मुक्ति दिवस से आप क्या समझते हो 1919 के अधिनियम के तहत? - mukti divas se aap kya samajhate ho 1919 ke adhiniyam ke tahat?

 यह भारत के संवैधानिक विकास का दूसरा भाग है। इसके अंतर्गत हम ब्रिटिश क्राउन के प्रत्यक्ष शासन के अधीन संवैधानिक विकास (चार्टर एक्ट 1853 के बाद के अधिनियम 1858 से लेकर भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947 तक) की बात करेंगे। 

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पिछले लेख में हमने ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना , रेग्युलेटिंग एक्ट 1773 से लेकर चार्टर एक्ट 1853 तक बात की है। आप इस लेख में दी गयी जानकारी को अच्छी तरह समझने के लिए पिछले लेख को अवश्य पढ़ लें।

पिछली पोस्ट : 

● भारत का संवैधानिक विकास (भाग-1)

Contents

  • 1 भारतीय संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (भाग-2) | Historical background of Indian Constitution (Part-2) –
    • 1.1 भारत का संवैधानिक इतिहास –
    • 1.2 ब्रिटिश क्राउन के अधीन संवैधानिक विकास – 
      • 1.2.1 भारत सरकार अधिनियम – 1858
        • 1.2.1.1 अधिनियम की विशेषताएँ:
      • 1.2.2 भारतीय परिषद अधिनियम 1861 (The Indian Council Act, 1861)
        • 1.2.2.1 प्रावधान:
      • 1.2.3 भारत परिषद् अधिनियम 1892 –
        • 1.2.3.1 प्रावधान:
      • 1.2.4 भारत परिषद् अधिनियम, 1909 अथवा (मार्ले मिन्टो सुधार) 
        • 1.2.4.1 प्रावधान : 
      • 1.2.5 भारत सरकार अधिनियम, 1919 अथवा (मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार) :
        • 1.2.5.1 प्रावधानः
      • 1.2.6 भारत शासन अधिनियम 1935 (Indian Government Act 1935)
        • 1.2.6.1 इस अधिनियम की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
        • 1.2.6.2 1935 ई. के अधिनियम की समीक्षा
        • 1.2.6.3 1937 के प्रान्तीय चुनाव –
      • 1.2.7 क्रिप्स मिशन 1942 – 
      • 1.2.8 वेवेल योजना (Wavell Plan) एवं शिमला समझौता
        • 1.2.8.1 प्रावधानः
      • 1.2.9 कैबिनेट मिशन 1946 –
      • 1.2.10 अन्तरिम सरकार का गठन 1946 (Formation of  Interim Government)
      • 1.2.11 भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947
        • 1.2.11.1 अधिनियम की विशेषताएँ:
    • 1.3 निष्कर्ष : 
        • 1.3.0.1 भारतीय संविधान से संबंधित अन्य पोस्ट्स
        • 1.3.0.2 Tag:

भारतीय संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (भाग-2) | Historical background of Indian Constitution (Part-2) –

मुक्ति दिवस से आप क्या समझते हो 1919 के अधिनियम के तहत? - mukti divas se aap kya samajhate ho 1919 ke adhiniyam ke tahat?

भारत का संवैधानिक इतिहास –

आईये जानते हैं–

ब्रिटिश क्राउन के अधीन संवैधानिक विकास – 

भारत सरकार अधिनियम – 1858

पिट्स इण्डिया एक्ट द्वारा स्थापित बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल (Board of Control) कंपनी के ऊपर अपना नियंत्रण नहीं रख सका। भारत में कंपनी एक गैर जिम्मेदार सरकार की तरह कार्य करती रही जिसके कारण 1857 की क्रान्ति हुई। 

      फलस्वरूप तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री लार्ड पामर्स्टन ने 12 फरवरी, 1858 ई० को भारत में अच्छे शासन और दोहरे शासन के दोषों को दूर करने के लिए एक विधेयक संसद में प्रस्तुत किया, अप्रैल 1858 में संसद ने दूसरा विधेयक (भारत सरकार अधिनियम, 1858) ‘Act for the better government of India’ अर्थात ‘भारत के शासन को अच्छा बनाने वाला अधिनियम’ के नाम से पारित किया। 

यह विधेयक द्वितीय वाचन के बाद पारित हो गया किन्तु कतिपय कारणों से पार्मस्टन को त्याग पत्र देना पड़ा। ध्यातव्य है कि 1 नवम्बर, 1858 को विक्टोरिया ने भारत के संबंध में एक महत्वपूर्ण नीतिगत घोषणा किया था, जिसे भारत के शिक्षित वर्ग द्वारा अपने अधिकारों का मैग्नाकार्टा कहा गया।

अधिनियम की विशेषताएँ:

1. इसके तहत भारत का शासन कंपनी से लेकर ब्रिटिश क्राउन के हाथों में सौंपा गया। गवर्नर जनरल का पदनाम बदलकर भारत का “वायसराय” कर दिया गया। वायसराय ब्रिटिश ताज का प्रत्यक्ष प्रतिनिधि बन गया। 

लार्ड कैनिंग भारत का पहला वायसराय बना।

2. इस अधिनियम द्वारा बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स तथा बोर्ड ऑफ कंट्रोल को समाप्त कर दिया गया।

3. भारत के प्रशासन की जिम्मेदारी अब एक नई संस्था “India Council” या “India House” को सौंप दी गयी जिसका प्रमुख “भारत सचिव” कहलाता था जो ब्रिटिश संसद के 44 प्रति उत्तरदायी था। 

★ “चार्ल्स वुड” भारत का पहला भारत सचिव बना। इसे सहायता देने के लिए 15 सदस्यी भारत परिषद्/इंडिया काउंसिल गठित की गई जिसके आठ सदस्य ब्रिटिश सम्राट एवं 7 सदस्य कोर्ट ऑफ डायरेक्टर द्वारा नियुक्त किये जाते थे। 

4. भारत में मंत्री पद की व्यवस्था की गयी।

भारतीय परिषद अधिनियम 1861 (The Indian Council Act, 1861)

1861 का यह कानून भारत के संवैधानिक विकास में एक महत्वपूर्ण कदम था। इस कानून से अंग्रेजों की वह नीति आरम्भ हुई जिसे सहयोग की नीति (Policy of Association) या उदार निरंकुशता (Benevolent Despotism) का नाम दिया गया क्योंकि इसके द्वारा सर्वप्रथम भारतीयों को शासन में सम्मिलित करने का प्रयत्न किया गया था। 

  1858 ई. के कानून द्वारा भारत के शासन में चूँकि कोई परिवर्तन नहीं किया गया था. अतएव तीन वर्ष पश्चात 1861 के अधिनियम से उन कमियों को दूर करने का प्रयास किया गया।

प्रावधान:

1. इस अधिनियम के अन्तर्गत लाई केनिंग ने पहली बार भारत में विभागीय प्रणाली (Portfolio System) की शुरूआत की। इसमें भिन्न-भिन्न सदस्यों को अलग-अलग विभाग सौंप कर एक प्रकार से मंत्रिमंडल व्यवस्था की नींव डाली गई।

2. वायसराय काउंसिल की सदस्य संख्या 4 से बढ़ाकर 5 कर दी गई। इस पांचवें सदस्य को विधि का ज्ञान होना अनिवार्य था।

3. केन्द्रीय विधानपरिषदों की संख्या 6 से 12 तक के मध्य निर्धारित की गयी ये सदस्य दो वर्षों के लिए वायसराय द्वारा नियुक्त होते थे।

4. वायसराय को अध्यादेश जारी करने का अधिकार दिया गया और इसके लिए केन्द्रीय विधानपरिषद की सलाह की आवश्यकता नहीं थी किंतु अध्यादेश की अधिकतम अवधि 6 माह थी।

5. इस एक्ट के द्वारा पहली बार “विकेन्द्रीकरण व्यवस्था” अपनाई गई तथा मद्रास और बंबई प्रेसिडेसियों को कुछ मामलों मुद्रा, वित्त, ऋण आदि के मामलों में कानून बनाने का अधिकार दिया गया।

6. 1861 के एक्ट में वायसराय को यह अधिकार दिया गया कि वह बंगाल, उत्तरपश्चिमी प्रान्त उत्तरप्रदेश तथा पंजाब में भी विधानपरिषदों की स्थापना कर सकता है।

Note: ★ भारत में लॉर्ड रिपन को “विकेन्द्रीकरण का पिता” कहा जाता है।

भारत परिषद् अधिनियम 1892 –

1857 में हुई राज्य क्रांति तथा शिक्षा के प्रसार ने भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना को सुदृढ़ किया। 1885 में कांग्रेस की स्थापना तथा इलवर्ट बिल विवाद के पश्चात भारतीयों को प्रशासन तथा विधि निर्माण में और अधिक प्रतिनिधित्व देने की माँग ने काफी जोर पकड़ लिया, जिसके फलस्वरूप यह अधिनियम पारित किया गया।

प्रावधान:

1. इस अधिनियम के द्वारा भारत में केन्द्रीय विधानपरिषद् के सदस्यों की संख्या बढ़ाकर न्यूनतम 10 एवं अधिकतम 16 कर दी गई।

2. केन्द्रीय विधान परिषदों के अधिकारों में वृद्धि की गई एवं परिषद के सदस्य बजट मामलों पर प्रश्न पूछ सकते थे और बहस भी कर सकते थे, किन्तु उन्हें पूरक प्रश्न पूछने एवं बहस पर मतदान का अधिकार नहीं था।

3. इस अधिनियम का सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु भारत में पहली बार निर्वाचन पद्धति प्रारंभ करना था जिसके अन्तर्गत केन्द्रीय विधानमंडल के 5 और सरकारी सदस्य कलकत्ता के वाणिज्य मंडल के सदस्यों द्वारा निर्वाचित होने लगे थे।

4. बंबई, मद्रास और बंगाल प्रान्तों में न्यूनतम 8 तथा अधिकतम 20 सदस्य तथा उत्तर पश्चिमी प्रान्त में अधिकतम – 15 अतिरिक्त सदस्य नियुक्त किये गये। 

5. प्रान्तीय परिषदों के गैर सरकारी सदस्य नगरपालिका, जिला बोर्ड, विश्वविद्यालय तथा वाणिज्य मंडल द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित किये जाते थे।

भारत परिषद् अधिनियम, 1909 अथवा (मार्ले मिन्टो सुधार) 

मार्ले-मिण्टो सुधार का लक्ष्य 1892 के अधिनियम के दोषों को दूर करना तथा भारत में बढ़ते हुए क्रान्तिकारी राष्ट्रवाद का सामना करना था। सरकार की मंशा थी कि साम्प्रदायिकता को भड़का कर क्रान्तिकारी राष्ट्रवाद का दमन कर दिया जाये। इस अधिनियम को तत्कालीन भारत सचिव लार्ड (मार्ले) तथा वायसराय (मिंटो) के नाम पर मार्ले-मिण्टो सुधार अधिनियम भी कहा जाता है।

      ◆ सर अरुण्डेल समिति की रिपोर्ट के आधार पर इसे फरवरी, 1909 में पारित किया था।

प्रावधान : 

1. इस एक्ट के द्वारा केन्द्रीय एवं प्रांतीय विधानपरिषदों की सदस्य संख्या 16 से बढ़ाकर 60 कर दी गई। इनमें से 27 निर्वाचित और 33 मनोनीत सदस्य थे। इस प्रकार वायसराय परिषद के नौ सदस्य (वायसराय और वायसराय परिषद के 8 सदस्य) और जोड़ देने पर अब इसमें कुल 69 सदस्य थे।

2. भारतीयों को भारत सचिव एवं गर्वनर जनरल की कार्यकारिणी परिषदों में नियुक्ति की गई।

3. सत्येन्द्र प्रसाद सिन्हा वायसराय की कार्यकारिणी परिषद के प्रथम भारतीय सदस्य बनें उन्हें विधि सदस्य बनाया गया।

4. इस एक्ट के तहत पहली बार मुस्लिम समुदाय के लिए पृथक प्रतिनिधित्व का उपबंध किया गया, इसके अन्तर्गत मुस्लिम सदस्यों का चुनाव मुस्लिम मतदाता ही कर सकते थे। इस प्रकार मुसलमानों के लिए पृथक मताधिकार तथा पृथक निर्वाचक क्षेत्र की व्यवस्था कर “फूट डालों और शासन करो” की नीति अपनायी गई। 

5. केन्द्रीय और प्रान्तीय विधानपरिषदों को पहली बार बजट पर वाद विवाद करने, सार्वजनिक हित के विषयों पर प्रस्ताव पेश करने, पूरक प्रश्न पूछने और मत देने का अधिकार मिला।

6. इस अधिनियम के द्वारा स्थापित निर्वाचन प्रणाली बहुत ही अस्पष्ट तथा जनप्रतिनिधित्व के विरूद्ध थी।

7. विदेशों से संबंध, देशी राजाओं से संबंध तथा न्यायालयों में लंबित मामलों पर बहस वर्जित थी।

भारत सरकार अधिनियम, 1919 अथवा (मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार) :

भारत सरकार अधिनियम, 1909 भारतीयों के स्वशासन की माँग को पूर्ण न कर सका। साम्प्रदायिक आधार पर मतदान प्रणाली की नीति से उत्पन्न असंतोष, 1916 में कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के मध्य समझौता, 1916-17 में प्रकाशित मेसोपोटामिया आयोग की रिपोर्ट जिसमें अंग्रेजों को भारत में शासन के लिए अक्षम बताया जाना, होमरूल आंदोलन से भारतीयों में जागृत राष्ट्रीय चेतना तथा प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय सहयोग की अपेक्षा के मद्देनजर तत्कालीन भारत सचिव मान्टेग्यू ने 20 अगस्त, 1917 को ब्रिटिश सरकार के प्रस्तावित सुधारों की घोषणा की, जिसमें सर्वप्रथम भारत को स्वतंत्र डोमीनियन (स्वशासन) की स्थिति प्रदान करने की बात कही गयी।

 इसके पश्चात मोन्टेग्यू भारत आये और गवर्नर जनरल चेम्सफोर्ड तथा अन्य नेताओं से शिमला में विचार विमर्श किया। तदोपरान्त जुलाई 1918 में मान्टेग्यू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट प्रकाशित किया गया। इस रिपोर्ट के आधार पर ही ‘भारत शासन अधिनियम, 1919 पारित किया गया। इस अधिनियम में सर्वप्रथम “उत्तरदायी शासन” शब्द का स्पष्ट प्रयोग किया गया था। 

प्रावधानः

1. इस अधिनियम द्वारा केन्द्र में द्विसदनात्मक विधायिका की स्थापना की गई जिसका उच्च सदन राज्य परिषद तथा निम्न सदन केन्द्रीय विधानसभा कहलाता था। राज्य परिषद में 60 सदस्य थे और उनका कार्यकाल 5 वर्ष होता था। केन्द्रीय विधानसभा में 145 सदस्य थे जिनमें 104 निर्वाचित और 41 मनोनीत होते थे। इनका कार्यकाल 3 वर्षों का था। दोनों सदनों के अधिकार समान थे इनमें सिर्फ एक अन्तर था कि बजट पर स्वीकृति प्रदान करने का अधिकार निचले सदन को था।

2. भारत परिषद के सदस्यों की संख्या 8 से बढ़ाकर 12 कर दी गयी और भारत सचिव की सहायता के लिए अलग से उच्चायुक्त (High Commissioner) का पद बनाया गया जिसका वेतन भारतीय कोष से दिया जाता था। साथ ही सचिव का वेतन अब ब्रिटिश कोष से दिया जाने लगा।

3. इस एक्ट को सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि प्रांतों में द्वैध शासन प्रणाली का प्रवर्तन किया गया, प्रांतीय विषयों को दो उपवर्गों में विभाजित किया गया।

● आरक्षित

● हस्तांतरित

आरक्षित विषयः इन विषयों पर गर्वनर कार्यपालिका परिषद् की सहायता से शासन करता था, जो विधान परिषद् के प्रति उत्तरदायी नहीं थे। इन विषयों में वित्त, भूमि, न्याय, पुलिस, समाचारपत्र, कारखाना बिजली सार्वजनिक सेवाएँ आदि शामिल थे।

हस्तांतरित विषयः हस्तांतरित विषयों पर गर्वनर का शासन होता था और कार्य में वह उन मंत्रियों की सहायता लेता था, जो विधानपरिषद् के प्रति उत्तरदायी थे।

4. इस एक्ट द्वारा भारत में लोक सेवा आयोग का गठन का प्रस्ताव रखा गया और इसी के आधार पर केन्द्रीय लोक सेवा आयोग का गठन 1926 में किया गया। साथ ही, एक महालेखा परीक्षक का पद भी बनाया गया।

5. इस अधिनियम के द्वारा पहली बार एक प्रत्यक्ष चुनाव पद्धति अपनायी गई।

6. वायसराय परिषद् के 8 सदस्यों में कम से कम 3 भारतीय सदस्य होना अनिवार्य कर दिया गया।

7. एक चैम्बर ऑफ प्रिंसेस का गठन किया गया जिसके प्रथम चासंलर बीकानेर के महाराजा गंगा सिंह थे।

8. भारत शासन अधिनियम (1919) द्वारा भारत में पहली बार महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला साथ ही निर्वाचन प्रणाली को सिक्खों पर भी लागू किया गया।

भारत शासन अधिनियम 1935 (Indian Government Act 1935)

भारत शासन अधिनियम 1919 में यह प्रावधान किया गया कि इस अधिनियम से हुई प्रगति की समीक्षा के लिए 10 वर्ष पश्चात एक आयोग गठित किया जायेगा किन्तु द्वैध शासन की असफलता और भारतीयों द्वारा अधिक स्वायत्ता की माँग के मद्देनजर 10 वर्ष पूर्व ही सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में 7 सदस्यी आयोग का गठन 8 नवम्बर, 1927 को किया गया। 

आयोग के सभी सदस्य अंग्रेज थे, किसी भारतीय को आयोग में शामिल न किये जाने के कारण उसका व्यापक विरोध हुआ। कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन (1927-अध्यक्ष एम०ए० अंसारी) में आयोग के पूर्ण बहिष्कार का निर्णय लिया गया। 3 फरवरी, 1928 को आयोग बंबई पहुँचा तथा 30 जून, 1930 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत किया। आयोग के विरोध के बावजूद उसकी अनेक बातों को भारत सरकार ने अधिनियम 1935 में स्थान दिया।

 भारत सचिव लाई बर्केनहेड ने साइमन कमीशन का विरोध करने वाले नेताओं को सभी दलों द्वारा स्वीकार्य संविधान का प्रारूप तैयार करने की चुनौती दिया। जिसे कांग्रेस ने स्वीकार करते हुए पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में 10 सदस्यी नेहरू समिति का गठन किया। नेहरू समिति ने 10 अगस्त, 1928 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसे “नेहरू रिपोर्ट” के नाम से जाना जाता है। 

इसकी प्रमुख सिफारिशें निम्न थीं–

 (i) औपनिवेशिक स्वराज

 (ii) केन्द्र में पूर्ण उत्तरदायी शासन

 (iii) प्रान्तीय स्वतंत्रता, मौलिक अधिकार

 (iv) सर्वोच्च न्यायालय की तत्काल स्थापना,

 (v) देशी रियासतों को केन्द्र के ₹ अधीन लाया जाना

 (vi) साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली की समाप्ति आदि।

नेहरू रिपोर्ट के विरोध में जिन्ना ने अपनी 14 सूत्री माँग 29 मार्च, 1929 को पेश कर दिया। इसके पश्चात ब्रिटेन में 1930 में प्रथम, 1931 में द्वितीय तथा 1932 में तृतीय गोलमेज सम्मेलन का आयोजन, संवैधानिक सुधारों पर विचार हेतु किया गया। अंततः ब्रिटिश सरकार ने 1933 में श्वेत पत्र के माध्यम से नये संविधान की रूपरेखा प्रस्तुत किया, जिस पर विचार के लिए लार्ड लिनलिथगो की अध्यक्षता में “संयुक्त समिति” का गठन किया गया।

इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर तैयार विधेयक संसद से पास होने के बाद 4 अगस्त, 1935 को ब्रिटिश सम्राट की अनुमति पाकर भारत शासन अधिनियम 1935 बना। भारत के लिए तैयार संवैधानिक प्रस्तावों में यह अन्तिम तथा सबसे बड़ा और जटिल दस्तावेज था। इसमें कुल 321 अनुच्छेद 10 अनुसूचियाँ व 14 भाग थे। वर्तमान भारतीय संविधान पर इस अधिनियम का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है।

इस अधिनियम की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. अखिल भारतीय संघ की स्थापनाः यह 11 ब्रिटिश प्रान्तों, 6 कमिश्नरियों तथा उन देशी रियासतों, जो स्वेच्छा से इसमें शामिल हो, से मिलकर बनना था, ब्रिटिश प्रान्तों के लिए संघ में शामिल होना आवश्यक था। देशी रियासतें संघ में शामिल नहीं हुई। अतः यह प्रस्ताव मूर्त रूप न ले सका। यद्यपि अखिल भारतीय संघ अस्तित्व में नहीं आ सका परन्तु 1 अप्रैल, 1937 को प्रान्तीय स्वायत्ता लागू कर दी गयी।

2. केन्द्र में द्वैध शासन अर्थात दोहरा शासन: 1919 के अधिनियम द्वारा प्रान्तों में द्वैध शासन इस अधिनियम द्वारा समाप्त कर दिया गया तथा उसे केन्द्र में लागू किया गया। केन्द्रीय प्रशासन के विषयों को रक्षित तथा हस्तांतरित में वर्गीकृत किया गया। रक्षित विषयों (प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, धार्मिक विषय व जनजाति क्षेत्र आदि) का प्रशासन गवर्नर जनरल अपनी परिषद की सहायता से करता था तथा अपने कार्यों के लिए भारत सचिव के माध्यम से ब्रिटिश सरकार के प्रति उत्तरदायी था। हस्तांतरित विषयों का प्रशासन गवर्नर जनरल अपनी मंत्रिपरिषद की सहायता से करता था जो विधानसभा के प्रति उत्तरदायी थी।

3. प्रान्तों में स्वायत्त शासनः प्रान्तों में स्वायत्त शासन की स्थापना इस अधिनियम की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी। विधि निर्माण हेतु वर्गीकृत केन्द्रीय और प्रान्तीय विषयों में से प्रान्तीय विषयों पर विधि बनाने का अत्यान्तिक अधिकार प्रान्तों को दिया गया तथा उन पर से केन्द्र का नियंत्रण समाप्त कर दिया गया। अब प्रान्तों के गवर्नर ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते थे, न कि गवर्नर जनरल के अधीन।

4. संघीय न्यायालयः यह न्यायालय दिल्ली में स्थित था। इसमें मुख्य न्यायाधीश तथा अधिकतम 7 अन्य न्यायाधीश हो सकते थे। उनकी नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी. न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील प्रिवी काउंसिल लंदन में की जा सकती थी। 1 अक्टूबर, 1937 से यह न्यायालय कार्यरत हो गया। सर मौरिश ग्वायर इसके पहले मुख्य न्यायाधीश थे।

5. केन्द्र और प्रान्तों के बीच शक्तियों का विभाजन: 1935 के अधिनियम द्वारा किया गया। केन्द्र एवं प्रान्तों के मध्य शक्तियों का विभाजन तीन सूचियों में बाँटा गया था (i) संघ सूची (59 विषय) (ii) प्रान्तीय सूची (54 विषय) तथा (iii) समवर्ती सूची (36 विषय)। अवशिष्ट विषयों सहित कुछ आपातकालीन अधिकार वायसराय को सौंपा गया था।

6. प्रांतीय विधानमंडल के तहत 11 प्रान्तों में विधानसभा का गठन किया गया, जिसमें 6 प्रान्तों में द्विसदनीय विधानमण्डल की स्थापना की गयी। उच्च सदन विधानपरिषद एक स्थाई सदन था, जबकि निम्न सदन विधानसभा जिसका कार्यकाल 5 वर्ष था।

7. संघीय तथा प्रान्तीय व्यवस्थापिकाओं में साम्प्रदायिक निर्वाचन पद्धति का विस्तार कर उसमें आंग्ल भारतीयों, ईसाइयों, यूरोपियों एवं हरिजनों को भी शामिल कर दिया गया।

8. इस अधिनियम द्वारा भारत परिषद का अन्त कर दिया गया। 

9. अदन तथा वर्मा (म्यांमार) को ब्रिटिश भारत से अलग कर दिया गया।

10. सिन्ध और उड़ीसा दो नये राज्य बनाये गये।

11. एक केन्द्रीय बैंक की स्थापना की गई जो भारतीय रिजर्व बैंक कहलाया।

12. इस अधिनियम द्वारा ही राज्यों में राज्यलोक सेवा आयोग और संयुक्त राज्य लोक सेवा आयोग गठित किये गये।

1935 ई. के अधिनियम की समीक्षा

इस अधिनियम में भी कई त्रुटियाँ थी। प्रस्तावित अखिल भारतीय संघीय योजना मजाक बन कर रह गयी। देशी रियासतों के साथ भारतीय दल एवं भारतीय जनता ने भी इसे पूर्णतः अस्वीकार कर दिया, जिससे जन प्रतिनिधियों के प्रभावी होने की सम्भावनाएँ समाप्त हो गई। संघीय न्यायालय के विरुद्ध प्रिवी कौंसिल (लंदन) में अपील की जा सकती थी। अतः संघीय न्यायालय का सर्वोच्च न होना न्यायपालिका की सबसे बड़ी कमजोरी थी।

1937 के प्रान्तीय चुनाव –

भारत शासन अधिनियम, 1935 के अधीन फरवरी 1937 में 11 प्रान्तों के लिए प्रान्तीय विधानमण्डलों के चुनाव कराये गये। इस चुनाव में कांग्रेस को भारी सफलता प्राप्त हुई और उसने आठ राज्यों में अपनी सरकार बनायी। इन 8 प्रान्तों में से दो प्रान्त पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त एवं असम में कांग्रेस ने मिली-जुली सरकार बनाई। 

पंजाब में युनियनिस्ट पार्टी तथा बंगाल में कृषक प्रजा पार्टी की सरकार गठित हुई। लगभग 28 माह तक शासन में रहने बाद अक्टूबर 1939 में कांग्रेस मंत्रिमंडल ने 8 प्रान्तों में निम्न दो कारणों से सामूहिक त्याग पत्र दे दिया

1. बिना कांग्रेस की सहमति के भारत को द्वितीय विश्व युद्ध में शामिल किया गया। तथा

2. कांग्रेस के युद्ध के उद्देश्य की घोषणा तथा युद्धोपरान्त भारत की स्वतंत्रता की माँग की उपेक्षा की गई थी।

ध्यातव्य है कि कांग्रेस मंत्रिमंडल द्वारा त्यागपत्र दिये जाने के पश्चात मुस्लिम लीग ने 22 दिसम्बर, 1939 की तारीख को मुक्ति दिवस के रूप में मनाया। इसमें उनका साथ डॉ. अम्बेडकर ने भी दिया था।

कांग्रेस मंत्रिमंडल के त्यागपत्र से उत्पन्न संवैधानिक संकट तथा युद्ध में भारत के सहयोग की आवश्यकता के लिए ब्रिटिश सरकार ने लार्ड लिनलिथगो (वायसराय) के माध्यम से 8 अगस्त, 1940 को एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया जिसे अगस्त प्रस्ताव कहा जाता है। इसमें कहा गया कि भारत का संविधान बनाना भारतीयों का अपना अधिकार है और युद्ध की समाप्ति पर भारत में औपनिवेशिक स्वराज स्थापित किया जायेगा। 

     कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग दोनों ने इस पर असंतोष व्यक्त किया। कांग्रेस ने अगस्त प्रस्ताव के विरोध तथा युद्ध से अपने को अलग साबित करने के लिए व्यक्तिगत सत्याग्रह आरम्भ किया। इस विचारधारा के पोषक गाँधीजी थे। “व्यक्तिगत सत्याग्रह” 17 अक्टूबर, 1940 को पवनार आश्रम (महाराष्ट्र) से शुरू किया गया। इसके प्रथम सत्याग्रही आचार्य विनोवा भावे तथा दूसरे सत्याग्रही जवाहरलाल नेहरू थे। इस आन्दोलन को ‘दिल्ली चलो’ आन्दोलन भी कहा जाता है।

क्रिप्स मिशन 1942 – 

भारतीयों द्वारा अपनी स्वतंत्रता के लिए लगातार लड़ी जा रही लड़ाई तथा द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की बढ़ती हुई शक्ति ने अन्तर्राष्ट्रीय जगत का ध्यान भारत की ओर खींचा। अमेरिका, आस्ट्रेलिया व चीन ने भारत को स्वतंत्र करने के लिए ब्रिटेन पर दबाव डाला। अब ब्रिटिश सरकार को यह विश्वास हो गया कि भारतीयों की माँग को और नहीं टाला जा सकता। अतः तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विस्टन चर्चिल ने मंत्रिमंडल के सदस्य पर सर स्टेफोर्ड क्रिप्स को मार्च 1942 में भारतीय नेताओं से वार्ता हेतु भारत भेजा।

22 मार्च, 1942 क्रिप्स मिशन भारत आया यह एक सदस्यी आयोग था, जो स्टेफोर्ड क्रिप्स के नेतृत्व में ब्रिटिश सरकार द्वारा भेजा गया था क्रिप्स ने यह प्रस्ताव किया कि : 

● युद्ध के उपरान्त नये संविधान की रचना के लिए निर्वाचित संविधान सभा का गठन किया जाएगा।

● भारत को उपनिवेश का दर्जा दिया जाएगा।

● प्रान्तों को संविधान को स्वीकार करने या अपने लिए अलग संविधान निर्माण की स्वतंत्रता होगी।

मुस्लिम लीग ने इस प्रस्ताव को इसलिए ठुकरा दिया क्योंकि देश का साम्प्रदायिक आधार पर विभाजन की उसकी मांग नामंजूर कर दी गयी थी। कांग्रेस ने प्रस्ताव का विरोध इसलिए किया क्योंकि इसमें भारत को टुकड़ों में बांटने की संभावनाओं के द्वारा खोल दिये गये थे।

■ गांधी जी ने इस प्रस्ताव को “टूटते हुए बैंक के नाम उत्तरदिनांकित चेक’ “Post dated cheque on a failing bank” की संज्ञा दी।

वेवेल योजना (Wavell Plan) एवं शिमला समझौता

अक्टूबर, 1943 में लार्ड लिनलिथगो के स्थान पर लार्ड वेवेल को भारत का वायसराय बनाया गया। वेवेल ने भारत में संवैधानिक गतिरोध दूर करने तथा अनुकूल वातावरण तैयार करने के लिए एक विस्तृत योजना 4 जून, 1945 को प्रस्तुत किया, जिसे “वेवेल योजना” कहा जाता है।

प्रावधानः

1. केन्द्र में नयी कार्यकारिणी परिषद का गठन किया जाएगा। परिषद में वायसराय तथा सैन्य प्रमुख के अतिरिक्त शेष सभी सदस्य भारतीय होंगे और प्रतिरक्षा विभाग वायसराय के अधीन होगा।

2. कार्यकारिणी में मुस्लिम सदस्यों की संख्या हिन्दुओं के बराबर होगी।

3. कार्यकारिणी परिषद एक अंतरिम राष्ट्रीय सरकार के समान होगी। गर्वनर जनरल बिना कारण वीटो शक्ति का प्रयोग नहीं करेगा।

4. द्वितीय विश्व युद्धोपरांत भारतीय स्वयं अपना संविधान बनायेंगे।

5. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान निरूद्ध सभी नेताओं को रिहा किया जाएगा और शिमला में एक सर्वदलीय सम्मेलन बुलाया जाएगा।

25 जून से 14 जुलाई, 1945 के मध्य शिमला में एक सर्वदलीय सम्मेलन आहूत किया गया। सम्मेलन में कांग्रेस प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व अबुल कलाम आजाद ने किया। गाँधीजी 3 ने सम्मेलन में भाग नहीं लिया। मुस्लिम लीग यह चाहती थी कि वायसराय की कार्यकारिणी परिषद में नियुक्त होने वाले मुस्लिम सदस्यों का चयन सिर्फ वही करेगी जिसे कांग्रेस ने अस्वीकार कर दिया। फलतः 14 जुलाई को वायसराय ने शिमला सम्मेलन को विफल घोषित कर दिया।

कैबिनेट मिशन 1946 –

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन में 1945 में हुए आम चुनाव में सर क्लीमेंट एटली के नेतृत्व में लेबर पार्टी की उदारवादी दृष्टिकोण वाली सरकार बनी। 14 मार्च, 1946 को प्रधानमंत्री एटली ने हाउस आफ कामन्स” में यह घोषणा की कि भारतीयों को स्वतंत्र होने का अधिकार है, इसके लिए उन्होंने कैबिनेट मंत्रियों का एक तीन सदस्यीय मिशन, जिसके सदस्य- पैथिक लारेन्स (अध्यक्ष), व्यापार बोर्ड के अध्यक्ष स्टेफोर्ड क्रिप्स और नौसेना प्रमुख ए.बी. अलेक्जेण्डर थे। मिशन ने भारत में तत्काल एक अन्तरिम सरकार की स्थापना तथा संविधान सभा के गठन एवं संविधान निर्माण हेतु एक योजना प्रस्तुत किया। योजना के अन्तर्गत निम्नलिखित प्रावधान थे–

1. भारत में एक अखिल भारतीय संघ की स्थापना की जाएगी, जिसमें ब्रिटिश भारत के प्रान्त और देशी राज्य सम्मिलित होंगी। केन्द्र सरकार के अधीन विदेश, संचार तथा प्रतिरक्षा के मामले होंगे।

2. संघीय विषयों के अतिरिक्त सभी विषय एवं अवशिष्ट शक्तियाँ प्रान्तों में निहित होगी।

3. प्रान्तीय विधानसभाओं तथा देशी रियासतों के प्रतिनिधियों को मिलाकर एक संविधान निर्मात्री सभा का गठन किया जाएगा प्रत्येक प्रान्त को उसकी जनसंख्या के अनुपात (लगभग 100 लाख की जनसंख्या पर एक प्रतिनिधि) में सीटों का आवंटन किया जाएगा।

4. भारतीय प्रान्तों को तीन वर्गों में विभाजित किया जाएगा―

 ● मद्रास, बंबई, मध्य प्रान्त, उड़ीसा और संयुक्त प्रान्त

 ● पंजाब, उत्तर पश्चिमी सीमा प्रदेश और सिंध

 ● बंगाल एवं असम

5. प्रत्येक 10 वर्ष के पश्चात किसी भी प्रान्त की विधानसभा को संविधान निर्बंधन पर पुनर्विचार करने की अनुमति होगी।

6.  कैबिनेट मिशन ने किसी भी रूप में मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की माँग को अस्वीकार कर दिया।

अन्तरिम सरकार का गठन 1946 (Formation of  Interim Government)

कैबिनेट मिशन ने मुस्लिम लीग के पृथक पाकिस्तान की मांग को = ठुकरा दिया और उन्होंने भारत में अंतरिम सरकार के गठन का 1 प्रस्ताव रखा जिसके 14 सदस्य (6 कांग्रेस, 5 मुस्लिम लीग, 3 अन्य) निर्धारित किये गये। किन्तु मुस्लिम लीग ने सरकार में शामिल होने से मना कर दिया।

 12 अगस्त, 1946 को वायसराय ने नेहरू को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया इसके विरोध में मुस्लिम लीग ने 16 अगस्त, 1946 को “प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस” मनाया किन्तु बाद में लीग सरकार में शामिल होने के लिए तैयार हो गयी। लीग का सरकार में शामिल होने का उद्देश्य परिषद् के भीतर रहकर पाकिस्तान के लिए लड़ना था। 2 सितम्बर, 1946 को सरकार बनायी गई और 26 अक्टूबर को लीग ने 5 सदस्यों को भेजकर अंतरिम सरकार में शामिल होने को पुष्टि की। 

भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947

मार्च, 1947 में लार्ड माउन्टबेटेन को वायसराय के रूप में भारत भेजा गया। माउन्टबेटन के अनुसार भारतीय समस्या का एकमात्र समाधान देश का विभाजन और पाकिस्तान की स्थापना करना है।

अधिनियम की विशेषताएँ:

1. 15 अगस्त, 1947 को दो डोमिनियन राज्यों पाकिस्तान एवं भारत की स्थापना की जाएगी।

2. दोनों राष्ट्रों के लिए अलग-अलग गर्वनर जनरल नियुक्त किये जाएंगे।

3. इसमें पंजाब एवं बंगाल के विभाजन की व्यवस्था की गई तथा उनके बीच सीमा निर्धारित करने के लिए सीमा आयोग बनाया गया। जिसके अध्यक्ष सर रेडक्लिफ थे।

4. पाकिस्तान में पश्चिमी पंजाब तथा पूर्वी बंगाल के अतिरिक्त सिंधु उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रदेश, असम का सिलहट भाग, बहावलपुर, खैरपुर, बलुचिस्तान तथा अन्य छोटी देशी रियासतों को सम्मिलित किया गया।

5. दोनों अधिराज्य की संविधान सभाएं अपने-अपने देश का संविधान बनाने के लिए पूर्णतया स्वतंत्र थीं उन पर किसी प्रकार का कोई प्रतिबंध नहीं था। उन्हें कामनवेल्थ से भी अलग हो जाने की छूट थी।

6. जब तक संविधान का निर्माण नहीं हो जाता तब तक प्रत्येक अधिराज्य का शासन प्रबंध 1935 के भारत शासन अधिनियम द्वारा संपादित किया जाए।

7. स्वतंत्रता के बाद अधिराज्यों, प्रांतों अथवा उनके किसी भी भाग पर ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण नहीं रहेगा। देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान किसी भी अधिराज्य में शामिल होने की छूट होगी।

8. भारत मंत्री का पद भी समाप्त कर दिया गया।

निष्कर्ष : 

इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय संविधान एक क्रमिक विकास का परिणाम है। इसका इतिहास ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत आगमन से लेकर संविधान बनने तक का है। अंततः अनेकों उतार चढ़ाव के बावजूद भारत 1947 में परतंत्रता की जंजीरों से मुक्त होकर स्वतंत्रता को प्राप्त किया और संविधान बनने के साथ ही एक संप्रभु गणराज्य बनने की ओर अग्रसर हुआ। 

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धन्यवाद🙏 
आकाश प्रजापति
(कृष्णा) 
ग्राम व पोस्ट किलहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़
छात्र:  प्राचीन इतिहास कला संस्कृति व पुरातत्व विभाग, कलास्नातक द्वितीय वर्ष, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय

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मुक्ति मुक्ति दिवस से आप क्या समझते हैं?

Answer:मुक्ति दिवस एक दिन है, अक्सर एक सार्वजनिक अवकाश होता है, जो एक स्वतंत्रता दिवस के समान एक स्थान की मुक्ति का प्रतीक है। कांग्रेसी सरकारों ने विश्वयुद्ध के बाद देश को स्वतंत्र करने की मांग रखी पर अंग्रेजों ने अनसुना कर दिया। मुस्लिम लीग के नेताओं ने 22 दिसंबर 1939 को देश भर में 'मुक्ति दिवस' मनाने का एलान किया।

मुक्ति दिवस से आप क्या समझते हो 1919 के अधिनियम के तहत स्थापित द्वैध प्रशासन से आप क्या समझते हैं?

1919 ई. के भारत सरकार अधिनियम द्वारा प्रांतीय सरकार को मजबूत बनाया गया और द्वैध शासन (diarchy) की स्थापना की गई. 1919 के पहले प्रांतीय सरकारों पर केंद्र सरकार का पूर्ण नियंत्रण रहता था. ... इस द्वैध शासन का एकमात्र उद्देश्य था – भारतीयों को पूर्ण उत्तरदायी शासन के लिए प्रशासनिक शिक्षा देना.

2 मुक्ति दिवस से आप क्या समझते है ?`?

अतः गाँधीजी को 26 जनवरी 1931 को मुक्त कर दिया गया।

1919 के अधिनियम के तहत स्थापित एवं प्रशासन से आप क्या समझते हैं?

इसके तहत यह प्रावधान किया गया कि गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी के कुल 8 सदस्यों में से कम से कम 3 सदस्य भारतीय होंगे। इसके अलावा, इस अधिनियम के माध्यम से विधानमंडल में भी निर्वाचित सदस्यों की संख्या में वृद्धि कर दी गई थी। इस अधिनियम के माध्यम से विषयों का विभाजन दो हिस्सों, केंद्रीय विषय और प्रांतीय विषय में किया गया था।