सृष्टि की रक्षा हेतु मनुष्य का क्या कर्तव्य है? - srshti kee raksha hetu manushy ka kya kartavy hai?

“मनुष्य का कर्तव्य सृष्टि के अनादि पदार्थों के सत्यस्वरूप एवं अपने कर्तव्यों को जानना है”

( Read 4107 Times)

Print This Page

मनुष्य जन्म लेकर माता-पिता व आचार्यों से विद्या ग्रहण करता है। विद्या का अर्थ है कि सृष्टि में विद्यमान अभौतिक व भौतिक पदार्थों के सत्यस्वरूप को यथार्थरूप में जानना और साथ ही अपने कर्तव्य कर्मों को जानकर उनका आचरण करना। संसार में मनुष्यों की जनसंख्या 7 अरब से अधिक बताई जाती है। यदि अध्ययन करें तो ज्ञात होता है कि मनुष्यों को भौतिक पदार्थों का तो कुछ-कुछ ज्ञान है परन्तु अभौतिक ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरूप का यथार्थ ज्ञान एक प्रतिशत लोगों को भी नहीं है। अनादि पदार्थों का ज्ञान न होने पर भी क्या विद्वान और क्या साधारण मनुष्य अभौतिक पदार्थ ईश्वर व जीवात्मा को जानने की जिज्ञासा नहीं रखते। यह उनकी सबसे बड़ी अविद्या व अज्ञान ही कहा जा सकता है। प्रश्न यह है कि ईश्वर और जीवात्मा है या नहीं? भारत में वेद, उपनिषद, दर्शन, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय आदि ग्रन्थ ईश्वर व जीवात्मा को मानते भी हैं और इन ग्रन्थों के अध्ययन से इन अभौतिक पदार्थों के सत्यस्वरूप का निर्भ्रान्त ज्ञान भी होता है। इन पदार्थों को एक या दो नहीं अपितु अनेक तर्क व युक्तियो से सिद्ध भी किया जाता है। योग, वेदान्त दर्शन सहित उपनिषदों से ईश्वर का सत्यस्वरूप जाना जा सकता है। इनके साथ ही वेद, ऋषि दयानन्द एवं आर्य विद्वानों के वेदभाष्यों से भी ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरूप का ज्ञान प्राप्त होता है। ऋषि दयानन्द व आर्यविद्वानों के सत्यार्थप्रकाश आदि अनेक ग्रन्थ इन विषयों पर उपलब्ध हैं जिनसे इन अनादि, नित्य, अविनाशी पदार्थों का ठीक ठीक ज्ञान होता है। आश्चर्य है कि हमारा वैज्ञानिक सम्प्रदाय, जो प्रत्येक पदार्थ की परीक्षा कर उसे अपनाता है और उनके द्वारा अन्वेषित जिस भौतिक विज्ञान से सभी मनुष्य व संसार लाभान्वित हो रहे हैं, वह सम्मानीय वैज्ञानिकगण भी ईश्वर व जीवात्मा विषयक सत्ताओं के ज्ञान को जानने की जिज्ञासा नहीं रखते। ईश्वर व आत्मा का सत्य व यथार्थ ज्ञान व उसके अनुरूप मनुष्यों व विद्वानों का आचरण न होने के कारण ही संसार में दुःख व अशान्ति व्याप्त है। संसार में प्रचलित मत-मतान्तर वेद और ऋषियों के बनाये वेदानुकूल उपनिषद व दर्शन ग्रन्थों आदि की उपेक्षा कर संसार में अज्ञान व अविद्या के प्रसार में प्रमुख कारण सिद्ध हो रहे हैं। उनके आचार्यों की ईश्वर, जीवात्मा, मनुष्यों के कर्तव्य आदि विषयक सत्य ज्ञान के प्रति उपेक्षा देखकर आश्चर्य होता है। यदि यह लोग वेद और वैदिक साहित्य पढ़ लें तो इनकी समस्त भ्रान्तियां दूर हो सकती हैं। यह ऐसा इसलिए नहीं करते कि इनको अपने सिद्धान्तों व मान्यताओं को बदलना पड़ सकता है जिसके लिये यह तत्पर नहीं है।

महर्षि दयानन्द ने सभी मत-मतान्तरों सहित वेद एवं ऋषियों द्वारा रचित वेदानुकूल ग्रन्थों व शास्त्रों का अध्ययन किया था और समाधि अवस्था को प्राप्त होकर उससे उत्पन्न विवेक बुद्धि से मत-मतान्तरों की परीक्षा कर उनके सत्यासत्य का दिग्दर्शन किया था। सत्यार्थ प्रकाश के ग्यारहवें से चौदहवें चार समुल्लासों में बानगी के तौर पर उन्होंन देश व विदेश में उत्पन्न मतों की अविद्यायुक्त बातों की समीक्षा कर मनुष्यों के सत्यासत्य का निर्णय करने में सहायता भी की थी परन्तु कुछ अपवादों को छोड़कर, किसी मत व सम्प्रदाय के आचार्य ने वेद में निहित सत्य ज्ञान व विज्ञान को अपनाया नहीं। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि विज्ञान ने अपना अध्ययन केवल भौतिक पदार्थों तक सीमित रखा है तथा अभौतिक पदार्थों के अध्ययन की उन्होंने उपेक्षा की है जबकि मत-मतान्तरों के आचार्यों व उनके अनुयायियों ने अपना अध्ययन केवल अपने मत की पुस्तकों तक सीमित रखा है जो कि विद्या व ज्ञान की दृष्टि से अपूर्ण व अधूरे हैं तथा उनमें विद्या का भी न्यूनाधिक समावेश है।

मनुष्य का जन्म किस लिए हुआ है? विचार करने पर वैदिक साहित्य से इसका उत्तर मिलता है कि सत्य व असत्य को जानना, सत्य को अपनाना व उसका ही प्रचार करना मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज के नियमों में मनुष्यों के कर्तव्यों में सत्य के ग्रहण और असत्य के छोड़ने का विधान किया है। उनके अनुसार मनुष्यों को सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार कर व निश्चय करके करने चाहियें। मनुष्यों के कर्तव्यों में वह यह भी विधान करते हैं कि मनुष्य को सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य वर्तना व व्यवहार करना चाहिये। अविद्या का नाश करना और विद्या की वृद्धि करना सभी मनुष्यों व सभी मतों के आचार्यों का कर्तव्य है। ऋषि दयानन्द मनुष्यों के कर्तव्यों में इस बात को भी सम्मिलित करते हैं कि प्रत्येक मनुष्य को अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिये अपितु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये। इसका अभिप्राय यह भी है कि सभी मनुष्यों को दूसरों की भी उन्नति में सहयोग करना चाहिये। सभी मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये, यह भी एक वैदिक विधान है। इन सभी नियमों को यद्यपि सभी मत व सम्प्रदायों के लोग मानते हैं परन्तु व्यवहार में इनका पालन होता हुआ कहीं दिखाई नहीं देता है। सबको अपनी-अपनी निजी व अपने मत की उन्नति की चिन्ता है। मत-मतान्तरों की कुछ नीतियां व विचार विश्व कल्याण में सहयोगी न होकर बाधक हैं। जब तक सत्य सिद्धान्तों पर आधारित एक मत विश्व में स्थापित नहीं होगा, वेद, ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज की दृष्टि व मान्यतानुसार विश्व में पूर्ण सुख व शान्ति स्थापित नहीं हो सकती। सब मतों को अपने सिद्धान्तों को सत्य पर आधारित बनाने के साथ उनके सत्य होने का युक्तियों व तर्कों से प्रचार भी करना चाहिये। जब तक ऐसा नहीं होगा देश, समाज और विश्व का कल्याण नहीं हो सकता।

सृष्टि के अनादि पदार्थों पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि सच्चिदानन्दस्वरूप ईश्वर, चेतन अल्पज्ञ जीव और सत्व, रज व तम गुणों सूक्ष्म जड़ प्रकृति, यह तीन पदार्थ ही संसार के अनादि वा मौलिक पदार्थ हैंं। ईश्वर, जीव व प्रकृति के विषय में ऋषि दयानन्द कहते हैं कि ईश्वर वह है जिसके ब्रह्म व परमात्मा आदि नाम हैं। जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है तथा जिस के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं। जो सर्वज्ञ निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान्, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है। वही परमेश्वर है और उसी को ऋषि दयानन्द परमेश्वर मानते थे। जीवात्मा के विषय में वह लिखते हैं कि जो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञानादि गुणयुक्त अल्पज्ञ नित्य है, वही जीव (मनुष्य व पशु-पक्षियों का आत्मा) हैं। वह वेदों के आधार पर यह भी लिखते हैं कि जीव और ईश्वर स्वरूप और वैधर्म्य से भिन्न और व्याप्य-व्यापक और साधर्म्य से अभिन्न हैं। परमेश्वर और जीव का व्याप्य-व्यापक, उपास्य-उपासक और पिता-पुत्र आदि का सम्बन्ध है। अनादि पदार्थों के विषय में उन्होंने बताया है कि तीन पदार्थ अनादि हैं। एक ईश्वर, द्वितीय जीव, तीसरा प्रकृति अर्थात् जगत् का कारण, इन्हीं को नित्य भी कहते हैं। जो नित्य पदार्थ हैं उनके गुण, कर्म व स्वभाव भी नित्य हैं। यह गुण, कर्म व स्वभाव कभी इन पदार्थों से पृथक नहीं होते अर्थात् सदा-सर्वदा इनके साथ रहते हैं। ऋषि के अनुसार सृष्टि उस को कहते हैं कि जो पृथक् द्रव्यों का ज्ञान व युक्तिपूर्वक मेल वा संयोग होकर नाना रूप बनना।

सृष्टि का प्रयोजन क्या है? इसका उत्तर देते हुए ऋषि दयानन्द लिखते हैं कि जिसमें ईश्वर के सृष्टि र्निमित्त गुण, कर्म, स्वभाव का साफल्य होना। जैसे किसी ने किसी से पूछा कि नेत्र किस लिये हैं? उस ने कहा देखने के लिये। वैसे ही सृष्टि की रचना व पालन करने में ईश्वर के सामर्थ्य की सफलता है और जीवों के कर्मों का यथावत् भोग प्रदान कराना आदि भी ईश्वर का कर्तव्य है। हमने संक्षेप में अनादि पदार्थों सहित सृष्टि की रचना के उद्देश्य का उल्लेख किया है। मनुष्य को अपने कर्तव्यों का ज्ञान भी वेदों से होता है। मनुष्य के पांच प्रमुख कर्तव्यों में ईश्वर की उपासना, अग्निहोत्र-यज्ञ, माता-पिता की सेवा-सुश्रुषा, विद्वान अतिथि व आचार्यों आदि की सेवा सहित पशुओं व पक्षियों के प्रति प्रेमभाव व उनको यथासामर्थ्य प्रतिदन भोज्य पदार्थ देना है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे अपने परिवार, समाज व देश के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करने के साथ कृषि, गोपालन, चिकित्सा, भवन निर्माण, देश व समाज की रक्षा सहित वैध कार्यों को करके अपनी आजीविका प्राप्त करनी चाहिये। अपने कर्तव्यों सहित अनादि पदार्थों के स्वरूप व सत्य वैदिक मान्यताओं का परिचय सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों का अध्ययन करके भी प्राप्त किया जा सकता है। यदि मनुष्य सत्य के प्रति जिज्ञासा रखकर अभौतिक व भौतिक सभी पदार्थों का अध्ययन कर सत्य को स्वीकार करेंगे तो इससे उनका अपना, देश, समाज व विश्व का लाभ होगा। हमारा जीवन सफल तभी कहला सकता है कि जब हम मौलिक पदार्थों विषयक सत्य ज्ञान सहित अपने कर्तव्यों को भी जानें और उनका निष्ठापूर्वक पालन करते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करने में तत्पर रहें। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121

Source :

This Article/News is also avaliable in following categories : Literature News , Chintan

मनुष्य का सबसे बड़ा कर्तव्य क्या है?

पहले जन्म से प्राप्त कर्तव्य को करना चाहिए और उसके बाद सामाजिक जीवन में हमारे पद के अनुसार जो कर्तव्य हो उसे संपन्न करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति जीवन में किसी न किसी अवस्था में अवस्थित है। उसके लिए उसी अवस्थानुसार कर्म करना सबसे बड़ा कर्तव्य है।

मनुष्य का पहला कर्तव्य क्या है?

संवाद सूत्र, सफीदों : समाजसेवी हरिराम भक्त ने कहा कि मानव का पहला कर्तव्य धर्म का पालन करना होता है। मनुष्य के बाकी सब कर्तव्य इसके बाद आते है।

मनुष्य का परम कर्तव्य क्या है?

कर्तव्य मनुष्य मात्र में स्वयं का चरित्र तथा आत्मबोध है। यह सहज और सरल आत्म अनुशासन है। जीवन भर सीखने और सीख को धारण करने की प्रबल प्रक्रिया से कर्तव्य का दर्शन प्रकट होता है। सत्य को आत्मसात करने से कर्तव्य की भावना जागृत होती है।

मनुष्य का प्रकृ वत के प्रति क्या कर्तव्य है?

कर्तव्य परायण का अर्थ कर्तव्य के प्रति आदर भाव रखना होता है। मानव को यथाशक्ति और आवश्यकतानुसार कार्य करना ही उसके कर्तव्य परायण होने की पहचान है। मानव जीवन कर्तव्यों का भंडार है

संबंधित पोस्ट

Toplist

नवीनतम लेख

टैग