मिट्टी के बर्तन का आविष्कार कब हुआ? - mittee ke bartan ka aavishkaar kab hua?

मृत्तिका तथा अन्य सिरैमिक पदार्थों का उपयोग करके 'बर्तन एवं अन्य वस्तुए बनाना कुंभकारी' या पॉटरी (Pottery) कहलाता है। इन बर्तनों को कठोर और टिकाऊ बनाने के लिए उच्च ताप पर पकाया जाता है। कुंभकारी एक व्यापक शब्द है और इसके अन्तर्गत मिट्टी के बर्तन, पत्थर के बर्तन तथा चीनी मिट्टी के बर्तन एवं वस्तुएँ बनाने का कार्य सभी आ जाते हैं। इन वस्तुओं को 'मृद्भाण्ड' (शाब्दिक अर्थ - मिट्टी के बर्तन) कहते हैं। इस कार्य को करने वाले को कुम्हार कहा जाता है और जिस स्थान पर इन्हें बनाया जाता है उसे चाक (पॉटर) कहते हैं। अमेरिकन सोसाइटी फॉर टेस्टिंग एंड मैटेरियल्स की परिभाषा के अनुसार पॉटरी का अर्थ "तकनीकी, संरचनात्मक और दुर्दम्य उत्पादों के अतिरिक्त आग में पकने वाले मृत्तिकाशिल्प वाले वो सभी बर्तन शामिल होते हैं जिन्में मृदा का उपयोग हुआ है।"[1] पुरातत्वशास्त्र में, मुख्यतः प्राचीन और प्रागैतिहासिक काल में "पॉटरी" शब्द जलपात्रों के लिए काम में लिया जाता है और समान पदार्थ से निर्मित मूर्तियों इत्यादि को टेराकोटा कहा जाता है। कुछ परिभाषायें चिकनी मिट्टी के बने बर्तनों को भी पॉटरी मानते हैं लेकिन यह अभी अनिश्चित है।

पॉटरी मानव इतिहास के सबसे पूराने आविष्कारों में से एक हैं, जिनकी शुरुआत नवपाषाण युग से आरम्भ हुआ। चेक गणराज्य में ग्रेवित्तियन संस्कृति की वीनस ऑफ़ डोलनी वॉनस्टाइन की छोटी मूर्तियाँ लगभग 29000 से 25000 ई॰पू॰ की हैं।[2] चीन के यांग्शी में 18000 ई॰पू॰ के बर्तन मिले हैं। इनके अतिरिक्त जापान में नवपाषाण काल के शुरुआती दिनों (10500 ई॰पू॰) की कलाकृतियों की खोज की गयी है।[3] रूस में (14,000 ई॰पू॰),[4] उपसहारा अफ़्रीका (9,400 ई॰पू॰),[5] दक्षिण अमेरिका (लगभग 9,000-7,000 ई॰पू॰),[6] और मध्य पूर्व में (लगभग 7,000-6,000 ई॰पू॰) में भी पूरानी कलाकृतियाँ मिली हैं।

नाइजर में मिट्टी के बर्तनों का एक हाट

पॉटरी का आरम्भ[संपादित करें]

यह सम्भव है कि पॉटरी की खोज विभिन्न स्थानों पर स्वतंत्र रूप से हुई हो। सम्भवतः यह अक्समात चीकनी मिट्टी के बर्तन में आग जलाने से हुआ। सभी शुरूआती पात्रों का निर्माण वक्राकार रूप में बनाया हुआ और गड्ढ़े में आग जलाकर पकाये हुये मिलते हैं। शुरूआती निर्माणों की तकनीकी सिखना बहुत सरल है। चीनी मिट्टी से बने शुरूआती कलाकृतियों में ग्रेवित्तियन की मूर्तियाँ जैसे डोलनी वॉनस्टाइन की खोज के रूप में मिलती है जो वर्तमान चेक गणराज्य में स्थित है। वीनस ऑफ़ डोलनी वॉनस्टाइन, वीनस की मूर्ति है जो 29000 से 25000 ई॰पू॰ काल की नग्न महिला की मूर्ति है।[2]

चीन और जापान में 12000 से 18000 वर्ष पूराने बर्तनों के टूकड़े मिले हैं।[4][7] वर्ष 2012 में, विश्व के सबसे पूराने पॉटरी चीन के जियांग्शी प्रांत की जियानेन गुफाओं में पाये गये जो 20000 से 19000 वर्ष पूराने हैं।[8][9][10]

अन्य शुरूआती पॉटरी पात्रों में दक्षिणी चीन की युचान्यान गुफ़ाओं की खुदाई में मिले हैं जो लगभग 16000 ई॰पू॰ के हैं[7] और रूस के सुदूर पूर्व में अमुर नदी की घाटी में मिले अवशेष जो 14000 ई॰पू॰ के हैं.[4][11]

उपरोक्त लिखित संस्कृतियों में भी विभिन्न परतें या स्वरुप होते हैं उदाहरण के लिए हम सिन्धु सभ्यता जिसे कि भारत में प्रागैतिहासिक में गिना जाता है को देख सकते हैं- प्रारंभिक काल, विकसित काल और ह्रास काल।

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अब जब हम उपरोक्त दिए गए तमाम कालों को देख चुके हैं तो यह समझना अत्यंत जरूरी है कि एक पुरातत्ववेत्ता कैसे पहचान पाता है कि कौन सा पुरास्थल किस समय काल से जुड़ा हुआ है? इसका उत्तर मृद्भांडों में छिपा हुआ है, पाषाणकाल के शुरूआती 3 कालों तक हमें मृद्भांड प्राप्त नहीं होते अतः इस काल में सबसे अधिक पत्थर के औजार प्राप्त होते हैं, उन्हीं पत्थर के औजारों के माध्यम से हमें उस पुरास्थल के काल के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। मध्य पाषाण काल, नवपाषाणकाल और ताम्र पाषाण काल के दौरान मृद्भांडों का निर्माण किया जाता था अतः उनके विषय में जानकारी हमें दो प्रमुख माध्यमों से मिल जाती है और वो माध्यम हैं प्रस्तर के औजार और मृद्भांड।

किसी भी पुरास्थल के अन्वेषण के दौरान जब कोई मृद्भांड का ठीकरा या टुकड़ा किसी भी पुरातत्वविद को मिलता है तो उसको अत्यधिक प्रसन्नता होती है कारण उस एक टुकड़े के आधार पर वह आराम से उस पुरास्थल की ऐतिहासिकता को सिद्ध कर देता है। उदाहरण स्वरुप यदि किसी पुरास्थल पर उत्तरी कृष्णलेपित मृद्भांड या NBPW मिल जाए तो आराम से उस पुरास्थल के काल को करीब 800 ईसा पूर्व का माना जा सकता है तथा उसको लौह संस्कृति या युग से जोड़ के देखा जा सकता है। प्राचीन काल में मृद्भांडों को अत्यंत ही खूबसूरती से सजाया जाता था तथा उनको बड़ी ही नजाकत के साथ बनाया जाता था। यह प्रश्न बड़े पैमाने पर पूछा जाता है कि आखिर किसी भी एक पुरातत्वस्थल से इतनी बड़ी संख्या में मृद्भांड कैसे मिलते हैं तो इसका जवाब यह है कि मिट्टी के बर्तन मजबूती में धातु के बर्तनों से कमजोर होते हैं अतः वे बड़ी आसानी से टूट जाया करते थे, उनको टूटने के बाद प्राचीन लोग उन्हें अपने आस पास ही फेंक दिया करते थे जिसके कारण हमें इतनी बड़ी संख्या में मिट्टी के बर्तन मिल जाते हैं।

मिट्टी के बर्तन का आविष्कार कब हुआ? - mittee ke bartan ka aavishkaar kab hua?

अब यह जानना जरूरी है कि आखिर ये मृद्भांड बनाए कैसे जाते थे? पाषाणकाल के दौरान चाक का आविष्कार नहीं हुआ था तो उस काल में मनुष्य अलग अलग विधियों से मृद्भांड का निर्माण किया करता था जैसे कि मिट्टी को गोल आकार में लम्बा कर उसे गोल आकार में रखते हुए छोटे से बड़े की तरह बनाया जाता था और फिर इसे धुप में तथा आग में पका दिया जाता था, एक अन्य विधि के अनुसार मिट्टी को फूस के बने टोकरों के चारो ओर बाहर और अन्दर से मिट्टी का लेप लगा कर बनाया जाता था जिसे बाद में जला दिया जाता था जिससे मिट्टी के बीच की फूस जल जाती थी तथा बर्तन बाहर और अन्दर दोनों ओर से पक जाता था। नवपाषाण काल के दौरान मिट्टी के बर्तनों में काफी सुधार हुआ। चाक की खोज हो जाने के बाद से मिट्टी के बर्तनों के कई स्वरुप सामने आने लगें।

मिट्टी के बर्तन का आविष्कार कब हुआ? - mittee ke bartan ka aavishkaar kab hua?

दुनिया की अब तक की सबसे प्राचीनतम मृद्भांड का अवशेष चीन से प्राप्त हुआ जिसकी तिथि करीब 18,000 ईसा पूर्व है। भारत में प्राचीनतम मृद्भांड के अवशेष लहुरदेवा से प्राप्त हुए जिसे की 7,000 ईसा पूर्व का माना जाता है। इस पुरास्थल की खुदाई डॉ राकेश तिवारी जी ने कराई थी। भारत में चाक पर मिट्टी के बर्तन मेहरगढ़ काल संख्या 2 से शुरू हुआ जिसका तिथि 5,500 ईसा पूर्व से लेकर 4,800 ईसा पूर्व है। सिन्धु सभ्यता के उदय के बाद मानो भारत में मृद्भांड बनाने की परंपरा में एक क्रान्ति सी आ गई और यहाँ से अनेकों प्रकार के मिट्टी के बर्तनों का विकास होना शुरू हुआ तथा इस काल में बर्तनों को रंगने तथा उन पर कलाकृतियाँ बनायी जानी शुरू हो सकी। मृद्भांड पर बनी कलाकृतियाँ प्राचीनकाल के समाज और संस्कृति पर प्रकाश डालने का कार्य करती हैं। मृद्भांडों के तिथि को थर्मो ल्युमोसेंस (thermoluminescence) तकनिकी से जाना जा सकता है। जैसा ज्ञात है कि प्रत्येक काल के मृद्भांडों की अपनी एक अलग विशेषता होती है तो उसके आधार पर ही उनके काल का निर्धारण संभव हो पाता है यहाँ तक की विभिन्न समयों में अलग अलग प्रकार के बर्तनों की गर्दन भी बनायी जाती थी अतः यह बिंदु भी हमें एक महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है।

मिट्टी के बर्तन का आविष्कार कब हुआ? - mittee ke bartan ka aavishkaar kab hua?

लखनऊ गंगा के मैदानी भाग में स्थित है तथा यहाँ पर प्रमुख नदी गोमती है ऐसी स्थिति में यहाँ का वातावरण प्राचीन काल में मनुष्य के रहने के लिए अत्यंत ही महत्वपूर्ण था इसी कारण यहाँ से उत्तरी कृष्णलेपित मृद्भांड, चित्रित धूसर मृद्भांड जैसे अत्यंत ही महत्वपूर्ण मृद्भांड हमें प्राप्त होते हैं। वर्तमान समय में यहाँ से समीप ही बसे चिनहट में मिट्टी के बर्तन बड़े पैमाने पर बनाए जाते हैं जो कि प्राचीन और आधुनिक तकनिकी को जिन्दा रखे हुए हैं। चिनहट में मिट्टी के बर्तनों का यह व्यवसाय आज बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार प्रदान करता है।

मिट्टी के बर्तनों की खोज कब हुई?

विश्व के प्रत्येक हिस्सों में खुदाई के दौरान पुरातत्वविदों द्वारा मिट्टी से बने बर्तन या वस्तुएं प्राप्त की गयी हैं, और मिट्टी के बर्तनों का सबसे पुराना प्रमाण जापान (Japan) में 10,000 ईसा पूर्व का है।

मानव ने आग पर पकाकर मिट्टी के बर्तन कब आरंभ किया?

9500-9000 ई.

मिट्टी के बर्तन बनाने वाले का नाम क्या है?

इन वस्तुओं को 'मृद्भाण्ड' (शाब्दिक अर्थ - मिट्टी के बर्तन) कहते हैं। इस कार्य को करने वाले को कुम्हार कहा जाता है और जिस स्थान पर इन्हें बनाया जाता है उसे चाक (पॉटर) कहते हैं।

कुम्हार मिट्टी के बर्तन कैसे बनाते हैं?

पहले बांस के एक औजार से मिट्टी की पर्ते काट कर मिट्टी के कंकड निकाले जाते हैं, यह क्रिया मिट्टी चलाना कहलाती है। इसके बाद मिट्टी में रेत मिलाकर उसे पैरों से खूँदते हैं, इस प्रकार तैयार की गई मिट्टी, निबड़ला मिट्टी कहलाती है । बस्तर के कुम्हार चाक लकड़ी का बनाते हैं, यह चाक बैलगाड़ी के पहिये जैसा होता है।