिए निम्न शिक्षा स्तर प्रशिक्षण संभावनाओं को और भीसीमित कर देता है। इसलिए, भारत सरकार को ग्रामीण संदर्भ के लिए उपयुक्त कृषि में विशेष कौशल प्रशिक्षण पर ध्यान देना चाहिए। इन कौशल प्रशिक्षकों को अच्छी तरह से वित्त पोषित किया जाना चाहिए और ज्ञान को व्यापक बनाने, अनुसंधान और विकास को बढ़ाने तथा स्थानीय समस्या-समाधान को बढ़ाने के लिए कृषि विश्वविद्यालयों से जोड़ा जाना चाहिए।

15 शैक्षिक संस्थानों और व्यावसायिक शिक्षा सेवा प्रदाताओं को श्रम बाजार के अवसरों से जोड़ना और नियोक्ताओं के साथ मजबूत साझेदारी बनाना भी अत्यंत महत्वपूर्ण है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कृषि पेशेवरों के कौशल, श्रम बाजार की जरूरतों के अनुकूल हैं।

  1. कृषि और सतत ग्रामीण विकास को बढ़ावा देने के लिए, भारत में सेंटर फॉर स्टडी एंड डेवलपमेंट इन एग्रीकल्चर (CEDAC) जैसी पहल स्थापित की जानी चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में “स्कूल से बाहर के युवाओं” को कृषि में पेशेवर करियर बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। प्रशिक्षण कार्यक्रम में पर्यावरण के अनुकूल कृषि तकनीकों, आत्म-विकास, सामाजिक शिक्षा, कृषि प्रबंधन, व्यवसाय योजना विकास, वित्तीय प्रबंधन और रिपोर्ट लेखन कौशल पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
  2. सरकार को कृषि के लिए आईसीटी समाधानों को बढ़ावा देने की दिशा में काम करने की ज़रूरत है और जिन युवाओं के पास व्यावसायिक विचार हैं साथ ही उन विशेषज्ञों के साथ जो युवा नवोन्मेषकों की मदद करने के लिए प्रतिबद्ध हैं, उनको एक साथ लाने के लिए मंच प्रदान करना चाहिए। युवा आईसीटी आधारित कृषि समाधान विकसित कर सकते हैं और उन्हें व्यावसायिक उपक्रमों में भी बदला जा सकता है। यह कदम छात्रों और विशेषज्ञों के साथ जुड़े युवा उद्यमियों को पूरी प्रक्रिया में सहायता प्रदान करता है, उन्हें इंटरनेट एक्सेस और प्रशिक्षण प्रदान करता है ताकि वे अपने आईसीटी कौशल में सुधार कर सकें।

 

सामाजिक संवाद

  1. ट्रेड यूनियन प्रतिनिधियों के लिए लैंगिक मुद्दों पर प्रशिक्षण (जैसे समान वेतन के लिए बातचीत और अपने स्वयं के ढांचे के भीतर अवसरों की समानता को बढ़ावा देने पर प्रशिक्षण पाठ्यक्रम) लैंगिक भेदभाव का मुकाबला करने और काम पर समानता को बढ़ावा देने में मदद करता है। यह भेदभाव के अन्य रूपों (जाति, विकलांगता, उम्र, आदि के आधार पर) पर भी लागू होता है।
  2. रोजगार क्षेत्र में प्रचलित लिंग, क्षेत्रीय और अन्य प्रकार के भेदभाव को उत्तरोत्तर दूर करने के लिए कार्यक्रम आयोजित करते रहने होंगे।
  3. औद्योगिक संबंधों, संघर्ष समाधान और नीति निर्माण प्रक्रियाओं के विकास के स्तर तक त्रिपक्षीय और द्विदलीय सामाजिक संवादों के संस्थागतकरण को प्रोत्साहन देना चाहिए।
  4. संस्थागत बुनियादी ढांचे का निर्माण करअनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों और नियोक्ताओं को सामाजिक संवाद की प्रक्रिया में उत्तरोत्तर शामिल किया जाना चाहिए।

 

  1. मिनी मार्केट(Mini Market)

 

  1. भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे कई बाजार होते हैं, जहां कृषि उत्पाद जैसे सब्जियां, फल, दालें, चावल आदि बेचे जाते हैं। हालांकि, भारत में ग्रामीण क्षेत्रों में प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों और अन्य तैयार उत्पादों के लिए बाजार की कमी भीहै। इसलिए सरकार को प्रसंस्कृत वस्तुओं के लिए जिला स्तर पर मिनी बाजार स्थापित करने की जरूरत है। ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे “मिनी बाजारों” के विस्तार से कई लाभ प्राप्त होंगे जैसे परिवहन और भंडारण की लागत में कमी, किसान और उपभोक्ता के बीच बिचौलियों की कमी आदि।
  2. भारत में फसल विविधीकरण बहुत सीमित है। अधिकांश किसान आमतौर पर चावल या गेहूं का उत्पादन करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में फसल विविधीकरण मिनी बाजारों की शुरूआत की कुंजी है। मिनी-प्रौद्योगिकी से ग्रामीण पारम्परिक कृषि कोव्यावसायिक फसलों की ओर मोड़ना चाहिए, जिन्हें इन मिनी बाजारों में अपना स्थान खोजने के लिए आगे संसाधित किया जा सकता है।
  3. ग्रामीण क्षेत्रों में मिनी बाजार भी रोजगार सृजन का एक बड़ा स्रोत हो सकता है। मिनी बाजार दो तरह से रोजगार को बढ़ावा देते है:

(i) सुपर मार्केट या फूड मार्ट में सुपरवाइजर, हेल्पर्स, कैशियर, स्टोर कीपर आदि के रूप में रोजगार पैदा करके। (ii) ग्रामीण क्षेत्रों में खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में रोजगार को बढ़ावा देकर।

जिन किसानों को खेत में काम नहीं मिल रहा है, उन्हें इस रोजगार सृजन के माध्यम से मिनी-मार्केट में शामिल किया जा सकता है।

  1. फसल विविधीकरण के साथ-साथ ग्रामीण भारत में बाजारों को आकर्षित करने के लिए ग्रामीण विविधीकरण की भी आवश्यकता है। इसलिए, भारत को मिनी बाजारों में इस तरह के निवेश को आकर्षित करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाओं जैसे परिवहन, सड़क, बिजली आपूर्ति आदि के विकास में निवेश करने का प्रयास करना चाहिए। प्रचुर मात्रा में श्रम और आसानी से उपलब्ध कच्चे माल के साथ ढांचागत सुविधाओं का विकास ग्रामीण भारत में मिनी बाजारों की स्थापना को प्रोत्साहित करता है।

 

  1. मल्टीनेशनल सप्लाई चैन(Multinational Supply Chain)

 

  1. बहुराष्ट्रीय आपूर्ति श्रृंखलाएं राज्यों और अन्य देशों के बीच उत्पादों और सूचनाओं के प्रवाह से संबंधित होतेहैं। जहाँउत्पादों की खरीद, परिवर्तन और वितरण सेहोता है। उत्पाद मूल्य जोड़ने के अलावा, बेहतर नौकरियों और उच्च मजदूरी का समर्थन करना भी इन श्रृंखलाओं के प्राथमिक नीतिगत उद्देश्य हैं। भारत कमोबेश कई बहुराष्ट्रीय आपूर्ति श्रृंखलाओं में शामिल है लेकिन यहाँ आपूर्ति श्रृंखलाओं में योगदान करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों की क्षमता की अनदेखी की गईहै। आजकिसानों को बाजारों से जोड़ने के माध्यम से बेहतर समन्वय, संचार और सहयोग के माध्यम से ग्रामीण आपूर्ति श्रृंखला को मजबूत करने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय स्तर पर, सरकारों, दाताओं और गैर सरकारी संगठनों को बाजार की जानकारी के आदान-प्रदान और बेहतर सहयोग की सुविधा के लिए “बाजार से समन्धित समन्वय तंत्र” स्थापित करना चाहिए।
  2. आपूर्ति श्रृंखला की सफलता का वास्तविक माप यह है कि आपूर्ति श्रृंखला में हर लिंक की लाभप्रदता को बढ़ाते हुए, उपभोक्ताओं के लिए मूल्य बनाने के लिए ई आपूर्ति श्रृंखला में कितनी अच्छी तरह से गतिविधियां समन्वयित होती हैं। हालांकि, भारत में विभिन्न कृषि वस्तुओं की आपूर्ति श्रृंखला कृषि क्षेत्र की अंतर्निहित समस्याओं से उत्पन्न चुनौतियों से भरी हुई है। देश की कृषि आपूर्ति श्रृंखला प्रणाली विभिन्न बड़ेमुद्दों से निर्धारित होती है जैसे 1. छोटे / सीमांत किसानों का प्रभुत्व 2. खंडित आपूर्ति श्रृंखला 3. पैमाने की अर्थव्यवस्थाओं का अभाव 4. प्रसंस्करण / मूल्यवर्धन का निम्न स्तर 4. विपणन मेंबुनियादी ढांचे की अपर्याप्तता आदि, जिसपर ध्यान देनेकी आवश्यकता है।
  3. कोल्ड स्टोरेज, कूलर, वेयरहाउस, रेफ्रिजेरेटेड ट्रक, कैरियर, शॉपिंग मॉल, क्षेत्रों के बीच कृषि उपज के परिवहन को आसान बनाने, फूड पार्कों की स्थापना को बढ़ावा देने, जिसमें एकीकृत खाद्य प्रसंस्करण और हैंडलिंग जैसीसुविधाएं, बहुराष्ट्रीय आपूर्ति श्रृंखला में प्रत्येक चरण में उत्पादन के साथ-साथ रोजगार को बढ़ावा देनें में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं।
  4. श्रृंखला बाधाओं को दूर करने के लिए एक “श्रृंखला दृष्टिकोण” अपनानेकी आवश्यकता है।गैर सरकारी संगठनों और इसप्रकार के अन्य समूहोंजो किसानों की मदद करना चाहते हैं, उन्हें किसानों और विपणन प्रणाली दोनों के सामने आने वाली श्रृंखला बाधाओं की पहचान करने और उन्हें हल करने के तरीकों पर सलाह देने में सक्षम होने की आवश्यकता है। इस तरह के बाधाओं में अपर्याप्त नीति, खराब बुनियादी ढांचा, अपर्याप्त पूंजी और नौकरशाही समस्याएं शामिल होती हैं।
  5. सरकार के साथ कृषि व्यवसाय विकास का समर्थनकरने वाले उपयुक्त संस्थानों का विकास करना एक बेहद ज़रूरी कदम है। एक “कृषि व्यवसाय प्रोत्साहन संगठन” के माध्यम से समर्थन सेवाओं का समन्वय वांछनीय तरीके से किया जा सकता है। जिन क्षेत्रों को संबोधित किया जाना चाहिए उनमें बाजार की जानकारी, कृषि विस्तार, निर्यात गुणवत्ता प्रमाणन, अन्य गुणवत्ता नियंत्रण उपाय, कृषि अनुसंधान सहायता, कृषि प्रबंधन और कृषि व्यवसाय प्रशिक्षण शामिल हैं।

 

  1. मध्यम और बड़े उद्योग (Medium and Large Industries)

 

  1. कृषि क्षेत्र में रोजगार पैदा करने के अलावा, किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए अपने विनिर्माण क्षेत्र में सुधार करना भी बहुत महत्वपूर्ण होता है जो आम तौर पर कृषि क्षेत्र के अर्ध और अकुशल श्रम का नियोक्ता होता है। हालांकि, भारतीय विनिर्माण क्षेत्र के बड़े प्रतिष्ठानों की विशेषता यह है कि ये एक तरफ तो अत्यधिक पूंजी का निवेश करते हैं वही दूसरी तरफ रोज़गार का सृजन बहुत कम मात्रा में करते है। उद्योगों के संचालन के लिए उत्पादन की पूंजी गहन तथा परिष्कृत कौशल और शैक्षिक योग्यता की आवश्यकता होती है। यह क्षेत्र आज पूंजी गहन परिष्कृत प्रौद्योगिकी की कमी, उच्च रोजगार की कमी आदि से जूझ रहा हैं। यही कारण है कि भारतीय विनिर्माण क्षेत्र में आज एक मजबूत आधार का निर्माण नहीं हुआ है। जिसमें रोज़गार पैदा करने के साथ-साथ श्रम गहन तकनीकों का उपयोग करने की क्षमता हो सकती थी। एक मजबूत मध्यम और बड़े आकार का उद्योग भारतीय कृषि क्षेत्र से अधिशेष श्रम को सीधे कम वेतन वाले सेवा क्षेत्र या निर्माण उद्योग में स्थानांतरित किए बिना विनिर्माण क्षेत्र में अपना रोजगार बढ़ाने में मदद करेगा।

 

क्लस्टरिंग और सहकारिता

  1. भारत में MSME की संभावित भूमिका अक्सर उसके आकार से जुड़े नुकसान, संसाधनों को प्राप्त करने, उत्पादकता में सुधार, बड़े पैमाने की अर्थव्यवस्थाओं को प्राप्त करने और नए बाजार के अवसरों तक पहुंचने के लिए प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त हासिल करने में संबंधित कठिनाइयों के कारण पूरी नहीं होती है। “क्लस्टरिंग” और “सहकारिता” MSME के बीच इस आकार के नुकसान को कम करते हैं और साथ ही इसमें शामिल श्रमिकों को उच्च आय के अवसर भी प्रदान करते हैं। क्लस्टरिंग संबंधित उद्योगों को एक- दूसरे के साथ जोड़ने में मदद करता है। व्यक्तिगत फर्म और क्लस्टर की “सामूहिक दक्षता” बढ़ाने में सहायक हो सकता है। क्लस्टरिंग प्रतिस्पर्धात्मक नुकसान से निपटने का एक साधन है जो छोटी फर्मों को एक साथ जोड़ती है और बड़ी फर्मों से प्रतिस्पर्धा करने की क्षमता रखते हैं। MSME प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता में सुधार करने में और सस्ते आयात के बीच इन उद्यमों को बाज़ार खोजने में मदद करता है। दूसरी ओर “सहकारिता” फर्म या फर्मों का एक समूह है, जो उनके सदस्यों के स्वामित्व में है, और उत्पादन वितरण व खपत में शामिल होता है। समूहों के विपरीत, सहकारी समितियाँ स्वामित्व संरचनाएँ होती हैं। सहकारी समितियों की एक सामान्य विशेषता होती है समूहों के साथ साझा करना। सहकारिताएँ लोगों को एक बड़ा उद्यम बनाने के लिए थोड़ी मात्रा में नकदी के साथ अपने श्रम को जमा करने में सुविधा प्रदान करती हैं जिससे उन्हें लाभ और वापसी प्राप्त होती है। ऐसी परिस्थितियों में सदस्यों के लाभ और रोजगार योग्यता में साथ-साथ वृद्धि होती है।

 

  1. भारत एक श्रम बाहुल अर्थव्यवस्था है और उत्पादन के श्रम गहन साधनों में तुलनात्मक लाभ प्राप्त करता है। इसलिए, भारत को अपने ऐसे तकनीकी उद्योगों का दोहन करने का प्रयास करना चाहिए जो उच्च तकनीक वाले उद्योगों की तुलना में अधिक श्रम बहुल हैं। आज बड़ी अर्थव्यवस्थाओं वाले देश उच्च तकनीक उद्योगों जैसे ऑटोमोबाइल, विमानन, जैव-प्रौद्योगिकी, इलेक्ट्रॉनिक्स, आईटी, वेलनेस आदि वस्तुओं की वैश्विक मांग को पूरा कर रहे हैं। भारत को उच्च तकनीकी उद्योगों में वैश्विक नेता बनने की कोशिश करने से पहले अभी श्रम बहुल लघु तकनीकी उद्योगों में अपने तुलनात्मक लाभ पर ध्यान देना चाहिए। लघु तकनीकी उद्योगों को न्यूनतम मात्रा में प्रौद्योगिकी, पूंजी और मशीनरी के साथ न्यूनतम कौशल वाले श्रम की भी आवश्यकता होती है। इसलिए इन उद्योगों में अकुशल और अर्ध-कुशल श्रम को अवशोषित करने की अपार संभावनाएं होती हैं। दूसरी ओर उच्च तकनीक वाले उद्योग परिष्कृत मशीनरी और प्रौद्योगिकी के उपयोग के कारण अकुशल या अर्ध-कुशल श्रम को अवशोषित नहीं करते हैं। केंद्र सरकार की मेक इन इंडिया पहल में ऐसे लघु तकनीक उद्योगों को शामिल करने से ऐसे लघु उद्योगों के निवेश, रोजगार सृजन क्षमता और टर्नओवर में सुधार होगा।

 

ग्रामीण विविधीकरण

  1. भारतीय लघु तकनीकी उद्योगों को भारी मात्रा में श्रम और कच्चे माल की आवश्यकता होती है। इन आवश्यकताओं को भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में अधिशेष श्रम और सस्ते कच्चे माल से पूरा किया जा सकता है। वर्तमान में कृषि योग्य भूमि पर लगातार बढ़ते दबाव के साथ, ग्रामीण क्षेत्रों में अतिरिक्त श्रम को अवशोषित करने के लिए कृषि रोजगार की क्षमता लगभग खत्म हो चुकी है। इस समय सरकार को गैर-कृषि क्षेत्र में वैकल्पिक रोजगार के अवसर पैदा करने पर विचार करना चाहिए। इसलिए यह उन विनिर्माण उद्योगों के लिए महत्वपूर्ण है जो कृषि से अधिशेष श्रम को ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित करने में सक्षम हैं।

 

  1. एक सच यह भी है कि उद्योग ऐसे ग्रामीण क्षेत्रों में आसानी से निवेश नहीं करते हैं जहां बुनियादी सुविधाओं का अच्छी तरह से विकास नहीं होता है। इसलिए निवेशकों को आकर्षित करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाओं जैसे – परिवहन, सड़क, बिजली आपूर्ति आदि के विकास में निवेश करने की ज़रूरत प्रयास करना चाहिए। सस्ते श्रम और आसानी से उपलब्ध कच्चे माल के साथ बुनियादी सुविधाओं का विकास ग्रामीण क्षेत्रों में कम तकनीक वाले उद्योगों की स्थापना को प्रोत्साहित करता है। इस घटना को ग्रामीण विविधीकरण कहा जाता है, जो कि ग्रामीण आबादी का पारंपरिक कृषि गतिविधियों से गैर-कृषि गतिविधियों में स्थानांतरण है, जिससे कृषि योग्य भूमि पर बोझ कम हो जाता है।
  2. ग्रामीण विविधीकरण और ग्रामीण औद्योगीकरण ने रोजगार के मामले में भारत के दो प्रमुख मुद्दों का समाधान किया है: (i) भारतीय कृषि में प्रच्छन्न बेरोजगारी को कम करना और (ii) उद्योगों को सस्ते श्रम और कच्चे माल की उचित कीमत पर पहुंच प्रदानकरना। चीन, उच्च तकनीकी उद्योगों में विश्व में अग्रणी होने के नाते, अर्थव्यवस्था के रोजगार और विकास में योगदान करने के लिए अपने निम्न तकनीकी उद्योगों को चीन के गरीब ग्रामीण पश्चिमी हिस्सों में स्थानांतरित करने के लिए इसी तरह की रणनीति का पालन किया है।

 

कार्य साझा करने वाले उपकरण

  1. सरकार काम के घंटों को कम करने के लिए काम साझा करने के साधन प्रस्तुत कर सकती है ताकि काम की मात्रा को समान अनुपात में श्रमिकों के बीच साझा किया जा सके। यह रणनीति “छंटनी से बचने” और “नए रोजगार के अवसर पैदा करने” दोनों में मददगार हो सकती है। यह तरीका आर्थिक संकट के समय विशेष रूप से प्रासंगिक होता है जो व्यवसायों को (1). अपने कर्मचारियों को बनाए रखने और श्रमिकों को फिर से काम पर रखने और निकालने के लिए आवश्यक अतिरिक्त लागत को बचाने में मदद करता है (2). छंटनी का डर न होने पर कर्मचारियों का मनोबल ऊंचा भी रहता है।
  2. यदि संकट की स्थिति के कारण प्रभावित श्रमिकों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रमों के साथ काम किया जाए, तो इसमें शामिल दोनों पक्षों के लिए कार्य साझा करने के साधनों का दीर्घकालिक लाभ हो सकता है। कुछ बेहतरीन प्रणालियाँ वे हैं जहाँ सरकार द्वारा सब्सिडी और प्रशिक्षण प्रावधानों के रूप में निर्णयों का समर्थन किया जा सकता है। आर्थिक कमी और प्रशिक्षण की कमी का सामना कर रहे श्रमिकों को वित्तीय सहायता की व्यवस्था बनाई जा सकती है
  3. कर्मचारियों के लिए काम के घंटों में कटौती, कुल वेतन में एक समान कमी, अस्थायी कटौती का सामना कर रहे श्रमिकों के लिए कार्य साझा करने की नीतियों के प्रमुख तत्वों में अतिरिक्त वेतन पूरक, कार्य साझा करने की अवधि पर निर्णय लेना शामिल है क्योंकि यह एक अस्थायी है आर्थिक संकट की प्रतिक्रिया और कार्य-साझाकरण कार्यक्रम और प्रशिक्षण गतिविधियों को जोड़ना और इसे सफल बनाने के लिए सरकार द्वारा प्रायोजित कार्य-साझाकरण कार्यक्रमों का और कार्यान्वयन श्रमिकों और नियोक्ताओं दोनों को लाभान्वित करते हैं।

 

  1. न्यूनतम आर्थिक और रोज़गार सहयोग

(Minimum Economic and Job Support)

 

  1. रोजगार प्रदान करने के अलावा, सरकार को एक परिष्कृत सामाजिक सुरक्षा नीति भी पेश करनी चाहिए जहां बेरोजगारों को और उनके परिवारों को समर्थन देने के लिए न्यूनतम आर्थिक गारंटी भी प्राप्त हो। ये भी ध्यान रहे कि, ऐसी योजनाओं को बेरोजगारों को बेकार रहने के लिए प्रोत्साहित करने के बजाय रोजगार खोजने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
  2. भारत सरकार ने राजीव गांधी श्रमिक कल्याण योजना (RGSKY) को एक बेरोजगारी बीमा योजना के रूप में पेश किया है, जिसमे लोगों को बेरोजगारी लाभ प्रदान किया जाता है जो पहले से ही बीमा में शामिल हैं। इस योजना के तहत सभी श्रमिकों का बीमा होना चाहिए, जिसमें कम से कम एक निर्दिष्ट अवधि के लिए उनकी आय का एक निश्चित अनुपात का भुगतान किया जाए, हड़ताल के कारण नौकरी खोना, स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति, अनुशासनहीनता के कारण बर्खास्तगी जैसी परिस्थितियों में यह बीमा उनके लिए मददगार होगा। इस योजना में श्रमिकों कि शक्ति सीमित होने के कारण 2007-2017 के बीच केवल 10,728 दावों को ही कवरेज मिल पाया। इसलिए हमें प्रयास करना चाहिए कि एक समान बेरोजगारी बीमा योजना पर  हर कामगार को  राज्य द्वारा न्यूनतम आर्थिक सहायता का बीमा किया जाए।
  3. सरकार को श्रमिकों और नियोक्ताओं को सहकारी संगठन बनाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए जहां मंदी होने पर उपयोग के लिए एक फंड बनाया जाता है। नियोक्ता और कर्मचारी दोनों अपनी निश्चित क्षमता के साथ फंड में योगदान करते हैं और जब मंदी के कारण छंटनी होती है, तो इस फंड का इस्तेमाल बेरोजगारों की जरूरतों को पूरा करने के लिए किया जा सकता है। यह समूह वित्त पोषण सरकार पर कराधान के माध्यम से एक अलग कोष बनाने के दबाव को कम करता है।
  4. सरकार एक राष्ट्रव्यापी बेरोजगारी कोष भी बना सकती है जिसमें विभिन्न राज्य अपनी क्षमता के आधार पर योगदान कर सकते हैं। इन निधियों का उपयोग उन राज्यों में बेरोजगारी के मुद्दों को हल करने के लिए किया जा सकता है जो मंदी के परिणामस्वरूप गंभीर बेरोजगारी की चिंताओं का सामना करते हैं। यह विभिन्न प्रकार की बाधाओं के अधीन अनुदानों के आधार पर वित्तीय पुनर्वितरण की एक प्रणाली होगी: जिसमें आर्थिक क्षमता बढ़ाने के उद्देश्य से विशिष्ट शर्तें; क्षेत्रों की सापेक्ष चक्रीय और संरचनात्मक आर्थिक स्थितियों से जुड़े आर्थिक मानदंड शामिल होंगे।
  5. सरकार को ऐसी नीतियां भी लागू करनी चाहिए जो सार्वभौमिक रूप से विनिर्माण और सेवा उद्योगों के अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत श्रमिकों की जरूरतों को पूरा करती हों। बहुत कम अनौपचारिक श्रमिकों के पास लिखित नौकरी का अनुबंध होता है। सामाजिक सुरक्षा प्रावधानों के संदर्भ में भी, कुल अनौपचारिक कार्यबल का केवल एक-चौथाई हिस्सा भविष्य निधि (पीएफ), पेंशन, ग्रेच्युटी, स्वास्थ्य लाभ और मातृत्व लाभ का लाभ ले पाते हैं। यहां तक कि अगर श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा लाभों की सूची प्रदान की जाती है, तो वे व्यापक रूप से उस राज्य तक ही सीमित होते हैं, जिससे वे संबंधित होते हैं। इस प्रावधान से वे श्रमिक खासतौर पर प्रभावित होते हैं जो नौकरियों के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं। इसलिए, वेतन, उद्यम के आकार और मूल स्थान के बावजूद सभी श्रमिकों के लिए न्यूनतम सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करना भारत में समय की मांग है।
  6. अनौपचारिक श्रमिकों चाहे वे किसी भी क्षेत्र से संबंधित हों को न्यूनतम आर्थिक सहायता सुनिश्चित करने के लिए एक मजबूत निगरानी, प्रवर्तन तंत्र औरसामान्य डेटाबेस विकसित करना, एक सहायक नीति हस्तक्षेप के रूप में कार्य करेगी।
  7. एक व्यक्तिगत आयकर नीति भी लागू की जाए, जहां सरकार उन व्यक्तियों को वापस भुगतान करेगी, जो एक निश्चित आय स्तर से नीचे आते हैं। इसके लिए, सरकार को एक आय कट-ऑफ निर्धारित करनी चाहिए, जिसे वह न्यूनतम आय मानती है, और जो कोई भी इस कटऑफ से कम आय प्राप्त कर रहा है, उसे न्यूनतम आय और न्यूनतम आय के बीच के अंतर के प्रतिशत के बराबर राशि प्राप्त होगी। व्यक्ति की आय। उदाहरण के लिए यदि सरकार 10,000 प्रति माह कट ऑफ रुपये तय करती है जिसमें आयकर दर 50% है। एक व्यक्ति जो 5,000 रुपये की आय प्राप्त कर रहा है। 5,000 को 50% अंतर मिलेगा।
  8. सरकार को सक्रिय श्रम बाजार (एएलएमपी) की नीति लागू करनी चाहिए: जिसमें मुख्य तौर पर “नौकरी तलाशने वालों को प्रत्यक्ष नौकरी-खोज सहायता या सूचना प्रावधान के माध्यम से वर्तमान रिक्तियों के साथ मिलान करना”, “वर्तमान नौकरी चाहने वालों के कौशल का उन्नयन और अनुकूलन करना ताकि उनकी रोजगार क्षमता में सुधार हो सके। “, “व्यक्तियों या फर्मों को कुछ निश्चित करने के लिए प्रोत्साहन प्रदान करना नौकरियों या श्रमिकों की कुछ श्रेणियों को किराए पर लेना”, और “सार्वजनिक क्षेत्र के रोजगार के रूप में या निजी क्षेत्र के काम के लिए सब्सिडी के प्रावधान के रूप में रोजगार पैदा करना” शामिल होगा।
  9. भारत को सक्रिय और निष्क्रिय दोनों तरह के श्रम बाजार हस्तक्षेपों को लागू करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए: जिसमें पूरक तरीके से, नौकरियों के सृजन को सुनिश्चित करने के साथ-साथ बेरोजगारों को न्यूनतम वित्तीय सहायता प्रदान करना शामिल होता है। कभी-कभी केवल सक्रिय घटक पर निर्भर रहने से कमआय वाले व्यक्तियों और बेरोजगारों के लिए उचित समाधान उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। इसलिए सिर्फअलगसे आय सहायता प्रदान करने से भी बेहतर रोजगार या सामाजिक स्थिति नहीं बनाई जा सकती है।
  10. बेरोजगारी लाभ प्राप्त करने वालों को उनके व्यावसायिक प्रोफाइल, उनकी जानकारी और श्रम बाजार की आवश्यकताओं के संबंध में परामर्श तथा प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों तक उनकी पहुंच प्रदान करने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम स्थापित किए जाने चाहिए। इस कार्यक्रम में रोजगार के बेहतर अवसर खोजने के लिए कौशल निर्माण करने के इच्छुक नियोजित व्यक्ति भी शामिल हो सकते हैं।
  11. लोक कार्य कार्यक्रमों में अकुशल और अर्धकुशल श्रम को शक्ति करने की अपार संभावनाएं हैं। भारत में ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में बढ़ती बेरोजगारी को कम करने के लिए ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में सार्वजनिक कार्यक्रम शुरू करना चाहिए। इन कार्यक्रमों का उद्देश्य देश के निम्न-आय वाले क्षेत्रों में निर्माण और “सार्वजनिक आधारभूत संरचना क्षेत्रों” में कम कुशल व्यक्तियों के लिए अस्थायी नौकरियां बनाना होगा। ऐसे कार्यक्रमों के लिए पात्रता आवश्यकताओं की कड़ाई से पहचान नहीं की जानी चाहिए: जिन व्यक्तियों को रोजगार की सख्त जरूरत है, वे केवल 18 वर्ष से अधिक आयु हों, और उन्हें किसी भी शैक्षिक कार्यक्रम में नामांकित नहीं किया जाना चाहिए। इसके अलावा उन्हें शैक्षणिक योग्यता की जरूरत नहीं होनी चाहिए।
  12. बाढ़ जैसी आपदाओं से ग्रस्त ग्रामीण क्षेत्रों में सरकार द्वारा सामाजिक सुरक्षा और गरीबी में कमी लाने के उद्देश्य से आजीविका कार्यक्रम शुरू किए जा सकते हैं; मौसमी खाद्य असुरक्षा; सूखा। कार्यक्रम का लक्षित समूह अत्यंत गरीब परिवार हो सकता है। ये कार्यक्रम सार्वजनिक कार्यों, संपत्ति हस्तांतरण (नकद / वस्तु के रूप में), आजीविका से संबंधित प्रशिक्षण, बाजार विकास और सामाजिक विकास गतिविधियों के संयोजन का उपयोग कर सकते हैं।
  13. गरीबी को कम करने हेतु स्कूल में उपस्थिति, स्वास्थ्य और पोषण से जुड़े सामाजिक विकास लक्ष्यों तक पहुंचने के उद्देश्य से सशर्त आय-हस्तांतरण कार्यक्रम स्थापित किए जा सकते हैं। वित्तीय सहायता इस शर्त पर प्रदान की जानी चाहिए कि लाभार्थी अपने बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा से संबंधित कुछ आवश्यकताओं को पूरा करते हों। इसके अलावा, ये स्थानान्तरण। सबसे गरीब परिवारों की आय की रक्षा करना में दोहरी भूमिका निभाते हैं।ये एक ओर अधिक खपत को प्रोत्साहित करेंगे तथा दूसरी ओर आर्थिक कठिनाइयों के कारण बच्चों के स्कूल छोड़ने की बढ़ती दर को रोका जा सकता है। गरीबी को कम करने के अलावा, इसका उद्देश्य आने वाली पीढ़ियों के कौशल में सुधार करना भी है। इसके तहत निर्माण क्षेत्र में काम करने के लिए लोगों को प्रशिक्षण दिया जा सकता है, सार्वजनिक बुनियादी ढांचे में सरकारी निवेश उन क्षेत्रों में किया जा सकता है जिसमें कार्यरत महिलाओं की संख्या बढ़ाने के प्रयास में महिला लाभार्थियों को शामिल करने का लक्ष्य रखा गया है। इसी तरह, लोगों को पर्यटन क्षेत्र में रोजगार के अवसरों के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। परिवारों का पता लगाने और उनकी प्रोफ़ाइल से मेल खाने वाली सार्वजनिक सेवाओं की आपूर्ति की अनुमति देने के लिए एक एकीकृत रिकॉर्ड बनाया जा सकता है।
  14. श्रम बाजार सेवाओं जैसे कि एक विकेन्द्रीकृत प्रणाली का उद्देश्य बेहतर नौकरी मिलान (जैसे रिक्तियों की स्क्रीनिंग, सीवी तैयारी) को बढ़ावा देकर श्रम बाजार की दक्षता में सुधार करना है। इस सेवा के अलावा, कार्यक्रम को उद्यमी और नौकरी चाहने वालों को एक विशेष श्रम बाजार में मांग में कौशल और व्यवसायों से संबंधित जानकारी प्रदान करनी चाहिए। कार्यक्रम परामर्श गतिविधियों के माध्यम से नौकरी चाहने वालों को नौकरी खोजने में सहायता की जा सकती है। यह कार्यक्रम नियोक्ताओं और बेरोजगार व्यक्तियों के लिए लक्षित है, जो निम्न-शैक्षिक योग्यता वाले व्यक्तियों को विशेष प्राथमिकता देते हैं। कार्यक्रम को श्रम मंत्रालय द्वारा केंद्रीय रूप से प्रशासित करने की आवश्यकता है, लेकिन इसके कार्यान्वयन के लिए स्थानीय अधिकारियों और गैर-सरकारी संगठनों पर भी भरोसा किया जा सकता है।

 

श्रम प्रवास नीतियां

 

  1. श्रम प्रवास पर एक अलग नीति तैयार की जानी चाहिए जिसका उद्देश्य नौकरी की तलाश में पलायन करने वालों के लिए शहरी क्षेत्रों में सुरक्षित और अच्छा रोजगार प्रदान करना होगा।

 

  1. प्रवासी और अनौपचारिक श्रमिकों को कौशल प्रशिक्षण प्रदान करके उन्हें विभिन्न सामाजिक सुरक्षा लाभों के लिए पात्र बनाकर रोजगार में सहायता के लिए एक राष्ट्रव्यापी श्रम डेटाबेस (सूचना प्रणाली) विकसित किया जाना चाहिए।

 

  1. सम्मानजनक जीवन के लिए न्यूनतम वेतन संशोधन

(Minimum Wage Revision for Respectful Life)

 

  1. भारत सरकार को एक वेतन निर्धारण संस्थान स्थापित करना चाहिए जो काम करने वाले श्रमिकों को गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए सक्षम बनाए। इससे न सिर्फ श्रमिकों को काम करने की प्रेरणा मिलेगी बल्कि उत्पादकता बढ़ाने में भी मदद मिलेगी ।
  2. मजदूरी विधेयक, 2019 के अनुसार एक दिन में 178 रुपये का सार्वभौमिक न्यूनतम भुगतान अनिवार्य है जो कि 7वें केंद्रीय वेतन आयोग से बहुत कम है। वर्तमान में न्यूनतम वेतन इतना कम है कि सबसे बुनियादी जरूरतों को भी पूरा नहीं किया जा सकता है।इसीलिए इसे सातवें केंद्रीय वेतन आयोग की सिफारिश के अनुसार बढ़ाया जाना चाहिए।
  3. पूरे देश में न्यूनतम मजदूरी राज्यों द्वारा वर्ष 1957 में आयोजित 15वें भारतीय श्रम सम्मेलन द्वारा निर्धारित फार्मूले के आधार पर तय की जानी चाहिए। वर्ष -1991 में रेप्टाकोस के फैसले में माननीय उच्च न्यायलयद्वारादिए गए फैसले में छह महत्वपूर्ण घटक इस प्रकार हैं:

(i) न्यूनतम मजदूरी की गणना में, मानक मजदूर वर्ग के परिवार में एक कमाने वाले के लिए 3 खपत इकाइयां शामिल हैं।

(ii) न्यूनतम भोजन आवश्यकता की गणना 2731 किलो कैलोरी के शुद्ध सेवन के आधार पर की जानी चाहिए।

(iii) कपड़ों की आवश्यकताओं को प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 18 गज के रूप में लिया जाता है, जो चार के औसत सदस्य वाले परिवार के लिए कुल 72 गज होगा।

(iv) आवास के संबंध में, किराया न्यूनतम मजदूरी के 10% के रूप में लिया जाना चाहिए।

(v) ईंधन, प्रकाश और अन्य ‘विविध’ व्यय मदें कुल न्यूनतम मजदूरी का 20 प्रतिशत होनी चाहिए।”

(vi) बच्चों की शिक्षा, चिकित्सा आवश्यकता, त्योहारों/समारोहों सहित मनोरंजन और वृद्धावस्था, विवाह आदि के लिए कुल न्यूनतम मजदूरी का 25% होना चाहिए।”

भारत में बेरोजगारी की समस्या का मुख्य कारण क्या है?

बेरोजगारी का मुख्य कारण वृद्धि की धीमी गति है । रोजगार का आकार, प्रायः बहुत सीमा तक, विकास के स्तर पर निर्भर करता है । आयोजन काल के दौरान हमारे देश ने सभी क्षेत्रों में बहुत उन्नति की है । परन्तु वृद्धि की दर, लक्षित दर की तुलना में बहुत नीची है ।

बेरोजगारी की समस्या क्या है?

बेरोजगारी एक गंभीर समस्या है। शिक्षा की कमी, रोजगार के अवसरों की कमी, कौशल की कमी, प्रदर्शन संबंधी मुद्दे और बढ़ती आबादी सहित कई कारक भारत में इस समस्या को बढ़ाने में अपना योगदान देते हैं। व्यग्तिगत प्रभावों के साथ-साथ पूरे समाज पर इस समस्या के नकारात्मक नतीजे देखे जा सकते हैं।

बेरोजगारी का सबसे बड़ा कारण क्या है?

बेरोजगारी का मुख्य कारण जनसंख्या का तेजी से बढ़ना है। जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू कर और युवाओं को स्वरोजगार की और प्रेरित करने से बेरोजगारी पर कुछ हद तक नियंत्रण संभव है। आजकल युवा आधे से ज्यादा समय सोशल मीडिया पर फालतू की चीजों में बीता देते हैं, जबकि सोशल मीडिया भी एक बहुत बड़ा तंत्र है।

बेरोजगारी की समस्या पर निबंध कैसे लिखें?

बेरोजगारी की बढ़ती समस्या निरंतर हमारी प्रगति, शांति और स्थिरता के लिए चुनौती बन रही है । हमारे देश में बेरोजगारी के अनेक कारण हैं । अशिक्षित बेरोजगार के साथ शिक्षित बेरोजगारों की संख्या भी निरंतर बढ़ रही है । देश के 90% किसान अपूर्ण या अर्द्ध बेरोजगार हैं जिनके लिए वर्ष भर कार्य नहीं होता है ।