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नेताजी सुभाष चंद्र बोस के अंग्रेज़ों की क़ैद से भाग निकलने की कहानी
23 जनवरी 2021 इमेज स्रोत, Getty Images 1940 में जब हिटलर के बमवर्षक लंदन पर बम गिरा रहे थे, ब्रिटिश सरकार ने अपने सबसे बड़े दुश्मन सुभाष चंद्र बोस को कलकत्ता की प्रेसिडेंसी जेल में कैद कर रखा था. अंग्रेज़ सरकार ने बोस को 2 जुलाई, 1940 को देशद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया था. 29 नवंबर, 1940 को सुभाष चंद्र बोस ने जेल में अपनी गिरफ़्तारी के विरोध में भूख हड़ताल शुरू कर दी थी. एक सप्ताह बाद 5 दिसंबर को गवर्नर जॉन हरबर्ट ने एक एंबुलेंस में बोस को उनके घर भिजवा दिया ताकि अंग्रेज़ सरकार पर ये आरोप न लगे कि उनकी जेल में बोस की मौत हुई है. हरबर्ट का इरादा था कि जैसे ही बोस की सेहत में सुधार होगा वो उन्हें फिर से हिरासत में ले लेंगे. बंगाल की सरकार ने न सिर्फ़ उनके 38/2 एल्गिन रोड के घर के बाहर सादे कपड़ों में पुलिस का कठोर पहरा बैठा दिया था बल्कि ये पता करने के लिए भी अपने कुछ जासूस छोड़ रखे थे कि घर के अंदर क्या हो रहा है? उनमें से एक जासूस एजेंट 207 ने सरकार को ख़बर दी थी कि सुभाष बोस ने जेल से घर वापस लौटने के बाद जई का दलिया और सब्ज़ियों का सूप पिया था. उस दिन से ही उनसे मिलने वाले हर शख़्स की गतिविधियों पर नज़र रखी जाने लगी थी और बोस के द्वारा भेजे हर ख़त को डाकघर में ही खोल कर पढ़ा जाने लगा था. इमेज स्रोत, Netaji research bureau इमेज कैप्शन, जेल से आने के बाद अपने घर पर सुभाष चंद्र बोस 'आमार एकटा काज कौरते पारबे'
5 दिसंबर की दोपहर को सुभाष ने अपने 20 वर्षीय भतीजे शिशिर के हाथ को कुछ ज़्यादा ही देर तक अपने हाथ में लिया. उस समय सुभाष की दाढ़ी बढ़ी हुई थी और वो अपनी तकिया पर अधलेटे से थे. सुभाष चंद्र बोस के पौत्र और शिशिर बोस के बेटे सौगत बोस ने मुझे बताया था, 'सुभाष ने मेरे पिता का हाथ अपने हाथ में लेते हुए उनसे पूछा था 'आमार एकटा काज कौरते पारबे?' यानी 'क्या तुम मेरा एक काम करोगे?' बिना ये जाने हुए कि काम क्या है शिशिर ने हांमी भर दी थी.
इमेज स्रोत, Netaji research bureau इमेज कैप्शन, नेताजी सुभाष चंद्र बोस अपने भाई शरद चंद्र बोस और माँ प्रभाबती के साथ अपने घर में बाद में पता चला कि वो भारत से गुप्त रूप से निकलने में शिशिर की मदद लेना चाहते थे. योजना बनी की शिशिर अपने चाचा को देर रात अपनी कार में बैठा कर कलकत्ता से दूर एक रेलवे स्टेशन तक ले जाएंगे.' सुभाष और शिशिर ने तय किया कि वो घर के मुख्यद्वार से ही बाहर निकलेंगे. उनके पास दो विकल्प थे. या तो वो अपनी जर्मन वाँडरर कार इस्तेमाल करें या फिर अमेरिकी स्टूडबेकर प्रेसिडेंट का. अमेरिकी कार बड़ी ज़रूर थी लेकिन उसे आसानी से पहचाना जा सकता था, इसलिए इस यात्रा के लिए वाँडरर कार को चुना गया. शिशिर कुमार बोस अपनी किताब द ग्रेट एस्केप में लिखते हैं, 'हमने मध्य कलकत्ता के वैचल मौला डिपार्टमेंट स्टोर में जा कर बोस के भेष बदलने के लिए कुछ ढीली सलवारें और एक फ़ैज़ टोपी ख़रीदी. अगले कुछ दिनों में हमने एक सूटकेस, एक अटैची, दो कार्ट्सवूल की कमीज़ें, टॉयलेट का कुछ सामान, तकिया और कंबल ख़रीदा. मैं फ़ेल्ट हैट लगाकर एक प्रिटिंग प्रेस गया और वहाँ मैंने सुभाष के लिए विज़िटिंग कार्ड छपवाने का ऑर्डर दिया. कार्ड पर लिखा था, मोहम्मद ज़ियाउद्दीन, बीए, एलएलबी, ट्रैवलिंग इंस्पेक्टर, द एम्पायर ऑफ़ इंडिया अश्योरेंस कंपनी लिमिटेड, स्थायी पता, सिविल लाइंस, जबलपुर.'
इमेज स्रोत, Netaji research bureau इमेज कैप्शन, सुभाष चंद्र बोस के भतीजे शिशिर कुमार बोस माँ को भी सुभाष के जाने की हवा नहींयात्रा की एक रात पहले शिशिर ने पाया कि जो सूटकेस वो ख़रीद कर लाए थे वो वाँडरर कार के बूट में समा ही नहीं पा रहा था. इसलिए तय किया गया कि सुभाष का पुराना सूटकेस ही उनके साथ जाएगा. उस पर लिखे गए उनके नाम एससीबी को मिटा कर उसके स्थान पर चीनी स्याही से एमज़ेड लिखा गया. 16 जनवरी को कार की सर्विसिंग कराई गई. अंग्रेज़ों को धोखा देने के लिए सुभाष के निकल भागने की बात बाकी घर वालों, यहाँ तक कि उनकी माँ से भी से छिपाई गई. जाने से पहले सुभाष ने अपने परिवार के साथ आख़िरी बार भोजन किया. उस समय वो सिल्क का कुर्ता और धोती पहने हुए थे. सुभाष को घर से निकलने में थोड़ी देर हो गई क्योंकि घर के बाकी सदस्य अभी जाग रहे थे. इमेज स्रोत, Netaji research bureau शयनकक्ष की बत्ती जलती छोड़ी गईसुभाष बोस पर किताब 'हिज़ मेजेस्टीज़ अपोनेंट' लिखने वाले सौगत बोस ने मुझे बताया, 'रात एक बज कर 35 मिनट के आसपास सुभाष बोस ने मोहम्मद ज़ियाउद्दीन का भेष धारण किया. उन्होंने सोने के रिम का अपना चश्मा पहना जिसको उन्होंने एक दशक पहले पहनना बंद कर दिया था. शिशिर की लाई गई काबुली चप्पल उन्हें रास नहीं आई. इसलिए उन्होंने लंबी यात्रा के लिए फ़ीतेदार चमड़े के जूते पहने. सुभाष कार की पिछली सीट पर जा कर बैठ गए. शिशिर ने वांडरर कार बीएलए 7169 का इंजन स्टार्ट किया और उसे घर के बाहर ले आए. सुभाष के शयनकक्ष की बत्ती अगले एक घंटे के लिए जलती छोड़ दी गई.' जब सारा कलकत्ता गहरी नींद में था, चाचा और भतीजे ने लोअर सरकुलर रोड, सियालदाह और हैरिसन रोड होते हुए हुगली नदी पर बना हावड़ा पुल पार किया. दोनों चंद्रनगर से गुज़रे और भोर होते-होते आसनसोल के बाहरी इलाके में पहुंच गए. सुबह क़रीब साढ़े आठ बजे शिशिर ने धनबाद के बरारी में अपने भाई अशोक के घर से कुछ सौ मीटर दूर सुभाष को कार से उतारा.
इमेज स्रोत, Netaji research bureau इमेज कैप्शन, इसी वाँडरर कार से सुभाष बोस कलकत्ता से गोमो गए थे शिशिर कुमार बोस अपनी किताब 'द ग्रेट एस्केप' में लिखते हैं, 'मैं अशोक को बता ही रहा था कि माजरा क्या है कि कुछ दूर पहले उतारे गए इंश्योरेंस एजेंट ज़ियाउद्दीन (दूसरे भेष में सुभाष) ने घर में प्रवेश किया. वो अशोक को बीमा पॉलिसी के बारे में बता ही रहे थे कि उन्होंने कहा कि ये बातचीत हम शाम को करेंगे. नौकरों को आदेश दिए गए कि ज़ियाउद्दीन के आराम के लिए एक कमरे में व्यवस्था की जाए. उनकी उपस्थिति में अशोक ने मेरा ज़ियाउद्दीन से अंग्रेज़ी में परिचय कराया, जबकि कुछ मिनटों पहले मैंने ही उन्हें अशोक के घर के पास अपनी कार से उतारा था.' इमेज स्रोत, Indian railway गोमो से कालका मेल पकड़ीशाम को बातचीत के बाद ज़ियाउद्दीन ने अपने मेज़बान को बताया कि वो गोमो स्टेशन से कालका मेल पकड़ कर अपनी आगे की यात्रा करेंगे. कालका मेल गोमो स्टेशन पर देर रात आती थी. गोमो स्टेशन पर नींद भरी आँखों वाले एक कुली ने सुभाष चंद्र बोस का सामान उठाया. शिशिर बोस अपनी किताब में लिखते हैं, 'मैंने अपने रंगाकाकाबाबू को कुली के पीछे धीमे-धीमे ओवरब्रिज पर चढ़ते देखा. थोड़ी देर बाद वो चलते-चलते अँधेरे में गायब हो गए. कुछ ही मिनटों में कलकत्ता से चली कालका मेल वहाँ पहुँच गई. मैं तब तक स्टेशन के बाहर ही खड़ा था. दो मिनट बाद ही मुझे कालका मेल के आगे बढ़ते पहियों की आवाज़ सुनाई दी.' सुभाष चंद्र बोस की ट्रेन पहले दिल्ली पहुंची. फिर वहाँ से उन्होंने पेशावर के लिए फ़्रंटियर मेल पकड़ी. इमेज स्रोत, Hulton-Deutsch Collection/CORBIS/Corbis via Getty इमेज कैप्शन, उस ज़माने का पेशावर शहर पेशावर के ताजमहल होटल में सुभाष को ठहराया गया19 जनवरी की देर शाम जब फ़्रंटियर मेल पेशावर के केंटोनमेंट स्टेशन में घुसी तो मियाँ अकबर शाह बाहर निकलने वाले गेट के पास खड़े थे. उन्होंने एक अच्छे व्यक्तित्व वाले मुस्लिम शख़्स को गेट से बाहर निकलते देखा. वो समझ गए कि वो और कोई नहीं दूसरे भेष में सुभाष चंद्र बोस हैं. अकबर शाह उनके पास गए और उनसे एक इंतज़ार कर रहे ताँगे में बैठने के लिए कहा. उन्होंने ताँगे वाले को निर्देश दिया कि वो इन साहब को डीन होटल ले चले. फिर वो एक दूसरे ताँगे में बैठे और सुभाष के ताँगे के पीछे चलने लगे. मियाँ अकबर शाह अपनी किताब 'नेताजीज़ ग्रेट एस्केप' में लिखते हैं, 'मेरे ताँगेवाले ने मुझसे कहा कि आप इतने मज़हबी मुस्लिम शख़्स को विधर्मियों के होटल में क्यों ले जा रहे हैं. आप उनको क्यों नहीं ताजमहल होटल ले चलते जहाँ मेहमानों के नमाज़ पढ़ने के लिए जानमाज़ और वज़ू के लिए पानी भी उपलब्ध कराया जाता है? मुझे भी लगा कि बोस के लिए ताजमहल होटल ज़्यादा सुरक्षित जगह हो सकती है क्योंकि डीन होटल में पुलिस के जासूसों के होने की संभावना हो सकती है.' वे आगे लिखते हैं, 'लिहाज़ा बीच में ही दोनों ताँगों के रास्ते बदले गए. ताजमहल होटल का मैनेजर मोहम्मद ज़ियाउद्दीन से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उनके लिए फ़ायर प्लेस वाला एक सुंदर कमरा खुलवाया. अगले दिन मैंने सुभाष चंद्र बोस को अपने एक साथी आबाद ख़ाँ के घर पर शिफ़्ट कर दिया. वहाँ पर अगले कुछ दिनों में सुभाष बोस ने ज़ियाउद्दीन का भेष त्याग कर एक बहरे पठान का वेष धारण कर लिया. ये इसलिए भी ज़रूरी था क्योंकि सुभाष स्थानीय पश्तो भाषा बोलना नहीं जानते थे.'
अड्डा शरीफ़ की मज़ार पर ज़ियारतसुभाष के पेशावर पहुँचने से पहले ही अकबर ने तय कर लिया था कि फ़ॉरवर्ड ब्लॉक के दो लोग, मोहम्मद शाह और भगतराम तलवार, बोस को भारत की सीमा पार कराएंगे. भगत राम का नाम बदल कर रहमत ख़ाँ कर दिया गया. तय हुआ कि वो अपने गूँगे बहरे रिश्तेदार ज़ियाउद्दीन को अड्डा शरीफ़ की मज़ार ले जाएँगे जहाँ उनके फिर से बोलने और सुनने की दुआ माँगी जाएगी. 26 जनवरी, 1941 की सुबह मोहम्मद ज़ियाउद्दीन और रहमत ख़ाँ एक कार में रवाना हुए. दोपहर तक उन्होंने तब के ब्रिटिश साम्राज्य की सीमा पार कर ली. वहाँ उन्होंने कार छोड़ उत्तर पश्चिमी सीमाँत के ऊबड़-खाबड़ कबाएली इलाके में पैदल बढ़ना शुरू कर दिया. 27-28 जनवरी की आधी रात वो अफ़ग़ानिस्तान के एक गाँव में पहुँचे. मियाँ अकबर शाह अपनी किताब में लिखते हैं, 'इन लोगों ने चाय के डिब्बों से भरे एक ट्रक में लिफ़्ट ली और 28 जनवरी की रात जलालाबाद पहुँच गए. अगले दिन उन्होंने जलालाबाद के पास अड्डा शरीफ़ मज़ार पर ज़ियारत की. 30 जनवरी को उन्होंने ताँगे से काबुल की तरफ़ बढ़ना शुरू किया. फिर वो एक ट्रक पर बैठ कर बुद ख़ाक के चेक पॉइंट पर पहुँचे. वहाँ से एक अन्य ताँगा कर वो 31 जनवरी, 1941 की सुबह काबुल में दाख़िल हुए.' आनंद बाज़ार पत्रिका में सुभाष के गायब होने की ख़बर छपीइस बीच सुभाष को गोमो छोड़ कर शिशिर 18 जनवरी को कलकत्ता वापस पहुँच गए और अपने पिता के साथ सुभाष चंद्र बोस के राजनीतिक गुरु चितरंजन दास की पोती की शादी में सम्मिलित हुए. वहाँ जब उनसे लोगों ने सुभाष के स्वास्थ्य के बारे में पूछा तो उन्होंने जवाब दिया कि उनके चाचा गंभीर रूप से बीमार हैं. सौगत बोस अपनी किताब 'हिज़ मेजेस्टीज़ अपोनेंट' में लिखते हैं, 'इस बीच रोज़ सुभाष बोस के एल्गिन रोड वाले घर के उनके कमरे में खाना पहुँचाया जाता रहा. वो खाना उनके भतीजे और भतीजियाँ खाते रहे ताकि लोगों को आभास मिलता रहे कि सुभाष अभी भी अपने कमरे में हैं. सुभाष ने शिशिर से कहा था कि अगर वो चार या पाँच दिनों तक मेरे भाग निकलने की ख़बर छिपा गए तो फिर उन्हें कोई नहीं पकड़ सकेगा. 27 जनवरी को एक अदालत में सुभाष के ख़िलाफ़ एक मुकदमें की सुनवाई होनी थी. तय किया गया कि उसी दिन अदालत को बताया जाएगा कि सुभाष का घर में कहीं पता नहीं है.' सुभाष के दो भतीजों ने पुलिस को ख़बर दी कि वो घर से गायब हो गए हैं. ये सुनकर सुभाष की माँ प्रभाबती का रोते-रोते बुरा हाल हो गया. उनको संतुष्ट करने के लिए सुभाष के भाई सरत ने अपने बेटे शिशिर को उसी वाँडरर कार में सुभाष की तलाश के लिए कालीघाट मंदिर भेजा. 27 जनवरी को सुभाष के गायब होने की ख़बर सबसे पहले आनंद बाज़ार पत्रिका और हिंदुस्तान हेरल्ड में छपी. इसके बाद उसे रॉयटर्स ने उठाया. जहाँ से ये ख़बर पूरी दुनिया में फैल गई. ये सुनकर ब्रिटिश खुफ़िया अधिकारी न सिर्फ़ आश्चर्यचकित रह गए बल्कि शर्मिंदा भी हुए. शिशिर कुमार बोस अपनी किताब 'रिमेंबरिंग माई फ़ादर' में लिखते हैं, 'मैंने और मेरे पिता ने इन अफ़वाहों को बल दिया कि सुभाष ने संन्यास ले लिया है. जब महात्मा गाँधी ने सुभाष के गायब हो जाने के बारे में टेलिग्राम किया तो मेरे पिता ने तीन शब्द का जवाब दिया, 'सरकमस्टान्सेज़ इंडीकेट रिनुनसिएशन' (हालात संन्यास की तरफ़ इशारा कर रहे हैं.) लेकिन वो रविंद्रनाथ टैगोर से इस बारे में झूठ नहीं बोल पाए. जब टैगोर का तार उनके पास आया तो उन्होंने जवाब दिया, 'सुभाष जहाँ कहीँ भी हों, उन्हें आपका आशीर्वाद मिलता रहे.' इमेज स्रोत, Getty Images इमेज कैप्शन, महात्मा गाँधी के साथ सुभाष चंद्र बोस वायसराय लिनलिथगो आगबबूला हुएउधर जब वायसराय लिनलिथगो को सुभाष बोस के भाग निकलने की ख़बर मिली तो वो बंगाल के गवर्नर जॉन हरबर्ट पर बहुत नाराज़ हुए. हरबर्ट ने अपनी सफ़ाई में कहा कि अगर सुभाष के भारत से बाहर निकल जाने की ख़बर सही है तो हो सकता है कि बाद में हमें इसका फ़ायदा मिले. लेकिन लिनलिथगो इस तर्क से प्रभावित नहीं हुए. उन्होंने कहा कि इससे ब्रिटिश सरकार की बदनामी हुई है. कलकत्ता की स्पेशल ब्राँच के डिप्टी कमिश्नर जे वी बी जानव्रिन का विष्लेषण बिल्कुल सटीक था. उन्होंने लिखा 'हो सकता है कि सुभाष संन्यासी बन गए हों लेकिन उन्होंने ऐसा धार्मिक कारणों से नहीं बल्कि क्राँति की योजना बनाने के लिए किया है.'
इमेज स्रोत, Keystone/Hulton Archive/Getty Images इमेज कैप्शन, वायसराय लिनलिथगो सुभाष चंद्र बोस ने जर्मन दूतावास से किया संपर्क31 जनवरी को पेशावर पहुँचने के बाद रहमत ख़ाँ और उनके गूँगे-बहरे रिश्तेदार ज़ियाउद्दीन, लाहौरी गेट के पास एक सराय में ठहरे. इस बीच रहमत ख़ाँ ने वहाँ के सोवियत दूतावास से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली. जब सुभाष ने खुद जर्मन दूतावास से संपर्क करने का फ़ैसला किया. उनसे मिलने के बाद काबुल दूतावास में जर्मन मिनिस्टर हाँस पिल्गेर ने 5 फ़रवरी को जर्मन विदेश मंत्री को तार भेज कर कहा, 'सुभाष से मुलाक़ात के बाद मैंने उन्हें सलाह दी है कि वो भारतीय दोस्तों के बीच बाज़ार में अपने-आप को छिपाए रखें. मैंने उनकी तरफ़ से रूसी राजदूत से संपर्क किया है.' बर्लिन और मास्को से उनके वहाँ से निकलने की सहमति आने तक बोस सीमेंस कंपनी के हेर टॉमस के ज़रिए जर्मन नेतृत्व के संपर्क में रहे. इस बीच सराय में सुभाष बोस और रहमत ख़ाँ पर ख़तरा मंडरा रहा था. एक अफ़ग़ान पुलिस वाले को उन पर शक हो गया था. उन दोनों ने पहले कुछ रुपये देकर और बाद में सुभाष की सोने की घड़ी दे कर उससे अपना पिंड छुड़ाया. ये घड़ी सुभाष को उनके पिता ने उपहार में दी थी. इमेज स्रोत, Netaji research bureau इमेज कैप्शन, ओरलांडो मज़ोटा के पासपोर्ट पर नेताजी की यही तस्वीर चिपकाई गई थी इटालियन राजनयिक के पासपोर्ट में बोस की तस्वीरकुछ दिनों बाद सीमेंस के हेर टॉमस के ज़रिए सुभाष बोस के पास संदेश आया कि अगर वो अपनी अफ़ग़ानिस्तान से निकल पाने की योजना पर अमल करना चाहते हैं तो उन्हें काबुल में इटली के राजदूत पाइत्रो क्वारोनी से मिलना चाहिए. 22 फ़रवरी, 1941 की रात को बोस ने इटली के राजदूत से मुलाक़ात की. इस मुलाक़ात के 16 दिन बाद 10 मार्च, 1941 को इटालियन राजदूत की रूसी पत्नी सुभाष चंद्र बोस के लिए एक संदेश ले कर आईं जिसमें कहा गया था कि सुभाष दूसरे कपड़ो में एक तस्वीर खिचवाएं. सौगत बोस अपनी किताब 'हिज़ मेजेस्टीज़ अपोनेंट' में लिखते हैं, 'सुभाष की उस तस्वीर को एक इटालियन राजनयिक ओरलांडो मज़ोटा के पासपोर्ट में उनकी तस्वीर की जगह लगा दिया गया.' इमेज स्रोत, Getty Images इमेज कैप्शन, हिटलर से हाथ मिलाते सुभाष बोस '17 मार्च की रात सुभाष को एक इटालियन राजनयिक सिनोर क्रेससिनी के घर शिफ़्ट कर दिया गया. सुबह तड़के वो एक जर्मन इंजीनियर वेंगर और दो अन्य लोगों के साथ कार से रवाना हुए. वो अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पार करते हुए पहले समरकंद पहुँचे और फिर ट्रेन से मास्को के लिए रवाना हुए. वहाँ से सुभाष चंद्र बोस ने जर्मनी की राजधानी बर्लिन का रुख़ किया.'
इमेज स्रोत, Netaji research bureau इमेज कैप्शन, रविंद्रनाथ टैगोर के साथ सुभाष के भाई शरद चंद्र बोस और सुभाष टैगोर ने सुभाष बोस पर लिखी एक कहानीसुभाष बोस के सुरक्षित जर्मनी पहुंच जाने के बाद उनके भाई शरतचंद्र बोस बीमार रविंद्रनाथ टैगोर से मिलने शाँतिनिकेतन गए. वहाँ उन्होंने महान कवि से बोस के अंग्रेज़ी पहरे से बच निकलने की ख़बर साझा की. अगस्त 1941 में अपनी मृत्यु से कुछ पहले लिखी शायद अपनी अंतिम कहानी 'बदनाम' में टैगोर ने आज़ादी की तलाश में निकले एक अकेले पथिक की अफ़ग़ानिस्तान के बीहड़ रास्तों से गुज़रने का बहुत मार्मिक चित्रण खींचा. सुभाष चंद्र बोस ने निम्नलिखित में से कौन सी पुस्तक लिखी थी?सुभाष चन्द्र बोस द्वारा लिखित पुस्तकें. सुभाष चंद्र बोस को महात्मा गांधी द्वारा कौन सा उपनाम दिया गया था?महात्मा गांधी को पहली बार सुभाष चंद्र बोस ने 'राष्ट्रपिता' कहकर संबोधित किया था। 4 जून 1944 को सिंगापुर रेडिया से एक संदेश प्रसारित करते हुए 'राष्ट्रपिता' महात्मा गांधी कहा था।
सुभाष चंद्र बोस ने यह पत्र कब लिखा?Description: 'नेताजी के पत्र १९२६-१९३८' पुस्तक राष्ट्रवादी नेता और भारतीय राष्ट्रीय सेना (आजाद हिंद फौज) के संस्थापक सुभाष चंद्र बोस के पत्रों का संकलन है।
देशनायक किसका उपनाम है?सही उत्तर रविन्द्रनाथ टैगोर है।
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