पहली कठपुतली ने स्वयं कहा कि मुझे मेरे हाल पर छोड दो ऐसा कहकर वह चिंतित क्यों हो गई? - pahalee kathaputalee ne svayan kaha ki mujhe mere haal par chhod do aisa kahakar vah chintit kyon ho gaee?

दत्तोपंत ठेंगड़ी

जीवन दर्शन

(खंड - 3)

गंतव्य , राष्ट्र और मजदूर , सावधान , समाधान

चिरंतन सुख , प्रश्नोत्तर

संपादन - प्रस्तुतिकरण

अमर नाथ डोगरा

प्रकाशक

सुरुचि प्रकाशन

केशव कुंज, झंडेवाला

नई दिल्ली - 110055

दूरभाष : 011-23514672, 23634561

E-mail :

Website : www.suruchiprakashan.in

© सुरक्षित : भारतीय मजदूर संघ

प्रथम संस्करण : वि. सं. 2072 (नवंबर, 2015)

मूल्य : ₹200

आवरण पृष्ठ : बलराज

पृष्ठ संयोजक : अमित कुमार

मुद्रक : गोयल एण्टरप्राइजिज

ISBN : 978-93-84414-43-6

दो शब्द

'दत्तोपंत ठेंगड़ी-जीवन दर्शन' (खंड-3) मा. ठेंगड़ी जी द्वारा अखिल भारतीय कार्यकर्ता अभ्यास वर्ग, इंदौर (1984), नागपुर (1992) तथा उत्तरांचल क्षेत्र लुधियाना (1983) में दिए गए उद्बोधनों पर आधारित है। इसमें जिज्ञासा समाधान एवं विभिन्न विषयों पर मा. ठेंगड़ी जी द्वारा दिए गए प्रश्नोत्तर हैं। 'चिंतन प्रक्रिया-चिंतन के विभिन्न आयाम' तथा 'सिद्धांतों के पालन में वज्र सी कठोरता चाहिए' इस खंड में मा. ठेंगड़ी जी का विशिष्ट वार्तालाप है।

भुसावल (1968) तथा पुणे (1980) अभ्यास वर्गों के उद्बोधन खंड-2 में यथावत समाहित किए गए हैं। प्रस्तुत खंड में उनकी पुनरावृत्ति न हो अत: उन्हें छोड़ कर अन्य विषयों पर मा. ठेंगड़ी जी के उद्बोधन चयनित किए गए हैं जिन्हें अनुक्रमणिका में क्रमवार दिया गया है।

विषय वस्तु के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि मा. ठेंगड़ी जी मुख्यतया अपने विचार आर्थिक, सामाजिक व संगठनात्मक परिधि के अंतर्गत व्यक्त कर रहे हैं किंतु उनका गंभीर मौलिक चिंतन विस्तृत एवं बहुआयामी है। इस कारण से भारतीय मनीषा के समग्र वाङ्मय तथा उसके परिप्रेक्ष्य में भारतीय दर्शन, अध्यात्म, इतिहास, संस्कृति एवं मनोवैज्ञानिक अनछुए पहलू भी सहज सरल रूप में उन के उद्बोधनों में उद्भासित, अनावृत होते जाते हैं जो मात्र श्रमिक जगत ही नहीं अपितु समस्त मानव जाति के लिए कल्याणकारी हैं।

मा. ठेंगड़ी जी को प्रत्यक्ष सुनने का सौभाग्य जिन्हें प्राप्त हुआ है वे बता सकते हैं कि शिथिल एवं निष्प्राण रक्त धमनियों में भी प्राणशक्ति का प्रवाह तेज हो जाए इस प्रकार के उत्प्रेरक, ऊर्जावान उनके शब्द होते थे। वाणी नहीं उन का हृदय, उनका आदर्शवादी जीवन बोलता था। शब्दों के पीछे सत्य आचरण की शक्ति प्रकट होती थी और वह प्रभावित करती थी। जोशीले भाषण द्वारा तालियाँ बटोरना उनका लक्ष्य कभी भी नहीं था। उनका उद्देश्य था एक-एक कार्यकर्ता में देशभक्ति की लौ जलाते हुए उन्हें राष्ट्रशक्ति के साथ जोड़ना। वे वास्तव में राष्ट्र निर्माता थे। आज भी उनके उद्बोधन पढ़ने-सुनने पर उसी नव उत्साह, नवचेतना की अनुभूति होती है। एक-एक शब्द में उनके दर्शन होते हैं और कहा जा सकता है कि "It is not the Words behind the man, it is the man behind the words" अर्थात शब्दों के पीछे उनकी तपस्चर्या थी, उनकी साधना थी। पुस्तक के पठन-पाठन, वाचन से ऐसा लगेगा मानो उनसे प्रत्यक्ष सजीव संवाद कर रहे हैं। एक-एक पृष्ठ पर वे साक्षात विराजित हैं।

आशा है सुधि पाठकवृंद पूर्व की भाँति ग्रंथमाला के उस खंड को भी सहर्ष स्वीकार करते हुए स्वागत् करेंगे। इसी विश्वास के साथ -

सादर-सप्रेम,

संपादक

ठेंगड़ी भवन

केंद्रीय कार्यालय, भा. म. संघ

27, दीन दयाल उपाध्याय मार्ग

नई दिल्ली - 110002

दूरभाष : 011-23222658

इमेल :

अहिंसक क्रांति

अहिंसावादी क्रांतिकारिओं की कार्यपद्धति पूर्णतया भिन्न होती है। वे इस बात को नहीं मानते कि यदि ध्येय अच्छा हो तो कोई भी साधन अपनाया जा सकता है। अपनी अंतिम अनिवार्य विजय का उन्हें दृढ़ विश्वास होता है। क्योंकि उनकी धारणा में सत्य की (ईश्वर की) विजय होती ही है। वे मानते हैं कि जो पराजित होने से अस्वीकार कर देते हैं वे कभी पराजित नहीं हो सकते। सत्य के संघर्ष में कोई असफलता नहीं होती, आंशिक असफलताएँ हो सकती है।

उनका दृढ़ विश्वास होता है कि किसी व्यक्ति पर उसकी स्वैच्छिक सहमति के बिना लंबे समय तक शासन नहीं किया जा सकता। वे व्यक्ति का हिंसा द्वारा उस का शारीरिक विनाश नहीं प्रायश्चित द्वारा शनैःशनैः शुद्धिकरण चाहते हैं। अहिंसक क्रांति के पूर्व अनिवार्यतः क्रांतिकारी जन जागरण होता है जिसे श्री अरविंद "पैसिव रेसिस्टेंस" (सहन प्रतिरोध) कहते हैं। लोकमान्य तिलक की चतुःसूत्री और महात्मा गांधी के सत्याग्रह, आदि में संघर्ष के साथ-साथ जनजागरण भी अभिप्रेत था। उनका आधार था जन संघर्ष के द्वारा जन जागरण और जन जागरण के द्वारा जन संघर्ष।

द. बा. ठेंगड़ी

('संकेत रेखा' पृ. 342)

खंड-3

अखिल भारतीय कार्यकर्ता

अभ्यास वर्ग

अनुक्रमणिका

क्र. विषय

सोपान - 1 उत्तरांचल क्षेत्र अभ्यास वर्ग , 13 अक्टूबर 1983 (लुधियाना)

1. चिंतन प्रक्रिया

2. चिंतन के आयाम

3. विचारधारा

4. आपके प्रश्न - हमारे उत्तर

5. मार्क्स और मार्क्सवाद के बारे में

6. विविधता में एकता के दर्शन

7. सिद्धांत पालन में वज्र सी कठोरता चाहिए

सोपान - 2 , 29 अक्टूबर - 2 नवंबर 1984 , इंदौर (भाग 1)

1. राष्ट्र और मजदूर

2. राष्ट्र के उत्कर्ष की हमारी दृष्टि

3. मजदूर आंदोलन को नया आयाम

4. श्रमिकीकरण शब्द का प्रयोग

5. कार्य और कार्यकर्ता : संगठन आधार

6. ध्येयवादी जीवन

7. गंतव्य

8. सुख क्या है

9. सावधान

10. चतुराई से अध:पतन

11. उत्कर्ष और अपकर्ष

सोपान - 3 , 29 अक्तू - 2 नवंबर -1984 , इंदौर (भाग-2)

1. समाधान

2. गैर-राजनीति : अवधारणा

3. ज्वांइट कन्सलटेटिव मशीनरी (जे.सी.एम.)

4. हड़ताल (26 सितंबर 1984)

5. मैं मोक्ष की कामना नहीं करता

6. कार्यकर्ता निर्माण

7. छवि निर्माण (इमेज बिल्डिंग)

8. आत्म विकास

सोपान - 4 , 26-28 फरवरी 1992 नागपुर (विदर्भ)

1. कार्य का सिंहावलोकन

2. आर्थिक गुलामी : स्वदेशी आंदोलन

3. शहादत

4. परीक्षा की घड़ी (आपात्काल)

5. शक्ति संचय : अखंड सावधान

6. हमारा आर्थिक व्यवहार

7. आसक्ति : वराह भगवान को भी

8. मनोवैज्ञानिक शक्ति

9. परम वैभव की कल्पना

10. राष्ट्र के पुनर्निर्माण का विचार

सोपान - 5 (संस्मरण)

1. रमणभाई शाह

2. बी. एल. शर्मा 'प्रेम'

3. डॉ. कृष्णराव हरदास

4. श्याम अत्रै

5. मुजफ्फर हुसैन

6. सुंदर सिंह शक्रवार

7. डॉ. बलराम मिश्र

8. आर. वेणुगोपाल

9. शब्द संकेत

10. संपादक परिचय

पारिभाषिक शब्द

संघ - राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

आई.सी.एफ.टी.यू. (ICFTU) - इंटरनेशनल कन्फेडरेशन आफ ट्रेड युनियंस

बी.आर.एम.एस. (BRMS) - भारतीय रेलवे मजदूर महासंघ (भा.म.स.)

ए.आई.आर.एफ. (AIRF) -आल इंडिया रेल्वेमैन्ज फेडरेशन (एच.एम.एस.)

सीटू (CITU) - सेंटर आफ इंडियन ट्रेड युनियन (सी.पी.आई मार्क्सवादी)

एटक (AITUC) - आल इंडिया ट्रेड युनियन कांग्रेस (सीपीआई)

इनटक (INTUC) - इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस (कांग्रेस समर्थित)

एन. एल. ओ. (NLO) - नेशनल लेवर आर्गेनाईजेशन (कांग्रेस समर्थित)

एच एम एस (HMS) - हिंद मजदूर सभा (समाजवादी)

भा. म. सं (BMS) - भारतीय मजदूर संघ

पू. श्री गुरुजी - रा. स्व. संघ के द्वितीय सरसंघचालक .

पी.एफ. - प्रोविडेंड फंड (भविष्य निधि)

सी.डी. - कंपलसरी डिपाजिट

ए.आई.आई.ई.ए. (AIIEA) - आल इंडिया इन्शयोरेंस एंपलाईज एशोसिएशन

(सी पी एम)

एन.ओ.बी.डब्ल्यु (NOBW) - नेशनल आर्गेनाइजेशन आफ बैंक वर्कर्स (भा.म.सं)

ए.आई.ओ.ई. (AIOE) - आल इंडिया आर्गेनाइजेशन आफ एंपलायर्स

आई.एल.ओ. (ILO) - अंतरराष्ट्रीय श्रम संस्था

एस्मा(ESMA) - अशैंसियल सर्विसज मेंटिनेंस एक्ट

एन.एस.ए (NSA) - नेशनल सिक्योरिटी एक्ट

यू.टी.यू.सी. (UTUC) - यूनाइटेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस (वामपंथ)

डी.आर.एम.एस. (DRMS) - डिविजनल रेलवे मेल सर्विस यूनियन (भा.म.संघ)

जे.सी.एम. (JCM) - ज्वाइंट कंसल्टेटिव मशीनरी (भारत सरकार द्वारा निर्मित)

सोपान - 1

कार्यकर्ता अभ्यास वर्ग

उत्तरांचल

13 अक्टूबर 1983

लुधियाना (पंजाब)

सोपान-1

उत्तरांचल क्षेत्र

अभ्यास वर्ग

13 अक्तूबर 1983 , लुधियाना (पंजाब)

चिंतन-प्रक्रिया

हम प्रायः कहते हैं कि हम अनुशासन चाहते हैं। इस पर बार-बार बल भी देते हैं। किंतु यहाँ यह समझने की आवश्यकता है कि अनुशासन से हमारा आशय क्या है और हम किस प्रकार का अनुशासन अपने सगंठन में चाहते हैं। सर्वसाधारण भाषा में कहें तो हम एक प्रकार से परिवार के जैसा अनुशासन चाहते हैं। हम चाहते हैं कि हर कार्यकर्ता से संपर्क आए और अपनी समझदारी द्वारा उसकी समझ को बढ़ाया जाए। हम क्या हैं? हमारे विचार क्या हैं? कार्यकर्ता की और उसके चारों ओर की परिस्थितियाँ क्या हैं? इनको समझने और समझाने से कार्यकर्ता की समझ का स्तर ऊँचा होगा और उसकी सही समझ ही अनुशासन की सही 'गारंटी' है।

यह सब करने में समय लगता है। इसलिए जब तक उसकी समझ नहीं बढ़ती तब तक संगठन के संविधान के अनुसार आदेश देने पड़ते हैं और यह अपेक्षा की जाती है कि इनका पालन होना चाहिए। किंतु फिर इसी बात को दोहराना आवश्यक है कि अनुशासन की वास्तविक गारंटी यही है कि हम कार्यकर्ताओं को समझें, कार्यकर्ता हमें समझे और दोनों मिलकर परिस्थिति को समझने का संयुक्त प्रयास करें। कार्यकर्ता यदि केवल ऊपर से आने वाले आदेश का पालन करने वाला यंत्र या 'मशीन' बन गया है तो यह हमारी असफलता होगी। अच्छा कार्यकर्ता वही है जो अपने मस्तिष्क से सोच विचार करे और वही करे जो अनुशासनवश उसे करना चाहिए।

अनुशासन और उसके अपने विचार में कोई अंतर न रहे, ऐसा हम क्यों कहते हैं? यह इस कारण कहते हैं कि हम लोग केवल एक छोटा सा समूह या टोली तैयार नहीं करना चाहते। कुछ संस्थाएँ व्यक्ति-प्रधान होती हैं। बस एक व्यक्ति के बड़प्पन के लिए संस्था चलती है - एक नेता होता है, अन्य सब उसके अनुयायी होते हैं। एक आदेश देता है और अन्य सब उसका पालन करते हैं। हम इस प्रकार से व्यक्ति-प्रधान संस्था बनाने का काम नहीं करना चाहते और न ही कोई छोटा सा समूह बनाना हमारा उद्देश्य है। हमारा उद्देश्य है देशव्यापी संगठन खड़ा करना और वह भी ऐसे व्यक्तियों का संगठन, जिसमें सोचने, समझने, करने और नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता हो। ऐसे ही कार्यकर्ताओं का बहुत बड़ी संख्या में निर्माण करना हमारे लिए आवश्यक हो जाता है।

व्यक्तिगत प्रेरणा

जब मनुष्य में चिंतन करने की क्षमता, कार्य करने की कर्मठता एवं नेतृत्व प्रदान करने का सामर्थ्य होगा तो उसमें आगे बढ़कर अपनी बुद्धि से काम करने की क्षमता या व्यक्तिगत पहल (स्वप्रेरित कर्तृत्व - इंडिविजुअल इनीसिएटिव) का होना आवश्यक और स्वाभाविक है। इस प्रकार स्व-प्रेरणा से काम करने के गुण के बिना भी संगठन नहीं चल सकता और न ही बढ़ सकता है। अब देखना यह है कि स्व-प्रेरणा (इंडिविजुअल इनीसिएटिव) की मर्यादा क्या हो। प्रायः देखने में आता है कि इस प्रकार की प्रवृत्ति इतनी बढ़ जाती है कि अनुशासनहींनता की सीमा तक पहुँच जाती है। इसमें संगठन की हानि होती है। फिर प्रश्न उठता है कि अनुशासन कितना होना चाहिए? तो यह इतना अधिक और यान्त्रिक भी नहीं होना चाहिए कि मानसिक बंधन या जकड़बंदी (रेजीमेंटेशन) उस सीमा तक पहुँच जाए कि किसी की स्वप्रेरणा ही नष्ट हो जाए। और इतना कम भी न हो कि संगठन ही न चल पाए। हमारा अभीष्ट यह होना चाहिए कि संगठनात्मक अनुशासन तथा स्वप्रेरणा (इंडिविजुअल इनीसिएटिव) का सुंदर समन्वय बना रहे और इस प्रकार के कार्य-कर्ताओं का बड़ा समूह हम देश भर में चारों ओर फैलाकर देशव्यापी संगठन खड़ा कर सकें।

'सुंदर समन्वय' सुनने में बड़ा अच्छा और सरल शब्द है, किंतु समझने में उतना ही कठिन है। दूसरे, किसी भी विचार के शब्द (लैटर) और भाव (स्पिरिट) दोनों समझना और भी कठिन होता है। किंतु दोनों को समझे बिना काम नहीं चलता। केवल शाब्दिक अर्थ या आशय भी अधूरा होता है और भाव (स्पिरिट) को समझना भी अधूरा ही रहता है। यहाँ एक दृष्टांत देने से बात और स्पष्ट हो जाएगी। मैं हाईस्कूल में था तो हमारी संस्कृत की पुस्तक में एक कहानी थी, जिसका शीर्षक था 'तात्पर्यान अनवेक्षिणाम् भृत्यानाम्' अर्थात किसी बात के भाव को न समझने वाले नौकरों की कहानी।

कहानी इस प्रकार थी - एक कपड़े का व्यपारी था जो आसपास के गाँवों में पैठ या साप्ताहिक बाजार में अपना कपडा बेचने जाया करता था। उसके साथ उसके नौकर भी जाते थे। एक दिन उसे ज्वर आ गया और वह पैठ में नहीं जा सकता था। उसके दो नौकर बड़े विश्वसनीय और आज्ञाकारी थे। वे अच्छी प्रकार से जानते थे कि क्या करना है, क्या नहीं करना है। उसने उन दो नौकरों को बुलाया और कहा कि अमुक गाँक की पैठ में कपड़ा ले जाओ। जितना बिके बेच आना और पैसे तथा बाकी कपड़ा लौटा लाना। नौकर जब थैले में कपड़े लेकर चले और बाहर आकर आकाश की ओर देखा तो कुछ बादल छाए हुए थे और वर्षा होने की संभावना थी। व्यापारी ने नौकरों से कहा कि वर्षा से थैलों को बचाना, इन पर एक बूँद भी नहीं पड़नी चाहिए।

नौकर विश्वस्त और आज्ञाकारी तो थे ही। थोड़ी दूर चलने के बाद बूँदाबांदी प्रारंभ हो गई। आसपास कोई घर या पेड़ भी नहीं था जिसके नीचे थैलों को वर्षा से बचा सकते। बेचारे बड़ी चिंता में पड़ गए कि क्या करें? एक को स्मरण आया कि स्वामी ने कहा था कि थैलों को पानी नहीं लगना चाहिए और दूसरे को भी उसने इसका स्मरण दिलाया। दूसरा नौकर भी कम विश्वस्त और आज्ञाकारी नहीं था। उसने चट से कहा, "इसमें क्या कठिन बात है। हम थैले को कपड़ों के नीचे रख देते हैं।" पहले को भी विचार बड़ा अच्छा लगा और दोनों ने झटपट थैलों से कपड़े निकालकर थैलों के ऊपर लपेट दिए। अब थैले कितनी भी वर्षा होने पर गीले नहीं हो सकते थे। जैसा होना था, वही हुआ। अर्थात कपड़े गीले हो गए और थैले बच गए। लौटने पर व्यापारी ने उन्हें डाँटा और कहा "मैं पहले ही सोचता था कि तुम लोग असावधान रहोगे, वर्षा आएगी और माल भीग जाएगा" इस पर नौकर बोले - "नहीं, श्रीमान! आपने जैसा कहा था उसका हमने अक्षरशः पालन किया - थैलों को पानी नहीं लगने दिया।"

बेचारा व्यापारी क्या करता! अपना माथा ठोंक कर रह गया। कहने का तात्पर्य यह है कि थैले बच गए और माल अर्थात कपड़े भीग गए। नौकरों ने स्वामी के आदेश का अक्षरशः पालन किया। परंतु भाव (स्पिरिट) को नहीं समझा। अतः जब कभी सूक्ष्म विषय आ जाते हैं तो शब्द और शब्द के पीछे के भाव, दोनों पर ही ध्यान देने की आवश्यकता होती हैं।

स्व-प्रेरणा (इनीसिएटिव) और अनुशासन के सिलसिले में ही एक बात उठती है कि यदि गलती हो जाए तो क्या किया जाए। इस विषय में पुराने लोगों को स्मरण होगा कि प्रारंभिक अवस्था में हम कहा करते थे कि भाई, हर कार्यकर्ता को गलती करनी ही चाहिए। ऐसा कहना विचित्र-सा दीखता है, पर हम कहते थे कि जो गलती नहीं करेगा वह काम भी नहीं करेगा। अर्थात गलती न करने का सीधा-सरल मार्ग है काम न करना। इसलिए गलती करने को कहने का आशय होता था काम करने को कहना। जो काम करेगा उससे कुछ गलतियाँ होंगी ही। तो गलती करने की छूट आप को दी गई थी। किंतु गलती दोहराई न जाए। दूसरे दिन दूसरे प्रकार की गलती की जाए। ऐसा स्व-प्रेरणा की प्रवृत्ति (इनीसिएटिव) के विकास की दृष्टि से बड़ा उपयोगी होता है। साथ ही, यह भी कहा गया कि संगठन का अनुशासन बना रहना चाहिए या उसका पालन होना चाहिए तो किसी को इसमें विसंगति (इनकंसिसटेंसी) दिखाई दे सकती है अर्थात एक ओर व्यवहार उदार (लिबरल) दिखाई देता है और दूसरी और उतना ही कठोर। ऊपर से देखने में वह बड़ा विचित्र लगेगा किंतु ऐसा नहीं है। मैं व्यक्तिगत उदाहरण देकर बात स्पष्ट करूंगा :-

भोपाल में 23-24 जुलाई, 1955 को भारतीय मजदूर संघ की स्थापना के लिए 30-35 लोग इकट्ठे हुए थे। संगठन का नाम 'भारतीय श्रमिक संघ' सोचकर आए थे। इतना ही नहीं, पहली बैठक के लिए कुछ सामग्री साइक्लोस्टाइल करके साथ लाये थे। वह सामग्री भी 'भारतीय श्रमिक संघ' के नाम से ही थी। कुल 30-35 लोग तो थे ही। सबको पता था कि हमारी रुचि 'भारतीय श्रमिक संघ' के बारे में ही है। सामान्यतः श्रमिक संघ के लिए कोई सांस्कृतिक या भाषाई कठिनाई भी नहीं थी। उस समय न कुछ काम था, न कोई विधान था, न बहुमत का कोई प्रश्न था।

जब नाम का विषय हमने छेड़ा तो हमारे नागपुर के साथियों ने खड़े होकर 'भारतीय श्रमिक संघ' नाम का ही समर्थन किया, क्योंकि उन्हें पता था कि हम यही नाम सोचकर आए हैं। दो-चार और लोग भी यही नाम चाहते थे। उधर जब पंजाब के कुछ साथी खड़े हुए तो उन्होंने इस नाम का विरोध किया और पूछने पर कहने लगे कि हम तो 'श्रमिक' शब्द का उच्चारण भी ठीक से नहीं कर सकते। 'श्रमिक' का हमारे उधर 'शर्मिक' हो जाएगा। उनका आग्रह था कि नाम में 'मजदूर संघ' होना चाहिए। वास्तव में बात बहुत बड़ी नहीं थी। थोडे से ही लोग थे; कुछ ने 'श्रमिक' शब्द पर बल दिया और कुछ ने 'मजदूर' शब्द पर। थोड़ी चर्चा के बाद सबने कहा कि आपने दोनों पक्ष समझ लिए हैं। आप जो निर्णय करेंगे वह हमें स्वीकार होगा। हमारी रुचि श्रमिक शब्द के लिए ही थी और निर्णय देने में हमारे लिए कोई कठिनाई रही हो, ऐसी बात भी नहीं थी।

जो 30-35 लोग एकत्रित हुए थे उनमें से एक थे श्री कानाईलाल बनर्जी, जो बंगाल से आए थे। बंगाल में 'श्रमिक' शब्द जितना चलता है उतना 'मजदूर' शब्द नहीं चलता। मैंने सोचा कि मैं कुछ न बोलूँ और कहा कि इस बैठक में जो सबसे वृद्ध हैं, वही इसका निदान करेंगे - उनका जो निर्णय होगा वह सबको मान्य होगा। वे बोले, "हमारे बंगाल में श्रमिक शब्द ही अधिक बोला जाता है; परंतु हमें अखिल भारतीय रूप में काम खड़ा करना है तो अपने पंजाब के भाइयों की सुविधा की दृष्टि से मैं कहूंगा कि 'मजदूर' शब्द ही चले।" बात उल्टी ही हो गई। हम जो सोचते थे वह नहीं हुआ, और न ही हमने श्रमिक शब्द के लिए फिर आग्रह किया, यद्यपि नागपुर से साइक्लोस्टाइल करके लाई हुई सामग्री में 'अखिल भारतीय श्रमिक संघ' ही लिखा था। हमने घोषणा कर दी कि ठीक है, कनाई बाबू का निर्णय हम सब मानते हैं। इस प्रकार 'भारतीय मजदूर संघ' नाम ही रखा गया।

इसी प्रकार एक और उदाहरण है। कुछ दिन पहले कुछ प्रमुख लोगों की एक बैठक हुई जिसमें उत्पादकता (प्रोडक्टिविटी) बोनस के बारे में चर्चा हुई। एक कार्यकर्ता ने कहा कि भारतीय मजदूर संघ राष्ट्रवादी होते हुए भी उत्पादकता बोनस का विरोध क्यों करता है? हमने कहा - यह निश्चय किया गया है कि उत्पादकता बोनस का सिद्धांत आज की परिस्थिति में हम नहीं मानते, और आगे इस पर चर्चा बंद कर दी।

ये दोनों दृश्य विसंगत जान पड़ते हैं। एक ओर 'भारतीय श्रमिक संघ' के बारे में अपने मन की बात हमने छोड़ दी, और उत्पादकता बोनस के बारे में चर्चा बंद कर दी, जो बात तानाशाही की द्योतक है। अलग-अलग परिस्थितियों में मेरा व्यवहार अलग-अलग रहा। कोई इसे विसंगति कह सकता है, किंतु ऐसा नहीं है। संगठन के जीवन में भाँति-भाँति की परिस्थितियाँ आती हैं और उन्हीं को ध्यान में रखकर व्यवहार भी भिन्न-भिन्न होगा। मुख्य बात है संगठन का लाभ और अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति। जिस प्रकार के उपायों, आचरण अथवा व्यवहार से इनकी सिद्धि होती हो, वे ऊपर से भिन्न दीखते हुए भी ग्राह्य और पालनीय हैं।

भिन्न-भिन्न प्रश्न

बहुत बार और बहुत से कामों एवं सघंर्षों के लिए संयुक्त मोर्चे बनाने पड़ते हैं। संयुक्त मोर्चे (यूनाइटेड फ्रंट) बनाते समय यह देखना होता है कि विषय (इश्यूज) ठीक हैं कि नहीं। यदि ठीक हैं तो उनके लिए कार्य-विधि निर्धारित करनी होती है। एक बार कार्यविधि के निश्चित हो जाने के बाद इस पर कठोरता से आचरण होना चाहिए। उदाहरण के लिए, दिनाक 20 अगस्त 1963 को जो पहला 'बंबई बंद' हुआ, उसका सुझाव 'हिंद मजदूर पंचायत' की ओर से आया था। जार्ज फर्नांडीज का वक्तव्य आया कि हिंद मजदूर पंचायत फिर से जीवित हुई है, किंतु उस समय हिंद मजदूर सभा का ही नाम था। जब विचार आया तो उसमे डांगे के साथ उन्होंने संयुक्त मोर्चा बनाने का सोचा, यह नहीं सोचा कि भाई डांगे और समाजवादी मिलकर कोई संघर्ष करते हैं तो कम्युनिस्टों का ही प्रभाव बढ़ेगा, जो ठीक नहीं था। 'बंबई बंद' होने में कोई आपत्ति नहीं थी; जिन बातों के लिए माँगें थीं वे भी सही थीं। किंतु हम चाहते थे कि जिस ढंग से सोचा जा रहा है उस ढंग से 'बंबई बंद' न हो। 'बंबई बंद' से कम्युनिस्ट पार्टी का प्रभाव किसी भी स्थिति में नहीं बढ़ना चाहिए, ऐसा ही सोचकर हम बंबई गए और समाजवादियों से कहा कि 'बंबई बंद' का विचार ठीक है, किंतु आप लोग डांगे के साथ क्यों जा रहे हो? इससे उनका प्रभाव बढ़ेगा, जो न आपके लिए ठीक है न हमारे लिए, बाकी लोगों को साथ में मिलाना चाहिए। उन्होंने प्रश्न किया, बाकी किसको लिया जा सकता है? एच. एम.एस. से हमारी बातचीत भी नहीं हो सकती। हमने कहा कि हम मध्यस्थ की भूमिका करेंगे। यू.टी.यू.सी., हिंद मजदूर सभा (एच.एम. एस.), ये सब हैं और इन सबको मिलाकर संयुक्त मोर्चा बनाया जाए।

किंतु संयुक्त मोर्चा बनाते समय हमसे कहा गया कि जिस भारतीय मजदूर संघ का आप प्रतिनिधित्व करते हैं वह बंबई में है कहाँ? बंबई में भारतीय मजदूर संघ की बहुत थोड़ी सदस्यता थी। इस सबके उपरांत संयुक्त मोर्चा बना और 'बंबई बंद' हुआ। इसमें भारतीय मजदूर संघ का सम्मान भी हुआ। हम डांगे को अलग (आइसोलेट) कर सके। स्पष्ट दिखाई देने लगा था कि 20 अगस्त को 'बंबई बंद' बिना डांगे के ही होगा। यह स्पष्ट हो जाने पर कम्युनिस्टों ने 19 अगस्त को वक्तव्य दिया कि वे भी 'बंबई बंद' में सम्मिलित होंगे, यद्यपि वे संयुक्त मोर्चे में शामिल नहीं थे। जैसा कि मैंने कहा, हम जो चाहते थे वही हुआ। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि भारतीय मजदूर संघ की शक्ति थोड़ी होते हुए भी उसकी प्रतिष्ठा बढ़ी। हाँ, संयुक्त मोर्चा बनाते समय व्यक्तिगत रूप से हमारे लिए या भारतीय मजदूर संघ के लिए जो कुछ अपमानजनक कहा गया, उस सबको पी जाना पड़ा, सहन करना पड़ा।

हमें कार्यसिद्धि के लिए कई बार अपमानजनक परिस्थिति भी सहन करनी होती है। इस संयुक्त मोर्चे के बारे में सबको यह ज्ञात था कि हमारी शक्ति नहीं है। यह भी हो सकता था कि हम कह देते कि भारतीय मजदूर संघ के साथ सम्मानजनक व्यवहार नहीं हो रहा, इसलिए भारतीय मजदूर संघ संयुक्त मोर्चे में सम्मिलित नहीं होगा परंतु ऐसा हमने नहीं किया। क्यों नहीं किया? इसलिए नहीं किया कि समर-नीति (स्ट्रेटजी) के नाते हमारा उद्देश्य था कम्युनिस्टों को अलग-थलग (आइसोलेट) करना। भारतीय मजदूर संघ का प्रभाव इससे कितना बढ़ेगा, इसकी ओर ध्यान कम था; अधिक ध्यान इस ओर था कि कम्युनिस्टों का प्रभाव न बढ़े, जिससे हमें आगे चलकर कष्ट न हो। इस दृष्टि से उन्हें संयुक्त मोर्चे से बाहर रखना आवश्यक था। यद्यपि संयुक्त मोर्चे में सब घटकों को बराबर या समान स्तर मिलना चाहिए किंतु उक्त समर-नीति की सफलता के लिए यदि भारतीय मजदूर संघ को बराबरी न भी मिले और उसके प्रतिनिधि अपमानजनक स्थिति में भी रहे, तब भी हमने इसे सहन करना स्वीकार किया। तो ऊपर से परस्पर विरोधी दिखने वाले व्यवहार में भी कोई सूत्र रहता है। कार्यकर्ताओं की द्विनाभ दृष्टि ('बाइफ़ोकल विजन') होनी चाहिए, जिस प्रकार चश्मे के नीचे का भाग पढ़ने के लिए और ऊपर का भाग दूर देखने के लिए होता है; अर्थात अंतिम लक्ष्य की ओर देखने की एक दृष्टि और तात्कालिक समस्याओं की ओर देखने की दूसरी दृष्टि। अंतिम लक्ष्य की ओर देखने की दृष्टि स्पष्ट, अचूक तथा अपरिवर्तनशील रहनी चाहिए और तात्कालिक समस्याओं की ओर परिस्थिति बदलती रहनी चाहिए।

चिंतन के आयाम

भारतीय मजदूर संघ के समूचे दर्शन, कार्यप्रणाली, रीति-नीति और कार्यक्रमों के पीछे गहन चिंतन है। इस संगठन का काम किसी के मन की तरंग (मूड) पर नहीं चलता। अच्छी तरंग है तो एक निर्णय किया और बुरी मनोदशा है तो दूसरा, ऐसा नहीं है। भारतीय मजदूर संघ की समस्त विचार करने की पद्धति को समझना आवश्यक है तभी इस प्रश्न का उत्तर मिल सकता है कि किस बात में हमें छूट (लैटिट्यूड) है और किसमें नहीं। और यदि है तो कितनी? इस बात को अच्छी प्रकार से समझें।

सबसे ऊपर स्थान है विचारधारा का। विचारधारा निरंतर हमारे ध्यान में बनी रहनी चाहिए। विचारधारा ध्रुव तारे के समान अटल और अडिग है। उसी प्रकार हमारा सारा कार्य-कलाप इसीसे सुसंगत रहना चाहिए। विचारधारा के बाद आता है अंतिम लक्ष्य (अल्टीमेट गोल)। विचारधारा के अनुरूप ही यह अंतिम लक्ष्य निर्धारित किया जाता है। एक बार अंतिम लक्ष्य का निर्णय हो जाने पर इसे भी अटल और अपरिवर्तनशील ही रखना होगा। क्योंकि अंतिम लक्ष्य बहुत दूर रहता है, अतः उस अवस्था तक पहुँचने का मार्ग भी उतना ही लंबा होता है। केवल अगला चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बनना, यह उद्देश्य सीमित और छोटा है। अंतिम लक्ष्य दूर और देर की वस्तु है। संसार की परिस्थितियों की नई-नई अपेक्षाएँ और चुनौतियाँ सामने आती हैं। अतः अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने के मार्ग में आने वाले तात्कालिक लक्ष्यों के लिए भी काम करना पड़ता है। यह तात्कालिक लक्ष्य अंतिम लक्ष्य के अनुरूप और उसी ओर जाने वाले होने चाहिए और अंतिम लक्ष्य के प्रकाश में ही इनको निर्धारित किया जाना चाहिए।

तात्कालिक लक्ष्यों के बाद बारी आती है नीति (पॉलिसी) की। यह एक सामान्य बात है। श्रमिक-क्षेत्र के कार्य की दृष्टि से जो स्थितियाँ रात-दिन सामने आती हैं, उन्हीं का उदाहरण देकर समझाने से नीति-विषयक विचार स्पष्ट हो सकता है। उदाहरण के लिए - हिंसा और तोड़फोड़ करनी चाहिए या नहीं। इस बारे में अलग-अलग मत हो सकते हैं। कुछ लोग समझते हैं कि हिंसा और तोड़फोड़ से कार्यसिद्वि शीघ्र हो सकती है, इसलिए इन्हें करना ही चाहिए। तीसरा विचार यह हो सकता है कि अपवाद रूप में इनका प्रयोग किया जा सकता है। हमने यह नीति निर्धारित की है कि स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश में हिंसा और तोड़फोड़ का कोई स्थान नहीं है। उपर्युक्त सभी विकल्पों के बारे में सोचने के बाद यह नीति निर्धारित की गई है।

इसी प्रकार संघर्ष और समन्वय के बीच भी हमें नीति के बारे में सोचना होगा। ऐसे ही वर्ग-संघर्ष (क्लास कनफ्लिक्ट) और वर्ग-सहयोग (क्लास कोलेबोरेशन) के बारे में हम किस पक्ष में हैं, यह भी निश्चित करना होगा। इन दोनों पर विचार करते हुए भी कई विकल्प सामने आता है। क्या हम सदैव संघर्ष के बिना, समन्वय से काम निकलता हो तो भी संघर्ष का मार्ग ही चुनें? एक भूमिका यह हो सकती है। दूसरी भूमिका समन्वयवाद की हो सकती है, कि हम किसी भी स्थिति में संघर्ष नहीं करेंगे। जहाँ मजदूर का भला संघर्ष से होगा, वहाँ संघर्ष करेंगे; जहाँ समन्वय से होगा, वहाँ समन्वय करेंगे। किसी एक 'लकीर के फकीर' हम नहीं हैं।

जिस प्रकार हमने हिंसा और तोड़फोड़ के बारे में तथा संघर्ष और समन्वय के बारे में नीति निश्चित की है, उसी प्रकार नीति का एक और भी विषय है। वह है सरकार से सहयोग या असहयोग का, अथवा सरकार के समर्थन या विरोध का कुछ लोगों की नीति है, कि सरकार का समर्थन ही करना है, चाहे वह श्रमिकों का भला करे या बुरा। दूसरे लोगों की नीति सदा सरकार से लड़ने की ही रहती है, चाहे वह भला करे या बुरा। दूसरे शब्दों में, या तो पूर्ण सहयोग या पूर्ण असहयोग। इस बारे में भी हमने विशेष नीति निर्धारित की है, वह है - "जितना तुम करोगे, उतना हम करेंगे।" अंग्रेजी में कहा जाए तो 'रिस्पॉन्सिव को-ऑपरेशन' इसका अर्थ यह है कि जितनी मात्रा में सरकार श्रमिकों के साथ सहयोग करेगी, उतनी मात्रा में श्रमिक सरकार के साथ सहयोग करेंगे; जितनी मात्रा में सरकार श्रमिकों के साथ असहयोग करेगी, उतनी मात्रा में श्रमिक उसके साथ असहयोग करेंगे; जितनी मात्रा में सरकार श्रमिकों का विरोध करेगी, उतनी ही मात्रा में श्रमिक सरकार का विरोध करेंगे।

इस नीति के अनुसार कब क्या पग उठाना है, यह प्रश्न स्थिति और विषय सामने आने पर सोचना पड़ेगा। जैसा, चीन या पाकिस्तान के आक्रमणों की परिस्थितियाँ आयीं। राष्ट्रीय संकट उपस्थित हुए और सरकार की ओर से आह्वान हुआ कि सारे देशवासी एक होकर सरकार का साथ दें। हमने भी राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखते हुए सरकार को पूरा-पूरा सहयोग दिया। हमने स्पष्ट घोषणा की कि हम बोनस की माँग इस समय नहीं उठाएगे, हम सरकारी प्रयास में हृदय से सहयोग करेंगे। उस समय सौदेबाजी का भाव हमने नहीं दिखाया। फिर आया 'अनिवार्य सेवा अधिनियम' (एसेंशियल सर्विस मेंटीनेंस एक्ट) और 'राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम' (नेशनल सेक्यूरिटी एक्ट)। इस अवसर पर हमने डंके की चोट पर कहा कि हम पूरी शक्ति से सरकार से लड़ेंगे। इस प्रकार हम देखते हैं कि सरकार के साथ सहयोग और असहयोग, दोनों प्रकार के प्रसंग आने पर हमने सहयोग भी किया तथा असहयोग भी। दोनों प्रसंगों में हमारा व्यवहार अलग-अलग है, किंतु नीति एक ही है।

समर-नीति

यदि यह निश्चय किया कि सरकार से लड़ना है, तो प्रश्न उठता है कि कैसे लड़ा जाए? क्या भारतीय मजदूर संघ अकेला लड़े? क्या उसके पास इतनी शक्ति है कि वह लड़ाई को अकेला संभाल सकेगा? या नहीं? भारतीय मजदूर संघ अकेला लड़े, यह वांछनीय स्थिति है। यदि अकेला नहीं लड़ सकता तो स्वाभाविक है कि उसे दूसरों के साथ मिलकर लड़ना होगा। भारतीय मजदूर संघ समूचे शासन और स्वामी (मालिक) वर्ग से अकेला अभी नहीं लड़ सकता। उस अवस्था के आने में अभी देर है। किंतु परिस्थितियाँ किसी की प्रतीक्षा नहीं करतीं। संघर्ष की परिस्थिति यदि आज है, तो हम शक्ति-संचय की प्रतीक्षा में कल तक हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे रह सकते। हमें आज ही जूझना पड़ेगा और इसके लिए दूसरों का सहयोग लेना या देना पडेगा। यही बात लाग होती है एक मंच या संयुक्त मोर्चा (यूनाइटेड फ्रंट) बनाने के बारे में। इस बारे में निर्णय को हम समर-नीति या रणनीति (स्ट्रेटजी) का नाम देंगे। संयुक्त मोर्चा बनाना या न बनाना यह समर-नीति का प्रश्न है। हम संयुक्त मोर्चा बनाएं और दूसरों को उसमें सम्मिलित करें; इसी प्रकार दूसरे संयुक्त मोर्चा बनाएं, तो हम उसमें सम्मिलित हों या न हों; इन सब बातों में परिस्थिति और संस्था का तथा मजदूरों का हित-अहित देखना होता है। उदाहरण के लिए, पश्चिमी बंगाल में वामपंथी मोर्चे का शासन है। इस मोर्चे में सम्मिलित बहुत से दलों के श्रमिक संघ हैं। उन संघों के संयुक्त मोर्चे होते हैं। भारतीय मजदूर संघ उनके विरोध में नहीं है। कई बार हम संयुक्त मोर्चा में सम्मिलित होते हैं, कई बार उनका विरोध करते हैं।

रणयुक्ति (टैक्टिक्स)

ऊपर कुछ परिस्थितियों और कुछ मंचों का नाम लेकर मैंने बताया है कि इनमें क्या करने, क्या न करने, भाग लेने या भाग न लेने अथवा इन्हीं जैसी अन्य परिस्थतियों में क्या करना चाहिए, इस बात को स्पष्ट किया है। एक बार अपनी रणयुक्ति (टैक्टिक्स) या चालें निश्चित हो गईं, तो उनके अनुसार कार्य या कार्यक्रम का प्रश्न उठता है। स्पष्ट है कि ये कार्यक्रम अपनी रणयुक्ति के अनुकूल होंगे, उनको हानि पहुँचाने वाले या उनके प्रतिकूल नहीं होंगे। कार्यक्रमों का नाम लेने या गिनाने की आवश्यकता नहीं है। रणयुक्ति के अनुसार जो चाहें हम निश्चित कर सकते हैं। हम जो कार्यक्रम निश्चित करें वे रणयुक्ति के प्रतिकूल न हों; जो रणयुक्ति निश्चित करें वह समर-नीति के अनुकूल हो, इसके विपरीत न हो; जो समरनीति निर्धारित करें वह समर नीति के अनुरूप और उसकी पोषक हो; समर नीति तात्कालिक लक्ष्यों की पूर्ति की ओर ले जाने वाली हो, किसी भी प्रकार उसके मार्ग में बाधक न हो। ये तात्कालिक लक्ष्य अंतिम लक्ष्य की ओर हमें अग्रसर करने वाले हों और अंतिम लक्ष्य अपने अधिष्ठान अथवा विचारधारा की ओर उन्मुख हो।

विचारधारा

इन सब बातों के बारे में निर्णय करना एक ही विषय के अलग-अलग पक्ष हैं। सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। कल के जलूस में सम्मिलित होना है या नहीं, यह प्रश्न भी कार्यक्रम से लेकर विचारधारा तक सारी बातों के विचार से बँधा हुआ है, अपने में कोई एक अलग वस्तु नहीं। इसी प्रकार छोटी-सी प्रवेश द्वार बैठक (गेट मीटिंग) का संबंध भी ऊपर की विचारधारा तक जुड़ा हुआ है। तो आइए, अब हम अपने इस अधिष्ठान अर्थात विचारधारा पर विचार करें। अपनी विचारधारा को किसी एक शब्द में बाँधना बड़ा कठिन है। फिर भी बोलने की सुविधा के लिए पंडित दीनदयालजी द्वारा प्रयुक्त शब्द 'एकात्मक मानववाद' (इंटीग्रल ह्यूमैनिज्म) का मैं यहाँ प्रयोग करना चाहूँगा। हमारी विचारधारा बहुत विस्तृत है। विविधता में एकता का साक्षात्कार करने की इसमें अपार क्षमता है। हमारी महान और समृद्ध संस्कृति से यह उपजी है। इस कारण भी इसे दो-एक शब्दों में बाँधना बहुत कठिन हो जाता है। आर्नाल्ड टायनबी जैसे व्यक्ति ने कहा है कि संसार आज विनाश के कगार पर खड़ा है। परमाणु शस्त्रास्त्रों का भंडार बढ़ता जा रहा है। संसार को बचाने का काम भारत ही कर सकता है। उनका कहना है कि भारत विश्व की एक छोटी प्रतिकृति है। विश्व में जितने प्रकार के भेद हैं, वे सारे के सारे हिंदुस्तान में भी हैं। किंतु हिंदुस्तान की संस्कृति में एक क्षमता है, अनेकताओं में एकता अथवा भेदों में अभेद 'यूनिटी इन द मिड्स्ट आफ डाइवर्सिटीज'। अतः इन भेदों की विविधता के पीछे एक बृहद् एकात्मता का साक्षात्कार कराने वाली यह जो संस्कृति है, उसके आधार पर भारत अपनी समस्याएँ सुलझाने में तो समर्थ है ही, संसार भर की समस्याएँ सुलझाने और किस प्रकार अपने भेदों, विरोधों और झगड़ों को सारा संसार दूर करे, इसका व्यावहारिक मार्गदर्शन करने का भी सामर्थ्य रखता है। विश्व-शांति का मार्ग भारतीय संस्कृति ही दिखा सकती है।

तो विश्व की सुख-शांति और मर्यादा का संदेश हमारी यह भूमि और हमारी यह संस्कृति ही दे सकती है। इसी भूमि को परम वैभव तक ले जाना हमारा चरम लक्ष्य है।

यह लंबा ध्येय एकाएक प्राप्त नहीं हो सकता। निकट भविष्य में प्राप्त करने की वस्तु क्या है? वह है चेतना-स्तर (लेवल आफ कॉनशसनेस)। समाज का चेतना-स्तर जितना ऊँचा होगा, हम उतना ही अपने ध्येय के निकट पहुंचेंगे। हमें ऊँचे चेतना-स्तर के लोगों का संगठन बनाना और बढ़ाना है। यह सभी जानते हैं कि सरकार के भरोसे बहुत कुछ नहीं हो सकता। सरकार राजदंड के द्वारा शायद थोड़ा बहुत कर सकती है। शेष सारा कुछ स्वायत्त और राष्ट्रीय चेतना से प्रेरित जन-संगठन ही कर सकते हैं। ऐसे जन-संगठन वैकल्पिक सत्ता-केंद्र (आल्टरनेट पावर सेंटर) भी बन सकते हैं। राष्ट्रीय-चेतना से प्रेरित जन-संगठन राज्य-सत्ता पर भी अपना प्रभाव और दबाव डाल सकते हैं, और इस प्रकार राज्य-सत्ता पर एक सशक्त नैतिक अंकुश रह सकता है। राष्ट्रीय चेतना से युक्त जन-सेगठनों की भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में आवश्यकता है। इसी दृष्टि से भारतीय मजदूर संघ, मजदूर क्षेत्र में काम कर रहा है। इस प्रकार के जन-संगठनों का निर्माण हमारा एक तात्कालिक लक्ष्य है। हर एक जन-संगठन अपने सदस्यों के हितों की रक्षा करे; उनकी शक्ति का रचनात्मक उपयोग राष्ट्र-निर्माण के लिए हो, ऐसी व्यवस्था करे और सरकार के साथ, उसकी नीतियों को देखकर, सहयोग या असहयोग करे। इस प्रकार स्वयं एक वैकल्पिक शक्ति केंद्र बने और ऐसे सभी शक्ति केंद्रों के साथ अंतिम लक्ष्य की ओर आगे बढ़े। यह हमारा एक तात्कालिक लक्ष्य है।

'एकात्मक मानववाद' यह सूत्र है जो भारत को परम वैभव तक ले जाने के उच्च और पुनीत ध्येय को एक प्रवेश-द्वार बैठक जैसी छोटी सी बात से जोड़ता है।

एकात्मक मानववाद एक विचार है। इस समग्र विचार को ध्यान में रखकर सभी छोटी-बड़ी बातों के बारे में निर्णय लेना होगा। एक में से एक निर्णय निकलता है, इसीलिए ऊपर विचारधारा (आइडिऑलाजी) से नीचे कार्यक्रम (प्रोग्राम) तक का क्रम है। इसका प्रत्येक सोपान दूसरे से जुड़ा हुआ है। यह हमारा विचार नहीं, विचार करने की शैली है। विचार तो अलग-अलग हो सकते हैं। विचार-भेद और मत-भेद कई कारणों से हो सकते हैं। स्वप्रेरणा से मनुष्य कितना काम करेगा, उसके लिए पूरी छूट या स्वतंत्रता रहे या उसे अनुशासन में बाँधा जाए, यह बात भी पहले उठ चुकी है।

कई कारणों से मतभेद हो सकते हैं। हाँ, विचारधारा के विषय में स्वतंत्रता नहीं है; जिनको हमारी विचारधारा स्वीकार है, वही हमारे साथ आएँ। कोई कहता है 'मुझे मार्क्सवाद अच्छा लगता है, भारतीयता आदि सब झूठ है।' तो हम कहेंगे, 'मत आओ। कल आना। या पंक्ति में लगो। यह निश्चित है कि आज नहीं तो कल आओगे। जाओगे कहाँ?' तो इस बारे में कोई समझौता नहीं, कोई छूट नहीं।

इस राष्ट्र को परम वैभव तक ले जाना चरम लक्ष्य है। इसमें समझौता या छूट कदापि नहीं। ऐसा है तो रूस के पिछलग्गू बनें या अमेरिका के, यह विचार आ ही नहीं सकता। अपने राष्ट्र भारत को प्रथम श्रेणी का राष्ट्र बनाना है तो हम किसी के भी अनुगामी या अनुयायी कैसे रह सकते हैं? अंग्रेजों ने और रूस ने क्या सारे संसार का नेतृत्व करने का ठेका लिया है? हाँ, अंतिम लक्ष्य निश्चित होने के बाद आज की परिस्थिति के अनुकूल तात्कालिक लक्ष्य क्या हो, इसके बारे में चर्चा होनी चाहिए। और चर्चा होकर ही निश्चित हुआ है कि भारतीय मजदूर संघ बनाना, उसको बढ़ाना, सामयिक या तात्कालिक लक्ष्य है। यह बात खुलकर चर्चा और वाद-विवाद (बहस) होकर ही निश्चित हुई है। भारतीय मजदूर संघ बनाने और उसे बढ़ाने में कितनी बाधाएँ आयीं, आप लोगों को पता होगा। शायद बहुतों को पता है और बहुतों को नहीं।

जिस समय जनता पार्टी आई शासन में, तो समाजवादियों (सोशलिस्टों) ने अत्याधिक दबाव लाया कि भारतीय मजदूर संघ, हिंद मजदूर सभा और हिंद मजदूर पंचायत, तीनों मिलकर एक संगठन बनाया जाए। साथ ही लालच भी दिखाया गया। मुझसे कहा गया कि 'ठेंगड़ी जी! यदि एक दल हो जाएगा तो शक्ति बढ़ जाएगी और इस संयुक्त शक्ति का नेता आपके अतिरिक्त कोई दिखाई नहीं देता। तो आप छोटे समूह के साथ बढ़ना चाहते हैं या बड़े समूह के साथ,' इस पर मैंने बताया कि 'भाई, मैं नेता कहाँ हूँ, भारतीय मजदूर संघ ने निकाल दिया है, किसी पद पर रखा नहीं है' इस पर कहने वाले व्यक्ति को, जो मंत्री थे, थोड़ा आश्चर्य हुआ। पूछा, "यू आर नॉट आफिस बेअरर ऑफ बी.एम.एस.?" (आप भारतीय मजदूर संघ के पदाधिकारी नहीं हैं?) कहने लगे, 'तो बी.एम. एस. वाले आपकी बात सुनते कैसे हैं? क्योंकि हमारी एच.एम.एस. में तो जनरल सेकेट्री की बात भी मानी जाएगी, इसकी कोई गारंटी नहीं।'

यहाँ हमारे भारतीय मजदूर संघ में कोई पूछता ही नहीं कि कौन किस पद पर है। सबके सामने तात्कालिक लक्ष्य स्पष्ट है। भारतीय मजदूर संघ के समान ध्येयनिष्ठा, कुछ रीति-नीति, मर्यादा, ध्येय, आदर्शवाद, इन सब बातों को लेकर चलने वाले समूह या टोली को हमें बढ़ाना है। केवल संस्था का आकार, सदस्यता, फैलाव आदि नहीं बढ़ाना है। हमें गुणवत्ता (क्वालिटी) भी बढ़ाना है। गुणवत्ता को खोकर हम आगे बढ़ना नहीं चाहते। गुणवत्ता को बनाए रखते हुए संख्या बढ़ानी है। पानी में चीनी डाल कर शरबत को बढ़ाना है। केवल पानी बढ़ाकर फीका शरबत बढ़ाना हमारा उद्देश्य नहीं है। चीनी की मिठास को बनाए रखते हुए पानी बढ़ाना है। गुणवत्ता बनाए रखते हुए संख्या बढ़ाना है। हिंद मजदूर सभा, हिंद मजदूर पंचायत आदि के साथ जाने से शरबत में केवल पानी ही पानी बढ़ेगा, मिठास समाप्त हो जाएगी।

तो तात्कालिक लक्ष्य अर्थात भारतीय मजदूर संघ को बनाना और बढ़ाना। इसके नीचे नीतियाँ, फिर समर-नीति, समर-युक्ति और अंत में कार्यक्रम। यह जो एक चिंतन-क्रम है, उसमें से, जैसा मैंने पहले कहा है, अंतिम लक्ष्य के बारे में विवाद के लिए स्थान नहीं। नीति के बारे में चर्चा अवश्य हो सकती है, समर-नीति के बारे में चर्चा हो सकती है। परंतु नीति के बारे में भी एक बात है। भारतीय मजदूर संघ को तोड़ना है, यह चर्चा का विषय नहीं हो सकता। किंतु संयुक्त मोर्चा हो या ना हो, यह चर्चा का विषय है। एक बार पूरी चर्चा करने के पश्चात निर्णय हुआ कि संयुक्त मोर्चा बनाना है, तो वह निर्णय सभी का है, यह सबको समझना चाहिए। यह मर्यादा है।

हो सकता है कि चर्चा या वाद-विवाद में कुछ लोगों ने कहा हो कि ऐसा मोर्चा नहीं चाहिए। दूसरे लोग राष्ट्रद्रोही हैं; इनके साथ हम कंधे से कंधा क्यों लगाएं? इस पर भी यदि रणनीति के नाते मोर्चे के पक्ष में निर्णय हुआ तो फिर जिन्होंने इसका विरोध भी किया होगा उन्होंने भी 'यह हमारा ही निर्णय है', ऐसा समझकर चलना और मानना होगा। यह नहीं कि थोड़ी सी गड़बड़ हुई तो कहना प्रारंभ कर दिया कि 'मेरी सुनता ही कौन है! आप लोग तो बड़े बुद्धिमान हैं, चतुर हैं, मैं तो पहले ही कहता था।' इस प्रकार की शिकायत और भाषा फिर नहीं होनी चाहिए। ये छोटे मन-मस्तिष्क की बातें हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। तो नीति या समर-नीति और रण-युक्ति के बारे में चर्चा हो तो वहाँ मतभेद खुलकर प्रकट हो सकते हैं। किंतु पूर्णतः चर्चा, वाद-विवाद होने के पश्चात जब निर्णय होता है तो अपने निजी मत को त्यागना ही होगा और जिसका आप विरोध भी करते हैं उसे भी अपना ही मत मानकर बहुमत का पूरा-पूरा आदर करना होगा। अर्थात सबका निर्णय ही अपना निर्णय है। उसके पालन करने का पूरी निष्ठा से प्रयास होना चाहिए।

इस प्रकार हमने देखा कि भारतीय मजदूर संघ की कार्य-प्रणाली में विचार और कर्म की स्वतंत्रता कितनी और कहाँ तक है तथा मर्यादाएँ कहाँ आती है।

आपके प्रश्न - हमारे उत्तर

प्रश्न - भारतीय मजदूर संघ का दावा है कि वह अधिकारों और कर्तव्यों पर समान बल देता है। श्रमिक आंदोलन सर्वत्र केवल श्रमिक वर्ग के अधिकारों से संबंधित है। इस संबंध में अपनी नीति लीक से हटकर प्रतीत होती है।

उत्तर - आपको विदित है कि विभिन्न सामाजिक संगठनों के कर्तव्यों तथा नियमावली के रूप में हमने भारतीय श्रमिकों का माँग-पत्र प्रस्तुत किया है। प्रत्येक अधिकार के अनुरूप एक कर्तव्य होता है और प्रत्येक कर्तव्य के अनुरूप एक अधिकार होता है। भारतीय संस्कृति के अनुसार अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पार्श्व हैं। टी.एच. ग्रीन ने अधिकारों की परिभाषा की है - "वे शक्तियाँ, जो नैतिक प्राणी के नाते मनुष्य के व्यवसाय की पूर्ति के लिए आवश्यक हों। मैककुन के अनुसार, "अधिकार नागरिक के सच्चे विकास के लिए अपरिहार्य सामाजिक कल्याण की कतिपय लाभप्रद शर्तें हैं।" लास्की के विचार में अधिकार जीवन की वे स्थितियाँ हैं, जिनके बिना कोई व्यक्ति अपने सर्वोच्च विकास के लिए सामान्य रूप से प्रयास नहीं कर सकता। अंतिम परिभाषा हमें प्रसिद्ध उक्ति 'योगः कर्मसु कौशलम्' का स्मरण दिला देती है।

कोई व्यक्ति अपनी सर्वोत्तम और अधिकतम क्षमता का प्रदर्शन तभी कर सकता है जब वह अपनी आंतरिक इच्छा के अनुसार कर्तव्य का पालन करे। केवल इसी उपाय से ग्रीन की 'पूर्ति' को और मैककुन के 'सच्चे विकास' को प्राप्त किया जा सकता है। एन. बाइल्ड ने कहा है, "कर्तव्यों के संसार में ही अधिकारों का महत्त्व है।" अधोगामी वृत्ति वालों को अधिकार भाते हैं और ऊर्ध्वगामी वृत्ति वालों को कर्तव्य। 'अधिकार' की भाषा एक ऐसे विशिष्ट नागरिक के पूर्णतया पृथक अस्तित्व की पूर्व-कल्पना कर लेती है जिसे समाज के विरुद्ध अपने अधिकार का प्रदर्शन करना है। किंतु ए.डी. लिंडसे ने कहा है, "कोई भी व्यक्ति न तो निरा व्यक्तिवादी हो सकता है और न ही निरा समाजवादी, क्योंकि व्यक्ति और समाज एक दूसरे पर प्रभाव डालते हैं और एक दूसरे पर निर्भर हैं।"

समाज और व्यक्ति का संबंध वैसा ही है जैसा कि शरीर और उसके विभिन्न अंगों की। संस्कृति के क्षेत्र में पश्चिम हमारे राष्ट्र से कोसों पीछे है, अत: वे कर्तव्यों के बिना अधिकारों पर बल देकर अपनी पिछड़ी मनोवृत्ति का परिचय देता है। परिपक्व होने के नाते विदित है कि यदि हर व्यक्ति अपने सामाजिक दायित्व पूरे करता है तो सभी व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा तो स्वयंमेव हो जाती है। किंतु इसके विपरीत, यदि अपने कर्तव्य की अवहेलना करने की वृत्ति पनपने लगे तो सभी के अधिकार सदा ही असुरक्षित रहेंगे।

प्रश्न - आपका यह कथन हास्यास्पद प्रतीत होता है कि भारतीय मजदूर संघ राजनीति से पूर्णतया विमुख है। राजनीति तो सर्वत्र छायी हुई है। जीवन का कोई भी क्षेत्र उससे अछूता नहीं है। राजनीति से कोई पूर्णतया विमुख कैसे हो सकता है?

उत्तर - संगठन विमुख हो सकता है। राजनीति-विज्ञान का संबंध 'राज्य' के मूल सिद्धांतों, उसके मूल स्वरूप, उसके रूपों अथवा उसकी अभिव्यक्तियों और उसके विकास से है। अरस्तु राजनीति को 'विज्ञान' की श्रेणी देने वाले प्रथम व्यक्ति थे। जैसा कि गार्नर ने कहा है, "राजनीति-विज्ञान का आदि और अंत दोनों राज्य के साथ होते हैं।" डॉ. लीकाक के अनुसार, "राजनीति-विज्ञान केवल सरकार का अध्ययन करता है।" गैरीस का विचार है, "राजनीति-विज्ञान राज्य को, उसके सम्बन्धों, उसकी उत्पत्ति, उसकी रचना, उसके उद्देश्य, उसके नैतिक महत्त्व, उसकी आर्थिक समस्याओं के, उसके अस्तित्व, उसके वित्तीय पक्ष, उसके लक्ष्य व समग्र परिप्रेक्ष्य में, शक्ति-संस्थान का रूप मानता है।" प्रो. सीले का कथन है, "राजनीति-विज्ञान प्रशासन-प्रपंच का उसी प्रकार तथ्यान्वेषण (पड़ताल) करता है, जिस प्रकार राजनीतिक अर्थशास्त्र धन का, जीव-विज्ञान जीवन का, अंकगणित अंकों का तथा रेखागणित स्थान और क्षेत्र की व्यापकता का विवेचन करते हैं।

भारतीय मजदूर संघ का राज्य से क्या लेना-देना, वह तो समाज अथवा राष्ट्र का साधन मात्र है।

प्रश्न - आप राज्य और समाज में भेद करते हैं। वह कृत्रिम है।

उत्तर - नहीं। भेद तो शत-प्रतिशत वास्तविक है। आधुनिक युग में समाज-विज्ञान का विकास हुआ है। जैसा कि गिलक्राइस्ट ने कहा है, "समाज-विज्ञान तो समाज का विज्ञान है और राजनीति-विज्ञान राज्य अथवा राजनीति समाज का विज्ञान है।" समाज-विज्ञान मानव का सामाजिक प्राणी के रूप में अध्ययन करता है। समाज, समुदाय के भीतर संगठित संस्थाओं और संस्थानों का समूह है। जिस 'भेद' का उल्लेख आप कर रहे हैं वह तो स्पष्ट रूप में क्रेकबरी ने किया है। उसने कहा है, "जहाँ समाज-विज्ञान सामान्य समूहों के गठन और संचालन पर विचार करता है, वहाँ राजनीतिक सिद्धांत अपना ध्यान एक समूह-विशेष अर्थात राज्य पर केंद्रित करता है।"

प्रश्न - अच्छा, अब मैं इस बारे में अधिक तर्क-वितर्क नहीं करूँगा, किंतु मेरा विश्वास है कि आधुनिक राजनीति जीवन की जानकारी रखने वाला कोई भी स्थिरमना व्यक्ति आपके इस कथन से सहमत नहीं होगा कि राष्ट्र राज्य से भिन्न है।

उत्तर - हम बहुधा इस बात को स्पष्ट करते रहे हैं। यह कोई निराली बात नहीं है। राष्ट्रीय राज्यों की दशा में भी दो संकल्पनाओं के बीच कार्य पर आधारित विभाजन है। सरकार और प्रभुसत्ता राज्य-संकल्पनाओं के अपरिहार्य तत्त्व हैं। किंतु राष्ट्र की संकल्पना के लिए ये तत्त्व इतने अपरिहार्य नहीं हैं। कार्यमूलक भेद वहाँ भी विद्यमान हैं।

'वी ओर आवर नेशनहुड डिफाइड' (हमारी अथवा हमारे राष्ट्रत्व की परिभाषा) नामक अपनी कृति में श्रद्धेय श्री गुरुजी ने इन दो संकल्पनाओं के भेद को स्पष्ट किया है। योगी अरविंद ने प्रखर शब्दों में कहा है कि राज्य राष्ट्र है ही नहीं। 'नेशनैलिटी एंड इट्स प्रॉब्लम्स' (राष्ट्रीयता तथा उसकी समस्याएँ) में हमें बताया गया है कि "राष्ट्रीयता की संकल्पना को राज्य की संकल्पना से पृथक किया जाना चाहिए। वे भिन्न आवश्यकताओं को पूरा करते हैं, भिन्न कर्म करते हैं। उनका बलपूर्वक अस्वाभाविक गठबंधन करना पाप है: तर्क और अनुभव को झुठलाना है। इससे अत्याचार, घृणा और प्रतिशोध जन्म लेंगे। ये रोग आज संसार को चट कर रहे हैं और वे भी कैसे चिकित्सक हैं जो विजातीय द्रव्यों का पोषण करके रोग को भगाना चाहेंगे!" हैन्स कोहन का विचार है कि "राष्ट्रीयता के संवर्धन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण बाह्य लक्षण समान प्रदेश है, न कि राज्य।"

झिमर्न के अनुसार, "धर्म की भाँति राष्ट्रीयता आत्मपरक है, राज्यत्व विषयपरक; राष्ट्रीयता मनावैज्ञानिक है, राज्यत्व राजनीतिक; राष्ट्रीयता मानसिक अवस्था है, राजत्व विधिपरक अवस्था; राष्ट्रीयता आध्यात्मिक थाती है, राज्यत्व प्रवर्तन योग्य दायित्व है; राष्ट्रीयता अनुभव, चिंतन और जीवन की पद्धति है, राज्यत्व एक ऐसी दशा है जिसे संपूर्ण सभ्य जीवन-पद्धति से अलग नहीं किया जा सकता।"

राष्ट्र-निर्माता राज्य संस्था को सीमित महत्त्व देते हैं। राज्य-तंत्र के प्रति उनका दृष्टिकोण श्री अरविंद के इन विचारों में भली-भाँति परिलक्षित होता है - "भले ही प्रशासन-तंत्र सुगठित हो और उच्चतर बौद्धिक तथा नैतिक स्तर वाला हो, फिर भी राज्य का वह स्वरूप नहीं होगा जिसकी कल्पना अपने बारे में राज्य-संकल्पना करती है। सैद्धांतिक रूप से, यह समुदाय की सामूहिक बुद्धिमत्ता और शक्ति है जो लोक-कल्याण के लिए संगठित एवं उपलब्ध करायी जाती है। इंजन को नियंत्रण में रखने और ट्रेन को चलाने के लिए समुदाय की उतनी ही बुद्धि और शक्ति उपलब्ध हो पाती है जो राज्य-संगठन के तंत्र-विशेष की छलनी से छनकर प्राप्त हो सके, क्योंकि वह तंत्र के चक्कर में फँस जाती है। तंत्र उसमें बाधा डालता है और आपत्-स्थिति में उसमें ढेर सारे अवगुण और स्वार्थ-प्रेरित दुर्बलताएँ आ जाती हैं। वे भी बाधक होती हैं।

निस्संदेह परिस्थितियों के अधीन इससे अच्छा नहीं किया जा सकता और सदा की भाँति प्रकृति उनका सर्वोत्तम सदुपयोग करती है। किंतु स्थिति कहीं अधिक विकट हो जाएगी यदि जिन क्षेत्रों में राज्य कुछ नहीं कर सकता, उनमें व्यक्तिगत प्रयासों के लिए स्थान न रखा जाए। जिस क्षेत्र में काम करने के लिए राज्य के पास बुद्धि अथवा साहस नहीं है, उसमें श्रेष्ठ व्यक्तियों की निष्ठा, शक्ति और आदर्शवाद का सहारा लिया जाए। जिसे सामूहिक रूढ़िवादिता और मूढता या तो अधूरा छोड़ देगी या जिसका वह तत्परता से दमन और विरोध करेगी। व्यक्ति की यह शक्ति ही वास्तव में सामूहिक उन्नति का वास्तविक साधन है।

राज्य की कोई आत्मा नहीं होती। होती भी है तो नितांत अल्प-विकसित। यह सैनिक, राजनीतिक और आर्थिक शक्ति है। किंतु जहाँ तक उसकी बौद्धिक और नैतिक शक्ति का संबंध है, वह यदि होती भी है तो अविकसित और अत्यल्प मात्रा में। और दुर्भाग्य से अपनी अविकसित बुद्धि का मुख्य उपयोग राज्य यह करता है कि वह मनगढ़ंत बातों, सस्ते लुभावने नारों और हाल ही में पनपे राज्य-दर्शन से अपनी कुपोषित नैतिक चेतना को कुंठित करता है।

निश्चित ही राज्य उदात्त रूप से कार्य नहीं करेगा। उसमें यह योग्यता नहीं कि वह सदा अपेक्षित, स्वतंत्र रूप से समायोजन करके, बुद्धि लगाकर सहज रूप से ऐसा कार्य कर सके जो स्वाभाविक प्रगति के लिए उपयुक्त हो, क्योंकि राज्य चेतन जीव नहीं है। वह ऐसा निष्प्राण तंत्र है जिसमें न कौशल है, न संवेदनशीलता और न अंतर्दृष्टि। वह तो बंधे बंधाए ढर्रे पर निर्माण करता है, परंतु मानवता तो कुछ करके दिखाना चाहती है। वह विकास और सुजन करना चाहती है।" सार यह है कि इस दृष्टि से भातीय मजदूर संघ अच्छी संगति में रह रहा है।

प्रश्न - आपने प्रायः कहा है कि कम्युनिस्ट देश भी राष्ट्रवादी होते जा रहे हैं। क्या उन देशों में 'राष्ट्रवाद' शब्द प्रचलित हो गया है,

उत्तर - एमिल लेंगेल हमें सूचित करते हैं कि यद्यपि राष्ट्रवाद रूस, चीन तथा पूर्वी यूरोप के कम्युनिस्ट समूह में प्रधान भाव बन गया है, फिर भी उस क्षेत्र में यह लोकप्रिय शब्द नहीं बन पाया है। इस विसंगति का कारण यह हो सकता है कि हिंसक और अनास्थावादी फासिज्म ने राष्ट्रवाद का दैवीकरण करके उसे मूर्ति-पूजा के सिंहासन पर बैठा दिया था। कम्युनिस्टों के अनुसार उसने ऐसे जातीय राष्ट्र का निर्माण कर डाला जो दावा करता था कि उनका रक्त, उनकी संस्कृति और उनकी ऐतिहासिक परंपरा अन्य सभी से उच्च है। फासिस्टों के राष्ट्रवाद का पारदर्शी रूप उन राष्ट्र-भक्तों के रूप में दीख पड़ा, जिन्होंने स्वेच्छा से युद्धों में चरम बलिदान किया। निश्चय ही चरम बलिदान तो सभी राष्ट्रिकों के लिए यह होता कि वे राष्ट्रीय देव-प्रतीक, राष्ट्रदेव की वेदी पर सामूहिक रूप से अपनी बलि चढ़ा देते। हो सकता है कि इस प्रकार कम्युनिस्ट जगत में 'राष्ट्रवाद' शब्द को दूषित अर्थ ग्रहण करना पड़ा। समसामयिक कम्युनिज्म ने उसके स्थान पर 'देशभक्ति' शब्द अपनाया।

कम्युनिज्म जगत में इस शब्द का विचित्र इतिहास है। प्रारंभ में तो यह अपमानजनक शब्द था। वह विरोधी शक्तियों का गुणवाचक था। चूँकि पश्चिम के समाजवादियों को अंतरराष्ट्रीयतावादी नहीं माना जाता था, कम्युनिस्ट उन्हें 'सामाजिक देशभक्त' कहकर उनकी निंदा करते थे। 'देशभक्त' और 'देशभक्ति' शब्द भावशून्य, आडंबरपूर्ण, छाती पीटने वाले संकीर्ण मूल्यों का परिचय देते थे। साथ ही चरम दक्षिणपंथी भी देशभक्ति का गुणगान करते थे। वह उच्च प्रकार के राष्ट्रवाद का द्योतक था, जहाँ राष्ट्र पितृ-भूमि का स्थान लेता है जो अंतिम आश्रयस्थल और पूर्ण तादात्म्य है। शब्दकोश के अनुसार देशभक्त "जो अपने देश से प्रेम करता है और तन, मन, धन से उसके प्राधिकार और हित का समर्थन करता है।" इसके उपरांत कम्युनिस्टों ने अपने राजनीतिक-सामाजिक प्रवृत्ति के निरूपण के लिए 'देशभक्ति' शब्द को अपनाया है। पर सामान्य प्रकार से उसका विभेद करने के लिए वे इसे 'समाजवादी देशवादी' कहते हैं।

यह स्वाभाविक है कि नामकरण या शब्दावली के चयन में पिछली चिंतनधारा या वर्तमान पूर्वाग्रहों का प्रभाव पड़ सकता है, किंतु आशय में कोई परिवर्तन नहीं होता। सभी कम्युनिस्ट देशो ने राष्ट्रवाद को अपनाया है। इसका कोई महत्त्व नहीं कि वे उसे राष्ट्रवाद कहें, देशभक्ति कहें या सामाजिक देशभक्ति। लेगेल ने सूचित किया है कि अंतरराष्ट्रवाद रूसियों का सरकारी धर्म है और एक पीढ़ी तक कम्युनिस्ट इंटरनेशनल 'कामिण्टर्न' - 'मास्को इंटरनेशनल' चला। दूसरे महायुद्ध में कामिण्टर्न भंग कर दिया गया। उसका अल्प महत्त्वाकांक्षी सहोदर कम्युनिस्ट सूचना विभाग 'कामिनफार्म' भी अल्पजीवी रहा। तब से मास्को में कोई 'इंटरनेशनल' नहीं रहा।

राष्ट्रवाद समूचे कम्युनिस्ट जगत पर छाया हुआ है।

प्रश्न - आपने पश्चिम के 'वादों' में से किसी को भी स्वीकार नहीं किया है, किंतु अभी तक अपनी परिकल्पना की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की भी कोई निश्चित रूपरेखा प्रस्तुत नहीं की है। यह तो नितांत नकारात्मक दृष्टि है।

उत्तर - आवश्यक नहीं कि ऐसा ही हो। संभवतः आपने यह धारणा बना ली है कि कम्युनिस्टों के पास आदर्श सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की कोई मानक सर्वोपयोगी रूपरेखा है। ऐसा है नहीं। जैसाकि लेनिन ने कहा है; कार्ल मार्क्स ने समाजवाद के अर्थशास्त्र के बारे में एक भी शब्द नहीं लिखा। जब रूस में कम्युनिस्ट सत्तारूढ़ हुए, उसके बाद स्वातंत्रय-वीर सावरकर ने पूछा कि रूस की सामाजिक व्यवस्था की कोई रूपरेखा क्या उनके पास है तो लेनिन ने उत्तर में केवल यह कहा था कि राज्य-तंत्र पर अधिकार होने के बाद जब क्रियान्विति करने का चरण आता है, उसके बाद ही प्रयोग और भूल सुधार विधि से रूपरेखा क्या है वह उभरकर आती है और प्रारंभिक अवस्था में तो नई व्यवस्था के लिय मार्गदर्शी सिद्धांत ही निर्धारित किए जा सकते हैं; मार्क्स उन्हें निर्धारित कर ही चुके हैं। लेनिन के लिए प्रारंभिक अवस्था में कम्युनिज्म का अर्थ यह था कि रूस का सोवियतीकरण और विद्युतीकरण किया जाए। वह उसकी व्यावहारिक दृष्टि थी। भारत के कम्युनिस्ट तो लकीर के फकीर हैं। इस संदर्भ में स्वंय मार्क्स का दृष्टिकोण क्या था? पूल्फगैंड ल्योनार्द ने अपने 'थ्री फेसेज ऑफ मार्क्सिज्म' (मार्क्सवाद की तीन आकृतियाँ) में इसे इस प्रकार स्पष्ट किया है।

"जहाँ तक इन चरणों के विस्तृत विवेचन और विशिष्ट व्यावहारिक समस्याओं के समाधान का संबंध है, मार्क्स और एंजेल्स ने किसी चर्चा की आवश्यकता नहीं समझी, क्योंकि वे इसे कल्पनारम्य चिंतन मानते थे। "श्रमजीवी लोगों के पास जनता को बताने के लिए कोई भी पूर्व-निर्मित (रेडीमेड) 'यूटोपिया' नहीं है" - मार्क्स ने घोषणा की। उन्हें "कोई आदर्श प्राप्त नहीं करने होते, बल्कि नए समाज के उन तत्त्वों को मुक्त करना होता है जो पुराने ढहते हुए बुर्जुआ समाज के गर्भ में पलते रहते हैं।" यह कम्युनिस्टों का काम नहीं है कि वे "भावी समाज के संगठन हेतु आदर्श प्रणालियों का सृजन करें, विवरण के प्रश्नों का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इस बारे में कल्पना के घोड़े दौड़ाना कि भावी समाज भोजन और आवास के वितरण की व्यवस्था किस प्रकार कर सकता है, सीधा आदर्श राज्य का विषय बन जाता है।" भावी कम्युनिस्ट समाज के लोग "इस बात की धेला भर भी परवाह नहीं करेंगे कि आज हम इस बारे में क्या सोचते हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए।"

भारत के जो कम्युनिस्ट हमारी रूपरेखा (ब्लू प्रिंट) के बारे में पूछते हैं, उन्हें शायद मार्क्स के इन विचारों का ज्ञान नहीं है।

प्रश्न - आपके इस कथन का तात्पर्य है कि माओ ने मार्क्सवाद का चीनीकरण करने का प्रयास किया?

उत्तर - माओ विकास के एक चीनी आदर्श के फेर में थे। प्रगति की लंबी छलाँग, समाजवादी शिक्षा आंदोलन और सांस्कृतिक क्रांति इस दिशा में प्रयोगरत थे। उनके अधिकांश विचार शत-प्रतिशत चीनी थे, यथा-मानव प्राणियों का पूरणीयतावाद, ब्रह्मांड-विज्ञान संबंधी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद, आत्म-निरीक्षण के माध्यम से खेती। चीनी नमूने पर वह वैकल्पिक विज्ञान, वैकल्पिक प्रौद्योगिकी, वैकल्पिक देशज पद्धति और वैकल्पिक लोकतंत्र का विकास करना चाहते थे। वह समूची सभ्यता को उपभोक्तावाद से कहीं दूर ले जाना चाहते थे। वह चाहते थे कि 'टैक्नोक्रेटों' और 'मैनेजरों' का शासन न चले। वह इस संकल्पना पर अप्रसन्नता प्रकट करते थे कि व्यक्तिगत तथा सामूहिक स्वायत्तता, उत्पादन की शक्तियों को सौंपी जाए। वह सदा चीनी इतिहास और कथाओं से उदाहरण देते थे। यह सब मार्क्सवाद का 'चीनीकरण' ही तो था। चीनीकरण की इस प्रक्रिया को ही माओ के बाद के नेतृत्व ने उठाकर एक ओर फेंक दिया।

प्रश्न - आपका दावा है कि रूसी कम्युनिस्ट भी अभौतिकता में रुचि लेने लगे हैं? क्या आप इस पर प्रकाश डाल सकते हैं?

उत्तर - रूसी वैज्ञानिक दूरबोध, इच्छा-शक्ति द्वारा दूरस्थ वस्तुओं को हिलाना-डुलाना, मानव सहित जीवित प्राणियों के प्रभामंडल के छायाचित्र लेना, उपर्युक्त छायाचित्रकारी का देशज पर प्रयोग, मानसिक शक्ति द्वारा उपचार, पृथ्वीलोकेतर सभ्यता (अन्य ग्रहों पर), सम्मोहन द्वारा उपचार, अवचेतन में प्रतिभा-विमोचन, स्पर्श-दर्शन आदि विषयों पर अनुसंधान कर रहे हैं। उपर्युक्त विषयों वाले अनेक संस्थान सरकार द्वारा प्रायोजित हैं, जन-साधारण को उनका पता नहीं।

प्रश्न - यदि वर्तमान राजनीतिक दलों पर आपकी आस्था नहीं है तो ब्रिटिश लेबर पार्टी जैसा कोई श्रमिक-दल क्यों नहीं बना लेते?

उत्तर - आपका यह कथन सही नहीं है कि ग्रेट ब्रिटेन की लेबर पार्टी का प्रयोग भारत में अनुकरणीय है। हमारे अपने देश में ही हमने देखा है कि अहमदाबाद में यह प्रयोग असफल रहा है। जहाँ 'नेशनल लेबर आर्गनाइजेशन' ने अपने राजनीतिक मंच 'नेशनल लेबर पार्टी' का निर्माण किया था। श्री वी.वी. गिरि ने इंडियन लेबर पार्टी के गठन की घोषणा की थी। प्रयास विफल रहा। ग्रेट ब्रिटेन में औद्योगिक श्रमिकों का अनुपात भारत से कहीं अधिक है। वहाँ भी यह विचार सफल नहीं हो सका। लेबर पार्टी के गठन के पीछे भावना यह थी कि राजनीति में श्रमिक वर्ग की आवाज हो! श्रमिक अपने हितों का संरक्षण करना चाहते थे, किंतु श्रमिक-संघ आंदोलन की कोई सुस्पष्ट विचारधारा नहीं थी। श्रमिक-संघों ने राजनीति में प्रवेश का संकल्प किया। जिस संगठन ने पहला चुनाव अभियान चलाया, वह श्रमिक प्रतिनिधि समिति कहलाई। जब श्रमिक प्रतिनिधि समिति ने 25 संसद-सदस्य निर्वाचित करा लिए तो वे अपने आपको लेबर पार्टी कहने लगे। यह दल पश्चिम के अन्य दलों जैसा नहीं है। इसकी कोई स्पष्ट परिभाषित विचाराधारा नहीं है। उसके पास केवल समाजवाद की धुंधली संकल्पना है।

यह पूर्णतः व्यक्तिगत सदस्यता पर आधारित नहीं है। जब मैं उस देश की यात्रा पर गया तो मुझे बताया गया कि श्रमिक-संघों के माध्यम से उसके 80 लाख संबद्ध सदस्य थे, (जब कि श्रमिकों को विकल्प की छूट थी) और 8 लाख व्यक्तिगत सदस्य थे। मैंने यह शिकायत सुनी कि एक बार पद-ग्रहण करने के बाद लेबर पार्टी के मंत्री न केवल ब्रिटिश ट्रेड यूनियन कांग्रेस के संकल्पो की, बल्कि ब्रिटिश लेबर पार्टी के संकल्पों की भी अवहेलना करते हैं। सत्ता में आने के बाद वे उन्हीं नीतियों का अनुसरण करते हैं जो उन्हे 'वास्तविक' लगती हैं।

यह सोचना मिथ्या है कि उस देश के सभी श्रमिक लेबर पार्टी के समर्थक हैं।

इतिहास हमें बताता हैं कि 1884 के बाद से लगभग दो तिहाई मतदाता ब्रिटिश श्रमिक वर्ग के हैं। फिर भी कंजरवेटिव पार्टी की भाँति लेबर पार्टी कुल मतों के एक तिहाई से अधिक की आशा नहीं कर सकती। कभी-कभार ऐसा होता है कि मध्य वर्ग के 10 प्रतिशत से अधिक मत लेबर पार्टी को मिलते हैं, जबकि विरले अवसर ही ऐसे होते हैं जब श्रमिक वर्ग 40 प्रतिशत से कम मत लेबर पार्टी से इतर दल को मिले हों और अधिकांश चुनावों में मध्य वर्ग के एक तिहाई मत कंजरवेटिव के मतदाता-समर्थन का लगभग 50 प्रतिशत प्रतिनिधित्व करते हैं। मतदान की दृष्टि से देखा जाए तो मध्य वर्ग में श्रमिक वर्ग की अपेक्षा अधिक वर्ग-चेतना दिखायी देती है। सभी जानते हैं कि हाल के वर्षों में ब्रिटिश ट्रेड यूनियन कांग्रेस और लेबर पार्टी के बीच टकराव होता रहा है। अतः इस ब्रिटिश प्रयोग का यहाँ अनुसरण नहीं किया जाना चाहिए।

प्रश्न - देश के राजनीतिक जीवन में भारतीय मजदूर संघ की क्या भूमिका है?

उत्तर - आदर्श स्थिति में आशा है कि जन-संगठन राजनीतिक दलों के प्रभाव से मुक्त रहेंगे और उन पर दबाव डालने वाले समूहों तथा वैकल्पिक शक्ति केंद्रों के रूप में कार्य करेंगे। भारतीय मजदूर संघ भी यही भूमिका निभाएगा।

प्रश्न - क्या सभी औद्योगिक बीमारियों का एकमात्र उपचार श्रमिकीकरण है?

उत्तर - शायद कुछ लोगों के मन में यह भ्रांति है कि भारतीय मजदूर संघ सब औद्योगिक रोगों का उपचार श्रमिकीकरण बता रहा है। परंतु यह सही नहीं है। श्रमिकीकरण का महत्त्व हमने अवश्य बताया है, किंतु जैसे कम्युनिस्ट कहते हैं कि सभी औद्योगिक रोगों की एक ही औषधि है - राष्ट्रीयकरण, वैसा हम श्रमिकीकरण के बारे में नहीं कहते। भिन्न-भिन्न रोगों की भिन्न-भिन्न औषधियाँ होती हैं। हमने औद्योगिक स्वामित्व का स्वरूप निश्चित करने के लिए राष्ट्रीय आयोग की माँग की है जिसमें हमने स्पष्ट कहा है कि हम नहीं मानते कि विभिन्न उद्योगों के लिए स्वामित्व का एक ही प्रारूप उपयुक्त होगा। प्रत्येक उद्योग की अपनी विशिष्टताएँ हैं। उद्योग-विशेष की इन विशिष्टताओं तथा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की समस्त सामान्य आवश्यकताओं के प्रकाश में प्रत्येक उद्योग के लिए स्वामित्व का स्वरूप निर्धारित किया जाना चाहिए। इसके लिए एक राष्ट्रीय आयोग नियुक्त हो, जो उद्योग-विशेष के लिए विशेष प्रकार का स्वामित्व निर्धारित करने हेतु मापदंड या कसौटी निश्चित करने की समस्या पर विस्तार से विचार करे। उदाहरणार्थ - ब्रिटेन में किसी भी नए उद्योग के राष्ट्रीयकरण का निर्णय लेने से पूर्व निम्नलिखित बातों पर विचार करने की प्रथा है -

1. क्या उद्योग का स्वरूप आधारभूत प्रकार का है?

2. क्या उसका संचालन दक्षतापूर्वक नहीं हो रहा है?

3. क्या उसमें एकाधिकारवादी प्रवृत्तियाँ अंकुरित हो रही हैं?

4. क्या वह अस्वस्थ श्रमिक-सम्बन्धों से ग्रस्त है?

5. क्या वह अपने विकास के लिए पूँजी जुटाने में असमर्थ है?

ब्रिटेन में श्रमिक दल तक ने समय आने पर अनुभव किया कि:- (1) राष्ट्रीयकृत उद्योग निजी क्षेत्र के उद्योगों से अनिवार्यता: अधिक दक्ष नहीं हैं, (2) राष्ट्रीयकृत उद्योग भी एकाधिकारवादी बन सकते हैं, और (3) सार्वजनिक क्षेत्र में भी श्रमिक-संबंध उतने ही अच्छे या बुरे हैं जितने वे निजी क्षेत्र में प्रायः होते हैं।

यह अनुभव किया गया कि सही अर्थों में कोई भी उद्योग 'राष्ट्रीयकृत' नहीं किया जा सका। संसार में ऐसा कोई भी सरकारीकृत उद्योग नहीं है जो:-

(1) जन-नियंत्रण,

(2) जन-प्रशासन और

(3) जन-उत्तरदायित्व

की आधारभूत शर्तों को पूरा करता हो।

ब्लैकपो में श्रमिक दल के 60वें वार्षिक अधिवेशन (26-10-1961) में श्रम-भवन नीति संबंधी अपने स्वीकृत वक्तव्य में स्वामित्व के अन्य रूपों का भी सम्मानपूर्वक उल्लेख किया है -

"इन विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए निश्चय ही लोक-स्वामित्व के प्रति रूपों में विस्तृत अंतर रहेगा। हम इसे पहले से ही अनेक रूपों में विकसित होता हुआ देख सकते हैं, यथा - एक संपूर्ण उद्योग या व्यापारिक संस्था का राष्ट्रीयकरण, औद्योगिक समवायों में राज्य की भागीदारी के आधार पर सम्मिलित होना, राज्य के स्वामित्व में कार्यरत किसी प्रतिष्ठान का निजी संस्थानों से प्रतियोगिता करना, नगरपालिका व्यापार; और अंत में सहकारी स्वामित्व। सामाजिक स्वामित्व के इन सभी प्रकारों को एकाधिकार के संकट का सामना करने में, राष्ट्रीय लाभांश के न्यायपूर्ण वितरण का लक्ष्य प्राप्त करने में और सबसे महत्वपूर्ण - आर्थिक विकास की हमारी राष्ट्रीय योजना की सहायता करने में अपनी भूमिका निभानी है।"

संयुक्त राज्य अमरीका में श्रमिक-संघ आंदोलन सामान्यतः राष्ट्रीयकरण का विरोधी है। ए.एफ.एल. - सी.आइ.ओ. के वर्तमान (1980) प्रमुख लेन किर्कलैंड ने एक बार कहा, "कुल मिलाकर हम निजी समवायों से समझौता वार्ता करने में रुचि रखते हैं जिनमें मोटे रूप से न्यायालयों, आरक्षी बल, स्थल-सेना, नौ-सेना और हाइड्रोजन बम को नियंत्रित करने वाले (सरकारी) निगमों के ही समतुल्य सौदेबाजी करने की क्षमता होती है।" तथापि, व्यावहारिक कारणों से उन्होंने कुछ क्षेत्रों में राष्ट्रीयकरण को स्वीकार किया है।

हम कह चुके हैं कि हमारा दृष्टिकोण व्यावहारिक, लचीला और तन्य है। इतना ही नहीं, हमने तो प्रस्ताव में ही कह दिया है कि रूप (स्वामित्व) अनेक हो सकते हैं। उदाहरणार्थ - हमने कहा है कि विनियमित निजी उद्यम हो सकते हैं और पहले से अनेक पश्चिम देशों में निजी उद्यम विनियमित किए जा चुके हैं जिससे पश्चिमी देशों में पूँजीवाद का पारंपरिक प्रथागत स्वरूप ही बदल चुका है अतः इनका तो विनियमन किया जा सकता है। राष्ट्रीयकरण भी हो सकता है। पश्चिमी देशों में भी लोगों ने राष्ट्रीयकरण के लिए कुछ कसौटियाँ निर्धारित की हैं। केवल रूढ़िवादी स्वभाव के व्यक्तियों ने कहा है कि हर उद्योग का राष्ट्रीयकरण कर देना चाहिए। परंतु श्रमिक दल के बुद्धिमान लोगों ने, संतुलित लोगों ने, कुछ कसौटियाँ निश्चित कर दी हैं और उन्हीं के प्रकाश में उद्योगों के राष्ट्रीयकरण का प्रयास करते हैं।

भारत में भी हमारे लिए राष्ट्रीयकरण कोई नई बात नहीं है। यहाँ तक कि अतीत में भी हमारे यहाँ कुछ उद्योग राष्ट्रीयकृत थे, यथा - आपने सुना होगा कि विजयनगर साम्राज्य में खान उद्योग राष्ट्रीकृत थे, कौशेय (रेशम) उद्योग राष्ट्रीयकृत था। अतः राष्ट्रीयकरण हमारी राष्ट्रीय अर्थ-व्यवस्था के लिए कोई नई या अपरिचित बात नहीं है, वरन इसे एक अपरिहार्य बुराई के रूप में स्वीकार किया जाता था। सहकारीकरण भी हो सकता है। नगर बस सेवा, नगरपालिका के उद्यानों और अन्य नगरपालिका सेवाओं की ही भाँति का नगरपालिकाकरण हो सकता है। स्वनियोजित व्यक्यिों का भी विशाल क्षेत्र है। संयुक्त क्षेत्र हो सकता है। हमने उद्योगों के लोकतंत्रीकरण का उदाहरण प्रायः ही उद्धृत् किया है जिसके लिए उद्योग की अंश-पूंजी केवल निम्न आय वर्गों के लिए ही खुली रखी जाती है, यह भी हमने कहा है।

अतएव औद्योगिक स्वामित्व के अनेक रूप हैं और हमने कहा है कि राष्ट्रीय आयोग को किसी विशेष उद्योग की विशिष्टताओं और राष्ट्रीय अर्थनीति की समग्र आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर एक कसौटी निश्चित करनी चाहिए। किंतु इस सबके मध्य हमने यह कहा है कि श्रमिकीकरण की प्रक्रिया चलती रहनी चाहिए और श्रमिकीकरण की प्रक्रिया का अर्थ है श्रम का मूल्यांकन अंश (शेयर) के रूप में करना।

इस प्रकार हम मानते हैं कि प्रत्येक उद्योग के दो प्रकार के अंश हैं - धन के रूप में और श्रम के रूप में। और इस प्रकार, श्रम अंश प्रदान करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को अंशधारी (शेयर होल्डर) के स्तर पर लाया जाना चाहिए तथा इस रूप में उसे उद्योग के निर्णय लेने की संपूर्ण प्रक्रिया में भागीदार बनाना चाहिए। हमने कहा है कि वह सहभागी होना चाहिए, परंतु हमने यह भी कहा है कि श्रमिकीकरण की प्रक्रिया एक भिन्न अवस्था में, एक भिन्न कोटि में, एक भिन्न सीमा तक और औद्योगिक स्वामित्व के एक भिन्न प्रतिरूप के अंतर्गत होगी।

हमारे दृष्टिकोण में अक्खड़पन नहीं है। जहाँ तक किसी उद्योग को किसी व्यक्ति के निजी अधिकार से लेकर उसका राष्ट्रीयकरण करने का प्रश्न है, हम इसके विरुद्ध नहीं है, विचार केवल इतना ही करना है कि वैसा करने की आवश्यकता है या नहीं है। और करना क्या चाहिए, इसका निश्चय तर्कसंगत ढंग से किया जाना चाहिए। सभी राष्ट्रीयकरण अनुचित हैं और कोई भी राष्ट्रीयकरण अनुचित नहीं है तथा अनेक विकल्प भी हैं अतः हमारा मत सर्वथा व्यावहारिक है और हम श्रमिकीकरण पर बहुत अधिक बल दे रहे हैं। किंतु जैसे कम्युनिस्ट कहते हैं कि राष्ट्रीकरण सभी विकारों की एक ही औषधि है, हम श्रमिकीकरण को वैसा नहीं बताते। हमें स्वामित्व के सभी विभिन्न प्रतिरूपों का उपयोग करना होगा, परंतु श्रमिकीकरण को इस सबके मध्य उचित सम्मान प्रदान किया जाना चाहिए।

प्रश्न - भारतीय मजदूर संघ के 'माँग-पत्र' में जिस 'औद्योगिक परिवार' का विचार प्रस्तुत किया गया है, क्या हमने उसकी विशद रूपरेखा बना ली है? इस संबंध में जो कुछ कहा गया है वह मात्र एक रेखा-चित्र प्रतीत होता है, संपूर्ण रूपरेखा नहीं। यदि पूरे विवरण नहीं भी तो क्या कम से कम दिशा-निर्देश किया जा सकता है?

उत्तर - अपने राष्ट्रीय माँग-पत्र में हमने औद्यागिक स्वामित्व की समस्या पर अपने व्यावहारिक और लचीले दृष्टिकोण के ढाँचे के अंदर औद्योगिक परिवार की संकल्पना प्रस्तुत की है। आप उसके विस्तृत विवरण जानने को उत्सुक हैं, किंतु इस संबंध में मेरा कहना है कि उन्हें उचित अवस्था आने पर निर्धारित करना होगा। वह अवस्था अभी आई नहीं हैं। किंतु वैसा करते समय हम दो स्रोतों से सूत्र पकड़ सकते हैं। यूगोस्लाविया की 'संबद्ध श्रम-संकल्पना' का हमें इस संदर्भ में गंभीरता से अवलोकन करना चाहिए, यद्यपि प्रथम तो वह एक भिन्न परिवेश में लागू की जा रही है और यूगोस्लाविया भी कह रहा है कि उसका प्रयोग निर्यात के लिए नहीं है, तथा दूसरे, सब कुछ अभी प्रयोग की अवस्था में हैं, फिर भी युगोस्लाविया के प्रयोग में सीखने के लिए बहुत कुछ हैं।

दूसरा सूत्र यह है कि भारतीय मजदूर संघ द्वारा औद्योगिक संदर्भ में प्रयुक्त 'परिवार' शब्द हमारे सुपरिचित भारतीय परिवार से समानता का भी संकेत देता है। परंपरागत हिंदू संयुक्त परिवार या तो मिताक्षरा विधान के अंतर्गत आता है या दायभाग विधान के अंतर्गत। संदायादता (सह समांशिता - Coparcenary) संयुक्त परिवार का अंग हैं - अविच्छेद अंग। हिंदू संयुक्त परिवार संदसयादी (coparcenar) संयुक्त परिवार की संपत्ति में रुचि रखते हैं और अन्यों अर्थात असंदायादियों को केवल भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार होता है। आज के 'औद्योगिक परिवार' में सभी काम करने वाले - चाहे वे कामगार, प्रबंधक, प्रविधिज्ञ, या नियोजक, कुछ भी हों - स्वभावतः संदायादी होंगे तथा उनके परिवारों के सदस्यों की श्रेणी संयुक्त परिवार के असंदायादी सदस्यों के समतुल्य रहेगी जिन्हें केवल भरण-पोषण पाने का अधिकार है। संयुक्त परिवार या संदायदता की संपत्ति में वह सब संपत्ति सम्मिलित है जिसमें सदस्यों का संयुक्त स्वत्व (अधिकार) होता है। जैसा कि इसे प्रिवी कौंसिल ने प्रस्तुत किया है, "हिंदू विधि के सिद्धांतों के अनुसार एकीकृत परिवार के विभिन्न सदस्यों में संदायादत्व होता है और इसमें उत्तरजीविता आपन्न होती है। परिवार के सभी सदस्यों में 'हितों की सामुदायिकता' और 'स्वत्व की एकता' होती है तथा उनमें से किसी की मृत्यु होने पर अन्य उसी प्रकार उत्तरजीविता से उसे प्राप्त करते हैं। जिसमें मृतक के जीवनकाल में उनका संयुक्त हित और संयुक्त स्वत्व था।"

जब तक परिवार संयुक्त और अविभाज्य हो, मिताक्षरा संयुक्त परिवार की संपत्ति अपनी संपूर्णता में संपूर्ण परिवार की होती है। उसका केवल एक हित होता है जो विभाजन होने पर परिपक्व होकर विशिष्ट संपत्ति में परिणत हो सकता है। हिंदू संदायादता की विशेषताएं ये हैं - (1) न्यायिक अस्तित्व की एकता और (2) स्वामित्व की एकता। न्यायिक अस्तित्व की एकता का अर्थ यह है कि बाहरी जगत की दृष्टि से सभी संदायादी न्यायिक प्रयोजनों के लिए एक व्यक्ति के सदृश हैं, किसी एक सदस्य की मृत्यु से सामूहिक अस्तित्व में कोई बाधा नहीं आती। परिवार एक निगम की भाँति है, जिसका निरंतर अस्तित्व है। इसकी संरचना में जन्म, दत्तक-ग्रहण, विवाह और मृत्यु से अंतर आ सकता है, किंतु बाहरी व्यक्तियों की दृष्टि से यह एक व्यक्ति-सदृश्य ही माना जाएगा जिसका अलग वैधानिक सत्त्व है। बाहरी लोगों के संदर्भ में जहाँ यह स्थिति है, वहाँ सँदायादियों के अपने मध्य हितों की पूर्ण सामूहिक समता (सामुदायिकता) और स्वत्व की एकता रहती है। किंतु स्वामित्व की एकता का अर्थ यह है कि संयुक्त परिवार की संपत्ति संदायादियों के संपूर्ण निकाय में निहित है तथा जब तक परिवार अविभाजित रहता है, कोई भी अकेला सदस्य यह नहीं कह सकता कि उसका कोई निश्चित अंश है।

संरचना या गठन के मूलभूत सिद्धांत का जहाँ तक प्रश्न है, क्या भारतीय मजदूर संघ द्वारा परिकल्पित 'औद्योगिक परिवार' मिताक्षरा हिंदू संयुक्त परिवार को अपना आदर्श (माडल) बना सकता है, स्पष्ट है कि आनुरूप्य को बहुत दूर तक नहीं खींच ले जाना चाहिए। हमें आधारभूत सिद्धांत से प्रयोजन है, सूक्ष्म विवरणों से नहीं जो सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों और अवधारणाओं में होने वाले परिवर्तन के साथ परिवर्तनीय हैं। औद्योगिक वातावरण के परिप्रेक्ष्य में निर्धारित करना होगा। किंतु ऊपर प्रतिपादित आधारभूत सिद्धांत अपरिवर्तित रह सकता है।

यह भी उतना ही स्पष्ट हैं कि वर्तमान ढांचे से इस आदर्श स्थिति में रातोंरात कूदकर नहीं जाया जा सकता। यह केवल एक चरणबद्ध कार्यक्रम से ही संभव है। इस उद्देश्य के लिए दायभाग परिवार की संरचना-प्रतिरूप तुरंत उपयोगी होगी। यहाँ भी केवल आधारभूत सिद्धांत से ही हमारा संबंध है। दायभाग विधान में संदायादता का सार 'स्वत्व की एकता' हैं, 'स्वामित्व की एकता' नहीं, क्योकि स्वामित्व संदायादियों के संपूर्ण निकाय में नहीं हैं। प्रत्येक संदायादी को एक परिभाषित अंश प्राप्त होता है जिसका वह पूर्ण स्वामी होता है तथा उसे वह उसी प्रकार उपहार में दे सकता हैं या इच्छानुसार व्यय कर सकता है जैसे कि अपनी पृथक संपत्ति को। क्योंकि अंश पहले से ही परिभाषित होता हैं, अतः परिवार में किसी के जन्म या मृत्यु से वह ऊपर-नीचे नहीं होता।

'संदायादता' शब्द का प्रयोग ही केवल इस अर्थ में किया जाता है कि 'संदसयादी' कहलाने वाले व्यक्तियों का परिवार की संपत्ति में 'संयुक्त स्वत्व' होता है। क्योंकि प्रत्येक संदायदी एक परिभाषित अंश प्राप्त करता हैं, दायभाग विधान में विभाजन का अर्थ हैं संदायादियों के अंशो का पृथक्करण तथा उनको संपत्ति का निश्चित भाग प्रदान करना। श्रम तथा प्राविधिक (टैक्नीकल) और प्रबंधकीय दक्षताओं का अंशों के रूप मूल्यांकन करने के पश्चात उपर्युक्त पद्धति को सिद्धांतः अंगीकार करना कठिन नहीं होगा, यद्यपि यह भी आदर्श से कुछ निम्नस्तरीय है। फिर भी, यह सही दिशा में प्रथम पग हो सकता है। उत्तरोत्तर चरणों को उत्तरोत्तर ही निर्धारित किया जा सकता हैं।

प्रश्न - हमने कहा है 'उद्योगों का श्रमिकीकरण करो'। इतना हमारे लिए पर्याप्त हैं। फिर हमने 'श्रमिक का राष्ट्रीयकरण करों' वाली बात उसमें क्यों जोड़ दी?

उत्तर - आज की व्यावहारिक व मनोवैज्ञानिक अवस्था को ध्यान में रखते हुए भारतीय मजदूर संघ ने कहा कि हमारा ध्येय कामगारों का स्वामित्व है।

किंतु पूर्ण विचार करें तो ध्यान में आएगा कि स्वामित्व की जो कल्पना आज है, वही बनी रही तो स्वामित्व किसी के भी हाथ में रहे, समाज के लिए वह पूर्णरूपेण निरापद नहीं हो सकता। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि भगवान का प्रतिनिधित्व समाज करता है, सरकार नहीं।

पूँजीवाद तथा कम्युनिज्म के अंतर्गत जो स्वामित्व की पद्धतियाँ हैं, उनसे श्रमिक तथा राष्ट्र को होने वाली हानि सर्वविदित है। कर्मकार के स्वामित्व के द्वारा इन दोनों संकटों से हम बच सकते हैं।

किंतु इस पद्धति में श्रमिक तथा राष्ट्र को कोई हानि न हो, इसके लिए आवश्यक है श्रमिकों के मन का राष्ट्रीयकरण हो। प्रत्येक श्रमिक को यह साक्षात्कार हो कि वह अकेला या पृथक नहीं है, वह तो संपूर्ण राष्ट्रशरीर का ही एक अंग है। संपूर्ण राष्ट्र के साथ एकात्मता का भाव न रहा तो इस पद्धति में भी अनेक संकट उत्पन्न हो सकते हैं। इसीलिए हमने कहा, श्रमिकों का - श्रमिकों के मन का - राष्ट्रीयकरण हो।

हमारी इस घोषणा का सामान्य अर्थ तो सबके ध्यान में आता है यह कि सब श्रमिक देशभक्त, राष्ट्रवादी बनें। राष्ट्र के लिए त्याग करने के लिए स्वप्रेरणा से तैयार रहें। फिर भी, इसके आर्थिक प्रतिफल आज लोग समझ नहीं पा रहे हैं।

मान लीजिए कि किसी उद्योग में कामगारों का स्वामित्व हो गया और वहाँ के श्रमिक देशभक्त नहीं हैं, पूँजीपतियों और कम्युनिस्टों के श्रेणीबद्ध अधिकारीतंत्र (नौकरशाही) के समान ही व्यक्तिवादी हैं, तो पूँजीपतियों और नौकरशाहों के मन में आज जो अनुचित भावनाँए हैं वे उनके मन में भी आ सकती हैं। वे भी भौतिकवादी, अतएव केवल अपना ही स्वार्थ देखने वाले हो सकते हैं। वे भी अधिक लाभ के और अधिक धन के पीछे दौड़ सकते हैं। अर्थ यह हुआ कि स्वामित्व का रूप बदल गया, किंतु मनोरचना पहले जैसी बनी रही। ऐसी दशा में इस अनुचित मनोरचना के फलस्वरूप श्रमिक अथवा 'स्वामी कामगार' समाज की दृष्टि से दोषपूर्ण कार्य कर सकते हैं।

उदाहरण के रूप में हम कुछ संभावनाएँ देखें - (1) श्रमिक स्वामी बन गए। वे अपना धन बढ़ाना चाहते हैं। सरल मार्ग है अपने उत्पादन का मूल्य बाजार में बढ़ाना। बाजार तंत्र के अतिरिक्त इस पर कोई रुकावट नहीं। तो सामान्य जनता को कष्ट होगा। श्रमिक व्यक्तिवादी रहे तो सामान्य जनता के कष्टों की चिंता वे क्यों करेंगे? सामान्य जनता में अन्य उद्योगों के श्रमिक भी सम्मिलित हैं।

(2) मान लीजिए, अर्थ-व्यवस्था में बैंकों या अन्य वित्तीय संस्थाओं की ब्याज दर ऊँची है। परिश्रम करके उत्पादन करने से जितना लाभ मिलेगा, उतना ही पैसा उद्योग की सारी परिसंपत्ति - भवन, यंत्र, भूमि आदि सब - बेचकर वह सारे धन को बैंक में रखकर ब्याज के रूप में आने वाले सारे श्रमिक आराम से अपने-अपने घरों में बैंठकर जीवन क्यों न बिताएं? काम करने से भी उतना ही पैसा मिलेगा, ब्याज के रूप में भी उतना ही पैसा मिलेगा। फिर व्यर्थ परिश्रम क्यों किया जाए?

कोई कह सकता है कि यह परिसंपत्ति (assets) जो खरीदेगा वह उससे उत्पादन करेगा ही। ये वस्तुएँ निष्क्रिय नहीं पड़ी रहेंगी, उत्पादन के लिए उनका उपयोग होता ही रहेगा।

यह बात सही है, किंतु अपने घरों में बैठकर ब्याज के मारे आलस्य का जीवन बिताने वाले श्रमिकों के परिश्रम से - परिश्रम के फल से - देश तो वंचित रहेगा ही। उस मात्रा में देश की हानि होगी, क्योंकि इनके द्वारा हो सकने वाले उत्पादन से देश वंचित रहेगा।

(3) किसी कारखाने के श्रमिकों ने नवीनीकरण या स्वचालन (ऑटोमेशन) का निर्णय लिया। कुल मिलाकर देश की आर्थिक स्थिति को देखते हुए स्वचालन उपयुक्त नहीं है, किंतु एक-एक उद्योग के श्रमिकों का व्यक्तिगत लाभ उसके कारण हो सकता है। निर्णय लेने का पूरा अधिकार उन्हीं को है और वे व्यक्तिवादी हैं। वे स्वचालन का निर्णय क्यों नहीं लेंगे? उससे उनका व्यक्तिगत लाभ ही होगा। किंतु इसके फलस्वरूप नई श्रम-शक्ति की सेवायोजन-संभावनाएँ उतनी ही मात्रा में कम होंगी और उसी कारखाने के अनेक श्रमिकों की श्रम-शक्ति निष्क्रिय हो जाएगी। यह निष्क्रिय श्रमशक्ति सक्रिय रहती तो देश को लाभ होता। उससे देश वंचित रहेगा। दोनों और से हानि होगी।

(4) अधिक लोगों को आजीविका देने वाला औद्योगीकरण ही भारत की आवश्यकता है और आगे भी कई वर्षों तक रहेगी। श्रमिकों के स्वामित्व वाले कारखानों का इसमें महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। ऐसे कारखानों को होने वाले लाभ का आंशिक उपयोग नया कारखाना, नई वाणिज्य-संस्था खोलने, उसमें नए लोगों को काम मिलेगा, देश का उत्पादन भी बढ़ेगा। इस प्रकार नई व्यापारिक संस्थाएँ प्रारंभ करने का काम पुरानी कामगारों के स्वामित्व वाली संस्थाएँ कर सकती हैं।

किंतु, मनोवृत्ति आज जैसी रही तो यह होगा नहीं। नई संस्था खुलेगी, नए लोगों को काम तथा पैसा मिलेगा; किंतु इस नई आय में इस मातृ संस्था के श्रमिकों का भाग (व्यक्तिगत) नहीं रहेगा। इसलिए, आज की मनोवृत्ति के कारण उनकी स्वाभाविक इच्छा यही होगी नई संस्था खोलने के बदले अतिरिक्त धन अपनी ही संस्था के विस्तार में लगाया जाए। उससे उनका सीधे व्यक्तिगत लाभ बढ़ेगा। वे वैसा ही औद्योगीकरण के लिए नहीं होगा। और उतनी मात्रा में देश उस अतिरिक्त पैसे से होने वाले लाभ से वंचित रहेगा।

अब मान लीजिए कि किसी विधान या दबाव के कारण इस संस्था के श्रमिक अपने लाभांश का उपयोग नई संस्था खोलने के लिए करते हैं। उस अवस्था में इस मातृ संस्था की स्थिति स्वाभाविक रूप से नई संस्था या संस्थाओं के लिए वित्तीय संस्थान - भाड़ा पाने वाले वित्तीय संस्थान जैसी हो जाती है। इस प्रकार से निर्मित नई संस्थाओं की संख्या बढ़ी, उनसे भाड़े के रूप में पर्याप्त पैसा आने लगा तो मातृ संस्था के श्रमिकों को अपनी संस्था का उत्पादन चालू रखने की इच्छा या आवश्यकता नहीं होगी। वे स्वयं एक बैठे-ठाले खाने वाला वर्ग बन जाएँगे। अपना काम कम या बंद कर देंगे। आज जैसी मनोवृत्ति रही तो वे ऐसा क्यों नहीं करेंगे?

किंतु इसके कारण उनके परिश्रमों के फलों से देश वंचित रहेगा।

(5) आज की मनोवृत्ति के कारण राष्ट्र के सामने अनेक समस्याएँ उत्पन्न होंगी। इतना ही नहीं, कामगारों के स्वामित्व वाले कारखाने की नीति में भी अंतर आएगा। कारखाने नीति निर्धारित करते समय श्रमिक यदि निर्मित परिसंपत्ति पर अंतिम स्वत्व (दावे) की दृष्टि से सोचेंगे तो नए पूँजी-निवेश की दिशा अलग और कारखाने की दृष्टि से लाभप्रद रहेगी। किंतु इसके फलस्वरूप लाभ का अधिकार व्यक्तिगत श्रमिकों को नहीं रहेगा। यह बात आज की मनोवृत्ति से मेल नहीं खाती।

आज की मनोवृत्ति के कारण श्रमिक निर्मित परिसंपत्ति पर अंतिम स्वत्व (final claim) से संतुष्ट नहीं होगा। वह नए निवेश (इन्वेस्टमेंट) का विचार स्वयं अपनी बढ़ी हुई आगामी आय की परिभाषा में करेगा। केवल इसी पर आधारित निवेश-नीति कारखाने की स्वास्थ्य-वृद्धि के लिए उपयुक्त ही रहेगी, ऐसा नहीं कहा जा सकता। उल्टा ही होने की संभावना अधिक है।

(6) आज की मनोवृत्ति के कारण केवल राष्ट्र के आड़े आने वाली या संस्था के आड़े आने वाली समस्याएँ उत्पन्न होंगी, इतना ही नहीं है। एक ही उद्योग या कारखाने के स्वामी बने हुए श्रमिकों में भी आंतरिक, पारस्परिक खींचातानी इस मनोवृत्ति के कारण निर्मित होगी। समानता या सहयोग की भावना नई चेतना का आधार होना चाहिए। किंतु यदि मनोवृति में अंतर नहीं आया, श्रमिक आज के ही समान व्यक्तिवादी, स्वार्थी, आत्मकेंद्रित रहे तो कामगारों का स्वामित्व आने के बाद, किसी भी कारखाने के जो श्रमिक पहले से - कार्यरत - होगें वे अपने पश्चात कारखाने में आने वाले नए भागीदार श्रमिकों के बारे में कैसी भावना रखेंगे? यह विचार उनके मन में आएगा या नहीं कि 'हम संस्थापक सदस्य हैं, वरिष्ठ हैं, हमारे ही कारण कारखाने की अब तक इतनी प्रगति हुई? ये बच्चे नए-नए आए हैं। इनकी और हमारी प्रतिष्ठा समान कैसे हो सकती है? इस प्रकार की समानता तो हमारे प्रति अन्याय है। हमारी प्रारंभिक अगुवाई का तथा वरिष्ठता का यह अपमान होगा।' और, यदि इनका ही विचार रहा तो एक ही कारखाने में वरिष्ठता के आधार पर प्रथम श्रेणी के, तृतीय श्रेणी के कामगारों के स्वामित्व निर्मित होंगे कि नहीं? ऐसा ही होगा। समानता तथा सहयोग का वातावरण श्रमिकों का आपस में भी नहीं रहेगा। यह श्रमिकों की मनोवृत्ति, उनके जीवन-मूल्य आज के पूँजीपतियों और नौकरशाहों के समान ही रहे तो ये सारे दोष कामगारों के स्वामित्व के अंतर्गत भी उत्पन्न हो सकते हैं। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए भारतीय मजदूर संघ ने कहा, "मजदूरों का राष्ट्रीयकरण करो।" श्रमिकों के स्वामित्व की सामाजिक सफलता के लिए श्रमिकों का राष्ट्रीयकरण पूर्व शर्त है। श्रमिकों के मनों का राष्ट्रीयकरण हम कर सकेंगे, यह समझ कर, इस विश्वास के साथ कि स्वामित्व की हमने माँग की है।

किंतु जो भी कहा या किया जाए, हमारी यह धारणा है कि जब तक स्वामित्व की अवधारणा पर ही पुनर्विचार नहीं होता, स्वामित्व की कल्पना को पुनः परिभाषित नहीं किया जाता और अंतिम स्वामित्व भगवान का अर्थात उसके प्रतिनिधिस्वरूप समाज का (समाज का ही, न कि राज्य का) - नहीं माना जाता, तब तक इस समस्या का संतोषजनक हल निकल ही नहीं सकता। वैसे स्वामित्व अधिकारों की एक गठरी से निर्मित होता है क्या? उत्पादन करना यह निश्चित करने का अधिकार, व्यक्तिगत उपयोग के लिए लाभ अपने पास रखने का अधिकार, पूँजीगत परिसंपत्ति को अपने नियंत्रण में रखने का अधिकार, इधर या उधर करने का अधिकार आदि कई अधिकारों का समूह ही स्वामित्व है। इन अधिकारों को पृथक-पृथक भी किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, आज भी निजी क्षेत्र में साधनों (रिसोर्सेज) का उपयोग करने के विषय में निर्णय देने का अधिकार वैधानिक स्वामियों के पास नहीं रहता। प्रत्यक्ष में प्रबंधकों और नौकरशाहों के पास ही यह अधिकार रहता है। आज भी वैधानिक स्वामियों में अधिकार समान व्यावहारिक स्तर पर कम होता जा रहा है। इस अवस्था में स्वामित्व की कल्पना के विषय में ही पुनर्विचार करने की बात समयोचित रहेगी।

मार्क्स और मार्क्सवाद के बारे में

प्रश्न - यह वर्ष मार्क्स का शताब्दी वर्ष है। मैं जानना चाहूँगा कि मार्क्स, मार्क्सवाद अथवा कम्युनिज्म के बारे में आपका क्या मूल्यांकन है?

उत्तर - आपके प्रश्न से ऐसा लगता है कि आपके विचार में मार्क्सवाद और कम्युनिज्म पर्यायवाची हैं। किंतु ऐसा है नहीं।

प्रश्न - क्या दोनों में कोई अंतर है?

उत्तर - है। इस बारे में तो विवाद हो सकता है कि क्या मार्क्सवाद दर्शन मात्र है और कम्युनिज्म उस पर आधारित राजनीति का व्यावहारिक रूप, किंतु इतना निश्चित है कि मार्क्सवाद और कम्युनिज्म दो अलग परिमंडल हैं और यद्यपि वे दोनों एक-दूसरे का बहुत कुछ आच्छादन करते हैं, पर वे एक जैसे नहीं हैं। उदाहरण के लिए, यह बताया गया है कि सर्वाधिकारवाद के पक्षधर न होके मार्क्स व्यक्ति-स्वातंत्र्य के प्रबल समर्थक थे। निरंकुश राज्य (तानाशाही) के उत्थान में उनका योगदान न्यूनतम, लगभग संयोगवश रहा है। उन्होंने 'सर्वहारा की तानाशाही' की कल्पना तो की थी, किंतु स्पष्ट रूप से यह भी कह दिया था कि राज्य के साथ-साथ वह विघटित हो जाएगी। कम्युनिस्ट तानाशाहियों के उदय का अधिक श्रेय उन परिस्थितियों का है, जिनमें रूस में बोल्शेविक क्रांति सफल हुई। उसके लिए गुप्त रूप से राजनीतिक कार्य की आवश्यकता पड़ी थी जिससे प्रभावित होकर लेनिन ने 'लोकतंत्री केंद्रवाद' के सिद्धांत को दल-संगठन का मूल मंत्र बना लिया और जनता में लोकतंत्रीय परंपराएँ विद्यमान नहीं थी।

यह अधिक उचित होगा कि मार्क्सवाद और कम्युनिज्म के विभिन्न विद्यमान रूपों में भेद किया जाए और पहले को दूसरे की सभी प्रकार की भूल-चूक के लिए उत्तरदायी न ठहराया जाए।

प्रश्न - क्या आप मार्क्सवाद का विरोध इसलिए करते हैं कि आप 'हिंदुइज्म' (हिंदुवाद) के पूर्ण समर्पित अनुयायी हैं।

उत्तर - मैं किसी 'इज्म'(वाद) का अनुयायी नहीं हूँ। मैं तो केवल रा.स्व. संघ का प्रचारक हूँ। मुझे तो कोई ऐसी विचार-पद्धति देखने को नहीं मिली जिसे 'हिंदुइज्म' (हिंदूवाद) की संज्ञा दी जा सके। हिंदू तो कम्युनिज्म समेत विभिन्न विचार-पद्धति के अनुयायी हैं। अंग्रेजी में 'हिंदुत्व' का सही पर्याय 'हिंदनेस' है, 'हिंदुइज्म' नहीं।

आपकी जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि एक निष्ठावान हिंदू श्री विष्णु बुवा ब्रह्मचारी ने 1867 में मार्क्स के ही जैसे कम्यून के विचार की संकल्पना की थी और उसे मराठी में प्रकाशित किया था। 1867 में ही 'दास कैपिटल' का प्रथम खंड प्रकाशित हुआ था। ये दोनों प्रलेख साथ-साथ प्रकाशित हुए थे।

प्रश्न - मेरे विचार में आप मार्क्स का ठीक मूल्यांकन नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि उनकी भविष्यवाणियाँ ठीक नहीं निकलीं।

उत्तर - ऐसी बात नहीं है। यह सत्य है कि घटनाक्रम मार्क्स की भविश्यवाणी के अनुरूप नहीं चला। अपनी मृत्यु से कुछ ही सप्ताह पूर्व 1895 में एंजेल्स ने लिखा था, "इतिहास ने हमें और हमारे जैसे ही विचार रखने वालों को गलत सिद्ध कर दिया है।" पुनश्च "और पुनः इसने सिद्ध कर दिया है कि हमारी कृति में वर्णित समय के बीस वर्ष बाद भी श्रमिक वर्ग का यह शासन कितना असंभव है।....उसने जो दिया है कि उस समय का हमारा दृष्टिकोण संभ्रम था।" मार्क्स की भविष्यवाणी के बारे में एंजेल्स ने कहा है, "आश्चर्य यह नहीं है कि उनमें से अनेक असत्य सिद्ध हुई हैं, वरन आश्चर्य यह है कि उनमें से बहुत-सी सही सिद्ध हुई हैं।"

किंतु हम मार्क्स को इस आधार पर वैधता निश्चित अस्वीकार नहीं करते। हम जानते हैं कि भविष्यवाणी का सत्य या असत्य होना किसी सिद्धांत की करने के लिए एकमात्र तो क्या, प्रमुख कसौटी भी नहीं हो सकता।

हम एंटोनिया, कैमसी, क्योरगी लुकाक्स, और माओ के इस कथन से सहमत हैं कि भविष्य को आंकने में असफलता से मार्क्सवाद को अस्वीकार किया है। किंतु यह इस बात का अवसर नहीं है कि हम इस विषय पर सविस्तार चर्चा करें।

प्रश्न - यह दावा किया जाता है कि मार्क्स नितांत मौलिक चिंतक थे।

उत्तर - ऐसा लगता है कि चिंतन की मौलिकता के बारे में लोगों की विचित्र-विचित्र धारणाएँ हैं। जिस प्रकार आप शून्य में जीवित नहीं रह सकते, उसी प्रकार शून्य में चिंतन भी नहीं कर सकते। शून्यता से नए विचारों का आविर्भाव नहीं होता। प्रत्येक चिंतक पिछले तथा समसामयिक चिंतकों से कुछ-न-कुछ ग्रहण करता है। इसका कोई अर्थ नहीं कि आप उसे उधार लेना कहें, आत्मसात् करना कहें या प्रभावित होना कहें। मौलिकता तो इस बात में है कि उपलब्ध ज्ञान को आत्मसात् करके उसके आधार पर अपनी निजी, अनोखी और नवीन अनुभूति, कल्पना-शक्ति, व्याख्या एवं अभिव्यक्ति के माध्यम से नितांत नए निष्कर्ष, नई उपलब्धि, नए आविष्कार अथवा नए दृष्टिकोण की स्थापना की जाए। उधार लेने में कोई दोष नहीं, क्योंकि यह स्वाभाविक है, अपरिहार्य है और बहुधा लाभकारी होता है। क्या न्यूटन ने नहीं कहा था कि वह दूसरों की अपेक्षा पर खड़ा हुआ है? इससे हमारी दृष्टि में न तो न्यूटन बौना हो जाता है और न ही पिछले दिग्गज।

प्रश्न - क्या आपका तात्पर्य यह है कि मार्क्स ने भी दूसरों से उधार लिया था?

उत्तर - यही है

प्रश्न - मार्क्स की इस उधार वृत्ति का कोई उदाहरण आप दे सकते हैं?

उत्तर - अवश्य, उदाहरण प्रस्तुत हैं

जी.डी.एच० कोल का कहना है कि रेडबर्ट्स और मार्क्स, दोनों ने पिछले समान सूत्रों से समान रूप से ग्रहण किया है और इस धारणा के पीछे कुछ बल हैं कि अपनी बाद की रचनाओं का विवेचन किया, कतिपय विचारों के प्रति-पादन में वह रेडबर्ट्स से प्रभावित हुआ।

मारैट से मार्क्स ने यह विचार ग्रहण किया - "आपको केवल अपनी दासता की बेड़ियों से हाथ धोना है" और "श्रमिकों का कोई देश नहीं होता।"

बालंकी और बावेफ़ के 1796 के घोषणा-पत्र से "सर्वहारा की तानाशाही।"

कार्ल शैपर से - "विश्व के श्रमिकों! एक हो जाओ"। 'अनर्जित आय', जो श्रमिकों के श्रम से निचोड़े गए 'अतिरेक' का रूप धारण करती है, मार्क्स ने सेंट साइमन और रेडबर्ट्स से ग्रहण की।

'अति उत्पादन के संकट' सिसमांडे से ग्रहण किया। प्रधों की भी यही धारणा थी।

'कम्युनिज्म घोषणा-पत्र' सिसमोंडे के लेखों से प्रभावित था।

'कम्युनिज्म' शब्द मार्क्स ने नहीं गढ़ा था। मौरिस ऊन्स्टन के अनुसार, 'कम्युनिज्म' शब्द की सर्वप्रथम लोकप्रियता ओवेनाइट लेखकों ने 1840 के दशक में इग्लैंड में प्रदान की। उनके लेखन में यह फ्रांसीसी शब्द 'कम्युनिज्म' का अंग्रेजी लिप्यंतरण मात्र था। यह ओवेनाइट शब्द, अर्थात 'कम्युनिज्म' मार्क्स द्वारा अपने निजी सिद्धांत के लिए प्रयुक्त कर लिया गया और तब बाद में ओवेनाइट लेखकों को 'ओवेनिज्म' के विवेचन के लिए 'कम्युनिटेरियनिज्म' शब्द का प्रयोग करना पड़ा।

सामान्य धारणा यह है कि 'वर्ग-संकल्पना' अथवा 'वर्ग-संघर्ष' की संकल्पना मार्क्स की देन हैं, पर ऐसा है नहीं। मार्क्स ने कहा है, "जहाँ तक मेरा संबंध है, आधुनिक समाज में वर्गों के अस्तित्व अथवा उनके बीच संघर्ष की खोज का श्रेय मेरा नहीं है। मुझसे बहुत पूर्व बुर्जुआ इतिहासकार इस वर्ग-संघर्ष के ऐतिहासिक विकासक्रम को बता चुके हैं, तर्जुआ अर्थशास्त्र वर्गों की आर्थिक संरचना को समझा चुके हैं। मेरा केवल यह विवेचन नया था कि मैंने सिद्ध कियाः (1) वर्गों का अस्तित्व उत्पादन के विकास में केवल विशिष्ट ऐतिहासिक चरणों से जुड़ा है, (2) वर्ग-संघर्ष आवश्यक रूप से सर्वहारा की तानाशाही को जन्म देता है, (3) यह तानाशाही स्वयं में केवल बीच की कड़ी है, जबतक कि सभी वर्गों का उन्मूलन न हो जाए और वर्ग-विहीन समाज की स्थापना न हो जाए..."

इस प्रकार यह धारणा मिथ्या है कि मार्क्स इन संकल्पनाओं का जनक था।

किंतु जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ, इससे एक चिंतक के रूप में मार्क्स की महानता कम नहीं होती। प्रत्येक चिंतक को इस अवस्था को पार करना होता है।

प्रश्न - मार्क्स का आपका मूल्यांकन क्या है।

उत्तर - किसी भी महान व्यक्ति का मूल्यांकन कोई सरल काम नहीं होता, क्योंकि उनके प्रति दोनों ने अन्याय किया होता है, उनके विरोधियों ने भी और उनके अनुयायियों ने भी। किसी ने ठीक ही कहा है कि जब भगवान किसी महापुरुष को दंडित करना चाहता है तो वह उसकी झोली में चेले डाल देता है। किंतु अब तक मार्क्स के बारे में दो तथ्य पर्याप्त उभरकर सामने आ चुके हैं; एक तो उनकी महानता और दूसरा उनके नाम से तथा उनके झंडे तले किए गए प्रयोगों की विफलता।

प्रश्न - उनके अनुयायियों के बारे में आपका विचार....।

उत्तर - उदाहरण के लिए, पूज्य श्री गुरुजी कहा करते थे कि मार्क्स अनगढ़ भौतिकवादी नहीं थे, जैसा कि उन्हें उनके अधिकांश चेलों ने चित्रित किया है। उनका प्रेरणा-स्रोत नीतिशास्त्र था। वैसे उन्होंने यह बात स्पष्ट रूप से नहीं कही है, क्योंकि यूरोपीय मानस में नीतिशास्त्र धर्म और चर्च से जुड़ा है। उन्होंने अर्थशास्त्र को अपना हथियार बनाया और अमानवीयकरण एवं नि:स्वत्वीकरण का जो खंडन उन्होंने किया है, उसका औचित्य नैतिक आधार पर सिद्ध होता है, केवल आर्थिक आधार पर नहीं। श्री गुरुजी भी बिना किसी लाग-लपेट के अमानवीयकरण और नि:स्वत्वीकरण (एलिअनेशन) की निंदा करते थे।

हरबर्ट मारक्यूस जैसे नए वामपंथी नेताओं का भी विचार है कि आर्थिक शोषण ही नि:स्वत्वीकरण का एकमात्र कारण नहीं है। श्री गुरुजी ने मार्क्स की आलोचना सैद्धांतिक आधार पर की हैं, किंतु जहाँ तक मार्क्स की प्रेरणा का संबंध है, उसके बारे में गुरुजी की पैठ अधिकांश भारतीय कम्युनिस्टों से कहीं अच्छी और गहरी थी।

कम्युनिस्ट जगत में भी हर कम्युनिस्ट समूह अन्य सभी कम्युनिस्टों का उपहास करते हुए उन्हें 'संशोधनवादी' अथवा 'भटकाववादी' ठहराता है। संसार-भर में कम्युनिस्टों ने कम्युनिस्टों को जो ऐसे प्रमाण-पत्र दिए हैं, यदि उन्हें एकत्रित किया जाए तो एक ही निष्कर्ष निकलेगा कि विश्व भर का कम्युनिज्म संशोधनवाद या भटकाववादी हो गया है।

मार्क्स के प्रति उनके चेलों ने जो यह अन्याय किया है, वह कोई नई बात नहीं है। उदाहरण के लिए एंजेल्स की ये टिप्पणियाँ देखिए: "आजकल उन लोगों के लिए इतिहास की भौतिकवादी संकल्पना बड़े काम की वस्तु है, जो इतिहास के अध्ययन का कष्ट नहीं उठाना चाहते।"

"सामान्य रूप से, जर्मनी के अनेक युवा लेखकों के लिए भौतिकवादी शब्द एक ऐसा मुहावरा बन गया है और अध्ययन के पचड़े में पड़े बिना कहीं भी, कभी भी जड़ दिया जा सकता है। वे इस मुहावरे की रट लगाते हैं और समझते हैं कि समस्या सुलझ गई।

"और जहाँ तक हमारे अपने दल का संबंध है....जर्मनी कम्युनिस्ट दल का एक बड़ा भाग मुझसे इसलिए रुष्ट है कि मैंने उनके काल्पनिक आदर्शलोक और उनके बखानों का विरोध किया है।"

एंजेल्स ने ही कहा है - "जिन लोगों ने वास्तव में कुछ किया है, उन्होंने स्वंय देखना होगा कि जो युवा साहित्यकार दल से अपना नाता जोड़ते हैं, उनमें से कितने यह कष्ट उठाते हैं कि अर्थशास्त्र का, उसके इतिहास का, व्यापार, उद्योग, कृषि के इतिहास का, समाज की संरचना के इतिहास का अध्ययन करें....बहुधा ऐसा लगता है मानो इन सज्जनों के विचार में कोई भी बात श्रमिकों के लिए अचूक है। काश! ये सज्जन इतना जान लेते कि मार्क्स के विचार से तो उनकी सर्वोतम बातें भी अभी इस योग्य नहीं थीं कि श्रमिकों के लिए पर्याप्त अच्छी मानी जा सकें और वह तो इसे अपराध समझते थे कि श्रमिकों के हाथ में सर्वोत्तम को छोड़कर कोई अन्य वस्तु पकड़ा दी जाए।"

भारत में, बर्नस्टीन के संशोधनवादी और लेनिन के बोल्शेविक विचारो के बीच मध्य-मार्ग का अनुसरण करने वाले कैनटस्की, कास्की, वेलेसले, लिन्स्की तथा अन्य के विचारों के माध्यम से प्लेखानोव से लेकर लेनिन तक हजारों शब्दों में कम्युनिस्ट सिद्धांतों पर हुई बहस को एक छोटी-सी परिधि में समेटते हुए भारत के उच्चतम न्यायालय के विद्वान न्यायाधीशों ने देश के एक प्रख्यात कम्युनिस्ट नेता के बारे में निम्नलिखित टिप्पणी की है: "हमें संदेह है कि कहीं यदि उन्होंने (कम्युनिस्ट) साहित्य को पढ़ा भी है तो क्या उन्होंने उसे पूरी तरह समझा भी है।" और "या तो उन्होंने अनजाने में अथवा जानबूझकर मार्क्स, एंजेल्स और लेनिन के लेखों को अपने प्रयोजन के लिए तोड़ा-मरोड़ा है। हम नहीं जानते कि कौन सा दृष्टिकोण अधिक उदार होगा" यह स्पष्ट है कि पुनरावेदनकर्ता ने मार्क्स, एंजेल्स और लेनिन की सच्ची शिक्षाओं के बारे में स्वयं को पथभ्रष्ट किया है।"

प्रश्न - यह क्या बात हुई? आप मार्क्स के सिद्धांतों का तो खंडन करते हैं और मार्क्स की प्रशंसा करते हैं?

उत्तर - यही तो हिंदू चिंतन-परिपाटी है। आदि शंकर ने भगवान बुद्ध की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उन्हें योगियों का चक्रवर्ती कहा है: "य आस्ते कलौ योगिनां चक्रवर्ती स बुद्धः प्रबुद्धोऽस्तुनश्चित्तवर्ती।"

महाभारत युद्ध छिड़ने पर पांडवों ने अपने बाण भीष्म, द्रोण आदि के चरणों में अर्पित किए थे। यह हमारी हिंदू परंपरा है।

दूसरे, मुझे पूरा विश्वास है कि यदि मार्क्स आज जीवित होते तो वे आइंस्टीन के नवीनतम वैज्ञानिक सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए स्वयं ही अपने सिद्धांतों की कायापलट कर डालते। इसके अतिरिक्त, उन्हें अपने जीवनकाल में ऐसा कोई विश्राम या अवसर नहीं मिला कि वह हिंदू धर्म और संस्कृति का अध्ययन कर पाते। यह दुर्भाग्य की बात थी। ऐसे अध्ययन के बल पर वह अपने सिद्धांतों के अनेक रिक्त स्थानों की पूर्ति कर सकते थे और अपनी सृष्टि-मीमांसा की पुनरीक्षा कर सकते थे। क्योंकि उनका चिंतन जड़ नहीं था। वह अपने अनुयायियों की भाँति रूढ़िवादी नहीं थे।

प्रश्न - आप उनके अनुयायियों को रूढ़िवादी (लकीर के फकीर) क्यों कहते हैं?

उत्तर - कम्युनिज्यम का पूरा इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। एक उदाहरण यह नीति-संबंधी वक्तव्य है। एल.आई.ब्रेज़नेव ने 7 अक्टूबर, 1975 को कांग्रेस के क्रेमलिन प्रासाद में औपचारिक सत्र में संयुक्त सोवियत समाजवादी गणराज्य विज्ञान अकादमी के वार्षिकोत्सव पर सोवियत विज्ञान के प्रति दल की प्रतिबद्धता के बारे में बोलते हुए कहा थाः "मैं विशेष रूप से एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्न - हमारे विज्ञान के प्रति दल की प्रतिबद्धता के बारे में कहना चाहूँगा। रूसी वैज्ञानिक ज्ञान की किसी भी शाखा के विषय में काम करते हों, उनमे सदा ही एक अनोखी आकर्षक विशेषता दीख पड़ती है। रूसी वैज्ञानिक की समूची वैज्ञानिक गतिविधि मार्क्सवाद की वैज्ञानिक विचारधारा पर आधरित होती है। लेनिनवाद कम्युनिज्म का सक्रिय समर्थक है और किन्हीं भी प्रतिक्रियावादी और पुरातनवादी शक्तियों से संघर्ष करता है। हमारे वैज्ञानिक अपनी सभी व्यावहारिक गतिविधि उच्च कम्युनिस्ट आदर्शों की पूर्ति के महान व्रत को समर्पित करते हैं। हमारे बदनाम वेदवादी विवेक के दिवालिएपन, अंधविश्वास और रूढ़िवादिता में आधुनिक मार्क्सवादी से बढ़कर तो नहीं हो सकते। काश वे (मार्क्सवादी) यह अनुभव कर पाते कि इतने बेतुके उनके दावे हैं और कितनी खिल्ली उनकी उड़ेगी इस पर गहराई से विचार किया जाए।"

मानो संपूर्ण मानव-प्रगति के मूलमंत्र मार्क्सवाद के पिटारे में हो। इनके बिना राजेन न तो ऐक्स-रे का और न ही एलेक्जैंडर फ्लेकिंग अपनी पैनीसिलीन की खोज कर पाते। क्या आप जानते हैं कि वेस्लियस के हाथ 'मानव शरीर-रचना' और हार्वे के हाथ 'हृदय-स्पंदन और रक्त-संचार' क्यों लगा? वे कहेंगे, इसका भी श्रेय मार्क्स के 'दास-कैपिटल' को है। फ्रायड, जुग और एडलर की उच्चकोटि की प्रतिभा भी मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की ही देन है। हमने अभी तक 'साम्यवादी' की कट्टरता का कोई कूल-किनारा नहीं देखा। सब यही कहेंगे कि सभी ग्रह उनके हैं, क्योंकि न तो मार्क्स द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद अपने सिद्धांत का प्रतिपादन करते, न अंतरिक्ष-विज्ञान की गाड़ी आगे बढ़ती।

ऐसी कट्टरवादिता तो किसी सदाशयता से परिपूर्ण संत मानव को भी तैमूर, चंगेज़ जैसा महाबर्बर बना सकती है।

किंतु विश्वास मानिए, इन सब बातों को पश्चिमी ही पचा सकते हैं,क्योंकि असहिष्णुता अथवा हठधर्मिता उन्हें घुट्टी में मिली हैं।

प्रश्न - संकेत से आप बता रहे हैं कि भारत के कम्युनिस्टों की स्थिति भिन्न है?

उत्तर - निश्चित ही। स्वाभाविक है कि भारत का कम्युनिस्ट मानस जन्म-जात हिंदू समावेशन और आयातित सामी बहिष्करण के बीच भटक रहा है।

प्रश्न - आप केवल हिंदू कम्युनिस्टों की बात कर रहे हैं। विभिन्न कम्युनिस्ट दलों में जो अहिंदू हैं, उनके बारे में आपका क्या मत है?

उत्तर - राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक दृष्टि से क्या वे वास्तव में अहिंदू हैं? मुझे तो शंका है।

प्रश्न - संसार भर में कम्युनिस्टों को सदा ही 'राष्ट्र-विरोधी' कहा जाता रहा है!

उत्तर - 1950 के दशक तक स्थिति भिन्न थी। कम्युनिस्ट जगत केंद्र-बिंदु वाला एक वृत था। परंतु बाद में संसार भर के कम्युनिस्ट शंका करने लगे कि कहीं वे अंतरराष्ट्रवाद के नाम पर वास्तव में विदेशी राष्ट्रवाद का अनुसरण तो नहीं कर रहे हैं। इसके कारण यूरो-कम्युनिज्म का जन्म हुआ और विभिन्न 'साम्यवादी' देशों और दलों के बीच घरेलू झगड़े उठ खड़े हुए। 1960 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में पालमिरो तोग्लियात्ती ने जब बहुकेंद्रवाद का प्रतिपादन किया तो उससे एकल केंद्रीय कम्युनिस्ट जगत के स्वप्न ध्वस्त हो गए और स्वायत्ततामूलक प्रतिमानों की ओर रुझान बढ़ता गया। भारत में भी यह अनुभूति पनप रही है। परंतु अपनी हिंदू परंपरा के कारण भारत के कम्युनिस्ट नेताओं की प्रतिक्रिया भिन्न है। वे अपने यूरो-कम्युनिस्ट नेताओं की तुलना तक में अधिक सहनशील और कम दुराग्रही हैं। यह एक साथ देना भी है और पावना भी।

प्रश्न - कम्युनिस्ट यह पसंद नहीं करेंगे कि उन्हें हिंदू परंपरा से जोड़ा जाए। वे इससे अप्रसन्न होंगे।

उत्तर - मैं नहीं जानता। किंतु निश्चित ही उन्हें यह विदित है कि कार्ल मार्क्स के लिए 'हिंदू' शब्द की अभिधा राष्ट्रीय भी थी और धार्मिक-सांस्कृतिक भी।

प्रश्न - क्या मार्क्स भारतीय इतिहास और स्थिति से अवगत थे?

उत्तर - वह सम-सामयिक भारतीय घटनाओं में गहन रुचि रखते थे। यही कारण है कि वह 1857 के हमारे स्वाधीनता संग्राम के बारे में नियमित रूप से संवाद एवं लेख लिखते रहे थे। यूरोप में उस समय जो साधन-सामग्री उपलब्ध थी, उसके माध्यम से वह भारतीय इतिहास का अध्ययन करते थे।

जैसा कि मैंने अभी बताया, अपने संवादों तथा अन्य लेखों में मार्क्स ने 'हिंदू' शब्द का प्रयोग राष्ट्रीय तथा सांस्कृतिक एवं धार्मिक अर्थ में किया है।

किंतु वह हिंदू शास्त्रों के निकट संपर्क में नहीं आए।

प्रश्न - जब आप कम्युनिज्म की विफलता की बात करते हैं तो क्या आपका तात्पर्य यह होता है कि अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के हाथ कुछ भी नहीं लगा?

उत्तर - जब यह कहा जाता है कि कोई आंदोलन विफल हो गया है तो उसका सीधा अर्थ यह होता है कि वह अपने उस उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सका है जिसके लिए वह प्रारंभ किया गया था। उसका यह अर्थ नहीं होता कि उसके हाथ कुछ भी नहीं लगा। कोई भी आंदोलन बहुत समय तक नहीं चल सकता यदि उसकी संगति परिस्थिति से न हो। कम्युनिस्ट आंदोलन का यह कृष्ण पक्ष किसी से छिपा नहीं है परंतु इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि अनेक निश्छल, नि:स्वार्थ आदर्शवादियों ने इसके लिए किए बलिदान व्यर्थ नहीं गए हैं। यहाँ तक कि अपने प्राणों की आहुति भी दे डाली हैं, भले ही समूचे कार्य-व्यापार का कितना ही भ्रामक चित्र उनके मस्तिष्क में क्यों न हो। ये बलिदान व्यर्थ नहीं गए हैं। लक्ष्य तो हाथ नहीं लगेगा, किंतु आंदोलन से मानवता को कुछ लाभ पहुंचे हैं। उदाहरण के लिए, आंदोलन के दबाव के कारण पूँजीवाद में परिवर्तन आया है। यह एक ऐसी उपलब्धि है जो कम-से-कम आंशिक रूप से ब्रिटेन और अमरीका जैसे अति औद्योगीकृत देशों में कम्युनिज्म की विफलता के लिए उत्तरदायी है।

प्रश्न - कहा जाता है कि भारत में ध्रुवीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है। इस निर्णायक संघर्ष में कौन किसे समाप्त करेगा, वामपंथी दक्षिणपंथी को या दक्षिणपंथी वामपंथी को?

उत्तर - मेरे पल्ले यह भाषा नहीं पड़ती। पहले तो जहाँ तक भारत की स्थिति का संबंध है, उसमें 'दक्षिणवाद' और 'वामपंथवाद' ही असंगत और अवास्तविक है। दूसरे, हिंदू प्रकृति समन्वय के अपने सामर्थ्य के लिए विख्यात है। हिंदुओं ने न तो किसी के पुस्तकालय जलाए और न ही अन्य धर्मों को कुरेदकर उनकी जाँच-पड़ताल की। यह तो शंकर और व्यास का देश है। यह प्रकृति फिर उजागर होकर रहेगी। मेरे विचार में श्री वाणी देशपांडे की पुस्तक 'यूनिवर्स आफ वेदांत' वेदांत जगत में इस बात का संकेत है कि प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है।

प्रश्न - 'मार्क्सवाद' के मूल्यांकन के बारे में मेरे पिछले प्रश्न का अभी उत्तर नहीं दिया गया है।

उत्तर - यह तो कम्युनिस्टों ने हमें बताना है कि मार्क्सवाद चिंतन, चिंतन की केवल वैज्ञानिक पद्धति है या वह एक 'वाद' है। वाद तो चारों ओर से बंद कमरे की भाँति होता है। जैसे ही वह बंद रहने के बंधन को तोड़ देता है, वह 'वाद' नहीं रह जाता। चिंतन गतिमान होता है। जब उसे जीवन्त रूप दिया जाता है तो वह विचार बन जाता है। और जब जड़ रूप दिया जाता है तो 'वाद' बन जाता है। यदि यह केवल चिंतन की वैज्ञानिक पद्धति है तो यह विफल नहीं हो सकती, किंतु उस अवस्था में मार्क्स के अनुयायियों को उसमें समय-समय पर परिवर्तन आने देना होगा और समय के प्रवाह में विभिन्न ज्ञान-विज्ञानों की नवीनतम उपलब्धियों को दृष्टि में रखते हुए उसकी कायापलट भी करनी होगी। न्यूटन के अनेक 'स्थापित' तथ्यों को आइन्स्टीन के विज्ञान ने उलटकर रख दिया और निरंतर प्रगतिशील विज्ञान के क्षेत्र में आइंस्टीन के कथन को भी ब्रह्मवाक्य नहीं माना जा सकता। जहाँ तक मेरी जानकारी है, भारत के कम्युनिस्टों ने मार्क्स के चिंतन को 'वाद' मान लिया है। उस दृष्टि से उनका 'मार्क्सवाद' शत्-प्रतिशत विफल है।

कतिपय क्षेत्रों में रूस ने भव्य सफलताएँ प्राप्त की हैं। प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या? पर वे सफलताएँ 'मार्क्सवाद' की नहीं, वरन सोवियत 'साम्राज्यवाद' की हैं। एक का श्रेय दूसरे के पल्ले नहीं बाँधना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि धी पकावे खिचड़ी, नाम बहू का होय। इस प्रकार 'मार्क्सवाद' का हमारा मूल्यांकन बहुत कुछ इस विषय में स्वयं कम्युनिस्टों के दृष्टिकोण पर निर्भर है। वे श्री एम.एन.राय के इस कथन को स्वीकार नहीं करते: "यह आग्रह करना कि एक शती पूर्व की परिस्थितियों के विश्लेशण के आधार पर निकाले गए निष्कर्ष आज भी उतने ही सार्थक हैं। और सदा-सर्वदा के लिए सार्थक रहेंगे, मार्क्सवाद के पथ से भटक जाना है।" भारतीय कम्युनिस्टों की दृष्टि में यह एक 'वाद' है। (मार्क्सवाद के प्रति उनका दृष्टिकोण साध्यपरक है), अतः हमें बाध्य होकर कहना पड़ता है कि वह अवनति के पथ पर अग्रसर हो चुका है, भले ही अंतिम निर्णायक पराभव कुछ दशाब्दियों के बाद हो।

अंतिम वर्षों के फ्रांसीसी 'मार्क्सवादियों' पर टिप्पणी करते हुए मार्क्स कहा करते थे: "मैं तो केवल इतना जानता हूँ कि मैं मार्क्सवादी नहीं हूँ।"

यदि इस दृष्टि से देखा जाए तो मूल्यांकन कुछ और ही होगा। पर इस विषय में हमारे कम्युनिस्ट बंधु अपने विचार बताएं कि मार्क्स ने उन्हें जो दिया, वह चिंतन की मात्र एक वैज्ञानिक पद्धति थी या अपने में भरपूर एक 'वाद' था? किंतु मेरा विचार है कि मानवता के महान हित में यही वांछनीय है कि वैज्ञानिक चिंतन पर मार्क्स का जो आग्रह था उसे समझा जाए, सही चिंतन के कालसिद्ध हिंदू विज्ञान की सहायता से उस (वैज्ञानिक) चिंतन-पथ का अनुसरण किया जाए। दुर्भाग्यवश मार्क्स को हिंदू विज्ञान का पूरा ज्ञान नहीं था। मेरा विचार है कि तथाकथित 'मार्क्सवाद' को ठुकरा दिया जाए, जिसकी मार्क्स ने कभी कल्पना ही नहीं की थी। भावी पीढ़ियों को उनकी सबसे बड़ी देन यही है कि उन्होंने चिंतन की वैज्ञानिक पद्धति पर बल दिया। उनके प्रति उनके अनुयायियों का सबसे बड़ा अन्याय यही है कि उन्होंने एक ऐसे 'मार्क्सवाद' का आविष्कार कर डाला, जो मार्क्स के गतिमान चिंतन को निरी जड़ता प्रदान करता है।

('आर्गनाइजर' साप्ताहिक

6 नवंबर, 1983 में प्रकाशित साक्षात्कार)

विविधता में एकता के दर्शन

दो साल पहले मास्को में वर्ल्ड फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियन कांफ्रेंस में अपने प्रतिनिधियों को बुलाया गया था। तो उस समय के अपने अध्यक्ष श्री रामभाऊ जोशी और जनरल सेक्रेटरी श्री प्रभाकर घाटे दोनों गए थे। वहाँ भी यह सवाल उपस्थित हुआ था। यह जो पुराना मार्कसिज्म लेनिनिज्म है, उनकी जो व्यवस्था है, वही ठीक है, विचारे सीटू के प्रतिनिधियों ने जैसा रखा वैसा ही विचार रखने वाले वहाँ बहुत कम लोग थे। कम्युनिस्ट यूनियन के भी जो विभिन्न देशों से लोग गए थे उन्होंने भी कहा कि भाई कोई तीसरा विकल्प खोजना चाहिए। जिन्होंने कम्युनिज्म के बारे में अपनी निराशा प्रदर्शित की। वे सब कैपिटलिज्म की गोद में जाकर बैठ गए हैं, ऐसी बात नहीं है। फ्री मार्केट एकोनॉमी के भी दुष्परिणाम लोग जानते हैं, किंतु कोई और रास्ता न होने के कारण लोग इसे अपना रहे हैं। उनके मन में क्या और कोई विकल्प हो सकता है? यह विचार है। उस परिस्थिति में थर्ड ऑल्टरनेटिव शब्द की बड़ी चर्चा उस वर्ल्ड फैडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियन कांफ्रेंस में हुई।

अपने प्रभाकर घाटे ने यह सुझाव दिया कि यदि कोई थर्ड आल्टरनेटिव हो सकता है तो उसके ऊपर विचार करने के लिए एक कमेटी बनाई जाए। किंतु राजनीतिक कारणों से एक कमेटी बनाना उनके लिए आसान काम नहीं था। जैसे कम्युनिस्ट कहते थे कि सारी दुनिया में जितने प्रश्न हैं, उन सब प्रश्नों का उत्तर उनकी जेब में है। जबकि उनकी जेब में सिगरेट छोड़कर और कुछ भी नहीं रहता। हम लोग भी यही कहते रहे हैं कि सभी बातों का अध्ययन करते हुए विकल्प तैयार करना पड़ेगा। हाँ यह बात ठीक है कि आज एकदम ब्लू प्रिंट देने की स्थिति नहीं है। किंतु हम यह जानते हैं कि अपनी यह जो भारतीय संस्कृति है, उस संस्कृति के आधार पर नई रचना हो सकती है। इसलिए जो विकल्प आएगा अपने देश से ही आएगा।

अर्नोल्ड टायन्वी जो प्रसिद्ध इतिहास शास्त्रज्ञ हैं उन्होंने 28 सिविलायजेशन का अध्ययन करने के पश्चात एक निष्कर्ष निकाला है। वह निष्कर्ष यह है कि आगे चलकर दुनिया का मार्गदर्शन करने की जिम्मेदारी भारत पर ही आने वाली है। मैंने भी जब इस आशय की बात को पढ़ा तो मुझे भी बड़ा आश्चर्य हुआ। वास्तव में हम तो अपनी ही समस्याओं से ग्रस्त हैं, और बताया जा रहा है कि दुनिया का मार्गदर्शन अपने को ही करना है तो हमें लगा कि जैसे धोती पहनकर रास्ते में 10-12 लोग जा रहे हैं और हमारी धोती छूट रही है, और हमारे ख्याल में यह बात नहीं आ रही है कि धोती कैसे सँभाली जाए किंतु अर्नोल्ड टायन्बी हमको बता रहे हैं हमें सबकी धोती सँभालने का काम करना है। ऐसा ही कुछ बोल रहे हैं। जो हमें "फैंटास्टिक" लगा। किंतु बाद में उन्होंने स्पष्टीकरण दिया कि भारत समस्याग्रस्त है। दुनिया में जहाँ कोई समस्या होगी वह भारत में भी होगी। वही दूसरी बात भी है। वह यह कि भारत में अपनी संस्कृति है, जो परंपरा से भारत को विरासत में मिली है।

भारत में संस्कृति नाम की जो चीज है वह दुनिया के किसी देश के पास नहीं है। इसी के आधार पर अर्नोल्ड टायन्बी भी कहते हैं कि जितनी समस्याएँ भारत के सामने हैं, उन सब समस्याओं पर भारत मात करने वाला है और भारत जब इसी संस्कृति के आधार पर अपने समाज की रचना करेगा तो फिर इन सभी समस्याओं का उत्तर देते हुए पूरी तरह मार्ग निकालेगा, नई समाज रचना करेगा। इसकी एक मिसाल इसका एक मॉडल तैयार होगा, और दुनिया में जहाँ-जहाँ समस्याएँ हैं उन लोगो को भारत में आकर अपनी समस्याओं के समाधान का तरीका सीखना होगा। जब दुनिया के सब लोग अपनी समस्या का समाधान ढूँढने भारत आएँगे तो उसका दायित्व भारतवासियों पर आएगा। शायद इसीलिए अर्नोल्ड टायन्बी ने कहा कि भारत दुनिया का मार्गदर्शक होगा।

ट्रेड यूनियन के तीन रूप

ट्रेड यूनियन के बारे में यदि विचार किया जाए तो उसमें अधिक लोगों को अधिक दिनों तक प्रेरणा देने की ताकत नहीं है। कम्युनिस्ट जिसे ट्रेड यूनियनिज्म कहते हैं - वह ट्रेड यूनियनिज्म नहीं है, बल्कि वह तो ब्रेडबटर एकानामिज्म है। केवल आर्थिक स्वार्थ के लिए लोगों को इकट्ठा करना, आर्थिक लड़ाई करना, और लड़ाई खत्म होने के बाद कहना कि यह एकानामिज्म है, जिसमें न काई सिद्धांत है और न ही ध्येय। हमारा कहना है कि यह पॉलिटिकल ट्रेड यूनियनिज्म है। लेनिन ने भी कहा था कि ट्रेड यूनियन मूवमेंट को कम्युनिस्ट रिवोल्यूशन के माध्यम के रूप में उपयोग करना चाहते हैं।

भारतीय मजदूर संघ जिस "जेन्युइन ट्रेड यूनियन" की बात करता है - वह दूसरी बात है। वह "दि वर्कर्स इंटरेस्ट विदिन दि फ्रेम ऑफ नेशनल इंटरेस्ट" मानता है। हम राष्ट्रवादी हैं। राष्ट्र खड़ा होगा तो मजदूर गिर नहीं सकता। राष्ट्र और मजदूर दो अलग-अलग बातें नहीं हैं। मजदूर राष्ट्र-शरीर का अविभाज्य अंग है। राष्ट्र के साथ हम अभिन्नता से जुड़े हैं। अद्वैत हैं, द्वैत नहीं। राष्ट्र के पुनर्निर्माण का एक साधन इस रूप में भारतीय मजदूर संघ है ऐसा हमने कहा है। अर्थात ट्रेड यूनियन में तीन पंथ हो गए। पहला एकानामिज्म, दूसरा पालिटिकल यूनियनिज्म, तीसरा जेन्युइन ट्रेड यूनियनिज्म - भारतीय मजदूर संघ तीसरी प्रकार की ट्रेड यूनियनिज्म का पक्षधर है। शेष दो प्रकार की चलने वाली ट्रेड यूनियन का असर हमारे ऊपर तब तक होने की संभावना नहीं है जब तक हमारे सम्मुख राष्ट्रभक्ति का ध्येय है।

नक्सलवाद का मूलाधार असंतोष

नक्सलवाद के आद्य प्रणेता चारु मजूमदार थे। चूँकि यह नक्सलबाड़ी गाँव से प्रारंभ हुआ इसलिए इसका नाम नक्सलवाद पड़ा। नक्सलवाद ने तरह-तरह के रूप धारण किए हैं। पहले एक छात्र चारु मजूमदार का था, बाद में गुरु चेले में मतभेद निर्माण हुआ। नक्सलवादियों में जो ग्रुप निर्माण हुए वह उस प्रकार के नहीं थे जैसे कि राजनीतिक दलों में निर्माण होते हैं। चारु मजूमदार को लगा कि चायना मॉडल अपनाना ठीक होगा किंतु उस समय रूस मॉडल की भी जोरों से चर्चा थी। चारु मजूमदार की सोच थी कि माओ ने जैसा किया है उसी प्रकार उन्हें भी करना चाहिए। इसलिए उन्होंने कुछ काम शुरू भी किया। बाद में चायना ने उनको कहा कि तुम गलत कर रहे हो। कुछ बातों पर मतभेद थे, जैसे आर्मी कब खड़ी की जाए इस पर मतभेद थे, माओ भारत का चेयरमैन है, इस पर मतभेद थे, किंतु चारू मजूमदार ने यह नारा लगाया। चायना की कम्युनिस्ट पार्टी ने चारु मजूमदार को यह नारा लगाने से मना किया। इसी बात पर चारु मजूमदार के साथ मतभेद निर्माण हुए। नक्सलवादी आंदोलन में गतिरोध निर्माण हुआ। लेकिन एक बात स्पष्ट है कि गुटबंदी जैसी कि राजनीतिक दलों में होती है, उसके लिए केवल व्यक्तिवाद जिम्मेदार नहीं है। कुछ न कुछ सिद्धांत, कुछ न कुछ व्यावहारिक बात जैसे पार्लियामेंट्री चुनाव में हिस्सा लेना, नहीं लेना, मास आर्गनाईजेशन चलाना या नहीं चलाना, कई मुद्दों पर, कई विषयों पर आपसी मतभेद निर्माण हुए और उनके कई टुकड़े हुए।

किंतु यह बात स्पष्ट है कि नक्सलवादी होने के लिए हिम्मत चाहिए क्योंकि नक्सलवादी बनकर कोई आदमी अपने जीवनकाल में प्रधानमंत्री बनने की आशा नहीं कर सकता। अवसरवादी तो प्रधानमंत्री जल्दी बन जाते हैं। जो वास्तव में ध्येयवादी हैं - ऐसे शिक्षित लोग नक्सलवाद अपनाते हैं। उसके लिए कष्ट सहन करते हैं। यह उनकी "प्लस साइड" है किंतु दूसरी साइड यह है कि सभी बुद्धिमान नेता हैं। इसलिए आपस में उनका कभी जमता नहीं है। प्रत्येक समय मतभेद चलते ही रहते हैं। कभी रणनीति के बारे में, तो कभी सिद्धांत के बारे में प्रकट होते हैं। एक और बात है। कभी-कभी उनको जल्दबाजी भी हो जाती है। जैसे पालिटिकल लोगों को होती है। पालिटिकल लोग जल्दबाजी में असामाजिक तत्त्वों को अपने साथ जोड़ लेते हैं। ठीक उसी प्रकार असामाजिक तत्त्व नक्सलवादियों के साथ जुड़ गए, किंतु सभी असामाजिक तत्त्वों को नियंत्रण में रखना कठिन काम है। इसके कारण नक्सलवाद की बदनामी भी हुई। नक्सलवाद वहीं बढ़ सकता है जहाँ असंतोष है। नेता त्यागी हैं इसमें कोई संदेह नहीं, किंतु संगठन उनके बस का रोग नहीं। जो तुरंत प्रभाव बढ़ाने के लिए संगठन में आते हैं और अपने साथ असामाजिक तत्त्वों को लाते हैं उसके दुष्परिणाम भी उन्हीं को भुगतने पड़ते हैं। असामाजिक तत्त्वों पर नियंत्रण करने की क्षमता उनके अंदर नहीं होती है। यह एक समस्या है।

आतंकवाद की समाप्ति सरकार की इच्छा पर निर्भर

आज जो पंजाब और कश्मीर की समस्या है, उसके बारे में परेशान होने की बात नहीं। काफी लोग नाराज हो जाते हैं और कहते हैं कि हर दिन लोग मर रहे हैं। हत्याएं हो रही हैं और आप कहते हैं कि कोई चिंता की बात नहीं है। चिंता उस बात की करनी चाहिए जो समस्या हमारे ताकत से बाहर है। यह समस्या हमारे ताकत से बाहर नहीं है। आतंकवाद तो एक रेगुलर साइंस है। दूसरे महायुद्ध के समाप्त होने के बाद मध्य अमरीका और दक्षिण अमरीका जिसको लेटिन अमरीका कहते हैं, इसमें आतंकवाद का निर्माण हुआ। बाद में यह आंतकवाद सारी दुनिया में फैल गया। किसी नए शस्त्र का प्रयोग स्थल, काल, परिस्थिति के अनुसार करना ही पड़ता है। उसमें आवश्यकतानुसार बदल भी किया जाता है। दुनिया की सभी सुसंस्कृत सरकारें आतंकवाद के साइंस को जानती हैं। हमारी सरकार भी बखूबी जानती हैं।

जब वर्षों से आतंकवाद चला आ रहा है तो वह कैसे समाप्त हो, उस शास्त्र का भी निर्माण हुआ है। हमारी सरकार भी वह शास्त्र जानती है। अब प्रश्न उठता हैं कि यदि चिंता का विषय नहीं है तो क्या आतंकवाद को समाप्त करना सचमुच में हमारे बस की बात है। मगर यह तो चिंता का विषय है। क्या आतंकवाद यह सही समस्या है? पंजाब में खालिस्तान के बारे में पहले जब माँग उठाई गई उस समय वह आतंकवाद के आधार पर नहीं उठाई गई। हिंदुस्तान में "रीजनल इम्बैलेंसेज हैं। जो राष्ट्रभक्त थे उन्होंने खालिस्तान की माँग का समर्थन किया। जिन्होंने समर्थन किया वह भी आतंकवादी थे, ऐसी बात नहीं है। जैसे विदर्भ में भी आंदोलन होता है, तेलंगाना में आंदोलन होता है। पहले जो आंदोलन का स्वरूप था, वह सीमित था। बाद में उसको व्यापक जन-समर्थन मिला। आतंकवादियों ने उस आंदोलन को अपने हाथ में ले लिया और गैर आतंकवादी लोग देखते रहे, हाथ पर हाथ धरकर असहाय से हो गए, क्योंकि आंदोलन की बागडोर उनके हाथ से निकल चुकी थी। यह बात कई लोगों के ध्यान में नहीं आई। बहुत पहले ऐसी चर्चा थी कि सारे सिख खालिस्तान के पक्षधर हैं। गैरसिख हिंदुओं के साथ जब सिख हिंदुओं की हत्या होना शुरू हुआ, जिनकी हत्या का प्रतिशत गैर सिख हिंदुओं की तुलना में बढ़ा तो लोगों के दिमाग में आने लगा कि शायद यह और कोई बात है। समाचार-पत्र पढ़कर तो सारी स्थिति का पता नहीं चलेगा।

पंजाब के आतंकवादी हों या कश्मीर के, क्या वे हम लोगों से बहादुर हैं। हम जिस मिटटी से हैं वे भी उसी से हैं। अपने भाई हैं। अपने खानपान के हैं। जो हमारा है वही उनका है। एकदम यह इतने बहादुर कैसे हो गए, ये सोचने की बात है। एक छोटा उदाहरण देता हूँ। उदाहरण अच्छा नहीं है किंतु समझने के लिए दे रहा हूँ। एक आदमी अपनी बहन के साथ मार्केट गया था। लोग जानते थे वह मर्द है, पहलवान है। इसकी बहन के साथ छेड़खानी करेंगे तो वह मर्द छेड़खानी करने वालों की हड्डी-पसली चूर-चूर कर देगा। मार्केट के गुंडे पहलवान की बहन को तिरछी नजर से देख नहीं सकते हैं। यदि लोगों (गुंडों) को यह पता है कि लड़की के साथ उसका भाई नामर्द (कमजोर) है तो बाजार के गुंडे छेड़खानी अवश्य करेंगे। लेकिन जो प्रत्यक्ष गुंडा नहीं है वह अपनी उंगली भी नहीं उठाएगा।

जब लोग जानते हैं कि केंद्र सरकार को कुछ करना ही नहीं है तो कोई भी आतंकवादी हो सकता है। किसी भी प्रश्न के मूल में जब तक हम नहीं जाएंगे तब तक उसका सही स्वरूप ध्यान में नहीं आएगा। सरकार आतंकवाद के विरुद्ध कोई सख्त नीति अपनाने वाली नहीं है - यह स्पष्ट होने के कारण आतंकवाद बढ़ा है। आतंकवाद को कैसे समाप्त करना, यह बात केंद्र सरकार जानती है। लेकिन वह आतंकवाद को समाप्त करना ही नहीं चाहती। तमिलनाडु में सात-आठ वर्ष पहले ब्राह्मणों की कांफ्रेंस हुई उन्होंने तमिलनाडु में ब्राह्मण एसोसिएशन स्थापित की और कहा हम अल्पसंख्यक हैं, हमको मायनॉरिटी को जो सुविधा मिलती है - वह सुविधाएं मिलनी चाहिए। हम हिंदू नहीं हैं। और तो और जो संन्यासी हैं ऐसे रामकृष्ण मिशन के संन्यासियों ने उच्च न्यायालय में कहा कि हम हिंदू नहीं हैं। हम रामकृष्णायत हैं। हमारे एजूकेशनल इन्स्टीट्यूशन को सुविधाएँ मिलनी चाहिए। जो मायनॉरिटी एजूकेशनल इंस्टीट्यूशन को मिलती हैं तो इन संन्यासियों पर किसका दबाव था? तमिलनाडु के ब्राह्मणों पर क्या पाकिस्तान का दबाव था?

राष्ट्र की एकात्म धारा में रहना भी पागलपन है। जो इस धारा के साथ रहेगा उसको घाटा तो होना ही है। राष्ट्रीय धारा से अलग होने की प्रवृत्ति से लाभ होता है। जब तक इस प्रकार की व्यवस्था हमारे संविधान में रहेगी, तब तक अलगाववादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलेगा ही। किंतु जहाँ कश्मीर और पंजाब का सवाल है, क्या इन दोनों प्रदेशों की सरकारों ने पूरी ताकत के साथ, केवल वन प्वांइट प्रोग्राम (एक सूत्रीय कार्यक्रम) आतंकवाद को समाप्त करना है - ऐसा कार्यक्रम बनाया? क्या सरकार असफल हो गई? अब कश्मीर में मुसलमान हैं। बड़े बहादुर हो गए हैं। वे सब तो हमारे ही खानपान के थे। सभी पंडित थे, पहले कभी भी इन्होंने तलवार हाथ में नहीं उठाई। आज एकदम कैसे बहादुर बन गए। तो वही बात है नामर्द आदमी के साथ यदि उसकी बहन मार्केट जाती है तो झमेले खड़े होते हैं।

भारतीय किसान संघ के लोग किसान संघ के काम से तराई इलाके में गए थे - उत्तर प्रदेश में वहाँ आतंकवाद अधिक है। हत्या के बजाए अपहरण की प्रवृत्ति ज्यादा है। हमारी जो बैठक चल रही थी उसकी रक्षा के लिए 135 सिक्योरिटी गार्ड रखे गए थे। जब बैठक चल रही थी उसी समय एक अपहरण हुआ, जिसका अपहरण हुआ था उससे भारतीय मजदूर संघ के पदाधिकारी का संबंध था। बहेड़ी में भारतीय चीनी मिल मजदूर संघ चल रहा है, जो अपने से संबद्ध है। यूनियन के अध्यक्ष का नाम श्री नयन सिंह, उन्हीं के लड़के का अपहरण हुआ था। उनके भाई के नगराध्यक्ष होने के नाते बहुत हलचल हुई। लेकिन दोनों भाई पुलिस में नहीं गए, बोले पुलिस में जाने से कोई लाभ नहीं है। वे दोनों सीधे जाकर ऐसे लोगों से मिले, जिनमें कोई न कोई आतंकवादी है। उन्होंने उनसे कहा यदि हमारा लड़का तीन दिन में वापस नहीं आया तो हम दोनों भाई मिलकर आपके पूरे परिवार का मर्डर करने वाले हैं। आप और आपके परिवार का मर्डर होगा यह बात ध्यान में रखिए। तीसरे दिन लड़का वापस आना चाहिए। तीसरे दिन सुबह उनका लड़का वापस आ गया। उसके शरीर पर अच्छी शाल थी। नए गरम कपड़े थे। उसकी जेब खर्च के लिए 300 रुपए थे। हालाँकि एक रात के प्रवास के लिए 300 रुपए जेब खर्च की आवश्यकता नहीं है। आतंकवादियों ने लड़के से कहा था कि जाकर अपने चाचा और पिता जी से कहना कि उनका व्यवहार हमारे साथ अच्छा था। इसका मतलब क्या है? हमने कंट्रोल करने का प्रयत्न किया, प्रयास किया और कंट्रोल नहीं हुआ, ऐसा कहा जा सकता है क्या? अब देखिए रिबेरो को इनकी व्यवस्था करने में शासन ने मुक्त हस्त छोड़ा होगा क्या? वह सारी स्थितियों को नियंत्रण में लाने की क्षमता रखते हैं। जगमोहन को तो इसलिए निकाला गया क्योंकि वह पूरी स्थिति को नियंत्रण में ला सकते थे और रिबेरो को भी मुक्त हस्त नहीं छोड़ा गया।

जिनको फ्री हैंड नहीं दिया जाता उनकी बड़ी विचित्र स्थिति होती है। दिन में 18 लोगों को गिरफ्तार किया। रात में दिल्ली से फोन आता है कि उन 18 लोगों को छोड़ दो। 18 लोगों को अरेस्ट किया और रात में छोड़ दिया तो पुलिस के "मॉरल" का क्या होगा? तो आतंकवाद को समाप्त करने का वन प्वाइंट प्रोग्राम रहा क्या? आतंकवाद खत्म हो जाए किंतु अगले वर्ष वोटिंग का समीकरण भी नहीं बिगड़ना चाहिए। अर्थात दो दिशा में जाने वाले दो घोड़ों पर आप सवारी करेंगे और कहेंगे कि आतंकवाद को कंट्रोल करना संभव नहीं है। यानि साँप भी मरे और लकड़ी भी ना टूटे कि कहावत चरितार्थ होगी। आतंकवादियों के हाथ में ए.के. 47 हैं। हमारे सिक्योरिटी गार्ड्स के पास 20-30 वर्ष पुरानी मस्केट। सरकार कहती है कि हमारे पास शस्त्र नहीं हैं। यह बात सही नहीं हैं। सच तो यह है कि हमारे पास इतने हथियार हैं जो ए.के. 47 के बाबा हैं। अच्छे शस्त्र एक जगह हैं और मरने वाली पुलिस दूसरी जगह। वास्तव में आतंकवाद को कुचलने की सरकार की जब इच्छा होगी आतंकवाद तभी समाप्त हो जाएगा।

1964 की बात है। नागालैंड में विद्रोह चल रहा था। नागालैंड की आबादी साढ़े चार लाख है। मैंने राज्यसभा में प्रश्न किया था, मिनिस्टर ने कहा कि इतनी सेना है, उतने शस्त्र हैं। मैंने पुनः प्रश्न किया कि इतनी सेना और शस्त्रास्त्र के साथ हम नागालैंड को कंट्रोल नहीं कर पाए, तो आखिर कारण क्या है? उन्होंने कहा कि टेरेन इज डिफीकल्ट। टेरेन माने ऊबड़-खाबड़। जंगल हैं, पहाड़ियाँ हैं। अपने को भी पूरा पता नहीं था। एक दिन मेरे बचपन का साथी, जो आर्मी में आफीसर था और नागालैंड में ही उसकी पोस्टिंग थी। मैंने उससे नागालैंड के बारे में जानकारी ली और यह भी कहा कि हमारे मिनिस्टर साहब तो कहते हैं कि टेरेन इज डिफीकल्ट। उसने कहा कि - "मिनिस्टर इज नाइदर सोल्जर नॉर कमांडर।" हमने कहा कि तुम यह बताओ कि तुम लोग कंट्रोल क्यों नहीं कर पा रहे हो? उसने कहा सुन, हमारे लिए दिल्ली का आर्डर क्या है? डोन्ट शूट अनलेस यू आर शूटेड यानी जब तक आपके ऊपर दुश्मन गोली नहीं मारता तब तक आप दुश्मन पर गोली नहीं चला सकते। उसने कहा कि शत्रु मेरे ऊपर गोली चलाता है तो मैं जवाब देने के लिए यदि जिंदा रहूँगा तभी तो गोली मारूँगा। तो जब यह आर्डर है कि डोंट शूट अनलेस यू आर शूटेड तो फिर हम कर ही क्या सकते हैं?

इसका एक विपरीत उदाहरण देखिए - हालाँकि यह उदाहरण सीमित सज्जनों में दे रहे हैं कि हाऊ टु कंट्रोल एंड फिनिश टेरेरिज्म। जिसके बारे में यह उदाहरण दे रहा हूँ उनके सिद्धांत से मैं सहमत नहीं हूँ। 1931, 1932, 1933 की बात है, जर्मनी के प्रशिया प्रांत में कम्युनिस्ट बहुत बलवान हो गए थे और उन्होंने आतंकवाद फैलाया था, जैसा अपने यहाँ चलता है उसी तरह का आतंकवाद फैला था - दुश्मन का गला घोंटना, प्रॉपर्टी को अंगार लगा देना, डाइनामाइट से उड़ा देना, यह सब कुछ कम्युनिस्टों ने चलाया था। जहाँ कोई घटना होती थी तो पुलिस के पास जाना पड़ता था। शांति व्यवस्था के लिए पुलिस को वहाँ जाना पड़ता था। पुलिस को लाठी चार्ज करना, एयर गैस छोड़ना पड़ता था, यहाँ तक कि फायरिंग भी करनी पड़ती थी। फायरिंग हो जाए पर कोई मृन्यु भी न हो, कोई घायल भी न हो इस तरह की कोई पद्धत्ति नहीं है। इसके कारण लोग घायल होते थे। लोगों की मृत्यु भी होती थी। यह बात पार्लियामेंट में पहुँची। उस समय हार्ट पेटेन हेड आफ दि स्टेट थे। वे उतने ही कमजोर थे जितने एकाध को छोड़ दीजिए, तो हिंदुस्तान के सभी प्रधानमंत्री रहते आए हैं। उधर कुछ फायरिंग हुई, मृत्यु हुई तो दूसरी ही दिन कम्युनिस्टों ने हल्ला मचाया कि पेटेन साहब तानाशाह बन गए हैं। काहे के तानाशाह ! वे तो भीगी बिल्ली की तरह रहते थे लेकिन पेटेन साहब तानाशाही ला रहे हैं ऐसा शोर-गुल होने के बाद पेटेन साहब खड़ा होकर कहते थे - भाई गड़बड़ मत करो, मैं इन्क्वायरी निश्चित करता हूँ। अब देखा जाए तो ऐसा लगता है कि यह नार्मल कोर्स है। प्रत्यक्ष में क्या होता है जरा देखो।

इंक्वायरी इंस्टेंट होती थी। कम्युनिस्ट उसको जान-बूझकर सार्वजनिक स्वरूप देते थे। बड़े-बड़े इज्जतदार पुलिस आफीसर्स को कटघरे में खड़ा किया जाता था। जनता वहाँ रहती थी। पुलिस डिपार्टमेन्ट के लोग वहाँ रहते थे। सबके सामने क्रास इक्जामिन करने वाला मखौल उड़ा सकता है। हास्यास्पद स्थिति बनाने का प्रयास कर सकता है। पुलिस के अधि कारी अपमान महसूस करते थे। पाँच छ: बार जब ऐसा हुआ तो पुलिस वालों में प्रतिक्रिया हुई। प्रतिक्रिया हुई कि लॉ ऐंड आर्डर रखने के लिए हम फायरिंग करते हैं और आप ही हमें अपमानात्मक परिस्थिति में खड़ा करते हैं। हमें क्या लेना देना है? तुम जानो, तुम्हारा लॉ ऐंड आर्डर जाने। हम सब इंटरफियर करने वाले नहीं हैं। पुलिस डिपार्टमेंट उदासीन हो गया। आतंकवादी कम्युनिस्टों ने जोर पकड़ा।

चुनाव का समय आ गया। हिटलर की नाजी पार्टी चुनकर आई। हिटलर ने पहला एप्वाइंटमेंट किया वह था प्रशिया के होम मिनिस्टर के नाते मार्शल गोअरिंग का। मार्शल गोअरिंग ने गृह मंत्रालय का चार्ज लिया। उन्होंने पुलिस आफीसर्स की बैठक बुलाई और उनके सामने मार्शल गोअरिंग ने मात्र तीन मिनट का भाषण दिया और कहा कि "वी आर पार्टीकुलर एबाउट लॉ ऐंड आर्डर सिचुएशन" - हम शांति-व्यवस्था के लिए बहुत सतर्क हैं। "यू शुड बी रिसपांसिबुल फार ला ऐंड आर्डर" हम आपको लॉ ऐंड आर्डर के लिए जिम्मेदार समझते हैं ! उन्होंने आगे कहा कि "वी आर पर्टीकुलर एबाउट लॉ अॅड आर्डर सिचुएशन - वी होल्ड यू रिसपांसिबुल फॉर लॉ ऐंड आर्डर - एवरी बुलट फ्राम योर रायफल इज ए बुलेट फायरर्ड फ्राम माई रायफल" अर्थात हम शांति-व्यवस्था के लिए बहुत सतर्क हैं - हम आपको शांति-व्यवस्था के लिए जिम्मेदार समझते हैं। आपकी रायफल से निकली प्रत्येक बुलेट मेरे रायफल से निकली हुई बुलेट है। ऐसा करने से वहाँ शांति स्थापित हुई।

कहने का तात्पर्य यह है कि यदि सरकार इच्छा कर ले तो आतंकवाद समाप्त हो सकता है। जब तक सरकार की इच्छा नहीं होगी तब तक आतंकवाद चलता ही रहेगा। सरकार के पास सभी समस्याओं का हल है। किंतु वह करना नहीं चाहती। यही एक चिंता का विषय है।

('कार्यकर्ता की मनोभूमिका' पृ. 63 से 71)

सिद्धांतों के पालन में वज्र सी कठोरता चाहिए

सिद्धांतों, आदर्शों, जीवन-मूल्यों तथा उनसे निकलने वाले व्यावहारिक निष्कर्षों के विषय में असमझौतावादी रुख ही होना चाहिए। परमपूजनीय श्री गुरुजी के जीवन में दृढ़ता बार-बार प्रकट हुई। अमरीका के राष्ट्रपति कैनेडी (राष्ट्रपति होने के पूर्व) द्वारा लिखित पुस्तक "प्रोफाइल इन करेज" (Profile in Courage) ऐसे ही उदाहारणों से युक्त है। मार्टिन लूथर ने भी युवावस्था में कहा था - "Here stand I. I can not do otherwise. Let God save me." ("मैं यहाँ दृढ़ हूँ। इसके अतिरिक्त मैं कुछ नहीं कर सकता। ईश्वर मेरी रक्षा करे।")। भारत तथा दुनिया के सभी हुतात्माओं ने इसी वृत्ति का परिचय दिया है। अपने धर्म को न छोड़ने के निश्चय के कारण अपना प्रिय जन्मस्थान छोड़कर स्वयं की इच्छा से विस्थापित होने वाले लाखों हिंदुओं ने तथा मोझेस के नेतृत्व में यात्रा करने वाले इस्रायलियों ने इसी वृत्ति को अपनाया है। समर्थ रामदास या तुलसीदास के उपदेश के अनुसार "जाके प्रिय न राम वैदेही" ऐसे अपने प्रिय जनों का त्याग करने वाले कितने ही महापुरुष हैं। जीवन संगिनी के साथ सप्तपदी में सात कदम चलने के बाद आठवां कदम चक्रव्यूह में रखने वाले अभिमन्यु के अनुयायी कितने ही हुए हैं।

देशवासियों द्वारा "war-Monger" (युद्ध फैलाने वाला) की उपाधि दिए जाने के बावजूद हिटलर के इरादे और तैयारी के विषय में ब्रिटेन को सतत चेतावनी देने वाला चर्चिल का प्रचार तथा मार्शल पेतां के नेतृत्व वाली फ्रांसीसी राष्ट्रीय सरकार द्वारा लिए गए आत्मसमर्पण के निर्णय के विरोध में जनरल दगाल की कार्यवाई - ये दोनों उदाहरण इसी श्रेणी के हैं। जिन सिद्धांतों को हम गलत समझते हैं, उनके पक्षधरों द्वारा विपरीत परिस्थिति में दिखाई गई दृढ़ता की भी हमें सराहना ही करनी चाहिए। सन 1942 में 'भारत छोड़ो' आंदोलन तथा 1962 में चीनी आक्रमण के समय भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने इसी दृढ़ता का परिचय दिया। हालाँकि उनके ये दोनों निर्णय राष्ट्रविरोधी थे। उसके नेता जानते थे कि उनके निर्णय के कारण सभी देशवासियों का तीव्र रोष उन्हें झेलना पड़ेगा।

चौरी-चौरा की घटना के बाद आंदोलन लेने का निर्णय सभी देशभक्तों को अप्रिय लगेगा, इस बात को गांधी जी अच्छी तरह से जानते थे। द्वितीय महायुद्ध प्रारंभ होने के पश्चात कांग्रेस कमेटी की पूना की बैठक में देश की सुरक्षा व्यवस्था की दृष्टि से शुरू किए गए अभियान से असहमति प्रकट करते समय गांधी जी ने जो भूमिका अपनायी वह किसी भी देश-हितैषी को जँचने वाली नहीं थी। गांधी जी जानते थे कि अत्याधिक अहिंसा की इस भूमिका की सभी निंदा करेंगे। हम भी उसको गलत ही मानते हैं। फिर भी उनका जो सिद्धांत सही हो या गलत उसके लिए "I am in the microscopic minority of one" यह दृढ़ता उन्होंने प्रकट की, जिसे प्रशंसनीय माना जाएगा। कोई सिद्धांत सही है या गलत इसका निर्णय अपनी-अपनी मान्यताओं पर अवलंबित है। किंतु एक बार उसको स्वीकार करने के पश्चात आसमान टूट पड़े या धरती फट जाए तो भी सिद्धांत से समझौता नहीं करेगा यह वृत्ति अपनाने वाले लोगों ने इतिहास में बार-बार परिवर्तन किए हैं। स्पेक्टेटर के सर राजर डी कावरले के समान "Much can be said on both the sides" कहने वाले व्यवहार चतुर लोग निर्वाचन तो जीत सकते हैं परंतु ऐतिहासिक परिवर्तन के वाहक नहीं बन सकते।

जहाँ ध्येय तथा सिद्धांतों के विषय में अडिग रहना चाहिए, "न निश्चिताद्वि निर्मातिन्धीरा" यह वृत्ति अपनानी चाहिए वहाँ कुछ विषयों में अधिक से अधिक समझौतावादी रुख अपनाना उपयुक्त है। ये विषय हैं - व्यक्तिगत कार्यक्रम, व्यक्तिगत पसंदगी-नापसंदगी। इन बातों में इच्छा के अनुसार ही चलना चाहिए। वृद्धावस्था या अपंगता के कारण आने वाली प्राकृतिक मर्यादाएँ समझी जा सकती हैं। यद्यपि कुछ अति उत्साही कार्यकर्ता इस आशा के विपरीत काम करते हैं। बीमारियों के कारण भी कुछ मर्यादाएँ निर्मित होती हैं। औषधि सेवन में नियमितताएँ पथ्यपालन, विश्राम की अवधि, शौचालय की व्यवस्था आदि के बारे में सूचना परिपत्र कार्यालय से जानी चाहिए। संबंधित कार्यकर्ताओं से, जहाँ तक बने वहाँ तक, इन विषयों पर स्वयं मुँह न खोलने का प्रयास करना चाहिए। दौरे पर रहने की व्यवस्था कार्यकर्ता तथा अन्य साधारण व्यक्तियों के स्थान पर रखना उचित है।

गेस्ट हाउस, सर्किट हाउस, या श्रीमान् व्यक्ति का मकान आदि स्थानों का उपयोग नहीं करना चाहिए। यद्यपि ऐसे स्थान अधिक सुविधाजनक हो सकते हैं। सुविधा उतनी ही होनी चाहिए जितनी हमारे सामान्य कार्यकर्ताओं को उपलब्ध हो सके। प्रेम तथा आदर के कारण लोग सोचते हैं कि संगठन में व्यक्ति का पद जितना ऊँचा होगा उतनी ही अधिक सुख-सुविधाएँ उसको उपलब्ध कराई जाएँ। लोग इस ढंग से सोचते हैं कि यह अच्छा है किंतु नेताओं को यह सूत्र अपनाना चाहिए कि पद जितना ऊँचा उतनी ही सुख-सुविधा की मात्रा कम रहे। आदर के कारण लोग शानदार भोजन, वाहन या कपड़े देने की योजना करते हैं तो नेताओं को स्वयं उस पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। यह वह विषय है जिसके लिए लोगों या कार्यकर्ताओं को अवश्य नाराज होने देना चाहिए। "मैं क्या करूँ, मैं न स्वीकार करता तो वह बहुत दुखी होता," इस फार्मूले के लिए यह विषय अपवाद है। हम तो अपनी ओर से कुछ नहीं चाहते, कुछ नहीं मिलता तो भी हम काम चला लेते हैं। लेकिन न माँगते हुए भी स्वाभाविक रूप से यदि कुछ सुख-सुविधा कहीं उपलब्ध हुई तो आपत्ति क्या है? यह तर्क दोनों दृष्टियों से गलत है।

एक तो हम विश्वामित्र से अधिक बड़े तपस्वी नहीं हैं और दूसरे जो सादगी अखंड परिश्रम से प्राप्त होती है वह कार्यकर्ता के जीवन में अपेक्षित है। उसका नमूना हमें अपने जीवन में प्रस्तुत करना चाहिए। नहीं तो इस विषय में हमारे मार्गदर्शन का नैतिक वजन घट जाएगा। कार्यकर्ता के सम्मुख आदर्श उपस्थित करने की जिम्मेदारी नेताओं की है।

इतना ही नहीं इन बातों का प्रभाव सैद्धांतिक प्रतिपादन के परिणाम पर भी पड़ता है। प्रचारक के नाते मैं एक प्रौढ़ तथा समझदार कार्यकर्ता के परिवार में रहता था। किंतु परिवार की सुविधा का विचार अति उत्साह के कारण, मेरे मन में नहीं आता था। चाय के समय एक दिन परिवार प्रमुख स्वयंसेवक ने कहा "ठेंगडी जी ! आपने उस दिन 'हिंदुत्व ही राष्ट्रीयत्व' का विषय बहुत अच्छे ढंग से रखा। मैं बहुत प्रभावित हुआ। मैंने बाद में अपनी पत्नी को भी वह विषय समझाने की कोशिश की। आपने जितने तर्क दिए थे वे सब मैंने पत्नी को बताए लेकिन वह मानने के लिए तैयार नहीं हुई कि हिंदुत्व ही राष्ट्रीयत्व है। उसे यह विषय कैसे समझाया जाए समझ नहीं पा रहा हूँ।"

सिद्धांत का प्रस्तुतिकरण अधिक अच्छे ढंग से कैसे हो सकता है, इस विषय पर मैं उसकी चर्चा करता रहा। शायद उस समय वह मन ही मन हँस रहे होंगे। बाद में उन्होंने कहा - "हाँ। इन सब बातों पर विचार अवश्य होना चाहिए। किंतु फिर भी मुझे और ही कुछ लग रहा है।" मैंने पूछा "क्या लग रहा है, आपको? "उन्होंने कहा, मैं अपनी पत्नी का स्वभाव अब तक जैसा समझ सका हूँ उसके आधार पर मुझे लगता है कि मैं जब तक अपनी दिनचर्या बदलकर प्रभात शाखा जाने के पूर्व ही अपना नहाना-धोना नहीं निपटाता तब तक मेरी पत्नी के ध्यान में यह नहीं आएगा कि हिंदुत्व ही राष्ट्रीयत्व है।" ध्येयवादी कार्यकर्ता ध्येयविहीन लोगों को अपने मार्ग पर लाने का प्रयास करता है। अपने ध्येय पर वह अविचल मन से आगे बढ़ता है। समर्पित लोगों की ध्येयशून्यता देखकर उसको दुख होता है। फिर भी यह आवश्यक है कि उसके मन तथा व्यवहार में आपसे अधिक पवित्र विचार Holier-than-thou attitude न आए। अन्य लोगों से मैं अधिक श्रेष्ठ हूँ, यह भाव उसके मन में नहीं आना चाहिए। वैसे ही लोगों से बातचीत करते समय वह स्वयं अपने को अन्य लोगों के ऊपर न रखे। उपदेशक की भूमिका में नहीं आना। चार लोगों के साथ उनके समान ही अपने को समझना। संत ज्ञानेश्वर ने कहा है कि लोगों से व्यवहार करते समय अलौकिक नहीं रहना चाहिए। अपनी पृथक पहचान नहीं रखनी चाहिए। ध्येयवादिता का भी अहंकार मन में नहीं रहे। वैसे ही ध्येयशून्य लोगों से घिरे रहने के कारण मन में आत्मकेंद्रित भाव निर्माण नहीं होना चाहिए। अच्छे ध्येयनिष्ठ व्यक्तियों में भी यह भाव निर्माण हो समता है। मार्टिन लूथर किंग ने कहा - "There can be self centredness even in the midst of self- sacrifice" (आत्मबलिदान के बीच भी आत्मकेंद्रित होने की स्थिाति हो सकती है) इससे स्वयं को बचाना आवश्यक है।

'अवतार' कल्पना के विषय में मा. बालशास्त्री हरदास जी स्पष्टीकरण देते थे। वे कहते थे कि मानो एक आदमी गहरे खड्डे में गिर गया। गिरने से उसके हाथ-पैर में भी चोटें आई। दूसरा आदमी खड्डे के किनारे खड़ा है और उसे ऊपर उठाना चाहता है। गिरा हुआ व्यक्ति अपंग हो गया है। इस कारण यह संभव नहीं कि ऊपर से रस्सी नीचे डाली जाए और उसको कहा जाए कि तुम रस्सी पकड़े रहो, हम तुमको ऊपर खींचते हैं। इस अवस्था में अन्य कोई रास्ता नहीं है सिवाय इसके कि ऊपर का व्यक्ति स्वयं खड्डे में उतरे और उसको कंधों पर लेकर ऊपर लाए। नीचे के व्यक्ति का उद्धार करना है तो ऊपर के व्यक्ति का नीचे अवतरण होना अपरिहार्य है। ऊपर से ही उसको मार्गदर्शन या उपदेश देने से नीचे के व्यक्ति का उद्धार हो नहीं सकता।

हम इस संबंध में यह अवश्य ध्यान में रखें कि ऊपर के व्यक्ति का नीचे के व्यक्ति के स्तर पर जाना उसके उद्धार की दृष्टि में जहाँ अनिवार्य है, वहाँ यह भी अनिवार्य है कि वह खुद को नीचे के व्यति के समान अपंग न बनने दे, - उसी के समान मद्यपान, धूम्रपान, परस्त्रीगमन आदि 'प्रगतिशील' बातें वह न करे। स्वयं अपने को इन बुराइयों से बचाते हुए भी यदि कार्यकर्ता के व्यवहार में "अन्य से अधिक पवित्र" की भावना प्रकट नहीं हुई तो उसके पवित्र आचरण के कारण अन्य लोगों से घुल-मिल जाने में कोई कठिनाई पैदा नहीं होगी।

कुल मिलाकर सारांश यह है कि कार्यकर्ता को कुछ विषयों में 'वज्रादपि कठोराणि' अपनाना चाहिए और कुछ बातों में 'मृदुणाणि कुसुमादपि'। दृढ़ता और लचीलेपन का यह विवेक उपरिनिर्दिष्ट विवेचन की पृष्ठभूमि में किया जा सकता है।

(श्री भानुप्रताप शुक्ल, पूर्व संपादक पांचजन्य से

वर्ष 1989 में मा. ठेंगड़ी जी से भेंट वार्ता पर आधारित)

सोपान - 1

(कुछ प्रमुख बिंदु)

v कुछ संस्थाएँ व्यक्ति-प्रधान होती हैं। बस एक व्यक्ति के बड़प्पन के लिए संस्था चलती है। एक नेता शेष सब उसके अनुयायी। वह आदेश देता है बाकी उसका पालन करते हैं। हम इस प्रकार की व्यक्ति प्रधान संस्था बनाकर काम करना नहीं चाहते। हमारा उद्देश्य है देशव्यापी संगठन खड़ा करना वह भी ऐसे व्यक्तियों का जिनमें सोचने समझने और नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता हो।

v कुछ लोगों की नीति है कि सरकार का समर्थन ही करना है चाहे वह श्रमिकों का भला करे या बुरा। पूर्ण सहयोग या पूर्ण असहयोग। हमने नीति निर्धारित की है 'जितना तुम करोगे उतना हम करेंगे' जिसे अंग्रेजी में 'रिसपांसिव को-आपरेशन' कहते हैं। जितनी मात्रा में सरकार श्रमिकों का सहयोग करेगी उतनी मात्रा में श्रमिक सरकार के साथ सहयोग करेंगे-जितनी मात्रा में सरकार श्रमिकों का विरोध करेगी उतनी मात्रा में श्रमिक सरकार का विरोध करेंगे।

v कर्तव्यों के संसार में ही अधिकारों का महत्व है "अधोगामी वृत्ति वालों को अधिकार भाते हैं और ऊर्ध्वगामी वृत्ति वालों को कर्तव्य।

v आवश्यक है कि श्रमिकों के मन का राष्ट्रीयकरण हो। प्रत्येक श्रमिक को यह साक्षात्कार हो कि वह अकेला या पृथक नहीं है - वह तो संपूर्ण राष्ट्र के शरीर का ही एक अंग है। संपूर्ण राष्ट्र के साथ एकात्मता का भाव न रहा तो इस पद्धति (श्रमिकों का स्वामित्व) में भी अनेक संकट उत्पन्न हो सकते हैं। इस लिए कहा कि श्रमिकों के मन का राष्ट्रीयकरण हो।

अखिल भारतीय कार्यकर्ता

अभ्यास वर्ग

29 अक्तूबर - 2 नवंबर 1984

इंदौर (म. प्र.)

उद्घाटन सत्र (प्रातः)

यह हमारा अखिल भारतीय स्वाध्याय और अभ्यास वर्ग का शुभारंभ है। स्वाध्याय के विषय में सामान्य रूप से लोगों की ऐसी एक कल्पना है कि जब तक डिग्री-डिप्लोमा प्राप्त नहीं होता तब तक तो स्वाध्याय है करना पड़ता, किंतु बाद में स्वाध्याय की कोई आवश्यकता नहीं। लेकिन अपनी परंपरा में जो दीक्षांत भाषण (कनवोकेशन ऐड्रेस) का प्रावधान किया हुआ है, उसमें परीक्षा में उत्तीर्ण होकर घर जाने वाले विद्यार्थियों के लिए स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि स्वाध्यायान्मा प्रमदः। स्वाध्याय करने में कभी भी पीछे मत रहो, चूको मत। इसका मतलब है जीवन-भर स्वाध्याय करते रहना चाहिए, तभी जीवन सफल होता है। हम कार्यकर्ताओं पर भी यही बात लागू है और इसी दृष्टि से बीच-बीच में हम लोग स्वाध्याय वर्ग का आयोजन करते हैं।

भारतीय मजदूर संघ और अन्य श्रम संस्थाओं में अंतर

अब यह प्रश्न उठता है कि यह स्वाध्याय वर्ग किसका है? उत्तर स्पष्ट है - भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ताओं का है। भारतीय मजदूर संघ की यह विशेषता है कि यहाँ हर एक कार्यकर्ता भारतीय मजदूर संघ का कार्यकर्ता होता है। वह अपनी फेडरेशन और यूनियन का भी अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय मजदूर संघ के माध्यम से ही कार्यकर्ता होता है। हम जानते हैं कि बाकी केंद्रीय श्रम संस्थाओं में स्थिति इसके विपरीत रहती है। वहाँ हर एक कार्यकर्ता सर्वप्रथम अपनी यूनियन का कार्यकर्ता हुआ करता है और चूँकि उसकी यूनियन किसी-न-किसी केंद्रीय श्रम संस्था से संबद्ध है, इसलिए उसकी अपनी यूनियन और उसके अपने महासंघ के माध्यम से (Through his union, Through his federation) वह केंद्रीय श्रम संस्था का अप्रत्यक्ष कार्यकर्ता है। माने अपनी यूनियन, फेडरेशन का प्रत्यक्ष कार्यकर्ता और उसके द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से अपनी केंद्रीय श्रम संस्था का कार्यकर्ता - ऐसी रचना अन्य संस्थाओं में है। जबकि हमारे यहाँ इससे उल्टी रचना है कि हर एक कार्यकर्ता प्रत्यक्ष रूप से सर्वप्रथम भारतीय मजदूर संघ का कार्यकर्ता है और चूँकि भारतीय मजदूर संघ से संबद्ध यूनियन या फेडरेशन उसकी है, इसलिए भारतीय मजदूर संघ के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से वह अपनी फेडरेशन और यूनियन का कार्यकर्ता हुआ करता है। इसलिए इस दृष्टि से यहाँ जितने भी कार्यकर्ता आए हैं वे यद्यपि किसी न किसी यूनियन के पदाधिकारी या कार्यकर्ता होंगे, लेकिन वे कार्यकर्ता हैं भारतीय मजदूर संघ के। हम सब लोग अपनी यह रचना जानते हैं। इस प्रकार भारतीय मजदूर संघ का कार्यकर्ता, भारतीय मजदूर संघ के स्वरूप के कारण दोहरी जिम्मेदारी रखता है।

भारतीय मजदूर संघ मजदूरों का संगठन है, ट्रेड यूनियन है। यह राष्ट्रवादी मजदूर संगठन है। यह विशुद्ध मजदूर संगठन है। इसका मतलब होता है कि वह संगठन जो मजदूरों के लिए है, मजदूरों का है, मजदूरों द्वारा चलाया गया है। यह एक गैर-राजनीतिक मजदूर संगठन है।

कार्यकर्ता की दोहरी जिम्मेदारी

राष्ट्रहित की चौखट के अंतर्गत, मजदूरों के हित का एकमात्र उद्देश्य सामने रखकर काम करने वाला संगठन होने के कारण भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ता की दो तरफा जिम्मेदारी हो जाती है। राष्ट्र के सामने वह मजदूरों का प्रतिनिधित्व करता है। बताता है कि मजदूरों का कहना क्या है? उनकी तकलीफें क्या हैं? माँगें क्या हैं? आकांक्षाएँ क्या हैं? मजदूर के सामने वह राष्ट्र का प्रतिनिधि है जो मजदूरों को बताता है कि राष्ट्र के कष्ट क्या हैं? राष्ट्र की आकांक्षाएँ क्या हैं? राष्ट्र के लिए क्या-क्या करना आवश्यक है? इन दोनों तरह की जिम्मेदारियों का निर्वाह करना बहुत कठिन काम है। केवल अपनी यूनियन के सदस्यों के लिए मजदूरों की आर्थिक माँगों को लेकर कुछ उकसाने वाले भाषण देना सरल काम है। लेकिन भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ता का काम बहुत कठिन है, क्योंकि राष्ट्र के सामने मजदूरों का प्रतिनिधित्व और मजदूरों के सामने राष्ट्र का प्रतिनिधित्व वह कर रहा है और इस दृष्टि से हमारे कार्यकर्ताओं को बार-बार स्वाध्याय वर्ग की आवश्यकता प्रतीत होती है।

एकात्म मानव दर्शन

हम यह जानते हैं कि भारतीय मजदूर संघ भारतीय है। 'भारतीय' केवल एक भौगोलिक शब्द नहीं है। यह सांस्कृतिक शब्द है। एक संस्कृति, एक परंपरा है। इस दृष्टि से एक भारतीय विचार पद्धति भी है। पश्चिम की तुलना में इसकी सर्वप्रथम विशेषता यह है कि भारतीय विचार टुकड़ों-टुकड़ों में (Compartmentalised) नहीं है, यह एकात्म (Integrated) है। यहाँ समग्र रूप से विचार होता है। अतः मजदूरों का भी विचार हम टुकड़ों-टुकड़ों में नहीं करते। संपूर्ण राष्ट्ररूपी शरीर के अंग के रूप में हम मजदूरों का विचार करते हैं। इसी तरह राष्ट्र का भी विचार हम टुकड़ों-टुकड़ों में नहीं करते।

हमारे देश में यह सनातन विचार चलता आया है कि मनुष्य के चैतन्य का अखंड विकास होना चाहिए। मनुष्य जब पैदा होता है तो उसको स्वयं के अलावा और किसी का ध्यान नहीं रहता और जब बड़ा होता है तो माँ-बाप, भाई तथा अपने परिवार के साथ वह एकात्म होता है। चेतना का और विकास होता है तो समाज के साथ एकात्म होता है, चेतना और विकसित होती है तो वह राष्ट्र के साथ एकात्म होता है और इस चेतना का विकास होते-होते वह इस स्थिति में पहुँच जाता है कि संपूर्ण मानवता के साथ वह अपने को एकात्म समझने लगता है। फिर इससे भी ऊपर जाकर एक दिन संपूर्ण चराचर विश्व के साथ वह एकात्म होता है। उसे 'स्वदेशो भुवनो त्रयम्' की अवस्था प्राप्त हो जाती है। वह वर्ल्ड सिटीजन ही नहीं, यूनिवर्सल सिटीजन, 'वैश्विक नागरिक' बन जाता है। इस तरह से व्यक्ति से लेकर विश्व तक चेतना का विकास होना चाहिए। इस प्रकार का एकात्म दर्शन, जिसको पंडित दीनदयाल जी ने एकात्म मानव दर्शन कहा, हमारा सनातन दर्शन होने के कारण हमारा विचार टुकड़ों-टुकड़ों में नहीं है।

राष्ट्र और मजदूरः एकात्म

राष्ट्रवाद और अंतरराष्ट्रीय वाद में हम भेद नहीं समझते। क्योंकि मनुष्य की चेतना के विकास के एक स्तर पर वह राष्ट्रवाद है, और उससे भी अधिक विकास होता है तो वह अंतरराष्ट्रीय विचार करता है। यह चेतना के विकासक्रम की एक के बाद दूसरी सीढ़ी है। यह परस्पर विरोधी बातें नहीं हैं, यद्यपि पश्चिम के लोग इसे परस्पर विरोधी बातें मानते हैं, क्योंकि पश्चिम के राष्ट्र परिपक्व राष्ट्र नहीं, बच्चा राष्ट्र हैं। बच्चा उछल-कूद कर सकता है लेकिन परिपक्वता अनुभव के आधार पर आती है। हम लोग टुकड़ों-टुकड़ों में विचार नहीं करते हैं। हमारा विचार समग्रता के साथ एकात्म होने के कारण हम यह जानते हैं कि संपूर्ण राष्ट्र के साथ मजदूरों का हित भी एकात्म है। राष्ट्र खड़ा रहेगा तो मजदूर गिर नहीं सकता। राष्ट्र गिर जाएगा तो मजदूर खड़ा नहीं रह सकता। वैसे ही जब तक मजदूर खड़ा है तब तक वह राष्ट्र को गिरने नहीं देगा। मजदूर गिर जाएगा तो राष्ट्र को कौन बचाएगा, यह सवाल खड़ा हो सकता है। राष्ट्र और मजदूर एक दूसरे के साथ इतना एकात्म हैं। भारतीय मजदूर संघ का कार्यकर्ता इन बातों का ध्यान रखकर काम करता है। इस कारण भारतीय मजदूर संघ अन्य मजदूर संघों से भिन्न और विशिष्ट है। यहाँ यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि भारतीय मजदूर संघ की क्या-क्या विशेषताएँ हैं। यह अपने ढंग का एक अनोखा संगठन है। यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त होगा।

आरंभिक आशंकाएँ

शुरू-शुरू में भोपाल (मध्य प्रदेश) में भारतीय मजदूर संघ का निर्माण हुआ। जब इस कार्य का आरंभ हुआ तो अन्य ट्रेड यूनियन के कुछ लोग काफी नाराज हो गए। वहाँ उन दिनों कम्युनिस्टों का प्रभाव था। हमारे कम्युनिस्ट मित्र ऐसा कहा करते थे कि भाई आप लोगों को तो यह काम जमने वाला नहीं। यह काम निकर पहनने का काम नहीं है। इसमें बहुत कुछ अध्ययन करना पड़ता है, बहुत कुछ बातें सीखनी पड़ती हैं। आप लोगों ने तो जीवन में कभी ये काम किए नहीं, इसलिए आपको यह काम जमेगा नहीं। हाँ, इतना है कि आप खुद तो खाएँगे नहीं, हमको भी नहीं खाने देंगे। केवल हमको तकलीफ देने का काम आप कर सकते हैं। क्योंकि आप यह बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं कि कम्युनिज्म इस देश में पनपे और इसलिए कम्युनिस्टों का जो क्षेत्र है - श्रम क्षेत्र, मजदूर क्षेत्र - इस क्षेत्र में आप लोगों ने यूनियनें खोलने का विचार किया है। वास्तव में श्रमिक क्षेत्र में आप कुछ करने वाले नहीं। कुछ कर सकने की आपकी क्षमता भी नहीं है। केवल कम्युनिज्म की टाँग खींचने के लिए आपने यह उद्योग शुरू किया।

कम्युनिज्म: विशुद्ध भौतिकतावादी सिद्धांत

उसके जवाब में हम लोग कहते थे, भाई, यह गलत विचार है। यह सच है कि हम कम्युनिज्म के विरोधी हैं। हम कम्युनिज्म का विरोध इसलिए करते हैं कि यह एक विशुद्ध भौतिकतावादी (मैटीरियलिस्टिक) सिद्धांत है। इससे मनुष्य का कल्याण होने वाला नहीं। लेकिन हम इसे इतना महत्वपूर्ण काम नहीं मानते कि कम्युनिस्ट या कम्युनिज्म की टाँग खींचने के लिए हम अपना जीवन लगा दें।

नयी टैक्नालॉजी द्वारा कम्युनिज्म का विनाश

इसका एक दूसरा भी कारण है वह यह कि कम्युनिज्म को नष्ट करने के लिए हमारी आवश्यकता ही नहीं है। कई ऐसी बातें हैं जिनके कारण वह स्वयं ही नष्ट हो रहा है जैसे, पश्चिमी देशों की तकनीक (टेक्नालॉजी)। पश्चिमी देशों की टेक्नालॉजी कम्युनिस्टों को बहुत बड़ा झटका दे रही है। हम यह जानते हैं कि अब द्वितीय औद्योगिक क्रांति (सेकेंड इंडस्ट्रियल रिवोल्यूशन) हो रही है। उद्योगोपरांत समाज (पोस्ट-इंडस्ट्रियल सोसायटी) पश्चिम के कुछ देशों में निर्माण हो रहा है, नई टेक्नालॉजी वहाँ आ रही है। (इस टेक्नालॉजी के विषय में अपने देश के परिप्रेक्ष्य में हमारे विचार क्या हैं, यह एक अलग बात है।) उसके कारण जो औद्योगिक समाज की स्ट्रेटिजिक पोजीशन और पिओटल पोजीशन का हिस्सा था, वह बदल गया है। अर्द्धकुशल (Semi-skilled) वर्कर और इंजीनियर पिओटल पोजीशन में है। नई टेक्नालॉजी आने के साथ ही साइंटिस्ट और टेक्नालॉजिस्ट, जिनको वहाँ 'नालेज क्लास' कहा जाता है, पिओटल पोजीशन में आ जाएँगे। आज हम जिनको इधर चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी कहते हैं उनकी संख्या बहुत घट जाएगी। यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमरीका के बारे में अंदाजा है कि सन 2000 तक वहाँ ब्लू कालर वर्कर की संख्या दस प्रतिशत से भी कम रह जाएगी। ऐसी पिटिएबिल पोजीशन में जब वर्ग (Classes) बदल जाएँगे और नई टेक्नालॉजी में जब वह क्लास ही नहीं रह जाएगा, जिसको कम्युनिस्ट टर्मिनोलॉजी 'क्लास' कहती है, तो किसके आधार पर क्रांति होगी? कम्युनिज्म में जिस वर्ग को क्रांति का अग्रदूत कहा गया है, जब वही समाप्त हो जाएगा तो क्रांति कौन करेगा? अतएव यह नई टेक्नालॉजी कम्युनिज्म को विनाश की ओर ले जा रही है।

वैचारिक दृष्टि से अपूर्ण

विचारधारा की दृष्टि से देखा जाए तो जिस समय मार्क्स जीवित थे उस समय भी मार्क्स के विचारों को प्रतिगामी, प्रतिक्रियावादी (रिएक्शनरी) कहने वाले अनार्किज्म जैसे विचार चलते थे, जिसके प्रणेता थे प्रपोर्चिन। वह कम्युनिज्म को एक पिछड़ा विचार मानते थे। जो मार्क्स के विरोधी हैं उनकी बात छोड़िए, मार्क्स के शिष्यों में भी यह जागृति थी कि विचारधारा की दृष्टि से यह अपूर्ण है। मार्क्स को एम. एन. राय से ज्यादा अच्छी तरह जानने वाला कोई कम्युनिस्ट अपने देश में तो कम से कम नहीं है। जिस एम. एन. राय ने लेनिन के साथ एक सहयोगी के नाते कार्य किया, उन्होंने भी कहा कि मार्क्स का विचार अधूरा है। इसकी कई बातों में अपूर्णता है। मार्क्स ने केवल 'डाइलेक्टिज्म ऑफ मैटर' बताया है। लेकिन वही एक मात्र कारण नहीं है। उसके साथ-साथ 'डायनिज्म ऑफ आइडियल' भी जोड़ना चाहिए। ऐसी कई बातें एम. एन. राय ने मार्क्स के कई गुना आगे जाते हुए कहीं। अब तो मार्क्स के विचारों का तिरस्कार और मार्क्स को अपूर्ण बताने वाले अनेक श्रेष्ठ विचारक पश्चिम में ही आ रहे हैं। अरबर्ट मार्किन, आर.डी. लंब, फ्रांच एनोन और कात्रे आदि ने स्पष्ट कहा कि मार्क्स का विचार पहले ठीक था लेकिन अब वह अपूर्ण दिखता है, इसके और आगे जाने की आवश्यकता है।

भारत में भी कम्यून की कल्पना

जहाँ तक हमारा संबंध है, कम्यून की कल्पना से हमको कोई परहेज होने की आवश्यकता नहीं। आप में से कुछ लोगों को पता होगा कि कम्यून की कल्पना जिस समय मार्क्स ने पहली बार ठीक ढंग से रखी और जब उधर का विचार यहाँ नहीं आया था, तब मार्क्स के 'दास कैपिटल' के पहले खंड (सन 1867) में यह विचार प्रकाशित हुआ; उसी समय उसके साथ-साथ हमारे देश में एक पुस्तिका प्रकाशित हुई, जिसमें कम्यून का वैसा ही वर्णन किया गया है जैसा मार्क्स के कम्यून का वर्णन है। दोनों में केवल एक फर्क है कि मार्क्स का कम्यून केवल भौतिक आधार पर है और भारत का कम्यून भगवान को मानने वाला है। किंतु एक तरह की रचना, एक ही समय, एक भारत में और एक पश्चिम में प्रकाशित हुई। उस भारतीय लोक का नाम था विष्णु बुवा ब्रह्मचारी। यह सन 1867 में प्रकाशित हुआ। एक ने दूसरे की नकल की है, यह कहने की भी कोई गुंजाइश नहीं है क्योंकि तब तक यह विचार भारत में आया ही नहीं था। हमें कम्यून की कल्पना से नहीं, भौतिकता से परहेज है और भौतिकता से हमारा यह परहेज ठीक है, पश्चिम का अनुभव भी इसकी पुष्टि करता है।

कम्युनिज्म का क्रियान्वयन

कोई भी कम्युनिस्ट शासित देश अपने देश में कम्युनिज्म के मौलिक सिद्धांतों का क्रियान्वयन नहीं कर सका। एकछत्र कम्युनिस्ट जगत निर्माण करने की कल्पना खतरनाक साबित हुई। अपने राष्ट्रीय स्वार्थ को लेकर आज हर एक कम्युनिस्ट राष्ट्र दूसरे कम्युनिस्ट राष्ट्र के साथ लड़-भिड़ रहा है। हर कम्युनिस्ट राष्ट्र में जिन दलितों और मजदूरों का नाम सामने रखकर डिक्टेटरशिप चलाई जा रही है, उनको कुचलने का किस प्रकार का प्रयोग होगा, पोलैंड में यह देखा जा सकता है। और भी कई उदाहरण हैं। यूरो-कम्युनिज्म उसका एक उदाहरण है।

कम्युनिस्ट जगत के बाहर कम्यून के प्रयोग

केवल इतनी ही बात नहीं है। कम्युनिस्ट जगत के बाहर भी पहले कुछ कम्युनिस्ट प्रयोग चले थे। आज भी चल रहे हैं। वह अपने प्रयोग में क्यों सफल होते हैं और क्यों असफल होते हैं, इसका हमने विचार किया तो दिखाई देगा कि विशुद्ध आर्थिक भौतिक आधार पर कोई भी बात सफल नहीं हो सकती। सन 1562 से लेकर आज तक कम्युनिस्टों के कुछ प्रयोग इंग्लैंड में चल रहे हैं। आज लगभग सौ कम्यून इंग्लैंड में हैं। अमेरिका में दो हजार कम्यून चल रहे हैं और इनमें इनकी औसत संख्या 5 से 15 तक है। इस विशुद्ध आर्थिक और भौतिक आधार पर चल रहे कम्यूनों का अनुभव बताता है कि पाँच-दस साल से ज्यादा ये कम्यून टिकते नहीं। परस्पर स्वार्थ के कारण उनमें खींचतान और झगड़े होते हैं और वे नष्ट हो जाते हैं। यह ग्रेट ब्रिटेन का चार सौ साल का और अमेरिका का अभी-अभी का अनुभव है। जहाँ विशुद्ध आर्थिक, भौतिक आधार है वहाँ चार लोग एक साथ नहीं चल सकते। कई उपसम्प्रदाय के लोगों ने भी कम्यून चलाए। जैसे हुक्के रायट सम्प्रदाय, चैनलाइज संप्रदाय, मार्मल सम्प्रदाय आदि। इनका जीवनकाल लंबा है क्योंकि इनका आधार विशुद्ध भौतिक, आर्थिक नहीं है। सबसे प्रबल कम्यून इजरायल में है जो कम्युनिस्ट विरोधी देश है। वहाँ कम्यूनों को 'निमझीम' नाम से पहचाना जाता है और वे प्रबल राष्ट्रवाद के आधार पर लंबे समय से ठीक ढंग से चल रहे हैं। स्पष्ट है कि केवल भौतिक, आर्थिक आधार पर कम्यून नहीं चल सकते। इसलिए किसी कम्युनिस्ट देश में कम्यून सफल नहीं हुए।

' इज्म ' अब ' वैज्म ' की ओर

रूस और चीन ने कहा था कि हम परिवार प्रणाली (Family organism) को नष्ट करेंगे। वहाँ फिर से परिवार प्रणाली आ गई है। कम्यून नष्ट हुए हैं। इस तरह से चेतनावादी आस्था, मार्क्स के शिष्यों के विचारों, कम्युनिस्ट देशों के अनुभवों आदि का यदि विचार किया तो कम्युनिज्म नाम की जो विचार प्रणाली है उसको नष्ट करने के लिए आपको और हमको उँगली उठाने की भी आवश्यकता नहीं। वह कार्य स्वयं हो रहा है। यह 'इज्म' 'वैज्म' (भूतकाल) की श्रेणी में पहुँचता जा रहा है। इसलिए हमने अपने भोपाल के कम्युनिस्ट मित्रों को कहा कि निकट भविष्य में आपका अतीत (वैज्म) होने जा रहा है, अतएव आपको खत्म करने के लिए हम लोग अपनी जिंदगी लगा दें तो यह बहुत बड़ी कीमत हो जाएगी। हम यह कीमत नहीं देना चाहते।

राष्ट्र के उत्कर्ष की हमारी दृष्टि

केवल कम्युनिज्म का विरोध करना हमारा उद्देश्य नहीं है। हमारा उद्देश्य है इस राष्ट्र का निर्माण करना, इस राष्ट्र को परम वैभव तक ल जाना। जब हम कहते हैं कि हम राष्ट्रवादी हैं तो राष्ट्रवाद की कसौटी में राष्ट्र के उत्कर्ष की हमारी दृष्टि यह है कि दस-पाँच पूँजीपतियों का उत्कर्ष यानी राष्ट्र का उत्कर्ष नहीं है। पचास-पाँच सौ मिनिस्टरों का उत्कर्ष यानी राष्ट्र का उत्कर्ष, ऐसा हम नहीं मानते।

इस देश का सबसे छोटा आदमी जो सबसे गरीब, गया-बीता आदमी है, (Unto the last man) उसके उत्कर्ष को हम राष्ट्र का उत्कर्ष मानते हैं। राष्ट्र के उत्कर्ष की यही कसौटी है। इस संदर्भ से जोड़कर संपूर्ण राष्ट्र को परम वैभव तक किस तरह पहुँचाया जाए, इस इच्छा से हम लोग काम कर रहे हैं और चूँकि मजदूर क्षेत्र, यह राष्ट्रीय जीवन का एक स्ट्राटिजिक (रणनैतिक महत्त्व रखने वाला) क्षेत्र है, इसलिए इस क्षेत्र में हम लोग प्रवेश कर रहे हैं ऐसा हम लोग उनको बताते थे।

हम नहीं जानते कि कम्युनिस्ट हमारी इस बात को समझ सके कि नहीं। क्योंकि अन्य विचार समझने की उनकी क्षमता ठीक वैसे ही बहुत सीमित रहती है जैसे घोड़ों की इधर-उधर देखने की सीमित क्षमता। घोड़ा केवल सामने देख सकता है। अतएव संपूर्ण राष्ट्र का विकास हो इसलिए मजदूरों का भी विकास हो, यह काम कौन करेगा?

सचेत लोगों के संगठन

सन 1947 के पश्चात एक विचार यह प्रचलित हुआ कि अब कोई काम करने की आवश्यकता नहीं। स्वराज्य प्राप्त हो गया है इसलिए अब जो कुछ भी करना है वह राज्य करेगा, सरकार करेगी। शासन के माध्यम से सब कुछ होगा। लोग भूल गए कि दुनिया का इतिहास यह नहीं बताता कि शासन के माध्यम से किसी राष्ट्र का कभी निर्माण हुआ है। ऐसा न पहले कभी हुआ, न अब हो सकता है। जब तक सर्वसाधारण नागरिक जाग्रत नहीं है, जाग्रत और सचेत नागरिकों के जन-संगठन जहाँ सक्रिय नहीं हैं और वे जन-संगठन जब तक सरकार पर उचित काम करने के लिए दबाव नहीं डालते, तब तक केवल शासकों के सहारे राष्ट्र का उत्थान नहीं हो सकता। कभी हुआ नहीं और न होने वाला है। स्पष्ट है कि यदि जनता सचेत नहीं है, सचेत लोगों के जन-संगठन नहीं हैं, तो सरकार अनियंत्रित बन जाएगी। यदि हम यह कहते हैं कि राष्ट्र निर्माण की संपूर्ण जिम्मेदारी सरकार की है तो फिर सारे अधिकार भी सरकार को देने पड़ेंगे।

अधिकार की माँग करना और कर्तव्य की उपेक्षा करना परस्पर विरोधी बात है। आपको यदि मानवीय अधिकार (Human rights) है तो मानवीय कर्तव्य (Human responsibility) को भी स्वीकार करना पड़ेगा, नागरिक जिम्मेदारी (Civil responsibility) भी लेनी पड़ेगी। अतएव यदि हम यह कहेंगे कि सारी जिम्मेदारी सरकार की है तो उस कारण सरकार यदि तानाशाह बन जाती है तो उसको दोष देने का कोई नैतिक अधिकार हम लोगों को नहीं रहता। यदि जनता जाग्रत नहीं, जन-संगठन सक्रिय नहीं, तो उस अवस्था में सरकार के व्यक्ति के लिए, शासकों के लिए, तानाशाह बनना बिल्कुल स्वाभाविक है। फिर यह अंग्रेजी सुभाषित सार्थक होने लगता है कि पावर करप्ट्स, एब्सोल्यूट पावर करप्ट्स एब्सोल्यूटली (सत्ता-शक्ति भ्रष्ट करती है, किंतु पूर्ण सत्ता-शक्ति पूर्ण रूप से भ्रष्ट करती है)।

इस दृष्टि से हमेशा यह उचित माना गया है कि राष्ट्र का निर्माण करना हो तो राष्ट्रीय चेतना और सर्वसाधारण व्यक्ति का स्तर ऊँचा करना चाहिए। सचेत और राष्ट्रवादी व्यक्तियों के जन-संगठन खड़े होने चाहिए जिनका कार्य अपने-अपने संगठनों के सदस्यों के हितों की रक्षा, अपने-अपने संगठनों के सदस्यों की शक्ति का राष्ट्र निर्माण के कार्य में उपयोग करना; सरकार यदि अच्छा काम करती है तो सरकार को सहयोग, गलत काम करती है तो सरकार पर नियंत्रण - इन तीनों बातों को लेकर सरकार के लिए वैकल्पिक शक्ति केंद्र (Alternate power centre) के निर्माण के लिए जन-संगठन निर्माण करने की आवश्यकता है। यह विचार रखकर चलने वाले लोगों ने भारतीय मजदूर संघ का निर्माण किया है और इस दृष्टि से ये वैकल्पिक शक्ति केंद्र न केवल मजदूर क्षेत्र में अपितु हर क्षेत्र में निर्माण होने चाहिए। जब इस तरह के जन-संगठनों का निर्माण होगा तभी देश का नक्शा ठीक हो सकता है।

सत्तातुराणां न दलः न राष्ट्रः

कुछ लोगों ने कहा, 'भाई, हम सरकार से बात नहीं करते'। ठीक है, केवल सरकार के माध्यम से राष्ट्र का निर्माण नहीं होगा, लेकिन राजनीति सर्वोपरि है और इस दृष्टि से राजनीतिक लोगों के माध्यम से राष्ट्र का निर्माण होगा। किंतु हमारे देश की स्थिति भिन्न है। यहाँ राजनीति को हमेशा सीमित स्थान और सीमित महत्त्व दिया गया है। यहाँ यह कहा गया है कि राजदंड के ऊपर यदि धर्मदंड रहा तभी राजदंड ठीक ढंग से काम कर सकता है।

ऐसा कहा जाता है कि आज हमारे देश में राजनीतिक जागृति बहुत आ गई है। शायद इससे पहले हमारे देश में इतनी जागृति नहीं थी और इस जागृति के कारण सबके मन में भय निर्माण हो रहा है। मेरा ऐसा ख्याल है कि हिंदुस्तान के 70 करोड़ लोगों में से पूरे 70 करोड़ लोग अब इतने जाग्रत हो गए हैं कि वे सभी प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। 70 करोड़ लोगों में से किसी को दुःख नहीं होगा यदि उसको प्रधान मंत्री बना दिया जाए। इतनी प्रचंड राजनीतिक जागृति हमारे देश में आ गई है। लेकिन यह जागृति इस तरह की है कि जिसके कारण भारतीय जीवन-मूल्य टूट रहे हैं, राष्ट्रीय जागृति समाप्त होती जा रही है। मैं कॉलेज में था तो हमें एक कविता पढ़ाई जाती थी, जिसमें कहा गया था कि, 'अर्थातुराणां न पिता न बंधु' (जो केवल अर्थ-प्राप्ति के लिए आतुर है, वह नहीं देखता है कि बाप कौन है और भाई कौन है) और 'कामातुराणां न भयं न लज्जा' (कामातुर को भय और लज्जा नहीं होती)। आज के संदर्भ में यह कहना पड़ता है कि 'सत्तातुराणां न दल: न राष्ट्रः' अर्थात सत्तातुर लोगों के लिए न दल है, न राष्ट्र। समाचार-पत्र इस बात की पुष्टि करते हैं। क्या इस प्रकार के लोगों के द्वारा राष्ट्र निर्माण जैसा पवित्र कार्य होगा?

यह ठीक है कि यदि सामान्य जनता सचेत है, राष्ट्रीय जागृति का स्तर ऊँचा है, सचेत राष्ट्रवादी व्यक्तियों के जन-संगठन सक्रिय हैं और वैकल्पिक सत्ता केंद्र के नाते काम कर रहे हैं तो राजनीतिक नेताओं के द्वारा भी सत्कार्य करवा लेना संभव हो सकता है। लेकिन यदि बाकी कोई सहायक तत्त्व (अटेंडेंट फैक्टर्स) नहीं है, सारे सहायक तत्व अनुपस्थित हैं तो यह समझना कि केवल राजनीतिक क्षेत्र के द्वारा सब कुछ होगा, कितना खतरनाक हो सकता है, इसका अनुभव हम लोग आज कर रहे हैं।

प्रतियोगी सहकारिता

इस दृष्टि से हम लोगों ने सोचा कि जो लोग आलस्य के कारण केवल सरकार को ही एकमात्र साधन मानते हैं, अथवा शॉर्टकट के नाते जो लोग राजनीति को ही नजदीक का रास्ता मानते हैं, इन दोनों विचारों के लोगों के प्रभाव में न आते हुए शास्त्र शुद्ध ढंग से काम किया जाए। शास्त्र शुद्ध ढंग से काम करने का मतलब यह है कि हर एक व्यक्ति की राष्ट्रीय चेतना को सचेत और जाग्रत करना। हमारा मजदूर क्षेत्र है तो हर एक मजदूर की राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करना, उसको राष्ट्रीय जिम्मेदारी का साक्षात्कार करवाना हमारा दायित्व है। साथ ही साथ उसके हितों की रक्षा करना, उसकी शक्ति का उपयोग राष्ट्र निर्माण कार्य में कैसे हो, यह देखना और प्रतियोगी सहकारिता (Responsive cooperation) का सिद्धांत लेकर सरकार के साथ व्यवहार करना हमारा मुख्य आधार है। प्रतियोगी सहकारिता का मतलब यह होता है कि राष्ट्र और मजदूर के साथ आप यदि सहयोग करेंगे तो मजदूर भी आपके साथ सहयोग करेगा। राष्ट्र और मजदूर के साथ यदि आप असहयोग करेंगे तो मजदूर भी सरकार से असहयोग करेगा। राष्ट्र और मजदूर का आप विरोध करेंगे तो मजदूर भी आपका विरोध करेगा। इस तरह की प्रतियोगी सहकारिता का सिद्धांत लेकर जन-संगठन खड़ा किया जाए और इस तरह विभिन्न क्षेत्रों में जन-संगठन खड़े हों, यह राष्ट्र के लिए आवश्यक है।

अभावों के बावजूद प्रगति

इस तरह राष्ट्र मंदिर का निर्माण करने की पृष्ठभूमि तैयार हो। इस आधार और विचार का निर्माण करने के लिए भारतीय मजदूर संघ का निर्माण हुआ है। सभी संकटों के बावजूद भारतीय मजदूर संघ की प्रगति हुई है। मैं यह सब बतलाने की आवश्यकता यहाँ नहीं समझता कि इस तरह के कितने संकट थे। तरह-तरह के संकट थे - मालिकों का विरोध, सरकार का विरोध, सामान्य लोगों की उदासीनता। हमारे पास सभा तरह का अभाव - न पैसा, न कार्यकर्ता, न कोई सहायता करने वाला! ऐसी परिस्थिति में शून्य में से सृष्टि का निर्माण होने सरीखी प्रगति हुई लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारी यह प्रगति विचारधारा की विशुद्धता के कारण है, हम लोगों के कर्तृत्व के कारण नहीं क्योंकि कर्तृत्व और बुद्धिमानी का यदि विचार किया तो अन्य श्रमिक संघों, संस्थाओं में आपको ऐसे अनेक लोग मिलेंगे जो हमसे ज्यादा बुद्धिमान हैं, हमसे ज्यादा चतुर हैं, हमसे ज्यादा चालाक हैं, हमसे ज्यादा तिकड़मबाज हैं, हमसे ज्यादा कर्मठ हैं। हाँ, यह ठीक है कि हम लोग भोले नहीं हैं, लेकिन यह भी सच है कि हम तिकड़मबाज भी नहीं हैं। हम यह तय करके चले हैं कि हम तिकड़मबाजी नहीं करेंगे, चालाकी नहीं करेंगे, शॉर्टकट नहीं लेंगे लेकिन इतना भोलापन भी नहीं अपनाएंगे कि दूसरे की तिकड़मबाजी चलने दें। दूसरे की तिकड़मबाजी नहीं चलने देंगे, लेकिन खुद भी चालाकी और तिकड़मबाजी नहीं करेंगे। तो हमसे ज्यादा बुद्धिमान, ज्यादा कर्तृत्ववान, ज्यादा चालाक और ज्यादा तिकड़मबाज लोग अन्य प्रतिस्थापित यूनियनों में रहते हुए यदि भारतीय मजदूर संघ की प्रगति हुई है तो हमारे कर्तृत्व के कारण नहीं, हमारे विचार के कारण हुई है।

हमारे विचार इस भूमि और संस्कृति की उपज हैं। विचार को लेकर हम आगे बढ़ रहे हैं। इसके कारण सभी तरह के अभावों (कार्यकर्ताओं, धन, अनुभव, बुद्धिमानी) के बावजूद भारतीय मजदूर संघ दिन दूना रात चौगुना प्रगति करता गया और आज एक विशेष मोड़ पर आकर हम लोग खड़े हैं; जबकि सरकार ने भी इसको प्रामाणिक संगठन घोषित किया है। इस नई परिस्थिति में कौन-सी नई जिम्मेदारियाँ आती हैं, कौन-सी नई कठिनाइयाँ आ सकती हैं, कौन-सी नई सतर्कताएँ बरतनी हैं, इन सब बातों पर विचार करना होगा।

द्वितीय सत्र

मजदूर आंदोलन को एक नया आयाम

भारतीय मजदूर संघ की कुछ व्यावहारिक विशेषताएँ हैं। इसमें एक व्यावहारिक विशेषता यह है कि भारतीय मजदूर संघ कोई भी अच्छा काम जल्दी नहीं करता और जो काम छोटा-सा दिखता है उसमें भी इतनी देर करना कि नए कार्यकर्ता का दम उखड़ जाए। वह नाराज हो जाए। इस संबंध में ज्यादा नहीं, केवल एक छोटा-सा उदाहरण दूँगा।

मजदूर संघ के प्रारंभ से ही अलग-अलग जगह से लोग इसमें आए हैं। हम जानते हैं कि किसी कार्यक्रम में यदि 'वंदेमातरम्' हो रहा हो तो कैसे खड़े रहना है। राष्ट्रगीत हो रहा हो तो दक्ष की स्थिति में खड़े रहना चाहिए, यह विचार मन में था। उस समय मजदूर संघ का कार्य ज्यादा नहीं था। यदि हम यह कहते कि सब लोग दक्ष में खड़े रहें तो कोई विरोध करता, ऐसा नहीं था। लेकिन यह जहाँ भावना का भी प्रश्न था, वहीं आदत का भी सवाल था। हम लोग विचार करते रहे कि राष्ट्रगान के समय सबको दक्ष में खड़े रहने के लिए कहें कि नहीं। अंततः दक्ष में खड़े रहना चाहिए, यह कहने में हमें ग्यारह साल लगे। यदि यह छोटी-सी बात कि राष्ट्रगीत के समय खड़े रहना कहने में ग्यारह वर्ष लगे, तो इससे बड़ी बात करने में कितने साल लगेंगे। काम होता नहीं, ऐसा नहीं। काम धीरे-धीरे होता है, एकदम नहीं होता।

' श्रमिकीकरण ' शब्द का प्रयोग

भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ताओं को एक शब्द 'श्रमिकीकरण' बहुत याद है। श्रमिकीकरण की कल्पना एकदम नई है क्योंकि किसी पश्चिमी देश में यह शब्द नहीं है। कम्युनिस्टों को शब्दावली उधार लेने की सुविधा है। उनकी शब्दावली में यह शब्द नहीं है। किंतु यह नया शब्द प्रचलित करने की कल्पना करने के पश्चात शब्द का प्रयोग करने के पहले यह पूछा गया कि यह शब्द कैसा लगता है। बाद में पूछा गया कि बाहर इसका क्या प्रभाव होगा। कुछ दिन बाद बंबई में एक कार्यक्रम हुआ। उसमें एन. जी. गोरे और मधु दंडवते के साथ मेरा भाषण था। मैंने अपने लोगों से कहा कि आप सामने बैठ रहे हैं। आज 'श्रमिकीकरण' शब्द का मैं उच्चारण करने वाला हूँ। आप लोग देखें कि गोरे और मधु दंडवते के चेहरे पर यह शब्द सुनकर कैसा भाव उभरता है। उनकी क्या प्रतिक्रिया होती है, बाद में मुझे बताएँ। तब तक उस शब्द का प्रयोग करने के प्रश्न पर विचार करते-करते सात साल हो चुके थे। उस कार्यक्रम के बाद लोगों ने मुझे बताया कि यह शब्द सुनते ही गोरे और दंडवते एकदम सचेष्ट हो गए। तब तय हुआ कि उस शब्द का प्रयोग करना है। किसी शब्द का स्वीकार करने के सात साल बाद उसका प्रयोग करने की तैयारी होनी चाहिए। अच्छे कार्य के लिए लंबा इन्तजार और ध्येय की तैयारी मन में होनी चाहिए।

इसी तरह हम लोग एक दूसरा भी काम कर रहे हैं। मैं यह कहूँगा कि उस कार्य की भूमिका बाँधने का काम चल रहा है। लेकिन अब तक हम नहीं कह रहे थे कि उस काम की भूमिका बाँधना चल रहा है। अलग-अलग विषय कार्यकर्ताओं के सामने आ रहे हैं। कार्यकर्ता उस विषय को समझ भी रहे हैं। ऐसे भी विषय आ रहे हैं जो हमारे पूर्व लोगों ने आग्रहपूर्वक मजदूर क्षेत्र में रखे नहीं।

बोनस की नई कल्पना

सबको पता है कि हम लोगों ने बोनस की जो कल्पना पहली बार बताई, वह नई थी। जब हमने कहा कि बोनस एक विलंबित वेतन (Deferred wage) है तो दूसरे नेता, बैंक, पी. एंड टी. आदि के लोग कहने लगे कि यह कैसे हो सकता है कि हम भी बोनस के हकदार हो सकते हैं। यानी जिनको बोनस मिलना चाहिए वही सशंकित थे। कम्युनिस्ट नेता कहने लगे कि ये कल के बच्चे कहते हैं कि सरकारी कर्मचारियों को भी बोनस मिलना चाहिए, यह कैसे हो सकता है। किंतु सरकारी कर्मचारियों को आज बोनस मिल रहा है, यह बात प्रत्यक्ष हो गई है।

मूल्य-वृद्धि के लिए वेतन-वृद्धि जिम्मेदार नहीं

हम जानते हैं कि मजदूरों के खिलाफ सरकार और मैंनेजमेंट तरह-तरह का प्रचार करते हैं। उनके खिलाफ जनता को भड़काते हैं। अब तक मजदूरों ने इसका तर्कशुद्ध विरोध नहीं किया। उदाहरण के लिए, जैसे सरकार यह लगातार प्रचार कर रही है कि कर्मचारी ज्यादा पैसा माँगता है, जिसके कारण उपभोक्ता को ज्यादा पैसे देने होते हैं। मजदूरों द्वारा ज्यादा पैसा माँगने के कारण ही उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें बढ़ रही हैं। किसी दूसरी यूनियन ने इसका शास्त्र शुद्ध खंडन नहीं किया। भारतीय मजदूर संघ ने यह कहा कि क्या मजदूरी ज्यादा देने से ही महँगाई बढ़ती है, और जब ज्यादा पैसा नहीं देते तो महँगाई नहीं बढ़ती, रुक जाती है। आप हमें ज्यादा पैसा दें या न दें, महँगाई तो निरंतर बढ़ती ही जा रही है। इससे स्पष्ट होता है कि महँगाई बढ़ने के और भी कारण हैं। इस संदर्भ में हमने सिद्धांत रूप में एक बात कही जो किसी ने नहीं कही।

"प्रत्येक वेतन-वृद्धि मूल्य-वृद्धि के लिए जिम्मेदार नहीं है। वेतन वृद्धि मूल्य-वृद्धि के लिए उतनी सीमा तक ही जिम्मेदार है, जितनी सीमा तक वह वेतन-वृद्धि उत्पादन-वृद्धि से अधिक हो। और अधिकांश उद्योगों में वेतन-वृद्धि उत्पादन-वृद्धि से अधिक नहीं है।"

(Every wage rise is not responsible for price rise. Wage rise is responsible for price rise only to the extent to which that wage rise is in excess of productivity rise. And in most of the industries there is no wage rise excess of productivity rise.)

अत: हमारी वेतन-वृद्धि से मूल्य-वृद्धि हो रही है, यह बात गलत है। यह सिद्धांत हमने कहा, किसी और ने नहीं कहा, किसी पुरानी यूनियन ने नहीं कहा। कम्युनिस्ट पूछते हैं, यह सिद्धांत आप कहाँ से लाये हैं? हमारे सबसे संबंध हैं, वे हमसे पूछते हैं। हमें अपनी बात बतानी चाहिए। उनका कहना है कि मालिक और सत्ता की बात सही है कि हमारी वेतन-वृद्धि के कारण ज्यादा नोट बाजार में आ जाते हैं। ज्यादा नोटों के कारण नोट की कीमत कम हो जाती है। महँगाई बढ़ती है। कम्युनिस्ट कहते हैं कि हमें यही नीति अपनानी चाहिए कि तुम्हारा चाहे कुछ भी हो, हमारा वेतन बढ़ना चाहिए। इसमें कोई तर्क देने की आवश्यकता नहीं। आपके सिद्धांत अपनाने से तर्क देना पड़ेगा, बहस करनी पड़ेगी, समझाना पड़ेगा। यह परेशानी की बात है। हमने कहा, एसा नहीं है। राष्ट्रवादी होने के नाते हम हर काम जिम्मेदारी के साथ ही करते हैं। जहाँ माँग रखते हैं, वहाँ उसके पीछे का तर्क भी बतात हैं, और माँग पूरी करने का रास्ता भी।

वास्तव में आश्चर्य की बात है कि तीन साल पहले एक स्वतंत्र संस्था इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन ने इसी विषय पर एक सर्वेक्षण किया था। उसने स्वतंत्र निष्कर्ष निकाला कि महँगाई में मजदूरों की जिम्मेदारी का हिस्सा बहुत कम है। महँगाई के लिए तीन प्रमुख बातों को जिम्मेदार बताया -

1. घाटे की अर्थ-व्यवस्था (Deficit financing)

2. काला धन तथा

3. अनियंत्रित लाभ, लाभांश तथा ब्याज। शेष कारण नगण्य हैं।

इसके बाद राष्ट्रीय अभियान समिति (एन. सी. सी.) के मंच पर जब हम मिले तो कम्युनिस्टों ने कहा कि आपके सिद्धांत की पुष्टि हो गई है। मैंने कहा, ठीक है। आपका रास्ता अलग है, हमारा रास्ता बहुत लंबा है। आप अपने ढंग से चलिए, हम अपने ढंग से चलेंगे।

उत्पादन-हानि के विभिन्न कारण

अब आमतौर पर एक गलतफहमी फैलाई जा रही है कि मजदूरों की हड़ताल के कारण उत्पादन के लिए खतरा पैदा हो रहा है। यह प्रचार इतना धुआँधार है कि कम्युनिस्ट भी उसे सच मानने लगे हैं। यह दूसरी बात है कि वे यह तर्क देते हैं कि उत्पादन की हानि होती है तो माँगें क्यों नहीं मानते। हमने कहा कि हड़ताल के कारण उत्पादन अत्यंत नगण्य मात्रा में घटता है। उत्पादन में रुकावट और गिरावट अन्य कारणों से भी है। दूसरी बात, यदि हड़ताल के कारण उत्पादन घटता है तो कई बार ऐसा क्यों होता है कि जिस वर्ष हड़ताल हुई, उस वर्ष उत्पादन बढ़ गया और हड़ताल नहीं हुई तब उत्पादन घट गया। बाद में एक सर्वेक्षण हुआ। उस सर्वेक्षण ने यह स्पष्ट बताया कि उत्पादन-हानि के लिए लंबी हड़ताल सहित मजदूर हड़ताल की जिम्मेदारी का प्रतिशत बहुत कम है। ज्यादातर हानि अव्यवस्था, बिजली की कमी और रुकावट, गलत नियोजन, मैंनेजमेंट की नीति, कच्चा माल आने में देरी, मशीनरी की खराबी आदि के कारण होती है। यह गलत है कि मजदूर हड़ताल के कारण उत्पादन में कमी आती है। हमने यह बात तब कही जब कोई नहीं कहता था। बाद में यह बात सर्वेक्षण से प्रकट हुई। इसके बाद बाकी लोगों को भी यह स्वीकार करना पड़ा।

सरकारी नीति एक दूसरे को लड़ाने की

आज हम स्वतंत्र हैं। अंग्रेज गए, हमारी सरकार आई। हम जानते हैं कि सरकार की नीति क्या है? प्रारंभ से हम कह रहे हैं कि गोरे अंग्रेज गए, काले आ गए। मशीनरी वही है, पालिसी वही है, इंप्लीमेंट करने वाले भी वही हैं। यहाँ तक कि जब हमारा संविधान बन रहा था तो नेहरू जी ने कहा था कि ढाँचा बदलने में हम अपनी ताकत नहीं गँवाएँगे। जो ढाँचा हमने स्वीकार किया वह अंग्रेजों का था। उसमें मूल सुधार करने की तैयारी संविधान बनाने वालों की नहीं थी। उसके कारण औद्योगिक संबंध में के रूप भी वही है। 'फूट डालो और राज्य करो' की अंग्रेजी नीति भारत सरकार ने ले ली है और इसलिए समय-समय पर हमें लड़ाया जाता है। ग्रामीण क्षेत्र में किसान एवं मजदूर को लड़ाया जाता है। किसान को कहा जाता है कि खेतिहर मजदूर तुम्हारा दुश्मन है। कल तक ठीक से काम चलता था, आज वह पैसे ज्यादा माँगता है। मजदूर, उपभोक्ता, कर्मचारी को कहा जाता है कि किसान तुम्हारा दुश्मन है। वह अपने अनाज की अधिक कीमत माँग रहा है। किसान ने अनाज के उचित मूल्य की परिभाषा की है कि लागत निकालकर, कुछ लाभांश जोड़कर जो मूल्य बनता है, वह उसे मिलना चाहिए। सरकार कहती है कि यह गैर-जिम्मेदाराना माँग है। किसान का उत्पादन का पूरा खर्च निकालकर यदि हम उसमें लाभांश जोड़कर उसको मूल्य देंगे तो शहर के मजदूरों को महँगा पड़ेगा। शहर का मजदूर सोचता है बात तो सही है। इस प्रकार शहर के मजदूर के विरुद्ध गाँव का किसान, गाँव के किसान के विरुद्ध खेतिहर मजदूर। सरकार की यह नीति है कि हर एक को हर दूसरे से लड़ाया जाए।

भारतीय किसान संघ के सामने जब यह सवाल आया तो हमने इसका अध्ययन किया। ऐसा दिखाई दिया कि वास्तव में यह परिस्थितियों के कारण निर्माण होने वाला प्रश्न नहीं है। यह प्रश्न सरकार की गलत नीतियों के कारण उत्पन्न हुआ है। सरकार ने जो प्राथमिकताएँ निर्धारित की हैं, वे हमारे अनुकल नहीं हैं। हमने रूस की नकल की है। रूस के लिए भी रूस की जो नीति ठीक नहीं चल रही है, हमने उसका अंधानुकरण किया है। रूस ने बड़े उद्योगों को प्राथमिकता दी है। खेती उनकी प्राथमिकताओं में नहीं है। इसका इतना बुरा परिणाम हो रहा है कि हर साल रूस की खेती असफल होती है। यहाँ तक कि कम्युनिस्ट रूस को पूँजीवादी अमेरिका से हर साल अनाज लेने जाना पड़ता है। रूस में यह कहावत बन गई है कि किसी को यदि सार्वजनिक जीवन से उठाना है तो उसे कृषि मजदूर क्षेत्र में लगा दिया जाए।

उनकी यह नीति ठीक नहीं है। हमारा भी कृषि प्रधान देश है। गरीब और सीमान्त किसानों के लिए जो पैसा भेजा जाता है, बड़े किसान खा जाते हैं। सरकारी मशीनरी के कारण उनके पास तक पैसा पहुँच ही नहीं पाता। हमने कहा कि हिंदुस्तान की आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुकूल योजना बनाई जाए।

प्राथमिकता बदलने की आवश्यकता

बड़े उद्योगों को प्रथम वरीयता और कृषि का दुर्लक्ष्य करना ठीक नहीं है। यह नीति छोड़ी जाए। छत्तीस साल तक जो नाजायज खर्च किया है उससे आधा खर्च केवल छह साल तक प्रयोग के तौर पर कीजिए। हिंदुस्तान का नक्शा बदल जाएगा। यह हमारी चुनौती है। विकास का ढाँचा सरकार को तैयार करके देना चाहिए। चाहे वह स्कूल बिल्डिंग हो या एप्रोच रोड, उसके लिए सरकारी खजाने से सारा खर्च देना, यह कल्याणकारी राज्य का कर्तव्य है। यह सब करके वह उपकार नहीं कर रही है। प्राथमिकता बदलने की जरूरत है। जो प्राथमिकता बड़े उद्योगों को दी थी वह गाँवों को दी जाए और उसका पचास प्रतिशत छह वर्ष तक कृषि पर खर्च कीजिए; और यह भी देखिए, जिसके लिए खर्च किया जा रहा है वह वहाँ तक पहुँचता है या नहीं। गाँव के बड़े लोग और अफसर तो उसे हड़प नहीं जाते। इस सबसे बड़ी बात यह है कि पहले नीति बदली जाए। कृषि साधन खाद, पानी, बीज, बिजली आदि दिए जाएँ।

हमने कहा कि उद्योगों को जो सहायता (सब्सिडी) देते हैं वह कृषक को दें। यदि उन्हें अच्छी सहायता (हैवी सब्सिडी) मिलेगी तो लागत घटेगी। उपभोक्ता पर दबाव न पड़ते हुए किसान को उचित मूल्य मिलेगा। थोड़ा लाभांश जोड़कर उपभोक्ता पर दबाव न बढ़ाते हुए अंततः किसान की जेब में पैसा जाएगा तो वे जीवन के लिए आवश्यक वस्तुएँ खरीदेंगे। इसके कारण छोटे-छोटे उद्योग शुरू होंगे। अर्द्ध-बेरोजगारी दूर होगी। रोजगार बढ़ेगा। क्रय-शक्ति बढ़ेगी। ग्रामीण उद्योगीकरण और श्रमिकीकरण से विकास होगा। तरह-तरह के उद्योग शुरू होंगे। उद्योग शुरू होंगे तो सबको काम मिलेगा। आम आदमी की क्रयशक्ति बढ़ेगी। जमीन पर दबाव कम होगा। ग्रामीण उद्योगीकरण के साथ-साथ एक ऐसा नया चक्र शुरू होगा जो हमें आर्थिक वैभव की ओर ले जा सकता है। हमने चुनौती दी है कि छह साल यह प्रयोग कीजिए। फिर परिणाम देखिए।

सरकार कहती है कि यदि वह किसानों को उचित मूल्य देती है तो मजदूरों पर उपभोक्ता के नाते दबाव पड़ेगा। हमने कहा कि यह गलत बात है। यदि किसान को उचित मूल्य मिलता है तो किसान मजदूर को भार नहीं समझता। यह बात ठीक है कि किसान मजदूरों को पर्याप्त पैसा नहीं देता। परंतु यह उसकी असमर्थता है। यदि उसके पास पैसा आएगा तो वह अपनी इच्छा से खेतिहर मजदूर को पर्याप्त पैसा देगा। यह बात किसी ने नहीं कही। हम लोगों ने कहा कि पहली नीति को आप बदलिए। हमारी नीति क्या है? ब्रिटिश सरकार की जो नीति थी वही नीति आज भी चल रही है।

अंग्रेजी राज्य की विरासत - तीन शोषण

अंग्रेज सरकार राज इसलिए चलाती थी कि इंग्लैंड के पूँजीपतियों को सुविधा हो। अंग्रेज सरकार कच्चा माल सस्ते दर में इंग्लैंड ले जाती थी। वहाँ से उसको पक्का माल बनाकर भारत को महँगे दर पर बेचती थी। भारत का माल सस्ते में लेना और इंग्लैंड का सस्ता माल महँगा बेचना। कच्चे माल के साधन के लिए हिंदुस्तान का उपयोग करने की उसकी नीति थी। केवल अपना साम्राज्य दिखाने के लिए राज नहीं करते थे। कच्चे माल के साधन और निर्मित माल के बाजार के रूप में अंग्रेजों द्वारा हिंदुस्तान का उपयोग प्रमुख बात थी। यह नीति आज भी चल रही है। अंग्रेजी साम्राज्य चला गया, लेकिन नीति वही चल रही है कि जिसमें से पूँजीपतियों और कारखानेदारों का लाभ हो। कारखानों को लाभ पहुँचाने के तीन तरीके हैं -

1. कच्चा माल सस्ता प्राप्त करना।

2. अधिक उत्पादन करना।

3. उत्पाद सस्ता हो इसके लिए सस्ता मजदूर ज्यादा काम और माल बन जाने पर उसका ज्यादा से ज्यादा मूल्य प्राप्त करना।

अंग्रेज भी यही करते थे। कच्चा माल सस्ते में प्राप्त करना यानी किसान का शोषण। उत्पादन सस्ता करना यानी मजदूर का शोषण, सस्ते माल की कीमत ज्यादा लेना यानी उपभोक्ता का शोषण। इन तीन | शोषणों के आधार पर पूँजीवाद खड़ा है। यह कार्य पहले ब्रिटिश सरकार करती थी, आज हमारी सरकार कर रही है। सरकारी आशीर्वाद (से उसकी छत्रछाया में ये तीनों शोषण आज भी चल रहे हैं। लेकिन हमें यह जानकारी नहीं है कि हमारा शोषण हो रहा है। हमारा शोषण करने वाला कौन है? जिस दिन यह जानकारी किसान, मजदूर, उपभोक्ता-तीनों को हो जाएगी, जिस दिन उन्हें पता चल जाएगा कि सरकार उनके खिलाफ षड्यंत्र कर रही है, उसी दिन सारा मामला ही उलट जाएगा। इसलिए बड़े सूक्ष्म तरीके से यह प्रचार चलता है, किसान को मजदूर के खिलाफ, मजदूर को किसान के खिलाफ, उपभोक्ता को किसान-मजदूर दोनों के खिलाफ भड़काया जाता है। तीनों एक दूसरे को गाली देते हैं। उन्हें प्रशिक्षित करने के लिए किसी को फुरसत नहीं है। अंग्रेजों के समय का दृश्य आज भी चल रहा है यह जानकारी देने का कार्य भारतीय मजदूर संघ के पूर्व किसी ने नहीं किया। इस गहरे षड्यंत्र का भंडाफोड़ सर्वप्रथम भारतीय मजदूर संघ ने ही किया। यहाँ मैं इस विषय की गहराई में नहीं जाऊँगा।

साम्राज्यवादी देशों द्वारा शोषण की नवीन पद्धति

दूसरे महायुद्ध के बाद उत्पन्न अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के कारण अंग्रेज भारत छोड़कर चले गए। वे स्वतंत्रता देने को बाध्य हो गए। आज स्थिति यह है कि श्वेत साम्राज्यवादी देश एक तरफ और नव स्वतंत्र राष्ट्र एक तरफ हैं।

दुनिया का नक्शा कैसा भी बनाया जा सकता है। लेकिन आज जैसा नक्शा बना है उसमें सभी सफेद और धूर्त साम्राज्यवादी राष्ट्र उत्तर में है। उन्हें उत्तरी राष्ट्र कहते हैं। दक्षिण की तरफ नव-स्वतंत्र और अर्ध-स्वतंत्र देश हैं। एक तरफ उत्तरी देश तो दूसरी तरफ दक्षिणी देश हैं। विश्व उत्तर-दक्षिण में विभाजित है। सफेद साम्राज्यवादी देश अपने उपनिवेशों का शोषण करके वैभव प्राप्त करते थे। जैसे-जैसे उपनिवेश (कालोनी राष्ट्र) उनके हाथ से निकलते गए, उनका आर्थिक ढाँचा चरमराता गया। उन्हें चिंता हुई कि कालोनी राष्ट्रों का फिर से शोषण कैसे किया जाए। यदि नव-स्वतंत्र राष्ट्रों का वे शोषण नहीं कर सकते तो उनका ढाँचा चल नहीं सकता। अब उनके सामने यह प्रश्न एक गंभीर समस्या बनकर खड़ा है कि नव-स्वतंत्र राष्ट्रों का शोषण कैसे किया जाए। यदि नव-स्वतंत्र राष्ट्रों की आर्थिक नीतियाँ उनके अनुसार नहीं रहीं तो शोषण नहीं हो सकता। क्योंकि इन नव-स्वतंत्र राष्ट्रों को राजनीतिक स्वातन्त्र्य प्राप्त है इसलिए उनके सामने एकमेव उपाय था इन नव-स्वतंत्र राष्ट्रों में अपनी पसंद की पिछलग्गू सरकारें बनाना। वे ऐसी सरकार चाहते हैं कि नव-स्वतंत्र देश की आम जनता का शोषण करने के लिए जो-जो सुविधाएँ होनी चाहिए, वह देने के लिए वचनबद्ध हों।

दुर्भाग्य से हमारे यहाँ ब्रिटिश पद्धति मौजूद थी। गांधीजी और लोकनायक जयप्रकाश आदि सभी ने कहा कि यह हमारे यहाँ की संस्कृति और परिस्थति के अनुकूल नहीं है। हमें अपने अनुकूल अलग ढंग का ढाँचा बनाना चाहिए। फिर भी हमारे नेताओं ने इसी को लाभदायक समझा और यह उपनिवेशवादियों के अनुकूल ही है।

बिकाऊ राजनीतिज्ञ और पिछलग्गू सरकार

गांधी जी ने 1908 में 'हिंद स्वराज्य' नाम की पुस्तक लिखी थी। उसमें उन्होंने लिखा कि ब्रिटिश पार्लियामेंटरी डेमोक्रेसी भारत में मत लाइए। यह हमारे अनुकूल नहीं है। जहाँ 60 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा के नीचे हों, आधे से अधिक लोग निरक्षर हों, वहाँ यह पद्धति उपयोगी नहीं होगी। जहाँ गरीबी और निरक्षरता इतनी अधिक है, उस देश के मतदाता निष्पक्ष और निर्भय होकर मतदान कैसे कर सकते हैं। चुनाव के समय यह चर्चा प्रमुख रूप से होती है कि कौन कितने वोट खरीद सकता है। ढंग अलग-अलग हो सकते हैं। खरीद वही सकता है, जिसके पास पैसा है। दरिद्रों से वोट पूँजीपति के धन से ही प्राप्त किया जा सकता है। यह वोट प्राप्त करना आज की राजनीति की एक प्रमुख कला है। किसी ने ठीक ही कहा है - "Politics is a gentle art of getting vote from the poor and collecting funds from the rich by promising to protect each from the other." (राजनीति एक को दूसरे से बचाने का वादा करके गरीबों से वोट और अमीरों से चुनाव फंड प्राप्त करने की उत्तम कला है।)

मजदूरों को बताया गया कि मालिकों से संरक्षण होगा, मालिकों को बताया कि मजदूरों से संरक्षण होगा। एक से पैसा लेना, दूसरे से वोट लेना, इसी कुशल कला को आज राजनीति कहते हैं।

क्या आज कोई ऐसा पैसे वाला 'कर्ण' कहीं है जो यह कहे कि आइए, नेताजी मेरा मोक्ष कीजिए, मेरा खजाना लूटकर ले जाइए, मैं यह धन पसंद नहीं करता। ऐसा कहने वाला आज कोई दिखाई नहीं देता। आज जो लोग नीतियाँ बनाते हैं, उनसे अधिकतम धन कमाने की छूट प्राप्त करना पैसे देने की पहली शर्त होती है। बिना पैसे के चुनाव नहीं जीतते, चुनाव नहीं जीतते तो सरकार नहीं बनती और सरकार नहीं बनती तो नेताजी का जीना मुश्किल है। जैसे मछली पानी के बाहर नहीं रह पाती उसी प्रकार नेताजी भी कुर्सी से बाहर नहीं रह सकते। इसलिए जो पैसा देता है उसकी शर्ते भी माननी पड़ती है। जिससे पैसा लेते हैं उसके सामने आँखें झुक जाती हैं। उनके पैसे से हुकूमत में आते ही, कोई भी 'वाद' क्यों न हो, आखिर में वही करना पड़ता है, जो पूँजीपतियों के हित में होता है। इसलिए कई लोग चौराहे पर बिकने के लिए खड़े मिलते हैं कि चुनाव आ-जा रहे हैं लेकिन हमारा खरीदने वाला कोई क्यों नहीं आ रहा है। इधर खरीदे जाने को उत्सुक और उधर खरीदने वाले उत्सुक; दोनों का मेल हो गया। इन खरीदारों में स्वदेशी पूँजीपति ही नहीं, विदेशी सरकारें, विश्व बैंक आदि सभी शामिल हैं। इस तरह विदेशी पूँजी की पिछलग्गू सरकार होने के कारण जो हमारे पूँजीपति हैं वे भी पिछलग्गू हैं। कैपिटलिस्ट, इंडियन मोनोपालिस्ट और भारत सरकार सभी पिछलग्गू हैं। देश उनके षड्यंत्र जाल में फँसा है।

यह षड्यंत्र किसके खिलाफ है? स्पष्ट है कि आम जनता के खिलाफ। अर्थात गरीबों और मजदूरों के खिलाफ। इसलिए यदि आम जनता सावधान होती है, इस षड्यंत्र के विरुद्ध विद्रोह करती है तो इस साजिश का भंडाफोड़ होता है। क्योंकि कुछ समय के लिए तो किसी को बुद्धू बनाया जा सकता है किंतु हमेशा के लिए नहीं। उसके खिलाफ विद्रोह होगा, यह अनुमान होते ही डिक्टेटर कहता है कि हुकूमत हमारे हाथ में रहनी चाहिए। इस तरह तानाशाही का खतरा निर्माण होता है। पैसे देने वाले भी चाहते हैं कि हमारे ग्राहक (क्लायंट) हैं, इसी प्रकार लेते-देते रहें। नव-स्वतंत्र राष्ट्र का इतिहास इसी प्रकार का है। इससे केवल आर्थिक खतरा ही नहीं, तानाशाही आने का भी खतरा है। विदेशी पूँजी के हाथ देश को बेचने का मतलब सार्वभौम रूप से गरीबों और देश के आर्थिक शोषण की अनुमति और अवसर देना। यह षड्यंत्र और खतरा गरीबों के खिलाफ ही नहीं, लोकतंत्र के खिलाफ भी है। इससे हमारी आर्थिक स्वतंत्रता समाप्त होगी। हमारा सार्वभौमत्व समाप्त होगा। इसलिए इसका विरोध करने के लिए लोकतंत्र में विश्वास करने वाले देश के सभी नेताओं का मोर्चा बनाया जाना चाहिए। अपने देश की स्वतंत्रता बेची जाए, यह तो कोई पसंद नहीं कर सकता।

अपने देश की स्वतंत्रता बेची जा रही है यह जानकारी सभी देशभक्तों को चाहे वे गरीब हों या न हों, मजदूर हों या न हों, दी जानी चाहिए। क्योंकि केवल गरीब और मजदूर ही नहीं, सभी इसके शिकार हैं। इस षड्यंत्र का भंडाफोड़ जिस ढंग से भारतीय मजदूर संघ ने किया, मैं बहुत नम्रता से कहता हूँ अन्य किसी ने नहीं किया।

यह हम क्यों कहते हैं? चूँकि हम राष्ट्रवादी हैं इसलिए कहते हैं। भारतीय मजदूर संघ के दृष्टिकोण में यह सारी बात है। उसके कारण डी. ए. और बोनस पर असर पड़ने वाला नहीं है। हिंदुस्तान के मजदूर आंदोलन में जो कमी है उसकी पूर्ति के लिए यह आधार है। प्रयास चल रहा है। भारतीय मजदूर संघ ने राष्ट्रहित को सर्वप्रथम रखा है। मजदूर-हित और राष्ट्र-हित में अंतर नहीं है तो भी प्राथमिकता की दृष्टि से यदि फर्क करना होगा तो हम राष्ट्र-हित को सर्वोपरि रखेंगे। हम वास्तविक मजदूर संघ हैं। मान लीजिए मजदूर-हित और संस्थागत-हित में फर्क नहीं है। फिर भी हम मजदूर-हित को सर्वप्रथम रखेंगे। इसके लिए भारतीय मजदूर संघ ने आपको तैयार कर रखा है। यह सेवा का एक माध्यम है। हम किस उद्देश्य से कार्य कर रहे हैं, यह ध्यान में आना चाहिए। हमारा उद्देश्य है हिंदुस्तान के मजदूर आंदोलन में जो त्रुटि है उसे ठीक करना। लोग अभी तक यही समझते रहे कि मजदूर और मालिक दो ही पक्ष हैं। वे यह भूल गए कि एक अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष राष्ट्र भी है।

आम जनता को विश्वास में लेने का प्रयास

उपभोक्ता का हित राष्ट्र-हित सरीखा ही है। इसका भी विचार करना है, यह बात कभी किसी के ध्यान में नहीं आई। आंदोलन के समय आम जनता को अपनी माँगों के विषय में कभी विश्वास में लेने का प्रयास नहीं किया गया। उसकी सहानुभूति प्राप्त करने की कभी कोशिश नहीं की गई। बंबई के लोगों को अभी-अभी का उदाहरण ख्याल में होगा। वहाँ हड़ताल हुई। उन्होंने जनसंपर्क निर्माण नहीं किए। मजदूरों की अपनी ताकत के अहंकार में रहे। मैंनेजमेंट ने जनसंपर्क निर्माण किया। जनता को सही-गलत बताया। उसका परिणाम यह हुआ कि मजदूर हार गए। जब देशव्यापी हड़ताल हुई, आम जनता को यह बताने वाला कोई नहीं था कि हड़ताल का मुख्य कारण क्या है। एक तरफ सरकार, दूसरी तरफ आम जनता और मजदूर, यह दृश्य उपस्थित करना उचित होता। प्रायः हड़ताल के समय दिखाई देता है कि लंबे समय तक आंदोलन चलने के कारण जनता मजदूरों के खिलाफ हो रही है और सारा देश, सरकार और मैंनेजमेंट दूसरी तरफ और अकेला मजदूर एक तरफ। आमतौर पर यही होता है। इंटक को काम करते चौंतीस साल हुए परंतु इस स्थिति में कोई अंतर नहीं आया। यदि थोड़े-थोड़े प्रयास भी होते तो स्थिति कुछ और होती। परंतु उस दिशा में अभी तक कोई प्रयास नहीं हुआ।

यह जो सारे तथ्य सामने रखे हैं या यह जो भूमिका बाँधी है, वह इसलिए कि हम यह कार्य कर रहे हैं। आज हम बड़े पैमाने पर निगोसियेशन ही नहीं करते, हमने संबंध और संपर्क बढ़ाने का प्रयास भी किया है। जहाँ हमने हड़ताल की है, वहाँ जो भी हमारे उपलब्ध साधन हैं उनके सहारे आम जनता को विश्वास में लेने का प्रयास भी किया है। तो यह सब जो चल रहा है उसका अलग-अलग विचार मत कीजिए। हड़ताल के अलग तर्क, परिणाम के अलग तर्क। यह अलग-अलग विचार उचित नहीं है। यह मजदूर आंदोलन की भारी त्रुटि है। मजदूर और सर्वसाधारण जनता के बीच संपर्क निर्माण करने का काम हम कर रहे हैं। यह कार्य किसी एक विशेष उद्देश्य से चल रहा है। इसे हमने भाषा नहीं दी, स्पष्ट नहीं कहा, परंतु यह संबंध पूर्ति करने का काम अपने ढंग से भारतीय मजदूर संघ कर रहा है।

मजदूर आंदोलन को यह जो एक नया आयाम देने की तैयारी हम कर रहे हैं, या मजदूर आंदोलन को यह जो नया आयाम हम देने जा रहे हैं उसके आधार पर एक नया अध्याय जोड़ा जा सकता है। यही वह विशेष दृष्टिकोण है जिसकी हम तैयारी कर रहे हैं।

तृतीय सत्र

कार्य और कार्यकर्ता : संगठन आधार

अपने बीच में कुछ ऐसे कार्यकर्ता थे जो गत अनेक वर्षों से लगातार भारतीय मजदूर संघ का काम कर रहे थे। उनमें एक धुन थी। उसके कारण उन्होंने अपने शरीर की तरफ भी ध्यान नहीं दिया, बाकी बातों पर भी कुछ ध्यान नहीं दिया। काम करते-करते उनकी मृत्यु हो गई। कुछ ऐसे प्रमुख कार्यकर्ता भी थे कि मजदूर संघ का ही काम करते-करते जिनकी किसी दुर्घटना में मृत्यु हो गई। कुछ की हत्या भी हुई। ऐसे भारतीय मजदूर संघ का काम करते-करते जिनका जीवन समाप्त हुआ, जिनको हम हुतात्मा कह सकते हैं, शहीद कह सकते हैं, और जो हमारी इस पंक्ति को चरितार्थ करते हैं कि 'भगवा ध्वज अपनाया है तो मोह कहाँ इन प्राणों का'; अपने-अपने प्रदेश के ऐसे लोगों का नाम आप एक-एक करके गिनाएँ तो अच्छा रहेगा। अंग्रेजी में इसको 'रोल कॉल ऑफ ऑनर' कहते हैं। इसका अर्थ है, कार्य करते-करते जो लोग मर जाते हैं, उनकी गणना, उनकी तालिका, उनका स्मरण। भारतीय मजदूर संघ का भी क्या अपना कोई 'रोल कॉल आफ आनर' है? यदि है तो यह क्या है?

इस दृष्टि से नि:संकोच अपने-अपने ख्याल में जो नाम आते हैं वह आप बताते जाइए। इसका तात्पर्य मात्र इतना ही है कि इस बैठक में अपने पास ऐसे लोगों की पूरी सूची आ जाए जो कार्य करते-करते मृत हुए हैं। फिर चाहे वह हत्या के कारण हो या दुघर्टना अथवा कार्य करते-करते बीमार होने के कारण हो। वैसे तो मृत व्यक्तियों को अपने अधिवेशनों में हम लोग श्रद्धांजलि देते हैं लेकिन यह अलग बात है और इस प्रकार अपने साथियों-सहयोगियों का स्मरण करना उससे एकदम भिन्न बात है। उनको स्मरण करने से हमें बल मिलता है।

भारतीय मजदूर संघ का आधार

भारतीय मजदूर संघ के जो कार्यकर्ता कार्य करते-करते चल बसे उनका इस प्रकार स्मरण किए जाने को मराठी में 'कर्मो पवित्रे, सुगुण चरित्रे, हरिचि वर्णा' कहते हैं। कर्म-पवित्र और गुण-सच्चरित्र हरिभक्तों का वर्णन करने और ध्यान करते जाने से कार्य में सफलता प्राप्त होती है। हम सब लोग जानते हैं कि भारतीय मजदूर संघ का आज का जो विस्तार है, जो सफलता भारतीय मजदूर संघ ने पाई है उसका आधार भारतीय मजदूर संघ का कार्यकर्ता है। तत्त्वज्ञान कितना ही बड़ा क्यों न हो, लेकिन उस तत्त्वज्ञान को चरितार्थ करने वाले, जीवन में आचरण करने वाले कार्यकर्ता अगर उसके पीछे खड़े नहीं होते तो उस तत्त्वज्ञान की दुनिया में कोई कीमत नहीं होती। हमको याद है जब हम परतंत्र थे, उस समय हमारे देश के परम श्रेष्ठ कवि रवींद्रनाथ ठाकुर जापान गए। वहाँ उनका भाषण था। उनका भाषण सुनने के लिए कुछ लोग तो गए ही थे, लेकिन कुछ लोग नहीं गए। जो लोग नहीं गए उनसे पूछा गया कि, 'भाई, आप रवींद्रनाथ ठाकुर को सुनने क्यों नहीं गए?" तो उन्होंने कहा कि "जिस देश में दुनिया के श्रेष्ठ कवि पैदा होते हैं, वह देश अगर स्वतंत्र नहीं हो सकता तो उसकी कौन सुनेगा?'' तत्त्वज्ञान बड़ा होगा, लेकिन जीवन में उसका अगर साक्षात्कार नहीं है, तो उस तत्त्वज्ञान का कोई उपयोग नहीं। इस दृष्टि से तत्त्वज्ञान को आचरण में लाने वाला आदमी अगर मनुष्यत्व से देवत्व तक जाने का प्रयत्न करेगा तो नर से नारायण हो सकता है। लेकिन यह कब होता है? जब नर को नारायण बनाने वाले कार्यकर्ता स्थान-स्थान पर खड़े हो जाते हैं। भारतीय मजदूर संघ जो आज खड़ा है, बढ़ा है, उसका मूल आधार कार्यकर्ता है।

हम विचार करें कि जब भारतीय मजदूर संघ प्रारंभ हुआ तो हमारे पास क्या था?क्या किसी बड़े नेता का आशीर्वाद था? क्या हमारे पीछे कोई बड़े धन का कोष था? क्या था हमारे पास? कुछ नहीं। केवल एक चीज थी, और वह थी हमारी ध्येयनिष्ठा। इस देश के दलित और पीड़ित जनों का भाग्य जगाने की तीव्र इच्छा, महत्वाकाँक्षा। इसी एकमेव इच्छा के साथ हमने अपने कार्य का प्रारंभ किया और यह मन में बैठा लिया कि यह कार्यकर्ताओं के आधार पर ही खड़ा होगा। भारतीय मजदूर संघ खड़ा हुआ तो उसके पास कोई साहित्य (लिटरेचर) भी नहीं था। पहले छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ लिखी गईं, 'योर इक्यूपमेंट', 'योर आफिस'। छोटे-छोटे कार्यकर्ता कार्य करने के लिए आगे आए तो उन्हें विफल नहीं होना चाहिए, इसलिए उसकी तैयारी करना कि समझ लो कि कार्य करते समय हमको क्या-क्या जानकारी होनी चाहिए। अपना कार्यालय कैसा होना चाहिए? उसमें क्या-क्या होना चाहिए? उसके लिए किताबें निकालीं। प्रारंभ में ऐसी छोटी-छोटी बातों को ध्यान में रखते हुए, छोटे-छोटे और एक-एक कार्यकर्ता को सफल बनाने के लिए परिश्रम करना पड़ता है। यह सोच-समझकर भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ताओं ने प्रयत्न किए हैं, इसी कारण इतने कार्यकर्ता पैदा हुए।

एक दूसरा भी विचार मन में आया कि प्रारंभ से भारतीय मजदूर संघ को जिन्होंने अपने खून-पसीने से सींचकर बढ़ाया, वे सारे चले गए। एक-एक कार्यकर्ता को खडा करने के लिए कितना कष्ट उठाना पड़ता है, हम सब इसके गवाह हैं। कार्यकर्ता इस कार्य में इतने तन्मय हैं कि दूसरी किसी भी चीज को इसके मकाबले में स्थान नहीं देते। एक-एक कार्यकर्ता, छोटा-छोटा कार्यकर्ता स्थान-स्थान पर खड़ा करें और वह कार्यकर्ता कैसा हो? सालों-साल से इस क्षेत्र में काम करने का जिन्होंने एक दृष्टि से ठेका ले रखा है, ऐसे लोगों के मुकाबले में एक छोटा कार्यकर्ता खड़ा करना और उसको सफल बनाना है। उसके बाद किताब आई 'भारतीय मजदूर संघ क्यों?' और वह प्रकाशित हुई। कार्यकर्ता की गुणवत्ता बढ़ाते-बढ़ाते उसका विकास करना और फिर उसके अनुसार उसको उत्साह, विचार, ज्ञान और तत्त्वज्ञान का एक दर्शन देकर खड़ा करना, यह भारतीय मजदूर संघ की पद्धति है। यहाँ बैठे हुए हम सभी कार्यकर्ताओं ने कई वर्गो में भी भाग लिया होगा और उसके कारण तथा अपने जो प्रमुख कार्यकर्ता प्रदेशों एवं देश में भ्रमण करते रहते हैं, उनके कारण हमको अपने ध्येय का दर्शन हुआ है।

हमारा ध्येय

हमारा ध्येय और लक्ष्य क्या है? हमारा लक्ष्य केवल एक यूनियन या एक फेडरेशन चलाने का नहीं है, अपितु एक ऐसा विशाल संगठन खड़ा करना है कि जिस संगठन के जरिए हम इस देश के दलित-पीड़ित जनों की सेवा कर सकें, उनका आर्थिक शोषण रोक सकें, उनकी आर्थिक अवस्था सुधार सकें, उनके जीवन में सुनहरे दिन ला सकें और इसके लिए जो कुछ भी करने की आवश्यकता पड़े, वह करें। अगर कानून उसकी रक्षा नहीं कर सकता, उसको बढ़ावा नहीं दे सकता तो उस कानून को बदलना है। कानून बदलवाने की कोशिश करेंगे। जिस अर्थव्यवस्था में आज देश फँसा हुआ है, वह अर्थव्यवस्था अगर यह गारंटी देती दिखाई नहीं देती कि इसके अंदर दलित-पीड़ित ऊपर उठ सकते हैं तो इस अर्थव्यवस्था को बदल डालेंगे। यह ध्येय लेकर के हम चलें।

ध्येयवादी जीवन

अभी थोड़ी देर पहले हमारे सामने कार्यकर्ताओं का जो एक-एक नाम आया उसमें कई लोगों ने यह बताया कि काम करते-करते अपने स्वयं के परिवार की ओर ध्यान देने के लिए भी उनके पास समय नहीं था। उन कार्यकर्ताओं की हालत क्या हुई, हम सब जानते हैं। मुझे ज्यादा वर्णन करने की जरूरत नहीं है। बाहर अपने साथ जो मजदूर जुड़े हैं उनकी समस्याएँ सुलझाने, उनके लिए जूझने, उनके ऊपर जो आपत्तियाँ आती हैं उनको दूर करने में समय लगाना पड़ता है। अपने यहाँ आफिस में काम करने वाले कई लोग हैं। आफिस छूटने के बाद रात के नौ बजे, दस बजे, ग्यारह बजे घर जाते हैं। तब सब सोए रहते हैं। आफिस में तो वह 'हमारा यह काम नहीं हुआ', 'आपकी यूनियन क्या करती है', 'अभी तक हमारा ट्रांसफर कैंसिल नहीं हुआ', 'हमको बढ़ोत्तरी नहीं मिली', वगैरह-वगैरह कर्मचारियों से सुनता है। घर जाता है तो वहाँ घर वालों की भी कुछ न कुछ सुननी पड़ती है। जिसको घर में कुछ सुनना नहीं पड़ता है, उसको कार्यकर्ता कहना कठिन है। यानी कार्यकर्ता को घर और बाहर, दोनों जगह गालियाँ खानी पड़ती हैं। वह देरी से आता है। घर के प्रति ख्याल नहीं, बच्चों के प्रति ख्याल नहीं, उनकी शिक्षा के प्रति ख्याल नहीं, उनकी तबियत के प्रति ख्याल नहीं; इतना ही नहीं, स्वयं के प्रति भी ख्याल नहीं - इस कारण घर वाले नाराज! मजदूरों का काम नहीं हुआ तो मजदूर नाराज। इसी कारण उन शहीद कार्यकर्ताओं का स्मरण आज हमने किया है।

हम विचार करें कि यह सब क्यों होता है? कोई भी आदमी एक दिन भी क्या यह सब कुछ कर सकता है? मैं देखता हूँ भारतीय मजदूर संघ जब से प्रारंभ हुआ तब से आज तक कई कार्यकर्ता उसी जगह पर, उसी एक धुन से कार्य करते हुए दिखाई देते हैं। रात को दस बजे, ग्यारह बजे घर आते हैं। सालोंसाल से ऐसा ही चलता आ रहा है। वह यह सब कैसे कर पाता है? इसका कारण यह है कि उसके मन में ध्येय-प्राप्ति की एक तीव्र इच्छा जगी और अपना व्यक्तिगत जीवन भूल गया। उसका जीवन सामान्य व्यक्तियों जैसा जीवन नहीं है। हमारे यहाँ एक कार्यकर्ता थे। मीसा में वह जेल में गए तो उनके घर की कठिनाइयों की जानकारी प्राप्त करने हम उनके घर गए। वहाँ जाने के बाद उनकी पत्नी से बात हुई तो उससे पूछा, "कुछ कठिनाई है क्या? आर्थिक कठिनाई है क्या?" तो उसने कहा, "आर्थिक कठिनाई काहे की। आज तक जीवन में इतने दिन नौकरी करते हुए भी कभी इतनी पगार हमारे घर में नहीं आई, इतना वेतन हमारे घर में नहीं आया।" जेल में होने के कारण आधा वेतन मिलता था। यानी जब वे काम करते थे तब उनको इतनी छुट्टियाँ लेनी पड़ती थीं कि आधी पगार भी वह घर में नहीं ले जा सकते थे। ऐसे कार्यकर्ताओं के कारण भारतीय मजदूर संघ बना है।

यह त्याग जीवन भर का त्याग है। एक दिन जलना आसान है, जीवन भर जलते रहना बहुत कठिन है। यह कठिन कार्य आज हम मजदूर संघ के कार्यकर्ता को करते हुए देखते हैं। जैसे अभी-अभी हमने सुना कि एक व्यक्ति गोली का शिकार बन गया। क्या कसूर था उसका? भारतीय मजदूर संघ का काम करता था, यही न? यदि वह भारतीय मजदूर संघ का कार्य न करता होता या यह कार्य छोड़ देता तो शायद बच जाता। लेकिन जान दे दी, काम नहीं छोड़ा। एक बात मन में ठान ली कि इस कार्य को मैं करता रहूँगा, जीवन के अंत तक करता रहूँगा, यही कार्य मेरे जीवन का गौरव है। यह कार्य करने की जो एक प्रबलतम इच्छा मन में थी उसके कारण उन्होंने यह त्याग किया। किसी ने कहा नहीं उनको, किसी ने पढ़ाया नहीं उनको, किसी ने बताया नहीं उनको। स्वयं हृदय में प्रेरणा हो गई कि मुझे इस तरह का जीवन बिताना चाहिए।

हमारे बीच ऐसे कई लोग बैठे हैं जिनके बचपन के साथी किसी बड़े ओहदे पर होंगे। उनके पास कार होगी, बंगला होगा, उनके बाल-बच्चे अच्छी पढ़ाई करते होंगे, कोई विदेश गया होगा। वे साथ में पढ़ते थे, शायद इनसे उसकी बुद्धि भी कम रही होगी। किंतु उसका जीवन और इनका जीवन। जिनको दो वक्त का खाना खाने के लिए समय नहीं मिलता, आफिस में काम करते समय मजदूर संघ का काम करने के कारण आधा वेतन भी घर में नहीं ले जा सकते, और कई बार शायद उनके मन में आता होगा कि क्या कमाया; देखो, तुम्हारे इतने साथी इस तरह का जीवन-यापन कर रहे हैं? लेकिन कई बार अपने कार्यकर्ताओं को मैंने यह कहते सुना है कि जो आनंद मुझे इस कार्य में मिलता है, इससे मेरे मन को जो शांति मिलती है, मालूम नहीं वह सब पाने के बाद मुझे मिलेगी या नहीं।

मोहम्मद साहब का उदाहरण

इस संदर्भ में मोहम्मद पैगंबर का उदाहरण हमारे सामने है। लड़ाई में उनके पास बहुत-सी लूट की संपत्ति आ गई। लूट का माल उनके घर में आता ही रहता था। किंतु उनके घर में शाम के समय दिया जलाने के लिए तेल भी नहीं रहता था। उनकी बीवियों के मन में आता था कि उनका पति कितना धाकड़ है, इतनी लड़ाइयाँ जीतता है, इतना पैसा आता है, लेकिन उनको कुछ भी नहीं देता? एक बार एक बड़ी लड़ाई में बहुत बड़ी लूट मिली। उस समय उनकी सारी बीवियों ने मिलकर सोचा कि वे मोहम्मद साहब के पास जाकर कहेंगी कि उनके लिए भी थोड़ा-सा धन रख दें। जब उन्होंने मोहम्मद साहब से यह कहा तो वे बोले, "आपका कहना ठीक है। आपको जितना चाहिए उतना धन रख सकता हूँ। मुझे कोई रोकने वाला नहीं है। लेकिन याद रखना कि जिस दिन मैं यह धन रख लूँगा उस दिन से तुम्हारा नाम मोहम्मद पैगंबर की पत्नी के नाते से नहीं रहेगा। तुम्हारे पति का नाम मोहम्मद पैगंबर नहीं रहेगा।" यह सुन उनकी बीवियों ने कहा - "हमें मोहम्मद साहब चाहिए, पैसा और दौलत नहीं।" जीवन किस प्रकार चरितार्थ करना चाहिए, उसकी जो मर्यादा है, उस मर्यादा में रहना ही श्रेष्ठ कार्य और जीवन है। कार नहीं मिलेगी, धन नहीं मिलेगा, नाम नहीं होगा, न हो, न मिले यह सब, इसकी चिंता क्या करना?

कार नहीं चाहिए , पैसा नहीं चाहिए

ऐसा ही एक प्रसंग अपने एक कार्यकर्ता के जीवन का है। किसी एक फैक्ट्री में उन्होंने बहुत अच्छा समझौता कर लिया। समझौता करने के बाद जो अन्य दूसरी यूनियनें थीं, उन यूनियनों के कार्यकर्ताओं ने अपने नेता को एक कार दी, तब कई मजदूर अपने कार्यकर्ता के पास आकर कहने लगे कि "आपको भी हम कार देना चाहते हैं।" उस पर उन्होंने कहा, "कार तो बेकार है, नहीं चाहिए। यह कार कौन पोंछेगा? मेरे लिए मेरी सायकिल ही भली है।" जीवन किस ढंग का हो, किस ढंग से जीवन बिताना है, यह हर कार्यकर्ता को तय कर लेना चाहिए। भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ता ऐसा तय कर लेते हैं।

हम देखते हैं, कई बार हमारे पूरा समय देकर काम करने वाले कार्यकर्ताओं ने इंटरव्यू दिए। इंटरव्यू में उन्होंने सब लोगों से कहा कि हमको जितना मिलता है, उतना काफी है। इसी में हमारी गुजर हो जाएगी। ज्यादा बढ़ाने की जरूरत नहीं है। उन्होंने जब हमको अपने अनुभव बताए तो हमको लगा कि कितने विशाल विचारों वाले कार्यकर्ताओं के साथ हम काम कर रहे हैं। अभी-अभी की घटना है। अपना पूरा समय देकर काम करने वाले कार्यकर्ता हमसे कुछ पैसा लेते थे। लेकिन किसी कारणवश या उनके प्रयास से उनकी ऐसी स्थिति आ गई जिसके कारण उनको पैसे की जरूरत नहीं रही। उन्होंने कहा कि अगले महीने से हमको भारतीय मजदूर संघ की ओर से पैसा देने की कोई जरूरत नहीं है। क्षमा कीजिए, वह कहीं से माँगकर या किसी यूनियन से नहीं लेते थे। उन्होंने एक दूसरे तरीके से अपने घर की व्यवस्था की, उससे उन्हें पैसे मिलने लगे। कहने लगे गाँव में पूरे समय काम करने के लिए पैसे की जरूरत नहीं। वह पहले लेता था, हम देते थे। हमको लगता था, कितना कम हम दे रहे हैं, हमको शर्म लगती थी। लेकिन बाद में वही कहने लगे कि अब देने की जरूरत नहीं है। यह एक श्रेष्ठ विचार है।

यह अपनी भारतीय जीवन दृष्टि है कि जितनी मुझे आवश्यकता है उतना ही मैं लूँ। मैं अपनी आवश्यकताएँ कम करूँ। हमारे यहाँ जीवनयापन और स्तर की व्याख्या यह है कि चमड़ी और हड्डियाँ साथ रहने के लिए (To put the skin and bones together) जो आवश्यक है वह न्यूनतम है। ऐसे न्यूनतम वेतन (Minimum wage) लेकर और ध्येय के साथ एकात्म होकर कार्य करने वाले कार्यकर्ता भारतीय मजदूर संघ के हैं। ये कार्यकर्ता भी कैसी-कैसी परिस्थितियों में काम करते हैं, इसका अनुमान हम लगा सकते हैं।

थैंकलैस जॉब

इस क्षेत्र की विशेषता कई बार ध्यान में आती है। दूसरे संगठन के एक बड़े अच्छे कार्यकर्ता एक बार पूना में हमारे पास आए। उन्होंने बहुत, अच्छे एग्रीमेंट्स (समझौते) किए थे। समझौता करने के बाद उन्होंने यह सोचा कि अब इस क्षेत्र से मुक्ति ले लूँ। मैंने कहा, "क्यों?" तो उन्होंने कहा कि "देखिए, अब इससे ज्यादा मैं क्या दिलाऊँगा। मुझे ऐसा नहीं लगता कि अब और अधिक दिला पाऊँगा, और अगर नहीं दिलाऊँगा तो ये सारे मजदूर मेरे साथ रहेंगे या नहीं, कुछ कह नहीं सकता।" मैंने कहा कि, "क्या अपना कार्य मजदूरों को केवल पैसे ही दिलाना है और क्या हमारे साथ केवल पैसे के लिए मजदूर आते हैं?" तो उन्होंने कहा कि हमको तो ऐसा लगता है कि "दिस इज ए बैंकलैस जॉब।" इस क्षेत्र की विशेषता यही है यानी सिकमेन सायकोलौजी (बीमार मानसिकता) है।

कोई बीमार आदमी पड़ा हुआ है तो उसकी सेवा चलती है। घर के लोग सेवा करते हैं। बूढ़े आदमी के बारे में बहुत बार यह अनुभव होता है, उसकी सारी धारणा, संयम और शक्तियाँ खत्म हो जाती हैं। भूख लगी तो जल्दी खाना मिलना चाहिए, प्यास लगी है तो जल्दी पानी मिलना चाहिए, पेशाब लगी तो जल्दी उसको ले जाना चाहिए। ऐसी उसके शरीर की आवश्यकता होती है। अच्छी चीज देखी तो रोने लगते हैं, बुरी चीज देखी तो रोने लगते हैं। कोई प्यारा आदमी आ गया या कोई मिल गया, लड़का मिल गया तो रोने लगते हैं। ऐसी अवस्था में उनकी सेवा करने वालों को यह बार-बार अनुभव होता होगा कि वे सुबह से लेकर के शाम तक उसके काम करते हैं लेकिन केवल उसी के काम तो नहीं हैं, और भी काम होते हैं। घर चलाना पड़ता है, आने-जाने वाले लोगों से मिलना पड़ता है, काम से बाहर भी जाना पड़ता है। इसी बीच यदि मान लीजिए उसको पेशाब लग गई। वह चिल्लाया। अब हाथ का काम तत्काल छोड़कर आ पाना कई बार संभव नहीं होता, दो-चार मिनट तो लगते ही हैं। परंतु इस दो मिनट में वह कितनी बातें घर वालों को सुनाता है कि "मैं बूढ़ा हो गया हूँ, मेरे प्रति किसी का ख्याल नहीं। मुझे जल्दी मरना चाहिए", आदि-आदि। अर्थात सेवा के आज तक जो श्रेष्ठ काम किए वे सब खत्म।

यही मानसिकता कर्मचारी की भी होती है। कई संगठनों और श्रम संगठन के आज जो श्रेष्ठ कार्यकर्ता, माने हुए कार्यकर्ता हमको दिखाई देते हैं उन जैसे लोग भी यह मानते हैं। क्यों मानते हैं? इसलिए मानते हैं कि उनकी हर अवस्था में वे साक्षी थे - अच्छे दिनों में, बुरे दिनों में उनके साथ रहे। कार्यकर्ता कई काम करता है। लेकिन एक चीज उसकी कठिनाई होती है, वह है मजदूर। मालिक ने उसको गाली दी होती है, मालिक ने उसको चार्जशीट दी होती है, ये अपने काम में मस्त हैं। इसको वहाँ पर देखने के लिए समय नहीं है तो मजदूर सोचता है मेरे ऊपर इतनी बड़ी विपत्ति है और इसको चिंता तक नहीं है और फिर काफी बातें उसको सुनने पड़ती हैं। सौ काम किए, उसका कोई आभार नहीं। मगर एक काम नहीं किया और समय पर नहीं किया तो बुराई। और फिर यहाँ तो ऐसा है कि हर दिन नई समस्या आती है। कल की समस्या आज बासी हो जाती है। ऐसी परिस्थिति में अपने कार्यकर्ता को सचेत रहकर, सजग रहकर, ठीक समय पर मजदूर की छोटी से छोटी समस्या ही, कम से कम उस समय उसके साथ जाकर उससे मिलकर, बात करके कि मैं यह करूँगा, यह करूँगा-एक विश्वास दिलाने का काम करना होता है। फिर उसको भी मालूम होता है कि मेरा यह काम इतना आसान नहीं है।

मजदूर भी कार्यकर्ता को परखता है

वह मजदूर भी देखता है कि यह कार्यकर्ता लगन के साथ काम करता है या नहीं, प्रामाणिकता से काम करता है या नहीं। देखता है कि इस काम में जो कठिनाइयाँ हैं उनको पार करने की इसमें हिम्मत है या नहीं। इसमें बुद्धिमानी है या नहीं, इसमें कुशलता है या नहीं? अगर यह सब गुण हैं और उन सबका उपयोग करते हुए भी उसको सफलता नहीं मिलती है, तो भी वह उसको छोड़ता नहीं है। कहता है मालिक बदमाश है, ठीक है फिर से लडूंगा। ऐसा कहने वाले मजदूर सदा सफल होता रहे यह अच्छा ही है, लेकिन सफलता न मिलने पर भी मजदूर उसके ऊपर खुश रहता है। इसका कारण यह है कि वह जिस लगन के साथ काम करता है, जिस बुद्धिमानी से काम करता है, जिस कुशलता से काम करता है, मालिक के साथ जिस ढंग से जूझता है, यह देखकर के सफलता-विफलता दोनों समय वह उसके साथ बना रहता है।

हमारे कार्यकर्ताओं के ऐसे कई अनुभव हैं। ऐसे कार्यकर्ता में यदि बुद्धिमानी है और अगर उसे कचहरी का काम करना है तो कानून की जानकारी रखता है, पुराने मामले जो हैं उसके ध्यान में रहते हैं। किस विषय पर उच्च न्यायालय ने क्या निर्णय दिया है, उसको ठीक-ठीक कण्ठस्थ रहता है, मालूम रहता है। वह यह भी जानता है कि जो समस्या सामने आई हुई है उसको सुलझाने के लिए पुराने सबूत तो नहीं हैं, लेकिन मुझे इसमें सफलता पानी है। इसलिए वह जूझता है, आमेंट (बहस) करता है, जोर देकर आर्गेमेंट करता है। कई बार मजिस्ट्रेट को पूछता है कि जो पुराने लोगों ने किया, अगर आप भी वही करने वाले हों तो आप में क्या विशेषता है? अगर आपकी बुद्धि को यह ठीक लगता है तो निर्णय दे दें। आपका निर्णय देखकर बाकी लोग भी निर्णय देंगे। जब मजदूर यह सब देखता है तो उसके पीछे वह लट्टू हो जाता है।

हर कार्यकर्ता को ऐसी बुद्धिमत्ता प्राप्त करनी चाहिए। लगन के साथ काम करने की प्रवृत्ति बनानी चाहिए। यश मिले, न मिले, उसकी चिंता नहीं करना। यश मिलता है तो ठीक ही है, अगर नहीं मिलता है तो भी ठीक है। हमने भी कई बार कई वकीलों में देखा है। जो पुराने वकील होते हैं, किसी कारण नीचे की कोर्ट में केस हार जाते हैं। यह उनके आलस्य के कारण भी हो सकता है। मजदूर आता है, चिल्लाता है। वकील कहता है, "अरे, फिक्र मत करो। उसको कहो, तुम्हारा बाप अभी ऊपर बैठा है, देख लेंगे।" जो वकील यह कहने वाला होता है, उसके साथ मजदूर बराबर रहता है और वह जीतता है। पराजय में भी हिम्मत रखनी चाहिए। अपने सारे दिन अच्छे थोड़े ही रहते हैं। हम लोगों ने तो अच्छे दिन भी देखे हैं और बुरे दिन भी देखे हैं।

भारतीय मजदूर संघ की आयु भी अब 30 साल पार कर रही है। जब ऐसी बैठकें नहीं होती थीं, यूनियन की बैठकें नहीं होती थीं; बैठकें हो सकती थीं लेकिन होने नहीं देते थे, कहीं भी जाओ हमको कोई सहारा नहीं देता था, हमारे साथ बात करने के लिए कोई तैयार नहीं था, लेकिन भारतीय मजदूर संघ का कार्यकर्ता प्रामाणिकता, लगन और त्याग की भावना से काम करता था। उसी कारण मजदूर उन दिनों में भी भारतीय मजदूर संघ से प्रभावित था। अच्छे और बुरे दिनों में भी जो मजदूर हमारे साथ रहता है उसका कारण है कार्यकर्ता। ऐसा कहते हैं कि नदी में जब बाढ़ आती है तब पानी का क्या करेंगे? ऐसे ही वायुमंडल में, हवा में बदलाव आने के कारण एक दूसरा प्रवाह भारतीय मजदूर संघ में या किसी संस्था में आता है तो लोगों को लगता है कि संस्था अच्छी है। लेकिन किसी परिस्थिति में जब यह बाढ बंद हो जाती है और पानी भी सूख जाता है। ऐसी अवस्था में परीक्षा होती है। इस अवस्था में अपने साथ वही रहेंगे जिन्होंने ध्येय का चिंतन किया है, ध्येय जिनके जीवन की आत्मा बन गया है। जो उसकी प्राप्ति के लिए पूरे चौबीस घण्टे लगता है। ऐसा कार्यकर्ता जय और पराजय, अच्छे और बुरे दिनों में, यश-अपयश के समय भी भारतीय मजदूर संघ के साथ रहता है। वह हताश नहीं होता। ऐसे कार्यकर्ता स्थान-स्थान पर खड़े हों, और विचार करें कि इस कार्य के लिए जो गुण चाहिए, शायद वे गुण मुझमें नहीं हैं। गुण आने चाहिए। असफलता के क्षणों में यह विचार बल देता है।

अपने लिए कठोर , दूसरों के लिए मृदु

कार्यकर्ता कैसा होना चाहिए? उसका एक गुण बताया गया - अपने प्रति, अपने सामाजिक और वैयक्तिक जीवन के प्रति ख्याल नहीं। उसके पास अपना काम करने के लिए समय ही नहीं है, अपना निज का कुछ करने की इच्छा ही नहीं। कार्य करते समय दूसरों के बारे में उसका व्यवहार कैसा रहता है? वह पूरी शक्ति से यह प्रयास करता है और उसकी यह प्रबल इच्छा होती है कि दूसरों का जीवन सफल हो, उनको सुविधाएँ मिलें, उनका आर्थिक जीवन उन्नत हो। अपने लिए कठोर, लेकिन दूसरों के लिए मृदु। जब दूसरों का दुःख देखकर इनके हृदय में पीड़ा होगी तभी वह यह काम कर सकेंगे। "वैष्णव जन तो तेणे कहिए जो पीर पराई जाणे रे' पराई पीर समझने वालों को अपनी पीड़ा मालूम नहीं होती। क्योंकि अपने प्रति उनके जीवन का व्यवहार कठोर है। हमारे साथ हमारा ही व्यवहार कठोर होना कितनी बड़ी बात है। हम तो अपना कार्य करते हैं, दूसरों का क्या होता है उसकी चिंता क्या करना? ऐसा सोचने वाला वैष्णव जन नहीं कहलाता। वैष्णव जन वह होता है जो खुद के बारे में अतीव कठोर हो और दूसरों के बारे में अति मृदु। "वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि", फूल से भी मृदु, वज्र से भी कठोर कार्यकर्ता ही कार्य कर सकता है।

छोटा काम - परमात्मा की सेवा

एक और उदाहण। जिनके जीवन का प्रवाह हजारों साल से अपने सामाजिक जीवन पर है उन श्रीकृष्ण की एक कथा है। युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ था। राजसूय यज्ञ में हर एक राजा को काम करना पड़ता है। उनको काम बाँट दिया जाता है। अब समस्या यह आई कि एक-एक प्रदेश का राजा क्या काम करे। अच्छा काम प्राप्त करने की होड़ लगी। उस समय कई राजाओं को परास्त करने वाले श्रीकृष्ण जी ने कहा कि "देखो, मुझे एक काम दे दो। इन सब राजाओं के भोजन के बाद इनकी जूठी पत्तलें उठाने ओर आगत राजाओं के पैर धोने का काम मुझे दे दो।"

स्पष्ट है जब सबसे बड़ा व्यक्ति सबसे छोटा काम करता है तब संतुलन कभी बिगड़ता नहीं। समाज का संतुलन भी तब नहीं बिगड़ता। यह छोटा काम करते समय उसको ऐसा लगता है कि मैं परमात्मा की ही सेवा कर रहा हूँ। विवेकानंद जी ने भी तो यही कहा था, "जब तक इस देश का एक कुत्ता भी भूखा है, तब तक मुझे शांति नहीं।" उन्हें भूखे कुत्ते की चिंता थी। संत एकनाथ जी के जीवन का एक प्रसंग है। काशी से रामेश्वरम् के लिए गंगाजल ले जा रहे थे। उन्होंने रास्ते में देखा, एक गधा पानी के लिए तड़प रहा है। गंगाजल उसको पिला दिया। उन्होंने सोचा कि उसकी आत्मा अगर शांत होती है तो प्रभु मुझे वही पुण्य देगा जो मैं यह गंगाजल रामेश्वरम तक ढोकर पाता।

छोटे-छोटे लोगों के छोटे-छोटे काम, उनके प्रति भी ख्याल देता है और उसमें अपने लिए कोई नीचपन है ऐसा नहीं सोचता है। उल्टे कार्यकर्ता अगर यह समझने लगेगा कि इन्हीं कामों में परमात्मा की भक्ति, परमात्मा की सेवा है तो उसका विकास होगा। भारतीय मजदूर संघ का कार्यकर्ता ऐसा सोचता है इसीलिए तो यह काम बढ़ता जा रहा है। दूसरे संगठनों का कोई कार्यकर्ता ऐसा नहीं सोचता।

कठिनाइयों में भी अडिग

नए-नए स्थानों पर काम शुरू होता है। कई बार कठिनाई भी आती है। जहाँ काम अच्छा है वहाँ किसी न किसी परिस्थिति के कारण जब काम कम हो जाता है तो सामान्य कार्यकर्ता का दिल बैठ जाता है। कहता है कि यह कैसे होगा? मैं अब क्या करूँ? ऐसे समय उसे ऐसा सोचना चाहिए कि विभिन्न प्रदेशों में जो नए-नए कार्यकर्ता गए थे वे क्या सोचते होंगे? उसका कौन साथी था? कौन उनके साथ काम करता था? क्या उनके पास साधन थे? कार्यकर्ता का यह सोचने का ढंग होता है कि जब साधन नहीं, साथी नहीं, तो भी उन्हें काम करना है और करेंगे, यशस्वी होकर के रहेंगे। बार-बार गोस्वामी तुलसीदास जी का कहना याद आता है, "रावण रथी था, लेकिन रामचन्द्र पैदल थे। दोनों का युद्ध चल रहा था - विषम युद्ध। किंतु राम विजयी हुए।" विषम परिस्थिति में भी मैं सफल होने वाला हूँ, होऊँगा। मैं अपनी लगन के साथ अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए कोशिश करता रहूँगा, आज तक बड़े-बड़े लोगों ने यही किया है, उसी मार्ग पर मुझे चलना है, ऐसा सोचकर जो कार्यकर्ता काम करता है वही यशस्वी होता है। 'रावण रथी, विरथ रघुराई' - हमारे कार्यकर्ता के सोचने का यह ढंग होता है।

काँच के समान निष्कलंक

हमारे कार्य का आधार कार्यकर्ता है। हमारा कार्य कार्यकर्ताओं के कारण ही बढ़ने वाला या घटने वाला है। यही हमारा साधन है। यह साधन स्वच्छ रहना चाहिए। हमारे कार्यकर्ताओं के कारण ही लोगों को हमारे ध्येय का दर्शन होने वाला है। भगवान के दर्शन अगर भक्त के माध्यम से होना है तो भक्त कैसा रहना चाहिए? उसके लिए एक उदाहरण है दीप ज्योति का। वह आँधी में भी जलती रहे, अच्छे ढंग से जलती रहे, इसलिए लालटेन में एक काँच लगाया जाता है। वह काँच लगाने से प्रकाश अच्छा आता है। पवन का झोंका भी आ गया तो भी वह ज्योति बुझती नहीं, हमको प्रकाश मिलता है। इस काँच में से हम ज्योति को देखते हैं। इस काँच में यदि धूल लग गई तो प्रकाश अच्छा नहीं आएगा, इस काँच को कोई रंग लग गया तो ज्योति उस रंग जैसी दिखेगी। इसलिए हमारा कार्यकर्ता, यानी जिनके द्वारा लोगों को हमारे ध्येय का दर्शन होने वाला है, उस काँच के जैसा निष्कलंक होना चाहिए - स्वयं का कोई लाल, पीला रंग नहीं। ध्येय के अनुरूप अपना जीवन स्वच्छ, निर्मल बने कि मेरे माध्यम से ध्येयदर्शन अच्छा होगा तो इस ध्येय के बारे में लोगों के मन में धारणा भी अच्छी होगी।

अहंकार रहित

कई कार्यकर्ताओं को अपने कार्य में मिली सफलता के कारण जब प्रशंसा मिलती है तब उन्हें लगता है, "मैं जो कहता हूँ वही सत्य है। मेरा जो कहना है वही वास्तव में इस तत्त्वज्ञान का कहना है।" मन में ऐसा एक अहंकार आता है। अब इस अहंकार को लेकर अगर हम दुनिया में गए तो उस ध्येय का दर्शन अहंकार के काँच से मिलने के कारण धूमिल होगा। लोगों को अहंकार का दर्शन होगा। इसलिए अहंकार नहीं रखना चाहिए। अगर अपना अच्छा कार्यकर्ता, बड़ा कार्यकर्ता अपने पद और स्थान की बात कहे कि हाँ, मैं प्रेसिडेण्ट हूँ, मैं जनरल सेक्रेटरी हूँ, मैं फलाना हूँ, मैं ढिकाना हूँ, मैं कितना बड़ा हूँ, तो यह ठीक नहीं है। क्या बड़प्पन कहने से आता है? पद से आता है? नहीं, बड़प्पन तपने से आता है। सोना जब भट्टी में तपता है, तभी अच्छा बनकर बाहर निकलता है।

आदत न बिगड़े

त्याग, तपस्या और बलिदान से गुणवत्ता बढ़ती है ? हमने एक सिनेमा देखा था। वही बताकर ये यह विषय पूरा करता हूँ। उसमें एक मजदूर कार्यकर्ता का दर्शन आता है। वह मजदूर कार्यकर्ता चीफ मिनिस्टर से बात करता है। बड़ी स्पष्ट बात करता है, फलाना काम नहीं किया तो जूते से मारूँगा, आदि-आदि बात करता है। अब इसमें अगर असफलता आ गई तो क्या हो गया, इत्यादि। उसके साथ एक महिला सेक्रेटरी रहती है। वह बात करता रहता है और कहता है कि मुझे क्या है मैं तो पहले की तरह दुकान के सामने पटरियों पर सो जाऊँगा, मुझे तो आदत है, तो वह महिला कहती है कि अब वह आदत छूट गई है। अब तो गाड़ी में बैठने की आदत है। अब वैसा नहीं कर सकोगे। इसलिए कार्यकर्ता को यह सोचना चाहिए कि मेरी आदत तो नहीं बिगड़ रही है। कल तक मैं अपने किसी कार्यकर्ता के घर में भी आनंद से रहता था। अब मान्यता मिल गई, नेगोसिएशन के लिए जाते हैं, कमेटीज के लिए जाते हैं, टी. ए.-डी.ए. काफी मिलता है, वहाँ रहने का प्रबंध भी काफी अच्छा होता है। जिस कार्यकर्ता को यह आदत लग गई, उसे किसी कार्यकर्ता के छोटे घर में आनंद नहीं मिलेगा, उसे असुविधा होने लगेगी। अतः स्वयं के बारे में सोचना चाहिए कि मेरी यह आदत छूट गई है, बिगड़ गई है या सही है। अगर उस कार्यकर्ता की आदतें वही सादगी की आदतें हैं तो वह कार्यकर्ता सफल होगा ही। कोई आपत्ति-विपत्ति उसको उसके मार्ग से पीछे नहीं हटा सकती।

आदमी अपने मार्ग से पीछे क्यों हटता है? इसलिए कि वह यह सोचने लग जाता है कि वहाँ दुःख भोगना पड़ता है? दुःख क्या होता है? किसमें दुःख है? बंगला छोड़ने में? वाहन नहीं मिला, इसमें? हमने एक कार्यकर्ता से पूछा कि मीटिंग में क्यों नहीं आए? उसने कहा कि क्या करें, वाहन ही नहीं मिला यानी स्कूटर नहीं मिला। जब उसके पास स्कूटर नहीं था तब यह कार्यकर्ता बराबर समय पर मीटिंग में आता था। लेकिन स्कूटर की आदत लग गई। अब स्कूटर नहीं है तो बैठक में कैसे जाऊँ, यह विचार मन में आने लगे तो समझ लेना चाहिए कि आदत बिगड़ गई। कार्यकर्ता को हमेशा यह सोचते रहना चाहिए कि मेरी आदतें तो नहीं बिगड़ गईं। अच्छा कपड़ा मिलता है, पहन लो। लोग जैसा पहनते हैं वैसा पहन लो, जैसा खाते हैं वैसा खाओ। लेकिन खाने-पीने, रहने, बात करने, उठने-बैठने में हमारी आदतें तो नहीं बिगड़ रहीं, यह सोचते रहना चाहिए। हमको जहाँ जाना है यदि अच्छे कपडे पहनकर नहीं गए तो इज्जत नहीं होगी, यह विचार उचित नहीं। क्या कपड़े भर से हमारी इज्जत होने वाली है? जैसे कल जाते थे वैसे आज भी जाएँगे। कोई बहुत अच्छा कार्यकर्ता है, इसलिए वह गंदे कपड़े पहनकर आता है, यह भी सही नहीं है।

मस्ती बढ़ाइए

परमात्मा की भक्ति की धुन जिसके ऊपर चढ़ती है उसको बाहर का कोई विचार नहीं रहता कि क्या खाते हैं, क्या पहनते हैं, कैसे रहते हैं, कैसे सोते हैं, कहाँ सोते हैं? उस मस्ती और धुन में वह चलता रहता है। वह कार्य की धुन, मस्ती, हमारे जीवन, हमारे व्यवहार से खत्म तो नहीं हो गई इसके बारे में चिंतन करते रहना आवश्यक है। भारतीय मजदूर संघ का कार्यकर्ता इसी मस्ती में रहता है, इसलिए भारतीय मजदूर संघ बढ़ता है। इसी मस्ती को बढ़ाइए, इसी धुन को बढ़ाइए, दुनिया को इस मस्ती में डुबो दीजिए। अपना कार्य बढ़ेगा, भारतीय मजदूर संघ सदा के लिए अमर रहेगा।

चतुर्थ सत्र

गंतव्य

बच्चों की कहानियों की एक पुस्तक है जिसका नाम है 'एलिस इन वंडर लैंड'। एलिस एक बच्ची का नाम है। उसमें एक प्रसंग ऐसा बताया है कि यह बच्ची अपनी माँ के साथ मार्केट में जाती है और भीड़-भड़क्के में वह माँ से बिछुड़ जाती है। भीड़ में वह माँ को इधर-उधर देखती है। देखते-देखते रास्ता काटते-काटते थोड़े खुले रास्ते पर आ जाती है। बहुत घबड़ा गई है कि अब किससे पूछू कि मैं कैसे घर पहुँच सकती हूँ। इतने में उधर से एक बिल्ली आ गई। अपने सार्वजनिक जीवन में तो मनुष्य मनुष्य के साथ भी बात करने से इनकार कर देता है, लेकिन बच्चों की कहानियों में मनुष्य और पशुओं की भी बातचीत होती है। वह बच्ची बिल्ली से पूछती है कि "बिल्ली मौसी, मैं माँ से बिछुड़ गई हूँ। मुझे यह बताओ कि मेरे घर का रास्ता कौन-सा है?" बिल्ली मौसी गौर से उसकी तरफ देखती है और कहती है कि "तुम यह तो बताओ कि तुम्हारा घर का ठिकाना कहाँ है, पता क्या है? तभी तो मैं बता सकूँगी कि रास्ता कौन-सा है?" वह बच्ची कहती कि "यही तो गड़बड़ है। मैं घर का पता-ठिकाना नहीं जानती।" बिल्ली मौसी कहती है कि "यदि तुम यह नहीं जानती कि कहाँ पहुँचना है तो वहाँ का रास्ता मैं तुमको कैसे बता सकती हूँ।"।

गंतव्य की समस्या

यह एक छोटा-सा प्रसंग उस 'एलिस इन वंडर लैंड' में आता है। आज जब हम समाज की तरफ देखते हैं तो ऐसा लगता है कि वही समस्या लोगों के सामने खड़ी है कि जहाँ पहुँचना है, वह ठिकाना मालूम नहीं है। इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि कोई गुमराह हो गया है, गलत रास्ते पर जा रहा है। जिसका ठिकाना और गंतव्य स्थान निश्चित हो उसके बारे में तो कह सकते हैं कि गंतव्य स्थान की ओर जाने वाला वह रास्ता है, तुम इधर से जा रहे हो तो गुमराह हो गए हो। जैसे बंबई बंदरगाह से कोई जहाज निकलता है तो यदि उसको यह आदेश नहीं दिया गया कि उसे कहाँ पहुँचना है, केवल कहा गया कि आगे बढ़ो तो वह किसी भी दिशा में जाएगा, फिर चाहे वह टोकियो की तरफ जाए, लन्दन की तरफ जाए या वाशिंगटन की तरफ। क्योंकि उसका कोई अंतिम गंतव्य स्थान (Destination) बताया ही नहीं गया है।

अंधेरे कमरे में कोई कहे कि निशाना लगाओ तो कोई कहाँ और कैसे निशाना लगाएगा? जहाँ फायरिंग की प्रैक्टिस होती है वहाँ आपका निशाना ठीक है या नहीं, यह दिखाने के लिए 'बुल्स आई' लगाते हैं और जब फायरिंग करते हैं तो गोली 'बुल्स आई' के बराबर बीच में जाती है तो शत-प्रतिशत अंक मिलते हैं और जितनी गोली इधर-उधर जाती है, उतने अंक कट जाते हैं। किंतु जब अंधेरे में आपको गोली चलाने के लिए कहा जाएगा तो आप कहीं भी गोली चलाएँगे क्योंकि वहाँ 'बुल्स आई' तो है नहीं। गोली कहाँ लगनी चाहिए जब वह ठिकाना ही नहीं है, तो जहाँ कहीं गोली लग जाएगी वही सही ठिकाना होगा। इसी प्रकार आज अपने देश में किसी के बारे में यह भी कहना कठिन है कि वह गुमराह हो गया है, उसका निशाना गलत है। क्योंकि अपने अंतिम गंतव्य का पता किसी के पास नहीं है। दौड़-धूप चल रही है। कहाँ जाना है, यह पता नहीं है। कुछ लोगों की अवस्था ऐसी है।

मनुष्य के जीवन का अंतिम गंतव्य स्थान क्या हो, इस दृष्टि से उसकी प्रेरणा क्या हो, इस विषय में श्रेष्ठ लोगों ने जो विचार बताए हैं वे अलग-अलग हैं किंतु उन्हें प्रमुख रूप से दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है। एक विशुद्ध भौतिकतावादी (Materialistic) और दूसरा अभौतिकतावादी (Non-materialistic)। मैं 'आध्यात्मिक' (Spiritualistic) शब्द का प्रयोग नहीं कर रहा हूँ क्योंकि जो लोग भौतिकतावादी नहीं, वे सारे आध्यात्मिक होंगे, ऐसा नहीं है। बड़े लोगों द्वारा दिए गए ये विचार बड़े-बड़े शब्दों में रखे गए। सामान्य आदमी के मन में यह विचार नहीं आते, ऐसा नहीं है। यह कहा जा सकता है कि वह बड़े शब्दों और दार्शनिक शब्दावली (Philosophical terminology) में अपना विचार नहीं रख सकते। लेकिन विचार तो समान हो ही सकते हैं, अभिव्यक्ति समान भले ही न हो।

स्वार्थाधिष्ठित प्रेरणा

जैसे मुझे अपने बचपन का स्मरण होता है। मेरे पिताजी अकेले ही थे। उनके कोई भाई वगैरह नहीं थे। लेकिन उनके चाचा के तीन लड़के थे। वे उनके चचेरे भाई थे, यानी मेरे तीन चाचा थे। हमारे पिताजी के चाचाजी की पत्नी यानी हमारी दादी थीं। बचपन में समझता तो कुछ भी नहीं था। फिर भी हमको कभी-कभी लगता था कि दादी का व्यवहार ठीक नहीं है। ऐसा क्यों लगता था? बचपन में इतना आदमी सोच नहीं सकता। लेकिन जब मैं कॉलेज में आया, थोड़ा-सा अर्थशास्त्र पढ़ा, यद्यपि वह मेरा विषय नहीं था, तो मुझे एक आश्चर्यजनक तथ्य ध्यान में आया कि पूँजीवाद के प्रथम पुरस्कर्ता एडम स्मिथ, जिन्होंने 'वेल्थ ऑफ नेशन' किताब लिखी है, जो कैपिटलिज्म की बाइबल मानी जाती है, उनके विचारों और हमारी दादी के विचारों में पूर्ण साम्य है। आश्चर्य लगा कि इन्होंने अर्थशास्त्र तो पढ़ा नहीं लेकिन विचारों में इतनी समानता कैसे आ गई। दोनों के विचार क्या थे? वह विचार यह है कि मनुष्य की प्रेरणा केवल व्यक्तिगत स्वार्थ ही हुआ करता है, इसके अलावा कुछ नहीं। क्योंकि मनुष्य व्यक्तिगत सुख चाहता है, इसलिए सुख प्राप्ति के लिए स्वार्थ सिद्धि होनी चाहिए और फिर स्वार्थ सिद्धि के लिए वह सारे प्रयास करता है। इस प्रकार के प्रयत्न से उसकी संपत्ति बढ़ेगी और हर एक की संपत्ति बढ़ेगी तो उसका जो कुल योग होगा उसमें राष्ट्र की भी संपत्ति बढ़ेगी। इसमें राष्ट्र का भी साम्पत्तिक विकास होगा, यह एक अतिरिक्त बात है जो एडम स्मिथ ने कही थी। केवल यह बात हमारी दादी के ख्याल में नहीं थी। लेकिन बाकी का जो मूल विचार है उसे दोनों मानते थे कि मनुष्य की प्रेरणा व्यक्तिगत स्वार्थ है।

पक्षपाती व्यवहार

मैं जैसे-जैसे बड़ा होने लगा तो ख्याल में आने लगा कि परिवार में क्या होता है, क्या नहीं? दादी का व्यवहार अति स्वार्थी था। हमारे दादा जरा उदार थे। वह दौरा किया करते थे। दौरे में एक जगह उन्होंने एक लड़का देखा। वह अच्छा था, प्रतिभावान था, लेकिन गरीब परिवार का था। दादा को लगा कि इस लड़के को अपने पास रख लेना चाहिए। उसको कम से कम मैट्रिकुलेशन तक तो पढ़ाना ही चाहिए। अपने तीन बच्चे हैं। इसमें एक और का पेट पालना कोई कठिन बात नहीं है। इसलिए उस लड़के को ले आए, घर में रख लिया। दादी को अच्छा नहीं लगा। मन ही मन कहती रहीं कि काहे के लिए बला ले आए, यह कौन हमारे खून-खानदान का है काहे के लिए इस पर खर्चा करना। लेकिन दादा के सामने वह कुछ बोल नहीं सकती थीं। परंतु दिन-प्रतिदिन का उनका व्यवहार ऐसा होता था कि हर चीज में पक्षपात करतीं। जैसे भोजन परोसना है और चारों बच्चे एक पंक्ति में बैठते हैं तो वह क्या करतीं कि उस बच्चे को आखिर में बैठातीं। जब लड्डू परोसतीं तो एक-एक लड्डू देते हुए चौथे तक जातीं, फिर वापस आते समय एक-एक लड्डू सबको और परोसती आतीं। इस प्रकार उस बच्चे को एक ही लड्डू मिलता।

एकदम बाहर से देखें तो यह ख्याल में नहीं आता कि पक्षपात हो रहा है। लेकिन इधर से जातीं तो एक-एक लड्डू हर एक को मिलता। उधर से वापस आते समय उसे छोड़कर एक-एक लड्डू सबको मिलता और उस बेचारे को केवल एक। लड़का जब छोटा था तब उसके ख्याल में नहीं आता था कि पक्षपात हो रहा है। दादा बाजार से घर में कोई खाने की चीज लाते तो वह उसे रख देती और फिर बच्चों को एक-एक करके कान में बताती कि, "मैं उसको अभी सौदा लाने के लिए बाजार भेजती हूँ, तब तक तुम खाकर मुँह वगैरह साफ करके ऐसे तैयार होना कि उसको दिखना नहीं चाहिए।" माने इस तरह से स्वार्थ, हर चीज म स्वार्थ, आप इसकी कल्पना कर सकते हैं। ऐसा उनका व्यवहार था। हमारी माताजी को वह कहती थीं कि वह बड़ी भोलीभाली है। उसको कुछ समझता नहीं है, अव्यवहारिक है, वगैरह-वगैरह। खैर, हमको भी उस समय न अर्थशास्त्र समझ में आता था, न कभी हमने मनोविज्ञान ही पढ़ा। यद्यपि ज्यादा समझता नहीं था लेकिन दिखता तो था ही कि क्या-क्या चल रहा है।

अति स्वार्थ का दुष्परिणाम

उसी अति स्वार्थी वायुमंडल और संस्कारों में हमारे तीनों चाचा बढ़े। आखिर में हमने जो हालत देखी वह बड़ी विचित्र थी। तीनों की शादियाँ हुई। फिर हमारे दादा की मृत्यु हुई और मृत्यु के पश्चात तीनों ने अलग-अलग मकान भी बना लिए। दादा छोटे से किराये के मकान में रहते थे। जब उसे छोड़ने की बारी आई, तो किसके साथ दादी रहेगी, इस सवाल पर सभी कतराने लगे। किसी ने कहा, मेरा घर छोटा है। किसी ने कहा, मेरी पत्नी की तबियत हमेशा खराब रहती है। किसी ने कुछ और कहा। माने हर लड़का टालने लगा और जब किसी के यहाँ जबर्दस्ती से वह रहती भी थीं तो बहू उनको कोसती थी। बहू ने कोसा और उन्होंने शिकायत की तो लड़का सुनता भी नहीं था, बल्कि उसी को डाँट देता था कि "वह घर का सब काम देख रही है, जैसा कहती है वैसा ही करो। अब बुढ़ापे में किसलिए झगड़ा कर रही हो?" उसकी जिंदगी इतनी खराब हो गई, बुढ़ापा इतना खराब हो गया कि लाचारी, दुःख और अपमान बर्दाश्त करते हुए उसको बचा हुआ सारा जीवन बिताना पड़ा।

मैं माताजी को कहता था कि, "हमारे ये चाचा कैसा व्यवहार करते हैं। सभी अपनी पत्नी के बस में चले गए, अपनी माताजी की फिक्र नहीं करते।" इस पर माताजी ने कहा कि, "बच्चों का कोई दोष नहीं है। बचपन से अति स्वार्थ के जो संस्कार तुम्हारी दादी ने डाले थे, उसी का यह परिणाम है कि बड़ा होने के बाद वह अतिस्वार्थ अब उसी के खिलाफ, अपनी माँ के खिलाफ, दिमाग में ला रहे हैं। तुम्हारी दादी का ही दोष है, तुम्हारे चाचाओं का कोई दोष नहीं है।" यह अति स्वार्थ वाली जो बात है वह तात्कालिक रूप से शायद सुखद मालूम होती हो। उसका परिणाम क्या होगा, यह उस समय ख्याल में नहीं आता है, लेकिन उसके अंतिम परिणाम से आदमी बच नहीं सकता।

अमरीकी समाज का चित्र

मैं अमरीका गया था। उस समय संघ के तीन स्वयंसेवकों ने अपना एक अनुभव बताया कि एक बार वे जानकारी प्राप्त करने की इच्छा से उत्सुकतावश एक वृद्धाश्रम देखने के लिए गए। वहाँ काफी वृद्ध लोग थे। वे सब श्रीमान थे - लखपति, करोड़पति लोग थे। उन्होंने उनका हृदय से स्वागत किया, उनके साथ गपशप की और एक घंटे के बाद जब वापस आने के लिए निकले तो वास्तव में कई लोग आँसू बहाने लगे कि आप दोबारा जरूर आइए। अगले इतवार को भी आइए। उनको आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा, "क्यों? आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?" उत्तर मिला, "हमको मिलने के लिए कौन आता है! आप आए, हमें बहुत अच्छा लगा।" यह दशा लखपतियों-करोड़पतियों की थी। उन्होंने बताया कि, "हमारे लड़के तो हमको मिलने के लिए कभी आते ही नहीं। हमारी जो स्टेट है, जो बैंक बैलेंस है उसमें से सारा पैसा हम लेते हैं। बच्चे बड़े हो गए हैं। वह अपना-अपना परिवार देख रहे हैं। कोई हमारी फिक्र नहीं कर रहा है दो-चार साल में समय मिलता है तो एकाध बार आते-जाते हैं, नहीं तो क्रिसमस के समय फूलों का गुच्छा भेज देते हैं। इसके अलावा उनको हमारी कभी याद नहीं आती।"

मैंने उन स्वयंसेवकों से पूछा कि, "ऐसा कैसे होता है?" तो उन्होंने बताया कि अमरीका प्रगतिशील (प्रोग्रेसिव) है। यहाँ के लोग परिवार, परिवार के प्रति कर्तव्य वगैरह, इन सब बातों को दकियानूसी मानते हैं। यहाँ के लोग प्रोग्रेसिव, एडवांस्ड और रेडिकल हैं। वे अपना सुख जानते हैं। इसका कारण यह है कि शादी के बाद वैवाहिक जीवन का प्रथम चरण तो इन लोगों को आनंदमय लगता है, लेकिन बच्चा होने के बाद माँ और बाप दोनों को लगता है कि यह तो हमारे लिए बाधा के रूप में है। उस बच्चे को जब बाधा के रूप में देखते हैं तो छोटा होते हुए भी बच्चे को इतना तो अनुभव होने ही लगता है कि मुझे लोग चाहते नहीं हैं। (l am unwanted) बच्चा जब थोड़ा और बड़ा होता है तो उस समय भी उनका व्यवहार परायेपन का ही रहता है। तब बच्चे के मन में उनसे दूर होने की स्वाभाविक इच्छा उत्पन्न होती है। वह सोचने लगता है कि अपने पैरों पर खड़े होना चाहिए। अतः नौ-दस साल का होते ही वह धीरे-धीरे काम शुरू कर देता है।

अमरीका में छोटे काम के लिए एक घंटे में तीन डालर मिलते हैं। किसी की कार साफ कर देना, किसी का गिलास साफ कर देना, किसी के यहाँ झाडू लगाना - ऐसे छोटे-छोटे काम वह बच्चा नौ-दस साल की आयु में ही शुरू कर देता है। और जैसे-जैसे वह अपने पैरों पर खड़ा होता जाता है वैसे-वैसे अपने परिवार से अलग होता जाता है। शादी करके माँ-बाप से छुट्टी ले लेता है और फिर उनका मुँह नहीं देखता। केवल मृत्यु के बाद वसीयत के बारे में झगड़ा करने के लिए आता है। जासूसी उपन्यास लिखने के लिए प्रसिद्ध अमरीकी उपन्यासकार अगोला क्रिस्टी ने अमरीकी जीवन के बारे में एक बड़ा अच्छा वाक्य दिया है। वह वाक्य अंग्रेजी के इस वाक्य "ह्वेयर देयर इज ए विल, देयर इज ए वे" (जहाँ चाह वहाँ राह) के समानान्तर है। अगोला क्रिस्टी का वाक्य है, "ह्वेयर देयर इज ए विल, देयर इज ए मर्डर" (जहाँ वसीयत है वहाँ हत्या है)। जहाँ-जहाँ वसीयत है, वहाँ-वहाँ हत्या अवश्य होती है।

खैर, तो वह केवल वसीयत के बारे में झगड़ा करने के लिए आता है, बीच में नहीं आता। जब ये बूढ़े हो जाते हैं और कुछ दिनों के बाद जवानी ढल जाती है, फिर उन्हें लगता है कि वे बूढ़े हो गए हैं अब किसी को उनकी फिक्र करनी चाहिए। बच्चों को चाहिए कि उनकी फिक्र करें। पर उस समय उनको पता चलता है कि हमने तात्कालिक सुख के पीछे लगते हुए छोटी उम्र में अपने बच्चों के साथ जो व्यवहार किया उसके कारण ही उनके बच्चों के मन में उनके प्रति अरुचि उत्पन्न हुई है और अब उनके पास उनका मुँह देखने तक के लिए समय नहीं है।

उनकी उस मनोदशा में जब संघ के वे तीन स्वयंसेवक उनसे मिलने गए तो वे बड़े-बड़े करोड़पति लोग उनसे प्रेम से मिले और शिकायत की कि उनके पास वहाँ प्रेम से बात करने के लिए कोई भी नहीं आता। यहाँ सारी सुख-सुविधाएँ हैं, असुविधा कुछ भी नहीं है, लेकिन प्रेम से बात करने कोई नहीं आता। इससे हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि वास्तव में स्वार्थ क्या है? क्या इसकी कल्पना सामान्य व्यक्ति कर सकता है?

सुख क्या है ?

सुख क्या है? इसकी भी वास्तविक कल्पना सामान्य व्यक्ति कर सकता है या नहीं कर सकता, यह एक प्रश्न अपने मन में निर्माण होता है। सुख चाहिए, यह बात ठीक है। केवल पाश्चात्य लोगों ने ही नहीं, हमारे द्रष्टाओं, ऋषियों और मुनियों ने भी यह कहा है कि संपूर्ण जीवन का लक्ष्य सुख है। इसमें कोई शक नहीं है। वह सुख कैसे प्राप्त हो, इसी के बारे में सारे जीवन का तत्त्वज्ञान है।

जीवन को टुकड़ों-टुकड़ों में नहीं बाँटा जा सकता। जीवन एक ही है। उसको देखने के अलग-अलग पहलू हैं। एक पहलू को व्यावहारिक और दूसरे को सैद्धांतिक कहते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि सैद्धांतिक दृष्टि से तो आप ठीक हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप से दुनिया में यह नहीं चलता। किंतु यह सच नहीं है। अपने यहाँ सुख-दुख की बड़ी सरल परिभाषा की गई है।

अनुकूल संवेदनात्मकम् सुखम् , प्रतिकूल संवेदनात्मकम् दुखम्।

अर्थात जिसके कारण अनुकूल संवेदना होती हो वह सुख और प्रतिकूल संवेदना होती हो वह दु:ख है। यह इतनी सरल परिभाषा है कि बुद्धिहीन प्राणी भी हमको समझ सकते हैं। आपने भूगोल में पढ़ा होगा कि ठंडे प्रदेशों, उत्तर साइबेरिया वगैरह में जब बहुत ठण्ड हो जाती है तो वहाँ के पशु-पक्षी भी उस अति ठंडे प्रदेश से गर्म प्रदेश में आ जाते हैं और जब वहाँ बहुत गर्मी हो जाती है तो वहाँ से वे कुछ कम गर्म प्रदेशों में चले जाते हैं। माने पक्षियों तक को भी इतना पता है कि जहाँ प्रतिकूल संवेदना है वहाँ से अनुकूल संवेदना की तरफ जाना चाहिए। हम पशु-पक्षी की तरह प्राणी नहीं हैं। हमारे पास बुद्धि है और इसलिए सुख प्राप्त करना है तो उसकी वैविध्य (Variety) प्रकार (Type) घनत्व (Intensity) और स्थायित्व (Durability) क्या रहे, इसका भी हमें विचार करना पड़ेगा।

तात्कालिक सुख

हमारे एक नेता मित्र हैं। उनको मधुमेह है। डाक्टर ने मना किया कि कोई मीठी चीज नहीं खाना, लेकिन उनको मिठाई का बड़ा शौक है। एक बार दौरे में कुछ दिन हम उनके साथ थे। हमने उनका मजा देखा। जब किसी स्टेशन पर कोई मिठाई का पैकेट लेकर आता था तो ये एकदम गुस्सा हो जाते थे कि यह क्या बात है? बदतमीज हो, पता नहीं तुमको, मुझे डायबिटीज है, तुम मुझे मारना चाहते हो। किंतु उनके अनुयायी उनको वर्षों से जानते हैं। वे गालियाँ सुन लेते थे। फिर जैसे ही बोलना बंद होता था, वे कहते थे कि नहीं नेताजी, ऐसी बात नहीं है। बरफी की यह वैरायटी बिल्कुल नई है इसलिए लाया हूँ। यह सुनकर वे कहते थे कि ऐसा है तो फिर आने दो। आने दो माने पूरी ही आने दो। एक बार हमारे साथ वे भोजन के लिए बैठे। साथ में एक तीसरे मित्र भी थे। खीर परोसी जा रही थी। उनके पास बैठे सज्जन ने अपनी कढ़ी वाली कटोरी भी खाली करके दो कटोरी खीर ले ली। लेकिन जैसे ही परोसने वाली महिला एक कदम आगे बढ़ी तो नेता जी के पात्र के ऊपर उन्होंने हाथ कर दिया और कहा कि "नहीं-नहीं, इनको मत परोसो, इनको डायबिटीज है।" नेताजी उसकी तरफ देखने लगे। दूसरी बार भी वैसा ही हुआ। लेकिन तीसरी बार उसने जैसे ही उनकी कटोरी पर हाथ किया उन्होंने एकदम उसका हाथ ऊपर झटक दिया और कहा कि, "मिस्टर, डायबिटीज तुमको है या मुझको है? तुम क्यों मना कर रहे हो?" और फिर उस महिला का नाम लेकर कहा कि "स्वाभाविक रूप से इस कटोरी में जितनी खीर आ सकती है उतनी खीर आने दो।"

हमने उनका दूसरा भी हाल देखा। मिठाई खाते समय तो उन्हें बड़ा आनंद आता था। फिर शुगर बढ़ जाती थी और तुरंत इंसुलिन का इंजेक्शन लेना पड़ता था। उस समय मुँह टेढ़ा-मेढ़ा हो जाता था। वह इतनी नाजुक तबियत के थे कि उनको इंजेक्शन वगैरह भी बर्दाश्त नहीं होता था। और फिर जब मुँह टेढ़ा-मेढ़ा हो जाता था तो कहते थे कि "क्या है, कैसे मूर्ख हैं लोग, मुझे इस आफत में डाला।" जैसे उन्होंने मिठाई दूसरों के लिए खाई हो। सुबह रसगुल्ला खा लिया और बड़ा आनंद हुआ लेकिन जब इंसुलिन का इंजेक्शन लिया तो टेढ़ा-मेढ़ा मुँह कर लिया। क्या इसको सुख कहा जाए? यह तो तात्कालिक सुख है। क्या इसे हम वांछनीय सुख कह सकते हैं?

वास्तव में वांछनीय सुख तो वह होता है जो अखंड टिकने वाला हो, जो घनीभूत हो, जो निरंतर हो। ऐसा नहीं कि दस बजे सुख, सवा दस बजे दु:ख, फिर साढ़े दस बजे सुख। आने-जाने वाला सुख नहीं चाहिए। ऐसा सुख वांछनीय नहीं हो सकता। क्योंकि प्राणियों से मनुष्य को ज्यादा बुद्धि दी गई है, इसलिए मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह यह विचार करे कि मेरा सुख किस बात में है। सुख ही गंतव्य स्थान है। हमारे द्रष्टाओं ने बगैर हिचक स्पष्ट शब्दों में कहा है कि सुख ही मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य है। लेकिन उन्होंने कहा सुख क्या है, यह पहचानो। सुख किसमें है यह जानो।

ऐसा कहा जाता है कि आजकल लोगों के पास सोचने के लिए समय नहीं है। एक पाश्चात्य लेखक का कहना है कि "लोगों के पास जीने का समय नहीं है, क्योंकि उन्हें हमेशा काम करना पड़ता है।" जैसे नेताओं के बारे में किसी ने कहा कि नेताजी कहते हैं कि "मेरे पास सोचने का समय नहीं, क्योंकि मुझे हमेशा बोलना पड़ता है।" वैसे ही सर्वसाधारण मनुष्य के विषय में भी कि "उसके पास जीने के लिए कोई समय नहीं क्योंकि उसे हमेशा काम करना पड़ता है।" इस तरह अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य भी तात्कालिक सुख का ही विचार करता है। किंतु उससे वास्तविक वांछनीय सुख प्राप्त होगा या नहीं होगा, इसका विचार नहीं करता।

तात्कालिक सुख क्या है? इस विषय में कहा गया है कि आहार, निद्रा, भय, मैथुन - सभी के लिए समान हैं। अर्थ और काम सभी के लिए समान और सामान्य है। इसके कारण सुख का अनुभव होता है। इस बात पर दो मत नहीं हैं कि इनके अभाव में भी दुःख है। हमारे शास्त्रों में यह कहा गया कि अर्थ और काम का अभाव नहीं होना चाहिए। इसका अभाव होने से मनुष्य दुखी होता है। अर्थ के विषय में यह कहा गया है कि "भूखे भजन न होत गोपाला।" जो आदमी भूखा है वह गोपाल का भजन क्या करेगा? समर्थ रामदास ने कहा, "तुम्हारे पास पैसा ही नहीं तो खाओगे क्या? परिवार का पेट कैसे भरोगे और परिवार की चिंता में ही यदि तुम्हारा सारा समय बीत जाता है तो परमार्थ और भगवान का चिंतन कब करोगे?"

काम

जिस प्रकार अर्थ का पूर्ण अभाव रहने से नहीं चल सकता, उसी प्रकार काम का पूर्ण अभाव रहने से भी नहीं चल सकता। हमारे यहाँ काम को बहुत ही उच्च स्थान दिया गया है। लेकिन काम की हिंदू अवधारणा सिगमन फ्रायड के काम की अवधारणा से भिन्न है। सिगमन फ्रायड का 'लिविडो' एक अलग चीज है। हमारे द्रष्टाओं ने कहा है कि इस सारी सृष्टि का निर्माण काम के कारण हुआ है। कहते हैं कि पहले वह अकेला था। आप उसका कुछ भी नाम रख लीजिए। वह अकेला था। लेकिन वह अकेला था तो यह सारा संसार कैसे निर्माण हुआ? उत्तर मिला, 'सहकाम्यक एकोऽहम् बहुष्यामि'। उसके मन में काम निर्माण हुआ कि मैं अकेला हूँ, मैं एक से अनेक बन जाऊँ। मनुष्य को जब लीला करने की इच्छा होती है, मनोरंजन करना होता है तो दूसरे की आवश्यकता महसूस होती है। इस दृष्टि से वह जो अकेला था 'एकमेवाद्वितीय', उसके मन में इच्छा हुई तो कहा - 'सहकाम्यक'। उसके मन में कामना निर्माण हुई। वह कामना थी, 'एकोऽहम् बहुष्यामि' - मैं अकेला हूँ, मैं अनेक बन जाऊँ, तो जरा मजा आएगा। तब लीला कर सकूँगा। सर्वसाधारण व्यवहार में भी भगवान ने कहा कि -

धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ। (गीता 7/11)

अर्थात "काम मैं स्वयं हूँ। इससे उच्च स्तर पश्चिमी मनोविज्ञान या सायकटिस्ट क्या दे सकते हैं? भगवान ने कहा कि "मैं स्वयं काम हूँ" लेकिन कैसा? 'धर्माविरुद्धो', जो धर्म से अविरुद्ध है। माने काम है। 'काम' के अभाव से भी काम नहीं चलता। लेकिन उसमें कुछ सीमा, कुछ शर्त और कुछ सुधार भी दिए हैं। कुल मिलाकर जिसका नाम 'धर्म' है। यह कहा कि इस धर्म से अविरुद्ध जो 'काम' है वह मैं हूँ। गीता में ही यहाँ तक कहा कि -

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।

मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥ (गीता 3/42)

बुद्धि के जो ऊपर है वह 'सः' है। 'सः' याने क्या है? हमारे एक आचार्य ने बताया कि 'सः' माने 'भगवान'। लेकिन हमारे एक दूसरे आचार्य ने कहा कि यहाँ 'सः' माने 'भगवान' कहाँ से आया? ऊपर के जो सारे श्लोक हैं वे तो काम विकार के बारे में हैं। तो साधारण तौर से यहाँ इसका अर्थ 'काम-विचार' करना चाहिए। बुद्धि की अवधान (Sub-conscious mind) और अनवधान (Unconscious mind) स्थिति को 'सः' कहा गया, यही काम है। यद्यपि यह भाष्य सर्वमान्य नहीं है। लेकिन इतना सर्वमान्य है कि इसके अभाव में काम नहीं चलेगा। यदि अर्थ के अभाव से मनुष्य दुखी होता है, तो काम के अभाव से भी मनुष्य सुखी नहीं हो सकता।

किंतु अर्थ और काम की पूर्ति किस ढंग से होनी चाहिए, इसका भी विवेचन हमारे ऋषियों ने किया है। कुछ सामान्य स्तर रखा है कि इसका अभाव न हो लेकिन कुछ 'सीलिंग' (सीमा) भी रखी है कि इससे अधिक भी नहीं होना चाहिए। वह सीमा यह रखी कि अर्थ और काम का अभाव तो नहीं होना चाहिए, लेकिन मनुष्य का मन अर्थ और काम के प्रभाव में भी नहीं रहना चाहिए। क्योंकि यह दिखाई देता है कि अर्थ के अभाव के कारण जैसे मनुष्य दुखी होता है, वह चिंतित दिखाई देता है, वैसे ही अर्थ के प्रभाव के कारण भी मनुष्य दुखी होता है। यह बात अनुभव के आधार पर लोग बता सकते हैं। सामान्य रूप से ऐसा सोचा जाता है कि कामविकार की पूर्ति से आनंद होता है। हमारे मुनियों, ऋषियों ने यह तो कहा है कि एकदम अभाव दुःख का कारण है। किंतु काम के प्रभाव में रहते हुए मनुष्य सुखी हुआ, ऐसे कितने उदाहरण दुनिया में हैं? इसका क्या हमने कभी विचार किया है? काम की पूर्ति होनी चाहिए, यह बात सही है; लेकिन पूर्ति करना एक बात है, उसके प्रभाव में रहना सर्वथा अलग बात है। केवल काम की ही पूर्ति करते रहने से मनुष्य सुखी होगा यह समझना भी भिन्न बात है। इस दृष्टि से हम देखें कि जो केवल काम के प्रभाव में रहते हैं वे सुखी होते हैं क्या? एक भी उदाहरण हमें ऐसा मिलता है क्या? अच्छे-अच्छे लोगों ने जो अपने अनुभव लिखकर रखे हैं, उनको यदि हम देखें तो ऐसा लगता है कि विशुद्ध कामी पुरुष होते हुए भी अंत में वे दुखी हुए।

उमर खय्याम का नाम सबने पढ़ा होगा। वास्तव में उमर खय्याम ने जो रुबाइयाँ लिखी हैं वह ओछी नहीं हैं, उसमें बहुत दार्शनिक तत्त्व है। उसकी रुबाइयों की यह विशेषता है कि अनपढ़ व्यक्ति और अच्छे-अच्छे दार्शनिक भी उसे बड़े चाव से गाते एवं पढ़ते हैं। लेकिन दार्शनिक उसमें दर्शन देखते हैं और दूसरे आदमी उसमें रोमांस देखते हैं। यह माना जाता है कि खय्याम केवल उपभोग के पीछे था। किंतु उपभोग लेते-लेते वह कहता है कि जैसे गुलाब सूख जाता है, गुलाब के साथ वसंत ऋतु भी सूख जाती है। बहुत दुःख की बात है कि यौवन की सुगंध ग्रंथि समाप्त हो जाती है और इस लताकुञ्ज में बुलबुल कहाँ से आई और कहाँ निकल जाती है, कुछ पता नहीं चलता है।" इसलिए वह अपने साकी से कहता है कि "मेरे शराब का प्याला जरा भर दो क्योंकि इसके कारण भूतकाल के दु:ख और भविष्यकाल की चिंताओं को मैं भूल सकता हूँ।" यह प्याला भर दो। न भविष्य का विचार करना है, न भूत का। केवल उपभोग का विचार करना है। ऐसा तत्त्वज्ञान उन्होंने बताया और साकी को कहा कि "आध्यात्मिक चर्चा बुद्धिमान लोगों को करने दो। एक बात निश्चित है कि जीवन बह रहा है, तेजी से हाथ से निकला जा रहा है। गुलाब का फूल एक ही बार खिलता है और फिर वह हमेशा के लिए खत्म हो जाता है। बस यही सत्य है। बाकी जो बुद्धिमान लोग सिद्धांत वगैरह की चर्चा कर रहे हैं, यह सब फिजूल बातें हैं।"

यह एक विचार हो सकता है, जँचने वाला विचार हो सकता है। जिसको ज्यादा सोचना ही नहीं, उसके लिए तो यह बहुत प्रभावित करने वाला विचार है। लेकिन हम यह देखें कि केवल भोग के प्रभाव में सारा जीवन बिताने वाले लोग क्या सुखी हो सकें? पाश्चिमात्य जगत में एक बड़ा श्रेष्ठ नाम आता है केसानोहा का। वह अभी सौ-सवा सौ साल के पहले हुआ था। वह इतना यशस्वी किंतु उपभोगी पुरुष था कि उसका नाम कामपूर्ति का प्रतीक बन गया है। लेकिन उसका जीवन दृष्टांत यह नहीं बताता कि सारे यूरोप को अपने उपभोग का विषय बनाने के बाद भी काम-विकार के अंत में वह सुखी हुआ। हमारे यहाँ ययाति इसके उदाहरण हैं। यह ठीक है कि यह उदाहरण पुरातनकाल का है लेकिन यह एक ऐसा उदाहरण है कि सारा जीवन उसने कामपूर्ति में बिताया। बिल्कुल बूढ़ा हो गया तो भी काम-विकार की शांति नहीं हुई। क्योंकि हमारे यहाँ कहा गया है कि "न जातु कामः कामनाम् उपभोगेन शाम्यते, हविशा कृष्ण वर्तते।" अर्थात उपभोग से काम शांत नहीं होता। जिस प्रकार अग्नि में घी डालने से अग्नि शांत नहीं होती, और अधिक प्रज्वलित होती है, वैसे ही उपभोग के कारण इच्छाएँ और प्रबल होती हैं।

ययाति ने सारा जीवन इस तरह से बिताया कि अंत तक काम की शांति नहीं हुई। सुंदर शर्मिष्ठा को देखा तो सोचा कि इसका तो उपभोग करना ही चाहिए। लेकिन बिचारे बूढ़े हो गए थे। प्रकृति की रचना ही ऐसी है कि एक तरफ काम इच्छा बढ़ती जाती है तो दूसरी तरफ शारीरिक शिथिलता बढ़ती जाती है। कहते हैं कि उसने अपने लड़के को बुलाया और पूछा कि "तुम पितृभक्त हो?" वह बोला, "हाँ, मैं पितृभक्त हूँ।" वे बोले, यदि वास्तव में तुम पितृभक्त हो तो तुम आना यौवन मुझे दे दो ताकि मैं शर्मिष्ठा का उपभोग कर सकूँ। उस पितृभक्त ने अपनी जवानी पिताजी को दे दी।

इस तरह का उदाहरण अपने पुराणों में आता है। सावरकर जी ने कहा, "संपूर्ण जीवन का उसने एक ही खेल बना दिया तो भी उसकी पूर्ति नहीं हुई, उसकी शांति नहीं हुई।" पाश्चिमात्य लोग इस विषय में काफी निपुण हैं। वे तरह-तरह के विकार-प्रयोग भी करते हैं। किंतु अंत में सुखी हो गए, ऐसा एक भी उदाहरण नहीं हैं। उल्टे दिखता यह है कि 'तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः"। इच्छाएँ बढ़ती जा रही हैं किंतु उपभोग करने की क्षमता कम होती जा रही है। इसी कारण दुखी हैं। पश्चिम का यही अनुभव है।

अर्थ

अर्थ का भी यही हाल है। अर्थार्जन करना चाहिए। यह तो सबकी इच्छा है। क्योंकि ऐसा कहते हैं कि अर्थ से ही सब कुछ प्राप्त होता है। लेकिन जिन्होंने बहुत अर्थार्जन किया, क्या उनको पूरी तरह शांति मिली? मोहम्मद गजनवी का उदाहरण सबके सामने है। उसने लूटमार करके दुनिया भर की संपत्ति इकट्ठा करके उसको भंडार में जमा किया और मृत्यु का क्षण आया तो दुखी हो गया। कहने लगा, "भगवान! मैंने सारा जीवन कष्ट उठाते हुए अपने पराक्रम से यह सारी संपत्ति जुटायी। अब यह सब यहीं छूटी जा रही है। "गजनवी की यह दशा देखकर उसको मृत्यु शय्या पर ही धनागार के पास ले जाया गया। वह आँसू भरी आँखों से उस ओर देखता रहा और उसे देखते-देखते रोते-रोते ही उसकी मृत्यु हो गई। धन यहीं धरा रह गया। सुख मिला नहीं। दुःख भोगते हुए उसका अंत हुआ। इसके विपरीत भी कुछ उदाहरण हैं। पश्चिम में भी कुछ ऐसे उदाहरण हैं कि अपार संपदा एकत्र करने के बाद यह अनुभव में आया कि इससे सुख नहीं मिला तो उन्होंने बड़े-बड़े ट्रस्ट और फाउंडेशन बना दिए। अपने पराक्रम से अपार संपत्ति का अर्जन करने के बाद फाउंडेशन और ट्रस्ट का निर्माण करके जन-कल्याण के काम के लिए अपनी संपत्ति अर्पित करते हुए मन की शांति प्राप्त करना, इस प्रकार के उदाहरण पश्चिम में बहुत हैं।

रूस के तानाशाह स्टालिन की लड़की श्वेतलाना हिंदुस्तान आई थी। हम अनुमान लगा सकते हैं कि स्टालिन की लड़की के पास संपत्ति और बाकी सब चीजों का क्या अभाव हो सकता है? यहाँ संवाददाताओं ने जब उससे पूछा कि, "तुम यहाँ क्यों आई हो? चाहती क्या हो? तुम्हारी इच्छा क्या है?" उसने कहा कि "मेरी एक ही इच्छा है कि पवित्र गंगा नदी के किनारे कुटिया बनाकर आराम से अपने जीवन का अंतिम काल बिता सकूँ।" क्या हमारे देश का प्रोग्रसिव और रैडिकल आदमी यह कल्पना कर सकता है कि स्टालिन की लड़की यह कहे कि, "मेरी अंतिम इच्छा है कि मैं गंगा के किनारे कुटिया बनाकर के अपने जीवन का अंतिम काल बिताऊँ।"

अभी-अभी लगभग तीन साल पूर्व विश्व प्रसिद्ध पूँजीपति हेनरी फोर्ड का नाती भारत आया तो उससे भी संवाददाताओं ने पूछा, "आप हरे राम, हरे कृष्ण आंदोलन के चक्कर में कैसे आ गए?" वह बोला, "इसी में मुझ शांति मिलती है।" फिर दूसरे संवाददाता ने पूछा कि "आपको इसमें शांति मिलती है। फिर आपके पास जो अकूत संपत्ति है, उसका क्या होगा?" उसने उत्तर दिया, "संपत्ति मात्र संपत्ति है, यह तो भगवान कृष्ण की है" (Wealth is wealth, it is of Lord Krishna)। हमारे भारत का प्रोग्रसिव आदमी इसे मूर्खतापूर्ण बात कहेगा। लेकिन हेनरी फोर्ड का नाती यह बात स्पष्ट शब्दों में कहता है। यह विचार करने की बात है कि अमरीका जैसे भौतिक दृष्टि से समृद्ध देश के धनपति का नाती और रूसी तानाशाह स्टालिन की लड़की श्वेतलाना ऐसा क्यों सोचते और कहते हैं। कोई गंगा के किनारे कुटिया में रहकर अपना अंतकाल बिताना चाहता है तो कोई यह कहता है कि सब कुछ भगवान कृष्ण का है। इस प्रकार की भावना वहाँ क्यों पैदा होती है?

वास्तव में यह विचार करने की बात है कि अर्थ और काम के पीछे लगने और उससे प्रभावित होने से क्या कोई सुखी हो सकता है? गोस्वामी तुलसीदास ने बहुत अच्छी उपमा दी थी। उन्होंने कहा कि "अस प्रिय निशि बीत गई सब, कबहुँ न नाथ नींद भर आई।" अच्छी नींद और सुख से सोने के लिए बिस्तर अच्छा होना चाहिए। किंतु "कबहुँ न नाथ नींद भर आई।" बिस्तर को अच्छा करते-करते ही रात निकल गई। सोने का मौका ही नहीं मिला। हम सभी लोग जीवन का विचार करें तो ऐसा दिखाई देता है कि बिस्तर ठीक करते-करते ही जिंदगी खत्म हो जाती है, सोने का मौका ही नहीं मिलता। मृत्यु के समय ऐसा लगने लगता है कि यह रह गया, वह रह गया और वह हो जाता तो अच्छा होता।

टॉलस्टाय की सुप्रसिद्ध कहानी है 'मनुष्य को कितनी जमीन चाहिए।' राजा ने किसी व्यक्ति से कहा कि तुम जितनी जमीन पर दौड़ोगे उतनी जमीन हम तुमको दे देंगे। वह गरीब आदमी था। उसने सोचा कि सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक जितनी जमीन पर दौडूँगा उतनी जमीन उसकी हो जाएगी। अच्छा मौका है। उसने सूर्योदय से ही दौड़ना शुरू किया। हर समय मन में यही विचार रहता था कि एक ही दिन तो दौड़ना है बाद में तो सारी जिंदगी के लिए यह जमीन उसकी हो जाएगी। सुख से रहेगा। वह आगे और आगे ही दौड़ता रहा। उसके फेफड़े में तकलीफ होने लगी। शरीर थकने लगा। दम उखड़ने लगा। शाम होने लगी तो उसने अपनी गति और तेज कर दी। जब सूर्यास्त दिखाई देने लगा तो सोचा कि अब तो समय बहुत ही कम रह गया है, और तेज दौड़ना चाहिए। वह इतना तेज दौड़ा कि हाँफते-हाँफते दम उखड़ गया और गिरकर खत्म हो गया। टॉलस्टाय ने लिखा है कि उसके समाप्त होने के बाद जब उसको गाड़ने के लिए जमीन की नापजोख की गई तो साढ़े तीन गज जमीन में काम हो गया। टॉलस्टाय ने लिखा है कि मनुष्य को केवल साढ़े तीन गज जमीन चाहिए। लेकिन उसके लिए दौड़ते-दौड़ते उसने अपना सारा जीवन समाप्त कर दिया।

चिरंतन सुख

केवल अर्थ, काम के प्रभाव से मनुष्य सुखी नहीं हो सकता। इससे दुःख ही बढ़ता है। इस कारण हमारे यहाँ यह कहा गया कि अर्थ, काम का अभाव नहीं होना चाहिए तो अर्थ और काम के प्रभाव में भी नहीं आना चाहिए। तभी मनुष्य सुखी हो सकता है और यह जो सुख रहेगा, वह अखंड, चिरंतन (Eternal) निरंतर (Unintermitent), घनीभूत (Solidified) रहेगा। वह सुख आने-जाने वाला सुख नहीं होता। इसे ही हमारे द्रष्टाओं ने मोक्ष कहा है। घनीभूत, चिरंतन, निरंतर सुख अर्थात मोक्ष। मनुष्य जीवन का यही लक्ष्य है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मनुष्य को अपनी रुचि, प्रतिभा, प्रकृति, परिस्थिति, अपने-अपने शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक स्तर आदि सभी बातों का विचार करते हुए मार्ग का निर्धारण करना चाहिए। इस दृष्टि से यह कहा गया है कि समाज-रचना ऐसी हो जिसमें अर्थ और काम का अभाव न हो, लेकिन व्यक्ति की मनोरचना ऐसी होनी चाहिए कि जिस पर अर्थ और काम का प्रभाव भी न हो। अभाव और प्रभाव की दोनों बातों को ठीक से समझना जरूरी है।

अर्थ और काम का किसी को भी अभाव न हो, यह जिम्मेदारी समाज रचना की है। अर्थ और काम का प्रभाव मन पर न हो यह जिम्मेदारी व्यक्ति की मनोरचना की है। इसलिए राष्ट्रीय श्रम आयोग (National labour Commission) के सामने हमने अपना जो मेमोरेंडम दिया उसमें जहाँ बोनस, डी. ए., पेंशन रूल्स आदि बातें कही हैं वहीं पहले ही पृष्ठ पर यह दिया है "अभावो वा प्रभावो वा यत्र नास्ते"। अर्थ और काम का अभाव भी न हो और अर्थ और काम का प्रभाव भी न हो, जब ऐसी अवस्था आती है तो समाज स्वात्म रूप में आ जाता है और फिर धर्मचक्र प्रवर्तन शुरू हो सकता है। अर्थात उस ज्ञापन में बोनस, डिअरनेस एलाउंस, हड़ताल का अधिकार है तो सबसे पहले यह श्लोक भी है कि -

अभावो वा प्रभावो वा यत्र नास्त्यर्थकामयोः।

समाजे स्वात्मरूपत्वात् धर्मचक्रप्रवर्तनम्॥

इस दृष्टि से हम स्वयं अपने ही जीवन का विचार करें कि सुख क्या है? मैं किस तरह सुखी हो सकता हूँ? जहाँ मैं खड़ा हूँ वहाँ से मोक्ष तक पहुँचने का रास्ता क्या है? अपनी रुचि, प्रकृति, प्रवृत्ति और शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक स्तर का विचार करते हुए इसके विषय में हमें गहन चिंतन करना चाहिए।

पंचम् सत्र

सावधान

जो अच्छे और कर्तृत्वान कार्यकर्ता होते हैं, संकटकाल और चुनौतियों के समय उनका पराक्रम प्रकट होता है। जब भी बाहर से आवाहन आता है, वे उसका सार्थक प्रत्युत्तर देते हैं। वे रबड़ की गेंद की तरह होते हैं, मिट्टी की गेंद की तरह नहीं। यदि कोई रबड़ की गेंद को जमीन पर पटकता है तो वह पटकने वाले के सिर के ऊपर तक चली जाती है। लेकिन वही यदि मिट्टी की गेंद को जमीन पर पटकता है, तो वह गेंद इतना सख्त रहता है कि जहाँ वह पटका जाता है वहीं या तो पड़ा रह जाता है या टूटकर बिखर जाता है, ऊपर जाने की कोशिश नहीं करता। अच्छा कार्यकर्ता रबड़ की गेंद के समान ऊपर जाता है। चुनौती जितनी बड़ी होती है वह उतना ही ज्यादा काम करता है। जैसा कि शेक्सपियर ने कहा है कि कायर आदमी अपनी मृत्यु के पूर्व अनेक बार मर चुका होता है (Coward dies many times before his death) किंतु बहादुर एक ही बार मरता है।

कायर तो जीवन मरत दिन में बार ही बार।

प्राण पखेरू वीर के उड़त एक ही बार॥

जो बहादुर और अच्छा कार्यकर्ता है, जितना गंभीर संकट होगा उसका पराक्रम और कर्तृत्व भी उतना ही श्रेष्ठ होगा। लेकिन वही कार्यकर्ता सुख के दिन आने पर भी उतना ही काम करेगा, यह गारंटी नहीं है। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के इतिहास में ऐसा लिखा है कि जो लोग संकट के समय आगे आकर उसका सामना करते हैं विजयकाल या प्रमादकाल या यश प्राप्त होने पर उनमें थोड़ा 'उपलब्धि का संतोष' (Sense of having arrived) आ जाता है तो वे सोचते हैं कि हम अब बन गए, पूर्ण हो गए। इस कारण स्वयं अपने को पता न लगते हुए पहले की लगन धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं - राष्ट्र के बारे में भी और व्यक्ति एवं समूह के बारे में भी।

रोमन साम्राज्य का उदाहरण

दुनिया में इसका सबसे बड़ा उदाहरण रोमन साम्राज्यवाद का है। जब रोमन साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर था, सारा यूरोप उसके अंतर्गत था। क्राइस्ट के पश्चात तीन सौ साल तक इस महान साम्राज्य का वर्चस्व बना रहा। संपूर्ण यश, संपूर्ण वैभव और सारे यूरोप की संपत्ति रोम में इकट्ठी हुई। तीन सौ साल तक यह अवस्था चली और इसका परिणाम यह रहा कि इस तीन सौ साल के काल-खंड में लोग ऐसे ऐशपरस्त हो गए कि उनका कर्तृत्व समाप्त हो गया। बहादुरी समाप्त हो गई। इन तीन सौ साल में किसी भी महान व्यक्तित्व का उदय नहीं हुआ।

रोमन साम्राज्य अपने चरमकाल में यह कार्य नहीं कर सका, जबकि दूसरी ओर हम यह देखते हैं कि चुनौतियाँ आती हैं तो लोग उठकर खड़े हो जाते हैं। वैभवशाली इटली का पूर्व काल जब चुनौतियों और संकटों से ग्रस्त था, वहाँ के बहादुरों ने उन चुनौतियों को स्वीकार किया, बुद्धिमान लोगों ने अपनी प्रतिभा का प्रगटन किया और प्रि-इटालियन पीरिएड इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया। एलिजाबेथ के काल में इंग्लैंड के सामने बहुत बड़ी चुनौती आई। वहाँ के बहादुरों ने उसका उचित प्रत्युत्तर दिया और एलिजाबेथ का युग इंग्लैंड के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया है। रेनेसेंस काल में इटली का इतिहास भी इसी तरह के स्वर्णाक्षरों में लिखा है। फ्रांस की राज्य क्रांति के काल के फ्रांसीसी इतिहास के पृष्ठ भी स्वर्णाक्षरों में लिखे गए हैं। जैसे-जैसे आवाहन्, संकट, आपत्तियाँ आती गईं, इन लोगों की बहादुरी, पराक्रम, कर्तृत्व निखर उठा और इनका नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया।

कार्यकर्ता का भी पतन

इस प्रकार संकटों के समय जिनकी बहादुरी का थोड़ा प्रकाश दुनिया को दिखाई देता है, उन्हें थोड़ी विजय प्राप्त होती है और कुछ अच्छी व्यवस्था तैयार हो जाने पर धीरे-धीरे स्वयं को पता न चलते हुए उन्नीसवीं शताब्दी के इटली और सत्रहवीं शताब्दी के फ्रांस की तरह लोग निष्प्रभावी हो जाते हैं। यह मनुष्य का स्वभाव है। यह परिवर्तन इतना आहिस्ता-आहिस्ता होता है कि यदि कार्यकर्ता स्वयं अपने बारे में सचेत न रहे तो उसका सँभालना बड़ा कठिन होता है।

इसका और भी एक कारण है। हम अच्छे कार्यकर्ता हैं तो लोगों के मन में हमारे प्रति आदर भी रहता है और इस आदर के कारण वे हमारी सेवा करने के लिए तत्पर रहते हैं। धीरे-धीरे वे सेवाभावी हो जाते हैं। यह तो ठीक है, लेकिन उस कारण नेताजी को भी सेवाएं लेने की आदत पड़ जाती है। उनका भी स्वावलंबन समाप्त हो जाता है। लोग उपहार देते हैं तो उपहार लेते-लेते वे उसका औचित्य सिद्ध करने लगते हैं। कहने लगते हैं कि उपहार दिया है तो प्रेम से दिया है, मैं कैसे मना कर सकता हूँ, बेचारा नाराज हो जाता। जब कोई उपहार वगैरह आ जाता है तो लाने वाला नाराज न हो जाए, तब इसकी बड़ी फिक्र हो जाती है। धीरे-धीरे स्वयं को पता न लगते हुए यह गिरावट आती जाती है। इसके बारे में स्वयं यदि सतर्क न रहे तो खुद को बचाना बड़ा मुश्किल होता है और खासकर तब जब आदमी स्थापित होने की प्रक्रिया से गुजर रहा होता है। प्रारंभ में उसके सद्गुणों में कमी नहीं आती है। लेकिन जब नेतृत्व स्थापित हो जाता है तो धीरे-धीरे गिरावट आने की गुंजाइश होने लग जाती है। यह विचार आने लगता है कि अब तो नेतृत्व स्थापित हो गया, इसलिए अब कुछ करने और सोचने की आवश्यकता नहीं है। जो कुछ पाना चाहता था, वह मैं पा चुका हूँ। इस प्रकार काम करने की इच्छा और फिक्र धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है और नेतृत्व के कारण जो सुविधाएँ एवं विशेषाधिकार प्राप्त हो जाते हैं अधिक से अधिक उनका उपयोग करने के उपायों और रास्तों की खोज शुरू हो जाती है।

अहंकार का आरंभ

इसी प्रक्रिया में से आगे चलकर अपने अंदर अनजाने ही अहंकार घुस जाता है। मूलतः ध्येयनिष्ठ व्यक्ति के मन में भी धीरे-धीरे नेतागिरी के भाव आ जाते हैं और कुछ विजय प्राप्त होने के बाद यह बात आने लगती है कि यह सब मेरे कर्तृत्व और नेतृत्व के कारण संभव हो सका है। वह यह भूल जाता है कि वास्तव में यह विजय सबके सामूहिक प्रयास और परिश्रम का परिणाम है। तुलसीदास जी ने भी यह कहा है कि -

लाभ हानि जीवन मरण, यश अपयश विधि हाथ।

जय-पराजय, लाभ-हानि, जीवन-मरण सब भगवान के हाथ में है। तुम्हारे हाथ में कुछ नहीं है। लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि तुलसी प्रतिक्रियावादी थे। भगवान के भरोसे रहना और सब कुछ उसी पर छोड़ देने के लिए लोग तैयार नहीं होते। यदि इस विचार को ठीक मान लिया जाए तो भी यह तो स्पष्ट है ही कि एक आदमी के कारण यश नहीं प्राप्त हो सकता। कई सहायक तत्त्व (Attendant factors) उसमें शामिल रहते हैं। अपने कार्यकर्ताओं के द्वारा किए हुए काम, सदस्यों द्वारा दिया गया साथ, मैंनेजमेंट द्वारा की गई गलती, सरकार के कारण निर्माण हुआ रोष या असंतोष - ये भी इस संभावना के कारण होते हैं। लेकिन जब यश प्राप्त होता है तो दिमाग में गड़बड़ी शुरू हो जाती है। अच्छे-भले नेता के दिमाग में कुछ गड़बड़ी शुरू होती है तो दूसरे लोग उसमें और बढ़ोतरी कर देते हैं। किसी एक रसिक कवि ने इश्क के बारे में एक शेर कहा है। इश्क की जगह यदि लीडर का शब्द डाल दिया तो वह शेर ऐसा होता है -

वैसे भी तो होते हैं लीडरी में जननू के आसार।

लोग और भी दीवाना बना देते हैं।

कहते हैं नेताजी, कमाल हो गया। आपका कल जो भाषण हुआ वैसा भाषण हमने कभी सुना नहीं। नेताजी सोचने लगते हैं कि यह हैं मेरे कद्रदान। मेरे जो साथी मुझे मेरा दोष बताते हैं, वे सब मेरे प्रतिद्वन्द्वी हैं। मेरे प्रति शायद वे जलन रखते हैं। कद्रदान तो यह हैं। तो फिर धीरे-धीरे अहंकार आने लगता है और वह यह भूल जाता है कि यदि जमीन पर लात मारेंगे तो जमीन भी आपको उतना ही चोट पहुँचाएगी। आपके अहंकार के प्रज्वलन के साथ-साथ आपके सभी साथियों का अहंकार भी प्रज्वलित होता है। यद्यपि वे अहंकारी नहीं हैं, निरहंकारी हैं, क्योंकि वे यह जानते हैं कि हमारे प्रमुख कार्यकर्ता के मन में अहंकार नहीं है। वह ध्येयनिष्ठ है। वह ध्येय के प्रति संपूर्ण आत्मसमर्पित है। इसलिए बाकी कार्यकर्ता भी ध्येय के प्रति संपूर्ण आत्मसमर्पित हैं।

चतुराई से अध:पतन

किंतु इसका एक पहलू और भी है। इस माहौल में भी कोई कार्यकर्ता धीरे-धीरे चतुराई सीख जाता है। वह सोचता है कि बाकी लोग तो इसी प्रकार आत्मसमर्पित रहने ही वाले हैं। इसमें से मैं अपना कैरियर क्यों न बना लूँ। अपना बड़प्पन बढ़ा लूँ। अर्थात जो आत्मसमर्पित हैं वे बुद्ध हैं, ये चतुर हैं। परंतु वे यह नहीं सोचते कि अरे, तुम चतुर हो जाओगे तो जो आत्मसमर्पित हैं, उनके अंदर भी यह चतुराई आ जाएगी। वे आत्मसमर्पित नहीं रहेंगे। वे यह सोचेंगे कि नेताजी यदि अपना कैरियर बनाना चाहते हैं तो हमको भी अपना कैरियर क्यों नहीं बनाना चाहिए और फिर वे आपके प्रतिद्वन्द्वी बनेंगे। कई नेताजी ऐसे हैं कि अपने साथियों को जमने ही नहीं देते। सदा यही सोचते रहते हैं कि उन्हें अपने बीच से कैसे खदेड़ा जाए। उनका कोई प्रतिद्वन्द्वी खड़ा न हो। चतुराई आती है तो यह कोशिश बाद में शुरू होती है। यह सब धीरे-धीरे होता है। खुद को पता ही नहीं चलता है। ध्येयनिष्ठ कार्यकर्ता किस तरह से पतित, स्खलित, डिजनरेट हो जाता है, उसको भी इसका पता नहीं चलता है। हर स्तर पर वह अपने कार्य का औचित्य बताता रहता है। फिर अपने जो साथी प्रतिद्वन्द्वी बन सकते हैं उनको पीछे खदेड़ने का काम शुरू कर देता है। उनके बारे में कानाफूसी शुरू करा देता है कि यह कौन सी नई बात है। उसने कोई अच्छा काम नहीं किया। यह तो कोई भी कर सकता है। दूसरी पंक्ति का नेतृत्व (Second line of leadership) पैदा न हो, किसी नए कार्यकर्ता को उभरने नहीं दिया जाए, इसके लिए भी कोशिश की जाती है।

एक बड़ा अच्छा उदाहरण है। एक सज्जन मेढक पकड़ कर बेचने का काम करते थे। वे समुद्र किनारे टोकरी लेकर गए और वहाँ जाकर मेढक पकड़ कर टोकरी में डालते रहे। टोकरी में कई मेढक जमा हो गए। लेकिन टोकरी के ऊपर कोई ढक्कन नहीं था। इतने में उनके एक मित्र उनसे मिलने के लिए आए। उन्होंने देखा कि उनके मित्र समुद्र में कुछ काम कर रहे हैं। मित्र ने उनकी टोकरी भी पहचान ली। उसने देखा कि टोकरी में मेढक थे और वे ऊपर कूद कूद कर निकलने की कोशिश कर रहे थे। उसने अपने मित्र को बुलाया और कहा कि "अरे, तुम मेढ़क पकड़ना चाहते हो?" वह बोला, "हाँ"। तो मित्र ने कहा, "जो पकड़े हुए मेढक टोकरी में हैं उनको रोकने के लिए टोकरी के ऊपर कुछ ढक्कन तो रख दो, नहीं तो ये कूदकर चले जाएँगे।" उसने कहा, "नहीं, आप इसकी फिक्र मत करो। कोई भी मेढक बाहर नहीं जाएगा। क्योंकि जब कोई मेढक ऊपर जाने की कोशिश करेगा तो बाकी के मेढक उसकी टाँग खींचकर नीचे खींच लेंगे। उनको रोकने के लिए हमको कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है।"

चतुराई आते ही यह सिलसिला शुरू हो जाता है। समर्पित कार्यकर्ताओं की टोली धीरे-धीरे उम्मीदवारों की टोली बन जाती है। निजी महत्त्वाकाँक्षियों की टीम बन जाती है। यह सब इतना अनजाने में होता है कि खुद को पता नहीं चलता। हर कदम पर हर कार्यकर्ता सोचने लग जाता है कि इसमें क्या है, ऐसा तो होता ही है। आत्म-औचित्य सिद्ध करते-करते इतना अधिक अध:पतन हो जाता है और जिस सीढ़ी से हम ऊपर चढ़े थे - ध्येयनिष्ठा, आत्मसमर्पण - उस सीढ़ी को लात मारते हैं। सोचते हैं कि अब इसकी आवश्यकता नहीं। जिस वृक्ष की शाखा पर हम बैठे होते हैं, उसी शाखा को हम तोड़ने की कोशिश करते हैं और भूल जाते हैं कि इससे केवल शाखा ही नहीं टूटेगी, उसके साथ हम भी नीचे गिरेंगे। स्वयं अपना समर्थन और औचित्य सिद्ध करते-करते धीरे-धीरे यह अध:पतन होता है।

संख्यात्मक और गुणात्मक शक्ति

अच्छे कार्यकर्ता बनना कठिन है। स्वयं अपने को कार्यकर्ता बनाए रखना उससे भी कठिन है। यह सब गड़बड़ी नेतृत्व स्थापित हो जाने या विजय के कारण उत्पन्न अहंकार के कारण होती है। हम विचार करें कि संगठन का निर्माण कैसे होता है और वह समाप्त कैसे होता है। वह प्रक्रिया क्या है? जैसे एक कार्यकर्ता किसी उद्योग में यूनियन का काम शुरू करता है तो वह नई यूनियन होती है। कोई सदस्यता स्वीकार नहीं करता। कोई पान नहीं खिलाता। कोई चाय नहीं पिलाता। धीरे-धीरे कुछ लोग लिहाज में आकर उसको सदस्यता शुल्क दे देते हैं। जितनी सदस्यता हो जाती है यूनियन की शक्ति भी उतनी हो जाती है। यह शक्ति होती है संख्यात्मक। यह संख्यात्मक शक्ति क्या है? एक और एक-दो। पहले एक सदस्य आया, फिर दूसरा। दो और एक-तीन। फिर एक और आ गया। तीन और एक-चार। संख्यात्मक शक्ति इस प्रकार बढ़ती है।

कार्यकर्ता को ऐसा लगता है कि मैं अकेला सारा काम कहाँ तक करूँ। अपने जैसे और कार्यकर्ता भी निर्माण करने चाहिए। उस समय उसके मन में यह फितूर नहीं रहता कि नए कार्यकर्ता निर्माण हो गए तो फिर उसकी सीट निकल जाएगी। अब वह सोचता है कि हमने भारतीय मजदूर संघ के अभ्यास वर्ग में कहा है कि श्रेष्ठ कार्यकर्ताओं का वर्ग (Master mind group) खड़ा होना चाहिए। मैं कार्यकर्ताओं का निर्माण करूँगा। इस दृष्टि से वह संपर्क रखता और बढ़ाता है। सहकार देता है। ध्येयनिष्ठा निर्माण करता है। सामान्य सदस्यों में से कार्यकर्ता का निर्माण करता है। कार्यकर्ता जब निर्माण होते हैं तो केवल संख्यात्मक शक्ति नहीं बढ़ती, गुणात्मक शक्ति भी बढ़ती है। इस प्रकार कुल मिलाकर शक्ति में और अधिक वृद्धि होती है। पहले संख्या में वृद्धि होती थी तो वह हिस्सा था एक+एक=दो, दो+एक=तीन और तीन+एक=चार। लेकिन जब ध्येयनिष्ठात्मक कार्यकर्ता आते हैं तो एक और एक मिलकर ग्यारह होते हैं, दो नहीं। तीसरा कार्यकर्ता खड़ा होता है तो 111 होते हैं और चौथा कार्यकर्ता खड़ा होता है तो 1111 होते हैं, चार नहीं होते। ध्येयनिष्ठा के कारण यह दूसरी प्रक्रिया प्रारंभ होती है। चार कार्यकर्ता यानी एक हजार एक सौ ग्यारह।

अहंकार से शक्ति - क्षय

लेकिन यह 1111 की शक्ति जो यहाँ प्रभावित (Dominate) करती थी, वह यहीं परास्त भी हो जाती है जब लोग हमारी जय-जयकार शुरू कर देते हैं। जब हम समझौते की मेज पर पहुँचते हैं। मालिक और मैंनेजर हमारी तारीफ करना शुरू कर देते हैं। सरकारी कमेटियों में हमारा जाना शुरू हो जाता है। धीरे-धीरे अहंकार भी प्रवेश करता है। पहला कार्यकर्ता सोचता है कि यह सब मेरे कारण ही तो है। यह मेरे विशिष्ट कार्यकर्ता वर्ग में जो लोग हैं, वे कौन होते हैं। उनको तो मैं ही लाया हूँ। यह तो पहले डरता था, भागता था। यह तो ऐसा था, यह तो वैसा था। मैंने ही तो इसको कार्यकर्ता बनाया। यह मेरी निर्मिति है। मेरा कबूतर मेरे से ही गुटर-गूँ करेगा तो यह कैसे चलेगा। धीरे-धीरे अहंकार निर्माण होता है। और इस अहंकार से क्या होता है? पहले जो संख्या बढ़ती थी एक और एक करते-करते चार, फिर जिन चार लोगों ने विशिष्ट कार्यकर्ता वर्ग तैयार किया तो वही संख्या हो गई एक हजार एक सौ ग्यारह (1111)। लेकिन प्रमुख कार्यकर्ता के मन में जो अहंकार आया उसने काम किया दशमलव का। यह दशमलव बिंदु सबसे पहले आ गया। यदि 1111 हो तो कुल मिलाकर शक्ति कितनी होगी, आप इसका अंदाजा कीजिए। 1 की शक्ति क्या होती है? एक दशांश यानी 1/10। दूसरे एक की शक्ति होती है 1/100, तीसरे एक की शक्ति होती है 1/1000 और चौथे एक की शक्ति होती है 1/10000। लेकिन ये 1/10, 1/100, 1/1000, 1/10000 चारों का योग करें तो भी एक नहीं बनता। इस प्रकार अहंकार दशमलव बिंदु का काम करता है।

उत्कर्ष और अपकर्ष

यहीं से कार्यकर्ता टूटने लगता है। अपना औचित्य बताता है कि मैं क्या करूँ। अर्थात कोई भी काम ऊपर कैसे जाता है और नीचे कैसे आता है, हम इसका अनुमान लगा सकते हैं। यह सब भगवान ने सृष्टि के नियम के नाते निर्माण किया है। भगवान ने बताया है कि लाग ऊपर कैसे जाते हैं और नीचे कैसे आते हैं।

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञेरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।

ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्।।

अर्थात जो यज्ञ करने वाले हैं, हवन करने वाले हैं, चाय भी न लेते हुए दिन भर तपस्या करने वाले हैं, वे स्वर्ग गति की इच्छा करते हैं; और यह जो सारी मेहनत की है, इस पुण्य के कारण वह सुरेन्द्र लोग, स्वर्ग लोक में जाते हैं और वहाँ जो सारी उपभोग्य चीजें हैं, उनका वे आस्वाद लेते हैं। लेकिन आस्वाद लेते-लेते भगवान ने कहा कि -

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोक विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।

यह स्वर्ग लोक का प्रसाद है। जिस पुण्य के कारण यह ऊपर गया है वह पुण्य क्षीण होता जाता है और फिर कहा कि 'क्षीणे पुण्ये'। वह खूब उपभोग करता है, उसका औचित्य भी सिद्ध करता है कि यह तो सारी दुनिया के लोग करते हैं। ऐसा कहते-कहते उसका पुण्य क्षीण हो जाता है और जब उपभोग संपूर्ण और पुण्य जीरो हो जाता है तो कहा गया है कि "क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकम् विशन्ति'। फिरसे स्वर्ग लोक से मृत्यु लोक में आ जाता है। अपने चुनाव क्षेत्र में वापस (Back to the Constituency) आ जाते हैं। यह भगवान की बनाई हुई प्रक्रिया है। इसमें राजनीतिक छूट नहीं है। इससे कोई भी मुक्त नहीं है। जब धीरे धीरे अध:पतन होने लगता है तो हर स्तर पर औचित्य सिद्ध करते-करते एक दिन पता चलता है कि अब तो सारा मामला पकड़ के बाहर चला गया है। फिर वह अपने को दुरुस्त नहीं कर पाता।

स्वयं को सँभालें

हम तो सामान्य कार्यकर्ता हैं। जो चारित्रिक और बाकी दृष्टि से श्रेष्ठ लोग हैं उन सन्तों ने भी कहा है कि अंतर्बाह्य जगत के साथ रात-दिन हमें लड़ाई लड़नी पड़ती है। जगत के साथ लड़ाई करना आसान है, मन के साथ लड़ाई करना काफी कठिन काम है। यदि हम अपने मन को नहीं सँभालते तो हमारा मन हमको कहाँ ले जाएगा, इसका कोई भरोसा नहीं। और इसी दृष्टि से यह कहा गया कि हमारा सबसे बड़ा मित्र कौन है? हम खुद हैं। हमारा सबसे बड़ा दुश्मन कौन है? हम स्वयं हैं। हमें कोई नष्ट नहीं कर सकता। हमें कोई गिरा नहीं सकता। न कम्युनिस्ट गिरा सकते हैं, न मैंनेजमेंट गिरा सकते हैं, न सरकार गिरा सकती है। तो यह बात समझ कर कि अपने सबसे बड़े शत्रु हम स्वयं हैं, स्वयं को सँभालें।

यह शत्रुत्व एक ऐसी निश्चित प्रक्रिया है कि स्वयं अपने को पता न चलते हुए धीरे-धीरे हम गड्ढे में चले जाते हैं। इसलिए यदि हम स्वयं अपने ऊपर निगरानी नहीं रखेंगे, तो बाहर का आदमी कुछ नहीं कर सकता। हमारी ध्येयनिष्ठा में कोई समझौता नहीं आना चाहिए। यदि हम अपनी निगरानी नहीं रखेंगे और केवल सेल्फ जस्टिफिकेशन की आदत बनाएंगे तो हमारा भी माया मछिंदर होने में ज्यादा देर नहीं लगेगी और फिर लोग भी आश्चर्य करेंगे कि साहब यह तो बड़ा अच्छा कार्यकर्ता था, इसको क्या हो गया? हमें भी यह कहना पड़ेगा कि भाई यह मछिंदरनाथ बन गया। स्वयं को ठीक बनाए रखने के लिए हममें से हरेक कार्यकर्ता को सतर्क प्रयास करते रहना चाहिए। बाकी दुनिया को सँभालना है, यूनियन को सँभालना है, मैंनेजमेंट के साथ बात की है, यह अलग बात है; लेकिन स्वयं अपने साथ हम दिन-रात लड़ाई लड़ते हैं या नहीं। पग-पग पर स्खलन के मौके आते हैं। अपने बारे में निगरानी रखते हुए हम स्वयं अपने को ठीक ढंग से चलाएँ। यदि कार्यकर्ता ठीक है तो जैसा मैंने प्रारंभ में कहा, कार्य-क्षेत्र भी ठीक रहेगा। कार्यक्षेत्र कार्यकर्ता का प्रतिबिंब मात्र है। कार्यकर्ता यदि अच्छा है तो कार्यक्षेत्र अच्छा रहेगा। उसके लिए अलग से कोशिश करने की आवश्यकता नहीं है। हम स्वयं अपने को अच्छा रखें। सारे क्षेत्र की चिंता भगवान कर लेगा।

सोपान - 2

(कुछ प्रमुख बिंदु)

v हमारा उद्देश्य है हिंदुस्तान के मजदूर आंदोलन में जो त्रुटि है उसे ठीक करना। लोग अभी तक यही समझते रहे कि 'मजदूर' और 'मालिक' दो ही पक्ष हैं। वह भूल गए कि एक अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष 'राष्ट्र' है।

v विदेशी पूँजी के हाथ देश को बेचने का मतलब है सार्वभौम रूप से गरीबों और देश के आर्थिक शोषण की अनुमति और अवसर देना यह षड्यंत्र और खतरा गरीबों के खिलाफ ही नहीं, लोकतंत्र के खिलाफ भी है। इससे हमारी आर्थिक स्वतंत्रता समाप्त होगी। हमारा सार्वभौमत्व समाप्त होगा।

v सुख चाहिए, यह बात ठीक है। केवल पाश्चात्य लोगों ने ही नहीं, हमारे दृष्टाओं, ऋषियों और मुनियों ने भी कहा है कि संपूर्ण जीवन का लक्ष्य सुख है। इसमें कोई शक नहीं। वह सुख कैसे प्राप्त हो, इसी के बारे में सारे जीवन का तत्त्व ज्ञान है।

v अर्थ और काम सभी के लिए सामान और समान्य है। जैसे इनके 'अभाव' से मनुष्य दु:खी होता है, वैसे ही इनके 'प्रभाव' से भी सुख प्राप्त नहीं होता।

v अर्थ और काम का किसी को अभाव न हो, यह जिम्मेदारी समाज रचना की है। अर्थ और काम का प्रभाव मन पर ना हो, यह जिम्मेदारी व्यक्ति की मनोरचना की है।

v जीवन को टुकड़ों-टुकड़ों में नहीं बाँटा जा सकता। जीवन एक ही है। उसको देखने के पहलू अलग-अलग हैं।

v यह जीवन भर का त्याग है। एक दिन जलना आसान है किंतु जीवन भर जलते रहना बहुत कठिन काम है। यह कठिन कार्य आज हम भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ताओं को करते हुए देखते हैं।

चतुर्थ अखिल भारतीय कार्यकर्ता

अभ्यास वर्ग

29 अक्तूबर - 2 नवंबर 1984

इंदौर (म० प्र०)

समाधान

प्रश्न - हमारे ही कुछ मित्रों ने, जो कि राजनीति में सक्रिय हैं, केरल में एक ट्रेड यूनियन बनाई है। इससे हमारे कार्यकर्ताओं में कुछ विभ्रम-सा निर्माण हुआ है। राजनीतिक चमक-दमक से प्रभावित कुछ लोग उधर आकृष्ट भी हो रहे हैं। इस परिस्थिति में से हम कैसे बाहर निकलें और इस परिस्थिति को रोकने के लिए भारतीय मजदूर संघ क्या उपाय अपनाये?

उत्तर - यदि कोई राजनीतिक दल श्रम गतिविधि आरंभ करता है तो उसे करने दो। आप उसमें बाधा क्यों बनें? आप अपना काम करें, वे अपना काम करें। चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। यह एक प्रशंसाविहीन काम (Thankless job) है और राजनीतिक लोग कोई भी प्रशंसाविहीन काम करने के अभ्यस्त नहीं होते। वे बड़े बुद्धिमान होते हैं। बिना कठोर परिश्रम किए प्रधान मंत्री बनने का वे रास्ता खोजते रहते हैं। अतः किसी भी राजनीतिक दल द्वारा केरल में कोई श्रम संगठन शुरू करने से आपको चिंता करने की जरूरत नहीं।

प्रश्न - हम जहाँ-जहाँ काम करते हैं, प्रत्येक स्थान पर प्रतिदिन हमको संसद् सदस्यों और विधायकों की पर्याप्त आवश्यकता कार्य में प्रतीत होती है। मेरा प्रश्न यह है कि भारतीय मजदूर संघ बहुत बड़ा संगठन है, वह अपने ही संसद् सदस्य और विधायक क्यों न खड़े करे?

उत्तर - आपने जो कहा उससे हमें बड़ा आश्चर्य हो रहा है। ऐसा है कि एक हाथी होता है और एक महावत। हमारी इच्छा है कि आप महावत बनें और आप कह रहे हैं कि हाथी बनना चाहिए। आप चुनाव में खडे होना नहीं चाहते, यह मैं जानता हूँ। भारतीय मजदूर संघ का नेतृत्व आसमान में चलने वाली राजनीतिक पार्टी का नेतृत्व नहीं है। किसके मन में क्या है. यह भी हम लोग पूरी तरह से जानते हैं? बताते नहीं हैं। हमारे जानते हुए भी कोई हमारे सामने यदि नाटक करे तो भी हम सब चाहते हैं कि आपको महावत होना चाहिए। आप किसलिए हाथी बनना चाहते हैं?

प्रश्न (क) - आप कहते हैं कि भारतीय मजदूर संघ किसी भी राजनीतिक पार्टी से संबद्ध नहीं है, फिर भी राजनेता भारतीय मजदूर संघ के मंच पर कई समारोहों अथवा कार्यक्रमों में उपस्थित पाए जाते हैं। ऐसा क्यों होता है

प्रश्न (ख) - राजनीति से या राज्य की नीति से किस तरह दूर रहा जा सकता है, विशेषकर भारतीय मजदूर संघ के संदर्भ में?

गैर - राजनीतिक अवधारणा

प्रश्न (ग) - अंतिम उद्देश्य व्यक्ति का जीवन-स्तर उठाना है। पिछले पंद्रह सौ वर्षों से इतिहास में संस्कृतियों और राष्ट्रों के उत्थान-पतन, आविर्भाव और विलुप्त होने में राजनीति की प्रमुख भूमिका रही है। राज्य-स्थापना के पश्चात अनेक राज्य जन्मे और राजनीतिक शिथिलता के कारण राज्य विलीन हुए अथवा छोटे हुए हैं। ऐसी परिस्थिति में गैर-राजनीतिक अवधारणा क्या अवरोधपूर्ण उपेक्षा नहीं है?

उत्तर (क , , ग) - यहाँ सभी पुराने लोग हैं। इसके कारण प्रश्नों के उत्तर के पूर्व कुछ सुनी हुई पुरानी बातें संक्षेप में केवल याद दिला दूँ, फिर उत्तर के बारे में विचार किया जाएगा। भारतीय मजदूर संघ वास्तविक मजदूर संगठन (Genuine trade union organisation) है - मजदूरों का, मजदूरों के लिए, मजदूरों द्वारा चलाया हुआ संगठन। इसलिए हम गैर-राजनीतिक हैं। कम्युनिस्टों का मॉडल अपने सामने रखने के कारण हमसे पूर्व संगठन किसी न किसी राजनीतिक दल के अंग के रूप में थे। जब हम लोगों ने अपने को गैर-राजनीतिक (Non-political) घोषित किया तो इसके विषय में बहुत चर्चा हुई और आपत्तियाँ भी उठाई जाती थीं। इसका एक कारण यह था कि भारतीय मजदूर संघ का प्रारंभ करने वाले पहले बैच में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग ही प्रमुख रूप में रहे। संघ के लोग मजदूर संघ में पूर्ण समय कार्यकर्ता के रूप में या अर्द्धकालिक कार्यकर्ता के रूप में आते जाएँ, यह हमारा प्रयास भी रहा।

इसका भी कारण है। आज देश बहुत आगे बढ़ चुका है। सभी लोग चतुर हो गए हैं। आज 'सत्तातुराणाम् न दलः न राष्ट्र' वाली अवस्था है। 1947 के पहले जीवन-मूल्य दूसरे थे। रामप्रसाद बिस्मिल ने फाँसी दिए जाने के पूर्व जेल में कहा कि -

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है ,

देखना है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है।

खींचकर लाई थी सबको कत्ल होने की उम्मीद ,

आशिकों का आज जमघट कूचा-ए-कातिल में है।

कत्ल होने की आशा से ही हम लोग यहाँ आए थे। आज यदि देश का कोई आदमी ये पंक्तियाँ कहेगा तो उसको जरूर पागलखाने भेजा जाएगा। और आज यदि ये पंक्तियाँ कहनी ही हों तो जरा सुधार करके लोग कहेंगे। वे यह नहीं कहेंगे कि 'खींचकर लाई थी सबको कत्ल होने की उम्मीद', वे कहेंगे -

खींचकर लाई थी सबको मंत्री होने की उम्मीद।

अब लोग बहुत चतुर हो गए हैं। साठ करोड़ में से साठ करोड़ लोग प्रधान मंत्री बनना चाहते हैं। सन 47 के पहले की भावना लेकर चलने वाले को अब पागल कहा जाता है। हम लोग तो ढूँढ़ रहे हैं कि देश में ऐसे 'पागल' लोग कहाँ मिलेंगे? मिलते ही नहीं, सभी 'बुद्धिमान' हैं। यह खोज करते समय हमारे ख्याल में आया कि 'पागल' लोग पैदा करने का एक मात्र कारखाना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है। उस कारखाने से 'पागलपन' का जितना अच्छा माल आता है, उतना अच्छा माल और किसी कारखाने से नहीं आता। इसलिए हम अपना नंबर वहाँ लगाकर रखते हैं कि भाई, जैसे-जैसे माल पैदा होता जाए, इधर भेजते जाओ। खैर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ये लोग जनसंघ में भी थे और विद्यार्थी परिषद में भी थे। यह एक बात है। दूसरी बात यह कि लोगों के सामने एक ही मॉडल था - इंटक (INTUC) कांग्रेस की विंग, ऐटक (AITUC) कम्युनिस्ट पार्टी की विंग, हिमस (HMS) सोशलिस्ट पार्टी की विंग। अतः यदि कोई सेंट्रल लेबर आर्गनाइजेशन है तो उसे भी किसी न किसी पालिटिकल पार्टी का विंग होना ही चाहिए, ऐसा लोगों को लगता है। लेकिन यदि इधर हम लोगों की कोई पालिटिकल पार्टी नहीं, तो उधर उन लोगों का कोई लेबर आर्गनाइजेशन नहीं है। हमारा जो गैर-राजनीतिक संगठन का सिद्धांत है वह देश में पहले किसी ने सुना ही नहीं, न किसी ने देखा है, न किसी को अनुभव है। और फिर हम जब यह देखते हैं कि संघ के लोग दोनों तरफ हैं तो स्वाभाविक रूप से लोग अंदाज लगाते हैं कि ये कुछ भी कहें, दाल में कुछ काला जरूर है। कुछ लोग तो यहाँ तक कह देते थे कि आप खुल्लमखुल्ला नहीं बोलते, यह भी राजनीति है।

इसमें कुछ व्यावहारिक कठिनाइयाँ भी थीं। दोनों तरफ संघ के लोग हैं। अपना समान सिद्धांत भी है। व्यक्तिगत मित्रता तो छूटी नहीं। जब हम कम्युनिस्टों के साथ व्यक्तिगत मित्रता रखते हैं तो संघ वालों के साथ मित्रता छोड़ने का तो सवाल ही नहीं। कभी-कभी मित्रता में मर्यादा का पालन भी होता है। एकाध बार उल्लंघन भी होता है। मित्रता, आप लोग जानते ही हैं कि यह प्रेम बड़ा कठिन काम है। मर्यादा के अंतर्गत रहते हुए काम करना सभी के लिए सदैव संभव होगा, यह बड़ा कठिन है। इसके कारण भी मर्यादा का उल्लंघन कभी-कभी होता था। जैसे अभी एक प्रश्न भी आया कि यदि हम गैर-राजनीतिक हैं तो हमारे मंच पर राजनीतिक लोग क्यों दिखाई देते हैं? जब यह प्रश्न आया तो मेरे मन में यह उत्तर आया था कि जगदीश प्रसाद दीक्षित हमारे ऑल इंडिया डी. आर. एम. एस. का उद्घाटन करने आए थे, वे कांग्रेस (आई) के लेबर मिनिस्टर हैं। उनके बारे में भी आप यही कहेंगे क्या? तरह-तरह के लोग अपने इस मंच पर आए हैं। लेकिन भाजपा के संबंध में प्रश्न पूछने वाले जगदीश प्रसाद दीक्षित वगैरह का उदाहरण भूल गए, यह दिखता है।

अपने इस व्यवहार के कारण हम लोग कहते थे कि हम वास्तव में गैर-राजनीतिक हैं। हाँ, यह ठीक है कि दोनों तरफ संघ के लोग और व्यक्तिगत संबंध होने के कारण मर्यादा का पालन होता है। कभी उल्लंघन भी होता है। मर्यादा भंग न हो, इसकी चिंता हम करेंगे। लेकिन जब हम कहते थे कि वास्तव में हम गैर-राजनीतिक हैं तो लोग मानते नहीं थे। हमारा 'हाँ' कहना और उनका 'ना' कहना चलता रहा। उस समय हम कार्यकर्ताओं को कहते, भाई, आप ज्यादा बहस के झंझट में मत जाइए, वास्तव में हम गैर-राजनीतिक स्तर पर काम करेंगे तो लोगों के ख्याल में सब बातें आ जाएँगी, चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। और यदि हम गैर-राजनीतिक नहीं हैं, ईमानदार नहीं हैं, उधर कह रहे हैं हम गैर-राजनीतिक हैं और इधर राजनीतिक दल की शाखा के रूप में काम करते हैं तो भगवान का न्याय ऐसा है कि दुनिया में कोई भी बात छिपकर रहती नहीं। न पाप छिपकर रहता है, न पुण्य छिपकर रहता है। कोई किसी को ज्यादा देर तक बुद्धू नहीं बना सकता। अपना वास्तविक गैर-राजनीतिक चरित्र (Really non-political character) कायम रखें, सब बातें स्वयं साफ हो जाएँगी। गैर-राजनीतिक चरित्र अपनाने का एक कारण यह भी था कि हम लोग संघ के लोग हैं, और संघ के लोग दोनों तरफ हैं। राष्ट्र-रचना के विषय में संघ का भी एक विचार है, जिसमें से गैर-राजनीतिक चरित्र यह प्रश्न निकलता है।

संघ का यह विचार है कि राजनीतिक दल का दायरा उतना ही रहना चाहिए जितना उस राजनीतिक दल के ब्लू प्रिंट में राज्य का दायरा होता है। सत्ता के बाहर रहते हुए भी राजनीतिक दल का दायरा उतना ही रहना चाहिए। यह ठीक है कि पार्टी जब सत्ता में आती है तो सभी कुछ उसके अंदर आ सकता है। विरोधी दल में हैं तो सब कुछ उसके अंदर नहीं आता। लेकिन ब्लू प्रिंट में विषयानुसार कार्यक्षेत्र जो राज्य का होगा, अंततोगत्वा वही कार्यक्षेत्र राजनीतिक दल का भी होना चाहिए। (Subject wise jurisdiction of the state and of the political party should be co-terminus, co-existensive) जबकि कम्युनिस्ट बता रहे हैं कि किसान सभा और स्टूडेंटस फेडरेशन भी उनके अधीन हैं।

उनका यह कहना बिल्कुल तर्कशुद्ध है, शास्त्र शुद्ध है। क्यों? क्योंकि वे स्पष्ट रूप से कह रहे हैं कि उनका जो अंतिम ब्लूप्रिंट है उसमें सर्वहारा का अधिनायकवाद (Dictatorship of the politariat) आता है। अब आप भले ही कहें कि यह अधिनायकवाद सर्वहारा का है या पाटी का है या व्यक्ति का। यह उनका सवाल है। उसमें जाने की आवश्यकता नहीं। लेकिन वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि डिक्टेटरशिप का मतलब ही होता है कि हर चीज राज्य के अंतर्गत, हर चीज राज्य के लिए, और राज्य के बाहर कुछ भी नहीं (Everything within the state, everything for the state and nothing outside the state) डिक्टेटरशिप के अंतर्गत सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, व्यक्तिगत जितनी गतिविधियाँ चलती हैं, सभी राज्य के अंतर्गत आ जाती हैं।

कम्युनिस्टों का अल्टीमेट ब्लू प्रिंट 'डिक्टेटरशिप' का है अर्थात उनका राज्य सर्वेसर्वा है, यह वे स्पष्ट रूप से कहते हैं, छुपाते नहीं हैं। इसलिए उनके पालिटिकल पार्टी का विषयानुसार कार्यक्षेत्र उतना ही होना चाहिए। इसके कारण उन्हें ब्लू प्रिंट में जैसे सभी सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक इकाइयाँ राज्य के अंतर्गत रहेंगी, वैसे ही सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक सभी जन-संगठन कम्युनिस्ट पार्टी के अंतर्गत फ्रण्ट आर्गनाइजेशन के रूप में रहेंगे। उनकी यह रचना उनकी दृष्टि से बिल्कुल शास्त्र शुद्ध है।

क्या हम इसी तरह चाहते हैं कि सरकार सर्वेसर्वा बने? हम यह नहीं चाहते। हम सरकार का दायरा चाहते हैं कम-से-कम। भारतीय विचार से शासनविहीन समाज आदर्श स्थिति है। लेकिन यह शासनविहीन समाज अव्यावहारिक दिखता है तो न्यूनतम शासनयुक्त समाज अपने यहाँ अच्छा माना गया है जिसमें सामाजिक, आर्थिक इकाइयाँ स्वयं शासित होनी चाहिए। यह अपनी भारतीय समाज-रचना है। हमारे अल्टीमेट ब्लू प्रिंट में राज्य का कार्यक्षेत्र (Stat jurisdiction) सीमित है। सामाजिक, आर्थिक इकाइयाँ स्वायत्त, स्वयं शासित होनी चाहिए, यह हमारी मान्यता है। राजनीतिक दल और राज्य के कार्यक्षेत्र का विराम बिंदु एक ही होना चाहिए। इस दृष्टि से और इसलिए जन-संगठन पार्टी क अंतर्गत नहीं होना चाहिए। भारतीय आदर्श के अनुसार हम लोग यह कल्पना कर रहे हैं कि सरकार सर्वेसर्वा न हो, पार्टी भी सर्वेसर्वा न हो। राष्ट्रीय भावना से प्रेरित जन-संगठन अपने सदस्यों और देश के हितों की रक्षा करें, अपने सदस्यों की शक्तियों का उपयोग राष्ट्र-निर्माण के कार्य में कैसा हो, यह देखें। सरकार यदि अच्छा काम करती है तो उसे सहयोग दें, गलत काम करती है तो उसका विरोध करें। सरकार को देश का एकमात्र शक्ति केंद्र न बनने देते हुए वैकल्पिक शक्ति-केंद्र (Alternate power centre) के नाते कार्य करें। भारतीय समाज रचना की दृष्टि से यह तर्कशुद्ध बात है।

इस दृष्टि से संघ का भी यह विचार है कि सब कुछ राजनीतिक दल के अंतर्गत रहना गलत बात है। जैसे सरकार का दायरा सीमित चाहते हैं, वैसे ही राजनीतिक दल का दायरा भी सीमित होना चाहिए। जन-संगठन स्वतंत्र होना चाहिए। यदि आज हम वैकल्पिक शक्ति केंद्र नहीं बन सकते तो कम से कम दबाव गुट (Pressure group) तो बन ही सकते हैं। यह भी एक कारण था कि हम लोगों ने गैर-राजनीतिक रहने का निश्चय किया।

इस संबंध में बहुत लम्बी बहस चली। हाँ-ना, हाँ-ना चलती रही। लेकिन जैसे-जैसे दूसरी तरफ के लोग सत्ता में आने लगे, 1967 में संविद सरकार बनी तो लोगों ने देखा कि संविद सरकार के मन्त्रियों के खिलाफ भी हमने प्रदर्शन किए। 1977 में चार राज्यों में जनसंघ के मुख्यमंत्री थे, वहाँ भी हमारे बड़े प्रखर आंदोलन हुए। वह जिसे हमारी नटोरियस स्ट्राइक कहा जाता है, जिसके कारण हमें वर्ल्ड नटोरिटी प्राप्त हुई, वह हड़ताल दिल्ली में हुई। वहाँ भाजपा का शासन था। पानी के प्रश्न पर भारतीय मजदूर संघ के लोगों ने वहाँ हड़ताल करायी। अब उसमें किसका दोष था, किसका दोष नहीं था, यह छोड़ दीजिए। किंतु उसके कारण सी. पी. आई. और सी. पी. आई. (एम०) के लोग पूछने लगे, कि आपने यह क्या किया? हमने कहा, "ठीक किया।" आज सी. पी. आई., सी. पी. आई. (एम.), ए. आई. टी. यू. सी. और सी. आई. टी. यू. सी. के लोग, और चोटी के कोई जिम्मेदार नेता यह नहीं कहते कि भारतीय मजदूर संघ भाजपा की मजदूर शाखा है। दिल्ली वाटर वर्क्स की हड़ताल के पहले जो भाजपा की शाखा होने की बात कहते थे, आज नहीं कहते। अब वे भाजपा के प्रति नरमी' (Softness) की बातें कहते हैं। हम भी उनको कहते हैं, भाई, कौन किसके साथ नरम होगा, कुछ इसका हिसाब नहीं हो सकता। यह विचार करने की बात है।

जब हम लोगों ने स्वयं को गैर-राजनीतिक कहा तो लोग कहने लगे कि यह संभव हो कैसे सकता है? उस समय हम लोग कहते थे, "ग्रेट ब्रिटेन का उदाहरण देखिए। ग्रेट ब्रिटेन की ब्रिटिश लेबर पार्टी, ब्रिटिश ट्रेड यूनियन कांग्रेस से पैदा हुई है, तो भी ब्रिटिश लेबर पार्टी संपूर्ण देश की सेवा करना चाहती है। ब्रिटिश ट्रेड यूनियन कांग्रेस श्रमिकों की सेवा करना चाहती है। आर्थिक शब्दावली में यदि कहा जाए तो ब्रिटिश ट्रेड यूनियन कांग्रेस के ग्राहक हैं सारे मजदूर, ब्रिटिश लेबर पार्टी के मजदूर हैं सारे उपभोक्ता, और कभी-कभी सरकार की गलत नीतियों के कारण उपभोक्ता और मजदूरों के हितों में यदि विरोध हो जाता है तो उपभोक्ता का पक्ष लेकर मजदूरों के खिलाफ जाने की परिस्थिति निर्माण होती है।

यह परिस्थिति ग्रेट ब्रिटेन में कई बार निर्माण हुई। ब्रिटिश ट्रेड यूनियन कांग्रेस में से पैदा हुई ब्रिटिश लेबर पार्टी और उसके खिलाफ हड़ताल करना ब्रिटिश ट्रेड यूनियन कांग्रेस के लिए कई बार आवश्यक कहा गया। शुरू में वहाँ भी भ्रम था। ब्रिटिश ट्रेड यूनियन कांग्रेस से ब्रिटिश लेबर पार्टी निकली तो दोनों तरफ अधिकारी बनने की इच्छा लोगों में प्रबल थी। अपने यहाँ भी ऐसा है कि हम जितनी संस्था के अध्यक्ष बन सकें उतना अच्छा है, ऐसा लोग सोचते हैं। क्योंकि काम ही नहीं करना है। वहाँ भी लोग सोचते थे कि हम लेबर पार्टी में प्रमुख रहेंगे और ट्रेड यूनियन कांग्रेस के भी अध्यक्ष बने रहेंगे। बाद में यह अनुभव में आया कि ट्रेड यूनियन का काम चौबीस घंटे का काम है और राजनीतिक दल का भी काम चौबीस घंटे का है, और एक आदमी दो काम कर नहीं सकता। यह भी दिखाई दिया कि यदि मजदूरों की ही बात सोचते हैं तो राजनीतिक दल का काम नहीं चल सकता, क्योंकि चुनाव जीतने के लिए गैर-मजदूरों का भी वोट प्राप्त करना है। इस दृष्टि से दोनों तरफ के पदाधिकारी एक नहीं होना चाहिए। इंग्लैंड में उन्होंने यह परंपरा डाल दी। वहाँ संविधान में ऐसा कोई नियम नहीं है।

अमरीका का उदाहरण लें तो देखेंगे कि वहाँ कोई भी ट्रेड यूनियन किसी भी राजनीतिक दल के अंतर्गत नहीं है। लेकिन एक बात है कि वहाँ ट्रेड यूनियन बहुत शक्तिशाली है। हमारे यहाँ एक ही उद्योग में एक से अधिक यूनियनें होने के कारण मैंनेजमेंट और सरकार एक को दूसरे के खिलाफ लड़ा-भिड़ा सकते हैं। ऐसी बात वहाँ नहीं है। साथ ही वहाँ एक भी ट्रेड यूनियन नहीं, जो किसी राजनीतिक दल के अंतर्गत हो। वहाँ कम्युनिस्ट पार्टी का तो प्रभाव ही नहीं है। 1979 में मैं उधर गया था। उस समय सोशलिस्ट पार्टी में विभाजन हुआ ही था। विभाजन के पहले अमरीका में उनकी कुल संख्या सत्तर हजार थी। मैं गया तो लोग मुझसे पूछते थे कि आपके पहले तो हिंदुस्तान का कोई सोशलिस्ट नेता यहाँ नहीं आया। यदि कोई सोशलिस्ट भारत से नहीं आया तो एक पार्टी की दो पार्टियाँ अमरीका में कैसे हो गई? विभाजन विशेषज्ञ लोग तो हिंदुस्तान में बैठे हैं। खैर, वहाँ दो प्रमुख राजनीतिक दल हैं - डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन। दोनों के श्रमिक संगठन नहीं हैं। वहाँ चुनाव के समय क्या होता होगा?

वहाँ हर एक जिले में और बड़े शहर में ट्रेड यूनियन काउंसिल होती है। आप ट्रेड यूनियन काउंसिल के दफ्तर में जाएँगे तो सामने ही दीवार पर आपको एक चार्ट मिलेगा। उस पर उस ट्रेड यूनियन काउंसिल के रीजनल टेरीटोरियल जूरिस्डिक्शन के सभी लेजिस्लेटर्स के नाम एक के नीचे एक आपको दिखेंगे। यदि अपने यहाँ की परिभाषा में बोला जाए तो पहले संसद् सदस्य फिर विधायक, फिर निगम पार्षद या फिर नगरपालिका अध्यक्ष वगैरह के नाम। उसके बाद के खाने में यह लिखा होगा कि अमरीकी कांग्रेस (संसद्) में श्रमिकों से संबंधित कोई विधेयक किस तारीख को आया। फिर दूसरा खाना उस प्रतिनिधि को दिए जाने वाले अंकों का होता है। इसी प्रकार अन्य प्रतिनिधियों का भी चार्ट होता है। यदि उसने मजदूरों के पक्ष में मतदान किया होता है तो उसको +25 अंक दिए जाते हैं और यदि मजदूरों के विरोध में मतदान किया होता है तो -25 अंक दिए जाते हैं। लेकिन यदि कोई ऐसा सवाल होता है जिस पर आम जनता मजदूरों की माँग के खिलाफ है और जनता का दबाव इतना है कि अच्छा न होते हुए भी और आम जनता के खिलाफ होने के कारण वह मजदूरों के खिलाफ वोट देता है तो -25 की जगह -13 करते हैं।

मजदूर के पक्ष में वोट दिया तो +25, मजदूरों के विरोध में वोट दिया तो -25, इस तरह प्रत्येक का अंक-पत्र तैयार होता है। चुनाव के पहले इतना तो दिखाई देता है कि अगले चार साल में प्रमुख पार्टी के कौन-कौन से प्रश्न आने वाले हैं। उन प्रश्नों के विषय में प्रश्नावली तैयार की जाती है। यह प्रश्नावली सभी उम्मीदवारों के पास भेजी जाती है और उनके उत्तर मँगवाए जाते हैं।

देखने-सुनने में यह बहुत आसान लगता है। हमारे देश में तो हर उम्मीदवार हर सवाल का जवाब 'हाँ' ही कहता है। वह जानता है कि आगे कोई उसका हाथ पकड़ने वाला नहीं है। लेकिन वहाँ ऐसी परिस्थिति नहीं। वहाँ मजदूर सुशिक्षित है, जाग्रत है, संगठित है। जनता भी सुशिक्षित और संगठित है। इस कारण वहाँ यह बात नहीं चल सकती। चुनाव के पूर्व उम्मीदवार या पार्टी कोई आश्वासन दे दे और बाद में पौने पाँच साल तक वह अपने चुनाव क्षेत्र में न भी जाए तो उसको कोई तकलीफ नहीं है, ऐसा भी वहाँ नहीं चलता। वहाँ सीधा सवाल पूछा जाता है कि अगर आप करना चाहते हैं तो 'हाँ' बोलिए, नहीं करना चाहते तो सीधा 'ना' बोलिए। और यदि कोई 'हाँ' कहकर मुकर जाते हैं तो जनता उसका सामाजिक बहिष्कार कर देती है, सड़क पर घूमने नहीं देती। जनता और मजदूरों में वहाँ इतनी जागृति है।

हर एक उम्मीदवार प्रश्नावली का जो उत्तर भेजता है वह पहले प्रकाशित किया जाता है। उसके पश्चात ट्रेड यूनियन काउंसिल की बैठक होती है। ट्रेड यूनियन कांग्रेस में उस क्षेत्र की सभी यूनियन के एक-एक, दो-दो प्रतिनिधि रहते हैं। प्रश्नावली का उत्तर और उम्मीदवार का पिछले चार साल का रिकार्ड देखकर किसको वोट देना उचित रहेगा, इस पर विचार होता है। कभी-कभी उम्मीदवारों से अलग-अलग बात भी करते हैं। यदि किसी स्पष्टीकरण की आवश्यकता हुई तो सिफारिश जारी करते हैं। लेकिन उस सिफारिश को मानने की कोई बाध्यता नहीं होती। सिफारिश ऐसी होती है कि अमुक आदमी श्रमिकों का पक्षधर मालूम होता है, इसको वोट देना चाहिए।

यह पद्धति देखकर हमको आश्चर्य हुआ। इसलिए हमने पूछा कि आप इसका क्रियान्वयन कैसे कर सकते हैं क्योंकि अमरीकी कांग्रेस में किया जाने वाला मतदान दल के सचेतक द्वारा दिए गए निर्देश के अनुसार होता है। चुनाव में उम्मीदवार द्वारा किए गए वायदे के आधार पर तो वहाँ मतदान होता नहीं। पार्टी का ह्विप जैसा होगा, वैसी वोटिंग होगी। उन्होंने कहा, ऐसा नहीं है। यहाँ मजदूरों का संगठन इतना मजबूत है कि औद्योगिक क्षेत्र के सभी प्रतिनिधियों ने अपनी-अपनी पार्टी को बोलकर रखा है कि श्रमिकों के सवाल पर आप सचेतक जारी मत कीजिए। आप ह्विप जारी करेंगे तो हम मानेंगे ही, यह गारंटी नहीं। ह्विप जारी किया जाए और उसका उल्लंघन हो, फिर अनुशासन की कार्यवाही करनी पड़े, इसके बजाए यह परंपरा डाली गई कि श्रमिकों के सवाल पर डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन दोनों पार्टियाँ ह्विप जारी नहीं करेंगी।

वहाँ हर एक प्रतिनिधि को अपनी-अपनी इच्छा या अपने-अपने आश्वासन के अनुसार वोट देने का अधिकार रहता है और इसके कारण, पार्लियामेंट में, जिसको 'कांग्रेस' कहा जाता है, जब श्रमिकों के प्रश्न पर वोटिंग होती है तो विचित्र दृश्य दिखाई देता है। डेमोक्रेटिक पार्टी और रिपब्लिकन पार्टी, दोनों के वोट श्रमिकों के पक्ष और विपक्ष, दोनों में पड़ते हैं। दोनों पार्टियों के लोग कुछ पक्ष में, कुछ विपक्ष में दिखाई देते हैं। क्योंकि मजदूरों की शक्ति के कारण दोनों पार्टियों के नेताओं को उनके सदस्यों ने कहा कि आप ह्विप मत लगाइए, हम मानेंगे ही, इसकी गारंटी नहीं।

केवल हिंदुस्तान के राजनीतिज्ञ संपूर्ण दुनिया को इस कूपमण्डूक दृष्टि से देखते और सोचते हैं कि बगैर राजनीतिक दल के मजदूर संगठनों का क्या होगा? उन्हें अमेरिका के सबसे शक्तिशाली ट्रेड यूनियन आंदोलन का अध्ययन करना चाहिए। उनके समान शक्तिशाली बनने की हम भी कोशिश करें। यह चल नहीं सकता, हो नहीं सकता, ऐसा समझने की आवश्यकता नहीं।

हमारे यहाँ यह कहा जाता है कि एम.पी. और एम. एल. ए. हमारे साथ नहीं होंगे तो हमारा क्या होगा। यह हमारे लिए सोचने की बात नहीं है। यह तो एम. पी. और एम. एल. ए. के सोचने की बात है कि मजदूर उनके साथ नहीं होगा तो अगले चुनाव में उनका क्या होगा? आप उनका सहारा हैं या वे आपके सहारे हैं? जरा यह विचार करें।

मैं आपको नाम लेकर बताना नहीं चाहता। लेकिन यहाँ कुछ ऐसे भुक्तभोगी लोग बैठे हुए हैं कि जिनको उनके मित्रों ने कहा कि पहले यह लिखकर लाइए कि भारतीय मजूदर संघ हमारी मजदूर शाखा है, तब हम आपकी सहायता करेंगे। यह लिखकर न देते हुए अन्यान्य पार्टियों के नेताओं के साथ बात करके उनकी सहायता लेकर हमने मामले सुलझाए। जहाँ अपने ही मित्रों ने कहा कि ऐसा लिखकर लाएँ और अपने लोगों ने कहा कि हम लिखकर नहीं देते, वहाँ जिनके बारे में सोचा गया था कि ये तो हमारे दुश्मन हैं, ऐसी पार्टी के लोगों ने भी हमारा काम किया; क्योंकि उनको भी लालच हुआ कि इनके यदि कुछ वोट मिलते हैं, शत-प्रतिशत नहीं तो चालीस प्रतिशत भी यदि मजदूरों के वोट मिलते हैं तो हमारा लाभ ही होगा वे तो आपके बड़े याचक हैं और उनके अपने ही दु:ख आपसे भी ज्यादा हैं यानी आपको यदि इंफ्लुएंजा और मलेरिया का रोग होगा तो वे तो कैंसर और टी. बी. से पीड़ित हैं। आप काहे के लिए ज्यादा चिंता करते हैं? वास्तव में विचार करने का विषय यह है कि अपने सिद्धांत क्या हैं? हमारे जीवन-मूल्य क्या हैं?

ज्वाइण्ट कंसलटेटिव मशनरी ( J.C.M.)

प्रश्न - ज्वाइण्ट कंसलटेटिव मशीनरी में प्रवेश करने के संदर्भ में आपके क्या विचार हैं?।

उत्तर - ज्वाइंट कंसलटेटिव मशीनरी (J.C.M.) का जिस समय निर्माण हुआ उसी समय हम लोगों ने उस मशीनरी में हिस्सा लेने जा रहे कुछ लोगों से बातचीत की थी। उनसे कहा था कि आप इस मशीनरी में किसलिए जा रहे हैं। इससे कुछ लाभ नहीं होगा। जुलाइ 1960 की आम हड़ताल हो चुकी थी। उसके पश्चात श्री गुलजारी लाल नंदा का वक्तव्य आया था कि केंद्रीय कर्मचारियों की हड़ताल का अधिकार हम छीनना चाहते हैं और उसके बजाए हम उनको ज्वाइण्ट कंसलटेटिव मशीनरी देना चाहते हैं। उस समय हम लोगों की एक भी यूनियन केंद्रीय सरकारी क्षेत्र में नहीं थी। भारतीय मजदूर संघ छोटा था। फिर भी हम लोगों ने अपनी भूमिका स्पष्ट की कि हड़ताल का अधिकार छीनना यह अलोकतांत्रिक कदम होगा। हाँ, हम राष्ट्रवादी हैं। राष्ट्रवादी होने के कारण हम यह नहीं चाहते कि उत्पादन वृद्धि में बाधा आए या जन सेवाएँ रुक जाएँ। लेकिन काम करने के अधिकार को जिस प्रकार हम एक बुनियादी हक मानते हैं, उसी प्रकार हड़ताल के अधिकार को भी हम एक बुनियादी हक मानते हैं। हाँ, यह ठीक है कि कोई भी अधिकार संपूर्ण (Absolute) नहीं है। जिस प्रकार बनियादी अधिकार पर कई अंकश (Restraints) लाए जाते हैं, वैसे ही इस पर भी अंकुश आने चाहिए, यह हम समझ सकते हैं। लेकिन यह हक छीन लेना लोकतंत्र के और मजदूरों के खिलाफ होगा।

हड़ताल का हक छीनने के बजाए यह मजदूर और राष्ट्र के हित में होगा कि सरकार ऐसी कुछ व्यवस्था विकसित करे जिसके कारण हड़ताल अनावश्यक बात हो जाए। अपनी शब्द-रचना उस समय ऐसी थी - ("The strike should become superfluous.") यह भूमिका हम लोगों ने उस समय स्पष्ट की थी। ज्वाइण्ट कंसलटेटिव मशीनरी बनी तो उसमें जाने की इच्छा तब के सभी नेताओ की थी। हम लोगों ने उसका यह भविष्य बताया था कि इस व्यवस्था (मशीनरी) से केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों की कोई भी अखिल भारतीय महत्वपूर्ण माँग पूरी नहीं हो सकती।

सरकार के मन में उस समय इतना ही विचार था कि यह मशीनरी निर्माण होने के कारण एक तो देश और विदेश में यह प्रचार होगा कि भारत सरकार एक बहुत प्रगमनशील सरकार है। साथ ही विदेशों को यह भी बता सकेंगे कि हमने अपने सरकारी कर्मचारियों के साथ सलाह-मशविरा करते हुए कारोबार चलाया है, हम भी प्रगतिशील (Progressive) हैं। दूसरी बात जो हमने उस समय कही नहीं, किंतु हमारे मन में यह आशंका थी कि ऐसी मशीनरी में जाने के कारण कहीं इन लोगों की आज की क्रांतिकारी भावना (Revolutionary zeal) धीरे-धीरे समाप्त न हो जाए। उस समय यह बात बोलना उचित नहीं था।

जब हमने कहा कि आप किसलिए कंसलटेटिव मशीनरी में जा रहे हैं तो लोगों को अच्छा नहीं लगा, खास कर दादा घोष के साथ उस समय हमारी बड़ी विस्तृत चर्चा हुई थी। उन्होंने हमको पूछा कि आप कंसलटेटिव मशीनरी में जाने के विरोध में क्यों है? तो हमने उनको कहा कि यह ज्वाइण्ट कंसलटेटिव मशीनरी कर्मचारियों के हित में कोई भी अच्छा काम कर ही नहीं सकती। उन्होंने कहा, क्यों नहीं कर सकती? यह ह्विटले काउंसिल के मॉडल पर है और ग्रेट ब्रिटेन की हिटले काउंसिल प्रभावी है लेकिन आपकी जे. सी. एम० प्रभावी होने वाली नहीं है। इसका कारण बताते हुए हमने कहा कि जे. सी. एम. और हिटले काउंसिल में एक प्रमुख अंतर है। यह ठीक है कि दोनों की रचना समान है। माने हर स्तर पर उद्योगों के अलग-अलग विभाग के प्रशासन के और कर्मचारियों के प्रतिनिधि एकत्रित आकर सलाह-मशविरा करें, यह समानता तो है। इस स्ट्रक्चरल समानता के साथ-साथ प्रशासन और कर्मचारियों में यदि किसी बात पर मतभेद हो जाता है और उसकी कोई सुलझन नहीं निकलती तो आर्बिट्रेशन को मामला भेजना चाहिए, यह समानता भी है। ये बातें दोनों में समान है। किंतु इसके बाद बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण अंतर आता है।

ग्रेट ब्रिटेन की ह्विटले काउंसिल के संविधान में ऐसा है कि यदि कोई मामला आर्बिट्रेशन को सौंप दिया जाता है तो आर्बिट्रेशन का अवार्ड प्रशासन अर्थात सरकार व कर्मचारियों-दोनों के लिए अंतिम एवं मान्य (Final and binding) रहेगा। ह्विटले काउंसिल की इस रचना के अनुसार हमारे यहाँ आर्बिट्रेशन के निर्णय को अंतिम एवं मान्य नहीं रखा गया। इस कारण आर्बिट्रेशन का अवार्ड भले ही आ जाए, उसका क्रियान्वयन करना या न करना उसको ठंडे बस्ते (Cold storage) में रख देना, उसमें चाहे जो परिवर्तन (Modification) करना या अस्वीकार (Reject) करना आदि मनमानी सरकार कर सकती है। इसके कारण ह्विटले काउंसिल जिस प्रकार फलदायी और परिणामकारक हुई, जे. सी. एम. कैसी परिणामकारक नहीं हो सकती।

किंतु उस समय हमारा काम बहुत कम और दुर्बल था। इसके कारण हमारी बात मानने के लिए कोई तैयार नहीं था। वैसे भी प्रतिष्ठा शक्ति की नहीं थी और फिर उसमें जाने के लिए लोग बहुत ललचा रहे थे। इसके कारण जे. सी. एम. की वह मशीनरी शुरू हो गई। वह मशीनरी शुरू होने के पश्चात हमारे मन में जो आशंका थी वह धीरे-धीरे सही होने लगी कि एक बार मशीनरी में गए, वहाँ ऑफिसर्स और बड़े लोगों के साथ चाय-पान होना शुरू हो गया तो धीरे-धीरे नेता लोग कर्मचारी और कार्यकर्ताओं से कटने लगे। इसी में अपना स्टेटस और प्रेस्टिज देखने लने और फिर विचार आया कि हर प्रकार से यह प्रेस्टिज बनाए रखना चाहिए।

कोई भी अखिल भारतीय स्तर का महत्वपूर्ण प्रश्न जे. सी. एम. से हल नहीं हो सका। जे. सी. एम. के माध्यम से कोई महत्वपूर्ण निर्णय हुए हो, ऐसा अभी तक नहीं हुआ। यहाँ तक कि यह जो बोनस वगैरह की बात थी उसकी भी जे. सी. एम. के माध्यम से घोषणा नहीं हुई। व्यवस्था पहले हो गई फिर वहाँ घोषणा हुई। पूरी बातचीत जे. सी. एम. के बाहर हुई। इसी के कारण जे. सी. एम. में हिस्सा लेने वाले लोगों को भी महत्वपूर्ण माँगों की पूर्ति के लिए आम हड़ताल पर जाना पड़ा। जैसे 1960 के सितंबर में सभी केंद्रीय कर्मचारियों की यूनियनें हड़ताल पर गईं या 1974 के मई महीने में जे. सी. एम. में शामिल सभी रेलवे यूनियनों को हड़ताल पर जाना पड़ा। इसका कारण यही था कि के सी. एम. पूरी तरह कारगर नहीं है। हम लोग जे. सी. एम. को महत्वपूर्ण नहीं मानते। किंतु यह हम अवश्य मानते हैं कि जे. सी. एम. में हमारे जाने से लाभ तो नहीं होगा, लेकिन आज जो वहाँ हिस्सा ले रहे हैं के लोग तरह-तरह से मजदूरों के साथ जो विश्वासघात कर रहे हैं उसे रोका जा सकेगा।

मैं सारे उदाहरण यहाँ नहीं देना चाहता, क्योंकि कुछ डिपार्टमेण्ट की बात है। किंतु यह सच है कि मशीनरी में शामिल लोग बाकी प्रश्नों पर भी ऐसा ही अनुभव आया। इसलिए यदि हमारे लोग वहाँ जाते हैं तो ऐसा बिल्कुल नहीं है कि जाने से कोई महत्वपूर्ण काम कर सकेंगे, न वे कर सकें न हम कर सकेंगे। लेकिन एक बात होगी कि वहाँ जाने के कारण कुछ काम न करते हुए भी वे लोग जो रौब दिखाते हैं कि अरे साहब, हम जे. सी. एम. में हैं और ये जे. सी. एम. में नहीं हैं - इस कारण हमारे कुछ लोगों में हीन-भाव आता है, हम सोचने लगते हैं कि जैसे कोई महत्वपूर्ण बात हमारे हाथ से निकल रही है उनका यह रौब कसना थोड़ा कम हो जाएगा। किंतु यह कोई खास महत्वपूर्ण बात नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि मशीनरी में शामिल होने से वहाँ आपकी उपस्थिति के कारण कर्मचारियों के साथ विश्वासघात करने का जो गोरखधन्धा कुछ पेशेवर नेताओं ने चला रखा है, उस पर रोक लगा सकेंगे, मजदूरों के हितों की निगरानी कर सकेंगे। इस दृष्टि से आपकी उपस्थिति वहाँ रहे, यह जरूरी है। सब कुछ धीरे-धीरे (In due course) होने वाला है। इसमें चिंता की बात नहीं है।

इतना ही है कि आप अभी से यदि प्रचार करेंगे कि हम लोग जे. सी. एम. में जाएँगे तो क्या-क्या पराक्रम करने वाले हैं तो बाद में आपको तकलीफ होगी, क्योंकि आप भी कोई बहादुरी नहीं दिखा सकते। इसलिए आप सीधे यही बताइए और ज्यादा इम्प्रेशन जमाने की कोशिश मत कीजिए। लोगों को इतना ही बताइए कि जे. सी. एम. एक निकम्मी बात है, निरुपयोगी है। फिर भी हमारे वहाँ जाने के कारण एक काम होगा कि आज मजदूरों के साथ नेता लोग विश्वासघात करते हैं उस विश्वासघात पर हम रुकावट लाएँगे, निगरानी करने (Watch dog) का काम करेंगे। इतना बताइए, बहुत ज्यादा आज मत बताइए। क्योंकि जे. सी. एम. के द्वारा कोई भी, कुछ भी महत्वपूर्ण बात हासिल नहीं की जा सकती।

हड़ताल ( 26 सितंबर , 1984)

प्रश्न - (क) 26 सितंबर, 1984 की हड़ताल स्थगित करके हमने मजदूर वर्ग और इस संगठन को क्या लाभ पहुँचाया? इसी से संबंधित दूसरा प्रश्न है। केवल बातचीत के लिए हमें सरकार ने बुलाया, इस पर खुद होकर हमने हड़ताल स्थगित की तो पत्र देकर भी बातचीत हो सकती थी। ऐसी स्थिति में हड़ताल का आवाहन देने का क्या औचित्य था?

प्रश्न - (ख) 26.9.1984 की हड़ताल बगैर कुछ हासिल किए केवल बातचीत के नाम पर स्थगित करने से हममें और अन्य संगठनों में क्या अंतर रहा?

उत्तर - 26 सितंबर की हड़ताल के बारे में वैसे तो संबंधित सब लोगों को परिपत्र भेजे गए जिसमें सूचना दी गई। जिन्हें सूचना दी गई उनमें फेडरेशंस, डिफेंस, रेलवेज, पी. एंड टी. और कान्फेडरेशन के अंतर्गत बाकी भी छोटी-बड़ी यूनियनें आती हैं, जिसमें केंद्रीय सचिवालय, दिल्ली का भी स्थान आता है। इन चारों कान्फेडरेशन की एक बैठक हुइ जिसमें परिस्थिति का विचार किया गया और सबने सोच-समझकर यह निर्णय किया कि कुछ माँगों के लिए 26 सितंबर को सांकेतिक हड़ताल करेंगे। हड़ताल करने की घोषणा भी की। उसके पश्चात अपने कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों की हलचल बहुत जोरों से शुरू हुई। बहुत प्रयास हुआ। इस समय जितना प्रयास हुआ, इसके पहले इन यूनियनों द्वारा इतना व्यापक प्रयास नहीं हुआ। जगह-जगह जो कार्यक्रम हुए वे भी बहुत अच्छे हुए। जैसे ही आप लोगों ने हड़ताल की घोषणा की, वैसे ही अन्य फेडरेशंस को भी सोचना पड़ा और उसके पश्चात ऑल इंडिया रेलवेमेंस फेडरेशन ने घोषणा की कि वे 28 सितंबर से स्वतंत्र रूप से अलग से अनिश्चितकालीन हड़ताल पर जाने वाले हैं। डिफेंस में कम्युनिस्ट यूनियन ने भी 28 तारीख की सांकेतिक हड़ताल की घोषणा की। पी. एंड टी. के पदाधिकारी अपने यहाँ के पी. एंड टी. फेडरेशन के दफ्तर पर हर दिन चक्कर काटने लगे कि आपका हमारा कुछ समझौता होना चाहिए।

यानी आपकी घोषणा के कारण बाकी लोगों में, अलग-अलग खेमों में बहुत हलचल हो गई। इधर आपका भी मोबिलाइजेशन बहुत हुआ और यह इतनी औचित्यपूर्ण सामयिक बात थी कि अन्य यूनियनों के सदस्यों पर भी इसका प्रभाव हुआ जिसके कारण कई स्थानों पर आपका जो धरना और 14 सितंबर का कार्यक्रम था, इसमें अन्य यूनियनों के लोग भी शामिल हुए। कई जगह तो ऐसे भी लोग शामिल हुए जिन्होंने कहा कि भाई, हम शायद आपके साथ हड़ताल पर जाएँगे कि नहीं जाएँगे, यह तो नहीं कह सकते, लेकिन 14 सितंबर के और धरने के कार्यक्रम में हम आपके साथ रहेंगे। और वे लोग शामिल हुए।

इन सब बातों के समाचार सरकार के पास बराबर पहुँचते थे। इसके कारण 20 तारीख को श्रम मंत्रालय ने बीचबचाव (Intervene) और कांसिलिएशन करने का सोचा। अपने जो नोटिस गए थे वे सब नोटिस सेंट्रल चीफ लेबर कमिश्नर को जाने चाहिए थे किंतु कई नोटिस वहाँ नहीं गए, जैसे रेलवे ने अपने नोटिस रीजनल लेबर कमिश्नर को भेजे थे। जो नोटिस जिसके पास जाता है वही मध्यस्थता कर सकता है। अतएव कुछ रीजनल लेबर कमिश्नरों ने रेलवे के बारे में मध्यस्थता शुरू भी कर दी थी, जिसमें पश्चिम रेलवे आती है। किंतु इसके कारण फैसला बदलने की आवश्यकता नहीं थी। डिफेंस ने भी अपने सभी नोटिस चीफ लेबर कमिश्नर के पास नहीं भेजे। पी. एंड टी. ने चीफ लेबर कमिश्नर के पास भेजे। श्रम मंत्रालय सभी बातों पर निगाह रख रहा था। उसने हम लोगों को कहा कि आपकी माँग तो समान है, चाहे पी. एंड टी. हो, कान्फ्रेडरेशन हो, डिफेंस हो, रेलवे हो। इसलिए नियम के मुताबिक जिनका नोटिस हमारे पास है उनका कांसीलिएशन हम शुरू कर सकते हैं। समान माँग के कारण उसका जो भला-बुरा परिणाम होगा, वह सब पर लागू हो जाएगा।

22 सितंबर को यह इंटरवेंशन कांसिलिएशन शुरू हुआ जिसमें अपने पठेलाजी और सुंदरलाल जी गए थे। वहाँ के भी दो जिम्मेदार डायरेक्टर आए थे। यह जो पहली मीटिंग हुई उसके बाद उन्होंने कहा कि सभी मामलों पर तीन दिन के अंदर उनका फैसला होना तत्त्वतः असंभव (Physically impossible) है, अतएव हमारी इच्छा है कि आम सांकेतिक हड़ताल की बात समाप्त कर देना चाहिए। हमें मिनिस्ट्री ने लिखकर दिया कि "हम आपसे अनुरोध करते हैं कि आप 26 सितंबर को सांकेतिक हड़ताल पर जाने का इरादा समाप्त कर दें" (We appeal to you to drop to go on token strike on September 26)। इसके बाद हम लोग इस अनुरोध पर विचार करने के लिए एकत्र हुए। यह अपना घरेलू और पारिवारिक एकत्रीकरण है, इसलिए यहाँ सभी बातें स्पष्ट रूप से बोलने में बिल्कुल आपत्ति नहीं। वास्तव में जब हम लोग विचार करने बैठे तो उस समय इसमें क्या कठिनाइयाँ आ सकती हैं, इसका हमें अंदाजा था।

इसके पहले भी कुछ घटनाएँ हुईं। जैसे जगह-जगह लाभांश की घोषणा (Bonus declaration) हुई थी। रेलवे, पी. एंड टी. और अन्य लोगों के लिए बोनस घोषित हुआ था, यद्यपि यह उत्पादक लाभांश (Productive bonus) था और उसकी राशि अपर्याप्त प्रतीत होती थी। फिर भी यह सच था कि बोनस की घोषणा हुई थी। अपने ही बी. पी. डी. ई. एफ० के पत्र-व्यवहार के दौरान सरकार ने अपने फेडरेशन को आश्वासन दिया था कि ई. डी. स्टाफ के लिए एक एक-सदस्यीय समिति नियुक्त करेगी जिसको अंतरिम राहत और डी.ए. का भी मामला सौंपा जाएगा। हम जानते हैं कि ई. डी. स्टाफ की बहुत बड़ी संख्या है।

ऐसी स्थिति में जब श्रम मंत्रालय की अपील अपने पास आई तो उस पर विचार करना पड़ा। हमारे केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों के कार्यकर्ता शायद इस बात की जानकारी नहीं रखते कि 'अपील' का मतलब क्या होता है? 15 अगस्त, 1947 से आज तक वामपन्थी लोगों के नेतृत्व में केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों की जितनी भी हड़तालें हुईं, उनकी किसी भी हड़ताल में श्रम मंत्रालय ने इंटरवेंशन और कांसिलिएशन नहीं किया। इसके कारण कांसिलिएशन वाला मामला कुछ लोग समझते नहीं।

वास्तव में 1960 की जुलाई में जो हड़ताल हुई थी उस समय फिरोज गांधी आदि कुछ लोगों ने मध्यस्थता का प्रयास किया, लेकिन उस प्रयास के समय ही गिरफ्तारी वगैरह शुरू हो गई। वहाँ भी श्रम मंत्रालय का इंटरवेंशन या कांसिलिएशन नहीं था। 1974 की 6 मई को रेलवे हड़ताल, जिसमें एक पार्टी के रूप में हम शामिल थे, उसमें वार्ता चल रही थी। किंतु वार्ता के चलते हुए न तो श्रम मंत्रालय ने इंटरवेंशन किया, न कांसिलिएशन शुरू हुआ। जो बातचीत चल रही थी उसे भी सरकार ने आधिकारिक नहीं माना, यह कहा कि वार्ता अनौपचारिक (Informal) है जिसका रेकार्ड नहीं रहेगा। किंतु उस बातचीत के बीच में ही सरकार ने वार्ता में शामिल सभी प्रमुख लोगों को गिरफ्तार कर लिया। मात्र इतनी इज्जत उन्होंने उस वार्ता को दी थी। उन्होंने घोषित रूप में कहा कि वार्ता आधिकारिक (Official) नहीं है, अनौपचारिक (Unofficial) है। एक तरह से वह हड़ताल पहले ही शुरू हो गई। इन सभी घटनाओं को ध्यान में रखने की जरूरत है।

यह पहला ही मौका था कि भारतीय मजदूर संघ से संबंधित केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों की फेडरेशंस एकत्रित आकर हड़ताल का आह्वान करती हैं और श्रम मंत्रालय इंटरवेंशन और कांसिलिएशन शुरू करते हुए आपको एक प्रतिष्ठा प्रदान करता है। इसका एक दूसरा भी महत्त्व (Significance) है। आप लोगों में से भी कितने लोगों को इसका ध्यान है, यह मैं नहीं जानता। केंद्रीय सरकारी कर्मचारी क्षेत्र में इतने सालों से वामपंथी काम कर रहे हैं। उस क्षेत्र में सी.पी.आई., सी.पी.एम. और सोशलिस्टों का काम बहुत पुराना है। यह आश्चर्य की बात है कि उनको कभी यह प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हुई। हमसे हमारे कम्युनिस्ट मित्रों ने कहा कि उनको वास्तव में अलग-अलग इंडस्ट्रीज का तो अनुभव था किंतु यह जो एक व्यापक (Comprehensive) और सामूहिक (Collective) दृश्य है, वह उनके सामने पहली बार 26 सितंबर के कारण आया। उन्होंने कहा कि पहली बार यह बात हमारे सामने सशक्त और प्रभावी ढंग से आई है कि भारतीय मजदूर संघ एक ऐसा अकेला केंद्रीय श्रम संगठन है जिससे संबद्ध महासंघ (Affiliated federations) पी. एंड टी., रेलवे और डिफेंस आदि केंद्रीय सरकार के अन्यान्य क्षेत्रों में हैं।

इतने महासंघ केंद्रीय सरकार के क्षेत्र में न ऐटक के हैं, न सीटू के और न हिंद मजदूर सभा के। यह एक विशेष बात थी। यह तथ्य तो था ही, लेकिन यह किसी के ध्यान में नहीं आता था। वह सरकार के ध्यान में आया, कम्युनिस्ट-सोशलिस्टों के ध्यान में आया, केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों के ध्यान में आया। केंद्रीय सरकार के क्षेत्र में इस तरह ज्यादा से ज्यादा संबद्ध महासंघ केवल भारतीय मजदूर संघ के ही हैं, इस बात को मान्यता देना, यह केंद्रीय हस्तक्षेप (Central Intervention) का अर्थ होता है। सेंट्रल इंटरवेंशन केवल माँग के साथ जुड़ा हुआ नहीं है, केवल इंटरवेंशन से माँग पूरी होने वाली है, ऐसा भी हम नहीं मानते लेकिन हमारे सामने सवाल यह था कि प्रथम बार सरकार ने यह तथ्य माना - हमें मान्यता दी। इससे जनमानस में, कर्मचारियों के मन में, सरकारी अधिकारियों के मन में, कम्युनिस्टों और सोशिलिस्टों के मन में यह बात एक प्रकार से सर्वज्ञात तथ्य हो गई कि केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों में सर्वव्यापी संगठन रखने वाला केवल भारतीय मजदूर संघ है।

यहाँ एक बात ध्यान देने की और है। अनुरोध (Appeal) को अस्वीकार कर देते हैं तो जैसे कुछ लोगों ने कहा कि साहब आखिर तक क्यों नहीं लड़े, शायद उनको पता नहीं कि कांसिलिएशन शुरू होने के बाद अवैध हुए बिना हड़ताल हो नहीं सकती। लेकिन यह महत्त्व की बात नहीं। यदि हमने हड़ताल करने का सोचा ही होता तो वैध-अवैध का सवाल नहीं था। ताकत के सहारे अवैध को वैध बनाया जा सकता है। वे भी तिकड़मबाजी से हजार सही-गलत बातें करते हैं। हमारा तो गलत कुछ नहीं था, सब सही था। तो वह बात नहीं थी। लेकिन टैक्निकल एडवांटेज, स्ट्राटेजिक एडवांटेज तो लेना ही चाहिए, खासकर जिनके साथ हमारा मुकाबला है, जैसे कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों के साथ। केंद्रीय श्रम मंत्रालय की मध्यस्थता के कारण हमने उनसे अधिक अंक प्राप्त कर लिए (We have scored big point over them)।

मध्यस्थता के पहले हम लोगों से पूछा भी गया था कि इस विषय में आप कुछ सोचेंगे तो हम मध्यस्थता करेंगे, नहीं तो हमारी भी बेइज्जती हो जाएगी। हमने भी सोच-समझकर कहा कि मध्यस्थता तो कर सकते हैं लेकिन आप जो कह रहे हैं वह मानना या न मानना हमारे फेडरेशन के लोगों पर ही निर्भर होगा। इसलिए डिफेंस, पी. एंड टी., रेलवे सभी के पदाधिकारियों की संयुक्त बैठक 20 तारीख से दिल्ली में बुलाई गई थी ताकि समय पर यदि कुछ बात आए तो उस पर हम लोग विचार कर सकें।

मध्यस्थता की बात आने पर यही सोचा गया कि इसके कारण कुल मिलाकर भारतीय मजदूर संघ को लाभ और भारतीय मजदूर संघ का नेतृत्व स्थापित होने से ही मजदूरों का आगे कल्याण हो सकता है। क्योंकि अपना काम तो केवल अपने सिद्धांतों के अनुसार रहेगा। आगे का यह रास्ता प्रशस्त करने का कार्य श्रम मंत्रालय की मध्यस्थता ने किया है और इस कारण आपकी धाक केंद्रीय सरकारी क्षेत्र में बढ़ी है। कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट भी आपका लोहा मानने लगे हैं। यह बहुत बड़ी बात हुई।

यह बात ठीक है कि नागपुर में बातचीत के दौरान यह आया था कि हम कभी भी हड़ताल वापस नहीं लेंगे। लेकिन कुल मिलाकर जब स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन आ गया तो हमने यह निर्णय लिया। जब श्रम मंत्रालय को फोन करके यह बताने का निर्णय किया गया कि हड़ताल 'समाप्त' (Drop) करना वार्ता न स्वीकार करके हम हड़ताल को आगे बढ़ाने, 'विलम्बित' (Defer) करने की घोषणा कर सकते हैं तो उस समय मैंने वहाँ उपस्थित वरिष्ठ कार्यकर्ताओं से कहा था कि नागपुर का वायुमंडल जिस तरह का बना था उसे देखते हुए आप अगर यह घोषणा करेंगे तो कई कार्यकर्ता सख्त नाराज हो जाएँगे। आपस की बातचीत में वहाँ का वायुमंडल बहुत गरम हो गया था। किंतु जब कोई बात सोचनी पड़ती है तो कुल मिलाकर ही सोचा जाता है - कर्मचारियों, मजदूरों और संख्या का अधिक से अधिक लाभ किसमें है।

श्रम मंत्रालय को सूचित करने के पूर्व कुछ वरिष्ठ कार्यकर्ताओं का नाम लेकर उनकी नाराजगी का उल्लेख भी मैंने किया था। यह आपके पदाधिकारी आपको बता सकते हैं। अपना नेतृत्व हवा में चलने वाला नहीं है। यद्यपि आपकी हमारी बार-बार, हर समय मुलाकात नहीं होती तो भी कहाँ क्या चल रहा है, कौन क्या सोच रहा है, हम इसकी खबर रखते हैं। इसलिए मैंने कहा था कि इस क्षेत्र में आपको थोड़ा कष्ट होने वाला है किंतु कुल मिलाकर इसके कारण बहुत लाभ हुआ है। इस वार्ता से क्या होगा और माँगों का क्या होगा, केवल इतनी बात नहीं है। बात इससे बहुत भिन्न हैं। अब सरकार की मानसिकता भिन्न है। जहाँ हम कमजोर हैं वहाँ हमारी, अन्य लोगों की, सरकार की, मैंनेजमेंट की मानसिकता भिन्न है।

यह स्वाभाविक है कि जब अखिल भारतीय स्तर पर कोई निर्णय करना पड़ता है तो कुल मिलाकर सोचते समय निर्णय यदि कमजोर इकाई के अनुकूल रहा, तो जहाँ हमारी मजबूत इकाई है वह सोचेगी कि यह उसके लिए बहुत खराब पोजीशन में डालने वाला और इम्ब्रेसिंग निर्णय हुआ है। और जब निर्णय मजबूत इकाई के अनुकूल होगा तो कमजोर इकाई वाले कहेंगे कि उनको हमने आफत में डाल दिया। दोनों प्रकार के कर्मचारी अपने अनुकूल अनुभव करें ऐसा कोई निर्णय नहीं हो सकता। अखिल भारतीय स्तर का जो निर्णय होगा वह एक-एक केंद्र और इकाई का विचार करके नहीं, कुल मिलाकर विचार करके ही किया जा सकेगा। अखिल भारतीय स्तर का निर्णय प्रत्येक यूनिट का प्रत्येक कार्यकर्ता समझ सकेगा, यह भी आवश्यक नहीं है।

एक उदाहरण देता हूँ पहाड़ी पर चढ़ने का। जब पहाड़ी पर चढ़ना शुरू करते हैं और इधर-उधर देखते हैं तो कुछ परिसर दृष्टिपथ में आता है, जैसे-जैसे ऊपर चढ़ते हैं उससे ज्यादा परिसर हमारे दृष्टिपथ में आता है। जब पहाड़ी की चोटी पर पहुँचते हैं तो और भी ज्यादा परिसर हमारे दृष्टिपथ में आता है। ऐसा नहीं है कि उस समय हमारी आँख की रोशनी पहले से ज्यादा अच्छी हो जाती है। आँख की रोशनी वही रहती है, दृश्य स्पष्ट हो जाता है। इसी प्रकार काम करते-करते कार्यकर्ताओं की समझ और दृष्टि व्यापक एवं स्पष्ट होती जाती है। अब आपकी पोजीशन बन गई है। आपको प्रतिष्ठा (Prestige) प्राप्त हो गई है। इसका लाभ उठाकर केंद्रीय कर्मचारियों के कल्याण का आगे का मार्ग प्रशस्त करना अब अधिक संभव होगा, जो आज तक संभव नहीं था। यह टेक्नीकल स्ट्राटेजिकल लाभ हमें मिला है। 26 सितंबर की हड़ताल के विषय में इतनी बात पर्याप्त है।

पूना के अपने अभ्यास वर्ग के उद्घाटन भाषण में मैंने एक बात कही थी। उसे पुनः स्मरण कराना चाहता हूँ। इसका संबंध 26 सितंबर की हड़ताल वाले प्रकरण से नहीं है। हमेशा के लिए फिर से स्मरण रखें, इसलिए उसे दोहराता हूँ। उसमें मैंने यह कहा था कि हम समझ लें कि जहाँ ऑल इंडिया फेडरेशन हैं वहाँ कोई भी निर्णय ऐसा नहीं हो सकता जो कि सभी शाखाओं के अनुकूल हो। मैं इसे दोहराना चाहता हूँ कि सभी शाखाओं के अनुकूल निर्णय होना असंभव है। उस कार्य में कम से कम दस-बारह साल लग सकते हैं। दस-बारह साल बाद हम ऐसे निर्णय ले सकेंगे जो सबके लिए अनुकूल हों।

इसका कारण यह है कि हमारे हर एक फेडरेशन में हालत ऐसी है कि कुछ केंद्रों में हम शक्तिशाली हैं व कुछ केंद्रों में कमजोर हैं। जहाँ हम मजबूत हैं वहाँ हमारी व अन्य लोगों की मानसिकता भिन्न है। मैंनेजमेंट की चोटी पर से ऐसा भी परिसर दिखता है जो नीचे से नहीं दिखता। अतएव इकाई स्तर (Branch level) पर हर एक बात हम एकदम समझ सकेंगे, ऐसा नहीं है। लेकिन जैसा मैंने कल कहा कि हम केवल युनियनबाज (Union minded) नहीं हैं, हम भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ता हैं और उसके माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप में हम यूनियन के कार्यकर्ता हैं। यदि हमारा यह भा. म. सं. मानस रहा तो चाहे हम कमजोर केंद्र के हों चाहे मजबूत केंद्र के, जब अपने प्रतिकूल निर्णय आएँगे तो हम उस समय विचलित नहीं होंगे। समझ जाएँगे कि आगे का सोचकर कुछ लोगों के लिए तकलीफ देने वाला यह निर्णय हुआ है।

प्रत्येक संगठन में कुछ सिद्धांत अपरिवर्तनीय होते हैं, बाकी व्यावहारिक। हम लोग अपने सिद्धांतों के प्रकाश में सोचते हैं, और सोच-विचार करते हुए लोकतांत्रिक ढंग से निर्णय करते हैं। सबके साथ बात करना आवश्यक है। अपनी बात समझाना एक स्वस्थ प्रक्रिया है। भारतीय मजदूर संघ कोई एक व्यक्ति या पाँच व्यक्ति या केवल कार्यकारिणी ही नहीं है। हम सब मिलकर ही भारतीय मजदूर संघ हैं।

प्रश्न - इस शिक्षण शिविर में भारतीय मजदूर संघ से संबंधित यूनियनों के आम सदस्यों को आमंत्रित क्यों नहीं किया गया? प्रमुख कार्यकर्ता ही शिक्षण शिविर में सम्मिलित होते हैं, ऐसा क्यों है?

उत्तर - यह प्रमुख कार्यकर्ताओं का ही सम्मेलन है और इसलिए आम सदस्यों को नहीं बुलाया गया, यह स्पष्ट है। किंतु इस विषय में मात्र इतना ही बोलना पर्याप्त नहीं होगा। हम जानते हैं कि भारतीय मजदूर संघ एक परिवार है, लेकिन साथ ही यह व्यावहारिक बात भी हम जानते दें कि अपना काम जगह-जगह बढ़ रहा है और नई-नयी यूनियनें शुरू हो रही है व नए-नए सदस्य बन रहे हैं। एकदम नए सदस्य की मानसिकता भा. म. सं. की होगी, यह कहना बड़ा कठिन है। अनुभव ऐसा है कि जहाँ नई यूनियन शुरू होती है उसमें कहीं कुछ लोग इंटक से आते हैं, कुछ ऐटक से आते हैं। वे अपनी पुरानी यूनियनों की मन:स्थिति को लेकर हमारी यूनियन में आते हैं। उनमें कई लोग ऐसे भी होते हैं जो शरीर से तो भारतीय मजदूर संघ में शामिल हो जाते हैं किंतु उनका मन, उनके सोचने का ढंग सब कुछ वही पुराना होता है।

इस प्रकार के लोग भारतीय मजदूर संघ के परिवार में आने के बाद पूरी तरह आत्मसात् हो जायँ, उनकी रीति-नीति और विचार का ढंग हम भी आत्मसात् करने का प्रयत्न करें। मानसिक दृष्टि से भारतीय मजदूर संघ के साथ जो लोग समरस नहीं हो सके हैं उनके बारे में ऐसा सोचा गया कि उन्हें अभी न बुलाया जाए। जो वास्तव में जिम्मेदार हैं, ऐसे प्रमुख कार्यकर्ताओं को यहाँ बुलाया गया है। इसे और अधिक स्पष्टता से कहा जाए तो रेलगाड़ी का उदाहरण अच्छा रहेगा। रेलगाड़ी में एक इंजिन होता है बाकी डिब्बे। सभी को दिल्ली से बंबई जाना है। केवल बंबई पहुँचना है यह सोचकर सब पैसेंजर उसमें नहीं बैठते। यद्यपि सभी एक ही ट्रेन में बैठे हुए होते हैं, लेकिन सभी यात्रियों का उद्देश्य बंबई पहुँचना ही नहीं होता या वे यह नहीं सोचते कि उन्हें गाड़ी को बंबई पहुँचाना है। लेकिन ड्राइवर और गार्ड का उद्देश्य एक ही रहता है कि गाड़ी को बंबई पहुँचाना है।

ट्रेन में बैठे हुए यात्रियों में कोई शादी के लिए जाते होंगे, कोई दोस्तों को मिलने जाते होंगे, कोई अपना पैसा वसूल करने जाते होंगे। सबका अपना अलग-अलग उद्देश्य होता है, लेकिन सभी एक ही ट्रेन में जा रहे होते हैं। एक ही गाड़ी में सवार लोगों का उद्देश्य एक नहीं होता, लेकिन गाड़ी के ड्राइवर व गार्ड का उद्देश्य एक ही होता है - बंबई पहुँचना। वे गाड़ी में इसलिए नहीं जा रहे होते कि वहाँ कोई खरीदारी करना है या कुछ बेचना है। उसी प्रकार संगठन की ट्रेन को अंतिम गंतव्य स्थान तक पहुँचाने का विशुद्ध ध्येय जिनके मन में है, ऐसे कार्यकर्ताओं को यहाँ बुलाया है। बाकी के लोग (पैसेंजर) भी ड्राइवर व गार्ड की पोजीशन में आ जाएँ, इसलिए अलग-अलग स्तर पर हम अभ्यास वर्ग लगाते हैं।

मैं मोक्ष की कामना नहीं करता

प्रश्न - यह कहा गया कि हमारा गंतव्य स्थान मोक्ष है। किंतु स्वामी विवेकानंद ने कहा कि जब तक इस देश का कुत्ता भी भूखा होगा, मैं मोक्ष की कामना नहीं करता। इसी प्रकार से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आद्य सरसंघचालक पूजनीय डॉ. हेडगेवार ने पूजनीय श्री गुरुजी की जीवन की दिशा बदल दी कि समाज का कार्य करो व मोक्ष की कामना छोड़ो। इन दोनों बातों का हम कैसे तालमेल बिठाते हैं?

उत्तर - जिन महापुरुषों का नाम लिया गया है वे परम सुख की साधना करने वाले अत्यंत श्रेष्ठ पुरुष हैं। ऐसे और भी महापुरुष हैं। इस प्रकार के श्रेष्ठ पुरुषों का यह कहना कि मैं जब तक लोगों का दु:ख दूर नहीं करता या जब तक ध्येय सिद्ध नहीं होता, तब तक मुझे परमसुख भी नहीं चाहिए। यह उनके व्यक्तिगत बड़प्पन का परिचायक है। परम सुख के ध्येय या गंतव्य का स्थान में इस बात से कोई बाधा नहीं आती। इसमें इतना ही दिखाई देता है कि ऐसे लोग भी हैं कि यदि ध्येय सिद्ध न होता हो तो उन्हें परम सुख भी नहीं चाहिए। संत तुकाराम जी की यह वाणी बहुत प्रसिद्ध है - नको मुक्ति, धनसंपदा , संत संगति देयी सदा।

उन्होंने कहा कि मुझे केवल संत लोगों की संगति दीजिए, मैं मोक्ष नहीं चाहता। ऐसे श्रेष्ठ पुरुषों की अपने यहाँ कमी नहीं है जिनकी यह मान्यता रही है। लेकिन इस संदर्भ में इतना ध्यान में रखना जरूरी है कि तात्कालिक सुख का मन पर परिणाम होता है। इसलिए मन में यह विचार भी आ सकता है कि आज जो गड़बड़ करना है वह तो करने दीजिए, मोक्ष वगैरह की बात बाद में देखेंगे। ऐसे लोगों के लिए सेंट ने ठीक प्रार्थना बतायी - 'Lord, make me good but not yet.'

भगवान, मुझे अच्छा बनाओ, लेकिन तुरंत मत बनाओ, थोड़ा रुक जाओ, मेरे और भी कुछ काम बाकी हैं। वह हो जाने के बाद मुझे अच्छा बनाओ। यह सेंट की बड़ी प्रसिद्ध प्रार्थना है। किंतु जिन श्रेष्ठ महापुरुषों का उल्लेख किया गया, वे इतने श्रेष्ठ हैं कि वे परम सुख को भी नहीं चाहते। एक अच्छा कवि फ्रास्ट हआ है। उसकी कविता जवाहरलाल जी हमेशा अपने टेबल पर रखते थे। उसने लिखा है -

Woods are lovely dark and deep,

But I have promises to keep,

Miles to go before I sleep,

And miles to go before I sleep.

स्वामी विवेकानंद, डॉ. जी के व गुरुजी के इस तरह के उदाहरण हैं।

कार्यकर्ता निर्माण

प्रश्न - हम लोग कार्यकर्ता निर्माण पर बहुत जोर देते हैं यह उचित ही है। किंतु आजकल प्रचार का युग है और प्रभाव स्थापित करने के लिए प्रचार एक सशक्त माध्यम है। हमारा इधर दुर्लक्ष्य है। ऐसा क्यों?

उत्तर - कुछ कैलेंडरों में चित्र की रचना ऐसी रहती है कि ऊपर किसी सुंदर दृश्य का चित्रण और नीचे के पानी में उसका प्रतिबिंब। जैसे ऊपर ताजमहज नीचे उसका का प्रतिबिम्ब होता है। यही दृश्य कार्यकर्ता व कार्यक्षेत्र में देखने में आता है। जो अच्छा कलाकार होता है उसने ऊपर का ताजमहल देख लिया तो पानी में उसके प्रतिबिंब का सहज ही अनुमान वह लगा सकता है। या केवल पानी में प्रतिबिम्ब देखकर ऊपर का ताजमहल कैसा होगा, उसकी भी कल्पना वह कर सकता है। इसी प्रकार जो संगठन शास्त्र का जानकार आदमी है वह कार्यकर्ता को देखकर उसके कार्यक्षेत्र के गुण-दोष क्या हैं, यह समझ सकता है। यानी कार्यकर्ता को देखकर कार्यक्षेत्र का, और कार्यक्षेत्र को देखकर कार्यकर्ता के गुण-दोष का अनुमान लगाया जा सकता है। कार्यकर्ता को बिना देखे भी यदि कार्यक्षेत्र का दौरा किया तो कार्यकर्ता का स्वभाव क्या होगा, इसका अंदाजा आ जाता है। इस तरह से कार्यकर्ता व कार्यक्षेत्र का अन्योन्याश्रित संबंध है। जैसा कार्यकर्ता होगा उसी का प्रतिबिंब कार्यक्षेत्र में होता है।

कार्यकर्ताओं के बारे में जितना आग्रह भारतीय मजदूर संघ में है उतना शायद किसी भी केंद्रीय श्रम संगठन में नहीं है। 1977 में कोटा में भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ताओं का एक स्वाध्याय वर्ग लगा था। उसमें इस विषय पर विचार सुनने के बाद सीटू से टूटकर आए एक सज्जन पूछने लगे कि कार्यकर्ता के बारे में आप लोग इतना आग्रह क्यों करते हैं। कार्यकर्ता तो सदा कार्यकर्ता ही रहता है। हमने कहा कि ऐसा नहीं है। अपने यहाँ का कार्यकर्ता अच्छा बना रहे, सदैव इसका आग्रह रहता है। इस कारण कार्यक्षेत्र स्वतः अच्छा होता है। लेकिन इस सबके बावजूद व्यक्तियों का अपना-अपना स्वभाव होता है, अलग-अलग टेम्परामेंट होता है। हमारे एक अच्छे मित्र हैं। वे मजदूर संघ के नहीं हैं। अन्य क्षेत्र में काम करते हैं। नेता आदमी हैं। उनका अपना स्वभाव है। एकदम किसी को कुछ बोल देना और कहना कि मैं तो मुँहफट हूँ, जो मेरे दिल में है वही मेरे मुँह में है, मैं दोहरापन (Double dealing) नहीं जानता। ऐसे लोगों के मन में अनजाने में यह भावना रहती है कि मैं जो हूँ सो हूँ। मेरा उपयोग करना है तो कर लो, नहीं तो छोड़ दो। मुझमें कोई परिवर्तन कैसे हो सकता है। वे ठीक पायदान की तरह होते हैं। पायदान पर कभी-कभी ऐसा लिखा होता है, 'यूज मी' (Use me)। मैं जैसा हूँ वैसा मेरा उपयोग करो। पायदान कहता है कि मैं तो ऐसा ही रहने वाला हूँ। मेरे में कोई सुधार होने वाला नहीं है। यदि आपको उपयोग करना है तो कर लीजिए, नहीं करना है तो छोड़ दीजिए। ऐसा ही कभी-कभी अनजाने में बहुत प्रामाणिक होते हुए भी कुछ लोग कहते हैं। उनमें प्रामाणिकता का अभाव नहीं होता लेकिन मन में यह बना रहता है कि मेरा जो और जैसा स्वभाव है वह है, इसमें बदलाव नहीं आ सकता। वे यह नहीं समझते कि हम पायदान नहीं है।

इसमें दो तरह के लोग हमने देखे हैं। एक तो ऐसे हैं कि जो घोर आलसी होते हैं, किंतु प्रामाणिक हैं, इसलिए कहते हैं कि काम करने की इच्छा नहीं है। इन लोगों का विचार तो छोड़ ही देना पड़ता है। उन्हें तो कार्यकर्ता प्रामाणिक होते हुए भी ऐसी बातें करते हैं। इसका कारण एक ही है कि वे बहुत ही सीधे और सरल स्वभाव के होते हैं। वे अपने अंदर परिवर्तन लाने से केवल आलस्य के कारण इनकार करते हैं, ऐसा नहीं। उनके सोचने का एक अलग ढंग होता है।

एक उदाहरण देता हूँ। हमारे एक मित्र हैं। हम दोनों मिलकर किसी कनिष्ठ कार्यकर्ता से बात करने गए। इसको समझाना था। मैं उसके साथ बात कर रहा था। मैं बोल रहा था, दूसरा आदमी जवाब दे रहा था। फिर मैं जो कुछ पूछता था तो वह बार-बार अपनी एक ही बात दोहरा देता था। कुछ लोगों की आदत होती है कि वे एक ही बात बार-बार बोलते हैं। उस कार्यकर्ता की भी वही आदत थी। उसके तीन-चार बार एक ही बात बोलने के बाद भी मैं सुन रहा था। किंतु मेरे मित्र का धैर्य टूट गया। उन्होंने कहा कि दत्तोपंत, इसके साथ बात करने में कोई अर्थ नहीं है, चलो। और फिर उसका नाम लेकर कहा कि 'आप पहले दर्जे के मूर्ख हैं।' सारा मामला बिगड़ गया।

हम घर वापस आ गए। घर आने के बाद मैंने उनसे कहा कि आपने उसको पहले दर्जे का मूर्ख क्यों कहा? वे बोले, "दत्तोपंत, आप मुझे सिखा रहे हैं। मैं आपको अच्छी तरह जानता हूँ।' मैंने कहा कि, "क्या बात हुई?" उसने कहा, "जो मेरे मन में है वही आपके मन में भी है। अंतर मात्र इतना ही है, मैंने कह दिया कि वह मूर्ख है, आपने कहा नहीं!" फिर वे बोले, "बात यह है कि मैं स्पष्ट वक्ता हूँ, आप पाखंडी हैं।"

यह सुनने के बाद मैं उन्हें कैसे समझाता। मन में एक बौद्धिक वर्ग तैयार था, लेकिन जब उन्होंने कहा कि वे स्पष्ट वक्ता और मैं पाखंडी हूँ, मेरा तो बौद्धिक वर्ग वैसे ही खत्म हो गया। मैं क्या बोलता? ऐसे स्वभाव के लोग ऐसा सोचते हैं कि हमारे अंदर तो अब परिवर्तन होने वाला नहीं। हम तो स्पष्ट वक्ता है। ऐसी स्थिति में उनका कोई इलाज ही नहीं रहता। यह बीमारी ही ऐसी है कि इसकी कोई दवा नहीं है।

कार्यकर्ता को स्वयं सोचना चाहिए कि यह ठीक है क्या? यह स्वभाव एक बड़े अहंकार का विषय हो सकता है कि मैं बड़ा स्पष्ट वक्ता हूँ, किसी से डरता नहीं। कई लोग ऐसा भी कहते हैं कि "हम भी मनुष्य हैं, गुस्सा आना तो स्वाभाविक ही है।" अरे भाई, गुस्सा होना मनुष्य सुलभ स्वभाव होगा। मनुष्य हैं इस नाते यह सारी बातें आपके अंदर आती हैं तो उसमें कोई आपत्ति और दोष नहीं, किंतु फिर आपको यह आशा नहीं करनी चाहिए कि दस लोग आपका अनुसरण करें या दस लोग आपको नेता या कार्यकर्ता के रूप में स्वीकार करें। फिर आप वैसे ही रहिये जैसे बाकी के दस लोग रहते हैं। लेकिन यदि आप दस लोगों का नेतृत्व करना चाहते हैं तो फिर यह नहीं चलेगा कि यह तो मनुष्य स्वभाव सुलभ बात है। जे. कृष्णमूर्ति की एक कविता है। पहाड़ी की चोटी पर स्थित एक पेड़ का उल्लेख करते हुए वह कहते हैं -

Stand alone,

Like a solitary tree on the mountain,

We want a tree stand alone.

तुम अकेले खड़े रहो। सुख आएगा, दुःख आएगा। निराशा आएगी, आशा आएगी। किसी के साथ उन सबका बँटवारा न करते हुए सबको हजम करते हुए अकेले खड़े रहो। पर्वत की चोटी पर पेड़ की तरह अकेले खड़े रहो। जो चोटी पर अकेला ही खड़ा रह सकता है वही कोई बड़ा काम कर सकता है। अकेलापन बड़प्पन की कीमत है। यह कीमत देना यदि संभव नहीं तो नीचे की तराई में जो हजारों पेड़ हैं उनके साथ रहो, लेकिन यह आशा मत करो कि चोटी के एक मात्र पेड़ में हमारी गिनती होगी। यदि नेतृत्व करना है, कार्यकर्ता के रूप में रहना है तो उसकी कुछ कीमत भी चुकानी पड़ती है।

आजकल का दिमाग इसके कुछ विपरीत है। कुछ लोग ऐसा सोचते हैं, खासकर उस क्षेत्र के लोग, जिस क्षेत्र में राजनीतिकरण (Politicalisation) बहुत हुआ है। वास्तव में पालिटिकलाइजेशन यह शब्द उतना उपयुक्त नहीं है, पालिसाइजेशन (Policisation) शब्द ज्यादा ठीक है, किंतु पालिटिकलाइजेशन शब्द चल पड़ा है। लोग समझते हैं कि इस सबकी कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि स्वयं अपने को ठीक करना बड़े कष्ट का काम होता है। लोगों को दुरुस्त करने के लिए उपदेश देना बहुत सरल है। लेकिन जहाँ पालिटिकलाइजेशन ज्यादा है वहाँ लोग सोचते हैं कि इतने कष्ट किसलिए उठाये जाएँ। प्रभाव जमाने वाला व्यवहार रखने से ही काम चल जाएगा। मौका पड़ने पर लच्छेदार भाषण या अच्छा संभाषण करने से लोगों पर प्रभाव जम जाएगा। नेतृत्व प्राप्त हो जाएगा। अपने अंदर गुणों का विकास करने का कष्ट उठाने की क्या आवश्यकता है? यह सब कौन करेगा? इसलिए वे सोचते हैं कि कोई कीमत न देना पड़े और लोग आसानी से नेतृत्व स्वीकार कर लें, अनुगामी बन जाएँ।

कहते हैं कि राजनीति में यह सब चलता है। नेता कैसा भी रहे, मंच पर आकर लच्छेदार भाषण दे सके तो उसकी जय-जयकार होती है। लोग यह नहीं सोचते हैं कि भाषण का स्वरूप क्या है, और क्या यह केवल मनोरंजन करने वाला भाषण है। वहाँ तालियाँ बजती होंगी। किंतु जिस भाषण के कारण लोग आत्मसमर्पण और त्याग करने को तैयार नहीं होते, क्या उस भाषण को प्रभावी कहा जा सकता है? क्या उसको प्रेरणादायक कहा जाए? यदि ऐसा नहीं तो तीन घण्टा सिनेमा देखने में और नेताजी का भाषण सुनने में क्या अंतर है? इस प्रकार के भाषणों में लोग प्रेरणा लेने नहीं, मनोरंजन करने आते हैं। और राजनीतिक लोग समझते हैं कि प्रभाव जमाने वाला हिसाब-किताब करने मात्र से उनका नेतृत्व स्थापित हो जाएगा।

अपनी छवि चमकाने का काम करेंगे, लेकिन खुद को अच्छा बनाने का काम नहीं करेंगे, क्योंकि उसमें कष्ट होता है। जब लोगों को नजदीक फटकने नहीं देंगे तो वे गुण-दोष जानेंगे ही क्यों? कार्यकर्ता ज्यादा नजदीक रहेगा तो गुण-दोष उसकी समझ में आएँगे। उसको भी नजदीक फटकने नहीं देंगे। वह केवल पब्लिक प्लेटफार्म पर ही आएगा। व्यक्तिगत चारित्र्य और गुण-दोष क्या है, किसी को पता ही नहीं चलेगा। वह सोचता है कि अपने सभी दोषों को यदि वह छिपा सकता है तो क्या वजह है कि उसका इम्प्रेशन खराब हो। यह बहुत ही सस्ता विचार आजकल लोगों के दिमाग में बैठा हुआ है।

प्रभाव जमाने के लिए छोटे-छोटे हथकंडे भी अपनाए जाते हैं। हमारे मजदूर क्षेत्र में भी कुछ लोग उसका इस्तेमाल करते हैं। उत्तर प्रदेश में एक बड़ा शहर है। वहाँ के एक बड़े नेता हैं। वह इस तरह के बहुत बड़े हथकंडेबाज हैं। तत्काल अपना इंप्रेशन जमा देते हैं। लेकिन वह यह नहीं जानते कि इस प्रकार की बनाई हुई सतही छवि थोड़े समय के लिए तो चल सकती है, लंबे समय तक नहीं चलती।

वे चुनाव जीतकर संसद् सदस्य हो गए। उनके वहाँ कई फैक्ट्रियाँ हैं, जहाँ वह नेता हैं। एक दिन उनके घर पर फोन खटखटाया। एक फैक्टरी में कुछ गड़बड़ हो गई थी। फैक्टरी के दरवाजे पर मजदूर इकट्ठा हो गए थे। फोन पर सूचना मिली, तुरंत चले गए। मजदूरों की मीटिंग में भाषण किया - "भाइयों, वास्तव में मेरे लिए यहाँ आना बहुत कठिन था। मेरी माताजी की आज सुबह मृत्यु हो गई। उनका शव आँगन में पड़ा हुआ है। मेरे सारे रिश्तेदार व पड़ोसी वगैरह आए हुए हैं। वे यह कह रहे थे कि पहले शवदाह करिये, फिर कहीं जाइए। मैंने कहा, "नहीं माताजी का शव तो राह देख सकता है, लेकिन मेरा मजदूर इस समय दु:ख-दर्द में है, मैं राह नहीं देख सकता। मैं जाऊँगा।" सचमुच नेता हो तो ऐसा हो। खूब तालियाँ बजीं। उस दिन उस फैक्टरी में कुछ खटपट हो गई थी। यह समाचार सुनने के बाद उसी इंडस्ट्री की चार-पाँच फैक्टरी के कुछ प्रमुख लोग भी साइकिल वगैरह के साथ वहाँ आ गए थे। ज्यादा नहीं, पंद्रह-बीस रहे होंगे। उन्होंने भी भाषण सुना और अच्छा प्रभाव लेकर गए।

छवि निर्माण (इमेज बिल्डिंग)

ये जो छवि बनाने (Image building) वाले लोग होते हैं।, कभी-कभी उनकी स्थिति बड़ी विचित्र हो जाती है। उन्हें शायद इस विचार सूत्र का पता नहीं होता कि गुनाह करने वाला आदमी एक बार गुनाह करता है और जब वह हज्म हो जाता है तो उसका हौसला भी बढ़ जाता है। फिर ज्यादा हौसले के साथ दूसरी बार और बड़ा गुनाह करता है। और फिर और हौसला बढ़ता है तो उससे भी बड़ा गुनाह करता है। हौसला बढ़ने के साथ-साथ उसकी सावधानी कम होती जाती है। फिर कुछ न कुछ सुराग वह छोड़ देता है और इस असावधानी के कारण वह पकड़ा जाता है। उन्हें शायद इसका पता नहीं था। महीने के बाद वह एक बार फिर दिल्ली से आए और उसी इंडस्ट्री की किसी दूसरी फैक्टरी में फिर गड़बड़ हो गई। वे फिर वहाँ पहुँच गए और यह भूल गए कि उन्होंने पहले क्या भाषण दिया था। वहाँ उनका भाषण शुरू हुआ। वही पुराना रिकार्ड लगाया। बोले, "भाइयों, मेरी माँ की आज मृत्यु हो गई। लोगों ने कहा, कहाँ जाते हो? मैंने यह कहा कि मजदूर दुःख में है, मैं राह नहीं देख सकता। माता का शव आँगन में पड़ा है और मैं चला आया", वगैरह-वगैरह। पहले वाले भाषण में जो दस-पंद्रह लोग साइकिल से आए थे, वे भी इस मीटिंग में उपस्थित थे। लोगों ने तालियाँ तो बजायीं, लेकिन बाद में पूछा कि इनके पिताजी ने क्या दो बार शादी की थी? एक माता की मृत्यु महीने भर पहले हुई, दूसरी माता की मृत्यु आज हुई, क्या बात है? भंडाफोड़ हो गया। जो लोग यह समझते हैं कि तिकड़मबाजी से प्रभाव जमा लेंगे, उनका ऐसा ही होता है।

इसी प्रकार का एक दूसरे नेता का उदाहरण भी है। मैं उस समय राज्यसभा सदस्य था। उन्होंने अपने घर वालों को निर्देश दे रखा था कि उनके चुनाव क्षेत्र का कोई भी संपर्क करे तो उसे समय दे देना। मजदूरों के दो ग्रुप अलग-अलग मामले लेकर आए। एक ग्रुप को उनकी पत्नी ने दो बजे का समय दे दिया, दूसरे को चार बजे का। सांसद महोदय संसद से 12.30 बजे घर आ गए। भोजन किया। आराम किया। घंटी बजी तो वे शयनकक्ष से सीधे दरवाजे पर नहीं आए। क्योंकि उन्होंने एक ऐसी प्रथा बनायी थी कि सोने के कमरे से भोजनालय होकर वे बाहर आते थे। भोजनालय में एक मेज पर एक थाली हमेशा खाली रहती थी, जिसमें दाल-चावल हमेशा रखा रहता था। वे भोजनालय की तरफ गए और दाल-चावल में हाथ फेरा, फिर दरवाजा खोला। दरवाजा खोलते ही बोले, आइए, आइए। उस ग्रुप के साथ बैठ गए। हाथ में दाल-चावल लगा हुआ था। इससे यह तो स्पष्ट ही था कि वे भोजन कर रहे थे। बेचारे मजदूर कहने लगे, नेताजी, आप पहले भोजन कर लीजिए, फिर बात करेंगे। वे बोले-नहीं, नहीं, आप इतनी दूर से आए हैं, मैं भोजन करने में क्यों आपका समय खराब करूँ। आप पहले अपनी बात बताइए। इससे मजदूरों पर बड़ा इम्प्रेशन पड़ा। बात कुछ ऐसी थी कि संसद जाकर सेक्रेटरी से बात करके उन्हें बताना था। शाम को उन मजदूरों को वापस जाना था। नेताजी ने कहा, ठीक है, आप लोग पाँच बजे आ जाइए। मैं अभी संसद जाऊँगा, सेक्रेटरी से बात करूँगा, और वे अंदर चले गए।

उसके बाद चार बजे वाला ग्रुप आया। तब तक वे सो रहे थे, जैसे ही घंटी बजी वे सोने के कमरे से उठे, सीधे भोजनालय गए, दाल-चावल में हाथ फेरा, फिर दरवाजा खोला। बोले, "आइए, आप लोग बैठिये। मैं अभी संसद से आया, बड़ा लंबा सेशन था। लेकिन कोई बात नहीं, आप बताइए क्या सेवा करूँ।" मजदूरों ने कहा, पहले आप भोजन तो कर लीजिए। वे बोले, नहीं-नहीं, पहले आपकी बात सुनेंगे। आप इतनी दूर से आए हैं। भोजन तो बाद में भी हो जाएगा। उस बार भी इंप्रेशन अच्छा पड़ा। यह बात हमारे ख्याल में इसलिए आई कि मैं उस समय एम. पी. कैंटीन में चाय के लिए बैठा था। जिनको उन्होंने पाँच बजे का समय दिया था, वे थोड़ा पहले आए थे। इसलिए समय बिताने के लिए कैंटीन में चाय पीने बैठ गए। मैं पास की दूसरी टेबल पर बैठा था। इतने में चार बजे वाला ग्रुप भी वहाँ आ गया। पहले वालों ने देखा तो पूछा, "क्यों भाई, तुम कब आए? - टेबल पर बैठ गए तो बातचीत में नेताजी की बात निकली। चार बजे वाले ग्रुप ने बताया, "साहब, इतने बड़े एम. पी. हैं, लेकिन इतनी मेहनत लेने वाला एम. पी. और कोई नहीं दिखाई देता। मजदूरों के बारे में उनके मन में बड़ी हमदर्दी है।" पहले वालों ने पूछा - "क्या हुआ?" वे बोले, "हम जब गए तो वे बेचारे भोजन कर रहे थे, अभी-अभी पार्लियामेण्ट से आए थे। उन्होंने भोजन भी पूरा नहीं किया व जूठे हाथ हमारी बात सुनने बैठ गए।" जब वे यह बात कह रहे थे उस समय दो बजे के ग्रुप वाले एक दूसरे की तरफ देखने लगे। बाद वालों ने पूछा, "बात क्या है, आप लोग इस तरह क्यों देख रहे हैं?" उन्होंने कहा, "अजीब बात है, जब हम दो बजे गए थे, तब भी वे पार्लियामेण्ट से आए थे और भोजन कर रहे थे। आप चार बजे गए तब भी भोजन कर रहे थे। दो-दो बार भोजन कैसे हो सकता है?" भंडाफोड़ हो गया।

एक अन्य नेताजी विदेश के दौरे पर गए। उनके बाद वहाँ मेरा दौरा हुआ। तब इस बात का पता चला कि वे वहाँ के भारतीय लोगों से मिले। देश के बारे में चर्चा हुई। वहाँ एक तकनीकी विशेषज्ञ थे, उन्होंने विकास की कोई योजना बतायी। नेताजी विशेषज्ञ तो नहीं थे, लेकिन उन्होंने बार-बार सवाल पूछकर वह स्कीम ठीक ढंग से समझ ली। वैसे वे बड़े नेता थे। उनको तिकड़मबाजी की कोई आवश्यकता नहीं थी। जिस देश में वे गए थे वहाँ के सभी भारतीय उनकी इज्जत करने के लिए बड़े उत्सुक थे। किंतु उन्हें छवि निर्माण की आदत लग गई थी।

जब वहाँ से वे दूसरे शहर में गए तो वहाँ के भारतीय लोग उनसे मिलने आए। बात करते-करते उन्होंने पहले स्थान के आदमी ने जो योजना समझायी थी उसे उन्होंने लोगों के सामने रखा और कहा कि 'मेरे मन में यह कल्पना आई कि ऐसी-ऐसी योजना रहे तो कैसा रहेगा? लोगों पर इसका बहुत बड़ा प्रभाव हुआ कि नेताजी कितने रचनात्मक नेता हैं। उन्हें टैक्नालॉजी का अच्छा ज्ञान है। उन्हें आठ-नौ जगह जाना था। सभी जगह इसी तरह का इम्प्रेशन हआ। लेकिन दौरा करते-करते वे भूल गए कि यह योजना उनको किसने बताई थी। हिंदुस्तान वापस आने के लिए उन्हें फिर से वहीं आना था, पहले जिनके यहाँ ठहरे थे। अपनी आदत के अनुसार बातचीत के दौरान उन्होंने उसी आदमी से कहा, "मेरे मन में एक कल्पना आई है। बताइए, आपकी इस पर क्या राय है?" और पूरी योजना उसके सामने पेश कर दी। बाद में जब मैं वहाँ गया तो मेरा उसी व्यक्ति के यहाँ निवास था। उसने मुझे पूरा विवरण बताया और कहा कि मुझे बहुत दुःख हुआ और गुस्सा भी आया कि इतने बड़े आदमी किसलिए इस तरह का व्यवहार करते हैं?

अतएव इमेज बिल्डिंग वाला मामला एक खतरनाक खेल है। एक तो यह सफल होता नहीं और सफल हो भी गया तो ज्यादा देर तक टिकता नहीं। जहाँ जीवन भर का अपना लंबा संबंध आता है वहाँ यह झूठी इमेज कैसे चलेगी? एक दिन का ही नेतृत्व करना है क्या? परसों अखबार में खबर आई कि एक चपरासी ने अपनी इमेज बिल्डिंग करके शादी की। जिस लड़की से उसे शादी करनी थी उसके रिश्तेदारों को बताया कि मैं बैंक में आफिसर हूँ। उन बेचारों को असलियत का पता नहीं, शादी हो गई। लेकिन बाद में असल बात का पता चला तो वहाँ झगड़ा हो गया। सब गड़बड़ हो गया, उसे छोड़कर भागना पड़ा।

अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव का यह अनुभव है कि वहाँ प्रचार संस्थाओं को ठेका दिया जाता है कि राष्ट्रपति उम्मीदवार की छवि निर्माण करो और तरह-तरह से छवि निर्माण की जाती है। लेकिन आधे से ज्यादा राष्ट्रपतियों के बारे में अनुभव यह है कि उनका कार्यकाल समाप्त होने से पहले ही उनकी छवि भी समाप्त हो गई। केवल छवि अच्छी करने से कार्य नहीं होता। जहाँ जीवन भर कार्य करना है वहाँ स्वयं को अच्छा बनाना पड़ेगा।

ऑलिवर कॉमवेल के मन में विचार आया कि अपना एक अच्छा चित्र बनवाना चाहिए। एक अच्छे कलाकार को बुलाया और कहा कि मेरा चित्र बनाओ। उन दिनों फोटो वगैरह निकालने की तकनीक नहीं थी। किंतु वह ऐसा कलाकार था जो एक बार देख लेने के पश्चात चित्र बना सकता था। किंतु उस कलाकार का प्राण संकट में पड़ गया। क्योंकि ऑलिवर कॉमवेल के चेहरे पर मस्सा था। उस मस्से के कारण उसका चेहरा बहुत ही कुरूप दिखाई देता था। वह चिंतित हो उठा कि इंग्लैंड के लार्ड प्रोटैक्टर यानी अधिनायक के चित्र में मस्सा आएगा तो चित्र बड़ा कुरूप दिखेगा और ऐसा कुरूप चित्र मैं उसको दिखाऊँगा तो वह मुझ पर गुस्सा हो जाएगा। कहीं फाँसी की सजा न दे दे। इसलिए अपनी सुरक्षा के लिए उसने चित्र में से मस्सा निकालकर कॉमवेल को भेंट किया तो उसने अपना वह प्रसिद्ध वाक्य कहा - "Worm and all that"। नहीं, नहीं, इस मस्से के साथ मेरा चित्र बनाओ। मैं जैसा हूँ वैसा ही चित्र में भी दिखाओ। उसमें कोई सुधार मत करो। जो आत्मविश्वासपूर्ण और हिम्मत वाले लोग रहते हैं वे ही कहते हैं कि मैं जैसा हूँ वैसा ही लोगों को दिखना चाहिए। बनाई हुई नकली इमेज ज्यादा नहीं चलती।

दूसरी बात भी ख्याल रखना आवश्यक है। जो लोग यह समझते हैं कि हम तिकड़मबाजी से प्रभाव जमाकर सफलता प्राप्त कर लेंगे, वे भ्रम में रहते हैं। यदि यह मान भी लिया जाए कि हम अपने दोष छिपाने में 100 प्रतिशत सफल हो गए तो भी भगवान के दरबार का न्याय ऐसा है कि वहाँ केवल लच्छेदार भाषण से प्रभाव नहीं हो सकता।

इस संदर्भ में एक बड़ी अच्छी घटना है। उमर नाम के एक खलीफा हो गए। वे बहुत ही उदार थे। उनके बारे में कहा जाता है कि कोई भी व्यक्ति जब चाहे उनके पास पहुँच जाता था। एक बार एक बुढ़िया अपने नाती को लेकर उनके पास आई। कहा कि यह बीमार है, हकीम ने इसको देखा है, दवाई दी है। कहा है कि मीठी चीज खाना बंद कर दे लेकिन यह हमारी बात मानता ही नहीं। आप इसे समझाइए कि मान जाए। उमर ने कहा - ठीक है, आप इसे पंद्रह दिन बाद ले आइए। बुढ़िया चली गई। पंद्रह दिन बाद फिर आई तो उमर ने कहा कि बेटा, मीठी चीज मत खाना। बच्चा बोला, ठीक है, नहीं खाऊँगा। बुढ़िया को आश्चर्य हुआ कि यदि यही एक वाक्य कहना था तो फिर इसके लिए पंद्रह दिन क्यों लगाये। उसके पूछने पर उमर ने कहा, "इसका कारण था कि जब तुम मीठी चीज न खाने की बात कर रही थीं उस समय मुझे भी मीठी चीज का चसका था। इस कारण मैं उस दिन इसको मीठा न खाने को कहता तो इस पर मेरी वाणी का प्रभाव न होता। मैंने पंद्रह दिन का समय इसलिए माँगा कि तब तक मीठा खाना छोड़ सकूँ। मैंने छोड़ दिया। अब यह मेरा कहना जरूर मान लेगा। इस पर मेरे कहने का प्रभाव जरूर होगा।"

हमारे जो भी गुण-दोष हैं, हम उन्हें छिपाने की कोशिश भले करें लेकिन उनका व्यवहार और वाणी पर अच्छा-बुरा सभी दृष्टि से प्रभाव होता है। मेरी आपसे प्रार्थना है कि शार्टकट अपनाते हुए इंप्रेशन जमाने वाली बात छोड़ दीजिए। तभी कार्य में सफलता प्राप्त होगी। स्वयं अपने को अच्छा करने का विचार ही उपयोगी और उत्तम होता है। यह विचार करें कि हम इमेज अच्छी बनाने का विचार नहीं, स्वयं अपने को कैसे अच्छा बना सकते हैं। इसी में से भगवान बाकी सब बातें कर देता है।

आत्म विकास

आत्मविकास का कोई विकल्प नहीं है। यह बात हम भलीभाँति समझ लें। लेकिन आत्मविकास करना जितना कठिन है, उससे भी ज्यादा कठिन अपने विकास को कायम रखना है। क्योंकि जैसे मनुष्य आत्मविकास करता है, उसका प्रभाव बढ़ता है, काम बढ़ता है, प्रतिष्ठा बढ़ती है, मान्यता बढ़ती है तो मनुष्य के मन में परिवर्तन होने लगता है। यह परिवर्तन बहुत धीरे-धीरे होता है। एकदम परिवर्तन हो जाए तो पता चल जाए। पहले प्रतिष्ठा नहीं थी, अब है। पहले पैसा नहीं था, अब है। पहले कार्यालय नहीं था, अब है। पहले समाचारपत्र में प्रसिद्धि नहीं थी, अब है। परिवर्तित परिस्थिति में अपनी अच्छाई को बनाए रखने में विशेष प्रयास करना पड़ता है। यह लोगों के ख्याल में नहीं रहता। वे कहते हैं कि हम अच्छे कार्यकर्ता हैं, अच्छे ही रहेंगे। लेकिन धीरे धीरे परिवर्तन होने लगता है।

एक उदाहरण बताता हूँ। बहुत दिन हुए, एक पिक्चर आई थी। उसका नाम था माया मछिंदर। स्वामी मछिंदर नाथ सम्प्रदाय के आद्य प्रवर्तक थे। वह अकेले भीख माँगते थे। भीख माँगते-माँगते एक राज्य की रानी के यहाँ भीख माँगने चले गए। रानी उन पर मोहित हो गई। उसने कहा, "योगीराज! आप यहीं रुक जाइए।" वे बोले - "मैं यहाँ नहीं रुक सकता। मैं तो योगी पुरुष हूँ।" रानी चतुर थी। उसने कहा, "अच्छा, तो यह बात है। आपको अपने बारे में आत्मविश्वास नहीं है। आपको लगता है कि हमारे यहाँ रहने से आपका स्खलन होगा।" मछिंदर बोले, "नहीं-नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है। मैं तो योगियों का गुरु हूँ।" रानी ने कहा, "अगर, इतना आत्मविश्वास है तो यहाँ रहो।" उन्होंने वहाँ रहना स्वीकार कर लिया। मूल कथा में यह आता है कि वहाँ रहते-रहते और यह सोचते-सोचते कि मैं तो योगीराज हूँ, मेरे अंदर कैसे अध:पतन हो सकता है, उनकी आदतें धीरे-धीरे बदलने लगीं। रानी ने ऐसी व्यवस्था की कि न वह बाहर जा सकें और न बाहर का कोई उनसे मिलने पाए। परिणामतः उनका सारा व्यवहार दूसरे ढंग से शुरू हो गया।

इधर इनके शिष्य बहुत परेशान थे कि हमारे गुरु महाराज कहाँ गए। खोज करते-करते एक शिष्य उस गाँव में गया जहाँ मछिंदर रह रहे थे। उनका रूप-आकार बताते हुए पूछताछ शुरू किया कि क्या कोई संन्यासी इधर आया है। लोगों ने बताया कि संन्यासी तो नहीं, एक जोगड़ा आया है जो रानी के यहाँ ऐश कर रहा है। शिष्य को बड़ा दुःख हुआ। अब उनसे मिलने की तरकीब खोजने लगा। रानी ने तो ऐसी व्यवस्था की थी कि किसी को मिलने नहीं देना। किंतु उनके शिष्य तो संन्यासी थे, उनको भिखारी का वेश लेने में क्या लगता था। भिखारी के वेश में उनके शिष्य गोरखनाथ और शेष साथी भीख माँगने के लिए राजद्वार पर गए। जब वे भीख मांगने अंदर गए तो उन्हें यह देखकर बडा धक्का लगा कि वहाँ बगीचे में झूले पर बैठे रानी और मछिंदरनाथ झूल रहे थे। अपने गुरु महाराज की यह स्थिति देखकर उसे दुःख हुआ। भीख माँगने के लिए उन्होंने ढोलक बजाना शुरू किया। ढोलक की ढम-ढम के शब्दों के बीच गोरखनाथ ने कहना शुरू किया, "चलो मछिंदर गोरख आया, चलो मछिंदर गोरख आया।" मछिंदर ने सोचा मेरा शिष्य, मेरा 'गटनायक' यहाँ भी छुट्टी देने को तैयार नहीं। वह यहाँ भी पहुँच गया जबकि यहाँ मैं बड़े आराम से रहता हूँ। किंतु बाद में उनको पश्चाताप हुआ और रानी के यहाँ से अपने शिष्यों के साथ भाग गए।

इस प्रकार आदमी का स्खलन इतना धीरे-धीरे होता है कि उसे पता तक नहीं चल पाता। वह कहता है, इतनी जरा सी बात से क्या होता है। एक कहानी है मार्च हिम। उसमें भी यह बताया गया है कि अच्छे आदमी का अध:पतन कैसे होता है। वह हर अवस्था पर यह सोचता है कि इतने से क्या होता है। इतना नीचे जाना तो आवश्यक ही है। इस प्रकार अपने न्यायोचित सिद्ध (Self-justification) करते-करते आदमी कितने नीचे चला जाता है, इसकी वह कल्पना भी नहीं कर सकता। मान्यता और पद-प्रतिष्ठा प्राप्त होने के पश्चात अपने को अच्छा कार्यकर्ता बनाए रखने के लिए यदि सतर्कतापूर्वक प्रयास नहीं किया तो अच्छा बना रहना कठिन होगा।

पहले अपने पास पैसा नहीं था। पैसा न होने के कारण हम पोस्टर नहीं छाप सकते थे। पर्चे नहीं बाँट सकते थे। अत्यंत आवश्यक वस्तुओं का भी प्रबंध नहीं कर सकते थे। दुःख होता था कि पैसा नहीं है इसलिए काम रुक गया। धीरे-धीरे यूनियन का कार्य बढ़ा। पैसा आ गया। अच्छा बैंक-बैलेंस भी हो गया। जब पैसा प्रचुर होता है तो धीरे-धीरे सोच में परिवर्तन आता है। आदमी सोचने लगता है कि वैसे तो फर्स्ट क्लास में नहीं चाहिए, लेकिन बुखार है और जाना भी आवश्यक है। द्वितीय श्रेणी में जाऊँगा तो बुखार बढ़ जाएगा। स्वास्थ्य गड़बड़ हो जाएगा। काम की दृष्टि से फर्स्ट क्लास में जाना आवश्यक हो तो जरूर जाना चाहिए। किंतु कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जैसे कल दिल्ली पहुँचना है, आज यहाँ कोई खास कार्य नहीं है। लेकिन कोई मित्र आ गए। व्यक्ति सोचता है कि बाद में चले जाएँगे। आज तो मित्रों के साथ महफिल बैठेगी। ट्रेन से न जाते हुए कल आराम से हवाई जहाज से जाएँगे। यूनियन के पास पैसा है। आखिर यह भी तो आवश्यक है कि मित्रों के साथ रहा जाए। यानी इसका भी औचित्य ढूँढ लेता है। ट्रेन के बजाए प्लेन से जाना आवश्यक हो जाता है। इस प्रकार औचित्य सिद्ध करते-करते आज की विलासिता धीरे-धीरे आवश्यकता बन जाती है।

हमारे एक मित्र हमारे साथ ही हाथ में लोटा लेकर सुबह नित्य कर्म के लिए कभी जंगल में जाते थे। मगर संसद् सदस्य हो जाने के बाद उनका हाल देखा तो आश्चर्य हुआ। आपात्काल में वेशांतर करके हम इधर-उधर घूमते थे। वे भी साथ थे। उनको फ्लश लैट्रिन के बगैर टट्टी नहीं होती थी। मैंने कहा, आपमें कितना परिवर्तन हो गया। आप और मैं लोटा लेकर जंगल में जाते थे, खेत में जाते थे, दोनों को टट्टी होती थी। अब क्या हो गया जो बगैर फ्लश लैट्रिन के आपको टट्टी नहीं होती। अब फ्लश लैट्रिन जीवन की आवश्यकता हो गई।

यह परिवर्तन किसी प्रामाणिकता की कमी के कारण नहीं होता। यह अध:पतन जानबूझकर भी नहीं होता। यह परिवर्तन स्वयं अपना समर्थन और स्वयं का औचित्य सिद्ध करते-करते धीरे-धीरे होता है। पहले हमारे पास कार्यालय के नाम से एक कमरा भी नहीं था। हमारी मुश्किल होती थी। हम दस जगह जाते हैं। वहाँ के लोग जब हमारे यहाँ आते हैं तो उनको सोने के लिए हम जगह दे सकें, इतनी भी जगह अपने पास नहीं थी। हमारा सत्कार वे करते हैं। हमको खिलाते-पिलाते हैं। लेकिन हमारे पास ऐसा कोई रसोई घर नहीं, जहाँ हम अपनी ओर से उन्हें खाना खिला सकें। बड़ा दु:ख होता था।

धीरे-धीरे यूनियन का काम बढ़ा। पैसा-प्रतिष्ठा बढ़ी। कार्यालय तो आवश्यक है ही। इससे कौन इनकार कर सकता है। पहले कार्यालय होता है। फिर धीरे-धीरे लगता है कि कार्यालय जरा बड़ा होना चाहिए। फिर लगता है कि रहना ही है तो यहाँ हर प्रकार की सुविधा होने में आपत्ति क्या है। फिर धीरे-धीरे लगता है कि अपना एक अलग से कमरा होना चाहिए जिससे अपने कागजात व्यवस्थित, सुरक्षित और अलग रहें। अपने कपड़े अलग रहेंगे, उसमें ताला लगा रहेगा तो कोई गड़बड़ नहीं होगी। इसके कारण मन भी स्वस्थ रहेगा। अपना अलग कमरा, अलग बिस्तर होना चाहिए। अर्थात व्यवस्था (Establishment) के साथ व्यवस्थाजन्य मनोवृत्ति (Establishment mentality) भी आती है।

आदमी प्रामाणिक है। यदि चीनी मोर्चे पर लड़ाई शुरू हो जाए तो मोर्चे पर मरने की तैयारी है, लेकिन बिस्तर पर किसी को बिठाने की तैयारी नहीं है। धीरे-धीरे आदमी में इसी प्रकार अनजाने ही परिवर्तन आ जाता है। यह स्वाभाविक है। ऐसा कम से कम हो, इसलिए हम प्रचार पर जोर नहीं देते, किंतु ठोस कार्य पर हमारा पूरा जोर रहता है। ठोस कार्य करते हुए ही कार्यकर्ता अपने ऊपर निगरानी रख सकता है।

सोपान - 3

( कुछ प्रमुख बिंदु)

v जैसे सरकार का दायरा सीमित चाहते हैं वैसे ही राजनीतिक दल का दायरा भी सीमित होना चाहिए। सब कुछ राजनीतिक दल के अंतर्गत रहना गलत बात है। जन संगठन स्वतंत्र होना चाहिए।

v प्रत्येक संगठन में कुछ सिद्धांत अपरिर्वतनीय होते हैं बाकी व्यावहारिक। हम लोग अपने सिद्धांतों के प्रकाश में सोचते हैं। और लोकतांत्रिक ढंग से निर्णय करते हैं। भारतीय मजदूर संघ कोई एक व्यक्ति, पाँच व्यक्ति या केवल कार्यकर्ता ही नहीं हैं हम सब मिलकर भारतीय मजदूर संघ है।

v जब तक ध्येय सिद्ध नहीं होता तब तक मुझे परम सुख भी नहीं चाहिए। "जब तक इस देश क एक कुत्ता भी भूखा है - मैं मोक्ष की कामना नहीं करता"।

v आत्म विकास का कोई विकल्प नहीं है। आत्म विकास करना जितना कठिन है उससे भी ज्यादा अपने विकास को कायम रखना है।

v हम प्रचार पर ज्यादा जोर नहीं देते किंतु ठोस कार्य पर हमारा पूरा जोर रहता है ठोस कार्य करते हुए ही कार्यकर्ता अपने ऊपर निगरानी रख सकता है।

सोपान - 4

अखिल भारतीय कार्यकर्ता

अभ्यास वर्ग (भाग- 2)

26-28 फरवरी 1992

नागपुर (विदर्भ)

पंचम अखिल भारतीय कार्यकर्ता अभ्यास वर्ग

26-28 फरवरी 1992

नागपुर

उद्घाटन सत्र

कार्य का सिंहावलोकन

हम अपने अखिल भारतीय अभ्यास वर्ग के लिए यहाँ एकत्रित हुए हैं। इसके पूर्व चार अभ्यास वर्ग हो चुके हैं। पहला अभ्यास वर्ग 1968 में भुसावल में हुआ था। दूसरा वर्ग 1977 में बड़ौदा में हुआ था। तीसरा जनवरी 1980 में पूना में और चौथा अभ्यास वर्ग 1984 में 29 अक्टूबर से 2 नवंबर तक इंदौर में हुआ था। इंदौर का अभ्यास वर्ग भुलाया नहीं जा सकता। अब यहाँ नागपुर में अपना यह पाँचवा अभ्यास वर्ग है।

पारिवारिक एकत्रीकरण

हम सब जानते हैं कि "भारतीय मजदूर संघ" मात्र ट्रेड यूनियन संस्था नहीं है यह एक परिवार है और इस कारण इस परिवार के विभिन्न लोग जब कहीं भी एकत्रित आते हैं तो वैसा ही आनंद होता है, जैसा पारिवारिक एकत्रीकरण से होता है। किसी परिवार में माँ-बाप देहात में रहते हैं और चार लड़के चार बड़े शहरों-बंबई, कलकत्ता, दिल्ली, मद्रास में रहते हैं। दशहरा, दीपावली, होली आदि के अवसर पर चारों भाई अपने बीबी-बच्चों के साथ माँ-बाप से मिलने आते हैं तो पूरे परिवार का एकत्रीकरण होता है। इस एकत्रीकरण से परिवार के सभी सदस्यों को जो आनंद होता है। विभिन्न स्थानों से भारतीय मजदूर संघ के बंधु जब एकत्रित आते हैं तो हम सब को भी उसी प्रकार के आनंद की अनुभूति होती है।

परंतु उद्देश्य अलग-अलग

चाहे हमारा वर्ग हो, सम्मेलन हो, बैठक हो, या अधिवेशन हो, हम जब एकत्रित आते हैं तो वह पारिवारिक एकत्रीकरण जैसा ही होता है परंतु इन सब कार्यक्रमों का उद्देश्य अलग-अलग होता है। वर्ग का उद्देश्य भी कुछ अलग ही होता है। यदि यह समझ में नहीं आया तो वर्ग की कार्यवाही कुछ अलग ढंग से क्यों चल रही है यह भी समझ में नहीं आएगा।

सभा, सम्मेलनों का मुख्य उद्देश्य होता है कि बाहर के लोगों को, जनता को, सरकार को, समाचार पत्रों को, जनसंचार साधनों (मास मीडिया) को पता चले कि हम क्या हैं, क्या चाहते हैं अर्थात अपने बारे में बाहर के लोगों को जानकारी देना यह उद्देश्य सभा सम्मेलन या अधिवेशनों का होता है।

वर्ग का उद्देश्य

वर्ग का उद्देश्य इससे अलग होता है। हम क्या हैं - इसकी जानकारी स्वयं अपने आपको कराना, यह वर्ग का उद्देश्य होता है। यह ठीक है कि सभा-सम्मेलनों में भी हमें अपने बारे में कुछ जानकारी प्राप्त हो जाती है लेकिन दोनों में यह एक बहुत बड़ा अंतर है कि सभा सम्मेलनों का मुख्य उद्देश्य होता है - अपने बारे में बाहर के लोगों की जानकारी करा देना लेकिन वर्ग का उद्देश्य होता है - अपने बारे में स्वयं अपने आपको जानकारी देना। इसी अंतर के कारण सभा सम्मेलनों की कार्यवाही अलग ढंग की होती है और वर्ग की कार्यवाही उससे भिन्न प्रकार की होती है।

यहाँ हम सब एकत्रित हुए हैं। कुछ कठिनाई अवश्य ही हमारे सामने है, जैसे भाषा की कठिनाई है। कार्यवाही हिंदी में चल रही है और दक्षिण से जो लोग आए हैं उनके लिए हिंदी समझना कठिन होता है। वे लोग न समझ सकें तो चलेगा, लेकिन गलत न समझें, अन्यथा भ्रम उत्पन्न होता है। भले ही वे अन्डरस्टैंड न करें पर मिसअंडरस्टैंड होने का खतरा बना रहता है। तो भी वहाँ से अपने जो प्रमुख लोग यहाँ आए हुए हैं वे जितना समझ सकें, उतना सब ग्रहण कर, अपने अन्य लोगों को बता सकेंगे, ऐसा मुझे विश्वास है।

यह अपना पाँचवा अभ्यास वर्ग है। इसका अर्थ यह है कि यहाँ आए हुए लोग अनुभवी हैं, तपे हुए हैं मँजे हुए हैं। हो सकता है कुछ लोगों की अनुभव की प्रक्रिया अभी चल रही होगी। लेकिन मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि भुसावल के वर्ग में जैसे सभी लोग नए रंगरूट थे, वैसे यहाँ नहीं हैं। जिन्होंने कुछ संगठन का कार्य किया है, कुछ संघर्ष किया है, कई बार हार और जीत से जिन्हें पाला पड़ा है, और इस कारण जिन्हें कुछ अनुभव प्राप्त हुआ है, ऐसे लोग यहाँ हैं। जिन्होंने कई युद्धों में भाग लिया ऐसे पुराने घोड़ों को अंग्रेजी में "ओल्ड वॉर हॉर्सिस" कहते हैं। ऐसे ही पुराने अनुभवी लोग यहाँ एकत्रित हुए हैं। और इस कारण भुसावल के वर्ग का जो स्तर था तथा इस अभ्यास वर्ग का स्तर दोनों में अंतर रहना स्वाभाविक है। फिर भी हम कौन हैं यह जानने की आवश्यकता है। वैसे तो हम जानते ही हैं लेकिन भूल जाते हैं। हम जानते हैं लेकिन उसकी कड़ी नहीं जोड़ पाते। इसी कारण आज के फैशनेबल लोग ऐसे वर्ग को अभ्यास वर्ग (रिफ्रेशर्स कोर्स) कहते हैं।

अब तक के कार्य का सिंहावलोकन

संक्षेप में हम यह देखें कि हमारा कार्य प्रारंभ हुआ उस समय की स्थिति एवं आज की स्थिति में क्या अंतर है। भारतीय मजदूर संघ के अब तक के कार्य का हम सिंहावलोकन करें। तीन दिनों तक हम यहाँ रहेंगे। अलग-अलग कई विषय सामने आएँगे। कई विषयों पर विस्तृत तथा गहन चर्चा होगी। इसलिए किसी एक विषय का उल्लेख मैं नहीं करता। परंतु तब और अब माने हम कहाँ से चले और अब कहाँ तक पहुँचे हैं। प्रवास जब हमने शुरू किया तभी से हमको पता है कि इसको कहाँ पहुँचना है। लेकिन कितना रास्ता हम तय कर चुके हैं - इस सबका विस्तृत विचार ही सिंहावलोकन है। अतः इस प्रारंभिक भाषण में इसका थोड़ा सा उल्लेख प्रासंगिक ही रहेगा तथा आवश्यक भी रहेगा, ऐसा मैं समझता हूँ।

बोनस की बात

फिर औद्योगिक क्षेत्र की भी कई ऐसी चीजे हैं जिनका उद्घोष प्रथम भारतीय मजदूर संघ ने ही किया। उस समय भी लोगों ने हमारी खिल्ली उड़ाई। ऐसी कई बातें हैं, पर मैं एक दो उदाहरण यहाँ देता हूँ।

बोनस की बात थी। हमने कहा बोनस सबको मिलना चाहिए। ऐसा जब कहा गया तो सरकारी कर्मचारियों के कम्युनिस्ट नेताओं ने कहा कि ये मजदूर संघ वाले कैसी बेतुकी बातें करते हैं? यानि हम उनके लिए बोनस माँग रहे थे और वे कह रहे थे कि हमें बोनस कैसे मिल सकता है? हमने कहा कि बोनस 'डेफर्ड वेज' है। अर्थात यह विलंब से दिया हुआ वेतन है। जब तक किसी कर्मचारी को मिलने वाले वेतन एवं जीने के लिए आवश्यक वेतन-दोनों में अंतर है, तब तक बोनस को विलंब से दिया हुआ वेतन ही माना जाएगा। परंतु यह बात उस समय किसी के पल्ले नहीं पड़ी। लेकिन आज सरकारी कर्मचारियों को भी बोनस मिल रहा है और हमारी जो बोनस की परिभाषा थी वह भी आज सब लोग मान रहे हैं। जिस परिभाषा को पहले सबने बचकाना कहा, आज सबने उसी को स्वीकार किया है।

वार्ता के तीन पक्ष

मजदूरों की समस्या के लिए वार्ता के समय मान्यता (रेकगनीशन) के बारे में हमने एक कल्पना, एक विचार दिया था। हमने कहा था कि वार्ता के समय "कंपोजिट बारगेनिंग एजेंसी" होनी चाहिए। अर्थात वार्ता में तीनों पक्षों का-सरकार, मालिक एवं सभी श्रमिक संगठन (ट्रेड यूनियंस) का रहना आवश्यक है। उस समय सभी लोगों ने कहा कि यह व्यावहारिक कैसे हो सकता है? लेकिन 1977 में जनता सरकार आने के पश्चात श्री रविन्द्र वर्मा जो श्रममंत्री थे, उन्होंने इस सिद्धांत को लागू किया। भेल (बी.एच.ई.एल.) में इसका प्रयोग हुआ और ठीक ढंग से चला। अब आज यह मान्यता दिखाई देती है कि यह प्रयोग भी चल सकता है। इसका भी प्रथम सूत्रपात भारतीय मजदूर संघ ने किया। इस तरह औद्योगिक क्षेत्र की कई छोटी-बड़ी बातें हैं जिनका प्रथम सूत्रपात भारतीय मजदूर संघ ने किया।

उद्योग के स्वामित्व के प्रकार

और एक बात। हम सब जानते हैं कि कम्युनिस्टों ने यह भ्रांति फैला रखी थी कि उद्योग के स्वामित्व के दो ही प्रकार हो सकते हैं - या तो उद्योगों का राष्ट्रीयकरण याने उद्योग सरकारी हो या पूँजीपतियों के हाथ में उद्योग रहे। इसे वे 'प्राइवेट एंटरप्राइज' कहते थे। उनका कहना था कि ये दो ही विकल्प हो सकते हैं, तीसरा नहीं। इस संबंध में भी भारतीय मजदूर संघ ने ही सर्वप्रथम जोर देकर कहा कि नहीं, आपके विचार में भ्रांति है। उद्योगों के स्वामित्व के कई भिन्न-भिन्न और प्रकार भी हो सकते हैं।

कम्युनिस्ट राष्ट्रीयकरण को हर चीज का रामबाण उपाय मानते थे। हमने कहा कि यह भी भ्रांति है। राष्ट्रीयकरण हर बात का रामबाण इलाज नहीं हो सकता। कभी परिस्थितिवश उसे एकाध बार अपरिहार्य बुराई के रूप में स्वीकार करना पड़े, जैसे हम कड़वी दवा लेते हैं, उस तरह। लेकिन उद्योग के स्वामित्व के कई और प्रकार भी हो सकते हैं। जैसे कोऑपरेटिव्हाईजेशन, म्युनिसिपलाईजेशन, डेमोक्रेटाईजेशन, सेल्फ इंप्लायमेंट, ज्वाईंट सेक्टर आदि कई प्रकार हो सकते हैं। यानी सहयोगिता, स्वायत्तशासी, लोकतांत्रिक, स्वरोजगार, संयुक्त स्वामित्व, आदि भी उद्योग के स्वामित्व का आधार हो सकते हैं और किस उद्योग को स्वामित्व के किस ढाँचे में डालना चाहिए यह तय करने के लिए सरकार "नेशनल कमिशन फॉर दि पैटर्न ऑफ ओनरशिप ऑफ दि इंडस्ट्रीज' जैसी कोई समिति नियुक्त करे।

अर्थात सरकार एक प्राधिकरण या आयोग नियुक्त करे जो उद्योगों के स्वामित्व की अलग-अलग श्रेणियाँ निश्चित करे। यह आयोग ही यह निश्चित करे कि कौन-सा उद्योग स्वामित्व के उपरोक्त किस प्रकार के ढाँचे के अंतर्गत रहे। यह निश्चित करने की कसौटी भिन्न-भिन्न एवं विविध होनी चाहिए। ऐसा करते समय आयोग दो बातों पर विचार करे। एक तो उद्योग की विशेषताएँ और दूसरी बात देश की अर्थ-व्यवस्था को मद्देनजर रखते हुए उसकी आवश्यकताएँ। (स्पेशल कॅरेक्टरिस्टिक्स ऑफ ईच इंडस्ट्री ऐंड टोटल रिक्वायरमेंट ऑफ नेशनल (इकॉनॉमी) ये दोनों विचार एक साथ करने पर ही उद्योगों को स्वामित्व के आधार पर विभिन्न श्रेणियों में डाला जाए।

तो किस उद्योग को स्वामित्व के किस ढाँचे में डाला जाए यह देखने के लिए एक राष्ट्रीय आयोग नियुक्त होना चाहिए यह बात भी हमने ही सर्वप्रथम कही। 1969 में तत्कालीन राष्ट्रपति महोदय को हमने जो "चार्टर आफ डिमांड्स, डयूटीज ऐंड डिसिप्लिन्स" (माँग, कर्तव्य एवं अनुशासन का माँग पत्र) दिया था, उसमें इस बात का उल्लेख है।

आश्चर्य है कि अब भी यह भ्रांति है कि बीमार उद्योग (सिक मिल्स) का क्या होगा? सरकार ने यदि कुछ उद्योग छोड़ दिए तो उसका निजीकरण (प्राईवेटाईजेशन) ही होना चाहिए - ऐसा लोग सोचते हैं। चर्चा यही चली कि निजीकरण हो या न हो। यानी इतने साल के बाद आज भी यह भ्रांति है कि निजीकरण छोड़कर और कोई विकल्प ही नहीं है। यद्यपि कम्युनिस्ट कहते हैं कि राष्ट्रीयकरण ही सब चीजों का रामबाण उपाय है, लेकिन वे निजीकरण की भी बात बोलते हैं। राष्ट्रीयकरण को हमने कभी इस तरह रामबाण उपाय नहीं माना। किंतु हमारा विचार है कि श्रमिकीकरण भी स्वामित्व का एक प्रमुख प्रकार हो सकता है। स्वामित्व की प्रक्रिया आरंभ होनी चाहिए। भले ही उसकी मात्रा, उसका प्रमाण, अलग-अलग उद्योगों में अलग-अलग हो सकता है।

जैसे पैसे का स्वामित्व है वैसे ही पसीने का हो। पसीना भी उद्योग की पूँजी का एक अंग है और इस दृष्टि से जैसे पैसा देने वाले वैसा ही पसीना बहाने वाला भी अपने उद्योग का भागीदार है। और इस कारण पसीना बहाने वाले भागीगार को भी उद्योग का स्वामी-मालिक मानना चाहिए। परंतु दुर्भाग्य है कि शेष सारे लोग अब तक मात्र "उद्योग व्यवस्थापन में साझेदारी" तक ही पहुँचे हैं। इसके उस पार कोई नहीं गया। लेकिन प्रारंभ से हम कहते रहे हैं कि मजदूरों की साझेदारी मात्र व्यवस्थापन में नहीं, मिलकियत में भी होनी चाहिए।

जब राष्ट्रीयकरण किए हुए उद्योगों में से कोई उद्योग सरकार छोड़ती है तो उस उद्योग का निजीकरण हो अथवा न हो, इस पर जब चर्चा शुरू हुई तो हमने कहा कि और भी विकल्प हो सकते हैं तथा श्रमिकीकरण भी उनमें से एक विकल्प है।

संयोग की बात है कि पश्चिम बंगाल की मार्क्सवादी सरकार ने वहाँ के भारतीय मजदूर संघ के लोगों से पूछा कि यह तुम्हारा "श्रमिकीकरण" क्या है? न्यू सेंट्रल जूट उद्योग का विचार चल रहा था। पूछे जाने पर अपने वहाँ के कार्यकर्ता श्री बैजनाथ राय एडवोकेट ने काफी अध्ययन करते हुए एक योजना सरकार के सामने रखी। कुछ चर्चा हुई और यह योजना लागू करने की बात भी सोची गई। न्यू सेंट्रल जूट मिल में वह योजना लागू हो गई। इस योजना में अन्य श्रम संगठनों को भी शामिल किया गया। लेकिन यह योजना भारतीय मजदूर संघ की ही रही। अब वह न्यू सेंट्रल जूट मिल ठीक ढंग से चल रही है। गत 29 नवंबर, 1991 को वहाँ हड़ताल भी नहीं हुई, ऐसा कल बताया गया। तो इस तरह मार्क्सवादी सरकार को भी हम लोगों से श्रमिकीकरण के बारे में बाध्य होकर पूछना पड़ा।

अभी हाल ही में जो त्रिपक्षीय वार्ता हुई, जो टी.वी. पर भी दिखाई गई, उसमें श्रममंत्री श्री संगमा ने कहा कि उद्योग को श्रमिकों की कोऑपरेटिव्हज के हाथों में भी सौंपा जा सकता है। यह बात अलग है कि सरकार इसमें से कितना करेगी। लेकिन सिद्धांत के रूप में सरकार को भी इसे बाध्य होकर स्वीकार करना पड़ा। पहले तो इसकी भी बहुत खिल्ली उड़ाई जाती थी। श्रमिकीकरण का काफी विरोध होता था। श्री भगत जी ने जब त्रिपक्षीय समिति में वार्ता के समय श्रमिकों की कोऑपरेटिव्हज की बात रखी तो सीटू ने उसका विरोध किया। उसने कहा कि यह विचार हमें मंजूर नहीं। श्रम मंत्री श्री संगमा जी ने कहा कि हम इसका स्वागत करते हैं। पहले तो घोर विरोध था।

"भारतीय श्रम सम्मेलन" (इंडियन लेबर कॉन्फरेंस) जब बारह साल बाद हुई, उसमें अपने (स्वर्गीय) मनहर भाई मेहता का भाषण हो रहा था। उन्होंने जब श्रमिकीकरण शब्द का उल्लेख किया तो आयटक की उपाध्यक्षा पार्वतीकृष्णन अपने लोगों से बोलने लगी कि मालूम होता है कि ये बी.एम.एस. वालों का लेबराईजेशन (श्रमिकीकरण) हम लोगों को डूबाने वाला है। तात्पर्य यह है कि पहले जिसे लोग अव्यावहारिक समझते थे, उसे अब शासकीय स्तर पर भी सिद्धांत रूप में मानना पड़ा है और मार्क्सवादी सरकार ने भी एक स्थान पर उसे व्यावहारिक रूप देने का प्रयास किया है।

पश्चिम बंगाल में न्यू सेंट्रल जूट मिल का प्रयोग चल रहा है वह सरकार के नाते चल रहा है, और सीटू इसका जो विरोध कर रही है वह ट्रेड यूनियन के नाते कर रही है। उनका यह तो अंतर्विरोध है, इसे छोड़ दें। लेकिन प्रगति हुई है यह बात सत्य है। अब तो काफी कम्युनिस्ट देश भी इसे लिबरलायजेशन (उदारता) के नाम से देख रहे हैं।

विश्वकर्मा सेक्टर

हम लोग विश्वकर्मा सेक्टर की बात करते थे। हम कहते थे कि स्वरोजगार, देशी कारीगर, बढ़ई, लुहार, चर्मकार ये विश्वकर्मा सेक्टर हैं। तो हमारे कम्युनिस्ट भाई कहते थे कि यह विश्वकर्मा सेक्टर क्या है? यह भाप के जैसा समाप्त हो जाएगा, अदृश्य हो जाएगा? वे कहते हैं - उनके "कार्ल मार्क्स" ने ऐसा कहा है कि धनी और गरीब या पूँजीपति और सर्वहारा ऐसे दो ही वर्ग हो सकते हैं। इन दो ही श्रेणियों में दुनिया बटने वाली है और आप में से बहुत सारे लोग सर्वहारा या गरीब वर्ग में जाएँगे। कोई एकाध धनी वर्ग में जा सकता है। यह विश्वकर्मा सेक्टर रहेगा ही नहीं, सिर्फ स्व-रोजगार का सेक्टर है - आदि। परंतु उन्हें आश्चर्य हुआ। बंगलौर के अधिवेशन में मैंने इसका उल्लेख किया था कि रूस ने इसे मान्यता दी है। उसके लिए रूस ने "हाउसहोल्ड इंडस्ट्री एक्ट" (घरेलू उद्योग कानून) भी बनाया है। चीन और हंगरी दोनों साम्यवादी देशों ने भी यह कानून बनाया। उनके देश में भी इसको मान्यता मिली है।

आर्थिक गुलामी : स्वदेशी आंदोलन

लेकिन अपने देश में साम्यवादियों ने हमारी हर एक कल्पना की पहले खिल्ली उड़ायी पर बाद में धीरे-धीरे उन सभी बातों को उनको स्वीकार करना पड़ा ऐसा आज स्पष्ट दिख रहा है।

आज सभी दृष्टि से एक वायुमंडल पूरे देश में है। संसद में डॉ. मनमोहन सिंह के बजट लाने के बाद तो स्वदेशी के सभी लोग भक्त हो गए हैं। डॉ. मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री बनने से पूर्व सोना तेज हुआ था। उन्होंने रुपये का भी अवमूल्यन किया। औद्योगिक नीति घोषित की, औद्योगिक नीति के तहत विदेशी सरमाएदारों को अपने देश में व्यापार करने के लिए ज्यादा से ज्यादा छूट देने की वजह से सभी लोगों ने डॉ. मनमोहन सिंह और उनके द्वारा लाई गई औद्योगिक नीति की कड़ी आलोचना की। विरोधी दलों के राजनेताओं के वक्तव्य जब पढ़ेंगे तो लगेगा जैसे डॉ. मनमोहन सिंह ने ही आर्थिक गुलामी की प्रक्रिया अपने देश में प्रारंभ की हो।

वास्तव में इसके विषय में भारतीय मजदूर संघ ने 1982 से ही चेतावनी दी थी कि सरकार की गलत नीतियों के कारण आर्थिक गुलामी आ रही है। 1984 में इंदौर के अभ्यास वर्ग में इसका विशेष उल्लेख किया गया था। भारतीय मजदूर संघ के बाद विद्यार्थी परिषद ने अपने बंबई के अधिवेशन के पश्चात इस पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने आर्थिक गुलामी के खिलाफ सघन प्रचार शुरू किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने संघ शिक्षा वर्गों में इस विषय को रखा। आर्थिक गुलामी के खिलाफ जन जागरण के लिए हम लोगों ने कोटा की केंद्रीय कार्य समिति में निर्णय लिया। और इस दृष्टि से स्वर्गीय पं. दीनदयाल जी के जन्म दिवस 25 सितंबर को जगह-जगह पर हम लोगों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा निर्मित उत्पादों की होली जलाई। स्वदेशी जागरण का अभियान लेना चाहिए ऐसा निर्णय संघ परिवार की बैठक में अखिल भारतीय स्तर पर नागपुर में लिया गया। और इसके लिए स्वदेशी जागरण मंच का निर्माण किया गया।

लेकिन हम जरा देखें कि आज आर्थिक गुलामी का विरोध विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे लोग भी कर रहे हैं। अब गंभीरता की भी हद होती है। जब यह वित्त मंत्री थे तब इन्हीं विश्वनाथ प्रताप सिंह ने आर्थिक गुलामी लाने वाले निर्णय लिए थे। आर्थिक गुलामी यह कोई नई बात नहीं है। 1965 में पाकिस्तान के साथ नहर के पानी के बँटवारे के बारे में जो समझौता हुआ था वह प्रतिकूल एवं अन्यायपूर्ण होने के बाद भी सरकार ने विदेशी पूँजी के दबाव में स्वीकार किया था। उस समय प.पू. श्री गुरुजी ने चेतावनी दी थी कि जागतिक बैंक के दबाव में यह जो समझौता आप स्वीकार कर रहे हो तो यही प्रवृत्ति यदि सरकार की रही तो अपने देश में आर्थिक गुलामी आएगी। आर्थिक गुलामी लाने में सहायक विश्वनाथ प्रताप सिंह आज जब सत्ता से बाहर विपक्ष में हैं तो एकदम देशभक्त बनकर आर्थिक स्वतंत्रता लाने के लिए युद्ध की बात कर रहे हैं। आर्थिक स्वतंत्रता के लिए युद्ध (Second War of Independence) शब्द का प्रयोग सबसे पहले भारतीय मजदूर संघ के मंच से हुआ है यह बात हम विनम्रतापूर्वक कह सकते हैं।

इस शब्द का प्रयोग भारतीय मजदूर संघ को छोड़कर और किसी ने आज तक किया नहीं है। लेकिन आज यह सभी देशभक्त बन रहे हैं। वामपंथियों के लिए तो बहुत जिम्मेदारी से बात करना इसका कोई परहेज नहीं है। जिस समय जो बात बोलने से लोकप्रियता मिले वह बात बोलने में उनको कोई संकोच नहीं होता है। आर्थिक गुलामी के बारे में वामपंथियों ने कभी गहराई से अध्ययन किया ही नहीं है।

आर्थिक गुलामी के बारे में वामपंथियों ने पहले कभी कोई अभियान लिया हो-ऐसा दिखता नहीं। कोई भी चीज अच्छी हो सकती है। बाँस की एक करची भी सरकार बनाने के लिए पर्याप्त है, ऐसी ही बातें वे करते थे। परंतु हमें अपनी जिम्मेदारी का ध्यान था। देशभक्ति की भावना का विचार करते हुए सबसे पहले "स्वदेशी आंदोलन" की चेतावनी परमपूज्य श्री गुरुजी ने ही दी थी। उनकी यह चेतावनी सार्वजनिक जीवन और मजदूर क्षेत्र दोनों के लिए ही थी। और मजदूर संगठन का विचार करें तो सर्वप्रथम भारतीय मजदूर संघ ने ही "स्वदेशी आंदोलन" का यह नारा लगाया। अब आज सभी लोग इसी नारे को दोहराते दिखाई दे रहे हैं। यहाँ तक कि परमपूजनीय सरसंघचालक जी के इस संबंध के वक्तव्य का समर्थन भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री चन्द्रशेखर जी ने भी किया। उन्होंने तो अपने प्रेस कान्फरेंस में ही यह वक्तव्य पढ़कर सुनाया। हाँ! यह बात अलग है कि इसके पीछे उनका राजनीतिक उद्देश्य है। इसके पीछे कोई सद्भावना नहीं है। संघ परिवार में आपस में कुछ झगड़ा खड़ा किया जाए इसी हेतु से उन्होंने यह किया है। परंतु यह तो सत्य है कि उस समय हमारी यह बात सबको उपेक्षणीय लगती थी, आज सबकी अनुभूति और अनुभव यही है कि वह बात ठीक थी। भारतीय मजदूर संघ की दृष्टि से यह भी एक बड़ी वैचारिक विजय है। हम यह समझ सकते हैं।

तकनीक का आयात

ऐसी ही दूसरी बात थी कि हमें उस सिलसिले में दकियानूसी कहा गया। तकनीक के विषय में दो प्रवाह चल रहे थे। एक प्रवाह था कि विदेशी तकनीक पूर्ण रूप से (लॉक, स्टॉक ऐंड बैरल) अपने देश में लाना चाहिए, यद्यपि गाँधी जी की ऐसी कोई चरम सीमा की भूमिका नहीं थी। किंतु गाँधी जी ने जो कुछ कहा वह सर्वोदयी लोगों के समझ में न आने के कारण, उन्होंने दूसरी चरम सीमा की भूमिका अपनाई, जो भी नई बात दिखाई दे, उसका पूर्णतः बहिष्कार करना, यह बात इसीमें से निकली और यह एक गलत भावना गाँधी जी के नाम पर चली।

हम लोगों ने कहा कि तकनीक के बारे में ये चरम सीमा की दोनों भूमिकाएँ गलत हैं। अपने देश की परिस्थिति अलग है, विदेशों की परिस्थिति उससे भिन्न है, अत: वहाँ का पूरा तकनीक यहाँ उठा लाना एकदम गलत है। यहाँ जनसंख्या अधिक है और उसमें काम करने वाले लोग भी अधिक हैं, बेरोजगार भी अधिक हैं, और काम का अवसर या आयाम भी कम हैं। इसके विपरीत विदेशों में काम करने वालों की संख्या कम है। उनकी आवश्यकताएँ अधिक हैं और उनकी जेब में पैसा भी अधिक है। अपने यहाँ सबसे बड़ा कारण बेकारी का है। ज्यादा से ज्यादा लोगों को काम कैसे दिया जाए यह सवाल है। इसी अंतर के कारण गाँधी जी ने कहा था कि "हमें अधिक उत्पादन नहीं चाहिए, अधिक लोगों द्वारा किया गया उत्पादन चाहिए" (नॉट मास प्राडक्शन बट प्रॉडक्शन बाय मासेस)।

इसका विचार होना चाहिए और इस दृष्टि से यह आवश्यक है कि विश्व भर में जितना भी नया तकनीक होगा, उसका अध्ययन हमारे तकनीक-विशेषज्ञ करें। लेकिन इस अध्ययन के समय और उस आधार पर निर्णय लेते समय हमारी अपनी परंपराएँ, हमारी परिस्थितियाँ और आवश्यकताएँ, तथा हमारी आकांक्षाएँ - इन तीनों का ध्यान रखना होगा। इसके अतिरिक्त एक और महत्व का विचार करना होगा। चार बातें हैं -

1. ऐसा विदेशी तकनीक कौन सा है कि जिससे लाभ होगा, और उसे यहाँ अपनाया जा सकेगा।

2. विदेशी तकनीक का ऐसा हिस्सा कौन सा है कि जिसे उसी प्रकार नहीं, लेकिन उसमें कुछ बदल (मॉडीफाई) करते हुए उसे अपनाया जाए, जिससे देश का कल्याण हो सके।

3. विदेशी तकनीक का ऐसा हिस्सा कौन सा है कि जो हमारी परिस्थिति के अनुकूल नहीं और इस कारण उससे बहुत नुकसान हुआ, अतः उसे अस्वीकार (रिजेक्ट) किया जाए।

4. दस्तकारी या कारीगरी जैसे हमारे जो गृह उद्योग हैं, उनके लिए विदेशों में तकनीक का निर्माण नहीं हो सकेगा। अतः भारत में ही उस के लिए उपयोगी ऐसा कोई नया तकनीक खोजा जाना चाहिए, कि जिससे इस दस्तकारी के वर्तमान साधन पूर्णतः नष्ट न हों तथा आज के हमारे कारीगर भी बेकार न हो जाएँ। इन कारीगरों को रोजगार मिलना चाहिए, उनकी कारीगरी के वर्तमान साधनों में थोड़ा बदल भी होना चाहिए, तथा वह बदल उन कारीगरों की समझ में आना चाहिए। दस्तकारी के संबंध में यह विचार करने के साथ-साथ यह भी ध्यान में रखना होगा कि उपरोक्त तीन बिंदुओं के आधार पर इसका भी विचार हो।

5. और यह सब कुछ निश्चित करने के लिए "राष्ट्रीय तकनीक नीति" (नेशनल-टेकनॉलॉजिकल पॉलिसी) बननी चाहिए। फिर उस नीति के प्रकाश में अलग-अलग उद्योगों का विचार हो आज ऐसी कोई नीति है ही नहीं। लोग यह मानते-समझते हैं कि तकनीक या तकनीकी का सवाल मात्र मालिक और मजदूरों के बीच का प्रश्न है पर ऐसा नहीं है। नई तकनीक यानी एक तरह से नई संस्कृति ही है। सब कुछ नई रचना है। तो इस सिलसिले में "राष्ट्रीय तकनीक नीति" की माँग करने वाला पहला संगठन भारतीय मजदूर संघ ही है, दूसरा कोई नहीं। आज सब लोग इसका अनुभव कर रहे हैं।

कंप्यूटरीकरण

लेकिन जब हम लोगों ने यह माँग रखी तो सबने विरोध ही किया। अपनी बैंकों की यूनियनों के महासंघ ("नेशनल ऑर्गनाईजेशन आफ बैंक वर्कर्स" - एन.ओ.बी.डब्ल्यू.) ने जब यह माँग रखी तो मालिकों ने, व्यवस्थापकों ने, AIBEA (कम्युनिस्ट संगठन) ने कहा कि आप आज यदि कंप्यूटरायजेशन के समझौते पर हस्ताक्षर करोगे तो हम आपको मान्यता दे देंगे। आपकी कुछ सुनेंगे और वेतन संबंधी बातचीत में आपको भी शामिल करेंगे, अन्यथा नहीं करेंगे। यह भी कहा कि यदि हस्ताक्षर नहीं करोगे तब तुम अकेले पड़ जाओगे।

इस पर हमारे एन.ओ.बी.डब्ल्यू. के लोगों ने कहा कि - "कोई आपत्ति नहीं। हम अकेले पड़े तो भी हर्ज नहीं। हम अकेले ही चलते रहेंगे, किंतु मजदूरों के साथ गद्दारी नहीं करेंगे।" और इसके बावजूद कम्युनिस्टों से जब पूछा गया कि एन.ओ.बी.डब्ल्यू. वालों ने समझौते पर हस्ताक्षर क्यों नहीं किए तो उन्होंने कहा कि हस्ताक्षर न करने वाले यह लोग दकियानूसी हैं। ए.आय.बी.ई.ए. (कम्युनिस्ट संगठन) ने भी यही कहा। वे बोले कि इन मजदूर संघ वालों को पता ही नहीं है कि दुनिया किधर जा रही है और ये बी.एम.एस. वाले हिंदुस्तान को सोलहवीं शताब्दी में ले जाना चाहते हैं। इसी कारण यह लोग कंप्यूटरीकरण के तकनीक का विरोध कर रहे हैं।

वस्तुतः हमने कंप्यूटरीकरण के बारे में कहा था कि हम अंधाधुंध कम्प्यूटरीकरण के पक्ष में नहीं है। अविवेकपूर्ण कंप्यूटरीकरण का हम विरोध करते हैं। हमने तो तकनीक के आयात के बारे में चार बातें पहले ही कहीं थीं कि नए तकनीक को वैसे के वैसे लेना या कुछ बदल करते हुए लेना, अस्वीकार करना और यहाँ के लिए उपयुक्त तकनीक का आविष्कार करना (ॲडोप्ट, अडाप्ट, रिजेक्ट ऐंड इनोव्हेट) इसका योग्य विचार होना चाहिए। किंतु इस बात को गलत ढंग से प्रस्तुत करते हुए कम्युनिस्टों ने कहा कि ये बी.एम.एस. वाले हिंदुस्तान को सोलहवीं शताब्दी में ले जा रहे हैं इसलिए उन्होंने हस्ताक्षर नहीं किए। बाद में कम्युनिस्टों की यूनियन के सभी बड़े या छोटे कार्यकर्ताओं का उन पर दबाव आया कि कम्प्यूटरीकरण का विरोध करना ही चाहिए। ए.आय.बी. ई.ए. के लोगों पर भी ऐसा ही दबाव आया।

बाद में दिल्ली में जब सबकी सामूहिक मीटिंग हुई तब उसमें कम्युनिस्टों ने भी कहा कि अंधाधुंध कंप्यूटरीकरण का हम विरोध करते हैं। और ए.आय.बी.ई.ए. वालों की तो हालत ही खराब हो गई। उन्होंने कहा कि हम फँस गए हैं, हमने तो पहले ही हस्ताक्षर कर दिए हैं। मालिकों ने हमें गुमराह किया था इस कारण हमने हस्ताक्षर किए। लेकिन अब हमें अपनी गलती समझ में आ गई है। यानी हमें कोसने वालों को भी अपनी गलती सार्वजनिक रूप से स्वीकार करनी पड़ी। परंतु यह बात तो सिद्ध हुई कि तकनीकी के सवाल पर गहराई में जाकर ठीक विचार भारतीय मजदूर संघ ने ही किया है। मैं समझता हूँ कि "वैचारिक विजय" इस नाते हमारे लिए यह बात बहुत महत्व की है।

शहादत

कई बातें हैं। छोटी बड़ी सभी बातों का उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन यह निश्चित है कि हम जहाँ से निकले और आज जहाँ तक पहुँचे हैं, यह काफी समय में तय किया गया हमारा लंबा प्रवास संतोषजनक है, ऐसा कहा जा सकता है। आपत्तियाँ बहुत आईं। यह कार्य का आज जो विकास दिखाई देता है, वह कोई गुलाब की सेज पर या मखमली गलीचे पर चलकर प्राप्त नहीं हुआ है। मुझे स्मरण है कि इंदौर के अधिवेशन में एक सत्र हमने मात्र यह बताने के लिए रखा था कि भारतीय मजदूर संघ का कार्य करते-करते जो शहीद हुए उनका एवं उनके उद्योग का, उनकी यूनियन का विवरण प्राप्त हो। अस्सी मिनट तक यह कार्यक्रम चला। बहुत अधिक विस्तृत विवरण के लिए समय नहीं था। अत: दो तीन बिंदुओं पर ही विवरण माँगा था। इसका अर्थ है कि अपने कार्य की यह वृद्धि मात्र शाब्दिक नहीं, व्यावहारिक है, प्रत्यक्ष है। मजदूरों ने, कार्यकर्ताओं ने अपना खून इसमें लगाया है, आत्म बलिदान और शहादत के आधार पर भारतीय मजदूर संघ का काम बढ़ा है। लेकिन जो काम बढ़ा है वह संतोषजनक है।

वैचारिक क्षेत्र में पहले हम जो कुछ कहते थे, लोग उसका मजाक उड़ाते, हमें पागल कहते थे, हमारी खिल्ली उड़ाते थे। लेकिन आज वे ही लोग स्वीकार करने लगे हैं। अर्थ स्पष्ट है कि वैचारिक दृष्टि से, सैद्धांतिक दृष्टि से, संगठनात्मक दृष्टि से भारतीय मजदूर संघ प्रगति पथ पर है। प्रत्यक्ष शहादत छोड़ दें तो भी इसके लिए कितने लोगों को काम से हटाया गया, कितने परिवार बर्बाद हुए यह भी विचार करने की बात है। हमने इस संबंध में प्रारंभ में कहीं कहा था कि अपना एक उद्देश्य यह भी है कि सामान्य मजदूर आबाद रहे इस हेतु भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ता बरबाद हों। हमने यह कहा था कि "दि बेस्ट शुड सफर, सो दैट दी रेस्ट में प्रॉसपर"। अर्थात दूसरों को सुखी बनाना है तो कुछ अच्छे लोगों को कष्ट सहना ही पड़ेगा। जरा विचार करें कि क्या ऐसा कोई दूसरा संगठन है? हमने तो नारा ही दिया था कि "बी.एम.एस. की क्या पहचान, त्याग, तपस्या और बलिदान'। हमारे कथित प्रगतिशील लोग हम पर हँसते थे कि भाई मजदूर क्षेत्र में तो हम पैसे के लिए आते हैं, अधिक सुख-सुविधाओं की अपेक्षा से आते हैं लेकिन बी.एम.एस. के यह पागल लोग कहते हैं कि त्याग, तपस्या और बलिदान।

परीक्षा की घड़ी (आपात्काल)

लेकिन परीक्षा आती है तो सबकी परख हो जाती है। आपात्काल में श्री ए.के. गोपालन को यह कहना पड़ा कि "अरे, हम आर.एस.एस. को राइट विंग ऑर्गनाईजेशन या राइटिस्ट (दक्षिण पंथी - पर्याय से निकम्मे) कहते थे लेकिन वे लोग हजारों की संख्या में सत्याग्रह के लिए सामने आए और हम अपने आपको कम्युनिस्ट होने के नाते क्रांतिकारी, आंदोलनकारी (पर्याय से उग्रपंथी) मानते थे, इसी हेतु मजदूरों की संस्थाएँ चला रहे थे, उनकी आर्थिक लड़ाइयाँ लड़ रहे थे, और इस कारण यह भी हम सोचते थे कि लोग आंदोलन में हमारा साथ देंगे, लेकिन प्रत्यक्ष में हम आर.एस.एस. वालों का दसवाँ हिस्सा भी जेल में नहीं भेज सके। इसका अन्वेषण करना चाहिए, इसका कारण खोजना चाहिए। हमें इस पर पुनर्विचार करना चाहिए।" ऐसा ए.के. गोपालन ने इमरजेंसी के समय कहा।

हमारे क्षेत्र में भी हमें ऐसा ही अनुभव आया। हमने सोचा कि आपात्काल का मुकाबला करने हेतु सभी श्रम संगठनों का एक साँझा मोर्चा हो। हम सबसे मिले। सभी ने कहा कि कोई बोनस का या ऐसा ही कोई ज्वाइंट स्टेटमेंट (संयुक्त वक्तव्य) दिया जा सकता है। सी.पी. रामास्वामी अय्यर रोड पर श्री राममूर्ति जी के यहाँ हम सब इकट्ठा बैठते थे। सभी भूमिगत थे लेकिन बारी-बारी से वहाँ जाते थे। वहाँ बोनस के बारे में संयुक्त वक्तव्य का मसौदा तैयार हुआ। सबके हस्ताक्षर इस वक्तव्य पर करने की बात आई। हमने सुझाव रखा कि हर संस्था का अध्यक्ष या महामंत्री या कोई प्रमुख प्रतिनिधि इस पर हस्ताक्षर करे परंतु सीटू सहित हस्ताक्षर करने को कोई भी तैयार नहीं हुआ। सबने कहा कि हस्ताक्षर की क्या आवश्यकता है? हमने कहा कि हस्ताक्षर के बिना इसकी सत्यता कैसे प्रमाणित होगी, इसकी प्रामाणिकता कैसे सिद्ध होगी? तो कहने लगे कि यूँ किया जाए कि मात्र अपने संगठनों के नाम दे देंगे। आयटक, सीटू, एच.एम.एस., बी.एम.एस. आदि। फिर भी हमने हस्ताक्षर पर जोर दिया तो बोलने लगे कि आपात्काल है, इसमें रणनीति के नाते ऐसा ही होना चाहिए।

इसका अर्थ स्पष्ट है कि ये उग्रपंथी, आंदोलनकारी और क्रांतिकारी कहलाने वाले परीक्षा की घड़ी आने पर भाग खड़े होते हैं। उस समय भारतीय मजदूर संघ के साठ हजार मजदूरों ने साथ दिया और कानून तोड़ कर वे जेल गए। याने जब परीक्षा का समय आता है तो ध्येयवादी लोग मिलते कहाँ हैं? भाषणबाजी तो सब कर लेते हैं लेकिन लोगों में भावना कौन पैदा कर सकता है? परीक्षा की कसौटी पर आपात्काल में भी भारतीय मजदूर संघ खरा उतर सका, वामपंथियों के कथित क्रांतिकारी संगठनों में से कोई भी खरा साबित नहीं हुआ।

तात्पर्य यह है कि तरह-तरह का विचार करने के बाद अंत में यही कहा जा सकता है, सब प्रकार से विचार करने पर यही ध्यान में आता है हमने जहाँ से प्रवास प्रारंभ किया और जहाँ तक आज हम पहुँचे हैं, - यह प्रवास संतोषजनक है। हमारा जो अंतिम लक्ष्य है वह बहुत बड़ा है और वहाँ तक पहुँचने के लिए हमें अभी बहुत कुछ करना है। लेकिन जो कुछ हुआ है वह सब ठीक है।

इसी पृष्ठभूमि पर मैंने कई बातों का उल्लेख किया है। इसके पश्चात वर्ग की जो कार्यवाही होगी उस कार्यवाही में प्रमुख विषयों पर अलग-अलग विचार किया जाएगा। अभी इतना ही कहना इस समय पर्याप्त है।

द्वितीय सत्र

शक्ति संचय : अखंड सावधान रहना

युद्ध के कालखंड में हम प्रवेश कर रहे हैं। राष्ट्रीय स्तर पर युद्ध की स्थिति विद्यमान है - ऐसा दिखाई देता है। आर्थिक क्षेत्र का विचार करें तो सेकंड वार ऑफ इकोनोमिक इंडिपेन्डेंस की हम तैयारी कर रहे हैं। ऐसा भारतीय मजदूर संघ ने घोषित किया है। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने को तथा अपने संगठन को युद्ध स्तर पर तैयार करें। किंतु युद्ध स्तर पर अपने को तथा अपने संगठन को तैयार करने का अर्थ बहुत बार अपने ध्यान में नहीं आता है क्योंकि बाहर के वायुमंडल का प्रभाव रहता है। बड़ी बातें तो ध्यान में तुरंत आ जाती हैं। बड़ी बातों को सार्वजनिक जीवन में महत्व दिया जाता है, समाचार-पत्रों में भी स्थान प्राप्त होता है, क्योंकि वायुमंडल ही ऐसा है। बहुत बड़ा प्रदर्शन होना चाहिए। उसकी उपयुक्तता है ऐसा कहा जाता है। किंतु छोटी-छोटी बातें आँखों से ओझल हो जाती हैं जो कार्य के लिए आवश्यक होती हैं।

कुछ बातें हम कर सकते हैं और करने की क्षमता भी है किंतु उधर यदि ध्यान नहीं दिया गया तो वह चीजें बिना किए रह जाती हैं। इन बातों पर ध्यान न देने के कारण बड़ा नुकसान भी होता है। इसलिए सूक्ष्म विवेचन की तरफ हमारा ध्यान रहे - इस बात की बहुत आवश्यकता है। सावधानी की बात यह है कि हमें युद्ध की तैयारी करनी है।

श्री समर्थ गुरु रामदास महाराज ने शिवाजी की मृत्यु के पश्चात शंभाजी को चार्ज मिलने के बाद शंभाजी को एक मार्गदर्शक पत्र लिखा। उसका प्रारंभ यहाँ से है कि "अखंड सावधान", जो अत्यंत महत्वपूर्ण है। अखंड सावधान रहना चाहिए। अच्छे लोग सावधान रहते हैं। बहुत काम करते हैं। त्याग करते हैं। पराक्रम करते हैं। सावधान रहने की उनमें क्षमता होती है, लेकिन अखंड सावधान नहीं रहते हैं।

1857 का युद्ध चल रहा था। उस समय स्वातंत्र्य योद्धाओं ने बड़ी विजय प्राप्त की। ग्वालियर का किला जीत लिया। ग्वालियर का किला गेट वे ऑफ दिल्ली माना जाता था। तो भी यह एक बहुत बड़ी विजय थी। उसके बाद संचालक लोगों की बैठक हुई। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने सुझाव दिया कि विश्राम करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि पीछे से सर ह्यू रोज और उसकी सेना आ रही है, इसलिए विश्राम बिल्कुल न लेते हुए सीधे दिल्ली की तरफ कूच करेंगे और दिल्ली फतह करेंगे। कुछ लोगों ने कहा कि ग्वालियर जीत लिया है - बहुत बड़ी विजय हासिल हुई है। अब दिल्ली जीतने में कितनी देर लगेगी। अब विजयोत्सव थोड़ा-बहुत मनाना चाहिए। 2-3 दिन जरा आराम करना चाहिए। और इतिहास बताता है कि यदि ग्वालियर जीतने के बाद दिल्ली की ओर मार्च करते तो उस समय दिल्ली पर अवश्य विजय मिलती। अंग्रेज प्रतिकार नहीं कर सकते थे। किंतु लोगों में अखंड सावधानी रखने की आदत नहीं थी। 2-3 दिन विश्राम कर लें इसमें आपत्ति क्या है? किंतु इसी दो-तीन दिन में सारा नक्शा बदल गया।

अपनी ही कुछ ऐसी आदते हैं। हम सावधान हैं किंतु अखंड सावधान नहीं हैं। बड़ा काम रहा तो रात-रात जागकर अपनी तबियत खराब करते हुए भी काम करते हैं। लेकिन जिसमें तबियत खराब करने की आवश्यकता नहीं, बड़ा त्याग करने की भी आवश्यकता नहीं, बल्कि थोड़ी सावधानी की आवश्यकता है लेकिन जिसका बहुत महत्व है, ऐसी छोटी-छोटी बातों की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता है।

केंद्रीय कार्यालय से अपनी तरफ सरकुलर आता है। सरकुलर थोड़ा लंबा है। कार्यकर्ता सोचता है कि सरकुलर लंबा है इसको जरा आराम से पढ़ेंगे। सरकुलर मेज की दराज में रख देता है और बाद में अन्य कागज भी उसी दराज में रखता है। धीरे-धीरे सरकुलर दराज में नीचे रह जाता है, उसको दुबारा कोई हाथ नहीं लगाता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि हमारा कार्यकर्ता इनकाम्पीटेन्ट है, सुस्त है या अयोग्य है, ऐसा नहीं है यह एक आदत है-बहुत छोटी आदत है। इसमें बहुत त्याग करने की आवश्यकता नहीं है। प्राणार्पण करने की आवश्यकता नहीं है। सरकुलर जो आया है उसको पढ़ लिया जाए-देख लिया जाए। उसमें क्या लिखा है, उसकी जानकारी कर ली जाए। इसके लिए कोई आत्म-बलिदान की आवश्यकता नहीं है। लेकिन अखंड सावधान रहने की आदत नहीं, इसलिए सरकुलर पढ़ते नहीं हैं। फिर जब दूसरा पत्र आता है तो उसको भी उसी तरह रख देते हैं। जब उनसे पूछा जाता है कि अमुक सूचना माँगी गई थी - उसका क्या हुआ? तो कार्यकर्ता कहता है कि आपने माँगा ही कब था। वह झूठ नहीं बोलता है।

कार्यकर्ता के बारे में ऐसा हमारा अनुभव है कि कार्यकर्त्ता झूठ नहीं बोलता है। लेकिन प्रायः सच भी नहीं बोलता। कार्यकर्ता रिपोर्टिंग देता है - हम सुन लेते हैं। हमसे कोई पूछता है कि आपके पास तो सारी इनफॉरमेशन आ गई है? हम कहते हैं - हाँ, इनफॉरमेशन तो आ गई है किंतु पूरा चित्र आया है ऐसा मैं नहीं कह सकता। जब लोग पूछते हैं कि क्या आपको कार्यकर्ता पर विश्वास नहीं है? तो मैं कहता हूँ कि पूरा विश्वास है। किंतु उसको जो सत्य का दर्शन होता है, वह पता नहीं - "इट इज हिज वरसन आफ दी टुथ"। वह सत्य ही बोलता है - किंतु उसे जो सत्य लगता है वह बोल रहा है। हो सकता है सत्य का कोई और वर्जन हो, जिसका उसको पता नहीं है।

कार्यकर्ता के मन को समझें

हमारे कार्यकर्ता बिल्कुल सत्यवादी हैं किंतु दूसरे का भी सोचने का कुछ ढंग हो सकता है। यदि थोड़ा-सा प्रयास किया तो बात समझ में आ जाएगी। कोई बात कही जाए और दूसरा न माने तो इसका अर्थ है - उसकी पृष्ठभूमि कुछ दूसरी होगी। हमारी इच्छा ऐसी नहीं है कि आप बहुत बड़े मनोविश्लेषक बन जाएँ जैसा फ्रायड आदि लेकिन मामूली काम चलाने के लिए जैसा माता-पिता मनोविज्ञान रखते हैं उतना मनोविज्ञान अपने साथियों के साथ व्यवहार करते समय हमें भी रखना चाहिए। अपने पास योग्यता है किंतु हम सावधान नहीं है। इसलिए किसी पर या तो गुस्सा कर लेते हैं या उसके प्रति अपना अभिमत बना लेते हैं। तो मामूली आदमी जितना मनोविश्लेषण एक दूसरे का कर सकते हैं उतना तो हम करें। यह थोड़ा आवश्यक भी है।

हमारा आर्थिक व्यवहार

छोटी-सी चीज है लेकिन सार्वजनिक जीवन में बहुत महत्व की चीज है। वह है हमारा आर्थिक व्यवहार। हमारे आर्थिक व्यवहार बहुत अच्छे रहने चाहिए। शायद आप 5 लाख रुपये इकट्ठा नहीं कर सकते हैं यह बात तो हो सकती है किंतु एक दूसरी छोटी-सी बात कि क्या यूनियन के नाम से आप बैंक एकाउंट रखते हैं? हर एक यूनियन का बैंक एकाउंट होना चाहिए। क्या इसके लिए बहुत ताकत की आवश्यकता है? या जो पैसा इकट्ठा किया है उसका हिसाब रहे। हर एक आर्थिक व्यवहार का आर्थिक हिसाब ठीक होना चाहिए। इसमें अधिक ताकत नहीं लगती है। बाहर के वायुमंडल का प्रभाव होता है। हमसे जब हिसाब पूछा जाता है तब हम सोचते हैं कि क्या हम पैसा खाते हैं? हमारे ऊपर विश्वास नहीं है क्या? अरे सवाल ही नहीं है। सार्वजनिक पैसा है तो उसका हिसाब रखना चाहिए।

शुरू-शुरू में आर्थिक व्यवहार को अपनी जेब से ही खर्च करके जाता है और फिर सोचता है कि यह तो मैंने अपना पैसा खर्च किया है। इसका हिसाब क्यों रखूँ। एक कार्यकर्ता ने हमसे यह पूछा कि ठेंगड़ी जी, हम काहे को हिसाब रखेंगे। अभी तक जितना खर्च हुआ है वह मैंने अपनी जेब से दिया है। इसके कारण घर के लोग भी नाराज हैं। हमने कहा तुमने अपनी जेब से खर्च किया है तो यह भी एकाउंट में लिखो। कल यदि हमारी यूनियन की हालत अच्छी हो जाएगी तो शायद तुम्हारे पैसे वापस करने की व्यवस्था होगी। तुम्हारे मन में यह लालच नहीं है यह अच्छी बात है। लेकिन वापस होने के लिए एकाउंट होना आवश्यक है। बैंक एकाउंट खोलना, हिसाब रखना, इसमें कोई बड़ी ताकत नहीं लगती है। हम कर सकते हैं। पर हम करते हैं क्या? जरा इसका आत्म-निरीक्षण करें। ।

हमारा संपर्क क्षेत्र

प्रारंभ में बड़ी यूनियन अपने पास नहीं थी तो छोटी यूनियनें थीं। उस समय कहा गया कि हमारा संपर्क-क्षेत्र विस्तृत होना चाहिए। 'संपर्क क्षेत्र' ऐसा कहा गया। अब हम हैं प्रमुख कार्यकर्ता। यह कार्यकर्ताओं की टीम तैयार करता है, जिसे हम मास्टर माइंड ग्रुप (master mind group) कहते हैं। पहला जो कार्यकर्ता है वह केंद्र में। फिर पहला छोटा सर्किल जिसमें कुछ कार्यकर्ता रहते हैं उसको मास्टरमाइंड ग्रुप कहते हैं। उसके बाद जो अपने सदस्य हैं यह उसके ऊपर का सर्किल इसके ऊपर हमसे सहानुभूति रखने वालों का सर्किल। हमारे जितने सदस्य हैं उसके ऊपर वाले सर्किल को ज्यादा आवश्यकता है और छोटे स्थानों पर इसकी ज्यादा आवश्यकता है। किस-किस के साथ संबंध रखना चाहिए, संपर्क स्थापित करना चाहिए, यह बारीकी से सोचना चाहिए।

जो नजदीक का पुलिस स्टेशन है उसके अधिकारियों से नमस्ते का संबंध होना चाहिए। कारखाने के अगल-बगल में, रास्ते में, रास्ते की गली-कूचे में जो चाय की दुकान रहती है, पान-बीड़ी का ठेला रहता है वहाँ लोगों का अड्डा रहता है। हमारा कार्यकर्ता थोड़ा उस अड्डे पर बैठे और सबके साथ नमस्ते के संबंध हों। प्रत्येक कारखाने के पास गुंडों का ग्रुप तो रहता ही है। कारखाने के पास रहने से गुंडा लोगों को अच्छा व्यवसाय मिलता है। उन गुंडों से भी हमारे अच्छे संबंध रहने चाहिए। जो गुंडा लोग हैं उनसे बराबरी के नाते नमस्ते का संबंध रहे। लाचारी के नाते उनसे संबंध हम रखें ऐसा नहीं, किंतु बराबरी के नाते उनसे अपना संबंध बना रहे। लेबर डिपार्टमेंट के अधिकारियों के साथ जिनका संबंध आता है तो केवल काम के लिए उनके पास जाना चाहिए ऐसा नहीं, बाकी के समय में भी हम संबंध रख सकते हैं। मैंनेजमेंट के जो आफीसर्स हैं उनसे हमारे संबंध अच्छे रहने चाहिए।

इसका तात्पर्य यह नहीं कि जिनसे हमारा संबंध है उनके प्रति हमारा रुख नरम है। भारतीय मजदूर संघ किसी को छोड़ता नहीं है। मैंनेजमेंट यदि अन्याय करता है तो उसके विरुद्ध तीव्र गति से प्रखर आंदोलन करता है। संघर्ष एक अलग बात है। लेकिन व्यक्तिगत बातचीत के संबंध मैंनेजमेंट के साथ रहें। हमारे अच्छे संबंध हैं इसलिए हम गेट मीटिंग नहीं करेंगे या हड़ताल नहीं करेंगे ऐसी बात नहीं है। प्रतिस्पर्धी यूनियनों से हम सज्जनता का संबंध रखें। लेकिन यदि वह गुंडागर्दी करने पर उतरते हैं तो मारपीट भी करनी पड़ेगी। कुछ दिन उनको अस्पताल में भेजने का काम भी करना पड़ सकता है।

किंतु सारा कुछ करते हुए भी मन को शांत रखना और साथ ही बातचीत के संबंध रखना। भगवान ने कहा है कि "युद्धस्व विगतज्वरः" - लड़ाई करो किंतु बिना तनाव के। तभी वह लड़ाई सफल हो सकती है। यदि मारपीट हो जाए तो उनके नेताओं से मिलना और कहना कि, कुछ गड़बड़ हो गई। ऐसा नहीं होना चाहिए था पर ऐसा हो गया। चाहे जितनी मारपीट हो जाए लेकिन आपस की बातचीत बंद है ऐसी स्थिति नहीं आनी चाहिए।

फिर जिस मुहल्ले में रहते हैं - खासकर के टाउनशिप में वहाँ पर अपने बारे में सभी की अच्छी धारणा रहे, लोग सामूहिक बुद्धि का परिचय दें। आपके विषय में यदि कोई गलत फहमी फैलाने का प्रयास करता है तो लोगों की स्वाभाविक प्रतिक्रिया यह रहे कि नहीं भाई आपको ऐसा नहीं कहना चाहिए। संपर्क यह एक प्रमुख बात है। यह संपर्क हमारा जो कार्यकर्ताओं का सर्किल है उसको कवर करने वाला दूसरा सर्किल है। इसमें यह सारे लोग आते हैं। प्रत्यक्ष काम करने वालों के लिए एक्टिव सिंपेथी (सक्रिय सहानुभूति) रखने वाले तथा दूसरे सर्किल के लोगों में उपकारक तटस्थता वाले लोग आते हैं। माने जो इधर के भी नहीं हैं उधर के भी नहीं हैं। आपके लिए दौड़कर आएँगे ऐसी बात नहीं है किंतु वे उपकारक तटस्थता अपनायेंगे। वे तटस्थ ही रहेंगे आपकी सक्रिय सहायता नहीं करेंगे। आप यदि अंडरग्राउन्ड हैं और किसी ने पहचान लिया है तो पुलिस को नहीं बतायेगा। उपकारक तटस्थता हर चीज में काम आती है। आप इसे समझने की कोशिश कीजिए। यह सब मिलकर हमारी शक्ति बनती है।

हम इस दृष्टि से सावधान हैं क्या? कितना होता है या कितना नहीं होता है। इसका प्रश्न नहीं है। किसी से लड़ना नहीं है। अपने को अपना काम देखना चाहिए। लेकिन थोड़ा सावधान रहने से क्या-क्या हो सकता है? जरा करके देखिए। पान बीड़ी के ठेले वाले से पूछना कहो भई गुलाब कैसा चल रहा है? बस इतना बोलने से काम हो जाता है। छोटी-छोटी बातों में सावधान रहना यह आवश्यक है। यदि हम लोगों ने ऐसा कहा कि हम रहम दिल हैं। हम चींटी को भी मारना नहीं चाहते हैं। किंतु ऐसे मौके आते रहते हैं जिसमें झगड़ा, मारपीट, यह सारी नोंक-झोंक होती है। अब ऐसा मौका आता है तो क्या करना क्या नहीं करना यह हम आपको बताने वाले नहीं हैं। अभी अखबार में एक वर्णन पढ़ने को मिला। एक सेना का प्लाटून दिल्ली से कश्मीर की ओर जा रहा था। डकैतों ने उन्हें मार्ग में लूट लिया। तो सेना के प्लाटून ने केंद्र को शिकायत की थी कि पंजाब के पुलिस विभाग ने हमें संरक्षण नहीं दिया। ऐसा समाचार पत्रों में लिखा था - कहाँ तक ठीक है हम नहीं जानते। उस सेना के सिपाहियों के समान आप नहीं हैं, यह हम जानते हैं। आप सज्जन हैं किंतु आवश्यकता पड़ने पर आप निपट सकते हैं यह भी हम जानते हैं। वास्तव में झगड़े का अवसर आया तो हम तैयार हो जाते हैं। किंतु झगड़े का अवसर तो कभी भी आ सकता है तो उसकी पूर्व तैयारी के नाते यूनियन के साथ एक दो आदमी ऐसा होने चाहिए।

यदि कोई आदमी पुलिस कस्टडी में चला जाता है तो घण्टा-आध घण्टा में जमानत देने के लिए यहाँ हमारा एक आदमी पहुँच जाए। जिसकी जमानत पुलिस स्वीकार कर सकती है ऐसा एकाध आदमी। मारपीट में हम बहुत पराक्रम दिखा सकते हैं लेकिन जब पुलिस कस्टडी में हमारा आदमी चला जाता है तब तुरंत ही जमानतदार ने वहाँ पहुँचना चाहिए। हमारे दो आदमी को पुलिस कस्टडी में ले गई। दूसरी पार्टी के दो आदमी को भी पुलिस ले गई। यदि दूसरी पार्टी का आदमी एक घण्टे में जमानत पर आ जाता है और अपने आदमी को छुड़ाने के लिए अपना कोई आदमी 24 घण्टे तक गया ही नहीं तो अपने आदमी पर असर होगा? पुलिस पर इसका असर क्या होगा? अपने साथियों पर क्या होगा? यद्यपि यह बहुत मामूली सी बात है लेकिन हम इसे भूल जाते हैं। ऐसा नहीं कि हमने दो आदमी पहले से तैयार नहीं किए हुए हैं। वैसे ही पहली पेशी पर कोई भी वकील-बूढ़ा रहे, जवान रहे, जूनियर रहे, सीनियर रहे, कितना पैसा लगता है, देना है या नहीं देना है यह झंझट न करते हुए यदि उपस्थित हो जाएगा बाद में पैसे का हिसाब भी हो सकता है। यह सारा उपक्रम हो सकता है। लेकिन इधर ध्यान नहीं दिया माने सावधानी न बरती तो इसका मतलब है कि सावधान रहने की हमारी क्षमता तो है परंतु हम अखंड सावधान नहीं रहते हैं।

परस्पर सहयोगात्मक तालमेल

मान लीजिए एक गाँव में 5-6 इन्डस्ट्रीज में हमारी यूनियन है। कहीं हमारी शक्ति अच्छी होती है और कहीं हम कमजोर होते हैं। यदि एक यूनिट में हमारी शक्ति बहुत कमजोर है। दूसरी यूनियन के कार्यकर्ताओं ने हमारी यूनियन के कार्यकर्ताओं को तकलीफ दिया। तकलीफ कई प्रकार की होती है। सामाजिक बहिष्कार माने जो पार्टी लीडर्स हमारे यहाँ आएँगे हमारे पानी को भी हाथ नहीं लगायेंगे। कैंटीन में यदि इनको चाय पिलाई गई तो दूसरी खिलाफ यूनियन के लोग कैन्टीन का बहिष्कार करेंगे। वह लोग बहुमत में थे पर हमारे पास केवल 3-4 सदस्य ही थे। यह बात बहुत दिन तक चली। कुछ झगड़ा हुआ। अपने ही आदमी का प्रबंधकों द्वारा ट्रांसफर करने पर हमारी अपनी अन्य यूनियन के सदस्यों ने इकट्ठा होकर उस फैक्ट्री के सामने प्रदर्शन किया। वहाँ पर जब 300-350 आदमी इकट्ठा आए और प्रदर्शन हुआ, घेराव किया, गाली-गलौच की, ऐसा जब दृश्य उपस्थित हो गया तो सामाजिक बहिष्कार भी समाप्त हो गया और ट्रांसफर का मामला भी रुक गया। वहाँ पर हमारी सदस्यता एकदम बढ़ी ऐसा नहीं है। एक यूनिट के लोग हमारे संकट में हैं ऐसा पता चलने के बाद किसी न किसी बहाने कोई निमित्त लेकर बाकी के जो हमारे साथी हैं जो हमारी अन्य दूसरी यूनियनों के हैं वहाँ आकर जब प्रदर्शन करते हैं तो कमजोर यूनियन के कार्यकर्ताओं को राहत मिलती है। ऐसा कई जगह हुआ है।

इससे यह बात स्पष्ट है कि एक गाँव में जितनी अपनी यूनियनें हैं उन सब की एक मास में एक बैठक होती है। यदि कोऑर्डीनेशन कमेटी बनी है तो सब यूनियनों को मिलाकर साप्ताहिक, पाक्षिक अथवा मासिक नियमित बैठक होती है। बैठक में एक दूसरे के बारे में जानकारी ली जाती है इससे भी एक दूसरे का हौसला बढ़ता है। हम अकेले नहीं हैं यह भावना उत्पन्न होती है। एक ही शहर की सभी यूनियन के प्रमुख लोगों की 15 दिन में, एक माह में सम्मिलित बैठक होनी चाहिए। यह बहुत आसान है, ऐसी बात नहीं है। लेकिन यह आवश्यक है। इससे हमारी यूनियनें सशक्त हो सकती हैं। किंतु एक-दूसरे की जानकारी न होने के कारण न तो हम एक दूसरे को पहचानते हैं और न ही एक दूसरे की जानकारी रखते हैं। फलस्वरूप सशक्त होते हुए भी हम अकेले हैं, कमजोर हैं ऐसा वे अनुभव करते हैं। इसलिए मासिक बैठक होनी चाहिए। सब मिलाकर ताकत अधिक है किंतु परस्पर सहयोग और संपर्क न होने के कारण गतिशीलता नहीं रहती है। हम सबको एक साथ सक्रिय गतिशील बना सकें, यही प्रयास होना चाहिए।

सक्रिय गतिशीलता : संवेदनशीलता

सक्रिय गतिशीलता न होने पर ऐसी स्थिति हो जाती है जैसा अजगर के बारे में कहा जाता है। सृष्टि के प्रारंभ में अजगर जैसे भयंकर विशालकाय प्राणी थे। ऐसे विशालकाय प्राणी समाप्त कैसे हुए इसके बारे में सशस्त्र खोज करने लगे तो एक विचित्र बात का पता चला कि इन विशालकाय प्राणियों में अजगर की जैसी ताकत जो ज्यादा थी किंतु गतिशीलता नहीं थी। यूँ तो यह प्राणी विशालकाय थे पर छोटे-छोटे प्राणी भी थे लेकिन यह छोटे-छोटे प्राणी आमने सामने इनका मुकाबला नहीं करते थे। यदि आमने-सामने इनका मुकाबला करते तो वे अजगर जैसे विशालकाय इन प्राणियों के पेट में चले जाते। तो यह छोटे-छोटे प्राणी अजगर जैसे विशाल मैमल्स को पूँछ की ओर से काट-काट कर खाना शुरू करते थे। अजगर के दिमाग को काट खाने की सूचना-संवेदना देर से मिलती थी कारण कि शरीर विशाल था, इसलिए दिमाग को संवेदना देर से मिलती थी। अजगर की ताकत ज्यादा थी लेकिन गतिशीलता कम होने की वजह से काट खाने वालों को पकड़ भी नहीं पाता था। संवेदना प्राप्त होने पर जब यह घूमता था तब तक वह भाग जाते थे। धीरे-धीरे छोटे-छोटे जानवर पूँछ की ओर से काटते-काटते इन विशालकाय प्राणियों को पूरा खा गए। गतिशीलता कम होने के कारण ऐसा हुआ। ताकत ज्यादा थी लेकिन गतिशीलता घट जाती है और फिर उनको समाप्त करना तुच्छ के लिए भी कठिन नहीं होता है।

गोरिल्ला वारफेयर में भी यह अनुभव है कि कुल मिलाकर ताकत बहुत है लेकिन संवेदनशीलता नहीं है। संवेदनशीलता कम है इसलिए बहुत शक्तिमान प्राणी की भी गतिशीलता घट जाती है और फिर उनको समाप्त करना कम शक्तिमान प्राणियों के लिए भी संभव हो जाता है। संगठन का भी यही हाल है। इंटक की बहुत सदस्यता है। इस नाते वह कुछ अच्छे निर्णय ले सकेंगे यह संभव नहीं है। वह कोई ऐक्शन ले सकेंगे ऐसी भी संभावना नहीं है। यद्यपि हमारे जैसे छोटे प्राणी उनको काटने वाले नहीं हैं। क्योंकि काटकर खाने लायक उनकी अवस्था नहीं है। इसमें मजा भी नहीं आएगा। लेकिन विशाल सदस्यता है किंतु गतिशीलता नहीं है। किंतु हमें भी आत्मनिरीक्षण करना चाहिए कि हमारी हालत भी बहुत बार ऐसी होती है कि नहीं। विश्वकर्मा जयंती के अवसर पर कम उपस्थिति रहती है जब कि हमारी सदस्यता बीस हजार है। क्या यह नहीं बताता है कि हमारी गतिशीलता कम है। इसका एक कारण और है कि सभी ध्येयवादी नहीं हैं, परस्पर के संबंध कम हैं। अलग-अलग यूनियन के प्रमुख कार्यकर्ताओं का आपसी मेलजोल कम है, एक दूसरे से संपर्क कम है। इस कारण गतिशीलता कम हो जाती है।

नेपोलियन की विशेषता यह थी कि उसके पास सेना कम रहती थी, किसी इतिहासवेत्ता ने औसत निकाला और कहा कि 1, 2, 3 का औसत उसकी सेना और उसके दुश्मन की सेना का रहता था। नेपोलियन की सेना से उसके शत्रु की सेना तीन गुनी रहती थी किंतु नेपोलियन को अपने स्वयं का आत्मविश्वास बहुत था। यदि शत्रु की सेना एक लाख 50 हजार हाती थी तो नेपोलियन कहता था कि 50 हजार हमारी सेना है तथा एक लाख अकेला मैं हूँ। अब यह आत्मविश्वास की ही बात है। नेपोलियन के रिसोर्सेस कभी भी दुश्मनों से ज्यादा नहीं थे बहुत कम थे लेकिन सब मिलाकर नेपोलियन के आत्मविश्वास की वजह से उसकी सेना की संख्या कम रहते हुए भी दुश्मन की सेना की अपेक्षा उसमें गतिशीलता अधिक थी। इसी कारण आत्मविश्वास था। नेपोलियन दूरबीन से दुश्मन की सेना के रैंकस् देखता था। उसका अध्ययन करता था, उसमें यह देखता था कि शत्रु की सेना किस स्थान पर कमजोर है।

कोई भी सेना सब जगह पूरी ताकत नहीं रखती है। जहाँ हल्की सेना है वहीं नेपोलियन हमला करता था। इसके कारण शत्रु पक्ष की सेना में भगदड़ मच जाती थी। वह बीच में घुस जाता था। इसके कारण भी शत्रु पक्ष की सेना में भगदड़ मच जाती थी। इसी तरह उसकी विजय होती थी। कई जगह विजय होती थी। कहाँ शत्रु की कमजोरी है कहाँ उनकी शक्ति है उसका अंदाजा लेना नेपोलियन का प्रमुख काम था। कुल मिलाकर हमारी ताकत ज्यादा है किंतु हमारे रिसोर्सेस का मोबिलाइजेशन नहीं हो रहा है। ऐसी स्थिति में विजय प्राप्त करना कठिन हो जाता है।

आसक्ति : वराह भगवान को भी

हम यह स्पष्ट समझ लें कि भारतीय मजदूर संघ का एक अलग प्रकार का संगठन है। यह राष्ट्र-शक्ति की सेना का एक विभाग है ऐसा बार-बार कहा गया है। हमार संघ परिवार है। पाँच-छः वर्ष पहले संघ परिवार की बैठक ही नहीं होती थी। तब संघ के साथ अलग से संपर्क करते थे। अब बहुत जगह संघ परिवार की बैठकें भी शुरू हुई। वहाँ यदि हमारा संपर्क रहा तो कई समस्याएं तो वैसे ही हल हो सकती हैं। वहाँ से पोषण मिल सकता है।

अब एक समस्या पहले थी और आज भी है। खासकर बैंकिंग में और एल.आई.सी. में कम्युनिस्टों का होल्ड (पकड़) है। संघ के अच्छे स्वयंसेवक भी पहले से कम्युनिस्ट यूनियन में रहे और रहते आए हैं। अब उनकी इच्छा होती है कि काहे को यूनियन छोड़ना। ठीक है संघ के लिए हम सब कुछ करने को तैयार हैं। संघ के अच्छे कार्यकर्ता भी हैं लेकिन फिर यह बी.एम.एस. का काम संघ का ही काम है ऐसा हमें आदेश नहीं मिला है अब इस विषय में संघ की भूमिका स्पष्ट है। हम जानते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कोई भी फ्रंट आर्गनाईजेशन नहीं है। क्योंकि, संघ माने संपूर्ण हिंदू समाज। संपूर्ण राष्ट्र। तो फ्रंट आर्गनाईजेशन, ट्रांसमिशन बेल्ट कहाँ रखेंगे? कोई जगह ही नहीं है रखने के लिए? स्वयंसेवक ही संघ के बीज है।

इस दृष्टि से जब बैंकों में काम शुरू हुआ तो नागपुर में बैंकों के कुछ लोग हमारे पास आए। हमने कहा कि हमारा काम शुरू हुआ है। लेकिन वे अच्छे स्वयंसेवक होने के बावजूद जहाँ हैं वहाँ से हिलने वाले नहीं। कारण कि उनका लगाव हो गया था। वह वहाँ पर सेक्रेटरी वगैरह थे पब्लिक इमेज भी थी तो वहाँ से हिलना नहीं चाहते थे। पर मनुष्य का स्वभाव है, ऐसा होता है। जैसे कोई किराये के मकान में 15-16 वर्ष रहा हो। यदि उसका नया मकान बन जाता है तो पुराना छोड़कर नए मकान में जाना है फिर भी पुराने मकान के प्रति मोह रहता ही है। यकायक आत्मीयता समाप्त होना कठिन होता है।

पृथ्वी को ऊपर लाने के लिए परमेश्वर ने बराह अवतार लिया। सागर में डूबती हुई, खिसकती हुई, धसकती हुई धरती को ईश्वर ने, बराह भगवान ने ऊपर उठाया, आकाश में देवता इकट्ठा हो गए सबने पुष्पवर्षा की और कहा कि महाराज आपका जीवन कार्य (लाइफ मिशन) पूरा हुआ है तो अब आप ऊपर आ जाइए। बराह कहते हैं लाइफ मिशन तो पूरा हुआ है। ऊपर आना ही है लेकिन इस बीच में मैं यहाँ रह रहा हूँ तो मेरी पत्नी बराही भी है। बराही के बच्चे जरा छोटे हैं। बराही भी गर्भवती है। जरा जचकी (बच्चा पैदा हो जाने दीजिए) हो जाए बच्चे थोड़ा बड़े हो जायँ तो फिर मैं तो ऊपर आने ही वाला हूँ। माने भगवान ने स्वयं ऐसा कहा। ऐसा रामकृष्ण परमहंस ने कहा है। भगवान को भी बराह अवतार लेने के बाद उस रूप के प्रति आसक्ति निर्माण हुई तो कार्यकर्ताओं को भी इतने साल कम्युनिस्ट यूनियन में रहने के कारण उसके प्रति कुछ तो आसक्ति होगी ही। हमने कहा जाने दीजिए। बी.एम. एस. का काम तो चलने वाला ही है।

संघ की कोई संस्था फ्रंट आर्गनाईजेशन के रूप में नहीं है। तो हमारे कुछ कार्यकर्ता परमपूज्य श्री गुरुजी से मिले और स्वयंसेवक जो भारतीय मजदूर संघ के अलावा अन्य संगठनों में हैं उनके बारे में चर्चा की। परमपूज्य श्री गुरुजी ने उनकी सब बातें शांति से सुनने के बाद कहा कि मैं सरसंघचालक हूँ और संघ माने संपूर्ण समाज। तो मैं कैसे घोषित कर सकता हूँ कि जितने मजदूर भारतीय मजदूर संघ के साथ हैं उनका मैं सरसंघचालक हूँ और जो भारतीय मजदूर संघ के साथ नहीं हैं वे मेरे दायरे से बाहर हैं। ऐसा मैं क्या कह सकता हूँ? हम तो उनको भी अपना समझते हैं जो संघ को गाली देते हैं। संघ के स्वयंसेवकों के साथ जो मारपीट करते हैं हम उनको भी पोटेन्शियल स्वयंसेवक समझते हैं। कारण कि वह समाज के अंग है। जो संघ के खिलाफ जाने वाले हैं वह हमारे दायरे से बाहर नहीं हैं। इसलिए हम किसी को डिसओन (अस्वीकार) नहीं कर सकते हैं। आप तो भारतीय मजदूर संघ का काम इतना बढ़ाइए कि जो भारतीय मजदूर संघ में आज नहीं हैं उनको भी बी.एम.एस. में आना बाध्य हो जाए। यह सभी क्षेत्रों के लिए लागू है।

पिछले पाँच छः साल से संघ परिवार की बैठकों का उपक्रम प्रारंभ हुआ है। कभी ऐसा अनुभव होता है कि अमुक विषय में अपना क्या स्टैंड है इसकी संघ के अधिकारियों को भी जानकारी नहीं रहती है फिर सहायता तो आगे की बात है। वैसे भी भा.म.सं. का विषय कोई बड़ा मनोरंजक विषय तो है नहीं। जैसे यदि अटल जी ने कहा कि अगले चुनाव में क्या होगा तो सभी लोग ध्यान से सुनेंगे। और हम यदि चर्चा भी करेंगे तो डिसप्यूट ऐक्ट की या उसकी कौन-कौन सी धारा हमारे किस विवाद में कितना उपयुक्त हो सकती है इसकी चर्चा करेंगे। अतः पहले हमें अपने विषय में रस निर्माण करना होगा जो कठिन काम है। लेकिन हमें रुचि का निर्माण करना ही होगा। प्रमुख अधिकारियों के पास बार-बार जाकर वह चाहें या न चाहें पर मान न मान मैं तेरा मेहमान। इस विषय में हमारे बच्छराज जी व्यास का बड़ा प्रसिद्ध वाक्य था "तुम मानो न मानो हम तो हैं तुम पर फिदा" - ऐसा ही कार्यकर्ता का व्यवहार होना चाहिए। बच्छराज जी व्यास कहते थे आक्रामक प्रेम (Aggressive love) ऐसा उनका शब्द था। और इसके कारण बहुत बार अपने ही बारे में अपने ही क्षेत्र में नासमझी (misunderstanding) उत्पन्न हो जाती है।

संघ परिवार में भी मिसअण्डरस्टेंडिंग होती है। उनके पास न तो आपकी खबर पहुँचती है और आप भी नहीं पहुँच पाते हैं। आपके मन में कोई गलत भावना नहीं होती है। आप समझते हैं कि हम तो ईमानदारी से काम कर रहे हैं। हम वहीं काम कर रहे हैं। किंतु जब आप बताते ही नहीं हैं और दूसरी तरफ कोई पहले बता जाता है उसी का प्रभाव मन पर रहता है। अनावश्यक ही गलतफहमी पैदा होती है। संपर्क बराबर बना रहने से पोषक तटस्थता भी बनी रहती है।

उपकारक तटस्थता की याद हमको तभी आती है जब सामूहिक रूप से उसकी जरूरत महसूस होती है। इसमें बहुत बड़ी ताकत नहीं लगती है लेकिन इस तरफ हमारी सावधानी नहीं रहती है। हम कार्यकर्ता जब कोई हड़ताल होती है तो बड़ी सावधानी से काम करते हैं। रात भर जागरण करते हैं। लेकिन अखंड सावधानी न होने के कारण जो हमारे बस की बातें हैं वह भी हम नहीं करते, बोल भी नहीं सकते। और फिर यदि हम युद्ध की तैयारी में हैं तो हमें यह अंदाजा होना चाहिए कि युद्ध के जो दोनों पक्ष हैं इनकी ताकत क्या है? क्या स्टेंड होना चाहिए? हर स्तर पर लड़ाई है ऐसे युद्ध होना चाहिए। शत्रु-पक्ष की शक्ति कितनी है, अपनी शक्ति कितनी है? हम अपने ही घमंड में रहें यह भी अच्छा नहीं है। रियलिस्टिक एसेसमेंट (Realistic Assessment), यथार्थ अंदाजा इस बात का होना चाहिए। यह बहुत आवश्यक है।

नेपोलियन छिपकर बराबर शत्रुपक्ष का निरीक्षण करता था। गीता में तत्त्वज्ञान है, ज्ञान की बातें हैं, आध्यात्मिक बातें हैं किंतु तो भी एक बात ध्यान में रखने लायक है। लड़ाई के पहले अर्जुन भगवान से कहते हैं "सेनायोरुभयोर्मध्ये रथ स्थापय मेऽच्युत'। मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच खड़ा करो। मैं देखूगा कि उधर कौन-कौन हैं - इधर कौन-कौन हैं। रियलिस्टिक एसेसमेंट आफ सिचुएशन, स्थिति का यथार्थ अंदाजा होना चाहिए। हमको आवेश तो अधिक रहता है लेकिन रियलिस्टिक एसेसमेंट होता नहीं है। यह होने की आवश्यकता है। अब हर एक की कितनी शक्ति है इसका सही एसेसमेंट हमारे पास है क्या? शत्रु का एसेसमेंट लेने वाले लोग तो शायद हमारे पास होंगे। लेकिन हमने ऐसा अनुभव किया है कि हमारे कार्यकर्ता खुद की शक्ति के बारे में जानकारी नहीं रखते।

खुद की शक्ति क्या है ?

अब शक्ति हम जब कहते हैं तो उसमें पोटेन्शियलिटी यानी संभावनाएँ, शक्ति के कहाँ तक बढ़ने की संभावनाएँ हैं, यह भी विषय उसमें आता है। आज अपने पास जितने लोग हैं उनकी कितनी शक्ति है, उनकी कितनी संभावनाएँ हैं? इसकी पूरी-पूरी जानकारी रखना यह भी आवश्यक है।

मनोवैज्ञानिक शक्ति

बहुत बार यह शक्ति शारीरिक स्तर पर केवल संख्यात्मक नहीं रहती मनोवैज्ञानिक हो जाती है। इसके कारण शक्ति का अंदाजा लगाना बहुत कठिन हो जाता है। मैंने इससे पहले उदाहरण दिए थे। एक संपन्न परिवार की लड़की बहू बनकर हमारे परिवार में आई। श्रीमंत परिवार की होने की वजह से उसके घर पर 5-6 नौकर थे। उसको कभी रसोई बनानी नहीं पड़ी। पानी से भरी बाल्टी नहीं उठानी पड़ी। अब हमारे यहाँ तो उसको रसोई बनानी पड़ गई। तो रोटी बनाते समय यदि गरम रोटी का हाथ लग जाता है तो वह सां-सू, सां-सू करती थी। हमारे घर की लड़कियाँ उसका बड़ा मजाक बनाती थीं।

एक दिन रात में घर में आग लग गई। आग की लपटें देख वह हड़बड़ाकर सोती से जागकर एकदम बाहर आ गई। बाहर आने पर इसको ध्यान आया कि उसका नवजात शिशु तो अंदर ही रह गया है। तो वह लाँघकर पहले कमरे से दूसरे कमरे में गई और दूसरे से तीसरे कमरे में गई और अपने बच्चे को गोद में लेकर बाहर आ रही थी तो उसकी साड़ी को आग लग गई। तुरंत उसे हास्पिटल में भेजना पड़ा। लेकिन जिसको रोटी सेंकना भी नहीं आता जो रोटी की गरम भाप से सां-सू, सां-सू करती है उसने जलते हुए मकान के अंदर जाकर शिशु को बाहर निकालने का साहस कैसे किया होगा? तो किस समय किसकी शक्ति कितनी होगी, जब तक उसकी मानसिकता नहीं जानेंगे, अपने कार्यकर्ताओं का मनोविज्ञान आप नहीं जानेंगे तब तक यह बताना मुश्किल है।

एक नवाब साहब थे। कुश्ती के शौकीन थे। उन्होंने पंजाब का जो उस समय का सबसे अच्छा उस्ताद था, उस पहलवान को रखा हुआ था। नवाब का चैलेंज था कि हमारे पहलवान से जो लड़कर कुश्ती जीत लेगा उसे बख्शीश देंगे। ऐसा उन्होंने कहा था। कई पहलवान आए सब हार गए। इसी बीच एक आदमी अपने जवान बेटे के साथ आया। धर्मशाला थी, उसमें वह ठहरा। उसका जो पुत्र था वह कभी अखाड़े नहीं गया था। उसने कभी दंड-बैठक भी नहीं लगायी थी, कुश्ती का तो नाम ही नहीं, ऐसा वह दुबला-पतला था, एकदम सीकिया आपका चैलेंज स्वीकार करता है। वह आदमी बाहर का था, उसके लड़के के बारे में किसी को अनुमान नहीं था। नवाब साहब ने कहा कि ठीक है। कल परसों कुश्ती का आयोजन होगा।

उस आदमी ने नवाब से कहा कि साहब हमें विश्वास है कि आप में कुछ न्यायबुद्धि है। आप नवाब हैं, मैं तो गरीब आदमी हूँ। मेरा लड़का कुश्ती तो अच्छी खेलता है लेकिन मैं उसको खुराक अच्छी नहीं खिला सकता, इसके कारण वह कुछ कमजोर है। कुश्ती में तो यह देखना पड़ता है कि कुश्ती के दाँव पेच कौन अच्छे जानता है, तो कम से कम उसको खुराक खिलाने की व्यवस्था तो कीजिए। 5-6 महीने का इंतजाम कीजिए बाद में कुश्ती होगी। बोले ठीक है 6 महीने बाद चैलेंज की कुश्ती होगी। तो नवाब साहब ने छह महीने बादाम-पिस्ता वगैरह खाने के लिए पूरी व्यवस्था कर दी। अब पहले 3-4 महीने तक जो नवाब का पहलवान था उसने फिक्र ही नहीं की। अतः! होगा कोई कौन सा जरूरी है। लेकिन जैसे-जैसे वह दिन नजदीक आने लगा उसे जिज्ञासा जागृत हुई। आखिर वह है कौन - मेरे से लोहा लेने वाला। यह कौन है तो खबर लेने के लिए अपने दोस्त को खुफिया के नाते जैसे गुप्तचर भेजा जाता है - भेजा। अब उस बेचारे के साथ जो स्थिति थी - उसके कमरे में पहुँचा तो उसको आश्चर्य हुआ। नवाब साहब द्वारा खुराक की व्यवस्था करने के बाद भी उस लड़के के शरीर में कोई फर्क ही नहीं था। वह सीकिया पहलवान ही था।

यह बात जब गुप्तचर ने नवाब के पहलवान को बताई तो उसने कहा कि कोई राज अवश्य है तभी तो उसने मेरे साथ कुश्ती लड़ने की हिम्मत जताई है तो फिर उसने उस लड़के के पिता से दोस्ती बढ़ाई। यह भी अच्छा मनोविज्ञान जानने वाला था, पढ़ा लिखा नहीं था इसलिए सायक्लोजी अच्छी जानता था। उसने संबंध बनाना शुरू किया। कुछ दिन के बाद कहा भाई क्या बात है? आपका यही लड़का कुश्ती लड़ने वाला है। हाँ-यही लड़का है और यही कुश्ती लड़ेगा। तो बोला, यही लड़ेगा? हाँ। तो कैसे? तो वह बोला अभी नहीं जब कुश्ती हो जाएगी तब बताऊँगा। इसका क्या रहस्य है यह मैं कुश्ती हो जाने के बाद ही आपको बताऊँगा। इसने बात पता करने के लिए और दोस्ती बढ़ाई। तब एक दिन उसने कहा कि देखो किसी को बताना नहीं मेरा लड़का क्या है, यह तो मच्छर भी नहीं मार सकता है लेकिन मैं इसका बाप हूँ और मैंने एक सिद्धि प्राप्त की है और वह सिद्धि ऐसी है कि कुश्ती के समय मेरे लड़के से जो हाथ मिलाएगा तो शरीर का शरीर से स्पर्श होते ही वह बेहोश होकर गिर जाएगा। आप जानते ही हैं कि हाथ मिलाए बगैर कुश्ती होती नहीं। बाद में उसका क्या होगा यह मेरी जिम्मेवारी नहीं है। आज भी लोग कुछ न कुछ ऐसा विश्वास रखने वाले होते हैं।

जब कुश्ती का दिन आया तो अलग-बगल के गाँव से दो ढाई हजार लोग इकट्ठा हो गए। नवाब साहब कुर्सी पर आकर बैठ गए। चारों तरफ लोग बैठे हैं। जब वह दुबला-पतला सीकिया पहलवान मैदान में पहुँचा तो लोग हँसने लगे। यह क्या कुश्ती लड़ेगा, ऐसा प्रश्न लोगों के मन में उठने लगा? लेकिन नवाब साहब का पहलवान आया ही नहीं। आया नहीं तो लोगों को आश्चर्य हुआ। पाँच-दस मिनट के बाद नवाब साहब ने कहा कि उसको ले आओ। पहले तो वह आने को तैयार नहीं हुआ। फिर नवाब साहब के आदेश का ध्यान आया और वह आ गया। मैदान में आने के बाद वह बीच में आने को तैयार नहीं। जब वह बीच में आने को तैयार नहीं तो वह लड़का नवाब साहब के पहलवान की ओर बढ़ने लगा। जैसे-तैसे वह दुबला पतला लड़का आगे बढ़ा तो पहलवान मैदान छोड़कर भागने लगा। लोगों ने यह विचित्र दृश्य देखा। वह सीकिया पहलवान पीछा कर रहा है, मगर असली पहलवान भाग रहा है।

तो किसकी कितनी शक्ति है यह केवल शरीर पर अवलम्बित नहीं है। मानसिकता क्या है? शक्ति इस पर अवलम्बित होती है। मानसिकता क्या है यह जानने के लिए कार्यकर्ताओं का मन जानने की आवश्यकता है। शायद दूसरों की मानसिकता जानना थोड़ा कठिन है किंतु जो कार्यकर्ता अपने नजदीक रहते हैं उनकी मानसिकता जानना इतना कठिन कार्य नहीं है। यह बहुत ताकत की बात है, इसके लिए बहुत मनोविज्ञान के ग्रन्थ पढ़ने पड़ेंगे, ऐसी बात नहीं है। परिवार चलाने वाले, घर चलाने वाले अनाड़ी लोग भी अपने परिवार के लोगों की मानसिकता जानते हैं और मानसिकता जानकर ही व्यवहार करते हैं। तो यह हमारे लिए कुछ कठिन काम है क्या? यह काम करना है यह हो सकता है पर सावधानी नहीं है। उसका एसेसमेंट अपने पास होना चाहिए। अपनी शक्ति क्या है? दूसरों की शक्ति क्या है - यह सावधानी छूट जाती है इसलिए वह बात आँखों से ओझल हो जाती है।

तो मेरे कहने का अर्थ यह है कि हम लोग आर्थिक क्षेत्र में सेकेन्ड वार ऑफ इंडिपेंडेंस की बात कर रहे थे। राष्ट्र की दृष्टि से देखा जाए तो तरह-तरह के चैलेन्जेज राष्ट्र के सामने हैं। ऐसा हम सब जानते हैं। यह विस्तार से इस समय कहने की अवश्यकता नहीं है। तो युद्धस्तरीय तैयारी चाहिए और युद्धस्तरीय तैयारी करने में बहुत बड़ा बलिदान करना पड़ता है। इसके लिए बहुत मेहनत करनी होगी। तो कोई रात-रात भर व्यवहार में बहुत ज्यादा तकलीफ न उठाते हुए - यह अलग बात है, सामान्य व्यवहार में बहुत ज्यादा तकलीफ न उठाते हुए भी केवल सावधानी रखनी है। तो सरकुलर आया है केंद्रीय कार्यालय से, उसे पढ़ कर देख लें। बहुत कष्ट की बात नहीं है। 10 लाख रुपया इकट्ठा नहीं हुआ तो कोई आपत्ति की बात नहीं है लेकिन बैंक एकाउंट खोल देना चाहिए। पैसा अपनी जेब से खर्च किया है तो भी हिसाब लिखना ही है। यह कोई कठिन बात नहीं है। यह तो अपने बस की बात है। जाते-जाते पान बीड़ी के ठेले वाले से यदि कहा, कहो भाई तुम्हारी तबियत कैसी है? और फिर चलते-चलते आगे बढ़ जाइए, इसमें कोई विशेष ताकत नहीं लगती है। केवल सावधानी की बात है। थानेदार हैं, उनसे नमस्ते कीजिए। कहिए आजकल दिखाई नहीं देते आप, लगता है ज्यादा व्यस्त हो गए हैं। यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। बहुत बुद्धिमानी की भी बात नहीं है। मामूली बातें हैं। ऐसी छोटी-छोटी बातें हैं जो अभी बताई गई हैं।

केवल अखंड सावधानी न रहने के कारण जो शक्ति-संचय स्वाभाविक रूप से हो सकती है, उस शक्ति-संचय से भी हम वंचित रह जाते हैं, तो बड़ी बातें जो होंगी उसकी स्ट्रेटिजी क्या है? यह है-वह है यह सब बाद में देखा जाएगा। किंतु यह जो छोटी बातें हैं जो केवल अखंड सावधानी के कारण स्वाभाविक रूप से हो जाती हैं, उधर हम अपना ध्यान रखें। हम भी अखंड सावधान रहें इस समय मैं यह आप से कहना चाहूँगा।

तृतीय सत्र

हमारा संगठन है धर्मदंड , अर्थात विसंगतियों पर अंकुश

हमारी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि हम पागल हैं। शेष सब लोग व्यवहार-चतुर हैं, बुद्धिमान हैं। पागल कहने के बाद यह भी बताना पड़ेगा कि जिन कई कारणों से हमें पागल कहा जाता है उनमें से प्रमुख कारण क्या है और साथ ही यह भी स्मरण कराना पड़ेगा कि हमें जोरदार ढंग से पहली बार कब पागल कहा गया और बड़े पैमाने पर आखरी बार यह उपाधि हमें कब दी गई।

आखरी बार हमको पागल कब कहा गया ?

हमें आखरी बार पागल कहा गया यह बात बिल्कुल अभी-अभी की है। मैं सोचता हूँ कि आपमें से 60-70 प्रतिशत लोगों के विषय में यह बात सही होगी कि जब आप लोग यहाँ आने के लिए निकले होंगे तब पत्नी ने अवश्य ही आपको पागल कहा होगा। उसने पूछा होगा कि-कहाँ जा रहे हो? आपने कहा होगा - नागपुर जा रहे हैं। कोई काम है क्या? "नहीं हमारा अखिल भारतीय अभ्यास वर्ग है।" ध्यान में न आने के कारण फिर उसने पूछा होगा, "अभ्यास वर्ग क्या है?" "वहाँ जाने से क्या मिलेगा?" मिलना क्या है? कुछ भी नहीं। उलटे जाने-आने का कष्ट ही है। जेब से पैसा खर्च करना होगा, मजदूर संघ तो कुछ भी नहीं देगा। परिवारवालों से कुछ दिन दूर भी रहना होगा। कुछ लोग वैतनिक और कई लोग अवैतनिक अवकाश लेकर भी आएँगे। यानि पैसा का भी नुकसान है। पत्नी को यह बात तुरंत ध्यान में आई होगी और तब उसने तुरंत कहा होगा कि आप पागल हैं। भौतिक दृष्टि से उसका कहना ठीक भी है। दुनिया की आज की रीति के अनुसार यह सही है। अतः मैं आपसे प्रार्थना करूँगा कि अपने घर का वायु-मंडल खराब करने के बजाए आप फिर से विचार करें कि घाटे का सौदा करना है या नहीं? - पागल कहलाना है या नहीं? वस्तुतः हमें इसी संदर्भ में यहाँ आने से पूर्व आखिरी बार पागल कहा गया है।

और यह पहला प्रसंग : बड़े भाई मिनिस्टर नहीं बने

बड़े पैमाने पर हमें पहली बार जब पागल कहा गया, वह प्रसंग मुझे स्मरण है। चुनाव हो गए थे। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस हार चुकी थी। यह दूसरे चुनाव की बात है। उस समय अपने स्व. श्री रामनरेश सिंह, (बड़े भाई जी) एम.एल.सी. थे। जहाँ संविद सरकार होती है वहाँ मंत्री (मिनिस्टर) बनने की होड़ रहती है। अपने बड़े भाई उस होड़ में नहीं थे। उन्हें उससे कुछ लेना देना भी नहीं था। वे मात्र एम.एल.सी. थे और वह भी इसलिए कि भारतीय मजदूर संघ का कार्य वे बढ़ा सकें। उनको पता भी नहीं था कि उन्हें मंत्री बनाने की चर्चा हो रही है। अन्य लोगों ने ही सोचा कि श्रम मंत्रालय के लिए श्रम मंत्री के रूप में बड़े भाई उपयुक्त व्यक्ति हैं। सोचा कि उन्हीं को कबीना स्तर का श्रम मंत्री बनाना चाहिए। सभी की यही राय बनी। जनसंघ के लोगों ने कहा कि ठीक है, एक बार हम उनसे औपचारिक रूप से पूछ लेते हैं। मिनिस्टर तो उन्हें बनना ही है, वे ना तो कहेंगे नहीं।

फिर जनसंघ वाले गए बड़े भाई के पास। उन सभी की बात सुनकर बड़े भाई ने कहा कि - भाई! इसका निर्णय मैं तो नहीं कर सकता। ठेंगड़ी जी इसका निर्णय ले सकते हैं। जनसंघ वाले बोले कि अरे, इसमें क्या है? ठेंगड़ी जी ना कहेंगे क्या? अपना आदमी मिनिस्टर बनेगा तो ऐसा मौका कौन छोड़ेगा? बड़े भाई फिर बोले कि यह शायद इतना सरल नहीं है, इसमें संशय है। आप उन्हीं से एक बार अनुमति ले लें।

उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दीपावली बैठक बंगलौर में थी। तो हवाई जहाज से आना और जाना, केवल हमसे मिलने के लिए, यह सोचकर कि अनुमति तो मिल ही जाएगी। वे आए। हमसे मिले, बोले कि ठेंगड़ी जी आपके लिए शुभ समाचार है, हमने पूछा क्या है? बोले, बड़े भाई का नाम मंत्री पद के लिए सभी पार्टियों ने सर्वसम्मति से मान लिया है। अब वे कबीना स्तर के श्रम मंत्री बनेंगे। मैंने कुछ बोला नहीं, वह बाल औपचारिक रूप में मैं आप की अनुमति माँगने के लिए लखनऊ से यहां आया हूँ - मैंने कहा कि आपने यह बड़ा गलत काम किया है। एक तो आपने बड़े भाई को मंत्री बनाने की बात सोच ली और फिर हमारी अनुमति माँगने के लिए आए हैं? हमारी दृष्टि से यह आपने भारी गलती की है। वे बोले - क्यों? मैंने कहा कि मैं बड़े भाई को मिनिस्टर बनाने की अनुमति नहीं दे सकता। वे आश्चर्य से मेरी ओर देखने लगे।

उनकी आँखों में जो भाव था उससे लग रहा था कि वे मुझे पागल समझ रहे हैं। मानों वे सोच रहे थे कि इसका (मेरा) दिमाग खराब हो गया है। पागल आदमी की ओर जैसा देखते हैं वैसा ही वे मेरी ओर देख रहे थे। वे बोले कि ठेंगड़ी जी, आप क्या बोल रहे हैं? आप मजाक तो नहीं कर रहे? मैंने कहा - नहीं। यह मजाक की बात नहीं है। तो बोले - बड़े भाई श्रम मंत्री नहीं बनेंगे। आप उनको अनुमति नहीं देंगे? सोच-समझकर बोल रहे हैं क्या? मैंने कहा हाँ, मैं सोचकर बोल रहा हूँ। वे फिर बोले कि आपका व्यक्ति श्रम मंत्री बनेगा लो उत्तर प्रदेश में भारतीय मजदूर संघ नंबर एक पर आ जाएगा। मैंने कहा कि मजदूर संघ की चिंता मैं करूँगा, आपको चिंता नहीं करनी है। बड़े भाई लेबर मिनिस्टर नहीं बनेंगे क्योंकि हमें भारतीय मजदूर संघ को जिंदा रखना है। यह बात वे समझ नहीं सके। वे असमंजस में पड़ गए, क्योंकि उनकी अपेक्षा के यह सब विपरीत हुआ था। वे सबको कह आए थे कि यह मात्र औपचारिकता है हम अनुमति लेकर ही लौटेंगे। उधर तो सूची भी बन चुकी थी। दूसरे दिन घोषणा होनी थी। सांयकाल के वायुयान से उन्हें लौटना था।

उन्होंने मन में सोचा कि आखरी धक्का और लगा लें। अतः भोजन के बाद पुनः मेरे पास आए और बोले कि ठेंगड़ी जी, जरा यहाँ से हटकर बगल में चलें, कुछ खास (प्राइवेट) बात करनी है। जरा हटकर बात होने लगी तो बोले - ठेंगड़ी जी, ये सरकार और मंत्री और मजदूर संघ वगैरह सब छोड़ दें। लेकिन मैं आपका व्यक्तिगत हित चिंतक हूँ। अतः मात्र सतर्क कर रहा हूँ कि बड़े भाई को आप मंत्री बनने की अनुमति नहीं देंगे तो आपके एवं बड़े भाई के संबंध बिगड़ जाएँगे। सभी को पता है कि मात्र आपकी अनुमति लेने आया हूँ और वहाँ पहुँचकर यदि मैं सबको कहूँगा कि बड़े भाई मंत्री नहीं बनेंगे, आपने (ठेंगड़ी जी) रोड़ा डाला है, अडंगा डाला है, तो बड़ी गड़बड़ होगी। बड़े भाई तो इतने क्रोधित होंगे कि उनके जीवन में इतना अच्छा सुनहरी मौका आया था और आपने उसमें रोड़ा अटकाया। तो फिर आपके तो आपस के संबंध ही बिगड़ जाएँगे।

मैंने उस समय उनसे और कुछ नहीं कहा। इतना ही कहा कि जो होगा वह हम आपस में देखे लेंगे, आप इसकी चिंता न करें। वे वापस गए और बड़े भाई मिनिस्टर नहीं बने। इस घटना के छः मास बाद मैं लखनऊ गया। उन्होंने पहले से ही कह रखा था कि ठेंगड़ी जी के लखनऊ आने पर सर्वप्रथम मैं उनसे मिलूँगा। वे आए, बोले - ठेंगड़ी जी, मैं आपसे कुछ स्पष्ट रूप से बोलना चाहता हूँ आप गुस्सा न करें। मेरे मन में आपके प्रति बहुत आदर है, लेकिन मैं उस दिन भी सोच रहा था और आज भी सोचता हूँ कि जब अपना आदमी मिनिस्टर बन रहा हो तो उसे मंत्री न बनने देना, यह निरा पागलपन है। इसका मतलब यह नहीं है कि मेरे मन में आपके प्रति आदर नहीं है, आदर तो पूरा है। उस समय मुझे आपकी बात का बहुत आश्चर्य लगा था लेकिन आज मैं आपसे दूसरी बात करने आया हूँ। मैंने पूछा क्या है? तो बोले कि उस समय मुझे जो आश्चर्य हुआ था उससे दुगना आश्चर्य मुझे लखनऊ लौटने पर हुआ।

मैं जब बड़े भाई के फ्लैट पर जाकर उनसे मिला तो मैं सोच रहा था कि यह दुखद् समाचार उन्हें कैसे सुनाऊँ? जैसे किसी की मृत्यु हो जाती है और जब वह दुखद् सूचना देनी होती है वैसे ही। परंतु मैं प्रस्तावना कर ही रहा था कि बड़े भाई तपाक से बोले कि भाई सीधे-सीधे बताओ कि ठेंगड़ी जी ने अनुमति नहीं दी। मैंने कहा कि जी हाँ, मैं यही कहने वाला था। तो बड़े भाई बोले कि मैं पहले से ही जानता था इसीलिए तो आपको वहाँ भेजा था।

मुझे उस समय बड़े भाई का निर्विकार चेहरा देखकर अत्यधिक आश्चर्य हुआ।, न उस पर कोई निराशा का भाव, न दुख का और न ही क्रोध का भाव। कुछ ऐसा भाव जैसे यह सब तो चलता ही रहता है। उनकी इस बात पर मैंने उनसे कहा कि यह जो मैं पहले ही आपको कहना चाहता था पर कहा नहीं, सोचा कि अनुभव लेने देना ही ठीक है। देखिए आप सब लोग व्यवहार-चतुर हैं। हमारा तो यह पागल लोगों का जमघट है। यहाँ की सायकॉलोजी को समझने में आपको थोड़ा समय लगेगा। तो आखिरी प्रसंग कि तुम पागल हो यह आप लोगों के लिए आज से 3-4 दिन पूर्व आया और हमारे लिए वह पहला अवसर जब हमें बड़े पैमाने पर पागल कहा गया, वह यह था। तो मैंने इस सिलसिले में पहला और आखिरी प्रसंग आपको बताया। वैसे तो ऐसे कई प्रसंग हैं जब लोगों ने हम लोगों को पागल कहा और हम भी कहते हैं कि हमारा यह पागल लोगों का जमघट है। आखिर यह पागलपन क्यों है? यह भी सोचना आवश्यक है।

परम वैभव की कल्पना

आजकल यह मान्यता है कि "राजनीतिक सत्ता' सर्वाधिक महत्वपूर्ण वस्तु है। यहाँ तक कि कुछ लोग तो राजनीतिक सत्ता को ही परम वैभव मानते हैं। बीच में एक बार जब चुनाव के कुछ नतीजे आए थे, तब हमारे एक राजनीतिक मित्र हमारे पास आए। कहने लगे - ठेंगड़ी जी, बड़ा क्रूशियल मोमेंट है (परीक्षा की घड़ी) संघ परिवार की कई संस्थाएँ हैं - विद्यार्थी परिषद, किसान संघ, भारतीय मजदूर संघ - आदि। आप सभी के प्रमुखों की एक बैठक बुलाइए और मास्टर प्लान बनाइए कि अब एक लंबी छलाँग लगानी है। मैंने पूछा - छलाँग कहाँ लगानी है? वे बोले - प्राइममिनिस्टरशिप तक। वे अच्छे, बड़े आदमी हैं। मैंने उनसे कहा - ऐसा है जी, कि लंबी छलाँग लगाने के लिए पैर, घुटने वगैरह बड़े मजबूत चाहिए। हमारे इतने मजबूत नहीं हैं। यह काम हमसे नहीं होगा। अच्छा हो कि यह काम आप ही करें। हमें तो बस हमारा वेतन, मँहगाई भत्ता आदि ठीक मिलता रहे, बोनस का पैसा बढ़ा दीजिए, इसी में हम खुश रहेंगे। प्राइममिनिस्टरशिप वगैरह बड़ी बातें हैं वह आप ही देख लें।

वे थोड़ा नाराज हो गए। बोले-मेरी बात आप मजाक में मत लीजिए। मैंने कहा - ऐसा नहीं, मैं तो बड़ा सीरियसली (गंभीरता से) बोल रहा हूँ। इस पर उन्होंने पुनः मुझे क्रॉस एक्जामिन किया (पुनः टटोला) बोले, परम वैभव अपना ध्येय है, इसे आप मानते हैं न? यदि मानते हैं तो मास्टर प्लान अवश्य ही बनाइए। मैंने कहा कि क्या आप प्राइममिनिस्टरशिप और परम वैभव दोनों को समान मानते हैं? प्रधानमंत्री पद प्राप्त करने को ही आप परम वैभव मानते हैं? परम वैभव माने प्रधानमंत्री बनना क्या यही आपका समीकरण है? तो वह बोले, और क्या हो सकता है?तो फिर हमने उनसे कहा कि आप मेरी बात ठीक से सुन लीजिए। ऐसा है कि राष्ट्र चिरंतन है, सरकारें चिरंतन नहीं हैं। हमारे देश में कितनी ही सरकारें आईं और गईं। कई राजा आए, चक्रवर्ती आए, सुल्तान आए, बादशाह आए, वायसराय आए, आए और सब चले गए। सरकारें तो बदलती रहती हैं, जहाँ डिक्टेटरशिप (तानाशाही) है वहाँ खूनी क्रांति के माध्यम से और जहाँ लोकतंत्र हैं वहाँ बैलेट बॉक्स के माध्यम से - वोट के माध्यम से ये सरकारें बदलती रहती हैं।

मैंने उन्हें कहा कि दुनिया में एक भी ऐसा उदाहरण बताइए कि लोकतंत्र में एक ही पार्टी 500 साल तक, 300 साल या 100 साल तक हुकूमत में रही हो। एक ही पार्टी 50 साल तक लगातार हुकूमत में रही हो। जिस ग्रेट ब्रिटेन का नमूना हमने अपने यहाँ लाया है वहाँ भी लेबर पार्टी है, कंजरवेटिव पार्टी है, लिबरल पार्टी है। वहाँ इनमें से कभी यह तो कभी दूसरी पार्टी सत्ता में आती है। यह सब तो चलता ही रहता है।

और मान लिया कि आपकी पार्टी सत्ता में आ गई तथा आपने हमको प्रधानमंत्री बनाया, तो इससे हमें तो खुशी होगी। हम यह चाहते भी हैं लेकिन ऐसा कोई करता नहीं है। फिर भी मानों कुछ चक्र चला और आपके ठेंगड़ी जी प्रधानमंत्री बन गए। तो क्या आपकी कल्पनानुसार राष्ट्र का परम वैभव आ गया? लेकिन अगले चुनाव में हम यदि हार जाते हैं और लोग हमें धक्के मारकर प्रधानमंत्री पद से हटा देते हैं तो फिर आपके परम वैभव का क्या होगा? तो क्या यह आने जाने वाला परम वैभव आप चाहते हैं! अथवा क्या आप गारंटी देकर कह सकते हैं कि सौ साल तक एक ही पार्टी पॉवर में रहेगी? ऐसा कभी हुआ है क्या? उमर खैय्याम ने इस बारे में कहा है कि "यह दुनिया एक धर्मशाला है। दिन और रात, यह उस धर्मशाला के दरवाजे हैं। इस धर्मशाला में कितने ही सुलतान आते हैं, एक दो या चार दिन ठहरते हैं और फिर यहाँ से चले जाते हैं, लेकिन यहाँ कोई टिकता नहीं।" हमने कहा कि हम सब का भी यही हाल है।

मैंने फिर पूछा कि बताइए - वैसा परम वैभव है आपका? यह आने जाने वाला परम वैभव है क्या? वे बोले कि - लेकिन आपने हिंदुस्तान को सुपर पॉवर बनाना है या नहीं? मैंने कहा - यह नया फॅशनेबुल शब्द है। सुपर पॉवर तो रूस को भी कहते थे। आज उसका क्या हाल है? लेकिन हमारी जब बातचीत हुई थी उस समय रूस के साम्यवाद का पतन नहीं हुआ था। फिर भी मैंने कहा - सुपर पॉवर की कल्पना ठीक है लेकिन उसका जीवनकाल कितना रहेगा इसका विचार किया है क्या? मैंने उनको काल खंडों की गिनती कर बताया कि इजिपशियन एंपायर, बेबोलियन एंपायर, थाईलियन साम्राज्य, ब्रिटिश साम्राज्य, जर्मन साम्राज्य, स्पैनिश पोर्तुगीज, रोमन-ग्रीक आदि साम्राज्य कितने शताब्दी तक रहे। कम से कम रहने वाला जर्मन साम्राज्य छः साल तक रहा और अधिक से अधिक काल तक रहने वाला साम्राज्य 350 साल तक रहा है। तो क्या जब अपने राष्ट्र का परम वैभव आएगा और जब हम सुपर पावर हो जाएँगे तो क्या अपने देश की सुपर पॉवर की सीमा इतनी मात्र आप चाहते हैं ? रूस 1917 में सत्ता की दृष्टि से अस्तित्व में आया और 1989 में वह समाप्त हुआ तो रूस की यह सुपर पॉवर केवल 1945 से 1989 तक कुल 45 वर्ष तक रही। अमेरिका भी अधिक दिनों तक सुपर पॉवर रहने वाला नहीं है। तो आप भारत को परम वैभव पर अधिक काल तक देखना चाहते हैं या सीमित काल तक? केवल अत्यल्प सीमित समय तक परम वैभव पर रहना यह तो हमारा ध्येय नहीं है।

अंग्रेजों की - इंग्लैंड की - हालत आप भी जानते हैं। ब्रिटिश साम्राज्य में कभी सूर्यास्त नहीं होता, ऐसी कहावत थी (सन नेवर सेट्स ऑन दि ब्रिटिश एंपायर) इतना विशाल वह साम्राज्य था। दोनों गोलार्दधों में साम्राज्य था। अतः सूर्य कहीं ना कहीं रहता ही था। किसी ने इसकी विपरीत व्याख्या ऐसी भी की है कि सूरज को इन पर भरोसा ही नहीं है कि ये ब्रिटिश साम्राज्य वाले सज्जन हैं, वे कब क्या गड़बड़ करेंगे इसका भरोसा नहीं - इसलिए सूर्य हमेशा उस पर निगरानी रखता है - अस्त नहीं होता है। हम छोटे थे तो लोग कहते थे कि जब तक चाँद और सूरज रहेंगे तब तक ब्रिटिश साम्राज्य रहेगा। पर आज उसकी क्या हालत है? रूस की जब महासत्ता थी तो एक-तिहाई दुनिया में उसका लाल झंडा लहराता है और शेष दो तिहाई दुनिया में वह शीघ्र ही लहराएगा - ऐसी बातें चलती थीं। उसकी भी आज क्या हालत है? खैर उस समय तो रूस के साम्यवाद का जनाजा नहीं निकला था, अतः मैंने मात्र ब्रिटिश साम्राज्य का उदाहरण दिया। पावर में आने के कारण और सुपर पॉवर बनने के कारण ही यदि परम वैभव आता है तो क्या यह आने-जाने वाला परम वैभव नहीं होगा?

राष्ट्र के पुनर्निर्माण का विचार

परंतु इसी से वे चकरा गए। बोले कि कुछ समझ में नहीं आता है। फिर यह परम वैभव है क्या? हमने कहा कि यह एक अलग विषय हो सकता है लेकिन पालिटीकल पावर को परम वैभव नहीं कह सकते हैं। परम वैभव की बात अलग है, लेकिन आज एक फैशन चल पड़ा है - राजनीतिक सत्ता के बारे में चर्चा करने की। जैसे आजकल कोई विज्ञापन आता है तो लोग उसी वस्तु के पीछे पागल हो जाते हैं। कोलगेट या किसी साबुन का विज्ञापन आता है, टी.वी. पर लोग देखते हैं, तो वही चीज प्रचलित हो जाती है। वैसे ही राजनीतिक सत्ता यही एक प्रमुख बात है इस का इतना प्रचार हुआ है कि लोग अब उसी के पीछे पागल होकर दौड़ते हैं। वस्तुतः यहाँ भी सबने अनुभव कर लिया है कि कोई सत्ता अधिक काल तक टिकती नहीं है। तो भी सबको मोह हो जाता है।

इससे हम समझ सकते हैं कि इस संबंध में हमारी भूमिका अलग क्यों है?कारण इतना ही है कि हम राष्ट्र के पुनर्निर्माण का विचार कर रहे हैं। देश को बलवान बनाना है, दुनिया में नंबर एक का हमारा राष्ट्र बने ऐसी हमारी आकाँक्षा है तो विचार की दिशा यही होगी। केवल मंत्री बनने का सवाल नहीं है। यहाँ तो कितने ही मंत्री आज तक बने हैं उनकी कोई गिनती ही नहीं। आज तक केंद्र में अथवा आपके राज्य में कितने मंत्री बने हैं उन सभी के हम सबको नाम याद रहते हैं क्या? जिस समय जो मंत्री रहता है, उसका बोलबाला रहता है और मंत्री पद चला जाता है तो उसकी क्या हालत होती है?!! श्री विद्याचरण शुक्ला मंत्री थे। उस समय वे श्रीमती इंदिरा गाँधी के विश्वासपात्र और निकट माने जाते थे बल्कि इंदिरा जी के बाद दूसरे नंबर के वे माने जाते थे। सब लोग उनकी चापलूसी भी करते थे। वे बड़े प्रभावी थे। सरकार बदल गई तो उनका मंत्री पद चला गया। उस समय की बात है, मैं भोपाल स्टेशन पर गाड़ी पकड़ने के लिए खड़ा था। शुक्ला जी को देखा कि वे बुक स्टॉल पर अकेले खड़े हैं। जब वे मंत्री थे तो लोग उनकी चापलूसी करते थे। अगल-बगल घूमते थे। परंतु इन लोगों में से भी एक दो को मैंने देखा। विद्याचरण जी वहाँ खड़े हैं यह देखकर वे ऐसा लंबा रास्ता काट कर गए। उनके पास में नहीं गए। पास से जाते तो नमस्ते करनी पड़ती। ये है राजनीतिक सत्ता का करिश्मा। अतः राष्ट्र निर्माण में इसका कितना महत्व है, कैसा महत्व है - यह विचार करना होगा। टी.वी. पर बार-बार देखे गए विज्ञापन के प्रभाव के वशीभूत जैसे लोग लक्स साबुन या कौलगेट खरीदने के लिए जाते हैं वैसे ही राजनीतिक सत्ता, यही सबसे अधिक वांछनीय बात लगती है।

राजनीतिक सत्ता के सहारे राष्ट्र का पुनर्निर्माण संभव नहीं

यह राजनीतिक सत्ता भी कुछ ही दिनों तक रहती है। कुछ दिन पूर्व इंडिया टुडे में एक लेख छपा था। शीर्षक था - "व्हेयर आर दे टुडे"? याने वे आज कहाँ हैं? उस लेख में ऐसे सब लोगों का उल्लेख था कि उस लेख के पूर्व तक रोज समाचार पत्रों में जिनके नाम आते थे और एक दशक के अंदर ही ऐसी हालत हो गई कि समाचार पत्र उनका नाम तक लेने को तैयार नहीं थे। ऐसे पुण्यश्लोक लोगों के नाम और गिनती उस लेख में थी। तात्पर्य यही है कि सत्ता में कुछ दिनों तक तो बोलबाला रहता है पर बाद में उन्हें कोई पूछता तक नहीं। मुझे लगता है कि यदि आपको कोई एकाएक पूछ ले कि आपके राज्य में शुरू से अब तक कौन-कौन मुख्यमंत्री रहे - तो आपको सर खुजाना पड़ेगा। एकाध बार प्रसिद्धि मिल जाती है तो व्यक्ति समझता है कि सबसे अधिक वांछनीय बात यही है। तो ऐसी अस्थायी और तात्कालिक प्रसिद्धि के चक्कर में हम क्यों पड़ें? या फिर बोनस, डी.ए. की माँग, हड़ताल वगैरह के चक्कर में हम क्यों पड़ें, सीधे उधर सत्ता की ओर ही चले जाते हैं।

अत: यह ठीक से समझने की आवश्यकता है कि राजनीतिक सत्ता के सहारे राष्ट्र का पुनर्निर्माण संभव ही नहीं है। दुनिया के इतिहास में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है कि कोई राष्ट्र राजनीतिक सत्ता के सहारे बड़ा हो। हाँ ऐसा हुआ है कि राजनीतिक सत्ता का साधन के रूप में उपयोग किया गया है। उपयोग करने वाले अलग लोग थे, पालिटीकल पावर यह साधन था। इतिहास का अध्ययन करेंगे तो ध्यान में आएगा कि - सर्वसाधारण नागरिक की राष्ट्रीय चेतना का स्तर - यही आधार है राष्ट्र के पुनर्निर्माण का - प्राइमिनिस्टरशिप नहीं। राष्ट्रीय चेतना का स्तर ऊँचा नहीं है तो पालिटीकल पॉवर से कुछ नहीं हो सकता है। और यदि राष्ट्रीय चेतना का स्तर अच्छा है तो पालिटीकल पॉवर का अच्छी ताकत के रूप में उपयोग हो सकता है। यदि यह स्तर ऊँचा है तो उनमें से स्वाभाविक रूप से राष्ट्रीच चेतना से युक्त नागरिकों के स्वायत्त, स्वयं-शासित, (आटोनॉमस, सेल्फ गव्हर्नड) जन संगठन खड़े हो जाते हैं और ऐसे जन संगठन जब खड़े हो जाते हैं तभी सही मायनों में नैतिक नेतृत्व का उदय होता है। जब तक ऐसे जन संगठन प्रबल नहीं होंगे, नैतिक नेतृत्व का उदय नहीं हो सकता है।

नैतिक नेता , नैतिक नेतृत्व

नैतिक नेता और नैतिक नेतृत्व दोनों में थोड़ा अंतर होता है। नैतिक नेता तो हमारे देश में हमेशा ही रहे हैं। लेकिन नैतिक नेतृत्व का अर्थ होता है - सभी नैतिक नेताओं को लेकर उनके सामूहिक नेतृत्व की भूमिका सबसे बड़ी रही। लेकिन जैसे ही काँग्रेस के हाथ में सत्ता आई तो सत्ता आते ही कांग्रेस की कल्चर बदल गई। उस समय अमरीकी पत्रकार नील फिशर गांधी जी से मिलने आए। उन्होंने लिखा है कि महात्मा जी रोते थे, अक्षरशः रोते थे, और कहते थे कि, "मैं अपनी हालत का क्या वर्णन करूँ? मेरी क्या हालत हो गई है। कल तक जो मेरे शिष्य रहे वह आज मेरी बात तक सुनने के लिए तैयार नहीं।" और कहीं यदि ऐसा विषय आया गांधी जी की सलाह लेने का तथा उन्हें जिसमें लगता था कि गांधी जी की अनुमति अपने अनुकूल नहीं होगी तो गांधी जी की सलाह के बिना ही काम करते-सीधे ही बिना पूछे घोषणा कर देते थे।

हमने भी देखा है कि 1977 में कांग्रेस को हटाकर जो जनता सरकार आई थी तो उस समय किसी राजनीतिक दल को वोट नहीं मिला था। वोट जयप्रकाश नारायण जी को मिला था। जय प्रकाश जी के अनुशासन में चलने वाले ये लोग हैं ऐसा सोचकर उन्हें वोट दिया गया था। किसी राजनीतिक नेता या राजनीतिक दल को यह वोट नहीं था। इसी कारण प्रधानमंत्री का चुनाव भी बड़े अनोखे ढंग से हुआ। वैसा सिर्फ हिंदुस्तान में ही हो सकता है, अन्यत्र नहीं। आज की कमजोर स्थिति में भी निर्वाचन की यह पद्धति केवल अपने देश भारतवर्ष में ही संभव हो सकती है। सभी संसद सदस्यों के सामने बात रखी गई कि मीटिंग में वोट डालकर प्रधानमंत्री का चुनाव होगा। तो सबने कहा कि नहीं जैसा जय प्रकाश जी कहेंगे वैसा ही होगा, उनकी राय से प्रधानमंत्री बनेगा। फिर आचार्य कृपलानी और एक अन्य वृद्ध नेता-दोनों एक कमरे में बैठे। एक-एक कर संसद सदस्य कमरे में जाते और अपनी राय उनको बताते। बाद में इन दो वृद्ध नेताओं ने फैसला सुनाया और मोरारजी भाई देसाई प्रधानमंत्री बने। इसका अर्थ है कि लोगों ने जे.पी. को वोट दिया था। लेकिन जब जयप्रकाश जी मृत्युशैय्या पर थे, तो उनके आशीर्वाद से चुने गए राजनेताओं को, मंत्रियों को, एक को भी उनसे मिलने का समय नहीं मिला। यह सभी राजनेता बहुत व्यस्त रहते हैं इसलिए इनको उनको देखने तक की फुरसत नहीं हुई। इसका अर्थ है कि नेता तो हैं लेकिन नैतिक नेतृत्व नहीं है। याने सर्वसाधारण लोगों का नैतिक स्तर जब ऊँचा होता है तब उनके स्वायत्त, स्वयंशासित जन संगठन का नैतिक नेतृत्व भी खड़ा हो जाता है। इसी को हमारे यहाँ धर्मदंड कहा गया।

धर्मदंड की आवश्यकता

यह धर्मदंड बड़ा आवश्यक होता है। सरकार हाथी के समान होती है। हाथी बहुत बलवान है इसमें कोई शक नहीं। वह जितनी मात्रा में ताकत के बड़े-बड़े काम करता है, उतना दूसरा कोई नहीं कर सकता है। लेकिन हाथी यदि पागल होकर एकदम निरंकुश हो जाए और हमारा हरा-भरा बगीचा उजाड़ने लगे तो क्या हम भगवान से यह प्रार्थना करेंगे कि हे भगवान, हाथी साहब का मूड अच्छा रखें अन्यथा हमारा बगीचा ही उजड़ जाएगा। यह तो कोई अच्छा उपाय नहीं है। हाथी सबसे अधिक बलवान है और हमको उसकी शक्ति का उपयोग भी करना है इसलिए अंकुश की व्यवस्था हमने की है। केवल हाथी के मूड पर सब कुछ छोड़ा नहीं जा सकता है। हाथी अच्छा है, लेकिन वह सब अच्छा ही करेगा इसकी गारंटी भी चाहिए। इसीलिए व्यवस्था है कि उस पर अंकुश रखा जाता है। हाथी जब तक ठीक से चलता है तो अंकुश दबाने की आवश्यकता नहीं होती। और जब वह गड़बड़ करे तो अंकुश दबाया जाता है, जिससे वह चिंघाड़ता है और ठीक से काम करने लगता है। अंकुश पकड़कर महावत हाथी के गंडस्थल पर बैठता है, इसी तरह सर्वसाधारण नागरिकों की राष्ट्रीय चेतना का स्तर यह आधार, और स्वायत्त, स्वयंशासित जन संगठन यह अंकुश, और इस अंकुश को पकड़कर हाथी के गंडस्थल पर बैठा हुआ महावत माने नैतिक नेतृत्व (moral leadership) अर्थात धर्मदंड।

हमारे यहाँ हमेशा राजदंड के ऊपर धर्मदंड की कल्पना की गई है। राजा को कभी सुप्रीम पॉवर याने सर्वोच्च शक्तिमान नहीं माना गया। कानून बनाने का अधिकार राजा को या शासन को नहीं है। शासन को मात्र 'गार्जियन ऑफ दि कांस्टीट्यूशन' (संविधान का पालक या संरक्षक) कहा गया है। लेकिन कांस्टीट्यूशन बनाने का अधिकार शासन को या राजा को नहीं दिया गया है। यह अधिकार नैतिक नेताओं को दिया गया। ऐसे लोगों को दिया है जिनके पास न आर्थिक सत्ता है, न शासकीय सत्ता है पर जो लंगोटी लगाकर जंगल में घूमते हैं या गरीब के नाते नगरों में रहते हैं। लेकिन उनके विषय में सभी लोगों के मन में यह विश्वास है कि वे स्वार्थी नहीं हैं, सज्जन हैं, संपूर्ण समाज का विचार करते हैं। जिनकी कोई गुटबंदी नहीं है। जिनके मन में यह अपना है वह पराया है, यह भाव नहीं है। "अयं निजो परा वेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानांतु वसुधैव कुटुंबकम्'। सारी दुनिया हमारा परिवार है - ऐसा जो मानते हैं और सारा संसार ऐसा स्वीकार भी करता है कि ये लोग ऐसे हैं, इस कारण इनका शब्द सर्वमान्य होता है - राजा का नहीं, पूँजीपतियों का नहीं। लँगोटी लगाने वालों का शब्द ही सर्वमान्य होता है। जनता उसके ही शब्दों को सबसे अधिक सम्मान देती है।

ऐसे लोगों को ही हमारे यहाँ संविधान बनाने का अधिकार रहा है। स्मृतियाँ राजाओं ने नहीं बनाई। स्मृतियाँ लँगोटी वालों ने बनाई हैं। और इतना ही नहीं तो अपने संविधान में राजा के कर्तव्य क्या हैं, उसको क्या करना चाहिए यह लिखने का काम, राजधर्म बनाने का काम भी लँगोटी वालों ने ही किया है। और यदि कोई राजा उन्मत्त होकर लँगोटी वालों के लिखे संविधान का उल्लंघन करता है तो हमारे धर्मशास्त्रों की आज्ञा है कि जनता ने विद्रोह करके उस राजा की हत्या कर देनी चाहिए, यहाँ तक हमारे यहाँ व्यवस्था है। इस तरह से धर्मदंड सबसे ऊपर है, उसके अंतर्गत राजदंड चलेगा तो समाज में सब ठीक चलेगा। राजदंड सबसे ऊपर है यह कल्पना भौतिकता प्रधान पश्चिम की है। यह हमारी कल्पना नहीं है।

यदि राजसत्ता सर्वप्रमुख हो जाए, लोगों में राष्ट्रीय चेतना नहीं रहे तथा जनसंगठन नहीं खड़े हों और समाज में धर्मदंड का, नैतिक नेतृत्व का उदय नहीं हुआ हो, सर्वत्र शासन ही सर्वशक्तिमान दिखाई देता हो तो क्या परिणाम होगा? लोग कहते हैं कि लोकतंत्र के संविधान में गारंटी है लोक स्वातंत्र्य की। लेकिन हिटलर की तानाशाही वोट के वक्त से ही आई थी। फ्रेंच राज्यक्रांति के सर्वश्रेष्ठ नेता थे रॉबिस स्पेउर। उन्होंने राज्यक्रांति के पूर्व ऐसा कहा था कि जिस प्रकार का लोकतंत्र का ढाँचा इंग्लैंड में आ रहा है, उसमें यह भी व्यवस्था है कि लोक निर्वाचित प्रतिनिधि आपस में मिलकर यदि षड्यंत्र करते हैं - जनता के खिलाफ, जनता को अंधेरे में रखकर, तो वे सब मिलकर जनता पर तानाशाही थोप सकते हैं। 1975 में हमने भी अनुभव किया है कि लोकतंत्र, संसद, संविधान सबके होते हुए भी इंदिरा गाँधी ने संसद का ही उपयोग करते हुए, उसकी सहमति से और उसके माध्यम से तानाशाही - इमरजैंसी - लाई थी। हजारों को जेलों में ठूँस दिया था। हजारों परिवार बरबाद कर दिए गए। और यह सब संसद की अनुमति से किया गया। इसका स्पष्ट अर्थ है कि लोकतंत्र और संविधान होने मात्र से ही लोकतंत्र बचेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। लोकतंत्र रहते हुए भी तानाशाही आ सकती है।

शासन की विचित्र प्रकृति

इसका कारण है कि शासन का भी अपना एक स्वभाव है। उसकी अपनी एक प्रकृति है-सेल्फ एक्सपेंशन और सेल्फ परपेच्युएशन की। एक्सपेंशन का अर्थ है विस्तार। अपने अधिकारों का दायरा अखंड बढ़ता रहे, अधिक से अधिक विषय मेरे अधिकार-क्षेत्र में रहे, यह इच्छा। और सेल्फ परपेच्युएशन माने मैं अखंड सत्ता में रहूँ यह इच्छा। प्राचीन काल में कुछ लोग कहते थे कि "शासकः मुनि वृत्तिनाम्"। राजा जब प्रौढ़ हो जाते थे तब राजसत्ता छोड़कर जंगल में जाते थे, वानप्रस्थ लेते थे, मुनि बन जाते थे। आज मुनि बनने के लिए किसी को भी फुर्सत नहीं है। आजकल तो वह सोचते हैं कि मंत्री पद की कुर्सी से ही सीधे "रामनाम सत्य हो", - सीधे वहाँ से शमशान घाट जाएँ। यह है "सेल्फ परपेच्युएशन"। सेल्फ एक्सपेंशन और सेल्फ परपेच्युएशन, यह सत्ता के स्वाभाविक गुण नहीं हैं।

धर्मदंड के कारण इस वृत्ति पर नियंत्रण रखा जाता है। और धर्म के कारण जो धर्म-प्रवण मनुष्य हैं वह इन दोनों से बच सकते हैं। ऐसे लोगों को राजर्षि कहा जाता है। हमारे यहाँ राजा जनक या रघुवंश के लोग हुए हैं। प्राचीन काल में तो ऐसे सभी थे जो राज्य पद छोड़ देते थे और मुनिवृत्ति धारण करते थे, वानप्रस्थ लेते थे। पश्चिम में भी ऐसे लोग हुए हैं, जैसे जार्ज वाशिंगटन। ऐसे कई श्रेष्ठ लोग हुए हैं, परंतु थोड़े हैं। किंतु सर्वसाधारण प्रवृत्ति क्या है? थोड़े राजर्षि हो सकते हैं लेकिन सर्वसाधारण में तो वह सेल्फ एक्सपेंशन और सैल्फ परपेच्युएशन की वृत्ति है। अतः राजनीति कैसे चले, सत्ता परिवर्तन किस ढंग से हो, इसका भी नियम भगवान ने बताया है। आध्यात्मिक क्षेत्र में जो भगवान ने बताया है वह सभी क्षेत्रों पर लागू होता है। राजनीतिक क्षेत्र पर भी लागू होता है। भगवान ने बताया है कि व्यक्ति ऊपर कैसे जाता है, नीचे कैसे आता है। तो ऊपर और नीचे आने-जाने की प्रक्रिया इस प्रकार से भगवान ने बतायी है -

त्रैविद्यां मां सोम पाः पूत पापा , यज्ञैरिष्टवा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।

ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्र लोकनश्रन्ति दिव्यान्दिवि देव भोगान्॥ 8/20

गीता ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं , क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।

8/21 गीता

सात्त्विक विद्याओं का अध्ययन करने वाले विद्वान, तपश्चर्या माने आत्म क्लेश बर्दाश्त करने वाले, हवन करने वाले, जनसेवा करने वाले, सोमपान करने वाले लोग भगवान से प्रार्थना करते हैं कि हे भगवान! हमें स्वर्ग की प्राप्ति हो। तपश्चर्या जब पूर्ण हो जाती है तो पुण्य बढ़ जाता है और पुण्य बढ़ने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इस स्वर्ग में जाने की सीढ़ी क्या रही है? तपश्चर्या, आत्म क्लेश, जनसेवा, होमहवन। यह सब स्वर्ग प्राप्त करने की सीढ़ियाँ हैं। और फिर स्वर्ग में जाने के बाद ते-त्वं भुक्तवा स्वर्गलोके विशालम्। - स्वर्ग-लोक में उपभोग्य वस्तुएँ मिल जाती हैं। तपश्चर्या, आत्मक्लेश आदि के समय उपभोग की बात ही नहीं रहती है। स्वयं को कष्ट देने की बात रहती है। पर स्वयं को कष्ट देने से जब स्वर्ग में पहुँचने पर उपभोग्य वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में दिखाई देती हैं।

भगवान ने कहा है कि तब इसके मन में विचार आता है कि स्वर्ग में तो पहुँच ही गए। यहाँ उपभोग्य वस्तुएँ भी हैं, तो क्यों न उनका उपभोग किया जाए। धीरे-धीरे उपभोग लेना शुरू होता है। फिर उसकी प्रवृत्ति बढ़ती जाती है। उपभोग का चस्का लग जाता है। और जैसे-जैसे उपभोग बढ़ता जाता है, पुण्य क्षीण होता जाता है। जिस सीढ़ी से स्वर्ग में पहुँचे थे, वह सीढ़ी पुण्य की, तपश्चर्या की क्षीण हो जाती है। फिर मन में भी यह एक प्रकार की निर्भयता आती है कि मैं अधिक से अधिक उपभोग लूँगा तो मेरा कौन क्या बिगाड़ेगा और उपभोग की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। फिर "क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोके विशंति" - पुण्य पूरी तरह क्षीण होने पर पुनः मृत्यु लोक में जाना पड़ता है। (बैंक टू दि कांस्टीट्यूऐंसी) फिर से निर्वाचन क्षेत्र में वापस आना पड़ता है। ऐसा भगवान ने कहा है। राजनीति में भी यही नियम है। उनको स्वर्ग से धरती पर आना पड़ता है और इनको अपने गृह निर्वाचन क्षेत्र में वापस जाना पड़ता है।

मोह पर विजय पाने वाले इक्के दुक्के ही महर्षि होते हैं, जिनको राजर्षि कहा जाता है। सभी राजर्षि नहीं होते हैं। अतः अंकुश की आवश्यकता होती है। यदि अंकुश न हो, धर्मदंड न हो और मैं यदि प्रधानमंत्री बन जाऊँ, तो मेरा भी पतन होगा। यदि धर्मदंड न हो, लोकशक्ति खड़ी हुई न हो, जनशक्ति न खड़ी हो। जो जनसंगठन है वह यदि कमजोर हो, राष्ट्र शक्ति कमजोर हो। और समाज की ऐसी दुरावस्था में में ठेंगड़ी भी, यदि प्रधानमंत्री बन जाऊँ तो मैं भी अवश्य ही भ्रष्टाचार करूँगा। यह मैं आश्वासन देना चाहता हूँ। और आप मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेंगे।

धर्मयुक्त भाषण देने में और प्रधानमंत्री बनने के बाद के चरित्र में यदि जनशक्ति प्रबल न हो तो कोई सम्यक् संबंध नहीं रहता है। प्रधानमंत्री बनने के उपरांत किसी के भी मन में आ सकता है कि मैं भ्रष्टाचार क्यों नहीं करूँ। और जनशक्ति प्रबल न होने के कारण आप इस भ्रष्टाचार करने की प्रवृत्ति को रोक नहीं पायेंगे। यदि विश्वामित्र का पतन हो सकता है तो ठेंगड़ी का भी होगा अथवा किसी का भी हो सकता है। तो जनसंगठन मजबूत नहीं है, जनशक्ति नहीं है, अंकुश नहीं है, नैतिक नेतृत्व का उदय नहीं है, धर्मदंड का उदय नहीं है, तब प्रधानमंत्री बनने के बाद किसी का भी पतन हो सकता है। वह भ्रष्टाचार में लिप्त हो सकता है।

इसके विपरीत यदि राष्ट्रीय चेतना का उदय हुआ है, सर्वसाधारण नागरिक राष्ट्रीय चेतना से युक्त हैं, इस राष्ट्रीय चेतना से युक्त नागरिकों के स्वायत्त स्वयंशासित जनसंगठन खड़े हुए हैं, उसके कारण नैतिक नेतृत्व अर्थात धर्मदंड का उदय हुआ है, जनशक्ति जाग्रत है तो यदि नक्सलवादी भी प्रधानमंत्री बनेगा तो उसे भी झख मारकर हेडगेवार भवन में आना पड़ेगा। कोई भी राष्ट्रीय नीति तय करने से पहले नक्सलवादी भी यदि प्रधानमंत्री बन जाए तो उसको हेडगेवार भवन में आना होगा, अन्यथा उनको भी राष्ट्रीय नीति तय करना संभव नहीं होगा। लेकिन यह प्रकृति राजसत्ता की नहीं होती।

इसीलिए अपने यहाँ प्रारंभ से ही धर्मप्रवण शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका अर्थ इतना ही है कि सर्वसाधारण व्यक्ति राष्ट्रीय चेतना से युक्त हो,, स्वायत्त स्वयंशासित जनसंगठन खड़े हों, और राजदंड तथा धर्मदंड का अंकुश हो। जनसंगठन की भूमिका अंकुश की होती है। राजाओं को यह बात ध्यान दिलाने के लिए हमारे यहाँ नियमित विधि थी। पश्चिम के भौतिकता प्रधान सभी राष्ट्रों की आयु केवल 200, 300 अथवा 350 वर्ष की है। हमारा तो सनातन राष्ट्र है अतएव बहुत अनुभवों के बाद अनेक विधि, विधान निश्चित किए गए हैं। अतएव अनेक अनुभव के बाद ही राजदंड के ऊपर धर्मदंड रहेगा यह हमने तय किया हुआ है। अब जिनके पास राजदंड है वह यदि धर्मदंड को मानते ही नहीं तो उनको स्मरण दिलाने के लिए राष्ट्रीय चेतना से युक्त धर्मप्रवण संघ की आवश्यकता होती है। सामाजिक एवं राष्ट्रीय चेतना से युक्त व्यवहार को धर्म कहते हैं और यह धर्मदंड सर्वोपरि होता है।

अपने यहाँ विश्व विजय प्राप्त करने वाले राजा को चक्रवर्ती सम्राट कहा जाता था। चक्रवर्ती सम्राट के राज्याभिषेक के समय विश्वजीत यज्ञ होता था। विश्वजीत यज्ञ की प्रक्रिया पूरी होने पर ही चक्रवर्ती सम्राट माना जाता था। परंतु इस यज्ञ के अंत में एक अंतिम विधि ऐसी थी कि वह विधि संपन्न होने के उपरांत ही घोषित किया जाता था कि अब ये चक्रवर्ती सम्राट हो गए हैं। वह विधि ऐसी थी कि एक बड़े विशाल मैदान में जन-समूह से घिरे बड़े ठाट-बाट के साथ अपने राज्य सिंहासन पर यह चक्रवर्ती सम्राट् बैठते थे, उनके बगल में एक लँगोटी वाले संन्यासी अपने हाथ में पलाश का डंडा लेकर खड़े हुए हैं। उस समय यह राजा तीन बार घोषणा करते थे, अदंडयोऽस्मि, अदंडयोऽस्मि, अदंडयोऽस्मि। माने मुझे कोई दंड नहीं दे सकता है। मैं सर्वोपरि हूँ। इनके इस प्रकार तीन बार घोषणा करने के पश्चात पलाश दंड हाथ में लिए हुए यह लँगोटी वाले संन्यासी सभी के सामने राजा की पीठ पर तीन बार पलाश दंड मारते थे और कहते थे, 'धर्मदण्डोऽसि, धर्मदण्डोऽसि, धर्मदण्डोऽसि'। धर्म तुमको दंड दे सकता है। उनके तीन बार ऐसी घोषणा करने के उपरांत ही उस राजा को चक्रवर्ती सम्राट घोषित किया जाता था। यह सब प्रतीकात्मक है।

यह रचना रहेगी तो समाज में संतुलन रहेगा। यह रचना नहीं रही तो समाज में संतुलन नहीं रह सकता है। इसमें जनसंगठन की भूमिका अंकुश की है। लेकिन आजकल प्रचार का वायमंडल है। प्रचार अथवा विज्ञापनों के पीछे भागने की आवश्यकता नहीं है। हमारे मन पर विज्ञापन का शासन हो गया है। वायुमंडल का प्रभाव हमारे मन पर भी पड़ता है। सबसे वांछनीय बात राजनीतिक सत्ता, प्रधानमंत्री बन गए और बस। प्रचार और विज्ञापन के माध्यम से वायुमंडल के विषैले कीटाणुओं का इस तरह से मन पर हमला होता है।

यह विषय इंदौर के अभ्यास वर्ग में भी रखा गया था। वहाँ हमारे एक कार्यकर्ता ने प्रश्न पूछा था कि जब राजसत्ता की यह सब गलत भूमिका है तो भारतीय मजदूर संघ अपने हाथ में स्वयं राजदंड क्यों नहीं ले लेता है? जिन्होंने यह प्रश्न पूछा था वह हमारे परम मित्र होने के नाते उनका नाम बताने में कोई आपत्ति नहीं है वह हैं आपके राजेश्वर जी। तो राजेश्वर जी ने यह प्रश्न पूछा था और हमने उस समय उनसे कहा था कि हम चाहते हैं कि तुम हाथी का अंकुश बनो और तुम हाथी बनना चाहते हो। राजेश्वर जी ने वह प्रश्न मजाक में ही पूछा था। वैसे वह बहुत समझदार व्यक्ति हैं। तो बाहर के जो विषैले कीटाणु हैं, उनके कारण साध्य-साधन विधेय, कर्म-कारण भाव, आकाँक्षा एवं आवश्यकता इसका विपर्यय (constituary) जनता के मन पर हुआ है। विज्ञापन की वजह से, प्रसार के कारण, गलत जीवन मूल्यों की वजह से जीवन मूल्य (values of life) समाप्त होने के कारण कभी-कभी अपने मन पर भी प्रभाव होता है।

हमने ध्यान में रखना है कि देश से समाज बड़ा नहीं हो सकता है। राजनीतिक सत्ता आती है और जाती है। महत्व धर्मदंड का है, राष्ट्रीय चेतना का स्तर यह उसका आधार है। तपश्चर्या करने वाले लोग जिनका नैतिक नेतृत्व है, समाज का नियंत्रण उनके हाथ में होना चाहिए।

राजदंड और धर्मदंड का आपसी संबंध

यह नैतिक नेतृत्व, धर्मदंड और राजदंड के संबंध में एक कहानी है। इस कहानी से, जो हमको पागल कहते हैं वह काफी कुछ समझ सकेंगे। एक राजा थे। उन पर दूसरे राजा ने हमला किया। लड़ाई हुई, राजा हार गया और प्राण बचाकर, राज्य छोड़कर जंगल की ओर भागा। भागते-भागते हाँफने लगा, भूख-प्यास से तड़पने लगा, इतने में कहीं दूर आश्रम दिखाई दिया तो वहाँ पहुँच गया। वहाँ एक ऋषि थे। उनको प्रणाम किया और अपनी कहानी सुनाई। ऋषि ने कहा - कुछ आराम कर लो। थोड़ी देर में थकावट कुछ दूर हुई तो पुनः ऋषि से कहा - महाराज प्यास लगती है, भूख लगी है, कपड़े फट चुके हैं। ऋषि बोले - चिंता मत करो। देखो आँगन में वह पेड़ है, उसके नीचे जाकर बैठो और जो चाहिए वह माँग लो, मिल जाएगा। राजा पेड़ के नीचे बैठ गया। बोला, ठंडा पानी चाहिए - पानी आ गया। भोजन चाहिए, सजी सजायी थाली में मिष्ठान्न सहित भोजन आ गया। नींद व थकान की वजह से झपकी आने लगी तो सोने के लिए बिछौना आ गया। इसको आश्चर्य हुआ कि जो जो चीज माँगो वह मिल जाती है? क्योंकि वह कल्पवृक्ष था।

एक दिन राजा के मन में आया कि जो माँगो वही मिल जाता है तो क्या मेरा गया हुआ राज्य भी माँगने पर मुझे वापस मिल जाएगा?! राजा उठकर ऋषि के पास गया और यही प्रश्न किया। ऋषि ने कहा प्रयास करो-पूछ के देखो, वह कल्पवृक्ष है। उसके नीचे बैठने पर प्रत्यक्ष पता चलेगा। राजा ने पेड़ के नीचे बैठकर राज्य वापस मिलने की कामना की। चौबीस घंटों के अंदर उस राज्य के कुछ नागरिक दौड़ते हुए आए। बोले - महाराज बड़ा उत्पात हो गया है। जो नए राजा हुए थे, उनके खिलाफ जनता ने विद्रोह कर दिया है। उन्हें भगा दिया है। जनता पुनः आपको ही चाहती है, अतः हम आपको लेने आए हैं। राजा को बड़ा आनंद हुआ कि चलो राज्य भी वापस मिल गया।

कल्पवृक्ष की शक्ति देखकर राजा को अधिक ही आश्चर्य हो रहा था, अतः विदाई लेने के लिए राजा ऋषि के पास गया, उनको प्रणाम किया, आभार प्रकट करते हुए कृतज्ञता व्यक्ति की और विदाई ली। ऋषि ने भी राजा को विदाई के समय आशीर्वाद दिया। परंतु राजा गए नहीं, रुक गए। ऋषि ने कहा, अब क्या बात है? राजा बोला-मेरे मन में एक जबरदस्त संदेह है। आपके आँगन में कल्पवृक्ष है, वह भोजन-पानी से लेकर राज्य तक की सभी कामनायें पूर्ण करता है, ऐसी अवस्था में आप सारे ऋषि लोग व्यर्थ की तपश्चर्या और आत्मक्लेश आदि क्यों उठा रहे हैं?! हवन, व्रत-उपवास व अनशन क्यों कर रहे हैं? इसकी वजह से सभी दुबले, पतले भी हैं। ऋषि ने कहा राजा-जा कर अपना राज्य चलाओ। यह बात समझने में तुमको समय लगेगा। पर राजा ने कहा महाराज कुछ तो कारण समझाकर बताइए। इस पर ऋषि ने कहा राजा! सुनो - जब तक हम लोग तपश्चर्या कर रहे हैं, आत्मक्लेश सहन कर रहे हैं, तभी तक कल्पवृक्ष में यह शक्ति रहेगी कि वह हर एक की कामना पूर्ण करेगा और जब हम तपश्चर्या आदि बंद कर देंगे तो कल्पवृक्ष की यह अद्भुत शक्ति, सभी की कामनाएँ पूरी करने की वह भी नष्ट हो जाएगी।

धर्मदंड और राजदंड का यह संबंध यदि हम ध्यान में रखें तो। फिर हम पागलपन क्यों लेते हैं, यह समझ में आएगा। कई चीजों में हमारा पागलपन इसी कारण है। छोटी-छोटी बातें हैं, लेकिन उन पर ध्यान देने की आवश्यकता होती है। सारी दुनिया में मान्यता है कि संस्था यदि बड़ी हो गई तो बैंक बैलेंस भी बड़ा होना चाहिए। कार्यालय बड़े-बड़े होने चाहिए, वाहन पर्याप्त मात्रा में होना चाहिए। परंतु हम मानते हैं कि ये सब चीजें हमारी वर्तमान की आवश्यकता है, होना चाहिए। अर्थात वह 'नीड बेस्ड' यानी आवश्यकता पर आधारित होना चाहिए। यही बात प्रसिद्धि-(पब्लिसिटी) के बारे में है।

प्रसिद्धि बारिश के समान होती है। बारिश का एक ऑपटिमम् प्वाइंट होता है। उससे अधिक बारिश हुई तो बाढ़ आती है और नुकसान होता है, और कम बारिश आई तो अकाल पड़ता है और नुकसान होता है। अतः प्रचार भी आवश्यकता पर आधारित होना चाहिए। कहीं पर प्रस्ताव छपते हैं तो कहीं पर हड़ताल हुई है तो यह खबर समाचार-पत्र में आनी चाहिए। हर दिन हम अपना फोटो अखबार में देखें यह इच्छा ठीक नहीं है। इससे संगठन बिगड़ता है। संपत्ति भी उतनी ही चाहिए जितनी आवश्यक हो। साधन अधिक होने से आदतें बिगड़ती हैं। साधन अधिक होने से साधना की प्रवृत्ति समाप्त होती है।

व्यक्ति केंद्रित नेतृत्व

आज देश में व्यक्ति केंद्रित नेतृत्व दिखाई देता है। हमारे यहाँ सामूहिक नेतृत्व है परंतु आज देश में नेतृत्व की कल्पना ही विचित्र है। एक नेता को बड़ा बनाओ, इसकी जय-जयकार करो। पर हमारे यहाँ व्यक्ति की जय-जयकार नहीं होती है। भारत माता की जय-जयकार होती है। पूरे हिंदुस्तान में ऐसा कोई संगठन नहीं है कि जहाँ व्यक्ति की जयजयकार करने से मना किया गया हो। वहाँ पर व्यक्ति विशेष के कद को बढ़ाते हैं। लगता है समूचा संगठन एक व्यक्ति के करिश्मे पर ही टिका हुआ है। व्यक्ति विशेष की छवि बढ़ाने से संगठन खोखला होता है। लोगों को लगता है कि संगठन वगैरह का झंझट करने की अपेक्षा एक ही की जय जयकार करेंगे तो अपना काम भी हो जाएगा। अतएव वह संगठन के प्रति उदासीन हो जाते हैं। यह नेता भी संगठन खड़ा न होने पावे इसी का प्रयास करता है। उसको सीधे, समूह पर अपनी पकड़ समाप्त होने का डर लगा रहता है इसलिए वह जानबूझ कर प्रयास करता है कि संगठन कभी भी खड़ा न होने पावे, केवल मेरी जय जयकार होती रहे।

अनेक केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों के विभाग में तो जब मान्यता मिल जाती है तो नेताओं का प्रयास रहता है कि संगठन अब न बढ़े क्योंकि संगठन बढ़ने से नया खून लेना पड़ता है नए कर्तव्यवान लोग सामने आते हैं। मैं प्रमुख स्थान पर रहूँ या न रहूँ परंतु संगठन बड़ा होना चाहिए इसलिए अपने से यदि कोई योग्य हों तो उनको आगे लाया जाता है। लेकिन आजकल उल्टा होता है। एक बार नेता बन जाने के बाद यही चिंता रहती है कि दूसरा कोई मेरी स्पर्धा में न आने पाए। और यदि कोई कर्तृत्ववान कार्यकर्ता होंगे भी तो उनको खदेडकर पीछे कैसे कर दिया जाए। नए खून को ज्यादा कर्तृत्ववान न बनने दिया जाए, उनसे काम करने का आह्वान न किया जाए। इन बातों से नेता की छवि तो बढ़ती जाती है लेकिन संगठन खोखला हो जाता है। बाद में वह न नेता का रहता है और न संगठन का रहता है। दोनों ही समाप्त हो जाते हैं। व्यक्ति केंद्रित नेतृत्व एवं सामूहिक नेतृत्व की प्रकृति में यह जबरदस्त अंतर रहता है।

मालाओं का उदाहरण

व्यक्ति केंद्रित नेतृत्व एवं सामूहिक नेतृत्व में कैसा अंतर रहता है? हमने तुलसी की माला अथवा रुद्राक्ष की माला देखी होगी उसमें एक मेरुमणि रहता है। मेरुमणि की मान्यता ऐसी है कि 108 रुद्राक्ष माला में रहने के बाद भी यदि मेरुमणि नहीं है तो माला अपूर्ण रहती है। माला को मान्यता ही तभी मिलती है जब उसमें मेरुमणि हो। माला को मान्यता के लिए उसमें मेरुमणि का रहना अपरिहार्य है। व्यक्ति केंद्रित नेतृत्व में व्यक्ति विशेष का भी यही हाल होता है। माने आप 108 की बजाए 216 अथवा 432 लोग जुटा लीजिए लेकिन जब तक यह नेता जी, मेरुमणि जी महाराज नहीं होंगे तब तक माला माने संगठन अपूर्ण ही रहेगा। नेतागिरी करने वालों का यही सोच रहता है। हम हैं तो संगठन का अस्तित्व है और यदि हम नहीं हैं तो आप जैसे हजारों लोग हों उसका कोई महत्व नहीं है।

लेकिन दूसरी प्रकार का जो सामूहिक नेतृत्व है उसकी भी अपनी एक प्रवृत्ति है। हम जब फूलों का हार बनाते हैं तब एक-एक फूल को धागे में सुई से पिरोते जाते हैं। सुई की वजह से धीरे-धीरे माला बड़ी हो जाती है। अच्छी लगने लगती है। और जब संगठन पूरा हो जाता है, पूरी माला, पूरा हार जब बनकर तैयार हो जाता है तब सुई के मन में यह विकार कभी भी नहीं आता है कि यह माला मेरी वजह से बनी है। तो इस माला में मेरुमणि के समान अपरिहार्य रूप से मैं भी बनी रहूँ। उल्टा ही होता है कि हार पूरा बन जाने के बाद सुई को, जिसकी बदौलत वह हार पूरा बनकर तैयार हुआ है, उसको हार में से निकाल देते हैं। हमने आज तक हार के साथ अपने गले में सुई को लटगाये हुए किसी को नहीं देखा होगा। हाँ, सुई को आत्मतोष रहता है कि मैंने यह पूरा हार बनाया है। लेकिन हार में मेरुमणि के समान की उसकी इच्छा नहीं रहती है। यह प्रवृत्ति सामूहिक नेतृत्व में आती है। लेकिन आजकल इसको पागलपन कहा जाता है। उसकी वजह यह है कि जहाँ एकदम नेता बनने के उपाय, हथकंडे, चालाकियाँ और तिकड़मबाजियाँ चलती हैं, वहाँ हमारे जैसे लोगों को पागल कहा जाता है।

हम पागल हैं, इसीलिए भारतीय मजदूर संघ है। हमने प्रारंभ से ही यह चेतावनी दी है कि जो चतुर हैं उनको भारतीय मजदूर संघ में आना ही नहीं चाहिए। जो पागल हैं, जिनका जरा दिमाग का पेंच कुछ ढीला है वही भारतीय मजदूर संघ में आएँ। किंतु हम राष्ट्र को आश्वासन देना चाहते हैं कि राष्ट्र के पुनर्निर्माण का, गरीबों की गरीबी दूर करने का, रोने वाले लोगों के आँसू पोंछने का, unto the last अर्थात अंत्योदय का, माने देश के छोटे से छोटे और गरीब से गरीब व्यक्ति के उत्कर्ष को सिद्ध करने का जो प्रमुख साधन है, भारतीय मजदूर संघ उसमें रहेगा। और इसलिए जो व्यवहार-चतुर लोग हैं, उनको हम कहेंगे कि साहब आप भारतीय मजदूर संघ के बाहर हट जाइए। आप प्रधानमंत्री बनिए। आप दुनिया के प्रेसीडेंट बनिए लेकिन हमने परम वैभव सिद्ध करना है। आप आएँगे और जाएँगे। हम तो राष्ट्र के परम वैभव के लिए काम कर रहे हैं और वह हम करके रहेंगे। गरीबों की गरीबी दूर करेंगे। रोने वालों के आँसू पोछेंगे। आखिरी आदमी के उत्कर्ष तक हम काम करते रहेंगे और इसके लिए ही यह हमारा पागलपन है। और इसलिए हम कहते हैं कि -

बिगड़े हुए इन दिमागो में खुशियों के यह लच्छे हैं।

हमें पागल ही रहने दो, हम पागल ही अच्छे हैं।।

मोह-माया की रस्सियाँ काटें

युद्ध शस्त्र नहीं मन लड़ता है

अब युद्ध है तो युद्ध में शस्त्रों की आवश्यकता है, साधनों की आवश्यकता है। सब से प्रमुख कौन सा है यह प्रश्न है। अंग्रेजों के समय युद्ध में प्रमुख शस्त्र होता था बंदूक। पर अंग्रेजी में कहावत है - युद्ध में बंदूक नहीं लड़ती, उसको चलाने वाला हाथ लड़ता है; फिर कहा हाथ भी नहीं लड़ता तो उसके पीछे जो मनुष्य का मन है, वह वास्तव में लड़ता है। अर्थात युद्ध में साधन कम रहें या अधिक परंतु प्रमुख शस्त्र या महत्व की बात है युद्ध करने वाले मनुष्य का मन - उसके मन की तैयारी। और जब हम यहाँ से निश्चय करके जाएँगे कि लड़ाई के मोर्चे पर हमें काम करना है तो हमारा सबसे प्रमुख शस्त्र हमारा मन है, उसकी चिंता हमें अधिक करनी चाहिए। शेष शस्त्र (साधन) कम अथवा अधिक रहें तो कोई चिंता नहीं।

वियतनाम पर जब अमेरिका ने हमला किया, अमेरिका के पास उस समय न शस्त्रों की कमी थी, न धन की। दस साल तक युद्ध चलता रहा, पर अमेरिका जीत नहीं पाया। वियतनाम गरीब देश था। शस्त्रास्त्र और धन की कमी थी पर उसके नागरिकों का मन युद्ध के लिए पक्का था। अमरीकी सोलजर यह एक अच्छा सैनिक नहीं है, उसके पास अति आधुनिकतम शस्त्रास्त्र थे, पैसा वगैरह सब कुछ था। लेकिन अमरीकी सेना की टुकड़ी को कहीं भेजना होता है तो पहले यह देखना पड़ता था कि वहाँ अच्छी कैंटीन की व्यवस्था है या नहीं, खेलने के लिए मैदान है या नहीं, पर्याप्त मच्छरदानियाँ हैं या नहीं। सभी सैनिक सुविधाएँ हों तभी अमरीकी सैनिक लड़ सकता है। माने सुबह का नाश्ता है तो देखना पड़ता है कि उसमें मक्खन, सॉस, जेली, जैम-किसी चीज की कमी तो नहीं है।

ऐसे सुविधाभोगी सैनिक, अतः उनका मन इतना मजबूत नहीं होता था। बटन दबाते ही मशीनगन से गोलियाँ निकलती जाती हैं, तो कहा जाता है कि अमरीकी सैनिक युद्ध नहीं करता उसकी बंदूक युद्ध करती है। वियतनाम के पास शस्त्रास्त्र नहीं थे। पैसा भी नहीं था। यह गरीब लोग थे परंतु वियतनामी सैनिक का मन प्रखरता से लड़ता था, दृढ़ता से लड़ता था। अपने कार्यकर्ता का मन भी इसी तरह दृढ़ होना चाहिए।

मन को सम्हालना होगा

खुद का मन ठीक रखना है यह तो हम सोचते ही हैं लेकिन सावधानी न रहने पर अपने ही मन को ठीक रखना बड़ा कठिन हो जाता है। हमारा मन पक्का है, पर कई बार परिस्थितियाँ ऐसी आती हैं कि उनमें मन विचलित हो सकता है। कार्यकर्ता यहाँ से कुछ निश्चय करके घर पहुँचता है, वह सामान भी नहीं रख पाता है तब तक पत्नी कहती है कि जरा ये टेलीग्राम क्या है - देखिए। टेलीग्राम पढ़ा-सास की तबियत बहुत खराब है, गहन चिकित्सा कक्ष (इंटेंसिव केयर यूनिट) में रखा गया है, तुरंत वहाँ जाना है। मन कहता है वहाँ जाना जरूरी है और सास की तबियत जब तक कुछ ठीक नहीं होती तब तक वहाँ रहना भी है। मानवता, सज्जनता, परिवार - सब दृष्टि से यह आवश्यक है ही।

मजदूर संघ का काम जीवन भर का है, वह तो करते ही रहना है, इसमें कोई संशय थोड़े ही है। पर सास को देखने जाना यह आपद्धर्म है। वहाँ से वापस आए तो पत्नी कहती है - 'ऐ जी! अगली पंद्रह तारीख को लड़के का इंटरव्यू है। अच्छे ढंग से पास हो गया तो तुरंत नौकरी मिलेगी। लड़का यदि इंटरव्यू में फेल हो गया तो फिर झंझट खड़ा होगा। तो उसकी थोड़ी तैयारी करवा दीजिए। 10-12 दिन रोज एक घंटा उसे पढ़ाने से काम हो जाएगा। भारतीय मजदूर संघ का काम तो जीवन भर का है वह भागा थोड़े ही जा रहा है उसके बाद कर लेना। तो जीवन भर इसी प्रकार से ये पारिवारिक और अन्य काम आते ही रहते हैं।

यह टकटक चलती ही रहेगी

इस संबंध में स्वामी रामतीर्थ ने एक कहानी बताई है। एक व्यक्ति घोड़े पर सवारी कसकर, सुबह ही वीरान प्रदेश में निकल पड़ा। गरमी के दिन थे, और प्रदेश वीरान था घोड़े को बड़ी तेजी से दौड़ा रहा था। स्वयं घुड़सवार और घोड़ा दोनों पसीने से तर, सूर्य भी अधिक प्रखरता से गर्मी बरसा रहा था। लेकिन आश्रय हेतु न कोई पेड़ न कोई छाया दिखाई दे रही थी। मध्यान्ह हो गई, दोनों थक गए थे। ऐसे में कहीं दूर हरियाली दिखाई दी। सोचा कि वहाँ पहुँच कर विश्राम करेंगे। पहुँचे तो सामने कुआँ था, रहट भी था, और टंकी भी थी। रहट चल रहा था, रहट से पानी टंकी में आ रहा था। घुड़सवार ने पहले खुद पानी पिया, हाथ मुँह धोया और बाद में घोड़े को पानी के पास ले आया।

घोड़ा पानी को स्पर्श करता इतने में रहट की टकटक की आवाज आई। घोड़े ने उस ओर देखा तब तक क्षणार्ध के लिए टकटक बंद हो गई थी। घोड़ा फिर से पानी पीता तो पुनः टकटक, वह पुनः उसकी ओर देखने लगा - यह क्रम थोड़ी देर चला। घोड़े की आदत थी कि आवाज सुनाई दे तो चौकन्ना होकर उस ओर देखता था और शेष काम बंद कर देता था। घुड़सवार ने देखा कि घोड़ा पानी नहीं पी रहा है तो माली को बुलाकर उसे कहा कि अपने रहट की टकटक बंद करो, मेरा घोड़ा पानी पी नहीं पा रहा है। माली ने रहट बंद किया तो टकटक की आवाज बंद हो गई लेकिन पानी आना भी बंद हो गया तो टंकी भी खाली होती जा रही थी। अतः घोड़ा टंकी में पानी न होने की वजह से फिर पानी नहीं पी सका। घुड़सवार ने पुनः माली को कहा कि तुमने रहट बंद कर दिया अब मेरा घोड़ा टंकी से पानी कैसे पिएगा? माली ने कहा कि तुम्हारे घोड़े की आदत है टकटक की आवाज की ओर देखना और मेरे रहट की आदत है टकटक करना। मेरा रहट तो अपनी आदत नहीं बदल सकता अतः तुम्हारे घोड़े को ही अपनी आदत बदलनी होगी तभी वह पानी पी सकेगा।

यह भगवान की लीला है। भगवान का रहट चल रहा है। भगवान के इस रहट की टकटक तो चलने वाली ही है। अतः सास अस्वस्थ है, लड़के का इंटरव्यू है, लड़की के लिए वर खोजना है - ये सब चलने वाला ही है। यह टकटक बंद होने वाली नहीं है। तो घोड़े को अपनी प्यास बुझाने के लिए इस टकटक के रहते पानी पीने की आदत डालनी होगी। हमको भी इस सब सांसारिक चख-चख के रहते हुए अपनी काम करने की आदत डालनी होगी। यदि हम इस तरह अपने दिमाग में सामंजस्य नहीं बिठा सकते तो कार्य करना ही मुश्किल हो जाएगा।

पर मन वहीं पर रहे

भगवान रामकृष्ण इस मानसिक सामंजस्य के बारे में एक उदाहरण दिया करते थे। एक धनी व्यक्ति के घर बच्चा पैदा हुआ। उस बच्चे के लिए एक आया रखी गई। वह बच्चे की देखभाल बहुत ध्यानपूर्वक करती थी। वैसा न करती तो उसकी नौकरी छूट जाती। बाबा गाड़ी में बच्चे को घुमाना, नहलाना, कपड़े पहनाना, सब कुछ ठीक ढंग से करती थी। दोपहर बच्चे को कुछ खिला-पिला के झूले में डालती, झुलाती और सुलाती। भगवान रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि वह आया उस बच्चे को बड़ी ईमानदारी से झुला रही है, लेकिन उसका मन उसकी झोपड़ी में गंदे कपड़ों पर सोए हुए उसके अपने बच्चे की ओर ही है - कि कहीं वह जाग तो नहीं गया, रो तो नहीं रहा। वह माँ-माँ कह कर पुकार रहा होगा। आगे भगवान रामकृष्ण कहते हैं कि उस आया की तरह हम भी संसार के सब काम ठीक ढंग से करते रहें लेकिन अपना मन भगवान के चरणों में - उनके ध्यान में स्थित रहना चाहिए।

ध्यान केंद्रित हो ताकि संतुलन बना रहे

अब हम तो इतने श्रेष्ठ नहीं हैं। हम तो अपने ध्येय का ही सदैव स्मरण करते रहें और उसी में भगवान के दर्शन करते रहें, यही पर्याप्त होगा। हम लोग सांसारिक कामों को छोड़ दें ऐसी बात नहीं है। जो पूर्णकालिक हैं, उनकी बात अलग है। सभी पूर्णकालिक बनें ऐसी इच्छा तो है, पर यह कठिन है, सरल नहीं है। अतः हमारे सांसारिक काम भी चलते रहें और हमारे मन में हमेशा भारतीय मजदूर संघ रहे यह आवश्यक है। यह संभव भी है। इस हेतु एकाग्रता चाहिए।

गुजराती साहित्य में वर्णन आता है कि कई स्थानों पर बहुत दूर से पानी लाना पड़ता था। ऐसे में मात्र एक घड़ा पानी ले आना, दुबारा जाना, तीन चार बार जाना, यह संभव नहीं है। अतः वहाँ के साहित्य में ऐसा वर्णन है कि गुजरात की महिलाएँ आठ-दस घड़े एक साथ लेकर जाती थीं और वह भी 8,10 और 12 के समूह में जाती थीं। घड़े भरकर और एक-दूसरे की सहायता से उनको अपने सर पर एक पर एक रख, ऐसे आठ-दस घड़े रखती थीं और वापस आती थीं। इस पानी लाने के क्रम में महिलाएँ घड़ों को हाथ से पकड़कर नहीं रखती थीं कि कहीं संतुलन बिगड़ न जाए बल्कि हाथ हिलाते आती थीं। हाथ दोनों खाली रहते थे लेकिन उनका ध्यान घड़ों पर केंद्रित रहता था कि घड़े गिरे नहीं। इससे संतुलन बिगड़ता नहीं था। अपने कार्यकर्ता का मन भी इसी तरह का होना चाहिए। जिससे सांसारिक काम सभी चलते रहें लेकिन अपना ध्यान यूनियन, भारतीय मजदूर संघ और राष्ट्र कार्य की ओर हमेशा बना रहे।

एकांतिक निष्ठा चाहिए

यह बहुत आवश्यक भूमिका है। उपरोक्त मानसिक संतुलन न रहे और हम वैसी चिंता न करें तो सद्भावना से युक्त होते हुए भी हम राष्ट्रकार्य नहीं कर सकते। इस हेतु मन की सावधानी के साथ-साथ एक और सावधानी हमें बरतनी होगी। ध्येयवादी मनुष्य का मन भी सोचता है कि ध्येय के साथ-साथ थोड़ा अपना ही काम थोड़ा आगे बढ़ाया तो आपत्ति क्या है? वह सोचता है कि लक्ष्य पथ पर आगे बढ़ते हुए कुछ अपना नाम भी यदि रोशन हो सकता है, कुछ स्वार्थ सिद्ध हो सकता है, तो आपत्ति क्या है? यह आदमी ध्येय के लिए सब कुछ करेगा, पर चलते चलते अपना थोड़ा सा स्वार्थ भी वह पूर्ण कर लेगा। यह कार्यकर्ता प्रामाणिक है, ईमानदार है, ध्येयवादी भी है लेकिन वह सोचता है कि ध्येय के साथ-साथ कुछ अपना स्वार्थ भी सिद्ध हो जाए तो इसमें आपत्ति क्या है? तो मन को इतना ही सचेत और ऊँचा रखना है कि वह ध्येय के प्रति एकांतिक निष्ठा रख सके।

मुझे एक घटना याद आती है। पहले मेरे पास राजनीतिक काम था। माननीय भैया जी दानी संघ के सरकार्यवाह थे। उन दिनों हर एक चुनाव के समय अन्य नेताओं से आपसी बातचीत, समझौता वार्ता के द्वारा बातें तय करने का काम मुझे दिया गया था। एक ओर सोशलिस्ट पार्टी के प्रतिनिधि थे, दूसरी ओर मैं था और बीच में कहा कि भैयाजी। बातचीत से वापस आने पर मैंने एक बार श्री भैया जी दानी से कहा कि भैयाजी! द्वारकाप्रसाद जी ठीक हैं, उनमें राजनीतिक नेता के गुण हैं, इसलिए शायद वे हमारे लिए उपयोगी न हो, लेकिन मुझे लगता है कि वे शत प्रतिशत हिंदू हैं।

भैया जी दानी ने मुस्कराते हुए कहा कि हाँ, तुम्हारी बात सही है। मैंने पूछा - फिर इस तरह हँस क्यों रहे हैं? तो बोले कि तुम इतने दिनों से प्रचारक हो, मनुष्य के मनोविज्ञान का तुमको पता है, तुम्हारा अंदाजा गलत तो नहीं हो सकता, वह ठीक है। द्वारकाप्रसाद जी सौ प्रतिशत हिंदू हैं यह बात ठीक है, परंतु वे इसके साथ-साथ 40 प्रतिशत, 50 प्रतिशत, 60 प्रतिशत, 70 प्रतिशत और भी कुछ हैं। मैंने पूछा ये और भी कुछ क्या है? तो बोले - वे द्वारकाप्रसाद मिश्र हैं। माने मनुष्य ध्येयवादी है, पर वह सोच सकता है कि चलते-चलते कुछ थोड़ा अपना भी काम हो जाए तो इसमें आपत्ति क्या है? इसका मतलब यह नहीं है कि वह गद्दार हो गया है, स्वार्थी हो गया है, धोखा देना चाहता है, ऐसा नहीं है। जैसे साइड बिजनेस करते हैं, उसी तरह ध्येय के लिए काम करते-करते कुछ अपने लिए भी करने की इच्छा हो सकती है।

सम्मोहात् स्मृति विभ्रमः

इस संबंध में ग्रीक पुराणों में बड़ी मजेदार कहानी है। एक राजा था। उसकी कन्या का नाम अटलांटा था। वह अत्यधिक सुंदर थी। पूरे ग्रीस देश में उसके सौन्दर्य की ख्याति थी। इसके साथ-साथ उसकी ओर भी एक ख्याति थी कि दौड़ने में वह पी.टी.उषा के समान बहुत तेज थी और सदा दौड़ में विजयी रहती थी। राजा ने अटलांटा के विवाह के लिए एक शर्त रखी थी कि जो युवक दौड़ में मेरी पुत्री को मात देगा, उसी से उसका विवाह रचा जाएगा। शर्त तो रख दी, पर राजा ने सोचा कि मात्र इतनी शर्त रखने से चाहे जो ऐरा-गैरा दौड़ में भाग लेने आएगा और उनकी संख्या भी अधिक हो सकती है। अतः एक दूसरी भी शर्त राजा ने रखी कि जो दौड़ में अॅटलांटा से हार जाएगा, उसे जीवन भर जेल में रहना पड़ेगा। इस बड़ी शर्त के कारण कुछ पाँच सात युवक ही दौड़ में भाग लेने आए। पर उन सभी को अटलांटा ने हराया। बाद में एक युवक और आया। लोगों ने इसे मना किया कि क्यों पागलपन करते हो, व्यर्थ में जेल की हवा खानी पड़ेगी। परंतु युवक ने निश्चयी स्वर में कहा कि मैं अवश्य ही जीतने वाला हूँ।

युवक चतुर था। उसने अपनी कमर में एक पट्टा (बेल्ट) बाँध रखा था, जिसमें सुनहरे चमकदार सेब लगे हुए थे। उनकी चमक-दमक कुछ और ही थी। सारे ही सेब एक से एक रंग-बिरंगे और चमकदार थे और स्वाभाविक ही सब का मन उधर आकर्षित हो जाता था। दौड़ शुरू हुई। दौड़ते-दौड़ते राजकुमारी ॲटलांटा उस युवक के आगे निकल गई। युवक ने कमर पट्टे में से एक सुनहरा सेब निकालकर आगे फेंका। वह लुढ़ककर राजकुमारी से कुछ आगे पहुँचा। राजकुमारी ने देखा तो उसका मन ललचाया। उसने सोचा कि वह सेब उठा लूँ और फिर आगे बढूँ। उसने वैसा ही किया। पुनः वह दौड़ने लगी और युवक से आगे ही थी कि थोड़ी देर में युवक ने पहले से अधिक चमकीला सेब फेंका। राजकुमारी ने देखा और मन ललचाया तो उसे भी उठा लिया।

उस युवक ने एक से एक बढ़कर चमकीले सेब क्रम से ही पट्टे में लगा रखे थे। पहला वुछ चमकदार दूसरा उससे ज्यादा चमकदार तीसरा उससे भी ज्यादा चमकदार। उसी क्रम से वह सेब निकालता गया और थोड़ी-थोड़ी देर में फेंकता गया। प्रत्येक बार दौड़ के मार्ग से कुछ हटकर और कुछ अधिक दूर सेब फेंका जाता और राजकुमारी उसे उठाती। वह सोचती कि सेब उठाऊँगी और कुछ अधिक तेज दौड़कर पुनः युवक से आगे ही चली जाऊँगी। यह क्रम चतला रहा। दौड़ की सीमा से अब वस कुछ ही दूरी पर दोनों थे। उस समय युवक ने आखरी सेब, जो सर्वाधिक चमकदार और लुभावना था, थोड़ा दूर फेंका। राजकुमारी उस ओर लपकी तो युवक ने अपनी गति तेज की और वह राजकुमारी से पहले सीमा रेखा पर पहुँच गया। युवक ने दौड़ जीत ली और राजकुमारी से विवाह किया। परंतु अँटलांटा का मोह उसे ले डूबा। लक्ष्य था दौड़ में जीतने का पर उसके साथ-साथ थोड़ा सुनहरी सेब भी उठा लिया तो क्या आपत्ति है, इस भाव ने उसे हरा दिया।

हमारा कार्यकर्ता भी अँटलांटा की तरह ध्येय के पथ में आए मोह की क्या गति होती है यह ध्यान में रखें और यह भी कि ध्येय-पथ पर लक्ष्य केंद्रित होने पर कोई इधर-उधर की बात उसे मोहित न कर सके। अच्छे-अच्छे सक्षम कार्यकर्ता भी सोचते हैं कि हम तो जीतने वाले हैं। हम ध्येय सिद्ध करके ही रहेंगे पर जाते-जाते थोड़ा अपना काम भी कर लिया तो कोई हर्ज नहीं है। इस मोह को टालना इस दृष्टि से हम अखंड सावधान रहें, यह आवश्यक है। हम अच्छे हैं, ध्येयवादी भी हैं फिर भी कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ आ जाती हैं कि आदमी के बहादुर होते हुए भी उसके मन में कुछ समय के लिए ही क्यों न हो पर कभी कभी हिचक आ जाती है।

कभी ऐसा भी हो सकता है

जीवन में कभी-कभी बड़े विचित्र प्रसंग आते हैं। माधवराव पेशवा के जीवन की एक घटना है। वे अनुशासन प्रिय व्यक्ति थे एवं कड़ाई से अनुशासन का पालन भी करवाते थे। एक बार हाथी की लड़ाई आयोजित हुई। इस हेतु जो मैदान था वह सुरक्षित था और चारों ओर उसकी सुरक्षा का उचित प्रबंध भी था। चारों ओर लोग बैठ गए। माधवराव पेशवा का अंगरक्षक था खंडेराव दरेकर, जो बड़ा पराक्रमी था। हाथियों की लड़ाई शुरू हुई। एक हाथी अधिक मार खाने के कारण चिढ़कर बिफर गया और प्रेक्षकों में घुस गया। जिधर माधवराव पेशवा बैठे थे, उसी ओर वह हाथी घुस गया और पेशवा के निकट पहुँचने लगा। उनका अंगरक्षक खंडेराव बड़ा बहादुर था पर संकट एकाएक आया था और सोचने के लिए फुरसत नहीं थी। ऐसे में असमंजस में पड़कर प्रतिक्रिया में (Reflex action) घबराकर वह वहाँ से भाग गया। सौभाग्य से माधवराव पेशवा को कुछ नहीं हुआ। लोगों ने पेशवा से कहा कि आपका अंगरक्षक यहाँ से भाग गया। उसे सेवा-मुक्त कर देना चाहिए। परंतु पेशवा ने कहा ऐसा नहीं है। कभी-कभी अच्छे से अच्छा बहादुर आदमी भी असमंजस और भय के कारण मैदान छोड़कर भाग जाता है। इसमें इसको कायर नहीं मानना चाहिए। एकाध बार अचानक संकट आने पर ऐसा हो सकता है।

वैसी ही दूसरी घटना

ईसा मसीह के भक्तों की भी एक कहानी इसी प्रकार की है। ईसा की मृत्यु के पश्चात दो लोगों ने सोचा कि उनके उपदेश का प्रचार करना चाहिए। उनमें एक था पीटर, दूसरा बर्नाबॉस। उन दिनों ईसाइयत का प्रचार करना बड़ा कठिन काम था, रोमन साम्राज्य भी इसके खिलाफ था। इसके कारण जनता भी खिलाफ थी। अतः यह काम जोखिम का था। किसी भी गाँव में जाकर ईसा के उपदेशों का प्रचार करना बहुत खतरनाक था। लोग बोलने नहीं देते थे, मीटिंग नहीं होने देते थे। यदि मीटिंग हुई तो उसमें कई प्रश्न करते और मारपीट भी करते थे। इस पर भी इन दोनों ने अपना प्रचार कार्य जारी रखा। एक गाँव में भाषण हुआ। मार्क नाम का एक बीस-इक्कीस साल का जवान इनके भाषण से बहुत प्रभावित हुआ और इन दोनों के पास आकर बोला कि मैं आपके भाषण से बहुत प्रभावित हुआ हूँ, आपके सिद्धांतों से सहमत हूँ, अतः कृपया मुझे भी आप प्रचार कार्य में अपने साथ रख लें। उन दोनों ने मार्क को समझाया कि तुम जरा पूरा विचार कर लो, क्योंकि वह धर्म प्रचार करना बड़ा जोखिम का काम है। परंतु मार्क दृढ़ रहा और उन दोनों के साथ प्रचार कार्य में जुट गया।

एक दिन वे तीनों ऐसे गाँव में गए कि जहाँ सब विरोधी थे। वे लोग एवं पीटर तथा बर्नाबॉस को खतम करने का षड्यंत्र रच चुके थे। संयोग से पहले मार्क का भाषण हुआ। चारों ओर से उस पर पत्थर की बौछार होने लगी। गालियाँ-चिल्लाहट, नारे और पत्थर - इन सबसे वह कुछ असमंजस में पड़ा, वैसे तो मार्क बहुत ध्येयनिष्ठ था लेकिन उस समय यह एकदम कुछ घबराया और भाषण छोड़कर बीच में से ही भाग गया और सीधे अपने गाँव गया। मार्क था तो बहादुर, साहसी, ईमानदार और दृढनिश्चयी भी था। कभी-कभी ऐसा मौका भी जीवन में आता है। घर लौटने पर मार्क को लगा कि गलती हुई है। वह फिर पीटर और बर्नाबॉस के पास वापस गया।

पीटर ने उसे कोसना शुरू किया और कहा कि तुम बड़े विश्वासघाती हो, हम तुम्हें अब अपने साथ नहीं रहने देंगे। बर्नाबॉस ने पीटर को कहा कि ऐसा मत बोलो। बड़े बड़ों के जीवन में भी कभी एकाध बार ऐसा फिसलने का प्रसंग आता है। कोई बात नहीं। "गिव हिम ए सेकंड चांस।" उसे और एक मौका दो। ईसाई साहित्य में सेकेंड चांस यह शब्द बहुत ही प्रसिद्ध है। पीटर कहता है - नहीं, सेकेंड चांस नहीं दिया जाएगा। ऐसे कायरों को अपने साथ रखने में बड़ा नुकसान होगा। बर्नाबॉस ने पुनः उसे एक और मौका देने की बात दोहराई। मार्क को चांस मिला और इतिहास साक्षी है कि मार्क ने बादमें 'न भूतो न भविष्यति' ऐसा त्याग किया, परिश्रम किया, बलिदान किया कि जिसके कारण ईसाइयत के ग्रंथों में जो बारह प्रमुख अध्याय हैं, उनमें एक अध्याय को मार्क का नाम दिया गया है। बाकी बाइबिल में भी उसका उल्लेख है।

ओह-मोझेस भी ...

मोझेस के जीवन की भी ऐसी ही एक घटना है। वह बड़ा ही धार्मिक और निष्ठावान व्यक्ति था। अपने लोगों को साथ लेकर वह "प्रॉमिस लैंड" याने निवास हेतु कोई अच्छा स्थान खोजने में निकल पड़ा। उस समय मिश्र (ईजिप्ट) के जो राजा थे वे मोझेस को खत्म करने की ताक में थे। अत: मोझेस उस इलाके से कुछ हटकर दूर के रास्ते से गया। वह बड़ा साहसी था उसने सोचा था कि भगवान ने मुझे प्रतिनिधि के नाते भेजा है अतः संकट शायद न आए। लेकिन रास्ते में लाल समुद्र (रेड सी) बाधा बनकर आ गया। आगे कैसे बढ़े यह विडंबना उत्पन्न हो गई। समुद्र में से जाएंगे तो सब मारे जाएंगे और रास्ते से जाएंगे तो दुश्मन की सेना का सामना करना पड़ेगा। परंतु सामने समुद्र और सुयोग पाकर पीछे से शत्रु की सेना ने हमला भी कर दिया। "आगे पहाड़-पीछे खाई" वाली बात हो गई। इतना धैर्यवान आदमी पर विचित्र संकट की वजह से डगमगाया और धीरज खो बैठा। ईश्वर की कृपा थी इसलिए बाद में वह संकट दूर हो गया रास्ता मिल गया यह एक अलग बात है लेकिन इतने श्रेष्ठ पुरुष का धीरज भी एक क्षण के लिए समाप्त हो गया था। तात्पर्य यह है कि ऐसे प्रसंगों पर बहुत अधिक आत्मग्लानि की आवश्यकता नहीं। और दूसरों को भी यह सोचने की आवश्यकता नहीं कि वह कायर है, भाग गया है, धोखेबाज है - आदि-आदि। आवश्यकता इस बात की है कि उस व्यक्ति को सेकेंड चांस - दूसरा मौका - देने की एवं उस व्यक्ति द्वारा पुनः प्रयास करने की। बार-बार अवसर नहीं देना है नहीं तो अनुशासन ही नहीं रहेगा।

प्रसिद्ध लेखक रॉबर्ट लुईस स्टीव्हनसन ने कहा है कि "व्यक्ति खुद को प्रयत्न पूर्वक सद्गुणी बनाए और सब दृष्टि से सावधानी बरते। दूसरों को सुखी बनाना और स्वयं को सद्गुणी बनाना यह प्रयास करना चाहिए। लेकिन होता उल्टा है हर एक आदमी दूसरों को सद्गुणी बनाने का प्रयास करता है और स्वयं को सुखी बनाने में लगा रहता है। यह मनुष्य स्वभाव है। लेकिन अपने अंदर कोई आत्मग्लानि कभी न आए और यदि आ जाए तो उसे दूर करके साहस के साथ फिर से काम में जुट जावें इस दृष्टि से भी सावधानी रखने की आवश्यकता है। यह सब करने के लिए मन इतना पक्का हो कि हर हालत में व्यक्ति डटा रहे। पर वीर पुरुषों के लिए भी यह बहुत कठिन होता है।

अपशकुन शकुन बन गया

वर्तमान सदी के पूर्व इंग्लैंड बहुत पिछड़ा हुआ देश था। उन्हें कपड़ा पहनने का भी ज्ञान नहीं था। जंगल के वृक्षों के पत्ते लपेटकर वे घूमते रहते थे। वे जैसे वन्य जाति के थे, उतने ही खूखार भी थे। मनुष्य को मारकर भून कर खाते थे। ब्रिटिश चैनल के उस पार नीदरलैंडस नामक देश में राजा विलियम का शासन था। उसने हॉलैंड एवं कुछ अन्य देशों पर भी अपना शासन जमाया था। बादमें उसे इंग्लैड को जीतने की भी इच्छा हुई। उसने अपनी सेना के सामने यह सुझाव रखा। कोई कुछ बोला तो नहीं लेकिन सब जानते थे कि वहाँ के लोग नरबलि देते हैं, मनुष्य को मार कर खाते हैं, बड़े खूखार हैं। अतः उनसे लड़ना कोई आसान बात नहीं है। सभी इस तरह सोचते थे, सैनिकों के मन में थोड़ी हिचक थी लेकिन राजा का विरोध कौन करेगा? राजा भी जानता था कि सेना के मन में हिचक है। फिर भी उसने सोच समझकर योजना बनाई।

उन दिनों लकड़ी के जहाज हुआ करते थे। उन जहाजों से सारी सेना को लेकर राजा इंग्लैंड के किनारे पहुँचा। राजा का आदेश था कि जब सारे जहाज किनारे पहुँच जाएंगे तब तक कोई भी पानी में कूदेगा नहीं। इंग्लैड की जमीन पर पहले राजा स्वयं कूदेगा। आदेश के अनुसार सबने देखा कि सबसे पहले राजा कूद पड़ा। वहाँ जमीन खिसकती रहती थी और कीचड़ भी थी, अत: बहुत फिसलन थी। जैसे ही राजा कूदे तो वह फिसल गया लेकिन दाहिने हाथ के सहारे उसने अपने आप को संभाला। अब जहाँ पहले से ही सेना के लोग हिचक रहे थे वहाँ राजा को फिसलते देख उनके मन में शंका पैदा हो गई कि कहीं यह अपशकुन तो नहीं है।

राजा सैनिकों के मनोविज्ञान को जानता था। वह खुद भी अच्छा सेनानी एवं पराक्रमी था। सैनिकों के मन में कोई विपरीत भाव पैदा न हो, वह हतोत्साहित न हों इसलिए राजा फिसलते ही जोर से हँस दिया और कहा कि यह तो बहुत बड़ा शुभशकुन हुआ है। जैसे ही मैंने इंग्लैंड की धरती पर पैर रखा, मेरे दाहिने हाथ में पहनी राजमुद्रा इंग्लैंड की भूमि पर अंकित हो गई है। अतः कितनी शुभ और सुखद सूचना है यह! और फिर सैनिकों से कहा कि अब हमें आगे बढ़ना है और वह जो सामने पहाड़ है, उस पर पहुँचना है। साथ ही यह भी कहा कि आगे बढ़ते समय कोई भी बाएं-दाएं - इधर-उधर अथवा पीछे की ओर न देखें। आदेश हुआ और सेना ने कूच किया। राजा ने अपने खास 30-40 लोगों को पीछे रख दिया था। उनसे राजा ने कहा कि जब सैनिक आगे कूच करेंगे तब ये जितने भी जहाज हैं, सब में आग लगा देना।

ताकि किसी के मन में भागने का विचार आए भी तो वे भाग न सकें। इधर सैनिक आगे देखते हुए बढ़ते रहे और पीछे सारे जहाज जला दिए गए। पहाड़ी की चोटी पर पहुँचते ही सैनिकों को रुकने का आदेश हुआ और साथ ही पीछे मुड़ने का। सारे सैनिक पीछे मुड़े तो उन्हें यह देखकर हैरानी हुई कि उनके सारे जहाज जल रहे हैं। राजा ने उन्हें पुनः पीछे मुड़ने का आदेश दिया और उनके सामने एक संक्षिप्त सा भाषण दिया। कहा - "देखो! वे जहाज जल रहे हैं। यूँ तो वे जलाए गए हैं। यदि हम जान बचाकर भागने की सोचें तो अब कोई रास्ता नहीं है। समुद्र में से तैर कर हम में से कोई भी मातृभूमि वापस जा नहीं सकता है क्योंक वह जोखिम का काम है। अतएव हमारे सामने दो ही विकल्प हैं - या तो समुद्र में कूद कर मर जाएँ या फिर शत्रु के साथ युद्ध करते हुए मर जाएँ। जीत होगी या हार होगी यह बाद में देखा जाएगा। राजा के इस उद्बोधन से सैनिकों में हिम्मत बंध गई थोड़ी बहुत जो हिचक थी वह भी समाप्त हो गई और फिर सबने पूरे पराक्रम के साथ युद्ध किया तथा इतना खूखार देश होते हुए भी इंग्लैंड पर विजय प्राप्त की।

सूर्या जी ने रस्सियाँ काटी

अपने इतिहास में भी ऐसी एक घटना आती है। माता जीजाबाई ने आदेश दिया कि कोंडाणा किला जीतकर अपने कब्जे में लेना है। शिवाजी ने यह काम अपने विश्वस्त एवं पराक्रमी सैनिक तानाजी मालुसरे को दिया। उन दिनों खेती के काम चल रहे थे। वैसे भी शिवाजी के पास कोई अधिक सैनिक नहीं थे। तो भी खेती का काम छोड़कर सारे आदेश का पालन करने पहुँच गए। कोंडाणा किला बहुत बड़ा था। युद्ध की दृष्टि से कोंडाणा का बहुत महत्व था, क्योंकि उस किले पर से चारों ओर का बहुत बड़ा भूभाग नियंत्रण में रखा जा सकता था।

किले पर औरंगजेब का एक सेनापति उदयभानु था, वह भी बहुत पराक्रमी था। उसके पास मुगलों की बहुत बड़ी सेना भी थी। वैसे तो किले पर चढ़कर जाना ही मुश्किल था। और गए तो शिवाजी की छोटी सी सेना का मुकाबला मुगलों की विशाल सेना से था। अतः शिवाजी ने सोचा कि अमावस्या की रात में गुरिल्ला युद्ध लड़ा जाए। तानाजी ने किले का निरीक्षण किया। एक ओर की दीवार का कुछ हिस्सा कुछ सीधा था लेकिन कठिन था, जहाँ से किले पर चढ़ना आसान नहीं था। इस कारण वहाँ सुरक्षा का प्रबंध भी साधारण था। तानाजी ने ऊपर चढ़ने हेतु वही स्थान चुना। उनके पास एक गोह भी थी, उसकी पूँछ में रस्सा बाँध कर उसे ऊपर फेंका और उसी रस्सी के सहारे तानाजी के सैनिक ऊपर चढ़े। उन्होंने सेना के दो हिस्से किए। एक हिस्सा तानाजी के नेतृत्व में रहा और दूसरा हिस्सा उनके भाई सूर्या जी मालुसरे के नेतृत्व में दिया और उन्हें मुख्य द्वार की ओर जाकर छिपने को कहा गया।

तानाजी स्वयं गोह से बंधी रस्सी के सहारे ऊपर चढ़ते गए। ऊपर जाने का कार्यक्रम अमावस्या की रात को था। शत्रु सेना, खासकर वह मुगलों की सेना जो रात में शराब के नशे में धुत रहती है, जिसकी वजह से वह बेखबर और बेसुध अवस्था में रहते हैं यह कल्पना तानाजी को थी। उनसे थोड़ी लड़ाई या मारपीट करते हुए तानाजी के लोग मुख्य द्वार तक आते, उसे खोल देते और उस मार्ग से वहाँ सूर्या जी एवं उनके साथ के सैनिक किले के परिसर में आते और फिर शत्रु सेना से मुठभेड़ होती - यह योजना थी। इस योजनानुसार ही सारा काम हुआ। गोह के सहारे तानाजी के साथ के लोग ऊपर चढ़ गए। अंधेरे में ही उन्होंने मुख्य द्वार खोला और सूर्याजी के साथ के लोग अंदर आ गए। मुगल सेना बेखबर थी, उसी अवस्था में मारकाट शुरू हुई। अंधेरी रात में इसका पता भी नहीं चल पा रहा था कि कौन किसे मार रहा है। अपना-पराया पहचानना भी मुश्किल था। फिर भी दोनों ओर के लोग कुछ मात्रा में सजग हुए। इसी समय तानाजी का मुकाबला उदयभानु से हुआ। इस लड़ाई में तानाजी मारे गए। साधारणतः परंपरा यह थी कि लड़ाई में नेता या सेनापति मारा जाए तो सेना धैर्य खोकर भाग जाती थी। तानाजी के मरने की खबर भी वायु वेग से सब जगह पहुँची।

सूर्याजी ने जैसे ही खबर सुनी, सारा काम छोड़कर, जिन रस्सियों से सैनिक ऊपर चढ़कर आए थे, वे रस्सियाँ काट दी। जैसे हुआ करता था, वैसे ही कई सैनिक जब भागने के इरादे से वहाँ पहुँचे तो सूर्या जी ने कहा कि जाओगे कैसे? मैंने तो वे सारी रस्सियाँ काट डाली हैं। अब विकल्प मात्र यही है कि या तो किले पर से कूद कर जान दे दो या शत्रु से लड़ते-लड़ते मरो अथवा किला जीत लो। सबके मन में विचार आया कि दोनों में से लड़ते-लड़ते मर जाना ही अच्छा है। या तो किला जीत लेंगे या लड़ते-लड़ते मारे जाएँगे इसमें फिर कोई आपत्ति नहीं है। सैनिकों के मन की वह क्षणिक कायरता समाप्त हुई और बड़े पराक्रम से सब लोगों ने युद्ध किया, शत्रु को परास्त किया तथा किला फतह कर लिया।

वैसे वह कायर नहीं थे, बहादुर थे पर एकाध क्षण की कमजोरी Reflex action की वजह से जो आ गई थी वह दूर हुई और किला फतेह किया गया। किला जीतने की खबर पाकर शिवाजी वहाँ आए। उन्हें ताना जी के मरने का बड़ा दुख हुआ, पर दूसरी ओर सामरिक दृष्टि से महत्व का किला कोंडाणा जीता गया, इसका आनंद भी हुआ। उन्होंने भावावेश में कहा कि "गढ़ आला पण सिंह गेला' याने किला जीता गया पर सिंह मारा गया। इसलिए बाद में किले का नाम सिंहगढ़ रखा। तात्पर्य यही है कि कभी-कभी क्षणिक कायरता, किंकर्तव्यविमूढ़ता आती है। पर वह क्षणिक ही होती है। यह मनुष्योचित कमजोरी है। यह कार्यकर्ता गंभीर भी है और ईमानदार भी है लेकिन हर क्षण का एक अलग मनोविज्ञान होता है जिससे बचने के लिए विलियम ने सभी जहाजों को आग लगा दी और सूर्या जी मालुसरे ने जिन रस्सियों के सहारे भागा जा सकता था उनको ही काट दिया।

हम कार्यकर्ता भी ध्यान रखें

उक्त प्रकार के क्षण अच्छे-अच्छे ध्येयनिष्ठ कार्यकर्ता के जीवन में भी आ सकते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि कार्यकर्ता अप्रामाणिक है या ध्येयनिष्ठ नहीं है। वह है। फिर भी अंत में और एक बात की ओर संकेत करना आवश्यक है। अन्य लोग एवं भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ता - दोनों में एक अंतर है। राजा विलियम उसके सैनिक भाग न पाएं इस हेतु जहाजों को आग लगा दी और सूर्या जी मालुसरे ने सैनिक भाग न जाएं इसलिए गोह से बंधी रस्सियाँ काट दी। किंतु हम न तो जहाज जलाने के पक्ष में हैं और न ही रस्सियों को काटने के। क्योंकि इसमें सैनिकों के मन की कमजोरी दूर करने हेतु जहाज जलाने वाले या रस्सी काटने वाले दूसरे लोग थे। अतएव भारतीय मजदूर संघ की अपेक्षा है कि अपने कार्यकर्ता स्वयं ही अपनी रस्सियाँ काटें या स्वयं ही अपने जहाज जलाएं।

हमारा एक-एक कार्यकर्ता इतना समझदार, ध्येयनिष्ठ, पराक्रमी, कर्मठ और विवेकशील है कि वह अपनी रस्सियाँ स्वयं ही काटेगा। संकल्प लेना या प्रतिज्ञा करना यही अपनी-अपनी रस्सियों को काटने का नाम है। हम सब जब इस वर्ग से वापस जाएंगे तो यही प्रतिज्ञा लेकर हम जाएँ, हम यह निश्चय करें कि आर्थिक स्वातंत्र्य का यह दिवतीय महायुद्ध जब तक समाप्त नहीं होता, तब तक हम एक क्षण के लिए भी इस युद्ध के मैदान को छोड़कर कहीं जाएंगे नहीं। यही अपनी-अपनी रस्सियाँ काटने का काम है। यह प्रतिज्ञा कर, दृढ़ निश्चय के साथ हम अपने-अपने स्थान पर लौटे तो यह हमारा पारिवारिक एकत्रीकरण, यह नागपुर का अभ्यास वर्ग सफल हुआ, ऐसा विश्वास सभी के मन में स्वयं ही जागेगा, इसमें कोई संदेह नहीं।

(' कार्यकर्ता की मनोभूमिका ' पुस्तिका से)

सोपान - 4

( कुछ प्रमुख बिंदु)

w राष्ट्रहित चौखट में रहकर मजदूर हित - यह हमारा ध्येय है। पहले राष्ट्रहित वाद में मजदूर हित और अंत में भारतीय मजदूर संघ का हित। इस में कोई संस्थागत अंहकार नहीं है। राष्ट्र का कल्याण हो मजदूरों का कल्याण हो यही सिद्धांत और लक्ष्य है।

w सर्वसाधारण नागरिक की राष्ट्रीय चेतना का स्तर यही आधार है राष्ट्र के पुनर्निर्माण का। राष्ट्रीय चेतना का स्तर उँचा नहीं है तो पोलिटिकल पावर से कुछ नहीं हो सकता। यदि राष्ट्रीय चेतना का स्तर उँचा है तो पेलिटिकल पावर का अच्छे रूप में उपयोग हो सकता है। जन संगठन जब खड़े रहते हैं तभी सही मायने में नैतिक नेतृत्व का उदय होता है।

w हमारा संगठन है धर्मदंड अर्थात विकृतियों पर अंकुश। देश से समाज बड़ा नहीं हो सकता है। परम वैभव माने पोलिटिकल पावर नहीं है। राजनीतिक सत्ता आती है जाती है। महत्व धर्म दंड का है। राष्ट्रीय चेतना का स्तर यह उस को आधार है। तपश्चर्या करने वाले के हाथ में ही नियंत्रण होना चाहिए।

w हमने यह कहा था 'The best should suffer so that rest could prosper' अर्थात दूसरों का सुखी बनाना है तो कुछ अच्छे लोगों को कष्ट सहना ही पड़ेगा - हमने नारा ही दिया था 'बी.एम.एस. की क्या पहचान-त्याग तपस्या और बलिदान' हमारे तथाकथित प्रगतिशील लोग हम पर हँसते थे कि ट्रेड यूनियन में हम पैसे के लिए आते हैं और बी.एम.एस. के यह पागल लोग कह रहे हैं त्याग तपस्या और बलिदान।

w दूसरों को सुखी बनाना और स्वयं को सद्गुणी बनाना यह प्रयास करना चाहिए। किंतु होता उल्टा है हरेक आदमी दूसरों को सदगुणी और स्वयं को सुखी बनाने के प्रयास में लगा रहता है।

सोपान - 5

' संस्मरण '

परम श्रद्धेय दत्तोपंतजी ठेंगड़ी

रमण भाई

पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष

भा.म.संघ, पुणे

एल.एल.बी. की परीक्षा उत्तीर्ण होने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक के सरसंघचालक प.पू. श्रीगुरुजी की इच्छानुसार प्रचारक होने की श्रद्धेय दत्तोपंतजी की इच्छा थी। पिताजी का अग्रह था कि ख्यातनाम वकील होना चाहिए। आध्यात्मिक शक्ति माताजी ने जब कहा प्रचारक होने से वह वकील से भी श्रेष्ठ व्यक्ति होगा तब पिताजी ने अनुमति दे दी।

पू. श्री गुरुजी की इच्छानुसार टेक्सटाईल उद्योग के यूनियनों में पदाधिकारी बनकर इंटकके राष्ट्रीय परिषद के सदस्य बने। कम्युनिस्ट समर्थित ए.आ.बा.ई.ए. के प्रादेशिक सचिव बने। साथ-साथ पोस्टल के आरएमएस यूनियन के प्रदेश के अध्यक्ष चुने गए। 1949 से 1955 तक मजदूरों की समस्या उनसे संबंधित कानून, हड़ताल तालाबंदी साथ-साथ कम्युनिस्टों के सिद्धांत, उनकी कार्यशैली आदि का गहराई से अध्ययन किया और पू. श्री गुरुजी के ही प्रेरणा से 23 जुलाई 1955 को लोकमान्य तिलक जी के जन्मदिन के शुभदिन विभिन्न प्रांतो से आए हुए 35 स्वयंसेवकों की उपस्थिति में भारतीय मजदूर संघ की शून्य से स्थापना की।

पू.श्री गुरुजी, पंडित दीनदयाल उपाध्याय, डॉ.बाबा साहेब आम्बेडकर की प्रेरणा से दत्तोपंत जी ने भा.म.संघ के सिद्धांत, रीति-नीति, ध्वज चिन्ह, श्रमिक दिन, नारे तय किए। उन्होंने मनुष्य की इद्रियों की वासना, तृष्णा, अहंता बढ़ाकर उसे आत्म केद्रित स्वार्थी, निरिक्षरवादी, भोगवादी पशु बताने वाली सभ्यता का फिर वह पूँजीवाद हो, समाजवाद या साम्यवाद हो उसका स्वीकार नहीं लिया तो व्यक्ति राष्ट्रवादी, ध्येयवादी बनाकर उसके शरीर को निरोगी मन को शुद्ध बुद्धि को अग्रस्थ और आत्मा को परिष्कृत करने वाले श्रेष्ठ भारतीय आध्यात्मिक हिंदू संस्कृति को स्वीकार किया। ठेंगड़ी जी का विश्वास था कि यही त्रिकाल बाधित शुद्ध सिद्धांत अंत:करण विरहित एकात्म समर्थ समृद्ध चारित्र्य संपन्न समाज निर्माण कर सकता है।

उन्होंने मजदूरों के लिए त्याग, उद्योग के लिय तपस्या, राष्ट्र के लिए बलिदान करने के लिए प्रेरणा देने वाला श्रेष्ठ सांस्कृतिक परंपरा गौरवमय इतिहास के प्रतीक भगवा ध्वज को स्वीकार किया। उसके ऊपर का चिन्ह भी अन्य संगठनों के मुताबिक हथोड़ा, हसिया एवं चक्र ऐसा न रखते हुए उन औजारों को, यंत्र को शारीरिक क्षमता चार अंगुलियों को स्पर्श करने वाले अंगूठे को साधान्य देकर कृषि की प्रतीक गेहूं की बाली और उद्योग के प्रतीक चक्र को लेकर अपना चिन्ह बनाया। श्रमिक दिन भी भारत में हजारों साल से हमारे सुनार, लुहार, कुम्हार, चर्मकार, केशकर्तनकार, स्वर्णकार आदि श्रमिक जिस दिन को मानते आए हैं ऐसे विश्वकर्मा दिन को तय किया है। जिस विश्वकर्मा ने समाजद्रोही बने हुए अपने पुत्र बत्रासुर का वध करने के लिए इंद्र को बज्र बनाकर दिया याने पुत्र से राष्ट्र श्रेष्ठ का आदर्श हमारे सामने रखा। मजदूर केवल आर्थिक दृष्टि से नहीं तो राष्ट्रीय सामाजिक कर्तव्य की भावना से ही उत्पादन उत्पादकता बढ़ाकर राष्ट्र को समृद्ध कर सकता है। जिस पर श्रद्धेय दत्तोपंत जी का पूरा विश्वास होने के कारण ही "भारत माता की जय" देश के हित में करेंगे काम, काम का लेंगे पूरा दाम "राष्ट्रभक्त मजदूरों एक हो एक हो" ऐसे मजदूरों को राष्ट्र भक्ति से संस्कारित करने वाले नारे प्रचलित किए और अन्य जो संगठनों को भी स्वीकारने पडे।

मजदूरों के वेतन वृद्धि के कारण महँगाई बढ़ती नहीं

जब सत्ताधारी नौकरशाह उद्योगपति कहते थे मजदूर वेतन महँगाई भत्ता बढ़ाने की बात करते हैं उस कारण महँगाई बढ़ती है तब श्रद्धेय दत्तोपंत जी ने आत्मविश्वासपूर्वक कहा था ऐसा नहीं तो अत्याधिक मुनाफा, डिव्हडिंड, टेक्सेस घाटे की अर्थव्यवस्था के समानांतर कालाधन का चयन यही कारण है महँगाई बढ़ने का। मजदूर के कारण तब हो सकता है जब उत्पादन उत्पादकता से बढ़ने से ज्यादा वेतन महँगाई भत्ता बढ़ता है लेकिन आँकड़े बताते हैं कि 99.99 प्रतिशत में ऐसा होता नहीं हालांकि रुपयों के अवमूल्यन के कारण वेतन घटता है और विशेष बात यह है कि बढ़ती मँहगाई की जाँच के लिए केंद्र सरकार ने नियुक्त किए हुए इंडियन इंस्टीट्युट आफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन ने भी यही निष्कर्ष निकाला है।

सबको बोनस के बारे में भी शुक्र नीति के आधार पर प्रति वर्ष वेतन 1/8 अंश इस नाते देना चाहिए। यह प्रतिवेदन तर्क तथ्य प्रमाण के आधार पर देने के कारण बोनस कमीशन को भी मुनाफा नहीं तो भी 4 प्रतिशत बाद में 8.33 प्रतिशत बोनस देना चाहिए यह संदेश देना पड़ा।

बीमार बंद उद्योग के लिए मजदूर जिम्मेदार नहीं

श्रद्धेय दत्तोपंत जी ने यह भी कहा था कारखाने उद्योग बीमार बंद पड़ते हैं। जिसके लिए मजदूरों की हड़ताल, संघर्ष अधिकांश जिम्मेदार नहीं। रिर्जव बैंक ने जिस बारे में तलाश करने के लिए नियुक्त किए कमेटी ने भी यही निष्कर्ष निकाला कि कारखाना बीमार बंद पड़ने के लिए 52 प्रतिशत मिसमेनेजमेन्ट, 23 प्रतिशत मार्केट कंडीशन, 14 प्रतिशत गलत नियोजन 9 प्रतिशत शार्टेज ऑफ रा मटेरियल होता है। मजदूर यदि जिम्मेदार है तो केवल 2 प्रतिशत है।

श्रद्धेय दत्तोपंत जी सही अर्थ में दूरदृष्टा थे। जब 1/3 दुनिया पर लाल झंडा फहरा रहा था सब दूर कम्युनिज्म का बोल बाला था मजदूर क्षेत्र में तो कम्युनिस्ट का नारा था नजदीक के भविष्य में लाल किले पर लाल निशान तब श्रद्धेय दत्तोपंत जी ने कहा था कम्युनिज्म केवल भौतिकता के आधार पर खड़ा है जिस कारण स्वयम् के अंतर्विरोध के कारण अपने ही बोझ के नीचे दबकर समाप्त होगा और 1989-90 में हमने यही देखा। एशिया जो कम्युनिज्म की जन्म भूमि कर्म भूमि थी वही श्मशान भूमि बन गई।

श्रद्धेय दत्तोपंत जी 1972-73 साल से आग्रह पूर्वक कहते थे श्रीमंत देश उनकी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अब किसी राष्ट्र का राजकोष गुलाम बनाकर लूट नहीं सकते। इसलिए उन्होंने विश्व बैंक अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष बाद में गैट और विश्व व्यापार संगठन संस्थाओं की स्थापना गरीब देश, विकासशील देशों को आर्थिक गुलाम बनाकर उनकी नैसर्गिक संपत्ति, श्रम शक्ति का शोषण करने के लिए की हैं उस कारण ही गैट समझौते पर साथ-साथ विश्व व्यपार संगठन के समझौते पर हस्ताक्षर करने के पहले भा.म.संघ ने राष्ट्रव्यापी आंदोलन किए लेकिन उस समय नरसिंहराव सरकार ने उदारीकरण वैश्वीकरण के आकर्षक नाम घोषित किए हुए किसान मजदूर गरीब विरोधी आर्थिक औद्योगिक नीति का लोग स्वागत करते थे लेकिन 19 अप्रेल 2001 के दिन भ.म.संघ के अभूतपूर्व ऐतिहासिक दिल्ली मोर्चा में हुए WTO मोडों तोड़ो छोड़ो इस विषय पर हुए श्रद्धेय दत्तोपंत जी के मौलिक भाषण के बाद केंद्र सरकार ने WTO के मंत्री स्तरीय परिषद में वाणिज्य मंत्री मारन साहब ने भारत के हित का स्टैंड लिया। परिणाम स्वरूप श्रमिक देशों को जुड़ना पड़ा। वर्ष 2002 और 2003 में राष्ट्रस्तर स्तर पर भारतीय किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच के साथ किए हुए भारत व्यापी आंदोलन के कारण 2003 के WTO के कानकून के मंत्री स्तरीय परिषद में विकासशील राज्यों के हित में आखिर तक आग्रही भूमिका के कारण परिषद से प्रस्ताव पारित नहीं हो सका। श्रद्धेय दत्तोपंत कहते थे कि तृतीय विश्व का नेतृत्व भारत को प्राप्त हुआ। दुख की बात है जिस वर्ष यू.पी.ए के कार्यकाल में हुई WTO की बैठक में भारत के वाणिज्य मंत्री कमलनाथ जी ने श्रीमंत देशों के दवाब में आकर फिर से विकासशील देशों के हित के विरोध में हुए समझौते पर स्वाक्षरी से तृतीय विश्व का नेतृत्व करने का संपूर्ण अवसर भारत ने फिर से खो दिया।

अब दुनिया भर में वैश्वीकरण के विरोध में आवाज उठ रही है। इतना ही नहीं तो जिन संस्थाओं के जरिये श्रीमंत देश उनकी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ तृतीय विश्व का शोषण कर रही हैं ऐसे अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के निवृत चेयरमैन मायकेल, विश्वबैंक का राजीनामा देने वाले उनके चीफ इकॉनामिक एडवाइजर डॉ. जोसेफ स्टीव्ह, विश्वबैंक के चेयरमैन जेम्स बुल्फानिस, ILO महानिर्देशक हुआन सोमविया, संयुक्त राष्ट्र संघ के ये सब कह रहे हैं कि वैश्वीकरण का स्वरूप ठीक नहीं अनुचित है, अनैतिक है, व्यापार में अंसतुलन निर्माण हुआ है, बेराजगारी बढ़ी है, राष्ट्रगत और विभिन्न राष्ट्री में विषमता बनी है, असंतोष बढ़ा है, संघर्ष बढ़ रहे है। और सामाजिक विकास ठप्प हुआ है।

श्रद्धेय दत्तोपंतजी ने दूर दृष्टि से जो कहा था वह सत्य सिद्ध हो रहा है। उन्होंने पूँजीवाद भी कम्युनिज्म जैसा केवल भौतिकता के आधार पर खड़ा है और उसने नैतिकता से मानवता से संबंध विच्छेद किया है इसलिए वह कैपिटेलिज्म भी नजदीक ही भविष्य में मनुष्य जीवन सुखी समाधान करने में असफल होने वाला है, ऐसा आत्मविश्वास पूर्वक कहा है और श्रद्धेय ठेंगड़ी जी ने भारतीय आध्यात्मिक हिंदू संस्कृति और पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का एकात्म मानव दर्शन से प्रेरणा लेकर न कम्युनिज्म न कैपिटलिज्म तो "थर्डवे" नाम की किताब लिखकर अंधेरे में ढूँढ रहे दुनिया को तीसरा रास्ता बताया है।

ज्येष्ठ श्रेष्ठ अभ्यासक, विचारक चिंतक, 50 के ऊपर किताब लिखने वाले लेखक, कुशल संगठक, संदर्भ देते समय कई किताबों से कविता श्लोक उद्धृत करने वाले दूरदृष्टा, केवल भारत को नहीं तो दुनिया का मार्गदर्शन करने वाले श्रद्धेय दत्तोपंत जी कितने विनम्र थे और बीमार होने के बाद भी स्वयं की नहीं, मिलने के लिए आने वाले दूसरों के निवास, नास्ता, भोजन आदि की कितनी चिंता करते थे जिसका संपर्क में आए हुए हजारों कार्यकर्ताओं ने लाखों लोगो ने स्वयं अनुभव किया है। केवल संभावी भाषण से नहीं आत्मीयतापूर्ण व्यवहार के कारण ही भा.म.संघ, भारतीय किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच आदि संस्था के हजारों कार्यकर्ताओं को समर्पण भाव से काम करने के लिए वे प्रेरित कर सके।

विनम्रता की एक घटना बताना आवश्यक समझता हूँ। अगस्त 1983 मुंबई की घटना है। एक तरफ महँगाई बढ़ती थी और गलत निर्देशकों के कारण मिलने वाला भत्ता घटता था चीन के आक्रमण के कारण सत्ता की बचत योजना के कारण ही वेतन में कटौती होती थी। मजदूरों में जबरदस्त असंतोष था। इन्हीं ज्वलंत समस्या को लेकर चीन आक्रमण का समर्थन करने वाले कम्यूनिष्टों को छोड़कर मुंबई बंद करने की पू.श्री गुरुजी की सलाह लेकर श्रद्धेय दत्तोपंत मुंबई आए। एक दूसरे का मुँह न देखने वाले HMS के SR कुलकर्णी, हिंद मजदूर पंचायत के मधु लिमये उन्हे साथ लेकर 20 अगस्त को मुंबई बंद की घोषणा की। श्री डाँगें के गढ़ टेक्सटाईल में भ.म.संघ ने पूरी ताकत लगाकर प्रचार करने के कारण आरंभ में विरोध करने वाले डाँगे जी को कहना पड़ा कि हमें संयुक्त आंदोलन नहीं लेकिन ज्वलंत समस्या होने के कारण मेरे टेक्सटाइल के मजदूर भी बंद में शामिल होंगे।

दिनांक 17 को आजाद मैदान से कामगार मैदान तक विराट मोर्चा निकाला। श्री नानासाहेब गोरे जी को पब्लिक मीटिंग की अध्यक्षता के लिए बुलाया था। उन्होंने कहा संघ के प्रचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी जिस सभा में भाषण करने वाले होंगे उसकी अध्यक्षता मैं स्वीकार नहीं कर सकता। SR कुलकर्णी ने विनती कर कहा यह कार्यक्रम उनके ही इनीशियेटिव से हो रहा है। तुरंत दत्तोपंत जी ने नम्रता से कहा कि आरंभ में श्री नानसाहेब गोरे जी की अध्यक्षता की सूचना मैं करूँगा। उसी समय मुझे जो बोलना है बोल दूंगा। 20 अगस्त मुंबई सफल रहा, मजदूरों की समस्या लेकर यह पहला बंद था। लाकडावाला समिति की नियुक्ति हुई। गलत निदेशांक दुरुस्त किया गया। विभिन्न उद्योगों में काम करने वाले लाखों कामगारों का महँगाई भत्ता बढ़ गया। जबरदस्ती बचत योजना भी कैंसिल की गई। यह घटना 20 अगस्त 1983 जिससे बिलकुल विपरीत व्यवहार श्री नानासाहेब गोरे जी का आपात्काल में हुआ। लोक संघर्ष समिति के श्री नानाजी देश मुख बाद में रविन्द्र वर्मा अरेस्ट किए गए। अब संघर्ष समिति का नेतृत्व किसने करना चाहिए तब वही श्री नानासाहेब गोरे जी ने कहा कम्युनिष्ट, सोशलिस्ट से होकर संघटन कांग्रेस और रा.स्व.संघ जिनके वरिष्ठ नेताओं से घनिष्ठ मधुर संबंध अगद किसी के हैं तो वह श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के हैं इसलिए उन्होंने नेतृत्व करना चाहिए। उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ने का निर्णय किया गया। जनता पक्ष को अनपेक्षित सफलता मिली और विषय समाप्त हुआ।

श्रद्धेय दत्तोपंतजी के स्वर्गवास के कारण हम सागर जैसे विशाल आकाश जितने उत्तुंग नेतृत्व से वंचित हुए हैं लेकिन इनके विभिन्न विषयों पर हुए हजारों भाषण उन्होंने लिखी हुई सैकड़ों किताबें कई वर्षों तक हमारा मार्गदर्शन करती रहेंगी। राष्ट्र के लिए समर्पित भाव से काम करने की प्रेरणा देती रहेंगी।

गैर राजनीतिक संगठन ही मजदूर उद्योग राष्ट्र का हित कर सकता है

1979 में कलकत्ता में हुए भा.म.संघ के अखिल भारतीय अधिवेशन के उद्घाटक जिस नाते से निमंत्रण देने के लिए ध्येयवादी हिंद मजदूर सभा के वरिष्ठ नेता, श्री बगाराम तलपुले को मिलने गए। आग्रह करने के बाद भी उन्होंने प्रामाणिकता से कहा "मैं चाहता था मेरा संगठन गैर राजनीतिक रहे" लेकिन मुझे इसमें असफलता मिली, आप उसमें सफल हुए हैं, ऐसे स्थिति में आपके अधिवेशन का उद्घाटन करने का मुझे नैतिक अधिकार नहीं। 2002 में हुए तिरुअंनतपुरम के अधिवेशन में भी एटक के उपाध्यक्ष ने कहा हम भी चाहते थे हमारा संगठन राजनीतिक प्रभाव से मुक्त रहे लेकिन हम वह नहीं कर सके, आप वह कर सके इसलिए आपका अभिनंदन है। भा.म.संघ के श्रद्धेय दत्तोपंत को बंगाल क्या, सब दूर का अनुभव है।

जिस राजनीतिक सहयोग से या प्रभाव से मजदूर संगठन चाहता है वह यदि सत्ता पर आया और उसने मजदूर विरोधी नीति अपनाई तो वह मजदूर संगठन उसके खिलाफ संघर्ष नहीं कर सकता जिसके विपरीत श्रद्धेय दत्तोपंत जी कहते थे सही लोकतंत्र के आधार पर कोई भी सत्ता पर आए फिर वह हमारे कट्टर विरोधी कम्युनिस्ट ही क्यूँ न हो उन्होंने यदि मजदूर हित के निर्णय लिए तो हम उनका स्वागत् करेंगे, लेकिन मजदूर हित विरोधी निर्णय लिए तो भारतीय जनता पार्टी ही क्यूँ न हो भा.म.संघ उसका विरोध करेगा, संघर्ष करेगा, सरकार के साथ प्रतियोगी सहकारिता याने रिस्पॉन्सिव को - आपरेशन यह हमारी नीति रहेगी। विशेष बात है कि दुनिया के विभिन्न राष्ट्रों की कम्युनिस्ट मजदूर संगठन जिस WFTU के साथ संलग्न है उन्होंने और एशिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस के साथ मिलकर मास्को में वर्ल्ड लेबर कॉन्फरेंस की।

कम्युनिज्म का सिद्धांत कहता है कि समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले संगठन पार्टी की पार्ट एंड पार्सल बनकर काम करेगी। वह सब पार्टी का फ्रंट ऑर्गनाजेशन रहेगा और यदि पार्टी सत्ता पर आई तो उन संगठनों और शासन दोंनो का अंग बनकर काम करना चाहिए। ऐसा होते हुए भी 1990 के उस वर्ल्ड लेबर कांफ्रेंस में प्रस्ताव पारित किया गया कि मजदूर हित और लोकतंत्र की रक्षा के लिए मजदूर संगठन सत्ता, राजनीतिक दल, मालिक के प्रभाव से मुक्त होना चाहिए। भारत तथा सुदूर देशो से आए हुए हजारों प्रतिनिधियों ने प्रस्ताव का स्वागत किया इस प्रकार जागतिक स्तर पर भ भा.म.संघ के गैर राजनीतिक नीति का समर्थन किया गया। उस कांफ्रेंस में भा.म.संघ WFTU या किसी अंतरराष्ट्रीय संगठन में न होने के बावजूद भा.म.सं. के दो प्रतिनिधियों को सब खर्चा देकर बुलाया गया था। उस समय के हमारे महामंत्री श्री घाटेजी और अध्यक्ष श्री रामभाऊ जोशी उस कांफ्रेंस में गए थे। प्रस्ताव का समर्थन करते समय श्री घाटे ने जब कहा कि "गैर राजनीतिक मजदूर संगठन" उस नीति को भा.म.संघ ने अपने निर्माण से याने 23 जुलाई 1955 से ही स्वीकार किया है और यही चलता आया है तब सब प्रतिनिधियों ने तालियाँ बजाकर स्वागत किया। यह श्रद्धेय दत्तोपंत जी के दूर दृष्टि के कारण ही हो सका।

कार्यकर्ता का Private जीवन नैतिक चारित्र्य की दृष्टि से निश्कलंक होना चाहिए। Private जीवन के जीवन मूल्य अलग और सार्वजनिक जीवन के अलग, ऐसे Double standard नहीं चल सकते हैं। नैतिक आचरण के विषय में तुलनात्मक दृष्टि से शिक्षित माने गए पश्चिमी जगत में भी सार्वजनिक कार्यकर्ताओं की नैतिक शिथिलताओं को सहन नहीं किया जाता। प्रोफ्यूमो जैसी कई घटनाएँ अभी-अभी वहाँ हुई हैं। कम्युनिस्ट नैतिक मानदंड को नहीं मानते ऐसा कुछ लोगो का ख्याल है। कारण यह है कि सिद्धांत की दृष्टि से मार्क्स ने विवाह संस्था तथा परिवार संस्था का निषेध किया है। उनके निषेध की पृष्ठभूमि सैद्धांतिकता थी अनैतिकता नहीं थी। किंतु इसमें जब ऐसा दिखाई देने लगा कि नवागत कम्युनिस्ट इसको Junk-pot-theory मानकर व्यवहार करते हैं तो सख्त शब्दों में अनैतिक आचरण के खिलाफ चेतावनी दी। प. पू. श्री गुरुजी कहते थे कि जो वस्त्र पहले से ही मलीन है उस पर और दो चार दाग लगे तो लोगों को वह अखरता नहीं, किंतु स्वच्छ, शुभ्र वस्त्र पर पानी का बिंदु भी गिरा तो उसका दाग लोगों की दृष्टि में आता है, हालाँकि वह कुछ क्षणों के पश्चात स्वयं लुप्त हो जाता है। नैतिकता और जनता हमें इसी दृष्टि से देखती है।

सार्वजनिक जीवन के जिन क्षेत्रों में समाज से आसानी से संबंध आता है उन क्षेत्रों में कार्यकर्ता की नैतिकता की दृष्टि से प्रेरणा देने के लिए जल्दबाज मार्गदर्शकों द्वारा गलत प्रयोग किया जाता है, ऐसा अनुभव है आप अच्छी नैतिकता रखोगे तो यश-कीर्ति-पद-प्रतिष्ठा आपको प्राप्त होगी जिसके फलस्वरूप आप आगे सुखी-समृद्ध होंगे। नैतिकता का पालन नहीं किया तो इन सब लाभों से आप वंचित रहोगे। एक तरह से यह लालच दिखाना ही है। हम बच्चों को कहते हैं कि अब यह कड़वी दवा पियो, फिर तुरंत ही तुमको चॉकलेट मिलेगी। सिद्धांत और व्यवहार दोनों दृष्टियों से यह गलत तथा अदूरदर्शी है।

सदगुणों का पर्यवसान भौतिक समृद्धि में होता है ऐसा देखने से अति उदात्त और सद्गुण संपन्न चरित्र को आर्थिक उदारता आने के बजाए न्यूनता (नीचता) आती है। सद्गुणों को इस तरह की फल प्राप्ति हो यह विधाताओं को अभिप्रेत नहीं है। रोमांचक उपन्यासों के वाचक युवा लोगों को यह सिखाना है कि नैतिक निर्भयता का व्यवहार तथा तत्वनिष्ठा का स्वाभाविक उपप्रमेय या पारितोषिक याने अपनी इच्छाओं-वासनाओं की पूर्ति, यह खतरनाक तथा घातक सिद्धांत है। उदारतापूर्वक कर्तव्य पूर्ति के अंतर्गत भान के कारण जो श्रेष्ठ आनंद जो अन्यत्र उसी से प्राप्त नहीं हो सकता और प्राप्त होने के बाद किसी भी कारण से कम नहीं हो सकता ऐसा चिरंतन सुख यही वस्तुतः सभी सद्गुणों आत्मयज्ञों का वास्तविक फल है।

मतलब यह कि नैतिकता स्वयं अपने में अपना परितोषिक है यह बात कार्यकर्ता के मन में रहनी चाहिए। केवल अपना मन शुद्ध है इतना ही पर्याप्त नहीं, यह सुचिता लोगों के अनुभव में भी आनी चाहिए। इसलिए जहाँ अपना व्यवहार ठीक होते हुए भी लोग उसको गलत समझेंगे ऐसी संभावना निर्माण होती है वहाँ लोगों की धारणा का सम्मान करते हुए काम करना चाहिए। कहा गया है 'यद्यपि शुद्धम् लोक विरुद्धम् नाकरणीयं-नाचरणीयम्'

विराट व्यक्तित्व-महान नेतृत्व

बी.एल. शर्मा ' प्रेम '

पूर्व सांसद , नई दिल्ली

सन 1967 जनवरी मास में एक दिन अचानक माननीय श्री सोहन सिंह जी जो उस समय दिल्ली प्रांत के प्रांत प्रचारक थे मुझे बुलाकर कहा कि दिल्ली में सरकारी कर्मचारियों में अपना संगठन कार्य नहीं है अतः श्री ठेंगड़ीजी की इच्छा है कि आप उनके नेतृत्व में कार्य करें। कुल मिलाकर मुझे संघ की दैनंदिन शाखाओं एवं विवेकानंद स्मारक समिति के दायित्व से मुक्त कर दिया गया। सरकारी कर्मचारियों पर लालकिले पर लाल झण्डा फहराने का स्वप्न देखने वाले कम्युनिस्टों और कांग्रेस सरकार द्वारा पोषित नेताओं का ही वर्चस्व था। हमें अर्थात भगवाधारी संघ के कार्यकर्ताओं को कथा कीर्तन करने वाला ही कहा जाता था।

उन्हीं दिनों नई दिल्ली लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से जनसंघ के टिकट से श्री एम.एल. सोंधी जी चुनकर आए थे। सरकारी कर्मचारी राष्ट्रीय फोरम (मंच) का निर्माण किया गया और मुझे उसके संयोजक की जिम्मेदारी दी गई। उन्हीं दिनों की बात है हिंदुस्तान की सभी यूनियंस ने मिलकर 19 सितंबर 1968 की सामूहिक हड़ताल का आह्वान कर दिया। सरकारी कर्मचारियों की हड़ताल को कुचलने के लिए राष्ट्रपति जी ने ऑर्डिनेंस जारी कर दिया। मौके का लाभ उठाते हुए सरकारी कर्मचारी राष्ट्रीय फोरम (मंच) के माध्यम से मेरे द्वारा ऑर्डिनेंस को चुनौती दी गई और मेरी प्रार्थना पर माननीय श्री ठेंगड़ी जी ने जो उस समय राज्य सभा के सदस्य थे कलकत्ता से दिल्ली आ गए। मैंने हँसी में कहा कि ठेंगड़ी जी 19 तारीख को आपको भी जेल जाना है। वह हँस पड़े और उन्होंने कहा कि प्रेम जी मैं तो कभी जेल गया ही नहीं। खैर, राष्ट्रहित में अवश्य ही जेल जाऊंगा। इस बात का प्रभाव सारे देश में जाएगा कि हम मजदूरों के विरोध में नहीं हैं।

नौकरी से सस्पेंशन और जेल की

मान्यवर श्री ठेंगड़ी जी के नेतृत्व में मैं और कुछ कार्यकर्ता रामकृष्णपुरम् सरकारी कार्यालय के सामने गिरफ्तार कर लिए गए और तिहाड़ जेल भेज दिए गए। श्री ठेंगड़ी जी को राज्यसभा सदस्य के नाते बी श्रेणी में रखा बाकी हम सब को सी श्रेणी में। श्री ठेंगडी जी ने बी श्रेणी में रहने से इनकार कर दिया और कहा कि मैं तो कार्यकर्ताओं के साथ ही रहूंगा। कुछ दिनो के बाद हम सब को जमानत पर छोड दिया गया और मुकद्मा शुरू हो गया। वह मुकद्मा 21 महीनों तक चलता रहा। इस बीच में अन्य 4 को छोड़कर मुझे नौकरी से सस्पेंड कर दिया गया परिवार कैसे चले? हमारे एक पुराने प्रचारक पाठक जी की पत्नी श्रीमती मनु पाठक के पास राजस्थान लॉटरी की एजेंसी थी। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं आपको राजस्थान लॉटरी का प्रमुख बनाती हूँ और इसका जो भी लाभ होगा वह आप अपने परिवार को चलाने के लिए रखें।

श्री ठेंगड़ी जी ने कहा सस्पैंड होने का ऐसा सुअवसर कभी-कभी आया करता है अतः आपको इन पचड़ों में नहीं पड़ना और नागपुर के दो श्रेष्ठ कार्यकर्ताओं सर्वश्री डब्लू.एस. मिटकरी एवं बोरकर जी कर्मचारियों के नेता हैं इन्हें साथ लेकर आप सारे देश का दौरा करेंगे। हम तीनों ने इस बीच में हिंदुस्तान के प्रायः सभी प्रांतो में सरकारी कर्मचारी राष्ट्रीय फोरम (मंच) का बीज डाल दिया। परिणामस्वरूप इसी में से भारतीय डाक तार कर्मचारी महासंघ का निर्माण हुआ और अनेक राज्यों में राज्य कर्मचारियों के अनेक संगठन हमारे साथ आ गए। फलस्वरूप एक विशाल सरकारी कर्मचारी राष्ट्रीय परिसंघ का निर्माण हो गया। जिसके साथ लाखों कर्मचारी संबद्ध हो गए। जो आज भी फल-फूल रहा है।

कार्यकर्ता की चिंता

बहत पुरानी बात है। प्रातः काल मैंने अपने घर (नेताजी नगर) के सामने एक टैक्सी को बार-बार घूमते देखा। गौर से देखा तो श्री ठेंगड़ी जी मेरा घर ढूँढ रहे थे। पूछने पर उन्होंने कहा कि कल रात्रि को श्री रामदास जी भयंकर दुर्घटना से ग्रस्त हो गए हैं। अतः आप मेरे साथ चलें ताकि उनको अस्पताल में दाखिल करवाया जा सके।

आत्मीयतापूर्ण व्यवहार

सन 1975 की इमरजेंसी में मैं और मेरी पत्नी श्रीमती कृष्णा शर्मा दोनों को ही नौकरी से डिसमिस कर दिया गया और घर पर पुलिस ने ताला लगा दिया। कुछ दिन तक परिवार मदनगीर गाँव में मेरे साले श्री प्यारेलालजी के पास रहा। मैं संघ के प्रचार कार्य में लग गया। पता नहीं कैसे और कहाँ श्री ठेंगड़ी जी मुझे ढूंढते हुए मदनगीर गाँव पहुँचे और आग्रह किया कि बच्चों को आप 57 साऊथ एवेन्यू में ठहरा दो। वहाँ कोई खतरा नहीं है। स्मरण रहे इमरजेंसी उठने तक मेरा परिवार 57 साऊथ एवेन्यू श्री ठेंगड़ी जी के निवास पर ही रहा।

एक बार पुनः कुछ महीनों के बाद श्री ठेंगड़ी जी ने मुझे ढूँढ निकाला और कम्युनिस्ट एवं कांग्रेस के विरुद्ध गॉरमेंट एंपलाइज नेशनल कॉन्फेडरेशन के महामंत्री के रूप में स्टेटमेंट देने के लिए कहा। वह स्वयं स्टेटमेंट तैयार करके लाए थे, मैंने तो सिर्फ हस्ताक्षर ही किए। कुछ अखबारों में छपा भी।

आम सरकारी कर्मचारियों के हितार्थ आमरण अनशन

इस बीच में शकूरबस्ती रेलवे स्टेशन पर सरकारी कर्मचारियों को दबाने के लिए गोली चला दी गई तथा अनेक जख्मी हुए। फलस्वरूप कर्मचारी मारे गए। श्री ठेंगड़ी जी ने कहा कि प्रेम जी क्या करना चाहिए? मैंने कहा यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं अपने साथियों के पक्ष में आमरण अनशन पर बैठना चाहूँगा। उनकी स्वीकृति लेकर मैं बोट क्लब पर आमरण अनशन पर बैठ गया जो आठ दिन तक चला। मेरे ससुराल पक्ष के अनेक लोग श्री ठेंगड़ी जी से मिले, उन्होंने कहा कि जितनी चिंता आप सब को है उतनी ही चिंता भारतीय मजदूर संघ को भी है। अतः आप चिंता न करें। कुछ दिनों के बाद पुलिस ने जबरदस्ती अनशन से मुझे उठा दिया। सारे देश मं गॉरमेंट एंपलॉइज नेशनल कान्फेडरेशन का बोलबाला हो गया।

सन 1975 में इमरजेंसी के दौरान देशभर में लगभग 350 भारतीय मजदूर संघ के सरकारी कर्मचारियों को तानाशाही इंदिरा सरकार ने संविधान की धारा 311(2सी) के अंतर्गत नौकरी से बिना किसी मुआवजा के निकाल दिया था। सरकारी कर्मचारी राष्ट्रीय महासंघ ने इमरजेंसी के बाद सरकारी कर्मचारियों को पुनः सर्विस दिलवाने के लिए 19, विंडसर प्लेस पर कार्यालय खोला। श्री ठेंगड़ी जी ने हँसते हुए यह कहा कि जब तक सारे सरकारी बंधु नौकरी पर नहीं आ जाते आपको नौकरी पर नहीं जाना है। मेरे रिस्टेट होने पर अखबारों में खूब चर्चा हुई कि भारतीय मजदूर संघ का अंतिम कर्मचारी भी बहाल कर दिया गया।

सब मतभेद भुलाकर कार्यकर्ता की चिंता

बहुत कम लोग जानते हैं कि मेरा एक ही पुत्र था प्रवीण शर्मा जो मर्चेंट नेवी के जहाज से सन 1978 में लापता हो गया था। जिसका आजतक भी कुछ पता नहीं चला। उन दिनों श्री अटलबिहारी बाजपेयी जी विदेश मंत्री थे। बहुम कम लोग जानते हैं कि कुछ मजदूरों के आर्थिक मुद्दों पर श्री अटल बिहारी बाजपेयी और श्री ठेंगड़ी जी के नीतिगत मतभेद थे और दोनों की आपस में बातचीत भी कम रहती थी। संघ के अधिकारी चाहते थे कि श्री ठेंगड़ी जी मुझे साथ लेकर श्री अटल जी को मिलें। अतः श्री ठेंगड़ी जी सब मतभेद भुलाकर, श्री सोहन सिंह जी सहित मुझे उनकी कोठी पर ले गए।

मा. ठेंगड़ीजी का अल्प सहवास

डॉ. कृष्णराव हरदास

नागपुर

रा. स्व. संघ पर 1948 में प्रतिबंध लगा और मा. दत्तोपंत बंगाल से नागपुर लौटे। उनके साथ पहली बार इसी कार्यक्रम में मिलना हुआ। शाखाएं बंद थीं और लेकिन स्वयंसेवकों में से कुछ साम्यवाद के चक्कर में आने लगे थे। ज्येष्ठ अधिकारियों की निगाह में यह बदलाव खड़कने लगा। कुछ इलाज की खोज़ शुरू हुई। परिणामस्वरूप दिल्ली और नागपुर में एक ही समय अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ( अभाविप) का कार्य प्रारंभ हुआ। दिल्ली में प्रो. बलराज मधोक और नागपुर में मा. दत्तोपंतजी ने बैठकें अयोजित करना शुरू किया। नागपुर में महाल स्थित रीगल टॉकीज में बैठक हुई। उस सभा में मा. दत्तोपंतजी प्रमुख मार्गदर्शक थे। अभाविप का कार्य करने में सुविधा हो, इसलिए दत्तोपंत जी ने एम्. ए. इंग्लिश साहित्य के क्लास में प्रवेश लिया, पर प्रायः कॉलेज में जाना नहीं होता था। उनके अध्यापक महोदय ने पूछा "क्या मिस्टर ठेंगड़ी एम्. ए. पास करना हैं या नहीं?" इनका जवाब था, "मेरे एम्. ए. में प्रवेश लेने का कारण आपको भली भाँति मालूम है। मुझे परीक्षा देना नहीं।" - उचित समय पर अपना दायित्व किसी और को देकर ठेंगड़ीजी अपने निश्चित कार्य के लिए प्रस्तुत हुए।

आगे चलकर उनके पास मजदूर क्षेत्र का दायित्व आया। उसके अनुभव के लिए दत्तोपंत इंटक में गए। मेरी जिम्मेदारी अंजनी (नागपुर का क्षेत्र) शाखा की थी। इन दिनों उनसे संपर्क बढ़ता गया। मा. ठेंगड़ीजी से मिलने के बाद खुलकर अपने दिल की व्यथा बताता रहा। इसके बाद उनसे संपर्क आया 1978 में।

मैं 1978 में इंग्लैंड में ठेंगडीजी से मिला। दत्तोपंतजी लंडन में आठ दिन मेरे निवास पर रुके। नया आंतकवादका जनक ए.झेड फिजो से चर्चा हो सकी। इस दरम्यान लोकनायक जय प्रकाशजी नारायण की मृत्यु हुई। उनको श्रद्धांजलि देने के लिए 'फिसी' याने फ्रेंडस ऑफ इंडिया सोसायटी इंटरनेशनल ने सभा का आयोजन किया। दत्तोपंत प्रमुख वक्ता थे। अनेक कार्यकर्ताओं के इच्छा की सम्मान करते हुए, मा. ठेंगड़ीजी का आर्शीवाद लेकर, फिजो को भी इस श्रद्धांजलि सभा में बुलाया। वह आया और भाषण भी किया। किंतु यह सब मा. ठेंगड़ीजी के कारण संभव हो सका।

इस प्रवास में मा.दत्तोपंत ने एक-दो घटनाओं का उल्लेख किया। साम्यवादी प्रो. हिरेण मुखर्जी संस्कृत के अच्छे ज्ञाता थे। मा. ठेंगड़ी जी ने हिरेन बाबू को महामृत्युंजय जप रशिया में करते देखा। दोनों का प्रवास इकटठे रश्यिा में चल रहा था। दुबारा मिलने पर मा. दत्तोपंत जी ने कहा, आप मृत्युंजय का जाप करते हो, यह मुझे मालूम नहीं था। इस जाप के समय आकर मैंने बाधा डाली, इसलिए मुझे क्षमा कीजिए। इस पर मुखर्जी बाबू का उत्तर था, "मैं यह जाप पूरा होने से पहले चाय तक नहीं लेता। घर के भीतर हिंदुत्व और मंच के उपर आमसभा में हिंदुत्व का घोर विरोध।

1993 में दुबारा मा. ठेंगड़ी का प्रवास लंदन में हुआ और मुझे आपके सहवास का लाभ फिर से मिल सका।

प.पू गुरुजी के मार्ग दर्शन के कारण हर समस्या के जड़ में जाकर बुनियादी (मूलभूत) चिंतन की कला मानवरूप धारण कर आई और अतिमानव (महामानव) बन गई। यह अतिमानव याने हमारे सबके परम आदरणीय और प्रिय दत्तोपंत ठेंगड़ी - परमपिता परमेश्वर के चरणों में समा गए। एक सामान्य स्वयंसेवक की उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।

दार्शनिक एवं कार्यकर्ता का अद्भुत मिश्रण

श्याम अत्रै

प्राचार्य

मुंबई

दत्तोपंत बापुराव ठेंगड़ी के व्यक्तित्व में दार्शनिक एवं सामान्य कार्यकर्ता का अद्भुत मिश्रण था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्णकालिक प्रचारक होने के कारण अपने संपूर्ण जीवन काल में ठेंगड़ी जी ने समग्र भारत की कितनी बार यात्राएँ कीं, यह बता पाना असंभव है। अपने ध्येय के प्रति निष्ठा ही उनके जीवन का मूल मंत्र था।

एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा के अनुकूल हिंदू दर्शन जीवन को संपन्न बनाया। एक सक्षम एवं कुशल संगठक होने के कारण ही वह बड़े से बड़े एवं छोटे से छोटे कार्यकर्ताओं की मनोभूमिका का आकलन बारीकी से किया करते थे। अपनी मानवीय एवं मृदु व्यवहार के कारण जो भी उनके संपर्क में आया, चाहे वह उनका विरोधी ही क्यों न हो, उनका मित्र बन गया। उनका भाषण अपने आप में बौद्धिकता से भरपूर एवं सुनने में सहज होता था। जीवन के संचित अनुभवों से उनके भीतर ज्ञान एवं व्यवहार के अद्भुत संगम का निर्माण हुआ था।

दत्तोपंत जी के सान्निध्य में आने का सौभाग्य मुझे मिला और एक अनुशासित स्वयंसेवक के नाते उनसे सीखने का अनुभव भी मिला। यहाँ ऐसे अनुभवों को पाठकों के लिए प्रस्तुत करना उपयुक्त होगा। बात 1990 की है। पुणे के चिंचवड में सामाजिक समरसता मंच का राज्यस्तरीय वार्षिक सम्मेलन था। राज्य का कार्यकर्ता होने के नाते उस सम्मेलन में मैं भी था। संस्था के संस्थापक एवं सामाजिक समरसता विचार के प्रतिपादक दत्तोपंत जी भी मंच पर उपस्थित थे। दलित कला मंच के विख्यात लेखक एवं हस्ती श्री टैक्सास गायकवाड़ मुख्य अतिथि के रूप में पधारे थे। कई लोगों के सहयोग एवं प्रयास के बाद उनका हम लोगों के करीब आना हुआ था। भाषण करते वक्त उन्होंने हिंदू धर्म, हिंदू समाज एवं रामायण तथा महाभारत जैसे महान काव्यों के विरुद्ध कई आपत्तिजनक बातें मंच से कहीं।

आयोजकों को पसीना छूट रहा था। हम सभी लोग चकित थे। गायकवाड़ जी का भाषण भी उत्तेजक एवं अमर्यादित था। दर्शक एक दूसरे को देखकर परेशान हो रहे थे। लेकिन मंच पर उपस्थित दत्तोपंत जी के हाव-भाव एवं प्रतिक्रिया को देखकर श्रोता सभी दर्शक अनुशासित बैठे रहे। दत्तोपंत जी सदा की भाँति एकाग्र भाव से गायकवाड़ को धन्यवाद करने के लिए उठे। उन्होंने अपने पूरे भाषण में एक बार भी गायकवाड़ के ऊपर शब्दों का आक्षेप तक नहीं किया। वे हमेशा विषय के इर्द-गिर्द ही अपने विचारों को रखकर अप्रत्यक्ष रूप से दर्शकों के मन में उपजी शंकाओं का समाधान करते रहे। कार्यक्रम के बाद सभी दर्शकों ने मिलकर दत्तोपंत जी से गायकवाड़ को समुचित प्रत्युत्तर न देने का कारण पूछा।

दत्तोपंत जी ने निश्छल भाव से कहा कि - अरे भाई वे आज के कार्यक्रम के आदरणीय अतिथि थे। इसलिए उन्होंने जो भी कहा हम लोगों में उसे सुनने की धीरता होनी चाहिए। छोटी सी भी प्रतिक्रिया नहीं देना भी उचित प्रतिक्रिया है। हमारा प्रयास भी ऐसा ही है। जब दत्तोपंत जी ने यह बातें अनौपचारिक रूप से दर्शकों से कहीं तो हम लोगों का दुर्भाव क्षण में विलीन हो गया। उन्होंने कहा कि जो अच्छा लगे उसे ग्रहण करना चाहिए और अच्छा नहीं लगे उसे छोड़ देना चाहिए।

ठीक इस प्रकार से उद्धरण पुणे के समग्र अध्ययन केंद्र द्वारा आयोजित तीन दिवसीय परिचर्चा शिविर का भी है। सतारा में 12, 13 एवं 14 जनवरी 2002 को समग्र अध्ययन केंद्र द्वारा "वर्तमान परिदृश्य में दीनदयाल जी के एकात्म मानव की प्रासंगिकता एवं इसका भविष्य" विषय पर लगभग 35 स्वयंसेवकों का आवासीय परिचर्चा का आयोजन था। परिचर्चा में इस विषय से जुड़े मौलिक विद्वान एवं प्रयोगकर्ता शामिल थे, मैं भी उसमें शामिल था। श्री मोहनराव भागवत एवं दत्तोपंत ठेंगडी शिविर में पूरे समय उपस्थित रहे। सही मायने में दीनदयाल जी के विचारों पर यह एक सार्थक परिचर्चा थी। दत्तोपंत जी तल्लीनता से सभी सत्रों में विषयों को सुनते थे और चर्चा के समय कभी हस्तक्षेप नहीं करते थे। समापन के दिन उनका मुख्य भाषण हुआ। तीन दिनों की चर्चाओं में उभरे सभी पक्ष एवं विपक्ष मुददों को समेटकर उन्होंने जिस प्रकार दीनदयाल जी के विचारों को प्रस्तुत किया उससे सभी सहभागियों के साथ मुझे भी लगा कि दीनदयाल जी के विचार कितने सहज एवं ग्राह्य हैं। ऐसा शायद इसलिए संभव हुआ कि दत्तोपंत जी को दीनदयाल जी के सान्निध्य में रहने का अवसर मिला था। वे उनके सभी पक्षों से भली भाँति परिचित थे। उस दिन का दत्तोपंत जी का भाषण मनमस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ गया। मैं यह कह सकता हूँ कि भविष्य में मेरे विचारों को परिष्कृत करने में दत्तोपंत जी के उस दिन के भाषण का महत्वपूर्ण योगदान है।

जिस दिन उनका निधन हुआ मैं उनके पार्थिव शरीर के बगल में मौन खडा था। मृत्यु के बावजूद भी उनके चेहरे पर सदा की भाँति नैसर्गिक शांति थी। दत्तोपंत जी के रूप में हिंदू समाज ने एक दार्शनिक, श्रमिक संगठनों ने एक मार्गदर्शक, आंदोलनकारियों ने एक कार्यकर्ता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने एक मौलिक विचारक खो दिया है। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दें।

दत्तोपंत ठेंगड़ी - एक खुला विश्वविद्यायालय

मुजफ्फर हुसैन

लेखक , पत्रकार

मुंबई

कार्ल मार्क्स अपने साम्यवाद और महात्मा गांधी अपने गांधीवाद के लिए जिस प्रकार प्रसिद्ध रहेंगे, उसी प्रकार दत्तोपंत ठेंगड़ी अपने स्वदेशी के सिद्धांत के लिए न केवल भारत में अपितु सारे जगत में अमर और अजर रहेंगे। राजनीति शास्त्र में अनेक वाद और विचारधाराएँ हैं लेकिन स्वदेशी एक ऐसा सिद्धांत और यथार्थ है जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। दुनिया को कोई भी देश जब तक अपने वायुमंडल और अपनी धरती के विषय में बात नहीं करता। वहाँ की अर्थ व्यवस्था कभी परवान नहीं चढ़ सकती है। स्वदेशी की बात दत्तोपंत जी ने केवल भारतीय परिप्रेक्ष्य में नहीं की है अपितु संपूर्ण दुनियाँ की नैसर्गिक स्थिति के संबंध में उन्होंने अपना यह विचार व्यक्त किया है।

एक मई को मनाया जाने वाला मजदूर दिवस रूस में साम्यवाद के असफल हो जाने तक बड़ी धूम से मनाया जाता था। रूस के बाद चीन में भी अपने प्रकार के साम्यवाद का माओ और चाओ ने न केवल प्रचारित किया बल्कि उसे अपनी सत्ता का माध्यम भी बना लिया। लोगों को उन दिनों ऐसा लगता था कि विश्व कल्याण केवल साम्यवाद में है।

एक अवसर ऐसा भी आया जब दत्तोपंत जी भी मई दिवस पर चीन में उपस्थित थे। वहाँ लोगों को यह आशा थी कि दत्तोपंत साम्यवाद के रंग में ही रंग कर मजदूर दिवस पर अपने विचार व्यक्त करेंगे लेकिन सारी दुनिया से अलग हटकर दत्तोपंत जी ने दो टूक शब्दों में कहा कि विश्व का कल्याण किसी पराई विचारधारा और वाद से नहीं हो सकता है। प्रगति की कुंजी केवल और केवल स्वदेशी में है। आप अपना भूगोल और अपनी धरती भूलकर यदि विकास की कल्पना करते हैं तो यह केवल एक छलावा है। उससे दुनिया की बड़ी ताकत प्रभावित तो हो सकती है। उसका कुछ लाभ कुछ दिनों तक आपको मिल सकता है लेकिन अंततः एक दिन वह देश खोखला हो जाएगा। साम्यवाद के स्थान पर यदि चीन अपनी धरती का विकास अपने नैसर्गिक स्रोत के आधार पर करेगा तो वह स्थायी होगा।

चीन पर उन दिनों माओवाद का भूत सवार था। चीनी नेताओं ने उनसे कोई सबक सीखा या नहीं यह तो पता नहीं लग सका लेकिन आज जो चीन में असंतुलित विकास हुआ है उसे देखते हुए दुनिया की बड़ी ताकत चीन इस बात को महसूस कर रही है कि दत्तोपंत जी का विचार सौ प्रतिशत सही है क्योंकि विकास की नींव अपने स्रोत अपने भूगोल पर ही रखी जा सकती है। चीन के कुछ महान अर्थशास्त्रियों ने चायना पीपुल्स डेली में इन विचारों से अपनी सहमति प्रकट की थी। यद्धपि चाओ और माओ के सामने कोई आवाज बुलंद करना आसान काम नहीं था लेकिन दत्तोपंत जी ने वही कहा जो उन का चिंतन था। आज पश्चिमी चीन का जो विकास नहीं हो सका और चीन की आधी अधूरी अर्थव्यवस्था के कारण लोगों में जो बेचैनी है वह स्पष्ट कर देती है कि दत्तोपंत जी का चिंतन कितना खरा और कितना सामयिक था।

दत्तोपंत जी आज दुनिया में नहीं हैं। हम देख रहे हैं कि कुछ साल पहले तक अमरीका की अर्थव्यवस्था का बोलबाला था। चूँकि अमरीका पूँजीवादी देश था इसलिए उसने यह विचार किया कि जब तक उस के पास पूँजी है वह दुनिया के हर भौतिक साधन को खरीद सकता है। उसने अपनी अर्थ व्यवस्था को बनाए रखने के लिए विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष को अपना सुरक्षा कवच बनाने का भी प्रयास किया। लेकिन आज उस की अर्थव्यवस्था कहाँ है? सरकार की ओर से बार बार दिए जाने वाले बेल आउट इस बात का द्योतक है कि अमरीका पूँजी के बल पर अपने देश की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सका। उसने यह महसूस कर लिया कि मेरे देश में जो है वह मेरा है इसलिए आउटसोर्सिंग का प्रवाह पुनः अपनी धरती की ओर मोड़ दिया। वह कुछ समय तक अन्य देशों के पैसों पर अपना विकास करने में भले ही सफल हो गया हो लेकिन आज वह इस अप्राकृतिक सिद्धांत के परिणाम स्वरूप जो नतीजे भुगत रहा है। उसके कारण वह रसातल की ओर जाता दिखलाई पड़ता है।

पूँजीवादी सिद्धांत कोई नया नहीं है। इसी को अपना प्रेरणा स्रोत मान कर पिछली सदियों में युरोप के देश दुनिया में अनेक देशों पर जा कर राज करने लगे लेकिन इन देशों से ले जाया गया धन पराया था इसलिए उन्होंने अपने देश को भौतिक साधनों से तो लैस कर दिया, लेकिन इसको वे नहीं समझ पाए कि पराया अपना नहीं होता है। आज तो उल्टी गंगा बह रही है। पश्चिमी राष्ट्र अपनी अर्थव्यवस्था को पराए देशों के सहारे चलाने पर मजबूर हो गए हैं। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष में जो अन्य देशों का धन है वह किस प्रकार उनके उपयोग में आए इस पर सोचा जा रहा है। युरोप के वे देश जिन की कल तक तूती बोलती थी अब न केवल अपनी सीमाओं में सिमट गए हैं बल्कि दीवालिये की स्थिति में आ गए हैं। अपने नागरिकों की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकते हैं। ग्रीक के पश्चात स्पेन, पुर्तगाल और इटली की स्थिति अत्यंत दुखदायी हो गई है। पश्चिम के अर्थशास्त्री अब सोचने लगे हैं कि जो हमारे देश में है वही हमारा है। हम पराए की पूँजी पर किसी को गुलाम बनाने, उन देशों को हड़पने और वहाँ की परंपरा से चली आने वाली अर्थव्यवस्था को चौपट कर के अपना भला कुछ दिनों तक तो कर सकते हैं लेकिन एक दिन उन्हें इस के नतीजे भुगतने पड़ते हैं।

दत्तोपंत जी ने अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में भारतीय शासकों का जो पागलपन देखा था वे उस से अत्यंत दुखी थे। उदारीकरण के नाम पर देश में जिस बाहय अर्थ व्यवस्था को स्वीकार किया उसका गुणगान किया जा रहा था उस के प्रति उन्होंने बार बार चेतावनी दी। लेकिन डालर की रेलपेल में सरकार अंधी हो चुकी थी। जनता इन देशों के फलाए माया जाल में फंस गई। भारत में उधार ली हई अर्थ व्यवस्था का पतझड़ प्रारंभ हो चुका है। कल तक जिस अर्थव्यवस्था की गति को तेज होते देख कर हमारे शासनकर्ता खुश हो रहे थे आज उन्हें इस बात का अहसास होने लगा है कि दूसरों के बलबूते पर न तो ताकतवर बना जा सकता है और न ही अपना विकास किया जा सकता है। यह एक संयोग है कि जिस मनमोहन सिंह के नेतृत्व में इस का श्रीगणेश हुआ था वे अपने ही कार्यकाल में अब उसे मरणासन्न स्थिति में देख रहे हैं।

स्वदेशी का संबंध केवल अर्थ व्यवस्था से नहीं है। स्वदेशी अपने आप में एक संपूर्ण विचार है। अपने देश की धरती, उस का पर्यावरण एवं अपने आर्थिक स्रोत यानी संपूर्ण भारतीयता के जिस में दर्शन हों उस सिद्धांत का नाम स्वदेशी है। स्वदेशी की सफलता समाज के अंतिम आदमी के विकास और भरण पोषण में निहित है। जैसा देश वैसा भेष, जैसा अन्न वैसा मन इस में स्वदेशी की जड़ है। अपने देश का निर्माण अपने साधनों के बलबूते पर होना चाहिए। शारीरिक एवं मानसिक श्रम के साथ, अपने नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित विकास का नाम ही स्वदेशी है। वह अपने पुरखों की विरासत है जिस का उद्देश्य इस देश को पुनः जगत् गुरु के पद पर प्रतिष्ठित करना है। इसलिए स्वदेशी हमारा साध्य होना चाहिए और मंजिल पर पहुँचने का एकमात्र मंत्र भी।

दत्तोपंत जी का यह अंतरराष्ट्रीय सिद्धांत संपूर्ण दुनिया पर लागू होता है। उन के अर्थशास्त्र की सीमा केवल अपने देश की सीमाओं तक है और साथ ही अपने ही आजमाए सिद्धांतों पर। इसमें भारत को मात्र विकसित और प्रगतिशील बनाने की भावना नहीं है बल्कि जय जगत की भावना भी निहित है। स्वदेशी का सिद्धांत शोषण से परे है। इस में राजनीति की गंध नहीं है इसलिए न तो उस में हुकूमत करने की गंध है और न ही किसी अन्य का नाजाएज धन एकत्रित कर के धन्ना सेठ बनने की लालसा। इस स्वदेशी का ही चमत्कार कहना चाहिए कि उन्होंने 1989 तक रूस टूट जाएगा इसकी घोषणा कर दी थी। शक्ति से जीते गए देश बहुत समय तक अपनी सीमाओं में बँधकर नहीं रहते हैं। एक दिन ऐसा आता है कि वे अपनी मूलभूत सीमाओं में लौट जाते हैं। दुनिया ने देख लिया कि यूरोप के भिन्न भिन्न देश चाहे वह ग्रेट ब्रिटेन हो, फ्रांस, पुर्तगाल, स्पेन और होलैंड हो वे आज अपनी राजनीतिक सत्ता छोड़ कर अपने दायरे में लौट आए हैं। आप देखेंगे कि दो तीन वर्षों में ही आज के सोवियत रूस में विघटन होगा और वह अपनी सीमाओं में लौट आएगा।

वर्ष 1989 में रूस का टूटना दत्तोपंत जी की भविष्यवाणी को सच साबित करने वाला सिद्ध हुआ। जब उन से पूछा गया कि क्या अमरीका टूटेगा? तब उन का उत्तर था नहीं, क्यों कि वह एक नैसर्गिक राष्ट्र है। प्राकृतिक रूप से बने देश टूटते नहीं है। भले ही उनका राजनीतिक विभाजन हो जाए लेकिन एक दिन वे फिर अपनी असली स्थिति में लौट आते हैं। हमारे यहाँ अखंड भारत की कल्पना भी इसी सिद्धांत पर आधारित है। भारत के चाहे जितने टुकड़े कर दो लेकिन वे जब तक एक नहीं होते उनका विकास संभव नहीं है।

रूस के टूटने पर उठे सवाल का जवाब देते हुए उनका मत था कि अमरीका तो नहीं टूटेगा लेकिन अमरीका के डालर का अवमूल्यन अवश्य होगा? वह मुद्रा के रूप में अपना अंतरराष्ट्रीय स्थान बनाए रखेगा या नहीं? इस पर अपना दो टूक उत्तर देते हुए ठेंगड़ी जी ने कहा था डालर का दबदबा बहुत दिनों तक नहीं रहने वाला है। क्योंकि राष्ट्र संघ का जो कृत्रिम स्वरूप है उसी के चारों ओर खतरा मंडरा रहा है। स्वदेशी पर आधारित यह उन का राजनीतिक दर्शन था जो अब यथार्थ बनता दिखलाई पड़ रहा है। जब हम स्वदेशी के आइने में झाँकतें हैं तब एक संदेशा सुनाई पड़ता हैं कि स्वावलंबन और स्वशासन ही सभी बीमारियों की दवा है। इसलिए स्वदेशी एक व्यवस्था है जो रोग ग्रस्त देश और समाज को निरोगी बनाकर उस में नव जीवन का संचार कर देने की शक्ति रखती है।

अपने आर्थिक चिंतन के साथ ही दत्तोपंत जी अन्य विषयों पर भी अपनी बेबाक टिप्पणी करने से नहीं चूकते थे। भारतीय समाज में आज अल्पसंख्यकों का प्रश्न सबसे अधिक जटिल है। उस का निदान करने के लिए उन्होंने समादर मंच की स्थापना की। उन का कहना था कि मेलजोल आवश्यक है। जब दो तरफा अवागमन बढ़ेगा तो अपने आप ही अनेक शंकाए समाप्त हो जाएंगी। इसलिए उन्होंने कहा दोनों के बीच आपस में आदर की भावना होनी चाहिए। एक दूसरे को यदि सम्मान देते हैं तो फिर उन के लिए साथ में बैठना और साथ में विचार करना कठिन नहीं होगा। हिंदू मुस्लिम एकता के लिए उनका यह चिंतन बड़ा प्रभावी है। यदि इस मंच का प्रचार प्रसार हो कर दोनों समाज के लोग साथ में एकत्रित होते हैं तो दोनों के बीच विश्वास बढ़ेगा। वे आदर को विश्वास की नींव मान कर खुले दिल से विचार कर यदि आगे बढ़ने का लक्ष्य निर्धारित होगा तो देश की एक बड़ी समस्या का समाधान होगा।

इसके अनुसंधान में एक घटना का उल्लेख अनिवार्य है। दत्तोपंत जी विदर्भ के नगर आरवी के निवासी थे। उनके पड़ोस में एक दाऊदी बोहरा परिवार रहता होगा। अपने बाल्यकाल में वे इस परिवार के लोगों से परिचित रहे होंगे। जब उन्हें यह मालूम हुआ कि आर्वी का वह बोहरा परिवार नीमच जा कर बस गया है और एक बार जब वे नीमच आए तो मुझे बुलाकर उस परिवार से मिलने की इच्छा व्यक्त की। मैं उनके आदेशानुसार उन्हें हकीमुददीन भाई कांचवाला के घर पर ले गया। वहाँ जाते ही बोले फिदाहुसैन काका और मरियम बहन कहाँ हैं? घर की बहु मेरी और देखने लगी। बाद में जब फिदा हुसैन काका को दुकान से बुलवाया तो उनसे लिपट गए। बोले काका मुझे पहचाना। मैं आपका पडोसी दत्तु तब तक मरियम मौसी सब समझ गई थीं। अपनी गुजराती में बोली हमें तो आरवी छोड़े 60 साल हो गए आप को हम अब तक याद हैं? दत्तोपंत जी और फिदा हुसैन काका की आँखें डबडबा आई और बोले आर्वी के दो बेटे एक दूसरे को कैसे भूल सकते हैं?

मरियम मौसी के चेहरे पर एक ऐसी प्रसन्नता झलकने लगी मानो वे अपने पुराने नगर आरवी में पहुँच गई हों। दत्तोपंत जी को उन्होंने कहा दत्तू आज फिर एक बार मेरे हाथ की मक्का की रोटी खा कर जा। हम चारों और हकीम भाई का संपूर्ण परिवार उन के आंगन में ही बैठ गए। मरियम मौसी की रोटियों को वे इस प्रकार चूर कर खाने लगे मानो किसी देवता पर चढ़ाया हुआ प्रसाद खा रहे हों। जाते समय मरियम मौसी को कहा ईद अभी गई है न? भाई की ईदी स्वीकार कर लो। मैंने देखा मरियम मौसी ने सौ का नोट थाम लिया और बेतहाशा रो पड़ी। कहने लगी आज बरसों के बाद मेरे यहाँ मेरा आर्वी का भाई आया है। दत्तोपंत जी कितने भावुक हो गए मैं नहीं कह सकता।

फिदा हुसैन काका दत्तोपंत जी को अपने बेटे हकीम की दुकान पर ले गए। वहाँ वे बैठे और उनकी दुकान से एक आइना खरीदना चाहा। जब पैसे देने लगे तो फिदाहुसैन काका बोले दत्तू तू पैसे देगा? दत्तोपंत जी बोले आज कितने बरसों के बाद मुझे कोई तू कहने वाला मिला। 35 साल से भी अधिक पुरानी इस घटना को याद करके मैं कह सकता हूँ दत्तोपंत जी आप समान आदर ही नहीं समान प्रेम की भी एक अनूठी और अनोखी मिसाल हो। इसलिए आपका समादर मंच आपके सिद्धांतों के बलबूते पर हमेशा जीवित रहेगा।

कुछ पुस्तकें प्रस्तावना के कारण प्रख्यात बनती है लेकिन जिस किसी ने राष्ट्र नामक पुस्तक को पढ़ा उन्होंने महसूस किया कि उस की प्रस्तावना के कारण ही वह पुस्तक चर्चित बनी। 'राष्ट्र' की लिखी गई दीर्घ प्रस्तावना आज भी कहती है तुम जैसा विचारक इस देश में सदियों के बाद ही जन्म ले सकता है। पंडित दीनदयाल जी के वे हद दर्जा प्रशंसक थे। उन्हें पंडितजी के नाम से ही सम्बोधित किया करते थे। उनके संबंध में जो कुछ कहा उस पर तो एक पूरी किताब लिखी जा सकती है। मेरी पत्नी का नाम नफीसा है लेकिन वे उसे हमेशा नजीफा कहकर ही पुकारते थे।

जब माननीय अटल जी की सरकार एक मत से गिर गई उसके एक सप्ताह के पश्चात उनके साथ मुझे एक कोयले की खान पर जाने का अवसर मिला। रास्ते में चलते चलते वे कहने लगे इंग्लैंड में चार सरकारें भूतकाल में एक मत से गिरी थीं और फ्रांस में तीन सरकार। सभी के नाम और उन सरकारो का कार्यकाल वे इस तरह से बतला रहे थे माना कोई संदर्भ ग्रंथ पढ़ रहे हों। स्टेशन से उतर कर जब सड़क पर जा रहे थे तब वहाँ एक पानी पूड़ी वाला खड़ा था। मैंने धीरे से एक साथी को कहा पानी पूड़ी खाओगे? दत्तोपंत जी ने सुन लिया और बोले सभी खाएंगे। हम सब उस की फुटपाथ पर लगी दुकान पर पहुँच गए।

दत्तोपंत जी बड़े चाव से और प्रसन्न चित्त हो कर उस पानी पूड़ी का स्वाद ले रहे थे। उन्होंने कहा पानी पूडी मुंबईय्या नाम है। यहाँ तो इसे पानी पताशा कहते हैं। कोयले की खान पर पहुँच कर वे मजदूरों के साथ बातों में तल्लीन हो गए - मैं उनकी बातचीत सुन रहा था तब मुझे लगने लगा कोयले की ऊर्जा तो उसे जलाने पर मिलती है लेकिन दत्तोपंत जी की आवाज में वह ऊर्जा थी जिसे हम सब सुनकर महसूस कर रहे थे कि कोयले की इस कालक में से एक ऐसी ऊर्जा निकलेगी जो इस देश को विश्व में फिर से जगत गुरु के पद पर आसीन कर देगी। दत्तोपंत जी के पास जब भी जाना हुआ तब मुझे ऐसा लगा कि मैं किसी खुले विश्वविद्यालय के परिसर में आकर खड़ा हो गया हूँ। बीसवीं शताब्दी की इस महान विभूति को सलाम करता हूँ।

महान आर्थिक , राष्ट्रवादी विचारक एवं दृष्टा

सुंदर सिंह शक्रवार ,

अधिवक्ता ,

छिंदवाड़ा (म.प्र.)

ऐसा कहा जाता है कि श्रेष्ठ महापुरुष के जीवन का आकलन उनके जीवनकाल के पश्चात करीब 25-50 वर्ष बाद ही निष्पक्ष ढंग से किया जा सकता है, इसलिए अनेक नेताओं और महापुरुषों ने स्वयं के जीवन के बारे में जो कुछ लिखा उसे 25 वर्ष या 50 वर्ष बाद प्रकाशित करने की अपेक्षा की।

परंतु ऐसे महापुरुषों के कार्यों को इतने वर्ष बाद आकलन करते समय यदि उस व्यक्ति का जीवनवृत्त आम लोगों के सामने नहीं आता तो सही निष्कर्ष निकालने में कठिनाई आ सकती है। कुछ ऐसे भी नेता हैं जो स्वयं अपनी जीवनी लिख गए हैं परंतु भारतीय परंपरा के अनुरूप स्वयं के जीवन को प्रसिद्धि मुक्त रखने वाले भी अनेक महापुरुष अपने देश में हुए हैं जो अपने स्वयं के बारे में कुछ कहते नहीं। इसलिए उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाएँ भी लोगों की जानकारी में नहीं आ पातीं।

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ के संस्थापक, स्वदेशी जागरण मंच, सामाजिक समरसता, उपभोक्ता आंदोलन को नई दिशा देने वाले मजदूर क्षेत्र में राष्ट्रवाद के संस्कारों के प्रतिष्ठिापित करने वाले श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ऐसे ही स्वयं को प्रसिद्धि से दूर रखने की इच्छा रखने वाले नेता हैं।

उनके लेख, विचार, पुस्तकें भी काफी प्रकाशित हुई हैं। देशव्यापी भ्रमण के दौरान विभिन्न विषयों पर उनके सारगर्भित उद्बोधन से लोग परिचित हैं। अपने 12 वर्ष के संसदीय जीवन (1964 से 1976 तक) राज्यसभा सदस्य रहने से विभिन्न विचारों के व्यक्तियों से उनका जो आत्मीय संबंध आया न केवल संघ से जुड़े बल्कि सभी अनुषांगिक संगठन और संघ विरोधी विचार रखने वाले लोग भी उनके प्रति अत्याधिक आदर का भाव रखते हैं।

स्वयं को प्रचार से दूर रखने की प्रवृत्ति और संगठनों में भी व्यक्तिवाद हावी न हो उनके इस प्रयत्न के कारण, अपने संपूर्ण जीवन के अहनिश परिश्रम से जिस भारतीय मजदूर संघ को उन्होंने देश के सर्वप्रथम केंद्रीय श्रमिक संगठन होने का सम्मान दिलाया, उसमें भी उन्होंने वर्तमान में विचित्र लगने वाली ऐसी कुछ परंपराएं स्थापित कीं। इनमें भारतीय मजदूर संघ के कार्यक्रमों में किसी व्यक्ति विशेष की जय-जयकार न हो, उनके नाम से नारे न लगें, इसके साथ ही यह भी उन्होंने निर्णय करवाया कि किसी नेता विशेष के षष्टी अथवा अमृत महोत्सव के समय उनका कोई सार्वजनिक स्वागत नहीं किया जाएगा और न ही उनके नाम से धन एकत्रित करके थैली भेंट आदि के कार्यक्रम होंगे।

पूर्वज कम्युनिस्ट-परंतु वे प्रखर राष्ट्रवादी

भारत के प्रथम अग्रणी कम्युनिस्ट नेताओं में श्री धुंडीराज पंत ठेंगड़ी का नाम पुराने कम्युनिस्ट जानते हैं। उन्होंने भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन का सर्वप्रथम नेतृत्व किया था। परंतु उसी कुल में वर्ष 1920 में भारत के प्रमुख त्यौहार दीपावली के दिन 10 नवंबर को वर्धा जिले के आर्वी नगर में प्रसिद्ध अधिवक्ता श्री बापुजी ठेंगड़ी को प्रथम पुत्र रत्न प्राप्त हुआ। श्री बापुजी स्वयं भी धार्मिक प्रवृत्ति के थे। अतः उन्होंने उसका नाम दत्ता रखा जो दत्त भगवान के प्रसाद के रूप में माना गया। यही पुत्र श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी के नाम से आज देश में विख्यात है। उनका प्रखर राष्ट्रवादी जीवन उनके पूर्वज श्री धुंडीराजपंत के विचार और कृतियों से विपरीत है, यह कहने की आवश्यकता नहीं है।

बाल्यकाल में ही राष्ट्रीयता की भावना

भारत का 20 और 30 का दशक स्वतंत्रता का महत्वपूर्ण भाग रहा है। इस आंदोलन का प्रभाव जहाँ वयस्क और बड़े प्रबुद्ध जीवियों पर पड़ा वहीं बालक दत्तोपंत स्वयं को भारत के स्वतंत्रता के लिए कुछ कर गुजरने के भाव से मुक्त नहीं रख सके। श्री ठेंगड़ी जी वानरसेना के अपने नगर में अग्रणी थे।

बाद में उनका संपर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से आया और वे संघ के स्वयंसेवक बने। अपनी उच्च शिक्षा के समय वे संघ के समर्पित कार्यकर्ता रहे, और विधि स्नातक की डिग्री प्राप्त की। निश्चय ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देशभक्ति और राष्ट्रवाद का अभूतपूर्व विश्वविद्यालय है। यह आज व्यापक मान्यता बन चुकी है। अतः श्री दत्तोपंत के जन्मजात संस्कार राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ के कारण और भी प्रभावी रूप से प्रकट होकर सामने आए।

माता-पिता द्वारा पुत्र राष्ट्र को समर्पित

श्रद्धेय बापुजी ठेंगड़ी स्वयं अच्छे वकील थे। अतः उनकी यह स्वाभाविक इच्छा थी कि उनका ज्येष्ठ पुत्र वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण कर उनसे भी श्रेष्ठ वकील बने। परंतु श्री दत्तोपंत के मन में कुछ और था। देश की परिस्थिति को देखते हुए वे स्वयं को राष्ट्र कार्य के लिए संघ के प्रचारक के रूप में समर्पित करना चाहते थे परंतु पिताजी की इच्छा के विपरीत यह कैसे किया जाए, यह समस्या थी। फिर भी उनका निश्चय अडिग था। सवाल पिताजी को अनुकूल बनाने का मात्र रह गया था।

इस कार्य के लिए प.पू. श्री गुरुजी ने श्री कृष्णराव मोहरील को चुना जो अत्यधिक व्यवहारकुशल थे और उनका भी अत्याधिक आत्मीय संबंध श्री बापुजी से परमपूज्य श्री हेडगेवार के समय से ही था क्योंकि श्री बापुजी ठेंगड़ी को परम पूज्य डॉक्टर साहब ने संघ का स्वयंसेवक बनाया था। बापुजी कुछ उग्र स्वभाव के भी थे। जब उसको पता चला कि श्री दत्तोपंत वकालत नहीं करना चाहते और संघ के प्रचारक बनना चाहते हैं, तो वे काफी नाराज हुए। परम पूजनीय श्रीगुरुजी ने श्री कृष्णराव मोहरील को उनके पास भेजा। इस लेख के लेखक को स्वयं श्री कृष्णराव मोहरील ने वह प्रसंग सुनाया था। जब श्री कृष्णराव आर्वी पहुँचे, तो उनको देखकर बापुजी ने नाराजी के स्वर में ही उनसे कहा कि मैं जानता हूँ कि तू क्यों आया है, परंतु तेरा उद्देश्य पूर्ण नहीं होगा। श्री कृष्णराव शांत रहे। फिर बापुजी ने उन्हें भोजन कराया क्रोध कुछ शांत देखकर श्री कृष्णराव ने अत्यंत सौम्यभाव से श्री बापुजी को कहा कि आपने अपने लड़के का नाम "दत्ता" रखा। क्या यह नाम दत्त भगवान के प्रति आपके आदर के कारण ही आपने रखा "हूँ" गुस्से में कहकर श्री बापुजी ने उत्तर दिया। तब आगे श्री कृष्णराव ने कहा कि बापुजी आप तो जानते हो कि दत्त भगवान का संसार के मायामोह से नाता नहीं था। बापुजी गंभीर हो गए और फिर बोले नहीं। दूसरे दिन जब श्री कृष्णराव ने स्वयं के नागपुर वापस जाने की बापुजी से अनुमति चाही तो बापुजी ने कहा कि मैं नागपुर आ रहा हूँ।

श्री कृष्णराव ने सारा प्रसंग आकर परम पूजनीय श्री गुरुजी को बताया। श्री गुरुजी ने कहा कि तुमने अपनी भूमिका बहुत अच्छी निभाई है। कुछ दिन पश्चात श्री बापुजी ठेंगड़ी श्री दत्तोपंत की माता जी को साथ लेकर नागपुर आय। उन्होंने अपने साथ दत्तोपंत को लिया और परम पूजनीय श्री गुरुजी के पास गए। माता-पिता दोनों ने परम पूजनीय श्री गुरुजी को कहा कि हम लोग "दत्ता" को आपके सुपुर्द राष्ट्र कार्य के लिए कर रहे हैं। इस तरह माता-पिता ने ही अपने पुत्र को राष्ट" समर्पित कर दिया। वर्तमानकाल के या उस काल के भी माता-पिताओं की अपने वरिष्ठतम पुत्र से क्या अपेक्षा रहती है और रही होगी, यह कहने की आवश्यकता नहीं है। परंतु यह अनूठा उदाहरण उन सब अपेक्षाओं के विपरीत था। इस भूमिका के लिए जो श्रीकृष्णराव मोहरील का चयन हुआ था, वह भी योगायोग था। जिन कार्यकर्ताओं का श्री कृष्णराव मोहरील से थोड़ा भी संबंध आया है, वे उनकी आत्मीयतायुक्त स्वभाव और स्नेह व्यवहार से भली-भाँति परिचित हैं।

कम्युनिष्टों के गढ़ में संघ कार्य

पूज्य माता-पिता से अनुमति मिलने के पश्चात श्री दत्तोपंत को संघ कार्य प्रारंभ करने के लिए तत्कालीन मद्रास प्रांत के केरल क्षेत्र में भेजा गया जहाँ करीब 4 वर्षों में उन्होंने सफलतापूर्वक वहाँ काम खड़ा किया। उसके पश्चात उनकी योजना बंगाल प्रांत के सह-प्रांत प्रचारक के नाते हुई। दोनों क्षेत्र उस समय और आज भी कम्युनिस्टों के प्रभाव क्षेत्रों में रहे हैं। इन क्षेत्रों में कार्य करते समय श्री दत्तोपंत ने कम्युनिस्टों की विचारधारा और कार्य शैली का काफी निकट से अध्ययन किया। अपने निर्मल स्वभाव से उनके कई कम्युनिस्ट नेता विरोधी विचार के होने के बावजूद भी उनके घनिष्ट मित्र बने और जीवन भर रहे। केरल के पुराने मार्क्सवादी नेता श्रीराम मूर्ति तथा बंगाल के कम्युनिस्ट सांसद श्री चटर्जी के नामों का विशेष उल्लेख किया जा सकता है। इनका श्री दत्तोपंत से न केवल आत्मीय संबंध रहा वे श्री ठेंगड़ीजी का पूर्ण विश्वास भी करते थे।

मजदूर क्षेत्र में कार्य करने की प्रेरणा

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर से गांधी हत्या के बाद लगा प्रतिबंध जुलाई 1949 में उठाया गया। उस समय श्री दत्तोपंत बंगाल के प्रांत प्रचारक क रूप में कार्य देख रहे थे। संघ के प्रतिबंधकाल में ही नागपुर में श्री ठेंगड़ी जी के मार्गदर्शन में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की स्थापना हुई। संघ पर से प्रतिबंध उठने के बारे में अनिश्चितता थी। अतः पूजनीय श्री गुरुजी के विचार-विमर्श के पश्चात विद्यार्थियों के बीच काम करने के लिए यह संगठन बनाया गया जो आज देश में सबसे बड़ा विद्यार्थी संगठन बन चुका है।

प्रतिबंध उठने के कुछ समय बाद जब एक केंद्रीय बैठक में श्री ठेंगड़ी जी नागपुर आए थे तो परम पूजनीय श्री गुरुजी ने उनसे मजदूर क्षेत्र में काम करने की अपेक्षा व्यक्त की परंतु यह भी निर्देश दिया कि वे फिलहाल यह अन्य लोगों को नहीं बताएँगे कि वे उनकी प्रेरणा से मजदूर क्षेत्र में काम कर रहे हैं। संभवतः परम पूजनीय श्री गुरुजी ने यह सावधानी इसलिए भी रखी कि उस समय संघ के वरिष्ठ अधिकारी संघ के कार्यकर्ताओं की शक्ति प्रत्यक्ष संघ कार्य में लगाने के पक्षधर रहे हैं। परंतु पूजनीय श्री गुरुजी तो दूरदर्शी थे। भविष्य की आवश्यकताओं का भी उन्हें ज्ञान था। फिर उन दिनों मजदूर क्षेत्र में लाल झंडा और कम्युनिस्टों का ही बोलबाला था। ऐसी स्थिति में जिस कार्यकर्ता ने कम्युनिस्ट कार्य शैली और विचार को नजदीक से देखा है ऐसे श्री दत्तोपंत मजदूर क्षेत्र में कार्य करने के लिए उपयुक्त व्यक्ति श्री गूरुजी को समझ में आए। इसलिए उन्हें प्रेरणा दी गई।

भगवान की कौंसिल में मजदूरों का प्रतिनिधित्व कैसे ?

जब श्री ठेंगड़ी जी इंटक में थे तो वे इंटक के अखिल भारतीय जनरल कौंसिल के सदस्य भी चुने गए थे। जनरल कौंसिल के सदस्य होने के बाद से परम पूजनीय श्री गुरुजी के पास गए और उन्हें यह समाचार बताया। तब श्री गुरुजी ने उनसे पूछा कि वह किस चुनाव क्षेत्र से (अर्थात किस औद्योगिक मजदूरों के प्रतिनिधि के नाते) जनरल कौंसिल के सदस्य चुने गए हैं। ठेंगड़ीजी ने कहा कि खदान उद्योग से वे सदस्य चुने गए। श्री गूरुजी का उनसे दूसरा प्रश्न था कि देश में जितने खदान मजदूर हैं क्या उनके प्रति तुम्हारा वही भाव है जो एक मां का अपने पुत्र के प्रति रहता है। श्री ठेंगडी जी ने उत्तर दिया नहीं। तब से श्री गुरुजी ने कहा कि तुम भले ही इंटक के जनरल कौंसिल में खदान मजदूरों के प्रतिनिधि होगे, परंतु बिना मातृत्व भाव के तुम भगवान की जनरल कौंसिल में मजदूरों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते।

जिन लोगों के लिए हम काम करते हैं, वे दीन, हीन, शोषित हों तो केवल उनके औपचारिक नेता बनकर हम उनका वास्तविक भला नहीं कर सकते। उनके लिए हमारे मन में माता का भाव चाहिए। तभी हम उनमें सही काम कर सकते हैं, इस मुख्य बात की ओर परम पूजनीय गुरुजी ने श्री ठेंगड़ीजी को इशारा किया।

भारत में मजदूर मुख्यतः मुक्तिसेवा सेल्फ एंप्लाई हैं, अतः यदि भारत में मजदूरों का सही आंदोलन खड़ा करना है तो ऐसे मजदूरों के बीच भी काम करना पड़ेगा, उनमें संगठन खड़ा करना पड़ेगा, यह बात ठेंगड़ी जी के ध्यान में शुरू से ही थी। अतः प्रारंभिक काल में नागपुर में उन्होंने बुनकर नेता श्री आर.बी.कुम्भारे के साथ बुनकर आंदोलन में काफी भाग लिया और काम किया। इस लेख के लेखक को भी सन 53-54 की अवधि में छिंदवाड़ा जिला बुनकर समिति के सचिव के नाते, बुनकर आंदोलन में श्री ठेंगड़ी जी के सान्निध्य का उस समय सुयोग प्राप्त हुआ। वैसे तो 1950-51 में जब वे बालाघाट जिले के भवेली मैंगनीज खदान के हड़ताल के दौरान 3-4 दिन लगातार बालाघाट रहे थे उसी समय से इस लेख के लेखक का श्री ठेंगड़ी जी से संपर्क आया। यह लेखक उन दिनों बालाघाट में संघ का जिला प्रचारक था। उस समय ठेंगड़ी जी इंटक के नेता थे। छिंदवाड़ा जिले के कोयला खदान क्षेत्र में भी इंटक के नेता के रूप में अक्सर आते थे और सभी कार्यकर्ताओं से अपना निकट का संपर्क भी बनाए रखते थे। उस समय के जिले के इंटक के नेता ठेंगड़ीजी द्वारा इंटक छोड़ने के बावजूद उनके प्रति अत्याधिक आदर रखते थे और उनका सम्मान करते थे। परस्पर विरोधी श्रमिक संगठनों में काम करने के बावजूद ठेंगड़ी जी ने अपना व्यक्तिगत मधुर संबंध अपने विरोधियों से भी बहुत अच्छा कायम रखा। उस समय यह अपवाद ही था।

व्यापक परिचय के लिए कुछ समय राजनीति में भी

यद्यपि दत्तोपंत जी को भविष्य में भी मुख्यतः मजदूर क्षेत्र में ही काम करना था, परंतु परिचय का क्षेत्र व्यापक बनाने के उद्देश्य से जिसका लाभ भविष्य में मजदूर क्षेत्र के काम में मिल सके, श्री ठेंगड़ीजी की योजना भारतीय जनसंघ की स्थापना के पश्चात म.प्र. जनसंघ क संगठन मंत्री के रूप में हुई इस तरह संपूर्ण मध्यप्रदेश में उनका परिचय का दायरा बढ़ा और उनके संगठन से कुशलता का लाभ राजनीति क्षेत्र को भी हुआ।

जब उन्हें जनसंघ का संगठन मंत्री बनाया गया तो कुछ लोगों के मन में जो उनके बारे में उनके मजदूरों से संपर्क और उनके बीच काम करने के कारण यह गलत धारणा बन रही थी कि श्री दत्तोपंत शायद मूल विचारधारा और काम से अलग जा रहे हैं, तो ऐसे लोगों को उनके संगठन मंत्री बनने से प्रसन्नता हुई और उन्हें लगा कि शायद अब श्री दत्तोपंत सही रास्ते पर आ रहे हैं क्योंकि यह स्पष्ट था कि जनसंघ को स्वयंसेवक संघ का आशीर्वाद था। उपरोक्त गलतफहमी के शिकार लोगों की आलोचना के कारण ही कुछ समय तक तब श्री दत्तोपंत की बड़ी असमंजसपूर्ण स्थिति थी। वे परम पूजनीय श्री गुरुजी के निर्देश के कारण यह नहीं कह सकते थे कि उन्हें मजदूरों में काम करने के लिए परम पूजनीय श्री गुरुजी ने कहा है। उस समय उनके संघ के नागपुर में महाल स्थित केंद्रीय कार्यालय (हेडगेवार भवन) में निवास पर कुछ लोगों द्वारा उंगलियां उठाई गई गुरुजी ने श्री दत्तोपंत को अपने चितारोल स्थित मकान में रहने के लिए कहा और लंबे समय तक श्री दत्तोपंत परम पूजनीय श्री गुरुजी के महाल मोहल्ले में चितारोल में स्थित मकान में परम पूजनीय गुरुजी के श्रद्धेय माता-पिता के साथ रहे।

मजदूर संघ की औपचारिक घोषणा

विविध मजदूर और अन्य संगठनों का अनुभव प्राप्त करने के पश्चात तथा संघ की प्रेरणा से कुछ अन्य क्षेत्रों में भी नए-नए काम शुरू हो जाने पर (जैसे विद्यार्थी, राजनीतिक, प्रकाशन, समाचार पत्र, वनवासी क्षेत्र आदि में) तथा राजनीतिक क्षेत्र में भी कुछ लोगों की इच्छा के अनुसार कांग्रेस के इंटक के समान अपना भी मजदूर संगठन हो इस विचार से कुछ यूनियनें भी बनीं, तब मजदूर क्षेत्र का कार्य सामान्य रूप से गैर-राजनीतिक स्तर पर चलना चाहिए और स्वतंत्र रूप से चलना चाहिए यह विचार होकर 23 जुलाई 1955 को श्री दत्तोपंत जी ठेंगड़ी की ही नेतृत्व में औपचारिक रूप से भोपाल में भारतीय मजदूर संघ के स्थापना के घोषणा की गई। श्री दत्तोपंत उसके संस्थापक बने। तब उन्होंने अपने आपको प्रत्यक्ष राजनीतिक क्षेत्र के दायित्वों से मुक्त कर दिया और मुख्यतः मजदूर क्षेत्र में ही अपनी शक्ति लगाना शुरू किया।

प्रारंभिक काल में यद्यपि कुछ विधायक, सांसद तथा राजनीतिक दलों के पदाधिकारी भी भारतीय मजदूर संघ के यूनियनों के कार्यकर्ता रहे परंतु यह शुरुआत की स्थिति धीरे-धीरे अंतिम लक्ष्य को और रीति नीति को ध्यान में रखते हुए क्रमशः बदलती गई तथा 1977 में आपात्काल समाप्त होने पर तो इस बात का कड़ाई से ठेंगड़ी जी की ही प्रेरणा से भारतीय मजदूर संघ में आग्रह रहा है कि राजनीतिक दल का पदाधिकारी सामान्यता भारतीय मजदूर संघ का पदाधिकारी न बने और भारतीय मजदूर संघ का पदाधिकारी स्वयं कोई चुनाव विधानसभा या सांसद आदि का न लड़े। अब तो यह स्थापित परंपरा और नीति बन गई है।

सासंद-परंतु निष्पृह

भारतीय मजदूर संघ के कार्य को देशव्यापी बनाने के लिए और उसकी मान्यताएँ अधिक प्रकाश में आ सकें इस दृष्टि से कुछ सुविधाएँ मिल सकें तथा इसके लिए संसद या विधानसभा के मंच का भी प्रारंभिक अवस्था में सीमित उपयोग किया जावे, यह विचार कर श्री ठेंगड़ी जी जनसंघ के सदस्य न होते हुए जनसंघ की ओर से सन 1964 से 76 तक उत्तरप्रदेश से राज्यसभा के सदस्य रहे। श्री रामनरेश सिंह जी भी उत्तरप्रदेश विधान परिषद के सदस्य रहे। परंतु उन्होंने अपनी मर्यादाएँ कायम रखीं और राजनीतिक सभाओं में जाकर भाषण देना और चुनाव सभाओं आदि के सम्बोधन का परहेज बराबर कायम रखा। इतना ही नहीं श्री ठेंगड़ी जी राज्यसभा सदस्य के नाते उन्हें जो वेतन मिलता था, वह पूरा मजदूर संघ को देते थे और मजदूर संघ से अपने प्रवास आदि के लिए यथा आवश्यकता कम से कम खर्च लेते थे।

मा. ठेंगड़ी जी

डॉ. बलराम मिश्र

विश्वसंवाद केंद्र ,

दिल्ली

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक, एवं स्वाभाविक रूप से, संघ सृष्टि से जुड़े देश-विदेश के सैकडों संगठनों के प्रेरणा स्रोत दत्तोपंत ठेंगड़ी के 14 अक्टूबर, 2004 को देह-त्याग के समाचार ने करोड़ो राष्ट्र प्रेमी नागरिकों को हिला दिया। संघ की ध्येयनिष्ठ पद्धति में यद्यपि व्यक्तिनिष्ठा का कोई स्थान नहीं, किंतु ठेंगड़ी जी के द्वारा साधे गए लक्ष्यों और कार्यों को स्मरण करके कार्यकर्ताओं का शोकग्रस्त होना स्वाभाविक है। उनकी दैहिक बंधन से मुक्ति एवं हमारी यह अनुभूति कि वे अब कभी नहीं मिलेंगे, उनके विराट स्वरूप की झलक देती है। वे एक महान दार्शनिक, दृष्टा, संगठक, विचारक, अर्थ-समाजशास्त्री एवं प्रखर वक्ता थे। उनका आत्मविलोपी, विनम्र और आत्मीयता से भरा स्वभाव उनसे मिलने वाले लोगों को तुरंत यह एहसास करा देता था कि वे उन्हीं के हैं, और समाज के एक उपयोगी घटक हैं। अनगिनत मिटटी के लोंदों को उन्होंने बात-बात में ही सुपात्र बनाया था।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक प.पू.श्री गुरुजी ने जब यह देखा कि देश के श्रमिक जगत को राजनेताओं ने अपने हाथ की कठपुतली बना रखा है और सभी ट्रेडयूनियनें या तो राजनीति की चेरी हैं, या प्रदत्त विषम परिस्थितियों में यह मान लेने के लिए बाध्य हैं कि उनके जीवन का लक्ष्य है केवल रोटी कपड़ा और मकान प्राप्त कर लेना, इससे अधिक कुछ नहीं, तो उन्होंने प्रचारक बने दत्तोपंत ठेंगड़ी बी.ए.एल.एल. बी. को श्रमिक क्षेत्र में काम करने के लिए भेजा था। जगत में उस समय जिन ट्रेड यूनियनों का वर्चस्व था उनकी निष्ठाएं विदेशी विचारधाराओं से जुड़ी थीं। ठेंगड़ी जी को अपने मध्य पाकर स्वदेशी विचारधारा के श्रमिक संगठित हो गए और तय किया कि राष्ट्रहित की सीमाओं की मर्यादा का पालन करते हुए, श्रमिको के सर्वांगीण हितों की रक्षा के लिए यह आवश्यक है कि ठेंगड़ी जी के मार्गदर्शन में एक राष्ट्रवादी श्रमिक संगठन खड़ा किया जाए। वर्ष 1955 की तिलक जयंती के दिन (23 जुलाई) ऐसे कुछ कार्यकर्ता भोपाल में एकत्र हुए और 'भारतीय मजदूर संघ' का गठन हुआ। देखते ही देखते भारतीय मजदूर संघ का पौधा एक वटवृक्ष सा बन गया। सरकारी आँकड़ों के अनुसार वह आज देश का सबसे बड़ा श्रमिक संगठन है।

भारतीय मजदूर संघ के अलावा ठेंगड़ी जी ने भारतीय किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच, सर्वपंथ समादर मंच एवं सामाजिक समरसता मंच की भी स्थापना की थी, जिनकी जड़ें पूरी तरह स्वदेश में हैं। वे संगठन भी वटवृक्ष की भाँति बढ़ते ही जा रहे हैं। इनके अतिरिक्त वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, सहकार भारती, अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद, भारतीय विचार केंद्र एवं अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत के संस्थापक सदस्य थे। कम से कम 17 अन्य कामगार संगठनों के संरक्षक 5 संस्थाओं के सहयोजित सदस्य, तथा कम से कम 31 अन्य सुविख्यात संगठनों से वे जुड़े थे। 12 वर्षों तक राज्यसभा के सदस्य रहे। अफ्रीका, एशिया, अमेरिका तथा योरोप के 29 देशों की यात्राएँ कीं। हिंदी, अंग्रेजी तथा मराठी भाषाओं में कम से कम 42 पुस्तकें, तथा 10 महत्वपूर्ण पुस्तकों की भूमिकाएँ लिखीं। देश-विदेश में पठित एवं बहुचर्चित 7 शोध-लेख लिखे। राष्ट्रीय श्रमनीति-निर्धारण एवं भारतीय श्रमिकों का राष्ट्रीय माँग पत्र तैयार करने जैसे अनेक महत्वपूर्ण कार्यों में उनका योगदान अतुलनीय रहा। उन्होंने बद्रीनाथ, केदारनाथ तथा गंगोत्री श्रीराम शिला पूजन के अभियान का श्रीगणेश किया था। कानपुर में श्रीराम कारसेवा को लेकर सत्याग्रह, तथा महामना मालवीय जयन्ती समारोह प्रारंभ करने एवं पुणे में दीनदयाल मेमोरियल अस्पताल चलाने में उनका अतिमहत्वपूर्ण योगदान था। 'डॉ. हेडगेवार प्रज्ञा पुरस्कार' से सम्मानित ठेंगड़ी जी के संदेश को चीन के बीजिंग रेडियों ने 28 अप्रैल 1985 को प्रसारित किया था। राजकोट विश्वविद्यालय ने उन्हे डाक्टरेट उपाधि से सम्मानित किया।

ठेंगड़ी जी के चिंतन के अनुसार देश के आधुनिकीकरण के लिए उसका पश्चिमीकरण आवश्यक नहीं। वर्गभेद या वर्ग संघर्ष के हिंसामूलक सिद्धांत के खोखलेपन को उन्होंने खोलकर रख दिया था। केवल 'अर्थ' की महानता बताने वाले मार्क्सवाद की उन्होंने पुरुषार्थ चतुष्टय की व्याख्या के माध्यम से धज्जियाँ उड़ा दी थीं। खेतिहर मजदूरों, रिक्शाचालकों, जूते गाँठने वालों एवं घरेलू कामकाजी लोगों, जैसे असंगठित श्रमिक क्षेत्रों में लोकप्रिय संगठन खड़े करने का श्रेय ठेंगड़ीजी को ही जाता है। समता नहीं, ममता के आधार पर उन्होंने देश में न्यूनतम और अधिकतम आय का अनुपात 1:10 रखने का सुझाव दिया था। ठेंगड़ी जी ने देश के आर्थिक विकास, और विकास को सतत गतिशीलता प्रदान करने के लिए एक 'त्रिसूत्र-चक्र' के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था।: 'राष्ट्र का औद्योगिकरण करो, उद्योगों का श्रमिकीकरण करो, श्रमिकों का राष्ट्रीयकरण करो, और इस चक्र को तेजी से चलाते रहो। उनके कार्यों के महत्व को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने उन्हें 'पद्म भूषण' सम्मान से सम्मानित किया था जिसे उन्होंने यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि उनसे श्रेष्ठ लोगों को जब तक यथेष्ट सम्मान नहीं मिलता तब तक उनके सम्मान का कोई अर्थ ही नहीं।

निःसंदेह, एक न एक दिन जब भारतीय इतिहास भारतीय दृष्टि से लिखा जाएगा तो भारत को परम वैभव संपन्न राष्ट्र बनाने के लिए अपना सारा जीवन भारतमाता के चरणों पर अर्पित करने वालों की सूची में ठेंगड़ी जी का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। वह दिन दूर नहीं। प.पू. डॉ. हेडगेवार के पदचिन्हों के जीवनभर अनुगामी रहे दत्तोपंत ठेंगड़ी के विषय में भी यह सूक्ति ठीक बैठती है:

" ध्येय को ही देव कहकर हृदय मंदिर में बसाया।

देवता के युगपदों पर अर्ध्य जीवन का चढ़ाया "

अद्भुत स्मरणशक्ति (कम्न्यूटर मैमोरी)

(अ नू दित)

आर. वेणुगोपाल

पूर्व कार्याध्यक्ष राजा

भा.म.संघ

एर्नाकुलम (केरल)

वर्ष 1980 का यह प्रसंग है। मा. ठेंगड़ी जी षष्टिपूर्ति उपलक्ष्य में देश भर में समारोहों का अयोजन किया गया था। ऐसा ही एक भब्य कार्यक्रम शोलापुर (महाराष्ट्र) में आयोजित था।

कार्यक्रम एक बड़े मैदान में संपन्न हो रहा था। जनसभा में भीड़ थी। मैदान के पास वाली सड़क पर गुजरता हुआ एक राहगीर चलते चलते ठिठक गया। ध्वनिविस्तारक से वक्ता की जो आवाज उसके कानों तक पहुँच रही थी उसे लगा यह आवाज जानी पहचानी सी थी। कौन हो सकते हैं। कहीं वही तो नहीं। चलूँ जरा मँच पर देखूं तो सही कि क्या वही हैं और भीड़ में से आगे पहुँचकर उन्होंने मंच से बोल रहे वक्ता की ओर देखा और उसे आश्चर्य एवं हर्ष हुआ कि यह तो वही हैं - दत्तोपंत ठेंगड़ी जो वर्ष 1942 में कालीकट में हम छात्रों की संघ शाखा लगाया करते थे।

राहगीर ने सोचा इनसे मिला जाए और यह सोचकर वह मंच के निकट पहुँचकर भाषण के समाप्त होने की प्रतीक्षा करने लगा। सोचने लगा आज अगर उनसे मिल सका तो जीवन का यह सौभाग्यशाली दिन होगा किंतु क्या वह मुझे 38 वर्ष अंतराल के पश्चात पहचान लेंगे, क्या मुझसे बात करना पंसद करेंगे, इतने बड़े नेता हैं, भूल भुला गए होंगे किंतु चलिए एक चांस (अवसर) लेकर देखा जाए।

भाषण समाप्त हुआ। वक्ता मंच से नीचे आए। दस-बीस कार्यकर्ताओं ने उन्हें घेर लिया। राहगीर वक्ता के निकट पहुँच गया और हाथ उठाकर कहा 'ठेंगड़ी जी मैं ........... 'उधर से ठेंगड़ी जी की आवाज आई 'अरे रुको, रुको-तुम मत बताना - मैं बताता हूँ और फिर थोड़ा स्मृतियों को खंगालते हुए ठेंगड़ी जी बोले 'तुम राधाकृष्णन हो न - तुम कालीकट शाखा के स्वयंसेवक थे जब 1942 में कालीकट में मैं प्रचारक था। तुम उस समय एस.एस.एल.सी. और तुम्हारा घर वरकोट में था। तुम्हारे पिताजी का नाम कानन मैनन है। इतना कहकर ठेंगड़ी जी ने राधाकृष्णन को गले लगा लिया। राधाकृष्णन की आँखों से हर्षोन्माद की अश्रुधारा बह निकली। थोड़ी देर पश्चात राधाकृष्णन जो शोलापुर के सरकारी स्कूल में उस समय फिजिकल इंसट्रक्टर पद पर तैनात थे, से कहा आओ राधाकृष्णन एक कप चाय साथ- साथ पीते हैं और आसपास खड़े कार्यकर्ताओं से ठेंगड़ी जी ने कहा इस समय मेरी प्रसन्नता का आप अनुमान नहीं लगा सकते। राधाकृष्णन के उदार हृदय पिता जी के साथ मैंने अनगिनत बार चाय पी होगी। जिन्होंने कालीकट में शाखा स्थापना और सुचारु संचालन के लिए मुझे सदैव प्रोत्साहित किया।

अस्सी के दशक में कंप्यूटर का चलन अधिक नहीं था। किंतु कार्यकर्ता ठेंगड़ी जी के कंप्यूटर मस्तिष्क से अवगत था। वर्ष 1942 में कालीकट की शाखा के एक तरुण संयोजक स्वयंसेवक को 38 वर्ष पश्चात शोलापुर में मिलने पर उसकी एक आवाज से उन्होंने उसे पहचान लिया। मा. ठेंगड़ी जी की अद्भुत स्मरण शक्ति के इसी प्रकार के सैकड़ों में से यह एक उदाहरण है।


पहली कठपुतली ने स्वयं कहा कि मुझे मेरे हाल पर छोड दो ऐसा कहकर वह चिंतित क्यों हो गई? - pahalee kathaputalee ne svayan kaha ki mujhe mere haal par chhod do aisa kahakar vah chintit kyon ho gaee?
  
पहली कठपुतली ने स्वयं कहा कि मुझे मेरे हाल पर छोड दो ऐसा कहकर वह चिंतित क्यों हो गई? - pahalee kathaputalee ne svayan kaha ki mujhe mere haal par chhod do aisa kahakar vah chintit kyon ho gaee?
  
पहली कठपुतली ने स्वयं कहा कि मुझे मेरे हाल पर छोड दो ऐसा कहकर वह चिंतित क्यों हो गई? - pahalee kathaputalee ne svayan kaha ki mujhe mere haal par chhod do aisa kahakar vah chintit kyon ho gaee?

पहली कठपुतली ने ऐसा क्यों कहा कि यह कैसी इच्छा मेरे मन में जगी?

पहली कठपुतली ने अपनी इच्छा तो व्यक्त कर दी कि मुझे स्वतंत्र होना है। लेकिन बाद में उसे अपनी ज़िम्मेदारी महसूस होती है कि स्वतंत्र होने की क्षमता उसमें नहीं है। अकेले स्वतंत्र होना एक अलग बात है तथा दूसरों को भी स्वतंत्र करवाना एक अलग बात है। उसे लगा उसकी उम्र अभी इतनी नहीं है कि वो सबकी ज़िम्मेदारी उठा सके।

पहली कठपुतली ने क्या कहा?

पहली कठपुतली ने स्वयं कहा कि - ' ये धागे / क्यों हैं मेरे पीछे-आगे? / इन्हें तोड़ दो। ' - तो फिर वह चिंतित क्यों हुई कि - ' ये कैसी नीचे दिए वाक्यों की सहायता से अपने विचार दो; / मुझे मेरे पाँवों पर छोड़ इच्छा / मेरे मन में जगी ?' व्यक्त कीजिए- • उसे दूसरी कठपुतलियों की ज़िम्मेदारी महसूस होने लगी ।

पहली कठपुतली की बात सुनकर अन्य कठपुतलियों के मन में कौन सी इच्छा जगी?

पहली कठपुतली की बात दूसरी कठपुतलियों को बहुत अच्छी लगी, क्योंकि वे भी स्वतंत्र होना चाहती थीं और अपनी पाँव । पर खड़ी होना चाहती थी। अपने मनमर्जी के अनुसार चलना चाहती थीं। पराधीन रहना किसी को पसंद नहीं।

कठपुतली स्वयं को अपने पावों पर छोड़ देने के लिए क्यों कहती है?

कठपुतली को अपने पाँवों पर खड़ी होने की इच्छा है, लेकिन वह क्यों नहीं खड़ी होती? उत्तर:- कठपुतली अपने पाँव पर खड़ी होना चाहती है अर्थात् पराधीनता उसे पसंद नहीं लेकिन खड़ी नहीं होती क्योंकि उसके पैरों में स्वतंत्रत रूप से खड़े होने की शक्ति नहीं है।