‘प्रेम की पीर’ के कवि घनानंद। (2013, प्रथम प्रश्न-पत्र, 5 ख)
16 Nov, 2017 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य
उत्तर :
रीतिमुक्त काव्यधारा में घनानंद का स्थान सर्वोच्च है। वे हिन्दी साहित्य में ‘प्रेम की पीर’ के कवि के रूप में स्थापित हैं। इन्होंने लगभग 39 रचनाएँ लिखीं जिनमें ‘सुजानहित’, ‘ब्रज-विलास’, ‘विरहलीला’ प्रधान हैं।
यहाँ चर्चा का विषय यह है कि प्रेम व शृंगार पर तो सभी रीतिकालीन कवियों ने रचनाएं की हैं, किंतु घनानंद को ‘प्रेम की पीर’ का कवि क्यों कहा जाता है? इस संबंध में यदि उनके शृंगार वर्णन की विशिष्टताओं पर गौर किया जाए तो निश्चित ही वे ‘प्रेम की पीर’ के कवि के रूप में दिखाई पड़ते हैं।
उपरोक्त चर्चा के संदर्भ में पहला प्रमाण यह है कि घनानंद मूलतः वियोग के कवि हैं। उन्होंने अपने साहित्य में बिहारी आदि की तरह संयोग व मिलन के चित्र नहीं खींचे हैं बल्कि प्रेम की पीड़ा को व्यक्त किया है। शुक्ल लिखते हैं कि "ये वियोग शृंगार के प्रधान मुक्तक कवि हैं।"
इसी प्रकार, यह भी कहा जा सकता है कि इनका साहित्य स्वानुभूति का साहित्य है न कि सहानुभूति का। अपनी प्रेमिका सुजान के विरह में कविताएँ रचने वाले घनानंद के बारे में दिनकर जी लिखते हैं, "दूसरों के लिये किराए पर आँसू बहाने वालों के बीच यह एक ऐसा कवि है जो सचमुच अपनी पीड़ा में रो रहा है।"
‘प्रेम की पीर’ का कवि कहलाने के पक्ष में एक तर्क यह भी है कि इनका प्रेम वर्णन वैधानिकता, अति-भावुकता व अपने साथी के प्रति एकनिष्ठता से युक्त है-
"अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं"
घनानंद के यहाँ विरह की पीड़ा इतनी तीव्र है कि यह प्रतीक रूप में उनके साहित्य में सर्वत्र दिखाई देती है। सुजान के प्रति जो लौकिक प्रेम था, बाद में वही कृष्ण-राधा के प्रति अलौकिक स्तर पर व्यक्त होने लगा। पीड़ा इतनी गहरी है कि राधा-कृष्ण भक्ति के प्रसंग में भी सुजान के विरह को व्यक्त करते रहे-
"ऐसी रूप अगाधे राधे, राधे, राधे, राधे, राधे तेरी मिलिवे को ब्रजमोहन, बहुत जतन हैं साधे।"
इस प्रकार विरह की गहरी अनुभूति, वैयक्तिकता, एकनिष्ठता, तीव्र भावुकता व स्वानुभूति जैसे तत्त्व घनानंद को ‘प्रेम की पीर’ के कवि के रूप में स्थापित करते हैं।
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प्रश्न :
घनानंद की काव्यगत विशेषताएँ। (2014, प्रथम प्रश्न-पत्र, 5a)
27 Dec, 2017 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य
उत्तर :
घनानंद रीतिकालीन रीतिमुक्त काव्यधारा के शिखर पुरुष हैं। हिन्दी साहित्य में ये ‘प्रेम की पीर’ के कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनका साहित्य कई संवेदनात्मक व शैल्पिक विशिष्टताओं को धारण करता है।
संवेदनात्मक विशेषताएँ
इनका काव्य गहरी अनुभूतियों का काव्य है। इनकी अनुभूति कृत्रिम नहीं बल्कि स्वअर्जित अनुभवों से युक्त है। इसी संदर्भ में दिनकर लिखते हैं-
“दूसरों के लिये किराए पर आँसू बहाने वालों के बीच यह एक ऐसा कवि है जो सचमुच अपनी पीड़ा में ही रो रहा हैं।”
घनानंद मूलतः वियोग के कवि हैं। सुजान के प्रति जो इन्होंने विरह भोगा है वह इनके काव्य का मूल भाव है। शुक्ल ने लिखा है
"ये वियोग शृंगार के प्रधान कवि हैं।"
इनका शृंगार वर्णन अत्यंत गहरा व एकनिष्ठता से युक्त है। सुजान के रूप-सौंदर्य, लज्जा, व्यवहार आदि का अत्यंत मार्मिकता के साथ अंकन किया है। इनका काव्य प्रेम की एकनिष्ठता की प्रस्थापना करता है-
"अति सुधो सनेह को मारग है जहँ नेकु सयानप बांक नहीं"
इनका लौकिक प्रेम वर्णन अंत में अलौकिक रूप प्राप्त कर लेता है। सुजान के प्रति जो लौकिक प्रेम था वह कृष्ण-राधा के प्रति अलौकिक स्तर पर व्यक्त होने लगा-
"मेरी रूप अगाधे राधे, राधे, राधे, राधे, राधे तेरी मिलिवे को ब्रजमोहन, बहुत जतन हैं साधे"
शिल्पगत विशेषताएँ
बिहारी सहित लगभग सभी कवियों ने ब्रज को अरबी, फारसी व अन्य स्थानीय शब्दावली से मिश्रित कर दिया है, वहीं घनानंद ने शुद्ध ब्रज का प्रयोग किया है। यह शुद्धता शब्द निर्माण व चयन के स्तर पर भी है।
शब्द शक्तियों के प्रयोग की दृष्टि से घनानंद का काव्य उत्कृष्ट है। लक्षणा व व्यंजना का बड़ा ही सटीक व सादा प्रयोग किया है। इसी प्रकार मुहावरों व लोकोक्तियों का प्रयोग भी द्रष्टव्य है।
घनानंद ने अलंकारों का प्रयोग अन्य रीतिकालीन कवियों की भाँति चमत्कार प्रदर्शन हेतु नहीं बल्कि अपने भावों को व्यक्त करने हेतु किया है-
विरोधाभास अलंकार- "उजरनि बसी है हमारी अँखियन देखो" श्लेष अलंकार- "तुम कौन धौं पाटी पढ़े हो लला, मन लेहु पै देहु छंटाक नहीं"
इस प्रकार स्पष्ट है कि घनानंद के यहाँ संवेदना व शिल्प दोनों स्तरों पर प्रयोगशीलता, सहजता व मौलिकता के दर्शन होते हैं।
प्रेम की पीर के रूप में घनानंद की काव्यगत विशेषताएँ क्या है?
घनानंद रीतिकालीन रीतिमुक्त काव्यधारा के शिखर पुरुष हैं। हिन्दी साहित्य में ये 'प्रेम की पीर' के कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनका साहित्य कई संवेदनात्मक व शैल्पिक विशिष्टताओं को धारण करता है। “दूसरों के लिये किराए पर आँसू बहाने वालों के बीच यह एक ऐसा कवि है जो सचमुच अपनी पीड़ा में ही रो रहा हैं।”
Q 5 घनानंद के प्रेम वर्णन की विशिष्टता क्या है?
घनानंद प्रेम के मार्ग को अत्यंत सरल बताते हैं, इन में कहीं भी वक्रता नहीं है। अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नेकु सयानप बांक नहीं। कवि अपनी प्रिया को अत्यधिक चतुराई दिखाने के लिए उलाहना भी देता है। तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ कहौ मन लेहूं पै देहूं छटांक नहीं।
घनानंद के प्रेम को विशेष प्रेम क्यों कहते हैं?
और घनानंद के इस प्रेम बंधन को इन शब्दो में लिखा है- "सुजान वेश्या, जिस से घनानंद को असीम प्यार था । सुजान के रूप पर मुग्ध होकर इन्होंने न जाने कितने कवित्त रच डाले, उसकी एक एक अंग, गति की दीप्ति को आपने छंदो मे बांध दिया। सुजान के प्रति तीव्र अनुराग ही घनानंद के लौकिक प्रेम का चातक बना ।"
घनानंद के काव्य की विशेषता क्या है?
घनानंद के काव्य में सर्वत्र माधुर्य गुण विद्यमान है। अलंकारों की दृष्टि से अनुप्रास, रूपक, उपमा, अतिशयोक्ति, श्लेष, उत्प्रेक्षा आदि का प्रयोग हुआ है। कवित्त और सवैया घनानंद के प्रिय छंद है। निष्कर्ष कहा कहा जा सकता है कि घनानंद के काव्य का भाव पक्ष जितना उत्कृष्ट है उसी के समान कला पक्ष भी श्रेष्ठ है।