मौर्य काल में राजा के प्रमुख कर्तव्य क्या थे? - maury kaal mein raaja ke pramukh kartavy kya the?

मौर्य साम्राज्य की स्थापना के साथ भारत में एक नवीन युग का प्रारम्भ हुआ । इस वंश के शासकों ने एक अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना कर सुव्यवस्थित शासन प्रबन्ध प्रारम्भ किया जिससे भारत में पहली बार सही अर्थों में राजनीतिक एकता की स्थापना हुई । इसके अतिरिक्त मौर्य साम्राज्य की स्थापना से अपेक्षाकृत एक निश्चित तिथि क्रम की भी शुरूआत होती है और हम इतिहास की एक सुदृढ़ धरा पर अवतरित होते हैं । साथ ही मौर्य साम्राज्य के अन्तर्गत भारत के विदेशी राज्यों के साथ कूटनीतिक सम्बन्ध भी स्थापित हुए । परिणामस्वरूप भारतीय इतिहास की घटनाओं के कालक्रम का अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं से सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है ।

8.2 मौर्य साम्राज्य के स्रोत

भारतीय इतिहास में मौर्य वंश प्रथम प्रसिद्ध ऐतिहासिक वंश है जिसके विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिये पर्याप्त ऐतिहासिक स्रोत उपलब्ध हैं जिनके आधार पर वी० ए० स्मिथ के शब्दों में यह कहा जा सकता है कि ‘मौर्य वंश के साथ इतिहासकार अन्धेरे से उजाले में आ जाते हैं और काल क्रम भी प्राय: स्पष्ट होने लगता है ।” मौर्य कालीन इतिहास के स्रोतों में साहित्यिक साक्ष्य पुरातात्विक साक्ष्य एवं विदेशी यात्रियों के वृत्तान्त महत्वपूर्ण हैं |

8.2.1 साहित्यिक स्रोत

साहित्यिक स्रोतों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है – (i) धार्मिक साहित्य एवं (ii) धर्मेतर साहित्य | धार्मिक साहित्य में ब्राह्मण साहित्य, बौद्ध साहित्य एवं जैन साहित्य की गणना की जा सकती है ।

8.2.1 (A) धार्मिक साहित्य:- ब्राह्मण साहित्य

ब्राह्मण साहित्य में विभिन्न पुराणों एवं उनकी टीकाओं का उल्लेख किया जा सकता है । इनसे मौर्य शासकों के नाम, उनके शासन काल की अवधि, तत्कालीन सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति एवं मौर्य की जाति पर प्रकाश पड़ता है। किन्तु मौर्य के सन्दर्भ में पुराणों के उल्लेखों को आधुनिक विद्वान स्वीकार नहीं करते हैं । पुराणों के विवरण को अन्य प्राप्त स्रोतो के संदर्भ में देखना आवश्यक है |

8.2.1 (B) बौद्ध साहित्य

बौद्ध धर्म का वास्तविक विस्तार मौर्य काल में अशोक के समय दिखाई देता है । बौद्ध साहित्य में दीप वंश-महावंश, महाबोधिवंश, अट्ठकथा, दिव्यावदान, मिलिन्दपन्हों एवं आर्य मंजूश्रीमूलकल्प का महत्वपूर्ण स्थान हैं । बौद्ध साहित्य से विशेषरुप से अशोक के जीवन पर विशेष प्रकाश पडता है ।

8.2.1 (C) जैन साहित्य

जैन साहित्य भी मौर्य कालीन इतिहास पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालता है । जैन अनुश्रुति के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने बाद के जीवन में जैन धर्म को अपना लिया था । इस कारण जैन साहित्य ने मौर्य कालीन इतिहास पर आरम्भ से ही प्रकाश डाला है जबकि बौद्ध साहित्य ने अशोक के समय से अपने विवरणों का आधार बनाया । जैन साहित्य में भद्रबाहु रचित वृहत्कल्पसूत्र पर नियुक्ति, हरिभद्र की आवश्यक सूत्रवृत्ति, हेमचन्द्र का परिशिष्ट पर्व, जिनप्रभासूरि द्वारा रचित विविध तीर्थकथा, श्रीचन्द रचित कथाकोष हरिषेण रचित वृहत कथाकोष का महत्त्वपूर्ण स्थान है । (ii) धर्मेतर साहित्य:- धर्मेतर साहित्य में कौटिल्य का अर्थशास्त्र, विशाखदत्त का मुद्राराक्षस, सोमदेव का कथा सरित्सागर,क्षेमेन्द्र द्वारा रचित वृहत कथामंजरी, कालीदास के मालविकाग्निमित्र तथा अन्य कृतियों में पतंजलि का महाभाष्य बाण का हर्षचरित तथा कल्हण की राजतरंगिणी आदि ग्रंथ महत्वपूर्ण हैं । मौर्य कालीन इतिहास के लिये अर्थशास्त्र को सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं प्रमाणित ग्रंथ माना जाता है । इसकी रचना चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमंत्री विष्णुगुप्त जिन्हें कौटिल्य एवं चाणक्य के नाम से भी जाना जाता है, ने की । विष्णुगुप्त इनका व्यक्तिगत नाम था | कुटल गोत्र में उत्पन्न होने के कारण उन्हें कौटिल्य कहा जाता था | चणक उनके पिता का नाम था इस कारण वह चाणक्य कहलाये । चन्द्रगुप्त के शासन काल की राजनीतिक तक आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति पर अर्थशास्त्र से अच्छा प्रकाश पड़ता हैं । अर्थशास्त्र में राजा के कर्तव्यों, गुप्तचर संगठन तत्कालीन भूव्यवस्था, वित्तीय नीति तथा वैदेशिक नीति पर अच्छा प्रकाश पड़ता है ।

8.2.2 पुरातात्त्विक साक्ष्य:-

पुरातात्विक साक्ष्यों में अभिलेखों का महत्वपूर्ण स्थान है । अशोक के अभिलेख भारत के प्राचीन सर्वाधिक सुरक्षित एवं तिथियुक्त आलेख हैं । ये लेख शिलाओं स्तम्भों गुफाओं में उत्कीर्ण करवाये गये । इन लेखों को उसने अपने शासन काल के विभिन्न वर्षों में उत्कीर्ण करवाया इन अभिलेखों की भाषा प्राकृत (पाली) तथा बहुसंख्यक लेखों की लिपि ब्राह्मी है जो बायीं ओर से दायीं ओर लिखी जाती थी । शहबाजगढ़ी एवं मानसेहरा (पश्चिमोत्तर प्रदेश) से प्राप्त अभिलेख खरोष्ठी लिपि में हैं जो दायीं ओर से बायीं ओर लिखी जाती थी । तक्षशिला एवं लमगान (अफगानिस्तान) से प्राप्त अभिलेख अरेमाइक लिपियों में हैं । शार-ए-कुना (कन्धार-अफगानिस्तान) द्विभाषी अभिलेख हैं जिसमें अरेमाइक एवं यूनानी लिपियों का प्रयोग है । अशोक के अभिलेखों को पढने का श्रेय बंगाल में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लोकसेवा अधिकारी जेम्स प्रिंसेप को दिया जाता है जिन्होंने 1837 में दिल्ली के टोपरा स्तम्भ लेख के सम्पूर्ण भाग को पढा | गुजर्रा (दतिया-मध्यप्रदेश), मास्की (रायचूर-आंध्रप्रदेश), नित्तूर एवं उदेगोलिम (दोनों ही बेल्लारी-कर्नाटक) के लघु शिलालेख ऐसे लेख हैं जिनमें अशोक के नाम का उल्लेख है | उसके अन्य लेखों में उसे ‘देवानां प्रिय प्रियदर्शी राजा’ कहा गया है । अशोक के प्राप्त अभिलेखों को इस प्रकार वर्गीकृत किया गया है (i) चौदह प्रमुख शिलालेख:- ये विशाल शिलाखण्डों पर उत्कीर्ण हैं | इनकी संख्या चौदह है । इनके कई संस्करण विभिन्न स्थानों से प्राप्त हुये हैं जैसे गिरनार (जूनागढ़-गुजरात), कालसी (देहरादून-उत्तरांचल), शहबाजगढी और मानसेहरा (दोनों ही पाकिस्तान में), धौली और जौगढ (दोनों उड़ीसा) येर्रागुडी (आन्ध्रप्रदेश), मुम्बई के निकट सोपारा में अष्टम शिलालेख का आंशिक रूप एक शिला पर प्राप्त हुआ है | यहाँ भी संभवत: चौदह लेख विद्यमान थे । (ii) लघुशिलालेख:– ये संख्या में है | ये रूपनाथ (जबलपुर-मध्यप्रदेश), सहसराम (बिहार), बैराठ (जयपुर-राजस्थान), मास्की (रायचूर-आन्धप्रदेश), गुजरी (दतिया-मध्यप्रदेश), ब्रह्मगिरी, सिद्धपुर तथा जटिंग रामेश्वरम् (कर्नाटक), येर्रागुडी (आन्ध्रप्रदेश), गोविमठ, पालकिगुण्डि (कर्नाटक), राजुलमण्डगिरी (आन्ध्रप्रदेश), अहरौरा (मिर्जापुर-उत्तरप्रदेश), गुजर्रा पनगुडिरिया (सिहोर-मध्यप्रदेश), सारोमारो (शहडोल-मध्यप्रदेश), सन्नती (कर्नाटक), बाहापुर (नई दिल्ली), नित्तूर एवं उदेगोलिम (दोनों ही कर्नाटक), आदि स्थानों से प्राप्त हुये हैं । (iii) सात स्तम्भ लेख:- ये संख्या में सात हैं तथा दिल्ली-टोपरा (अम्बाला-सरसावा के मध्य, हरियाणा), दिल्ली-मेरठ, कौशाम्बी (कोसम)- इलाहाबाद, लौरिया-अरराज (राधिया के निकट बिहार), लौरिया-नन्दनगढ़ (मठिया-बिहार) एवं रामपुरवा (बिहार) आदि स्थानों से प्राप्त हुये हैं | दिल्ली टोपरा स्तम्भ लेख में ही अशोक के सात अभिलेख प्राप्त होते हैं, अन्य सभी पर छह अभिलेख ही उत्कीर्ण हैं | टोपरा एवं मेरठ के स्तम्भ लेखों को फिरोजशाह तुगलक द्वारा वहाँ से हटा कर दिल्ली में स्थापित कराया गया । (iv) लघु स्तम्भ लेख:- अशोक के तीन लघु स्तम्भ लेख कौशाम्बी (वर्तमान कोसम-इलाहाबाद) साँची एवं सारनाथ से प्राप्त हुये हैं | रुम्मिनदेई (लुम्बिनी) एवं निग्लीव (निगलीसागर सरोवर के तट पर) (दोनों ही स्थान नेपाल की तराई में) से भी अशोक के लघु स्तम्भ लेख प्राप्त हुये हैं । ये दोनों स्तम्भ लेख अशोक की यात्रा के स्मारक के रूप में हैं । कोसम (इलाहाबाद) से प्राप्त रानी के स्तम्भ लेख की भी गणना लघु स्तम्भ-लेख की श्रेणी में की जाती है । (v) पृथक् कलिंग शिलालेख:- अशोक द्वारा नवविजित कलिंग प्रदेश में जौगढ (प्राचीन खेपिंगल पर्वत) तथा धौली (दोनों ही स्थान उडीसा में) में दो पृथक् शिलालेख स्थापित करवाये ये दोनों ही चौदह प्रमुख शिलालेखों की श्रृंखला के अनुपूरक हैं । (vi) गुहालेख:- गया के निकट बराबर की पहाड़ियां (प्राचीन स्खलतिक पर्वत) से अशोक के गुहालेख प्राप्त हुये हैं, जिनमें इन गुफाओं को अशोक द्वारा आजीविक सम्प्रदाय के भिक्षुकों को दान में दिये जाने का उल्लेख है । इसी पहाड़ी के दूसरे भाग जिसे नागार्जुनी पहाडी कहते हैं, से अशोक के पौत्र दशरथ के गुहालेख प्राप्त हुये हैं, जिनमें इन गुफाओं को दशरथ द्वारा आजीविक सम्प्रदाय के भिक्षुओं को दान में दिये जाने का उल्लेख है । (vii) बैराठ (भा) शिलालेख:- यह बैराठ (जयपुर-राजस्थान) की एक पर्वत की चोटी से प्राप्त हुआ था तथा वर्तमान में रायल एशियाटिक सोसायटी बंगाल (कोलकाता) में रखा हुआ हैं । इस लेख से अशोक के बौद्ध धर्म एवं संघ के प्रति श्रद्धा का पता चलता है । इस लेख की खोज करने वाले कैप्टेन बर्ट ने इसे गलती से बैराठ से लगभग 21 कि.मी. दूर भाब्रू जहाँ पुरातत्व वेत्ताओं का शिविर लगा हुआ था लिख दिया । वास्तव मे यह लेख बैराठ से प्राप्त हुआ था ।

अशोक के उपर्युक्त लेखों के अतिरिक्त रूद्रदामन के जूनागढ लेख से भी मौर्य इतिहास (सुदर्शन झील के निर्माण) के बारे मे पता चलता है ।

8.2.2 (B) सिक्के:-

मौर्य साम्राज्य के इतिहास के स्रोत के रूप मे सिक्कों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है । मौर्यकाल में आहत सिक्कों (पंच मार्कड) का प्रचलन था । इन सिक्कों पर किसी शासक का नाम या तिथि अंकित नही है अपितु चिह्न उत्कीर्ण हैं | जिन सिक्कों पर मयूर चिह्न उत्कीर्ण है उन्हें मौर्यों द्वारा प्रचलित माना जाता है । कौटिल्य के अर्थशास्त्र मे भी मुद्राओं का उल्लेख प्राप्त होता है । अर्थशास्त्र में टकसाल के अधिकारियों के रूप मे सौवर्णिक एंव लक्षणाध्यक्ष का उल्लेख प्राप्त होता है ।

8.2.2 (C) स्मारक:-

मौर्यकालीन स्मारकों से भी तत्कालीन इतिहास की जानकारी प्राप्त की जा सकती है । अशोक द्वारा निर्मित स्तम्भ, स्तूप, बिहार, चैत्य एंव संघारामो के अवशेष विभिन्न स्थानों से प्राप्त होते हैं । दशरथ द्वारा निर्मित करवायी गई कुछ गुफाये भी विद्यमान है । पाटलीपुत्र मे हुये उल्खनन से मौर्यकालीन भग्नावशेष प्राप्त हुये है | पटना के निकट कुम्हार तथा बुलंदीबाग के उत्खननों से मौर्यकालीन राजप्रासाद के अवशेष प्राप्त हुये हैं । इन अवशेषों से ज्ञात होता है कि मौर्यकालीन वास्तु एंव स्थापत्य कला मे काष्ठ का भी प्रयोग होता था ।

8.2.3 विदेशी यात्रियों के वृत्तान्त:-

विदेशी यात्रियों के वृतान्तों से भी मौर्यकालीन इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता हैं। इनमें सिकन्दर के समकालीन लेखकों में निआर्कस, अरिस्टोबुलस एंव आनेसिक्रिटस का महत्वपूर्ण स्थान है । यद्यपि इनके ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं किन्तु इन ग्रन्थों के अंश परवर्ती कालीन यूनानी एवं रोमन लेखकों द्वारा उद्धृत किये गये हैं । इनके बाद चन्द्रगुप्त मौर्य के राजदरबार में नियुक्त यूनानी राजदूत मेगस्थनीज का महत्वपूर्ण स्थान है जिसने इण्डिका की रचना की । दुर्भाग्यवश इण्डिका मूलरूप में उपलब्ध नहीं हैं किन्तु परवर्ती यूनानी लेखकों की कृतियों में उसके उद्धरण प्राप्त होते हैं । इण्डिका से चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन व्यवस्था, सैन्य संचालन, नगर व्यवस्था तथा राज्य की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । इन यात्रियों के अतिरिक्त परवर्ती यूनानी-रोमन लेखकों में डियोडोरस स्ट्रेबो, प्लिनी,प्लूटार्क, एरियन एवं जस्टिन आदि का महत्त्वपूर्ण स्थान है जिन्होंने अपने पूर्व के लेखकों की रचनाओं को उद्धृत किया है । इन लेखकों के विवरणों से मौर्यकालीन इतिहास पर भी आंशिक रूप से प्रकाश पड़ता है । उपर्युक्त यूनानी एवं रोमन लेखकों के अतिरिक्त चीनी एवं तिब्बती लेखकों एवं यात्रियों की कृतियों से भी मौर्यकालीन इतिहास पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पडता है । फा-युएन-चू-लिन ग्रन्थ में अशोक सम्बन्धी अनेक सूचनायें उपलब्ध होती है | बौद्ध तीर्थ स्थलों एवं ग्रन्थों का अध्ययन करने के लिये अनेक चीनी यात्री भारतवर्ष की यात्रा करने आये | इनमें फाह्यान, सुंगयुन, हवेनसांग आदि महत्त्वपूर्ण हैं । इन यात्रियों ने अपने वृत्तान्तों में अशोक युगीन स्तूपों एवं अनुश्रुतियों का उल्लेख किया है । चीन के समान तिब्बत के निवासी भी बौद्ध मतानुयायी हैं । अनेक भारतीय स्थविरों व विद्वानों ने तिब्बत जाकर बौद्ध ग्रंथों का तिब्बती भाषा में अनुवाद किया । ऐसे बहुत से बौद्ध धार्मिक ग्रन्थ वर्तमान में अपने मूलरूप में भारत में उपलब्ध नहीं हैं वे तिब्बती भाषा के अनुवादों के रूप में आज भी सुरक्षित हैं । अशोक एवं उसके वंश का वृत्तान्त एवं कथायें इन तिब्बती ग्रन्थों में उपलब्ध हैं ।

8.3 मौर्य शासन का उद्भव

__ प्राय: प्रतिभाशाली सशक्त व्यक्तियों ने इतिहास में क्रान्तिकारी परिवर्तन कर उसकी गतिविधि को बदला है । जिन दो प्रतिभा सम्पन्न एवं दूरदर्शी व्यक्तियों ने नन्द वंश को समूल उखाड़ने एवं मौर्य साम्राज्य की स्थापना में नेतृत्व किया वे थे चाणक्य एवं चन्द्रगुप्त | चाणक्य की यह इच्छा थी कि छोटे-छोटे राज्यों को समाप्त कर एक संगठित एवं केन्द्रित साम्राज्य की स्थापना की जाय दामोदर धर्मानन्द कोसम्बी की यह मान्यता है कि सिकन्दर के उत्तर-पश्चिम भारत पर आक्रमण का अप्रत्याशित एवं अविलम्ब परिणाम यह हुआ कि इसने सम्पूर्ण देश पर मौर्यों की विजय का मार्ग प्रशस्त कर दिया । इससे पंजाब में निवास करने वाली आयुधजीवी जनजातियों को पर्याप्त शक्तिहीन कर दिया एवं चन्द्रगुप्त को पंजाब पर अधिकार करने में किसी विशेष कठिनाई का सामना नहीं करना पडा । गंगा घाटी के बहुसंख्यक भाग पर नन्दों का अधिकार था जो जनता में लोकप्रिय नहीं थे । ऐसा कहा जाता है कि स्वयं चन्द्रगुप्त ने सिकन्दर से मुलाकात कर मगध पर आक्रमण करने की सलाह भी दी थी । सिकन्दर के पलायन के बाद चन्द्रगुप्त एवं चाणक्य द्वारा भारत के यूनानी क्षेत्रों पर अधिकार स्थापित करना कठिन कार्य नहीं रहा । प्राय: प्रत्येक भारतीय साक्ष्य की यह मान्यता है कि चन्द्रगुप्त ने तक्षशिला निवासी चाणक्य नामक ब्राह्मण जिसे विष्णुगुप्त एवं कौटिल्य के नाम से भी जाना जाता हैं की सहायता से मगध के सिंहासन पर अधिकार किया ।

चन्द्रगुप्त के वंश एवं जाति के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है । स्पूनर चन्द्रगुप्त कालीन भारत एवं फारस की कतिपय सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक प्रथाओं में साम्यता के आधार पर मौर्यों को पारसीक मानते हैं | स्पूनर के मत को आज बहुसंख्यक विद्वान स्वीकार नही करते । द्वितीय मत ब्राह्माण साहित्य जिसमें पुराण, रत्नगर्भ की विष्णु पुराण पर टीका, मुद्राराक्षस, मुद्राराक्षस पर दुण्डिराज की टीका, कथा सरित्सागर एंव वृहत्कथामंजरी आदि के आधार पर मौर्यो को शूद्र माना गया है । तृतीय मत बौद्ध साहित्य एंव जैन साहित्य पर आधारित है जो मौर्यों को क्षत्रिय मानता है । ब्राह्मण साहित्य में मौर्यो को शूद्र मानने का सम्भावित कारण यह हो सकता है कि मौर्य ब्राह्मण धर्मावलम्बी नही थे । चन्द्रगुप्त के बारे में कहा जाता है कि वह जैन धर्मानुयायी था । अशोक बौद्ध धर्म को मानने वाला था तथा अशोक का वंशज सम्पति

जैन धर्मानुयायी था | चन्द्रगुप्त ने यवन राजकुमारी सेल्यूकस की पुत्री से भी विवाह किया अत: ब्राह्मण व्यवस्थापकों एवं परम्परावादी लेखकों ने मौर्य को व्रात्य (वैदिक धर्म से पतित) एवं वृषल (शूद्र) घोषित कर दिया । हेमचन्द्र रामचौधरी, राजवली पाण्डेय एवं आर० एस० त्रिपाठी आदि अनेक विद्धान मौर्यो को क्षत्रिय स्वीकार करते है ।

8.4 मौर्य साम्राज्य की स्थापना: चन्द्रगुप्त मौर्य

मौर्य साम्राज्य का संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य था । इसका प्राचीनतम उल्लेख रूद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख में प्राप्त होता है । यूनानी लेखकों के विवरण में चन्द्रगुप्त के भिन्न-भिन्न रूपान्तर प्राप्त होते है । स्ट्रेबो, एरिअन एवं जस्टिन ने जहाँ इसे ‘सेण्ड्रोकोटस कहा है वहीं एपिअन और प्लूटार्क ने इसे ‘एण्ड्रोकोटस’ के नाम से अभिहित किया है जबकि फिलार्कस ने इसे ‘सेण्ड्रोकोप्टस’ के नाम से पुकारा है । सर्वप्रथम सेर विलियम जोन्स ने सन् 1793 में उपर्युक्त सभी नामों का समीकरण भारतीय इतिहास में उल्लिखित चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ किया । चन्द्रगुप्त के प्रारम्मिक जीवन के विषय में प्रामाणिक तथ्य ज्ञात नहीं है । महावंश टीका से विदित होता है कि चन्द्रगुप्त के पिता मौर्यनगर के राजा थे जो एक राजा के द्वारा मौर्यनगर पर आक्रमण के समय मारे गये | उस समय चन्द्रगुप्त अपनी माता के गर्भ में थे । चन्द्रगुप्त की माता अपने भाई के पास पुष्यपुर (पाटलीपुत्र) चली गई । वहीं पर बालक चन्द्रगुप्त का जन्म हुआ | जन्म के बाद उसे एक उक्खली में रखकर एक स्थान पर फेंक दिया गया तब एक चन्द नामक वृषभ ने उसकी रक्षा की तभी से इस बालक का नाम चन्द्रगुप्त (चन्द्र द्वारा रक्षित) पड़ा | आगे चलकर चन्द्रगुप्त नामक इस बालक को एक गोपालक ने खरीद लिया तथा गोपालक ने इसे एक शिकारी के हाथों बेच दिया । बालक चन्द्रगुप्त शिकारी के गांवों में एक दिन ‘राजकीलम्’ (राजकीय खेल) खेल रहा था । इस खेल में वह स्वयं राजा बनता तथा अपने मित्रों को अन्य पद देकर न्याय का कार्य करता था । चाणक्य ने एक बार उसके इस खेल को देखा । वह बालक चन्द्रगुप्त की सहज प्रतिभा से अत्यन्त प्रभावित हुआ तथा शिकारी से बालक चन्द्रगुप्त को उसने खरीद लिया । चाणक्य ने चन्द्रगुप्त की शिक्षा दीक्षा का तक्षशिला में पर्याप्त प्रबन्ध किया । चाणक्य नन्द नरेश घननन्द जो जनता में भी अलोकप्रिय था, से कुपित था, साथ ही वह ग्रीक आक्रमणों से भी देश की सुरक्षा चाहता था | अत: चाणक्य ने धननन्द को पदच्युत करने तथा ग्रीक आक्रमणकारियों को स्वदेश से बाहर निकालने के प्रयत्न चन्द्रगुप्त के साथ प्रारम्भ कर दिये। कहा जाता है कि चन्द्रगुप्त ने सिकन्दर से मुलाकात भी की थी । चन्द्रगुप्त की निर्भीकता एवं स्पष्टवादिता से अप्रसन्न होकर सिकन्दर ने उसका वध करने का आदेश भी दिया था परन्तु चन्द्रगुप्त वही से बच निकला | सिकन्दर के वापस जाने के बाद चन्द्रगुप्त एवं चाणक्य ने पंजाब की आयुधजीवी जातियों में से सैनिकों की भरती कर विदेशी यूनानियों को भारत से खदेड़ने का आदर्श जनता के सामने रखा जिसमें वह सफल रहा । इस कार्य में उन्हें एक पहाड़ी शासक पवर्तक से भी पर्याप्त सहयोग मिला ।

इतिहासकारों में इस विषय पर मतभेद है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने पहले पंजाब को जीता अथवा मगध को | बौद्ध एवं जैन अनुश्रुतियों से विदित होता है कि चन्द्रगुप्त ने प्रथम आक्रमण मगध पर किया । लेकिन इस आक्रमण में वह असफल रहा । महावंश टीका में कहा गया है कि चाणक्य एवं चन्द्रगुप्त ने सेना संगठित करके मगध राज्य के मध्य में गावों एवं नगरों पर आक्रमण कर दिया । इससे जनता इनके विरूद्ध सामूहिक रूप से उठ खड़ी हुई तथा सेना को घेर कर नष्ट कर दिया । जब चाणक्य एवं चन्द्रगुप्त छुपते-छुपते जान बचाकर भाग रहे थे तब एक घर में एक माता का संवाद सुना जो अपने पुत्र को यह बता रही थी कि गरम चपाती खाने से उसके हाथ इसलिये जल रहे हैं क्योंकि वह किनारों को छोड़कर मध्य में से रोटी तोड़कर खा रहा है, जैसे चाणक्य एवं चन्द्रगुप्त ने सीमावर्ती क्षेत्रों को जीते बिना मध्य में आक्रमण कर जनता को विरोध में कर लिया है । यह संवाद सुनकर चाणक्य-चन्द्रगुप्त को अपनी गलती का अहसास हुआ तथा पुन: सेना संगठित करके सीमान्त प्रदेशों से विजय अभियान आरम्भ किया

सिकन्दर की वापसी पर यूनानियों का प्रभुत्व भारत से धीरे-धीरे समाप्त होने लगा । सिकन्दर के समय में ही उसके दो गवर्नरों फिलिप्स एवं निकेतर की हत्या करदी गई । इससे भारत के यूनानी क्षेत्रों में अशान्ति पैदा हो गई | चाणक्य एव चन्द्रगुप्त ने इस अवसर का लाभ उठाकर सेना को संगठित किया | 323 ई० पू० में बेबीलोन में सिकन्दर की मृत्यु हो गई उसकी मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारियों में साम्राज्य विभाजन के लिए संघर्ष छिड़ गया । इससे पंजाब सिन्ध क्षेत्र में यूनानियों की शक्ति को काफी धक्का लगा । इससे चाणक्य-चन्द्रगुप्त का कार्य काफी आसान हो गया और विदेशियों को भारत से खदेड़ दिया । सम्भवत: चन्द्रगुप्त ने पंजाब पर 322-321 ई० पू० तक अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया होगा | इस बात की पुष्टि जस्टिन के लेखों से भी होती है । वह लिखता है कि सिकन्दर की मृत्यु के बाद भारत ने अपने आपको दासता की जंजीरों से मुक्त करवा लिया । उसके गवर्नरों का वध कर दिया गया । इस स्वतन्त्रता संग्राम का नायक सेण्ड्रोकोटस (चन्द्रगुप्त) था । सिन्ध-पंजाब क्षेत्र से यूनानी प्रभुत्व के अन्त की पुष्टि ट्रिपैरेडिसस की सन्धि से भी होती है ।

सिकन्दर की मृत्यु के बाद साम्राज्य विभाजन के लिये हुये गृहयुद्ध के बाद साम्राज्य विभाजन को निश्चित करने के लिये सेनापतियों के मध्य दो सन्धियाँ हुई प्रथम वेबीलोन की सन्धि (323 ई० पू०) द्वितीय ट्रिपेरेडिसस की सन्धि (321 ई० पू०) ट्रिपेरेडिसस की सन्धि के द्वारा सिन्ध क्षेत्र से यूनानी क्षत्रप पैथान को वहाँ से हटा लिया गया तथा किसी अन्य की नियुक्ति वहाँ पर नहीं की गई । इस सन्धि में सिन्धु नदी के पूर्वी भारत का कोई भी भाग यूनानी साम्राज्य का अंग नहीं माना गया । इससे स्पष्ट है कि 321 ई० पू० तक भारतवर्ष में यूनानी साम्राज्य का अन्त हो चुका था । कुछ विद्वान यह भी मानते हैं कि चन्द्रगुप्त ने पंजाब विजय कार्य 317 ई० पू० में किया था, क्योंकि इस समय तक (317 ई० पू०) सिकन्दर का एकमात्र सेनापति यूडीमस भारत में था तथा 317 ई० पू० में वह भारत छोड़कर यूनान लौट गया था |

विदेशियों को बाहर निकालने के बाद चन्द्रगुप्त ने एक विशाल सेना इकट्ठी की और मगध पर आक्रमण कर दिया चन्द्रगुप्त एवं मगध के शासक धननन्द के मध्य भीषणयुद्ध हुआ जिसमें चन्द्रगुप्त विजयी रहा । धननन्द के पतन के साथ ही सत्ता परिवर्तन से चन्द्रगुप्त मौर्य विशाल सेना तथा अथाह धन का स्वामी बन गया । इस प्रकार बल एवं धन की प्राप्ति के बाद चन्द्रगुप्त मौर्य के लिये साम्राज्य के संगठन का कार्य कठिन नहीं रहा । सैन्य विजय की दृष्टि से चन्द्रगुप्त मौर्य की एक अन्य महान् उपलब्धि सेल्यूकस को पराजित करना है । जैसाकि पूर्व में बताया जा चुका है कि सिकन्दर के साम्राज्य विभाजन के लिये उसके सेनापतियों के मध्य संघर्ष हुआ । यह संघर्ष मुख्यरूप से ऐण्टीगोनस एवं सेल्यूकस के मध्य लम्बे समय तक चलता रहा । अन्तत: इस युद्ध में सेल्यूकस विजयी रहा । 306 ई० पू० में उसका विधिवत राज्याभिषेक हुआ तथा निकेटर (विजयी) की उपाधि धारण की । वह अपने स्वामी सिकन्दर के भारत विजय के स्वप्न को पूरा करना चाहता था, अत: 305-304 ई० पू० में काबुल के मार्ग से होते हुये सिन्धुनदी को पार कर भारतवर्ष पर आक्रमण कर दिया। किन्तु इस समय भारत की राजनीतिक परिस्थितियाँ काफी बदल चुकी थी । भारतीय राजनीति के रंगमच का नायक चन्द्रगुप्त मौर्य था । युद्ध में भारतीय सम्राट के सम्मुख यूनानी आक्रान्ता को पराजय का मुख देखना पड़ा और उसे विवश होकर सन्धि के लिये बाध्य होना पड़ा | सेल्यूकस की इस पराजय का स्पष्ट उल्लेख यूनानी लेखकों ने नहीं किया है। केवल सन्धि की शर्तों का उल्लेख किया है । उसे अपने चार प्रान्त-एरिया अरकोसिया गेड्रोसिया तथा परोपनिसदाई अर्थात् हेरात, कन्धार, मकरान एवं काबुल चन्द्रगुप्त मौर्य को सौंपने पड़े । अपनी पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त से करना पड़ा तथा एक यूनानी राजदूत मेजस्थनीज भी पाटलीपुत्र के दरबार में रहने लगा | चन्द्रगुप्त ने बदले में सेल्यूकस को 500 हाथी भेंट किये | सन्धि की उपर्युक्त शर्तों को देखते हुये ऐसा लगता है कि सेल्यूकस इस युद्ध में बुरी तरह पराजित हुआ । इस प्रकार इस युद्ध को पुरु की पराजय का भारतीय प्रतिशोध माना जा सकता है । इस युद्ध के बाद भारतीय साम्राज्य हिन्दूकुश पर्वत तक विस्तृत हो गया । स्मिथ के अनुसार ‘भारत के प्रथम सम्राट ने उस वैज्ञानिक सीमा को प्राप्त कर लिया जिसको प्राप्त करने के लिये अंग्रेज लम्बे समय तक प्रयत्न करते रहे और जिसे मुगल सम्राट भी पूर्णरूपेण प्राप्त न कर सके ।’

अधिकांश विद्वानों की यह मान्यता है कि चन्द्रगुप्त ने न केवल उत्तर पश्चिमी क्षेत्र एवं गंगा के मैदान पर ही अपना प्रभुत्व स्थापित किया अपितु पश्चिमी भारत एवं दक्षिण के क्षेत्रों पर भी उसका नियंत्रण था । रूद्रदामन के 150 ई० के जूनागढ़ अभिलेख से विदित होता है कि चन्द्रगुप्त के राष्ट्रीय प्रान्ताधिकारी पुष्यगुप्त द्वारा सौराष्ट्र में सुदर्शन झील का निर्माण करवाया गया । सौराष्ट्र एवं काठियावाड चन्द्रगुप्ता द्वारा ही जीते गये थे क्योंकि चन्द्रगुप्त के पूर्वगामी नन्दों के अधीन ये क्षेत्र सम्मिलित नहीं थे । सौराष्ट्र के साथ-साथ अवन्ति (मालवा) पर भी उसका अधिकार रहा होगा । जैन साहित्य में चन्द्रगुप्त को अवन्ति का शासक बताया गया है तथा अशोक के समय अवन्ति राष्ट्र का एक अलग प्रान्त के रूप में उल्लेख प्राप्त होता है । परवर्ती स्रोतों से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त का दक्षिण भारत पर भी अधिकार था। संगम ग्रन्थों में प्रारम्भिक तमिल लेखकों द्वारा मोरियार का उल्लेख मौर्यों का प्रतीक है जिनका दक्षिण से सम्पर्क हुआ| जैन साहित्य से विदित होता है कि चन्द्रगुप्त अपने अन्तिम दिनों में जैनाचार्य भद्रबाहु के साथ दक्षिण में श्रवणबेलगोला चला गया वहीं तपस्या करते हुये उसने प्राण त्याग दिये | इससे यह संकेत मिलता है कि यह क्षेत्र चन्द्रगुप्त के अधीन रहा होगा | बौद्ध ग्रन्थ महावंश में भी चन्द्रगुप्त को सम्पूर्ण जम्बूद्वीप का एकछत्र सम्राट कहा है । इसी प्रकार मुद्राराक्षस में भी चन्द्रगुप्त को हिमालय से दक्षिणी समुद्र तक सभी राजाओं का आश्रय दाता कहा गया है । कश्मीर, नेपाल तथा बंगाल विजय का श्रेय भी चन्द्रगुप्त को दिया जा सकता है । राजतंरगिणी में अशोक को कश्मीर का शासक स्वीकार किया गया है तथा बौद्ध साहित्य में अशोक द्वारा नेपाल में ललित पाटन नामक नगर की स्थापना का उल्लेख है । जैसा कि सुविदित है अशोक ने कलिंग विजय के अतिरिक्त कोई अन्य विजय नहीं की तथा बिन्दुसार की कोई विजय प्रमाणित नहीं होती अत: वी० सी० पाण्डेय की यह मान्यता है कि कश्मीर एवं नेपाल विजय का श्रेय भी चन्द्रगुप्त मौर्य को दिया जाना चाहिये | बंगाल पर चन्द्रगुप्त के आधिपत्य का संकेत महास्थान अभिलेख से प्रकट होता है । यह अभिलेख प्रारम्भिक मौर्य लिपि में उत्कीर्ण है तथा इसमें काकिनी मुद्रा का उल्लेख प्राप्त होता है, जिसका वर्णन कौटिल्य के अर्थशास्त्र में प्राप्त होता है । इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य विस्तार हिन्दूकुश से लेकर बंगाल तक तथा हिमालय से लेकर मैसूर तक विस्तृत था ।

8.5 बिन्दुसार

चन्द्रगुप्त के बाद उसका पुत्र बिन्दुसार 298 ई० पू० में पाटलीपुत्र के सिंहासन पर बैठा | यूनानियों ने उसका उल्लेख अमित्रोचेटस अमित्रोचेडस, अलित्रोचेडस तथा अमित्रकेटे के नाम से किया है जो संस्कृत के अभित्रघात या अमित्रखाद (शत्रुओं का नाश करने वाला) का रूपान्तर हैं । सम्भवत: यह उसका विरुद रहा होगा । पौराणिक अनुश्रुतियों में उसे बिन्दुसार, भद्रसार व नन्दसार के नाम से तथा बौद्ध एवं जैन साहित्य में उसे बिन्दुसार के नाम से जाना गया है । उसके समय के इतिहास के बारे में अधिक जानकारी नहीं है, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि बिन्दुसार अपने पिता से प्राप्त साम्राज्य की सुरक्षा तथा व्यवस्था करने में सफल रहा । तारानाथ के अनुसार चाणक्य, बिन्दुसार का भी मंत्री रहा । चाणक्य ने सोलह राज्यों के राजाओं एवं सामन्तों का नाश किया और बिन्दुसार को पूर्वी समुद्र से पश्चिमी समुद्र पर्यन्त भू-भाग का स्वामी बनाया । ऐसा लगता है कि चन्द्रगुप्त की मृत्यु के बाद कुछ राज्यों ने मौर्य सत्ता के विरूद्ध विद्रोह किया हो । दिव्यावदान में तक्षशिला में इसी प्रकार के विद्रोह का उल्लेख मिलता है जिसे शान्त करने के लिये अशोक को भेजा गया था । बिन्दुसार के सम्बन्ध उत्तर-पश्चिम के अपने पडौसी यूनानी राजाओं से अच्छे रहे । मेगस्थनीज के बाद भी यूनानी राजदूत मौर्य दरबार में आते रहे । स्ट्रेबों ने लिखा है कि पश्चिमी एशिया के यूनानी शासक ऐण्टियोकस ने बिन्दुसार के दरबार में डायमेकस नामक राजदूत भेजा था । बिन्दुसार के सम्बन्ध सीरिया के सेल्यूसिड वंश के राजा से भी रहे जिससे उसने मीठी मदिरा, सूखा अंजीर तथा एक दार्शनिक भेजने का आग्रह किया था | बिन्दुसार की धार्मिक आस्था आजीविकों के प्रति थी | बौद्ध स्रोतों के अनुसार बिन्दुसार की मृत्यु 273-272 ई० पू० के लगभग हुई थीं । उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्रों के मध्य राजसिंहासन के लिये चार वर्षों तक संघर्ष चलता रहा अन्तत: 269-268 ई० पू० के लगभग अशोक बिन्दुसार का उत्तराधिकारी बना ।।

8.6 मौर्य साम्राज्य का विस्तार : अशोक

प्रारम्भ में जब अशोक के अभिलेख प्रकाश में आये तो यह ज्ञात नही था कि ये अभिलेख मौर्य नरेश अशोक के है, क्योंकि बहुसंख्यक अभिलेखों में ‘देवानांपिय प्रियदसि लाजा’ शब्द का प्रयोग मिलता है | श्रीलंका के बौद्ध ग्रन्थों में भी एक महान एवं उदार मौर्य राजा का उल्लेख पियदस्सी (प्रियदर्शी) के नाम से मिलता है | 1915 में प्राप्त शिलालेख से यह स्पष्ट हो सका कि यह प्रियदर्शी राजा अशोक ही है । केवल मास्की, गुर्जरा, नित्तूर तथा उदेगोलम के लघु शिलालेख ही ऐसे अभिलेख है जिनमें अशोक का नाम प्राप्त होता हैं । बौद्ध परम्परा में अशोक को उसके प्रारम्भिक जीवन में अत्यन्त निर्दयी एवं क्रूर बताया गया है तथा दीपवंश में उसने 99 भाइयों की हत्या करके सिंहासन पर कब्जा करने की बात कही गई है । इस संख्या में अतिशयोक्ति हो सकती है क्योंकि स्वयं अशोक ने अपने पांचवें शिलालेख में अपने जीवित भाई-बहनों का उल्लेख किया है | किन्तु इस बात पर भी विश्वास किया जा सकता है कि किसी भी शासक के अनेक पुत्र होने पर उनके मध्य उत्तराधिकार का संघर्ष स्वाभाविक है अत: यह सम्भव है कि अपने कुछ भाइयों को मारकर अशोक ने. राज्य प्राप्त किया होगा |

बौद्ध साहित्य में बौद्ध-धर्म अपनाने से पूर्व अशोक के क्रूरतापूर्ण एवं निर्दयी स्वभाव का चित्रण अतिरंजित एवं काल्पनिक प्रतीत होता है । सम्भवत: इसका उद्देश्य यह बताना रहा हो कि बौद्ध धर्म के प्रभाव से एक क्रूर व्यक्ति कितना धार्मिक बन गया ।

अशोक ने एकमात्र कलिंग (उडीसा) विजय की थी । नन्दों के समय कलिंग मगध साम्राज्य के अन्तर्गत था । ऐसा लगता है कि नन्दों एवं अशोक के शासन काल के मध्य कलिंग स्वतंत्र हो गया होगा | कदाचित बिन्दुसार के समय में मौर्य साम्राज्य के कई क्षेत्रों में विद्रोह हुये थे । कलिंग मौर्य साम्राज्य की सीमाओं से लगा हुआ एक शक्तिशाली राज्य था । साथ ही दक्षिण भारत से व्यापारिक सम्बन्धों को बढ़ाने के लिये कलिंग की भूमि और उसके समुद्र तट पर अधिकार करना आवश्यक भी था | राज्याभिषेक के आठ वर्ष बाद उसने कलिंग को विजय किया | 13 वें शिलालेख में इस युद्ध की भीषणता का वर्णन करते हुये कहा गया है कि इस युद्ध में 100,000 लोग मारे गये,150,000 लोग बन्दी बना लिये गये और उससे कई गुने अधिक लोग काल कवलित हुये । युद्ध की विभीषिका ने अशोक के मन को बुरी तरह झकझोर दिया । 13 वें शिलालेख में अशोक कहता है कि इस घटना के 1/100वें या 1/1000 वें भाग की भी यदि पुनरावृत्ति हो तो उसे असीमित दुःख होगा । अपने चतुर्थ शिलालेख में वह कहता है कि युद्ध की भेरी हमेशा के लिये शान्त कर दी गई । अब उसने धम्म विजय की नीति अपनाई और उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया । अशोक की इस शान्तिप्रिय नीति ने उसे सदैव के लिये अमर बना दिया ।

कलिंग विजय के साथ ही अशोक का साम्राज्य पर्याप्त विस्तृत हो गया । 14वें शिलालेख में वह स्वयं कहता है ‘महालके हि विजितं (मेरा साम्राज्य बहुत विस्तृत है) अशोक के अभिलेखों के प्राप्ति स्थलों के आधार पर भी यह कहा जा सकता है कि उसका साम्राज्य पूर्व में बंगाल से लेकर उत्तर पश्चिम में हिंदुकुश तक तथा उत्तर में हिमालय की तराई से लेकर दक्षिण में मैसूर तक विस्तृत था | कलिंग एवं सौराष्ट्र पर भी उसका अधिकार था आर० एस० त्रिपाठी ने लिखा है कि प्राचीन भारत का कोई सम्राट इतने विस्तृत भूखण्ड का स्वामी नहीं था । एच० जी० वैल्स ने उसे सम्राटों में महानतम सम्राट माना है | वास्तव में अशोक की महानता का कारण उसका विशाल साम्राज्य नहीं था, अपितु उसका चरित्र, उसके आदर्श और वे सिद्धान्त थे जिनके आधार पर उसने शासन किया ।

8.7 अशोक के उत्तराधिकारी एवं मौर्यशासन का पतन

232 ई० पू० में अशोक की मृत्यु के बाद मौर्यों का साम्रज्यवादी प्रभुत्व कमजोर पड़ने लगा और लगभग पाँच दशक के अन्दर उसका पतन हो गया । अशोक के उत्तराधिकारियों के विषय में पुराणों, बौद्ध ग्रन्थों तथा जैन ग्रन्थों में अलग-अलग विवरण प्राप्त होता है । अशोक ने अपने 7वें स्तम्भलेख में अपने अनेक पुत्रों तथा राजकुमारों का उल्लेख किया है । शिलालेखों में केवल ‘तीवर’ का उल्लेख प्राप्त होता है | यह राजकुमार सम्भवत: कभी सिंहासनासीन न हो सका | ऐसा माना जाता है कि अशोक की मृत्यु के बाद साम्राज्य का विभाजन कर दिया गया | यह विभाजन कब हुआ? यह निश्चित नहीं है । अशोक के उत्तराधिकारियों के विषय में जो विवरण प्राप्त होते है उनमें से कुछ के नाम इस प्रकार हैं- कुणाल, दशरथ, सम्प्रति, शालिशूक, देववर्मन शतधनुस एवं बृहद्रथ | बृहद्रथ मौर्य वंश का अन्तिम राजा था जिसकी हत्या लगभग 185 ई० पू० में उसके सेनापति पुष्यमित्रशुंग ने कर दी तथा मगध के सिंहासन पर अधिकार कर लिया ।

मौर्य साम्राज्य के पतन के लिये अनेक कारण उत्तरदायी थे जिनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं-अधिकांश इतिहासकारों की मान्यता है कि अशोक के बाद उसके निर्बल उत्तराधिकारी हुये | वे साम्राज्य के विभिन्न भागों में हुये उपद्रवों एवं विद्रोहों को नहीं दबा सके । परिणामस्वरूप पश्चिमोत्तर एवं दक्षिणी भाग सर्वप्रथम स्वतंत्र हो गये । अशोक की शान्तिवादी नीति ने भी साम्राज्य को कमजोर बनाया । वह सैन्य दृष्टि से दुर्बल हो गया । केन्द्रीकृत साम्राज्य को बहुत ही दृढ़ संकल्प वाले शासकों की आवश्यकता होती है । लेकिन अशोक के उत्तराधिकारी ऐसे नहीं थे । हरप्रसाद शास्त्री ने अशोक के शासन के विरूद्ध हुई ब्राह्मणों की प्रतिक्रिया को मौर्य वंश के पतन के लिये उत्तरदायी माना है । उनके अनुसार पशु-बलि की समाप्ति, धर्ममहामात्यों द्वारा ब्राह्मण धर्म का दमन तथा ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों की समाप्ति ने ब्राह्मणों की प्रतिक्रिया को जन्म दिया जिसकी परिणति ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग द्वारा बृहद्रथ की हत्या थी शास्त्री के इस मत का विरोध एच० सी० रायचौधरी ने किया है । वास्तव में अशोक की कोई भी नीति ब्राह्मण विरोधी नहीं थी । उसके शिलालेखों में ब्राह्मणों को सम्मान एवं दान देने के उल्लेख प्राप्त होते है ।

पुष्यमित्र का सेनापति बनना ही इस बात का प्रणाम था कि मौर्य शासक ब्राह्मण विरोधी न थे । डी० डी० कोसम्बी ने मौर्य शासकों की आर्थिक दुर्बलता को उनके पतन का कारण माना है । विस्तृत एवं विशाल साम्राज्य के संचालन के लिये नये-नये कर लगाये गये तथा धन की कभी के कारण तत्कालीन आहत सिक्कों में भी मिलावट की गई इससे आर्थिक दुर्बलता आयी जो मौर्य वंश के पतन का कारण बनी । लेकिन उस समय अर्थव्यवस्था कमजोर थी ऐसा नहीं लगता | मौर्य युगीन बस्तियों की खुदाई से तो यह स्पष्ट नहीं होता । इसके विपरीत आवागमन के साधनों एवं व्यापारिक विकास के कारण आर्थिक अभिवृद्धि हुई । व्यापारियों द्वारा सांची एवं भरहुत जैसे स्तूपों के लिये दिये गये दान से इस बात की पुष्टि होती है ।

8.8 मौर्य प्रशासन

मौर्य शासकों ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी । इस विशाल साम्राज्य के संचालन के लिये उन्होनें कुशल प्रशासनिक व्यवस्था भी स्थापित की । वी० ए० स्मिथ के अनुसार ‘मौर्य साम्राज्य अकबर के अधीन मुगल साम्राज्य से भी अधिक अच्छी तरह संगठित था |

8.8.1 केन्द्रीय प्रशासन:-

राजा:- राजा राज्य का प्रधान होता था । अत: बृहत साम्राज्य के संचालन के लिये यह आवश्यक था कि राजा उत्साही, स्फूर्तिवान, उघमी एवं प्रजाहित के कार्यों में हमेशा तत्पर रहता हो | चन्द्रगुप्त एवं अशोक दोनों में ही ये गुण यथेष्ट मात्रा में विद्यमान थे | चन्द्रगुप्त की कार्य तत्परता के सम्बन्ध में मेगस्थनीज ने लिखा है कि राजा दरबार में बिना व्यवधान के कार्यरत रहता था । कौटिल्य ने लिखा है कि जब राजा दरबार में ही बैठा हो तो उसे प्रजा से बाहर प्रतीक्षा नहीं करवानी चाहिये । राजा राज्य की समस्त शक्तियों का स्रोत था | वह कानून का निर्माता होता था | मंत्रियों एवं समस्त कर्मचारियों की नियुक्ति वह स्वयं करता था | वह सर्वोच्च न्यायाधीश एवं सर्वोच्च सेनापति था । युद्ध के समय वह स्वयं सेना का नेतृत्व करता था । कौटिल्य ने राजा को सलाह दी है कि जब वर्णाश्रम धर्म लुप्त होने लगे तो राजा को धर्म की स्थापना करनी चाहिये । राजा के अधिकार एवं शक्तियां असीमित होने के बाबजूद वह पूर्णत: निरकुंश एवं स्वेच्छाचारी नहीं होता था । वह हमेशा प्रजा की भलाई का ध्यान रखता था । कौटिल्य ने लिखा है कि ‘प्रजा की भलाई में ही राजा की भलाई है तथा प्रजा के सुख में ही राजा का सुख है ।’ राजा के ऊपर धर्म, नैतिकता एवं परम्परायें नियंत्रण रखती थीं । राजा की सहायता एवं परामर्श के लिये मंत्रिपरिषद भी होती थी । इसमें सदस्यों की संख्या निश्चित नहीं होती थी । कौटिल्य के अनुसार यह आवश्यकता पर निर्भर होनी चाहिये । मंत्रिपरिषद के सदस्यों का मनोनयन स्वयं राजा करता था । केवल उच्चकुलीन, बुद्धिमान, चतुर, विचारशील, चरित्रवान, निर्लोभी, योग्य, अनुभवी एवं देशभक्त को ही मंत्री बनाया जाता था । मंत्रिपरिषद की बैठक गुप्त होती थी तथा निर्णय बहुमत से लिये जाते थे परन्तु उसके निर्णयों की स्वीकृति अथवा अस्वीकृति राजा की इच्छा पर निर्भर था | मंत्रिपरिषद के प्रत्येक सदस्य को 12,000 पण वार्षिक वेतन दिया जाता था । दैनिक कार्यों के सम्पादन के लिये राजा कुछ अन्य मंत्रियों की भी नियुक्ति करता था जो मंत्रिपरिषद के सदस्यों से पृथक् थे । इन्हीं की सलाह से राजा शासन करता था । इनका वेतन 48,000 पण वार्षिक था । अर्थशास्त्र में इन मंत्रियों को तीर्थ तथा महामात्र कहा गया है । इनमें से कतिपय मंत्रियों का उल्लेख इस प्रकार है ।

(1) प्रधान मंत्री (पुरोहित) यह राजा को शासन के प्रत्येक कार्य में सलाह देता था तथा प्रशासन के सभी विभागों पर नियंत्रण रखता था

(2) समाहर्ता:- साम्राज्य के जनपद समाहर्ता नामक अमात्य के अधीन होते थे । राजस्व एकत्र करना, आय-व्यय का ब्यौरा रखना तथा वार्षिक बजट तैयार करना आदि इसके कार्य थे ।

(3) सन्निधाता:- एक प्रकार से कोषाध्यक्ष

(4) प्रशास्ता:- रिकार्ड विभाग (अक्षपटल) का सर्वोच्च अधिकारी

(5) सेनापति

(6) कर्मान्तिक:- राज्य की ओर से संचालित कारखानों की देख– रेख करने वाला अधिकारी

(7) प्रदेष्टा(फौजदारी अदालतों-कण्टक शोधन) तथा व्यावहारिक (दीवानी अदालतों) का अमात्य होता था ।

8.8.2 प्रान्तीय शासन:-

सम्पूर्ण राज्य प्रान्तों में विभाजित था । अशोक के समय निम्नलिखित 5 प्रान्तों का उल्लेख मिलता है

(1) उत्तरापथ- इसकी राजधानी तक्षशिला थी । गांधार तर ,कम्बोज, एवं अफगानिस्तान का क्षेत्र इसमें सम्मिलित था ।

(2) मगध प्रान्त- इसकी राजधानी पाटलीपुत्र थी जो केन्द्रीय राजधानी भी थी । इसमें आधुनिक उत्तरप्रदेश, बंगाल एवं बिहार के प्रदेश सम्मिलित थे | यह प्रान्त सीधा राजा के अधीन था ।

(3) अवन्ति प्रान्त- इसकी राजधानी उज्जयनी थी । इसमें आधुनिक मालवा, गुजरात एवं राजस्थान का भाग सम्मिलित था |

(4) दक्षिणपथ- इसकी राजधानी सुवर्णगिरी थी । इसमें विन्ध्याचल पर्वत से लेकर मैसूर तक का प्रदेश सम्मिलित था।

(5) कलिंग- इस की राजधानी तोशाली थी । आधुनिक उड़ीसा का भाग इसमें सम्मिलित था |

प्रान्त गर्वनरों के अधीन होते थे, जिन्हें कुमार या युवराज कहा जाता था । वे प्राय: राजकुमार या राजवंश के सदस्य होते थे । प्राप्त में शान्ति एवं व्यवस्था बनाये रखना, कर वसूल करना, युद्ध के समय राजा को सैन्य सहायता देना आदि उसके प्रमुख कर्तव्य थे । प्रत्येक प्रान्त को अनेक जनपदों में विभक्त किया जाता था । जनपद को भी उप विभागो में विभक्त किया गया था । स्थानीय:- 800 ग्रामों का समूह, द्रोणमुख- 400ग्रामों का समूह खार्वटिक -200 ग्रामों का समूह, संग्रहण – 100 ग्रामों का समूह एवं ग्राम | ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई थी । ग्राम का मुखिया ग्रामिक कहलाता था जो ग्राम के वृद्ध एवं प्रतिष्ठित व्यक्तियों की सहायता से ग्राम का शासन चलाता था | ग्राम मृतक या ग्राम भोजक के रूप में ग्राम में एक राजकीय पदाधिकारी की भी नियुक्ति की जाती थी ।

8.8.3 नगर प्रशासन:-

कौटिल्य एवं मेगस्थनीज दोनों ने ही नगर प्रशासन का विस्तृत विवरण दिया है । कौटिल्य ने प्रशासन की दृष्टि से नगर को 4 भागों में बांटा है । सम्पूर्ण नगर का अधिकारी नागरिक कहलाता था तथा नगर के प्रत्येक भाग का अधिकारी स्थानिक कहलाता था । जो कर्तव्य सम्पूर्ण नगर के प्रति नागरिक के होते थे वही कर्तव्य नगर के चौथाई भाग के लिये स्थानिक के होते थे । नगर के प्रत्येक चौथाई भाग को 10,20,40, कुटुम्बों के संयोग से अलग-अलग संगठन का उल्लेख अर्थशास्त्र में मिलता है । ये पारिवारिक संगठन गोप नामक कर्मचारी के अधीन होते थे | मेगस्थनीज ने नगर प्रशासन के लिये 6 समितियों का उल्लेख किया है जिसमें प्रत्येक में 5 सदस्य होते थे ।

(1) शिल्प समिति- यह समिति उद्योग शिल्पों का निरीक्षण करती थी तथा कारीगरों के हितों की रक्षा का भी ध्यान रखती थी |

(2) विदेश समिति- यह समिति विदेशियों की देखरेख, उनकी मृत्यु पर उनकी अन्त्येष्टि तथा सम्पत्ति को उचित उत्तराधिकारी को सुपुर्द करने के साथ विदेशियों की गतिविधियों पर नजर भी रखती थी।

(3) जनसंख्या समिति- यह समिति जन्म एवं मृत्यु का विवरण तैयार करती थी ताकि कर लगाने में सुविधा हो ।

(4) व्यापार एवं वाणिज्य समिति- यह समिति माप तौल का निरीक्षण तथा वस्तु विक्रय की व्यवस्था करती थी | साथ ही इस बात का भी ध्यान रखती थी कि प्रत्येक व्यापारी एक से अधिक वस्तुओं का व्यापार तो नहीं कर रहा क्योंकि एक से अधिक वस्तुओं का विक्रय करने वाले व्यापारी को अतिरिक्त शुल्क देना पडता था |

(5) वस्तुनिरीक्षक समिति- यह समिति इस बात का ध्यान रखती थी कि नई एवं पुरानी वस्तुओं को मिलाकर नहीं बेचा जाये ।

(6) कर समिति- इस समिति का कार्य बिक्रीकर एवं चुंगी वसूल करना था ।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि मौर्यशासन प्रणाली एक सुव्यवस्थित शासन प्रणाली थी । आर० सी० मजूमदार के अनुसार ‘मौर्य सरकार वास्तव में अच्छी प्रकार से सुगठित थी और पूर्णत: दक्ष एकतंत्र या अकबर से अधिक विस्तृत राज्य पर भलीभांति शासन करने में दक्ष थी । इसने अनेक रूपों में आधुनिक संस्था की मानो पूरी जानकारी प्राप्त करली थी।’

मौर्य साम्राज्य में राज्य के क्या कार्य थे?

'राजुक' भूमि की पैमाईश (नाप जोख) का कार्य करता था। 'युक्त' जिलाधिकारी थे। इन्हें ग्रामिक कहते थे। गोप और स्थानिक दो अधिकारी ग्राम और जनपद के बीच मध्यस्यता का कार्य करते थे

मौर्य काल में राजा की शक्ति क्या थी?

राजशासन की वैधता 'मौर्य काल' में प्रजा की शक्ति में अत्यधिक वृद्धि हुई। परम्परागत राजशास्त्र सिद्धांत के अनुसार राजा धर्म का रक्षक है, धर्म का प्रतिपादक नहीं। राजशासन की वैधता इस बात पर निर्भर थी कि वह धर्म के अनुकूल हो। किन्तु कौटिल्य ने इस दिशा में एक नया प्रतिमान प्रस्तुत किया।

मौर्य काल की क्या विशेषता थी?

मौर्ययुगीन समस्त कला कृतियों में अशोक द्वारा निर्मित और स्थापित पाषाण स्तम्भ सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण एवं अभूतपूर्व हैं। स्तम्भों को कई फुट नीचे जमीन की ओर गाड़ा जाता था। इस भाग पर मोर की आकृतियाँ बनी हुई हैं। पृथ्वी के ऊपर वाले भाग पर अद्भुत चिकनाई तथा चमक है।

मौर्य साम्राज्य में रहने वाले लोगों के मुख्य व्यवसाय क्या थे?

वस्त्र उद्योग- मौर्य युग का प्रधान उद्योग सूत कातने एवं बुनने का था।