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भारतीय विद्युत उत्पादन एवं आपूर्ति के क्षेत्र में परमाणु ऊर्जा एक निश्चित एवं निर्णायक भूमिका है। किसी भी राष्ट्र के सम्पूर्ण विकास के लिए विद्युत की पर्याप्त तथा अबाधित आपूर्ति का होना आवश्यक है। विकासशील देश होने के कारण भारत की सम्पूर्ण विद्युत आवश्यकताओं का एक बड़ा भाग गैर पारम्परिक स्रोतों से पूरा किया जाता है क्योंकि पारम्परिक स्रोतों द्वारा बढ़ती हुई आवश्यकताओं को पूरा नहीं किया जा सकता। भारत ने नाभिकीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त की है। इसका श्रेय डॉ॰ होमी भाभा द्वारा प्रारम्भ किए गए महत्वपूर्ण प्रयासों को जाता है जिन्होंने भारतीय नाभिकीय कार्यक्रम की कल्पना करते हुए इसकी आधारशिला रखी। तब से ही परमाणु ऊर्जा विभाग परिवार के समर्पित वेज्ञानिकों तथा इंजीनियरों द्वारा बड़ी सतर्कता के साथ इसे आगे बढ़ाया गया है। भारत में गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र, राजस्थान, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में परमाणु बिजली केन्द्र है। ये केन्द्र सरकार के अधीन हैं। वर्तमान में (अप्रैल 2015 से जेनुअरी 2016 तक) कुल बिजली उत्पादन में नाभिकीय ऊर्जा का भाग 30869 मिलियन यूनिट है जो कि लगभग 3.3% है। [1]वर्तमान में कुल स्थापित क्षमता 4780 मेगावाट है, तथा 2022 तक 13480 मेगावाट बिजली के उत्पादन की संभावना है, यदि वर्तमान में सभी निर्माणाधीन और कुछ नए प्रोजेक्ट को समयबद्ध तरीके से पूरा कर लिया जाता है। 1983 में गठित परमाणु ऊर्जा विनियामक बोर्ड (एईआरबी) भारत में परमाणु ऊर्जा के लिए नियामक संस्था है। नाभिकीय विज्ञान अनुसंधान बोर्ड (बीआरएनएस) के द्वारा अनुसन्धान और विकास सम्बन्धी गतिविधियाँ की जाती हैं।[2] कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र भारत के विद्युत उत्पादन का बड़ा भाग निम्नलिखित से प्राप्त होता है:
भारत में प्रति व्यक्ति विद्युत की खपत लगभग 400 किलोवाट घंटा/वर्ष[कृपया उद्धरण जोड़ें] है जो कि विश्व की औसत खपत 2400 किलो वाट घंटा /वर्ष[कृपया उद्धरण जोड़ें] से काफी कम है। अत: आने वाले वर्षों में सकल राष्ट्रीय दर को बढ़ा कर उसे विश्व औसत के बराबर लाने के लिए हमें विद्युत के उत्पादन में बहुत वृद्धि करनी होगी। भारत में कोयले के अनुमानित भण्डार 206 अरब टन हैं (यह विश्व के कुल कोयले भंडार का लगभग 6% है)[कृपया उद्धरण जोड़ें] तथा भारत में परम्परागत ऊर्जा स्रोतों का वितरण निम्नलिखित है[कृपया उद्धरण जोड़ें]:- कोयला- 68%, भूरा कोयला-5.6 % पौट्रोलियम - 20%, प्राकृतिक गौसें- 5.6% ऊर्जा की बढ़ती हुई माँग को देखते हुए यह पर्याप्त नहीं है और इसके अलावा भारतीय कोयले में सल्फर और राख की उच्च मात्रा होने के कारण इससे पर्यावरण समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। जल विद्युत उत्पादन क्षमता सीमित है और यह अनिश्चित मानसून पर निर्भर करती है। विद्युत उत्पादन के सन्दर्भ में किसी महत्वाकांक्षी लक्ष्य को प्राप्त करने में हमारे परम्परागत स्रोत अपर्याप्त हैं। समाप्त होते कोयले के भण्डार जल विद्युत की सीमित क्षमता के चलते नाभिकीय एवं अन्य गौर-परम्परागत स्रोतों के दोहन के द्वारा ही भविष्य में राष्ट्र की विद्युत आवश्यताएँ पूरी की जा सकती हैं। गौर परम्परागत स्रोतों में भारी क्षमता है और हमें इनका दोहन करना चाहिए। अपनी प्रकृति के कारण जहाँ अन्य गौर परम्परागत स्रोत लघु विकेन्द्रित अनुप्रयोगों के लिए उपयुक्त हैं वहीं नाभिकीय बिजलीघर बृहत केन्द्रीय उत्पादन केन्द्रों के लिए उपयुक्त हैं। नाभिकीय ऊर्जा हेतु नीति[संपादित करें]भारत ने विद्युत उत्पादन के लिए नाभिकीय ऊर्जा के प्रयोग के सम्बन्ध में सावधानीपूर्वक कदम आगे बढाए हैं। इसके लिए परमाणु ऊर्जा अधिनियम बनाकर उसका क्रियान्वयन किया गया। इसके अन्तर्गत निर्धारित उद्देश्यों में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध तथा उच्च सम्भावना वाले तत्वों यूरेनियम एवं थोरियम का उपयोग भारतीय नाभिकीय विद्युत रिएक्टरों में नाभिकीय ईंधन के रूप में करना है। भारत में इन दोनों तत्वों के अनुमानित प्राकृतिक भण्डार इस प्रकार हैं :- प्राकृतिक यूरेनियम भण्डार - लगभग 70,000 टन थोरियम भण्डार - लगभग 3,60,000 टन भारतीय नाभिकीय विद्युत उत्पादन कार्यक्रम के अन्तर्गत एक तीन चरणीय कार्यक्रम (चरण 1, चरण 2, चरण 3) का समावेश है दाबित भारी पानी रिएक्टर अभिकल्पन का विकास[संपादित करें]भारत के नाभिकीय कार्यक्रम का प्रथम चरण पीएचडब्ल्यूआर प्रौद्योगिकी पर आधारित था जिसके निम्नलिखित लाभ हैं :-
पहले दो रिएक्टर कनाडा के सहयोग से राजस्थान में कोटा के निकट रावतभाटा में बनाये गये थे। बाद में मद्रास के निकट कलपक्कम में दो इकाइयाँ बनाई गयीं जिनकी डिजाइन समान थी परन्तु उनमें स्वदेशी प्रौद्योगिकी का प्रयोग किया गया। बाद में, नरोरा में स्थित रिएक्टरों द्वारा हमारे इंजीनियरों को प्रथम बार यह अवसर मिला कि वे अपने प्रचालन अनुभवों तथा अन्य आवश्यकताओं जैसे - कठोर संरक्षा मानकों एवं भूकम्परोधी डिजाइन का उपयोग करते हुए स्वदेशी डिजाइन तैयार करें। विकास की प्रक्रिया का अगला कदम 500 MWe पीएचडब्ल्यूआर का अभिकल्पन करना है और इस अभिकल्पन पर आधारित दो इकाइयाँ तारापुर (महाराष्ट्र) में स्थापित की जा रही हैं। विभिन्न घटकों एवं उपकरणों के निर्माण हेतु प्रौद्योगिकी अब अच्छी तरह स्थापित हो चुकी है और यह परमाणु ऊर्जा विभाग एवं उद्योगों के मध्य सक्रिय सहयोग द्वारा और विकसित हो रही है। पऊवि में स्वगृहीय प्रयासों के अतिरिक्त पीएचडब्ल्यूआर प्रौद्योगिकी के विकास में अनेक विश्वविद्यालयों एवं राष्ट्रीय संस्थानों ने भी भाग लिया है। प्राप्त अनुभवों तथा निष्णान्त प्रौद्योगिकी के उपयोग द्वारा हमारे संयन्त्रों के कार्य निष्पादन में सुधार हो रहा है। भारत का प्रथम 40 मेगावाटवाला तीव्र प्रजनक परीक्षण रिएक्टर (फास्ट ब्रीडर टेस्ट रिएक्टर, एफबीटीआर) 18 अक्टूबर 1985 को क्रान्तिक हुआ। अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस, जापान और तत्कालीन यूएसएसआर के अलावा भारत छठवाँ देश हुआ जिसके पास एफ बी टी आर के निर्माण तथा प्रचालन की प्रौद्योगिकी है। भारतीय एफबीटीआर की अद्वितीय विशेषताएँ इस प्रकार हैं :-
स्थिति : परिचालन की प्रारंभिक समस्याओं को दूर कर लिया गया है और रिएक्टर को 10.5 मेगावाट के स्थिर ऊर्जा स्तर पर आसानी से प्रचालित किया जा रहा है जो कि इसकी छोटी कोर को देखते हुए अधिकतम संभव विद्युत उत्पादन है। भावी योजनाएँ : एफबीटीआर के अभिकल्पन, स्थापना और प्रचालन द्वारा भरपूर अनुभव और द्रव धातु शीतलित तीव्र प्रजनक रिएक्टर की प्रौद्योगिकी के संबंध में असीम जानकारी प्राप्त हुई है तथा इससे कल्पाक्कम में निर्मित किए जानेवाले एक 500 मेगावॉट के प्रोटोटाइप तीव्र प्रजनक रिएक्टर का अभिकल्पन कार्य प्रारम्भ करने के लिए आत्मविश्वास भी मिला। पीएफबीआर के अभिकल्पन हेतु आवश्यक है :-
पीएचडब्ल्यूआर में मन्दक और प्राथमिक शीतलक के रूप में काम करने के लिए उच्च शुद्धता वाले भारी जल का प्रयोग किया जाता है।
नाभिकीय ईंधन एवं संरचनात्मक घटक[संपादित करें]देश के सम्पूर्ण परमाणु विद्युत कार्यक्रम हेतु नाभिकीय ईंधन के संयोजन और महत्वपूर्ण संरचनात्मक घटकों के निर्माण हेतु नाभिकीय ईंधन सम्मिश्र (एन एफ सी) की स्थापना हैदराबाद में 70 के दशक के प्रारम्भ में की गई थी। एन एफ सी के क्रियाकलापों का विवरण निम्नलिखित है :-
नाभिकीय ईंधन चक्र का पश्च्यन्त (backend)[संपादित करें]नाभिकीय विद्युत उत्पादन कार्यक्रम - नाभिकीय ईंधन चक्र का अग्रान्त (front end)यूरेनियम का खनन, पृथक्करण, रसायनिक शुद्धीकरण, उपयुक्त रूप में परिवर्तन और ईंधन छड़ का निर्माण नाभिकीय विद्युत उत्पादन कार्यक्रम - नाभिकीय ईंधन चक्र का पश्च्यन्तभुक्तशेष ईंधन का पुनर्संसाधन, विखण्ड्य उर्वर घटकों का पृथक्करण, उचित उपचार क्रिया के बाद विकिरण सक्रिय अपशिष्ट का निरापद निपटान। नाभिकीय ईंधन चक्र का पश्च्यन्त उसकी संवेदनशीतला और सुरक्षा दोनों ही दृष्टियों से एक महत्वपूर्ण क्रिया है। पूर्ण रूप से स्वदेश में किए गए अनुसन्धान एवं विकास प्रयासों द्वारा ही ईंधन पुनर्संसाधन प्रौद्योगिकी का विकास और मानकीकरण किया गया था। भुक्तशेष ईंधन से प्लूटोनियम निकालने के लिए तीन पुनर्संसाधन संयन्त्रों का क्रमश: ट्राम्बे, तारापुर और कल्पाक्कम में शीत कमीशनन किया गया था। कल्पाक्कम संयन्त्र में अनेक नवीन प्रक्रियाएँ समाविष्ट की गई हैं जैसे :
अपशिष्ट प्रबन्धन हेतु निम्नलिखित अनुसार दीर्घ-कालिक कार्य योजना प्रतिपादित की गई है :-
नाभिकीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियों को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता एवं स्वीकृति प्राप्त है। भारत द्वारा सफलतापूर्वक अपनाये गये उत्कृष्ट अवसंरचनात्मक एवं वर्षों के समर्पित अनुसन्धान एवं विकास कार्यों से नाभिकीय विद्युत उत्पादन एवं सहायक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण प्रगति के साथ-साथ वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकीय क्षेत्रों में स्वावलम्बन भी हासिल किया गया है। परमाणु ऊर्जा विभाग द्वारा नाभिकीय ऊर्जा एवं रिएक्टर प्रौद्योगिकियों, आइसोटोप अनुप्रयोगों एवं विकिरण प्रौद्योगिकियों, त्वरक एवं लेसर प्रौद्योगिकी कार्यक्रम, विकिरण सम्बन्धी स्वास्थ्य एवं सुरक्षा के क्षेत्रों में सर्वांगीण एवं व्यापक अनुसंधान तथा विकास सम्बन्धी अध्ययन कार्य अपने चार अनुसन्धान एवं विकास केन्द्रों यथा भापअ केंद्र, आईजीसीएआर, वीईसीसी एवं कैट, इन्दौर में संचालित किये जाते हैं। विज्ञान एवं इंजीनियरी के अनेक महत्वपूर्ण विषयों में मूलभूत एवं अनुप्रयोगात्मक अनुसंधान कार्यों पर बल देने के कारण इन संस्थानों में प्रौद्योगिकी एवं मूलभूत अनुसन्धान कार्यों के विकास में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है जिससे न केवल परमाणु ऊर्जा बल्कि अन्य अनेक क्षेत्रों में लाभ मिला है। विद्युत उत्पादन के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में प्राप्त कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ निम्नलिखित रही हैं :
अनुसन्धान रिएक्टरों का प्रयोग - अनुसन्धान रिएक्टर अनेक विषयों में मूलभूत एवं अनुप्रयुक्त अनुसंधान हेतु आदर्श आधार उपलब्ध कराते हैं।
ध्रुव : भापअ केन्द्र स्थित ध्रुवा रिएक्टर का अभिकल्पन, निर्माण एवं कमीशनन भारतीय इंजीनियरों एवं वौज्ञानिकों द्वारा किया गया। इसमें ईंधन के रूप में प्राकृतिक यूरेनियम मन्दक एवं शीतलक के रूप में भारी पानी का प्रयोग किया जाता है। इस रिएक्टर के द्वारा भारत को रेडियोआइसोटोपों के उत्पादन में आत्मनिर्भरता प्राप्त हुई है। कामिनी : यह कल्पाक्कम स्थित इंदिरा गांधी परमाणु अनुसन्धान केन्द्र में 30 kWt क्षमतावाला रिएक्टर है। यह रिएक्टर अक्टूबर 1996 में क्रान्तिक हुआ जो न्यूट्रान रेडियोग्राफी सुविधाएँ उपलब्ध कराता है। हमारे विस्तृत थोरियम भंडार के उपयोग की दिशा में यह एक छोटी परन्तु महत्वपूर्ण उपलब्धि है। यह विश्व का एक मात्र रिएक्टर है जिसमें यूरेनियम - 233 ईंधन का प्रयोग होता है। परमाणु ऊर्जा विभाग द्वारा निर्मित कुछ बड़ी सुविधाएँ अब पऊवि सुविधाओं हेतु अन्तर विश्वविद्यालय संघ के माध्यम से विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के उपयोग के लिए उपलब्ध हैं। अपने अनुसन्धान केन्द्रों में अनुसन्धान कार्य के अतिरिक्त परमाणु ऊर्जा विभाग द्वारा निम्नलिखित सात सहायता प्राप्त संस्थाओं को पूर्ण सहायता दी जाती है परमाणु ऊर्जा के शान्तिमय उपयोग के कार्यों में, नाभिकीय ऊर्जा पर आधारित विद्युत उत्पादन का सर्वप्रथम स्थान है एवं भारत ने इस क्षेत्र में कई उपलब्धियां प्राप्त की है। देश की भविष्य की आवश्यकताओं हेतु अधिक विद्युत उत्पादन क्षमता एवं उपलब्ध स्रोतों को ध्यान में रखते हुए विद्युत उत्पादन में वृद्धि के लिए परमाणु ऊर्जा के दोहन हेतु एक सुनियोजित कार्यक्रम का क्रियान्वयन किया जा रहा है। अनुसन्धान एवं विकास कार्यों का एक सुदृढ़ ढाँचा तौयार किया गया है जो अनुसंधान एवं विकास गतिविधियों के सुचारू नियोजन तथा उसके द्वारा परमाणु ऊर्जा विभाग को दिए गए दायित्व को पूरा करने में एक आधार भूमिका का निर्वाह कर रहा है। विकासात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अनेक सामरिक रूप से महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों में निपुणता प्राप्त की गई है। ईंधन पुनर्संसाधन, समृद्धिकरण, विशेष पदार्थों का उत्पादन, कम्प्यूटर, लेसर, त्वरक, आदि के क्षेत्रों में स्वदेशी प्रौद्योगिकी का विकास हमारे भविष्य की ऊर्जा माँगों की पूर्ति हेतु हमारे ऊर्जा स्रोतों के दोहन से संबंधित संचालित हमारी संपूर्ण गतिविधियों का चित्रण करती हैं। विकिरण प्रौद्योगिकी एवं आइसोटोप अनुप्रयोग ऐसे अन्य प्रमुख क्षेत्र हैं जहाँ परमाणु ऊर्जा का स्वास्थ्य संरक्षण, कृषि, उद्योग, जलविज्ञान एवं खाद्य परिरक्षण के लिए शान्तिमय उपयोग किया जाता है तथा जहाँ हमें आत्मनिर्भरता प्राप्त हुई है। देश में वित्तीय वर्ष 2009-10 के दौरान परमाणु ऊर्जा से 10667 मिलियन यूनिट बिजली उत्पन्न की गयी। इससे पहले वित्तीय वर्ष 2006-07, 2007-08, 2008-09 के दौरान क्रमश: 18801 मिलियन इकाई, 16956 मिलियन इकाई तथा 14927 मिलियन इकाई बिजली उत्पन्न हुई थी। वित्तीय वर्ष 2008-09 में कुल क्षमता का 50 फीसदी उत्पादन हुआ था जबकि वित्तीय वर्ष 2009-10 में यह 60 फीसदी था।[1] 11वीं पंचवर्षीय योजना में नाभिकीय ऊर्जा के उत्पादन का लक्ष्य 163,935 मिलियन यूनिट (एमयूज) था जबकि वास्तविक उत्पादन 109,642 मिलियन यूनिट हुआ।[3] कुडनकुलम नाभिकीय विद्युत परियोजना यूनिट-1 की स्थापित क्षमता 1000 मेगावाट है और इस यूनिट को अक्टूबर 2013 को ग्रिड के साथ जोड़े जाने के बाद से लेकर 13 जुलाई 2014 तक इसमें अनिश्चित तौर पर विद्युत का वास्तविक रूप से उत्पादन लगभग 2565 यूनिट रहा है। परियोजना की द्वितीय इकाई (1000 मेगावाट) कमीशनाधीन है।[3] भारत का प्रथम परमाणु बिजली घर कौन सा है?Tarapur Atomic Power Station देश को ऊर्जा सामर्थ्य की राह दिखाने वाला तारापुर स्थित भारत का पहला परमाणु बिजलीघर भी आधी शताब्दी का सफर पूरा कर चुका है। यह न सिर्फ भारत बल्कि पूरे एशिया का पहला परमाणु बिजलीघर है।
वर्तमान में भारत में कितने परमाणु बिजली घर है?भारत में 20 परमाणु बिजली घर हैं जिन की क्षमता 4780 मेगावाट है. ऐसे समय में जब जापान का एक मुख्य परमाणु संयंत्र गंभीर संकट से जूझ रहा है, भारत के परमाणु ऊर्जा संगठन के अधिकारियों ने कहा है कि इस घटना से भारत की परमाणु ऊर्जा विकास योजना पर कोई असर नहीं पड़ेगा.
भारत का पहला परमाणु ऊर्जा स्टेशन कहाँ स्थापित किया गया?भारत का पहला परमाणु ऊर्जा केंद्र तारापुर परमाणु ऊर्जा स्टेशन था। इसे वर्ष 1969 में कमीशन किया गया था। यह महाराष्ट्र के ठाणे जिले में स्थित है। इसे संयुक्त राज्य अमेरिका और अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) की मदद से बनाया गया था।
भारत का पहला परमाणु बिजली घर कब लगाया गया?भारत में प्रथम परमाणु विद्युत संयंत्र की स्थापना USA की सहायता से वर्ष 1969 में महाराष्ट्र के तारापुर में की गयी थी।
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