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विस्तृत उत्तरीय प्रश्न (6 अंक) प्रश्न 1 विभिन्न अर्थशास्त्रियों के द्वारा बाजार की परिभाषाएँ निम्नवत् दी गयी हैं बाजार के मुख्य तत्व (लक्षण/विशेषताएँ) 1. एक क्षेत्र – बाजार से अर्थ उसे समस्त क्षेत्र से होता है जिसमें क्रेता व विक्रेता फैले रहते हैं तथा क्रय-विक्रय करते हैं। 2. एक वस्तु का होना – बाजार के लिए एक वस्तु का होना भी आवश्यक है। अर्थशास्त्र में प्रत्येक वस्तु का बाजार अलग-अलग माना जाता है; जैसे–कपड़ा बाजार, नमक बाजार, सर्राफा बाजार, किराना बाजार, घी बाजार। अर्थशास्त्र में बाजार की संख्या वस्तुओं के प्रकार तथा किस्मों पर निर्भर करती है। 3. क्रेताओं व विक्रेताओं का होना – विनिमय के कारण बाजार की आवश्यकता होती है। अतः बाजार में विनिमय के दोनों पक्षों (क्रेता व विक्रेता) का होना आवश्यक है। किसी एक भी पक्ष के न होने पर बाजार नहीं होगा। 4. स्वतन्त्र व पूर्ण प्रतियोगिता – बाजार में क्रेता और विक्रेताओं में स्वतन्त्र व पूर्ण प्रतियोगिता होनी चाहिए जिससे कि वस्तु की कीमत सम्पूर्ण बाजार में एकसमान बनी रह सके। 5. एक कीमत – बाजार की एक आवश्यक विशेषता यह भी है कि बाजार में किसी वस्तु की एक समय में एक ही कीमत हो। यदि कोई व्यापारी किसी वस्तु की एक ही समय में भिन्न-भिन्न कीमतें माँगता है तो क्रेता उससे माल नहीं खरीदेंगे। अत: बाजार में वस्तु की कीमत की प्रवृत्ति समान होने की होती है। 6. बाजार को पूर्ण ज्ञान – वस्तु का एक ही मूल्य हो, इसके लिए क्रेता-विक्रेता दोनों को ही बाजार का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। बाजार का अपूर्ण ज्ञान होने के कारण उनको वस्तुएँ उचित मूल्य पर प्राप्त होने में कठिनाई होती है। प्रश्न 2 (क) क्षेत्र की दृष्टि से 1. स्थानीय बाजार – जब किसी वस्तु की माँग स्थानीय होती है अथवा उसके क्रेता और विक्रेता किसी स्थान-विशेष तक ही सीमित होते हैं, तब उस वस्तु का बाजार स्थानीय होता है। प्रायः भारी एवं कम मूल्य वाली वस्तुओं तथा शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुओं का बाजार स्थानीय होता है; जैसे-ईंट, दूध, गोश्त, सब्जी आदि का बाजार स्थानीय होता है। परिवहन के विकास एवं वस्तुओं को सुरक्षित रखने के साधनों के विकास के कारण अब स्थानीय बाजार वाली वस्तुओं का बाजार धीरे-धीरे विकसित होकर प्रादेशिक बाजार का स्थान लेता जा रहा है। 2. प्रादेशिक बाजार – जब वस्तु के क्रेता और विक्रेता केवल एक ही प्रदेश तक सीमित हों तब ऐसा बाजार प्रादेशिक होता है। उदाहरण के लिए हमारे देश में राजस्थानी पगड़ी तथा लाख की चूड़ियाँ केवल राजस्थान में ही प्रयोग में लायी जाती हैं, अन्य राज्यों में नहीं। अत: इन वस्तुओं का बाजार प्रादेशिक कहा जाएगा। 3. राष्ट्रीय बाजार – जब किसी वस्तु का क्रय-विक्रय केवल उस राष्ट्र तक ही सीमित हो, जिस राष्ट्र में वह वस्तु उत्पन्न की जाती है तब वस्तु का बाजार राष्ट्रीय होगा। गांधी टोपी, जवाहरकट धोतियाँ आदि कुछ ऐसी वस्तुएँ हैं जिनका क्रय-विक्रय केवल भारत तक ही सीमित है; अत: इन वस्तुओं का बाजार राष्ट्रीय बाजार कहा जाता है। 4. अन्तर्राष्ट्रीय बाजार – जब किसी वस्तु के क्रेता-विक्रेता विश्व के विभिन्न राष्टों से वस्तुओं का क्रय-विक्रय करते हैं या जब किसी वस्तु की माँग देश व विदेश में हो तो उस वस्तु का बाजार अन्तर्राष्ट्रीय होता है; जैसे – सोना, चाँदी, चाय, गेहूं आदि वस्तुओं के बाजार अन्तर्राष्ट्रीय हैं। (ख) समय की दृष्टि से 1. अति-अल्पकालीन बाजार या दैनिक बाजार – जब किसी वस्तु की माँग बढ़ने से उसका लेशमात्र भी सम्भरण (पूर्ति) बढ़ाने का समय नहीं मिलता, तब ऐसे बाजार को अति-अल्पकालीन बाजार कहते हैं अर्थात् पूर्ति की मात्रा केवल भण्डार तक ही सीमित होती है। इसे दैनिक बाजार भी कहते हैं। शीघ्र नष्ट हो जाने वाली वस्तुओं – दूध, सब्जी, मछली, बर्फ आदिका बाजार अति-अल्पकालीन होता है। 2. अल्पकालीन बाजार – अल्पकालीन बाजार में माँग और पूर्ति के सन्तुलन के लिए कुछ समय मिलता है, किन्तु यह पर्याप्त नहीं होता। पूर्ति में माँग के अनुसार कुछ सीमा तक घट-बढ़ की जा सकती है, किन्तु यह पर्याप्त नहीं होती। यद्यपि पूर्ति का मूल्य-निर्धारण में प्रभाव अति अल्पकालीन बाजार की अपेक्षा अधिक होता है, किन्तु फिर भी माँग की अपेक्षा कम ही रहता है। 3. दीर्घकालीन बाजार – जब किसी वस्तु का बाजार कई वर्षों के लम्बे समय के लिए होता है, तो उसे दीर्घकालीन बाजार कहते हैं। दीर्घकालीन बाजार में वस्तु की माँग में होने वाली वृद्धि इतने समय तक रहती है कि पूर्ति को बढ़ाकर माँग के बराबर करना सम्भव होता है। इस प्रकार के बाजार में माँग और पूर्ति का पूर्ण साम्य स्थापित किया जा सकता है। दीर्घकालीन बाजार में मूल्य-निर्धारण पर माँग की अपेक्षा पूर्ति का अधिक प्रभाव पड़ता है और वस्तु का मूल्य उसके उत्पादन व्यय के बराबर होता है। 4. अति-दीर्घकालीन बाजार – अति-दीर्घकालीन बाजार में उत्पादकों को पूर्ति बढ़ाने के लिए इतना लम्बा समय मिल जाता है कि उत्पादन विधि तथा व्यवसांय की आन्तरिक व्यवस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तन किये जा सकते हैं। ऐसे बाजार में पूर्ति को स्थायी रूप से माँग के बराबर किया जा सकता है। इस बाजार में समय की अवधि इतनी अधिक होती है कि उत्पादक उपभोक्ता के स्वभाव, रुचि, फैशन आदि के अनुरूप उत्पादन कर सकता है। इसके लिए नये-नये उद्योग स्थापित किये जा सकते हैं तथा उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है। (ग) बिक्री अथवा कार्यों की दृष्टि से 1. सामान्य अथवा मिश्रित बाजा र- मिश्रित बाजार उस बाजार को कहते हैं जिसमें अनेक एवं विविध प्रकार की वस्तुओं का क्रय-विक्रय होता है। यहाँ क्रेताओं को प्रायः आवश्यकता की सभी वस्तुएँ उपलब्ध हो जाती हैं। 4. ग्रेड द्वारा बिक्री का बाजार – इस प्रकार के बाजार में वस्तुओं की बिक्री उनके विशेष नाम अथवा ग्रेड द्वारा होती है। विक्रेता को न तो वस्तुओं के नमूने दिखाने पड़ते हैं और न ही क्रेता को कुछ बताना पड़ता है। उदाहरण के लिए-गेहूँ R. R. 21, K-68, फिलिप्स रेडियो, हमाम साबुन आदि। 5. निरीक्षण बाजार- जहाँ वस्तुओं का निरीक्षण करके क्रय किया जाता है उसे निरीक्षण द्वारा बिक्री का बाजार कहते हैं; जैसे-गाय, बैल, भेड़, बकरी, घोड़े आदि का बाजार। 6. ट्रेडमार्का बिक्री बाजार – बिक्री की सुविधा के लिए बहुत-से व्यापारियों के माल व्यापार-चिह्न के आधार पर बिक्री होते हैं; जैसे-बिरला सीमेण्ट, उषा मशीन, लिरिल साबुन, मदन कैंची आदि। जब ट्रेडमार्क द्वारा वस्तु की बिक्री की जाती है तो इसे ट्रेडमार्का बाजार कहते हैं। (घ) प्रतियोगिता की दृष्टि से 1. पूर्ण बाजार – पूर्ण बाजार उस बाजार को कहते हैं जिसमें पूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती है। इस स्थिति में क्रेताओं और विक्रेताओं की संख्या अधिक होती है, कोई भी व्यक्तिगत रूप से वस्तु की कीमत को प्रभावित नहीं कर सकता। क्रेता और विक्रेताओं को बाजार का पूर्ण ज्ञान होता है, जिसके कारण वस्तु की बाजार में एक ही कीमत होने की प्रवृत्ति पायी जाती है। यदि किसी स्थान पर मूल्य में भिन्नता होती है तो दूसरे स्थान से वहाँ तुरन्त माल आ जाता है और सबै स्थानों पर मूल्य समान हो जाता है। 2. अपूर्ण बाजार – जब किसी बाजार में प्रतियोगिता सीमित मात्रा में पायी जाती है, क्रेताओं और विक्रेताओं को बाजार को पूर्ण ज्ञान नहीं होता है, तब उसे अपूर्ण बाजार कहते हैं। इस बाजार में अपूर्ण प्रतियोगिता पायी जाती है, जिसके परिणामस्वरूप बाजार-कीमत में भिन्नता होती है। 3. एकाधिकार – एकाधिकार बाजार में प्रतियोगिता का अभाव होता है। बाजार में वस्तु का क्रेता या विक्रेता केवल एक ही होता है। एकाधिकारी का वस्तु की कीमत तथा पूर्ति पर पूर्ण नियन्त्रण होता है। एकाधिकारी बाजार में वस्तु की भिन्न-भिन्न कीमतें निश्चित कर सकता है। (ङ) वैधानिकता की दृष्टि से 1. अधिकृत या उचित बाजार – अधिकृत बाजार में सरकार द्वारा अधिकृत दुकानें होती हैं तथा वस्तुओं का क्रय-विक्रय नियन्त्रित मूल्यों पर होता है। युद्धकाल अथवा महँगाई के समय में वस्तुओं की कीमतें अधिक हो जाती हैं। ऐसी दशा में सरकार आवश्यक वस्तुओं का मूल्य नियन्त्रित कर देती है। और उनके उचित वितरण की व्यवस्था करती है। 2. चोर बाजार – युद्धकाल अथवा महँगाई के समय में, वस्तुओं की कमी एवं अन्य कारणों से वस्तुओं के मूल्य बढ़ जाते हैं। तब सरकार वस्तुओं के मूल्य नियन्त्रित कर उनके वितरण की व्यवस्था करती है। कुछ दुकानदार चोरी से सरकार द्वारा निश्चित मूल्य से अधिक मूल्य पर वस्तुएँ बेचते रहते हैं। अधिकांशतः ऐसा कार्य अनधिकृत दुकानदार ही करते हैं। ये बाजार अवैध होते हैं। 3. खुला बाजार – जब बाजार में वस्तुओं के मूल्य पर सरकार द्वारा कोई नियन्त्रण नहीं होता है। तथा क्रेताओं और विक्रेताओं की परस्पर प्रतियोगिता के आधार पर वस्तुओं का मूल्य-निर्धारण होता है, तब इस प्रकार के बाजार को खुला या स्वतन्त्र बाजार कहते हैं। प्रश्न 3 (अ) वस्तु के गुण 1. वस्तु की विस्तृत माँग – किसी वस्तु के बाजार का विस्तृत अथवा संकुचित होना उस वस्तु की माँग पर निर्भर करता है। जिस वस्तु की माँग जितनी अधिक विस्तृत होती है उस वस्तु का बाजार उतना ही विस्तृत होता है। उदाहरण के लिए-गेहूँ, सोना, चाँदी आदि वस्तुओं की माँग विश्वव्यापी होने से इनका बाजार अन्तर्राष्ट्रीय है। 2. वस्तु की पर्याप्त पूर्ति – वस्तु के बाजार-विस्तार के लिए वस्तु की पूर्ति माँग के अनुरूप होनी आवश्यक है। यदि किसी वस्तु की माँग अधिक है और पूर्ति कम है तब वस्तु का बाजार विस्तृत नहीं हो सकेगा। इसलिए वस्तु की पर्याप्त पूर्ति बाजार के विस्तार को प्रभावित करती है। 3. वस्तु का टिकाऊपन – टिकाऊ वस्तुओं का बाजार क्षेत्र विस्तृत होता है। इसके विपरीत शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुओं का बाजार संकुचित होता है। उदाहरणार्थ-सोना वे चॉदी का बाजार दूध व सब्जी के बाजार से अधिक विस्तृत होती है। 4. वहनीयता – जिन वस्तुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान तक सरलतापूर्वक ले जाया जा सकता है, उनका बाजार विस्तृत होता है। जिन वस्तुओं का मूल्य अधिक होता है परन्तु भार एवं तौल में बहुत कम होती हैं, उनका बाजार विस्तृत होता है। ऐसी वस्तुओं को लाने में ले जाने का यातायात व्यय कम होता है। 5. वस्तु को ग्रेड या नमूनों में बाँटने की सुविधा – जिन वस्तुओं का उनके गुणों के आधार पर विभिन्न प्रकारों व ग्रेडों में वर्गीकरण किया जा सकता है, उन वस्तुओं का बाजार विस्तृत हो जाता है। इस प्रकार की वस्तुओं के ट्रेडमार्क निश्चित करके उनका विज्ञापन कर, उस वस्तु की मॉग देश-विदेश में उत्पन्न की जा सकती है। 6. वस्तु का स्थानापन्न न होना – बाजार में यदि किसी वस्तु के अधिक स्थानापन्न विद्यमान हैं। तब उस वस्तु का बाजार संकीर्ण होगा। इसके विपरीत यदि वस्तु को स्थानापन्न विद्यमान नहीं है तब उस वस्तु का बाजार विस्तृत होगा। 7. वस्तु का विशेष उपयोग एवं फैशन – किसी वस्तु का उपयोग किसी कार्य-विशेष के लिए होने लगने पर वस्तु को बाजार विस्तृत हो जाता है; जैसे-टेलीफोन आदि। इसके अतिरिक्त यदि कोई वस्तु फैशन में आ जाती है तो उस वस्तु का बाजार भी विस्तृत हो जाता है; जैसे-आज फैशन के युग में क्रीम, पाउडर व चाय आदि का उपयोग निरन्तर बढ़ता जा रहा है। इसके विपरीत, उन वस्तुओं का बाजार स्वतः सीमित हो जाता है, जो वस्तुएँ प्रचलन में नहीं रहती।। (ब) देश की आन्तरिक दशाएँ 1. अन्तर्राष्ट्रीय मैत्री एवं सहयोग – किसी वस्तु का बाजार विस्तृत होने के लिए आवश्यक है। कि विभिन्न राष्ट्रों में परस्पर सहयोग एवं मित्रता की भावना हो। यदि एक देश दूसरे देश के आयात एवं निर्यात को प्रोत्साहित करता है तब वस्तु का बाजार विस्तृत होगा। आज अन्तर्राष्ट्रीय बाजार का विस्तार तथा विकास होता जा रहा है। 2. यातायात के साधन व उत्तम संचार-व्यवस्था – यदि देश में यातायात व संचार के अच्छे, सस्ते व विकसित साधन उपलब्ध हैं तो बाजार का विस्तार होता है, क्योंकि इन साधनों के द्वारा किसी एक स्थान-विशेष पर उत्पन्न वस्तु को न केवल स्थानीय बाजारों में, वरन् देश-विदेश में भेजा जा सकता है। 3. देश में शान्ति, सुरक्षा तथा सुव्यवस्थित शासन-व्यवस्था – जब देश में सर्वत्र शान्ति एवं सुरक्षा होती है तथा शासन-व्यवस्था उत्तम होती है तब व्यापारियों में व्यापार के प्रति विश्वास व उत्साह बना रहता है, जिसके परिणामस्वरूप वस्तुओं का बाजार विस्तृत हो जाता है। 4. उत्पादकों व व्यापारियों में विश्वास व नैतिकता – आज के युग में अधिकांश व्यापारिक कार्य विश्वास पर आधारित होते हैं। व्यापारिक भुगतान नकद न होकर चेक या बिल ऑफ एक्सचेंज के द्वारा होते हैं। ऐसी स्थिति में देश के उत्पादक व व्यापारी एक-दूसरे की साख पर विश्वास करके ही लेन-देन करते हैं। यदि वह विश्वास समाप्त हो जाए तो व्यापार का क्षेत्र संकुचित हो जाएगा। अतः विस्तृत बाजार के लिए उत्पादकों व व्यापारियों का चरित्रवान् व ईमानदार होना आवश्यक है। 5. कुशल मुद्रा व बैकिंग प्रणाली – किसी वस्तु के बाजार का विस्तार अच्छी बैंकिंग प्रणाली तथा मुद्रा प्रणाली पर निर्भर करता है। मुद्रा मूल्य में स्थिरता होनी चाहिए तथा बीमा-व्यवस्था का भी प्रबन्ध होना चाहिए, जिससे कि जो माल एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजा जाए, उसका बीमा करायो जा सके। जिस देश में बैंकिंग, मुद्रा तथा बीमा की व्यवस्था उत्तम है, उस देश में वस्तुओं के बाजार विस्तृत होते हैं। 6. व्यापार के आधुनिक एवं वैज्ञानिक ढंग – आधुनिक युग में व्यापार वैज्ञानिक ढंग से किया जाता है, अतः जिस देश में वस्तुओं का विज्ञापन, प्रचार व प्रसार नई व आधुनिक प्रणाली से समाचार-पत्रों, रेडियो, टेलीविजन आदि के द्वारा किया जाता है, उस देश में वस्तुओं का बाजार विस्तृत हो जाता है। 7. सरकार की व्यापारिक नीति – वस्तु के बाजार-विस्तार पर सरकार की व्यापारिक नीति का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। स्वतन्त्र व्यापार नीति के परिणामस्वरूप अनेक वस्तुओं के बाजार विस्तृत हो जाएँगे। इसके विपरीत संरक्षण की नीति में वस्तुओं का बाजार संकुचित रहेगा। अतः यदि सरकार की व्यापार नीति अनुकूल है और कर अधिक नहीं हैं तो बाजार विस्तृत किया जा सकता है। 8. पैकिंग का ढंग व शीत भण्डार की व्यवस्था – शीत भण्डार-गृहों की उचित व्यवस्था होने पर क्षयशील वस्तुओं को दीर्घकाल तक सुरक्षित रखा जा सकता है। वस्तुओं को उत्तम पैकिंग-व्यवस्था के द्वारा दूर-दूर स्थानों तक भेजा जा सकता है। ऐसी स्थिति में वस्तुओं का बाजार विस्तृत होगा। लघु उत्तरीय प्रश्न (4 अंक) प्रश्न
1 प्रश्न 2 प्रश्न 3 प्रतियोगिता के आधार पर बाजारों का वर्गीकरण कीजिए। [2013, 14] अतिलघु उत्तरीय प्रश्न (2 अंक) प्रश्न 1
प्रश्न
2
(ख) देश की आन्तरिक दशाएँ
प्रश्न 3
प्रश्न 4
प्रश्न 5
निश्चित उत्तरीय प्रश्न (1 अंक) प्रश्न 1 प्रश्न 2 प्रश्न 3 प्रश्न 4
प्रश्न 5 प्रश्न 6 प्रश्न 7 प्रश्न
8
प्रश्न 9 प्रश्न 10 प्रश्न 11 प्रश्न 12 प्रश्न 13 प्रश्न 14 प्रश्न
15 प्रश्न 16 प्रश्न 17 प्रश्न 18 प्रश्न 19 प्रश्न 20 प्रश्न 21 प्रश्न 22 प्रश्न 23 बहुविकल्पीय प्रश्न (1 अंक) प्रश्न 1 प्रश्न 2 प्रश्न 3 प्रश्न 4 प्रश्न 5 प्रश्न 6 प्रश्न 7 प्रश्न 8 प्रश्न
9 प्रश्न 10 प्रश्न 11 प्रश्न 12 प्रश्न 13 प्रश्न
14 प्रश्न 15 प्रश्न 16 प्रश्न 17 We hope the UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 2 Market (बाजार) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 12 Economics Chapter 2 Market (बाजार), drop a comment below and we will get back to you at the earliest. बाजार क्या है इसकी विशेषताएं क्या हैं?एक क्षेत्र - अर्थशास्त्र में बाजार शब्द का अर्थ किसी स्थान विशेष से नहीं बल्कि उस समस्त क्षेत्र से होता है जिसमें क्रेता और विक्रेता फैले होते हैं । और उनमें आपस में स्वतंत्र प्रतियोगिता होती है। 2. एक वस्तु - अर्थशास्त्र में बाजार एक वस्तु का होता है अर्थात प्रत्येक वस्तु के लिए अलग-अलग बाजार होता है ।
बाजार से क्या समझते है?बाज़ार ऐसी जगह को कहते हैं जहाँ पर किसी भी चीज़ का व्यापार होता है। आम बाज़ार और ख़ास चीज़ों के बाज़ार दोनों तरह के बाज़ार अस्तित्व में हैं। बाज़ार में कई बेचने वाले एक जगह पर होतें हैं ताकि जो उन चीज़ों को खरीदना चाहें वे उन्हें आसानी से ढूँढ सकें।
बाजार से आप क्या समझते हैं बाजार का वर्गीकरण बताइए?क्षेत्र की दृष्टि से:- क्षेत्र की दृष्टि से बाजार के वर्गीकरण का आधार है कि वस्तु विशेष के क्रेता और विक्रेता कितने क्षेत्र में फैले हुए हैं यह चार प्रकार का होता है। 1. स्थानीय बाजार:- जब किसी वस्तु के क्रेता विक्रेता किसी स्थान विशेष तक ही सीमित होते हैं तब उस वस्तु का बाजार स्थानीय होता है।
बाजार शब्द से आप क्या समझते हैं अवधारणा को समझाने के लिए कुछ उदाहरण दीजिए?बाज़ार संतुलन अध्याय यह अध्याय, अध्याय 2 तथा 4 की नींव पर आधारित है, जिनमें हमने उपभोक्ता तथा फर्म के व्यवहार को कीमत - स्वीकारक के रूप में अध्ययन किया 2 में हमने देखा कि किसी वस्तु के लिए एक व्यक्ति विशेष की माँग वक्र हमें वस्तु की उस मात्रा को बताती है, जिसे एक उपभोक्ता विभिन्न कीमतों पर खरीदने को इच्छुक हैं, जबकि ...
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