Show यह हमारा सर्वप्रथम दायित्व है कि भूमि एवं जल के उपयोग, संरक्षण के साथ-साथ पर्यावरण संतुलन/संरक्षण/विकास पर व्यापक जनचेतना जगाये तथा इनके संरक्षण में प्रभावी भूमिका निभाये। इस अध्याय में हम विस्तार से मृदा अपरदन के बारे में, उनसे होने वाले प्रभावों के बारे में अध्ययन करेंगे। जलग्रहण विकास अथवा जलग्रहण प्रबंधन अध्ययन की यह प्रथम पायदान है। 2.2 मृदा अपरदन आमतौर से भूपृष्ठ की एक इंच की मृदा का निर्माण हजारों वर्षों में हो पाता है, जो मृदा, अपरदन की विनाशलीला से एक वर्ष में समाप्त हो जताी है। प्रकृति के स्वाभाविक रूप से होने वाले कार्य-व्यापार में मानव के बिना सोचे-समझे किए गए हस्तक्षेपों से बहुत नुकसान होता है। मानव हस्तक्षेप के फलस्वरूप तीव्र मृदा अपरदन होता है। सामान्य रूप से जब हम अपरदन कहते हैं तो उसका आशय तीव्र अपरदन से होता है। जैसा ऊपर बताया गया, मृदा अपरदन की प्रकिया में मृदा कण भूमि की ऊपरी परत से विस्थापित होते हैं। इसलिये इसे मृदा की ऊपरी सतह से मृदा कणों के विस्थापन की प्रक्रिया कहा जाता है। इस प्रक्रिया में विस्थापित मृदा कणों को एक स्थान से दूसरे या दूर ले जाने या दूर बहा ले जाने के लिये किसी स्रोत की आवश्यकता होती है। सामान्य रूप से मृदा अपरदन में विस्थापन तथा बहाकर ले जाना दोनों प्रक्रियाएँ सम्पन्न होती है। मृदा कणों को विस्थापित करने में पानी, हवा, हिम या गुरुत्व बलों का योगदान प्रमुख रूप से उल्लेखनीय होता है। ये भिन्न-भिन्न बल मृदा कणों के आकार के आधार पर अपनी भूमिका निभाते हैं उदाहरण के लिये 1. मिट्टी में पानी रिसता है, रिसने वाला यह बल मृदा कणों के आयतन के समानुपातिक होता है तथा 2. मृदा कणों को चिपकाने या स्थिर करने वाले बल मृदा कणों के पृष्ठ क्षेत्र के समानुपातिक होते हैं। इस दृष्टि से हम जब विचार करते हैं तो पाते हैं कि मृदा कण जितने छोटे होते हैं, उतने ही अधिक मात्रा में अधिक स्थायी होते हैं। मृदा कण चिपकने वाले बलों के कारण मिट्टी के भू-भाग से लगे रहते हैं। जब मृदा कणों का समुच्चय आकार घटता है तो इस बल में कमी आती है और रिसने वाले बल के कारण मृदा कण विस्थापित होते जाते हैं। फलस्वरूप मृदा का अपरदन होता है। तलछट के परिवहन में मृदा कणों के छोटे-छोटे अंश या कण अधिक आसानी से बह जाते हैं, दूसरे शब्दों में एक स्थान से दूसरे स्थान को विस्थापित हो जाते हैं। रिसने वाले बलों के अतिरिक्त मृदा कणों को विस्थापित करने वाले बलों में कई यांत्रिक बल सम्मिलित होते हैं। जो मृदा कणों को एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाते हैं। उदाहरण के लिये जब तेज वर्षा होती है तो वर्षा की तेज बूँदों के प्रभाव से मृदा कणों का कटाव होता है। इसी तरह पानी के प्रवाह से मिट्टी का कटाव होता है। इस तरह कटाव का बल भी उल्लेखनीय है। इस सम्बन्ध में सबसे अधिक उल्लेखनीय बहते पानी में उत्पन्न कटाव करने वाला बल है। यह सम्भवतः सही है कि पानी के तीव्र बहाव के बिना मृदा अपरदन तीव्रता से नहीं होता है और यदि अपरदन के क्षेत्र में पानी के बहाव को बन्द कर? दिया जाये तो अपरदन की क्रिया भी घट जायेगी। 2.3 जल द्वारा मृदा अपरदन वर्षापात की प्रकृति और मात्रा पर तो निर्भर करता ही है, साथ ही मृदा की प्रकृति, मृदा ढाल, वनस्पतियों और जल अपवाह के वेग पर भी निर्भर करता है। वर्षापात के दौरान बूँदों के गिरने की दर जितनी तीव्र होती है उतनी ही मात्रा में मिट्टी के कण इधर-उधर बिखरते हैं और मृदा समुच्चय प्रभावित होते हैं। मृदा समुच्चय जब भंग हो जाता है अर्थात मृदा कण अलग-अलग होकर बिखर जाते हैं और फिर बहने वाले पानी में निलम्बित हो जाते हैं और जल प्रवाह के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान पर चले जाते हैं। मृदा विस्थापन और उसके परिवहन के बारे में संक्षेप में नीचे विवरण दिए जा रहे हैं। 2.3.1 मृदा विस्थापन मृदा कणों का विस्थापन अपवाह जल के माध्यम से भी होता है। जल मृदा कण अपवाह जल में प्रवाहित होते हैं तो मृदा पृष्ठ के सम्पर्क के साथ खिंचते चले जाते हैं। इस तरह का मृदा अपरदन भूमि पृष्ठ पर होने वाली प्रवाह की ऊर्जा पर निर्भर करता है। इसके साथ यह मृदा की विस्थापनशीलता जल प्रवाह में बही जा रही मृदा की मात्रा आदि पर निर्भर करती है। 2.3.2 मृदा परिवहन गिरती हुई वर्षा की बूँदों से जो ऊर्जा उत्पन्न होती है। उसकी तुलना में बहते जल की ऊर्जा काफी कम होती है, क्योंकि सतह पर बहने वाले जल का प्रवाह सामान्य रूप से वेगहीन होता है। जिन स्थानों में भूमि की सतह चिकनी होती है वहाँ जल का प्रवाह प्रति क्षण 8 से.मी. से भी कम होता है। ऐसा सामान्य रूप से खाईयों या नालियों के बाहर भूमि पर होता है। इसके अलावा पृष्ठ अपवाह के प्रवाह का वेग समतल भूमि पर अधिक नहीं होता, जबकि छोटे और गहरे ढालों पर जल प्रवाह तेज होने के कारण भूमि का क्षरण अपेक्षाकृत अधिक होता है। प्रवाहित जल जब अधिक ढाल या नालियों और खाईयों के माध्यम से बहता है तो बड़ी नाली, नालें या छोटी नदी का रूप ले लेता है। इस तरह सतह पर होने वाले जल प्रवाह से ढाल के आधार पर सबसे अधिक भूमि का कटाव होता है। जल प्रवाह के बल से जो हानि होती है, वह प्रवाह के वेग और उसकी मात्रा पर निर्भर करती है। भूमि सतह के प्रवाह की ऊर्जा बहते हुये जल के वेग और संहति के फलस्वरूप होती है। किसी भी दी हुई संहति वेग का सम्बन्धित प्रवाह के मार्ग की लम्बाई द्वारा प्रभावित होता है। ऐसा प्रवाह सम्बन्धित ढाल से भी प्रभावित होता है और अलग अलग इकाइयों में प्रवाह अलग-अलग पड़ता है। इसी तरह से प्रवाह मार्ग की लम्बाई और मार्ग में आने वाली बाधाओं में अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। वेग की संहति में यदि कोई कमी होती है। तो सम्बन्धित ऊर्जा में भी कमी हो जाती है। इसी तरह जल के सतह पर प्रवाह होने वाली ऊर्जा में यदि वृद्धि होती है तो उसकी मिट्टी को बहा ले जाने की क्षमता में भी वृद्धि होती है, जिसके फलस्वरूप मृदा अपरदन की दर में वृद्धि हो जाती है। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि वर्षा बूँदों के प्रभाव से बहने वाले जल की मिट्टी को बहा ले जाने की क्षमता में वृद्धि होती है। इसके साथ ही खड़े जल में मिट्टी बैठने की क्षमता भी बढ़ जाती है। ढलवां भूमि पर होने वाले प्रवाह के कारण एक पतली परत के रूप में मिट्टी का जो एक समान निष्कासन होता है, उसे परत अपरदन या शीट अपरदन कहा जाता है। यह एक प्रकार की आदर्श संकल्पना है, जबकि सामान्य रूप से ऐसा नहीं देखा जाता है। समय गुजरने के साथ और तीव्र गति से लिये गये छाया चित्रों के अध्ययन से पता चलता है कि मिट्टी के निष्कासन के साथ-साथ मृदा कणों का संचलन भी होता रहता है, जिससे सूक्ष्मदर्शी रिल अपरदन होता है। दूसरे शब्दों में, इससे सूक्ष्म नलिकाएं बन जाती है, जिनसे अपरदन होता है। यद्यपि ये सूक्ष्म नलिकाएं स्थिति के परिवर्तन के कारण सामान्य रूप से दिखाई नहीं पड़ती, परत के रूप में होने वाला यह जल प्रवाह उल्लेखनीय है। मिट्टी को बहा ले जाने की क्षमता जल अपवाह के वेग और गहराई पर निर्भर करती है। साथ ही यह सम्बन्धित मृदा के लक्षणों पर भी निर्भर करता है। मृदा की परिवहनशीलता मृदा के कणों के आकार के घटने के साथ-साथ बढ़ती जाती है अर्थात मटियार मिट्टी के कण जो सूक्ष्म या छोटे होते हैं, आसानी से जल प्रवाह के साथ बह जाते हैं। जिन भू-भागों में सतह पर होने वाला प्रवाह मात्रा में और वेग में बढ़ता है, वहाँ रिल अपरदन अधिक होता है। जिन भू भागों में तेज तूफानी हवाएँ चलती है, जल का अपवाह अधिक होता है तथा जहाँ भूमि की ऊपरी मिट्टी ढीली होती है, वहाँ रिल अपरदन सबसे अधिक होता है। रिलों से कृषि यन्त्रों को गुजरने में कोई असुविधा नहीं होती। रिल अपरदन की अधिक हानिकारक और बढ़ी हुई अवस्था को गली अपरदन कहा जाता है। गली अपरदन के क्षेत्र में नलिकाएँ या नालियाँ रिल अपरदन के भू-भागों से बड़ी होती है और इनमें कृषि यंत्रों को गुजरने में असुविधा होती है और इनमें मिट्टी को बहा ले जाने की क्षमता सबसे अधिक होती है। मृदा कणों का संचलन अपवाह जल में होता है। अपवाह जल में मिट्टी घुल घुलकर बह जाती है और सतह पर पतली परत के रूप में चिपक जाती है, वहीं बहाव के साथ बह जाती है। संक्षेप में इनका विवरण नीचे दिया जा रहा है। 2.3.3 निलम्बन आमतौर से ऐसे भूभागों में मिट्टी की सतह उबड़खाबड़ होती है, जिसके कारण क्षैतिज वेग में कमी आती है और मृदा की सतह से बहाव में बाधा पड़ती है। जबकि मृदा की सतह से थोड़ा ऊपर पानी का बहाव कुछ अधिक वेग लिये हुए होता है। वेग में इस अन्तर के कारण परतों के बीच दाब अन्तर पैदा हो जाता है जिससे परी परतों में भिन्नताएं रहती है। इस तरह के जल प्रवाह के अन्तरों के कारण मृदा कणों में अनेक प्रकार की गतिशीलता पैदा हो जाती है। सम्बन्धित वेग, तलछट के सांद्रण और विभिन्न गहराइयों पर इनके निष्कासन में अनेक भिन्नताएं पाई जाती है और इनके बीच एक विशेष प्रकार का सम्बन्ध बनता है। तलछट के सान्द्रण और प्रवाह वेग में गहराई के अनुसार भिन्नताएं पाई जाती है। तलछट के निष्कासन या निकासी की मात्रा में वेग और सान्द्रण के कारण अन्तर पाये जाते हैं। यद्यपि नाली के फर्श पर वेग न्यूनतम होता है और धारा की सतह के निकट तलछट के अधिकतम सान्द्रित होने के कारण तलछट की निकासी अधिकतम होती है। इसी तरह नाली के तल के ठीक ऊपर बारीक तलछट का विवरण गहराई के अनुसार लगभग मोटी तलछट की तुलना में एक समान होता है। 2.3.4 उच्छलन 2.3.5 पृष्ठ विसर्पण अथवा तल का भार 2.4 वायु द्वारा अपरदन 1. जब सम्बन्धित भू-भाग की मृदा
ढीली होती है, सुखी होती है तथा पर्याप्त मात्रा में मृदा कण बारीक प्रभावों में विभाजित होते हैं ऐसे भू-भागों में हवाओं के तेज चलने से गीली और सूखी मृदा उड़-उड़ कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर चली जाती है। यद्यपि वायु भू-वैज्ञानिक युगों से ही मृदा, के अपरदन का कारण रही है तथापि भूमि के अकुशल एवं दोषपूर्ण प्रबंध से भी मृदा का अपरदन होता है। वायु द्वारा भूमि का जो अपरदन होता है वह एक सम्मिश्र और जटिल प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया पर वायु की दशाओं, मृदा तथा अन्य सम्बन्धित कारकों का प्रभाव पड़ता है। जैसा ऊपर बताया गया है, मिट्टी जब सूखी हालत में होती है, ढीली होती है, इसके कण अत्यन्त बारीक प्रभाजों के रूप में बिखरे होते हैं तथा भूमि की सतह पर ये कण समूह ऐसी स्थिति में होते हैं कि वायु से उड़-उड़ कर दूसरे स्थान पर चले जाते हैं, तभी वायु से अपरदन की मात्रा अधिक होती है। मृदा की ढीले और सूखा होने पर मृदा कण भूमि पृष्ठ से उछल-उछल कर भूमि पृष्ठ के किनारे-किनारे लुढ़कते हुए वाहिए हो जाते हैं तथा मृदा अपरदन की तीव्रता भी बढ़ती है। अपरदन होने के लायक आकार के जो मृदा कण होते हैं उनका वायु द्वारा एक निश्चित (दिए गए) वेग द्वारा परिवहन होता है, इस तरह का मृदा कणों का संचलन भूमि की सतह पर खुले पड़े गैर-अपरदनशील प्रभाजों के बीच की दूरी और उनकी क्रान्तिक ऊँचाई पर निर्भर करता है। 2.4.1 वायु की सक्रियता द्वारा
मृदा का संचलन 2.4.2 मृदा कणों का परिवहन 1. उच्छलन 1. उच्छलन
2. निलम्बन 3. पृष्ठ सर्पण 2.4.3 मृदा अपरदन को प्रभावित करने वाले कारक जलवायुः मृदा की सतह पर गिरने वाले वर्षा बूँदों का बूँदों के आकार के अनुसार पर्याप्त प्रभाव और बल पड़ता है, बूँदों का आकार जितना बड़ा होगा उसका प्रभाव भी उतना ही अधिक होगा। बड़ी बूँदों के प्रभाव से, जो भूमि पर तेजी से गिरती है, मिट्टी के कण सतह से अलग हो जाते हैं और उछल कर इधर-उधर हो जाते है और मृदा अपरदन होता है। यह उल्लेखनीय है कि अपवाह बिना अपरदन के हो सकता है लेकिन अपरदन कभी भी बिना अपवाह के नहीं होता। जिस अपवाह से अपरदन होता है, वह मात्रा अवधि तीव्रता और वर्षा की आवृत्ति पर तथा वर्ष के मौसम पर निर्भर करती है। तीव्र वर्षा से अधिकतम अपवाह होता है। प्रेक्षणों से पता चलता है कि 5 से.मी. दिन से अधिक वर्षा होने पर सदा अपवाह होता है जबकि 1.25 से.मी. दिन से कम वर्षा से अपवाह कभी-कभी होता है या नहीं के बराबर होता है। उच्छलन में रेत के आकार वाले प्रभाजों का बाहुल्य रहता है, इसलिये यह उल्लेखनीय है कि रेत का प्रतिशत जितना अधिक होता है, भूमि क्षेत्र की अपरदनशीलता वायु अपरदन की दृष्टि से उतनी ही अधिक होती है। यह बात एक मि.मी. व्यास से कम सभी रेत प्रभाजों पर लागू होती है। इसके अलावा भू-भागों में जैव पदार्थ, मृत्तिका और सिल्ट के न्यून मात्रा में होने से ढेला बनने की प्रक्रिया कठिन हो जाती है। सामान्यतः किसी भी प्रक्रिया से जिससे मिट्टी का समुच्चयन कम होता है अपरदनशीलता बढ़ाती है। स्थलाकृतिः शुष्क क्षेत्रों में शुक जलवायु होती है और वहाँ वायु से होने वाला अपरदन अधिक होता है। शुष्क और अर्द्धशुष्क भागों में कार्बनिक पदार्थ कम पाया जाता है, जिससे वहाँ की मिट्टी जल और वायु से प्रभावित हो जाती है। तापमान की दृष्टि से जब हम जलवायु पर विचार करते हैं तो क्षेत्रों को उष्ण कटिबंधी, उपोष्णकटिबन्धी, शीतोष्ण कटिबन्धी, आर्कटिक और उप आर्कटिक आदि भागों के रूप में जाना जाता है। भूमध्य रेखा के पास वर्षा तीव्र होती है क्योंकि वहाँ की गरम हवा अधिक पानी सोख लेती है। अतः यह स्पष्ट है कि उष्ण कटिबन्धी और उपोष्ण कटिबन्धी प्रदेशों में जल से मृदा अपरदन अधिक होता है। मृदा गुण: वनस्पतिः अन्य कारक: कृषि क्षेत्र में जुताई से भी अपरदन को बढ़ावा मिलता है, क्योंकि इससे सीधे मिट्टी विस्थापित होती है तथा मिट्टी का जैव पदार्थ भी आॅक्सीकृत होता रहता है। जितनी जुताई अधिक की जाएगी ये क्षमताएँ घटती जाएँगी। जुताई से भूमि में जुताई की एक कड़ी परत बन जाती है, जिससे अन्तःस्पंदन क्षमता घटती है, फिर अपवाह अधिक होता है और अपरदन बढ़ता है। कभी-कभी जुताई के उपकरणों से मिट्टी को ढीला बनाने में मिट्टी वर्षा जल से अधिक प्रभावित हो सकने योग्य बन जाती है, जिससे अपरदन बढ़ता है। 2.5 मृदा अपरदन के प्रभाव 2.5.2 मृदा गठन का परिवर्तन इसी प्रकार वायु से होने वाले अपरदन का भी हानिकारक प्रभाव पड़ता है तथा बारीक कण सिल्ट मृत्तिका जैव पदार्थ आदि विस्थापित हो जाते हैं और मृदा की मूल संरचना खराब हो जाती है। 2.5.3 पोषकों की हानि 2.5.4 जलाशयों मे तलछट का जम जाना 2.5.5 बाढ़ 2.5.6 फसलों की हानि 2.5.7 अन्य कारक भारत में मृदा अपरदन से हुई क्षति का कोई सही आकलन इस समय सुलभ नहीं है, फिर भी अनुमानतः यह गणना की जाती है कि मृदा संरक्षण की दृष्टि से 810 लाख एकड़ भौगोलिक क्षेत्र में लगभग 200 लाख एकड़ क्षेत्र मृदा अपरदन से प्रभावित है। भारतीय योजना आयोग की रिपोर्ट के अनुसार देश में 103.6 लाख एकड़ भूमि गली अपरदन से, 10 लाख एकड़ भूमि पृष्ठ अपरदन से, 163.8 लाख एकड़ भूमि वायु अपरदन से, 203 लाख एकड़ भूमि, हिमनद अपरदन से भावित है। इसके अलावा, 410 किलोमीटर की लम्बाई वाला समुद्रतटीय क्षेत्र भी अपरदन से प्रभावित है। 2.6 जल द्वारा अपरदन यांत्रिक दृष्टि से इन ऊर्जाओं की चर्चा उल्लेखनीय है। हम यह जानते हैं कि यांत्रिक ऊर्जा दो रूपों में व्यक्त होती है गतिक ऊर्जा और विभव ऊर्जा। गतिक ऊर्जा पदार्थ में गति के कारण निहित होती है तथा यह गतिशील द्रव्यमान के उत्पाद और गतिशीलता या संचलन के वेग के आधे के समानुपाती होती है। इसे निम्न समीकरण में दर्शाया गया है- E = 1/2mv2 विभव ऊर्जा किसी पदार्थ में उसकी स्थिति के कारण निहित होती है तथा इसे निम्न रूप में व्यक्त किया जाता है- Ep = mgh अपरदन में सहायक सुलभ विभव ऊर्जा की अंतिम मात्रा का निर्धारण अपरदन के आधार स्तर के ऊपर मृदा संहति की ऊँचाई द्वारा होता है। यह उस निम्नतम ऊँचाई का प्रतिनिधित्व करती है जहाँ तक मृदा प्रवाहित की जा सकती है। सामान्य रूप से यह स्तर सागर का स्तर होता है। वर्षा के अपरदनकारी प्रभाव अथवा क्षमता की निर्भरता अलग-अलग बूँदों या बूँद प्रति इकाई क्षेत्र के हिसाब से ऊर्जा पर आधारित होती है। गिरती हुई बूँद की गतिक ऊर्जा गिरने या टकराने के बल को निर्धारित करती है, जो प्रभाव के प्रत्येक स्थान पर अवशोषित हो जानी चाहिए, जबकि बूँद की क्षैतिज स्थिति सम्बन्धित मृदा की मात्रा का निर्धारण करती है, जिस पर वह बल पड़ता है। वर्षापात का जो प्रभाव पड़ता है या उससे जो ऊर्जा उत्पन्न होती है, उससे मृदा के कण बिखर जाते हैं। अपरदन के प्रकार 2.6.1 उच्छलन उच्छलन की प्रक्रिया पर कई बातों का प्रभाव पड़ता है जो इस प्रकार है, 1. वर्षा बूँदों की संहति और वेग, 2. मृदा के गुण जैसे मृदा के स्थल की आकृति, उबड़-खाबड़पन पृष्ठ का ढाल, जलीय चालकता, नमी की मात्रा, मृदा कण का आकार, सुघट्य तथा सतह का संबद्ध द्रव्यमान आदि। ऐसी मृदाएँ जिनके मृदा कण परस्पर मजबूती से जुड़े रहते हैं। उनमें अपेक्षाकृत बारीक कण देर से या कठिनाई से अलग होते हैं। इसलिये ऐसे क्षेत्रों में तीव्र वर्षा और उच्छवन के अधिक बल की अपरदन हेतु आवश्यकता होती है। शुष्क क्षेत्रों में मृदा कण बड़े दाने के और स्थूल होते हैं। इसलिये ऐसे भू-भागों में वर्षापात के अधिक तीव्र होने पर ही अपरदन होता है। मृदा के संतृप्त होने पर मृदा में चिपकने वाला बल कम होता है और रिसने की प्रवृत्ति घटती है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भूमि पर पानी की पर्याप्त मोटी परत के रहने से (समतल भूमि में) तीव्र वर्षा से मृदा को सुरक्षा मिलती है। मृदा की हानि, उच्छलन अपरदन से कितनी होती है, यह बात सम्बन्धित भू-भाग के ढाल की मात्रा पर निर्भर करती है। 2.6.2 पृष्ठ
या परत अपरदन परत अपरदन जल से होने वाले मृदा अपरदनों में सबसे अधिक हानिकारक है। अनेक बार यह जानना कठिन होता है कि किसी भू-भाग से किस तरह का मृदा का अपरदन हुआ है, लेकिन जब यह प्रक्रिया बार-बार सम्पन्न होती है तो पता चलता है कि पृष्ठ मृदा का अधिकांश भू-भाग गायब हो गया है और अवमृदा ऊपर आ गई है, जो पादप वृद्धि के लिये अच्छी नहीं होती है। शीट अपरदन से गहरी मृदाओं की अपेक्षा उथली मृदाओं की उत्पादकता अधिक प्रभावित होती है। ऐसे क्षेत्रों में जहाँ ऊपरी मृदा कट जाती है, काफी हानियाँ देखी गई है। 2.6.3 नाली या नलिका अपरदन 2.6.4 रिल अपरदन वर्षापात के दौरान तीव्रता से प्रवाह सूक्ष्म नालियों में केन्द्रित हो जाता है जो बाद में बड़ी नालियों से होता हुआ अपरदन करता है। इन छोटी और बड़ी नालियों से अपरदन क्षेत्र में एक नलिका तंत्र बन जाता है और तीव्र वर्षा से मृदा इन नलिकाओं के अपरदनकारी प्रभाव के कारण कटती रहती है। सामान्य रूप से रिल अपरदन के कारण गली अपरदन होता है। सामान्य रिल अपरदन से प्रभावित भूमि को जुताई आदि से बराबर कर सकते हैं। सामान्य तौर पर रिल कटाव कृषि यंत्रों के चलने में बाधा प्रस्तुत नहीं करता है। 2.6.5 गली अपरदन गली अपरदन की दर मुख्यतः अपवाह पर निर्भर करती है। जल अपवाह का स्वरूप और प्रभाव सम्बन्धित जलग्रहण क्षेत्र, मृदा लक्षण, क्षेत्र की बड़ी नालियों का आकार और आकृति तथा बड़ी नालियों आदि पर निर्भर करता है। ऐसे भू-भाग जहाँ ढीली, खुली और अच्छी जल निकासी वाली ढलवा मृदा पाई जाती है, उन क्षेत्रों में जब तीव्र वर्षा का जल जमा हो जाता है तो अपवाह से गली अपरदन का रूप धारणा कर लेता है। दूसरी ओर भारी और संघनित मृदा में प्रायः नलियों से अपरदन कम होता है क्योंकि इस भू-भाग में अपवाह में रुकावटें अधिक पैदा होती है। गली अपरदन क्षेत्रों में कभी-कभी नलियों की गहराई 6 से 12 मीटर तक देखी गई है। गली कटाव सामान्य कृषि यंत्रों के प्रयोग में बाधक होते हैं। 2.7 गली निर्माण के सम्बन्ध में निम्न अवस्थाएँ उल्लेखनीय हैं। 2.7.1 निर्माण अवस्था 2.7.2 विकास की अवस्था 2.7.3 तृतीय अवस्था 2.7.4 स्थिर अवस्था सामान्य रूप से गली का विभाजन भिन्न प्रदेशों में भिन्न-भिन्न है। एक उदाहरण निम्न प्रकार से प्रस्तुत है- मिट्टी युक्त जल को शुद्ध करने के लिए प्रयोग किया जाने वाला रसायन कौन सा है?Solution : फिटकरी। Step by step solution by experts to help you in doubt clearance & scoring excellent marks in exams.
जल को शुद्ध करने की रासायनिक विधि क्या है?सही उत्तर क्लोरीनीकरण है। जल को शुद्ध करने के लिए उपयोग की जाने वाली सबसे सामान्य विधि क्लोरीनीकरण है। जल का क्लोरीनीकरण जल में क्लोरीन या क्लोरीन यौगिक जैसे सोडियम हाइपोक्लोराइट मिलाने की प्रक्रिया है। इस विधि का उपयोग जल में जीवाणु, विषाणु और अन्य रोगाणुओं को मारने के लिए किया जाता है।
जल को शुद्ध करने के लिए क्या डालते हैं?अशुद्ध जल में फिटकरी डालने से जल में निलम्बित पदार्थ अवक्षेपित होकर नीचे बैठ जाते हैं। इस जल में थोड़ी मात्रा में चूना मिला देने से जल और शुद्ध हो जाता है।
पानी को साफ करने के लिए क्या मिलाया जाता है?पानी को शुद्ध करने के लिए फिटकरी को इसमें मिलाया जाता है। फिटकरी एल्युमिनियम सल्फेट है।
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