गली गली में पेड़ लगाओ हर प्राणी में आस जगा दो प्रस्तुत पंक्तियां कौन सी कविता की हैं *? - galee galee mein ped lagao har praanee mein aas jaga do prastut panktiyaan kaun see kavita kee hain *?

See other formats


'< प्रकाशक 
बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्‌ 
पद्ना+*३ 


प्रथम संस्करण, विक्रमाब्द २०३५, शकाब्द्‌ १८०६, खुष्टाब्द १४५८ 
सर्वाधिकार श्रकाशकाधीन_ सुरक्षित 


मूल्य सजिल्द ४-७० 





मुद्रक 
कालिका प्रेस, पटना--४ 
( पए० १-१४४ तक अशोक ग्रेस, 
पदना--६ में म॒द्वित ) 


वक्तव्य 


बिहार-सरकार के शिक्षा-विभाग के संरक्षण में बिहार-राष्ट्रभापा: 
परिषद्‌ के कार्यकल्षाप का श्रीगणेश सन्‌ १६४० ई० के मध्य में हुआ 
था। उसी समय भअरस्तुत पुस्तक ( भोजपुर्र के कवि और काव्य ) की 
पाण्डुलिपि प्रक्राशनाथ प्राप्त हुई थी। इसका विशाल पोथा देखकर 
आस्स्भ में ही आशंका हुई थी कि इसके प्रकाशन में काफी समय 
लगेगा । वह आशंका ठीक निकली | 

सचमुच इसके सम्पादन और प्रकाशन में आठ वर्षों का बहुत 
त्षम्बा समय लग गया। इसके साथ द्वी आई हुईं दूसरी पुस्तक 
(विश्वधर्म-दशन) दो साल बाद ही (सब्‌ १६४२ ३० में) प्रकाशित हो 
गई; क्‍योंकि उसका सम्पादन-काय शीघ्र ही सम्पन्न हो गया और 
इसके सम्पादन में अनेक विध्न-वाधाओं के कारण आशातीत समय 
ल्ञग गया । 

जिस समय परिषद्‌ के संचाल्क-मंडल ने इसके सम्पादन का भार 
परिषद्‌-सद्स्य डॉक्टर विश्वनाथ प्रसाद को सौंपा, उस समय वे पटना- 
विश्वविद्याल्नय में हिन्दी-विभागाध्यक्ष थे। कुछ ही दिनों बाद पूना- 
विश्वविद्यालय में भाषा-शास्त्र के अध्यापन के लिए शिक्षण-शिविर 
आयोजित हुआ, जिसमें उन्हें कई बार कुछ महदीनों के लिए जाना 
पड़ा । बीच-बीच में उनके स्वास्थ्य की चिन्ताजनक स्थिति भी बाधा 
डालती रही । अन्त सें वे आगरा-विश्वविद्यालय में हिन्दी-विद्यापीठ 
के अध्यक्ष और उसके त्रेसासिक मुखपत्र भारतीय साहित्य? के प्रधान 
सम्पादक होकर पटना से बाहर चले गये। इन्हीं अड्चनों से इसके 
सम्पादन का काम प्रायः रुक-रुककर चलता रहा । 


+ & अचपि इसकी पाण्डुलिपि का बृहदाकार पोथा अपने सम्पादक के 
घेय की अग्नि-परीक्षा लेनेवाला था, तथापि अपनी अनिवाय कठिनाइयों 
के बीच भी सम्पादक ने उसका आद्यन्त निरीक्षण-परीक्षण करके 
आवश्यक काट-छाँट और संशोधन-सम्पादन का काम स्तुत्य 
अध्यवसाय के साथ पूरा कर दिया। उन्होने पोथे का आकार छोटा 
करने में जितनी सावधानता से काम लिया, उतनी ही सहृदयता से 
लेखक के कठिन परिश्रम को भी साथेंक करने का प्रयत्न किया | 


( ३२ ) 


फलतः लगभग डेढ़ हजार पृष्ठों की पाण्डुलिपि संशोधित होकर 
यद्यपि कई सो ए्ष्ठों की ही रह गई, तथापि संग्रही लेखक के शोध- 
संघान का मूल्य-महत्त्व कम न होने पाया । 


जिस समय डॉक्टर विश्वनाथ प्रसाद इसका सम्पादन कर रहे थे, 
उस समय इसके लेखक बिहार-सरकार के जन-सम्पक-विभाग में एक 
पदाधिकारी थे। उन्होंने एक आवेदन-पत्र द्वारा, परिषद्‌ की सेवा में 
कुछ दिन रहकर, भोजपुरी-सम्बन्धी विशेष अनुसन्धान करने की 
इच्छा प्रकट की। परिषद्‌ के संचालक-मंडल ने आवश्यकता 
सममकर यथोचित कार्यवाही करने का आदेश दे दिया । सरकार से 
लिखा-पढ़ी करने पर लेखक की सेवाएँ नव महीनों के लिए परिषद्‌ को 
सुलभ हुईं | उस अवधि में लेखक ने सम्पादक के निर्देशानुसार बड़ी 
तत्परता से गवेषणात्मक काय किया। सम्पादक के तत्त्वावधान में 
लेखक को नई खोज के काम का जो सुअवसर मिला, उसका उपयोग 
उन्होंने अपनी भूमिका तैयार करने और बहुत-से नये कवियों का पता 
लगाने में ही किया। 
जब सम्पादित पाण्डुलिपि परिषद्‌-कार्योलय में आ गई तब उसी 
के आधार पर प्रेस-कॉपी तेयार करने में परिषद्‌ के सहकारी 
प्रकाशनाधिकारी श्रीहवल्दार त्रिपाठी 'सहृदय” ने बड़े मनोयोग से 
कास किया । यदि वे सम्पादक के संशोधनों और सुमावों के अनुसार 
लंमाड़ पोथे को सुव्यवस्थित करके साफ प्रेस-कॉपी न तेयार करते तो 
यह पुस्तक वत्तमान रूप सें किसी प्रकार छप नहीं सकती थी । 


किन्तु इसकी छपाइ शुरू होने पर जो संकट सामने आये, उनका 
उल्लेख अनावश्यक है। अठारह फाम (१४४ पृष्ठ तक) छप जाने के 
बाद दूसरे प्रेस में मुद्रण की व्यवस्था करनी पड़ी | इश्वर की असीम 
कृपा से आज वरसों वाद परिषद्‌ की यह श्रीगणेशी पुस्तक हिन्दी- 
जगत्‌ के समक्ष उपस्थित हो रही है। खेद है कि लेखक की उत्कण्ठा 
को बहुत दिनों तक कुण्ठित रहना पड़ा; परन्तु आशा है कि अपनी 
पुस्तक को प्रस्तुत रूप में प्रकाशित देखकर वे सन्तुष्ट ही होंगे; क्योंकि 
परिषद्‌ के अतिरिक्त शायद ही कोई प्रकाशन-संस्था उनके पाण्डुलिपि- 
पयोधि का मन्धन करके सार-सुधा निकालने का साहस कर पाती । 

इसमें सन्देह नहीं कि लेखक ने इसकी सामग्री का शोध एवं संग्रह 

करने में सच्ची लगन से वहुबषत्यापी अक्लान्त परिश्रम किया है । 


( द ) 


भोजपुरी के लिए उनकी निष्ठा और सतत साधना वास्तव में 
अभिनन्दनीय है। हमारी समस्त में तो विद्वान्‌ सम्पादक की श्रमशीलता 
भी अभ्यर्थना की अधिकारिणी है। हम उन्हें भी हार्दिक बधाई 
देते हैं । 

लेखक ने अपनी भूमिका में जिन पुरानी सनदों और पुराने दस्ता- 
बेजों के चित्रों की चर्चा की है, उन सबकी लिपि केथी है | अतः हिन्दी- 
पाठकों की सुविधा और सुगसता के लिए देवनागरी-लिपि में उनका 
स्पष्टीकरण कर दिया गया है। नागराक्षर में रूपान्तर करते समय 
उनके आवश्यक अंश का अविकल्ल रूप ही प्रकट किया गया है। पुस्तक 
के अंत में, आवश्यक संकेत के साथ, वे सब संलग्न हैं। उन सबके 
सहारे पाठकों को भोजपुरी के पुराने रूप का परिचय मिलेगा | परिषद्‌ 
को लेखक से उनकी मूल प्रतियों के बदले केवल उनकी प्रतिलिपियाँ 
ही प्राप्त हुई हैं। चित्रों की मूल प्रतियाँ भी लेखक के ही पास हैं। अतः ' 
जिज्ञासु पाठक यदि आवश्यकता समसें तो उनके विषय में लेखक से 
ही पत्राचार करें | उनकी प्रामाणिकता का सारा उत्तरदायित्व केवल 
लेखक पर ही है, परिषद्‌ पर नहीं । 

कई आअपरिहाय कारणों से इस पुस्तक में कुछ माजनीय भूलें रह 
गई हैं। दो भोजपुरी-कवियों--केसोदासजी और रामाजी--के नाम 
दुबारा छप गये हैं। प्रृष्ठ-संख्या १९४५, २१४, २१५ और २२५४ के देखने 
स भ्रम सिट जायगा | फिर प्रथम पृष्ठ के प्रारम्भ में ही जो शीषंक 
( आठवों सदी से ग्यारहवीं सदी तक ) है, वह लगातार ७१ प्रष्ठ तक, 
प्रत्येक प्रष्ठ के सिरे पर, छपता चला गया है। वस्तुतः उस शीषंक का 
क्रम २० वें पृष्ठ से पूष ही समाप्त हो जाना चाहिए था। किन्तु अब 
इन भूलों का सुधार आगामी संस्करण में ही हो सकेगा। संभव है 
कि अगले संस्करण में ओर भी कई तरह के परिवत्तन-परिवद्ध न 
हों। कारण, लेखक के पास बची हुई पुरानी सामग्री के. सिवा 
बहुत-सी नई सामग्री भी इकट्ठी द्वो गई है। 

यह एक प्रकार का सुयोग ही है कि लेखक और सम्पादक दोनों 
ही भोजपुरी-भाषी हैं। प्रेस-कॉपी तैयार करनेवाले 'सहृदय” जी भी 
उसी क्षेत्र के हैं। सम्पादक जी तो भोजपुरी के ध्वन्यात्मक तत्त्व का 
वैज्ञानिक अध्ययन उपस्थित करके लन्दून-विश्वविद्यालय से “डॉक्टर 
की.उपाधि भी पा चुके हैं। उस थीसिस का हिन्दी-अलुवाद वे परिषदू 


( ४) 


के लिए तेयार कर रहे हैं। वह कबतक प्रकाशनाथर्थ प्राप्त होगा, यह 
कहना अभी संभव नहीं; पर भाषा-विज्ञान-विषयक शोध के हित में 
उसका प्रकाशन अविलस्ब होना चाहिए--इस बात का हम उन्हें 
स्मरण कराना चाहते हैं। 


परिषद्‌ के प्रकाशनों में मोजपुरी-सम्बन्धी यह दूसरी पुस्तक है। 
पहली पुस्तक (भोजपुरी भाषा और साहित्य) यशस्वी भोजपुरी- 
विशेषज्ञ डॉक्टर उद्यनारायण तिवारी की है, जो विक्रसाब्द २०११ 
(सन्‌ १६४४ ई०) में प्रकाशित हुई थी । न जाने इस पुस्तक के साथ 
आरम्भ से ही कौन-सा दुष्ट भ्रह लग गया था कि परिषद्‌ की बुनियादी 
पुस्तक होने पर भी यह पेंतोस पुस्तकों के प्रकाशित हो जाने के बाद 
अब प्रकाशित हो रही है। संभवत: उसी कुग्रह के फेर से इसमें कुछ 
अवांछनीय भूल भी रह गई, किन्तु आशा है कि इसमें संकलित 
भोजपुरी-काव्य के सौन्दर्य-माधुय का रसास्वादन करने से इसके दोष 
नगण्य प्रतीत होंगे । 

साहित्यानुरागियों से अब यह बात छिपी नहीं रही कि लोक- 
भाषाओं में भी भावपू्ण और सरस कविताएँ काफी हैं। आज भी 
जो कविताएँ जनपदीय भाषाओं में रची जा रही हैं, वे बहुत लोकप्रिय 
हो रही हैं। क्षेत्रीय भापाओं के असंख्य कवि आजकल अपनी 
प्रतिभा का चमत्कार दिखा रहे हैं। हिन्दी के लोक-साहित्य की 
समृद्धि दिन-द्न वृद्धि पाती जा रही है। अभी तो जनकर्ठ में बसे 
हुए पुराने लोक-साहित्य से ही भाण्डार भरता जा रहा है, इधर नया 
भी रोज तैयार होता चलता है। कहाँ तक कोई संग्रह और प्रकाशन 
करेगा। तब भी वानगी देखकर, साहित्य का खजाना भरने के लिए 
ओर भाषा-तत्त्व के अनुशीलनाथे भो, उसके संग्रहणीय अंश का 
प्रकाशन नियमित रूप से होना चाहिए | 


भोजपुरी के पुराने ओर नये कवियों की रचनाएँ देखने से यह 
वात सहसा ध्यान में आती है कि अनेक अशिक्षितों में भी चमत्कृत 
करनेवाली प्रतिभा विद्यमान है। इसके प्रसाण इस पुस्तक में भी 
कहीं-कहदं मिलेगे । वहुत-से स्थल ऐसे दृष्टिगोचर होंगे जेसे केवल 
उन्नत भाषाओं की कविताओं में ही देखे जाते हैं। कितने ही नये 
शब्द और मुहावरे भी सामने आकर सन पर यह प्रभाव डालेंगे कि 
उनका प्रयोग शिष्ट समाज की भाषा से होना चाहिए। केवल भोजपुरी 


( ४ ) 


से ही नहीं, अन्यान्य लोक-भाषाओं से भी अनेक टकसाली शब्द हिन्दी 
में लिये जा सकते हैं | हिन्दी में खपने योग्य ऐसे क्षेत्रज शब्दों का एक 
अलग कोष ही बने तो अच्छा होगा | 

भोजपुरी की कविताओं के रचयिता और गायक देदातीं इलाके 
में भरे पड़े हैं। कितने तो अज्ञात ही दुनिया से उठ गये। जब से 
लोकभाषा की ओर साहित्य-जगत्‌ का ध्यान गया है तब से उनमें से 
कुछ तो प्रकाश में आने लगे हैं. और सरकार के द्रबार में भी उनमें 
से कुछ की पूछ होने लगी है। पर अब भी अनेक जनों का हमें पता 
नहीं है । लेखक महोदय का संग्रह देखकर तो बड़े विस्मय के साथ 
अनुमान हुआ कि भोजपुरी-क्षेत्र में जितने हिन्दी-कवि हैं, उससे कम 
भोजपुरी-कवि नहीं हैं.। 

यहाँ एक बहुत पुरानी बात का उल्लेख मनोरंजक होगा। सन्‌ 
१६०८ ई० की घटना है। आरा नगर में महादेव नामक एक अधेड़ 
हलवाई रोज मिठाइयों की प्रभात-फेरी करता था। हम विद्यार्थियों 
का वह मिठाई का मोदी था। वह अपनी बोली में स्वयं भजन 
बनाकर गाता था। उसके पास अपनी बिक्री बढ़ाने का यही एक 
आकर्षक साधन था। उसका बनाया और लिखवाया हुआ एक 
भजन हमारे पुराने संग्रह में मिला है। वह अविकल रूप में यहाँ 
उद्धू त है-- 
प्रिब जोगी होके बश्ठे जैँगलवा में । 
भस्तम बघम्बर साँप लपेटे, बइठे बरफ़ के बेंगलवा में | सिव० 
अपने त ञओोढ़ेले हाथी के छलवा, जगदम्मा सोहेली दुसलवा में || सिव० 
आगे गजानन खड़ानन खेलसु, गौरी बिराजसु बयलवा में || सिव० 
माता के नेह बाटे सिघवा खातिर, बाबा मन बसेला बएलवा में || सिव ० 
लड्डू आ पेड़ा से थार भरल बा, भाँग भरल वा गयलवा में॥ सिव० ' 
जे सुमिरे नित भोला बबा के, मगन रहे ऊ मंगलवा में ॥ सिब० 
जे केहु रोज चढ़ाई बेलप्तिया, गिनती ना होई केंगलवा में || सिव० 
सिवजी के छोह बड़ा बरियारा, पाप के पछारे दँँगलवा में || सिव० 

ऐसे-ऐसे बहुतेरे भजन उसने बनाये थे। उस समय हमें देशी 
बोली की कविता के महत्त्व का कुछ ज्ञान नहीं था। यह भजन तो 
शिव-भक्ति की प्रेरणा से लिख लिया था। यदि उस समय हम 
लोकभाषा का थोड़ा भी महत्त्व जानते होते तो अपने गाँव के स्वर्गीय 


( ६ ) 


अम्बिका अहीर के बनाये हुए जोशाले बिरहों को भी लिख लेते, जिन्हें 
वह डुग्गी बजाकर अपनी जवानी के ओजस्वी कण्ठ से गाता था। 
उन बिरहों में 'लंका-दहदन” और 'मेघनाद की लड़ाई' का ऐसा सजीव 
वर्णन था कि सुनकर शरीर कंटकित हो उठता था। 

आज भी देहातों में कहीं-कहीं ऐसे लोग मौजूद हैं, जो होली में 
स्वयं 'कबीरः और “जोगीड़ा' बनाकर गाते हैं। किन्तु विशेष पढ़े 
लिखे न होने पर भी वे अपनी अनगढ़ तुकबन्दियों में सामाजिक 
कुप्रथाओं और आधुनिक सभ्यता के अभिशापों पर जो चुटीले व्यंग्य 
कसते हैं, उन्हें सुनकर विस्मयानन्द हुए विना नहीं रहता । भत्ते ही 
उनकी मनगढ़न्त रचनाओं में व्याकरण और, पिछ्नल के नियमों का 
लेश भी न हो, पर उनके भाव तो अनूठे होते ही हैं। ऊपर दिये गये 
शिव-भजन में भी यतिभंग आदि कई तरह के दोष निकाले जा सकते 
हैं; पर गुशआही पाठक तो एक अपदू की सूमबूक पर निम्नय ही दाद 
देंगे। पदान्त के शब्दों का तुक मिलाने में उसकी कला का कुछ 
परिचय मिलता है। 

अन्त में, पाठकों की जानकारी के लिए, लेखक कौ हिन्दी-सेवा के 
सम्बन्ध में इतना ही कहना पयाप्त है कि वे बीसवीं सदी के रे 
चरण के प्रवेश-काल से ही बराबर साहित्याराधन में लगे हुए है। 
उनकी दस हिन्दी-पुस्तकें प्रकाशित ह--ज्वालामुखीः (गयकाव्य), 
“हृदय की ओर? (उपन्यास), वह शिल्पी था? और “तुम राजा में रंकः 
( कहानियाँ ), 'भूख की ज्वाला? (राजनीतिक निबन्ध), गद्य-संग्रह, 
भ्ोजपुरी-लोकगीत में करुण रस”, 'नारी-जीवन-साहित्य”, 'फरार की 
डायरी), 'कुअर सिंह--एक अध्ययन! | लगभग एक दजन हिन्दी- 
रचनाएँ अप्रकाशित भी हैं। भोजपुरी-रचनाओं का उल्लेख इस पुरतक 
में छुपे उनके परिचय में मिलेगा। यों तो यह पुस्तक स्वयं उनका 
परिचय दे रही हे । 

विश्वास है कि हिन्दी के लोक-साहित्य में इस पुस्तक का यथोचित 
आदर होगा और इससे उसकी श्रीवृद्धि भी होगी । 


चैन्न, शकाव्द १८७६ शिवपूजन सहाय 
मार्च, १६७८ ई० ( संचालक ) 


सम्पादक का मन्तेव्य 


यह ग्रन्थ उन थोड़ी सी इनी गिनी महत्त्वपूरों पुस्तकों मं है, जिनको बिहार- 
राष्ट्रभाषा-परिषद्‌ ने अपने जन्म के प्रथम वर्ष में ही प्रकाशनाथ स्वीकृत किया था। 
इसकी भूमिका के रूप में भोजपुरी भाषा और साहित्य का एक परिचयात्मक विवरण 
शोध करके लिखने के लिए परिषद्‌ ने इसके विद्वान संकेलयिता श्रीदु गोशंकरप्रसाद- 
सिंह को, जो उस समय जिला-जनसम्पक-अधिकारी के रूप में काम कर रहे थे, उस 
विभाग से कार्यमुक्त करके १६४१-४२ ई० में मेरे निरीक्षण और तत्त्वाबधान में काम 
करने को नियुक्त किया। आपने बढ़े परिश्रम और लगन के साथ अनेक दुर्लभ 
और बहुमूल्य सामप्रियों की खोज को और उनके आधार पर कोई दो सौ पृष्ठों की एक 
विद्धत्तापूरों भूमिका प्रस्तुत की। मूल अन्थ को लेखक ने पहले विषय-क्रम से तीन 
खंडों में तैयार किया था, परन्तु बाद में, मेरे निर्देश से उन्होंने इसे कालकरमानुसार 
केवल दो खंडों में संजोया। प्रथम खंड में आदिकाल से लेकर १६ थीं सदी त्तक॑ के 
कंवि और काव्य रखे गये तथा दूसरे खंड में २० वीं सदी के कबि। प्रथम खंड में 
कुल मिलाकर लगभग ५०० मुद्रित पृष्ठों कौ सामग्री थी और दूसरे खंड में लगभग 
७०० पृष्ठों की। इस प्रकार संपूर्ण भ्म्थ का आकार कोई बारह-तेरह सौ पृष्ठों का था। 
परन्तु अब अपने मूल आकार के प्रायः चतुर्थाश--लगभग तीन सौ पृष्ठों--के जिस 
लघु रूप में इसे प्रकाशित किया जा रहा है, उससे आप संभवतः इस बात का ठौक-ठौक 
अन्दाज नहीं लगा सकेंगे कि इसे तैयार करने मे अध्यवसायी लेखक ने पस्तुतः 
कितना श्रयास, परिश्रम और समय लगाया था। इसकी भूमिका लिखने के समय 
तो वे बराबर मेरे साथ थे ही और मेरे निर्देशन में असाधारण तत्परता के साथ काम 
करते रहे, परन्तु उसके बाद, इसके सम्पादन-काल में भी, उनके सतत सम्पर्क, परामश 
ओर सहयोग का लाभ मुमे प्राप्त होता रह्। मेरी ओर से तनिक संकेत पाते हौ वे 
किसी भी अंश में अविलम्ब आवश्यक परिवर्तन, संशोधन और परिवर्धन कर 
डालते थे। इसके लिए स्थान-स्थान के पुस्तकालयों में जाकर जहाँ भी जो ग्रन्थ या 
निबन्ध मिल पाते थे, उनका वे अध्ययन करते थे और लाभ उठाते थे। इस क्रम 
से भेरे निरीक्षण और सम्पादन-काल में भी उन्होंने इस ग्रन्थ के लगभग दो-तीन सौ 
पन्ने बदले होंगे और कुछ नये जोड़े भी होंगे। 

इस प्रकार बाबू साइब-द्वारा लिखित और टंकित कुल मिलाकर लगभग डेढ़ हजार 
पृष्ठ मेरी नजर से गुजरे होंगे। बढ़े ध्यान से मैंने उन्हें निरखा और परखा था। 
पहले यह विचार था कि इस पुस्तक को दो भागों में प्रकाशित किया जाय और 
तदनुसार इसकी छपाई आज से दो वर्ष पूर्व प्रारम्भ कौ गई थी। भ्रथम खंड के 
दस बारह फामे छुप भी चुके थे; परन्तु एक वर्ष बीत जाने पर भी जब प्रेस की 
कठिनाई के कारण छपाई का कार्य आगे नहीं बढ़ सका, तब यह निश्चय हुआ कि 
दोनों भागों को संक्षिप्त करके एक जिल्द में ही प्रकाशित कर दिया जाय । मेरे लिए 


९ भोजपुरी के कवि ओर काव्य 


यह एक विकट समस्या थी कि इस बृहत्काय सागर को गायर में कैसे भरा जाय! फिर 
भी, साधन और समय की सीमाओं तथा कई परिस्थितियों के प्रतिबन्धों के कारण 
यथासामथ्ये ऐसा करना पड़ा। इसके लाधवीकरण में परिषद्‌ के संचालक आदरणीय 
श्रीशिवपूजनसहायजी तथा प्रकाशन-विभाग के पदाधिकारी प॑० हवलदार त्रिपाठी 
ने भी पर्यौप्त थोग-दान किया है। आप दोनों तो परिषद्‌ के अभिन्न अंग हैं, फिर 
भी आपके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना हमारा कर्तव्य है। परन्तु इस लाघवीकरण के 
प्रयत्नों की प्रशंसा करते हुए भी में यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि बाबू साहब ने 
अपने अथक परिश्रम और खोज के द्वारा जो विशाल और ठोस सामग्री प्रस्तुत की थी, 
उसका यथार्थ महत्त्व, गन्थ के इस संत्तिप्त रूप से नहीं आँका जा सकता । मेरे विचार 
से उसका सुव्यवस्थित, सुसंघटित और समुचित उपयोग करके प्रथकू-एथक्‌ दृष्टियों 
से डॉक्टरेट के दो प्रबन्ध प्रस्तुत किये जा सकते हैं। आशा है कि इसकी छॉटी हुई 
श्रप्रयुक्त साम का भी सारथक उपयोग किसी-न-किसी रूप में बाबू साहब स्वयं या कोई 
अमन्य विद्वान यथारुचि करंगे। 

इस ग्रन्थ के प्रणयन और प्रकाशन में लगभग दस वर्षों' का समय लगा है; 
परन्तु यह भी ठीक है कि इस अ्रवधि में ज्यों-ज्यों समय बौतता गया है, त्यों-त्यों इस 
प्रनय की परिपक्वता भी बढ़ती गई है। इस बीच भोजपुरी भाषा और साहित्य के 
सम्बन्ध में जो भी नई सामम्मी सामने आती गई, उसका उपयोग बाबू साहब 
करते गये। मैं समभझता हूँ कि बंगला, मराठी, गुजराती आदि कुछ लिखित 
साहित्यिक परम्परावाली क्षेत्रीय भाषाश्रों को छोड़कर जितना काम भोजपुरी के संवंध 
में हुआ है, उतना और किसी जनपदीय भाषा या बोली के संबंध में नहीं। डा० 
ग्रियसेन, डा० हार्नले, बौम्स, डा० उदयनारायण तिवारी, डा० इष्णदेव उपाध्याय, 
श्री डब्ल्यू० सौ० आर, रेव्हरेंड शान्ति पीटर “नवरंगी?, डा० सत्यत्रत सिन्हा और 
पं० गणेश चौवे के तथा मेरे भी भोजपुरी-विषयक अलुसन्‍्धानों का यथावत्‌ निरीक्षण 
करके तथा अपनी स्वतंत्र मौलिक खोजों का आधार पहण करके विद्वान्‌ लेखक ने अपनी 
इस कृति को समृद्ध किया है। भोजपुरी के संवंध में कई विवेचनोय प्रश्नों पर उन्होंने 
नया प्रकाश डाला है। राजा भोज के वंश से भोजपुर-प्रदेश का लगभग डेढ़ सौ 
वर्षो का संबंध तथा उस काल में भोजपुरी पर संस्कृत का प्रभाव ; भोजपुरी के 'सोरठी 
बृजभार?, सोभानायक वनजारा, 'लोरिक-गौत!, 'भरथरी-चरित्र!, 'मैनावती”, कु वर 
विजयी” आदि प्रसिद्ध गाथा-गीतों का काल-निशेय आदि विषयों की मौमांसा लेखक 
ने बढ़े सुन्दर और विचारपूरो ढंग से की है। चम्पारन के 'सरभंग सम्प्रदाय! तथा 
उसके सन्‍त कवियों की जीवनी और रचनाओं को किसी अन्य के अन्तर्गत सवप्रथम 
प्रस्तुत करने का भ्रोय भी बाबू साहब को हो है। परिपद्‌ ने सरभंग-सम्प्रदाय के 
सम्बन्ध में जो एक स्वतंत्र ग्रन्थ प्रकाशित किया है, उसकी रचना के वहुत्त पहले ही 
बावू साहब ने अपने ग्रन्थ 'भोजपुरी के कवि और काव्य! के अन्तर्गत इस सम्प्रदाय की 
रचनाओं की समाविष्ट किया था। इसके अतिरिक्त राजाज्ञाओं, सनदों, पन्नों, दान- 
पत्रों, दस्तावेजों तथा मामले-मुकदम के अन्य कागजों के आधार पर सन्‌ १६२० ई मे 
आधुनिक काल तक के भोजपुरी-गय के भी कई प्रामाणिक नमूने दिये गये है और 
उनके मूल रूपों के कुछ फोटो भी यथास्थान मुद्रित किये गये हैं। 


सम्पादक का मन्तव्य रे 


गु 


परिषद्‌ के प्रकाशन-विभाग ने पुस्तक की छपाई में यथेष्ट सावधानी बरती है; फिर 
भी जदाँ-तहोँ छपाई की कुछ भूले और त्रुटियों रह गई हैं। उनके लिए मै सबकी 
ओर से क्षमा प्राथना करता हूँ। आठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तक का विवरण 
३२वें पृष्ठ में समाप्त हो जाने के बाद भी यही शीर्षक पृष्ठ ५) तक छुपता चला गया है, 
यद्यपि इन बाद के पूष्ठों में इस अवधि के नहीं, बल्कि महात्मा कबौरदास, कमालदास 
आदि सन्त कवियों के वर्णन हैं। इसी प्रकार छपरे के प्रसिद्ध सन्‍्त रामाजी के संबंध 
में पहले कहा गया है कि उनकी कविता का कोई उदाहरण नहीं मिलता, परन्तु बाद 
के विवरण (पृ० २२४५-२६) में एक उदाहरण दिया गया है। इस श्रमाद का कारण 
स्पष्टतः यही है कि बाद में एक उदाहरण प्राप्त हो गया और इसलिए उसे देना उचित 
प्रतीत हुआ। यह बात भी संसवतः कुछ खटकेगी कि पुस्तक के अन्दर भत्त हरि 
(११ वीं सदी) के बाद भोजपुरी के किसी अन्य कवि और काव्य कौ च्चो नहीं को 
गई है। उसके बाद एकाएक सीधे कबीरदास (१४वथौं-१५वीं सदी) की चर्चा की गई है। 
इससे शंका हो सकती है कि क्‍या ११वीं से १४वीं या १५वीं शताब्दी के मध्य के 
समय को भोजपुरी-साहित्य के विकास में एक सवंथा शूल्यकाल माना जाय। इस रिक्त 
स्थान की पू्ति के लिए मैं इस पन्थ की भूमिका के पु० ३३ से ३६ तक के विवरण कौ 
ओर आपका ध्यान आकर्षित करता हैं। इस अंश में लेखक ने गोरखनाथ, नाथपंथी- 
साहित्य तथा भोजपुर-गाथा-गीतों का संकेत किया है। इसमें संदेह नहीं कि 
गोरखनाथ के नाम से प्रचलित अनेक बानियोँ मे भोजपुरी के घहुतेरे प्रयोग मिलते हैं। 
११वीं शताब्दी में पंडितवर दामोदर द्वारा लिखित 'उक्ति-व्यक्ति-प्रकंरण” में उस समय 
वाराणसी में प्रचलित भाषा का जो नमूना मिलता है, उससे भोजपुरी के घिकास का 
पता चलता है? । उसमें व्यवह्ृत छात्र”, 'अज्ञा), 'स्खति), धर्म)! आदि-जैंसे तत्सम 
शब्द उसके परिनिष्ठित विकसित रूप के प्रमाण हैं। उससे हमें इस महत्त्वपूर्ण बात 
का भी ज्ञान होता है कि इस भाषा में उस समय तक कथा-कहानी का साहित्य भी रचा 
जाने लगा था। भोजपुरी में जो कई प्रसिद्ध गाथा-गौत प्रचलित हैं*, उनकी रचना 
इसी ११ थीं से १४ वीं ३० सदी के बीच हुईं जान पड़ती है। इनमें से अनेक गाथाएँ 
गद्य-पद्नमय हैं। यह ठीक है कि मौखिक रूप से रहने के कारण इनमें भाषा का जो 
स्वरूप मिलता है, वह प्राय. आधुनिक ही है, पर उनमें जो सामाजिक चित्रण, धार्मिक 
प्रथाएँ और विश्वास तथा ऐतिहासिक विवरण मिलते हैं, उनसे यह सुपष्ट हो जाता 
है कि लोक-समाज में उनकी रचना और प्रचार गोरखनाथ के बाद ११वीं से १४वीं> 
१५वीं सदी के बीच में ही हुआ होगा। 'सोरठी बृजमार', 'सोसानायक बनजारा?, 'लोरिकी! 
आदि गाया-गौतों के रचना-काल के संबंध मे लेखक के निष्कर्ष का आधार यही है। 


३. “क्ति-्यक्तिअकरण” को भाषा को डा० सुनीतिदुमार चाट्टर्व्या ने 'कोसक्षी” का प्राचीन रूप 
बताया दै; परन्तु उसके चहुतेरे प्रयोग ऐसे हैं, जो आब सी सोजपुरी में ज्यों-के-स्यों पाये जाते हैं, जैसे--- 
का करे, काहे, काहाँ, ईहाँ, बा्जे (काज से), दौडी, दूक, कापास, बाद जादि। मंग्रव है, प्राचीन 
काक में कोसक्षी जौर मोजपुरी में और मी जधिक समरूपता द्वो । इस दृष्टि ते, मेरी सम से, उसमें 
भोजपुरी के विकार के प्रमाण प्राप्त करना जनुचित नहीं है। 'वक्ति-व्यक्तिअ॒करण” के ऐेखक पंडित 
दासोदर ने स्वयं अपनी भाषा को केवल अप॒ग्र'श चताया है, कोसजी नही ! 


न देखिए--छ० सप्यंत्रत सिनह्ा, 'भोजपुरी क्षोक-गाथा!- हिल्डस्ताी प्केल्मी, इवादह्ाबाद। _ 


४ भोजपुरी के कवि और काव्य 


उन्होंने भुल्ला दाऊद के प्सतिद्ध ग्रेमयाथा-काब्य 'लोरिकायन! (१३७० ईं०) की भी 
चचो को है (भूमिका--ध० ३५)। इसकी भाषा यों तो अवधी है, पर उसमें अन्यान्य 
भाषाओं के मिश्रण के साथ भोजपुरी के भी अनेक रूप सम्मिलित हैं और कुछ ऐसे रूप 
भी हैं, जो भोजपुरी और अवधी--दोनों में समान हैं * । 

भोजपुरी के काव्य-साहित्य के इतिहास को लेखक ने पाँच कालों में विभक्त 
किया है। प्रारंभिक अविकसित काल (७०० से ११०० ई०) में उन्होंने सिद्ध साहित्य को 
को रखा है। महामहोपाध्याय पं० हरप्रसाद शाज्ञी ने १६१६ ३० में सिद्ध-कवियों की 
कुछ रचनाओं का एक॑ संग्रह वोद्धगान ओ दोहा” नाम से प्रकाशित किया था। 
तब से उनकी भाषा के संबंध में विभिन्न मत प्रकंठ किये गये हैं। कुछ लोगों ने 
उनमें बंगला, कुछ ने उड़िया, कुछ ने मगही, कुछ ने मैथिली और कुछ ने हिन्दी के 
प्रारंभिक रूप का पता पाया है। इसी प्रकार इस ग्रन्थ के लेखक ने उनमें भोजपुरी का 
दर्शन किया है। सच वात तो यह है कि इन पूर्वा भाषाओं का उद्गम मागधी या अर्ध- 
मागधी था। उनके स्थानीय रूपों में उस समय बहुत अधिक भेद नहीं था। अतः 
इन भाषाओं के आधुनिक रुपों में भी धनिष्ठ साम्य दिखाई देता है। ऐसी दशा में 
उनके बहुतेरे समान ढूपों में, इनमें से किसी के भी आदिम विकास के रुप हैं ढ़े जा 
सकते हैं। कई सिद्ध-कवि नालन्दा और विक्रमशिला के निवासी थे, जहाँ की भाषा 
मगही है। मगहों और भोजपुरी की सौमाएँ एक-दूसरे से दूर नहीं, सटौ-सी हैं। 
अतएव यह अनुमान किया गया है कि इन लोगों ने मगही के ही प्राचीन रूप 
का व्यवहार किया होगा। यह भी स्वेथा सम्भव है कि इन कवियों की रचनाओं में 
मगही के साथ भोजपुरी के भी हपों का मिश्रण हुआ हो। आरंभिक काल के वाद कम- 
क्रम से लेखक ने आदिकाल (११०० से १३२५ ई० ), पूर्व-मध्यकाल ( १३२५ से 
१६५०), उत्तरमध्यकाल (१६५० से १६०० ६०), आधुनिक काल (१६०० से १६४० ईं०) 
का,परिचय दिया हैं। इस काल-विभाजन में उन्होंने मुख्यतः पं० रामचन्द्र शुक्ल के 'हिन्दी- 
साहित्य के इतिहास” के काल-विभाजन का आधार स्वीकार किया है। प्रत्येक काल 
के मुख्य कवि और काव्य का उन्होंने बहुत हीं सरस परिचय प्रस्तुत किया है। भूमिका 
में उन्होंने भोजपुर-प्रदेश, उसके इतिहास, भोजपुरी जनता और भोजपुरी भाषा तथा 
साहित्य का सामान्य और संक्षिप्त वर्णन दिया है। 

बस्तुतः किसी भी भाषा अथवा साहित्य का सहानुभूतिपूर्ण अध्ययन तवतक॑ 
असंभव है. जवतक॑ उस विशेष भाषा-भापी जन समुदाय के आचार-विचार तथा 
भावनाओं से हम कुछ परिचय न प्राप्त कर लैं। भोजपुरी भाषा-भाषी जन-समुदाय 
की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जिनकी ओर ध्यान आकर्षित किया जाना आवश्यक और 
उचित ही है। इस भाषा के वोलनेवाले सदियों से अपनी वीरता भौर पराक्रम के लिए 
प्रसिद्ध हैं। प्रसिद्ध धौर आल्हा और ऊदल का जन्म-स्थान यही प्रदेश है। सन्‌ १८४७ 
_ै. कर बदायूनी के 'मुनसबुत्तवारोस', में इस अन्य का उक्तेस दे पीर वहाँ इसका उमय ८८२ 
द्विदरी (-१३८० ६०) ब्ताया गया है । इस विपय में देसिए-- 

हंबद दुसन जध्फरी, 'रेयर फ्ेग्मेंद्स ऑफ चन्दायन ऐंठ मृग्रावतीर, फर्रेंट स्ठील, पटना कॉडेल- 
मैयण्नि, १६५५, ए० ६२--३ तथा विश्वनाथ मठाद, 'घन्दायन (टिणणी)', 'मारतीय सादि्ित्य', ज्नयरी, 
१६४६ डृ०, पृ० श््६« ६ १॥ 


सम्पादक का मन्तव्य है 


के विद्रोह के पहले तक हिन्दुस्तानी पल्टन में भोजपुरी भाषा-भाषियों की संख्या बहुत 
अधिक थी। भोजपुरी जनता की युद्धप्रियता और उम्रता के संबंध में अनेक कहावत 
प्रचलित हैं-- 
शाहाबाद जिले में होली का पहला ताल इसी गान से ठोंका जाता है-- 
बाबू कूँवर सिंह तोहरे राज बरिनु हम ना रेंगइबो केसरिया । 
कृष्ण की १४ गारिक लीलाओं की अपेक्षा भोजपुरी जनता को उनका वीर चरित्र 
ही आकर्षित करता है-- 


* लरिका हो गोपाल कूदि पड़े जमुना में । 
यह होली भोजपुर में बहुत प्रचलित है। उक्ति प्रसिद्ध है कि-- 


भागलपुर के भगोतिया, कदलगाँव के ठग । 
पटना के देवालिया तीनों नामजद ॥ 
सुनि पावे भोजपुरिया तो तीनों के तूरे रग ।* 


डा० ग्रिंयसेन ने ठीक ही कहा है कि हिन्दुस्तान में नवजागरण का श्रेय मुख्यतः 
ब॑ंगालियों और भोजपुरियों को ही प्राप्त है। बंगालियों ने जो काम अपनी कलम से 
किया, वहीं काम भोजपुरियों ने अपनी लाठौ से किया। इसीलिए लाठी कौ प्रशंसा में 
गिरधर को जो प्रसिद्ध कुंडलिया सोजपुरी-प्रदेश से प्रचलित है--“सब हथियारन 
छोड़ि हाथ में रखिह5 लाठीः--उसीसे उन्होंने अपने 'लिंगुइस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया! में 
भोजपुरी के अध्याय का श्रीगणेश किया है। 

भोजपुरी-भाषा-भाषियों की वीर प्रकृति के अनुरूप ही उनकी भाषा भी एक चलतौ 
टकसाली भाषा है, जो व्याकरण की अनावश्यक उलमनों से बहुत कुछ उन्मुक्त है। इस 
आओजस्वो और प्रभावशाली भाषा का भोजपुरी जनता को स्वभावतः अभिमान है। 
दो या दो से अधिक-भोजपुरी भाषा-भाषी, चाहे वे कितने ही ऊँचे या नीचे ओहदे पर 
हाँ, कहीं भी, कभो भी, जब आपस में मिलते है तब अपनी मातृभाषा भोजपुरी को 
छोड़कर अन्य किसी भाषा में बातचीत नहीं करते । 


वस्तुतः पूर्वा भाषावग में भोजपुरी का एक विशिष्ट स्थान है। प्रियर्सन साहब ने 
भोजपुरी को मैथिली और मगही के साथ रखकर उन्हें एक सामान्य नाम “बिहारी? 
के द्वारा सूचित किया है और बंगाली, उड़िया, आसामौ तथा अन्य बिहारी भाषाओं के 
समान भोजपुरी की भी मागधी-अपभ्र'श से व्युत्पन्न माना है। किन्तु साथ ही उन्हें 
यह भी स्वीकार करना पड़ा है कि मैथिल्ी और मगही का पारस्परिक संबंध जितना 
घनिष्ठ है उतना उनमें से किसी का भी भोजपुरी के साथ नहीं है। एक ओर, मैथिली- 
मगही ओर दूसरी ओर भोजपुरी के घातु-रुपों में जो स्पष्ट भेद है, उसको ध्यान में 
रखते हुए डॉ० सुनौतिकुमार चटर्जी * ने भोजपुरी को मैथिली-सगही से मिन्न एक 


न्‍->्पननननननगनीनन- नानी मनन ननयभन.. 


१५ पेसा प्रतीत होता है कि जि समय यह कहावत प्रचण्षित हुईं, उठ समय इन स्थानों में ऐसे कोगों 
की अधिकता द्वी गईं द्वोगी । 
३, 00%, 8. हू, 0॥४#०त१, 0, 0, 8, 7.,, 9. 99. 


दे भोजपुरी के कवि ओर काव्य 


प्रथक्‌ वर्ग--'पश्चिमी मागधन! के अंतर्गत रखा है। इसके विपरीत डॉ० श्यामस॒न्द्र- 
दास, डॉ० धौरेन्र वर्मा * आदि हिन्दी के भाषाशात्नी-विद्धान्‌ अवधी आदि के समान 
भोजपुरी को भी हिन्दी से संबद्ध उप-भाषाओं की श्रेणी में रखने के पक्त में हैं। मेरी 
समम में भोजपुरी का बहुत-कुछ संबंध अर्धभागधी से जान पढ़ता है। प्राइत के 
वैयाकरणों ने मागधी में दन्‍्त्य, मूर्धन्य और तालव्य 'शः के स्थान में केवल तालव्य 
शए7 तथा ए के स्थान में 'ल? के प्रयोग का जो एक मुख्य लक्षण बताया है, 
वह भोजपुरी में नहों पाया जाता। भोजपुरी के उच्चारणों में अवधी के समान 
तालव्य 'शः के स्थान में भी दन्त्य 'सः का ही प्रयोग होता है और ऐसे रूपों की 
प्रचुरता है, जिनमें पश्चिमी हिन्दी में भी जहाँ 'ल? है, वहाँ भोजपुरी में 'र? का ही 
प्रयोग होता है। जैसे-- 


हिन्दी भोजपुरी 
थाली (सं० स्थाली) थारी 
केला केरा 
काजल काजर 
तत्नवार तरवार 


फल फर्‌ 
भोजपुरी के अस्‌-प्रत्ययान्त देखस, देखलक्ष, देखतस-जैंसे क्रियापदों में अर्धमागधी 
से व्युत्पन्त अवधी से वहुत-कुछ समानता है। यह ठीक है कि भापा-विज्ञान की दृष्टि 
से सोनपुरी में बहुत ये ऐसे लक्षण है, जो उसकी वहनों--मगही, मैथिली और वेंगला 
भाषाओं--से मिलते हैं; पर साथ ही शब्दकोश, विभक्ति, सर्वनाम और उच्चारण, 
इन कई विषयों में उसका श्रवधी तथा पूर्वा हिन्दी की अन्य उप-भाषाओं से अधिक 
साम्य है। तुलसीदास के 'रामचरितमानस? की कई पंक्तियों उतने ही अंश में भोजपुरो 
की रचनाएँ कही जा सकती हैं, जितने अंश मे अवधी या वैसवारों की। इसी 
प्रकार कबीर आदि समन्‍्तो की रचनाएँ, जो मुख्यतः भोजपुरी में थीं, अवधी की रचनाएँ 
समभी गई । 
सच पूछ तो आज भारतवर्ष की किसी भी आधुनिक भाषा को, किसी भी विशेष 
प्राकृत या अपभ्रश के साथ, हम निश्चयात्मक रूप से सम्बद्ध नहीं कर सकते; क्योंकि, 
जैसा टनर3 या ब्लाक महोदय ने कहा है--“प्राचीन प्राकृत या अपभ्र श-काल में किसी 
विशेष जनवग द्वारा वास्तविक रूप में बोली जानेत्राली भाषा का कोई प्रामाणिक 
लिखित उदाहरण आज हमें उपलब्ध नहीं है श्रौर दूसरी ओर वर्तमान देशों भाषाशों में 
तीमयात्रा, सांस्कृतिक एकता, शादी-ब्याह के सम्बन्ध, देश-प्रदेश के यातायात तथा 
भाषागत समान परिवत्त॑नों के कारण परस्पर वहुत-कुछ मिथ्ण हो चुका है ।” 


१. श्यामसुन्द्र दाठ, हिन्दी-भापा और सादित्य। 
२५ टॉ० धारन्द्र पर्मो, 'दिन्दी-मापा का एतिद्वास,' पृ० ३२-१२ और प्रामीय दिन्दी, पृ० २५-२६ 
, ३, मे, ७ पशाधाएए हाक्ा॥। ?॥070099 (२. है. 3, 8, 4920, 
पृ० ५२६) 
है. ठी0५॥ 0 ऊं0ागरधां0ा 0९ ॥0॥9फ८ फै06, पृ० १-३७ | 


सम्पादक का मन्तव्य ७ 


 ग्राकृत-बैयाकरणों की शब्दावली का आश्रय ग्रहण करके हम निश्वयात्मक रूप से 
अधिक-से-अधिक यही कह सकते हैं कि भोजपुरी प्राच्य भाषावर्ग के अंतर्गत आती है, 
जिसके पश्चिमी रूप अर्ध-मागधी और पू्वा रूप मागधी--इन दोनों के बीच के प्रदेश 
से सम्बद्ध होने के कारण, उसमें कुछ-छुछ अंशों में दोनों के लक्षण पाये जाते हैं। 
भोजपुरी-भाषा-साषियोँ का हिन्दी-प्रदेश से इतना अधिक ऐतिहासिक तथा 
सांस्कृतिक संबंध रहता आया है कि उसमें कभी हिन्दी से प्रथक्‌ स्वत॑त्र साहित्य की 
परंपरा विकसित करने की आवश्यकता का बोध ही नहीं हुआ । शिक्षित भोजपुरी- 
भाषा-भाषी अबतक मध्यदेश की भाषा को ही साहित्य तथा संस्कृति की भाषा मानते 
आये हैं और उसी को उन्होंने अपनी प्रतिभा की भेंट चढ़ाई है। खड़ी बोली के 
प्रसिद्ध गद्यकार सदल मिश्र, आधुनिक गद्यगेली के जन्मदाता भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, 
हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार प्रेमचंद और इस थुग के श्रेष्ठ कवि 'असाद! भोजपुरी- 
प्रदेश के ही थे और अपने घरों में भोजपुरी का हौ प्रयोग करते थे। इसके अतिरिष्त 
-भोजपुरी में स्वतंत्र साहित्य-परम्परा के अभाव का एक दूसरा कारण यह भी है कि 
मध्यकालीन भक्तों और संतों ने साहित्य-सष्टि के लिए किसी एक भाषा का आश्रय लेते 
हुए भी उसमे 'समान मिश्रित भाषा? के आदर्श को ही अपनाना उचित सममा था, 
जिससे उनकी भाषा में सबका ग्रतिबिम्ब उतर आबे और वह सबके लिए समान रूप 
से ग्राह्ष हो सके। मैं तो समझता हैँ कि कृष्णमक्ति-शाखा की मुख्य भाषा जैसे 
ध्रजभाषा थी, रामभक्ति शाखा तथा श्रेममार्गों मक्तिशाखा की मुख्य भाषा जैसे अवधी 
थी, वैसे ही कंबीर आदि संतो की ज्ञानमार्गी भक्ति-शाखा की सुख्य भाषा भोजपुरी थी। 
उसी में उन्होंने रुवयं यां उनके बाद उनके अनुयायियों ने दूसरी भाषाओं के रूपों का 
मिश्रण किया। अपनी भाषा के संबंध में तो कंबीर ने स्पष्ट कहा है कि +- 


“बोली हमरी पूरबी, हमको लखे न कोय । 
हमको तो स्रोई लखे, जो प्रब का होय ।” 


अनेक मिश्रणों के रहते हुए भी कबीर की रचनाओं में भोजपुरी के ठेठ अविकृत 
रूप भरे पड़े है। कबौर के अतिरिक्त धमंदास, धरनौदास, शाहाबाद के दरिया साहब 
तथा चम्पारन के सरभंग सम्प्रदाय के अनेक झंथ भोजपुरी में हौ हैं। इन सबका 
परिचय लेखक ने यथास्थान इसे ग्रंथ में दिया है। 


इनके अतिरिक्त उन्होंने अपने इस संकलन के लिए कुछ ऐसे प्रसिद्ध कवियों की 
रचनाओं के भी छुने हुए नमूने इकट्ठ किये थे, जो मैथिली, ब्रजभाषा, अवधी आदि के 
सर्वोच्च साहित्यकारों मे गिने जाते है। निस्सन्देह यह कहना विलक्षण और आश्चर्यप्रद 
होगा कि विद्यापति ठाकुर, गोविन्ददास, सूरदास, तुलसीदास, रैदास तथा भौराबाई ने 
भी भोजपुरी में रचनाएँ की थीं। श्री दुर्गोशंकर बाबू ने इन कवियों के नाम से ग्रच- 
लित कई भोजपुरी गीत और पद एकत्र किये हैं। इसका मूल रहस्य यह हैकि 
इन समर्थ कवियों की वाणी जिस अदेश के साधारण जनवर्ग की जिहा पर आसीन 
हुई, उसी की क्षेत्रीय बोली या भाषा के रंग में रेंग गईं। भारती के इन अमर 
पुजारियों की नैवे-हूप रचनाओं ने विभिन्न पदेशों के लोक-मानस और लोक-वाणी का 
अनुरजनन करने के लिए उनकी सहज रुचि के अनुसार मिन्न-मिन्न रूपों में अपना वेश 


दे भौजपुरी के कवि और कांच्ये 


बदला और तदनुसार अभिव्यक्ति पाई। इस प्रक्रिया कौ गति में इस बात से भौ 
विशेष बल आया कि हमारी भारतीय भाषाएँ एक-दूसरे से बहुत अधिक सज्निकट हैं 
और कई अंशों में समरूप हैं। हमने ऊपर इस बात का भी संकेत किया है कि हमारे 
मध्यकालीन भक्त और सन्त कवियों ने किसी एक भाषा के सर्वथा विशुद्ध रूप में ही 
रचना करने की शपथ नहीं ली थी, बरन्‌ अपनी वाणी के लिए समन्वित भाषा के 
आदर्श को अपनाया था।* इसी कारण एक ही कवि की रचना में हमें बहुधा अन्य 
जनपदौय प्रयोगों के भी रूप मिलते हैं। ऐसे मिश्रित रूपों की उपेक्षा करना भाषा 
और साहित्य के विकास के इतिहास कौ दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। फिर भी 
विस्तार-भय से लेखक के चुने हुए ऐसे नमूनों को ग्रन्थ में सम्मिलित नहीं किया जा 
सका। परन्तु लोक-वाणी और लोक-मानस के रागात्मक प्रभाव को समभने के लिए 
वे बढ़े मजेदार और महत्त्वपूर्ण हैं। ऐसे कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किये जाते हैं-- 


विद्यापति-- 
लेखक ने अपनी विधवा चाची से निम्नलिखित गौत को आधी रात में गा-गाकर 
रोते हुए सुना था-- 
बसहर घरवा के नीच हुअरिया ए ऊधो रामा मिलमिल बाती। 
पिया ले में खुतलों ए ऊधो, रामा अँचरा डसाई। 
जो हम जनितों पु ऊधो, रामा पिया जहहेँ चोरी। 
रेसम के डोरिया ए उऊधो, खींची बँधवा बँधितों। 
रेसस के डोरिया ए उधो, दृटिफाटि बहहें। 
बचन के बान्हल पियवा, रासा से हो कहाँ जईइहँ। 
डा० प्रियर्तन ने भी रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के जनेल के नये सिरीज्ष (पृष्ठ 
4८८) में इस गौत को यह प्रमाणित करने के लिए उद्धुत किया था कि विद्यापति ने 
भोजपुरी में भी गीत लिखे थे। इस गीत का एक दूसरा पाठ लेखक को अपनी चाचीजी 
से ही प्राप्त हुआ था, जिसे नौचे उद्धृत किया जा रहा है-- 
प्रेम के बन्दलका पियवा जीचे स्गं जहहें ॥श॥ 
जवनि डगरिया ए ऊधो, रामा पिया गइलें चोरी । 
तवनि डगरिया ए ऊधो, रासा बगिया लगइबों । 
बग्िया के ओते-ओते रासा केरा चरियर लगाई ॥णा। 
श्रेंगना ससुरवा ए ऊधो, रासा ढुअरा भसुरवा । 
कइहसे बाहर होखबि रासा बाजेला नूघुरवा ॥द्षा 
गोढ़ के नृपुरवा रासा, फाड़े बाँधि ल्दयों 
अंलप जोबनवा ए ऊधो, हिरदा लगइयवों ॥णा 
पात सधे पनवा एं ऊधो, फर मथे नरियर, 
तिवई मधे राधा ए ऊधो, पुरुष मधे कन्हाई ॥4ा। 
१. इस सम्दन्ध में देसिए-- 
विश्वता४ प्रार, 'प्रश्नापा-रेनू श्रदबास दही ने अनुमानी', श्रन्‍्मारती' (असित्मारतीय अ्रदूसाद्वित्य- 
गढ़" फे २६९३ ई० फे मेगपुरी-अधियेयन में फ़थ्यछ-पद से दिया पु जय भाषण) । 


सम्पादक का मन्तव्य ६ 


कतलो पहिरो ए ऊधो, कतलें समुझों गुनवा, 
सोने के सिंघोरवा ए्‌ रासा, क्लञागि गइले घुनवा ॥शा 
मोरा लेखे आहो ए ऊधो, दिनवा भइले रतिया, 
मोरा लेखे आहो ए ऊधो, जझुना सइली भयावनि ॥१० 
भनहिं विद्यापति रामा, सुनहोँ ब्रजनारी 
घिरजा धरहु ए राधा, मिल्तिहँ मुरारी ॥१भ॥ 


लेखक ने भोजपुरी-प्रदेश में विद्यापति के नाम से प्रचलित “विदापत*-राग का भी 
उल्लेख किया है। 


मैथिली और भोजपुरी की कई विभक्तियाँ और क्रिया-पद समान हैं। इसलिए थोड़े 
अन्तर के साथ एक गीत का रुपान्तर दूसरी भाषा में सहज ही संभव है। 
पं० रामनरेश त्रिपाठी ने भी अपनी 'कविता-कौमु्दा', भाग--१ में विद्यापति कौ 
एक व्यंग्योक्ति तथा एक बारहमासा उद्धृत किया है, जिंसकी भाषा बहुत-कुछ अंशों में 
भोजपुरी है। न्रिपाठीजी ने स्वयं उसे हिन्दी-मिश्रित भाषा कहा है। उनके बारहमासे 
की कुछ पंक्तियों यहाँ उद्धुत की जा रही हैं -- 
कुआर मास बन बोलेला सोर, 
झाउड आड गोरिया बलमसुआ तोर, 
अइल्तेे बलसुआ पुजली आस, 
पूरल “बिद्यापतिः बारह मास। 
मों ना रूलबि हो । 


सूरदास-- 
इस संबंध में मुझे अपने बचपन की एक बात याद आती है। सन्ध्या-काल में 
खेल-कूद के बाद बाहर से घर शअआने में हमलोगों की जब देर हो जाती थी, तब अक्सर 
आऑगन में मेरे पितामह की बूढ़ी माता सूरदासजी का यह भजन गाने लगती थीं-- 
साँक भददल घरे ना अइले कनन्‍्ह॒हया । 
यह सूरदासजी के भजन का भोजपुरी-रूप है। इसमें नाममात्र का परिवर्त्तन 
कर देने से इसका ब्रजभाषा-रप प्रस्तुत हो जायगा। 
लेखक ने भोजपुरी-प्रदेश के चमारों, मुसहरों आदि पिछुडी जातियों में प्रचलित 
सूर के कई गौत प्राप्त किये हैं, जिनकी भाषा आशद्योपान्त भोजपुरी है। उदाहरण-- 
काहे ना ग्रभ्गुता करीं ए हरी जी काहें ना प्रभुता करीं, 
जइसे पतंग दीपक में हुल्लसे पाछले के पु ना धरे, 
ओइसे के सूरमा रन में हुलसे, पाछे के पगु ना घरे ॥ 
ए्‌ नाथ जी काहे ना० 
कृष्ण के पाती लिखत रुकुमिनी, बिप्र के हाथ धरे 
झब जनि बिलँम करी ए प्रभु जी, गहडर चढ़ि रडरा धाईं ॥ 
ए नाथ जी काहे ना० 


१० भोजपुरी के कवि और काव्य 


साजि बरात सिसुपाल चढ़ि अइले, घेरि लिहले चहु ओरी 
अब जनि बिलेंस करीं ए प्रभुनी, गुर त्यागि रउरा घाईं ॥ 
ए नाथ जी काहे ना० 
( मण्ड। 77४8०. 0. 8, ) 


हु फ्रेज़र ने रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ वंगाल, १८८३ में 'फॉकलोर 
फ्रॉम इंस्टर्न गोरखपुरःशीर्षक के अन्तर्गत सूरदास का एक बारहमासा श्रकाशित 
किया था। इसका सम्पादन किया था स्वयं डॉ० ग्रियर्सन ने। उसका कुछ अंश यहाँ 
उद्धृत किया जाता है-- 
उपाइ करों सोरि आती 
स्याम भेल कुबरी बस जाई। 
चढ़त असाढ़ घन घेरि अइले बदरा 
सावन मास बहे पुरवाई । 
है हर 4 
पूख सास परत तुखारी माघ पिया बिनु जाड़ो न जाई । 
फागुन का सेंग रंग हम खेलब सूर॒स्याम बिना जदुराई । 
भोजपुरीअदेश में सूरदास के नाम से प्रचलित एक भ्ूूमर और एक सोहर के 
नमूने देखिए-- 


भूसर 
कल ना परेला बिनु देखले हो नाहीं अइल्ले गोपाल । 
कुबरी बसेले ओही देखवा हो जाँदाँ मदन गोपाल । 
चन्दन रगरि के भोरवली हो जसुदाजी के लाल । 
मोतियन छुँद॒वा बरसि गइते हो सुसरन के धार । 
अब सून लागेला भवनवाँ हो नाहीं अइलें गोपाल । 
सूरदास बलिहारी हो चरनन के आस । 


सोहर 

भादों रयनि भसयावनि बिजुरी चसकह हो, 
ललना, तेहि छिन प्रगटे गोपाल देवकी मुद्ति भैली हो ! 
चन्दुन लकड़ी कटाइब  पर्सेंधी जराइब दो, 
ललना, जीरवहिं बोरसी भराइब मंगल गवाइब हो ॥ 

५८ ् भर 
जे यह संगल गावे गाइ के सुनावेले हो, 
ललना, सूरदास बलिदारी परम पद पावेले हो । 
खा जा माखन रोटी गोपाल पियारे ॥ 
झपना गोपालजी के कुरहई सिया देवों, 
एक पीली एक लाली, गोपाल पियारे ॥ खा जा माखन० 
अपना गोपालजी के रोटिया पोओआ देबों, 
एक छोटी एक मोदी, योपाल पियारे । खा जा साखन० 


सम्पादक का मेन्तव्यं ११ 


अपना गोपालजी के बिआह करा देलों, 

बड़ भूप के बेटी, गोपाल  पियारे । खा जा माखन० 
सूरदास प्रथु आस चरन 

हरि के चरन चित लाई, गोपाल पियारे | खा जा माखन० 


यशोदा अपने खेलते और मचलते गोपाल को प्यार से दुलार-ढुलार कर, लालच 
दिखा-दि्खाकर खाने के लिए बुला रही हैं और गोपाल बात ही नहीं सुनते, खेलने में 
मस्त हैं। सुनते भी हैं, तो मचलकर पुनः भाग जाते हैं। इसी मनोहर प्रसंग का 
यहाँ वर्णन दै 
तुलसी-- 
सोहर भोजपरी का बड़ा प्रिय छन्द है। इसमें रचना करने के लोभ का रवर्य॑ 
तुलसीदासजी भी संवरण नहीं कर सके ओर अपने 'रामलला-नहछु? में उन्होंने इसी 
छुन्द-का प्रयोग किया। तुलसीदास जी की भाषा में भी भोजपुरी शब्दों, मुहावरों, 
क्रियाओं और कहावतों के प्रयोग मिलते हैं। रामचरितमानस में ऐसी अनेक 
पंक्तियाँ हैं, जो एक ओर अवधी की, तो दूसरी ओर शुद्ध भोजपुरी की अतीत होती हैं। 
अवधी और भोजपरी में कई अंशों में साम्य है, जो ऐसे उभयान्वयी उदाहरणों के 
मुख्य आधार हैं। इनके अतिरिक्त तुलसी ने 'राउरः, 'रछरे” आदि-जैसे भोजपुरी 
के कई व्याकरणिक रूपों का भी व्यवहार किया है। दुर्गाशंकर बाबू को तुलसौ के 
नाम से प्रचलित कई ऐसे गीत मिले हैं, जिनकी भाषा मुख्यतः भोजपुरी है और जो 
मुसहरों के नाच में आज भी गाये जाते हैं। इसके प्रमाण में उन्होंने एक बारहमासा 
उद्धृत किया है, जो कई वर्ष हुए भुद्वित भी हुआ था ( बेलवेडियर स्टौम प्रिंटिंग बक्से, 
इलाहाबाद, १६२६ ईं०) । उदाहरण-- 
सजन कर भगवान के मन, आ गइल बहइसाख रे । 
घठत छिन-छिन अवधि तोरी, जाइ मिलिबो खाकरे। 
कठिन काल कराल सिर पर, करी अचानक घात रे । 
नाम बिन्ु जग तपत भास्तत, केउ न देहहें सात रे । 
अयोध्या में -राम-भरत-मिलाप के अवसर पर हनुमान का परिचय देते हुए 
रामचन्द्रजी कहते हँ--- 
सुनीं सुनीं ए भमरतजी भाई, कपि से उरिन हम नाहीं । 
सत जो जन परमान सिंधु के, लाँध गइले छुन माँद्दी । 


हर ५ है 
आरए भंग होन नहिं पावे, जहाँ भेजों तहाँ जाई। 


तुलसीदास धनि कपि के महिमा, श्रीमुख अपने गाई ॥ 


जन-कंठ से लेखक ने तुलसीदास का एक बढ़ा सुन्दर गौत प्राप्त किया है, जिसमें 
कैंकेयी के आन्तरिक अबुताप का बड़ा सुन्दर चित्रण हुआ है। वनवास के बाद राम 
के अयोध्या-गसन का प्रसंग है। वे एक-एक करके सबसे मिलते जा रहे हैं--सबसे 
हक से, फिर माता कौशल्या से, उसके बाद समागत देवताओं से और तदुपरान्त 
केकेयी से। 


. १२ भौजपुरी के कवि और काव्य॑ 


गीत 


घरे आ गइले लछुमन राम अबधपुर आनंद भए ॥ घरे आ गइले ॥ 
आबते मिलले भाई भरत से, पाछे कोसिला माई। 
सभवा बइठल देवता मिलले, तब धनि केकई माई॥ 
घरे आ गहले लछुमन रास अबघपुर आनंद भए। 
अबधपुर श्रानंद भए ॥ 

सीता सद्दिते सिंहासन बहठले, हलिवेत चेंवर डुलाई। 
मातु कोसिज्ञा आरती उतरली, सब सखि संगल गाई॥ 
अबधपुर आनंद भए ॥ 

कर जोरि बोछ्तताड़ी केकई हो माई, सुनीं बाबू रास रघुराई। 
इद्दो अकलंकवा कईसू के छुटिहें, हमरा कोखी जनम ठोहार होइ जाई ॥ 
+ अबधपुर आनंद भए ॥ 

कर जोरि बोलले राम रघुराई, सुनताड केकई दो माई। 
तोहरा परतापे हम जगत भरमली, तू काहे बइठलू लजाई॥ 
अबधपुर आवद भए ॥ 

हुआपर में साता देवकी कहइदृह हम होइब करन यहुराईं। 
तुलसी दास प्रभु आस चरन के, तोहार दुधवा ना पिअबि रे माई ॥ 
अबधपुर आनंद भणए ॥ 


इस गीत की कश्पना ठेठ देहाती है, फिर भी कैकेयी का वर माँगना और राम का 
बर देकर भो दूध-पान न करने की बात कह देना मानव-हृदय के ठेस लगे दिल के 
सहज स्वभाव को बहुत कवित्वपूर्णा हूप से दिखाया गया है। 

लक््मण और राम घर चले आये। आज अयोध्या में आनन्द छा गया। 
दरबार में सीता के साथ राम सिंहासन पर बैठे और हनुमान चेंवर डुलाने लगे। 
माता कौसल्या ने आरती उतारी और सब सखियों ने मिलकर मंगल-गान किया । 
तब माता कैंकेयी भरी सभा में हाथ जोड़कर बोलीं--हे राम रघुराई | सुनिए, बताइए, 
मेरा यह कलंक अब केसे कटेयाः हमारों कोख (पेट) से तुम्हारा जन्म हो जाता, 
तो मेरा यह कल्ंक कट जाता। राम ने हाथ जोड़कर भरी सभा में कैकेयी से कहा--हे 
कैकेयी माँ, तुम सुनो । मैंने तुम्हारे प्रताप से जगत्‌ का अमण किया ( इतना ज्ञान, 
अनुभव और विजय प्राप्त की )। तुम लजा क्यों कर रही हो? हैं मात्ता, द्वापर 
में तुम देवकी कहाना और मैं यदुकुल का कृष्ण कहाऊँगा। परन्तु हे माँ, ( जन्म 
लेते ही मैं तुमसे बिछुड जाऊँगा ) मै तुम्हारा दुग्ध-पान नहीं करूँगा। तुलसीदास 
कहते हैं कि मुझे प्रभु के चरणों की आशा है। 

दुग्ध-पान न करने की बात किंतनी कसक पैदा करनेवाल्ी तथा ठेस लगे दिल की 
भावना को प्रकट करनेवाली है। 

इसी प्रकार रेदास तथा मीरा आदि के नाम से सी अनेक भजन भोजपुरौ में 
प्रचलित हैं। स्पष्ट है कि ऐसे गीतों की रूप दृष्टि में इन विश्वत कवियों की कवित्व- 
शक्ति का ही नहीं, वरन्‌ लोकवाणी का भी सक्रिय सजनात्मक योगदान है। 


संम्पादक का मन्तज्य १३ 


भूमिका में लेखक ने भोजपुरी की कथा-कहावरतों की ओर भी ध्यान आकर्षित 
किया है। योरोपीय भाषाओं में स्पेनिश भाषा जैंसे कहावतों के लिए प्रसिद्ध है, बैंसे ही 
भोजपुरी भाषा में भी कहावतों की अद्वितीय सम्पत्ति ह। भोजपुरी का शब्दकोश भी 
बहुत ही समृद्ध है। उसके कई शब्द तो इतने श्रर्थपूर्ण है कि उन्हे प्रहरा करके हिन्दी 
के आधुनिक साहित्यिक स्वरूप की भी श्रौव्ृद्धि की जा सकती है। 


भोजपुरी की विशेषताओं में उसकी ध्वनियों के रागात्मक तत्त्व भी उल्लेखनीय हैं । 
बई ध्वनि-राग तो ऐसे हैं, ज्ञो अन्यत्र दुर्लभ हैं। इनका विस्तृत विश्लेषण मैने 
लन्दन-विश्वविद्यालय के अपने शोध-प्रवन्ध मे किया है। उच्चारण तथा भोजपुरी- 
गीतो के यथावत्‌ आस्वादन के लिए इनका थोडा परिचय अपेक्तित है। उदाहरणार्थ 
एक लिखित हप लीजिए -'देखल' । 


भोजपुरी में यह तीन विभिन्न रागों में उच्चरित होकर तीन विभिन्न अथों का 
ग्योतक होगा -- 


देख? ल5 देख लो । 
“देख? लू तुमने देखा । 
'देखल? देखा हुआ । 


अन्तिम अ? का उच्चारण भोजपुरी के कई रूपों में होता है। उसे समझाने के 
लिए ग्रियर्सन ने बहुत प्रयत्न किया है।" पर ध्वनि-विज्ञान की प्रणाली के विना 
उसका ठीक-ठीक॑ वर्णन कठिन है । इस ध्वनि के संकेत के लिए प्रायः “& इस चिह्न 
का प्रयोग किया जाता है। उदाहरणार्थ स्व० प॑० मन्‍नन द्विवेदी “गजपुरी? की ये 
पंक्तियों ले लीजिए -- 
जाये के कइसे कहीं परदेशी रह5 भर फागुन चदइत में जहृह5। 
चीटी लिखा के तुरन्त पठइृह5 तिल्लाक हुई जो हमके भ्रुलवइह5 ॥ 


( 'भोजपुरी के कवि और काव्य'--प० २२८ ) 


भोजपुरी वाक्यों तथा शब्दों के संघटन में बलाघात, स्वराघात तथा मात्राओं की 
बड़ी रोचक और विशिष्ट व्यवस्था है। मात्रा-व्यवस्था के संबंध मे एक महत्त्वपूर्ण 
नियम यह है कि कुछ खुले हुए दौधाक्षरों की धातुओं--जैप्रे, खा, जा आदि--के 
रूपों को छोड़कर किसी शब्द या पद के अन्तिम स्थान से दो स्थान पूर्व का कोई अक्षर 
दीघ रूप में नहीं टिक सकता, उसका हस्वीकरण अवश्यम्भावी है। जैंसे-- - 


बाहर बाहरी 
पत्थल पथली 
बोली बोलिया 
देखल देखली 


३» देखिप--'किंगुइस्टिक सर्वे जॉफ इंडिया,” लिफद्‌ १, भाग ३, १६२७ हई० तथा जिदद ५, माग २, 
१६०३ ई० | 


रै४ भोजपुरी के कषि और काव्य 


93.54 ओर के रूपों में प्रथमाक्षर के स्वरों का उच्चारण हस्व होता है। 
कई इस रागात्मक प्रदृत्ति का उल्लेख 'हस्व उपधापू् का नियम” इस नाम से 
 है। 


हमें इस बात का सन्तोष है कि बाबू दुगोशंकरप्रसाद सिंह ने अपनी इस पुस्तक में 
विशेष लिपि-चिहों का प्रयोग न करते हुए भी शब्द-संस्थान तथा गौतों के उद्धुत पाठों 
में भोजपुरी के रागात्मक तत्त्वों का यथासंभव ध्यान रखा है। यह इसौलिए संभव 
हो सका है कि आप स्वयं भी एक अच्छे कवि और साहित्यकार हैं। हिन्दी की 
प्रसिद्ध पत्र-पत्निकाओं में आपके निबन्ध बराबर निकलते रहते हैं। २०-३२ वर्षों से 
आप हिन्दी की सेवा करते आ रहे हैं। आपने अबतक कई उपन्यास, गय्य-काव्य, 
कहानियाँ, नाटक तथा काव्य-प्रन्थ लिखे हैं। आपकी 'फरार की डायरी? प्रगतिशील 
साहित्य का उल्लेखनीय उदाहरण है। उसकी प्रशंसा स्वयं जयप्रकाश बाबू ने कौ थी 
और उसके प्रकाशन का मैंने स्वयं भी सहर्ष अभिनन्दन किया था। अभौ हाल में 
आपने १८५७ की कान्ति के प्रमुख नायक तथा प्रसिद्ध राष्ट्रीय बाबू कु वर सिंह की एक 
प्रामाणिक जीवनी लिखी है, जो प्रकाशित भी हो चुकी है। आप उन्हीं के चंशजों 
में हैं। आपके पितामह महाराजकुमार श्री नर्भदेश्वरप़््साद सिंह भी बढ़े विद्वान तथा 
कवि थे। इुर्गाशंकर बाबू ने भोजपुरो के क्षेत्र मे बहुत ही महत्त्वपूर्ण काय किया है। 
भोजपुरी-लोकगीतों के तीन संकलन आपने रस के क्रम से तैयार किये हैं, जिनमें से 
'भोजपुरी-लोकगीत में करुण रसः-नामक अन्य हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन, प्रयाग से 
लगभग चौदह वर्ष पहले प्रकाशित हो चुका है। भोजपुरी के अलिखित तथा इधर- 
उधर बिखरे हुए साहित्य को संगृहीत तथा लिपिबद्ध करने में आपकी सेवाओं की जितनी 
भी हर की जाय, थोड़ी है। यह प्रन्थ इस दिशा में आपकी सफलता का प्रबल 
प्रमाण है। 


बिहार और उत्तर प्रदेश-- इन द्वो-द्ो प्रान्तों का कुल मिलाकर लगभग ५० हजार 
बर्गंमील भू-भाग भोजपुरी की परिधि के अन्तगंत है और उसके बोलनेवाल्नों की संख्या 
तीन-चार करोड़ के बीच मे है। पर इतने विस्तार ज्षेत्र और विशाल जनसमुदाय 
की भाषा होते हुए भी उसके बोलनेवाले साधारण जनसमूह्‌ का मनोरंजन अबतक 
बहुधा कलकत्ता और बनारस की कचौड़ी गली की छपी हुईं उन सस्ती पुस्तकों से होता 
रहा है, जो जहॉ-तहाँ सड़कों पर बिका करती है। हर्ष की बात है कि इधर उसमें नये 
और सुन्दर साहित्य की सृष्टि होने लगी है। स्व० श्री रघुवर नारायण, महेन्द्र मिसिर, 
भिखारी ठाकुर, मनोर॑जनजी, डा० रामविचार पाण्डेय, राहुल सांकृत्यायन, हरेन्द्रदेव 
नारायण आदि की भोजपुरी रचनाएँ--नाव्यगीत तथा अन्यान्य कृतियॉ--किसी भी 
साहित्य में सम्मान का स्थान प्राप्त कर सकती हैं। इस नवीन काव्य के नमूने भी 
अगपको इस संकलन में मिलेंगे। उनकी कांव्य-सम्ृद्धि तथा ललित-कलित पदावली 
से आप निश्चय ही प्रभावित होंगे। लोकपथ की इस अभिनव सरस्वती की जय हो | 


लोक-साहित्य का कार्य वस्ठुतः साधना और शोध का कार्य है। इसकी अच्तय 
निधि नगर-नगर और गॉव-गोंव से बिखरी हुईं है। सहानुभूति के साथ जन-मानस 


सम्पादक का भन्तव्य १४, 


कौ गहराई में डुबकी लगाने पर ही उसके अमूल्य रत्न हमें उपलब्ध हो सकते हैं। 
हमारी सांस्क्ृतिक, राष्ट्रीय तथा भाषाई एकता की अनुपम मशियों हमें वहीं से प्राप्त हो 
सकती हैं। इस दृष्टि से लोक-साहित्य के ऐसे किसी भी कार्य को मै राष्ट्रीय साधना का 
पुनीत कार्य समभाता हैँ! अतः इस क्षेत्र में 'भोजपुरी के कवि और काव्य! के वयोबृद्ध 
लेखक के इस सफल प्रयत्न के लिए उन्हें भेरी हार्दिक बधाइयों हैं ! मुमे पूर्ण विश्वास 
है कि लोक-भाषा तथा लोक-साहित्य के अनुरागियों द्वारा इस महत्त्वपूर्ण कृति का 
समुचित स्वागत और समाद्र होगा । 


कु० मु० इन्स्टिद्यूट ऑफ हिन्दी स्टडीज ही 
एंड लिंगुइस्टिक्स, विश्वनाथग्रसाद 
शआगरा-पिश्वविद्यालय, आगरा । सम्पादक 
१८-१-१६७८ ईं० 


लेखक की ग्पनी बात 


ईश्वर की असीम कृपा है कि प्रस्तुत अन्य प्रकाशित हो सका। मेरी अबतक की 
भोजपुरी की सभो सेवाश्रों में इसका विशेष महत्त्व है; क्योंकि इसमें भोजपुरी काव्य 
का सन्‌ ८०० ईं० से आजतक का करमबद्ध इतिहास और उदाहरण प्राप्य है। इससे यह 
अपवाद मिट जाता है कि भोजपुरी में प्राचीन साहित्य का अभाव है। मेरे साहित्यिक 
जीवन का बहुत लम्बा समय इसकी सामग्री के शोध में लगा है। सन्‌ १६२४ ई० से 
१६४० ईं० तक की अवधि में अपने अवकाश के अधिकांश समय को मैंने इस ग्रन्थ 
की तैयारी में लगाया है। 

सन्‌ १६४८ ईं० के लगभग यह ग्रन्थ सम्पूर्ण हुआ। मैंने इसकी पारडुलिपि ट॑कित 
कराईं। आचाय श्री बद्रीनाथ वर्मा ( भूतपूर्व शिक्षा और सूचना-मन्त्री, बिहार ) 
को पाणडुलिपि दिखलाई । उस समय के शिक्षा-सचिव श्री जगदौशचन्द्र माथुर, आई० 
सी० एसू० ने भी इस अन्य को देखा। दोनों सजनों ने इसे पसन्द किया | फल्तः सन्‌ 
१६४० ईं० में जब बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्‌ का जन्म हुआ, तब इसकी पाणइलिपि 
प्रकाशनार्थ स्वोकृत हुईं। अतः मै दोनों महानुभावों का आभारी हूँ और हृदय से 
उनको धन्यवाद देता हूँ। स्वीकृत होने के बाद यह भ्रन्थ पढना-विश्वविद्यालय के 
हिन्दी-विभागाध्यक्ञ डाक्टर विश्वनाथ प्रसाद के सुझाव के अनुसार; समय-क्रम से; दो 
खसडों में सजाया गया। प्रथम खण्ड में १६ वीं सदी तक के कवि रखे गये और दूसरे 
खण्ड में १६ वीं सदो के बाद के । दोनों खरड की पाणडुलिपि एक हजार पन्नों की थी । 
भूमिका-भाग भी तीन सौ पृष्ठों मे टंकित था। इस भ्रकार तेरह सौ पृष्ठों का बड़ा पोथा, 
परिषद्‌ की ओर से, डाक्टर विश्वनाथ असाद को, संशोध न-सम्पादन करने के लिए, 
दिया गया, किन्तु समय-समय पर अस्वरुथ होते रहने से वे सम्पादन का काम शौप्रता 
के साथ पूरा न कर सके । फलतः प्रकाशन का काम बहुत दिनों तक रुका रहा। अन्त 
में जब ग्रन्थ छपने लगा तब घुहददाकार होने से बहुत अधिक सूल्य बढ़ जाने की संभावना 
देखकर दो खरडों के ग्रन्थ की एक ही रूणड में प्रकाशित करना उचित सममका गया। 
अतः सम्पूरों ग्रन्थ के आकार-प्रकार में इस तरह कमी कर दी जाने के कारण गागर 
में सागर भरने की कहावत चरिताथ हुईं और इस प्रकार के संज्षिप्तीकरण से मुमे भी 
सन्तोष इसलिए है कि इसमें सूत्र-रूप में प्रायः सभी आवश्यक बातों की रखने की चेष्टा " 
की गई है, जिससे पुस्तक की सुन्दरता में कमी नहीं होने पाई है। 


इस ग्रन्थ की भूमिका की सामभी के शोध और उसकी सजावट में डा० विश्वनाथ 
प्रसाद ने मुकको सुन्दर-से-सुन्दर निर्देश दिये हैं। भूमिका में भोजपुरी के इतिहास 
के रूप में जो भी विषय प्रतिपादित हुए हैं, सबकी स्वीकृति डाक्टर साहब से ले ली 
गई है। अतः उनकी प्रामाणिकता एक महान्‌ विद्वान-द्वारा स्वीकृत होने के कारण 
असंदिध है। डा० साहब ने भ्न्थ की शोध-सामग्री के प्रतिपादन में ही भुझे सह्दायता 
नहीं की है, बल्कि उन्होंने प्रसिद्ध साहित्यसेवी और मेरे आदरणीय मिन्र 


लेखक की अपनी बात १७ 


राजा राधिकारमणप्रसाद सिंह से भी परामश करके इसे अधिकाधिक झन्द्र बनाने की 
कृपा को है। मैं इन दोनों महाजुभावो का अत्यन्त कृतज्ञ हैँ। डा० साहब के 
सौजन्य और सुझाव तो कभी नहीं भुलाये जा सकते । 


खेद है कि बहुत सी मूल्यवरान्‌ सामग्री, साधन और अर्थ के अभाव के कारण, 
जानकारी रहने पर भी लभ्य नहीं हो सकी । कुछ तो लम्य होकर भी प्रस्तुत प्रन्थ 
में नहीं रखी जा सकी। बहुत-रो कवियों के परिचय और उनकी रचनाएँ, जो बाद 
को प्राप्त हुई, इसमें नहीं दी जा सकीं। स्वयं मेरे पूृज्यपाद पितामह स्वर्गीय बाबू 
नर्मदेश्वर प्रसाद सिंह 'ईश”ः की भोजपुरो-रचनाएँ भी मूल-प्रन्थ मे सम्मिलित नहीं 
हो सी ; क्योंकि अ्न्थ के छप जाने पर वे पुराने कागजों में श्रचानक उपलब्ध हुई । 
अतः उनका संक्षिप्त परिचय और उनकी भोजपुरी रचनाओं के कुछ नमूने अपने इस 
वष्तव्य में दे देना मैं अपना कत्तव्य सममता हैँ । 


कविधर '(ईंश” के पिता का नाम बाबू तुलसीप्रसाद सिंह था। आपके प्रपितामह 
बाबू रणबहादुर सिंह और सन्‌ १८४७ ईं० के इतिहास-प्रसिद्ध क्रान्तिकारी धौर बाबू 
कुंवर सिंह के पितामह बावू उमराव सिंह पररुपर सगे भाई थे। आपका जन्म 
विक्रमाब्द १८६६ और शकाब्द १७६१ में आश्विन-पूणिमा को जगदीशपुर (शाहाबाद) 
में हुआ था । आपकी स॒त्यु फसली सन्‌ १३२२ (सन्‌ १६१५ ई०) मे, लगभग पचहत्तर 
वर्ष की आयु में, दिलीपपुर (शाहाबाद) में हुई थी। आप संस्कृत, अरबी, फारसी, 
हिन्दी, उद्‌' आदि भाषाओं के विद्वान थे। हिन्दी में आपकी चार पुस्तकें पद्य और 
गद्य में बहुत उच्चकोटि की हैं । 


वसन्‍्त-वर्णन (कवित्त) 


प्रेम प्रगटाइल रंग-राग लहराइल, 
मेन बान बगराइल नेन रूप में लोभाइल बा । 
जाड़ा बिलाइल चाँद चॉदनी तनाइल, 
मान मानिनी सिंटाइल पीत बसन सोहाइल बा । 
“इस! रस-राज सनमानी सरसाइल, 
बन-बगिया लह॒लहाइल सुख देत मधचुआइल बा । 
बिरही हुखाइल मन मनमथ जगाइल, 
संजोगी उमगाइल ई बसन्‍त सरसाइल था ॥१॥ 


शपथ और प्रतिज्ञा 


देसी ओ बिदेसी के फरक कहू राखत्न नाहीं, 
लड़ि-लडि अपने में बिदेसी के जितौले बा । 
गोरा सिकख सेना ले निडर जो चढुल आधे, 
घर के ,बिभीखन भेद अचे नू बतौलेबा ॥ 


श्द भोजपुरी के कवि ओर कांब्य॑ 


तबो ना चिन्ता इचिको" देस-प्रेम जागल बा 
हिन्दू मुसलमान संग भारत मिलौले बा । 
हिम्मत सिवा के बा प्रताप के अतिग्या 'ईस' 
प्रन बा आजादी किरिया" खड्ढ के खिश्ौले बार ॥ 


५ ५ ५ न्‍ 


झ्ागे बढ़ीं आगे बढ़ीं देखीं ना एने-ओने3, 
एके लच्छु एके टेक एके भन राखीं ख्याल । 
हाथ में हुधारी धारीं त्वम्बा लग्बा डेग डालीं, 
हर-हर बस्म बोलीं घूलि चल्ीं जइसे व्याल ॥ 
पेंतरा पर दौद़े लागीं खेदि खेदि" सन्न क्ार्टी 
सन्न -तोप-नाज्न पढठि गोला कांढ़ि लाई ज्वाल ॥ 
रवि-रथ रोकि लीहीं जमराज डॉटि, हॉकी 
डाकिनी के खप्पर में 'इंस” भरी रकत ल्ाल* ॥ 


इस ग्रन्थ के आरम्भ में जो भेरी ४३ पृष्ठों कौ भूमिका है, उसके पृ ५ पर राजा 
भोज की भोजपुर-विजय का उल्लेख है, जिसको आधुनिक इतिहासकार संदिग्ध 
मानते हैं। उनकी धारणा है कि भोजदेव पूर्वी ्ान्तों में आये हौ नहीं। किन्तु 
मैंने अनेक पुष्ट प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध | किया था कि धार के प्रमार राजा 
भोजदेव (१००४-१०५४ ईं०) और उनके वंशजों ने इन भोजपुरी-भाषी पूर्वी प्रदेशों को, 
जो उस समय श्थली-प्रान्त! के नाम से प्रख्यात थे, जीतकर “भोजपुर! की अपनी 
राजघानी बनाई थी। उनका राज्य १२२३ ईं० तक कायम रहा। इसी बौब उन्होंने 
पालवंशी राजाओं की सेनाओं को भागलपुर के पास रणत्षेत्र में पराजित किया तथा 
अपने पौरुष एवं पराक्रम का सिक्का बंगाल से काशी तक के प्रदेशों पर जमाया। 
शासन की इस लम्बी अवधि में भोजदेव की राजभाषा संस्कृत और उनकी गौरव- 
शालिनी भारतीय संसक्षति कौ गहरी छाप यहाँ की जनता पर पड़ी। यहाँ के लोगों 
को बलाव्य प्रकृति के कारण भी मालवा के वौर प्रमार शासकों का प्रभाव यहाँ 
खूब बढ़ा । 

तेरहवीं सदी में जब धार के प्रमार नरेशों की सत्ता क्षीण हो गईं तब भोजपुरी-कषेन्र 
के मूल-निवासियों ने पुनः छोटे-छोटे राज्यों की कायम करके अपना प्रभुत्व स्थापित 
किया। इसके लिए जो लड़ाइयों हुईं, उनमे जो वौरता उनलोगों ने दिखलाहँ, उसी के 


३, रंच-मात्र भी । २. शपथ । ३. इधर-उधर । ४. सदेड-खदेडकर । 

» इन दोनो रचनाओं में सत्‌ सत्तावन के पेतिद्वासिक वीर थाबू कुंवर सिद्द के मुख से क्रान्तिकारी 
सैना के सामने शपंथ-भरहदय के रूप में कद्दववाया गया है। उसी सेना से देशभक्ति की प्रतिज्ञा भी कराई 
गई है। --छे० 

६ इस दथ्य को प्रमाणित करने के लिए मैंने डेढ छौ पृष्ठो का पेतिहासिक विवरण धहुत खोज 
करके लिखा था, पर माया के इतिद्वास में शासन-विषयक इतिहाउ का समावेश विषयान्तर समककर 
महीं किया गया और संज्षिप्तीकर॒ण के उम्रय वह्‌ अंश तिकाल दिया गया। -जै० 


लेखक की अपनी बात श्६ 


आधार पर भोजपुरी-भाषा में बहुत-से पेंवारे, वौर-गाथा-गौतों के रूप में, रचे गये । 
सोरठी, लोरकी, विजयसल, नयकवा, आल्दा आदि उन्हीं गाथा-गोतों के नाम हैं । 
वे इतने सुन्दर और ओजस्वी हैं कि आठ सो वर्षों के बाद भी आज जन-कंठों मे 
बसे हुए हैं। यव्यपि कालक्स से उनका रूप विकृत हो गया है तथापि मूल- 
कथानक आज भी सजीव है। उनकी लोकप्रियता यहाँ तक बढ़ी कि अन्यान्य भगिनी 
भाषाओं में भी वे रुप-मेद से प्रचलित हो गये । 


सरभंग-सम्प्रदाय के सनन्‍्त-साहित्य की खोज मैने सन्‌ १६५० ई० में की थी। उसके 
पहले उक्त सम्प्रदाय के साहित्य से हिन्दौ-संसार परिचित नहीं था। सन्‍्तोष का विषय 
है कि मेरी खोज के बाद कुछ विद्वानों का ध्यान इधर-उधर आकृष्ट हुआ और उस 
दिशा में शोध भी होने लगा। इस ग्रन्थ में भी उत्क्त सम्प्रदाय के कई सन्त कवियों 
के परिचय मिलेंगे। 


इस भअन्थ के आरम्भ में छुपी मेरी भूमिका के पृष्ठ ३३ से ३६ तक गोरखनाथ के 
बाद के भोजपुरी-गाथा-गीतों-लोरकी, कु वर विजयमल सोरठी, नयकवा, आहल्हा 
आदि--का उल्लेख है; परन्तु मूल भन्थ में यथास्थान उनके उदाहरणों का समावेश 
नहीं है। इसलिए गोरखनाथ से कवीरदास तक के भोजपुरी-कवियों और काव्यों की 
भाषा एवं शैली का यथार्थ परिचय पाठकों की नहीं मिलेगा। इसी कारण यहाँ 
उपयु क्त गाथा-गीतों में से कुछ के उदाहरण" दिये जाते हैं-- 


'सोभानायक बनजारा' या घनजरवा' या 'नयकवा' 


है राम जिनकर नह॒यों ले ले साँक बिहनवा हो ना। 
है राम हेठवा सुमिरिल्ला माता धरती हो ना। 
है राम उपरा सुमिरिज्ञा अकास के देवतवा हो ना। 
है राम तब खिमरीं अह्माजी के चरनवाँ हो ना। 
है राम जिन ब्रह्मा लिखेले लिलरवा हो ना। 
है राम जिनिकर लिखल का दोला भुगतनवा हो ना | 
हे रास तब सुमिरी देवी दुरुणवा हो ना। 
है राम तब सुसिरी माता सरोसतिया हो ना। 
है राम जिन्‍्ह बेठल बाड़ी कण्ठ के उपरचा हो ना। 
है राम ठोहरे भरोसवे छानिला पँवरवा हो ना। 








३५ इन ठदाहरुखों पी भाषा तो उस समय की नद्दी मानी जा सकती, क्योंकि इन गीतों का मृल् 
रूप क्ठीं प्राचीन हस्तकिखित पोथी में नहीं मिब्रता। अतः अँगरेज विद्वानों द्वारा पुरानी शैगरेजी 
पत्निकाओं में प्रकाशित रूप द्वी प्रामाणिक माने जा सकते हैँ। --ले० 

२७ 'सोरदठी प्रजमान” के बाद दूसरा बृहत्‌ गाथा-गीत 'नयक॒वा' अथवा 'वनजरवा[” विख्यात है। 
इसके पात्र वेश्य और शूद्र हैं। भियसेन साहव ने इसे 'लेड० डो० पम्र० सी०! (जमेन-पशत्निका) के 
भाग २६ में पृष्ठ ६११० पर प्रकाशित कराया था। पुनः उसी पत्रिका के भाग ४६ (सत्‌ १८८६ ईै०) में 
पृष्ठ 8६८ पर 'नृयकवा बनजरव!! चाम से छुपवाया था । --क्े० 


२० भोजपुरी के कवि और काव्य 


है राम जहाँ-जहाँ टूटल बाड़ो ल्बजिया हो ना। 
है माता तहाँतहाँ देत बाड़ जोड़ाई होना"। 


कु वर विजयमल 


रासा उहाँ सूबा साजेले फडदिया हो ना 
रामा घुरिया ल्ागेल्ा असमनवा हो ना 
रामा बजवा बाजे जुझमरवा हो ना 
रासा बोलि उठे देबो दुरंगवा हो ना 
कु अर इदे हवे मानिक पल्टटनिया हो ना 
रामा घोढ़वा नचावे कुंअर सैदनवा दो ना 
रामा सनमुख भइले जबनवा हो ना 
रासा घेरि लिहले सभ फउठदिया हो ना 
रासा बाज गहले लोहवा जुकरवा हो ना 
रामा मारे लागत कुअर बिजद्या हो ना 
रामा देबी दुरुगा कइलीं छुतरछुहिया हो ना 
रामसा बाचि गइले राजा सानिकचन्द्वा हो ना 
रासा उनहके नाक काडि घलले हो ना 
रामा उन्हके बह्या काटि घलतले दो ना 
रामा बाँधि देले घोड़ा के पिछुड़िया हो ना 
रासा चन्ति गइले राजा मानिकचन्दवा हो ना 


गोपीचन्द * 


फाड़ के पिताम्बर राजा गोपीचन्द गुदड़ी बनावत ब डे 


बोले लागे हीरा ज्ञाल मोत्ती 
बनि गइहल गुदड़िया अनमोल 
पहिर के गुदड़ि राजा रमि चलत हैं 
माता उन्हके गुदड़ ध के ठाढ़ 


१. हरदी (वर्षिया, उत्तरप्रदेश) की मुखना देवी नास की वृद्धा मद्दित्ञा को मी इसका पुराना पाठ 
याद है । 

+२« 'कुँवर विजयमक्ष” भी वहुत असिद्ध गाथा-काव्य है। इसका समय भी 'सोरठी ब्रजमान” के वाद का 
है। प्रियसेन साहव ने इसको ११३८ पंक्तियों में, 'लनं ऑफ द्‌ पसियाटिक सोसाइटी अफ बंगाण! 
(भाग ३, संख्या १, सब्‌ १८८४ ईं०) के ६४-६२ पृष्ठो पर धपवाया है। वह शाह्याबाद्‌ (विहार) से प्राप्त 
पाठ था। 

३. 'गोपीचन्द' नामक गाथा-गीत वारद्दवी सदी का जान पडता है । ग्रियसंन साहव ने इसके इच भीतो 
को, पाठनेद के साथ, 'चर्नेंश्त ऑफ द णसियाटिक सोसाइटी, बंगाल (भाग ५४, सब्‌ १८८४ ई०, पृ 
३४-३८ ) में, उपव[या था 


लेखक की अपनी बात २१ 


तोहि देख बेटा बाँधीं घिरजवा 
तू तो निकल्न बेटा द्वोत बाटे जोगी 
नौवे महीना बेदा ओदर भें रखलीं 
रहे हे बिपतिया काल मोरे का 
सात सोत के दुधवा पिआएजे 
तवना के दुमवा मोहि देके जाहू 


इसी प्रकार तेरहवीं सदी के मध्य में रचे गये 'लोरिकी या लोरिकायन'-- गाथा- 
गौत का पुराना पाठ भी जहॉ-तहाँ देहाती गायकों" से मिलता है। “कुंवर विजय- 
मल?” के बाद रचा गया प्रसिद्ध गाथा गीत “आल्हा?* तो पुस्तकाकार मे प्रकाशित हो 
चुका है। पूर्वोक्त गाथा-गीतों का अध्ययन भाषा-विज्ञान की दृष्टि से तो होना ही 
चाहिए, ऐतिद्वासिक गवेषणा की दृष्टि से भी उनका अध्ययन अत्यावश्यक है। अत. 
इन पुराने गाथा-गीतों पर प्रथक्‌-पृथक्‌ सुसम्पादित और शोधपूरो प्रन्थों का ग्रकाशन 
लोक-साहित्य की श्रीदृद्धि के लिए अत्यन्त मूल्यवान्‌ सिद्ध होगा। 


कुछ सुप्रसिद्ध महाकवियां के नाम से प्रचलित, जन करठ में बसे हुए, गीतों के 
नमूने, अँंगरेज विद्वानों द्वारा लोक करठ से ही संकलित होकर, अगरेजी पत्रिकाओं में 
प्रकाशित हुए थे। उन उदाहरणों से भोजपुरी लोक गौतों की प्राचीनता स्वभावतः 
सिद्ध होती है। मेरे निजी संग्रह सें विद्यापति, सूर्‌दासं*, तुलसीदास“, मौराबाई, 

१. मेरे गाँव (दिलीपपुर , शाह्यावाद) के सहिजत अद्दीर को 'त्तीरिकी” का और शिवनन्दन तेली 
को 'सोर॒ठी' का पुराना पाठ याद है। दोनों वृद्धो मे सुना दुआ पाठ विस्तार-भय से यद्ाँ नद्दीं दिया 
जा सका। --छे० 

२ भ्रियर्मन साहब ने 'इणिडयन पेयटोक्ण्टी! (साग १७, सन्‌ १८८५ ईं०, पृष्ठ २०६) में इसे 
प्रकाशित कराया था ।॥ 

३५ डा० भ्रियर्सन ने “'जर्नत ऑफ द रायल एसियाटिक सोसाइटी” (माग १८ सन्‌ श८्पप ई०, पृष्ठ 
२६३७) में विद्यापति का वह गीत मोजपुरी में छपवाया था, जो 'सम्पादकीय मन्तव्य' में अन्यत्र (पृष्ठ ८ पर) 
च॒ुपा दे। गीत उद्ध (त करते हुए भ्ियसन साहव ने अपनी ओर से यद्द टिप्पणी भी दी है-- 

एण७ 70078 8०7४ एपफ०ए४ 00 06 09 896 006९07%/९९ (६४४४॥॥7 
ए9०९७ ए॥069992४ ॥फ०४ए, है ज्षणऐोपे (ए8ए ४॥४0७79707 88 00#ए०१४०९०४॥४ 
& 06079 एप (फा एफ एउि्रणएप जएक780कद्वा 09858पह४ जाति 80॥60 
०० वशा०० 0. 026 02000009 ०५०7९ए७ ६४०0 096 ४४6९७ ॥४6 508 80778 ०0 
णा83 90७ 808 70 90 छ70 7 006 छ0075०फए७ं,  7फरंह 8णाए क्ष४8 जञापर/शा 
(00 79 एछचज्जु & )80ए ए086 00088 48 ग 6 ९७ ० 58०9०... ... 
€ 4. 6/8880॥ :--ँ०णापाद 07 छेतएबनी. ैाक्रात0. 90009, छा6#४ 

छणाछणा & 7छॉकाते, ७ 50708 ए०7प्रा70 7०0. 48,. 

४५ डाक्टर ग्रियर्मन ने 'ननज्ञ आँफ द रायक्ष एसियाटिक सोसाइटी” (ल्यू सीरिज, भाग १६, सत्त्‌ 
१८८४ ई ०) के पृष्ठ २०१ और उसके जागे के पृष्ठों 'पर 'सम घिद्दारी फोक-साँग्स” शीर्षक से भोजपुरी 
गीत छपवाये हूँ। उक्त जन्नत के पृष्ठ २०५ पर सूर का बारहमासा और पृष्ठ २२१ पर सूर का द्वी मजन 
भोजपुरी में छुपा है । 

४५ 'जनेक्ष ऑफ द्‌ रायत पसियाटिक सोसाइटी” (न्यू सीरीज, माग १९, मन्‌ श्ट८४ ई०) में पृष्ठ २०६ 
और जागै भी तुलसीदास के यारद्दमासे तथा चतुरमासे प्रकाशित हैं । 











१२ भोजपुरी के कवि और काव्य 


रविदास आदि प्रसिद्ध कवियों के अनेक भोजपुरी पद हैं, जिनमें से इस ग्रन्थ के 
सम्पादक ने अपने मन्तव्य में कई पदों का समावेश कर दिया है। अनावश्यक 
विस्तार के भय से यहाँ पुनः अधिक पद उद्धृत नहीं किये जा रहे हैं। जिन जिज्ञासु 
० को उन्हें देखने की उत्करठा हो, उन्हें संकेतित अंगरेजी पत्रिकाओं को देख लेना 
चाहिए। 

इस भ्रन्थ में मेरी बहुत-सी संग्रहीत सामग्री का यथेष्ट समावेश नहीं हो सका है, 
पर यदि पाठकों ने इस ग्रन्थ की उदारना एवं सहृदयता से अपनाकर भुमे उत्साहित 
करने की कृपा की, तो आशा है कि आगामो संस्करण में यह ग्रन्थ सर्वाह्नरूर्ण हो 
सकेगा । 

अन्त में मे यह कह देना चाहता हूँ कि भोजपुरी के सम्बन्ध में आजतक जो कुछ 
भी शोध किया है, उससे इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हैँ कि भोजपुरी का साहित्य-भाण्डार 
जनकरठों में हो नहीं, बल्कि छपी और हस्तलिखित पुस्तकों में भी इतनी प्रचुर मात्रा 
में है कि भाषा पीढ़ा यदि पचास वर्षों तक भी शोध करती रहेगी तोभी उस अपार 
भाणडार का संचय नहीं हो सकेगा । भोजपुरी के दुर्लभ साहित्य का उद्धार करना देश के 
उत्साही युवकों का काम है। इससे केवल भोजपुरी-क्षेत्र का ही नहीं, वरन्‌ सम्पूरो 
देश के साहित्य की श्रौश्वद्धि होगी। तथास्तु। 


लीपपुर (शाहाबाद रु 
से 08 वि० | दुगोशकरमसाद सिंह 
( सन्‌ १६७८ ) 


विषय-सूची 
(१) भूमिका 


भोजपुरी-भाषी प्रदेश--१, भोजपुर और उससे भोजपुरी का सम्बन्ध--४, भोजपुरी--१०; 
भोजपुरी : भाषा या बोली १-१५, भेदोपभेद--१७, भोजपुरी के शब्द, मुद्रावरे, कहावत और 
पहेलियॉ--२०,. कदानी-साहित्य-२५, व्याकरण की विशेषता--२६॥ भोजपुरी-ग्य का 
इतिहास--२८५, भोजपुरी का काव्य-साहित्य--३० 
(२) आठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तक 


प्रारंभिक काल--% चौरंगीनाथ--४, सरहपा--८, शबरपा--१०, भूसुक--११, विरुपा-१३, 
डोम्मिपा--१३, कम्बलपाद--१३, कुक्कुरिपा--१४, गोरखनाथ--१४, गोरखबानी के भोजपुरी 
छुन्द--१०, भत्त हरि--२८ 
(३) चौदहबीं सदी से १६ वीं सदी तक 


महात्मा कबीरदास--२९, कमालदास--४७, धरमदास--४८, भहुरौ--५८,  धाघ--६६, 
डाक--८६, बाबा बुलाकीदास अथवा बुल्ला साहब--६०, मद्दाकवि दरियादास--&२, धरनौदास--६&९४, 
सैयद अली मुहम्मद शाद--६८, रासचरित्र तिवारी--६६, . शंकरदास--१००, बाबा 
रामेश्वर्‌दास--१०२, परमहंस शिवनारायण स्वामौ--१०४, पलटूदास--१०७, रामदास--१०६ 
गुलाल साहब--११०, रामनाथ दास--११), भीखासाहब--११३, इुल्लहदास--११३, नेवल- 
दासजी--११३, बाबा नवनिधि दास--११४, वांबा शिवनारायणुजी--११४५, बाबा रामायण- 
दास-"११५, देवौदास--११६, सुवचन दासी--११६, राममदारी>-११७, सरभंग-सम्प्रदाय ( भौखम 
राम, टेकमन राम, स्वामी भिनकरामजी )>-११६--१२२, छत्तर बाबा--१२४, श्री जोगेश्वर दास 
'परमहंस!--१२४, केसोदास जी--१२५, तोफा राय--१२६; श्री लक्षमी सखी जी--१२६, तेग अली 
'तेग!--११३६, महाराज खड़गबहाहुर मल्ल- १३६, पंडित बेनी राम--१४२, बाबू रामइष्ण वर्मो 
बलवीर'--१४२, महाराज कुमार श्री हरिहरप्रसाद सिंह--१५६६, कवि टाँकौ--१४६, साहेब 
दास--१४६, रमैया बाबा--१५०, श्रीबक्त कंवि--१५०, लछुमन दास-१५१, सुन्दर 
(वेश्या)--१५९, अम्बिकाप्रसाद--२५४, कवि बदरी--१४७, विश्ववाथ--१५८, रघुवंश जी--१५६, 
सुखदेवजी--१५६, राम अमिलाष--१६०, रजाक--१६१, शिवशरण पाठक--१६१, कवि 
हरिनाथ-१६२, हरिहरदास--६४, मिट्ठ, कवि--१६४, जोगनारायण-सूरदास/--१६८। 


(४) बीसवीं सदी ओर आधुनिक काल 


, पीस--१६६, महादेव--१७१, वेचू--१७९; खलौल और अब्दुल हवीब--१७२, घौसू--१«३, 
घोड--१७४, रसिक--१७४, शुज्नौलाल ओर गंगू-१७५, काशीनाथ--१७५, बढुकनाथ--१७६, 
बच्ची लाल--१७६, जगनज्ञाथरामजी--१७७, बिप्रेसर दास--१७८, ज॑गरदेव--१७८, जगन्नाथ राम, 
घुरपत्तर और बुद्द-१७६, रसिक जन-- १८०, लालमणि--१८१, मदनमोहन सिंह--१८३, कवि 
डेसन लाल--१८४, अम्बिकादत्त व्यास--१८६; शिंवनन्दन मिश्र 'नन्‍्द!--१८६, बिद्री--१5७, 


( २४ ) 


अुदाबक्स--१८८, भारकंडें दास--१८८, शिवदास--१८५६, दिलदार--१५६, भैरो--१८६, ललर 
सिंह--१६२, रूपकला जी --१६३, द्वारिकानाथ 'किंगई'--१६७, दिमाग राम--१६४; मोती-१६६, 
मतई--१६६, रसौले--१६७, मानिक लाल--१६८, रूपच--१६६, फनौन् मुनि--२००, भागवत 
आचारौ-२०१, शायर महादेव*-२०१, नरोत्तम दास--२०१, कैद--२०२, भग्रेलु--२०३, 
अजमुल्ता--२०४, रामलाल--२०५, पन्नू -२०५, देवीदास--२०६, भग्यू लाल और बुक्राचन - २०६ 
बिहारी--२०७, श्री कृष्ण तिपाठी--२०८, शायर शाहबान--२०६, गूदर--२०६, होरी लाल--२१०, 
चन्द्रभान--२११, शायर निराले--१११, रसिक किशोरौ--२१२, जगेसर--२१९, देवीदास--२१३, 
भगवान दास “छुबीले'--२१३, श्री केवल--२१३, केशवदास--२१४, रामाजी--२१५, राजकुमारी 
सखी--२१५, बाबू रघुवीर नारायण-२१६, महेन्द्र मिश्र--२१७, देवी रय--२१८, रामवचन 
बिवेदी “अरविन्दः--२१८, भिखारी ठाकुर--२२०, दूधनाय उपाषध्याय--२२२, माधव शुक्ल--२२१, 
राय देवीप्रसाद 'पूर'--२२३, शायर मारकएडे--२२४, रामाजी--२२५, बंचरीक--२२६, मन्नन 
द्विवेदी 'गजपुरी'--२२०, सरदार हरिहर सिंह--२२८, परमहईंस राय--२२६, महेन्द्र शास्त्री-२३०, 
रामविचार पाणडेय--२२१, प्रसिद्धनारायण सिंह--२१२, शिवप्रसाद मिश्र 'रू! या “गुरू 
बनारसी!--२१५, डॉ० शिवदत्त श्रीवास्तव घुमिन्रः--२३६, वद्ुनायक सिंह-२२७, रामग्रसाद 
सिंह 'पुए्डरीक--२२७०, बनारसी प्रसाद भोजपरी'--२३८, सिद्धनाथ सहाय 'विनयी!--३४०, 
वसिष्ठ नारायण सिंह--२४०, भुवनेश्वर प्रसाद 'भानः--२४१, विमला देवी 'रमा'--२४१, मनो- 
रंजन प्रसाद सिंह--२४३, विन्व्यवासिनी देवी--२४६, हरीशदत्त उपाध्याय--२४७, रघुवंश नारायण 
सिंह--२४८, महादेव प्रसाद सिंह 'घनश्याम'--२५४६, युगल किशोर--२५१, मोतीचन्द्‌ सिंह--२४२, 
श्यामविहारी तिवारी 'दिहती--२५२, लक्ष्मण शुक्ल 'मादकौं- २५३, चाँदी लाल सिंह--२५४, 
ठाकुर विश्राम सिंह--२४:४, बाबा रामचन्द्र गोस्वासी--२५५, महेश्वर पसाद--२५७, रघुनन्दन 
प्रसाद 'अठल'--२५७, कंमलाग्रसाद मिश्र विप्र'--२५७, रामेश्व॒र सिंह काश्यप--२४६, रामनाथ 
पाठक अणयौ? -२६१, मुरलीधर श्रीवास्तव 'शेखरा--२६२, विश्वनाथ प्रसाद 'शैदाः--२६३ 
मूसा कंलीम--२६५, शिवनन्दन कवि--२६६, गंगा प्रसाद चौबे “हुरदंग'--२६०, अजु न कुमार 
सिंह अशान्तः--२६७, उमाकान्त बमो--२६६, बरमेश्वर ओमा 'विकेल'--२६६, गोस्वामी 
घन्द्रेश्वर भारती--२७०, सूर्यललाल सिंह--२७१॥ पारडेय कपिलदेव नारायण सिंह--२७१, 
भूपनारायण शर्मो 'व्यास'--२७३२, सिपाही सिंह 'पागल'--२७४, शालिग्राम गुप्त राहौ--२०४; 
रामवचन लाल--२०५, नथुनी लाल--२७५, वृसनन्‍्त कुमार- १२७६, हरेन्रदेव नारायए--९२४७०, 
दुगोशंकरप्रसाद्‌ सिंइ--२७८। 


(४) कविनामानुक्रमणी--२८१ 
(६) नामानुक्रमणी--२८४ 
(७) पद्यानुक्मणी--२१०० 


[ बारहवीं और तेरहवीं सदी के भोजपुरी-कवि और उनके काव्य के संबंध में सम्पादक 
का मन्तव्यः और 'लेखक को अपनी बात देखने की कृपा करें | ] 


भोजपुरी के कवि और काव्य 


; गे 2 कप ० ! 

2328 $ बट 

है 22 पे । ," /्‌ बन 4 ४ 

न 26022 + ( 2, 
' उ 2 ; कट 





भूमिका 
[१] 
भोजपुरीभाषी प्रदेश 


भोजपुरीभाषी प्रदेश के सम्बन्ध में सर जी० ए० प्रियर्सन ने" लिखा है-- 

“सोजपुर परगने के नाम पर भोजपुरी भाषा का नासे पड़ा है। यह भोजपुर 
की सीमा से आगे बहुत दूर तक बोली जाती है। उत्तर में यह गंगा को पार 
करके नेपाल की सीमा के ऊपर हिमालय की निचली पहाड़ियों तक चम्पारंन जिले 
से लेकर बस्ती तक फेली हुई है| दक्षिण में सोन पार करके यह छोटानागपुर के 
विस्तृत-राँची के पठार पर फेलती है। मानभूम जिले के छोर पर यद॒ बंगाली 
और लिंहभूम जिले के-छोर पर ओड़िया के संसर्ग में आती है । 


“बिहार की मेथिली, मगही और भोजपुरी--इन तीन बोलियों में भोजपुरी 
अति पश्चिमी बोली है। गंगा के उत्तर सुजफ्फरपुर जिले के मैथिलौभाषी प्रदेश के 
पश्चिम में इसका ही छ्लोन्न है और गंगा के दक्षिण गया और हजारीबाग जिले के 
पश्चिम में भी इसका अस्तित्व है। यहाँ यह हजारीबाग के मगहीभाषी क्षेन्न के 
पास से दक्षिण-पूर्र की ओर घूमती है और सम्पूर्ण राँची पठार को ढाँप ल्लेती है, 
जिसमें राँची और पत्माम जिलों के अधिकांश क्षेत्र शामित्र हो जाते हैं। यहाँ 
इसकी सीमा पूर्व में राँची के पठार के परगने में बोली जानेवाली मगही गौर 
मानभूम में बोली जानेवाली बँगला से निर्धारित होती है और इसकी दत्तिणी 
सीमा लिंहभूस जिले और गंगापुर की रियासत में बोली जानेवाली ओड़िया से 
आबद है। इसके बाद इसकी सीमा-रेखा जसपुर-रियासत्तत के बीच से उत्तर की 
ओर घूमती है और पत्तामर्‌ जिले के पच्छिसी किनारे तक पहुँचती है-। इसी लाईन 
में वह सुरगुजा-रियासत और पश्चिमी जसपुर-राज्य में बोली जानेवाज्ञी छत्तीसगढ़ी 
के रूप के साथ-साथ आगे की ओर बढ़ती जाती है । 


३, देखिप--छर जी० ५० प्रियसंन-जिखित “सिंग्विस्टिक सर्वे ऑफू इशिडिया', भाग ४, पृष्ठ 8०। 
प्र०“गवनेसेल्ट प्रेई, इचिडिया, कन्कत्ता, सत्‌ १६०२ ई०। 


5 भौजपुरी के कवि और काव्य 


“पत्चामू के पश्चिमी भाग से गुजरने के बाद इसकी सीमा मिर्जापुर के दक्षिणी 
छोर पर पहुँचती है। यहाँ मिर्जापुर जिले के दक्षिणी और परिचमी किनारों से 
चलकर गंगा तक पहुँच जाती है। यहाँ यह पूर्व की ओर गंगा के प्रवाह के 
साथ-साथ घूमती है और बनारस के पास पहुँचकर॒ गंगा को इस तरह पार 
कर जाती है कि इसकी सीमा के अन्द्र मिजांपुर जिले के उत्तरी गांगेय जश्न का 


झलप भाग आ जाता है। मिर्जापुर के दक्षिण में छुत्तीसगढ़ी प्रचलित है। परन्त, 
उस जिले के पश्चिमी भागों के साथ-साथ उत्तर की ओर बढ़ने पर पश्चिम में 


पहले यह बघेलखंड की बचेली से और तब झवधी से परिसीमित होती है। गंगा 
को पार करने के बाद इसकी सीसा करीब-करीब ठीक उत्तर की ओर फैजाबाद 
जिले में 'घाघरा? नदी पर 'टाँडा! तक जाती है। इस तरह बनारस जिले की 
पश्चिमी सीमा के साथ-साथ चलकर जौनपुर के आर-पार आजमगढ़ के पश्चिम 
और फैज्ञाबाद के पार इसकी सीमा फेल जाती है। टॉडा से इसकी सीमा 
घाघरा नदी के साथ-साथ पश्चिम की ओर घूमती है और तब उत्तर की ओर 
घूमकर द्विमालय के नीचेवाले पव॑तों तक पहुँच जाती है । इस प्रकार बस्ती निद्ले 
का पूरा भाग इसकी सीमा के भीतर आ जाता है । इस ज्षेत्र के अतिरिक्त, भोजपुरी 
गोंडा और बहराइच जिल्लों में बसनेवाले थारू-जाति के जंगली मनुष्यों द्वारा भी 
बोली जाती है।” 


फिर, इसी पुस्तक में आगे प्रियर्सत ने लिखा है--/इस तरह उस भू:भाग का, 
जिसमें केवल भोजपुरी भाषा ही बोली जाती है, क्षेत्रफल निकाद्यने पर पचास 
हजार वर्गमील होता है। इस भू-भाग के निवासियों की जन-संख्या, जिनकी 
मातृभाषा भोजपुरी है, दो करोड है। पर सगद्दी और मैथिली बोलनेवालों की 
संख्या क्रम से ६९३०७८२ और ३१००००००० है। और अवधी, बघेल्ी बुन्देलखण्डी 
तथा छुत्तीसगढ़ी बोलनेवालों की संख्या क्रम से ३४३७०७००, . ३६००००००, 
४६१२७५६ और ३३०१७८० है।”? 

उक्त संख्याएँ उस समय की है, जब “लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंसिडिया“नामक 
पुस्तक प्रकाशित हुई थी, अथोत्‌ सन्‌ १६०१ ई० की । सन्‌ १६०१ ईं० की जन गणना के 
आधार पर ही ग्रियर्सन साहब ने ऑकड़े लिये हैं। सन्‌ १६०१ ई० की गणना में भारत 
वी कुल आबादी २६४३६०००० के लगभग थी। परन्तु सन्‌ १६४१ ईं० की जन-गणना 
के अनुसार जन-संख्या लगभग ३८००००००० है । तो, इस हिसाब से वत्तेमान भोजपुरी- 
भाषियों की कुल संख्या २६४००००० आती है--यानी भारतवर्ष की कुल जनसंख्या 
का १६.४ अतिशत भोजपुरीभाषा-भाषियों की संख्या है। 


भूमिका ३ 


फिर, इन साषा-भाषियों की संख्याओं के अलावा मराठी और ज्जभाषा बोलनेवालों 
कौ संख्या सन्‌ १६२१ ईं० की जन गणना के अनुसार क्रम से १:७६७८३३ और ७८३४२७४ 
है। इन संख्याओं का मिलान करने से हम देखते है कि भोजपुरी में लिखित साहित्य 
की कोई प्राचीन परम्परा न होने पर भी, उसके बोलनेवालों की संख्या अपनी हमजोली 
निकटवर्त्ता भाषाओं के बोलनेवालों की संख्या से कम नहीं है । 

अक्टूबर सन्‌ १६४३ ० के विशाल भारत? में श्री राहुल संक्ृत्यायन ने प्रियर्सन 
साहब के उ्त सीमा-विस्तार पर शंका करते हुए लिखा था कि प्रियर्सन का प्रयत्न 
प्रारंभिक था। इसलिए उनका भाषा विभाजन भी प्रारंभिक था। उन्होंने भोजपुरी के 
भौतर ही काशिका और मल्लिका दोनों की गिन लिया है, जो व्यवहारतः बिलकुल 
गलत है । 

इसका उत्तर विस्तृत रूप से किसी भोजपुरी विद्वान्‌ ने फरवरी, सन्‌ १६४४ के 
(विशाल भारत” में देकर यह सिद्ध किया है कि राहुल जी का यह करना ठौक॑ नहीं है। 
उन्होंने श्री जयचन्द्र विद्यालंकार का मत, जो इस विषय के प्रारंभिक लेख नहीं कहें जा 
सकते, उद्धुत करके लिखा है कि राहुल जी का भोजपुरी का मल्लिका नामकरण करना 
और प्ियसन को न मानना अनुचित है। 

श्री जयचन्द्र विद्यालंकार जी का मत मै उनकी पुस्तक “भारतीय इतिहास की 
रूपरेखा? से उद्धृत करता हैँ-- 

* भोजपुरी गंगा के उत्तर दक्षिण दोनों तरफ है| बस्ती, गोरखपुर, चम्पारन, 
सारन, घनाश्स, बलिया, आजमगढ़, समिर्नापुर अथवा प्राचीन सहल और काशी 
राष्ट्र उसके अन्तर्गत हैं। # अपनी एक शाखा नांगपुरिया बोली द्वारा उसने 
शाहाबाद से पत्षामू दोते हुए छोटानागपुर के दो पठारों में से दक्षिणी पठार, 
शर्थात्‌ राँची के पठार पर कब्जा कर लिया है। 


जयचन्द्र जी के इस मत का समर्थन काशी-विश्वविद्यालय के हिन्दी-अध्यापक 
श्री विश्वनाथप्रसाद मिश्र की 'वाठ मय-विमर्ष:-नामक पुस्तक से भी होता है। उसमें 
उन्होंने लिखा है-- 

“बिहारी के वस्तुतः दो वर्ग हैं-मेथिली और भोजपुरिया । भोजपुरिया 
पशिचमी वर्ग है और मैथिली पूर्वी में | भोजपुरिया मैथिल्ली से बहुत भिन्न है। 
भोजपुरिया संयुक्त प्रदेश के पूर्वी भाग गोरखपुर, बनारस कमिश्नरी और बिहार 


+ इसमें गाजीपुर शायद भूल से छूट गया है। इसलिए मैं भी उसे रख के सकता हूँ। “-शेखक 


४ भोजपुरी के कवि और काव्य 


के पश्चिमी भाग, चम्पारण, सारन, शाहाबाद जिलों की बोली है। इसके अन्तर्गत 
भोजपुरी पूर्वी और नागपुरिया बोली है ।” 
डॉ० उदयनारायण तिवारी ने भी अपने भोजपुरी-सम्बन्धी थीसिस में अियरसन के 
मत का ही समर्थन किया है। इन सभी मतो के अनुसार प्रियर्सन का विचार हो अधिक 
उपयुक्त जान पड़ता है। 
उपयुक्त विवरणों के पढ़ने के बाद पाठकों के सामने सहसा प्रश्न उठता हैं कि जब 
भोजपुरीभाषी प्रदेश ५० हजार वर्गमौलों में फैला हुआ है और इसके बोलनेवालों 
की संख्या ढाई करोड़ से अधिक है, तब इस प्रदेश के काशी, गोरखपुर, छुपरा, आरा 
आदि बड़े नगरो को छोड़कर भाषा का नासकर॒ण एक अतिसाधारण प्राम भोजपुर” 
के नाम पर करना लोगो ने क्‍यों स्वीकार किया और ढाईं करोड़ नर नारी आज भी 
अपने की उसी आम के नाम पर भोजपुरिया कहने में क्यों गव मानते है? साथ ही, 
इस प्रश्न का सांगोपांग उत्तर दिये बिना भोजपुरी भाषा पर पूर्श रूप से विचार करना 
भी बहुत जटिल और दुस्साध्य है। आगे इस अश्न का उत्तर देने का प्रयत्न 
किया जायगा। 


(शत 
भोजपुर और उससे भोजपुरी का सम्बन्ध 


शंगरेज-इतिहासकारों और पुरातत्त्वज्ञों तथा भाषा-विशेषशो ने भोजपुरी भाषा के 
नाम की उत्पत्ति भोजपुर-प्राम अथवा भोजपुर परगने से मानी है। बिहार प्रान्त के 
शाहाबाद जिले में बक्सर के पास भोजपुर परगने में 'पुराना भोजपुर” नाम का एक 
राम है। उस ग्राम के नाम पर भोजपुर परगने का नाम कभी रखा गया था। यह 
धुराना भोजयुर” डमराँव स्टेशन (पूर्वॉंय रेलपथ) से दो मील उत्तर, बक्सर से दस मौल 
पूरब तथा पटना से साठ मौल पश्चिम, आरा-बक्सर सड़क के दोनों ओर, बसा है।। 

अब यह भोजपुर नाम 'नया भोजपुर! और “पुराना भोजपुर/-नामक पास-प्रास बसे 
थ्रामों के लिए व्यवहतत होता है। 


यद्यपि आज गंगा भोजपुर ग्राम से आठ-नौ मौल उत्तर हट गई हैं, तथापि उनका 


३० देखिप--'दी जोभ्मफिक डिक्शनरी ऑफ ईस्ट्न हणिडया पेणड सेडिवल इय्रिडया' ; बेलक 
म॒न्दूजञाब डे, एमू० ए०, थी० पछू० , द्वितीय संस्करण, भाग २; प्रकाशक--छुजक पड कम्पनी, 8६, भेद 
रेत स्ट्रीट, जपडन, डब्लू० सी० जार० १६२०, पृष्ठ २९४७ और उसके आये भोजपुर के सम्बन्ध 


में पिवरणा 


भूमिका ह 


पुराना अवाह-फैत्र भोजपुर-दह के नाम से आज भी गंगा तक फैला हुआ है। इस 
नगर के सम्बन्ध में कहा जाता है कि किसी समय यह १४ कोस मे विस्तृत और बहुत 
समृद्ध था। बावन गली, तिरपन वजार, दिया जले छप्पन हजार! की लोकोक्ति यहाँ 
के लोगों में आज भी प्रचलित है । इसके अनुसार इस नगर में तिर॒पन वड़ी सड़कें 
थीं, जिनपर बाजार लगा रहता--और बावन गलियाँ थीं तथा इसकी आबादी ५६ 
हजार परिवारों की थी। इसके अनुसार यदि प्रत्येक परिवार में » व्यक्तियों का भी 
आसत माना जाय, तो दो लाख अस्सी हजार जन-संख्या होती है। यहाँ भोजदेव के 
बनवाये मंद्रि, महल, रंगस्थल, सरोवर, महाराज विक्रमादित्य का महल, 
'सिंहासनवत्तीसी-सम्वन्धी सिंहासन के गड़े रहने का स्थान, विक्रमादित्य के नवरत्नों के 
सभा-भवन आदि के सांकेतिक स्थान, बढ़े-बूढ़ों द्वारा बताये जाते हैं। देखने में गाँव के 
उत्तर, पूथ और पश्चिम दिशा में दूर तक बहुत से टौले, सरोवर के समान- 
गड्ढे आदि के चिह्त दिखाई पड़ते हैं। उन्हीं शौलों के नीचे आज “भोजपुर-दह! 
का खोत बहता है। पुराने भोजपुर का दूसरा इतिहास यह है कि इसको मालवा के 
धारेश्वर राजा भोजदेव (१००४ से १०४४ ई०) ने अपने पूर्वाय देशों की विजय 
के उपलक््य में बसाया था। इस प्रान्त का नाम उस समय स्थली-प्रान्त था। इसमें 
वत्तमान बलिया, गाजीपुर, पूर्वां आजमगढ़, सारन, गोरखपुर भर वत्तमान शाहाबाद 
का भोजपुर परगना शामिल थे । यह नगर गंगा के तट पर वसाया गया था। यह 
भोजपुर, मालवा के धार के परमारों के राज्य के पूर्वा प्रदेशों की राजधानी, भोजदेव 


के वंशज राजा अजु न वर्मा के समय (सन्‌ १२२३ ई०) तक, बना रहा । 
जॉन वीम्स ने रायल ऐशियाटिक सोसाइटी के जनेंल भाग ३, सन्‌ १८६८ ६० के 


पृ० ४८३-४८५ पर लिखा है--भोजपुरी का नाम प्राचीन भोजपुर-नामक नगर से 
लिया गया है। यह नगर शाहाबाद जिले में गंगा के दक्षिण कुछ मील पर ही 
बसा था, जिसकी दूरी पटना से ६० मील थी। श्राज तो यह छोटा-सा गाँव है, 
किन्तु किसी समय में शक्तिशाली राजपूतों की राजघानी था, जिनके अगुआ इस 
समय छुमराँव के महाराज हैं, ओर सन्‌ १८०७ ई० में विद्रोही सिपाहियों के 
क्रान्तिकारी नेता बाबू कुचर सिंह इनके अगुआ थे। 'सहरुत् अखतरीन” के 
पढ़नेवाले जानते हैं कि औरंगजेब के सूबेदारों को भी भोजपुर के राजाओं को 
दुबाने का अयत्न करना पड़ा था। भोजपुर के क्षेन्न में प्राचोन हिन्दूधम की 
भावना आज भी अबल है और हिन्दू-जनसंण्या के सामने सुसलमानों की संख्या 
बहुत कम है। राजपूर्तों के साथ-साथ ब्राझणों और कहीं-कहीं भूमिद्दारों की 
सत्ता प्रबत्ञ है ।” 


द्‌ भोजपुरी के कवि और काव्य 


जी० ए० प्रियर्सन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “लिंग्विस्टिक सर्वे शॉफू इसिडिया! (भाग 
५, प० ३-४) में लिखा है कि 'भोजपुरी, भोजपुर की बोली है, जो शाहाबाद जिले के 
पश्चिमोत्तर भाग में बसा है। भारत के आधुनिक इतिहास में यह महत्त्व का स्थान है। 
यह डमराव की राजधानी के निकट है और इसके समीप ही बक्सर कौ लड़ाई हुईं थी। 
'नागरी प्रचारिणी-पत्निक, काशी (वर्ष ५३, अंक रे-४, संवत्‌ २००५, कांत्तिक- 
चैत्र) के १० १६३-६६ पर डॉ० उदयनारायण तिवारी का एक लेख “भोजपुरी का 
नामकरण'-शी षक से छुपा था, जिसमे तिवारीजी ने लिखा है--/भोजपुरी बोली का 
नामकरण शाद्वाबाद जिले के 'भोजपुरी” परगने के नाम पर हुआ है।” 
शाहांबाद गजेटियर (गवनमेराठ प्रेस, पटना, १६२४ ई०; पृ७-१४८) में भोजपुर 
के सम्बन्ध में लिखा है--'भोजपुर एक गाँव है, जो बक्सर सबडिवीजन में, 
डुमराँव से दो मील उत्तर, बसा है। इसकी जन-संख्या (सन्‌ १६२१ ई० में) 
३६०७ थी। इस गाँव का नास सालवा के राजा भोज के नाम पर पड़ा ड्ढै। 
कहा जाता है कि राजा भोज ने राजपूतों के एक गिरोह के साथ इस जिले पर 
आक्रमण किया और यहाँ के आदिवासी 'चेरों' को हराकर अपने अधीन किया। 
यहाँ राजा भोज के प्राचीन महलों के भग्तावशेष आज भी वर्तमान हैं। यदि 
उनकी खुदाई की जायगी, तो परिश्रस बेकार नहीं जायगा। सोलहधीं शताब्दी 
से सत्‌ १७४५ ई० तक थद्द गाँव डुमराँव राज्यवंश का सुख्य निधास-स्थान 
(राजधानी ) था। इसी गाँव के नाम से भोजपुर परगने का नामकरण भी 
हुआ है । आज शाहाबाद का सम्पूर्ण उत्तरी भाग भोजपुर नाम से जाना 
जाता है। इसके निवासी भोजपुरी कहे जाते हैं।” 
उच्त गजैटियर के पृष्ठ ४० में इस जिले की भाषा के सम्बन्ध मे लिखा है-..“इस 
जिले के सम्पूर्ण भाग में जो भाषा वत्तेमान समय में बोली जाती है, वह बिहारी 
हिन्दी का एक रूप है, जो भोजपुरी कही जाती है। यह भोजपुरी नाम भोजपुर 
परगने के नाम पर पढ़ा। यह परगना पूव-काल में उस बंश की शक्ति का केन्द्र - 
स्थान था, जिसके राजा आज छमराँव में रहते हैं।” 
आरा-नागरी-प्रचारिणी सभा से सव्‌ १६१० ईं० में श्रकाशित आरा पुरातत्त्व- 
नामक पुस्तक में पृष्ठ ३९ पर भोजपुर के सम्बन्ध में लिखा है--“घाराघुरी के राजा 
भोज एक प्रसिद्ध पुरुष थे। संस्कृत-साषा के प्रेमी होने के कारण “भोज प्रबंध' 
आदि के द्वारा उनका नाम अजर-अमर है। कहते हैं, उन्होंने चेरो-राजा को जीतकर 
अपनी विजय के स्मारक में भोजपुर गाँव बसाया, जिसे अब पुराना भोजपुर! 


कहते हर ! 


भूमिका ७ 

नया भोजपुर, मुसलमानी काल में, धार ( मालवा ) से दूसरी बार ( सन १३०५ 

ई० ) आये हुए परमार-राजा भोजरेव के वंशज शान्तनशाह के वंशज राजा 

रूप्रतापनारायण द्वारा ही सम्भवतः बसाया गया था, जो डुमरॉव के परमार (उज्जैन) 

राजपूतों के वत्तेमान राजा कमलनारायण सिंह के पितामह महाराज वेशोप्रसाद सिंह 

से १३ पीढ़ी पूर्व डुमरॉव-गह्दी के महाराज थे। इन तेरह पीढ़ियों में एक महारानी भी 

शामिल हैं, जो वर्षों' तक गद्दी पर रहीं। यहाँ सुसतमानी काल का बना हुआ और 

सुसलमानी कला का प्रतीक “नव॒रत्नः-नामक किला या महल, भग्नावशेष रूप में, आज 
भी “मोजपुर-दह” नामक मौल के दक्षिणी तट पर, खड़ा है। 


डॉ० उदयनारायण तिवारी ने अपने एक लेख मे लिखा है--“शाहा बाद जिले में 
अ्रमण करते हुए डॉ० बुकनन सन्‌ ८१२ ई० में भोजपुर आये थे । उन्होंने मालवा के 
भोजवंशी 'उज्जेन' राजपूतों के 'चेरो'-जाति को पराजित करने के सम्बन्ध में 
उदलेख किया है।” बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी के १८७१ के जन॑ल में छोटानागपुर, 
पचेल तथा पालामऊ ( पलामू ) के संबंध में भुसलमान इतिहास-लेखकों के विवरणों 
की चचो करते हुए “लॉकमैन” ने भोजपुर का भी उल्लेख किया है। वे लिखते हैं-- 
“बंगाल के पश्चिमी प्रान्त तथा दक्षिणी बिहार के राजा दिल्‍ली के सम्नाट्‌ के लिए 
अत्यन्त दुःखदायी थे। अकबर के राजत्व काल में बक्सर के समीप भोजपुर के राजा 
दलपत, सम्नाट्‌ से पराजित होकर बंदी किये गये और श्रंत में जब बहुत आर्थिक द्ड 
के पश्चात्‌ वे बंधन-मुक्त हुए तब उन्होंने पुनः सम्राट के विरुद्ध सशस्त्र क्राँति की । 
जहाँगीर के राजत्व काल में सी उनकी क्रान्ति चलती रही, जिसके परिणाम-स्वरूप 
भोजपुर लूटा गया तथा उनके उत्तराधिकारी प्रताप को शाहजद्ाँ ने फाँसी का दंड 
दिया ।” इसी वंश के राजा दुल्लह और प्रताप मुगल बादशाहों के समय में दिल्‍ली 
से लोहा लेते रहे, जिनका जिक्र मुसलमानी इतिहासों में आया है। 


तिवारी जी ने उसी लेख में पुनः लिखा है--“ब्लॉकमेन ने ही अपने 'आईने 
अकबरी” के अनुवाद (भाग १) में, अकबर के दरबारी नं० ३२६ के सबंध में चर्चा करते 
हुए निम्नलिखित तथ्यों का उल्लेख किया है--इस दरबारी का नाम बरखुदौर 
मिर्जा खानआलम था । इस तथ्य की पुष्टि अन्य स्रोतों से भी हो जाती है। बात 
इस प्रकार है--बरखुदोर का पिता युद्ध में दलपत द्वारा मारा गया था। बिहार का 
यह जमींदार बाद में पकड़ा गया तथा ४४ वर्ष की उम्र तक जेल में रखा गया, 
किन्तु इसके पश्चात्‌ बहुत अधिक आर्थिक दूंड लेकर उसे छोड़ दिया गया। बरखुददार 
अपने पिता के घध का बदला लेने तथा दृत्लपत के वध की टोह में छिप। था, 


् भौजपुरी के कवि और काव्य 


किन्तु वह उसके दाथ न आया। जब अकबर को इस बात की सूचना मिली, 
तथ वह बरखुर्दार के इस कार्य से इतना रुष्ट हुआ कि उसने उसे दलपत को सौंप 
देने की आज्ञा दी; कितु कई द्रबारियों के हस्तक्षेप करने पर सम्नाट ने उसे केद कर 
लिया | पुनः उसी प्रृष्ठ की पाद टिप्पणी 4 में दुलपत के संबंध में विद्वान. लेखक 
लिखता है--दलपत को अ्कब रनामा में उज्जनिह में (उष्जेनिया) लिखा है। 
हस्तलिखित प्रतियों में इसके उज्जेनिह या ओजेनिह आदि रूप मिलते हैं। 
श.,हजहाँ के राजत्व-काल में दुलपत का उतराधिकारी राजा प्रताब हुआ, जिसे 
प्रथम वर्ष में १५०० तथा बाद में १००० घोड़ों का मनसब मिला ( पादुशाह 
नामा--१२२१ )।” 


महापंडित राहुल साँकृत्यायन ने “भोजपुरी लोक-गौत में करुण रस” नामक 
पुर्तक* की भूमिका (के पृष्ठ ४--६) में अपना मत यों दिया है-- 


“शाहाबाद के उज्जैन राजपूत मूल-स्थान के कारण उज्जेन और पीछे की 
राजधानी धार के कारण धार से भी आये कहे जाते हैं। “सरस्वती-कण्ठाभरणः 
धारेश्वर महाराज भोज के वंश के शान्तनशाह, १४ वीं सदी में, धार-राजधानी के 
मुसलमानों के हाथ में चले जाने के कारण जहाँ तहाँ हो ते हुए बिहार के इस भाग 
में पहुँचे । यहाँ के पुराने शासकों को पराजित करके महाराज शान्तनशाह ने 
पहले दाँवा (बिहिया स्टेशन के पास छोटा-सा गाँव) को अपनी राजधानी बनाया। 
उनके वंशजों ने जगदीशपुर, मठिज्ना और श्रन्त में डुमराँच में अपनी राजधानी 
स्थापित की । पुराना भोजपुर गज्ञा में बह चुका है । नया भोजपुर हुमराँव स्टेशन 
से दो मील के करीब है । 


“मालवा के परमार राजाओं की वशावली इस प्रकार है--(१) क्ृष्णराज, (२) 
वैरि सिंह, (३) सीयक, (४) वाक्पतिराज, (७५) चैरि सिंह, (६) श्रीहृप (सीयक ६४६-७२ 
ई०), (७) सु'ज (६७४-६६७), (८) सिंधुराज (नवसाहसांक)-३००६ , (६) भोज 
(त्रिद्ुवत नारायण १००६-४२), (3०) जय सिंह (१००५-५६), (११) उदयादित्य 
(१०८०-८६), (१२) लक्ष्मदेव, (१३) नर चर्मा (१३०४-११३३), (१४) चशोवर्मा 
(११३४-११३५), (१०) जय वर्मा, (१६) अजय वर्मा (११६४), (६७) विंध्य चर्मा (२१५) 
(१८) सुसठ चमो, (१६) अजु न वर्मा (--4२२३), (२०) देवपाल (--३२३५), (११) 
जयाजु न देव जिन्नम (पार) ल १२०७-०७], (२२) जय वर्मा--२ (१२५७-६०), 


प्रकाशक--दविन्दी-उाद्ित्य-सस्मेषन ( प्रयाग ) , विक्रम-संवत्‌ २००१॥ 


भूमिका (4 


(२३) जयसिंह--३ (१२८८), (२४) अजुन वर्भा--२ (१३५२), (२०) भोज--३, 
(२६) जयलिंह--४ (१३०६ 7), (१३६१० ?)। 

“जयसिंह चतुर्थ को पराजित करके अलाडद्दीन ने मालवा ले लिया। यश्यपि 
उज्जेन-राजवंशावली में शांतन के पिता का नाम जयदेव कद्दा जाता है, तथापि 
पुराने राजवंशों में देव और लिंह बहुधा पर्यायवाची द्ोते हैं । इसलिए शांतनशाह 
के पिता धारा के अंतिम परमार राजा जयसिंह ही मालूम होते हैं। मुसलमानी 
काल और कम्पनी के राज के आरम्भ तक आरा जिले के बहुत बढ़े भाग का 
नाम भोजपुर सरकार (जिला) था । आज भी बक्सर सबडिवीजन के एक परगने 
का नाम भोजपुर है। जान पड़ता है, शांतनशाह के दादा द्वितीय भोज यथा भारत 
के प्रतापी नरपति महाराज भोज प्रथम के नाम पर यह बस्ती बसाई गई ।” 

इन दोनों भोजपुर गाँवों को बसानेवाले ड्डमरॉव राजवंश के पूर्वाज परमार राजा थे, 
जो मालवा से दो विभिन्‍न समय में इस प्रदेश में आये थे। प्रथम बार तो धार 
( सालवा ) के विद्वान, राजा भोजदेव ( १००४-१०५४ ई० ) ने इस अदेश पर 
अपना राज्य कायम करके पुराने भोजपुर को बसाया और इसे इधर के प्रदेशों की 
राजघानी बनाया । यह उनके धार निवासी चंशजों के अधीन लगभग १६५ वर्षों तक 
रहा । इसके बाद मालवा के घार-राज्य की शक्ति का हास होने पर यह प्रदेश यहाँ 
के आदिवासियों के हाथ में चला गया। उन लोगों ने छोटे-छोटे टुकड़ों में 
अपना राज्य कायम किया और सन्‌, १३०५ ई० के लगभग तक अपने प्रभुत्व को यहाँ 
कायम रखा। परन्तु, सन्‌ १३०५ ई० में अलाउद्दीन खिलजी द्वारा मालवा तथा धार- 
राज्य के ले लिये जाने पर, और यहाँ अलाउद्दीन के अ्रतिनिधि ( बायसराय ) 
अहनउलसुल्क” का राज्य कायम हो जाने पर, धार के परमार राजवंश का वहाँ रहना 
मुश्किल हो गया। बहुत दिनों तक वे सुसलमान शासकों के प्रतिवृल्ल होकर राज्य नहीं 
कायम रख सके। अतः सन्‌ १३०४ ईं० में उस राजवंश के तत्कालीन राजा जयदेव 
अथवा जयसिंह चतुथ के पुत्र शांतनशाह, अपने तीन पुत्रों ( हंकारशाह, विम्भार- 
शाह और ईश्वरशाह) के साथ, अपने पूर्वजों की राजधानी भोजपुर की 
ओर, गया-श्राद्ध करने के बहाने चल पड़े। उन्होंने पहले शाहाबाद जिले के- 
बिद्दिया स्टेशन ( पूर्वीय रेल-पथ ) के निकट कांशःभ्राम में वहों के चेरो राजा को 
जीतकर गढ़ बनाया। बाद को उनके वंशज राजा रुद्रप्रताप नारायण नया भोजपुर 
बसाकर वहाँ जा बसे । 

सन्‌ १७४४ ई० में भोजपुर का तत्कालीन राजवंश भोजपुर छोड़कर तीन जगहों में 
जा बसा। भाइयों में बड़े 'होरिलशाह' 'मठिला*प्राम में और बाद में 'इमराँव? में बसे। 


१० भोजपुरी के कवि और काव्य 


यह डुमराँव उस समय 'होरिल-नगर के नाम से प्रसिद्ध था। सुजान शाह और उनके 
पुत्र उदवन्त सिंह 'जगदीशपुर' ( शाहावाद ) में जा वसे | उद्वन्त सिंह के और भी 
दो भाई थे--छुदसिह और शुसर्सिह। इनमे बुद्धसिंह तो वक्‍सर में बसे और शुभसिंह 
ने बक्सर सबडिवीजन के आथर”-आम में अपना निवास बनाया। उद्वन्त सिंह 
के घंशजों में बावू कुअर सिंह और अमर सिंह थे, जो सन्‌ १८५७ के विद्रोह के 
नेता थे। बुधरसिंह और शुभसिंह के वंशज अब नहीं रहे। होरिल सिंह के 
वंशज आज भी डुमरॉव में हैं और इसी वंश के राजा बावू कमलनारायण रिंह हैं। 


[३] 
भोजपुरी 


'इस प्रकार उपयु'क्त प्रमाणों से सिद्ध है कि भोजपुर एक आंत था। 'शाहाबाद 
गजेटियर! में लिखा है--“धीरे-धीरे, भोजपुर का विशेषण भोजपुरी, इस प्रांत के 
निवासियों तथा उनकी बोली के लिए भी प्रयुक्त होने लगा। चूँकि इस प्रान्त की 
बोली ही इसके उत्तर, दुक्तिण तथा पश्चिम में भी बोली जाती थी, अतएव 
भौगोलिक दृष्टि से भोजपुर प्रांत से बाहर होने पर भी इधर की जनता तथा 
उसकी भाषा के लिए भी भोजपुरी शब्द ही श्रचलित दो चला । 

“यह एक विशेष बात है कि भोजपुर के चारों ओर की ढाई करोड से अधिक 
जनता की बोली का नाम भोजपुरी हो गया। प्राचीन काह में भोजपुरी का यह 
क्षेत्र--काशी', 'मतल? तथा पश्चिमी मगध” एवं 'कारखण्ड”ः (वर्तमान 
छोटानागपुर) के अंतर्गत था। म॒गलों के राजत्व-काल में जब भोजपुर के राजपूतों 
ने अपनी वीरता तथा सामरिक शक्ति का विशेष परिचय दिया, तब एक ओर 
जहाँ भोजपुरी शब्द जनता तथा भाषा दोनों का वाचक बनकर गौरव का द्योतन 
करने लगा, चहाँ दूसरी ओर चह एक भाषा के नाम पर, प्राचीन काल के तीन 
प्रांतों-को, एक प्रांत में गूँ थने सें भी समर्थ हुआ ।” 

“आरा-पुरातंत्त्त*-नामक पुस्तक के ३२ वें पृष्ठ में लिखा है--/इस प्रांत के नाम 
से ही भोजपुरी बोली पअ्रखिद्ध है, जिसे दो करोड़ मनुष्य बोलते हैँ। इस बोली 
के प्रधान चिह्न यह है कि इसमें 'ने! विभक्ति होती ही नहीं। जेसे--“रवाँ 
खदलीं आदि ।? 

फिर इसी वात को प्रियर्सन साहव ने अपनी “लिंग्िस्टिक सर्वे ऑफ इरिडिया? 
पुस्तक में व्यक्त करते हुए कहा हैं--“भोजपुरी उस शक्तिशाली, स्फूत्तिंपूर्ण और 


भूमिकां ११ 


उत्सादी जाति की व्यावहारिक भाषा है, जो परिस्थिति और समग्र के अनुकूल 
अपने को बनाने के लिए सदा अस्तुत रहती है और जिसका प्रभाव हिन्दुस्तान 
के हर भाग पर पढ़ा है। हिन्दुस्तान में सभ्यता फैलाने का श्रेय बंगालियों और 
भोजपुरियों को ही प्राप्त है। इस काम में बंगाल़ियों ने अपनी कलम से काम 
लिया और सोजपुरियों ने अपनी लाठी से ।” 

सारन जिले के भी पूर्वंकथित गजेटियर में वहाँ के निवासियों के सम्बन्ध में 
प्रियर्सन साहब की पूर्वकथित बातें पृ० ४१ पर अंकित हैं। 

भोजपुरियों के स्वभाव के संबंध में हमारी पुस्तक भोजपुरी लोकगीत में करुण 
रस” की भूमिका में ० ६६,७०,७१ और ७२ में पढ़ना चाहिए । 


भोजपुरी नाम क्यों पड़ा, इसका उल्लेख किया जा चुका है। यहाँ भोजपुरी के इतिहास 
का वर्णन करते हुए हमने यह भी दिखाया है कि भोजदेव ( सन्‌ १००४५--१०४५ ई० ) 
के समय में भोजपुरी की प्रधानता बढ़ी और १२३७ वि० सं० यानी ११८० ई० 
तक भोजदेव के वंशज 'ार! के परमार-राजाओं का शासन इस सोजपुर प्रान्त पर 
सबल रूप से कायम रहा । 

'हिस्ट्री ऑफ्‌ दी परमार डाइनेस्टीः* में लिखा है--“लक्ष्मणदेव (भोजदेव 
के प्रपौन्ष) के सम्बन्ध में कह्दा जाता है कि उसने अंग और कलिंग की सेनाओं के 
साथ संग्राम किया था । नागपुर के शिलालेख का तीसरा लेख बताता है कि 
अंग और कर्लिंग के उन हाथियों को भी--ज्ो विश्व के संहार-हैतु चल्लायमान 
पवतों की तरह विशा्ष थे तथा जो वर्षा-मेघों के समान गजन करनेवाले और 
पालतू शूकर-समूह की तरह काले थे--लक्ष्मणदेव की सेना के सम्मुख उस समय 
दया को सित्षा माँगनी पढ़ी थी, जब वे देव के सेनाधिपतियों के शक्तिशाली 
हाथियों के आक्रमण-रूपी भीषण तूफान द्वारा त्रस्त और अस्त व्यस्त कर दिये 
गये थे। बिहार के वर्तमान भागलपुर और सु गेर जिले को उस समय अंग कहते 
थे, और ये रासपात्न (बंगाल के राजा) के राज्य के उपभार थे । 3 कर्लिंग वर्तमान 
उत्तरीय भारत का वह भाग था, जो उड़ीसा और #विड़ देश के बीच समुद्र से 
सीमाबद्ध, होता है।ओ कर्निंधम के अनुसार यह प्रदेश दुक्षिण-पश्चिम में 
शोदावरी नदी के इस पार तक और उत्तर-पश्चिम में इराचती मढ़ी की गुवजी- 
नामक शाखा तक फैला हुआ था। सम्भव है कि लक्ष्मणदेव ने बंगाल पर 


३... प्रकाशक--द्विन्दी-साहित्य-सस्सेलन॑, प्रयाग । प्रकाशन-काल वि० २००१ स॑० | 
२, प्रकाशक--ढाका-विश्वविद्यालय, क्ेखक--श्री डी० सी० गागुली, पृष्ठ १४६ । 
३. देखिप--सेसायस ऑफ दी एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल, जिदद्‌ ५, नै० ३, पृ० ६३-६४। 


रे भोजपुरी के कवि और कार्व्य 


झक्रसण करते समय द्वी अंग की सेना से संग्राम किया हो अथवा यह भी हो 
सकता है कि लक्ष्मणदेव ने रामपाल के अधीनस्थ अंग की सेना को आये 
बढ़ने में रुकावट डालने पर विनाश करके भगा दिया हो ।” 
इस उद्धरण से दो बातें सिद्ध होती हैं--प्रथम यह कि इसी पराजय के कारण 
अंग के इस प्रदेश के निवासियों का नाम 'भगोलिया? (भागनेवाला) पढ़ा हो और बाद में 
भगोलियों? के बसने के कारण नगर का नाम “भागलपुर? पड़ गया हो, तो कोई 
आश्चये की बात नहीं। स्थानों का नामकरण वहाँवालों के स्वभाव तथा विशेष 
घटना आदि के आधार पर रखना कोई नई बात नहीं है। भागलपुर के भगोलिया! 
लोकोक्ति की संगति भी उक्त व्याख्या से ठीक बैठ जाती है। 
दूसरी बात नागपुर के शिला-लेख से तथा भोजपुर के इतिहास के 
आधार पर यह निश्चित होती है कि लक्ष्मणदेव की सेना में उनके भोजपुर प्रांत की 
भोजपुरी सेनाएं भी सम्मिलित थीं अथवा वे सेनाओं के साथ मालवा से पहले 
भोजपुर आये और यहाँ से उन्होंने भोजपुरी सेना के साथ वंग पर अंग और कलिंग 
के मार्ग से चढ़ाई की। इस तरह उक्त लोकोक्ति का रचना-काल, वँग के राजा 
(रामपाल? या उससे दो-चार वर्ष बाद का कह जायगा। रामपाल का समय श्री डी० 
सी० गांगुली ने उक्त पुस्तक में सन्‌ १०७७--११२० ई० तक का दिया है। इस लम्बी अवधि 
के बीच लक्ष्मणदेव का आक्रमण हुआ था। अतः १२वीं सदी के आरम्भ-काल में इसको 
रचना हुईं होगी । भाषा के अथे में भोजपुरी का सर्वप्रथम प्रयोग एक दूसरी 
लोकोक्ति में हमें मिलता दे, जिसमें भाषा के अर्थ में एक साथ भोजपुरिया, मगहिया 
और तिरहुतिया इन तीनों मगिनी भाषाओं के नाम आये हैं। 
“कस कस कसमर किना सगहिया 
का भोजपुरिया की तिरहुतिया १” 
इस लोकोक्ति को म्रिय्तन ने अपने “बिहारी भाषाओं के व्याकरण” के मुखपृष्ठ 
पर उद्धृत किया है। इस लोकोक्ति का निर्मोण-काल मैथिल-कोकिल विद्यापति के 
समय के बाद का ही ज्ञात होता है; क्योंकि इसमें मिथिला की भाषा का 'तिरहुतिया” 
शब्द आया है। विद्यापति के समय (१४ वीं शताब्दी) मे मैथिली भाषा के लिए कोई 
नाम निश्चित नहीं था, तभी विद्यापतति को इसके लिए 'देसिलबयना” कहना पढ़ा था। 
इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि भोजपुरिया या भोजपुरी का अयोग भाषा 
के अर्थ में 'मगही” या 'तिरहुतिया” नामकरण की तरह ही हुआ द्ोगा । 


दल कि जी किक 372 आमजन हक 
३. सावार्थ--'क्या' सर्वेचाम के लिए 'कसमर” (सारन जिले के) स्थान में 'कर', मगद्द में 'किना', 
भोजपुरी में 'का' जौर तिरहुतिया में 'की' द्ोता दे (“-तागरीअचारियी-पत्निका, पर्ष ४३, जैक ६-४) 


भूमिका १३ 


भोजपुरी-भाषा के विशेषज्ञ एवं मर्मज्ञ डॉ” उदयनारायण तिवारी ने काशो- 
नागरौ-प्रचारिणौ सभा की पत्निका (वर्ष ५३, अड्ड ३-४, विकम-सं० २००५३ प्ृ० १६३-१६६) 
में 'मोजपुरी का नामकरण” शौषक अपने निबन्ध में लिखा है-- 

“लिखित रूप में भोजपुरी-भाषा का सर्वप्रथम प्रामाणिक श्रयोग हमें सन्‌ 
१७८६ में मिलता है। ग्रियर्सन साहब ने अपने 'लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ 
इण्डिया! के प्रथम भाग के पूरक अंश के छ० २२ में एक उद्धरण दिया है। उन्होंने 
यह उद्धरण रेमंड-कृत शेर मुतारीन के अशुवाद' ( द्वितीय संस्करण ) में दी हुई 
अनुवाद की भूमिका, ए० ८ से लिया है। पद इस प्रकार है--“३७८९, दो दिन 
धाद, सिपाहियों का एक रेजिमेण्ट जब दिन निकलने पर शहर से होता हुआ 
चुनारगढ़ की ओर जा रहा था, तब में घहाँ गया और उन्हें जाते हुए देखने 
के लिए खड़ा हो गया। इतने में रेजिमेण्ट के सिपाही रुके और उनके बीच से 
कुछ लोग अंधी गली की ओर दौड़ पड़े। उन्होंने एक झरुर्गों पकड़ ली और 
तब सिपाहियों में से एक ने अपनी भोजपुरिया बोली में कहा--इतना अधिक 
शोर मत मचाओ। आज हम फिरंगियों के साथ जा रहे हैं, किन्तु हम 
सभी चेतसिंदह की प्रजा हैं और कत्ल उनके साथ भी जा सकते है और 
तब तो मूली-गाजर का ही प्रश्न नहीं रहेगा, बढ्कि प्रश्न इसारी बहू-बेटियों 
का होगा । 

५ इसके बाद निश्चित रूप से भाषा के अर्थ में भोजपुरी शब्द का प्रयोग 
सन्‌ १८६८ में जॉन बोक्स ने 'रायल एशियाटिक सोसाइटी” के जनल, ( जिद 
३, पृष्ठ ४८५-५०८ ) में प्रकाशित अपने भोजपुरी-सम्बन्धी लेख में किया है । 
वस्तुत: बोक्‍्स साहब ने प्रचत्तित अर्थ में ही इस शाबदु का प्रयोग किया है । 
यह ल्लेख प्रकाशित होने से एक वर्ष पूर्व (१७ फरवरी, सन्‌ १८६७ ईं० को ) 
एशियाटिक सोलाइटी में पढ़ा गया था । 

“पकिर विलियम इरविंग-लिखित “दि आर्मी ऑफ दि इंडियन मुगल” ( लंदन, 
१६०३, पृष्ठ १६८-१६६ ) से ज्ञात होता है कि भोजपुरी जनता तथा उनकी 
भाषा के अन्य नाम भी थे। मुगलों के शासन के समय दिल्‍ली तथा पश्चिम में 
भोजपुरियों--विशेषकर भोजपुरी क्षेत्र के लिपाहियों-को बचकक्‍सरिया कहा 
जाता था। १७ वीं और १८ वीं शताब्दी में भोजपुर तथा उसके पास के ही 
बक्सर--दोनों फौजी भर्ती के लिए मुख्य केन्द्र थे। फिर १८वाँ सदी में जब 
अ्ंगरेजी-राज्य स्थापित हुआ, तब अँगरेजों ने भी मुगज़ों की परम्परा जारी रखती 
और वे भी भोजपुर और बक्सर से तिल॑ंगों की भर्ती करते रहे । बंगाल और 


१४ भोजपुरी के कवि ओर काव्य 


कलकत्ता में, जहाँ भोजपुरिों का जमघट रहता है, बंगाली इन्हें 'पश्चिमी' 
तथा 'देशवाली” अथवा 'खोद्' कद्दते हैं। 'खोद्दा? शब्द में हेष के कारण घृणा की 

भाषना है; क्योंकि भोजपुरी उनसे बल में मजबूत होने के कारण हर जीविकोपार्जन 
में आगे रहते हैं, जिससे वे उनकी घृणा के पात्र बनते हैं। 'देशवात्ली? शब्द इसलिए 
प्रचलित हुआ कि जब कलकत्ता या बंगाल में दो भोजपुरिया मित्तते हैं, तो वे 
अपनेको आपस में 'देशवाली” अथवा 'मुल्की? कहकर संबोधित करते हैं। उत्तरी 

भारत में भोजपुरियों को 'पूर्बिहा! और उनकी बोली को पूर्वी बोली” कद्दा जाता 

है; किन्तु पूरब” और 'पूर्बिदा! सापेक्षिक शब्द हैं और इनका प्रयोग भी 

किसी स्थान-विशेष या बोली-विशेष के लिए नहीं ही होता । यद्यपि 'पूरथ! 

और “पूर्विया” के सम्बन्ध में 'हाब्सबल-जाब्सन डिक्शनरी! ( घृष्ट ७२४) में 

निम्नलिखित अर्थ लिखा गया है, जिससे जिलाविशेष का बोध होता है; पर 

वास्तव में बात ऐसी नहीं है। यह डिक्शनरी कनल हेनरी यूल तथा ए० प्ली० 

बनेल की बनाई ऐग्लो-इणिडियन लोगों में प्रचक्षित शब्दों तथा वाक्यों की 

तालिका से सम्पन्न है। यह सन्‌ १३०३ ६० का संस्करण है। इसमें 'प्रब” और 

'पूर्बिहा? शब्द के विवरण थों हैं-- 


“उत्तरी भारत में पूरब” से अवध, बनारस तथा बिहार से तात्पय है । 
अतः पूर्बिया इन्हीं प्रान्तों के निवासियों को कहते हैं। बंगाल की पुरानी 
फौज के सिपाहियों के लिए भी इस शब्द का प्रयोग होता था; क्योंकि उनमें 
से अधिकांश इन्हीं प्रान्तों के निवासी थे । 


“आज क्यों अवध के लोग बिहार के निवासियों को पूर्बिया कहते हैं तथा 
घज और विल्लीवाले अवध के रहनेवाल्नों को पूर्बिया कहते हैं ! दिल्‍ली के उदू- 
कवियों ने भी ऐसा ही प्रयोग किया है। 'मीर साहब” जब दिल्‍ली से रुखसत 
होकर लखनऊ आये और पहले-पहल सुशायरे में शरीक हुए, तब पहली गजल जो 
उन्होंने अपने परिचय में पढ़ी, डसमें लखनऊवालों को 'पूरब के साकिनों! कहके 
सम्बोधन किया था। 'कन्नीर' ने भी सन्‌ १५०० ईं० में अपनी भाषा को पूरबी 
कष्दा है। यथा--'बोली हमरी पूरब की हमें लखे नहिं. कोय; हमके तो सोई लखे 
धुर पूरब के होय ।” परन्तु इस छोटे दोहे में 'पुरवी” शब्द केवल भोजपुरी के लिए 
ही नहीं व्यक्त किया गया है। इस “पूर्वी? में लखनऊ के पूरब की बोलियाँ भी 
शामित्ञ हो सकतीं हैं। यद्यपि इनमें प्रधान तो भोजपुरी ही मानी जायगी; क्योंकि 
इसका विस्तार 'अवध' के जिलों तक है ।” 


भूमिका १५, 


भोजपुरोभाषौ प्रदेश के भीतर भी, स्थान-भेद से, विभिन्न स्थानों कौ बोलियों 
का नाम उन स्थानों के नाम पर कहा जाता है; जैंसे, बनारस की बोली को बनारसी, 
छुपरा की बोली की छुपरहिया | बस्ती जिले की भोजपुरी का दूसरा नाम सरवरिया 
भौ है। आजमगढ़ के पूर्वों तथा बलिया के पश्चिमी क्षेत्र में बोली जानेवाली बोली 
को 'बेंगरहो” बंहते हैं। बॉगर-क्षैन्र से उसका तात्पये है, जहाँ गंगा की बाढ़ नहीं जाती । 
परन्तु इन नामों का भाषा-मेद से कोई सम्बन्ध नहीं। इन नामों का सीमित ज्षेत्र से ही 
सम्बन्ध रहता है। 
श्री राहुल सांकृत्यायन जी ने बलिया के तेरहवें वार्षिकोत्सव के अपने भाषण में 
भोजपुरी-भाषा के स्थान पर “मत्ली” नाम का प्रयोग किया था। एक लेख 
भी “विशाल भारत? ( कलकत्ता )) में इसी आशय का निकाला था। इसका आधार 
उन्होंने बौद्धकालीन १६ जनपदों में से 'मल्ल-जनपद? को माना था। इसकी ठौक सीमा 
क्या थी, यह आज निश्चित रूप से नहीं बतलाया जा सकता । जैन कल्पसून्नों में नव 
मल्लों की चचो है; किन्तु बौद्ध अ्न्थों में केवल तीन स्थानों--'कुशिनारा', 'पावा? तथा 
“अनूपिय/ के मल्लों का उल्लेख है। इनके कई ग्सिद्ध नगरों के भी नाम मिलते हैं; 
जैसे--/भोजनगर!, अनूपिया? तथा “उस्बेलकप”। 'कुशिनारा? तथा “पावा! विद्वानों? 
के मतानुसार युक्तप्रांत के गोरखपुर जिले में स्थित वत्तमान 'कसया? तथा 'पडरौना? 
ही हैं। मल्ल की भाँति काशी का भी उल्लेख प्राचीन अन्थों में मिलता है। काशी में मी 
भोजपुरी बोली जाती है, अतएवं मल्ल के साथ-साथ काशी का होना भी आवश्यक है। 
राहुल जी ने इस क्षेत्र की भोजपुरी को काशिका नाम दिया है ; किन्तु भोजपुरी को 
ऐसे छोटे-छोटे ढुकड़ों में विभक्त करना अनावश्यक तथा अनुपथुक्त है। आज भोजपुरी 
एक विस्तृत क्षेत्र की भाषा है। इसलिए प्राचीन जनपदाँ को पुनः ग्रवलित करने की 
अपेक्षा आधुनिक नाम भोजपुरी ही अधिक धांछनौय है। इस नाम के साथ भी कम- 
से-कंम तौन सौ धर्षों कौ परम्परा है । 
[४] 
भोजपुरी : भाषा या बोली १ 
भाषा-विज्ञान के विद्वानों के मतानुसार भाषा उसे कइते है, जिसके द्वारा मनुष्य- 
समाज के प्राणी परस्पर भावों और विचारों का आदान-प्रदान लिखकर या बोलकर 
करते हैं। 
भोजपुरी किसी छोटे-से स्थान-विशेष या जिला विशेष की बोली नहीं ; बढ्कि दो 
प्रान्तों में बेटे हुए चौरह जिलों की और लगभग चार करोड़जनता द्वारा बोली जानेवाली 
१. जक्दूबर, १६४६ ई० | हु 


१६ भोजपुरी के कवि और काव्य 


भाषा है। उसमें समृद्ध लोकसाहित्य के साथ-ही-साथ सांस्क्ृतिक साहित्य भी है। उसमें 
भी व्याकरण के स्वाभाविक नियम हैं। यद्यपि लिखित रूप में वत्तमान नहीं हैं। 
उसका वर्षों का अपना साहित्यिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास है । उसकी 
लोकोक्तियों, शब्द-वैभव, मुद्दावरे, आदरसूचक और पारिभाषिक शब्द, अभिव्यत्तियों 
के तरीके आदि ऐसे अनोखे और बलवान हैं कि उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। 
इस दिशा में वह अपनी अन्य सगिनी-भाषाओं से अनूठी है। उसके बोलनेवालों की 
सांस्कृतिक एकता, पौरुष, वीर-प्रकृति, आयुधजीवी स्वभाव की विशेषता आदि, 
श्राज के ही नहीं, २५ सो वर्षों' के ऐतिहासिक प्रमाणों द्वारा सिद्ध हैं। ऐसी स्थिति में 
भोजपुरी के गुणों की न जानने के कारण यदि उसको कोई केवल बोली कहें, तो यह 
स्वेथा अनुचित है। भोजपुरी में आज वेग से नवीन साहित्य का सर्जन हो रहा हैं। 
उसके बोलनेवालों का उसके प्रति प्रेम और उत्साह इतना प्रबल है कि उसके साहित्यिक 
विकास में किसी प्रकार सन्देह नहीं किया जा सकता। भोजपुरी का क्षेत्र ५०,००० 
वर्गमौलों में फैला हुआ है। उसकी विशेषताओं के कारण आचार्य श्री श्यामसुन्द्र दास ने 
अपनी भाषा-रहस्य” पुस्तक ( पृष्ठ २०६ ) में बिहारी भाषा का उल्लेख करते 
हुए डॉ० सनीतिकुमार चाढुज्यो का हवाला देकर लिखा है--“भोजपुरी अपने 
वर्ग की ही मेैथिज्ी-मगह्दी से इतनी मिन्न होती है कि चटर्जी इसे एक प्रथक्‌ 
वर्ग में ही रखना उचित समझते हैं ।”?# 


भोजपुरी को साहित्यिक भाषा मानने के विपक्ष में सर्वप्रथम दलौल यही दी 
जाती है कि उसमें साहित्य का अभाष है। दूसरी यह कि उसका व्याकरण नहीं है। 
यह कहना अ्रसंगत है कि भोजपुरी में साहित्य का अभाव है। भोजपुरो का साहित्य 
थ्राज से ही नहीं, सिद्ध-काल से निर्मित होता आ रहा है। सिद्ध-साहित्य की भाषा में 
भी भोजपुरी का अंश स्पष्ट है। हों, इसके करठनिहित साहित्य को लिखित रूप देकर 
विद्वानों के समक्त लाने का प्रयत्न पहले नहीं किया गया था। श्राज ही नहीं, बहुत 
पहले से भोजपुरी में अनेक छोटी-बड़ी पुस्तकों की रचना होती आई है और वे पुस्तकें 
प्रकाशित होकर बाजारों में बिकती भी रही हैं। कलकत्ता और बनारस के कितने ऐसे श्रेस 
हैं, जो ऐसी हौ पुस्तकें छापकर समृद्ध हुए हैं। व्याकरण के अभाव के कारण भाषा की 
सत्ता पर सन्देह नहीं करना चाहिए। वस्तुत. भाषा पहले है, व्याकरण पीछे । व्याकरण 
के होने न होने से किसी भाषा के व्यापक अस्तित्व में अन्तर नहीं आता । 

भोजपुरियों का हिन्दी भाषा के प्रति हार्दिक अनुराग है। उसको राष्ट्रभापा 


# देखिप--'ओरिजिन पर ढेवच्पमेल्ट आँफू दि चंगाती ठैखेज'--पृ्ठ ४२ । 


भूमिका १७ 


मानने के लिए वे बहुत पहले से ही तैयार हैं। उसके विकास के लिए वे 
तन-मन-धन से कार्यतत्पर रहते हैं। किन्तु अन्य जनपदीय भाषाभाषियों की तरह 
वे राष्ट्रभाषा हिन्दी के उच्नति-पथ पर कॉंटे बिछाना नहीं चाहते। वे हृदय से 
भारतीयता और राष्ट्रीयता के समर्थक हैं। किसी दूसरी भगिनी भाषा से उनको 
किसी प्रकार का ढेष या विरोध नहीं है। 


[५] 
मेदोपमेद 


अपने भाषा-सदें में प्रियर्तन ने भिन्न-मिन्न भाषाओं के उच्चारण तथा व्याकरण 
का विचार करके भारतीय आयभाषाओं को तीन उपशाखाओं में विभक्त 
किया है--(१) अन्तरह्ञ, (२) बहिरज्ञ और (३) मध्यवरत्ती। प्रियर्सन ने भोजपुरी, 
मैथिली और भगही को बहिरंग उपशाखा के अन्तर्गत निम्नलिखित क्रम से रखा है-- 


(क)-बहिरंग... सन्‌ १६२१ ३० में बोलनेवालों की संख्या 


(3)-पश्चिमोत्तरी वर्ग करोड़ ल्ञाख 
लहँदा ० पूछ 
सिन्धी ० रेड 

(२)--दृक्षिणी वर्ग 
मराठी ० फ्८ 

(३)--पर्वी वर्ग 
आसामी ० १७ 
बंगाली ० 8३ 
ओड़िया | ० 
बिहारी ३ डक 
भोजपुरी मैथिली मगही 

7ू००००००० पृ००००००० ६२००००० 

(ख)--मध्यवर्त्ती उपशाखा हे 

(४)--मध्यवत्ती वर्ग करोड़ लाख 
पूर्वी हिन्दी ३ २६ 


यह संख्या ४६ कांख नहीं, १९ खाद है। यहाँ शायद थापे की गकती है। --लेखक 


श्प भोजपुरी के कबि और काव्य 


(ग)--अंतरंग उपशाखा 

(५)--केन्द्र वर्ग 
पश्चिमी हिन्दी ह १२ 
पंजाबी १ ६२ 
गुजराती ० ६६ 
भौली के १६ 
खानदेशी ० २ 
राजस्थानी १ २७ 

(६)--पहाढ़ी वर्ग 
पूर्वां पहाड़ी अथवा 
नेपाली ० ३ 
केन्द्रवर्ता पहाड़ी" ० 
पश्चिमी पहाड़ी ० १७२९ 


, इस प्रकार उपयुक्त १७ भाषाओं के ६ वर्ग और ३ उपशाखाएं मानी गई हैं, पर 
कुछ लोगों को यह अन्तरज्ञ और बहिरघ्न का भेद ठीक नहीं प्रतीत होता है। 
डॉ० सुनीतिकुमार चट्जों ने लिखा है कि सुदूर पश्चिम और पूर्व की भाषाएँ एक 
साथ नहीं रखी जा सकतीं। उन्होंने इसके अच्छे प्रमाण भी दिये है3 और भाषाओं 
का वर्गाकरण नीचे लिखे ढंग पर किया है-- 

(क) उद्गीच्य ( उत्तरी वर्ग ) 

(१)-सिंघी, (२)--लहँदा, (३)--पंजाबी 

(ख) पतीच्य ( पश्चिमी वर्ग ) 

(४)--गुजराती, (५)--राजस्थानी 

(ग) मध्यदेशीय वर्ग 

(६)- पश्चिमी हिन्दी 

(घ) प्राच्य ( पूर्वी ) वर्ग 

(७)--धूर्वीं हिन्दी (5)--बिहारी, (६)--ओड़िया, (१०)- बँगला, 
(११)--आसामी 


१. सत्‌ १६२१ ई० की उनगरणता में केन्द्रवर्ती पहाडी के चोलनेवादे ल्लोग द्विन्दी-मापियों में गिन णिये 
गये हैं । अतः केवल इ८५३ सनुष्य इसके बोलनेवाणे माने जाते हैं। अथौत्‌ , छाख में उनकी गणना 
नही हैँ ।--जे० 

२, देखिप--ग्रियसन-सम्पादित 'लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इग्रिडया' का इस्ट्रोडक्शन, पृष्ठ ११०७-२० ।--छे० 

३. देखिप--ण्सू० के० चटर्ची-लिखित 'ओरिजिन एण्ड डेवक्पमेणट ऑफ बंगाली जेंग्वेच', पृष्ठ २६-३१ 
कौर पृष्ठ ०६००६ ।--शेख़क 


भूमिका ४ ॥ 
(छ) दाक्षिणात्य ( दक्षिणी ) वर्ग 
(१२) मराठी १ । 
इस प्रकार प्रियसन और चटर्जी दोनों विद्वानों के वर्गाकरण को उद्धत 


करके बाबू श्यामसुन्दर दास जी ने डॉ० सुनीतिकुमार चटजी के मत से सहमत होते हुए 
लिखा है*-- 


बिहारी केवल बिहार में ही नहीं, संयुक्त प्रान्त के पूर्वी भाग, अर्थात्‌ गोरखपुर, 
बनारस कमिश्नरियों से लेकर पूरे बिहार प्रान्त में तथा छोटानागपुर में भी बोली 
जाती है। यह पूर्वी हिन्दी के समान हिन्दी की चचेरी बहन मानी जाती है ।” 


भौगोलिक आधार पर ग्रियर्सन ने भोजपुरी के पॉच उपभेद बताये है। बिहार के 
अन्द्र मुख्यतः शाहाबाद, सारन, चम्पारन और पलामू जिले में भोजपुरी बोली 
जाती है। छोटानागपुर के अन्दर भी भोजपुरी बोलनेवाले कुछ लोग है, मगर 
यहाँ की भोजपुरी का रूप बहुत विकृृत है। भोजपुरी के मुख्य पॉच रूप बताये गये हैं। 
(१) शुद्ध भोजपुरी, (२) पश्चिमी भोजपुरी, (३) नागपुरिया, (४) मधेसी और 
(५) थारहू। शुद्ध भोजपुरी बिहार प्रान्त के अन्दर केवल शाहाबाद और 
सारन जिले में तथा पलामू जिले के कुछ हिस्सों में और युक्तप्रांत के अन्दर बलिया, 
गाजीपुर (पूर्वां आधा) तथा गोरखपुर (सरयू और गण्डक के बीच ) में बोली 
जाती है। पलामू और दक्षिण शाहाबाद के खरवार जाति के लोगों द्वारा बोली 
जानेवाली भोजपुरी को 'खरबवारी” कहा जाता है। पश्चिमी भोजपुरी बिहार में नहीं 
बोली जाती। यह फैजाबाद, आजमगढ़, जौनपुर, बनारस, गाजीपुर ( पश्चिमी 
भाग ) और मिरजापुर (दक्षिणी भाग ) में बोली जाती है। नागपुरिया 
छोटानागपुर की, खासकर रॉची की, भोजपुरी की कहते हैं। इस पर विशेषकर मगही 
का और कुछ पश्चिम की छत्तीसगढ़ी का प्रभाव है। इसमें अनाय भाषाओं 
के शब्द भी आये हैं। इसे सदान या सदरी भी कहा जाता है। भुण्डा लोग 
इसे “दिक्वू-काजी? कहते हैं, अथोत्‌ दिक्‍कुओ यानी आया की भाषा कहते हैं। 
रेवरेण्ड ई० एचू० हिटली ने “नोट्स ऑन नागपुरिया हिन्दी! नामक किताब में 
लिखा है---““चम्पारन की भोजपुरी को 'मधेसी” कहा जाता है। मैथिली और भोजपुरी- 
भाषा-भाषी प्रान्तों के बीच पड़ने के कारण इस बोली का नाम 'भमच्यदेशीय' या 

३० पद्दाडी बोकियो को डॉ० चटर्जी ने भी राजध्यानी का रूपान्तर माना है, पर उनको निम्नित 
रूप से किसी वर्ग में रखना बाबू श्यामसुल्द्र दाऊ ने नहीं मानकर, उनको एक अलग वर्ग 


से रखना द्वी उचित सममा है। 
२. देखिए--“साषा-रहस्य”, पृष्ठ २०५-२०९६, द्वितीय संस्करण, वि० सँ० २००७ ॥ 


२० भौजपुरी के कवि और काव्य 


'मधेसी” पढ़ा । 'थारू? बिहार प्रांत के अन्दर चम्पारन जिले के उत्तर-पश्चिम कोने 
पर और उसके बाहर यहाँ से लेकर बहराइच तक की नैपाल की तराई में बोली 
जाती दहै। थारू एक जाति का नाम है, जो द्वाविड़ श्रेणी की है। यह जाति 
हिमालय की तराई में रहती है । इसकी अपनी कोई भाषा नहीं है। इस जाति 
के लोग जिस स्थान में रहते है, उस स्थान के पास की आय-भाषा से विकसित 
बोली ही बोलते हैं। चम्पारन के थारू ज्ोगों की बोली एक तरद कौ 
भोजपुरी ही है।” 

भोजपुरी के उपयुक्त उपभेदों का वास्तव में कोई व्यावहारिक महत्त्व नहीं है। 
ये उपभेद भोजपुरी के उच्चारण, बलाघात आदि कारणों तथा कियाओं और 
शब्दों में थोड़े नगण्य भेदों के आधार पर ही निर्भर हैं । 


उक्त पाँचों भेदों के व्याकरण, नियम, भुहावरे सभी एक है। लोकोक्तियाँ, गीत, 
साहित्य, पहेली तथा उनकी भाषा सब एक हैं। कहीं-कहीं उच्चारण-भेद्‌ पर ही एक 
भाषा को पॉच भेदों में बॉठना ध्येय हो, तो केवल शाहाबाद में हो तीन भेदों का उल्लेख 
किया जा सकता है। भभुआ सबडिवीजन और सदर सबडिवीजन के स्थानों की बोलीं के 
उच्चारण में आपस में भेद है। वैसे ही बक्सर और दक्षिणी ससराम के निवासियों के 
उच्चारण में भौ भेद सुनाई पड़ता है। तो, इस तरह देखने से तो हर ५० मील पर 
की बोली के उच्चारण मे थोड़ा-बहुत अन्तर आ ही जाता है। इस आधार पर चलने से 
तो किसी भाषा का रूप ही नहीं निधोरित हो सकता । छुलतानपुर और प्रतापगढ़ 
की अवधधी एवं लखोमपुर और सीतापुर की अवधी को दोनों जगहोंवाले एक 
ही अवधो मानते हैं; हालाँकि दोनों में काफी अंतर है। प्रियसेन साहब भी 
रामायण की भाषा को अवधी मानते हैं। पर रामायण की भाषा पर भोजपुरी 
की भी प्रचुर छाप है । लखीमपुर की अवधी से उसमें पयोप्त अंतर है। भाषा 
के विभेद्‌ का ऐसा आधार किसी को मान्य नहीं हो सकता। भाषा के रूप के स्थिरीकरण 
में इस तरह के भेद बिलकुल नगराय हैं । 


[६] 
भोजपुरी के शब्द, मुहावरे, कहावतें और पहेलियाँ 


( शब्द ) 
भोजपुरी के शब्द-भांडार की विशालता और व्यापकता का अनुमान इसी से किया 
जा सकता है कि भोजपुरीभाषी को दिनालुद्न के किसी भी व्यावहारिक विषय पर 


भूमिका २६ 


अपना मत प्रकट करते समय शब्द की कमी का अलुभव नहीं होता। भोजपुरी में 
आवश्यकतानुसार संस्कृत या दूसरी भाषाओं से भी जो शब्द उधार लिये जाते है, उनका 
उच्चारण भोजपुरी ध्वनियों के अनुरूप ही होता है। शिकार, लड़ाई, कुश्ती, अस्त्र 
शस्त्र, कला-कौशल, व्यवसाय, यात्रा, शहस्थी अथवा पशु-प शी आदि के जीवन से सम्बन्ध 
रखनेवाले विभिन्न विषयो के शब्दों से भोजपुरी का कोष भरा पड़ा है। पत्तियों और 
जानवरों के नाम, उनकी हर एक अदा, उनके उड़ने का एक-एक ढंग, उनके फँसाने तथा 
शिकार के साधन आदि वस्तु-विशेष के अनेक नाम भोजपुरी में मौजूद है। यदि 
भोजपुरी का शब्द-कोष तैयार किया जाय, तो उप्से हिन्दी के कोष की भी पयोप्त बंद्धि 
होने की सम्भावना है। भोजपुरी में शब्दों की बहुलता देखनी हो, तो बिद्दार के सन्त- 
कवि बाबा धरनीदास की एक कविता में आये हुए शब्दों मे मिन्न-भेन्न अवस्था और 
रुप की गायों के लिए अलग अलग नामों को देखना चाहिए। जैसे-गाय के विभिन्न 
रंग-हप के लिए उनकी कविता में निम्नलिखित शब्द मिलते हैं---“बहिला?, 'गाभिन', 
'बाछी!, 'लेह?, 'बछुरः, 'लाली', 'गोलौ?, 'धबरी?, 'पिञरी?, 'कजरीः, 'सँवरी), 'कबरी', 
धटिकरी!, 'सिंगहरीः आदि । इसके अलावा अवस्थाविशेष के अनुसार भी गाय के 
अनेक नाम हैं--यथा, बिना ब्याई गाय जो सॉड़ के पास जाने योग्य हो गईं है, उसे 
“कलोरः कहते है; गरभौधान के तुरत बाद की गाय 'बरदाई” कहलाती है; जो समय 
पर बच्चा देने के पूर्व ही बच्चा गिरा देती है, उसे 'लड़ाइल” कहते हैं : जो दूध देती 
रहती है, उसे 'घेनु? कहते हैं; जो बहुत दिन की ब्याई होती है और अपने बच्चे के 
बड़े होने तक दूध देती रहती है, उसे 'बकेन! कहते है। जो गाय दूध देना बन्द कर देती 
है, उसे 'नाठा? या “बिसुखी? कहते हैं ; हसी तरह पहले बियान की गाय को अकरे? 
या “ऑकर' बंह्ते हैं। दूहने के समय लतारनेवाली या चरने के समय चरवाहे को हैरान 
करनेवाली गाय “हरदा” कहलाती है। 
इसी प्रकार संज्ञा के लिए थोड़े-थोढ़े भेदों के साथ कंई शब्द हैं। जैंसे--एक लाठो 
के विविध प्रकार होते है और उनके लिए भी अनेक शब्द व्यवह्तत होते हैं। उदाहरण 
के तौर पर--लिऊरए, 'लऊरि?, 'पटकन?, बोंग!, “गोजी”, 'बासमती?, “लोहबाना 
आदि। आकार में कुछ छोटी, किन्तु मोटी लाठी के लिए--डंठाः, 'सौंटा), 'ठंगा!, 
“दुखहरन”, 'दुखभंजन? आदि | 
एक॑ क्रियापद के लिए भी भोजपुरी में अनेक शब्द है। जेंसे कपड़े धोने के लिए-- 
फींचना?, 'कवारना!, 'खँघारना”, 'धोना?, 'मिचकारनाः आदि । इसी तरह घर्तनों 
को साफ करने के लिए भौ--'मॉजना!, खिंघारना?, अमनिया करना!, 'वोनाः आदि। 
अज्न साफ करने के लिए--'फटकना?, “पे इचना?, 'इलोरना?, 'अमनिया करना!, ऑइटनाः, 


१२ भोजपुरी के कवि और काउंय 


भटकारना? आदि। पशु-पक्षियों की बोली, भोजन, चाल, रहन-सहन, मैथुन-कर्म 
आदि के लिए भी अलग-अलग अनेक शब्द हैं । इनके शब्दकोप जब तैयार होंगे, तव 
हिन्दी और भी गौरवान्वित एवं धनी हो जायगी । भोजपुरी में प्राचीन और आधुनिक 
पारिभाषिक शब्द बने हैं तथा बनते जा रहे हैं । उनका संग्रह होने से भी हिन्दी के 


पारिभाषिक शब्दकोपों के लिए अनेक बने-वनाये तथा प्रचलित नये शब्द 
मिल जायेंगे । 


( मुहावरा ) 


मुहावरों के निमौण और अ्रयोग से भी भोजपुरी वो क्षमता विलक्षण है। 
डॉ० उदयनारायण तिवारी द्वारा संग्रहीत पॉच हजार भोजपुरी मुहावरों का प्रकाशन हो 
चुका है । आज भी भोजपुरी भाषियों के कंठ में अगरित ऐसे मुहावरे हैं, जिनका संग्रह 
और प्रकाशन शेप है। श्रस्तुत पुस्तक में प्रकाशित वहुत-सी कविताओं में अनेक 
भोजपुरी मुदहावरे प्रयुक्त हुए हैं, जिनकी व्याख्या और पादटिप्पणी यथास्थ्यन कर दी 
गई है। ऐसे भी बहुत-से मुहावरे हैं, जिनके जोड़ के मुहावरे हिन्दी में नहीं पाये 
जाते हैं। भोजपुरी मुहावरों में दो-द्वक बात व्यक्त करने की अदभुत शक्ति है। 
भोजपुरियों के अक्खड़ स्वभाव के कारण उनके वहुत-से मुहावरे कुछ अश्लील भी 
होते हैं; पर वे इतने ठेठ और ठोस होते हैं कि उनकी टक्कर का शिष्ट मुहावरा खोज 
निकालना कठिन है। उनमें व्यंग्य की चुभन बड़ी तीखी होती हैं और दिल पर गहरी 
चोट करती है। यदि भोजपुरी के शब्दकीष की तरह 'मुहावरा-कोष” भी तैयार हो, तो 
हिन्दी को बहुत-से नये मुहावरे मिल जायेंगे। 


( कहावत ) 

भोजपुरी में कहावतों की निधि वहुत समृद्ध हैं । हिन्दी के आय. सभी लोकोक्तियों 
के भोजपुरी रूप भी मिलते हैं। इसक अतिरिक्त अन्य निकटवर्त्ता भाषाओं में कई 
लोकोक्तियों के भोजपुरी रूप भी पाये जाते हैं । भोजपुरी की एक खूबी यह भी है कि 
वह अपनी इन पुरानी निधियो के अतिरिक्त युगधर्म, परिस्थिति तथा सामयिक 
घटनाओं के आधार पर भो नित्य नई नई लोकोक्तियों का निर्माण करती जाती है, 
जिनका व्यापक प्रयोग भोजपुरी भापा-क्षेत्र में सामूहिक रूप से होने लगता है । 

भोजपुरी लोकोक्तियों के सप्रह की ओर अभी उचित प्रयत्न नहीं हुआ है। सन्‌ 
१८८६ ३० में, “हिन्दुस्तानी लोकोक्तिकोष” नामक पुस्तक में, जिनमे बनारस से लाला 


» देखिए--अयाग की हिन्दुस्ताती पकाढमी से प्रकाशित प्रेमाठिक पत्रिका 'द्विन्दुल्ानी' 
(सत्र, १६४० ई०, भाग १०, अंक २, ४; और सब १६४१ ई०, भांग ३१, अंक १) के अंक । 


भूमिका श्र 


फकौरचन्द आदि ने निकाला था, प्रृष्ठ २०७४ से आगे भोजपुरों लोकोक्तियों 
का संग्रह है। डॉ० उदयनारायण जी ने भी २००० भोजपुरी-लोकोक्तियों को 
हिन्दुस्तानी एकाडमी की “हिन्दुस्तानी? नामक पश्निका मे छपवाया था"। भोजपुरी 
प्रदेश में ऐसे अनेक व्यक्ति मिलते हैं, जो प्रत्येक वाक्य में एक-न-एक लोकोीक्ति कहने की 
पढुता रखते हैं। खेती, आनन्द, उत्सव, शोक, व्यवसाय, दवा-दारू, जानवरों की पहचान, 
लड़ाई, अध्यात्म, प्रेम, नोति आदि जितने लौकिक-पारलौकिक व्यावहारिक विषय हैं, 
सबके सम्बन्ध में भोजपुरी-लोकोक्तियों प्रचुर मात्रा में वत्तमान हैं । 
(१) कइल के दाम गइल? 
( पीत रंगमिश्रित धवंल रंग के बैल शिथिल और आलसी होते हैं, इसलिए 
खरीदने में खर्चे की गई रकम बेकार जाती है। ) 
(२) “गहि के धरीं हर, ना त5 आरी बहटीं” 
( खुद खेत जोतो, नहीं तो मेड़ पर भी बैठकर जोतवाओ, तभी अच्छी खेती 
होगी। ) 
(३) जो ना दे सोना, से दे खेत के कोना । 
(जो घन सोने से भी नहीं मिलता है, वह खेत के एक कोने से मिलता है। ) 
(४) 'खड्ट पूरा चरन नु एक हूरा चरन' 
( सौंबार निहोरा-बिनती करने से जो काम द्वोता हैया नहीं भी हो सकता है, 
वह एक ही धार के लाठी के प्रभाव से हो जाता है। ) 
[ लाठी के जमीन पर रखे जानेवाले हिस्से को भोजपुरी में “हूरा? कहते हैं। ] 
( पहेली ) 
पहेलियों के लिए भी कहावतों के समान ही भोजपुरी भाषा धनाव्य है। 
भोजपुरी में पहुलियों को बुझौवल? कहते हैं। संस्कृत-माषा में पहेली का जो भेद- 
निरूपण आचार्यों* ने किया है, उसके अनुसार यदि भोजपुरी बुकौवलों की परीक्षा की 
जाय, तो सभी भेदों के उदाहरण उनमें मिल जायेंगे। यही नहीं, भोजपुरी में अध्यात्म- 
विषयक भी पहेेलियों हैं। आज से प्राय. तौन सौ वर्ष पूव के बिहार के सन्‍्तकवि 
“धरनीदास! के 'शब्दप्रकाश” में भी 'पेहानी-प्रसंग” शौरषक के अन्तर्गत अध्यात्म-पत्त- 
सम्बन्धी मोजपुरी-पहेलियॉ मिलतो हैं। 'कबीरः और घरमदास” ने भी गौतों 


१. देखिप---अप्रैद-बुकाई, १६३६ ई० का अंक । 

२५ “रसस्य परिपन्थित्वान्नाकड्ठारः प्रद्देश्िका 
उत्तिवेचित्यमात्रै छा च्युतदत्तात्तरादिका ।.” (--साहित्यदर्पण) 
“ऋ्रीडायोष्टीविनोदेषु तज्छ राकोर्णमन्त्रणे । 
परृष्यासोहुने चापि सोपयोगा प्रद्देषिका ॥” (--काव्यादरश) 


२४ मौजपुरी के कवि और काव्य 


के रूप में बुभीवल और दृष्टवूट कहे हैं। डॉ० उदयनारायण तिवारी ने अक्टूबर, 
दिसम्बर, १६४२ ई० कौ 'हिन्दुस्तानी”पतन्निका ( अ्ड ४, भाग १२ ) में प्रचुर संख्या मे 
भोजपुरी पहेलियों का संग्रह अ्रकाशित कराया था। क्या ही अच्छा होता, यदि कोई धुन का 
पक्का भोजपुरी अपनी मातृभाषा की इन छिपी निधियो को खोज कर अकाश 
में लाता। 
उदाहरण देखिए-- 
एक ब्राह्मण राही कु ए के पास बैठकर सत्तू खा रह था। गाँव की एक पनिहारिन 
पानी भर कर घढ़ा उठाने लगी। इतने में ब्राह्मण ने कहा-- 
(क) जेकर सोरि पताले खीले, आसमान में पारे अंडा। 
ई बुकौलिया बूक्ि के त5, गोरी उठाब$ हंडा॥ 
अथोत्‌--जिसकी जड़ पाताल में पैठी हुईं है और जो आसमान में अंडे देता है, 
वह क्या है ? हे गोरी | इस बुझौवल का उत्तर देकर तो घढ़ा उठाओ। 
इस पर पनिहारिन ने प्रश्न के रूप में इस पहेली का उत्तर देते हुए इसी आशय 
की दूसरी पहेली कह सुनाई-- 
(ख) बाप के नाँव से पूत के नाँव, नाती के नाँच किछु अवर । 
ई बुझौवल बूमि के त5, पॉडो उठाव5 कवर ॥ 
अथौत्‌--जो बाप का नाम है, वही बेटा का भी है; मगर पोते का नाम कुछ 
ओर ही है। ऐ पॉड़े जी, इस बुभौवल का अर्थ बताकर तो कवल (कौर) उठाइए । 
( पनिह्ारिन ने ब्राह्मण की पहेली का उत्तर अपनी पहेली में दे दिया और ब्राह्मण के 
सामने एक नई पहेली भी खड़ी कर दी )। 
पास खड़ा तीसरा व्यक्ति एक नई पहेली कह कर दोनों पहेलियों का उत्तर देता है-- 
(ग) जे के खाद्द के हाथी माते, तेली लगावे घानी। 
ऐ पॉँड़े तूं कवर उठाव5 गोरी उठावसु पानी ॥ 
अथीत--जिसकी खाकर हाथी भी मतवाला हो जाता है और जिसको 
तेली कोल्ड में घानी डालकर पेरता है, वही दोनों पद्देलियों का उत्तर है। इसलिए 
हे ब्राह्मण, तुम अपना कवल उठाओ और हे गोरी | तुम अपना घढ़ा उठाओ। 
इन तीनों पहेलियो का अथे 'महुआ? ( मधूक इच्त ) है। पेढ़ और फूल का नाम 
एक ही है, किन्तु फल का नाम भोजपुरी भें 'कोइन” है, जिसको पेर कर तेली तेल 
निकालता है और फूल को खाकर हाथी भो मतवाला हो जाता है। महुए के फूल 
से शराब भी बनती है। अब पाठकों को उपयुक्त भोजपुरी-पढेंली की खूबी और बारीकी 


स्पष्ट मालूम हो गई होगी। 


भूमिर्का २४ 


भोजपुरी की कई पहेलियों में छन्द, लय और अलुप्रास की भी बहार देखने को 
मिलती है। जैसे-- 
(२) एक चिरइयाँ ल्ट, जेकर पाँख बाजे चट। 
ओकर खलरी ओदार, ओकर माँस मजेदार ॥ 


अथीोत्‌--लट के समान लम्बी और पतली या लसदार एक चिड़िया है, जिसके 
पँख “वट-वट” बजते है और उसकी खाल उधेड़ने पर मांस स्वादिष्ठ होता है। 
इस पहेली का अथ है--देंख। अर्थ से सभी बातों का मिलान करके समझ 
लीजिए । 
[७] 
कहानी-साहित्य 


भोजपुरी के कंहानी-साहित्य को हम दो कोटियों में बॉट सकते हैं--(१) लोक- 
कहानी और (२) सांस्कृतिक कहानो। लोक-कहानियों में भी सांस्कृतिक कहानियों का 
समावेश हुआ है और जन-कराठों में बसकर वे आज इस तरह घुल-मिल गई हैं कि वे 
अपने मूल रूप के ढाँचे को बनाये रखने पर भी शैली मे बहुत-कुछ बदल गई हैं। 
जो सांस्कृतिक कहानियों धर्म-मन्थों, संसक्षत के कथा-प्रन्थों और पाली के जातकों पर 
आधारित होकर जन-करठों मे व्याप्त हो गई है, उनका वर्गाकरण करना और इतिहास 
हूँ ढना यद्यपि बढ़ा कठिन कारण है, तथापि यदि ग्रयत्न किया जाय, त्तो बहुत-कुछ 
सफलता इस दिशा में मिल सकती है। जन-करणठों में बसी कुछ कहानियाँ इतनी 
प्राचीन हैं कि उनकी किसी अन्य भाषा की कहानियों से तुलना करने पर उनमें केन्द्रीय 
एकता मिलती है, जिसके कारण स्पष्टतः उन्हें दो नहीं, बढ्कि किसी एक ही मूल कहानी 
के रूपान्तर-मात्र कहना उचित होगा । 

'मिन्र्ाभ” की कारक, श्वुगाल और सग” नामक कहानी मुझे! बचपन में एक बूढ़े से 
सुनने को मिली थी, जो भोजपुरी भाषा में थी तथा जिनके अन्त मे भोजपुरी का यह 
पद्म था-- 

सिअरा सिवराति करे, काटे ना पार्‌ही " । 
इअरन" में छुल करे, बाजे3 कुल्दारी ॥ 

पालौ भाषा की 'सिद्ध जात्तक” की कहानी भोजपुरी मे “5ठपाल? की कहानी के नाम 
से मिलती है। उस भोजपुरी कहानी के अन्त में यह पद्य है-- 


३१, ताँठ। ७ दोल्‍्तों। ६. ( छुष्दाड़ी की ) 'दीठ जगी। 


रद भौंजपुरी के कबि ओर काव्य॑ 


बिनिया करत लछिमिनियाँ के देखलीं 
हर जोतत धनपातल। 
खटिया चढ़त हम अम्भर के देखलीं 
समभसे नीमन ठठपाल ॥ 
कहानी का सारांश यह है कि 'ठठपाल” ने अपने गुरु से अपना नाम बदलने को 
कहा था। गुरु ने कहा कि केवल सुन्दर नाम से कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। धास्तव 
में गुण और भाग्य अच्छा होना चाहिए। उठठपाल के हठ करने पर गुरु ने कहा-- 
जाओ, कुछ लोगों का नाम पूछ आओ ठठपाल आगे बढ़ा, तो गोबर के कंडे बिनने- 
वाली का नाम 'लक्िमिनिया! और हल जोतनेवाले का नाम 'घनपाल” तथा मरे हुए 
आदसी का नाम “अमर” सुना । इसी पर ठठपाल ने आगम्रह छोड़ कर गुरु से जाकर 
उपयु क्त पद्य कहा । 
एक कहानी मुझे भोजपुरी में ऐसी मिली, जो मथुरा जिले के त्रजभाषा-द्षेत्र में भौ 
प्रचलित है। वह है--मैना पक्षी की कह्दानी। वह कहानी भोजपुरी में भी पद्म-बद्ध है, 
जिसका एक पद्म इस प्रकार है--- 
“राजा-राजा बढ़ई दंड5$, बढ़ई न खूँदटा चीरे। 
खेटा में मोर दाल बा, का खाओं का पिओओ का लेके परदेस जाओं ॥” 
इस तरह की गद्य-पद्ममय भोजपुरी में अनेक कहानियाँ हैं। सबसे बड़ी विशेषता 
भोजपुरी कद्दानियों की यह है कि गद्य के साथ-साथ वे पद्य बढ्ध भी होती हैं। प्रेम, 
करुणा, पाणिज्य-व्यापार, युद्ध, बुद्धि-चातु्यं, साहस, देश-विदेश-यात्रा और बहादुरी कौ 
की कहानियों मोजपुरी में बहुत अधिक है। किन्तु खेद है कि आज तक घह अपार 
लोक॑कथा-साहित्य केवल जन-कंठ में ही बसा हुआ हैं। यदि वह आज लिखित अथवा 
मुद्नित रूप में होता, तो किसी भी भाषा के कथा-साहित्य से कम रोचक, आकर्षक 
ओर विशाल न होता। 
[८] 


व्याकरण की विशेषता 
भोजपुरी व्याकरण की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इसके नियम जटिल नहीं हैं। इसमें 
सामयिक प्रयोग बराबर आते रहते हैं। प्रियर्सन साहव ने इन विशेषताओं को स्वीकार 
कर सोजपुरी व्याकरण की प्रशंसा की है। उनका कहना है*--इसके विशेष्णों के 
३, भ्रिय्ंव-कृत 'सिग्विस्टिक सर्वे ऑफ इपिड्या' (पाँचवी जिएद) 


भूमिका २७ 


प्रयोग में लिंग का विचार बँगला-भाषा की तरह बहुत कम रखा जाता है। 
इसकी सहायक क्रियाएं तीन हैं, जिनमें दो का तो प्रयोग बेंगला में पाया 
जाता है; पर हिन्दी में उनका प्रयोग नहीं मिलना। मोटे तौर पर व्याकरण के 
स्‍्वरूपों को मापदूण्ड मानकर बिहारी भाषाएँ (भोजपुरी, मैथिज्ञी और मगही) 
पश्चिमी हिन्दी और बँगला--दोनों के बीच का स्थान रखती हैं। उच्चारण में 
इनका रुफ़ान हिन्दी से अधिक मिलता जुलता है। कारक के अनुसार संज्ञा के 
रूप-भैद में ये कुछ अंशों में बंगला का अनुकरण करती हैं और कुछ आंशों में 
हिन्दी का। परन्तु सबसे बढी बात बिहारी भाषाओं की यह है कि इनके उच्चारण 
में जो विलग्चित स्व॒र-ध्वनि है, उसमे ये एकमान्र बँगला का अनुकरण करती हैं, 
हिन्दी का भनहीं।” 

भोजपुरी व्याकरण की मगही और मैथिली के साथ तुलना करके ग्रियर्सन साहब ने 
लिखा है*--“क्रिया का काल के अनुसार रूप-परिव्तन का नियम मगही और 
और मैथिली में जटिल है, पर भोजपुरी में यद् उत्गा ही सादा और सीधा है, 
जितना कि बँगला और हिन्दी में है ।” 

भोजपुरी व्याकरण लिखने की ओर सबसे पहला प्रयत्न मिस्टर जॉन बिम्स ने 
किया था। वह सन्‌, १८६८ ई० में 'रॉयल एशियाटिक सोसाइटी” के जर्नल (पृष्ठ 
४८३-४०८) में प्रकाशित हुआ था । इसके बाद मिस्टर जे० आर० रेड ने आजम- 
गढ़ के १८७७ ३० के सेट्लमेंट रिपोर्ट के अपेंडिक्स, नं० २ में भोजपुरी भाषा और 
उसके व्याकरण की रुप-रेखा देने का प्रयत्न किया था। फिर सन्‌ १८८० ईं० में 
मि० हॉनेले ने अपना कम्परेटिव आसर ऑफ दि गाजियन लैंग्वेजेज्” नामक निबन्ध 
प्रकाशित कराया। इसके बाद डॉ० जी० ए० भियर्सन! ने भोजपुरी व्याकरण का वैज्ञानिक 
ढंग से अनुसंधान किया। इनको “भोजपुरों श्रामरः नाम की एक॑ अलग पुस्तक ही 
छुपी है। फिर 'बिहार-उड़ीसा की रिसचे सोसाइटी? कौ पत्निका ( सं० ४५१ और २१, 
भाग ३) में 'ए डायलेक्ट ऑफ भोजपुरी? नाम से भोजपुरी व्याकरण पर प॑० उदयनारायण 
तिवारी का बृहत्‌ लेख छुपा। उसके बाद से आज तक और भी अधिक प्रयत्न तथा 
अलुसंधान करके उन्होंने 'भोजपुरी भाषा और साहित्य” पर डॉक्टरेट के लिए महा 
निबन्ध लिखा, जिसमें वैज्ञानिक और पारिडत्यपूरों रीति से विषय का अतिपादन 


किया है। 
पटना-विश्वविद्यालय के हिन्दी-विसाग के अध्यक्ष डॉ० विश्वनाथ प्रसाद ने 


भी विदेश जाकर भोजपुरी के ध्वनि-विज्ञान ( फोनिटिक्स ) पर बृहत्‌ थीसिस लिखकर 
३- अयसंन-कृत “जिग्विस्टिक सर्वे ऑफ इस्डिया' (पाँचवीं जिरद) 


श्दद भोजपुरी के कवि और काव्य 


डॉक्टर की उपाधि ली है। इस दिशा में उनका यह परिश्रम बहुत ही महत्त्वपूर 
और नूतन है। साथ ही, इस ओर कंदम उठानेवाले थे ही प्रथम व्यक्ति हैं। वे बिहारी 
भाषाओं के विषय में अन्यान्य प्रकार की खोज भी “बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्‌? के तत्तवा- 
वधान में करा रहे हैं। 

भोजपुरी में छोटे बड़े लोगों के लिए स्नेह और आदर के अनेक सम्बोधन हैं । 
इसके सिवा संज्ञा और विरेषण के शब्दों को क्रिया के रूप में परिवर्तित करने की 
पूण सुगमता है। “ही? और “भी” का संकेत भी केवल मात्रा से हो जाता है। कहीं- 
कहीं कारक के चिहों के लिए भी मात्रा के संकेत से ही काम लिया जाता है। ये 
विशेषताएँ हिन्दी में नहीं पाईं जाती । 


[६ ] 
भोजपुरी गद्य का इतिहास 


भोजपुरी गद्य के सम्बन्ध में लोगों की यह गलत धारणा है कि इसका प्रचार कम है 
अथवा था। भोजपुरी के पद्य का इतिहास जितना पुराना है, उससे भी पुराना 
भोजपुरी गद्य का अस्तित्व है। भाषा में पहले गद्य का जन्म होता है। जब गद्य 
प्रौद़ हो जाता है, तब पद्य चलता है। यह बात दूसरी है कि गय में साहित्य लिखने की 
प्रथा पहले कम थी । इसीलिए उसका सांस्कृतिक विकास वैसा नजर नहीं आता, 
जैसा पद्य का। इसी से गद्य का इतिहास, पद के इतिहास की तुलना में, प्रारंभिक काल 
में विकसित नहीं पाया जाता । 

वज़यान सम्प्रदाय के सिद्धों के ग्रन्थों की देखने से पता लगता है कि भोजपुरी का 
आदि रूप कैसा था। डॉक्टर हजारीप्रसाद ह्विवेदी जी का मत है कि सिद्धों की कविता 
की भाषा घह भाषा है, जिसमें आज के सभी पूर्वों भाषाओं का आदि रूप पाया जाता है 
और उन सभी भाषाओं के विद्वानों को उन भाषाओं के साहित्यिक घिकास के इतिहास 
का आरम्भ इन्हीं सिद्ध कवियों से मानना पढ़ता है।" 

भोजपुरी गद्य का सबसे पुराना और अकाव्य प्रमाणवाला लिखित छूप “भारतीय 
विद्या-मन्द्रि! ( बम्बई ) के सश्चालक श्रीजिनविजयजी के यहाँ श्राप्त १२वीं सदी के 
लिखे हुए व्याकरण-अन्‍्थ 'युक्ति-व्यक्तिअकरण” में मिलता है। डॉ० मोतीचंद्रजी ने 
धसम्पूणीनन्द-अमिनन्दन-अन्यः* के अपने “काशी की प्राचीन शिक्षा-पद्धत्ति 
और परिडत” नामक लेख (पृ० ३६) में इस पुस्तक का उल्लेख करते हुए पुस्तक के 


१. देखिप--नाथ-संमस्पदाय', एूृ० १६६ (प्रकाशक--द्विन्दुस्तानी एकाठसी, प्रयाग) 
२» प्रकाशक--तागरीअचारिणी समा, काशी । 


भूमिका १६ 


लेखक श्रीदामोदर शमों का बारहवीं सदी ( सन्‌ ११३४ ई० ) में वर्तमान होना 
सिद्ध किया है। उन्होंने कंई प्रमाण देते हुए लिखा है--“अन्थ में आये प्रकरणों से 
पता चलता है कि भन्थ के लेखक पंडित दामोदर “गोधिन्द्चन्द्रर के 
समकालीन थे ।? 
धुक्ति-व्यक्तिप्रकरण” के अनुसार गहड़वाल के युग में बनारस कौ शिक्षा का 
उद्देश्य था--“वेद पढ़ब, रूट्ृति अभ्यासिब, पुराण देखबि, धर्म करब ।” (१५/१६- 
१७ )। उक्त वाक्य में भोजपुरी का रूप स्पष्ट है। उद्धरण में डॉक्टर मोतीचन्द्र ने 
युक्तप्रान्त के पूर्वों जिलों की भाषा के लिए अवधी” नाम दिया है। उन्होंने 
बनारस तथा उसके आस पास की भाषा का 'युक्ति-व्यक्ति-प्रकरण! से उदाहरण दिया है। 
पर बनारस की भाषा अवघी नहीं, बल्कि पश्चिमी भोजपुरी है और जो रूप 
भाषा का उक्त ग्रन्थ से उद्धृत है, चह भी पश्चिमी भोजपुरी का ही शुद्ध रूप है। अतः 
उक्त पुस्तक के उपयुक्त उदाहरणों को हमे बारहवीं सदी में अचलित भोजपुरी 
का रूप मानना होगा । डॉ ग्रियर्तन, डॉ० श्यामसुन्दर दास तथा अन्य विद्वानों ने 
भी बनारस तथा उसके आस-पास की बोली को भोजपुरी ही माना है। 
ईंसा के बारहवीं सदी के बाद से सन्‌ १६२० ईं० तक की अवधि में भोजपुरी गद्य का 
लिखित उदाहरण मुमो अबतकग्राप्त नहीं हो सका। किन्तु सन्‌ १६२० ई० से 
वत्तेमान काल तक के भोजपुरी गद्य के लिखित रूप के उदाहरण हमारे पास मौजूद हैं। 
शाहाबाद के परमार उज्जैन” राजाओं द्वारा विभिन्न अवसरों पर निकाली गई 
राजज्ञाओं, सनदों, पन्नों और दस्तावेजों में सदा भोजपुरी व्यवहृत हुईं है। इन 
सबके वैज्ञानिक अध्ययन से भोजपुरी गद्य का इतिहास, उसके विविध समय के 
प्रयोगों और भेदों के साथ, बहुत सुन्दर रूप से लिखा जा सकता है। उत्त अ्रवधि का 
कोई भी राजकीय कांगज ऐसा अबतक नहीं प्राप्त हुआ है, जिसमें विशुद्ध भोजपुरी 
का प्रयोग न किया गया हो । भाषा-विज्ञान की दृष्टि से भी इन पुराने कागर्जों का 
अध्ययन, जिनकी आमाणिकता सिद्ध है, अत्यन्त महत्त्वपूरों होगा। उनमें से कुछ के 
फोटो यहाँ हम दे रहे हैं। 
लिपि-कहे लोगों की धारणा है कि भोजपुरी की अपनी कोई लिपि नहीं है । 
यह गलत बात है। इसकी भी अपनी लिपि है, जिसे 'कैथी” कहते हैं । ग्रियतन साहब ने 
कैथी लिपि के नमूनों को अपने “लिग्विस्टिक सर्वे ऑफ इस्डिया? ( भांग ५) में 
उद्धृत किया है। कैथी लिपि बहुत प्राचीन काल से मध्यप्रदेश में व्यवहत होती है। 
केबल भोजपुरी के लिए ही नहीं, बल्कि हिन्दी की पुरानी पोथियों की भी, 
प्रतिलिपि करने के लिए, कैथौ द्विपि का ही प्रयोग प्रायः होता था। 


३० भोजपुरी के कवि और काज्य 


कैथी को इस अ्रदेश के प्रायः सभी प्रमुख राजघरानों में प्रथम स्थान ग्राप्त था और 
उनके सभी राजकीय काये कैथी में होते थे। सरकारी कागज तया मामले मुकदमों के 
कांगजों मे भी कैथी के व्यवहार का स्थान आज भी प्रथम है। सनद, दान-पत्र, 
दस्ताबेज इत्यादि भी कैथी लिपि और भोजपुरी गद्य में लिखे जाते ये। शिला-लेख 
तथा बढ़े-बढ़े खजानों के ताम्र-पत्र पर अब्डलित होनेवाले बीजक भी देवनागरी लिपि में 
न लिखे जाकर भोजपुरी गद्य और कैथी लिपि में हो लिखे जाते थे । 

फारखंड के राँची आदि भोजपुरी-भाषी जगहों से आदिवासियों की सम्राधि पर के 
शिला लेख भोजपुरी भाषा और कैथी लिपि में कहीं-कहीं पाये जाते हैं। प्रयाग में 
भी जो उज्जैन-स्षत्रियों के परडे हैं, उनके यहाँ शाह्ाबाद जिले के “भोजपुरः 
जगदीशपुर!, 'नोखा” आदि जगहों के उज्जैन राजाओं की लिखी हुईं कई सनदें 
देखने को मुझे मिली हैं। वे सनदें भी भोजपुरी भाषा और कैथो लिपि में है। इन 
सबकी कैथी वर्तमान कैथी से कुछ भिन्न है। 


[१० ] 
भोजपुरी का काव्य-साहित्य 


भोजपुरी-काव्य-साहित्य का भारडार कम विशाल नहीं है। जिस भाषा को साढ़े 
तौन करोड़ नर-नारी, तेरह चौदह सौ वर्षों से भी अधिक समय से, अपनी मातृभाषा के 
रूप में बोलते आते हों, उस भाषा का अपना साहित्य न हो, यह कल्पना करना ही 
आरान्तिमूलक है। भोजपुरी साहित्य का जैसे-जैसे अन्वेषण होता जाता है, बैसे-वैसे 
उसकी निधियाँ सामने आती जा रहौ हैं। सर्वप्रथम अँगरेज-विद्वानों का ध्यान 
भोजपुरी भाषा और उसकी साहित्यिक खोज को ओर गया। उन्होंने लोकगीत तथा 
धौरगाथा गौतों का संक्षिप्त सदुलन यदा-कंदा पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित किया और 
अन्त में श्यर्सन साहब ने अपनी गहरी खोज के फलस्वरूप भोजपुरी साहित्य का विवरण 
प्रकाशित किया। किन्तु वह उत्तना ही पर्याप्त नहीं था। इसके पश्चात्‌ कतिपय 
भारतीय अन्वेषकों की रुचि इधर हुईं। उन्होंने अँगरेजों की दिखाई राह पर, कुछ थोड़ी 
विशेषताओं के साथ, आम-गौतों का पुस्तकाकार सड्डलन आरम्भ किया। इस दिशा 
में दो प्रामाणिक पुस्तकें हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन, प्रयाग से सन्‌ १६४४ ईं० में 'भोजपुरी 
लोकगीत में करुण-रस”* तथा उसके बाद “भोजपुरी आराम गीत”* (भाग १ और २) 


सशस्त्र मसिनल मा + आफ अप >> आल 
१, संककनकतती -- भीदुगौरंकरप्रसाद सिंह । 
न हैह #॥ . »«» डॉ० कृष्यदेव उपाध्याय | 


भूमिका ३६ 
नाम से प्रकाशित हुई'। परिडत रामनरेश त्रिपाठी ने भी भोजपुरी प्राम-गौतों का 
संग्रह और प्रकाशन करने में अभिनन्दनीय प्रयत्न किया है। भोजपुरी लोक-साहित्य पर 
उनकी दो पुस्तक हिन्दी संसार में पूरी प्रसिद्ध हो चुकी हैं। 

भोजपुरी लोक-साहि त्य की खोज अभी एक तरह से प्रारम्भ ही हुईं है। जब यह 
पूरी होगी, तब इसका सी विशाल भाण्डार पाठकों के सामने उसी मात्रा में उपस्थित 
हो सकेगा, जिस मात्रा में हम हिन्दी तथा इसको भगिनी भाषाओं के भाण्डार को 
भरा-पूरा पाते हैं । 

इतिहास--जिस तरह हिन्दी-साहित्य का इतिहास भुख्यतः हिन्दी काव्य का 
इतिहास है, उसी तरह भोजपुरी साहित्य का इतिहास भी मुख्यतः भोजपुरी काव्य का 
इतिहास है। चूंकि भोजपुरी-साहित्य के जन्म तथा विकास का समय हिन्दी-साहित्य के 
काव्य के इतिहास से मिलता-जुलता है तथा भोजपुरीभाषी भी उसी प्रदेश में घसते हैं, 
जिसपे हिन्दी का इतिहास सम्बन्ध रखता है, इसलिए भोजपुरी काव्य-साहित्य का काल- 
विभाजन भौ यदि उसी तरह किया जाय, तो विशेष सुविधा होगी। आचार्य रामचन््र 
शुक्ल ने अपने “हिन्दी-साहित्य के इतिहास” में, प्रथम पृष्ठ पर ही, हिन्दी-साहित्य का 
काल-विभाग करते हुए लिखा है «- 

“जब कि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तबृत्ति का संचित 
प्रतिबिग्ब है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवत्तन के साथ- 
साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवत्तन होता चला जाता है। आदि से अंत 
तक इन्हीं चित्तवृक्तियों की परम्परा को रखते हुए साहित्य-परस्परा के साथ डनका 
सामंजस्य दिखाना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है। जनता की चित्तवृत्ति 
बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, साम्प्रदायिक तथा धार्मिक' परिस्थिति के 
अनुसार होती है। अतः कारणस्वरूप इन परिस्थितियों का किंचित्‌ दिग्दुशन 
भी साथ ही-साथ आवश्यक होता है। इस दृष्टि से हिन्दी-साहित्य का विवेचन 

करने में यदह्द बात ध्यान में रखनी होगी कि किसी विशेष समय में लोगों में रुचि: 
विशेष का संचार ओर पोषण किधर से किस प्रकार हुआ ।” 

अपनी इस व्यवस्था के अनुसार उन्होंने हिन्दी का काल-विभाग चार खंडों में इस 


प्रकार किया है-- 
4. आदिकाल (वीरगाथा-काल) “-- विक्रम संचत्‌ १०७५०-१६७५ 
२. प्वंमध्यकाल (भक्तिकाल) --  ? ? ३ेएण-१७०० 
३. उत्तरमध्यकात्व (रीति-काल) -“- |? ७४ १७००-१६०० 
४. आधुनिक काज्ष (गदकाल) “5 ? ? १६०० 


३२ भौजपुरी के कवि और काव्य 


अतः भोजपुरी-साहित्य का काल-विभाजन भी हम इन्हीं चार खंढों में करना 
उचित मानते हैं। परन्तु इस विभाजन के अनुसार, भोजपुरी-साहित्य के इतिहास का 
घिसाजन करके भी; भोजपुरी-साहित्य की अमी तक पूर्ण खोज न हो सकने के 
कारण, हस भ्त्येक काल-खंद के सभी कवियों का उल्लेंख करने में असमथ हैं। अतः 
उसकी रुचि-विशेष की प्रधानता के अनुसार उसके काल-विभाग का नामकरण करने में 
भूल की संभावना हो सकृती है। इसके अतिरिक्त भोजपुरी साहित्य के इतिहास के 
काल-विभाजन में हिन्दी के मुख्य चार काल-वचिभागों को मानने के बाद भी एक 
और काल-विसाग सानना उचित प्रतीत होता हैं और वह आदिकाल के पूर्व 
सन्‌ ७०० से ११ वीं सदी तक का प्रारंभिक अविकसित काल है। इस तरह भोजपुरी- 
साहित्य के इतिहास को हम मोटे तौर पर निम्नलिखित पॉच काल-विभागों में रख 
सकते हैं-- 
3. आरम्सिक अविकसित काल (सिद्ध-काल) सन्‌ ७०० ई० से ११०० ई० 
२, आविकाल (ज्ञान-प्रचार-काल तथा वीर-काल) सन्‌ १३०० ई० १३२५ ई० 
३, पूर्व॑मध्यकाल (सक्ति-काल) सन्‌ १६२५ ई० से सन्र्‌ १६५० ई० 
४. उत्तरमध्यकाल (रीति-काल)--सन्‌ १६७० ई० सन्‌ १६०० ई० 
५, आधुनिक काल (राष्ट्रीय काल और विक्रास-काल) सन्‌ ३६०० से १६५० ई० 


प्रारम्भिक अविकसित काल ( सन्‌ ७०० हैं० से !०० ईं० ) 


प्रारम्सिक अधिकसित काल को मैंने सिद्धों का काल कहा है। सिद्धों ने प्राकृत 
भाषा के छोड़कर उसके स्थान पर देश-साषाओं की अपनी रचनाओं का माध्यम 
बनाना शुरू किया। यही वह समय है, जब भोजपुरी अन्य भगिनी भाषाओं की 
तरह साहित्य में अपनाई जाने लगी थी। श्रीराहुल सांकझृत्यायन का मत है कि रिद्धों ने 
तत्कालीन ग्राचीन मान्य साहित्यिक भाषाओं को त्यागकर देशभाषाओं के माध्यम से 
अपने विचारों को जनता तक पहुँचाना शुरू करके हर प्रकार से देश में क्रान्ति का 
आन्दीलन जारी किया ।* यही विचार डॉ० हजारीप्रसाद हिवेदी आदि अन्य 
विद्वानों का भी है। इस पुस्तक के आरंभ में इन उपयुक्त कालों के इन बौद्ध सिद्ध 
कवियों के सम्बन्ध में काफी चचों की गईं है, जिससे प्रस्तुत विषय पर थोड़ा प्रकाश 
पड़ा हैं। वह विद्वानों के लिए द्रष्टन्य और विचारणीय है। 





३» देखिए--पुराठत््य-निवन्वावददी (पृ० १६०), प्रकाशक--इंडियन प्रेस, प्रयाग, सत्‌ १६३० ई०। 


भूमिका डे३ 


आदिकाल' ( सन्‌ (०० ई० से ३१५ हई० ) 
भोजपुरी का अपमभ्रश के साथ थोड़ा-बहुत मिला हुआ रूप हम गोरखनाथ की 
रचनाओं में पाते हैं। उनका समय विवादपग्रस्त होते हुए भी वह अब ११ वीं सदी का 
पूवीर्् माना जाता है। उन्होंने तथा उनके शिष्यों ने भी भोजपुरी को अपनी 
क्रान्तिकारी विचार-घारा के प्रचार के समय साहित्य की भाषा बनाया। 
ऐसे महान नेता और घर्म-प्रवर्तक तथा चामत्कारिक योगी के आश्रय से मोजपुरी- 
साहित्य वहुत आगे बढा और जो जनता अब तक सांस्क्ृतिक विचारों को सुनने तथा 
कहने के लिए अपभ्रश का सहारा लेती थी, उसने अब भोजपुरी में हो अपनी 
भावनाओं को अभिव्यक्त कंरना शुरू किया । इसी काल में गोरखनाथ के चमत्कारों की 
तथा राजपूतों की वीरता की कहानी, अन्य साधकों के तंत्र-मंत्र एवं सिद्धियों को लेकर 
गाथा-गीत आदि रचनाएँ भोजपुरी में आरंभ हुईं । इस काल में राजा भोज की वौरता, 
दानशीलता, पराक्रम, विद्वत्ता आदि का पिक्का भोजपुरी प्रदेश पर जमा हुआ था और 
जब राजपूती बहादुरी और आनबान जन-जीवन का आदर्श बन रही थी, तब 
बलाढूय प्रकृति-भावनाप्रधान भोजपुरीभाषी प्रदेश कौ जनता अनेकानेक वीर रस की 
कविताओं तथा बौर-गाथाकाव्यों को रचना की ओर बढ़ी। उसने अपने जीवन के 
दैनिक कार्यक्रमों मे इनका ऐसा समावेश किया, जिससे उसे जीवन के लिए मनोविनोद के 
साथ-साथ आदर भी प्राप्त हुआ । 


सोरडी बृजसार--इसी समय भोजपुरी के प्रसिद्ध वीर॒गाथा-काव्य 'सोरठी बृजभार” की 
रचना हुईं। अब केवल क्षेपकों के साथ इसका मूल कथानक ही 'पेंचारा? के नाम से 
मिलता है। फिर भी इसमे “सोरठी! और 'बृजभारः के तीन जन्म की जीवन-गाथा इतनी 
मार्मिकता से गाई गई है कि चित्त अत्यन्त द्रवीभूत हो जाता है। इसमें रस संचार का 
ऐसा असाधारण सामरथ्य है कि भोजपुरीभाषी लगभग चार करोड़ जनसमुदाय आपएठ नौ सौ 
वर्षों से इसे गाता-सुनता आ रहा है, फिर भो थका नहीं है। इसमें काव्य की कृत्रिम 
रूढ़ियाँ भले ही नहीं हो, काव्यशास्त्र द्वारा निर्दिष्ट कौशलो का भी अभाव हो ; किन्तु 
निश्छुल हृदय की सरल तरल भावनाओं का उदूदाम प्राण-वेग अवश्य है। इस गाथा- 
काव्य में समग्र भारत के विभिन्न स्थानों के पान्नों और देशों का समावेश है। गोरखनाथ 
और उनके यौगिक चमत्कारों, बल पौरुष, व्रह्मचय आदि की बातें आद्योपान्त भरी है। 
जादू टोने की भी बातें खूब हैं। सर्वत्र गोरखनाथ के समय में समाज का चित्र और 
तत्कालीन मान्यताएँ हैं। वज्रयान-मत की कामुकतापूणें सामाजिक एवं साम्प्रदायिक 
अवस्था का दिर्दृ्शन और उस पर गोरखनाथ के ज्ञान-मार्ग की चामत्कारिक घटनाओं की 


रै४ भोजपुरी के कवि और काव्य 


विजय सर्वत्र दिखाई गई है। एक तरह से इसका प्रधान नायक वृजभार आशद्योपान्त 
गोरखनाथ कौ छन्नच्छाया में हो अपना कार्य-सम्पादन करता है और कितनी 
नायिकाओं का उद्धार करके भी अपने ब्रह्मचय को बचाये रखता है। इस बृहत्‌ काव्य की 
मुझे भ्रब तक केवल एक हो सुद्रित प्रति" मिल सकी है। इसके अतिरिक्त एक और भी 
पुरानी छपी प्रति मिली थी, जिसकी भाषा पुरानी और काव्य श्रौद़ था। पर उसके 
लेखक, प्रकाशक और उस पुस्तक का अब पता नहीं मिलता । 


नयकवा गाथा काव्य--“सोरठी बृजभार? के बाद दूसरा बृहत्‌ गाथा-काव्य वैश्य- 
समुदाय के पात्रों को लेकर रचा गया है। इसका नाम 'सोमानायक बनजारा? अथवा 
“नयकवा? चाहे सिफ 'बनजारबवा? है। तीनों नामों से यह गाथा-काव्य प्रचलित है। 
यह काव्य 'गौरा-गुजरातः नामक स्थान के सोभानायक व्यापारी और बलिया जिले के 
बाँसडीह? आम की उसकी पत्नी का आश्रय लेकर लिखा गया है। विवाह करके नायक 
व्यापार करने चला जाता है, किन्तु नायक की पत्नी स्वयं पत्र लिखकर अपना गौना 
( ठ्विरागमन ) कराती है। बनजारा जब गौना कराकर पत्नी को घर ले आता है, 
तब थोड़े दिनो के बाद ही फिर व्यापार करने मोरंग ( नेपाल की तराई ) देश चला 
जाता है। वहॉ बंगालिन जादूगरनी उसे रोक लेती है; पर उसकी पत्नी सतीत्व- 
बल से बहुत तूल-कलाम के बाद उसे छुड़्ाकर घर ले जाती है। क्रथोपकथषन और 
घटनाओं का वर्णन अत्यन्त मनोमोहक है। 

इस काव्य में 'सोभानायकः की बहन “रुपिया' और नाउनि “चेल्हिया? का पाट भी 
विलक्षण है। नायक बहुत बड़ा व्यापारी था। वह १६०० ब्धों ( लादे हुए बैलों ) 
पर्‌ ६० लाख का माल लादता था। बारह वर्षों की यात्रा करता था। इस काव्य का 
भी मूल रूप सोरठी बृजभार” की तरह अग्राप्त है। जनता द्वारा गाये जाने के कारण 
इसके कथानक में हेर-फेर और इसके आकार का छोटा-बड़ा होना स्वाभाविक ही है। 
इसका जो रूप मिलता है, उसमे अनेकानेक अन्तर हैं। काव्य कौ अच्छाई- 
बुराई गायक की प्रतिमा तथा गेय-कुशलता पर निर्भर है। इस काव्य में ःरगार, 
विरह, वीर आदि रखो की प्रधानता; त्याग, सत्यासत्य कौ परिभाषा आदि विषयों का 
सुन्दर वर्शन है। इसके कथानक से इसके रचयिता की प्रतिभा प्रकट होती है। 
इसमें जादू, योना, कामुकता और सत्ती के सत के विवरण अआशद्योपान्त भरे-पढ़े हैं। 
सामाजिक चित्रण से साफ प्रकट हो जाता है कि इसमें वर्शित समाज सन्‌ ११००-- 


सिम कक लक वन अल मिलती बट पयान्ममनवक लक 
३. लेखक--वाघू सद्दादेव सिद्द 'घनश्याम” (नाचाप, शाह्ञबाद); प्रकाशक-ठा: स्राद बुकसेए र, 
कचौड़ोगली, व्नारस | 


भूमिका ५ 


१३०० ईं० के बीच के समय का है। किन्तु इसमें गोरखनाथ आदि सिद्धों के नाम 
नहीं आने के कारण इस काब्य को 'सोरठी वृजभार! की परवत्ता रचना--यानी 
१२वीं सद्दी के अन्त मे--माना जा सकता है। इस गौत का प्रचलन विरह और 
श्र'गार-रस की प्रधानता के कारण चहुत अधिक वरिक्‌-वर्ग में है। इसका प्रकाशन 
प्रियर्सन साहब ने जन पत्रिका जिड० टौ० एम्र० जी” [ हा, ( १८८६ ईं० ), 
पृ० ४६८ ] 'गीत नयकवाः और “गीत नयकवा वनजारा? नाम से किया था। इसका 
दूसरा प्रकाशन ठाकुरप्रसाद बुकनेंलर ( कचौड़ीगली, बनारस ) ने 'लोभानायक 
बनजारा? नाम से किया हैं। इसके लेखक भी 'सोरठी वृजभारः के ही लेखक 
महादेव सिंह 'धनश्यामः ही हैं । 

यह काव्य बहुत बढ़ा हैं। 'हरदी ( बलिया ) ग्राप्त की भुखना देवी” नाम की 
एक बुढ़िया का कहना हैं कि रात भर गाने पर भी यह गीत-काव्य पन्द्रह दिनों में 
पूरा होता है। बुढ़िया के मौखिक गीत काव्य और महादेव सिंह द्वारा छुपी पुस्तक में 
पाठ-मेद हैं। 


ल्लोरिक याथा-गीत--उपयु 'क गाथा-काव्य के बाद जो सबसे बढ़ा गाथा-गात लिखा 
गया है, उसका नाम 'लोरिकोा! अथवा “लोरकायन”ः है।१ यह सबसे अधिक वीर-रस- 
पूरी है। यह एक तरह से अहीर, दुसाध, थोवी आदि जातियों के उस काल का इतिहास 
रखता है, जिस काल में भोजपुरीभाषी ग्रान्त के छोटे-छोटे राज्यों पर उन्हीं का 
अधिकार था। यह समय १२वीं सदी के वाद से सन्‌ १४०४ ई० तक का हैं। धार-राज्य के 
प्रभुत्व के क्षौण हो जाने के वाद इस प्रदेश पर यहाँ के आदिवासियों का आवल्य हुआ 
और वे अपना राज्य पुनः स्थापित करने में समर्थ हुए। 

लोरिक गाथा गीत काव्य का रुपान्तर मगही, मैथिली, और अवबधघी भापा में 
पाया जाता है । इसी 'लोरिकायन! का अवधी-हरूपान्तर “चंदायन? या 'चंदयनीःरे 
नामक याथा काव्य है, जिसके रचयिता उर्दू के कवि मौलाना दाऊद थे। “चंदयनीः 
अवधोभाषी प्रदेश के पूर्वां जिलों में बढ़े ्रेम से गाया जाता है। पटना-विश्व- 
विद्यालय के विद्वान, प्रोफेसर श्री एसू० एच्‌० अस्करो का 'रेअर फ्रैगमेट्स ऑफ 
३. 'ब्षोरिकायत' गाया-काव्य का संग्रह “बिदार-राष्ट्रभाषा-परिपद्ध' ( पटना ) के “ल्ोकमाषा- 
अनुसंघान-विभ[प” की ओर से किया चा रहा है। सोजपुरी, मैथिद्षी और मगही में प्रचद्चित इस 


कथानक का संत्रद्द पर द्वो दाने के दाद तुलनात्मक अध्ययन करके इसका प्रामाणिक रूप सस्पादित 
द्वोकर्‌ प्रकाशित होगा ।--उस्पादक 

२. डॉ० माताप्रछाद गुप्त द्वारा सम्पादित होकर “चंदायन' शीघ्र आगरा-विश्वविधालय के हिल्दी- 
विद्यापोठ से प्रकाशित होनेत्राढा है। इसी संध्या की मुख-पत्रिका भारतीय साहित्य” के प्रयम अंक में 
डॉ० विश्वनाथ प्रसाद द्वारा किखित इस सस्वन्ध की सम्पादुकीय टिपयी भी देखिए ।--सस्पादक्‌ 


रद भोजपुरी के कवि भर काव्य 


चन्दायन एए्ड सृगावती! शौषेक एक लेख से स्पष्ट हो गया है कि मौलाना दाऊद ने 
१४वीं सदी में मलिकनाथम? के आग्रह से उस समय के जनप्रिय ग्राथा-गीत 
लोरिकी? का अवधी-रूपान्तर “वन्दायन? नाम से दोहा और चौपाई छुन्दों मे किया था। 
असकरी साहब ने मनेर ( पटना ) ग्राम से प्राप्त उदू पाणडलिपि से उद्धरण 
देकर वतलाया है कि यह गीत-काव्य आधुनिक 'लोरिकी' गीत के कथानक का 
रुपान्तर है। स्वयं मौलाना दाऊद ने 'मलिकनाथम! से कहा था कि आपके 
कहने के अनुसार प्रचलित लोकप्रिय गाथा काव्य को लेकर मैने “चन्दायन” तैयार 
किया है। अस्करो साहब ने अपने लेख में यह भी लिखा है कि इस लोरिकी गाथा- 
गीत की लोकप्रियता बहुत पुरानी है। चौद॒ह॒वीं सदी में होनेवाले विख्यात मुसलमान 
फूकीर 'मखदूम शेख तकीउद्दीन रब्बानी? इस लोरिकी गीत को गाया करते थे। एक 
समय उनके मुख से इस जन-भाषा काव्य को सुनकर लोगों ने जब उनसे पूछा कि 
जनगाथा कान्य को इतनी तत्लौनता और प्रसन्नता से आप क्यों गा रहे थे, तब 
रब्बानी साहब ने उत्तर दिया--“इस मसनवी में आश्योपान्त ईश्वरीय सत्य और 
माहात्म्य भरा है, जिससे अलौकिक आनन्द मिलता है। इसकी कितनी बातें 
कुरान की आयतों से मिलती-जुलती हैं।” 

अस्करी साहब ने लोरिकी की प्राचीनता के प्रमाण में दूसरा उदाहरण भी पेश 
किया है। उन्होंने लिखा है कि मैथिली के प्रसिद्ध कवि ज्योतिरीश्वर ठाकुर 
अपनी “वर्शरत्नाकर नामक पुस्तक के अथम अध्याय के प्रथम पारा के अन्त में, 
नागर-वर्रान के सिलसिले में, बिरहा और लोरिक नाव का उल्लेख किया है। 
पहले लोरिकी के गायक गाते समय; वीर-नृत्य के रूप में, नाचते भी थे और आज 
भो ऐसी परिपाटी है । 

उपयुक्त सारी बातों से सिद्ध होता है कि लोरिकी गाथा-गीत का निमौण यदि 
ज्यादा-से ज्यादा पीछे की ओर माना जायगा; तो १२वीं सदी के प्रथम चरण के वाद 
नहीं हो सकता । 

ललोरिकीः एक बहुत बढ़ा गाथा-काव्य है। यह पेंवारा के रूप में गाया जाता ह्। 
इसके पौछे ऐतिहासिक घटना की एक सुदृद प्रष्टभूमि है। कथानक इतना 
सुन्दर और आकर्षक है कि सभी रसों का समावेश इससे हो जाता है। वीर-रस 


न 





१. इनकी तपोभूमि विद्विया ( शाह्ववाद ) के पाउ थी, जद्दाँ आज भी 'मखदूम खाद्य” का मेढा 
शगता है। इसी फजीर ने उच्छौनों के प्रथम राजा शान्तनशाद् को शाद्वावाद की गूमि घीतकर 
राव्य-स्थापन करने का वरदान दिया था ।--जेखक 

२ इनका काल ११वीं उदी का अन्तिम चरण है। 


भूमिका '३७ 


इसका भुख्य रस है, जो आद्योपान्त है। ज्ी-पात्र वीरता और सतीत्व कौ 
प्रतिमृत्ति हैं। यह अहीर जाति का एक मात्र वौर काव्य है। इसकी मूल प्रति 
कितनी सुन्दर होगो, नहीं कहा जा सकता। उसका कौन रचयिता था और ऐसा 
ओजपूर्र सुन्दर काव्य क्यों और कैसे नष्ट हो गया, कहना कठिन है । इसकी 
श्रोष्ठता और कला का अनुमान इसके वत्तेमान कथानक से किया जा सकता है। अच्छे 
गायक जब इसे गाने लगते हैं, तव जगह-जगह रसों के संचार तथा भोजपुर की 
नई नई क्षेत्रीय उपमाओं की छटा से चित्त तन्मय हो जाता है। इसका भी प्रकाशन 
ठाकुरप्रसाद बुकसेलर ( बनारस ) से ग्राप्त है, जिसका मूल्य तीन रुपये है। 
गोपीचन्दु--लोरिक गाथा गीत-काव्य के वाद अथवा पूर्व भी गोपीचन्द गाथा 

गीत का नम्बर आता हैं। इस गाथा-गीत में ज्ञान-पक्ष ही अधिक है। इसकी भाषा 
देखने से इसका रचना-काल १९वीं सदी मालूम पड़ता है। इस गौत-काव्य के अनेकानेक 
मंस्करण निकल जुके हैं। अियर्सन साहब ने 'जनंल ऑफ्‌ दि एशियाटिक सोसाइटी ऑफ 
बंगाल” के (१८८५ ६०) भाग ५४ के पृ० ३५-३८ पर इसके कुछ गीतों को पाठ भेद के 
साथ प्रकाशित किया था। 

स रथरी-चरित्र और मेनावती--भरथरी-चरित्र का गीत भी प्रचलित है । 
'मैनावती! का गीत भी खूब गाया जाता है। भरथरी गीत में गोरखनाथ के किसी 
भरथरी नामक शिष्य के संन्यास लेने आदि के कथानक हैं। यह गाथा काव्य भी 
१२वाँ सदी का रचा हुआ प्रतीत होता है। इसके भी अनेक प्रकाशन हो चुके हैं; 
किन्तु मूल काव्य का सर्वथा अभाव ही है। गायकों के करठों से निकले पाठों का ही 
अबतर्क प्रकाशन हुआ है। 

भरथरी-गात के गानेवाले गोरखनाथ सम्प्रदाय के ग्ृहस्थ योगी आज भी 
शाहाबाद, बलिया, गाजीपुर, सारन आदि जिलों में गोरखपुर की ओर से आते हैं 
और सारह्जी बजाकर भरथरी-गौत गाते हैं। उनके लिए हर घर से सालाना अचन्ष, 
गुदड़ी, पैसा आदि मिला करता है। यह गौत शृहस्थों द्वारा कम गाया जाता है। 
इसमें साधारण कथानक का वर्शानमात्र है। 

मैनावती के गौत्त की भी रचना अनुमानतः १२ वीं सदी के लगभग योगियों द्वारा 
हुईं होगी । यु 

कं वर विजयसल्ल--'कु वर विजयमल? या 'कुँ वर विजयी? भी बहुत प्रसिद्ध गाथा- 
काव्य है। इसका समय 'सोरठी बृजभारः के समय के बाद का अनुमान किया जा 
सृकृता है; क्योंकि इसमें बौद्धकालीन मान्यताओं का हास दृष्टिगोचर होता है तथा राजपूत- 


श्८ भोजपुरी के कवि और काव्य 


काल की मान्यताएँ प्रधान दीख पड़ती हैं । इसमें मुसलमान सेनापति मुराद खाँ पठान 
के नामोल्लेख से इसका निमोण काल पठान काल जान पड़ता है। इस गौत काव्य का 
भी मूल रूप तथा रचयिता का नाम अप्राप्त है। इसको भी जनता ने अपनी 
स्वति के सहारे हो, केवल सूल कथानक के साथ, जीवित रखा है। इसकी प्रकाशित 
प्रतियाँ वैसी हैं, जेसी 'सोरठी बृजभारः आदि की है, जिनमे सूल कथानक के अस्तित्व 
के साथ उसके मूल काव्य एवं कन्ना को भुला दिया गया। इस गीत काव्य को 
डॉ० जी० ए० प्रियर्सन ने 'जनल ऑफ दि एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बह्ाल” (भाग १, 
अड्ड १, सन्‌ १८८४ ३० ) के पृष्ठ ६४-६५ पर ११३८ पंक्तियों में प्रकाशित किया था। 
इसके कथानक के सम्बन्ध में उनकी टिप्पणी इस पग्रकार है--“इसके साथ 
उद्छृत +विता शाहाबाद जिले में बोली जानेवाली चिशुद्धू पूर्वी भोजपुरी का 
का श्रेष्ठ उदाहरण है। इसका व्याकरण बलज्ञल-सरकार द्वारा प्रकाशित भेरे 
'बिहारी बोलियों के व्याकरण” ( भाग २ ) अन्य में पूर्ण रूप से वर्णित है। 
ये इसलिए भी अधिक दिलचस्प है कि इसमें उस जिले के मनुष्यों के रीति-रस्म 
और रहन-सहन के सम्बन्ध में वर्णन है जो अपने वीर-स्वभाष के योद्धाओं के 
लिए प्रसिद्ध है ***““। इसके कथानक की सारी बनावट एक राजपूत पिता की 
उन दिक्कतों पर आधारित है, जिन्हें उसने अपनी कन्या की शादी करने और 
बड़ी रकम तिलक के रूप में देने के समय अनुभव किया था । गीत गाया जाता है 
जिससे लय और स्वर की पूत्ति तो हो ही जाती है; पर छुन्द की मात्राओं मे 
न्ुदियाँ रह ही जाती है।” 


इसकी मुद्रित प्रति ठाकुरप्रसाद गुप्त बुकतेलर, (राजादरवाजा, कचौड़ीगली, 
बनारस ) द्वारा प्रकाशित है, जो #राप्प है। इसके भी लेखक॑ बाबू महादेव सिंह 
'घनश्याम? ही हैं। इस मुद्रित प्रति में और प्रियसेन द्वारा पूर्वोक्त प्रकाशन में बहुत 
पाउ-मेद्‌ हैं । 

आहल्हा--'कु वर विजयी? के बाद अन्तिम वीर-गाथा-काव्य जो मिलता हैं, वह 
'आल्हा? का भोजपुरी संस्करण है। इसका प्रकाशन भी श्रीभ्रियर्सन ने इण्डियन 
एंटिक्वियी (भाग १४, सन्‌ १८८५ ३०) के प्रष्ठ २०६ सें किया था। भ्रियसेन साहब ने इसक 
प्राक्षन म लिखा है--“मशहूर छुन्देलखण्ड के इतिहास के चतुदेक्‌ आहह्ा 
झौर ऊदल? को वन्‍्द्र बनाकर आमीण-गाथा-काव्य अत्यधिक रूप में सग्रद्दीत 
हुए है। सम्भवतः यह आहत्द्वा-काव्य प्रारस्भ में डन्देशखण्डी बोली में, जो 
बिहारी भापा का एक अज्डः है, लिखा गया था। किन्उु आदह्य-ऊदल की 


भूमिका श्ै 


करामात का वर्णन इतना जन-प्रिय है कि हिन्दुस्तान की हर प्रचलित बोली में 
यह पाया जाता है। इसके विभिन्न वर्णनों को दो भागों में बॉँठा जा सकता है । 
प्रथम हिन्दी (या पश्चिमी ) और दूसरा बिहारी (या पूर्वी) पाठान्तर। जो 
सबसे बड़ा और ध्यानाकपंक नम्मूना हिन्दी-पाठान्तर का है, वह चन्दुबरदाई- 
कृत कहा जाता है। किन्दु यह धारणा गलत है, दूसरा पाठान्तर जो 
आधुनिक हिन्दी में है, बह अभी 'महीपुर' के चौधरी धनीरास द्वारा सम्पादित 
होकर 'सेरठ' के 'ज्ञानसागर प्रेस' से पशिडत हरदेव सहाय द्वारा छुपाया गया है। 
इसके वर्णन में दूसरे वर्णनों की वचरह ही नायक आह्दा भौर ऊदल है। 
इस गाथा-काच्य का एक तीसरा पाठान्तर कन्नौनी में भी है जिसका 'वाटरफिल्ड! 
ने 'कलकत्ता रिव्यू! के भाग ६१, ६९ और ६३ में श्रंगरेजी बेल्लेड-छुन्द में 
श्रमुवाद किया है। 

इस गाया-काव्य का पूर्वी पाठान्तर केवल अमण करनेवाले गायकों के कर्ठों 
में ही आज वत्तप्रान है और प्रायः बिहार की बोली में गाया जाता है। 
कभी-कभी इस भोजपुरी पाठान्तर में वैश्ववाडी बोली का भी सम्सिश्रण 
रहता है। वैता तब होता है जब गायक पमभझता है कि सुननेवाले 
शिक्षित हैं।” 

प्रियर्सन साहव के अनुमान के अनुसार मूल आल्दा सबप्रथम भोजपुरी में ही निर्मित 
हुआ था। 

अन्यान्य गीत-काव्य--इन वीरगाथा-काव्यों के अतिरिक्त 'विहुला? के गौत, राजा 
“टोलन! के गीत, 'सारह्ञा-सदावृजः के गीत आदि भी हैं, जिनकी छपी पुस्तक बाजार में 
मिलती हैं | उनके कृधानक भी बहुत रोचक और प्राचीन हैं; पर अन्त की दोनों 
पुरुतकों की कथाएँ गद्य-पद्ममिश्रित हैं । 

इनके अतिरिक्त भोजपुरी में और भी गाथा-काव्य नि श्वेत रूप से निर्मित हुए होंगे; 
पर उनका प्रकाशन प्राप्त नहीं है। इस तरह वीरगाथा-काव्य का इतिहास “आल्हा? कौ 
रचना के साथ अन्त होता दीख पढ़ता है । 


प्वेमध्यकाल (सन्‌ २२४५ से १३५० ई०) 
इस काल को मैंने भक्ति-काल भी कहा है। भक्ति-काल के अन्तर्गत भोजपुरी में 
रचना करनेवालों में 'कबौर” का सर्वप्रथम स्थान है। इन्होंने अपने निगुरणों में 
भोजपुरी को प्रमुख स्थान दिया। इनकी भोजपुरी रचनाएँ प्रचुर संख्या में प्रस्तुत 
पुस्तक में उद्धुत हैं। उन उद्धरणों में भोजपुरी शब्दों के अ्चुर प्रयोग देखे जा सकते हैं। 


४० भोजपुरी के कवि और काव्य 


इनके बाद इनकी शिष्य-परम्परा में भो जो अनेक कवि तथा संत शअझते हैं, 
वे भी भोजपुरी में ही रचना करते थे। इन सबका उल्लेख उद्धरणों के साथ पुस्तक में 
किया गया है। 


इस काल तथा इसके पूर्व के काल के कवियों की रचनाओं की भाषा को देखने से 
स्पष्ट हो जाता है कि गोरखनाथ के शिष्य 'भरथरी? के समय से ही भोजपुरी ने 
प्राकत अथवा अपभ्रश का साथ पूर्या रूप से छोड़ दिया था । वह उस समय तक 
स्वतन्त्र डप से अपनी अलग सत्ता के साथ खड़ी ही नहीं हो गई; बल्कि उसने 
अपने की अपनी अ्रभिव्यज्ञना-शक्ति एवं शब्द-कोष, भुहावरे आदि से इतना 
सबल बना लिया कि बाद के कवि तुलसौदास और कबौरदास की कंविताओं पर भी 
उसकी छाप पड़े विना नहीं रह सकी । 


उत्तरमध्यकाल ( सन्‌ १६५० ई० ते 2६०० है० ) 

रौति-काल के नाम से इस काल को अभिव्यक्त किया गया है। इस काल में 
भक्ति की प्रधानता के साथ-साथ रीतिकालीन शैली की प्रधानता रही है। इस समय के 
कृषियों में शंकरदास, बाबा रामेश्वर दास, शिवनारायण आदि भक्त कवियों के 
नाम आते हैं, जिनके सम्बन्ध में पुस्तक में काफी चचों है। सरसंग-सम्प्रदाय के 
आदि कवि छत्तर बाबा” को छोड़ कर शेष कंवि टेकमन राम, भीखम राम, स्वामी 
सिनक राम आदि संसवतः इसी शाखा के संत हैं। जहाँ ये कवि भक्ति-पत्त की 
रचनाएँ करते थे, वहाँ जन साधारण के गृहस्थ कवि प्रचुर संख्या में श्वद्वार रस 
ओर देश-प्रेम की भावनाओं से पूर्ण रचना करने में व्यस्त थे । इन अगणित 
अज्ञात कंबियों कौ पूरी नामावलोी और रचनाएँ ग्राप्त करने के लिए विशेष 
खोज की आवश्यकता है। इस समय के ऐसे अज्ञात कवियों की रचनाएँ यदा-कदा 
ट्रये हुईं पंक्तियों में अवश्य मिलो हैं और मिलती जाती हैं; पर उनसे कोई मतलव की 
बात सिद्ध नहीं होती। इस प्रकार के तीन ही कवियों के नाम मुझे अबतक ज्ञात 
हो चुके हैं, जिनमें एक तो वाबू कुँवर सिंह के दरबारी कवि रासा थे और दूसरे 
कवि तोफाराय थे। तोफाराय के तो कई पूर्वान भी इस दरबार में कवि थे। ये 
सारन जिले के निवासी थे और भोद घराने के थे। ये लोग हथुआ राज के भी 
दरबारी कवि थे। तोफाराय का लिखा 'कुबर पचासा” मुमे प्राप्त हुआ है, जिसका 
एक अंश पुस्तक में उद्दुश्तत है। एक “अलिराज! नामक कवि की भोजपुरी रचना 
प॑ं० गणेश चौंवे ( मु० पो० बेंगरी, चम्पारन ) को प्राप्त हुई है, जो सुके अ्वतर्क नहीं 
मिली है। अलिराज कौ कुछ रचनाएँ कुवर सिंह पर भी हैं। उस समय प्रायः 


भूमिका ४१ 


हर राजदरबार में ऐसे कवि थे, जो श्वृज्ञारा और वीररस की रचनाएँ करते थे । 
ऐसे कवियों की कविताओं में हिन्दी, श्रजभाषा और भोजपुरी भाषाओं का मिश्रण 
रहता था। 


इस काल में रीतिपरक श्रन्नाररसप्रधान शैली की भोजपुरी रचनाएँ भी कजरी, 
भूमर, जंतसार तथा अन्य ग्रचलित रागों और घनाक्षरी, सवैया, दोहा, बरवे, छुप्पय 
आदि छुन्दोँ में मिलती हैं। किन्तु उनका कोई ऐसा संग्रह अबतक भुमे प्राप्त नहीं 
हो सका है, जिससे ऐसे कवियों के नामों का पता चल सके। फिर भी मेरा अलुमान है 
कि इसकाल में श्वज्ञारी कवि वम नही थे। वे मनोविनोदार्थ श्रज्ञाररस की रचनाएँ 
करते थे, जो लिखाकर रखने की परिपा्ी भोजपुरी समाज में प्रचलित न होने के कारण 
जन-कराठों में ही निहित रहीं और कालान्तर में विस्मृत हो गई'। काशौ के श्वज्ञारो 
कवियों में 'भारतजीवन श्रेस” के बाबू रामझृष्ण व्मो का नाम विशेष रूप से 
उल्लेखनीय है। बनारस के ही तेग अली शायर! भी है। इन दोनों की क्रमशः 
'बिरहा नायिकाभेद! और “बदमाश-दर्पण” नामक कविता-पुस्तके सन्‌ १ध्वीं सद्दौ के 
अन्त में लिखी गई” और प्रकाशित हुईं। वे रीतिकालौन कविता के सर्वोत्कष्ट 
नमूने हैं। इनके अतिरिक्त महाराज खड्गबहादुर मल्ल, महाराजकुमार हरिहरप्रसाद सिंह 
रामदास, राम मदारी, शिवनन्दन मिश्र, पँ० बेनीराम, भारतेन्दु हरिश्रन्द्र, कवयित्री 
सुन्दर, बाबू अम्बिकाप्रसाद्‌ आदि की रचनाएँ भी अवलोकनीय है। इन कवियों के 
उदाहरणों से इस काल की रचना-शैली, अभिव्यज्ञना ओर छुन्दोयोजना का अनुमान 
सहज ही किया जा सकता है। यहाँ केवल भारतेन्दु की कविताओं के कुछ उदाहरण 
दे रहे हैं। ये उदाहरण मूल पुस्तक में नहीं आ सके हैं। 


भारतेन्दु जी ने एक पुस्तक “हिन्दी-भाषा? के नाम से लिखी थी जो 'खड्गविलास 
प्रेस” ( पटना ) से १६ वीं सदी के अन्त में कभी छपी थी । उसमें उन्होंने उदार 
ओर निष्पक्ष रूप से भाषा के प्रश्न पर विचार किया है और उन भाषाओं के उदाहरण 
गयदय-पद्य--दोनों में दिय हैं। भोजपुरी-भाषा में भी आपने कविता रचौ है। उक्त 
पुस्तक में कई रचनाओं को उद्घ॒त करके बताया है कि बंगला तथा मैथिली के पुराने 
कवि भी प्रजभाषा में कविता करते थे। किन्तु ऐसे कवियों की रचनाओं के जो 
उदाहरण उन्होंने उद्धृत किये हैं, उनमें से कुछ में मोजपुरी की छाप भी हम देखते हैं। 
उसी श्ज में भारतेन्दु ने स्वरचित भोजपुरी रचना के भी कुछ उदाहरण 
दिये हैं। 


डर भोजपुरी के कवि और काव्य 


कलक्टर राबेट साहब के प्रति 


जैसन हमनीं के जिला के ऋलक्टर, रावरट! साहब के कदम" देखाइल हारे । 
ऐसन द्वाकिम दुआबा देस द्वित केहू, हमनी के होस में त5 आजुले नारे इल हा। 
केकरा बखत" खानापुरी* के मोकद़िसा में, ऐसन सरब सुख सबका सेंटाइल हा। 
कब 'सोनबरसा! में जलसा के साथ भला, ऐसे दृवाखाना खोलि औषधी बँटाइल हा ॥ 
सुनिला जे दमनी से अतना परेम कह, 
लगते» इद्दों का< अब एजनी* से जाइबि। 
इंहे एगो१० हमनी के बढ़ दुख लाग5 ता जे, 
इहाँ का सरीखे अँगरेज कहाँ पाइबि॥ 
इद्दंका त5 अपना सुलुक१* अब जाए" भत्ते, 
अपने बिलायती में मित्ति-जुलि जाइबि। 
हमनी का हाथ जोरि-जोरि के मनाइले जे, 
बलिया दुआबा के बिप्तर जनि*5 जाइबि॥ 


25 
नये कलक्टर मिस्टर रोज साहेब के प्रति 


हमनी*४ का बलिया दहुआबा के रहनिहार, 

रेयत हजूर के कदम तर बानींना। 
हमनीं का सोस्े-लो के । बात बतिआई१९*, न तो, 

हिहुई, न फारसी, न अऑगरेजी जानींजा॥ 
जइसे सरकार उपकार करे हमनीं का, 

तेसने हजूर के हमनियों का*७ मारनीजा । 
दसनीं के मामला में ऐसलन निश्ाफ१< होखे, 

जौना१९ से साहबो के नेक्िये*+० बखानींजा ॥ 
जब सरकार सब उपकार करते बा", 

तब अब हमनी के कवनर* हरज बार | 








३. पदार्पण। २५ दीख पढ़ा है । ३. गंगा और सरयू के बीच की जमीन, जो दोनों रूदियों के पानी से 
दिक्त होती रहती है। 8. आच तक । ५० वक्त । ६: खेतों के खाता और खतियान तया नकयों छे सम्बन्ध 
रखनेवाता मोकद्मा । ७. शीघ्र । ८. आप । ६» इस जगह । १०. पक ही । ११. सुल्क, देश । १९ जाकर । 
१३- नहीं । १४८ दमजोग । १४- सोवा-छादा । १६- यात करते दैं। ३०५ दमकषोंग भी। १८. ईंसाफ, न्याय । 
१६. जिसवे । २०. नेकी ही, भवाई द्वो । २९० करती द्वी है। २२. कप्रा | २६० दजे दे । 


भूमिका डंडे 


हमनी का साहेब से उत्तिरिन) ना होइबि, 
हमनी का माथे सरकार के करज बा ॥ 
आगा" अब अवरूडई कहाँ ले कहीं मालिक से, 
झइसे त साहेबे से सगर* गरज* बा। 
उरदू बदलि देवनागरी अछुर चल्ले, 
इहे एगो साहेब ले ए घरी» अरजबा ॥ 
धड 
आधुनिक काल ( सन्‌ 28०० है० १६५) ई० ) 
इस काल के जीवित और मत कवियों की केंवल उद्धुत रचनाओं से ही यह स्पष्ट हो 
जायगा कि भोजपुरी का वत्त॑मान काब्य साहित्य कितना प्रौढ है और वह अन्य भाषाओं 
की तरह अगतिशील तथा समुन्नत भी है। इस काल के जिन कवियों की जीवनी और 
रचनाएँ बहुत खोज करने के बाद मिल सकी हैं, वे प्रामाणिक विवरण और 
उद्धरण के साथ इस पुस्तक में संग्रहीत हैं। उन्हें देखने से प्रतोत होगा कि इस 
काल के कवि वर्तेमान युग की सभी विचारधाराओं से सम्पर्क रखते हैं । 





१ ऋण से उद्धार । २ जागे। ६ और | 8, मालिक से दी । ५. सब तरह के । १, मतवाब, स्वार्थ । 
छ+ द््छ सुसय | 


भोजपुरी के कवि ओर काव्य 


आठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तक 


प्रारम्भिक काल 

प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका में भोजपुरी के इतिहास का वर्णन करते समय बताया गया है 
कि आठवीं सदी से केवल भोजपुरी ही नहीं; बल्कि श्रन्य वर्तमान भाषाश्रों ने भी प्राकृत स्षाष। 
से अ्पना-अपना अलग रूप निर्धारित करना शुरू किया और ग्यारहवीं सदी के श्राते-अ्ाते 
मगही, बंगला, भोजपुरी, मैथिली, उड़िया भाषाओ ने अपना-अ्रपना अलग रूप, सहायक 
भाषा के रूप में भी, स्थिर कर लिया | किन्तु उस समय तक जो कवि हुए. हैं, उनकी रचनाओं 
की भाषा में उपयु क्त पाँच भगिनी भाषाओं के ही रूप, जो अदर्धमागधी समुदाय की प्राकृत 
से व्युपन्न हैं, नहीं पाये जाते; बल्कि उनमें शौरसेनी, हिन्दी श्रादि के भी रूप देखने को 
मिलते हैं । इससे यह निविवाद रूप से निश्चित हो जाता है कि इन ४०० वर्षों में 'नाथः 
और सिद्ध! सन्तों ने प्राइत भाषा को त्याग कर जिस भाषा का प्रयोग अपनी कविता 
में किया, उस भाषा से वर्तमान बंगला, भोजपुरी, मगही, मैथिली, उड़िया आदि भाषाएँ 
अपना-अपना सम्बन्ध स्थापित कर सकती हैं | इन सन्तो की प्राप्त रचनाओं में भी उपयुक्त 
भाषाओं के आ्रादि रूप जगह-जगह पर वर्तमान हैं। 

महामहोपाध्याय प० हरप्रसाद शासत्रों ने इस समय के कई कवियों की भाषा को 
बंगला भाषा तथा उन्हें बंगाली कवि माना है ओर महापंडित भी राहुल सांझत्यायन ने 
इनमें से अधिकांश कवियों की भापा मगही मानी है। वैसे ही डॉ० बलभद्र का आदि 
विद्वानों ने इनको मैथिली तथा उड़िया का कवि माना है| परन्तु वास्तविक बात यह है कि 
इन सिद्धों और नाथों ने ही, जैसा ऊपर कह चुके है, इन पाँचों भगिनी भाषाओं को जन्म 
दिया और उनकी भाषा में जगह-जगह पर इन पाँचों का आदि रूप वर्तमान है। हस 
के ४ रामचन्द्र शुक्ल ने भी अपने हिन्दी साहित्य का इतिहास? के पृष्ठ ४३ में 

 है। 

डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपने 'नाथ-सम्प्रदाय! नामक ग्रन्थ के पृष्ठ १३६ में 'दाड़िपा? 
की कविता की भाषा की विवेचना करते हुए, स्वीकार किया है और लिखा है--.इनके 
लोक-भाषा में लिखित कई पेद प्राप्त हुए हैं। भाषा इनकी निस्सम्देह पूर्वी प्रदेशों *की है; 
लेकिन वह उस अवस्था में है जिसे आज की सभी पूर्वी भाषाओं का पूर्व रूप कहा जा 
सकता है |”? , ॥॒ 

राजा भोज” .नामक पुस्तक में डॉ० विश्वेश्ववरनाथ रेउ ने भी इसी बात को 
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से विवेचना करके सिदूध किया है--.. 


१ अकाशक--हिन्दुस्तानी एकेडमी, प्रयाग, १६३२ ई० । 


हे भोजपुरी के कवि और काव्य 


५आ्री सी० बी० वैद् का अनुमान है कि विक्रम-संवत््‌ १०५७ तक प्राकृत से उल्लन्न हुई 
महाराष्ट्र, शौरसेनी, मागधी और पैशाची भाषाश्रों का स्थान मराठी, हिन्दी, वंगला और 
पांचाली भाषाएँ लेने लगी थीं। इसी प्रकार दक्षिण की तामिल, मलयालम, तेलगु, 
कनारी* आदि भाषाएँ,भी अस्तित्व में आ गई थीं।? 

इस समय के, सिदूध और नाथ-सम्प्रदाय- के कवियों की रचनाओं की देखने से यह सष्ट 
हो जायगा कि इन ४०० वर्षों में यानी ६०० ई० सेनग्या रहवीं सदी के वाद तक, सिद्ध-सन्तो ने 
जिस भाषा को अपनाया, उसमें भोजपुरी की सभी भगिनी भाषाओं का पूर्व रूप वर्तमान है 
और इसी समय इन पाँचो लोक-भाषांओं के साहित्य की भाषा प्राकृत के 'रूप में व्यवहतत 
होने लगी। 

- उनकी बोलचाल की भाषा के रूपों में उनका पारस्परिक अ्रन्तर अ्रवश्य आठवीं सदी में 
काफो रहा होगा और इसका पूर्ण अस्तित्त आठवीं सदी के पूर्व से ही हमको मानना 
पड़ेगा। क्योकि, जनता में उनके पूर्ण रूप से प्रचल्तित हुए बिना सिद्ध-सन्तों का ध्यान उनकी 
झपनी साहित्यिक भाषा में स्थान देने की ओर जाना सम्भव नहीं। अतः सिद्धों ने जिन- 
,जिन भाषाओं को अपने साहित्य की भाषा में शामिल किया है, उनका उस समय वोल- 
चाल में पूर्ण अस्तित्व था और जन-करठो ने उनको सिद्धों के समय के बहुत पहले से ही 
प्राकृत से अलग कर लिया था। 

तो इन चार सौ वर्षों की अवधि में भोजपुरी ने किस श्रंश में भर किस तरह साहित्य 
की भाषा में स्थान पाया है तथा उसका विकास कैसे हुआ है, यह निम्नलिखित सिंदूधों की 
रचनाश्रों से जाना जा सकता है | भोजपुरी के आदि रूप का कुछ आभास इन कविताश्रों 
में देखंने को मिलता है-- 

। चौरंगीनाथ 

चौरंगीनाथ नाथ-सम्प्रदाय के सिद्ध हो गये हैं। श्रीहजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'नाथ- 
सम्प्रदाय” नामक पुस्तक के प्ृ० १३७ में गोरखनाथ के पूर्ववर्ती सिदृधों के जो नाम दिये हैं, 
उनमें सर्वप्रथम इन्हीं का नाम है। 

चौरंगीनाथ तिब्वती परंपरा में गोरखनाथ के गुरु भाई माने गये हैं। 
इनकी लिखी कही जानेवाली--आखण-संकली” पिए्डी के जैंन-प्रन्थ-भण्डार में 
सुरक्षित है। इसमें इन्होंने अपनेको राजा 'सालबाहन! का वेठा, मच्छेद्नाथ 
का शिष्य और गोरखनाथ का गुरु भाई बताया है। इस छोटी-सी पुस्तक से यह भी पता 
चलता है कि इनकी विमाता ने इनके हाथ-पैर क्वा दियेये। ये ही पंजाब की 


सिम: मल जो थे 
१. लछाट (दक्तिण गुजरात) की भाषा से ही आधुनिक गुजराती का जन्म हं। 


२०५ अलमसूदी ने ( वि० सं० १००१ --रैस्वी ६४४ ) अपनी 'मुस्जुल जहव! 
पुस्तक में मानकीर (मान्यखेठ) के राष्ट्रकृथ के यहॉ की भाषा का नाम 
(कोरिया? लिखा है।-*इलियट्स हिस्द्री आँफ इण्डिया, भा० ), ६० रे४। 


३. मासिक “गंगा” का पुरातत्तांक, ६० २६० | 


झाठवीं सदी से ग्यारहचीं सदी तक ७ 


कथाओं के 'पूरन भगत” हैं। फिर 'पूरन भगत? की कथा का उल्लेख पृष्ठ १६१ में 
डॉ द्विवेदी जी ने इस प्रकार किया है-“सारे पंजाब में।और सुदूर श्रफगानिस्तान तक पूरन 
भगत (चौरंगीनाथ) और राजा रसालू की कहानियाँ प्रतिदूध हैं। ये दोनों ही सियालकोट 
के राजा सालबाहन के पुत्र बताये जाते हैं। कहते हैं कि 'पूरन भगत” अन्त में बहुत बड़े 
योगी हो गये थे और 'चौरंगीनाथ” के नाम से मशहूर हुए. थे | मिया कादरयार की लिखी 
एक पंजाबी कहानी 'परसंता पूरन भगत! गुरुमुखी अज्ञरों में छुपी है। कहानी का सारांश 
इस प्रकार है।--- 

८पूरन भगत उज्जैनी के राजा विक्रमादित्य के घंशन थे। उनके बाप-दादों ने सियाल 

को८ के थाने पर अधिकार कर लिया था| इनके पिता का नाम 'सलवान! ( सालबाहन- 

शालिवाहन ) था । जन्म के बाद ज्योतिषी के आदेशाजुसार बारद् वर्ष तक एकान्त में रखे गये 
थे | इस बीच राजा ने 'लूण” नामक एक चमार युवती से शादी कर ली | एकान्त वास के बाद 
पूरन अपने साँ-बाप से मिलने | उन्होंने'सहज भाव से विमाता को साँ कह कर पुकारा | इसपर 
गर्षिणी नई रानी का यौवन-भाव आहत हुआ | उसने अपग्रस्ताच किया; किंतु पूरन ने अस्वीकार 
कर दिया | ईष्थां से अन्धी रानी ने राजा से उद्ठी-सीधी लगाकर, पूरन के हाथ-पैर कटवा दिये 
और आँखें फोड़वा कर उन्हें कुएँ में डलवा दिया | इस कुऐँ से गुरु गोरखनाथ ने उनका उद्धार 
किया | गुरु के आशीर्वाद से उनके हाथ-पेर और आँखें पुमः मिलीं | जब वे नगर लौटकर गये 
और उनके पिता को इस छुल का पता चला, तब उसने रानी को कठोर दृरड देना चाहा; पर पूरन 
ने निषेध किया | पूरन की माँ रो-रोकर अंधी हो गईं थी | पूरन की कृपा से उसे पुनः आँखें 
मिलीं और उन्हीं के वरदान से घुन; पुत्र भी हुआ। पिता ने आग्रहपूर्वक उन्हें सिंहासन देना चाहा; 
पर पूरन ने' अस्वीकार कर दिया | अन्त में वे गुरु के पास लौट गये और महान्‌ सिद्ध हुए | 
हाथ-पैर कट जाने के कारण थे चौर॑ंगी हो गये थे | इसीलिए उनका नाम “चौरंगीनाथः हुआ | 
स्थालकोट में अब भी वह कुआँ दिखाया जाता है, जहाँ पूरन भगत को फेंका गया था |” 

पूरन भगत की यह कहानी 'योग़ सम्प्रदायाविष्कृति)? में पृ० ३७० में भी दी हुई 
है। वहाँ स्यालकोट का नाम 'शालीपुर! दिया हुआ है। सम्भवतः अन्थकार ने स्थाल का 
शुद्ध संस्कृत नाम 'शालि? सममा है। 

इसके बाद प० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ४० १६२ में विमिन्न विद्वानों के मत, राजा 
रसालू के समय के सम्बन्ध में, उद्धृत कर लिखा है -- 

“राजा 'रसालू? पूरन भगत के वैमात्रीय भाई ये | इनके समय को लेकर पंडितों ने 
अनेक अनुमान भिड़ाये हैं। सन्‌ १८८४ ई० में टेम्पुल ने खोजकर के देखा कि राजा 
'रसालू! का समय आठवीं शताब्दी हो सकता है। उनके अनुमान का आधार यह 
था कि पंजाब की दो जाट जातियॉ--सिद्ध और संसी--अपनेको इनके वंशज बताती हैं|” 

सिद्ध लोग अपना सम्बन्ध जैसलमेर के 'जैसल? नामक राजपूत राजा से बताते हैं। इस 
राजा की मृत्यु सन्‌ ११६८ ई० में हुई थी और इसने जैसलमेर की स्थापना सन्‌ ११५६ में 
की थी। संसी लोग और भी पुराने काल से अपना सम्बन्ध बताते हैं। वे अपनेको 

१. चन्द्रनाथ योगी, अहमदाबाद, सन्‌ १६२४ | 


े भोजपुरी के कवि और काव्य 


पालवाहन! के पिंता राजा गज? का वंशभर मानते हैं| टॉड' ने लिखा है कि राजा 'गज' 
, से गजनी के सुल्तान की लड़ाई हुई थी। श्रन्त में गज हार गया था और पूरब की ओर 
हटने को बाध्य हुआ था। उसी ने स्थालकोट की स्थापना की थी | बाद में उसने गजनी 
को भी अपने अधिकार में कर लिया था। यह सातवीं शताब्दी के अ्रन्त की घटना है श्रौर 
इस प्रकार राजा 'रसालू? का समय आठवीं सदी होता है। अरबी के इतिहास-लेखको ने 
श्राठवीं शताब्दी के प्रतापी हिन्दू राजा की बहुत चर्चा की है | एक दूसरा प्रमाण भी इस विषय 
में संग्रह किया जा सका है। “'रिसल”ः नामक एक हिन्दू राजा के साथ 'मुहम्मद कासिस! ने 
सिंध में संधि की थी। संधि का समय आठवीं शताब्दी का प्रारम्भिक भाग है।इस प्रकार 
टेम्पुल ने अ्रनुमान किया है कि 'रिसलः असल में/रसालू? ही होगा" । कुछ पंडितों ने तो राजा 
शालिवाहन को शक संव्रत्‌ का प्रवर्तंक माना है। डा० इविंसन ने इन्हें पँचार राजपूत माना 
है। ये इनके मत से यदुवंशी राजपूत थे और रावलपिण्डी, जिसका पुराना नाम गजपुरी है, 
इनकी राजधानी थी। बाद को इन्हें सीथियनों से घोर युद्ध के बाद पूर्व की ओर हटना 
पड़ा | इस तरह डॉ० द्विवेदी ने रसालू का--यानी उसके सौतेले-भाई पूरन भगत! का-- 
समय आठवीं सदी निश्चय किया है और कहा है--“परम्पराएँ और ऐतिहासिक प्रमाण 
स्पष्ट रूप से पूरन भगत और राजा रसाल्ूू को श्राठवीं सदी में, गोरखनाथ के पूर्व, ले 
जाते हैं।” 

तब प्रश्न उठता है कि गोरखनाथ उस अवस्था में पूरन भगत के गुरु कैसे हुए ! 
इसका समाधान डॉ० द्विवेदी ने इस तरह किया है--“इसका एक मात्र समाधान 
यही हो सकता है कि वस्तुतः ये दोनो गोरखनाथ के पू्॑वर्ती हैं। उनके द्वारा 
प्र॒वर्तित या समर्थित शैव साधकों में कुछ योगाचार रहा होगा; जिसे गोरखनाथ ने 
नये सिरे से अपने मत में शामिल कर लिया होगा गौरखनाथ का शिष्य बताने वाली 
उनकी कहानियाँ परवर्ती हैं। गोरखनाथ अपने काल के इतने प्रसिद्ध महापुरुष हुए ये कि 
उनका नाम अपने पंथ के पुरोभाग में रखे बिना उन दिनों किसी को गौरव मिलना संभव 
नहीं था| जो लोग वेद-विमुखता और ब्रह्मण-विरोधिता के कारण समाज में अग्रहीत रह 
जाते, वे उनकी इपा से ही प्रतिष्ठा पा सकते ये |” फ़िर उन्होंने ऐसी कई घटनाओं का 
उल्लेख करके बताया है कि पूर्ववर्ती सन्‍्तों की भेंट या वार्ता परवर्ती महात्माओं से धर्म 
प्रन्थो में खूब कराई “गई है" उन्होंने चौरंगीनाथ (पूरन भगत) इत आशर्सकली' नामक 
हस्तलिखित पुस्तक की एक कविता'की भाषा को पूर्वी मापा कहा है। यह उद्धरण 
प्राचीनतम भोजपुरी में है। परन्तु इसी आधार पर डॉ० द्िवेदी ने ६० १३८ में शंका को 
है-../ऐसा जान पड़ता है कि “चौरंगी नाथ! नामक किसी पूर्व देशीय सिदृध की कथा ते 
पूरन भगत की कथा का साम्य देखकर दोनों को एक मान लिया गया है।? कु 

डॉँ० हिंवेदी की यह शंका इसलिए निराधार है कि गोरखनाथ वी कविता में मी, 
जो बढ़थ्वाल जी ने 'गोरखब्रानी 'में प्रकाशित की है, भोजपुरी कविताएँ उद्पृत है। बरस 
सिद॒धों की वाणियों में भी भोजपुरी भाषा की कविताएँ मानी जाती हैँ | फिर भोजपुरी तथा 


+क मन कक मिकी मककत लटक 
१, देखिए--मिड्स, ४० २३६-३४१ | 


प्राठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तंक॑ ७० 


उसके साथ की अन्य अद्र्धमागधी समुदाय की भाषाश्रों का विकास तथा जन्म भी इन्हीं 
सिदूधों के ग्रन्थों से विद्वानों ने माना है। यह कहना कि पंजाब का कवि पूरब की 
भोजपुरी भाषा का प्रयोग नहीं कर सकता, नितान्त निराधार बात है| सन्त या सिद्ध 
भ्रमणशील होते ये | यह स्वयं द्विवेदी जी ने स्वीकार किया है। फिर, अपने जीवन- 
काल में उन्होने देशीय भाषाओं में कविता की है, यह बात भी डा० द्िवेदी ने 
स्वीकार की है" | योगी लोगों कां नियम था कि शिष्य को अ्रसम्प्रज्ञात में निष्णात 
कर उसे मुमुछुओं के हितार्थ खतंत्र घूमने की अनुज्ञा दे देते ये। एक स्थान पर विना 
विशेष कारण के ये लोग नहीं ठहरते ये। इनका जो भी साहित्य आज प्राप्त है, उसे 
देखने से प्रत्यक्ष हो जाता है कि इनकी वाणी में अनेक माषाओं का समन्वय है। कबीर, 
गोरखनाथ, चर्पटनाथ इत्यादि सनन्‍्तों की भाषा 'सधुकड़ी! है। 'सघुकड़ीः भाषान्तरगत 
साहित्य की प्रवृत्ति सदैव जनता के अधिकाधिक निकट-रहने की रही है | संस्कृत को छोड़ 
हिन्दी भाषा को अपनाना इसी कारण इन लोगों ने अच्छा समझा कि वह विशाल जन- 
समुदाय तक पहुँच सकती है | इसके पूर्व योग के ग्रन्थ संस्कृत में रहे* | 'सघुकड़ी भाषा! 
और पूरबी भाषा का प्रयोग इन सिद्धों की वाणी में शुक्न जी ने तथा डॉ० बड्थ्वाल ने भी 
स्वीकार किया है | फिर इसी पुस्तक में 'घरनीदास” तथा “विद्यापति! जी की जीवनी में 
दिखाया गया है कि किस तरह एक सन्त कबि ने अन्य सुदूर प्रान्तो की देशोय भाषाओं को 
अपनाया है और उनमें रचनाएँ की हैं। श्रतः 'प्राण-रुकली” में जो भोजपुरी की कविता 
चौरंगीनाथ जी ने लिखी है, उसको उनकी कविता नहीं मानना, न्यायसंगत नहीं कहा जायगा। 
श्रतः वह कविता नीचे दी जाती है । इसकी भाषा देखने मे सिद्ध होता है कि आठवीं सदी में 
भोजपुरी ने अपना रूप श्रपना लिया था| न मालूम क्यों, शुक्ल जी, रामनरेश त्रिपाठी, 
डा० हिंवेदी आदि विद्वानो ने भोजपुरी शब्द का प्रयोग करने से अपनेको बचाया है। 
इसके स्थान पर उनलोगो ने अनिवार्य अ्रवस्था में पूरी भाषा या पूरबी हिन्दी का प्रयोग 
किया है। यह भावना ठीक वैसी ही जान पड़ती है, जैसे कभी संस्कृत के विद्वान हिन्दी में 
बोलना हैय समभते थे या अंग्र जी के विद्वान हिन्दी में लिखना अपनी प्रतिष्ठा के विरद्ध 
सममते थे। जब भोजपुरी तीन करोड़ मनुष्यों द्वारा बोली जाती है और अपना अलग संस्कार 
तथा शैली और साहित्य रखती है, तब उसको यह विद्वद्मंडली कबतक अछूत बनाये रख 
सकती है ! आज उसकी दो-चार पुस्तकों के प्रकाशन से ही उसके साहित्य की प्रौद़ता ने 
विद्यानो का ध्यान आकर्षित कर लिया है। जिंस दिन उसका सम्पूर्ण साहित्य उनके सामने 
आयगा, उस दिन उनके लाख न चाहने पर मी उसे उच्च स्थान प्रदान करना ही पड़ेगा । 

चौरंगीनाथ की 'प्राणसंकली” की कविता की माषा पर यदि विचार किया जाय तो यह 
भोजपुरी गोरक्षनाथ की भोजपुरी से पूर्व की मोजपुरी मालूम पड़ती है| भोजपुरी भाषा के प्राप्त 
नमूनो में इसको प्राचीनतम भोजपुरी का नमूना समझना चाहिए। इस आधार पर भी 
चौरंगीनाथ का समय आठवीं सदी में माना जा सकता है--- 

१. देखिए--नाथसम्प्रदाय, परृ० €८। 

२. देखिए--सन्‌ १६४६ की फरवरी मास की 'सरस्वती' पृ० १०४ । 


ढ' भोजपुरी के फवि और काव्य 


सत्य वदृंव चौरंगीनाथ आदि अन्तरि सुनौ ब्रितांत सालवाहन घरे 
हमारा जनस उतपति सतिमा झुठ वोलीला ॥१॥ 
है अस्हारा भइला सासत पाप कलपना नहीं हमारे मने हाथ पावक्टाय 
रलायला निरंजन बने सोष सनन्‍्ताप मने परमेव सनझुष देपीला 
श्री मछुंद्नाथ गुरु देव नमसकार करीला नमाइला माथा ||२॥॥ 
आसीरबाद पाइला अम्हे मने भइला हरषित होठ कंठ तालुका रे 
सुकाईला धर्मनना रूप महछंदनाथ स्वामी ॥३॥ 
मन जाने पुन्य पाप झुष बचन न आये भुफे वोलव्या कैसा हाथ रे 
दीला फल सुझे पीलीला ऐसा गुसाई बोलीला ॥शा 
जीवन उपदेस भाषिला फल आदम्हे विसाला दोष बुध्या त्रिपा बिसारला ॥५॥ 
नहीं माने सोक धर धरन सुमिरला आगे भइला सचेत के तम्ह कहारे बोले पुछीला ॥९॥ 
अर्थ--चौरंगीमाथ सत्य कहता है। आदि अन्त का वृत्तान्त सुनो | साल-वाइन के 
घर मेरा जन्म और उत्पत्ति सत्य में हुईं | मैं कूठ नहीं बोलता हूँ ॥१॥ हमारी सासत (हुःख 
दिया जाना ) बेकार निराधार थी भेरे मन में कोई भी पाप कल्पना नहीं थी। तब भी 
मेरे हाथ-पाँव काठ लिये गये | निरंजन वन में अपने शोक-सन्ताप पूर्ण मन में मैंने प्रभु 
देवता को सम्मुख देखा | मैंने भरी मच्छेन््र भाथ॑ गुरु देव को नमस्कार किया और माथा 
नमाया ॥२॥ म॒के आशीर्वाद प्राप्त हुआ | में मन में हर्षित हुआ | हमारे होठ, कंठ और 
तालु को धर्म रूप मच्छेद्ध नाथ स्वामी ने सुखा दिया ॥३॥ मन जानता है मेरे मुख से पाप 
या पुण्य का कोई वचन नहीं मिंकला | गोसाई ( स्वामी ) ने कहा--अरे | यह तेरा हाथ 
कैसा हुआ १ अच्छा मैं फल ( आ्राशीांद ) देता हूँ। तू इसे पी लो ( प्राप्त कर लो ) ॥४॥ 
उन्होंने जीवन का उपदेश कहा ॥| जप 
उन्होने जी के लिए (जीवन सुधार के लिए) उपदेश दिया | विशाल (गुरु) आशीवाद 
से मेरे दोष और बुद्धि की प्यास समाप्त हो गई। मैंने शोक नहीं माना। धर्मधारण करके 
सुमिरन किया | मैं सचेत हो गया | तुम क्या बोलते हो, यंही में तमसे पूछता हूँ! | 


सरहपा 
(३) सरदपा (सिद्ध ६)-इनके दूसरे नाम राहुलभद्र और सरोजवज् भी हैं* | पूर्वदिशा 
में राशी नॉम॑क नगर में एक ब्राह्मण वंश में इनका जन्म हुआ था। भिक्षु होकर यह्‌ 
एक अच्छे परिडत हुए। नालन्दा में कितने ही वर्षों तक इन्होंने वास किया। पीछे इनका 
ध्यान मन्‍्त्र-तन्त्र की ओर आइष्ट हुआ और आप॑ एक वाण (शर ) बनानेवाले की 
कन्या को महासुद्राः बना कर किसी अरण्य में वास करने लगे | वहाँ यह भी शर (वार) 


पप्ुकतकआ कर 
१. इस पंक्ति का अर्थ संदिग्ध है। का 
२० देखिए---पुरातत्त्व-निवन्धावली' नामक पुस्तक, ३० १६७ से १७१; इंडियन प्रश्न 
लिमिटेड, प्रयाग । लत 
३० वज़यानीय योग की सहचरी योगिनों अथवा हेप्नाटिज्म दा माव्यम । 


आठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तक ५, 


बनाया करते थे, इसीलिए इनका नाम तरह पड़ गया | मर में द्वी यह सा 
करते ये | सम्भव है, मनत्रों की ओर इनकी प्रथम अदृत्ति वहीं हुई हो | रह (५) रा 
प्रधान शिष्य ये | कोई तान्न्रिक नागाजुन भी इनका शिष्य था। भोथ्या तन:जर न 
इनके कतीस गन्थों का अनुवाद मिलता है। ये मी वज्रयान पर है| इनमे के ये 
कपाल तन्त्र? की पंजिका 'शानवतीः भी है | इनके निम्नलिखित काव्यअन्ध 'गगहदी! से 
भोथिया! में अनूदित हुए हैं +-- 
१, क-ख दोहा (त०१ ४७-७) । 
२. क-ख दोहा टिप्पए (त० ४७-८ ) | 
३, कायकोप-अमृतवज़गीति (6० ४७-६ )। 
४, चित्तकोप-अजवबज़गीति ( त० १७-११)। 
५. डाकिनी-बज्रगुह्मगीति (6० ४८-१०६) | 
६. दोहा-कोष उपदेश गीति (त० ४७-४ ) 
७. दोहा कोषगीति (6० ४६-६ )| 
८. दोहाकोषगीति | तत्तपदेशशिखर ( त० ४७-१७) | 
६. दोहा-कोष-गीतिका | भावनाइए---चर्याफल (त० ४८५) | 
१०, दोहाकोष | वसन्ततिलक (त० ४८-११) 
११. दोह्कोप-चर्यांगीति (४७-४ )। 
१२ दोहाकोप-महामुद्रोपदेश ( त० ४७-१३ )। 
१३. द्वादशोपदेश-गाथा ( त० ४७-१४ ) 
१४, महामुद्रोपदेशवज्गुह्नगीति ( त० ४८-१०० ) | 
१५. वाकू कोषरुचिस्वरवज्रगीति ( त० ४७-१० ) 
१६. सरहगीतिका ( त० ४८-१४, १५) 
इनकी कुछ कविताओं को देखिए--. 
“जह संत पवन न संचर्‌ह, रवि शशि नाह पेश । 
तहि बट चित्त विसाम कर, सरहे कहिप्र उच्ेश हा] 


परिदर्न सअल सत्थ बक्‍्खाणइ 
देहहि छुद्द बसन्त मे जाणह्‌ 
अस्रगारम्ण ण॒ तेन विख्रिड्ञ | 


तोबि. शिलज  भणद हैंड. परिइञ्न 
जो भव सो निवा (१ ज्वाण ) खल्लु 
भेतु न्‌ पस्थ | 


सरणहु 
एक सभावे बिरहिश्, णिम्मलसह पढ़िवर्ण । 
). नेहरह्नबहू--नायाजु नी कोंडा, जिला गु'टर (श्रांप्र )। 
* त के मानी यहाँ “तन:जूरः का तंत्र है। 
झे 'बीढ़गान-शरोदोह'---बंगीयसाहिल-परिषद्‌ ! जिकतता, 'सरोजवज़ेर दोहादोष |! 


32 भोजपुरी के कवि और काव्य 


धोरे खरे चन्दमणि, जिमि उच्जोअ कोह। 
परम महासुद्द एखुकणे, दुहिआ्र अशेष हरेह। 
जीवन्तह जो नउ जरइ, सो अजरासर होइ। 
शुरु उपएसे बिसलसइ, सो पर घरु्णा कोइ।” 


शबरपा 


शबरपा” (सिद्ध ७)--यह 'सरहपाद? के शिष्य थे। गौडेश्वर महाराज धर्मपाल (सन्‌ 

७६६-८०६ ई०) के कायस्थ (लेखक) 'लूइपा' इन्हीं के शिष्य थे| नागाजुन को भी इनका 
गुरु कहा गया है; किन्तु यह शून्यवाद के आचार्य नागाजुन नहीं हो सकते। यह अक्सर 
श्रीपवंत में रह करते थे। जान पड़ता है, शबरों या कोल-मीलों की भाँति रहन-सहन 
रखने के कारण इन्हें 'शबर-पाद” कहा जाने लगा। तन:जूर” में इनके अनूदित ग्रन्थों की 
संख्या छुब्दीस है, जो सभी छोटे पन्य हैं। पीछे दसवीं शताब्दी में भी एक 'शबरपा! हुए ये 
जो भैत्नीप? या 'अवधूतीपा? के गुरु थे। इनकी भी पुस्तकें इनमें शामिल हैं। इनकी 
हिन्दी-कविताएँ हैं -... 

१. चित्तगुहमगम्भीरा्थ--गीति (त० ४८१०८) | 

२. महामुद्रावश्रगीति (१० ४७-२६ )। 

३. शून्यवाइष्टि ( त० ४८-३६ )। 

४. षडंगयोग" (त० ४-२२) | 

५. सहजशंवरस्वाधिष्ठान (१० १३-५४ )। 

६. सहजोपदेश स्वाधिष्ठान ( त० १३-४)। 


चर्या-गीतों में इनके भी गीत मिलते हैं-.. 


राग वल्ाडि 


ऊँच ऊँच पावत तिहें बसद सबरी बाली। 
मोरंगि पीच्छ परदहिण सबरी गिवत गु'जरी माली ॥प्रू ०। 
उसत सबरो पागल शबरो मा कर गुली गुहाडा 
ठोहोरि णित्र धरिणी णामे सहज सुन्दारी॥ 
णाणा तरुवर मोलिल रे गअणत लागेली डाली । 
एकेली सबरी ए बण हिएडहू कर्णकुण्डलवज्रधारी ॥ 
तिञ्न धाउ खाट पडिला सबरो महासुखे सेजि छाइली 
खबरों सुजंग,णइरामणि दारी पेहम राति पोहाइली ॥ 
दित्र तांवोला महासूहे कापूर खाइई। 
सून निरामणि कण्ठे लटझा महासूदे राति पोह्मइ॥ 
गुरुवाक पु'जञ्ा बिन्ध खिद्र मणे बाणं। 


लीन जय य यू । 
१. चार, पॉच और छः न० के.अन्‍्य संस्दत के ये या हिन्दी के, इसमें उन्देह ६। 


आठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तक॑ ३३ 


एके शर-सन्धानें बिन्धह-बिन्धदह परम खिवाण | 
उमत सबरो गरुआ रोषे ॥ 
गिरिवर-सिहर-संधि पइसन्‍्ते सबरो लोढ़िव कइसे ॥२८॥ 


इनके कुछ गीति-पद्य भी देखिए. 
राग दंशाख"* 
«“लादू न विन्दु न रवि न शशि-सण्डल ॥' चचि-राअ सहावे मुकल ॥बुणा 
उजु रे उच्च छाढ़ि मा छेहु रे बंग | निश्रद्दि बोहिमा जाहु रे ल्ांक ॥ ' 
हाथेरे कान्काथ मा लोड दापण। अपणेआपा घुमतु निअ-सण ॥। 
पार उआरे सोइ गजिद। दुल्शण सांगे अवसरि जाइ॥ 
चाम दाहिण जो खाल विंखला। सरह भणइ बपा उज्ञुवाट भाइला ॥ 


राग भैरवी 
“काञ्न णावढ़ि खण्टि मण केडुआल । सदूगुरु वअणे घर पतवाल ॥घु०॥ 
चीआ थिर करि धहुरे नाही। अन उपाथे पार ण जई।॥ 
नौवाही नौका टाम्ुञ्ज गुणे। मेलि सेल सहज जाड ण आखणें ॥ 
वाट अमअ खाण्टवि बलआ। भब उलोलें षञ्रबि बोलिआ॥ 
कुल लइ खरे सौन्ते उजाअ। सरह भणह गयें पसाएँ॥ 


भुसुक 


भूसुक ( सिद्ध ७३ )--नालन्दा के पास के प्रदेश में, एक क्षत्रिय-वंश में पैदा हुए 
थे। मिक्षु बनकर नालन्दा में रहने लगे। उस समय नालन्दा के राजा ( गौडेश्वर ) 
देवषाल (८०६-८४६ ६० ) थे। कहते हैं, 'भूसुकु' का नाम शान्तिदेव भी था | इनकी 
विधित्न रहन-सहन को देखकर राजा देवपाल ने एक बार “भूसुकु” कह दिया और तभी से 
इनका नाम “भूसुकु पड़ गया । शान्तिदेव के दर्शन-सम्बन्धी छः; अन्य 'तन्‌-जूर में मिलते हैं, 


१. बौद्धगान-उ-दोहा “वयौचर्य विनिश्चवय! ( “चर्या-गीति! नाम ठौक जेंचता है )। पाठ 
बहुत अशुद्ध है। यहाँ कहीं मात्रा के हस्व-दीघे करने से, कहीं संयुक्त वर्णों के घटाने- 
बढ़ाने से तथा कहीं-कहीं एकाध अच्षर छोड़ देने से छुन्दोभंग दूर हो जायगा । जैसे-- 
पहली पंक्ति में 'रविन शशि” के स्थान पर 'रवि-शशि', “वचि-राअ के स्थान 
पर “चीअ-राझ?, 'कान्काण' के स्थानपर 'कंकण”, आपा' के स्थान पर “्य्रप्प? । 

» सरहपाद? संस्कृत के भी कवि थे-- 
“या सा संसारचक्क विरचयति मन. सन्तियोगात्मद्देतो: । 
सा धीर्यस्य असादादिशति निजमुचंस्वासिनो निष्पप॑च ( मू ) 
तत्व प्रत्यात्मवेद्य' समुद्यति सुख कल्पनाजालमुक्तम्‌ । 
कुयौत्‌ तस्याडि प्युग्म॑ शिर॒सि सविनय सदूगुरोः सर्वकाल (स्‌) , 
---चर्याचर्य विनिश्चय', पृष्ठ--३ । 


नप् 


१६९ भोजपुरी के क|ब और काव्य 


और तंत्र पर तीन अन्ध । भूसुकु के नाम से मी दो अन्य हैं, जिनमें एक “चक्रसंवरतन्त्र 
की “का है। मागधी हिन्दी भें लिखी इनकी 'सहजगीति! (त० ४८,१) भोटिया-भाषा में 


मिलती है*। 
राग भन्लोही 
“बाज णब"पाड़ी पेंडआ खालें बाहिड, अद्अ बंगले क्लेश लुढ़िड ॥ध्ुणा 
आजि भूसु बंगाली भइली, णित्र घरिणीं चण्डाली लेली॥ 
डदि जो पंचघाद ण॒इ दिबि संज्ञा गठा, ण जानसि चित्र भोर कहिं गई पहइठा || 
सोण तरुअ मोर किस्पि ण थाकिउ, निञ्र परिवारे महासुह्दे थाकिउ || 
घडकोड़ि भणडार मोर लइआ सेस, जीवन्ते मइलें नाहि विशेष ||” 


बिरुपा 
विरुपा (सिद्ध ३)--महाराज देवपाल (सन्‌ ८०६-८४६ ६०) के देश तर? (0) में 
ह्मेका जन्म हुआ था» मिक्तु बनकर “नालन्दा? विहार भें पढ़ने लगे और वहाँ के अच्छे 
परिडवतों में हो गये | इन्होने देवीकोट और श्रीपव॑ंत आदि सिद्ध स्थानों की यात्रा की | 
श्रीपवत में इन्हें सिद्ध नागबोधि मिले | यह उनके शिष्य हो गये | पीछे नालन्दा में आकर 
जब इन्होंने देखा कि “विहार? में मन्च, स्त्री आदि सहजचर्या के लिए अ्रत्यावश्यक 
बस्तुओं का व्यवहार नहीं किया जा सकता है, तब्र वहाँ से गंगा के घाट पर चले गये । 
वहाँ से फिर उड़ीसा गये। इनके शिष्यो में 'डोम्मिपा! (सि० ४) और “करहपा? थे | 
ये यमारितन्त्र! के ऋषि थे | 'तन्‌-जूर! में इनके तन्त्र-सम्बन्धी अठारह भन्थ मिलते,ह, 
जिनमें ये प्रन्थ मगही में थे 3-.. 
१, अमृतसिद्धि (१० ४७-२७) । 
२. दोहाकोष (त० ४७-२४) | 
३. ष--दोहाकोषगीति-कर्मचण्डालिका (त० ४८-४) | 
४. मार्गफलान्विताववादक ( त० ४७-२५)। 
भू, विरुपगीतिका (त० ४८-२६)। 
६, विरुपवनञ्नगीतिका (त० ४८-१६) । 
७, विरुपपद्चतुरशीति (त० ४७-२३ )। 
८, सुनिष्पपंचतस्वीपदेश (त० ४३-१००) | 
राग गवड़ा 
“एुक से शुर्डिनि दुद॒घरे सान्धश्र, चीअण वाकलअ वारुणी वान्धञ्र |मु०॥ 
सहजे यिरकरी वारुणीसान्धे, जें अजरामर होइ दिंद कान्धे॥ 


नी ०० मिक.. 


१. देखिए--पुरातत्त्वनिवन्धावली, पृ० १७६ से १७७; इंडियन ग्रेस लिमिटेड, प्रयाग । 

२० ड|० भद्यचाय ने लिखा है---गफ० ॥88-8एफराप्रगा-टेक्ान-वी (8 5अंते शिफ छिपा 
06९७ पज्ञव8 8 एफ्ता6 ० विद्ाएब्रश08, 97 *ैं घाय 7ग्रीएश्त ६0 गेएए !09४ प0 
घएश०्म्8०0 ६0 ऐशाहइएं,.. 76 १8 0णंताप ०४ शं४ 88 भाजु भूसू बंगाती 
भइली (9) 

३० 'पुरातर्त-निवन्धावली', ए० १७८ से १७६ । 


आठवीं सदी से भ्यारहवीं सदी तर्क है] 
दुशमि हुआरत चिह्न देखइआ, आइल गराहक अपणे बहिआ॥ 


चउशठी घड़िये देव पसारा, पहठेल गराहक नाहि विसारा | 
एक स॒ छुली सरुई नाल, भरन्ति “विरुआ? थिर करि चाल” || 


डोम्भिपा 
डोम्मिपा ( सिद्ध ४ )--मगधदेश में क्षत्रिय-वंश में पैदा हुए। 'वीणापाः और “विरुपा! 
दोनो ही इनके गुरु थे | लामा तारानाथ ने लिखा है कि यह “विरुपा? के दस वर्ष बाद तथा 
“धवज्घटापा? के दस वर्ष पूर्व सिद्ध हुए | यह 'हेवज़तन्त्र! के अनुयायी ये | सिद्ध 'ऋरहपा? 
(१७) इनके भो शिष्य थे | 'तन:जूर” में इक्कोस अन्थ “डोम्मिपाद! के नाम से मिलते हैं; 
किन्तु पीछे भी एक “डोम्मिपा? हुए हैं। 'डोम्मिपा? के नाम के ये ग्रन्थ मिल्ते हैं-- 
१, अज्षुरद्विकोपदेश (त० ४८,६४) | 
२. डोम्बिगीतिका (त० ४८,२८) | 
३. नाडीविंदुद्वारे योगचर्या (त० ४८,६३ )। 
राग धनसी 
धागा जठना सामेरें बहह नाई, 
तहें बुढ़िली मातमिं पोइआ लीले पार करेह ॥मुण॥ 
वाहतु डोस्बी वाहलो डोस्बी बाठत भइल उ5द्धारा, 
सदूगुरुपाअ-पए जाइब पुण जिणडरा ॥ 
पाँच केडुआल पढ़न्ते माँगें पिवत कास्छी बान्धी, 
गअणदुखोलें सिंचहु पाणी न पइसइ सान्‍्धी || 
चन्द सूज्ज हुई 'चका सिटिसंहार पुलिन्दा, 
* वास दृहिण छुइ साग न रेवह बाहतु छुन्दा।॥ 
कबडी न लेइ बोडी न क्ेइ सुच्छुढे पार करेइ, 
जो रथे चढ़िला धाहवाणं जाई इले कुछो बुढ़इ” | 
'मिन्षावृत्तिः में इनका यह दोहा मिलता है-- 
“आुजह समअण सहावर कम सो सइअल। 
सोअ ओधर्म करणिडया, मारठ कास सहाठ | 
अच्छुठ अक्खं जे पुनह, सो संसार-विमुक्क | 
बंद महेसरणारायणा, सकख असुद्ध सहाव ॥” 


कम्बलपाद 
फस्बलपाद ( सिद्ध ३० )--ओडिविश (उड़ीसा) के राजवंश में इनका जन्म हुआ। 
भिक्तु हेकर त्िपिय्क के परिडत बने । पीछे सिद्ध वज्रघंटापा (५२ ) के सत्संग में पड़े 
श्रौर उनके शिष्य हो गये। इनके गुरु सिंदधाचार्य 'वज़घंटापाद” या 'धंटापाद” उड़ीसा में 
कई वर्ष रहे और उनके ही कारण उडीसा में वज़्यान का बहुत प्रचार हुआ । सिद्ध राजा 
“इन्द्रभूति! इनके शिष्य थे। “कम्बलपाद' बौद्ध दर्शन के भी परिडत थे । पप्रशापारमिता'-दर्शन 


४ भौजपुरी के कवि और काव्य 


पर इनके चार अन्थ भोटिया में मिलते हैं। इनके तस्त्र-गन्थों की संख्या ग्यारह है, बिनमें 
निम्नांकित प्राचीन उड़िया या मगही मापा में यथे-... 
१, असम्बन्ध-दृष्टि ( त० ४८/३८ ) | 
२. असम्बन्ध दृष्टि ( त० ४८/३६ )। 
३. कम्बलगीतिका ( त० ४८/३० )। 
| राग देवक़ी 
“सोने भरिती करुणा नावी, रुपा थोह महिके ठावी॥घ०॥ 
वाहतु कासलि गग्मण उदेसें, गैली जाम बहु उइ काइसे॥ है 
खुन्टि डपाड़ी भेलिलि कार्छि, वाहतु कामलि सदगुरु पृच्छि | 
माँगत चन्हिले चउदिस चाहआ, केड़ आल नहि के कि बाहब के पारञ || 
वासदाहिण चापो सिलि समिलिं भागा, चाटत समिलिल महासुद् संगा || 


कुक्कुरिपा 
कुक्कुरिपा ( सिद्ध ३४ )--कपिलवस्तु प्रदेशवाले क्षेत्र भें, एक ब्राह्मणछुल में 
इनका जन्म हुआ था। 'मीनपा? ( ८) के गुरु धवर्षटीपा! इनके भी गुरु थे | इनके शिष्य 
'भणिभद्रा? चौरासी सिदधों में से एक (६५) हैं। 'पद्मवज्र” भी इनके ही शिष्य थे | 'तन्‌-जूर? 
में इनके सोलह अन्थ मिलते हैं जिनमें मिम्नलिखित हिन्दी के मालूम:होते ह--'तत्त्व-सुख 
भावनावुसारियोगमावनोपदेश” ( त० ४८/६५ ) और 'लवपरिच्छेदन! ( त० ४८/६६ ) | 
राग गबड़ा 
#/दुलि दुद्देपियाधरण न जाइ, रुखेर तेन्तलि कुसभीरे खाद्य | भु०॥ 
आँगन घरपणसुन भो विआती; कानेट चौरि निल अधराती | 
सुस॒रा लिद ग्रेलबहुडी जागञअ, कानेट चोरे मिल का गई मागश्र ॥ 
दिवस बहुड़ी काइइ डरे भा, राति भइले कासरु जांत॥ 
झअइसन चर्याकुक्करीपाएँ गाइड, कोढ़ि मज्मे एकुढ़ि अहिं सनाइढ़ |॥ 
राग पठ॑जरी 
“हांउ निवासी खमण भवतारे, भोहोर विभोआाकहण न जाई ॥| भ्रु०॥ 
फेट लिठ गो माए अन्त उढ़ि चाहि, जा एथु वाद्माम सो एथु नादि ॥ 
पहिल बिआण मोर वासन पूड़, वाढड़ि विश्ञरन्ते सेच वापूड़ा (१) ॥ 
जाण जौबण मोर भहलेसि पूरा, सुल नखलि बाप संघारा ॥| 
भणयि झुक्कुरीपाये भच थिरा, जो एथु छुसएँ सो एंथु वॉरा॥ 
हले सहि विश्न सित्र कमल पवाहिड चज्जें | अलललल हो महासुद्देश आरोदिड ड्न्ये | 
रचिकिरशेण पफुल्लिअ कमल महासुद्ेश । (अल ) आरोहिड हत्में ॥” 
गोरखनाथ 
गोरखनाथ की जीवनी के सम्बन्ध में 'नाथ सम्प्रदाव! नामक अन्ध से हम इच उद्धस्य 


आठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तक १७ 


नीचे देते हैं। इस पुस्तक के ४० ६६ में भी हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है--- 

८विक्रम संवत्‌ दसवीं शताब्दी में भारतवर्ष के महान्‌ शुरु गोरखनाथ का आविर्माव 
हुआ | शंकराचार्य के बाद इतना प्रभावशाली महिंमान्वित महापुरुष भारतवर्ष में दूसरा 
नहीं हुआ। भारतवर्ष के कोने-कोने में उनके अनुयायी आज भी पाये जाते हैं] भक्ति- 
आन्दोलन के पूर्व सबसे :शक्तिशाली धामिक आन्दोलन गोरखनाथ का योगमार्ग ही था। 
भारतवर्ष की ऐसी कोई माषा नहीं है, जिसमें गोरखनाथ-सम्बन्धी कहानियाँ नहीं पाई 
जाती हों। इन कहानियों में परस्पर ऐतिहासिक विरोध बहुत अधिक है; परन्तु फिर भी 
इनसे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि गोरखनाथ अपने युग के सबसे बड़ नेता थे। इस 
महान धर्म गुरु के विषय में ऐतिहासिक कही जाने लायक बातें बहुत कम रह गई हैं | 
ये मार्ग के महत्त्व-प्रचार के अतिरिक्त कोई विशेष प्रकाश नहीं देतीं |” 

उनके जन्मस्थान का कोई निश्चित पता नहीं चलता। इस सम्बन्ध में डाँ० द्विवेदी 
गा ने एक परम्परा का उल्लेख किया है जिसे प्रियसन ने भी उद्धृत किया है। 
उसमें कहा गया है कि गोरखनाथ सतथुग में पंजाब में, त्रेता में गोरखपुर में, 
द्वापर में द्वारका के भी आगे हुरभुज में, और कलिकाल में काठियाबाड़ गोरखमद़ी में 
प्रादुभू त हुए थे। बंगाल में विश्वास किया जाता है कि गोरखनाथ उसी प्रान्त में उत्नन्न 
हुए थे। नेपाली परम्पराओं से अनुमान होता है कि गोरखनाथ पंजाब से चलकर नेपाल 
गये थे । गोरखपुर के महन्त ने ब्रिगस साइब को बताया था कि गुरु गोरखनाथ टिला! 
( मेलम पंजाब ) से गोरखपुर आये थे | प्रियर्सन ने इन्हें गोरखनाथ का सतीर्थ कहा है; 
परन्तु 'धरमनाथ” बहुत परवर्ती हैं। ग्रियर्सन ने कहा है कि गोरखनाथ संभवतः पश्चिमी 
हिमालय के रहनेवाले थे। इन्होने नेपाल को आय अवलोकितेश्वर के प्रभाव से निकाल 
कर शैव बनाया था। भेरा अनुमान है कि गोरक्षनाथ निश्चित रूप से आक्षणए जाति से 
उत्पन्न हुए थे और ब्राह्मण वातावरण में हो बड़े हुए थे। उनके गुरु मत्स्येन्द्रनाथ भी शायद 
ही कभी बौद्ध साधक रहे हों ।” 

ये तो बिंद्वानों के मत हैं जो गोरखनाथ के जन्मस्थान के सम्बन्ध में है। परन्तु 
'बड़थ्वाल? जी द्वारा सम्पादित 'गोरखबानी? नामक पुस्तक के प्ृ० २१२ में "यान तिलक? 
के १६ नम्बर का छुन्द है +-- 

“पूरब देश पछाहीं घादी (जनम) लिख्या हमारा जोगं । 
गुरु हमारा नावंगर कहिए थे है भरम बिरोग॑।॥ 

इस छन्द का अर्थ यद्यपि अ्रध्यात्मपक्ष में बढ़थ्वाल जी ने किया है; पर इसके प्रथम 
चरण से श्र्थ निकलता है कि गोरखनाथ का जन्म पछाँह की घाटियों में हुआ और 
उनके जीवन का कारय्य॑-क्षेत्र पूरदर देश बना। विद्वानों का श्यान इस छुन्द पर क्यों नहीं 
गया, यह आश्चर्य की बात है। इससे और ब्रिड्स साहब की गोरखपुर के महन्त की बताई 
हुई बात से बिलकुल मेल भी खा जाता है। 

कल्याण! के 'योगांक में* गोरखनाथ जी का परिचय निम्नलिखित रूप में दिया गया है-- 

१, अकाशक--गीता अं स, गोरखपुर | संबतू १६६२; पृष्ठ ७०३॥ 


१६ भोजपुरी के कवि और काव्य 


एक बार गुरु मत्स्वेन्द्रनाथ घूमते-फिरते अयोध्या के पास 'जयश्री! नामक नगर 
में गये। वहाँ वे मिक्षा माँगते हुए एक आहयण के घर पहुँचे | ब्राह्मणी ने बड़े 
लक के साथ उनकी मोली में मिक्षा डाल दी |. आह्मणी के मुख पर पातित्तत्य का 
अपूर्व तेज था। उसे देखकर मत्स्वेन्द्रगाथ को बड़ी प्रसन्नता हुईं। परन्तु साथ ही उन्हे 
उस सती के चेहरे पर उदासी की एक क्षीण रेखा दिखाई पढ़ी | जब उन्होने इसका 
कारण पूछा तब उस सती ने निःसंकोच भाव से बताया कि सन्‍्तान न होने से संसार 
फीका जान पड़ता है। मस्सेन्द्रनाथ ने तुरत भोली से थोड़ी-सली मभूत निकाली और 
ब्राह्मणी के हाथ पर रखते हुए कहा--इसे खा लो | ठम्हें पुत्र प्राप्त होगा !! इतना कह 
कर वे तो चले गये। इधर एक पड़ोसिन स्री ने जब यह बात सुनी तब ब्राह्मणी को 
भभूत खाने से;मना कर दिया। फलस्वरूप उसने उस राख को एक गड्डू में फेक दिया। 
बारह वर्ण बाद मस्स्वेन्द्रनाथ उधर पुन; आये और उन्होने उसके द्वार पर जाकर 
अलख जगाया। बाह्मणी के बाहर आने पर उन्होंने कहा कि अ्रव तो बेटा बारह वर्ष का 
हो गया होगा, देखूँ तो वह कहाँ है ! यह सुनते ही वह ज्री घबरा गई और उसने सारा हाल 
सच-सच कह दिया। भत्स्वेन्द्रनाथ--उस्ते साथ लेकर उस गड्ढे के पास गये, और वहाँ मी 
अलख जगाया। आवाज सुनते ही बारह वर्ष का एक तेजपुञ्ञ बालक प्रकट हुआ और मत्स्वेन्द् 
नाथ के चरणों पर सिर रखकर प्रणाम करने लगा। यही बालक शआ्रागे चलकर गोरख- 
नाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ । मत्स्येन्द्रनाथ ने उस समय से ही बालक को साथ रखा और 
योग की पूरी शिक्षा दी। गोरखनाथ ने गुरोपदिष्ट मार्ग से साधना पूरी की और स्वानुमव 
से योगमार्ग में और भी उन्नति की । योगसाधन और वैराग्य में वे गुरु से भी श्रागे बढ़ 
गये | योगबल से उन्होने चिरंजीव स्थिति को प्राप्त किया | 


४८गोरखनाथ केवल योगी ही नहीं ये, वरन्‌ वे बड़े विद्वान्‌ और कवि मी ये। उनके 'गोरक्ष 
सहख नाम; 'गोरक्नशतकः, गोरक्ष पिष्टिकाः, 'गोरज्ञ गीता, विवेक मार्तण्ड” आदि अ्रनेक 
ग्रन्थ संस्कृत भाषा में मिलते हैं| हिन्दी में मी उनकी बहुत-सी कविताएँ मिल्षती हैं |” 


नेपाल के लोग श्रीगोर्नाथ को श्रीपशुपतिनाथ जी का अवतार मानते हैं। नेपाल 
के भोगमती, भातगाँव, स्गस्थली, औंधरा, सवारी कोट, पिडपन इत्यादि कई स्थानों में 
उनके योगाश्रम हैं। आज भी नेपाल राज्य की मुद्रा पर एक ओर भरी-भ्री-शी गोरखनाथ 
लिखा रहता है। गोरखनाथ जी के शिष्य होने के कारण ही नेपाली गोरखा कहलाते 
हैं। कहते हैं, गोरखपुर में उन्होने तपस्या कौ थी। यहाँ उनका बहुत बड़ा मन्दिर है, 
जहाँ वूरूदूर से नेपाली' आया करते हैं। गोडा जिले के 'पटेश्वरी! नामक स्थान 
में भी उनका योगाश्रम है तथा महाराष्ट्र प्रान्त में आठवें 'नागनाथ! के पास उनकी 
तपस्थली है। 
' डा० पीताम्बरद बढ़ध्वाल के अनुसार गोरखनाथ विक्रम की ११वीं उी में हुए ये। 
श्री रामचन्द्र शुक्व ने मी अपनी 'हिन्दीसाहित्य का इतिहास! पुस्तक में वहीं विवेचन 
करके गोरखनाथ के समय के सम्बन्ध में लिखा है,--/“गोरखनाथ विक्रम की १०वीं सदी 


झ्ांउवी सदी से ग्यारहवीं सदी तक ३ १४ 


के 


में हुए है, चाहे ११वीं में |”, राहुल सांकृत्यायनजी ने भी बच्जयानी सिद्धों की परपुरा के बीच 
गोरखनाथ का समय विक्रम की दसवीं शताब्दी ही माना है| 

“यद्यपि कुछ ऐसे भो साक्ष्य है, जिनके आधार पर गोरखनाथ का समय. बहुत पीछे 
की ओर ले जाया जा सकता है, तथापि जबतक ययेष्ट प्रमाण न मिले, इनका समय 
संबत्‌ १०५० मानना ही अधिक उचित होगा | हिन्दी का जो प्राचीनतम रूप गोरख की 
बानियो में मिलता है, उससे भी यह समय ठीक ठहरता है।” 

गोरखनाथ के चमत्कार के सम्बन्ध में सारे भारत में अनेकानेक कहानियाँ प्रसिद्ध 
हैं | एक कहानी के अ्रनुता र--एक वार मस्सयेन्द्रनाथ सिहलद्वीप की रानी पद्मावती में श्रासक्त 
हो गये थे; किन्तु गोरक्ञनाथ के प्रयत्न करने पर उनका उद्धार हुआ । हाल में ही मसयेन्द्रनाथ 
की लिखी संस्कृत की किसी 'कौलीय' पुस्तक का पता चला है। इससे प्रतीत होता हैं कि उनके 
पतन का कारण “कौलीय! प्रवृत्ति का बढ़ जाना था (जिससे गोरक्षनाथ ने ही उनकी रक्षा 
की) । गोरक्षनाथ ने कौलीय पद्धति को मलीमॉति देख लिया था, अतः उस ओर भूलकर भी 
दृष्टि-विक्षेप न किया | योगिराज गोरज्ष को अपनी सात्विक पद्धति पर कितना विश्वास था, 
यह नीचे के पद्म से स्पष्ट हो जाता है| 


सबद हमारा षरतर षांडा, रहणि हमारी साँची । 
लेषे लिखी न कागद्सा-ढी, सो पत्नी हम बाँची ॥”(गो० बानी) 
“पद्मवती भें आसक्त मत्स्येन्द्र को गोरख बार-बार सचेत*“करते हैं--.- 
सुणो हो मछिंद गोरषबोढै, अगस गषंन कहूँ हेला। 
निरति करी नें नीकां सुशिज्यौ, तुम्हें सतगुरु मैं चेला ॥” (गो० बानी) 
महात्मा गोरखनाथ ने भोजपुरी में रचनाएँ की है, यह शुक्लजी, बड़ंध्वालनी और 
हजारीप्रसादजी तीनों ने स्वीकार किया है। शुक्ल जी ने “हिन्दी-साहित्य का इतिहास” नामक 
पुस्तक में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है--“पहली बात है भाषा | सिद्धों की उद्धुत रचनाओ 
की भाषा देश-भाषा मिश्रित अपश्र श अ्रथांत्‌ पुरानी हिन्दी की काव्य-भाषा है, यह तो स्पष्ट 
है। उन्होने भरसक उसी सर्वसान्य व्यापक काव्य-भाषा में लिखा है, जो उस समय गुजरात, 
राजपुताने और ब्रजमंडल से लेकर बिहार तक लिखने-पढ़ने की शिष्ट भाषा थी | पर मगघ 
में रहने के कारण उनकी भाषा में कुछ पूरबी प्रयोग मी (जैसे मइले, बूढ़िल) मिले हुए हैं ।” 
यहाँ हम कहना चाहते हैं कि शुक्लजो, पं० इजारीप्रसाद द्विवेदी तथा पश्चिम प्रदेश 
के अध्य विद्वानों ने जिसे पूरबी प्रयोग कहा है, उसमें भोजपुरी के प्रयोग भी सृम्मिलिव हैं। 
पं० इजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी अपनी विश््यात पुस्तक 'नाथ संग्धदायः के ० ६८ 
मे लिखा है--“उन्होने ( गोरखनाथ ने ) लोकभाषा को भी अपने उपदेशों का मोध्यम 
बनाया | यद्यपि उपलब्ध सामग्री से यह निर्णय करना बढ़ा कठिन है कि उनके नाम पर 
चलनेवाली लोक-भाषा की पुस्तकों में कौन-सी प्रामाणिक हैं और उनकी भाषा का विशुद्‌ध 


42 भोजपुरी के कवि और काव्य 


कु है, तथापि इसमें सन्देह नहीं कि उन्होंने अपने उपदेश लोक-भाषा में प्रचारित 
| 99 


डा० पीताम्बरदत्त बढ़थ्वाल ने गोरखनाथ के ३६ हिन्दी-प्नन्थों को प्र।माणिक माना है। 
डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उनसे सहमति प्रकट करते हुए लिखा है कि सची के पूष 
के प्रथम चौदह अ्रन्थ, जिन्हे बड़थ्वाल जी ने निस्संदिग्ध रूप से प्राचीन माना है, अवश्य 
प्राचीनतम प्रतियाँ है | | 


उक्त ग्रन्थों की नामावली 

१--सबदी | २१--नव रात्र | 
२--पद | २२--अश्र४्ठ परिध्या | 
३--सिष्या दरसन | २३--रहरास | 
४--प्राण संकली | २४--गयान मसाला | 
४--नरवे वोध | २५---आत्म बोध (२)। 
६--आओंत्म बोध | २६--बत | 
७--अ्रभैमात्रा योग | २७--निरंजन पुराण | 
-प--ंन्द्रह तिथि | २८--गोरख बचन | 
६--सप्तवार | २६--<न्द्री देवता । 
१०--मछिन्ध गोरख बोध | ३०--मूल गर्भावली। 
११---रोमावली | ३१--खाणी वाणी | 
१२--ग्यान तिलक | + ३२--गोरख सत | 
१३--अयान चौतीसा | ३३--श्रष्ट मुद्रा | 
१४--गोरख गणेश गुष्टि | ३४--चौज्रीस सिधि | 
१४८--गोरख दत्त गोष्ठी (ग्यान दीप बोध)। ३४--पहढ़क्षरी | 
१६---मंहादेव गोरख युष्टि | ३६--पंच अग्नि । 
१७--सिष्ट पुरान। ३७--अष्ट चक्र | 
१८--दया बोध | ३८--अवली सिलक ! 
१६---जाती भौरावली ( छंद गोरख)। ३६--काफिर बोध | 


२०--नवग्रह | 

“गोरखवानो! में उद्धुत सभी छन्‍्द इन्हीं पुस्तकों के छन्द हैं, जिनके पाठ को बद़थ्वाल ज॑ 
ने दस हस्तेलिखित पुस्तको से लिया है। मैंने जब उन छन्दों का अध्ययन किया और 
- भाषा की जाँच की तब भोजपुरी माषरा की बहुत-सी कविताएँ मिल्लीं। अनेक कविताएँ तो 
मुद्दावरे और प्रयोग तथा क्रिया की दृष्टि से विशुद्ध भोजपुरी की हैं और अधिक में उस 
' समय के अ्रपश्न श॒ के शब्द, जैसा कि शुक्लजी ने लिखा है, भोजपुरी क्रियाश्रों तथा मुद्दावरो 
के साथ व्यवह्दत है| मैंने उन्हीं पाठों के साथ गोरखनाथ की भोजपुरी रचनाएँ यहाँ उद्घुर 

“की हैं, जिनसे पता लेंग सके कि आज से दस सौ वर्ष पूर्व मोजपुरी का क्या रूप था ! 


झाठवीं सदी से ग्यारहत्री सर्द. तक १९ - 


नीचे की सरणी से स्पष्ट हो जायगा कि 'गोरखबानी? में दिये हुए गोरखनाथ जी के 
ग्रन्थों में भोजपुरी के छुन्द कितनी मात्रा में हैं। इन भोजपुरीवाले सभी छन्दों की भाषा- - 
को भी हम सर्वत्र केवल भोजपुरी ही नहीं मान सकते | इनमें अधिकाश शब्द तो भोजपुरी, 
के हैं; किन्तु कुछ ऐसे छुन्द भी हैं, जिनकी भाषा मिश्रित कह्दी जायगी, फिर भी भोजपुरी 
क्रिया होने के कारण उनकी गणना भोजपुरी छुन्द में कर ली गई है । 


नाम पुस्तक संख्या छुन्द भोजपुरी भाषा के छुन्दो की संख्या 

२--सबदी २७५ ४६ 

२०-पद्‌ धर २० 

३--शिष्या दरसन ३१ (पंक्तियाँ) ७ (पंक्तियाँ) 

४--आत्म बोध २२ २ 

५--नरवें बोध १ १ 

६--सप्तवार ८ १ 

७--मछिन्द्र गोरपष बोध. १२७ १० 

८+-रोमावली ५७, (पंक्तियाँ) ० 

६--अभयान तिलक ४४, ० 
१०--पँच मात्रा २४ ० 
११--गोरष गणेश गुष्टि घर ० 


गोरखबानी” के लेखक ने जिन विभिन्न पुरानो पाण्डु-लिपियों में छुन्दों के जितने भी 
पाठ पाये हैं, उनके उदाइरण वर्ण-चिहों आदि के अनुसार भ्रपनी पुस्तक के फुटनोट में हर 
भेद वाले पाठ के साथ दे दिये हैं । उसी क्रम का पालन “गोरखब्रानी? से गोरज्षनाथ के 
छन्दों का उद्धरण करते समय भी किया गया है। पाण्डु-लिपियों का सांकेतिक वर्ण-चिह 
के लिए जो सरणी बढ़थ्वाल जी ने दी है, उसको यहाँ इसलिए उद्धृत कर दिया जाता 
है। उसकी सहायता से पाठक उद्धुत पाठ भेद को समर सकेंगे | 


(क) प्रतिपौड़ी इस्तलेख” गढ़वाल के पंडित तारादत्त गैरोला को जयपुर से प्राप्त 
हुआ था | इसके चार विभाग हैं | समय संवत्‌ १७१५ के आसपास होना चाहिए | 

(ख) जोधपुर दरबार पुस्तकालय की प्रति। जोधपुर के पुरातत्त्व-विभाग के अध्यक्ष 
पं० विश्वेश्वरनाथ रेऊ ने इसकी नकल कराकर भेजने की कृपा की। परन्तु इसमें 
गोरखनाथ की रचनाओ्रों में केवल 'सबदियाँ? आई हैं । 

(ग) यह प्रति मुझे जोधपुर के भीगजराज ओमा से उपलब्ध हुईं | लिपिकाल इसका 
भी ज्ञात नहीं । 

(घ) यह प्रति मुके जोधपुर के कवि श्री 'शुभकरण चरण! से प्रात हुई। यदद बृहत्‌ 
संग्रह-प्न्थ है जिसे एक निरंजनी साधु ने प्रस्तुत किया | यह प्रति संवत्‌ः १८२४ में 
लिखी गई थी। . | 

(ढ) मंदिर बाबा हरिदास, नारनौल, राज्य पत्याला में है और कार्तिक शुदी अ्रष्टमी 
गुब्वार १७६४ को लिखी गई है। | 


२० भोजपुरी के कवि और कांव्य 


* (च) यह प्रति श्रीपुरोहित हरिनारायणजी, बी० ए०, जयपुर के पास है। इसमें 

चहुत-से ग्रन्थ हैं | प्रति का लिपिकाल पुस्तिका में इस प्रकार दिया है--- 

संवत्‌ १७१५ वर्ष शाके १४८० महामंगलीक फाल्गुन मासे शुक्ल पत्ते त्रयोदस्यां तिथौ 
१३ गुरुवासरे; डिंडपुर मधयेस्वामी पिराग दास जी शिष्य स्वामी माधोदास जी तत्शिष्य 
वृन्दावनेनालेखि आत्माथे | 

(छ) यह्द प्रति मी पुरोहित जी के पास है| यह भी संग्रह-अ्न्थ बड़ा है। रजत्न जी की 
साखी की समाप्ति के बाद जो योगियों की बानी के कुछ पीछे आती है, लिपिकाल में 
थों दिया है--- 

संवत्‌ १७४१ जेठ मासे || थावर वारे || तिथिता ||८] दीन ५ मैं लिपि पति स्वामी 
सांइ दास की सु लिपि ॥ 

(ज) यह प्रति भी उक्त पुरोहित जी के पास है श्र सं० १८४५ की लिखी है। 

(के) इस प्रति की नकल एक महत्त्वपूर्ण सूत्र के द्वारा कराई गई है । 

इनके अतिरिक्त इन योगियों की रचनाश्रों के एक संस्क्ृत-अनुबाद की हस्तलिखित 
प्रति मिलती है, जो सरस्वती-मवन, काशी में है | इसमें (लपिकाल नहीं दिया गया है और 
आरंभ का कुछ अंश नहीं है । 


गोरखबानी' के भोजपुरी छन्द 
सबदी 

' हसिवा पेलिया रहिया रंग | कांस क्रोध न करिवा" संग॥ 

- हसिबा षेलिबा गाइबाः गीत | दिढ* करि राषिबा आपनाँं3 चीतरे ॥ पु०--३॥ : 

हँसूँ गा, खेलूँ गा, मस्त रहूँगा; किंठु कभी काम, क्रोध का साथ न करूँगा | हँसू गा, 
खेलूँ गा और गत भी गाऊँगा; किंठु श्रपने चित्त को दृढ करके रखूंगा। 
हसिबा पेलिबा धरिबा ध्यांन | अहनिसि कथिवा ब्रह्म गियान । 
हसे पेले न करे सन भंग | ते निहचल सदा नाथ के संग ॥ पू०--४। 
डँसू:गा, खेलू गा और ध्यान-घारणा करूँगा | - रात-दिन बक्ष-ञ्ान का कथन करूँगा। 
इसी प्रकार. ( संयमपूर्बक ) हँसते खेलते हुए जो अपने मन को भंग नहीं करते, वे निश्चल 
होकर बह के साथ रमण करते हैं अथवा निश्चित रूप से मेरे साथ रह सकते है । 
गगन" संडल में ऊंघा* कूवा, तहाँ अंसत* का बासा | 
सगुरा< होइ सु भरि भरि पीचै निगुरा जाइ पियासा॥रा॥ ४०--६। 

. ,आकाशमंडल ( शुन्य अथवा ब्रह्मरंत्र ) में एक ओघे मुँह का कँआ है, जिसमें 
अमृत का वास है। जिसने अच्छे गुद की शरण ली है, वह्ये उसमें से मर-भर कर अमृत 
पी सकता है| जिसने किसी अच्छे गुरु को धारण नहीं किया, वह इस अमृत का पान नहीं 
कर सकता, वह प्यासा ही रह जायगा॥ 

“7, «न करिया' के स्थान पर 'का तजिबाः। २० डिढि। ३« आंपणां, अपणां। 
- २ 'च्यँत, चित । ४५ गीगनि। ६० आऔंधा, (ख) ऊधा, | ७ अन्नत, (घ) यंतरत, 
(खत) में लिपिकर्ता पहले दो अच्ूरों को पढ़ नहीं सका | 


आठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तक २ 


हजबकि! न बोलिबा, दबकि” न चलिवा धीरे धरिबा पाये । 
गरब न करिबा सहंजें5 रहिबा भणतरं गोरष राव ॥ ए०--११। 
सब व्यवहार युक्त होने चाहिए, सोच-समककर काम करना चाहिए । अचानक फट-से 
बोल नहीं उठना चाहिए | जोर से पाँव पटकते हुए नहीं चलना चाहिए । धीरे-धीरे पाँव 
रखना चाहिए | गये नहीं करनो चाहिए | सहज स्वामाविक स्थिति में रहना चाहिए। 
यह गोरंखनाथ का उपदेश (कथन) है। 
घाये" न षाइबा$ “भूषे० न सरिबा* अहनिसि* लेबा?" अहाय अगनि का भेव॑ । 
हुठ न करिया पड़या*) न रहिबा यूं बोल्या गोरष देव॑१९॥ 
भोजन पर टूट नहीं पढ़ना चाहिए, ( अधिक नहीं खाना चाहिए ), न भूखे ही मरना 
चोहिए. | रात्-दिन अक्षाग्नि को प्रहण करना चाहिए। शरीर के साथ हठ नहीं करना 
चाहिए और न पड़ा ही रहना चाहिए। 
दुषिणी १३ जोगी रंगां, प्रबी१४* ज्ञोगी बादी। 
पछुमी जोगी बाला भोला, सिध जोगी उत्तराधी ॥ ४०--१६ | 
योग-साद्ध के _लिए, उत्तराखंड का महत्त्व ४१-४२ सबदियों में कद्दा गया है। स्वयं 
गोरखनाथ' ने हिमालय की कंदराओं में योग-साधन किया था, ऐसा जान पड़ता है। 
कहते हैं दक्षिणी रंगी होता है और पूरब्री-प्रकृति का होता है | पश्चिमी योगी भोलाभाला 
स्वभार्व का तथा उत्तराखंड का योगी सिद्ध होता है| 
अवधू द्मकौं१० गहिबा उनसनि"६ रहिबा, ज्यू'१० बाजबा अनहद तूर । 
गगन सेंडल में तेज*< चमंके**, चंद नहीं तहाँ साँरं॥ 
सास उसोल बाइ२" कौ भ्रषिबा*१ रोकि लेहु** नव ह्वार। 
छुटे छुमासि काया पलटिबा२३, तब उनमेँनी जोग अपार॑ ॥ ए०--१६ । 
है अवधूत, दम (प्राण श्वास को पकड़ना चाहिए, प्राणायाम के द्वारा उसे वश में 
करना चाहिए | इससे उन्मनावस्था सिद्ध होगी। अ्नाइत नाद रूपी तरी बज उठेगी और 
ब्रह्मारंप्र में बिना सू या चंद्रमा के ( ब्रह्म का ) प्रकाश चमक उठेगा | 
( केवल कुम्मक द्वारा ) श्वासोच्छुवास का भक्षण करो। नथो द्वारों को रोको | छठे 
छुमासे कायाकल्प के हारा काया को नवीन करो | तब उन्मन योग सिद्ध होगा ॥ 


१. (ख), (ग), (पु) हृबके--ढबके । ९ (ग) धीरा (घ) धौरै। ३. (ख) सहने 
(ग) सहिमे। ४. (ख) यूँ भमणत, (गे) यौ बोल्या | ५ (ख) धावे। ६ 
(ख), (घ) षायबा । ७, (ग), (घ) भूषा । ८ (ग), (घ) रहिबा। &. (क) 
अददनिस, (ख) अद्दिनिसि । १० (ख) लेइबा । ११ (क) पड़े, (ख) पढ़ि। 
१९. (घ) रावं। १३ (क) दछिणों, (ख), (घ) दिषणीं। १४, (ख), 
(ग) (घ) पुरब-पछिम। १४. (ख), (ग), (घु) दसकू'। १६. (क) 
उनसन (घ) उनमनन्‍्य। १७, (ग), (घ) तब। १८, (क्ष) जोति। १६, (क), 
(ख), (ग) चमके | २०. (ग), (घु)बाय । ३१. (क) मदिबा । २२. (ख) 
लेबा, (गं) णै,(घ) लेह | २३५ (ग) (घ,) पलट | 


२२ भोजपुरी के कवि और काव्य 


बढ़े बढ़े! कूले* मोटे मोटे पेट, रे पूता गुरु सौं» मेट | 
- पढ़ पडकाया निरमल नेत,४ भई" रे पृता गुरु सौं भेट |१०९ 
गो० बा०, पए्‌ू० ३८ 
जिनके बड़े-बड़े कूल्हे और मोटी तोंद होती है, ( उन्हें योग की युक्ति नहीं श्राती । 
समझना चाहिए कि ) उन्हें गुरु से भेंट नहीं हुई है। या तो उन्हें अच्छा योगी गुर 
मिला ही नहीं है अथवा गुरु के शरीर के दर्शन होने पर भी उसकी वास्तविकता को 
उन्होंने नहीं पहचाना है, उनकी शिक्षा से लाभ नहीं उठा पाया हैं, वे उसके श्रधिकारी 
नहीं हुए हैं | यदि (साधक का) शरीर खड़ खड़ ( चरबी के बोक ) से मुक्त है और उसके 
नासा-रंत्र निर्मल अथवा उसकी आँखें ( नेत्र )-निर्मल, कांतिमय हैं तो ( समझना 
चाहिए कि उसकी ) गुरु से मेंट हो गई है; नेत-- (१) मंथन को डोरी। इसी से नेति 
क्रिया का नाम बना है| इस क्रिया में नासारंध्रों में डोरी (नेत) का उपयोग होता है, इस 
लिए साहचर्य से नासारंध्र श्र्थ भी सिद्ध होता है। (२) श्राँख ॥ 
एकठटी विक्ुटी त्रिकुटी संधि पछुम द्वारे पमनाँ बंधि | 
पूटे तेल न बूके दीया बोलेनाथ निरनन्‍्तरि हूवा। १८७ गो० था० ए० ३८ 
एकटी (पहलज, इडा) और बिकुटी (दूसरी, पिंगला) का जब त्रिकुटी (तीसरी सुषुम्ना) 
में मेल होता है और सुषुम्ना-मार्ग में जज पवन का निरोध हो जाता है तब साधक अमर 
हो जाता है । उसका आयु रूप तेल समाप्त नहीं होता और जीवन रूपी शिखा बुमती नहीं 
है | इस प्रकार नाथ कहते हैं कि साधक निरन्तर अर्थात्‌ नित्यस्वरूप हो जाता है| 
एक८-स्वार्थे झा (स्त्री० ई) उपसर्ग के लगने से एकटी शब्द सिद्ध हुआ है | इसके 
अनुकरण पर हि से त्रिकुटी और त्रि से त्रिकुटी शब्द बने हैं | त्रिकुटी भी अमिप्र त हैं॥ 
राग राम्ग्री 
छॉँट तजो गुरु छाँदे तजो तजौ* लोभ मोह* माया | 
आत्माँ परचे राषौ गुरुदेव सुन्दर काया ॥टेका। 
कॉन्‍ही पाच* मेटीला गुरु बच्यानग्न सें ।१९ 
ताथें में पाइला गुरु, तुम्हारा उपदेसें११ ॥१॥ 
ओते कछू१२ कथीला गुरु, सर्वैभेज्ञा* 3 भोले | 
सर्ब)४ रस पोइला गुरु, बाघनी चै*५ पोले ॥२॥ 
१. (ग) बड़ी बड़ों २. (सर) (ग) (घं) कूला। यह सबदी (ग) (घ) में कुछ 
अंतर के साथ है | (ग) में इस प्रकार है। 
बड़े घड़े कूला असथुल, जोग जगति का न जाणे मल । 
खाया भाव फुलवा या पेट, नहीं रे पुता गुर धर्यों भेट ॥ 
३. (ख) स्थू' (ग) स्पों (घ) स्‌' । ४०ख) नेत्र । ५० खि) दोइ रै, (४) हुई रे। 
६- (व) में नहीं। ७. (ध) अरे । ८५ (पु) गुरदेव रापी । ६० (घ कान्‍्दी पान। 
१०० (घ) विद्या्रेस | ११ उपदेस । १३८ (घ) झेता काय। १३- (घ) सरब 
भला । १४- (ध) सरब । १४० (धं) बाघणी के; (घ) बाघणी। 


न 


आठवों सदी से भ्यारहवीं खदी वक ५६ 


नाचत गोरषनाथ थूंघरी, घातें | 
सबें* कमाई पोई गुरु, बाघनी वे राचें॥३॥ 
रस कुस बहि गईला, रहि गई छोई। 
भणत महिंदनाथ पूता, जोग न होई ॥४॥ 
सस-कुस" बहि गईला रहि गईला३ सार। 
बदंत गोरषनाथ गुर जोंग अपार ॥ण॥ 
आदिनाथ नाती मदिन्द्रनाथ पूता॥ 
घटपदी भणीरढे" गोरष अवधूता* ||६॥ ए०--८७ | 
हे गुर, लोभ और साया को (छाँटे) अ्रलग से अर्थात्‌ बिना स्पर्श किये हुए छोड़ दो । 
हे भुरुदेव, -श्रात्मा का परिचय रक्खो जिससे यह सुन्दर काया रह जाय, नष्ट न हो। 
विद्यानगर के.(या--से आए हुए) कान्हपाद से मेठ हुई थी। उसी से आपकी इस दशा 
का पता लगा कि आप कामिनियों के जाल में पड़े हुए हैं | ( गुरु संबंधी होने के कारण 
कान्हपाद के कहे हुए संदेश को 'उपदेश” कहा है| ) यह जो कुछ कहा है, श्रर्थात्‌ 
आपका पतन भ्रम के कारण हुआ है | आपने अभृत रस को बाघनी ( माया) की गोद 
मे (पोल, कोर क्रोड़ में) खो दिया है। गोरख कहते हैं कि बावनी ( माया ) के घूंघरू 
के बजने के स्वर के साथ ताल मिला कर नाचते हुए माया के प्रेम (राचे) से हे गुरु, 
तुमने अपनी सारी श्राध्यात्मिक कमाई खो डाली है । 
रस कुस-तरल पदार्थ | छोई--संभवत; राख | निस्सार वस्त । गढ़वाल में कपड़े धोने 
के लिये 'छोई! बनाई जाती थी | वहाँ 'छोई! राख को पानो में मिलाकर विधि विशेष से 
छानकर निकाले पानी को कहते हैं | यहाँ उसका उलटा श्रथ जान पड़ता है। तुम्हारा 
रस बह गया | सीठी शरीर में बच रही है। मछिन्द्रनाथ पुत्र कहता है कि गुरु, तुमसे अब 
योग न होगा । तुम्द्दारा रस कुस बह गया । सार रह गया। गोरखनाथ कहते हैं कि हे 
गुरु, योग-विद्या अपार विद्या है। सारांश यह है कि कुछ वस्तुएँ ऐसो होती हैं जिनमें बहने 
या नष्ट हो जानेवाले अंश के साथ तत्त्व पदार्थ निकल जाता है, कुछ ऐसी जिनमें उस 
अंश के निकल जाने के बाद भो तत्त्व वस्तु बनी रहती है। ऐसे ही, कुछ मतों में सार 
वस्तु का ग्रहएं न होकर-बाहरी अनावश्यक बाठों का अहरण होता है, और दूसरों में केवल 
सार तत्त्व का अहण होता है, बाहरो अनावश्यक बातों का नहीं। योग मत इसी दूसरे 
अक्ार का है । 
चाल्योरे” पांचौं भाइला८ तेणे बन जाइला' 
जहाँ दुष सुष नांव न जानिये?" ॥टेक/ 
पेती करों"१ तो मेह बिन१२ सूक् 
.___', घजैनिज करों तो पूजी लूटे ॥भ॥ 
-१ द्वायै। २. (घ) रसकस। ३. (घ) गई ल्‍्यौं। ४. (घ) मदिंद्र 'गोरष। 
५. (पं) भशीली। ६. (घ) औधूता। ७. (घ)चालौ। ८८(घ ) भायला 
& (घ) तिहि बनि जायला । १७, (घ) जाणीयला। ११ (घ) कहाँ | १२, (घ) बिण | 


32 ... भोजपुरी के कवि और कांध्य 


अस्त्री) करों तो घर भंग हौला। 
मित्र करों तो बिसहर सैला३ ॥रश॥ -: 
जुबटे पेलौं3 तो वबैठही हारों5 | 
चोरि करों तो प्यंडड़ो मारौं५ ॥३॥ 
बन षड९ जांऊं तौ बिरचु न फलना७ 
नगरी मैं जाऊँ< तौ भिष्या न मिलना' ॥8॥ 
बौल्या गोरष नाथ भद्धिद्र का पूता। 
छाढ़िनें साया भया अ्रवधूता१९ ॥दा प्ृ०--९७ | 
हे पाँचां भाशयो, ( पंचेंद्रिये ) चलो उस बन को जायें जहाँ सुख-दुःख का नाम भी 
नहीं जाना जाता | (यहाँ तो सब सुख दुःख में परिणत हो जाते है ।) बिसहर--बिषधर, सॉंप| 
यदि खेती करता हूँ तो बिना जल के सूखने लगती है। वाणिज्य करता हूँ तो उसमें 
नीयत ठीक न होने के कारण पू जी ही डूब जाती है। अस्त्र ग्रहण करके थुद्ध करता हूँ 
तो यह सत्र अपना द्वी घर रूपी संसार भंग हो जाता है। यदि इस दुनिया में किसी को 
मित्र बनाता हूँ तो वह विपधर साँप हो जाता है | युवती के संग खेलता हैँ तो सब कुछ हार 
बैठता हूँ । चोरी करता हूँ तो मार से गिर पड़ता हूँ | यदि वन में जाता हूँ तो कोई फलने 
वाले वृक्ष नहीं कि भोजन मिले। नगर में जाऊँ तो मिक्षा नहीं मिलती। मह्िन्द्र पुत्र 
गोरख कहते हैं कि माया त्याग कर मैंने अवधूत बनना ही उचित.समसझ्ता जिसमें पंचेन्द्रिय 
की विजय प्राप्ति के बाद सुख-दुःख का नामोनिशान नहीं है | 
अवधू जाप जपों*१ जपसाली१९ चीन्‍्हौंजाप१5 जप्यां फल होई। 
अजपा जाप जपीला*४ गोरष, चीन्हत*५  बिरला कोई ॥टेका 
कवल"१ ६ बदन काया करि१* कंचन*<*, चेतनि करौ*९ जपमाली । 
अनेक जनम ना२९ पातिंग छुटै*१, जपंत२९ गोरष चवाली२३ ॥१॥ 
एक अषीरी*४ एकंकार जपीला२५, सु'नि अस्थूल२९, दोइ२/ वांणी। 
- . . प्यंड ब्रह्मांड": समि तुलि ब्यापीले* *, एक अषिरी हम" मुरऊुंषि जांणी ॥२॥ 
हो 3१ अषिरी दोह प्र उधारीला3३९, निराकार33 जाप॑ , जपियाँ। 
जे जाप सकल सिष्टि उतप॑नां, तेंजाप श्रीं गोरषनाथ कप्रियाँ-॥३॥ 


१. (घ) असत्नी। २. (ध) होयला । ३. (घ) जूबा पेलू'। ४. (घ) हा । ५. (घ) 
पिंडड़ी पार्खँ । ६. (घ) पडि । ७ (घ) फलणां । 5. (घ) आऊँ। ६ (घ) मिलणां । 
१०० (घ) औधूता । ११ जपौ। १२ बनमाली। १३. तिने जाप । १««में 
वजपा? के स्थान पर “जैसा जाप जपंता? । १५० चीन्हें। १६० कंवल। १७,भई। 
१०, वँचनरे अवधू। १६० चेतन वौीया। ३०» जन्म का। ३१% छूटा। ३९० जपै। 
२३, चमाली । २४० अक्षर। २५४० जपीलै। २६५ थुल्र। २७० दोय। २८८ पिंड 
हहांड। २६. व्यापीला। ३० एकअक्र गोरखनाथ। ३१- दोय अच्चर। ३३५ 
डधारित। ३३० “मै निराकार--करम्रिया? के स्थान पर तिरला- मैं पारं। ऐसा 
जाप जतंतां। गोरष भागा भरम बिकारं। का थे 


अ्राठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तंके रे७५ , 
दयज्ञरी जप यह है कि हमने निराकार का जप करते हुए इहलोक और परलोक, 
निर्गुण और सगुण, सूक्ष्म और स्थूल दोनों पक्को का उद्धार किया है। इस प्रकार जिस 
जप से सारी सृष्टि उत्पन्न हुईं है, उसी का कथन “गोरखनाथ” ने किया है । 
पवनाँ. रे तवूँ जासी कौने.. बादी। 
जोगी अजपा जपे त्रिवेणी कै घाटी ॥टेका 
घंदा गोदा टीका करिले, सूरा करितले बादी। 
गू'नी राजा लूगा धौचे, गंग जमुन की घाटी ॥१॥ 
श्रयें उरमें लाइले कूँची, थिर होवे मन वहाँ थाकीले पवनां । 
दसवाँ हार चीन्हिले, छूटे आवा गवतनां ॥२) 
भणत गोरषनाथ महछिंद्र ना पूता, जाति हमारी ठेली। 
पीढ़ी गोटा काढ़ि लीया,,पवन पषलि दीयाँ ठैली ||३॥ पएु०--११६ | 
अधः और ऊध्व॑ ( निःश्वास और प्रश्वास ) दोनों की ताली लगाकर (केवल कुम्मक 
के द्वारा) मन स्थिर होता है और पवन थक जाता है। दशम द्वार में परमात्मा का परिचय 
प्राप्त करने से आवागमन छूट जाता है। मछुन्दर का पुत्र शिष्य गोरखनाथ कहता है कि 
हम तेली हैं। गोटा ( तिलो का पिडा ) पेर कर के (तेल श्रर्थात्‌ आत्मतत्त्व ) हमने 
निकाल लिया है और पवन रूप खली को फेक दिया है || 
सति सति* भाषत श्री “गोरष जोगी, अमे* तो रहिया रंगे। 
अल्ेष पुरिस जिनि गुर-झुषि चीन्‍्डहां रहिबा तिसके संगै ॥टेका 
सतजह्लृग मघे जुग एक रचीला, बिसहरठ एक निपाया | 
_ श्यांन बिहू्ां गण गंध्रप अवधू, सब हीं डसि-डसि पाया ॥१॥ 
श्रेता जुग मधे जुग दोह रचीला, राम रमाइंणए कीन्हाँ। 
नर बंदर सब लड़ि-लड़ि म्रुये" तिन भीत ग्यांन न चीन्हां ॥२॥ 
ह्वापर छुगमघे जुग तीनि रचीके, बहु डम्बर बहु भारं। 
करों पांडों लड़ि-लदडि मुये* नारद कीया संघारं ॥३॥ 
कलिजुग मधे जुग चारि रचीला०, चूकिला चार बिचारं। 
घरि घरि दंंदीट घरि घरि बादी, धरि घरि कथण हार ॥०॥ 
चौहू छुग मधे झुग चारि थापिला, ग्यांन निरालंब रहिया। हि 
मछींद प्रसादै जती गोरष बोल्या, कोई ब्रिरला पार उतरिया* ||७|॥ ए०-११३ | 
भ्रीगोरखनाथ जोगी सत्य-सत्य कहते हैं कि हम तो ( अपने ) रंग में मस्त रहते हैं | 
जिन्होंने गुर-मुख-शिक्षा के द्वारा अलक्ष्य पुरुष (बह्म) को पहचाना है, उन्हीं के साथ रहना 
चाहिए | अनेक क्रियांवाचक शब्द भोजपुरी के इनमें स्पष्ट हैं । 


१, (क) सत्य-सत्य । २. हम । ३. विंसहरण । ४ रसाइंग। ४५. मृवा। ६.सूदा। 
७. रचीतै--चूकिले | ८. नादी,। &. उतरिया पार॑ । 


३३६ भोजपुरी के कंव और कौर 


कर्ता ने चारों युगों के लिए अलग-अलग विशेषताएँ बनाई | एक, दो और तौन 
क्रमशः पहले, दूसरे और तीसरे कै लिए प्रयुक्त हुए है। 
मन लगा कर ऐसा जाप जपो कि 'सोहं? 'सोहं? की वाणी के उपयोग के बिना 
झअझजप। गान (अजपा जाप) हो जाय | 
गुर कीजेी गरिला निगुरा ने रहिला। 
गुर बिन" ग्याँन न पायला रे* भाईला |टेका 
दूचें धोया कोइला उजला3 तन होइला | 
कागा कंठे पहुप४ माल हँसला न भैला५ ॥१॥| 
अभाजै सी रोटली*र कागा जाइल[» । 
पूछी रहारागुरुः नै* कहाँ सिषाइला*" ॥२॥ 
उतर" १ दिस आविला"*, पछिम दिस जाइला१3, 
पूछी म्मारा सतगुरु नै*४, तिहाँ बैसि पाइला१५॥१॥ 
चीटी केरा नेत्र (सेत)१६ मैं गज्येंद्र!० समाइला । 
गावडी के" भुष में बाघला बिवाइला"?९ ॥४॥ 
बाहँ बरसे बंक बव्याई, हाथ पाव हूटा।| 
बदंत गोरखनाथ महिद्र ना. पूता ॥श॥ पृ०--१२८ | 
है अहिल गुरु धारण करो, निगुरे न रहो । है भाई, बिना गुरु के ज्ञान नहीं प्राप्त 
होता । दूध से धोने पर भी कोयला उज्ज्वल नहीं होता | कौए के गले में फूलों की माला 
पहनाने से वह हंस नहीं हो जाता। गहलाग्रहिल, जो व्याधि, भूत-बाधा या मानसिक 
विकार से ग्रस्त हो। यहाँ मानसिक विकार से अस्त होने से मूल कहा गया है। 
तुलना कीजिए, गढ़वाली भाषा का “गयेल” और भोजपुरी के 'गईल'---उपेज्षा, असावधानी 
आर 3दासीनता की एक साथ भावना प्रकट करता है | # 
कौञ्रा ( जीव ) बेतोड़ी-सी ( संपूर्ण ) रोगी ( आध्यात्मिक परिपूर्णता ) ले जाता है | 
स्वांतरस्थ गुरु से पूछो कि वह उसे कहाँ बैठकर खाता है | ( आमभा जैसी भ्रविभक्त-सी ) | 
वह उत्तरदिशा (अक्षपद, अह्मरंत्र) से आया है (बअह्म उसका मूल वा अ्रधिष्टान है) और 
पश्चिम दिशा ( सुषुम्णा माय ) से बह जायगा ( अर्थात्‌ पुनः अक्षरंत्र में प्रवेश करेगा )। 
बहाँ बैठकर, जहाँ यह मार्ग ले जाता है, अह्नरंञ में वह उस रोटी (अन्मानुभूति) का भोग 
करता है | 
7 बिण। २, आमियेरे। “माईला? नहीं है। ३. ऊजला। ४. कठओ कैगलि 
पहौप। ४. थायला। ६. आमा जैसी रो ठली (क) अभा जेसी हूठी हृटरीटली। 
७. कठवा ले आइला | ८. माया था माह्मा| ६. कूँ। १०६ बैठि खाइला। 
११. पूरब। १२. आऑँबिला । १३, (घ) डालिला। १४. (घ) #। १५. (घ) 
बैठि बाचला । १६. (घ) में 'सेतः नहीं है। १७. (ब) गनिद्ध १८. (घ) का। 
१६. व्याईला । 


झ्ाठवीं सदी से ग्यारहतीं सदी तक २७ 


इस प्रकार चींटी की श्राँखों में गजेन्द्र समा जाता है। (अर्थात्‌ सूक्ष्म आध्यात्मिक 
स्वरूप में स्थूल भौतिक रूप समा गया। गाय के मुह में बाधिन बिया जाती है श्रर्थात्‌ 
इसी भौतिक जीवन में उसको नाश करनेवाला श्राध्यात्मिक ज्ञान उत्पन्न हो जाता है | 
बारह वर्ष भें बाँक ब्याई है; पर इस प्रसूति में उसके हाथ-पाँव द्ट गये हैं--वह 
निकम्मी हो गई है। यह मछुन्द्र के शिष्य गोरखनाथ का कथन है। मायिक जीवन 
निष्फल होता है, इसलिए उसे बाँक कहा गया है। परन्तु बड़ी साधना के अनन्तर इसी 
मायिक जीवन में ज्ञान की भी उत्तत्ति हो जाती है, यही बाँक का बियाना है| जब ज्ञानोदय 
हो जाता है, तब माया शक्ति-हीन हो जाती है, यही उसके दाथ-पॉव टूटना है| 
कैसें बोलों पंडिता देव कौने ठांई'१ 
निज तत निहारताँ अस्हें तुम्हें: नाहीं3३ |टेक|| 
पषाणची देवली पर्षांणथ चा देवों । 
पषॉण पूजिला कैसे. फीटीला सनेह" ॥१॥ 
सरजीव तेढ़िला*ई निरजीव पुजीला 
पाप ची० करणी पार कैसे उतरीत्ञा< ॥२॥ 
तीरथि तीरथि. सांग करीला१ | 
बाहर) ९ धघोये कैसे भीतरि** भेदीला ॥३॥। 
आदिनाथ नाती मछींद्रनाथ पूता 
निज तत निहारे गोरष अवबधूता * |॥ पृ०--१३१ | 
है पंडितो, कैसे बताऊँ कि देवता किस स्थान में रहता है ! निज तत्त्व को देख लेने 
पर हम और ठम नहीं रह जाते (सब एक हो जाते हैं, मेद मिट जाता है)। पत्थर के देवता 
की प्रतिष्ठा ( करते हो )। ( ठम्हारे लिए ) स्नेह ( दया ) का प्रस्फोट कैसे हो सकता है ! 
(पत्थर का देवता कहीं पसीज सकता है !) 
तुम सजीव फूल्-पत्तियों को तोड़ कर निर्जीव मूर्ति को पूजते हो | इस प्रकार पाप की 
करनी ( छत्यों ) से दुस्तर संसार को कैसे तर सकते हो १ तीर्थ में स्नान करते हो | बाहर 
घोने से भीतर प्रवेश कर जल आत्मा को कैसे निमंल कर सकता है? ( पानी तो केवल 
शरीर को निर्मल बनाता है। ) आदिनाथ का नाती-शिष्य और मछन्दरनाथ का पुन्र- 
शिष्य गोरख निज तत्त्व (आत्मा) का दर्शन करता है। 


१५ (घ) हैँ, तोहि पूछूँ पांच्या देव, कौंगै ठांय रे । २. (क) हमें तुम्हें । ३ (घ) नाहि रे। 
४० (घ) पाषाणं का देहुरा पाषांण का देव । ५« (घ) पाषांण कू'पूजि फोटीला सनेह रे। 
६. (घ) तोड़ाला, पूजीला। ७० (घ) की। ८« (क) "कैसे दूतर तिरौला?। 
६, तोरथि तीरथि जाईला असनान (क) तीरथ तौरथ सनांन। १० बाहरि कै। 
११ कैसे मौतर (ख) भीतरि कैसे । 

* तृतीय छुन्द के प्रथम चरण का पाठ पुस्तक में 'सरजीव तीडिला निरजीव पूजिल 
पापची करणी' कैसे दूतर तिरीला” के निकट फुट नोट में जो (थे) का पाठ था वह 
अधिक भोजपुरी था, इसलिए वही रखा गया है। --लेखक 


हद भोज६ केक और काब्य 


 तिल्नक 
पूरब देश पदुांही घाटी ( जनस ) लिप्या हमारा ज्ोगं। 
गुह हमारा नाँवगर कहींगू, सेंट भरस बिरोय ]$९| ए०-२१२ | 
जी पन्द्रह तिथि 
चोद्सि चादह! रतन बिचार। काल विकाल आवता निवारि। 
झार्पे३ आप देवी पट तारि। उतपति पररड छाद्रा मंसारि ||३७॥ पृ०--१८३ | 





९० 
गत की पक २० 
... मत हरि या भरवरी' गोरब्नाथ के शिष्य कहे जाते हैं| इनका चलाया वैराग्य पंथ 
ह। इनके सम्बन्ध के गीत साई लोग सत्र मोजपुरी प्रदेश में गाया करते हैं, जिनको 
सालाना फल के समय किसान कुछ दिया करते हैं| भतृ हरि के सन्दन्ध में डाक्टर 
हजारीप्रसाद ढिवेदी के ये वाक्य देखिए४..... 

“सोरज्ञनाथ के एक अन्य पंथ का नाम वराग्य पंथ है। मरथरी वा भर्तु- 
हरि इस पंथ के प्रवर्तक हैं। मतुहरिकौन ये, इस विषय में पंडितों में नाना प्रकार 
के विचार हैं; परन्तु पंथ का नाम वराग्य पंथ देखकर अनुमान होता है कि “वैराग्य शतक! 
नामक काध्य के लेखक भतृ हरि ही इस पंथ के मूल ग्रव्तक होंगे | दो बातें संभव हैं-- 
या तो भतृ हरि से खर्ब कोई पंथ चलाया हो और उसका नाम वैरास-मार्य दिया 
हो या शद में किसी अन्य योगरार्ग ने वैराग्य-शतक में पाये जानेवाले वेराग्य शब्द 
को अपने नाम के साथ जोड़ लिया हो । 'ेराग्ब-शतक' के लेखक भत्त हरि ने दो और 
शतक लिखे हैं--श्व गार-शतक और नीतिशतक | इन तोनों शतकों का पढ़ने से भत्त हरि 
की जिन्दादिली और अनुभूतिशीलता खूब प्रकट होती है। चीनी यात्री 'इत्सिंगः ने लिखा 
है कि भतृ हरि नामक कोई राजा था जो सात बार दौद्ध संन्यासी बना और सात वार 
बहस्थाश्रम में लौद आया। वैराग्य और श्रृंगार शतकों में मत्तु हरि के इस प्रकार के संश- 
थित भावादेगों का प्रमाण मिलता है | संमवतः शतकों के कर्ता मतु हरि (इत्सिंग? के मतु हरि 
ही हैं। उनका समय सप्तम शताब्दी के पूर्व साय में टहरता है। कहानी प्रसिद्ध है कि 
अपनी किसी रानी के अनुचित आचरण के कारण वे विस्क हुए ये। “वेराग्य-शतक! के 
प्रथम श्लोक से इस कहानी का सामंजस्य मिलाया जा उकवा है। परन्ठु इसी भतत हरि 
से गोरज्ञनाथ के उस शिष्य भतृ हरि को, जो दसवीं शताब्दी करे अन्त में हुए, अमिन्न 
समझना ठीक नहीं है। यदि “ैराग्यशतकः? के कर्ता भतृ हरि गोरक्षनाथ के शिष्य थे तो 
क्या कारण है कि सारे शतक में गोरक्षगाथ का नाम भी नहीं आया है! यही नहीं, 
गोरज्षनाथ द्वारा प्रवर्तित हृठयोग से वैरास्य-शतक के कर्चा परिचित नहीं जान पढ़ते | मेरा 
इस विषय में वह विचार है कि भतत हरि दो हुए हैं, एक तो “वैरास्य-शतकः वाले और दूसरे 
उज्जैन के राजा जो अन्त में जाकर योरक्षनाथ के शिष्य हुए थे | मतृ हरि का वैराग्व-मत 
गोरच्ननाथद्वारा अनुमोदित हुआ और वाद में परवर्ती मतु हरि के नाम से चल पड़ा |_इत मत 


आम 
३. (च) चबृदुतति चबदेह। २० (घ) आपै। ३. (क) अलै। 9. “तायरम्प्रशया-३० १६६-१६८। 


आठवीं सदी से ग्यारहचीं सदी तक २९ 


को भी गोरज्ष द्वारा अपना मत माना जाना? इसी लिए हुआ होगा कि 'कपिलायनी! शाखा तथा - 
ज्ीम-नाथी पांरसनाथी” शाखा की भाँति इनमें योगक्रियाओो का बहुत प्रचार होगा । द्वितीय 
मत हरि के विषय में आगे कुछ विचार किया जा रहा है। यह विचार मुख्य रूप से दन्त- 
कथाओं पर आशित है। इनके विषय में नाना प्रकार की कहानियाँ प्रचलित हैं | मुख्य 
कथा यह है कि ये किसी मगीदल-विहारी स्ग को मार कर घर लौट रहे थे। तब मृगियाँ 
नाना प्रकार के शाप देने लगीं और नानाभाव से विलाप करने लगीं। दयाद्र 
राजा निरुपाय होकर सोचने लगे कि किसी प्रकार यह मग जी जाता तो अच्छा होता। 
संयोगवश गुर गोरक्षनाथ वहाँ उपस्थित हुए और उन्होंने इस शत्त पर कि म्ृग के जी जाने 
. पर राजा उनका चेला हो जायगा, झग को जिला दिया | राजा चेला हो गये. कहते हैं, 
'ोपीचंद? की माता 'मयभामता? (मैनावती) इनकी बहन थीं | 

“हमारे पास “बिधना क्‍या कर्तारः का बनाया हुआ “भरथरी-चरित्र? है, जो दूधनाथ 
प्रेस, हवड़ा से छुपा है। इस पुस्तक के अनुसार भरथरी या भत्ृहरि उज्जैन के राजा 
इन्द्रसेन के पौत्र और चन्द्रसेन-के पुत्र थे | वैराग्य अहण करने के पूर्व राजा सिंहलदेश की 
राजकुमारी 'सामदेई? से विवाह करके वहीं रहते थे | वहीं मग का शिक्रार करते समय उनकी 
गुरु गोरखनाथ से मेंट हुई थी। हम पहले ही विचार कर चुके है कि योगियों का सिंहलदेश 
वस्तुत: हिमालय का पाददेश है, आधुनिक 'सीलोन? नहीं ।” 

«एक और कहानी में बताया जाता है कि भत्त हरि अपनी पतित्रता रानी (पिंगला? की 
मृत्यु के बाद गोरज्षनाथ के प्रभाव में आकर विरक्त हुए और अपने भाई विक्रमादित्य को 
राज्य देकर संन्यासी हो गये | उज्जैन में एक विक्रमादित्य (चंद्रगुप्त द्वितीय) नामक राजा 
सन्‌ १०७६ से ११२६ तक राज्य करता रहा* | इस प्रकार भतृ हरि ग्यारहवीं शताब्दी के 
मंध्यभाग के ठहरते हैं।” 

अपनी भूमिका में मैंने मालवा के परमारों द्वारा भोजपुर प्रदेश यानी श्राज के 
शाहाबाद, गाजीपुर और बलिया आदि जिलों भें आकर राजा भोजदेव के नेतृत्व में 
राज्य स्थापित किये जाने की बात प्रतिपादित की है। उससे और मालवा के ग्यारहवीं 
सदी के विक्रमादित्य द्वितीय के भाई इस भतृ हरि के इस प्रदेश में आने की पुष्टि 
होती है। इसकी पुष्टि में और अधिक बल इस बात से मिलता है कि गाजीपुर के 
गजेटियर के ० १४२ में गाजीपुर के पुराने ऐतिहासिक गयों के वर्णन में एक 'मिन्नी 
स्थान का वर्णन आया है। इस “मिन्नीः स्थान को मौय्यंकालीन नगर कह्दा गया है और 
कहा गया हैं कि सुगों के पतन के समय (७२ पू० ई० ) से गुप्काल तक ( ३२० 
ए० डी० ) का इतिहास अन्धेरा है | गुप्तों के समय में और उसके आाद बहुत से बौद्ध 
नगर नष्ट होकर हिन्दू नगरी में परिणत हो गये। “मित्री” के सम्बन्ध में भी यहीं बात 
लागू हुईं होगी। वहाँ 'स्कन्दगुत्! के समय ( ४६६ ए० डी० ) में विष्णु का मन्दिर और 
लाठ निर्मित किये *ये थे। अतः जान पढ़ता है कि उसी प्राचीन स्थान पर मालवा 


१६ ब्रिस्स ; पू० २४४ । 


हें भोजपुरी के कवि और काव्य 


के विक्रमादित्य द्वितीय के भाई भरत हरि ने आकर अपना राज्य-गढ़ पुनः ग्यारहवी 
सदी में, जब भोज यहाँ आये थे, बनाया होगा; और उसका प्राचीन नाम बदल कर अपने 
नाम पर भतृ हरि नाम रखा होगा, जिसका विकृत रूप आज (भन्री) या मित्री है। हरि 
उच्चारण की सुविधा से जन-करठ ने भुला दिया होगा । यही भतु हरि गोरखनाथ के शिष्य 
होंगे, जैसा कि डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने माना है। इनके ही नाम पर भरथरी की 
उपयुक्त गाथा अपनी ऐतिहासिक ए्रष्ठभूमि के साथ चल पड़ी होगी। यह अनुमान इस 
बात से भी पुष्ट होता है कि गोरखपुर जिला के वैराग्यपंथावलम्बी भरथरी के गीत गाने- 
वाले साई लोग बलिया-गाजीपुर-शाहाबाद के जिलों में साल में दो बार, फसल के समय, 
आते हैं और हर घर से आना-दो-आाना, जैसा बँधा है, या कपड़ा वसूल कर ले जाते हैं। 
इससे स्पष्ट है कि मत हरि का राज्य यहीं था और उनके संन्यास ग्रहण करने के बाद उनके 
राज्य में उनके चलाये पंथ के अ्रन॒ुयायियों ने अपनी वृत्ति कायम कर ली और जनता ने 
उसे स्वीकार भी कर लिया | 

कल्याण! के धयोगांक'" में योगी भतृ हरि का परिचय मालवा के राजा विक्रमादित्य 
के भाई के रूप में दिया गया है। उनका दूसरा नाम भोज? भी कहा गया है और इनके 
गोस्ज्ञनाथ के शिष्य होने का बृहत्‌ वर्णन इस प्रकार दिया गया है किये शिकार 
खेलने गोरखपुर की ओर गये हुए ये। इन्होंने गोरक्षनाथ के पालतू हरिण को देखकर 
पीछा किया और गोरक्षनाथ से जब भेंट हुईं तब उनसे हरिण का पता पूछा। उसी 
क्षण जब हरिण सामने दिखाई पड़ा, तब इन्होंने बाण से उसे मार दिया। इसपर गोरक्ष- 
नाथ और भतृ हरि में वार्ता हुई और अन्त में गोरज्ञनाथ ने इस शर्त पर हरिण को पुनः 
जिलाया कि यदि हरिण जी जायगा तो भतृ हरि राज्य त्यागकर संन्यास अहण करेंगे | 
हरिण के जी उठने पर उन्होंने वचन का पालन किया। ह्यूफ फेजर ने 'फोक लोरस्‌ फ्रॉम 
वेस्टर्न गोरखपुर! शीर्षक लेख में मरथरी का एक 'बारहमासा? प्रकाशित किया है | यह 
बारहमासा इन्हीं मत हरि द्वारा रचा हुआ प्रतीत होता है। 

डो० हजारीप्रसाद ने फिर भतृ हरि के सम्बन्ध में लिखा है-- 

“शक दूसरी कहानी में रानी पिंगला को राजा भोज की रानी बताया गया है। राजा 
भोज का राज्यकाल सन्‌ १०३८ से ३०६० ई० बताया गया है* ) एक दूसरे मूल से मी मततु हरि 
मैनावती और गोपीचन्द का संबंध स्थापित किया जा सका है। पालवंश के राजा महीपाल 
क॑ राज्य में ही, कहते है, 'रमणवज़? नामक बज्जयानी सिद्ध ने मत्येद्रनाथ से दीक्षा झेकर 
शैव मार्ग स्वीकार किया था। यही गोरछनाथ हैं। पालों और प्रतीहारों ( उज्जैन ) का 
रगड़ा चल रहा था। कहा जाता है कि गोविंदचन्द्र, महीपाल का समसामयिक राजा था 
और ग्रतीहरों के साथ उसका संबंध होना विचित्र नहीं है [३ 


_-_-_+++5 
१, गीता भ्रेस, गोरखपुर; पू० ७प | 
२७ ढा० का० सँ० प्रो०--जिल्दु २, पु० ४०३ और. ब्रिग्स पृ० ४९ । 
३५ ब्रिग्स ; म० म० दरप्रसाद शास्त्री के आधार पर । 


आठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तंकं ३१ 
ही,.फ फ्रेजर के 'फोक लोरस फ्रॉम वेस्ट गोरखपुर” नामक शीर्षक में प्रकाशित वह 
बारहमासा है--- 
बारहमासा 
चन्दन रगढ़ो सोवासित हो, गूंधी फूल के हार || 
इंगुर मेंगियाँ . भरइतों हो, सुभ के असाढ़ ॥१॥ 
साँवचन अति हुख पावन हो, दुःख सहलो नहिं जाय | 
इहो दुःख परे वोही कूबरो हो, जिन कन्त रखले लोभाय ||२॥ 
भादों र्यनि भयावनि हो, गरजे मेह घहराय। 
बिजुलि चमके जियरा ललचे हो, केकरा सरन उठ जाय ॥|श॥ 
कुंआर कुसल नहिं पाओं हो, ना केऊ आचे ना जाय । 
पतिया में लिख पठवों हो, दीहें कन्‍्त के हाथ ॥५॥ 
कातिक पूरनमासी हो सभ सखि गंगा नहायेँ। 
गंगा नहाय लट सूरवें हो, राधा सन पढछतायें ॥णा। 
झगहन ठाढ़ि अगनवा हो, पहिरों तसरा का चीर। 
इृद्दो चीर सेजे सोर बलमुआ हो, जीए लाख बरीस |३॥ 
पूसहिं पाला परि गैले हो, जाड़ा जोर बुकाय । 
नव सन रुइआ भरवलों हो, बिज्ु सैयाँ जाड़ न जाय ॥७॥॥ 
माघहि के सित्र तेस हो सिव बर होय तोहार। 
फिरि फिरि चितवों मँंदिरवा हो बिन पिया भवव उदास ॥4॥ 
फागुन प्रनमासी हो, सभ सखि खेलत फाग। 
राधा के हाथ पिचकारी हो भर भर मारेली ग्रुलाल ॥५९॥ 
चेत फूले बन टेसू हो, जब दहुएण्ड हहराय। 
फूलत बेला गुलबवा हो, पिया बिचु मोहि न सोहाय ||१०॥ 
बेसाखहि बंसवाँ कटइतों हो, रच के बँगला छुँवाय । 
ताहि में सोइतें धलमुआ हो, करितों अँचरधन बयार ॥११॥ 
जेठ. तपे मिरड॒हवा हो, बहे पवन हाहाय। 
“'सरथरी” गावे “बारह-मासा! हो, पूजे मन के. आस ॥१२ | 
. आषाढ़ मास शुभ मास है। यदि आज मेरे प्रीतम होते तो अपने लिए सुवासित 
चन्दन रगड़ती और फूलों की माला गूथती और सिन्दूर से माँग मराती; परन्तु हा ! वे 
आज नहीं हैं ॥१॥ 
यह सावन आया। अति दुश्ख देनेवाला है। इसका दुःख सहा नहीं जाता। यह 
दुःख उस कूबरी के ऊपर जाकर पड़े, जिसने भेरे कन्त को बिलमा रखा है ॥२॥ 
भादो आया। इसकी रात्रि कितनी भयावनी है। आकाश में मेह गरज रहे हैं। 
बिजली जोर-जोर से चमकती है और प्रीतम के बिना उनसे मिलने के लिए. मेरा जी 
ललच रहा है। मैं किसकी शरण में उठ कर जाऊ १ ॥१॥ 


३३ भोजपुरी के कवि और कांब्य 

क्वार सास भी आ गया; पर प्रीतम के कुशल-ज्षेम का कोई समाचार नहीं मिला | ने 
कोई उधर से आता है और न इधर से ही कोई जाता है कि पत्र मेजू । मैंने इसके पूर्व 
कई पत्र लिख-लिख कर पथिकों के हाथ भेजे और ताकीद की थी कि कन्त के ही हाथ में 
उन्हें देना; पर कोई उत्तर नहीं आया ॥४॥ 

अब कार्तिक की पूर्णमासी भी श्रा गई । सभी सखियाँ गंगा-स्नान कर रही हैं। गंगा- 
स्नान करके राधा भी अपनी लट सुखा रही हैं और मन-ही-मन प्रीतम के नहीं आने की 
बात से पश्चात्ताप कर रही है ॥५॥ 

अगहन मास में तसर की साड़ी पहन कर बीच अ्राँगन में खड़ी हूँ श्र कह रही हूँ 
कि इस साड़ी को मेरे प्रीतम ने भेजा है, वे लाख वर्ष जीवित रहें | 

पूस मास में पाला अभी पड़ा है। जोरों का जाड़ा मालूम हो रह्या है। मैंने रजाई में 
नौ मन रूई भरा तो ली है; पर तब भी सेयाँ के बिना जाड़ा नहीं जाता ॥३॥ 

माध मास का तेरस भी आरा गया। हे शिव जी, श्राज ही तुम वर बने थे | मैं फिर- 
फिर कर अपने घर को निहार रही हूँ । पर बिना पिया के यह मेरा भवन उदास लग 
रहा है ॥७॥ 

आज फागुन की पूर्णिमा है। सब सख्ियाँ फाग खेल रही हैं। राधा के हाथ में 
पिचकारी है। रंग मर-भर कर वह पिचकारी मार रही है| आ्राज प्रीतम आ गये हैं ॥८॥ 

जैत मास में बन में टेसू फूल रहे हैं। अब केवाली खेती में लहर मार रही है। बेला 

गुलाब सवंत्र फूल रहे हैं ; परन्तु बिना प्रीतम के ये सारे दृश्य मुझे नहीं भाते-सुहयते ॥६॥ 

बैसाख मास आ गया है। काश, भ्राज प्रीतम यहाँ होते तो मैं बाँस कटवाती और 
रचि-रचि कर के बंगला छवाती और उसके नीचे प्रीतम सोते और मैं अंचल से हवा 
करती ॥१०] 

जेठ मास में मगडाह ( मृगशिरा ) नक्षत्र तप रहा है। लू द्ा-हकार करके घह 
(ही है। मरथरी बारहमासा गाते हैं और कहते हैं--मेरे मन की अमिलाषा आज पर 

अर्थात्‌ मेरे प्रीतम आ गये । 

् जहाँ तक इस बारहमासे की भाषा का परन है, इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह 
भरत हरि की भाषा का सम्पूर्णतः नवीन रुपान्तर है। केवल इसी कारण यह नहीं कहा जा 
सकता कि यह भतृ हरि की रचना नहीं है | हिन्दी साहित्य की भी बहुत-सी ऐसी ऋृतियों 
हैं, जिनकी भाषा तो सम्पूर्ण रूप से परिवर्तित हो गई है; किन्तु उन्हें अमी तक भद्धा च 
सम्मान के साथ मूल लेखकों के नाम से युक्त करके स्मरण किया जाता है। 'जगनिक! के 
'धवरमाल रासो? इस प्रसंग में उल्लेखनीय है । 





महात्मा कबी रदास कि 
, कषबीरदास जी एक महान व्यक्ति हो गये हैं। आप भक्त, कषि और उुधारक ती 


थै। आपका एक पन्‍थ ही चल रहा है। आपकी जीवनी के सम्बन्ध में 'कल्याय” के “योगाड़! 


पे निम्नलिखित पंक्तियाँ उद्ध,त की जाती हैं-- 





' आठवीं सदी से भ्यारहवीं सदी तक है 


“कहते हैं कबीर जी का जन्म काशी में स्वामी रामानन्द जी के आशीर्वाद से एक 
ब्राक्षणी के गर्भ से हुआ था | माता ने किसी कारणवश पुत्र को रात के समय एक 
तालाब में बहा दिया | सबेरे 'नूर अ्रली जुलाहे” ने देखा और अपने घर लाकर पोसा-पाला । 
इसी से कबीर जुलाह्य कहलाये, और जन्म भर जुलाहे का ही काम किया | परन्तु ये जन्म 
से ही सन्‍्त-माव लेकर आये थे | इन्होने स्वामी रामानन्द जी को अपना गुरु बनाया और 
साधना द्वारा बहुत अच्छी गति प्राप्त को | यह काशी में रहकर सत्संग कराया करते थे। 
ये बड़े निर्मीक सन्त थे। इन्होने बड़े-बड़े शब्दो में उस समय की बुराइयों का खण्डन 
किया और सच्ची शिक्षा दी | इनकी वाणियों का अनुवाद श्ेंग्रेजी और फारसी में भी 
हुआ है, और वे अन्य देशों में मी आदर के साथ पढ़ी जाती हैं। ये श्रन्त समय में काशी 
छोड कर मगहर ग्राम, जिला बस्ती में चले गये | परिडितो के मत से उस स्थान में मृत्यु 
होने से गददहे का जन्म होता है | (इस सम्बन्ध में कबीर ने ही कहा था---“जो कबिरा काशी 
मरे, रामहिं कवन निहोरा”) | जब इन्होने चोला छोड़ा तब हिन्दू-मुसलमानों में कगड़ा हो 
गया | हिन्दू समाधि देना चाहते थे और मुसलमान कब्र | इसी बीच कबीर साहब का शव 
लापता हो गधा और उसकी जगह कफन के नीचे थोड़े फूल पड़े मिले | इन्हीं फूलों को 
हिन्दू-मुसलमान दोनों ने बाँठ लिया और अश्रपनी-अपनी रीति के अनुसार अलग-अलग 
समाधि और कब्र बनाई। दोनो आ्राज भी मगहर में मौजूद हैं। इनका जीवन-काल 
संवत्‌ १४५५ से १५७५ तक माना जाता है| 


इनके जन्म के सम्बन्ध में निम्नलिखित छुप्पय प्रसिद्ध है-- 


चौद॒ह सौ पचपन साल गये, चन्द्॒वार एक ठाट ठये। 
जेठ सुदी बरसाएत को, प्रनमासी तिथि प्रकट भये ॥ 
घन गरजे, दासिनि दुमके, बूदें बरसें कर लाग गये। 
लहर तलाब में कमल खिले, तहेँ कबीर भानु प्रगठ भये ॥ 


कबीर ने भोजपुरी में प्रचुर मात्रा में कविताएँ लिखी थीं | ड० उदयनारायण तिवारी 
का तो कहना है कि इनकी सभी स्वनाएँ सम्मवतः भोजपुरी में थीं। बाद को वे हिन्दी में 
परिवर्तित कर दी गईं। कबीर साहब ने भी एक दोहे में अपनी भाषा को भोजपुरी 
स्वीकार किया है। 
“बोली हमरी घुरष की, हमें कखे नहीं कोय | 
हमके तो सोई लखे, घुर घुरब का होय” || 


कबीर साहब भोजपुरी के बड़े भारी रहस्यवादी आदि कवि थे | यदि उनको विशुद् 
भोजपुरी का कवि न मानकर हिन्दी का भी कवि माना जाय, जैसा कहना सही है, तब भी 
यह मानना अनिवाये॑ होगा कि हिन्दी में जब रहस्यवाद आया तभी भोजपुरी में भी 
रेहस्थवाद का जन्म हुआ या जिस कबि ने भोजपुरी में रहस्यवाद का जन्म दिया, उसी ने 
हिन्दी में मी। निम्नलिखित गीतों में अधिकांश गीत कबीर साहब की कविताओ के संग्रहो 
से लिये गये हैं | इनके पाठ की सत्यता पर दो मत नहीं हो सकते | 


धर भोजपुरी के कवि और काब्य॑ 


(4१) 

कर्वेल से भवराँ विदुडल हो, जाहाँ केहू ना हमार । 

भव जल नदिया भयावन हो, विन जल कह धार॥ 

ना देखो नाव न बेड़वा हो, कहसे उतरबि पार। 

सतकइ नहया सिरजावल हो, सुमिरिन करुआर ॥ 

गुरु के सबद॒गोनहरिया हो, खेइ उतरबि पार। 

दास कबीर निरगुन गावल हो, संतो ल्ेहु बिचार॥ 

अरे, कमल से भ्रमर उस जगह बिछुड़ा, जहाँ कोई हमारा नहीं है। संसार की नदी 

भयावनी है | यहाँ न्रिना जल के ही प्रचरड' घाराएँ बहा करती हैं। मैं न तो कोई नाव 
देखता हूँ, न कोई नाव का बेड़ा ही देखता हूँ | कैसे पार उतरूँगा ! मैंने सत की नाव का 
सजन किया और उसमें सुमिरन का करुआर लगाया है। गुर-वचन को गॉन (नाव खींचने 
की पतली रस्सी ) बनाया और इस तरह भवनद को खेकर पार होऊँगा | सेवक कबीर ने 
निरणुन गाया है | हे संतो, इसका विचार कर लो | 


(२) 
तोर हीरा हैराइल बा कीचेंडे में ॥टेका। 
कैउ द्वॉद्ह् पूरब, केड ढ्वढ़ह् पद्धिम केड हूढें पानी पथरे में। 
सुर, नर, सुनि अवरु पील अवलिया,संब भूलल बाड़े मखरे में॥ 
दास कंबीर ई हीरा के परखले, बाँघधि लिहले जतन से #ँचरे में ॥ 
अरे, तुम्हारा हीरा कीचड़ में हेरा गया। इसको तो कोई पूरब में हूं ढ़ रहा है श्र्थात्‌ 
सूथ्यं भगवान के पूजन में हू ढ़ रहा है और कोई इसको पच्छिम में (मक्का-मदीना में) 
हेढ़ रहा है। सुर, नर, मुनि और पीर तथा औलिया सभी अपने-अपने नखरों में भूले 
हुए. हैं | सेवक कबीर दास ने इस हीरे को पहचान लिया और प्रेमपूर्वक अपने श्रंचल 
में इसको बाँध लिया | 
(३) 


केठ ठंगवा नगरिया लूठल हो। 

चनन काठ के बनल खटोलना, तापर हुलहिन सूतलि हो ॥ 
उठु रे. सखि मोर माँगु स्वारहु, हुलद्ा मोसे रूसल हो। 
झइले जमराज पलंग चढ़ि बइसल, नयनन असुआ हृटल हो ॥ 
चारि जना मिलि खाट उठपलरे, चहुँ दिसि धूं धू। ऊठल हो। 
कहत कबीर सुनहु भाइ साधो, जगवा से नाता हृठल हो॥ 

' “ अरे, किसी ठग ने इस नगरी को लूट लिया | चेन्दन की लकड़ी का खटोलना (बच्चों 
के सोने के लिए छोटा पलंग) बना है और उसी पर ( प्रकृति की बनी देह रूपी ) दुलहिन 
सो रही है । हैं सखि, उठो मेरी माँग सवार दो (मेरा श्रृंगार कर दो ) ३४404 
मुझ से छुठ गया है| यमराज आये और मेरे पलंग पर चढ़कर बैठ गये । मेरे नेत्रों से आस 
बहना बंद हो गया। चार मनुष्यों ने मिलकर खाद उठाई और (चिता से ) धू-धुकर 


झाठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तक हज 


चारों तरफ श्रग्नि उठने लगी | कबीर दास कहते हैं कि हे सन्‍्तो, सुनो, अरब इस जगत से 
सम्बन्ध दृूट गया | 


(४) 
का ले जहबों ससुर घर जइबो | 
गर्दझँ के लोग जब पूछुन लगिहें, तब तुम काइ बतइबो ॥ 
खोलि घूँघट जब देखन लगिहें, तब बहुते सरमइबो | 
कहत कबीर सुनो भाई साथो, फिर साखुर नाहीं पहबो ॥ 
जब तुम अपने श्वसुर-घर ( रैश्वर के घर ) जाओगी तो क्या लेकर जाओगी १ इसका 
भी विचार क्या तुमने कभी कुछ किया है ! 


जब गाँव के लोग (परम धाम व्यक्ति) वहाँ तुमसे पूछने लगेंगे कि मायके (मृत्यु-लोक) 
से क्या लाई हो तब ठुम क्या बताओगी १ जब तुम्हारे घूघट (धर्म-कर्म) को खोलकर लोग 
देखेंगे ( और तुम्हारे पास कुछ करनी-धरनी नहीं रहेगी) तब तुम बहुत शर्माओोगी | कबीर 
कहते हैं-.- है भाई साधुगण ] बार-बार श्वसुरपुर जा नहीं पात्रोगे (अपनेको वहाँ जाने 
के योग्य बनाओ ) | 


(५) 

साहेब मोर बसले अगसपुर हो, जहाँ गम न हमार ॥टेका। 
आठ कुआँ, नव बावलि हो, सोरह पनिदहार। 
भरले घइलवा ढरकि गइले हो, धनि ठाढ़े पदिताय | 

- छोटी मोटी डेंदिया चनन कट हो, लगते चारि कहार ॥ 
जादू उतरले ओहि देसवा हो, जाहाँ केहु न हमार । 
डचेंकी महलिया साहब कट्ट हो, लागे विषम बजार ॥ 
पाप पुन्नि हुईं बनिया हो, हीरा रतन बिकाय ॥ 
कहत कबीर सुनु सइयाँ हो, मोरे अवहिय दैस। 
जे गइले से बहुरले नाहो, के कहसु सनेस ॥ 


हमारे साइब अ्रगमपुर नामक नगरी में बसते हैं, जहाँ मेरा गम (पहुँच) नहीं है | वहाँ 
आठ कु ए (आठ अंग) हैं, नो बावलियाँ (नव द्वार) हैं, और सोलह पानी भरनेवाली 
पनिहारिनें (द्स इन्द्रियाँ और पाँच तन्मात्राएँ) है । फिर भी भरा हुआ घड़ा (आत्मा) 
लुढ़क गया है और धनि (सधवा नारी शरीर) खड़ी-खड़ी पछता रही है| छोटी-सी चन्दन 
की डाँडी है, उसमें चार कहार (स्ृत्यु के समय) लगे है| उन्होंने उस देश में मुझे जा 
उतारा जहाँ मेरा कोई नहीं था| वह ऊ चावाला महल साहब (ईश्वर, मालिक) का है| 
वहाँ विषमता का बाजार लगा हुआ है। पाप और पुण्य नामक दो बनिये हैं| हे भेरे 
स्वामी, सुनो, तुम मेरे हृदय में ही आ बसो । वहाँ तो जो गया; वह लौटा ही नहीं। कौन 
तुस्हारा सन्देश कहे ! 


३६ भोजपुरी के कवि और काव्य 


(६) 
सूतल रहलों सें नींद भरि हो, गुरू दिहलहूँ जगाह। 
चरन कर्वेल कह अंजन हो, नयना लिहलहूँ लगाइ ॥ 
जासे निदियों न आये हो, नाहि तन अलसाइ | 
गुरू के बचन जिन सागर हो, चलु चलीजां नहाह ॥ 
जनम जनस केरा पपवा हो, छिन डारबि धोआहइ। 
यदि तन के जग द्यिरा बनवलों, सुत बतिया लगाइ ॥ 
पाँच तत्त्व के तेलवा चुअवलो, ब्रह्म श्रगिनि जगाई। 
सुमति गहनवाँ पहिरलों हो कुमति दिहलों उतारि॥ 
निगुन मँगवा सेंवरलो हो, निरसय-सेनुरा लाइ। 
प्रेस के पिश्नाला पिआइ के हो, गुरू देलें बठराइ॥ : 
बिरहा अगिनि तन तलफइ हो, जिय कछु न सुहाइ | 
डँच की अटरिया चढ़ि बइठलीं हो, जहाँ काल न खाइ ॥ 
कहले कबीर विचारि के हो, जम देखि डेराह॥ 
मैं तो प्रगाढ़ निद्रा में शयन कर रही थी। गुरु ने जगा दिया | गुर के चरण कमल 
की धूरि का अंजन अपनी श्राँखों में लगा लिया जिससे नींद न आवे और शरीर अ्रलसाय 
नहीं। अरे, गुर जी के वचन रूपी सागर में चलो, नहाने चलें। वहाँ जन्म-जन्म के 
पाप क्षण मात्र में मैं धो डालू गी। इस शरीर को संसार रूपी दीपक बनाया | उसमें भ्रूति 
की बत्ती लगाई | पंच तत्त्वों का तेल चुवा कर उस दीप ने ब्रह्म अ्रग्नि की ज्योति जगाई | 
फिर मैंने सुमति रूपी सुन्दर आभूषणों को पहन लिया और कुमति के अ्रलंकारों को उतार 
फेंका | फिर निगुण रूपी अपनी माँग को सँवारा और उसमें निर्मयता का सिन्दूर भरा | 
हा, गुरु ने प्रेम का प्याला पिलाकर मुझे बौरा दिया | विरह की अग्नि इस तन में तलफ 
(धीरे-धीरे सुलग) रही है। छृदय को कुछ सुद्दाता नहीं है। मैं उस ऊ वी श्रटरी पर चढ़ 
बैठी, जहाँ काल नहीं खाता | कबीर विचार करके कहते हैं कि वहाँ यम भी देखकर 
डरता है। 
जँतसार ( राग ) 
(७) 
सुरति मकरिया गाड्हु हो सजनी--अहे सजनी | 
हुनो रे नयनवाँ छुआवा लख्हु रे की। 
सन घरु सन धरु मन धरु हे सजनी--अद्दे सजनी । 
अइसन समइया फिरि नहिं पावहु, रे की ॥ 
दिनिद्स रजनी हे सुख करु सजनी--अद्दे सजनी। 
एक दिन चाँद. छिपददनि--रे की॥ 
संगहि अछत पिय भरम भुलइलों--अहे सजनी। 
मोरे छेखे पिया परदेसहिं रे की॥ . 


आठवीं सदी से ग्यारइर्वीं सदी तक ३७ 


नव दस नदिया अगस बहे सोतिया--अदहे सजनी। 

बिचहिं. पुरईन दु्ष॒ लागत, रे की॥ 

« फूल इक फूलले अनूप फूल सजनी--जअहे सजनी। 

तेहि. फूल भरा लोभाइल--रे की ॥ 

सब सखि हिलमिल निज घर जाइब--अहे सजनी । 

समुद॒ लह्दरिया समाइब रे की॥ 

दास कबीर यह गवलें लगनियाँ हो--अहै सजनी। 

अब तो पिया घरवा जाइबि--रे की॥ 
हे सखी, सरति की “'मकरी”' गाड़ी और इन दोनों नेत्रों को जाँता का जुआा* 
बनाया | हे सजनी, जैसी धारणा मन में दृढ़तापूबंक धरो, वैसी धारणा धारण करो | 
ऐसा समय फिर तुमको नहीं प्राप्त होगा | हे सजनी, दस दिन दस रात भले खुखकर लो; 
लेकिन है सजनी, जान रखो, यह चाँद एक दिन छिप जायगा। साथ में प्रीतम के रहते हुए, 
भी हे सजनी, मैं भ्रम में भूल गई थी। हे सजनी, मेरे लिए तो प्रीतम पर-देश में ही हैं। 
नव और दस नदी हैं, उनमें अगम स्लोत बह रहे हैं | हे सजनी, बीच में ही पुरइन दल 
लगा हुआ है| हे सजनी, उस पुरइन दल से एक फूल फूला | हे सजनी, वह फूल अनुपम 
फूल हुआ | हे सझ्खी, उसी फूल पर भेंवरा लोभाया हुआ है। हे सजनी, हम सब सखी 
हिलमिलकर अपने घर जायेंगी और समुद्र की लहरों में समा जायँगी। दास कबीर ने इस 
मंगल गीत (लगनिया>विवाह गीत) को गाया। है सजनो, श्र तो मैं पिया के घर 

जाऊं गी, अवश्य जाऊ गी | 


(८) 
अपना पिया के में होइबों सोहागिन---अहे सजनी। 
भइया तेजि सद्याँ सेंगे लागबि--रे की ॥ 
सइयाँ के दहुअरिया अनहृद बाजा बाजे--अहे सजनी। 
नाँचे. ले सुति सोहागिन--रे की ॥ 
गंग जमुन ॒केरा अवधघट घटिया हो--अदहे सजनी, 
देइहहूँ सतगुरु सुरति क नइया हो--अद्दे सजनी। 
जोगिया दरते देखे जाइब--े की ॥ 
दास कबीर यह गबलें लगनियाँ हो--.अहे सजनी | 
सतगुरु अलख लखावल--रे. की ॥ 
मैं अपने पिया ( पापात्मा ) की सोहागिन ( सघवा नारी ) बनू गी। हे सखि, अ्रपने 
भाई को त्याग कर मैं अपने स्वामी के पीछे लगूगी। अहा, मैं तो अपने स्वामी के पीछे 
लगूँगी । स्वामी के दरवाजे पर अ्रनहद बाजा बजता है। अहा ! सुरतिसोहागिन वहाँ 
१. लोहे की मोटी कील जो जॉता के दोनों पत्थर के बीच के घुराख में गाड़ी जाती है और 
जिसके सहारे जॉता घुमता है। 
३. लकड़ी का जुआ, जिसको पकड़ कर जाँता घुमाते ैं। 


है भोजपुरी के कवि और काव्य 


नाच रही है || हे सख्त, गंगा-यमुना ( इड़ा और पिंगला ) का अ्रवघट घाट है| उसी 
पर जोगी ने मठ छाया है। अह्या, उसी पर जोगी ने मठ छाया है। (यहाँ रे की का श्रथ्॑ 
व्यंजना से'यह है कि कवि आह्ाद विहल हो 'रे की' का उच्चारण करता है और उसकी 
पुनरादृत्ति कर आनन्द प्रकट करता है) | हे सखि, सतगुर मुझे सुरति की नाव देंगे। मैं 
उस जोगी का दरशन देखने (यहाँ दर्शन करने न कह कर कवि ने दर्शन देखने कह कर 
अर्थ और शब्द दोनों में लालित्य लाया है) जाऊँगी। 
अह्य | मैं छुरति के चौके पर चढ़ कर उस जोगी का'दर्शन करने जाऊँगी |! कबीरदास 
ने यह मंगल गीत ब्याह का गाया है | हे सजनि,सतगुर ने अलख को भी सुमेदिखा दिया | 
(९) 
अपना राम के बिगाइल बतिया केहू ना बनाई। 
राम बिगढ़ गहले, लक्षिमन बिगढ़ले, बिगड़े जानकी माई। 
अंजनि - पुत हनिवन्ता बिगड़ि गैले, छिन में कहले उजारी ॥ 
तितलौकी के बनली तुमढ़िया, सबे तीरथ कह आईं। 
साए संत्र सब अचवन लागे, तब हूँ ना छुटे तिताई॥ 
आसन हुटे, बासन छूटे, छुटी ग्रेज्ञे महल श्रढ्वरी। 
जेकर लाल पकड़ले बेगारी, केड नाहीं लेत छुड़ाई॥ 
कहे कबीर सुनो भाई साथो, यह पद्‌ हव तिरवानी । 
जे यह पद के अरथ लगहहें, उहे गुरु हव श्वानी ॥ 
अपने राम की (खुद अपनी) बिगाड़ी हुई बातें कोई नहीं बना सकता | रामजी बिगड़े, 
लक्ष्मण बिगढ़े और माँ जानकी भी बिगड़ गई । अंजनिपुत्र हनुमान बिगढ़े और छण- 
मात्र में लंका उजाड़ डाले। तितलौकी की ठुमड़ी बनी और उसने सभी तीर्थों का भ्रमण 
भी किया । साधु-सन्त उससे पानी ले हाथ-मु ह भी धोने लगे तब भी उसकी विताई नहीं छूटी । 
अपना आसन छूट गया, निवास भी छूट गया और महल, अगरी सभी छूट गये। किन्तु 
जब उसका पुत्र बेगारी में पकड़ा गया तब कोई उसे छुड़ाता नहीं। कबीर कहते हैं कि 
दे माई साधुओ, सुनो । यह पद निर्बानी पद है। जो इस पद का अर्थ लगायेगा, वही 
गुरु झौर शानी है । 


१७० 
डड़ि गइते रा ! यह मोरे--देसवा, 
सैया यह जग कोई नाहीं आपन। 
कंकड़ महल उठाया, पत्थर कई द्रवाजा। 
ना 2 घर तेरा, चिरिया रैन बसेरा || 
बाप रोवेत्े पूतत सपूत्रा, भदआ रोबे 'बउमासा। 
तट छिटकवल्ले. उनकर॒ तिरिया जे रोचे। 
परि गहले . पराया जिय आसा ॥ 
कहत कबीर सुनो भाई साधो, यह पद हव निरवानी। 
दे यद पद के अरथ लगइदें, उद्दे 'गुद महा शानी॥ 


श्राठवी श्रदी से ग्यारहवीं सदी तक दै९ 
इस मेरे देश से हंस उड़ गया। है भाई, इस जगत में कोई अपना नहीं है। कंकड़ 
चुन-चुन कर महल उठाया ओर पत्थर का दरवाजा लगाया। किन्तु यह घर न मेरा रहा 
झौर न तेरा । यह केवल पक्की का रैन-बसेरा मात्र सिद्ध हुआ। पिता रोते हैं कि पुत्र 
सपूत था, और भाई चौपाल में रोता है कि अब काम केसे होगा ! लट बिखेरे हुई 
उसकी पत्नी इसलिए रो रही है कि अरब मैं पराश्निता हो गई | कभीर कहते हैं कि हे भाई 
साधुओ, सुनो यह पद निरवानी पद है जो इसका अर्थ लगायेगा, वही महाज्ञानी है। 
( ११ ) 
'नइया बिच नदिया हूबलि जाइ ॥ 
एक अ्रचरणज हम देखल सन्‍तो कि बानर दृहले गाइ॥ 
बनरुत दुधवा खाद पी गइले, घीडआ बनारस जाइ ॥ 
एक सिहरी के मरले सन्‍्तो नौ सौ गीध अधघाह। 
कुछ खइले, कुछ भुइआँ गिरवले, किछु छुकड़न लदाइ ॥ 
एक, अचरज हम देखल सनन्‍्तो, जल बीच ल्ागति आगी ॥ 
जलवा जरि बरि कोइला भइले, मछुरी में ना लागल दागी। 
एक चिडंदी के भूठले सन्‍तो, नदी नार बहि जाई। 
बर्हना बहुआ पखारेले धोतिया, गोड़िया लगावे महाजाल ॥ 
कहत कबीर सुनो भाहू सन्‍्तो, यह पद हव निरबानी। 
जे यह पद्‌ के अरथ लगहहें, से गुरु महा ज्ञानी ॥ 
इन गीतों का असली अ्रथ कबीर के शब्दों में कोई महाशानी गुरु ही कर सकता है, 
जो लेखक नहीं है | शब्दार्थ यो है-- 
नाव के बीच में नदी डूबती चली जा रही है | हे सन्तो, मैंने एक आश्चय देखा कि 
बन्दर गाय दूृह रहा है। बनार देव तो दूध को खा-पी गये; परन्तु उस दूध का घी बनारस 
भेजा जा रह्य है। एक सिहरी (सिधरी मछली, तीन ईच की एक छोटी मछली) के मरने 
पर हे सन्‍तो, नौ सौ गिद्धों को मैंने श्रघाते देखा | उन्होंने कुछ तो खाये, कुछ प्रथ्वी पर 
गिराये और बाकी गाड़ियों पर लदाया गया | है सन्‍्तो, एक आश्चय मैंने यह देखा कि 
जल के बीच आग लगो हुईं है । जल जरकर और बर कर कोयला हो गया; पर उसी में 
रहनेवाली मछली को दाग तक नहीं लगा । फिर एक चींटी ने पेशाब किया और नदी- 
नाले बह निकले। उसमें ब्राक्षण बधू तो धोती पखारती है और मल्लाह उसमें महाजाल 
लगाता है। कबीर कहते हैं कि हे सन्‍्तो, सुनो यद्द पद निर्वानी पद है [यानी वाणी 
(अमिधा) द्वारा इसके वाकक्‍्यों का अर्थ नहीं लगाया जा सकता ]। जो इसका अर्थ 
सममेगा, वही गुर और महाशानी है। ४5) 
१२ 


अमरपुर बासा, राम चले जोगी। 
राम चल्ले जोगी, राम चल्ने जोगी ॥अमर०॥ 
१, इस गीत का दूसरा पाठ गीत न० २३ में है, जो ज्नी-समुदाय से प्राप्त हुआ है। वह 
पाठ अधिक शुद्ध ज्ञात द्वोता है । 


शक भौजपुरी के कवि और काव्य 


ओह जोगी के रूप न रेखा, अबतक जात केहू' नाहीं देखा । 
राम चले जोगी, राम घल्ले जोगी, अमरपुर बासा ॥ 
एक हे कोठरी में दस दरवाजा । 
नव हऊेुए चोर, एक हऊँए राजा॥राम चल्लेण। 
कहत . कबीर साहब, सुन भोरी भाता। 
अपने तू सेंख5 हमार कवंन आसा ॥राम चल्ले०॥ 


अमरपुर में राम का निवास है | हे योगी, ठुम वहीं राम के पास चलो | उस योगों 
की रूप-रेखा नहीं है-यानी निराकार निगु ण॒ है| उसको श्राते-जाते किसी ने नहीं देखा है। 
हे योगी | राम के पास चलो, एक कोररी में दस दरवाजे (दस इन्द्रियाँ) हैं। उनमें नौ हो 
चोर हैं और एक (मन) राजा है | कबीर साहब अपनी माता से कहते हैं----है मेरी माता, 
सुनो तुम अपने लिए सेंखों । मेरी क्या आशा है ! 


(१3) 
कर हो मन रास नाम धनखेती ॥ 
रास नाम के बोअना हो, उपजे हीरा-मोती। 
शान ध्यान के बयल बनल हव, सन आई तब जोतीं ॥कर5 हो ०॥ 
पहिल पहिल हम खेती कइक्षी, गंगा जसुन के रेवी । 
यह खेती में नफा बहुत दव, जीव के सुक्ति होती ॥करड हो 
मोलना होय कुरान के बाँचे, परिडत बाँचे पोथी। 
भाव भगत के मरम न जाने, सुक्ति कहाँ से होती ॥कर5 हो ०॥ 
कहें कबीर सुनो भाई साथो, ना लगिह कौड़ी चित्ती | 
ना लगिएेँ दाम छुदाम पास से, सुफुत में बनिहे खेती ।कर5 हो०॥ 


है मन, राम-नाम रूपी धान की खेती कर | राम-नाम को बोने से हौरा-मोती उपबता 
है। शान-ध्यान नामक दो बैल हैं। जमी मन में इच्छा हो, तभी उन्हें जोत ले। पहले 
पहल मैंने खेती गंगा और यमुना की रेत में की। इस खेती में नफा बहुत हुआ, जीव की 
मुक्ति हुईं। मौलाना होकर कुरान पढ़ता है और परिडत होकर पोथी बाँचता है। पर 
भाव-मक्ति का भेद दोनों नहीं जानते । उनकी मुक्ति कैसे होगी ! कबीर साइब कहते हैं कि 
हे भाई सन्‍्तो ! सुनो, इस खेती में एक चित्ती कौड़ी भी व्यय नहीं होती । इसमें पास से दाम- 
छुद्ाम मी खच नहीं होते, मुफ्त में ही खेती बन जाती है| इसलिए राम नाम की खेती करो | 


( १४ ) 
हमके गुरूजी पठवले चेला सो निञ्राभति लेके आना॥ 
पढ़िले निआ्रामति आठा ल्ञाना, भाई बहिन के मति सताना। 
चकही जाँता बचा के चेला, भोजन भर के तुम जाना ॥हम०॥ 
दूसर नेश्यामत पानी लाना, तलाब पोखरा पास ने जाना। 
छुआँ इनरा के बचा के चेला, कमंडल भर के लाना [हस०॥ 


आठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तक ४१ 


तीसर नेत्रामत लकड़ी, लाना, बीरीछा डार के पास न जाना । 
सूरी ओदी बचा के चेला, बोर्ता बाँध तुम लाना ॥हमणा 
चडथा नेआमत कलिया लाना, जिश्राजन्तु के पास न जाना। 
मुआ जीआ बचा के चेला, खप्पर भर के लाना ॥हम०॥ 
कहें कबीर सुनो भाई साधों, यह पद्‌ दव निर्वाना। 
ई पद के जे अरथ लगहहें, सेई बैकुण्ठे जाना ॥हम०॥ 


हमको गुर जी ने भेजा है और कहा है कि हे चेला, न्यामत लेकर लौटना। उनका 
झ्र।देश है कि पहली न्‍न्यामत आदा लाना; परन्तु माँ-वलहन को सताना मत। उन्होंने 
कहा है;--है चेला, भोजन भर का आटा लाना, पर वह जाँता-वक्की का आठा पीसा न 
हो | उससे बचा हुआ हो । फिर उनका आदेश है कि दूसरी न्‍्यामत पानी लाना; परन्तु 
देखना, ताव और तालाब के पास मत जाना | इनारा-कु आअ बचा कर कमण्डल भर जल 
लाना | तीसरी न्‍्यामत लकड़ी लाने का थादेश है, परन्तु निषेध है कि वृक्ष या डार 
के पास न जाना और इस के साथ ही वह लकड़ी न सूखी हो और न श्रोदी हो। 
फिर मी पूरा एक बोक लकड़ी बेँधी हो । फिर उनका हुकुम है कि चेला, चौथी न्यामत 
कलिया (मांस) लाना । परन्तु देखना जीव-जन्ठु के पास हरगिज न जाना। मरा और 
जिन्दा दोनों को बचा कर खप्पर भर कल्षिया लाना। कबीर साहब कहते हैं--है भाई 
शुभ, सुनो यह पद निर्वानी है। इस पद्‌ कः जो अरथ लगायगा, वही चैकुएठ जा 

॥। 


( १५ ) 


अगवा रास नास नाही आई, पाछुवा समुझि पढ़ी दो भाई। 
अहसन नामवा आवे कंठ भीत्तर, छाड़ि कपट चतुराई। 
सेचा बंदंगी करो रे मन से, तथे मिल्नी रघुराई ॥अगू'चा०॥ 
कर से दान कबहु ना कइ्टल, तीरथ कबहूँ ना नहाई। 
एही पाप से बादुर बन में, उलटि पाँच टंगाई ॥अगू'वा०॥ 
रामनाम कण तागा भेजे , धागा अजब बनाई। 
मातु पिता के दोष ना देवे, करम लिखल फल पाई ॥अगू'वा०॥ 
कहे कबीर सुन भाई साधो, देखली जगत दुनिआई | 

साच कहे जग सारत्ष जावे, झूठे सब पतिआई !]॥झगरूवा० 


है भाई, आगे जो राम-नाम मुख, में नहीं आया, तो पीछे समझ पड़ेगा। ऐसा नाम 
कंठ के भीतर आवे कि कपट-चतुराई सब छूट जाय । सेवा ओर नमस्कार मन से खूब करो 
तभी राम मिलेगा | हाथ से तो कभी दान नहीं दिया और तीथथ-स्नान भी नहीं किया | इसी 
पाप से बादुर वन-बन में उलटे पाँव टेंगा कर लटके हुए हैं | राम एक तागा है जो अजीब 
तरह से बना हुआ है। माता-पिता का दोष नहीं देना है, जो करम में लिखा है, वही फल 
पाना है | कबीर कहते हैं--हे भाई सन्तो | सुनो, मैंने इस जगत को और इसकी हुनियादारी 


४२ भोजपुरी के कवि और काव्य 


को देख लिया। यहाँ साँच कहनेवाला मारा जाता है और भूठ कहनेवाले का संसार 
विश्वास करता है। 
( १६ ) 


प्रेम के चुनरीआ पहिर के हम चलली हो साजनवाँ, 

शान दीपक लेले हाथ हो साजनवाँ॥१॥ 

सतगुरु सत लरवा लावल हो साजनवाँ, 

खुली गइले सरम केवाद हो साजनवाँ॥२॥ 

गंगा जमुनवाँ के संग्स बहत हो साजनवाँ, 

करू बत्रिवेनी असनान हो साजनवाँ ॥श॥ 

साहब कबीर यह झुमर गायल दो साजनवाँ, 

बहुरी न अइबों संसार हो साजनवाँ॥४॥ 
हे साजन, प्रेम की चुन्दरी पहन कर ही मैं चल निकली हूँ । अपने हाथों में हे साजन, 
ज्ञान रूपी दीपक लेकर ही मैं बाहर निकल पड़ी हूँ । सतगुरु धन्य हैं जिन्होंने मुझे तत्‌ को 
दिखाया | हे साजन ! गंगा-यमुना का संगम बह रहा है | इस त्रिवेणी में ही स्नान करो | 
कबीरदास ने इस भूमर को गाया है | है साजन, अ्रत्र इस संसार मुझे फिर नहीं आना है। 


( ३७) 

मन भावेला भगति भिल्िनिये के । 

पांडे ओका, सुकुल तिवारी, धंदा बाजे डोमिनिये के || 

गंगा के जल में सभे नहाला, पूत तरे जोलहिनिये के । 

कहे कबीर सुनो भाई साधो, अइले बिमान गनिकवे के 0 

मिल्लिनी की भक्ति ही उन परमेश्वर के मन को भाती है| पांडे, श्रोका, शुक्ल, तिवारी 
आदि नामधारी लोगों की अ्रचनाएँ वेसी ही पड़ी रह गईं; पर डोमिन का धंठा उनके द्वार 
पर बजने लगा। गंगा के जल में तो नित्य सब स्नान कर हो रहे हैं; परन्तु कोई तरा तो 
केवल वह जोलहिनिया पुत्र ( कबीर ) ही तरा। कबीरदास कहते हैं कि दे साधो सुनो, 
किसी के लिए विमान नहीं आया और यदि वह आया; तो केवल गनिका नास्नी वेश्या के 
लिए ही आया | 
( १८ ) 

कल्षवारिन होहबो, पिलबो में मदिरा बनाय। 

सन महुआ गुर गेयान जबर करि, तन के भठी चढ़इबो। 

घत गाँछु के लकड़ी मँगंइबों, प्रेम अगिनि धधकडवों || 

यह बोतल के बहुत दाम हो दारू सराब न पहबों। 

सभ संतन के लागल कचहरी दुरुअन ढार चलइबों ॥ 

दारू पी मन मस्त भइल सत के रूप बनि जडबों । 

कहे कबीर सुनो भाई स्राधो, राम-नास गोहरइबों ॥ 


आठवीं सदी से ग्यारिहवीं सदी तक ४३ 
मैं कलवारिन बन गा और खुद मदिराःबना कर पीऊँगा | मन का महुआ और गुरु- 
ज्ञान का गुड़ इकठा कर शरौर को भट्ठी पर चढ़ा ऊँगा । सत्‌ रूपी गांछ की लकड़ी मगाऊँगा 
और प्रेम की अग्नि धधकाऊँगा | अ्रहों, इस बोतल का बहुत मूल्य होगा ! इसको दारू या 
शराब नहीं पायगा। सब्न सन्तों की लगी हुई कचहरी में मैं इसी दारू को ढार-ढार कर 
चलाऊँगा और इस दारू को पीकर मेरा मन मस्त हो गया है। मैं अब सत रूप बन 
जाऊँ गा । कबीर कहते हैं कि हे भाई सन्‍्तो, अब मैं राम-नाम पुकारूँगा। 
( १६ ) 
पाँचों जानी बलम्‌ सेंग सोईगे । 
पाँचो नारी सरब गुन आगरि एक से एक पिआरी जानी । 
पाँचो मारि पचीस बस कइले, एक के प्यारी बनावे जानी | 
एक सखि बोले पिया बतलावे, ना बतलावे लगाही बानी ॥ 
कहे कबीर सुन भाई साधो, सुर नर मुनि के एके जानी || 
पाँचों जनी (पाँच तत्त) बालम के साथ सो गईं । पाचों जानीं सब गुणों से सम्पस्न हैं 
और एक-से-एक पियारी हैं। पाचों को मार कर पच्चीस (तत्त्व) को वश में किया और एक 
को प्यारी बनाया । एक सखी ने कहा कि अरे, प्रीतम तो बातें बता हो देता है, फेषल 
हक वह नहीं बताता | कबीर कहते हैं है भाई सन्‍्तो, सुनो सुर-नर-मुनि सबको एक 
| 


२० ) 

चलू मन जहाँ बसे है हो बैरागी मोरे थार। 

लगली बजरिया धरमपुर हो हीरा रतन बिकाय। 

चतुर चतुर सौदा करि ले ले हो सुरुख ठाढ़े पद्िताय । 

साँप छोड़े साँप केचुलि हो, गंगा छोड़ेली अरार। 

प्राण छोड़े घर आपन हो, केऊ संग नाहीं जाय।॥ 

छोदी मुटी डोलिया चननवा के हो, लागे बतीस कहार। 

लेके बिदावन उतरे हो जहाँ केड ना हमार || 

पाँच कुइहया नव गागर हो सोरह पनिहार ॥ 

भरल गगरिया ठढरकि गइली हो सुन्दरि खाड़े पछिताय | 

दास कबीर निरयुन गापेले हो शंकर द्रबार। 

अबना आइबि भव सागर हो कइसे उतरबि पार ॥ 
है मन, है मेरे बैरागी यार मन ! वहाँ चलो, जहाँ ठुम्ह्ारा भ्ीवम बसता है। धममपुर 
का बाजार लगा हुआ है । वहाँ हीरा-रत्न बिक रहे हैं | चतुरों ने तो सौदा कर लिया । मू्ल॑ 
खड़े-खड़े पछता रहे हैं | साँप अपना केंचुल छोड़ता है और गंगा अरार (किनारा) को 
छोड़ रही है। प्राण अपने घर को त्याग रहा है और कहीं कोई उनके संग नहीं जा रहा 
है। छोटी-सी डोली चन्दन की है | उसमें बत्तीस कहर लगे हुए हैं| मुझे लेकर उन्होंने 
बुन्दावन में उतारा, जहाँ हमारा कोई नहीं था। पाँच कु ए हैं और नव गागर हैं तथा 


हर भौजपुरी के कवि और काब्यं 


सोलह पनिहारिनें हैं। मरी हुई गगरी लुढ़क गई और सुरद 

कबीरदास शंकर भगवान के बार मे निरगुन 3 हे है“ पे 

भवसागर में नहीं भ्राऊँ गा | कैसे मैं उस पार उतरूँगा, यही सोच रहा हूँ । 

(१8 ) 

सइयाँ जी विदेसे गइले राम सबती के भगरबे | 
अइसन बिहिए हम ना. जिश्रबि। 
नहृहरवा भागि जाइंबि हो रास ॥ 
फूल तोरे गइलीं बारी सारी भोरे अठके। 
बिना सइयाँ सारी सोरे केह्ू ना उतारेला हो राम || 
सारी मोर फादि गइली, चोलिया मसकि गइली। 
नयन किनरवे नव रंग भींजल हो राम ॥ 
दास कबीर ए राम गावे निरगुनवा। 
गाई गाई सखी के बझुकबिले हो राम॥ 

मेरे तैयाँ जी सव॒ति के माग़े के कारण विदेश चले गये । हा राम ! ऐसे विरह में 
मैं जिन्दा नहीं रूँगी | मैं नइृहर भाग जाऊं गी | द्वा राम ! मैं तो फूल तोड़ने पुष्पवाटिका 
में गई; पर मेरी साड़ी ढार से उल्लक गई। दवा, श्रव मेरे सैयाँ के विना मेरी साड़ी को 
कोई नहीं उतारता (छुड़ाता) है । मेरी बह साड़ी फट गई, चोली मसक गई और मेरे नेत्रों 
के किनारे नव रंगो से भींग गये । कबीरदास राम का निरगुन गाते हैं और गा-गा करके 
सखी को बुमाते है (सममाते ) हैं। 

(२२ ) 
छुठिया से उठेली दरविया पिया के जयाव बारी हो ननढ़ी । 
हैंया मोहे सूते ए राम प्रेस के अदरिया। 
खोल ना केवरिया ए रास पूछी दिलवा के बतिया, बारी हो चनदी। 
आधी-आधी रतिया ए राम, धरमता के बेरवा। 
जमले दोरिलवा धगरिनि बोलाव बारी हो ननदी ॥ 
सब अभरनवा ए ननदी बानिह लगा मोध्रिया। 
समुम्ि-ससुझि के डेगवा डाल बांदी हो ननदी॥ 
बाड़ा ए सुद्िवा ए जमले होरिलवा। 
झझ्ुरत केसिया. सवार बारी हो नबदी॥ 
दास कबीर ए राम गावे पंद विरगुववा। 
हरि के चरनिया अब चित लावहु रे ननदी ॥ 

ह मेरी बारी उमखवाली ननद, मेरी छाती से दर्द उठ रहा है। मेरे पिया को जगाश्नो। 
मेरे प्रीतम प्रेम'की अठारी पर सोये हैं । व्‌ किंवाड़ खोलो, जिससे कि मैं दिल की वा 
पूछूँ । श्राधी रात को, जब धर्म की बेला है, होरिला (बालक) कट कि हे हा 
मसद, धगरिम (चमाइन) को बुलाओ | हें ननद | अब सब आशभूषर्णी की गढ़ 


आठवीं संदी से ग्यारहवी सदी तके ३५ 


लौ और खूब समक समझ कर पण डालो। बढ़े सुदिन में हे ननद, होरिला जन्मा है। 
हे मेरी बारी ननद ! उलके हुए केशों को संवार दो । कबीरदास राम के निगुण पद गा 
रहे हैं और कहते हैं कि हरि के चरणों में अरब चित्त लगाओ | 
(२३ ) 
मैया नीचे नदिया हूबी ए नाथ जी 
अझब नहया में नदिया हबी। 
एक अचरज हम आउर देखली 
कुँइया में लागल बाढ़ी आगि ॥ 
पानिया भरिजरिं कोइला हो गइल, 
अब सिधरी बुझाबताड़ी आमि | 
एक अचरज हंस आउर देखल्ी 
* बानर दुदे. भेनु गाई। 
अजी दुधवा दुह्टि दुद्दि अपने खइले 
घीठवाँ.।. बनारस जाई ॥नैया०॥ 
अजी एक अचरज हम अउरी देखलीं 
चिंडदी सलुरवा जाइ | 
झजब नव सन कजरा लाइ, ए नाथ जी (नैया ०॥ 
अरे हाथी मारि बगल धह दबली 
अउर डेंटवां के दिहली लटकाई। 
अजी पक चिंडदी का मरते नव सौ गीध अघाय ॥नैया०॥ 
कुछ खइले कुछ भुईंया गिरवले कुछ सुहवाँ में लपठाइ। 
कहेसे कबीर बचन के फेरा ओरिया के पानी बद़ेरिया जाइ" ॥ 
हे नाथ, अ्रव नाव के धीच नदी डूबेगी। अब नाव के धीच नदी डूबेंगी | एक 
श्राश्वय मैंने और देखा कि कु ए में आग लगी हुई है। पानी तो जरकर कोयला हो 
गया; पर सिधरी मछली तब भी आग बुस्मा रही है। अजी एक अचस्मा की बात मैंने 
और देखी कि बन्दर घेनु गाय दृह रहा है। दूध तो दूह कर उसने स्वयं पान किया; परन्तु, 
तब भी धी बनारस भेजा गया | अजी एक आश्यय्य मैंने और देखा कि चोंठी सासुर जा 
रही है, और नव मन काजर अपने नेत्रों में लगा कर जा रही है। फिर हाथी को मार 
कर तो उसने बगल में दाब लिया और ऊँट को लटकाये हुए. ले चली | फिर एक आश्चर्य 
मैंने और देखा कि एक चींटी मरी और नव सौ गिद्ध उसे खाकर अ्रघा गये । गिद्धों ने कुछ 
तो खाया और कुछ पृथ्वी पर गिराया भी और कुछ उनके,मुखों में लपणाया ही रह गया । 
कबीर दास कहते हैं कि वचन का फेर है" छुप्पर-की ओरी का पानी बड़ेर पर जाता है | 
१ बह गोत एक महिला से प्राप्त हुआ है। इसमें कुछ-चरण इधर-उधर के जान पढ़ते 
हैं। फिर भी जैसा प्राप्त हुआ, वैसा यहाँ दिया गया है। इस तरह के भीत॑ का दूसरा 
पाठ गोत न० ११ में भी है । कई चरणों का साम्य भौ'है। 


8६ भोजपुरी कै कवि और काव्य 
(२४ ) 
ओह दिनिवा के ततबीर कर हो चोला, वोह दिनवा के ततबीर ॥ 
भव सागर केराह कठिन बा नदिया बहे गंभीर। 
नाव ना बेड़ा लोग घनेरा खेवन वाला जहुबीर ॥ 
ना संग जहहें भाह भतीजा, ना संग जहहें नारी। 
ना संग जहहें धन दृडलतिया, ना संग जाले शरीर ॥ 
जम्हु के हुअरा लोहा के सीकर बान्हताड़े मुसुक चढ़ाइ | 
ले सोदा जम्हु मारन लागे, पूछ ताड़े पिछुला कमाइ ॥ 
कहैेले कबीर सुनो भाई साधो ई पद्‌ हडवे खही ॥ 
हे मेरे चोला (शरीर) ! उस दिन का तदबीर करलो। उस द्निका तदबीर कर लो | 
इस भब-सागर की राह कठिन है। बहुत गदरी नदी बह रही है । न कोई नाव है और न 
कोई बेड़ा है। बहुत-से लोग जानेवाले खड़े हैं| खेनेवाले का बल वही यहुबीर ही है । 
अपने संग में भाई-मतीजा कोई नहीं जायगा, म नारी ही जायगी | ये घन दौलत और 
न यह शरीर ही साथ जाते हैं। यम के दरवाजे पर लोहा का सीकड़ है। वह मुसुक 
चढ़ाकर बाँधता है, सोटा लेकर पीय्त। है और पिछली कमाई पूछता है। कबीर साहब 
कहते हैं. है भाई साधो, यही सह्दी और ठीक है। जो इस पद को बृमे-समसेगा वहीं नर 
सही रास्ते पर है| 
(२५ ) 


अली गवनवा के सारी हो, अइली गवनवा के सारी । 
साज समाज ले सइयाँ मोरे ले अइले कहरवाँ चारी। 
बभन बेचारा दुरदिओ ना बूमे जोरत गठिया हमारी ॥ 
सखी सब गावेली गारी ॥ 
बिधि भैले बास नाहीं समुकि परे कुछ बैरन भइली महतारी। 
रो रो अखियाँ धुमिल भई सजनी घरवा से देत निकारी । 
भइलीं सबके हम॑ भारी ॥ 
माता पिता बिदा कर देखन सुधि नाहीं लेलन हमारी । 
धइ बहिया भकभोरि चढ़वले केडना छोड़ावन हारी । 
देखहु, यह अति बरिआरी ॥ 
कहत कबीर सुनो भाई साधो प्यारी गवने सिधारी । 
अबकी गवनवे लचटि नाहिंअवना करिलेहु भेंट सब नारी | 
। चली में ससुरा बिहारी ॥ 
अंब गंबना की सारी (नेआर)' आरा गई। अब गवना की सारी आ गई श्र्थात्‌ 
द्विरागमन के लिए बुलाहट आरा गई । मेरे प्रीतम साज-सामान सब लेकर आये और 
कहार भी चार लाये | ब्राह्मण बेचारा देरद नहीं बूकता है। वह हमारा है औ< 6 
के साथ कर रहा है। सलियाँ सब गाली गा रही हैं । विधाता हमारे वाम हो गये है। 


आठवीं सदी से ग्यारह्ी सदी तक छ७ 


" मुमको कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करूँ ! मेरी माँ भी आज बैरन (शत्रु) 
' बन गई है| रो-रो कर-मेरी आँखें धूमिल हो गईं। साथ को सखीःसहेलियाँ घर से मुझे 
निकाले दे रही हैं। हा! आज मैं सब के लिए भारी हो गई | माता-पिता ने मुझे विदा 
कर दिया। उन्होंने मेरी जरा भी सुधि नहीं ली | हे सखि ! बाँह पकड़ कर और मकमोर 
कर वे मुझे डोली में चढ़ा रहे हैं और हा ! कोई मुझको छुड़ानेवाला नहीं है | हे राम 
देखो, यह अत्यन्त बरिआरी (जबरदस्ती) है। कबीर कहते हैं कि हे भाई साधो, सुनो प्यारी 
ने द्विरागमन के अवसर पर प्रस्थान किया। इस बार का जाना, फिर लौटना नहीं है। 
सब अच्छी तरह अँकवार-मेंट कर लो | 

उपयक्त गीतों में मोजपुरी शब्दों, क्रियाओं आदि के अ्रनेक प्रयोग हैं; केवल इतना 
कहना ही न्यायसंगत नहीं होगा | वास्तव में ये गीत ही भोजपुरी के हैं जिनकी विशेष 
विवेचना की आवश्यकता नहीं जान पड़ती । 





कमालदास 
कमालदास कबीरदास के पुत्र थे। आपने भी भोजपुरी में कबीर की तरह अनेकों 
रचनाएँ की हैं| श्रापकी वाणी भी कबीर की तरह कहीं-कह्दीं उलठी होती थी। श्रापके 
सम्बन्ध में कबीर की कही हुईं वाणो आज भोजपुरी में कहावत की तरह व्यवह्ृत होती है--- 
४गइल वंश कबीर के जमले पूत कमाल” | 
परन्तु वास्तव में जिस अथ्थ में इसे हम आज प्रयोग करते हैं, वेसा कमाल साहैब 
नहीं थे। आप पहुँचे हुए सन्त थे और सन्त-समाज में आपकी पूरी ख्याति है। उपयुक्त 
कहावत से मालूम होता है कि कमालदास के बचपन की चाल-ढाल कबीर साहेब को पसन्द 
न थी | कमालदास की भोजपुरी कविताओं को देखिए-- 
(१) 
अइसन ज्ञान न देखल अबहुल । 
माता मेरी पहिल्ते मरी गे पीछे से जनम हमारा जी। 
पिता हसरो बियहन चललें हम तो चत्नी बरिआती जी ॥ 
ससुर हमारा असिश्न बरिस के सासु त बाड़ी कुमारी जी। 
सटयाँ भोरा पलँँग चढ़ि हले हमत झुलावनहारी जी। 
चारो भाई हम एकर्सेंग जनमत्ी एकु मरत हम देखती जी ॥ 
पाँच पचीस भौजइया देखनी तीस के ल्ागल लेखा जी ॥ 
कहे कमाल कबीर के बालक ई पद हडएु सही जी। 
जे यह्दि पद्‌ु के अरथ लगदहहें सेही गुरु हम चेला जी || 
हैं अब्दुल, ऐसा श्ञान हमने नहीं देखा | मेरी माता पहले मर गई और मेरा जन्म 
पीछे हुआ | मेरे पिताजी विवाह करने चले और मैं उनकी बारात में चला | हमारे ससुर 
जी तो अस्सी वर्ष के हैं, पर हमारी सास अभी कुआरी ही हैं। मेरे पति पर्लेंग पर चढ़ कर 
भूला भूलते हैं और में कूला भूलानेवाली हूँ | हम चारों भाइयों ने एक साथ जन्म 
लिया; पर एक को मरते हमने अपनी आँखों देखा | इसने पाँच और पचीस मौजाइयों को 


३८ भोजपुरी के कवि और काव्य 


देखा और तीस का लेखा पूरा हुआ | कबीर के पुत्र कमाल कहते हैं कि यह पद सही है | 
जो इस पद का अ्रथ लगायगा, वही गुरु होगा और मैं उसका चेला बनू गा | 
(२) 
समझे बूक दिल "खोज पिआरे। 
आसिक हो के सोना का॥ 
जिन वयनों से नींद गँवावल 
तकिया लेप बिछचना का।॥ 
रूखा सूखा राम के हुकड़ा 
चिकना अबर॒ सलोना का॥ 
कहत कमाल -प्रेम के मारग 
सीस देह फिर रोबा का॥ 
हे प्यारे, समझ-बुक करके अपने दिल में खोज | प्रेम में पागल होकर के अरब सोना 
केसा ! नयनों से तुमने नींद भुला दी | भ्रब ठुमको तकिया, उबठन और बिछावन की क्या 
आवश्यकता है ! रूखा-सूखा राम का दिया हुआ टुकड़ा ही जब खाना है, तब उसमें 
धुत और नमक का प्रश्न केसः ! कमाल कहते हैं कि अरे भाई प्रेम के मार्ग में शीश 
(सिर) देकर फिर रोना केसा 


पचरमदास ! 
घरंमंदांस कबीरदास के शिष्य थे। आपका समय कब्ीरदास की मृत्यु तथा उसके 
बाद का समय है| यानी संवत्‌ १५७४, चाहे उसके बाद | आपने भी भोजपुरी में कविता 
की है* | 
“बर्मदास जी बाँधो गढ़ नगर (रोवाँ राज्य) के एक बड़े महाजन थे | इनके जन्म और 
मृत्यु के समय का ठीक-ठीक पता नहीं है | कहते हैं, कबीर साइब ने इन्हें सन्त मत का 
उपदेश दिया और चमत्कार दिखाया, जिससे इनका उनपर पूरा विश्वास हो गया। ये 
उनके पूरे भक्त हो गये | इन्होंने अपना सारा धन लुटा दिया और काशी में आकर गुर 
के चरणों में रहने लगे | गुरु की कृपा से ये भी अच्छी स्थिति के महात्मा दो गये | कबीर- 
दास के परम घास पधारने पर झपही उनकी गद्दी पर बेठे |” इनकी कुछ कविताएँ यहाँ 
दी जा रही हैं -- 
(१) 
मितऊ भड़ैया सूनी करि गैलो । 
अपने बलमु परदेस निकसि गैलो, हमरा के कछु नागुना देह गेलो ॥१॥ 
जोगिन होइके मैं बन बन द्वँढ्ों, हमरा के बिरहा बिराग देइ गेलों ॥२॥ 
संग के सखी सब पार उतरि गैलो, हम धनि ठाढ़ अकेला रहि गैलो ॥३॥ 
घरमदास .यह अरज करत हव, सार सबद सुमिरन देह गैलो ॥शा 
१. धर्सदास जी का यह परिचय “कल्याण” के 'योगाइ” से लिया गया है। इनके 
गीत और भोजपुरी कविताएँ कबीर-पंथी प्रन्थों में अचुर मात्रा में पाई जाती हैं। 


आठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तक ४९ 


मेरा मित्र मेरी मड़ई सूती करके चला गया । बालम अपने तो परदेश निकल गया; 
पर मुझको कोई गुण नहीं दे गया | जोगिन बन कर मैं वन-वन उसको हूं ढती-फिरती हूँ। 
हा, मित्र ने मुकको विरह और वेराग ही देकर प्रध्थान किया । मेरे संग की सभी सखियाँ 
पार उतर गई; परन्तु मैं धनी (सोहागवती स्त्री) श्रकेली खड़ी रह गई | धरमदास अज 
करता है कि मित्र ने मुमकी सार शब्द के सुमिरन का आदेश देकर अस्थान किया है। 
उसी को जपना है। 
शायद इस गीत की रचना धरमदास जी ने कबीरदास के समाधि लेने के बाद की 
हो | इसमें कितनी विरहानुभूति आध्यालय पक्ष में व्यक्त है| भोजपुरी में 'भीत” का प्रयोग 
तब होता है जब एक ही नाम दो व्यक्तियों का होता है | एक व्यक्ति दूसरे को सम्बोधन 
करते समय उसका नाम न लेकर 'मीतः का प्रयोग करता है। आत्मा और ईश्वर के अथ 
में इसका कितना घुन्द्र प्रयोग हुआ है। 
(२) 

खेलत रहलीं बाबा चौपरिया, आह गैलें अनिह्दार हो। 

पार परोसिन सेटहूँ ना पवलीं, डोलिया फँदाये लिहे जात हो। 

डोलिया से उत्तरत्ती घा उतर दिस धनिया, नइ॒हर खायल आगि हो । 

सबद प छाल साईं के नगरिया, जह॒वाँ लिअवले लिहे जात हो । 

भादव नदिया अगस बघहे सजनी, सूकत आर ना पार हो। 

अबकी बेरिया साहेब पार उतारहु, फिरि ना आइब संसार हो। 

डोलिया से उतरे साहेब घरे सजनी, बहठे घूँघट टारि हो। 

कहे कबीर सुनो धरम दास, पाबल पुरुख अपार हो। 


बावा के चौपाल में खेल रही थी कि ले जानेवाले झा गये। अड़ोस-पड़ोस की 
सखियों से भेंट भी नहीं कर पाई कि वे सब डोली पर चढ़ा कर मुझे ले चले | मैं 
सोहागवती उत्तर दिशा में डोली से उतरी तो क्या देखती हूँ कि मेरे मायके में आग लगी है 
अर्थात्‌ मेरा शरीर (शव) जल रहा है। अनहद शब्द से साईं की नगरी छाई हुई है। 
वहीं मुझको लोग छिवाये चले आा रहे हैं| हे सजनी, भादो की नदी अथाह और अगस्य 
हो बह रही है। वार-पार कुछ नहीं सूकता है। हे मालिक, इस बार पार उतारो | अब फिर 
इस संसार में नहीं आऊ गी | है सखी, साहब के धर पहुँची तो डोली से उतरी और धूं घट 
हटा कर बैठी | कबीरदास कहते हैं कि हे भरमदास सखी को अपार पुरुष मिल गया | 


(३) 
अचरज खयाल हमरे रे देसवा। 
हसरे देसवाँ बादर उमड़इ, नान्‍्ही परेली फुहेरिया। 
बहठुक्ष रहीं चडयाने चठक से, भींजइ हमरी देहिसा॥ 
हमरे देसवाँ अरध मुख कुइयाँ, सॉँकर ओकर खरोरिया | 
सुरति सुद्ागिति जल भरि लावसु, बिल रसरी बियु डोरिया॥ 


ध० भोजपुरी के कचि और काव्य. 


हमरे देसवा चुनरि उपजै, मँहंगे मोल बिकाय । 

की तो लेइहहुँ सतगुरु साहेब, की केहू साधु सुजनिया ॥ 

हमरे देसवा बाजा बाजद, गरजी उठे अवजवा। 

साहेब 'धरमदास” मशगव होइ बइठे, तखत परकसवा ॥ 
श्रपने देश में मेने एक आश्चय देखा । हमारे देश में बादल उमड़ आये और नन्‍हीं- 
नन्‍हीं फुह्टियाँ बरसने लगीं। मैं चौराहे के मैदान में खुलेआम बैठी थी कि मेरा शरीर 
भींगने लगा । हमारे देश में अर्ध॑ं मुखवाल। कूप है। उसके पास जाने की गली अ्रति 
पतली है। सौमाग्यवती सखी 'सुरति” उस कुएँ से पानी बिना रस्सी और डोरी के भर 
लाती है | उस हमारे देश में चुन्दरी (सारी) बनती है। वह बड़े श्रधिक दामों पर बिकती 
है। उसको या तो साहेब (ईश्वर) खरीद सकता है या कोई बड़ा साधु या सुजान पुरुष 
ही । हमारे देश में बाजा बजता है (पारलौकिक) आवाज उठती है। “धरमदास” कहते हैं 
कि उस स्वर को सुननेवाले (ईश्वर) मगन होकर महाप्रकाश के सिंहासन पर बेंठे हुए हैं। 


(४) 
सोरा पिया बसे कवने देस हो ! 
अपना पिया के हूँ दन हम निकरसी । 
केड ना कहत सनेस हो॥ 
पिया कारन हस भइली बावरी। 
धइलीं जोगिनिया के भेस हो ॥ 
ब्रह्मा बिसुन महेस न जाने। 
का जानसु सारद सेस हो॥ 
धन जे अगस अगोचर पवलन। 
हम सब सहत कल्लेस हो ॥ 
उहाँ के हाल कबीर गुरु जानते 
आवत जात हमेस हो॥ 
अरे, मेरा प्रीतम किस देश में बसता है ! मैं तो अपने प्रीतम को हृढ़ने निकली थी; 
पर कोई मुझसे सन्देश नहीं कहता है | प्रीतम के कारण मैं बावरी हुई हूँ और मैंने जोगिन 
का भेष धारण किया है | उसको ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी नहीं जानते, शारदा श्र शेषनाग 
उसको क्या जानें ! वे नर धन्य हैं, जिन्होंने उस अगम और श्रगोचर प्रीतम को पा लिया। 
मैं तो केवल क्लेश ही सह रही हूँ | वहाँ का हाल 'कबीर गुरु? ही, जानते हैं, जो हमेशा 
वहाँ आते-जाते हैं । ; 


६.4 
साहब, तोरी देखीं सेजरिया हो। 
लाल महल कह लागल केंगूरा, ललहिं लागलि केवरिया हो। 
लाल पलेंगबा लाल बिछुवना, लालहिं लागि भलरिया हो ॥ 
लाल साहेब के लालहिं मूरति, लालि लालि अनुहरिया हो।, 
“घरमदास' ब्िनवें कर जोरी, गुरु के चरन बलिहरिया हो॥ 


श्आंठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तक ण्‌ई 


हे मालिक, मैंने तुम्हारी सब्या देख ली। तुम्हारे लाल महल का लाल कंगूरा 
है और उसमें लाल ही रंग की किवाड़ी लगी हुई है। तुम्हारा प्लेंग लाल है। उसपर 
बिछावन भी लाल ही है और उसमें लाल ही कालर लगी हुई हे | हमारे लाल साहब की 
लाल मूर्चि है और लाल-लौल सेविकाएँ हैं। 'घरमदास? हाथ जोड़ कर,बिनती करते हैं और 
अपने गुरु के चरणो पर बलिद्ारी होते हैं । 


(७) 
पिया बि्ठ मोरा नींद न आते ॥ 
खन गरजे खन बिजुरी चमके, उपरा से मोके माँ कि दिखावे। 
सासु ननदिं घर दारुनि अहई”, नित मोहि बिरहा सतावे ॥ 
जोगिन होह के बन-बन हूँ ढलीं, केउ नाहिं सुधि बतलावे। . 
“घधरमदास' विनवे लें कर जोरी, केड निअरे केउ दूर बतावे ॥ 


अरे, प्रीतम के बिना मुझे नींद नहीं आर रही है | कभी तो बादल गरजता है और 
कभी बिजली चमकती है| मानो ऊपर से कॉक कर वे मुझे संकेत बता रहे हैं। धर में 
कष्ट देनेवाली सास तथा ननद हैं और उसपर से बिरह मुझे नित्य सताया करता है। 
मैंने जोगिन बनकर प्रीतम को वन-वन हंढ़ा; पर किसी ने उनका ठीक पता नहीं 
बताया। धर्मंदास कर बाँधकर विनय करता है ओर कहता है कि उनका कोई ठीक 
पता नहीं बताता । कोई उन्हें निकट कहता है तो कोई दुर बताता है| 


(५) 
पिया बिनु मोहि नीक न लागे गाँव ॥ 
चलत चलत मोरा चरन हुखा गइले, ऑंखियन परि गइले धूरि | 
अगवाँ चलत पंथ ना सूकत, पछुवाँ परत ना पाँव ॥ 
'ससुरे जाऊँ त पिया न चिन्दद, नइहर जात छाजाड़ें ॥ 
इृहाँ मोर गाँव डहों मोर पाही, बीचवा अमरपुर धाम ॥ 
'धरमदास” विनवे कर जोरी, तहाँ ठाँव न गाँव ॥ 


प्रीतम के बिना मुझे अपना गाँव अच्छा नहीं लगता । चलते-चलते मेरे चरण दुख 
गये हैं और आँखो में धूलि पढ़ गई है। आगे चलने में तो पंथ नहीं सकता और पीछे 
को पाँव मुड़ नहीं पाते हैं | यदि मैं सासुर जाती हूँ तो प्रीतम मुझे पहचानता नहीं है और 
नइहर जाते मुझे लज्जा घेर लेती है। यहाँ मेरा गाँव (जन्म-स्थान) है और वहाँ मेरो 
पाहदी" है | बीच में अमरपुर नामक धाम है। 'धरमदास” हाथ जोड़ कर बिनती करते 
हैं और कहते हैं कि उस अ्रमरपुर धाम में न स्थल है और न गॉँव ही है ( मैं जाऊ तो 
कहाँ जाऊ १)। - 


१. (दूसरे गॉव में जो जाकर खेती की जाती है और हल-बैल वहां नहीं रखे जाते ; घल्कि 
नित्य अपने गाव से हो बैल खेती के लिए वहों ले जाने पढ़ते है। उस खेती को पाही कहते हैं) । 


७५३ भोजपुरी के कवि और काव्य 


तुम सत गुरु हम सेवक तोहरे । 

जो केउ भारे औ शरिआवबे, दाद फरियाद करबि तुमहीं से । 
खसोव॒त जागत के रछुपाला, तोहके छाढ़ि भजबि नाहीं अउरे ए 
तुम धरनीधर सबद्‌ अनाहद, अम्गत भाव करबि प्रभु सगरे। 
तौहरी बिनय कहाँ लगि बरनों, धरमदास पद गहले | 


हे प्रभु, तुम हमारे सतगुरु हो और हम तुम्हारे सेवक हैं| यदि कोई हमें मारता है या 
गाली देता है तो में तारीफ या शिकायत तुमसे ही करूँ गा | तुम सोते ओर जागते-- 
दोनों के रक्षक हो | तुमको छोड़कर मैं और को नहीं भजूगा। तुम धरनी को धारण 
करनेवाले श्रनाहद शब्द हो । हे प्रभु जी, मैं सदा और सर्वत्र अम्रत तुल्य अर्थात्‌ अमर 
भाव श्रापके प्रति बहन करूँ गा | मैं तुम्हारी बिनती कहाँ तक करूँ | मैं 'धर्मदास” ने तुम्हारे 
चरण पकड़ रखे हैं । 
(९) 

जमुनियाँ के डारि, ममोरि तोरि देबि हो। 

एक जमुनियाँ के चडद॒ह डरिया, सार सबद लेके मोरि देबि हो ॥ 

काया कंचन अजब पिआला, नाम बूठी रस धोरि देबि हो॥ 

सुरत सुहागिन गजब पिश्रासी, अम्बगत रस में बोरि देबि हो ॥ 

सतगुरु हमरे जान जवहरी, रतन पदारथ जोरि देबि हो ॥ 

घरमदास के आज गोसांई, जीवन बन्द छोरि देबि हो॥ 


अरे, मैं इस शरीर रूपी जामुन की डाल को ऐठकर तोड़ कूँ गा श्र्थात्‌ तपस्या से इसे 
मष्ट कर दूँ गा | एक जामुन रूपी शरीर की चौदह डालियाँ हैं। सार शब्द लेकर मैं उसे 
मोड़ दूंगी। मेरी सुरति सुह्गिन, अजीब तरह से प्यासी हैं | मैं उसे अ्रम्मत-रस में बोर 
कर अमर कर दूँगा | हमारे सत के गुरु जानकार जौहरी हैं। मैं उनके लिए. सभी रत्न 
पदार्थों को इकट्ठा करू गा। धरमदास के मालिक (ईश्वर) आज उसके जीवन के बन्दों को 
खोल देगा, अवश्य खोल देगा | 
( ३० ) 


भरि लागइ महलिया, गगन घहराय । 
खन गरजे खन बिज्लुरी चमके, लहरा उठे सोभा बरनि न जाय । 
सून महल से अमरित बरसे, प्रस आनन्द होइ साधु नहाय। 
खुललि फेवरिया सीटलि अधियरिया, धन सत गुरु जे दीहले लखाय । 
धरमदास बिनवेलें कर जोरी, सतगुरु चरन में रहत समाय ॥ 
महल में पानी बरस रहा है ओर गगन घहरा रहा है--यानी गरज रहा है | कभी तो 
देव गरजता है और कभी बिजली चमकती है | लहर उठती है और उनकी शोभा बरनी 
नहीं जाती | शून्य से श्रम्नत बरस रहा है और प्रेम में आनन्दित हो साधुगण उसमें 
स्नान कर. रहे हैं| (मेरे अ्ज्ञान का) कपाठ खुल गया और अंधियाली मिट गई | सतूगुरु 


आठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी ५३ 


धंन्य हैं, जिन्होंने इसको लखा दिया । 'धर्मदासः कर जोर कर विनय-पूर्वक कहते हैं कि मेरी 
गति तो सत्‌ शुरु के चरणों में समा कर रहने में ही है । 
(१३ ) 
आठ चास के गुरिया रे " मनसाला फेर सबेरिया * | 
अमिय रस निकसत राग-फाग तांत सानकरिया 3। 
नाम से अवर सउदा नाहिं भादह, पिया के मौज लहरिया । 
मिलहु सन्त, सुकीरति रस भोगहु, होवहु प्र स पियरिया । 
मीच होहु तन मन धन जारे, जइसे सती लिंगरिया। 
नव दिस ढुआर तपत तहेँ देखो, सर्सेवे खोलि केवरिया । 
पाँच रागिती ख्रुमक पचीसो, छुठऐएँ धरम नगरिया। 
अजय। लागि पागि रहे डोरी, निरखी सुरति सु'द्रिया । 
धरम-दास के साहेब कबिरा ले पहुँचवल्ले सत्त नगरिया ॥ 
अरे, अ्रष्ट चर्म की मनिका है। सन की माला सवेरे (प्रातः काल) फेरा कर। उससे 
झमृतरूपी रस निकलता,है और ,ताँत (नस) से फाग रागनी की मंकार निकला करती 
है। प्रीतम के मौज की लहरों में नाम को छोड़कर दूसरा कोई सौदा करता (बेसाहता) तो 
मुझे भाता नहीं । 
अरे, सत्य से साक्षात्कार करो, सुकृति का रस भोगो और पिया के प्रेम की 
प्यारी बनो। 
अरे जीव, जिस तरह से सती नारी सिंगार करके प्रीतम से मिलने के लिए, सती होती 
है, उसी तरह तू भी तन, मन, धन को जारकर प्रीतम को प्राप्त करो । नवो दिशाओं में 
तपते हुए, दरवाजों का दशन अपने दसवें द्वार केवाड़ को खोल कर करो। पाँच 
रागिनी और पच्चीस भ्रुमक हैं | छठा धर्मनगर है। श्रजया के हेतु डोरी पाग (भींग) 
रही है। अरे, सुरति सुन्दरी को निरखो | धरमदास के साहब (स्वामी) कबीर हैं। उन्होने 
उसको सतूनगर में ले जाकर पहुँचा दिया | 
हाँ रहस्यरूप से कुछ जैसे वाक्य और शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी 
धार्मिक तत्त्वो को जाननेवाले ही पूर्ण व्याख़्या कर सकते हैं। 


(१२ ) 

चढ़ि नवरेंगिया के डार, कोइलिया बोलइ हो ॥ 

अगम महल चढ़ि 'चलहु, उहाँ पिय से मिलहु हो। 
मीलि चलहु आपन देस, जहाँ छवि छाजइ हो ॥ 
सेत सबत जहाँ खिलेहूँ, इंस होइ आवहिं हो॥ 
अगरबती मिलि जाय, सबद टक्सारहिं हो॥ा 
चहुँ दिसि लगली ऋतरिया, तब्लोकवा असंखहिं हो ॥ 
अम्जु दीप एक देख, पुरुस तहें रहहिं हो। 
कहे कबीर घरमदास, बिछुरन नहिं होई हो॥ 


्ु भीजपुरी के कवि और कार्य 


अरे, नौरंगी (नारंगी) नीवू की डाल पर चढ़ कर यह कोयल बोल रही है | अरे, 
वह महल जो अगम है, उसपर चढ़ ठुम चलो | वहीं प्रीतम से मिलोगे ) वहाँ प्रीतम से 
मिलकर अपने उस देश को चलोगे जहाँ सौन्दर्य सदा छाया रहता है, जहाँ श्वेत शब्द 
(शब्द्‌ रूपी श्वेत कमल) सदा खिले रहते हैं, और हंस (जीवात्मा) जहाँ आया-जाया 
करते हैं। जहाँ अ्रगरवत्ती मिला करती है अर्थात्‌ अगर-क्ती की जहाँ सदा सुगन्ध 
आया करती है और जहाँ शब्द (अनहृद शब्द) का व्कसार है यानी निर्णशण होता है। 
उस देश के चारो तरफ मसालरें लगी हुई हैं ओर असंख्य लोक जगमगा रहे हैं। अम्बु- 
दीप नास का एक देश है, वही परम (ईश्वर) रहता है । कवीरदास धर्मदास से कहते हैं 
कि हे धर्मदास ! उस पुरुष का वियोग तो कभी होता ही नहीं | 
. (१३) 
सूतल रहली में सखिया त विष कह आगर हो || 
सत्त गुरु दिहलेंइ जगाइ, पावों सुख सागर हो ॥१॥ 
जब रहली जनमि के ओदर प्रान सम्हारल हो॥ 
जवले तनवा में प्राव, न तोहि विसराइव हो ॥रा 
एक बूँद से साहेब, संदिल वनावल हो॥ 
बिना रे नेंव केरा मंदिल, बहुकल लागल हो ॥१॥ 
इदवाँ गाँव न ठाँव, नहीं पुरबासिन हो॥ 
नाहि न बाद बटी संग हो, नहीं हित आपन हो |॥४॥ 
सेसर हव संसार, शुआ उधराइल हो॥ 
सुदर॒ भक्ति अनूप, चली पछुताइक हो ॥५॥ 
नदी वहे अगस अपार, पार कस पाइब हो! 
सत गुरु बहठे मुख मोरि, काहि गोहराइव हो ॥६॥ 
सत्त नाम शुन गाइब, सतना डोलाइब हो॥गश 
कहे कबीर धरमदास, अमर पद पाइब हो ॥णा। 


है सख्त, में तो विंष के नशे में माती हुई शयन कर रही थी कि मेरे सतगुरु ने मुझे 
जगा दिया | मैंने सुख का समुद्र पा लिया | जब में माँ के उदर में थी, तब उसने भेरा 
प्राण संभाला | जबतक इस शरीर में प्राण रहेगा तवतक मै उसको नहीं भूलू गी । एक 
बूँद से साहव (स्वामी) ने इस मन्दिर (शरीर) को बनाया है | यह मन्दिर विना नींव का 
बना हुआ है। इसका न गाँव है, न कोई ठिकाना है और न गाँववाले ही कोई इसमें 
बसते हैं | यहाँ बाट (रास्ते) में साथ चलनेवाला कोई व्ोही भी नही है और न कोई अपना 
हित ही है | यह संसार सेसल के फूल सरीखा सुन्दर है। (पहले तो खूब आकर्षक था, पर) 
अब उसके फूट जाने पर (पर्दाफाश हो जानेपर) भुआ (रूई) ही सर्वत्न उघरा (उड़)रहा है | 
हाथ, इस सुन्दर और अनुपम मक्तिमाग को पाकर भी मैं उसपर पछताती हुईं चल रही हैँ। 
सामने अ्रगस और अपार नदी वह रही हैं | मैं इसको पार किस तरह कर पाऊ गी अथवा 
मैं इस संसार रूपी अगम और अपार नदी से संग्राम करके किस तरह इसे तैर सकूगी ! भेरे 


आदवी सदी से ग्यारहदीं सढ़ी तक जज 


सतगुरुजी भी तो मुख मोड़कर बैठे हुए है, मैं किसको पुकारू ! मैं सत्य नाम के गुणो 
को गाऊँ गी | अपना सत किसी तरह नहीं डुलाऊ गी । कबीरदाध की कही हुई बात को 
धरमदास कहते हैं कि इस पर चलकर अमर पद अवश्य पाऊगी। 
( १४ ) 
मेहीं मेहीं छुकबा पिसावों, त पिया के लगावों हो। 
सुरति सोहंगम नारि, त हुर मति छोड़ो हो। 
घरही में मानसरोवर, घाट बंधावों हो। 
घरही में पाँच कहार, हुलह नहवावहूँ हो। 
घर ही में नेह नउनिया, त पलना झुलावहुँ हो। 
प्रेम प्रीतिकद ललना त पलना झुलावहूँ हो। 
घरहीं में दया कर दरमी, त द्रज मिलावहु हो। 
पाँच तन्‍त कर जासा, हुलह पहिंरावहिं हो। 
घरहीं में लोह लोहरिया, व कगना गढ़ावहिं हो। 
तीन शुनन के सेहरा, दुलह पहिरावहिं हो। 
घरही में चंदन चौक, त चडक पघुद्दिरावहिं हो। 
सत्त सुकृत के कलसा, वहवाँ घरावहिं हो। 
घरहीं में मन सत माली, त मउर ले आधचहिं हो। 
घरदी में जुगुति के जौहरी, त जोत पुरवावहिं हो। 
घरही सोहंगस नारि, त पिया के रिक्तावहिं हो। 
बार बार गुरु कगरि, त अरज सुनावहिं हो। 
यह मंगल सत लोक, इंस जन गावहिं हो। 
कहे कबीर धरसदास, बहुरि नहिं आवहिं हो। 
मेहीं-मेहीं (अत्यन्त-बारीक) उन्तटन पिसाऊ न्तो अपने पिया को ल्गाऊ । श्वरे, सोह॑- 
सोहं की सुरति (स्मृति) रूपी नारी को हम दूर मत्त छोड दें अर्थात्‌ सदा साथ रखें 
(नारी चंचला होती है, सुरती भी ८चंला है | इसको अपने साथ से दूर कभी मत होने दें)। 
अपने शरीर रूपी घर में ही तो मानसरोवर है। उसी में घाट बँधावें और इसी घर में 
(शरीर में) जो पाँच कहार पंचतत््व हैं, उनसे पानी भरवा कर इुह्हे ( प्रीतम ) को 
नहलावें । घर में ही तो नेह रूपी नाउनि है, उससे दुल्हे के चरणों को क्‍यों न पखरवा 
लू १ और तब, अपने प्रेम से उत्पन्न प्रीत रूपी ललना को पालने में धुलाऊ | (इसी 
शरीर रूपी) धर में तो दया रूपी दरजी बसता है, उससे फटे छिद्रों को (अपनी नुटियों को) 
जोड़वा लू । यानी अपने आचरणों में जो दुराव आ गया है, उसको क्‍यों न दुरुस्त करवा 
लू ! पॉच तत्त्तों का जामा अपने दुल्हे को पहनाऊँ और घर में ही जो लोहार की लोहसार 
है, उससे लोहे का कंगना कढ़वा लू (दुल्हे को बारात जाते समय लोदे का कंगन पहनाते 
हैं कि दीठि या ननर न लगे। उसी से मतलब है) | अरे, अपने दुल्हे को तीन गुणों 
( रजसू , तमस्‌, सत्‌ ) का बुना सेहरा (मौर) पहनाऊ । फिर घर में ही चन्दन और चौकी 


जद भोजपुरी के कवि और काव्य 


है, उनसे विवाह के लिए चौक पुरावें | अर्थात्‌ हृदय रूपी चौके पर मन रूपी चन्दन को 
धघीस कर दुल्हे के बैठने के लिए और विवाह के विधि-व्यवहार के लिए चौक पुरावे | फिर 
उस चौक पर सत और सुकृति का कलस स्थापन करें| अरे इसी घर में जो मन का 
सत-भाव रूपी माली बसता है, उससे कहें कि मौर ले आवे। फिर घर में ही तो जुगुति 
(युक्ति) रूपी जौहरी है | वह जवाहरातों का आभूषण दुल्हे को पहनावे | 

फिर घर सें ही सोहंगम (सोहं की सुरति रूपी) नारी है, वह प्रीतम को रिस्तावे। 
बार-बार गुरु जी कगड़ कर यही उपदेश सुनाते हैं कि इस मंगल गीत को सतलोक में 
जीवगण ही गाते हैं। कबीरदास के कहे हुए को धरमदास कहते हैं कि वे लोग पुनः 
बहुर १२ इह-लोक में नहीं आते | 


( १५ ) 

कहवाँ से जिय आइल, कहवाँ समाइल दो! 

कहवाँ. कल मुकाम, कहाँ ल्पटाइल हो ? 

निरगुन से जिव आइल, सगुन ससाइल हो। 

काया, गढ़ कइल झुकास, माया लपटाइल हो। 

एक बूँद से साहेब, काया-महह्ू उठावल हो, 

बूँद परे गल जाय पाछे पछितावल हो। 

हंस कहे भाई सरवर, हम उड़ि जाइब हो, 

मोर तोर एतने दीदार, बहुरि नहिं पाहब हो! 

इहवाँ केहु नाहिं आपन, केहि सँग बोले हो। 

बीच तरवर मैदान, अकेला ह'सा गइले हो। 

लख चौरासी भरमि, मानुख तन पाइले हो। 

साचुस जनस असोल, अपन के खोइले हो। 

साहब कबीर सोहर _गाघत्र, गाइ सुनावल् हो । 

सुनहु हो धरसदास, एही चित चेतहु हो॥ 

प्रश्न/--अरे, यह जीव कहाँ से आ्राया, कहाँ समाया, कहाँ मुकाम किया और कहाँ 
लिपय गया ! 
उत्तर--यह जीव निगु ण से आया और सगुण में समाया, काया रूपी गढ़ पर मुकाम 

किया और माया में लिपटा गया | साहब ने एक बूँद से काया का महल उठाया । पर 
वही (मिट्टी का) महल एक बूँद के पड़ने से ढह जाता है और पीछे पछताता जाता है। 
हँस कहता है कि है भाई सरोवर ! अ्रव मैं उड़ जाऊँगा। हमारा-त॒म्हारा इतना ही मर 
का दीदार था | मैं अ्रब यहाँ लौट कर नहीं आ्राऊं गा | यहाँ अपना कोई नहीं है। 
किसके साथ वार्ता की जाय १ इस मैदान के. बीच जो शरीर रूपी यह वृक्ष है, उससे 
उड़कर हंस अकेला ही चला गया | लाख चौरासी ( चौरासी लक्ष ) योनियों में भ्रमण 
करके मनुष्य का शरीर पाया था। परन्तु इस अमूल्य मानव-जन्म को मैं अपने से ही 


आठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तंक॑ ७७ 


खो देता हूँ। धरमदास कहते हैं कि कबीर दास ने इस सोहर को (श्र्थात्‌ इस ज्ञान 
को) गाया और गाकर सुनाया और मुझे समरकाया कि दे घरमदास सुनो, तुम चित में 
अब भी चेत जाओ।| 
( १६ ) 
खेलत रहलूँ.. अगनपाँ, सखी संग साथी हो। 
आई गवन निगिचाई, भवन निगिचाई, बदन भैले धूमिल हो । 
पहिले गवनवाँ ऐलूँ , पनियाँ के भेजलन हो। 
देखि कुआँ मोर भइल भारी, त गागर फूठलि हो। 
कवन उतर घर देबि, दाथ दूनो छुंडें हो। 
घर मोरि सासु दारुनि, त ननदी हटीली हो। 
केहि से कहबि हुख आपन, संगी ना साथी हो। 
ठाढ़िल मोहरि धनि सुसुके, मने पछुतावेली हो। 
पिया मोसे झुखहूँ ना बोले, कवन गुन लागल हो। 
सजन के डैँची अठरिया, त चढ़त लजाइले हो। 
कल नहिं लेत अधरिया, कवन बिधि जाईके हो। 
गक्ते गज मोती के हार, त दीपक हाथे में हो। 
सूमकि के चढ़लूँ अटरिया पुरूष के पासे हो। 
कहे कबीर पुकारि, सुन धरम आगर हो। 
बहुत हैंस ले साथ, उतर भव सागर हो॥ 
अरे, मैं अपनी सखो-सहेली के साथ आँगन में खेल रही थी कि गवना ( दविरागमन 
का दिन ) निकट आ गया और भेरा मुख धूमिल हो गया। पहले-पहल मैं गवना 
(हविरागमन) में सासुर आई | श्ाते ही उन्होंने पानो लाने को मुझे मेज दिया | कूप का 
रूप देखकर मैं मन में पछताने लगी। मेरे लिए यह संसार रूपी कूप भारी हो गया और 
पानी भरने की मेरी गगरी भी फूटी निकली | हा ! में घर जाकर प्रीतम से क्या उत्तर 
दूंगी ! मेरे दोनों हाथ छू छे हैं । मेरे घर में सासु कष्टदा है, यानी-- ककंशा है और ननद हृटीली 
है। मैं अपना दुःख किससे कहूँगी ! कोई संगी-साथी नहीं है| मोहरि (घर के मोहाने पर-- 
निकसार पर) खड़ी-खड़ी धनि (सघवा नारी) छुसक रही है अर्थात्‌ सुसक-सुसक कर रो 
रही है और अ्रपने-आप मन में पछता कर कह्द रही है--“प्रीतम मुझसे मुख से एक बात 
तक नहीं कहते | मुममें कौन दोष लग गया है, यह समम में नहीं श्राता (यहाँ गुन शब्द का 
प्रयोग उलट अर्थ में यानी दोष के लिए व्यंग्यात्मक भाव से किया गया है)। भेरे साजन 
की ऊँची अटारी है, उसपर चढ़ते समय मुझे लज्जा लग रही है। इधर अंधेरी रात ज्ञुण- 
भर को भी शान्त नहीं होती, अर्थात्‌-क्षण मात्र भी घना श्रेघेरा फीका नहीं पढ़ता | मैं 
किस तरह से प्रीतवम के पास जाऊँगी १” इस पश्चात्ताप के बाद उसने पुन; सोचा-- 
#मेरे गले में तो गज॒दक्ता की माला है और हाथ में दोपक है | बस मैं कुमकि के ( तेजी 
और आनन्द के साथ ) अयारी पर चढ़ गई और अपने पुरुष के पास पहुँच गई |! 


७ भोजपुरी के कवि और कार्य 
कबीर ने पुकार कर मुझसे कहा है--“अरे, धर्म का आगर, सुनो | तुम मेरे सांथ बहुत 
हँसे हो । अब भवसागर पार होझो |” 
( ९७ ) 

ज्ञान के चुनरी धूमिल भइली सजनी, मनके न पुरबल आस हो । 

बारहिं बार जीव मोर लरजह, कइसे कटे दिन रात हो। 

सासु दु.ख सहलीं, ननद दुःख सदलीं, पिया दु.ख सहल न जाय हो । 

जागहु हो मोरी साखु गोसइयाँ, पिय मोर चलल्ेे बिदेस हो । 

पद्याँ परि परि ननद्‌ जगाने, केह्ट न पावे सनेस हो। 

मोर मुख ताकि सइयाँ मति जा विदेसवा, होइबें में घेरिया तोहार दो । 

बहियाँ पकरि सामी सेजिया बिठावे, जनि रोअहुँ धनियाँ हमार हो । 

कहेले कबीर सुनहु धरमदास, जुगन जुगन अहिबात हो॥ 

है सजनी, मेरे शान की छुन्द्री धूमिल (मैली) हो गई | मेरे मन की आशा नहीं 

पूरी हुई | बार-बार मेरा जीव लरजता हे--अर्थात्‌ काँपता है। किस तरह से भेरे रात-दिन 
करेंगे | सास के दिये हुए दुःखों को मैंने सहन किया | उसी तरह ननद प्रदत्त दु।खों को 
भी भेला । परन्तु प्रीतम के विरह का दुःख तो अब सहा नहीं जाता | 


है मेरी मालकिन सासुजी, आप जागिए; भेरे प्रीतम विदेश चले जा रहे हैं। पाँव 
पड़-पड़ कर ननद को जगाती हूँ और बिनती करती हूँ कि प्रीवम को जाने से रोको; पर मेरी 
पुकार कोई नहीं सुनता | मैं बिनती करके प्रीतम से कहती हूँ कि भेरे मुख को देख कर 
अथांत्‌ मेरे कष्टों के ख्याल से हे साजन, विदेश मत जाओ | 





भइटरी 


पं० रामनरेश त्रिपाठी लिखित 'घाघ और भड्डरी,! नामक पुस्तक में प्रकाशित भडडरी 
की जीवनी इस प्रकार दी गई है :-- 

“गाँवों में यह कहानी आमतौर से प्रचलित है कि काशी में एक ज्योतिषी रहते ये । 
उन्होंने गणना करके देखा तो एक ऐसी अच्छी साइत आ्रनेवाली थी, जिसमें गर्भाधान 
होने पर उससे बड़ा ही विद्वान्‌ और यशस्वी पुत्र पैदा होगा । ज्योतिषीनी एक गुणी पुत्र की 
लालसा से काशी छोड़ घर की ओर चले । घर काशी से दूर था। ठीक समय पर वे घर 
नहीं पहुँच सके । रास्ते भें शाम हो गई और एक अहीर के दरवाजे पर उन्होंने डेरा डाला | 
अद्दीर की युवती कन्या या स्त्री उनके लिए भोजन बनवाने बैठी | ज्योतिषी जी बहुत 
उदास थे | अहौरिन ने उदासी का कारण पूछा तो कुछ इधर-उधर करने के बाद ज्योतिषी 
जी ने असली कारण बता दिया | अह्दीरिन ने स्वयं उस साइत से लाभ उठाना चाहा । 
उसी की इच्छा का परिणाम यह हुआ कि समय पाकर भड्ढरी का जन्म हुआ | वे बड़े भारी 
ज्योतिषी हुए | 


आठवो सदी से ग्यारह्ी सदी तक ज९ 


“श्री त्रिपाठी जी ही लिखते हैँ कि श्री बी० एन० मेहता, आइ०सी० एस० ने इस 
कहानी को इस प्रकार लिखा है ;-- 

“भहुरी के विषय में ज्योतिषाचाय बराहमिहिर की एक बड़ी ही मनोहर कहानी कही 
जाती है। एक समय, जब वे तीथ-यात्रा में थे, उनको मालूम हुआ कि श्रम॒क अगले दिन 
का उत्पन्न हुआ बच्चा गणित और फलित ज्योतिष का«बहुत बढ़ा परिडत होगा । उन्हें स्वयं 
ही ऐसे पुत्र के पिता होने की उत्सुकता हुईं और उन्होंने अपने घर उज्जैन के लिए प्रस्थान 
किया । परन्तु उज्जैन इतनी दूर था कि वे उस शुभ-दिन तक वहाँ न पहुँच सके | अतएव 
रास्ते के एक गाँव भें एक गछ्ठेरिये की कन्या से विवाह कर लिया। उस स्त्री से उनको 
एक पुत्र हुआ, जो ब्ाह्मणों की भाँति शिक्षा न पाने पर भी स्वभावतः बहुत बड़ा ज्योतिषी 
हुआ | आज दिन वही लड़का सभी नक्षत्र-सम्बन्धी कहावतों के वक्ता 'भद्डरी! या 'भडडुली! 
कहा जाता है। 

4८इस कहानी से मालूम होता है कि 'मइली? गड़ेरिन के गर्भ से पैदा हुए थये। पर 
अहीरिन के गर्भ से उत्पन्न होने की बात परिडत कपिलेश्वर का के उद्धरण में भी मिलती 
है, जो घाघ की जीवनी में दी गई है। बिहार में घाघ के लिए ही प्रसिद्ध है कि वे 
वराहमिहिर के पुत्र थे--'डाक?, 'खोना?, 'भाड” आदि | यह 'भाड? ही शायद भड्डरी हो। 
मारवाड़ में 'डंक कहे सुनु भडडली” का प्रचार है। सम्मवतः मारवाड़ का “इंक” ही बिहार 
का डाक है।” 

“भाषा देखते हुए. 'बाघ! या 'भड्डरी? कोई भी वराइमिहिर के पुत्र नहीं हो सकते । 
घराइमिहिर का समय “पंचरिद्वान्तिका? के अनुसार|शक ४२७ या सन्‌ ५०४ ई० के लगभग 
पड़ता है। उस समय की यह भाषा नहीं हो सकती, जो “'भडुली” या 'घाघ” की कहावतों 
में व्यवद्वत है। ह 

“मारवाड़ में भइली की कुछ और ही कथा है। वहाँ मइली पुरुष नहीं स्त्री है। 
वह भंगिन थी और शकुन विद्या जानती थी | 'डंकः नाम का एक ब्राह्मण ज्योतिष-विद्या 
जानता था। दोनों परत्पर विचार-विनिमय किया करते थे | अन्त में दोनों पति-पत्नी की 
तरह रहने लगे और उनसे जो सन्तान हुई, वह 'डाकोतः नाम से अब भी प्रसिद्ध है। 
किन्तु 'डाकोत” लोग कहते हैं कि 'भइडुली? धन्वन्तरि वैद्य की कन्या थी |” 

“मारवाड़ में एक कथा ओर भी है। राजा परीक्षित के समय में 'डंकः नाम के एक 
बढ़े क्रूषि ये। वे ज्योतिष विद्या के बड़े जाता ये | उन्होंने धन्वन्तरि वैद्य की कन्या 'साविन्नी” 
उर्फ भडडली? से विवाह किया था | उनसे जो सन्तान पैदा हुई, वह 'डाकोत” कहलाई | 

“भरी की भाषा देखते हुए ऊपर की दोनों कहानियाँ बिल्कुल मनगढ़न्त हैं | न 
परीक्षित के समय में और न वराहमिहिर के ही समय में वह भाषा प्रचलित थी जो “भहुरी” 
की कहावतों में है। सम्भवतः डाकोतों ने ऐसी कहानियाँ जोड़कर अपनी प्राचीनता सिद्ध 
की होगी। भइली या भड्डरी काशी के आसपास के थे या मारवाड़ के, यह विचारणीय प्रश्न 
है। भड्डरी की भाषा में मारवाड़ी शब्दों के प्रयोग बहुत मिलते हैं, तथा युक्तप्रान्त और 
बिहार की ठेठ बोली के मी शब्द मिल्षते हैं | इससे अनुमान होता है कि या तो दो भददरी 


हा 5 भोजपुरी के कवि और काव्य 


या 'भडडली? हुए होंगे, अथवा एक ही भद्डुदी युक्तप्रान्त से मारवाड़ में जा बसे होंगे और 
उन्होंने यहाँ और वहाँ दोनों प्रान्तों की बोलियों में अपने छन्द रचे होंगे | 

मैंने जोधपुर के परिडित विश्वेश्वरनाथ रेउ से 'भडडुली? के विषय में पत्र लिखकर पूछा 
ती उन्होंने लिखा।-- 

“नहीं कह सकता कि ये मारबाड़ के ही थे, पर राजपुताने के अवश्य थे |” 

“राजपुताने में 'डाकोतों? की संख्या अधिक है। उनका भी कथन है कि 'डंकः और 
भडुली” राजपुताने के ही ये। एक उल्लकन यह भी है कि राजपुताने और युक्तप्रान्त के 
'भडडुरी? में ज्री-पुरुष का अ्रन्तर है | ऐसी दशा में यह कहना दुशसाहस को बात होगी कि 
दोनों प्रान्तों के भड्डली एक ही व्यक्ति हैं। 

भइरी और भड्डुली के विषय में पूछताछ से जो कुछ मालूम हो सका है, वह इतना 
ह्दी हे |? 

भइरी की एक छोटी-सी पुस्तिका छपी हुईं मिलतो है। उसका नाम 'शकुन-विचार! 
है; पर वह इतनी श्रशुद्ध है कि कितने ही स्थानों पर उसका सममना कठिन है। 

राजपुताने में भड्ुली की एक पुस्तक 'भड्डली-पुराण” के नाम से प्रसिद्ध है। उसका 
कुछ ही अंश मुझे मिल सका है, जो इस पुस्तक के अन्त में दिया गया हैं। 

मड्डरी की जीवनी के सम्बन्ध में पं० रामनरेश जिपाठी जी ने 'बाघ और मडडरी? 
नामक पुस्तक में उपयु क्त बातें लिखी हैं, उसका सारांश चार मतों में निकलता है ;--- 

(१) “बिहार में धाघ के लिए, अहीरिन के पेट से उत्पन्न होनेवाली बात प्रसिद्ध है। 
धाघ को ही वे वराहमिहिर का पुत्र मानते हैं। 
' (२) घाघ के और कई नाम भी बिहारवालों में प्रचक्षित हैं | जैसे--/डाक?, खोनाः; 
भाड? आदि। यह “माड” ही शायद भड्डरी हैं| 

(१) माराड़ में (डंक कहे सुनु मड्डली? का प्रचार हैं| सम्भवत; मारवाड़ का डइंक 
ही बिहार का डाक है। 

(४) भारवाड़ में भड़्डली की कुछ और ही कथा है। वहाँ मड्डली पुरुष नहीं, स्री 
है इत्यादि [? 

इन प्रश्नों पर विचार करने से पता चलता है कि बिहार के सम्बन्ध की बातें त्रिपाठी 
जी को अच्छी तरह नहीं मालूम हो सकी थीं और इसीसे उन्होंने अनुमान से अधिक काम 
2 है और किसी निश्चित राय पर नहीं पहुँच संके हैं | हम उन प्रश्नों पर विचार 
करेंगे | 

बिहार में घाघ को अहदीरिन के पेट से उत्पन्न नहीं मानते | 

पं० कपिलेश्वर का के (विशाल भारत, फरवरी १६२८, के लेख का उद्धरण देकर 
त्रिपाण जी ने स्वयं ही लिखा है कि यह कथा “'मड्डरीः के सम्बन्ध में प्रचलित है। फ़िर 
ऊपर बी० एन० मेहता श्राइ० सी० एस० की दी हुईं कहानी, जो भड़डरी के विषय की ही 
है, का भी उन्होंने ही उल्लेख किया है । तो ये दोनों कहानियाँ मड्डरी के सम्बन्ध की ही 
हैं, न कि 'धाघ! के सम्बन्ध की | बिहार में भड्डरी, घाध और डाक तीनों व्यक्ति माने जाते 


आठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तक ६१ 


हैं और तीनों की अलग-अलग कविताएँ हैं | बिहार पीजेंट लाइफ नामक पुस्तक में प्रियसन 
साहत्र ने तीनों कवियों के नाम से सुनी हुईं कविताओं का उल्लेख अलग-अलग किया है* 
जो डाक की जीवनी के साथ इसी पुश्तक में उद्धूत है | डाक की जीवनी के सम्बन्ध में 
भी ठीक वही कहानी, जो त्रिपाठी जी ने इस पूर्वोक्त जीवनी के प्रथम पारा में कही है, धुके 
बेगूसराय के रहनेवाले बाबू शुकदेव सिंह से--जो आजकल बांका (भागलपुर) सब- 
डिबीजन में सहायक प्रचार अफसर हैं--भागलपुर में सुनने को मिली और उन्होंने ही डाक 
वचनावली” नामक पुस्तक, जो दरमंगा के शुभंकरपुर-निवासी भरी मुकुन्द शर्मात्मज भी 
कपिलेश्वर शर्मा द्वारा संण्हीव होकर, भीरमेश्वर प्र स, दरभंगा से, सन्‌ १६४२ ई० में, दो 
भागों में प्रकाशित हुई हैं, लाकर दी | उनकी कहानी कह्दी हुई ठीक वैसी ही थी; पर वह 
डाक के जन्म के सम्बन्ध की थी | उन्होंने उसमें इतनी और बात अन्त में अधिक कही 
थी कि अद्दीरिन ने इस साइत से स्वयं लाभ उठाने की इच्छा प्रकद की तब अतिथि ज्योतिषी 
ने इस शत्त' पर उससे सम्भोग स्वीकार किया कि यदि सन्तान पुत्र होगी तो उसे वह ब्राह्मण 
ले जायगा और यदि वह कन्या होगी तो वह अ्रह्दीरिन के साथ रहेगी। दैवात्‌ अदह्दीरिन को 
पुत्र उत्पन्न हुआ और उसका नाम उसने 'डाक? रखा | जब पुत्र बोलने और खेलने लगा 
तत्र ब्राह्मण देवता आये और शत्त के मुताबिक डाक को लेकर घर चलते बने। रास्ते में 
पगडंडी के दोनों तरफ गेहूँ और जो के खेत मिलते | जौ के कुछ बीज गेहूँ के खेत में भी 
आकर गिर गये थे और गेहूँ भें दोवार जौ के पौथे उग झाये थे | बालक डाक ने पिता 
ब्राह्मण से प्रश्न कियाः--- 

५पिताजी, यह दोनों खेत एक ही आदमी के हैं या दो के १” 

परिडत पिता ने तक करके कहा --“दो के होंगे; क्योंकि एक में गेहूँ बोया है और 
दूसरे में जो ।” 

पुत्र--“तत्र जौ के खेतवाले का ही बीज छींठते समय इस गेहूँ के खेत भें गिर गया 
होगा, जिससे ये जो के पौधे उसे हैं !” 

परिडत ने कहा--“हाँ, बीज छींटते समय कुछ बीज उधर पढ़ गये होगे |? 

पुत्र---“तो पिता जी, यह बताइये कि ये जो के अन्न गेहूँ के खेतवाले के होंगे या जौ 
के खेतवाले के १? 

परिडत--“ोहूँ के खेतवाले के |? 

तब पुत्र डाक ने कहा--“पिता जी, तब आप मुकको क्‍यों अपनी माँ से छुड़ाकर 
लिये जा रहे हैं, जब आपके बीज से माँ के पेट से मेरा जन्म हुआ है ! पुत्र 'दाक! की इस 
बुद्धि को देख कर आह्मण ज्योतिषी ने कह्--बेटा, ठुम मुझसे बुद्धिमान हो । चलो, तुमको 
तुम्द्दारी माँ के पास पहुँचा दूं |! 'डाक! आकर माँ के पास रहने लगे। 


+ पृष्ठ २७७, छुन्द्‌ ६--“«कहै डाक सुनु मिल्लरि, कुत्ता भात न खाय” । पृष्ठ २८०, 
छुन्द १५--४“कह भड्डर सुन्तु भइरि, परबंत उपजै सार |”? पृष्ठ २०६, छन्द ३३-- 
“धाघ कह्दे हम होइबों जोगी, कुओं के पानी धोहहें घोबी । 


धर भोजपुरी के कवि और काव्य 


मुझे यह कहानी 'घाघ और भडुरी? नामक पुस्तक प्राप्त होने के पूर्व ही मिली थी 
और डाक की जीवनी में ही मैंने इसे रखा था; किन्तु जब बाघ और भड्डरी” नामक 
पुस्तक में श्री बी० एन० मेहता आइ० सी० एस० तथा पं० रामनरेश त्रिपाठी और पं० 
कपिलेश्वर का के मतों को पढ़ा, जो इसे भड्डरी के जन्म के साथ रखते हैं, तब मैंने 
उसको डाक की जीवनी से हटा दिया; क्योंकि बहुमत इस कहानी को भड्डरी से सम्बन्धित 
मानता है। भडुरी को 'वराहमिहिर! का पुत्र अस्वीकार करने का प्रधान कारण पं० 
रामनरेश त्रिपाठी ने यह बताया है कि “वराहमिहिर के समय में यानी ५०५ ६० के 
लगभग भोजपुरी भाषा का अस्तित्व ही नहीं था | किन्तु में ऐसा मानने के लिए तैयार 
नहीं हैँ। मेरी धारणा रही है कि भोजपुरी का इतिहाश्व विक्रमादित्य शकारि के समय से 
यानी पहली सदी ई० पू० से प्रारम्भ हुआ माना जा सकता है | इसके लिए मेरे पास 
अभी सामग्री नहीं प्राप्त हुईं है; क्योंकि मेरी ऐसी धारणा अ्रभी हुईं है और खोज अभी 
शुरू ही किया है। श्रतः भड्डरी का पिता 'वराहमिहिरः के होने की बात जो बी० एंन० 
भेहता तथा कपिलेश्वर का ने कही है, उसको मैं भाषा के कारण अमान्य नहीं कह 
सकता । भड्डरी की प्राचीनता भ्रकास्य है। वह इससे भी साबित होता है कि 'डाक? के 
समय में 'भड्डरी' खेती श्रादि पर श्ञान रखने के लिए श्रादि श्राचार्य्य॑ माने जाते थे; क्योंकि 
डाक ने भी भड्डरी को संबोधित करके अनेक छुन्द कह्य है जो बिहार में प्रचलित है और 
(बिहार के कृषक जीवन? तथा उक्त डाक 'वचनावली? में संगणहीत है | यथा-- 

दिन लौका लोौकहिं, उत्तर गरजे. मेह। 
कहहिं डाक सुन्रु भांडरी, फैँच कच किहला देह ॥१॥ 
आदि न बरिसे आदरा, हस्त न बरिसे निदान | 
कहहिं डाक सुनु भांडरी, किसान होएत पिसान ॥२॥ 
साओन सुकला सत्तमी, मेघनहिं. छावै रेन। 
कहदि डाक सुन भांडरी, बरखा हो गईं चैन ॥३॥ 
साओनः सुकला सत्तमी, गगन स्वच्छु जो द्वोय | 
कहदि डाक सुनु भांडरी, पछमी खेती होय ॥४॥ 
भुगसिरा तवक रोहिन लघक, आदरा जाय छुं द-छुँ दाय । 
कहै डाक सुनु सिलरि, कुत्ता भात न खाय ॥७॥ 

फिर यही नहीं 'डाक! ने अपनी स्त्री को भी सम्बोधन किया है। 

(कहे डाक सुनु डाकिनी? के चरण अनेक पदों में आये हैं। इसका श्र यह होता 
है कि भडुरी का समय झति प्राचीन था, जिसके कारण वे इस विषय के आचार्य्य माने 
जाते रहे हैं| इसलिए डाक ने उनको अपना गुरु-णा मानकर सम्जोधन किया है जैसा कि 
कबीर तथा गोरक्षुनाथ के शिष्यों ने किया है। 

फिर राजपुताने में 'भइडली पुराण” नामक भ्न्थ की प्रसिद्धि की बात श्री रामनरेश 
त्रिपाठी जी ने स्वीकार की है और उसके कुछ अंश जो उन्हें मिले थे, उनको अ्रपनी 'धाष 
आर भड्ढुरी? नामक पुस्तक के श्रन्त में दिया भी है। उसमें 'डाक कहे सुनु भडडली! का 


ईठवीं संदी से ग्यारंहवीं सदी तंक॑ हैई्‌ 


प्रयोग खूब हुआ है" और वह पुराण राजस्थानी भाषा में है। इससे डाक का भी 
राजपुताने में तथा बिहार ( मिथिला ) में रहना सिद्ध होता हे और दोनों की ग्राचीनता 
प्रमाणित होती है | 

राजपुताने में डक के नाम पर डाकोत-जाति का अध्तित्व भी डाक की प्राचीनता 
तथा उससे भी अधिक भडुरी की प्राचीनता सिद्ध करता है। गोरक्षनाथ जी की कविता 
की भाषा में भी भोजपुरी, अवधी और राजस्थानी आदि भाषाओ के प्रयोग आये हैं। 
इससे यह नहीं माना जा सकता कि भड्डरी या घाघ अथवा डाक, चूँ कि इनकी कविताओओ 
में दो भाषाओ का प्रयोग है, एक नहीं, दो थे | 

इसके अलावा एक दूसरी बात की सम्भावना भी हो सकती है और वह मारवाड़ की 
भडडली के ञ्री होने के श्राधार पर आरोपित की जा सकती है । 

भंगिन भइली के डाक की क्री होने की किंवदन्ती से यह शंका की जा सकती थी 
कि भडुली और भाँडरी एक ही हों और भंगिन भइुली डाक की रखेली ज्री हो, जिसको 
सम्बोधन करके उसने कविताएँ की हैं। परन्तु जब हम यह मानेंगे तब डाक का 
राजपुताने और बिहार दोनों में रहना मानना पड़ेगा । और, यह मानने पर भड्डरी राज- 
पुताने की भड्ुली से मिन्न हो जाते हैं; पर यह “भडडरी पुराण” के राजपुताने में अस्तित्व 
के कारण अ्रमान्य होता। इस दशा में भ्डरी और डाक के दो होने की बात ही 
सही सिद्ध होती है। चूंकि डाक ने आचार्य 'भइडली या भड्डुरी” का प्रयोग खूब किया है | 
इससे भडुली जजीलिग शब्द होने के कारण कालान्‍्तर में डाक को स्त्री के रूप में माना 
गया और उसके साथ कहानियाँ जोड़ दी गई | यह कहानी शायद्‌ डाक के वंशज 
डाकोतों के बढ़ते हुए यश को रोकने के लिए उनके शज्रुओ्रों द्वारा प्रचारित की गई हो । 
पं० रामनरेश ज्ञिपाठी ने जो घाध का दूसरा नाम 'खोना? और “भाड” बिहार में 
प्रचलित होने की बात लिखी है, वह मुझे अबतक नहीं सुनने को मिली और न किसी से 
थे नाम ही सुनने को मिले | ज्ञात होता है कि यह बात निराधार ही है। फिर भी भड्डरी 
का जन्म-स्थान काशी के असपास मानना अधिक संगत प्रतीत होता है। 


भइरी की कहावत 
कातिक सुढी एकादसी, बादल बिजुली होय | 
तो असाढ़ में भरी, बरखा चोखी होय ॥ 
कार्तिक शुक्ला एकादशी को यदि बादल हों और बिजली चमके, तो 'भड्डरी” कहते हैं 
कि आषाढ़ में निश्चय वर्षा होगी | 
कातिक मावत देखो जोसी। रवि सनि भौसवार जो होखी। 
स्वाति नखत अरु आयुख जोग। काल पढ़े अरु नासे लोग ॥ 


१. देखिए--“बाघ और भड्ढरी” हिन्दुस्तानी एकेडेमी (प्रयाग) द्वारा प्रकाशित १६४६ ई० 
में छुपी राजपुताने के भइली की कहावतें। ० १२६, छुन्द ३७; पृ० १३०, छु० ६ 8] 
पृ० ६७, १३१, छु० ७०। है 


६४ भोजपुरी के कवि और काव्य 
ज्योतिषी को कार्तिक अमावस्या को देखना चाहिए। यदि उस दिन रविवार, शनिवार 
श्र मगंलवार होगा और स्वाती नक्षत्र तथा आयुष्य योग होगा तो श्रकाल पड़ेगा और 
मनुष्यो का नाश होगा | 
पाठान्तर--स्वाती नखत और पुष जोग | 
कातिक सुद पूनो दिवस, जो कृतिका रिख होइ। 
तामें बादर बीछुरी, जो सेंजोग सों होइ।॥ 
चार मास॒ तब बर्खा होखी | भली भाँति यह भाषे जोसी ॥३॥ 
कार्तिक सुदी पूर्णिमा को यदि कृतिका नक्षत्र हो और उसमें संयोग से बादल और 
बिजली भी हों, तो समकना चाहिए कि चार महीने वर्षा अच्छी होगी | 
माध महीना माहिं जो, जेष्ठा तपे न मूर। 
तो अप बोले भद्ठरी, उपजे सातो बूर॥ 
अगहन के महीने में यदि न ज्येष्ठा नक्षत्र तपे और न मूल, तो भइली कहते हैं कि 
सातों प्रकार के अन्न पैदा होंगे । 
पूस अघयारी सत्तमो, जो पानी नहिं देह। 
तो अदरा बरसे सही, जल थल् एक करेइ॥ 
पौष बदी सप्तमी को यदि पानी न बरसे, तो आाद्रां अवश्य बरसेगा और जलथल को 
एक कर देगा। 
पूल ऑधियारी सत्तमी, बिनु जल बादर जोय। 
सावन सुदि पुनो दिवस, बरखा अवसहिं दोय॥ 
पौष बदी सस्मी को यदि बादल हों, पर पानी न बरसे, तो सावन सुदी पूर्णिमा को वर्षा 
अवश्य होगी । 
पूसख मास दूससी दिवस, बादल चंसके बीज। 
तो बरसे भर भादवों, साधो खेलो तीज ॥ 
पौध बदी दसमी को यदि बादल हों और बिजली चमके, तो भादो भर बरसात होगी | 
हे सुह्दागिनयों, आनन्द से तीज का त्यौहार मनाओ | 
सनि आदित ओऔ संगल, पूसः अमावस होय। 
हुयुना तिगुना चौगुना, नाज भहँगा होय ॥ 
यदि पौष की श्रमावास्था को शनिवार; रविवार या मंगल पड़े तो इसी क्रम से अन्न 
दोगुना, तिगुना और चौगुना मंहँगा होगा । 
सोस सुकर सुरगुरु दिवस, पुस अमावस दोय। 
घरघर बजी बधावड़ा, हुखी न दीखे कोय ॥ 
यदि पौष की अमावस्या + शनि, रवि या मंगलवार पड़ें तो घर-घर बधाई बजेगी 
झर कोई भी दुखी नहीं दिखाई पड़ेगा । 
करक छुआवे कांकरी, सिह अबोये जाय । 
ऐसन बोले भड्डरी, कीड़ा फिर फिर खाय | 


आठवीं सदी से श्यारहवीं सदी तक ६५ 


कक राशि में ककड़ी बोये और सिह में न बोये, तो 'मइरी? कहते हैं कि उसमें कीड़ा 
बार-बार लगेगा। 
मंगल सोम होय सिवराती, पछेआ बाय बहे दिन राती | 
घोड़ा रोढ़ा टिड्डी उड़ें, राजा मरें कि परती पढ़े ॥ 
यदि शिवरात्रि मंगल या सोमवार को पड़े और रात-दिन पछेया हवा बहती रहे, तो 
सममना कि घोड़ा (एक पतिगा), रोड़ा (मिट्ठी के ढेले) और टिड्ली उड़ेंगे, जिससे राजा 
की मृत्यु होगी, श्रथवा खेत परती पड़े रहेंगे । 
काहँ पंडित पढ़ि पढ़ि मर5ड पूस अमावस की छुधि कर5 
मूल बिसाखा पूरबाषाद । भूरा जान त्ञ$ बहिरे ठाढ़ ॥ 
है पंडित, बहुत पढ़-पढ़+र क्यों जान देते हो ! पौष की श्रमावस्या को देखो, यदि उंस 
दिन मूल, विशाखा या पूर्वाषाढू नक्षत्र हो, तो समझना कि सूखा घर के बाहर खड़ा है । 
पूस उजेली सत्तमी, अष्टमी नौसी गाज। 
मेघ होय तड जान ल७, अब सुभ होइहें काज ॥ 
पौध सुदी सप्तमी, अष्टमी ओर नवभी को यदि बादल गरजे, तो समकना कि काम 
सिद्ध होगा, अर्थात्‌ सुकाल होगा । 
माघ अँधेरी सत्तमी, मेह बिज्जु दूमकम्त | 
मास चारि बरसे सही, मत सोचे तू कब्त ॥ 
माघ बदी सप्तमी को यदि बादल हों श्रौर बिजली चमके तो हे स्वामी, तुम सोच भत 
करो, चौमासा-मर पानी बरसेगा। 
माघ उजियारी दूज़ि दिन, बादर बिज्जु समाय। 
तो भाखें अस भड़डरी, अन्न के महँगी लाय ॥ 
माघ झुदी दूज को यदि बादलों में बिजली समाती दिखाई पड़े, तो 'भड्ठरीः कहते हैं 
कि अन्न महँगा होगा । 
- साघ धत्तमी ऊज़री, बादर मेघ करंत। 
तो असाढ़ में भड़डरी, घना मेघ बरसंत ॥ 
मार्ध सुंदी सप्तमी को यदि बादल घिंर आये तो भ्ठरी कहते हैं कि आधषाढ़ में खुब 
वर्षा होगी | 
भाघ सुदढ़ी जो सत्वमी, भौम बार के होय । 
तो भड्डर “जोसी” कहें, नाजु किरालें लोग ॥ 
यदि माघ सुदी ससमी मंगलवार को पढ़े तो अन्न में कीड़े लग जायेंगे | 
फागुन बदी धुदूज दिन, बादर दोथ न बीज | 
बरसे सावन भादवो, साथे खेलों तीज ॥ 
फागुन बदी दूज को यदि बादल हों; पर बिजली न चमके, अथवा न बादल हों न 
बिजली, तो सावन-भादो दोनों महीन! में वर्षा होग )। हे सजनी ! आनन्द से तीज का 
त्योहार मनाओ| हु 


६६ भोजपुरी के कवि और काश्य 


संगलवारी सावसी, फागुन चैेती जोय। 
पशु बेंचो कन संग्रहो, अवसि हुकाली होय ॥ 


फागुन और चैत की अ्रमावस्था यदि मंगल को पड़े, तो अ्रकाल पड़ेगा। पशुश्रों को 
बेच डालो और श्रन्न संग्रह करो | 
पँच मंगरी फागुनी, पूस पाँच सनि होय। 
काल पड़े तब भड़डरी, बीज बोअ5 सति कोय ॥ 
थदि फागुन के महोने में पाँच मंगल और पौष में पाँच शनिवार पड़े, तो भड्डरी कहते 
हैं कि अकाल पड़ेगा, कोई बीज मत बोशो । 
होली भरे के कर5 बिचार। सुभ अरु असुभ कहल फल सार ॥ 
पच्छिम बायु बहे अति सुन्दर । सम अन उपजे सजल बसुन्धर ॥ 
पूरब दिसि के बहे जो षायु । कुछु भीजे कुछु कोरे जाय ॥ 
दुखिन बाय बहे बध नास | समया निपजे सनई घास ॥ 
उत्तर बाय बहे दृड़बढ़िया | पिरथी अचूक पानी पढ़िया॥ 
जोर झकोरे चारो बाय। दुखया परघा जीव डराय ॥ 
जोर भल्ले आकासे जाय|तो एथवी संग्राम कराय ॥ 


होली के दिन की हवा का विचार करो | उसके शुभ और अ्रशुभ फलों का सार 
बताया जाता है | पश्चिम की हवा बहे, तो बहुत अ्रच्छा है। उससे पैदावार अच्छी होगी 
और वृष्टि होगी । पूरब की हवा बहती हो, तो कुछ वृष्टि होगी और कुछ सूखा पड़ेगा। 
दक्षिण की हवा बहती हो, तो प्राणियों का बध और नाश होगा। खेती में सनई और 
धास की पैदावार श्रधिक होगी । उत्तर की हवा बहती हो, तो एथ्बी पर निश्चय पानी 
पड़ेगा । यदि चारों ओर का मकोरा चलता हो, तो दुःख पड़ेगा और जीवों को भय 
होगा | यदि हवा नीचे से ऊपर को जाय, तो (ए(थ्वी पर संग्राम होगा | 
चहत मास उजियारे पाख। आठे, द्विंस बरसता राख ॥ 
नव बरसे जित बिजली जोय। ता दिसि काल दलाहल होय ॥ 


चैत सुदी अष्टमी को यदि आकाश से धूल ब्ररसती रहे और नवमी को पानी बरसे, तो 
जिस दिशा में बिजली चमकेगी, उस दिशा में भयानक दु्मिज्ष पड़ेगा । 
चैत मास दुससी खड़ा, बादर बिल्ुरी होय। 
त5 जान5 चित मांहि यह, गरम गत्लल सब जोय || 
चैत सुदी दशमी की यदि बादल और बिजली हो, तो यह समझ रखना कि वर्षा का 
गर्भ गल गया। अर्थात्‌ चौमासे में वृष्टि बहुत कम होगी | 
चैत मास दुसमी खड़ा, जो कहूँ कोरा जाइ । 
चौमासे भर बादला, भी भाँति बरसाइ॥ 
यदि चैत सुदी दशमी को बादल म हुआ, तो सममना कि चौमासे भर अच्छो 
बूंद होगी । 


आठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तक ६७ 


चैत पूर्णिमा होइ जो, सोम गुरु बुधवार । 
घर घर होह बधांबढ़ा, घर घर मंगलचार ॥ 
चैत की पूर्णिमा यदि सोमवार, वृहस्पतिवार और बुधवार को पड़े तो घर-धर आनन्द 
की बधाई बजेगी और घर-घर मंगलाचार होगा | 
कृतिका त5 कोरी गैल, अदुरा मेंह न बँद । 
तो ई जान5 भड़डरी, काल मचावे दंद || 
कृतिका नक्षत्र कोरी ही चला गया, वर्षा हुई ही नहीं, आर्द्रों में बूंद भी नहीं गिरी | 
भड्ठरी कहते हैं कि निश्चय ही अ्रकाल पड़ेगा | 
रोहिनि माहीं रोहिनी, एक घड़ी जो दीख। 
हाथ में खपरा मेदिनी, घर घर माँगे भीख ॥ 
यदि रोहिणी में एक घड़ी भी रोहियी रहे, तो ऐसा अ्रकाल पड़ेगा कि लोग ह्वाथ में 
खप्पर लेकर भीख माँगते फिरेंगे। 
आदुरा त$ बरसे नहीं, सुगसिर पवन न जोय | 
तब जान5 ये भड़डरी, बरखा बूँद न होय ॥ 
आर्दरा में वर्षा नहीं हुई और मगशिरा में हवा न चली, तो भडुरी कहते हैं कि जान 
रखो एक धृ द भी बरसा नहीं होगी । 
अखे तीज रोहिनी न होई। पूस अमावस मूल न जोई ॥ 
राखी अक्रवणी हीन बिचारो | कातिक पूनो कृतिका ठारो ॥ 
- महि माहीं खल बलहिं प्रकासे । कहत भड्डरी सालि बिनासे॥ 
बैशाख की अक्षय तृतीया को यदि रोहणी न हो, पौष की अ्रमावस्या को मूल न हो 
रक्षाबन्धन के दिन अवण और कार्तिक की पूर्णिमा को कृत्तिका न हो, तो प्रथ्वी पर दुष्ट 
का बल्ल बढ़ेगा और भड्ठरी कहते हैं कि धान की उपज न होगी | 
तपल जेठ में जो चुद जाय। सभ नखत हलुक परि जाय ॥ 
जेठ में मगशिरा के अंत के दस दिन को दसतपा कहते हैं| यदि दसतपा में पानी 
बरस जाय, तो पानी के सभी नक्षत्र हलके पढ़ जायेंगे | 
नवे असाढ़े बादर्ता, जो गरजे घनधोर | 
कहें भड़्डरी जोतिसी, काल पड़े चहुँ ओर ॥ 
आषाढ़ कृष्ण नौमी को यदि बादल जोर से गरजे, तो भड्डुरी ज्योतिषी कहते हैं कि 
चारों ओर अ्रकाल पड़ेगा । 
सुदि असाढ़ की पंचमी, गरज' धमधमा होय। 
तो यों जानो भरी, मधुरी मेघा जोय ॥ 
आधाढ़ शुक्ल पंचमी को यदि बादल जोर से गरजे तो भड्डरी कद्दते हैं कि बरसात 
अच्छी होगी। 
आसाढ़ी पूनो की सांस, वायु देखिह5 नभ के माँक। 
नैकत भूहँ बूँद ना पढ़े, राजा परजा भूखन मरे॥ 


६८ भोजपुरी के फवि और का ज्य 


अगिन कोन जो बहे समीरा। पड़े काल दुख सहें सरीरा ॥ 
उत्त से जल फूही परे। मुख साँप दूनों अबतरे ॥ 
पब्छिम समे वीक करि जान्यो । आगे बहै तुसार प्रमान्‍यों ॥ 
जो कहीं बहे इसाना कोना, नाप5 बिसवा दू दू दोना ॥ 
जो कहीं हवा अकासे जाय । परे न बू'द्‌ काज्न परि जाय ॥ 
दृक्खिन पच्छिम आधी समयो। भड़्डर जोसी ऐसन भनयो॥ 


आषाढ़ की पूर्णिमा की शाम को आ्राकाश में हवा की परीक्षा कहते हैं। नेऋत्य कोण 
की हवा हो, तो प्रृथ्वी पर एक बूँद भी पानी नहीं पड़ेगा और राजा-प्रज। दोनों भूखों 
मरेंगे | श्रग्नि कोण की हवा हो, तो अकाल पड़ेगा और शरीर को कष्ट मिलेगा | उत्तर 
की हवा हो, तो पानी साधारण बरसेगा, चूहे और साँप बहुत पैदा होंगे। पश्चिम की इवा 
हो, तो समय अच्छा होगा, किन्तु आगे चलकर पाला पड़ैगा और यदि कहीं ईसान कोण 
की हवा हो, तो पैदावार बिस्वे में दो-दो दोने मर की होगी। यदि हव। आकाश की ओर 
जाय, तो एक बूँद भी वर्षा न होगी और अ्रकाल पढ़ जायगा । दक्खिन-पश्चिम की हवा 
हो, तो पैदावार आधी होगी । मड्डरी ज्योतिषी ने ऐसा कहा है। 
रोहिनि जो बरसे नहीं, बरिसे जेठा मर । 
एक बूँद स्वाती पढ़े, लागै तीनों तूर ॥| 
यदि रोहिणी न बरसे, पर जेडा और मूल बरस जाय और एक बूँद स्वाती की भी पढ़ 
जाय, तो तीनों फसलें अच्छी होंगी । 
सावन पहिले पाख में, जो दसमी रोहिनि होइ । 
सहँग नाज आ झलप जलन, बिरला बिलसे कोइ ॥ 
भावण के पहले पक्ष की दशमी को यदि रोहिणी हो, तो अ्रन्न महँगा होगा, जल कम 
बरसेगा और शायद ही कोई सुख भोगे | 
सावन बंदी एकाद्सी, बादल ऊंगे सूर। 
तो अस भासे भड्डरी, धर-घर बाजे तूर || 
सावन बदी एकादशी को यदि उदय होते हुए सूर्य पर बादल रहें तो मड़डरी कहते हैं 
कि सुकाल होगा और घर-घर आनन्द की बंशी बजेगी। 
तीतर बरनी बादरी, बिधवा काजर रेख। 
ऊ बरिसेई घर करे, कहें भड़्डरी देख ॥ 
तीतर के पंख की तरह बदली हो और विधवा की श्राँखों में काजल की रेखा हो, वो 
भड्डरी कहते हैं कि बदली बरसेगी और विधवा बरस-मीतर ही दूसरा घर करेगी। 
जै दिन जेठ बहे पुरवाई-। तै दिन सावन धघूरि उद़ाई ॥ 
जेठ में जितने दिन पूर्वा हवा बहेगी, सावन में उतने दिन धूल उड़ेगी। 
सावन पुरवाई चले, भादों में पदियाँव। 
कन्त डेंगरवा बेंचि दे, लरिका जाई जियाब ॥ 


आठवीं सदी से ग्यारहवीं सदी तक ६९ 


सावन में पूर्वा हवा चले और मादों में पछुवा, तो है स्वामी, बैलों को बेचकर बाल- 
बच्चों की रक्षा करो | अर्थात्‌ वर्षा कम होगी | 
अगहन द्वादस मेघ अखाड़ । असाढ बरसे अछुना धार ॥ 
यदि अगहन की द्वादशी को बादलों का जमघट दिखाई पड़े, तो आपषाढ़ में वर्षा बहुत 
होगी । 
मोरपंख बादल उठे, रॉडाँ काजर रेख। 
ऊ बरसे ई घर करे, था में भीन न भेख ॥ 
जब मोर के पंख की-सी सूरतवाले बादल उठें और विधवा आँखों में काजल दे, तो 
सममना चाहिए, कि बादल बरसेंगे और विधवा किसी परपुरुष के साथ बस जायगी | 
इसमें संदेह नहीं । 
नारि सुहागिन जल्न घट जावे, दृधि मछली जो सनझुख आवे || 
सनभुख घेनु पिआवे बाछा, यद्दी सगुन हृ5 सब से आछा ॥ 
सौभाग्यवती स्त्री पानी से मरा हुआ घड़ा लाती हो, या सामने से दही और मछली 
भ्राती हो या गाय बछुड़े को पिला रही हो, तो यह शकुन सबसे अच्छा हैं। 





घाष 


घाघष के जन्म-स्थान के सम्बन्ध भें बहुत विद्वानों ने अधिकांश बातें अटकल और 
श्रनुमान के आधार पर कही हैं| किसी-किसी ने डाक के जन्म की गाथा को लेकर घाघ 
के साथ जोड़ दिया है। परन्तु इस क्षेत्र में रामनरेश त्रिपाठीजी ने सबसे अधिक छानबीन 
की है। उनके परिश्रम का फल यह हुआ कि घाघ के वंशघरों का पता ठीक-ठीक चल गया 
और उनके का्य-क्षेत्र और स्थान का ठीक पता मिला | 

बात यह है कि प्रतिभावालों का यश जब दूर तक फैल जाता है, तब कालान्तर में 
लोग उनको अपनाने की कोशिश करने लगते हैं ओर जबतक प्रामाणिक बातें सामने 
नहीं आती तबतक ऐसी ही अटकलबाजियाँ चला करती हैं। वही बात घाघ के सम्बन्ध 
में भी हुईं है । शिवसिह-सरोज के लेखक से लेकर बाद के विद्वानों तक ने इनके सम्बन्ध में 
अनेक बाते कहीं और उनके जन्म-स्थान को अलग-अलग कहा। 'घाघ और भइड्डरी” 
नामक पुस्तक में यह विवरण उद्धुत है* | 

घाघष की जीवनी 

घाघ के सम्बन्ध में शिव॒र्सिंद ने अपने “सरोज” में लिखा है ;-- 

“घाघ कान्यकुब्ज अंत्वेद वाले सं० १७१४३ में उ० ॥” 

“इनके दोहा, छुप्पय, लोकोक्ति तथा नीति-सम्बन्धी उपदेश आमीण बोलचाल में 
विष्यात हैं |? 


१ देखिए, रामनरेश त्रिपाठी लिखित 'धाघ और भसडरी! नामक पुस्तक। हिन्दुस्तानी 
एकेडमी, प्रयाग से सन्‌ १६४६ में प्रकाशित। पृष्ठ १७ से ३९ तक। 


9० भोजपुरी के कवि और काव्य 


मिश्नब्रस्धु अपने “विनोद? में लिखते हैं ;---- 

“ये महाशय संबत्‌ १७४३ में उत्पन्न हुए और १७६८० में इन्होंने कविता की मोटिया 
नीति आपने बड़ी जोरदार ग्रामीण भाषा में कही है |” 

हिन्दी शब्दसागर के सम्पादकों का कथन है ;-- 

“बाघ गॉडे के रहनेवाले एक बड़े चतुर अनुभवी व्यक्ति का नाम है, जिसकी कही 
हुई बहुत-सी कहावततें उत्तरीय भारत में प्रसिद्ध हैं| खेती-बारी, ऋतु काल तथा लंग्न- 
मुहूर्त आदि के सम्बन्ध में इनकी विलज्षण थुक्तियाँ किसान तथा साधारण लोग बहुत 
कहा करते हैं। 

भारतीय चरिताम्बुधि? में लिखा है ;-- 

“ये कन्नौज के रहनेवाले थे | सन्‌ १६६६ में पैदा हुए थे |” 

भी पीर मुहम्मद मूनिस का मत है ३--- 

धाघ के पद्यों की शब्दावज्ञी को देखते हुए अ्रतुमान करना पड़ता है कि घाष 
चम्पारन और मुजफ्फरपुर जिले के उत्तरीय सरहद पर, ऑरैयामठ या बैरगनिया और 
कु ड़बा चेनपुर के समीप किसी गाँव के थे |” 

“गथवा चस्पारन के तथा दूहो-सूह्दों के निकटवर्तती किसी गाँव में उत्पन्न हुए होंगे, 
अथवा उन्होंने यहाँ आकर कुछ दिनों तक निवास किया होगा |” 

भी बी० एन ० सेहता, झाइ० सी० एस० अपनी (युक्तप्रान्त की कृषि-सम्बन्धी कहावतों! 
में लिखते हूँ पल 

“घाघ नामक एक अद्दीर की उपहासात्मक कहायवतें भी द्धियों पर आक्षेप के रूप में हैं।” 

रायबह्ादुर बाबू मुकुन्दलाल गुप्त 'विशारदः अगरनी “कषिरत्ावली? में लिखते हैं:- 

“कान पुर जिल्लान्तर्गत किसी गाँव में संवत्‌ १७४३ में इनका जन्म हुआ था। ये 
जाति के ग्वाला थे | १७८० में इन्होंने कविता की मोटिया नीति बड़ी जोरदार भाषा 
में कही |? 

राजा साहब पँड़रौना (नि० गोरखपुर) ने स्वागत-समिति के सभापति की दैसियत से 
अपने भाषण में हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के गोरखपुर के वार्षिकोत्सत के अवसर पर 
कहा था कि घाघ उनके राज के निवासी ये | गाँव का नाम भी उन्होंने शायद रामपुर 
बताया था। मैंने जाँच कराई, तो मालूम हुआ कि इसमें कुछ भी तथ्य नहीं है। 

(शिवसिद् सरोज” के आधार पर 'कविता-कौमुदी? (प्रथम भाग) में लिखा है-- 

“घाघ कन्नोज-निवासी थे | इनका जन्म सं० १७५३ में कहा जाता है। ये कबतक 

जीवित रहें, न तो इसका ठीक-ठीक पता हे, और न इनका या इनके कुद्ठम्य का ही कुछ 
हाल मालूम है।” 

इसमें भी पीर मुहम्मद मूनिस का मत सही है। घाघ का जन्म छपरा जिल्ते में ही हुआ 
था | इसको पं० रामनरेश त्रिपाठी ने भी घाघ के परिवार का निवास कन्नौज के पास 

अ्रकबराबाद सराय धाघ” से लगा कर अस्वीकार नहीं किया है। बात यह है कि धाष का 
जन्म छुपरा जिले में हुआ और यहाँ उनकी प्रतिमा का विकास मी खूब हुआ। सम्मान 


आठवीं सदी ले ग्यारहवीं सदी तक ७१ 
भी उन्हें अच्छा मिला | किन्तु उनका प्रौढ समय दिल्ली दरबार में अ्रकबर के पास बीता। 
इन्होंने उन्हें, जागीर दी और उन्होंने अपने और अपने बादशाह के नाम पर 'अकबरा- 
बाद सराय धाध” बसाया और वहीं बस गये। “शिवसिंह-सरोज' के अ।धार पर जब राम- 
नरेश त्रिपाटी ने कन्नौज के पास पता लगाया तब उनको वहाँ--उनके परिवारवाले भी 
मिले | उन्होंने लिखा है*-..'मैंने प्रायः सत्र स्थानों की खोज की । कह्दीं-कहीं अपने आदमी 
मेजे | मैंने अवध के प्रायः सभी राजाओं और ताल्लुकेदारों को पत्र लिखकर पूछा । परन्तु 
कुछ ताल्लुकेदारों ने उत्तर दिया कि नहीं? | खोज के लिए कनौज रह गया था । मैं 
उसकी चिन्ता में ही था कि तिवां के राजा साहब के प्राइवेट सेक्रेटरी ठाकुर केदारनाथ 
सिंह, बी. ए० का पत्र मिला कि कन्नौज में घाध के वंशधर मौजूद हैं। उनका पत्र पाकर 
मैंने कन्नौज में घाघ की खोज की, तो यह पता चला कि घाघ कन्नौज के एक पुरवे में, 
जिसका नाम चौधरी सराय है, रहते थे | श्रब भी वहाँ उनके वंशज रहते हैं। वे लोग 
दूबे कहलाते हैं। घाध पहले-पहल हुमायू के राजकाल में गंगा पार के रहनेवाले थे | वे 
हुमायू के दरबार में गये | फिर अकबर के साथ रहने लगे | अकबर उनपर बड़ा प्रसन्न 
हुआ । उसने कहा कि अपने नाम का कोई गाँव बसाओ | घाघ ने वत्तमान 'चौधरी 
सराय” नामक गाँव बसाया और उसका नाम रक्खा 'अकबराबाद सरायधाघ? | अब 
भी सरकारी कागजात में उस गाँव का नाम 'सराय घाघ' ही लिखा जाता है। 

सरायघाघ कन्नौज शहर से एक मील दक्षिण और कन्नौज स्टेशन से तीन फर्लाग पश्चिम है। 
बत्ती देखने से बड़ी पुरानी जान पड़ती है | थोड़ा-सा खोदने पर जमीन के श्रन्द्र से पुरानी 
इंटें निकलती हैं। श्रकबर के दरबार में घाघ की बड़ी प्रतिष्ठा थी। अकबर ने इनको 
कई गाँव दिये थे, और इनको चौधरी की उपाधि भी दी थी। इसीसे घाघ के कुटम्बी 
श्रभी तक चौधरी कह्दे जाते हैं | 'सराय घाध! का दूसरा नाम “चौधरी-सराय? भी है।” 

ऊपर कहा जा चुका है कि घाघ दूबे थे। इनका जन्म-स्थान कहीं गंगा पार में कहा 
जाता है। अब उस गाँव का नाम ओर पता इनके वंशजों में कोई नहीं जानता । घाष 
देवकल्ली के दूबे थे और 'सराय घाघ? बसा कर अपने उसी गाँव में रहने लगे थे। उनके 
दो पुत्र हुए--मारकडेय दूबे और धीरघर दूबे | इन दोनों पुत्रो के खानदान में दूबे लोगों के 
बीस-पचीस घर अब उस बस्ती में हैं। मार्कडेय दूबे के खानदान में बच्चू लाल दूबे और 
विषू-स्वरूप दूबे तथा घीरधर दुबे के खानदान में रामचरण दूबे और भरीक्षष्ण दूबे वर्तमान 
हैं | ये लोग घाघ की सातवों या आठवीं पीढ़ी में अपनेको बतलाते हैं | ये लोग कभी दान 
नहीं लेते। इनका कथन है कि धाघ अपने धार्मिक विश्वासों में बढ़े कट्टर थे, और इसी 
कारण उनको अन्त में म्ुगंल-द्रबार से हटना पड़ा था, तथा उनकी जमींदारी का अधि- 
कांश जब्त हो गया था |” 

इस विवरण से घाघ के वंश और जीवन-कोल के विषय में संदेह नहीं रह जाता | 
मेरी राय में अब धाध-विषयक सब कल्पनाओं की इतिश्री सम्रकनी चाहिए। घाघ को 


१» देखिए--.प४ १६ (बाघ और भइटरी) 


७३ भोजपुरी के कवि और काव्य 


गवाला समसमनेवालों अथवा 'वराहमिहर! की सन्तान माननेवालों को भी अपनी भूल 
सुधार लेनी चाहिए |” 

इस उद्धरण से सभी मतभेद समाप्त हो गये और घाघ के छपरा का निवासी होना 
भी मुहम्मद मूनिस के मतानुसार सिद्ध हो गया है। छुपरा, मोतिहारी और शाहाबाद तथा 
बलिया में घाघ की भोजपुरी कविताएँ खूब प्रसिद्ध हैं और कोई बुढ़ा या जवान गृहस्थ 
बिरले ऐसा मिलेगा जिसने धाघ की एक-दो कविताएँ नहीं याद की हों। धाघ के साथ 
उनकी पतोहू की रचनाओं का भी उद्धर्ण आता है | किस्सा है कि घाघ जो कविता करते 
थे, उसके उल्ण उनकी पतोहू कविता करती थी | लोग इसका खूब रस लिया करते थे। 
घाघ ने जहाँ कविता लिखी कि उसे लोगों ने उनकी पतोहू के पास पहुँचाया और उसके 
जवाब को घाघ तक पहुँचा कर उनको चिढ़ा कर वे आनन्द लेते थे |* इससे घाघ यहाँ से 
चिढ़ुकर कन्नौज चले गये जहाँ उनकी ससुराल थी। कन्नौज से उनका दिल्‍ली जाना सिद्ध 
है। यह भी सिद्ध है कि उनके साथ उनके दोनों पुत्र माकण्डेय दूबे और घीरधर दूबे भो 
गये; क्योंकि दोनों के वंशज वहाँ आज भी वर्तमान हैं । 

अत; घाघ का छुपरा का छोड़ना जीविकोपाज॑न के हेतु ही अधिक सम्भव है; पतोहू 
कै कारण नहीं। कन्नौज में उनका सम्बन्ध था | वहीं से वे दिल्‍ली गये; क्योंकि अकबर के 
दरबार में मेधावी पुरुषों का सम्मान होता था और वहाँ जब जागीर वगेरह मिली तब वहीं 
अपने नाम से पुरवा बसा कर वे बस गये | घाध और उनकी पतोहू की कविताओं की 
नोक-मोंक के सम्बन्ध में निम्नलिखित पद्म देखिए, जिसे पं० रामनरेश त्रिपाठी ने मी उद्ध,त 
किया है। 


घाघ ने कहा-- 
भुये चास से चाम॑ कटावे, भुद्ँ सैंकरी माँ सोवे* । 


घाघ कहे थे दीनों भकुआ, उद्रि जाहँया रोचे ॥ 
उनकी पतोहू ने इसका प्रतिवाद इस प्रकार किया-- 

दाम देह के चाम कंठावे, नींद लागे जब सोचे। 

काम के मारे उदरि जाय जो, समुक्ति परे तब रोबे ॥ 


घौघ॑ ने कहां -- 
पौत्षा पहिरे हर जोते औ, सुथना पहिरि निरावे | 
घाघ कहें थे तीनों भकुआ, बोकऋ लिए जो गावे ॥ 
पतोहू ने कहा-- 
है अहिर होइ तो कस ना जोते, तुरकिन होह निराते | 
छैला होय तो कस ना गावे, हलुक बोस जो पावे ॥ 
धाष ने कहां--- 
तरुन तिया होइ अँगने सोचे, रन में चढ़ि के छुश्नी रोवे ॥ 
साँस सतुधा करे बियारी, घाघ मरे उनकर महतारी || 


१८ इसका जिक्र “बाघ और भरी” में पृ० २१ पर मी है। 
३. घाथ और भड्डरी--४० २१। 


६: 7॥॥ ज्ड्े 


पतोहू ने कहा-- . « 
पतित्रवा होइ झँगने सोचे । बिना अस्त्र के छुत्री रोचे ॥ 
भूख लागि जब करे बियारी" | मरे घाघ ही के महतारी ॥ 
घाष ने कहा 
बिन गवने ससुरारी जाय। बिना माघ घिउ खिंचरी खाय । 
बिन बरखा के पहिने पौआ । घाघ कहे थे तीनों कौआ ॥ , 
पतोहू ने कहा+- 
कास परे ससुरारी जाय। सन चाहे घिडठ खिंचरी खाय॥ 
ह करे जोग तो पहिरे पौआ। कद्दे पतोहू धाघे कौआ ॥ 
पतोहू का शरीर जरा भारी थ। | पर घाघ के पुत्र का शरीर पतला था। एक दिन 
क्रोध में आकर घाघ ने कह्ा-- 
पातर दुलहा मोटलि जोय३, घाघ कहें रस कहाँ से होय ॥ 
लोगों ने यह मजाक पतोहू तक पहुँचाया। पतोहू कब चूक्रनेवाली थी! उसने 
कुड़कर कहा «« 
घाघ दुह्दिजरा“ अस कंस कहे, पाती" उख्न बहुत रस रहे? ॥ 


५ »ऋ 
घाघ के मरने के सम्बन्ध में कह जाता है कि वे अपनी मत्यु का कारण ज्योतिष से 
जान गये थे कि जल में डूब कर मरेंगे। इससे वे जल में प्रवेश नहीं करते ये | पर एक 
दिन मित्र-गण उन्हें यह कहकर तालाब में नहवाने बलात्‌ ले गये कि हम सब साथ हो तो 
हैं। पर नहाते समय उनकी चुटिया जाठ से फेंस गई और वे डूब कर मर गये | मरते 
समय उन्होंने कहा था 
है जनि जान घाघ निंडुद्धी । 
झावे काल बिनासे छुद्ी ॥ 
घाघ की कविताएं उत्तरप्रदेश, विहार, कन्नौज तथा अ्रवध में सत्र पाई जाती हैं 
और लोगों ने अपनी-अपनी बोली में उन्हें खुब होशियारी से उतार लिया है। बैसवाड़े 
वाले पेट!” को “यार, 'सो्वे! को “स्वावं! बोलते हैं । पर भोजपुरी ठीक उसी रूप में 
रखते हैं। रामनरेश' त्रिपाठी की बाघ और भडुरी? नामक पुस्तक में जो कविताएँ 
संगहत हैं, उनमें भी भोजपुरी पाठ की बहुत कविताएँ हैं। भ्री जी० ए० भीश्रर्सन ने भी 
घाघ की कविताश्रों को भोजपुरी पाठ के साथ 'पिजेन्ट लाइफ आफ बिहार! में उद्चुत 
किया है। घाघ ने प्रारम्भ में भोजपुरी में ही अधिकांश कविताएँ लिखी होंगी; किन्तु बाद 
में उनकी उपयोगिता से आइष्ट हो अन्य माषा-साषियों ने भी उनको अपनी भाषा के 
अनुकूल तोड़-मरोड़ कर बना लिया होगा; क्योकि उनकी मातृ-भाषा भोजपुरी थी | 
१ ब्यालू , भोजन।' २, खंडाऊँ।- ३०पत्नीौ। ४« दाढ़ीजार ( एक'गाली )१ 


पतली ॥ ६ यद छुन्द' पं०रामनरेश त्रिपाठी को मदहामना प॑० सदनमोहन 
मालवीय जी से प्राप्त हुआ था । 


७४ भोजपुरी के कवि और काव्य 


पं० रामनरेश त्रिपाठी का यह अनुमान है कि भाषा के आधार पर घाघ का जन्म-स्थान कह्दों 
निर्धारित करना ठीक नहीं, तक और युक्ति-सम्पन्न नहीं प्रतीत होता है। हाँ, धाध जब 
कन्नौज में बस गये तब कन्नौज के अ्रास-पास भोली जानेवाली भाषा में उनकी रचनाओं 
की प्राप्ति स्वाभाविक है। किन्तु तब मी उनकी अ्रधिकांश रचनाएँ भोजपुरी में ही हैं । 
अकबर का समय सन्‌ १५४३ से १६०४ तक है। यही घाघ का भी समय मानना 

चाहिए | यदि धाघ के वंशजों के कथनानुसार वे हुमायू के साथ भी रह चुके होंगे तो 
अकबर के सिंहासनारूढ होने के समय उनकी अवस्था पचास वर्ष से अधिक दी रही होगी। 
घाघ के वंशधरों के कथनानुसार उनकी मृत्यु कन्नौज में ही हुई थी । 

हर होह गोयडे' खेत होह चास* | 

नारि होद गिहिथिनि३3 सेंद्स सन्‍्हार | 

रहरी के दाल जड़हन के भात ॥ 

गारल नेहुआ औ घीव तात ॥ 

सारस अंड दृही जब होय। 

बॉके नयन परोसय जोय ॥ 

कहे घाघ ई साँच ना भूठ। 

उहाँ. छाड़ि इहवें बैकुण्डव ॥ 

इस अक्ति में कबि ने गहस्थ के सुखी जीवन की तुलना वैकुण्ठ से की है। गाँव 

के निकट ही हल चलता हो श्रर्थात्‌ गोयड़े में ही खेत हो | खेत चास हो उठे हों। नारी 
गिहिथिन ( धर-णहस्थी सेभालने में कुशल ) हो और मैंठ सन्हार ( यानी दूध देनेवाली ) 
हो। अरदर की दाल हो और जड़इन धान का भात हो । उसपर नीबू का रस हो और 
तत्त-तप्त घृत ऊपर से डाला गया हो | सारस के अ्रंडे के रंग का दह्दी हो श्रर्थात्‌ खूब औटि 
दूध का लाल रंग का दही हो | साथ ही बाँकी चितनवाली जबान पत्नी परोसती हो | तब 
धाघ कहते हैं, साज्नात्‌ वैकुंठ यहीं है, अन्यत्र कहीं नहीं । 


घाघ की कहद्दावतें 
बनिय क सखरच" ठकुुर क हीन। बहद क पूत व्याधि नहीं चीन्ह ॥ 
पंडित चुपचुप बेसवा महल। कहें घाघ पाँचों घर गइल ॥ 
यदि बनिये का लड़का शाहख्च (अपव्ययी) हो, ठाकुर का लड़का तेजहीन पतला- 
दुबला हो, वैद्य का लड़का रोग न पहचानता हो, पंडित चुप-चुप ( मुँहदुबर ) हो और 
वेश्या मैली हो तो धाघ कहते हैं कि इन पाँचो का घर नष्ट हुआ समसतो | 
नसकट खटिया दुल्लककन घोढ़। कहें घाध यह बिपति क ओर ॥ 
छोटी खाट---जिस पर लेटने से एंड्री की नस पाटी पर पड़ती हो, जिससे वहाँ की नस में 


१ गाँव के निकट । २० जोता हुआ । ३« सुगहिणी । ४० अपने पितामह कचिवर 
८ंश! नर्म्मदेश्वरप्रसाद सिंह से, ठीक इसी पाठ में, आज से ४० वर्ष पूर्व, करठस्थ 
कराया गया [--लेखक ५« शाहख् | 


चैधि छ्७ 


पार्टी गड़ती हो--तथा दुलक करे चलनेवाला घोड़ा, ये दोनों घाघ कहते हैं कि विपत्ति के 
शोर (कारण) हैं। 
नसकद पनही १, बतकट जोय । जो पहिलौंदी बिटिया होय ॥ 
पातर खेत, बौरहा भाय। घाघ कहें हुख कहाँ समाय ॥ 
घाघ कहते हैं कि पैर की नस काटनेवाली जूती, बात काटनेवाली स्त्री, पहली सन्तान 
कन्या, कमजोर खेती और बावला भाई जिनको हो; उनके दुख की सीमा नहीं होती है ! 
उधार काद़ि ब्योहार चलावे, छुप्पर डारे तारोरे | 
सारे के संग बहिनी पठवे, तीनिउ के मुँह कारो ॥ 
जो उधार लेकर कर्ज देता है, जो घास-फूस के घर में ताला लगाता है और जो साले 
के साथ कहीं बहन को मेजता है, घाघ कहते हैं, इन तीनों का मुह काला होता है। 
आलस नींद किसाने नासे, चोरे नासे खाँसी | 
अँखिया लीवर 3 घेसवे नासे, बाघे४ नासे दासी ॥ 
आलस्य और नींद किसान का, खाँसी चोर का, लीबर (कीचड़) वाली आँखें वेश्या 
का और दासी साधु का नाश करती है। इसलिए किसान को आलस्य और अधिक नींद 
से, चोर को खाँसी से, वेश्या को गंदी आ्ाँखों से और साधु को दासी से हमेशा बँचना 
चाहिए। 
फूटे से बहि जातु है ढोल, गंवार, अँगार। 
फूटे से बनि जातु है फूट, कपास, अनार ॥ 
ढोल, गँवार और अँगार, ये तीनों फूटने से नष्ट हो जाते हैं | पर फूट (ककड़ी), कपास 
और अनार फूटने से बन जाते हैं अर्थात्‌ मूल्यवान्‌ हो जाते हैं । 
बाघ", बिया, बेकहल् *, बनिक, बारी, थेठा, बेल । 
ध्योहर, बढ़ईं, बन, बबुर, बात, सुनो ये छैल ॥ 
जो बकार बारह बसें सो पूरन गिरहस्त । 
औरन को सुख दे सदा आप रहै अलमस्त || 
बाघ (जिससे खटिया बुनी जाती है), बीज, बेकहल (पढुए या सन की छाल), बनिया, 
बारी (कुलवाड़ी), बेटा, बैल, ब्योहर (सूद पर उघार देना), बढ़ई, वन या जंगल, बबूल 
और बात, ये बारह बकार जिसके पास हो, वही पूरा ग्रहस्थ है। वह दूसरों को सदा सुख 
देगा और स्वयं भी निश्चिन्त रहेगा। 
गदहल पेड़ जब बकुला बइठल | गइल गेह जब मुढ़िया पहठतल्न ॥ 
गइल राज जहँ राजा लोभी। गइल खेत जहँ जामल गोभी ॥ 
बगुले के बैठने से पेड़ का नाश हो जाता है, मुड़िया (संन्यासी) जिस घर में आता- 
जाता है--वह घर नष्ट हो जाता है, जहाँ राजा लोभी होता है, वहाँ का राज्य नष्ट हो जाता 
है और गोभी ( एक प्रकार की जलवाली घास ) जमने से खेत नष्ठ हो जाता है। बगुले 


१ जूती। ३, ताला। ३. चुँधियाई, कौचड़वाली । ४. साधु । ५. साबे या मूँज को 
कूट कर उसके रेशे से बनाई गई रस्सी । ६. चल्कल । 


३६ भोजपुरी के कवि और काव्य 


की बींठ पैड़ के लिए हानिकारक बताई जाती है और गोभी के जमने से खेत की पैदावार 


बहुत कम हो जाती है | 
घर घोड़ा पंदुल चले, तीर चलावे बीन | 


थाती घरे दुमाद घर, जग में सकुआ" तीन ॥| 
संसार में तीन मूर्ख हैं --एक तो वह जो घर में घोड़ा होते हुए भी पैदल चलता है, 
दूसरा वह जो बीन-बीनकर (चुन-चुनकर) तीर चलाता है, और तीसरा वह जो दामाद 
के घर थातो (घरोहर) रखता हैं । 
खेती, पाती, बीनती और घोड़े का तंग । 
अपने हाथ सेंवारिये लाख लोग हों संग ॥ 
खेती करना, चिट्ठी लिखना, ब्रिनती करना और घोड़े का तंग कसना; ये काम अपने 
ही हाथ से करना चाहिए। यदि लाख आदमी भी साथ हों तन भी स्वयं करना चाहिए। 
बैल बगौधा* निरधिन३ जोय | वा घर ओरहन कहूँ न दोय ॥ 
बगौघे के नसलवाला वैज्ञ और घिनौनी ञ्री जिस धर में हो, उस धर में उलाइना 
कभी नहीं आता । 
चेते गुड़ बैसाखे तेल। जेठ के पंथ असाढ़ के बेल ॥ 
सावन साग न भादो दही | छुआर करेला कातिक सही || 
अगहन जीरा पूसे धना | ज्ाघे मिसिरी फागुन चनों॥ 
चैत में गुड़, वैसाख में तेल, जेठ भें राह, असाढ़ में वेल, सावन में साग, भादो में 
दही, कार में करेला, कातिक में मद्ठा, अगहन में जीरा, पौष में धनिया, माघ में मिश्री और 
फागुन में चना हानिकारक हैं। इसी के जोड़ का एक दूसरा छंद है, जिसमें प्रत्येक महीने 
में लाभ पहुँचानेवाली चीजों के नाम हैं । 
सावन हरें भादों चीत। कुआर मास शुद् खायड सीत ॥ 
कातिक भूली अरहन तेल। पूस में करे दूध से सेल ॥ 
भाध माल घिड खिचरी खाय। फायुन डउठि के प्रात नहाय ॥ 
चैत मास में नीम बेसहनी। बेसाखे में खाय जड़हनी ॥ 
जेठ मास जो दिन में सोचे। ओकर जर असाढ़ में रोबे ॥ 
सावन में हरे, भादो मास में चिरायता; क्कार सास में गुढ़, कार्तिक में मूली, अगहन 
में तेल, पौध मास में दूध, माघ मास में घीओर खिचड़ी, फागुन में प्रातःकाल 
स्नान, चैत मास में नीम, वैसाख में जड़हन का (पानी डाला हुआ ,बासी ) भात, जेठ 
मास के दिन में नींद का जो सेवन करता है, उसको आपषाढ में ज्वर नहीं लगता। 
बूढ़ा बैल बेसाहे रीना कपड़ा लेय। 
अपने करे नसौनी देव न दूबन देय || 
जो शहस्थ बुढ़ा बैल खरीदता है, बारीक कपड़ा लेता है, वह तो अपना नाश आप 
ही करता है, वह देव को व्यर्थ ही दोष लगाता है। 


१. मूर्ख । २. बगौथे की नस्लवाले वैल वे सीधे होते हैं। ३० फूहड़, घिनानो । 


चांघ ढै७ 


बैल चौंकना जोत में अर चसकीली नार। 
ये बैरी हवथें जान के कुसल करे करतार ॥ 
हल में जोतते वक्त चौकनेवाला बैल और चटक-मठक से रहनेवाली स्त्री, ये दोनों 
ही ग्रहस्थ के प्राण के शत्रु हैं| इनसे ईश्वर ही बचावें । 
निरफपछ राजा, मन हो हाथ । साधु परोसी, नीमच” साथ ॥ 
हुकुमी* पूत धिया सतवार३। तिरिया भाई रखे बिचार ॥ 
कहे घाघ हम करत बिचार | बढ़े भाग से दे करतार ॥ 
राजा निष्पक्ष हो, मन वश में हो, पड़ोसी सज्जन हो, सच्चे और विश्वासी आदमियों 
का साथ हो, पुत्र आश्ञाकारी हो, कन्या सतवाली हो, स्त्री और भाई विचारवान्‌ हो तथा 
अपना ख्याल,रखते हों । घाघ कहते हैँ कि हम सोचते हैं कि बड़े भाग्य से भगवान इन्हें 


किसो को देते हैं । 
ढी5 पतोहू धिया गरियारई । खसम बेपीर न करे बिचार || 


घरे जलावन अन्न न होइ । धाघ कहें से अभागी जोह ॥ 
जिसकी पुन्नवधू ढीठ हो, कन्या आलझी हो, पति निर्दय हो और पत्नी का ख्याल न 
करता हो, घर में जलावन तथा अन्न न हो; धाघ कहते हैं ऐसी स्त्री मद्मअश्नभा गिनी है । 
कोपे दई मेघ ना होइ। खेपी सूखति नेहर जोह" ॥ 
पूत बिदेस खाट पर कन्त । कहे घाघ ई बिपति क अन्त ॥ रु 
देव ने कोप किया है, बरसात नहीं हो रही है, खेती सूख रही है, स्त्री पिंता के घर है, 
पुत्र परदेश में है, पति खाट पर बीमार पड़ा है। धाघ कहते हैं, ये सब्र बिपत्ति को 
सीमाएँ 
3 पूत न माने आपन डॉट। भाई लड़े चाहे नित बाँट ॥ 
तिरिया कलही करकस' होहू | नियरा बसल दुहुट० सब कोह ॥ 
मालिक नाहिन करे बिचार। घाघ कहे ई बिपति अपार || 
पुत्र अपनी डॉँट-डपट नहीं मानता, भाई नित्य झगड़ता रहता है और बंटवारा चाहता 
है, स्त्री कगड़ालू और ककंशा है, पास-पढ़ोस में सब दुष्ट बसे हुए. हैं, मालिक न्याय- 
अन्याय का विचार नहीं करता, घाघ कहते हैं कि ये सब अपार विपत्तियाँ हैं। 
बेल मरखद्दा चसकल जोय । वा घर ओरहन< नित उठि होय। 
मारनेवाला बैल और चटकीली-मटकीली स्त्री जिस घर भें हों, उसमें सदा उल्लाइना 
आता रहेगा। 
परहथ बनिज, सेंदेसे खेती । बिन बर देखे ब्याहे बेटी ॥ 
द्वार पराये गाड़े थाती। ये चारो मिलि पी छाती ॥ 
दूसरे के भरोसे व्यापार करनेवाला, संदेशा द्वारा खेती करनेवाला और जो 
बिना बर देखे बेटी ब्याइनेवाला तथा जो दूसरे के द्वार पर घरोहर गाड़नेवाला, ये चारों 
मम आए + गा ु 


+» अच्छा । २. आज्ञाकारी । ३ सब्चरित्रा । ४. मदर, आलसी। ५» -पत्नी 
६० करकशा | ७, दुष्ट । ७, उपालम्भ । 


७८ भोजपुरी के कवि और काश्ये 


अगते'* खेती, अगते मार । कहें घाघ ते कबहूँ न हार । 
धाघ कहते हैं कि जो सबसे पहले खेत बोते हैं और कगड़ा होने पर जो सब से पहले 
मारते हैं, वे कभी नहीं हारते । 
सधुषे दासी, चोरबे खाँसी, प्रेम बिनाले हाँसी। 
घाघ उनकर घुद्धि बिनासे, खाये जे रोटी बासी ॥ 
साधु को दासी, चोर को खाँसी श्र प्रेम को हँसी नष्ट कर देती है। घाघ कहते हैं 
कि इसी प्रकार जो लोग बासी रोटी खाते हैं, उनकी बुद्धि नष्ट हो जाती है। 
ओछे बैठक, ओछे काम। ओछी बातें आठों जाम ॥ 
घाघ' बतावे तीन निकाम। भूलि न लीह5 इनकर नाम ॥ 
जो श्रोछे श्रादमियों के साथ बैठता है, जो ओ्रोछ्ठे काम करता है और जो रातदिन 
औओछी बातें करता रहता है। घाघ कहते हैं ये तीन निकम्मे आदमी हैं | इनका नाम कभी 
भूल कर भी न लेना चाहिए | 
आठ कठौती माठा पीये सोरह भक्कुनी खाय। 
ओकरे मरे न फबहूँ रोहहड घर के दुलिदर जाय ॥ 
जो झाठ कठौता (काठ की परात) मद्ठा पीता हो और सोलह मकुनी (एक प्रकार की 
सत्तू भरी रोटी ) खाता हो, उसके मरने पर कभी भी रोने की जरूरत नहीं | उसके मरने 
से तो मानों घर की दरिद्रता निकल गई। 
घोर, जुवारी, गैंठकटा, जार ओ नार छिनाररे । 
सौ सौगंध खायें जो घाघ न करु एतवार ॥ 
धाघ कहते हैं कि चोर, जुवारी, गंठकठा, जार और छिनार स्त्री यदि सौ सौगंध भी 
खार्ये, तो भी इनका विश्वास न करना चाहिए.। 
छुल्जा के बेठल बुरा परछाही के छॉँद। 
भीरी 3 के रसिया घुरा नितर उठि पकरे बाँह ॥ 
छुज्जे की बैठक बुरी होती है, परछाँई की छाया बुरी होतो है| इसी प्रकार निकट की 
रहनेवाला प्रेमी बुरा होता है जो नित्य उठकर बाँद पकड़ता है | 
नित्ते खेती हुसरे गाय। नाहीं देखे तेकर जाय || 
घर बैठल जो बनवे बात । देह में घस्त्र न पेट में भात ॥ 
जो किसान रोज खेती की और एक दिन बीच डालकर गाय की देखभाल नहीं करता, 
उसके ये दोनों चीजें बरबाद हो जाती हैं । जो घर में बैठे-बैठे बातें बनाया करता है, उसकी 
देह पर न वस्त्र होता है, न पेट में मात--अथ्थांत्‌ वह दरिद्र हो जाता है। 
विप्न दहलुआ चिकक्‍कर धन औ बेटी कर बाढ़ । 
एहू से धन ना घंटे तो करे बढ़न से रार ॥ 
ब्राक्षण को नौकर रखने से, कसाई की जीविका उठाने से और कन्याओं की बढ़ती से 


१. सबसे पहले । २५ कुलटा । ३, पास। ४. कसाई। 


चाघ ७९, 


भी यदि धन घटता नहीं है, तो अपने से जबरदस्त से कगड़ा करना चाहिए ) 
जाके छाती बार ना; ओकर एुतबार ना। 
जिस आदमी की छाती पर एक भी बाल न हो, उसका विश्वास नहीं | 
मात्ते पूत पिता ते घोड़। ना बहुतो त थोरो थोर ॥ 
माँ का गुण पुत्र में आता है और पिता का गुण घोड़े में आता है। यदि बहुत न 
आपया, तो कुछ तो जरूर आता ही है। ॥॒ 
बाढ़े पुत पिता के धर्म । खेती उपजे अपने कमें | 
पुत्र पिता के धर्म से बहुता है; पर खेती अपने ही कर्म से होती है । 
रॉड मेहरिया अनाथ मेंसा। जब बिचके तब होवे कैसा || 
रॉड़ स्त्री और बिना नाथ का भैंसा, यदि बहक जाय तो क्या हो / श्रर्थात्‌ भयंकर अन थ॑ हो । 
जेकर ऊँचा बैठना जेकर खेत निचान। 
ओकर बैरी का करे जेकर मीत दिवान ॥ 
जिस किसान का उठना-बैठना ऊँचे दरजे के आदमियों में होता है, और खेत 
झास-पास की जमीन से नौचा है तथा राजा का दीवान जिसका मित्र है, उसका शत्रु 
क्या कर सकता है ! 
घर के खुनुस" ओ जर के भूख । छोट दमाद बराहे ऊख | 
पातर खेती भक्तुवा भाय। धाघ कहें दुख कहाँ समाय ॥ 
घर में शत-दिन का चखचख, ज्वर के बाद की भूख, कन्या से छोटा दामाद, सुखती हुई 
ईख, कमजोर खेती और बेबकूफ भाई--ये ऐसे दुःख हैं कि घाघ कहते हैं कि जिनका कहीं 


अन्त नहीं है| 
माघ मास की बादरी ओ छुवार के घाम। 


ई दूनों के जेड सह्टे करे पराया काम ॥ 
माघ की बदली और कुवार का घाम, ये दोनों बड़े कष्टदायक होते हैं। इन्हें जो सह 
सके, वही पराया काम कर सकता है अर्थात्‌ नौकरी कर सकता है। 
खेत ना जोतीं राढ़ी, मेंस ना पोसीं पाड़ी। 
राढ़ी घासवाला खेत न जोतना चाहिए, न पाड़ी ( बच्ची भेंस ) पालनी चाहिए। 
सावन घोड़ी, भादो गाय । माघ सास जो भैंस वियाय । 
कद्दे घाघ यह साँचे बात । आप भरे कि मल्िके खाय | 
यदि सावन में घोड़ी, भादों में गाय और माघ के महीने में मेंठ ब्याये, तो घाथ कहते 
हैं कि यह बात निश्चित है कि या तो वह स्वयं मर जायगी या मालिक को ही खा जायगी | 
हरहट नारि बाल एकवाह | परुवा बरद सुहुत दरवाह ॥ 
रोगी होइ रहे इकन्‍्त । कहें घाघ ई बिपति के अन्त ॥ 
फर्कशा सत््री, गाँव के एक किनारे बसना, इल में बेठ जानेवाला बैल, उुस्त हलवाहा, 
रोगी होकर अकेले रहना, घाघ कहते हैं कि इनसे बढ़कर विपत्ति और नहीं | 
१ नोंक-फोंक, चंखचख | 


&० भोजएुरी के कचि और कान्य 


लरिका ठाकुर बूढ़ दिवान | मसिला' बिगरे साँक बिहान ॥ 
यदि ठाकुर ( राजा, जमींदार ) बालक हो और उसका दीवान बुद्धा हो, तो सारा 
मासला सुबह-शाम में ही बिगड़ जायगा | 
ना अति बरखा, ना अति घूप । ना अति बकता, ना अ्रति चूप |] 
न बहुत वर्षा ही अ्रच्छी है, न बहुत धूप ही | इसी प्रकार न बहुत बोलना अ्रच्छा है, 
न बहुत चुप रहना ही । 
ऊँच अठारी मधुर बतास। कहें घाध घरही कैलास । 
ऊँची भ्रय्ारी हो और वहाँ मंद-मंद हवा मिलती हो, तो घाध कहते हैं कि घर में ही कैलास है | 
बिन बेलन खेती करे, बिन भैयन के रार। 
बिन सेहरारू घर करे चौद॒ह साख लबाररे ॥ 
जो ग्हस्थ यह क्रह्ता है कि मैं बिना बेलों के खेती करता हूँ, बिना भाइयों की 
सहायता के दूसरों से कगढ़ा करता हूँ और बिना स्री के गहस्थी चलाता हूँ, उसकी चौदृह 


पीढ़ियाँ भूठी हैं । 
दिलढिल बेंट कुदारी । हँसि के बोले नारी ॥ 
हँसि के साँगे दाम। तीनों काम निकास ॥ 
कुदाल की बेंट ढीली हो, त्ली हँसकर जिस किसी से बात करती हो और उधार दी हुईं 
चीज का दाम हँसकर माँगा जाय तो इन तीनो को बिल्कुल चौपट ही समझना चाहिए | 
उत्तम खेती मध्यम बान | निर्धिव सेवा भीख निदान ॥ 
खेती का पेशा सबसे अच्छा है । वाणिज्य ( व्यापार ) मध्यम और नौकरी सबसे 
घिनोनी है । १२ भीख माँगना तो सबसे गया-गुजारा अत्यन्त खरात्र पेशा है। 
सब के कर | हर के तर ॥ 
सारे काम-धंघे हल पर निर्भर हैं। 
कीढ़ी संचे तीवर साय । पापी के धन पर ले जाय || 
कोड़ी (चींटी) भ्रन्‍्न जमा करती है, किन्त तीतर पक्की उसे खा जाता है| इसी प्रकार 
पापी का धन दूसरे लोग उड़ा लेते है। 
भटटसि सुखी जो डबरा भरे। रॉढ सुखी जो सबके मरे॥ 
बरसात के पानी से गड़ा मर जाय तो भेस बढ़ी खुश होती है । इसी प्रकार राह 
तब खुश होती है, जब सभी ज्ञयाँ राँड़ हो जाये | 
मारि के दरे रहु। खाइ के परि रहु ॥ 
मारकर टल जाओ शोर खाकर ल्लेट जश्नों । पहली बात से फिर स्वयं मार खाने की 
नौबत नहीं आती और दूसरी बात से स्वास्थ्य अच्छा रहता है। 
खाह के मूते सूते बाँव | काहे के बैद बसावे गाँव ॥ 
खाकर पेशाब करे और फिर बाई करवट लेट जाय, तो वैद्य को ,गाँव में बसाने की 
क्या जरूरत है ; यानी ऐसा करनेवाला सदा नीरोग रहता है | 


१५ कारोबार। २» मिथ्यावादी । 


घाघ <१ 


सावन सैंसा, माघ सियार | अगहन द्रजी चैत चमार ॥ 

सावन में भेंसा, माघ में सियार, अगहन में दरजी और चैत में चमार मोटे 
हो जाते हैं। सावन में मैसे इसलिए मोटे होते हैं कि उन्हें चरने को हरियरी खूब मिलती 
है। माघ में सियार इसलिए, सोटे होते हैं कि उन दिनों में ऊ आदि मिठी वस्तुएँ मिल्रती 
हैं और यह मौसम उनकी जवानी का मौषम होता है। अगइन मात में किसानों के 
यहां अ्रन्न हो जाने के कारण उनसे दरजी को खूब काम मिश्ञता है और पे बदले में प्रचुर 
अन्न पाते हैं। इसो तरह'चैत महीने में मवेशियो को ज्यादा बीमारी होती है और वे मरते 
हैं, जिससे चमारो को पूरा लाम होता है | 


खेती सम्बन्धी रचनाएँ 
उत्तम खेती जो हर गहा । मध्यम खेती जो संग रहा ॥ 
जो पृद्धेति हरवाहा कहाँ । बीज बूढ़िगे तिनके तहाँ॥ 
जो स्वयं अपने हाथ से इल चलाता है, उसकी खेती उत्तम; जो हलवाहे के साथ रहता हे, 
उसकी मध्यम और जिसने पूछा कि हलवाहा कहाँ है, उसका तो बीज लौठना मी मुश्किल है | 
खेत घेपनिया जोते तब | ऊपर कूँआ खोदा ले जब ॥ 
जिस खेत में पानी न पहुँचता हो, उसे तब जोतो, जब उसके ऊपर केंश्रा खुदवा लो | 
पुक सास ऋतु आगे धाचे | आधा जेठ असाढ़ कहातवे ॥ 
मौसम एक महीना आगे चलता है। आधे जेठ से ही आषाढ़ समझना चाहिए और 
खेती की तैयारी प्रारम्म कर देनी चाहिए । 
ढेला ऊपर चील जो बोले | गलो यल्ी में पानी डोले ॥ 
यदि चील ढेले पर बैठ कर बोले, तो समझना चाहिए कि इतना पानी बरसेगा कि 
गली-कूचे पानी से मर जायेंगे | 
अग्बाकोर चलने पुरवाईं। तब जानो बरखा ऋतु आईं॥ 
यदि पुरवा हवा ऐसे जोर से बहे कि आम मक़ पड़ें तो समझना चाहिए, कि वर्षा- 
ऋतु आ गई । 
साघ के उख्म जेठ के जाड़ । पहिले बरखा भरिगा तात्व ॥ 
कहें घाघ हम होइब जोगी । हुआ खोदि के धोइहें घोबी ॥ 
यदि माघ में गरमी पड़े ओर जेठ में जाड़ा हो और पहली ही वर्षा से तालाब भर 
जाय, तो घाघ कहते हैं कि ऐसा सूखा पड़ेगा कि हमें परदेश जाना पड़ेगा और धोबी लोग 
कुंआ खोदकर कपड़ा धोयेगे | 
रात करे धापधुप दिन करे छाया । कहेँ घाघ तब वर्षा गया ॥ 
यदि रात साफ होने लगें और दिन में बादल की सिर्फ छाया (वथ्वो पर पड़ने लगे, तो 
धाघ कहते हैं कि वर्षा का अन्त समकना चाहिए । 
खेती ऊ जे खड़े रखावे। सूनी खेती हरिना खाबे ॥ 
खेती बह्ी है जो प्रतिदिन भेड़ पर खड़े होकर उसकी रखवाली करे, बगैर रखबाली 
के खेत को तो हिरन आदि पश्ु चर जाते हैं। 


(ढरे भोजपुरी के-कवि और काव्य 


उल्टा बादर जो चंढ़े। बिधवा खड़े -नहाय ॥ 
घाघ कहें सुन भरी ऊ बरसे ऊ जाय ॥ 
, जब पुरवा हवा में पश्चिम से बादल चढ़ें और विधवा खड़ी होकर स्नान करे, तब 
धाघ कहते हैं कि हे भडडरी, सुनो, बादल बरसेंगे और विधवा किसी पुरुष .के साथ 
चली जायगी | 
पहिले पानी नढ़ी उफनाय | तो जनिह5 कि बरखा नाय 
पहली हो बार की वर्षा से यदि नदी उफन कर बहे तो सममना चाहिए कि वर्षा 
अच्छी न होगी । 
माघ के गरमी जेठ के जाड़। कहें घाघ हम होब उजाढ़ ॥ 
माघ में गरमी और जेठ में सरदी पड़े तो घाघ कहते हैं कि हम उजड़ जायेंगे अर्थात्‌ 
पानी नहीं बरसेगा | 
थोड़ा जोते बहुत हँगावे। ऊँच न बाँघे आड़ ॥ 
ऊँचे पर खेती करे। पेदा होवे भाड़ ॥ 
थोड़ा जोते, बहुत हेंगावे (सिरावन दे), मेंड' भी ऊँचा न बाँधे और ऊ ची जगह पर 


खेती करे, तो भड़भड़ा घास पैदा होगी 
गेहूँ बाहे धान गाहे। ऊख गोड़े से हो आहे ॥ 


गेहूँ कई बाँह करने ( एक बार से अधिक छीटने ) से, धान बिदाहने ( धान के पौधे 
उग आधे तब जोतने ) से और ईख कई बार गोड़ने से अ्रधिक पैदा होती है। 
रदहे गेहूँ कुसहे धान। गढ़रा के जड़ जड़हन जान ॥ 
फुली घास से देयें किसान। ओह में होय आन के तान ॥ 
राड़' घास काटकर गेहूँ बोने के, कुश काटकर धान बोने के और “गड़रा कोठ्कर 
जड़हन बोने के खेत बनाये जायें तो पैदावार अच्छी होती है। लेकिनः जिस खेत में 
फुलददी घास होती है, उसमें कुछ नहीं पैदा होता और किसान रो देता है। 
- जब सैल खटाखट बाजे। तब चना खूब ही गाजे ॥ 
खेत में इतने ढेंले हों कि हल चलते वक्त यदि बैलों के जुए की सैलें खट-खट बजती 
रहूँ तो उस खेत में चने की फसल अ्रच्छी होगी | 
जब बरसे तब बाँघे कियारी। बढ़ किसान जे हाथ कुदारी ॥ 
जब बरसे, तब बयारी बाँधनी चाहिए | बड़ा किसान वह है- जिसके हाथ' में -कुदाल 


रहती है। 
माघ मघारे जेठ में जारे॥ 


“भादों सारे तेकर मेहरी ढेहरी पारे ॥ 
' गेहूँ का खेत माध में खूब जोतना चाहिए, फिर जेठ में उसे खूब तपने देना-चाहिए 
१ भाड़--भड़भड़ा --धमोर एक काँटेदार चितकबरी पत्तीवाला पौधा, जिसके फूल 
पीलें और कठोंरे के- आकार के द्वोते हैं। चमार लोग उसके बीज का तेल 
निकालते है। 


वध रथ 


जिससे घास और खेत की मिट्टी जल जाय | फिर भादों में जोत कर सड़ावे | जो किसान 
ऐसा करेगा, उसी की जी अन्न मरने के लिए डेहरी (कोठला) बनायेगी । 
जोते खेत घास न हूटे। तेकर भाग साँखे फूटे ॥ 
जोतने पर भी यदि खेत की घास न हूढे, तो उसका माग्य उस दिन की संध्या आते ही 
फूल समझना चाहिए। 
गहिर न जोतसे बोचे धान। सो घर कोठिला भरे किसान ॥ 
धान के खेत को गहरा न जोतकर धान बोना चाहिए | इतना धान पैदा हो कि 
किसान का घर कोठिलों से भर जायगा | 
दुइ हर खेती एक हरबारी । एक बेल से भत्रा छुदारी ॥ 
दो इल से खेती और एक से शाक-तरकारी की बाड़ी होती है । ओर, जिस किसान 
के पास एक ही बैल है, उससे तो कुदाल ही अच्छी है। 
तेरह कातिक तीन अषाढ़। जे चूकल से गइल बजार || 
तेरह बार कार्तिक में और तौन बार अआषाढ़ में जोतने से जो चुका, वह बाजार से 
खरीद कर खायगा | श्रथवा कातक मे तेरह दिन में और आपषाढ़ में तोन दिन 
में बो लेना चाहिए | जो नहीं बोयेगा, उसे अन्न नहीं मिल्षेगा | 
जतना गहिरा जोते खेत । बीज परे फल अच्छा देत ॥ 
खेत जितना ही गहरा जोता जाता है, बीज पड़ने पर वह उतना ही अ्रच्छा फल देता है। 
जोंधरी जोते तोड़ मेंढ़ोर | तब वह डारे कोठिला फोर ॥ 
जोंधरी के खेत को खुब उन्न-पलट कर जोतना चाहिए, | तब वह इतनी पैदा होगी 
कि अन्न कोठिले में न समायगा | 
तीन कियारी तेरह गोड़ | तब देख5 ऊखी के पोर ॥ 
तीन बार सींचो और तेरह बार गोड़ो, तब ऊख लम्बी पोर ( गाँठ की लम्बाई बाला 
हिस्सा ) की अ्रच्छी उपजेगी | 
थोर जोताईं बहुत हँगाई ऊँचे बाँध किआरी। 
ऊपज जो उपजे नहीं त घाघे दीह गारी॥ 
थोड़ा जोतने से, बहुत बार सिरावन देने से और ऊ ची मेड़ बाँधने से अन्न की उपज 
अच्छी होगी । यदि इतना करने पर भी न हो तो धाघ को गाली देना, अ्रर्थात्‌ ऐसा करने 
से अन्न अवश्य बहुत उपजेगा | 
एक हर हत्या दू हर काज | तीन हर खेती चार हरराज ॥ 
इल की खेती हत्या ही मात्र है, दों इल की खेती काम-चलाऊ है, तोन इल की 
खेती खेती है श्रौर चार इल की खेती तो राज ही है। 
गोबर मैल्ला नीस की खली । एसे खेती दूनी फली॥ 
गोबर, पाखाना और नीम की खली डालने से खेती में दूनी पैदावार होती है | 
गोबर सैला पाती सढ़े। तब खेती में दाना पड़े ॥ 
ख़ेत में गोबर, पाखाना और पत्ती सड़ने से दाना अधिक होता है| 


<४ भोजपुरी के कदि और काव्य 


पुक्ख घुनबंस बोबे घाव । असलेखा जोन्हरी परसान ॥ 
पुष्य और पुनव॑सु नन्नत्र में घान बोना चाहिए ओर अश्लेषा में जोन्हरी बोनी चाहिए । 
साँवन साँचाँ अगहन जवा । जितना वोचबे उतने लेचा || 
सावन में सॉवाँ और अगहन में जो तौल में जितना नोया जाथगा, उतना ही काटा 
जायगा | अर्थात्‌ उपज कम होगी | 
अद्गा धान पुनर्वसु पेया | गया किसान जो वोबे चिरेया | 
आर्द्रा में घान बोना चाहिए । पुनर्वछु नक्षत्र में बोने से कैंवल पैया ( बिना चावल 
का धान > खँखरी ) हाथ आयेगा | ओर उस किसान का तो सवनाश होगा जो चिरैया 
यानी पुष्य नक्षत्र में घान वोवेगा | 
कातिक बोचे अगहन भरे ताके हाकिमत फिर का करे || 
जो कातिक में थोता है और अगहन में सींचता हे । उसका हाकिम क्या कर सकता 
है ! अर्थात्‌ वह लगान आसानी से दे सकता है | 
पुरवा में सति रोपड भइया | एक धान सें सोलह पइ्या || 
हे भाई, पूर्वा नज्ञत्र में धान न रोपना, नहीं तो एक घान में सोलह पथ (रोग) लगेगा। 
अद्गा ३ंड पुनरबस पाती । लाग चिरेया दिया न वाती || 
धान आर्द्रो में वोया जायगा तो डंठल अच्छे होंगे, पुनंवसु में पत्तियाँ अधिक होंगी 
ओर चिरैया ( पुण्य नक्षत्र ) लगने पर वोया जायगा तो घर में अंधेरा ही रहेगा--अर्थात्‌ 
उस अन्न के भरोसे घर में चूल्शा नहीं जलेगा । 
घने घने जब सनई वोबे | तव घुतरी के आसा होवे ॥ 
सनई को घनी बोने से सुतज्ञी की आशा होगी | 
कदम कदस पर बाजरा, मेढक कुद्ौंनी ज्वार। 
ऐसे बोचे जो कोई, घर घर भरे कोठार ॥ 
एक-एक कदम पर वाजरा और सेढक की कुदान भर की दूरी पर ज्वार जो कोई 
बोवे, तो घर-घर का कोठिला मर जाय | 
फॉफकर भला जो चना, फॉँफर भला कपास | 
जिनकर फॉफर ऊखढ़ी, उनकर छोड़5 आस || 
जौ और चले तथा कपास के पौधे कुछ अन्तर देकर वोने पर अच्छे उपजते हैं; पर 
जिनकी ईख दूर-दूर पर है, उनकी आशा छोड़ो | ह 
कुड्हल बोओ यार। तब चिडरा के होय बहार | 
कुड़हल (कोड़ी हुई) जमीन में मादों की फसल वोझो, तत्र चिउड़ा खाने को मिलेगा 
अथवा धरती खोदकर भदई घान वोओ | 
बाड़ी में बाड़ी करे, करे ऊख में ऊख। 
ऊ घर ओइसे जह॒हें, सुने पराई सीख ॥ 
जो कपास के खेत में पुनः कपास और ईख के खेत में फिर दूसरे वर्ष भी ईख बोता 
है, उसका घर वैसे ही नष्ट हो जाता है जैसे पराई सीख सुननेवाल्ले का घर नष्ट होता है | 


चाधघच क्षय 


बडनी | झुक लडनी || 
बघ को बोना चाहिए और शुक्र को काव्ना चाहिए। 
दीवाली के बोये दिवालिया ॥ 
डो दिवाली को दोता है, वह दिवालिया हो जाता ह। अर्थात्‌ उसके खेत में कुछ नहीं 


गाजर गंदी मुरी। तीनों बोचे दूरीगा 
गांजर, शकरकत्द और मूली को दर-दूर जेना चाहिए। 
... पहिले कॉँकरि पीछे धाद। ओहके कहिहड पूर किसान 
पूरा किसान दह है जो पहले ककड़ी वोता है, उसके वाद घान | 
बाँघे कुदारी छुरपी दाथ। लाठी हुखुबदा राजे साथ 
कांटे घाछ ओ छझेत रिराचे। सो पूरा किसान कहावे॥ 
बही एस किदान है जो कुदाल और दुरपी हाथ में, लाठी और हँठआ उाथ में रखता 


साथ नें बादर काल रंग घरे | तब जानड साँचो पत्थर परे ॥ 
माघ में यदि लाल रंग के आदत हों, तो जानना कि उचूुच पत्थर पड़ेगा | 
जब वर्षा चित्रा सें होयथ | सगरी खेठी जावे खोय 
यदि चित्रा नकृत नें वर्षा हो, तो यारी खेती वरबाद हो जायगी। 
चअदृत जो बरते आदरा, डउततरत बरसे हस्व। 
क्तिनों राजा डेंडू ले, हारे नाहि शुहस्त ॥ 
ददि आदा नकृत्र चहुते समय दरसे और इंस्त उतरते समय, ठो इतनी अच्छी पैदावार 
होगी कि राजा कितना ही दंड ले, पर शृह्त्थ नहीं हारेगा | 
पूरब घनुद्दी पच्छिस साव । धाध कहें चरखा नियरान ॥ 
सन्ध्या उमय यदि पूर्द में इन्द्रघनुब निकले, तो घाव कहते हैं कि वर्षा निकठ है ) 
बायू में ऊब दायु साय | कहें घाघ जत कहाँ समाच || 


यदि एक ही उनव आमने-सामने की दो हवा चल्ले, तो घाघ कहते हैं कि पानी कहाँ 





सावन सास बहे पुरवेया । बरधा देंचि लिह5 घेनुगैचा ॥ 
ञ्ड्‌ 








और ठर किसान को जोम पर रोड़ा पड़ता है। 
धान गिरे खुसाये का गेहूँ पिरेअसाये 
बान का पौधा भाग्यदान का गिरता है और नेहूँ का पौधा अभाये का गिरता है | 
संगलदारी होच दिचारी । हेँंसे क्िलान रोचे चैपारी || 
यदि दिवाली जंगल को पड़े तो कितान हँसेगा और व्यापारी रोचेगा। 


हा 


८६ भोजपुरी के कवि और काव्य 


बैज् सुसरहा जो कोई ले। राजसंग पल में कर दे। 
त्रिया बाल सब कुछ छुट जाय ।' भीख माँगि के घर-घर खाय ॥ 
जो किसान मुसरहा बैल (जिसको पूछ के बीच में दूसरे रंग के बालों का गुच्छा हो, 
जैसे काले में सफेद, सफेद में काला अथवा डील लटका हुआ) खरीदता है, उसका जल्द 
ही सब ठाट-बाट नष्ट हो जाता है--त्री, पुत्र सब्र छूट जाते हैं. और वह घर-घर भीख माँग 
कर खाता है। 
बढ़सिंगा जनि ल्लीह5 मोल । कुँए में डरब रुपिया खोल ॥ 
चाहे रुपया खोलकर कु ए में डा देना; पर बड़े लम्बे सींग वाला बैल न खरीदना | 
करिया काछ्ी धौंरा बान, इन्हें छाँढ़ि जनि बेसहिह आन ॥ 
काली कच्छ ( पूँछ की जड़ के नीचे का भाग) और सफेद रंगवाल्ते बैल को छोड़कर 
दूसरा मत खरीदना । 
कार कछ्ौटा सुनरे बान, इन्हें छाँडि न घेसहिह आन ॥ 
काली कच्छ और सुन्दर रूप-रंगवाले बैल को छोड़कर दूसरा न खरीदना | 
जोते क पुरबी लादै क दमोय । हैंगा क काम दे जे देवहा होय॥ 
पूर्वी नस्त का बैल जुताई के लिए, दमोय नस्ल का बैल लादने के लिए और 
देवहा नस्ल का बैल हैेंगा के लिए श्रच्छा होता है। 
सींग मुद्दे माथा उठा, मुंह का होवे गोल । 
रोम नरम चंचल करन, तेज बेल अनमो्॥ 


जिस बैल के सींग मुड़े (छोटे और एक दूसरे की ओर) हों, माथा उठा हुआ हो, मुह 
गोल हो, रोझ्ाँ मुलायम हो और कान चंचल हों, वह बैल चलने में तेज और 
अनमोल होगा। 
मुँह के मोट माथ के महुअर । इन्हें देखि जनि भूलि के रहिह ॥ 
घरती नहीं हराई जोते। बैठ मेंढ पर पागुर करे॥ 
जो बैल मु ह का मोटा होता है, और माथा जिसका पीला होता है, उसे देखकर 
सावधान दो जाना। वह एक हराई भी खेत नहीं जोतता है, मेंड़ पर बैठा हुआ्रा पागुर 
करता रहता है। 
अमहा जबहा जोतहु जाय । भीख माँगि के जाहु बित्ञाय ॥ 
अमहा और जबहा नस्लवाले बैज्ञों को जोतोगे, तो भीख माँगनी पड़ेगी और अन्त 
में तबाह हो जाश्ोगे | 
हिरन भुतान ओ पतली पूंछ। बेल बेसाहो कंत थेपूछ ॥ 
जो हिरन की तरह मूतता हो और जिसकी पूछ पतली हो, वैसे बैल को बिना पूछे 
ले लेना। 
उपयु क्त रचनाश्रों के अधिकांश पद्य बाघ और भदुरी' नामक पुस्तक में मिन्न पाठों के 
साथ उद्‌धुत हैं। मेरे, संग्रह में शाहबाद, छुपरा तथा मोतिह्वारी के जिलों से जिस पाठ के 
छन्द्‌ मिल्षे ये, कुछ दंशोधन के साथ, उन्हीं पाठों के साथ वे ऊपर दिये गये हैं | भी प्रिश्नर्सन 


चाँध ढ़ 


साहब ने अपनी '“पीजेन्ट लाइफ आफ विहार! नामक पुस्तक में भी बाघ, मरी और 
कह श्रनेक कह्दावततों और रचनाओं को उद्‌धुत किया है। निम्नलिखित छन्द वहाँ से 
यहाँ उद्घुत किये गये हैं। जिन छन्दों में नाम नहीं हैं, उनकी भी मैंने घाष के साथ इसलिए 
रखा है कि मुके उनकी शैली और माषरा में घाथ की रना से साम्यता मालूम हुई । 
सम्भव है, वे डाक या किसी दूसरे की ही रचना हों । 
बैल बेसाहे चललह कन्त, 
बैल जेसहिह5५, दू दू दन्त। 
जब देखिह5 रूप। औ धौर, 
टका चार॑ दीह5 उपरौर॥ 
जेब देखिद5 तू मैना, 
यही पार से करिद: बैना॥ 
जब पेखिहड बैरिया गोज्न, 
ऊठ बेठ के करीहईड मोल ॥ 
जब  देखिह करिञवा कन्त, 
कैला गोला देखिह कन्‍्त ॥ क 
स्री अपने स्वामी से कहती है। हे कन्त | तुम बैल खरीदने तो चले; पर बैल दो दाँत 
का ही खरीदना। जब रूपा-पौर यानी चाँदी की तरह सफेद रंग का बैल देखना तो 
चार रुपया अधिक मी देकर खरीद लेना | जब ठुम मैना बैल देखना यानी जिसके 
दोनों सींग हिलते हों तब तुम विना पूछ-ताछ किये ही नदी के इसी पार से बेआना दे 
देना । जब ठुम्हे बैरिया गोज्ञ यानी बैर के रंग का लाल बैल मिले, तत्र उसका मोल उठ- 
बैठ कर करना अर्थात्‌ किसी तरह उसे खरीदना | दे कन्त, जब तुम काले रंग का बैल 
देखना, तब उसकी ठुलना में कश्ल" रंग का और साधारण लाल रंग का बैल मत 
देखना | कइ्ल और साधारण लाल रंग का बेल अच्छा नहीं होता । भोजपुरी की एक 
कहावत में कहा भी है--“कइल के दाम गइल |? अर्थात्‌ कइल बैल का दाम गया ही होता है। 
सरग॑ पताली भौंझआ टेर। 
आपन खाय परोसिया हैर || 
जिस बैल का सींग सरग-पताली हो, यानी एक ऊपर की ओर गया हो और एक नीचे 
की ओर हो और भौहे उसकी टेढ़ी हों तो वह बैल अपने स्वामी को तो खाद्य जात्रा है, 
पड़ोसी के लिए भी घातक सिद्ध होता है। हि 
वर्षो-सम्बन्धी रक्तियाँ 'पीजेन्ट लाइक आफ बिहार से'-- 
मध्या त्रगावे घगूघा, सिवाती ल्ावसु ठाटी । 
कह ताड़ी हाथी रानी, हमहूँ आवबत बाठीं ॥ है 
जब मधा नक्षत्र में मेह घहरे और स्वाती में बरसे, तब हस्त नक्षत्र में भी पानी बरसेगा । 


१. जिसकी आँख के चमड़े नोकड़ा थोड़े की तरह रोम रहित और सफेद हों । यह जाति 
बहुत सुकुमार होती है। ॥ 


<ढढ भोजपुरी के कवि और कार्य 


सावन सुकला सत्तमी, छिपके ऊगहिं भान। 
तौं लगि भेघा, बरसिहें जों लगि देव डठान || 
भावण शुक्ल सप्तमीको यदि सूर्योदय बादल से छिप कर हो, तो वर्षा तबतक होगी 
जब्तक कार्तिक का देवठन (देवोत्यान) ब्रत नहीं हो जाता--पानी कातिक शुक्ल पक्ष की 
एकादशी तक वर्षा होती रहेगी। 
सावन सुका सत्तमी उगि के लूकहिं सूर। 
हाँक5 पियवा हर-बरद, बरखा गैल बड़ि दूर ॥ 


श्रावण शुक्ला सत्तमी को यदि सूर्य उदय होकर फिर बादलों में छिप जाय तो पानी 
बहुत दूर हो जाता है |: किसान की पत्नी कहती है कि हे प्रीतम, हर-बैल अब हाँक कर घर 
ले चलो, वर्षा इस साल नहीं बरसेगी | 
सावन सुकला सत्तमी उदय जो देखे भान।, 
तुम जाओ पिया सालवा हम जैबों सुलतान ॥ 
श्रावण शुक्ला सप्तमी को यदि सूज्य का उदय साफ हो तो पानी की आशा नहीं है । 
हे प्रिय, ठम मालवा नौकरी करने जाओ और मैं मुलतान जाऊँगी। 
सावन सुकला सत्तमी जो गरजे अधिरात | 
तू जाओ पिया. मालवा हम जैबों गुजरात ॥ 
भ्रावण शुक्ला ससमी को यदि आ्राधी रात को गरजे तो पानी की आशा नहीं | है पिया, 
तुम मालवा जाना और मैं गुजरात जाऊ गी। अर्थात्‌ अकाल पड़ेगा | किन्ठु भड्डरी की 
भी एक उक्ति इसके कुछ विपरीत-सी जान पड़ती है, यद्यपि थोड़ा फरक अवश्य है। 
वह यों है - 
श्रावण सुकला सत्तमी रेन होइ मसियार। 
कह भड्डर सुनु भड़्डरी परवत उपजे सार।॥ 
भिन्नता इसमें यह है कि रैन में हल्का बादल दो तो खूब बरसा होगी; पर घाघ कहते हैं 
कि आधी रात को गरजे तब पानी नहीं पड़ेगा | न मालूम क्यों, इस तिथि पर इतने यूद्ष्म 
भेद के साथ इतने शुभ-श्रशुभ फल निकाले गये हैं १ 
सावन क पछिया दिन हुई चार, छुल्हि क आगे उपजे सार । 
भावण में दो-चार दिन जो पछेया बहे तो अ्रच्छा पानी हो और चूल्हे के सामने की 
धरती भी अन्न उपजावे | 
सावन क पछेआ भादो भरे, भादो पुरवा पत्थल पड़े। 
जो सावन में पछेआ बहे तो भादो में जल पूरा होगा और भादो में जो पुर्वा बहे 
तो पत्थर पड़ेगा | 
जौ पुरवा पुरवैया पावे, खुखते दिया नाव चलावे। 


जो पुर्षा न्ञ॒त्न में पुरवैया वायु बहे तो दूख्ती नदी में भी नाव चलने लगे अर्थात्‌ पानी 
थूब बरसेगा । 


डाक &९ 


डाक 

घाघ की तरह 'डाक! भी खेती सम्बन्धी कविता लिखने में बड़े जनप्रिय कवि ये | 
इनकी कविताएँ जनकण्ठ में आ्राज भी प्राप्त होती हैं | ग़हस्थ उनको खेती के लिए आदश 
वाणी मानते हैं। डाक की कविताएँ मुझे जब सर जार ग्रिश्नसंन द्वारा लिखित “बिहार 
पिजेश्ट लाइफ*-नामक पुस्तक में मिलीं, तब मैंने इनके सम्बन्ध में छान-बीन करना शुरू 
किया | मुंगेर-जिल्े के निवासी बाबू सुखदेव सिंह ( सहायक प्रचार अफसर, बाँका, 
भागलपुर ) ने बताया कि उनके जिल्ले में डाक की कविताएं बहुत प्रचलित हैं और दो 
भागों में 'डाक-बचनावली”-नामक पुस्तक छुप भी चुकी है। उन्होंने ही डाक के जन्म के 
सम्बन्ध में यह लोक-प्रचलित कथा बताई--- 

'डाक के पिता ब्राह्मण और माता अहदीरिन थी | एक दिन ब्राह्मण घर से दूर जा 
रहा था तो उसे विचार हुआ कि इस शुभ मुद्दूत में यदि गर्भाधान हो तो महा प्रतिभावान 
पुत्र उत्पन्न होगा । उसे एक श्रह्दीरिन मिली | उसने अह्दीरिन से यह मेद सुनाकर रतिदान 
माँगा । अहदीरिन ने स्वीकृति दी; पर ब्राह्मण ने इस शर्ते पर भोग किया कि सन्तान ब्राह्मण 
की होगी | फलस्वरूप डाक का जन्म हुआ। जब डाक पाँच वर्ष का हुआ, तब ब्राह्मण-देव 
श्राये और अद्दीरिन से पूरव-पअतिशा के अनुसार ढाक को लेकर अपने घर चले। रास्ते 
में गेहूँ और जौ के खेत मिल्रे । गेहूँ के कुछ बीज जौ के खेत में पड़ गये थे और जौ 
के कुछ बीज गेहूँ के खेत में | डाक ने आक्षण से पूछा--““पिताजी, इस खेत के गेहूँ का 
बीज उस खेत के जौ में मिल गया है। बताइये तो, यह गेहूँ किसका होगा। गेहूँ के 
खेतवाल्ते का कि जौ के खेतवाले का ?! 

ब्राह्मण ने कह्ा--'जो के खेत में यह जन्मा है तो जो के खेतवाले का ही होगा |? 
डाक ने कहा--तब पिताजी, अपनी माता से छुड़ाकर मुझे क्‍यों ले जा रहे. 
हैं ? यदि बीजवाला फसल का अधिकारी नहीं है, तो आपका अधिकार भेरे ऊपर माता 
से अधिक कैसे माना जायगा ?! ब्राह्मणदेव बालक की इस युक्ति से निरत्तर हो गये और 
उन्होंने बालक से कहा कि 'तुस अपनी माता के पास ही रहो। तुम मुससे चतुर हो। 
मैं तुमको पढ़ा नहीं सकता ।! 

ठीक यही कहानी, थोड़े परिवतंन के साथ, भइ्ठरी के जन्म के सम्बन्ध में भी, प॑० राम- 
नरेश त्रिपाठी ने अपनी 'घाघ और मद्ढरी-नामक पुस्तक में, भी धी० एन० मेहता, आइ० 
सी० एस० तथा पं० कपिलदेव शर्मा के विशाल भारत? में छुपे लेख से उद्ध,त की है।१ 

इन बातों से मालूम होता है कि डाक की जन्म-कहानी भद्री की जन्म-कहानी से 
मिल गई हो ओर उसमें कोई वास्तविक तथ्य नहीं हो। डाक केन तो जन्म-स्थान 
का पता है और न पिता तथा समय का । 'डाक-बचनावली? २-नामक पुस्तक के दोनों 


5» देखिए इसी इंस्तक में भइरी की जीवनी । परन्तु उसमें ब्राक्षण का नाम वराह मिद्दिर, 
अ्रसिद्ध ज्योतिषाचाय, ( जो इंसवी सदी ३०० के बाद में हुए थे ), दिया ग़या है। ' 
३० लेखक और प्रकाशक--कपिलेश्वर शर्मा, शुभंकरपुर, दरभंगा, सतू० १६४३ ईं०। 


4७ भोजपुरी के कवि और कॉव्य 


भागों में ज्योतिष-सम्बन्धी विचार अधिक हैं। डाक का फलित ज्योतिष का शॉन अच्छा 
मालूम पड़ता है। उनकी वचनावली में, दरभंगा मिले से ही संग्रहीत और प्रकाशित 
होने के कारण, अधिकांश रचनाएँ मै|थल्ली की ही हैं | परन्तु “बिहार पिजेश्ट लाइफः में 
डाक की जो उत्तियाँ मुझे मिलीं, वे प्रायः सभी मोजबुरी तथा हिन्दी की थीं। उक्त 'डाक- 
वचनावली' में भी भोजपुरी और हिन्दी की काफी उक्तियाँ हैं । 


डाक ने अपनी उक्तियों में मन्लरी नाम का सम्बोधन में प्रयोग किया है। इससे 
शात होता है कि “मन्लरी” या “भदुरी” उनकी ज्री का नाम था | 

परन्तु 'डाक-वचनावली? में भन्नरी के स्थान पर भडुरी पाठ है। यह भी सम्भव हो 
सकता है कि डाक ने मशहूर कषि को सम्बोधन करके अपनी उत्तियों में अपना अनुभव 


कहा हो। 
तीतिर - पंख मेघा उड़े 


ओ बिधवा सुसकाय । 
कहे डाक सुनु॒ डाकिनी 
ऊ बरसे ई जाय॥ 
आकाश में यटि नौतर के पंख के समान ( चितकबरा ) मेघ दिखाई पड़े और विधवा 
स्त्री मुस्कान बिखेरती दिखाई पड़े तो डाक कहते हैं कि हे डाकिनी, वैसा मेघ अवश्य 
बरसेगा और वैसी विधवा अवश्य पर-पुरुष के साथ चली जायगी | 
सावन सुका सत्तमी, बादर बिछुरी होय। 
करि खेती पिया भवन में, हो निचिन्त रह सोय ॥ 
अर्थात्‌--सावन मास के झ्ुक्न पक्ष की सप्तमी तिथि को यदि बादल और बिजली 
आकाश में दिखाई पढ़ें तो हे प्रियतम ! शहस्थी करके, निश्चित्त होकर सो जाओ। 
फसल तो होगी ही । 





बाबा बुलाकी दास अथवा बुक्ला साहब 

बुल्चा साहब का दी नाम बुलाको दास था। बुल्ना साहब का जन्म-स्थान या समय 
ठीक-ठीक अब तक शात नहीं था। भरी भ्रुवनेश्वरनाथ मिश्र माधव” ने अपनी “संत-साहित्य'- 
नामक पुस्तक में उनका समय अनुमानतः विक्रम-संवत्‌ श्रठारदह् सौ का अ्रन्त माना 
है। 'माधव'जी ने लिखा है कि उनका नाम बुलाकी राम था और जाति के वे क्ुनबी ये 
तथा भुरकुए्डा ( गाँजीपुर ) गाँव में रहा करते ये.। परन्त 'माधबजी” के इस अनुमान के 
पूर्व ही 'बलिया के कवि और लेखक?*-नामक पुस्तक में, उनका पूरा. परिचय, उक्त पुत्तक 

, कै क्षेखक ठाकुर प्रसिद्धनारायण सिंह ने दिया है, जो नीचे ,उद,त किया जाता है-- 

“आपका जन्म संवत्‌ १७८० के लगभग सुल्तानपुर-नामक-आम में हुआ था| 
आपके पिता बाबू जोध राय एक गरीब सेंगरवंशी राजपूत थे। आपकी ज्री का नाम कुन्द 
कुंवरि था। वे एक पढ़ी-लिखी महिला थीं और कविता भी करती थीं। कुन्दकु वरि का 


१, वि० संचत्‌ १६८६ में गोविन्द प्रेस, बलिया, से प्रकाशित । 


थाया जुलॉकी दांस अथवा छुंढला धाहब ९4 
नाम आपके भजनों में प्रायः आया है | आप सिद्ध महात्मा थे। भीखा साइबर के आप 
समकालीन ये | आपके विषय में बहुत-सी आश्चय्यंजनक किवदन्तियाँ प्रसिद्ध हैं। सदंग 
बजाने के आप बड़े शौकीन ये। 

“टेकारी ( गया ) के राजा के यहाँ आपका बड़ा मान था। उन्होने तथा अन्य कई 
प्रतिष्ठित पुरुषों ने आपको कई सौ बीघे माफी जमीन दी थी, किन्ठु आप ऐसे निलोंभ ये 
कि कुल जमीन साधु-सन्तों को भेंट कर दी। 

“आपका विवाह लगभग ३०-४० वर्ष की अवस्था में, आपके गुरु जुड़ावन प्॑त ने, 
खतनपुरा के निकठ, मुस्तफाबाद में एक चौह्दन राजपूत के घर कराया। श्राप अपने गुर 
की बात कभी नहीं टालते ये | यही कारण है कि इच्छा न रहते हुर भी श्रापको विवाह« 
बन्धन में बेंधना पड़ा | विवाह के पश्चात्‌ आप अपने जन्मस्थान से कुछ दुर उत्तर, श्रमनपुर 
मौजे में, कुटी बनाकर रहने लगे | यहीं आपके पाँच पुत्र उत्पन्न हुए | 

झब आपकी कुटिया एक छोटे ग्राम के रूप में परिवर्तित हो गई है और 'बुलाकी 
दास की मठिया? के नाम से पुकारी जाती है। 

आपने भोजपुरी भाषा में बहुत सुन्दर कविता की है | आपने कोई पुस्तक नहीं 
लिखी है | यदि आपकी रचनाओ्रों का संग्रह प्रकाशित हो जाय तो वह मोजयुरी साहित्य 
में एक अनुपम पुस्तक होगा | 

अनुमान से कहना पड़ता है कि आप गाजीपुर जिले के ही थे। आपकी भोजपुरी 
कविताएँ नीचे दी जाती हैं। 

धाँटो (चैद का गीत) 


4 
छोटीमुटि ग्वाल्नि सिर ले महुकिया हो रामा, चल्षि भइली। 
गोकुजा सहर दृहिया बेचन हो रासा, चंति भइली ॥ 
एक बन गइली, दूसर बनें गइली, रासा तीसर बनें, 
कान्हा मोर धरेला ऑचरवा हो रामा, तीसर बनें॥ 
छोढू छोडू कान्हा रे हमरो ऑंचरवा हो रामा, पढ़ि जहें, 
द दढी के छिटिकवा हो रामा, पढ़ि जहहेंआ 
तोरा ल्ेखे ग्वालिनि दृही के छिटिकवा हो रामा, मोरा ल्ेखे | 
अगर चनन देव बरिसे हो रामा, मोरा लेखे ॥ 
दाख हो छुलाकी चइत घाँढो गावे हो रामा, गाह गाई, 
बिरहिन सखि सपुझावे हो रासा, याह गाई॥आ॥। 
मैं छोटी-सी ग्वालिन सिर पर महुकी लेकर गोकुल आम में दही बेचने के लिए गई। 
एक वन से दूसरे वन में गई ओर तब तीसरे बन में कृष्ण ने मेरा आँचल पकड़ लिया। 
ग्वालिन ने कद्--अरे कान्ह, भेरा आँचल छोड़ दे, नहीं तो दही के छींटे पड़ जायेंगे। 
इसपर कृष्ण ने जवाब दिया--“हे व्वालिन, तुम्हारे लिए ये दही के छीटे हैं, पर मेरे 
लिए तो मानो देवता अगर-चन्दन की वर्षा कर रहे हैं |” इस तरह बुलाकीदासजी चैत 
मास में घाँदों गा-गाकर विरहिणी स्तियों का मन बंहलाते है। 


९३ भोजपुरी के कवि और काव्य 
(१) 


नतदी का अंगना चनमवा हो रामा, तवाही चढ़ि, 
कगवा बोलेला सुलच्छुन, हो रामा, ताही चढ़ि॥ 
तोहे देवों कगवा हो दूध भात खोरवा" दो रामा, तनीएक, 
सइयाँ कुसल बतलइते हो रामा, तनीएक ॥ 
पिया पिया सति कर्‌5 पिया के सोहागिनि हो रामा, तोर पिया, 
लोभते बारी तमोलिनि हो रासा, तोर पिया॥। 
कढ़ितों में अपन कटरिया से मरित्रों जियरवा हो राम!, मोरा आगे, 
उद़्री के कल बखनवाँ हो रासा, , मोरा आगे॥ 
दास बुल्लाकी चइत घाँठों गावे हो रामा, गाह गाई, 
कुन्द ऊकुँवरि समुझावे हो रामा, गाई गाई॥ 
ननद के श्ाँगन में चन्दन का पेड़ है। उसपर सुलक्षण (शुभ संवाद सुनानेवाला) 
कौओआ बोल रहा है | ज्ञी कहती है कि अरे काग, तुमको कटेरे में दूध-भात दूं गी, जरा 
मेरे स्वामी का कुशल-सन्देश बतला दे | इसपर कौए ने कहा--सोहागिन नारि, तू पिया- 
पिया की रट श्रब न लगा। तेरे पिया अल्प-बयस्का तमोलिन पर लुभा गये हैं। इसपर 
नायिका कहती हे--काश, आज मैं अपनी कटारी अपने छृदय में भोंक लेती | उस उद्री 
(रखेली) का बखान इस काग ने मेरे सामने किया। बुलाकी दास चैत मास में घाँटे 
गा-गाकर, कुन्द कु वरि (अपनी पत्नी) को सममाते हैं । 





मद्दाकावि दरिया दास 


महात्मा दरिया दास* का जन्म शाहाबाद बिलान्तर्गत सतयम सबडिवीजन के दीनार 
थाने के घरकंधा आराम में हुआ था । आपका जन्म संवत्‌ १६६१ में और निधन संवत्‌ 
१८३७ में हुआ। फलतः आपका जीवनकाल १४६ वर्ष का था | बेलवेडिश्रर प्रेस, 
इलाहाबाद से मुद्रित “दरिया-सागर” में आपका जन्म-संवत्‌ १७३१ लिखा है। 
किवदन्ती है कि आप उज्जैन (पम्मार) जाति के ज्ञत्रिय थे। कहते हैं कि आपके पिता 
मुसलभान हो गये थे। आपने दरियादासी सम्प्रदाय चलाया। आप एक सन्त-मह्दात्मा 
कवि थे | आपने अग्रशान, अमरसार, काल चरित्र, गणेशगोष्टी, दरिया, सागर, निर्मल शान, 
प्रेममूल ब्रह्म-वेदान्त, ब्रह्म-विवेक, भक्तिद्देतु, मूर्तितखाड़, यशसमाधि, विवेक-सागर, शब्द 
(बीजक) और सहस्त्रीनाप्नी-नामक २० कविताबद्ध धर्म-अन्थ लिखे | आपके बहुत-से छन्द 
विशुद्ध भोजपुरी में हैं | ऐसी रचनाओं में भी पूर्ण दाशंनिक तत्त्व मिलते हैं। आपकी 
कुछ भोजपुरी रचनाएँ यहाँ दी जाती हैं-. 

१, खोरा--कटोरा । 

” ३» 'सन्‍्त कवि दरिया ; एक अनुशीलन”-नामक ग्रन्थ बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्‌ से प्रकाशित 

है। उसके लेखक डाक्टर धर्मेन्द्र ब्रद्मचारी शाद्घी हैं। मूल्य १४) 


मंहाकवि दरिया दास ५ 


| फूमर 

मोदिन भाषै नैदरवा, सखुरवा जइवों दो | 

भनेहट के लोगवा बढ अ्रिआर। 

पिया के बचन सुनि छागेला बिकार॥ 

पिया एक डोलिया दिहल भेजाय | 

पाँच पचीस लेहि लागेला कहाँर ॥ 

नेहरा में सुख-हुख सहलों बहूत। 

सासुर में सुनलों खसम मजयगूत ॥ 

नैहरा में बारी भोत्री ससुरा दुलार। 

सत के सेनुरा अमर भतार ॥ 

कहे. दरिया धन भाग सोहाग | 

पिया केरि सेजिया सिलल बढ़े साग॥ 

मुझे नैहर (इहलोक) भाता नहीं है | मैं ससुराल (ईश्वर के लोक) जाऊ गी | इस नैहर 
के लोग बढ़े अरिझ्ार (इठी, अड़ियल) हैं । इनको प्रियतम (ईश्वर) का बचन नहीं सुहाता | 
पिया ने भेरे लिए एक डोली (देह) मेज दी है, जिसमें पाँच और पश्चीस कह्टार' लगे हैं। 
मैंने नैहर में बहुत सुख-दुःख सहन किया। सुना है कि ससुराल में मेरे खसम (स्वामी) 
बढ़े मजबूत हैं । नैहर में तो मैं अल्प-वयस्का और भमोली कही जाती हूँ; परन्तु ससुराज्त में 
ही भेरा दुलार होता है। वहीं सत्य का सिन्दूर मिलता है और श्रमर भर्ता से मेंट होती 
है। दरिया कहते हैं कि ऐसे सोहाग का भाग्य धन्य है | पिया की शय्या का मिलना 
(इधर का सान्रिथ्य) बड़े भाग्य की बात है। 
घाँटो 

कुडुधि कलवारिनि* बसेल्ले नगरिया हो रे। 

उन्हंक मोरे मनुशोँ सतावत्ष हो रे॥ 

भूलि गैज्षे पिया पंथवा द्वर्टिया दो रे। 

अवधघटठ5  परत्ञी भुलाए हो रे॥ 

भवजल नदिया भेआवन हो रे। 

कवने के विधि उतरब पार हो रे॥ 

दरिया साहब गुत गावत्ष द्वो रे। 

सतगुर सब्द सजीवन पावत्त हो रे॥ 

इस शरीररूपी नगर में दुष्टबुद्धि माया बसी हुईं है। उसने वासनाओं की शराब 

पिलाकर मेरे मन को मतवाला बना दिया है। इस कारण वह पिया (परमात्मा) के पाने 


१, पाँच तत्त और उनमें से प्रत्येक की पाँच-पाँच प्रकृतियों झऋथवा अ्रकृत्तियाँ। विशेष के 
लिए देखिए--सनन्‍्त कवि दरिया : एक अनुशीलन?, पृ० १०६ 
२० शराब बेचनेवाली क्रो । ३० अवघट--बीहड़ रास्ता, कुमाग। 


५३ भोज॑पुरी के कवि और काव्य 
का रास्ता भूल गया और इष्टि भी मदमूच्छित हो गई। विषयों के बीहड़ रास्ते में उन् 


गया | संसार-रूपी भयावनी नदी को यह जीवात्मा कैसे पार करेगी । दरिया साहब गुरु 
का गुणगान करते हैं कि जिससे उपदेश-रूपी संजीवनी प्राप्त हो गई है । 





घरनी दाए 


सारन जिले में सस्यू तट पर माँकी नाम का एक प्राचीन आम है। यहाँ कभी क्षत्रिय 
राजाओं की राजधानी थी। पुराने किले का टीला अ्रबतक वरतंमान है। उक्त राज्य के 
दीषान-घराने में, शाहजहाँ के निधन के समय में, धरनी दास नाम के एक महान सन्त कवि 
हो गये हैं। ये अपने पिता की मृत्यु के बाद उक्त राजवंश के दीवान हुए. । पर, 
इन्होंने दिल्‍ली के तख्त पर बादशाहओऔरंगजेब के आसीन होते ही फकीरी ले ली। 
फकीरी लेते समय इन्होंने यह दोहा कहा था -- 

'. «८पसाहजहाँ छोड़ी दुनिआई, पसरी औरंगजेब दुद्ाई। 
सोच-विचार आतमा जागी, धरनी धरेड मेष बैरागी ॥” 

इनके पिता का नाम 'परसुरांम! तथा माता का नाम “बिर्मा? था। इनका बचपन 
का नाम 'गैबी? था | इनके गुरु का नाम विनोदानन्दजी था । इनका देहावसान विक्रम- 
संवत्‌ १७३१ में, आवण-कृष्ण-नवमी को हुआ था | 

घरनीदासजी ने भोजपुरी और हिन्दी-दोनों भाषाओं में 'प्रेम-प्रकाश! और “शब्द- 
प्रकाश*नामक दो काब्य-अथ लिखे थे, जो आज मी प्राप्य हैं। “'शब्द-प्रकाश!” तो सन्‌ 
श्य्प७ ईं० में बाबू रामदेवनारायण सिह, चेनपुर, (सारन) छारा नासिक प्रेस (छपरा) 
से प्रकाशित हो चुका है; पर '्रेम-प्रकाश” अभी तक अग्रकाशित है जो माँकी के 
धरनीदासनी के मठ में प्राप्य है। “शब्द-प्रकाश” की छपी कापी के अलावा एक और 
पारइु-लिपि माँमी-निवासी बाबू राजवल्लभ सहाय द्वारा डॉक्टर उदयनारायण- 
तिवारी को मिली थी, जिसकी प्रतिलिपि उन्होंने इन पंक्तियों के लेखक को दी। 
उसे देखने से पता चलत्ना कि जिस पाणडुलिपि से श्री रामदेवनारायण सिह ने 
#ब्दू-प्रकाश! छुपवाण था, वह चुन्नीदास द्वारा लिखी गई थी। उन्होंने माँकी के 
महंथ रामदासजी के लिए लिखी थी | वह संबत्‌ १६२६ में वैशाली पूर्णिमा (सोमबार) को 
समाप्त हुईं थी | उक्त छुपी प्रति में अ्रन्त के कुछ छुन्द नहीं हैं। परन्तु जिस पाण्डु-लिपि 
की प्रतिलिपि मुझे डा० उदयनारायण तिवारी ने दी थी, वह संबत्‌ १८६६ में फाल्गुन- 
बदी-पंचमी (सनीचर) को तैयार हुईं थी | इससे यह सिद्ध है कि यह पारुडु-लिपि दूसरी 
हेजो छुपी पुस्तक की पाण्डु-लिपि के लिखे जाने की तिंथि के २७ वर्ष पहले की है। 

शब्द-प्रकाश” की प्रधान भाषा हिन्दी है। उसके बाद प्रधानता भोजधुर। को मिली 
है। किन्तु 'शब्द-प्रकाश? में बंगला, पंजाबी, मैयिली, मंगही, मोरंगी, उदू' आदि भाषाश्रों 
का भी प्रयोग किया गया है। छुन्दों का नामकरण भी इन्होंने उन्हीं भाषाओं के नाम 
पर किया है, जेसे राग मैथिली, राग बेंगला, राग पंजाबी इत्यादि | 


धरनी दाख॒ , /5५ 


हमने भोजपुरी के गीत या छन्द 'शब्द-प्रकाश? की पाण्डु-लिपि और छपी प्रति,-- 
दोनों से यहाँ उद्धृत किये हैं | हाँ, कहीं-कहीं अशुद्ध पाठ को शुद्ध कर दिया गया है। अतः 
पाठकों को ३०० पर्ष पूर्व की भोजपुरी का भी नमुना इनमें देखने को मिलेगा | 
घरनी दास की भोजपुरी कविता में छन्दों की प्रोढ़्ता, सरसता और स्वाभाविकता 
देखते ही बनती है। उसमें मोजपुरी भाषा की व्यापकता ओर शब्द-सरपत्ति का दशनीय 
उदाहरण मिलता है । 
झुमदा 
सुभ दीना आजु सख्रि सुभ ढीना॥ 
बहुत दीनन्ह  पीआ बसल॒ बिदेस । 
आज़ु सुनक्ष निज] आवन संदेस। 
चित< चितसरिश्रा में कीहक छेखाह। 
हिरदुए केवल धइ्लि दीअरा ले जाइ। 
प्रेम पतंग तहाँ धइकों बिदाइ। 
नस - सिख सहज सिंगार बनाई। 
मन सेवक दि दोीहुूँ भाग चकाह। 
नैन धइल हुई दुअरा बैसाई। 
भरनी सो धनि पह्ष पज्षु अकुलाइ। 
बिचु पिच्या जीवन अकारथ जाई || 


हे सखि | आज भेरा शुभ दिन है। बहुत दिनों से प्रियतम विदेश में बस रहे हैं। 
आज मैंने उनके आगमन का सन्देश सुना है। अंपनी चित्तरूपी चित्रशाला में मैंने उनकी 
छबि अंकित की और अपने द्ृदय-कमलरूपी दीपक को जलाकर उस चित्रशाला में 
प्रियवम की छषि के सामने रखा । फिर वहाँ प्रेमरूपी पलंग बिछा लिया और नख-शिख 
सहज सिगार करके मनरूपी सेवक को मैंने प्रियतम की अगवानी (स्वागत) में आगे 
मेज दिया । और, अपने दोनों नेन्नों को उनकी प्रतीक्षा में, उनके आगमन को देखने के 
लिए, द्वार पर बैठा दिया अर्थात्‌ दरवाजे को निह्रने लगी। घरनी दास कहते हैं कि 
इन तैयारियों को करके प्रिय-मेलन की आंशा में बैठी बिरहिणी प्रिंयतम की प्रतीक्षा 
मे पल्-पल अकुला रही है और सोच रही है कि उनके बिना यह जीर्वन अकारंथ (बेकार) 
बीता चला जा रहा है। 
बिखरामस ह 
ताहि पर ठाढ़ देखल एक महरा अबरनि बरनि न जाय । 
मन अलुसान कहत जन धघरनी घन जे सुनि पत्िआय॥ 
मैंने उसी चक्र पर खड़ा एक महरा (देश्वर) को देखा जो अवर्खनीय है। सन 


में अनुमान करके जनसेबक घरनी दास कहते हैं कि वे धन्य हैं, जो सुनकर ही इसपर 
प्रतीति करते हैं । ४ । 


९६ भोजपुरी के कवि और काव्य 


महराई 
पाव हुआ पठआ परम झूलकार। हुरहुर स्थाम तन ज्ञाम लहकार ॥ 
लेमहरि केसिआ पत्तरि करिहाँव। पीअरि पिछोरी कटि करतेव आव 0 
चंदुन खोरिया भरेला सब अंग | धारा अनगनित बहेला जबु गंग॥ 
माथे स्नि सुकुट ल्कुट सुठि ज्ञात । कीनवा तीलक लोभे तुलसी के माल ॥ 
नीक नाक पतरी लक्नौहिं बढ़ि आँखि । सुकुट मोर एक मोरवा के पाँखि ॥ 
कान हुनौ कुडल स्टक त्वट मूल । दार्‌ही भोछु नूतन जैसन मखतूत्न ॥ 
परफुलित बदन मधुर सुसुकादिं। दाहि छुबि उपर “घरनी” ब्ति जाहिं।॥ 
मन कैला दंडवत भुददयाँ धरि सीस। माथे द्वाथे धरि प्रभु देखन्हि असीस ॥ 
उन आराध्य देवता के दोनों चरण सुन्दर 'पावे? की तरह अत्यन्त चमकीते दीख रहे 
हैं। ढुरहुर (चमकीले) श्यामल शरीर, लम्बे और लइकार (लहकती हुई प्रज्वलित अग्नि- 
शिखा की तरह देदीप्यमान ) केश हैं ओर करिहाँव (कमर) पतली है, जिसमें पीताम्बर 
की शोभा अवर्णनीय है | चन्दन की खोरि (छाप) से सब अंग भरे हैं और उस चन्दन 
के लेप की धारा अंगों में ऐसी सोभ रही है जेसे गंगा की धारा बह रही हो। माये पर 
मणियों का बना हुआ मुकुट है और हाथ में सुन्दर लाल लकुटी है। माये पर पतला 
तिलक है और गत्ते में तुलसी की माला है । नाक सुन्दर तथा पतली है और आँखें बढ़ी 
एवं ललौदो (इल्की गुलाबी) रंग की हैं। उस मणि-मुकुट के बीच मोर का पंख लगा है। 
दोनों कानों से कु डज्न हटके हुए हैं और उनके ऊपर लट भूत रही है ! दाढ़ी और मूंछें 
अभी-अभी निकल रही हैं, और रेशम के लच्छे की तरह शोमित हो रही हैं। मुखारविन्द 
प्रफल्लित है तथा मुस्कान अत्यन्त मधुर है | घरनी दास इस छुबि पर न्योछावर हो जाते 
हैं और उनके मन ने प्रथ्वी पर शीश रखकर दंडबत्‌ किया और प्रभु ने उनके माथे पर 
हाथ रखकर आशीर्वाद दिया । 
चेतावनी 
जीव समुक्ति परबोधहु हो, भैया जनि जानहु खेल्लघाढ़ | 
जा दिन ल्ेखवा पसरिददे दो, सैया करबद्दि कवन उपाय | 
मंत्र सिल्ाह कपवन सिधि हो, सैया जंत्र जुगुति नहिं काम । 
नहिं. घट करम करम कटि हो, भैया अवर करम लपटाह। 
ऐहि बिसवास बिगरब ना हो, भैया देव दीहल दृहिनाय। 
धधरनी! जन ग़ुन गावत्न हो, भैया भज्ञ लेहु आतम राम । 
है भाई, सभी प्राणियों को जीव समककर उनके साथ अच्छा बर्ताव करो, इसे 
खेलवाड़ मत समको | जिस दिन भगवान तुम्हारे कर्मो' का लेखा करेंगे उस दिन, हें 
भाई, तुम (अपने बचने का) कौन उपाय करोगे | मन्त्र सिखाने से कौन-सी सिद्धि होगी तथा 
यन्त्र और युक्ति किस काम आयेगी, यदि तुम जीव को जीव समझ कर व्यवद्यार नहीं करोगे। 
हे भाई, षदकर्म करने से कर्म-फल नहीं कटठेगा, बल्कि ठुम कर्म में और लिपग्ते 
जाओगे | दे मित्र, तुम इस विश्वास को धारण करके बिगढ़ोगे नहीं; बल्कि जो पा 


धेरवीदास हि. 


विश्वांस त॒म्दारा हो] जाय तो समझो कि ईश्वर ठम्हारे दाहिने ( अलुकृश्त ) हो गये | भक्त 
धरनीदास गुण गाकर कहते हैं कि है भाई, तुम आत्मा (परमात्मा) राम को मम लो | 

[ इस पद में कबि ने भोजपुरी के 'दहिन! शब्द को क्रिया के रूप में व्यवद्वत करके 
भोजपुरी भाषा का लचीलापन दिखलाया है | ] 

डगरि चल्मषलि धनि भधुरि नगरिया, बीचे लॉवर मतबल्था हे ना ॥ 
इाटपटि चलनि लटपरी बोलनि, धाह लगवले अकॉँवरिया हे ना ४ 
साथ पघल्िश्र सथ भुखहूँ ना बोलें, कौतुक देखि भुज्ञामी हे ना॥ 
मद केरि घासल्न भटल मोरि ननदिया, जाह चढ़ल, श्रहमंडे हे ता ॥ 
तबहिं पे हो धनि भदक्ती मतवत्तिया, घितु मरद्‌ रहलो ना ऊाइ हे ना ॥ 
प्रेम सगन तम गावे जन घरनी, करिक्षेहु पंडित बिंचार हे ना॥ 

सुन्दरी ज्री कहती है कि मैं माया मधुर नगर ( संसार ) के मार्ग पर चली जा रही 
थी कि बीच में ही साँवला ( जीव ) मतबाला मिल गया | उसकी चाल अटपटी थी और 
बोली लटपट | ( उसने दौड़कर ) मुमे श्रेंकवार में भर लिया | मेरे साथ की सब सखियाँ 
( बासनाएँ ) मुख से कुछ नहीं बोलीं | प्रीतम के इस कौतुक को देखकर भूल-सी 
गईं। मेरी नाक में मद ( प्रेम ) की गंध लगी और वह सीधे अल्माण्ड ( मत्तक ) तके _ 
चढ़ गईं। तबसे मैं भी मतवाली हो गई। अब मुझे बिन। मर्द ( जरीषात्मा के 
रहता ही नहीं जाता | घरनीदास प्रेम में मगन होकर गाते हैं और कहते हैं कि है परिडते- 
जन | इस रहस्य पर विचार कर लेना | आ 

हाथ गोड़ पेट पिढि फान झाँखि ताक नोक 
माँध मुँह दाँव जीमि भोढ बादे ऐेसना। 
जीवन्दि छताईला कुमच्छु भष्छ साईला, 
कुलीनता जनाईला छुपघंग संग भैसना ॥ 
चलि ला कुचात्ष चाल उपर फिरेता काल, ; 
धाएु के सुमंत्र बिधराईका से कैसना। 
घरनी कहे सैया सना में चेतीं ना तड, हर 
जानि ल्लेबि ता दिना चीरारी गोड़ पैसना॥ 

( मनुष्य सवोग सुन्दर और कुलीन होकर भी संसार में छुमार्गी होकर अपना 
अमूल्य जीवन नष्ट कर देता है श्र चितारोइण के समय तक भी नहीं चेवता | इसी पर 
कवि की यह उक्ति है| ) 

मेरे हाथ, पाँव, पेट, पीठ, कान, भ्राँख, माक, साथ, मुह, दाँत, जीम और झ्रोठ 
सुन्दर हैं, परन्तु मैं जीवों को सताता हूँ। भक्ष्यामक्ष्य भोजन करता हूँ और कुसंगियों के साथ 
बैठता हूँ। दिसपर सी अपनी कुलीनता दर्शाता हूँ। मैं बुरी चाल चलता हूँ, परन्तु 
सर पर मेंडराते हुए काल का ध्यान नहीं कर पाता हूँ। तब भो साधुओं के झुम्दर मन्त्र 
( उपदेशों ) फो भुला देता हूँ। घरनीदास ऐसे मतुष्यों से कहते हैं कि है भाई, ऐसी 
दशा में भी यदि नहीं चेतोंगे तो चीरारी ( चिता ) में पैर रखने पर पता चश्षेणा | 


६६ भोजपुरी के कवि और काव्य 


शेयदअली मुहम्मद 'शाद 


“शशाद? साइब के पौत्र श्री नकी अहमद सिवान में जुडिशियल मत्िस्ट्रेट हैं। इनके यहाँ 
शाद! साहब की लिखी हुई 'फिकरेवलीगा” नामक घुस्तक की पाण्डुलिपि वतमान है। 
इसमें शाद”! की उन रचनाओं जो १८६४ से १८७० तक लिखी गईं, का समावेश है| 
इस पुस्तक में शेरों भ्रौर गीतों की आलोचनाएँ तथा टिप्पणियाँ भी हैं। इस पुस्तक के 
पृष्ठ १११ या ११४ में भोजपुरी के निम्नलिखित गीत लिखे गये हैं, जो 'शाद? की रचनाएँ 
हैं। दर गीत के नीचे श्रथ लिखते हुए टिप्पणी भी है। इससे स्पष्ट है कि 'शादः ने 
भोजपुरी में लोकगीतों की श्रच्छो रचना की है | ये गीत भोजपुरी प्रदेश में प्रचलित भी हैं | 

शशाद! उद्‌ के मशहूर कवि थे। आपकी ख्याति अच्छी है। हैदराबाद के सर निजाम 
जंग ने “खयालात शाद” नामक पुस्तक का अंगरेजी में श्रनुवाद किया है। हिस्ट्री आफ 
डद्‌-लिंटरेचर पुस्तक में भी आपकी जिल्द है। 

“शादः साहब का पूरा नाम भी सैयद अली मुहम्मद था| आप बिहार के एक प्रमुख 
उदू-कबि थे | श्रापका जन्म सन्‌ १८४६ में पटना में हुआ था। आप जनवरी, १६२७ ई० 
में दिवंगत हुंएप। अपको अंगरेजी सरकार से 'खाँ बहाहुर! की पदवी भी मिली यी | 
आपके पूरवज बहुत ऊँचे खानदान के थे जिनका सम्बन्ध बादशाहों से भी था। आपके 
कई पूवज मुगलकालीन सल्तनत में ऊँचे-ऊँचे पदों पर थे। आपके परिवाखालो के 
हाथ में बहुत दिनों तक इलाहाबाद, मुल्तान, अजीमाबाद, पूर्णिया, हुसेनाबाद आदि 
स्थानों की सुबेदारी थी | आपको श्रेंगरेजी सरकार से पेंशन भी मिलती थी जो गदर के 
साथ सहानुभूति रखने के कारण बन्द हो गई । 

झापने बचपन में हिन्दी और संस्कृत का अध्ययन एक ब्राह्मण पंडित की देखरेख में 
किया था | आपकी शिक्षा-दीज्षा फारती और अरबी में समयानुकूल हुईं थी। बहुभाषा- 
विश्ञ होने के नाते आप झनेक भाषाश्रों में कविता किया करते थे | आपकी शैली बड़ी ही 
चुत, पक ओर मुहावरों से मरी रहतो थी। आपने भोजपुरी भाषा में भी कुछ 
गीत लिखे हैं । 


चैत 
» कादे अ्रह्नन हरजाई हो रामा | 
तोरे जुलुमी नयना तरसाई द्वो रामा॥ 
सास ननद्‌ मोका ताना देव हुई 
छोटा देवरा हँति के बोलाई हो रामा॥ 
मोरा सैयाँ मोरो बात न पूढ़े 
तड़पि-चड़पि पारी रेन गँवाई हो रामा॥ 
नाहुक घुनरी रंग में बोरो 
“बाला जोबनवा कइसे छुपाई' दो रामा॥ 


रामचरित्र तिवारी ९९ 


शाद!ः पिया को हढ़न निकसी 
शलिश्रन-गतलिश्रन - खाक उड़ाई हो रामा ॥ 
(फिकरे पत्नीग”, पृष्ठ-११२ | 


झसों) के सबना* सइआँ घरे रहु, धरे रहु ननदी के भाव ॥ 
साँप छोड़ेता साँप केशुल हो, गंगा छोड़ेशी आरार३॥ 
रजवा छोड्ेला भग्रृह आपन हो, घरे रहु ननदी के भाय ॥१॥ 
घोड़वा के देबो मल्लीदवा॒त हथिया लवेंगिया के डार॥ 
रठरा के प्रभु देनो घीव खिंचढ़िया, घरे रहु ननद़ी के भाय ॥२॥ 
नाहीं घोड़ा खइ्हें मलीद॒वा, हाथी न लवैंगिया के डाढ़ि॥ 
साहीं हम खट्टबों- घीव खीचढ़िया, नेया बरधी: लद॒बो बिदेस ॥३२॥ 
तेया बहि जहहेँ मजधरवा, बरधि चोर लेइ जाय॥ 
तोहि प्रश्च॒ मरिहेँं घथ्वरवा", घरे रहु नवदी के भाय ॥४॥ 
न्ेया मोरी जहहें धीरहि - धीरे, बरधी न चोर लेह जहूहें रे॥ 
तोहि धनि बेचबों झुगलवा हाथे, करबो मे दोसर बिश्वाही ॥णा॥ 
इस गीत के केवल दो पद 'फिकरे-वलिग” के ११३ पृष्ठ में हैं| किन्तु य६ पूरा गीत 
आजतक भोजपुरी लोगों के करठ में बसा हुआ है| 





रामचरित्र तिवारी 


आप डुमराँव राज ( शाहाबाद ) के दरबारी कवि थे। आप भोजपुरी के अतिरिक्त 
हिन्दी में भी रचनाएं. करते थे। आपके निवास-स्थान का पता नहीं प्राप्त हे सका। 
किन्तु आपकी भोजपुरी रचनाश्रों की भाषा से शात होता है कि आप शादह्दाबाद जिले के 
निवासी ये। कलकत्ता से भी यशोदानन्दन अश्रखौरी के सम्पादंकत्व में निकश्नेषाले 
हिन्दी 'देवनागर! नामक मातिक पतन्न के विक्रम-संवत्‌ १६६४ के चौथे अंक के पृष्ठ १५८ में 
आपकी पाँच भोजपुरी रचनाएँ छपी हैं | उसी में आपके डुमराँव राज-दरबार के कवि होने 
की बात भी लिखी हुई है। उसी पत्र में मुद्रित परिचय से आपका रुसय (८ूुपघ४ ई० है। 
संवत्‌ १६६४ विक्रमी संबत्‌ के पूर्व आपका स्वगंवास हो चुका था; क्योंकि 'देवनागर- 
पत्र में आपके नाम के पूर्व स्वर्गीय लिखा हुआ है। 


( १) 


देखि देखि आह्ु कालि हाकिम के हालि-चालि | 


5 . दैसनीकार छुस होके मन में भनाईंल्े॥ 
१. इस साल। ३. सावन मास। ३५ तठ। ४» छलदुआ, बैल । ५, घाट का मात़िक | 


द्व् हमलोग | 


6६ भोजपुरी' के कवि और काव्य 


राम करे ऐसने विश्ञाई' बदसाद रहे। 
लेकरा' भरोसे ससे सुख से बिताइले,॥ 
हीकरा से बस - बह बादसाद द्वारि गइले। 
हमरा. सुलुक रहि ' रैयति कंदाइले॥ 
अति महारानी बिकदोरिया' के राज बाढ़े। 
शुक्ि -बुसि, छुधि » बल बलि » भरत जाइके॥ 
न है. *॥ 

,बैकरा सुलुक में कानून का ,विसाफ३ से। 
घवात॒ दीले हमसमनी का दृक-पद पाइले ॥ 
जेकरा पसोद से सवारी रेलगाढ़ी चढ़ि। 
छोटे-छोटे दासे बढ़ी दूर देखि आइले ॥ 
शेकरा पर्तापे अब तार में खबर भेजि। 
शगत्े* कहाँ - कहाँ के द्वालि ले" ज्ञानि जाइले ॥ 
सेकशा के राम करें रोज-रोज राज बाढ़े। 
हुसि « घुकि जुधिबत बलि » बति जाइले॥ 

( ६) 

जम सरकार सब उपकार करते बा* । 
तब झब हमनी के कपन हरज* बा॥ « 
हमनी का साहेब से डतिरिन* ना होइमि। 
हसनी का माँधे सरकार के करण" बा।॥। 
आगें१" झब अवरू१* कहाँ ले कहीं मालिके से। 
झइसे त साहेबे से सगर"* गरज”5 बा॥ 
डरदू बद्लि “देव नागरी! अछुर चले । 
इृहे एगो!४8 साहेब से पु घरी' अरज ९ बा॥ 





शंक्षर दास 


आपका जन्म स्थान आम इसुआार ( परगाना-गोआ; जिला-सारन ) था। आपके 
पिता का नाम शोमा चौवे था | अन्त सभ्य में आप वैरागों हो गये मे । 


१ न्‍्यायी। २८ जिफके। ३० इन्साफ। ४» तुरतत ५८ तक। ६ करता ह्वी है । 
७४ हानि। ८ उकण। & कजजें। १० भागे । १९% और। १३६ स्व । 
१३५ मतलब, स्वार्थ! १४ एक ही । १५५ इस समय। १६० विनती। 


शंकर दास १५१ 
अब श्राप जवान ये, तब की एक उक्ति सुनिए-- 


(१) 
हमरो से जेठ-छोट के जिश्याईं होत 
हसरो जात जवधियाँ १ ॥भा 
प्रभु भौ हमरा के देवीं रडरा * नव तन | कतिआ ४ | _ 
हृटिशा" जहतीं तज़् * ले भट्टती, सारी राति लेती सुं घनिया? --(अपूर्ण) 
ः (१) 
रास राम भजन कर, जवमि.< कर दद्ा॥ 
घुमती सल्माद् रहो, जेकती * सर्व एक मत 
दिने दिने धन बढ़े, रहे त एकाह्मा ॥१॥ 
ज्ञाही घरे सुमती सत्वाह ना, रात - दिप 
झरूगरा परत दही रही त5 रहद्ठा १? ॥२॥ 
प्रेम के दृदह्दी सही*१ जेंब१९ सन परसब्न रही 
मन में फचोद १३ रही तब परोस सद्दा ॥श॥ 
है शहसथ, तुम राम-राम का भजन करो | ठहा ( इँंसी-खेल ) न किया करो | तुम्दारे 
घर में सुर्मात और सलाह ( एकता ) सदा बनी रहदे। सब परिवार एक मत होकर रहें 
और परियार के सब लोग इकट्ठा रहें, तब तुम्हारा दिन-दन धन बढ़ेगा | बिसके धर भें 
मैल-जोल नहीं है, रात-दुन ऋंगढ़ा-समेजा हे, उसके घर में उम्पत्ति के स्थान पर झरहर 
का डइंठल भर ही रद जायगा | प्रेम का जमा हुआ्रा दद्दी खूब खा, तब मन प्रसन्‍न रदेगा। 
यदि मन में कचोट रहेगी, पो तुम्हारे आगे दह्दी के स्थान पर मद्ा हो परोसा जायगा। 
(३) 
राम रास राम रास राम सरन अइगीं 
लोग का घुसे से गंवार हम भलों॥ 
ईंदाँ तजे लोक त परलोक- भत्ता हाय 
सीतापति राम घन्द के पीछा अब घइलीं॥ 
ठाकुर जी के आरती नहबेद भक्तीमाँति से 
चनाइमरित*४ घाक्मोग१५ हरिप्रताद*९ खड्सीं ॥ राम राम ॥२॥| 
मैं तो राम की शरण में आया हूँ। किस्तु दुनिया के लोगों की समर में गंषार बन 
गया हूँ । इस लोक के त्यागने से परल्लोक में मल्ा होता है। इसलिए सीतायति 


१, जवानी । ९५ आप | २७ मवयुषती | ४६ बुशदिन ।५« बाजार। ६. स्त्रियों के प्र के 
बाल में लगाने का एक सुगन्धित मसाला । ७. सुगम्ध का स्वाद। ५० नहीं। &, व्यक्ति 
( परिवोर के सदस्य )। १० अरदर का सूखा छंठल । ११, भरपूर। १९ जेवनार 
( भोजन करो )। ११. कंप्क | १४. चरणास्त । १५ प्रातःकाल का प्रसाद। १६« दो 
पहर का भोजन । 


१०१ भोजपुरी के कवि और काव्य 


भी रामचन्द्र का पीछा मैंने पकढ़ा। ठाकुरणी की आरती तथा नेवेय मलीन्‍्माँति 
( भद्वा से ) अहरण करके चरणाम्त, बालभोग, हरिप्रसाद पाया। 





बाबा रामेश्वर दास 


बाबा रामेश्वर दास के पिता का नाम चिन्तामणि ओमसा था। 

झाप (सरयूपारीण ) काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण थे। आ्रापका जन्म शाह्दबाद बिल्लान्त- 
गंत 'कबल पट्टी! नामक आम में ( थान।-बढुद्दरा ) संवत्‌ १७७४ वि० में हुआ था तथा 
मृत्यु (८८५ के ज्ये४-कृष्ण श्रष्टमी को हुईं। 

झापके पिता जी का देहावसान आपके बाल्यकाल में हुआ | इससे अपनी माता के - 
साथ आप शअ्रपने ननिह्दाल 'बम्दन गाँवा? नामक आम में रहने लगे जो बढ़हरा थाने में 
ही आरा से ६ मील की दूरी पर है। आप अपने घनात्य मामा के पास अपनी युवावस्था 
तक रहे और वहीं आपके विवाह्दि संस्कार भी हुए। आप बढ़े कम्बे-तगढ़े और 
पहलवान ये । सत्यवादी और मगवदू-भक्त थे । अपने मामा की छोटी-मोटी सेना के आप 
सेनापति भी ये। आप अक्सर अपने मामा के मकई के खेतों की रखबाली में भी जाया 
करते थे। 

' कहा जाता है कि आपके मामा के यहाँ एक दिन सत्यनारायण की कथा थी श्रथवा 
ब्राह्षण-भोजन के ल्षिए बाहर से निमन्त्रण ब्राया हुआ था-| तब भी आपको मकई के खेत 
में रंखबालो के लिए बिना खाये-पीये भेजा गया | किसी कारण से आपके पास खेत में 
उंस- रात॑ भोजन भी नहीं पहुँचांया जा सका। अतः जब बहुत विलम्ब हुआ तब आपके 
साथ के “दुंबरिया? नामक नौकर ने कहा--“जान पढ़ता है कि आज हसलोगों को भूखे 
ही रहना पड़ेगा । भोजन अब तक नहीं आया ।” इसपर आपने कहाः--- 

हमरा तोशा रामजी के आस रे दुबरिया। 
तब काहे परव जा", उपास रे दुबरिया॥ 
इस पद्य से आपका ईश्वर पर श्रट्टूंट विश्वास प्रकट होता है। इसके थोड़ी देर बाद 
ही भोजन लिये हुए एक व्यक्ति आया और आप दोनों को मकई के मचान * पर ही भोजन 
करा कर बरतन वापस ले गया ।, दूसरे दिन घर जाने पर जन्र आपने रात्रि में भोजन की 
बात मामा के घरवालों से कही और उन लोगों ने जब घर से भोजन न भेजने की बात 
बताई तब आपको श्राश्चर्य हुआ और विश्वास हुआ कि भगवान ने ही मेष बदल कर 
आपको भोजन कराया था | उसी संमय आपको वैराग्य हुआ और आप घर छोड़कर यह 
कह कर निकल पड़े कि अब मैं किसी तरह इेश्वर को छोड़कर सांसारिक बंधनों में नहीं 
फसू गा.। 
आप बारह वर्षों तक वेरागी बनकर पयंटन करते रहे | तीथथस्थानों में भ्रमण करते-करते 
आपको एक महात्मा 'पूर्णानन्‍्दरजी? से मेंट हुईं। थे उठ समय के बोगियों में स्व्भेष्ठ माने 


१« पड़ेंगे । ६० लकड़ी और बाँस का बना हुआ ऊचा मंच। 


बै।बां रामैश्वर दींसे 4०६ 


जाते ये। योग-बिज्ञासुओं की बोग्यता की पूर्ण-परीक्षा लेकर ही योग-शिक्षा प्रदान करते 
थे। उनका आश्रम शादहाबाद के 'कर्जा! नामक गाँव में, गंगातठ पर, था। आ्राप 
की अ्रलौकिक प्रतिमा को जैसे उन्होंने देखा, वैसे ही इन्हें योगशान प्राप्त करने की 
अनुमति दी | थोड़े ही दिनों में आपकी योग-सिद्धि हुईं। उसके अनन्तर अपने ननिह्ाल 
धबम्हनगाँवा? के निकट 'गुडी” ग्राम के पास वन मे आकर आप गुप्त रूप से तपस्या 
करने लगे | कई वर्षों के बाद जब आपके घरवालों को आपके वहाँ रहने की जानकारी 
प्राप्त हुई तब उनलोगों ने आपसे घर पर रहने की प्रार्थना की। जब आप सहमत नहीं 
हुए. तब आपके लिए वहीं मठ बनवा दिया गया। आपकी स्त्री मी आपके लाथ आकर 
मगवद्‌-भजन करने लगी और फिर सारा परिवार आकर वहीं बस गया। आपके चार 
पुत्र थे जिनके नाम थे--गोपाल ओमा, परशुराम ओमा, ऋतराज ओम! तथा कपिल 
झोका । परशुराम ओमा के वंशज आज भी 'गुडी? के पासवाले मृठ में बसे हुए हैं । 
आप हिन्दी में भी अच्छी कविता करते थे १ | 

आपके सम्बन्ध में अनेक चामात्कारिक घटनाओं का वर्णन किया जाता है। 

एक बार आपके किसी पुत्र को ज्वर झा गया था। वह बहुत संतप्त हो गया था| 
उसकी माता ने आपसे कहा। आपने पुत्र का शरीर छूकर कहा-हाँ, ज्वर तो बहुत 
अधिक है और तत्लुण हिन्दी में एक सबेया बना डाला | सवैया पाठ के बाद ही ज्वर 
उतर गया | 

एक बार किसी आवश्यक काय्यंवश आप गंगा-पार जा रहे थे। पश्चिमी हवा जोर- 
शोर से बहती थी । बहुत लोग घाट पर इकट्ठे हुए ये। घट्वार तेज हवा के कारण नाव 
खोलने से लगातार अस्वीकार करवा गया। आपका जाना बरूरी था | तत्काल आपने 
एक सवेया बना पश्चिनी पवन से विनय की | हवा शाम्त हुईं | नाव खोली गई । 


एक बार आपकी प्रशत्ति सुन कर एक मंत्रतंत्र-सिद्ध विदुधी श्रति सुन्दरी कामिनी, 
संन्यासिनी वेश में आपकी परीक्षा लेने के विचार से आपके पास आई। कहा जाता है 
कि वह आरा नगर के प्रसिद्ध मठ के संत बालकिसुन दास की भेजी हुई थी। उसने जब 
बालकिसुन दास से पूछा कि किसी सिद्ध महात्मा के दर्शन मुके हो सकते हैं तब उन्होंने 
कहद्दा--"हाँ, आरा से दो कोस उत्तर की ओर रामेश्वरदास नाम के एक महात्मा हैं| 
शायद्‌ उनसे आपकी सन्त॒ष्टि हो सकती है |” वह सीधे भ्रापके घास चली भ्राई और नंगी 
हो गईं। आपके निकट ही एक स्थानीय जमींदार 'काशीदास? बैठे हुए थे उन्होंने दृष्टि 
बचाने के लिए अपनी रेशमी चादर भ॑न्यासिनी के ऊपर्‌ फँक दी, परन्तु वह उसके निकट 
पहुँचत ही जल गई | इसपर आपने अपना पीताभ्बर फेंका | तब उसने कहा-- “बाबा, 
कृपया न फेंकिए |” आपने कहा--“नहों माता, मेरा पोताम्बर कदापि जलने का नहीं |”? 
निदान पीताम्बर जला नहीं | संन्यासिनी ने आपकी सिद्धि का लोहा मान लिया। 


१ देखिए--'साहित्य” ( वर्ष ५, अ'क २, आषाढ़, संवत्‌ २०११) में प्रष्ठ-. ७८; बिह्र- 
हिन्दी-सा दित्यन्सम्मेलन द्वारा प्रकाशित । 


4०४ भोजपुरी के कवि और कार्य्य 


आपके भोजपुरी छुन्द का उदाहरण-- 
वाल माल रूदंग खाँजड़ी गावत गीत हुलासा' रे 
कबहूँ इंसाः चले अ्रकेला कबहीं शगी पवास्रा रे 
गेंठी३2 दाम न खरची बाँधे राम नाम के आसा रे 
रामचन्द्र तोरो अजब चाकरी रामेश्वर बिस्वास्रा रे || 





परमहंत शिवनारायण स्वामी 


आपका जन्मनवक्रम-संवत्‌ १७४० के लगभग हुआ था। बलिया जिल्ले के चग्दवार 
नामक ग्राम अपका जन्म-स्थान था। आपके पिता का नाम बाबू बाघराय था। आप 
संस्कृत के अच्छे विद्वान थे। आपने श्रपनेको गाजीपुर का २हनेवाला लिखा है। श्रापफे 
शुरु का नाम दुखदरन! था। | 
आप 'शिवनारायणी? पन्थ के प्रवर्तक थे। ग्राप एक समाज-सुधारक भी ये | छूत- 
अछूत का मेद-माव नहीं मानते थे। विशेष कर हरिजनवर्ग के लोग आपके शिष्य थे। . 
उन्हीं लोगों के लिए श्रापने भोजपुरी में रचनाएँ कीं। उनमें गंवारू बोली में अनमोल 
उपदेश भरे पड़े हैं। आज मी आपके हजारों अ्रनुयायी श्ातके अन्थों की घड़ी प्रतिष्ठा 
करते ह। ; 
आपके बनाये १३ प्रत्य हें--(१) लाल अन्य, (२) संत बिंलास, (३) भजन प्रन्थ, 
- (४) संत सुन्दर, (४) गुरु अन्यात, (६) संतचारी, (७) श्ञान-दीपक, (८) संतोपदेशे, 
(६) शब्दावली, (।०) संत परवाना, (११) संत-सहिमा, (१९) संत-सागर और 
(१३) संत-विचार | 
आपने अपने अनुयायियों को वेरागी बनने का उपदेश न देकर उन्हें गरहस्थाश्रम फे 
महत्त्व को ही बतलाया है। ः 
सन तू काहे ना करे रजपूती, 
असहीं काल घेरि मारत ६, जल पिंजश के तृती | 
पाँच पचीसरं तीमों दृत्त ठाड़े इन संग-सैन बहूती। 
रंग महल पर 'श्रनहद बाले काहे गइलड तू सूती। 
'सिवनारायन” चढ़ मैदाने मोह-भरम गइल छूटी । 


१० उल्लास । ३० आत्मा । ३» गाँठ। ४ सन्तमतामुसार पाँच तत्त्व ( अ्रश्नि; जल, वायु, 
आकाश, प्रृ्वी ) और इन पाँचों की पाँच-पॉच प्रकृतियाँ-- “अग्नि ( आलस्य, 
तृष्णा, निद्रा, भूख, तेज )। जल ( रक्त, चीये, पित्त, लार, पसीना )। वाद्य 
( चलन, गान, बल, संकोच, विवाद )। श्राकाश ( लोभ, मोह, शंका, डर, लजा ) । 
एथ्पी ( अस्तथि, सजा, रोस, त्वचा, नाड़ी )।” थे ही तीस तत्त्व पाँच और पची6 
कहलाते हैं । 


परमहँस शिवनारायय स्वाम १०७ 


अरे मन, तू राजपूती क्‍यों नहीं करता ? अर्थात्‌ बहादुर की तरह विष्न-वाघाओं 
का सामना क्यों नहीं करता ! ऐसे ही ( अनायास ) काल चारों ओर से घेर कर पिंजड़े 
में बन्द तृती की तरह जीवों को मार डालता है। सामने देखो, ये पंचतत्त्वऔर उनकी 
- पचीस प्रकृतियाँ तथा काल--ये तीनों दल- खड़े हैं | इनके साथ बहुत-सी श्रन्य सेनाएँ 
(विन्न-बाधाश्रों, उप्पातों तथा रोगों की) भी हैं। तुम्हारे र॑गमहल्ल ( ब्रक्लांड मस्तक ) पर 
अनहद शब्द हो रहा है। अरे मन, तू सो क्यों गया है ! शिवनारायण कहते हैं कि मैं तो 
संग्राम के हेतु मैदान पर चढ़ आया हूँ। मेरा मोह-भ्रम सब छूट गया है। 
सुतल रहलों नींद भरी गुरु देलें हो जगाइ।॥ 
गुरु के सबद रग-ऑजन हो, लोेलों नयना लगाइ। 
तबहीं नींदों नाहीं आवे हो नाहीं मन अलसाइ ॥ 
गुरु के चरन सायर हो नित खबेरे नहाईं। 
जनम-जनम के पातक हो छुन में देले दृहवाइ॥ 
पेन्दलों में सुमति गहनवाँ हो कुमति दीहलों उतार | 
सबद के माँग सेंवारों हो, दुरमत दृहवाह॥ 
पियद्ञों में प्रेम-पियज्ञवा हो, मद गइके बउराइ। 
बहतठल्ों में छँँचीं चडपरिया हो, जहाँ चोर ना जाइ | 
शिवनरायन-गुरु समरथ हो, देखि काल डेराह ॥ 
अरे, मैं गहरी नींद ( मोहनिद्वा ) में सो रह्य था, गुरु ने मुझे जगा दिया। गुरु के 
शब्दों ( श्ञानोपदेशों ) को रच-रच कर मैं ने अंजन बनाया और उसे नेत्नो में लगा 
लिया | तबसे मुझे नींद नहीं श्राती और न मन ही अलसाता है | गुरु के चरण-रूपी सागर 
में मैं नित्य सवेरे उठकर स्नान किया करता हूँ और उसमें जन्म-जन्मान्तर के पापों को 
छणमात्र में ही बदवा दिया करता हूँ। मैं ने सुमत के आभूषणों को पहन लिया और 
कुमति के गहनों को उतार दिया। मैंने गुरुवचन«रूपी माँग को संवार लिया और अ्रपनी 
कुमति को धो बहाया था। मैंने प्रेम का प्याला पी लिया जिससे मन मतवाला हो गया | 
परमात्मा के प्रेम में बेसुध हो गया | मैं उस उचे चौपाल (शान के अंघकार ) पर जा 
बैठा, जहाँ ( विकार-रूपी ) चोरों की पहुँच नहीं है। शिवनारायण कहते हैं कि गुरु की 
कृपा से इतना समथ हैँ कि अ्रब सुकको काल भी देखकर डरता है। 
भव सागर गुरु कठिन अगम हो, कौना बिघि उत्तरब पार हो। 
असी कोस रुन्दे बच काटा, असी फोस अन्हार हो॥ 
झसी कोस बहे नदी बैतरनी, कदर उठेल्ा शुन्धकार हो। 
नहृहर रहतलों पिता सेंग भुकुरी नाहिं मातु घुमिल्लाना हो॥ 
खात-खेलत सुधि भ्रुत्षि “गइली सजनी, से फक्ष आगे पाया हो। ' 
खाल पकड़े जम भूसा भरिषें, बदई चीरे जइसे आरा हो॥ 
झबकी थार गुरु पार उततार5, अतने बाटे निहोराहो। 
कवि अपने शुरू से पूछ रहा है, ( जीवात्मा परमात्मा से पूछ रही है )--है गुरु जी, 


बदहे ओजपुदी के कवि और काव्य 


मवसागर तो अगम-अपार है। किस तरह से मैं पार उतरूँगी ! अस्सी कोसों तक का मार्ग 
तो घनधोर जंगली काँयों से दे घा हुआ है और अस्सी कोसों तक घोर अन्धकार है। छिर 
झस्सी ही कोस में फैली हुईं वैतरणी नदी बह रही है, जिसमें गरजती हुईं लइरे उठ रही 
हैं। मायके ( संसार ) मे मैं पिता (मन) के रुंग भक्ुरी१ ( मोहप्श्त ) पड़ी रही | परन्तु 
तब भी मेरी माता (प्रकृति) धूमिल नहीं हुईं | है सजनी | खाने-खेलने में पढ़कर निन स्वरूप 
की सुधि भूल गई थी, उसका फल आगे मिला । यम खाल खींच कर उसमें भूसा भरेगा 
कौर बहुई (यमदूत) इस शरीर को श्रारा की तरइ चीर ढालेगा। अतः हे गुद जी | अब 
आपसे इतना ही मेरा निददोरा (प्रार्थना) है कि इस बार सके पार उतार दें। 
पातर कुद्दयाँ पताल बसे पनियाँ, सुन्दर हो ! 
पनियाँभरन कैसे जाँव ॥ 
खेलत रहलीं मैं सुपली * सउनियाँ 3 सुन्दर हो | 
अबचक आ गइले दिन, 
सुल्दह हो |अबचक आ गशइले निआर। 
के मोरा घइले द्न-सुदिनियाँ सुन्दर हो | 
के मोरा सेजलन निआर ४॥ 
सुन्दर हो, के सोरा सेजलन निआर ॥ 
ससुरा सोरा घेलन दिलयें सुन्दर दो! 
छेंयाँ ५ सोरे सेजलन निभार ॥ 
सुन्दर हो, सेंया सोरा सैजलन नियार । 
लाली लाली डोलिया सब॒जि ओहरिया ९ सुन्दर हो ! 
लागि गइले बतिसो कहार। 
सुल्दर हो, ज्ञागि गइले बतिसो कहार।॥ | - 
मिलि लेहु सिलि लेहु सखिया-सत्लेहर » सुन्दर हो ! 
अबसे सिलन गइले दूर ॥ 
सुन्दर हो | अरब से मिलन गइले दूर | मि 
पतल्ला तो कुँआ है और उसका पानी भी बहुत नीचे है | हे सुन्दारि, मैं पानी भरने 
कैसे जाऊं ! है सुन्दरि, मैं सुपली-मौनी से खेल रही थी कि श्रचानक भेरे बुलावे का दिन 
आ गया । हे सुन्दरि, किसने मेरे जाने का सुदिन ठीक किया और किसने बुलाने के लिए, 
निया९ मेज्ञ | स्वसुर ने सेरे जाने का दिन निश्चि किया और मेरे स्वामी ने नियार 
सेजा | मेरी डोली तो लाल रंग की है, उसमे हरे रंग का ओहार लगा हुआ है जिसमें 


बत्तीस कह्ार लगे हुए हैं। हे उखी-सहेली, आओ, मुझसे मिल लो; नहीं तो अब फिर 
मिलने का अवसर बहुत दुर हो जायगा। 


4. झुकरी>>बहुत दिनों से रखी हुईं चीज के सदने बे उसपर जमी हुई उजली काई। 
२६ बाँध का वना छोटा सुप। ३. बाँध की बनी बहुत छोटी घंगेली | ४. आमंत्रण ) 
४७ स्वासी | ६६ पालकी का पर॒दा। ७, सद्देली । 


पंतद्वदांस पृ6७ 
पलटूदास 


फैजाबाद जित्ले में मालीपुरी स्टेशन से दस या बारह भील पूर्व जलालपुर नामक एक 
कसबा है। पलद्वदास श्रौर इनके गुरु गोविन्द साहब यहीं के रहनेवाले ये | बचपन से 
ही दोनों बड़े जिशासु थे। गोविन्द साहब जाति के ब्राह्मण और पलद्वदास कान्वू (भड़भूजा) 
थे | गोविन्द साहब पलटद्ूदास के पुरोहित भी थे | दोनों व्यक्ति एक बार दीज्ञा लेने के लिए 
अयोध्या गये | उन्होंने इनको उस समय गाजीपुर जिले में रहनेवाले बाबा भीखमराम 
के पास निस सन्त से इन लोगों ने दीक्षा माँगी--जाने की राय दी। गोविन्द साहब 
वहाँ गये और पलट्दास इसलिए रुक गये कि गोविन्द साहब के दीज्ञा लेकर लोटने पर ये 
उन्हीं से दीद्या ऐे लेंगे | गोविन्द साएव के दीज्षित होकर लौठने पर पलद्वदात उनके 
शिष्य हुए। गोविन्द साहब और पलद्ट दास बड़े ऊँचे भक्तों में गिने जाते हैं | गोविन्द 
साहब के नाम पर प्रसिद्ध मेला आज मी लगता है। 

पत्नदूदास के नाम पर आज भी पतलद्ू-पंथी-सम्प्रदाय है। इनके कितने मठ हैं । 
इनकी सभी रचनाएँ आज भी जलालपुर कै पास के मठ में वत्तमान हैं। इनका समय 
आज से डेड़ सौ व पूर्व का कद्दा जाता है। वेलबेडियर प्रेस ( प्रयाग ) से पत्चद्दास 
की रचनाओ्रों का जो संग्रह छुपा है, उसमें भी उनका यही समय उल्लिखित है। 


$ ) 
फाहे के लगावते हक हो, अब घुरज न जाय। 
जब दम रहतलों लरिकवा हो पियवा आचहिं जाय ॥ 
अब हम भइददलों सयनिया हो, पियवा ठेकलें) बिदेख | 
पियवा के भेजल्ोों सनेसवा हो, झइददहेँ पियवा मोर ॥ 
हम घधनि3 पहयोाँ उठि ज्ञागबि हो, जिया भल भरोस। 
सोने के थरित्रवा जेवनवा हो, हम दिदल्लर परोस ॥ 
हम धनि घेनिया"५ डोजल्लाइब हो, जेंवेले पियवा मोर । 
रतन  जदृल्ल एक ऊरूरिया* हो, जल्य भरत अकास ॥ 
मोरा तोरा बीच परमेसर हो, ए कहले पत्चद्ूू दास ॥ा 
है प्रेमी, ठुमने क्‍यों स्नेह लगाया। अ्रव तो यह मुकसे तोड़ा भी नहीं जाता। जब 
मैं कमसिन थी तब पिया निःसंकोच आते-जाते थे, पर अ्रब जब मैं सयानी हुई तब मेरे 
प्रीतम विदेश जा बसे। मैंने अपने पिया के पास सन्देशा मेजा है | मेरे पिया अ्रंवश्य 
आयेंगे और तर मैं सोहागिन उठकर उनके पाँव पड़ेगी, ऐसा मुझे विश्वांस हो गया 
है। तब मैं सोने की थाज्ञ में जेवनार परोद गी और मेरे प्रीतम भोजन करने लगेंगे और 
मैं सामने बैठकर पंखा कलने लगगी। रत्न-जटित एक फारी है | मैं उसमें आकाशरूपी 
जल भरकर पिया के पीने के हेठु रखूं गी। पलद्टदास कहते हैं कि मेरे और तुम्हारे बीच 
में फेवल्न परमेश्वर का नाता है। दूसरा कोई नहीं | 


% पहुँच गये । ३. सन्देश । ३५ सोहगिन-। ४० दिया । ५. प॑खा। ६. मलारी-(जलपात्)। 


६०८ सौजपुरी के कवि और कार्ष्य 


( ३ ) 
कह दिन मेरा तोरा जिश्नना ऐ", नर चेतु गँवार ॥ 
काँचे साटी कर घइलवार हो, फुटत लागत न बेर। 
पनिया बीच बतसवा हो, त्वागल् गह्त न देर ॥- 
घुआँ केरा धबरहर हो, बालू केशा भीतड | 
ल्ञागव पवन झरि जाले हो, तृत ऊपर सीत ॥ 
जस कागदू कह कलाई हो, पाकल फलवा डारि। 
सपने केश सुख पम्पति हो, अइसनरें इपें संसार ॥ 
बाँत केश घन पिंजरा हो, ताहि बीच दस दुआर। 
पंछी लिदले बसेरा हो, ज्ञागल उद्त थे बार५॥ 
आतसबाजि तन भइलेह, हाथे काल के आगि। 
पलदू दास उद़ि जहृबहु हो, जबहीं देइहें दागि॥ 
इमारी-तुम्हरी कितने दिनों की जिन्दगी है ! रे गंवार, जरा तू चेत जा | जिस तरह 
कच्चे घड़े को फूट्ते देर नहीं लगती तथा जिस तरह से पानी के बीच बताशे को गलते 
विलम्ब नहीं होता; जिस प्रकार धु्ए का धौरदर और बालू की दीवार तथा घास के 
ऊपर पड़े हुए शीतकण हवा लगते ही विल्ीन हो जाते हैं; जिस प्रकार कागज पर की 
हुईं कलई और डाल का पका फल तथा सपने में सम्पत्ति क्षणभंगुर है, उसी तरह यह 
संसार है। बाँस का बना हुश्रा घना पिजड़ा (शरीर) है, उसमें दस दरवाजे ( इन्द्रियाँ ) 
लगे हैँ | उसमें पंछी (आत्मा) बसेरा लिये हुए हैं। उसको उढ़ते देर नहीं लगती | भरे 
नर, यह शरीर आतिशजाजी है। काह्न के हाथ में आग है। पलट्ुदास कहते हैं कि जिस 
छुण काल इस आतिशबाजी में श्राग छुल्ा देगा, उसी क्षण जल कर उड़ जायगा। 
( हद ) 
बनिया सम्ुझ्ि के लाहु लद॒नियाँ ६। 
ईं सब सीत कास था अहहँ, संग ना जहहें करधनियाँ ॥ 
पाँच सने के पूँजी लद॒ले, अतने में गरत गुमनिया* । 
करके5 भजन साधु के सेवा, नाम से लाउ क्ृगनिया< ॥ 
सउदा चाहसि त इृहवें* करिल्ले, आगे न हाट दुकनियाँ। 
है पलहू दास गोहराइ*१* के कहेले, अगवा देस निरफनियाँ॥ 
अरे वणिक्‌, समझ-बूक कर ठुम लदौनी करो | ये सत्र मित्र किसी काम नहीं आवेंगे । 
कमर की करघनी भो तुम्द्यारे साथ नहीं जायगी | तूने पाँच मन (पंचतत्त्व) की पूंजी की 
लदौनी की और इतने में ही गुमान से पागल हो उठे | अरे वण्क्‌, साधु की सेवा और 
ईरवर के नाम से लगन लगा | यद्‌ तुम सचमुच कुछ सौदा (शुभकर्म) करना चाहते हो 
तो यहीं इस लोक में कर लो। आगे कहीं हाट या दुकान (शुभकर्म करने का स्थान) 
१५ जिन्दगी । २६ घढ़ा। ३» दौवार। ४. ऐसा। ५ देर। ६ बोम की लदाई। 
७ घमंड | ७० प्रेम । ६० यहीं (इसी लोक में)। १०५ जोर से पुकार कर । 


रामदास १७५९ 
ठुंमकों नहीं मिलेंगी । पत्चद्टदाउ पुकार कर कहते हैं कि आगे का देश विना पानी का या 
बिना हाट-बाजएर का (साधनहीन) है। 





रामदास 


रामदास जी “इल्ला साहब” (बुलाकी दाउ) के शिष्यों में से थे | श्राप के जन्म-स्थान 
का पता ठीक नहीं लग सका) अनुमान है कि आपका जन्म-स्थान तथा कार्यक्षेत्र 
बलिया और गाजीपुर में ही कहीं रहा होगा | आपकी रचनाओ की बड़ी प्रत्िद्धि है। 
देहातों में, अनेक अवसरों पर, काल-ढोलक के साथ उनकी लोग सम्मिलित रुप में 
गते हैं। 
(१) 
रास5 चइत * अजोधेआ में राम जनसले हो रामा, 
घरे घरे, बाजेला अनेंदु बधइया हो रामा । घरे घरे० 
रास5 ल्वेंग-सोपरिया के बोरसी * भरवलो हो रामा 
चन्दन काठी, पश्ंगि३ः जराबों हो रासा॥ घरे घरे० 
रास5 सोने के चउक्षिया त राम नहवादों हो रासा 
रास5 चेरिया-लडँंडिया ४ आई पानी भरे हों रामा | घरे घरे० 
रास5 केई सखि डालेली अंग्रुठिया मुँदरिया " हो रासा 
रामा कवन सखी डालेली रतन ए पदारथ हो रासा | घरे घरे० 
राम केकई डालेली ऑँगुठिया, सुमित्रा सु नरिया हो रासा 
फोलिला डालेली, रतन पदारथ हो रामा॥ धरे घरे० 
रासदास ए चुलाकी चइत घा्ठों * गशावे हो रामा 
याइ गाह, जियरा » छुकावे < हो रासा। 


(९) 
राम जझुना किनरवा सुनरि * एक रोबवे हो रासा 
राम पएही दहै।" मसाविक हेरहले दो रामा 
राम गोड़११ तोर त्ञायों में केवट मलहवा हो रामा 
एड़ी दे डालू सहजलिया दो रामा 
एक जाल डलेले दोसर जाल डलले दो रामा 


१ चैत्र मास। ३ गोरसी (भूसी की आग रखनेवाला मिट्टी का पात्न)। ३- सूती गृह के 
द्वार पर लगाई गई आग जिसमे ठोटके के तौर पर राई-परसों आदि द्रव्य जलाते हैं। ४. दासी। 
७५ झँगूठी या अशरफी ( स्व॒णु-मुद्रा )। ६« वसन्‍्त में ठोलक-फाल पर गाया जानेवाला घमार- 
गीत | ७ जी । ८ जुड़वाते हैं (संतुष्ट करते हैं) । ६५ सुन्द्री। १०. भाल में । ११, पैर । 


१$० सौजपुरी के कवि भौर दा्ध्य 


बारी गहले * घोंधवा «“ सेवरवा हो रासा 
शसम होरा लेखे * सलहा घोंघवा-सेवरवा हो रामा 
सोरा लेखे, उगले चत्रमा हो रामा। 
रामदाल रे छुलाबी आरे गावेले घटेसरि३ हो रासा 
गाह गाह्ूड, जियरा खसुसावे हो रामा। 
श्राप का निम्नलिखित गीत ग्रियर्सन साइब द्वारा उम्पादित और संग्रहीत होकर 
अग्रेजी पश्निका में छुप चुका है। 


३) 
रामा एहि पार गंगा, ओहि पार जमुना हो रामा। 
तेद्दि बीचे कृष्ण खेलते फुलगेंनवा ४ हो रामा [|१॥ 
शा गेंना जब गिरलें सजधरवा हो रामा। 
तेहिरे बीचे कृष्ण खिलले,५ पतलवा हो रामा ॥२॥ 
शाम लग धुनि९ केप्तिया » ज़सोमति मैया हो रामा | 
एही राहे सानिक हमरो हेराइल्र* हो रामा ॥शा 
राम गोड तोहि लागो, * केवट मलहवा हो रामा | 
एड्टी रे दहे डालु सहाजलवा हो रामा ॥धा। 
राम एकडजाल बीगल्े, १९ दोखर जात बीगत्े दो रामा | 
बाकि १) गले घोंधदा - सेवरवा हो शासा [[णा 
रामा पहुूँंठ£ि. पताल, नाग नाथत्न हो रामा। 
दरासा काली फन ऊपर नाच कहत्नन हो रासा ॥द॥ 
दामदास बुलाकी संग घाँठो गावल हो शमा। 
गाई रे गाई, बिरहिन सखि परममुझावल हो रामा ॥णा 





भुत्तात्ञ धाहब 
गुलाल साहब के जीवन का निश्चित समय ज्ञात नहीं है। ये जगजीवन साहब के 
गुरु्भाई थे, इसलिए इनका समय भी सं० १७४० से (८०० सं० तक माना जाता है। 
जाति के ये ज्ञत्रिय थे | ये बुल्ला साहब” के शिष्य थे | 
पावल्ल प्रेस पियरवा हो ताही रे रूप। 
मनुआ हमार बियाहल दो ताही रे रूप || 
१, फँस गया । २» वास्ते । ३» घाटों गीत । ४० सुन्दर गेंद । ५६ तह तक पैठ गये ॥ 
६० पीठना->घुनना। ७ केश (मस्तक)। ८» भूल गया । & निहोरा करना । १० फेंका । 
१% पस गया। 


रामनाथ दास ३३३ 


झेंच अटारी पिया छावज्ञ दो ताही रे रूप। 

भोतियन चडक पुरावल दो ताही हे रूप। 

अगस धुनि बाजन बजावल हो ताही रे रूप | 

हुलहिन-हुलहा सन भावत्ल हो ताही रे मन | 

भझुजमर कंद लगावजत हो ताही रे मन | 

'मुल्ञाल! प्रश्ुवर पावल हो ताही रे पद ॥ 

मनुआ न प्रीत छूगावत दो ताही रे पद । 

उसी ( ध्यानस्थ ) रूप में मैंने अपने प्रियतम को पाया | मेरा मन उसो रूप से ब्याहा 

गया। मेरा प्रियतम ऊँची अठारी ( आसन ) पर विराजमान है। वहाँ सोतियों का 
चौक पुरा हुआ है। फिर उसी रूप के लिए अ्नहद शब्द का बाजा बज रहा है। 
इुलहिन-रूपी मन की उसी रूपी का दुलहा मन भाया। इसीलिए फिर दुलहिन-रूपी मन 
ने दुलदे को अंकवार में भरकर गले लगाया | गुल्लालदास जी कहते हैं कि मैंने श्रपने 
उसी प्रभु का सामीप्य पा लिया। मैंने उस पद की प्राप्ति कर उन्हीं में प्रीति लगाई है। 
गुलाल साहब की अधिक रचनाएं प्रकाश में नहीं आ पाई हैं। 





रामनाथ दास 


अनुमान है कि आप शिवनारायण जी के शिक्यों में से एक सन्‍्त कवि ये। आपका 
परिचय प्राप्त नहीं हो सका | संगण्दीत गीतों में भ्रापके इस तरह के गीत मिले हैँ... 
अपन देखवा के अनहृद्‌ कासे कहों जी सनन्‍्ो, 
अपन देसवा के अनहद कासे कहाँ। 
मोरा देसवा में नित पूरतमासी कबहूँ ना क्ागे अमवसवा। 
है सन्‍तो, कबहूँ ना सख्ांगे झअमवसवा। 
घूप ना छाद्द ताहाँ सीवल्न ना ताप नाहि भूख न पियासवा | 
““सन्‍्तो अपना देसवा के ०॥ 
सोरा देखवा में बादल उसडे, रिसि क्रिमि बरिसे लते। 
देव, सत्तो, रिससिम बरिसे देव, सखल्तो॥ 
ठाढ़ रहों जंगल मैदान मे कतहूँ ना भीजेला देह पन्तो। 
करहीं न्ता भींजेला देद सन्‍्तो ॥ 
अपन देसवा ० 
सोरा देखना में बाजन पक बाजे, गहिरे उठेले भ्रवाजा। 
सनन्‍तो गहिरे डठे अवाजा ॥ भ्रपन देखवा ०|| 
रामनाथ जब सगान  सेैले ठाढ रहे ले। 
गठयाना सन्‍्तो ढाढ रहे ले गढ़. गाजा॥ 
अपन देसवा ०] 


११४ भोजपुरी के कवि,और काव्य 


भक्त अपनी सिद्धि के बाद अपने मानस-देश की दशा को अन्य साधकों से बता 
रहा है। 

के हे सन्‍्तो, मैं अपने देश के अनहद शब्द की वहानी किससे कहूँ ! मेरे देश में 
नित्य पूर्णणासी ही रहती है। यहाँ कभी अमावस्या नहीं श्राती अर्थात्‌ रुदा ज्ञान 
का उजाला ही रहता है, अजशान का श्रन्चेरा कभी नहीं होता। हे सम्तो, पहाँन 
धूप है, न छाया है, न शीत है और न प्रीष्म है । वहाँ न भूख लगती है, न प्यास सताती 
है। मेरे देश ( हृदय ) में बादल ( भक्ति की घटा ) उमड़कर आते हैं। रिमम्रिम-रिम्सिम 
मेह बरसता है, अर्थात्‌ श्रानन्‍्द बरसता है। दे सनन्‍्तो, उस वर्षा में मैं जंगल-मैदान 
में कहीं भी खड़ा रहता हूँ, मेरा शरीर नहीं भींगता | ( केबल द्ृदय ह्वी सिक्त होता है। ) 
मेरे देश में एक अनहृद बाजा बजता है जिसकी आवाज बहुत गहरी होकर उठती है। 
रामनाथ बब ध्यानमम्त होते हैं तब वे श्नन्द-रूपी गढ़ पर सदा खड़ा रहते हैं। 





भीखा साहब 


भीखा साहब की जस्मभूमि बलिया जिला ( उत्तर प्रदेश ) नहीं है, किन्तु उनको 
कमंभूमि ही बलिया है। उस जिल्ले के बड़ा गाँव के आप निवासी थे। बड़ा गाँव में 
जहाँ आप रोज बैठते थे, वहाँ एक चबूतरा है । विजया दशभी के दिन वहाँ एक बढ़ा 
भारी मेला लगता है। लोग चबूतरे को पूजते और मेंट चढ़ाते हैं। बड़ा गाँव 
( रामशाला ) के श्रादि महन्थ हरज्ञाल् साहब के आप ही गुरु थे | आप बारह वर्ष की ही 
अवस्था मे ग्रहत्यागी बन गुरु की खोज में लग गये | आप जाति के ब्राह्मण ( चौबे ) थे | 
घरेलू नाम मोखानन्द था। आप आजमगढ़ के 'खानपुर बोहना? गाँव में, संवत्‌ १७७० 
आस-पास, पैदा हुए ये | आपके गुर का नाम गुलाल साहब था। 
बड़ा ग़ॉव में किवदन्ती प्रचलित है कि “जब आप एक ऊंचे चबूतरे पर बैठे हुए थे, 
तब आप से मिलने के लिए. एक मौनीबाबा, सिह पर सवार होकर आये। कोई दूसरी 
सवारी पास न होने के कारण आपने चबुतरे को ही चलने की झ्राज्ञा दी | चबूतरा चलने 
लगा और तभी से उसका नाम “दुस-दुम” पड़ गया। आप ४० वर्ष की अवस्था में 
स्वगंवासी हुए [? # 
है सन रास नाम खित धौबे १। 
काहे इव उतर धाइ सरत हव अवसिक * भजन राम से धौबे ॥ 
गुरु परताप साधु के संगति नाम पदारथ रुचि से खौधे 3। 
सुरति निरति अन्तर लव लावे अनहृद नाद गयन घर जौबे ४ ॥ 
+ ठाकुर प्रसिद्ध नारायण सिंह लिखित--.'बलिया के कवि और लेखक” ( सन्‌ १८८६ ई० 
में प्रकाशित ) से उद्ध त । 
१. घोशोगे। ध्यावोगे>्ध्यान करोंगे। २७ अवश्य। ३» खाओगे | ४ जाओगे। 





: हुल्लह दास १९ ३ 
श्मता राम सकत्न घर ज्यापक नास अनन्त एक ठहरोबे १। 


वहाँ गये जगसों जर * हृटव तीनतान * ग्रुन औगुन नसौने॥ 
जन्म स्थान खानपुर बोहना सेवत चरन 'पभिखावन्दः चौबे ॥श॥ 





दुर्ल्नह दाघ 


आपका परिचय अज्ञात है | कहीं-कद्दी कुछ पद मिल गये हैं। 
नहहरे में दाग परल भोरी चछुनरी। 
सतगुरु धोबिया से चरचो ना कइलो रे, 
उन्ह धघोबिया' से कवबन उज़री ॥ नहृहरे ० ॥ 
एक सन ल्ागे के सौ मन लगले, 
महँग साबुन बीकाला पिथा के नगरी || नइदरे ० ॥ 
चुनरी पहिर के सधुरा चललों, 
ससुरा लोग कहे बड़ फुहरी ॥ नइहरे ०॥ 
दुल्लह दास गोखाई' जग जीवन, 
बिनु सत संग कइसे केष्ट सुधरी ॥ नइहरे ० ॥ 
मेरी चुनरी (चोला) में नेहर (संसार) में ही दाग पड़ गया। मैंने इसकी चर्चा अपने 
सतगुरु-रूपी धोबी से नहीं की। उम्व घोषी से दूसरा और कौन अधिक स्वच्छ है. अर्थात्‌ 
मल-(पाप) नाशक है | एक मन मेल लगने के बदले सौ मन मैल लग गई। पिया के नगर 
में तो साबुन ( तत्त्त-शान ) बहुत महगा बिकता है। वही चुनरी (चोला ) पहनकर मैं 
ससुराल (परलोक) को गई; पर वहाँ के लोग कहने लगे कि यह बड़ी फूहड़ नारी है | हुल्लह 
दास कहते हैं कि मेरे मालिक जगजीवन दास ६] इस संसार में बिना सत्संग के कोई 


कैसे सुधरेगा ! 





नेवल दास जीं 


आपका जन्म सरजू पार उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में हुआ था। अ्रपकी अंत्यु 
सं० १८५० में, १०० वर्ष की आयु में हुईं। आपके माता-पिता के नाम शांत नहीं हैं। 
आपके गुर जगजनीवन जी ये ] आप सन्त कवियों में प्रसिद्ध हैं । 
अपने घर दियरा बाद रे 
नाम के तेल, प्रेस के बाती, अहा अग्रिव उदगारु रे ॥ 
जगमग जोति निहारु मेंदिलवा में, तन मन घन सब थारु रे | 
मूड ठगिनि जामि जगत के आता बारदि बार बिसादु रे। 
दास नेवज् भज्ञु साई" जगजीवन आपन फाज सेंवारु रे ॥ 


१. ठदरोगे। २० जड़ । ३० टौस-ठास । 


१९४ भोजपुरी के कवि और कांब्यं 


अरे, अपने घर (द्वदय) में (शान का) दीपक जलाओं | राम नाम का तेल बनाओ। 
उसमें प्रेम की बसी लगाओ और ब्रह्माग्नि की लौ जलाओ । तब अपने मन्दिर ( अन्त: 
करण) में जगमगाती ज्योति को निद्वारो। उस ज्योति पर तन-मन-धन सबको न्योछावर 
कर दो | जगत्‌ की ग्राशा को तुम ठगिनी की तरह समझो । उसको कभी अपने पास न 
फटकने दो | नेवश्ञ दास कहते हैं कि गुरु जगजीवन को भजकर अपना काम बनाओ | 





बाबा नवनिधि दास 


आपका जन्‍म बलिया जिले में 'लखउलिया! नामक आम में हुआ था । जाति के 
कायस्थ और म्ुशी शिवदयाल ज्ञात के पुत्र ये। चन्दाडीहवाले कविवर रामचर्द्र 
उपनाम “चनरूराम? आपके गुरु ये | पहले आप “वधघुड़ी”-निवासी मु शी प्रयागदत्त कानूनगो 
के यहाँ मोसद्दी ये। वहीं आपके दृदय में वैराग्य उत्पन्न हुश्रा और आपके मुंह से 
निकल पड़ा--“मोहि राम माम सुधि श्राई | लिखनी अब ना करब रे भाई |” 
“मरे मुझे राम नास की सुधि शा गई। शअ्रव हे भाई, में लिखनी नहीं करूंगा .” 
यद कहते हुए श्राप उठ पड़े और संन्यासी बन गये। आपका रचना-काल संवत्‌ 
१६०४ है, यह आपकी एक रचना से प्रमाणित है। संन्यास आपने ज्गमग ५०-६० वर्ष की 
झवस्था में अहए किया था। आपका जन्मकाल अनुमान से संवत्‌ १८६१० के श्रासन्‍पास 
हो सकता है; क्योंकि ११० वर्ष की अवस्था में संबत्‌ १६२० के लगभग आपका 
देहान्त हुश्रा था। 'मंगलगीता! आपकी प्रसिद्ध पुस्तक है। आपके अनुयायी उसका 
पाठ करते हैं | ज्ञोगों का विश्वास है कि श्रापकी 'संकटमोचनी? पुस्तक के पाठ से सब 
प्रकार के संकट दूर हो जाते हैं । 
कहीं-कहीं झापकी रचनाओ्रों में कबीर की छाप मित्षती है। आपने श्रपनी 'ककहरा? 


पुस्तक में जो योग-सम्बन्धी बातें बताई हैं, उनसे पता लगता है कि आप एक 
रिद्व योगी ये | 
काहे सोरि सुधि बविसरवलड हो, बेदरदी कान्ह । 
ऊ " दिन थादि रे कर5 मनसोहन गलिअन दूध पिश्नवत्ञ5 हो। 
4 6 बेद्रदी पी । 
अद्ध “उद्ध बिच तू मोहि के डलल5 कुधरी कंत कहचल5 हो, घेदरदी कान्ह, 
बृन्दाचन हरिरास रचदल्त5 तहाँ कुलकानिं गँववलड हो, बेदरदी कान्ह। 
कह्दे 'नवनिद्धि! सुन5 करनासय आपन बनाइ बिसरवल5 हो, बेदरदी कान्ह। 





२ पह | २६ स्मरण | 


बाबा शिववाशयणजी ११५ 
बाबा शिवनारायण जी 


बाबा शिवनारायण जी बलिया ( उत्तर प्रदेश ) के रहनेवाले ये। कहते हैं, श्राप 
नवनिषिजी? के शिष्य थे और बावा कीनाराम आपके शिष्य थे । * झापने “मंगल गीत? 
नामक पुस्तक लिखी थी । श्राप एक जर्मींदार के दीवान थे; बैठे-बैठे बद्दी-लाता लिख 
रहे थे। एकाएक आपके मन में श्ञान का उदय हुआ । बाबा नवनिधिदास के समान 
जाप भी यह कहते हुए घर से निकल पड़े-- 
“पलिखनी अब ना करबि दे भाई। 
मोहि राम नास सुधि आईं” 
श्राप बहुत बड़े सिद्व पुरुष माने जाते हैं * | आपकी एक रचना मुझे “सूरत रंग! * 
नामक पुस्तक में मिली है, जो नीचे दी जाती है-- 
घलु सख खोजि लाई निज सहयाँ॥ 
पिया रहके अबहीं साथ में ऊ छोढ़ि गइके कपन ठट्याँ ४। 
घेत्ता से पूछों चमेज्ली से पूछों में पुछू बन बन कोहयोँ १ || 
ताल से पूछो तलइया से पूछों, पूछ' में पोखरा ९ कु'इयाँ » | 
सिवनारायन सख्री पिया नहीं भेटें हरि केले मन जदुरइमा ||१॥ 





बाबा रामायण दास 


आपका ग्रहस्थ-जीवन का नाम पंडित संसारनाथ पाठक था*। आपका जन्म-संबत्‌ 
१६०७ वि० के अगइन में हुआ था। आप भारद्वाज गोनीय कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। 
आपके पूर्व-पुरुष बलिया जिले के 'मुरारपाहदीः ग्राम में रहते थे | पर, लगभग दस-बारह 
पुश्त से आपके पूर्वज शाहाबाद जिले के 'बढ़का हुमरा? नामक गाँव में रहते आ्ाये हैं | 
आपका जन्म भी उसी गाँव में हुश्रा । 

आपके पिता पं० काशीनाथ पाठक आरा की फौजदारी कचहरी में नाजिर ये। श्राप 
छुद्द भाई ये। बाल्यावस्था में ही आपके पिता का देहान्त हो गया। बहुत छोटी 


१, भोजपुरी के एक दूसरे शिवनारायण कवि का परिचय इसी पुस्तक में अन्यत्र प्रकाशित 
है; किन्तु जीवन-गाया, शुरु-परम्परा आदि में मिन्नता होने के कारण ये शिवनारायण णी दूसरे 


. दौ कवि जान पढ़ते हैं। हि “लेखक 
२» आपका थद्ट परिचय भुमे! बलिया के प्रसिद्ध मुख्तार और द्विन्दी के कवि श्री 'मधुर” जी 
से प्राप्त हुआ । “लेखक 


३» बैजनाथ प्रसाद बुक्सेलर, राजा दरवाजा, काशी, सन्‌ १६३१ ई० में प्रकाशित । 

४० जगह। ४० वन-कुमुदिनी । ६७ पुष्करिणी। ७, कूप। 

८» आपषाढ़ ३०६ तु० स० की मालिक 'झुधा” (लखनऊ) में श्री दामोदरसद्याय सिंह 'कवि- 
किंकर! के लेख से संकल्ित। | ““ऐेसक 


११६ भोजपुरी के कवि और काव्य 


अवध्या में आपने अपनी बुद्धि का चमत्कार दिखलाया। आपकी स्मरण-शक्ति तीक्ष्ण 
थी | आपने २५ वर्ष की अवस्था में; १६३२ विक्रमी संवत्‌ में, नौकरी की और संबत्‌ ४४ 
तक आरा, हजारीबाग इत्यादि जगहों में काम करते रहे। आप साधु-सन्‍्तों की सेवा में 
गृहस्थ-जीवन में भी लगे रहते थे। आपने संवत्‌ १६४३ में अपनी खुशी से पेंचन ली। 
छोड़ते समय आपने यह पच्च कह था -- 

झस जीय जानि छोड़ल कचहरिया। 

'क' से कास “वा से तन चिन्ता “ह? से हरि नहीं आधे नजरिया । 

“ही! से रिस्र* बिन कारन देखल यहि लागि मैं माँगले भगरियाँ २ | 





देवीदास 


आप सम्त-कवि ये। आप दुष्लह दास और जगजीवन दास के सम्प्रदाय के ही कवि ये 
और दुल्लह दास के शिष्य थे। इस हिसाब से ईंसवी सदी १६ वीं का प्रारंम आपका 
समय कहा जाता है। 
१ 
घन सुसंगल घरिया आज्ञु मोरा धन सुमंगल घरिया। 
शाज्ञु मोरा अइले संत पहुनचा का ले करबि नेवतरिया 3 ॥ 
झन, धन, तन लेइ अरपन करबो, मातल प्रेम लहरिया | 
आज. मोरा धन सुमंगल घरिया ॥ 
देबीदास बरन लिखि पठवों सब रंग लाली चुनरिया। 
हुलभ दास गोसाई जगजीवन मातेले प्रेम लहरिया ॥ 
आह्ु सोरा धनि खसुमंगल घरिया। 
आज मेरी यह संगत्लमय घढ़ी धन्य है। आज मेरे यहाँ संत पाहुन के रूप में आये 
हैं। मैं उनका स्वागत क्या लेकर करूँगा ! मैं अ्रन्न, धन, तन, अपंण करके और प्रेम 
की लह्टर में मस्त होकर स्वागत करूँगा। देवीदास कहते हैं कि अक्छर ( प्रेम-पत्र ) 
लिखकर प्रीतम के पास भेजू गा कि मेरी श्रात्मा पूर्ण अनुरक्त हो गई है | दुल्लह दास और 
जगजावन दास से दीज्ञा प्राप्त करक मैं ईश्वर-प्रेम की लहर म उन्मत्त हो उठा हैँ | 





सुबचन दासी 


झापकी गणना संत-कवयित्रियों में है। आप बलिया जिलान्तर्गत डेहना-निवासी मुंशी 
दलसिगार लाल की पुत्री थीं और संबत्‌ १६२८ में पैदा हुईं थीं। इतनी भोली-माली 
थी कि बचपन में आपको लोग 'बठरहिनिया? कहते थे | १४ वर्ष की अ्रवस्था में आपका 
विवाह बलिया-निवासी म्रुशी युगलकिशोरलाल से हुआ | वे सरकारी नौकर थे | 


१ क्रोध। २० भागने की छुट्टी । ३. पहुनाई, स्वागत । 


राम सदारी ११७ 


आप तपस्विनी थीं। लगभग २० वर्ष की अवस्था में आपने हीरादात नामक एक 
नानकपंथी साधु से दीक्षा ली। तभी से आपका मन संसार से विरक्त हो गया। गरहस्थाअम 
में रहते हुए भी श्राप योग की क्रियाश्रों में प्रवृत्त रहने लगीं । 

संबत्‌ १६८६ वि० में आप स्थायी रूप से बालापुर (गाजीपुर) में निवास करती थीं । 
साधु-सस्तों में पूर्ण प्रेम रखती थीं | 

आपके मजनों का संग्रह 'प्रेम-तरंगिनी” नाम से पाँच भागों में प्रकाशित है। अपपकी 
रचनाओं में शब्द-ज्ालित्य नहीं है; किन्तु माव अच्छे हैं। सोहर, लावनी, जेंतसार आदि 
गीतों में आपने अपने अनुभवों को आध्यात्मिक ढंग से प्रकाशित करने का प्रयत्न 
किया है १। 


तन छुनरी के दाग छोड़ाऊ धोषिया ॥ टेक ॥ 

लख चौरासी धूमित घुनरिया, अबकी दाग छोड़ाऊ धोबिया॥ 
सत गुरु कुंडियाई में सडनन3 होई प्रेम-सिल्ा४ पटकाऊ धोबिया ॥ 
सान्ति-सरोवर जत्ञ में धोवा दे नाम के साबुन झगाऊ धोबिया।॥ 
तनसव धन ह5 छाक" घोबिया के स्वेत घुनरिया पेन्द्राऊ धोबिया ॥ 
धघुवचन दासी? चुनर पेन्हि बइठज्की हरि लेलीं गोद लगाय घोषिया ॥१॥ 


तन-रूपी चुनरी का दाग ( पाप ) हें घोबी (पाप धोनेवाल्े परमात्मा ) | चौरासी 
लाख योनियों में भ्रमण करते-क़रते यह शरीर-रूपी चुनरी धूमित्न हो गई है। दे धोबी, 
इस बार इंसका दाग छोड़ा दो । सतगुरु-रूपी कूंडी में इस शरीर-रूपी कपड़े को धोने 
के जिए मिगो कर और प्रेम-रूपी पाट पर पटक कर साफ कर, तब इस शरीर-रूपी 
कपड़े को शान्ति-सरोवर में नाम-जप-रूपी साबुन लगाकर धो दो | उसके लिए भेरा 
तन, मन, घन निछावर है । निष्कलंक शरीर-रूपी श्वेत चुनरी मुझे पहनाओ | सुवचन दासी 
जब ऐसी चुनरी पहन कर बैठी, तब हरि ने उसे गोद में बिठा लिया । 





राम मदारी 
आप शाहाबाद जिल्ले के कवि थे। आपके जन्म-स्थान का ठीक पता नहीं चला | 
आ्ापके गीत शाहाबाद में गाये जाते हैं| आपका समय १६ वीं सदी का मध्यकाल है। 
आह साइब ने अपने भोजपुरी-न्‍्याकरण में श्रापका निम्नलिखित जेंतसार गीत उदूत 
किया है...- 
पिया बटिया जोहत दिन गैलों । 
तोरि खबरिया न पाइलों ॥ 


१ बलिया के कंवि और लेखक” नामक पुस्तक के आधार पर। २ धोबी का नाद, 
जिसमें गन्दे कपड़े सजी में गोते जाते हैं। ३. शराबोर करना। ४० धोबी का पाठ । ५७ घोबी 
को दिया जानेवालां कलेवा। 


बट भोजपुरी के कवि और कान्य 


केसिया अपने. गुधाइला | 
सेंगिये.. सेन्दुरा भराइला। 
पिया के सुरतिया लाइला। 
जियया हमार रुँघेला॥ 
सैन नीरवा ढरिः. सौैलोंहभ॥ 
बारहना के बेटा बोलाइला ॥ 
पोधिया एकर खोलाइला ॥ 
साँचे.. सुन सुवाइला। 
पिया. चइखे. आाइलागए 
जोबन  हसार बडे भैल शा 
तौझआ के छोकड़ा बोलाइला। 
पुरुष देसवा. पठाइल्ा ॥ 
डत्तर भइके . श्रावेल्ा। 
दुखिन सु लगवलों।॥ 
पच्छिमस घरे घरे हूँढलों ॥शा। 
गुरु. हुकुम सनाइका | 
सघाजव घरवा आइला। 
खुब खुब भोज बनाइला। 
लाजबव के जिबाइला ॥ 
रास सदारी गाइला। 
लोगवन के सुनाइला।॥॥ 
दुसमन सार ऊरि गैलो शाशा 
अरे प्रीतम, तुम्हारी वाट जोहते-जोइते दिन वीतता जा रह्दा है; परन्तु तुम्हारी खबर 
कुछ नहीं मिन्न रही है। मैं अपना केश गुथाती हूँ. और माँग में सिन्दूर भराती हूँ | 
ठुम्हारी सुरति मन में आती है। उससे हृदय मेरा बिंध जाता है और नेत्रों से आँस 
गिर पढ़ते हैं ॥१॥ 
न्ाह्मण के पुत्र को बुलाती हूँ। उससे पोथी खुलवा कर तुम्हारे श्रागमन का सगुन 
निकलवाती हूँ। बह सच्चा-सच्चा सगुन सुना देता है | दे पिया, ठुम नहीं आते हो। यहाँ 
सेरी जवानी आ गई । ॥२॥ | 
मैं नापित-पुत्र को बुलाती हूँ। उसे तुम्हें हँढ़ने के लिए पूर्व-देश मेजती हूँ वह 
पूर्व में खोजकर उत्तर देश भी होता हुआ लौट आता है। तब दक्षिण देश में छुरति 
(वान) लगती है | पश्चिम का तो घर-घर हं ढ़ दी डाला ॥॥ 
गुरु के हुक्म को सानती हूँ | साजन घर आते ईं | मैं बढ़िया मोजन बनाती हूँ और 
तुमको जेंवाती हूँ । 'राम मदारी” गात गाते हैं और लोगों को सुनाते हैं | मेरे इस सौमाग्य 
को देखकर दुश्मन सारे ( साला) मर रहे हैं ॥४॥ 


सरंभंग-सर््रदाय के कवि 4१६ 


सरमंग-सम्प्रदाथ के कवि 
उत्तर-बिहार के चम्पारन बिले में 'सरभंग” नामक एक तांतब्रिक सम्प्रदाय है। इस 
सम्प्रदाय के अनुयायी श्रम॒क्ष्य बस्तुओों का भी भक्षण करते हैं । बनारस बिल्ले में भी इस 
सम्प्रदाय के मठ हैं। इस सम्प्रदाय में अनेक सन्त-कवि हो गये हैं, जिन्होंने अनेक 
रचनाएँ मोजपुरी में की हैं | चम्पारन के लोक-साहित्य-मर्मश विद्वान्‌ पं० गणेश चौबे * 
का कहना है कि इन कवियों के असंख्य गीत लोक-कणठ में आज भी बसे हुए हैं। नीचे 
सरभंगी कवियों का परिचय दिया जा रहा है--- 


१--मीखम राम 
भीखम राम आम माधोपुर (थाना मोतिहारी, जिला चम्पारन ) के निवासी ये। 
आप टेकमन राम कवि के शुरु ये । आपके समय का ठीक श्रन्दाज नहीं लग सका है | 
कविताएँ मी अधिक न मिल सकी | श्रापका एक पद्‌ यहाँ दिया जाता है-- 
ह हंसा करना नेवास, अमरपुर में। 
 शले ना चरखा, बोले ना ताँती 
अमर चीर पेन्दे बहु भाँती ॥हंसा०॥ 
गयन ना गरजे, छुए ना पाती 
इास्ृत जलवा सहज भरि आनी ॥ंपता०॥ 
झुख नाहीं ज्ञागे, ना लागे पियासा; 
झस्त भोजन करे सुख बासा। हंसा० 
नाथ भीखम शुरू सबद बिबरेका। 
जो नर जपे सतगुरु उपदेसा ॥हंसा०॥ 
है हंस (जीव), ठुम अमरपुर ( परमधाम ) में निवास क्‍यों नहीं करते ! वहाँ ( जीवन 
का ) चरखा नहीं चलता और घुनक ( मृत्यु ) की ताँत नहीं बोलती है। वहाँ तो सभी 
अमरता के चीर अ्नेकानेक तरह के धारण किये रहते हैं | हे हंस, उस अ्रमरदुर में 
आकाश का गजन तथा मेघ, की वर्षा नहीं होती | वद्दाँ अमृत का जल सहज ह्टी भरकर 
लाया जाता है। झरे हंस, वहाँ तो भूख नहीं लगती और न प्यास सताती है। वहाँ दिन- 
रात श्रम्ृत का भोजन किया करो श्रौर सुख-सम्पन्न निवास में रहा करो। भीखमराम 
शक कि गुरु का शब्द ही विवेक है। जो उसको जपता है, वही सतगुर का उपदेश 
ताहै। 
२-- टेक्मन राम 
आप भीखम राम के शिव्य थे। समय का श्रन्दाज या रचनाओं का पता नहीं लगा 
है। झाप झखरा ग्राम ( थाना मोतिह्ारी, चम्पारन ) के निवासी ये ] श्राप इस सम्प्रदाय 
के प्रमुख कवि ये। आपकी प्राप्त रचनाएँ नीचे दी जाती हैं <.. 


१, पँ० गणेश चौबे की सहायता से झुमे सरभंग-सम्प्रदाय के अनेक कवियों की जौवनियाँ 
और रचनाएँ मिली हैं |-««ज्ञेखक 


२७ भोजपुरी के कवि और कोरब्य 


(१) 
समधिन ! भल्रे हो भले, बिअहल बादू की कुआँर। सम० | 
माता होई तुहु जग प्रतिपललू, भले हो भल्े० । 
जोहया * होइ धन खालू । समधिन | ० 
केकई होई दुसरथ के ठगलू, भत्ते हो भल्लें० 
रामजी के देलू बनबास। समधिन [० 
सीता होई रवनवों के ठगलू , भले हो भल्ते० 
लंका गढ़ कहलू उजार, समधिन [० 
सिरी टेकमन राम निरगुन गावेले, भले दो भ्ते० 
राम सीखस  संगे साथ | समधिन० | 
हे समधिन, (माया) तुम बड़ी नेक हो। यह तो बताओ, तुम ब्याही हो भ्रथवा अभी 
क्वाँरी हो | माता बनकर तो ठुम जगत्‌ का प्रतिपालन करती हो और पत्नी बनकर 
घन खाती हो | कैकेयी बनकर तो तुमने दशरथ को ठगा और शमजी को वनवास दिया | 
फिर सीता बनकर तुमने रावण को ठगा और लंका के गढ़ का सत्यानाश किया | 
भी ठेकमन राम कहते हैं कि में भीखमराम के संग निगु ण गाता हूँ। कवि ने समधिन का 
अथथ माया माना हे । 
(१) 
संत से अन्तर ना हो नारद्‌ जी | सन्त से अन्तर ना० | 
भजन करे से बेटा हसारा भ्यान पढ़े से नाती । 
रहनी रहे से गुरू हमारा, हम रहनी के साथी। 
संत्र जेवेके तबही में जेइले' संत सोए हम जागी। 
जिन भोरा संत के निन्‍्दा कइले ताही काल होइ लागी 
किस्तनिया से बीस रहीले नेहुआ से हम तीस । 
भजनानंद का दहिरदा में रहिले सत का घर शीश 
संतन मोरा अदुल सरीरा हम संतन के जीव। 
सब संतन से दस री रहीले जइसे मखन*के घीव | 
क्री टेकसन महराज भीखम स्वामी जइसे सखन के घीव ॥ हे 
भगवाद्‌ देवषि नारद से कह रहे हैं | हे नारद | सम्त सेन्मेरा कोई अन्तर (मेद) नहीं 
है। जो मेरा भजन करता है, वह मेरा पुत्र हे और जो शान पढ़ता है, वह पौत्र (अत्यन्त 
प्यार) है। हे नारद, जो रहन ( अच्छी चाल-चलन ) से रहता (सदाचारी) है, वह मेरा 
गुरु है। मैं सदाचार का साथी हूँ । संतों को भोजन कराकर ही मैं भोजन करता हूँ और 
जब संत सोता है, तब मैं जगकर उसका पहरा देता हूँ | जो मेरे भक्त सन्‍्तों की निन्‍दा 
करते हैं, उनका मैं महाकाल हूँ। कीर्तन करनेवालो से मैं सदा बीस ( प्रसन्न ) रहता हूँ 


१६ जाया, पत्नी । 


सरभ॑ंग-सम्पदाय के कनि 4१4 


और नेह करनेवालों (भक्तों) से 'तीस? अर्थात्‌ उससे भी अधिक प्रेम करता हूँ। मैं आनन्द 
से भजन करनेवालों के हृदय में रहता हूँ। जहाँ सत्य का बोलबाला रहता है, वहाँ मैं 
सदा उपस्थित रहता हूँ। संत मेरे शरीर हैं और मैं सन्‍्तों का जीव हूँ। में सन्‍्तों से वैसा 
ही रमकर रहता हूँ जिस तरह मक्खन में घी रहता है। टेकमन कवि कहते हैं कि मैं 
और महाराज भीखम स्वामी वैसा ही मिला हुआ हूँ जैसे मक्खन का घी अश्रर्थात्‌ मैं 
उनका अनन्य भक्त हूँ। 
' क्ुक्षवा में दुगवा बचइ्ृह हे सोहागिनि ! 

दूध से दृही, दृष्टी से माखन, घीडआ घनके रहिह5 है सोद्दागिनि ! 

ऊँख से गुर, गुड़ से चीनी, मिसरी बनके रहिहड हे सोहागिनि | 

सीरी टेकृूमन राम दुयाकर सतगुरु के, जगवा से नतवा लगहृह5 दे सोहागिनि ॥ 


अरी सुहागिन, ( भक्त की आत्मा ) अपने कुल में दाग लगने से बचाना। दूध से 
दही और दही से मक्खन और मक्खन से घी बनकर रहना अर्थात्‌ दिन-दिन साधना में 
उन्नति करते जाना | अ्रपने को स्वच्छ बनाती (निखारती) जाना । अ्ररी सुहागिन, ऊख 
से गुड़ बन जाना, फिर गुढ़ से चीनी बनना और चीनी से मिश्री की तरह अपने को 
स्वच्छ बना लेना । भी टेकमन राम कहते हैं कि दे सुहागिन, सत गुरु की दया का स्मरण 
करते हुए मृत्यु से रिश्ता जोड़ना | 
॥ बिना भजन भगवान राम बिल्लु के तरिंदें भवसागर। 
पुरहन पात रहे जत्ल॒ भीतर _करत पसारा हो। 
बुन्द परे जापर ठहरत नाहीं ढरकि जात जइसे पारा हो । 
तिरिया एक रहे पतिबरता पतिबचन नहीं ठाश हो। 
आपू तरे पति को बारे तारे कुत्न परिवारा हो। 
घुरमा एक रहे रन भीतर पिछा पण्मु ना धारा हो। 
जाके सुरतिआ हव लड़ने में, प्रेस्त मगन ललकारा हो। 
लोभ मोह के नदी यहत था लछ चौरासी धारा हो। 
सीरी टेकमन महराज भीखम सामी कोई उतरे संत सुजाना हो । 


विना राम-भजन की सहायता के, इस मव-सागर को कौन तर सकता है ! यद्यपि 
पुरइन का पन्न जल में फैंता रहता है तथापि उसपर जब जल की बूंद पढ़ती है तब 
पारे की तरह ढरक कर गिर जाती है। ( उसी तरह से रे मन | अपनेको तुम इस संसार 
में निलित रखो । ) एक र््री जो पतित्रता होती है और अपने पति के बचन को नहीं 
टालती, वह स्वयं तो तर ही जाती है पति को भी तारती है और कुलपरिवार को भी तार 
देती है| (अरे मन, तुम भी वैसा ही हरिभजन में लवलीन हो जाओ) | रण में एक सूरमा 
होता है जो पीछे पय नहीं रखता और जिसका सारा ध्यान लड़ने के लिए प्रेम-मर्न होकर 
ललकारता रहता है। (भरे मन, तू भी उठी रण-बाँकुरे की तरह मगवद्‌-भजन में लगा 
रह ) | इस संसार में ज्ञोम और मोह की नदी बह रही है। चौरासी लक्षु योनियों की 


११३ भोजपुरी के कबि और काव्य 


धारा उस लोम-मोह की नदी में प्रवाहित हो रही है। महाराज मीखंम स्वामी के शिष्य 
भी ठेकमन कहते हैं कि विरला$ही कोई सुजान (शानी) उस नदी को पार्दुकरता है । 





३--स्वामी मिनक रामजी 


संत कवि मिनक रामजी चम्पारन जिले के ये। आपका जन्म-समय, स्थान, रचना- 
काल आदि ज्ञात नहीं हैं। " कुछ रचनाओं के उदाहरण -« 


१ 
आगि लागे बनवा रे ) परबतवा, 
मोरे कखे हो साजन "रे नइहरवा। 
आव5 झावड बसना बहढु भोरा अँगना, 
सोचि देहु ना मोरा गुरु के अवनवा |] 
जिन्हि सोचिहं मोरा गुरु के अवनवा, - 
तिन्‍्हे देवों ना साजन ग्यान के रतनवा ॥ 
नेता भरि कजरा लिलार भरि सेनुरा, 
मोरा लेखे सतगुरु भइल्ने निरमोहिया ॥ 
सिरी भिनक राम स्वामी गावले निरगुनवा, 
धाइ धरवों दो ब्साधु ल्लोग के 'सरनवा॥ 
वन में आग लगी हुई है, पव॑त जल रहा है| (संसार में वासनाओं की आग ज्ञगी है 
और बड़े-बड़े घीर पुरुष जल रहे हैं । ) परन्तु हे साजन, मेरे लिए तो मानों मेरा मायक्रा 
(शान-धाम) ही जल रहा है। हे ब्राह्मण देव, आओ, इधर आओ, मेरे आँगन में टुक 
बैठ जाओ | मेरे गुर कब श्रावेंगे, इसको सोचकर जरा बतल्ा दो । अरे | जो मेरे गुरु की 
आगमन-तिथि को बतायेगा, उसको मैं श्ञान-रूपी रत्न प्रदान करूँगा। नेत्रभर काजल 
श्ौर माँग भर सिन्दूर रहते भी मेरे लिए मेरे सतगुरु निर्मोंही बन गये। वे मेरी सुधि ही 
नहीं लेते। भी भिनक राम स्वामी निर्गुण गाते हैं और कहते हैं कि मैं दौड़कर साधु 
लोगों की शरण पकड़ गा । 
(२) 
केऊ था जाइ संग साथी बन्दे | केऊ ना० ॥ 
जइसे सती एँसकर बन्दे! ऊ काया जत्न जाती । 
दिन चार राम के भजिले बान्ह का से जद्॒ब5 गॉँढी ॥ 
भाई-भतीजा हिलमिल के बहठे चोही बेटा चोही नाती। 
अत काल द काम ना अ्र॒इृहें सम्ल॒कि सप्ुक्ति फाटी छाती ॥ 
जम्हुराजा के पेश्रादा जब अइले आई रोके घँट-छाती | 
प्राण निकल बाहर हो गइले तन मिल गैले भाँटी ॥ 


१ काशी के देनिक “आज! में प्रकाशित चम्पारन-निवासी पं० गणेश चौबे के लेख से । 


सरभंग-शम्प्रदाप के कवि १९६ 
खाइक पीश्रक्न भोग घिलासल ई न जात संघ साथी । 
लिरी भिनकरास दया सतगुरु के सतगुरु कहते साँची ॥ 
अरे बन्दे (सेवक), त॒म्दारे साथ कोई नहीं जायगा | जिस तरह सती हँस कर (पति के 
शव के साथ) चली जाती है और काया जला देती है, वैसे दी तुम भी हँस कर राम का 
भजन कर ले। संसार से चलते समय तू गाँठ बाँध कर कया छो जायेगा भाई-भतीना, 
सब हिल-मित्न कर तुम्दारे साथ बैठेंगे | कोई श्रपने को बेटा कहदेगा आर कोई नाती 
बतायेगा। परन्तु, अन्त काल में कोई काम नहीं आयेगा | तव इसकी समक-समझक कर 
तुम्हारी छाती पश्चात्ाप की वेदना से फटने लगेगी | जब यमराज का प्यादा झाया, 
और तुम्हारे कंठ और छाती को अवरुद्ध कर दिया तब तुम्हारा प्राय निकल कर 
बाहर हो गया और शरीर मिट्टी से मिल गया" श्री मिनक राम कहते हैं कि गुर ने कहा 
था (कि गुद्ध की दया ही सब-कुछ है), वह सत्य निकला | 
( ३) 
पिञवा मिंलन कठिनाई रे सखतिया । 
पिश्नवा मित्लन के चलती/सोहागिनि धइले जोगिनीया के:मेसचा हो | 
रहती रॉइ . भइली पूहवाती सेचुरा ललित सोहाई॥ 
एह दुलहा के रूप ना देखल हुलदिन चलत लजाई। 
घिरी मिनके राम दया सतगुरु के चरण चित लाई॥ 
न्रिकुटी घाट बाट ना सूमझे मोरा छुते चढल भा जाई॥ 
अरी सखि | प्रियतम से मिलने में बड़ी कठिनाई है। देखो न जोगिन“का वेश धारण 
करके सुहागिन पिया से मिलने के लिए चली | पहले यह वहाँ राँढ़ थी, परन्तु अब एड्वाती 
(सधवा) हो गई है। उसके माये पर सिन्दूर कितना सुन्दर मालूम होता है। अभी उसने 
इस दुलहे का रूप नहीं देखा है, इससे वह लजा-लजा कर चल रही;है। थी मिनक राम 
कहते हैं कि सतगुर की दया से मैं उनके चरणों में चित्त लगा पाया हूँ | अब इस भिक्कुटी 
रूपी धाट पर पहुँचकर बाट नहीं सकती । हे गुद ! मुझे अपने बल से इस घाट पर चढ़ां 
नहीं जायगा ? दया करो कि चढ़ जाऊ । 
(४) 
बटिया जोहते दिन रतिया बीती गदलके। 
राम सुरतिया देखि के ना सतगुरु नेनवा ल्लोभवत्े। 
तेजल्वीं नहृहर लछ्ठु लोगवा सासुर राम जोगिनिया बन के ना । 
कही अपना साधु के संघतवा। 
घिरी मिनक रास स्वामी गावले निरशुनिया | 
राम दरदिया भइले हो सतगुरु रठरा भेहुना कहरीया। 
विरदी भक्त विरह से व्याकुल हो प्रभु से अपना सन्देश सुना रहा है। सीधी-सादी 
बातें हैं। सहज रूप से जो भावना उठती है, उसी को वह विना किसी आडम्बर के प्रभु के 
सामने रख देता है | कहता है--हे प्रभु, वाट जोहते-जोइते रात-दिन दोनों व्यतीत दो गये; 


बदढ सॉजपुरी के कवि और कार्म्य 


पर तुम नहीं आये | हे राम, तुम्दारी मूत्ति को दिखा कर सत गुर जी ने मेरे नेत्रों को लुभा 
लिया । मैं ससुराज्ञ जाने के लिए जोगिन का वेश बनाया और अपने मायके के लक्ष-लक्ष 
लोगों का परित्याग कर दिया | साधुओं की संगति की। परन्तु दे प्रभु, रात-दिन (यानी 
जवानी और बुढ़ापा ) दोनों व्यतीत हो गये और तुम अब तक नहीं आये | श्री मिनक राम 
स्वामी निर्गण गाते हैं और कहते हैं कि विरहिणी कहती है कि भेरे हृदय में असझ्य वेदना 
हो रही है; हे सतगुद ! आप पालकी-कहार भेज दें कि मैं जहद चली आऊ | दे नाथ 
बाट जोहते-ही-जोहते रात-दिन दोनों व्यतीत हो गये । 





डेषर बाबा 
आप घम्पारन जिले के संत-कवि ये। आपका समय श्षववीं सदी का प्रारंभ या 
श्् वीं का अन्त साना जाता है। आपको एक रचना" नीचे दी जाती है। झाप कबीर- 
पंथी सम्प्रदाय के थे । 
देखलीं में ए सजनिया सहयाँ अनमोल के। 
दुपघ्तो दुअरिया, छागे केबढ़िया मारे सबद का जोर से 
सूत भवन में पिया निरेखो नयनवा दुनू जोर के। 
छत्तर निज पति मिल्षक््5 भरे कोर के ॥ 
अरी सजनी, मैंने अपने अनमोल सैयाँ को देख लिया | दसो दरवाजों में किवाड़ 
लगे हुए ईैं। उनपर अनहद शब्द के धक्के जोरों से पड़ रहे हैं। सूने मवन में अपने 
सैयाँ को, ध्यानमग्म हो, जी-मर देखा | “छत्तरः कहते हैं कि श्रह्म | मेरा पति भेरी गोद में 
भरपूर मिला, श्र्थात्‌ मैंने अपने पति का जी-भर के आलिंगन किया । 





श्री जोगेधर॑ दास 'परमहंस 

. झ्रापका जन्म-स्थान चम्पारन जिल्ले के 'मधुवन? थाने का 'शरूपवलिया मठ? है 
आपकी रचनाएँ बहुत प्रौद़ और सुन्दर होती थीं। कद्दा जाता है कि आपने एक इजार 
पदों की रचना की थी। आप १६वीं सदी के अन्त में हुए। चम्पार्न में आप परमहंस 
जोगेश्वर दास के नास से विख्यात हैं। 

हृट्ल पचरंगी पिंजरवा हो, सुगना ऊदत् जाय। 

सुगनू रहते पिंजरववा हो, सोभा बरनि मे ज्ञाय ॥ 

उद्त पिंजरवा खाली हो, सब देखि के छेराय॥ $ || दृतटत्न० ॥ 

दुसो दरवजवा जकरिया हो, छगके रह जाय।| 

कबन हुआर होइ भगले हो, तनिको ना बुकाय ॥ २ ॥ दृटल्ष० ॥ 

लभीनी भले निरदृइया हो, अवघट तले जाय। 

सारा रचि धरत पिंजरवा हो, ओ में अग्रिनी ज्ञगाय || ३ || हृटल० ॥ 


१ चम्पारनन्‍निदासी प॑० गणेश चौबे से प्राप्त ।--ले० 


कसोदांस की १२५ 


सिरी जोगेसर दास काया पिंजरा हो, नित चत्नत्त क्गाय | 
सेहु परले मरभघटिया हो, भो में अगिन धहकाय ॥ ४ ॥ दूटल» ॥ 
शरीर की क्षणमभंगुरता का वर्णन करते हुए कवि कहता है- अरे, पंचरंगी ( पाँच 

तत्तवाल्ा ) पिजरा (शरीर ) टूट गया। उससे निकलकर सुग्गा ( जीव ) भागा जा 
रहा है। जब सुग्गा, पिंजरे में रहता था तब शोभा का वर्णन नहीं किया जा सकता था; 
किन्तु उसके उड़ते ही पिजरां खाली हो गया और सब लोग उसे देखकर डरते हैं। 
दसो दरवाजों में जंजीर लगी ही रह गई। कहीं खुला नहीं। किस द्वार से होकर सुग्गा 
उड़ गया, यह शात नहीं हो सका | अरे, सभी हित-मित्र निदेय बन गये | उस पिजरे को 
उठाकर वे श्मशान-भूमि की ओर ले चत्ने। वहाँ सारा ( चिता ) को रच-रचकर लोगों 
ने बनाया और फिर उसमें आग लगा दी। भी जोगेश्वर दास कहते हैं कि मैं भी 
अपनी जिस काया-रूपी पिजरे को नित्य धारण किये फिर रहा था, वह झाज मरघटिया 
( श्मशान-भूमि ) में पढ़ा हुआ है और उसमें अभि घधक रही है | इसमें मरण-काल का 
भयानक दृश्य चित्रित है, जिससे विराग उमस्न्न होंता है। 





केसोदास जी 


केसोदास सन्तें-कवि ये | आप चम्पारन जिले के मोतिहारी थाने के 'परिडतंपुरः म॑ 
के निधासी ये। आपका मठ बेलवनिया ग्राम ( थाना मोतिहारी ) में है। आप 
कबीरपंथी साधु थे.। पूर्वोक्त छत्तररामनो कवि आपके गुर थे। आपकी मृत्यु क्षगमभग 
४० वर्ष पहले हुई होगी। आपका जन्म-काल १८४० ६० के लगभग माना जाता है। 
आपके पद बुन्दर और गग्भीरतापूर्य होते थे । 
(१) 
भावे नाहीं मोहि भवनवाँ। 
हो रामा, बिदेख गवनवाँ॥१॥ 
जो एद् मास निरास मित्षन सैले । 
घुन्दर प्रान गवनवाँ ॥श॥। 
केसो दास गावे निरगुनवाँ 
ठाढ़ि गोरी करें गुनवनवाँ १ ॥श। ; 
अरे, मुझे भवन नहीं भाता । मेरे प्रीतम का विदेश-गमन हुआ है । जो इंश मास में 
भी निराशा ही से मिलन हुआ ( आशा-पूर्ति नहीं हुई ), तो निश्चय ये सुन्दर प्राय 
३० । केसोदास निरगुन गा रदे हैं और गोरी खड़ी-खड़ी गुनावन ( सोच ) 
कर रही है । 


4. प्रियसेन साइब ने इस गीत को अँगरेजी-पश्निका में प्रकाशित किया था। 


“4३६ भोजपुरी के कवि और कार्थ्य 
(२) 
झाजु मोरा गुरु के अवनवाँ। 
जब में सुनलों गुरु के अवनवाँ, चंदन लिपक्ों रे अगनवाँ। 
गगन-मंडल से गुरु मोरा अइले, बाजे अनहद निसनवाँ ॥ 
घिरी पंडितपुरवा में मोरा गुरु गढ़िया उतरावेल्षा हो रामा॥ आजु मोरा०॥ 
झरे, आज मेरे गुद का आगमन है। जन मैंने अपने गुरुका आना सुना तब चन्दन 
से श्रॉँगन को ल्िपवा लिया | गगन-मंडल से मेरे गुर आये और अ्रनहृद शब्द का धौंता 
( निसनवाँ ) बजने लगा। भी परिडतपुर में गुर आज अपनी गाड़ी उतार रहे हैं, मेरे 
गुरु का आज आगमन हो रहा है। 
(३) 


सुधि कर सन बाल्ेपनवा के बतिया । ; 

दलो दिसा के गस जब नाहीं, संकट रहे दिन रतिया। 

बार बार हरि से फौल कहृद्व5, बसुधा में करबि भगतिया॥ 

बालापन बालहिं में बीततन, तरनी कइढ़के छुतिया। 

काम क्रोध दुसो इन्द्री जागल, ना सूस्से जतिया ना पतिया ॥ 

अन्त काल में समुझ्ी परिहं, जब जम घेरिहें ुअरिया | 

देवा देई सबे केड हरिंहें, फूट होइहें जड़ी-बुटिया ॥ 

केसो दास समुझ्ति के गावज्ले, हरिजी से करेले मिनितिया । 

सामबिद्ारी सबेरे चेतिहड, अन्त$ में केहूना सँघतिया ॥सुधि०॥ 

अरे मन, अपनी बाल्यावस्था की बातों ( गर्भाधान के समय ) का स्मरण करो | जब 

दसो दिशाश्रं का गम नहीं था और जब दिन-रात संकट-ही-संकट सामने था, तब तुमने 
बार-बार कौल ( प्रतिज्ञा ) किया था कि वसुघा में मैं आपकी मक्ति करूँगा | सो है मन, 
तुम्हारा बाल्मपन तो खिलवाड़ में बीत गया और जब तरुणाई आई, तब अपने शरीर के 
उभार में ही तुम भूल गये | काम, क्रोष तथा दसो इन्द्रियाँ जाग्रत हुईं' और जाँतिम्पाँति 
का विचार छोड़कर तुम पागल बन गये। अरे मन, अब अन्तकाल आया, अरब तुम्हें 
समझ पड़ेगा जब यमराज तुम्हारे घर का दरवाजा घेरेगा | श्रब देवता और देवों ( श्रर्थात्‌ 
श्रोफाई आदि ) सब हार जायेंगे और सभी जकड़ी-बूटियाँ मी बेकार सिद्ध रोंगो | केशोदास 
इसको अच्छी तरह समझ कर गा रहे हैं और हरिजो से विनय करते हैं] हे श्याम- 
बिहारी ( केसोदास का शिष्य )] सबेरे (पहले ही )से ही चेतो। श्रन्त में कोई 
तुम्हारा संगी-साथी नहीं होगा | 





तोफा राय 
तोफा राय सारन जिले के इथुआ-राज्य तथा अन्य राष्ष्यों के राज-कंषि ये। आप 
उस भाँट-बंश में उसन्न हुए थे, जि6में बहुत अच्छे कबि आपके पूर्व भी हो गये ये [| 
आपकी ख्याति छपरा जिल्ले में अच्छी थी। पुरानी पीढ़ी के लोगों से आपकी स्चनाएँ 


तोफा शाय ही 


झ्रधिकतर मिलीं। आप कुंवरतिंह के समकालीन ये | आपने 'कुँश्रर-पचासा? नामक ग्रत्थ 
भी लिखा था| जिसके बहुत-से कवित्त लोगों के कंठ से तथा कुछ लिखित मी, भुमे मिलते 
ये। 'कुंअर पचास” में हिन्दी और मोजपुरी दोनों में वीर-रस की कविताएँ हैं। आप 
बढ़े अकखड़ स्वभाव के कवि थे और आवभगत में जरा भी कमी हो जाने पर तुरन्त निन्‍दा 
की रचना सुना देते ये | श्राप आशुकवि कद्दे जाते ये। आपके सम्बन्ध की अनेकाने्क 
ऐसी घटनाएँ उस समय लोगों में प्रचल्लित थीं कि जिनको सुनकर आपकी प्रतिमा का 
पता चलता था। 'क्ुँश्ररपचासा? से आपकी कुछ भोजपुरी घनाक्षरियाँ नीचे उद्धुत 
की जाती हैं। ये बीबीगंज ( शाहबाद ) की लड़ाई के सम्बन्ध की हैं। बीबीगंजं की 
लड़ाई में कु वर सिह्ठट की विजय हुईं थी। उस छड़ाई में अ्रंगरेजी-सेना का कप्तान 
'विसेंट आयर' था। 


3) 
खतबत भइले तब हर सिंद सेना बीच , 
बीबीगंज आह आयर बागी, पर दृठत्ेनि नू। 
तोप आ बन्दूकि उगिलले लाल आगि ओबने से 
त ऐने टोंटा-हीच ही बन्दूकि छाठी बनलिनि नू॥ 
आरा आ गांगी के लड़ाई सब सोखि द्लेलसि , 
टोठा बरुदि जे दानापुर से लवक्षनि नू। 
सेनानी कुँअर व चिन्तित ना भइल रंच 
बंक करि' नेत सेना जँगल धरवत्ननि नू॥ 
बीबीगंज में कुंवर सिंह की सेना में तब खलबली मच गई जब आयर ने आकर 
बागियों पर हमला किया | उधर से तोपं और बन्दूक काल भ्राग उगलने लगीं, किन्तु इस 
तरफ कुँअर सिह को सेना में टोंटे-कारतूसों के अभाव के कारण बन्दुर्कें ब्राठी का काम 
दे रही थीं। आरा और गाँगी की लड़ाई में ही सब कारतूस, बारूद आदि समाप्त 'हो 
चुके ये | अब सिपाहियों के पास केवल कुछ तोड़ेदार देशो बन्दूक और भात्ते-बरछे लड़ाई 
के लिए बच रहे थे; परन्तु इस विषम अवस्था में भी सेनानी कुँवर विद रंचमात्र भी 
चिन्तित नहीं हुए और नेप्रों का इशारा करके सेना को पास के जंगल में ले गये | 


(९) 

एुक एक पेड़ पीष्ठे एक एक थीर ज्वान 
नेजा संगीन खाँड़ा गदि छिप बहतठत् नू।. 
दक्न-दृक्ष गोली चक्षे धाद-घांइ घहरे तोप 
सु पानी पढ़ि मेघ घदरि क्ोका लडकत नू ॥ 
भैज्त घमासान फिरंगां सेना आगे बढ़लि 
मार संगीन घुरु होखल् नेजा चमकल्ल नू। 
बनि आइल रंग तब बीर कुंअर गरजल जब 
बिजली अस तरुआरि चमचमाह लरजत् नू ॥ 


१४८ भोजपुरी के कवि झौर कान्य 


,- सेना के जंगल में पहुँच जाने पर एक-एक पेड़ के पीछे एक-एक जवान वीर नेजा- 
संगीन, खाँढ़ा आदि शर्ों फे साथ छिपकर बैठ गये। उधर ( अ्रंगरेजी-सेना) से गोलियाँ 
दन-दून चल रही थीं ध्चौर धाय-घाय करके तोपँ घहर रही थीं। इधर श्राकाश से भमा- 
सम पानी बरस रहा था| सेष घद्दर रहे थे और बिजली चमक रही थी। पमासान युद्ध 
होने लगा और धीरे-धीरे फिरंगी सेना आ्रागे बढ़ने लगी | संगीन की मार शुरू हो गई 
और भाले-बरछे चमकने लगे। युद्ध में उठ समय रंग आ गया; जब वीर कुंवर हिंद ने 
( घोड़े पर से ) गरजना शुरू किया और उनकी तलवार बिजलौ-सी चमचमाती हुई 
फिरंगियों की गरदन पर छुकने लगी। रो 


(१) 
खप्प करिअसि घुसे जोथि गिरे भूमि थप्प 
गोरा सिक्‍्ख कटत देखि आयर दृदलल नू। 
भूसल बाघ अस बीर भोजपुरी दल 
पड़ल लत्॒कारत हर बम्म बस्स कद्दल नू॥ 
दैवता देखे ल्ागल जोगिनी भरस्ते ज्ञागलि। 
गोरन के रक्त लाल पीके पेट भरत नू । 
ऊपर अकास गजें नीचे बीर कुँआर ग्जें 
शोरा फिरंग संग पावस होली खेल्ल नू ॥ 
तलदारें खप्प-खप्प करके फिरंगियों के शरीर में घुसने लगीं और थप्प-थप्प करके 
उनके लोथ ( शव ) एक-पर-एक गिरने ल्गे। इस तरह गोरों और तिवखों को कब्ते 
देखकर अगरेज-सेना के सेनानी अयर का दिल दल उठा | इसी समय भूखे बाष की 
तरह बीर भोजपुरी दल ने लज्ञकारते हुए तथा 'हर-हर बम-बस” कहते हुए दुगुने जोश से 
युद्ध शुरू किया। इस हश्य को आकाश में देवता विमानों पर बैठकर देखने लगे 
और जोगिनियाँ गोरों के लाल-लाल गरम-गरम रक्त को दौड़-दौड़कर पीने लगीं तथा 
इतना पी चुकीं कि उनके पेट भरकर फटने-फ़टने को हो गये। ऊपर से आकाश गरज 
रह्य था; नीचे वीर कुंबर सिंह गरन रहा; था और फिरंगियों फे साथ पावत में रक्त की 
होली खेल रहा था | 
(४) 


सपाखप छूरी चललि छुपाठुप मूढ़ी कदकी 
टहकते घोनित के नदी धार बहलि नू। 
घसकल्न उज्जैनी नेजा तीखा दुधारी तेगा। 
चीर॒घिरोसनि कुँअर सेना त्त्षकारल नू ॥ 
इन्द्र डरे भागि गैल जमराज दौड़ि आइज 
खसप्पर ले टादिनी नाथवे नाच रागलि नू। 
मूमत कुँअर बाका वैसे रन यीव जैसे 
फोपित सिंह दृद्दाइत हाथी दुल्त पहला न ॥ 


तोफा शबय १५६ 


खपाखप छुरियाँ चलने लगीं और छुप-छुप मस्तक घड़ से अतग होने लगे। ठहकते 
( चमचमाता हुआ ताजा-ताजा ) शोणित की नदी तेज धारा के साथ बहने लगी। 
ज़ज्जैन-राजपूती बरछे तथा दुघारे तेगे चमकने लगे और वीर--शिरोमाण कुबर सिह 
अपनी सेना को ललकारने लगे | ऐसा भौषण युद्ध हुआ कि इन्द्र डर के मारे भाग गये 
( अ्रथांत्‌ वर्षा बन्द हो गई )। और, यमराज के दूतों से जब इतनी जल्दी-जल्दी मरते हुए 
फ्रिंगियों के प्राण नहीं निकल्न सके तो स्वयं यमराज को दौड़कर आना पड़ा | ( जब 
जोगिनियाँ रक्त पी-पीकर अघा गई और अधिक रक्त नहीं पी सकीं तब ) डाकिनियों का 
जया दल खंप्यर ले-लेकर दौड़ पढ़ा ओर नाच-नाचकर रक्त पीने लगा। इस महाघोर 
संग्राम के बीच में बाँका मरदाना कुंवर ठीक उसी तरह से भ्रूम रह था जित तरह हाथियों 
के दल में क्रोधी विंह दहाड़ता हुआ प्रवेश करके कूमता है । 
(५) 

दारत देखलसि जो झआयर चाल्ाक घब 

पीछे से घुमा के हुतरफी वार केल्नसि नू। 

जंगल के वूनो ओर जंग झुझार छिड़ल 

वीर सेनानी दूनों हाथ लोहा फ़ेकल्नसि नू॥ 

गजरा मुरई भ्रस कटे ज्ञागल गोरा सिक्‍्ख 

ल्ोथि प लोथि गिर ढेरि काटि कैलसि नू। 

द्वार फिरंगें होहत गोला ना प्दाय होइत 

झगर हरकिसुन दगा झुँअर से ना करिंतस नू ॥ 

इस भीषण युद्ध में जब चालाक आयर ने अपनी सेना को हारते देखा, तब उसने 

अपनी रिजव॑ सेना को जंगल की दूसरी ओर घुमाकर कुँवर सिंह पर पीछे से हमला क२ 
दिया और कुंवर सिंह को सेना पर आगे-पीछे दोनों ओर से दुतरफी वार होने लगा | इस 
प्रकार से बब जंगल के दोनों तरफ जुकारू जंग छिड़ गया, तब वीर सेनानी झुँवर ने 
दाँत से घोड़े की रास पकड़कर अपने दोनों हाथों में लोहा ( अ्रद्र, तलवार, भाला ) ग्रहण 
करके वार करना शुरू किया | गाजर और मूली की तरह गोरों और णिक्खों के सर कटने 
लगे और लाश-पर-ल्ञाश गिरने लगी। कुवर ने सर काट-काट कर ढेर लगा दिया। 
कवि कहता है कि इस विषम परिस्थिति में भी फिरंगियों की ह्वी हार होती। उनके ये 
भीषण गोले कुछ भी सहायक सिद्ध नहीं हो पाते, यदि दरकेसुन सिंह ने झ्ुँवर सिह से 
दगा न किया होता। 





श्री लक्ष्मीसखी जी 


लक्ष्मीसली भोजबुरी के महष्कवि ये। छपरा ( सारन ) जिल्ले के 'अमनौर? आम में 
झापका जन्म एक कायस्थ-छुल में हुआ था। आपके पित्रा का नाम मुंशी जगमोहन 


१३० भोजपुरी के कवि और काश्य 


दास था| आपकी मृत्यु संवत्‌ १६७० में मंगलवार, १८ वैशाख को हुईं थी। उस समय 
झापकी आयु ७३ वर्ष की थी। 

श्राप लड़कपन से ही विरक्त रह्दा करते ये। पढ़ें-लिखे नहीं ये । सुन्दर कैथी लिख 
लेते थे | पहले आपका नाम लक्ष्मीदास था। आपने एक ओऔघड़ साधु से प्रभावित होकर 
ओऔषड़-पंथ अहया |कया । फिर, अपने गुर के झ्राचरण को देखकर उनसे घुण्य करने लगे। 
वहीं से-भागकर टेरुश्रा ( सारन ) ग्राम में, शाज्षिग्राभी नदी के तट पर, आकर रहने 
लगे | यहीं आ्रापकी मृ यु हुई | 

गुर ने क्रूद होकर आपको पकड़ लाने के लिए अपने अन्य शिष्यों को भेजा; पर वे 
गाँववालों का विरोध करने में सफल न हो सके | टेरुआ में आपने तपश््या की | संवत्‌ 
१६६२ तक आपको सिद्वप्राप्त नहीं हो सकी थी। संबत्‌ १९६६ ई० में, भाघ मास के 
बृहस्पतिवार को आपको ईश्वरीय ज्योति के दर्शन हुए। उसके बाद से ही श्रापने भोजपुरो 
में रचन्ग करनी शुरू की | उसके पहले आप कविता नहीं करते थे | श्राप कन्नी २, सूर श्रोर 
वुलसी के भजन गाया करते थे। ज्योति-प्राप्ति के बाद से कमी-हमो भोजपुरी में छुन्द 
श्रप-ही-आप आ्रपके मुख से नकल पड़ते थे । पहले तो आपने उघर ध्यान नहीं दिया; 
परन्तु जब रचना अधिक होने ज्गी, तब आप लिखने लगे | 

चार वर्ष को श्रवधि में आपने चार ग्न्थ विवध छन्दों और राग-रागिनियों में लिखे, 
जिनके- नाम हैं--(१) अ्रमर बलास, (२) असर फरास (३) अमर कहानी और (४) 
अभर सीढ़ी । इनमें कुल ३४२० छन्द हैं। 'अमर कहानो? में ७७५, 'अमर फरास! में ६८४, 
“अमर बिलास! में ७४ ओर “अमर सीढ़ी” में ८८५ छल्द हैं। ये रचनाएँ अ्रत्यन्त प्रौद 
और काब्यगुणों से सम्पन्न हैं तथा सभी मक्ति-मार्ग की हैं | आपने यथार्थ, भयानक 
और रोचक तीन तरह के भावों की अ्रमिव्यक्ति को है | आपका सखी-मठ आज भी टेस्आ 
में भीजानकी सखी के प्रबन्ध में चन्न रहा है। आपके सबसे बड़े ।शष्य कामता सखी जो 
हैं, जो छपरा में सखी-मठ स्थापिव करके वहीं रहते हैं | झ्राज भी सखो-सम्प्रदाय में कश्मी- 
सखी के चारों ग्रस्थों की पूजा होती है । सिक्‍्खों के 'प्रन्थ-साइब? की तरह इन पुरुय ग्रन्थों 
को भी 'प्रन्थरामज/ को संज्ञा दी गई है। और धन्यरामत्री? के नाम से ही मठ की 
सारी सम्पत्ति है | 

आप सखी-सम्पदाय में एक दूसरे मत के प्रवर्तंक थे। आपके सम्प्रदायवाले खाड़ी 
आदि नहीं पहनते तथा खान-पान में छुश्नाछूत का .बचार नहीं रखते । आपके (शिष्य 
अं भता सखी जी! दिगम्बर-बेश में रहते हैं| सुखी-मढों में श्रापके ही मजनों को गा-गाकर 
शिष्य-+एडली की्ंन करती है। श्रापके प्रायः समी अन्य भक्तों के द्वारा खण्डशः 
प्रकाशित कराय जा छुके हैं। आपकी रचनाए हिन्दी के अष्टछ्यापी कांबयां का रचनाओं 
के भंणा में रखो जा सकता हैं। 

बेर के हो झपने आन्तम दिनों में आपने गुर माना था। किसी पोष-पूरणिमा को 


“हे समा हुआ था। झार, इखेसे पोष-पूणिमा का, आपके सम्प्रदाय मे, महात्खव मनाया 
जाता ह। 


श्री लक्ष्मीसलीजी १३१ 


चौमासा 
शब लागल़ हे सखी मेघ गरजे चलु अब पिया जी के देस;हे। 
ओहि रे देसवा में जगमग जोति, गुरुजी दिहल्े उपदेस है। 
गयन गुफा में ऐगो सुन्दर मुरत देखत त्ागेल्ला परमेत हे। 
रुप अनुप छुबि बरनि ना जाता जनु कोटिन डगेला दिनेस हे। 
उगली घाम तहाँ आठो पह्रा साया-मोद फारटेला कुद्देस हे। 
जनम-मरन कर छुटेल्ला अनेसा जे पुरुष मिलेला अबधेस है। 
चारू ओर हिरा लाल के बाती हलहल करेला हमेत हे । 
उठेल्ला गगन-गगन घन घोर महा घूनी अहृत भरेला जल्लेस है। 
ललिमीसखी के सुन्दर पियवा सुनि ल्लेहु पियवा के सनेस हे। 
सानुष जनम के चूकले पियवा फिर नहीं लगीहे उदेस हे। 
है सखि, अब मेघ गरजने लगा। चलो, हम भ्रत्॒ पिया के देश को चलें | गुरुजी ने 
उपदेश दिया कि उस देश में जगमग-जगमग- ज्योति सदा जलती रहती है | उस गगन- 
रूपी गुफा में एक श्रत्यन्त सुन्दर मूर्ति है, जो देखने में परमेश्वर जान पड़ती है। उसका 
रूप अनुपम है शर उसकी छवि का वर्णन करते नहीं बनता। ऐसा श्ञात होता है, मानों 
कोटि सूर्य उदित हो गये हों। वहाँ धूप आठो पहर निकली रहती है। माया-मोह का 
कुदरा सदा फटा रहता है। वहाँ जन्म-मरण की आशंका छूट जाती है और अवधेश पुरुष 
(राम) मिल जाते हैं। वहाँ चारों श्रोर हीरा ओर लाल की वत्तियाँ सदा किलमिल- सल- 
मिल किया करती हैं। वहाँ आकाश में महाश्वनि ( की लपठ ) घनघोर-रूप से उठा 
करती है | जलेश ( इन्द्र ) अमृत की वर्षा किया करते है। लक्ष्मीसख कहते हैं कि भेरे 
प्रियतम बड़े सुन्दर हैं। उनकः सन्देश सुन जो । मनुष्य के जन्म में यदि उस प्रिय को पाने 
से चूक यये, तो फिर आगे उसका पता लगना कठिन है। 


(२) 
सुन्दर सहज उपाय कहिले, से करू तंवन के ना | 
सबसे होई रहु छोट बटिया चल्चु नवन के ना॥१॥ 
कह घेर आइईल नियार सखिया पतिया गवन के ना। 
अबकी घटल संजोंग मिल्रि ल्ेहु राधारमण से ना॥२९२॥ 
नाहीं त बीतेला बहार सखिया भादो सावन के ना। 
जे रह-रह उठेसला सकोर आन्धी पानी पवन के ना | ३॥ 
सुखले आवेज्ञा नीन्द पिया संगे सेज फुलवन के ना। 
लद्छिमी सखिया स्वार्थ करी क्ेहु जीवन जनस-मरन के ना॥ ४ ॥ 
अरी कामिनी, जी भर के कल्लोल कर ले। भवन की खिड़कियाँ खुती हुई हैं। 
अपनी कमर में तलवार बाँध कर पिया से मित्नने की तैयारी कर। इसके-लिए सुन्दर 
झोर सहज उपाय जो मैं कहता हूँ, उसे तू कर। तू सबसे अपने को छोटो बनाकर रह 
और नम्न होकर मागे चल | अ्ररी कामिनी, बुलाने के लिए कई बार नियार (निर्मत्रण) 


१६३२ भोजपुरी के कवि और कांब्य 
आया और गवना कराने के दैतु कई वार पाती आई | अबकी बार. संयोग मिल,गया है। 
तू राधारमण नी से मिल ले। नहीं तो हे सस्ति, इस सावन-भादो की बहार, जो रह-रह 
कर आँधी-पानी के रूप में प्रकट हो रही है, बीतो जा रही है। पुष्प-शय्या पर प्रीतम 
के संग लेटने पर सुख की निद्रा आती है। लक्ष्मी सखी कहते हैं, अरी सखी | अपने जीवन 
आर जन्म-मरण का स्वार्थ सिद्ध कर ले | 

आरती 


३ ) 

आरती संतगुरु दीन दयाला, की पर दरेला तेकर करेला निहाला दो ॥ 

से महजै-सहजने गगन चढ़ि जाला, आपु-से-आपु डजे खुलेला ताला हो ॥ 

लडकेला सगरे लाल्ेे-लाला, जे माया के बंधन उभरी नु जाला हो ॥ 

जगसग-जगमग होला उजियाला दृरमेला सुन्दर फरेला कपात्ा हो ॥ 

छुछिमी सखी के सुन्दर पियवा उजे बिधना लिखेला मोरे भाला हो॥ 

जआारती सत गुर दीनदयाज्ञ को है। जिस पर वह ढल गई, उसी को निह्ाल कर 

दिया । वह व्यक्ति सहज रूप से गगन पर चढ़ जाता है और आप-से-आप उसका (अशान 
और मोह का) ताला खुल नाता है | उसको सर्वेत्र लाल-ही लाल (प्रेम का रंग) दिखलाई 
पड़ता है। वहाँ जगमग-जगमग उजाला-ही उजाला रहता है और भाग्य का फल सुन्दर 
रूप से फलने लगता है। लक्ष्मी सखी कहते हैं कि विधि ने मेरे भाग्य में लिखा है, भेरा 
सुन्दर प्रियतम मुके मिलेगा | 


( ४) 

जायु-जागु सोरे सुरति-लोहगिन, हरि सुमिरन कर बेरा ॥ 

पियवा बियोगिनी होखना जोगिनी, करिले अलखकर फेरा ॥ 

सात सबेरी भले लागल लगती, करित्ले अमरपुर छेरा | 

करि लेहु सजनी सरजुग संजनी, सुन्दर खसम कर चेरा ॥ 

लदछिमी सखी के सुन्दर पियवा देखिले करम कर फ्रेरा ॥ - 

श्री मेरी सोहागिन सुरति, ( स्वाति ) नाग, जाग, हरि का स्मरण करने (जपने) की 

यह वेल्ला है | भरी जोगिनी, अपने प्रियतम की वियोगिनी बन कर अलख प्रियतम के लिए 
फेरी शुरू कर । इस-बार खबेरे ही क्ष्म (शुभ मुहूर्त) आ गया है। अमरदुर (परलोक) में 
डेरा कर ले। अरी उजनी, तू सब थुगों में मजन कर ले | सुन्दर पति की चेरी बन जा। 
०९ ल कहते हैं, मुझे तो सुन्दर पिया मिल गया। देखो, करम का फेर इसी को 
कहते €। 


भ्रजन 


( ५) 
- खुलन चाहे नैया केहु था, सतलोक के जवैया-॥ 
चढ्ब त चढ़ुड ना- ञ्॒ -फ्रेह वा » अवैयात् - 
ता स॒ का करब$ . फेरझू'- “ याद्धे -पछुतैया ॥7 


औ लक्ष्मौसखी जी ३६३ 


भव-जल झगम एक नाम के नैया सतगुरू मिलने खेपैया, 

-जिकुटी में घाट छक्रागे गगन उतरेया, 

, , झछिसी सखी पार सैज्ञी साहब सरनैया | 
नाविक ( गुरू ) यात्रियों ( संसारियों ) को पुकार रहा है। नाव खुलना चाहती है। 
अरे, कोई ,सत्‌ लोक को जानेवाला हे! चढ़ते हो तो चढ़ो. नहीं तो फिर नाव 
( इरिनाम ) आनेवाली_नहीं है। फिर पदुता कर क्या करोगे! इस संसार-सागर में 
झगभ जल है। हरि नाम रूपी नोका ही एक मात्र सहारा है। अरे | इस नाव को खेने 
वाल्ते सत्‌ गुरु.जी मिल गये, यह नाम कमी नाव भ्कुटी घाट (त्रिकुटी ) पर तो लगती है; 
और गगन ( ब्रह्मांड ) में पार उतरती है। लक्ष्मी सखी कहते हैं. कि में इस नाव,पर 

चढ़ कर मालिक की शरण में आकर भव-सागर पार कर गया। 


(६) 
बारह मासा 


लागेला हिरोलवा रे अमरपुर में मूल्नेला संत सुजान॥ 
चलु॒ सख्ियन सुन्दर घर देखे खोलि जल्लेह्ु गगन पेहान। 
थेद् पार गंगा ओदह पार जमुना बीचे-बीचे सुन्दर भाव ॥ 
चारू ओर उगेजा जगमग तारा रूलकेला सुन्दर चान | 
लछुमी सखी के सुन्दर पियवा मिलि गइले पुरुष पुरान॥ 
लागेला हिरोलवा रे अवधपुर ने झुललेला शम नरेस। 
चलु रूखी चलु अब देखन पियवा बीके तरी बाँधी बाँधी केस ॥ 
एक ओर सीया धनी एक ओर सखिया बीच सें बहइठेल्ा अवधेस | 
सोने कर बरद्ा रूपन कर पाटी मिलुद्ाा कुल्ाावे हू सेस॥ा 
- लद्ठिमी सखी के सुख्द्र पियवा गुरुजी विहल्ते उपदेस। 


अमरपुर में हिडोला लगा हुआ है और सन्तों कः समाज उसपर चढ़कर भूला भूल 
रहा है। दे सब्ियो | चल्नो सुन्दर वर देख आओ । आकाश का पेहान ( दक्कन ) अर्थात्‌ 
ध्यान-पटल को खोल लो । इस पार गगा हैं, उस पार यमुना, और बीच में सुन्दर सूथ्ये 
हैं। ( इड़ा और पिगला के बीच में शान है ) चारों ओर जगमग-जगमग तारे उगे हुए. हैं 
और सुन्दर चन्द्रमा कल्नक रहा है ( समाधि-दशा में झलकनेवाले प्रकाशपु तर दीख पढ़ते 
हैं। ) उसी स्थान पर लक्ष्मी सखी के सुन्दर पिया, जो घुरातन पुरुष हैं, मिल गये । 
अवधपुर में हिडोला लगा हुआ है और राजा रामचन्द्र उसपर चढ़ भूला भूल रहे हैं। 
अरी सखी | चलो पिया को देखने के लिए | अच्छी तरह बालों को सवार लो। एक ओर 
दो रॉमाग्यवती सीता हैं और दूसरी ओर सल्वियाँ हैं, बीच में अवधेश राम बैठे हैं। सोने 
की रस्सी है, चाँदी कीं पटरी है और शेषनाग ( लक्ष्मण ) भूला झुला रहे हैं | लक्ष्मी 
सखी के सुन्दर प्रीतम हैं | गुद ने उनको ऐसा ही उपदेश दिया है। 


१३५४ भोजपुरी के कवि और काव्य 


(७) 

लागैला हिलोरचा कस ठतरे गोआलिनि करत बिहार॥ 
एक ओर हम धनी एक ओर राधिका बिचेबिचे नन्‍्दकुमार | 
चारु ओर साम घटा सखी गरजे महर-कहर फुहुकार ॥ 
बाजेला बंली उज्ञे बिगेला तान सागरवा के पार। 
लछिसी रुखी के सुन्दर पियवा जे कत मिल्ेला करतार ॥ 


कदम्ब के नीचे ईहिडोला लगा हुआ है। गोपी विद्यर कर रही हैं। एक ओर मैं 
सुहागिन हूँ और दूसरी ओर राधिका हैं। बीच में नन्‍्द के कुमार भ्रीक्ृष्ण हैं। अरी 
सखी, चारों ओर काली-काली घटाएँ गरभ रही हैं। मेघ भरत रहा है। वंशी बजती है। 
वह सागर के उस पार तक अपनी तान फेंक रही है। लक्ष्मी सखी कहते हैं कि हमारे 
प्रीतम तो बड़े सुन्दर हैं | वे कर्तार कहाँ मिलेंगे 


( «४ ) 
नहृ॒हर, में सोश लागेला हिरोलवा जगमंग जन$ फुलवार। 
कइसे चतल्ों लाज सरम कर बतिया पिया मोर अइले सधुरार ॥ 
एक भोर हम धनी एक ओर सखिया बीचे-बीचे सुन्दर भतार । 
चलु सखी चल सुख करि ल्ेहु सजनी ना व नाटक जाता द्वार ॥ 
लछिमसि सखी के छुन्दर पियवा देखिलेहु अधम उधार ॥ 


मेरे मायके में जनक की जगमगाती फुलवारी में हिडोला लगा हुश्रा है। मैं वहाँ 
कैसे जाऊ ! लाज को ज्त है। मेरे पिया ससुराल आये हुर हैं। एक ओर में बैठती 
आर दूसरी श्रोर मेरी रखियाँ बैठतीं हैं श्रौर बीच में सुन्दर पिथा बैठते हैं। अरी सखी, 
चलो (लाज छोड़ऋर ) हम सुख कर ले | नहीं तो इस संसार रूपी नाठक के खेल में 
हमारी द्वार ह ने जा रही है। लक्ष्मी सखी कहती ६ कि इमारे प्रीतम बड़े सुन्दर हैं। 
अधसों के उद्धारक उस पिया को तुम देख लो | 


( $ ) 

लागेला हिरोलवा गगनपुर जहँवा झूला आूलेला मोरे कंत। 

कइसे दलों लाज सरम लखी मोरा ससुर भछुर" सभ संत ॥ 

रात कर डोलिया सुर्त कर डोरिया सुन्दर बइठेला भहंथ। 

चारू ओर ए सखी अदभुत सोभा हीरा लटकेला लटकंत ॥ 

लघिंमी सखी के घुन्दर पियवया पुरुष मिलेला भगवंत ॥ 
,_ श्रगगपुर में हिडोला लगा हुआ है। जहाँ मेरे प्रियतम कूला भूल रहे हैं। श्री 
सखी, मैं वहाँ कैसे जाऊं ? मुझे लाज लगती है। वहाँ सब संत मेरे ससुर और भसुर 
| हैं। मैं तो रात रूपी डोली में सुरति की डोरी से हिडोला लगाऊँगी, श्रर्थात्‌ रात को 


१० पति का बड़ा भाई, जेठ । 


श्री लक्ष्मीसखी जी ११५ 


श्यान घर कर भूल्लूं गी। उसी में सुन्दर कंत लेकर बैठ गी। उसके चारों ओर अद्भुत 
शोमा होगी और हीरों के तमाम लटकन वहाँ लगे होंगे | लक्ष्मी धखी को सुन्दर पिया के 
रूप में परम पुरुष भगवान्‌ मिल गये । 
१6 
चल सखी चल धोओ मनवा के हि । ? 
कथी के रेहिया कथी के घइली | कवने घाट पर सडनन भइली ॥ 
चितकर रेहिया सुरतकर घइली। त्रिकुटी घाट पर सडनन भइली ॥ 
ग्यान के धबद से काया घोअल गइली । सहज्ले कपड़ा सफेदा हो गइली ॥ 
कपड़ा पहिरि क्ठमी सखि आनंद भइलरी | धोबी धरे मेज देहत्ली नेवद कसइलौ ॥ 
सखी कहतो है--'अरी सखी, चलो मन की मैल धघोलें। किस चीज की रेह 
( उजीदार मिट्टी ) हग' और किसका घढ़ा होगा  कि४ धाट पर सठनन ( «ज। मिट्टी में 
कपड़ों को भींगोना ) होगा |! पहलो सखी उत्तर देटी है--चत की तो रेह होगी 
और सुरात ( सुमिरन ) क। घड़ा बनेगा और त्रिकुटी घाट ( ध्यान ) पर सौदन होगा ।? 
अतः दांनों साखथां जाकर त्रिकुटो घाट पर ज्ञान के शब्दों से शरीर घोती हैं. सहज ही: 
उनका शरीर-रूपी वस्त्र स्वच्छु हां गया | लक्ष्मी सखो कहदत हैं, धाए हुए स्वच्छ वस्र को 
पहनकर हमारी सखी आनंद-मप्न हो उठीं। उन्होंने घोनी के घर ( गुरु के घर ) निमनरण 
की सुपारी मेज दी । 
( ११.) 
सान5 सान5 सुगना हुकुम दंजूरी ॥ 
तन-मन-धत सब मित्ति जहहें धूरी। 
दूनो हाथे करबे जददसन ,मिल्तिहँ मजूरी ॥ 
रती भर घाट ना दहोई मजूरी। 
एक दिन मरे क्रे परी काठि काटि- खूरी'॥ 
लछुमी सखी कहे अबहूँ ले चेतो। 
ना. त जम्हू न्ाके मुंहे सुंहे थूरी॥ 
अरे तोता ( झात्मा ), तू हुज्री (सरकारी आश।) को मान | तेरे तन, मन, धन सब 
एक दिन धूल में मिल जायेगे। तू दोन हाथों से जैसा कम करेगा, वैसी ही मजदुरी भौ 
तुझे मिलेगी रत्ती-भर भी कमी-बेशी मजदूरी में नहीं होगी। एक दिन तुझे छुरी काट: 
काट कर ( ऐंड़ी रगड़-रगढ़कंर ) मरनां पड़ेगा। लक्ष्मी सखी कह्टते हैं के अबसे भी 
तू चेत जा; नहीं तो यमराज आकर मुंह को खूब थूर ( कुचल ) देगा। 
१२ ) 
जागिये अबघेस इंस | बसिल्ञा-रखान मेंगवाइये । 
जे अबले कु बनतल नाही भ्रबहूं ले बनवाइये ॥ 
सुन्दर ऐगो कुटी गगनसंडल में छुवाइये। . 
ज़े रास थो विज्ञास रफ्ति, रेनिया ,वगेंवाइये,॥,. - 


१६६ सोझपुरी के कबि और कीन्य 


जेमें छुलि-छुलि रास राम-नास गुण गवाइये | 
जे खोआ-सांड, बरफी त्ड्डू बइठल-बइठल खवबाइये | 
खुद्दी नाहीं ज्रे ताको अस्त से सनवाइये। 
भासाक ओ पोधाक छिनि लंगे बेठबाइये ॥ 
लछिमी सखि के सुन्दर पियवा नाल भरवाइये। 
राम नाम ना भजे ताको ठाढ़ करवाइये || 
यहाँ मगवान को बढ़ई (कारीगर) के रूप में मानकर लक्ष्मी सखी ने स्तुति की है। 
हे श्रवध के मालिक ( ईंधर ), जागिए.। अब बधूला और रूखानी' मेंगवाइए । अब 
तक जो कुछ नहीं बना, उसको आप अब भी बनवाइए। मेरे लिए गगनमंडल में एक 
सुत्दर कुटी छुवा दीजिए | उसमें रास-विज्ञास करके मेरी रात्रि को सानन्‍्द व्यतीत कराइए | 
उस कुटी में मुझे कूला झुल्लाकर राम-नास का ग्रुण गवाइए | खोश्ा, मिसरी, बरफी, 
फडडू, आदि को उस कुटी में बैठे-बैठे मुक्े खिल्लाइए। जिसको खुद्दी ( तसहुल-कण ) 
नहीं जुढ़ती हो, उसे अ्रस्ृत से सना हुआ भोजन दीनिए, | वेष-भूषा को छीनकर उसे नम 
बैठाइए; श्रर्थात्‌ उसके समी सेद-मावों को मिटाकर अपने में मलाइए | लक्ष्मी सखी के. 
प्रियतम बढ़े सुल्दर हैं। दे प्रियतम, आप मुझसे पूरा नाज् भरवा ली।जए; अर्थात नाल 
उठवा कर कसरत करा लीजिए | जो राम-नाम नहीं भज़े, उसे दिन-रात हमेशा खढ़ा 
रखते का दंढ दीजिए | 
यह छुल्द विशुद्ध मोजपुरी का है, परन्तु श्रन्त के क्रियापद्‌ हिन्दी के हैं । 





तेगअली 'तेग' 


शाप बनारस के रहनेवाले मुसल्लसान कवि थे । आपकी लिखी एक पुस्तक 'बदमाश- 
दरपण? प्राप्त हुईं है । यह पुस्तक कवि की प्रौढावस्था की रचना जान पड़ती है | इसलिए, 
अनुसान है कि कवि का जन्म उन्नोसवीं सदी पू्वांद के अन्त में हुआ होगा। 
पुस्तक उदू 'शेरः के छुल्द में लिखी गई है। आध्योपान्त गजलें हैं। इसको हम 
तेगश्नली का भोजपुरी 'दीवानः कह सकते हैं। पश्चिमीय भोजपुर! का शुद्ध रूप इसमें 
मिल्नता है। यह एक उच्च कोटि का काब्य है। लाला भगवानदीन कहा करते थे कि 
काव्य का बहुत प्रौढ़ रूप 'बदसाश-दरपण!? में व्यक्त किया गया है। इस पुस्तक की कविता 
की भोजपुरी मे बनारसीपन का पुठ अधिक है। 
आँख सुस्दूर नाहीं यारन से क्रढ़ावत बाटई। 
जहर के छूरी करेजवा में चलाचत बाटड ॥१॥ 
१६ बढ़ुई का एक भौजार, बटाली | 


३८ फाशी-नागरीन्यचारणी-पुस्तकालय में पुस्तक सुरक्षित है। यह काशी के 'मारत-जी वर्ना 
प्रेस से सन्‌ १८६५ ६« में छुपी थी। 


तैग अद्दी “वैग ११७ 


सुरमा झाँखी में नाहीं ई तू छुलावत बाद5। 
बाढ़) ढुत्फी बिछुआरे पे चढ़ावत बाद$॥२॥ 
अत्तर3 देही में नाहीं तू ई लगावत बाट5 | 
जहर के पानी में तरुआरर'ं छुछावत घाट5॥३॥ 
रोज कह जाल$ कि आइला से आवत बाढई। 
सात चौद॒हक उठेकाना तू क्गावत बाट5 ॥|४॥ 
सच कह5 बूटी कहाँ छानत्व5 सिंघा राजा। 
आज कल कहे न बैठक में तू आवत बाट5 ॥ण॥ 
तार" में बूटी के मिल्ल5 कि तुम्हें ले गैल्लीं । 
लामे-लामे* जे बहुत सान बुझावत* बाट5 ॥६॥ 
भैके कोरो: तू करेजा पे दरल्न5 बरबस | 
ई हमन्नन के भज्ञा काहे सुआवत* बाट5 ॥७॥ 


| + 

भौं चूम ल्लेहला केहू सुन्दर जे पाइछा। 

हम ऊ हई' ले ओठे पर तसरआर खाइला ॥८॥ 
चूमीला माथा जुलफ़ी क तट मुद्दे में नाईला | 
संभा सघेरे जीभी में नागिन डसाईला॥९॥ 
डंन केके अपने रोज त रहिला१९ चबाइला | 
राजा" के अपने खुरमा औ बुंदिया चभाइल्रा ॥१०॥ 
सौ सौ तरे*९ के मूढ़े१ ३ पे जोखिम डठाइला। 

पै राजा तूहें एक घेरो*४ देख जाइला ॥११॥ 
कहती के कादे आँखी में सुरमा लगावल$ 
हँस के कहलें छूरी के पत्थर 'चटाइल्ा ॥१२॥ 
पुतरी सतिन१५ रक्‍्ख़ब तुहं पद्षकन के आड़ में। 
तोहरे बदे*९ हम आँखी में बेठक बनांइला |१३॥ 
हम खरमिठाव*० क्ैज्नी हाँ रद्दिल्ञा चबाय के। 
भेंवत्त धरक्ष या दूध में खाजा ठोरे बढ़े ॥१४॥ 
,अपने के लोई ल्लेह्ती हाँ कमरी भी बा धईल"१< | 

, किनलीं१ $ हाँ राजा लात हुसात्ना तोरे बढ़े ||१५॥ 
अत्तर तू मत के रोज नहायत्ञ कर रजा। 
बीलन*" भरत्ष धइतल वा कराबा5" तोरे बढ़े ॥११॥ 





१. शान बढ़ाना । ३० छोटा तेगा | ३« इन्न । ४० तलवार | ४७ भंग का नशा । ६६ लम्बी- 
चौड़ी डींग। ७ शेखी बधारना। ५, कणेने पर कोदो दलना-« अत्याचार करना ।_ ६. सुझा 
खोभना, सालना । १०, चना। ११% प्रिय। १३० त्रद। १३० शिर। १४« बार, दफा । 
१४० सदश । १६५ निमित्त । १७० खराई मिटाना > प्रातःकाल मुँह धोकर पहले-पहल कुज 
खाफर बारी पीता । १७ रखा हुआ । १६. खरीदा है। २० बौसों। २१. सुगन्ध-्पात्र । 


भोज॑पुरी कै कवि और कार्य 
नागिन मतिन" त गाले पै जुलफी क बार बाय । 
भौं झ बरौनी रामपै* विच्छी कआर3 बाय ॥१७॥ 
तरुआर तीर बची और खंजर के धार बाय। 
खूनी: क हमरे आँख छुरी वा कठार बाय ॥१4॥ 
एक दू मिद्दी तू ओठे क कबौ दुड राजा। 
रामपै तेग बहुत दिन से सुखायल बाड़े ॥१९॥ 
झंगार बोरसी" क बाद: बनल तू जाड़ा में । 
गरम फर5 कबो हसरो बगल घुन5्त सह्दी ॥२०)॥ 
जब से फंदा में तोरे झुल्लफी के आयज बाटीं | 
रामधे भूल शुछैया में शुज्रायल बाठीं॥२१॥ 
मून-मुन* आँख तोहं देखीला राजा रामधे। 
नत बूटी क नस्रा बा न डेंघायल बादीं॥२२॥ 
साथ परदधाही मतिन राजा फिरीला दिन राव ॥ 
बन के पुतवरी तोरे झाँखी में समायत्न बाटीं |२१॥। 
राजगही बस हमें तेग राज्ञा दे देलें*। 
जब कहलें ,क्रि तोहरे हाथ « बिकायल बाटीं॥३४॥ 
रिसी झुती से भी तोरे बढ़े बढ़ल बाटी। 
न दाना खात हुई' औ न पीयत जलन बादीं ॥रणा| 
फहैनसुने के ऐ संगी गुरुट भय बाठीं। 
ले एक पंछी के चंग पर हम चढ़ल बारी ॥२६॥ 
ऐ राजा देखीजा जुलफी के जाह्न से तोरे। 
छुटब न रामये चिरई:५ मतिन बकल बाठी ॥२ण| 
जेहल में तोढ़ली हैं बेढ़ी और हथकड़ा डण्डा। 
से तोहरे झुलफी के फंदा में हम फसल बाठटीं ॥२८॥ 
पत्थर के पानी आग के बायू के सामने। 
जा जा के रा मद छुझ्लाइला तोरे बढ़े ॥२०९॥ 
जुदफी तू अपने हाथे में धेके कसम ई खा। 
नागिन इसे हमें जे कभों तोसे बल*" करब ॥३०॥ 





१, सहरा। २३० राम-शपथ । ३« ढंक। ४ सत्तानेवाला प्रिय-व्यक्ति | ७. अँगीठी, गोरसी । 


६ श्राँख मूँद-मूदकर, ध्यान धर-घरकर। ७ दे दिया। ८० उस्ताद ( बनारसौ 
बोली में ), और भारी । &« चिड़िया। १०- दगा, घोखा। 


१ ३६ 


महाराज खज्नबहादुर मह् 


भी खजबहादुर मन्न, राज्य मकौली (गोरखपुर ) के राजा थे। श्राप बड़े मधुर 
प्रकृति के पुदंष ये | सन्‌ १६१० ई« में इलाहाबाद में जो नुमाइश हुईं थी, उसी में आग 
लग जाने के कारण आपका स्वगंवास वहीं हुआ | आप का उपनाम लाल” था। आप 
हिन्दी और भोजपुरी के बड़े सुन्दर कवि ये। आपने भोजपुरी में 'सुधाबूं द! नामक 
पुस्तक' कजली गीतों में लिखी है। आपकी कजलियाँ बहुत रसोत्पादक हैं। उनकी तारीफ 
भारतेन्दु दरिभ्न्द्र ने .भी की है। सुधाबू द! के सभी छन्द भोजपुरी में नहीं हैं, कुछ 
ब्रजमाषा के भी हैं। आपकी भोजपुरी-माषा में पछादी भोजपुरी और गोरखपुरिया अवधी 
का भी घुठ है। 

(१) 


सखी | बांसे की बेंसुरिया जियरा भारे रे हमार ॥ 

तीच जाति मोहन-मुह लागलि, बोले नाहिं सेभार। 

ज्ाज्ञ अधर रस पान करति दे विख उगिलति निरधार। सखी, बाँसे० ॥ 
(१) 

प्यारे | धीरे से झुक्नावड फॉका सदत्तो न जाय || 

जस5 जध5 पंग परत इत-उत सो, तस-तस जिया सहराय ॥) प्यारे | धीरे० ॥ 
(३) 

कैसे सूले' रे हिंडोरा लिनके सेंया परदेस। 

औरन के संग प्रीति क्षगाई, घर के किछु न संदेस ॥ कैसे झूक्े'० ॥ 
(४) 

तोर पिया बोले घड़ी बोल, मोरी ननदी | 

केतनो कहों तनिको नाहीं माने, सूठेन्मूठे करेज्ञा ठठोल्न, मोरी ननदी | 

बांदि पकरि बरबस बिलमाचे, लुटेल्ा जोबन अनमोत्न, भोरी ननदी | 
(५) 

परदेसिया के प्रीत जहसे यद्रा के छाँद ॥ 

प्रीति क्गा के निरवाह करत नहिं, नाहक पकरे बाँहिं । 

ज्ञात 'चारि दिन नेद्द क्वगाके दाग देत ज़िय माहिं।। परदेसिया० ॥ 
(१) 

अबहीं थोरी-सी उमिरिया सेज़िया चढ़तो डेराय ॥ 

बाँद्द गहत तन थर-थर काँ पे, उर पकरत घबराय। 

अंक छंगावत लाल बाल, वह बार-बार बत़्खाय ॥ भश्रवद्दी शेरी०.॥ 


१ सब, १८८३ हैं में यह खद्गविलास प्रे, पटना से प्रकाशित हुई थी। 


बा भोजपुरी के कवि और काज्य 


(०) 
अब त छोटकी रे ननदिया दुछ तिरद्वावे क्वागलि नैन॥ - 
सुरि' सुसकाये लागलि निज तन ताकि-ताकि, करे ज्ञागलि कुछु-कुछु सेने |. 
छिपि-छिपि ज्ञात बाल सखियन से सुने लागत रस बैन ॥ अंबंत छोटणा 
(८) 
पिया निरसोहिया नाहीं आवे रे भवनवाँ रामा, 
रहि रहि अआवेला सवनपथाँ३१ रे हरी! 
काहे मोरे अदरा से तें जोरले रे दुमनवाँ३ रामा, 
के कारन ले अइल्े गवनवाँ रे हरी। 
चढ़ती जबनियाँ दूले बहेला पवनवाँ रामा, 
तीजे जियरा मारेशा सवनवाँ ४ रे हरी। 


(९) 
आये रे सपनवाँ नाहीं आये मद-भवनवाँ" रामा, 
जेहते*र दुखाली» दूनो आँखिया रे हरी! 
केहू ना मिलाबे उलदे मोददे* समुझावे रासा, 
हुख नाहीं बूझे प्यारी सख़खिया रे हरी! 
केद्दि विधि जाई उड़ि पिया के मैं पाई” रामा, 
उड़्लो ना जाये बिना पँँखिया रे हरी | 
४ [ १० ) 
पिया बिनु पपिहा की बोली मोले खहलों ना जाय | 
'पीड कहाँ? कहि बोले पापी एक छुन रहलो ना जाय। 
लाल भैलन अइसन निरमोही अब कुछ कहो ना जाय ॥ पिया बिल्ु पपि०॥ 
00) 
सनभावन बिन रतिया सावन के सयावन भइलो ना ॥ 
बादर गरजे जियरा लरजे, बरजे पपिद्या न कोय, 
दैया सूनी सेजिया सॉँपिन-सी भयावनि भईलो ना ॥ 
प्यारी भइली अब तो छूबरी रे सवतिया उनके लेखे*, 
मोरी चढ़ली जवनियाँ हाय अपावन भइलों ना॥ 


( १३२ ) 
साथे दे-दे रोरिया*" नई-नई गोरिया, 
सु हिलि मिलि गावेली कजरिया॥ 
१६ भुह मोड़कर । २. मूछी, घुमरी । ३० दामन, चादर या अँगरखा का छोर | 
४० सावन मास। ४० मनभावन, प्रियपति। ६०» बाद जोहना, प्रतीक्षा । 
७ दुखती है। ८. मुझे । ६; वास्ते, लिए। १० रोलौ का टीका । 


महाराज खज्ज बहादुर महल 4४९ 


मोहनी मूरतिया उठली दूनो छुतिया, 
लगाये जाली बॉकी रे नजरिया] 
नाके सोहे मोतिया पहिरे धानी धोतिया, 
उजारी  डारें लगली बजरिया ॥ 


( १४) 
उनके सु हवाँ के उजेरिया देखि, चन्दा छिप-छिप जाय ।। 
निरखि अलक कारी घुंघुरारी नागिनहू बल खाय। 
लाल लाला के सौंदे) बिस्या फल मुरसाय॥ उनके मुँहवाँ०॥ 
( १ ) 
कलपत बीते सखी भोदहे सारी रतिया, 
लहरी,* लड़िका छुयलवा 5 तबो जागेना ॥ 
सुहवां में चूमों-सूमों जे-ले उनके कोरवार, 
लहरी अँखिया ना खोले गरदां लागे ना॥ 
केतनों सिखि सिखाओं समुराक्रों, 
लहरी कौनो विधि मुरद्ा+ रस पागे ना ॥ 


हे ( १५ ) 
कैसे में बिताओं सखी सावन के मद्दिनवाँ, लहदरी सेंया निरमोद्दी परदैसवा ना ॥ 
गवनवाँ ले आये मोहे घर बैठाये, लहरी, दूबरि* भइलों एड्ी रे अदेसवा*ना॥ 
आपौ नाहीं आबै पापी, भेजे नाहीं पतिया, लहरी केहू से पठावे'ला सेंदेसवा ना ॥ 


* (१६ ) 
कड़के बिल्लुलिया धढ़के छुतिया मोर जतिया< 
तापर रिमि-क्िसि बरसेला सवनयाँ रे हरी! 
भावे ना भवनवाँ पिय बिन आवेशा रवनवाँ १ रासा 
सखि दूध होइहें मोरा गवनवाँ रे हरी! 
केहू ना खुनावे दोपीवलवा१९ के अवनवाँ रामा 
जियरा भारे पूरवा पवनवाँ रे इरी। 
( १७ ) 
चमके रे बिजुलिया, पिया बिन कड़के.मोरी छुतिया रामा, 
कल ना परेला दिन-रतिया रे हरी! 
हमें बिसराय भइले, कुबरी के सेंघतिया* ९ रामा, 
आखिर तो अहिरवा के जतिया रे हरी | 
१ सामने। ३० कमस्रिन। ३० कमसिन पति। ४० छोड़, गोद । ४७ सूढ़, अरसिक । 
६६ दुबेल। ७ चिन्ता | ८. सखि। & मुच्छी । १०६ टोपीवाला ( छैल्ा पति )। 
१% फदना। १३६ सैगी-पायी । 


१९१ भोजपुरी के कवि और काब्य 


आपु नाहीं आवे पापी भेजे नाहीं पतिया रामा, 
कैसे के बितावों बरसतिया रे हरी! 

( १५ ) 
तोरी अँखिया रे नशीली, भौहँ चढ़ली कमान 
कतुना घायल इत-उत लोट कतुना तजले परान। 
लाल भये कितने दीवाने बदत" आन-के-आतरे 
तोरी अँखिया रे नशीली भोौहें चढ़ली कप्तान ॥ 





पण्डित बेनीराम 


शाप काशी के रहनेवाले ये। आपका समय हरिश्न्द्र जी के समय से कुछ ही पूष 
था। आप केवल कजली लिखा करते ये। काशी और मिर्जापुर में कजली गाने की प्रथा 
बहुत अधिक है और मनचले कवि इस छुन्द में श्रच्छी रचनाएं करते हैं। भारतेन्दु 
हरिश्रन्द्र जो ने अ्रपनी पुस्तक 'हिन्दी-भाषा? में कजली छुन्द का इतिहास लिखा है बिससे 
इस छुन्द की प्रसिद्ध शात होती है। उन्होंने आपका भी नाम उद्ध,त करके आपकी एक 
कजली का उदाहरण भी दिया है, जो नीचे उद्धव है। आपका पता हमें उसी पुस्तक से 
लगा | आपने काफी रचनाएँ की.थीं।  « 


(१) 
काहे मोरी सुधि बिसराये रे बिद्ैसिया ! 
तद्पि - तड़पि दिन रेना गँवायों रे 
काहै भोसे नेहिया त्गाये रे बिदेतिया ! 
अपने तो कूबरी क्रे प्रेम आुज्षाने रे 
मोह लिख जोग पढाये रे बिदेसिया | 
जिन सुख अधर असमी रस पाये रे 
तिन दिष पान कराये रे बिदेखिया! 
कहें 'थेती राम! लगी प्रेम कठारी रे 
उधोजी को ज्ञान भ्रुल्ञाये रे बिदेसिया ! 





बाबू रामकृष्ण वम्मों 'बलवीर'* 


आप काशी के कवि ० हिन्दी ( ्रजभाषा ) में आपने काफी रचनाएं की थीं। 
श्राप 'रलाकर जी के मित्रों में ये। काशी के साधाहिक 'भारत-जीवन!ः के आप 
सम्पादक ये | 


१) बढ़बढ़ाना । ३० और का और, अरैंड-बंड । 


बांदू रोमकृष्ण वर्मा 'वलवीर' १४३ 


सन्‌ १८६५ ईं० में आपने भोजपुरी में तेगअ्ज्नी 'तेग” द्वारा लिखित बदमाश 
दर्पण” का सम्पादन करके अकाशित किया था । सन १६०० ई० में आपने भोजपुरी में 
(बिरहा-नायिका-मेद! लिखा और उसे 'भारत-जीवन-प्रे 6? से प्रकाशित किया। पिरहा- 
नाविकानमेद बहुत प्रौढ़ काव्य है। कुछ उक्तियाँ यहाँ दी जाती हैं... 
आलम्बन विभाव 
क्जिया दबाने मनसथवा सतावे मोसे, एको छुन रदलो न जाय | 
लखि “चलबिरवा” जमुनचा के तिरवा री हियरा के घिरवा नस्ताय ॥९॥ 


नायिका 
रूपया के भरवा" ते गोरी से पयरवा" रे सोसवा3 धरल नाहीं जाय । 
लचि-ज्नचि जाला दैया गोरी की कमरिया, जोबनवाँ के बोकवा दुवाय ॥२॥ 
तसवा की सरिथा में सोने के किनरिया डेंजरिया करत भुख जोति। 
अगर - बगर“ं जर - तरवा" लगल बढ़ जगर-मगर दुति होति ॥3॥ 
जोबना उल्लहिया: री नवकी* दुलहिया हो गोरा - गोरा गोरी तोरा गाल । 
घकवा सरिस तोरा जोबना लखत देह, दिपे मानों सोना के मस्ात्ञ ॥३] 
गोरिया छुबीली तोरी शेंखिया रखीली भोरी* बतिया रेंग्रीज्ञी रसस्तान । 
मुख चंदवा बिमल दोठ जोबना-कमल धबत्वविरवा! के जियरा-परान* ॥५॥ 


स्वकीया 
आज बरसाइत"१९ रगरवा"* सचाओ जिन नहके १९ रूगरवा उठाव। 


अपनो ही बरवा "७ में पुजों 'बत्नविरंवाः पीपरवा १४ पूजन तूही जाव ॥६॥ 


(मुग्घा ) अज्ञात यौवना 
तैहूँ न बतावे गोइयोँ भुठे भरमावे काहे सवती के सुहवाँ नराज। 
मोरी छुतिया पै करवा खुख 'बत्नविरवा” री भँखिया मुँ दत केदि काज ॥णा 
भर-भर आवे मोरी अँखिया न जानूँ कंहै, देखे के ल्ञागल बढ़ चांव। 
ओहू सोदे छिप - छिप संजनी निद्दारे 'बलबिरवा' के मतवा बताव ॥4॥ 
बंद - हकौमवा सुल्ाओो कोई गुइयाँ, कोई लेझो री खबरिया भोर। 
ब्विरंकी से खिरंकी ज्यों फिरकी फिरत दुओ, पिरंकी उठंल बड़े ओर ॥९॥ 


झर्थात्‌--अरी सखी, तू भी नहीं बताती । वू भी मुके भूठे ही बहल्ला रही है। भेरी 
सौत का मुख झाज उदास क्‍यों है! आज क्‍यों मेरी छाती पर हाथ रखकर सुख से 
किस काम के लिए बलवीर प्रीतम आँखें मूद देते ये ! मेरी आँखें आज भी भर आती 
हैं। मैं नहीं जानती कि क्यों उसे देखने के लिए बढ़ा चाव हो रहा है। वे मी छिप-छिप- 


१, भार | ६६ पैर। ३० सीधा । ४० अगल-बगल | ५, जरी का तार। ६० उभड़े 
हुए | ७ नई। 5५ भोलीमाली । ६० प्राणाधार। १० वउ-सावित्री के पव॑ का दिन । 
९ रगड़, संघर्ष। १३५ चाहक, व्यर्थ | १३. पति और वट-बृत्त | १४० पीपल का 
पेड़ और पराया पतति। 


१४४ भौजपुरी के कवि और काब्य 


कर मुमको निहार रहे हैं | री उल्ी, उत्र बश्वीर का मेरे साथ क्या रिश्ता है, बताओो। 
श्री सखी, किसी वैद्य-हकीम को बुला ले आओश्रो, जो भेरी खबर तके। मुझे दो पिरक्ी' 
( दो कुच ) बड़े जोर की उठ भाई हैं। मैं इध खिड़की से उस खिड़की तक फिरकी की 
तरह ( छट्पटाकर ) दौड़ा करती हूँ। 
ज्ञात यौवना 
हथ-गोढ़वा * के लिया निरख के छुतिलिया मंगन दोली मनवाँ मेंकार । 
हेरी-हैरी जोबमा निदहाारे दरपनवाँ में घेरि - घेरि अँचरा उघार ॥३०॥ 
उठले जोबनवाँ मेहर के भवगयाँ गवनवाँ भयत्ल॒ दिन चार। 
भावे नाहीं गोरिया के गुड़िया के खेल नीकू ल्ागे बल्नबिरा भतार ॥११॥ 
फिरती रोहनियाँ 3 जोबनवाँ के पतनियाँ ४ जवनियाँ चढ़त्त घनघोर। 
रोवेज्ञी सवतिया निरखि के पिरितिया, बढ़त “बतल्बिरवा” के जोर ॥११९॥ 
तोहरी नजरिया री प्राण पियरिया मछुरिया कहेले कवि क्ोग। 
तोहरा जोबनवाँ त बेखवा के फल “'बलबिरवा' के हथवा ही जोग ॥१३॥ 


नवोढ़ा 
दृथवा पकरि हुओ बहियाँ जकरि पिय, सेजिया बैठाने जस ज्ञाग ५। 
सबक-पटक सानो बिज्ञुरी छुटक 'बत्नबिरबा? के कोरवा से भाग ॥१४॥ 


विश्रव्ध नवोढ़ा 
घुकुर-पुकुर'॑ सब अपने छूटल अब, रसे-रसे जियरा थिरान। 
सेजिया के भीरी* गोरी जाके देवे लागत “बलबिरवा? के हथवा में पाव ॥१५॥ 


सध्या 
बगरे* सुतैज्ञी मोरी ननदढ़ी जिठनियाँ बियहवत्र हुलदववा मैं कजाडें.। 
रतियाँ के उठे सैयाँ ९ चोरवा की नेयाँ १" त्ञाजन घरतिया गरि जाएँ ॥|१३६॥ 
लजिया की बतिया ई कैम्ने कहौं ऐ भौजी जे मोरे-बूते** कहलो न जाय | 
पर** के फगुनवाँ के सियल्ली चोलियवा में, असो१ 5 न जोबनवा झमाय १४ ॥१७॥ 
छतियाँ लगति रस बतियाँ पगति पारी रतियाँ जगति बिध केल । 
मैया भेया न सुहावे सनमथवा खतावै सन भावै “बलबिरवा' के खेल ॥१५॥ 
परकीया 
जनम-जनस दर पुनवाँ१५ के फल मोरे गडरि-गोसाइनि१* हेरि। 
महया | जोर करवा में साँगो इहे बव॒रा १९ जे कीजे 'बलबिरवा की चेरि ॥१९॥ 
१ फोड़ा । ३० हाथ-पैर । ३. रंगत, रोशनी । ४« पानी, शोभा। » जेंधे दी 
( बेठाने ) लगा ।६« धड़कन, हिचऊ | ७, निकट । ८५० वगल में ही | ६« स्वामी । 


१० तरह। ११% सुकग्रे। १३ गत बपे। १३७ इस वषे। १४७ अँठना। 
९५. पुण्य । १६८ स्वामिनी पार्वती | १७ हाथ। १८ वरदान । 


बाबू रामकझृष्ण वर्मा 'बलवीर 


गुप्ता परकीया 
ननदी जिठनियाँ रिसावें चाहे गोइयाँ मारे मोहिं ससुरा भवार। 
बगरे। की कोठरी में सूतब न दैया उहाँ, झपटेला सुखवा-बिहार ॥ २० ॥ 
वचनविदग्धा 


सखी न सहैली में तो पड़लीं अकेली, मोरी सोने-सी इजतिय्रा बचाव । 
हथगोद़वा में मेंहदी लगल 'बलबीर” मोरा, गिर&ल* अंचरवा घराव3 ॥ २१॥ 


रूपगर्विता 


मोरी बहियाँ बतावे 'बलबिरचा” सरोजवा, त हरवा गरवा में किए न देत । 
जब मुँहवाँ कहला मोर चेंद॒वा सरिस, कहु चेँदवे निरखि कि न लेत ॥ २२ ॥ 
भावषार्थ--हे सखि | वह नायक, मेरी बॉहों को कमलनाल कहता है तो उस को क्यो नहीं 


बनाकर अपने गले में डालता है। वह मेरे सुख को चन्द्रमा के समान कहता है तब उससे 
कि चन्द्रमा को द्वी देख लिया करे । 


प्रोषितपतिका 


फुलिहें अनरवा सेमर कफचनरवा पतासवा गुलबवा अनन्त | 
बिरद्या" क बिरवा$ लगायो “बल्लबिरवा” सो फुलिहें जो आयो है बसंत ॥ २३ ॥ 
रजवा» करत सोर रजवा< मथुरवा में हम सब भइलीं फकीर । 
इमरी पिरितिया निबाहे कैसे ऊधो, 'बलबिरवा”?* की जतिया अद्दीर२१० ॥ २४॥ 


खंडितवा 
ओझोठवा के छोरवा कजरवा, कपोलवा प॑ पिकवा के परली त्ञकीर। 
तोरी करनी सम्ुझ के करेजवा फटत;: द्रपनवाँ निहारो बलबीर॥ रण 


तोरी ज्षटपट पिया औ डगमग डेगिया"१ तू अगिया ल्गावे मोरे जान। 
जावो छावो १९ बोही गेहिया १३ छगावो जहाँ नेहिया, तू, जावो बलबिरऊ सुजान ॥ २६ 


जउत्कंठिता 
डगरा" ४ के लोगवा से कगरा भइल किधों बगरा१५ के लोगवा नराज १ १। 
सगरा रयन सोहि तकते बितल्ल बलबिरवा न आयल केदि काज॥ २७॥ 





१. पास के। २. खिसका हुआ। ६ पकडाओ। 8, क्‍्यों। ४, वियोग । ६. पौधा । ७, राज्य | ८. प्रिय (राजा) 


६. बचदेव के भाई ओ कृष्ण। १०. ग्वादा,हृदयह्दीन। ११५ डग। २६, विराजो, बसो। १३, गेह, घर। १४. रास्ता 
३५८ पढोस। १६, नाराज, जसंतुष्ट । 


श्ष्प्र 


भोजपुरी के कवि और काव्य 


तृप्त न कियो में तपनादिक तें पिन्ननि को, 
देह पिण्ड दान गया रिन न चुकायों में। 
एक प्रभ्मु चरन सरोज रति पाये बिना, 
विषय लोभाय हाय समय बितायो में ॥श॥ 


(३) 
बह्ठव्लीं ना देव कबो मन्द्िरि न बनवलीं, 
घटिया-चटसार के खरच ना चुकौलीं हम। 
खोदवलीं ना कफूप कबो पंथी पथ जीवन के, 
हेत बिसराम घर सी ना उठवलीं हम, 
लवलीं ना आराम जे आराम के देवेया जग, 
बौली खोदवलीं ना तड़ाग बनबवलीं हम | 
एक प्रभु चरन सरोज रति पवल्ले बिना, 
बिसय लुभाई हाइ समय बितवली हम ॥शा 


ब्रजभाषा 


थाप्यो मैं न देव कबो मंदिर बघनायो नहीं, 
नहीं पाठशालन कौ खरच चुकायो में। 
खोद्यो में न कूप कबों पंथी पथ जीवन के, 
हेत बिसराम पथगृह न उठायो में। 
लायौ न अराम जे अराम के देवेया जग, 
बापी हूँ खुनायो न तड़ाग बनवायो में । 
एक प्रभ्नु चरन सरोज रति पाये बिना, 
विषय लोभाय द्ाथ समय बितायो में ॥शा 
( ४) 
थहल्नीं बहुत सिंधु खोदलीं बहुत भूमि, 
गारि-गारि भूरि रस धातु के गलौलीं हम। 
तोरतीं अनेक सिला फोरलीं कतेक गिरि, 
ढदली अनेक गढ़ ज्ञोभ ललचौलीं हम ।॥॥ 
जतन त॑ कइलीं बहुत कंचन रतन हेतु, 
पवलीं ना कुछुओ दूथा बुद्धि के थकवलीं हम । 
एक प्रभु चरन सरोज रति पवल्ले बिना। 
विषय लोभाई हाइ ससय बितवलीं हम ॥श॥ 


ब्रजभाषा 
डोहो मैं बहुत सिन्धु खोद्यो मैं बहुत भूमि, 
डारि-डारि भूरि रस घातुदि गल्लायो में। 
तोरयो मैं बहुत सिला, फोरयो मैं बहुत गिरि, 
ढाह्मो में बहुत गढ़ लोभ ललचायो मैं॥ 
जतन कियो में यहु कंचत रतन हेतु, 
पायो मैं कछू नद्ञथा बुद्धि ही थकायो मैं। 


साहेब दास श्षह्‌ 


एक प्रभु चरन सरोज्ञ रति पाये बिना। 
विषय लोभाय हाय समय बितायो में ॥४७॥ 


( ५) 
पचलीं ना कबो हा बिनोद्‌ वर विद्या के, 
चौसठों कत्ना में ना एको अपनवली हम । 
कम में बसौल्ली ना उपासना में मन लवबलीं, 
नाहीं चित्त मात्र सत रूप में टिकवलीं हम ॥ 
लोको ना सधलीं परलोक के ना सधलीं काम, 
हाय छलुथा पाह नर-जनस गॉचव्ली हम ॥ 
एक प्रभु चरन सरोज रति पवतल्ने बिना। 
बिसय लुभाई दाद समय बितवलीं हम ॥णा 


ब्रजभाषा 


पायो मैं न कबो बिनोद वर विद्या को, 
चौसठों कल्ला में हूँ न एक अपनायो में। 
कर्म में बलायो न उपासना में लायो मन, 
नहीं चित्त मात्र सत-हूप में टिकायो मैं॥ 
लोक को न साध्यो परलोक को न साध्यो काम, 
हाथ बुधा पाय नर-जनस गाँवायों में। 
एक प्रभु चरन सरोज रज पाये बिना। 
बिसय लोभाय हाय समय बितायो में ॥५॥ 


कवि टॉँकी 
आप गया जिले के भाँठ कवि थे। आपका समय उन्नीसवीं शताब्दी का पूर्वार््ध था, जब रेलगाड़ी 
बिहार में पहले-पहल दौड़ी थी। 
चलल रेलगाड़ी. रेंगरेज. तेजधारी , 
बोभाए खुब भारी हृहकार कइले जात बा। 
बहसे सब सूबा जहाँ बात हो अजूबा , 
रैंगरेज मनसूबा सब लोग के सुहाठ बा ॥ 
कहीं नदी अठर नाला बाँधे जप्जुना में पुत्त , 
कतना हजार लोग के होत गुजरान बा॥ 
कहे कवि दाँकी बात राखि बाँघि साँची , 
हवा के समान रेलगाड़ी चलि जात बा ॥ 





साहेब दास 
आप शाहाबाद जिले के भॉठ कवि थे। आपकी भोजपुरी-रचनाएँ भोंठों के कएठ में बहुत है। 
आपका समय इंस्टइंडिया कम्पनी का राज्य-काल था। 


कम्पनी अनजान जान नकल के बना के सान , 
पवन के छिपाइ मेदान में धरवज्ञे बा। 


१४० भोजपुरी के कवि और काव्य 


तार देत बार-बार खबर लेत आर-पार , 
चेत करु टिकटदार गाड़ी के बोलवले बा॥ 
कहैला से करे काज मालर अजबदार , 
जे जइसन"* चढ़नहार ओइ््सन? घर पचले बा ॥ 
कहे कवि साहेब दास” अजब चाल रेल के , 
जे जहाँ चाहे ताके तहाँ पहुँचवले बा॥ 





रमेया बाबा 


रमैया बाबा शाहाबाद जिले के 'डिहरी” गॉव में रहा करते थे। ये कीनाराम बाबा के चेलों में से 
अपनेकी - कहते थे। आपका मत ओऔघडू-पन्थी था। आपके शिष्य का नास खुब्बा बाबा था। 
खुब्बा भी कविता करते थे। रमैया बाबा के भोजपुरी के गीत जन-करठों मे आज भो वर्तमान है। 
डुमरॉव, शाहाबाद के पचपन वर्षीय 'शिवपूजन साहु” से उनका परिचय और एक गौत के कुछ चरण 
ग्राप्त हुए है। आपका समय १६ वां सदी के अंत और २० वीं के प्रारम्भ का है। 
रमेया बाबा जगवा में मूल बा रुपेया॥ 
माई कहे ईत 5 >बेटा आपन भगिनी कहे संगमैया, 
घर के नारि पुरुषण सम जाने निति उठि लेत बलैया ॥ 
परन्तु ये सभी रुपये के अभाव में क्या करती हैं-- 
माई कहे बेटा ई कइसन" बह्नी कहे कट्सन भाई । 
घर के नारि कुकुर अस जाने निति उठि लेति लड़ाई ॥ 





श्री बकस कवि 


आप शाहाबाद जिले के रहनेवाले थे। आपका समय १६ वीं सदी का उत्तरा्ड है, जब रेल बिहार 
में जारी की गईं थी। आपका विशेष परिचय तथा कविताएँ प्राप्त न हो सवीं। 
घना क्षरी 

भक-भक करत, चलत जब हक हक , 

घधक धक करत, धरती धम धमके 
कम-कम $ चले में बाज़ि रहे सम.मूम 
छुम-छुम चले में चमचम चमके 

कहे 'बकस”' असमान के विमान जात 
सोभा उड़ाते, असूत्षे» दाम टटके< 
अइसों में चटक* कहीं न देखों अटक१ ० 
धारी१ १ देखि भटके, आपिस्त पर पटके १ २॥ 





कप किव टिकी न तानस्लतनन निज ननन नस त्नन््र 
१. छसा। २. वता। ३. यह ती। 8, पति। ४५ फंसा। ५: धीरे-धीरे। ०, बसुतती है। ५. ताचा, दृरत 
६. फुर्तीका। २० रुकावठ। ११. भांडा। १९ पहुंचाती दै। 


लह्कुमनदास १४१ 
लछुमनदास 


लछुमनदास के गीत तो बहुत-से प्राप्त है, पर नाम-आम का ठिकाना नहीं मिला। आपके प्राप्त 
गीतो मे शगार और शान्त गौत अधिक मिले हैं। आप शाहाबाद या सारन जिले के निवासी थे। 
आपके एक गीत में 'तिलंगा” शब्द का प्रयोग हुआ है. जिससे ज्ञात होता है, कि आप सन्‌ 
१८४७ ३० के राजविद्रोह के समय या उसके बाद तक जीवित थे। 
खेमटा 
( १) 
पनिघटवा नजरिया सटलर बाटे3 ॥ टेक ॥ 
काली काली पुतरी मिलल एक दि्सि? , उपरा पलकिया" हटठल*९ बाटे। 
टारे नजर नहीं, हारे ग्रुज़रिया,० बॉका सँवलिया डटल८ बाटे॥ 
कहैला लछुमन श्री राधे के मनवा, स्यामसुनर से पटल बाटे॥ 
पनघट पर श्याम की नजर (सटी हुईं) लगी हुई है। काली-काली पुतलियों उसी दिशा में लगी 
हुईं है और उनके ऊपर की पलके हटी हुईं है अयौत्‌ निर्निमिष श्याम पानी भरती हुईं राधा को 
निहार रहे है। श्याम की नजर राधिका की ओर से हटती नहीं और राधिका भी उन्हें एकटक 
निहारने में हार नहीं मानना चाहतीं। बॉका कृष्ण इस नजर के युद्ध में डटा हुआ दे। लक्ष्मणदास 
कहते है कि श्री राधिकाजी का मन श्यामस॒न्दर से खूब लग गया है। 


(२) 

पेंया लागों, सुरतिया दिखाये जा ॥ टैक ॥ 

एक त जंगल में मोर बोलत बाठे, दूजे कोइलरि करे सोर । 

मोरे राजा, अटरिया पर शआआाजा॥ 

बिरहा सतावे मदन सारी रतिया, जोबना करेला जोर। 

मोरे राजा, नजरिया लड़ाये जा।॥। 

कहे ल्छुसन तरसावो न आवो, भइल्तीं बदनाम होला सोर। 

मोरे राजा सुरलिया बजाये जा॥ 

है श्याम मैं | पॉव पढ़ती हूँ । अपना रूप तू मुझे दिखा जा। एक ओर तो जंगल में ये मोर बोल 

रहे हैं और दूसरी ओर यह कोयल शोर मचा रही है। हे मेरे राजा ! (इस बरसात में) तू अटारी पर 
आजा। मुझे सारी रात तुम्हारा बिरह सताया करता है और मदन ऊपर से परीशान करता रहता है। 
मेरा थौवन जोर मार रहा है। हें मेरे राजा, तुम एक बार तो आकर भुमते आँखें लड़ा जाओ। 
लक्ष्मण कहते हैं कि हे मेरे बालम, अब अधिक न तरसाओ। कृपा करके जल्द आओ मै तुम्हारे 
लिए बदनाम हो गईं हैूँ। तमाम इस बदनामी का शोर हो रहा है। हे भेरे राजा, जरा आकर तू 
मुरली भी तो बजा जा। 


( हे) 
तनी देखो सिपाही बने मजेदार ॥ टेक ॥ 
कोई सिपाही ओ कोई तिलंगा, 
कोई सखी खाजे ठाट सूबेदार ॥ 


१. पनचट | २. सदा हुआ | ३. है। 8, दिशा, ओर | ५, पढके। ६. दृटा हुआ, विषय । ७० गायिका | ८. डठा हुआ। 
६, मेत-मिक्षाप, खूब पटरी बी हुई है । 


. शप्नर भोजपुरी के कवि और काव्य 


कोई भुजाली* औ कोई कठारी, 
कोई दुनाली कसे हर बार॥ 
बन-ठन के राधा चलली कुजन में 
ध्योर घरेली ललकार ॥ 
लछुमन दास हाथ नाहीं आवत 
भागल फिरेला जसोदा-कुमार ॥ तनी देखो० ॥ 

(गीत में सन्‌ १६४७ ई० के विद्रोह के समय के सिपाहियों का चित्र खींचा गया है।) कवि कहता 
हे-..जरा देखो तो ये सिपाही कितने सजेदार हैं। कोई तो सखी-सिपाही है और कोई तिलंगा है, 
(अँगरेजो की सेना के तैलंगी सिपाही)। कोई सिक्‍ख सूबेदार के ठाठ में सजी है। किसी के हाथ भुजाली 
है और कोई कटारी से लैस है, तो कोई दुनाली बन्दुक से ही सुसज्जित है। इस तरह से बन ठन कर 
सैन्य सजाकर राधा जज में दधि-माखन के चोर (कृष्ण) को पकड़ने के लिए चली और कुज में 
ललकार-ललकार कर चोर (माखन चोर और चित्तचोर ) पकढ़ना चाहती हैं। पर, लक्ष्मणदास कहते 
है कि यशोदा-कुमार राधा के हाथ नहीं लगता। वह भागता फिरता है (सखियों की सेना को कवि 
ने अँगरेजी सेना के ढंग पर कितना मजेदार सजाया है। ) 

(४) 
राजा हमके चुनरिया रेंगाइ दु$॥ टेक ॥ 
सुरुखर चुनरिया जरद्‌3 हो बूटियाँ, 
ओरे-ओरेड गोटा-किनारी टेंकाइ दु$ ॥ 
ओऑऔँगिया अनोखी मदनपुरी सारी 
तापर बदामी चद्रिया मैंगाइ दु5॥ 
'लछुमनदास” सगन जब होखे 
तनी एक हँसिके नजरिया मिलाह दुई ॥ 


सुन्दर ( वेश्या ) 


भारत से जब अ्ँंगरेजो का राज्य स्थापित हुआ था तब उनके विरुद्ध आवाज उठानेवाले देश- 
प्रेमियो को बदमाशों की श्रेणी में गणना करके वे जेल भेजवाते थे और फाँसी तक चढ़ा देंते थे। 
कुछ अगरेजों के दलाल भी थे। उन्हीं दलालों में से मिजौपुर का एक 'मिसिर? नामक व्यक्ति था। 
उसने एक भले घर की “उन्दर“नामक कन्या को बलात्‌ पकड़ मेंगाया था और उसे वेश्या बनाकर 
रख लिया था। इधर काशी में 'नागर”नामक पहलवान अँगरेजों के हर बुरे आचरण और मिसिर- 
जैसे बदमाशों की हर बुरी हरकत का विरोध कर रहा था। उसने एक दिन मिसिर को भॉग छानने की 
दावत दी और मिसिर ने भी भोजन का निमन्त्रण दिया। 'ओमल' नामक नाले पर, चाँदनी रात 
मे, दोनों दलों ने भॉग-बूटी छानी और पूरी-तरकारी खाईं। भोग छानकर और भोजन कर लेने पर 
दोनो दलों में लाठी चलने लगी। मिसिर का दल परास्त हुआ। मिसिर के साथ आई “सुन्दर! नामक 
वेश्या ने नागर से अपनी करुण कहानी सुनाईं। “नागर” ने उसी छण अभय दान दिया और उसे अपनी 
बहन कहा । इस घटना के बाद नागर पर मिसिर ने पुनः आक्रमण किया; पर मिसिर मारा गया। 
“दुलदुल' के मेले मे भी अंगरेजो के खुशामदी मुसलमानों के ताजिये को “नागर? ने फाड़ दिया। मुकदमा 
.._ ;, नेपाणी गोरखा सिपाहियों का हथियार । २ सुर्ख छाल | ३, जद, पीला । ०, किनारे-किनारे। 


सुन्दर (वेश्या) १४३ 


चलने पर “नागर! को कालापानी की सजा दी गईं। नागर ने निर्भाक भाव से निर्णय सुना और 
रोते हुए शिष्यों को सान्‍्लना दे सुन्दर” वेश्या की जीविका के प्रबन्ध का आदिश दिया। सुन्दर द्वारा 
रचे भोजपुरी के पदों से जान पड़ता है कि वह ग्रतिमाशील कवयित्री थी। लोग जब “नायर? के 
मुकदमे का निर्णय सुनाने सुन्दर के पास चले, तब वह सब समझकर गंगा-किनारे 'नार-घाट! पर 
बैठी रोकर गा रही थी-- 


(१) 


झरे रामा नागर-नेया* जाला कात्लापनियाँ रे हरी । 

सभके त नैया जाला कासी हो बिसेसर* रामा, 

लागर' नेया जाला कालापनियाँ रे हरी । 
घरवा में रोबें नागर भाई ओ बहिनियाँ रासा, 

सेजिया पे रोचे बारी धनियाँउ रे हरी। 
ख़ुंटिया पे रोबें नागर ढाल-तरघरिया रासा, 

कोनवाँ४ में रोवे कढ़ाबिनियाँ”" रे हरी। 
रहियाई में रोबें तोर संघी और साथी रामा, 

नारघाट पे रोबें कसबिनियाँ७ रे हरी। 
ओोझला के नरवा पे भ<हल लड़॒इया रामा, 

अरे रामा चले लागल जझुलमीए भाता रे हरी । 
मिसिर के संगे बाटे सौ-सौ लाठीबजवा< रामा, 

हरि-हरि नागर संग बाटे छ्रीबजवा९ रे हरी। 
पदहर अढ़ाई लाठी-बिछुआ"" चलल  रामा, 

कुडा अस गुंडा भहरइलैं?१ रे हरी। 
कहवाँ तू छोड़ल नागर ढात्न-तरवरिया रामा, 

कहवाँ तूँ छोड़लत कढ़ाबिनियाँ रे हरी। 
ओकल! पे छोड़लीं साहेब, ढाल-तरवरिथा रामा, 

नारघाट छोड़लीं कढ़ाबिनियाँ रे इरी। 
निहुरि-निहुरि** हाकिम बांचेलें कगदवा रामा, 

बहे साहेब भेजे कालापनियाँ रें हरी। 
पुरुष के देसवा से आचे टोपीवल्नवा रामा, 

ढेरा डारे सुन्दर के ऑअगनवा रे हरी। 
भरि भरि कुरुई१३ सोना देवे टोपीवल्षवा रामा, 

नागर-तैया मत लेजो कालापनियाँ रे हरी। 
जो में जनतीयूं' नागर जह्॒ब5 काक्षापनियाँ रामा, 

ठोरे लगे अवतीयूँ बिजु गवनवाँ रे हरी। 


३, भाव | २, विश्वेश्वर, विश्वनाथ महादेव । ३, नई दुलहिन । 9, घर का कोना । ४० द्वाथ का एक हथियार, छोहवंद 
णठी । ६. शुत्ता। ७, वेश्या। ८ छाठी चल्ानेवाल्दे । £« छुरी चजानेवाले । १० एक हथियार । ११, गिर पढे । १९ झुक- 
झुककर | १३ मूंज या बाँस की बनी चोटी डलिया | 


श्पूड भोजपुरी के कंवि और काव्य 


“धाम! नामक पुरुष और “इन्दर! नामक वेश्या का पश्नोत्तर-- 
(२) 
इतना आँख न दिखाव5 तनी* धीरे वतिआव, 
साहीं हमर ऐसन पहचूे सहइसिया में। 
बानी रे सुधर जवान कहना मानों मेरी जान, 
रोज फजिरें० नहाइले पोखरिया में। 
हुईं" ऐसव रसीला साँग तीनों बेराई पी ला, 
सजा लूटीले घुमाझे दुपहरिया में। 
ऐसन तोहरो के * वनाइव, रोज भेंगिया छुनाइव, 
बढ़े साजा पइवू घीव्‌ के टिकरिया: में 
नोट रुपया लेआइव तोहरे हाथ में थम्ताइब, 
जानी* गिन5-गिन5 रखिह5 पेटरिया में। 
“बरसाती चाँद, घू० (४ 
(३) 
आँख रोज हम दिखाहव तोहसे टेढ़ बतिद्याइब,१० 
नाहीं केहुस*) डेराइव हम सहरिया में। 
बाड़ सुघर जवान ठीक सुसहर”* समान, 
चूदा मारल करिह5 रोज तू वधरिया+3 में। 
तोडरे ऐसन भैंगेरी रोज चार्दे हमार ऐंडी. 
भोरे आइके इसरे ओसरिया दें में । 
हमें शेखी दा दिखाव5 कोई गर के श्ुलाव5 
तोहरे बजलर परे?" घीव के टिकरिया में। 
सोहर - रुपया से नोट गिन्नी बढ़ा और छोट, 
इमरे सरल वाटे अपने पेटरिया में। 
धरसाती चोँदः, घ्ू० १३ 





अम्बिकाग्रसाद 


| 


हि । 
््ड लय 


ज॒यू अम्विकाग्रताद आरा? की कलकटरी 
आरा में भोजपुर्स .का अध्ययन ओर सोजपुरी-कविताओं 


करते थे। जब सर जाने ड्रिययन साहत 
ऋह कर रहे थे, दव आप काफी कविताएं 
खिख चुके थे । आपके वहुत-ते गातों की ग्रियरन साहव ने अयरेजी-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी करुया 
था। आपकी कविताओं के कुछ उदाहरण भारतेन्दु हरिक्षद्धजी ने भी अपनी “हिन्दी-भाषा! नामक 
पुस्तक में दिये हैं। आपके परिचय के उम्वन्ध में इतना ही संकेत है कि “भुशी अम्बिका प्रताद 
मुब्तार, फोजदारी ओर कन्तक्टरी, जिला शाह्ववाद ; मालिक हिस्तेदार, मौजा अपहर, परयना गोआ, 
जि० सारन छन भजनावली से ।” इसे पता चलता हैं किआप तो रहनेंवाले शाहावाद के थे; पर 


मुख्तारों 


न्‍ 


च्चु 
| 


| रु ढ् 


? ॥॥ 


३. उरा-छा, तनिक्त । ६. पाजोदी। ३. हैं, हूँ। 8. भोर में। ५. हैँ। ६. देखा! ७- तुनकों ची। ८ रीठो 
डिकरी (मिठाई) | £ प्यारी । १० बआवचीत करेंगी । ६१५ दिंठी ले । १२९ एक उछाटि का नाम । २३० ब्वार--हस्ती ते व्यदर 
का छेत-मेंदान । १४. कीठारा, दरानदा ! १५. वह पढ़े। 


अम्बिकाप्रसाद १५५ 


आपकी जमींदारी 'सारन” जिले में भी थी और आपने “भजनावली'नामक कविता-पुस्तक की रचना 
की थी जिससे दरिश्वन्द्रणी ने तीन-चार कविताएँ उद्ध,त की थीं। 


(१) 


पहिले गवमवाँ पिया माँगे पलुंगिया चढ़ि घोलावेले हो। 
ललना पिया बान्हें टेढ़ी रे पगरिया' त मोरा नाहीं भावे* रे ॥ 
एक तो मैं अगवा के पातररें दूसरे गरभ सेई" रे। 
तज्लना तीसरे बाबा के दुलरुई *बेदनवा कइसे* अगइबि< रे॥ 
सासु मोरा सुतल्ि ओसेरवा, ननद गज ओवरि* रे, 
ललना सइयाँ मोरे सुतेले अटदरिया त कइसे के जगाइबि रे॥ 
पान फेंकि मरलो सजन के से अबरू" लवेंग फ्रेंकि रे, 
ललना सभ अ्रभरन फेंकि मरलो तबहूँ नाहीं जागे ले रे॥ 
सासु मोरी आवेज्ी ग्रावदत*" ननदी बज्ञावइत"* रे, 
ललना सद्दयाँ मोरे हरखित होखे ले, मोहरा लुटावेत्ते रे ॥ 
अस्बिका प्रसाद! सोहर गावेले, गाइके सुनावेले रे, 
ललना दिन-दिन बाढ़ो ननन्‍्दलाल, सोहरवा मोदि भावेत्रे रे। 


निम्नलिखित भूमर को हरिश्वन्द्रजी ने अपनी 'हिन्दी-साषा-नामक” पुस्तक में उद्ध,त किया है। 
इसे प्रिय साहब ने भी उद्ध,त किया। 


मूमर 
(२) 


मारत वा 3 गरियावत"< या 
देख» इदहे करिखददवा "मोदहि मारत वा ॥१॥ 
आँगन कइलों)९ पानि भरि लद॒लों)७ 
ताहु ऊपर लुलुआवत")< बा ॥शा 
कत**  सौतिन के माने माई 
हमरा गेंवही*"  बनावत बा।॥हे॥ 
ना हम चोरिनो, ना हम चटनी" 
झुठहू अछुरेंगरं लगावत  बातशश। 
सात गदहा के मार मोहि मारे 
सूअर अस घिसिश्रावतरेड बावाणा॥ 
देखहु ऐ मोरे  पार-परोसिनि 
गाई पर गद॒हा चढ़ाचत बारेंए हद 





३. पगढ़ी। २. जच्चा तगता। ३. शरीर | 8. क्षीण। ४. गे का सेवन करना। ६. दुलारी। 
० किस तरहं। ८. सहूँगी। ६ धुद्दानी, रसोदे घर। १० जौर। ११. गाती। १९ बजाती। १६ है। 
१8, पक प्रकार की गाज्ी। १४. मुद्दा, काण्षिस्त क्षय हुआ, कब्ंकी। १६. आँगन साफ किया। १७ के 
जाई। ३८: भिड़क करके छजवाना। १६. कहाँ २०. गाँव की गंवारिन। २१. 'बढोर।२९ क॒कंक। २३. घसीटता 
है। २४. “गाय पर गद्य चढ़ाना' मोजपुरी मुद्दावरा। 


१५६ भोजपुरी के कवि और काव्य 


पियवा गवॉर कहल नहि बूझत 
पनियाँ में आगि लगावत बा" ॥ण। 
है अम्बिका तूही बूक कर5 अब 
अचेरा उड़ाई गोहरावत३ बा ॥ढा। 


नीचे का गौत उस स्मय रचा गया था, जब बिहार की कचहरियों में उदू-लिपि के स्थान पर 
नागरी-लिपि के प्रयोग की सरकार द्वारा घोषणा हुईं थी। - 


(३) 


हुकुम भदल सरकारी, रे नर सीख नगरिया । 
जामिनि लिपि जी से देहु हुराई ॥१॥ 

ले पोथी नित पाठ कर5 अब 

जामिन पुत्थ* देहु पेसरिया” ॥२॥ 

जबले नागरि आवत नाहीं 

कैथी श्रत्तर लिख कचहरिया ॥३२॥ 

घन मंत्री परजा हितकारी 

अग्बिका सनावत राज बिक्टोरिया ॥४॥ 


(४) 
रोह रोह पतिया* लिखत सब सखिया, 
कब होहहेँ तोहरी अवनवा» रे हरी ॥ 
कवन ऐसन चुक भइलिं हमरा से 
तेजि हमें गइलीं मधुबनवा रे हरी ॥ 
प्रीति के रीति कछुह नहिं जानत 
हव$८ तू जाति अहीरवा रे हरी॥ 
पिछुली प्रीत्ति याद कर अब का 
कहि गइले कुब॒जा भवनवा रे हरी ॥ 
अस्बिका प्रसाद! दरस तोहि पहदतों 
छोड़ितों न रठरी' चरनिया रे हरी ॥ 


(५) 
मोरा पिछुअरवा+० लील रेंग खेतवा, 
बलसु हो, लोल रंग चुनरी रेँगाद5 ॥ 
चुनरी पहिरह त5 जाढ़ा मोरे लगले, 
बल्लमु हो, सलवा-दुसालवा ओढ़ादु5॥ 
सलवा-दोसलवा से गरमी छिटकली, 
बलमु हो, रते-रसे बेनिया** डोलादु ॥ 
बेनिया छुलवइत बेंहिया सुरुकली १, 
३ भोजपुरी मुहावरा। ७ आँचर उढ़ाना ( बेश्लत करना )--मोजएुरी मुद्दावरा | ३. जोर मे पुकारना। », वंस्ता! 


५४५ पैसारी, जो कागज की पुढिया में सामाव बेचता है। ६ चिंट्ठी। ७ आगमन। ८ दी। ६ आपकी। 
१०, धर के पीछे। ११५ छोटा प॑खा। १६ भोच खा यई। 


कवि बदरी १५७ 


बलसु हो, पटना के बेंदा बोलादड ॥ 
बेदा जे माँगेला साठि रुपइया, 
घलमसु हो, तनि एका मौहरा सजाद5 ॥ 
मोहरा भेंजवइत जियरा निकलले, 
बलसु हो, भेहरी भइली जियरा के का ॥ 





कवि बदरी 
आपका परिचय इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं प्राप्त हो सका कि आप जनप्रिय कवि थे। आपका 


ग्राम तथा समय ज्ञात नहीं है। आपकी निम्नलिखित कविताएँ प्रकाशित संग्रहो से ली गई है। आपकी 
रचना प्रौढ होती थी । 


भूमर 


(१) 
घेली बन फूले चमेली बन फूले ताहि" फूत्ते 
गजे-गूंजे रे भैंववा रे ताहि फूले ॥शा 
लोभी भँवरत्रा फिरत ज॑ंगलवा नया रस खोजे 
खोजे रे मेंवरवा, नया रस खोजे ॥र॥ 
तेरो रंग श्याम सोर* गइले सधुबनवाँ कुबरी से 
लोभे लोसे रे संवरवा कुबरी से ॥श॥। 
कारे कुबेर के परतीत हमें नाहीं' 
मानों मानों रे मँवरवाँ पीरीत हमें नाहीं ॥श॥ 
कर जोरि बितय करत 'बद्री? तनी3 न्यारे रहू 
न्‍्यारे रहु रहु रे भेंवरवा, न्‍यारे रहु ॥णा 


(२) 
फहवाँ जे जनमलेोडें कुबेर कन्हहया हरि झुमरी। 
कहवाँ जे बाजह बधइया खेलत हरि झुमरी ॥9॥ 
मथुरा में जनमले श्री यदुर॒इ॒या हरि झुमरी। 
गोकुला में बजत बधइया खेलत हरि झुसरी॥ 
कौन बन मोहन चरावे घेनू गहया हरि झुमरी। 
.. कौन बन बाजेला बँसुरिया खेलत हरि झुमरी॥ 
बृन्दाबन कान्हा गहया चरावे हरि झुमरी। 
कंज बन बाजेला बँसुरिया खेलत हरि छुमरी ॥शा। 
केकरा संग कान्हा दिन हुपहरिया खेले हरि सुमरी। 
केकरा मोदेले» अधि-रतिया, खेलत हरि झुमरी ॥ 
ग्वालन सँँग खेले कांधघा दिन दुपहरिया हरि झुमरी। 
गोपिन भोहेले प्रघरतिया खेलत हरि भुमरी।॥७ी। 
धन भाग बनन्‍्दु-जसोदा जी महया हरि कुमरी। 
बद्री दरषि गुग गावे खेलत हरि कझुमरी ॥०॥ 


३. उस। २ मेरे। ३. जरा-सा। $ पैदा हुए। ५, मोदते हैं। 


श्ष्द् भोजपुरी के कवि और काव्य 


विश्वनाथ 


आपका परिचय अज्ञात है, किन्तु आपके दो गीत श्री कृष्णदेव उपान्याय-कृत “भोजपुरी ऋम- 
गीत' के दूसरे भाग में मिले हैं। अनुमानतः आपका जन्म-स्थान बलिया जिले में था। 
(१) 
सइयाँ मोरे गइले शामा पुरबी बनिज़िया)। 
से लेइ हो अइले ना, रस-बेंदुली* टिकुलिया ॥ 
से लेइहो अइले ना॥९॥ 


टिकुली में सादि रामा बइठलीं2 अठरिया। 
से चमके लागे ना, भोरे बेंदुली टिकुलिया ॥ 
से चमके लागे ना॥२॥ 


घोड़वा चढ़ल आचे राजा के छोकड़वा5। 
से धढ़के लागे ना, मोरे कोमल करेजचा।। 
से धड़के लागे ना।।३॥ 


खोलु-खोलु धनिया आरे" बजर-केवरिया+ई । 
से आजु तोरा ना, अइले सहयाँ परदेसिया |॥ 
से आजु तोरा ना ॥४॥ 


कहे 'विश्वनाथ'ं धनि» हवे तोर भगिया। 
से छुम-छुम बाजे ना, द्वार खोलत पेंजनिया ॥ 
से छुम-छुम बाजे ना॥ाणा। 


(२) 
बेंसद्वा८ चढल सिंव के अइले चरिअ्रतिया राम। 
ढेराला जिभ्रा, अँगवा' लपेटले बाड़े*" साँप ॥ 
ऐ छेराला जिश्वरा ॥१॥ 


अँंगवा भभूत") सोभे गले सुण्डसात्रा राम। 
ढेराल्ा जिग्ररा, नागवा छोड़ेले फुफुकार ॥ 
ऐ देराला जिभरा॥शा 


सन में विचारे 'सेताः गडरा*२ अति सुन्दर राम । 
डेराला)53 जिश्वरा, बरवा मिलेले बडराह"४॥ 
ऐ डेराला जिआ्रा ॥हे॥ 
नारद बाबा के हम काद्दी* रे बिगड़लीं)* रास । 
डेशला जिश्ारा बरवा*० खोजेले बडउराह ॥ 
ऐे ढेराज्ञा जिञ्वरा॥श॥। 
$« पूर्व देश में व्यापार करने के दिए । २. छोटी चिन्दुली । ३. बैठी । 8. घोकरा, पुत्र । ४» रे, जरे। ६. पचू के समान 


मजबूत किवाड । ०, घत्य। ८ झिव का वाहन बैल। ६. शरीर में। १० छपेठे हुए हैं। ११५ विशृति, भस्म । 
१२, पावेती । १६६ भय खाता है। १४ छड़वंगी, नशावाज | १४५ क्या १९५ बिगाढा है। ३७ वर दुल्दा। 


सुखदेवजी 


अइसन बडरहवा से हम 'गठरा? ना विश्नदवों राम। 
ढेराला जिशरा, बलु" 'गठरा! रहिहैं कुंआर ॥ 

ऐ डेराला जिशरा॥णा 
कहत “विश्वनाथ! तनि भेखवा बदलि दृुउ राम। 
ढेराला जिअरा, नहृहरा के लोग पतिश्रास* ॥ 

ऐ डेराला जिश्वरा॥६॥ 


१५६ 


रघुवंशजी 


आपका भी परिचय नहीं मिला। आपके प्राप्त गीतों से ज्ञात होता है कि किसी याचक (भाट या 
पवरिया)-कुल में आपका जन्म हुआ था। 
भादो रेन अऑधिभ्रिया जिया, मोरे तड़पेला ढेर, 
ललना गरजि-गरजि देव बरिसेले दामिनि चमकेलि रे ॥ 
सूतल3 बानी कि जागल सामी” उठि बहइवहु रे॥ 
ललना हम धनि बेदने* बिश्ाकुल, देह मोरी अ्रदँठेलि० रे ॥ 
सुनु-स॒च॒धनियाँ सुलदुनि<, दूसर जनि गुनचहु* रे, 
ललना धीरे-धीरे बेदना निवारहु, कंस” जनि सुनेह रे ॥ 
आधी रेन सिरानिहु** त रोहिनी तुल्ानिहु*१ रे, 
ललना जनम लिहलें जदुनन्दन बिपति भुज्ञानिहु रे॥ 
सने मन देवकी अ्रानंदेली, बंधन छुटलहु रे, 
ललना हरि जे लिहले+* अवतार करम 3 कंस” फुटलहु रे॥ 
याचक्र जन 'रघुबंश' सोहर इहे गावेले रे, 
ललना द॑रिहर-चरन मनावहु, परम पद पाइअहु रे॥ 


सुखदेवजी 


आप शाहाबाद जिजे के किसी प्राम के निवासी थे । आप हरिशरण के शिष्य थे । आपके सम्बन्ध 
में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी । एक साधु से आपके दो गीत मिले, जो नीचे उद्धृत है-- 
(१) 
समुझ्ति परी *४ जब जहृब5 कचहरी १० । 
कुछु दिना झछुललन गोद-हिंडोज्वन, कुछु ना खेआल करी । 
'भानुसती” के बदन निरेखल भानों मनोरमा बनी खड़ी, 
ईं तन पवल5" ध्बड़ा भाग से खाल5१० पशु-पंछी-मछुरी । 
ई सब खाढ़": घेरि पथ लेहहैं जइ॒ब जब जम-नगरी। 
३. बढ्कि। २. विश्वास करें। ३५ सोये। 8. हैं। ५. स्वासी। ६« वेदना, प्रसव-पीडा में। ७ (नस-नस में) एठन। 


८- शुभ कत्णवती। ६. समझो, सींची । १०. बीतने पर । ११. उपस्थित होने पर। १२६० जिया | १३. मार्य । १४. पडेगा। 
१४, यमराज के द्रवार में । १९, पाया। १० खा को। १८ खडे होकर | 


१६० भोजपुरी के कवि और काव्य 


समुझी परी जब जद॒ब कचहरी ॥ 
खाइल पीग्रल लेल देल कागज बाकी सब निकसी 
धरमराज जब लेखा लीहन” लोहा के सोटवन सार परी, 
आगे-पीछे चोपदार धइलेह सुगदर जम के फाँस परी, 
झगिन-खंभ में बाँधि के रखिहँ, हाजिरजामिनी* कोई ना करी । 
आज्ञा 'गुरुशरण' हरि कहल कहे, 'सुखदेव” सुन भेया साधो, 
पल छुन बीती तब घरी प घरो ॥ 
समुक्ति परी जब जद्वब5 कचहरी ॥ 
(२) 
झइल  जसाना खोटदा साधो, आइल जमाना खोटा, 
भेडुआ खाबे दूध-मलाई, लगे माँग के घोंठा। 
साघु-संत्त के चाना दुरलभ, भरल केड ४ कबहीं जल-भर ल्ोटा 
चेश्या पहिने मलमल खासा लागलि किनारी-गोटा | 
पतिबरता के लुगरी” दुलेभ पहिने फटद्दा मोटा, 
ब्रोगी जती तपसी संन्यासी जेकर  ढील लंगोटा* । 
भाव भजन कुछ मसरम» न जाने, झूठे बढ़ावे मोटा, 
बेमरजाद चललि सब दुनिया, का बढ़का का छोटा। 
कहे 'सुखदेव” सुनो भाई साधो उल्लटा चलिहं जम के सोटा । 
ए साधो आइल जमाना खोटा ॥ 





राम अमिलाष 


ह आपके जन्म-स्थान तथा समय इत्यादि का परिचय प्राप्त नहीं है। आपके दो गीत गोरखपुर 
जिले से प्राप्त हुए थे। अतः आप गोरखपुर जिले के निवासी होंगे। 


(१) 
पद्याँ में लागु£ तोरे सैया रे सोनरवा गहनवाँ१ बिचवा१०। 
हमरे लिखु हरी!१ के नहयाँ.*९*  गहनवाँ बिचवा। 
बेंदिया नकाशी १ वोही ब्रज के छुयलवा '  जसनवा १५ बिचवा। 
घोही जसोदा के ललनवा जसनवा  बिचवा। 
बाजूबन माली, बेसर लिखु वंशीवलवा। 
फंगनवा बिचवा, पाऊँ कान्हा दरसनवा "९ | 
मेखला सुरारी ननद, लगइबो साकड़्वा १० बिचवा। 
श्याम सुन्दर सपनवा। 
रास अभिलाष' हमरे आँखि के समतवाँ१< घेयनवः बिचवा ! 
रहे राधे रूपवा सजनवा१* धेयनवा*० बिचवा | 


१, ल्ेंगे। २. जमानत | ३. वेश्या का समाजी । 9, कोई । ५५ पुरानी फटी साडी। ६. ज्गोंट ढीकी होना, ह्मचर्य 
संग । ७. रहस्य! ८+ पटयाँ मैं लागु->पर पढती हूँ । ६, आमूषण । १०, सध्य में। ११० कृष्ण-रुपी पति। १४ सास । 
१३, बेह-धुंटेदार। १४. चल-खबीला। १५५ पक प्रकार का जामृषण जो वाँह में पहना जाता है। १६, दर्शन। १७० पक 
प्रकार का गा जो पर के तदबे के ऊपर और हथेजी के उपर पहना जाता है। १८५ सामने। १६, सुन्दर मायक। 
४२०७ ध्यान के । 





शिवशरण पाठक १६१ 


(२) 
गोरे गोरे गाल पर गोदनवा गोदाले गोइयाँ" ना। 
मोतियन से मँगिया गुँथाले वारी धनिया, लगाले गोइयाँ ना॥ 
सुन्दर सुरूख' नयनवा, लगाले गोइयाँ ना। 
मथवा टिकुलिया बिंदी, दतवा में सिसिया5 छिपाले गोइयाँ ना | 
रेशम चोलिया जोबनवा, छिपाले गोइयाँ ना। 
शाम अभिलाष' प्यारी करी के सिंगरवा लगलि गोहयाँ ना। 
अपने सहृर्थों के गोहनवाएँ लगलि  गोदयाँ ना॥ 





र्जाक 
आप आजमगढ जिते के 'मुबारकपुर प्राम के मजदूर-कवि थे। आपने नौति विषयक बहुत 
सुन्दर रचनाएँ की है। आप बहुत गरीब थे और घसियारे कवि मिट्ठ, के गुरु थे। आपकी निम्न- 
लिखित रचना परमेश्वरी लाल गुप्त के “भोजपुरी का साहित्य सौष्ठई”-नामक लेख से प्राप्त हुई है। 
आपके शिष्य का 'दयाराम का बिरहा? नामक प्रबन्ध-काव्य संवत्‌ १६२० के फाह्गुन में समाप्त हुआ | 
श्र॒तः आपका समय भी उन २०-२५ वर्ष पूर्व माना जा सकता है। 
बढ़ि नीकि” हड भोरी माता हो गरसिया । 
देहलु कुछ दिन चिन्ता मोरी बिसार॥ 
चिथड़ा से तनवा कइसे ढकबे हो मइया। 
आवबे जाड़ा दुसमनवाँ हमार ॥ 
हमरे ले नीक ऊ त*5 हठवे सिखमेँँगवा। 
जे सोवत होहहें दूनो टेंगिया* पसार ॥ 
भादो के अन्दरिया में पतनिया में भीजों । 
तउने का जरत बाटे पेटवा हमार ॥ 


शिवशरण पाठक 
आप पकड़ी ग्राम (वम्पारन) के निवासी थे। आप भोजपुरी में अन्छी कविता करते थे। आपका 
समय सन्‌ १६०० ई० के लगभग है। 
चम्पारन में नीलहों का बहुत अत्याचार था। ये लोग बेतिया के मद्दाराज की जमींदारी के 
भोकरीदार थे। उनके अत्याचार से तंग आकर आपने महाराजा के दरबार में एक पद पढ़ा था और 
नीलहों से रक्षा करने की प्रार्थना की थी। बेतिया के महाराज स्वयं एक कवि थे और उनके दरबार 
में कवियों का आदर होता था। अतः इनके पद को सुनकर नीलहों के अत्याचार का उन्हें ज्ञान हुआ । 
महाराज ने उन नीलहो से क्षुब्ध होकर उन्हें चम्पारन से खदेड़ने कौ विफल चेष्टा की थी। 
राम नाम भइल भोर गाँव लिलहा' के भइले। 
चेंवर१० दुद्दे११ सब धान गॉएडे१* लील१३ बोअइले१४॥ 
हब 
भई भेल आमील के राज प्रजा सब भले दुखी । 
मिल्न-जुल लूटे गाँव गुमस्ता दो पटवारी सुखी ॥ 
+** पिर्संग्रिनी। २ छुखें। ३. दाँत रँगने का काज्ा या जात मसाका। 8, गोद, बगल। ४» छच्छी। ६, वह तो | 
७ पर। ८. ठस पर भी। ६. नीक की खेती करानेंवाले अंगरेज । १० गहरे खेत, जदमाँ पाती जम णाता है। ११. बह 
गये। १२. गाँव के पास के खेत । १६, नील । ।8, बीज डाणा गया । १४, सरकारी करिनन्‍्दा, अमजा । 


१६२ 


आपके समय और जन्म-स्थान का पता नहीं लग सका। सम्भवत. आप शाहाबाद जिले के सन्त 
कवियों में एक थे। शाहाबाद में आपके गीत अधिक गाये जाते है। आपकी हिन्दी-रचनाएँ भी 
मिलती हैं। आपने एक गीत में अपनेको याचक कहा है। इससे ज्ञात होता है कि शायद 
आपका जन्म भॉटठ कुल में हुआ हो। हरिनाथ नाम के एक हिन्दी कवि भी शाइजडों के समय में 


हो जुके है। 


३, तहसीकदार २. जब्त। ३. थोडा। ४. दूँगा दिलगाता है। ५. फोडवाता है। ६० | बीज डवबाता दै। 
७ वो पत्तेवाणा अंकुर | ८. खेत निराने का काम । ६. फालतू घास-पात । १०, जह में फूटी दोहरी टद्दनी। ११ दोहरा, 
दुबारा, दुयगा। १७ वचता है। १६. सकई-बालठे का सूरझा डंठछ। १४- पुआछझ। १५. जिससे। १६- खेत 
को ढवाता है। १७. प्रसन्न १८५ दुश्मन १६ कीर्ति। २० जीविका-वृत्ति। २१- कर दिया | २२ बबढ़ा । २३५ पगड़ी । 


भोजपुरी के कवि और काव्य 


असामी नाँव पटवारी लिखे, गुमस्ता बतलावे। 
सुनावज्ष* जी जपत* करसु, साहेब मारन धावे ॥ 
थोरका 3ज्ञोते बहुत हँगयावे<४, तेपर ढेला थुरावे । 
कातिक में तैयार करावे, फागुन में बोश्रवावे* ॥ 
जइसे लील दुपता०होखे, वोइसे लगावे सोहनी < | 


मोरहन* काटत थोर छुख पावे, दोजी१०के हुख दोबरी') ॥ 


एक उपद्वव रहले-रहल दोसर उपद्रव भारी। 
समे लोग से गाड़ी चलवाबे सभे चलावे गाड़ी ॥ 
ना बाचेला"* ढाठा?3-पुअरा१४, ना बाचेला भूसे। 
जेकरा १" से हुख हाल कहील्ा, से मारेला घूसे ॥ 
होइ कोई जगत में धरमी, लील के खेत छोड़ावे । 
बड़ा दुख बाम्हन के भइले, दूनो साँक कोड़वावे ९ | 
सभे लोग तो कहेला जे काहे ला दुख सह$। 


दोचरा से दुख नाहीं छूटे, त5 महाराज से कह ॥ 


सहाराज जी परसन”७ होइहें छुनही में दुख छूठी । 
कालीजी जब किरपा करिहें, मुँ ह बयरी "“के हूटी ॥ 
नाम बढ़ाई गावत फिरब, रह जहूहें अब कीरित १९ | 
कि गाँव लीलहा से छूटे, ना त मिले बीरित२० ॥ 





कवि हरिनाथ 


(१) 


भोरे उठि बनवा के चलते मोहनवों, से आगे कद्दलन** ह। 
लाज्षन गइया रे बछुरुआ**, से आगे कइ्दलन है ॥॥१॥ 
लाल-लाल फूल-पाती अहिरा के जतिया, से धाँध लेलन हे 
सोहन बॉकी रे पगरिया*3, से बाँध 
कर लेले ब॑सिया*४* सोहन रंग-रसिया*०, से अधर धरि है 

राग टेरे रे | इजरिया**, से अधर धरि हे।॥रे। 


२४, वंशी। २५. रविक । २५ देहाती गीत का मैद्‌ । 


लेलन दे ॥२॥ 


कबि हरिनाथ १६३, 


सुनत खबनवाँ बिकल भइले मोरे मनवाँ, से मोह लेलन है 
प्यारे बॉके रे गुजरिया", से मोह लेलन  है॥शा 
कसि ल्ेली चीरवा जमुनवाँ के तीरवा से से चली भइल्ली हे 
नागरि लेइके गगरिया, से चत्ति भइली है ॥णा 
जन 'हरिनाथ' भेंटि गइले गोपीनाथ से से भरऊँग्ना कसि3 है 
मारे बॉके रे नजरिया, से भर्केआ कसि हे॥ढ्षा 


(२) 

सूतल रहली मैं अपने भ्वनवाँ, जगाई दिहल्ेरे, 
मन-मोहन रतिया जगाई दिहले रे॥१॥। 
हँसि-हँलि बहियाँ सिककोरे रंगरसिया, सुनावे मोही रे, 
मधुसयवा के बतियाई सुनावे मोही रे॥रा॥ 
खिल रही कुज बन अरूु नव रतिया, देखन चलूँ रे, 
तरवर लतिया" देखन चलू... रै॥श॥। 
जन 'हरिनाथ' लाल मेरे मन बतिया, पियारे लागे रे, 

ऐ अहिरवा के जतिया, पियारे लागे रे॥शा 


सोहर 
(३) 


आनन्द घर-घर अवध नगर नौबत बाजत हो, 
लज्ञना बढ़ि अइले हिया से हुलास सुमंगल साजत हो ॥॥१॥ 
रघुकुल्त कमल दिनेस अवध सें उदय लेलन हो, 
ललना खिली गइल जस सब लोक सुनत मन मोद्‌ महल हो ॥२॥ 
गगन सगन सन सुरन सुमन बरसावत हो, 
ललना हरखि सोहागिन मंगज्ञ अवरू सोहर गावन दो ॥श॥ 
कोसिला के ग्रृद सिरीराम भरत केकई धरे हो, 
ललना जनमे लखन रिपुसूदन सुमित्रा तन बहरइलन'* हो ॥४8॥ 
गुरुमनन लगन बिचारत, अद्द अनुसारत हो, 
ललना त्रिभुवन-पालक बाक्तक कहि नाहि पारत०" हो।णा। 
बहुत दिनन सिव पूजल देवता सनावल हो, 
ललना एक सुअन फल माँगल चौगुन पावत्न हो ॥&॥ 
रासजी के कमलबदन लखि नृप हिया हरखल हो, 
ललना हुलसत पुलकत गात नयन जल बरखत दो ॥ण॥। 
परम हटीली अलबेली बारी डगरिन* हठ कइले हो, 
ललना केड देले हार अमोल, कंगना केकई देली दो ॥4॥ 
रघुबर चरन-सरोज सेवन 'हरिनाथ' ल्लेला5 हो, 
ललना छूदि गइल जाचक* नाम अजाचक मन भइल हो॥शा 


गोत के शब्दा्थ और सावा् दोनों स्पष्ट हैं। 





९, नायिका। २ वस्त्र ३० भेहिंकसना ( भोजपुरी मुद्दावरा ), भौंद्वि तिरथी करना। 8. बात । ४५ कता। 
६. बाहर आये ( अन्स शिया )। ७, वर्णोन करते पार नहीं लगता है। ८« चमारिन, प्रसूति-धात्री। ६. भाठ, चारण। 


१६४ भौजपुरी कै कवि और काव्य 


हरिहरदास 
आपका भी परिचय अज्ञात ही है। फिर भी इतना निश्चय है कि आप सनन्‍्त-कंवि थे और 
शाहाबाद की विशुद्ध भोजपुरी भाषा हो आपकी कविता की भाषा है। अतः आप इसी जिले के 


निवासी होगे, ऐसा अनुमान किया जाता है। 
सोहर 


4 
श्रवध में बेदुने) बेआाकुल रानी कौसिल्ा रानी हो, 
ललना हलचल मचल< महल में से डगरिन बोलाबहु हो ॥१॥ 
चढ़िय पल्षकिया डगरिन आइल चरन पखारल हो, 
ललना नौमिए तिथि मधुमास सुकलपच्छु आइल दो ॥२॥ 
मध्य दिवस नहीं सीत न घाम सुभग ऋतु हो, 
ललना अभिजित नखत पुनीत से राम जनम लिहले हो ॥१॥ 
नंदी मुख श्राध कहलें श्रवधपति आनंद भइले हो, 
ललना तन_में न सकहिं समाय हुल्लस से जनावल्नरे हो ॥४॥ 
भूषति मोहर लुगवत पाट5-पितम्बर हो, 
ललना चीर लुटावत रानी जड़ित मनी भूखन हो ॥णा। 
बाजे बधदया पुर गानत5 किनर नट नाचहिं हो, 
कलना नावहिं त्रिया करि गान त5 लागेले मनोहर हो ॥६॥ 
घर-घर देहिं सब दान अवधपुर सोभित हो, 
लब्लनना लागे सभ लोग से सम्पदा लुटावन द्वो॥णा 
केसर उड़त नभ अवरु गुलाक्ष, फुलेल लगावक्ष हो, 
ललना सुमन बरख सुर जूथ से विनय सुनावल हो ॥4॥ 
जे यह गावहिं सोहर वो गाइके सुनावहिं हो, 
ललना “हरिहरदास!” सुख पावहिं संसय नसावहिं हो ॥8॥ 
सोहर 
(8 .) 
देखि कृसित४ मुख जसोदा के चेरिया बिलखि पूछे हो। 
ललना सोचि कह्दहु केहि कारन मुख तोर राँवर: हो ॥१॥ 
जस जस चेरिया पूछुन लागे तस तस दुःख बढेदो। 
ललना, चेरिया त चतुर सयानी खबर देजसि|॥ नन्‍्द जी के हो ॥शा। 
सुन॒ चेरिया-बॉनत सोहाधन बड़ मनभावन हौ। 
ललना जह तेंह भेजलन धावन सबहीं बोलावन हो ॥१॥ 
केहू लेले पंडित बोलाय से केह लेले डगरिन हो। 
ललना बइदठेले पंडित सभा बीच डगरिन महल बीच हो ।.श॥ 
पंडितजी करिले विचार हरमसि मनवाँ हँसि बोले हो। 
लक्तना इहे हवे हदुष्ट-अधिराज< दूजे जग-पात्षक हो ॥५॥ 
जसोदाजी पीड़ित5 भवनवाँ बिकल से पल्लेंग लोटे हो। 
ललना, धड़कि-धड़कि करे छुत्तिया कि कब बीती रतिया ई हो ॥६॥ 


३, वेदना, प्रसव-पीड़ा ! रू विदित कराया | ३. रेशमी वस्त्र | 2, सक्षिन, कृश। ५ दासी। 4 उदास, निम्नमा 
। दिया। ८, दुष्टों के शाउक । 


भिद्द कवि १६४ 


सुभ घढ़ि सुभ दिन सुभ रे लगन धनि" हो। 
ललना, प्रगठ भइले नन्‍्द्लाल आनंद तीनू लोक भइले हो ॥७॥ 
हरखि दरखि सुर सुनि देव बरसावे सुमन बहु हो। 
ललना, जे सुख बरनी ना सारदा से कहीं केहि बिधि हम हो ॥4८॥। 
बाजहिं बाजन अपार नगर सुख बढ़ी भइले हो। 
ललना जेही कर जस सन भावन देखल से वोही छुन हो ॥श्ा। 
ललना, नाचहिं गुनी जन अवरु' थयुवतीष्गन हो। 
लत्तनना, लुूटहिं सदन भण्डार हुलसि मन हो ॥१०ा 
भर भर थार सोबरनर देत मानिक मुकुता से हो। 
ललना, ननन्‍्द आनन्द होह द्हिले चरन गद्दि पण्डित हो ॥११॥ 
गहि भगवन्त सुत हरि-पद दरखि से हिय बीक् हो। 
लल्लनना, जनम सुफल फल पाई जे गाई" चरित इहे दो ॥१श॥ 





मिद्‌ठ कवि 


आप आजमगढ़ जिले के गूज़र जाति के घास गढ़कर जीविका चलानेवाले अनपढ़ कवि थे। आपके 
गुरु पूर्वकंथित रज्जाक मियां थे। आपके पिता का नाम हंसराज था। आपकी तथा अन्य आजमगढ़ी 
कवियों की भाषा का रूप भोजपुरी का पश्चिमी रूप है। बिरहा छुन्द में आपके दो प्रबन्ध-काव्य 
दयाराम का बिर॒हा? और 'हंस-संवाद” परमेश्वरी लाल गुप्त* से मिले हैं। 'दयाराम का बिरहा? कौ 
कथा का सारांश इस प्रकार है -- 

“दयाराम नामक एक बहादुर “गूजर” अपनी स्त्रौ द्वारा आभूषण माँगने पर कोई दूसरा चारा न 
देख चोरी द्वारा द्रव्योपाजन करने के लिए अपनी भा और बहन से विदा मॉगता है और उनके मना 
करने पर भी परदेश जाता है। नदी पार रेती पर दिल्‍ली की शाहजादी की सेना थी। दयाराम उसके 
लश्कर के साथ लड़कर उसे परास्त करता है और शाहजादी कौ घन-दौलत सब लेकर उसको पवित्र 
छोड़ देता है। शाहजादी दिल्‍ली जाती है। वहाँ से शाहजादा जाफर दयाराम को गिरफ्तार करने के 
लिए आता है। वह मित्र का स्व॑ंग रचकर दयाराम को अपने दरबार में बुलाता है। जब दयाराम 
वहाँ गया तब उसे खिला पिला कर जाफर ने बेहोश कर दिया, और गिरफ्तार कर दिल्‍ली ले गया 
दिल्ली मे हाथी और शेर के सामने दयाराम को छोड़ दिया गया। किन्तु, उसने दोनों को अपने। 
पराक्रम से जीत लिया । तब प्रसन्न हो दिल्‍ली के शाहजादे ने उसको दिल्ली के किये का किलादार बना 
दिया। कुछ दिनों बाद जब छुट्टी ले वह अपने घर आने लगा तब मिजौपुर के नवाब 'जाफर” ने उसे 
अपने यहाँ एक रात के लिए मेहमान बनाया और भोजन में जहर दे दिया। दयाराम ने अपनेकी 
मरता हुआ समझ अपनी तलवार से जाफर के समूचे परिवार को मौत के घाट उतार दिया। बाद में 
वह खुद भी सर गया। 

“उसकी मौत की खबर जब उसके घर पहुँची, तब उसका लड़का 'टन्नू” आसपास के गूजरों को 
बुलाकर मिर्जापुर के लिए रवाना हुआ। वहा जा उसने जाफर को मार डाला और उसका सर काट 
कर अपनी भाता के सामने ला रखा। यह खबर जब दिल्ली के शाहजादे को मिली तब उसने हन्नू 
को बुलाया और दयाराम की जगह पर रहने के लिए कहा । पर इन्नूं उसे ठुकरा कर घर चला आया।” 


2 2 अत का 
१. पत्ता ६ जौर। ३, युवतियों का समृह। ४8, छुपे! ५ ग्रायेगा। ६. भूतपूर्व महायक सम्पादक, देमिक 
आज! (काशी) | न 


१६६ भौजपुरी के कवि और काव्य 


कई पृष्ठों मे यह कहानी सुन्दर बिरहा छन्द में कही गई है। कहीं-कह्दां कवि की अतिभा ने बहुत 
सुन्दर उड़ान ली है। अन्त मे कवि ने अपना परिचय दिया है । 


(१) 
कहै मिट॒हु श्रव अरास कर5 सरदा साँई, * 
हमहूँ त जाँई अब चुपाय 
कइलू बढ़ दुया हमरे पर मेहरबनिया, 
गाय गइलीं साता 'दुयाराम! के कहनियाँ, 
माई मोरी सभा में बचाय लेहलू पनिया,र* 
हमहूँ त जाई अब चुपाय, 
दयाराम के कड़खा सुनाय देहली मेया, 
अब कर तू अराम घर जाय । 
भइल खत्म दुयाराम के बिरहवा- 
अब अपने घरे जइृद5 मीत । 
संचत्‌ उनइस से बीस के फगुनवाँ, 
राति अन्दरिया* रहलि मेंगर के दिनवाँ, 
हंसराज के बेटा 'मिट॒ह!ः हृअवैं गुजरवा, 
ध्त्जञक' के चेला गइले 'पेढ़ी!* के बजरवा, 
अपने अपने घर जद॒ब मीत, 
हम ते हुई' घतियारा ए भइया, 
नाहीं जानी ढंग गाते केनी गीत ॥ 
इसके अचुसार इनकी इस रचना का समय संवत्‌ १६२०, फाल्गुन, कृष्ण पक्ष, मंगलवार है। हंस 
का गीत! विरह-हूपात्मक प्रबन्ध-काव्य है। घास छीलते सम्य बादल उमड़े और कबि को विरहानुभूति 
हुईं। फलस्वरूप इस प्रबन्ध-काव्य का सजन हुआ। एक नायिका ने विरह-सन्देश अपने प्रियतम के 
पास, जो कलकत्ता मे रहता है, हंस द्वारा भेजा है। कथानक का सारांश इस प्रकार है-- 
एक विरहिणी नायिका अपनी करुण कथा हंस से कहती है और अपना करुण संदेश पति के पास 
ले जाने के लिए प्रार्थना करती हैं। हंस मखदूम देवता के दरवाजे पर सिर टेककर बहुत अनुनय- 
विनय करता है और देवता से उस परदेशी का पूरा पता जान लेता है। वह उड्डता हुआ वहाँ पहुचा, 
जहाँ नायक भेड़ के रूप में एक पेड़ के नीचे बँघा हुआ था। हंस ने उसकी स्त्री की सारी विरह-कथा 
कह सुनाई। परदेशी ने भो अपने न आने का कारण हंस से बताया। उसे एक बंगालिन ने भेड़ बना- 
कर बॉध रखा था। तब हंस उसके बन्धन को खोल मखदूम की कृपा से उसे.पंछी बनाकर उड़ा ले 
भागा। बंगालिन उसे न पाकर बहुत दुःखी हुईं। जब वे दोनों अपने गॉव के निकट पहुँचे तब वह 
आदमी वन गया और दोनों घर गये। अपने पति को बहुत दिनों के बाद देखकर नायिका फूली न 
समाईं। उसने अपने बिछुड़े श्रियतम का बहुत आदर-सत्कार के साथ स्वागत किया और हंस के ग्रति 
अपनी इतज्ञता प्रकट की । वह थके मॉदे पति के लिए ऋटठपट बिस्तर तैयार कर उसे सोने को ले गई 
और पैर दावते हुए अपनी विरह-व्यथा सुनाने लगी। 
दियारास का बिरहा! से-- 
पत्नी के वाग्वाण से विद्ध होकर दयाराम चोरी-डकेती करके धनोपाजन करना निश्चित करता 
हैं और इस यात्रा पर प्रस्थान करने के लिए माता से विदा माँगता है । 


१, शारदा माता । २ चुंपा। ३० पानी, इच्चत। & अँधेरी। ५४« स्थानपिरोष का नामा 


मिद्ठ, कवि १६७ 


६३) 

हथवा त जोरि के बिनती करे 'दयारास!। 
है मोरी मातवा तू 'दिहलु?” मोर जनमवों | 
का दो* त लिखले होइहें हमरे करमवॉरे, 
कतहूँ मे जइघों मोर बचिहँ नाहीं जानवों * । 
माता बकस5 आपन जोर ॥ 

अपने दिल में माता करि लेहु सबुरवा”। 
नाहीं जनमले हो मोरे पृत ॥ 


चर का त्याग करते हुए पुत्र को कुकर्म से रोकते हुए उसकी माता ने उत्तर दिया-- 


(२) 
जबने दिनवाँ के ज्ञागि हम पललों हो बेटा, 
घरवा हो बद्दंठल दिन रात॥ 
सात सोती* के तो दूधवा हम पिश्रवलीं, 
तेलवा बुकडवा० हम तोह के लगवलीं, 
घमव।< बतसवा* से में तोहके बचवत्ीं, 
कद्दि के बबुआ में हँक्रिया*" लगवलोीं, 
घरवा बइठल हो दिन. रात॥ 
हमरी पमरिया"" छोड़ि के बीच घरवा १* में, 
तजि के जाल5 ओकरे१2 बात॥ 
जब दयाराम शराब पिलाकर बेहोश करके दिल्ली के किले में लाया गया और वहाँ उसे हो 
_ हुआ तब का वर्शन-- 


(३) 


तब भईल बिद्दान दयाराम गुजरवा के 

है उतरिं गहली शराब। 
तोरी डाले बेड़िया मसकि* ४ दिहलसि कढ़िया, 
झटठकि करिहद्या*» के फेंके सिकढ़िया 

डउतरि ओकरि ' * शराब ॥ 
नाहीं जबलो जाफर दुगवा१७० कमहइबे'< 
नहीं सारः** केनी२० करि देतीं खराब ॥ 
कहे दयाराम! अबहिं त केतनों के मरजो, 
झइदहे मठअतिया+? तबे जइहें रे मोरी जान । 
केहू दुनिया में बच्ि नाहीं जाईं। 
जेसे जेकर लिखल होई मीटे संग जाई 

तब जहहे रे मोरी जान। 


मन 

१ दिया। २ क्या (कौन-सी चीज) [ ३. माग्य / 8. जान | ५. सब | ६. स्तोत । ०, उघटन | ८ धूप | ६. दवा | 
१०. द्वांक, पुकार। ११. पामर, भार्यहीना। १२ गृह | १३. उछोकी । १४. ससका दिया । १४. कमर | 
१६, उसकी) १७६ दगा। १८७ वपाजेन करोंगे। १६. खाल ६ २० को । २१ मौत [ 


श्द्द्द भोजपुरी के कबि और काव्य 


(१) 
इंस-गीत! से--- 
कहे मिद॒ह सुरसती के मनाय के 
कछु हमहूँ के दे तू गरियानो 
लगली वद्रिया छिलत रदलें घसियाडई 
आइल दिलिवा ४ में तब फेकें एक वतिया, 
विरहा बनावे सिट्ठ दिनवा वो रतिया, 
हमहूँ के दे तू गियान ॥ 
गोरी के बलमुआ छुचले वा" परदेसवा, 
में उन्हीं के करो पं बयान।॥ 
गरजे. बादल तड़पे. बविजुुलिया 
रगइल पियवा हो परदेस ॥॥ 
अंग-अंग देहिया त गोरिया के टूटे 
छतिया पर जोबना बिना पिया के सूखे, 
विचा पियवा दरदिया ओकर कइसे छूटे, 
गइल पियवा हो परदेल ॥! 
वन के जोगिनियाँ हूँढ़तो पियवा के में 
जो कहीं पहलो» सनेस< ॥ 
(२) 
गोरी रहे उमिर* के थोरी१० 
जोहे बालस की आस । 
लोहेले आस ओकर लागल वा अनेसा१ १ 
मारे सोकियन१* के ओकर फाटेला करेजा 
राइल छितराय"35 हो गइल रेजी-रेजात४ 
जेद्दि वालम की आस ॥ 
फुल कुह्दलाइ जात वा ब्रेइल१+ के, 
कहिया १ सेंवरा अइहें पास ॥ 





जागनारायण 'प्रदास! 


जायनारायर स्रटात! की एक रचना परिडत गणेश चोदने ( बँगरी, जम्पारन ) ने आप्त हुई । 
रचना को देखने ते ज्ञात होता है कि कवि की प्रतिभा प्रखर थी और उन्होंने काफ़ी रचनाएँ की होंगी । 
चैवेजी की यह वारहमाचा गोरखपुर लिले से प्राप्त हुआ था। इसकी भाषा भी गोरखपुरी भोजपुरी ने 
मिलती-शलती हैं। अतः जोगनारायण गोरखपुर जिले के रहनेवाले होंगे, ऐसा अनुमान 
स्वाभात्रिक है। 








१. उत्दना करके | २. न] $ घाउ) 8, दिल ५. दसा हुआ है। $. अंग-दूटना, कामोद्रेऊ चनित्र “गढ़ाई। 
- » पादी। ८ सदेखा। ६ व्य। २०. छोटी, (कनस्तिन)। ११. बन्‍्देखा। १२. शो । १६ विवर्ण ( डिद्न-निन्न )। 
& नीच्छींम की गरीब्ती] १६, देद् पृ । १६, किछ दिन । 


बीसू १६६ 


प्रथझ सास असाढ़ हे सखि सामि चलले जलधार हे। 
एहि प्रीति कारण सेत बाँधल घिया उद्ेश" सिरी राम है॥ 
सावन हे सखि सबद सुददावन रिमरिसम बरसत बघुन्द हे। 
सबके बलमुआ रासा घरे-धरे अइले हमरो बलसु परदेस हे॥ 
भादो हे सखि रेन भयावन दूजे झन्दरिया ई रात हे। 
उनका ठनके रासा बिजुली चमके से देखि जियरा डेराय हैं ॥ 
झासिन हे सखि आस लगावल आस ना पुरह्न5 हमार हे । 
कातिक हे सखि पुन्य महीना करहु गंगा अ्रसनान हे। 
सब कोह पहिरे दाभा पाठ-पितस्बररे हम धनि3 गुदरी पुरान हे ॥ 
अगइन हे साख मास सुहावन चारो दिस उपजल धान हे। 
चकवा-चकैया रामा खेल करत है से देखि जिया हुलसाय हें ॥ 
पूस हे सखि ओस परि गइले भींजी गइले लस्बी-लग्बी केस हे । 
चोलिया भींजले जे करबि की हम जोबना४< मिल्ने अनमोल हे। 
माध हे सखि ऋतु बसंत आई गइले जद़ूवा के रात हे। 
पिश्नवा रहितन रासा जो कोरवा ल्गइतों कटत जाड़ा ई हमार हे ॥ 
फागुन हे सखि रंग बतायो खेज्नत पिया के जे संग हे। 
ताहि देखी मोर जियरा जो तरसे काड ऊपर डारूँ रंग हे॥ 
चेत हे सखि सभ बन फूले, फुलवा फुूल्ले जे गुलाब हे। 
सखि फूले सभ पिया के संगे हमरो फूल जे मलीन दे ।॥ 
बैसाख हे सखी पिया नहीं आवे बिरद्दा कुहकत मेरी जान हे। 
दिन जो कटे रासा रोवत-रोवत कुहुवत बिते सारी रात है॥ 
जेठ है सखि आये बलमुवा पूरल मन के आस है। 
सारी दिन सखि मंगल गावति रैन गँवाये पिया संग है॥ 
जोग नरायन! गात्रे बारहमास, मित्रा जो लेना बिचार है। 
भूक्ष-चूक में से माफ कीजे पुर गइल बारह मास हे॥ 


बीसू 


बीसू जी शिवमूरत के शिष्य थे। शिवमूरत जी कौन थे और उनका घर कहो था, यर अभी 
अज्ञात ही है। बीसू जी का भी परिचय वैंसे ही अज्ञात है। सन्‌ १६११ ई० के पूर्व की छपी “बिरहा- 
बार! नामक एक चार पृष्ठ की पुस्तिका मिली है। पुस्तिका पर १६११ ई० मालिक के नाम के 
साथ लिखा हुआ है। “बिर बहार” के प्रकाशक है--बसन्त साहु बुकपेलर (चौक बनारस) और शुद्रक 
है-सिद्ेश्वर स्टीम प्रेस, बनारस । बिरहा के सुखपृष्ठ पर लिखा हैं--/शिवमूरत के शिष्य बोसू कृत” । 
बौतू जी के बिरहे सचमुच सुन्दर उतरे है। 





१, सोज (वद्श्य)| २ पीतास्वर वस्त॒ | ३» सुद्वागिन | ७ चढती जवानी के स्तन । ४७ क्रोढ़, गोद । 


१७० भोजपुरी के कवि-और काव्य 


“बिरहा-बहार' से 
पहिले में गाइला अपने गुरू के जोन" गुरू रचलन जहान। 
जोइ गुरू रचलन जहान सुरसतिया ॥ 
बेढीं माई जीआ पर गाइब द्नि-रतिया। जोई गुरू रचे जहान । 
पानी से गुरू पिन्डा सेंवारे अलखपूरी नवीन ॥॥१$॥ 
सोनवा में मिलल बाय सोहगवा ए गोरिया | कंचन में मिलल बाय कपूर । 
पतरि तिरियवाईं. मिलल जाय अपने बल्लम से। 
जैइसे.. पाठ में मिलल बाय सकलूबरईं ॥रा। 
छोटकि ननदिया सोर माने ना कहनवाँ सुतेले" ऑअँगनवा में रोज। 
सोना ऐसन जोबना साटि में मिलवलस ९ सारत बाय कुअरवा» के ओसा॥रे॥ 


ढूँतवा में मिसिया सोहत बाटे गोरिया के सथवा में टिकुली लीलार। 

चढ़ली जवानी तू तो गइलू बजरिया तोरा जोबना < डठल बाय जिउमार * ॥छ॥ 
हैं गावत बिरहवा आवेले सरदरवा में सुमल5 करित्ञा तोरि बोल । 

जब तू अइबो मोरि दुवरिया मै हँसि के केवरिया *" देबे खोल ।॥णा। 

दिने सुतेज्ञा रात घुमेज्ञा हुलहा करेला जंगरवा ११ के ओद ११ । 

रात परोसिव मोहे मरलीन मेहनवाँ १३ काहे न लड़िकवा बाय होत ॥६॥ 

इद्दै मिठी-बोलवा*४ उजड़लस"*" मोर दोलवा मीठी मीठी बोलिया सुनाय । 
एह्टि बुजरी१९ तो सोर भइया के बिगरलस १७ धानी में हुपटवा १८ रँगाय ॥७॥ 
बाजूबन्द तोरे डब्ड१९ पर सोहै नाक नथिया बाय, गल्ले ठीकर०। 

पाँच रंग चोली सोहे, तोरे ससवा) गाल के सोहे बीच ॥८॥ 
जिरवा** की नाईं तोरि फुफुति*3 बतसिया सुनरि*४ की नाई तोरी आँख । 
उढ़ि गइलन अचरा फलकि गइले जोबना, जैसे उगल बाय दुजिया के चाँद ॥श। 
दया धरम नाहीं तन में ए गोरिया नाहीं तोरे अँखिया में शीक्ष । 
उठत जोबनवाँ तू गइलु बजरिया के झुदई बाय के हित ॥१०। 
छींकत घरित्ा*" उठावे बारि धनियाँ ओके** दहिने ओर बोलेला काग । 

कि तोरे फूटीहँ माथे के घरिलवा कि मिलिहें नन्‍हवे*० के यार ॥३१॥ 
असवा की डरिया बोले वा कोइलिया सुगना बोले ना लखराव८< 
सवति के गोदिया में बोले मोर पियवा मोसे इहै दुख सहलो न जाय ॥$शा 
सगरों*९ बनारस चरिके3० ऐ सुनी तू कोनवाँ 3१ में कदलू 3९ दूकान । 
दूधवा मलइया मोरे ठेंगे33 से न बिकिहें तनि आँखिया लड़वले से काम ॥१३॥ 





२ जिस २ है। ३. स्त्री) 9 सीधा और उल्टा दोनों ओर से पढनेपर समान दी होनेवाज्ा शब्द । 
५. सोती है। ६. मित्रा दिया। ७. आशिवन मास ८५० स्तन। ६. जानमारू! १०. किवाढ। १३१ देह । 
१९. बचाव | १६. ताना। १४. मधुर बोलनेवाद्य । १४५. उजाड़ दिया। १६. एक प्रकार की गाली जो ठिफ स्त्रियों 
के क्षिप है। १७. बरवाद किया, चद्चलन दना दिया । १८. दुपट्टा | १६६ भुजद्यढड | २०. चन्द्रहमर। २१. मासा। 
२२० जीरा (मसाक्ञा)। २६. तीवी। ०9. अंगूठी । २५ घडा। २६, उसके। २७. बचपन । २८, सडक के दोनों जोर के छगे 
पेड । २६. सब जगह । ३० विद्वार करके । ३१. किनारे । ३९. किया । ३३ ठेगे-से (भोजपुरी मुद्दावरा), वा ते! 


महादेव १७१ 


महादेव 


शाहाबाद जिले के महादेव सिंह 'घनश्याम” अथवा 'सेवक कवि” से भिन्न यह दूसरे महादेव है। 
आपका निवासस्थान बनारस है। आपका विशेष परिचय ज्ञात नहीं हो सका । आपके गीत “पूर्व तरंग?) 
नामक संग्रह-पुस्तिका से सुे मिले है। गीतों से ज्ञात होता है कि आपको पशु-पक्तियों का अच्छा 
ज्ञान था। आपका समय १६ वीं सदी का अन्त होगा, ऐसा अनुमान है। 


पूर्वी दोहादार 
(१) 


सुन5 मोरे सेयां मोरी बुध * लद्कइयाँ 3 हमें मैंगाई देता ना, 
सामासुन्द्र एक चिरदइयाँ४ हमें मेँगाई देता ना॥श॥। 
बहुत दिना से चिरई पर मन ला!गल बाय हमार, 
अगिन हरेचा* द्वारिल' खातिर तोहते कहूँ तिखार०, 
एक जीयाई< देता ना सुगन।* राम-नास लेने को, 
एक जीआई देता ना॥रा। 
भोरे भुजंगा*" नित उठ बोले राम-नाम गोहराय, 
सदि्या "१ लाल'* की सुन के घोली दिल मोरा लहराय, 
लाल लियाई देवा ना। रखबे पिंजड़ा में जोगा के, 
लाल लिश्ाई देता ना ॥शे॥ 
मोरवा मस्त सगन होय नाचे पर अपना फैलाय, 
नाचत-नाचत पेर जो देखे दिल ही में सुरभाय, 
सोरचवा कचना बखत नाचे हमें दिखाई देता ना, 
हमें दिखाई देता ना ॥७॥ 
भमहादेव' मोरे बारे १४ बलम्‌ दिल के अरमान मेटाच, 
जवन गवमने माँगू हम चिरई चट से हमें लिआव, 
जा के ले अहृब55 कि नाहीं हमें बताई देता ना, 
हमें बताई देता ना ॥५। 


(२) 
सुतल रहलीं ननदी की सेजरिया, जीव डेराई गइले ना। 
देखली सेयाँ के सपनवाँ, जीघ ढेराई गइतले ना॥भा 
चिहँँकि के धइलीं अपनी चनदी के अचरवा, दिल घबड़ाई गइले ना। 
ब्याकुल भइले मोर परनवाँ, दिल घत्रढ़ाई गइले ना ॥शा। 
एक तो अकेली दूजे सखिया ना सहेली, जीब लजाई गइले ना। 
रसरस मोर ननदिया जीव, लजाई गइले ना॥श॥। 
बिना रे सजनवाँ सूना लागे घर-अगनवाँ, हुखवा नाहीं गइले ना। 
उठते छुतिया पर जोबनवाँ, हुखवा नाहीं गइले ना ॥४॥ 


१. प्रकाशक--ठाछुर प्रसाद गृप्त, बुकसेलर, वनारस ।२ बुद्धि | ३. बढकपन। 8, पक्ी। ५, हरित पक्षी का 
पक भेद । ६, पक पत्ती। ७, तिवाध। ८ जीविका, जीने का साथन। ६« तोता। १० पक पद्ती-विशेष। ११५ णाज 
पत्ती का पक भेद | १३, पक पत्ची | १६. जुगोकर। १४. नौजवान | १४५ के आजोगे। 


१७२ भोजपुरी के कवि और काव्य 


सपने में सइयाँ मोरा आयके 'महादेव! हमें जगाई गइले ना। 
नहीं देखलीं भर नयनवाँ, हमें जगाई गइले ना ॥५॥ 


बेच 
बेचू भी बनारस के १६ वीं सदी के अन्त के कवियों में से थे। आपकी रचनाएँ बनारसवालों के 
करणठ में आज भी हैं। आपका एक गीत उत्त 'पूवा। तरंग” नामक स॑ग्रह-पुस्तिका से प्राप्त है। 
पूर्वी 
लिया के? गधनव। रजऊ'* छोड़ले भवनवों, पिया परदेसिया भइले ना। 
सूनी कर5 गइले सेजरिया, पिया परदेलिया भले ना॥ टेक॥ 
कवने सगुधवाँ भइया देहले गवनवाँ बड़ी फजिहतियाईं कहले ना । 
लाके अपने पिया बखरियाई5ड, बड़ी फजिहतिया कइले ना ॥१॥ 
सूनी बा बसरिया रजऊ कइले हो सफरिया, मोर दुरगातया” कइले ना । 
टिकले सर्वातव की नगरया मोर दुरग तया कहले ना॥२॥ 
चोलिया के बनव, * तड़के साफ वो बिहनवॉ, सुरहा< नाहीं अइले ना। 
घुमिल हो गइलीं नजरिया, सुरहा नाहीं अइले ना।॥३॥ 
करे मो ते घतिया* हो री 'बेचू” ख़ुरफतिया१०, पिया जुदाई कइले ना। 
करके सवतिन संग लहरिय।*१, पिया जुदाई कइले ना॥४॥ 





खलील ओर अब्दुल हबीब 


खलील और अब्दुल हबीब दो मुसलमान शायर गुरु शिष्य थे। ये दोनों बनारस के ही थे और 
इनका समय भी १६ वीं सदी का अन्त कहा जा सकता है। बनारस या मिजौपुर के अखाड़ों से से 
विस्ी अखाड़े से आप दोनो का घनिष्ठ सम्बन्ध था। इन दोनो नामों से दो गीत 'पूर्वा तरंग” नामक 
संप्रह-पुर्तिका में मिलते है। 
खलील की रचना-- 


पूर्वी दोहादार 
बेर-बेर सदयाँ तोहसे अरज् लगवलीं, पिया बनवाई देता ना | 
इसके पोर-पोर गहनवाँ, पिया बनवाई देता ना॥ टेक ॥। 


कड़ा मिली करनाल में रजऊ पूना मिली पौजेब ॥ 
नथिया तोहते नागपुर के, ध्बकी सेयाँ लेब। 
पिया लियाई देता ना, छुल्ला के छुपरा में खनवाँ 

पिया लियाई देता ना ॥ १ ॥ 


२० जिया लञाकर। २ राजा (पति)।३- वेइलती | ४. गृह | ५. दुर्गति। ६. बन्द्‌। ० दूठे।८ चिर्मोही 
६ घात । १५६ खुराफात । ११ विहार । 


घीखू १७३ 


कलकत्ता में बने करधनी, झुनरी महमदाबाद। 
बाजू मिलेज्ञा बरद॒वान में, करल5 सैयाँ याद॥ 
पिया मेंगवाई देता ना, पटना शहर के बढिया पनवा 
हो मगवाई देता ना॥ २॥ 

पहुँची बिक्रे पंजाब में प्यारे, सिकरी सोनपुर यार। 
बिरिया" पहिरब बंगल के तबे, हम करबई प्यार ॥ 
पिय। ढरवाई देता ना, जाके ईजानगर अमरनवाँ 
पिया ढलवाई देता ना ॥ ३ ॥। 

कुलनी लिया दु5 झाँसी जाके, नथुनी मीक्की नेपाल । 
'खलील' तोहसे अरज करत हों, पूरा करो सवाल ॥ 
तनि सटुकाई देता ना, दृबीब मानिहे तोहरा हो कहनवा 
तनि सप्तुकाई देता ना ॥४॥ 


अब्दुल हबीब फी रचना-- 


पूर्वी दोहदार 
सुनो मो सइयो. तोहसे कहली कई देयाँ, हम नदृहरवा जहबे ना । 
अ्रब॒ तो आगइलें सवनवॉ, हम नदृहरवा जदबे ना॥ टेक ॥ 
सावन में सब सखिया हमरी करके खूब तइयारी। 
रूम-फूसके कजरी गावें पहिन-पहिन के सारी ॥ 
जाके हमहूँ गहने ना, हमरा लागल बा धियनवाँ। 
जाके हमहूँ गइबे ना ॥ १॥ 
नहिं मानव अबकी ए सेयाँ, नदृहरवाँ हम जाब। 
ना पहुँचइबा गर हमझे तो, मरब जहर के खाव। 
सहयोँ जान गेंवरबे ना, अपनी तज देबे द्वो परनवाँ 
सइयाँ जान गेंवइबे ना ॥२।॥ 
भदो में भोर इन्राहीस बोलवाये अपने पास। 
अब्दुल दहत्रीत्र कहते हमरी पूरी कर5 सोहाग।॥ 
तोहरी बढ़ गुन गइने ना । 
करवे खलील के बखनवाँ, तोहरी बढ़ गुन गइने ना ॥ ३ ॥ 





घीम्च 
'घीसू? कवि का परिचय श्रज्ञात है। आपकी रचना मिजापुरी कजरी * नामक संग्रह-पुस्तिका में 
मिली है। आप मिजौएर के कवि थे । समय भी ५६ वीं सदी का अन्त था। 
( १) 
गोरिया गाल गोल अनमोल, जोबनवाँ तोर देखाला ना। 
नीरंग छिपा जाय सरस सॉँचेका ढाला ना। 
कठिन कड्ठाहट कसठपीठ नं पटतर वाला ना॥ 


१. कान को एक आसूष थ । २, प्रकाशक--दूधनाथ प्रेस, सहकिया, हवड[। 


ः ३७४ भोजपुरी के कवि और काव्य 


कुन्त कीरते अधिक कलस केचन तेवाला ना। 
कहते घीसू चित चोराय चकई चौकाला बा॥। 


( २) 
तोसे लगल पिरितिया प्यारी, मोसे बहुत दिनन से ना । 
हम ग्राशक बादीं तोहरे पर, तन-सन-धन से या। 
घायल भइलीं हम तोहरे, तीखे चितवन से ना॥ 
हमें छोड़के प्रीति करेलू तू लद़कन से ना। 
कहते 'घीसू” कबों त5 मिलबू कौनो फन से ना ॥ 





धीरू 


धोड भी बनारस के रहनेवाले कवि थे। आपका भी समय १६ वीं सदी का अन्त था। आपकी 
रचना 'मिजोएुरी कजरी? नामक संग्रह-पुस्तिका में मिली है, जो नौचे दी जाती है-- 
कजरी 


बाटे) बढ़ी चतुर खटकिनियाँ पैसा कुस के लेला ना । 
घरे नरंगी कपरा पर कलकतिया केला ना॥ 
घूमे चडकपु* नयना सौदा हँसके देला ना। 
शाम-सुघह-दुपहरिया आवे तीनों बेला ना॥ 
'धीरू? कहें हमहू से लेले एक अ्रधेज्ञा ना॥३ेक॥ 





रसिक 


एक र॒सिकंजन नाम के कवि पहले भी हो चुके है। पता नहीं, आप वही है अथवा दूसरे। आपकी 
भाषा से ज्ञात होता है कि आप 'शाहाबाद! अथवा “बलिया” जिशे के रहनेवाले थे। डुमरॉव के 
एक 'रसिक! नामक कवि हिन्दी के भी कवि ही गये है, जिनकी एक छपी पुस्तक देखने को मिली थी। 
आप वही 'रसिक' कवि है, या दूसरे यह भी नहीं कहा जा सकता। आपकी तौन रचनाएँ उक्त 'पूर्वा 
तरंग” नामक पुस्तिका मे मिली है, जिनमें दो नीचे उद्धृत है-- 


( 9) 
फूल लोढे अइलों में बाबा फुलवरिया अठकि रे गइली ना, 
फूल-डारी रे चुनरिया अऑठकि रे गइली ना॥ 
केसे छुदावों कॉँटा गड़ल5 अ्रंगुरिया से फटि रे गइली ना, 
मोरा चोलिया केसरिया, से फटि रे गहली ना॥ 
संग की सखी सब सुलली डगरिया भटकि रे गइली ना॥ 
रिसिक! बलसू लेह खबरिया भठकि रे गहली ना। 
ये ही माया रे नगरिया, भटकि रे गइली ना॥ 
१, है। २, सब तरह से ठीक (सजग) । 


काशीनाथ १७५, 


( २) 
पिया मोर गइलें रामा हुगल्ली सहरवा से लेइ अइले ना 
एक बंगालिन रे सवतिया से, लेह रे अइले ना। 
तेगवा जे साले रामा घरी रे पहरचा, सवतिया साले ना। 
उजे आधी-आधी रतिया, सबतिया साले ना। 
सवती के ताना मोहिं ल्ागेला जदर॒वा, कहरवा” डाले ना, 
मोरा कसकत छुतिया, कहरचा डाले ना॥ 
धरद्धिक' बलमु" झब भइले रे निठुरवा से, बोले-चाले ना॥ 
पिया मोसे मुख बतिया, से बोले-चाले ना॥ 





चुन्नीलाल ओर गंगू 


चुन्नीलाल का नाम बनारस शहर के बूढ़ो में अब भी आदर के साथ लिया जाता है। आप 
वहाँ के मशहूर शायरो में से थे। आपके शिष्य गंगू थे । चुन्नीलाल की रचना तो अभी नहीं मिल 
पाई है; पर गंगू जी की रचना प्राप्त है। 'पूर्वा तरंग” नामक संग्रह पुस्तिका में आपका एक पूर्वा गीत 
है, जिसे नीचे उद्धुत किया जा रहा है। इसमें चुन्नीलाल गंगू नाम आया है । “चुन्नीलाल” का नाम 
धांगू? ने अपने गुरू के रूप मे रखा है। 
मथवा पर हथवा देके सखेलिन 3 गुज रिया ४, पिया घर नाहीं अइले ना 
कइले " हमरे संग में घतिया *, जिया घर नाहीं अइले ना॥ १॥ 
बिरहा सतावे मोहीं चेन नहीं आवे, करम » मोर फूटी गइले ना। 
हम पर अइले द्वो बिपतिया, करम मोर फूटी गइले ना ॥२॥ 
उमगल्ति जोबनवां मोरा माने ना कहनवाँ, छुखवा भारी भइले ना। 
फसौल्े < पिया के मोरे सवतिया, हुखचा भारी भइले ना ॥३॥ 
सूना ज्ञागेला बखतरिया * नाहीं भावेत्ा सेजरिया १९। 
हमते कहलेना छुस्नी ज्ञात गंगू घतिया ना ॥४॥ 





काशीनाथ 
आपकी कविता की भाषा विशुद्ध भोजपुरी है। अतः आपका भी जन्म-स्थान किसी विशुद्ध 
भोजपुरी-भाषी जिले में होगा। आपका समय तथा अधिक , परिचय अज्ञात ही है। आपकी एक 
रचना 'मिजोपुरी कजरी? नामक संग्रह-पुस्तिका मे मिली है, जो नीचे उद्धृत है-- 
अंखिया कटीली गोरी भोरी*१ तोरी सुरतिया रामा, 
हरि. चितवन सरेलू कटरिया रे हरी । 
पतरी कमरि १९ तोरी सोहनी सुरतिया रासा, 
हरि-हरि ल्चकत चढेलू अठरिया रे हरी ॥ 


१, कहर--विपत्ति । २. वंघमू--वद्तम । ६. भीखती है, चिन्ता करती है। 8. नायिका ! ५५ किया | ६, धात, धोखा । 
७. भाग्य । ८. वशीमृत कर दिया। ६, दवेज्ञी। १० , शब्य[। १३, भोत्षी । १२९. कमर, कृटि | 


१७६ भोजपुरी के कवि और काव्य 


धानी छुन्दरिया पहने ठाढ़ हो खिरिकिया रासा, 
हरि-हरि ताकि-ताकि मारेलू नजरिया रे हरी । 
'काशीनाथ!ः जोहे नित तोहरी डगरिया रामा, 
हरि-हरि जबसे देखले प्यारी तोर सुरतिया रे हरी ॥ 


बहुकनाथ 


“बढुकनाथ! के गीतों की वर्णन-शैली देखकर ज्ञात होता हे कि ये बनारस के ही किसी कजरी- 
झखाड़े के कवि थे। इनके गीत बड़े रसीले है। भाव तथा भाषा भी बहुत चुलबुली है। 'बॉका 
छुबीला गवैया?* नामक पुस्तक मे इनके गीत मुमे मिले, जो नीचे दिये जाते है-- 

कजली 
(१) 

गोरी करके सिंगार चोली पहिरे बूटेदार 

जिया मारेली गोदनवाँ गोदाय के, नयनवाँ लड़ाय के ना ॥१॥ 
बनी है सूरत कटीली गोल, बोल मीठी मीठी बोल 

मोर फँसौले जाली मनवाँ मुसकाय के, नयनवाँ लड़ाय के ना ॥ २॥ 
पतरी कमर, झुनुकती चाल, लटके गालों पे बाल 

जादू डालेली जोबनवाँ देखाय के, नयनवाँ लड़ायथ के ना ॥३॥ 
जिस दस जालू तू बाजार धायल करेलू कितने यार 

रखि तू जुलुमी* के अँचरवा में छिपाय के, नयनवाँ लड़ाय के ना ॥ ४ ॥ 
पद्दिर कुसुम रंग तन सारी, प्यारी मान बात हमारी 

रहि तू 'बटुकनाथ” के गरवाँ लपठाय के, तयनवाँ लड़ाय के ना ॥ ५॥ 


सखी ले कहे नहीं घर बालस आलम चढ़ी जवानी भे । 
केलस जोर-जुलुम अब जोबन मस्त दीवानी में ॥ 
कारी घटा घन-धोर बिज्ञुरिया चमके पानी में ॥ 
“बटुकनाथ' से कर साथ ऐसन जिन्दगानी में ॥ १ ॥ 


 बच्चीलाल 


आप बनारस के मशहूर मुकुन्दी भाड़ के पुत्र थे। मुकुन्दी भॉड़ शायर छन्नूलाल के शिष्य थे । 
मुकुन्दी मॉड, मलद॒हिया (बनारस छावनी) के रहनेवाले थे। मुकुन्दी लाल, उनके गुरु छुन्‍्तू लाल 
तथा बच्ची तीनो बनारस के अति प्रसिद्ध कवि भैरोदास के अखाड़े के शिष्य थे। बच्ची लाल की खिखी 
एक पुस्तिका 'सावन का सुहावन डंग?3 मिली है। कवि ने एक कजली के अन्त के चरणों मे अपने 
अखाड़े के आदि गुरु 'मैरो दास” के सम्बन्ध मे लिखा है-- 
१. प्रकाशक--शिरोजी जाल बुकसेलर, आदमपुरा, वनारत पिंटी। २ छुह्म करनेवाल | ३« इसे गुल्लू प्रसाद 
बुकसेतर, कचौड़ी गढ्गी, बनारठ ने बटुकनाथ प्रेठ, कबीर चौरा, बनारस में घपवाया था। 


जगन्नाथ रामजी १७७ 


“राही हो गये शायर पुराना, है ये भैरो का धराना । 
उनकी जाने जमाना हिन्दू मुसलमान बलमू॥? 
आपकी रचना उसी पुस्तिका से उद्धृत की जाती है जो सास-पतोहू की लड़ाई और पति से फरियाद 
कै रूप में है। पति ने जो जवाब दिया है, वह तो खड़ी बोली में है; पर सास-पतोह्ू का ऋरगढ़ा भोजपुरी 
में है। भोंडों की नाव्य-कंला का प्रदर्शन इस पद्मात्मक नाटक में कितना कलात्मक है, यह इन पदों 
से जायगा--- 
से ज्ञात हो जाय पति से 


कही-ला तोसे तीरवार * | सुन$ पती जी हमार । 
हमसे साई तोहार कूगड़ल करलीन ॥ 
खुराफात मचावें, छमकाव॑, अहठावेंउ, 
रोज रोज जियरा डाहलर्ट करलीन ॥ टेक ॥ 
गउवाँ 5 की कुल नारी । घरवां आवे पारा-पारी* 
समझाये सब हारी, नहीं माने कहना ॥ 
धम-धम० सारे लात, जो मैं बोलूँ कुछु बात । 
जियरा भोर घबरात, कइसे दोई रहना । 
चींत गईल अकुलाय तोह से कहीं बिलखाय। 
पछुताय पछुताय के चंत्ावें बेलना । 
धौक-छौक< के ताने लोटा । 
घैके अइठें* मोर फ्ॉंटा१०, 
लोटवा से कू थे *१ ल्लीन जवन सोरा गहनाँ॥ 
जब देखे तोर सकल, तब करलीन नकत्, 
पटिया ** पर पड़ कहँरल"*३ करत्ीन ॥ 
जगन्नाथ रामजी 
आपने गांधीजी के च्खें पर भी सुन्दर रचनाएँ की हैं। आप बनारस के वर्त्तमान मशहूर 
कवियों में एक है; क्योंकि बुद्धूनी आदि आधुनिक व्यक्तियों का जिक आपकी रचना में आया है। 
रचनाओं से ज्ञात होता है कि कविता-रचना में आप अपने प्रतिदन्द्रियो से लोहा लेते है। कुछु नये 
तज के गीतों के उदाहरण आपकी रचनाओं से नीचे दिये जाते हैं-- 
पूर्वी विहाग 
सत्याग्रह में नाम लिखाई, सहइयाँ जेहल दोल्े*४ ज़ाई, 
रजऊ"" कइसे होइहैं ना, 
ओही जेहल के कोठरिया रजऊ कहसे होइहैें ना॥१॥ 
गोड्वा"र में बेढ़िया, हाथ पड़ली हथकड़िया, 
रजऊ कइसे चल्निहँ ना 
बोफा गोड़वा भें जनाई"*, रजऊ कहसे चलिहेँ ना॥२।। 
घरवा तो सइयाँ कुछ करते नाद्वीं रहले, अटवा कइसे पिसिहैँ ना, 
भारी जेहल के चकरिया"< उहयाँ कइसे पिसिहैँ- ना॥३॥ 
३. चीपन-नेया पार जगानेवाजा+-घटवार। २ माता। ३. ऐेंठती है। 9. तपाना। ४. गाँव। $. बारी-वारी से । 


७ धम-धम की आवाज ८. उच्चत्ष-उध्ृत़्कर | ६, पेठती है। १०. माधे का पेश। ११६ हुच्छणती है। १९ खाट 
फी पाटी। १३. करादती है। १४. वाउ करना । १४ राजा, प्रियदत्त । १६, पैर । २७ सालूम पढेगा। २८. जाँत, चक्की। 


श्ष्द भोजपुरी के कवि और काव्य 


घरके जेवनवाँ" उनका नीकौ* नाहीं. लागे 
डहवाँ कहने खद हैं ना, 

जब 3 के रोटिया, घासि के सगकार उहयोँ कइसे खइहैं ना ॥ ४॥ 

मखमल पर सोते उनकर निंदिया नाहीं आतव्रे 
उहवाँ कइसे सोइहैं ना, 

सइयाँ कमरा" के सेजरिया, उहवाँ कइसे लोइहें ना॥ण५॥ 

जगरनाथ! बुर सत्याग्रह में नाम लिखहरैं, 
जेहल उनहूँ जहहैं ना, 

भारत माता के कारनवाँ, जेहल उनहूँ जद॒हैं ना॥६॥ 

रजक कहसे होइहेँ ना, ओही जेहल के कोठरिया 
रजऊ कइसे होइहैं ना॥ ७ ॥ 


बिसेसर दास 


आप बक्सर (शाहाबाद) के भक्त कवि कुंजनदास के शिष्य थे। कुंजनदास का लिखा, अवधी 
और भोणपुरी-मिश्रित व्रजभाषा में छुपा हुआ एक काव्य प्रन्थ प्राप्त हुआ है । बिसेसर दास के भी 
भोजपुरी गीत “भूमर-तरंग” नामक भोजपुरी-पुस्तक में प्राप्त हुए हैं, जिनपें से एक यहाँ उद्धृत है» 





(१) 
जो मधुवन से लवटि कान्हा अइहें हरखि पुजनब्रों ना, 
गिरिज्ा तोरा दो चरनवाँ, हरखि पुजबों ना ॥ 
मेचा पकवान फल फूल ही मिठाई, सुद्त होइ ना, 
मेया तोहिक़े चढ़इबों हो ॥ सुद्ति होइ० ॥ 
अच्छुत चन्दन गौरा बेलपतिया सुमन हार ना, 
लेह पुजबों तोर चरनियाँ ॥ सुमन हार ना० ॥ 
'कुजन दास! के एक दास हो 'बिसेसर” विनय करे ना, 
सीस नाइ हो गुजरिया | विनय करे ना ॥ 


जगरदेव | 
. जगरदेव जी के तीन गीत यहाँ उद्घत किये जाते हैं*। आपका परिचय अज्ञात है। अनुमान दे 
कि आप शाहाबाद जिले के है; क्योकि आपकी भाषा विशुद्ध भोजपुरी है। 


(१) 
स्वामी मोरा गइले दो पुरुष के देसवा से देह गइले ना । 
एक सुगना खेलौना, से देह गइले ना॥ 
खाय के माँगे सुगना दूध-भात खोरिया », से सुते के माँगे ना 
दूनों जोबना के विचवा, से सुते के माँगे ना ॥ 
आधि-आधि रतिया सुगा पछिले पहरधा <, से कुटके * लागे ना । 
मोरी चोलिया के बन्द॒वा से कुटके लागे ना॥ 
एक सन दोला सूगा भुइयाँ से पटकत्ति, दूसर मनवा नाथ 
“जगरदेव' स्वामी का खेलौना, दूसर सनचा ना॥ 
३. भीजन । २, अच्छा । ३. जी। 8, साग। ५४५ कल्वल। ६. श्री गणेश चौने (चम्पारन) से प्राप्त ७. खोरा, कठोरा। 
५5 प्रदर | ६, कुतरना, कांठना[ । 


जगन्नाथ राम, घुरप्त्तर आर बुद्ध, १७६ 


झुड्वा * मींजन * गइलो जा सगरवा 5 से गीरी गइले ना। 
तीनपतिया ४ कुलनिया से गीरी गइले ना ॥ 

कोठवा पर पूछेला लहुरा" देवरवा से केहि रे कारन ना । 
भउजी सुँ हवा सुखायल से, केहि रे कारन ना ॥ 

पनवा बिना ना मोरा सुँहवा सुखायल, छुलनी बिना ना ॥ 
तजबे आपन5 परनवा छुलनिया बिना ना॥ 

मोरा पिछुअरवा * हाँ सलहवा बेटडआ », से खोजी देठ ना। 
मोर नइृहर के कुलनिया से खोजी देड ना ॥ 

एक जाल लवलीं, दूसर जाल लवलीं से तीसरी जत्िया ना। 
फँसलि आने मोरी रुलनिया से तीसरी जलिया ना ॥ 

झुलनी के पाय खुसीआली < मन भइली से चलत भइली ना। 
धजगरदेव' स्वामी के भवनवाँ से चल्त भइली ना ॥ 


३ 

जब से छुयलवा मोरा हुक वर ९, सपनवा भले ना । 

मोरा नदृहर-ऑअगनवाँ सपनदा भइले ना॥ 

तोहरे करनवाँ छैला माई-बाप तेजलीं, से तेजी देहत्तीं १९ ना ॥ 

अपने नइृद्र के रहनवाँ," से तेजी देहलीं ना ॥ 

दाँ रे मोरे सैयाँ मैं पर तोरी पैयाँ १९, से दिनवाँ चारि ना। 

दमके जायेद5 नहृहरवा से द्निवाँ चारि ना॥ 

अबहीं उमर सोरा वारी*3 लरिकदयाँ १४, से मिटि रे जह॒हँ ना । 

शजगरदेव” दिल के कसकवा से मिटि रे जहहेँ ना।॥ 

जगन्नाथ राम, धुरपचर ओर बुद्ध 
बनारस में 'शहवान” शायर का भी एक कजरी-गान का अखाड़ा था। इस कषि के कई शिष्य द्वो 
गये है जो नग्रेननये तजों से कजली की रचना करके कजली के दंगलों में बनारसवालों को प्रसन्न किया 
करते थे। इस अखाड़े के प्रसिद्ध शिष्यो में बुद्ध , धुरपत्तर तथा जगन्नाथ राम के नाम उल्लेखनीय है। 
इनकी अपनो-अपनी रचनाओं की अनेक 'पुर्तिकाएँ है। सन्‌ १६३० ईं० के लगभग इनका रचना- 
काल है; क्योकि जगन्नाथ राम की रचना मे १६२१ ६० और १६३० ईं० के सत्याप्रह-आन्दोलनों का 
बणन है। भुमे “पूर्वा का पीततामर र!"+ नामक पुस्तिका मिली है, जिसमे इन तीनो कवियों के गीत 
सगृहीत है। एक गीत मे दो या तौनों कंवियो के नाम आ गये है। 
पूर्वी दोहादार 


(१) 
जबसे बलमुवाँ गइले एको पतिया ना भेजलें, पिया लोभाई गइले ना 
कवनो सौतिन के सेजरिया, पिया लोभाई गइले ना ॥ टेक ॥ 
जबसे सइयाँ छोड़ के गइले, भेजे नहीं सनेस। 
कामदेव तन जोर करतु हैं, दे गए कठिन कल्लेस॥ 
३. माथा। २. मत्ष-मत्कर धोना। ३« जलह्मशय। ४. तीन पत्तीवाढी। ५. चोठा तथा रप्तिक | ६. मकान के पोछे। 
७५चेटा । ८ जुशी ! ६. छुअबे क्िबरवा (भोजपुरी मुद्दावरा) सिन्दुरदान, (व्याद)। १०. चोड दिया। ११. रहना | १२, 


परूँ मै तोरी पेयॉ--पेर पर गिरती हूँ । १३, कमसित | १७, छडकपन । १५. प्रकाशक--मेगलल पस्ड कम्पनी, कचीढीगली 
बनारस । ह ह 





१८० भोजपुरी के कवि ओर काव्य 


सहयाँ बेद्रदी भइलें ना हमरी लेहलें ना खबरिया 

सहयाँ बेदरदी भइले ना ॥ १ ॥ 

तद़प-तड़प के रहूँ सेज पर, लगे भयावन., रात। 

जोबन जोर करें बिनु सहयाँ, ई हुख सहल न जात ॥ 

कोई बिलमाई लेहली ना, गइले बँगाले नगरिया 

कोई बिलमाई लेहली ना ॥ २॥ 

आप पिया परदेस सिधारे, छोड़ श्रकेली मार। 

पिया रमे सौतिन घर जाके, हमके दिया बिसार ॥ 

पिया बिसारी गइले ना बइठल जोहीतद्ा) डगरिया 

पिया बिसारी गइले ना ॥ ३॥ 

दिल की अरमा दिल में रद्द गई, करूँ में कवन उपाय । 

गम की रात कटत ना काटे, सोच सोच जिव जाय ॥ 

पिया खुबारी* कहले ना लिहले हमसे फेर नजरिया 

पिया छुवारी कइले ना॥ ४॥ 

शहवान”! उस्ताद है हमरे, दिया ज्ञान बतलाय। 

जगरनाथ बुद्धू का मिसरा, सुन सन खुसो हो जाय ॥ 

आज सुनाई गइले ना, गाके सुन्दर तरज्ञ कजरिया, 

आज सुनाई गइले ना ॥ ५ ॥ 

(२) 

अँखिया लड़वलू हमके छुरिया पर चढ़वलू मोरी भउठजी। 

सउतिया हमार मोरी भउजी ॥ 

करके सिगरवा जब पहिनलू कजरवा, मोरी भउज़ी। 
टिकुली सोहले मजेदार, सोरी भज्जी ॥१॥ 

चललू डगरिया तिरछी फेरत नजरिया, मोरी भउठजी। 
घूमे जालू सगरे3 बजार, मोरी भज्जी ॥रा। 

नकिया क ठुनकी तोहरे गाले पर के बुनकी" मोरी भडठजी | 
करेलू.. कतत्न5४ कई हजार, मोरी भडजी ॥श॥ 

गृंडन का सेला लागे, करेलू भमेला मोरी भउजी। 
दूनों जून: चत्तषे तरवार,  मोरी  भडजी ॥शा 

कहे ले बुद्ध हँसके रह5 रात बसके, मोरी भउजी। 

पूरा कर5 धघुरपत्तर के करार भोरी भ्रठजी॥ 
भइली सउतिया* हसार, मोरी भउजी॥एणा। 


रसिकजन 
आपका परिचय अप्राप्त है। आप अपने समय के जनप्रिय भक्त कवि थे। आपके “राम- 
विवाह” के गीत मिलते है। आ५की एक रचना “श्री सीताराम-विवाह”< से उद्धृत की जाती है-- 
अवध नगरिया से अहले बरिश्रतिया, ए सुनु सजनी, 
जनक नगरिया मेले सोर, ए सुनु सजनी॥ 


२ खोजती हूँ (बा जोहतो हैं) । २ जिलकत | ६. सव जगह । ४. नाक की कील य| लौंग । ५. चोटी विन्‍दी | १. कर्ण! 
७, मौत । ८. प्रकाशक--सार्गव-एल्‍्तकालय, गायवाट, दना[रस । 


लालमणि - श्८१ 


बाजवा के शब्द सुनी पुलके मोरा छुतिया ए सुनु सजनी, 
रोसनी के भयज्ञष बा अजोर, ए सुनु सजनी ॥ 
सब देवतन मिलि अइलें बरिश्रतिया, ए सुनु सजनी, 
बाजन"* बाजेला घनघोर, ए सुनु सजनी। 
परिछुन चल्ललीं सब सघखिया सहेली, ए सुन सभ्ननी, 
पहिरली लहंगा पटोर॑*ै, ए सुनु॒ सजनी ॥ 
कद्दत 'रसिकर जन' देखहु सुनर बर, ए सुनु सजनी, 
सुफन्न मनोरथ भैले मोर, ए सुत्च सजनी ॥ 


लालमणि 
लालमणि का परिचय प्राप्त नहीं हो सका । आपके चार गीत “बड़ी प्यारी सुन्दरी वियोग” यानों 
(बिदेसिया?3 नामक पुस्तिका में मि ते है। यह पुस्तिका सन्‌ १६३२ ई० में प्रकाशित हुईं थी। आपकी 
रचना की भाषा से पता चलता है कि आप सारन अथवा शाहाबाद जिले के निवासी थे। 


3) 
अईसे फगुनवाँ सेंया नाहीं हद भवनवाँ से देवरघा सोरा, 
होरी बरजोरी मोसे खेले रे देवरचा मोर ॥ टेक ॥ 
भरि पिचुकारी सारे, हिया बीच मोरे रे देवरवा मोरा, 
हथवा घुँघट बीच डाले रे देवरवा मोरा॥१॥ 
अबीर5 गुलाल लाये हँसि-हँसि गलवा रे देवरवा मोरा, 
जोबना मरोरे बहियाँ ठेले रे देवरचा मोरा॥ २॥ 
निदुर लालमणि माने ना कहनवाँ रे देवरवा मोरा, 
करे भोरे चोलिया में रथ रे देवरवा भोरा॥ ३॥ 


जियरा सारे सोरि जनियाँ" सो तोरी बोलिया। 
कुसुमी ओढ़निया बीचे जरद किनरिया कसी रे चोलिया, 
हा रेसमी तोरी छुतियाँ, कसी रे चोलिया॥ १॥ 
पिहकरेलू* जनियाँ कोइलिया की नइयाँ* अजब बोलिया, 
हा लगे रे भोरे हियरा अजब गोलिया॥ २॥ 
चलु-चलु प्यारी चलु हमरी नगरिया फनाऊँ डोलिया<, 
मानो दहमरी बचनियाँ फनाऊें डोलिया॥ ३॥ 
लागी गइल्ञी प्यारी मोरे तोहे पे घियनचोँ* हमारी टोलिया १०, 
लगिनहे 'लालमणि! छुतिया हमारी टोलिया॥४॥ 


(३) 
मैना*१ भज्ठ आ्रठो जमवॉा" तूँ हरि-हरि ना ॥ठेकणा 
तजि देहु सेना माया-कपट-करनवाँ १३ से धरि ल्ेहु ना, 
मैना स्वामी पे घियनवाँ से धरि लेहु ना॥ 
? बाजे। २. रेशमी वल्ल । ३. प्रकाशक--कछौधन-पुस्तकालय, नखास चौक, गोरखपुर, मुद्रक--प्रिंटिंग प्रेठ, गोरखपुर। 


४. द्वाथ चुमेडना । ५ जानी ,प्यारी | ६. कुद्कती हो । ७. नाई, सदश | ८. जबरदस्ती डोली पर चढा लूंगा। ६५ ध्यान। 
१० टोला, महल । ११, पछी (मन) | १९ आठों याम (अहर्निश) । १६. कपट करना | 


श्णर्‌ भोजपुरी के कवि और काव्य 


जैहि दिन अहृहैं मेना कठल-कररवा' से धरि-घरि ना, 
तोरा तोरी* गरदनवाँ से धरि धरि नातशा 
कद्दत ज्ञालमणि मानि ले कददनवाँ से धरी-घरी3 ना, 
बोले मैना हरिनमाँ. से घरी-धरी ना॥आ॥ 


(9) 


तोरी बिरही बँसुरिया करेजवा साले ना ॥टेक० ॥ 
जेहि दिन आयो कान्हा हमरी नगरिया, मोहनियाँ डाल्यो ना, 
कीन्हों हँसि-हँसि बतियाँ मोहनियाँ डाल्यो ना॥॥$॥ 
सुनो मोरी सखिय! मैं जोहति डगरिया बँसुरिया वाल्ले ना, 
कहवाँ. गैले मोरा कान्हा बँसुरिया वाले ना॥र॥ 
जब सुधि आवे कान्हा तोहरी सुरतिया, करेजवा घाल्ले ना, 
झोही बिरहा के बोलिया, करेजवा घाले ना ॥े॥ 
स्थाम ज्ञालमणि सुधि बिसरेल्ला से परल्यूँ पाले ना, 
तोदरे बरबस कान्हा से परक्यू. पाले ना॥शा 


(७) 


हमके राजा बिना सेजिया से नाहीं भावे ना ॥टेक०॥ 
जाहि विन सैंयाँ मोरा ले अहलें गवनवाँ से नाहीं आवे ना, 
सेंया हमरी सेजरिया से नाहीं आवे ना॥$॥ 
बिन रे बलम केसे सूततों में सेजरिया से नाहीं आवे ना, 

हमरे नेनवा में नींदिया से नाहीं आवबे ना॥रा॥। 
नाहीं नीक ल्ञागे हमके कोठवा-अठरिया ऑँघेरी छावे ना, 
बिनु पिया के भवनवाँ ओअँघेरी छावे ना॥शा 
सुनहु लालमणि आवो मोरो सेजिया, से नाहीं पावे ना, 
सुख सेजियाँ गुसइयाँ से नाहीं पावे ना॥शा 


(६) 
हमरा लाइ के गवनवाँ बिदेसवाँ गइले ना ॥ टेक० ॥ 
केतिको" मैं लिखि-लिखि पतिय्राँ* पठवरलीं से नाहीं अइले ना, 
निरमोही मोर ,सजनवाँ से नाहीं अइले ना॥शभा 
डसढ़ी जोबनवाँ, मोरा न माने कहनवॉ७ से बेदनवॉ८ भइले ना, 
हसरे हिया के भितरवाँ, बेदनवाँ भइले ना ॥२॥ 
कवन बिगरवा* तोरा कहलूँ विधि-बह्मा, अभाधिन कईले ना, 
अब से कवने रे करनवाँ अभागिन कइले ना ॥शे॥ 
बरु१० मैं कुमारी होतीं बाबा जी के घरवाँ, से नाहक धइले ना, 
ह हथवा-बदहियाँ ११ सजनवाँ से नाहक धइले ना॥शा 


४, कौलन-करार (मृत्यु को निश्चित तिथि)। ७ तोड देगा। ३, घडी-चढी। 8. पाला पडना-काम पढना। 


| कितना भी। ६. यत्र। ७. कहना, उपदेश । ८» वेदना। €, विभाड़, शत्रुता, अपराध । १०, वक्कि। १६५ द्वाय- 
चाह धरना+-पाणि-पभरहण करना । 


मदनमोहन सिंह श्प्३ 


लालमणि' लाग पयाँ,! आरा जाओ मोरी, सेजियाँ से काह देले ना, 
इहमके कठिन कलेसवा, से काहे देले ना ॥य॥। 
(७) 

सेयाँ नहाये में काछी गहले, गरहनवाँ हेराई* गइल ना 
बाबा भोला के नगरियाँ, हेराई गइले ना॥ टेक०॥ 
कासी हो सहरिया, धनि3 रे बजरिया लोभाई गहल ना 
लाग्यू. निखे अदरिया, लोभाई गइले था ॥भा 
जेतनी जे रहलिन मोरे सेंग की सदेलिया, विहाईड४ गइल ना 
हमसे छुटि गइले सेंगवा विहाई गइल ना॥र॥। 
जाये के 'नकास', "सो में गहले घुन्धराज, “से भुलाई गइले ना 
ओही नीची ब्रह्मपुरिया,७ सुलाई गहल ना ॥हे॥। 
बाबा हो त्रिसेसर जी के सांकरी वा गलिया, दबाईं गइल ना 
मोरी फाटि गइली चोलिया, दबाई गइलूं ना॥छ। 
'लञालसणि' रहले मोरा नान्‍हें के मिलनियाँ८ से आईं गइल॑ ना. 

हँके सेंगवाँ नगरियाँ से आई गइदले ना ॥णा। 


(८) 


होरी खेले मधुबनवाँ, कन्हैया दैया* ना ॥ टेक०॥ 
दृह्दिया रे बेचन गइले ओडी मधुबनवाँ कन्हैया देया ना 
ज्ञाग्यों हमरे गोहनवाँ१० कन्हैया दैया ना ॥शा 
अबिर-गुल्ञाल लीन्हें जसुदा ललनवाँ कन्हैया दैया ना, 
लावे मलि-मक्ति गलवा कन्हैया देया ना ॥२॥ 
भरि पिचुकारी मोरे सारी बीच मारे, से कन्हैया कया ना 
हसरा मेंवे रे११* जोबनवाँ कन्हैया देया ना ॥शे॥ 
निठुर 'लञालमणि' माने ना कहनवाँ कन्हैया देया ना. 
लावे हँसि हँसि गरवाँ, कन्हैया देया ना ॥७0॥। 


मदनमोहन सिंह 


आप डेबढ़िया (नगरा, बलिया) निवासी बाबू भहावीर सिंह के पुत्र थे। वि० संवत्‌ १६२८ में 
पैठा हुए ये। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा काशी में हुईं थी और फारसी से ही आपने मिडिल की 
परीक्षा पास की थी। संवत्‌ १६८६ वि० तक आप बलिया की कलक्टरी-कचहरी में काम करते रहे। 
आप बड़े अभ्ययनशील ओर विद्याप्रेमी थे। आपकी लिखाबठ अच्छी नहीं होती थी; अतः 
कठिनता से पढ़ी जाती हैं। आपने भोजपुरी के छन्दो मे महाराणा प्रताप की जीवनी लिखी है। हिन्दी 
में भी आपकी कई पुस्तकें हैं। जेंसे--भ्रीमदभागवत का पद्मानुवाद, स्वामी दयानन्द की जीवनी, 
शक्तिविजयचलीसा आदि | 


१. पैया लगना--पाँव पडना । २० सूल गई । ३० धन्य । 8. विछुल गई । ४. काशी के एक महक्ले का ताम । ६. वु दिराज- 
गणेश। ७. काशो के पक भहक्ते का नाम। ८. वचपन का यार। & मय जौर आश्चयेसूचक राब्द ( आह देव ) । 
१० पोछे या साथ छगना। ११- मिगोता है। 


श्प्ड भोजपुरी के कवि और काव्य 


( महाराण ग्रताप की जीवनी से ) 
बिरहा 
(१) 

गढ़ चितठर" कर बीरता सुनहु अब कहब सटीक बेबहार । 
राउजी रतनसेन पहुमिनि रनियाँ साह अलादीन" सरदार ॥ 

पदुमिनि रनिया के सुचि सुधरेयाव। 

साह चितउर सहँ आयलरं पहुनइया” ॥ 

सिसवामहल* देखि रानी परछुद्नियाँत 

रनवा० से मेल् करि डालि गलबहियाँ ॥ 

जब साध कहूँ राना डेरा पहुँचवले। 

जेलखाना भेजि साह हुकुम सुनचले॥ 

देइके पहुमिनी के जाई करो रजवा< । 

ना तो खपि*जइह तोर तनवा के ठटवा? ॥ 


(२) 

पहुमिनि रनियाँ सनेसवा** सेजाइ देली छु सौ अइहें डोलिया-कद्दार । 
सखिया सहेलियन सेंगवा ले अहृबो १३ होइ जश्बो"४ बेगम तोहार ॥ 

बनले धीर राजपूत डोलिया-कहँरचा | 

छिपि गइले बारह सह डोली में सवरचा १" ॥ 

गोरवा-बादुल चले, चले सरदरवा | 

जाइ पहुँचे राना जी के ढेरा के नियरवा १६ ॥ 

पहुँचे साह सिविर में डोला पहुमिनियाँ। 

कटे लागे साथ वीर खरग सेवनिया१% ॥ 

भागी साह फ़ठदि< छोड़ाइ लेले रनवा । 

लेह अइलें गढ़ पर बाजत निसनवा?१ ॥ 

बीरता कहत परदह नहीं पार*०॥ 


कवि सुरुजलाल 


आपका जन्म-स्थान सारन जिले में बिजईंपुर प्राम है। आपके पद खड़ीवोली, भोजपुरी और 
फारसी में पाये जाते हैं** । आपके भोजपुरी के गीत जनकणठ से बहुत सुनने को मिलते है। जनर॑चि 
के ने अनुबल भी हैं। अपने गाँव के परिचय में आपका एक पद है, जिसमे लिखा है कि हमारे 
याँव के कायस्थ लोग हिन्दी, फारसी और अँगरेजी जानते हैं. ओर ब्राह्मण लोग बढ़े ज्ञानी हैं। 
अनुमान है कि आप उन्नौसरवी सदी के अन्तिम भाग में हुए होंगे। ओर २०वीं के शुरू तक 
जीवित थे। 
३ चित्तीर गदं। २. अलादद्दीन खिलली ३. सुन्दरता। ४ जाया। ५० आतिदथ्य के िण। 5. शीशेका 
सहत्ष। ७, राण। ८. राज्य। ६, समाप्त। १० शरीर। ११, ठठरी। १२ संदेश[। २३-ले आर्शगी। १० ही 
छाऊ १]। १४, पृड्सवार, योद्धा। २६० नजदीक, निकट । २७. सेना और सेना के सरदार । १८. फरील। १६, नगांडा। 


२०० पार नहीं छगता। २३१- चुरुच जी के पद 'चम्पारन के पं० गयोश चौवे जी को पक कविता-संचरह् मे प्राप्त हुए, दो 
फ्गमग ५० वर्ष के पुराने हैं। 


कवि सुरुज लाल श्८ध्‌ 
चैत 


| 
सपना देखीला बलखनवाँ” हो रामा कि सइयाँ के अवनवाँ॥ टेक ॥ 
पदिल-ओहिल) सइयाँ अइले अगनवाँ हम ले जाई जल्लपनवाँ३ हो रामा 
कि सहयाँ के अवनवाँ ४ | 
बोलत-बतियावत कुछुक घरी बीते, खात-खियावत पनवाँ हो रामा 
कि सपना देखीला सइयाँ के अवनचाँ ॥ 
पुरुबी साड़ी जरद किनारी, अचबरू ” ले अइले केंगनवा हो रामा 
कि सपना देखीला सइयाँ के अवनचोँ ॥ 
'सुरुज! चाहेलें गरवा * लगावल, कि खुली गइले पत्क-पपनवाँ ७ हो रामा 
कि सपना देखीला सइयाँ के अवनत्राँ॥ 
(२) 
छैल्ला< सतावे रे चइत की रतिया दो रामा, 
शरे सुतलों में रहलीं पेंलगिया आरे सून* सेजरिया१० हो रामा। 
कि सपना में देखि हो साँवली सुरतिया हो रामा॥ छो०॥ 
आरे चिह्ुँक)१ में ब्याकुल दमहूँ सगरी१* रइनिया१3 हो रामा । 
कि कतहुँ*४ ना पावोरी*" मोह्दनी सुरतिया हो रामा ॥ छे० ॥ 
अगवा में भभूतिया१* रमइबो १७ अब होइबो जोगिनिया हो रामा । 
कि सइयोँ देखावे री रूंठि पिरितिया हो रामा ॥ छे०॥ 
झागे ललिता चन्द्रावली सखियाँ सब गोपिया सवतिया हो रामा ॥ 
रामा सेंया लोभइले हो कुबरी सवतिया हो रामा॥ छै० ॥ 
आरे छोड़बो में सिर के सेनुरवा हो फोरबो संख-चूढ़िया *< हो रामा ॥ 
कि सहयाँ बिना रे होइबो मैं सतिया हो रामा ॥ छै० ॥ 
आरे “सुरुशः कुजन में गहले सहयाँ परनिया१९ हो रामा। 
कि छुटी गईल दिल्ल के कुफुतिया*" दो रामा ॥ छै०॥ 
होली 
(३) 
राम लखन सीरी जनक-नंदनी सरजू तीर खेलत होरी। 
रास के सोसे कनक पिचकारी लछुमन सोसे अबीर कोरी ॥ 
रास से लखन संग सीता दरखित होत खेल्त होरी। 
केथिन*) के ड जे**+ रंग बनावे केथिन बीच अबीर घोरी ॥ 
बालू के उजे रंग बनावे, सरजू माहीं अबीर धोरी। 
देखत नर सोभा छुवि उनकी चकित होहइ खेलत द्ोरी॥ 
'सुरुज'ः येह फगुझ गावत, करत बिनती दोड*3 कर जोरी। 
है रघुनाथ कोसित्ानंदून, संकट दूरि करहूँ मोरी॥ 
१. अटारी। २« पहले-पहल | ६. नाश्ता, चक्षखई। 8, आगमन । ५५ और । ६. गछषे लगाना! ०, पपनी ( आँख को 
पत्षक )। ८ घुन्द्र प्रियतस। ६. सूनी। १० शब्य[। ११ चौंक कर। १२. सारी। १६. रात। १४. कहीं | १५. पाती 
हूँ। १९. विसूति, भस्म। १७ रमाऊंगी, छेपूँगी। १८, शंख की चनी चूडियोँ (सथवा स्त्री का आभूषण ।) 


३६ आयप्याश | २० कुफ्त, छुदून। २१५ किस चोज की। २९, उन्‍्नपह, जे--जों ( वह जो )। २३, इसका मोचपुरो 
रूप *दूनो” होता है। 


श्८६ भोजपुरी के कवि ओर काव्य 


अम्बिकादत व्यास 
आप भारदेंन्दुकालीन साहित्यसेवी विद्वानों में श्रेष्ठ माने जाते थे। आपका जन्म्स्थान जयपुर 
था, पर आपका परिवार काशी में रहा करता था। आपके पिता का नाम दुर्गादत्त व्यास था। 
आपका जन्म चैत्र शुक्ल अष्टमी संवत्‌ १६१५ में हुआ था। आप भोजपुरी में भी कविता करते थे। * 
आप बिहार प्रदेश के भागलपुर, छपरा आदि स्थानों मे सरकारी जिला-स्कूलों के हेड पंडित वर्षों 
रह चुके थे। आप 'सुकविः नाम से कविताएँ करते थे। 
कजली 
(१) 
कवन रंग बैंनवाँ, कवन रंग सेनवाँ, कवन रंग तोरा रे नयनवाँ॥ 
छैल रंग बैनवाँ, मदन रंग सेनवाँ, पे अलस रंग तोर। रे नयनवाँ || 
मीठे मीठे बैनवाँ, कटक भरे सेनवाँ, पे जियरा मोरा तोरा रे नयनवाँ ॥ 
अस्त नयनवाँ, मद्‌ के सेनवाँ, पे जहर के तोरा रे नयनवाँ॥ 
'सुकषि' आज़ कहाँ रहलू जनियाँ अटपद बेनवाँ सेनवाँ रे नयनवाँ॥ 


(२) 
रानी बिक्टोरिया के राज बढ़ा भारी रासा। 
फइल गइले सब संसरवा रे हरी॥ 
जहाँ देखो तहाँ चलने धुआँकल* रासा। 
चरो ओर लागत्न-बाटे तरवा3 रे हरी॥ 
ग़ाँव-गाँव बनल बाटे भारी असपतलवा रामा । 
घर-घर घूमे डाक्टरवा रे हरि। 
सहर-सद्र में बनल इसकुलवा शामा। 
लरिका पढावें मस्टरवा रे हरी ॥ 
जगह जगह में पुलिस बाटे फेलल रामा। 
रासा फैसला फरेले मजिस्टरवा रे हरी॥ 
एक ठो पइसवा में, चिठी लगल जाय रामा। 
दूर-दूर जाला अखबरबा रे हरी॥ 
धरे-घरे अब तो लगतल बा कुमेटी४ रामा। 
बजेला थपोड़ी * सब सहरवा रे हरी॥ 
कितने तो हिन्दू होई गइलें श्रेंगरेजवा रामा। 
मेहरारू ५ ले के करेले सफरवा रे हरी ॥ 
सुकवि' कहत चिरंजीव महरानी रामा। 
इहे राज बाहे मजेदरवा रे हरी॥ा 





शिवनन्दन मिश्र 'नन्‍्द! 
आप शाहाबाद जिले के बक्सर सबडिवीजन के 'सोनबरसा? ग्राम के निवासी थे। आप अच्छे 
विद्वान , कवि और लेखक थे। आपके पिता का नाम पं० सत्यनारायण मिश्र था। आप हिन्दी, 
मैथिली, बंगला और भोजपुरी चारों भाषाओं में कविता करते थे। आपकी पुस्तकें खन्नविलास प्रेस 


४. काशी पेपसं-स्टोस बुजानाज (काशी) द्वारा अकाशित 'कजकी-कौमुदी' में इस युग के कवियों की भोजपुरी रचनाएँ 
काफी मिलती हैँ। २ रेहगाढ़ी । ६. तार (टेलेभाफ) । 9. कमिटी, समिति । ४, हाथ की ताली, थपडी । ३. पतली | 


बिहारी श्द७ 


(पटना) से प्रकाशित हुईं है। आपने मैथिली भाषा में सुन्दर काणड रामायण और लौलावती की 
टीका लिखी थी। आपने हिन्दी में 'द्ोपदी-चीर-हरण” 'बेसर गुलबहार', रह लादः और 'हरिश्वन्द्र 
नाटक लिखे थे। सन्‌ १६१३ ई० में गुमला (रॉची) मे लिखित आपकी एक भोजपुरी रचना मुमे 
आपके पुत्र श्रीकमला मिश्र विश्र' से प्राप्त हुईं। “विप्रः स्वयं भोजपुरी के उदीयमान कवि है ।आपकी 
सृत्यु २ फरवरी, सन्‌ १६२० ई० मे ६० वर्ष की आयु मे हुई। 
पूर्वी राग 

समय" रूप" रुपइया लेइके, अइलीं हम बजरिया३ हो, 

बेसाहे४ खातिर ना कुछ नीमध्न5" सडद॒वाई हो, 

बेसाहे खातिर ना०॥ 

घुसत-घुमत इहाँ. गाँठि० दुबरइली* हो, 

फिकिरिया* लगती ना भारी भइले माथे के मोटरिया१०॥ 

बेसाहे खातिर ना०॥ 

चमके बजरिया बीचे छाह्ागाँ कचुइयाँ?१ हो 

भोरावे१* खातिर ना० ॥ 

बेसाहे खातिर ना०॥ 

नीमन जोहत १३ 'नन्‍द' बीतली उमिरिया हो, 

उल्वटि के देखहइता उर में निर्मल सोनवा १४ हो, 

उल्दि के देख5 ना०॥ 

देसाहे. खातिर ना०॥ 





बिहारो 


आप जाति के अहौर थे। आपके समय का अन्दाज १०० वर्ष पूव है। आपका निवास बसे तो 
बनारस के पास किसी ग्राम में था, पर आपके जन्म के सम्बन्ध में कोई आपको “बदायूँ? जिले का 
कहता है और कोई “मिर्जापुर! जिले का। आपने लोरकी खूब गाई है। आपकी रचनाएँ कवित्त 
और सबैयो मे भी मिलती है। आपकी एक रचना मुझे! महादेवग्रसाद सिंह “घनश्याम” के “भाई 
वरोध नाटक! १५ से मिली हैं--- 
होत ना दिवाल कहूँ बालू के जहान बीच, 
पानी के फुदेरा)* चाहे सौ दफे कह्टला से॥ 
चाहे बरिआर"७ केहू क्सहूँ१८ सजाय करी। 
खल के सुभाव कबो छूटत ना डेंटला१* से॥ 
भोथर*०" दिमाग होत बढ़का बुधागर*? के। 
कद्दलहु ना छोड़ी जिद मार चाहे मरलार से॥ 
कहत “बिहारी! समन सझुझ्मि बिचार करि, 
कुकर के पोंछ सोकरे3 होत वबाहीं मंड्ला*५ं से॥ 


ये सा कि मल 8 

१. जीवनकाल्‍ | २. शरीर । ३. बुनिया-रूपी घाजार | 8. खरीदना | ५५ जच्छा | ६. सौदा ! ७. पूँची | ८. कम हुई। 
६. फिक्र | १०. गठरी । ११, फंचुकी, चोल्ती १९ भुजवाने। १३- खोजते हुए। १४, सुद्ण (ब्रह्म)! १४५, प्रकाशक-- 
ठाक्ुर्मरठाद बुकसेदर, कचौडीगली, बनारस । १३६ पोताई, पोचारा | १७. चंलवान! १८. किसी तरह। १६, _ डॉटने- 


से । २० झुल्द, चपाठ] २१: वुद्धि-आगर--बुद्धिमात। २९, मारने | २६९. सीधा। २४७, जोर-जोर से 
सहकाने से 


श्न्द भोजपुरी के कवि ओर काव्य 


खुदाबक्स 
आप बनारसी कजरीवाज मैरो के समकालीन कवि थे। "मैरो” से आपकी कजली की प्रतिद्नन्द्रिता 
खूब चलती थी। आप जाति के सुसलमान थे। इन लोगों की होड़ मे पहले तो अच्छी-अच्छी रचनाएँ 
सुनाई जाती थीं; पर अन्त में ये लोग गाली-गजौज पर उतारू हो जाते थे। कभी कमी लाठी भी चल 
जाती थी। अश्लीलता उस समय पराकाष्ठा पर पहुँच जाती थी। आपके गीत प्रकाशित करने 
योग्य नहीं हैं। 


मारकंडे दास 


मारकंडें दास गाजीपुर के रहनेवाने थे। आपके पिता का नाम गयाप्रसाद था। बनारस में भी 
एक मारकरडे जी थे, जो जाति के व्राह्मण और सोनारपुरा महल्ला के पाप्त 'शित्राला घाट? के रहने- 
वाले थे, जिन्होंने भाड़ो की मरडली भी कायम कर ली थी। पता नहीं, दोनों एक ही व्यक्ति 
थेया दो। 
गाजीपुर के मारकणडे दास द्वारा रचित 'सावन फठाका”१ नामक कजली की पुस्तिका सुमे प्राप्त 
ई है। इसमे ६६ कजलियों है, जो अधिकांश भोजपुरी में हैं और अन्त में हरिश्वन्द्र का एक सबैया 
है तथा प१ृ० ९६ पर जहाँगीर नामक कवि की दो और प्रृ० २७ से २६ तक शिव्रदास कंतरि की ४ 
कनलियाँ भोजपुरी से हैं और पृ० २०-११ पर अन्य दो कवियों की खड़ी बोली की रचनाएँ है। अन्त 
में महेंस और मोती की भोजपुरी में ४ और २ कजलियों हैं। जो पुस्तक मुफ़े मिली है, वह उसका 
पॉयवों संस्करण है। मारकरडे जो का सम्य १६ वीं सदी का अन्त और २० वीं सदी का प्रारम्भ 
माना जाता है। आपकी रचनाएँ सुन्दर और प्रौढ़ तथा साषा बनारसो भोजपुरी है। 


|» 


//१693] 


| 
गनयत चरन सरन में तोहरो हमपर करड दया तूँ आज | 
आठतिद्धि नवनिधि के दाता, सकल सुधारेला5 काज | गनपत०। 
विधिन हरत बा नाम तोहरो सरबगुनन के साज । गनपत० । 
समारकरठे दास खाध तब किंकर राख लेहु सम लाज। 
गनपत चरन सरतन में तोहरों ॥१॥ 
(२) 
जोबना भइल मतवाल, वारी* ननदी ॥टेका।० 
पिया निरमोहिया सवत सँय रीके भेजे नहीं तनिक हवाल वारी ननदी । 
आधी आधी रतिया पद्धिले3 पहरवा, लहरे करेजवा में आग बारी ननदी | 
ऐसी निरमोहिया के पाले हम पड़लीं कब तक देखब हम चाल बारी ननदी । 
कहे मारकण्डे दूसर कर जेबे” छुट जैहेँ सबदिन के चाल बारी नवदी॥शा 
(३) 
जरा नेके* चलू तू जानी० जमाना नाजुक बाटे८ ना। 
योरे गाल पर काला गोदनवा चम्रकत बादे ना। 
जरा नैके० ॥ 


६ ईस्रीतताद बुक्सेलर, चौक, पटना ठिठो द्वारा उकाशिन और सत्पधुवाकर प्रेत में ठाहुरप्ताद मिश्र 


ढ़ारा मुद्रित है। २. नई उम्र की। ३. पिधले। ४. चाल-चड्न. 'चाबदाल | ५. दूसर कर चैंवे-बदुसरा पति करके चत्ी 
जाऊंगी | ६. नम्न द्ोकर्‌। ७. पारी ॥ ८ है। 


भेरो श्ष्ह्‌ 


भौंहें कमान असल खंजर-सछी भत्ञकत बाटे ना। 
मारऊण्डे कहें देख के गुण्डा छुटकत" बाटे ना॥। 
जरा नेके० हदा 


शिवदास 
शिवदासजी का परिचय अब तक अज्ञात है। परन]), आपकी रचनाएँ ग्रौढ़ है। हिन्दी के 
अतिरिक्त आपने भोजपुरी मे भी रचनाएँ की थीं। आपको चार कंजलियों मुझ्ते पूर्तोक्त 'सावन- 
फटाका? नामक संग्रह पुस्तक में मिलीं। आपका सम्रय १६ वीं भरी का उत्तरार्द और बीसवीं सदी का 
प्रारम्भ कहा जायगा | 
(१) 
नाहीं लागे जियरा हमार नहृहर में ॥ टेक ॥ 
एक तो बिकल बिरहानल जारत वबृूजे बहे बिसम बयार नहृहर में ॥ 
कासे कहूँ दुख-सुख की बतियाँ बैरी भाइले आपन पराय नहृ॒हर में। 
बिन बालम मोदि नेक न भावत भूखन भवन सिंगार नहृ॒हर में ॥ 
कवि शिवदास मोरे पिया के मिलावों दाबि रहीं चरन तोहार नइहर में ॥ 





दिलदार 
आप शायद बनारस के ही रहनेवाते कवि थे और किसी कजली के अखाड़े के शिष्य थे। 
आपकी भाषा बनारसी भोजपुरी ही है। 'सावन-फटाका” में आपकी दो कजलियों है। 


कजरी 
करिहियाँ* फलक देखाय चंज्ञ गइलू रतियाँ कहाँ बितवलूड ना ॥ 
घसन गुलाबी धानी पहिने हमें फेंसवलू४ ना ॥ कर्हियाँ० ॥ 
कलबल में बलखाय के जनिया" छुल्लबल कइलू ना॥ क० ॥ 
नेन कड़ाके धन सब खाके दुसमन भइलू ना॥क०॥ 
कहें 'दिलदार” प्यार ना कइलू, हँसी करवलू ना ॥ कल्हियाँ० ॥५८ ॥# 


भेरो 
आप बनारस के रहनेवाले थे। अरदली बाजार में आपका घर था। आप जाति के राजपूत 
थे . किन्तु आपका प्रेम एक देलिन से हो जाने के कारण आपने उसे घर मे रख लिया। इससे आप 
हेला (हलालखोर, भंगी) कहे जाने लगे। आप अपने समय में बनारस के मशहूर घड़ीसाज थे । 
अरदली बाजार में ही आपकी घड़ी की दूकान थी । आप बनारस के मशहूर कवियों में एक थे। 
बनारस के कजली के अखाड़ो से, प्रधान अखाड़ा आपका हो था। आपके प्रधान शिष्य दो थे-- 
ललर पिंह और द्वारिकाप्रसाद उफ मिंगई। आपके अखाड़े में शिष्यों की दो परम्पराएँ हो चुकी है। 


१५ फिपवता (थेठख|नी करना)! २, कछ, गत दिवस । ३. व्यतीत किया। 8, फताया। ४ प्राण््पारी। 
+ 'गणिका' नायिका से उसकी बेवफाई का पर्चन सायक कर रहा है। 


१६० भोजपुरी के कवि और काव्य 


ललर रिंह को सृत्यु अभी सन्‌ १४४७ ई० में हुईं है। इससे आपके समय का अन्दाजा १६ वीं 
शताब्दी का अन्त और २० वीं शताब्दी का आरंभ है। आपके राजनीतिक गीत और निगुण 
भजन हिन्दी तथा भोजपुरी में खूब गाये जाते थे। कजली तो मशहूर ही थी। आपने काव्य- 
शास्त्र का अध्ययन भी किया था और चित्र बन्ध काव्य आदि भी करते थे। आप इतने नये-नग्रे 
तजों में रचना करते थे कि उससे आपकी ख्याति और अधिक बढ़ गई। आपने अपनी मृत्यु के 
पूर्व अपनी सभी रचनाओं को इकट्ठा किया और दशाश्वमेध घाट पर उनकी पूजा की तथा गंगा में 
उन्हे बहवा दिया। जो कुछ रचनाएँ शिष्यों को करठस्थ थीं, वे ही आज प्रचलित है। ललर 
सिंह आपकी रुत्यु के बाद अखाड़ा के गुरु हुए और उनके शिष्य पलट्टदास हुए जो आज जीवित हैं। 
का द्ारिकप्रसाद (मिंगई) और पलद्टदास आपके प्रधान शिष्य थे। पलट्ूदास की कई पुस्तकें 
छुपी हू । 


(१) 
गोरकी' दू भतार कइलसि आके ससुररिया में, दिल्‍ली सहर बजरिया सें ॥३॥ 
हम सब के जुन्हरी३ बजरा४, उनका माखन अंडा चाहीं । 
बीरन के हाथों से भयवा तिरंगा मंडा चाहीं॥ 
कट्टसन” मजा उड्त बा भारतबरस नशरिया में, दिल्‍ली सहर बजरिया में ॥२॥ 
दम सब के पसरो३९ भर नाहीं, उनका भर-भर दोना चाहीं। 
हम सब के बा छान्हे-छुप्पर८ उनका बँगला कोना चाहीं। 
हम सब के बा कागज तामा१०, उनका चॉँदी सोना चाहीं । 
अइसन ) अत्याचारी राजा के, झुँ दवा पर डंटा कोड़ा चाहीं। 
अपने धनति बा गोरकी, हमके करिया** बनावति बा। 
हमरे जूठन खा-खा के, लन्दन तक मालिक कहावति बा । 
हमरे सारे खातिर भयवा१३ गन मशीन लगावति बा। 
अपने बाल-बच्चन के चॉँदी, कघर१४ खिलावति बा | 
भारत के लूट, महल ले गइल भरल पेटरिया*०७ में, दिल्‍ली सहर बनरिया में ॥श॥ 
आके हू भतार कइ्टलसि*९ गवर्नमेन्ट जिन्मा मिस्टर । 
दूनो के खूबे लड़वलस१० कइलसि अत्याचार जबर | 
जब देखलसि १८ बुढ़ड बाबा१९ के सागलरे० लन्दन के अन्दर । 
'सैरो? बना के गाना गावे नई लहरियार१ में, दिल्‍ली सहर बजरिया में ॥४॥ 


ठमरी 
पिया छुवले** परदेस, भेजले पाती ना सँदेस 
मोरा जिया*ड में अनेसर४ सुनु सोरी सजनी॥- 
पिया आइल*" हमार, लेके डोलिया कहार, 
पुजल*९ कठल-करार*४ सुन्ु मोरी सजनी॥ 


*. गोरी ज्री, अंगरेजी-सरकार | ६. पति । ३. पक । 8, एक प्रकार का मोटा अन्न । ४. कैता। ३. पसर-मर, हाथ मे 
झँदने मर जत्त | ७, है। ८. फस का कोपडा। ६, नोट । १०५ पैसा । १३. पेसा। १२९ काला (आदसी)। १३६ माई ! १४- 
कंबल, कौर । १५, पिटारी | १६. ।कया | १७, छढाया। १८, देखा । १६. गादी जी; २०, भाग गया। २१. तर्थ। २२. वास 
किण | २३. हृदय । २४. चिन्ता, अंदेसा | २४५, आया । % हु. पूरा हुआ। २७ वादा । 


भैरो १६१ 


करके सोरहो सिंगार, डोली चढ़ली कहार, 
चललीं ससुरा" की ओर सुनु मोरी सजनी॥ 
गोरी रोचेली* जोर जोर कद्दली3 सखी से दीदार ९, 
छुटल नइहर के दुआर, सुनु मोरी सजनी #॥ 
भैरव कहत पुकार नइहर रहना दिन चार, 
आखिर जाना ससुराल सुनु मोरी सजनी।॥ 


कजली निगुन 

चेत चेत बारी धनिया एक दिन सासुर* चलना ॥टेका। 

जेह दिन पियवा० सेजी सनेप्तवा देसवा८ दहोइहें सपना। 

अपना होइहँ सब दुसमनवा जब लेह चलिहें सजता ॥१॥ चेत चेत०॥ 

परान परोसिन कह दुलहिन बहठहहें पलना। 

लें के चलिहें चार कहरवा दोइहै बन रहना ॥श॥ चेत चेत०॥ 

माजत्-सता सब छीन मिली फुलवन के गहना। 

गज भर देइहेँ लाल चुनरिया तोहरे तन के ढकना* ॥३॥ चेत चेत० ॥ 

नह॒हर नगरी चल समुझ्ति ग्रोहयों समान कहना। 

कहले 'मैरो” बन कुलवन्ती पिया घर होइहं चहना ॥४॥ चेत चेत० ॥ 

जिस दिन प्रियतम सन्देशा भेजेगा, उस दिन यह देह-रूपी-देश स्वप्न हो जायगा अथौत्‌ छूट जायगा। 
उस दिन जब साजन प्रियतम तुमको ले चलेगा, यहाँ के समी अपना कंहलानेवाले हित-मिन्र, मॉबाप 
तुम्हारे दुश्मन हो जॉयग। पद़ोसिन और सखियोँ सभी दुलहिन बना कर तुमकी अर॒थी रूपी-पलना 
पर बैठा देंगी और चार कहार उस अरथी को उठाकर ले चलेंगे। तुमको वन में अथौत्‌ श्मशान में 
रहना होगा। मालमता सब छोन लिये जायेंगे और केवल घूल(चिता-भस्म) के गहने पहना दिये जायेंगे । 
एक गज की लाल चुनरी कफ़न तुम्हारे तन को ढकने के लिए दी जायेगी। हे गोइयॉ (हे सददेली), 
मेरा कहना मान ले। समझ-बूमकर नइहर रूपी नगरी में चल । मैरो कवि कहते है कि है वारी धनि, 
तुम अपने को कुलवन्ती (कुल के मान-मयौदा के अनुसार बरतनेवाली साध्वी स्त्री) बना लो, बस 
प्रियतम के घर तुम्हारी चाहना होने लगेगी। 
केजली 

लख चौरासी से बचना हो भजले5 मनवाँ सीताराम । 

बिना भजन उद्धार नहीं माटी के देहियाँ कठने काम ॥ टेक ॥ 

ते भी नक में पड्ल रहलसि?" जब करत रहसि?? इसवर-इसवर 

हमें निकाल5 जल्‍दी से में करिबों सुमिरन आठ पहर। 

जनम पौते ही** लिपट गये ते माया के बस होकर । 

ओह दिन के तोहे खबर नहीं जे मात्निक)3 से अइले "४ कहकर | 

ओह बादा के भूल गये जब देखे यहाँ पर गोरा चाम""॥ १॥ 

बालापन ते खेल गेंववले?* चढ़के गोद मतारी१० के। 

जवानी में खूब मजा उड़ौले सँग में सुन्दर नारी के। 


३. ससुरात् । २. रोती है। ६, किया। ४- आँख, साचात्कार। * इस गीत का कौकिक अर्थ के अतिरिक्त आध्यात्मिक 
पत्ष भी हैं । ५. कमसिन युषती, यद्ाँ आत्मा पे ताल है | ६. ससुरात्व (परक्रोक) | ७० पति (परमात्मा) | ८ देश (देहरूपी 
देश) । ६. आच्छादन (कफन)। १०- पडा रहा। १३१५ करता रहा। १२ पाते ह्वी। १३ परमात्मा। १४ भया। 
१५. सुन्द्री नारी। १६५ गैवाया | १०५ माता | 


१६२ भोजपुरी के कवि और काव्य 


बूढ़ भये कफ छुँकि लेल" थूकत बैठ दुआरी' के। 
शाम नाम नहिं मुख से निक्सत फुलत साँस उभारी३ के । 
कहूँ थार नहीं अब का करब धोखा में बीवल उमर तमाम ॥ १॥ 
उहाँड के मंजिल बढ़ा कढा बा फसके बाँध कमर लेतू। 
तोरे वास्ते लगल हाट जे चाहे सौदा कर ले तू। 
पाप-पुन्न दूनो बीछुल" बा समझ के गठरी भर ले तू । 

जे में तेरा होय फायदा, ओह के गहके* घर लेतू। 
मगर दलालन“से मत मिलिदृ नहीं त हो जैब5 बदनाम ॥३॥ 
अंत समय जब काल गरासल*< बाप-बाप चिचिश्राने* लगे। 
माल मता सब छूटल जात अब हम दुनिया से जाने ल्गे। 

भैरो कहे अस प्रानी के हो मिलना सुश्किल सुरधाम ॥४॥ 


ललर सिंह 


ललर जी मैरो जी के शिष्य थे। आप भैरो जौ की कजली के अखाड़े के प्रधान शिष्यों मे से थे। 
आप जाति के राजपूत थे। आपके शिष्य पलट्टदास जीवित हैं। आज भी इस अखाड़े का बोलबाला 
बनारस मे है। लल्र की कजली बनारस में बहुत प्रसिद्ध है। आपका समय १६वीं सदी का अन्त 
और २०वीं सदी का पूर्व था। आपकी निम्नलिखित रचना आपके शिष्य पलट्टदास से मैरो के 


भजनों के साथ प्राप्त हुईं है। आप बहुत सुन्दर कविताएँ करते थे। अपनी लयदारी के लिए आप 
विख्यात थे। 
(१) 


घेर लेले ले ग्वाल बृन्दाबन छैल अंगारी१ से। 
माँगत आा दधि के खेराज*१ ब्रिजराज आज ब्रिजनारी से ॥ 
रोज-रोज छिप-छिप के दुद्दिया बेंचि-बेंचि कर जातीं हव। 
दान-दुद्दी के देली ना अब तक कट्टसन?* सब मदमाती हव ॥ 
मित्र गैल"*३ आजहु भोका*४ से त ऐँंटि बतियाती हव। 
सब दिन के दे दान कान्ह कहते बुखभान-हुलारी से ॥ 


(२) 
बोललि सखिया सुन$ कान्ह यदि ज्यादा उधम मचइब5१० तू । 
कह देबि जा कंस राजा से फिर पीछे पछुतइब5 तूँ ॥ 
कहल मानिल5 ना अगर जो दृहिया छीन गिरवल तूँ । 
साँच कहीला ननन्‍्द्‌ जसोदा समेत बाँघि के जह॒ब55 तूँ ॥ 
फयलचले बाद जाल-चाल चलते गूजरी१७ गँवारी से ॥२॥ 


के मल 2 ० 22 
3. रू दिया। २, द्रवाजा। ३. उमड कर ४, परत्ोक । ४. विद्या हुआ है । ६. अच्ची तरह । ०. माया-प्रपन फेजाने- 


वाले | ८. भस लिया। ६, चिह्लाने ढगे । १०. जागे से | ११, माव्युणारी। १९ पैसा । १३. «या । १४, मौके से, मगोगवश। 
१४५ मचाओंगे । १६. घाओगे। १७ नारी। 


रूपकला जी १६३ 


(३) 
कहल करन हम समझ लेल हाँ तुम सब के वा जे-जे चाल । 
दृधि-माखन के कर5 बहाना बेंच5 हीरा मोती लाल ॥ 
रेसम चोली के भीतर वू बाँघि गठरिया होह निहाल। 
धोखा दे-दे जांलू हृटिया बेच के आव5 कर5 कमाल ॥ 
देखा दु5 दृ गोल खोल के चोली पारा-पारी" से। 
(४) 
रिस भरि के ग्वालिन बोललि बस अब ना बात बनाव5 तूँ । 
मुँह सेंभमाल के बोल कर5 अब सत सठोल' ससकाव53 तूँ ॥ 
कब से दानी हरि भइत्ष तूँ' साफ-साफ ससुराव$ तूँ। 
केह-केह * से दान लेल5* हा सब खाता खोल द्खिाव5 तूँ ॥ 
बार-बार काहे रार कर5 तूँ लखकार के खारा-खारी * से । 
(५) 
कहे गूजरी 'हटो जान» देव” मन मोहन हस भुजा बढ़ाय । 
सिर से अथरी ८ उतार ल्ेल सब, देख ग्वालिनी रही चुपाय ॥ 
मनसा' पूरा भइले सभके 'घड़ीसाज' कह गहल सुनाय । 
मस्त मास पावस में माठू*"-द्ि-लीला दे छुंदू सुनाय ॥ 
'ललर सिंह” कर जोरि कहे, लागी लगन बिहारी से। 





रूपकला जो 


हूपकला जी उच्च कोटि के महा त्मा थे। आपके प्रभाव से हजारों पथभ्रष्ट आन्त नास्तिकों ने 
भगवान्‌, वी सत्ता स्वीकार करके सन्‍मार्ग का अवलम्बन किया, हजारों दुराचारियों के जीवन सुधर 
गये । श्रीरपकलाजी पर आरम्भ से हो भगवत्कृपा रही। आप जिस आश्रम में रहे, उसके नियम 
का तत्परता से पालन किया और उसी मे अपनी उच्चनति की। तौस वर्षों तक बिहार-प्रान्त में शिक्षा- 
विभाग में उत्तरदायित्वपूर्ण पद पर रहे। आप सखी-भाव से रामजी की भक्ति करते थे। चौवन 
वर्ष की उम्र में आपने सरकारी पद्‌ का परित्याग किया। आप श्रयोध्या मे रहद़े थे। आपके गुरु 
हँसकला जी थे। वि० संवत्‌ १६८६ में पौष शुक्ला एकादशी को तीन बजे दिन में, अयोध्या में 
आपका साकेतवास हुआ। आपका जन्म सारन जिले में हुआ था। आपकी “भक्तमाल” की टीका 
परम श्रसिद्ध है। आपका पूरा नाम श्री भगवानप्रसाद सीतारामशरण था। आप हिन्दी के भी 
अच्छे लेखक थे। 

आरती 


साज्ि लेली*! भूषन सवारी लेली बसन से हाथ लेली री। 
कनक थार आरती से हाथ लेली री ॥ 
ओढ़ी-पहिरी सुन्दरी, सहेली सखी सहचरी, ओही १९ बीचे री । 
सें विराजे श्रीकिस्तोरीजी १5 ताही बीचे री ॥ 


१२ वारी-चारी से। २ दहेड़ी । ३ फोडना, मसकाना । 8६ किस-किस से ! ५, लिया है। १. सरापन के साथ ! ७ णाने 
दो (रास्ता घोढो)। ८ दह्ेडी ! ६ अभिज्जापा | १० मह्य । ११५ जिया | १९ उसी | १३, सीताणी । 


१६४ भोजपुरी के कवि और काव्य 


सिथला जुवति गन गावेली सुद्ति सन, साथ लेली री। 
ए सामभी गौरी पूजन से साथ लेली 'री ॥ 

हरियर' फुलवरिया ललिता गिरजा-बरिया सखिन बीच री । 
ले बिराजे श्रीकिसोरीनी सखिन बीचे री ॥ 

सियाजी के पूजा से प्रसन्न भइलीं गौरी जी असीस्त देलीं री। 
से सुफल मनकामना, असीस देलीं री ॥ 

'हपकला' गावेली श्री स्वासिनी बुझावेली, बिनु जोगे-जापे री । 
र ए प्रीतम प्रेम पावेली, बिनु जोगे-जापे री ॥ 


द्वारिकानाथ 'मिगह! 


श्री द्वारिकानाथ 'मिंगई! जाति के बरई पनेरी (तमोली) थे। आपकी पान की दुकान चु'गी- 
कचहरी के सामने बनारस में आज भी है। प्ापका लड़का उस दूकान को आज भो चला रहा है। 
आप “मैरोजी” के परम प्रिय शिष्य थे। आपकी भोजपुरी रचनाएँ बहुत सुन्दर और प्रौढ होती 
थीं। विषय अधिकतर धार्मिक होता था। आप अच्छे योगाभ्यासी भी थे। आप कजली और अनेका- 
नेक तर्ज के गीत श्रधिक लिखते ये। आपने कजली-छुन्द में रामायण का पूरा किष्किधाकारड 
भोजपुरी में लिखा था। आप चित्रबन्धकाव्य की रचना करने में सिद्धहस्त कवि थे। आपकी 
रचनाएँ आपके पुत्र के पास आज़ भोौ वर्त्तमान हैं। आपकी झुत्यु १६२३७ ईं० के लगभग में 


हुईं थी। आपके पुत्र का नाम शंकरप्रसाद उफ छोटक तमोली है। आपकी रचनाएँ प्राप्त नहीं 
हो सकी । 








दिमाग राम 


. आपके गीत “सूमर-तरंग”< में मिले है। जान पढ़ता है कि आप बनारस के आस-पास के मस्ताने 
कंबि थे। आपके इस उद्दधृत गीत को पचास वर्ष पूर्व मै जोगीड़ा के नाच में सुन चुका हूँ । आज 
भी यह गाया जाता है। इसमे आपका समय २०वीं सदी का आरंभ है। 


(१) 
कौना समाप्त बाबा मोरा फूले करइलिया्ड से, 
कौना मास पसरले" डार करइलिया, से कौना मासे ॥ 
सावन मास बाया मोर फूले करइलिया से, 
भादो मास पसरले डार करइलिया | 
जेपेजेसे बाबा मोरा झूले करइलिया से 
तसे-तेपे ननदी होजइबों जुआन* करइलिया॥ 
बाबा नाहीं मानेले भैया नबाहदीं मानेले॥ 
भौजी मोरा रखली निश्ार०  करइलिया । 





१. दरी-मरी। २५ वाढ़ी, सन्दिर। ३, « प्रकाशक--बैजनाथप्रदाद बुकपेढर, राजाद्रवाजा, वनारस। 8, करेणा। 
४७ फेलती है। ६. जवान। ७. निमंत्रण, वधू के लिप समुराक्ष से बुबाहूट। (मोजपुरों में 'निआर” शब्द का भाव 
है, पह सामान--पाडी, चूडी, सिन्दूर, मिठाई आदि--जो वधू को बुबाने के [लिए समतुराल और मायके से भी 
भेना जाता है; इसीलिए उसऊे साथ “रखना क्रिया कगी हुई है, जिउका जथे है--ल्ीकृति )। 


दिमाग राम १६५ 


पहिले-पहिले हम गवना" जे गइकों, 

सेजिया. रचलीं*. बनाय करइलिया ॥ 

हमहूँ जे सुतल्लीं लाली रे पलेगिया, 

कुबजा3 सुतेला४ खरिद्दान करइलिया । 

खीचड्ी पकायथ हम ले गइलीं खरिद्दनियाँ, 

से रहरी" में बोलेला हँड़ार५ करइलिया ॥ 

गोड़ तोरा लागीजा हुंड्रा रे भइया, 

कुबजा के ले जा घिसिश्राइ७ करइलिया। 

गावत दिमाग राम! यही रे झुमरिया, 

से हूटी जेहें तोहरो बी करइलिया ॥ 

(२ 

कवन र॑ग झुँगवा* कवन रंग मोतिया, कवन रंग हे ननदी तोर भैया ॥ 
लाल रंग सुँ गवा, सफेद रंग मोतिया, साँचल रंग है भौजी मोरा सैया॥ 
कान सोभे मोतिया, गले सोमे सुँ गवा, पलंग सोमे हे ननदी तोर भैया ॥ 
दृटि जेहें मोतिया, छितराइ "" जैंहें मुं गवा, रूसि जहेँ दे भौजी भोरा भैया॥ 
चुनी लेबों मोतिया, बठोरि** लेबों मुँ गवा, मनाइ लेबों हे ननदी तोर भेया ॥ 


इस गीत में ननद-भौजाई की रस-भरी हास्य से परिपूर्ण वात्ता में कितनी शोखी और 
घुलबुलाइट है १ 


(३) 

जाद्दी दिन सइयाँ मोरा छुवले लीलरवा १९, 
से ताही ,दिन ना, नेहर भइले रे दुलमवाँ१३। 
गोड़ क्ञागी पेयाँ परुूँ सेयाँ रे गोसइयाँ। 
से दिनवा चारी दम जेहोंना नइहरवा१४॥ 
गंगा बढ़ि अइले जम्ुना बढ़ि!५" अइले। 
से कौना बिधि वा ॥ 

धनियाँ उतरबि पारवा, से कवना विधि ना ॥ 
काटबों में केरा थम * बाँधवों में बिरिया२०, 
से वाही चढी ना सेंगा उतरबि पारवा॥ 
जब तूहूँ जह॒बूु*८ धनियाँ अपनी नइृहरच | 
से हम अइबों ना अपनी ससुररिया?* ॥ 
जब वूहँ अइब5 सैयाँ मोरा चइहरवा। 
उमिल ० देबो ना, बोरसी*' चारो-अगिया* था 
उमिल देवों ना ॥ 

जब तूहूँ उमिलवू धनियाँ 'बोरसी के अगिया, 
से हँसे लगिदहं ना सोर साली-सरदज्िया ॥ 





३. द्विरागसन। २. सजाया । ३. नियोडा, हृदयद्वीन! ४ सोता है। ५ अरहर का हरानमरा खेत । 
६, मेडिया। ७. घसीटकर | ८. घसंड। ६, मूँगा। १०, बिखर जायगा। ११, पकत्रित कर लूँगी। १९, जित्ार 
धता--सिन्दूर-दान करना। १३. दुल्ंभ । १४. मायका | १४. वाढ से उस आईं। १६८ केले का स्तंभ । १७, बेडा। 
१८ जाजोगी। २६, सहुरात । २०, उस्रद दूँगी। २१. गोरसी, झगीठी। २२९. चारों तरफ आग। 


१६६ भोजपुरी के कवि और काव्य 
मोती 


आप मिजापुर के कवि थे। वहाँ के कजली के किसी एक अखाड़े के शिष्य थे। आपका समय 
१६वीं सद्ये का अन्त और २०वीं सदी का प्रारंभ है। आपकी तीन कबलियों पूर्वोक्त 'सावन-फठाकाः 
नामक संग्रह-पुस्तक में प्राप्त हैं। आपकी रचनाएँ 'कजली-कौमुदी” में सी हैं। 


कजली 


पिया सूते* लेके सवतिया कैसे करिहें ना। 
बिरह-अगिव तन जरत जिया दुख कैये घरिहेंस ना॥ 
निस दिन की सोर दाय-हाय बिपतियाँ केसे दृटिईँ ना । 
कहा मोती मोस्े3 तोसे४ सन कैपे पढटिहेँना॥ 


मतई 


आपका नाम बनारस और मिजोपुर दोनों शहरों में कजली-गायकों में प्रसिद्ध है। आपकी 
रचनाओं का संग्रह 'मिजापुरी घट! नामक संग्रह में मिला है। आपके समय का अनुमान २०वीं 
सदी का प्रारम्भ है। आपको रचना में मिर्जापुर-अंचल की भोजपुरी की पूरी छाप है। 'मिजौपुरी घटा? 
नामक उक्त संग्रह-पुर्तिका से आपकी रचनाएँ उद्शृत की जाती हैं-- 
कजली 
(१) 

अब नाहीं बज में ठेकान बा, जिया उवियान" बा ना। 

दही बेचने में आई कान्हा रार मचाई, 

मोप्ते मॉगत जोबनवाँ क दान बा 

जिया उबियान वा ना।॥ अन्र नाहीं० ॥ १॥॥ 

सुरली सधुर बजाई, चिते चित लीहेनि चोराई, 

मारत तिरड्डछी नजरिया क सान& बा 

जिया उबियान वा ना ॥। अब नाहीं० ॥ २॥ 

सोरे नरमी कलाई, धरकर सुरकाई 

प्यारे सनसोहन सबे देखान» बा, 

जिया उबियान बा ला ॥ अरब नाहीं० ॥ ३ ॥ 

अइसन ढीठ कन्हाई, उसे लाज न आई, 

अइसन 'सतई' के दिल में समान बा, 

जिया उबियान बा ना ॥ अब नाहीं०॥ ४ || 

(२) 

जुआ छोड़ मोर राजा, मान ऊ८ बतिया ना । 

कौड़ी तेआई ब॒राई मात्त जैंहँ सब बिल्लाई१ 

तब त सारल-मारल फिरब5१० दिन-रतिया ना ॥ज्ञुआ०॥ 


का सोता है २, चटेगा । ३, मुमसे ॥ 8, तुमसे । ५, डवा हुआ ] ६५ सैन, इशणार[। ७ दर्शनीय । ऋ बह | 
६ नप्ट। १०, मारेमारे फिरोगे। 


रपीले १६७ 


राजा नल अजमाई अपना हड्डी की बनाई-- 
कौड़ी", उनकर भी गँवाई जजतिया ना ॥ जुआ० ॥ 
घरे माल नाहीं पाउब, बाहर ताला चटकाउब 3 

चोरी करे बदें8 होई तोर नियतियां* ना॥ जुआ० ॥ 
पीआ पकड़ि जब जद॒ब5 सजा साल भर के पदब5, 

तब तो 'मतई! लगइहें आपन घतियाई ना ॥ जुआ० ॥ 


(३) 


गइल रहिडे नदी तीर, डेंँहा रहल बढ़ा भीर, 
कंगन खोय गयल माफ कर5 कसूर बलमू। 
न जानी ढील रहा पेच,० न जानी लिहैसि कोई खैंच 
शाप जे करीं से है अब मंजूर बल्म ॥ कं० ॥ 
एक त छुधि लढ़केयाँ, न जानत रहिडँँ सइयाँ, 
चेंया< ऐसन लगलेन*  मिरजापुर बलम्‌ ॥ कं० ॥ 
हार गदयूँ हेर-हैर”* वासे?* भयल बड़ा देर, 
ना मिलल न रहल उहाँ मूर। बलमू॥ कं०॥ 


रसीले 
रसीलेजी की रचना मुमे 'सावन-दर्पण”१० संग्रह-पुस्तिका में मिली है। दूसरी पुस्तिका, जिसमें 
आपकी रचनाएँ है--“भूलन-प्रमोद संकीत्तन”*४ है। अतः आपका समय १६३७ ३० के पूर्व है 


आपकी रचना की भाषा बनारसी भोजपुरी है। अतः बनारस जिले में अथवा बनारस नगर में ही 
आपका निवास-स्थान होगा । आप बनारसी कजली के अखाड़े के प्रसिद्ध गायक माने जाते है। 


कजली 
(4) 


ऐसे मौसिम में सुज्ायम जियरा घड़-धड़-धड़के ना। 
दुमकि दमकि दामिति दुईमारी तड़ तड़ तड़के ना।॥। 
भूमि कूमि छुकि काला बदरवा कड़-कड़ कड़के ना । 
सुनि-घुनि मोर-पपीहन की धुनि जोबना फड़के ना । 
कहत 'रसीले' नेह ल्गाके कहवाँ खड़के*" ना ॥ १॥ 


२० छुप का पाछा। २ सम्पत्ति, जायदाद | ३० ताढा तोड़ना । 9. वास्ते | ५, नीयत, दैमान। ६६ दाँव, घात। ७० कीए। 
८० चाँईं, उचक्का। ६ पीछे छगना। १०, ढूढ दँढ कर। ११, उसते। १६, सारन-छूरत। १६५ “उपन्याप-दपया' के 
माशिक श्री वनारसी प्मों (काशी ) द्वारा प्रशाशित, संत १६३७ ईं० का, दूपरा संस्करण । १४, प्रकाशक--कन्दैयाताव- 
कृष्णदास, श्री रमेश्वर प्रेस, द्र॒गंगा, सर १६२८ ईं० का संस्करण । १४, खितकना। 


१८ 


भोजपुरी के कवि और काव्य 


- (६ हई ) 
गरजे बरसे रे बदरवा पिया बिजु मोहि ना सोहाय। 
अरे पपिहरा कोकिला, नीलकंठ अति मोर। 
नाचि नाचि कुंहुकन लगे, हरखि-दरखि चहुँ ओर ॥ 
दस दुम दुमके रे दामिनियाँ, नेना रिपि रिपि जाय ॥भ 
शीतल पवन सुगंध ले, बहै धरे ना धीर। 
मदन सतावे री सखी, करूँ कौन तदवीर ॥ 
ऊँची-उँची रे जोवनवाँ, चोलिया चादर ना सोहाय ॥श॥। 
कफहत रसीले का करी अंग-अंग फहरात । 
रेत अपेरी देखि के, रहि रहदि जिया घबरात॥ 
ऐसे मौसिम में कन्हैया, घरवा अजहूँ नाहिं आय ॥१॥ 


मानिक लाल 


मानिक लाल भी बनारस के हो किसी कजली के अखाड़े के शिष्य ये। आपका समय भी २० वीं 
सदी का प्रारम्भ है। आप के गीत मुझे 'सावन का गुलदस्ता” नामक संग्रह-पुस्तिका से प्राप्त हुए। 


कजली' 
( $) 


हरवा गढ़ दु5) सेठजी* हाली3 गरवां बाटे खाली” ना ॥टेक॥। 


एक चीज पहिले दे देता$ सोनवॉवाली नाए्॥ 
पत्ता» कुमका औ लटकनवा कान की बाली ना॥ 
बहुत दिना टरकठल्ञ5* अब तूँ सुनब॒5 गाली ना॥ 
मानिकल्लाल सुन इनकर बतिया छुन्द्‌ निराली ना॥ 
(२) 
कहिया देब5* सेठजी चिजिया*० दुलहा मोर कोहायल १ बाय ।टेक। 


नकिया में के मोर छाबेंगिया, वाहुँ हेरायल्र** बाय ॥ 
छुलला मुँद्री ओर करधनी सब बन के आयल बाय ॥ 


देख-देख सौतिन के घरवा जाके लोभायत्न बाय॥ 


मानिकलाल कहें धीरज धरहु सब नगिचायक्ञ*३ बाय ॥ 


(३) 
गोरिया तोरे बदन पर गोदना आला चमकत बाटे ना॥ 
जूही चमेली फुलेल लगैलू*४ गभकत बाटे ना ॥ 
हार हुमेल१५ नाक में नथिया लटकत बाटे ना॥ 
कहै 'सानिक”ः राह में छैला तरसत बाटे ना॥ 


३, चना दो । २ सोनार। ३५ जरूदी। ४, ग्रला । ४« सूना । ६. सोने की। ७, एक बहना। ८५ टरकाया। ६, दोगे। 


१० 'चीज (गहना)। १३ क़ूद्धू है। १२*मूल यया है। ३३. नजदीक है. ( चनकर तैयार द्वो चला है )। १७, णगाया। 
३४७ गणे का पक गहना । 


रूपन 


रूपन 


कजली 


(१) 
सुगना" बहुत रहे हुसियार बिलइया* बोलत बाटे3 नाएें॥ 
इधर-उधर से आपन घतिया" खोजत बाटे ना ॥ 
कबों पड़े गफलत की निंदिया, जोहतर् बाटे ना ॥ 
ऐ मन सुरुत चेत जल्द तूँ सोवत बाटे ना ॥ 
कहे 'रूपनः धर ध्यान देख अगोरत» बाटे ना ॥ 


(२) 
जुश्रा खेलेलन< बत्नसुआ? सारी रतिया ना।॥ 
बलमा मिलल बा जुआरी, केसे कहूँ में पुकारी ॥ 
गोइयाँ१" फूटी गइली मोरी किसमतिया ना ॥जछुआ०॥ 
गहना गइलन"" स्व हार, हमसे कहे दे उतार । 
अपने नकिया से ऊ्ुक्ननियाँ तीनपतिया"* ना ॥जुआणा 
केतनो उनके समुझावे, बतिया एको नाहीं भावे। 
गोइयाँ कड्इसे के बची हुरमतिया)3 ना ॥जुआ०ण। 
कहे 'रुपन' से गोरी, कहना मान पिया मोरी। 
नाहीं एक दिन होहहैं तोहरो सेंसतिया*४ ना॥ 


(३) 
पिया तजके१" हमें गइले परदेसवा ना। 
गये हमसे करके घात१९, सुन सौतिन के साथ, 
नाहीं भेजल5 जबसे गइले सन्देसवा ना ॥पियाणा। 
नाहीं कल्)* दिन रात, जबसे चढ़त्त बरसात, 
कब झइहैं भमोहिं ऐेही** वा अन्देसवा** ना। 
भींगुर बोले कनकार, सुनके पपिदा पुकार, 
गोइयाँ बढ़ गइले जिगर में कल्लेसवा ना ॥पियाणा। 
गोरिया कहे समझाय, बलमा से दृ5 हमें मिलाय, 
'रूपन! नाहीं तो हस धरबे० जोगिन भेसवार ना ॥पिया०॥। 


१६६ 


हूपन जी बनारस के ही कजली-गायकों में से एक थे। आपका समय भी २०वाँ सदी का प्रारम्भ था। 
आपकी एक कजली 'सावन का गुलदस्ता” संग्रह-पुस्तिका से भुमे मिली है। उसी पुस्तिका से 
नौचे की कजली उद्धृत है। श्रन्य रचनाएँ विभिन्न संग्रह-पुस्तिकाओएं में से उद्धृत है। 


३६ जीव । ७ बिक्ली (सृत्यु)। ३, है। ४ गीत का टेक, पाद्‌-पूर्चि के ज्षिए दिया जाता है। ४, घात, दाँव ! ६. झोजना, 
प्रतीक्षा करना। «७. रखवारी करना (सत्य घेरा ढाक्े हुईं है )। ८ खेबते हैं। ६, पति (वच्तम)। १०, सल्ी। १३ गये। 
२९ तीन पत्तावाद्दी (छुपनी)। ३३. हुरमत, इज्जत। १४५ साँठ्त, यन्त्रणा | १४, स्याग करके। १६. चोख[। १७ चेन ।- 


३८० यही है। १६, जंदेशा, चिन्ता | २० धारण करूँगी । २३. संत्यासिनी का वेरा 


२०० भोजपुरी के कवि और काव्य 


फर्णन्द्र मुनि 
आपके दो सोहर-गीत मुमे! 'बढ़ी गोपालगारी” नामक संप्रह-पुस्तिका में मित्रे हैं। गीत की 
भाषा और उसके तर्ज से अनुमान होता है कि आप बनारस कमिश्नरी के किसी जिसे के रहनेवाले थे । 
समय भी १६वीं सदी का अन्त है। 


सोहर राम अवतार चेत नौमी 


जाँचत अज महादेव अनादि, जन्म लेले हो ललना। 
दशरथ ग्रह भगवान कौसिल्या गर्भ अइले हो ज्कना॥ 
मुद्त तृपति सुनि कान बसिष्ठ के भवन गइले हो ललना | 
ललना करहू गर्भ-घिधान यथा श्र्‌ति रचि-रचि हो ललना ॥ 
करत परस्पर मंगल गर्भ दिन पूजल" हो लत्ना । 
बढ़त गर्भ अस चन्दु तबे रानि पियर* भइली३ हो ललना ॥ 
सब ग्रह भइले अनुकूल नछुत्र पुनर्बंसु हो ललना। 
चैत सुदी भइले नौमी प्रगट हरि. तन धरे हो ललना ॥ 
भुदति भये नरनाह बोलायत भूसुर हो ललना | 
हँसि हँसि बोले डगरिनियाँ ४ चिते मुखरानी हो ललना ॥ 
देहु न तुम उर-हार तबे नार " काटब हो ललना। 
झलख निरंजन रूप हँसत मुख बाघत हो लतना ॥ 
कौसिज्ञा जी गोद खेलावत छीर पिाञवत हो लतना॥ 
संकर ध्यान लगावत वेद भ्रूति गावत हो ललना। 
निगुन ब्रह्म स्पेंहप आँगन महू धावत हो ललना ॥ 
मगन सुद्ति सन देव गावत फूल बरसावत हो ललना। 
लत्नना भक्त बछुल भगवान 'फरणीन्द्ग मुनि! गावत हो ललना ॥ 


सोहर कृष्ण अवतार जन्माष्टमी 


भादों रैन भयानक चहूँ दिसि घन घेरे हो ललना। 
सुभ रोहिनी तिथि अष्टमी अदभुत ल्लाल भइले हो ललना ॥ 
क्रीट मुकुट घनश्याम कुण्डल सोहे कानन हो ललना | 
संख चक्र गदा पद्म चतुभुज रूप किये हो ललना ॥ 
गदा पानि सहँ राजे क्यु पद्‌ उर सोहे हो ललना। 
विहँसि बोले भगवान पूव बरदानव तोह के हो ललना ॥ 
जो तुम कंस से डरहु जसोदा पहँ धरि आओ हो लत्नना ॥ 
छुटि गइले बन्धन जंजीर तो खुलि गईले फाटक हो ललना । 

बसुदेव हरि लिये गोद्‌ पहरु५ सब सोई गईले हो ललना ॥ 
बिहँसि बोलत महाराज तात जनि डरपहु हो ललना । 

ले चलो जमुना तूँ पार कमर नहिं भौंजहिं» हो ललना ॥ 
यह सुनि के बसुदेव जी सूप लेई आवत हो ललना । 

जसोदा के घर बजत बधाई “फर्णीन्द्र मुनि! गावत हो ललना ॥ 


३२ पूरा द्वो गया । % पीली ६. हुईं । 8, चसारिन | ५५ नाक । ६, पहरेदार। ७ भींगना | 


नरोत्तमदास २०१ 


भागवत आचारी 
आपकी रचनाएँ लोक-कृंठों में और संग्रह-पुस्तिकाओं मे छूब मिलती हैं। आपका नाम सारन 
शौर चम्पारन जिसे" में अधिक है। इससे अनुमान किया जाता है कि आप इन्हीं दोनों जिलों में से 
किश्ली एक जिले के रहनेवाले थे। आपकी दो रचनाएँ मुझे 'सीताराम-विवाह”' नामक पुस्तिका 
से मिली हैं। आपका रूमय लगभग १६ वीं सदी का श्रन्त है। आप आचारी सन्त कवि थे। गीत 
से जान पढ़ता है कि आप राम के भक्त और विवाह-मॉको के उपासक थे। 
मंगल-पद्‌ : धुरछक 
सोरहो सिंगार करी सखिया चलि गैली,३ सुनु है सननी० ॥ 
घुरछुक४ के विधि करे आज ॥ टेक ॥ 
पाँच सखिया पाँच कलसा धरि लिहली," सुनु है सजनी० ॥ 
ऊपर से पतलच बिराज॥ १॥ 
गावत-बजावत जनवासा में गैली, सुनु हे सजनी० ॥ 
जहाँ. रहे श्री रघुराज॥ २॥ 
राजा दुसरथ जी असर्फी काढ़ी द्िहले, सुनु है सजनी० ॥ 
जुग-झुग बादे महराज ॥ १॥ 
भागवत आचारी” घुरछुक गाते, सुनु हे सज्ञनी०॥ 
खुशी सखिन-समाज ॥ ४ ॥ 





शायर महादेव 
शायर महादेव बनारस के कजली के एक अखाड़े के उस्ताद थे। आपका रचना काल २० वीं सदी 
का प्रारंभ अनुमित है। आपकी एक कजली पूर्वोक्त 'कजली-कौमुदी” से उद्धत की जाती है-- 


भूला सूले ननन्‍्दुलाल, संग राधा गुजरी। 
कहें राधा जी पुकार, पेगें मार& सरकार | 
उड़े पिया तोहार, मोरी डड़े चूनरी। 
सुनके कृष्ण मुरार, साने5 बतिया हमार ॥ 
बाले मुरली तोहार, हम गाईं कजरी। 
भौंगुर बोले चारों ओर नाचे बनवा में मोर ॥ 
रास अजब रचावे5, महादेव” के तरसावे5॥ 
ऐसन बाँसुरी अजावे5 ओढ़ि काज्ी कमरी॥ 


नरोत्तमदास 
आप बनारस के कवि थे और आपके भक्ति-रस के सजन तथा कृजली और गीत गायक-मण्डली 
में घहुत गाये जाते ये। आपकी एक कजली “कजलो-कौमुदी” से नीचे उद्धृत है-- 





कजली' 
हमको सावन5 सें मेंहदी सेंगाद5 बलमू। 
हाली £ बगिया में जाय लाव$ टटका तोराय७। 
३ चस्पारन-निवासी प॑० गशेश चौंवे से केवल्ष आपके नाम का पता चत्ा था। २ संग्रहकर्त्ता-मूपनारायण शर्मा 
क्रथावाचक झौर्‌ प्रकाशक--भार्गव पुस्तकावय, गायधाट, बनारस, विक्रम-संवत्‌ २००७ से प्रकाशित | ६. चक्की । 9, विवा& में 
दारपूला के घाद बरातियों के ढिए रसद भेजने के साथ निमंत्रण देने की प्रथा । ५. रख दिया । ६. शीघ्र । ०. तोढ़कर। 


२०२ भोजपुरी के कवि ओर काव्य 


छोटी ननदी के हाथ पिश्ना दु5 बहमू॥। 
तोहसे कहली तकरार, लागल जियरा हमार। 
. देवरानी से कहके रचा दुई! बल्नतू॥ 
होई जियरा मगन, तोह से कहने सजन। 
आके गोड़वा* के मेंहदी छोड़ा द$ बलम्‌।। 
तोदे फुरसत हो जो कम, कह5 लाई जाके हम। 
खाली होव5 353 टिकुली* लगा दु5 बलम॥ 


चे 
कद्‌ 
कैद काशी के कवि थे। आप 'शेखा शायर” के कजली के अखाड़े के शिष्य थे। आपके समय में 
काशी में 'करई' और "छोटे विश्वनाथ” थे। आपसे और इन दोनों से कजली का दंगल होता था। 
निम्नोक्त गीत की रचना आपने इसी दंगल में की थी, जिसका पुरुष की ठठोलीवाला अंश आपके सम- 
सामयिक 'गूदर” कवि का रचा हुआ है। विपक्षी दल में कन्दई और छोटे विश्वनाथ तथा बड़ी 
पियरी के कवि थे। हि 


कैद जी बड़े मनचले कवि मालूम होते हैं। अनुमान है कि आप सन्‌ १६२५ ई० तक रहे होगे। 
आपकी रचना, 'सावन का भूकम्प" नामक संग्रह-पुस्तिका से, नीचे दी जाती है। पुरुष-स्त्री 
के प्रश्नोत्तर के रूप में आपने बहुत सुदर तरह से १ गार-सम्बन्धी नोक-मोंक की बातें लिखी है- 


ओऔरत का जवाब : भूमर 


माटी मिलऊ* तोदार, लेबे» जुलफी उसार 
हमसे करब5 छेड्खानी कजरिया< में ॥ टेक ॥। 
तोहरे अइसन' हजार, करें नोकरी हमार। 
काहे आ्राग क्गल*० तोहरी नजरिया में॥ 
चौक--गारी अइसन सुनाइब*१ कबों लगवाँ* न आइब, 
माहामाई१5 परे तोहरे चुनरिया में। 
हैकल हसुली हुमेल देबे ठडना"४ ले ठेल्त, 
ज्ञात सारब चार पनवॉ-सिकरिया*५ में ॥ 
चोली पटने के दूर मोर तलवा के घूर"९ , 
तोरे चाकी मारे*० चाँदी के कटोरिया में। 
दूध हुआ मलाई, खोबा बरफी मिठाई, 
भरसाई*८ परे तोहरे ओसरिया१* में। 
उड़ान--तोसक तकिया तोहार हमरे ल्ेखे*" कतवाररे) , 
करों. कहूँ. न जाइब बाराद्त्यार में॥ 


९. पिसी हुई मेंडुदी से द्वाय और पैर में विन्दु-चित्र बनवा दो। २ पैर। ३. फुरसत हो तो। ४. माथे की चमकीशी 
विन्दी । ५. ५काशक--युरलूप्रसाद केदारनाथ, बुकपेलर (बनारस)। ६. साटी मिक्रना>सरना। ७. छूगी। ८ कजही 
का मे । £« पेसा ।_ १० आग कगना-जबना ( तिरस्कार-पूचक मुहवरा )। ११ छुवाजँगी। १९ पाछ, सतीप! 
१३. मदासारी। १७. पर । १५. एक गहना। १३, तलवे की धूज् (मुद्गावरा)-पुच्चातिदुच्च । १०. चाकी मारता (मुदवरा) 
+-विजल्ी पिरे [ १८. मरसाई परे--भाँड में कोकना (मुहावरा)। १६५ जोसारा। २०. लिए २३ कूढ़ा। २२ वैठकखाना। 


भगेलू २०३ 


चौक--कोर* रोज हम देखाइब तौसे टेढ़ बतिआइब, 
नाहीं केहुसे . डेराइब' हस सहरिया में। 
बाट5 सुघधर जवान ठीक भूसहर समान, 
तोड़ल कइली3 नित सिंघाड़ा तू पोखरिया में । 
तोरे अहसन भैँगेड़ी चाटे तरवाई ओ ऐंड़ी, 
हमरे रोज रोज आय के ओसरिया" सें। 
हमसे सेखी न देखाब5 कोई और के छुलाव5 , 
तोरे बजर पड़ेव थी के टिकरिया० में। 


डड़ान--मोहर रुपया ओ लोट< घीन्‍्नी' बड़ा और छोट, 
हमरे भरल बाटे अपने पेटरिया में। 
चौक--खेला केतनो तू खेल5 करब तोहसे न मेल, 
हम आप घूर्में आइब फुलवरिया में। 
जूही चश्पा ओ नेवारी हमरे लागल बा दुआरी१०, 
बेला फूलेला बीचे. कियरिया में। 
मन चली जो हमार लेब छुलुआ डलाय"१, 
भूलब देवरा के गोइने** लहरिया में। 
काहे हमरी जवानी तोहे जहर बा बुकानी१3, 
जिन*४ नजर लगाये तू उमीरिया में। 
झइसे जोबना हमार रही टेकुआ*" के धार, 
तोहे रोजे ललचइबे  बजरिया में। 
चौक--न्‍तोहे एतना छुकाइब गली-गत्ली में घुमाहब, 
तोहें घेला पर व रखबे नोकरिया में। 
क्यों रुख ना)९ मिलाइब तोहें ठेउनी)० चटाइब, 
लात भमारब जब अइब5, गोड़तरिया*<८ में। 
जाय हमरी जलाय तोरे गोहने भुल्लाथ*१ , 
परे 'बजर के भार मोदरिया*" में। 
'सेखा शायर! के घराना जाने सकल जमाना, 
'कैद!ः गावेज्ञन*१ कजरिया हुनरिया** में। 


भगेलू. . 


आपकी प्राप्त रचना के आधार पर अनुमान होता है कि आप कोई नियु ण प॑थी सन्त कवि थे। 
अनुमान होता है कि आप बनारस के ही कवि थे। आपकी एक रचना मुमे 'सावन का भूकम्प” नामक 
संग्रह-पुस्तिका में मिली है, जो नीचे उद्घत की जाती है-- 


१. कोर दिखाना--घत्ता बताना । २ उरूँगी| ३५ तोड़ा करो। 8, पैर का ततब[। ५, ओोसारा। ६ वक्ष पड़ना 
( मुद्ावरा )वननष्ठ होना | ७ पक सिठाई। ८, नोट। & गिन्नी। १० द्वार पर । ३३५ रू ढलवा लूगी। १२ गोद | 
२६५ मालूम पढता है। १४५ नहीं। १४ सूआ। १६. रुख मिलान[-नजर घरावर करना ( मुहावरा ) । ३७ पर। 
१८ खाट का पयतावा । १२६५ भूजकर मेरी वक् सी तुम्द्वारी गोंद में नद्ीं जायगी। २० गठरी । २१, गाते है। २२, का 
के साथ ( कश्यप ढंग से ) 


२०४ भोजपुरी के कवि और काव्य 


कजली (सिजोपुरी) 
नह॒दरे में रहलू" खेललू गुइद्दी। मठनिया३। : 
भउजियाई भारे तवानारे साँवलिया ॥३॥ 
सीखलू न सहूर” केसे जइबूई ससुररिया। 
करबू» का बहाना रे साँवलिया ॥रा। 
कुसुमी: चुनरिया* घूमिल कदुलवलू१? । 
लगी कइसे ठेकाना?) रे सॉाँवलिया ॥शा 
पाँचों १* पिया से झुख मोढ़ के गुजरिया। 
तू भइलू बेगाना रे साँवलिया ॥शा 
कहले “भगेलूः गुन नहहरे में सीखा*३ होई। 
पिया“ घर जाना रे सॉवलिया ॥णा। 
[इस गीत में संसार को नैहर, परलोक को सठुराल, शरीर को चूनरी और परमात्मा को पिया 
कहा गया है।] 





अजमुल्ला 
अजपुल्ता बनारस के शायर थे। आप शायद “भगेज्ञू! के अखाड़े के शिष्य थे। 


कजली (गगरी भ्ूमर) 
करके सोरदों सिगार बार" ककट्टी)* से रार१०, 
पानी घटवा भरत गोरी जालू गगरी। 
खूब सीना उठल लाल चोली मखमल कमाल, 
बल१< रहिया?* में खाह्यारे" कमर पतरों ॥टैक॥ 
गाल कुनरू*१ सीसाल चले भूमत के चाल, 
करे जियरा बेहाल फेर-फेररे पुतरीरे3 । 
घायल करती हजार मारे नेतों का सार, 
तलवार लीनो* ५ नेना बनाये गुजरी। 
चले चमक” के गोरी अबहीं उमर के थोरी, 
डालि केंधवा पर लीहले रेशम के रसरी*९॥ 
छात्रटी*७ के नसस्तीन*५८ लाख रंग के रंगीन, 
तीनदीन्हा*९ पहिन के गोरी चली चूनरी। 
जरदी कुश्रना3० पर जाथ डोरी घड़ा में फंसाय, 
सुसकाय थारन से लदावे नजरी। 





१. रही। २. गुडिया। ३. खड़कपन में खेलने के किए वाँस या सीक को घोटी-गहरी डक्षिया। 9, भाभी ।५, शंकर । 
६० जाभोगो। ७. करोगी। ८ कुसुम रंग की (गोरी)। ६ चुनरी (देद) । १०, फराया। ११५ ठेकाना कयना, काम बनता 
(मुद्नर)) | १२ पंचतत्त्व | १३, सीखना संसव है । १४, परमात्मा। १५. केशपाश। १६, कंधी। १७ सँवारकर | 
१८० कचक । १६. राह। २०. बल खाता है । २१. विस्वफल् । २९ मचा-नचाकर ! २३. आँख की पुतढी । २४. तिपा। 


२५. लोच के साथ २६. रस्पी।२० एक प्रकार का रंगीच चिकना वल्ल । २८ नोमाध्तीन । २६, धराऊँ (कपडा)। 
३० कुआ । 


पन्नू २०४५ 


फाके-कुकि) यार नार सीना उधार, 
जैसे बरछी के धार ले करेला मस्करीरे। 
टुपुर-टुपुर३ बतिआवेड थार बातन में रीकरावे, 
जिधर हँस सुसकावे, यार जावे पसरी”॥ 
डसे आसिक के जीगर मारे कसके नजर, 
भर-भर के जदुदया*' चलावे गुजरी॥ 
तार० अग्रिया जड़ाय* साँग पटिया फराय*, 
लाल दीका लगाय नकीया में बेसरी१९ ॥ 
धन करती हलाल?"१ जीयरा"* के भइ काल, 
भाल बेंदी लग़ाय पोर-पोर)३ मुनरी)४ ता 
नखड़ा करके नीत नार करें केतनन थघीमार, 
थार केतनन के गयल परान नीसरी१०॥ 


रामलाल 
रामलाल जी के जन्म-स्थान का पता तो नहीं लग सका, किन्तु आपका एक पूर्वां गीत जो पूर्वी 
तरंग? से प्राप्त हुआ है, उसकी भाषा से ज्ञात होता है कि आप बनारस के ही कवि थे। बनारस शहर 
के नहीं, तो जिले के अवश्य थे। 


पूर्वी 
ओढ़ के सिलिक१*६९ की चदरिया जालू*» बाबू की बजरिया 
अलबेली बन के ना मारेलू*< नयनवाँ के बान हो अलबेली बन के ना ॥टेक॥ 
झँखिया तोर बाटे*१ राज्ञा अमवाँ के फरिया*०, 
अलबेली बन के ना लेहलु** छुयलन के जान हो अलबेली बन के ना ॥शा 
गोरे गाल पर काला गोदनवाँ कऋुलनियाँ भोकरेदार** हो 
अलबेली बन के ना काहे करेलू*3 परेशान हो अत्वबेली बन के ना ॥३॥ 
तारकसी के ओऑंग्रिया में जोबनवाँ नोकेदार हो अलबेली बन के ना, 
रख लेतू*४ हटमरो अरमान हो अलबेली बन के ना, ॥श॥। 
रामलाल छेला से अब कदेलिन गुजरिया हो अलबेली बन के ना, 
गावा*" झब पुरुबिया के तान हो अलबेकी बन के ना ॥णा 





पन्नू 
अनुमान है कि आपका जन्म-स्थान बनारस अथवा मिजापुर है। आप वहीं के किसी कजलो के 
अखाड़े के शिष्य थे। आपकी रचनाएँ, दूधनाथ प्रेत (सलकिया, हवड़ा) से छुपी, 'मिजोपुरी कजरी? 
नामक पुस्तिका में हैं। उसीसे नीचे के गीत उद्धृत हैं-- 


१, ताक-काँककर । २, सठखरी। ३५ मनोदारी वचन। 9. बातचीत करती दै। ५. गिर जाना, देर हो जाना। 
६. जादू । ७, तार। ८, जड़ाना--उलमा-सितारा लगाना । ६, माँग की पाटियाँ सँवारकर | १०, नाक में मोती का वेसर्‌ । 
११ नाश (जिवह)। १२ जीपन । १३० अँग-अंग | १७५ पक जासूषण । ३४५ निकल गया । १५० सिल्क (रेशम)। ३७ जाती 
हो। १८ भारती दो । १६, है। २० फाँक, फारी (जाघा दुकडा) | २१: केती हो । २२ झूलनेवादी । २३. करती हो। 
२४ रख केती । २४५, गाजी | 





२०६ भोजपुरी के कवि और काव्य 


कजली 
7. (१) 
गोरिया ना साने कहनवाँ हक जाला ना ॥ 
घाजूबन्द हुमेल हसुली प साला ना॥ 
छाड़ाई छागरई औ कड़ा पेंजनी बिछुवा' माला ना। 
पीतार्थर की सारी पहिरे चादर आला" ना॥ 
कहें पन्नू! देख सुरतिया भये बेहाला: ना॥ 
(१) 
अग॒वाँ ९ बोलत रहती?" जनियाँ, अब काहे छुटकत** बाद्ू१* ना। 
पाँवके पअ्रन्दर॒ छाड़ा खूब छुमकावत बाहू ना। 
ढ़ी जवानी जोर, तोर है चमकत बाहू ना। 
नैनन से नेन छड़ाके जुलुमी*5 दमकत बाहू ना। 
पन्नू! कहे सढ़त पलेंगिया भटकत*४ बाहू ना॥ 


देवीदास 


आप प्रौढ़ कवि ज्ञात होते है। जनता में आपके गीतों का आदर है। गीत की भाषा से ज्ञात 
होता है कि आप बनारस के ही रहनेवाले थे। आपके गीत भोजपुरी की संग्रह-पुस्तिकाओं में पाये 
जाते हैं। 'बॉका छुबीला गवैया” नामक -पुरितिका में आपकी निम्नलिखित “चैती' मिली है-- 
चैती 

नाजुक बलसा*" रे रतिया नहिं आचे हो रामा ॥ 

एक तो मोरी चढ़ल्ली जवानी दूजे बिरहा सतावे हो रामा ॥ 

चैतवा की गरमी नींदिया भा आये हो रामा॥ 

दिवीदास! जिया१६ ना माने केतनों समुझाये हो रामा ॥ 

नाजुक बलमा हो रामा० ॥ 








भग्गूलाल ओर बुकावन 
ज्ञात होता है भग्गूलाल और बुझ्ावन दो कवि थे। सम्मवतः भग्यूलाल गुर हो और बुफावन 
उनके शिष्य। भग्यूलाल का नाम हमें बनारस के अच्छे कवियो में बताया गया था। पर उनका, पता 
अधिक नहीं चला। यह ज्ञात हुआ कि वे बनारस के एक कजली के अखाड़े के मशहूर शायर थे। 
बुकावन का भग्गूलाल का शिष्य होना बहुत निश्चित है। पुरातन प्रथा चली आती है कि अपनी 


हट का नाम अपने नाम के पहले कवि रखते थे। “पूवां तरंग” में इनके निम्नांकित दो 
गौत है-- हि 





१. कहना। २. भज्ा, अच्छा । ३५ पेर का गहना। 8, पायजेव। ४, पैर का गहना। $ पैर की जैगुलियों का 


गहता। ७. श्रेष्ठ. ५ वेचेद | ६. पहुले। १० रही। ११, इधर-जधर करता। १२, हो। १६. झुढम करनेवाला। 
१४, संकोच में पढ़ना । १४५ परलम, पलि। १६६ हृदय । 


भग्यूलाल और बुकावन २०७ 


पूर्वी विद्दाग_ 

(३) 
बोलियो के गौलिया लागल। 
भागल मोर सुगनवाँ" जाके फेसि हो गइले ना। 
काहू' टोनहिन" के ठोनवाँ3 में जाके फेंसि हो' गइले ना। 
अबहीं तो रहलें बोलत डोलतर* अगनवाँ कहताँ निकसि हो गइलें ना ॥ 
अँखिया ढेंकल नकल जनु कइलें कहाँ निकसि हो गईइलें ना॥ 
जनली" नाहीं मरमिया* उढ़िहें दूसरे के भवनवाँ केहुके बसि हो गइते ना ॥ 
हसरी सून नगरिया भइलीं केहु बसि हो गइलें ना॥श 
लेईके हिरामसन» भ्रापन खेललीं सहेलिया हमरे धसि हो गइलें ना॥ 
दिल पर ठोरवा: के निशनियाँ१ हमरे बसि दो गईइलें ना॥ 
'भगूल्लाल! बूकावन कतहूँ लाये ना सोहावन अइसन घधसि हो गइलें ना । 
बिरदा बान करेजवा मरलु१" अइहसन धसि हो गइलें ना॥ 


(२) 
काली तोर पुतरिया बाँकी तिरछ्ी रे नजरिया हो अलघेली बनके ना । 
मारलू करेजवा में बान हो अलबेली बनके ना ॥ टेक ॥ 
चढ़ल बा जवानी धानी ओढ़्लू चद्रिया दो अलबेती बनके ना ॥ १ ॥ 
छोटी छोटी छुतिया*१ ता पे पतली रे कमरिया हो अलबेली बनके ना । 
खालू नित मगहिया ** बीढड़ा पान हो अत्बेली बनके ना ॥ २॥ 
दाँते के बतिसिया चमके पडवाँ ७ के सेंह॒दिया हो अलबेली बनके ना। 
काहे लेलू** छैलन के परान हो अद्ववेत्ञी बनके ना॥३॥ 
भसग्गूज्ञाल! कहें जानी*" सान5 तू कहनवाँ हो अलबेली बनके ना -। 
मित्रि के पमिटाव5 तूँ अरमान हो अलबेली बनके ना॥४॥ 


बिहारी 


आप आजमगढ़ जिले के कवि हैं। आपकी कविता में पश्चिमी भोजपुरी का रूप देखने को मिलता 
है। जो पाएडलिपि श्री परमेश्वरी लाल गुप्त से कवि मिट्ट्र जी के प्रबन्ध-काव्य की मिली थी, उसीमें 
' आपके भी १२ बिरहे हैं, जिनमे से एक उदाहरण नीचे दिया जा रहा है-- 


(१) ः 
फिर तुम सुमिरल्ा** सन वोही*० सात्षिक*८ के - 

जेत गजब  पिंजड़ा"* गढ़ि देय । 

वोही मल्तिकवा के काहे ना भजेलू*०, 

* जेकर*१ जोति हडवे** अगस-अपार ॥ 

ऐ भाव भजन शुन गाय लइ“*3 हो बन्दे तुम 

भाव भजनगुन गाय ले तुम । 
३६ तीता ( प्रियतम )। २ ठोना करनेवाल्दी, जादूयरनी। ६ जादू-ठोना । 9, चब्नता-फिरता ! & जाना, समका। 
६. मत, भेद । ७. तोते का नाम ( सन का द्वीरा )| ७ ठोर, चोँच ( अघर )। €, चिह | १०, मारा। १३ स्तन। 


१९ मंगही पान । १६. पाँव। १४, छेती द्वो। १४५ प्राण-प्यारी। १६. चुमिर्न कर छो। १७, उसी। १८७ परमात्मा। 
१६, शरीर । २० भजते दो । २१, जिसकी | २९ है। २३५ गान कर थो। 





२०८ भोजपुरी के कवि और काव्य 


ऊपर बघोह' सालिक पर घर घियनवाँ 
जेकर भेजलका - अहत्ला3 तुम। 
जो जो कइला तबनेंे फलवा नाहीं फन्नेला" 
साफ दिलवा के राखा तुम। 
जब दिल चाहे. पार उतरिद्दा *, 
लेस* करे जनि जद॒द्दा: तुम। 
कहे बिहारी गुरु साम के चेला, 
है जरादग्बा दया करा तुम॥ 





श्रीकृष्ण त्रिपाठी 
आप रसरा ( बलिया ) के रहनेवाले हैं। आपकी कई पुस्तिकाएँ छपी हैं। “पूर्वी दिलबहाए* 
नामक पुस्तिका चार भागों में प्रकाशित है। इसमे आपकी रचनाएँ संगृहीत है। कुछ रचनाएँ उक्त 
पुस्तिका से नौंचे उद्धुत हैं-- 
पूर्वी 


(१) 
राधेजी की सेगवाँ रामा सखिया हो सलेहरी*"से हिलि हो मिलि ना । 
जमुना जाली असननवाँ से हिलि हो मिल्तनि ना॥ 
जबहीं सखिया रामा कइली हो असननवाँ से चीर हो लेके ना। 
काँचा*) चढ़ते कदमवाँ से चीर हो लेके ना॥ 
गोढ़ ठदोर क्लागी रामा काँचा हो बटवरवा१* से देह हो देव5 ना। 
हमरी देह के बसतरवा से देह हो देवष ना॥ 
जबहीं चीर हम देबों हो सहेलिया से चलि हो आये ना। 
सखी, हमरो हो डगरिया?3उसे चलि हो आवे ना॥ 
कहसे आवों काँधा | तोहरी हो डगरिया से हम हो धनिया ना। 
जसुना से उधारी४ से हम हो धनिया नागा 
कहें श्रीकृष्ण ब्रिपाठी' सुनि हो लेबू सखिया से निगरिचा*"जाके ना । 
सखिया लेई आव5 चीरवा हो निगिचा जाके ना॥ 


(२) 
गगरी लेके ना राघे जाली** जमुना के तिरवाँ॥ टेक ॥ 
सात पाँच सखिया रामा राधे जी के सँगवा से हिल्ति हो मिलि ना। 
जसुना जाली जलवा भरने से हिलि हो मिलि ना॥आ 
ओनिया१७ से आये रामा कृष्ण हो कन्हैया से घइ्‌*८ हो ले ले** ना । 
रासा नरसी कलइया से धइ हो ले ले ना॥ 
छोड़ -बोड़, काँधा रामा हमरी हो कलइया से टृटि हो जहहें ना । 
अबहीं आह्हर*" बा कल्नइया से हृटि हो जह॒हँ ना॥ 


१६ उस। २ भेजा हुआ। ३, जाया। 8. वही । ४, फछता है। ६. पार उतर जाना। ७, भोग-विज्ञास। 
८. जाना। ६ प्रकाशक--शुष्लूप्रखशाद केदारनाथ चुकसेलर, कचौढीगली, वनारस सिटी। १० सहेली (जिससे गुप्त 
सक्ाह की जाय, दिल की वात कद्दी जाय)। १३५ कन्दैया, कृष्ण १२९, वटससार, रास्ते में लूट लेनेवाला। 
१६ डयर, रास्ता। ३१४, चंगी। १४६ नजदीक । १६५ जाती है। १७ उघर । श्ण, पकड़ । १६ लिय[। २० नाहुक 
(अहहुड) । 


गूंदर ३०६ 


कहे श्रीकृष्ण त्रिपाठी” मानि हो जइबू सखिया से पुजाइ हो लिहे ना। 
कांधा मन के अहकिया से पुजाद हो लिहे नाग 


(३) 
दृधि बेचे चल्नल्ली रामा बृन्दाबन की खोरिया३ से काँधा रोके ना । 
रामा हमरी डगरिया से काँधा रोके ना॥ 
धहके कल॒इया काँधा धइले हो महुकिया से लेइ हो ल्लेले ना। 
रामा हमरो ऊ दृधिया से ले हो ले जले नाथ 
कुछु उजे+ खटले रामा कुछु हो गिरवले से गेडुली' हमरे ना । 
रामा जमुना में दृदअ्श्रवक्षे० से गेहुली हमरे ना॥ 
देखली कांधा राम तोहरी हो ढिठहया< से जाइके कहयो ना। 
काँधा कंस के द्रबरवा से जाहइके कहबो ना॥ 
होत ही फजीर" कॉधा चढिहे हों हृथकड़िया से खिया् "हो अइहें ना। 
काँधा तोहरी ढिववया से खियाल हो अइहे ना॥थ 
कहे 'श्रीकृष्ण त्रिपाठ सुनि हो लेबू सखिया से काहो करिहें ना। 
रामा कंस निरमोहिया से काहो करिहें ना॥ 
उद्दो १ त हवें सखिया रास आवतरवा से कंस का होहूहें ना। 
रामा इनहीं से नासवा से कंस का होइहें ना॥ 





शायर शाहवान 


शाहवान मुसलमान शायर तो जहर थे, पर बनारस के कजरी के अखाड़ों के कवियों मे कई के 
गुरु भी थे। आपकी शिक्षा-दीक्षा में कई कवियो ने अच्छी उन्नति की । जगरनाथ राम आपके 
प्रसिद्ध शिष्य थे। आप बनारस के ही रहनेवाले ज्ञात होते हैं। 'बॉका छुबीला गवैया”"* से निम्न- 
लिखित गीत उद्धृत है-- 


पूर्वी 
पुरुव मत जाओ मोरे सहूयाँ। 
घोद्दीं रे पुरबवा की बॉकी बेंगलिनियाँ । 
जदुआ डारि रखिहदें मोरे रासा रे ॥पुरुषण। 
लासी-क्षामी *>क्ेसिया “5 बढ़ी-बड़ी झेखियों रे 
पनिया भरइहें)५ मोरे रामा रे॥॥। 
शाह! कहें बंगाले की नारी 
आचे नाहीं देहहँ मोरे रामा रे ॥पुरुष०॥ 


गूद्र 
..यूदर कवि काशी के महल्ला 'छोटी पियरी” के रहनेवाले थे। आप 'शेखा शायर” के अखाड़े 
के कवि थे। आपका समय १६२५ ईं० के पूर्व का हैं। आपको रचनाओं कौ एक संग्रह-पुस्तिका मुझे 


३. पूरा करना । % जालसा। ३० गढी। ४ बवद्दी की सटकी। ५. वह जो । ६. बिंडई ( पात्र रखने के लिए 
कपडे या तिनके की वनी गोल पस्तु 0) ७ चह॒वा दिया। ८. दिठाई। €. सुबह । २० याद, स्तृति। ११, वह | 
१२ प्रकाशकें-शिजोरीबाल बुकसेलर, आदमपुरा, बनारस सिटी । १३. णस्वी-लस्थी । १७. केशपाश। ९१४, पाता 
भर्‌पवेंगी, गुज्ञाम चनावेंगी । 





२१० भोजपुरी के कषि और काव्य 


मिली है, जिसका नाम है सावन का“सवाल', ओर जो राजनारायण गिरि ( बाबू बाजार, खिदिरिपुर ) 
द्वारा प्रकाशित है। कैद, कन्हई आदि कवियों की रचनाएँ भी उसी में आई हैं। उसी पुस्तक से कुछ 


रचनाएँ यहाँ दी गई है-- 
सुमिरनी 


दोड कर जोरके सौ सौ बार, सावन में अबकी" साल हमार । 

अरजिया * ल्गल भवानी से, आज सुन लाँवर गोरिया॥ 

चौक--कोई सुमिरेज्ञा सेत महैस, कोई पूजेला गौरी गनेस। 

करे कोई भजन बढ़ाके केस, फिरे कोई बदुल के भेसर। 
हमें आसा महरानी से आज सुन साँवर गोरिया॥ 

भरोसा कोईके नाहीं बाय3, जगत जननी होहू सहाय । 

पुकारत हुईं बनके असहाय, खबरिया ले तू माता आय। 
पिघल्ततई बा आरत बानी से आज सुन साँवर गोरिया ॥ 

प्रग” भई बन काली, अरिनन" पर काढइक्रे भुजवाली९। 

जोगिन देत संग ताली, कहैलू भ्रष्ट भ्रुजाबाली। 
युद्ध असुरन सानी० ते आज सुन साँवर गोरिया॥ 

आई सहीं आज़ सोरि महया, लगा दे पार आके नहृया । 

सेजेलन 'गूद्र! हरद्‌इयाँ< दया कर दे तू एडि ठहयाँ । 
छुटे होरी-दलकानी१० से आज सुन साँवर गोरिया ॥ 





होरी लाल 


होरी लाल, गूदर और कैद कवि के गुरुभाई तथा 'शेखा शायरः के अखाड़े के शिष्य ये। 
आपकी रचना का समय १६१५ ईं० से पहले का है, जब बनारस आदि शहरों में मादक वस्तुओं का 
प्रयोग बहुतायत से होता था। आपका गीत गृद्र-कृत पूर्वोक्त सावन का सवाल?” नामक'संग्रह-पुर्तिका 
में आया है, जो नीवे दिया जाता है-- 


कजली 


पिया मदक सवादे** सुन5 सखिया ना ॥टैका 
ले अफीम तोला भर चुरवे** कोठा के ऊपर। 
ऊपर से मिलावे बबूर१३-पतिया ना॥ 
मेरु"४ गवरइया१५ भँगाय, लेनन गोनरी*९ बिछाय । 
सइयाँ छिटवा*० लगावे सारी रतिया ना॥ 
जिस दस सेज पर हमरे आये पिनिक*८ ले और जमुहावे१+ । 
बोले नाहीं बोलाये, सूते मूँद ओंखिया ना।॥ 


१. इस बार। २. अरे, प्राथेना। ३. है। ४. द्रवीमृत ह्वीती है। ४. शत्रुओ। ६. भुजाली, कठारी। ७. बराबरी 
करतेवादे । ८. प्रतिचार, हर दफा । ६. जगह । १०. परेशानी | ११, खाद लेने का चस्का छग गया है। १६- पकाता' 
है। १६५ बपूल । १७, वढा। १५४. मिट्टी का हुक्‍्का। १६, गोनर की चटाई । १७ जज का घींठा देना। १८ अफीम के 
गरे में तौज से बोतना[ । १६. जँमाई लेता है। 





शायर निराले २१६ 


हमके मदन सतावे बेसी, चाहीं होय मोकदमसा पेसीरे । 
होरी! यह नशा से भइलें पिया रखिया3 ना॥ 





चन्द्रभान 


चन्द्रभान शाहाबाद जिले के रहनेवाले कवि है। आपका समय १६१५ ई० के पूर्व का है। 
आपकी रचना की भाषा भोजपुर के इलाके वी ठेठ भोजपुरी है। कहीं-कहीं खड़ी बोली का भी 
पुट है । आपकी रचनाएँ कवि तेजू राम ढवारा सग्रहीत और प्रकाशित “रेंगीली दुनिया” नामक 
पुस्तिका में, मुझे मिली है-- 


दुनियाँ . के बिगढ़लई रहनिया" हो. दीनबन्ध ! 
दुनियाँ के बिगड़क् रहनियाँ ॥टेक॥ 
नारी प्यारी अधर्मी बनावे, माई कहावे बैरिनियाँ ९ 
बाप बेचारे को लाखों नतीजा", दिन भर भरावेले पनियाँ < ॥१॥ 
सास-ससुर को सतावेले बहुअर', भ्रपने बनेल्ले बिसनियाँ १० । 
बुढवा के दे लात-पुस्सा धसटेले, बुढिया के मारे चुहनियाँ ११ ॥श॥ 
याबाजी बनियाँ के चीलम चढ़ावे, रोटी बनावे बभनियाँ "२ 
उनका भला रास केसे करेंगे, ब्राह्मण दबावे चरनियाँ १३ ॥३॥ 
देखो ए लोगों जमाना के खूबी, धरथा में रोवेले जननियाँ १४ ॥। 
लौंडा पर मरता है सारा जमाना, ब्राह्मण ओ*" छुन्नी ओ बनियाँ ॥४।॥ 
सुदृबत-सराफत हजारों को देखा, गोदी सुलावे डोमिनियाँ १६ ॥ 





शायर निराले 


आप बनारस के कवि थे और कजली के किसी अखाड़े के उस्ताद थे। आपका समय भी १६१० ईं० 
, के आस-पास है। आपकी रचनाएँ 'कजली-कौमुद्दी” में प्राप्त हैं, जिनमे एक नीचे उद्धृत है-- 


कजली 


हरि-हरि कचने करनवाँ १७ कान्हा जल में समाना रे हरी । 
गेंदवा के बहनवाँ १८ सब सखा के समनताँ १९ रामा । 
अरे रामा कालीदह में कूद पडे भगधवाना रे हरी ॥ 
नाग नाथ आये सुर सुमन कर लाये*० रासा | 
अरे रामा सुनके खबर कंस बहुत धबड़ाना रे हरी ॥ 
बाँसुरी बजावे सोहिनी रूप दरसावे रामा | 
अरे रामा लोला अपरम्पार कोई नहीं जाना रे हरी ॥ 


३ शधिक । २ मुकदमे की पेशी (एक अरतील मुद्दावरा) | ३. भस्म, राख (तुच्द)। 8४, बिगढ़ा हुआ। ४. रहन- 
सहन। ३. वैरी, दुश्मन । ७. दुदंशा ! ८. पानी सरवाना--सेवा-दद्त कराना (मुद्दावरा) ! ६, बषू, पतोहू । १०. शौकीन 
(विद्ासिनी)। ११, रसोई-घर के चूदद्दे के पास की जगह । १२ ब्राह्मणी। १३५ चरण। १४५ पत्नी। १४५ भौर। १६ 
'नायढादिन | १०, कार॒या | १८ वहाना। १६, सामने। २० झडी लगा दी । 


श्१२ भोजपुरी के कवि और काव्य 


नाग-नागनी बिंदा कीन्ह सिर चरण रख दीन्हा रामा । 
अरे रामा पिये जसुन-जल करे बखनवाँ ? रे हरी ॥ 
कहे 'निराले! समझावे जो हरि-गुन गावे रामा | 
झरे रामा राधेश्याम जप, काहै के अलसाना * रे हरी ॥ 





रसिक किशोरी 
आपकी रचनाएँ हिन्दी और भोजपुरी दोनों भाषाओं में प्राप्त है। धवन दर्पण!# संभह- 
पुस्तिका में आपकी रचनाएँ प्राप्य हैं। अतः आपका समय १६२४ ई० के पूर्व का माना जायगा। 
निवास स्थान भी बनारस के आस-पास कहा जा सकता है। आपकी रचनाएँ प्रौढ़ और भावपूर 
होती भीं। एक उदाइहरण-- 
कजली 


नाहीं मानो बतियाँ तोहार मिठबोलवा3 ॥टैका। 
तोरी मुँह देखे की पिरितिया< सेंवलिया । 
कसके”" करेजवा* हमार मिठ्योलचा ॥ 
'रसिक किशोरी” रस-बस इत* आवत | 
नित-भित करत करार< मिठयोलवा ॥ 


जगेसर 
4 आप अपने समय के अच्छे कवि थे। आपकी रचना 'मिजौपुरी कजरी? नामक संग्रह-पुर्तिका 
में मिली है। आपकी भाषा में मिजौपुरी का पुट है। आपका एक गीत 'सावन-दर्पण” # 
में भी है। 

कजली 


अइले* सवनवाँ घर नाहीं रे सजनवाँ १० रामा। 
दरी-हरी देखे बिन तरसे*) मोर नयनवाँ रे हरी ॥ 
हमके भ्ुलले** ऐसे भइते १3 निरमोहिया रामा। 
हरी-हरी जाय बसे कूबरी"४ के भवनवाँ रे हरी ॥ 
रतिया अ्रंघेरी घेरी बिजुली चसमके रामा। 
हरी-हरी गरज सुनावेला*" गगनवाँ रे हरी ॥ 
सूनी रे सेजरिया पर तड़फेलू १९ अकेली रामा। 
हरी-हरी नाहीं माने जुलमी ० सोर जोबनवाँ १८ रे हरी ॥ 


३, वशोगान करना । २. आज्स्य करता। + अकाशक--बना रसीप्रसाद वर्मी, 'उपस्यासदर्पण'कार्यादय, काशी; 
संस्करण, सदर १६६० ई० । ३. मीठी बोली चोबनेवाजा ( चिकती-चुपडी बातें करमेवाबा )। ४ तुम्हारी प्रीति रेल धर 
देखे फी ( सामने होने पर की ) है। ५. कसकता है, टीसत है। ६. कश्ेजा। ०, इधर ।८. वादा । # लेखक--पृष्णणाल; 
प्रकाशक--वपन्‍्याठ-दपगाकायौलय, काशी । ६. आया। १०. प्रियतम, स्वजन । ११५ तरसता है। १२. भूतत गये। १३, हो 
गये। ३५. इरूपा लीत। १४. छुनाता है. १६. तडपती हो। ३७. झुल्म करनेवाका। १८. यौवन । 


श्री केवल २१३ 


कहेले “जगेप्तर पियवा नाहीं घरे अइले रामा। 
खाई बिख तजब” परनवॉ* रे हरी॥ 





देवीदास 
अनुमान है क्तिआप गाजीपुर अथवा बलिया जिले के थे। आपकी रचना को देखकर ही ऐसा 
अनुमान किया जाता है। आपका समय १६२० ई० के पूर्व का होगा। आपकी रचनाएँ हमें 'मिजीपुरी 
कजरी' तथा 'सावन-दर्पण” मे मिली है - 
कजली 


जिन3 जद॒हो 5 मोरे राजा" तू बजरिया< से । 

सचत*० तोहे लेहहें बोलाय चढि जद्हों मोरे राजा वू नजरिया में । 
सावन की बहार सारे बिरहा-कटार तरसइद्दो' मोरे राजा तू बजरिया में । 
लागी तोरी आप कहे मानों 'देवीदास' रहि जाओ मोरे राजा तू अंटरिया" " में । 


भगवानदास “अबीले' 

आप “ह्विजबेनी? कवि के शिष्य थे तथा बनारस के रहनेवाले थे। आपकी प्रूपद, धमार 
आदि रागों में बेंधी रचनाओं की पुस्तिका वि० सं० १६६६ में प्रथम बार भारत-जीवन प्रेस (काशी) 
में मुद्रित हुई थी। यह पुस्तिका हिन्दी में है। एक-दो भोजपुरी गीत भी है। इसी पुस्तक से 
आपका परिचय मिला। भोजपुरी रचनाएँ अन्य संग्हों में भी प्राप्त हुई है। उपयुक्त 'मिजोपुरी 
कजली!, में भी आपकी रचना के डदाहरण मिले हैं। "सावन दर्पण” में भी आपकी रचनाएँ 
संगहीत हैं । 

कजली 


| 
सावन धम गरजे रे बालसुओँ १) ॥टेका 
हसरे पिया जाले परदेसवा कोई नहीं बरजे१* रे बालमुओं । 
कहतत 'छुवीले' छेल, पति* राखो तनिक मोरी अरजे१*र बालमुआँ ॥ 
(२) 
जोबना१" पे तोहरे*९ बहार साँवर गोरिया १७ । 
मोतियनय हार गल्ले बिच सक्तके। 
झेंगिया सलोनी बूटेदार साँचर गोरिया ॥ 
कहत  घछुबीले' गोरी चढ़ली"१<-जवनिया"९ | 
जिया तरसावलूर" हमार साँवर गोरिया ॥ 


श्री केवल 


आपके दो छुन्द मुझे चम्पारन-निवासी श्री गणेश चौबे से ग्राप्त हुए है। आपके छपरा या 
मोतिहारी के निवासी होने का अनुमान किया जाता है। 


225 जय तल 

३ त्याग दूँगी। २ प्राण। ३. नहीं। 8. जाना । ४» प्रियतम। $ द्वाट-बाजार । ७ सौत | ८ नजर पर 
चदना (मुदह्वरा) | ६. तरसोंग्रे। १०, अटारी, अट्टालिका । १३५ वढ्कषम, पति । १०, मना करना। १३ पत रखना-- 
ताज रखना। १४. जले, बिनती। १४५ यौवन । २९, एम्हारे। १० स्यासा[ चुन्द्री। १८-२६, उमरी हुई जवानी। 
२०, णवाचाती हो ! 





२१४ भोजपुरी के कवि और काव्य 
चैत 


भोला त्रिपुरारी भदले मतबलवा हो राम । 

आरे" जेही के सीस पर गंगा बिराजे 

सोहेला5 चन्द्र भालवा>ं हो राम ॥ 

कि सोइ भोला हो पहिरे सु'डमलवा हो राम । 

आरे अगवा में भभूति' रमवल्ते 

अँगवा* बड़ बेश्रालवा» हो राम ॥ 

करवा* - जगवले' हो डेंचरु११ तिरसुलवा*" हो राम । 
गेजवा-धतुरवा १९ चबावे निगले भंगगोलवा१३ हो राम । 
धूमत फिरे सगरे*४ बनवा हो राम ॥ 

आरे गजवा तुरेंगवा छाड़ि के 

बा रथवा-बिसनथा हो रास 

सेंगवा लगवले हो छुढ़ुचा बयलवा"” हो राम ॥ 
औआरे जोगी बीन बजावे गावे आरे भूतवा हो राम। 
कि 'बेवल' डरपि१९ गये भोला सरनवा*० हो राम ॥ 





केशवदास 


आप कबीरपंथी साधु थे। आप चम्पारन जिले के मोतिहारी थाने के पंडितपुर भ्राम के निवासी 
थे। थवौसवीं सदी के आरम्भ में श्रापका स्वरगंवास हुआ। आपके पद सुन्दर और गम्भीर होते थे। 
«है कवि श्रभी आगे खोज की अपेक्षा करता है। 


चैतार 
(१) 
भावे१८ नाहिं भोहि भवनवाँ १९ | 
हो रामा, बिदेस गवनवाँ २० ॥॥॥ 
जो एह मास निरास मिलन भए्‌ 
सुन्दर प्रावः गवनवाँ *१ ॥शा 
केसोदास' गाते निरशुनवाँ 
ठाढि गोरी करे भुनवनवाँ २९ ॥शा। 
(२) 
सुधि कर सन बालेपनवा*3 के बतियारर*। 
दसो दिसा के गम" जब नाहीं, संकट रहे दिन-रतिया ।। 


*, गीत का टैक। २. जितके | ३६. शोसता है। 8, छत्नाठ | ५० विमूति, मस्म। ६. आगे, सामने । ७; ध्यातष, सर्प । 
5« करें; द्वाय में। ६. वजाते हैं। १०. उमर । १३. तिशूल । १९, गाँजा और घतूर । १३, भंग का गीढा | १४, सर्वत्र । 
४» चेक । १६. उर॒कर्‌। १७ शरण सें। १८. अच्छा लगना। १६. घर, सवन। २०, विदेश-गसत। २३- प्राय-विसर्जत । 
२२ गुनावम, चिता | २६. चचपन | २४, बात । २४. ज्ञान, चित्ता । 


रॉजकुमांरी सखी ११४ 


वार बार हरि से मिल कहल5" बसुधा में करबि भगतिया" ॥ 
बालापन बाल ही में बीतल, तरुनी३ कह़के छुतियाई । 

काम क्रोध दूसो इन्द्री जागल्" ना सूझे जतिया* वा पतिया" ॥ 
अन्त काल में समु्ति परिहं<। जब जमसु* घेरिहें दुअरिया१० । 
देवा-देई सभे केड हरिहें, कूठ होइहें जड़ी-बुटिया१ १ ॥ 

केसोदास' समुझ्ति के गावेले** हरिजी से करेले मित्रितिया*३। 
साम बिहारी सबेरे चेतिह5, अन्तस में ४ केहूना।" संघतिया" * ॥ 





रामाजी 


आप सारन जिले के आम सरेयों, (डाकंघर हुसेनगंज, थाना सिंवान) के रहनेवाले सन्त गृहस्थ 
कंबि थे। आप राम के बड़े भक्त थे। तमाम घूम-घूम कर रामजी का कीत्तेन किया करते थे। 
आपके पुत्र अब भो है। आपकी रचना भोजपुरी और खड़ीबोली दोनो मे हुआ करती थी। 
सन्‌ १६२६-३० ईं० मे आपके संकीत्तन कौ बढ़ी घूम थी। प्र की मृत्यु १:१० और १६४० ई० 
के बीच हुई । 

“कल्याण? के 'सन्त-अँक' में आपका जिक्र किया गया है। आपके गीत भोजपुरी गातो के संग्रहों मे 
पाये जाते है। भूपनारायण शर्मा की रचनाओ के संग्रह मे भी आप की भोजपुरी रचनाएँ हैं। 
श्रापकी कोई रचना उदाहरण के लिए नहीं मिली । 


राजकुमारी सखी 


आप शाहाबाद जिले की कवयित्री था। आपके गीत अधिक नहीं मिल सके। फिर भी, 
आपकी कवि-अ्तिभा का नमूना इस एक गीत से ही मिल जाता है। आपका समय बीसदीं सदी का 
पूवीद्ध' अनुमित है। निम्नलिखित गीत चम्पारन निव'सी श्री गणेश चौंबेजी से प्राप्त हुझ-- 


गोड़ ०तोही “ल्षागले बाबा ९हो बढहता "से आहो रामाने 
धनवा-मुलुक** जनि ब्याहड हो रासा। 
पघासु मोरा मरिहें गोतिनि*3 गरिअइहें*४ से आहो रामा 
लहुरि*" ननदिया** ताना भरिंहें हो रामा। 
राति फुलइबो*७ रामा दिन उसिनइहे*८ से आहो रामा 
घनघा चल्ावत*+धामे3०तत्षफबि 3 "हो रामा । 
चार महीना बाबा एहि तरे3+ बितिहे से आदहो रामा 


१ कहा। % सक्ति। ६. लघानी। ः छाती कडकना ( मुद्दावरा )--कामोत्तेजन होना। ५५ उत्तेजित द्वोती है। 
६-०. चात-पाँत | ८. पढ़ेगा। । &, यम। १०, द्वार । ३१९ जडी-बूटी--दवा-दारू । १९ गाता है। १३५ बिनती। १४. अर 
सतय में। १४. कोई भी नहीं | १६. साथी। १०. गोड बागिते--प्रणाम करती हूँ। १८. तुमको । १६, पिता। २०. बढन्ती- 
चाछा, पेश्वय॑-सापज्न | २१, गीत का ठेक। २२९ घान उपउनेवाजा मुक्क। २३. जेठानी-देवरानी! २०, गाली देंगी। 
२४. घोटी-प्यारी । २६. भनद, पति की वद्दन | २०. ( धान को पानी में ) फुलाकँगी। २८. (पानी में का भिगोया घान आग 
की आँच पर ) उयादूगी। २६. उयाहने के वाद घान धप में पतार दिया जाता है जौर थोड़ी-थोडी देर पर उद्े मूजने के 
किए हाथ से तीचे-अपर फेरना पढ़ता है। ३०, धूप में । ३१ तकफूगी, जदुगी। ३२, इसी तरह। 


११६ मोजपुरी के कबि और काव्य 


खाये के माइग्रिल भतवा" हो. रामा। 
राजकुमारी सखी! कहि. सममावे आहो रामा 
बिना सहुरें” सब दठुखया दो रामा॥ # 


बाबू रघुवीर नारायण 


आप सारन जिले के 'नयागॉव” नामक ग्राम के निवासी है। उसी जिले के छुपरा-नगर में आपका 
जन्म सन्‌ १८८४ ई० मे, ३० अक्टूबर को हुआ था। जिस समय आप छुपरा-जिला स्कूल में पढ़ते थे, उस 
समय वहाँ साहित्य-महारथी प० अम्बिकादत्त व्यास अध्यापक थे। उनसे आपकी कवि-प्रतिभा को बढ़ा 
प्रोत्साहन मिला । बिहार के भारत-प्रसिद्ध विद्वान परिडित रामावतार शर्मा से भी आपने उसी स्कूल 
मे शिक्षा पाई थी। स्कूल में ही आप हिन्दी, श्रंगरेजी तथा भोजपुरी में कविता करने लगे थे। 
पटना कालेज में पढ़ते समय आप अँगरेजी में बहुत अच्छी कविता करने लगे। अ्रंगरेज प्रोफेसरो 
ने आपकी अंगरेजी-कविता को बहुत सराह्य था। बी० ए० पास करने के बाद आप पूर्णियाँ जिले 
के 'बनैली'-नरेश राजा कीत्त्योनन्द सिंद के प्राइवेट सेक्रेटरी हुए। बिहार के प्रसिद्ध महात्मा भ्री 
सीतारामशरण भगवानप्रसाद जी 'हूपकूला” की प्ररेशा से आप हिन्दी मे भी कविता करने लगे। 
आरा-निवासी बाबू शिवनन्दन सहाय से आपने त्रजभाषा में कविता करना सीखा था; किन्तु अ्रंगरेजी 
और हिन्दी की कविताओं से अधिक आपकी भोजपुरी कविताएँ प्रसिद्ध हुईं। आपका सबसे प्रसिद्ध 
भोजपुरी गीत “बयेहिया” है, जो २० वीं सदी के आरंभ में दक्तिण-अफ्रिका, मॉरिशस और ट्रिनीडाड 
तक के प्रवासी भारतवासियो में लोकप्रिय हो गया था। सन्‌ १६४२-४३ ३० में बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्‌ 
से आपको डेढ़ हजार रुपये का वयोवृद्ध साहित्यसेवी सम्मान पुरस्कार मिल्रा था। आपके सुपुन्र 
श्री हरेन्द्रदेद नारायण, बी० ए० ने, जो हिन्दी के भी प्रतिभाशाली कंवि हैं, 'कु अर सिंह* नामक 
काव्य भोजपुरी मे लिखा है। आपकी मृत्यु सन्‌ १६५४ ई० मे हुईं थी। 


बटोहिया 


सुन्दर सुभूमि भैया भारत के देसवा3 से मोरे प्रान बसे दिम-खोह * रे बदोहिया" ॥ 
एक द्वार घेरे: राम दिम-कोतवाल्वा से, तीन द्वार सिंधु घहरावे८ रे बदोहिया ॥ 
जाहु-जाहु भैया रे बठोही हिन्द देखि आड, जद॒वाँ कुहँकि कोइलि* बोले रे बटोहिया ॥ 
पवत सुगन्ध सनन्‍्द अगर" ० गगनवॉाँ११ से, कामिनी बिरह-राग गावे रे बटोहिया॥ 


१. साँड मित्रा हुआ गीला भात। २. शछर, शील-स्वभाव।। + शाहावाद जिक्षे में दच्तिण और उत्तर दो खंढ है । 
यौच में ईंस्टर्म रेशे की जाइन है । जाइन के दक्लिन धानवाजा क्षेत्र है और छाइन से उत्तर गग्रा-तठ पर 
गेहूँ-चना का क्षेत्र है। यह गीत रचनेवाली कवयित्री उत्तर-खंड की जान पडती है। वह अपने पिता से कद्दती है. कि 
दक्खिन-छ्षेत्र में हमारा विवाह मत करो, नही तो धान कूटना पढेगा ! किसी-किसी गीत में दक्षिणी क्षेत्र की लडकी भी 
उत्तर-खंगढ में विवाह न करने के लिप पिता से कहती है; क्योंकि वहाँ, इसको चक्की 'चलानी पढ़ेगी ।३, देश। 
४. द्विमाचत की फल्द्रा। ४६० भारतीय अथवा प्रवासी यात्री । ६. वेरे हुए है । ७ दविमालय-रूपी पहरेवार। 
८० गरणता है। ६५ कोकिल । १० अगुरु नामक सुगन्धित धूप । १६५ जाकाश। 


महेन्द्र मिश्र २१७ 


विपिन अगस घंत सघन बगन" बीच, चम्पक कुसुम रंग देवे रे बटोहिया ॥ 
ब्रूसम बट पोपल कद॒म्ब निम्ब आम बृक्त, केतकी गुलाब फूल फूले रे बटोहिया॥ 
तोता तूती बोले रामा बोले मेंगरजवा* से, पपिहा के पी-पी जिया साले रे बठोहिया ॥ 
सुन्दर सुभूमि भेया भारत के देसवा से, मोरे प्रान बसे गंगा-धार रे बटोहिया ॥ 
गंगा रे जसुनवाँ के रकगमग3 पनियों से, सरजू रमकिदं लहरावे रे बटोहिया ॥ 
ब्रह्मपुत्र पंचनतद घहरत” निसि-दिन, सोनभद्र मीठे स्वर ग़ाते रे बटोहिया ॥ 
झपर अनेक नदी उसद़ि-घुमढ़ि नाचे, जुगन* के जदुआ» जगावे< रे बटोहिया॥ 
झागरा प्रयाग काशी दिल्‍ली कलकतवा से, मोरे प्रान बसे सरजू तीर रे बठोहिया ॥ 
जाउ-जाउ भैया रे बटोही ! हिन्द देखि आऊ, जहाँ ऋषि चारो बेद्‌ गाचे रे बठोहिया ॥ 
सीता के बिसल जस रास-जस कृष्ण-जस, मोरे बाप-दादा के कहानी रे बठोहिया ॥ 


व्यास बाल्मीक ऋषि गौतम कपिल देव, सूतल अमर के जगावे रे बटोहिया ॥ 
रामानुज रासानन्द न्‍यारि प्यारी रूपकला, ब्रह्म-सुख-बन के सेंवर रे बटोहिया ॥ 


नानक कबीर गौर* संकर श्री रास कृष्ण, अलख के गतिया बछ्ाचे रे बढोहिया ॥ 
बिद्यापति कालीदास सूर जयदेव कवि, ठुलसी के सरल कहानी रे बटोद्दिया ॥ 
जञाउ-जाउ सैया रे बटोही हिन्द देखि आऊ, जहाँ सुख मूल्ले घान खेत रे बटोदिया ॥ 
बुद्धुदेव पृथु बिक्रमाजुन सिवाजी के, फिरि-फिरि हिय सुध आधे रे बदोद़िया॥ 
झपर प्रदेस देस सुभग सुधर बेस, मोरे हिन्द जग के निचोड़ रे बठोहिया ॥ 
सुन्दर सुभूमि मैया भारत के भूमि जेहि, जन रघुबीर! सिर नावे रे बदोहिया१" ॥ 





महेन्द्र मिश्र 


आप सारन जिले के “मिश्रवलिया” आम (नैनौ, छुपरा) के रहनेवाले थे। आप मामूली पढ़े- 
लिखे व्यक्ति थे। आप रसिक मनोदृत्ति के प्रेमी जीव थे। आपके गीतों का प्रचार छुपरा और 
आरा की वेश्याओं ने भोजपुरी जिलों मे खूब किया है। वास्तव में आपके गीत बहुत सरस, सुन्दर 
और भ्रेममय होते थे। जाली नोट बनाने के अपराध में आपको एक बार सजा भी हो गईं थीं। 
सन्‌ १६२० ईं० के लगभग श्आापकी कविताएँ शाहाबाद, छुपरा, पटना, मोतिहारी आदि जिलों में खूब 
प्रेम से गाई जाती थीं। आपने अनेक तजजों के गीतों की रचना को है। आपकी कविताओं के दो-एक 
संग्रह भी छप चुके हैं। आपकी तीन प्रकाशित रचनाओं ( 'मेघनाथ-वध”, “महेन्द्र-मंजरीः और 
कजरी-संगरह” ) का पता मिला है। आपने रामायण का भोजपुरी में अनुवाद भी किया था, जो अबतक 
आपके वंशजों के पास है। 


(१) 
नेहवा१) लगाके दुखवा दे गइल्ते)* रे परदेसी सहयाँ१३ ॥टेका॥ 
अपने त गइले पापी, लिखियो ना भेजे पाती१४, 
झइसे" निहठुर स्थाम हो गइले रे परदेसी सइयाँ। 
बिरहा जलावे छाती, निंदियों ना आये राती, 
कठिन कठोर जियरा हो गइले रे परदेसी सइयाँ। 
१. बाग । ६, सृज्राच पक्ती । ३, जगमग (निर्मत्र)। 9, ककोरे के साथ । ७ गरणता है। $« युगों का । ७-८ जादू- 


जगाना--भोद्दिनी ठाजना (विशेषताओं को याद दिवाता है) । ६. गौराग चैतन्य महाप्रभु । १० यह कविता 'र॒घवीर पत्र पुष्प” 
नामक प्रकाशित पुस्तक से उद्धृत है । ३३. स्नेह । १९. दे गये । १३. स्वामी, प्रिंयतम । १०, चिंद्ी । १४, पेसे । 


श्श्य भोजपुरी के कवि और काव्य 


कहत 'महेन्दर'ः प्यारे सुनज्हो परदेसी सहयोँ, 
उड़ि-उड़ि भेंवरा? रसवा हे | गइले हो परदेसी सहयाँ ॥ 
२ 


भूमर 

झवध मनगरिया से अइली बरिश्रतिया सुनु एरे३ सजनी ४, 
जनक नगरिया भइले सोर” सुनु एरे. सजनी ॥ 
चलु-चलु सखिया देखि आई' बरिश्रतिया, सुनु एरे सजनी, 
पहिर: न लहरा-पटोर० सुनु एरे सजनी ॥ 
राजा दूसरथ जी के प्रान के अधरवा< सुनु एरे सजनी, 
कोसिला के अधिक पिआर, सुनु॒ एरे सजनी ॥ 
कहत महेन्द्र” भरि देखिले तयनवा, सुनु एरे सजनी, 
फेर नहीं जुटी' संजोग, सुन एरे सजनी ॥ 


देवी सहाय 
आप शिवभक्त कवि थे और आपकी रचनाएँ बहुत मधुर हुआ करती थीं। आपकी कजली 
का उदाहरण प्रो० बलंदेव उपाध्याय ( काशी-विश्वविद्यालय) ने 'कजली-कोमुदी” की भूमिका में दिया है । 
आपकी भोजपुरी रचनाएँ प्राप्त नहीं हो सकीं। एक ही उदाहरण मिला-- 
सोह न तोके*० पतलून साँवर-गोरवा११ | 
कोट, बूट जाकेट,. कमीज क्यों, 
पहिनि** बने बेलून साँवर-गोरवा ॥ 


रामवचन हिवेदी अरविन्द! 
आप देवघर-विद्यापीठ के साहित्यालंकार है। आप के पिता का नाम पं० रामअनन्त द्विवेदी है। 
आपका जन्म-स्थान दुबौली ( नीयाजीपुर, शाहाबाद ) हैं। आप हिन्दी की भी कंविताएँ 
लिखते हैं। आप अपने कई हिन्दौ-गद्य-लेखों के लिए पुरस्क्ृत हो चुके है। अपनी भोजपुरी कविता 
के लिए भी आपको स्व७पदक मिला है। हिन्दी में आपकी कई पुरुतकें निकल चुदी है। आपका 


५. हि. -प 9० 


* गाँव के ओर” नामक भोजपुरी कविता-संग्रह गाल है। 
4 


ए 
लड़ाई के ओर 

हुसमन देस के दबावे खाती १३ आवत  बादेड, 

उठ भदया उठ5 अब देर ना लगाईजा'७॥ 

लड़े-भीडे में तो हम सगरे१९ पअ्रसिद बानी१७, 

आव5 ६१८ बहादुरी लड़ाई में देखाईजा११॥ 

लाठी लीद्वीं-०, सोटा ल्ीहीं, काता*ओ कुदारी लीहीं, 

हाथ में गेंदासा लीहीं आगे-आगे धाईजरर। 

हमनी*3 के टोली देखि थर-धर . जग काँचे, 

पानी में भी आव5 आज आग धधकाईजापंद ॥ 
३. प्रमर | २ वबरात । ३, अरे ।४8. सखी। ५५ धूम-धास, शोर । ६. व्ो। ७, कामदार थाड़ी। ८. भाषार। 
६ संयोग हटना ( मुद्दावरा )--सुअवसर। १० तुम्हें। ११. अँगरेजी ठाट-चाढठ के हिन्दुस्तानी। १९० पहन फर। 


६६. खातिर, पास्ते । १४. है। १५ णयावें, करें। १६. सर्वेत्ष। १७, हैं। १८, यह। १६, दिखावें ।२०, ऐें, धारया करें । 
२१० घोटी कठारी। २. दौडे”। २६. हम खोग | २०, धपका दें, प्रव्वलित करें । 





रामवचन द्विवेदी अरविन्द २१६ 


भोम अरजन बोन हसरे इहाँ१ के रहने, 
हमनी भी आज महासारत  रचाइजा। 
सहाबीर भीस बनी, हनूसान धीर बनीं, 
पारथ गैभीर बनी, परलेट. मेंचाइजा॥ 
तेगा तलवार बान किरिच बन्दूक लेहरें, 
घधम-धम-धम-धम रन ओर जाईंजा ॥ 
सामने जे झापे ऊ त5 सरग”" सिधावे* बस, 
छुप-छुप. रुण्ड-सुणठ काटि के. गिराइंजा ॥ 
राना परताप वीर सिवाजी वो सेरसाह, 
माँसीवाली रानी के तो ध्यान जरा लाइईंजा॥ 
लवकुस लहकन से सीखीं जा बहादुरी वो, 
वमकिसजु, झुबक से चिट तोरि आईजा ॥ 
ह '#हेंइनात सस्ते ५.० लोहा, 2 सूमनात बारे, 
अंडा. फहरात  बाटे, (“कदम ४-सबढाई'जा॥ 
डंटा मिले, खंता< मिले, तलवार भोज्तों मिले! 
जेहि हथियार मित्रे से दि लेके धाईजा॥ 
गंगा से पबीतर* थो जमुना से निरमल, 


सुन्दर सुभूमि पर दाग ना लगाईजा ॥ 


गाँव के ओर 
जाहाँ-जाहाँ देख5 ताहाँ-ताहाँ. गाँवबासी लोग, 
डेद-डेह चडरा'" के खिंचढ्ी पकावता । 
मेल-जोल के न बात कतहीं११ देखात बाटे२, 
सब कोई अपने बेसुरा राग गावता"3 ॥ 
एक दूसरा के न भलाई सोचतारे*४ कोई, 
सब कोई श्रलगे ही डफ़ली बजावता! 
मेल वो मिलाप देख पाईले+" जाहाँ भी कहीं, 
करील्षे१* चुगुलखोरी भाई के ल्ड़ाईले१७०॥ 
दूसरा भाई के जब सुनील कक 4 ५ 
जहाँ. तक बनेला बिघिन"< पईचाईड १ 
झपना कपारे?* जब परेला*० बिश्राह कमी, 
घर-घर जाके सिर सबके नवाईले*१॥ 
दूसरा में अस-तस* अपना में रथ-असड, 
चलोले सगर नाहीं केह से चिन्हाईले*४ ॥ 
झूठ के करीले साँच, साँच के करीले कूठ, 
तबो हम दुखिया के मुखिया कहाईले॥ 


१. हमारे यहाँ । २. थे। ३. प्रढयय। 9, ढेकर । ४, स्वयं । ६६ सिवारे, गये, सवर्ग-सिधारना (मुदावरा)-मर जाना । 
»« ग्यूह । ८ खनित्र (जमीन खोदने का औजार) । ६. पवित्र । १०, चाषत्ञ (डेढ चावक्ष की खिचढ़ी पकाना)।! ११५ कहीं । 
१९० है। १३० गाते हैं। १४ सोचता है। २६० पाता हूँ। १६. करता हूँ। १७० जढाता हूँ। १८ विध्न । १६, सिर पर | 
२०. पढ़ता है । २१. नवाता हूँ। २२ पेसा-वैसा । (सुस्त) २६. रथ की तरद्द तेज। २४. पदचान में जाता हूँ! 


२२० भोजपुरी के कवि और काव्य 


एक-दूसरा के खान-पान के छोड़ावे खाती", 
ऐड़ी से पसीना हम चोटी ले चढ़ाई ले। 
छोट-मोट गाँव बा हमार पर ओकरो में, 
गोल बर्घेचाके3 हम सब के जुमाई ले॥ 





भिखारी ठाकुर 

भोजपुरी के वयोबृद्ध कवि 'सिखारी ठाकुर” पहले शाहाबाद जिले के निवासी थे; पर अब उनका 
गाँव गंगा के कटाव में पड़ कर सारन जिले में चला आया है । उनके गाँव का नाम कुतुपुर है। 
वे बहुत कम पढ़े-लिखे है। लड़कपन में वे गायें चराया करते थे । जब सयाने हुए, तब अपना 
जातीय पेशा करने लगे--हजामत बनाने लगे। वे खड़गपुर (कलकत्ता) जाकर अपने पेशे से 
जीविका उपाज॑न करने लगे। वहीं पर रामलीला देखने से उनके मन में नाटक! लिखने और 
अभिनय करने का उत्साह हुआ। उन्होंने भोजपुरी में 'बिदेसिया” नामक नाटक लिखा। उसका 
अभिनय इतना लोकप्रिय हुआ कि उसे देखने के लिए हजारों दर्शकों की भीड़ होने लगी। वे 
खड़गपुर से जगन्नाथपुरी भी गये थे। वहाँ उनके मन में तुलसीकृत रामायण पढ़ने का अनुराग 
उत्पन्न हुआ । 'रामचरितमानत” को वे नित्य पढ़ा करते थे। उसी ग्रन्थ के बराबर पढ़ते रहने से 
कविता लिखने को प्रेरणा हुईं। उनकी भोजपुरी कविता में अनुप्रास के साथ शव गार, करुण आदि 
रसों का अच्छा परिपाक हुआ है । उन्होंने कई नाटक समाज-सुधार-सम्बन्धी भी लिखे हैं। 
उन्होंने एक नाटक-मण्डली भी संगठित की है, जिसके आकर्षक अभिनय की घूम भोजपुरी-भाषी 
जिलों में बहुत अधिक है। भोजपुरी के उुविस्तृत क्षेत्र की जनता पर उनके नाटकों का अद्भुत प्रभाव 
देखकर श्रेंगरेजी सरकार ने उन्हें रायताहब की उपाधि दी थी और प्रचार-कार्य में भी उनसे सहायता 
ली थी। राष्ट्रीय सरकार से भी उनकी पदक और पुरस्कार मिल चुके हैं। आकाशवाणी में भो 
उनके अभिनय और गीत बड़े चाव से सुने जाते हैं। भोजपुरी में प्रकाशित उनकी रचनाएँ 
निम्नांकित हैं--(१) बिदेसिया, (२) भिखारी-शंका-समाधान, (३) मिखारी चउजुगी, (४) भिखारी 
जयहिन्द खबर, (५) नाई-पुकार, (६) कलियुग बहार, (७) बिरहा-बहार, (८) यशोदा-सखी- 
संवाद, (६) बेटी-वियोग, (१०) विधवा-विलाप, (११) हरि-कौत्त न, (१२) मिखारी-भजनमाला, 
(१३) कलयुग बहार-नाटक, (१४) बहरा-बहार, (१५) राघेश्याम-बहार, (१६) घीचोर-बहार, 
(१७) पुत्रवघ-नाटक, (१८) श्रीगंगास्नान, (१६) भाई-विरोध, (२०) ननद-भौजाई, (२१) नवीन 

बिरहा, (२२) चौवरणो पदवी, (२३) बुढ़ साला का बयान आदि 


१9) 
छुछुनवल5 ४ जिश्रा बाबू” मोर, 
रस के बस सतवाल भइल' मन, चढ़ल जवानी जोर॥ 
दिनो रात कबो कल ना परत बा०७, गुनत-गुनत< होत भोर ॥ 
छुछुनवल5 जिश्रा ०॥॥॥ 
बाल-विरिध* एक संग कई दीहल*०, पथल*" के छाती बा तोर | 
कहत भिखारी? जवानी काल बा, मदन देत मकमोर ॥ 
छुछुनवल5 जिञरा गाशा। 
॥ --(बेटी-वियोग! से) 
१. खातिर, वास्‍्ते। २. उसमें भो। ३. गोल वाँधकर-- दल बनाकर | 5 इन सव एंस्तको के प्रकाशक हैं--श्री दूधभाव | 
पुस्तफालय एण्ड प्रेस, ६६ सूतापट्टी, कलकत्ता । ४, तरसाया, तडपा-तढपाकर छलचाया। ५५ बाप, पिता। ६« हुआ। 
७० पढ़ता है ८, सो चते-छोचते ! ६, वृद्ध । १०, कर दिया। ११, पत्थर । 


मिखारी ठाकुर २२१ 


(२) 
चलनी" के चालल' दुलहा सूप के भटकारल3 है। 
दिश्वेका४ के लागल बर दुआरे" बाजा बाजल है॥ 
श्ाँचा के पाकल १ दुल्लदा झाँवा० के भारत| हे। 
कलछुल्न* के दागल बकलोत्पुर"" से भागल") दहै।॥ 
सासु के अंखियाँ में अन्हवट" बा छावल"७ है। 
आई के *४ देख5 बर के पान चश्लुक्वावल१" हे॥। 
आम लेखा" ९ पाकत्न)० दुलद्दा गाँव के निकाल्त्ञ १८ है । 
अइसन बकलोल*९ बर चटक २" देवा*) के सावलर* हे ॥ 
मउरी*३ लगावल दुलहा जासा पहिरावल है। 
कहत 'मिखारी! हडघन*डेराम के बनावल*” है॥ 
--(“बेटी-वियो ग” से) 
(३) 
गवना कराइ** सेंया घर बहठवल्ले*०७ से, 
अपने लोभइले**  परदेस रे बिदेलिया ॥ 
चढली जवनियाँ बैरन** भइली3० हमरी से, 
के मोरा हरिहें ३) कल्लेस रे बिदेसिया॥ 
दिनवाँ बिततेला सइयाँ बटिया3 जोदइत तोर, 
रतिया बितेला जागरि-जागि रे बिदेसिया॥ 
घरी राति गइले35४ पहर राति गइले से, 
धधके फरेजवा में आग रे बिदेसिया॥ 
अमयाँ मोजरि गइल्ले3४ रूगले टिकोरबा3७ से, 
दिन-पर-दिन पियराय५ रे बिदेसिया ॥ 
एक दिन बहि जहहें जुलमी बयरिया३०७ से॥ 
डाढ़ पात जहहें भट्राय5< रे बिदेसिया ॥ 
भभक्रि3$ के चढलीं सें अपनी अटरिया से, 
चारों ओर चितवों चिह्ाइ४० रे बिदेसिया ॥ 


३. चतनी । २ 'चाला हुआ (धनी में आाठा चाढने पर चोकर बाहर मिकक जाता दै। दुलहे का मुँह भी चोकर की 
तरह रखढ़ा है )। ३. फटका हुआ (सूप से फटकने पर अन्न में से कूडा-कचरा निकल जाता है, दुलद्दे की सूरत पैंठी ही है। ) 
8. दीतक (दुलहे के चेहरे में दीमक कगने का भाव है, शीतल के गहरे और घने दाग पढ़ जाना)। ४» द्वार। ६« पका 
हुआ (कुम्द्ार के जाँवा में पकने पर मिट्टी के बर्तनों में जैसे झदसन का दाग पड जाता है, वैसे दी दुलद्दे के चदन में घब्बे हैं ।) 
७. पककर काढी हुई ई'ट । ८. काडा हुआ भाँवा से मजने पर देह में जैठा रख़डापन णा जाता है, पेंठा ही दुबददे 
फा रुखड[ शरीर है। ९. करदी | १०. वकणोलपुर--वौडमों जौर गँवारों का गाँव । १९५ भागा हुआ--अथौद्‌, इस दुलहे 
का गुजर घेवकूफों में मी न हो उका । १० जँघेरा । १३५ घाया है । २४ जाकर के। १४. 'चवा-चवाकर मुद्द में घुबाना। 
१६. चहश। २७ पका हुआ (पका आम--्मद्मावृद्ध मरणासन्न) | १८. निकाणा हुआ, खदेडा हुआ। १६ चे-शकर । 
२०. चटकोत । २१. लडकी का वाप । २९. जच्चा झगा। २३५ सौर । २४. है। २४५ बनाया हुआ (राम का घताया, व्यंग्यपूर्श 
मुद्दावरा)। २६, कराकर ! २७८ वैठाया ! *८ छुमा गया । २६ दुस्मन। ३० हुईं। ३१. दरण करेंगे। ३९. घाठ, राह 
( धाद जोहना-प्रतीक्ष करना)। ६३ वीत गई । ३४. मुजराना, मंजरी प्रस्कुटित द्वोगा। ६५. जाम का थघोटा 
टिकोल्ा । ६३, पियराना, रँग 'चढ़ना। ३७ वयार (चह्ुल्मी हवा>--आँधी)। इ८. प्रष्ट द्वो जायगा, गिर जायगा। 
३६. चिन्ता -व्वाला से व्यग्रहोंकर । ४०, 'चौंककर । (अन्तिम पंक्तियों में रखाल-बृक्ष से कामिनी के तन की तुरूना है । संजरी से 
यौवन के प्रस्कुटन का, टिकोला से छाती उठने का, पियराने से जवानी की जाली चढ़ने का, आँधः से कामोत्तेजना के ककोरे 
का और डाल-पात गिरने से पथश्रष्ठ दो जाने का संकेत है ।) 


श्श्र भोजपुरी के कवि और काव्य 


कतहू न देखों रामा सइयाँ के सुरतिया से, 
जिया गइले सुरकाइ रे बिदेसिया॥ 
“-( बिदेसिया' नाटक से) 
(४) 


सकटइया" हो | तोर गुन गुँ थव* माला ॥ 

भात से तरत भव, लावत गरीब लव, पूरा-पूरा पानी दिलाई ।टिका। 
भेजा" भरि भोरी सारी* जहँतहँ खोरी-खारी* खात बाइन< बाल गोपाला॥ 
घन हु धनहरा*० ढाठा११ खाले लगहर* नाठा,१3 लेंढ़ा*ब्घोनसारी "में फॉकाला १९ ॥ 
सातू-सरचाई-नून खइला*० से सूखेला*< खून, साधू लेखा"* रूप बनी जाला॥ 
दारा*० गूर* दृही भन, कृष्ण कृष्ण कही-कही, मुँदयाँ में माजारेः _बुकाला*5॥ ६ 
भुद्द-भगवाव से विसान खास आई जात, मन बेकुणठे :-कलि--आशा 5. 
करत “भिखारी! खेला सूरदास" जइृहन मेला, गंगा तीरे बहुत बोझाला॥! 

मकइया हो ! तोर गुन गुथव माला ॥ 
--('मिखारी-सजन-माला' से) 





दधनचाथ उपाध्याय 

आपका जन्म हरिछुपरा ( वलिया ) में हुआ था। आप 'रामचरितमानस” और बँगला “कृतबास- 
रामायण! के बढ़े अनुरागी थे। आपके पिता पं० शिवरतन उपाध्याय थे। आपने एक बार गोरक्षा क 
आन्दोलन उठाया था, जिसका प्रवल प्रभाव केवल वलिया जिले में ही नहीं, अन्य भोजपुरी जिलों 
में भी पढ़ा था। उन्हीं दिनों आपने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “गो-विलाप छुन्दावली” की रचना चार- 
भागों मे की थो। उसकी भाषा ठेठ भोजपुरी है। देहात की जनता में आपकी रचनाएँ बड़ी प्रभाव- 
शालिनी सिद्द हुई हैं । आप बढ़े अच्छे वक्ता भी थे । आपने 'हरे राम पीसी”, 'हरिहर शतक', 
भरती का गीत', “गो-चिटठुकी-प्रकाशिका! आदि पुस्तकों की भी रचना की है। आप सरल, 
वोल चाल के शब्दों में दुहह और गहन विपयों को झ॒न्दरतापूर्वक व्यक्त कर देंने में बढ़े 
प्रवीण थे । * 

आजि काल्हि** गइया के दुसवा+० के देखि-देखि 
हाइ हाइ हाई रे फाटति बाटे छुतिया। 
डकरि-डकरि डकरति  बाटदे राति-दिन, 
जीमसिया निकालि के बोलति बाटे बतिया३4। 
ताहू पर हाइ निरदृइया** हतत3० बाटे, 
गया का लोह३" से रेंगत बा धरतिया। 
अगवाँ ३९ के हुख-हुरद्सवा33 के सोचि-सोचि, 
कोटि जुग॒ नियर>डेंबीतति बाटे. रतिया ॥9॥ 

१. मकई, भृट्टा। २. गरंयूगा ( गुणयान करूँगा)। ३. छव लगाना--नेह लगाना। 8. दिया जाता है (मकर का 
सात सॉकतने उप्तय बहुत पानो सोखता है )।४५, चंदेना। ६. कोली की कोशी। ७. गढी-गली में | ८. हैं। ६. घत्प । 
२०. मई के पौधे में से निकती हुई मंजरी, दो घान की वाह की तरह होती है । ११. मकई के पौधे का डंठह । १२. दुधार 
गाय-मंस | २३. विसुझी हुई गाय-मेस) २४. मकई के दाने निकाल छेने के वाद, जो खुखडी चचती है। १४५, भाड, जिसमें 
सृखे पत्ते कोककर जन्नत मृनने के लिए बालू गरम की जाती है। २६. मोका जाता है। १७. खाने से । १८. घूखता है 
१६. सदृश। २०. मकई की दृलिया। २१. गुड। २७ म॒जा। २३: मालूम पडता है। २४ चछा चाता है। 
रप्र, 'इन्‍्माध। 5 बलिया के कवि जौर लेखक' पुलक के आधार पर--लेखक | २६. आञ-क्ख | र७ दशा | २८ बात । 
२६५ निर्देय । १०० चध करता है। ३१. लहू। ३२. जगले युग। ३३. दुर्लशा। ३४, सहरा। 


राय देवीप्रसाद पूर्ण” २२३ 


हमनी का सब केहू गया का दुखवा के, 
तनिको तिरिनवो) नियर ना गनत बानी*। 
रात-दिन कठिन-कठिन_ हुख देखि-देखि 
आगा-पाछा बतिया के कुछुना सोचत बानी ॥ 
आजि-काल्हि दम खद॒ला-खट्दला बिनु मुञ्अतानी 5, 
अगवाँ त पहु से कठिन दुख देखतानी। 
सिरी रघुनाथ जी हरहु" दुख गइया के, 
हमनी का दुख के सुन्दर हृबत बानी॥र॥! 





माधव शुक्ल 


प॑ं० माधव शुक्ल हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि थे। आप प्रयाग के निवासी थे। आपका प्रा परिचय 
“कविता-कौमुदी” के दूसरे भाग में छुपा है। आपके पिता का नाम पं० रामचन्द्र शुक्ल था। आप वीर 
र॒। के अन्छे अभिनेता थे। आपकी भोजपुरी में इलाहाबाद की बोली की मलक है। आपके 
भह्ाभारत” नाठक (पू्वार्द) में एक भोजपुरी सोहर मिला है। वह नीचे दिया जाता है-- 


सोहर 


जुग जुग जीवें तोरे ललना*, झुलावें रानी पलना», जगत सुख पावईं< हो । 
बजै नित अनन्द बधैया', जियें पाँचौ*? सेया, हसन कहें मानईं हो-। 
घन धन कुन्ती तोरी कोख?", सराहे सब लोक, सुमन बरसावइं१* हो ॥ 
दिन दिन फूलरानी१३ फूलें, हुआरे हाथी झूलें, सगुन"४ जग गावईं दो ॥ 





राय देवीग्रसाद पूर्ण! 
आपका पूर्णो परिचय “कविता कौमुद्दा! (भाग द्वितीय) में प्रकाशित है। आप कानपुर के 
निवासी बड़े प्रसिद्ध वकील और हिन्दी के यशस्वी सुकवि थे। आप स्वनामधन्य आचाये महावीर- 
असाद द्विवेदी के परम मित्र थं। आपकी एक भोजपुरी रचना “कविता कौमुदी! के दूसरे भाग से यहाँ 
दी जाती है। इसमें उत्तर-प्रदेश की भोजपुरी का पुट है--- 
बिरहा 

अच्छे-अच्छे फुलवा बीन रे सलिनियाँ"५ ग्रँघि त्वाव नीको-नीको१९ हार। 

फुलन को दरवा गोरी गरे!» डरिहॉ१८ सेजिया माँ दोय रे बहार ॥ 

दरिभजना--करु गौने के साज॥ 

चेत*९ सास की सीतल चाँदनी रसे-रसे*०. डोलत बयार। 

गोरिया डोलावे बीजना रे पिय के गरे बाहीं डार॥ 

हरिभजना--पिय के गरे बाहीं डार ॥ 


१६ तण । २ गिनते या सममते हैं। ६, मरते हैं। ४. इससे भी । ५० हरण करो। ६० बच्चा। ७. पकनता, झूता 
७ पाता है। ६. आनत्द-बधावा | १०. पंच पायडव | १३. गम (कुक्ति)। १९. वरसाते हैं । १६, पूल के समान सुकुमार 


रावी। १४ संग्द-गीत। १५० सालित। १६, अच्चे-अच्चे। १७, गले में। १८ डालूँगा। १२६ चैत्र मामा 
२० सन्दुसत्द | २९, व्यजन, पंख । 


श्र४ भोजपुरी के कबि और काव्य 


बागन माँ कचनरवा फूले घन टेसुआ" रहे छाय। 
सेजिया पे फूल भरत रे जबही हेंसि-हँलि गोरी बतराय*॥ 
हरिभजना--हँसि-हँसि गोरी बतराय। 

हर बर साइति3 सोधिए दे बह्मनवा* भरनी* दिहिसु बरकाय७। 
पाछ्ठे रे जोगिनिआँ: सामने चेंद्रमा गोरिया का लावहूँ लेवाय ॥ 
इरिभजना--गोरिया का लावहुँ लेवाय ॥ 

कोड रे पहिने मोतियन माला, कोड रे नौनगा हार॥ 
गोरिया सलोनी में करों रे अपने गरे का हार॥ 
हरिभजना--अपने गरे का हार॥ 

झासन कूके कोइलिया(९ रे मोरवा करत बन सोर। 
सेजिया बोले गोरिया रे सुनि हुलसे)) जिय मोर ॥ 
हरिसजना--सुनि हुलसे जिय मोर ॥ 

काहे का बिसाहौ१९ रेंग पिचकरिया काहे घरों अविरा१३3 सँँगाय॥ 
होरी)४ के द्िनन माँ गोरी"५ के तन माँ रंग रस हुगनुन दिखाय॥ 
हरिभजना--रैंग रस हुगुन दिखाय ॥ 

अबहीं बुत़्ावा नौवा*९ बरिया*० अवबहीं बुलावहु कहार। 
गोरी के गचन की साइति आईं करि ज्ञाड डोलिया तयार॥ 
हरिभजना--करि लाउ डोलिया तयथार ॥ 





शायर मारकण्डे # 


मारकरडेजी ब्राह्मण थे। बनारस के सोनारपुरा मुहल्ले में शिवालाघाट के रहनेवाले थे। 
आपने नृत्य कला में काफी ख्याति ग्राप्त की थी। आपको कजलियाँ मशहूर थीं। आपने विदूषक- 
मण्डली भी कायम कर ली थी। आपके अखाड़े की शिष्य-परंपरा अब भी है। आपकी स॒ृत्यु 
सन्‌ १६४० ई० मे हुईं थी। आपकी कविता कौ भाषा बनारसी भोजपुरी है। 
(१) 
कजली 


चरखा मँगइये १८ हम, सइयाँ से रिरिआयके१९, अलईपुरा२० पठायके ना । 

काते रॉढ़ पड़ोसिन घर में, संझा-सुबह और दोपहर में, 

हमको लजवावबे गान्धी की बात सुनायके, ऊँच नीच समुमायके ना ॥ 

हमहू कातब कल से चरखा एक मेँगाय के, रुई घर धुनवाय के ना 

रखे?) सूत स्वदेशी कात, मानव गान्धी जी की बात ॥ 

गोइयाँ ** बड़ी सूत पहिनब,*5 आपन बिनवाय'*दं के, 

चरखा रोज चलाय के ना॥ 
१. टेसू (पत्राश) का फूल। % यातें करती है। ३, शुम घड़ी। 9, शोध दो । ५ ब्राह्मण, पंडित। ६« भद्रा। 
७ बेचा कर। ८ योगिनी झुखदा वामे>-यात्रा के समय जोगिनी का पीछे या व[ममाग सें रहना शुभ है और चन्द्रमा का 
सामने या दाद्दिने रहना सुखद है । ६. कोई | १०. कोयल । ११, हुलसता दे, प्रसन्न होता है। ३२ खरीदू'। १६, अबीर | 
१४. द्ोजी | १५. सुन्दरी । १६. नाई, हजाम । १३७, बारी ( पक जाति )। * 'मारकंडेदास” नामक एक कवि का परिचय 
रचनाओ फे उदाहरण-सहित, इसी पुस्तक के १८८ पृष्ठ पर दिया गया है। दोनों भिन्न जान पढते हैं; क्योकि शायर 
सारकंढे से राष्ट्रीय भाव की कविता लिखी है।--लेखक | १८. मँगार्दगी। १६. हठ करके। २०, वनारस के पक मुद्गफ्ते 

फा नाम, जिससे अधिफतर झुलाहे रददते हैं। २१. रखूँगी। २२ तूथी | २३» पहलनूगी | २8४, चुनवाकर | 


रामाजी २२५ 


कुरता लड़कन के सीअइबे,' बाकी सद॒याँ के पहिरहने। 
अपनी धोती पहनब धानी रंग रेंगाय के, चलब फिर अठलायके ना ॥ 
केहू तरह बिताइब झाज, कल से हमहू लेब सुराज। 
कजरी 'भारकण्ढे! की गाय, पीडनी घरे बनाय के ना॥ 
(२) 

का सुनाई हम भूठोल के बयनवार ना। 

हो बयनवा ना, हो बयनवाँ ना॥ टेक॥ 

जबकी३ आयल तो भूडोल, गेल प्रथ्वी जो ढोल । 

होले लागत सारे सहर" के सकनवाँ भा॥ 

जेहिया' अमावस के मान, रहलें कुम्स के असनान । 

वोही रोज पापी झायल» तूफनवा ना॥ 

करके झायल हर-हर-हर, गिरल केतनन< के घर । 

जबकी डोल गइलें घर औ अगनवाँ मभा॥ 

सहर दरभंगा अठर मुंगेर, भइलें मुजफ्फरपुर में ढेर । 

चौपट कइलस" लेके अनग्रिनती मकनवाँ ना।॥ 

मिली काहे के मिजाज१० कदत 'मारकण्डे? सहराज । 

अब तो आय गइले है सखी |! सवनवाँ ११ ना ॥# 





रामाजी 
आप सारन जिले के आम सरेयों (डा० हुसेनगंज, थाना सिवान) के रहनेवाले सन्त ग्ृहरथ 

कवि थे। आप राम के बड़े भक्त थे । तमाम घूम घूम कर रामजी का कौत्तन किया करते थे। आपकी 
रचना भोजपुरी और खड़ीबोली दोनों में हुआ करती थी। सन्‌ १६२६-३० ई० में आपके संकौर्त्तन 
की बड़ी घूम थी। आपकी मृत्यु २० और ४० ई० के बीच कभी हुईं। कल्याण? के 'तन्‍्त-अंक में 
आपका जिक्र किया गया है। आपकी कुछ रचनाओं में अवधी भोजपुरों का मिश्रण है। 
* रामजन्म बधैया', और 'सीताराम-विवाइ-संकीत्तन? | नामक पुस्तिका से निम्नलिखित गौत उद्धृत 
किये जाते हैं-- 

(१) 


सोहर 
मचिया"* बैठल रानी कोसिला बालक मुंह निरखेली१३ हे। 
ललना मेरा बेटा प्रान के आधार; नयन बीच राखबि"४ है॥ 
कोसिक्ला का सैले श्री रामचन्द्र, केकई का सरत १५ नु हे। 
ललना लद्धुमन-पन्रुदन सुमित्र। का, घर-घर सोहर है॥ 
गाई*९ के गोबर मेँगाइ के, ऑंगना लिपाइल+७ है। 
१० सिलाऊँगी। २० वर्णन । ३. लित समय । 8. डगमंगाने छगा । ५० नगर। ६. जिछ दिव। ७. आया। ८ कितनों का। 
६. किया। १० मिंलाज मिलना ( मुद्वावरा )--चंचत चित्त की स्थिति का पता छूगना। ११, आवण मास ( सावन 
की बद्दार आने पर भी मूकम्पध्वस्त स्थानों के क्ोगों के सम में उठल्ास नह्दी दै।) * सब १६६४ ईं० की १४ जनवरी को, 
गाष-संक्रान्ति के दिन, विद्वार में भोपण सूका्प हुआ था, उसी का वर्णन है। 4 दोनों पुस्तिकाओं छा प्रकाशक-- 
भार्यव पुस्तकालय, ग[यघधाठ, बनारस । वि० स० २००७ प्रकाशन-काल। १३५ पक आदमी के चेठनै-मर की घोटी-सी खाट | 
१३. देखती हैं। २७, रखूगी। १४. पादपूत्य॑धंक शब्द । १६. गाय। १७ छीपा गया। 


२8६ भोजपुरी के कवि और: काव्य 


ज़लना गज मौती चौका" पुरइलरे, कलसा धराइल है ॥ 
पनवा3 ऐसन बबुआ पातर सुपरिय.४ ऐसन हुरहुर" है। 
ल्ना फुलवा ऐसन सुकुमार, चन्द्नवा* ऐसन गमकेंला० हे ॥ 
(सा! जनम के सोहर गावेले4 गाई के सुनावेले१ है। 
लक्षना जुगजुग बाढ़े एद्वात*० परम फल पावेत्ने हे॥ 


(२) 
तिलक-मन्जल-गान 


आजु अवधपुर तिलक अ्रहले११ ॥ टेक ॥ 

पाँच बीरा** पान, पचीस सुपारी, देत दुलहकर हाथ ॥ 
पीतरंग घोती जनक पुरोहित, पहिरावत१3 हरषात ४॥ 
चौक।-चन्दन पुरि*"लैठे सुन्दर दुलद्ा, सबमें सुन्दर रघुनाथ ॥ 
खाल दोसाली जड़ित कनकमनि, बसन बरनी नाहिं जात । 
कान में कनक के कुण्डत्न सोझे, क्रीट्सुकुट सोसे साथ ॥ 
नारियल चन्दन मगल के सूल, देत अस्फे सुहाथ। 
दही पान लेई जनऊ पुरोहित, तिलक देत सुसकात ॥ 
देवगन देखि सुमन बरसावत'$ हुं न हृदय समाय"७। 
शाप्ता? जन यद्द तिलक१८ गावे, बधि?९ बरनी नहीं जाय ॥ 





घचरीक 

“वंचरीकजी” भैंसाबाजार (गोरखपुर) के रहतवाते है। आपका पूरा नाम तात नहीं हो 
सका। आपकी रची हुई “ग्राम गोत जलि! नामक एस्तक का द्वितीय संस्करण मिला है। यह 
हितैषी प्रिंटिंग वक्‍से (बनारस) द्वारा सन्‌ १६३५४ ई० में छुपी थी। यः पुस्तक २०८ पृष्ठों की है। 
इसमे राजनोतिक जागृति के विभिन्न विषयों के प्राम गीत हैं। सोहर, भूमर, जेंतसार, विवाह; 
गाली आदि सभी तरह के गीत इस+ हैं। आपते इन गीतों की रचना सन्‌ १६२५ से १६३२ ई० 
तक की अवधि में की थी। इस पुस्तक का परिचय लिखते हुए प॑* रामनरेश त्रिपाठी ने आपको 
बड़ी प्रशंसा की है। इस पुस्तक के सम्बन्ध में देश के महान नेताओं ने भी प्रशंसात्मक सम्मति 
प्रकट वी है। 

चचरीक जी ने अपने गीतों के विषय में स्त्रय॑ लिखा है--मैने प्रथम संस्करण के प्रकाशित होने 
के पहले इस “गीत जल” के दो चार गीत नमूने के तौर पर महामना प॑० मदनमोहन मालवीय ओर 
श्रद्वेय डा० सगवानदास जी को छुनाय थे, जिन्हें सुनकर मालत्रीयजी का गला करुणा के मारे भर 
आया। पर, श्रीभगवान दास जी तो इते सम्हाल नहीं सफे। अनेक व्यक्तियों के सामने उनकी आँखों 
से सावन भादो की कड़ी लग गई। मेरी भी आंखें डबडवा आईं । श्रद्धेय भगवानदासजी ने 
खुले तोर पर कद्ा कि जो रस नु फे इन गीतों में मिला, व बढ़े काव्यों में भी नहीं मिला ।? 





३-२ चौका पुरना--मंगल-कर्म में जमोव को योवर से पोतकर तणडुलचूर्ण से चित्रित करना । ३० ताम्बूजपन्न । 8. घुपारी, 
पूंगीफा। ५. चभंचत। ६. पत्दन। ७. चुगन्ध दता है। ५ गाते हैँ। €. छुनाते हैं । १० वारी का 
छुद्दाग। १९६ जाया। १२ थध'्ड़े। १३. पहनाते हुए। १४० प्रसन्न होते हैं। १५६ रच करके। ११- वरसाते ईैं। 
१०, धगाता है। १८- विवाद के पढे १९-पूजन-निधि । १६. तैयारी, आयोचत । 


ही मन्नन द्विवेदी 'गजपुरों! - ३२७ 


(१) 
सोहर 
जेंहि घर जनमे ललतनवाँ” त ओदहि घर धनि-धनिः* हो। 
रामा, धवि-धनि छुल-परिवार, त घनि-धवि लोग सब हो ॥ 
बँसवा के जरिया जनमई बाँस त5 रेड़वा के रेढ़ जनमध४% हो । 
रामा, देवी को खिया" जनसें देवतवा, त देखव! के क मं अ.वड़ हो ॥ 
दहोतदर बिरवा के पतवा चीकन भल  ल्ागह हो*। 
रासा, पुतवा के ओइसे» लछुनवा< निरखि सन बिहसत हो ॥ 
देहु-देहूु सखिया अलीस, लल्नन हुँवा* चुसमहू हो। 
रासा, गोदिया में छेह लपठ'चहु, हि्रा जुड़ावहु हो॥ 
भारत जननी के बनिहें स्वक्रवा,त मोर पूत होइहहूँ हो। 
रासा, अस पूत जुग जुग जीये तहरे*०" हस अर्सासत दो॥ 
(९) 
साइर 
बोसिला के गोदिया में रास, कन्तैया जसोदा के हो ॥ 
रामा, साँचरः बरन भगवान, ते पिरथी११ के भार हरते हो ॥ 
जननी के कोखिया में मोर्ता१*, तिल्षक"3, ल्ञात्ना*४, देसबन्चु*१ हो ॥ 
रासा, गाँधी बावा, बल्‍लभ"*, जवाहिर त5 देसवा के भाग जगले हो ॥ 
कमला१७, सरोजनि१८,  शभ्रस देवी, त5 घर-घर जनम हो ॥ 
रामा, राखि लिहली देसवा के ल्ाज, त$ घनि-धनि जग भइत्त"* हो ॥ 
बहुआ र*० के कोखिया सें सतति, ओइसहि+*) जनमहि हो ॥ 
रासा, कुल दोखे अब उज़ियर रे, बधइय।रेड भत्त बाजइ हो ॥ 
घनि-धनि बहुअरि भगियारेंें, त5 से जनमब सतति हो ॥ 
रासा, देखि देख पुतवा के सुंहवा, त5 हियरा+" उसढ़ि आाइ हो ॥ 


मञ्नन दिवेदी गजपुरी' 
श्रीसन्नन द्विवेदी का जन्म स्थान गजपुर (पो० बॉउ्गॉन, गोरखपुर) था। आपके पिता हिन्दी 
के कवि पँ० भातादौन द्विवेदी थे। गजपुरीजी हिन्दी के अ छे कवि थे! आप भोजपुरी के मी 
बढ़े सुन्दर कवि थे। आप भोजपुरी रचनाएँ 'मोछंठर नाथ” के उपनाम से लिखा करते ये । आपके 
जोगीड़ा गौत भी बहुत प्रसिद्ध थे। आपवी 'सरचरेया? नामक भोजपुरी कवता पुस्तक आई० सीं० 
एस परीक्षा के पाठ्य कम मे थी। आपका परिद्य कविता-कीमुद्दी के द्वितीय भाग में प्रकाशित है। 
(१) 
खुब्बे१६ फुलाइल बा७ सरसो ओढले बाटे सेमर लाल दुलाई२<4। 
बारी में कोहलि3० बोलतिआ3१, महुआउ' के दयाठप देत सुनाई ॥ 
३. बचा। ३ उत्य-धत्य | ३. घढ़, टूल । ४. उनमता है। ५. गो, हुलि। ६. होनदार दिश्वान के दोत चीकने 
पाठ (कट्दावत)। ०. बैंसे । ८. छछया | ६. पैदा हुआ। १० तुसारे। ११ पृथ्वी । १२. मोतीताज नेइरू। १३ कोक्मान्य 
तितक। १४५ काता जाजपतराय १६ देशवन्धु चितरब्नदास | २६. सरदार वहलममाई पटेक्ष । १७. शीमती कमणा नेइरू ! 
१८ श्रीमती उरोदिती ना उछू। १६. हुआ । २०. वधू । २१- वे ही। २२, दस्त्यढ | घ३ बध्वा ।२४. साग्य। २६. हृदय । 
२३६. लूब, लच्ची तरद। २७ पूछी हुई है। २८ हृत्पीमफ्रोड रजाई। २६, फुदपारी, उपयत। ६०. कोकिठ । 
३१५ कूकती है। ३२६ सघूक दुछ | 





.श्श्् भोजपुरी के कबि और काव्य 


के मोरा साँस सदंग बजाई आ' के संग कूमिके कूमरि* गाईं। 
के पिचकारी चत्ला-चला मारी आ के ऑंगना3 में अबीर उड़ाई ॥ 


झाव5 ई त४ं घर आपन वा का दुआरे खड़ा दो सैंकोचत बाट$। 
का घर के सुध आवतिआ" या खम्हिया* से खड़ा होके सोचत बाटद$ ॥ 
मान जा बात हमार कन्हैया चल5 हमरे घर भीतर आव$ 
नींद अकेले न आवतिझा कहनी* कहिहई कुछ गीत सुनाव$ ॥ 


(३) 
काटि कसइली< मिलाह के चूना तहाँ हम बेठि के पान क्गाइब* ॥ 
फागुन में जो लगी गरमी तोहके)" अँचरा)१ से बयार डुलाइब ॥ 
बादर जो** बरसे लगिहें तोहसे बछुरू)१ घरवा में बन्द्ाइब ४ । 
भीजि*" के फागुन के बरखा१३ तोहँके हस गाके सत्ञार सुनाइब ॥ 
(४) 
जाये के कदसे*० कहीं परदेखी रह5$ भर-फागुन १५ चहत*९ में जइृह5१० ॥ 
चीटी लिखा के तुरन्त पठद्ह$ तिज्ञाक*१ ह** जो हमके भुलवदृह५+9 । 
चार महीना घरे रहिह5 ४ बरसाइत*" का पहिले चत्षि अहृह$ ॥ 
घानी हुपदूश! भ्रोढ़ा हमके तुहुँ*९ सावन में झुछ्ुआ सुलघहदह5 ॥# 





सरदार हरिहर सिंह 


आप चौंगाई (शाहाबाद) के निवासी हैं। आपने सन्‌ १६२१ ई० के आन्दोलन में असहयोग 
किया था। तब से आज तक कॉगरेस के सेवक रहे। दो बार विधान सभा के सदस्य रह चुके हैं। 
आपकी भोजपुरी-रचनाएँ सुन्दर होती हैं। राष्ट्रीय कंविता सुन्दर लिखते हैं। आपके बह राष्ट्रीय 
गौत जन-भआन्दोलन के समय भोजपुरी जिलों में खूब प्रचलित थे। 
(१) 
महात्मा गांधी के प्रति 
धीरे बहु धीरे बहु पछुआ+०बेअरिया*< 
घसवा*९ से बदरी३० करहु रखवरिया३१ | 
जुग-जुग जोहे जेद्दि जगत पुरातन 
भरती पर उत्तरेला पृरष सनातन 
नाहीं बढ़ ए3*संख-चक्र, नाहीं गदाधारी 
नाहीं हडवे33३ दुसरथ-सुत घनुधारी, 
कान्दे 5४पट पीत नाहीं, सुरली अधर नाहीं 
२० जौर । २, पक प्रकार का णोकगीत । ३. आँगन, प्रांगण । ४, यह तो। ४५ जाती है। ६ खंभा, स्तस्म ( खंगे से 
एगकर ज़ढ़ा द्ोने का मतलब॒--ठिठककर संकोच में पठ जाना | ) ७. कहद्दानी। ८. सुपारी! ६. लगाऊँगी, बनादगी । 
१० तुमको | ३१. अंचल । २२. यद्‌। १३. गाय का बच्ड़ा, ग्रोवत्स। १४; वैधवा्दगी। १४५ भींगकर । १३६. वर्षा । 
१०. केसे। १५. फाल्युन सास-सर । १६. चैत्र सास । २०. जाओगे। २ , शपथ। २२ है। २९५ विसार देना। २४. रद्द 
जाना। २४ वर्षों ऋतु ॥ २६. तुम्ही । २० परिचती | २८० वायु । २६. धूप, घाम । ३०. चादत। ३३ रछक। इ३- है । 


मे है। ३४ कच्चे पर। ब्यद कविता आरा नगर ( विद्वार ) ले प्रकाशत साठिक '"तमोरंजन' के प्रथम वर्ष के पक अंक 
ज़पी थी । 


परमइंत राय २२६ 


साकथ-रजपुृत" ताहीं, यनल भिखारी । 
अबकी" झजब रूप धहले गिरधघारी ! 
(२) 
राष्ट्रीय गीत 
चल्लु भैया चलतु आज समे जन दिलिमिलि 
सूतत्न*ः जे भारत के भाई के जयगाईजाईं ॥9॥॥ 
अमर" के कीरात, बढ़ाई दादा हुगरसिंह*९ के, 
गाइ-गाइ चलु सूतल जाति के जगाईजा ॥१॥ 
देसवा के बासिन० में नथा जोस भरि-भरिं, 
८< में आजु, नया छाहर चत्ाईजा ॥र॥ 
सियाँ, सिख, हिन्दू, जैन, पारसी, कृस्तान मिलि, 
लाजपत के खूनवा के बदला चुकाईजा१ ॥४॥ 
सात हो समुन्दर पार ठापू में फिरंगी*० रहे, 
उन्हुका*९* के चल्लु उनका घरे पहुँचाईजा+२ ॥०॥ 
गाँधो अहसन जोगी भेया जेहल्व१७ में परत्न*४ बाठे, 
मित्रि-जुलि चलु आजु गाँधी के छोड़ाईजा ॥६॥ 
हुनिया में केकर""जोर गाँधी के जेहल राखे, 
तीस कोटि*९ बीच चलु अगिया त्गाईजा+७ ॥ण॥। 
ओहदी अग्िया जरे भेया जुल्लुमी फिरग्रिया से, 
उन्हुका के जारि फिर रामराज लाईजा१< ॥दा॥। 
गाँधी के चरनवा के सनवा में धियान धरि, 
झसदयोग-अत चलु. आजु. सफल बनाइंजा ॥६॥ 
बध्वा का पंजवा में माई”* हो परल बाढ़ी,३० 
चल्रु याघ मारि आजु भाई के छोड़ाईंजा ॥३०॥ 
विपति के मारल भाई पड़ल जा बेहोस हदोके, 
भाई दुखत्रेखातिर*१* घल्नु ६ गरदन कटाईजा ॥११॥ 
राज लिदले* पाठ ल्षिदले धरम के नास कइले, 
चलु अब फिरतिया से इजति बचाईजा ॥१२॥ 
तीस कोटि आदमी के देवता*३ जेहत् राखे, 
उन्हुका के चलु ओकर*४ सजवा*" चख्ाईंजा ॥१३॥ 
प्रमहस राय 
आप “हरप्रसाददास जैन-कॉलेज” (आरा) के वारिज्य-विभाग के अध्यक्ष हैं। आप शाहाबाद 
जिले के ब/लबॉध ग्राम ( सेमरॉव, पीरो ) के निवासी हैं। आपकी रचनाएँ बढ़ी सुन्दर होती हैं। 
३. बुद्धदेव। २. इस बार । ६. सोया हुआ | 9, दमक्ोग लगावें। ४५. अमर सिंह (कुंवर सिंह के भाई।) ९. सत्र 
१८५७ के सिपाही-बिद्रोह के नेता । ७ बसनेत्राढे | ८. मुण्क, देश । ६ हमणोग चुकावें | १०. अँगरेज (“फॉरेद” अँगरेजी 
शुदुद से घना जान पढ़ता है, जित्का अथ विदेशी है।) ११५ व्नकों । १९० हमलोग प:चा दें (खदेड़ दें ))। १३५ जेहखाना 
१४. पढ़े हुए हैँ। २४. किसका | २६. भारत के तीछ करोड़ निवासी | १०. जाग बगावे--विद्रोह भडढ़का्षे | १८, हमजोग 


षाबें। १६, भारतमाता | २० पडी हुई है। २१ दुःख के बास्ते | २९ ऐे क्षिय[ | २३, ग्ांधोधी को । २७, उठका । २४. मजा 
चलुना*-भच्नी तरद घदल चुकाना | 


३० भोजपुरी के फबि और काव्य 


आप संस्कृत और हिन्दी के छुन्दों में भोजपुरी कविता लिखने के अभ्यस्त हैं। आपके 

कविता पाठ का ढंग इतना सुन्दर, मधुर और सरस है कि सुनकर श्रोता भुग्ध हो जाते हैं। 

आप शाहाबाद-जिला-भोजपुरी-साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष हो चुके हैं। आप विदेश-यात्रा भी कर 
। 


गाँव के ओर 


चली? जा आज गाँव के किनार* में किछ्वार? सें। 
खेरारी४ बट" मटर से भरल-पूरल» बधार< में॥ 
पहिनले बाटे* तोरिया** बसती रंग चुनरिया । 
गुलाबी रंग सटर फूल सोभेला किनरिया*१ ॥ 
उचकि-उचकि** के तीसी रंग चोलिया?3 ल्ज्ात बा । 
सटल"*४ खेलारी नील रंग लहंगवा।" सोहात बा ॥ 
ईं गोर-गोर गहुमवा)९ संवरका*० बट सग में। 
उत्तान*< होऊे हिलव देखि नयनवा जुड़नत बा॥ 
झ्ुमाठ)९ थ्राम पेड़ के उपरकी*० डाल पर बहुढठ। 
ई लीलकंठ*) दूर से न तनिकरंरे रु चिन्हात+० बा॥ 
इृहदाँ-डहाँ बबूल अदि पेंद के अलोतर४ में। 
ऊ लील गाइ*" चौंकि भागि खेत ओर जाति बा॥ 
जहाँ-तहाँ. सियार धूमि कनखी से निद्दारि के। 
न जाने कहाँ पलक मारते में ही परात** बा॥ 
ईं कान्ह*» पर टिकास*५ भर के गोल-गोल बाँस राखि | 
फाग में बसत छुड़ि चेत राग छेड़जे बा॥ 
ऊ काम-धास छोड़ि बीनि-बीनि झ्ास के दिक्रोररे$ | 
एक सुर से कूकू कहि कोइलिया के चिढ़वज्ञे बा॥ 
बहार फगुनहट3० के था लुटाति बा जबानिया। 
हू धन्य बा वेहात रे शअगाध प्रेम नेहरा3१॥ 


महेन्द्र शास्त्री 


आप छपरा जिले के रहनेताले संस्कृत के 'द्वान हैं। सारन जिला हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के 
आप प्रमुख काय्ये पत्ती हैं। आअःप भोजपुरी के बड़े प्रेमी और कवि हैं। आपकी एक काव्य पुस्तिका 
आज की आवाज” नाम ने प्रकाशित हुईं है। इसमें आपकी भोजपुरी और हिन्दी रचनाओं 
का संग्रइ है। (आज की आएज! पे कुछ भोजपुरी रचनाएँ उद्धुत वी जाती हैं-- 





३. हमकोंग चतें । ९. वम्ती के पात। ३. बस्ती की सीमा पर। 8, पक प्रकार का सोठा अज्न । ५० चना। ६. एक 
प्रकार का अन्ध। ७. भरानूरा, सम्पन्न। ८. खेतों का मंदान। ६. पहने हुए है १०० सरसो। १३१ पाढ़। 
१२. आरघयंमय होकर । १३. अगिवा, चोज्ी। १४. सटी हुईं। १६, लैडगा। १६. गेहूँ । १०. शपामत्र २८. पीठ के चह 
तनकर । १६, राग-पात से खूब घता। २०. सबते उपरवाज्ी। २१. एक पछो, जिंठका दर्शव दशइरे के दिन शुभ माना 
जाता है । २ घरा भी । २३- प्रदान में आना । २०. जाढ़ में । २४. नोजगाय--पक चंगती लानवर। २१. भागता दे । 
२७, फन्‍्धे पर । २८, शदाट के ऊपरो द्विस्से फे प्रमाण तक | २६. आम का दिकौता । ३०, यान्ती घयार। ३१५ मायके का। 


रामविचार पाण्डेय २३१ 
इहे बाबू-सैया 


कमैया" हमार चाट जाता, इहे बाबू-सैयार॥ 
जेकरा अगा3 जोंकोड फीका, ऐसन ई कसेया" 
दूृहल जाताई खूनो» जेकर८ ऐसन हमनी गेया ॥ 
अंडा-बच्चा, मरद-मेहर* दिन-दिन सर खटैया१०, 
तेहू*१ पर ना पेट भरे चूस ल्लेक्षा चेंया१२॥ 
एकरा बाटे गद्दा-गद्दी हमची का चरैया, 
एकरा बाटे कोठा कोठी, दमनी का सढ़ेथा ॥। 
जादो"3 ऊनी, एकरा खाहूँ के*४ मलेया, 
हमनी का रात भर खेलाइले*" जड़ैया१९ ॥ 





रामविचार पाण्डेय 
आप बलिया के भोजपुरी कविरत्न हैं। आपकी भोजपुर) जिलों में बढ़ी ख्याति है। बलिया 
में ओप डॉक्टर हैं। आपने 'कुंअर्िंह? नामक नाटक भोजपुरी में लिखा है। या नाठक बहुत 
सुन्दर और रंगमंच के लायक है। आपकी भाषा ठेठ भोजपुरी और सुगवरेदार है। आधुनिक 
भोजपुरी कवियों में आपका स्थान बहुत ऊँचा है। कविता पाठ से आप श्रेताओं को मंत्र-मुग्ध कर 


देते हैं। 
ह अजोरिया 
टिसुना*७ जागति सिरीकिशुना१< के देखे के तड 
आधी रतिये राधा उठि अइल्ी गुजरिया*९ ॥ 
चान निश्चर॑*० मुँह चमक्रेला राधका जी के 
चस चम चमकेले जरी के घुनरिया॥ 
चकमक चकमक  लहरि उठावे ओसे२१ 
भधुरेमसघुर डोले कान के झुनरियाररे ॥ 
गोखुला*5 के लोग एट्टि* देखि के चिहृइत्षेर% फल 
राति में अमावसा के डउगली ऑजोरियार* ॥१॥ 
फूल के सेजरिया पर सूतत्तर०» कन्हैया जी 
सपना देखेले कि जरतर"< दुपहरिया। 
ओकरे** में हमरा के राधिका खोजत बाड़ी3० 
पेढ़ नइखें रुख5१ नइखे जरत बा कगरियाडे* ॥ 
फहताड़ी33/घावा5 कृष्ण | धावा$ कृष्ण | आजा-आजा 
इसके देखा दु5 तनी3* गोखुला नगरिया॥ 


३ कमाई, आमदनी । ६» पढें-जिखे उफ़ेदपोश छोग। ३५ सामने । 8. जोक भी। ५४. कठाई। ६: दुद्द जाता है। 
७ रक्त मो । ८ जितका। ६, स्त्री । १० खटते हैं (कठोर परिश्रम करते हैं )। ११५ उस पर भी । १७ चाह, उचक्का। 
१३- जाड़े में । १४५ खाने के किए भो। १४५ मेलते है। १६. घूड़ी चुखार । १०५ दष्णा । १८६ श्रीकृष्ण। १६, सुन्दरी। 
२० सदर । २१, उसलें! ४९, सि-तुरइत | २६, गोतुक्ष। २४, यहू। २४० चौंक उठे। २६५ चाँदती । २०७ सोया 
हुआ। भ८ जद्रती हुई ॥-५8- उसीमें। ४०. कोजती हैं। ३१७ घृष्त । ६७ कगार, तदीन्‍्तठ ! ३९५ कहती हदैं। 
६४. तविक | 


२३२ 


आप चितबड़ा गाँव ( बलिया ) के निवासी हैं। आपका जन्म बि० सं० १६६० में हुआ था। 
आपके पिता का नाम बाबू जगमोहन सिंह था। आप इस समय बलिया के एक ग्रतिष्टित मुख्तार 
और विनम्र जन-पेवक हैं। विद्यार्थिजीवरन से ही आपको कविता से अनुराग है। देश के 
स्वतन्त्रता संग्राम में आपकी दो बार कठोर कारावास का दंड मिला। सन्‌ ”४२ की क्रान्ति के 
महान्‌ वलिदानों का वर्णन करते हुए आप ने 'बलिया बलिहार” नामक काव्य अन्थ की रचना कौ है। 
यह भोजपुरी काव्य का अनूठा ग्रन्थ है। आपकी भोजपुरी कवितएँ बड़ी ओजस्विनी और 


भोजपुरी के कबि और काव्य 


नअइक्ीं राधे | अइलीं राधे |! कहि जे उठले तड 
पुने* फूलल कमल, ओनेर चढ़ल अजोरिया ॥२॥ 
हमके योलाज्ांतूृ* तूँ अइलू हाई कइसे हो 
बढ़ी राधा | सावनि चढ़लि था अन्हरिया॥ 
कंसवा के राक्सः घूमत बढ़वार" बाड़े 
गोखुला में कबे-कबे*ं होति बाड़े चोरिया ॥ 
पघम के ठगे ल5० कृष्ण | हमके भोराव* जनि* 
हाथ हम जोरीले*०" करीत्षे** गोड्धरिया१२॥ 
हृदया में जेकरा*5 त$ तूँ ही बसल बाडु5'४ 
ओकरा१" खातिर ई१६ अन्हरिया*० बा अजोरिया ॥३॥ 


प्रसिद्धनारायण सिह 


भक्तिपूरों हैं। इस प्रन्थ की भूमिका कवि की श्रद्धांजलि के रूप में इस प्रकार है-- 


३» इपर्‌। %, उचर्‌। ३. बोला लेतीं। 8. आई हो | ५७ भयानक । ६. कभी-कर्मी । ७ ठगते हों। ८० भुवपाओं, 
उद्ृशाओं । ६ नहीं । १० जोड़ती है। ११० करता हूँ । १२. पाँव पकड़ना । १६. जिसके | १४७५ यसे दो , १४. उसके । 
१६५ यह । १० भैँपेरी रात ही । १८ छुटा दिया। १६ प्राण । २० जितने । २१५ चिह्न, अस्तित्व । २९ जागृत फर 
गया। २३- मार्य । २७ कृश-कंटक / २४० खोदकर। ४६३- लाया | १०५ अन्तित ऊँचार्य तक फदरा[ दिया। २८ पपत 
कर गया। २९- वह ! 


श्रद्धांजलि 
लुटा दिहल१< परान** जे,२० मिटा दिहिल निसान* जे। 
चढ़ा के सीस देस के, बना दिहल महान जे॥५|। 
जने-जने जगा गइल**, नया नसा पिला गइल। 
जला-जला सरीर के, स्वदेस जगसगा गइल ॥श॥। 
पहाड़ तोढ़ि-ततोड़ि के, नदी के धारि भोद़ि के। 
सुघर डहरि*३ बता गइल, जे कॉट-कूँस *४ कोढ़ि*५ के ॥३॥ 
कराल क्रान्ति ला गइल,"$ ब्रिटेन के हिला गद्दल । 
बिहँसि के देस के घजा गगन में जे खिला*० गइल ॥श॥। 
अमर समर में सो गइल, कलक-पंक धो गइल। 
लहू के बूंद-बूंद में, विजन के बीज बोर८ गइल ॥५॥ 
ऊ*९ बीज मुस्करा उठल, पनपि के गहरगहा उठल। 
बिनास का बिकास में, वसंत लहद्॒लद्दया उठल ॥६॥ 


प्रसिद्धनारायण सिंह २३१ 


कल्ती-क्नी फुला गदलि, गली-गली सुद्दा"* गइलि। 

सहीद का समाधि पर, घ्वतंत्रता लुभा गइलि॥णा 

चुनल” सुमन सेँवारि के, सनेह-दीप बारि३ के। 

चली, उतारे आरती, सहीएदू का मजारिए के॥दा 

(२) 
विद्रोह 

जब सनन्‍्तावनि” के रारिई भइत्ति, बीरव के बीर पुकार सइलि। 
बलिया का 'मंगल पांडे०' के, बलिबेदी से ललकार भइत्ति ॥३॥ 
पमंगल” मस्ती में चूर चलल, पहिला बागी मशहूर चलल। 
गोरन< का पलटनि का आगे, बलिया के बाँका शूर चलल ॥शा 
गोली के तुरत निशान भद्दल, जननी" के सेंट परान सइल। 
आजादी का बलिवेदी पर, “मंगल पांडे! बलिदान भइल ॥३॥ 
जब चिता-राख चिनगारी से, धुधुकत*१ तनिकी** अंगारी से । 
सोला१5 तकलल, धधकल, फइलल,* “बलिया का क्रान्ति-पुजारी से ॥श। 
घर-घर में ऐसन श्रागि लगलि, भारत के सूतल भागि१" जगत्ति। 
अगरेजन के पलटनि सगरी,*९ बेरक बैरक)० से भागि चन्नत्ति ॥ण॥ 
बिगढ़त्ति बागी पत्चटनि काली,१८ जब चललि ठोकि आगे ताली११॥ 
मच्ि गइल रारि, पड्ि गइत्ति*० स्थाह, गोरन के गालन के लाली ॥६॥ 
भोजपुर के तप्पा*१ जांग चलल, मस्तो में गरावत राग चत्तल् । 
बांका सेनानी कुंचर सिदद, श्रागे फहरावत पाग*- चलल ॥णा 
टोली चढ़ि चलल जवानन के, मद में मातल मरदानन*3 के। 
भरि गइल बहादुर बागिन से, कोना-कोना मयदानन*४ के ॥4॥ 
ऐसन सेना सैलानी ले, दीवानी मस्त तूफानी ले। 
आइल रन" से रिपु का आगे, जब कुँचर सिह सेनानी ले+१ ॥६॥ 
खच-खच खजर तर॒वारि*० चललि, सगीन, कृपान, कटारि चललि। 
बढ़ीं, बद्ां का बरखा से, बहि ठरत लहू के धारि चत्नलि ॥१०। 
बन्दूक दगलि दन्‌ दुननू दूनन्‌, गोली दुठरत्ति*८ समू-सनन्‌-सनन्‌ । 
साला, बढलम, *+ तेगा, तडबर, २“बजि उठल् उहाोँ 3 खनू-खनन्‌ खनन्‌ ॥4॥ 
खडलल 3* तब खून किसानन के जागल जब जोश जवानन के । 
छुक्का  छूटल अंगरेजनि के, गोरेगोरे कपतानन के॥॥रा। 
बागी सेना लखकार चललि, पटना-दिरली ले33 फारि*४ चललि। 
आगे जे आइल राह रोके, रन में उनके सद्दारि चत्नत्ति ॥१३॥ 
बैरी के धीरज छूटि गइल, जबु3" घढ़ा पाप के फूटि गइल। 
रन से सब सेना भागि चललि, हर ओर मसोरचा टूटि गइल १४॥ 

३ सुद्दावनी द्वोगई। २. चुने हुए! ३. म्रदीप्त करके! 8. समाधि। ४७ सद्‌ १८४७ ई०। ३५ लडाई। ७ इतिद्वारु 
में संगक्ष पारादेय ही सर्वप्रथस सिपाद्दी-विद्रोह का झंडा ऊँचा करनेवाले माने जाते है । ८. गोरों की, जैगरेजों की। €६, शबय,, 
बाए। १०. मारतमाता । १९ धीरे-धीरे सुलगती हुईं। १९. घोटी-सी, जरा-सी | १६५ जंगार, शोढ्ा । १४. फैश गया । १४ 
भाग्य। १६. समस्त । १७, फौजी घावनी। १८: द्विन्दुस्तानी पद्टन। १६, ताल ठोककए । २० पढ़ गईं। २३ ठणा, 
इकाफा, प्रदेश । र२ए पगड़ी, साफा। २३५ मर्दोनों फो, बीरो की! २७ मैदातों का। २४, श्ण। २६. ऐ्ेकर | 
२० तदपार ॥ रप दौडी 2१६, घाौ। ६० पक प्रकार का परशु। ६१५ चह्टाँ ॥ ६४, उबज्ञ पष्ठा ! ६६९, तक । 
३४ समूहू । ३५, मानों । 


श्श्ृ४ट भोजपुरी के कवि और काव्य 


तनिकी-सा* दूर किनार रहल, भारत के बेढ़ा पार रदहल। 
लडकत* खूनी दरिक्राव5 पार, मंजलि के छोर हमार रहल ॥$७॥। 


(१) ८ 
बापू के अन्तिम दशंन 
दुखियन के तन-सन-प्रान चलल। 
जब तीस जनवरी जातिई रहलि, सुक" के संझा* मुसुकाति रहलि। 
दिल्ली में भंगी बस्ती के, घरती मन में अगराति* रहलि ॥ 
जन-जन पूजञा-मयदान* चलता ॥१॥ 
तनिकी९ बापू के देरि।९ भइलि, पूजा में अधिक** अबेरि)* भइलि। | 
अकुलाइलि आँ खि हजारनि गो १3बिछि राह बीच बहुबेरि*४गइहलि॥ 
|! तब भकक्‍तन के भगवान चलल ॥२॥ 
बजि पाँच सुई कुछ घूमि चललि,'“बद्री जब लाली चूमि चललि | 
तब छितिन-छोर से त्रिपति-नटी, जग-रंगमच पर क्रूमि चललि॥ 
बनि साधु तहाँ सइत्तान १५ चलल । ३॥ 
चुप चरन सच का ओर चलल, नंगा फकीर चितचोर चलत्न। 
पूजा का सान्ति-सरोवर में, छुन में आनन्दु-हिलोर चलल॥ 
अनमोल मधुर सुसुकान चलल ॥४॥ 
नतिनिन१० पर दून्नों१८ हाथ रहल्ल, चप्पल में दूनों ज्ञात रहल। 
धपधप घोती, चमचम चसमा, चदर में लिपटल गात रहल ॥ 
हरिपद्‌ में लागल ध्यान चलल ॥णा। 
पग पहिला सीढ़ी पार चलल, तबले?१ नाथु*० हतिभ्रार* चलल | 
पापी का नीच नमस्ते पर, बापू के प्यार-हुलार चलल।॥ 
बनि लाल नील अ्रसमान चलल ॥६॥ 
जुटि हाथ गइल अभिवादन में, उठि माथ गहल अहलादन में । 
अपना छाती के बजर बना जमदूत बढ़ल आगे छुन में ॥ 
पिस्टल के साधि निसान चलल ॥ण०/ 
सन रास नाम सें लीन रहलन, तन सीढ़ी पर आसीन रहल। 
सजु-संदिर में बलिबेदी पर, बलि-बकरा बधिक-अधीन रहत्त ॥ 
क॒दि राम, सरग-े* में प्रान चत्षल ॥८॥ 
जननी के जीवन ल्ञाल चलल, हुखियन के दीन-द्याल चलल। 
थर-थर-थर धरती काँपि उठलि, भारत-भीतर भुंइचात्र8 चलतल॥ 
जन-जन पर बिस के बान चलल ॥8॥ 
जग जेकर प्रेम-समान रहल, बिन ताज सदा सिरताज रहल। 
सुद्दी-भर हड्डी में जेकर*४, कोटिन के लिपटल२" ताज रहल॥ 
सब के सन के अरमान चलल ॥$णा 
१ जरा-ता। २. दीख पढ़ता हुआ | ३. रक्तमयी गंगा ( द्वाथी पर गंगा पार करते समय याबू कुबर सिंद् की बाँद में 
गोरा की गोली लग गईं थी, इसलिए उन्होने अपनी ततवार से उसे काटकर गंगा को भेंट कर दिया, जिससे वे सकुशण्ष पार द्वो 
गये और गंगा लाण दह्वी गई। ) 9, चौत रही थी । ५, शुक्रवार। ६ संध्या । ७. प्रसन्न द्वोती थी। ८ प्रार्थना का मैदाम। 
६. जरा-सी। १०. विक्तम्च। ११. दुब ज्यादा। १९. थे श बीत जाने पर । १३, दजारों की संख्या में । १४. यहुत चार । २४५ 
( घड़ी की सुई ) आगे बढ़ चली । १६. हत्यारा (ग्रोडसे)। १७ पौतियाँ। १८ दोनो। १६. तथ तक। २२ 
सायूराम गोडसे। २१. दृत्यारा। २९. स्वयं । २३. भूकम्प | २४, जिसके | २५. जिपटा हुआ। 


शिवप्रसाद मिश्र 'रुद्र या गुरु बनारसी: २३५ 


ऊ" एक अक्रेल अनन्त रहल, ऊ आदि रहल, उ श्रन्त रहल । 
सिख, हिन्दू, सुसलिम, ईस'ई, प्रकत्ता, ईसा, भगवरर रहल ॥ 
सब के संगम असथान चलल ॥११॥ 


शिवग्रसाद मिश्र 'रुद्र'ँ या गुरु बनारसी 


शाप काशी के रहनेवाले हैं। आप एम्‌० ए० पास हैं और दैनिक 'सन्मार्ग” के सम्पादक रह चुके 
है। इसके पूर्व आप कई पत्रों का सम्पादन कर चुके हैं। आजकल हरिश्वन्द कालेज (काशी) में हिन्दी 
के प्रोफेसर हैं। आप हिन्दो और भोजपुरी में कविता बहुत सुन्दर करते हैं। आपकी भोजपुरी 
रचनाएँ “तरंग” आदि पत्रिकाओं में काफी प्रकाशित हैं। आप उदू के छुन्दों में भी भोजपुरी 
रचना करते हैं। "आप हास्य-रस की रचना भी बहुत सुन्दर कंरते हैं। आपकी भोजपुरी कविता 
की सबसे बड़ी खूबी यह है कि उसकी भाषा या शैली पर हिन्दा का प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता। वह 
अपना प्रकृत हप आद्योपान्त बनाये रहती है-- ६ 


तांडव नृत्य 
सुरुष करोर शुन तेज पाय फूल गेल 
चमक पत्रियूल गैल5 सेल पर चम-चम । 
उड्ल जठाक जाल, गजखालऊ धुआँ झअस 
कूआँ अस धरती धसक गइल धम्म-धम्म ॥ 
हुट्ल अकास, अउरर जुटल समुन्द्र सात 
फुटल पहाडू हादू चूरचूर. घस्म घस्म । 
डस्म-डस्म डसर डमक गैल चारों ओर 
सोर भेज्न घोर हर हर-हर बम्म-बस्स ॥१॥ 
>> < । 
लगलिन" माँके सब देवी देडता के संग 
भंग के तरंग रंग आज कुछ चोखा बाय | 
लाखन बरिस के बाद देखब तमासा ६०, 
आसा ई लगाय यच्छे८ क्ाँकत करोखा बाय । 
किनेर)" पुकार कीने!? के ई बतावल हौ 
दूर-दूर देखें, पास जाये जिन धोखा बाय । 
ताकत"* सुरेस बाटे, भागत गनेस बादे, 
नाथत भहेस बाटे भेस ई अनोखा बाय ॥शा 
(२) 
लाचारी 
न रखिय*३ रसउली)४, न अखिये लबृउलीं११ | 
गुरु) जिनगी*९ क5 मजा कुछु न पउलीं।७ ॥ 
कषो "८ रासक$ नाव" लेहलीं*' न मन में ॥ 
न रामा* के सूरत रचंउल्ली*े नयन में॥ 
३६ बह। ३, कण गया, विकठित हो गया । ३. गया । 8. और । ४ लगीं | ६. है। ७ यह । ८५ यक्ष। ६, फाड़ कर । 


३० किन्नर। १९, किया। ३२, देखते हैं। १६. राख, मच्त। १७ र॒माया। १४ णड़ाई ७ ३३५ जित्दुगी। १७ पाया। 
श८ कभी। १९, तात। २० जिया। २१५ रसणी। २२ रचाया, सजाया, बसागा। 


२३६ भौजपुरी के कबि और काव्य 


भवन में न रहलीं, बिहरज्ञीं न बन में । 
मन भेले में जमकीं, न रमलीं दो रस में॥ 
हमेसा बखत" मार के मन बितडत्ञीं ॥ 
गुर जिनगीक+: मजा कुछ न पउलीं ॥ 
तबेला* रहल न, तबेले में रहतलीं। 
मिज्ञल धार जब जौन तब तौन बहलीं । 
न सुनलीं केहू क$ केहू के न कहलीं । 
केहके सत्तठल्ली१9, केहुके ने सहलीं५ ॥ 
न टीके लगडलीं५, न टीके गढ़उलीं* । 
पुर जिनगीक मजा कुछ न पडलीं॥ 


डा० शिवदत्त श्रीवास्तव सुमित्र' 


आपका जन्म संवत्‌ वि० १६६३ में हुआ। आप बलिया जिजे के 'शेर' प्राम के रहनेवाले हैं। 
आपके जीवन का अधिक समय बिहार में ही व्यतीत हुआ है। आप इस समय बसडीह तहसील 
(बलिया) मे डाक्टरो कर रहे हैं। आप खड़ी और भाजपुरी दोनों ही बोलियों मे कविता करते हैं। 
आपकी कविताएँ अधिकतर हास्यरस और स्वतंत्र विचार की होती हैं-- 

कवि सब के असख इज्ति भारी, ढेला ढोवत फिरसु उधारी० | 
परम स्वतंत्न॒ न पढ़ले पिंगल, भूण्डी ज्ञाल तो डाउन सिंगल । 
अस सुराज है लिहलसि* चर्खा, घूसखोरी के कइलसि"* बर्खा। 
कृषि-विभाग अस मिलते दानी, सरगो१" के ले-बितज्े११ पानी । 
दिहले** एक तो लिहले१» लावा, बोवले धाम तो फूठल लावा"४ | 
कालिज में जनम गइले बच्रुआ?०", झटके)९ ज्ञागल घर के सतुआ१७ | 
बाहर गोल्देव घड़ी कल्माई, ढेल्ला*४ फोरसु घर पर भाई। 
चाहसु बीबी आधे सहरी* लेहके घधूमी डहरी-डहरी*० । 
ख्े एक के तीनि बढ़ाई, कीनसु*) सख्ीजरर और सल्लाई। 
कालिज के जे अइली दासी*3, दीहली सासु के पहिले फाँसी | 
तजि चोकर ओ अखरार*एद रोटी, घसकत्लनर७ झँचरा लटकल+* चोटी । 
करसु उपाय अब न्से बनेको, जाहि मरद बहु, पूतन एको। 
डाक्टर फरके*» देसु दवाई, दिन-दिन भइल्ली सूखि खटाई। 
नित सूई ले सूतपु घामारेंई, असरा* सें की होइ॒बि3० गामा5१। 
जस-जस सूई कइलसि धावा, तासु दुगिन3* चढि रोग दुबावा। 
अस रग-रूप बदलली बीबी, झुँह से खून गिरवलसिउ32 टी० बी० । 

३. वक्त, समय, जीवन के कण । २. जत्तवत् । ६, सताया। 8. सदन किया। ४, टीका लगाना--उन्‍्दन का टीका 
लयाना। ६ टीका गढ़ाना--माँग से पहनने का आमूपण गढाना। ७. उधार देखा ढोना (मुहावरा)--फाणवतू काम में मुफ्त 
उठना । ५, तिया | ६, किया [| १०. सवर्य, आकाश। १३. ले दीते। १९, दिया। १३५ लिया | १४ छावा फूटना--सुखार 
(ज4ए) या घामी पढ़ते से धान का उत्त जाना | १४- दुजारा लड़का। १३६. णटक्ने जगा । ३०५ सत्त । १८ देखा फोढ़ना 
(पुदुनरा)-कठी २ परिक्षम फरता। १६. रादर की, लागरी। २०, रास्ते-राप्ते। २९ परीदता है। २०. तीची मार्फ 
तिगरेट । २३. सेवा फरनेव शी पतोहू । २७, दूज़ी रोटी । २६, खितका हुआ। २६. पटक हुई । २०. श्ग से। र८- पूप 
है। २६, आशा | ६० ट्वोर्गी | ६१. विग्य फा प्रसिद्ध भारतीय पहुणव[न ३६; दुगता । ६३- गिरा दिया । 


रामप्रसाद सिंह 'पुंडरीक' 


परत्न-परत्ष" अब ताकसु* खिक्रींड, प्रूसर से पचि", भइलौ सिर्कौ । 
आखिर बकरी आहल हुआरी*, फरलसि८ पतलुन  सिंघ* घुसतारी*० । 





वसुनायक सिंह 


२३७ 


आप “शमी? (सारन) के निवासी थे। पुलिस में नौकरी करके आपने पेनशन पाई थी। श्रपने 
अन्तिम दिनों में आपने कविता करना प्रारम्भ किया। आप ब्रज भाषा में भी रचना करते थे। 
बालकाणड रामायण का आपने भोजपुरी में पद्मानुवाद किया था जो हवड़ा (कलकत्ता) के किसी प्रेस 


से प्रकाशित हुआ था । 


पुलिस के नोकरी करत से डरत नाहीं, 
मानों सहराज़ के बेटा हऊँवे* ज्ञादट के। 
पहिर पोसाक चपरास के लगाय लेलें)९, 
मिपट गरीबन के बोलत थाटे डॉट के॥ 
पैसा अउर कौडी खातिर गली-गली धावत फिरे, 
जइसे धोबी कुकर नाहीं घादद के न बाद्व के। 
भने 'बसुनायक' हरासी के जे पइसा ज्ेत, 
नौकरी छूठे पर केहू पूछे नाहीं काँड के॥ 


शमग्रसाद सिंह 'पुडरीक' 





आपका जन्मस्थान गोपालपुर ( सैदापुर, पटना ) है। आप पुराने प्राम-गीतों के तर्ज पर 
आधुनिक समाज सुधार सम्बन्धी कविताएं रचते है। आपका स्वर भी मधुर है। आप हिन्दी के 
भी कवि और ५खक है। आपकी रची कई छोटी छोटो पुस्तिकाएँ भोजपुरी में छुपी है। आप 


मगही के भी कृषि है। मगही बोली मे भगवद्‌गीता का पद्यानुवाद किया है। 
देशाटन करके अपनी लोक-भाषा की रचनाएँ आप गा-गाकर सुनाते है। 


सोहर 
विनय करों कर जोरि अरज सुत्ति लेहु न है। 
बहिनो | सुनि लेहु अरज हमार परन?3 करि ल्ेहु न हे ॥ 
कलह करबव नहिं. भूत्षि, कल्नहट दुख-कारण है। 
बहिनो | कलह तुरत घर फोरि विपति गुहरावत"*४ हे ॥ 
करब सबहिं सन प्रीति लद्॒ंब सुख सम्पति हे। 
बहिनो | मिलि-जुलि बिपति भगाह त मिल्षिज्गुल्ति गाइब है ॥ 
कबहूँ न डोमिन चमइति देखि बिनाइब है। 
बहिनो | सबरिंद्वि)" शाम समाज इनहिं"*अपनाइब ४ है॥ 
कबहुँ. न चित्षिम!:* चढ़ाइब रोग छुलाइब है। 
बहिनो | तन-मन धन-जन नास नसा करि डारत है॥ 


दूर-दूर तक 


$ बेटे-सेटे | ५, देखती दे । ६. गवाक् । 8 मुसत्र । ५ गढ-पचकर | ६. अध्यत्त क्षीण, सरयंडे को सीक। ७. हार पर! 
४ फाढ़ दिया । ६, सींग, ऋ'ग | १० घुसेड़ फर। १९ हूँ। १२ छगा जेते है। १३६५ प्रण। १६६ चुकाता है। शत, शत्ररी, 


मिक्यती । ११, इन्हें । १०, अपतार्जैंगी | १८, चितर्म घढाता-तम्माकू पीगा। 


२१८ भोजपुरी के कवि और काव्य 


रखब सवबहिं कछु साफ नितद्ि-नित घोहब" दे। 
बहिनो ! नितद्दि करद असनान नितद्दि प्रभु-पूजन है ॥ 
सयहि हुनर हम सीखि करब गृह-कारज हे। 
चहिनो ! कवहु त हम घिधिआइ *अवरभ्सु ह जोहय है ॥ 
कषहु न असकतरई ल्ाइ बइठि दिन काढठब है। 
बहिनो ! जब न रहहिं कछु काम त चरखा चलाइयब हे ॥ 
अधिक करव नहिं लाज घुंघुट भ्रब खोलब हे। 
बहिनो | अब न रहय हम बन्द हमहूँ जग देखब हे ॥ 
रहत इमहं जग बन्द बहुत दिच बीतल है। 
बहिनो | पियर" भइल सब अंग बुधिहु-बल * थाकल हे ॥ 
पढ़बय गुनन० अरु घूमि सकल जग देखब हे। 
बहिनो | हम हुई' सिय-सन्‍्तान करब अथ साबित< हे ॥ 
जिन करि नजर खराब हमहिं पर ताकहिं* हे। 
बहिनो ! जिन रस बचन कढ़ाइ करिहिं छुछुमापन १० हे ॥ 
नयन लिहव हम काढ़ि पिचुटि*" कर फेंकब हे। 
बहिनो ! खंइच लिहवब हम जीभ न पँखुरी *क्बारब  5है ॥ 
खड़ग खपड़॒ अब लेह दृदत४ हम नासब हे। 
बहनों | क्व-कुस सुत जनमाइ हरव भुई*०-भार चु हे ॥ 





बनारसीग्रसाद 'भोजपुरी' 


आपका जन्म-स्थान बढ़हरा (शाहाबाद) है। आप हिन्दी के पुराने गद्य पद-लेखक॑ और. पत्रकार 
है। कई पत्रों का संचालन आपने किया है। आप राष्ट्रीय विचार के देशतेवक हैं। आपकी धर्मपत्नी 


श्रीमती नन्‍्द्रानी देवी जी भी प्राम-गीतों की रचना करती है। आप शाहाबाद-जिला-हिन्दी साहित्य- 
सम्मेलन के उत्साही कार्यकर्ता हैं। 


आपन परिचय 
कहेलन लोग सब नाम भोजपुरीजी हृड 
हाथ हम लमहर"*१ सोटवा१० लगाईला। 
करीज्ञा हुंकर सुनि पास में जे आवेज्नन१८ 
कोढ्त१ कदराईरे० हम जड़ से भगाईला॥ 
डर ता संकोच हम तनिकोरे) करोत्ना कभी 
रादन* के साथ पेंचलतियारे3ड लगाईला। 
सडगोमलारनरं! के क्ुड में रखीला हम 
भेढ़ियार" बनाके देस-बाहर कराईला२९ ॥ 





१. धोऊँगी। २. गिड़गिढ़ा कर । ६. निवेष । 8. आजस्प, जशक्तता। ४, पीछा। ३. बुद्धि का वह मौ। ७. सनभ 
फरता | ५. प्रमाणित। ६, हजर गरड़ावेगा। १०. छद्गता। ११५ कुचल-मसतकर । १२ बावू। २६. उखाड़ दुगो। 


१४ दैध्य। १६. पृथ्वी । १९. घढ़ा। १७ सदा, ढंडा। १८. जाते हूँ। १९, खोदकर २० फायरता। २१५ थोड़ा भी। 
२१२ मदुमार। २३, पाँच ढछात। २४. छोष-समुदाय । २९, मेंढ । २९. करवा देता हूँ 


बनारसीप्रसाद भोजपुरी' २३६ 


साँच में न आँच कभी सुतत्ो" में आवे दीलारे 
सूटवों के हरदम दुसमन बताईला* | 
जात उहे४ कद्दिज्ञा जे ठीक से चुम्माज्ञा" खूब 
सजन' सहाशय के मथवा भवाईला॥ 
जाली व फरेबी केहू आँख से देखाल्या कहीं 
पीठिया प कसि-कसि सुकवा*" चलाईला। 
समझा अपना के गुंडवा हुलक्ढ* जे 
सोटवा सेंभमारि. हम सठ से जमाईला९ ॥ 
तनिको नतीजवा*" के करों परवाह नाहीं 
आँख मुँद काम सब रूट सपराईला११। 
करेला विरोध डहे अजुबुक** बढ़ए१ जे 
कान धडके उठकी-बइठिकी*४.. कराईला॥ 
फरके*" रहिला हम लेंगट"*-लबारन से 
भूलियो के तनिको ना हम असझ्ुराइल्ा*० । 
मनचा लगाई हम कमवाँ करीला खूब 
नामवाँ. कमराके खूब जस  फेलाईला॥ 
खाल-ऊँ च*८ मारि दीला काँट कुस चुनि ली ज्ञा)१ 
चले के सुगम हम रदिया बनाईला। 
आँख मुदि अन्दरो निगम*० होके चत्ने जे से२१ 
रहिया के विपति से सभ के बेंचाईला॥ 
आपस मे गुदिया" के जदिया** जमत्न बाटे 
कोड़ि-कोडि ओकरा के मेलवा बढ़ाईला। 
जाति से गिरत् था जे मरक परक्ष था जे 
कन्इवोँ *४ चढ़ा के हम छुतिया त्वगाईला।॥ 
इहे त धरम बादे ईंहे त करम बाटे 
रात-दिवन सोंटा जलेले दुडड़ लगाईला | 
जुक्लम के जदाँ-क्हीं डिलवा*" लडकिरेई जाला 
ताल ठोकि ओकरा के जक्दी दद्दाईला॥ 
इंदो नाहीं चाहीं जे लोग घबड़ाये ज्ञागे 
बतिया*» सरस बीच-बीच में बताईला। 
अगिया धो पनिया*< के बीच से चल्ताई' हम 
धीरे-धीरे बाग में बसत के नचाईला।॥ 
किला जे एकरा** से दिल के जज्नन जाला 
रतिया में एद्विसि3० हिंडोलवा लगाईला । 


१६ मीद में मी। जाने देता हूँ। ३. चताता हूँ। & पही। ५५ समक पढता है। १, सलन। १ मुबका, 
मुष्टि। ८, हुक्‍्तढबाज । ६, जमाता हूँ, प्रद्मार करता हूँ। १० नतीजा, परिणाम! १३ सपराता हूँ, पृ कर लेता हू 
१९० उलवक, वेवकूफ। १३. है। १४. उठाना-बैठाना। १५० अछग (फरक) | १६. भंगा। १०. उत्मता हूँ। १८. उघड- 
खाबड़ | १६. ऐेता हूँ । २० निस्चिन्त । २१. जिससे। २२. तिनकों की पेठि हुई रस्स (हृदय की कुटितता)। २४. जढ, 
मूल । २४. कन्वे पर । २५. टीका | २६. दीखता है। २७ वात। श८- आग-पानी--कठिनाई और सछुगमता। २६, इससे! 
३६०५ इसलिए ॥ 


२४० भोजपुरी के कवि और काव्य 


भीरे ले जुदाई लीला गोरिया' रसिकवन' के 
प्रेस के बजरिया में रँगवा उद्ाईला।॥। 
एकरे में भूल के ना समय बितदृह$ बेसी 
ऐहु में बा जाल भाई कह के इहराईला। 
रसवा के बस होके बात जे बिसारि देल्ा। 
घाइ3 के तुरत हम सॉट्वा जसाईला ॥ 





सिद्धनाथ सहाय विनयी/ 


आपका जन्मस्थान 'कल्याणपुर? (शाहाबाद) है। आप रामायणी भी बहुत सुन्दर हैं। आप हिन्दी 
और भोजपुरी दोनों में कविता लिखत हैं। आपकी दो प्रकाशित रचनाएँ 'केवठ-अनुराग” ओर 
ध्ोपदी-रज्षा” हैं। दोनों पुस्तिकाएँ मोजपुरी और हिन्दी गद्य-पत्र मिश्रित रचनाए हैं। केवल निषाद 
और द्ौपदी की वात्ती भोजएरी पद्म गद्य में है। तुलसीदास की कविताओं के उद्धरण देकर उनके 
प्रसगानुबल भोजपुरी उक्तियाँ भी कही गई हैं। आपकी रचनाएँ पढ़ने पर भक्ति और करुणा जाग 
उठती है। हिन्दी की कविताओं से कहीं अधिक सुन्दर, सरस और प्रौढ आपकी भोजपुरी रचनाएँ हैं । 
आप अपनी पुस्तकों के स्वय॑ प्रकाशक हैं। आपकी पुस्तकों का प्राप्तिस्थान है--“अम्बिका-भवन', 
मनसा पाणडे बाग, आरा । इन दो पुस्तकों के अतिरिक्त आपने भोजपुरी में और भी पुस्तकें लिखी 
हैं। यथा--श्री क्ृष्णुजन्म-मंगल पवार? , सीता जी को छुनयना का उपदेश” आदि । 
छुव॒त् में इर लारगे सुन्दर चरनियाँ५ 
कोसल कमल अत ग्रूरति मोहनियाँ॥ 
चरण के धुरि एक अजब जोगिनियाँ१॥ 
काठ के ठेकान० कौन का द्ोई जीवनियाँट। 
बिहसी बिहँसी कहे मधुरी बचनियाँ॥। 
भारी तो फिकेर एक धनुही धरनियाँ५ 
नेया ना होखे कहीं गौतमन-धरनियाँ१०। 
चारे-चारे झारे रज पद लपटलनियाँ ११ 
छुबे ना चरण ढारे उपरे से पनियाँ॥ 
अटपट बात सुति प्रेस रस-सनियाँ १९। 
जानकी-लखन देखि नाथ झुसकनियाँ १आ। 


--(केवट अनुराग” से) 





वसिष्ठनारायण सिंह 


आपका जन्म-स्थान 'दिघवारा! (सारन) है। आप दरिकीत्तेन किया करते हैं। आपने की न- 
मणडली वना ली है, जो स्थान-रथान पर जाया करती है। आपकी प्रकाशित रचनाओं में एक का 
नाम 'मंकीत्तेन-सरोज' है। 

जरा सुनी सरकार, जिया हुलमे हमार! 
द्विल लागि गइले प्रभु के भजनिया में ॥ 


१. सुन्दरी। २. रसिको । ३. दौडकर | 9. ज्जै में । ५, चरण । ६. जादुगरनी | «. ठिकाना, विश्वास । ८. चीविका । 
६, है धनुपधारी । १०, गौतमी, जदृरूण॒ । १३, लिपटी हुईं । ३३, रम में सती हुई १३, मुर्कान। 


भुवनेश्वरप्रसाद मानुः २४१ 


माथे मकुट रसाल, काने कुण्डल् बा" बिसाल, 
सोहे मोतिया के माल गरदनिया में ॥ 
जामा सोहे बूटीदार ओमे"* लागलब. 5 किनार, 
भमाक-भाक भलकेला प्रश्चु के बदनिया< में ॥ 
कहे 'बसिष्ठट! पुकार, सुनीं अचरज हसार, 
प्रभु राखि लिहीँ* अपना सरनिया में ॥१॥ 


भुवनेद्वरप्रसाद भा 
शान? जी का जन्म १६११ ई० में शाहाबाद जिले के “चन्दा-अखौरी” नामक प्राम में हुआ था । 
प्रारम्भ से ही कविता की ओर आपकी विशेष रुचि थी। आप हास्य-रस की कविता सुन्दर लिखते हैं। 
हिन्दी कवि होने के अलावा आप लेखक और उपन्यासकार भी है। आप भोजपुरी भाषा के 
बढ़े हिमायती है तथा भोजपुरी में बहुत-सी रचनाएँ भी की हैं । आजकल आप “शाहाबाद” नामक 
साप्ताहिक पत्र के सम्पादक है । 
१ 


बसनन्‍्ती हवा 

जियरा में सबके हिलोरवा» उठावे लागत, 

फूलवा खिलाके वोह प< सेँँवरा भुलावेल्ा' । 
रहियन ९ के दिलवा में अगिया ल्गावे लागल, 

भझोरि के वियोगिनिन के मनवा डोलावेला११॥ 
हवा ह5**बसन्त के कि काम के ई१३बान हृडचे१४, 

जियतारे!" कामदेव गते-से** बोक्ञावेला। 
बरछी के नोक अददसन लागेला करेजवा में, 

जोगियन के दिलवा में बासना जगावेला। 
लागते१९ वियोगिनिन के देहिया छुलसि देला, 

इहे बड़ृए** कास एकर”* सबके सतावेला। 
आवेला पहाड़ होके बिसधर ले बीस लेके, 

छुवते पघरीरवा के पागल बनावेत्ञा। 
बिरद्ा से तन जेकर भीतरा से जरे खुद, 

ऊपरा*० से ओकरा के अधरू*' जरावेत्ञा। 


दिलवा में सूतल दारुन वेदनवा के, 
झभोरि-कोरि देहिया के बरबस उठावेला+। 
(२) 
घर के न घाट के 


बानबे२७ में बैल घेचलीं, गाय बेचलीं*४ ग्यारह में, 
बाईस में मईसर" बेचली, कहला से लाटरेई के । 


१ है ।२ उससमें। ६. टँगाहुआ है। 9. बदन, शरीर। ४ लीजिप। ६. शर॒ण। ७. तरंग । ८ उस पर । 
६, मुख्य करता है। १० राहगीरों, पथिकों। ११. चंचल करता है। १२ है। १३. यह | १७५ है। १४. जीते हैं। 
१३, धीरे से । १०, घूते ही। १८ है। १६, इसका । २०, ऊपर से । २१५ और । २२ उठाता है, जाग्रत करता है। 
२३, ६२) रुपये । २७, वेच दिया। २९, भेंठ। २६, अँगरेजी-शासन के गवनर (राज्यपात)। 


२४२ भोजपुरी के कवि और काव्य 


सूद प5 सवा सौ ले लीं* दाखिल जमानत कइलीं । 

चीज सब बेंच देलीं, भाइयन से बॉट3 के 
साते सव में सात पाई४ जमीन्‍्दारी बेचि देलीं, 

सीसो” सात पेड़ बेचलीं सेंतीस* में काट के । 
मेम्बरो” ना भइलींट, भइल जब्ती जमानत के, 

खब्ती के मारे भदृल्लीं घर के न घाट के।॥! 





विमला देवी रमा' 


आपका निवास-स्थान डुमराँव ( शाहाबाद ) है। आप वहीं के मुन्तजिम घराने कौ शिक्षित 
महिला हैं। आप हिन्दी में मी कविता करती है और हिन्दी की लेखिका भी है। आपके पिता भुशी 
भागवतप्रसाद आरा नगर के प्रतिष्ठित वकील, रईस और सुविख्यात संगीतज्ञ थे। 


(१) 
संद-संद्‌ धीरे-धीरे पार नइया लावेला 
गंगा के तरंग धार भेँवर बचावेला 
बिधिन* अनेक नासि१" घाट पर लगाचेला 
आदर सहध्दित लोकनाथ"? के उतारेला 
धरण-कमल धरि साथ के नवावेला"रे 
टप-टप लोर3 छुबे बोली नाहीं आवेला 


(२) 
बोटेला*४ चरण-जल अजुरी-अजुरिया*५ | 
पीवेला** मसुद्ति सन बहुरी-बहुरिया)५ 
जनम के रोगी जबु पाये अमरीतिया१< 
कहा बाटे आचमनी सोने के कटोरिया 
तुलसी के दुल कहाँ, कहाँ बा पुजरिया१$ 
नेकु*० ना अधाय पीचे भरी-भरी थरियार' 
सुधि ना रहल  तन-मन मस्तनियारेरे 
रास जस गाइ-गाई लोटेला+3 घरनियारई 
कबहूँ सम्हारि उठे काछेला*" कछुनियारेर 
घुमी-धुमी नाचे जेसे नाचेला नचनिया २७ 
नाथ कुसुम गात देखि, देखी भक्त-गतिया३८ 
लिया-लछुमन कहे हँसि-हँसि बतिया॥ा 








३. जिया, फर्जे काढा । २. चुनाव छड़ने के लिए जमा की जानेवाढी रकम। ३, बैटवारा करके। 9. सात 
श्रेगरेती पाई कौ हिस्सेदारी। ५, शीौशम वृक्षा। ६. सतीस रुपये में। ७० विधवान-समा या जिला बोर्ल 
के सदु्य। ८ हुआ। ६. विष्त। १० नृष्ट करके। ११. राजा रामचन्द्र। १९. झुकाता है। १३५ थाँतू। 
१४, बाँटता है। १४५ भर-भर जंजलि । १६, पीता है । १०५ वार-वार, पुन/-पुनः ! १८ अमृत । १६: पुजारी । २० थीड़ा | 


२१८ याकी । २६ मस्तानापन | २३. छोटता है। २७, पृथ्वी पर। २५. कमर. में तपेठता है। २६. कधनी, कटि-वत्त । 
२७, भत्तक । २८, भक्त फी दशा । 


मनोर॑जनप्रसाद सिंह १४३ 


मनोरंजनप्रसाद सिंह 


आपका जन्म १० अक्टूबर को, सन्‌ १६०० ईं० में, सूस्येपुरा (शाहाबाद) में हुआ था। आपके 
पिता भ्रीराजेश्वरप्ससाद सदर-आला (सब जज) थे। आपका परिवार बाद को डुमरॉव (शाहाबाद) 
जाकर बस गया। आपकी भोजपुरी रचना 'फिरंगिया! की ख्याति असहयोग-युग में बहुत हुईं थी । 
आप पहले हिन्दू-विश्वविद्यालय (काशी) में अँगरेजी के प्रोफेसर थे। अब आप राजेन्द्र कॉलेज (छपरा) 
के प्रिन्सिपल हैं। आप बिह्ार-प्रादेशिक हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के मोतीह्वारीवालें अधिवेशन के 
सभापति हो चुके है। आप हिन्दी के भी प्रसिद्ध कवि और चिद्वान्‌ लेखक है। आपकी कितनी ही 
भोजपुरी कविताएँ अत्यन्त सरस और भाषपुणे है। 

(१) 
फिरंगिया 

सुन्दर सुथर भूमि भारत के रहे" रामा, आज इहें* भहदल्नू५5 मसानरे रे फिरंग्रिया 
अन्त धन जन बल बुद्धि सब नास भहल, कौनो के ना रहल मिसान रे फिरंगिया 
जहँँवाँ थोड़े ही दिन पहिले ही होत रहे, लाखो मन गढला और धान रे फिरंगिया 
उहें" आज हाय रामा | मथवा पर हाथ धरि*, बिलखि के रोवेज्ञा किसान रे फिरंगिया 
हाय दैव ! हाय ! हाथ !| कौना पापे सहल बाटे, हमनी० के आज झइसन द्वात्न रे फिरंगिया 
सात सौ लाख लोग दूवू साँम८ भूखे रहे, हरदम पढ़ेला अकाक्ष रे फिरंगिया 
जेहु कुछ बाँचेत्ञा*' त ओकरो१" के ल्ादि-लादि, ले जाला समुन्दर के पार रे फिरंगिया 
घरे ज्ञोग भूखे मरे, गेहुँआ बिदेस जाय, कहटूसन बाटे जग के व्यवहार रे फिरंगिया 
- जहँवाँ के लोग सब खात ना अधात रहे, रुपया से रहे मालामाल रे फिरंगिया 
उहूँ आज जेने-जेने।) झँखिया घुमाके देखु, तेने-तेने** देखबे कंगाल रे फिरंग्रिया 
बनिज-बेपार43३ सब एकठ"४ रहल नाहीं, सब कर होहू गइल नास रे फिरंगिया 
तनि-तन्रि बात लागि हसनी का हाय रामा, जोहिल्े।" बिदेसिया के आस रे फिरंग्रिया 
कपड़ो जो आवेल्ा बिदेश से तो हमनी का, पेन्ह के रखिला निज ल्ञाज रे फिरंगिया 
आज जो बिदेसवा से आवेना कपड़वा त5, लंगटे!१ क्रब जा विवास रे फिरंगरिया 
हसनी से सलता"७ में रुई लेके ओकरे से, कपड़ा बना-बना के बेचे रे फिरंगिया 
अइसदीं अइसहीं दीन भारत के धनवाँ के, लूडि-लूटि ले जाला, बिदेसे रे फिरंग्रिया 
रुपया चालिस कोट*८ भारत के साले-साल?९, चल्न जाज्ञा दूसरा के पास रे फिरंगिया 
अइसन जो हाल आउर+० कुछ दिन रही रामा, होइ जाए भारत के नास रे फिरंगिया 
स्वाभिमान लोगन में नामों के रहल नादीं, ठकुरसुद्दाती बोले बात रे फिरंगिया 
दिन रात करे ले खुसासद सहेवबबा+* के, चाटेले बिदेसिया के ल्ातरे5 रे फिरगिया 
जहँवाँ भदल रहे राजा परताप सिंह, और सुरतान'४ अइसन वीर रे फिरंगिया 
जिनकर टेक रहे जान चाहे चलि जाय, तबहू नवाहबरें ना सिर रे फिरंगिया 


१ थी। ४, वही । ३. हुईं। ७. श्मशान । ४« वद्दी । ५. माथ पर द्वाथ घरना (मुद्दावरा)--भीखना, चिन्ता की मुद्रा । 
७ हमलोग । ८, सनन्‍्ध्या । & वचता है! १०, उसकी । १३५ जिधर-जिवर ! १२. उपर-उधर ! १३५ दधाणिज्य-व्यापार | 
१४ एक भी | १५, जोहते हैं। १६. नंगे । १०, सस्ता | १८७ फोठि, करोड । १६, प्रतिवर्ष! २० और | २१, नास मात्र मी। 
२२, साहव (अँगरेज)। २३ जात चाटना (मुद्रावर।)-छुशासद करना । २४५ औरंगणेब के समय में चुरतान (६ 'शिरोही' 
नरेश ये, जिन्दोने किसी के आगे सिर नही छुकाया। औरंगजेब के द्रवार में वे दोठे दरवाजे से जाये गये, ताकि वे सिर 
झुका कर घुसेंगे, तो वही प्रणाम समका जायगा , किन्त उस वीर ने पहले अपना पैर घुछाया और टेढा द्वोकर अन्दर प्रवेश 
किया। यह इतिद्ाउअसिद्ध घटना है। राजस्थान में शिरोही पक राज्य दै, चहाँ की बनो तलवार सशहूर है। 
२४. कुकाझँगा । 


श्४४ भोजपुरी के कवि और काव्य 


उहँबे के लोग आज अइसन अधघस भइ्ले, चाटेले बिदेसिया के लात रे फिरंगिया 
सहेबा के खुसी लागी? करेलन सबहीन*े, अपनो भइझअवा& के घात रे फिरंगिया 
जहँवाँ भइल रहे परजुन, भीम, ब्रोण, भीषम, करन सम सूर रे फिरंगिया 
उहें आज ऊुड-मुंड कायर के बास बाटे, साहस घीरत्व भइल्न दूर रे फिरंगिया 
क्ैकराई करनिया कारन ह्वाय भइल घाटे हसनी के अट्टसन हवात्ई रे फिरंगिया 
धन गइल, बल गइल, बुद्धि गइल, विद्या गइल, हो गइलीं जा निपटे० कंगाल रे फिरंगिया 
सब विधि भइल कंगाल देस तेहू पर८, टीकस* के सार तें*० बढ़ौले रे फिरंगिया 
नून पर टिकसवा, कूली पर टीकसवा, सब पर टिकसवा लगौले रे फिरंगिया 
स्वाधीनता हमनी के नामों के रहल नाहीं, अइसन कानून के बरे*) जात्न रे फिरंगिया 
प्रेस पेक्ट, आरस ऐक्ट, इंडिया डिफेंस ऐक्ट, सब सिलि कह्टलस"* ई हात् रे फिरंगिया 
प्रेस ऐेक्ट लिखे के स्वाधीनता के छीनलस, आउरस ऐक्ट ल्लेलस हथिआर रे फिरंगिया 
इंडिया डिफेंस ऐक्ट रच्छुक के वाम लेके, भच्छुक के भइल अवतार रे फिरंगिया 
हाथ | हाय ! केतना जुबक भइले भारत के, ए जाल में फसि नजरबंद रे फिरंगिया 
केतना सपूत्र पूत एकरे करनवा*3 से पढ़ले पुलिसवा के फंद रे फिरंगिया 
अजो"४ पंजबवा के करिके सुरतिया१" से फा्टेज्ा करेजवा हमार रे फिरंगिया 
भारते के छाती पर भारते के बचवन के, बहल रकतवा१९ के धार रे फिरंगिया 
छोटे-छोटे लाल सब बालक मदन सब, तद्पि-तड़पि देले जान रे फिरंगिया 
छुटपट करि-करि बूह सब भरि गइले, समरि गइले सुधघर जवान रे फिरंगिया 
जुढ़िया मह्रतारी*० के लकुटिया*८ छिनाह गइहल्११, जे रहे छुढ़ापा के सहारा रे फिरंगिया 
जुबती सती से प्रायपति हा बिज्ग भइल, रहे जे जीवन के अधार रे फिरंगिया 
साधुओं के देहवा पर चूनवा के पोति-पोति, रंडि आगे ल्ँगठा*" करौले रे फिरंगिया 
हमनी के पसु से भी हाजत खराब कइले, पेटवा के बल रेंगअवत्ले*) रे फिरंगिया 
हाय | हाय | खाय सबे रोवत बिकल्न होके, पीटि-पीटि आपन कपार रे फिरंगिया 
जिनकर हाल देखि फ़ाटेला करेजवा से, ओँसुआ बहेला चहुँघार* रे फिरंगिया 
भारत बेहाल भइल लोग के ई हाल भइल, चारों ओर सचल द्वाय-हाय रे फिरंगिया 
तेह पर*3 अपना कसाई अफसरवा के, देले वाहीं कवनो सजाय रे फिरंग्रिया 
चेति जाउ चेति जाड भैया रे फिरंगिया से, छोड़ि दे अधरस के पंथ रे फिरंगरिया 
छोड़ि दे कुनीतिया सुतीतिया के बांह गहु, भला तोर करी भगवन्त रे फिरंग्रिया 
हुखिआ्रा के आह तोर देहिआ भसस करी*४, जरि-भूनि*" होह जहबे छार रे फिरंगिया 
ऐड्वीपे*४ त कहतानी*० सैया रे फिरंगी तोहे, धरम से करु तें बिचार रे फिरंगिया 
जुलुमी कया का टिकसवा के रद्‌ क दे, भारत के दे दे तें स्वराज रे फिरंग्रिया 
नाहीं त5ई सांचे-खांचे तोरा से कहत बानी, चौपट हो जाइ तोर राज रे फिरंगिया 
तेंतिस करोड़ लोग ऑँसुआ बहाई ओमें** बहि जाई तोर ससराज** रे फिरंगिया 
अन्म-धन-जन-बत्त सकल बिलाय3" जाई, डूब जाई राष्ट्र के जहाज रे फिरंगिया 





१० फे ण्िप । २. सभी ज्ञोग | ३. भाई-वन्धु । 9, किसके । ४, करनी, करवूत ।६. हाल । ७. जत्यन्त | ८. उस पर भी | 
१६५ रक्त । १७. माता। ३१८ लब॒टी, लकुडी। १६. छिंत गई। २०, नंगा । २१. रँगाया ( पेट के व्ष चक्ञाया) । २२० चौमुखी 


धारा से । २६५ उठ पर भी । २४, कर देगा। २५. जत्-धुन कर २६. इसी से । २०, कहते हैं । २८, उसमें । २६, साम्राज्य । 
३० हृ॒प्त हो जायगा । 


मनोरंजनप्रसाद सिंह २४५, 


(२) 
तबके जवान अब भइले पुरनिआ 

श्रबहूँ कुहुकिएके) बोलेले कोइलित्रा, नाचेला मगन होके मोर। 
अबहूँ चमेली बेली फूले अधिरतिआ, द्वियरा में उठेल्ला हिल्लोर॥ 
अबहूँ अंगनवाँ में खेलेला बत्तकवा, कौआमामा चील्हिआ-चिल्होर) । 
झबटहूँ. चमकिएके5 चलेले तिरिश्रवा<, ताकेले मुँइअवे"के ओर ॥ 
चोरी-चोरी श्रबों गोरी करेली कुलेलवा*, चोरी-चोरी आवे चिद्चोर । 
भूलि जाला सुधबुध कामकाज लोक-लाज, करेले जवानी जब जोर ॥ 
दुनिआ के रंग ढंग सब कुछ ऊहे० बाटे, ओइसने बा८ जोर अडरी सोर। 
कुछुओ ना बदुललल, हमहीं बदल गइलीं बदलल तोर अठरी मोर ॥ 
: तबके जवान अब भले पुरनिआ*, देहिआ भइल कमजोर। 
याद्‌ जब आवचेला पुरनका जमनवा"०, मनवा में होखेक्ाममोर"१ ॥ 
कुछ दिन अठरी धीरज धरु मनवा, जिनगी"के दिन बाटे थोर | 
पाकल पाकल केसिआ में लागेना करिखवा १3 रामजी से करु ई*“निदहोर"" ॥ 

(३) 

मातृभासा ओर राष्ट्रभासा 


दोहा 
जय भारत जय भारती, जय हिंदी, जय हिंद। 
जय हमार भासा बिमत्न, जय गुरु, जय गोबिंद ॥ 


चौपाई 


ई हमार ६5 आपने बोजली। सुनि केह', जनि करे ठठोल्ी॥ 
जे जे भाव हृदय के भाव९ | ऊहे उत्तरि कन्नम पर आदबे॥ 
कबो १० संस्कृत, कबहँ हिंदी | भोजपुरी साथा के बिंदी॥ 
भोजपुरी हमार हु भासा | जइसे हो जीवन के स्वांसा।। 
जब दम ए दुनिआ में अइलीं। जब हमई मानुस तथनु पहलीं॥ 
तबसे जमल"< रहल जे टोली । से बोले भोजपुरिशआ बोज्नी॥ 
हमहू ओही में** तोतरइलीं*० । रोअल्लीं हेंसलीं बात बनइलीं॥ 
खेले लगलीं घुघुआमाना*' | उपजत्नष धाना", पवलीं*अजाना ॥ 
चंदा मामा आरे*ं आअइले। चंदा मासा पारे*" झइले।॥ 
ले ले अइले सोच कटोरी। दूध भाव ओकरा में*१ घोरी*० ॥ 


दोहा 
बबुआ के मुँद्द में घुदुक*८, गइल दूध ओ भात | 
ओऔोक्रा पहिल्ले कान में पड़ल मधुर सु बात॥ 
३, ुद्दुक कर ही । २० चीज़ पक्षी । ६० भाव-मंगी के साथ 8 स्त्री । ५. सूमि, पृथ्वी। ६, केि-क्रीडा । ७ वही । 
८ उसी तरह का ६, वृद्ध । १०० जमाना, यूग। ११५ पठलत। १२. जिन्दगी। १३५ कालिख, कलंक-काज्िता। १४, यह । 
१४. बिनती । १६, जच्चा दंगे । १०० कभी ! १८० इकट्ठी रही, जम्ती रही | १६५ उसी में | २०. तोतदी बोदी बोलने लगा। 


२३६ बच्चों को बहफाने का एक खेज । २९. घान २४३. थाया। २४. इस पार । २४५ उस पार । ५६० उसमें । २०, घोल दिया । 
२८ बच्चे के मुह में घीरे कौर देना । 


२४६ भौजपुरी के कवि ओर काव्य 


चौपाई 


पढ़आ-लिखुआ"'? करहें माफ। हस त बात कहददीले साफ ॥ 
हमरा ना केह से बैर।ना खींचब* केहू के पर॥ 
हम त5 सबके करब भलाई । जेतना हसरा से बन पाई ॥ 
हिंदी हु भारत के भासरा। ऊद्दे एक राष्ट्र के आसा॥ 
हम ओकरो भंडार बढ़ाइब। ओहू में बोलब ओ गाइब |। 
तबो न छोड़ब आपन बोली। चाहे केहू मारे गोली॥ 
जे मगही तिरहुतिआ भाईं। उनहू से हम कहब बुकाई ॥ 
ऊहो बोलसु आपन बोल्नी। भरे निरंतर डनकों भोली॥ 


दोहा 


हम चाहीं सबके भला, जन-जन के कल्यान । 
जनसें बते जनारदन, भगवा३ में भगवान ॥ 
(४) 
कौआ-गीत 
कौआ भोरे-भोरेषबोलेला से मोरे अगना ॥टेक॥ 
ए कौआ के बात न सुनिह5ई हईड राजा , इन्द्र आइल ठगना"॥ कौआ० 
ए कौआ के दूरें. सगाव5ई त5ड जयंत हु कुटिल-मना॥ कौआ७ 
चिहुँकल* चारों ओर गरदुन घुसावेला» एके आँखे देखेला हजार नयना॥ कौ श्रा० 
ना हम इंद्र, ना इंद्र के बेटा हम खग अधम उड़ीले* गगना॥ कौआ० 
हम त5 खाईले' राजा राउरे१० जूझन, साफ करे आईले राउरे अँगना॥ कौआ० 
हस त& सेईले राजा दोसरे के अंडा,जीअती १ *ता कोइलरि हमारा बिया॥ कौआ० 
लोग कहेला हमरा जीभी १ »में श्रमरित*४, हम नाहीं कपटी-कुटिल-बधना ।। औआ० 
बहूजी के कहला से अँगना में उचरीले१",उचरीले कब अइहें प्रिय पहुना ॥ कौगश्ा० 
हमरा के भेजले ह बाबा सुसु'डो काँव-हाँव रास१९ बाड़े कौना अंगना॥ कौआ० 


विन्ध्यवासिनी देवी 

श्रीमती विन्ध्यवासिनी देवी बिहार की लोक-संगीत गायिका है। इनका जन्म सन्‌ १६१७ ईं० में 
सुजफ्फरपुर मे हुआ। बचपन से ही संगीत में इनकी अभिरुचि थी। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा 
मुजफ्फरपुर के चैपभेन गढसे रुदृल मे हुईं। घर पर ही पढ़कर इन्होंने साहित्य सम्मेलन की 
परीक्षाएँ पास कीं। पहले आयेकन्या-विद्यालय (पटना) में हिन्दी अध्यापिका थीं। आजकल ऑल 
इंडिया रेडियो (पटना) में लोकगौत गायिका है। इनके संगीत के रेकार्ड भारत के हर रेडियो- 
बला प्रसारित हुआ करते है। ये भोजपुरी के अतिरिक्त हिन्दी, मगही, मैथिली में भी रचना 
करती हैं। हु 


न+किएपपयपयू_त्५0पपययण- 

२, शिक्षितजन । २. पर खीचना (मुद्दावरा)--आगे बढ़ने से रोकना। ३. ह्ैगीटी । 8. प्रभात चेढ्य में | ५, ठगनेवाला । 
६. 'चीकन्ना होकर । ७. घुमाता है ८. उठता हूँ ६. खाता हूँ। १०, आपका ही ११. जीवित ! १९. कौयल। १३५ जिह्मा। 
१४५ छबृत। १४: प्रिय कै शुभागमन की सूचना देता हूँ (मंगल का उच्चारण करता हूँ ) | १३५ कागभुछु डी के इष्टदेव 
*राम' कहाँ है, फाँव-काँव करके यह पूछता हूँ। 


हरीशदत्त उपाध्याय २४७ 


(१) 
बरसाती 
सावेः) ना सोहि अगनबाँ," बिदचु मोहनवॉड। 
बादल गरजेला चमके बिज्ञुरिया तापर बहेला पवनवाँ। 
जैने सावन में मदरत< बूँदिया, वइसे मरेज्ञा" मोर नयनवाँ। 
कुबजा सवत साजन बिलमावल, जाइ बसल'* सधुबनवाँ। 
अबले० सखि | मोर पिया ना आयल< बीतल मास सवनवाँ। 
(विन्ध्य' कहे जिया धड़केला* सजनी, कगवा?० बोलत बा अगनवाँ। 
(२) 
घनकटनी 
घनकटनी११ के बहार अगहनवाँ में। 
बोफा बॉधल बाटे धान, मन गाजत$"* किसान, 
देखि भरल  खरिद्ञान)३, अगहवबाँ में॥ 
देख5 गगा के ओह "४“पार, जेकरा १" कहत दिआर ९, 
जेहवाँ खेतिहर होनिहार*० अगहनवाँ में॥ 
गोइंठा१“जोरि गोलाकार, लिटिया**क्लद्टु के आकार । 
ततले*०  खिंचद्ी मजेदार, अगहनवाँ में॥ 
अन्दर सूबे बिहार विन्ध्य कहत पुकार । 
नयका*) चिठरा* के बदार अगहनवाँ में॥ 


शनननाननन नमन: अनािनििनिशाधननन5 


हरीशदत्त उपाध्याय 


आप आजमगढ़ शहर के निवासी हैं। आपने भोजपुरी में महाकवि कालिदास के 'रघुवंश” काव्य 
का स्वतंत्र अनुवाद किया है। यह बाईस सर्गों सें समाप्त है। इसका चौथा तथा पॉचवॉ सगे 'विश्वमित्र” 
और “आज? नामक पत्रों में प्रकाशित हो चुका है। यह मौलिक रचना है। आपने राष्ट्रीय आन्दोलनों 
पर भी कविताएँ रची हैं। आपकी भोजपुरी में आजमगढ़ी बोली का पुट है। रघुवंश से कुछ 
उदाहरण नौचे उद्धृत किये जाते हैं--- 
(१) 
पु ९ 
कथा-अ्रवेश (प्रथम संग) 
न्नेता में दिलीप एक 33 रहते त महीप भाई, 
उर दे सता में सोचें दिन-रात | 
तीनों पना*" बीति गेलें, ऐलें विर्धापनवा , 
नाहीं ओनेके*० ऐक्को भेल्ले जब त सनतनवा, 


३० भावे--अच्चा कगना | २ प्रागण। ३६. सनसोहन (प्रियतम) । 8. सी छग़ाना । ५. आँधू गिरना ! ६. बस गया। 
०. अवतक | ८, आया। ६. धढकता है। १० काग, कौआ । ११ धान फी कठाई | १६ गाजता है, प्रसन्न होता है। 
१३. खकिद्वान। १४७ उस । २५५ जिसकों। १६ दियारा>-गंगा के दोनों तठों के आस-पास की भूमि, जिस पर वाढ़ में नई 
मिट्टी पढ जाती है। १७ द्वोनहार, उत्साही | १८. उपले, गोयर के सूखे कयढे | १६. थाटी। २०. गरमांगर॒स | २३, नया । 
२२» 'चूढा ( खाद्य पदार्थ )। २३» सख्यावाचक। २४. वे ( दिलोप )। २५५ अवस्था । २४, वृद्धावस्था। २०, उधर के, 
बीती भवस्याओं के। हु ह 


श्ष्८ भोजपुरी के कवि और काव्य 


नाहीं समझ पावें एकर”" का हडबे* करनवा, 
काहे रुकल हडए मोसेड सोर खबदनवा, 
के मोर बेलसी४* राजपाट, के बेलसी खजनवा, 
केसे तीनो छूटी मोरा ऋनवा" जहनवा, 
केकर नाहीं पूरन केलीं*, हम माँगल चहनवा*, 
कवन छोड़लीं दान-बरत८ कवन हम नहनवाँ*१, 
कवने खूति असम्ति के ना मनलीं कददनवा १०, 
नाहीं केहू के चंश के त दस कैलीं दहनवा"११, 
प्रभु के चरन के सदा हम कैलीं भजनवा, 
नाहीं हम सतौक्लीं कब्बो** गऊ औ बभनवा, 
नाहीं निरदोषी के त देहलीं जेलखनवा, 
नाहीं कौनों भूलि के त आवेला घियनवा, 
बिना एके सन्‍्तति के त घिरिक' *हो जियनवा", 
मन में इद्दे भूप सोचे दिन-रात॥ 
छूटि गयत दाना-पानी *१,छूटल अब सयनवा "९, 
सारे फिकिर!०के ओनकर !<पियराय गएल बदनवा, 
पौलीं पता रानी ओनकर जब अन्द्र भवनवा, 
पूछे हाथ जोढ़ि सोच$ तूँ कवने करनवा, 
जब ले हउएँ गुरुजी के दुनिया में चरनथा, 
कपने चिजिया"९ के तोहरे होय गयल हरनवा**, 
काहे कर5 सोच सजन तूँ, कर5 बखनवा, 
चलबे तूहें लेइके अब्बे गुरु के सरनवा, 
नाहीं टरि सकता ओनकर तिल भर बरदनवा, 
पूछत औ दबावत चरन होइ गइलें बिहनवा*१, 
सनमें. हहें सोर्चे. दिन-रात॥ 
कहेले हरीश” बोति गली ऐसे रात, 
तब राजा रानी से बोलेलें बात ॥ 


रघुवंशनारायण सिंह 


आपका जन्म-स्थान “बबुरा? आराम ( थाना बड़हरा, जिला शाहाबाद ) है। आप कॉगरेस-कार्य्यकर्ता 
आर हिन्दी के भी लेखक है। आपके ही उद्योग से आरा नगर से “भोजपुरी? मासिक पत्निका 
निकलती है। उसके सम्पादक और संचालक भी आप ही है। भोजपुरी की उन्नति के लिए आप तन- 
सन धन से सतत सचेष्ट रहते है। उत्त पत्रिका आपके उत्साह से भोजपुरी-साहित्य की प्रशंसनीय सेवा 
क्र रही हैं। आपकी निम्नलिखित कविता बिहार-सरकार के ग्रचार विभाग द्वारा पुररुक्ृत हो 
चुकी ह-- 

१, इसका | ७ कया है। ३. मुक्से। 8. भोग-ज्लिस करेगा? ५. तीन ऋण ( देव-ऋण, ऋषि-ऋणा, पिद-आण ।) 
६. पृणा किया। ०. अभिलाप, चाह, मनोरथ | ८. ब्रत। ६. तीर्थस्तान। ३० कथन, उपदेश। ११, नाश, दहन । 


१९ कभी । १३. घिवफार । १४. जीवन । १५, भोजन । १६. नीद्‌। १७, फिक्क, चिन्ता । १८५ उनका । १६५ 'चीण, वस्तु । 
२०. दरण। २१९ प्रभात! 


महादेवप्रसाद सिंह 'घिनश्यामा २४६ 


एगो" बलका* रहिते गोदिया में खेलइतीं ननदी।। टेक ॥ 
देश-सगति के पाठ पढइतीं, देस-द्सा ससुझइतों, 

जे केहु देस के खातिर मरलें3, उनकर याद दिल्लइतीए ॥ हो खेक्ष० ॥ 
होम-गाड में भरती करदइतीं, परेड उनका सिखइततों, 

कान्ह" प लेके बनुकिया* चलितें, छाती देखि जुड़ ३तीं ॥ हो खेल० ॥ 
परेड कसरत से देह बनइतें, सोभा आपन बढ़इतों, 

गाँव-नगर के रछेआ० करिते, बीर खसपूतत बनइतीं। हो खेल० | 
आझाफत-बिपति जब देस प अइ् ते, आगे उनके बढ़दतीं, 

मारि भगहतें देख-हुसमन के, बीर मतारी* कहइतीं ॥ हो खेल० ॥ 
गाँधी-नेहरूबलभ भाई के, कीरति-गीत सुनइतीं, 

हाथ में देके तिरंगा झंडा, त्रिजयी बीर बनहतीं' ॥ हो खेल० ॥ 





महादेवगप्रसाद सिंह 'घनश्याम' 


आप आम 'नचाप” ( हरदिया, शाहाबाद ) के निवासी है। आप भोजपुरी के अच्छे कपि है। 
भोजपुरी के प्राचीन 'सत्ती सोरठी योगी बृजाभार', कु अर विजयमल्ल?, 'लोरिकायन/ “'शोभानायक 
बनजाराः* आदि प्रबन्ध-काव्यों के अच्छे गायक तथा लेखक है। आपकी लिखी “सती सोरठी योगी 
बृजाभार? पुस्तक ६६ भागों में है । इसका मूल्य ८) है। यह पुस्तक स्वतन्त्र रूप से लिखी गई है; परन्तु 
कंद्ानी पुरानी है। कवि में कवित्व-शक्ति अच्छी है। आपको “पवॉरा केसेरे हिन्दः की उपाधि भी 
मिली है, जो पुस्तक पर छपी है। 'कुअर विनयमल्ल” बत्तीस भागों में समाप्त हुआ है। इसकी 
कीमत ३) है। आपने “भाई-विरोध” और “जालिम सिंह” नाटक भी लिखे है। इनमें भोजपुरों गय 
और पद्म दोनों का प्रयोग हुआ है। भोजपुरी के प्रसिद्ध कवि भिखारी ठाकुर की रचनाओ की तरह 
आपकी पुस्तकें भी बहुत लोकप्रिय हैं। भोजपुरी भाषा की आपने काफी सेवा की है। आपके 
नाटकों के कथानक समाज सुधार की दृष्टि से लोकोपयोगी है। 
(१) 
सोहर 
प्रथा गनेस पद बदन चरन . मंनाइले१०" हो। 
ललना. विधिनदरन गननायक मंगलदायक  हो॥ 
चढि गहले पहिला महिना सो मन फरियाइल"१ हो। 
ललना नाहीं भावे खुखके सेजरिया?* सो रतिया डेराचन हो ॥ 
दूसरहीं चढ़ले महिनवाँ, ना श्रन्न नीक*३ लागेला हो। 
लक्ञना देहियाँ में आवेला घुमरिया*४ सो, आलस सतावेला द्वो॥ 
चढी गइले तोसरे महिनवाँ ना दिल कहूँ१" ज्ञागेला हो। 
ललना रही रही आवेज्ञा ओकइया १९ सो कुछ नाहीं भावेला १० हो ॥ 
चडथा ही चढ़ले महिनवाँ जम्हाई आचबे लागेला हो। 
लक्षना नहीं भावे घर से अगनवाँ सो मन घबद़ाएला हो || 
१० पक भी। २. चालक । ३० भर गये ( शद्दीढ हो गये )। 8. दिलाती | ४, कन्वा। ६. बन्‍्दूक | ७, रक्षा । 
८० माता । ६ बनाती । * इन पुस्तका का प्रकाशक--ठाकुर प्रसाद वुकसेलर, राजादरवाणा, बनारस । १०. मनाता या 


घुमिरता हूँ। ११५ वमत करने की पवृत्ति। १२ शय्या। १३५ अच्छा । १७ चक्कर, घूर्सि। १४५ कही मी । १६५ वतन । 
१०७, अप्ला कगना । 


२५० भोजपुरी के कवि और काव्य 


पाँच-छुव बीति गइले मासवा सो देहियाँ पहाड़ भइली हो। 
ललना नाहीं तन होखेला सम्हार", सो हुखवा सतावेला हो॥ 
सातवाँ सो बिवले महिनवाँ सो आठवाँ घुरन भइले* हो। 
ललना नाहीं आवे अँखिया निनरिया? सो जियरा बेहाल भइले हो ॥ 
पहादेश यह सुख गावत, गाईइ सुनावत हो। 
ललना रानी हुखे भइली बेआाकुल पीर ना सहल जावे हो ॥ 


(२) 
मेला-घुमनी 


परमपिता परमेसर के ध्यान धरी, लिखतानी सुनु चित लाय मेला-घुमनी” ॥ 
आचेला सिराती* मेला, ददरी*, मकर< आदि, करे ज्ञागे आगे से* पत्ताह मेला-घुमनी ॥ 
महुअ्ररि १०, ठेकुआ", गुलडरा?* पका लेली१3, सातू-नून*मरीचा-अचार मेला-घुमनी ॥ 
चाउर"", पिसान"९,दाल,चिउरा ० के मोटरी *८से, सकल समान"'*लेइ लेली मेल्ा-घुसनी ॥ 
तिसी-तोरी*" बेचीं कर पइसा*' जुटावेली** से, मेलावा में खायेके मिठाई मेला-घुमनी ॥ 
गहना ना घरे रहे, मगनी*3 ते आवे साँगि, करे लागे रूप के सिंगार मेला-घुमनी ॥ 
बाहें**बाजू*",जोसन, '  बंगुरिय/*०, पहुँचि*<पेन्हें, गरवा* ५ सें हल्का 3"झुलावे मेला-घुमनी ॥ 
सारी लाल-पीली पेन्हि ओढली चद्रिया से, कर लिहली 3१ सोरहो लिंगार भेला-घुसनी ॥ 
काने कनफूल पेन्हें, सीकरी३४९, सुसक पेन्हें , टिकुलो चमक्रेल्े लिलार3३ भेला-घुमनी ॥ 
मेलवा में जाये खातिर घरवा में रूगरज्ञे, राह में चत्नेली श्मकत मेला-घुमनी॥ 
चारि जानी आगे भइलीं, चारी जानी पीछे भइलीं, ठेढ़िया3 ४ सूमर गावे लागे मेला-घुमनी ॥ 
मरद के कम भीड़, संठगी के ठेला-ठेली, मेलवा में मारेली नजारा मेला-घुमनी ॥ 
आँचरा में गुड़-चिडरा भसर-भसर3९ उड़े, गप-गप गटकेली३७ ल्लीटी3<८ मेला-घुमनी ॥। 
नेहर-ससुरा के लोग से जो भेंट दोखे, बीचे राहे रोदन पसारे3१ सेल्ला-घुमनी | 
ढेरा डाले ज़ान-पहिचान कीहाँ४० जाइकर, बेठेली होई सल्तन्त४१ मेला-घुसनी ॥। 
आगी सुलगाये लागे, चिल्मम चढ़ावे लागे, पुद़-पुद् हुक्‍का पुड़पुड़ावे मेला घुमनी ॥ 
लुगा<* क्लूला53 लेहकर चलेजी नहाय लागी*४, कितना लड़ावे तोसे आँखी मेला-घुमनी ॥ 
करी अतनान जल चलेली 'चढावे ज्ागी, पण्डवा गहेले तोर बाह मेल्ा-घुमनी ॥ 
जलवा चढ़ाइ जब चलली मन्दिर में से, भीड़िया में गुण्डा दरकचे मेला-घुमनी ॥। 
चोर-बट्मार तोरा पीछे-पीछे ज्ञागि गइले, तजबीज<" करे ल्ागे दाव5६ मेला-घुमनी ॥ 
भीड़िया३० में घिरि गइली नाक-कान चोंथी लेले२८, सेया-दैया करि सिर घुने मेला-घुमनी ॥ 


१ देह फा सेसार न होना ( मुद्दावरा )--तिज्षमिव्ाना | २: पूरा हुआ । ६. नीद्‌ | 8. लिखता हूँ । ४« मेले में घूमनेवादी 
शौकीन स्त्री। ६. शिवरात्रि का सेला | ७ भृगुक्षेत्र ( वल्षिया ) में लगनेवाला चड़ा सेला। ८. मकर-संक्रान्ति का सेला | 
६. पहले से ही | १०, महुआ, गुढ और चावल या गैहूँ के आाठे से घना पकवान । ११. जाटा और शुदू-धी से बना पकषान। 
१२, आठ और गुद-घी के संयोग से बना गुलगुल्ला (मीठी फुलौरी)। १३- पका लेती है । १४ सत्त और नमक । १५. 'चावल। 
१६, जाठा। १०, चूडा। १८, गठरी। १६५ सामग्री । २०. सरसों। २१. पैसा। २२ सभ्ह करतो है। २३. दूसरे से 
मांगकर ताई हुई चीज | २४. चाँह मे । २४. चाजूबन्द्‌ । २६. वाँद्द का गहना (जशन) । २७-२८, कक्षाई पर पहनने के गहने । 
२६, गण । ३०. गगे का गहूना। ६१० जिया । ३९, सिर पर पहनने का एक गहना । ३६, छक्ताट । ३४, पारी-्पारी से आगै- 
पादे गाने की रोति। ३५. नजारा सारना--(सुद्दावरा)>-आँख कडाना। ६६, तावउतोंड खादा । ३०. णीवती है। 
४८५ णाटी | ६६. रोने का साग करना । ४० के यहाँ । 8१. आराम से (स्ततनत) | ४२. साडी । ४३६ कु्तती । 89. बासते । 
४५-४६ दाव तद॒थीच करना:-(मुद्दावरा)--घात खगाना । ४७. भीड़ । ४5. नौंच लिया । 


युगलकिशोर 


२४९ 


हाला-गरगद” सुनि लोग बहुराह* गइले, सब केह्ु तुहे३ घिरकारे४ मेला-घुमनी ॥। 
मेलवा के फल इहे नाक-कान दोनों गइले, गहना लगल तोरा डॉड़" मेल्ला-घुमनी ॥ 


युगलकिशोर 


आपका पूरा नाम युगलकिशोर लाल है। आप आरा (शाहाबाद) के निकट एक प्राम के 
निवासी हैं। आप सामयिक विषयो पर सुन्दर रचनाएँ करते है। आपकी कविताओं को बिहार 


सरकार के प्रचार-विभाग ने छुपवाकर बटवाया है। 
कुछ ना बुझात वा 


कइसे * लोग कहत बा" कि कुछ ना बुकात बा । 
५ । + 


जब से सुरान आइल, झपन सब काज भद्टल, 
सासन बिदेसी गइल राजपाट देखी भइत्त 
आपन बेवहार* 'चलल, देसी प्रचार ॒ बढ़ल , 
रोब, सूट-बुट उठल्त, कुर्ता के मान बढ़ल, 
आपन सुधार होत दिन-द्न देखात बा१९ | कद्से० ॥$॥ 


सद्यिन के गइल राज हाथ में बा आइल आन, 
समय कुछु लागी तब, बनी सब बिगढड़ल काज, 
सबके सहयोग चाहीं, बुद्धि के जोग चाहीं, 
घीरज से काम लीहीं, लालच सब छोड़ि दीहीं, 
बड़े-बड़े कासन के रचना अब रचात था । कइसे० ॥२॥ 


कालेज-स्फूल के तादात?१ बढ़ल जात बा, 
बेसिक स्कूल जगह-जगह पर खोलात बा, 
सावेजनिक शिक्षा के नेंव** भी दिश्लात बा, 
गाँव में मोकदिसा के पंचाइत"3 भइल जात बा, 
धीरे-धीरे कामन में उन्नति दिखात बा। कइ्से० ॥३॥ 


अन्न उपजाबे के रास्ता सोचाये ल्ञागत्न, 
कोसी वो गडक के धाटी बन्द्याये ल्ञागल, 
गंगा सोनभद्न से नहर कठाये छागल्, 
जगह-जगह आदर वो पोखर खोदाये लागल, 
झवरू उपजावे के रास्ता खोजात बा। कददसे० ॥४॥ 


१ दृस्णा-युद्दा। २ एकत्र होकर। ३५ तुमको | & पिक्कार देते हैं। ४० दण्ड, इसौना। ३, केंसे। 
७ भहते हैं। ८ सादूम पडता है। & व्यापार। १०० दीख पडता है। ११, तायदाद। १२, मींब। १६७ ग्रास- 


पँच[यत का संगठन । 


२१५२ भोजपुरी के कवि और काव्य 


जगे-जगे" तह तुढ़ि* के कुइआँ3 खोदात बा, 
बिजली का पंप से खेत पाठत जात बा, 
पौखरा वो नदी में पंप लागे जात बा, 
खेतों में सबके भी हिस्सा दिश्नांत वा, 
दुखिश्रन के अइसे गोहार४ कइल जात वा । कइसे ॥५॥ 


मोतीचन्द सिंह 


आप 'सहजौली' ( शाहपुरपद्टी, शाहाबाद ) भ्राम के निवासी है। आपको कई गीत-ुस्तकें 
प्रकाशित है। 
पूर्वी 


है. 
गलिया-के-गलिया" रामा फिरे रंग-रसिया *, हो सेवरियो लाल+ 
कवन धनि८* गोदाना* गोदाय, दौवो सेंवरियों लाख ॥ 
अपनी महत्तिया भीतरा बोले रानी राधिका, हो सेंवरियो लाल 
हमू!* धनि गोदाना गोदाय, हो सँवरियों लाल ॥ 
छुतिया पर गोद मोरा कृष्ण हो बिहारी, हो सँवरियों लाल 
नकिया** पर गिरिधघर गोपाल, दो सँवरियो त्ञाल ॥ 
हथवथा में यौद रासा सुरली-मनोहर दो सेवरियो लाल 
लीलरा**. पर श्री ननन्‍्दलाल, हो सेवरियो लाल ॥ 
'मोतीचन्द!' कर जोरि करत मिनतिया१3, हो सँवरियो ज्ञाल 
द्र्स देखावो नन्दलाल, दो सँवरियो लाल ॥ 





श्यामविहारी तिवारी दिहाती' 
आप बंसवरिया (बेतिया, चम्पारन) ग्राम के रहनेवाले थे । आप हास्य-रस की कविताओं 
के लिए विख्यात थे। गम्भीर विषयों पर भी आपने अच्छी रचनाएँ की हैं। आपकी “देहाती 
दुलकी! नाम की पुस्तिका भी प्रकाशित हो चुकी है। सामयिकं, राजनीतिक तथा सामाजिक विषयों पर 
आपकी व्यंग्यात्मक सूक्तियों अनूठी हैं। आप दोहा छन्द में भी बहुत अच्छी भोजपुरी कविता करते थे। 
सीख5 

पुरुखन ४ के भुला गइल5, दिलेरी कदाँ से आवो ? 

घोड़ा त$ छुटिये गइल, गद॒दी के सवारी सीख5॥ 

केहू-केहू अह्सन १०बा, जेकरा  *घन-काबू१०झधिका बा 

दून्‌*< बहावे के होखे त& चढे के अटारी"* सीखड ॥ 

एने-ओने*० जदब5*१ त5 पढ़ जहब5 फेरे में 

घर में हफे* के वा त5 चीन्हे के हुआरी सीख$॥ 


॥ छगह-उगहू | २. तह तोड़ना (मुद्दावरा)--एथ्वी का स्तर तोड़ना | ३. कूप, कुमा । 8. पुकार | ५, गषी-गकी। 
६. रंगरसिक | ७. गीत फाटेक!८ सघुन्द्री। ६, शरीर पर छुई से गोदे जानेवाले रंगीन चित्र, जो सुद्दाग के चिह 
माने लते हैं। १०. हम भी। १३६ नाक, मासिका। १६० तत्ुट। १३५ विनती। १४५ पू्षजों । २४, पेसा | १६. जिसको 


१७. वैसव लौर बल-पौरपष १८ दोनों | ३१६ अटारी चढ़ना (मुद्दावरा)--कोंठे पर जाता (वेश्यागमन)। २०. इधर- 
5४र्‌। २१, नाभोगे। २२ प्रवेश करना। 


लक्ष्मण शुक्ल मादक! २४३ 


बबुआ पटना! से अइले, 'तुम-ताम?? में हो गइल मार 
हम त कहते रहनी कि बने के जवारी* सीखड॥ 
बी० ए० त पास कहल5 खेत बिका गहल, 
पहिलहीं कहनीं कि गढ़े के किश्रारी* स्ीख5॥ 
नोकरियो त नइखे मीलत, बोल5 का करब5? 
पाने" बेंचई, काटे के सुपारी सीख5 ॥ 
कुछ ना भीले त का*  करब5, घरे रह5 
डोरी के दाग पर चलावे के झारी० सीख ॥ 
आपन काम छोड़ के, खोजञ्ता लोग नोकरी 
तिलाक<ह5 तोहरो, आजे से लोहारी*४ सीख5॥ 
नया बिश्राह भइदल सासुए महतारी भदल्ी१९। 
गारी सुने के होखे त5 रहे के ससुरारी सीख११॥ 
ना कुछु होई त5 नाच देखे के मिलती त*भ्नू। 
बेकार काहे के रहब5 चल5 क्रेंहारी!३ सीख5॥ 
अब लोग काहे ना पूछी? तोप के डर गइल 
सब अपब ४ छिपाचे के होखे त5 बनेके खद्रधारी सीख ॥ 
तू केहू*+ के केह्‌ू*९* हडव5५१७ जे केहू पूछो? 
नोकरी के सन बा त5 जोरे के नातादारी सीख$॥ 


लक्ष्मण शुक्ल मादक 


आपका जन्मस्थान नगवा (सराव, देवरिया) ग्राम है। हिन्दी में भी आपने रचनाएँ को है। 
आपकी भोजपुरी रचनाएँ सरस होती हैं। सिवान (सारन) के भोजपु री-साहित्य सम्मेलन (सन्‌ १६४६ ई०) 
में आपसे भेरी सेंट हुई थी। वहीं पर आपने निम्नलिखित रचना तत्काल रच कर मुझे दी थी-- 


आपन दसा 


झापन हलिया१< सुनाई कुअर जी१९, केकरा** से करीं हम बयान । 
अरथ-पिसचवा के पलवा२१ से परिके मन मोर भइले मसान॥ 
घरवा से चललीं त तिरिया**फुलइली*3 जात बाड़े सइयाँ*४ लिवान*०। 
कुछ धन पहहें बिदह॒या में सइृयाँ त फगुआ के होहहं ठिकान ॥ 
दूनों बिटियवन*$ के लुगवा*०फटल बा*<,त हमरो उघरि गइली*२१लाज | 
तेलवा-फुल्लेलता के कवन5 चलावे3०, रहले न घरवा भ्रमाज ॥ 
छुन्दिया3" के घरवा के खर-पात डड़ले त खेंढ़्हर बा भितिया३* हमार । 
सोचिया 35 से दिनवाँ हुलम्ह४ होह गइले, त रतिया भइदल बा पहार ॥ 


१, शहरी घोली। २. अपने गाँव के आस-पास के भामीयणों से व्यवहार करने की रीति | ३. बिक गया। ४. कियारी 
गढता (मुद्दावरा)>फेती करने की रीति। ४५ पान द्वी। ६ क्या करोगे। ०. जकड़ी चौरने का जौजार। ८. शपथ। 
९ कोहार का काम | १० हुईं। ११५ ससुराक । १२ मिलेगा दी। १३५ पाढकी ढोने का काम । ३४५ दोष । १४५ किसी 
का। १५५ कोई। १७, हो | १८५ दाज । १६. पुस्तक-णेखक के प्रति सम्दोधन। २० किंससे। २१, पढछे, वश से। 
२२० एल्नी। २३, प्रसन्न हुईं। २७. स्वामी | २५. सारन ज्छि का प$ नगर | २६. छडकियाँ ! २० साढी | रुप, फटी हुई है। 
२६, ज्ञाज उघरना (सुद्दाबरा)-चेपद होना। ३० कौन कहे? ३१० पूछ के छणरवाता ३२% दीपार भी। 
३३. चित्ता, सोच | ३४, दुर्घकय, सुखद्दीन । 


घर भोजपुरी के कबि और काव्य 


कवनो उपहया " जो करतीं कुँझअर जी, पवती जो रुपया पचास | 
बिहँसत घरवा में हमहूँपहठतीर होरिया3 के लिहले हुलास॥ 


चाँदीलाल सिंह 
आप सोहरा (शाहाबाद) आम के निवासी है। आपकी भोजपुरी कविताओं में भजन के साथ 
सामयिक भावों का भी समावेश है। आपकी भोजपुरी रचनाओं का संग्रह “चोदो का जवानी! नाम से 
दूधनाथ प्रेस, सलकिया, हवड़ा (कलकत्ता) से प्रकाशित है। 
भजन 

पिश्च5 रास नास-रस घोरीड, रे सन इहे अरज था मोरी ॥ 

कौड़ी-कौड़ी माल बटोरल, कइल5 लाख करोरी। 

दया-सत्य हृदय में नइख्े», गला कटाइल+१ तोरी ॥ रे सन०॥ 

चीकन देह नेह ना हरिसे, भाई-बाप से चोरी। 

बाँका तन लंका अस जरिहन० कुत्ता साँस नचोरी८॥ रें सन० ॥ 

समरथ बीत गइल चौथापन, लागी तीरथ में डोरी। 

लालच चश में एक ना कटल5९ देह भइल कमजोरी ॥ रे मन०॥ 

बहुत बढ़वल5 घरके खीज्ञत१९, कय्ठा अचरी मनोरी११। 

अबसे चेत, कहेलन १ “चानी” रघुवर-सरन गहो री ॥ रे सन०॥ 


ठाकुर विश्राम सिंह 


आपका जन्म उत्तर-प्रदेश के आजमगढ़ नगर से पॉच मील की दूरी पर स्थित 'सियारामपुरः आम 
में हुआ था। सन्‌ १६४७ इं० में आपका देहावसान हुआ । अपनी पत्नी के देहान्त के बाद आप 
विक्षिप्त हो गय्रे थे और उसी अवस्था में आपने प्रचलित बिरहा छन्द में विरह-गीत बनाये। 
आजमगढ़ के ठाकुर मुखराम सिंह आपके रचे “बिरहों? को अच्छे ढंग से गाते हैं। ठाकुर मुखराम सिंह 
कवि-सम्मेलनों मे जब आपके बिरहों को गाकर सुनाते हैं, तब जनता मुग्ध हो जाती है। आपकी 
कविताओं की उक्त ठाकुर साहब से सुनकर श्री बलदेव उपाध्याय (प्रो काशी-विश्व-विद्यालय) ने 
सिवान (सारन) के अखिल-भारतीय भोजपुरी सम्मेलन में सभापति के पद से कंहा था “विरह की 
ऐसी कविताएँ भुभे संस्कृत-साहित्य में भी नहीं मिलीं? । आपकी भाषा विशुद्ध पश्छिमी भोजपुरी है। 


है (३) 

नदिया किनारें एक ठे चिता घुंघुआले,१3 लुतिया"४उड़ि-डड़ि गगनवा में जाय। 
लहकि-लद्दकि*" चिता लकडी जलावे, धघधकि-धधकि नदी के सनवा"९ दिखाने। 
श्राइ के वतास अगियन के लहरावे,*० नदिया के पानी झपन देहिया हिलावे। 
घटकि-घटकि के चिता में जरत वा सरिरिया "८ नाहीं जानी पुरुष जरे या कि जरे तिरिया१९ ॥ 
चितवा त बइठल एक मनई*० छुखारी अपने अरमनवन+*'* के डारत बादें जारी**। 
कहे 'बिसराम' लखिके चितवन २३ के काम सोर मनवा ई हो जाता बेकाम। 
अइसने चिंता हो एक दिन हसई *४ जरवलीं२०" चही सग फूँकि दिहली श्रापन अरमान |। 


३० उपाय। २. प्रवेश करता । ३ द्वोब्ी। 9. घीलकर्‌। ४, सहीं है। ६, कट गया। ७ जलेगा | ५» नोचेगा। 
६ फिया। २०, खिलकत, घन-दौखत। १३. साडी के जाँच में टेंके हुए आभूषण । १२. कहते है। १३- घुँचुआती है । 
१४. चिनगारी | १४- मल्ज्वज्षित दोंकर | १६. शान । १०. छहुराती हैँ। १८ शरीर । १६६ स्त्री । २०. मनुष्य | २३५ अरमानों 
(पारछाओ) | २० दल रहा है। २३. चिताओं । २४, दम भी । २४ चला चुके हैं । 


बाबा रामचन्द्र गोस्वामी २५५, 


(२) 
आयल बाय दिवाली जग में फहलल" उजियाली, मोरे मनवा में छुवल्े बा* अन्दार5 । 
जुगुर-छुगुर दिया" बर होति बाय अन्हरिया, में तो बहठल्ष बाटीं अपनी सूनी रे कोनरिया ६ ॥ 
अचरा के तरे० ल्षेहके फूल* के थरियवा* गैइयवाँ १० के नारी बारै** चलति बाटी दियवा। 
चारो ओर दियवन के बाती लहराती, मोरे घर में पीटति बाय अन्हरिया अब्बो* छाती । 
गाँव के जवान ले मिठाई झावे घर में, देखि आपन तिरिया त हरस्त"3 बाटे सन सें। 
कहै 'बिसराम! हमके दाना हौ हराम, छखि के कूदृति भीतराँ बा जी १४ हमार । 
सबक त घरनी घर में दियवा जलाबें, मोर रानी बिना मोर घर हौ अनन्‍्दार॥ 

हि (३) 
अइले बसनन्‍्त मेंहकि १५ फइललि"* बाय दिगनन्‍त, भरहया धीरे धीरे बहेली बयारि। 
फूलेलें गुलाब फुले उजरी बेहलिया*० अमर्योँ के डरियन"< पर बोलेली कोइलिया। 
बोलैंले पपीहा मद्मस्त आपन बोलिया, महकि लुटावें श्राप ले बउरे १९ के कोलियारे? । 
उद्दि-उड़ि भवरघाँ कल्नियन पे मंड्राले हठवारं) के संग मिलि के पात लहराले"*। 
बढ़ि के लतवा*४ पेड्वन से लपटाल्ली*डं उड़ि-ठड़ि के खंजन अपने देसवा के जात्ी। 
कहे 'बिसराम” कुद्रति*" भइलि शोभाधास चिरई२६ ग्रावत बाटी नदिया के तीर। 
चलि-चलि बतास उनके*० थद्या*< जगावे, मोरे सनवाँ में उठति बाटी पीर॥ 

() 
शाह गइले जेठ के महिनवाँ ए, भद्या, लुहिया ** ते अब चलेले झककोर। 
तपत बारें सुरण, नाचति3० बाय हुप्टरिया, अगिया उड़ावै चलि-चलि पछुआ-बयरिया3१। 
उसरन 5 में बाढ़े अब बबंडत्ष३%घुसरावत3*देखि के हुपहरिया पंछी नाडनि३"बाटी गावत । 
सूखि गइली ताल-तलई नदिया सिकुड़ली, हरियर उसरौह्दी३९ घास दरिये३० भुकुड्ल्ी ३८ | 
पेड्वन के छाँह चउचा5९ करेल्ले पगुरिया5० गावे चरवहवां१ फेरि-फेरि भ्रपनी मठरियाएँ?। 
झइसने समय में" सरहुज्जा हरिअ्रइले, अउरी४३ हरा भदल बाय बोरो धानर्पड। 
हमरे दुसमन बनके मन दरिश्रदले, हमरा सूखि गइले हे गरब-गियानर ॥ 





बाबा रामचन्द्र गोस्वामी 


आप शाहाबाद जिले के निवासी थे। आपके शिष्य बाबा रघुनम्दन गोस्वामी उक्त जिले के 
बलिगॉव ( डा० आयर, थाना जगदीशपुर ) के निवासी थे । रघुनन्दन गोस्वामी के शिष्य बाबा 
मिखारी गोस्वामी भी उक्त जिले के 'रघुनाथपुर” ( थाना ब्रह्मपुर ) के निवासी थे। ये तीनों ही 
भोजपुरी में कविता करते थे। इन तीनों का समय इंसा के १६वीं सदी के मध्य से २०वीं सदी के 


१. फैली हुरे है। २. घाया हुआ है। ३- जेंचेरा। 8, जगमग । ५० दीप। ९, घर के कोने में | ७, तके, नीचे 
८. पक प्रकार का सच्च बातु । ६. थाती। १० गाँव। ११, जलाने के लिए। १२, अब भी । १३ हर्पित द्वोती है। 
१४, हृदय । १६. सुगन्‍्ध । १६, फोकी हुई है । १०. देला फूल । १८ डालों पर । १६, संजरियों । २०. कोजी। २१५ हवा। 
२२, डोलते हैं। २९. जता । २४ जिपट जाती हैं। २४. प्रकृति देवी | २६. चिडियाँ | २७०. प्रियजन के ! २८. रूटतियाँ। 
२६, लू की पट । ६०, तुपहरिया नाचता (मुद्दावरा)--सुगर॒ष्णा का तर॑गित होना । ३६१. पश्चिमी वायु। ३९. ऊपर 
सूति । ३३५ वात्या-चक्र । ३४. चक्कर काटता है। ३५. कठफोर पक्ती । ३६. कसर में पनपी हुईं। ३०. णहाँ की तहाँ 
(अपनी जगह पर) । ८, मुरका गई। ३६५ 'चतुष्पद । ४०. पागुर, रीमन्‍्थन ' 8१. चर॒वाहे। ४२ मस्तक। ४३ जौर 
४४, पक प्रकार का मौठा घाव, जो नदी के कबाए में उपजता है। ४५. गव॑ और ज्ञान 


२५६ भोजपुरी के कवि और काव्य 


प्रथम चरण तक हैं। इन तीनों के परिचय और रचनाएँ मेला घुमना नामक पुस्तिका* में 
मिली हैं । 
(१) 


बघेया 


भूप द्वारे बाजत बधाई रे, हाँ रे बधाई रे 
भये चार ललनवाँ' ॥ टेक ॥ 
राजाजी लुटावे हाँ अन धन सोनवाँ, 
हाँ झन धन सोनवाँ, कोसिला लूटावे घेनु गाई* ॥ भये चार० ॥ 
ऋँस सुदंग हाँ दुन्दभी बाजे, हाँ हुन्दभी बाजे 
ढोज् संख सहनाई॥ भये चार० ॥ 
घब सखि हिल-मिल मंगज्न गावे, हाँ मंगल गावे 
नयन जल भरी आई रे॥ भये चार०॥ 
रामचन्द्र! हाँ ज्ककन-छुबि निरखे, हाँ ललन छुबि निरखे, 
जुग-जुग जिये चारो भाई॥ भये चार० ॥ 
-( रामचन्द्र गोस्वामी ) 
(२) 


प्रथम पिता परमेघ्तर का ध्यान धरि, लिखतानी सुनु चित ल्ाय मेलाघुसनाउ। 
श्वेत्ञा सिराती मेल्ला, बदरी, मकर आदि करे लागे आगे से तयारी मेलाघुमना ॥ 
मेलवा में जाये खातिरंदूसरा से ऋण लेले बाहर जेसे चलेले नवाब मेलाधुमना। 
अधी",सखमल के तो कोट वो कमोज पहने, राह में चलते अठिलात मेलाघुमना ॥ 
जाइ के दूकान पर पंसा* के पान लेक्षे, पेसा के बीढ़ी हू त5 लेल5 मेलाघुमना। 
घीड़िया धराई० जेसे सु हवाँ में लूका: लाई, इंजन के छु अवाँ डड़ावे मेलाघुमना॥ 
चार जाना आगे भइ्टले, चार जाना पीछे भइले, मेलवा में करे गुणडबानी मेल्लाघुमना । 
लाजो नाहीं लागे तोरा देसवा* के चाल देखि, देसवा में भले बदनाम मेलाघुमना ॥ 
जदइ॒सन इजत"*० तोरा घरवा के बादी सब, घोइसन इजत संसार मेलाघुमना। 
जदसन हाल होला घोषिया के कुकुरा के नाहीं घर-घाद के ठिकान मेलाघुमना ॥ 
अइसने हाल होइ जाह जब तोहर तब, तुहू रोइ करब5 खयाल मेलाघुमना। 
बार-बार बरजत बाड़न 'रघुनन्दन स्वासी,' उन्हकर घर बलिगाँव मेलाघुमना ॥ 
“नरघुननदन गोस्वामी) 
(३) 
नयकवा 

सूतल रदली हम सेंया सुख-सेजिया** से, सपना देखतलि अजगुत*3 रे नयकवा । 

जब-जब सन ॒परे४४ लेना से नीर हरे, थर-थर कॉपेला करेज*" रे नयकवा । 

बेटी अ्रनवोत्षता** के मेंगिया जराई१० कोई, बालू ऐसन मुहर *< गिनात्रे रे नयकवा । 


* प्रकाशक--यावा भिखारी गोस्वामी, रंग कम्पनी, रघुनाथपुर (शाद्राबाद)। जॉजे प्रिटिय प्रेस, काजमैरव, काशी में 
मुद्रित । २. शिशु, चचा। २. कासपेनु । ३. मेला में धूमगैवाला शौकीन पुरुष। ४8. वास्ते | ५. पकप्रकार की मह्दीव 
मक्षमल्। ६* पुक पंसा। ७ जताुकर | ८. उतका! & समाज। १८ स्त्री। ११५० वेस[ही। १२ सुख-शस्या। 
१३६ अड्डू ते १४- मन परना (मुद्दावरा)-बाद पढना। १५४५ कलेजा; हृदय । १६५ अपने विषय में कुछ भी न कट्दनेव[ली 
(बविया)। १० माँग लंजाना (मुहापरा)--विध्वा बनना | १८ अशर्फा। 


कमलाप्रसाद मिश्र विप्र! २४७ 


सु हवाँ में दाँत नाहीं, बरचा? पकल बारे, बुढ़ड के मडरिः पेन्हावे रे नयकवा। 
मदल में बेटी रोवे, बेटा धोड़सारीई रोवे, बाप सुँह करिखा्लगावे रे नयकवा। 
बेटी से कमाइ धन, पंच के खिलावे ऊहदे”, गुप्त पाप दुनिया सतावे रे नयकवा | 
पंच पर गाढ़ परल, छुढ़वा तरसि मरल, नहके' सें गँंवाते रे नयकवा। 
चारों ओर देख के चण्डाज्न के चौकढ़ि त$, मोरा पेट पनियाँ ना» पचे रे नयकचा ! 
ऐसन कुरीति के विवेक से सुधार ना त5, भरत्न सभा में जात<जाई रे नयकवा। 

“(बाबा भिखारी गोस्वासी) 


महेश्वर्प्साद 
आप भरोली ( शाहपुरपद्टी, शाहाबाद ) ग्राम के निवासी हैं। भोजपुरी कवियों पर आपने 
समालोचनात्मक लेख लिखे है। आपके कई लेख 'मिखारी ठाकुरः पर छप चुके है। आपकी 
भोजपुरी-कविताओ का संग्रह तिरंगा? नाम से प्रकाशित है 


माँकी 

हो अन्हड* अइले ना खाली "अकेला, 

पानी के संगेसंगे पथल") के ढेला । 

सरग के बीचे-बीचे बिजली के खेला ॥ हो अन्दृड़० ॥ 
लाल-पीयर बद्री के भइल हवाहेला।* | 

बद्री के नीचे-नीचे बोरो*3 बरेत्ा"5 ॥ हो अन्हृड़० ॥ 
सरग में रंग-रंग के लागत बा मेला | 

दिन भर ले" रात नाहीं ल्ठके१* उजेला ॥ हो अन्हड़० ॥ 


रघुनन्दनग्रसाद शुक्ल 'अठल' 
आप बनारस के रहनेवाले है। आपका उपनाम “अटल? है। आप हिन्दी और भोजपुरी दोनों 
में रचना करते हैं । आपकी एक रचना 'कजली-कौमुदी? १७ में प्राप्त हुई है-- 


कजली 
सावन अरर"< सचउल्ञेस** सोर*० बदरिया झूमके भआाईंना। 
सइयाँ के कुल मरल*१ कमाई, भयल- प्मोहाल- *अधेला-पाई ॥ 
फिकिर परल घोड़वा का खाई, परि जाई तो दिल्ल ना पाई। 
मुनिसपिलटी के मेम्बरन के चढल भोठाईरंड ना॥ 
कल तक रहने+०सुराज बधारत, अरब कुर्सी पठले*भजिड*०जञारत । 
बढ़-बढ नया कानून उचारत, हम गरीब हुखियन के सारत ॥ 
देखठ हो, कानून तोरब, गयल  अकिल बौराई ना॥ 


कमलाग्रसाद मिश्र विग्र' 

श्री कमलाप्रसाद मिश्र (विप्र”ः जी का जन्म-स्थान सोनबरसा ( बक्सर, शाह्ञबाद ) प्राम है। 
विप्र जी मनस्वी और निर्माक रचना करनेवाले आशु कवि हैं। आपने काशी में अध्ययन किया था । 
२६ बाल, केश | २. मौर, विवाह-मुकुठ। ३० अश्वशाक्वा | ४: मुँद्द में कालिख लगाना (मुद्दावरा --कर्वंकित द्वोना ) | 
५५ घही । ६. चाहक, व्यथं ही ७. पेट का पानी पचना (मुद्ावरा)--चैन पाना। ८. जाति, समाज । ६. अन्दढ़, तूफ़ान 
१०, केषला १३, पत्यर, ओल्े। १९० मीड। १३* इन्द्रपनुष) १४५ चसकता है। १५, तक। १६ दीख़ पढता है। 
१७ प्रकाशक--काशी पेपर-स्टोस, चुलानाला, बन[रस । १८ गरज कर। १६. माया २० शोर । २३. नष्ट हुई! 
२०. हुआ २३. दुलंभ । २४, मोटाई 'घढ़ना (सुद्दावरा)--तोंद्‌ बढ़ना शरीर का जावसी द्वोना, विवेक खोना । २४. रहे । 

२६ कुं्ी पाना (मुद्दावरा)--ओदह्दा पाना ! २० जी जाना, सताना। 





श्ध्ष भोजपुरी के कवि और काव्य 


आप हिंन्दी के भी कवि और संस्कृत के विद्वान्‌ हैं। आपकी भोजपुरी-कविताएँ भाषा,भाव; 
चर्णुन-शैली, कप्पना, व्यंग्य आदि की दृष्टि से बहा सच्ची बन पड़ी हैं। 


पन्द्रह अगस्त 
बरबाद भदल जब लाखनि' घर, तबना पर ई दिन आइल बा। 
पन्‍्द्रृहद अगस्त का अवसर पर, घर घर भांडा फहराइल बा ।॥। 


भर भर भर है 
लाहौर० बेश्रालीसई संतावन", आजाद-हिन्द॒ई के प्राण हरण | 
ओह» झमर सहीदनि का बल पर ई स्वतन्त्रता लद्दराइल बा ॥ 


५८ >८ ३८ ८ 
चटगाँव केस<, चौरा-चौरी*, काकोरी*", जलियाँ११, बारदोली-- 
एह सभ बलिदान का लाल खून से ई सुराज रेंगाइल बा।। 


५९ >< ५ 

जेल-डामिल*3, जबती*४, बँत, बूट!", फाँसी, गोली, अपमान, लूट । 

बिपलव से और अहिंसा से, २8 के बान्ह*०खोलाइल बा१< ॥ 
२ 


दादा |! आइल नहरिया११ के रेटर० 
जेठ-असादू बीच आइल अदरा** बरिसल मेघ गरजि पनबद्रा*र। 
खेतवा में डलत्नीं*व्युर-पात-खद्रा* ४ दिन भरि अन्न से ना भइल भेंट, ॥ 
दादा आइल नहरिया के रेट ॥ 
रोपनी** बाद जब चटकल-“बरखा*<८, भइल चोख तब नहर के चरखा** | 
बन्दकी३० घइलीं धोतिया-अंगरखा3१, चढकि3े गइल मोर चेट 33 ॥ 
दादा आइल नहरिया के रेट ॥ 
पुञ्नल्3वधान तब पाटलि३"किआरी, तावनो 5 ध्पर लागलि हा चोरकारी २० | 
खेतिया मरइली3५, इजतिया भारी”*, खेदले*" फिरत बाटे मेठ४१ ॥ 
दादा आइल नहरिया के रेट ॥ 
हाकिम चाहत बा चाउर-धनवाँ, अनर" बिन्ु एने४ंड लाचत परनवाँ ४४ । 
हेंकड्ेंड५ करजडेंरई पोत४» परोजनवॉ४८, पिठिया में सदि गहल४१ पेट ॥ 
दादा आइल नहरिया के रेट ॥ 





३ णाख्रों । ९. उसके फत्तस्वरूप। ३ पंजाब-हत्याकांड | 8. संत्‌ १६४२ ई० का आन्दोलन । ५५ सब १८०५७ ई० का 
विद्रोह । ६५. आजाद-द्विन्द-फौज | ७, उन | ८. चटर्गाँव (परव॑वंग) का क्रान्तिकाशी पद्य॑त्र । £« चौरान्चौरी (गोरखपुर)का 
अग्निकाड। १०. काकौरी-पढ़य॑त्र-केत। ११, अमृतसर का जालियाँवाज्ा बाग। १२ बारदोली (गुजरात) का किसान- 
सत्याग्द। १३. काबापानी। १४. धन-साल की कुर्की | १४६, देशमक्तों पर पुलिस की चूठ की ठोकर। १५. भारतमाता। 
१०७. घन्‍्वन। १८. खोला गया है। १६. न(र। २०, डिचाई का 'कर॒”। २३, आद्रीनक्षत्र । २९ पेसा बादल, जो मास मात्र 
पानी दिठफ फर चह चातो है। २३. डाला। २४, कूढे-कचरे की खाद। २४० जन्न से भेंठ होता (मुद्दावर)-भौजन 
मसीय होना । २६५ घान के पौधे रोपने का काम। २०५ वर्षो बन्द हो गई, रुक गईं | श८, वर्षा। २६, चर्खा चोखा होगा 
(मुद्वावरा) काम में तेजी जाना (नहर-कर की वसूली का तकाजा बढ़ जाना) । ३०. वन्वक रखना । ३१. ( अंगरक्षा ) शैगा, 
छम्या कुत्तों । ३९. ख़ाल्दो हो गया | ३६. अंटी, टेठ--चेट चटकना (मुद्राधरए)-अंटी खाली द्वीना। ३४. सूख गया। 
३५. सींची गईं। ३६. उस पर भी । ३०, विना शत्तनामे के खेत में नहर का पानी आ जाने से लगनैदाबा अधिकाधिक 
5गर्थिक दंड । ६८. भारी गई । ३६. इच्त मारी द्वोवा(मुद्दावरा)--इलत निवदने की आशा न रहना । 2०. खदेडे फिरता है। 
8१ नदर का घपरासी | 2३. अन्न | ४३- इधर (हमारा) । 89प्राण नाचना (सद्दावरा)>-भूख से प्राणों का अत्यन्त ण्याक्ुल 


होना । ४५- गरज्ता है, हुकार करता है ! 2६, ऋण । 2७, माणगुणारी । ४८, पिवाद, श्राद्ध आदि । 2६६ पीठ में पेट सटया 
(मुद्रापरा) >छथा से अतिराय कृश द्वोना। 


रामेश्वर सिंह काश्यप १५६ 
रामेश्वर सिंह काइयप 


आपका जन्म सन्‌ १६२६ ई० में, १६ अगस्त को, सासाराम के नजदीक सेमरा? 
( शाह्बाद ) आम में हुआ था। आपने मैट्रिक की परीक्षा सन्‌ १६४५ ३० में, मुंगेर जिला-स्वृल से 
पास की थी। सन्‌ १६४८ ३० में पटना-विश्वविद्यालय से बी० ए० तथा सन्‌ १६४० में एस्‌० ए० 
पास किया। इन तौनों परीक्षाओं मे आपने प्रथम श्रेणी प्राप्त की थी । 


आपका साहित्यिक जीवन सन्‌ १६४२ ईं० से आरम्भ हुआ था। आपकी भ्रथम हिन्दी-रचना 
हिन्दी मासिक 'किशोर? ( पटना ) में सन्‌ १६४० ई० में हो छुपी थी। सब १६४३ ई० से आपने 
साहित्यनक्षेत्र में प्रसिद्धि प्राप्त कर ली और आपकी कविताएँ तथा अन्य रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं में 
लगातार छुपने लगीं। आप एक विख्यात नाटककार भी हैं। आपका लिखा भोजपुरी-भाषा 
का नाठक 'लोहा सिंह प्रकाशित हो चुका है और जिसकी ग्रसिद्धि आकाशवाणी के द्वारा देश-व्यापी 
हुईं है। आपका हिन्दी में लिखा किशोरोपयोगी उपन्यास 'स्वणरेखा? हिन्दुस्तानी प्रेस, पठना से 
प्रकाशित हुआ है। आप हिन्दी के मी अन्छे नाटककार तथा अभिनेता है। आपके लिखे हिन्दीं- 
नाठकों में ये मुख्य हैं--बत्तियों जला दो, बुलबुले, पंचर, आखिरी रात और रोबठ। इनमें कई 
आकाशवाणी द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर अभिनीत एवं पुरस्कृत हो छुके है। इन नाठकों की 
विशेषता यह है कि ये रंगमंच के पूर्ण उपयुक्त है। 

आप अखिलभारतीय भोजपुरी-कवि-सम्मेलन सिवान ( सारन ) के ससापति भी हुए थे। 
आपकी लिखी भोजपुरी-कविताएँ बड़ी प्रसिद्ध है। भोजपुरी से भुक्त छन्द का प्रयोग जिस सफलता 
से आपने किया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। भोजपुरी में कविताओं के अलावा आपने निबन्ध, 
कहानी, उपन्यास आदि भौ लिखे है। आजकल आप बी० एन्‌० कॉलेज ( पटना ) में हिन्दी के 
प्राध्यापक हैं। 

भोर 


( १) 

गोरकी" बिटियवा टिकुली३ लगा के 

पूरब किनारे तलेया नहा केई 

चितवन से अपना जादू' चला के 

लत्लकी” चुनरिया * के अचरा» उड़ा के 

तनिका< त्षज्ञा, तब बिहँस, खिलखिला के 
नूपुर बजावत किरितियाँ" के निकलल्ञ, 
अपना अठारी के खोललस"" खिरिक्रिया१*, 
फैलल .. फजिर* के अनोर१३।॥ 


( २) 
करियक्की*४ बुढ़िया के डेंटलस३०, घिरवलस "४ 
बढ़िया. सहम के सोटरी डउठबल्लस)७ 








कल 


३. गौर वर्ण की! २, विटिया, छ़डकी । ३- छल्ताठ पर कगाये जानेवादी बिन्दुल्ी । 8, स्तान करके। ४५ छाज रंग की । 
३. चुन्द्री। ७. आाँचल । ८. जरा-सा | ६ किरिण । १०. खोल दी । १३- गवाक्ष, खिंढकी । १२५५ उषकाल । १३, प्रकाश । 
१४० काढी । १६. डाँट-डपृट किया। १६५ चेतावनी दी । ३७. उठाया। 


!६० भोजपुरी के कवि और काव्य ' 


तारा के गहना समेटलस" बेचारी 
चिमगाहुर*, उरुआउ, अन्हरिया: के संगे 
भागल" ऊइ खँड़्हर के ओर। 
( ४३ ) 
झस७» डतपाती* ई* चंचल बिटियवा)% 
भारी कुलच्छुन** भइल ई घियवा'र 
झाफत के पुढ़िया)5, बहेंगवा के ठादीरडे 
मारे. सहक" के हो गइल ई माटी*६ 
चिरइन१७ के खॉता१< में जा के उडवलस* 
सूतल*० मुरुगवन** के कसके** डेरवलस 3 
कुकद कू. कइलन बेचारे चिहा*ई के, 
पगद्दा" तुड्वलन*९ सुन के, डेरा के)५१-- 
ललकी-गुलाबी बद्रियन*< के बछुरू** 
भगले३" असमनवॉ १ के ओर। 
( ४) 
सूतत कमल के लागल जगावे 
भेंवा के दल के रिकावे, बोल्ावे 
चंपा चमेली के घूघट हटावे 
पतइन ३3, फुनुगियन33 के झुलुआ3४ सुलावे 
तलेया के द्रपन में निरखेले मुखड़ा 
कि केतना३" बानी3* हम गो२३०। 
(५) 


सीतल पचन के कस के लखेदलखस३3< 
भाड़ी में, फुरसुट में, सगरो3१ चहेदलस ४० 
सरसों बेचारी जवानी सें मातल 
डूबल  सपनवा में रतिया के थाकल 
ओकरएर) पियरकी ४ चुनरिया ऊ घिंचलसरेंड 


बरजोरी*४ लागल बहुत आुदगुदावे, 
सरसों बेचारी के अखिया से ढरकलरें५ 
ओसवनप+३ के, मोती के लोर*+ | 





१० समेठ फिया। २. चमगांदड़ (चमंपत्रा)। ३. उ्ूक। 8४ जँयेरा | ४५ सांग गईं। ६. पद | ७ ऐसी | ८ उपद्रवी। 
६. यहू। १० फ़ह़की | ११, देशडर, जशुस दक्षणदाज्णी । १२ कन्या । १३५ तेजस्विनी, जाफत की पुडिया (मुद्दावरा)। 
१९८ यहेंगया फे ठाटी (मुद्वावरा)--निरंदु॒श । १४ शोर । १६५ मिट्टी होना--(मुद्दावरा) चरवाद द्वोना | १० चिडिया, पत्ती । 
१८५ घधोसण। १६. उड़ाया । २०. ठोये हुए। २३. मुर्गे, हुक्द्ुट । २२. जोर से | २३. ढराया। २४, जाश्वयंचकित होकर । 
२४८ प्रगह, पचा। २६५ तोड़ दिया। २०. दर कर। २८: बादणों के। २६. वत्स, बच्चे। ३०० माग चले । ३१, आाकाश।ा 
६+ पत्ते । ३६. दुनियां के अप्रभाग । ३४, भूठा। ३५. फ्तिना! ३६. हैं। ६७. गौर वर्ण की। ३८५ खदेढा | ३६५ सब 


ऊगहू। ४० पीया फिया। ४१५ रसफ़ी । ४, पीछे रंग फी। ४३. खीच दी । 82, जबरदस्ती । ४४५ गिर गया। ६६. जोस, 
तुद्विद-बिन्दु । ४० सन्न । 


शमनाथ पाठक 'प्रणयी' “२६१ 


( ६) 
परबत के चोदी के सोना बनवलस" 
समुन्द्र के हल्फा* पर गोदा चढ़वलसड 
बगियन-बगदइचन* में हतला मचवलस" 
गर्वई९, नगरिया के निंदिया नसवत्स* 
किरिनियाँ के डोरा के बीनल<“ अँचरवा , 
फैले. लागल चारों. ओर। 
( ७) 
छुप्प पर आइल, ओसारा* में चमकल 
चुपके से गोरी तब अंगना में उतरल 
लागल खिरिकियन से हंस - हँस के माँके 
जहेँ वा*? ना ताके** के, ओहिजो१* ई ताके 
कोहबर*3 सें सूतल बहुरिया चिहँक के 
लाजे इंगोरा*४ भइल, फिर चुपके 
अपना सजनवाँ से बहियाँ छोड़ा के 
ससुआ - ननदिया के अखिया बचा के 
घंइला+५ क्रमरिया१९ पर धर के ऊ भागल 
जल्दी से पनघट के ओर। 


रामनाथ पाठक '्रणयी' 


आपका जन्म शाहाबाद जिले के 'धनलछूहों? प्राम में सन्‌ १६२१ ई० में हुआ था। आप संस्कृत- 
भाषा के साहित्याबार्य और व्याकरणाचार्य को परीत्षा में उत्तीरों हो चुके हैं। आप सन्‌ १६३३ ६० से 
ही भोजपुरी में रचनाएँ करते हैं। आप काशी से निकलनेवाली 'भारत-श्री) और “आरा? से प्रकाशित 
होनेवाली 'प्राम-पंचायत-पत्निकाः के सम्पादक भी रह जुके हैं। आप संस्कृत भ्रोर हिन्दी के भी 
अच्छे गद्य पद्-लेखक के रूप में प्रसिद्ध हैं। इसके अतिरिक्त आपकी भोजपुरी-भाषा की कविता- 
पुस्तकें भी संग्रह के रूप में प्रकाशित हैं, जिनमे 'कोइलिया,' 'सित्तार', 'पुरइन के फूल” आदि हैं। 
आजकल आप एक सरकारी बुनियादी शिक्षण-संस्था में अध्यापक हैं । 


पूस 
झइल पूस महीना, अगहन लवदटि गइल . मुसुकात 
थर-धथर काँपत हाथपेर जाडा-पाला के पहरा 


निकल चलल घर से बनिहारिन१७ ले हँसुआ मिनसहरा'५ 
घरत धान के थान"* अंगुरिया ठिद्वरि-ठिदुरि बल खात 
आइल पूस मदह्दीना, अगहन लचदिे गहल . सुसुकात 
डोवत बोरा हिलत बाल" के बाज रहल पेजनियाँ 
खेतन के लछ्चिमी खेतन से उठि चलली खरिहनियाँ२१ 


१, बनाया | २६ रहर । ३. गोटा-किनारी चढा दी ! 8. वाग-वगीचे | ५. शोर मचाया। ६ घोटे गाँव । ०. वरवाद 
किया। ८. बुना हुआ। ६. घरामदा । १०. जिंस जगह । ११. देखना। १२. वहाँ भी। १३. दुदद्वा-दुलद्विन का शयन-यृह्‌। 
३४. ज॑ंगार । १५. घढ़ा । १६. कमर | १०. खेत मजदूरिन | १८. उपः काल से पूर्व की वेढा । १६, घान के पौधे के गुच्चे 
की जड़ । २०, धान की चाल (फर्तियाँ) । २१. ख़तिद्वान में। 


२५६२ भोजपुरी के कवि और काव्य 


पड़ल' पथारी* पर छुगरी? में लरिका्ं वा छेरियात" 
झाइल पूस महीना, अगहन लवबदि गईल  सुसुकात 
राह-बाट में निहुरि-निहुरि नित करे गरीबिन९. विनिया७ 
'हाय ! पेट के आग चुरा छोे भागल सुख के निनिया६ 
पछाक गिरत उड़ियात* फूस दिन हिम-पहाड़. बढ़ रात 
आइल पूस महीना, अगहन लवदि गइल  सुसकात 
हाहस१० उठल जब गहुम-बूट*) रे, लहसल्ष* सटर-सधुरिया* डे 
बाज रहल तीसी-तोरी पर छुवि के भीठ बेंसुरिया 
पहिरि खेसारी के सारी साँच. गोरिया.श्रैंठिल्ञात १५ 
झाइल पूस महीना, अगद्नन लवदि गइल  सुसुकात 
चैत 
आइल  चैत महीना, फागुन रंग उड़ा के भागल"१३ 
गह-गह रात भदल कुछ रहके)० टह-टह डगल ऑजोरिया4, 
सुनन्‍-सुन के गुन-गुन मँवरा के मातत सॉँबर गोरिया, 
कसमस चोली कसल, चुनरिया रॉगल, समकल?१ छागल*० 
आइल चेत महीना, फागुत रंग उड़ा के भागल 
खिलल रात्र के रानी बेली, चस्पा, विशेसल बगिया', 
भरल फूल से झूलछ रहल महुझआा के लाल फुनुगिया, 
सिनसहरा के पहरा पी-पी रटे पपिहरा जछ्ागल 
आइल चेत सहीना, फागुन रंग उड़ा के भागल 
धर के भीतर चिता सेज के सजा रहल बिरदिनियाँ, 
आँगन में गिर परल** पियासे*३ आन्हर* भइल हरिनियाँ, 
पछुआ*" के ललकार पिछुती** बँसवारी** में. जागल 
आइल चैत महीना, फागुन रंग उड़ा के भागल 
सिहर-सिहर रोऑँ२८ रह जाता हृदर-हृदर के दियरा, 
हाय ! लदर पर॒ लहर -डठत बा जरल जवानी-द्यिरा*१, 
गली-गली में चेता३० गावत लोग सदत्त बा पागल 
आइल चेत महीना, फागुन रंग उड़ा के सायल 





मुरलीधर श्रीवास्तव 'शेखर' 
आप चौसा ( शाहावाद ) के निवासी हैं। आजकल छपरा के राजेन्द्रकालेज में हिन्दी-विभाग के 
अध्यक्ष हृ । आपका उपनाभ शेखर? है। आप हिन्दी के भी कवि, निबन्धकार, आलोचक तथा वक्ता हैं। 
हिन्दी में आपकी कई अन्छी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। आपको भोजपुरी-कविताओं की भाषा 
पूर्रो परिप्कृतत है। 

६, पड़ीहुई। २. सेन में कटे हुए पान के पीधे, लो सूकने के लिए पलारे जाते हैं। ३. पुरानी गन्दो-फटी खाढ़ी। 
९ थया । ५. रीता हँ। ६. गरीव जौरत । ७, ख्ेन और रास्ते में गिरे घान को चुनने का काम । ८. नींद्‌ । ६. उड़ चांता है। 
१०. हरा-मरा द्वोना। २१६ जीं-गेहूँ-चता। १२. हरा-मरा हुआ । १३. मठर और सथुरी। २४. साड़ी । १४. इठक्ाती हुई। 
१६. माय गण । २५, थोड़ी देर बाद । १८. चाँदनी | १६, कम्म से वचा। २०. नुपूर । २१ वाग में। २२. गिर पढ़ा। 


४६, प्यास के मारे। २४ जन्ध २४ परिचनी हवा! २६. घर के पिचवाडे। २० याँसों की काड़ी । २७ रोम। 
३६ दीप । ६०, चेत्र मास में याया लानैवाता पक प्रकार का गीत । 


विश्वनाथ प्रधाद 'शेदा* २६१३ 
गीत 


(१) 

भोर के घेरा । 

छिटकलि* किरन, फटल पौ नभ पर खिललि अरुन के लाली, 
खेलत चपल सरस सतदल पर अलिदुल छुटा निराली। 
छित* के छोर छुवेला कंचन, किरन बहे मधु-धारा, 
रोम-रोम तन पुलक भइल रे कॉपल छुबि के भारा। 
नया सिंगार साज सज आइलि आज उसा3 सुकुमारी, 
किरन तार से रचल चित्र बा मानों जरी किवारी। 
भोर बिभोर करत सन आनंद गइल थाकि कवि बानी, 
छुबि के जाल मीन मन बारूलड भहल उसा रसखानी। 
तार किरन के के बा" बजावत सुर भर के नभ-बीना, 
ताल रहे करताल बजावत जल में लहर प्रधीना। 
उमड़ल कवि के हृदय देखि के सुन्दर सोन* सबेरा, 
भदल गगन से कंचन बरखा ई परभात के बेरा*। 


(२) 

हम नया दुनिया बसाइब< 

हम नया सुर में नया ज्ुग के नया कुछ गीत गाइब१ 
(३) 

बढ़ रहल जग प्रगति-पथ पर गढ़ रहल नव रूप सुन्दर 

हम उदह्दे संदेश घर-घर कंठ निज भर ,के सुनाइब"९ 
(२) 

भेद के दीवार तोड़्ब श्रीत के सम्बन्ध जोड़ब 

भावना संकीर्ण छोड़ब खुद उठब, सबके उठाइब"१ 
(३) 

आज समता भाव जागल शझाब बिसमता दूर भागल 

स्नेह ममता नीक लागत दम जगब"९, जगके जगाइब" 3 


विश्वनाथ असाद शेदा' 
आपका जन्म-स्थान डुमरॉव (शाहाबाद) है। आपको बचपन से ही लोगों ने 'शैदा” कंहना शुरू 
किया। १५ वर्ष की अवस्था में ऐय्ट्रंस-परीक्षा पास करके आपने सरकारी नौकरी शुरू की । आपने 
टेलीमराफी सीखीं, एकाउण्टी सीखी, टाइप करना सीखा । अन्त सें आप आजकल ड्मरॉबव के ट्रेनिंग- 
ख्ल में शिक्षक हैं। आपको पुरानी कविताएँ बहुत कएठस्थ है। आपकी भोजपुरी की रचनाएं 
सुन्दर और सरस होती हैं । आप एक अच्छे गायक भी हैं। 


१५ घिठकी, चिस्तरी। २० क्षिति, पृथ्वी। ३. उषा। 8. पीठ ग़या। ४. कौम है। ६६ सोना, स्वण | ७, वेज! 
८ घसाऊंँगा। ६. गादंगा। १० चुनाऊंगा। ११, उठाऊँगा। ३२ जयूगा। १३५ जलगाढंगा। 


२६४ भौजपुरी के कवि और काव्य 


(१) 
कजली 

रहलीं करत दूध के कुर्ला*, छिल के* खात रहीं3 रसगुरला, 
सखी हम त खुल्लम-खुल्ला, झूला कूलत रहीं बुनिया<ं-फुडार में, 
सावन के बहार में ना। कूला ऋूलत रहीं ०। 

हम त रहलीं टह-टह" गोर*, करत रहलीं हम अनोर०, 
भोरा अँखिया के कोर, धार काहाँ अइसन तेग बा कठार में, 
चाहे तलवार में ना। कूला-मूलत रहीं० ॥ 

इँसली: वमकल मोरा दाँत, कहलस* बिजुली के मात, 
रहे अइसन जनात?०, दाना काहाँ अदसन काबुली अनार में, 
सुघर कतार"९ में ना। सूला-फूलत रहीं० ॥ 

जब से आइल सबतिया"* मोर, सुखवा लेलसि?3 हम से छोर, 
भरे अखियाँ से लोर ४, भहया सोर परल बा" 'शैद? माहाधार में, 


9०4 


सुखचा जरल भार १९ में ना। भूला-सूलत रहीं० ॥ 


(९) 
बागे बिहने*० चले के सखी, जदृह5 मति मूल । 
कइसन सुधर लगेल्ाा*८, जब भरि के गिरेला, 
सखी, फॉड्१९ में बिने*" के मवलेसरी*१ के फूल । 
बागे बिहने चले के० ॥ 
झुर-सुर**, बदेला बेयार, कहसन परेला*3 फुद्दार, 
सखी, घरे ना चले के मन करेला कबूल । 
बागे बिहने चले के० ॥ 


डरे 
जोन्दरी*" भुजाबे घोनसरिया** चलीं जा सखी । 
जोन्हरी के लावा जइसे जुद्दिया के फुल्नचा, 
भू जत भरेले*० फुलमारिया। चलीं जा सखी० ॥॥ 
काहहु*< से ना कक्ष मोरा तनिको परत बा, 
देखली*९ हाँ एको ना नजरिया | चलीं जा सखी०।। 
हाली-हाली3 "चल्ु ना3त ननदी जे देखि ल्ीही3२, 
बोली३4बोले ज्ञागी ऊ जहरिया3४ | चल्नीं जा सखी०॥ 
भन-भन बखरी3५ करत बा तू देख ना, 
सइल बाटे ठीक3१हुपहरिया३० । चली जा सखी० ॥ 
चुनरी सइल होले सखी घोनसरिया में, 
हिकदानत उड़ी-उड़ी गिरेला कजरिया3५ | चलीं जा सखी० ॥ 

३२ दूध का डृदता करना (वुद्यवरा)--अतिसुझ भोगना । ९ तराश कर । ३. खाती थीं (रसगुज्ता छील कर खानां:८ 
आनम्दोपभोग में अतिशयता) । ४. चुन्दी (वर्षी)। ५, धपथप। ६. गौर वर्ण । ०, प्रकाश) ८. मैं हँसी । ६. किया। 
3०. जान पड़ता था। १६. पंक्ति। १९. सीत, सपत्नी । १३. लिया | १४. आँसू। १४, पढ़ गया है। १६५ भाड़ । १७. भोर 
में दी। ६८६ तगता है। १६. छं॑चक् । २०, चुनेंगी। २१. मौडिश्री, पदुछ । २२. सन्द-मन्द्‌। २३५ पढता है । २७, करता है। 
२५, मकई और याजरे फी छाति फा एक जन्न । २६. साठ, भठम'ले का घर। २७ भढ़ती है। २८, गठ दिवस । 
६६ देखा ६। ६० छर्दी-दफ्दी । ६१, नही तो । ६९. देख छेगी। ३३. चोली वोण्मा ( मुद्दावरा )ब-ताना कंछता। 
६४५ एपरीए । ६४६, एपेडों, सफ़ान । ३६. मध्य । ३०. सप्याह ( भ्ोष्मफाक्ोत ) । इ८, काछिख । 


मूसा कलीम श्५्‌ 


चुनरी में दाग कहीं सासुमी देखीहें त5, 
झूठ कह दीहन ४ हे । चल्लींजा* सखी० ॥ 
२ 


किसान 

भइया [ दुनिया कायस बा3 किसान से। हो भइया० 
तुलसी बबा के रमायन में बाँच5४, जाहिर वा सास्तर”-पुरान से। 
भारत, से पूछ, बेलायत* से पूछ, पूछुड ना जमंन» जापान से । 
साँचे८किसान हवन *, तपली-तियागी १० , सेहनत करेलें जिव-जान से । 
हो भहया | हुनिया बा कायम किसान से ॥। 
जेठो में जेकरा के खेते में पहदब5, जब बरसेले आगि असमान१"१ से। 
हो भइयाणा 
समकेला **भादो जब चसकी बिजुलिया, हटिह ना तनिको * शसचान से 
भटइया, पूसो में माघो में खेते ऊ**सुतिहें।",डरिहें ना सरदी-तुफान से । 
हो भइयाणा 
हुनिया के दाता किसाने हृवन जा१९, पूछु$ न। पंडित महान से। 
2 हो भइया०॥। 
गरीब किसान आज भूखे मरत बा, करजा१०७-गुलामी-लगान से । 
हो भइदयाणा 
होई सुरान त5 किसान सुख पहहें, असरा"८ रहे ई१९ जुगान*० से 
भारत के 'शैदा'! किसान सुख्ध पावसु बिनवत बानी*१ भगवान से । 
हो भइया०णा 


। मूसा कलीम 
आप छुपरा शहर के हिन्दी. उदू' और भोजपुरी के यशस्वी कवि हैं। आपकी कविता 
बड़ी सुन्दर होती है। आप अपनी भोजपुरी कविताओं को अच्छे ढंग से गाते भी हैं । बहुत प्रयत्न 
के बाद भी आपकी विशिष्ट रचनाएँ नहीं मिल सकीं। बिहार-राज्य के प्रचार विभाग में आईं 
रचनाओं में से कुछ पंक्तियों दी जाती हैं-- 
गीत $ 
हुसमन भागि. गइल, देस अजाद भइल 
आव5. मिलि करीं ई कांस हो 
कायम रास-राज हो ॥ 
देस खातिर जिहीं-मरी**, संकट से आव5 लड़ीं 
बइटी से*3 रो के रही, डूबि जहहें देश के लाज हो 
पु कायम राम-राज हो ॥ 
बंढ़ु5 बढ5 बढ5 आगे, मरद्‌ ना पाछे भागे 
केतनेहेँ *व्घाटा लागे, गिरे मत दु$ देसवा के ताज हो 
कायम राम-राज हो ॥ 
+ ३. पति या शुरुचन के-द्रवार में। २. हमकषोग साथ चढें। ३. दै। 8. पढ़ो । ४. शास्त्र । ९. इंगजैंड। ७. जमेनी। 
८ सचमुच | ६, हैं। १० ध्यागी। ३११० जाकाश | १६ स्मामम पान्ती बरसता है। १३५ थोडा भी। १४५ वे (किठान)। 
१६, सोते हैं। १६, हैँ। १०० कर्ज, ऋण । १८५ आशा । १६ यह । २०, युगों से | २१. विश्वती करता हूँ । २९ जियें और 
सरें। २३५ वह । २४७, कितना भी 


२६६ भोजपुरी के कवि और काव्य 


शिवनन्दन कवि 

आप मौजमपुर ( बढ़हरा, शाहाबाद ) ग्राम के निवासी थे। आप राष्ट्रीय विचार के आशु- 
कवि थे। आपकी वर्णनःशैली बहुत सुन्दर, सरल तथा जन-प्रिय होती थी। आप सन्‌ १६४२ ईं० 
के राष्ट्रीय आन्दोलन तथा उसके पूर्व के विश्व-युद्ध के समय अपनी रचनाओं के लिए विख्यात हो 
गये ये। आपकी कविताओं पर सामयिक पत्र-पत्निकाओं में कई लेख निकल चुके हैं। आप 
नमैखारी ठाकुर! की कोटि के कवि माने जाते हैं। 

युद्ध-काल में कवि कलकत्ता-प्रवासी था। जिस समय कलकत्ता पर जापानियों ने बमबाजी की थी, 
उसी समय का एक वर्णन नौचे दिया जाता है-- 
अब ना बाँली" कलकाता, ब्रिधाता सुनल्$ ॥ टेक ॥ 
घनि*  जरमनी-जपान, तुरलसि* बृटिश के शान 
हिटलर के नाम सुनि जीब घबड़ाता, बिधाता सुनल$॥ 
सिंगापुर जीतकर , बरसा रंगून जीतकर , 
आई के पहुँचल कलकाता , बिधाता सुनल5॥ 
कलकाता में गुजारा नइखे, पहसा-कौड़ी भाराई नहखे , 
सताइस वन के बस पटकाता", बिधाता सुनल5॥ 
नगर के नसरूनारी, रोवतारे पुक्का फारी९, 
छूटि गहले बँगला के हाता*, बिधाता सुनल्5॥ 
जाति के बंगाली भाई , छोड़ नगर बाप व भाई 
संग में लुगाई ले पराता<, बिधाता सुनत्न5॥ 
बढ़े-बड़े मरवाड़ी, छोड़िके दोकान* बाड़ी 
अपना मझुलुक)" भागल जाता , बिघाता सुनल$॥ 
चटकल”११ छोड़े कूली, आगा** अवरू काबुली 
छोड़ि के भागेले बही-खाता, बिधाता सुनल5॥ 
कतने हिन्दुस्तानी*३, छोड़िके भागे दरवानी , 
कतनो*४ समुझावे हित-नाता*", बिधाता सुनल्$।॥ 
उड़िया वो नेपाली, छोड़िके भागे भ्रुजाली"१९, 
धोबी छोड़े गद॒द्दा, डोम छोड़े काता*०,बिधाता सुनत्न5 ॥ 
लागल बाटे इहे गम)*, कहिया ले** गिरी बम? 
इहे गीत" सगरो** गवातार, बिधाता सुनत्ञ$॥ 
टिकट कटावे बेरी*5, बाबू-बाबू करी रेहीरेड, 
तबहूँ” ता बाबू" के सुनाता,, बिधाता सुनत्न5 
आफिस, घर अबरू बाड़ी, मोटर अवरू घोड़ा-गाड़ी 
सब काला रंग में रंगाता, बिधाता सुनत्ञ5॥ 
रोशनी हो गदल कम, शहर भर में भइल तसम 
घोरडाकू करे उतपातारे०, बिधाता सुनलड॥ 


मनन मर पल ज लि लिप लक 
१. बषेगा। २. धन्य | ३. तोड दिया। ४ रेक-साढा । ५. पटका जाता है ६ पुक्‍्का फाड़ कर (रोना) । ७. सूबा, 
प्रारा। 5. मागा जाता दै। ६. दूफान । १०. मुक्क, देश। ११ पाट को सिक्त। १९. अफगानिस्तानी, जो सूद पर रुपये देने 
या व्यवसाय पन्‍्ते हैं। ?३. दिद्वार जीर उत्तरप्रदेश के लोग । २४. कितना भी । २४५ कुटुस्बी। १९. नेपालियों की कटारी। 


१ 
१५ यसि याटने यी फत्तरी । १८, चिन्ता । १६ कवकत। २०, चची । २३, सर्वत्र । २२ गाया जाता है | २३५ समय, वेजा । 
२४ एुणार | २५, तय भी । २६. टिफ्ड देनेयाज़ा। २७ उत्पात । 


ऋिण-न्‍न- 


अजु नकुमार सिंह अशान्त' २६७ 


बम गिरे धसाधम, जीतिए के" घरी दम, 
खइला$* बिनु लोग मरि जाता , बिधाता सुनलड॥ा 
कलकाता पर परक्ष दुख, केहु के ना बाटे सुख , 
'शिवनन्दन” कवि भागे में शरसाताए, बिघाता खुनल$॥ 


गंगाग्रसाद चोबे '(ुरदंग 

आपका जन्म स्थान सिकरिया ( रघुनाथपुर, शाहाबाद ) है। आप अधिकतर प्रचार-साहित्य 
लिखते हैं। राजनीतिक चुनाव के अवसर पर आप जन-भाषा में भोजपुरौ-कविता करके प्रोपगेंडा 
करते हैं, जिसका असर जनता पर अच्छा पढ़ता है। 

बुदझ बाबा के बिआह 

लालच में परी" बाप बुढ़ बर खोजेल्ाा*, जेकर उमर दादा के समान दे। 

करिया०»-कलूट बर कोतह-गरदुनिया< हो, नाक त चिपरिया* के साँच*० हे ॥ 

भुंह चभुलावे)) बनभाकुर** समान हो , ओोठ त5 भलुइआ के जानु"ढे । 

मोच्छु छेंटवावे बर बने चौदृहवा+" के , ताके** जइसे भड़कल"० सियार है ॥ 

केस के सिंगार देखि बिलाई सुसकात बाड़ी, हांडियोले*: बढ़ल बा कपार हे । 

चसमा लगावे दुलद्दा लागे भटकोंबा** मुंह, चले ऊँट डडकत*" चाल है॥ 

कत बरनन करें ब्रह्मा उरेहे*. रूप, बनलो जतरा बिगद़ाई “है । 

आज से त5 बरवा के दाढ़ न दरदिया* «हो, ओहू जनम*४ भक्त ना विश्वाह हे ॥ 


अजु नकुमार सिंह अशान्त' 

आप सारन जिले के (पुराण-प्रसिद्ध दक्षप्रजापति के गंगा-तटस्थ प्राचीन गढ़, अम्बिकास्थान ) 
आमी ग्राम के रहनेवाले हैं। इन दिनों आप पुलिस-विभाग मे हैं। 

आपने खड़ीबोली एवं भोजपुरी में समान रूप से रचनाएँ की हैं। किन्तु, आपकी लोकप्रियता 
भोजपुरी रचनाओं के कारण ही है। आपके भोजपुरी गीत सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित और 
आकाशचाणी-केन्द्रों से प्रसारित होते रहे हैं। बढ़े-बढ़े कवि-सम्मेलनों में आप सम्मानित तथा 
पुरस्कृत हो चुके हैं। कविवर पंत ने एक बार आपकी भोजपुरी-कविताओं के सम्बन्ध में लिखा था--- 
“अशान्त जी ने भोजपुरी के ललित, मधुर ममस्पर्शी शब्दों को बाँधकर गीतों में जो चमत्कार 
उत्पन्न किया है, उसे सुनकर जनता मंत्रमुग्ध हुए विना नहीं रहती"? आपकी भोजपुरी-कविताओं 
का संग्रह “अमरलत्तीः* नाम से प्रकाशित हो चुका है। आप परिष्कृत भोजपुरी में 'बुद्धायन” नामक 
एक ललित और सरस काव्य-प्रन्थ लिख रहे हैं। 

(१ 
ऋतु-गीत 
कुहुकि-कुदुकि कुहुकावे*५" कोइलिया,  कुहुकिकुहुकि कुहुकावे । 
पतमकड़ आइल, उजड्ल़ बगिया मधु ऋतु में दुसिझ्लाइलर६ फुनुगियार ७ 

. ३. जीत कर दी। २ दम घरणा ( मुहापरा )-चेन पाना । ३ भोजन । 8 लजाता है। ५, पढकर। ६. खोजता है। 
७० काला । ८: त॑ग गरद्देनवाढ्वा। & गोबर का सूखा उपक्षा। १० साँचा। ११५ प्रोषद्ा मुह पगुराता है। १९. बनोढा 
जन्तु । १६५ भालू । १४७. जानो | १४५ चौदह वर्ष का । १३ देखता है। १७० सढका हुआ। १८. दहाँडी से भी। १६. मकोय- 
फक २०, उद़कती हुई बात । २१. सिरजा है। २२. बियाड देता है। २३. द्वाड में हृतदी ढंगना ( मुहावरा)-बव्याह 
द्वोना। २४, उस (ग्) जन्म में भी । # प्रकाशक--अशोक प्रेउ, पटना--६ । २४५ घा-घत्ाकर रुषाती है। २६५ टूसा खगना । 
२७, कोमल किसलय | 


श््प भोजपुरी के कवि और काव्य 


इन हरियर-हरियर). पलइनर में, सुतल सनेहिया३ जगावे कोइलिया ॥ टेक १ 
खिसिकलर् मधु-ऋतु उठल बजरिया" चुबल कांच, भर गइल सॉजरिया५ 
पद्चिया८ सरकि*. चल्ले तलफे भुझुरिया१० देहिया में अगिया लगावे कोइलिया॥ टेक॥ 
भुर्तलात गइल दिन, अरँसी११ के रतिया बरसे फुहार रिमक्रिम बरसतिया* 
करिया बदरवा के सजल करेजवा में, चमकि बिल्ञुरिया ढेरावे कोहलिया॥ टेक ॥ 
उपरटि१३ गइल भरि छिछुली पोखरिया, बिछुलीडं भटक किंच-किंचर*५ डगरिया रु 
सूनी बेंसवरिया "९ सें धोबिनी*० चिर॒इयाँ घुधुआ< पहरुओआ जगावे कोइलिया ॥ टेक ॥ 
आइल शरद्‌ ऋतु उगल्न*९ अँजोरिया*०, दुधवा में लडके** नहाइल नगरिया। रु 
सिहरी गइल सख्त छुतिया निरखि चाँद, पुरवा कटकि** सिहरावे कोइलिया ॥ टेक ॥। 
ठिद्रि शरद ऋतु ओोढ़ले दोलइया२३ केकुरी*४ कुहरिया** में फटेला सप्ततया 
सींगल उमिरिया* ९, जड़्इया*०के जगरम*< अइसन सरदिया* मुआवे3० कोइलिया ॥ टेक ॥ 
सरसो, केरदया3१, सनइया5* फुलाइल भिर-मिर-मिदिर शिशिर ऋतु आइल 
सल्िया33 गुजरि गइल, तबहूँ ना हलिया5४, पुरुष मुलुकवा से आधे कोइलिया ॥ टेक *। 
(२) 
बिरहा ( विधवा-विलाप ) 


जिये के जियत बानी5५, चाहीं ना जिए के हम 
अब बाटे जियलजरे पहाड़। 


१ 
रतिया*७ के बंद 'ॉलीड८ के गगरिया 
कि बहे असरितवा3ः के धार, 
फजिरे*" के लल्॒की४१ टिकुलिया३? में लदरत्त 
सुतल॒ सनेहिया*3 हमार ॥रटैका 


(२) 
हमर करमवाँ ४४ में नाहीं अमरित*" बाट़े 
नाहीं बाटे टिकुली-सिंगार 
जहिया*९ से इुबल5 नयनवाँ के जोतियाई७ 
कि हमरो सरगवा४< अन्हार४९ ॥टेका। 
(३) 
सुन्नर०” भवनवाँ सुहृशधवा के रतिया 


भूतवा के सइल वा बसेर"१ 
माँगवा के ललकी लक्रिया५* मिटाइल 


रहते करमवाँ के फेर ॥ टैक ॥ 


३. हरे-भरे। २. पहजवो। ३. प्रेम। 8. चीत गई। ४, वाजार उठाना (मुद्दावर)--पआरकृतिक दृश्यों का उचढ़ जाना । 
& महुए का पृ। ७, आम्र-मंदरी | ८. परिचिमी हवा। ६, रूखे ढंग से। १०. तप्त घूलि। ११. ऊसस (ऊप्मा) 
१६ बरसात १६. उफ्ना गई। १४. फिसतन। १४. पंकिण। १६. चाँस वे काडी । १७. पक पक्ती । १८. घूरधू, उलूक । 
१६. उदित हुई । ५०, 'चाँदनी । २१. दिखाई पढ़ती है! २२९, भोके से । २३, दुलाई, छिद्माफ॥ २४. ठिठ्रन से सिकुड 
पर। २४. इड्टासे से भरी रात में। २६. भींगी वतन (मुद्दावरा)--सरस बय। २७, शीतकात | र८. जागरण ३६. ठंढ। 
३०. जाग मारती ८ ३१. येराव, ऐेमारी (कदन्न)। ६३२- सनई | ३३. साल, 4र्ष | ३४. द्वाल, समाचार | ३५५ जीती हूँ। 
३६. जीना या दीपित रहना । ३७, राध्रि। ४८. घौदी की गयरी (चाँद) । ६६. अन्त । ४०. आतःकाल। ४१, लाल । 
४२: टिट॒गी, ( मय )। ४६ प्रेम। 29. भारय। ४५. अमृत । ४६. जिस दिन। ४०. व्योति (नगनों की ज्योति-पति )। 
४८ स्पय (मुस-सौनागप) । ४६. जैयेर॒[। ५०, सुन्दर | ६१- बसेरा । (३२; रेखा । 


बरमेश्वर ओमा “विकल' २६६ 
बिरहा के अगिया, करेजवा के दुगिया" 
बगिया* के भइल बाड़े सिंगार ॥ठेका 
फुलचा के ऑअंखिया खुलल नादहीं अबतक 

नदिया के घटल जुआरडें, 
सन करे रेंगीनियाँ५ ज्ञोगनियाँ भद्दल बाटे 
हृटल सेरंगिया* के तार ॥टेंका 
(४) 
बिधता» तोहरे हाथ बाटे फुलवरिया 
कि दिलने राते बहत बयार<, 
नाहीं एहिपार बानी नाहीं श्रोहि फर हस 
फाटत करेजवा हमार ॥टेका 


उम्ताकान्त वर्मा 


आपका जन्म स्थान छुपरा नगर है। आपकी शिक्षा काशी-विश्वविद्यालय में हुईं। उसी समय 
हिन्दी के प्रसिद्ध कवि श्री शिवमंगल सिंह छुमन” और सुपरिचित आलोचक श्री ब्रिलोचन शात्धी 
के सम्पर्क से आपमें साहित्य-साधना वी भावना जगी। आप हिन्दी और भोजपुरी में अच्छी कविता 
करते और गाते हैं। दोनों भाषाओं के कहानी-लेखक भौ हैं। आपकी दो पुस्तक मकड़ी के जाला? 
(भोजपुरी कहानी-संग्रह) और 'दू विन्दू? (भोजपुरी उपन्यास) तैयार हैं। इस समय आप हाजीपुर 
(मुजफ्फरपुर) कॉलेज में हिन्दी के आध्यापक हैं। 


गीत 
रे छुलिया संसार । 8 

भरल इलाहल मधु के पिन्लिया* ले आइल उपहार, 
सकुचि ह्जाइल, उठि-उठि आइल पतल-पल लहर जुआर?०। 

रे छुलिया संसार ॥ 
जान!" गइल जब आजु के रोवल काल्हु* के गावलर गीत, 
हार भइले यह आज़ु के पहले, रहले करमवाँ १3 के गीत । 
मित्नत्ष सनेहिया चिनिशिया *४ ल्गावे सइल जिनिगिया "के सार । 


रे छुलिया संसार ॥ 


वरमेश्बर ओका 'विकल!' 


आप हिन्दी और भोजपुरी दोनों में कविता लिखते हैं। आप वंशवर (व्रहपुर, शाहाबाद) आम के 


निवासी हैं। आप कुँवर सिंह की जीवनी भोजपुरी में लिख रहे हैं । प्रस्ठुत पुस्तक की पार्‌इलिपि 
बह चै 
तैयार करने में आपने मेरी सहायता की है। 


१, दाग (फफोला)।+ यांग । ३ हुआ है। ४, च्वार । ५, छावसाएँ। ६, सारंगी (हृदय-तंत्री) ०, ब्रह्मा । ८ हवा। 
&, प्याद्ी | ३० च्वार-्माठा। ११, जान गया | १२९, कब, गत दिवस ! ३३, भाग्य । १४, चिनगारी। १४, चिन्द्गी | 


२७० भोजपुरी के कबि और काव्य 


ई१ कदटसन+* जुग आइल बा ! 
छुबले थीया5 कारी बद्रिया, सूरुज जोति लुकाइल बार । 

ई कद्सन जुग आदइल बा 

(१) 

बइठल सोना के ढेरी पर, ऐगो"” आपन हुकुम चलावत । 
ऐगो भीख माँगि के घर-घर, कसहूँझआपन समय कटठावत ॥ 
बाप और बेटा के अब तक, नाते* ना फरिआइल*< बा। 

ई कइसन जुग आइल बा? 


(२) 
लूटि पाठिके भारत काठत, जह॒वाँ पावत जे* जेकरा"९ के। 
आपन अब त5 राज भइदल बा, इहवाँ११ पूछुत के" 'केकरा१ 3 के ॥ 
अपने भाई के खूनवा से, सभ कर हाथ रंगाइल बा। 
ई कदसन जुग आइल वा ? 


(३) 
करिया१४ एक बजार चलल॑ बा, करिया चोर घुमत जवना"० में । 
हिरद्य में का ओकरा १९ बढ़ए, दया धरम तनिको १७ सपना में ॥ 
सभकर पपवा के गठरी में, ८ँगरी१८ अब अमभ्कुराइल बा१९ | 
ईं कहसन जुग आइल् बा 


गोस्वामी चन्द्र वर भारती 


आपका घर कोड़ारी (दरौंदा, सारन) है। आप अधिकतर ग्रचार-गीत हौ लिखते हैं। मये- 
नये तर्जों' में टेठ भोजपुरी के गीत सामयिक विषयों पर आप बहुत अन्छा लिखते हैं। आप गायकों 
की ठोली बनाकर, ठोलक, काल और हरमोनियम के साथ गा-गाकर अपनी रची पुस्तक बेचते हैं। 
गाने का नया आकर्षक तज और भाव प्रकाश का नया ढंग होने से लोग चाव से गाना छुनते और 
आपकी पुस्तक खरीदते हैं। आपकी एक किताब 'रामजी पर नोटिस»? मुझे मिली है। 
(१) 
पानी बिना सूख गइल देस भरके धान, ई का कइलीं भगवान ! 
करजा काढ़ के खेती कहलीं, मर-मर रोपलीं*० धान। 
खेत के पैदा दृहल*१ सूखल, रोचता किसान ॥ ई का० ॥ 
कहीं गइल दहन, कहीं घामी*8 से बेकाम। 
ओहु से*४ जे बॉचल वा, बलेक*५ लेहले टान** ॥ ई का: ॥ 


३२. गद्द। + कैसा। ३. चाई हुई है। ४. पिपी हुई है। ५. कोई एक। ६" किसी तरहू। ७, नाता-रिश्ता ही। 
८५ स्पष्ट एजा अयवा मुएमकता ६ै। ६. थो फोई । १०. छित कसी फो। १३१ इस देश में। १२. फौन। १३० किसको। 
१४. फाणा। १४५ लिएमें । १६. उसके ॥ २७. जरा भी । १८ टाँग, पैर। १६. उसमी हुई है। + प्रफाराक--बावू 
ठाइरप्रताद गुप्त, यम्बई प्रेस, राचादर॒बाजा, बनारस । २०. रोपा। २१५ वह गया । २२ यह । २३५ सूखा, अफास । 
२९, उससे भी । २४. घोरपाजारी। २३६- साँच लिया। 


सूयपाल सिंह २७१ 


(२) 

हम राज-किसान" बनइतीं हो । 
घनी-गरीब-अमीर सभी के एक राह चलदइतीं दहो। 
हक-भर35 भोजन सबके दीतीं,४ दुखी न कहव॒इतीं हो। 
जेकरा घर में नहखे"» भोजन, चाडउर* से भरवदइतोीं हो ॥ 
जेकरा बाठे हुटही* मड्इया, खपड़ा से बनवहती दो। 
कोटा< के जो बात जे द्वोइत, श्रापन. नीति चलदइतीं हो ॥ 
बल्ेेक-लीडर*के बॉघि पकड़ि के, फॉसी पर लटकइतीं हो । 
बहमानों के जब धर पहतीं, कारीख सह में लगइतीं"*हो ॥ 
गद॒हा पर बहठाइ उन्हें फिर चूना से दीकवहती?१ हो। 
बाल पृद्ध बीआह अत कर, जोड़ा ब्याह" रचइतीं हो॥ 
उनही से अब भारत में फिर अरजझुन-भीम बोलइतीं हो । 
खादर 3के जोगाड़ "जो करतीं थोरदीं में उपजदती हो॥ 
गडमाता*" के चरनेवाली परती ना जोतवइतीं हो। 

छुआछूत के भूत भगहतीं, सरितापम बहइतीं हो॥ 
हिन्दू-सुसलिम भाई के हम, एके मंत्र पढ़इतीं हो। 
बाँग षअधिक खेत में बोइतीं, चरखा बहुत बनइतीं हो ॥ 
भारत में बीघान बना के, घर-घर सूत कतइतीं हो। 
अप्तर शहीदों के नामी *»ले, सुमिरन में ल्िखबइतीं हो॥ 
सूली पर हँस चढे बहाहुर, उनके सुची"८ बनइतीं हो। 
मातृ-भूमि के बलिबेदी पर, “चन्देश्वरः सीस चढ़इतीं हो ॥ 
जब-जब जनम ल्लीती*भारत में, बतिबेदी पर जहइतीं हो ॥ 


सर्यपाल सिंह 


शाप चातर, ( बघुरा, बदहरा, शाहाबाद ) के रहनेवाले हैं। आपकी भाषा हिंन्दी मिश्रित 
भोजपुरी है। आपके द्वारा रचित तौन पुस्तिकाएँ प्रकाशित हैं, जिनके नाम हैं--आजादी का तूफान; 
निगु ण॒ भजन पंचरत्न और लम्पट लुटेरा# | आपके शिष्य जवाहर हलुवाई छुपरा जिले के हैं। 
वे भी भोजपुरी के कवि हैं । 
पूर्वी 


भारत आजाद भइले, हुलसेला*" मनचाँ, से फण्ड, सोहे ना। 
बिजय देबी के समनवाँ*१ से कूण्डा सोहे ना ॥ 

भंडा तिरंगा, बीच में चक्कर निलनवाँ *९, उड़ावल गइले ना । 
दिल्‍ली किला के उपरवा, से उड़ावल० ॥ 


१ किसान-राज्य। & एक ही। ६५ परिश्रम के अनुसार कमाई के यौग्य | ४, देता। ५५ नहीं है। ६, 'चावज्ञ । 
७० दूटी-फूटी । ८. हिस्सा। ६. 'चौर॒बाजारी में ज्यादा नफाखौरी करनैठादा्‌ | १०. कगा देता। ११५ टीका छगवा देता । 
१२, समान वय के युवक-युवती का ब्याद्द । १६, खाद्‌। १४, व्यवस्था | १५, गोमाता । १६. दिनौता, कपास | १०. नामावक्ी। 
१२८ ताणिका। १६, कषेता । “प्रथम दो पुस्तकों का प्रकाशक है--राममोहन एुत्तकाहुय, तेलिनीपाडा हुगक्ी ( कक्षकत्ता )। 
प्रकाशक--रासनारायण तिषेदी, दूघताथ प्रेस, सछकिया, दृवढ़ा ( कजकत्ता )। २०, उफ्तसित द्वोता दै। २१. सामने। 
२२. चिह्न 





२७२ भोजपुरी के कवि ओर काव्य 


उनइस सो सैंतालिस रहले, शुक्रवार दिनवाँ, से जयहिंद ना। 
भइले चारो ओर- सोरवा", से जय०॥ 

जुग-जुग जियसु बाबा गाँधी, जवाहर से, बन्धन तोड़ले ना। 
माता कष्ठ के हटवले, से बन्धन तोड़ले ना ॥ 





पाण्डेय कपिलदेवनारायण सिंह 


आपका जन्म स्थान शीतलपुर ( बरेजा, सारन ) है। अपने साहित्यिक परिवार से ही आपको 
साहित्य-सेवा की प्रेरणा मिली । आप हिंन्दी और भोजपुरी दोनों के कवि तथा लेखक हैं। अमिनय- 
कला में भी आपकी रुचि है। ऋग्वेद के बहुत से सुक्तों, संसक्षत के श्लोकों और अँगरेजी की 
कविताओं का आपने हिन्दी और भोजपुरी में पद्यवद्ध अनुवाद किया है। आपके पूज्य पितामह 
स्वर्गाय श्रीदामोद्र सहाय सिंह 'कविकिंकर? ह्विवेदी-युग के लब्धप्रतिष्ठ कवि थे। आपके पृज्य पिता 
पाण्डेय जगन्नाथग्रसाद तिंह हिन्दी के पुराने माने-ज्ञाने लेखक हैं। आजकल आप बिहार-सरकार 
के अनुवाद-विभाग मे हैं । 


जिनगी के अधार 


जियरा में उठेला दुरदिया3, नयेनवाँ से नीर ढरे हौ। 
अँखिया में रतिया बीतवनी5, सनेह के जोगवनी"। 
से भन के भोरवनी' नु हो ॥ 

झाहे सखिया, 
पियवा बढ़ा रे निरभोहिया, ना जीया के कलेस हरे हो । 
छितरल* धरती के कोरवा८ से अखिया के लोरबा१ | 
जे ,झोस बनी भोरवा१० नु हो ॥ 

श्ाहे सखिया, 


छुतिया के सुनगल? *अग्रिया किरिनियाँ के रूप धरे हो । 

भसनकेला हीया के सितार, मधुर भचकार। 
दरदिया के भार नचु हो॥ 

आहे सखिया, - 

जिनगी के इहे बा अधार जे जिनगी में जान भरे हो । 

जियरा में उठेला दरदिया नयेनवाँ से नीर ढ़रे हो ॥ 


इन्द्र-सूक्त के अनुवाद 
थो जात एव प्रथमो मनस्वा, 
न्देवो देवान्क्रनना पर्यसूषत्‌। 
यस्य शुप्माद्रोद्सी अभ्यसेतां, 
सह नृम्णस्थ सह्ा स जनास इन्द्र:ऋ ॥१॥ 
जनमे लेत आदमी, सव में तुरते जे अगुआ हो गइले 
अपना बृता"* से देवन के भी अपना कब्जा१४ में कल, 
१. शोर । 3. जीवित रहें। ३, ददूं। ४, बिताया। ५, सँचोया। ६, भुजाव[ दिया। ०. चिझरा हुआ। ८ फोर, 
किनारा! ६ जाँयू। ३०, प्रातः कासत । १ १ चुतगी हुईं। « ऋगेद, स० २, सू० ३२, सत्र १। १२, दक्। १३६५ अधिकार । 


भूपनारायण शर्मा व्यास! २७३ 
जेकरा साँसे भर लेला" से, सरग ओ धरती अतयया सइत्त, 
जे बलवाला बहुत बढ़ा बार, उहदे 5इल्‍द्र भगवान ए लोगेड ॥१॥ 
यः प्रथिवीं व्यथमानामद्दहद 
थः पव॑तान्पकुपिताँ अरम्णात्‌। 
थो अन्‍्तरित्तं विममे वरीयो 
थो द्यामस्तभ्नात्‌ स जनास इन्द्र: ॥रा[|त 
बहत पस्तीजल धरती के थक्‍का" पा ठोस बना दीहल जे, 
उड़्त चलत परबवत टील्दाई के एक जगह बहठा दीहल० जे, 
आसमान जे बड़हन< कल, झासमान के नाप लीहल* जे, 
जे आधार सरग के दीहल, उहे इन्द्र भगवान, ए लोगे ॥शा। 


भूषनारायण शर्मा व्यास! 


आप रायपुर ( मानपुर, दिघवारा, सारन ) आम के निवासी हैं। आप कथावाचक हैं। 
आप मण्डलौ बनावर कथा कहा करते हैं। आप भोजपुरी मे उन्दर रचना बरते है। आपकी 
अबतक छह रचनाएँ प्रकाशित हो छुकी है। जिनमें अन्य कवियों की भी रचनाएँ हैं। 
अकाशित पुस्तक--(१) राम-जन्म बधैया, (२) मिथिला बहार-संकीर््तन, (३) श्री सौताराम विवाह- 
संवीर्त्तन, (४) सौता-बिदाई, (४) कीत्तेन-मंजुमाला और (६) श्री गोरीशइर-विवाह संकीत्तन । इनमें 
प्रथम चार का प्रकाशक--भागव पुस्तकालय, गायघाट, बनारस है। 


कीत्तन 


तो१० पर बारी११ सेवलिया ए हुलद्ा ॥ टेक ॥ 

सिर पर चीरा**, कमर पट पीला, भोढ़े गुलाबी चद्रिया। 
गले बीचे हीरा, चबावे झुख बीरा१३ बिहँसत करे फहरिया१४॥ 
छैल, छुबीला, रँगीला, नोकौत्ा१% पहिरे जामा"९ क्सरिया। 
भोंहे कमान तानि नथन-बान मारे , भरिके काजर*० जहरिया १८ ॥ 
मिथिला की डोमिन सलोनी सुकुमारी, तौहरे सरहज१९ थो सरियारे० 
सुध-बुध हार भई प्रम-सतवाली, पढते ही बाँके नजरिया। 
हम तोहरो पिछुवा*'* नहीं छोड़बो जैहों साथे अ्रवध नगरिया॥ 
सरपत"** के कुटिया बनाई दस रहबो, तोहरो महल पिछुचरिया+3 | 
सरयू सरित तौीरे-तोरे बहारबरं, सॉम-सबेरे-हुपहरिया । 
ताही ठौर मिलब नहाये जब जेब5*०», प्रान जीवन धनुधरियार८। 
तोरा ल्ञागि माँगब दूकाने-दूकाने कौड़ी बीच बजरिया+० | 
नेह लगा और कतहीं न जाइब, अइसे बिंतदहों उमरिया*८ ॥ 


३ लेंने । २, है। ३५ वद्दी | 8. ऐ मनुष्यों | * ऋग्वेद, मं० २, यूक्त ३२, संत्र २। ४. जम कर थोक हो जाना | ५: स्तूप, 
ऊँचा टीढा | ७ दिया। ८० बडा, विस्धृत। ६ लिया | १०५ तुम पर । ११. निछावर हुईं। १९. पगडी। १३. पान का चीछा। 
१४ कदर --आाफत, प्रदय | १५, नफीश, सुन्दर | १६. घाँधरा ! १७, काजड | १८ विष | १६. साले की स्त्री २०. साली, 
पतन की घोटी बहन २३५ पीचा । २९५ उर्‌कंडा | २३, पिध्वाढा, मकान के पीछे। २४, फाड से वहारुगा। २४. चाजोगे। 
२३० धनुधैर भग्वात्‌ राम। २५ चाजार। २८ उस | 


श्७४ भोजपुरी के कवि और काव्य 
सिपाही सिंह पागल 


आप सारन जिले के वैकुरठपुर थाने के निवासी हैं। सन्‌ १६४४ ई० में छपरा के 'राजेन्द्र- 
कॉलेज से आपने बौ० ए० पास किया था। सन्‌ १६५१ ई० में आपने पटना के ट्रेनिंग-कॉलेज से 
(डिप्‌ू० इन:एड्‌० की परीक्षा विशेषता के साथ पास की। काशी के साप्ताहिक 'समाज! में आपके 
भोजपुरी-सम्बन्धी कई लेख प्रकाशित हुए थे। आपने अंगरेजी के कवि 'शेली?, वड्सव्थ! आदि की 
कविताओं का अनुवाद भोजपुरी में किया है। 


जिनगी के गीत 


सीख5 भाई जिनगी" में हँसे-सुसुकाए के, 
इचिको* ना कर5 पीर तीर के खिअलवाडे 
सिहरः ना सनझुख देख सुसकिलवा 
नदी-नाला प्रबत फाने्ट के हियाव”" राख$ 
हार5 ना हिया में, सीख& सरठी में गावे के ॥ 

सीख5 भाई० ॥ 
झआँधी बहे, पानी पड़े पथर* से शुरइहड० 
तबहूँ६ ना जिनगी से सुँह बिजकहृह$* 
सातो समुन्दर चाहे बढड़का पहाड़ मिलते 
तबहूँ. ना पीछा सुदहँ डेग)" घुसकइह$)" 
जहर पी के सीख5 नीलकण्ठ कदहलावे के। 

सीख5 भाई० ॥ 


शालिग्राम गुप्त 'राही' 


आपका घर “दरोहटिया? (परसा, सारन) गाँव में है। आपका जन्म-काल सन्‌ १६२६ ई० है। 
आपका पेशा वत्तेमान-समस्या-सम्बन्धी गीत, भजन आदि भोजपुरी में बनाना और छोटी छोटी 
पुस्तिकाओं में छुपवा कर ट्रेन पर गा-गाकर बेचना है। आप की रची हुई दो पुस्तिकाएँ मुमे 
देखने को मिलॉ--“मंगरू पुराण” उर्फ 'टीमल बतकही? तथा 'देहात के हलचल” । पहली पुस्तिका मोहन 
प्रेस (छपरा) में सन्‌ १६४१ ई० में छपी है और दूसरी पुस्तिका कृषि प्रेस (छपरा) में सन्‌ १६४१ ई० 
में छपी है। पहली पुस्तिका में वोट-सम्बन्धी कगह-ठीमल-वात्ती दोहा और अन्य छन्दों में है। 
वात्ती समाजवाद के पक्त में है। दूसरी पुस्तिका आपके आठ गौतों का संग्रह है। 
(१) 
इयाद रख 

अन्हार * ना छिपा सकल, ऑजॉर१३ होके का भइल "४ 

जो थरथरी बनल रहल, त5 घाम होके का भ्रइल ॥ 

हजार डींग हॉकले स्वराज हो गहल मगर। 

मरल गरीब भूख से, इ राज होके का भइल ॥ 


१. जिन्दगी । ३. थोडा भी | ६ झयाल, विचार | ४. पाँद जाने के लिए । ५५ दिस्मत, साहुस । ६. पत्थर, ओला । 
७ बुरी तरद छुचता जाना | ८० तव भी । ६. दिचकाना । १०० डग, पग। ११, खिसकाना। १९, उँपेरा। १३६५ उप्नेजा, 
प्रयुश । ६४. एआ। 


नधुनी लाल २७५ 
(२) 


अइसन” परल"* अकाल बाप रे! 
अबकी3 लोग जरूरे मरी, चाहे कोटि घरीछुन करी | 

घट गइलक' एकबाल बाप रे | अइसन० ॥ 
जाति-पाँति के बाँध न* टूटल, सबे ज्ञोग सब कास में जूटल* | 

परिडत भइल कलाल“< बाप रे [| अइसन० ॥ 
सेर-भर*के खुद्दी! 'फटकत्न ११, देख के हमर दिमागे चटकल"२। . 

कइल्लक? 3 कडन हलाख ४ बाप रे | अइसन० ॥ 
दूध-दृही घीव अस्ृत*" भइल, पाँचो मेवा पताले गइल१९। 

उपजल टी० बी० काल बाप रे | अहसन० ॥ 
धर-हुआर सब दृह्िए*०गइल, तीन साल से फसल न भइल। 

हम सब भइटलों बेहाल बाप रे| अहसन० ॥ 
बाहर से गढला ना आई, तब हमनी १८ का१* खायब भाई। 

इंहे अजब सवाल बाप रे! अइसन०॥ 





रामवचन लाल 
आपका जन्म विक्रम-संचत्‌ १६७७ में भाद्र-पूर्णिमा को हुआ था। आप शाहाबाद जिले के 
बगाढ़ी गॉव के निवासी हैं । आप सन्‌ १६४८३ ई० में इलाहाबाद-बोड से आई० ए० की परीक्षा 
पास कर माष्टरी करने लगे थे। सन्‌ १६५२ ईं० में आपने कार्शा विश्वविद्यालय से बौ० ए० की परीक्षा 
पास को है। आप एक होनहार भोजपुरी कवि हैं। आपकी भोजपुरी की मुख्य रचनाओं में 'कुणाल?, 
'गीतांजलि', 'दिली दोस्त! ( शेक्सपौयर के मर्चेएट आफ वेनिस के आधार पर ) तथा 'रामराज है। 
राज-वाटिका-बरनन 
रहे गह-गह*", मेंह-मेंह*' फुलवरिया, मधुरे-मधुर डोले मधुई बयरिया**। 
रंगे रंगे फर*5-फूल बिरिछ्ु*४-बेंवरिया*", रस ले मभेंवरवा भरेला गु जरिया" ९ ॥ 
बन मन मारे, कहीं कुहँँके कोइलिया, हियरा मे साले ले पपिहरा के बोलिया। 
बिहरें संगरवा०में रँगलि मछुरिया, छूटेला फुहारा रंग-रंग भरसरिया॥ 
पतदा५ में तोतवा* लुकाके३" कहीं कतरेल्ला3१, रसे-रसे३९, रस ल्लेइ-लेइ33 | 
जोड़िया सयनवां3४ के डढ़िया बइसि3" भत्ते, हियरा हुल्लास कहि देह॥ 





नथुनी लाल 

आप मोर॑ंगा ( बेगूसराय, सुंगेर) गॉब के रहनेवाले है। आपको विशेषता यह है 
कि मुँगेर की अंगिका (छीका छीकी) भाषा के बोलनेवाले होकर भी आपने भोजपुरी मे रचना की है 
आपकी रचनाएँ समाज सुधार कौ होती है । आपकी एक पुस्तिका है 'ताड़ीबेचनी', जो दूधनाथ प्रेस 
३, ऐसा । र पडा। ६ इस वार । ४५ उपाय | ५, घट गया | ६५ वंधन। ७. जुट गये, छग गये। ८ मबविक्रोता । 
£« एक रुपये का एक सेर | १०. चावत्ञ के कण | ११८ सूप से फ़टका हुआ (चुन)। १६. उड़ गया। १३५ किया । १४. बच, 
जिंददू । १५. णमृतवत्‌ , दुक्षम। १६. हुप्त द्वो गया। १५. बह गये। श्प दमब्ोग। १६ क्या। २०. दरी-भरी। 
२३- सुगंधमय । २९. वयार, वायु । २३ फल २४. वृत्त । २५० पककरी | २९. गु'जार ! २० सरोवर्‌। २८. पत्ता । २६ तोता। 

४०, घिपकर | ३१. छुतरता है। ३२. धीरे-धीरे । ३३ क्षे-लेकर । ३४- मेना पत्ती । ३४५. बैठ कर । 


१७६ भौजपुरी के कवि और काव्य 


( सलकिया, हवड़ा ) से प्रकाशित है । दूसरी पुस्तिका “आजाद भारत की पिल्तौल! हिन्दी प्रचारक 
पुस्तकालय, १६२/१, हरिसन रोड, कलकत्ता से छुपी है। पहली पुस्तक की रचनाएँ भोजपुरी- 
लोक साहित्य की हैं। दूसरी मे राष्ट्रीय गौत नये-नये तर्जो' मे हैं । 
घुन पूर्वी 
तोहर) बयान सब लोग से कद्दत बानी, कनवाँ लगाह तनी सुन5 ताड़ीबेचनी ॥ 
गाल गुलेनार, डॉड्3 सिंकियार्ट समान बाटे, जोबना था काशी के अ्रनार ताढ़ीवेचनी । 
नित तू सबुनवाँ लगावेलू" बदनवाँ में, पोखरा९ में कर& असनान ताड़ीबेचनी ॥ 
नित तू सबेरेशाम साधुन से असनान कर, तेलवा लगावे वासदार० ताडीबेचनी। 
चिरनी८ ज्ञगाई कर, माथा के बधाई लेले, सेन्दुरा से भरेले लिलार ताड़ीबेचनी ॥ 
सढ़िया रंगीन पेन्हे, चोली लवलीनवा' से टिकुली के अजब बहार ताड़ीबेचनी । 
चन्द्र के समान मुँह, गाल मलपुश्रा*० जइसे , रोरी घ॒ुन्द*१ करेज्नी लिलार ताढ़ीबेचनी ॥ 
काढ़ा१९-छाड़ा )3-फबिया १४, पहुँची, हाथ-बालिया*" से हँसुली पहिरे सवासेर ताढ़ीवबेचनी । 
सोलहो सिंगार करि, करे अमरन"९ प्यारी, बहसेली ताढ़ी के दूकान ताड़ीबेचनी॥ 


वसन्तकुमार 
आपका जन्म-काल विकम संवत्‌ १६८६ है। आपका जन्म-स्थान खजुहदड्ी ( सारन ) गांव है। 
आपका घरेलू नाम अयोध्याप्रसाद सिंह है और साहित्य-क्षेत्र में वसंतकुमार । छात्रावस्था में आप 
रामचरित-मानस”! का नियमित पाठ करते थे। हिन्दी-संसार के प्रसिद्ध साहित्यसेवी 
श्री राहुल सं झत्यायन की प्रेरणा से आप भोजपुरी-कविता की ओरे प्रबत्त हुए। आपने भोजपुरी की 
अनेक कविताएँ लिखीं, जिनमें अधिकांश रेडियो से प्रसारित हो चुकी हैं। 


बदरवा' 

[ धरती प्रीष्म में गर्म लोहे-सी तप रही है। खेतों की फसल चिलचिलाती धूप में कुलस पढ़ी है। 
ठीक इसी समय ओरीष्म की हॉफत्ी हुईं एक नीरव हुपहरी में एक किसान सुदूर परितप्त आकाश 
में बादल के एक सूखे ठुकड़े को देखकर, उसे सम्बोधित करके आशा-भरे लय में गा पड़ता है--] 

छितिज से फुदुकत*० आउ रे बदरवा"<, भरु?१ पनियाँ से मोर खेत 
दया नहीं लागे तोके भइया बदरवा, खेतवा भइल मोर रेत। 
सेंपवा समान लप-लप करि लुकिया*० चलत, चेंवरवा*१ उदास 
खेत के फसलिया ऋुलसी मसुरभाइली, आगे के न बाटे किछु आस 
इनर"* बाबा के घर-घर होत गीत, पर बाबा नाहीं डरल बुकास*3 
जाऊ तनी*४ उदाँ के+*५ मनाई देऊ भद्दया, चढ़िके पवन उनचास 
समकत, बरसत, हेसत-खेलतव करू धरती के परस-सचेत 

खेतवा भइल मोर रेत। 
दिगमिंग* ९ करि उठे खेतवा भद॒इया, देखिकर जिया हुलुसायरे० 
हरियर पतिया भें सिमटि सकहया कस-सस करि. अखिआयरे८ 

१. एुम्द्वारा। २० ताडी वेचनेषाल्ी । ६३. कमर | ४. सीकन्सी पतली । ५. लगाती दै। ६. तादाव। ७. ुशचूदार, 
घुगन्पित | ८. घाउ की कड्डी चडों को एक साथ बाँध कर बनाया गया मुद्ठा, जो उक्तके और गंदे वाकों को घुलकाने तथा 
साफ करने के काम में आता है। ६. मनोमोदक, आकर्षक । १०. मालपूआ। ११. रोली की घिन्दी। १२, पैर का कडा । 
१३, पर में पहनने के पतत्ने कडे। १४. प्याती के आकार का घुघरूदार गहता । १६४, द्वाथ का दंगन। १६. आमरणा, 
अलंकार । १० फुदकते हुए, जानन्द-मर्न द्वो उठते हुए। १८ बादल । १६, भरो। २०. श्रौष्म की लू। २१, नीची सतह 
के खेतों का ४ । ९३» इन्द्र भगवान्‌ ! २३५ मालूम पढते हैं। २४, जरा। २५, उन्कों। २६, जगमग । २०, उत्तसित । 
१८ अँकुर देना। 


हरेन्द्रदेव नारायण २७७ 


पदचेया*, भहरि चले, मिटे पुरवदया धानवाँ उमेंकि लहराय 
रतिया के समय भी भूलु नाहीं भइया, चक-सक फसल फुक्ञाय 
गहुँझा का गोदिया में लिपटि केरठवाउ हँसे, नाहीं तोहरा समेत 

खेतवा भइत्न मोर रेत । 
चिरई"५ समान फुदुकत कहु भइया, सरपट जात कित ओर 
तह त* हिमाचल के सेज पर बिहरत हमनी के हरकत» ल्लोर<, 
जदी ना तूँ अइब<5 अकाल पदि जहहँ, मचि जहहेँ भूखबा के शोर 
अन' बिनु मोर देस भइल तबाह भइया, तिकवंत*९ तहरे)) ही ओर 
सोना-चॉनी बग्सहु दाता रे बद्रवा, खुसहाल होय मोर देस 

खेतवा भरहल भोर रेत । 
नाचु तुहँ उमढ़िघुमढ़ि के अकप्तिया** बिजुरी के ले मुसुकान 
चंवर डोलावे तोके शीतल बेयरिया, मिट जाय आरन्द्री!3३ थो तूफान 
छिड़कु "४ सुरस-धार रिस-मिम-रिसकफ्रिम, छाइ जासु सकल जहान 
बिरहा के तान डेड़ि 'रोपनी*" में लागे सब तह गाठ गरजन-गान 
हुरक*३ पड़५ तू सब ओर रे बदरवा, मनवाँ के कर ना सकेत*१७ 

खेतवा भद्ल मोर रेत। 


हरेन्द्रदेव नारायण 


शाप भोजपुरी के स्वनामधन्य छुकवि स्वर्गाय श्रीरघुवीरनारायण जी के स॒पुत्र हैं। आपका जन्म 
सारन जिले के नया गाव” नामक आराम में, सन्‌ १६१७ ई० में हुआ था। आपने सन्‌ १६३७ ई में 
थी० ए० पास किया था । आप हिन्दी के एक प्रतिभाशाली कवि और आलोचक हैं। सन्‌ १६३३ ई० में 
आपकी पहली कविता 'बॉसुरी” पटना से प्रकाशित साप्ताहिक “बिजली” में छुपी थी और उस समय 
उसकी काफी प्रसिद्धि हुई थी। तबसे आप निरन्तर हिन्दी साहित्य की सेवा करते आ रहे हैं। 
आपकी पत्नी श्रीमती प्रकाशवती नारायण भी हिन्दी की कंबयित्री और कहानी लेखिका हैं। 
आपने सन्‌ १६४७ ई० में पहले-पहल भोजपुरी में 'कुवरसिंह! नामक महाकाव्य लिखा है, जो 
आरा गा के एक प्रकाशक द्वारा प्रकशित क्या गया है। उसी के ह्वितीय सगे का एक अंश यहाँ 
उचद्धत सनक 





बेठऋखाना. कुँवरसिंह के, बाहर खूब जमल बा 4, 
मात्र लागल बा" नफीस, चंदोवा एक टेंगल बा। 
द्याधार** के दीपन से, मदु-मन्द जोत आवत बा, 
एक गुनी बेठल था, सारंगी पर कुछ गावत बा॥ 
झटटलन** बाबू कुँवरसिंह', सहसा भीतर से बाहर, 
कोलाइल कुछ भइल बिपिन में, बाहर आइल नाहर। 
हड्डी ठोस, पेसानी दमकत, पुष्ट वृषभ-कंधा बा, 
अस्सी के बा उमर भइल, का कहे बूढ ! अन्धा बा ॥ 


३. परिचती वायु | ९ उमंग से भर कर । ३ चैती फसल (गेहूँ, जो, चना आदि)। ४ केर[व, खेसारी (पक प्रकार की 
खबैती फसल)। ४५ चिडिया । ६, तुम तो । ७. बृत्ञकता है, वद्ता है। ८. आशु । ६. कन्न । १० देखता है। ११. तुम्द्दारी । 
३२ आकार । १६५ आाँधी । १४. बिडक दो। १५ धान के पौधे रोपने का कार्य । १६. दुंलक पढो। १२७, संकीण , छीटा। 
१८ जमा हुआ दै। १६ णैगा हुआ है। २० दीवट ( दीपाधार )। २१ जाये। २९. कक्वाद 


श्ष्८ 


आप दिलीपपुर (शाहाबाद) के निवासी हैं। आपके पिता का नाम श्री विश्वनाथप्रसाद सिंह था। 
आपका जन्म विक्रप्र-संवत्‌ १६५३ मे, मार्गशीर्ष इष्ण-एकादशी, सोमवार को हुआ था। आपने 
सन्‌ १६२१ ईं० में मैट्रिक की परीक्षा पास की। आपके पितामह श्रीनमदेश्वर प्रसाद सिंह 'ईशः' हिन्दी 
के प्रसिद्ध कवि और विद्वान्‌ लेखक थे। सन्‌ १६२२ ई० से आपने हिन्दी-साहित्य-ज्ेत्र में प्रवेश किया । 


१, गति, चाल। २, राग-राग्रिनियो | ३, जिल्दगी। 8« पुयय । ५, उसी तरह । ६. भौर की वेज्ा | ७. सिसठा हुआ । 
८ ज्योति। ६६ साँस-पेशियाँ। १०. अमागा। ११५ जिसके। १९. मसलता है। १३५ द्वार ! १७ उसी । १४, खेनेवाल[। 


भोजपुरी के कवि और काव्य 


सिंह चलन ", रवि जलत नयन, ज्ुग सुगठित चंड भुजा बा, 
अइसन डोलेला. जइसे, डोलेला विजय-पताका। 
नवजुग के हम दूत कहीं, या जय के याकि विभा के; 
केन्द्-बिन्दु माहुस-सपना के, साहस, सत्य, पभा के।। 
छोटन रागनन के समाज में, महाराग अभआवेला, 
फूसन के ढेरन में जहसे, कहीं आग आवेला। 
जिनगी3 के ऑँधियाली सें, था पुन्त्भ भाग आवेला, 
कोलाहल मय स्वार्थ बीच जइसे विराग श्रावेला॥ 
घइसे" अइलन कुँघरसिंह जी, जय जय, जय जय गूजल, 
प्राह्मन-कुल वो बन्दीजन के, चिरमंगल लय गजल । 
जइसे अइला से प्रभात के, चिड़िया-कुल चहकेला, 
भोरहरी' के हवा चले तो कमल फूल मंहकेला॥ 
जिनकर हड्डी में सिमटल० होखे, जोती* के सागर, 
जिनकर मांसपेसियन* में, सूतल हो अ्रमित प्रभाकर | 
जिनकर चमकत नयन-पुत्तली, में सूरज चन्दा हो, 
बंक भौंह में सब कुभाल*" के, जहाँ सरन-फंदा हो ॥ 
जे हो महासिन्धु साहस के, जहाँ गिरे सब धारा, 
जे आसीम गौरव हो, जेकरा** मे ना कहीं किनारा । 
अइसन माँकी जे आंधी में नौका खोल चलेला, 
तलहत्थी में भाग मले*, ओकरा के बुद्ध कहैला ॥ 
जय हो सत्य, सील के पुतला, जय साहस के सागर, 
जय जागृति के अद्भुत कारन, नरकुल-वंस-डजागर | 
छाती, जइसे अटल हिमालय, करुणा नव निरभरनी, 
ऊ बा सब के आसा-माया, असरन-मंगल-करिनी ॥ 
आज हुआरी)?8 पर आकर के, राउर पणग चूसे के, 
किरन खड़ा बा, वोही"४ मद भें जुग-जुग तक भूमे के। 
दिसा-ओट से भग्य पुकारत बा, नवज॒ग आवत बा, 
ये रतिया में अमर जागरन-गौत नियति गावति बा॥ 
माचुस जीवन के तरनी के, जय हो चीर खेचैया१५, 
दमकी राडर प्रान-दासिनी, आइल उहे१६ समेया१७ ॥ 





दुर्गाशंकरमसाद सिंह 


१६-द्दी । १० समय | 


दुर्गाशंकरप्रसाद सिंह २७६ 


तबसे आप बराबर हिन्दी को सेवा करते आ रहे हैं। हिन्दी में आपकी १० पुस्तकें प्रकाशित और 
२० पुस्तक अ्रप्रकाशित हैं। भोजपुरो-लोक-साहित्य-सम्बन्धी अनेक लेख समय-समय पर, पत्र- 
पत्निकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। हिन्दी की प्रकाशित पुरुतकों में 'भोजपुरी लोकगीत में करुणरस! 
हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन ( प्रयाग ) से प्रकाशित है। यह पुस्तक सन्‌ १६४४ ई० में ही प्रकाशित 
हुईं थी। श्रप्रकाशित पुस्तको में भोजपुरी-सम्बन्धी पॉच पुस्तक मुख्य हैं--(१) भोजपुरी-लोकगीत 
में शान्त-रस, (२) भोजपुरी-लोकगीत में श्रंगार और वौर-रस, (३) भोजपुरी-निबन्ध-संप्रह, 
(४) कु वरसिंह नाटक और (५) गुनावन। इन पॉच के अतिरिक्त यह अस्तुत पुस्तक ( भोजपुरी 
के कंवि और काव्य ) आपकी उल्लेखनीय कृति है। 


(१) 
सोहर 


अइली भदृडवा* केरी* राति, सघन घन घेरि रहे । 
बाबू चढलीं रयनिः अधिराति, फिरंगी-दुल काँपि रहे ॥ 
नभवा से गिरे ररि-ररि धार, तुपक”" रन गोली भरे । 
बाबू के घोड़ा करे काटि*, कटक़गोरा काटि रहे ॥ 
टपाठपव बाजे ओके» टाप, छुपा-छुप सूडी६ई गिरे। 
तब पघेरले फिरंगिया एकाह*, अजब बाबू युद्ध करे ॥ 
दँतवा से धइल्ने!ः चट लगाम, हुनो हाथे वार करे। 
पर्यतरा प दुडड़े*१ लागे धोड़, भनारून्‍न खड़ग चले ॥ 
बीबीगंज** भसइले घससान, धमाधम तोप चलने । 
होखल्ली)3 संगीनवा के मारि, हुनो दलवा जूमि"४ लड़े ॥ 
गिरले आयर१५ पश्ररराय, छाती ग्रूका** मारि कहे । 
बाबू गजब फेंके तरुआरि, बाघे अस दूटि परे॥ 
घन१७ ऊ मतरिया*८ जे त्ञाल, सिलौधा"* जनु जनम दई । 
झब जहूहें*" फिरंगिया के राज, बचवलो से नाहीं बचे ॥ 

--(भोजपुरी नाटक 'कुँ घरसिंहद! का एक गीत) 


(२) 


बिरह-निबेदन 
कइसे करीं गुनावन*" प्रीतम, सोचत गुनत** बइठल बानी*3 । 
एडही गुनावन में नू तहूँ४, रदहि-रदहि मनमें भासत जाल$ ॥$॥ 
भादोीं रेने अन्हरिया*" जहसे, गरजि केहू चसकत जाला । 
हिय के अन्धाकूप में साजन*९, ओइसे तूहूँ फत्तकत जाल5*७ ॥र॥ 
सूल भीतरे सालत जाला, बिरद्ा*< ऊपर दागत जाल्लारे* 
पिया-ओम मन माँतल जाला, दूर तबो३3० तू भागते जात्न5 ॥ह॥ 


३ भाद्र्‌ मास । २६ की । ६. रात । 8. जँगरेजी-सेना । ४. वन्दुक । ६. काठ करना (मुद्दावरा)--कणावाजी दिखाना। 
७, उसका | ७, सिर | ६. अकेज्षे । १०. पकड़ छी। ११० दौड़ना। १२ शाद्दाबाद जिसे का एक गाँव, जहाँ गोरी सेना से 
कुवरसिंह की पेतिद्वातिक लडाई हुई थी। १३. द्वोती है । १४० छटकर १४. अँगरेजी-सेना का नायक “विन्‍्सेत्स कनेत्र 
आयर' । १३. मुष्टि | १०. धत्य। “८, माता। १६५ चट्टान, रुद्दतीर । २० जायगा। २१. चित्तन। २२. चिन्तन फरते हुए। 
२३ बठा हुआ हूँ। २४ एुम भी | २४. अंदकार । २६६ स्वजन, प्रिय २०० जाते द्वो। २८, वियोग | २६. दागता जाता है। 
६० तब भी | 


श्८० भोजपुरी के कबि और काव्य 


मन में गुनावन नित्त करीला, पिया तु परम कठोर घुकाल5।॥ 
पसिजि-पत्िजि के पाहन भी नू बह्-बह्दि के हिलकोर* में जाला ॥४॥ 
पर प्रीतवम, तू जरा ना द्रव5 लखि के हाल हमार ना तरस5। 
सावन-भादो श्राखि के सरवल3, तोहरा लेखे रिम्रिम बरिसल ॥६ा॥ 
सूल हिया में चुभावत जाल5, बिरह से तन के जारत जाल&। 
पागल असर मन मातल कहके, निरमोही अस हटते जाल ॥६॥ 
भादो के अन्हरिया देखलीं, कातिक के अनोरिया तकलीं”। 
राति-राति भर ले सेज तडपलीं, तब हूँ पिया तू, भागते जाल5 ॥७॥ 
होयतीं जल के हम्रू मछुरिया, बसिती* जा जेंह पिया नहइते*। 
चुपुके चरनन चूमि श्रधइत्ती5, चिर संचित मन साध पुजइती" ॥6॥। 
बनि पहत्ती१" जो बन के कोइलिया, करितीं बास विंदावन बिचचा। 
स्याम रचइते११ रासि उहाँ जब, कुहुकि-कुहुकि हिय बिथा सुनइतीं ॥१०॥ 
के “( 'गुनावन' से ) 


विरहानुभूति 
लडकता'* पहाड मानों सूतल हो इञद्या"३। 
आन्हर"४ अजगर अस दिसो१" गुमसुम विश्ञा१९। 
घुआ में सनाइल*० रबि थोरिकेी:£ उपरवा। 
हवत आचे नीचे जइसे मन के सपनवा ॥ 
गते-गते?* सिखरा** पर सूरज जी उत्तरली। 
मलिन मुखचे ताकि मोके*१ नीचे छढेरा डललीं॥ 
तनी-सा ललाई श्रव्बो* लठकतिया* ओद्विजियारंड | 
जनु कबनो बिरही के काटल हो करेनिया॥ 
करिया*" ओढ़नियाँ ओढ़ि साँकिि चलि अइली। 
बकुलन के पाँत ओकेर४ गजरा पेन्द्वली ॥ 
कोइली एने*० कुहुके पपीहा ओने*< पीहके। 
हियरा में धक सेनी** सूतल केहू जगली॥ 
नभवा में सनकि3०" हवा बदरी उड़वली। 
सनवा के सुख जनु ओके सेंग बहवली3१॥ 
ललकी3* लुगरिया फेनुउ5 पछिम में डसचली3४। 
बिरदिन के प्रान काढ़ि ओहपर5" सुतठली।॥ 


कक 


१. माजूस पढते हो। २ बदर, तरंग । ३५ आँधू का गिरना ( अ्श्न खवन )। 8. पेसा। ५, ताकता (देखता) रहा । 
६, निवात करता | ७ स्नान करते | ८. दप्त दवोता | ६. पूरा करता। १०. वन पाता। ११. रचा करते, जीजा करते | 
१६० दीख पढता है। १३. याद, स्मृति । १४. जलवा | १४५ दिशाएँ भी । १६, है। १७, सना हुआ। ३८, थोडा-पा । १६, धीरे- 
घौरे। २०. शिखर २१. मेरा । २९. अब भी । २३. दींख पढती है। २४, वहाँ पर ॥२४५ काज्ञी । २६, उसको (रात को)। 
२७० इधर ! २८ उधर । २६५ से | ६३० पागढ होकर । ३१५ यहा दिया । ६२५७छाव रंग की। ३३५ फिर। ६४, विद्या दी। 
६५५ उछ पर । 


शजमुल्ला 

अम्बिकादत्त व्यास 
अम्बिका प्रसाद 

श्जु न कुमार “अशान्तः 
उमाकान्त वर्मो 

कमला प्रसाद मिश्र “विश्रः 
कमाल दास 

कम्बल पाद 

कवि उठाँकी 

कवि बद्री 

कवि सुरुजण लाल 

कवि हरिनाथ 

काशीनाथ 

कुक्कुरिपा 

केशव॒दास 

केसोदास जी 

कैद 


खलील और अब्दुल हृबीब 
खुदाबक्स 

गंगा प्रसाद चौबे हुरदूंग' 
गुलाल साहब 

गूद्र्‌ 

गोरखनाथ 

गोस्वामी चन्द्र श्वर भारती 
घाघ 

घीघ्तू 

चैचरीक 

चन्द्रभान 

चॉदीलाल सिंह 

चुन्नीलाल और गंगू 
नौरंगीनाथ 

छुत्तर बाबा 


कविनामानुक्रमणी 


श्ण्द 
१८६ 
ह).4. | 
२६७ 
२६६ 
२५७ 

है. 

१३ 
१४६ 
१५७ 
१८४ 
१६२ 
१७५४ 

१९ 
२१४ 
१२५ 
२०२ 
१७३ 
१८८ 
२६७ 
११० 
२०६ 

पृ 
२७० 

६६ 
१७३ 
२२६ 
२११ 
५ 
पज्ण 


१२४ 


जगन्नाथ रामजी 

जगन्नाथ राम, धुरपत्तर और बुद्ध 

जगरदेव्‌ 

जगेसर 

जोगनारायण 'सूरदास! 

टेक्मन राम 

ठाकुर विश्राम सिंह 

डाक 

डॉ० शिवदत्त श्रीवास्तव 'सुमित्र! 
डोम्मिपा 

तेग अली 'तेगः 

तोफा राय 

दिमाग राम 

दिलदार 

दुर्गौशंकर प्रसाद सिंह 

दुल्लह दाख 

दूधनाथ उपाध्याय 

देवीौदास 

देवीदास 

देवीदास 

देवीसहाय 

द्वारिकानाथ मिंगई 

घरनी दास 

घरमदास 

घीरू 

नथुनी लाल 

नरोत्तमदास 

नेव॒लदासजी 

पसिडत बेनीराम 

पन्नू 

पलट दास 

परमहंस राय 


१३७७ 
१७६ 
१७८ 
२१२ 
१६८ 
११६ 
२४४ 

[-ह 
२३६९ 

पृ 
१३६ 
१२६ 
पृष्ड 
प१ृ८६ 


११३ 
१२२२ 
११६ 
२०६ 
२१३ 
२१८ 
१६४ 

ध्व 

८ 
१७४ 
२७५. 
२०१ 
११३ 
१४२ 
२०५४ 
१०७ 


२२६ 


श्धर 


परमहंस शिवनारायंण स्वामी 


पाण्डेय कपिलदेव नारायण सिंद 


प्रसिद्ध नारायण सिंह 

फरणीन्द्रमुनि 

बच्ची लाल 

बठुकनाथ 

बनारसी प्रसाद 'भोजपुरी' 

बरमेश्वर ओमा विकल 

बाबा नवनिधि दास 

बाबा बुलाकी दास 
अथवा बुल्ला साहव 

बावा रामचन्द्र गोस्वामी 

बावा रामायण दास 

बावा रामेश्वर दास 

बाबा शिवनारायण जी 

बावू रघुवीर नारायण 

बावू रामकृष्ण व$्सो 'वलवोर! 


बिसेसर दास 

बिहारी 

बिह्दारी 

बेचू 

भगवानदास 'छवीले” 
भगेलू 

भरगूला 4 और बुकावन 
भट्टरी 

भ् हरि 

भागवत आचारी 
भिखारी ठाकुर 

भौखम रास 

भीखा साहब 

भुवनेश्वर प्रसाद भानुः 
भूपनारायण शर्मा व्यास 
भूछक 

भैरो 

मतई 

मद्नमोहन सिंह 


पर 
२१३ 
२०३ 
२०६ 

प््प 


२०१ 
२३२० 
११६ 
११२ 
२४१ 
रजरे 

११ 
पृष& 
१६६ 
१८रे 


भोजपुरी के कवि और काव्य 


मनोरंजन प्रसाद सिंह 

मन्नन द्विवेदी गजपुरी? 
महाकवि दरियादास 

महात्मा कवीरदास 

महादेव 

महादेव प्रसाद सिंह 'घनश्याम! 
भद्दाराज कुमार श्री हरिहर 


प्रसाद सिंह १४६ 


महाराज खड्गवहादुर मल्ल 
महेन्द्र मिश्र 

महेन्द्र शास्त्री 

महेश्वर प्रसाद 

माणिक लाल 

माधव शुक्ल 

मार्क रडेय दास 

मिट्ठ | कवि 

मुरली धर श्रीवास्तव 'रोखर! 
मृसा कलौम 

मोती 


मोतीचन्द सिंह 
युगलकिशोर 
रघुनन्दनप्रसाद शुक्ल अग्ल! 
रघुवंशजी 
रघुवंशनारायण सिंह 
रजाक 

रमैया बाबा 

रसिक 

रसिक किशोरी 

रसिकजन 

रसीले 

राजकुमारी सखी 

राम अभिलाष 
रामचरित्र तिवारी 
रामदास 

रामनाथ दास 

रामनाथ पाठक प्रणयी? 
रामप्रसाद सिंह 'पुरडरीक 


१३६ 
२१७ 
२३० 


२५७ 


१६६ 
२५२ 
२५१ 
१५७ 
१५६ 
१८८ 
१६१ 
49० 
१७४ 
२१९ 
१८० 
१६७ 
२१५ 
१६० 
&६& 
१०६ 
१११ 
२६९१ 
२३७ 


राम मदारी 

रामलाल 

रामवचन हिवेदी अरविन्द? 
रामवचन लाल 
रामपिचार पाण्डेय 
रामाजी 

रामाजी 

रामेश्वर सिंह 'काश्यप! 
राय देवाप्रसाद पूरा! 
हपकलाजी 

हुपन 

लछुमन दास 

ललरसिंह 

लक्ष्मण शुक्ल मादक! 
लालमणि 

वसन्त कुमार 
वसिष्ठनारायण सिंह 
वसुनायक सिंह 
विन्ध्यवासिनी देवी 
विमला देवी रुमा! 
विस्पा 

विश्वनाथ 

विश्वनाथ प्रसाद 'शैदाः 
शंकर दास 

शबरपा 

शायर निराले 

शायर महादेव 

शायर मारकरणडे 
शायर शाहवान 


कविनामानुक्रमणी 


११७ 
२०५. 
२१८ 
२७५. 
२३१ 
२१५ 
२२५ 
२५६ 
२१३ 
१६३ 
१६६ 
१५१ 
पृध्र 
२५३ 
१८१ 
२७६ 
४० 
२३७ 
२४६ 
शव 

१२ 
१४८ 
२५२ 
१०० 

१० 
२११ 
२०१ 
र्र४ 
२०६ 


शालिआस गुप्त 'राही! 

शिवदास 

शिवनन्दन कवि 

शिवनन्दन मिश्र “नंद? 

शिवश्रसादमिश्र रुद्रः या 
गुरु धनारसी 

शिवशरण पांठक 

श्यामघिहारी तिवारी 'देहाती” 

श्रीकृष्ण त्रिपाठी 

श्रीकेवल 

शैजोगेश्वरदास परमहंस 

श्रीबकस कचि 

श्रीलत््मी सखी जी 

सरदार हरिहर सिंह 

सरहपा 

साहेबदास 

सिद्धनाथ सहाय 'विनयी! 

सिपाही सिंह पागल! 

सुखदेव जी 

सुन्दर ( वेश्या ) 

सुबचन दासी 

सूर्यपाल सिंह 

सैयद अली मोहम्मद 'शादः 

स्वामी मिनकंरामजी 


. दरिहर दास 


हरौशदत्त उपाध्याय 
हरेन्द्रदेव नारायण 
दौरीलाल 


श्८डे 


रेज४ 
१८६ 
२६६ 
१८६ 


१३५ 
१६१ 
२५९ 
१०८ 
२१३ 
१२४ 
१५० 
१२६ 
३२९८ 


१४६ 
२४० 
२७४ 
१४६ 
१४२ 
११६ 
२७१ 

ध्प 
१९२ 
१६४ 
२४७ 
२७ 
२१० 


नामानुक्रमणी 


ध्प् 
अंगिका २७५ 
अकबर ७१.७२,७९४ 
अकबराबाद सराय घाघ ७०,०७१ 
श्रग्न ज्ञान धर 
अजमुल्ला २०४ 
अजीमावाद ध्द 
अपहर १५४ 
अफगानिस्तान फू 
अन्दुल्न हवीब १७२, १७२ 
अमैमात्रायोग १८ 
अमनपुर ६१ 
अमनौर १२६ 
अमर कहानी १३० 
अमर फरास १३० 
अमरलत्ती २६७ 
अमर विलास १३० 
अमरसार ध्रे 
अमरतसिह २२६ 
अमर सीढ़ी १३० 
अमृतसिद्धि १२ 
अम्बिकादत्त व्यास १८६,२१६ 
अम्बिका प्रसाद १४८ 
अम्बिका-भवन २४० 
अम्बिका-स्थान २६७ 
अयोध्याप्रसाद सिंह २७६ 
अरदली-बाजार १८६ 
अजुन कुमार सिंह 'अशान्तः._ २६७ 
अलस सूदी ४ (टि०) 
अवधूतिया १० 
आअवली सिलक पृष 
अवलोकितेश्वर पृ 
अशोक प्रेस, पटना २६७ 
अष्ट-चक्र १ृ८ 


अष्टपरिध्या १८ 
अष्टमुद्रा १८ 
असम्बद्धरृष्टि पृष्ठ 
असरफुटावलौ १४६ 
अस्मरनी १४६ 
अक्षर द्विकोपदेश १३ 
श्रा 
आखिरी रात २५६ 


आज (काशी)१२३(टि०),१६५,(टि०),२४७० 


आज की आवाज? २३० 
आजाद भारत की पिस्तौल २७६ 
आजादी का तूफान २७१ 
आत्मवोध १८१६ 
आदिनाथ २७ 
आमी २२७ 
आयेकन्या-विद्यालय ( पटना )._ २४६ 


ड््‌ 
इंडियन प्रोस लिमि० (प्रयाग) ११(टि०) 


इत्सिग श्८ 

इन्द्रभूति १३ 

इन्द्रसेन २६ 

इन्द्रदेवता १८ 

इलियट-हिस्ट्री ऑफ इंडिया ४(टि० ) 

इसुआर १०० 
ईश्वरी प्रसाद झुक्सेलर 

चौंक; पटना सिटी. १८८ (दढि०) 

इंस्ट इंडिया कम्पनी १४६ 
ड 

उपन्यास-दर्पण १६७ ( दि० ), 

२१२ ( ढि० ) 

उमाकान्त वो २६६ 
क्र 

ऋतुराज ओमा १० 


नामानुक्रमणी 


प्‌ 
एक्ट्री श्र 
श्रोफल १५२, १५३ 
ओडिविश १३ 
ञ्नौ 
आँधरा १६ 
और॑गजेब ६४, रेढ३ (दि०) 
औरेया-मठ १३ 
क 
कंकहरा ११९७४ 
क-ख-दोहा _ ६ 
क-ख-दोहा टिप्पए ६ 
कजरी-संग्रह २१७ 
कंजलौ-बौमुदो १८६५ १६६ २०१, 
२११, २१०, २५७, 
कण्हपा १२ 
२०२, २१० 
कन्दंपाद श्३े 
कन्हैयालाल हृष्णदास १६७ 
कपिल ओमा १०३ 
कपिलदेव शमी ष्घ्६ 
कपिलवस्तु १४ 
कपिलायनी २६ 
कपिलेश्वर भा , ५६, ६०, ६२ 
कंपिलेश्वर शमो ६१, ८६ (टि०) 
कबीर (दास)|। ७, ३२, रे४, २५५ २६, 
३७, ३८; ४०, ४१) ४४, 
४५, ४६५ ४७, '४८) ४६, 
५.०) ५२५ ४४, ५५, १९३ 
४७, ४८५ ९२३ १३० 
कवौर-पंथी १२४, १२५, २१४ 
कमलाप्रसाद मिश्र 'विप्र'. १८७, २५७ 
कमालदास ४७, ढं८ 
कम्बल-गौतिका पड 
कम्बलपाद /» ४ १३ 
कजो १०३ 
कलयुग-बद्दार नाठक ३२० 


श्ष्प 
कलियुग-बहार २१२० 
कल्याण! का योगांक._ १५, ३० ३९, 
४८ ( दि० ) 
कल्याण का संत अंक! २१५, २२४ 
कल्याणपुर २४० 
कवलपटटी १०२ 
कृचि टाँकी १४६ 
कचिता-कौमुदी ७०, २२३, २२७ 
कंषि बद्री १५७ 
कविवर ईशः ७४ (टि०) 
कवि दरिनाथ १६२, १६१ 
करतौछन पुस्तकालय, 

नखास चौक, गोरखपुर १८१ 
काठियाबाड़ गोरखमढ़ी १५. 
काफिरबोध १८ 
कामता सखी १३० 
कायकोषअस्त वजगौतति ६ 
कोल-चरित्र ध्र्‌ 
कालिदास २४७ 
काशीदास १०३ 
काशी-नागरी-प्रचारिणी पुस्तकालय, १३६ 
(ढि०) 
काशौवाथ १७४, १७६ 
काशौनाथ पाठक ११४. 

काशी पेपर स्थोसे, बुलानाला (काशी) 
१८६, २५७ (टि०) 
काशी-विश्वविद्यालय २५४, २६६, २७५४ 
कीना राम १५४० 
कीत्तन-मंजुमाला २७३ 
कीत्योनन्द सिंह २१६ 
कुजनदास १७८ 
कु डवा चैनपुर ७० 
कु वर॒पचासा ११७ 
कु दर विजयमल 8 
कुँदर सिंह. १२७, १२८, १२६, २१६, 
२२६,२२१, २२५ (दि०), 

२६६, २७७ 

कु वरसिंह-नादक २७६ 


भोजपुरी के क्रवि और क्राव्य 


श्पद्‌ 
कुक्कुरिपा १४ 
कुणाल २७४. 
कुतुपुर ९३० 
कुन्द्‌ कु बरि ६०; ध्रे 
कृतवास रामायण श्र२ 
कृषि प्रेस ( छपरा ) २४ 
कृषि-रत्नावली ७० 
कृष्णदेव उपाध्याय १५८ 
कृष्णलाल २१३ (टि०) 
क्रेव>-अनुराग २४० 
केवल २१३, २१४ 
केशवदास २१३४, २१५ 
केसर गुलबहार १८७ 
केसोदासजी १२५, १२६ 
कैद २०२, २०३, २१० 
कोइलिया २६१ 
कोड़ारी २७५ 
कोरिया ४ (टि०) 
कौलौय १७ 
ख 
खजुहझे २७६ 
खड्गपुर २२० 
खड्गविलास ग्रेस (पटना). १३६; १८६ 
खयालात शाद्‌ ध्द 
खलील १७३, १७३ 
खाणी-वाणी पद 
खानपुर बोहना ११२ 
खिद्रिपुर २१० 
खुदाबक्स पृद८ 
खोना ५६, ६०, ३ 
गंगा का (पुरातत्त्वांक' ४ (टि०) 
गंगाप्रसाद चौबे 'हुरदंग! २६७ 
गंगू १७५४. 
गउरा १५४८, १४६ 
गजनी ६ 
गजपुर श्र७ 
गजपुरी ६ 


गजराज ओमा १६ 

गणेशगोष्ठी धर 

गणेश चौथे ११६, १२२ (टि०), १२४ 
(दि०), १६८, १७८ (दि०), 
१८४ (टि०), २०१ (टि०) 
२१३, २१५ 

गया प्रसाद पद 

गाँव के ओर २१८ 

गीताजलि २७३, 


गीताप्रेस (गोरखपुर) १४(टि०), ३०(टि०) 


गुडी १०३ 
गुनावन २७६, रै८० 
गुमला १८७ 
गुरु अन्यास १०४ 
शुरु गोविन्द साहब १०७ 
गुरु चनारसी २३५ 
गुलाल साहब ११०, १११ 
गुल्जृप्रसाद केदारनाथ, 


कचौदी गली, घनारस १७६ (टि०) 
२०२, २०८ (टि०) 


गूज़र १६५ 
गृद्र २०३, २०६, २१० 
गैबी दे 
गॉडा ० 
गोआ १००, १५४ 
शो-त्रिकुटी प्रकाशिका २२२ 
गेपाल ओमा १०३ 
गोपालपुर २३७ 
गोपीचन्द २६, ३०; 
गोरख गणेश गुष्टि १०, १६ 


गोरखदत्त गोष्ठी (ज्ञान-दौप-बोध ) १८ 


गोरखनाथ ४, १, ६) ७, १४; 
१५, १६) १७, १८; 
१६, २०, १२३, २४, 
२५, २७; २६, ३० 
गोरखनाथ टिला १२ 
गोरख बानी न] १५५ १७, १८॥ १६, ,२० 
गोरख वचन पृ 


नामानुक्रमणी 


गोरख-सत १८ 
गोरज् गीता १६ 
गोरच्नाथ ७, १४५ १६, १७, रे८, 
धि २६, २३०, ६९ ६३, ७३ 
गोरक-पिष्टिका १६ 
गोरख-शतक १६ 
गोचिन्दसचंद ३० 
शोविन्द प्रेस, ( बलिया ) ६० (०) 
भोविलाप छन्दावली २२२ 
गोस्वामी चन्द्रेश्वर भारती २७० रे०१ 
श्यान चौंतीसा पद 
भ्यान-तिलक १४, ५८, पै& 
प्रग्थ रासनी १३० 
प्रन्थसाहब १३० 
प्रामगीतांजलि २२६ 
प्राम-पंचायत-पत्रिका ३६१ 
प्रियसेन... १४, ६१ ८६३ ५७ ११% 
११७, १९४५ ( दि० ); 
१४४, १५५ 

च॑ 
धाघ ४६, ९१ (टि० ), ९४ 


७०, ७१; ७२, ७३, ७३; 
७५, ७७, ७८) ७६, ८१ 
प्र, दरे; ८७, ८६ 


धाघ और भइटरी (पुस्तक) ४८, ६० ९९ 


धरे, (्‌ ०); ७६, 
७१ (०) २ 
(दि०); ७३, ८६५ 
प्‌ 
घी-चोर-बहार २२० 
धौसू १७३, १७४, 
ष्च 
वंचरौक २२६ 
चक्रस॑बरतं॑त्र १२ 
-चन्दचार पृण्ड 
, चनन्‍्दा अखौरी २४१ 
चन्दाडीह ११४ 
चन्द्रनाथ योगी प्ूः (5०) 


श्ष७ 
घन्द्रभान २११ 
चन्द्रसेन २६ 
चपेटनाथ है 
चर्प॑टिपा १४ 
चचोचयविनिश्चय ११ (डि०) 
चॉदी का जवानी २५४ 
चोंदौलाल सिंह रपट 
चितबड़ा २३३ 
वित्तकोष आत्मवज्गोति पु 
चित्तगुहय गंभौरार्थ १० 
चुन्नी दास घ्ड 
चुन्नी लाल १७. 
चैनपुर ध्ड 
चैपमैन गल्संस्कूल २४६ 
चौगाई रेप 
चौधरीसराय ७१ 
चौबीस सिद्धि पृष्ठ 
चौर॑गीनाथ ४, ५, $ ७, ८ 
चौवर्णपद्वी ३१० 

च 
छत्तर बाबा १२४, १२५ 
चुन्तूलाल १७६ 
छोई २३ 
छोटी पियरी २०६ 
छोटे विश्वनाथ २०२ 
जं 

जँतसार ११७, २९६ 


जगजीवन साहब ११०,१३ ११४, १६ 
जगन्नाथ ( जगरनाथ ) रामजी १७७ 


पृ७पड २०६ 
जगन्नाथ राम १७६, १८० 
जगनिक श्े९े 
जगरदेव १७८, १७६ 
जगेसर २१९, रे 
जयपुर १६ 
जयक्री १६ 
जलालंपुर १०७ 


श्ष्द 
जहाँगौर है] 
जाति भौंरावली छंदगोरख दर 
जाफर १६५ 
जाज प्रिंटिंग प्रेस, कालभैरव 
( काशी ) २५६ (रि०) 
जालिम सिंह २४६ 
जुडावन पवेत ६१ 
जैन-पन्थ-भारडार डे 
जैसल भू 
जैसलमेर ५ 
जोगनारायण सूरदास १६८, १६६ 
जोगेश्वर दास 'परमहंस'. १२४ १२५ 
जोधपुर १६ 
जोध राय ६० 
म् 
भुखरा ११६ 
संगह पुराण उफ टिसल-वतकही. २७४ 
भूमर-तरंग ११५, १७८; १६९ 
भूलन प्रमोद-संकीत्त न १६७ 
द्ठ 
टॉड | 
झु्न्नू १६५४ 
रेकमन राम ११६, १२०; १२१; १९९ 
रेकारी ( गया ) ध्१ 
टेम्पुल ५६ 
टेस्पा १३० 
ढ़ 
ठाझर केदारनाथ सिंह वी०ए०.... ७१ 
ठाकुरप्साद गुप्त, बंवई प्रेस, 
राजादरवाजा, बनारस २७० (रिगे, 
ठाकुरप्रसाद वुक्‍्सेलर (बनारस) १७१ (ठि०) 
१८७ (दि०), २४६ (टि०) 
ठाकुरप्रसाद मिश्र १८८ (टि०) 
अकुर मुखराम सिंह श्श्द 
ठाकुर विश्राम सिंह रपट 
ठाकुर प्रसिद्धनारायण सिंह ६०, 
११२ (ट०) 


भौजपुरी के कवि और कांव्य 


ड़ 

डंक ५६, ६०, ६३ 
डाक ४६, ॥] ० ६१ न 
श्र ६६५ ८, 

८६, ६० 

डाकिनी वज़गुहय-गीत ६ 
डाकोत ५६, ६०, ६३ 
डाक-वचनावली. ६१; ६३; ५६, &० 
डॉक्टर उदयनारायण तिवारी ३३, ६४ 
डॉक्टर धर्मेन्द्र अह्मचारी शास्त्री ६२ (2०) 


डॉक्टर पौताम्बरदत्त वदथ्वाल॒ ४५ 
१५५ १ $$ १ ४, पद 

डॉक्टर वलभद्र मा ३ 
डाक्टर भगवानदास २१६ 
डॉक्टर भद्मवार्य १३ (दि०) 
डॉक्टर रविन्सन ६ 
डॉक्टर शिवदत्त श्रीवास्तव 'सुमित्र! २३६ 
डिंडपुर ३० 
ढिहरी १५० 
डुमरॉव &६, १५०, १७४; 
२४३, २४३, २६३ 

डेवढ़िया १५३ 
ड्हना ११६ 
डोम्बियीतिका १३ 
डोम्भिपा १२,१३ 
हुंढिराज गणेश १८३ (टि०्) 

त 

तत्वसुखभावनानुसारीयोगभावनोपदेश १४ 
तबजूर & (ढि०), १०, ११ 
| १९, १३, १४ 
तरंग ३३५ 
ताड़ी-वेचनी र्जर 
तारादत्त गैरौला १६ 
तिरंगा १५७ 
तिवा १ 
तिलंगा १५१, १५३ 
तुलसी ( दास ) १३०, २४० 


नांमानुक्रमणी 


तेमअली 'तेग! १३६, १५३ 
तेजू राम २१ 
तोफा राय १२६ 
ब्र॒टर १२ 
ब्रिकुटी २१, ११३, १३५ 
त्रिपिटक १३ 
ब्रिलोचन शास्त्री २६६ 
दयाबोध १८ 
दयाराम १६५, १६६, १९७ 
दयारास का बिरहा १६१, १६५, १६६ 
दरियादास ६२, ६३ 
द्रियासागर ध्र्‌ 
दरोहटिया २७४ 
द्रौंदा २७० 
दशाश्वमेघघाट १६० 
दत्त प्रजापति २६७ 
दाड़िया 

दामोदर सहाय सिंह 'कविकिंकर” 

११४ (ढि०), २७२ 
दि्घवारा २४०, रेणर३े 
दिमागरास १६४; १६४ 
दिलदार १८६ 
दिलौदोस्त २७४. 
दिलीपपुर १४६, २७८ 
दौनार + धरे 
दौवान १३६ 
दुखहरन १०४ 
बुबरिया १०२ 
दुबोली २१८ 
दुमदुम ११२ 
दुगगोदत्त व्यास १८६ 
दुर्गोशंकर प्रसाद सिंह र्७८ 
दुलदुल १५२ 
दुधनाथ २२० (टि०) 
दूधनाथ उपाध्याय १२२ 


दूधनाथ प्रेस, हवढ़ा (कलकत्ता) २६, १७२ 
(ढि०), २००, २४३, २७१ (दि०), २. 


रथ 
दूबिन्दू २६६ 
देवकली पृ 
देवनागर ६६ 
देवपाल १९, १२ 
देवीकोट १२ 
देवौदास ११६, २०६, २१३ 
देवी सहाय २१८ 
देहात के हलचल २७४ 
देहाती दुल॒की २५२ 
दोहाकोष १२ 
दोहाकीष उपदेशगीति & 
दोहाकोष गौति & 
दोहाकोषगीति (तत्वोपदेश शिखर) ६ 
दोहा-कोषगीतिका-भावना-दृष्टि ६ 
दोहाकोष-चयौगीति ६ 
दोह्ाकोष-महठमुद्रोपदेश ६ 
दोहाकोष-वसन्ततिलक ६ 
द्ोपदी-चौरहरण १८७ 
द्रौपदी-रक्ता २४० 
द्वादशोपदेश गाथा & 
द्वारका १४ 
द्वारिका प्रसाद (नाथ) (सिंगई!._ १८६, 
१६०, १६४ 
ट्विजबेनी २१३ 
घ्‌ 
घनलूहों २६१ 
धन्वन्तरि ५६ 
धामार-गीत १०६ (टि०) 
धरकंधा हर 
घरनौदास ७, ६४, ६५, ६९, ६७ 
घरमदास ४८, ४६, ५०, ५१, ५२, 
१३, ५४, ४५, ५१ ४७, ४८ 
धरमनाथ १५ 
धर्मपाल १० 
घार १४९ 
धीरघर दूबे ७), ७२ 
घौढ पृडई 


१६० भौजपुरी के कवि और काव्य 


धुन्धराज १5३ 
घुर॒फ्तर १७६ 
न 
नकास पैफरे 
नखशिख १४६ 
नगरा १८३ 
नगवा श्श्रे 
नचाप २४६ 
नथुनी लाल २७५. 
ननद-भौजाई | २२० 
नन्‍्द्रानी देवी १३८ 
नयागाँव २१६, २७७ 
नर वे बोध १८; १६ 
नरोत्तम दास २०१ 
नर्मदेश्वर प्रसाद सिंह 'इंशः श्७८ 
नवगप्रह पृ 
नवरात्र पद 
नवीन बिरहा २२० 


नहरललबडू>-नागाजु नी कोंडा & (टि०) 
नाईपुकार 


२३२० 
नागनाथ १६ 
नागबोधि १२ 
नागर १५३, १५४३ 
नागाजु न ६, १० 
नाडी विन्दुद्वारे योगचयो १३ 
नाथ-सम्प्रदाय ३, ४, ७ (टि०), 

१४; १७, २८ (टि०) 

नारघार १४३ 
नारद है 
नारनौल १६ 
नालन्दा ८, ११, १२ 
नासिक श्रेस (छपरा) ध्ढ 
निरंजन-पुराण १ृ८ 
निगु णुभजन पंचरत्न २७१ 
निमलज्ञान हरे 
नीति शतक श्८ 
नीमनाथी-पारसनाथी २६ 
नीयाजीपुर ३२१८ 


न्रअली ३३ 
नेवलदास ११३, ११४ 
नेनी २१७ 
प्‌ 
पडरीना ० 
पँवार ६ 
पँवारा कैसरेहिन्द २४६ 
पंच अरिन पृ 
पंचसातन्रा १६ 
पंचर २४६ 
पंच सिद्ठान्तिका प६ 
पकड़ी १६१ 
पटेश्वरी १६ 
परिडितपुर १२५, १२६, २१४ 
पणिडत वेनौराम १४२ 
पद १०, १६ 
पश्म चञ् १४ 
पद्मावती १७ 
पन्द्रह्तिथि १८ 
पन्नू २०५, २०६ 
परमदहँसराय २२६ 
परमहंस शिवनारायणस्वामी १०४, १०५, 
११९ 
परमार २६, १४६ 
परमाल रासो १९ 
परमेश्वरीलाल गुप्त १६१, १६५, 
२०७ 
परशुराम ध्ड 
परशुराम ओमा १०३ 
परसंता पूरन भगत 4 
परसा २७४ 
परीक्षित ५६ 
पलट्ूदास १०७, १०८; 
१६०) १६२ 
पलट्टपंथीसम्प्रदाय १०७ 
पाण्डेय कपिलदेव नारायण सिंह. २७२ 
पाण्डेय जगन्नाथ ग्रसाद सिंह २७२ 
पिंगला २६, २० 


नामानुक्रमणी 


पिजेंट लाइफ ऑफ बिहार ७३, ८७, 
४ ८६३ ६० 
पिडयन १६ 
पिरणडी डे 
पीरमहम्सद सूनिस ७०, ५२ 
पुत्नवधनाटक ३६० 
पुरइन के फूल २६१ 
पुरातत््व-निबन्धावली.. ८) १३ (दि) 
पुरोहित हरिनारायण ३० 
पुस्तकालय एंड प्रेस, सूताप्टी (कलकत्ता) 
३२० (ठि०) 
पूरनभगत श्र 
पूरनरद 3० 
पूर्वी का पिताम्बर १४६ 
पूर्वी तरंग १७१; १७२, १७४) 
है १७५, ९०५, २०६ 
पूर्वी दिलबद्दार श्ण्८ 
प्रकोशवती नारायण दछछ 
प्रतिपौड़ी हर्तलेख & 
प्रसिद्ध नारायण सिंह श्३२ 
प्रह्मद्‌ १८७ 
प्रशापारमिता १३ 
प्राण संकलौ ४) ९ ७) 5 
प्रिंटिंग प्रेस (गोरखपुर) १८१ 
प्रेम-तर॑गिनी ११७ 
प्रेम-प्रकाश ध्ड 
प्रेममूल ६९ 
फ 
फरणीन्द्र मुनि दै2० 
फिकरेवलीग ६८, ६६ 
फ़िर र४ रे रेवव 
फोक लोरस फ्रॉम वेस्टन गोरखपुर 
३०५ २१ 
॥ | 
दँगरी १६८ 
बेंसवरिया २५२ 
बैंगोय साहित्य-परिषद्‌ (कलकत्ता) ) 
डर | 


२६१. 

बगाढ़ी २७५. 
बच्चीलाल १७६ 
बच्चूलाल दूबे जप 
बडकनाथ १७६ 
बटुकनाथ प्रेस, कबीर चौरा (बनारस) 

१७६ (दि०) 
बटोहिया २१६, २१७ 
बड़का डुमरा ११४. 
बड़हरा ०१३, ३८, दरे४८ 

५ २६६; २७१ 

बड़ा गाव ११२ 
बढ़ी गोपालगारी २०० 
बड़ी पियरी ३२०२ 
बड़ी प्यारी उुन्दरी वियोग १०१ 
बत्तियाँ जला दो १५६ 
बद्माश-द्रपन १३६, १४३ 
बदायूँ. १८७ 
बनारसी प्रसाद भोजपुरी? २३८ 
बनारसी (प्रसाद) वर्मो १६७ (ठि०), २१९ 
बनैली २१६ 
बुरा २४०८, २७१ 
बम्हनगोंवा ०३, १ ण्डे 
बरमेश्वर ओमा 'विक्ल! २६६ 
बरसाती चाँद पेश 
बरेजा २७२ 
बलदेव उपाध्याय २३१८, रैशढ 
बलबिरवा १४३, १४४) १४५५ १४६ 
बलिया के कवि और लेखक &०, ११९ 

(ढि०), ११४ 
बलिया बलिहार ररे९ 
बसन्तसाहु, बुक्सेलर (बनारस). १९६ 
बसूला १३६ 
बहरा बहार रै३० 
बॉकाछुबीला गवैया. १७६) ९०६) ९०६ 
बॉस गांव ११७ 
बॉसडीह ) 
बाघ राय पैर 
बाबा कौनारामः ह 


नह 


शहर 
बाबा नवनिधिदास ११४, ११४. 
बाबा बुलाकी दास (राम) ६०, ६१, ६२, 
१०६, ११० 
बाबा भीखमराम १०७ 
बाबा रामायणदास ११४ 
बाबा शिवनारायण ११४. 
बाबा हरिदास १६ 
बाबू रामकृष्ण वो बलवौर!. १४२ 
बाबू शुकदेव सिंह ६१ 
बालकिसुन दास १०३ 
बालबॉघ २२६ 
बालापुर ११७ 
मारहमासा ३०, ३१ 
बिकुटी श्र 
बिजईपुर पद 
बिजली (सा० पत्र) २७७ 
बिदेसिया १८१, २२०, २९९ 
बिधना का कतोर २६ 
बिर्मा ध्द 
बिरहा नायिका-मेद्‌ १४३ 
बिर्‌हा बह्दार १६६, १७०, २२० 
बिसेसरदास १७८ 
बिस्मरनी १४६, १४७ 
बिहार के कृषक-जीवन श्र 
बिहार पिजेंट लाइफ ६१ 
बिद्वार-राष्ट्रभाषा-परिषद्‌ ४२ (टि०), २१६ 
बिहार हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन. १०३ 
बिहारी १८७; २०७, २०८ 
बो० एन० मेहता, आई० सौ० एसू० ५६, 
६०, ए९५ ७०, ८६ 
वीबौगंज १२७ 
बीसू १६६ 
बुभावच २०६, २०७ 
बचुदसाला का बयान २२० 
बुद्धकयाल तंत्र & 
बुद्धायन २६७ 
बुद्ध १७७, १७६, १८० 
२४६ 


भोजपुरी के कवि और कांव्य 


बुलाकौदास की मठिया ६१ 
१७२ 
बेटी-वियोग २२०, २११ 
बेतिया १६१ 
बेलवनिया ११२४. 
बेलवेडियर प्रेस ( इलाहाबाद ) ध्र्‌ 
बैजनाथ असाद बुक्सेलर ११५ (टि०), 
१६४ (डि०) 

बैरगनिया 
बौद्धथान ओ दोहा ६ (दि०), ११ (ठि०) 
पृद 
बह्ा-विवेक ध्र्‌ 
बह्ा-वेदान्त ध्र्‌ 
प्रिगूस १५, २६ (दि०), ३० (टि०) 
ब्रिड्स ६ (5ि०) 
ब्र्क्स १४. 

भ 

भगवानदास “छुबीले? २१३ 
३०३, २०४ 
भग्गूलाल २०६, २०७ 
भजन-पन्य १०४ 
भजनावली १५४, १५४. 
६१ (टदि०), ८८ 


भइटरी (भड्ली) भ्ण, ४६, ६ ् ६ १ (डि०), 
१३९ ९२) ६४) ९५, ९६ ६७ 


६८) प३२, ८७, ८८, ८५६, ६० | 


भइलौपुराण ६०५ 8९५ श्रे 
भक्तमाल १६३ 
भक्तिहेतु ध्रे 
भरती का गौत २२२ 
भरथरी ३८, २६, ३०, २%३१२ 
भरथरी-चरित्र २६ 
भरौली २५७ 
भतृ हरि २८) २६, ३०, ३२ 
भल्लरी &६० 


भाई विरोध (नाटक) १८७, २२०, २४६ 
भागवत आचारी २०१ 
भाड़ भ््ध ६०, श्र 


नामानुक्रमणी 


भातगाँव १६ 
भारत-जीवन (पत्र) १४२ 
भारत-जीवन प्रेस (काशी) १३६ (ठि०) 

१४३, २१३ 
भारत श्री २५६ 
भारतीय चरिताम्बुधि उ० 
भारतेनदु दरिश्चन्द्र १३६, १४१, १५४, 


१५४, १८६५ १८८ 

भाग॑व-पुस्तकालय, गायघाट (काशी) 
१८० (ढि०), ३०१ (ठि०), 
२२४ (टि०), २७३ (टि०) 


भिखारी गोस्वामी २५४, २५६, २५७ 
भिखारी चउजुगी २२० 
भिखारी जयहिन्द खबर २२० 
मिखारी ठाकुर २२०, २२१, २९२, २४६, 

| २५७, २६६ 
भिखारी-भसजनमाला २२०, २२२ 
भिखारी शंका-समाधान २१० 
भिन्नी २६, ३० 
मिनक राम ११६, १२०, १२१, १२२। 
मिन्षा-वृत्ति १०३ 
भीखम राम ११६, १२०, १२१, १२२॥। 
भौखानन्द ११२, ११३ 
भीखा साहब ११२ 
भुवनेश्वरुनाथ मिश्र 'माघव! ६० 
भुवनेश्वर प्रसाद भानु? २४१ 
भुरकुडा ६० 
भूपनारायण शत. २३०१ (टि०), २१४ 
भूपनारायण शमो व्यास! १७रे 
भूछुक ११, १९ 
मैंसा बाजार २२६ 
मैरोदास १७६, १७७, १८८; १८६५ 

हु १६०, १६१, १६९, १६४ 
भोगमती १६ 
भोज ३० 
भोजदेव २६ 
भोजपुरी रेह८ 
भोजपुरी का साहित्य-सौष्ठद.. * १६१ 


श्ध्रे 
भोजपुरी प्राम-गीत १५८ 
भोजपुरी निबन्ध-संग्रह २७६ 
भोजपुरी गोकंगीत में करण रस॒ २७६ 
भोजपुरी लोकगीत में शान्त रस॒ २७६ 
भोजपुरी लोकगौत में श्र गार रस 
ओर वीररस २७६ 
मंगल गीत ११४ 
मंगल गीता ११९४ 
मंगल पाण्डेय २३३ 
मकड़ी के जाला २६६ 
मखदूस १६६ 
मछिन्द्रगोरख बोध १८) १६ 
मछेन्द्रनाथ (मत्स्येन्द्रना) ४, 5; १५५ 
१६, १७ १३, 
पू छ, ३० 
ममौली पे । रे 
मणिसद्रा १ 
मतई १६६, १६७ 
मदनमोहन मालवीय ७३) २२६ 
मदनमोहन सिंह १८३ 
मधये स्वामी पिराग दास ३२० 
मधुबन ११९ 
मधुर जौ ११५ (6०) 
मनसा पॉड़े बाग २४० 
मनोरंजन रेरे८ 
मनोर॑जन प्रसाद सिंह श९३ 
मन्नन ट्विवेदी 'गजपुरी! २२७ 
समयमामता २६ 
मर्चेंसट ऑफ वेनिस २७५ 
मलद॒हियां १७६ 
महंथ रामदास हद 
सहंथ हरलाल साहब ११९ 
महादेव १७१, १७२ 
महादेव गोरख हर का १८ 
् ध््, 
महादेव असाद सिंह 'घनश्याम ५ पर 
महाभारत नाठक १९३ 
महामुद्रा न्‍ 


श्ह४ 
महामुद्रा वज्गौति १० 
भद्दामुद्रोपदेश बज गुल्न-गीति & 


महाराज कुमार गिरिजा प्रसाद सिंह १४६ 
महाराज कुमार श्री भुवनेश्वर प्रसाद 


सिंह १४६९ 

महाराज कुमार भ्री हरिहर प्रसाद सिंह 
१४६, १४७ 
महाराज खड़्गबहादुर मल्ल १३६ 
महाराणा प्रताप कौ जीवनी १८३, १5४ 
महावीर प्रसाद द्विवेदी २२३ 
महावीर सिंह १८३ 
महीपाल ३० 
महेन्द्र-मंजरी २१७ 
महेन्द्र मिश्र २१७, २१८ 
महेन्द्र शास्त्री २३० 
महिश्वर प्रसाद २५७ 
माँझी ध्ढ 
मातादीन द्विवेदी २२७ 
माधव शुक्स २२३ 
माधोदास २० 
माधोपुर ११६ 
साचपुर २७३ 
मानिक लाल १६८ 
मानकौर ( मान्यखेट ) ४( दि०) 
मारकएडेदास १८८; १८६ २२४ (ठि०) 
मारकरणडेय दूबे ७१, ७२ 
मार्ग फलान्विताव वादक १२ 
मालीपुरी १०७ 
मिट्ठ कवि. १६१, १६५, १६६, २०७ 
मिथिलाबहार संकीत्त न २७३ 
मियो काद्रयार ५ 
मिजोपुरी कजरी १७३,१७४, १७४५ 
२०५, २१२, २१३ 
मिजीपुरी च्‌ठा १६६ 
मिश्रबन्धु-विनोद ० 
मिश्रबलिया २१७ 
मिसिर १५१ 
म्रिनिया | १४ 


भोजपुरी 'के कवि और काव्य 


मूँ शी अम्बिकाप्रसाद झुख्तार १५४, १५४ 


मुशी जगमोहन दास १२६ 
मूंशी दलसिंगार लाल. ११६ 
भुशी प्रयागदत्त कानूनगो ११४ 
मुंशी भागवत प्रसाद २४३२ 
मुंशी युगल किशोर लाल ११६ 
मुंशी शिवद्यात॒ लाल ११४ 
मुकुन्दल्ाल गुप्त विशारद्‌ ७० 
मुकुन्द शामो ६१ 
मुकुन्दी १७६ 
मुबारकपुर १६१ 
मुरलीधर श्रीवास्तव २६६ 
मुरारपाही ११५ 
मुरुच॒ल जहब ४ (दि०) 
मुल्तान ह्ष्८ 
मुस्तफाबाद ६१ 
मुहम्मद कासिम ६, 
मृत्ति-उखाड़ हरे 
सूल गौवली १८ 
मूसा कलौम २६५ 
मुगस्थली १६ 
मेघनाथ बच २१७ 
भेलाघुमना २५६ 
मेलाघुसनी २४० 
मेवालाला एंड कम्पनी (बनारस) १७६ 
मैन्नीपा १० 
मैना पद 
मैनावतो २६,२० 
मोछं॑दरनाथ __ २२७ 
मोती १६६ 
मोतीचन्द्‌ सिंह २५२ 
मोरंगा श रे. 
समोरंगी  हड 
मोहन श्रेस ( छुपरा ) र्ज्ड 
मौजमपुर २६६ 
मौनी बाबा ११२ 
य्‌ 


[. 


यमारि तंत्र ० से : ॥३ 


नामानुक्रमँणी 


यशोदानन्दन अखौरी ६६ 
यशोदासखी-स॑चाद २२० 
यज्ञ-समाधि ध्र्‌ 
युगलकिशोर २५१ 
युक्तप्रान्त की कृषि-सम्बन्धी कहाव्तें ७० 
योग सम्पदायाविष्ठाति पर 
रंगोली दुनिया २११ 
रंग कम्पनी, रघुनाथपुर ( शाहाबाद ) 

२५६ ( टि०) 
रघुनन्दन गोस्वामी २५५, २५६ 
रघुनन्दन प्रसाद शुक्त अटल? २५७ 
रघुनाथपुर २५१, २६७ 
रघुवंश र्४७ 
रघुवंशजी १५६ 
रघुवंश नारायण सिंह २४८ 
रघुवीर नारायण... २१६, २१७, २७७ 
रघुबीर पन्न-पुष्प २१७ ( टि० ) 
रजब २० 
रजाक १६१, १६५) १६६, 
रतनपुरा ६१ 
रत्नाकर १४२ 
रमण-वज ३० 
रमैया बाबा १४० 
रसरा श्ण्८ 
इसिक: १७४, १७४. 
रसिक किशोरी २१२ 
रसिकनन १७४) १८०) १८१ 
रसौले १६७ 
रहरास पृ८ 
राग पंजाबी ध्ड 
राग बंगला ह्ड 
राग मैथिली ध्द 
राजकुमारी सखी २१५, २१६ 
राजनारायणगिरि २३१० 
राजवल्लभम सद्दाय २ 
राजागज ६ 
राजा भोज ३ 
राजा रसालू ४५७ १३ 


श्ह 
राजेद्-कॉलेज (छुपरा) २४३, २६२२७४ 
राधारमण जी ११२ 
राधेश्याम-बहार २२० 
राम अनन्त द्विवेदी शेप८ 
रामअभिलाष १६०, १६१ 
रामचन्द्र गोस्वामी २५४, २४६ 
रामचन्द्र (चनरू राम) १४४ 
रामचन्द्र शुक्ल ३३ ७, १६५ १७ 
१८; रेररे 
रामचरण दूबे ७१ 
रामवरितमानस २२ 
रामचरित्र तिवारी ६६ 
रामजन्म बैया २७३ 
रामजी पर नोटिस २७० 
रामदास १०६ 
रामदेवनारायण सिंह ध्ड 
रामनरेश त्रिपाठी. ७, ५5, ५६, ६०, 
श्र, धरे ६६॥ ७०, 
७१, ७२, ७३५ 
७४, ८५६. ३१६ 
रामनाथ दास १११, ११२ 
रामनाथ पाठक अरणयां २६१ 
रामनारायण त्रिवेदी २७१ (टठि०) 
रामपुर ७० 
रामप्रसाद सिंह 'पु'डरीक? २३७ 
राम मदारी ११७, ११८ 
राममोहन-पुस्तकालय 
(कलकत्ता) २७१ (टि०) 
रामराज २७४ 
रामलाल - ३०४. 
रामवचन हिंवेदी “अरविन्द! २१८ 


रामवचन लाल २७४. 
रामविचार पाण्डेय २३१ 
रामविवाह पर८० 
रामाजी २१५, २२५, २२६ 
रामावतार शमो २१६ 
रामेश्वर दास १०२, १०३ 
रामेश्वर सिंह काश्यप २५६ 


२६६ भोजपुरी के कवि और काव्य 
राय देवौप्रसाद 'पूर्! २९२३ बज घंटापाद ( घंटापाद ) १३ 
रायपुर २७३ वेज्भयान १३ 
रावलपिंण्डी ६ पडसूवथ रेज्४ 
राष्ट्रकूट है| (5०) चघुड़ी ११७४ 
राहुलभद्र ८ बराहमिहिर ४६, ६०, ६९, ७२, 
राहुल सांहृत्यायन ३,१७, २७६, (दि०) 
राज्ञौ ८ पेंसतिकुमार २७६ 
र्सिलि ६ पेसिष्ठ नारायण सिंह. १२४०, २४१ 
ह्पकला १६३, १४४, २१६. पेसुनायक सिंह रे३े७ 
ड्खानी ११६ वाक्‌कोष रुचिरस्व॒र-वक्षगीति ६ 
हुपन १६६ विसेट आयर १२७ 
रूपवलियामठ १२४ विक्रमादित्य ५, २६, ३० 
रोबट २५६. पिम्रमादित्य शकारि ६२ 
रोमावली १८) १६. विद्यानगर र्‌३े 
ल्ञ विद्यापति ७ 
लख उलिया ११४ विधावा-विलाप २२० 
लछुमन १४५१, ११२ विनोदानन्द - थेड़ 
लम्पट लुदेरा २७१  पिन्ध्यवासिनी देवी २४६; रे४७ 
ललर सिंह... १८६, १६०, १६२, १६३. विमला देवी रमा? रेवरे 
लर्मण शुक्ल मादक! २५३ विरुप-गीतिका १२ 
लक्त्मीदास १३० विरुष पद्‌ चतुरशीति १२ 
लक्टमीसक्षी जो. १३६; १३१, ११९, विरुष-वज़गौतिका १३ 
१३३, १३४, १३४५ विरुपा 3 १९, १३ 
श्र विवेक मारतंण्ड १९ 
लाट ४ (टि०) पिवेक॑सागर धर 
लामा तारानाथ १३ विशाल भारत ( कलकत्ता ) ६०, ८६ 
चाल १३६. विश्वनाथ १५८, १४६६ 
लाल प्रन्थ १०४ विश्वनाथ प्रसाद 'शौदा? २६६३ 
लालमणि १८१, १८२,१८३ विश्वनाथ श्रसाद्‌ सिंह २७८ 
लाला भगवान 'दौन' १३६ विश्वमित्र २४७ 
लीलावती १८०७. विश्वेश्वरनाथ रेड ३; १६, ६० 
लूहपा १० पौणापा १रे 
ल्‌ण ४, वृन्दावन ३० 
लोरिकायन २४६ वेलवेडियर प्रेश्न ( प्रयाग ) १०७ 
लोहासिंह २४६ व्राग्य-शतक श्८ 

च श 

वंशवर २६६ शंकरदास ४ १०० 
बज घंटापा १३ शुंक्रप्रशाद उफ छोटकतमोली . १६४ 


नामानुक्रमणी 


शंकराचाये १५. 
शकुन-विचार ६० 
शक्ति-विजय-वलीसा १८३ 
शबरपा (द) & १० 
शब्द (बिजक) ध्र्‌ 
शब्द-प्रकाश ६४, ६५ 
शब्दावली १०४ 
शुहबान १७६, १८० 
शान्तनशाह १४६ 
शान्तिदेव ११ 
शायर निराले २११, २१२ 
शायर मह॒दिव २०१ 
शायर मार्करडे २२४,२२५ 
शापर शाहवान ३०६ 
शालिशाम गुप्त 'राद्दी र्ज्व 
शालिभ्रामी १३० 
शालिवाहन | 
शालौपुर प 
शाहजहोँ ६४, १६३ 
शाहपुरपट्टी २४२, २४७ 
शिरोजी लाल बुक्सेलर(बनारस) १७६(टि०) 
२०६ (ढि०) 
शिवदास १८८५ पैछ& 
शिवनन्दन कचि २६६, २६७ 
शिवनन्दन मिश्र 'नन्‍द! पृ८ई 
शिवनन्दन सहाय २१६ 
शिवपूजन साहु १४० 
शिवप्रसाद मिश्र 'रुद्र! २३५ 
शिवमंगल सिंह सुमन? २६६ 
शिवमूरत १६६ 
शिवरतन उपाध्याय श्र 
शिवशरण पाठक १६१ 
शिवसिंह सरोज! ६६, ७०, ७१ 
शिवालाघाद बै८८, रेरेव 
शौतलपुर . २७२ 
शुभंकरपुर ६१, ८६ (टि०) 
शुभकरण चरण ६ 


२६७ 
शन्यता-दृष्टि पृ० 
अं गार-तिलक श््‌८ 
शेखर २६२ 
शेखा शायर २०२, २०१, 

२०६, २१० 
शेर २३६ 
शेली र्ज 
शैयदअली मुहम्मद 'शाहः ध्द 
शोभा चौंबे १०० 
शोभा नायक बाजार २४६ 
श्यामविद्दारी तिवारी 'देहातीः. २४९२ 
श्रीक्षष्णुजन्म मंगल पेंवारा २४० 
श्रीक्ृष्ण॒ त्रिपाठी २०५) ९०६ 
श्रीक्षष्ण दूबे ७१ 
श्रीगंग।-स्नान २३० 
श्रीगौरीशंकर विवाह संकीर्तन.. २७३ 
श्रीजानकी सखौ १३० 
श्रीपर्बत ६, १०, १२ 
श्रीबकस कवि १५० 
श्रीभगवान प्रसाद सीताराम शरण १४२३ 
श्रीमद्भागवत का पद्यानुवाद १८३ 


श्रीरामेश्वर प्रेत (दरमंगा)६१, १६७ि०) 


श्रीराजेश्वर प्रसाद श्९३ 
श्रीरामजन्म बेया २२५ 
श्रीसीताराम विवाह १८० 
श्रौसौताराम-विवाह-संकीत्तन १७३२ 
ष 
षट पदावली १४६ 
षडंग-योग १० 
षडत्तरी पृ८ 
ष-दोह्कोशगीतिकर्मंचाएडालिका._ १३ 
स्‌ 
संकटमोचनी ११४ 
संकीर्तन-सरोज र्ष० 
संतकवि द्रिया--एक अनुशशलन ६३९ 


(दि), ६३ (डि०) 


श्ध्८ 


संतचारौ 
संतपरवाना 
संतबिलास 
संतमहिसा 

संतविचार 

संतसागर 

संतसाहित्य 
संतसुन्दर 
संतोपदेश 

संसारनाथ पाठक 
सतीसोरठी योगी वृजासार 
सत्यनारायण मिश्र 
सत्यसुधाकर प्रेस 
सधुक्कडी 

सन्मार्ग 

सप्तवार 

सबदी 

समाज? (सा० पत्र) 
सरदार हरिंहर सिंह 
सरसभंग-सम्प्रदाय 

सरयू 

सरबरिया 

सरस्वती (प्रयाग) 
सरस्वती-भवन (काशी) 
सरहगीतिका 

सरहपा (सरह) 
सरायधाधघ 

सराव 

सरेयाँ 

सरोज वज 

सरोज वज़र दोहाकोष 
सलवान 

सतराम 

सहजगौति 

सहज शंबर स्वाधिष्ठान 
सहजोपदेश स्वाधिष्ठान 
सहजौली 


पण्द 
पृण्द 
१्‌०ण्वं 
१०४ 
१०९४ 
१०४ 

&० 

१ण्द 
१०४ 
११५ 
श्व६ 
१८६ 
पृद८ 
२३५ 
१०८५ १६ 
१८) १६५ २१० 
६008 
श्रृ८ 
११६ 

&४, ११३ 
२२७ 

हि 

२० 

& 

८ £॥ १० 
७१ 

१२५३ 
२१५, २९५ 


६ (दि) 


&२, २४६ 
१२ 

१० 

१० 

शश२ 


भोजपुरी के कवि और काव्य 


सहत्तीनाम्नी ध्र्‌ 
सास १४४ 
सामदेई २६ 
सालवाहन ४, ५, ६ ८ 
सावन का गुलदस्ता १६८, १६६ 
सावन का भूकम्प २०२, २०३ 
सावन का सवाल २१० 
सावन का सुहावन डंगा १७६ 
सावन-दर्प ण १६७, २१२, २१३ 
सावन-फटाका १८८) १८६, १६६ 
सावित्री पू&६ 
साहित्य (त्रौमासिक) १०३ 
साहेबदास १४६, १४० 
सिंध ध्ट 
सिंहलदेश २६ 
सिक्रिया २६७ 
सितार २६१ 
सिद्ध और संसी धू 
सिद्धनाथ सहाय “विनयी! २४० 
सिद्धेश्वर स्टौम प्रेस (बनारस). १६६ 
सिपाही सिंह 'पागल” २७८ 
सियारामपुर १५४ 
सियालकोट ( स्थालकोद ) ५६ 
सिवान २५६ 
सिष्टपुरान है 
सिष्या-दरसन १८, १६ 
सीताजी को सुनयना का उपदेश. २४० 
सीता बिदाई २७३ 
सीता रास-विवाह २०१ 
सीता राम-विवाह-संकीत्त न २२५ 
सीताराम शरण भगवान प्रसाद २१६ 
सी० बी० वैद्य हा 
सीलोन २६ 
घुकवि १८६ 
सुखदेवजी १४६, १६० 
सुखदेव सिंह ६ 
सुधा (मान्पन्न) ११४ ( ठि० ) 


नामानुक्रमणी 


सुधाबू द १३४ 
सुनिष्प्रपंचतत्त्वोपदेश १२ 
सुन्दर वेश्या १४२, १५३, १५४ 
सुरतान सिंह सिरोही! २४३ ( ०) 
सुरुणज लाल १८४, १५४५ 
सुल्तानपुर ६० 
सुवचनदासी ११६, ११७ 
सूर १३० 
सूयपाल सिंह २७१ 
सूय्येपुरा २४३ 
सेमरा २५४६ 
सेमराव २२६ 
सेवेक १७१ 
सैदापुर २३७ 
सोनबरसा १८६, १८७ 
सोनारपुरा पृ८८, रेरेव 
सोहरा 83 
स्कंदगुप्त २६ 
स्रवपरिच्छेदन पृ 
स्वृणरेखा २५६ 
स्वामी दयानन्द की जीवनी १८३ 
स्वामी रामानन्द डरे 
स्वारीकोट १६ 
े ह्ृ 
हंसकला १६३ 
ईँसराज १६५, १६६ 
इँस-संवाद १६४ 
हजारी प्रसाद द्विवेदी ३) ४, ४) ६ 
७, १५५ १५० 
१८, २८) ३० 
हयुआ १२६ 
हरकिशुन सिंह १२६ 
हरद्या २४६ 
हरप्रसाद दास जैन कॉलेज २२६ 
हरप्रसाद शास्त्री ३५ ३० (टि०्) 


श्६ह 
हरिकीर्त्तन २२० 
हरिछुपरा श२२ 
हरिशरण १५६, १६० 
हरिश्चन्द्र कॉलेज (काशी) २३५ 
हरिश्चन्द्र नाटक १८७ 
हरिहरदास १६४ 
हरिदरन्‍शतक १४६, २२२ 
हरीशदत्त उपाध्याय २४७, रै४८ 
हरेन्द्रदेवनारायण २१६, २७७ 
हरेराम पचीसी र्२२ 
हितैषी प्रिंदिंग वर्क्स २२६ 
हिन्दी-अचारक पुरुतकालय, हरिसिन 
रोड (कलकत्ता) २७६ 
हिन्दी भाषा (पु०)_ १४३) १५४, १५४ 
हिन्दी-शब्द्सागर ० 
हिन्दी-साहित्य का इतिहास ३१६; १७ 
हिन्दी साहित्य सम्मेलन (प्रयाग) २७६ 
हिन्दुस्तानी एकेडमी (प्रयाग) ३ (टि०), 


धरे (टि०), ध्६ (ढि०), 


हिन्दुस्तानी प्रेस (पटना) २५६ 
हिन्दू-विश्वविद्यालय रद३े 
हिस्ट्री ऑफ उदू, लिटरेचर ध्प 
हीरादास ११७ 
हुमायूँ. ७१, उड़ 
हुरभुज १५ 
हुसेनगंज २१५५ २२४५ 
हुसेनाबाद ध्८ 
हेला १८६ 
हेवजतंत्र १३ 
होरीलाल २१०, २११ 
हाय फ फेजर ३०; ३१ 
ज्ञ 
ज्ञानदीपक १०४ 
ज्ञानवतौी & 


पद्यानुक्रमणी 


श्र 
कझँखिया कठीली गोरी भोरी 
झँखिया लड़चलू हमके 
अंगार बोरसी क बाढ़$ 
झइली गपनवा के सारी हो 
झद्दली भदृडवा केरी रात 
अइले फगुनवाँ सेयाँ नाहीं 
अइले बसन्‍्त मेंहकि फइलत्नि 
अइले सवनवाँ घरवा नाहीं 
झइसन परल अकाल 
अइसन ज्ञान न देखल अबदुल 
अखे तीज रोहिनी न होई 
अगते खेती अगते मार 
अगवोँ बोलत रहली जनियाँ 
अगहन &दस मेघ्र अखाढ़ 
अगिन कोन जो बदे समीरा 
अग्रूवाँ राम-नास नाहीं आईं 
अचरज खयाल हसरे रे देखवा 
अच्छे-अच्छे फुल्नवा बीन रे 
अत्तर तू सल के रोज 
अत्तर देही में नाहीं 
अद्गा धान पुनबंसु पेया 
अद्गा रेंद़र पुनरबल पाती 
अन्हार ना छिपा सकल 
अपन देसवा के अवहद 
अपना पिया के में होइबों 
अपना राम के बिगाड़ल बतिया 


है | 
44० 
३८ 
४६. 
२७६ 
१4 ॥ 
ब््ण्ण 
२१२ 
श्छज 
७ 
६७ 
छ्द 
२०६ 
६६ 
६८ 
४१ 
४६ 
२२३ 
१३७ 
१६७ 
<8 
498 
२७४ 
१११ 
३8३७ 
है 


पंथ्ानुक्रमेणी 


अपने के त्लोई देहलीं हाँ 
- झपने घर द्यिरा बारु रे 
अब त छोटकी रे ननदिया 

अब ना बाँची कलकत्ता 

अब नाहीं बज में ठेकान वा 
अब लागत है सखी मेघ गरजे 
अबहीं थोरी-सी डमिरिया 
अब कुहिकिए के बोलेले 
अमरपुर बासा रास चलत्ने जोगी 
अमहा जबद्ा जोतहु जाय 
अस्बामोर चलने पुरवाई 

झरे रासा, नागर-नैया जात्ञा 
अवध नगरिया से अइत्नी 
अधध नगरिया से अइल्े 
अवध में बेदने बेआकुत्त 

अचधू जाप जपों जपमाली 
झवधू दमकों गद्दिबा उनमनि 
असजीय जानि छोड़ल कचहरिया 
झसों के सवना सहइयाँ घरे रहु 
अहदिर होह तो कस ना जोते 
ञा 

आँख रोज हम दिखायब तोह से 
आँख सुन्द्र नाहीं 

आइ गइले जेठ के महिनवाँ 
आइल चैत मद्दीना, फागुन 
आइल जमाना खोटा साधो 
आइल पूस महीना, अगहन 
आधगि त्ञागे बनवा जरे 

आज काढिह गइया के दूसवा 
आज बरसाइत रगरवा मचाओ 
आज्ु अवधपुर तित्क अइले 


इ०१ 


परे७ 
११३ 
१8४० 
२६६ 
१६६ 
१३१ 
१३६ 
शरण 


पृणरे 


4७४ 
4३६ 
र्णण 
२६२ 
4६० 


११२ 
र्१२ 
48३ 
२२६ 


१०१ मौजपुरी कै कवि और काव्य 


आजु मोरा गुरु के अवनवाँ 
आठ कठौती सादा पिये 
आठ चाम के गुरिया रे 
आदरा त बरसे नाहीं 

आदि न बरसे आदरा 
आनन्द घर-घर अवध नगर 
आपन इलिया सुनाई कु बरजी 
आये रे सवनवाँ नाहीं 
आरंती संत गुरु दीनदयाला 
आलतस नींद किसाने नासे 
आसाढ़ी पूनो की साँक 


इतना आँख न दिखाव5 


ई कदसन जुग आइल बा, 
ई हमार ६5 आपन बोली 


उद्ि गइले हंसा यह मोरे 
उत्तम खेती जो दर गद्दा 
उत्तम खेती सध्यस बान 

उत्तर बाय बहे दड़बड़िया 
उत्तर से जल फूही परे 

उधार काढ़ि ब्योहार चलाचे 
उनके मु हवाँ के उजेरिया देखि 
उलटा बादर जो चढ़े 


ऊँच अटारी मधुर बतास 
ऊँच-ऊँच पावत तिहद्ठिं 


पुक-एक पेड़ पीछे एक-एक 


१२६ 
छ्८ 
रे 
६७ 
६२ 

१६३ 

र्‌परे 

१४० 

१३२ 
छ्ज 
६७ 


१५४ 


२७० 
२४५ 


डे 
<१ 


द्द्‌ 
६८ 
छ्जु 
१8$ 
«८२३ 


एकटी विक्ुदो त्रिकुटी संधि 
एक-दू मिद्ठी तू ओठे कदुड 
एक भास ऋतु आगे धघावे 
एक से शुण्डिनि दुह्न घरे 

” एक हर हत्या दू हर काज 
एगो बलका रहिते गोदिया में 


ऐे राजा देखीला जुलफी 
ऐसे मौसिम में सुलायम 


ओोछे बेठक ओछे काम 

झोठवा के छारे बा कजरवा 
ओोढ़ के सिलिक की चद्रिया 
आह दिनवा के ततबीर कर5हो 


कह दिन मेरा तौरा जिश्नना ऐ 
कहसे करीं गुनावन प्रीतम 
कइसे लोग कहत बा कि 
कढ़के बिजुलिया धढ़के छुतिया 
कद्म-कद्म पर बाजरा 

कमैया हमार चाट जाता 
कम्पनी अनजान जान 

करक बुआवे कॉँकरी 

करके सोरदों सि गार 

कर5 हो मन राम-नाम-धनखेती 
करिया काछी धौरा बान 
कलपत बीते सखी मोही 
कछ्हियाँ फत्षक देखाय 
कज्नवारिन द्ोइबो पिचबो में 
कर्वेज्ञ से भवराँ बिछुड़ल हो 


कंपन रंग बेनवाँ, कवन रंग सेनवाँ 


१०३ 
रर 
2 
4१ 
4२ 
4 
२४६ 


१३६ 
१६७ 


३०४ भोजपुरी के कवि और काव्य 


कवन रंग सुँ गवा, कवन रंग सोतिया 
कवि सबके अस इज्जत भारी 
कहल करन हम समझ लेल 
कहलीं के काहे आँखी 

कहवाँ जे जनमत्षे कु वर कन्हैया 
कहवाँ से जिव भ्राइल कहवोँ 
कहिया देब5 सेठजी 

कहद्ीला तोसे तीरवार सुन5 

कहे गूजरी 'हटो ज्ञान देव! 

कहे मिट॒द्र अब अरास कर5 

कहे मिट॒द् सुरसती के मनाय के 
कहैलन लोग सब नाम 

कहदै-सुने के ऐ संगी 

का भ्॒ णावदि खरिट 

कातिक बोचे भ्रगहन भरे 
कांतिक मावस देखो जोसी 
कातिक सुद पूनो द्विस 
काहिक सुदी एकाद्सी 

काम परे ससुरारी जाय 

काली तोर पुतरिया बाकी तिरद्ी 
का ले जद॒बों ससुर-धर जइबो 
का सुनाईं हम भूडोल के 

काहे अद्सन हरजाई हो रामा 
काहै के लगावले सनेहिया हो 
काहे पंडित पढ़ि-पढ़ि मर5 
काहे मोरि सुधि बिसरवल5 
काहे सोरी सुधि बिसराये रे 
कीड़ी संचे त्तीतर खाय 

कुदृहल बोओ यार 

कुबुधि कलवारिनि बसेले 


कुलवा में दृगवा बचइ्ृ5 है 


पृह्ज 
२१६ 
१६४३ 
१३७ 
पृणछ 
जद 
१६८ 
१७७ 
१६३ 
१६६ 
१६८ 
१३८ 
३८ 
११ 
दे 
8३ 
६४ 
दे 
७३ 
२०७ 
| 
श्श्ष 
हद 
१०७ 
द््ज 
११४ 
१४२ 


८४ 
है ३ 
१२१] 


पथानुक्ंमणी 


कुदकि-कुहुकि कुहुकावे कोइत्िया 
कृतिका त5 कोरी गेल 

केड ठगवा नगरिया लूटल हो 
केऊ ना जाइ संगे-साथ 

कैसे जूलें रे हिंडोरा 

कैसे बोलौं पंडिता देव 

केसे में बिताओं सखी 

कोपे दुईं मेघ ना होइ्‌ 
कोसिला के गोदिया में राम 
कौआ भोरे-भोरे बोलेला 
कौना मास बाबा सोरा 


खपाखप छूरी चललि 

खप्प करि असि घुसे ल्लोथि 
खलबल भइले तब के अर सिंह 
खाद के मूते सूते बाँव 

झुब्बे फुलाइज बा सरसो 
ख़ुलन चाहे नया केहू' वा 

खेत ना जोतीं राढ़ी 

खेत बेपनिया जोते तब 

खेती ऊ जे खढ़े रखावे 

खेती पाती बिनती ओ घोड़े छा तंग 
खेलत रददतलीं बाबा चौपरिया 
खेलत रहलूँ ऑँगनवाँ 


गंगा जउना मासेरें बहद नाई 
गइल पेंड जब बकुला बद्ठल 
गइल रहिऊँ नदी तीर 

गगन संडल्य में ऊँधा कूवा 
गगरी लेके ना राधे जाती 

गढ़ चितडर कर बीरता सुनहु 
गनपत चरन सरन मे 

गरजे बरसे रे बदरवा 

गल्निया के गत्तिया रामा फिरे 
गवना कराइ सेंया घर बइठवले 
गहिर न जोते बोवे धान 

गुर कीजे गरिला निगुरा न रहिला 
गेहूँ बाहे धान गाहे 


३०४ 


२६७ 
६७ 
३४8 

१२२ 

१३६ 
२७ 

१४१ 
७७ 

२२७ 

२४६ 

१६४ 


१२८ 


श्रे७ 


१०६ भौजपुरी के कबि और-काव्य 


गोड़ तोही ज्ञागले बाबा हो 
गोबर मैला नीम की खली 
गोबर सैक्ता पाती सड़े 
गोरकी दू भतार कददलसि 
गौरा-गोरा रंग हौ भज्जुतवा 
गोरिंकी बिटियवा टिकुल्ली लगाके 
गोरिया गाक्न गोल अनमोल 
गोरिया तोरे बदन पर 
गोरिया ना साने कहनवाँ 
गोरी करके सिंगार चोली 
शोरे गोरे गाल पर गोदनवा 


घने-घने जब सनई बोवे 

घर के खुनुस ओ जर के भूख 
घर धोड़ा पैदुल चले 

घाघ दृहिजरा अस कस कहे 
घेर लेले ते ग्वाल 

घोरेन्धरें चन्दमरि 


चहत सास उजियारे पाख 

चढ़त जो बरसे आदरा 

चढ़ि नवरंगिया के डार 

चन्दन रगढ़ो सोचासित हो 

चमके रे बिजुलिया पिया बिन 
चरखा मेंगइबे हम सइयाँ 
चक्ननी के चाद्धल दुल्लहा 

चल्नत् रेलगाड़ी रेंगरेज 

धत्ष सखी चल धोचे मनवा के 
च्तीं जा आज गाँव के किनार में 
चलु भैया चल्ु आज समेजन 
चन्नु सन जहाँ बसे प्रीतम हो 
चलु सखि, खोजि लाई निज सइयाँ 
चाल्यो रे पाँचीं भाइत्ता 

चूमीला साथा जुलफी क 

चेत-चेत बारी धनिया 

चैत पूर्णिमा होइ जो 

चैत भास दूसमी खड़ा जो कहूँ 
चैत सास दूसभी खड़ा, घादर 


4 

रे 
१६० 
१४६ 
पृण& 
१७३ 
पृ&८ 
२०६ 
१७६ 
१६१ 


८४ 


७६ 
७६ 
७३ 
१९२ 
१० 


१६ 
4५ 
हि 


१४१ 
र२४छ 
२२१ 
१४६ 
शरे५ 
र३० 
२२३६ 
४३ 
११५ 
श्रे 
१३७ 
१६१ 
६७ 
श्र 
द्द्‌ 


पद्मानुक़मणी 


चेत गुड़ बेसाखे तेल 
चोर जुझारी गेंठकटा 
चौदसि चौद॒ह रतन बिचार 
सौद॒ह सौ पचपन साल गये 


छुछुनवज्न5 जिशञरा बाबू मोर 
छुज्ा के ब्रैठल बुरा 

छुतिया से उठेली दरदिया 
छुटै तनौ गुरु छोटे तजो 
छितिज से फुदकत आउ रे 
छुव॒त में डर लागे सुन्दर 

छैला सतावे रे चइत की रतिया 
छोटी सुटि ग्वाज्ञिनि सिर ले 


जतना गहिरा जोते खेत 
जनस-जनम कर पुनवाँ के फल 
जनसे लेत आदमी, सबमें 
जपलों ना जाप सत बरत 

जब बरसे तब बंधे कियारी 
जब बा चित्रा में होय 

जब सन्तावनि के रारि भदत्ति 
जब सरकार सब उपकार करते बा 
जब से छुय॒लवा भोरा छुअले 
जब से फंदा में तोरे 

जबसे बलसुवाँ गइले 

जब सेल खटाखठ बाजे 
नमुनियाँ के डारि ममोरि-तोरि 
जय भारत जय भारती 

जरा ने के चंलू तू जानी 

जरा सुनीं सरकार जिया हुक्से 
जबने द्निवाँ के लागि हस 
जह मन पवन न संचरद 
जाँचत अज महादिव 

जा के छाती बार ना 

जागिये अवधेस ईस 
जागु-जागु मोरे सुरति सोहग्रिन 
जादाँ-जाहाँ देख$ ताहाँ-ताहाँ 
जाड्दी द्नि सह्याँ मोरा छुच॒ले 


३०७, 


ण्द्‌ 
ज्द 
र्८ 
३३ 


१२०, 
ण्द 
ह 
२२ 


२७६ 


१6५ 


श्ण्८ भोजपुरी के फषि और कांव्य 


जिन जहहो मोरे राजा 
जियरा मारे मोरि जनियाँ 
जियरा में उठेला द्रदिया 
जियरा में सबके हिलोरबा 
जिये के जियत बानी 
जीवन्तद् जो नठ जरह 
जीव समुक्ति परवोधहु हो 
जुआ खेलेलन बलमुआ 
जुआ छोड़ मोर राजा 
जुग-जुग जीचे तोरे ललना 
जुफी तू अपने हाथे में 
जेकर ऊँचा बठना 

जेकरा मुलुक में कानून के 
जेड में जरे साथ में ठरे 
जेहल में तोदलीं हैं बेढ़ी 
जेहि घर जनमे ललनवाँ 
जे दिन जेठ बहे पुरवाई 
जोंधरी जाते तोड-मढ़ोर 
जोंहरी सु जावे घोनसरिया 
जो कहीं बदे इसाना कोना 
लोते क पुरबी लादे क दुमोय 
जोते खेत घास न हूटे 

भो पुरवा पुरवेया पावे 
जोबना भददल मतवाल्ला 
जो भधुबन से लबटि कान्हा 
जोर झकोरे चारो बाय 
जोर रूत्ते आकासे जाय 


भझारि लागद महततिया 


भूल्ते-फूले नन्‍्दुल्ञाल 


टिसुना जागक्धि दरिकिसुना के 
दुटल् पेंचरंगी पिजरवा हो 


इंन के के अपने रोज 
डंगरा के क्गवा से झगरा 
डगरि चललि धनि मधुरि 


२१३ 
१< 
२७२ 
२४१ 
श६८ 

40 

रु] 
१६६ 


बरेद 


१३८ 


२६४ 


२३१ 
१२४७४ 


4३७ 


६५9 


पद्मानुक्रमणी 


दिल्ल-ढिल बेंट कुदारी 
ढीठ पतोहू धिया गरियार 
ढेल्ला ऊपर चीन जो बोले 


तब चुनरी के दाग छोड़ाऊ 
तनी देखो सिपाही बने मजेदार 
तपल जेठ में जो चुद जाय 

तब भइल बिद्दान दयाराम 
तरुआर तीर बच्छी और 

तरुन तिया होह अंगने सोचे 
तार में बूटी के मिलल5 

ताल भाल सूदंग खाँजदी 
ताहि पर ठाढ़ देखल एक महरा 
तीतर बरनी बादरी 

तीतिर पंख मेघा उड़े 

तीन कियारी तेरद्द गाड़े 

तुम सत गुरु हम सेवक तोहरे 
तेरद कातिक तीन अपषाढ़ 

ते हुँ न बतावे गोइयॉ मूठे 

तो पर बारी सेंवलिया ए दुलदा 
तोर पिया बोले घड़ी बोल 
तोर हीरा हेराइल बा कींचड़े में 
तोरी झँखिया रे नशीली 

तोरी बिरही बँसुरिया 

तोसे ज्ञागल पिरितिया 

तोहर बयान सब लोग से 

ज्वेता में दिल्लीप एक ठे रहले 


थहलीं बहुत लिंधु खोद्तीं 
थोड़ा जोते बहुत हेंगावे 
थोर जोताई बहुत हेंगाई 


एुक्खिन पच्छिम आधी समयो 
दखिन बाय बदहे बध नास 
दुसिन जौका द्लौकहिं 

दधि बेचे चलली रामा 
-दृषिणी जोगी रंगा 


३०६ 


<090 
७७9 
<॥ 


११७ 
१७१ 
६७ 
१६७ 
१८ 
७२ 
पृ३्रे७ 
१०४ 
हज 
८ 
8६० 
<ड्ढे 
ण्शे 
<्डर 
१४४६ 
र७्दे 
१३६ 
8३४ 
१४२ 


१७४ 


३१० भोजपुरी के कवि और काव्य 


दादा, आइल नहरिया के रेट 
दाम देह के चाम कटावे 

हुए हर खेती एक हरवाही 
हुखवा के बतिया नगीचवो 
दुखियन के तन-मन-प्रान 
दुनियाँ के बिगड़ल रहनिया 
हुलि दुद्दि पिशाधरण न जाइ 
हुसमन देश के दुबावे 
हुसमन भागि गइल 

देखलीं में ए सजनिया 

देखि झृसित सुख जसोदा के 
देखि-देखि आजु-कालि 

दोउ कर जोर के सौ-सौ बार 


घनकटनी के बहार 

धन सुमंगल घरिया आज 

श्वान गिरे सुभागे का 

धाये ना खाइबा भूषे न मरिया 
धीरे बहु धीरे बहु पछुआ 
धुकुर-पुकुर सब अपने छूटल 
धैके कोदो तू करेजा पर 


नइया बिच नदिया हूबलि 
नहहइर भें मोरा लागेज्ना 
नइहरे में दाग परल मोरा चुनरी 
नहहरे में रहलू खेललू गुड़ही 
नदिया किनारे एक ठे 

ननदी का अगना चननवा हो 
ननदी जिठनिया रिसाव चाहे 
न रखिये रमवली न अँखिये 
नव बरसे जित बिजली जोय 
नवे असाढ़े बादुली 

नसकट खटिया हुल्लकन 
नसकट पनही बतकद जोय 
ना अति बरखा ना अति धूप 
नागिन मतिन त गाले पे 
नाजुक बलमा रे रतिया 
भादुन विन्दु न रवि न शशि 


रण८ 


* श्र 


<दे्‌ 
48४६ 
२३४ 


. ३११ 


१४७ 
२३८ 
२६५ 
१२४ 
१६४ 

€६& 
२१० 


२४७ 
4१६ 

<द्जु 

२१ 
१२८ 
4४४ 
१६३७ 


३६ 


- १३४ 


4१३ 
र्०घ 
श्णछे 

हर 
4४५ 
र्देण 
» १५६ 


 दै७ 


७छ 
छ्ज 
<दु0 
प३4 
२०६ 
। 


पद्ानुक्रमणी 


नारि सुद्दागिन जल्नघट लावे 
नाहीं सानो बतिया तोहार 
नाहीं लागे जियरा हमार 
नित्ते खेती दुसरे गाय 

निरफपछु राजा मन हो हाथ 
नेहवा लगाके दुखवा देगइले 
नैया नीचे नदिया ढूबी 


पेंच मंगरी फागुनी पृ पाँच 
पह॒याँ में लागु वोरे भेया रे 
पच्छिम वायु बहे अति सुन्दर 
पच्छिम समे नीक करि जान्यो 
पहुआ-लिखुआ करिंहें माफ 
परिड अर सञ्त्ष सत्थ वक्‍्खाणद 
पतित्रदा होइ अँगने सोचे 
पत्थर के पानी आग के 
पदुमिनि रनियाँ सनेसवा 
पएनिधटवा नजरिया 

परदेसिया के श्रीत जइसे 

परम पिता परमेसर के ध्यान 
परहथ बनिज सेंदेसे खेती 
पवनां रे तू जासी कौनें बारी 
पवल्लीं ना कबो हा बिनोद 
पहिले कॉकरि पीछे धान 

पहिले गवनवाँ पिया माँगे 
पहिले पानी नदी उफनाय 
पहिले में गाइल। अपने गुरु के 
पाँचों जानी बत्सू सेंग सोईगे 
पात्र कुइयाँ पताज्ञ बसे पनियाँ 
पातर दुल्ल॒हा सोटलि जोय 
पानी बिना सूख गइल 

पाव हुबी पडआ परम रत्ञकार 
पावल प्रेम पियरवा हो 

पिश5 रास-नाम-रसघोरी 
पिश्चया मिल्षन कठिनाई 

पिया छुब॒ल्ले परदेस, भेजते 
पिया तचज के हमें गइत्ते 

पिया निरमोहिया नाहीं आवे 


३११ 


द्‌६ 
२१२ 
पृ८8 
छ्८् 
७७ 
२१७ 
पक] 


द्द्‌ 
१६० 
६ 
६८ 
२७६ 


छ्३्‌ 
१३८ 
१८४ 
१७५१ 
परे४ 
२७५० 
छ७ 
श्७ 
१४४६ 
द्जु 
बृण्ज 
८२ 
१७० 
हरे 
१०६ 
दे 


8६६ 
११३० 
श्ण४ 
११३ 
१६० 
१६६ 
३४० 


११२ भौजपुरी के कवि और काव्य 


पिया बटिया जोहत दिन गेल्ों 
पिया बिन्ु पपिद्ा की बोली 
पिया बिन्रु मोरा निंद न आवे 
पिया बिन्ु मोहि नीक न लागे 
पिया सदक सचादे सुन$ _ 
पिया सोर गइले रासा हुगली 
पिया सूते लेके सवतिया 
पुक्खपुनबंस बोचे धान 

घुतरी सति न रक्‍्खब तुहेँ 
पुरवा में मति रोप$ भैया 
पुरुखन के शुज्ला गइल$ 

पुरुष मत जाओ मेरे सइयाँ 
पुलिस के नोकरी करत से 

पूत ने साने आपन डॉट 

पूरब दिसि के बहे जे बायु 
पूरब देस पद़ाहीं घाटी 

पूरब धनुद्दी पच्छिम सान 

पूस अधियारी सत्तमी 

पूध उजेली सत्तमी 

पूल सास दसमी दिवस 

पैंया ल्लागों सुरतिया दिखाये जा 
पौत्षा पहिरे दर जोते औौ 
प्यारे, धीरे से कुन्ञाव5 

प्रथम गनेस पद्‌ बंदन-चरन 
प्रथम पिता परमेसर का 

प्रथम मास असाढ़ है सखि 
प्रेस के चुनरिया पहिर के 


फॉफर भत्ता जौ चना 

फागुन बदी सुदूज दिन 

फिर तुम सुमिरत्ञा मन बोदी 
फिरली रोहनियाँ जोबनवाँ 
फुलहीं अनरचा सेसर कचरनवा 
फूटे से बहि जातु है 

फूल लोढे अइलों में बाबा 


बँसदा चढ़ल सिव के आइले 
बदइठलीं ना देव कबो 


१$७ 
१४० 
७१ 
७५१ 
२१० 
१७५ 
१६६ 
4८४ 
१३७ 
८४ 
रथर 
२०६ 
र३े७ 
७३ 
६६ 
१५, २८ 


६8 
द््ज 
६४ 
१५१ 
छ्र्‌ 
१३६ 
२४६ 
२७६ 
१५६6 
ध्रे 


दे 
द्ज्‌ 
२०७ 
१४४ 
३४५ 
हज 
१७४ 


जद 
१४८ 


पद्चोनुक्रमणी 


बगरे सुतेली मोरी ननदी जिठनियाँ 
बटिया जोहते दिन रतिया 
बड़सिंगा जनि जनि लीह5 मोत्र 
बढ़ि नीकि हड मोरी माता हो 
बड़े-बड़े कूला असथल्त जोग 
बढ़े-बढ़े कूले मोटे-मोटे पेट 
बनिय क्‌ सखरच ठकुर क द्वीन 
बनिया समुक्ति के लाहु लद॒नियाँ 
बरबाद भइत्न जब लाखनि' 
बहत पसीजल धरती के 

बॉ टेला 'चरण जलन ऑजुरी-ऑँजुरिया 
बाँघे कुदारी खुरपी हाथ 

बागे बिहने चले के सखी 

बाज णब पाड़ी पँठआ 

बादे बड़ी चतुर खटकिनियाँ 
घाड़ी में बाड़ी करे 

बाढे पूत पिता के धर्म 

बाघ बिया घेकदल बनिक 
बानभे में बेल बेंचत्ीं 

बायू' में जब बायु समाय 

बिन गवने ससुरारी जाय 

बिन बेलन खेती करे 

बिनय करों कर जोरि 

बिना भजन भगवान राम 

बूढ़ा बेन बेसाहे सीना 

बेर-बेर सह॒याँ तोहे से अरज 
बेली बन फूले, चमेत्नी बन 
बेठकखाना कु वर सिंद के 

बैल चौंकनां जोत में 

बेल बेसाहै चललह कन्त 

बैल मरखद्ा चमकल जोय 

बेल मुसरद्दा जो कोई ले 
बोललि सखिया सुन$ कान्द 
बोलियो के गोलिया लागत 
बोली हमरी पुरब की 


भेंद्सि सुखी जो डबारा भरे 
भट्या हुनिया कायम बा 


३ १३ 


१४४ 
२३ 


१६१ 
२२ (6०) 
श्र 

७४३ 

३०८ 

रेण८ 

२७३ 
२४२ 

द्जु 

२६४ 

१२ 

१७४ 

८४ 

७६ 

७७५ 

२४१ 


धरे 

69 
२३७. 
१२१- 

७६ 
१७२ 
वृष 
२७७ 


दछ 


थद्‌ 
१६२ 
२०७ 


डेडे 


<० 
रण 


३१४ भौजपुरी कै कवि और काव्य 


भक-भक करत चत्नत 
भवसागर गुरु कठिन अमर हो 
भादों रेस अधिअरिया 

भादो रैन भयानक चहूँ 

भारत आजाद भइले 

भावे ना सोहि अँगनचाँ 

भावे नाहिं मोहि भवनवाँ 
भावे नाहीं मोहि सवनवोँ 
मुजद मअण सहातर 

भूप हारे बाजत बधाई 

भोरे उठि बनवाँ के चलले 
भोर के बेरा । छिटकल किरन 
भोला त्रिपुरारी भइले 

भौं चूम लेइ ला केहू 


मंगल वारी मावसी 

मंगल वारी दोय दिवारी 
मंगज्न सोम दोय सिवराती 
संद-मंद धीरे-धीरे पार 
सकइया हो तोर गुन गुँ थव 
सच्चा लगावे घग्घा 

सचिया बैठल्न रानी कोसिता 
सथवा पर दथवा देके मेंखेलिन 
मन तू काहे न करे राजपूती 
सन सावन बिना रतिया 

मन भावेज्ञा भगति सिलिनिये के 
भाई कहे बेठा ई कट्सन 
माघ झँघेरी सत्तमी 

साध उजियारी दूजि दिन 
साध के उखस जेट के जाडु 
माघ के गरमी जेठ के जाड़ 
माघ मघारे जेठ में जारे 
माघ भद्दीना माँहि जो 

माघ मास के बादरी 

माघ में बादर लाल रंगधरे 
माघ सत्तमी ऊनरी 

माघ सुदी जो सत्तमी 

माटी मिलऊ तोहार 


१५५ 
१०७५ 
१५६ 
२०० 
२७१ 
२४७ 
२१४ 
१२७ 

परे 
२०६ 
१६२ 
२६३ 
२१४ 
१२७ 


६९ 
<दजु 
द्ण 
२४२ 
२२२ 
८७ 
श्श्ण 
७७ 
पृण्द 
१8० 
४२ 
पृणु० 
६७५ 
दर्ज 
८ 
<दरे 
्र्‌ 
दछ 
७ 
<दज 
द्ज 
द्ज 
र०२्‌ 


पद्मानुक्रमणी 


सा ते पूत पिता ते घोड़ 

माथे दे-दे रोरिया नई-नई 
मान5 सान७5 सुगना हुकुस हुजूरी 
सारत बा गरियावत बा 

मारि के टढरि रहु 

मितड सड़ोया सूनी करि गेला 
में ह के मारे साथ के महुअर 
सुखवा निहारे तन-मसन 

सुड़वा मींजन गइलो धाबा का 
सुये चास से चाम कठावे 
सून-म्न आँख तोहे 

मुगसिरा तवक, रोहिन लवक 
मेंही-मेंह्ी चुकचा पिसावों 

मेना भज आठो जमवाँ 
मोरपंख बादुल उठे 

सोरा पिछुअरवा लील रंग 
भोरा पिया बसे कवने देख 
मोरी बह्ियाँ बताने 'बलबीरवा” 
मोहि न भावे नेहरचा 


रडहे गेहूँ कुसदे घ.व 

रसेया बाबा जगवा सें 

रदलीं करत दूध के कुहला 

रहे गह-गह सेंह-सेंह 

रॉड़ मेहरिया अनाथ मेंसा 

राखी आवणी द्वीव बिचारो 
राजगही बस हमें तेग 

राजा हसके चुतरिया रँंगाइदु$ 
रात करे घापछुप दिन करे छाया 
राधेजी के सें गवा रासा 

रानी बिक्दोरिया के राज बढ़ा 
रास चद्त अजोधेया में रास 
राम जमुना क्विनरवा सुनरि एक 
रास नाम भइल भोर, गाँव 
रास राम भजन कर 

राम रास रास राम, राम सरन अइलीं 
रास लखंत सीरी जनक तनन्‍्दुनी 
रामा एट्टि पार गंगा, ओहि पार 


छह 
१३० 
पर्ढेण 
क्ण्ज 


घ्८ 
4 
१४६ 
द्ष्ण 
ण्र्‌ 
१३८ 
दर 
जज 
पद१ 
द्६ 
पृण्द्‌ 


४५ 
ध्डे 


<र्‌ 
पृणु० 
श्द्‌४ 
रण 
छह 
द््छ 
१३३२८ 
प्रषर 
<4प 


पृदद्‌ 
१०६& 
१०६ 
१६१ 
१५०१ 
१०१ 
पटणज 
१70 


१३१६ भोजपुरी के कवि और काव्य 


राही हो गये सायर पुराना 
रिस भरिके ग्वालिन बोलसि 
रिस्री मुनि से भी तोरे 
रूपवा के भरवा त गोरी 

रे छुलिया संसार 

रोइ रोदह पतिया लिखत 
रोज कह जाल5 कि 
राहिनि साहीं रोहिनी 
रोहिनीं जो बरसे नहीं 


लडकत पहाड़ सानों 

लख चौरासी से बचना हो 
लजञ्ञिया दुबावे मनमथवा सतावे 
लरिका ठाकुर बूढ़ दीवान 
लबलीं ना मन फरेह देवन के 
लागेला हिरोलवा गगनपुर 
लागेला हिरोक्षवा रे अमरपुर 
लागेला दिरोलवा कदम तरे 
लाज्षच में परी बाप बुढ़ बर 
लिखनी अब ना करबि है भाई 
लुटा दिहल परान जे 


विप्र दहलुआ चिक् धन 


संत्त से अन्तर ना हो नारदजी 
सहइयॉजी बिदेसे गइले राम 
सहयाँ मोरे गहले रामा 
सखी न सहेली में तो 
सखी बाँसे की बसुरिया 
सखी से कहे नहीं घर 

सच कह बूटी कहाँ 
सति-सत्ति साषत श्रीगणैश 
सत्य चदन्‍्त चौरंगीनाथ 
सत्याग्रह में नाम लिखाई 
सघुवे द।सी चोरवे खाँसी 
सनसुख धेनु पिआवे बाछा 
पनि आदित ञौ मंगल 
सपना देखीला बलखनवाँ 
सबद हमारा परतर पांडा 


१७७ 
१६३ 
१३८ 
१४३ 
२६६ 
पृणद्‌ 
१३७ 

६७ 

द्८ 


२८० 
१६१ 
१४३ 


१४७ 
१३४ 
१३३ 
१३४ 
२६७ 
१३७ 
र्द२ 


७८ 


३२० 

४ 
ण८ 
पछ७५ 
१३६ 
१७५६ 
१३७ 

श्ण 


१७७ 
छ्८द 
द्ह 
६8 

पृढज 
पृ 


पद्यानुक्रमणी 


समभ-बूक दिल खोज पिशआरे 
समधिन हो भज्ने 

समय रुपु रुपइया लेह के 
समुक्ति परी जब जदब5 

सरग पताली भौंझआ टेर 

साँवन साँवा अगहन जवा 
साओोन सुकल्ा सत्तमी 

सान्नि लेली भूषन सँवारी लेली 
साथ परछाहीं मतिन राजा 
सावन भरर मचउल्ेस 

सावन क पछिया दिन दुद्दचार 
सावन घन गरजे रे बलमुओँ 
सावन धोड़ी भादो गाय 

सावन पहिले पाख में 

सावन पुरवाई चले 

सावन बदी एकादसी 

सावन मेंसा माघ सियार 
सावन मास बहे पुरवैया 

सावन सुकला सत्तसी उगि के 
सावन सुकला सत्तमी उदय जो 
सावन सुकला सत्तमी छिपके 
सावन सुकला सत्तमी जो गरजे 
साधन सुकला सत्तमी बादर 
सावन हरे भादो चीत 

साह जहाँ छोड़ी दुनिआई 
साहब ! तोरी देखी सेजरिया 
साहेब मोर बसले अगमपुर 
सींग झुड़े माथा उठा 

सीख भाई जिनगोी में 

सुगना बहुत रहे हुसियार 
सुरणों हो मचिंद्र गोरख बोल 
सुतल रहलीं ननदी की सेजरिया 
सुतत्न रहलीं नोंद भरी 

सुदि असाढ़ की पंचमी 
सुधिकर सन बालेपनवा 
सुधिकर मन बालेपनवा के बतिया 
सुन मोरे सेयाँ सोरी बुध 

सुनो मोरे सइयाँ तोद से 


३९७ 


छ्द 
१२० 
८७ 
पृणह 
८७ 
48 
श्र 
पृ&हे 
१३८ 
श्ण७ 
ढ़ 
२१३ 
७8 
६८ 
६८ 
६ 
4८१ 
द्ज 
<द 
८८ 
6ढ 
८4 
8० 
७६ 
6६४ 


ह््५ 
<्द्‌ 
२७४ 
१६६ 
१७ 
१७१ 
पृ०्ण 
६७ 
२१४ 
११२६ 
१७१ 
प७३े 


श्श्ष भोजपुरी के कवि और काव्य 


सुन्द्र सहज उपाय कहिले 
सुन्दर सुथर भूमि भारत के रहे 
सुन्दर सुभूमि भेया भारत के देसवा 
सुभ दिना आजु सखि सुभ दिना 
सुरति सकरिया गाढृहु हो सजनी 
सुरमा आँखी में नाहीं 

सुरुञ करोर गुन तेज पाय 

सूतल रहलीं में अपने 

सूतत्ञ रहलीं मैं सखिया 

सूतल रहलीं हम सेंया सुख 
सूतल रहलों में नींद भरि हो 
सैंया नहाये में कासी गइलूँ 
सोने भरिती करुणा नावी 

सोम सुकर सुर गुरु दिवस 
सोरहो सिंगार करी सखिया 
सोहे न तोके पतलून 

सौ-सौ तरे के मूड़े 

सावन सुकल्ा सत्तमी रेन 
स्वाति नखत अर 

स्वामी मोरा गइले हो पुरुष 


हंसा कर ना नेवास अमरपुर में 
इएथगोरवा के लक्लिया निरख के 
हथवा त जोरि के बिनती 

हथवा पकरि दुओ बहियाँ जकरि 
हबकि न बोलिबा ढबकि न चलिबा 
हसमके गुरुजी पठवले चेला 

इसके राजा बिना सेजिया 

हमको सावन$ में मेंहदी मेंगाद$ 
हम खरमभिटाव कैली हाँ 

हम नया दुनिया बसाइब 

हम राज किसान बनइतोीं हो 
हमरा तोरा रामजी के आस 
हमरा लाइ के गवनवाँ 

इसरो से जेठ छोट के बिआह होत 
हरवा गढ़ दु$ सेठजी हाली 
हरहट नारि घास एकबाह 

हर होइ गोयेंडे खेत हो इ चास 


१३१ 
२४३ 
२१६९ 
हज 
३६ 
१३७ 
श्शेण 
पृदृरे 
जे 
श्णद्‌ 
हे६ 
प८रे 
१४ 
६४ 
२०१ 
२१८ 
१३७ 
<८ 


द्३्‌ 
१७८ 


११६ 
१४४ 
१६७ 
१४४ 
२१ 
छ० 
46२ 
२०१ 
१३७ 
श६रे 
२७१ 
१०२ 
4८२ 
३०१ 
48८ 
७६ 
हि 


पद्मेनुक्रमणी 


हरि-हरि कवने करनवाँ कान्हा 
हसिया पेलिबा धरिवा ध्यान 
हसिया पेलिबा रहिबवा संग 
हाँउ निवासी खमण भतारे 
हाथ गोड़ पेट पोठि कान आँखि 
हारत देखलसि जो आयर 
हिरन सुतान ओ पतल्ञी पूछ 
हुकुम भदज्न सरकारी रे नर 
है जनि जान घाघ निबद्धी 
है मद राम-नाम चित धौबे 
हो, अन्दद अइले ना 
दहोत ना दिवाल कहूँ बालू के 
होरी खेले मधुबनवाँ 
होली रे के कर5 बिचार 
जज 
ज्ञान के चुनरी घूमिल भइली सजनी 


३१६ 


२११ 
५० 
२० 
१४ 
६७ 

ब२६ 
<८द्‌ 

१७६ 
छ्दे्‌ 

११२ 

रण 

१८७ 

१6३३ 


भोजपुरी के कवि और काव्य 










| 
बिआल ॥0+ 4९ 
| 


हे 
बढ 


४ 34 ज] ० 


६ 
४६ ५, 
५ 


पर मन ए जप. हक: 
हु 


अकश्पल: 


ज जं४ 0५5 आर 
श्र 


०5 


+ 


८. 5०, 


| 
हा 
$ 
पा 
] 
$ 
| 


! 20 अनेक 22222: 0 25: 





कल कक » ० | कुशफड्, 5० 
हि, शक की कक हक कं ही आओ! हम 


तक ' हक 
फ 


;> 
हे 
$ 
|| 


घ उनीरेण एलन 7 


टं 355%5%०3 3 32 48६5:54। 
"९५३१ 77७४३ #प्रष्यावदेकाओ- ०. 


३ श्र बढ इम5 जाल कल 
िग्तीरफाकरी /477/7+ कर र थ 





है चर 
5 परशादीलिबंश:77 7 ६४ बेटा लय 


ं 


ः 


हू] 
+ -- -.३०००३०० मन म्केन+लन-क-म«_कल नमन. 


१ ४ ००५ 


् 


चित्र न॑० १ की प्रतिलिपि 
87 ९०५. 797 
6. ज्ञ. श७०४०. 
4 9 १709. 
( शिरोरेखा के साथ कैथी मिश्रित नागरी अक्षर है |) 
स्वस्ति श्री राजकुमार सैया श्री प्रताप मल्त लि० महाराज कुमार मैया 
श्रीनारायण मल के............ (आसीस) श्रागे पितम्बर दसवधिक नेग मै दिहल 
है ते ..६०४०७ ) विवौस कै-- 
जे भावन्ह के दीले ताकर दसवध दसवधि नान्ह जाति परजा («««««»*») 


देव-- पी आंदा का विश्वाह मे (.........) 
कोई से दुइ आना ले (......... ) दीहे 
(८ 
महतव गौंझा का विश्राहे एक सुका।) असवार जे जस लाएक हो (से) अमनेक से 
ते तेही भाँति से दसवधिक नेग दी लो (ग) 


नेग के दीहल है कुअतिना कुअति आदमिन्ह होवे 
दसवधि हिह्दे दीदे (.......... ... «०-० **) 
इन 37० घांल मोल ५... ००००१००००) 


चित्र नं० २ की प्रतिलिपि 

(ऊपर में उर्दू, लिपि मे कुछ अंश ) 

हस्व हुकुम अठारह माह १७४८ 

सद्‌ तारीख व सद हाकिम 

ता० ६ जनवरी १८६० 

सहाफिज 
(१) राजा का वोआह बेटा का भइला घोरा (१) नगदी सौपाह के जे दो ताह का ह... 
जोरा सोन देव रुपैशही आध आना लेके 
दौआइवी । 


(२) देश साह जाद्दा ले इ अमल वडा (२) जागौर माह वडा गावन्ह पाच मन 
गावन्ह एक रुपैझ छोटा गावन्ह छोटा गावन्ह दुइ मन ले जे देव 
आध सपैश्ना देही 


(३) (......'-) शवधी का कवीला के. (१) शायर माह जीनीशी वहती 
चालीस वीगहा का तरी देव ४०) वरद॒ही एक दमरी घानी बरदही 
आध पाव जौनौश दव वोक़ी हो 

रुपैञ्ही आध पाव देव )” 
(४) शरकार माह बीत वेकाए ताही माह (४) सरकार साहू वशुआ वधाए अरोह 
सैए-चौतु, माह दुइ वौत देव ताह माह रुप अह्दी आना ले जे देव 


(५) दसइ फगुआ भ्रीप॑चमी सरकार से 
वषरा शोन देव-- 


( ४२ ) 
चित्र नं० ३ की भ्रतिलिपि 
स्व॒स्तिश्री रिपुराज ढरल्य नारायणोत्पांदि विविध विसु्दावली विराजमानोन्नत 
महाराजाबिराज राजा श्री अमर सिंह देव देवानां सदासमर विजईना जोग्य सिकदार 


वो० वाजे वोहदार वो चौधुरी वो काजुगो केमाजा वो अखौरी राजमल के अज ग्रगने 
और माह बैस्म सैश्रा अमर सिंघ वो सम भाइन्द समेत के महतुल्न दिहल है। 


मोजे १७४ 


असल दाखील्ी 
१०४ ३० 
तपेसनहसराव मौजे तपेवाधो पाकरी मौजे 
हु रे 
असल्न दाखीली असल दाधीली 
श्पू १५. १३ २० 
४०३ मौजे पवट मौने पवट मौजे बाघों. मौजे उदैसान भौजे जादौपुर 
पजरेओआा रसालू सागर पापुराीखश १ पुर) , ॥१ 
१ १ १ मौजे रमक मौजे गैघटा मौ० 
मौजे पवट मौ० टीकरिा मौजेसरुआ रह ४ १ १ 
कौनु १ १ अर खुद १ ञ० १ दा० 
मौने सिकन्‍दर॒सो० बधहा मौजेचक मौ० ममौलौ मोहनपुर  दरिआपुर 
पुर करैमानपुर २ ३ भाउ १ | 
अ०--दा० अश१दा०२ झअण्दा० झन् दा०. आन दा 
मौजे सेवरिश्रा मौ० श्रोराम मौ० गोपाल १ १ 
भान्ह॒इर । पुरगोपाल१ पुर१ तेतरिआपुकु मौजे बेदरा मौ० अगर 
मोजे चादी मौजे शरआ मौ० सहसराब २ १ संडा १ 
अजौरो ८ अरक पु १ खास५ ' आ०१ दा० 
अश दा० अश दा० मौजे मढरा मौ० मुराडी भौजे खजु 
खुद १ ५ रीआ २ 
मौजे घौरोखां॑ मौजे मघुबनी मौशराइ  आ० १ दा० ४ आ०१ दा० 
३ जगनाथ ३ वाजिदपुर भौजे गाजीपुर शौगौताला 
अश दा० अश दू० १ १ 
११ १ २ नरायनपुर मौजे हवतपुर धमारौ 
सौजे भोपति मौजे घोर मौजे मरवटिझा २ है ३ 
पुर १ डहरी १ झ० दा० अ० दा० झ्‌० दा० 
मौजे मोहन हक मौजे महली १ १ १ १३ १ ३ १ 
पुर १ खुद १ बुठ १ गीरिधरपुर मुश्तआपुर 
मोजे सीखबलीआ २ र्‌ के १ डे 
अ॥१ दा० २ 


अश १ दा०१ 


2६27 7224/20:/ 5%22%0£ 
दी शाला िसिदर पदस्थ ४ 
गा नर्स 


आलम? परवोवीधनीयाअ 


3 





( 


तपे कल्यान मौजे 
जु० 
असल दाखीली 
२६ १५ 
मोजे गु'डी मौ० इटहना इटइना मनीआ 
खास ६ कंस्तुरी १ १ 
आ०१ दा०्८ 


वेंलघाट भोपतिपुर वेला होरील २ 
१ १ र्‌ 


जआू० १ दा० १ 
पटिगुनाए. जोंगवलिआ जहागौरपाई 
१ 4 ३ 

आ०१ दा०३२ 
हाजीपुर रतनपुर सोनदिया 
१ ह। ह। 
झ०१ द्वा० १ 


घाघरी मौजे चोपहा चौश्नपुरा 
थ २ 


ही १ दा० झआ० १ दा० १ 
बसनवली दलपतिपुर पवगादुलम 

१ १ हब 
घुट्व॒लिया शवलपुर 

| १ 


तपे वाजीदपुर मौजे 
श्र 


असल दाखीली 


१४. 5 
वाजीदुपुर मौजे मनपुरा मौजे नारायन 


खास २ १ पुर २ 
अस १ दा० १ आश १ दा०१ 
मोजे जवहर मौ० वाराकान्ह  खानपुर 
१ २ १ 
आ० १ दा० १ 
महथवलिश्ा मनसुपुर  दौलतिपुर 
१ १ १ 


३ ) 


तुकुम्ही मौ० हरासमरपुर  गगवली 
१ १ २ 
आ० $ द्‌०१ 
सरीसिशा कवजा मौजे. श्रीम॑तपुर 
र्‌ २ र्‌ 
अरा दा० अ० दा० आअ० दा० 
१ १ १ १ १ १ 
तपे वहिअरा मौजे 
पृ 
अशल दाखिली 


११ ६ 

मौने बलिहारी भौ० शादौपुर गाजीपुर 
१ १ १ 

लवहर कुकठका कुवरिआ ॒ अरहदा 
प्र १ घुघुआल १ 

अश १ दा० ४ 

मौजे जमौरा मौजे शेरपुर दलपतिपुर 
१ १ १ 

अरंदा. मौजे बोखारापुर 

२ १ 
आ०१ दा० १ 


तपे अरहंगपुर धोगएरह मौजे 
११ 
अशल दाखीली 
ढ ] 
तपैझरहंग. तप गौधाअल 
पुर मौजे ९ मौजे गनिपुर ३ 
अरहंगपुर खास मुरजा 
१ १ 
अश १ दा० १ 
तपैकुहरीआ अजमौजेपपुरी 
प्‌ मौजे ६ 
अशल दाखी० 
१ प. 


एक से चौहतरी मौजे असली मौजे एक से चारि दाखिली शतरी भैया अमर सिह 
के भाइन्ह समेत महल्लुल दीहल है अमत्न कराइबि। ता० १६ सुदी भादो (लौअलि १) 


सुन १०६५ शात् मोकाम बहादुरपुर । 


( ४ ) 
चित्र नं० ४ की प्रतिलिपि 


नकल सनद सुजान सिंह प्रदत्त 
श्री राम १ 
स्वोश्ति श्री महाराज, कुमार श्री वा० छुजान सिंह जी उद्योग घुशी (हू...) वो 
बाजे बोहदार वो चौधुरी व कानूनगो के (म) आ आगे (शा...) ने बीहीआ माह व 
हश्म (बहस्म) दर्सौंधी राम प्रसाद के द्रघोजइ ज्मौन दौहल भ॥ (सन) १११० 
साल भ्र० घरी शै-- 


चित्र नं० ४ की प्रतित्रिपि 


मोताबिक हुकुम आज के कागज हाजा वंधु दर्सोधी को वापस दिया गया। 
ता० २६-२-८८। ५ है 
(दर्तखत उद्‌, शिकश्त में है) 
राम प्रखद द्सपघी के पाच बीगद्ा खेत दीहल पाग णावैके 


चित्र नं० ६ की चित्र नं० ३ की अतिलिपि 


| उदवन्त सा० 

ली: वसोअत श्री महराज उदवन्त सीह जो के रीआसत जगदीशपुर जीः 
शाहाबाद । आगे हमरा पाछीक्ष राजन्ह के खानदानी दस्तुर होव के रेझासत मे सब 
खनदानन के हक हिसा हमेसा कायम मानल जाई और रेआसत इजेमाल रही और 
खनदान के वड़ा लड़ीका बड़ा शाए के इजमाल रेआसत के गद्दी नसौन भइल करी 
उ सबकर भारन पोसन मोताविक खनदानी हजत सजोदा के कल करी । जब 
जगदीशपुर रेआसत भोजपुर से अलग भइल तब एह रिवाज यहां भी कायम भइल 
एह वास्ते वसीझत त्िख देल की हमार बाद चार लड़ीका बाबु गजराज सिंह, वाबु 
उमराव सिंह, वातु रनवहादुर सिंह वो वाबु दीगा सिंह जे वा से एही रोवाज के 
पाबन्दी कइल करी ताकी ऐका कायम रहे रेआसत बनल रहे। 

वृदस्तुर साधिक हम वसीअत कइल ता; २६ माह जेढ ११३७ साल 

(नीचे मुहर है, जिस पर ११३३ साल लिखा है।) 


चित्र नं० ७ की प्रतिलिपि 


श्री वातु कुअर सिंह 

सौसती श्री. ची० वबुआ नरवदेश्वर प्रसाद सिंह के लीः भ्री महाराज कुमार वाबु 
छुअर सींह के आसीस। आगे राउर खानदान आज तक इजमाल रेआसत के राख 
के अपना परवरीस के बोझ रेआसत पर छोड़ले राखल। रेआसत भी हमेशा रवा 
स॒व के एड वेहवार के कहा और आइन्दा भी अइसने वेहवार राखी जेह से ऐका कायम 
रहे। अंगरेजन के खिलाफ वौवौगंज के लड़ाई में राउर वाबुजौ साहेव हमार जान 
वचावे में खेत अइलीं। रउरा भी तीन अंगरेजन के मार के हमार जान बचौली। 
एह से हम रउरा से उगरीन ना हो सकी । ए हसे इजमाल रेआसत में जे हमार ह्सि 


भोजपुरी के कबि ओर काव्य 


पट 
छ 2 डा 

४ ह्‌ः 24 ह हि ३० > 
चर 2, 


4; 


00: 207 | + 
ातदेणजा भाहिसदय न हेटेहरब्रह> मीन क श्र 2 
दुआ नगनिए गाहुाहए (पी 


2० 6६ १5 कक 2३/४४०५ 0, डे 
7; हक कक 0४ 60८ 22% 227॥ प्र 0 


४ 


ह ६५ 
24262 /77 अमल ५ 2* 3००८८ 0 ८ ६ 
ी |; फ् | 


[बह 





भोजपुरी के कवि और काव्य 

















जे ाअ 4 लक एप ॥ 









गा दर ४ 7४४७७ 56 0४८ तन #* भा श्ज 





“ले हज जुन्दबताकरें ०2 
ब्लैक ;., ४०७०५ ८८८, ५ हि 
बचछल रिटिपआपपरिममरप१०० ०२ कांजशएत्ल बेभी मा. ० 
+->+* १४३९४ न पक भा काज शहर न (पट 2 






३ ४4 फिर गा भ्क व्‌ पर 
87402 087 
४९६ $4(९% के 20022 ० ६४०४४” १६४:६६ 


0 8 ३०७३३० नमक 
डर श्र 










दर 


हाल पर श््षा 
छू. रे का हर/०९५ 8४0०8 








ह १७३०४ १०९३ ॥ रेल एहीशण पर गेसे एहण्प 
पक हज. (मल शोर 2 कक 
| क्र है हम प्‌, रस $0॥४ले(6770/% "इलाल 
;ः प््ि ५६०४४ ५५॥ है ०४ ३७१२७ लै।। ०७७३७४४५५ 
दर री ७९०७।५९०९२७ इएशलही ०५६ #रह0 फ्लमेह री ध्क 
ण $26७8+ की ७अर१०७५०५९०९०५६६०+४६। «हू 


>/ ध्का। हर कम तक लटक ९ ६०५४९१०११९०२/ १८ 803] चिधवरजों ५५.) 
“5 ७ डक मे ह 20 अ ह ५२७॥ ७ पके 
278 77 कक ०० ३१३७ ५ कह 8%१(९५॥ 2७५७)१२) 
हे ७ ०० तर ए४२*०ल सेच जुल4ु चाहे मे है आह ६ है 
५, गतानाणए७ अुणे+ए७भ५९५५९6५७१४९८९१. है ४ 
/. ६३०६ ४६०० जकण+ 47५ 


को 0] शा 
है हैस्‍रैकत भहप #३0१ ६५६३० ५.“ 


४४ ७१-- हक कुतएी० २७ ३७५-- 6भह्ू/ ५ 3. 
गत शी है १ ५, अर क जज 
हलक गन  2५११७३०-१३ पा 55 'ह१५७ मर 
४ 7 708९-३ र  /0क॥ 5 
€ हक > हैबल नील - 0३ ९  ] 2१ 
| प0ती-- ५ « > ६४५०९. | 6 
|; र्भ 5 ६६०५४ हर] * 
॥००7 ॥४-- 55 
अ्रक ०7 +?्प ला 7: च धर ८0,247 
४० है ५१०४४ 
कर "री ११३० ह। 4 
का. (० 4) 
क्र" ई१तआ।- जुच 
को भोध१ व ४ 
कु कऋष्दूशुका। ह#7७श4.2०॥छी५(7ैहुएए ५ २२२ 
। 47 0॥(ए०४०४०॥ैजे ० इधएक १ शो ७४४ इएफपैपनट हि 


|.) 
#0%४॥१४०७ ४५१) ६४०४०--५३४९ ४... 
०0 ०७० है 









































हु 
्ं 


हू 





और गे हग्त 4 
रे - पल ह 
9०३ 


भी १०४ 






१9९. 
, - (६५३... पाप 


११० हक ह् 
(१ ॥६९ ६ 
्श ५ . अं, आट 2३, ६ [22% 





चिन्न तं५ ७ 


( 


५) 


था वोह में से हम खुशी से रउरा के हसव जैल ओनइस गांव इनाम में देली। इ 
राउर नीज समपती भइल एसो के साल से ही रउरा मालिक भइलीं। अपना दखल 
कवजा में लेके तहसोल वसुल कंरीं और आमदनी लौहो और पुस्त दरपुस्त कायम 
रही खास जे मोनासिव समर्मी से करी। दुसर वात को राउर एह लगन में शादी 
भदटल हा । हम हसव दस्तुर खनदान रउरा महल श्री चौ० दुलहीन 
खोइडा वो सुहृदेखी मे एगारह सौ पचास विगहा जमौन......मोताबीक हरीसत 
जेल के......... देलीं कि एही साल से दखल कबजा में लेंके आमदनी अपना खास 
खरचा में तसदक करब । एह वास्ते एह सनद लिख देल के वरुत पर काम आवे। 


कैफियत मौजा जे इनाम में दिआाइल-- 
नाम थाना नाम मौजात 


साहपुर जगदीशपुर 
»ग 


चकवल 
धनगाई 
दुलउर 
केसरी 
तेनुनी 


नाम थाना 


पीरो 


क्र 


घमराज कु'भर के 


नाम थाना. नाम मौंजात 
पौरो पीरो ६ 
9 बम्हवार ७ 
9 जीतौरा ८ 
ग जमुझआव & 
५; चरांव.. १० 
छठ रतनार ११ 
9 छुबरही. १२ 
नाम मौजात 

मोथी १३ 

भसेही १४ 
होटपोखर॒ १५ 
रजेंआ १६ 

तार १७ 
सनेआ पृद 
चौवेपुर १६ 


१६, अनइस मौजा हकीझत मौलकीअत सोलह आना कैफीआअत ऐराजीआत 


जे खोइंछा और मुंहदेखी में दिश्राइल । 


नाम मौजा 


१. जगदीशपुर 
२. धनगाई 
३. चकंवल 
४ तेंनुनी 
५४. वम्हवार 
६. रतनार 
७, जीतौरा-+- 


साहपुर जगदीशपुर 


थाना 


पौरो 


ता० १ माह भादो १२६५ शाल 


२००. बिगहा 
म्‌०० १ 
२०० १) 
१०० 

१०० 

२५० 

१०० 

१९४५०. बिगह्ा 


( ६ ) 


चित्र न॑ं० ८ की प्रतिलिपि 


वातु कु अर सिंह 


सौसतो श्री चौः शुभकरन सीध के लीः श्री माहाराज कुमार श्री.«-...०«०*०»-»-मी 
के प्रनाम। शआगे रउरा जे मालगुज्ञारी तालुके सिकहटा वस्नौद्द तेहात जरभरना 
प्रगने पीअरो के सोरह सव तीन रुपैया ऐक आना रोल साहेव कलठर के दाखिल 
करीला वो सन्‌ वारह सब वावन साल ले मालगुजारी रडरा जरभरना के देहात के 
हजुर मे साहेव कलकठर के दाखिल भइल अब परगना पौअरो बइलत बाकी 
मालगुजारी देहात मोतअलु के हमारे वीलकुल नौलाम प्र वाठे। एह चासते लिखत 
हइ कि सोर ह सब तीन रुपैशा छुव आना पांच पाई साठे वान्द्र वाह करात सालगुजारी 
सन बारह सब तौरपन साल के बावत देहात जरभरना के हजुर मे साहव कलकठर 
के देना बाटे से रठरा सोन्द्र सव तीन रुपैआ छुव आना पांच पाई साढे बारह करात 
सिश्ाह अपना तरफ से कलकटरी में कराई दिही वो अरज अपना पास राखी की 
लौलाम से रहाइ होए। आगे प्र सन वन्ह सब तौरपन साल सें मोजरा लेब। अगन 
(अंकन) १६०१५ ५१९॥ जे सन वान्ह सव्‌॒तीरपन में देना बाटे से बान्ह सद वावन 
साल मे देत वान आगे रउरा एकर कवनो पेच जो परी तेकर जवावदेही हमरा तअलुक 
रउरा से सरोकार नाही। रुपैआ बेला सुदो हम अदाए करें इ चिटी वजाऐ द्सतावेज 

के अपने पास राखव । 

ता; १६ माह जेठ १२५२ साल 
लिख जानव चीठी 
माफोक मोजरा होय 
( निम्नलिखित दो सनदो के चिन्न नहीं हैं। ) 
होरील सिंह # 
१६३६ साल 
स्वस्ति श्री रिपुराव दैत्य नारायणइत्यादि विविध वीरुदावली विराजमान मानोन्नति 
श्री महाराजाधिराव राजा श्री '"***'**०*- जीव देव देवानां सदाधमर बविजयौनां आगे 
“*“***”पाँडे प्रयाग के उपरोहित पाछिल रजन्द्र के उपरोहित हड अही से हमहूँ 
आपन उपरोहित केल्न जेकेड प्रयाग साह आवे से सुधस पांडे को माने उज्जैन 
ता० १३ माह ("४ “) ११३६ साल मोकाम दावा घुस'”"“**““समैनाम वैसाख 
सुदी तिरोदसोी रोज घुध*"“'”““जिला प्रगनै भोजपुर गोतर सबनक मूल उजेन 
जाति पावार-- 


चुब ( ) के पाछीला रजन्ह के उपरोहित हव अही ते से हमहू कैल 
आपन उपरोहित। 
.. सही माधो प्रसाद पांडे वल्द वनवारी पाडे पोता जगन्नाथ पांडे हमलोग सु्वंस 
पाडे वा शंकर पाडे के वंशज्ञ है यह लिखा हुआ पुरानी बही में से उातर कर नकल 
किया गया है मोकाम दारागंज नम्बर सकान ६६८ पो० दारागंज प्रयागराज ब्रिवेणी 


पु 


पर हमारा पंखा के भांडा पुराना है वाः । 


न नर अर ड ा 
* होरिवशाह या सिंद मोजपुर के प्रमार राजाओ के पूर्व थे। देखिप-भूमिका के पृ० ६-१०।॥ 


ह “जैखक 
75 क्त सनद का यह प्रसाणपत्र प्रयाग के पयछा जी का है ।--केखक 


भोजपुरी के कबि और काव्य 







“१५४४ 2४५॥॥/ १ 
) 















के कक हटके रगमी ड़ ह० ७ । ४4 “हाँ 
हम 
५ औओ48 जग 4 शरफे शत 0/॥/2 ५३% कि०0॥क- 
- का ॥0शलाओ ३३7०(३०० शी 
(8 0/09॥॥ 720४ ॥ का | है ३2)/ 4%(/४४ 
तक किदजातआमगिरमधशामादीकाती नी १० 
न ४ डक कक (शीक्री/ ५ ७ ७/०४ज-०७ 
की 39, आल व 
हम ठ06क शी4 9७0१९ ॥॥॥५6 शालप* 
शॉन$ ७१४१0) 
,.. 040 ६%0027% कै 07 
'ह गजीगिशश्वा()4%५)7 62220, 28 4॥ ४8 
70कलरणह लाश रत कि (00% 28४०॥९ 
॥मुतीवणा ४० ह शी कम शम गे म्फी5 ५५:20: शह६ |! 
हीग॥ है दृशिकषरि ठिशिह बा; भकणकशोशरि६0५३५॥५)44] रे 
बा 0%कषतपअजो बी 4 जन ४६ू (0॥0९ ९८५ 40 
८ 2४१७३ ४७७४७ ७७७४४ ८०७ 2 
शिमे॥ कल्कि जी११ * #रैब क्र - (॥४ 








 ईर् 2] 
हे प 08 8: 
श्र 6९ 2 


$ 


( ७ ) 
स्वस्ति श्री रियु*१३०३७०००७०६ ० #रहह १३० १०४३३ ९९२४० «२ २०9४9«०0२३5302%० ० ०१६४९ ०९६ 5० ९०४९ ००५३० 


राजा श्री अमरसिंह* देव देवानां सदा समर “जोग्य शिकदार वो वाजे 
वोहदार चौधुरी वी''“*'*““*** के सधाश्रयि* पितम्बर दसौधी* के नेग के दीहल 
(जे) देव-- 
जे दौहल से, सुभ"९०*९०५०००००** ते दीहल ०७००७ 
रीवाज 
विश्ञाह वे बेठा का जेभारन्ह के दिली अमनेक3 का विश्ाह 
मैला घोरा जोरा ताकर दूसवध होखे*" “““*नतुव॒न 
शोन देव-- दशौधि के देव-- जम लाएक तस देइ-- 
नान्ह जाति परजा महतो ""** * ९०५०९ 02३०७ > ३०४ डे के हो कक वेब 
चो पिआदा रथ दुइ्ड का विश्ाह हीए रेऋव४ ५9 0 ० # ००४४० ३०० ८4 
आना, तो एक सुका वीत हक मम कल 


९४ न्‍ ० 
एकर मंह सारी शौर (४*“**““) वहरिश्र 
मह वड गांव पाच मम घपाक ९£ बरदही ।£ 
छोट गांव दुइ मन जे केइ आवे से ढतलकढग०ल ०० ० ०० ढ लग) ल्‍० ०० 
देइ्‌ साल साल देघू--- एकर ही दुद् घीत देव-- $७0०४8०0०0०१७७३७७७७७७७ 
५०००००००००००००००००००००»००००१ ०४७ साल-फसली 


# अमर पिंह सत्‌ १०४७ फसली में मोचपुर के राजा थे। आप प्रसिद्ध कवि प्रवत्ञ शाह के बढ़े भाई थे। 
जाप जगदोशपुर, दुबीपपुर, डुमराव और बक्सर के उल्लेन-राज वशों के पूर्वज थे। आपके वंशणों कौ 
चर्चा मेरी सूमिका फे १० ६-१० में देखिए। 

१० भध्यसश्नेणी का आश्रित जिसकी बृत्ति नेग के सिवा और ऊुछ नहीं है । 

२. भाठ (माठ का दसौधी से दर्जा झचा होता है, क्योंकि माठ के नेग का बृशमाश दर्सौंधी को 
मिलता है ।) 

३... दुर्शाश। 





गली गली में पेड़ लगाओ हर प्राणी में आस जगाओ यह संदेश देनेवाले कवि का नाम क्या?

ओम निश्चल अंधेरा और उजाला प्राय: दोनों कवियों को लुभाते रहे हैं.

रो रोकर कौन पुकार रहा है?

औजारों से मत छाँटो।

पेड़ की पुकार कविता के रचयिता कौन है?

का वे फल चखते हैं।

पेड़ों को काटकर मनुष्य को क्यों पछताना पड़ेगा?

उनके बग़ैर हम पृथ्वी पर ज़िंदगी का पहिया घूमने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते हैं." इस ग्रह को पेड़ जो सेवाएं देते हैं, उनकी फ़ेहरिस्त बहुत लंबी है. वो इंसानों और दूसरे जानवरों के छोड़े हुए कार्बन को सोखते हैं. ज़मीन पर मिट्टी की परत को बनाए रखने का काम करते हैं.