जीवन परिचय-हिंदी-साहित्य में आंचलिक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म 4 मार्च, 1921 को बिहार के पूर्णिया जिले (अब अररिया) के औराही हिंगना में हुआ था। इन्होंने 1942 ई० के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में बढ़-चढ़कर भाग लिया और सन 1950 में नेपाली जनता को राजशाही दमन से मुक्ति दिलाने के लिए भरपूर योगदान दिया। इनकी साहित्य-साधना व राष्ट्रीय भावना को मद्देनजर रखते हुए भारत सरकार ने इन्हें पदमश्री से अलंकृत किया। 11 अप्रैल, 1977 को पटना में इनका देहावसान हो गया। Show रचनाएँ-हिंदी कथा-साहित्य में रेणु का प्रमुख स्थान है। इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं- 1954 ई० में इनका उपन्यास ‘मैला आँचल’ प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास ने हिंदी उपन्यास विधा को नयी दिशा दी। हिंदी जगत में आंचलिक उपन्यासों पर विमर्श ‘मैला आँचल’ से ही प्रारंभ हुआ। आंचलिकता की इस अवधारणा ने उपन्यासों और कथा-साहित्य में गाँव की भाषा-संस्कृति और वहाँ के लोक-जीवन को केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया। लोकगीत, लोकोक्ति, लोक-संस्कृति, लोकभाषा एवं लोकनायक की इस अवधारणा ने भारी-भरकम चीज एवं नायक की जगह अंचल को ही नायक बना डाला। उनकी रचनाओं में अंचल कच्चे और अनगढ़ रूप में ही आता है। इसलिए उनका यह अंचल एक तरफ शस्य-श्यामल है तो दूसरी तरफ धूल-भरा और मैला भी। आजादी मिलने के बाद भारत में जब सारा विकास शहरों में केंद्रित होता जा रहा था तो ऐसे में रेणु ने अंचल की समस्याओं को अपने साहित्य में स्थान दिया। इनकी रचनाएँ इस अवधारणा को भी पुष्ट करती हैं कि भाषा की सार्थकता बोली के साहचर्य में ही है। भाषा-शैली-रेणु की भाषा भी अंचल-विशेष से प्रभावित है। इन्होंने आम बोलचाल की भाषा को अपनाया है। मिश्रित शब्दावली का प्रयोग है। गंभीर विषयों पर भाषा संस्कृतनिष्ठ हो जाती है। भाषा में चित्रात्मकता बहुत मिलती है। भाव-प्रवाह के अनुसार वाक्य छोटे हो जाते हैं। विशेषणों का सुंदर प्रयोग है। पाठ का प्रतिपादय एवं सारांश प्रतिपादय-पहलवान की ढोलक’ कहानी व्यवस्था के बदलने के साथ लोक-कला और इसके कलाकार के अप्रासंगिक हो जाने की कहानी है। राजा साहब की जगह नए राजकुमार का आकर जम जाना सिर्फ़ व्यक्तिगत सत्ता-परिवर्तन नहीं, बल्कि जमीनी पुरानी व्यवस्था के पूरी तरह उलट जाने और उस पर सभ्यता के नाम पर एकदम नयी व्यवस्था के आरोपित हो जाने का प्रतीक है। यह ‘भारत’ पर ‘इंडिया’ के छा जाने की समस्या है जो लुट्टन पहलवान को लोक-कलाकार के आसन से उठाकर पैट-भरने के लिए हाय-तौबा करने वाली निरीहता की भूमि पर पटक देती है। ऐसी स्थिति में गाँव की गरीबी पहलवानी जैसे शौक को क्या पालती? फिर भी, पहलवान जीवट ढोल के बोल में अपने आपको न सिर्फ़ जिलाए रखता है, बल्कि भूख व महामारी से दम तोड़ रहे गाँव को मौत से लड़ने की ताकत भी प्रदान करता है। कहानी के अंत में भूख-महामारी की शक्ल में आए मौत के षड्यंत्र जब अजेय लुट्टन की भरी-पूरी पहलवानी को फटे ढोल की पोल में बदल देते हैं तो इस करुणा/त्रासदी में लुट्टन हमारे सामने कई सवाल छोड़ जाता है। वह पोल पुरानी व्यवस्था की है या नई व्यवस्था की ? क्या कला की प्रासंगिक व्यवस्था की मुखापेक्षी है अथवा उसका कोई स्वतंत्र मूल्य भी है? मनुष्यता की साधना और जीवन-सौंदर्य के लिए लोक-कलाओं को प्रासंगिक बनाए रखने हेतु हमारी क्या भूमिका हो सकती है? यह पाठ ऐसे कई प्रश्न छोड़ जाता है। सारांश-सर्दी का मौसम था। गाँव में मलेरिया व हैजे का प्रकोप था। अमावस्या की ठंडी रात में निस्तब्धता थी। आकाश के तारे ही प्रकाश के स्रोत थे। सियारों व उल्लुओं की डरावनी आवाज से वातावरण की निस्तब्धता कभी-कभी भंग हो जाती थी। कभी किसी झोपड़ी से कराहने व कै करने की आवाज तथा कभी-कभी बच्चों के रोने की आवाज आती थी। कुत्ते जाड़े के कारण राख के ढेर पर पड़े रहते थे। सायं या रात्रि को सब मिलकर रोते थे। इस सारे माहौल में पहलवान की ढोलक संध्या से प्रात:काल तक एक ही गति से बजती रहती थी। यह आवाज मृत-गाँव में संजीवनी शक्ति भरती थी। गाँव में लुट्टन पहलवान प्रसिद्ध था। नौ वर्ष की आयु में वह अनाथ हो गया था। उसकी शादी हो चुकी थी। उसकी विधवा सास ने उसे पाला। वह गाय चराता, ताजा दूध पीता तथा कसरत करता था। गाँव के लोग उसकी सास को तंग किया करते थे। लुट्टन इनसे बदला लेना चाहता था। कसरत के कारण वह किशोरावस्था में ही पहलवान बन गया। एक बार लुट्टन श्यामनगर मेला में ‘दंगल’ देखने गया। पहलवानों की कुश्ती व दाँव-पेंच देखकर उसने ‘शेर के बच्चे’ को चुनौती दे डाली। ‘शेर के बच्चे’ का असली नाम था-चाँद सिंह। वह पहलवान बादल सिंह का शिष्य था। तीन दिन में उसने पंजाबी व पठान पहलवानों को हरा दिया था। वह अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए बीच-बीच में दहाड़ता फिरता था। श्यामनगर के दंगल व शिकार-प्रिय वृद्ध राजा साहब उसे दरबार में रखने की सोच रहे थे कि लुट्टन ने शेर के बच्चे को चुनौती दे दी। दर्शक उसे पागल समझते थे। चाँद सिंह बाज की तरह लुट्टन पर टूट पड़ा, परंतु वह सफ़ाई से आक्रमण को सँभालकर उठ खड़ा हुआ। राजा ने लुट्टन को समझाया और कुश्ती से हटने को कहा, किंतु लुट्टन ने लड़ने की इजाजत माँगी। मैनेजर से लेकर सिपाहियों तक ने उसे समझाया, परंतु लुट्टन ने कहा कि इजाजत न मिली तो पत्थर पर माथा पटककर मर जाएगा। भीड़ में अधीरता थी। पंजाबी पहलवान लुट्टन पर गालियों की बौछार कर रहे थे। दर्शक उसे लड़ने की अनुमति देना चाहते थे। विवश होकर राजा साहब ने इजाजत दे दी। बाजे बजने लगे। लुट्टन का ढोल भी बजने लगा था। चाँद ने उसे कसकर दबा लिया था। वह उसे चित्त करने की कोशिश में था। लुट्टन के समर्थन में सिर्फ़ ढोल की आवाज थी, जबकि चाँद के पक्ष में राजमत व बहुमत था। लुट्टन की आँखें बाहर निकल रही थीं, तभी ढोल की पतली आवाज सुनाई दी’धाक-धिना, तिरकट-तिना, धाक-धिना, तिरकट-तिना।’ इसका अर्थ था-दाँव काटो, बाहर हो जाओ। लुट्टन ने दाँव काटी तथा लपक कर चाँद की गर्दन पकड़ ली। ढोल ने आवाज दी-चटाक्-चट्-धा अर्थात उठाकर पटक दे। लुट्टन ने दाँव व जोर लगाकर चाँद को जमीन पर दे मारा। ढोलक ने ‘धिना-धिना, धिक-धिना।’ कहा और लुट्टन ने चाँद सिंह को चारों खाने चित्त कर दिया। ढोलक ने ‘वाह बहादुर!” की ध्वनि की तथा जनता ने माँ दुर्गा की, महावीर जी की, राजा की जय-जयकार की। लुट्टन ने सबसे पहले ढोलों को प्रणाम किया और फिर दौड़कर राजा साहब को गोद में उठा लिया। राजा साहब ने उसे दरबार में रख लिया। पंजाबी पहलवानों की जमायत चाँद सिंह की आँखें पोंछ रही थी। राजा साहब ने लुट्टन को पुरस्कृत न करके अपने दरबार में सदा के लिए रख लिया। राजपंडित व मैनेजर ने लुट्टन का विरोध किया कि वह क्षत्रिग्र नहीं है। राजा साहब ने उनकी एक न सुनी। कुछ ही दिन में लुट्टन सिंह की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई। उसने सभी नामी पहलवानों को हराया। उसने ‘काला खाँ’ जैसे प्रसिद्ध पहलवान को भी हरा दिया। उसके बाद वह दरबार का दर्शनीय जीव बन अर्था। लुट्टन सिंह मेलों में घुटने तक लंबा चोंगा पहने, अस्त-व्यस्त पगड़ी बाँधकर मतवाले हाथी की तरह झूमता चलता। हलवाई के आग्रह पर दो सेर रसगुल्ला खाता तथा मुँह में आठ-दस पान एक साथ दूँस लेता। वह बच्चों जैसे शौक रखता था। दंगल में उससे कोई लड़ने की हिम्मत नहीं करता। कोई करता तो उसे राजा साहब इजाजत नहीं देते थे। इस तरह पंद्रह वर्ष बीत गए। उसके दो पुत्र हुए। उसकी सास पहले ही मर चुकी थी और पत्नी भी दो पहलवान पैदा करके स्वर्ग सिधार गई। दोनों लड़के पहलवान थे। दोनों का भरण-पोषण दरबार से हो रहा था। पहलवान हर रोज सुबह उनसे कसरत करवाता। दिन में उन्हें सांसारिक ज्ञान भी देता। वह बताता कि उसका गुरु ढोल है, और कोई नहीं। अचानक राजा साहब स्वर्ग सिधार गए। नए राजकुमार ने विलायत से आकर राजकाज अपने हाथ में ले लिया। उसने पहलवानों की छुट्टी कर दी। लुट्टन ढोलक कंधे से लटकाकर अपने पुत्रों के साथ गाँव लौट आया। गाँव वालों ने उसकी झोपड़ी बना दी तथा वह गाँव के नौजवानों व चरवाहों को कुश्ती सिखाने लगा। खाने-पीने का खर्च गाँव वालों की तरफ से बँधा हुआ था। गरीबी के कारण धीरे-धीरे किसानों व मजदूरों के बच्चे स्कूल में आने बंद हो गए। अब वह अपने लड़कों को ही ढोल बजाकर कुश्ती सिखाता। लड़के दिनभर मजदूरी करके कमाकर लाते थे। गाँव पर अचानक संकट आ गया। सूखे के कारण अन्न की कमी हो गई तथा फिर मलेरिया व हैजा फैल गया। घर के घर खाली हो गए। प्रतिदिन दो-तीन लाशें उठने लगीं। लोग एक-दूसरे को ढाँढ़स देते तथा शाम होते ही घरों में घुस जाते। लोग चुप रहने लगे। ऐसे समय में केवल पहलवान की ढोलक ही बजती थी जो गाँव के अद्र्धमृत, औषधि-उपचार-पथ्य-विहीन प्राणियों में संजीवनी शक्ति भरती थी। एक दिन पहलवान के दोनों बेटे भी चल बसे। पहलवान सारी रात ढोल पीटता रहा। दोनों पेट के बल पड़े हुए थे। उसने लंबी साँस लेकर कहा-दोनों बहादुर गिर पड़े। उस दिन उसने राजा श्यामानंद की दी हुई रेशमी जाँघिया पहनी और सारे शरीर पर मिट्टी मलकर थोड़ी कसरत की फिर दोनों पुत्रों को कंधों पर लादकर नदी में बहा आया। इस घटना के बाद गाँव वालों की हिम्मत टूट गई। रात में फिर पहलवान की ढोलक बजने लगी तो लोगों की हिम्मत दुगुनी बढ़ गई। चार-पाँच दिनों के बाद एक रात ढोलक की आवाज नहीं सुनाई पड़ी। सुबह उसके शिष्यों ने देखा कि पहलवान की लाश ‘चित’ पड़ी है। शिष्यों ने बताया कि उसके गुरु ने कहा था कि उसके शरीर को चिता पर पेट के बल लिटाया जाए क्योंकि वह कभी ‘चित’ नहीं हुआ और चिता सुलगाने के समय ढोल जरूर बजा देना । शब्दार्थ पृष्ठ-108 पृष्ठ-110 पृष्ठ-111 पृष्ठ– 112 पृष्ठ–113 पृष्ठ-114 पृष्ठ-115 अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न निम्नलिखित गदयांशों को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए 1. जाड़े का दिन। अमावस्या की रात-ठंडी और काली। मलेरिया और हैजे से पीड़ित गाँव भयात्र्त शिशु की तरह थर-थर काँप रहा था। पुरानी और उजड़ी बाँस-फूस की झोपड़ियों में अंधकार और सन्नाटे का सम्मिलित साम्राज्य! आँधेरा और निस्तब्धता ! प्रश्न (क) लेखक किस तरह के मौसम का वर्णन कर रहा है? उत्तर – (क) लेखक सर्दी के दिनों का वर्णन कर रहा है। अमावस्या की रात है। भयंकर ठंड है तथा चारों तरफ अँधेरा है। 2. अँधेरी रात चुपचाप आँसू बहा रही थी। निस्तब्धता करुण सिसकियों और आहों को बलपूर्वक अपने हृदय में ही दबाने की चेष्टा कर रही थी। आकाश में तारे चमक रहे थे। पृथ्वी पर कहीं प्रकाश का नाम नहीं। आकाश से टूटकर यदि कोई भावुक तारा पृथ्वी पर जाना भी चाहता तो उसकी ज्योति और शक्ति रास्ते में ही शेष हो जाती थी। अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता पर खिलखिलाकर हँस पड़ते थे। प्रश्न (क) गाँव में ऐसा क्या हो गया था कि आँधेरी रात चुपचाप असू बहा रही थी? उत्तर – (क) गाँव में हैजे व मलेरिया का प्रकोप था। इसके कारण घर-घर में मौतें हो रही थीं। चारों ओर मौत का सन्नाटा था। इसी कारण अँधेरी रात चुपचाप आँसू बहा रही थी। 3. रात्रि अपनी भीषणताओं के साथ चलती रहती और उसकी सारी भीषणता को ताल ठोककर ललकारती रहती थी-सिर्फ पहलवान की ढोलक! संध्या से लेकर प्रात:काल तक एक ही गति से बजती रहती-‘चट्-धा, गिड़-धा, ’ चट्-धा, गिड़ धा!’ यानी ‘आ जा भिड़ जा, आ जा, भिड़ जा!” ’ बीच-बीच में-‘चटाक्-चट्-धा, ‘चटाक्-चट्-धा!’ यानी ‘उठाकर पटक दे! उठाकर पटक दे!!’ प्रश्न (क) रात्रि की भीषणताएँ कैसी थीं ? उत्तर – (क) लेखक ने रात्रि की भीषणताओं के बारे में बताते हुए कहता है कि जाड़े की अमावस्या की रात थी। मलेरिया व हैजे का प्रकोप था। चारों तरफ निस्तब्धता थी। 4. लुट्टन के माता-पिता उसे नौ वर्ष की उम्र में ही अनाथ बनाकर चल बसे थे। सौभाग्यवश शादी हो चुकी थी, वरना वह भी माँ-बाप का अनुसरण करता। विधवा सास ने पाल-पोसकर बड़ा किया। बचपन में वह गाय चराता, धारोष्ण दूध पीता और कसरत किया करता था। गाँव के लोग उसकी सास को तरह-तरह की तकलीफ़ दिया करते थे; लुट्टन के सिर पर कसरत की धुन लोगों से बदला लेने के लिए ही सवार हुई थी। प्रश्न (क) लुट्टन कौन था? उसका नाम क्यों फैला था? उत्तर – (क) लुट्टन वह बालक था जिसके माँ-बाप उस समय मर गए थे जब वह मात्र नौ बरस का था। उसका पालन-पोषण उसकी विधवा सास ने किया। उसने चाँद सिंह जैसे प्रसिद्ध पहलवान को हराकर राज पहलवान बनने का गौरव प्राप्त किया था। इस कारण उसका नाम फैला था। 5. एक बार वह ‘दंगल’ देखने श्यामनगर मेला गया। पहलवानों की कुश्ती और दाँव-पेंच देखकर उससे नहीं रहा गया। जवानी की मस्ती और ढोल की ललकारती हुई आवाज ने उसकी नसों में बिजली उत्पन्न कर दी। उसने बिना कुछ सोचे-समझे दंगल में ‘शेर के बच्चे’ को चुनौती दे दी। ‘शेर के बच्चे’ का असल नाम था चाँद सिंह। वह अपने गुरु पहलवान बादल सिंह के साथ पंजाब से पहले-पहल श्यामनगर मेले में आया था। सुंदर जवान, अंग-प्रत्यंग से सुंदरता टपक पड़ती थी। तीन दिनों में ही पंजाबी और पठान पहलवानों के गिरोह के अपनी जोड़ी और उम्र के सभी पट्ठों को पछाड़कर उसने ‘शेर के बच्चे’ की टायटिल प्राप्त कर ली थी। इसलिए वह दंगल के मैदान में लैंगोट लगाकर एक अजीब किलकारी भरकर छोटी दुलकी लगाया करता था। देशी नौजवान पहलवान उससे लड़ने की कल्पना से भी घबराते थे। अपनी टायटिल को सत्य प्रमाणित करने के लिए ही चाँद सिंह बीच-बीच में दहाड़ता फिरता था। प्रश्न (क) प्रथम पंक्ति में ‘वह’ कौन है? वह कहाँ गया और उस पर क्या प्रभाव पडा? उत्तर – (क) ‘वह’ लुट्टन पहलवान है। वह श्यामनगर मेले में दंगल देखने गया। वहाँ पहलवानों की कुश्ती व दाँव-पेंच देखकर उसमें जोश भर गया। 6. शांत दर्शकों की भीड़ में खलबली मच गई-‘पागल है पागल, मरा-ऐं! मरा-मरा !’’ पर वाह रे बहादुर! लुट्टन बड़ी सफाई से आक्रमण को सँभालकर निकलकर उठ खड़ा हुआ और पैंतरा दिखाने लगा। राजा साहब ने कुश्ती बंद करवाकर लुट्टन को अपने पास बुलवाया और समझाया। अंत में, उसकी हिम्मत की प्रशंसा करते हुए, दस रुपये का नोट देकर कहने लगे-‘जाओ, मेला देखकर घर जाओ!’” प्रश्न (क) शांत दर्शकों में खलबली मचने का क्या कारण था? उत्तर – (क) लुट्टन ने मेले के मशहूर पहलवान चाँद सिंह को चुनौती दी थी। चाँद सिंह को चुनौती देना तथा उससे कुश्ती लड़ना हँसी-खेल न था इसलिए शांत दर्शकों की भीड़ में खलबली मच गई। 7. भीड़ अधीर हो रही थी। बाजे बंद हो गए थे। पंजाबी पहलवानों की जमायत क्रोध से पागल होकर लुट्टन पर गालियों की बौछार कर रही थी। दर्शकों की मंडली उत्तेजित हो रही थी। कोई-कोई लुट्टन के पक्ष से चिल्ला उठता था-“उसे लड़ने दिया जाए!” प्रश्न (क) भीड़ की अधीरता का क्या कारण था? उत्तर – (क) लसिक इंग्लक चुीद थी भी नोक कुश्त देना वाहता थी इसाल वाहअर रही थी। 8. पंजाबी पहलवानों की जमायत चाँद सिंह की आँखें पोंछ रही थी। लुट्टन को राजा साहब ने पुरस्कृत ही नहीं किया, अपने दरबार में सदा के लिए रख लिया। तब से लुट्टन राज-पहलवान हो गया और राजा साहब उसे लुट्टन सिंह कहकर पुकारने लगे। राज-पंडितों ने मुँह पिचकाया-‘हुजूर! जाति का – – – – – सिंह – – – – A ” मैनेजर साहब क्षत्रिय थे। ‘क्लीन-शेव्ड’ चेहरे को संकुचित करते हुए, अपनी शक्ति लगाकर नाक के बाल उखाड़ रहे थे। चुटकी से अत्याचारी बाल को रगड़ते हुए बोले-‘हाँ सरकार, यह अन्याय है!” राजा साहब ने मुसकुराते हुए सिर्फ इतना ही कहा-‘उसने क्षत्रिय का काम किया है।’ उसी दिन से लुट्टन सिंह पहलवान की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई। पौष्टिक भोजन और व्यायाम तथा राजा साहब की स्नेह-दृष्टि ने उसकी प्रसिद्ध में चार चाँद लगा दिए। कुछ वर्षों में ही उसने एक-एक कर सभी नामी पहलवानों को मिट्टी सुंघाकर आसमान दिखा दिया। प्रश्न (क) कौन किसकी आँखें पोंछ रहा था और क्यों? उत्तर – (क) पंजाबी पहलवानों की जमात चाँद सिंह की आँखें पोंछ रही थी क्योंकि चाँद सिंह को लुट्टन ने हरा दिया था। इस हार के कारण उसे राज-पहलवान का दर्जा नहीं मिला। फलत: वह दुखी था। 9. मेलों में वह घुटने तक लंबा चोंगा पहने, अस्त-व्यस्त पगड़ी बाँधकर मतवाले हाथी की तरह झूमता चलता। दुकानदारों को चुहल करने की सूझती। हलवाई अपनी दुकान पर बुलाता-‘पहलवान काका! ताजा रसगुल्ला बना है, जरा नाश्ता कर लो!’ पहलवान बच्चों की-सी स्वाभाविक हँसी हँसकर कहता-‘अरे तनी-मनी काहे! ले आव डेढ़ सेर।’ और बैठ जाता। प्रश्न (क) मेले में लुट्टन सिंह क्या पहनता था? उत्तर – (क) मेले में लुट्टन सिंह घुटने तक लंबा चोंगा पहनकर अस्त-व्यस्त पगड़ी बाँधकर मस्त हाथी की तरह झूमता चलता था। 10. दोनों ही लड़के राज-दरबार के भावी पहलवान घोषित हो चुके थे। अत: दोनों का भरण-पोषण दरबार से ही हो रहा था। प्रतिदिन प्रात:काल पहलवान स्वयं ढोलक बजा-बजाकर दोनों से कसरत करवाता। दोपहर में, लेटे-लेटे दोनों को सांसारिक ज्ञान की भी शिक्षा देता-“समझे! ढोलक की आवाज पर पूरा ध्यान देना। हाँ, मेरा गुरु कोई पहलवान नहीं, यही ढोल है, समझे! ढोल की आवाज के प्रताप से ही मैं पहलवान हुआ। दंगल में उतरकर सबसे पहले ढोलों को प्रणाम करना, समझे!” ऐसी ही बहुत-सी बातें वह कहा करता। फिर मालिक को कैसे खुश रखा जाता है, कब कैसा व्यवहार करना चाहिए, आदि की शिक्षा वह नित्य दिया करता था। प्रश्न (क) पहलवान के बटों का भरण-पोषण राज-दरबार से क्यों होता था? उत्तर – (क) पहलवान के बेटों का भरण-पोषण राज-दरबार से इसलिए होता था क्योंकि लुट्टन राज-पहलवान घोषित हो चुका थो। उसने चाँद पहलवान को हराकर राजा का दिल जीत लिया था। 11. किंतु उसकी शिक्षा-दीक्षा, सब किए-किराए पर एक दिन पानी फिर गया। वृद्ध राजा स्वर्ग सिधार गए। नए राजकुमार ने विलायत से आते ही राज्य को अपने हाथ में ले लिया। राजा साहब के समय शिथिलता आ गई थी, राजकुमार के आते ही दूर हो गई। बहुत-से परिवर्तन हुए। उन्हीं परिवर्तनों की चपेटाघात में पड़ा पहलवान भी। दंगल का स्थान घोड़े की रेस ने लिया। पहलवान तथा दोनों भावी पहलवानों का दैनिक भोजन-व्यय सुनते ही राजकुमार ने कहा-“टैरिबुल!” नए मैनेजर साहब ने कहा ‘ ” पहलवान को साफ जवाब मिल गया, राज-दरबार में उसकी आवश्यकता नहीं। उसको गिड़गिड़ाने का भी मौका नहीं दिया गया। प्रश्न (क) पहलवान के किए-कराए पर पानी क्यों फिरा? उत्तर – (क) पुराने राजा ने लुट्टन को राज-पहलवान बनाया था। यहाँ पर लुट्टन पंद्रह वर्ष से अपने लड़कों को शिक्षा-दीक्षा देकर भावी पहलवान बनाना चाहता था, परंतु राजा की मृत्यु होते ही उसकी सारी योजना फेल हो गई। नए राजा ने उसे निकाल दिया। 12. रात्रि की विभीषिका को सिर्फ पहलवान की ढोलक ही ललकारकर चुनौती देती रहती थी। पहलवान संध्या से सुबह तक, चाहे जिस खयाल से ढोलक बजाता हो, किंतु गाँव के अद्र्धमृत, औषधि-उपचार-पथ्य-विहीन प्राणियों में वह संजीवनी शक्ति ही भरती थी। बूढ़े-बच्चे-जवानों की शक्तिहीन आँखों के आगे दंगल का दृश्य नाचने लगता था। स्पंदन-शक्तिशून्य स्नायुओं में भी बिजली दौड़ जाती थी। अवश्य ही ढोलक की आवाज में न तो बुखार हटाने का कोई गुण था और न महामारी की सर्वनाश शक्ति को रोकने की शक्ति ही, पर इसमें संदेह नहीं कि मरते हुए प्राणियों को आँख मूंदते समय कोई तकलीफ़ नहीं होती थी, मृत्यु से वे डरते नहीं थे। प्रश्न (क) गद्यांश में रात्रि की किस विभीषिका की चर्चा की गई है? ढोलक उसको किस प्रकार की चुनौती देती थी। उत्तर – (क) गद्यांश में महामारी की विभीषिका की चर्चा की गई है। ढोलक की आवाज मन में उत्साह पैदा करती थी जिससे मनुष्य महामारी से निपटने को तैयार होता था। 13. उस दिन पहलवान ने राजा श्यामानंद की दी हुई रेशमी जाँघिया पहन ली। सारे शरीर में मिट्टी मलकर थोड़ी कसरत की, फिर दोनों पुत्रों को कंधों पर लादकर नदी में बहा आया। लोगों ने सुना तो दंग रह गए। कितनों की हिम्मत टूट गई। किंतु, रात में फिर पहलवान की ढोलक की आवाज प्रतिदिन की भाँति सुनाई पड़ी। लोगों की हिम्मत दुगुनी बढ़ गई। संतप्त पिता-माताओं ने कहा-‘दोनों पहलवान बेटे मर गए, पर पहलवान की हिम्मत तो देखो, डेढ़ हाथ का कलेजा है!” चार-पाँच दिनों के बाद। एक रात को ढोलक की आवाज नहीं सुनाई पड़ी। ढोलक नहीं बोली। पहलवान के कुछ दिलेर, किंतु रुग्ण शिष्यों ने प्रात:काल जाकर देखा-पहलवान की लाश ‘चित’ पड़ी है। आँसू पोंछते हुए एक ने कहा-‘गुरु जी कहा करते थे कि जब मैं मर जाऊँ तो चिता पर मुझे चित नहीं, पेट के बल सुलाना। मैं जिंदगी में कभी ‘चित ‘नहीं हुआ। और चिता सुलगाने के समय ढोलक बजा देना।’ वह आगे बोल नहीं सका। प्रश्न (क) पहलवान ने अपने बच्चों का अतिम सस्कार कैसे किया2 उत्तर – (क) बीमारी से पहलवान के दोनों लड़के चल बसे। उस दिन उसने राजा श्यामानंद की दी हुई रेशमी जाँघिया पहनी, सारे शरीर पर मिट्टी मलकर थोड़ी कसरत की तथा फिर दोनों पुत्रों को कंधों पर लादकर नदी में बहा आया। पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न पाठ के साथ प्रश्न 2:
प्रश्न 3: अथवा ‘पहलवान की ढोलक’ पाठ के आधार बताइए कि लुट्टन सिंह ढोल को अपना गुरु क्यों मानता था? प्रश्न 4: प्रश्न 5: अथवा पहलवान की ढोलक की उठती-गिरती आवाज बीमारी से दम तोड़ रह ग्रामवासियों में सजीवनी का सचार कैसे करती है? उत्तर दीजिए। अथवा पहलवान की ढोलक साधनहीन गाँव वालों के प्रति क्या भूमिका निभाती थी? कैसे? प्रश्न 6: प्रश्न 7: (ख) कुश्ती की जगह अब घुड़सवारी, फुटबाल, क्रिकेट, टेनिस, बॉलीबाल, बेसबॉल आदि खेलों ने ली है। इन खेलों में पैसा और शोहरत दोनों हैं। फिर खेल से रिटायर होने के बाद भी जीविका बनी रहती है। (ग) कुश्ती को यदि फिर से प्रिय खेल बनाना है तो इसके लिए राज्य और केंद्र दोनों सरकारों को योजना बनानी चाहिए। व्यायामशालाएँ होनी चाहिए ताकि पहलवान कसरत कर सकें। अन्य खेलों की तरह ही जीतने वाले पहलवान को अच्छी खासी रकम इनाम में दी जानी चाहिए। यदि कोई पहलवान रिटायर हो जाए या दुर्घटना में उसे चोट लग जाए तो जीवनभर उसके लिए रोटी का प्रबंध किया जाना चाहिए। प्रश्न 8: प्रश्न 9: (ख) “रात्रि अपने भीषणताओं के साथ चलती रही।” (ग) “रात्रि की विभीषिका को सिर्फ पहलवान की ढोलक ही ललकारकर चुनौती देती रहती थी।” पाठ के आस-पास प्रश्न 2: प्रश्न 3: भाषा की बात
उत्तर –
प्रश्न 2:
उत्तर – प्रश्न 3:
असमानता अन्य हल प्रश्न बोधात्मक प्रशन प्रश्न 2: प्रश्न 3: प्रश्न 4: प्रश्न 5: प्रश्न 6: अथवा ‘पहलवान की ढोलक’ पाठ के आधार पर लुट्टन का चरित्र- चित्रण र्काजिए।
प्रश्न 7: प्रश्न 8: प्रश्न 9: प्रश्न 10:
स्वयं करें
(ब) अकस्मात गाँव पर यह वज्रपात हुआ। पहले अनावृष्टि, फिर अन्न की कमी, तब मलेरिया और हैजे ने मिलकर गाँव को भूनना शुरू कर दिया। गाँव प्राय: सूना हो चला था। घर के घर खाली पड़ गए थे। रोज दो-तीन लाशें उठने लगीं। लोगों में खलबली मची हुई थी। दिन में तो कलरव, हाहाकार तथा हृदय-विदारक रुदन के बावजूद भी लोगों के चेहरे पर कुछ प्रभा दृष्टिगोचर होती थी, शायद सूर्य के प्रकाश में सूर्योदय होते ही लोग काँखते-कूंखते-कराहते अपने-अपने घरों से बाहर निकलकर अपने पड़ोसियों और आत्मीयों को ढाँढ़स देते थे। लेखक को बुखार आ जाने पर उसकी सबसे अधिक देखभाल कौन करता था?लेखक के बीमार होने पर उसकी सबसे अधिक देखभाल उसकी दादी माँ करती थीं।
बुखार आने पर दादी माँ लेखक के सिर पर क्या लगाती थी?बीमारी में उसे दिन-भर नींबू और साबू मिलता था परंतु इस बार उसे जो बुख़ार चढ़ा था वह उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था। वे उसकी दादी उसके माथे पर कोई अदृश्य शक्तिधारी चबूतरे की मिट्टी लगाती थीं।
लेखक का बुखार कब उतरा था?ज्वर जो चढ़ा तो चढ़ता ही गया। रज़ाई पर रज़ाई - और उतरा रात बारह बजे के बाद।
दादी लेखक की बीमारी में कैसे देखभाल करती थी?Answer: लेखक के बीमार होने पर दादी द्वारा उसकी सेवा करना, रामी चाची की बेटी की शादी पर उसके घर जाकर उसकी सहायता करना व पिछला ऋण माफ़ करना, पिताजी की आर्थिक तंगी देखकर दादा की निशानी का प्रतीक सोने का कंगन उन्हें देना आदि दर्शाता है कि दूसरों की सहायता करनां वे अपने जीवन का कर्तव्य समझती थीं।
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