बाजार की परिभाषा दीजिए तथा इसकी विशेषता को समझाइए - baajaar kee paribhaasha deejie tatha isakee visheshata ko samajhaie

Solution : अर्धशास्त्र में बाजार शब्द से अभिप्राय किसी विशेष स्थान से नहीं है बल्कि ऐसे क्षेत्र से है जहाँ किसी वस्तु की सारे बाजार में एक ही कीमत प्रचलित होने की प्रवृत्ति पाई जाती है। सामान्य अर्थ में बाजार से अभिप्राय उस स्थान से होता है जहाँ क्रेता तथा विक्रेता वस्तु का सौदा करने के लिए किसी जगह एकत्र होते हैं। अर्थशास्त्र में बाजार शब्द का अर्थ उस प्रभावपूर्ण व्यवस्था से लगाया जाता है जिसमें कि विक्रेताओं और क्रेताओं का घनिष्ठ संबंध स्थापित किया जाता है।

प्रश्न 43 : बाजार शब्द से आप क्या समझते हैं? इसके विभिन्न प्रकार बतलाइये। इसके विस्तार को प्रभावित करने वाले विभिन्न तत्व कौन से हैं ?

उत्तर - बाजार शब्द का अर्थ

सामान्य अर्थ में “बाजार” शब्द से तात्पर्य एक ऐसे स्थान या केन्द्र से होता है, जहाँ पर वस्तु के क्रेता और विक्रेता भौतिक रूप से उपस्थित होकर क्रय-विक्रय का कार्य करते हैं। उदाहरण के लिए शहरों में स्थापित व्यापारिक केन्द्र जैसे कपड़ा बाजार या गाँवों में लगने वाले हाट। अर्थशास्त्र में बाजार शब्द का अर्थ सामान्य अर्थ से भिन्न होता है। अर्थशास्त्र में बाजार शब्द का तात्पर्य उस सम्पूर्ण क्षेत्र से होता है, जहाँ कि वस्तु के क्रेता एवं विक्रेता आपस में और परस्पर प्रतिस्पर्धा के द्वारा उस वस्तु का एक ही मूल्य बने रहने में योग देते हैं।

प्रो. ऐली के अनुसारः “बाजार से तात्पर्य उस सामान्य क्षेत्र से होता है, जहाँ पर किसी वस्तु विशेष के मूल्य को निर्धारित करने वाली शक्तियां क्रियाशील होती हैं।”

बाजार की विशेषताएं

1. क्षेत्र- इसका क्षेत्र स्थान विशेष तक सीमित न होकर विस्तृत होता है। इसका क्षेत्र अन्तर्राष्ट्रीय भी हो सकता है।

2. प्रतियोगिता- बाजार में प्रतियोगिता हो भी सकती है और नहीं भी ।

3. एक वस्तु- प्रत्येक वस्तु का बाजार अलग-अलग होता है। बाजार में वस्तुओं की ही खरीदी और बिक्री की जाती है ।

4. क्रेता और विक्रेता- बाजार में क्रेता और विक्रेता के बीच ही क्रय व विक्रय होता है।

बाजार का वर्गीकरण

विभिन्न तत्वों के आधार पर बाजारों का वर्गीकरण किया जाता है । इसके मुख्य आधार निम्न हैं -

1. क्षेत्र के आधार पर -

इस आधार पर वर्गीकरण 4 प्रकार के होते हैं, जो निम्नानुसार होते हैं :

(अ) स्थानीय बाजार- जब किसी वस्तु के क्रेता-विक्रेता किसी स्थान विशेष पर ही क्रय-विक्रय सम्बन्धी कार्य-कलाप सम्पन्न करते हैं तो उसे स्थानीय बाजार कहा जाता है । स्थानीय बाजार में वह वस्तुएं आती हैं जो शीघ्र खराब होने वाली होती हैं, जैसे दही, सब्जी तथा भारवाली वस्तुएं जैसे- रेत, पत्थर आदि ।

(ब) राष्ट्रीय बाजार- जब किसी वस्तु के क्रेता व विक्रेता पूरे राष्ट्र में फैले होते हैं तो ऐसी वस्तु का बाजार राष्ट्रीय बाजार कहलाता है जैसे- पगड़ी, चुनरी, लुंगी, साड़ियां आदि ।

(स) अन्तर्राष्ट्रीय बाजार- जब किसी वस्तु का क्रय-विक्रय विश्व में विभिन्न भागों में किया जाता है एवं उसके क्रेता व विक्रेता सम्पूर्ण विश्व में फैले होते हैं तो ऐसे बाजार को अन्तर्राष्ट्रीय बाजार कहते हैं। जैसे- सोना, चांदी, चमड़ा आदि।

(द) प्रादेशिक बाजार- जब किसी वस्तु का क्रय-विक्रय नगर या किसी ग्राम की सीमाओं के पार किसी प्रान्त या राज्य की सीमाओं तक ही सीमित रहता है, तब इसे प्रादेशिक बाजार कहते हैं जैसे - राजस्थान में लाख चूड़ियों की माँग ।

2. समय के आधार पर बाजार का वर्गीकरण

(अ) दीर्घकालीन बाजार- दीर्घकालीन बाजार वह बाजार है जिसमें विक्रेता के पास पूर्ति में वृद्धि करने के लिए पर्याप्त लम्बा समय होता है। इस बाजार में माँग और पूर्ति की शक्तियों में पूर्ण समायोजन हो जाता है । फलतः मूल्य के निर्धारण में माँग और पूर्ति दोनों का समान प्रभाव पड़ता है

(ब) अति दीर्घकालीन बाजार- इस बाजार में विक्रेता के पास इतना अधिक समय होता है कि वह उपभोक्ता के स्वभाव, रुचि और फैशन के अनुसार उत्पादन कर सकता है।

(स) अल्पकालीन बाजार- अल्पकालीन बाजार वह बाजार है जिसकी पूर्ति कुछ सीमा तक बढ़ाई जा सकती है, किन्तु यह वृद्धि माँग के अनुपात में नहीं होती है।

(द) अतिअल्पकालीन बाजार- जब वस्तु के विक्रेता के पास पूर्ति में वृद्धि करने का समय बिल्कुल भी उपलब्ध नहीं होता, तब इस प्रकार के बाजार को अति अल्पकालीन बाजार कहते हैं। जैसे- हरी सब्जी, दही, दूध आदि ।

3. प्रतियोगिता के आधार पर बाजार का वर्गीकरण

इस वर्गीकरण को हम 3 भागों में बाँट सकते हैं -

(अ) पूर्ण बाजार- पूर्ण प्रतियोगिता युक्त बाजार को पूर्ण बाजार कहते हैं। पूर्ण बाजार वह है जिसमें (1) वस्तुओं के बहुत से क्रेता व विक्रेता (2) समरूप वस्तु (3) क्रेताओं तथा विक्रेताओं को बाजार का पूर्ण ज्ञान (4) उत्पादन के साधनों की पूर्ण गतिशीलता (5) यातायात व्यय नहीं होता है।

(ब) अपूर्ण बाजार- अपूर्ण प्रतियोगिता वाले बाजार उस बाजार को कहते हैं जिसमें (1) पूर्ण प्रतियोगिता का अभाव रहता है (2) क्रेताओं और विक्रेताओं की संख्या कम रहती है। (3) क्रेताओं और विक्रेताओं को बाजार के बारे में पूर्ण ज्ञान नहीं होता।

(स) एकाधिकार बाजार- एकाधिकार बाजार वह बाजार है जिसमें (1) वस्तु का केवल एक ही उत्पादक या विक्रेता होता है (2) उसका कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं होता है (3) उस वस्तु की बाजार में कोई प्रतिस्थापन वस्तु नहीं होती ।

4. कार्य के आधार पर बाजार का वर्गीकरण

(अ) सामान्य बाजारः जब एक ही बाजार में विभिन्न वस्तुएं खरीदी या बेची जाती हैं, तो ऐसे बाजार को सामान्य बाजार कहते हैं।

(ब) विशिष्ट बाजार- जब एक ही वस्तु का बाजार एक छोटे क्षेत्र में सीमित हो जाता है तो उसे विशिष्ट बाजार कहते हैं। जैसे- सब्जी मण्डी, धान मण्डी, लोहा मण्डी आदि ।

(स) नमूने का बाजार- नमूने के बाजार में वस्तुओं की खरीदी एवं बिक्री नमूनों के आधार की जाती है जैसे दरी, चादर आदि ।

5. वैधानिकता के आधार पर बाजार का वर्गीकरण ।

वैधानिकता के आधार पर बाजार का वर्गीकरण 2 प्रकार का होता है :

(अ) वैध बाजार- जिस बाजार में ग्राहकों को सरकार द्वारा निर्यात किये गये मूल्यों पर वस्तुएं मिलती हैं, उसे वैध बाजार कहते हैं। जैसे - राशन की दुकान ।

(ब) चोर बाजार- जिस बाजार में ग्राहकों को सरकार द्वारा तय किये गये मूल्यों से अधिक मूल्य पर वस्तुओं को चोरी छिपे खरीदना पड़ता है तो उसे चोर बाजार कहते हैं। यह बाजार अवैधानिक होते हैं। 6. बिक्री की मात्रा के अनुसार वर्गीकरण

(अ) फुटकर बाजार- फुटकर बाजार से आशय उस बाजार से होता है जहाँ पर वस्तुओं को थोड़ी-थोड़ी मात्रा में क्रय-विक्रय किया जाता है ।

(ब) थोक बाजार- थोक बाजार से आशय उस बाजार से होता है जहाँ वस्तुओं की बड़ी मात्राओं में खरीदी बिक्री होती है।

बाजार के विस्तार को प्रभावित करने वाले तत्व

आधुनिक युग में कई कारणों से वस्तुओं के बाजारों के विस्तृत होने की प्रवृत्ति पाई जाती है। किसी वस्तु के बाजार के विस्तार को प्रभावित करने वाले तत्वों को निम्नानुसार दो भागों में बाँटा जा सकता है ।

(I) वस्तु विशेष के गुण

इसके अन्तर्गत निम्नलिखित गुणों का वर्णन किया जा सकता है :

(1) टिकाऊपन- प्रायः वे वस्तुएं, जो शीघ्र ही नष्ट हो जाती हैं उनका बाजार विस्तृत नहीं होगा जैसे सब्जी, दूध, दही, फल आदि । ठीक इसके विपरीत वे वस्तुएं जो शीघ्र नष्ट नहीं होने वाली हैं उनका बाजार विस्तृत होगा जैसे मशीन, फर्नीचर, सोना, चाँदी आदि ।

(2) वहनीयता- प्रायः वे वस्तुएं, जिनको सरलता पूर्वक एवं कम व्यय पर एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित किया जा सकता है उनका बाजार विस्तृत होगा जैसे सोना, चाँदी, कपड़े आदि । कम मूल्य एवं अधिक भारवाली वस्तुओं का बाजार संकुचित होगा जैसे रेत, ईंट क्योंकि इनमें वहनीयता का गुण नहीं होता।

(3) वस्तु की माँग की प्रकृति- किसी भी वस्तु की माँग का बाजार उस वस्तु की माँग पर निर्भर करता है । यदि वस्तु की माँग अधिक होगी तो उसका बाजार विस्तृत होगा, ठीक इसके विपरीत यदि वस्तु की माँग कम है तो बाजार संकुचित या कम विस्तृत होगा।

(4) वस्तु की पूर्ति- किसी वस्तु का बाजार उसकी पूर्ति पर निर्भर करता है। यदि वस्तु की पूर्ति पर्याप्त है तो उस वस्तु का बाजार विस्तृत होगा। यदि वस्तु की पूर्ति को पर्याप्त मात्रा में व्यवस्थित नहीं किया जा सकता तो उस वस्तु का बाजार संकुचित होगा।

(II) देश में व्याप्त दशाएं

(1) दृढ़ मुद्रा की व्यवस्था- बाजार के विस्तार के लिए यह भी जरूरी है कि देश की मुद्रा के मूल्य की स्थिरता बनी रहे। जिससे अनेक देश उस देश से व्यापारिक संबंध बनाये रखते हैं। परन्तु यदि देश की मुद्रा के मूल्य में अनिश्चितता बनी रहती है तो अन्य देश उस, देश से अपने सुदृढ़ व्यापारिक सम्बन्ध बनाये नहीं रखते हैं।

(2) श्रम विभाजन- किसी भी देश में बाजार का विस्तार श्रम विभाजन पर निर्भर करता है। जितना अधिक एवं सूक्ष्म विभाजने अपनाया जाता है, उतना ही अधिक उत्पादन बढ़ता है। यदि श्रम विभाजन छोटी सीमा तक ही अपनाया जाए तो बाजार भी अपेक्षाकृत कम फैलता है।

(3) सरकार की आर्थिक नीतियां- यदि सरकार सही अर्थ-नीति का अनुसरण करती है तो बाजार के विस्तृत होने की सम्भावना अधिक होती है ।

(4) शांति एवं सुरक्षा- जिस देश में शांति एवं सुरक्षा बनी रहती है, उस देश के बाजार का क्षेत्र विस्तृत होता है। व्यक्ति आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर आ जा सकते हैं परन्तु यदि देश में शान्ति एवं सुरक्षा नहीं है, अर्थात् युद्ध, कुशल प्रशासन का अभाव आदि होता है, वहाँ पर बाजार निश्चित रूप से सीमित रहते हैं । व्यक्ति के मन में हमेशा भय बना रहता है ।

(5) परिवहन एवं संचार साधनों का विकास- किसी भी देश में बाजारों के विस्तार पर वहाँ के यातायात के साधन एवं संचार के साधनों का प्रभाव पड़ता है । जिस देश में इन साधनों की अधिकता होती है उस क्षेत्र का बाजार विस्तृत होता है जैसे रेल, हवाई जहाज आदि ।

बाजार क्या है इसकी विशेषताएं क्या हैं?

बाजार की विशेषताएं या आवश्यक तत्व (bazar ki visheshta) इस प्रकार इसका क्षेत्र स्थान विशेष तक सीमित न होकर विस्तृत होता है। इसका क्षेत्र अन्तर्राष्ट्रीय भी हो सकता है। मांग और पूर्ति के बिना किसी वस्तु के बाजार की कल्पना ही नही जा सकती है। वस्तु के क्रेता तथा विक्रेता दोनों की उपस्थिति ही बाजार बनाती है।

बाजार क्या है परिभाषित कीजिए?

बाज़ार ऐसी जगह को कहते हैं जहाँ पर किसी भी चीज़ का व्यापार होता है। आम बाज़ार और ख़ास चीज़ों के बाज़ार दोनों तरह के बाज़ार अस्तित्व में हैं। बाज़ार में कई बेचने वाले एक जगह पर होतें हैं ताकि जो उन चीज़ों को खरीदना चाहें वे उन्हें आसानी से ढूँढ सकें।

बाजार की कितनी विशेषताएं होती हैं?

बाज़ार की विशेषताएँ Characteristics of market in hindi) | बाज़ार के प्रमुख तत्व.
(1) एक वस्तु- बाज़ार का संबंध एक ही वस्तु से होना चाहिए। ... .
(3) क्रेता और विक्रेता- बाज़ार में क्रेता व विक्रेता दोनों का ही होना आवश्यक है। ... .
(6) एक मूल्य- बाज़ार के अंदर क्रेताओं-विक्रेताओं के बीच जब आपसी प्रतियोगिता होती है।.

बाजार किसे कहते हैं और यह कितने प्रकार के होते हैं?

बोलचाल की आम भाषा में हम यह कह सकते हैं कि बाजार का आशय किसी ऐसे स्थान विशेष से हैं जहां किसी वस्तु या वस्तुओं के क्रेता और विक्रेता इकठ्ठा होते हैं। तथा वस्तुओं को खरीदते और बेचते हैं। निम्नलिखित दृष्टिकोण से किया जाता है। प्राथमिक बाजार और द्वितीयक बाजार में क्या अंतर होता है?