निषाद में कितने जात होते हैं? - nishaad mein kitane jaat hote hain?

निषाद जाति मछुआरे समाज को कहा जाता है ,इनकी कई उपजातियां है जैसे एक बाप के कई बेटे कई नाम से जाने जाता है उसी तरह यह पुरे भारत सहीत ,नेपाल, पाकिस्तान, चीन, बंगलादेश इन सब देशो में प्रमुख रुप से पाये जाते हैं अगर ती सिंधु घाटी सभ्यता के समय की निवासी है [1] , वर्तमान में यह जाति अधिकतर उत्तरप्रदेश में रहती हैं और पिछड़ा वर्ग के अन्तर्गत आती है , इस जाति की मांग है कि इन्हें अनुसूचित जनजाति में वर्गीकृत किया जाए। यह जाति बंगाल में चाईं के नाम से जानी जाती है। राजनैतिक और सामाजिक जागरूकता न होने के कारण चाईं अपने आप को निषाद नहीं मानते हैं[2] ।

संदर्भ[संपादित करें]

  1. {{https://shodhganga.inflibnet.ac.in/jspui/bitstream/10603/236225/4/lesson%25202.pdf&ved=2ahUKEwjHkfPlw8bqAhXIAnIKHbIsCawQFjABegQIAxAB&usg=AOvVaw3nGQd7fwCUomubFgbdkXMh%7D%7D}}
  2. {{https://www.forwardpress.in/2018/11/nishad-jati-ko-anusuchit-janjati-ka-drja-dilane-ke-lie-nikalenge-rally/?amp&ved=2ahUKEwjsxazLxMbqAhU2_XMBHd8QDvgQFjALegQICBAB&usg=AOvVaw2BV5JXHTo9b6DRv7GyLprU&ampcf=1%7D%7D/ref }}

निषाद जाति की उत्त्पति 

निषाद एक प्राचीन अनार्य वंश है। निषाद (नि: यानी जल और षाद का अर्थ शासन) का अर्थ है जल पर शासन करने वाला। प्राचीन काल में जल, जंगल खनिज, के यही मालिक थे और जब भारत भूमि पर आर्यों ने आक्रमण किया , उसके पूर्व यहां इन्हीं का शासन था। हमारे बहुत सारे दुर्ग-किले थे, जिन्हें आमा, आयसी, उर्वा, शतभुजी, शारदीय आदि नामों से पुकारा जाता था। आज भी प्रयागराज से 40 किलोमीटर दूर गंगा किनारे श्रृंगवेरपुर में निषादराज राजा गुह का किला मौजूद है।


निषाद जाति की उत्त्पति 

निषादों का इतिहास बहुत पुराना है।  प्राचीन ऋग्वेद में निषादों का उल्लेख है। रामायण और महाभारत में कई-कई बार निषादों का उल्लेख है। महर्षि वाल्मीकि ने जो पहला श्लोक लिखा है, उसमें निषाद शब्द आया है। महाभारत के रचयिता महर्षि वेदव्यास भी एक महान महर्षि निषाद थे।

निषाद अपने पूर्वजन्म में कभी कछुआ हुआ करता था। एक बार की बात है उसने मोक्ष के लिए शेष शैया पर शयन कर रहे भगवान विष्णु के अंगूठे का स्पर्श करने का प्रयास किया था। उसके बाद एक युग से भी ज्यादा वक्त तक कई बार जन्म लेकर उसने भगवान की तपस्या की और अंत में त्रेता में निषाद के रूप में, विष्णु के अवतार भगवान राम के हाथों मोक्ष पाने का प्रसंग बना। राम निषाद के मर्म को समझ रहे थे, वो निषाद की बात मानने को राजी हो गए। निषादराज का राजमहल आज भी भी श्रृंगवेरपुर में मौजूद है


निषाद जाति की उत्त्पति 

धर्मग्रंथों के अनुसार राम के जन्म से पहले इस धरती पर आसुरी शक्तियां अपने चरम पर पहुंच गई थीं। राजा-महाराजा, ऋषि-मुनि सभी इनसे परेशान थे। ऐसे में किसी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। राजा दशरथ ने अपने कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ से जब इस बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि श्रृंगवेरपुर के श्रृंगी ऋषि ही इस समस्या से निजात दिला सकते हैं।

ऋषि श्रृंगी त्रेता युग में एक बहुत बड़े तपस्वी थे। जिनकी ख्याति दूर-दूर तक थी। राजा दशरथ के अभी तक कोई पुत्र नहीं था। केवल एक पुत्री थी जिसका नाम था शांता। दशरथ के मन में जहां एक ओर आसुरी शक्तियों से छुटकारा पाने की चिंता सता रही थी वहीं अपना वंश बढ़ाने के लिए पुत्र न होने की पीड़ा भी मन में थी। ऐसे में दशरथ को ऋषि वशिष्ठ ने इन समस्याओं के निवारण के लिए श्रृंगी ऋषि की मदद लेने की सलाह दी। तब राजा दशरथ की प्रार्थना पर ऋषि श्रृंगी उनके दरबार पहुंचे।

ऋषि ने राजा दशरथ से कहा कि इन समस्त समस्याओं का एक ही हल है-पुत्रकामेष्ठी यज्ञ। इसके बाद राजा दशरथ के घर पूरे विधिविधान से पुत्रकामेष्ठी यज्ञ कराया गया और कुछ वक्त बाद दशरथ के यहां विष्णु के अवतार में भगवान राम का जन्म हुआ। पूरे बारह दिन तक चला था ये यज्ञ और इस दौरान दशरथ ऋषि श्रृंगी के तप, उनके ज्ञान और शक्ति से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी इकलौती पुत्री शांता का विवाह श्रृंगी ऋषि से करने का निर्णय ले लिया और तब श्रृंगी बन गए दशरथ के दामाद।

माना जाता है कि श्रृंगवेरपुर धाम के मंदिर में श्रृंगी ऋषि और देवी शांता निवास करते हैं। यहीं पास में है वो जगह जो राम सीता के वनवास का पहला पड़ाव भी मानी जाती है। इसका नाम है रामचौरा घाट। रामचौरा घाट पर राम ने राजसी ठाट-बाट का परित्याग कर वनवासी का रूप धारण किया था। त्रेतायुग में ये जगह निषादराज की राजधानी हुआ करता था। निषादराज मछुआरों और नाविकों के राजा थे। यहीं भगवान राम ने निषाद से गंगा पार कराने की मांग की थी।

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समाजवादी पार्टी के संस्‍थापक और पूर्व मुख्‍यमंत्री मुलायम सिंह यादव का निधन हो गया है। पिछले 10 दिन से मेदांता अस्‍पताल में जिंदगी और मौत के बीच जूझते रहने के बाद नेताजी ने सोमवार सुबह अंतिम सांस ली। jankaritoday.com के तरफ से भावभीनी श्रद्धांजलि..

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Last Updated on 03/12/2021 by Sarvan Kumar

निषाद समाज  ऐसे जातियों के समूह को कहते हैं जो नाव चलाने तथा मछली मारने का काम करते हैं। इस समूह के अन्तर्गत कई जातियाँ हैं जैसे निषाद, बिंद, मल्लाह, केवट, कश्यप, भर, धीवर, बाथम, मछुआरा, कहार, धीमर, मांझी और तुरहा। देश की अधिकतर जातियां अपने पुश्तैनी कामों को छोड़ चुकी है, पर जाति व्यवस्था वंशानुगत होने के कारण आज भी जाति का प्रचलन कायम है।आज फिल्म , टेलीविजन, शिक्षा, खेल, राजनीति, सेना हर क्षेत्र में निषादवंशी अपना  योगदान दे रहे हैं। भारत के मूलनिवासी निषाद आज अधिकतर राज्यों में पिछड़े वर्ग में आते हैं। आइए जानते हैं निषाद समाज का इतिहास, निषाद शब्द की उत्पति कैसे हुई?

निषादों की उत्पति कैसे हुई?

हरिवंश पर्व महाभारत का अन्तिम पर्व है इसे ‘हरिवंशपुराण’ के नाम से भी जाना जाता है। हरिवंश पुराण के अनुसार स्वयंभुव मनु के वंशज अंग नामक प्रजापति का विवाह मृत्यु की मानसी पुत्री सुनीथा से हुआ था। उन दोनों से वेन नाम का पुत्र हुआ। सिंहासन पर बैठते ही उसने यज्ञ-कर्मादि बंद कर दिये। उसने लोगों पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। मरीचि आदि ऋषियों ने उसे पहले समझाया कि वह धर्म विरुद्ध आचरण ना करें पर वह नहीं समझा। घमंड और मोह में पड़े राजा वेन जब नहीं समझा तो ऋषि क्रोध से भर गए और मंत्रपूत कुशों से उसे मार डाला। सुनीथा ने पुत्र का शव सुरक्षित रखा, जिसकी दाहिनी जंघा का मंथन करके ऋषियों ने एक नाटा, काला  और छोटा मुखवाला पुरुष उत्पन्न किया। उसने ब्राह्मणों से पूछा, कि मैं क्या करूं?” ब्राह्मणों ने “निषीद” (बैठ) कहा। इसलिए उसका नाम निषाद पड़ा। उस निषाद द्वारा वेन के सारे पाप कट गये। वही निषादों के वंश का चलाने वाला राजा हुए।

रामायण  में निषादों की चर्चा

महर्षि वाल्मीकि ने जो पहला श्लोक लिखा है, उसमें निषाद शब्द आया है।
मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम् ॥

अर्थ – हे निषाद ! तुमको अनंत काल तक (प्रतिष्ठा) शांति न मिले, क्योकि तुमने प्रेम, प्रणय-क्रिया में लीन असावधान क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक की हत्या कर दी।

निषाद समाज का इतिहास

निषाद एक प्राचीन अनार्य वंश है। निषाद (नि: यानी जल और षाद का अर्थ शासन) का अर्थ है जल पर शासन करने वाला। प्राचीन काल में जल, जंगल, खनिज के यही मालिक थे और जब भारत भूमि पर आर्यों ने आक्रमण किया , उसके पूर्व यहां इन्हीं का शासन था। इनके बहुत सारे दुर्ग-किले थे, जिन्हें आमा, आयसी, उर्वा, शतभुजी, शारदीय आदि नामों से पुकारा जाता था। आज भी प्रयागराज से 40 किलोमीटर दूर गंगा किनारे श्रृंगवेरपुर में निषादराज राजा गुह का किला मौजूद है।
निषादों का इतिहास बहुत पुराना है।  प्राचीन ऋग्वेद में निषादों का उल्लेख है। रामायण और महाभारत में कई-कई बार निषादों का उल्लेख है। महर्षि वाल्मीकि ने जो पहला श्लोक लिखा है, उसमें निषाद शब्द आया है। महाभारत के रचयिता महर्षि वेदव्यास भी एक महान महर्षि निषाद थे।

निषाद में कितने जात होते हैं? - nishaad mein kitane jaat hote hain?
गुह निषाद राज केवट भगवान राम, माता सीता, और लक्ष्मण को गंगा नदी पार कराते हुए

निषाद अपने पूर्वजन्म में कभी कछुआ हुआ करता था। एक बार की बात है उसने मोक्ष के लिए शेष शैया पर शयन कर रहे भगवान विष्णु के अंगूठे का स्पर्श करने का प्रयास किया था। उसके बाद एक युग से भी ज्यादा वक्त तक कई बार जन्म लेकर उसने भगवान की तपस्या की और अंत में त्रेता में निषाद के रूप में, विष्णु के अवतार भगवान राम के हाथों मोक्ष पाने का प्रसंग बना। राम निषाद के मर्म को समझ रहे थे, वो निषाद की बात मानने को राजी हो गए। निषादराज का राजमहल आज भी भी श्रृंगवेरपुर में मौजूद है। माना जाता है कि श्रृंगवेरपुर धाम के मंदिर में श्रृंगी ऋषि और देवी शांता निवास करते हैं। यहीं पास में है वो जगह जो राम सीता के वनवास का पहला पड़ाव माना जाता है। इसका नाम है रामचौरा घाट। रामचौरा घाट पर राम ने राजसी ठाट-बाट का परित्याग कर वनवासी का रूप धारण किया था। त्रेतायुग में ये जगह निषादराज की राजधानी हुआ करता था। निषादराज मछुआरों और नाविकों के राजा थे। यहीं भगवान राम ने निषाद से गंगा पार कराने की मांग की थी।
गुह निषाद राज जयंती प्रत्येक वर्ष 17 अप्रेल को मनायी जाती है। गुहराज निषादजी ने अपनी नाव में प्रभु श्रीराम को गंगा के उस पार उतारा था। वे केवट थे अर्थात नाव खेने वाले। गुहराज निषाद ने पहले प्रभु श्रीराम के चरण धोए और फिर उन्होंने अपनी नाव में उन्हें सीता, लक्ष्मण सहित बैठाया।

महाभारत के वीर एकलव्य

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गुरु द्रोणाचार्य को एकलव्य अपने दाहिने हाथ के अंगूठे को गुरु दक्षिणा के रूप में देते हुए
Image: Wikimedia Commons

महाभारत काल में एक से एक योद्धा थे, इन योद्धाओं में  कुन्ती पुत्र अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर  माना जाता था। यह माना जाता है कि निषाद राज एकलव्य अर्जुन से भी बड़े धनुर्धर थे। अर्जुन के गुरु द्रोणाचार्य इस बात को पहले ही समझ गए थे और उन्होंने गुरु दक्षिणा में एकलव्य से दाहिने हाथ का अंगूठा ही मांग लिया।  अंगूठा जाने के बाद भी उनकी धनुष चलाने में कुशलता कम नहीं हुई। भगवान श्री कृष्ण के साथ एक युद्ध में एकलव्य वीरगति को प्राप्त हुए। महाभारत में एक स्थान पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से स्पष्ट किया कि ‘तुम्हारे प्रेम में मैंने क्या-क्या नहीं किया है। तुम संसार के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहलाओ इसके लिए मैंने द्रोणाचार्य का वध करवाया, महापराक्रमी कर्ण को कमजोर किया और न चाहते हुए भी तुम्हारी जानकारी के बिना निषादराज के दत्तक पुत्र एकलव्य को भी वीरगति दी ताकि तुम्हारे रास्ते में कोई बाधा ना आए।’
धन्य है एकलव्य जो गुरुमूर्ति से प्रेरणा पाकर धनुर्विद्या में सफल हुआ और गुरुदक्षिणा देकर दुनिया को अपने साहस, त्याग और समर्पण का परिचय दिया। आज भी ऐसे साहसी धनुर्धर एकलव्य को उसकी गुरुनिष्ठा और गुरुभक्ति के लिए याद किया जाता है।

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निषाद के पिता कौन थे?

निषादराज निषादों के राजा का उपनाम है। वे ऋंगवेरपुर के राजा थे, उनका नाम गुह था। वे निषाद समाज के थे और उन्होंने ही वनवासकाल में राम, सीता तथा लक्ष्मण को गंगा पार करवाया था। कहार भील निषाद समाज आज भी इनकी पूजा करते है।

निषादराज पूर्व जन्म में कौन था?

पूर्व जन्म में निषादराज एक लकड़हारे थे। उन्होंने सत्यनारायण भगवान की पूजा की और व्रत किया। इसके प्रभाव से अगले जन्म में वे राजा बने। इसके बाद वाले जन्म में त्रेतायुग में भीलों के राजा निषादराज गुह और उन्हें श्रीराम के प्रिय मित्र बने।

निषाद जाति के लोग कैसे होते हैं?

निषाद जाति मछुआरे समाज को कहा जाता है ,इनकी कई उपजातियां है जैसे एक बाप के कई बेटे कई नाम से जाने जाता है उसी तरह यह पुरे भारत सहीत ,नेपाल, पाकिस्तान, चीन, बंगलादेश इन सब देशो में प्रमुख रुप से पाये जाते हैं अगर ती सिंधु घाटी सभ्यता के समय की निवासी है , वर्तमान में यह जाति अधिकतर उत्तरप्रदेश में रहती हैं और पिछड़ा ...

निषाद राज का निवास कहाँ था?

निषादराज का राजमहल आज भी श्रृंगवेरपुर में मौजूद है। प्रयागराज से 40 किमी की दूरी पर है वो जगह जो राम के धरती पर आने की वजह बनी। ये जगह है गंगा किनारे बसा श्रृंगवेरपुर धाम जो ऋषि-मुनियों की तपोभूमि माना जाता है। इसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण में बहुत गहराई के साथ किया गया है।