--------------------------------------- Show आज का भारत और ‘भारत-भारती’ / डा.अल्पना सिंह मैथिलीशरण गुप्त की कविता भारतीय सांस्कृतिक गौरव का जीता जागता दस्तावेज है। गुप्त का लेखन 1908 से प्रारम्भ हो कर उनके जीवन के अन्त तक अनवरत चलता रहा। यद्यपि उन्होंने मौलिक, अनुदित, प्रबन्ध काव्य, मुक्तक-काव्य, स्फुट छन्द आदि सभी प्रकार की रचनाओं का सृजन किया किन्तु उनकी ख्याति का प्रमुख आधार 1912 में प्रकाशित ‘भारत-भारती’ है। उनका पहला महत्वपूर्ण काव्य ‘भारत-भारती’ है। हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्र में इतने व्यापक स्तर पर राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना जगाने का जो काम अकेले ‘भारत-भारती’ ने किया, उतना अन्य पुस्तकों ने मिलकर भी नहीं किया। इसी कारण इसे असाधारण लोकप्रियता मिली।1 ‘भारत-भारती’ ने परतंन्त्र भारत की विपरीत परिस्थितियों में जाति व देश के प्रति गर्व व गौरव की भावना जन-जन मे प्रवाहित की। यह वह समय था जब अग्रेंजों की निरंकुशता के सामने पूरा देश लाचार था और स्वतंत्रता की बात तो दूर शासन के खिलाफ कुछ कहने का साहस भी किसी में नहीं था। ऐसे समय में ‘भारत-भारती’ के सृजन ने भारतीयों में नया जोश व स्फूर्ति भर दी। इसे लिखते समय गुप्त ने सम्पूर्ण भारतवर्ष और उसके भूत, वर्तमान व भविष्य को केन्द्र में रखा। ‘हरिगीतिका छन्द में लिखी गयी ‘भारत-भारती’ मे प्राचीन गौरव के प्रति आस्था व्यक्त हुई है, और भविष्य के लिए आशा का सन्देश दिया गया है। इसने तत्कालीन शिक्षित जन-चित्त की आशा आकाँक्षा को बुभुक्षित रहने से बचाया और जनचित्त को उसके प्राचीन गौरव की कहानी सुनाकर सजग और साकांक्ष बनाया और समूचे हिन्दी भाषी प्रदेश को उद्वेलित और प्रेरित करने में इस पुस्तक ने प्रशंसनीय शक्ति का परिचय दिया।’2 ‘भारत-भारती’ की प्रस्तावना में गुप्त जी नेलिखाहै-‘ ‘यह बात मानी हुई है कि भारत की पूर्व और वर्तमान दशा में बड़ा भारी अन्तर है, अन्तर न कह कर इसे वैपरीत्य कहना चाहिए। एक वह समय था कि यह देश विद्या, कला कौशल और सभ्यता में संसार का शिरोमणि था और एक यह समय है कि इन्हीं बातों का इसमें सोचनीय अभाव हो गया है। जो आर्य जाति कभी सारे संसार को शिक्षा देती थी वही आज पद-पद पर पराया मुँह ताक रही है। ठीक है, जिसका जैसा उत्थान, उसका वैसा ही पतन। परन्तु क्या हम लोग सदा अवनति में ही पडे़ रहेगे? हमारे देखते-देखते जंगली जातियाँ तक उठकर हमसे आगे बढ़ जाये और हम वैसे ही पडे़ रहें, इससे अधिक दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है? क्या हमारे लोग अपने मार्ग से यहाँ तक हट गये हैं कि अब उसे पा ही नहीं सकते? क्या हमारी सामाजिक अवस्था इतनी बिगड़ गई है कि वह सुधारी नहीं जा सकती ? क्या सचमुच हमारी यह निद्रा चिरनिद्रा है? क्या हमारा रोग ऐसा असाध्य हो गया है कि उसकी कोई चिकित्सा ही नहीं ?’’3 गुप्त ने तत्कालीन भारत की दुरावस्था को जिस प्रकार प्रश्नों के माध्यम से उठाया है उसी प्रकार उनका उत्तर भी स्वयं देते हुये लिखा है- ‘संसार में ऐसा कोई भी काम नहीं जो सचमुच उद्योग से सिद्ध न हो सके। परन्तु उद्योग के लिए उत्साह की आवश्यकता है। बिना उत्साह के उद्योग नहीं हो सकता। इसी उत्साह को, इसी मानसिक वेग को उत्तेजित करने के लिए कविता एक उत्तम साधन है’ और उन्होंने इसी उत्तम माध्यम का प्रयोग कर ‘भारत-भारती’ जैसी रचना का सृजन किया। यद्यपि ‘भारत-भारती’ स्वाधीनता आन्दोलन व तत्कालीन भारतीय अपकर्ष की अवस्था से अनुप्रेरित होकर लिखी गई और उसने देश की तत्कालीन राष्ट्रीय चेतना को नया स्वर प्रदान किया। इसके साथ ही इसमें कुछ कालजयी समस्याओं को भी उठाया गया जो इसे वर्तमान समय में भी प्रासंगिक बनाते है। इसी कारण महादेवी वर्मा ने भी लिखा है- ‘भारत-भारती’ में अतीत- वर्तमान के साथ ही भविष्य की रूपरेखा का संकेत भी मिल जाता है, अतः उस पुस्तक ने कालजयी रूप पा लिया है। प्रत्येक कालजयी रचना प्रासंगिक ही होती है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की रचनाएँ कालजयी है, अतः उनका प्रासंगिक होना स्वाभाविक गुण और विशेषता है।4 हिन्दी साहित्य में भारत में ‘भारत-भारती’ का प्रकाशन एक घटना कही जा सकती है। अपनी प्रवाहमयी भाषा के कारण तो उसने पाठकों को सम्मोहित कर ही दिया था, उसकी गवेषणात्मक दृष्टि ने भी शिक्षा, साहित्य और इतिहास के विविध आयाम उद्घाटित कर दिए थे जिसने राष्ट्र की समस्याओं पर विचार करने का विवेक जागृत कर दिया था। दशमलव का सिद्धान्त अरबों ने हिन्दुओं से सीखा था, इसी से इस विधा को ‘इलमे हिन्दसा’ कहते है- इस जैसी अनेक सूचनाओं और वैज्ञानिक चिन्तन की प्रतिक्रियाओं ने इस ग्रन्थ को चिन्तन मनन का विषय बना दिया था। अपनी वैचाारिक उत्तेजना के कारण ‘भारत-भारती’ हिन्दी भाषा-भाषी प्रान्तो में विद्युत तरंगो की भाँति उर्जस्वित हो उठी। अन्य अहिन्दी भाषा-भाषी जिज्ञासु पाठकों को भी उसने सहज ही आकर्षित कर लिया।5 गुप्त जी के विषय में यह कहा गया है कि ‘उनमें कालिदास जैसी विशालता, तुलसी जैसी समन्वयकारी दृष्टि, विवेकानन्द जैसी निर्भीकता, रवीन्द्र जैसी संगीतात्मकता और प्रेमचन्द जैसी यथार्थोन्मुखी आदर्शवादिता है। उन्होंने पराधीन भारत की जड़ता को अपनी ओजस्वी वाणी से तोड़ने का प्रयत्न किया था। यदि रवीन्द्रनाथ ठाकुर विश्व कवि है, तो गुप्त जी भारतीय जनता के सच्चे प्रतिनीधि कवि है।6 और ‘भारत-भारती’ जैसी रचना का प्रणयन कर उन्होंने इसे सत्य प्रमाणित किया है। ‘भारत-भारती’ में तीन खण्ड-अतीत, वर्तमान और भविष्यत् है। ‘अतीत खण्ड’ में गुप्त ने भारतवर्ष के अतीत की, उसके पूर्वजों, आदर्शो, सभ्यता, विद्या, बुद्धि, साहित्य, वेद, उपनिषद, दर्शन, गीता, नीति, कला-कौशल, गीत-संगीत, काव्य इतिहास आदि के गौरव की गाथा गाई है। उन्होंने भारतीय अतीत की प्रशंसा करते हुये लिखा है- आये नहीं थे स्वप्न में भी, जो किसी के ध्यान में, वे प्रश्न पहले हल हुए थे, एक हिन्दुस्तान में।’7 इसके साथ ही उन्होंने ‘है आज पश्चिम में प्रभा जो, पूर्व से ही है गई’ और ‘होता प्रभाकर पूर्व से ही उदित, पश्चिम से नहीं8 कहकर भारत को पश्चिम से श्रेष्ठ सिद्ध किया। गुप्त की यह विशेषता रही है कि वे मात्र समस्या को उठाकर ही चुप नहीं रह जाते हैं बल्कि उसका समाधान निकालने का भी प्रयत्न करना चाहते हैं और इसके लिए वे समाज के सम्मुख सर्वप्रथम प्रचीन आदर्श व महान विचारों को प्रस्तुत करते हैं (हम कौन थे) तदुपरान्त वर्तमान को इंगित करते है (क्या हो गये है) और फिर भविष्य के लिए प्रश्न उपस्थित करते है (और क्या होंगे अभी)। इसके बाद समाधान की ओर अग्रसर होकर ‘आओ, विचारें आज मिलकर ये समस्यायें सभी।’9 का मंत्र प्रस्तुत करते हैं। इसके साथ ही उन्होंने इस खण्ड में प्राचीन भारत की झलक, भारत भूमि का सचित्र वर्णन कर यहाँ की पीयूष सम जलवायु, पुनीत प्रभा आदि का सजीव चित्रण किया है। ‘वर्तमान खण्ड’ में गुप्त जी ने तत्कालीन भारत के नैतिक एवं बौद्धिक पतन का विस्तार से वर्णन किया है। इसका प्रारम्भ ही उन्होंने ‘जिस लेखनी ने है लिखा उत्कर्ष भारत वर्ष का/लिखने चली अब हाल वह उसके अमित अपकर्ष का’10 लिखकर किया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि इस खण्ड मे तत्कालीन भारत की समस्याओं व अपकर्ष की परिस्थितियों का वर्णन किया है। इस खण्ड मे दरिद्रता, दुर्भिक्ष, भारतीय कृषक व उनकी समस्याओं का हृदय विदारक चित्रण हुआ है- ‘पानी बनाकर रक्त का कृषि कृषक करते है यहाँ, फिर भी अभागे भूख से, दिन रात से मरते है यहाँ। सब बेंचना पड़ता उन्हें निज अन्न वह निरूपाय हैं बस चार पैसे से अधिक पड़ती न दैनिक आय है।।’11 तत्कालीन भारत मे शिक्षा कि अवस्था व साहित्य के वर्णन के साथ ही उन्होंने तथाकथित उपदेशकों, महन्तों, पुजारियों, साधु-सन्तों आदि से ‘दम की चिलम में लौ उठाना, मुख्य जिनका काम है’12 कहकर उनकी वास्तविकता को उजागर किया और साथ ही समाज की कुरीतियों पर द्रष्टिपात करके तद्युगीन भारतीय समस्याओं का चित्रण किया है। भविष्यत खण्ड में उन्होंने भारतवासियों से जागृत हो जाने का आह्वाहन किया है। ‘है कार्य ऐसा कौन सा, साधे न जिसको एकता’13 के द्वारा उन्होंने एकता में बल की भावना का प्रसार किया। वह देश केा जगाते हुए कहते हैं कि- ‘अब और कब तक इस तरह, सोते रहोगे मृत पड़े’14 और साथ ही ‘ऐसा करो जिसमें तुम्हारे देश का उद्धार हो, जर्जर तुम्हारी जाति का बेड़ा विपद से पार हो’15 कहकर जातीय अस्मिता व गौरव के प्रति युवाओं को आगे बढ़ने के लिये प्रोत्साहित किया है और सुप्तावस्था में पडे़ देशवासियों को जागृत करने के साथ ही कवियों को ‘करते रहोगे पिष्ट-पेषण और कब तक कविवरों’16 कहकर सचेत किया है और उन्हें उनका कवि-कर्म स्मरण कराते हुए लिखा है- ‘केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए, उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।’17 प्राचीन गौरवशाली भारत आज अत्याचार,महँगाई,हिन्दू-मुस्लिम विवाद, स्वार्थपरकता,विलासिता, अशिक्षा, वर्तमान शिक्षा पद्धति की दासता,साहित्य की स्तरहीनता आदि विपरीत परिस्थितियों में जाने को विवश है। इस स्थिति में गुप्त ने त्याग एवं सेवा की मूर्ति माने जाने वाले नेताओं से भारत की उन्नति के लिए योगदान देने की अपेक्षा इन शब्दों में की है- ‘है देश नेताओं तुम्हीं पर सब हमारा भार है/जीते तुम्हारे जीत है, हारे तुम्हारे हार है’। और इस खण्ड के अन्त में भगवान से ‘भारतवर्ष को फिर पुण्य-भूमि बनाइए/ हे देव! वह अपनी दया फिर एक बार दिखाइये’18 की प्रार्थना गुप्त के सर्वजन कल्याण और भारतीय सांस्कृतिक और जातीय अस्मिता को जगाने के प्रति आशावादी भावना को उजागर करती है। वर्तमान समय में भी कौन ऐसा सहृदय होगा जिसका रोम-रोम ‘भारत-भारती’ की पंक्तियों को पढ़कर आज भी पुलकायमान न हो जाता हो। बींसवी सदी के प्रथम दशक में उत्तर भारत में, विशेषकर हिन्दी भाषी प्रदेशों में सांस्कृतिक चेतना को जागृत करने का श्रेय यदि किसी एक व्यक्ति को दिया जा सकता है तो मैथिलीशरण गुप्त को ही जाता है। हिन्दी भाषी प्रांतों में चौथी पाँचवी से लेकर महाविद्यालयीन और विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमों तक विगत पचास-साठ वर्षों से गुप्त जी अनिवार्य और अनवरत रूप से छाये रहे है। अहिन्दी प्रान्तों में भी हिन्दी का परिचय करने के लिए सर्वोत्तम सुबोध सूत्र उन्हीं को माना जाता रहा है।19 ‘गुप्त जी साहित्य से अधिक अपने समय की उपज थे। इसलिए स्वयं वह और उनका युग अपने समय में इस दृष्टि से भी प्रासंगिक था।....जो अपने युग में अप्रासंगिक है, किसी अन्य युग में उसकी प्रासंगिकता का कोई अर्थ नहीं होता। किसी भी युग में वही कवि प्रासंगिक होता है जो अपने युग में अप्रासंगिक न रहा हो। मैथिलीशरण गुप्त भी आधुनिक युग के ऐसे ही प्रासंगिक रचनाकार है20 और ‘भारत-भारती’ को तो आधुनिक युग की गीता का नाम दिया गया है। भारतीय मूल्यों के विकासात्मक स्वरूप के साथ ही सांस्कृतिक और जातीय अस्मिता को जगाने का कार्य ‘भारत-भारती’ ने किया। इसके साथ ही ‘‘भारतीयता की खोज में प्रवृत्त करने का काम जैसा ‘भारत-भारती’ ने किया वैसा किसी दूसरी रचना ने नहीं किया। देश प्रेम की कविता भी अनेक कवियों ने रची: उनमें सत्कवि भी थे और इन रचनाओं में अनेक उच्चकोटि की कविताएं है। पर ‘भारत-भारती’ ने जिस तरह समाज के हर वर्ग के मर्म को छुआ, संवेदन के हर स्तर को झकझोरा और भावना-मूलक, बौद्धिक, आध्यात्मिक, सभी प्रकार के सरोकारों को पुष्टि दी, वह अद्वितीय है। संवेदन और सरोकार बदलते हैं, राग-बन्धों के ढाँचे बदल जाते है और इस प्रकार रचनाएं पुरानी पड़ जाती हैं-स्वयं कवि ही प्रौढ़तर अवस्था में पहुँच कर अपने कर्म को बदली हुई दृष्टि से देख सकता है, पर जो रचनाएं युग की अचूक पहचान के कारण ठीक समय पर ठीक बिन्दु को छू जाती हैं, वे समाज के जीवन में एक टिकाऊ स्थान बना गयी होती है। ....‘भारत-भारती’ मे भी हम उसके रचनाकाल में चर्चित नई ऐतिहासिक जानकारियों के बीच वाल्मीकि और व्यास, रामायण, महाभारत और श्रीमद्भागवत्, कालिदास और भवभूति की अनुगूँज सुन सकेगें।21 और यही वह अनुगूँज है जो तब से लेकर अब तक सुनी जा सकती है। समय परिवर्तित होता जाता है, किन्तु सन्दर्भ सदैव अपरिवर्तित रहते है और गुप्त ने ऐसे ही सन्दर्भो को ‘भारत-भारती’ में अंकित किया है। उन्होनें तत्कालीन समस्याओं दरिद्रता, व्याधि, अशिक्षा, दुर्भिक्ष, आडम्बर, कृषक-समस्या आदि का वर्णन कर पाठकों को जागरूक बनाया है। विजयेन्द्र स्नातक ने लिखा है-‘गुप्त जी अपने युग की सीमाओं में बंधकर सम-सामयिकता को ही काव्य का विषय नहीं बनाते थे। युगबोध की सजग दृष्टि उनके पास थी किन्तु भारत के स्वर्णिम अतीत के प्रति भी उनकी आस्था थी। वह अपने वर्तमान के आगे जाने वाले अनागत भविष्य को भी देख रहे थे। कालयजी कवि वही होता है जो तीनों कालों पर समदृष्टि रखकर विकासोन्मुख बना रहता है। अप्रासंगिकता का प्रश्न-चिन्ह उस पर नहीं लगता। वह परम्परा में विश्वास रखता हुआ, स्वास्थ्य परम्परा को आगे बढ़ाता है। राष्ट्रकवि गुप्त इसी कोट के कवि थे। भारत में उनकी भारती सदैव गुंजित होती रहेगी’। ‘गुप्त जी की प्रतिभा की सबसे बडी़ विशेषता है कालानुसरण की क्षमता अर्थात उत्तरोत्तर बदलती हुई भावनाओं और काव्य प्रणालियों को ग्रहण करते चलने की शक्ति। इस दृष्टि से हिन्दी भाषी जनता के प्रतिनिधि कवि ये निःसंदेह कहे जा सकते है। ‘भारतेन्दु’ के समय में स्वदेश-प्रेम की भावना जिस रूप में चली आ रही थी उसका विकास ‘भारत-भारती’ में मिलता है। ..प्राचीन के प्रति पूज्य भाव और नवीन के प्रति उत्साह दोनों गुप्त जी में है।’22 आज जो विद्यटनकारी और साम्प्रदायिक स्थितियाँ है, उसमें जो भी साहित्य सम्प्रदायातीत, सर्वधर्म समभाव, मानवतावाद और यथार्थवाद जीवन जीने का सन्देश देने वाला होगा, वही प्रासंगिक माना जायेगा और उपरोक्त वर्णित सभी सन्दर्भो में ‘भारत-भारती’ को अतीत का गौरव, वर्तमान हीन दशा तथा भविष्य की उन्नति की आशा का एक अभिधात्मक सामाजिक दस्तावेज माना गया है और इसी कारण यह मात्र भारत के अतीत के गौरव की गाथा का गान नहीं है बल्कि यह तो वर्तमान को झकझोरने का अन्यतम साधन है। यही कारण है कि गुप्त जी ने भारत के विषय में जो सोचा था और जनता का जगाने व स्वाधिकार के प्रति सावधान करने का जो उपक्रम किया था, वह आज सौ साल बाद भी उतना ही प्रासंगिक और संगत है जितना 1912 में था। सन्दर्भ- 1. हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास-डॉ बच्चन सिंह,पृ0-313,संस्करण-2009, राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली 2. हिन्दी साहित्यः उद्भव और विकास-हजारी प्रसाद द्विवेदी , पृ0-232, संस्करण-2007, राजकमल प्रकाशन प्रा0लि0 नई दिल्ली-110002 3. भारत-भारती- मैथिलीशरण गुप्त, पृ0-7-,8,संस्करण-2008, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद-1 4. राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त-सम्पादक विजय अग्रवाल लेख-प्रणाम-महादेवी वर्मा,संस्करण-1994प्रकाशन विभाग सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार,पृ0-02 5. राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त-सम्पादक विजय अग्रवाल,लेख-‘राष्ट्र-जागरण के समर्पित समाराधक-शिवमंगल सिंह सुमन,संस्करण-1994,प्रकाशन विभाग सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार,पृ0-21 6. राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त-सम्पादक विजय अग्रवाल,लेख-भावोत्कर्ष के कवि-बलदेव, संस्करण-1994,प्रकाशन विभाग सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार,पृ0-165 7. ‘भारत-भारती’-अतीत खण्ड-छन्द-79 8. वही-छन्द-71, 9. वही-छन्द-14, 10. वही-वर्तमान खण्ड-छन्द-1 11. वही-छन्द-37 12. वही-छन्द-200 13. वही-भविष्यतखण्ड-छन्द-24 14. वही-छन्द-42 15. वही-छन्द-57 16. वही-छन्द-92 17. वही-छन्द-95 18. वही-विनय के अन्तर्गत ‘सोहनी’ 19. ‘राष्ट्र जागरण के समर्पित समाराधक’-शिवमंगल सिंह सुमन,पृ0-192, वही 20. राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त-सम्पादक विजय अग्रवाल,लेख-‘नव-शास्त्र युग के अन्यतम कवि’-प्रभाकर श्रोत्रिय, (1994)प्रकाशन विभाग सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार, पृ0-103 21. राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त- सम्पादक विजय अग्रवाल, लेख-‘भारतीयता की खोज’-अज्ञेय,(1994) प्रकाशन विभाग सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार,पृ0-9 22. हिन्दी साहित्य का इतिहास-आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, संस्करण-2008,अशोक प्रकाशन दिल्ली-6,पृ0-364 डॉ.अल्पना सिंह हिन्दी विभाग, बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर केन्द्रीय विश्वविद्यालय लखनऊ,संपर्क सूत्र:- भारत भारती काव्य की रचना का मूल उद्देश्य क्या है?भारत भारती, मैथिलीशरण गुप्तजी की प्रसिद्ध काव्यकृति है जो १९१२-१३ में लिखी गई थी। यह स्वदेश-प्रेम को दर्शाते हुए वर्तमान और भावी दुर्दशा से उबरने के लिए समाधान खोजने का एक सफल प्रयोग है। भारतवर्ष के संक्षिप्त दर्शन की काव्यात्मक प्रस्तुति "भारत-भारती" निश्चित रूप से किसी शोध कार्य से कम नहीं है।
भारत भारती की रचना कब हुई थी?यह काव्य 1912 में रचा गया और संशोधनों के साथ 1914 में प्रकाशित हुआ।
भारत भारती किसकी पुस्तक है?ज्ञान-भारत-भारती के रचयिता मैथिलीशरण गुप्त हैं।
भारत भारती की विधा क्या है?✎... 'भारत-भारती' मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित काव्य विधा की रचना है। 'भारत-भारती' राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त द्वारा रचित एक एक काव्य रचना है, इसकी रचना उन्होंने वर्ष 1912-13 में की थी।
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