समानता के अधिकार का क्या तात्पर्य है? - samaanata ke adhikaar ka kya taatpary hai?

समता का अधिकार वैश्विक मानवाधिकार के लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र के अनुसार विश्व के सभी लोग विधि के समक्ष समान हैं अतः वे बिना किसी भेदभाव के विधि के समक्ष न्यायिक सुरक्षा पाने के हक़दार हैं।[1]

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भारत में समता/समानता का अधिकार[संपादित करें]

भारतीय संविधान के अनुसार, भारतीय नागरिकों को मौलिक अधिकारों के रूप में समता/समानता का अधिकार (अनु. १४ से १८ तक) प्राप्त है जो न्यायालय में वाद योग्य है।[2] ये अधिकार हैं-

  • अनुच्छेद १४= विधि के समक्ष समानता।
  • अनुच्छेद १५= धर्म, वंश, जाति, लिंग और जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जायेगा।
  • अनुच्छेद १६= लोक नियोजन के विषय में अवसर की समानता।
  • अनुच्छेद १७= छुआछूत (अस्पृश्यता) का अन्त कर दिया गया है।
  • अनुच्धेद १८= उपाधियों का अन्त कर दिया गया है।

अब केवल दो तरह कि उपाधियाँ मान्य हैं- अनु. १८(१) राज्य सेना द्वारा दी गयी उपाधि व विद्या द्वारा अर्जित उपाधि। इसके अतिरिक्त अन्य उपाधियाँ वर्जित हैं। वहीं, अनु. १८(२) द्वारा निर्देश है कि भारत का नागरिक विदेशी राज्य से कोइ उपाधि नहीं लेगा।[3]

समानता के अधिकार का क्रियान्वयन[संपादित करें]

माना जाता है कि समानता का अधिकार एक तथ्य नहीं विवरण है। विवरण से तात्पर्य उन परिस्थितियों की व्याख्या से है जहाँ समानता का बर्ताव अपेक्षित है। समानता और समरूपता में अंतर है। यदि कहा जाय कि सभी व्यक्ति समान है तो संभव है कि समरूपता का ख़तरा पैदा हो जाय। 'सभी व्यक्ति समान हैं' की अपेक्षा 'सभी व्यक्तियों से समान बर्ताव किया जाना चाहिेए', समानता के अधिकार के क्रियान्वयन का आधार वाक्य है।[4]

प्रतिनिधित्व(आरक्षण)=[संपादित करें]

[प्रतिनिधित्व[आरक्षण]] की व्यवस्था, भेदभावपूर्ण समाज में समान बर्ताव के लिए ज़मीन तैयार करती है। समानता के परिप्रेक्ष्य में भारतीय संविधान की प्रस्तावना में दो महत्वपूर्ण बातों का उल्लेख किया गया है- *अवसर की समानता और * प्रतिष्ठा की समानता।[3] अवसर और प्रतिष्ठा की समानता का अर्थ है कि समाज के सभी वर्गों की इन आदर्शों तक पहुँच सुनिश्चित की जाय। एक वर्ग विभाजित समाज में बिना वाद योग्य कानून और संरक्षण मूलक भेदभाव के समानता के अधिकार की प्राप्ति संभव नहीं है। संरक्षण मूलक भेदभाव के तहत आरक्षण एक सकारात्मक कार्यवाही है। आरक्षण के तहत किसी पिछड़े और वंचित समूह को (जैसे- स्त्री, दलित, अश्वेत आदि) को विशेष रियायतें दी जाती हैं ताकि अतीत में उनके साथ जो अन्याय हुआ है उसकी क्षतिपूर्ति की जा सके।[5] यह बात ध्यान देने योग्य है कि आरक्षण और संरक्षण मूलक भेदभाव समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद १६ (४) स्पष्ट करता है कि 'अवसर की समानता' के अधिकार को पूरा करने के लिए यह आवश्यक है।[6]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. THE RIGHT TO EQUALITY AND NON-DISCRIMINATION IN THE ADMINISTRATION OF JUSTICE
  2. "Fundamental Rights in India". मूल से 13 जुलाई 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 11 जुलाई 2012.
  3. ↑ अ आ Essay on Right to Equality under Article 14 of Indian Constitution
  4. राजनीति सिद्धांत की रूपरेखा, ओम प्रकाश गाबा, मयूर पेपरबैक्स, २०१०, पृष्ठ- ३१३, ISBN ८१-७१९८-०९२-९
  5. राजनीति सिद्धांत की रूपरेखा, ओम प्रकाश गाबा, मयूर पेपरबैक्स, २०१०, पृष्ठ- ३१७, ISBN ८१-७१९८-०९२-९
  6. भारत का संविधान : सिद्धांत और व्यवहार, (कक्षा ११ के लिए राजनीति विज्ञान की पाठ्य पुस्तक) राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद, २00६, पृष्ठ- ३३, ISBN 81-7450-590-3

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

Preface Archived 2003-12-05 at the Wayback Machine

Constitution of India Archived 2012-07-12 at the Wayback Machine

Right to Equality

The Right to Equality

समाप्त

समानता के अधिकार का क्या तात्पर्य है? - samaanata ke adhikaar ka kya taatpary hai?

सामाजिक सन्दर्भों में समानता का अर्थ किसी समाज की उस स्थिति से है जिसमें उस समाज के सभी लोग समान (अलग-अलग नहीं) अधिकार या प्रतिष्ठा (status) रखते हैं। सामाजिक समानता के लिए 'कानून के सामने समान अधिकार' एक न्यूनतम आवश्यकता है जिसके अन्तर्गत सुरक्षा, मतदान का अधिकार, भाषण की स्वतंत्रता, एकत्र होने की स्वतंत्रता, सम्पत्ति अधिकार, सामाजिक वस्तुओं एवं सेवाओं पर समान पहुँच (access) आदि आते हैं। सामाजिक समानता में स्वास्थ्य समानता, आर्थिक समानता, तथा अन्य सामाजिक सुरक्षा भी आतीं हैं। इसके अलावा समान अवसर तथा समान दायित्व भी इसके अन्तर्गत आता है।

सामाजिक समानता किसी समाज की वह अवस्था है जिसके अन्तर्गत उस समाज के सभी व्यक्तियों को सामाजिक आधार पर समान महत्व प्राप्त हो। समानता की अवधारणा मानकीय राजनीतिक सिद्धान्त के मर्म में निहित है। यह एक ऐसा विचार है जिसके आधार पर करोड़ों-करोड़ों लोग सदियों से निरंकुश शासकों, अन्यायपूर्ण समाज व्यवस्थाओं और अलोकतांत्रिक हुकूमतों या नीतियों के खिलाफ संघर्ष करते रहे हैं और करते रहेंगे। इस लिहाज से समानता को स्थाई और सार्वभौम अवधारणाओं की श्रेणी में रखा जाता है।

दो या दो से अधिक लोगों या समूहों के बीच सम्बन्ध की एक स्थिति ऐसी होती है जिसे समानता के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। आम तौर पर साधारण भाषा में समानता का अर्थ है "लोगो के साथ समान व्यवहार" लेकिन, एक विचार के रूप में समानता इतनी सहज और सरल नहीं है, क्योंकि उस सम्बन्ध को परिभाषित करने, उसके लक्ष्यों को निर्धारित करने और उसके एक पहलू को दूसरे पर प्राथमिकता देने के एक से अधिक तरीके हमेशा उपलब्ध रहते हैं। अलग-अलग तरीके अख्तियार करने पर समानता के विचार की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ उभरती हैं। प्राचीन यूनानी सभ्यता से लेकर बीसवीं सदी तक इस विचार की रूपरेखा में कई बार जबरदस्त परिवर्तन हो चुके हैं। बहुत से चिंतकों ने इसके विकास और इसमें हुई तब्दीलियों में योगदान किया है जिनमें अरस्तू, हॉब्स, रूसो, मार्क्स और टॉकवील प्रमुख हैं।

समानता की संकल्पना[संपादित करें]

समानता किसी हद तक आधुनिक अवधारणा है। आज मानव समाज में व्यक्तियों के मध्य में जिस प्रकार समानता की आवश्यकता महसूस करता है उस तरह उसने हमेशा महसूस नहीं किया है। पश्चिमी देशों में राजाओं को राजक करने का दैवी अधिकार प्राप्त माना जाता था और ऐसा ही अपने-अपने क्षेत्रों की हद तक सामन्त श्रीमन्तों के सम्बन्ध में भी समझा जाता था। उधर पादरी-पुरोहित यह मानते थे कि जैसे सर्वज्ञ वे हैं वैसा कोई और हो ही नहीं सकता। यूनानी काल में समानता स्थापित करने की सीमित और बहुत कमजोर कोशिश ही की गई। आखिरकार सत्रहवीं सदी में यूरोप में अधिकारों और स्वतन्त्रता की माँग उठने लगी और अठारहवीं तथा उन्नीसवीं सदियों में समानता की माँग की गई। आरम्भ में यह माँग व्यापारियों तथा व्यवसायियों में से नव-धनाढ्यों ने या बुर्जुआ ने की, जिनका कहना था कि जब सामन्त श्रीमन्तों और राजाओं के साथ-साथ उनके पास भी संपत्ति और आर्थिक रुतवा है तब उनका कानूनी दर्जा उनकी बराबरी का क्यों नहीं है। उदाहरण के लिए टाउनी के शब्दों में इंग्लैंड में वस्तु-स्थिति निम्नलिखित ढंग की थीः

‘चूँकि असमानताओं में सबसे खास आर्थिक नहीं बल्कि कानूनी असमानताएँ थीं इसलिए संपत्ति की असमानता नहीं बल्कि कानूनी विशेषाधिकार पर सबसे पहले प्रहार किया गया।... सुधारकों का प्राथमिक लक्ष्य कानूनी समानता प्राप्त करना था, क्योंकि ऐसा समझा गया कि उसके प्राप्त हो जाने के बाद आर्थिक समानता वांछित सीमा तक स्वतः ही स्थापित हो जाएगी।’[1]

इसी प्रकार फ़्रांस में मुद्दा आर्थिक समानता नहीं, बल्कि कानूनी अधिकार था और समानता के लिए किए गए संघर्ष ने ‘सम्पत्ति पर आधारित नए अभिजात वर्ग को भूमि पर आधारित पुराने अभिजात वर्ग की बराबरी के स्तर पर प्रतिष्ठित कर दिया।’[2]

अठारहवीं सदी में मुख्य रूप से कानूनी और राजनीतिक समानता के लिए आवाज उठाई गई और आखिरकार उन्नीसवीं सदी में नए श्रमिक वर्ग के उदय के परिणामस्वरूप सामाजार्थिक समानता के लिए अधिक जोरदार माँग की गई। उन्नीसवीं सदी में निर्बंध (लेसे-फेअर) पूँजीवाद के बढ़ते कदम ने एक ओर तो कुछ परिवारों के लिए धन का अम्बार लगा दिया लेकिन साथ ही दूसरी ओर भारी गरीबी और आर्थिक असमानता को जन्म दिया। इसलिए आर्थिक समानता के लिए माँग उठी और यह काम किया मानवतावादियों ने, आदर्शवादी समाजवादियों ने और सकारात्मक उदारवादियों ने। आर्थिक समानता की यह माँग नकारात्मक राजनीतिक और कानूनी समानता के लिए नहीं, बल्कि सकारात्मक समानता के लिए थी और इसमें निजी संपत्ति पर अंकुश, अमीरों द्वारा गरीबों के शोषण पर रोक का समावेश था और इसका अर्थ था समाज की समग्र आर्थिक व्यवस्था के संदर्भ में राज्य की सकारात्मक भूमिका।

समानता के लिए चलने वाले संघर्ष में एक बहुत ही अहम मील का पत्थर बीसवीं सदी के पूर्वार्ध्ध में महिला मताधिकारवादियों जिसके प्रयत्नों के फलस्वरूप महिलाओं को मताधिकार दिया जाना था। उसी सदी में ब्रिटेन जैसी साम्राज्यवादी शक्तियों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए भारत जैसे उपनिवेशों के स्वतन्त्रता आन्दोलन फलीभूत हुए, जिससे समानता की यात्रा को और भी गति मिली।

यूनान के नगर-राज्यों, जैसे एथेंस और स्पार्टा में राज-काज के कामों में प्रत्येक नागरिक की आवाज का समान मूल्य समझा जाता था। अरस्तू के एथेनियन कांस्टीट्यूशन में उन समतामूलक सुधारों के कई हवाले मिलते हैं जिनके आधार पर लोकतान्त्रिक आदर्श की आजमाइश की जा सकी। इन सुधारों का मकसद था सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में विषमताओं को घटाना ताकि भू-स्वामित्व, सत्ता और सामाजिक गौरव पर कुलीनों और सामन्तों की जकड़ ढीली हो सके। कानून के आधार पर समानता का व्यवहार ही वह कसौटी था जिसके आधार पर लोकतन्त्र कसा जा सकता था। लेकिन, प्राचीन एथेंस में इस समतामूलक दायरे से स्त्रियों, दासों और विदेशियों को अलग भी रखा गया था। अरस्तू की रचना पॉलिटिक्स में इस बहिर्वेशन का वर्णन भी किया है और उसे न्यायसंगत भी ठहराया है। उनके लिए समानता का अर्थ था उस वर्ग के सदस्यों की समानता जिसे नागरिक कहा जाता था। वे न्याय को केवल उन लोगों के लिए उपलब्ध मानते थे जो उनकी समानता के दायरे में आते थे। जो उससे बाहर थे, उनके लिए विषमता की स्थिति ही न्यायपूर्ण थी। अरस्तू की बुनियादी मान्यता थी कि प्रकृति ने लोगों को शासक और शासित में बाँट कर बनाया है। शासक की श्रेणी में होने के लिए व्यक्ति में बुद्धिसंगत, विचारात्मक और अधिकारपूर्णता की खूबियाँ होना अनिवार्य है। वे यह भी मानते थे कि यही गुण शासक को शासित से अलग करते हैं।

अरस्तू की समानता की धारणा की आलोचना करते हुए हॉब्स ने अपने ग्रंथ लेवायथन में प्रकृत अवस्था की संकल्पना करके उसके तहत हर व्यक्ति को समान ठहराया। भले ही कोई व्यक्ति शारीरिक शक्ति में या कोई दिमागी तेजी में दूसरे से कुछ बेहतर हो, पर कुल मिला कर मनुष्यों के बीच ऐसा कोई फ़र्क नहीं होता जिसके आधार पर वे किसी विशेष लाभ की माँग कर सकें। हॉब्स का तर्क था कि जो शरीर से कमजोर है, वह ताकतवर को योजना बना कर मार सकता है और मस्तिष्क के स्तर पर अनुभव के जरिये हर व्यक्ति समान समझ विवेक हासिल करने की क्षमता से सम्पन्न होता है। इसी के साथ मनुष्य में सत्ता हासिल करने की समान आकांक्षा भी होती है जिससे उनके बीच होड़ का जन्म होता है और प्राकृतिक समानता जोखिमग्रस्त हो जाती है। हॉब्स की मान्यता थी कि अपनी सत्ता के एक हिस्से को राजनीतिक प्राधिकार के लिए छोड़ कर ही व्यक्ति एक सभ्य और समतामूलक जीवन गुजार सकता है। अर्थात् एक निश्चित प्राधिकार का प्रभुत्व ही उसे पूरी सुरक्षा का आश्वासन दे सकता है। हॉब्स मानते थे कि धर्म समेत हर प्रकार के गैर- राजनीतिक प्राधिकारों से मुक्ति के जरिये ही व्यक्ति को उसकी प्राकृतिक समानता उपलब्ध हो सकती है। रूसो भी अपने हिसाब से एक प्रकृत-अवस्था कल्पित करते हैं। उन्होंने अपने दूसरे डिस्कोर्स (डिस्कोर्स ऑन ऑरिजिन ऐंड फ़ाउंडेशन ऑफ़ इनइक्वलिटी) में समानता के बजाय विषमता पर विचार करते हुए उसे प्राकृतिक और अप्राकृतिक में बाँटा है। प्राकृतिक विषमता केवल शारीरिक शक्ति के क्षेत्र में होती है। लेकिन, विधि निर्माण और सम्पत्ति के स्वामित्व ने विषमता के अप्राकृतिक रूपों को जन्म दिया है। दरअसल, यह विषमता का पहला स्तर है जिससे ग़रीब और अमीर के बीच का फ़र्क पैदा हुआ है। दूसरा स्तर दण्ड देने का संस्थागत अधिकार है जिससे शक्तिशाली और दुर्बल की असमानता पैदा हुई। विषमता का आखिरी स्तर वैध सत्ता को स्वैच्छिक सत्ता में बदलने से पैदा हुआ है जिससे गुलाम और मालिक की श्रेणियाँ पैदा हुई हैं। सम्पत्ति के स्वामी सत्ता जमा करके मालिक बन जाते हैं और गरीब दुर्बल होते हुए दासत्व में पड़ जाते हैं। रूसो के मुताबिक इस विषमता की भी एक सीमा है। जब विषमता में वृद्धि सम्भव नहीं रह जाती तो नयी क्रान्तियाँ या तो हुकूमतों को नष्ट कर देती हैं या उन्हें सत्ता की वैध संस्थाओं के नजदीक आना पड़ता है।

मार्क्स ने अपना समानता सम्बन्धी विचार उदारतावादी समानता की आलोचना के रूप में विकसित किया। वे मानते थे कि पूँजीवादी वर्ग समानता के विचार का अपने हित में इस्तेमाल करता है। जिस तरह रूसो कहते थे कि अमीरों के झूठे आश्वासनों के फेर में फँस कर ग़रीब उनकी सत्ता का वैधीकरण करने के लिए तैयार हो जाते हैं, उसी तरह मार्क्स कहते हैं कि शासक वर्ग अपनी विचारधारा पैदा करता है ताकि आर्थिक शोषण की व्यवस्था जारी रखी जा सके। पूँजीवादी वर्ग के भीतर एक तरह का कार्य-विभाजन होता है। एक हिस्सा पूँजी का स्वामित्व ग्रहण करता है और दूसरा विचारधारात्मक औजारों का इस्तेमाल करते हुए समानता और स्वाधीनता के विचारों के ज़रिये भ्रम का माहौल बनाये रखता है। मार्क्स के अनुसार सामंतशाही में जो स्थान गौरव और निष्ठा जैसे विचारों का था, वही स्थान पूँजीवाद में समानता और स्वाधीनता का है। इन अमूर्त विचारों की प्रभावकारिता इतनी अधिक है कि कुछ समाजवादी भी उनके चंगुल में फँस जाते हैं। लेकिन, ये विचार उस समय तक खोखले और तत्त्वहीन हैं जब तक उनमें साम्यवादी दृष्टि का समावेश न हो। मार्क्स के अनुसार शोषणकारी वर्ग-सम्बन्धों की समाप्ति के बिना स्थापित नहीं की जा सकती। इसके लिए वे पहले समाजवादी चरण की संकल्पना करते हैं जो हर एक को उसके श्रम के मुताबिक देने पर आधारित होगा। दूसरा चरण साम्यवादी होगा जिसमें हर एक से उसकी क्षमता के अनुसार और हर एक को उसकी क्षमता के अनुसार देने का आधार ग्रहण किया जाएगा।

अमेरिकी लोकतान्त्रिक क्रान्ति की जाँच-पड़ताल करते हुए टॉकवील समानता का अध्ययन आधुनिक इतिहास की प्रमुख प्रवृत्ति के रूप में करते हैं। अमेरिकी उदाहरण के जरिये वे समझना चाहते थे कि पश्चिमी समाज ने सामन्तवाद से लोकतंत्र की तरफ़ किस तरह संक्रमण किया है। वे इस सवाल का जवाब खोजते हैं कि इस प्रक्रिया में समानता की विजय क्यों अपरिहार्य है? सामाजिक समानता उत्तरोत्तर क्यों विकसित होती चली जाएगी? टॉकवील का कहना है कि सामन्तशाही किसान से लेकर राजा तक एक लम्बी शृंखला बनाती चली जाती है। पर लोकतंत्र उसे तोड़ कर शृंखला की हर कड़ी को मुक्त कर देता है। दासता और निर्भरता की जकड़ से निकलने की इच्छा समानता के विचार में लोगों की रुचि बढ़ाती है और इस प्रकार लोकतांत्रिक जीवन की सम्भावना पैदा होती है। टॉकवील के अनुसार लोकतंत्रों में व्यक्ति समानता को आज़ादी के ऊपर भी प्राथमिकता देते हुए उसके झंडे को दृढ़ता से थामे रखता है। समानता के विचार की इन निष्पत्तियों के बाद इस प्रश्न पर ग़ौर करना ज़रूरी है कि आख़िर समानता और समरूपता में क्या फ़र्क है। परीक्षा में बैठने वाले हर छात्र को समान अंक नहीं दिये जा सकते। परिवार के आकार का ध्यान न रखते हुए हर एक को समान घर आबंटित नहीं किया जा सकता। प्रतिभा और क्षमता को दरकिनार करते हुए हर व्यक्ति की आमदनी समान नहीं की जा सकती। इसलिए समानता की उपयुक्त कसौटी समरूपता के बजाय कुछ और होनी चाहिए। लेकिन, दूसरी तरफ़ समरूपता का महत्त्व न्यायपूर्ण प्रक्रियाओं के लिए उभरता है। समानता लाने की प्रक्रियाएँ तभी न्यायपूर्ण हो सकती हैं जब वे सभी के लिए समरूप हों, जैसे अवसरों की समानता, कानून की निगाह में सबको समान समझना, आदि।

परिभाषा[संपादित करें]

समानता की परिभाषा[3] करना जरा कठिन है। यह मूर्त्त की अपेक्षा बहुत अधिक अमूर्त्त है। ज्यादातर लोग इसे अचेतन रूप से उन भावों से जोड़ते हैं जो ‘वही’, ‘एक-जैसा’, ‘न्यायोचित’ आदि शब्दों से संप्रेषित होते हैं। एच.जे. लास्की का कहना है, ‘राजनीति विज्ञान के पूरे क्षेत्र में कोई भी विचार’ समानता से ‘अधिक कठिन नहीं है।’[4]

रूसो प्राकृतिक और पारंपरिक असमानताओं में भेद करते थे। प्रकृति-प्रदत्त असमानताएँ (उदाहरण के लिए एक आदमी लंगड़ा या अंधा है और दूसरा ऐसा कुछ नहीं। प्राकृतिक असमानताएँ हैं, समाज द्वारा सृजित असमानताएँ (जैसे जाति, लिंग, अमीर-गरीब, मजदूर-पूँजीपति, मालिक-नौकर आदि) पारंपरिक असमानताएँ हैं। समाजवादियों और मार्क्सवादियों का कहना है कि पारंपरिक असमानताओं, खासतौर से पारंपरिक आर्थिक असमानताओं में इतनी शक्ति होती है कि वे तमाम प्राकृतिक असमानताओं को ढक देती हैं। मार्क्स कहते हैं:

मैं क्या हूँ और मुझमें क्या योग्यता है, यह किसी भी तरह मेरी वैयक्तिकता से तय नहीं होता। मैं कुरूप हूँ, लेकिन मैं अपने लिए सबसे रूपवती स्त्रियों को खरीद सकता हूँ। इसलिए मैं कुरूप नहीं हूँ, क्योंकि पैसा कुरूपता के प्रभाव को - उसकी बाधक शक्ति को - शून्य कर देता है। मेरी व्यक्तिगत खामी यह है कि मैं लंगड़ा हूँ, लेकिन पैसा मेरे लिए दो दर्जन पैर जुटा देता है। इसलिए मैं लंगड़ा नहीं हूँ। मैं बेईमान, काइयाँ और मूर्ख हूँ, लेकिन पैसे की इज्जत होती है, इसलिए जिसके पास वह है, उसकी इज्जत होती है।... मैं बेदिमाग हूँ, लेकिन असली दिमाग पैसा है, इसलिए जिसके पास पैसा है वह बेदिमाग कैसे हो सकता है? इसके अलावा, वह चतुर लोगों को अपने लिए खरीद सकता है और जिसके बस में चतुर व्यक्ति हैं वह क्या चतुर व्यक्ति से भी अधिक चतुर नहीं है?[5]

सर्वाधिक प्रभावशाली सकारात्मक चिन्तक लास्की ने समानता के लिए निम्नलिखित स्थितियों को आवश्यक बतायाः

  1. समाज में विशेषाधिकारों का अन्त,
  2. सबके लिए अपने व्यक्तित्वों की समस्त संभावना का विकास करने के पर्याप्त अवसर,
  3. सभी के लिए सामाजिक लाभ पाने की सुविधा, जिसमें पारिवारिक स्थिति या धन अथवा उत्तराधिकार आदि के आधार पर कोई प्रतिबंध न हो,
  4. आर्थिक और सामाजिक शोषण की अनुपस्थिति।

हाल में ब्रायन वर्नन ने समानता की एक व्यापक अवधारणा प्रस्तुत करते हुए सुझाया है कि समानता में निम्नलिखित घटक अवधारणाओं का समावेश होना चाहिएः

  • व्यक्तियों के बीच मूलभूत समानता, जिसकी अभिव्यक्ति, उदाहरणार्थ, इस तरह के कथनों में होती हैः ‘ईश्वर की दृष्टि में सभी समान हैं‘।
  • अवसर की समानता, जिसका मतलब यह है कि सामाजिक विकास के लिए आवश्यक महत्त्वपूर्ण सामाजिक संस्थाओं के द्वारा बिना किसी भेद भाव के सबके लिए खुले होने चाहिए। अगर चयन का कोई मापदंड हो तो उसे अभिरुचि, उपलब्धियों और प्रतिभाओं जैसी खूबियों पर आधारित होना चाहिए।
  • स्थितियों की समानता, अर्थात् प्रासंगिक सामाजिक समूहों के लिए जीवन के लिए जरूरी स्थितियों को समान बनाने का प्रयत्न हो। उदाहरण के लिए, यदि कुछ लोगों को जीवन-यात्रा की शुरूआत मूलभूत आर्थिक या अन्य प्रकार की मूलभूत निर्योग्यताओं से करनी पड़े और जीवन की दौड़ का मार्ग समान न हो तो यह कहना काफी नहीं है। स्पर्धा तो पूरी तरह खुली हुई है।
  • परिणाम की समानता, या दूसरे शब्दों में ऐसे परिणामों की समानता जिनमें उन असमानताओं को, जिनके साथ हम आरम्भ करते हैं, अन्ततः सामाजिक समानताओं में बदल देने का प्रयत्न निहित हो। समानता के मुख्य रूप से चार पहलू हैं : कानूनी, राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक।

कानूनी समानता[संपादित करें]

कानूनी समानता का मतलब है कानून के सामने समानता और सबके लिए कानून की समान सुरक्षा। अवधारणा यह है कि सभी मनुष्य जन्म से समान होते हैं, इसलिए कानून के सामने समान हैसियत के पात्र हैं। कानून अंधा होता है और इसलिए वह जिस व्यक्ति से निबट रहा है उसके साथ कोई मुरौवत नहीं करेगा। वह बुद्धिमान हो या मूर्ख, तेजस्वी को या बुद्धू, नाटा हो या कद्दावर, गरीब हो या अमीर, उसके साथ कानून वैसा ही व्यवहार करेगा जैसा औरों के साथ करेगा। लेकिन उपवाद भी हैं। उदाहरण के लिए, किसी बालक या बालिका के साथ किसी वयस्क पुरुष या स्त्री जैसा व्यवहार नहीं किया जाएगा और बालक या बालिका के साथ मुरौवत किया जाएगा। (दुर्भाग्यवश, कानूनी समानता का मतलब जरूरी तौर पर सच्ची समानता नहीं होती, क्योंकि जैसा कि हम सभी जानते हैं, कानूनी न्याय निःशुल्क नहीं होता और अमीर आदमी अच्छे से अच्छे वकील की सेवाएँ प्राप्त कर सकता है और कभी-कभी तो वह न्यायाधीशों को रिश्वत देकर भी अन्याय करके बच निकल सकता है। शुद्ध उदारवादी व्यवस्था हमें कानून के सामने सैद्वांतिक समानता तो प्राप्त रहेगी लेकिन उसका लाभ उठाने के लिए हमें समय और पैसे की जरूरत होगी और अगर हमारे पास ये दोनों नहीं हैं तो व्यवस्था ने हमसे जिस समानता का वादा किया है वह निरर्थक होगी।)Rahul mundkiya.

राजनीतिक समानता[संपादित करें]

राजनीतिक स्वतंत्रता का मतलब बुनियादी तौर पर सार्वजनीन मताधिकार और प्रतिनिधिक सरकार है। सार्वजनीन मताधिकार का मतलब यह है कि सभी वयस्कों को मत देने का अधिकार है और एक व्यक्ति का एक ही मत होता है। प्रतिनिधिक सरकार का अर्थ यह है कि सभी को बिना किसी भेदभाव के चुनाव में स्पर्धा में खड़े होने का अधिकार है और वह सार्वजनिक सेवा के लिए चुनाव में खड़ा होता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सभी को मत देने के लिए विवश किया जा सकता है और प्रत्येक को अपनी पसन्द जाहिर करनी है या यदि कुछ लोगों को गलत प्रभाव डालकर मतदान करने से विमुख कर दिया जाता है या चाहे जिसे मत देने के लिए राजी कर लिया जाता है तो उसके संबंध में राज्य कुछ खास नहीं कर सकता और अगर ज्यादातर लोग या काफी बड़ी संख्या में लोग मतदान नहीं करते और इस प्रकार सरकार के प्रतिनिधिक स्वरूप को कमजोर करते हैं तो राजनीतिक समानता की शुद्ध उदारवादी समझ के अनुसार किसी प्रकार की राजनीतिक असमानता का आरोप भी नहीं लगाया जा सकता है। (उदाहरण के लिए, अमरीका में, जो सभी नागरिकों को पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता और समानता प्रदान करने वाला लोकतंत्र होने का दावा करता है, लगभग केवल आधे लोग ही चुनावों में मतदान करते हैं। जो लोग मतदान नहीं करते वे मुख्य रूप से गरीब तबके के या काले लोग और उनमें से भी खासतौर से गरीब काले लोग होते हैं। उदारवादी परंपरा में यह कोई चिंता का विषय नहीं है- संवैधानिक रूप से तो समानता की गारंटी दे दी गई है और वह सबको मिली हुई है।)

मात्र तकनीकी तौर या संवैधानिक रूप से गारंटी की गई राजनीतिक समानता का मतलब भी सच्ची राजनीतिक समानता नहीं होती, क्योंकि देखा गया है कि प्रमुख उदारवादी लोकतंत्रों में पैसे की ताकत एक प्रमुख भूमिका निभाती है। जिन लोगों, समूहों या वर्गों के पास यह ताकत होती है वे अगर इसका इस्तेमाल करने को तत्पर रहते हैं तो उन्हें अपने राजनीतिक हितों को आगे बढ़ाने में इससे इतनी ज्यादा मदद मिलती है कि उसकी काट करना कठिन होता है। इस प्रकार अकेले पैसे की ताकत आमतौर पर अक्सर चुनावों के परिणामों को नियंत्रित करने में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

(ऐसा माना जाता है कि राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और उनकी रिपब्लिकलन पार्टी ने अमरीका के राष्ट्रपति के पिछले चुनाव अभियान में अरबों डॉलर खर्च किए और यह सारी रकम बड़े-बड़े व्यावसायिक घरानों और कंपनियों से इकट्ठा की गई थी। इस हालत में यह समझ पाना कठिन है कि स्वयं बुश और उनकी पार्टी अगर कंपनियों के हितों और आम लोगों की भलाई के बीच चुनाव करने की स्थिति उत्पन्न होने पर कंपनियों के हितों का पक्ष लेने से कैसे विमुख हो सकते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि किसी उदारवादी लोकतंत्र में राजनीतिक समानता स्थापित करना बहुत कठिन है। यहाँ इस बात का उल्लेख भी किया जा सकता है कि भारत में यह सब और भी भोंडा रूप ले सकता है, क्योंकि यहाँ तो कभी-कभी मतदाताओं को पार्टियों और उम्मीदवारों द्वारा गैर-कानूनी तौर पर नकद भुगतान किया जाता है या रात-भर मुफ्त शराब पिलाई जाती है। इसके अलावा, यह भी एक प्रकट रहस्य है कि अधिकतर भारतीय राजनीतिक दलों की कंपनियों से मित्रता होती है और ये कंपनियाँ आमतौर पर अपने काले धन में से करोड़ों-अरबों रुपए उन्हें चुनाव लड़ने वगैरह के लिए अनुदान में देती हैं।)

केवल उम्मीदवारों और पार्टियों द्वारा खर्च किया गया पैसा ही नहीं बल्कि पैसे के संबंध का पूरा तंत्र इसमें मददगार होता है। प्रचार माध्यम आजकल के उदारवादी लोकतंत्रों में और खास कर इस तरह के जिन लोकतंत्रों में बहुत बड़े मध्य वर्ग का अस्तित्व है उनमें बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं और यद्यपि इन माध्यमों को स्वतंत्र माना जाता है लेकिन वास्तव में वे स्वतंत्र हो नहीं सकते, क्योंकि वे अपने आर्थिक अस्तित्व और फलने-फूलने के लिए मुख्य रूप से कंपनियों के विज्ञापनों पर निर्भर होते हैं और उनके लिए व्यवसाय जगत् की राजनीतिक संवेदनशीलताओं और हितों तथा कंपनियों की कार्य-सूची के प्रति संवेदनशील होना जरूरी होता है। जिस हद तक प्रचार माध्यम लोगों को प्रभावित करते हैं उस हद तक ये कार्य-सूचियाँ उन तक संप्रेषित हो जाती हैं, चाहे यह काम वे किसी सोची-समझी योजना के अधीन करते हों या यों ही, या इसके पीछे उनकी मजबूरी हो या न हो। इस प्रकार इनका अंतिम परिणाम राजनीतिक समानता के स्तर की उस समतलता को भंग कर देता है जो अन्यथा व्यवहारतः कायम रहती।

ऊपर कही गई बातों के अलावा भारत जैसे लोकतंत्र में शक्तिशाली कार्यकारी नौकरशाहियाँ और न्यायिक सेवाओं के सदस्य होते हैं, जिन्हें राजनीतिज्ञों की तरह जनता नहीं चुनती और अगर लोग उनसे तंग आ चुके हैं तो उनका कोई चुनाव नहीं होता कि वे उन्हें निकाल बाहर करें। अपनी शैक्षिक तथा पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण इन समूहों के सदस्य अक्सर ऊपरी आर्थिक तबकों औेर वर्गों (या जातियों) से आते हैं और नीति-निर्धारण को अनवरत और प्रबल रूप से प्रभावित करते रहते हैं। जाहिर है कि ये समूह अन्यों की अपेक्षा अधिक राजनीतिक समानता का उपभोग करते हैं। उदाहरण के लिए, जब उच्चतम न्यायालय का कोई न्यायाधीश सरकार के किसी नीतिगत विधान पर रोक लगा देता है और उसे गैर-कानूनी घोषित कर देता है हालांकि उस विधान की रचना स्वतंत्र और साफ-सुथरे चुनाव में निर्वाचित प्रतिनिधियों ने, चाहे वे जितने अशिक्षित या शैक्षित दृष्टि से योग्यताहीन हों, की है। वह न्यायाधीश कानूनी तौर पर तो नहीं लेकिन विशुद्ध राजनीतिक दृष्टिकोण है स्पष्टतः अपने अन्य सह-नागरिकों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ समानता की स्थिति का उपभोग कर रहा होता है। (‘अभिजन सिद्धांत’ नामक एक ऐसा उदारवादी लोकतांत्रिक सिद्धांत भी है जिसका कहना है कि राजनीतिक समानता एक भ्रम है, क्योंकि राजनीतिक शक्ति का उपभोग हमेशा अभिजन ही करता है और उसी को करना चाहिए। इसलिए गरीब या आर्थिक दृष्टि से कमजोर नागरिकों को अधिक राजनीतिक औकात -या समानता देने की कोई जरूरत नहीं है और ऐसा करने की कोशिश करना बेकार है।)

आर्थिक और सामाजिक समानता[संपादित करें]

आर्थिक और सामाजिक समानता की अभिधारणा का अर्थ अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग है। आर्थिक समानता से प्रारंभिक उदारवादियों का तात्पर्य केवल यह था कि हर व्यक्ति को, उसकी पारिवारिक या आर्थिक स्थिति चाहे जो हो, अपना धंधा और पेशा चुनने का अधिकार है और प्रत्येक व्यक्ति को अनुबन्ध करने की स्वतंत्रता है, ताकि जहाँ तक अनुबंधात्मक दायित्वों का संबंध है, देश के हर व्यक्ति के साथ समान व्यवहार हो सके। धीरे-धीरे स्थिति इस अभिधारणा की दिशा में बदलने लगी कि प्रत्येक को पूर्ण मानव प्राणी के रूप में जीने का समान अवसर प्राप्त हो। (इसमें कोई संदेह नहीं कि यह बदलाव एक हद तक पूँजीवाद की उस समाजवादी और मार्क्सवादी मीमांसा का परिणाम था जिसे सकारात्मक उदारवाद के प्रादुर्भाव से पहले अधिकाधिक स्वीकृति प्राप्त होती जा रही थी और जिसके कारण ही शायद 1917 की रूसी क्रांति हुई उस मीमांसा की स्वीकृति का एक और कारण यह था उसमें आर्थिक समानता पर जोर दिया गया, जिसकी परिभाषा सबके लिए लगभग समान आर्थिक स्थितियों के रूप में की गई।)

धीरे-धीरे यह समझा और स्वीकार किया जाने लगा कि समानता का मतलब यह होना चाहिए कि समाज में कोई भी इतना गरीब न हो कि उसके पास बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन न हों और मानसिक तथा शारीरिक विकास के लिए उसे प्राथमिक अवसर सुलभ न हों। रूसो के शब्दों में कहें तो समानता से हमारा मतलब यह नहीं होना चाहिए प्रत्येक व्यक्ति को बिल्कुल बराबरी की सत्ता और धन प्राप्त होना चाहिए, बल्कि उसका मतलब यह होना चाहिए कि कोई भी नागरिक इतना धनवान न हो कि वह दूसरों को खरीद ले और किसी भी नागरिक को इतना निर्धन न होना चाहिए कि वह बिकने के लिए मजबूर हो जाए।'[6]

एच. जे. लास्की ने आर्थिक समानता की सकारात्मक उदारवादी अभिधारणा को परिष्कृत रूप प्रदान किया और समानता का अर्थ जिनके बिना जीवन निरर्थक है उन सभी चीजों की उपलब्धता करायी। उन्होंने कहा कि बुनियादी आवश्यकता की वस्तुएँ तो परिमाण और किस्म के किसी भेद के बिना सभी के लिए सुलभ होनी चाहिए। सभी मनुष्यों को आवश्यक भोजन और आवास सुलभ होना चाहिए। उन्होंने बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति को अवसर की समानता की पूर्व-शर्त माना और उस आर्थिक समानता के लिए आर्थिक असमानता की अति को कम करने की हिमायत की (चाहे यह काम क्रमिक कर-वृद्धि के जरिए किया जाए या गरीबों के लिए राज्य -प्रवर्तित कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से। लास्की जैसे सकारात्मक उदारवादी-चिंतकों और केंस जैसे अर्थशास्त्रियों के प्रभाव के अधीन कल्याणकारी-राज्य की स्थापना के फलस्वरूप ही मिली-जुली अर्थव्यवस्था, विभेदकारी करारोपण आदि की नीतियाँ अपनाई गईं और न्यूनतम मजदूरी निर्धारित करते हुए मजदूरियों का नियमन और अभिवृद्धि की गई। इन तमाम नीतियों का उद्देश्य अमीरों से पैसा लेकर गरीबों के कल्याण में लगाना था। सकारात्मक उदारवादियों और केंस धारा के अर्थशास्त्रियों का दावा है कि इसने पूंजीवाद को हमेशा के लिए कल्याणकारी व्यवस्था में बदल दिया, गरीबी और आर्थिक असमानता को मिटाने के लिए बहुत-कुछ किया और सभी नागरिकों को आर्थिक समानता की दृष्टि से समान धरातल पर खड़ा कर दिया। महान अर्थशास्त्री जॉन गैलब्रेथ ने तो यहाँ तक दावा किया है कि इसने पश्चिमी दुनिया में आर्थिक असमानता को दशकों के लिए एक बेमानी मसाला बना दिया। पिछले कुछ दशकों के दौरान और खासतौर से 1980 वाले दशक से नव-उदारवादी चिंतन का, जो पुराने क्लासिकी और आरंभिक उदारवादी चिंतन के ही समान है, जोर काफी बढ़ गया है और वह प्रगति की सुई को इस अर्थ में खींच कर पीछे ले आया है कि सकारात्मक उदारवादी कल्याणकारी विचारों से मेल खाते दिखाई देने वाले किसी भी विचार को वे वामपंथी समाजवादी और मार्क्सवादी करार दे देते हैं और इसलिए विश्व-भर में नव-उदारवाद-प्रधान नीति की स्थापनाओं के लिए आँख की किरकिरी बन जाता है।)

समानता-संबंधी मार्क्सवादी दृष्टि समानता को, विशेषतः आर्थिक समानता को, संपत्ति और वर्ग -शोषण से जोड़ कर देखती है। सच तो यह है कि रूसो और केंस जैसे गैर-मार्क्सवादी उदारवादी चिंतकों ने भी समानता और संपत्ति के बीच के संबंध का निर्देश किया है। उदाहरण के लिए, केंस कहते हैं: ‘खानाबदोश और आखेटक कबीलों जैसे जिन समाजों के लिए निजी संपत्ति का कोई उपयोग नहीं है उनके लिए समतावादी होना आसान है लेकिन जो समाज व्यक्तियों को निजी संपत्ति का संग्रह करने की सुविधा देते हैं उनके लिए यह आसान नहीं होता।’[7] मार्क्सवादी विश्लेषण में समानता केवल वर्गों या वर्ग-विभाजित समाज को मिटा कर ही प्राप्त की जा सकती है और उसकी पूर्ण प्राप्ति निजी संपत्ति के उन्मूलन से ही संभव है। मार्क्सवादी विचार ऐसा समाज स्थापित करने का है जिसमें कोई निजी संपत्ति या आर्थिक वर्ग नहीं होंगे और प्रत्येक को ‘योग्यतानुसार काम और आवश्यकतानुसार दाम’ के सिद्धांत के मुताबिक जो देना है सो दिया जाएगा। वितरण का काम राज्य का है। लेनिन और अन्य मार्क्सवादी इस सकारात्मक उदारवादी अभिधारणा पर प्रहार करते हैं कि राज्य के हस्तक्षेप से आर्थिक असमानताएँ मिटाई जा सकती हैं और जीवन के लिए बुनियादी आवश्यकताओं की वस्तुओं की सुलभता सबके लिए सुनिश्चित की जा सकती है, क्योंकि उनका मानना है कि यदि निजी संपत्ति का उन्मूलन नहीं किया जाता है तो ऊपरी वर्गों की पैसे की ताकत के कारण शोषण और असमानताएँ आहिस्ते से फिर लौट आयेंगी।

सामाजिक समानता का मतलब है रंग, लिंग, जाति, लैंगिक प्रवृत्ति आदि के आधार पर भेद -भाव की अनुपस्थिति, समानता के कानूनी, राजनीतिक और आर्थिक पहलुओं से भिन्न, वर्षों से यह महसूस किया जाता रहा है कि बाकी के जो भेद-भाव कुछ समाजों में हजारों साल से विद्यमान रहे हैं उन्हें राजनीतिक और कानूनी अधिकारों आर्थिक विकास और आर्थिक असमानताओं के उन्मूलन की तीव्र प्रगति के बल पर भी कमजोर करना कठिन है। स्त्रियों को इंगलैंड में 1920 वाले दशक में जाकर मताधिकार प्राप्त हुआ। दक्षिण अफ्रीका और संयुक्त राज्य अमेरीका के कुछ हिस्सों में चंद दशक पहले तक कालों को अपने ही देश में बहुत सारे क्षेत्रों से अलग रखा जाता था। कई देशों में मेहतरों को समाज से दूर पृथक्कृत गंदे स्थानों में रहने को मजबूर होना पड़ता है, जिसका कारण न राजनीतिक होता है और न आर्थिक बल्कि होता है सामाजिक मानसिकता। आज भी भारत में ऐसे गाँव हैं जहाँ निचली जातियों के लोगों के साथ ऊपरी जाति के लोग जानवरों जैसा व्यवहार करते हैं और यदि उनमें से कोई अपनी सूझ-बूझ से धनवान या शक्तिशाली बन जाता है तो भी उसके साथ उसकी जाति के अन्य लोगों से भिन्न व्यवहार नहीं किया जाता है।

नव-उदारवादी चिन्तन[संपादित करें]

इधर नव-उदारवादी चिंतन - खासतौर से मिल्टन फ्रइडमेन और एफ.ए. हेक द्वारा प्रतिपादित नव-उदारवादी चिंतन - समानता के संबंध में बिल्कुल अलग राग अलापता है। वह मानता है कि समानता और स्वतंत्रता मूलतः एक-दूसरे के विरुद्ध हैं और इसलिए स्वतंत्रता के हक में असमानता को सहन करना चाहिए और आज दुनिया भर में नीति-निर्धारण में - खासतौर से अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के नीति-निर्धारण में इस विचार का जबर्दस्त बोलबाला है।

नव-उदारवादी यह भी मानते हैं कि असमानता को सहन करना अंततः संपूर्ण अर्थव्यवस्था के लिए अधिकतम लाभदायक सिद्ध होगा, क्योंकि उसके फलस्वरूप निजी आर्थिक गतिविधियों की अभिवृद्धि होगी। इस चिंतन की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

  • (१) स्वतंत्रता प्राकृतिक है और असमानता भी। इसलिए यह प्रकृति का विधान है कि स्वतंत्रता और समानता परस्पर संगत नहीं है।
  • (२) स्वतंत्रता का मतलब मुख्य रूप से किसी भी प्रकार के प्रतिबंध या जोर-जबर्दस्ती की अनुपस्थिति है, लेकिन समानता स्थापित करने का मतलब होगा कुछ प्रतिबंध लगाना या कुछ समतलीकरण करना जो स्वतंत्रता की कल्पना के मूलतः विरुद्ध है।
  • (३) जब समता स्थापित करने का प्रयत्न किया जाता है तब राज्य के अधिकारों को बढ़ाना आवश्यक हो जाता है और जब राज्य के अधिकार बढ़ा दिए जाते हैं तो स्वभावतः यह अपनी स्वतंत्रता के लिए एक खतरा बन जाता है। समानता का तकाजा सकारात्मक हस्तक्षेपवादी राज्य का है, जबकि स्वतंत्रता को नकारात्मक और न्यूनीकृत राज्य की जरूरत है।
  • (४) मुक्त बाजार पूँजीवाद के बिना राज्य की शक्ति पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता और ऐसे अंकुश के बिना स्वतंत्रता हमेशा अपूर्ण और खतरे में है। इस प्रकार, स्वतंत्रता और पूंजीवाद एक-दूसरे के अनुपूरक हैं लेकिन समानता और पूँजीवाद मूलतः एक दूसरे के खिलाफ हैं। (इस दृष्टि का प्रतिपादन सर्वप्रथम मिल्टन फ्राइडमेन ने किया।)
  • (५) लोकतंत्र का अभिजनवादी सिद्धांत, जिसे नव-उदारवाद का ही अंग मानना चाहिए, एक ऐसे आर्थिक तथा राजनीतिक अभिजन की उपस्थिति की हिमायत करता है जिसके बिना, अभिजनवादियों के अनुसार, लोकतंत्र भीड़शाही और सस्ता लोक-लुभावनवाद बन जाता है- और इस व्यवस्था के अधीन अंततः स्वतंत्रता की उपलब्धता समाप्त हो जाती है। चूँकि अभिजन के बिना स्वतंत्रता या लोकतंत्र नहीं हो सकता, इसलिए अभिजन को मिटाकर समानता स्थापित करना स्वतंत्रता को नष्ट कर देता है। इसलिए समानता और स्वतंत्रता एक-दूसरे के विरोधी हैं।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  • अशोक आचार्य (2008), ‘ईक्वलिटी’, राजीव भार्गव और अशोक आचार्य (सम्पा.), पॉलिटिकल थियरी : ऐन इंट्रोडक्शन, पियर्सन लोंगमेन, नयी दिल्ली.
  • विल किमलिका (2009), समकालीन राजनीतिक दर्शन : एक परिचय, अनु. कमल नयन चौबे, पियर्सन लोंगमेन, नयी दिल्ली.
  • सैनफ़र्ड ए. लैकॉफ़ (1964), इक्वलिटी इन पॉलिटिकल फ़िलॉसफ़ी, बीकन प्रेस, बोस्टन.
  1. आर.एच. टाउनी, इक्वलिटी, लंदन, 1952, पृ. 95
  2. आर.एच. टाउनी, इक्वलिटी, लंदन, 1952, पृ. 95
  3. "समानता का अर्थ एवं परिभाषा".[मृत कड़ियाँ]
  4. एच.जे. लास्की, ए ग्रामर ऑफ पॉलिटिक्स, पृ. 152
  5. कार्ल मार्क्स, इकोनॉमिक एंड फिलोसोफिकल मेन्युस्क्रिप्ट्स ऑफ 1844, मास्को, 1974, पृ. 120-21।
  6. रूसो, सोशल कॉन्ट्रैक्ट, जॉर्ज ऐलन एंड अनविन, लंदन, 1924
  7. एच. जे. गेंस, मोर इक्वलिटी, न्यूयॉर्क, 1973, पृ. 62

पठनीय ग्रंथ[संपादित करें]

  • एच.जे. लास्की, ए ग्रामर ऑफ पॉलिटिक्स, 1925
  • कार्ल मार्क्स, दास कैपिटल, 1867

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • समानता कतने प्रकार की है
  • समानता क्या है अच्छे से जाने
  • सामाजिक न्याय
  • विधिक समानता (Equality before the law)
  • समान अवसर (Equal opportunity)
  • समतावाद (Egalitarianism)
  • समता का अधिकार
  • अधिकार
  • लोकतंत्र
  • समाजवाद

समानता के अधिकार से क्या तात्पर्य है?

समानता का अधिकार (Right To Equality in Hindi) शब्द का अर्थ है कि देश के कानून के सामने सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए और लिंग, जाति, नस्ल, धर्म या जन्म स्थान के आधार पर किसी भी प्रकार के अनुचित व्यवहार को त्याग दिया जाना चाहिए।

समता का क्या तात्पर्य है?

भारत में समता/समानता का अधिकार अनुच्छेद १५= धर्म, वंश, जाति, लिंग और जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जायेगा। अनुच्छेद १६= लोक नियोजन के विषय में अवसर की समानता। अनुच्छेद १७= छुआछूत (अस्पृश्यता) का अन्त कर दिया गया है।

समानता का अधिकार कितने हैं?

भारत के संविधान में समानता के अधिकारों का स्थान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में इस अधिकार का वर्णन किया गया है। विधि के समक्ष समता के अधिकार का यह भी अर्थ है, कि जन्म या विचार या संप्रदाय के आधार पर किसी भी व्यक्ति का कोई विशेषाधिकार नहीं होगा तथा देश का सामान्य कानून सभी वर्ग के लोगों पर समान रूप से लगाया जाएगा।

समता और समानता से क्या तात्पर्य है?

समता या समानता का आशय है कि प्रत्येक व्यक्ति को उतनी सुविधा या अवसर दिये जाये जिसका वह लाभ उठा सहे। समानता का अर्थ सबके लिये समान नीति से है सबको समान बनाने से नहीं है।