विनम्रता सदा साहसियों और शक्तिशालियों को ही शोभा देती है। कमजोर और कायर व्यक्ति का विनम्र होना उस का गुण नहीं होता बल्कि उसकी मजबूरी होती है। वह किसी का क्या बिगाड़ सकता है लेकिन कोई शक्तिशाली व्यक्ति अपनी शक्ति का दुरुपयोग न करके जब दीन-दुःखियों के प्रति विनम्रता का भाव प्रकट करता है तो सारे समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। तुलसीदास जी ने कहा भी है- ‘परम धर्म श्रुति विदित अहिंसा’ तथा ‘पर पीड़ा सम नहि अधमाई।’ साहस और धैर्य मन में उत्पन्न होने वाले वे भाव हैं जो शक्ति को पाकर विपरीत स्थितियों में मानव को विचलित होने से रोक लेते हैं। साहस और धैर्य तो ‘असमय के सखा’ हैं जिन्हें शक्ति की सहायता से बनाकर रखा ही जाना चाहिए पर उसके साथ विनम्रता का बना रहना आवश्यक है। विनम्र व्यक्ति ही किसी के साथ होने वाले अन्याय के विरोध में खड़ा हो सकने का साहस करता है। भगवान् विष्णु को जब भृगु ने ठोकर मारी थी और उन्होंने साहस और शक्ति रखने के बावजूद विनम्रता का प्रदर्शन किया था तभी उन्हें देवों में से सबसे बड़ा मान लिया गया था। समाल में सदा से ही माना गया है कि अशक्त और असहाय की याचनापूर्ण करुण दृष्टि से जिसका हृदय नहीं पसीजा, भूखे व्यक्ति को अपने खाली पेट पर हाथ फिराते देखकर जिसने अपने सामने रखा भोजन उसे नहीं दे दिया, अपने पड़ोसी के घर में लगी आग को देखकर उसे बुझाने के लिए वह उसमें कूद नहीं पड़ा-वह मनुष्य न होकर पशु है क्योंकि साहस और शक्ति होते हुए अन्याय का प्रतिकार न करना कायरता है। साहस और शक्ति के साथ विनम्रता मानव का सदा हित करती है। गुरु नानक देव जी ने कहा भी है- Show जो प्राणी ममता तजे, लोभ, मोह, अहंकार कह नानक आपन तरे, औरन लेत उबार। साहस और शक्ति तो अनेक प्राणियों में होती है पर विनम्रता के अभाव में वे कभी भी समाज में प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर पाते। जब हमारे हृदय में विनम्रता का भाव हो तभी हम स्वयं को भुलाकर दूसरों के कष्टों को कम करने की बात सोचते हैं। मनुष्य के जीवन में सुख-दुःख तो बार-बार आते-जाते रहते हैं। सुख तो जल्दी से बीत जाते हैं पर दुःख की घड़ियां सुरक्षा के मुख की तरह लगातार बढ़ती जाती ही प्रतीत होती हैं। उस समय दूसरों के साथ किया गया विनम्रता का व्यवहार और महानुभूति तपती रेत पर ठंडे पानी की बूंदों के समान प्रतीत होती है। जो अपने सुखों को त्याग कर दूसरों के दुःखों में सहभागी बन जाते हैं वही अपने साहस और शक्ति का अच्छा परिचय देते हैं। वाल हिटमैन ने इसीलिए कहा है- “तुम्हारा दर्द कैसा है?” सच्ची मनुष्यता इसी बात में छिपी हुई है कि मनुष्य साहस और शक्ति होने के साथ विनम्रता को हमेशा महत्त्व दें। भगवान् शिव इसलिए पूजनीय हैं कि उन्होंने साहस और शक्ति से संपन्न होते हुए विनम्रता का परिचय दिया था। विषपान कर देवताओं और दानवों की उन्होंने रक्षा की थी। भर्तृहरि ने राक्षस और मनुष्य का अंतर विनम्रता के आधार पर ही किया है। जो विनम्र है वही महापुरुष है और जो अपने साहस और शक्ति को स्वार्थ के लिए प्रयोग करता है वही राक्षस है। तभी तो मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है- काव्य की शोभा में वृद्धि करने वाले साधनों को अलंकार कहते हैं। अलंकार से काव्य में रोचकता, चमत्कार और सुन्दरता उत्पन्न होती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अलंकार.को काव्य की आत्मा ठहराया है। अलंकार–काव्य की शोभा बढ़ानेवाले तत्त्वों को ‘अलंकार’ कहते हैं। अलंकार के भेद–प्रधान रूप से अलंकार के दो भेद माने जाते हैं–शब्दालंकार तथा अर्थालंकार। इन दोनों भेदों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है Learn Hindi Grammar online with example, all the topics are described in easy way for education. Alankar in Hindi Prepared for Class 10, 9 Students and all competitive exams. अलंकार का महत्त्व – Alankar Ka Mahatva काव्य में अलंकार की महत्ता सिद्ध करने वालों में आचार्य भामह, उद्भट, दंडी और रुद्रट के नाम विशेष प्रख्यात हैं। इन आचार्यों ने काव्य में रस को प्रधानता न दे कर अलंकार की मान्यता दी है। अलंकार की परिपाटी बहुत पुरानी है। काव्य-शास्त्र के प्रारम्भिक काल में अलंकारों पर ही विशेष बल दिया गया था। हिन्दी के आचार्यों ने भी काव्य में अलंकारों को विशेष स्थान दिया है। अलंकार कवि को सामान्य व्यक्ति से अलग करता है। जो कलाकार होगा वह जाने या अनजाने में अलंकारों का प्रयोग करेगा ही। इनका प्रयोग केवल कविता तक सीमित नहीं वरन् इनका विस्तार गद्य में भी देखा जा सकता है। इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि अलंकार कविता की शोभा और सौन्दर्य है, जो शरीर के साथ भाव को भी रूप की मादकता प्रदान करता है। अलंकार के भेदअलंकार के तीन भेद होते है:-
(1) शब्दालंकार– “जब कुछ विशेष शब्दों के कारण काव्य में चमत्कार उत्पन्न होता है तो वह ‘शब्दालंकार’ कहलाता है।” यदि इन शब्दों के स्थान पर उनके ही अर्थ को व्यक्त करनेवाला कोई दूसरा शब्द रख दिया जाए तो वह चमत्कार समाप्त हो जाता है। उदाहरणार्थ- बिहारी यहाँ ‘कनक’ शब्द के कारण जो चमत्कार है, वह पर्यायवाची शब्द रखते ही समाप्त हो जाएगा। (अ) शब्दालंकार परिभाषा- वर्णों की आवृत्ति को ‘अनुप्रास’ कहते हैं; अर्थात् “जहाँ समान वर्गों की बार–बार आवृत्ति होती है वहाँ ‘अनुप्रास’ अलंकार होता है।” . अनुप्रास के भेद–अनुप्रास के पाँच प्रकार हैं–
इन भेदों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है (2) वृत्यनुप्रास–जहाँ एक वर्ण की अनेक बार आवृत्ति हो, वहाँ ‘वृत्यनुप्रास’ अलंकार होता है। उदाहरण– स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरणों में, प्रथम में ‘त’ वर्ण की, द्वितीय में ‘र’ वर्ण की तथा तृतीय उदाहरण में ‘क’ वर्ण की अनेक बार आवृत्ति हुई है; अतः यहाँ ‘वृत्यनुप्रास’ अलंकार है। (3) श्रुत्यनुप्रास–जब कण्ठ, तालु, दन्त आदि किसी एक ही स्थान से उच्चरित होनेवाले वर्गों की आवृत्ति होती है, तब वहाँ ‘श्रुत्यनुप्रास’ अलंकार होता है। स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में दन्त्य वर्गों त, द, कण्ठ वर्ण र तथा तालु वर्ण न की आवृत्ति हुई है। अतः यहाँ ‘श्रुत्यनुप्रास’ अलंकार है। (4) लाटानुप्रास–जहाँ शब्द और अर्थ की आवृत्ति हो; अर्थात् जहाँ एकार्थक शब्दों की आवृत्ति तो हो, परन्तु अन्वय करने पर अर्थ भिन्न हो जाए; वहाँ ‘लाटानुप्रास’ अलंकार होता है। स्पष्टीकरण–यहाँ एक ही अर्थवाले शब्द की आवृत्ति हो रही है, किन्तु अन्वय के कारण अर्थ बदल रहा है; जैसे–पुत्र यदि सपूत हो तो धन संचय की कोई आवश्यकता नहीं होती; क्योंकि वह स्वयं ही कमा लेगा और यदि पुत्र कपूत है तो भी धन संचय की आवश्यकता नहीं; क्योंकि वह सारे धन को नष्ट कर देगा। (5) अन्त्यानुप्रास–जब छन्द के शब्दों के अन्त में समान स्वर या व्यंजन की आवृत्ति हो, वहाँ ‘अन्त्यानुप्रास’ अलंकार होता है। स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में, छन्द के शब्दों के अन्त में ‘त’ व्यंजन की आवृत्ति हुई है, अतः यहाँ ‘अन्त्यानुप्रास’ अलंकार है। (2) यमक परिभाषा–’यमक’ का अर्थ है–’युग्म’ या ‘जोड़ा’। इस प्रकार “जहाँ एक शब्द अथवा शब्द–समूह का एक से अधिक बार प्रयोग हो, किन्तु उसका अर्थ प्रत्येक बार भिन्न हो, वहाँ ‘यमक’ अलंकार होता है।” उदाहरण स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में ‘ऊँचे घोर मंदर’ के दो भिन्न–भिन्न अर्थ हैं–’महल’ और ‘पर्वत कन्दराएँ’; अतः यहाँ ‘यमक’ अलंकार है। अन्य उदाहरण (3) श्लेष परिभाषा–जिस शब्द के एक से अधिक अर्थ होते हैं, उसे ‘श्लिष्ट’ कहते हैं। इस प्रकार “जहाँ किसी शब्द के एक बार प्रयुक्त होने पर एक से अधिक अर्थ होते हों, वहाँ ‘श्लेष’ अलंकार होता है।” उदाहरण– स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में तीसरी बार प्रयुक्त ‘पानी’ शब्द श्लिष्ट है और यहाँ इसके तीन अर्थ हैं–चमक (मोती के पक्ष में), प्रतिष्ठा (मनुष्य के पक्ष में) तथा जल (आटे के पक्ष में); अत: यहाँ ‘श्लेष’ अलंकार है। अन्य उदाहरण (2) अर्थालंकार–“जहाँ काव्य में अर्थगत चमत्कार होता है, वहाँ ‘अर्थालंकार’ माना जाता है।” इस अलंकार पर आधारित शब्दों के स्थान पर उनका कोई पर्यायवाची रख देने से भी अर्थगत सौन्दर्य में कोई अन्तर नहीं पड़ता। उदाहरणार्थ– यहाँ पर ‘कमल’ के स्थान पर ‘जलज’ रखने पर भी अर्थगत सौन्दर्य में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा। काव्य में अलंकारों का स्थान–काव्य को सुन्दरतम बनाने के लिए अनेक उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है। इन उपकरणों में एक अलंकार भी है। जिस प्रकार मानव अपने शरीर को अलंकृत करने के लिए विभिन्न वस्त्राभूषणादि को धारण करके समाज में गौरवान्वित होता है, उसी प्रकार कवि भी कवितारूपी नारी को अलंकारों से अलंकृत करके गौरव प्राप्त करता है। आचार्य दण्डी ने कहा भी है–”काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलङ्कारान् प्रचक्षते।” अर्थात् काव्य के शोभाकार धर्म, अलंकार होते हैं। अलंकारों के बिना कवितारूपी नारी विधवा–सी लगती है। अलंकारों के महत्त्व का कारण यह भी है कि इनके आधार पर भावाभिव्यक्ति में सहायता मिलती है तथा काव्य रोचक और प्रभावशाली बनता है। इससे अर्थ में भी चमत्कार पैदा होता है तथा अर्थ को समझना सुगम हो जाता है। (ब) अर्थालंकार परिभाषा–’उपमा’ का अर्थ है–सादृश्य, समानता तथा तुल्यता। “जहाँ पर उपमेय की उपमान से किसी समान धर्म के आधार पर समानता या तुलना की जाए, वहाँ ‘उपमा’ अलंकार होता है।” उदाहरण– स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में ‘मुख’ उपमेय, ‘मयंक’ उपमान, ‘मंजु और मनोहर’ साधारण धर्म तथा ‘सम’ वाचक शब्द है; अत: यहाँ ‘उपमा’ अलंकार का पूर्ण परिपाक हुआ है। उपमा अलंकार के भेद–उपमा अलंकार के प्राय: चार भेद किए जाते हैं– इनका संक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित है उदाहरण– स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में उपमा के चारों अंग उपमान (पीपर पात), उपमेय (मन), साधारण धर्म (डोला) तथा वाचक शब्द (सम) स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट हैं; अत: यहाँ ‘पूर्णोपमा’ अलंकार है। (ख) लुप्तोपमा– “उपमेय, उपमान, साधारण धर्म तथा वाचक शब्द में से किसी एक या अनेक अंगों के लुप्त होने पर ‘लुप्तोपमा’ अलंकार होता है।” लुप्तोपमा अलंकार में उपमा के तीन अंगों तक के लोप की कल्पना की गई है। उदाहरण– स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में ‘नयन’ उपमेय, ‘सरोरुह और बारिज’ उपमान तथा ‘नील और अरुण’ साधारण धर्म हैं। ‘समान’ आदिवाचक शब्द का लोप हुआ है; अतः यहाँ ‘लुप्तोपमा’ अलंकार है। (ग) रसनोपमा–जिस प्रकार एक कड़ी दूसरी कड़ी से क्रमशः जुड़ी रहती है, उसी प्रकार ‘रसनोपमा’ अलंकार में उपमेय–उपमान एक–दूसरे से जुड़े रहते हैं। स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में ‘उद्यम’, ‘फल’, ‘दान’ और ‘सनमान’ उपमेय अपने उपमानों के साथ शृंखलाबद्ध रूप में प्रस्तुत किए गए हैं; अतः यहाँ ‘रसनोपमा’ अलंकार है। (घ) मालोपमा–मालोपमा का तात्पर्य है–माला के रूप में उपमानों की श्रृंखला। “एक ही उपमेय के लिए जब अनेक उपमानों का गुम्फन किया जाता है, तब ‘मालोपमा’ अलंकार होता है।” स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में एक उपमेय के लिए अनेक उपमान प्रस्तुत किए गए हैं; अत: यहाँ ‘मालोपमा’ अलंकार है। (5) रूपक उदाहरण स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में चिन्ता उपमेय में विश्व–वन की व्याली आदि उपमानों का आरोप किया गया है, अत: यहाँ ‘रूपक’ अलंकार है। रूपक के भेद–आचार्यों ने रूपक के अनगिनत भेद–उपभेद किए हैं; किन्तु इसके तीन प्रधान भेद इस प्रकार हैं– इनका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है उदाहरण स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में समीर में हाथी का, भृग में घण्टे का और मकरन्द में दान (मद–जल) का आरोप किया गया है। इस प्रकार वायु के अवयवों पर हाथी का आरोप होने के कारण यहाँ ‘सांगरूपक’ अलंकार है। (ख) निरंग रूपक–जहाँ अवयवों से रहित केवल उपमेय पर उपमान का अभेद आरोप होता है, वहाँ ‘निरंग रूपक’ अलंकार होता है। स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में हृदय (उपमेय) पर कमल (उपमान) का; अलकों (उपमेय) पर अलि (उपमान) का; आँसू (उ. प्रेय) पर मरन्द (उपमान) का तथा नि:श्वास (उपमेय) पर पवन (उपमान) का आरोप किया गया है; अतः यहाँ ‘निरंग रूपक’ अलंकार है। (ग) परम्परित रूपक–जहाँ उपमेय पर एक आरोप दूसरे आरोप का कारण होता है, वहाँ ‘परम्परित . रूपक’ अलंकार है। उदाहरण स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में आँखों (उपमेय) पर मछली (उपमान) का आरोप, रूप (उपमेय) पर जल (उपमान) के आरोप के कारण किया गया है; अतः यहाँ ‘परम्परित रूपक’ अलंकार है। अन्य उदाहरण- (6) उत्प्रेक्षा उदाहरण- स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में श्रीकृष्ण के श्याम शरीर (उपमेय) पर नीलमणियों के पर्वत (उपमान) की तथा पीत–पट (उपमेय) पर प्रभात की धूप (उपमान) की सम्भावना की गई है; अत: यहाँ ‘उत्प्रेक्षा’ अलंकार है। उत्प्रेक्षा के भेद–उत्प्रेक्षा के तीन प्रधान भेद हैं– इनका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है- उदाहरण– स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में हेतु ‘आभूषण’ न होने पर भी उसकी पायदान के रूप में उत्प्रेक्षा की गई है, अतः यहाँ ‘हेतूत्प्रेक्षा’ अलंकार है। (ग) फलोत्प्रेक्षा–जहाँ अफल में फल की सम्भावना का वर्णन हो, वहाँ ‘फलोत्प्रेक्षा’ अलंकार होता है। स्पष्टीकरण–पुष्पों में स्वाभाविक रूप से सुगन्ध होती है, परन्तु यहाँ जायसी ने पुष्पों की सुगन्ध विकीर्ण होने का ‘फल’ बताया है। कवि का तात्पर्य यह है कि पुष्प इसलिए सुगन्ध विकीर्ण करते हैं कि सम्भवत: पद्मावती उन्हें अपनी नासिका से लगा ले। इस प्रकार उपर्युक्त उदाहरण में अफल में फल की सम्भावना की गई है; अत: यहाँ ‘फलोत्प्रेक्षा’ अलंकार है। (7) भ्रान्तिमान् परिभाषा–जहाँ समानता के कारण एक वस्तु में किसी दूसरी वस्तु का भ्रम हो, वहाँ ‘भ्रान्तिमान्’ अलंकार होता है। स्पष्टीकरण– उपर्युक्त प्रथम उदाहरण में लाल एड़ी (उपमेय) और महावर (उपमान) में लाल रंग की समानता के कारण नाइन को भ्रम उत्पन्न हो गया है तथा द्वितीय उदाहरण में तोता उर्मिला की नाक के मोती को भ्रमवश अनार का दाना और उसकी नाक को दूसरा तोता समझकर भ्रमित हो जाता है; अत: यहाँ ‘भ्रान्तिमान्’ अलंकार है। (8) सन्देह परिभाषा–जहाँ एक वस्तु के सम्बन्ध में अनेक वस्तुओं का सन्देह हो और समानता के कारण अनिश्चय की मनोदशा बनी रहे, वहाँ ‘सन्देह’ अलंकार होता है। स्पष्टीकरण–उपर्युक्त उदाहरण में लंका–दहन के वर्णन में हनुमानजी की जलती पूँछ को देखकर लंकावासियों को यह निश्चित ज्ञान नहीं हो पाता कि यह हनुमान्जी की जलती हुई पूँछ है या आकाश–मार्ग में अनेक पुच्छल तारे भरे हैं अथवा वीर रसरूपी वीर ने तलवार निकाली है, या यह इन्द्रधनुष है अथवा यह बिजली की तड़क है, या यह सुमेरु पर्वत से अग्नि की सरिता बह चली है; अत: यहाँ ‘सन्देह’ अलंकार है। प्रमुख अलंकार–युग्मों में अन्तर जैसे (यहाँ दोनों स्थान पर ‘नगन’ शब्द के अलग–अलग अर्थ हैं–नग (रत्न) और नग्न।) किन्तु ‘श्लेष’ में एक शब्द के एक बार प्रयुक्त होने पर भी अनेक अर्थ होते हैं; जैसे यहाँ वृषभानुजा के अर्थ हैं–वृषभानु + जा अर्थात् वृषभानु की पुत्री राधा तथा वृषभ + अनुजा अर्थात् वृषभ की बहन गाया हलधर के अर्थ हैं–हल को धारण करनेवाला बलराम तथा बैल। (2) उपमा और उत्प्रेक्षा ‘उपमा’ में उपमेय की उपमान से समानता बताई जाती है; जैसे (यहाँ मन की तुलना पीपल के पत्ते से की गई है।) किन्तु ‘उत्प्रेक्षा’ में उपमेय में उपमान की सम्भावना प्रकट की जाती है; जैसे सोहत ओदै पीतु पटु , स्याम सलोने गात।। (यहाँ पर ‘पीतु पटु’ में प्रभात की धूप की तथा श्रीकृष्ण के सलोने शरीर में नीलमणि के पर्वत की सम्भावना की गई है।) (3) उपमा और रूपक ‘उपमा’ में उपमेय की उपमान से समानता बताई जाती है; (यहाँ मन की तुलना पीपल के पत्ते से की गई है।) किन्तु ‘रूपक’ में उपमेय में उपमान का भेदरहित आरोप किया जाता है; जैसे– (4) सन्देह और भ्रान्तिमान जैसे- किन्तु ‘भ्रान्तिमान्’ में उपमेय का ज्ञान नहीं रहता और भ्रमवश एक को दूसरा समझ लिया जाता है; जैसे- इसके अतिरिक्त ‘सन्देह’ में निरन्तर सन्देह बना रहता है और निश्चय नहीं हो पाता, किन्तु ‘भ्रान्तिमान्’ में भ्रम निश्चय में बदल जाता है। (3)उभयालंकार:- जो अलंकार शब्द और अर्थ दोनों पर आश्रित रहकर दोनों को चमत्कृत करते है, वे ‘उभयालंकार’ कहलाते है। उदाहरण- उभयालंकार दो प्रकार के होते हैं- (1) संसृष्टि (Combinationof Figures of Speech)- तिल-तंडुल-न्याय से परस्पर-निरपेक्ष अनेक अलंकारों की स्थिति ‘संसृष्टि’ अलंकार है (एषां तिलतंडुल न्यायेन मिश्रत्वे संसृष्टि:- रुय्यक : अलंकारसर्वस्व)। जैसे- तिल और तंडुल (चावल) मिलकर भी पृथक् दिखाई पड़ते हैं, उसी प्रकार संसृष्टि अलंकार में कई अलंकार मिले रहते हैं, किंतु उनकी पहचान में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती। संसृष्टि में कई शब्दालंकार, कई अर्थालंकार अथवा कई शब्दालंकार और अर्थालंकार एक साथ रह सकते हैं। दो अर्थालंकारों की संसृष्टि का उदाहरण लें- प्रथम दो चरणों में प्रतीप अलंकार है तथा बाद के दो चरणों में उत्प्रेक्षा अलंकार। अतः यहाँ प्रतीप और उत्प्रेक्षा की संसृष्टि है। (2) संकर (Fusion of Figures of Speech)- नीर-क्षीर-न्याय से परस्पर मिश्रित अलंकार ‘संकर’ अलंकार कहलाता है। (क्षीर-नीर न्यायेन तु संकर:- रुय्यक : अलंकारसर्वस्व)। जैसे- नीर-क्षीर अर्थात पानी और दूध मिलकर एक हो जाते हैं, वैसे ही संकर अलंकार में कई अलंकार इस प्रकार मिल जाते हैं जिनका पृथक्क़रण संभव नहीं होता। उदाहरण- ‘पारस-परस’ में अनुप्रास तथा यमक- दोनों अलंकार इस प्रकार मिले हैं कि पृथक करना संभव नहीं है, इसलिए यहाँ ‘संकर’ अलंकार है। अलंकार सम्बन्धी लघूत्तरीय प्रश्न प्रश्न 2. प्रश्न 3. अलंकारों से सम्बन्धित बहुविकल्पीय प्रश्न एवं उनके उत्तर उपयुक्त विकल्प द्वारा निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए बढ़त देखि जल सम वचन बोले रघुकुल भानु में कौन सा अलंकार है?<br> बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥ Solution : उपमा अलंकार - <br> उतर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु में उपमा अलंकार है।
बरसात बारिश बूंद में कौन सा अलंकार है?उत्तर – प्रस्तुत पंक्ति बरसत बारिद बूंद गही, चाहत चढ़न आकाश में अनुप्रास अलंकार है।
बड़े बड़ाई ना करें बड़े न बोले बोल पंक्ति में कौनसा अलंकार है?"बड़े बड़ाई ना करें, बड़े न बोलें बोल।" पंक्ति में यमक अलंकार हैं । Explanation: "बड़े बड़ाई ना करें, बड़े न बोलें बोल।" पंक्ति में यमक अलंकार हैं । शब्दार्थ / अर्थ : बड़े लोग वो हैं जो अपनी बड़ाई नहीं करते हैं, और न ही बड़ी डींगें हांकते हैं.
यमक अलंकार का उदाहरण क्या है?यमक अलंकार: जिस काव्य में समान शब्द के अलग-अलग अर्थों में आवृत्ति हो, वहाँ यमक अलंकार होता है। यानी जहाँ एक ही शब्द जितनी बार आए उतने ही अलग-अलग अर्थ दे। कनक कनक ते सौगुनी मादकता अधिकाय। या खाए बौरात नर या पाए बौराय।।
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