बेरोजगारी से तात्पर्य उस स्थिति से है जब प्रचलित मजदूरी की दर पर कार्य करने के इच्छुक लोग किसी भी प्रकार के रोजगार से वंचित रह जाते हैं। बेरोजगारी एक विश्वव्यापी समस्या है जो वर्तमान में न केवल अविकसित बल्कि विकसित राष्ट्रों की भी प्रमुख समस्या है। बेरोजगारी का प्रमुख कारण सामान्यतः जनसंख्या वृद्धि, अशिक्षा व पूंजी की कमी है जो वर्तमान के सभी युवा वर्गों में एक बहुत बड़ा निराशा का कारण बनी हुई है। Show Table of Contents
बेरोजगारी के प्रमुख कारण (Causes of Unemployment in hindi)जनसंख्या वृद्धि (जनसंख्या विस्फोट)वर्तमान में बेरोजगारी का प्रमुख कारण जनसंख्या वृद्धि है जिसे जनसंख्या विस्फोट के नाम से भी जाना जाता है। भारत में जनसंख्या वृद्धि के कारण बेरोजगारी को बहुत बढ़ावा मिला है वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश के लगभग 11% जनसंख्या बेरोजगार है जिन्हे रोजगार की आवश्यकता है। अतः यह कहा जा सकता है की जनसंख्या की अत्यधिक वृद्धि रोजगार के अवसरों की वृद्धि से कम है जिसके कारण बेरोजगारी उत्पन्न हो रही है। दोषपूर्ण शिक्षा प्रणालीकिसी भी देश की शिक्षा प्रणाली उस देश की सभी स्थितियों जैसे – सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पर अपना प्रभाव डालती है। बेरोजगारी की समस्या का एक प्रमुख कारण दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली है। दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली से आशय शिक्षा के अभाव यानी अशिक्षा से है जो किसी भी देश के युवाओं के लिए आवश्यक होती है। भारत की शिक्षा प्रणाली में केवल साधारण एवं साहित्यिक शिक्षा ही दी जाती है तथा जिनमें प्रायोगिक विषयवस्तु का अभाव पाया जाता है, एक अच्छी शिक्षा से वंचित रह जाने के कारण व्यक्ति एक अच्छा रोजगार हासिल नहीं कर पाता है। यही कारण है की भारत में बेरोजगारी जैसी समस्याएं उत्पन्न हो रहीं है। तीव्र उदारीकरणउदारीकरण भी बेरोजगारी का एक प्रमुख कारण रहा है इसके अंतर्गत नए-नए व बड़े-बड़े उद्योग धंधों की स्थापना की गई है। वर्ष 1991 में नई आर्थिक नीतियों को अपनाने के पश्चात भारतीय अर्थव्यवस्था में कई परिवर्तन हुए हैं। जिसके चलते उद्योग धंधों के कारण विदेशी मुद्रा भंडारों को तो बढ़ावा मिला है परन्तु इससे छोटे उद्योग धंधों को चलाने वाले मजदूरों को बेरोजगारी से संबंधित बहुत सी परेशानियों का सामना करना पड़ा है। निर्धनतानिर्धनता किसी भी व्यक्ति के बेरोजगार होना एक प्रमुख कारण है। भारत में निर्धनता के कारण लोगों को उचित संसाधन उपलब्ध नहीं हो पाते है। इसके अलावा निर्धन व्यक्ति एक अच्छी शिक्षा से भी वंचित रह जाता है जिससे वह एक अच्छा रोजगार प्राप्त नहीं कर पाता है और बेरोजगार रह जाता है। कृषि क्षेत्र का पिछड़ापनभारत एक कृषि प्रधान देश है जिसकी संपूर्ण जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। वर्तमान में जनसंख्या विस्फोट के कारण कृषि क्षेत्र काफी पिछड़ गया है क्योंकि कृषि के कार्यों की प्रकृति पछड़ी हुई है। कृषि की विधियों में तकनीकों के अभाव, संस्थागत सुधार जैसे – भूमि सुधार, चकबन्दी, भूमिधारिता की सीमा आदि के कारण बेरोजगारी बढ़ी है। इसके अलावा काश्तकारी सुधार, राजनीतिक एवं प्रशासनिक अदक्षता एवं किसानों के व्यवहार में असहयोग की भावना का होना भी बेरोजगारी का प्रमुख कारण है। कृषि के अच्छे अवसर प्राप्त न होने के कारण ग्रामीण इलाकों की बहुत सारी जनसंख्या का नगरों की ओर पलायन करने से नगरों में बेरोजगारी की समस्या को देखा गया है। मशीनीकरणमशीनीकरण से आशय कार्यों को पूरा करने के लिए मशीनों के उपयोग से है। पहले रोजगार के आधे से ज्यादा कार्य लोगों द्वारा पूरे किए जाते और बेरोजगार जैसी समस्या कम ही थी परन्तु वर्तमान में लगभग सभी कार्य मशीनों द्वारा ही किए जाते है अतः मशीनीकरण से कई लोगों का रोजगार छिन जाने के कारण देश में बेरोजगारी की समस्या में वृद्धि होने लगी है। तृतीयक क्षेत्रों की धीमी गतितृतीयक क्षेत्रों के अंतर्गत वाणिज्य, यातायात, व्यापार आदि क्षेत्रों को सम्मिलित किया जाता है। अर्थात भारत में इन सभी तृतीयक क्षेत्रों का विस्तार सीमित होने के कारण यहाँ नए और उत्तम श्रम का अभाव रहता है। जिसके प्रमुख कारण यह है की इंजीनियरों, प्रौद्योगिक रूप में प्रशिक्षित व्यक्तियों, डॉक्टरों और अन्य सभी तकनीशियनों में बेरोजगारी उत्पन्न हो गई है। नए रोजगारों की अपर्याप्तताकई तकनीकी समस्याओं के कारण और बढ़ती जनसंख्या के कारण रोजगार के अवसर नहीं बढ़ पा रहे है। अतः जनसंख्या को पर्याप्त रूप से रोजगार उपलब्ध न होने का प्रमुख कारण रोजगार के अवसरों में वृद्धि न होना है। इन सभी प्रमुख कारणों के अलावा क्षेत्रीय असमानताएं, दोषपूर्ण सामाजिक प्रणालियाँ और फुटकर के कारण भी किसी भी देश में व्याप्त बेरोजगारी की समस्या का प्रमुख कारण है। अतः बेरोजगारी आधुनिक समय की एक बहुत ही गंभीर और बड़ी समस्या है जिसके निवारण के लिए कृषि निर्माण, जनसंख्या नियंत्रण, शिक्षा प्रणाली में सुधार, तृतीयक क्षेत्रों के विकास, लघु एवं कुटीर उद्योगों का विस्तार, विभिन्न तकनीकों को बनाना आदि में सुधार करना आवश्यक है। भारत दुनिया की सफल अर्थव्यवस्थाओं में से एक रहा है जिसने आर्थिक सुधार की अवधि के बाद आर्थिक विकास में (जीडीपी के संदर्भ में) एक प्रभावशाली बढ़त हासिल किया है। हालांकि, भारत के सामने सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण चुनौतियों में से एक, बेरोजगारी में निरंतर वृद्धि हो रही है। बेरोजगारी दर के, दहाई अंक को छूने के कारण यह माना जाता है कि आर्थिक विकास, भारत में लोगों के लिए पर्याप्त रोजगार का अवसर मुहैया कराने में सफल नहीं हुआ। जबकि तेज़ी से बढती भारत की जीडीपी, जिसे अर्थव्यवस्था के लिए एक वरदान के रूप में देखा गया, से एक बेहतर रोजगार सृजन की उम्मीद की गई थी। वर्तमान स्थिति, अर्थव्यवस्था के औपचारिक क्षेत्र में रोजगार की संख्या में धीमी वृद्धि और अनौपचारिक क्षेत्र में श्रम बल की भागीदारी की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि से और भी जटिल हो गयी है। आधिकारिक अनुमानों के अनुसार लगभग 92% श्रम बल अनौपचारिक क्षेत्र का हिस्सा है जहाँ श्रमिकों की नौकरी की स्थिति अनिश्चितता लिए हुए है। आर्थिक नीतियां आम तौर पर रोजगार सृजन को एक गौड़ लक्ष्य के रूप में देखती हैं, वहीं मुख्य लक्ष्य के रूप में आय सृजन, आर्थिक विकास आदि पर ध्यान दिया जाता है। बेरोजगारी की समस्या को देखते हुए आज रोजगार सृजन के लिएएक अलग नीति निर्देशित करने की आवश्यकता है। यद्यपि राजकोषीय और मौद्रिक नीतियां, रोजगार को दीर्घकालिक लक्ष्य मानती हैं, लेकिन एक अलग से बनी राष्ट्रीय रोजगार नीति रोजगार को लेकर अधिक केंद्रित होगी साथ ही इससे सम्बद्ध कार्यपालिका को भी रोजगार से संबंधित विशिष्ट लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद मिलेगी। किसी भी देश का राष्ट्रीय रोजगार नीति एक विजन डॉक्यूमेंट होता है जो वहां के रोजगार लक्ष्यों की मांग और आपूर्ति दोनों पहलुओं से जुड़ा होता है। यह नीति दस्तावेज आपूर्ति पक्ष पर संचालन के साथ-साथ अर्थव्यवस्था में श्रम की मांग को बढ़ाने की दिशा में काम करता है (आईएलओ, 2015)। मांग-पक्ष उपायों का उद्देश्य व्यापक आर्थिक नीति, क्षेत्र विशिष्ट नीति, मौद्रिक नीति और राजकोषीय नीति के माध्यम से नौकरियों का सृजन करना होता है, जो आर्थिक विकास के सुधार की दिशा में काम करते हैं जिससे अर्थव्यवस्था के भीतर श्रम की मांग बढ़ती है। दूसरी ओर आपूर्ति पक्ष उपायों का उद्देश्य कौशल, व्यावसायिक प्रशिक्षण, शिक्षा आदि की दिशा में काम करके श्रम आपूर्ति में सुधार करना होता है। ऐसी नीतियां श्रम बल की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए श्रम की मांग और आपूर्ति के बीच के असंतुलन को कम करने के लिए निर्देशित होती हैं। इस प्रकार, यह माना जाता है कि राष्ट्रीय रोजगार नीति (NEP) में मांग और आपूर्ति दोनों पक्षों को शामिल किया जाना चाहिए जो गुणवत्तापूर्ण रोजगार सृजन (ILO 2009,ILO 2012, ILO 2014) की दिशा में काम करें। भाग 2 : स्थितिपरक विश्लेषण भारत में श्रम बाजार और रोजगार की स्थिति जनसंख्या की रुपरेखा और उसकी गतिशीलता भारतजनसंख्या की दृष्टि से एक बहुत बड़ा राष्ट्र है। वर्तमान में इसकी जनसंख्या लगभग 1.34 बिलियन है। यहाँ जनसंख्या वृद्धि की दर लगभग 1.2% है। अगर भारत इसी दर के साथ जनसँख्या में वृद्धि करता रहा तो2030 तक 1.53 बिलियन की आबादी के साथ यह दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन जाएगा। भारत में कुल जनसंख्या का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा 25 वर्ष से कम आयु के लोगों का और लगभग 15 प्रतिशत हिस्सा55 वर्ष से अधिक आयु के लोगों का है (ब्लूम, 2011; UNDESA, 2017; चंद्रमौली, 2011)।
जनसांख्यिकीय विभाजन भारतीय जनसंख्या का एक महत्वपूर्ण पहलू जनसांख्यिकीय लाभांश है जिसके बारे में हाल के वर्षों में व्यापक रूप से चर्चा हुई है। जनसांख्यिकीय लाभांश किसी भी देश के जनसांख्यिकीय विकास में वह चरण होता है, जहां कामकाजी उम्र की जनसँख्या वृद्धि दर कुल जनसंख्या वृद्धि दर से अधिक होती है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के अनुसार, “जनसांख्यिकीय लाभांश, आर्थिक विकास की क्षमता का सूचक होता है जो जनसंख्या की आयु संरचना में बदलाव के परिणामस्वरूप पैदा होता है।मुख्यतः यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब कुल जनसँख्या में कामकाजी उम्र की आबादी (15 से 64) का हिस्सा, गैर-कामकाजी उम्र की आबादी (14 और उससे कम, और 65 और उससे अधिक) से बड़ा होता है । इसप्रकारआने वाले वर्षों में भारत की जनसँख्या का सबसे बड़ा वर्ग कामकाजी आयु वर्ग का होगा जबकि आश्रितों (ग़ैर कामकाजी) की संख्या बहुत कम हो जाएगी । यह भारत के लिए अधिक आय, अधिक बचतऔर अधिक विकास की स्थिति पैदा करने का एक महत्वपूर्ण अवसर साबित हो सकता है। परिणामस्वरूप, आने वाले कुछ वर्षों में निर्भरता अनुपात कम होता जाएगा और काम करने योग्य उम्र की आबादी में वृद्धि होगी। दिये गए आँकड़ें से यह स्पष्ट है कि कैसे लगभग 2040 तक भारत की जनसँख्या घटेगीऔर इसके बाद यह फिर से बढ़ेगी। यह भारत के लिए उच्च विकास और समृद्धि हासिल करने का सबसे बड़ा अवसर है। हालाँकि, इस जनसांख्यिकीय लाभांश का लाभ तभी प्राप्त होगा जब भारत इस अतिरिक्त श्रम शक्ति को लाभकारी रोजगार प्रदान करने में सक्षम होगा। यह केवल तभी संभव है जब कामकाजी आबादी में सभी को लाभकारी नौकरियां मिलती हैं, जिससे अंततः अधिक आय और समृद्धि पैदा होगी (यूएनडीईएसए, 2017; रेजी, 2019; ब्लूम, 2011; सिंह, 2016) (चित्र 1)।
चित्र: 1. भारत का गिरता निर्भरता अनुपात और जनसांख्यिकीय लाभांश स्रोत: विश्व बैंक; भगत और यूनिसा 2006 भारत में रोजगार- बेरोजगारी की सामान्य की स्थिति भारत की बेरोजगारी दर 2019 में 5.27% की तुलना में 2020 में 7.11% हो गई। यह वैश्विक औसत बेरोजगारी दर,2019 में 5.37% की तुलना में2020 में 6.47% की दर, से भी ज्यादा है । बेरोजगारी दर बस हमें यह बताता है कि काम करने के इच्छुक और सक्रिय रूप से नौकरी की तलाश करने वाले लोगों की संख्या, श्रम शक्ति के प्रतिशत में कितनी है । दूसरी ओर श्रम बल को 15 वर्ष से ऊपर के सभी लोगों,जो या तो कार्यरत हैं या सक्रिय रूप से नौकरी की तलाश में हैं,के रूप में परिभाषित किया जाता है (CEDA, 2020)। विश्व बैंक के अनुसार वर्ष 2020 में भारत में कुल श्रम बल लगभग 471,689,092 है। इस प्रकार, हमारे यहाँ श्रम बल का एक बड़ा हिस्सा बेरोजगार है।
श्रम बल भागीदारी दर भारत में श्रम बल भागीदारी दर (15 वर्ष से अधिक की जनसंख्या के लिए श्रम बल का अनुपातआयु) 2017-18 में 49.80% के मुकाबले वर्ष 2019-20 में42.7% गया(MOSPI, 2020)।भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था में भीषण बेरोज़गारी के साथ श्रम बल की भागीदारी दर में गिरावट एक चिंता का विषय है।विशेष रूप से हमारे यहाँ का वर्कफोर्स महिलाओं की भागीदारी की चिंताजनक स्थिति से जूझ रहा है। विश्व बैंक (2020) के अनुसार, देश में महिला श्रम बल भागीदारी दर 1990 के 30.27% से गिरकर 2019 में 20.8% हो गया है (FLFPR)। महिलाओं के बीच गिरती श्रम शक्ति भागीदारी को युवा महिलाओं के बढ़ते शैक्षिक नामांकन ; रोजगार के अवसरों की कमी; घरेलू आय में भागीदारी का प्रभाव आदि के माध्यम से समझा जा सकता है। (मानव विकास संस्थान, 2014)।
क्षेत्रवार रोजगार योग्यता 2020 में, भारत में 41.49 प्रतिशत कार्यबल कृषि में कार्यरत था, जबकि 26.18 प्रतिशत उद्योग में और 32.33 प्रतिशत सेवा क्षेत्र में कार्यरत थे। कुल रोजगार में अपने घटते योगदान के बावजूद, कृषि क्षेत्र आज भी देश का सबसे बड़ा नियोक्ता बना हुआ है। यद्यपि अधिकांश भारतीय कार्यबल अभी भी कृषि क्षेत्र में कार्यरत है फिर भी देश की जीडीपी में सबसे बड़ी भूमिका सेवा क्षेत्र की है है। वास्तव में, आर्थिक क्षेत्रों में सकल घरेलू उत्पाद के वितरण को देखते हुए, कृषिकेवल 15 प्रतिशत योगदान के साथ सबसे पीछे है। (एमओएसपीआई, 2020)। रोज़गार की प्रकृति 2017-18 में किए गए पेरिओडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे (PLFS) के अनुसार, अनौपचारिक काम में लगे श्रमिक (वे व्यक्ति जो किसी और के खेत या गैर-कृषि उद्यम पर काम करते हैं और बदले में दैनिक या आवधिक कार्य अनुबंध, (MOSPI) के अनुसार मजदूरी प्राप्त करते हैं) कुल श्रमिकों का लगभग 24.16 प्रतिशतहै। स्व-नियोजित लोग (अपने स्वयं के खेत या गैर-कृषि उद्यम संचालित करने वाले) कुल श्रमिकों का 52.04 प्रतिशतथे। स्व-रोजगार के इतने बड़े अनुपात का तात्पर्य है कि बहुत से लोगों को केवल इसलिए नियोजित के रूप में गिना जा रहा है क्योंकि वे किसी तरह अपना गुजारा करने की कोशिश कर रहे हैं। ये स्व-नियोजित लोग आमतौर पर अधिकांश सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों के तहत उजागर होते हैं और कोविड -19 महामारी जैसे किसी भी संकट के समय में सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। कुल औपचारिक और अनौपचारिक श्रमिकों में से केवल 23 प्रतिशतही नियमित वेतन श्रेणी के अंतर्गत आते हैं, जिन्हें मासिक आधार पर एक निश्चित वेतन की गारंटी दी जाती है और वे राज्य के सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों के अंतर्गत आते हैं। इन आंकड़ों से पता चलता है कि आम तौर पर कुल आबादी का लगभग 75 प्रतिशत राज्य के किसी भी सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम से जुड़ नहीं पाता है और कम आय तथा रोजगार सुरक्षा की कमी के कारण गंभीर समस्याओं का सामना करने के लिए मजबूरहोताहै।
भारत में युवा बेरोजगारी भारत की राष्ट्रीय युवा नीति के अनुसार “15 से 35 वर्ष के आयु वर्ग का व्यक्ति” युवा वर्गकी श्रेणी में शामिल है। 2011 की जनगणना के अनुसार,कुल जनसंख्या का 20 प्रतिशत और कुल युवा जनसंख्या का 44.2 प्रतिशत युवा गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहा है। युवा लोगों (15-24 वर्ष की आयु) के बीच कार्य भागीदारी दर (Work Participation Rate, WPR) कुल WPRसे अधिक है, लेकिन यह सभी वयस्कों और वरिष्ठों के WPR से कम है। यह पैटर्न पिछले दो दशकों में ग्रामीण और शहरी तथा पुरुष और महिला दोनों क्षेत्रों में देखा गया है। पिछले दो दशकों के दौरान युवाओं के बीच WPR, 1983 के55.5 प्रतिशत से घटकर 2004-2005 में 46.0 प्रतिशत रह गया है। WPR में यह गिरावट पुरुष युवाओं में सर्वाधिकहै- जो सामान्य रूप से शहरी युवाओं में 11.4 प्रतिशत और ग्रामीण पुरुष युवाओं में 12.4 प्रतिशत के रूप में है। महिला युवाओं के WPR में गिरावट अपेक्षाकृत बहुत कम है। ग्रामीण युवाओं केWPR में गिरावट उनके शहरी समकक्षों की तुलना में अधिक है (सिन्हा, 201; महेंद्रव और एम. वेंकटनारायण, 2011)। युवाओं की इस भीषण बेरोजगारी के कारणों को उनकी विपणन योग्य शिक्षा और कौशल की कमी से भी जोड़ा जाता है। 2004-2005 में भारत में युवा श्रम बल की बेरोजगारी दर 8 प्रतिशत थी जो कि बेरोज़गारी की बढ़ती हुई ट्रेंड को दर्शाता है। निरक्षरों की तुलना में साक्षरों में बेरोजगारी दर अधिक है। शिक्षा के स्तर के संदर्भ में, युवा स्नातकों में बेरोजगारी दर 2004-2005 में 35.5 प्रतिशत थी। शिक्षा के निचले स्तर से उच्च स्तर की ओर बेरोजगारी की दर घटती जा रही है। कुल मिलाकरभारतीय युवा वर्ग का एक बड़ा हिस्सा या तो बेरोजगार हैं, याअर्द्ध रोजगार हैं,या असुरक्षित कार्य व्यवस्था के तहत अस्वीकार्य रूप से कामके ज्यादा घंटे के साथ नौकरी करने को मजबूर है (महेंद्रव एंड एम. वेंकटनारायण, 2011; मित्रा और वेरिक, 2013) युवा आबादी की साक्षरता दर 1983 की 56.4 प्रतिशत से बढ़कर 2007-2008 में 80.3 प्रतिशत हो गयी; इसी अवधि के दौरान शैक्षणिक संस्थानों में भाग लेने वाले युवाओं की संख्या17.4 प्रतिशत से बढ़कर 32.8 प्रतिशत हो गयी जबकिरोजगार योग्यता के संबंध में, 2007-2008 में केवल 4.9 प्रतिशत युवा श्रमिकों के पास माध्यमिक स्तर की शिक्षा थी (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण, 2011)।
शिक्षा और कौशल 2011 कीजनसंख्या जनगणना के अनुसार, भारत में साक्षरता दर 74.04% है, जिसमें पुरुष साक्षरता दर 82.14% और महिला साक्षरता दर 65.46% है। ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों के अकुशल और अर्धकुशल श्रमिकों के लिए रोजगार के अवसरों की कमी, उनकी कम साक्षरता की वजह से उनके हालात को और भी खराब बना देती है।
भारत में ग्रामीण और शहरी बेरोजगारी अक्टूबर 2020 में ग्रामीण बेरोजगारी दर 6.9% और शहरी बेरोजगारी दर 7.15% थी । शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी आमतौर पर ग्रामीण बेरोजगारी से अधिक होताहै। यह कृषि क्षेत्र में कार्यबल में कमी और रोजगार एवं आय के वैकल्पिक स्रोतों के लिए शहरी क्षेत्रों में प्रवास के कारण है। यह आम तौर पर सीमित नौकरियों के लिए शहरी क्षेत्रों में कुशल और अकुशल दोनों तरह के श्रमिकों की आपूर्ति में वृद्धि की वजह से होता है, जिससे अततःबेरोजगारी बढ़ती है। ग्रामीण बेरोजगारी को कम करने के लिए केंद्र और राज्य सरकार की कई नीतियां हैं, लेकिन शहरी बेरोजगारी को कम करने के लिए अभी तक कोई विशिष्ट नीति लक्षित नहीं हुईहैं। श्रम आपूर्ति में वृद्धि, सरकारी नीतियों की कमी और नई नौकरियों के अपर्याप्त सृजन के परिणामस्वरूप शहरी बेरोजगारी अधिक है जिसकी वजह से वास्तविक शहरी मजदूरी दर घट रही है (सीएमआईई, 2020)।
भारत में महिला और पुरुष बेरोजगारी हालांकि भारत में कुल बेरोजगारी दर 7% के करीब है, लेकिन महिलाओं में बेरोजगारी की दर 18% है । साथ ही, देश में महिलाओं की श्रम बल भागीदारी दर (LFPR), जो पहले से ही दुनिया में सबसे कम है, में अभी भी गिरावट जारी है। भारत में महिला साक्षरता एक महत्वपूर्ण कारक है जो महिलाओं में बेरोजगारी की दर को निर्धारित करती है। भारत में पुरुष साक्षरता दर, जो 80% है, के मुकाबले महिला साक्षरता दर सिर्फ 65.46% है। भारत में महिलाओं कीनिम्न साक्षरता स्तर केकई संस्थागत और सामाजिक कारक हैं:जागरूकता की कमी, समान शैक्षिक अवसरों की कमी, कम उम्र में विवाह, सामाजिक प्रतिबंध, घर पर ही लैंगिक असमानता आदि। महिलाओं में निम्न शिक्षा का स्तर अकुशल या अर्ध कुशल नौकरियों के लिए उनके अवसरों को सीमित करता है, जहां उन्हें या तो कम भुगतान किया जाता है या उन्हें अवैतनिक छोड़ दिया जाता है (बसोल, 2019) ।
क्षेत्रवार रोजगार और श्रम बाजार के रुझान
महत्वपूर्ण मुद्दे और चुनौतियां भारत के विभिन्न क्षेत्रों का सकल घरेलू उत्पाद में योगदान और इसी तरह इनका रोजगार में योगदान के बीच सही संतुलन नहीं है । विकसित देशों के ऐतिहासिक अनुभव के विपरीत, जहां सकल घरेलू उत्पाद में कृषि की हिस्सेदारी में गिरावट के साथ-साथ कृषि पर निर्भर कार्यबल की हिस्सेदारी में भी गिरावट आई थी, भारत में, सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा पिछले दो दशकों में लगभग आधा हो गया है, लेकिन इसमें कार्यरत कार्यबल में बहुत कम गिरावट आयी है। 2009-10 में कृषि और संबद्ध गतिविधियों का सकल घरेलू उत्पाद में 14.6% का योगदान रहा लेकिन 51.76% कार्यबल शामिल था। पिछले दो दशकों में सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी शायद ही बढ़ी हो; इसी लिए रोजगार में इसके हिस्से में मामूली वृद्धि हीहुई है। इसका अर्थ यह हुआ कि अन्य देशों के विकास के अनुभवों में देखा गया व्यावसायिक परिवर्तन भारत में नहीं हुआ तथा यहाँ विकास के अनुभव में विनिर्माण को दरकिनार कर दिया गयाहै। जहां तक सेवाओं का संबंध है, हालांकि इस क्षेत्र को अक्सर अंतिम उपाय का नियोक्ता माना जाता है, सेवा क्षेत्र का रोजगार में योगदान, इसके सकल घरेलू उत्पाद में योगदान के मुकाबले बहुत पीछे है। इससे पता चलता है कि सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी में गिरावट के अनुरूप सेवा क्षेत्र की हिस्सेदारी में वृद्धि तो हुई है, लेकिन नौकरियों में तदनुसार वृद्धि नहीं हुई है। आज भी कार्यबल का एक बड़ा हिस्सा, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, कृषि पर निर्भर करता है । हालांकि शहरी क्षेत्रों में,सेवा क्षेत्र में कार्यबल का सबसे बड़ा प्रतिशत कार्यरत है, लेकिन अधिकांश नौकरियां कम मजदूरी और नगण्य श्रम सुरक्षा के साथ अनौपचारिक नौकरियों की श्रेणी में शामिल हैं। NSS के 66वें चरण के रोजगार डेटा से पता चलता है कि 2004 और 2009 के बीच केवल 20 लाख नौकरियां पैदा हुईं, जबकि अर्थव्यवस्था में सालाना 8.43% की दर से वृद्धिदर दर्ज की गई (अग्रवाल, 2012; मेहरोत्रा और परिदा, 2019; घोष और चंद्रशेखर 2007)। किसी भी अर्थव्यवस्था को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है। पहला वर्गीकरण प्राथमिक, माध्यमिक और तृतीयक क्षेत्र काहैजबकि दूसरा वर्गीकरण कृषि व इससे संबद्ध क्षेत्र, उद्योग क्षेत्र और सेवा क्षेत्र काहै। भले ही दो वर्गीकरण समानार्थक रूप से उपयोग किए जाते हैं जबकिइन दो वर्गीकरण के बीच एकमात्र बड़ा अंतर यह है कि खनन और उत्खनन को उद्योग क्षेत्र का हिस्सा माना जाता है, लेकिन इसे द्वितीयक क्षेत्र का हिस्सा नहीं माना जाता है। पहले वर्गीकरण में इसे प्राथमिक क्षेत्र का भाग माना जाता है। विनिर्माण क्षेत्र को द्वितीयक क्षेत्र या उद्योग क्षेत्र का हिस्सा माना जाता है।
चित्र : 2. भारत में विभिन्न वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद में श्रेणीगत योगदान।
स्रोत: बसु और दास 2015 स्रोत: अब्राहम 2017
कृषि क्षेत्र
परिचय कृषि क्षेत्र सबसे बड़े क्षेत्रों में से एक है जो भारतीय आबादी के एक बड़े हिस्से को किसानों,कृषि श्रमिकोंआदि के रूप में समायोजित करता है। हाल के वर्षों में भारत ने कृषि क्षेत्र के मुकाबले विनिर्माण क्षेत्र और सेवा क्षेत्र में अपने उत्पादन का विस्तार करने की कोशिश की है, और जब से भारत ने आर्थिक सुधार किए हैं तब से विनिर्माण क्षेत्र और सेवा क्षेत्र का योगदान भी बढ़ रहा हैं। इसके परिणामस्वरूप उत्पादन कृषि क्षेत्र से विनिर्माण क्षेत्र और सेवा क्षेत्र में स्थानांतरित हो गया है। हालांकि, कृषि गतिविधियों में शामिल लोगों की मात्रा उस दर से कम नहीं हुई है जिस दर से सकल घरेलू उत्पाद में इसका योगदान कम हुआ है । इसने भारतीय कृषि में छिपी बेरोजगारी या संरचनात्मक अल्प-रोजगार की स्थिति को जन्म दिया है, जहां अधिक से अधिक श्रमिक कम मात्रा के उत्पादन करते हैं। इसके कई नकारात्मक परिणाम हैं जिनमें निम्न आय, किसानों का हाशिए पर होना, उत्पादकता की कमी आदि शामिल हैं। रोजगार में कृषि क्षेत्र का योगदान 1999-2000 में 59.9% से घटकर 2017-18 में 44.59% हो गया है। हालाँकि, यह अभी भी भारत में रोजगार में सबसे बड़ा योगदानकर्ता है। इसके अलावा, राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान 1983-84 में 34% से घटकर 2018-19 में 16% हो गया है। सेवा और औद्योगिक क्षेत्रों के बढ़ते महत्व के कारण इस क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश की कमी ने कृषि में श्रमिकों को हतोत्साहित किया है और उन्हें या तो ग्रामीण क्षेत्रों में या शहरी क्षेत्रों में गैर-कृषि कार्य करने के लिए या फिर कृषि क्षेत्र में ही कम वेतन वाले श्रमिकों के रूप में काम करने के लिए मजबूर किया है । ग्रामीण विकास में राज्य द्वारा निवेश की कमी और संस्थागत वित्त तक पहुंच न होने के अलावा, नियमित सूखे और बाढ़ भी कृषि क्षेत्र के रोजगार में गिरावट की वजह रही है । पिछले साढ़े तीन दशकों के दौरान ग्रामीण मज़दूरों, विशेष रूप से ग्रामीण खेतिहर मज़दूरों की व्यावसायिक पसंद कृषि आधारित गतिविधियों से हटकर गैर-कृषि गतिविधियों में बढ़ने के कारण एक संरचनात्मक बदलाव आया है। ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि आधारित रोजगार की तुलना में, 1984 से 2018 तक गैर-कृषि रोजगार 19% से बढ़कर 42% हो गया। इस वृद्धि के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि रोजगार में भी गिरावट आई है। कृषि क्षेत्र के विकास में अपर्याप्त सार्वजनिक निवेश, संस्थागत ऋण तक अपर्याप्त पहुंच, अनुचित सिंचाई सुविधाएं, सरकार की खराब कृषि-संबंधी विपणन नीतियां, आधी-अधूरी भूमि सुधार नीति, और कृषि से कम रिटर्न, खाद्य फसलों की खेती पर अधिक निर्भरता, आदि भारत में रोजगार की दिशा में कृषि क्षेत्र द्वारा कम योगदान के लिए जिम्मेदार प्रमुख कारक हैं। इसके अलावा, 1991 से भारत के अत्यधिक आर्थिक उदारीकरण और कम कृषि आयात शुल्क जैसे बाहरी कारकों ने भीग्रामीण कृषि क्षेत्र की घटती रोजगार हिस्सेदारी में महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है। बाहरी और आंतरिक कारकों के अलावा, प्राकृतिक आपदा जैसे बार-बार सूखा, बाढ़ और चक्रवात भी कृषि क्षेत्र की घटती रोजगार हिस्सेदारी के लिए जिम्मेदार हैं। इन प्राकृतिक आपदाओं से व्यापक कृषि हानि होती है, जो ग्रामीण श्रमिकों को खेती करने से हतोत्साहित करती है और उन्हें ग्रामीण क्षेत्रों के भीतर या बाहर अन्य गैर-कृषि गतिविधियों को खोजने के लिए प्रोत्साहित करती है, जिससे ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में इन गैर-कृषि गतिविधियों पर दबाव बढ़ जाता है। बाढ़ की तबाही भारत के कृषि क्षेत्र के लिए आज भी एक बड़ा खतरा बना हहुआ है। केंद्रीय जल आयोग के एक शोध के अनुसार, 1980 से 2017 तक, बाढ़ की वजह से होने वाले कृषि नुकसान के कारण भारत को लगभग हर साल औसतन 2,785 करोड़ रुपये का नुकसान होता है । बाढ़ का कृषि रोजगार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, साथ ही गरीबी, असमानता और किसान की परेशानी बढती है । (साहा एट अल, 2016; आईएलओ 2016; द्विवेदी, 2011; अर्जुन 2013; माथुर एट अल, 2006)। ‘प्राकृतिक आपदाएं और ग्रामीण श्रम बाजार: एक लिंग विश्लेषण’, चौधरी (2020), के अध्ययन के अनुसार, बाढ़ के कारण ग्रामीण कृषि क्षेत्र में नौकरी की संभावनाएं कम हो जाती हैं जिससे सर्वेक्षण से पता चलता है कि पुरुष श्रमिकों की तुलना में महिला श्रमिकों को नौकरी के अवसरों में अधिक गिरावट का सामना करना पड़ता है।
विनिर्माण क्षेत्र
परिचय विनिर्माण क्षेत्र किसी भी अर्थव्यवस्था की विकास दर को प्रभावित करने वाले सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में से एक है। दुनिया के आर्थिक इतिहास से पता चलता है कि विनिर्माण क्षेत्र ने वास्तव में कई विकसित देशों की विकास कहानियों और विकास पथों में एक प्रमुख भूमिका निभाई है। भारत में औद्योगिक विनिर्माण प्रमुख विकास क्षेत्रों में से एक बन गया है, भले ही भारत ने प्रमुख विकसित देशों के समान विकास पथ का अनुसरण नहीं किया है, जहां अर्थव्यवस्था कृषि क्षेत्र से उद्योग क्षेत्र और फिर सेवा क्षेत्र में जाती है, लेकिन कई कारणों की वजह से भारत में कृषि अर्थव्यवस्था सीधे सेवा प्रधान अर्थव्यवस्था में स्थानांतरित हो गई है। विनिर्माण क्षेत्र में विविध प्रकार के उद्योग शामिल हैं, जिनमें से कुछ श्रम प्रधान और अन्य पूंजी प्रधान हैं। श्रम प्रधान विनिर्माण उद्योगों में वे उद्योग शामिल हैं जो पूंजी की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक श्रम का उपयोग करते हैं जैसे कपड़ा और परिधान उद्योग, चमड़ा उद्योग, लकड़ी और फर्नीचर उद्योग, तंबाकू उद्योग और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग आदि। ऑटोमोबाइल विनिर्माण, धातु और रासायनिक उद्योग, तेल और पेट्रोलियम उद्योग पूंजी गहन विनिर्माण उद्योगों के कुछ उदाहरण हैं, जिसमें श्रम की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक पूंजी का निवेश होता है। जबकि विनिर्माण क्षेत्र का कुल उत्पादन मूल्य 1990 में 53.27 बिलियन डॉलर से बढ़कर 2019 में 394.53 बिलियन डॉलर हो गया साथ ही कुल सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण क्षेत्र का प्रतिशत हिस्सा 1990 में 16.60% से घटकर 2019 में 13.72% हो गया है। सकल मूल्य में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी में पिछले पंद्रह वर्षों में 9.5% बढ़ी है जो कि 2020 से चल रही महामारी के कारण गिरकर 5% हो गई है। भले ही विनिर्माण क्षेत्र का पूर्ण कुल उत्पादन मूल्य लगभग हर साल बढ़ रहा है लेकिनजीडीपी में इसका हिस्सा हमेशा 13% से 18% के बीच हीरहा है। इसका मतलब विनिर्माण क्षेत्र की तुलना में सेवा क्षेत्र तेज गति से बढ़ रहा है और सकल घरेलू उत्पाद के अधिकांश हिस्से पर कब्जा कर रहा है। सेवा क्षेत्र अपेक्षाकृत अधिक मूल्यवान है और विकास, निवेश, रोजगार, उत्पादकता और व्यापार की शर्तों के मामले में भी उच्च दर दर्ज कर रहा है। भारत विनिर्माण क्षेत्र में अधिक निवेश, रोजगार और विकास को आकर्षित करने में अपनी श्रम गहन क्षमता का लाभ नहीं उठापा रहा है। (कालीराजन और भिड़े 2004; आईबीईएफ, 2020)
आंकड़ा: 3. भारतीय विनिर्माण क्षेत्र, 1990-2015 में उत्पादन में वृद्धि बनाम सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सेदारी(चित्र 3) स्रोत: विश्व बैंक 2020 विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार 1999-00 के दौरान, विनिर्माण क्षेत्र में भारत के कुल कार्यबल का 11.9% हिस्साकार्यरत था। विनिर्माण क्षेत्र आज भारत के कुल सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 15.13% कायोगदान देता है, हालांकि, औद्योगिक क्षेत्र जिसमें विनिर्माण क्षेत्र, खनन और उत्खनन, निर्माण और बिजली, गैस और पानी की आपूर्ति शामिल है, कुल सकल घरेलू उत्पाद में 27.5% कायोगदान देता है। यदि विनिर्माण क्षेत्र, विनिर्माण मूल्य श्रृंखलाओं के साथ प्रमुख क्षेत्रों में विशेषज्ञता प्राप्त करता है तो भारत में विनिर्माण क्षेत्र द्वारा आर्थिक विकास और रोजगार सृजन की अगुवाई करने की बहुत संभावनाएं हैं । सेवा क्षेत्र के विपरीत, जहां रोजगार की उपलब्धता किसी व्यक्ति के कौशल पर निर्भर है, विनिर्माण क्षेत्र में अकुशल श्रम शक्ति की ख़पत करने की क्षमता होती है । असल में कृषि श्रमिकों का गैर-कृषि क्षेत्रों में प्रवास भारतीय विनिर्माण क्षेत्र की रोजगार क्षमता पर अतिरिक्त दबाव डालता है (चक्रवर्ती और चट्टोपाध्याय, भारतीय सांख्यिकी जर्नल, 2014) (चित्र 4)।
स्रोत: MOSPI, 2019
निर्माण क्षेत्र में रोजगार की हिस्सेदारी 2000 में 4.5% से बढ़कर 2017-18 में 11.67% की वृद्धि दर्ज की,जोउद्योग क्षेत्र में रोजगार की हिस्सेदारी में वृद्धि का प्रमुख कारण है। निर्माण क्षेत्र अपनी विशाल रोजगार सृजन क्षमता के लिए जाना जाता है, फिर भी अधिकांश श्रम जो निर्माण क्षेत्र में कार्यरत है वह आकस्मिक या संविदात्मक श्रम है, जिन्हें न तो सरकार द्वारा किसी भी सामाजिक सुरक्षा लाभ मिलता है और न ही उनके पास कोई रोज़गार सुरक्षा है। जैसे-जैसे सरकारों ने बुनियादी ढांचा परियोजनाओं, आवास योजनाओं और परिवहन योजनाओं जैसे सड़क आदि को वित्त पोषित किया, निर्माण क्षेत्र के रोजगार में तेजी से वृद्धि देखी गई है । साथ ही, निर्माण क्षेत्र कृषि से उन अधिशेष मजदूरों के लिए पहला गंतव्य बना जो पहले ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत थे, क्योंकि इसके लिए उच्च शैक्षिक योग्यता या तकनीकी कौशल की आवश्यकता नहीं होती है। भले ही भारत एक श्रम बाहुल अर्थव्यवस्था है, लेकिन भारत मुख्य रूप से विनिर्माण क्षेत्र में अपनी तेजी से बढ़ती श्रम शक्ति को रोजगार प्रदान करने की अपनी क्षमता का लाभ नहीं उठा पा रहा है (चित्र 5 देखें)।
चित्र : 5, निर्माण और विनिर्माण द्वारा रोजगार की प्रतिशत हिस्सेदारी
विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार की प्रकृति – एक दोहरी प्रवृत्ति विनिर्माण क्षेत्र को दो उप-भागों में विभाजित किया गया है : संगठित विनिर्माण और असंगठित विनिर्माण, जिसका आधारनियोजित श्रमिकों की संख्या और बिजली के उपयोग पर निर्भर है। संगठित/पंजीकृत फर्में वे हैं जो 1948 के कारखाना अधिनियम की धारा 2m (i) और 2m (ii) के अंतर्गत आती हैं अर्थात वे फर्में जो बिजली का उपयोग करती हैं लेकिन दस से अधिक श्रमिकों को काम पर रखती हैं जबकि जो बिजली का उपयोग नहीं करती हैं लेकिन बीस या अधिक श्रमिकों को काम पर रखती हैं। वे सभी फर्में जो इस श्रेणी में नहीं आती हैं उन्हें असंगठित विनिर्माण क्षेत्र माना जाता है। असंगठित क्षेत्र को आगे तीन उप श्रेणियों में विभाजित किया गया है, स्वयं के खाते के उद्यम, जो बिना किसी नियमित आधार पर काम पर रखे गए श्रमिकों के बिना चलाए जाते हैं, गैर-निर्देशिका प्रतिष्ठान, जो छह से कम श्रमिकों को रोजगार देते हैं, निर्देशिका प्रतिष्ठान जो 6 या अधिक श्रमिकों को रोजगार देते हैं (घरेलू और काम पर रखे गए श्रमिकों को एक साथ लिया गया है)। गैर-निर्देशिका और निर्देशिका प्रतिष्ठान एक साथ मिलकरप्रतिष्ठान कहलाते हैं। एक क्षेत्र जो विनिर्माण क्षेत्र में उल्लेखनीय है, वह है सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम क्षेत्र, जो उत्पादन और रोजगार में बड़ा योगदान देता है। 1 करोड़ रुपये तक के निवेश और 5 करोड़ रुपये से कम के कारोबार वाली विनिर्माण इकाइयों को सूक्ष्म इकाइयाँ कहा जाता है, जिनका निवेश 1 करोड़ से 10 करोड़ रुपये के बीच और कारोबार 50 करोड़ रुपये से कम का होता है उन्हें लघु उद्यम कहा जाता है और वे उद्यम जिनका निवेश 10 करोड़ रुपये तक और कारोबार 100 करोड़ रुपये से कम का होता है उन्हें मध्यम उद्यम कहा जाता है। MSME न केवल रोजगार प्रदान करते हैं और सकल घरेलू उत्पाद में योगदान देते हैं बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में औद्योगीकरण की प्रक्रिया में भी योगदान करते हैं। वे भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 8%, कुल विनिर्माण उत्पादन का 45% और देश के कुल निर्यात का 40% योगदान करते हैं। 2019-20 में विनिर्माण गतिविधि में शामिल MSMEकी अनुमानित संख्या 114.14 लाख थी, जिससे लगभग 186.56 लाख व्यक्तियों को रोजगार मिला है। MSME के पास कृषि क्षेत्रों से पलायन करने वाले श्रम की ख़पत करने की काफी क्षमता होतीहै, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में MSME के लिए आवश्यक तकनीकी कौशल और शैक्षिक योग्यता नगण्य तो नहीं लेकिन बहुत कम होताहै। हालांकि, MSMEको संचालन में कई समस्याओं का सामना भीकरना पड़ता है जैसे तकनीकी सहायता की कमी, वित्तीय सहायता की कमी, अपर्याप्त बुनियादी ढांचे, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतिद्वंद्वीयों से भारी प्रतिस्पर्धा, अपर्याप्त संस्थागत ऋण स्रोत, अपर्याप्त जानकारी आदि। (बराल, 2013; सतीश और राजामोहन, 2019)
डेटा से पता चलता है कि भारतीय विनिर्माण क्षेत्र में दो प्रमुखरुझान हैं:
संगठित क्षेत्र में रोजगार बढ़ रहा है। यह 2000-01 में 17.72% से बढ़कर 2015-16 में 27.82% हो गया है। यह एक सकारात्मक वृद्धि है, क्योंकि संगठित क्षेत्र में श्रमिकों की उत्पादकता असंगठित क्षेत्र की तुलना में कहीं अधिक होगी।
संगठित क्षेत्र में अनौपचारिक श्रमिकों की हिस्सेदारी भी बढ़ रही है। इसका मतलब है कि भले ही संगठित क्षेत्र में रोजगार वृद्धि की प्रवृत्ति देखी जा रही है, लेकिन अधिकांश श्रमिकों को अनुबंधों के माध्यम से संविदा पर नियोजित किया जा रहा है जिन्हें किसी भी तरह की सामाजिक सुरक्षा का लाभ नहीं दिया जाता हैं।
चित्र : 6 संगठित और असंगठित विनिर्माण में रोजगार
चित्र : 7 हालांकि संगठित क्षेत्र ने कुल कार्यबल के केवल 17.72% को ही रोज़गार दिया, लेकिन इसने 2000-01 में विनिर्माण क्षेत्र में कुल सकल मूल्य का 74.44% योगदान दिया। 2015-16 तक, संगठित विनिर्माण क्षेत्र में नियोजित श्रमिकों के प्रतिशत में 10% की वृद्धि हुई है, जो 27.81 प्रतिशत है, लेकिन कुल विनिर्माण सकल मूल्य वर्धित में इसके योगदान ने केवल 6% की वृद्धि के साथ 80.41 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की है। असंगठित क्षेत्र ने 2000-01 और 2015-16 में क्रमशः 82.28% और 72.19% विनिर्माण श्रमिकों को रोज़गार दिया, लेकिन 2000-01 और 2015-16 में कुल विनिर्माण सकल मूल्य वर्धित में क्रमशः 25.56% और 19.59% योगदान दिया। संगठित क्षेत्र और असंगठित क्षेत्र द्वारा योगदान किए गए रोजगार और कुल सकल मूल्य वर्धित के बीच यह भारी अंतर संगठित और असंगठित श्रमिकों के उत्पादकता स्तरों में अंतर के कारण है। 2000-01 में, संगठित क्षेत्र में प्रति श्रमिक सकल मूल्य वर्धित 2,26,462.9 था जबकि एक असंगठित श्रमिक का केवल 16,233 था। 2015-16 तक, संगठित क्षेत्र में प्रति श्रमिक सकल मूल्य वर्धित 3.64 गुना बढ़कर 8,25,730.2 हो गया है जबकि एक असंगठित क्षेत्र में प्रति श्रमिक सकल मूल्य वर्धित 4.58 गुना बढ़कर 74,379 हो गया है। फिर भी संगठित क्षेत्र में प्रति श्रमिक सकल मूल्य वर्धित एक असंगठित श्रमिक की तुलना में 11.16 गुना अधिक है। (चक्रवर्ती और चट्टोपाध्याय, भारतीय सांख्यिकी जर्नल, 2014)
चित्र : 8
भारतीय विनिर्माण क्षेत्र में चुनौतियां विनिर्माण क्षेत्र में समग्र रूप से सकल मूल्य वर्धित (GVA) में वृद्धि के बावजूद, यह तेजी से बढ़ते कार्यबल के लिए रोजगार सृजित करने में लड़खड़ा गया है। 2014-15 में विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार की वृद्धि 4.5% प्रति वर्ष रही, जबकि विनिर्माण क्षेत्र द्वारा सकल मूल्य वर्धित की वृद्धि दर 9.5% थी। कृषि गतिविधियों से पलायन करने वाले अकुशल श्रमिकों के लिए रोजगार सृजित करने की विशाल क्षमता वाला विनिर्माण क्षेत्र निम्नलिखित कारणों से रोजगार सृजन करने में विफल रहा:
भारत एक श्रमबाहुल्य अर्थव्यवस्था है, जिसमें 501 मिलियन श्रमिकों कि श्रम शक्ति निहित है। इतनी बड़ी श्रमशक्ति को श्रम आधारित वस्तुओं के उत्पादन में लगाया जाए तो तुलनात्मक रूप से लाभ प्राप्त हो सकता है। भारतीय उद्योगों के लिए अर्थव्यवस्था में अधिशेष श्रम को उपयोग करने के लिए उत्पादन में श्रम आधारित तकनीकों का उपयोग करना आवश्यक है जो पूंजी की तुलना में अधिक श्रम का उपयोग करेगी।हालाँकि, पिछले पंद्रह वर्षों में विकसित हुए उद्योगों पर एक नज़र डालें, तो आपको पता चलेगा कि वे आवश्यक रूप से श्रम की तुलना में अधिक पूंजी का उपयोग कर रहे हैं यानी उद्योगों में पूंजी-श्रम अनुपात बढ़ रहा है। भारतीय उद्योगों में पूंजी-श्रम अनुपात की प्रवृत्ति वृद्धि दर 2000-2014 में 5.2% थी। यह आश्चर्य की बात है कि कपड़ा और परिधान (7.7), चमड़े और चमड़े के उत्पादों (3.4) जैसे श्रम प्रधान उद्योगों में भी पूंजी-श्रम अनुपात बढ़ रहा है। (आईबीईएफ, 2020) चित्र : 9 TimePeriod Fixed Capital to worker ratio 2001-05 3.4 2006-10 5 2011-15 7.5 2016-18 7.7
TimePeriod Fixed Capital to worker ratio 2001-05 7.3 2006-10 10.9 2011-15 20.5 2016-18 26.5
TimePeriod Fixed Capital to worker ratio 2001-05 1.7 2006-10 2.3 2011-15 2.9 2016-18 3.4
Source: Annual Survey of Industries
श्रम के खिलाफ पूंजी के इस बढ़ते उपयोग को कई कारकों द्वारा सुगम बनाया गया है:इसका पहला संभावित कारण उत्पादकता में सुधार है जिसकी गारंटी पूंजी देता है। फर्मों की उत्पादकता में सुधार सुनिश्चित करने के लिए, आमतौर पर फर्मों में समय के साथ पूंजी- श्रम अनुपात उच्च होता है। साथ ही श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी, पूंजी आधारित उत्पादन के तरीकों में अधिक लाभ आदि के संबंध में कड़े कानूनों ने पूंजी आधारित उद्योगों को बढ़ावा दिया है।(आईबीईएफ, 2020) दूसरे, 1991 के आर्थिक सुधारों ने भारतीय निर्माताओं को सस्ती कीमतों पर पूंजी और मध्यस्थ वस्तुओं का आयात करने में सक्षम बनाया है। संगठित विनिर्माण क्षेत्र में श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी योजना और अन्य सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों द्वारा गारंटीकृत एक स्थिर मजदूरी दर और पूंजी के गिरते किराये की कीमत ने उद्योगों को उत्पादन की पूंजी आधारित तकनीक को अपनाने के लिए प्रेरित किया है।(गोल्डर, 2009)। तीसरा, भारत सरकार की पहल जैसे कि राष्ट्रीय विनिर्माण नीति, मेक इन इंडिया आदि का उद्देश्य भारत को ऑटोमोबाइल, विमानन, जैव-प्रौद्योगिकी, रक्षा निर्माण, इलेक्ट्रॉनिक्स, सूचना प्रौद्योगिकी, स्वास्थ्य आदि जैसे उद्योगों में वैश्विक लीडर बनाना है। जो तकनीकी रूप से कुशल श्रमिकों का उपयोग करते हैं जिन्हें उच्चतर माध्यमिक से ऊपर शैक्षिक योग्यता की आवश्यकता होती है। इससे मौजूदा श्रम शक्ति और कृषि क्षेत्रों से पलायन करने वाले श्रमिकों के पुन: कौशल (रीस्किलिंग) और अपस्किलिंग की आवश्यकता बढ़ जाती है, जो भारत में महत्वपूर्ण चुनौतियों में से एक है। (ग्रीन, 2014; श्रीवास्तव, 2019) चौथा, विनिर्माण क्षेत्र से अधिकांश निर्यात इंजीनियरिंग निर्यात, पेट्रोलियम उत्पाद, रत्न व आभूषण, फार्मास्यूटिकल्स, रासायनिक उत्पाद द्वारा किया जाता है (चित्र 10)। इनमें से अधिकांश उद्योग कम श्रम को अवशोषित करते हैं तथा खाद्य और खाद्य उत्पादन उद्योग, चमड़ा और चमड़ा उत्पादन उद्योग, वस्त्र और वस्त्र उत्पादन उद्योग आदि की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक पूंजी आधारित होते हैं। आम तौर पर फर्म उन उद्योगों में निवेश करते हैं जहां तुलनात्मक रूप से लाभ होता है और इसलिए कई फर्म ने पूंजी आधारित उद्योगों में रुचि दिखाई है जो उच्च रिटर्न की गारंटी देते हैं। (गोल्डर, 2009)। चित्र: 10 चुनिंदा उद्योगों का निर्यात प्रदर्शन (मिलियन अमेरिकी डॉलर) स्रोत: www.ibef.org
भारतीय विनिर्माण क्षेत्र ने पिछले 15 वर्षों में रोजगार संरचना में बदलाव देखा है। उद्योगों में संविदा कर्मियों (कॉन्ट्रैक्चुअल वर्कर्स) की संख्या में तीव्र गति से वृद्धि हुई है। भारतीय उद्योगों में संविदा कर्मियों की हिस्सेदारी 2000-01 में 15.58% से बढ़कर 2014-15 में 27.51 हो गई, जबकि इसी अवधि में डायरेक्ट इंप्लॉयड (सीधे कार्यरत) श्रमिकों की हिस्सेदारी 61.26 प्रतिशत से गिरकर 50.41 प्रतिशत हो गई।2017-18 में संविदा कर्मियों का कुल श्रमिकों से अनुपात 0.36 था। “संविदा कर्मी वे सभी व्यक्ति होतेहैं जो सीधे नियोक्ता (एंप्लॉयर) द्वारा नहीं बल्कि तीसरी एजेंसी, यानी ठेकेदार के माध्यम से नियोजित (एम्प्लॉएड) होते हैं। इन श्रमिकों को मुख्य नियोक्ता (एंप्लॉयर) की जानकारी में या उसके बिना नियोजित किया जा सकता है।”श्रमिक संघों, न्यूनतम मजदूरी योजनाओं, बारगेनिंग की शक्ति में वृद्धि आदि द्वारा स्थायी श्रमिकों को बेहतर रिटर्न मिलता है। यही वजह है कि विनिर्माण फर्म संविदा कर्मियोंकी ओर जाने के लिए आकर्षित हुए है, जो न तो यूनियन बनाते हैं और न ही न्यूनतम मजदूरी की मांग करते हैं क्योंकि वे सरकार के ऐसे किसी भी सुरक्षा उपाय के दायरे में नहीं आते हैं।
विनिर्माण एक ऊर्जा- आधारित उद्योग है जहां बिजली इसके काम करने की प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। विश्व बैंक के अनुसार, विनिर्माण उद्योगों के लिए बिजली की आपूर्ति सबसे महत्वपूर्ण बाधाओं में से एक है। बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता के मामले में, भारत 2017-18 विश्व आर्थिक मंच की रिपोर्ट के अनुसार कुल 137 देशों में से 80वें स्थान पर है।
विनिर्माण क्षेत्र में फर्मों के लिए ऋण या ऋण के रूप में वित्त प्राप्त करना एक और बड़ी बाधा है। विशेष रूप से, सूक्ष्म और लघु उद्यमों को गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ता है क्योंकि बैंक उन्हें ऋण देने में अधिक अनिच्छुक होते हैं जो भारत में विनिर्माण क्षेत्र के विकास की संभावनाओं को प्रभावित करता है।
भारत में औपचारिक रूप से कुशल श्रमिकों का प्रतिशत बहुत कम है, जो कुल कार्यबल का केवल 4.69% है, जबकि चीन में 24%, अमेरिका में 52%, यूके में 68%, जर्मनी में 75%, जापान में 80% और दक्षिण कोरिया में 96% कुशल श्रमिक हैं। आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS) 2017-18 के अनुसार, भारत में लगभग 93% आबादी को कोई व्यावसायिक या तकनीकी प्रशिक्षण नहीं मिलता है।
आर्थर डी. लिटिल इंडिया और CII की एक संयुक्त रिपोर्ट के अनुसार, भारत में आपूर्ति श्रृंखला और लॉजिस्टिक की लागत देश के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 14% है, जिसका मूल्य 400 अरब डॉलर है जोकि वैश्विक औसत की तुलना में 8 प्रतिशत है। 2018 विश्व बैंक लॉजिस्टिक्स इंडेक्स के अनुसार, भारत 44वें स्थान पर, संयुक्त राज्य अमेरिका 14 वें स्थान पर, चीन 26 वें स्थान पर है। उच्च लॉजिस्टिक लागत का एक मुख्य कारण रोडवेज पर अधिक निर्भरता का बढ़ना तथा रेलवे और समुद्री मार्ग पर निर्भरता का कम होना है। खराब इन्फ्रास्ट्रक्चर भी लॉजिस्टिक की लागत में बढ़ोत्तरी का कारण है।
वर्तमान में भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.7% अनुसंधान और विकास पर खर्च करता है। यह अन्य देशों जैसे चीन – 2.1%, अमेरिका – 2.8%, दक्षिण कोरिया – 4.2%, इज़राइल – 4.3% की तुलना में बहुत कम है । प्रौद्योगिकी और उत्पादन प्रक्रियाओं में अत्याधुनिक नवाचारों के लिए R&D पर खर्च करना आवश्यक है, जो उच्च विकास दर के लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद करता है।
भारत एक श्रम बाहुल देश है इसके बावजूद भारतीय विनिर्माण पूंजी पर आधारित उद्योग के प्रति पक्षपाती है। यह व्यापार के हेक्शर-ओहलिन सिद्धांत के विपरीत है, जिसमें कहा गया है कि एक श्रम-बाहुल अर्थव्यवस्था श्रम पर आधारित वस्तुओं का निर्यात करेगी। इसके विपरीत भारतीय अर्थव्यवस्था में श्रम के स्थान पर पूंजी का उपयोग होता है, इसलिए श्रमिकों के लिए रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं।
सेवा क्षेत्र
परिचय पिछले तीन दशकों में वैश्विक और भारतीय दोनों अर्थव्यवस्थाओं में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि में सेवा क्षेत्र का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भारत में 90 के दशक में शुरू हुए आर्थिक सुधारों ने राज्य समर्थित उच्च शिक्षा के द्वारा उपलब्ध स्किल्ड मैनपॉवर का उपयोग करके सेवा क्षेत्र की क्षमता को उजागर किया। भारत उन कुछ बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, जिन्होंने रैखिक विकास मॉडल का पालन नहीं किया है। भारत एक मजबूत विनिर्माण आधार के बिना अपनी मुख्य कृषि आधारित अर्थव्यवस्था से सेवाओं पर आधरित विकास की अर्थव्यवस्था में कूद गया है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद में सेवा क्षेत्र की हिस्सेदारी कि तुलना में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी कम है। यहाँ औद्योगिक क्षेत्र में विकास की गति में धीमापन है। अतः भारत की विकासगाथा सेवाओं से प्रेरित है, जिसका सकल घरेलू उत्पाद में 55 प्रतिशत हिस्सा है। भारत में सेवा क्षेत्र में वृद्धि कई कारणों से हुई है जैसे: आपूर्ति साइड पर, सेवाओं के हिस्से को बढ़ाने के लिए “स्प्लिंटरिंग” नामक पद्धति को अपनाया गया है जिसमें व्यवस्थित उत्पादन करने के लिए एक अधिक सेवा इनपुट आधारित विधि को बढ़ाया गया है। स्प्लिंटरिंग द्वारा विशेषज्ञों की ठेकेदारों द्वारा किसी विशेष कार्य के लिए आउटसोर्सिंग की जातीहै जो पहले फर्मों द्वारा स्वयं किया जाता था। यह बताया जाता है कि “स्प्लिंटरिंग” से सेवा क्षेत्र द्वारा सकल घरेलू उत्पाद के हिस्से में वृद्धि होगी, उस स्थिति में भी जब सकल घरेलू उत्पाद स्वयं नहीं बढ़ रहा हो। कई आउटसोर्सिंग कंपनियों के विकास ने भारत में “स्प्लिंटरिंग” को बढ़ावा दिया है, जिससे सेवा क्षेत्र में तेजी आई है।मांग साइड पर, सेवा क्षेत्र के उत्पादन के हिस्से में वृद्धि सेवाओं की अंतिम मांग में तेजी से वृद्धि द्वारा उत्पन्न हो सकती है। यह उच्च आय वाले घरेलू उपभोक्ताओं की मांग बढ़ने या विदेशी उपभोक्ताओं द्वारा देश के सेवा निर्यात की बढ़ती मांग के साथ हो सकता है। तकनीकी विकास से सेवा क्षेत्र की गतिविधि को भी प्रेरित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए आईटी क्षेत्र के मामले में इसके प्रासंगिक होने की संभावना है। उदारीकरण एक महत्वपूर्ण कारक है जिसने सेवा क्षेत्र में विकास को प्रेरित किया है।सेवा क्षेत्र के विकास के लिए अनुकूल नीतिगत सुधारों में प्रमुख है: विनियमन, निजीकरण और विशेष रूप से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए अर्थव्यवस्था को खोलना आदि। इन सुधारों ने भारत में बहुराष्ट्रीय संगठनों को अपनी इकाइयां स्थापित करने के लिए आकर्षित किया है। भारत में उपलब्ध अंग्रेजी बोलने वाला श्रम विदेशों की तुलना में अपेक्षाकृत सस्ता हैं। इसने अपरोक्ष रूप से सेवा क्षेत्र में विकास को बढ़ावा दिया है (मुखर्जी 2013; लता और शनमुगम 2014)।
रोजगार के रुझान और चुनौतियां हालांकि, भारत में सेवा क्षेत्र को विकास के प्रवेश द्वार के रूप में देखने में कई समस्याएं हैं। सेवा क्षेत्र लगभग 23% श्रम शक्ति को रोजगार देता है। सेवाओं के पक्ष में सकल घरेलू उत्पाद का क्षेत्रीय बदलाव भारत में रोजगार के पैटर्न में सहवर्ती परिवर्तनों से मेल नहीं खा रहा है। साथ ही भारत में सेवा क्षेत्र की विशेषता है कि इसमें तेजी से उच्च उत्पादन और कम रोजगार पैदा हो रहा है। (अग्रवाल 2012) हाल के दिनों में देखा गया है कि सेवा क्षेत्र के केंद्र में विकास संचार, व्यापार सेवा, वित्तीय सेवा आदि रही है। संचार सेवाओं में वृद्धि, जिसका समग्र सकल मूल्य वर्धित में एक छोटा सा योगदान है, हाल के वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि में एक महत्वपूर्ण योगदानकर्ता रहा है। उदारीकरण के बाद, आईटी सेवाओं और संचार सेवाओं में तेजी से विकास हुआ है साथ ही व्यावसायिक सेवाओं में बैंकिंग क्षेत्र, होटल और रेस्तरां, और उसके बाद सामुदायिक सेवाओं में तेजी से विकास देखा गया है। भारत में सेवाओं में टेक-ऑफ का सबसे प्रसिद्ध आयाम सॉफ्टवेयर और सूचना प्रौद्योगिकी आधारित सेवाओं में रहा है, जिसमें कॉल सेंटर, सॉफ्टवेयर डिजाइन और बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग शामिल हैं।(गॉर्डन और गुप्ता 2004)। हालांकि, इन क्षेत्रों को उच्च मूल्य और कम रोजगार पैदा करने वाले क्षेत्रों के रूप में देखा जाता है।आम तौर पर सेवाओं में रोजगार सृजन के हिस्से में वृद्धि सेवाओं में उत्पादन के हिस्से में वृद्धि की तुलना में तेजी से बढ़ती है। इसके विपरीत, पिछले कुछ वर्षों में भारत में सेवा क्षेत्र में रोजगार में वृद्धि जीडीपी के हिस्से में सुधार के बावजूद सपाट रही है। इस तथ्य से स्पष्ट है कि भारतीय सेवा क्षेत्र में उत्पादकता बढ़ रही है। सॉफ्टवेयर सेवाएं, दूरसंचार और बैंकिंग सबसे अधिक उत्पादक सेवाओं में से कुछ हैं, और वे भारत के सेवा क्षेत्र के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि के प्रमुख चालक भी हैं। हालांकि इन क्षेत्रों कि विशेषता कम रोजगार और कौशल गहनता भी है। सेवा क्षेत्र की रोजगार क्षमता बढ़ाने के लिए, नीतियों को उन क्षेत्रों में विकास को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो मानव श्रम के अधिक व्यक्तिगत प्रयासों का उपयोग करते हैं और कौशल आधारित सेवाओं की आवश्यकताओं के अनुसार शहरी आबादी को शिक्षित और कुशल बनाने पर ध्यान केंद्रित करते हैं।(पटनायक और नायक 2011 ; वू 2007)
10 M : बेरोज़गारी के समाधान की रणनीतियाँ
यह रिपोर्ट रोजगार सृजन की दिशा में एक समग्र दृष्टिकोण अपनाती है जिसमें भारतकेविशिष्ट क्षेत्रों के मुद्दों को समझने और दुनिया भर की रणनीतियों और नीतिगत सुझावों परध्यान केंद्रित किया गया है।इस नीति का उद्देश्य भारत में श्रम की मांग और आपूर्ति का मिलान करना तथाअर्थव्यवस्था की संरचना को कम प्रदूषणकारी और अधिक संसाधन-कुशल आर्थिक गतिविधियों मेंबदलना है। यदि संबंधित चुनौतियों का अच्छी तरह से प्रबंधन किया जाता है, तो हरित विकास की दिशा में नया अवसर पैदा हो सकता है। इसनीति का उद्देश्य अच्छी तरह से डिज़ाइन किए गए नीतिगत उपकरणों के माध्यम से औरलागत प्रभावी तरीके से पर्यावरणीय उद्देश्यों को प्राप्त करना है,जिससे अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले किसी भी अनावश्यक बोझ से बच सकते हैं, और संभावित रूप से आर्थिक विकास को गति देने के साथ-साथ रोजगार पैदा कर सकते हैं।
इस दस्तावेज़ ने भारत में रोजगार सृजन के लिए 10 M के ज़रिये दस महत्वपूर्ण क्षेत्रों की पहचान की है, जो निम्नलिखत हैं :
4.ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि/खाद्य प्रसंस्करण उद्योग स्थापित करने से किसानों को कई व्यावसायिक फसलों और गतिविधियों जैसे डेयरी फार्मिंग, फलों और सब्जियों की खेती, मोटे अनाजों का उत्पादन आदि के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इससे किसानों को अधिक लाभ कमाने तथाकृषि के अवसरों में विविधता लाने में मदद मिलेगी। दूसरी ओर इससे उद्यमियों को परिवहन और भंडारण लागत पर कम खर्च करना पड़ेगा, इसमेंआगे की प्रक्रिया के लिए ताजा उपज की उपलब्धता का भी लाभ मिलेगा।
2.मिनिमम मौद्रिक सहायता और भूमि तक पहुंच (Minimum Monetary support & Access to Land)
मौद्रिक समर्थन (मोनेटरी सपोर्ट)
(Mindset and Skill Training)
15 शैक्षिक संस्थानों और व्यावसायिक शिक्षा सेवा प्रदाताओं को श्रम बाजार के अवसरों से जोड़ना और नियोक्ताओं के साथ मजबूत साझेदारी बनाना भी अत्यंत महत्वपूर्ण है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कृषि पेशेवरों के कौशल, श्रम बाजार की जरूरतों के अनुकूल हैं।
सामाजिक संवाद
(i) सुपर मार्केट या फूड मार्ट में सुपरवाइजर, हेल्पर्स, कैशियर, स्टोर कीपर आदि के रूप में रोजगार पैदा करके। (ii) ग्रामीण क्षेत्रों में खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में रोजगार को बढ़ावा देकर। जिन किसानों को खेत में काम नहीं मिल रहा है, उन्हें इस रोजगार सृजन के माध्यम से मिनी-मार्केट में शामिल किया जा सकता है।
क्लस्टरिंग और सहकारिता
ग्रामीण विविधीकरण
कार्य साझा करने वाले उपकरण
(Minimum Economic and Job Support)
श्रम प्रवास नीतियां
(Minimum Wage Revision for Respectful Life)
(i) न्यूनतम मजदूरी की गणना में, मानक मजदूर वर्ग के परिवार में एक कमाने वाले के लिए 3 खपत इकाइयां शामिल हैं। (ii) न्यूनतम भोजन आवश्यकता की गणना 2731 किलो कैलोरी के शुद्ध सेवन के आधार पर की जानी चाहिए। (iii) कपड़ों की आवश्यकताओं को प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 18 गज के रूप में लिया जाता है, जो चार के औसत सदस्य वाले परिवार के लिए कुल 72 गज होगा। (iv) आवास के संबंध में, किराया न्यूनतम मजदूरी के 10% के रूप में लिया जाना चाहिए। (v) ईंधन, प्रकाश और अन्य ‘विविध’ व्यय मदें कुल न्यूनतम मजदूरी का 20 प्रतिशत होनी चाहिए।” (vi) बच्चों की शिक्षा, चिकित्सा आवश्यकता, त्योहारों/समारोहों सहित मनोरंजन और वृद्धावस्था, विवाह आदि के लिए कुल न्यूनतम मजदूरी का 25% होना चाहिए।” भारत में बेरोजगारी की समस्या का मुख्य कारण क्या है?बेरोजगारी का मुख्य कारण वृद्धि की धीमी गति है । रोजगार का आकार, प्रायः बहुत सीमा तक, विकास के स्तर पर निर्भर करता है । आयोजन काल के दौरान हमारे देश ने सभी क्षेत्रों में बहुत उन्नति की है । परन्तु वृद्धि की दर, लक्षित दर की तुलना में बहुत नीची है ।
बेरोजगारी की समस्या क्या है?बेरोजगारी एक गंभीर समस्या है। शिक्षा की कमी, रोजगार के अवसरों की कमी, कौशल की कमी, प्रदर्शन संबंधी मुद्दे और बढ़ती आबादी सहित कई कारक भारत में इस समस्या को बढ़ाने में अपना योगदान देते हैं। व्यग्तिगत प्रभावों के साथ-साथ पूरे समाज पर इस समस्या के नकारात्मक नतीजे देखे जा सकते हैं।
बेरोजगारी का सबसे बड़ा कारण क्या है?बेरोजगारी का मुख्य कारण जनसंख्या का तेजी से बढ़ना है। जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू कर और युवाओं को स्वरोजगार की और प्रेरित करने से बेरोजगारी पर कुछ हद तक नियंत्रण संभव है। आजकल युवा आधे से ज्यादा समय सोशल मीडिया पर फालतू की चीजों में बीता देते हैं, जबकि सोशल मीडिया भी एक बहुत बड़ा तंत्र है।
बेरोजगारी की समस्या पर निबंध कैसे लिखें?बेरोजगारी की बढ़ती समस्या निरंतर हमारी प्रगति, शांति और स्थिरता के लिए चुनौती बन रही है । हमारे देश में बेरोजगारी के अनेक कारण हैं । अशिक्षित बेरोजगार के साथ शिक्षित बेरोजगारों की संख्या भी निरंतर बढ़ रही है । देश के 90% किसान अपूर्ण या अर्द्ध बेरोजगार हैं जिनके लिए वर्ष भर कार्य नहीं होता है ।
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