राम काव्य परंपरा में साकेत का स्थान - raam kaavy parampara mein saaket ka sthaan

प्रस्तावना

भारत में राम काव्यधारा की लम्बी और सुदीर्घ परम्परा है। हिन्दी साहित्य से पूर्व संस्कृत, प्राकृत और अपश्नेश में प्रभूत मात्रा में रामकाव्यों की रचना हो चुकी थी। अपने पूर्ववर्ती कवियों द्वारा लिखी गई रामकथा का संकेत देते हुए तुलसीदास ने लिखा है – ‘ययायत सतकोटि अपारा/ इसी तरह उन्होंने यह भी लिखा है – ‘य्मकथा के गिति जग नाहीं।’ इन दोनों कथनों से रामकथा के अपरिमित होने का संकेत मिलता है। रामचारितमानस में तुलसीदास ने कतिपय रामकथाओं का भी उल्लेख किया है। उनके द्वारा उल्लिखित परम्परा में वाल्मीकि का रामायण, महर्षि व्यास द्वारा रचित महाभारत (वन पर्व, द्रोण पर्व तथा शान्तिपर्व में आई रामकथा), शिव-पार्वती संवाद के रूप में लिखा गया अध्यात्म रामायण और लोमश ऋषि द्वारा विरचित लोसश रामायण आदि रामकथा के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं।

रामकथा का प्राचीनतम स्रोत वाल्मीकि रामायण है। माना जाता है कि इस ग्रन्थ की रचना ई.पू. 600 – ई.पू. 400 के बीच में हुई थी। वाल्मीकि रामायण के बाद हमें रामकथा का उल्लेख मह्मभारत में मिलता है। महाभारत के चार पर्वों वन पर्व, द्रोण पर्व, शान्ति पर्व और सभा पर्व में राम कथा मिलती है। वन पर्व में रामोप्राख्यातर के रूप में विस्तार से राम कथा कही गई है। वैसे इस कथा का आधार वाल्मीकि रामायण ‘ ही है।

प्राचीन बौद्ध और जैन साहित्य के अनेक ग्रन्थों में रामकथा बिखरी पड़ी है। पद्मपुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, श्रीमद्भागवत पुराण, नृसिंह पुराण, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण, आदि में रामकथा का वर्णनात्मक रूप देखा जा सकता है। संस्कृत, प्राकृत और अपश्रंश के इन प्राचीन ग्रन्थों के अलावा संस्कृत के अनेक महाकाव्यों और नाटकों में भी रामकाव्य की परम्परा के सूत्र हैं। रामकाव्य की दृष्टि से कालिदास का रघुवंश विशेष उल्लेखनीय है। अभिनन्दन की रचना रामचारित, करि भट्टि कृत रावण-वश्च, कुमारदास रचित जातकीहरण; भवभूति कृत उत्तररामचारित, जयदेव कृत प्रसत्तराघव और राजशेखर की रचना बाल रामायण आदि रामकथा के उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं।

रामकथा के प्राचीन स्रोत

शताब्दियों से रामकाव्य अत्यन्त लोकप्रिय रहा है। न केवल भारत में, अपितु विदेशों में भी रामकथा का प्रसार तुलसीदास द्वारा रामकथा के सर्जन से पहले से था। रामकथा का प्रथम सुव्यवस्थित ग्रन्थ वाल्मीकि रामायण माना जाता है। इसका रचनाकाल 400 ई.पू. से 600 ई.पू. के बीच अनुमानित है। वाल्मीकि रामायण की रचना के समय में रामकथा को बौद्ध साहित्य में भी निबद्ध किया गया था। कुछ शताब्दियों के अन्तर से जैन धर्म में भी रामकथा को धर्म-कथा का माध्यम बनाया गया। ब्राह्मण परम्परा में वाल्मीकि रामायण को मूलस्रोत के रूप में अंगीकार किया गया और राम सम्बन्धी सम्पूर्ण वांग्मय उसी के आधार पर रचा गया। इस प्रकार तुलसीदास के पूर्व रामकाव्य की तीन स्पष्ट धाराएँ विद्यमान थीं – ब्राह्म॒ण-परम्परा, बौद्ध-परम्परा, जैन-परम्परा।

तीनों परम्पराओं में रचित रामकथा सम्बन्धी ग्रन्थों की संख्या बहुत अधिक है। ये सभी ग्रन्थ उपलब्ध भी नहीं हैं। ब्राह्मण परम्परा के अन्तर्गत वैदिक साहित्य में कहीं-कहीं रामकथा के पात्रों का नामोल्लेख मात्र मिलता है। इस परम्परा में रामकथा का विस्तृत अंकन इतिहास और पुराण ग्रन्थों में है। विष्णु पुराण, वादुपुराण; भागवत पुराण; कर्म पुराण; अग्निपुराण, वारदपुराण; ब्रह्मपराण, गरड़णपुराण, शिवपुराण, पद्मएराण; तृर्तिह पुराण आदि ऐसे ही पुराण हैं। ब्राह्मण परम्परा के अन्तर्गत ही आदि रामायण, वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण, भ्रुद्गण्डि रामायण, लोसश रामायण आदि ग्रन्थों की रचना हुई है। कालिदास का रघुकंश, कुमारदास का जातकीहरण, भास का प्रतिमानाटकम, भवभूति का उत्तररामचारितम्‌ आदि ग्रन्थ भी इसी परम्परा में लिखे गए हैं। उपर्युक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त संस्कृत में पर्याप्त संख्या में राम- कथा सम्बन्धी स्फुट-काव्य भी उपलब्ध हैं। इन स्फुट काव्यों में लेषकाव्य, विलोसकाव्य, नीतिकाव्य और खण्डकाव्य आदि आते हैं।

प्राचीन बौद्ध साहित्य में रामकथा का पर्याप्त वर्णन मिलता है। जिन बौद्ध ग्रन्थों में रामकथा उपलब्ध है, उन्हें जातक कहा जाता है। बौद्ध परम्परा में रामकथा सम्बन्धी तीन जातक प्रसिद्ध हैं।

» दशरथ जातकम्‌

» अनामकम्‌ जातकम्‌

» दशरथ कथानम्‌।

ये ग्रन्थ पालि भाषा में लिखे गए हैं।

जैन धर्म में राम-कथा की दो परम्पराएँ हैं। पहली परम्परा विमलसूरि के पउमचारियम्‌ से प्रारम्भ होती है। इसकी भाषा प्राकृत है। इस परम्परा की रामकथा का प्रचलन श्वेताम्बर सम्प्रदाय में है। दूसरी परम्परा का प्रारम्भ गुणभद्गकृत उत्तरपुराण से होता है। इस परम्परा का विशेष मान दिगम्बर सम्प्रदाय में है। रामकथा सम्बन्धी जैन ग्रन्थों की संख्या बहुत अधिक है। उसमें विशेष उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं – विमलसूरि कृत पठमचारियम्‌ (प्राकृत), स्वयंभू कृत पउमचारिए (अपभ्रंश), तथा क्षेमेन्द्र कृत दशावतारचारित (संस्कृत) आदि।

तुलसीदास से पूर्व के रामकाव्य

हिन्दी में तुलसीदास से पूर्व के रामकाव्य की कोई सुदृढ़ परम्परा दृष्टिगत नहीं होती। फिर भी, कुछ ग्रन्थ ऐसे हैं, जिनमेंं प्रकारान्तर से रामकथा का वर्णन मिलता है। चन्दवरदाई की प्रसिद्ध रचना है – एथ्वीराजरातो रासो के द्वितीय समय’ में दशावतार का वर्णन है। इसमें विष्णु के दस अवतारों का वर्णन प्रायः सौ छंदों में हुआ है। इसे रामकाव्य कहा जा सकता है। रामभक्ति के सन्दर्भ में रामानन्द के कुछ पद उल्लेखनीय हैं। सूरदास ने र॒स्मागर के नवम्‌ स्कन्ध में पद संख्या 15 से 172 तक रामकथा निबद्ध की है। यद्यपि सूरसागर में मुख्य रूप से कृष्ण की लीलाओं का ही गान किया गया है, पर रामकथा से सम्बन्धित ये पद अपने आप में परिपूर्ण हैं और स्वतन्त्र रूप से पढ़े जा सकते हैं।

अग्रदास और नाभादास ने भी रामकथा से सम्बन्धित कुछ पदों की रचना की है। अवधी के कवि ईश्वरदास की रामकथा से सम्बन्धित अनेक महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं। इन रचनाओं में रामणत्म, अंगद पैज और भरत मिलाप नामक रामकाव्य विशेष रूप से चर्चित हैं। ईश्वरदास की ये रचनाएँ दोहा-चैपाई छन्द में लिखी गई हैं। इन रचनाओं को तुलसीदास के रामचारितमानतस का पूर्वाभास माना जाता है। तुलसीदास के पूर्व, काफी संख्या में रामकाव्यों की रचना हो चुकी थी। भारतीय वांग्मय में रामकथा एक ऐसा प्रसंग है, जिस पर सभी कालों में रचना हुई है और अब भी हो रही है।

तुलसीदास और उनके समकालीन रामकाव्य

हिन्दी काव्यधारा में तुलसीदास रामकथा के सिरमौर हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि रामकाव्यधारा के सर्वश्रेष्ठ कवि आदिकवि वाल्मीकि हैं और उनकी रचना रामायण सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ। रामकाव्यधारा के सभी रचनाकारों के लिए वे आधार स्तम्भ हैं। रामकाव्य लिखने वाले हर कवि ने वाल्मीकि से सामग्री ग्रहण की है। वे पहले कवि हैं, जिन्होंने रामकथा को विस्तृत आधार प्रदान किया है। यह अलग बात है कि पीछे के कवियों ने उनके कथानक को आवश्यकतानुसार तोड़ा-मरोड़ा या नया मोड़ दिया है। रामकथा के कथानक सम्बन्धी विस्तृत परिवर्तन को जैन और बौद्ध रामकथा काब्यों में लक्ष्य किया जा सकता है। तुलसीदास ने भी वाल्मीकि की रामकथा को अपने ढंग से तोड़ा-मरोड़ा है और युग की आवश्यकतानुसार उसमें नवीनता का सन्निवेश भी किया है। तुलसी एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने रामकथा को कई रूपों से लिखा है। रामकथा पर आधारित उनकी रचनाएँ हैं – रामललानह॒छू रामाज्ञाप्रश्न] जानकीमंगल, रामचारितमानस; यीतावली; विनयपत्रिका, बरवैरामायण, कवितावली और ह॒नुमानबाहुक। तुलसीदास की प्रामाणिक कृतियों की संख्या बारह है। इन कृतियों में सात ऐसी हैं, जिनमें रामकथा वर्णित है। ऐसा तुलसी जैसे कवि के लिए ही सम्भव है कि वह एक ही कथा का वर्णन विभिन्‍न काव्यों में करें और सबमें नवीनता और ताजगी दिखाई पड़े।

तुलसीदास संग्राहिका वृत्ति के कवि हैं। रामकथा के लिए उन्होंने उपलब्ध तमाम स्रोतों से सामग्री संगृहीत की है। इस सन्दर्भ में विजयनारायण सिंह ने लिखा है – “संग्राहक कवि की कविता मध्यवर्ती कोटि की होती है, जो मधुमक्खी के समान विभिन्‍न फूलों से रस एकत्र कर ऐसे मधुछत्र का निर्माण करती है, जिसके रस में उन मूल स्रोतों के अस्तित्व का पता ही नहीं चलता, जिनसे मधुछत्र का रस निर्मित हुआ है। ऐसे कवि अपनी अन्‍्तर्दृष्टि, कल्पनाशक्ति, गहनज्ञान और सर्वभूत को आत्मभूत करने की क्षमता के कारण पूर्ववर्ती वांग्मय से अपने काव्य की सामाग्री का संचय करके उसका इस प्रकार नियोजन करते हैं कि उनकी कृति मौलिक कृति के सामान प्रतिभासित होने लगती है।” (तुलसीदास के रामकथा काव्य, पृ. 107) तुलसीदास ने भी वाल्मीकि की रामकथा को अपने ढंग से तोड़ा-मरोड़ा है और युग की आवश्यकतानुसार उसमें नवीन सिद्धातों का सन्निवेश किया है। रामकाव्य सम्बन्धी सम्पूर्ण वांग्मय का अध्ययन करने पर यह तथ्य सामने आता है कि तुलसी ने जिस रामकथा का निर्माण किया है, वह परम्परापोषित होते हुए भी अपनी कतिपय विशेषताओं के कारण परम्परा से अलग भी है। इस सन्दर्भ में ध्यातव्य है कि तुलसी ने रामकथा की पूर्व परम्परा में उस तरह का परिवर्तन नहीं किया है, जिस तरह का बौद्ध या जैन कवियों ने। रामकथा के ख्यात होने के कारण उसमें बहुत अधिक परिवर्तन करने या नया जोड़ने का अवकाश बहुत कम था। इसलिए तुलसी रामकथा के वैचारिक ढाँचे में परिवर्तन नहीं कर पाते। यह जरूर है कि वे वाल्मीकि की कथा का संक्षेपीकरण कर देते हैं। रामचारितमानतस पाठ शाला की कथा तुलसीदास ने प्राचीन साहित्य से संगृहीत की है। वे इसका बार-बार उल्लेख भी करते हैं। उनका रामचारितमानस; नानापुराण निगमागमसम्ममतम है। छहो शास्त्र सब ग्रन्थन को रस’ है, लेकिन इन कथनों का यह्‌ आशय कदापि नहीं कि तुलसीदास ने अपनी मौलिकता का प्रदर्शन नहीं किया। महान प्रतिभाशाली कवि के अनुरूप उन्होंने पूर्व उपस्थित सामग्री से जो काव्य भवन निर्मित किया है, उसकी कलात्मकता, आकर्षक सौन्दर्य और सार्वभौम उपयोगिता में ही कवि की मौलिकता दिखाई पड़ती है। रामचारितमानत में तुलसी ने एक आदर्श समाज और एक आदर्श धर्म की प्रतिष्ठा की है। पात्रों के आदर्श चित्रण द्वारा उन्होंने लोकहित एवं लोकमंगल की शिक्षा देते हुए सम्पूर्ण मानव समाज के सम्मुख आदर्श जीवन की रूपरेखा प्रस्तुत की है। तुलसी का मातस्त अपनी गम्भीरता, सरसता, सुन्दरता और भाव-प्रेषणीयता में सर्वोपरि है। तुलसी ने राम के जिस आदर्श चरित्र की स्थापना की है, उसका स्वरूप किसी भी पूर्ववर्ती एवं और परवर्ती रामकाव्य में दृष्टिगोचर नहीं होता। तुलसी ने अपने काव्य में जिस गुरुता, गम्भीरता और माधुर्य की सृष्टि की है, वह अन्य काब्यों में दुर्लभ है। रामचारितमातत एक महाकाव्य है, जिसकी महत्ता सर्वकालिक है। रामचारितमानस काव्यसौष्ठव, शीलनिरूपण, शिष्टता, साधुता, समन्वय, भक्ति, सुव्यवस्थित कथा-योजना आदि दृष्टियों से रामकाव्यधारा में अन्यतम है। इस महाकाव्य की इन्हीं विशेषताओं के कारण गोस्वामी तुलसीदास राम काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि के रूप में समादृत हैं। तुलसीकृत रामचारितमातस के अतिरिक्त रामभक्ति सम्बन्धी पदों की रचना अनेक भक्त कवियों ने की है। इनमें अग्रदास और नाभादास के पद विशेष महत्त्वपूर्ण हैं।

तुलसीदास के समकालीन कुछ कवियों ने भी रामकथा से सम्बन्धित रचनाएँ की हैं। तुलसी के समकालीन कबि मुनिलाल का रामप्रकाश काव्य मिलता है। यह काव्य रीतिशास्त्र के आधार पर लिखा गया है। नाभादास को भी तुलसीदास का समकालीन माना जा सकता है। इन्होंने भी रामभक्ति सम्बन्धी पदों की रचना की है। तुलसी के समय के कुछ अन्य कवियों ने भी रामकाव्य से सम्बन्धित रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। यह अवश्य है कि इनमें अधिकतर फुटकल पद ही हैं, कोई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ नहीं। सीधी-सी बात है कि तुलसी के समकालीन कवियों ने रामकथा सम्बन्धी फुटकल पदों की तो रचना की पर किसी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ (प्रबन्धकाव्य के रूप में) का प्रणयन नहीं किया । हिन्दी साहित्य के इतिहास में महाकवि केशवदास की चर्चा रीतिकाल के अन्तर्गत की जाती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इन्हें सगुणधारा के फुटकल खाते में डाल रखा है। केशव, तुलसी के लगभग समकालीन थे। केशवदास उम्र में तुलसी से कुछ छोटे थे। केशवदास ने रामकथा के रूप में रामचंद्रिका की रचना की है। इस प्रबन्ध काव्य में काव्य-कौशल का तो प्राधान्य है, किन्तु चरित्र-चित्रण एवं प्रबन्धात्मकता की उपेक्षा की गई है। इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मत उल्लेखनीय है – ‘ रामचंद्रिका अवश्य एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। पर यह समझ रखना चाहिए कि केशव केवल उक्ति वैचित्र्य और शब्द क्रीड़ा के प्रेमी थे। जीवन के नाना गम्भीर और मार्मिक पक्षों पर उनकी दृष्टि नहीं थी।’ (हिन्दी साहित्य का इतिहात, पृ. 145) एक अन्य कवि सेनापति ने भी अपनी रचना कवित्त रत्नाकर में चौथी और पाँचवीं तरंगों के अन्तर्गत रामायण और राम रसायन का वर्णन किया है।

तुलसीदास के परवर्ती रामकाव्य

तुलसीदास और उनके समकालीन कवियों के उपरान्त भी अनेक रामकाव्यों का प्रणयन हुआ है। तुलसी के परवर्ती रामकाब्यों में हनुमन्नाटक की विशेष चर्चा होती है। ह॒तुमत्ताटक की रचना हृदय राम ने की है। इस ग्रन्थ में रामभक्ति का सुन्दर विवेचन मिलता है। प्राणचन्द्र चौहान ने रामायण महानाटक की रचना की है। संवाद शैली में लिखी गई इस रचना में उत्कृष्ट काव्य-सौन्दर्य का अभाव है। लालदास ने अपनी रचना अवध विलास में राम-सीता की विविध लीलाओं का विस्तृत वर्णन किया है, जानकीरसिकशरण की रचना का नाम अवधी सायर है। इस रचना में श्रीकृष्ण की तरह राम और सीता के रास, नृत्य, विहार आदि का सुन्दर वर्णन किया गया है। रीवाँ नरेश महराज विश्वनाथ सिंह ने अनेक रामकाव्यों की रचना की है। उनकी रचनाओं में आनन्द रघुनंदन; संगीत रघुनंदन, आनंद रामायण, रामचंद्र की सवारी आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। मधुसूदनदास ने रामाश्वमेश्व नामक ग्रन्थ की रचना रामचारितमानस के आदर्श पर की है।

आधुनिक काल और रामकाव्य

रामकाव्य की अजस्नर धारा आधुनिक काल में भी प्रवाहित है। वैदेही वनवास अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की प्रबन्धात्मक काव्य कृति है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन सन्‌ 1940 में हुआ था। इस प्रबन्ध काव्य में रामकथा के वैदेही वनवास प्रसंग को आधार बनाया गया है। यह करुण रस प्रधान रचना है। अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध ने इस रचना में सीता- वनवास का प्रसंग सरल तथा बोलचाल की भाषा में प्रस्तुत किया है। 

आधुनिक युग के श्रेष्ठ महाकाव्यों में मैथिलीशरण गुप्त की रचना साकेत उल्लेखनीय है। इसका प्रकाशन सन्‌ 1932 में हुआ था। यह रामकथा पर आधारित गन्थ है। इस ग्रन्थ में गुप्त जी ने रामकथा के पारम्परिक ढाँचे से बहुत कुछ ग्रहण करते हुए भी इसे एक नवीन रूप दिया है। साकेत का प्रारम्भ लक्ष्मण और उर्मिला के प्रेमालाप से हुआ है। यद्यपि कथा का मूल ढाँचा उर्मिला और लक्ष्मण के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है पर प्रकारान्तर से इसमें सम्पूर्ण रामकथा निबद्ध है। गुप्तजी ने उर्मिला को रघुकुल की सर्वाधिक दुखिनी बधू के रूप में प्रस्तुत किया है। उसका गौरव गान करना ही साकेतकार का मुख्य लक्ष्य है। राम और सीता की सेवा में लक्ष्मण को बाधा न पड़े, इसीलिए उर्मिला उनके साथ वन नहीं जाती। वह साकेत में ही रहती है। इसी सूत्र को पकड़कर गुप्त जी ने पूरी कथा साकेत में प्रस्तुत की है। राम कथा के अनेक अंशों को साकेत का कोई पात्र सुनाता है या महामुनि वशिष्ठ तपोबल से उसे साकेत में ही घटित होते हुए दिखाते हैं।

रामकाव्य परम्परा में साकेत का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आधुनिक काल में अपने समृद्ध काव्य वैभव और कथा की प्रस्तुति की नवीन पद्धति के कारण इस रचना का विशेष महत्त्व है। इस काव्य में सीता राम की पत्नी के रूप में नहीं, भारत लक्ष्मी के रूप में चित्रित हुई हैं। गुप्तजी ने लिखा है – ‘भारत-लक्ष्मी पड़ी राक्षसों के चंगुल में।’

सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की प्रसिद्ध लम्बी कविता है – राम की शक्ति पूजा। यह कविता सन्‌ 1936 में प्रकाशित हुई थी। इस कविता की रचना माइकेल मधुसूदन दत्त के गेघनाद वश में वर्णित शक्ति पूजा से प्रेरित होकर की गई है। राम की शक्ति पूजा का कथानक विख्यात राम कथा के एक अंश से है, पर निराला ने इस अंश को नए शिल्प में ढाला है। उन्होंने राम कथा को अपने युग के अनुरूप परिवर्तित किया है। निराला के राम अवतारी राम नहीं, बल्कि एक संशययुक्त, अपने समय के साधारण मानव हैं। वे अपने समय की स्थितियों से अवसादग्रस्त हैं। रावण के पराक्रम से आतंकित और भयभीत

राम को अपनी विजय पर सन्देह है। उनका मन स्थिर नहीं है। बार-बार उन्हें पराजय की चिन्ता होती है। निराला ने कविता में उनके मन का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है। उनका विश्लेषण राम की मानवोचित कमजोरी का आभास देता है। राम के थके-हारे मन को सीता के उस रूप की याद आती है, जिसे उन्होंने जनक की वाटिका में देखा था और उनमें नई आशा का संचार होता है। वे अभीष्ट की सिद्धि के लिए शक्तिपूजा का निर्णय लेते हैं। वे शक्ति की उपासना करते हैं और उन्हें सफलता मिलती है। राम के चरित्र में इस तरह का नया मोड़ लाकर निराला ने अपनी मौलिकता का परिचय दिया है। राम की शक्ति एजा में प्रतीक एवं बिम्बों का सौष्ठव देखते ही बनता 

“है अमानिशा; उगलता गगन घन अंधकार

खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन चार

अप्रतिहत गरज रहा, पीछे अंबुधि विशाल

भूधर ज्यों ध्यान मगन, केवल जलती मशाल ।”

आधुनिक युग के कई अन्य रचनाकारों ने भी रामकथा को अपनी कृति का उपजीव्य बनाया है। ऐसी रचनाओं में रामनाथ ज्योतिषी कृत श्री रामचंद्रोदय, डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र कृत साकेत संत, हरदयाल सिंह कृत रावण मह्याकाव्य और बालकृष्ण शर्मा नवीन कृत उर्मिल्रा आदि प्रमुख हैं। इन काव्यों ने राम काव्यधारा की शृंखला को आधुनिक युग तक

सुरक्षित रखा है। श्री नरेश मेहता के खंडकाव्यों-संशय की एक रात, प्रवाद पर्व और शबरी के माध्यम से भी रामकथा कही गई है। संशय की एक रात में राम के भीतर युद्ध के प्रति उठते संशय को चित्रित किया है। प्रवाद पर्व सीता के चरित्र को चित्रित करने वाली कृति है। भले ही इन काव्यकृतियों में कवि का दृष्टिकोण उतना आधुनिक नहीं कहा जा सकता किन्तु मेहता जी ने इन काव्यों में समसामयिक प्रश्नों को उठने का प्रयास अवश्य किया है।

निष्कर्ष

भारतीय वांग्मय में राम काव्यधारा की एक सुदीर्घ परम्परा है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी में प्रभूत मात्रा में रामकाव्यों का सर्जन हुआ है। निश्चय ही इस परम्परा के सर्वश्रेष्ठ कवि आदिकवि वाल्मीकि हैं और उनकी रचना रामायण सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ। राम काव्यधारा के सभी रचनाकारों के लिए वे आधार स्तम्भ हैं। जैन और बौद्ध काव्यधारा के कवियों ने पारम्परिक रामकथा के ढाँचे में विस्तृत परिवर्तन करके अपने मतानुकूल बनाया है। हिन्दी साहित्य में आदिकाल से ही रामकथा से जुड़ी हुई रचनाएँ मिलने लगती हैं। राम काव्यधारा के सर्वश्रेष्ठ कबि तुलसीदास हैं। उन्होंने जिस रामकथा का निर्माण किया है, वह परम्परापोषित होते हुए भी अपनी कतिपय विशेषताओं के कारण परम्परा से भी अलग है। आधुनिक काल के अनेक कवियों ने रामकथा से सम्बन्धित रचनाएँ की हैं। पर उनमें साकेत, वैदही वतवास और राम की शक्तिपूजा ही विशेष उल्लेखनीय हैं।

राम काव्य परंपरा क्या है?

राम काव्य परंपरा में वाल्मीकि को आदि कवि तथा 'रामायण' को आदि काव्य माना गया है। वाल्मीकि से पूर्व राम भक्ति स्तुति के प्रमाण लिखित रूप में तो प्राप्त नहीं होते किन्तु जनश्रुति व मिथकों से राम और सीता के चरित्र का आभास जरूर मिलता है। राम कथा ऐतिहासिक है या पौराणिक कल्पित इसके बारे में कोई स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं है।

राम काव्य परंपरा के प्रमुख कवि कौन है?

पश्चात रामभक्ति रामानन्द द्वारा विकसित होकर तुलसी के 'रामचरित मानस' के द्वारा हिन्दी भक्ति साहित्य में प्रवाहित हुई। तुलसी पूर्व विष्णुदास, अग्रदास, ईश्वरदास आदि ने रामकथा लिखी है किन्तु राम काव्य के मुख्य प्रवर्तक तुलसी ही रहे हैं।

रीतिकाल में राम काव्य परंपरा का कौन सा महाकाव्य लिखा गया?

रामचंद्रिका के नाम से विख्यात रामचंद्र चंद्रिका (रचनाकाल सन् १६०१ ई०) हिन्दी साहित्य के रीतिकाल के आरंभ के सुप्रसिद्ध कवि केशवदास रचित महाकाव्य है। उनचालीस प्रकाशों (सर्गों) में विभाजित इस महाकाव्य में कुल १७१७ छंद हैं।

रामभक्ति काव्यधारा के सर्वप्रथम कवि कौन है?

राम का स्वरूप : रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में श्री रामानंद के अनुयायी सभी रामभक्त कवि विष्णु के अवतार दशरथ-पुत्र राम के उपासक हैं। अवतारवाद में विश्वास है।