कविता का मक़सद? Show
व्यक्ति और समाज के लिए कविता की उपादेयता निर्विवाद है। कविता के प्रमुख तत्त्वों में (अनुभूति / भाव, विचार, कल्पना, शिल्प) भाव-तत्त्व मानस को जितना उद्वेलित करता है; उतना अन्य तत्त्व नहीं। कविता इसीलिए अभीष्ट है; क्योंकि भाव-प्रधान होने के कारण वह हमारी चेतना को बड़ी तीव्रता से झकझोरने की क्षमता रखती है। कविता पढ़कर-सुनकर हम जितना प्रभावित होते हैं; उतना साहित्य की अन्य विधाओं के माध्यम से नहीं। कविता व्यक्ति को बल प्रदान करती है; उसे सक्रिय बनाती है; उसके सौन्दर्य-बोध को जाग्रत करती है। जब-तक मनुष्य का अस्तित्व है; कविता का भी अस्तित्व बना रहेगा। कविता का सहारा सदा से लिया जाता रहा है। मानवता का प्रसार करने के लिए, व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य प्रेम-भाव बनाए रखने के लिए, देश-प्रेम का उत्साह जगाने के लिए, वेदना के क्षणों में आत्मा को बल पहुँचाने लिए, सात्त्विक हर्ष को अभिव्यक्त करने के लिए आदि अनेक प्रयोजनों की पूर्ति कविता से होती है। काव्य-रचना का प्रमुख उद्देश्य मनोरंजन नहीं (वस्तुतः मनोरंजन की भी अपनी उपयोगिता है); हृदय के सूक्ष्मतम भावों और श्रेष्ठ विचारों को रसात्मक-कलात्मक परिधान पहनाना है; आकार देना है। एक श्रेष्ठ और सफल कविता की क्या शर्तें और नियम कविता के पाठक-श्रोता दो प्रकार के होते हैं — जन-साधारण और काव्य-मर्मज्ञ। काव्य-मर्मज्ञों को काव्य-शास्त्रीय ज्ञान होता है; जबकि जन-साधारण मात्र भावक होता है। कविता उसकी समझ में आनी चाहिए; तभी वह उससे आनन्दित हो सकेगा। अन्यथा भी, प्रांजलता श्रेष्ठ कविता के लिए अनिवार्य शर्त है। क्लिष्ट-दुरूह काव्य से मस्तिष्क का व्यायाम तो हो सकता है; हृदय का आवर्जन नहीं। कविता ऐसी न हो कि ख़ुद समझें या ख़ुदा समझे। सम्प्रेषणीयता किसी भी रचनात्मक कृति के लिए अनिवार्य है। सम्प्रेषणीयता वहाँ बाधित होती है; जहाँ कवि अप्रचलित शब्दों का प्रयोग करता है, अपनी विद्वत्ता दर्शाने के लिए प्रसंग-गर्भत्व का आवश्यकता से अधिक सहारा लेता है, पाठक को चैंकाने के लिए अटपटी अभिव्यंजना का प्रयोग करता है, जनबूझकर काव्य-शास्त्रीय बौद्धिक चमत्कारों के भार से अपनी रचना को लाद देता है। कल्पना, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक, लक्षणा-व्यंजना आदि गुण जब कविता में सहज ही अवतरित होते हैं तो वे प्रभावोत्पादक सिद्ध होते हैं। अन्यथा आरोपित; बाहर से थोपे हुए। ऐसा कविता-कर्म कभी-कभी तो हासास्पद बन जाता है। अस्तु। कविता की श्रेष्ठता का मापदंड उसका कथ्य, उसकी अन्तर्वस्तु, उसमें अभिव्यक्त भाव-विचार माना जाना चाहिए। व्यक्ति और समाज के मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखना रचनाकार का धर्म है। इसका अर्थ यह नहीं कि कलात्मक मूल्यों के महत्त्व को कम किया जा रहा है या उनकी अवहेलना की जा रही है। प्रश्न प्राथमिकता का है। वरीयता तो कथ्य को ही देनी होगी। चाहे वह किसी भी रस की कविता हो। सफल व सार्थक कविता वही है जिसमें उत्कृष्ट भाव, श्रेष्ठ विचार, उदात्त कल्पनाएँ और अभिव्यंजना कौशल हो। कविता की भाषा और शिल्प-सौन्दर्य काव्य-भाषा के अनेक रूप होते हैं। जन-सामान्य के लिए लिखी जानेवाली कविता की भाषा भी जन-भाषा होगी। सूक्ष्म भावों, गूढ़ विचारों और विराट् कल्पनाओं को अभिव्यक्त करनेवाली भाषा जन-भाषा नहीं हो सकती। यहाँ रचनाकार शब्द-शक्तियों एवं बिम्बों-प्रतीकों का भी प्रश्रय लेता है। तत्सम शब्दों का प्रयोग क्लिष्टता नहीं है। जन-साधारण को अधिक भाषा ज्ञान नहीं होता; किन्तु शिक्षित समाज से तो कवि यह अपेक्षा रखता है कि वह परिष्कृत भाषा-सौन्दर्य को समझेगा। हाँ, अप्रचलित शब्दों का प्रयोग अवश्य सम्प्रेषण में बाधक होता है। विषयानुसार भी भाषा का रूप-परिवर्तन होता है। हास्य-रस की कविताओं की जो भाषा होती है; वह दार्शनिक अथवा प्रेम- कविताओं की नहीं। ओजस्वी कविताओं में सरल शब्दावली और अभिधा की प्रधानता रहती है। वस्तुतः भाषा क्लिष्ट व दुरूह नहीं होती; दुरूहता अक़्सर अभिव्यक्ति में होती है। कुछ शब्द ऐसे होते हैं जो आपके लिए क्लिष्ट हो सकते हैं; पर अन्यों के लिए नहीं। आज ऐसी जटिल कविताएँ लिखी जा रही हैं; जिनमें शब्द तो एक भी कठिन या अप्रचलित नहीं होता; किन्तु उनका कथन इतना अटपटा और अद्भुत होता है कि पाठक समझ ही नही पाता कि क्या कहा गया है! गद्यात्मकता भी उसमें अत्यधिक पायी जाती है। ऐसी कविताएँ कविता का आभास मात्र देती हैं। कविता की लेकप्रियता कम हो जाने का एक कारण यह भी है। ऐसी रचनाओं का अस्तित्व एक दिन स्वतः समाप्त हो जाएगा। कविता रची जाती है; अतः उसके संदर्भ में शिल्प का महत्व कोई कम नहीं। माना, बात (कथन) बुनियादी वस्तु है; किन्तु बात किस ढंग से कही गयी; यह भी विशेष है। कवि सौन्दर्य-तत्त्वों का ज्ञाता होता है। वह अपनी अभिव्यक्ति से पाठकों-श्रोताओं को आनन्दित करता है। सफल-सार्थक कविता के लिए यह गुण अनिवार्य है। ——–कवि महेंद्र भटनागर आभार : साहित्य शिल्पी मुक्तक मुक्तकशब्दकाअर्थहै‘अपने आपमेंसम्पूर्ण‘ अथवा‘अन्यनिरपेक्षवस्तु‘ होना. अत: मुक्तककाव्यकीवहविधाहैजिसमेंकथाका कोईपूर्वापरसंबंधनहींहोता. प्रत्येकछंदअपने आपमेंपूर्णत: स्वतंत्रऔरसम्पूर्णअर्थदेने वालाहोताहै. संस्कृतकाव्यपरम्परामेंमुक्तकशब्दसर्वप्रथमआनंदवर्धननेप्रस्तुतकिया. ऐसानहींमाना जासकताकिकाव्यकीइसदिशाकाज्ञान उनसेपूर्वकिसीकोनहींथा. आचार्यदण्डी मुक्तकनामसेनसहीपरअनिबद्धकाव्यके रूपमेंइससेपरिचितथे. ‘अग्निपुराण‘ मेंमुक्तककोपरिभाषितकरते हुएकहागयाकि: ”मुक्तकंश्लोक एवैकश्चमत्कारक्षम: सताम्” अर्थातचमत्कारकीक्षमतारखनेवाले एकहीश्लोककोमुक्तककहतेहैं. राजशेखर नेभीमुक्तकनामसेहीचर्चाकीहै. आनंदवर्धननेरसकोमहत्त्वप्रदानकरतेहुए मुक्तककेसंबंधमेंकहाकि: ”तत्रमुक्तकेषु रसबन्धाभिनिवेशिन: कवे: तदाश्रयमौचित्यम्” अर्थात्मुक्तकोंमेंरसका अभिनिवेशयाप्रतिष्ठाहीउसकेबन्धकीव्यवस्थापिकाहैऔरकविद्वाराउसीकाआश्रयलेनाऔचित्य है. हेमचंद्राचार्यनेमुक्तकशब्दकेस्थानपर मुक्तकादिशब्दकाप्रयोगकिया. उन्होंनेउसकालक्षण दण्डीकीपरम्परामेंदेतेहुएकहाकिजो अनिबद्धहों, वेमुक्तादिहैं. आधुनिकयुगमेंहिन्दीकेआचार्यरामचंद्रशुक्लनेमुक्तकपरविचारकिया. उनकेअनुसार: मुक्तकमेंप्रबंधकेसमानरस कीधारानहींरहती, जिसमेंकथा–प्रसंगकीपरिस्थिति मेंअपनेकोभूलाहुआपाठकमग्नहो जाताहैऔरहृदयमेंएकस्थायीप्रभाव ग्रहणकरताहै. इसमेंतोरसकेऐसेछींटे पड़तेहैं, जिनमेंहृदय–कलिकाथोड़ीदेरकेलिए खिलउठतीहै. यदिप्रबंधएकविस्तृतवनस्थलीहै, तोमुक्तकएकचुनाहुआगुलदस्ताहै. इसीसे यहसमाजोंकेलिएअधिकउपयुक्तहोताहै. इसमेंउत्तरोत्तरदृश्योंद्वारासंगठितपूर्णजीवनया उसकेकिसीपूर्णअंगकाप्रदर्शननहींहोता, बल्कि एकरमणीयखण्ड–दृश्यइसप्रकारसहसासामने लादियाजाताहैकिपाठकयाश्रोताकुछ क्षणोंकेलिएमंत्रमुग्धसाहोजाताहै. इसकेलिएकविकोमनोरमवस्तुओंऔरव्यापारों काएकछोटास्तवककल्पितकरकेउन्हेंअत्यंतसंक्षिप्तऔरसशक्तभाषामेंप्रदर्शितकरनापड़ताहै. आचार्यशुक्लनेअन्यत्रमुक्तककेलिएभाषाकी समासशक्तिऔरकल्पनाकीसमाहारशक्तिको आवश्यकबतायाथा. गोविंदत्रिगुणायतनेउसीसे प्रभावितहोकरनिम्नपरिभाषाप्रस्तुतकी: मेरी समझमेंमुक्तकउसरचनाकोकहतेहैं जिसमेंप्रबन्धत्वकाअभावहोतेहुएभीकवि अपनीकल्पनाकीसमाहारशक्तिऔरभाषाकी समाजशक्तिकेसहारेकिसीएकरमणीयदृश्य, परिस्थिति, घटनायावस्तुकाऐसाचित्रात्मकएवंभावपूर्ण वर्णनप्रस्तुतकरताहै, जिससेपाठकोंकोप्रबंधजैसाआनंदआनेलगताहै. वस्तुत: यहपरिभाषात्रुटिपूर्ण है. प्रबंधजैसाआनंदकहनाउचितनहींहै. ऐसेमेंमुक्तककीपरिभाषानिम्नभीबताई गयीहै: मुक्तककाव्यकीवहविधाहै जिसमेंकथाकापूर्वापरसंबंधनहोतेहुए भीत्वरितगतिसेसाधारणीकरणकरनेकीक्षमता होतीहै. मेरीदृष्टिमेंआचार्यरामचंद्रशुक्ल कीपरिभाषापर्याप्तहै. अंतत: उसेचुना हुआगुलदस्ताकीकहाजासकताहै. भास्कर रौशन गद्यकाव्य गद्यकाव्यसाहित्यकीआधुनिकविधाहै. गद्यमेंइसप्रकारभावोंकोअभिव्यक्त करनाकिवहकाव्यकेनिकटपहुँचजाये गद्यकाव्यअथवागद्यगीतकहलाताहै. संस्कृतसाहित्य मेंकथाऔरआख्यायिकाकेलिएहीप्रयुक्त होताथा. दण्डीनेतीनप्रकारकेकाव्य बतायेथे: 1. गद्यकाव्य 2. पद्यकाव्य 3. मिश्रितकाव्य गद्यकाव्यकाप्रयोग आख्यायिकाआदिकेलिएकिया. अंग्रेजीसाहित्यमें भी‘पोयटिकप्रोज‘ केनामसेयहनाममिलता है, किन्तुवहाँभीइसविधाकाअपेक्षितविकास नहींहुआ. आधुनिककालमेंहिन्दीमेंगद्यकाव्यप्रचुरमात्रामेंलिखागया, इसलिएइसेहिन्दीकी विधाहीकहाजासकताहै. हिन्दीके साहित्यकारोंनेकेवलगद्यकाव्यकीरचनाहीनहीं कीअपितुउसकेस्वरूपकोस्पष्टकरतेहुए उसकीव्याख्याभीकी. रामकृष्णदासनेश्रीमतीविद्याभार्गवद्वारारचित‘श्रद्धांजलि‘ कीभूमिकामेंगद्यकाव्य कोस्पष्टकरतेहुएलिखाकि: हिन्दीमें कविताऔरकाव्यशब्दपद्यमयरचनाओंकेलिए हीरूढ़होगएहैं. यद्यपिवस्तुत: कोई भीरचनाजोरमणीयहो, रसात्मकहो, काव्यया कविताहै. इसीलिएगद्यमेंरचनाकेलिए हमेंगद्यगीतयागद्यकाव्यकाप्रयोगकरनापड़ता है. रामकुमारवर्माने‘शबनम‘ कीभूमिकामेंगद्यकाव्य परविचारकियाहै. उन्होंनेगद्यगीतका प्रयोगकरतेहुएकहाकि: गद्यगीतसाहित्यकी भावानात्मकअभिव्यक्तिहै. इसमेंकल्पनाऔरअनुभूतिकाव्य उपकरणोंसेस्वतंत्रहोकरमानव–जीवनकेरहस्यों कोस्पष्टकरनेकेलिएउपयुक्तऔरकोमल वाक्योंकीधारामेंप्रवाहितहोतीहै. जगन्नाथप्रसादशर्मा नेभीगद्यकाव्यपरविचारकियाहै. ‘नागरीप्रचारिणीहीरकजयंतीग्रंथ‘ मेंसंकलितनिबंधमें उन्होंनेगद्यकाव्यकीविस्तृतव्याख्याकी. वेउसके स्वरूपपरविचारकरतेहुएलिखतेहैंकि: जोगद्यकविताकीतरहरमणीय, सरस, अनुभूतिमूलकऔर ध्वनिप्रधानहो, साथहीसाथउसकीअभिव्यंजनाप्रणालीअलंकृतएवंचमत्कारीहो, उसेगद्यकाव्यकहनाचाहिए. इसमें भीइष्टकथनकेलिएकविताकीभाँतिन्यूनातिन्यून अथवाकेवलआवश्यकपदावलीकाप्रयोगकियाजाना चाहिए. अग्निपुराणके‘संक्षेपातवाक्यमिष्टार्थव्यवच्छिन्नापदावली‘ केअनुसारसंक्षिप्तकाव्यविधानकाविचारइसमेंभी रहनाचाहिए. कविताकेसमस्तगुण–धर्मोंके अनुरूपसंगठितहोनेकेकारणगद्यकाव्यमेंभी प्रतीकभावनाअथवाआध्यात्मिकसंकेतकेलिएआग्रहदिखाईपड़ताहै. इसमेंभीभावापन्नताकावहीरूप मिलताहैजिसकाआधुनिकप्रगीतात्मकरचनाओंमेंआधिक्य रहताहै. यदिमूलप्रकृतिकाविचारकिया जाएतोउसकीसंगतिशुद्धप्रगीतात्मककविताके साथअच्छीतरहबैठतीहैक्योंकिइसकेसाध्य औरसाधनउसीकोटिकेहोतेहैं. कविताकी भाँतिइसमेंभीकारणरूपसेप्रतिभाही कामकरतीहै. महादेवीवर्मानेभीगद्यकाव्यपरविचारकिया. उन्होंनेश्रीकेदारद्वारारचित‘अधखिलेफूल‘ कीभूमिकामेंकहाकि: पद्यकाभावउसके संगीतकीओटमेंछिपजाए, परन्तुगद्यके पासउसेछिपानेकेसाधनकमहैं. रजनीगंधा कीक्षुद्र, छिपीहुईकलियोंकेसमानएकाएकखिलकर जबहमारेनित्यपरिचयकेकारणशब्दहृदय कोभाव–सौरभसेसराबोरकरदेतेहैंतब हमचौंकउठतेहैं. इसीमेंगद्यकाव्यका सौन्दर्यनिहितहै. इसकेअतिरिक्तगद्यकीभाषा बन्धनहीनतामेंबद्धचित्रमयपरिचितऔरस्वाभाविकहोने परभीहृदयकोछूनेमेंअसमर्थहोसकती है. कारणहमकवित्वमयगद्यकोअपने उस प्रियमित्रकेसमानपढ़नाचाहतेहैं, जिसकीभाषा बोलनेकेढंगविशेषऔरविचारोंसेहमपहले सेहीपरिचितहोंगे. उसकाअध्ययनहमेंइष्ट नहींहोता. आचार्यहजारीप्रसादद्विवेदीनेभीगद्यकाव्य केस्वरूपपरविचारकियाहै. उन्होंने‘हिन्दीसाहित्य‘ मेंइसविधा कोस्पष्टकरतेहुएकहाकि: इसप्रकारकेगद्यमेंभावावेगकेकारणएक प्रकारकीलययुक्तझंकारहोतीहैजोसहृदय पाठककेचित्तकोभावग्रहणकेलिएअनुकूल बनातीहै. गोविंदत्रिगुणायतकहतेहैंकि: मैं हिन्दीगद्यकाव्यकोकिसीव्यक्तयारहस्यमयआधार सेअभिव्यक्तहोनेवालीकविकेभावजगत कीकल्पना–कलितनिर्बाधगद्यात्मकअभिव्यक्तिमानताहूँ. अंतत: कहाजासकताहैकिगद्यकाव्यसाहित्यकी वहआधुनिकविधाहैजिसमेंसाहित्यकारकेहृदय कीतीव्रअनुभूतिवविचार–वीथिकल्पनाएवं स्वप्नसेझंकृतहोकरध्वन्यात्मकअभिव्यंजना मेंछंदरहित होकरअभिव्यक्तिपातीहै. भास्कररौशन दोहा गाथा सनातन (दोहा-गोष्ठी : १)संस्कृत पाली प्राकृत, डिंगल औ‘ अपभ्रंश. दोहा दे आलोक तो, उगे सुनहरी भोर. सुनिए दोहा-पुरी
में, संगीता की तान. समय क्षेत्र भाषा करें, परिवर्तन रविकान्त. सीख-सिखाना जिन्दगी, इसे बंदगी
मान. शीतल करता हर तपन, दोहा धरकर धीर. दिव्य दिवाकर सा अमर, दोहा अनुपम छंद. पढ़े-लिखे को भूलकर, होते तनहा अज्ञ. अंग्रेजी के मोह में, हैं हिन्दी से दूर. जगभाषा हिन्दी पढ़ें, सारे पश्चिम देश. सरल बहुत है कठिन भी, दोहा कहना मीत. स्रोत दिवाकर का नहीं,
जैसे कोई ज्ञात. दोहा-प्रेमियों की रूचि और प्रतिक्रिया हेतु आभार। दोहा रचना सम्बन्धीप्रश्नों के अभाव में हम दोहा के एतिहासिक योगदान की चर्चा करेंगे।इन्द्रप्रस्थ नरेश पृथ्वीराज चौहान अभूतपूर्व पराक्रम, श्रेष्ठ सैन्यबल, उत्तम आयुध तथा कुशल रणनीति के बाद भी मो॰ गोरी के हाथों पराजित हुए। उनकीआँखें फोड़कर उन्हें कारागार में डाल दिया गया। उनके बालसखा निपुण दोहाकारचंदबरदाई (संवत् १२०५-१२४८) ने अपने मित्र को जिल्लत की जिंदगी से आजाद कराने के लिए दोहा का सहारा लिया। उसने गोरी से सम्राट की शब्द-भेदीबाणकला की प्रशंसा कर परीक्षा किए जाने को उकसाया। परीक्षण के समय बंदीसम्राट के कानों में समीप खड़े कवि मित्र द्वारा कहा गया दोहा पढ़ा, दोहेने गजनी के सुल्तान के आसन की ऊंचाई तथा दूरी पल भर में बतादी. असहायदिल्लीपति ने दोहा हृदयंगम किया और लक्ष्य साध कर तीर छोड़ दिया जो सुल्तानका कंठ चीर गया। सत्तासीन सम्राट हार गया पर दोहा ने अंधे बंदी को अपनीहार को जीत में बदलने का अवसर दिया, वह कालजयी दोहा है- चार बांस चौबीस गज,
अंगुल अष्ट प्रमाण. इतिहास गढ़ने, मोड़ने, बदलने तथा रचने में सिद्ध दोहा की जन्म कुंडलीमहाकवि कालिदास (ई. पू. ३००) के विकेमोर्वशीयम के चतुर्थांक में है. मइँ जाणिआँ मिअलोअणी, निसअणु कोइ हरेइ. शृंगार रसावतार महाकवि जयदेव की निम्न द्विपदी की तरह की रचनाओं ने भीसंभवतः वर्तमान दोहा के जन्म की पृष्ठभूमि तैयार करने में योगदान किया हो. किं करिष्यति किं वदष्यति, सा चिरं विरहेऽण. हिन्दी साहित्य के आदिकाल (७००ई. – १४००ई..) में नाथ सम्प्रदाय के ८४ सिद्ध संतों ने विपुल साहित्य का सृजन किया. सिद्धाचार्य सरोजवज्र (स्वयंभू / सरहपा / सरह वि. सं. ६९०) रचित दोहाकोश एवं अन्य ३९ ग्रंथों नेदोहा को प्रतिष्ठित किया। जहि मन पवन न संचरई, रवि-ससि नांहि पवेस. दोहा की यात्रा भाषा के बदलते रूप की यात्रा है. देवसेन के इस दोहे में सतासत की विवेचना है- जो जिण सासण भा भाषीयउ, सो मई कहियउ सारु. चलते-चलते ८ वीं सदी के उत्तरार्ध का वह दोहा देखें जिसमें राजस्थानीवीरांगना युद्ध पर गए अपने प्रीतम को दोहा-दूत से संदेश भेजती है कि वहवायदे के अनुसार श्रावण की पहली तीज पर न आया तो प्रिया को जीवित नहींपायेगा. पिउ
चित्तोड़ न आविउ, सावण पैली तीज. संदेसो पिण साहिबा, पाछो फिरिय न देह. चलिए, आज की दोहा वार्ता को यहीं विश्राम दिया जाय इस निवेदन के साथ किआपके अंचल एवं आंचलिक भाषा में जो रोचक प्रसंग दोहे में हों उन्हें खोज कररखिये, कभी उन की भी चर्चा होगी। अभ्यास के लिए दोहों को गुनगुनाइए। राम चरित मानस अधिकतर घरों में होगा, शालेय छात्रों की पाठ्य पुस्तकों में भीदोहे हैं। दोहों की पैरोडी बनाकर भी अभ्यास कर सकते हैं। कुछ चलचित्रों (फिल्मों) में भी दोहे गाये गए हैं। बार-बार गुनगुनाने से दोहा की लय, गतिएवं यति को साध सकेंगे जिनके बारे में आगे पढेंगे। — आचार्य संजीव ‘सलिल‘ पाठ १ : दोहा गाथा सनातनदोहा गाथा सनातन, शारद कृपा
पुनीत. हिन्दीही नहीं सकल विश्व के इतिहास में केवल दोहा सबसे पुराना छंद है जिसने एकनहीं अनेक बार युद्धों को रोका है, नारी के मान-मर्यादा की रक्षा की है, भटके हुओं को रास्ता दिखाया है, देश की रक्षा की है, हिम्मत हार चुके राजाको लड़ने और जीतने का हौसला दिया है, बीमारियों से बचने की राह सुझाई हैऔर जिंदगी को सही तरीके से जीने का तरीका ही नहीं बताया भगवान के दर्शनकराने में भी सहायक हुआ है. आप इसे दोहे की अतिरेकी प्रशंसा मत मानिये. हम इस दोहा गोष्ठी में न केवल कालजयी दोहाकारों और उनके दोहों से मिलेंगेअपितु दोहे की युग परिवर्तनकारी भूमिका के साक्षी बनकर दोहा लिखना भीसीखेंगे. अमरकंटकीनर्मदा, दोहा
अविरलधार. आपयह जानकर चकित होंगे कि जाने-अनजाने आप दैनिक जीवन में कई बार दोहे कहते-सुनते हैं. आप में से हर एक को कई दोहे याद हैं. हम दोहे केरचना-विधान पर बात करने के पहले दोहा-लेखन की कच्ची सामग्री अर्थात हिन्दीके स्वर-व्यंजन, मात्रा के प्रकार तथा मात्रा गिनने का तरीका, गण आदि कीजानकारी को ताजा करेंगे. बीच-बीच में प्रसंगानुसार कुछ नए-पुराने दोहेपढ़कर आप ख़ुद दोहों से तादात्म्य अनुभव करेंगे. कल का कल से आज ही, कलरव सा संवाद. (कल = बीता समय, आगामी समय, शान्ति, यंत्र) भाषा : चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप. भाषावह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैंअथवा अन्यों के भाव और विचार गृहण कर पाते हैं. यह आदान-प्रदान वाणी केमाध्यम से (मौखिक) या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है. निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द व्याकरण ( ग्रामर ) – व्याकरण ( वि + आ + करण ) का अर्थ भली-भांति समझना है. व्याकरण भाषा केशुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है. भाषा केसमुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) केआकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि , शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों केभेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स)अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेष्ण को जानना आवश्यक है. वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार. वर्ण / अक्षर : वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स)तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं. अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण. स्वर ( वोवेल्स ) : स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है. स्वरके उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती. यथा – अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:. स्वर के दो प्रकार १. हृस्व ( अ, इ, उ, ऋ ) तथा दीर्घ ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं. अ, इ,
उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान व्यंजन (कांसोनेंट्स) : व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते.व्यंजनों के चार प्रकार १. स्पर्श (क वर्ग – क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग –च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग – ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (पवर्ग – प,फ, ब, भ, म) २. अन्तस्थ (य वर्ग – य, र, ल, व्, श), ३. (उष्म –श, ष, स ह) तथा ४. (संयुक्त – क्ष, त्र, ज्ञ) हैं. अनुस्वार (अं) तथाविसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं. भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते
भाव. शब्द : अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ. अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है. यहभाषा का मूल तत्व है. शब्द के १. अर्थ की दृष्टि से : सार्थक (जिनसे अर्थज्ञात हो यथा – कलम, कविता आदि) एवं निरर्थक (जिनसे किसी अर्थ की प्रतीतिन हो यथा – अगड़म बगड़म आदि), २. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से : रूढ़ (स्वतंत्र शब्द – यथा भारत, युवा, आया आदि), यौगिक (दो या अधिक शब्दों सेमिलकर बने शब्द जो पृथक किए जा सकें यथा – गणवेश, छात्रावास, घोडागाडीआदि) एवं योगरूढ़ (जो दो शब्दों के मेल से बनते हैं पर किसी अन्य अर्थ का बोध कराते हैं यथा – दश + आनन = दशानन = रावण, चार + पाई = चारपाई = खाटआदि), ३. स्रोत या व्युत्पत्ति के आधार पर तत्सम (मूलतः संस्कृत शब्द जोहिन्दी में यथावत प्रयोग होते हैं यथा – अम्बुज, उत्कर्ष आदि), तद्भव (संस्कृत से उद्भूत शब्द जिनका परिवर्तित रूप हिन्दी में प्रयोग किया जाताहै यथा – निद्रा से नींद, छिद्र से छेद, अर्ध से आधा, अग्नि से आग आदि)अनुकरण वाचक (विविध ध्वनियों के आधार पर कल्पित शब्द यथा – घोडे की आवाजसे हिनहिनाना, बिल्ली के बोलने से म्याऊँ आदि), देशज (आदिवासियों अथवा प्रांतीय भाषाओँ से लिए गए शब्द जिनकी उत्पत्ति का स्रोत अज्ञात है यथा –खिड़की, कुल्हड़ आदि), विदेशी शब्द ( संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओँ से लिएगए शब्द जो हिन्दी में जैसे के तैसे प्रयोग होते हैं यथा – अरबी से –कानून, फकीर, औरत आदि, अंग्रेजी से – स्टेशन, स्कूल, ऑफिस आदि), ४. प्रयोगके आधार पर विकारी (वे शब्द जिनमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण केरूप में प्रयोग किए जाने पर लिंग, वचन एवं कारक के आधार पर परिवर्तन होताहै यथा – लड़का लड़के लड़कों लड़कपन, अच्छा अच्छे अच्छी अच्छाइयां आदि), अविकारी (वे शब्द जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता. इन्हें अव्ययकहते हैं. इनके प्रकार क्रिया विशेषण, सम्बन्ध सूचक, समुच्चय बोधक तथाविस्मयादि बोधक हैं. यथा – यहाँ, कहाँ, जब, तब, अवश्य, कम, बहुत, सामने, किंतु, आहा, अरे आदि) भेद किए गए हैं. इनके बारे में विस्तार से जानने केलिए व्याकरण की किताब देखें. हमारा उद्देश्य केवल उतनी जानकारी को ताजाकरना है जो दोहा लेखन के लिए जरूरी है. नदियों से जल
ग्रहणकर, सागर करे किलोल. इस पाठ को समाप्त करने के पूर्व श्रीमद्भागवत की एक द्विपदी पढिये जिसे वर्तमान दोहा का पूर्वज कहा जा सकता है – नाहं वसामि बैकुंठे,
योगिनां हृदये न च . अर्थात- इसपाठ के समापन के पूर्व कुछ पारंपरिक दोहे पढिये जो लोकोक्ति की तरह जन मनमें इस तरह बस गए की उनके रचनाकार ही विस्मृत हो गए. पाठकों को जानकारी होतो बताएं. आप अपने अंचल में प्रचलित दोहे उनके रचनाकारों की जानकारी सहितभेजें. सरसुती के भंडार की, बड़ी अपूरब बात. जो तो को काँटा बुवै,
ताहि बॉय तू फूल. होनी तो होकर रहे, अनहोनी ना होय. समय बिताने के लिए, करना है कुछ काम. जैसी जब भवितव्यता, तैसी बने सहाय. पाठक इन दोहों में समय के साथ हिन्दी के बदलते रूप से भी परिचित हो सकेंगे. अगले पाठ में हम दोहों के उद्भव, विशष्ट तथा तत्वों की चर्चाकरेंगे. दोहा गोष्ठी 2 : मैं दोहा हूँ—-इससे पहले 3. पाठ 2. ललित छंद दोहा अमर दोहा मित्रो, मैं दोहा हूँ आप सब हैं मेरा परिवार. दोहा गोष्ठी २ में उन सबका अभिनंदन जिन्होंने दोहा लेखन का प्रयास किया है। उन्हें समर्पित है एक दोहा- करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान. दोहा है इतिहास: दसवीं सदी में पवन कवि ने हरिवंश पुराण में ‘कउवों के अंत में ‘दत्ता‘ नामक जिस छंद का प्रयोग किया है वह दोहा ही है. जइण रमिय बहुतेण सहु, परिसेसिय बहुगब्बु. कोइण कासु विसूहई, करइण केवि हरेइ. वृत्थ अहुष्ठः देवली, बाल हणा ही पवेसु. कहे सोरठा दुःख कथा: सौरठ (सौराष्ट्र गुजरात) की सती सोनल (राणक) का कालजयी आख्यान को पूरीमार्मिकता के साथ गाकर दोहा लोक मानस में अम्र हो गया। कथा यह कि कालरी केदेवरा राजपूत की अपूर्व सुन्दरी कन्या सोनल अणहिल्ल्पुर पाटण नरेश जयसिंह (संवत ११४२-११९९) की वाग्दत्ता थी। जयसिंह को मालवा पर आक्रमण में उलझापाकर उसके प्रतिद्वंदी गिरनार नरेश रानवघण खंगार ने पाटण पर हमला कर सोनलका अपहरण कर उससे बलपूर्वक विवाह कर लिया. मर्माहत जयसिंह ने बार-बारखंगार पर हमले किए पर उसे हरा नहीं सका। अंततः खंगार के भांजों केविश्वासघात के कारन वह अपने दो लड़कों सहित पकड़ा गया। जयसिंह ने तीनों कोमरवा दिया। यह जानकर जयसिंह के प्रलोभनों को ठुकराकर सोनल वधवाण के निकटभोगावा नदी के किनारे सती हो गयी। अनेक लोक गायक विगत ९०० वर्षों से सतीसोनल की कथा सोरठों (दोहा का जुड़वाँ छंद) में गाते आ रहे हैं- वढी तऊं वदवाण, वीसारतां न वीसारईं. दोहा की दुनिया से जुड़ने के लिए उत्सुक रचनाकारों को दोहा की विकासयात्रा की झलक दिखने का उद्देश्य यह है कि वे इस सच को जान और मान लें किहर काल कि अपनी भाषा होती है और आज के दोहाकार को आज की भाषा और शब्दउपयोग में लाना चाहिए। अब निम्न दोहों को पढ़कर आनंद लें- कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर. असन-बसन सुत नारि सुख, पापिह के घर होय. बांह छुड़ाकर जात हो, निबल जान के मोहि. पिय सांचो सिंगार तिय, सब झूठे सिंगार. अब रहीम मुस्किल पडी, गाढे दोऊ
काम. पाठ 2. ललित छंद दोहा अमर—-इससे पहले 2. दोहा गाथा सनातन (दोहा-गोष्ठी : १) ललित छंद दोहा अमर, भारत का सिरमौर. देववाणीसंस्कृत तथा लोकभाषा प्राकृत से हिन्दी को गीति काव्य का सारस्वत कोषविरासत में मिला। दोहा विश्ववाणी हिन्दी के काव्यकोश का सर्वाधिक मूल्यवानरत्न है दोहा का उद्गम संस्कृत से ही है। नारद रचित गीत मकरंद में कवि के गुण-धर्म वर्णित करती निम्न पंक्तियाँ वर्तमान दोहे के निकट हैं- शुचिर्दक्षः शान्तः सुजनः विनतः सूनृत्ततरः. अर्थात- नम्र निपुण सज्जन विनत, नीतिवान शुचि शांत. काव्य शास्त्र है पुरातन : काव्य शास्त्र चिर पुरातन, फिर भी नित्य नवीन. लगभग ३००० साल प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्र के अनुसार काव्य ऐसी रचना हैजिसके शब्दों-अर्थों में दोष कदापि न हों, गुण अवश्य हों चाहे अलंकारकहीं-कहीं पर भी न हों१। दिग्गज काव्याचार्यों ने काव्य को रमणीय अर्थमय२चित्त को लोकोत्तर आनंद देने में समर्थ३, रसमय वाक्य४, काव्य को शोभा तथा धर्म को अलंकार५, रीति (गुणानुकूल शब्द विन्यास/ छंद) को काव्य की आत्मा६, वक्रोक्ति को काव्य का जीवन७, ध्वनि को काव्य की आत्मा८, औचित्यपूर्ण रस-ध्वनिमय९, कहा है। काव्य (ग्रन्थ} या कविता (पद्य रचना) श्रोता या पाठक को अलौकिकभावलोक में ले जाकर जिस काव्यानंद की प्रतीति कराती हैं वह वस्तुतः शब्द, अर्थ, रस, अलंकार, रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति, वाग्वैदग्ध्य, तथा औचित्य कीसमन्वित-सम्मिलित अभिव्यक्ति है। दोहा उतम काव्य है : दोहा उत्तम काव्य है, देश-काल
पर्याय. आरम्भ में हर काव्य रचना‘दूहा‘ (दोहा) कही जाती थी१०। फिर संस्कृत के द्विपदीय श्लोकों के आधार पर केवल दो पंक्तियों की काव्य रचना‘दोहड़ा‘ कही गयी। कालांतर में संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश भाषाओं कीपूर्वपरता एवं युग्परकता में छंद शास्त्र के साथ-साथ दोहा भी पला-बढ़ा। दोहा छंद अनूप : जन-मन-रंजन, भव-बाधा-भंजन, यश-कीर्ति-मंडन, अशुभ विखंडन तथा सर्व शुभ सृजनमें दोहा का कोई सानी नहीं है। विश्व-वांग्मय का सर्वाधिकमारक-तारक-सुधारक छंद दोहा छंद शास्त्र की अद्भुत कलात्मक देन है११। नाना भाषा-बोलियाँ, नाना जनगण-भूप. दोग्ध्क दूहा
दूहरा, द्विपदिक दोहअ छंद. द्विपथा दोहयं दोहडा, द्विपदी दोहड़ नाम. दोहा मुक्तक छंद है : संस्कृत वांग्मय के अनुसार‘दोग्धि चित्तमिति दोग्धकम्‘ अर्थात जो श्रोता/पाठक के चित्त का दोहन करे वह दोग्धक (दोहा) है किंतुहिन्दी साहित्य का दोहा चित्त का ही नहीं वर्ण्य विषय के सार का भी दोहनकरने में समर्थ है१२. दोहा अपने अस्तित्व-काल के प्रारम्भ से ही लोक परम्परा और लोक मानस से संपृक्त रहा है१३. संस्कृत साहित्य में बिना पूर्ववर्ती या परवर्ती प्रसंग के एक ही छंद मेंपूर्ण अर्थ व चमत्कार प्रगट करनेवाले अनिबद्ध काव्य को मुक्तक कहा गया है-‘ मुक्तक श्लोक एवैकश्चमत्कारः क्षमः सतां‘. अभिनव गुप्त के शब्दों में‘मुक्ता मन्यते नालिंकित तस्य संज्ञायां कन. तेन स्वतंत्रया परिसमाप्त निराकांक्षार्थमपि, प्रबंधमध्यवर्ती मुक्तक मिनमुच्यते‘। हिन्दी गीति काव्य के अनुसार मुक्तक पूर्ववर्ती या परवर्ती छंद या प्रसंगके बिना चमत्कार या अर्थ की पूर्ण अभिव्यक्ति करनेवाला छंद है। मुक्तक काप्रयोग प्रबंध काव्य के मध्य में भी किया जा सकता है। रामचरित मानसमहाकाव्य में चौपाइयों के बीच-बीच में दोहा का प्रयोग मुक्तक छंद के रूपमें सर्व ज्ञात है। मुक्तक काव्य के दो भेद १. पाठ्य (एक भावः या अनुभूतिकी प्रधानता यथा कबीर के दोहे) तथा गेय (रागात्मकता प्रधान यथा तुलसी केदोहे) हैं। छंद : अक्षर क्रम संख्या तथा, गति-यति के अनुसार. छंद वह सांचा या ढांचा है जिसमें ढलने पर ही शब्द कविता कहलाते हैं। छंदकविता का व्याकरण तथा अविच्छेद्य अंग है। छंद का जन्म एक विशिष्ट क्रम में वर्ण या मात्राओं के नियोजन, गति (लय) तथा यति (विराम) से होता है। वर्णोंकी पूर्व निश्चित संख्या एवं क्रम, मात्र तथा गति-यति से सम्बद्ध विशिष्टनियोजित काव्य रचना छंद कहलाती है। दोहा : दोहा दो पंक्तियों (पदों) का मुक्तक काव्य है। प्रत्येक पद में २४मात्राएँ होती हैं। हर पद दो चरणों में विभजित रहता है। विषम (पहले, तीसरे) पद में तेरह तथा सम (दूसरे, चौथे) पद में ग्यारह कलाएँ (मात्राएँ)होना अनिवार्य है। दोहा और शेर : दोहा की अपने आप में पूर्ण एवं स्वतंत्र होने की प्रवृत्ति कालांतर में शे‘र के रूप में उर्दू काव्य में भिन्न भावः-भूमि में विकसित हुई। दोहा औरशे‘र दोनों में दो पंक्तियाँ होती हैं, किंतु शे‘र में चुलबुलापन होता हैतो दोहा में अर्थ गौरव१४। शेर बहर (उर्दू chhand) में कहे जातेहैं जबकि दोहा कहते समय हिन्दी के ‘गण‘ का ध्यान रखना होता है। शे‘रों कावज़्न (पदभार) भिन्न हो सकता है किंतु दोहा में हमेशा समान पदभार होता है।शे‘र में पद (पंक्ति या मिसरा) का विभाजन नहीं होता जबकि दोहा के दोनों पददो-दो चरणों में यति (विराम) द्वारा विभक्त होते हैं। हमने अब तक भाषा, व्याकरण, वर्ण, स्वर, व्यंजन, तथा शब्द को समझने के साथदोहा की उत्पत्ति लगभग ३००० वर्ष पूर्व संस्कृत, अपभ्रंश व् प्राकृत सेहोने तथा मुक्तक छंद की जानकारी ली। दोहा में दो पद, चार चरण तथा सम चरणों में १३-१३ और विषम चरणों में ११-११ मात्राएँ होना आवश्यक है। दोहा व शेरके साम्य एवं अन्तर को भी हमने समझा। अगले पाठ में हम छंद के अंगों, प्रकारों, मात्राओं तथा गण की चर्चा करेंगे। तब तक याद रखें- भाषा-सागर मथ मिला, गीतिकाव्य रस कोष. गीति काव्य रस गगन में, दोहा दिव्य दिनेश. गौ भाषा को दूह कर, कवि कर अमृत पान. var
sc_project=4059600; दोहा गोष्ठी ३ : दोहा सबका मीत हैदोहा सबका मीत है, सब दोहे के मीत. सुधि का संबल पा बनें, मानव से इन्सान. गुप्त चित्र निज रख सकूँ, निर्मल-उज्ज्वल नाथ. नए साल में आपको, मिले सफलता-हर्ष.
जन-वाणी हिन्दी बने, जग-वाणी हम धन्य. ‘सलिल‘ शीश ऊंचा
रखें, नहीं झुकाएँ माथ. दोहा गोष्ठी में दोहा रसिकों का स्वागत. काल करे सो आज कर, आज करे सो अब्ब. बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर. दोहे रचे कबीर ने, शब्द-शब्द है सत्य. रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय. दोहा संसार के राजपथ से जनपथ तक जिस दोहाकार के चरण चिह्न अमर तथा अमिटहैं वह हैं कबीर ( संवत १४५५ – संवत १५७५ )। कबीर के दोहे इतने सरल कीअनपढ़ इन्सान भी सरलता से बूझ ले, साथ ही इतने कठिन की दिग्गज से दिग्गजविद्वान् भी न समझ पाये। हिंदू कर्मकांड और मुस्लिम फिरकापरस्ती का निडरता से विरोध करने वाले कबीर निर्गुण भावधारा के गृहस्थ संत थे। कबीर वाणी कासंग्रह बीजक है जिसमें रमैनी, सबद और साखी हैं। मुगलसम्राट अकबर के पराक्रमी अभिभावक बैरम खान खानखाना के पुत्र अब्दुर्रहीमखानखाना उर्फ़ रहीम ( संवत १६१० – संवत १६८२) अरबी, फारसी, तुर्की, संस्कृत और हिन्दी के विद्वान, वीर योद्धा, दानवीर तथा राम-कृष्ण-शिव आदिके भक्त कवि थे। रहीम का नीति तथा शृंगार विषयक दोहे हिन्दी के सारस्वतकोष के रत्न हैं। बरवै नायिका भेद, नगर शोभा, मदनाष्टक, श्रृंगार सोरठा, खेट कौतुकं ( ज्योतिष-ग्रन्थ) तथा रहीम काव्य के रचियता रहीम की भाषा बृजएवं अवधी से प्रभावित है। रहीम का एक प्रसिद्ध दोहा देखिये- नैन सलोने अधर मधु, कहि रहीम घटि कौन? कबीर-रहीम आदि को भुलाने की सलाह हिन्द-युग्म के वार्षिकोत्सव में मुख्यअतिथि की आसंदी से श्री राजेन्द्र यादव द्वारा दी जा चुकी है किंतु… पूजा जी! छंद क्या है? पाठ २ में देखें. दोहा क्या है? यह बिना कुछ कहेशुरू से अब तक कहा जा रहा है। अगले किसी पाठ में परिभाषा यथास्थान दी
जायेगी। श्लोक संस्कृत काव्य में छंद का रूप है जो कथ्य के अनुसार कम याअधिक लम्बी, कम या ज्यादा पंक्तियों का होता है। इन तीनों में अन्तर यह हैकि छंदशास्त्र में वर्णित नियमों के अनुरूप पूर्व निर्धारित संख्या, क्रम, गति,
यति का पालन करते हुए की गयी काव्य रचना छंद है। दोहे की हर बात में, बात बात में बात. श्लोक से आशय किसी पद्यांश से होता है जो सामान्यतः किसी स्तोत्र (देव-स्तुति) का भाग होता है। श्लोक की पंक्ति संख्या तथा पंक्ति कीलम्बाई परिवर्तनशील होती है। तन्हाजी! ‘ग्री‘ के उच्चारण मेंलगनेवाला समय ‘कृ‘ के उच्चारण में लगनेवाले समय से दूना है इसलिए ग्रीष्मः = ग्रीष् 3 + म: २ +५ तथा कृष्ण: = कृष् २ + ण: २ = ४। हृदयं = ४, हृदयः =४, हृदय = ३। पाठ ३ में य पर बिंदी न होना टंकण-त्रुटि है। दोहा घणां पुराणां छंद: ११ वीं सदी के महाकवि कल्लोल की अमर कृति ‘ढोला-मारूर दोहा‘ में ‘दोहाघणां पुराणां छंद‘ कहकर दोहा को सराहा गया है। राजा नल के पुत्र ढोला तथापूंगलराज की पुत्री मारू की प्रेमकहानी को दोहा ने ही अमर कर दिया। सोरठियो दूहो भलो, भलि मरिवणि री बात. आतंकवादियों द्वारा कुछ लोगों को बंदी बना लिया जाय तो उनके संबंधीहाहाकार मचाने लगते हैं, प्रेस इतना दुष्प्रचार करने लगती है कि सरकारआतंकवादियों को कंधार पहुँचाने पर विवश हो जाती है। एक मंत्री की लड़की कोबंधक बना लिए जाने पर भी आतंकवादी छोड़े जाते हैं। मुम्बई बम विस्फोट केबाद भी रुदन करते चेहरे हजारों बार दिखानेवाली मीडिया ने पूरे देश कोभयभीत कर दिया। संस्कृत, प्राकृत तथाअपभ्रंश तीनों में दोहा कहनेवाले, ‘शब्दानुशासन‘ के रचयिता हेमचन्द्र रचितदोहा बताता है कि ऐसी परिस्थिति में कितना धैर्य रखना चाहिए। भल्ला हुआ जू मारिआ, बहिणि म्हारा कंतु. अर्थात –भला हुआ मारा गया, मेरा बहिन सुहाग. अम्हे थोवा रिउ बहुअ, कायर एंव भणन्ति. भाय न कायर भगोड़ा, सुख कम दुःख अधिकाय. गोष्ठी के अंत में :तेरा तुझको तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा- जग सारा अपना लिया, बिसरा
मुझको आज. दोहों में संजीव जी, छूटा मनु का नाम. दोहे की महिमा पढी, हुआ ह्रदय को हर्ष. दिल गदगद है खुशी से, आँखों में मुस्कान. दोहा गाथा से बढ़ा, हिन्दयुग्म का मान. पिछड़ गयी तो क्या हुआ, सीमा आयीं आज. सलिल-धार सम बह रहा, दोहा गहरी धार. बिन सीमा होगी सलिल,
धारा बेपरवाह. देर हुई दरबार में, क्षमा करें महाराज. दोहा गाथा सनातन : 3- दोहा छंद अनूपनाना भाषा-बोलियाँ, नाना भूषा-रूप. “भाषा” मानव का अप्रतिम आविष्कार है। वैदिक काल से उद्गम होने वाली भाषाशिरोमणि संस्कृत, उत्तरीय कालों से गुज़रती हुई, सदियों पश्चात् आज तकपल्लवित-पुष्पित हो रही है। भाषा विचारों और भावनाओं को शब्दों मेंसाकारित करती है। संस्कृति वह बल है जो हमें एकसूत्रता में पिरोती है।भारतीय संस्कृति की नींव “संस्कृत” और उसकी उत्तराधिकारी हिन्दी ही है। “एकता” कृति में चरितार्थ होती है। कृति की नींव विचारों में होती है।विचारों का आकलन भाषा के बिना संभव नहीं. भाषा इतनी समृद्ध होनी चाहिए किगूढ, अमूर्त विचारों और संकल्पनाओं को सहजता से व्यक्त कर सकें. जितनेस्पष्ट विचार, उतनी सम्यक् कृति; और समाज में आचार-विचार की एकरुपता याने “एकता”। भाषा भाव विचार को, करे शब्द से व्यक्त. उच्चार : ध्वनि-तरंग आघात पर, आधारित उच्चार. ध्वनि विज्ञान सम्मत् शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र पर आधारित व्याकरण नियमोंने संस्कृत और हिन्दी को शब्द-उच्चार से उपजी ध्वनि-तरंगों के आघात सेमानस पर व्यापक प्रभाव करने में सक्षम बनाया है। मानव चेतना को जागृत करनेके लिए रचे गए काव्य में शब्दाक्षरों का सम्यक् विधान तथा शुद्ध उच्चारणअपरिहार्य है। सामूहिक संवाद का सर्वाधिक लोकप्रिय एवं सर्व सुलभ माध्यमभाषा में स्वर-व्यंजन के संयोग से अक्षर तथा अक्षरों के संयोजन से शब्द कीरचना होती है। मुख में ५ स्थानों (कंठ, तालू, मूर्धा, दंत तथा अधर) में सेप्रत्येक से ५-५ व्यंजन उच्चारित किए जाते हैं। सुप्त चेतना को करे, जागृत अक्षर नाद.
विशिष्ट (अन्तस्थ) स्वर व्यंजन : य् तालव्य, र् मूर्धन्य, ल् दंतव्य तथा व् ओष्ठव्य हैं। ऊष्म व्यंजन- श्तालव्य, ष् मूर्धन्य, स् दंत्वय तथा ह् कंठव्य हैं। स्वराश्रित व्यंजन:अनुस्वार ( ं ), अनुनासिक (चन्द्र बिंदी ँ) तथा विसर्ग (:) हैं। संयुक्त वर्ण :विविध व्यंजनों के संयोग से बने संयुक्त वर्ण श्र, क्ष, त्र, ज्ञ, क्त आदि का स्वतंत्र अस्तित्व मान्य नहीं है। मात्रा : उच्चारण नियम : उच्चारण हो शुद्ध तो, बढ़ता काव्य-प्रभाव. शब्दाक्षर के बोलने, में लगता जो वक्त. हृस्व, दीर्घ, प्लुत तीन हैं, मात्राएँ लो जान. १. हृस्व (लघु) स्वर : कम भार, मात्रा १ – अ, इ, उ, ऋ तथा चन्द्र बिन्दु वाले स्वर। २. दीर्घ (गुरु) स्वर : अधिक भार, मात्रा २ – आ, ई, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ, अं। ३. बिन्दुयुक्त स्वर तथा अनुस्वारयुक्त या विसर्ग युक्त वर्ण भी गुरु होता है। यथा – नंदन, दु:ख आदि. ४. संयुक्त वर्ण के पूर्व का लघु वर्ण दीर्घ तथा संयुक्त वर्ण लघु होता है। ५. प्लुत वर्ण : अति दीर्घ उच्चार, मात्रा ३ – ॐ, ग्वं आदि। वर्तमान हिन्दी में अप्रचलित। ६. पद्य रचनाओं में छंदों के पाद का अन्तिम हृस्व स्वर आवश्यकतानुसार गुरु माना जा सकता है। ७. शब्द के अंत में हलंतयुक्त अक्षर की एक मात्रा होगी। पूर्ववत् = पूर् २ + व् १ + व १ + त १ =५ ग्रीष्मः = ग्रीष् 3 + म: २ +५ कृष्ण: = कृष् २ + ण: २ =४ हृदय = १ + १ +२ = ४ अनुनासिक एवं अनुस्वार उच्चार : उक्त प्रत्येक वर्ग के अन्तिम वर्ण (ङ्, ञ्, ण्, न्, म्) का उच्चारण नासिका से होने का कारण ये ‘अनुनासिक‘ कहलाते हैं। १.अनुस्वार का उच्चारण उसके पश्चातवर्ती वर्ण (बाद वाले वर्ण) पर आधारितहोता है। अनुस्वार के बाद का वर्ण जिस वर्ग का हो, अनुस्वार का उच्चारण उसवर्ग का अनुनासिक होगा। यथा- १. अनुस्वार के बाद क वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चार ङ् होगा। क + ङ् + कड़ = कंकड़, श + ङ् + ख = शंख, ग + ङ् + गा = गंगा, ल + ङ् + घ् + य = लंघ्य २. अनुस्वार के बाद च वर्ग का व्यंजन हो तो, अनुस्वार का उच्चार ञ् होगा. प + ञ् + च = पञ्च = पंच वा + ञ् + छ + नी + य = वांछनीय म + ञ् + जु = मंजु सा + ञ् + झ = सांझ ३. अनुस्वार के बाद ट वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चारण ण् होता है. घ + ण् + टा = घंटा क + ण् + ठ = कंठ ड + ण् + डा = डंडा ४. अनुस्वार के बाद ‘त‘ वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चारण ‘न्‘ होता है. शा + न् + त = शांत प + न् + थ = पंथ न + न् + द = नंद स्क + न् + द = स्कंद ५ अनुस्वार के बाद ‘प‘ वर्ग का व्यंजन हो तो अनुस्वार का उच्चार ‘म्‘ होगा. च + म्+ पा = चंपा गु + म् + फि + त = गुंफित ल + म् + बा = लंबा कु + म् + भ = कुंभ आज का पाठ कुछ कठिन किंतु अति महत्वपूर्ण है। अगले पाठ में विशिष्ट व्यंजनके उच्चार नियम, पाद, चरण, गति, यति की चर्चा करेंगे। आज का गृह कार्य : गौ भाषा को दुह
रहा, दोहा कर पय-पान. दोहा गाथा सनातन-पाठ ४- शब्द ब्रह्म उच्चारपाठ ३ से आगे….. संवत्१६७७ में रचित ढोला मारू दा दूहा से उद्धृत माँ सरस्वती की वंदना के उक्तदोहे से इस पाठ का श्रीगणेश करते हुए विसर्ग का उच्चारण करने संबंधीनियमों की चर्चा करने के पूर्व यह जान लें कि विसर्ग स्वतंत्र व्यंजन नहींहै, वह स्वराश्रित है। विसर्ग का उच्चार विशिष्ट होने के कारण वह पूर्णतःशुद्ध नहीं लिखा जा सकता। विसर्ग उच्चार संबंधी नियम निम्नानुसार हैं- १. विसर्ग के पहले का स्वर व्यंजन ह्रस्व हो तो उच्चार त्वरित “ह” जैसा तथा दीर्घ हो तो त्वरित “हा” जैसा करें। २. विसर्ग के पूर्व “अ”, “आ”, “इ”, “उ”, “ए” “ऐ”, या “ओ” हो तो उच्चार क्रमशः “ह”, “हा”, “हि”, “हु”, “हि”, “हि” या “हो” करें। यथा केशवः =केशवह, बालाः = बालाह, मतिः = मतिहि, चक्षुः = चक्षुहु, भूमेः = भूमेहि, देवैः = देवैहि, भोः = भोहो आदि। ३. पंक्ति के मध्य में विसर्ग हो तो उच्चार आघात देकर “ह” जैसा करें। यथा- गुरुर्ब्रम्हा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः. ४. विसर्ग के बाद कठोर या अघोष व्यंजन हो तो उच्चार आघात देकर “ह” जैसा करें। यथा- प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः. ५. विसर्ग पश्चात् श, ष, स हो तो विसर्ग का उच्चार क्रमशः श्, ष्, स् करें। यथा- श्वेतः शंखः = श्वेतश्शंखः, गंधर्वाःषट् = गंधर्वाष्षट् तथा यज्ञशिष्टाशिनः संतो = यज्ञशिष्टाशिनस्संतो आदि। ६. “सः” के बाद “अ” आने पर दोनों मिलकर “सोऽ” हो जाते हैं। यथा- सः अस्ति = सोऽस्ति, सः अवदत् = सोऽवदत्. ७. “सः” के बाद “अ” के अलावा अन्य वर्ण हो तो “सः” का विसर्ग लुप्त हो जाता है। ८. विसर्ग के पूर्व अकार तथा बाद में स्वर या मृदु व्यंजन हो तो अकार व विसर्ग मिलकर “ओ” बनता है। यथा- पुत्रः गतः = पुत्रोगतः. ९. विसर्ग के पूर्व आकार तथा बाद में स्वर या मृदु व्यंजन हो तो विसर्ग लुप्त हो जाता है। यथा- असुराःनष्टा = असुरानष्टा . १०. विसर्ग के पूर्व “अ” या “आ” के अलावा अन्य स्वर तथा ुसके बाद स्वर या मृदु व्यंजन हो तो विसर्ग के स्थान पर “र” होगा। यथा- भानुःउदेति = भानुरुदेति, दैवैःदत्तम् = दैवैर्दतम्. ११. विसर्ग के पूर्व “अ” या “आ” को छोड़कर अन्य स्वर और उसके बाद “र” हो तो विसर्ग के पूर्व आनेवाला स्वर दीर्घ हो जाता है। यथा- ॠषिभिःरचितम् = ॠषिभी रचितम्, भानुःराधते = भानूराधते, शस्त्रैःरक्षितम् = शस्त्रै रक्षितम्। उच्चारचर्चा को यहाँ विराम देते हुए यह संकेत करना उचित होगा कि उच्चार नियमोंके आधार पर ही स्वर, व्यंजन, अक्षर व शब्द का मेल या संधि होकर नये शब्दबनते हैं। दोहाकार को उच्चार नियमों की जितनी जानकारी होगी वह उतनीनिपुणता से निर्धारित पदभार में शब्दों का प्रयोग कर अभिनव अर्थ कीप्रतीति करा सकेगा। उच्चार की आधारशिला पर हम दोहा का भवन खड़ा करेंगे। दोहा का आधार है, ध्वनियों का उच्चार शब्दाक्षर के मेल
से, प्रगटें अभिनव अर्थ गद्य, पद्य, पिंगल, व्याकरण और छंद गद्य पद्य अभिव्यक्ति
की, दो शैलियाँ सुरम्य भाषाद्वारा भावों और विचारों की अभिव्यक्ति की दो शैलियाँ गद्य तथा पद्य हैं।गद्य में वाक्यों का प्रयोग किया जाता है जिन पर नियंत्रण व्याकरण करताहै। पद्य में पद या छंद का प्रयोग किया जाता है जिस पर नियंत्रण पिंगलकरता है। कविता या पद्य को गद्य से अलग तथा व्यवस्थित करने के लियेकुछ नियम बनाये गये
हैं जिनका समुच्चय “पिंगल” कहलाता है। गद्य पर व्याकरणका नियंत्रण होता है किंतु पद्य पर व्याकरण के साथ पिंगल का भी नियंत्रणहोता है। छंद के अंग छंद की रचना में वर्ण, मात्रा, पाद, चरण, गति, यति, तुक तथा गण का विशेष योगदान होता है। वर्ण-किसी मूलध्वनि को व्यक्त करने हेतु प्रयुक्त चिन्हों को वर्ण या अक्षर कहते हैं, इन्हें और विभाजित नहीं किया जा सकता। मात्रा-वर्ण के उच्चारण में लगे कम या अधिक समय के आधार पर उन्हें ह्रस्व, लघु या छोटा तथा दीर्घ या बड़ा ऽ कहा जाता है। इनकी मात्राएँ क्रमशः एक व दो गिनी जाती हैं। पाद-पद, पाद तथा चरण इन शब्दों का प्रयोग कभी समान तथा कभी असमान अर्थ मेंहोता है। दोहा के संदर्भ में पद का अर्थ पंक्ति से है। दो पंक्तियों केकारण दोहा को दो पदी, द्विपदी, दोहयं, दोहड़ा, दूहड़ा, दोग्धक आदि कहागया। दोहा के हर पद में दो, इस तरह कुल चार चरण होते हैं। प्रथम व तृतीयचरण विषम तथा द्वितीय व चतुर्थ चरण सम कहलाते हैं। गति-छंद पठन के समय शब्द ध्वनियों के आरोह व अवरोह से उत्पन्न लय या प्रवाह कोगति कहते हैं। गति का अर्थ काव्य के प्रवाह से है। जल तरंगों केउठाव-गिराव की तरह शब्द की संरचना तथा भाव के अनुरूप ध्वनि के उतार चढ़ाव को गति या लय कहते हैं। हर छंद की लय अलग अलग होती है। एक छंद की लय सेअन्य छंद का पाठ नहीं किया जा सकता। यति-छंद पाठके समय पूर्व निर्धारित नियमित स्थलों पर ठहरने या रुकने के स्थान को यति कहा जाता है। दोहा के दोनों चरणों में १३ व ११ मात्राओं पर अनिवार्यतः यतिहोती है। नियमित यति के अलावा भाव या शब्दों की आवश्यकता अनुसार चजण केबीच में भी यति हो सकती है। अल्प या अर्ध विराम यति की सूचना देते है। तुक-दो या अनेक चरणों की समानता को तुक कहा जाता है। तुक से काव्य सौंदर्य वमधुरता में वृद्धि होती है। दोहा में सम चरण अर्थात् दूसरा व चौथा चरण समतुकांती होते हैं। गण-तीन वर्णों के समूह को गणकहते हैं। गण आठ प्रकार के हैं। गणों की मात्रा गणना के लिये निम्न सूत्रमें से गण के पहले अक्षर तथा उसके आगे के दो अक्षरों की मात्राएँ गिनीजाती हैं। गणसूत्र- यमाताराजभानसलगा। क्रम गण का नाम अक्षर मात्राएँ उदित उदय गिरि मंच पर, रघुवर बाल पतंग प्रथम पद विकसे संत सरोज सब, हरषे लोचन भ्रंग द्वितीय पद तृतीय विषम चरण यति चतुर्थ सम चरण यति दोहा गोष्ठी : ४ आया दोहा याददोहा सुहृदों का स्वजन, अक्षरअनहद नाद. दोहा दिल का आइना: दोहा दिल का आइना, कहता केवल सत्य. दोहा सत्य से आँख मिलाने का साहस रखता है. वह जीवन का सत्य पूरी निर्लिप्तता से कहता है- पुत्ते जाएँ कवन गुणु, अवगुणु कवणु
मुएण अर्थात् अवगुण कोई न चाहता, गुण की सबको चाह. प्रियतम की बेव फाई पर प्रेमिका और दूती का मार्मिक संवाद दोहा ही कह सकता है- सो न आवै, दुई घरु, कांइ अहोमुहू तुज्झु. हरप्रियतम बेवफा नहीं होता. सच्चे प्रेमियों के लिए बिछुड़ना की पीड़ा असह्यहोती है. जिस विरहणी की अंगुलियाँ पीया के आने के दिन गिन-गिन कर ही घिसीजा रहीं हैं उसका साथ कोई दे न दे दोहा तो देगा ही। जे महु दिणणा दिअहडा, दइऐ पवसंतेण. परेशानीप्रिय के जाने मात्र की हो तो उसका निदान हो सकता है पर इन प्रियतमा की शिकायत यह है कि प्रिय गए तो मारे गम के नींद गुम हो गयी और जब आए तो खुशीके कारण नींद गुम हो गयी। पिय संगमि कउ निद्दणइ, पियहो परक्खहो केंब? मिलन-विरहके साथ-साथ दोहा हास-परिहास में भी पीछे नहीं है. सारे जहां का दर्द हमारेजिगर में है अथवा मुल्ला जी दुबले क्यों? – शहर के अंदेशे से जैसीलोकोक्तियों का उद्गम शायद निम्न दोहा है जिसमें अपभ्रंश के दोहाकारसोमप्रभ सूरी की चिंता यह है कि दशानन के दस मुँह थे तो उसकी माता उन सबकोदूध कैसे पिलाती होगी? रावण जायउ जहि दिअहि, दहमुहु एकु सरीरु. दोहासबका साथ निभाता है, भले ही इंसान एक दूसरे का साथ छोड़ दे. बुंदेलखंड केपरम प्रतापी शूर-वीर भाइयों आल्हा-ऊदल के पराक्रम की अमर गाथा महाकविजगनिक रचित ‘आल्हा खंड‘ (संवत १२३०) का श्री गणेश दोहा से ही हुआ है- श्री गणेश गुरुपद सुमरि, ईस्ट देव मन लाय. इनदोनों वीरों और युद्ध के मैदान में उन्हें मारनेवाले दिल्लीपति पृथ्वीराजचौहान के प्रिय शस्त्र तलवार के प्रकारों का वर्णन दोहा उनकी मूठ के आधारपर करता है- पार्ज चौक चुंचुक गता, अमिया टोली फूल. कवि को नम्र प्रणाम: राजा-महाराजासे अधिक सम्मान साहित्यकार को देना दोहा का संस्कार है. परमल रासो मेंदोहा ने महाकवि चाँद बरदाई को दोहा ने सदर प्रणाम कर उनके योगदान को यादकिया- भारत किय भुव लोक मंह, गणतीय लक्ष प्रमान. बुन्देलखंडके प्रसिद्ध तीर्थ जटाशंकर में एक शिलालेख पर डिंगल भाषा में १३वी-१४वीसदी में गूजरों-गौदहों तथा काई को पराजित करनेवाले विश्वामित्र गोत्रीयविजयसिंह का प्रशस्ति गायन कर दोहा इतिहास के अज्ञात पृष्ठ को उद्घाटित कर रहा है- जो चित्तौडहि जुज्झी अउ, जिण दिल्ली दलु जित्त. दोहा-मित्रों यह दोहा गोष्ठी समाप्त करते हैं एक दोहा से जो कथा समापन के लिए ही लिखा गया है- कथा विसर्जन होत है, सुनहूँ वीर
हनुमान. दोहा गोष्ठी : 5 – शब्द-शब्द दोहा हुआदोहा लें मन में बसा, पाएंगे आनंद. दोहा कक्षा की घोषणा के साथ ७ पत्र प्रेषकों में से . श्री भूपेन्द्र राघवने मानकों के अनुसार २ दोहे लिखकर श्री गणेश किया. पाठ १ में हमने भाषा, व्याकरण, वरना, स्वर, व्यंजन एवं शब्द की चर्चा की. पाठ केअंत में पारंपरिक दोहे थे जिनका पाठांतर श्री रविकांत पाण्डेय ने भेजा.श्री दिवाकर मिश्र ने १ संस्कृत दोहा भेजकर पत्र-मंजूषा की गरिमा-वृद्धिकी. गोष्ठी १ के आरंभ में सभी सहभागियों के नाम कुछ दोहे थे जिन्हें आपने सराहा. सर्वमाननीय मनुजी, तपन जी, देवेन्द्र जी, शोभा जी, सुर जी, सीमा जी, एवं निखिल जी ने दोहे भेजकर अपनी सहभागिता से गोष्ठी को जीवंत बनाया. पाठ २ में हमने छंद, मुक्तक छंद, दोहा और शेर की बात की. पाठक पंचायत से सीमाजीएवं शोभा जी के अलावा सब गोल हो गए. वे भी जिन्होंने नियमित रहने का वादा किया था. विविध मनः स्थितियों के दोहों से पत्र-सत्र का समापन हुआ. गोष्ठी २ में कबीर, तुलसी, सूर, रत्नावली तथा रहीम के दोहे देते हुए पाठकों से उनकीपसंद के दोहे मांगे गए. पाठकों ने कबीर एवं रहीम के दोहे भेजे. पूजा जी नेदोहा, छंद व श्लोक में अन्तर जानना चाहा. पाठ ३उच्चार पर केंद्रित रहा. निस्संदेह यह पाठ सर्वाधिक तकनीकी तथा कुछ कठिनभी है. इसे न जानने पर दोहा ही नहीं किसी भी छांदस रचना का स्रजन कठिनहोगा. इसे जान लें तो छंद सिद्ध होने में देर नहीं लगेगी. आपसे एक दोहे कीमात्र गिनने के लिए कहा गया था किंतु किसी ने भी यह कष्ट नहीं किया. यदिआप सहयोग करते तो यह पता चलता की आपने कहाँ गलती की? तब उसे सुधार पानासम्भव होता. श्री विश्व दीपक ‘तनहा‘ ने मात्र संबन्धी एक प्रश्न कर इससत्र को उपयोगी बना दिया. गोष्ठी ३में नव वर्ष स्वागर के पश्चात् समयजयी दोहकारों कबीर एवं रहीम के दर्शन करहम धन्य हुए. पूजा जी व ‘तनहा जी‘ के प्रश्नों का उत्तर दिया गया. अंत मेंआपके दोहों को कुछ सुधार कर प्रस्तुत किया गया ताकि आप उनके मूल रूप कोदेखकर समझ सकें कि कहाँ परिवर्तन किया गया और उसका क्या प्रभाव हुआ. पत्र-सत्र से रंजना व मनु जी के अलावा सब गोल हो गए. आपको सबककरने के लिए अधिक समय मिले यह सोचकर शनिवार को गोष्ठी की जगह पाठ औरबुधवार को पाठ की जगह गोष्ठी की योजना बनाई गयी. गोष्ठी ४में कोई प्रश्न न होने के कारण दोहा की काव्यानुवाद क्षमता का परिचय देतेहुए अंत में एक लोकप्रिय दोहा दिया गया. पत्र-सत्र में आपकी शिकायत है किपाठ कठिन हैं. मैं सहमत हूँ कि पहली बार पढनेवालों को कुछ कठिनाई होगी, जोपढ़कर भूल चुके हैं उन्हें कम कठिनाई होगी तथा जो उच्चारण या मात्रा गिनतीके आधार पर रचना करते हैं उन्हें सहज लगेगा. कठिन को सरल बनने का एकमात्रउपाय बार-बार अभ्यास करना है, दूर भागना या अनुपस्थित रहना नहीं. प्रश्न आपके बूझकर, दोहे दिए सुधार. तनहा जी के प्रश्न का उत्तर दे दिए जाने के बाद भी उत्तर न मिलने कीशिकायत बताती है कि ध्यानपूर्वक अध्ययन नहीं हुआ. इतिहास बताने का कोई इरादा नहीं है. पुराने दोहे बताने का उद्देश्य भाषा के बदलाव से परिचितकराना है. खड़ी हिन्दी में लिखते समय अन्य बोली की विभक्तियों, कारकों याशब्दों का प्रयोग अनजाने भी हो तो रचना दोषपूर्ण हो जाती है. आप यह गलती नकरें यह सोचकर पुराने दोहे दिए जा रहे हैं.बार-बार दोहे पढने से उसकी लयआपके अंतर्मन में बैठ जाए तो आप बिना मात्रा गिने भी शुद्ध दोहा रचसकेंगे. दोहा के २३ प्रकार हैं. इन दोहों में विविध प्रकार के दोहे हैंजिनसे आप अनजाने ही परिचित हो रहे हैं. जब प्रकार बताये जायेंगे तो आपकोकम कठिनाई होगी. डॉ. अजित गुप्ता की टिप्पणी ने संतोष दिया अन्यथा लग रहाथा कि पूरा प्रयास व्यर्थ हो रहा है. पाठ ४में उच्चार चर्चा समाप्त कर गणसूत्र दिया गया है. आप पाठ ३ व ४ को हृदयंगमकर लें तो दोहा ही नहीं कोई भी छंद सिद्ध होने में देर नहीं लगेगी. आपनेपाठ लंबे होने की शिकायत की है. ‘एक कहे दूजे ने मानी, कहे कबीर दोनोंज्ञानी‘ बात आपकी मान ली, छोटे होंगे पाठ. गणतंत्र दिवस पर मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति इंदौर के भवन में इंदौरके साहित्यकारों के साथ ध्वज वन्दन किया. संगणक पर हिन्दयुग्म और दोहा पाठसभी को दिखाया. श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार चंद्रसेन ‘विराट‘, सिद्धदोहाकार प्रभु त्रिवेदी, सदाशिव कौतुक तथा अन्यों ने इसे सराहते हुए कहाकि इसमें पूरा पुस्तकालय छान कर सागर को गागर में भर दिया गया है. जिसदोहे को सीखने-साधने में बरसों लगते थे वह अब कुछ दिनों में संभव हो गया है. आपको यह भी बता दूँ कि मैं पेशे से सिविल इंजिनियर हूँ. दिनभर नीरस यांत्रिकी विषयों से सर मारने के बाद रोज ४-५ घंटे बैठकर अनेकपुस्तकें पढ़कर इस माला की कडियाँ पिरोता हूँ. हर पाठ या गोष्ठी कीसामग्री लिखने के पूर्व प्रारम्भ से अंत तक की पूरी सामग्री इसलिए पड़ताहूँ कि बीच में कोई नया दोहाप्रेमी जुदा हो, कुछ पूछा हो तो वह अनदेखा नरह जाए. मैं मध्यम मात्र हूँ. यदि आप और दोहे के बीच बाधक हूँ तो बाधक हूँतो बता दें ताकि हट जाऊं और कोई अन्य समर्थ माध्यम आकर आप और दोहे को जोड़ दे. दोहा गाथा सनातन- पाठ 5 – दोहा भास्कर काव्य नभदोहा भास्कर काव्य नभ, दस दिश रश्मि उजास आगामीपाठों में रस, भाव, संधि, बिम्ब, प्रतीक, शैली, अलंकार आदि काव्य तत्वोंकी चर्चा करने का उद्देश्य यह है कि पाठक दोहों में इन तत्वों को पहचाननेऔर सराहने के साथ दोहा रचते समय इन तत्वों का समावेश कर सकें रसःकाव्य को पढ़ने या सुनने से मिलनेवाला आनंद ही रस है। काव्य मानव मन मेंछिपे भावों को जगाकर रस की अनुभूति कराता है। भरत मुनि के अनुसार “विभावानुभाव संचारी संयोगाद्रसनिष्पत्तिः” अर्थात् विभाव, अनुभाव वसंचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। रस के ४ अंग स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव व संचारी भाव हैं- स्थायी भावःमानव ह्र्दय में हमेशा विद्यमान, छिपाये न जा सकनेवाले, अपरिवर्तनीय भावों को स्थायी भाव कहा जाता है। विभावः विषयःजिसके प्रति आश्रय के मन में रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न हो, उसे विषयकहते हैं “क” को “ख” के प्रति प्रेम हो तो “क” आश्रय तथा “ख” विषय होगा। उद्दीपन विभाव– आलंबन द्वारा उत्पन्न भावों को तीव्र करनेवाले कारण उद्दीपन विभाव कहेजाते हैं। जिसके दो भेद बाह्य वातावरण व बाह्य चेष्टाएँ हैं। वन में सिंहगर्जन सुनकर डरनेवाला व्यक्ति आश्रय, सिंह विषय, निर्जन वन, अँधेरा, गर्जनआदि उद्दीपन विभाव तथा सिंह का मुँह फैलाना आदि विषय की बाह्य चेष्टाएँहैं । अनुभावःआश्रय की बाह्य चेष्टाओं को अनुभाव या अभिनय कहते हैं। भयभीत व्यक्ति का काँपना, चीखना, भागना आदि अनुभाव हैं। संचारी भावःआश्रय के चित्त में क्षणिक रूप से उत्पन्न अथवा नष्ट मनोविकारों या भावोंको संचारी भाव कहते हैं। भयग्रस्त व्यक्ति के मन में उत्पन्न शंका, चिंता, मोह, उन्माद आदि संचारी भाव हैं। मुख्य ३३ संचारी भाव निर्वेद, ग्लानि, मद, स्मृति, शंका, आलस्य, चिंता, दैन्य, मोह, चपलता, हर्ष, धृति, त्रास, उग्रता, उन्माद, असूया, श्रम, क्रीड़ा, आवेग, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अवमर्ष, अवहित्था, मति, व्याथि, मरण, त्रास व वितर्क हैं। रस वियोगः हास्यः व्यंग्यः करुणः रौद्रः वीरः भयानकः वीभत्सः अद्भुतः शांतः वात्सल्यः भक्तिः दोहा में हर रस को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य है। पाठक अपनी रुचि के अनुकूल खड़ी बोली या टकसाली हिंदी के दोहा गाथा सनातन – दोहा गोष्ठी : ६ दोहा दीप जलाइएदोहा दीप जलाइए, मन में भरे उजास. बौर आम के देखकर, बौराया है आम. लाल न लेकिन लाल है, ताल बिना दे ताल. लाल हरे पीले वसन, धरे धरा हसीन. सरसों के पीले किए, जब से भू ने हाथ. सपन चाँद का दिखाते,
बन हुए हैं सूर. बिसर गया था भूत में, आया दोहा याद. गुरु ने पकड़े कान तो, हुआ अकल पर वार. हल्का होने के लिए, सब कुछ छोड़ा यार. कृपया, शंका का हमें, समाधान बतलाएं. पढने पिछले पाठ हैं, बात रखेंगे ध्यान. नम्र निवेदन शिष्य का, गुरु दें दोहा-ज्ञान. चलते-चलते एक वादा और पूरा करुँ- ‘बेतखल्लुस‘ नये रंग का, नया हो यह साल. सरसुति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात. करत-करत अभ्यास के, जडमति होत सुजान. पसंद आने का कारण भी लिखें जिन्हें अभ्यास हो वे स्वरचित दोहे भेजें। दोहा गाथा सनातन :पाठ ६ – दोहा दिल में झांकतादोहा गाथा सनातन : दोहा दिल में झांकता, कहता दिल की बात. मनु तनहा पूजा करे, सरस्वती की नित्य. कवि कविता से खेलता, ले कविता की आड़. छंद भाव रस लय रहित, दोहा हो बेजान. अमां मियां! दी टिप्पणी,
दोहे में ही आज. अद्भुत है शैलेश का, दोहा के प्रति नेह. निरख-निरख छवि कान्ह की, उमडे स्नेह-ममत्व. गोष्ठी ६ में निम्न संशोधन कर लीजिये. नमन करुँ आचार्य को; पकडूं अपने कान. करत-करत अभ्यास के, जडमति होत सुजान. १११ १११ २२१ २, ११११ २१ १२१. रसरी आवत-जात ते, सिल पर पडत निसान. ११२ २११ २१ २, ११ ११ १११ १२१. दोहा में अनिवार्य है: १. दो पंक्तियाँ, २. चार चरण . ३. पहले एवं तीसरे चरण में १३-१३ मात्राएँ. ४. दूसरे एवं चौथे चरण में ११-११ मात्राएँ. ५. दूसरे एवं चौथे चरण के अंत में लघु गुरु होना अनिवार्य. ६.पहले तथा तीसरे चरण के आरम्भ में जगण = जभान = १२१ का प्रयोग एक शब्द मेंवर्जित है किंतु दो शब्दों में जगण हो तो वर्जित नहीं है. ७. दूसरे तथा चौथे चरण के अंत में तगण = ताराज = २२१, जगण = जभान = १२१ या नगण = नसल = १११ होना चाहिए. शेष गण अंत में गुरु उक्त तथा अपनी पसंद के अन्य दोहों में इन नियमों के पालन की जांच करिए, शंका होने पर हम आपस में चर्चा करेंगे ही. अंत में दोहा-चर्चा का
करें, चलिए यहीं विराम. दोहा गाथा सनातन – गोष्ठी : ७ दोहा दिल में ले बसादोहा दिल में ले बसा, कर तू सबसे प्यार. सरस्वती को नमन कर, हुई लेखनी धन्य. रमा रहा जो रमा में, उससे रुष्ट रमेश. स्वागत में ऋतुराज के, दोहा कहिये मीत. मन मथ मन्मथ जीत ले, सत-शिव-सुंदर देख. पाठ४ के प्रकाशन के समय शहर से बाहर भ्रमण पर होने का कारण उसे पढ़कर तुंरतसंशोधन नहीं करा सका. गण संबंधी चर्चा में मात्राये गलत छप गयी हैं. डॉ.श्याम सखा ‘श्याम‘ ने सही इंगित किया है. उन्हें बहुत-बहुत धन्यवाद. य = यगण = यमाता = लघु+गुरु+गुरु = १+२+२ = ५ पाठमें टंकन की त्रुटि होने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ. मैं अच्छा टंकक नहींहूँ, युग्म के लिए पहली बार यूनिकोड में प्रयास किया है. अस्तु… हिन्दीको पिंगल तथा व्याकरण संस्कृत से ही मिला है. इसलिए प्रारम्भ में उदाहरणसंस्कृत से लिए हैं. पाठों की पुनरावृत्ति करते समय हिन्दी के उदाहरण लिएजाएँगे. पाठ छोटे रखने काप्रयास किया जा रहा है. अजीत जी का अनुरोध शिरोधार्य. मनु जी अभी तो मैंस्वयं ही दोहा सागर के किनारे खडा, अन्दर उतरने का साहस जुटा रहा हूँ.दोहा सागर की गहराई तो बिरले ही जान पाए हैं. पूजा जी! आपने दोहाको गंभीरता से लिया, आभार. आधे अक्षर का उच्चारण उससे पहलेवाले अक्षर केसाथ जोडकर किया जाता है. संयुक्त (दो अक्षरों से मिलकर बनी) ध्वनि काउच्चारण दीर्घ या गुरु होता है, जिसकी मात्राएँ २ होती हैं. ‘ज्यों‘ मेंआधे ज = ‘ज्‘ तथा ‘यों‘ का उच्चारण अलग-अलग नहीं किया जाता. एक साथ बोलेजाने के कारण ‘ज्‘ ‘यों‘ के साथ जुड़ता है जिससे उसका उच्चारण समय ‘यों‘ में मिल जाता है. एक प्रयोग करें- ‘ज्यों‘, ‘त्यों‘ तथा ‘यों‘ को १०-१०बार अलग-अलग बोलें और बोलने में लगा समय जांचें. आप देखेंगी की तीनों कोबोलने में सामान समय लगा. इसलिए ‘यों‘ की तरह ‘ज्यों‘, ‘त्यों‘ की मात्रा२ होगी. ‘ज्यों जीवन-नादान‘ की मात्राएँ २+२+१+१+२+२+१=११‘ हैं. तप न करे जो वह
तपन, कैसे पाये सिद्धि? दोहे में जो निहित है, कहते अलंकार यमक तपनजी! शाबास. आपने ‘तप‘ शब्द के दोनों अर्थ सही बताये हैं. अलंकार भी सहीबताया जबकि अभी कक्षा में अलंकार की चर्चा हुई ही नहीं है. आपके दोहेकाप्रथम चरण सही है. दूसरे चरण में १३ मात्राएँ हैं जबकि ११ होनी चाहिए.तीसरे चरण में १७ मात्राओं के स्थान पर १३ तथा चौथे चरण में १३ मात्राओंके स्थान पर ११ मात्राएँ होना चाहिए. इसे कुछ बदलकर इस तरह लिखा जा सकताहै- तप का आशय तपस्या, रविकांत पाण्डेय जी आपको भी बधाई. आपने बिलकुल सही बूझा है. आलम ने जो पद लिखा सुनिये चतुर सुजान “कनक छडी सी कामिनी कटि काहे
अतिछीन” आलम की पंक्ति — “कनक छडी सी कामिनी, कटि काहे अति छीन” शेख की पंक्ति — “कटि को कंचन काट विधि, कुचन माँहि धरि दीन” हिन्दी दोहा में ३ मात्राएँ प्रयोग में नहीं लाई जातीं. आधे अक्षर को उसके पहलेवाले अक्षर के साथ संयुक्त कर मात्रा गिनी जाती है. नमन करुँ आचार्य को, पकडूं अपने
कान. मानसीजी! मात्राएँ अक्षर की गिनिए, शब्द की नहीं, सदा की मात्राएँ स = १ + दा =२ कुल ३ हैं, इसी तरह चाहता की मात्राएँ चा= २ + ह = १ + ता = २ कुल ५हैं. अपवाद को छोड़कर हिन्दी दोहे में एक अक्षर में ३ मात्राएँ नहींहोतीं. तपन युक्त
रविकांत यों, ज्यों मल दिया गुलाल. गप्पगोष्ठी में सुनिए एक सच्चा किस्सा.. बुंदेलखंड में एक विदुषी-सुन्दरी हुईहै राय प्रवीण. वे महाकवि केशवदास की शिष्या थीं. नृत्य, गायन, काव्य लेखनतथा वाक् चातुर्य में उन जैसा कोई अन्य नहीं था. दिल्लीपति मुग़ल सम्राटअकबर से दरबारियों ने राय प्रवीण के गुणों की चर्चा की तथा उकसाया कि ऐसेनारी रत्न को बादशाह के दामन में होना चाहिए. अकबर ने ओरछा नरेश को संदेशभेजा कि राय प्रवीण को दरबार में हाज़िर किया जाए. ओरछा नरेश धर्म संकटमें पड़े. अपनी प्रेयसी को भेजें तो राजसी आन तथा राजपूती मान नष्ट होनेके साथ राय प्रवीण की प्रतिष्ठा तथा सतीत्व खतरे में पड़ता है, बादशाह काआदेश न मानें तो शक्तिशाली मुग़ल सेना के आक्रमण का खतरा. राज्यबचाएँ या प्रतिष्ठा? उन्हेंधर्म संकट में देखकर राय प्रवीण ने गुरुवरमहाकवि केशवदास की शरण गही. महाकवि ने ओरछा नरेश को राजधर्म का पालन करनेकी राय दी तथा राय प्रवीण को सम्मान सहित सकुशल वापिस लाने का वचन दिया. अकबरके दरबार में महाकवि तथा राय प्रवीण उपस्थित हुए. अकबर ने महाकवि कासम्मान करने के बाद राय प्रवीण को तलब किया. राय प्रवीण को ऐसे कठिन समयमें भरोसा था अपनी त्वरित बुद्धि और कमर में खुंसी कटार
का. लेकिन एन वक्तपर दोहा उनका रक्षक बनकर उनके काम आया. राय प्रवीण ने बादशाह को सलाम करतेहुए एक दोहा कहा. दोहा सुनते ही दरबार में सन्नाटा छा गया. दोहा गाथा सनातन पाठ ७ दोहा शिव-आराधनादोहा ‘सत्‘ की साधना, करें शब्द-सुत नित्य. अरुण जी, मनु जी एवं पूजा जी ने दोहा के साथ कुछ यात्रा की, इसलिए दोहाउनके साथ रहे यह स्वाभाविक है. संगत का लाभ ‘तन्हा‘ जी को भी मिला है. अद्भुत पूजा अरुण की,
कर मनु तन्हा धन्य. कविता से छल कवि करे, क्षम्य नहीं अपराध. पूजा जी पहले और तीसरे चरण में क्रमशः ‘कान्हा‘ को ‘कान्ह‘ तथा ‘हर्षितमाता देखकर‘ परिवर्तन करने से दोष दूर हो जाता है. गोष्ठी ६ के आरम्भ में दिए दोहों के भाव तथा अर्थ संभवतः सभी समझ गए हैं इसलिए कोई प्रश्न नहीं है. अस्तु… तप न करे जो वह तपन, कैसे पाये
सिद्धि? उक्त दोहा में ‘तप‘ शब्द के दो भिन्न अर्थ तथा उसमें निहित अलंकार का नामबतानेवालों को दोहा का उपहार मिलेगा. तपन जी! आपके दोहे में मात्राएँ अधिकहैं. आपत्ति न हो तो इस तरह कर लें- नमन करुँ आचार्य को, पकडूं अपने कान. हिन्दी दोहा में ३ मात्राएँ प्रयोग में नहीं लाई जातीं. आधे अक्षर को उसकेपहलेवाले अक्षर के साथ संयुक्त कर मात्रा गिनी जाती है. एक बार प्रयास औरकरें ग़लत हुआ तो सुधारकर दिखाऊँगा. अजित अमित औत्सुक्य ही, — पहला चरण, १३ मात्राएँ दो पंक्तियाँ (पद) तथा चार चरण सभी को ज्ञात हैं. पहली तथा तीसरी आधीपंक्ति (चरण) दूसरी तथा चौथी आधी पंक्ति (चरण) से अधिक लम्बी हैं क्योकिपहले एवं तीसरे चरण में १३-१३ मात्राएँ हैं जबकि दूसरे एवं चौथे चरण में११-११ मात्राएँ हैं. मात्रा से दूर रहनेवाले विविध चरणों को बोलने मेंलगने वाले समय, उतर-चढाव तथा लय का ध्यान रखें. दूसरे एवं चौथे चरण के अंत पर ध्यान दें. किसी भी दोहे की पंक्ति के अंतमें दीर्घ, गुरु या बड़ी मात्रा नहीं है. दोहे की पंक्तियों का अंत सम (दूसरे, चौथे) चरण से होता है. इनके अंत में
लघु या छोटी मात्रा तथा उसकेपहले गुरु या बड़ी मात्रा होती ही है. अन्तिम शब्द क्रमशः भंडार तथा अपारहैं. ध्यान दें की ये दोनों शब्द गजल के पहले शे‘र की तरह सम तुकांत हैंदोहे के दोनों पदों की सम तुकांतता अनिवार्य है. भंडार तथा अपार का अन्तिमअक्षर ‘र‘ गण का नामविस्तार उक्त गण तालिका में केवल तगण व जगण के अंत में गुरु+लघु है. नगण में तीनोंलघु है. इसका प्रयोग कम ही किया जाता hai. नगण = न स ल में न+स को मिलकरगुरु मात्रा मानने पर सम पदों के अंत में गुरु लघु की शर्त पूरी होती hai. सारतः यह याद रखें कि दोहा ध्वनि पर आधारित सबसे अधिक पुराना छंद है.ध्वनि के ही आधार पर हिन्दी-उर्दू के अन्य छंद कालांतर में विकसित हुए.ग़ज़ल की बहर भी लय-खंड ही है. लय या मात्रा का अभ्यास हो तो किसी भी विधाके किसी भी छंद में रचना निर्दोष होगी. अजित जी एवं मनु जी क्या इतनापर्याप्त है या और विस्तार? चलिए, इस चर्चा से आप को हो रही ऊब को यहीं समाप्त कर के रोचक किस्सा कहें और गोष्ठी समाप्त करें. किस्सा आलम-शेख का… सिद्धहस्त दोहाकार आलम जन्म से ब्राम्हण थे लेकिन एक बार एक दोहे का पहलापद लिखने के बाद अटक गए. बहुत कोशिश की पर दूसरा पद नहीं बन पाया, पहला पदभूल न जाएँ यह सोचकर उनहोंने कागज़ की एक पर्ची पर पहला पद लिखकर पगडी मेंखोंस लिया. घर आकर पगडी उतारी और सो गए. कुछ देर बाद शेख नामक रंगरेजिनआयी तो परिवारजनों ने आलम की पगडी मैली देख कर उसे धोने के लिए दे दी. शेख ने कपड़े धोते समय पगडी में रखी पर्ची देखी, अधूरा दोहा पढ़ा औरमुस्कुराई. उसने धुले हुए कपड़ेआलम के घर वापिस पहुंचाने के पहले अधूरेदोहे को पूरा किया और पर्ची पहले की तरह पगडी में रख दी. कुछ दिन बाद आलमको अधूरे दोहे की याद आयी. पगडी धुली देखी तो सिर पीट लिया कि दोहा तो गयामगर खोजा तो न केवल पर्ची मिल गयी बल्कि दोहा भी पूरा हो गया था. आलम दोहापूरा देख के खुश तो हुए पर यह चिंता भी हुई कि दोहा पूरा किसने किया? अपनेकॉल के अनुसार उन्हें दोहा पूरा करनेवाले की एक इच्छा पूरी करना थी.परिवारजनों में से कोई दोहा रचना जानता नहीं था. इससे अनुमान लगाया किदोहा रंगरेज के घर में किसी ने पूरा किया है, किसने किया?, कैसे पता चले?. उन्हें परेशां देखकर दोस्तों ने पतासाजी का जिम्मा लिया और कुछ दिन बादभेद दिया कि रंगरेजिन शेख शेरो-सुखन का शौक रखती है, हो न हो यह कारनामाउसी का है. आलम ने अपनी छोटी बहिन और भौजाई का सहारा लिया ताकि सच्चाई मालूम कर अपना वचन पूरा कर सकें. आखिरकार सच सामने आ ही गया मगरपरेशानी और बढ़ गयी. बार-बार पूछने पर शेख ने दोहा पूरा करने की बात तोकुबूल कर ली पर अपनी इच्छा बताने को तैयार न हो. आलम की भाभी ने देखा किआलम का ज़िक्र होते ही शेख संकुचा जाती थी. उन्होंने अंदाज़ लगाया कि कुछन कुछ रहस्य ज़ुरूर है. ही कोशिश रंग लाई. भाभी ने शेख से कबुलवा लिया किवह आलम को चाहती है. मुश्किल यह कि आलम ब्राम्हण और शेख मुसलमान… सबनेशेख से कोई दूसरी इच्छा बताने को कहा, पर वह राजी न हुई. आलम भी अपनी बातसे पीछे हटाने को तैयार न था. यह पेचीदा गुत्थी सुलझती ही ने थी. तब आलमने एक बड़ा फैसला लिया और मजहब बदल कर शेख से शादी कर ली. दो दिलों कोजोड़ने वाला वह अमर दोहा जो पाठक बताएगा उसे ईनाम के तौर पर एक दोहासंग्रह भेट किया जाएगा अन्यथा अगली गोष्ठी में वह दोहा आपको बताया जाएगा. दोहा गाथा सनातन गोष्ठी ८ दोहा है रस-खानहोली रस का पर्व है, दोहा है रस-खान. भाव रंग अद्भुत छटा, ज्यों गोरी का रूप. प्रतिस्पर्धी हैं नहीं, भिन्न न इनको मान. रवि-शशि अगर न संग हों, कैसे हों दिन-रैन? पुरुष-प्रकृति हों अलग तो, मिट जाता उल्लास. मन मेंरा झकझोरकर, छेड़े कोई राग. महकी-महकी हवा है, बहकी-बहकी ढोल. कहे बिन कहे अनकहा,
दोहा मनु का पत्र. सुनिये श्रोता मगन हो, दोहा सम्मुख आज। बिनटी रायप्रवीन की, सुनिये शाह सुजान। रसगुल्ले जैसा लगा, दोहे का यह पाठ । दोहा के दोनों पदों के अंत में एक ही अक्षर तथा दीर्घ-लघु मात्रा अनिवार्य है. उत्तमहैइस
बारका, सीमा मनु पूजा सुलभ, अजित तपन
अवनीश. चलते-चलते फिर एक सच्चा किस्सा- अंग्रेजी में एक कहावत है ‘power corrupts, absolute power corrupts absolutely’ अर्थात सत्ता भ्रष्ट करती है तो निरंकुश सत्ता पूर्णतः
भ्रष्टकरती है, भावार्थ- ‘प्रभुता पाहि काहि मद नाहीं‘ . अपनी सीमाँ राज की, अमल करो फरमान. मरता क्या न करता… रानी ने अधार सिंह को दिल्ली भेजा. अधार सिंह कीबुद्धि की परख करने के लिए अकबर ने एक चाल चली. मुग़ल दरबार में जाने परअधार सिंह ने देखा कि सिंहासन खाली था. दरबार में कोर्निश (झुककर सलाम) न करना बेअदबी होती जिसे गुस्ताखी मानकर उन्हें सजा दी जाती. खाली सिंहासनको कोर्निश करते तो हँसी के पात्र बनाते कि इतनी भी अक्ल नहीं है कि सलामबादशाह सलामत को किया जाता है गद्दी को नहीं. अधार सिंह धर्म संकट में फँसगये, उन्होंने अपने कुलदेव चित्रगुप्त जी का स्मरण कर इस संकट से उबारनेकी प्रार्थना करते हुए चारों और देखा. अकस्मात् उनके मन में बिजली सीकौंधी और उन्होंने दरबारियों के बीच छिपकर बैठे बादशाह अकबर को कोर्निशकी. सारे दरबारी और खुद अकबर आश्चर्य में थे कि वेश बदले हुए अकबर कीपहचान कैसे हुई? झेंपते हुए बादशाह खडा होकर अपनी गद्दी पर आसीन हुआ औरअधार से पूछा ki उसने बादशाह को कैसे पहचाना? अधार सिंह नेविनम्रता से उत्तर दिया कि जंगल में जिस तरह शेर के न दिखने पर अन्यजानवरों के हाव-भाव से उसका पता लगाया जाता है क्योंकि हर जानवर शेर सेसतर्क होकर बचने के लिए उस पर निगाह रखता है. इसी आधार पर उन्होंने बादशाहको पहचान लिया चूकि हर दरबारी उन पर नज़र रखे था कि वे कब क्या करते हैं? अधार सिंह की बुद्धिमानी के कारण अकबर ने नकली उदारता दिखाते हुए कुछमाँगने और अपने दरबार में रहने को कहा. अधार सिंह अपने देश और महारानीदुर्गावती पर प्राण निछावर करते थे. वे अकबर के दरबार में रहते तो जीवन काअर्थ न रहता, मन करते तो बादशाह रुष्ट होकर दंड देता. उन्होंने पुनःचतुराई से बादशाह द्वारा कुछ माँगने के हुक्म की तामील करते हुए अपने देशलौट जाने की अनुमति माँग ली. अकबर रोकता तो वह अपने कॉल से फिरने के कारणनिंदा का पात्र बनता. अतः, उसने अधार सिंह को जाने तो दिया किन्तु बाद मेंअपने सिपहसालार को गोंडवाना पर हमला करने का हुक्म दे दिया. दोहा बादशाहके सैन्य बल का वर्णन करते हुए कहता है- कै लख
रन मां मुग़लवा, कै लख वीर पठान? इक लख रन मां मुगलवा, दुई लख वीर पठान. असाधारण बहादुरी से लम्बे समय तक लड़ने के बाद भी अपने देवर की गद्दारी काकारण अंततः महारानी दुर्गावती, अधार सिंह तथा अन्य वीर अपने देश और आजादीपर शहीद हो गये. मुग़ल सेना ने राज्य को लूट लिया. भागते हुए लोगों औरऔरतों तक को नहीं बख्शा. महारानी का नाम लेना भी गुनाह हो गया. जनगण नेअपनी लोकमाता को श्रद्धांजलि देने का एक अनूठा उपाय निकाल लिया. दुर्गावतीकी समाधि के रूप में सफ़ेद पत्थर एकत्र कर ढेर लगा दिया गया, जो भी वहाँसे गुजरता वह आस-पास से एक सफ़ेद कंकर उठाकर समाधि पर चढा देता. स्वतंत्रता सत्याग्रह के समय भी इस परंपरा का पालन कर आजादी के लिएसंग्घर्ष करने का संकल्प किया जाता रहा. दोहा आज भी दुर्गावती, अधार सिंहऔर आजादी के दीवानों की याद दिल में बसाये है- ठाँव बरेला आइये, जित रानी की
ठौर. अर्थात यदि आप बरेला गाँव में रानी की समाधि पर हाथ जोड़कर श्रद्धाभाव सेखड़े हों तो उनकी वीर गाथा सुनकर आपकी भुजाएं फड़कने लगती हैं. अस्तु…वीरांगना को महिला दिवस पर याद न किये जाने की कमी पूरी करते हुए आजदोहा-गाथा उन्हें प्रणाम कर धन्य है. शेष फिर…
दोहा गाथा सनातनः ८- दोहा साक्षी समय कादोहा साक्षी समय का, कहता है युग सत्य। दोहा रचना मेँ समय की महत्वपूर्ण भूमिका है। दोहा के चारों चरण निर्धारितसमयावधि में बोले जा सकें, तभी उन्हें विविध रागों में संगीतबद्ध कर गायाजा सकेगा। इसलिए सम तथा विषम चरणों में क्रमशः १३ व ११ मात्रा होनाअनिवार्य है। दोहा ही नहीं हर पद्य रचना में उत्तमता हेतु छांदसमर्यादा का पालन किया जाना अनिवार्य है। हिंदी काव्य लेखन में दोहा प्लावनके वर्तमान काल में मात्राओं का ध्यान रखे बिना जो दोहे रचे जा रहे हैं, उन्हें कोई महत्व नहीं मिल सकता। मानक मापदन्डों की अनदेखी कर मनमानेतरीके को अपनी शैली माने या बताने से अशुद्ध रचना शुद्ध नहीं हो जाती.किसी रचना की परख भाव तथा शैली के निकष पर की जाती है। अपने भावों कोनिर्धारित छंद विधान में न ढाल पाना रचनाकार की शब्द सामर्थ्य की कमी है। किसी भाव की अभिव्यक्ति के तरीके हो सकते हैं। कवि को ऐसे शब्द का चयनकरना होता है जो भाव को अभिव्यक्त करने के साथ निर्धारित मात्रा के अनुकूलहो। यह तभी संभव है जब मात्रा गिनना आता हो. मात्रा गणना के प्रकरण परपूर्व में चर्चा हो चुकने पर भी पुनः कुछ विस्तार से लेने का आशय यही हैकि शंकाओं का समाधान हो सके. “मात्रा”शब्द अक्षरों की उच्चरित ध्वनि में लगनेवाली समयावधि की ईकाई का द्योतकहै। तद्नुसार हिंदी में अक्षरों के केवल दो भेद १. लघु या ह्रस्व तथा २.गुरु या दीर्घ हैं। इन्हें आम बोलचाल की भाषा में छोटा तथा बडा भी कहा जाता है। इनका भार क्रमशः १ तथा २ गिना जाता है। अक्षरों को लघु या गुरुगिनने के नियम निर्धारित हैं। इनका आधार उच्चारण के समय हो रहा बलाघात तथालगनेवाला समय है। १. एकमात्रिक या लघु रूपाकारः द्विमात्रिक, दीर्घ या गुरु के रूपाकारों पर चर्चा अगले पाठ में होगी। आप गीत, गजल, दोहा कुछ भी पढें,
उसकी मात्रा गिनकर अभ्यास करें। धीरे॰धीरे समझने लगेंगेकि किस कवि ने कहाँ और क्या चूक की ? स्वयं आपकी रचनाएँ इन दोषों से मुक्तहोने लगेंगी। आप इस दोहे और निराला जी की कवित्व शक्ति का आनंद लीजिए और अपनी प्रतिक्रिया दीजिए। वह दोहा जिसने बीच महफिल में दुलारे लाल जी की फजीहत कर दी थी, इस प्रकार है॰ कहाँ बिहारी लाल हैं, कहाँ दुलारे लाल? दोहा गाथा सनातन : ९ दोहा लें दिल में बसादोहा लें दिल में बसा, लें दोहे को जान. दोहा लेखन में द्विमात्रिक, दीर्घ या गुरु अक्षरों के रूपाकार और मात्रा गणना के लिए निम्न पर ध्यान दें- अ. सभी दीर्घ स्वर: जैसे- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ. उक्तशब्दों में लिखते समय पहला अक्षर लघु है किन्तु बोलते समय पहले अक्षर केसाथ उसके बाद का आधा अक्षर जोड़कर संयुक्त बिला जाता है तथा संयुक्त अक्षरके उच्चारण में एक एकल अक्षर के उच्चारण में
लगे समय से अधिक लगता है. इसकारण पहला अक्षर लघु होते हुए भी बाद के आधे अक्षर को जोड़कर २ मात्राएँगिनी जाती हैं. मात्रा गणना को सही नजाननेवाला न तो दोहा या गीत को सही लिख सकेगा न ही गजल को. आजकल लिखीजानेवाली अधिकाँश पद्य रचनायें निरस्त किये जाने योग्य हैं, चूंकि उनकेरचनाकार परिश्रम करने से बचकर ‘भाव‘ की दुहाई देते हुए ‘शिल्प‘ की अवहेलनाकरते हैं. ऐसे रचनाकार एक-दूसरे की पीठ थपथपाकर स्वयं भले ही संतुष्ट हो लें किन्तु उनकी रचनायें स्तरीय साहित्य में कहीं स्थान नहीं बना सकेंगी.साहित्य आलोचना के नियम और सिद्दांत दूध का दूध और पानी का पानी करने नहींचूकते. हिंदी रचनाकार उर्दू के मात्रा गणना नियम जाने और माने बिना गजललिखकर तथा उर्दू शायर हिन्दी मात्रा गणना जाने बिना दोहे लिखकर दोषपूर्णरचनाओं का ढेर लगा रहे हैं जो अंततः खारिज किया जा रहा है. अतः ‘दोहागाथा..‘ के पाठकों से अनुरोध है कि उच्चारण तथा मात्रा संबन्धी जान कारीको हृदयंगम कर लें ताकि वे जो भी लिखें वह समादृत हो. गंभीर
चर्चाको यहीं विराम देते हुए दोहा का एक और सच्चा किस्सा सुनाएँ..अमीर खुसरो कानाम तो आप सबने सुना ही है. वे हिन्दी और उर्दू दोनों के रचनाकार थे. वेअपने समय की मांग के अनुरूप संस्कृतनिष्ठ भाषा तथा अरबी-फारसी मिश्रितजुबान को छोड़कर आम लोगों की बोलचाल की बोली
‘हिन्दवी‘ में लिखते थेबावजूद इसके कि वे दोनों भाषाओं, आध्यात्म तथा प्रशासन में निष्णात थे. दोहा गोष्ठी ९ -दोहा की सीमा नहींदोहा की सीमा नहीं, कहता है सच देव। रीति-नीति, युगबोध नव, पूरा-पुरातन सत्य. दोहा के पद अंत में, होता अक्षर एक। खीर पकाई जतन से, चरखा दिया चलाय। शत-शत वंदन आपका, दोहा बूझा ठीक. दोहामें दो पद (पंक्ति), चार चरण, १३-११ पर यति (विराम) विषम पदों ( १, ३ ) केआरम्भ में एक शब्द में जगण ( लघु गुरु लघु = १ २ १ ) वर्जित तथा सम पदोंके अंत में लघु गुरु (१ २) के साथ समान अक्षर होना जरूरी है. इन आधारों परखरा ण होने के कारण निम्न पंक्तियाँ दोहा नहीं हैं, उन्हें द्विपदी (दोपदी) कह सकते है. कुछ परिवर्तन से उन्हें दोहा में ढाला जा सकता है. ‘अंगना में बहू ढोल बजावे = १७ मात्राएँ, १३ होना जरूरी एक प्रयोग देखिये – चरखा- ढोल चला-बजा, सास-बहू थीं लीन. मैंने एक और दोहा लिख लिया है. उत्सुकता है इसके बारे में भी जानने की कि कैसा लिखा है. कृपया बताइये. ‘खीर देखि लार गिरावे = १४ मात्राएँ, १३होना जरूरी लार गिरा चट खीरकर,
भागा श्वान चटोर. ‘चरखा और ढोल धरे आँगन में = १९ मात्राएँ, १३होना जरूरी देख ढोल चरखा सहित, खीर-कटोरा पास.
Dr. Smt. ajit gupta said… अजितजी! बधाई, आपने मात्रा-संतुलन पूरी तरह साध लिया है किन्तु तीसरी पंक्तिमें लय में कुछ दोष है. इसे पहली पंक्ति की तरह कीजिये….ज्ञान पुंज पुस्तक गहें, अवनीश एस तिवारी पूजा जी! ने कर दिया, सचमुच आज कमाल. होली के रंग में रंगी, दोहा गोष्ठी विशेष , तीसरे चरण को ‘कहें वीर-गाथा ‘सलिल‘ करने से लय ठीक बन जाती है. टिप्प्णी नहीं कर पाते, पढ़ते तो हम रहते है, इस तरह कहें तो दोहा हो जायेगा- भले न करते टिप्पणी, पढ़ने को तैयार. दोहागाथा से जुड़े सभी साथियों के प्रति आभार कि वे सब दोहा को अंगीकार कर रहे हैं. कठिनाई और असफलता से न डरें, याद रखें – ‘गिरते हैं शह सवार ही, मैदाने जंग में. वह तिफ्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले.‘ गोष्ठीके अंत में दोहा चौपाल में सुनिए एक सच्चा किस्सा-चित-पट दोनों सत्य हैं… ‘बूडा वंश कबीर का, उपजा पूत कमाल. कबीर ने कमाल को भले ही नालायक माना पर लोई प्रसन्न हुई. पुत्र को समझाते हुए कबीर ने कहा- चलती चक्की देखकर, दिया कबीरा रोय. कमालथा तो कबीर का ही पुत्र, उसका अपना जीवन-दर्शन था. दो पीढियों में सोच का जो अंतर आज है वह तब भी था.कमाल ने कबीर को ऐसा उत्तर दिया कि कबीर भीनिरुत्तर रह गए. यह उत्तर भी दोहे में हैं. सोचिये याद न आये तो खोजिये औरबताइये वह दोहा. दोहा सही बतानेवाले को मिलेगा उपहार में एक दोहा…. दोहा गाथा सनातन: पाठ 10-मृदुल मधुर दोहा सरस नव शक संवत- लें सखे! दोहा का उपहार. नव गृह शुभ हों आपको,
करते रहिये यत्न. कथ्य, भाव, रस, बिम्ब, लय, अलंकार, लालित्य. दोहा की सीमा नहीं, दोहाकार ससीम. . पाठ-गोष्ठियाँ हुईं नौ, बिखरे हैं नौ रंग. दोहा रसिको, नव दुर्गा शक्ति आराधना पर्व पर दोहा गाथा सनातन के नव पाठ तथा नवगोष्ठियों के सोपान से अगले सोपान की और इस दसवें पाठ की यात्रा का श्रीगणेश होना शुभ संकेत है. इस सारस्वत अनुष्ठान में सम्मिलित शक्तिस्वरूपा मृदुल कीर्ति जी, शन्नो जी, पूजा जी, अजित जी, नीलम जी, सीमा जी, शोभा जी, रंजना जी, सुनीता जी, रश्मि जी, संगीता जी आप सभी का सादर अभिवादन… दशम पाठ का विशेष उपहार दक्ष दोहाकार मृदुल कीर्ति जी, ( जिनका युग्म परिवार पोडकास्ट कवि सम्मलेन संचालिका के नाते प्रशंसक है )के दोहे हैं. आइये! इन का रसास्वादन करने के साथ इनके वैशिष्ट्य को परखें. कामधेनु दोहावली, दुहवत ज्ञानी
वृन्द. तुलसी ने श्री राम को, नाम रूप रस गान. दोहे की महिमा महत,
महत रूप लावण्य. गागर में सागर भरो, ऐसो जाको रूप. रामायण में जड़ित हैं, मणि सम दोहा छंद. दोहा के बड़ भाग हैं, कहत राम गुण धाम, इन दोहों में शब्दों के चयन पर ध्यान दें- उनके उच्चारण में ध्वनि का आरोह-अवरोह या उतर-चढाव सलिल-तरंगों की तरह होने से गति (भाषिक प्रवाह)तथा यति (ठहराव) ने इन्हें पढने के साथ गायन करने योग्य बना दिया है.शब्दों का लालित्य मन मोहक है. दोहा का वैशिष्ट्य वर्णित करते हुए वेविशिष्ट रूप, लावण्य, गागर में सागर, सीप में मोती, सरल, सरस, रुचिकर,गहन, अणु अणियाम स्वरुप का संकेत करती हैं. आप सहमत होंगे कि मृदुल जी ने दोहाको कवियों के लिए वरदान तथा कामधेनु की तरह हर अपेक्षा पूरी करने मेंसमर्थ कहकर दोहा के साथ न्याय ही किया है. दुहवत, कियो, भरो, ऐसो, जाको, चमकत, कहत, प्रणवहूँ आदि शब्द रूपों का प्रयोग बताता है कि ये दोहे खडीहिंदी में नहीं अवधी में कहे गए हैं. ये शब्द अशुद्ध नहीं है, अवधी मेंक्रिया के इन रूपों का प्रयोग पूरी तरह सही है किन्तु यही रूप खडी हिन्दीमें करें तो वह अशुद्धि होगी. मृदुल जी ने दोहा को राम चरित मानस कीचौपाइयों में जड़े हीरे की तरह कहा है. यह उपमा कितनी सटीक है. इन दोहों कीअन्य विशेषताएँ इन्हें बार-बार पढ़ने पर सामने आयेंगी. दिल्लीनिवासी डॉ. श्यामानन्द सरस्वती ‘रौशन‘ के दोहा संग्रह ‘होते ही अंतर्मुखी‘ से उद्धृत निम्न पठनीय-मननीय दोहों के साथ कुछ समय बितायें तो आपकी कईकही-अनकही समयस्याओं का निदान हो जायेगा. ये दोहे खडी हिंदी में हैं दोहे में
अनिवार्य हैं, कथ्य-शिल्प-लय-छंद. चार चाँद देगा लगा दोहों में लालित्य. दोहे में मात्रा गिरे, यह भारी अपराध. चलते-चलते ही मिला, मुझको यह गन्तव्य. टूट रहे हैं आजकल, उसके बने मकान. जितनी छोटी बात हो, उतना अधिक प्रभाव. कैसा है गणतंत्र यह, कैसा है संयोग? बहरों के इस गाँव में क्या चुप्पी,
क्या शोर. जीवन भर पड़ता रहा, वह औरों के माथ. तेरे अलग विचार हैं, मेरे अलग
विचार. शुद्ध कहाँ परिणाम हो, साधन अगर अशुद्ध. सावित्रीशर्मा जी के दोहा संकलन पांच पोर की बाँसुरी से बृज भाषा के कुछ दोहों कारसपान करें. इन दोहों की भाषा उक्त दोनों से कुछ भिन्न है. ऐसी शब्दावलीब्रज भाषा के अनुकूल है पर खडी हिन्दी में उपयोग करने पर गलत मानी जायेगी. शब्द ब्रम्ह जाना जबहिं, कियो उच्चरित ॐ. मुख कारो विधिना
कियो, सुन्दर रूप ललाम. तन-मन बासंती भयो, साँस-साँस मधु गंध. कितनउ बाँधो मन मिरिग, फिरि-फिरि
भरे कुलांच. चित चंचल अति बावरो, धरे न नेकहूँ धीर. मन हिरना भरमत फिरत, थिर न रहै छिन एक. तिय-बेंदी झिलमिल दिपै, दर्पण बारहि-बार. होत दिनै-दिन दूबरो, देखि पूनमी चंद. झलमल-झलमल व्है रही, मुंदरी अंगुरी माहि. अबदेखिये बांदा के अल्पज्ञात कवि राम नारायण उर्फ़ नारायण दास ‘बौखल‘ (जिन्होंने ५००० से अधिक बुन्देली दोहे लिखे हैं) की कृतियों नारायण अंजलिभाग १-२ से कुछ बुन्देली दोहे– गुरु ने दीन्ही चीनगी, शिष्य लेहु सुलगाय. वाणी वीणा विश्व वदि, विजय वाद विख्यात. आध्यात्मिक तौली तुला, रस-रंग-छवि-गुण एक. अलि गुलाब गंधी बिपिन,उडी स्मृति गति पौन. पंच व्यसन प्राणी सनो, तरुण वृद्ध अरु बाल. बैरिन कांजी योग सो, दूध दही हो जाय. बहु भाषा आशा
अमित, समुझि मूढ़ मन सार. चातक वाणी पीव की, निर्गुण-सगुण समान. मरै न मन संगै रहै, मलकिन बारह
बाट. दोहालेखन करते समय यह ध्यान रखें कि लय (मात्रा) के साथ-साथ शब्द चयन औरविन्यास भाषा की पृवृत्ति के अनुकूल हो. दोहा की मारक शक्ति का प्रमाण यहहै कि उसे ललित काव्य के साथ-साथ पत्राचार, टिप्पणी, समीक्षा आदि में भीप्रयोग किया जा सकता है. उक्त दोहों के दोहाकारों के प्रति आभार व्यक्तकरते हुए इस अनुष्ठान के प्रति मृदुल जी की प्रतिक्रिया, उसके उत्तर मेंदोहा पत्र प्रस्तुत है. दोहा का टिप्पणी रूप में प्रयोग आप युग्म मेंप्रकाशित रचनाओं के नीचे देख ही रहे हैं. आत्मीय! हूँ धन्य मैं, पा स्नेहिल उपहार. दोहा गाथा में इन्हें, पढ़ सीखेंगे छात्र. दोहा-चौपाई ललित, छंद रचे अभिराम. दोहा कक्षा को दिए, दोहा-रत्न अमोल. सचमुच शिक्षित नहीं थे,
मीरा सूर कबीर. दोहा रचता कवि नहीं, रचवाता परमात्म. अवनीशजी ! आपने स्वयं को कमल के स्थान पर रखकर दोहा कहा. है लेकिन पहेली तो वहदोहा बताने की थी जो कमल ने कहा था. इस कसौटी पर पूजा जी खरी उतारी हैंउन्हेंबधाई और आपको शाबाशी कोशिश करने के लिए. अब चर्चा इस से जुड़े दोहोंपर- है सर रखा अपने भी, बूझ पहेली आज की , दोहा लाई खोज , “चलती चक्की देखकर दिया कमाल ठठाय कबीर ने इस पर कहा कि यूँ तो वह कहने को कह गया लेकिन कितनी बड़ी बात कह गया उसे खुद नहीं पता।” आचार्य जी, आपने सभी दोहों को परखा उसके लिए धन्यवाद. बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है, अच्छा लग रहा है पूजाजी! आपने कमाल के दोहे को खोजकर कमाल कर दिया. बधाई, उक्त दोहे के तीसरेचरण को ‘कहे कमाल कबीर से‘ करें तो लय सहज रहेगी. दोहा तथा मात्राएँ सहीहैं. आपने दोहा लिखा है- कबीर ने कहा था – बूडा वंश कबीर का, उपजा पूत कमाल. चलती चक्की देख कर दिया कबीरा रोय. चलती चक्की देखकर , दिया कमाल ठिठोंय. कबीर-कमाल के इन दोहों के दो अर्थ हैं. एक सामान्य- कबीर ने कहा कि चलतीहुई चक्की को देखकर उन्हें रोना आता है कि दो पाटों के घूमते रहने से उनकेबीच सब दाने पिस गए कोई साबित नहीं बच. कमाल ने उत्तर दिया कि चलती हुईचक्की देखकर उसे हँसी आ रही है क्योंकि जो दाना बीच की कीली से चिपक गयाउसे पाट चलते रहने पर भी कोई हानि नहीं पहुँच सके. वे दाने बच गए. इन दोहों का गूढ़ अर्थ समझने योग्य है- कबीर ने दूसरे दोहे में कहा ‘
इससंसार रूपी चक्की को चलता देखकर कबीर रो रहा है क्योंकि स्वार्थ औरपरमार्थ के दो पाटों के बीच में सब जीव नष्ट हो रहे हैं. कोई भी बच नहींपा रहा. इस सत्र के अंत में दोहा के सूफियानामिजाज़ की झलक देखें. खुसरो (संवत १३१२-१३८२) से पहले दोहा को सूफियानारंग में रंगा बाबा शेख फरीद शकरगंज (११७३-१२६५) ने. गुरु ग्रन्थ साहिब मेंराहासा और राग सूही के ४ पदों और ३० सलोकों में बाबा की रचनायें हैंकिन्तु इनके उनके पश्चातवर्ती शेख अब्र्हीम फरीद (१४५०-१५५४) की रचनाएँ भीमिल गयी हैं. आध्यात्म की पराकाष्ठा पर पहुँचे बाबा का निम्न दोहा उनकेसमर्पण की बानगी है. इस दोहे में बाबा कौए से कहते हैं कि वह नश्व र्शरीर से खोज-खोज कर मांस खाले पर दो नेत्रों को छोड़ दे क्योंकि उन नेत्रों सेही प्रियतम (परमेश्वर) झलक देख पाने की आशा है. कागा करंग ढढोलिया, सगल खाइया मासु. पाठांतर: कागा सब तन खाइयो,
चुन-चुन खइयो मास. — आचार्य संजीव ‘सलिल‘ आभार : “हिंद युग्म” |