भारत में ब्रिटिश शासन के समय, भारतीय उत्पाद का वह हिस्सा जो जनता के उपभोग के लिये उपलब्ध नहीं था तथा राजनीतिक कारणों से जिसका प्रवाह इंग्लैण्ड की ओर हो रहा था, जिसके बदले में भारत को कुछ नहीं प्राप्त होता था, उसे आर्थिक निकास या धन-निष्कासन (Drain of Wealth) की संज्ञा दी गयी। धन की निकासी की अवधारणा वाणिज्यवादी सोच के क्रम में विकसित हुई। धन-निष्कासन के सिद्धान्त पर उस समय के अनेक आर्थिक इतिहासकारों ने अपने मत व्यक्त किए। इनमें दादा भाई नौरोजी ने अपनी पुस्तक “पावर्टी ऐन्ड अनब्रिटिश रूल इन इन्डिया” (Poverty and Un-British Rule in India) में सर्वप्रथम आर्थिक निकास की अवधारणा प्रस्तुत की। उन्होने धन-निष्कासन को सभी बुराइयों की बुराई (एविल ऑफ एविल्स) कहा है। १९०५ में उन्होने कहा था, धन का बहिर्गमन समस्त बुराइयों की जड़ है और भारतीय निर्धनता का मूल कारण। रमेश चन्द्र दत्त, महादेव गोविन्द रानाडे तथा गोपाल कृष्ण गोखले जैसे राष्ट्रवादी विचारकों ने भी धन के निष्कासन के इस प्रक्रिया के ऊपर प्रकाश डाला है। इनके अनुसार सरकार सिंचाई योजनाओं पर खर्च करने के स्थान पर एक ऐसे मद में व्यय करती है जो प्रत्यक्ष रुप से साम्राज्यवादी सरकार के हितों से जुड़ा हुआ है। Show
आर्थिक निकास के प्रमुख तत्व थे- अंग्रेज प्रशासनिक एवं सैनिक अधिकारियों के वेतन एवं भत्ते, भारत द्वारा विदेशों से लिये गये ऋणों के ब्याज, नागरिक एवं सैन्य विभाग के लिये ब्रिटेन के भंडारों से खरीदी गयी वस्तुएं, नौवहन कंपनियों को की गयी अदायगी तथा विदेशी बैंकों तथा बीमा लाभांश। भारतीय धन के निकलकर इंग्लैण्ड जाने से भारत में पूंजी का निर्माण एवं संग्रहण नहीं हो सका, जबकि इसी धन से इंग्लैण्ड में औद्योगिक विकास के साधन तथा गति बहुत बढ़ गयी। ब्रिटिश अर्थव्यवस्था को इस धन से जो लाभांश प्राप्त होता था, उसे पुनः पूंजी के रूप में भारत में लगा दिया जाता था और इस प्रकार भारत का शोषण निरंतर बढ़ता जाता था। इस धन के निकास से भारत में रोजगार तथा आय की संभावनाओं पर अत्यधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। धन का यह अपार निष्कासन भारत को अन्दर-ही-अन्दर कमजोर बनाते जा रहा था। इतिहास[संपादित करें]वाणिज्यवादी व्यवस्था के अतंर्गत धन की निकासी उस स्थिति को कहा जाता है जब प्रतिकूल व्यापार संतुलन के कारण किसी देश से सोने, चाँदी जैसी कीमती धातुएँ देश से बाहर चली जाएँ। माना यह जाता है कि प्लासी के युद्ध से 50 वर्ष पहले तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी, भारतीय वस्तुओं की खरीद के लिए दो करोड़ रूपये की कीमती धातु भारत लाई थी। ब्रिटिश सरकार द्वारा कंपनी के इस कदम की आलोचना की गयी थी किंतु कर्नाटक युद्धों एवं प्लासी तथा बक्सर के युद्धों के पश्चात् स्थिति में नाटकीय परिवर्तन आया। बंगाल दीवानी ब्रिटिश कंपनी को प्राप्त होन के साथ कंपनी ने अपने निवेश की समस्या को सुलझा लिया। अब आंतरिक व्यापार से प्राप्त रकम, बंगाल की लूट से प्राप्त रकम तथा बंगाल की दीवानी से प्राप्त रकम के योग के एक भाग का निवेश भारतीय वस्तुओं की खरीद के लिए होने लगा। इस प्रकार भारत ने ब्रिटेन को जो निर्यात किया उसके बदले भारत को कोई आर्थिक, भौतिक अथवा वित्तीय लाभ प्राप्त नहीं हुआ। किन्तु बंगाल की दीवानी से प्राप्त राजस्व का एक भाग वस्तुओं के रूप में भारत से ब्रिटेन हस्तांतरित होता रहा। इसे ब्रिटेन के पक्ष में भारत से धन का हस्तांतरण कहा जा सकता है। यह प्रक्रिया 1813 तक चलती रही, किंतु 1813 ई0 चार्टर के तहत कंपनी का राजस्व खाता तथा कंपनी का व्यापारिक खाता अलग-अलग हो गया। 1813 ई. के चार्टर के तहत भारत का रास्ता ब्रिटिश वस्तुओं के लिए खोल दिया गया तथा भारत में कंपनी का व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया गया। इसे एक महत्वपूर्ण परिवर्तन के रूप में देखा जा सकता है। स्थिति उस समय और भी चिंताजनक रही जब ब्रिटेन तथा यूरोप में भी कंपनी के द्वारा भारत से निर्यात किए जाने वाले तैयार माल को हतोत्साहित किया जाने लगा। परिणाम यह निकला कि अब कंपनी के समक्ष अपने शेयर धारकों को देने के लिए रकम की समस्या उत्पन्न हो गई। आरम्भ में कंपनी ने नील और कपास का निर्यात कर इस समस्या को सुलझाने का प्रयास किया, किंतु भारतीय नील और कपास कैरिबियाई देशों के उत्पाद तथा सस्ते श्रम के कारण कम लागत में तैयार अमेरिकी उत्पादों के सामने नहीं टिक सके। अतः निर्यात एजेसियों को घाटा उठाना पडा। यही कारण रहा कि कंपनी ने विकल्प के रूप में भारत में अफीम के उत्पादन पर बल दिया। फिर बड़ी मात्रा में अफीम चीन को निर्यात की जाने लगी। अफीम का निर्यात चीनी लोगों के स्वास्थ के लिए जितना घातक था उतना ही कंपनी के व्यावसायिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक था। अफीम व्यापार का विरोध किये जाने पर भी ब्रिटिश कंपनी ने चीन पर जबरन यह घातक जहर थोप दिया। ब्रिटेन भारत से चीन को अफीम निर्यात करता और बदले रेशम और चाय की उगाही करता और मुनाफा कमाता। इस प्रकार, भारत से निर्यात तो जारी रहा किन्तु बदले में उस अनुपात में आयात नहीं हो पाया। अपने परिवर्तित स्वरूप के साथ 1858 ई. के पश्चात् भी यह समस्या बनी रही। 1858 ई में भारत का प्रशासन ब्रिटिश ने अपने हाथों में ले लिया। इस परिवर्तन के प्रावधानों के तहत भारत के प्रशासन के लिए भारत सचिव के पद का सृजन किया गया। भारत सचिव तथा उसकी परिषद का खर्च भारतीय खाते में डाल दिया गया। 1857 ई. के विद्रोह को दबाने में जो रकम खर्च हुई थी, उसे भी भारतीय खाते में डाला गया। इससे भी अधिक ध्यान देने योग्य बात यह है कि भारतीय सरकार एक निश्चित रकम प्रतिवर्ष गृह-व्यय के रूप में ब्रिटेन भेजती थी। व्यय की इस रकम में कई मदें शामिल होती थीं, यथा-रेलवे पर प्रत्याभूत ब्याज, सरकारी कर्ज पर ब्याज, भारत के लिए ब्रिटेन में की जाने वाली सैनिक सामग्रियों की खरीद, भारत से सेवानिवृत्त ब्रिटिश अधिकारियों के पेंशन की रकम इत्यादि। इस प्रकार गृह-व्यय की राशि की गणना धन की निकासी के रूप में की जाती थी। उल्लेखनीय है कि 19वीं सदी में धन के बहिर्गमन में केवल गृह-व्यय ही शामिल नहीं था वरन् इसमें कुछ अन्य मदें भी जोड़ी जाती थीं। उदाहरण के लिए-भारत में कार्यरत ब्रिटिश अधिकारियों के वेतन का वह भाग जो वह भारत से बचाकर ब्रिटेन भेजा जाता था तथा निजी ब्रिटिश व्यापारियों का वह मुनाफा जो भारत से ब्रिटेन भेजा जाता था। फिर जब सन् 1870 के दशक में ब्रिटिश पोण्ड स्टालिंग की तुलना में रूपए का अवमूलयन हुआ तो इसके साथ ही निकासी किए गए धन की वास्तविक राशि में पहले की अपेक्षा और भी अधिक वृद्धि हो गई। कारण[संपादित करें]दादाभाई नौरोजी ने ६ कारण बताए हैं जो धन-निष्कासन के सिद्धांत के कारण बने-[1]
धन-निष्कासन के दुष्परिणाम[संपादित करें]अर्थव्यवस्था पर प्रभाव[संपादित करें]
राजनीतिक प्रभाव[संपादित करें]राष्ट्रवादी विचारकों ने धन के निष्कासन के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए साम्राज्यवाद एवं राष्ट्रवाद के बीच अंतर्विरोध को पहचान लिया और इस तरह आर्थिक राष्ट्रवाद की अवधारणा का जन्म हुआ। इसके द्वारा ब्रिटिश सरकार के सारे दावों को खारिज करने में मदद मिली, जैसे- उपयोगितावाद, आधुनिकरण के प्रतीक, स्वराज्य, शिक्षा आदि। यही आर्थिक राष्ट्रवाद की चेतना 1906 में स्वदेशी आंदोलन में उभरकर आने लगी जब विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं का प्रसार का नारा लगाया गया। समाज एवं संस्कृति पर प्रभाव[संपादित करें]धन के निष्कासन से रेशम उद्योग, व्यापार, कृषि आदि में निवेश नहीं हुआ। परिणामस्वरूप लोगों की प्रति व्यक्ति आय घटने लगी। अकाल की निरंतरता ने इनके जीवन को और भयावह बना दिया। इस प्रकार यूरोप के अन्य राज्यों के सापेक्ष , भारत के लोगों का जीवनस्तर एवं जीवन-प्रत्याशा दोनों घटा और यही शोषित लोग कलान्तर में भारतीय राष्ट्रवाद के सामाजिक आधार बनकर उभरे। धन निष्कासन के स्रोत[संपादित करें]
धन-निष्कासन के चरण[संपादित करें]नौरोजी द्वारा प्रतिपादित धन के निष्कासन के सिद्धांत में रमेश चन्द्र दत्त ने एक नया आयाम को जोड़ते हुए आधुनिक भारत के अर्थव्यवस्था पर पहला बुद्धिवादी इतिहास "दी इकनोमिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया" के रुप में प्रस्तुत किया। अपने इस प्रसिद्ध ग्रन्थ में उन्होंने धन के निष्कासन के सिद्धांत को एक नए कोण से देखने का प्रयास किया। उन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय धन के लूट के तीन चरणों में विभाजित करते हुए अध्ययन का प्रयास किया है। वाणिज्यवादी चरण (mercantalist stage ; 1757 से 1813 तक)[संपादित करें]इस चरण में ब्रिटिश सरकार का मुख्य उद्देश्य भारतीय व्यापार पर एकाधिकार स्थापित करना, अधिक से अधिक मुनाफा कमाना, भारतीय व्यापार के लिए ब्रिटेन से लाए जाने वाले धन को बंद करना और भारतीय धन से जो लूट दस्तक दुरुपयोग एवं व्यापारिक एकाधिकार से प्राप्त आय या धन से ही भारतीय वस्तुओं को खरीदने एवं निर्यात करना था। औद्योगिक पूंजीवादी चरण (Industrial Captist stage या free trade stage ; 1813 से1857)[संपादित करें]ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति के बाद एक नवीन राजनीतिक एवं आर्थिक परिदृश्य उभरकर आया। इस परिदृश्य में ब्रिटेन में एक सशक्त मध्यम वर्ग उभरकर आने लगा जो औद्योगिक क्रांति से पैदा हुआ था। परिणामस्वरुप इस मध्यवर्ग के हित में ब्रिटेन और भारत के बीच के आर्थिक संबंधों का पुनर्निर्धारण करना अनिवार्य हो गया। इसी परिपेक्ष्य में 1813 का अधिनियम पारित किया गया जिसके द्वारा भारतीय व्यापार पर ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया और भारतीय व्यापार एवं वाणिज्य को पूरे ब्रिटिश नागरिकों के लिए खोल दिया गया। परिणामस्वरुप ब्रिटिश सामग्रियों से भारतीय बाजार भर गया। इस अवधि में ब्रिटिश सरकार की आर्थिक नीति का मुख्य मांग था:-
और इस तरह भारत, ब्रिटेन का कच्चा माल का आपूर्तिकर्ता एवं बाजार के रूप में तब्दील हो गया। औपनिवेशिक पूंजीवाद चरण (colonial capitalism ; 1857 के बाद)[संपादित करें]इस अवधि में ब्रिटेन में औद्योगिकरण से जनित पूंजी का निवेश भारत में किया जाने लगा क्योंकि भारत ब्रिटिश पूंजीपतियों के के द्वारा अपने पूंजी निवेश के लिए एक उत्तम स्थान था। इस तरह ब्रिटिश सरकार जहाजरानी उद्योग , बीमा एजेंसी, बैंकिंग आदि क्षेत्रों में पूंजी का निवेश करने लगी। इस निवेश से प्राप्त होने वाला ब्याज एवं लाभांश दोनों की निष्कासन की प्रक्रिया शुरु आत होने लगी। रमेश चन्द्र दत्त के अनुसार ये तीनों चरण अलग-अलग नहीं थे बल्कि एक ही प्रक्रिया के तीन चरण थे जिसके अंतर्गत पहला चरण समाप्त होने से पहले दूसरे चरण के लिए अनुकूल आधार दे देता था। धन-निकास पर इतिहासकारों के विचार[संपादित करें]धन के निष्कासन के संदर्भ में साम्राज्यवादी एवं राष्ट्रवादी इतिहासकार अलग-अलग मत प्रस्तुत करते हैं। साम्राज्यवादी इतिहासकार[संपादित करें]जॉन स्ट्रेची जैसे साम्राज्यवादी इतिहासकार कहते हैं कि ब्रिटेन ने भारत का धन नहीं लूटा बल्कि ब्रिटेन ने भारत में उत्तम प्रशासन, सुरक्षा एवं बुनियादी सुविधाओं का विकास किया और उसके बदले में पारिश्रमिक (धन) प्राप्त किया। इसी क्रम में मोरिस डी मोरिस का कहना है कि भारत में ब्रिटिश सरकार की भूमिका एक सजग चौकीदार की तरह है जिसने भारत में विकास की संभावनाओं को एक छत्रछाया प्रदान किया। राष्ट्रवादी इतिहासकार[संपादित करें]राष्ट्रवादी विद्वानों ने धन के निष्कासन की प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए इस तथ्य को प्रकाशित किया है कि भारत के अल्प विकास एवं औद्योगिक, सांस्कृतिक, पिछड़ेपन के लिए ब्रिटिश सरकार की शोषणकारी आर्थिक नीतियां ही प्रत्यक्ष तौर पर जिम्मेदार हैं। राष्ट्रवादी लेखकों का कहना है कि भारत के गरीबी एवं पिछड़ापन न तो कोई दैवी प्रकोप है और न ही ऐतिहासिक विरासत। इनके अनुसार जिस सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, एवं आर्थिक प्रक्रिया में ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति को जन्म दिया, वहां के सांस्कृतिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया, उसी प्रक्रिया ने भारत को अल्प विकास, दरिद्रता, अकाल, व्यापार एवं उद्योगों के विनाश आदि को जन्म दिया। दादा भाई नौरोजी प्रथम राष्ट्रवादी नेता थे जिन्होंने धन के निष्कासन की प्रक्रिया को चिन्हित करते हुए बताया कि किस तरह से ब्रिटिश सरकार राजस्व, उद्योग, व्यापार, आदि स्रोत के माध्यम से भारतीय धन का निष्कासन करती है। नौरोजी के अनुसार इस साम्राज्यवादी सरकार आकी र्थिक नीतियों का सबसे घिनौना पक्ष यह है कि यहां का धन निष्कासित होकर ब्रिटेन जाता था और वही धन हमें ऋण के रूप में उपलब्ध किया जाता था जिसके लिए हमें अधिक मात्रा में ब्याज देना पड़ता था। नौरोजी के अनुसार ब्रिटिश सरकार केवल भारतीय धन का ही निष्कासन नहीं करती है बल्कि नैतिकता का भी निष्कासन करती है क्योंकि यह भारतीय लोगों को उनके अधिकारों से ही वंचित रखती है। इस संदर्भ में विद्वान सुलिवान का कथन साम्राज्यवादी मनोवृति का पर्दाफाश कर देता है- ब्रिटिश सरकार की व्यवस्था स्पंज है जो गंगा के पानी को सोखता है और टेम्स नदी में निचोड़ देता है।निष्कासित धन की मात्रा एवं स्वरूप[संपादित करें]ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी तथा ब्रिटिश क्राउन द्वारा भारत से निष्कासित धन की मात्रा का सही-सही अनुमान लगाना बहुत कठिन है। अलग-अलग विद्वानों ने अलग-अलग आंकडे दिये हैं-
सन्दर्भ[संपादित करें]
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
धन के निष्कासन का सिद्धांत कब दिया गया?दादाभाई नौरोजी ने 1901 में छपी अपनी पुस्तक 'Poverty and Un-British Rule in India' के माध्यम से धन-निष्कासन सिद्धांत (Drain Theory) को प्रतिपादित किया.
धन निष्कासन के सिद्धांत के प्रतिपादक कौन थे?इनमें दादा भाई नौरोजी ने अपनी पुस्तक “पावर्टी ऐन्ड अनब्रिटिश रूल इन इन्डिया” (Poverty and Un-British Rule in India) में सर्वप्रथम आर्थिक निकास की अवधारणा प्रस्तुत की। उन्होने धन-निष्कासन को सभी बुराइयों की बुराई (एविल ऑफ एविल्स) कहा है।
धन निष्कासन आप क्या समझते हैं?➲ धन निष्कासन से तात्पर्य एक ऐसी प्रक्रिया से है, जिसमें किसी एक देश से दूसरे देश की और धन का निरंतर प्रभाव होता रहता है, लेकिन उसके बदले में पहले देश को दूसरे देश से कुछ भी प्राप्त नहीं होता है।
धन निष्कासन कितने प्रकार से होता था?धन निष्कासन के स्त्रोंत (dhan nishkasan ke strot) –
(1) भारत में साम्राज्य विस्तार और विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजी सरकार द्वारा लिए गए ऋण पर ब्याज! (2) अंग्रेजी अधिकारियों के वेतन, भत्ते और पेंशन आदि! (3) कंपनी के शेयरधारकों को दिया जाने वाला लाभांश! (4) व्यापार, उद्योग, बागान में निवेश की गई निजी पूंजी की आय!
|